JAC Board Class 10th Social Science Notes Geography Chapter 2 वन और वन्य जीव संसाधन
पाठ सारांश
- हमारा धरातल अत्यधिक जैव विविधताओं से भरा हुआ है।
- धरातल पर मानव एवं अन्य जीव-जन्तु एक जटिल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं।
- पारिस्थितिकी तंत्र में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका वनों की होती है क्योंकि ये प्राथमिक उत्पादक हैं जिन पर अन्य सभी जीव निर्भर करते हैं।
- हमारे देश में समस्त विश्व की जैव उपजातियों की 8 प्रतिशत संख्या (लगभग 16 लाख) पायी जाती है। जैव विविधता की दृष्टि से भारत विश्व के सबसे समृद्ध देशों में से एक है।
- अनुमानतः भारत में 10 प्रतिशत वन्य वनस्पतियों एवं 20 प्रतिशत स्तनधारियों के लुप्त होने का खतरा बना हुआ है।
- हमारे देश में वनों के अन्तर्गत लगभग 807276 वर्ग किमी. क्षेत्रफल है। यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.56% भाग है।
- अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षण एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ (IUCN) ने पौधों और प्राणियों की जातियों को सामान्य जातियाँ, संकटग्रस्त जातियाँ, सुभेद्य जातियाँ, दुर्लभ जातियाँ, स्थानिक जातियाँ एवं लुप्त जातियाँ आदि श्रेणियों में विभाजित किया है।
- भारत में वन विनाश उपनिवेश काल में रेलवे लाइनों का विस्तार, कृषि, व्यवसाय, वाणिज्य, वानिकी एवं खनन क्रियाओं में वृद्धि से हुआ है।
- स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी वन संसाधनों के सिकुड़ने में कृषि का फैलाव एक महत्त्वपूर्ण कारक रहा है।
- वन सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 1951 और 1980 के बीच लगभग 26,200 वर्ग किमी वन क्षेत्र को कृषि भूमि में बदला गया।
- जनजाति क्षेत्रों में स्थानान्तरी (झूमिंग) कृषि से बहुत अधिक वनों का विनाश हुआ है।
- भारत में नदी घाटी परियोजनाओं के निर्माण ने भी वन विनाश को प्रोत्साहित किया है। सन् 1952 से नदी घाटी परियोजनाओं के कारण 5,000 वर्ग किमी से भी अधिक वन क्षेत्रों को नष्ट करना पड़ा है तथा यह प्रक्रिया अभी भी रुकी नहीं है।
- अरुणाचल प्रदेश एवं हिमाचल प्रदेश में मिलने वाला हिमालय यव (चीड़ की प्रकार का एक सदाबहार वृक्ष) औषधि पौधा है जो संकट के कगार पर है।
- भारत में जैव-विविधता को कम करने वाले प्रमुख कारकों में वन्य जीवों के आवासों का विनाश, जंगली जानवरों का शिकार करना, पर्यावरण प्रदूषण एवं वनों में आग लगना आदि है।
- भारत में वन्य जीवों की सुरक्षा हेतु भारतीय वन्य जीवन (रक्षण) अधिनियम, 1972 को लागू किया गया है, जिसमें वन्य जीवों की सुरक्षा हेतु अनेक प्रावधान हैं।
- बाघों के संरक्षण हेतु प्रोजेक्ट टाइगर चलाया जा रहा है जो विश्व की प्रमुख वन्य जीव परियोजनाओं में से एक है।
- वन्य जीव अधिनियम 1980 व 1986 के अंतर्गत सैकड़ों तितलियों, पतंगों, भंगों तथा एक ड्रैगनफ्लाई को भी संरक्षित जातियों में सम्मिलित किया है।
- राजकीय स्तर पर वनों को आरक्षित-वन, रक्षित-वन एवं अवर्गीकृत-वन में विभाजित किया गया है।
- हिमालय क्षेत्र का प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन कई क्षेत्रों में वनों की कटाई को रोकने में सफल रहा है।
- भारत में संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रमों की औपचारिक शुरुआत 1988 में ओडिशा राज्य द्वारा संयुक्त वन प्रबंधन का पहला प्रस्ताव पास करने के साथ हुई थी।
→ प्रमुख पारिभाषिक शब्दावली
1. जैव-विविधता: पेड़-पौधों एवं प्राणि-जगत में जो विभिन्न प्रकार की प्रजातियाँ मिलती हैं, जैव-विविधता कहलाती हैं। दूसरे शब्दों में, जैव-विविधता वनस्पति व प्राणियों में पाए जाने वाले जातीय विभेद को प्रकट करती है।
2. वनस्पतिजात (Flora): वनस्पतिजात से तात्पर्य किसी विशेष क्षेत्र या समय के पादपों से है।
3. प्राणिजात: सभी प्रकार के पशु-पक्षी, जीवाणु, सूक्ष्म-जीवाणु व मनुष्य मिलकर प्राणिजात कहलाते हैं।
4. सामान्य जातियाँ: वन और वन्य-जीवों की ऐसी प्रजातियाँ जिनकी संख्या जीवित रहने के लिए सामान्य मानी जाती है, जैसे-चीड़, साल, पशु, कृंतक (रोडेंट्स)।
5. संकटग्रस्त जातियाँ: ऐसी जातियाँ जिनके लुप्त होने का खतरा है, जैसे-काला हिरण, गैंडा, मगरमच्छ, भारतीय जंगली गधा, शेर की पूँछ वाला बंदर, मणिपुरी हिरण।
6. सुभेद्य जातियाँ: ये वे प्रजातियाँ हैं, जिनकी संख्या लगातार घट रही हैं और जो शीघ्र ही संकटग्रस्त होने की स्थिति में हैं। उदाहरण-नीली भेड़, एशियाई हाथी, गंगा की डॉल्फिन आदि।
7. दुर्लभ जातियाँ-जीव: जन्तु व वनस्पति की वे प्रजातियाँ जिनकी संख्या बहुत कम रह गई है, दुर्लभ प्रजातियाँ कहलाती हैं।
8. स्थानिक जातियाँ: प्राकृतिक या भौगोलिक सीमाओं से अलग विशेष क्षेत्रों में पायी जाने वाली प्रजातियाँ स्थानिक – प्रजातियाँ कहलाती हैं, जैसे-अंडमानी चील, निकोबारी कबूतर, अरुणाचली मिथुन व अंडमानी जंगली सुअर आदि।
9. लुप्त जातियाँ: ये वे जातियाँ हैं जिनके रहने के आवासों में खोज करने पर वे अनुपस्थित पाई गई हैं, जैसे-एशियाई चीता, गुलाबी सिर वाली बत्तख आदि।
10. वन-वह बड़ा भू: भाग जो वृक्षों और झाड़ियों से ढका होता है।
11. पारिस्थितिकी तन्त्र: मानव और दूसरे जीवधारी मिलकर एक जटिल तंत्र का निर्माण करते हैं, उसे पारिस्थितिकी तन्त्र कहा जाता है।
12. आरक्षित वन: ये वे वन हैं जो इमारती लकड़ी अथवा वन उत्पादों को प्राप्त करने के लिए स्थायी रूप से सुरक्षित कर लिए गए हैं और इनमें पशुओं को चराने तथा खेती करने की अनुमति नहीं दी जाती।
13. रक्षित वन: ये वे वन हैं जिनमें पशुओं को चराने व खेती करने की अनुमति कुछ विशिष्ट प्रतिबन्धों के साथ प्रदान की जाती है।
14. अवर्गीकृत वन: अन्य सभी प्रकार के वन व बंजर भूमि जो सरकार, व्यक्तियों एवं समुदायों के स्वामित्व में होते हैं, अवर्गीकृत वन कहलाते हैं। इनमें लकड़ी काटने व पशुओं को चराने पर सरकार की ओर से कोई रोक नहीं होती है।
15. सामुदायिक वनीकरण: यह वन सुरक्षा हेतु लोगों का, लोगों के लिए, लोगों द्वारा संचालित एक विशिष्ट कार्यक्रम
16. राष्ट्रीय उद्यान: ऐसे रक्षित क्षेत्र जहाँ वन्य प्राणियों सहित प्राकृतिक वनस्पति और प्राकृतिक सुन्दरता को एक साथ सुरक्षित रखा जाता है। ऐसे स्थानों की सुरक्षा को उच्च स्तर प्रदान किया जाता है। इसकी सीमा में पशुचारण प्रतिबन्धि .त होता है। इसकी सीमा में किसी भी व्यक्ति को भूमि का अधिकार नहीं मिलता है।
17. वन्य जीव पशु विहार: ये वे रक्षित क्षेत्र हैं जहाँ कम सुरक्षा का प्रावधान है। इसमें वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए अन्य गतिविधियों की अनुमति होती है। इसमें किसी भी अच्छे कार्य के लिए भूमि का उपयोग हो सकता है।
18. प्रोजेक्ट टाइगर: देश में बाघों की संख्या में तेजी से गिरावट को देखकर बाघों के संरक्षण के लिए सन् 1973 से संचालित विशेष बाघ परियोजना।
19. स्थानांतरी कृषि: यह कृषि का सबसे आदिम रूप है। कृषि की इस पद्धति में वन के एक छोटे टुकड़े के पेड़ और झाड़ियों को काटकर उसे साफ कर दिया जाता है। इस प्रकार से कटी हुई वनस्पति को जला दिया जाता है और उससे प्राप्त हुई राख को मिट्टी में मिला दिया जाता है। इस भूमि पर कुछ वर्षों तक कृषि की जाती है। भूमि की उर्वरता समाप्त हो जाने पर किसी दूसरी जगह पर यही क्रिया पुनः दुहरायी जाती है। इसे ‘स्लैश और बर्न कृषि’ भी कहा जाता है। पूर्वोत्तर भारत में इसे झूमिंग (Jhuming) कृषि के नाम से जाना जाता है।