JAC Board Class 10th Social Science Important Questions Civics Chapter 4 जाति, धर्म और लैंगिक मसले
बहुविकल्पीय प्रश्न
1. अधिकारों और अवसरों के मामले में स्त्री और पुरुष की समानता मानने वाला व्यक्ति कहलाता है
(क) नारीवादी
(ख) जातिवादी
(ग) साम्प्रदायिक
(घ) धर्मनिरपेक्ष
उत्तर:
(क) नारीवादी
2. निम्न में से किस देश में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का स्तर बहुत ऊँचा है?
(क) नॉर्वे
(ख) स्वीडन
(ग) फिनलैण्ड
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी
3. भारत में जनगणना कितने वर्ष पश्चात् होती है ?
(क) 5 वर्ष
(ख) 10 वर्ष
(ग) 11 वर्ष
(घ) 20 वर्ष
उत्तर:
(ख) 10 वर्ष
4. निम्न में से किस देश ने किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में अंगीकार नहीं किया है?
(क) भारत
(ख) नेपाल
(ग) पाकिस्तान
(घ) श्रीलंका
उत्तर:
(क) भारत
5. निम्न में से किस समाज सुधारक ने जातिगत भेदभाव से मुक्त समाज व्यवस्था बनाने की बात की और उसके लिए काम भी किया?
(क) ज्योतिबा फुले
(ख) महात्मा गाँधी
(ग) डॉ. अम्बेडकर
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी
रिक्त स्थान पूर्ति सम्बन्धी प्रश्न
निम्नलिखित रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए
1. संविधान ने किसी भी प्रकार के………….भेदभाव पर रोक लगाई है।
उत्तर:
जातिगत,
2. ग्रामीण क्षेत्रों से निकलकर लोगों का शहरों में बसना………….कहलाता है।
उत्तर:
शहरीकरण,
3. भारतीय संघ ने किसी भी धर्म को……….के रूप में स्वीकार नहीं किया है।
उत्तर:
राजकीय धर्म,
4. भारत में महिला की साक्षरता दर…….प्रतिशत तथा पुरुषों की साक्षारता दर……..प्रतिशत है।
उत्तर:
54,761
अतिलयूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सामाजिक असमानता का कौन-सा रूप प्रत्येक स्थान पर दिखाई देता है?
उत्तर:
लँगिक असमानता।
प्रश्न 2.
नारीवादी आन्दोलन क्या है?
उत्तर:
वे आन्दोलन जिनका उद्देश्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों एवं महिलाओं में समानता लाना है।
प्रश्न 3.
नारीवादी आन्दोलन क्यों हुए?
उत्तर:
पुरुष एवं महिलाओं के असमान अधिकार एवं अवसरों के कारण नारीवादी आन्दोलन हुए।
प्रश्न 4.
समान मजदूरी से सम्बन्धित अधिनियम का प्रमुख प्रावधान क्या है?
उंत्तर:
समान कार्य के लिए समान मजदूरी होनी चाहिए।
प्रश्न 5.
महिला संगठनों एवं कार्यकर्ताओं की क्या माँग है?
उत्तर:
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में भी एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की जानी चाहिए।
प्रश्न 6.
महिलाओं को घरेलू उत्पीड़न से बचाने के लिए कोई एक तरीका सुझाइए।
उत्तर:
घरेलू हिंसा अधिनियम, कानूनी नियमों की जानकारी देना।
प्रश्न 7.
पारिवारिक कानून से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
विवाह, तलाक, गोद लेना एवं उत्तराधिकार जैसे परिवार से जुड़े मसलों से सम्बन्धित कानून को पारिवारिक कानून कहते हैं।
प्रश्न 8.
विवाह, तलाक, उत्तराधिकार से सम्बन्धित कानून क्या कहलाता है?
उत्तर:
पारिवारिक कानून।
प्रश्न 9.
साम्प्रदायिक राजनीति कौन-सी सोच पर आधारित होती है?
उत्तर:
साम्प्रदायिक राजनीति इस सोच पर आधारित होती है कि धर्म ही गतमाजिक समुदाय का निर्माण करता है।
प्रश्न 10.
हमारे देश के लोकतन्त्र के लिए एक बड़ी चुनौती क्या रही है?
उत्तर:
हमारे देश के लोकतंत्र के लिए एक बड़ी समस्या साम्र्रदायिकता रही है।
प्रश्न 11.
भारत में विभिन्न समुदायों के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने का कोई एक तरीका सुझाइए।
उत्तर:
बड़े सार्वजनिक हितों तथा धार्मिक मामलों में राज्य का हस्तक्षेप।
प्रश्न 12.
निम्नलिखित जानकारी को पढ़िए और उसके लिए एक पारिभाषिक शब्द लिखिए। भारतीय संविधान अपने सभी नागरिकों को किसी धर्म का पालन करने और प्रचार करने की आजादी देता है। भारतीय संविधान धर्म के आधार पर किए जाने वाले किसी तरह के भेदभाव को अमान्य करता है।
उत्तर :
धर्मनिरपेक्षता।
प्रश्न 13.
इंग्लैण्ड के राजकीय धर्म का नाम बताइये।
उत्तर:
इंग्लैण्ड का राजकीय धर्म ईसाई धर्म है।
प्रश्न 14.
जातिवाद किस मान्यता पर आंधारित है?
उत्तर:
जातिवाद इस मान्यता पर आधारित है कि जाति ही सामाजिक समुदाय के गठन का एकमात्र आधार है।
प्रश्न 15.
धर्म तथा राजनीति का सम्बन्ध कब समस्या उत्पन्न करता है?
उत्तर:
जब धर्म को राष्ट्र के आधार के रूप में देखा जाता है।
प्रश्न 16.
जनगणना में किन दो विशिष्ट समूहों की गिनती अ़लग से की जाती है?
उत्तर:
जनगणना के दो विशिष्ट समूह:
- अनुसूचित जाति,
- अनुसूचित जनजाति।
लघूत्तरात्मक प्रश्न (SA1)
प्रश्न 1.
क्या कुछ खास किस्म के सामाजिक विभाजनों को राजनीतिक रूप देने की ज़रूरत है?
उत्तर:
हाँ, कुछ खास किस्म के सामाजिक विभाजनों को राजनीतिक रूप देने की ज़रूरत है क्योंकि इससे यह भी पता चलता है कि जब सामाजिक विभाजन राजनीतिक मुद्दा बन जाता है तो वंचित समूहों को किस तरह लाभ होता है। इससे वंचित समूहों को बराबरी का दर्जा मिलता है। उदाहरण के रूप में, यदि महिलाओं से भेदभाव. और व्यवहार का मुद्दा राजनीतिक तौर पर न उठता तो उन्हें सार्वजनिक जीवन में भागीदारी नहीं मिलती। .
प्रश्न 2.
भारत में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी अभी भी पुरुषों के मुकाबले कम है। इस भागीदारी को किस तरह बढ़ाया जा सकता है?
उत्तर:
भारत में विधायिका में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात बहुत ही कम है। उदाहरण के लिए, लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या पहली बार 2019 में ही 14.36 फीसदी तक पहुँची है। राज्यों की विधानसभाओं में इनका प्रतिनिधित्व 5 प्रतिशत से भी कम है। महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बढ़ाने हेतु सबसे अच्छा तरीका यह है कि निर्वाचित संस्थाओं में महिलाओं के लिए कानूनी रूप से एक उचित प्रतिशत तय कर दिया जाना चाहिए।
प्रश्न 3.
साम्प्रदायिक राजनीतिक विचार बुनियादी रूप से गलत क्यों है?
उत्तर:
साम्प्रदायिक राजनीति की मान्यताएँ ठीक नहीं हैं। एक धर्म के लोगों के हित तथा उनकी आकांक्षाएँ प्रत्येक मामले में एक जैसी हों यह सम्भव नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति कई तरह की भूमिका निभाता है, उसकी हैसियत व पहचान भिन्न-भिन्न होती हैं। प्रत्येक समुदाय में तरह-तरह के विचार के लोग होते हैं। इन सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है। इसलिए एक धर्म से जुड़े सभी लोगों को किसी धार्मिक सन्दर्भ में एक करके देखना उस समुदाय से उठने वाली विभिन्न आवाज़ों को दबाना है।
प्रश्न 4.
साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक गोलबंदी साम्प्रदायिकता का दूसरा रूप है। इस कथन की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक गोलबन्दी में धर्म के पवित्र प्रतीकों, धर्म गुरुओं की भावनात्मक अपील तथा अपने ही लोगों के मन में डर बैठाने जैसे तरीकों का उपयोग बहुत अधिक देखने को मिलता है ताकि एक धर्म को मानने वालों को राजनीति में एक मंच पर लाया जा सके। चुनावी राजनीति में एक धर्म के मतदाताओं की भावनाओं या हितों की बात उठाने जैसे तरीके अपनाये जाते हैं।
प्रश्न 5.
धर्मनिरपेक्ष राज्य से आप क्या समझते हैं? भारत ने धर्मनिरपेक्ष शासन का मॉडल क्यों अपनाया?
अथवा
भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्ष राज्य वह राज्य है जिसमें नागरिकों को कोई भी धर्म अपनाने की स्वतन्त्रता होती है तथा किसी भी धर्म को कोई विशेष दर्जा नहीं दिया जाता है। साम्प्रदायिकता हमारे देश के लोकतन्त्र के लिए एक बड़ी चुनौती रही है। विभाजन के समय भारत-पाकिस्तान में भयावह साम्प्रदायिक दंगे हुए थे। हमारे संविधान निर्माता इस चुनौती के प्रति पूर्णरूप से सचेत थे। इसी कारण उन्होंने धर्मनिरपेक्ष शासन का मॉडल अपनाया।
प्रश्न 6.
भारतीय संविधान में कौन-कौन से प्रावधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाते हैं?
अथवा
भारतीय संविधान में वर्णित ‘धर्मनिरपेक्षता’ के किन्हीं तीन लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
“धर्मनिरपेक्षता कुछ व्यक्तियों या पार्टियों की एक विचारधारा नहीं है, बल्कि यह हमारे देश की नीवों में से एक है।” कथन की परख कीजिए।
अथवा
किन्हीं दो प्रावधानों का जिक्र कीजिए जो भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाते हैं।
अथवा
ऐसे प्रमुख प्रावधानों की व्याख्या कीजिए जो भारत को धर्मनिरपेक्ष देश मानते हैं।
उत्तर:
भारतीय संविधान के निम्नलिखित प्रावधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाते हैं
- भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता है।
- हमारा संविधान सभी व्यक्तियों एवं समुदायों को उनको अपनी इच्छा के धर्म को मानने एवं उसका प्रचार करने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है।
- भारतीय संविधान धर्म के आधार पर किए जाने वाले किसी भी प्रकार के भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
- संविधान राज्य को धार्मिक समुदायों के अन्दर समानता सुनिश्चित करने के लिए धर्म के मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार प्रदान करता है। स्पष्ट है कि धर्मनिरपेक्षता कुछ व्यक्तियों या पार्टियों की एक विचारधारा नहीं है, बल्कि यह हमारे संविधान की ‘बुनियाद है अर्थात् हमारे देश की नीवों में से एक है।
प्रश्न 7.
भारतीय राजनीति में जातिवाद’ की प्रमुख समस्याओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय राजनीति में ‘जातिवाद’ की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं
- जातिवाद से उच्च व निम्न की भावना उत्पन्न होती है जिसके कारण अस्पृश्यता को बढ़ावा मिलता है।
- जातिवाद से गरीबी, विकास, भ्रष्टाचार जैसे प्रमुख मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकता है।
- जातिवाद तनाव, टकराव और हिंसा को भी बढ़ावा देता है।
लयूत्तरात्मक प्रश्न (SA1)
प्रश्न 1.
लैंगिक विभाजन से क्या आशय है? अधिकांश समाजों में इसे श्रम विभाजन से कैसे जोड़ा जाता है २
अथवा
भारत में लैंगिक विषमता को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
लैंगिक विभाजन का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
लैंगिक विभाजन से आशय पुरुषों एवं महिलाओं के मध्य कार्य के विभाजन से है। कुछ कार्य विशेषकर घरेलू कार्य; जैसे-खाना बनाना, सिलाई करना, कपड़े धोना एवं सफाई करना आदि केवल महिलाओं द्वारा किए जाते हैं, जबकि पुरुष कुछ विशेष प्रकार के कार्य करते हैं। अधिकांश समाजों में इसे निम्न प्रकार से श्रम विभाजन से जोड़ा जाता है
1. पुरुषों एवं महिलाओं के मध्य लैंगिक विभाजन का यह अर्थ है कि पुरुष घरेलू कार्य नहीं कर सकते हैं। वे केवल इतना सोचते हैं कि घरेलू कार्य करना महिलाओं का कार्य है। जब इन कार्यों हेतु पारिश्रमिक दिया जाता है तो पुरुष भी इन कार्यों को करने के लिए तैयार हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, अधिकांश दर्जी या होटलों में रसोइए पुरुष ही होते हैं।
2. लैंगिक विभाजन का यह अर्थ भी नहीं होता कि महिलाएं अपने घर से बाहर कार्य नहीं करती हैं। गाँव में महिलाएँ पानी लाती हैं, जलावन की लकड़ी लाती हैं। शहरों में गरीब महिलाएँ घरेलू नौकरानी का कार्य करती हैं तथा मध्यमवर्गीय महिलाएँ कार्य करने के लिए कार्यालय जाती हैं।
3. अधिकांश महिलाएँ घरेलू कार्यों के अतिरिक्त कुछ कार्य मजदूरी पर भी करती हैं। परन्तु उनके कार्यों की उचित मजदूरी प्रदान नहीं की जाती है. तथा न ही उचित महत्त्व दिया जाता है।
प्रश्न 2.
सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की बढ़ती भूमिका को संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की बढ़ती भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:
- महिलाएँ घर के अन्दर का सारा काम-काज; जैसे-खाना बनाना, सफाई करना, कपड़े धोना एवं बच्चों की देखरेख करना आदि करती है।
- गाँवों में स्त्रियाँ पानी और जलावन की लकड़ी जुटाने से लेकर खेती सम्बन्धी कार्य भी करती हैं।
- शहरों में भी निर्धन महिलाएँ किसी मध्यमवर्गीय परिवार में नौकरानी का कार्य कर रही हैं और मध्यमवर्गीय महिलाएँ काम करने के लिए दफ्तर जाती हैं।
- आज हम वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, प्रबन्धक, महाविद्यालयी एवं विश्वविद्यालयी शिक्षक जैसे व्यवसायों में बहुत-सी महिलाओं को पाते हैं, जबकि पहले इन कार्यों को महिलाओं के लायक नहीं माना जाता था।
- विश्व के कुछ हिस्सों; जैसे-स्वीडन, नॉर्वे व फिनलैंड जैसे देशों में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का स्तर बहुत ऊँचा हैं।
- लैंगिक विभाजन को राजनीतिक अभिव्यक्ति एवं इस प्रश्न पर राजनीतिक गोलबंदी ने सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भूमिका को बढ़ाने में सहायता की है।
प्रश्न 3.
साम्प्रदायिकता से क्या अभिप्राय है? इसे लोकतंत्र के लिए खतरा क्यों माना जाता है?
उत्तर:
साम्प्रदायिकता का बोलचाल की भाषा में अर्थ है-अपने धर्म को अन्य धर्मों से ऊँचा मानना। अपने धार्मिक हितों के लिए राष्ट्रहित का भी बलिदान कर देना साम्प्रदायिकता है। धर्म के नाम पर यह घृणा का संचार करती है। यह एक विष के समान है जो मनुष्य को मनुष्य से घृणा करना सिखाती है।
इस संकुचित मनोवृत्ति के कारण एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों की जान के प्यासे हो जाते हैं व लड़ाई-झगड़ों को अंजाम देते हैं। साम्प्रदायिकता के कारण एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के लोगों से दुश्मनों जैसा व्यवहार करने लगते हैं जिससे साम्प्रदायिक दंगे होने लगते हैं। इसके कारण राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता खतरे में पड़ जाती है इसलिए साम्प्रदायिकता को लोकतंत्र के लिए खतरा माना जाता है।
प्रश्न 4.
जाति व्यवस्था के प्राचीन स्वरूप में बदलाव लाने वाले किन्हीं तीन कारकों को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
भारत में जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए उत्तरदायी किन्हीं तीन कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जाति व्यवस्था के प्राचीन स्वरूप में बदलाव लाने वाले तीन कारक निम्नलिखित हैं
1. साक्षरता व शिक्षा के विकास, व्यवसाय चयन की स्वतन्त्रता एवं गाँवों में जमींदारी व्यवस्था के कमजोर पड़ने से जाति व्यवस्था के पुराने स्वरूप एवं वर्ण व्यवस्था पर टिकी मानसिकता में परिवर्तन आ रहा है। आज अधिकांशतः इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है कि आपके साथ ट्रेन या बस में किस जाति का व्यक्ति बैठा है या रेस्तराँ में आपकी मेज पर बैठकर खाना खा रहे व्यक्ति की जाति क्या है?
2. संविधान में किसी भी प्रकार के जातिगत भेदभाव का विरोध किया गया है।
3. ज्योतिबा फुले, महात्मा गाँधी, डॉ. अम्बेडकर एवं पेरियार रामास्वामी नायर जैसे राजनेताओं व समाज सुधारकों के प्रयासों एवं सामाजिक-आर्थिक बदलावों के कारण आधुनिक भारत में जाति संरचना व जाति व्यवस्था में बहुत अधिक परिवर्तन आया है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
नारीवादी आन्दोलन की व्याख्या कीजिए और भारत में महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा
कोकिन भारत में महिलाओं को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने हेतु क्या प्रयास किये गये हैं? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
नारीवादी आन्दोलन-विश्व के अलग-अलग भागों में महिलाओं ने अपने संगठन बनाये तथा बराबरी का अधिकार प्राप्त करने के लिए आन्दोलन किए। विभिन्न देशों में महिलाओं को वोट का अधिकार प्रदान करने के लिए आन्दोलन हुए। इन आन्दोलनों में महिलाओं के राजनैतिक एवं वैधानिक दर्जे को ऊँचा उठाने एवं उनके लिए शिक्षा व रोज़गार के अवसर बढ़ाने की मांग की गई।
इन महिला आन्दोलनों ने महिलाओं के व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन में भी बराबरी की माँग उठाई। इन आन्दोलनों को ही नारीवादी आन्दोलन कहा जाता है। भारत में महिलाओं को राजनीतिक प्रतिनिधित्व-भारत की विधायिका में महिलाओं का अनुपात बहुत कम है। उदाहरण के लिए; लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या पहली बार 2019 में 14.36 फीसदी पहुँची है।
विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में भी महिला सदस्यों का अनुपात जनसंख्या में उनके अनुपात से बहुत कम है। राज्य की विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व 5 प्रतिशत से भी कम है। इस मामले में भारत का स्थान विश्व के अन्य देशों से बहुत नीचे है। भारत इस मामले में अफ्रीका व लैटिन अमेरिका के विकासशील देशों से भी नीचे है। इस समस्या के समाधान का सबसे अच्छा तरीका यह है कि चुनावी निकायों में महिलाओं के समुचित अनुपात को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाया जाए। ऐसा भारत में पंचायती राज्य के अन्तर्गत हुआ है।
स्थानीय निकायों; जैसे-पंचायतों व नगरपालिकाओं में कुल सीटों का एक-तिहाई भाग महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया है। आज भारत के ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय निकायों में निर्वाचित महिलाओं की संख्या 10 लाख से भी अधिक है। महिला संगठनों एवं कार्यकर्ताओं की माँग पर लोकसभा और राज्यसभा में भी एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने हेतु संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया गया है।
प्रश्न 2.
साम्प्रदायिकता की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए। भारतीय राजनीति में इसकी अभिव्यक्ति के विभिन्न रूप क्या हैं? गावा “साम्प्रदायिकता, राजनीति में अनेक रूप धारण के सकती है।” किन्हीं चार रूपों की विवेचना कीजिए।
अथवा
“साम्प्रदायिकता राजनीति में अनेक रूप धारण कर सकती है।” कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
साम्प्रदायिकता-साम्प्रदायिकता समाज की वह स्थिति है जिसमें विभिन्न धार्मिक समूह अन्य समूहों पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयास करते हैं। किसी एक धार्मिक समूह की सत्ता एवं वर्चस्व तथा अन्य समूहों की उपेक्षा पर आधारित राजनीति; साम्प्रदायिक राजनीति कहलाती है। साम्प्रदायिकता राजनीति में निम्नलिखित रूप धारण कर सकती है
1. दैनिक जीवन में साम्प्रदायिकता:
साम्प्रदायिकता की सबसे आम अभिव्यक्ति दैनिक जीवन में ही देखने को मिलती है। इसमें धार्मिक पूर्वाग्रह, धार्मिक समुदायों के बारे में बनी-बनाई धारणाएँ एवं एक धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ मानने की मान्यताएँ सम्मिलित हैं। ये चीजें इतनी सामान्य हैं कि सामान्यतया हमारा ध्यान इस ओर नहीं जाता है, जबकि ये हमारे अन्दर ही बैठी हुई होती हैं।
2. समुदायों के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन:
साम्प्रदायिक सोच अक्सर अपने धार्मिक समुदाय का राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित करने की फिराक में रहती है। जो लोग बहुसंख्यक समुदाय से सम्बन्ध रखते हैं उनकी यह कोशिश बहुसंख्यकवाद का रूप ले लेती है। जो लोग अल्पसंख्यक समुदाय के होते हैं, उनमें यह विश्वास अलग राजनीतिक इकाई बनाने की इच्छा का रूप ले लेता है।
3. साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक गोलबंदी-साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक गोलबंदी साम्प्रदायिकता का दूसरा रूप है। इसके अन्तर्गत धर्म के पवित्र प्रतीकों, धर्म गुरुओं, भावनात्मक अपील एवं अपने ही लोगों के मन में डर बैठाने जैसे तरीकों का उपयोग किया जाना एक सामान्य बात है। चुनावी राजनीति में एक धर्म के मतदाताओं की भावनाओं अथवा हितों की बात उठाने जैसे तरीके सामान्यतया अपनाए जाते हैं।
4. साम्प्रदायिक दंगे-कभी:
कभी साम्प्रदायिकता, साम्प्रदायिक हिंसा, दंगा, नरसंहार के रूप में अपना सबसे बुरा रूप अपना लेती है। उदाहरण के लिए, देश विभाजन के समय भारत व पाकिस्तान में भयावह साम्प्रदायिक दंगे हुए थे। स्वतन्त्रता के पश्चात् भी बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी।
प्रश्न 3.
साम्प्रदायिकता से क्या अभिप्राय है? इसके प्रमुख विश्वास क्या हैं? विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर:
साम्प्रदायिकता का आशय-साम्प्रदायिकता समाज की वह स्थिति है जिसमें विभिन्न धार्मिक समूह अन्य समूहों पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयास करते हैं। साम्प्रदायिक सोच के अनुसार एक विशेष धर्म में आस्था रखने वाले लोग एक ही समुदाय के होते हैं। उनके मौलिक हित एक जैसे होते हैं तथा समुदाय के लोगों के आपसी मतभेद सामुदायिक जीवन में कोई महत्त्व नहीं रखते। इस सोच में यह बात भी सम्मिलित है कि किसी अलंग धर्म को मानने वाले लोग दूसरे सामाजिक समुदाय का हिस्सा नहीं हो सकते। यदि विभिन्न धर्मों की सोच में कोई समानता दिखाई देती है तो यह ऊपरी और बेमानी होती है।
साम्प्रदायिक सोच इस मान्यता पर आधारित है कि दूसरे धर्मों के अनुयायी एक ही राष्ट्र में समान नागरिक के रूप में नहीं रह सकते। इस मानसिकता के अनुसार या तो एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के वर्चस्व में रहना होगा अथवा फिर उनके लिए अलग राष्ट्र बनाना होगा। अतः साम्प्रदायिकता एक ऐसी स्थिति है जब एक विशेष समुदाय के लोग अन्य समुदायों की कीमत पर अपने हितों को बढ़ावा देते हैं। साम्प्रदायिक राजनीति इस सोच पर आधारित होती है कि धर्म ही सामाजिक समुदाय का निर्माण करता है। साम्प्रदायिकता के प्रमुख विश्वास-साम्प्रदायिकता के प्रमुख विश्वास निम्नलिखित हैं
- एक विशेष धर्म में आस्था रखने वाले लोग एक है. समुदाय के हों।
- उनके मौलिक हित एक जैसे हों तथा समुदाय के लोगों के आपसी मतभेद सामुदायिक जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान न रखें।
- इस सोच में यह बात सम्मिलित है कि किसी अलग धर्म को मानने वाले लोग दूसरे समुदाय का हिस्सा नहीं हो सकते। यदि विभिन्न धर्मों के लोगों की सोच में कोई समानता दिखती है तो यह ऊपरी बेमानी होती है। उनके हित भी अलग-अलग होंगे और उनमें टकराव भी होगा।
- कभी-कभी साम्प्रदायिकता में यह विचार भी जुड़ने लगता है कि दूसरे धर्मों के अनुयायी एक ही राष्ट्र के समान नागरिक के तौर पर नहीं रह सकते या तो एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के वर्चस्व में रहना होगा या फिर उनके लिए. अलग राष्ट्र का निर्माण करना होगा।
प्रश्न 4.
जातिवाद क्या है? राजनीति में जाति अनेक रूप ले सकती है। किन्हीं चार रूपों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारतीय राजनीति में ‘जाति’ की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
भारत में ‘राजनीति में जाति’ और ‘जाति के अन्दर राजनीति’ है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? दो-दो तर्क दीजिए।
अथवा
“सिर्फ राजनीति ही जातिग्रस्त नहीं होती, जाति भी राजनीति ग्रस्त हो जाती है।” कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जातिवाद-जातिवाद अन्य जाति समूहों के विरुद्ध भेदभाव एवं उनके निष्कासन पर आधारित सामाजिक व्यवहार है। समान जाति समूह के लोग एक सामाजिक समुदाय का निर्माण करते हैं। वे एक ही व्यवसाय अपनाते हैं। अपनी . जाति के भीतर ही शादी करते हैं एवं अन्य जाति समूहों के सदस्यों के साथ खाना नहीं खाते हैं। राजनीति में जाति अनेक रूप ले सकती है। भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है
1. उम्मीदवारों का नाम तय करते समय:
जब राजनीतिक दल चुनाव के लिए उम्मीदवारों का नाम तय करते हैं तो चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं की जातियों का हिसाब ध्यान में रखा जाता है ताकि उन्हें जीतने के लिए आवश्यक वोट मिल जाएँ।
2. सरकार का गठन करते समय:
जैब सरकार का गठन किया जाता है तो राजनीतिक दल इस बात का ध्यान रखते हैं कि उसमें विभिन्न जातियों तथा कबीलों के लोगों को उचित स्थान प्रदान किया जाए।
3. चुनाव प्रचार करते समय:
राजनीतिक दल एवं चुनाव में खड़े हुए उम्मीदवार जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिए जातिगत भावनाओं को उकसाते हैं। कुछ राजनीतिक दलों को कुछ जातियों के सहयोगी एवं प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है।
4. जातियों में नयी चेतना:
सार्वभौम वयस्क मताधिकार एवं एक व्यक्ति एक वोट की व्यवस्था ने राजनीतिक दलों को विवश किया कि वे राजनीतिक समर्थन पाने एवं लोगों को गोलबंद करने के लिए सक्रिय हों। इससे उप-जातियों के लोगों में नवीन चेतना का संचार हुआ है जिन्हें अभी तक छोटा और निम्न स्तर का माना जाता था। भारत में ‘जाति में राजनीति’ को निम्न तर्कों द्वारा भी बताया जा सकता है
- प्रत्येक जाति स्वयं को बड़ा बनाना चाहती है। पहले वह अपने समूह की जिन उपजातियों को छोटा या नीचा बताकर अपने से बाहर रखना चाहती थी, अब उन्हें अपने साथ लाने की कोशिश करती है।
- चूँकि एक जाति अपने दम पर सत्ता पर कब्जा नहीं कर सकती इसलिए वह ज्यादा राजनीतिक ताकत पाने के लिए दूसरी जातियों अथवा समुदायों को साथ लेने की कोशिश करती है और इस प्रकार उनके मध्य संवाद और मोल-तोल होता है।
- राजनीति में नई किस्म की जातिगत गोलबंदी भी हुई है, जिसे अगड़ा और पिछड़ा कहा जाता है।
प्रश्न 5.
“राजनीति में जाति पर जोर देने के कारण कई बार लोगों में यह धारणा बन सकती है कि चुनाव जातियों का खेल है, कुछ और नहीं। यह बात सच नहीं है।” उदाहरण देकर इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
राजनीति में जाति पर जोर देने के कारण कई बार लोगों में यह धारणा बन सकती है कि चुनाव जातियों का खेल है, कुछ और नहीं। यह बात वास्तव में सत्य नहीं होती है, जिसे निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है
1. चुनाव क्षेत्र विभिन्न:
जातियों से सम्बन्धित लोगों का मिश्रण होते हैं-देश के किसी भी एक संसदीय चुनाव क्षेत्र में किसी एक जाति के लोगों का बहुमत नहीं होता है इसलिए प्रत्येक राजनैतिक दल एवं उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए एक जाति एवं समुदाय के अधिक लोगों का विश्वास प्राप्त करना पड़ता है।
2. चुनावों का इतिहास:
हमारे देश के चुनावों का इतिहास देखने से पता चलता है कि सत्ताधारी दल, वर्तमान सांसदों एवं विधायकों को अक्सर पराजय का सामना करना पड़ता है। जो यह सिद्ध करता है कि चुनाव में जातिवाद यद्यपि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है परन्तु चुनाव केवल जातिवाद पर ही निर्भर नहीं होते। .
3. प्रभुता सम्पन्न जातियों के लिए खोज:
अधिकांश राजनीतिक दल बहुसंख्यक जाति से अपना उम्मीदवार चुनाव में खड़ा करते हैं। परन्तु इससे भी उनकी जीत की गारण्टी नहीं हो सकती क्योंकि ऐसे में कुछ उम्मीदवारों के सामने उनकी जाति के एक से अधिक उम्मीदवार होते हैं तो किसी जाति के मतदाताओं के सामने उनकी जाति का एक भी उम्मीदवार नहीं होता है।
4. एक जाति में भी विभिन्न विकल्प उपलब्ध:
कोई भी राजनीतिक दल किसी एक जाति या समुदाय के समस्त लोगों का वोट प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि एक समुदाय में भी लोगों के पास विकल्प उपलब्ध होते हैं। जब लोग किसी जाति विशेष को किसी एक पार्टी का ‘वोट बैंक’ कहते हैं तो इसका यह अर्थ होता है कि उस जाति के अधिकांश लोग उस पार्टी को वोट देते हैं। .