Jharkhand Board JAC Class 9 Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 9 सिकतासेतुः Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 9th Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 9 सिकतासेतुः
JAC Class 9th Sanskrit सिकतासेतुः Textbook Questions and Answers
1. एकपदेन उत्तरं लिखत-(एक शब्द में उत्तर लिखिए-)
(क) कः बाल्ये विद्यां न अधीतवान? (बचपन में कौन विद्या नहीं पढ़ पाया?)
उत्तरम् :
तपोदत्तः (तपोदत्त)
(ख) तपोदत्तः कया विद्याम् अवाप्तुं प्रवृत्तः अस्ति? (तपोदत्त किससे विद्या प्राप्त करने में लगा है?)
उत्तरम् :
तपश्चर्यया (तपस्या)।
(ग) मकरालये कः शिलाभिः सेतुं बबन्ध? (सागर पर शिलाओं से किसने पुल बाँधा?)
उत्तरम् :
रामः (राम ने)।
(घ) मार्गभ्रान्तः सन्ध्यां कुत्र उपैति? (राह भटका साँझ को कहाँ पहुँचता है?)
उत्तरम् :
गृहम् (घर)।
(ङ) पुरुषः सिकताभिः किं करोति? (पुरुष बालू से क्या करता है?)
उत्तरम् :
सेतु निर्माणम् (पुल का निर्माण)।
2. अधोलिखितानां प्रश्नानां उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत-(निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए-)
(क) अनधीतः तपोदत्तः कैः गर्हितोऽभवत्? (बिना पढ़ा तपोदत्त किनके द्वारा निन्दित हुआ?)
उत्तरम् :
अनधीतः तपोदत्तः सर्वैः कुटुम्बिभिः, मित्रैः ज्ञातिजनैः च गर्हितोऽभवत्। (बिना पढ़ा तपोदत्त सभी कुटुम्बियों, मित्रों और जाति के लोगों द्वारा निन्दित हुआ।)
(ख) तपोदत्तः केन प्रकारेण विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽभवत् ? (तपोदत्त किस प्रकार से विद्या प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त हुआ?)
उत्तरम् :
तपोदत्तः तपश्चर्यया विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽभवत्। (तपोदत्त तप से विद्या प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त हुआ।)
(ग) तपोदत्तः पुरुषस्य कां चेष्टां दृष्ट्वा अहसत्? (तपोदत्त पुरुष की किस चेष्टा को देखकर हँसा?)
उत्तरम् :
तपोदत्तः पुरुषस्य सिकताभिः सेतुनिर्माणप्रयासं दृष्ट्वा अहसत्। (तपोदत्त पुरुष के बालू से पुल बनाने के प्रयास को देखकर हँसा।)
(घ) तपोमात्रेण विद्यां प्राप्तुं तस्य प्रयासः कीदृशः कथितः? (तप मात्र से विद्या प्राप्त करने का उसका प्रयास कैसा कहा गया?)
उत्तरम् :
तपोमात्रेण विद्यां प्राप्तुं तस्य प्रयास: सिकताभिः सेतुनिर्माणप्रयास इव कथितः। (तप मात्र से विद्या प्राप्त करने का उसका प्रयास बालू से पुल बनाने के प्रयास की तरह कहा गया।)
(ङ) अन्ते तपोदत्तः विद्याग्रहणाय कुत्र गतः? (अन्त में तपोदत्त विद्या ग्रहण करने के लिए कहाँ गया?)
उत्तरम् :
अन्ते तपोदत्तः विद्याग्रहणाय गुरुकुलं गतः। (अन्त में तपोदत्त विद्या ग्रहण करने गुरुकुल गया।)
3. भिन्नवर्गीयं पदं चिनुत-(भिन्न वर्ग के शब्द को चुनिए)
यथा-अधिरोदुम्, गन्तुम्, सेतुम्, निर्मातुम्
उत्तरम् :
सेतुम्
(क) निः श्वस्य, चिन्तय, विमृश्य, उपेत्य
उत्तरम् :
चिन्तय
(ख) विश्वसिमि, पश्यामि, करिष्यामि, अभिलषामि उत्तरम् : करिष्यामि
(ग) तपोभिः, दुर्बुद्धिः, सिकताभिः, कुटुम्बिभिः उत्तरम् : दुर्बुद्धिः
4. (क) रेखाङ्कितानि सर्वनामपदानि कस्मै प्रयुक्तानि? (रेखांकित सर्वनाम पद किसके लिए प्रयोग किये गये हैं ?)
(i) अलमलं तव श्रमेण।
(ii) न अहं सोपानमागैरट्टमधिरोढुं विश्वसिमि।
(iii) चिन्तितं भवता न वा।
(iv) गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यासो मया करणीयः।
(v) भवद्भिः उन्मीलितं मे नयनयुगलम्।
उत्तरम् :
(i) पुरुषाय (इन्द्राय)
(ii) पुरुषाय (इन्द्राय)
(iii) पुरुषाय (इन्द्राय)
(iv) तपोदत्ताय
(v) तपोदत्ताय।
(ख) अधोलिखितानि कथनानि कः कं प्रति कथयति? (नीचे लिखे कथनों को कौन किससे कहता है?)
कथनानि –
(i) हा विधे! किमिदं मया कृतम्?
(ii) भो महाशय! किमिदं विधीयते?
(iii) भोस्तपस्विन् ! कथं माम् उपरिणत्सि?
(iv) सिकता: जलप्रवाहे स्थास्यन्ति किम्?
(v) नाहं जाने कोऽस्ति भवान् ?
उत्तरम् :
पुरुषम् स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत- (मोटे छपे पदों को आधार मानकर प्रश्न बनाओ-)
(क) तपोदत्तः तपश्चर्यया विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽभवत्। (तपोदत्त तप से विद्या प्राप्त करने में प्रवृत्त हुआ।)
उत्तरम् :
तपोदत्तः कया विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽभवत् ? (तपोदत्त किससे विद्या प्राप्त करने में प्रवृत्त हुआ?)
(ख) तपोदत्तः कुटुम्बिभिः, मित्रैः गर्हितोऽभवत्। (तपोदत्त कुटुम्बियों, मित्रों से निन्दित हुआ।)
उत्तरम् :
कः कुटुम्बिभिः, मित्रैः गर्हितोऽभवत् ? (कौन कुटुम्बियों, मित्रों से निन्दित हुआ?)
(ग) पुरुषः नद्यां सिकताभिः सेतुं निर्मातुं प्रयतते। (पुरुष नदी में बालू से पुल बनाने का प्रयत्न करता है।)
उत्तरम् :
पुरुषः कुत्र सिकताभिः सेतुं निर्मातुं प्रयतते? (पुरुष कहाँ बालू से पुल बनाने का प्रयत्न करता है?)
(घ) तपोदत्तः अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषति। (तपोदत्त अक्षरज्ञान के बिना ही विद्वत्ता प्राप्त करना चाहता है।)
उत्तरम् :
तपोदत्तः किं विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषति ? (तपोदत्त किसके बिना ही विद्वत्ता प्राप्त करना चाहता है?)
(ङ) तपोदत्तः विद्याध्ययनाय गुरुकुलम् अगच्छत्। (तपोदत्तः विद्याध्ययन के लिए गुरुकुल गया।)
उत्तरम् :
तपोदत्तः किमर्थं गुरुकुलम् अगच्छत् ? (तपोदत्त किसलिए गुरुकुल गया?)
(च) गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यासः करणीयः। (गुरुगृह जाकर ही विद्याभ्यास करना चाहिए।)
उत्तरम् :
कुत्र गत्वा विद्याभ्यास: करणीयः? (कहाँ जाकर विद्याभ्यास करना चाहिए?)
6. (अ) उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखितविग्रहपदानां समस्तपदानि लिखत –
(उदाहरण के अनुसार निम्नलिखित विग्रहपदों के समासयुक्त पद लिखिए-)
(आ) उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखितानां समस्तपदानां विग्रहं कुरुत।
(उदाहरण के अनुसार निम्नलिखित समस्त पदों का विग्रह कीजिए)
7. उदाहरणमनुसृत्य कोष्ठकात् पदम् आदाय नूतनं वाक्यद्वयं रचयत –
(उदाहरण के अनुसार कोष्ठक से पद लेकर दो नये वाक्य बनाइये-)
उत्तरम् :
(क) (i) अलं भयेन।
(ii) अलं कोलाहलेन।
(ख) (i) माम् अनु गृहं गच्छति।
(ii) माम् अनु पर्वतं गच्छति।।
(ग) (i) परिश्रमं विनैव लक्ष्य प्राप्तुम् अभिलषसि।
(ii) अभ्यासं विनैव विद्यां प्राप्तुम् अभिलषसि।
(घ) (i) मासं यावत् नगरे वसति।
(ii) वर्षं यावत् गुरुकुलम् आवसति।
JAC Class 9th Sanskrit सिकतासेतुः Important Questions and Answers
प्रश्न: 1.
तपोदत्तः कस्मिन् कार्ये रतः प्रविशति? (तपोदत्त किस कार्य में लीन प्रवेश करता है?)
उत्तरम् :
तपोदत्तः तपस्यारतः प्रविशति। (तपोदत्त तपस्या में लीन प्रवेश करता है)
प्रश्न: 2.
अत्र कः स्वपरिचयं ददाति? (यहाँ कौन अपना परिचय देता है?)
उत्तरम् :
अत्र तपोदत्तः स्वपरिचयं ददाति। (यहाँ तपोदत्त अपना परिचय देता है।)
प्रश्न: 3.
बाल्ये पितृचरणैः क्लेश्यमानः कः विद्यां न अधीतवान्?
(बचपन में पिताजी द्वारा संतप्त हुआ कौन विद्या नहीं पढ़ा?).
उत्तरम् :
बाल्ये पितृचरणैः क्लेश्यमानः तपोदत्तः विद्यां न अधीतवान्।
(बचपन में पिताजी द्वारा सन्तप्त हुआ तपोदत्त विद्या नहीं पढ़ा।)
प्रश्न: 4.
विद्याहीन: नरः सभायां किमिव न शोभते?
(विद्याहीन मनुष्य सभा में किस प्रकार शोभा नहीं देता?)
उत्तरम् :
विद्याहीन: नरः निर्मणिभोगीव सभायां न शोभते।
(विद्याहीन मनुष्य सभा में मणिहीन साँप की तरह शोभा नहीं देता।)
प्रश्न: 5.
तपोदत्तः कस्मात् कारणात् सर्वैः गर्हितोऽभवत् ?
(तपोदत्त किसलिए सबसे निन्दित हुआ?)
उत्तरम् :
तपोदत्तः अशिक्षितत्वात् सर्वैः गर्हितोऽभवत्।
(तपोदत्त अशिक्षित होने के कारण सभी से निन्दित हुआ।)
प्रश्नः 6.
कीदृशः जनः न शोभत? (कैसा मनुष्य शोभा नहीं देता?)
उत्तरम् :
परिधानैः अलंकारैः च भूषितोऽपि अनधीतः जनः न शोभते।।
(वस्त्रों और अलंकारों से सुसज्जित होते हुए भी अनपढ़ मनुष्य शोभा नहीं देता।)
प्रश्न: 7.
ऊर्ध्वं निःश्वस्य तपोदत्तः किम् अकरोत् ?
(ऊपर को साँस छोड़कर तपोदत्त ने क्या किया?)
उत्तरम् :
ऊर्ध्वं निःश्वस्य तपोदत्तः पश्चात्तापम् अकरोत्।
(ऊपर को लम्बी साँस छोड़कर तपोदत्त ने पश्चात्ताप किया।)
प्रश्न: 8.
कः भ्रान्तो न मन्यते?
(कौन भटका हुआ नहीं माना जाता?)
उत्तरम् :
दिवसे भ्रान्तः यः सन्ध्यां यावद् गृहम् उपैति, सः भ्रान्तो न मन्यते।
(दिन का भटका जो सन्ध्या तक घर आ जाये, वह भटका हुआ नहीं माना जाता।)
प्रश्न: 9.
तपोदत्तः कथं विद्यां प्राप्तुम् इच्छति?
(तपोदत्त किस प्रकार विद्या प्राप्त करना चाहता है?)
उत्तरम् :
तपोदत्तः तपश्चर्यया विद्यां प्राप्तुमिच्छति।
(तपोदत्त तपस्या के द्वारा विद्या प्राप्त करना चाहता है।)
प्रश्न: 10.
नद्यास्तटे तपोदत्तः किं पश्यति?
(नदी के किनारे तपोदत्त क्या देखता है?)
उत्तरम् :
तपोदत्तः नद्यास्तटे पुरुषमेकं सिकताभिः सेतुनिर्माणप्रयासं कुर्वन्तं पश्यति।
(तपोदत्त नदी के किनारे एक व्यक्ति को बालू से पुल बनाने का प्रयास करते हुए देखता है।)
प्रश्न: 11.
पुरुषस्य सिकतासेतुः कः इव?
(पुरुष का बालू का पुल किसकी तरह है?)
उत्तरम् :
पुरुषस्य सिकतासेतुः तपोदत्तस्य लिप्यक्षरज्ञानं विना तपोभिः विद्याप्राप्तिरिव।
(पुरुष का बालू का पुल तपोदत्त के बिना लिपि, अक्षर-ज्ञान के तपस्या से विद्या-प्राप्ति की तरह है।
प्रश्न: 12.
भगवत्याः शारदाया: का अवमानना आसीत्? (भगवती सरस्वती की अवमानना क्या थी?)
उत्तरम् :
अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलाषा भगवत्याः शारदायाः अवमानना आसीत्।
(अक्षर-ज्ञान के बिना ही विद्वत्ता-प्राप्ति की इच्छा देवी सरस्वती की अवमानना थी।)
प्रश्न: 13.
लक्ष्यं केन प्राप्यते? (लक्ष्य किससे प्राप्त किया जाता है?)
उत्तरम् :
लक्ष्यं पुरुषार्थेण प्राप्यते। (लक्ष्य परिश्रम से प्राप्त किया जाता है।)
प्रश्न: 14.
तपोदत्तस्य पुरुषेण किं हितं कृतम्? (तपोदत्त का पुरुष ने क्या हित किया?)
उत्तरम् :
पुरुषेण तपोदत्तस्य नेत्रयुगलम् उन्मीलितम्। (पुरुष ने तपोदत्त के नेत्र खोल दिए।)
प्रश्न: 15.
‘सिकता सेतुः’ इति नाट्यांशः कस्मात् ग्रन्थात् संकलितः?
(‘सिकतासेतुः’ नाट्यांश किस ग्रन्थ से संकलित है?)
उत्तरम् :
‘सिकतासेतुः इति नाट्यांश कथासरित्सागरात् संकलितः।
(‘सिकतासेतु’ नाट्यांश कथासरित्सागर से संकलित है।)
प्रश्न: 16.
‘कथासरित्सागरः’ केन विरचितः? (कथासरित्सागर किसने रचा?)
उत्तरम् :
‘कथासरित्सागर: सोमदेवेन विरचितः।
(कथा सरित्सागर सोमदेव द्वारा रचा गया है।)
प्रश्न: 17.
कोऽसौ पुरुषवेषधारी यः सिकताभिः सेतु निर्माणाय यतते?
(पुरुष वेषधारी वह व्यक्ति कौन है, जो बालू से पुल बनाना चाहता है?)
उत्तरम् :
पुरुष वेषधारी देवराजः इन्द्रः। (पुरुषवेषधारी देवराज इन्द्र है।)
प्रश्न: 18.
तपोदत्तः कैः गर्हितोऽभवत् ? (तपोदत्त किनके द्वारा निन्दित हुआ? )
उत्तरम् :
तपोदत्तः सर्वैः कुटुम्बिभिः, मित्रैः जातिजनैः च गर्हितोऽभवत्।
(तपोदत्त सभी कुटुम्बियों, मित्रों और जाति वालों से निन्दित हुआ।)
प्रश्न: 19.
निर्मणिभोगीव सभायां कः न शोभते? (मणि रहित साँप की तरह सभा में कौन शोभा नहीं देता?)
उत्तरम :
य: न अधीतवान विद्या सः निर्मणिभोगीव न शोभते।
(जिसने विद्या नहीं पढ़ी वह बिना मणि के साँप की तरह शोभा नहीं देता।)
प्रश्न: 20.
जलोच्छलध्वनिं श्रुत्वा तपोदत्तः किम चिन्तयत्?
(पानी उछलने की ध्वनि सुनकर तपोदत्त ने क्या सोचा?)
उत्तरम् :
तपोदत्तोऽचिन्तयत यत् कोऽपि महामत्स्यो मकरो वा भवेत्। (तपोदत्त ने सोचा कि कोई बड़ी मछली अथवा मगरमच्छ होगा।)
स्थूलाक्षरपदान्यधिकृत्य प्रश्न-निर्माणं कुरुत-(मोटे अक्षर वाले शब्दों के आधार पर प्रश्ननिर्माण कीजिए-)
प्रश्न: 1.
ततः प्रविशति तपस्यारतः तपोदत्तः। (तब तपस्या में तल्लीन तपोदत्त प्रवेश करता है।)
उत्तरम् :
ततः कीदृशः तपोदत्तः प्रविशति? (तब कैसा तपोदत्त प्रवेश करता है?)
प्रश्न: 2.
अशिक्षित: नरः निर्मणिभोगीव न शोभते। (अशिक्षित मनुष्य मणि रहित साँप की तरह शोभा नहीं देता।)
उत्तरम् :
अशिक्षित: नरः कः इव न शोभते? (अशिक्षित मनुष्य किसकी तरह शोभा नहीं देता?)
प्रश्न: 3.
‘सिकतासेतुः’ इति पाठः कथासरित्सागरात् संकलितः। (‘सिकतासेतुः’ पाठ कथासरित्सागर से संकलित है।)
उत्तरम् :
सिकतासेतुः इति पाठः कुतः संकलितः? (‘सिकतासेतुः’ पाठ कहाँ से संकलित है?)
प्रश्न: 4.
पुरुषमेकं सिकताभिः सेतुनिर्माणं कुर्वाणमपश्यत्। (बालू से सेतु निर्माण करते हुए एक पुरुष को देखा।)
उत्तरम् :
पुरुषमेकं कानिः सेतुनिर्माणं कुर्वाणमपश्यत्? (एक पुरुष को किसे सेतु निर्माण करते देखा?)
प्रश्न: 5.
नास्त्यभावो जगति मूर्खाणाम्। (संसार में मूों की कमी नहीं है।)
उत्तरम् :
जगाति केषाम् अभावः नास्ति? (संसार में किसका अभाव नहीं है?)
प्रश्न: 6.
रामः बवन्ध सेतुं शिलाभिर्मकरालये? (राम ने शिलाओं से सागर पर पुल बनाया?)
उत्तरम् :
रामः शिलाभिः कुत्र सेतुं बबन्ध? (राम ने शिलाओं से सेतु कहाँ बनाया?)
प्रश्न: 7.
प्रयत्नेन सर्वं सिद्धं भवति। (प्रयत्न से सब सिद्ध होता है।)
उत्तरम् :
केन सर्वं सिद्धं भवति? (किससे सब सिद्ध होता है?)
प्रश्न: 8.
नाक्षरज्ञानं विना वैदुष्यम्। (अक्षरज्ञान के बिना विद्वत्ता नहीं।)
उत्तरम् :
किं विना न वैदुष्यम् ? (किसके बिना विद्वत्ता नहीं।)
प्रश्न: 9.
इयं भगवत्याः शारदायाः अवमानना। (यह भगवती सरस्वती का अपमान है।)
उत्तरम् :
इयं कस्याः अवमानना? (यह किसका अपमान है?)
प्रश्न: 10.
पुरुषाथैरेव लक्ष्यं प्राप्यते। (पुरुषार्थ से ही लक्ष्य प्राप्त होता है।)
उत्तरम् :
कैः लक्ष्यं प्राप्यते? (किनके द्वारा लक्ष्य प्राप्त किया जाता है?)
कथाक्रम-संयोजनम्।
अधोलिखितानि वाक्यानि क्रमशः लिखित्वा कथा-क्रम-संयोजनं कुरुत।
(निम्नलिखित वाक्यों को क्रमशः लिखकर कथा-क्रम-संयोजन कीजिये।)
1. सः एक पुरुषं सिकताभिः सेतुनिर्माणप्रयासं कुर्वन्तं दृष्ट्वाऽहसत्।
2. उन्मीलितनयनः तपोदत्तः विद्याऽध्ययनाय गुरुकुलं गतः।।
3. सोऽचिन्तयत्-अक्षरज्ञानं विना विद्याप्राप्तेः इच्छा तु देव्याः शारदायाः अपमानम्।
4. पुरुषः आह-यदा लिप्यक्षरज्ञानं विना तपोभिरेव विद्या प्राप्या तदा सिकतासेतुरपि सम्भवति।
5. तपोदत्तः बाल्ये पितचरणैः क्लेश्यमानः अपि विद्यां नाऽधीतवान्।
6. किं सिकता जलप्रवाहे स्थास्यति?
7. स आह-‘रे मूर्ख! सिकताभिः सेतुं निर्मातुमिच्छसि?
8. सः तपसा विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽभवत्।
उत्तरम् :
1. तपोदत्तः बाल्ये पितृचरणैः क्लेश्यमानः अपि विद्यां नाऽधीतवान्।
2. सः तपसा विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽभवत्।
3. सः एक पुरुषं सिकताभिः सेतुनिर्माणप्रयासं कुर्वन्तं दृष्ट्वाऽहसत्।
4. स आह-रे मूर्ख! सिकताभिः सेतुं निर्मातुमिच्छसि?’
5. किं सिकता जलप्रवाहे स्थास्यति?
6. पुरुषः आह-यदा लिप्यक्षरज्ञानं विना तपोभिरेव विद्या प्राप्या तदा सिकतासेतुरपि सम्भवति।
7. सोऽचिन्तयत्-अक्षरज्ञानं विना विद्याप्राप्तेः इच्छा तु देव्याः शारदायाः अपमानम्।
8. उन्मीलितनयन: तपोदत्तः विद्याऽध्ययनाय गुरुकुलं गतः।
योग्यताविस्तारः
(क) कवि-परिचय – ‘कथासरित्सागर’ के रचयिता कश्मीर निवासी श्री सोमदेव भट्ट हैं। ये कश्मीर के राजा श्री अनन्तदेव के सभापण्डित थे। कवि ने रानी सूर्यमती के मनोविनोद के लिए ‘कथासरित्सागर’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का मूल आधार महाकवि गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ (प्राकृत ग्रन्थ) है।
(ख) ग्रन्थ परिचय – ‘कथासरित्सागर’ अनेक कथाओं का महासमुद्र है। इस ग्रन्थ में अठारह लम्बक हैं। मूलकथा की पुष्टि के लिए अनेक उपकथाएँ वर्णित की गई हैं। प्रस्तुत कथा रत्नप्रभा नामक लम्बक से सङ्कलित की गई है। ज्ञान-प्राप्ति केवल तपस्या से नहीं, बल्कि गुरु के समीप जाकर अध्ययनादि कार्यों के करने से होती है। यही इस कथा का सार है।
(ग) पर्यायवाचिन: शब्दाः –
- इदानीम् – अधुना, साम्प्रतम्, सम्प्रति।
- जलम् – वारि, उदकम्, सलिलम्।
- नदी – सरित्, तटिनी, तरङ्गिणी।
- पुरुषार्थः – उद्योगः, उद्यमः, परिश्रमः।
(घ) विलोमशब्दाः –
- दुर्बुद्धिः – सुबुद्धिः
- गर्हितः – प्रशसितः
- प्रवृत्तः – निवृत्तः
- अभ्यास: – अनभ्यासः
- सत्यम् – असत्यम्
(ङ) आत्मगतम् – नाटकों में प्रयुक्त यह एक पारिभाषिक शब्द है। जब नट या अभिनेता रंगमञ्च पर अपने कथन को दूसरों को सुनाना नहीं चाहता, मन में ही सोचता है तब उसके कथन को ‘आत्मगतम्’ कहा जाता है।
(च) प्रकाशम् – जब नट या अभिनेता के संवाद रंगमञ्च पर दर्शकों के सामने प्रकट किये जाते हैं, तब उन संवादों को ‘प्रकाशम्’ शब्द से सूचित किया जाता है।
(छ) अतिरामता – राम से आगे बढ़ जाने की स्थिति को ‘अतिरामता’ कहा गया है-रामम् अतिक्रान्तः = अतिरामः, तस्य भावः = अतिरामता। राम ने शिलाओं से समुद्र में सेतु का निर्माण किया था। विप्र-रूपधारी इन्द्र को सिकता-कणों से सेतु बनाते देख तपोदत्त उनका उपहास करते हुए कहता है कि तुम राम से आगे बढ़ जाना चाहते हो।
निम्नलिखित कहावतों को पाठ में आये हुए संस्कृत वाक्यांशों में पहचानिये –
(i) सुबह का भटका शाम को घर लौट आये तो भटका हुआ नहीं माना जाता है।
(ii) मेरी आँखें खुल गईं।
(ज) आञ्जनेयम् – अञ्जना के पुत्र होने के कारण हनुमान् को आञ्जनेय कहा जाता है। हनुमान् उछलकर कहीं भी जाने में समर्थ थे। इसलिए इन्द्र के यह कहने पर कि मैं सीढ़ी से जाने में विश्वास नहीं करता हूँ, अपितु उछलकर ही जाने में समर्थ हूँ, तपोदत्त फिर से उपहास करते हुए कहता है कि पहले आपने पुल-निर्माण में राम को लाँघ लिया और अब उछलने में हनुमान् को भी लाँघने की इच्छा कर रहे हैं।
(झ) अक्षरज्ञानस्य माहात्म्यम् –
(i) विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।
(ii) किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या।
(iii) यः पठति लिखति पश्यति परिपृच्छति पण्डितानुपाश्रयते।
तस्य दिवाकरकिरणैः नलिनीदलमिव विकास्यते बुद्धिः।।
योग्यताविस्तार पर आधारित प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
कथासरित्सागर के रचयिता का नाम लिखिए।
उत्तर :
श्री सोमदेव भट्ट।
प्रश्न 2.
श्री सोमदेव किसके शासनकाल में रहे?
उत्तर :
वह कश्मीर के राजा अनन्तदेव के शासनकाल में रहे।
प्रश्न 3.
कथासरित्सागर के लिखने का क्या प्रयोजन था?
उत्तर :
रानी सूर्यमती के मनोविनोदार्थ इसकी रचना की गई।
प्रश्न 4.
कथासरित्सागर किस मूल ग्रन्थ पर आधारित है?
उत्तर :
कथासरित्सागर गुणाढ्य रचित प्राकृत ग्रन्थ ‘बृहत्कथा’ पर आधारित है।
प्रश्न 5.
कथासरित्सागर में कितने लम्बक हैं?
उत्तर :
अठारह।
प्रश्न 6.
नाटकों में आत्मगतम्’ से क्या प्रयोजन है?
उत्तर :
जब नट या अभिनेता मञ्च पर अपने कथन को किसी अन्य को नहीं सुनाना चाहता है तथा स्वयं सोचता है तो उसे आत्मगतम् या स्वगतम् कहते हैं।
प्रश्न 7.
नाटक में ‘प्रकाशम्’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
जब कोई संवाद दर्शकों के सामने खुले में बोला जाये। इसका प्रयोग प्रायः स्वगतम् या आत्मगतम् के संवाद के पश्चात् होता है।
प्रश्न 8.
‘अतिरामता’ पद का क्या अर्थ है?
उत्तर :
राम से आगे (बढ़कर) निकलना।
प्रश्न 9.
निम्न कहावतों को ‘सिंकतासेतुः पाठ में ढूँढ़कर संस्कृत में लिखो।
(i) सुबह का भूला साँझ को घर लौट आये तो भूला नहीं कहलाता।
(ii) मेरी आँखें खुल गईं।
उत्तर :
(i) दिवसे मार्गभ्रान्तः सन्ध्यां यावद् यदि गृहमुपैति तदपि वरम्। नाऽसौ भ्रान्तो मन्यते।
(ii) उन्मीलितं मे नयनयुगलम्।
प्रश्न 10.
हनुमान जी को आञ्जनेय क्यों कहते हैं?
उत्तर :
अञ्जना का पुत्र होने के कारण हनुमान जी को आञ्जनेय कहा जाता है।
प्रश्न 11.
किं धनं सर्वप्रधानम्? (कौन-सा धन सबसे बढ़कर है?)
उत्तर :
विद्याधनं सर्वप्रधानम्। (विद्या धन सबसे बढ़कर है।)
प्रश्न 12.
किमिव सर्वं साधयति विद्या? (विद्या किसकी तरह सब कुछ साधती है?)
उत्तर :
विद्या कल्पलतेव सर्वं साधयति। (विद्या कल्पलता की तरह सब कुछ साधती है।)
प्रश्न 13.
दिवाकरकिरणैः नलिनीदलमिव कस्य बुद्धिः विकास्यते? (सूर्य की किरणों से कमलिनी की तरह किसकी बुद्धि विकसित हो जाती है?)
उत्तर :
यः पठति, पश्यति, लिखति, परिपृच्छति पण्डितानुपाश्रयते च तस्य बुद्धिः दिवाकरकिरणैः नलिनीदलमिव विकास्यते।
(जो पढ़ता है, देखता है, लिखता है, प्रश्न करता है तथा विद्वानों के समीप रहता है उसकी बुद्धि सूर्य की किरणों से कमलिनी की तरह विकसित होती है।)
प्रश्न 14.
निम्न शब्दों के तीन-तीन पर्यायवाची लिखिए –
अधुना, वारि, सरित् तथा परिश्रमः।
उत्तर :
- अधुना – इदानीम्, साम्प्रतम्, सम्प्रति।
- वारि – उदकम्, तोयम्, सलिलम्।
- सरित् – नदी, तटिनी, तरङ्गिणी।
- परिश्रमः – उद्योगः, उद्यमः, पुरुषार्थः।
प्रश्न 15.
निम्नलिखित शब्दों के विलोम अर्थ वाले शब्द लिखिए –
सुबुद्धिः, गर्हितः, प्रवृत्तिः, सत्यम्, अभावः, विद्या, मित्रैः, विद्वान्।
उत्तर :
शब्दः – विलोम
- सुबुद्धिः – दुर्बुद्धिः
- गर्हितः – प्रशंसितः
- प्रवृत्तिः – निवृत्तिः
- सत्यम् – असत्यम्
- अभावः – भाव:
- विद्या – अविद्या
- मित्रैः – अमित्रः
- विद्वान् – मूढः
प्रश्न 16.
निम्नलिखित धातुओं से ‘तुमुन्’ प्रत्यय लगाकर पद-रचना कीजिए –
कृ, गम्, आ + रु
उत्तर :
- कृ + तुमुन् = कर्तुम्
- गम् + तुमुन् = गन्तुम्
- आ + रुह् + तुमुन् = आरोदुम्
प्रश्न 17.
निम्न पदों में प्रकृति-प्रत्यय बताइए –
अवाप्तुम्, निर्मातुम्, दृष्ट्वा, कुर्वाणः, समुत्प्लुत्य, करणीयः, विमृश्य।
उत्तर :
सिकतासेतुः Summary and Translation in Hindi
पाठ-परिचय – प्रस्तुत नाट्यांश सोमदेवरचित ‘कथासरित्सागर’ कथाग्रन्थ के सप्तम लम्बक (अध्याय) पर आधारित है। (‘कथासरित्सागर’) गुणाढ्य कृत प्राकृत कथाग्रन्थ बृहत्कथा का विशालतम संस्कृत संस्करण है। इसमें 18 लम्बक (अध्याय) तथा 24000 श्लोक हैं। इसकी रचना कश्मीरी कवि सोमदेव ने राजा अनन्त देव की पत्नी सूर्यमती के । मनोरञ्जन के लिए की थी। कथा रोचक होते हुए शिक्षाप्रद है।
पाठ का सारांश – तपोदत्त नाम का बालक तपोबल से विद्या पाने के लिए प्रयत्नशील था। एक दिन उसके समुचित मार्गदर्शन हेतु स्वयं देवराज इन्द्र वेष बदलकर आये। इन्द्र उसे शिक्षा देने के प्रयोजन से पास बहती गंगा में सेतु-निर्माणार्थ अंजलि भर-भरकर बालू डालने लगे। उन्हें ऐसा करते हुए देखकर तपोदत्त उनका उपहास करने लगा और बोला-“अरे! गंगा के प्रवाहित जल में व्यर्थ ही बालू से पुल बनाने का प्रयत्न कर रहे हो।”
इन्द्र बोला-“जब पढ़ने, सुनने और अक्षरज्ञान एवं अभ्यास के बिना तुम विद्या प्राप्त कर सकते हो तो बालू से गंगा पर पुल बनाना भी सम्भव है।” तपोदत्त इन्द्र के अभिप्राय को और उसमें छिपी सीख को तुरन्त समझ गया। उसने तपस्या का मार्ग छोड़कर गुरुजनों के मार्गदर्शन में विद्याध्ययन किया, उचित अभ्यास किया, इसको सम्भव करने के लिए तथा लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह गुरुकुल चला गया। कार्य परिश्रम से ही सिद्ध होते हैं, मनोरथ से नहीं।
[मूलपाठः,शब्दार्थाः,सप्रसंग हिन्दी-अनुवादः,सप्रसंग संस्कृत-व्याख्याःअवबोधनकार्यमच]
1. (ततः प्रविशति तपस्यारतः तपोदत्तः)
तपोदत्तः – अहमस्मि तपोदत्तः। बाल्ये पितृचरणैः क्लेश्यमानोऽपि विद्यां नाऽधीतवानस्मि। तस्मात् सर्वैः कुटुम्बिभिः मित्रैः ज्ञातिजनैश्च गर्हितोऽभवम्। (ऊर्ध्वं नि:श्वस्य) हा विधे! किम् इदं मया कृतम्? कीदृशी दुर्बुद्धि आसीत् तदा। एतदपि न चिन्तितं यत्
परिधानैरलङ्कारभूषितोऽपि न शोभते।
नरो निर्मणिभोगीव सभायां यदि वा गृहे।।
शब्दार्था: – ततः = तदा (तब), प्रविशति = (तपोदत्त) प्रवेशं करोति (प्रवेश करता है), तपस्यारतः तपोदत्तः = तपसि लीनः तपोदत्तः (तप में लीन हुआ तपोदत्त), अहमस्मि तपोदत्तः = अहं तपोदत्तः अस्मि (मैं तपोदत्त हूँ), बाल्ये – शैशवे/बाल्यकाले (बचपन में), पितृचरणैः = तातपादैः (पूज्य पिताजी द्वारा), क्लेश्यमानोऽपि = सन्ताप्यमानोऽपि (सन्ताप/पीड़ा दिया जाता हुआ भी), विद्यां नाऽधीतवानस्मि = विद्याध्ययनं न कृतवान् (मैंने विद्याध्ययन नहीं किया), तस्मात् = तत्कारणात् (इसलिए/ इस कारण से), सर्वैः = अखिलैः (सभी),
कुटुम्बिभिः = परिवारजनैः (परिवारीजनों/कुटुम्बियों द्वारा), मित्रैः = सुहृद्भिः (मित्रों द्वारा),ज्ञातिजनैश्च = बन्धुबान्धवैश्च (और भाई-बन्धुओं/जाति-बिरादरी द्वारा),गर्हितोऽभवम् = निन्दितोऽजाये (निन्दित हो गया हूँ), ऊर्ध्वम् = आकाशे (ऊपर की ओर), निःश्वस्य = दीर्घ नि:श्वस्य (लम्बी श्वास छोड़कर), हा विधे! = हा दैव! (अरे भाग्य! खेद है), किम् इदं मया कृतम् = किमेतद् अहं कृतवान् (मैंने यह क्या कर दिया), कीदृशी = कथंविधा (कैसी), दुर्बुद्धिः = दुर्मतिः (बुरी बुद्धि), आसीत् = अवर्तत (थी), तदा = तस्मिन् काले (तब), एतदपि = इदमपि (यह भी),
न चिन्तितम् = न विचारितम् (नहीं सोचा), यत् = (कि), परिधानैः = वस्त्रैः (वस्त्रों से), अलङ्कारैः = आभूषणैः (आभूषणों से), भूषितोऽपि = सुसज्जितोऽपि (सुसज्जित हुआ भी), न शोभते = शोभमानः न भवति (सुशोभित नहीं होता है)। नरः = (अशिक्षितः) मानवः (अनपढ़ मनुष्य), निर्मणि = मणिहीनः (मणिरहित), भोगीव = सर्प .. इव (साँप की तरह/समान), सभायाम् = जनसम्म (सभा में), यदि वा = अथवा (या), गृहे = सदने (घर में),
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – प्रस्तुत नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेवरचित । – ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से संकलित है।
प्रसंग – इस नाट्यांश में बाल्यकाल में अशिक्षित तपोदत्त की वेदनामयी मन:स्थिति का वर्णन किया गया है। – अनुवाद-(तब तप में लीन हुआ तपोदत्त प्रवेश करता है।) मैं तपोदत्त हूँ। बचपन में पिताजी द्वारा पीड़ा दिये जाने पर भी मैंने विद्याध्ययन नहीं किया। इस कारण से परिवारीजनों द्वारा, मित्रों द्वारा और भाई-बन्धुओं द्वारा निन्दित हो गया। (ऊपर की ओर लम्बी श्वास छोड़कर) अरे भाग्य! खेद है, मैंने यह क्या कर दिया, तब कैसी बुरी बुद्धि हो गयी थी। यह भी नहीं सोचा कि (अनपढ़) मनुष्य मणिहीन सर्प की भाँति सभा में या घर में वस्त्रों (और) आभूषणों से सुसज्जित होता हुआ भी सुशोभित नहीं होता। संस्कत-व्यारव्याः
सन्दर्भ: – प्रस्तुतनाट्यांश: अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्याः’ ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठात् उद्धृतः अस्ति। पाठोऽयं सोमदेवरचितस्य ‘कथासरित्सागरस्य’ सप्तमलम्बकात् संकलितो अस्ति। (प्रस्तुत नाटक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतु’ पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेव-रचित ‘कथा सरित्सागर’ के सप्तम लंबक से संकलित है।)
प्रसङ्गः – नाट्यांशेऽस्मिन् बाल्येऽशिक्षितस्य तपोदत्तस्य वेदनामय्याः मन:स्थिते: वर्णनं कृतम् अस्ति। (इस नाट्यांश में बचपन में अशिक्षित तपोदत्त की वेदनामयी मन:स्थिति का वर्णन किया गया है।)
व्याख्याः – (तदा तपसि लीनः तपोदत्तः प्रवेशं करोति।) अहं तपोदत्तः अस्मि। शैशवे तातपादैः सन्ताप्यमानोऽपि विद्याध्ययनं न कृतवान्। तत्कारणात् अखिलैः परिवारजनैः, सुहृद्भिः बन्धुबान्धवैश्च निन्दितोऽजाये। (आकाशे दीर्घ श्वासं निश्वस्य) हा दैव! किमेतद् अहं कृतवान्। तस्मिन् काले कथंविधा दुर्मतिः अभवत्। इदमपि न विचारितं यत् (अशिक्षितः) मानवः मणिहीनसर्प इव जनसम्म गृहे वा वस्त्रैः आभूषणैः (च) सुसज्जितोऽपि शोभमानः न भवति।
(तब तप में तल्लीन तपोदत्त प्रवेश करता है। मैं तपोदत्त हूँ। बचपन में पिताजी द्वारा कष्ट दिया जाता हुआ नहीं पढ़ा। इसके कारण सभी परिवार के लोगों, मित्रों और भाई-बन्धुओं की निन्दा का पात्र बना । (आकाश में लम्बी साँस लेकर) हे भगवान् मैंने यह क्या किया? उस समय मेरी कैसी दुर्बुद्धि हो गई। यह भी नहीं विचार किया कि अनपढ़ आदमी मणिहीन सर्प की तरह जनसमूह में अथवा घर में वस्त्राभूषणो से सुसज्जित होते हुए भी सुशोभित नहीं होता।)
अवबोधन कार्यम् –
1. एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दीजिए)
(क) अशिक्षितो मनुष्यः सभायां कथं न शोभते? (अशिक्षित मनुष्य सभा में कैसे शोभा नहीं देता?)
(ख) तपोदत्तः कैः गर्हितोऽभवतो? (तपोदत्त किसके द्वारा निन्दित हुआ?)
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूर्ण वाक्य में उत्तर दीजिए)
(क) तपोदत्तः केन कारणेन गर्हितोऽभवत् ? (तपोदत्त किसके कारण निन्दित हुआ?)
(ख) सभायां कः न शोभते? (सभा में कौन शोभा नहीं देता?)
3. यथानिर्देशम् उत्तरत (निर्देश के अनुसार उत्तर दीजिए)
(क) ‘सर्व’ इति पदस्य स्थाने गद्यांशे किं समानार्थी पदं प्रयुक्तम् ? (‘सर्व’ पद के स्थान पर गद्यांश में किस समानार्थी पद का प्रयोग हुआ है?)
(ख) ‘सुबुद्धि’ इति पदस्य विलोमपदं गद्यांशात् अन्विष्य लिखत। (‘सुबुद्धि’ पद का विलोमार्थक पद गद्यांश
से ढूँढ़कर लिखिए।)
उत्तराणि :
1.(क) निर्मणिभोगीव (विना मणि के साँप),
(ख) मित्रैः (मित्रों द्वारा).
2. (क) बाल्यकाले विद्यां न अधीतवान् अतः सर्वेः गर्हितोऽभवत्। (बचपन में विद्या नहीं पढ़ी, अत: सबके द्वारा निन्दित हुआ।) परिधानैः अलङ्कारैः च भूषितोऽपि विद्याविहीनः सभायां न शोभते। (वस्त्राभूषणों से भूषित हुआ भी विद्याहीन व्यक्ति सभा में शोभित नहीं होता।)
3. (क) भोगी (सर्प),
(ख) दुर्बुद्धि (बुरी बुद्धिवाला)
2. (किञ्चिद् विमृश्य)
भवतु, किम् एतेन? दिवसे मार्गभ्रान्तः सन्ध्यां यावद् यदि गृहमुपैति तदपि वरम्। नाऽसौ भ्रान्तो मन्यते। अतोऽहम् इदानीं तपश्चर्यया विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽस्मि।
(जलोच्छलनध्वनिः श्रूयते)
अये कुतोऽयं कल्लोलोच्छलनध्वनि: ? महामत्स्यो मकरो वा भवेत्। पश्यामि तावत्।
(पुरुषमेकं सिकताभिः सेतुनिर्माण-प्रयासं कुर्वाणं दृष्ट्वा सहासम्)
हन्त! नास्त्यभावो जगति मूर्खाणाम्! तीव्रप्रवाहायां नद्यां मूढोऽयं सिकताभिः सेतुं निर्मातुं प्रयत!
(साट्टहासं पार्श्वमुपेत्य)
भो महाशय! किमिदं विधीयते! अलमलं तव श्रमेण। पश्य,
रामो बबन्ध यं सेतुं शिलाभिर्मकरालये।
विदधद् बालुकाभिस्तं यासि त्वमतिरामताम् ।।2।।
चिन्तय तावत्। सिकताभिः क्वचित्सेतुः कर्तुं युज्यते?
शब्दार्थाः – किञ्चिद् विमृश्य = किमपि विचार्य (कुछ विचार कर), भवतु = अस्तु (खैर/अच्छा), किम् एतेन = किमनेन (इससे क्या प्रयोजन), दिवसे = दिने (दिन में), मार्गभ्रान्तः = पथभ्रष्टः (राह से भटका हुआ), संध्यां यावद् = सायंकालपर्यन्तम् (सायंकाल तक/साँझ तक), यदि गृहमुपैति = यदि सदनं प्राप्नोति (यदि घर पहुँच जाता है), तदपि = (तब भी), वरम् = श्रेष्ठः (अच्छा है), नाऽसौ = न सः (नहीं वह), भ्रान्तोः = भ्रमितः (भटका हुआ), मन्यते = ज्ञायते (माना जाता है), अतोऽहम् = अयम् अहम् (यह मैं), इदानीम् = अधुना (अब), तपश्चर्यया = तपसा (तपस्या से),
विद्यामवाप्तुम् = विद्यार्जनाय (विद्या-प्राप्ति के लिए), प्रवृत्तोऽस्मि = निरतोऽस्मि (प्रवृत्त हूँ/लंग गया हूँ), जलोच्छलनध्वनिः = जलोट वंगमनशब्दः (पानी उछलने की आवाज), श्रूयते = आकर्ण्यते (सुनाई देती है), अये = अरे (ओह), कुतोऽयम् = कस्मात् स्थानात् आयाति (कहाँ से आ रही है यह) एषः, कल्लोल = तरङ्गानाम् (लहरों के), उच्छलन = ऊर्ध्वगतेः (उछलने की), ध्वनिः = शब्दः (आवाज), महामत्स्योः = विशालमीनः (बड़ी मछली),
मकरो वा = नक्रः वा (अथवा मगरमच्छ), भवेत् = स्यात् (होना चाहिए), पश्यामि = ईक्षे (देखता हूँ), तावत् = तर्हि (तो), पुरुषमेकम् = एक मानवं (एक मनुष्य को), सिकताभिः = बालुकाभिः (बालू से), सेतु = धरणम् (पुल) निर्माण = सृष्टे: (बनाने का), प्रयासम् = प्रयत्नम् (प्रयास), कुर्वाणम् = कुर्वन्तम् (करते हुए को), दृष्ट्वा = अवलोक्य (देखकर), सहासम् = हासपूर्वकम् (हँसते हुए), हन्त = हा (खेद है), नास्त्यभावो = न वर्तते राहित्यम (कभी नहीं है), जगति = संसारे (संसार में), मूर्खाणाम् = बालिशानाम् (अज्ञानियों/ मूल् की), तीव्र = गतिमानायां (तेज), प्रवाहायाम् = प्रवाहमानायाम् (बहती हुई),
नद्याम् = सरति (नदी में), मूढोऽयं = एषः विवेकहीनः (यह मूर्ख), सिकताभिः = बालुकाभिः (बालू से), सेतुम् = धरणम् (पुल), निर्मातुम् = स्रष्टुम् (बनाने का), प्रयतते = प्रयासं करोति (प्रयास करता है), साट्टहासम् = अट्टहासपूर्वकम् (अट्टहास करते हुए/जोर से हँसते हुए), पार्श्वम् = कक्षे (बगल में), उपेत्य = समीपं गत्वा (पास जाकर), भो महाशय! = हे महोदय! (हे महाशय जी!), किमि इदम् = किं एतत् (क्या यह), विधीपते = सम्पाद्यते (किया जा रहा है),
अलमलम् = पर्याप्तम् (बस, बस), तव = ते (तुम्हारे), श्रमेण = परिश्रमेण (मेहनत) अर्थात् बस, बस परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं है, पश्य = अवलोकय (देखो), मकरालये = सागरे (समुद्र में), रामः = भगवान् रामः (श्रीराम ने), यं सेतुम् = यं धरणम् (जिस पुल को), शिलाभिः = प्रस्तरैः (शिलाओं से), बबन्ध = निर्मितवान् (बनाया था), त्वम् = भवान् (आप), बालुकाभिः = सिकताभिः (बालू से), विदधत् = निर्माणं कुर्वन् (बनाते हुए), त्वं तु = भवान् तु (आप तो), अतिरामताम् = रामादप्यग्रे, रामादपि श्रेष्ठतरः (राम से भी आगे या बढ़कर), यासि = गच्छसि, (जा रहे हो), तावत् = तर्हि (तो), चिन्तय = विचारय (सोचो), सिकताभिः = बालुकाभिः (बालू से), क्वचित् = कुत्रचित् (कहीं), सेतुम् = धरणम् (पुल), कर्तुम् = निमार्तुम् (बनाना), युज्यते = उचितम् अस्ति (उचित है)।
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेवकृत ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से संकलित है।
प्रसंग – इस नाट्यांश में तप से विद्या पाने के लिए निश्चय किया हुआ तपोदत्त एक मनुष्य को रेत से नदी पर पुल बनाते हुए देखता है और उसे मूर्ख कहता है।
अनुवाद – (कुछ विचार करके)
खैर, इससे क्या प्रयोजन? दिन में राह भटका हुआ यदि सायंकाल तक घर पहुँच जाता है तो भी वह श्रेष्ठ है, उसे भटका (भूला) हुआ नहीं माना जाता है। यह मैं (तपोदत्त) अब तपस्या से विद्याध्ययन के लिए प्रवृत्त हूँ।
(पानी उछलने की आवाज सुनाई देती है)
अरे! यह लहरों के उछलने की आवाज कहाँ से आ रही है? कोई बड़ी मछली अथवा मगरमच्छ होना चाहिए। तो (तब तक) देखता हूँ।
(एक मनुष्य को बालू से पुल बनाने का प्रयास करते हुए देखकर हँसते हुए ।)
खेद है, संसार में मूों की कमी नहीं है। यह मूर्ख तेज प्रवाह वाली नदी में बालू से पुल बनाने का प्रयत्न कर रहा है। (जोर से हँसते हुए बगल में पास जाकर)
हे महाशय! यह क्या किया जा रहा है! बस, बस, परिश्रम मत करो। देखो, भगवान राम ने जिस पुल को समुद्र पर शिलाओं से बनाया था, (उसे) आप बालू से बनाते हुए राम से भी आगे जा रहे हैं, तो सोचिए बालू से कहीं पुल बनाना उचित है?
संस्कत-व्याख्याः
सन्दर्भ: – नाट्यांशोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्या:”सिकतासेतुः’ नामक पाठाद् उद्धृतः। पाठोऽयं सोमदेवकृतस्य ‘कथासरित्सागरस्य’ सप्तमलम्बकात् संकलितो अस्ति। (यह नाट्यांश हमारी पाठयपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ पाठ से . उद्धृत है। यह पाठ सोमदेवकृत ‘कथासरित्सागर’ के सातवें लम्बक से संकलित है।)
प्रसंग: – नाट्यांशेऽस्मिन् तपश्चर्यया विद्यार्जनाय कृतसङ्कल्पः तपोदत्तः मनुष्यमेकं बालुकाभिः नद्यां धरणनिर्माणं कुर्वन्तं पश्यति तं च मूर्ख वदति। (इस नाट्यांश में तपस्या से विद्यार्जन के लिए दृढ़संकल्पित तपोदत्त ने एक मनुष्य को बालू से नदी पर पुल बनाता हुआ देखता है और उसे मूर्ख कहता है।)
व्याख्या – (किमपि विचार्य)
अस्तु, किमनेन? दिने पथभ्रष्ट: सायंकालपर्यन्तं यदि सदनं प्राप्नोति, तदा अपि श्रेष्ठः, सः भ्रमितः न ज्ञायते। अयम् अहम् अधुना तपसा विद्याध्ययनाय निरतः अस्मि।
(जलोर्ध्वगमनशब्दः आकर्ण्यते)
अरे! एषः तरङ्गाणां ऊर्ध्वगमनस्य शब्दः कस्मात् स्थानात् आयाति, विशालमीन: नक्रः वा स्यात्। तर्हि ईक्षे। (मानवमेकं बालुकाभिः धरणस्य सृष्टेः प्रयत्नं कुर्वन्तम् अवलोक्य हासपूर्वकम्)
हा, संसारे न बालिशानामभावः वर्तते। एषः विवेकहीन: प्रवाहमानायां सरति बालुकाभिः धरणं स्रष्टुं प्रयासं करोति।
(अट्टहासपूर्वकं कक्षे समीपं गत्वा) हे महोदय ! किमेतत्सम्पाद्यते? पर्याप्तं ते श्रमेण।’
अवलोकय, सागरे भगवान् रामः यं धरणं प्रस्तरैः निर्मितवान्, (तत्) भवान् सिकताभिः निर्माणं कुर्वन् रामादपि अग्रे गच्छति तर्हि विचारय! कुत्रचिद् बालुकाभिः धरणस्य निर्माणम् उचितम्?
(कुछ विचार कर) खैर, इससे क्या, दिन में भूला हुआ यदि सायंकाल घर आ जाये तो भी अच्छा है, उसे भटका हुआ नहीं मानते हैं। यह मैं अब तप से विद्याध्ययन के लिए संलग्न हूँ। (पानी उछलने की आवाज सुनाई पड़ती है।) अरे ! यह लहरों का उछलने का शब्द कहाँ से आ रहा है? कोई बड़ी मछली या मगरमच्छ होगा। तो देखता हूँ। (एक व्यक्ति को बालू से पुल बनाने का प्रयत्न करते हुए को देखकर हँसते हुए) अरे संसार में मूों की कमी नहीं। यह विवेकहीन बहती हुई नदी में बालू से पुल बनाने का प्रयास कर रहा है। (अट्टाहासपूर्वक बगल में जाकर) महोदय यह क्या कर रहे हो? बस परिश्रम खो, सागर में भगवान राम ने जिस पुल को बनाया था, वह पत्थरो से बनाया था तो आप तो बालू से पुल निर्माण करते हुए राम से भी आगे निकल गये, तो विचार करो, कहीं बालू से पुल का निर्माण उचित है?)
अवबोधन कार्यम्
1. एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दीजिए)
क) तपोदत्तः केन विद्यां प्राप्तं प्रवृत्तोऽस्ति? (तपोदत्त किससे विद्या प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त है?)
(ख) पुरुषः काभिः सेतुनिर्माण-प्रयासं करोति? (पुरुष किससे पुल के निर्माण का प्रयत्न करता है?)
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूर्ण वाक्य में उत्तर दीजिये)
(क) सिकताभिः सेतु निर्माणं कुर्वाणं दृष्ट्वा तपोदत्तः किं कथयति? (बालू से सेतु निर्माण करते हुए व्यक्ति
को देखकर तपोदत्त क्या कहता है?)
(ख) कः जनः भ्रान्तो न मन्यते? (कौन व्यक्ति भूला नहीं माना जाता?)
3. यथानिर्देशम् उत्तरत (निर्देश के अनुसार उत्तर दीजिए)
(क) ‘महामत्स्यः ‘ इति पदात् विशेषणपदं पृथक् कृत्वा लिखत। (पद से विशेषण पद पृथक करके लिखिये।)
(ख) ‘रजाभिः’ इति पदस्य पर्यायं गद्यांशात चित्वा लिखत। (‘रजोभिः’ पद का समानार्थी पद गद्यांश से चुनकर लिखिये।)
उत्तराणि :
1.(क) तपश्चर्यया (तपस्या से)
(ख) सिकताभिः (बालू से)
2. (क) हन्ता! नास्त्यभावो जगति मूर्खाणाम्। तीव्र प्रवाहायां नद्यां मूढोऽयं सिकताभिः सेतुं निर्मातुं प्रयतते।
(खेद है! संसार में मूल् की कमी नहीं है। तेज प्रवाह वाली नदी में बालू से पुल बनाने का प्रयत्न करता
(ख) दिवसे मार्ग-भ्रान्तः सन्ध्यां यावत् यदि गृहम् उपैति तदपि वरम् नासौ भ्रान्तौ मन्यते।
(दिन का भूला शाम को घर पहुँच जाये तो भी अच्छा। वह भूला हुआ नहीं माना जाता।)
3. (क) महान् (महान)। (ख) सिकताभिः (बालू से)।
3. पुरुषः – भोस्तपस्विम्! कथं माम् अवरोधं करोषि। प्रयत्नेन किं न सिद्ध भवति? कावश्यकता शिलानाम्? सिकताभिरेव सेतुं करिष्यामि स्वसंकल्पदृढतया।
तपोदत्तः – आश्चर्यम् किम् सिकताभिरेव सेतुं करिष्यसि? सिकता जलप्रवाहे स्थास्यन्ति किम्? भवता चिन्तितं न वा?
पुरुषः – (सोत्प्रासम्) चिन्तितं चिन्तितम्। सम्यक् चिन्तितम्। नाहं सोपानसहायतया अधि रोढुं विश्वसिमि। समुत्प्लुत्यैव गन्तुं क्षमोऽस्मि।
तपोदत्तः – (सव्यङ्ग्यम्)
साधु साधु! आञ्जनेयमप्यतिक्रामसि!
पुरुषः – (सविमर्शम्)
कोऽत्र सन्देहः? किञ्च,
विना लिप्यक्षरज्ञानं तपोभिरेव केवलम्।
यदि विद्या वशे स्युस्ते, सेतुरेष तथा ममा।3।।
शब्दार्थाः – भोस्तपस्विन्! = हे तापस! (अरे तपस्वी!), कथम् = केन कारणेन (क्यों), माम् = मा (मुझको), अवरोधं करोसि = उपरुणात्सि (रोक रहे हो), प्रयत्नेन = प्रयासेन (प्रयास से), किं न = (क्या नहीं), सिद्धं भवति = सिट । यति (सिद्ध होता है), कावश्यकता = महत्त्वम् (जरूरत है), शिलानाम् = प्रस्तराणाम् (शिलाओं की), सिकताभिरेव = बालुकाभिरेव (बाल से ही), सेतम = धरणम् (पुल), करिष्यामि = निर्मास्ये (निर्माण करूँगा), सङ्कल्पदढतया = दृढसङ्कल्पेन (दृढ़ संकल्प से), आश्चर्यम् = विस्मयः (अचम्भे की बात है),
किंम् सिकताभिरेव = बालुकाभिरेव (बालू से ही), सेतुं = धरणम् (पुल), करिष्यसि = निर्मास्यसे (बनाओगे), सिकताः = बालुका: (बालू), जलप्रवाहे = सलिलधारायाम् (पानी के बहाव में), स्थास्यन्ति = स्थिताः भविष्यन्ति (ठहरेगी), किम् = अपि (क्या), भवता = त्वया (तेरे/आपके द्वारा), चिन्तितं न वा = विचारितं न वा (सोचा गया है कि नहीं), सोत्प्रासम् = उपहासपूर्वकम् (उपहासपूर्वक), चिन्तितं चिन्तितम् = अनेकशः विचारितं (बार-बार विचार किया है), सम्यक चिन्तितम् = सम्यगरूपेण विचारितम् (भली-भाँति सोचा है), नाहम् = नहीं मैं,
सोपानसहायतया = पद्धति सरणिभि सहायतया (सीढ़ियों की सहायता से), अधि रोदुम् = उपरि गन्तुम् (ऊपर चढ़ने के लिए), विश्वसिमि = विश्वासं करोमि (विश्वास करता), समुत्प्लुत्यैव = सम्यग् उपरि प्लुत्वा एव (भली-भाँति छलाँग मारकर ही), गन्तुम् = यातुम् (जाने में), क्षमोऽस्मि = समर्थोऽस्मि (समर्थ हूँ), सव्यङ्ग्यम् = व्यङ्ग्येन सहितम् (व्यङ्ग्य के साथ), साधु साधु = उत्तमः (अच्छा-अच्छा/बहुत अच्छा), आञ्जनेयम् = हनुमन्तम् (हनुमान जी को), अतिक्रामसि = उल्लङ्घयसि (लाँघ गये/आगे निकल गये), सविमर्शम् = विचारसहितम् (सोच-विचार कर),
कोऽत्र सन्देहः = का अत्र शङ्का वर्तते (इसमें क्या सन्देह है), किञ्च = (और क्या), विना = अन्तरेण (बिना), लिप्यक्षरज्ञानम् = लिपिज्ञानं वर्णज्ञानं च विना (लिपि के और अक्षरों के ज्ञान के बिना), केवलम् = मात्र (केवल), तपोभिः = तपश्चर्याभिः (तपस्या से) यदि विद्या वशे स्युः = यदि विद्या अधिगृह्यते (यदि विद्या पर अधिकार हो जाये), मम एषः सेतुः तथा = इदं मे धरणम् एवमेव (यह मेरा पुल भी वैसा ही है)
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेवरचित ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से संकलित है।
प्रसंग – इस नाट्यांश में पुरुषवेष वाला इन्द्र नदी में बालू का पुल बनाने का निष्फल प्रयत्न कर तपोदत्त को परिश्रम, लिपि, अक्षरज्ञान तथा अभ्यास की ओर अनुप्रेरित करता है।
अनुवाद – पुरुष-अरे तपस्वी! (तू) मुझे रोकता है? प्रयत्न से क्या नहीं सिद्ध होता है? शिलाओं की क्या जरूरत है? दृढ़ संकल्प के साथ बालू से ही पुल बाँधूंगा।
तपोदत्त – अचम्भा है! बालू से ही पुल बनाओगे (क्या)? बालू जल के प्रवाह में ठहर जायेगी क्या? आपने (यह कभी) सोचा है या नहीं?
पुरुष – (उपहास के साथ) सोचा है, सोचा है। अच्छी तरह सोचा है। मैं सीढ़ियों के मार्ग से अट्टालिका पर चढ़ने में विश्वास नहीं रखता। उछलकर (छलाँग मारकर) ही जाने में समर्थ हूँ।
तपोदत्त-(व्यंग्यसहित) बहुत अच्छा, बहुत अच्छा! तुम तो हनुमान् जी से भी बढ़कर निकले। पुरुष-(सोच-विचार कर) – इसमें क्या सन्देह है? और क्या बिना लिपि और अक्षर-ज्ञान के केवल तपस्या से यदि विद्या तेरे वश में हो जाये तो मेरा यह पुल भी वैसा ही है।
संस्कत-व्यारव्याः
सन्दर्भ: – नाट्यांशोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्या:’ ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठात् उद्धृतः अस्ति। पाठोऽयं सोमदेवरचितस्य कथासरित्सागरस्य सप्तमलम्बकात् संकलितो अस्ति। (यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ पाठ से उद्धृत है । यह पाठ ‘सौमदेवरचित’ कथासारित्सागर’ के सातवें लम्बक से लिया गया है।)
प्रसंग: – नाटयांशेऽस्मिन परुषवेषः इन्द्रः नद्यां सिकतासेतनिर्माणस्य निष्फलप्रयत्न कत्वा तपोदत्तं परिश्रमं. लिपिज्ञानम, अक्षरज्ञानं तेषाम् अभ्यासं च प्रति अनुप्रेरयति। (इस नाट्यांश में पुरुष वेष में इन्द्र नदी में बालू से सेतु निर्माण का निष्फल प्रयास करके तपोदत्त को परिश्रम, लिपिज्ञान, अक्षर ज्ञान और उनके अभ्यास के प्रति प्रेरित करता है।
व्याख्या – पुरुष:-हे तापस! कस्मात् कारणात् माम् अवरोधयसि? प्रयासेन किं न सिध्यति? प्रस्तराणां किं महत्त्वम्? दृढसङ्कल्पेन बालुकाभिरेव धरणं निर्मास्ये। (पुरुष-हे तपस्वी, किसलिए मुझे मना कर रहे हो? प्रयास से किया सिद्ध नहीं होता। पत्थरों का क्या महत्व। दृढ़ संकल्प से बालू से भी पुल बनाया जा सकता है।)
तपोदत्तः – कुतूहलम्, बालुकाभिरेव धरणं निर्मास्यसे? अपि बालुकाः सलिलधारायां स्थिराः भविष्यन्ति? अपि त्वया विचारितं न वा? (तपोदत्त-आश्चर्य, बालू से पुल बनाओगे? क्या बालू पानी के प्रवाह में ठहर जायेगी? क्या तुमने यह सोचा भी है या नहीं।)
पुरुष – (उपहासपर्वकम) अनेकशः विचारितम। सम्यगरूपेण विचारितम। अहं पद्धतिसरणिभिः अटटालिकायाः उपरि गन्तुं विश्वासं न करोमि। सम्यग उपरि प्लुत्वा एव यातुं समर्थोऽस्मि। ((उपहासपूर्वक) अनेक बार विचार किया है। अच्छी तरह विचार किया हैं। मैं सीढ़ियों से छत पर चढ़ने में विश्वास नहीं करता। अच्छी तरह ऊपर उछलकर ही जाने में समर्थ करता हा
तपोदत्तः – (व्यङ्ग्येन सहितम्) उत्तमः, त्वं तु हनुमन्तमपि उल्लङ्घयसि। (व्यङ्ग्य के साथ) (बहुत अच्छा तुम तो हनुमान जी को भी लाँघ गये।)
पुरुषः – (विचारसहितम्) का अत्र शङ्का वर्तते? किञ्च लिपिज्ञानं वर्णज्ञानं च अन्तरेण मात्र तपश्चर्याभिः यदि विद्या अधिंगृह्यते तदा इदं मे धरणम् एवमेव। (सोचकर) (इसमें क्या सन्देह? जब लिपिज्ञान और अक्षर ज्ञान के बिना मात्र तप से ही यदि विद्या ग्रहण की जा सकती है तो मेरा यह पुल भी इसी प्रकार से है।)
अवबोधन कार्यम् –
एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दीजिए)
(क) परुषः केन मार्गेण न गन्तम इच्छति? (परुष किस मार्ग से नहीं जाना चाहता?)
(ख) तपोदत्तः पुरुषं सव्यङ्ग्यं किं कथयति? (पुरुष से तपोदत्त व्यंग्यपूर्वक क्या कहता है?)
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए)
(क) तपोदत्ते अवरुद्धे पुरुषः तं किम् उत्तरति? (तपोदत्त के रोकने पर पुरुष उसे क्या उत्तर देता है?)
(ख) पुरुषः सोत्प्रासम् तपोदत्तं किं कथयति? (पुरुष उपहासपूर्वक तपोदत्त से क्या कहता है?)
3. यथानिर्देशम् उत्तरत (निर्देशानुसार उत्तर दीजिए)
(क) ‘भवता चिन्तितं न वा’ इति वाक्यात् क्रियापदं पृथक् कृत्वा लिखत।
(भवता चिन्तितं न वा’ इस वाक्य से क्रियापद अलग कर लिखिए।)
‘बालुकाभिः’ इति पदस्य- पर्यायवाचिपदं गद्यांशात् चित्वा लिखत।
(‘बालुकाभिः’ पद का पर्यायवाचि पद गद्यांश से चुनकर लिखिए।)
उत्तराणि :
1. (क) सोपानमार्गेण (सीढ़ियों से)।
(ख) आञ्जनेयमपि अतिक्रामसि (हनुमान से भी बढ़कर हो)।
2. (क) भोः तपस्विन् ! कथं माम् अवरोधं करोषि? प्रयत्नेन किं न सिद्धं भवति ?
(ख) चिन्तितम्! नाहं सोपान-सहायतया अधिरोढुं विश्वसिमि। समुत्प्लत्येव गन्तुं क्षमोऽस्म्।ि (सोचा! मैं सीढ़ियों की सहायता से नहीं चढ़ना चाहता। छलाँग मार कर जाने की क्षमता रखता हूँ।)
3. (क) चिन्तितम् (सोचा गया)।
(ख) सिकताभिः (बालू से)।
4. तपोदत्तः – (सवैलक्ष्यम् आत्मगतम्)
अये! मामेवोद्दिश्य भद्रपुरुषोऽयम् अधिक्षिपति! नूनं सत्यमत्र पश्यामि। अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषामि! तदियं भगवत्याः शारदाया अवमानना। गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यासो मया करणीयः। पुरुषार्थैरेव लक्ष्यं प्राप्यते। (प्रकाशम्)
भो नरोत्तम! नाऽहं जाने यत् कोऽस्ति भवान्। परन्तु भवद्भिः उन्मीलितं मे नयनयुगलम्। तपोमात्रेण विद्यामवाप्तुं प्रयतमानः अहमपि सिकताभिरेव सेतुनिर्माणप्रयासं करोमि। तदिदानी विद्याध्ययनाय गुरुकुलमेव गच्छामि।
(सप्रणामं गच्छति)
शब्दार्थाः – संवैलक्ष्यम् = सलज्जम् (लज्जापूर्वक), आत्मगतम् = स्वगतम् (अपने आप से), अये! = अरे! (ओह!), मामेवोद्दिश्य = मामेव लक्ष्यीकृत्य (मुझे ही लक्ष्य बनाकर), भद्रपुरुसोऽयम्ः = एषः सज्जनः (यह भलामानुष), अधिक्षिपति = आक्षिपति (आक्षेप कर रहा है), नूनम् = निश्चयमेव (निश्चित रूप से), सत्यमत्र = अस्मिन् वचने ऋतं (इस बात में सत्य को), पश्यामि = ईक्षे (देख रहा हूँ), अक्षरज्ञानं विनैव = वर्णज्ञानमन्तरेण (वर्ण ज्ञान के बिना),
वैदुष्यमवाप्तुम् = पाण्डित्यम् प्राप्तुम् (विद्वत्ता प्राप्ति को), अभिलषामि = इच्छामि (चाहता हूँ), तदियम् = तदेषा (तो यह), भगवत्याः = देव्याः (देवी), शारदायाः = सरस्वत्याः (सरस्वती का), अवमानना = अपमानम् (अपमान है), गुरुगृहम् = गुरोरावासं/ आश्रमं (गुरु के घर पर), गत्वैव = प्राप्यैव (जाकर के ही), विद्याभ्यासः = विद्याध्ययनम् (विद्या का अभ्यास), मया = अहम् (मेरे द्वारा/मैं), करणीयः = कुर्याम् (करना चाहिए),
पुरुषार्थैरेव = परिश्रमेण एव/उद्यमेनैव (परिश्रम से ही) लक्ष्यम् = उद्देश्यम् (उद्देश्य), प्राप्यते = लभ्यते (पाया जाता है), प्रकाशम् = सार्वजनिकरूपेण (सबके सामने), भो नरोत्तम! = हे मानवश्रेष्ठ! (हे मनुष्यों में श्रेष्ठ!), अहं न जाने = नाऽहं जानामि (मैं नहीं जानता), यत् कोऽस्ति भवान् = यत् त्वं कोऽसि (कि आप/तुम कौन हो), परन्तु = परञ्च (लेकिन), भवद्भिः = युष्माभिः (आप द्वारा/आपने), उन्मीलितम् = उद्घाटितम् (खोल दिया),
मे = मम (मेरे), नयनयुगलम् = नेत्रयुगलम् (आँखों को), तपोमात्रेण = केवलं तपसा (केवल तपस्या से), विद्यामवाप्तुम् = ज्ञानं लब्धुम् (ज्ञान प्राप्त करने के लिए), प्रयतमानः = प्रयासं कुर्वन् (प्रयास करता हुआ), अहमपि = मैं भी.सिकताभिरेव = बालकाभिरेव (बाल से ही), सेतनिर्माणप्रयासम = धरणसष्टिप्रयत्नम (पल बनाने का प्रयास). करोमि = करता हूँ, तदिदानीम् = तर्हि अधुना (तो अब), विद्याध्ययनाय = विद्यार्जनाय (विद्या प्राप्ति के लिए), गुरुकुलमेव = गुरोः आश्रमम् एव (गुरु के आश्रम को ही), गच्छामि = प्रस्थानं करोमि (प्रस्थान करता हूँ), सप्रणामम् = अभिवादनेन सहितम् (प्रणाम करके), गच्छति = याति (जाता है/प्रस्थान करता है)।
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेवकृत … ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से संकलित है।
प्रसंग – इस नाट्यांश में तपोदत्त के लिए अपने निरर्थक प्रयास का ज्ञान हो जाता है। अतः वह पुरुष वेषधारी इन्द्र के व्यंग्य को समझकर अध्ययन के प्रति अनुप्रेरित होकर गुरुकुल को प्रस्थान कर जाता है।
अनुवाद – (लज्जापूर्वक अपने आपसे)
अरे! यह भलामानुष तो मुझे ही लक्ष्य करके आक्षेप कर रहा है। निश्चित रूप से यहाँ मैं सत्य देख रहा हूँ (अर्थात् इसकी बात सच है) अक्षर-ज्ञान के बिना ही (मैं) विद्वत्ता प्राप्त करना चाहता हूँ, तो यह भगवती (देवी) सरस्वती का अपमान ही है। मुझे गुरु के घर जाकर विद्या का अभ्यास करना चाहिए। परिश्रम से ही लक्ष्य प्राप्त किया जाता है।
(सबके समक्ष)
हे पुरुषों में श्रेष्ठ! मैं नहीं जानता कि आप कौन हैं परन्तु आपने मेरी आँखें खोल दी। तप मात्र से ही विद्या प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता हुआ मैं भी बालू से ही पुल बनाने का प्रयास कर रहा हूँ। तो अब विद्याध्ययन (पढ़ाई) हेतु गुरुकुल को ही जाता हूँ।
(प्रणाम सहित जाता है।)
संस्कत-व्यारव्याः
सन्दर्भ: – नाट्यांशोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्याः’ ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठाद् उद्धृतः अस्ति। पाठोऽयं सोमदेवकृतस्य कथासरित्सागरस्य सप्तमलम्बकात् संकलितोऽस्ति। (यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेव-कृत ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लंबक से संकलित है।)
प्रसंगः – नाट्यांशेऽस्मिन् तपोदत्ताय स्वकीयस्य निरर्थकप्रयासस्य ज्ञानं भवति। अतोऽसौ पुरुषरूपिणः इन्द्रस्य व्यङ्ग्यम् अवगम्य अध्ययन प्रति अनुप्रेरित: भूत्वा गुरुकुलं च गच्छति। (इस नाट्यांश में तपोदत्त के अपने निरर्थक प्रयास का ज्ञान होता है। अतः वह पुरुषरूपी इन्द्र के व्यङ्ग्य को समझकर अध्ययन के प्रति अनुप्रेरित होकर गुरुकुल को जाता है।
व्याख्याः – तपोदत्तः (सलज्जम् स्वगतम्) अरे मामेव लक्ष्यीकृत्य एषः सज्जनः आक्षिपति। निश्चितमेव अस्मिन् वचने यथार्थम् ईक्षे। वर्णज्ञानमन्तरेण पाण्डित्यं लब्धुम् इच्छामि। तदिदं देव्याः सरस्वत्याः अपमानम् अस्ति। गुरोः आवासम् एव प्राप्य अहं विद्याध्ययनं कुर्याम्। उद्यमेन एव उद्देश्यं लभ्यते। (सार्वजनिकरूपेण) हे मानवश्रेष्ठ! अहं न जानामि यत्त्वम् कोऽसि? परञ्च युष्माभिः मम नेत्रयुगलम् उद्घाटितम्। केवलं तपसा ज्ञानं लब्धुं प्रयासं कुर्वन् अहमपि बालुकाभिरेव धरणसृष्टिप्रयत्न करोमि। तर्हि अधुना विद्यार्जनाय अहं गुरोः आश्रमं प्रति प्रस्थानं करोमि।
इति अभिवादनेन सह याति। ((तपोदत्त लज्जा के साथ स्वयं से) (अरे मुझे ही निशाना बनाकर यह सज्जन आक्षेप कर रहा है। निश्चित ही इसके कथन में सच दिख रहा है। वर्णज्ञान के बिना विद्वत्ता प्राप्त करना चाहता हूँ। तो यह तो देवी सरस्वती का अपमान है। गुरु के आश्रम में ही पहुँचकर मुझे विद्याध्ययन करना चाहिए। परिश्रम से ही लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। (खुले में) हे मानव श्रेष्ठ ! मैं जानता हूँ कि तुम कोई भी हो? परन्तु तुमने मेरी आँखें खोल दी। केवल तप से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हुए मैं भी बालू से पुल बनाने का प्रयत्न कर रहा हूँ। तो आज ही विद्या प्राप्त करने के लिए मैं आश्रम की ओर प्रस्थान करता हूँ। ऐसा कहकर अभिवादन के साथ जाता है।)
अवबोधन कार्यम् –
1. एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दीजिए)
(क) पुरुषस्य आक्षेपे तपोदत्तः किं पश्यति? (पुरुष के आक्षेप में तपोदत्त क्या देखता है?)
(ख) कैः लक्ष्यं प्राप्यते? (लक्ष्य किनसे प्राप्त किया जाता है?)
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूर्ण वाक्य में उत्तर दीजिए)
(क) भगवत्याः शारदायाः अवमानना का? (भगवती शारदा का अपमान क्या है? )
(ख) पुरुषस्य आक्षेपं श्रुत्वा तपोदत्तः किं निर्णयति? (पुरुष के आक्षेप को सुनकर तपोदत्त क्या निर्णय लेता है?)
3. यथानिर्देशम् उत्तरत (निर्देशानुसार उत्तर दीजिए)
(क) ‘निमीलितम्’ इति पदस्य पर्यायं गद्यांशात् चित्वा लिखत।
(ख) ‘करणीयः’ इति पदे प्रत्यय लिखत। (करणीयः पद में प्रत्यय लिखिए।) .
उत्तराणि :
1.(क) सत्यम्।
(ख) पुरुषार्थेः (परिश्रम से)।
(क) अक्षरज्ञानं विना वैदुष्यं प्राप्तुं प्रयास:तु भगवत्याः शारदयाः अवमानना। (अक्षरज्ञान के बिना विद्वत्ता प्राप्त करने का प्रयास भगवती सरस्वती की. अवमानना है।)
(ख). ‘नूनं सत्यम् अत्र पश्यामि । अक्षरज्ञानं विना एव वैदुष्यं प्राप्तुम् इच्छामि तदियं भगवत्याः सरस्वती अवमाननाः। गुरु गहं गत्वा विद्याभ्यासः मया करणीयः। पुरुषाथैरेव लक्ष्यं प्राप्यते। (निश्चित सत्य देख रहा हूँ। अक्षरज्ञान के बिना ही विद्वत्ता प्राप्त करना चाहता हूँ तो यह भगवती सरस्वती का अपमान है। गुरु-घर जाकर विद्या का अभ्यास मुझे करना चाहिए। पुरुषार्थ से ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है।)
3. (क) उन्मीलितम् (उधारे हुए)
(ख) अनीयर् प्रत्यय।
पाठ-परिचय – प्रस्तुत नाट्यांश सोमदेवरचित ‘कथासरित्सागर’ कथाग्रन्थ के सप्तम लम्बक (अध्याय) पर आधारित है। (‘कथासरित्सागर’) गुणाढ्य कृत प्राकृत कथाग्रन्थ बृहत्कथा का विशालतम संस्कृत संस्करण है। इसमें 18 लम्बक (अध्याय) तथा 24000 श्लोक हैं। इसकी रचना कश्मीरी कवि सोमदेव ने राजा अनन्त देव की पत्नी सूर्यमती के । मनोरञ्जन के लिए की थी। कथा रोचक होते हुए शिक्षाप्रद है।
पाठ का सारांश – तपोदत्त नाम का बालक तपोबल से विद्या पाने के लिए प्रयत्नशील था। एक दिन उसके समुचित मार्गदर्शन हेतु स्वयं देवराज इन्द्र वेष बदलकर आये। इन्द्र उसे शिक्षा देने के प्रयोजन से पास बहती गंगा में सेतु-निर्माणार्थ अंजलि भर-भरकर बालू डालने लगे। उन्हें ऐसा करते हुए देखकर तपोदत्त उनका उपहास करने लगा और बोला-“अरे! गंगा के प्रवाहित जल में व्यर्थ ही बालू से पुल बनाने का प्रयत्न कर रहे हो।”
इन्द्र बोला-“जब पढ़ने, सुनने और अक्षरज्ञान एवं अभ्यास के बिना तुम विद्या प्राप्त कर सकते हो तो बालू से गंगा पर पुल बनाना भी सम्भव है।” तपोदत्त इन्द्र के अभिप्राय को और उसमें छिपी सीख को तुरन्त समझ गया। उसने तपस्या का मार्ग छोड़कर गुरुजनों के मार्गदर्शन में विद्याध्ययन किया, उचित अभ्यास किया, इसको सम्भव करने के लिए तथा लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह गुरुकुल चला गया। कार्य परिश्रम से ही सिद्ध होते हैं, मनोरथ से नहीं।
[मूलपाठः,शब्दार्थाः,सप्रसंग हिन्दी-अनुवादः,सप्रसंग संस्कृत-व्याख्याःअवबोधनकार्यमच]
1. (ततः प्रविशति तपस्यारतः तपोदत्तः)
तपोदत्तः – अहमस्मि तपोदत्तः। बाल्ये पितृचरणैः क्लेश्यमानोऽपि विद्यां नाऽधीतवानस्मि। तस्मात् सर्वैः कुटुम्बिभिः मित्रैः ज्ञातिजनैश्च गर्हितोऽभवम्। (ऊर्ध्वं नि:श्वस्य) हा विधे! किम् इदं मया कृतम्? कीदृशी दुर्बुद्धि आसीत् तदा। एतदपि न चिन्तितं यत्
परिधानैरलङ्कारभूषितोऽपि न शोभते।
नरो निर्मणिभोगीव सभायां यदि वा गृहे।।
शब्दार्था: – ततः = तदा (तब), प्रविशति = (तपोदत्त) प्रवेशं करोति (प्रवेश करता है), तपस्यारतः तपोदत्तः = तपसि लीनः तपोदत्तः (तप में लीन हुआ तपोदत्त), अहमस्मि तपोदत्तः = अहं तपोदत्तः अस्मि (मैं तपोदत्त हूँ), बाल्ये – शैशवे/बाल्यकाले (बचपन में), पितृचरणैः = तातपादैः (पूज्य पिताजी द्वारा), क्लेश्यमानोऽपि = सन्ताप्यमानोऽपि (सन्ताप/पीड़ा दिया जाता हुआ भी), विद्यां नाऽधीतवानस्मि = विद्याध्ययनं न कृतवान् (मैंने विद्याध्ययन नहीं किया), तस्मात् = तत्कारणात् (इसलिए/ इस कारण से), सर्वैः = अखिलैः (सभी),
कुटुम्बिभिः = परिवारजनैः (परिवारीजनों/कुटुम्बियों द्वारा), मित्रैः = सुहृद्भिः (मित्रों द्वारा),ज्ञातिजनैश्च = बन्धुबान्धवैश्च (और भाई-बन्धुओं/जाति-बिरादरी द्वारा),गर्हितोऽभवम् = निन्दितोऽजाये (निन्दित हो गया हूँ), ऊर्ध्वम् = आकाशे (ऊपर की ओर), निःश्वस्य = दीर्घ नि:श्वस्य (लम्बी श्वास छोड़कर), हा विधे! = हा दैव! (अरे भाग्य! खेद है), किम् इदं मया कृतम् = किमेतद् अहं कृतवान् (मैंने यह क्या कर दिया), कीदृशी = कथंविधा (कैसी), दुर्बुद्धिः = दुर्मतिः (बुरी बुद्धि), आसीत् = अवर्तत (थी), तदा = तस्मिन् काले (तब), एतदपि = इदमपि (यह भी),
न चिन्तितम् = न विचारितम् (नहीं सोचा), यत् = (कि), परिधानैः = वस्त्रैः (वस्त्रों से), अलङ्कारैः = आभूषणैः (आभूषणों से), भूषितोऽपि = सुसज्जितोऽपि (सुसज्जित हुआ भी), न शोभते = शोभमानः न भवति (सुशोभित नहीं होता है)। नरः = (अशिक्षितः) मानवः (अनपढ़ मनुष्य), निर्मणि = मणिहीनः (मणिरहित), भोगीव = सर्प .. इव (साँप की तरह/समान), सभायाम् = जनसम्म (सभा में), यदि वा = अथवा (या), गृहे = सदने (घर में),
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – प्रस्तुत नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेवरचित । – ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से संकलित है।
प्रसंग – इस नाट्यांश में बाल्यकाल में अशिक्षित तपोदत्त की वेदनामयी मन:स्थिति का वर्णन किया गया है। – अनुवाद-(तब तप में लीन हुआ तपोदत्त प्रवेश करता है।) मैं तपोदत्त हूँ। बचपन में पिताजी द्वारा पीड़ा दिये जाने पर भी मैंने विद्याध्ययन नहीं किया। इस कारण से परिवारीजनों द्वारा, मित्रों द्वारा और भाई-बन्धुओं द्वारा निन्दित हो गया। (ऊपर की ओर लम्बी श्वास छोड़कर) अरे भाग्य! खेद है, मैंने यह क्या कर दिया, तब कैसी बुरी बुद्धि हो गयी थी। यह भी नहीं सोचा कि (अनपढ़) मनुष्य मणिहीन सर्प की भाँति सभा में या घर में वस्त्रों (और) आभूषणों से सुसज्जित होता हुआ भी सुशोभित नहीं होता। संस्कत-व्यारव्याः
सन्दर्भ: – प्रस्तुतनाट्यांश: अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्याः’ ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठात् उद्धृतः अस्ति। पाठोऽयं सोमदेवरचितस्य ‘कथासरित्सागरस्य’ सप्तमलम्बकात् संकलितो अस्ति। (प्रस्तुत नाटक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतु’ पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेव-रचित ‘कथा सरित्सागर’ के सप्तम लंबक से संकलित है।)
प्रसङ्गः – नाट्यांशेऽस्मिन् बाल्येऽशिक्षितस्य तपोदत्तस्य वेदनामय्याः मन:स्थिते: वर्णनं कृतम् अस्ति। (इस नाट्यांश में बचपन में अशिक्षित तपोदत्त की वेदनामयी मन:स्थिति का वर्णन किया गया है।)
व्याख्याः – (तदा तपसि लीनः तपोदत्तः प्रवेशं करोति।) अहं तपोदत्तः अस्मि। शैशवे तातपादैः सन्ताप्यमानोऽपि विद्याध्ययनं न कृतवान्। तत्कारणात् अखिलैः परिवारजनैः, सुहृद्भिः बन्धुबान्धवैश्च निन्दितोऽजाये। (आकाशे दीर्घ श्वासं निश्वस्य) हा दैव! किमेतद् अहं कृतवान्। तस्मिन् काले कथंविधा दुर्मतिः अभवत्। इदमपि न विचारितं यत् (अशिक्षितः) मानवः मणिहीनसर्प इव जनसम्म गृहे वा वस्त्रैः आभूषणैः (च) सुसज्जितोऽपि शोभमानः न भवति।
(तब तप में तल्लीन तपोदत्त प्रवेश करता है। मैं तपोदत्त हूँ। बचपन में पिताजी द्वारा कष्ट दिया जाता हुआ नहीं पढ़ा। इसके कारण सभी परिवार के लोगों, मित्रों और भाई-बन्धुओं की निन्दा का पात्र बना । (आकाश में लम्बी साँस लेकर) हे भगवान् मैंने यह क्या किया? उस समय मेरी कैसी दुर्बुद्धि हो गई। यह भी नहीं विचार किया कि अनपढ़ आदमी मणिहीन सर्प की तरह जनसमूह में अथवा घर में वस्त्राभूषणो से सुसज्जित होते हुए भी सुशोभित नहीं होता।)
अवबोधन कार्यम् –
1. एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दीजिए)
(क) अशिक्षितो मनुष्यः सभायां कथं न शोभते? (अशिक्षित मनुष्य सभा में कैसे शोभा नहीं देता?)
(ख) तपोदत्तः कैः गर्हितोऽभवतो? (तपोदत्त किसके द्वारा निन्दित हुआ?)
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूर्ण वाक्य में उत्तर दीजिए)
(क) तपोदत्तः केन कारणेन गर्हितोऽभवत् ? (तपोदत्त किसके कारण निन्दित हुआ?)
(ख) सभायां कः न शोभते? (सभा में कौन शोभा नहीं देता?)
3. यथानिर्देशम् उत्तरत (निर्देश के अनुसार उत्तर दीजिए)
(क) ‘सर्व’ इति पदस्य स्थाने गद्यांशे किं समानार्थी पदं प्रयुक्तम् ? (‘सर्व’ पद के स्थान पर गद्यांश में किस समानार्थी पद का प्रयोग हुआ है?)
(ख) ‘सुबुद्धि’ इति पदस्य विलोमपदं गद्यांशात् अन्विष्य लिखत। (‘सुबुद्धि’ पद का विलोमार्थक पद गद्यांश
से ढूँढ़कर लिखिए।)
उत्तराणि :
1.(क) निर्मणिभोगीव (विना मणि के साँप),
(ख) मित्रैः (मित्रों द्वारा).
2. (क) बाल्यकाले विद्यां न अधीतवान् अतः सर्वेः गर्हितोऽभवत्। (बचपन में विद्या नहीं पढ़ी, अत: सबके द्वारा निन्दित हुआ।) परिधानैः अलङ्कारैः च भूषितोऽपि विद्याविहीनः सभायां न शोभते। (वस्त्राभूषणों से भूषित हुआ भी विद्याहीन व्यक्ति सभा में शोभित नहीं होता।)
3. (क) भोगी (सर्प),
(ख) दुर्बुद्धि (बुरी बुद्धिवाला)
2. (किञ्चिद् विमृश्य)
भवतु, किम् एतेन? दिवसे मार्गभ्रान्तः सन्ध्यां यावद् यदि गृहमुपैति तदपि वरम्। नाऽसौ भ्रान्तो मन्यते। अतोऽहम् इदानीं तपश्चर्यया विद्यामवाप्तुं प्रवृत्तोऽस्मि।
(जलोच्छलनध्वनिः श्रूयते)
अये कुतोऽयं कल्लोलोच्छलनध्वनि: ? महामत्स्यो मकरो वा भवेत्। पश्यामि तावत्।
(पुरुषमेकं सिकताभिः सेतुनिर्माण-प्रयासं कुर्वाणं दृष्ट्वा सहासम्)
हन्त! नास्त्यभावो जगति मूर्खाणाम्! तीव्रप्रवाहायां नद्यां मूढोऽयं सिकताभिः सेतुं निर्मातुं प्रयत!
(साट्टहासं पार्श्वमुपेत्य)
भो महाशय! किमिदं विधीयते! अलमलं तव श्रमेण। पश्य,
रामो बबन्ध यं सेतुं शिलाभिर्मकरालये।
विदधद् बालुकाभिस्तं यासि त्वमतिरामताम् ।।2।।
चिन्तय तावत्। सिकताभिः क्वचित्सेतुः कर्तुं युज्यते?
शब्दार्थाः – किञ्चिद् विमृश्य = किमपि विचार्य (कुछ विचार कर), भवतु = अस्तु (खैर/अच्छा), किम् एतेन = किमनेन (इससे क्या प्रयोजन), दिवसे = दिने (दिन में), मार्गभ्रान्तः = पथभ्रष्टः (राह से भटका हुआ), संध्यां यावद् = सायंकालपर्यन्तम् (सायंकाल तक/साँझ तक), यदि गृहमुपैति = यदि सदनं प्राप्नोति (यदि घर पहुँच जाता है), तदपि = (तब भी), वरम् = श्रेष्ठः (अच्छा है), नाऽसौ = न सः (नहीं वह), भ्रान्तोः = भ्रमितः (भटका हुआ), मन्यते = ज्ञायते (माना जाता है), अतोऽहम् = अयम् अहम् (यह मैं), इदानीम् = अधुना (अब), तपश्चर्यया = तपसा (तपस्या से),
विद्यामवाप्तुम् = विद्यार्जनाय (विद्या-प्राप्ति के लिए), प्रवृत्तोऽस्मि = निरतोऽस्मि (प्रवृत्त हूँ/लंग गया हूँ), जलोच्छलनध्वनिः = जलोट वंगमनशब्दः (पानी उछलने की आवाज), श्रूयते = आकर्ण्यते (सुनाई देती है), अये = अरे (ओह), कुतोऽयम् = कस्मात् स्थानात् आयाति (कहाँ से आ रही है यह) एषः, कल्लोल = तरङ्गानाम् (लहरों के), उच्छलन = ऊर्ध्वगतेः (उछलने की), ध्वनिः = शब्दः (आवाज), महामत्स्योः = विशालमीनः (बड़ी मछली),
मकरो वा = नक्रः वा (अथवा मगरमच्छ), भवेत् = स्यात् (होना चाहिए), पश्यामि = ईक्षे (देखता हूँ), तावत् = तर्हि (तो), पुरुषमेकम् = एक मानवं (एक मनुष्य को), सिकताभिः = बालुकाभिः (बालू से), सेतु = धरणम् (पुल) निर्माण = सृष्टे: (बनाने का), प्रयासम् = प्रयत्नम् (प्रयास), कुर्वाणम् = कुर्वन्तम् (करते हुए को), दृष्ट्वा = अवलोक्य (देखकर), सहासम् = हासपूर्वकम् (हँसते हुए), हन्त = हा (खेद है), नास्त्यभावो = न वर्तते राहित्यम (कभी नहीं है), जगति = संसारे (संसार में), मूर्खाणाम् = बालिशानाम् (अज्ञानियों/ मूल् की), तीव्र = गतिमानायां (तेज), प्रवाहायाम् = प्रवाहमानायाम् (बहती हुई),
नद्याम् = सरति (नदी में), मूढोऽयं = एषः विवेकहीनः (यह मूर्ख), सिकताभिः = बालुकाभिः (बालू से), सेतुम् = धरणम् (पुल), निर्मातुम् = स्रष्टुम् (बनाने का), प्रयतते = प्रयासं करोति (प्रयास करता है), साट्टहासम् = अट्टहासपूर्वकम् (अट्टहास करते हुए/जोर से हँसते हुए), पार्श्वम् = कक्षे (बगल में), उपेत्य = समीपं गत्वा (पास जाकर), भो महाशय! = हे महोदय! (हे महाशय जी!), किमि इदम् = किं एतत् (क्या यह), विधीपते = सम्पाद्यते (किया जा रहा है),
अलमलम् = पर्याप्तम् (बस, बस), तव = ते (तुम्हारे), श्रमेण = परिश्रमेण (मेहनत) अर्थात् बस, बस परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं है, पश्य = अवलोकय (देखो), मकरालये = सागरे (समुद्र में), रामः = भगवान् रामः (श्रीराम ने), यं सेतुम् = यं धरणम् (जिस पुल को), शिलाभिः = प्रस्तरैः (शिलाओं से), बबन्ध = निर्मितवान् (बनाया था), त्वम् = भवान् (आप), बालुकाभिः = सिकताभिः (बालू से), विदधत् = निर्माणं कुर्वन् (बनाते हुए), त्वं तु = भवान् तु (आप तो), अतिरामताम् = रामादप्यग्रे, रामादपि श्रेष्ठतरः (राम से भी आगे या बढ़कर), यासि = गच्छसि, (जा रहे हो), तावत् = तर्हि (तो), चिन्तय = विचारय (सोचो), सिकताभिः = बालुकाभिः (बालू से), क्वचित् = कुत्रचित् (कहीं), सेतुम् = धरणम् (पुल), कर्तुम् = निमार्तुम् (बनाना), युज्यते = उचितम् अस्ति (उचित है)।
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेवकृत ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से संकलित है।
प्रसंग – इस नाट्यांश में तप से विद्या पाने के लिए निश्चय किया हुआ तपोदत्त एक मनुष्य को रेत से नदी पर पुल बनाते हुए देखता है और उसे मूर्ख कहता है।
अनुवाद – (कुछ विचार करके)
खैर, इससे क्या प्रयोजन? दिन में राह भटका हुआ यदि सायंकाल तक घर पहुँच जाता है तो भी वह श्रेष्ठ है, उसे भटका (भूला) हुआ नहीं माना जाता है। यह मैं (तपोदत्त) अब तपस्या से विद्याध्ययन के लिए प्रवृत्त हूँ।
(पानी उछलने की आवाज सुनाई देती है)
अरे! यह लहरों के उछलने की आवाज कहाँ से आ रही है? कोई बड़ी मछली अथवा मगरमच्छ होना चाहिए। तो (तब तक) देखता हूँ।
(एक मनुष्य को बालू से पुल बनाने का प्रयास करते हुए देखकर हँसते हुए ।)
खेद है, संसार में मूों की कमी नहीं है। यह मूर्ख तेज प्रवाह वाली नदी में बालू से पुल बनाने का प्रयत्न कर रहा है। (जोर से हँसते हुए बगल में पास जाकर)
हे महाशय! यह क्या किया जा रहा है! बस, बस, परिश्रम मत करो। देखो, भगवान राम ने जिस पुल को समुद्र पर शिलाओं से बनाया था, (उसे) आप बालू से बनाते हुए राम से भी आगे जा रहे हैं, तो सोचिए बालू से कहीं पुल बनाना उचित है?
संस्कत-व्याख्याः
सन्दर्भ: – नाट्यांशोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्या:”सिकतासेतुः’ नामक पाठाद् उद्धृतः। पाठोऽयं सोमदेवकृतस्य ‘कथासरित्सागरस्य’ सप्तमलम्बकात् संकलितो अस्ति। (यह नाट्यांश हमारी पाठयपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ पाठ से . उद्धृत है। यह पाठ सोमदेवकृत ‘कथासरित्सागर’ के सातवें लम्बक से संकलित है।)
प्रसंग: – नाट्यांशेऽस्मिन् तपश्चर्यया विद्यार्जनाय कृतसङ्कल्पः तपोदत्तः मनुष्यमेकं बालुकाभिः नद्यां धरणनिर्माणं कुर्वन्तं पश्यति तं च मूर्ख वदति। (इस नाट्यांश में तपस्या से विद्यार्जन के लिए दृढ़संकल्पित तपोदत्त ने एक मनुष्य को बालू से नदी पर पुल बनाता हुआ देखता है और उसे मूर्ख कहता है।)
व्याख्या – (किमपि विचार्य)
अस्तु, किमनेन? दिने पथभ्रष्ट: सायंकालपर्यन्तं यदि सदनं प्राप्नोति, तदा अपि श्रेष्ठः, सः भ्रमितः न ज्ञायते। अयम् अहम् अधुना तपसा विद्याध्ययनाय निरतः अस्मि।
(जलोर्ध्वगमनशब्दः आकर्ण्यते)
अरे! एषः तरङ्गाणां ऊर्ध्वगमनस्य शब्दः कस्मात् स्थानात् आयाति, विशालमीन: नक्रः वा स्यात्। तर्हि ईक्षे। (मानवमेकं बालुकाभिः धरणस्य सृष्टेः प्रयत्नं कुर्वन्तम् अवलोक्य हासपूर्वकम्)
हा, संसारे न बालिशानामभावः वर्तते। एषः विवेकहीन: प्रवाहमानायां सरति बालुकाभिः धरणं स्रष्टुं प्रयासं करोति।
(अट्टहासपूर्वकं कक्षे समीपं गत्वा) हे महोदय ! किमेतत्सम्पाद्यते? पर्याप्तं ते श्रमेण।’
अवलोकय, सागरे भगवान् रामः यं धरणं प्रस्तरैः निर्मितवान्, (तत्) भवान् सिकताभिः निर्माणं कुर्वन् रामादपि अग्रे गच्छति तर्हि विचारय! कुत्रचिद् बालुकाभिः धरणस्य निर्माणम् उचितम्?
(कुछ विचार कर) खैर, इससे क्या, दिन में भूला हुआ यदि सायंकाल घर आ जाये तो भी अच्छा है, उसे भटका हुआ नहीं मानते हैं। यह मैं अब तप से विद्याध्ययन के लिए संलग्न हूँ। (पानी उछलने की आवाज सुनाई पड़ती है।) अरे ! यह लहरों का उछलने का शब्द कहाँ से आ रहा है? कोई बड़ी मछली या मगरमच्छ होगा। तो देखता हूँ। (एक व्यक्ति को बालू से पुल बनाने का प्रयत्न करते हुए को देखकर हँसते हुए) अरे संसार में मूों की कमी नहीं। यह विवेकहीन बहती हुई नदी में बालू से पुल बनाने का प्रयास कर रहा है। (अट्टाहासपूर्वक बगल में जाकर) महोदय यह क्या कर रहे हो? बस परिश्रम खो, सागर में भगवान राम ने जिस पुल को बनाया था, वह पत्थरो से बनाया था तो आप तो बालू से पुल निर्माण करते हुए राम से भी आगे निकल गये, तो विचार करो, कहीं बालू से पुल का निर्माण उचित है?)
अवबोधन कार्यम्
1. एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दीजिए)
क) तपोदत्तः केन विद्यां प्राप्तं प्रवृत्तोऽस्ति? (तपोदत्त किससे विद्या प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त है?)
(ख) पुरुषः काभिः सेतुनिर्माण-प्रयासं करोति? (पुरुष किससे पुल के निर्माण का प्रयत्न करता है?)
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूर्ण वाक्य में उत्तर दीजिये)
(क) सिकताभिः सेतु निर्माणं कुर्वाणं दृष्ट्वा तपोदत्तः किं कथयति? (बालू से सेतु निर्माण करते हुए व्यक्ति
को देखकर तपोदत्त क्या कहता है?)
(ख) कः जनः भ्रान्तो न मन्यते? (कौन व्यक्ति भूला नहीं माना जाता?)
3. यथानिर्देशम् उत्तरत (निर्देश के अनुसार उत्तर दीजिए)
(क) ‘महामत्स्यः ‘ इति पदात् विशेषणपदं पृथक् कृत्वा लिखत। (पद से विशेषण पद पृथक करके लिखिये।)
(ख) ‘रजाभिः’ इति पदस्य पर्यायं गद्यांशात चित्वा लिखत। (‘रजोभिः’ पद का समानार्थी पद गद्यांश से चुनकर लिखिये।)
उत्तराणि-
1.(क) तपश्चर्यया (तपस्या से)
(ख) सिकताभिः (बालू से)
2. (क) हन्ता! नास्त्यभावो जगति मूर्खाणाम्। तीव्र प्रवाहायां नद्यां मूढोऽयं सिकताभिः सेतुं निर्मातुं प्रयतते।
(खेद है! संसार में मूल् की कमी नहीं है। तेज प्रवाह वाली नदी में बालू से पुल बनाने का प्रयत्न करता
(ख) दिवसे मार्ग-भ्रान्तः सन्ध्यां यावत् यदि गृहम् उपैति तदपि वरम् नासौ भ्रान्तौ मन्यते।
(दिन का भूला शाम को घर पहुँच जाये तो भी अच्छा। वह भूला हुआ नहीं माना जाता।)
3. (क) महान् (महान)। (ख) सिकताभिः (बालू से)।
3. पुरुषः – भोस्तपस्विम्! कथं माम् अवरोधं करोषि। प्रयत्नेन किं न सिद्ध भवति? कावश्यकता शिलानाम्? सिकताभिरेव सेतुं करिष्यामि स्वसंकल्पदृढतया।
तपोदत्तः – आश्चर्यम् किम् सिकताभिरेव सेतुं करिष्यसि? सिकता जलप्रवाहे स्थास्यन्ति किम्? भवता चिन्तितं न वा?
पुरुषः – (सोत्प्रासम्) चिन्तितं चिन्तितम्। सम्यक् चिन्तितम्। नाहं सोपानसहायतया अधि रोढुं विश्वसिमि। समुत्प्लुत्यैव गन्तुं क्षमोऽस्मि।
तपोदत्तः – (सव्यङ्ग्यम्)
साधु साधु! आञ्जनेयमप्यतिक्रामसि!
पुरुषः – (सविमर्शम्)
कोऽत्र सन्देहः? किञ्च,
विना लिप्यक्षरज्ञानं तपोभिरेव केवलम्।
यदि विद्या वशे स्युस्ते, सेतुरेष तथा ममा।3।।
शब्दार्थाः – भोस्तपस्विन्! = हे तापस! (अरे तपस्वी!), कथम् = केन कारणेन (क्यों), माम् = मा (मुझको), अवरोधं करोसि = उपरुणात्सि (रोक रहे हो), प्रयत्नेन = प्रयासेन (प्रयास से), किं न = (क्या नहीं), सिद्धं भवति = सिट । यति (सिद्ध होता है), कावश्यकता = महत्त्वम् (जरूरत है), शिलानाम् = प्रस्तराणाम् (शिलाओं की), सिकताभिरेव = बालुकाभिरेव (बाल से ही), सेतम = धरणम् (पुल), करिष्यामि = निर्मास्ये (निर्माण करूँगा), सङ्कल्पदढतया = दृढसङ्कल्पेन (दृढ़ संकल्प से), आश्चर्यम् = विस्मयः (अचम्भे की बात है),
किंम् सिकताभिरेव = बालुकाभिरेव (बालू से ही), सेतुं = धरणम् (पुल), करिष्यसि = निर्मास्यसे (बनाओगे), सिकताः = बालुका: (बालू), जलप्रवाहे = सलिलधारायाम् (पानी के बहाव में), स्थास्यन्ति = स्थिताः भविष्यन्ति (ठहरेगी), किम् = अपि (क्या), भवता = त्वया (तेरे/आपके द्वारा), चिन्तितं न वा = विचारितं न वा (सोचा गया है कि नहीं), सोत्प्रासम् = उपहासपूर्वकम् (उपहासपूर्वक), चिन्तितं चिन्तितम् = अनेकशः विचारितं (बार-बार विचार किया है), सम्यक चिन्तितम् = सम्यगरूपेण विचारितम् (भली-भाँति सोचा है), नाहम् = नहीं मैं,
सोपानसहायतया = पद्धति सरणिभि सहायतया (सीढ़ियों की सहायता से), अधि रोदुम् = उपरि गन्तुम् (ऊपर चढ़ने के लिए), विश्वसिमि = विश्वासं करोमि (विश्वास करता), समुत्प्लुत्यैव = सम्यग् उपरि प्लुत्वा एव (भली-भाँति छलाँग मारकर ही), गन्तुम् = यातुम् (जाने में), क्षमोऽस्मि = समर्थोऽस्मि (समर्थ हूँ), सव्यङ्ग्यम् = व्यङ्ग्येन सहितम् (व्यङ्ग्य के साथ), साधु साधु = उत्तमः (अच्छा-अच्छा/बहुत अच्छा), आञ्जनेयम् = हनुमन्तम् (हनुमान जी को), अतिक्रामसि = उल्लङ्घयसि (लाँघ गये/आगे निकल गये), सविमर्शम् = विचारसहितम् (सोच-विचार कर),
कोऽत्र सन्देहः = का अत्र शङ्का वर्तते (इसमें क्या सन्देह है), किञ्च = (और क्या), विना = अन्तरेण (बिना), लिप्यक्षरज्ञानम् = लिपिज्ञानं वर्णज्ञानं च विना (लिपि के और अक्षरों के ज्ञान के बिना), केवलम् = मात्र (केवल), तपोभिः = तपश्चर्याभिः (तपस्या से) यदि विद्या वशे स्युः = यदि विद्या अधिगृह्यते (यदि विद्या पर अधिकार हो जाये), मम एषः सेतुः तथा = इदं मे धरणम् एवमेव (यह मेरा पुल भी वैसा ही है)
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेवरचित ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से संकलित है।
प्रसंग – इस नाट्यांश में पुरुषवेष वाला इन्द्र नदी में बालू का पुल बनाने का निष्फल प्रयत्न कर तपोदत्त को परिश्रम, लिपि, अक्षरज्ञान तथा अभ्यास की ओर अनुप्रेरित करता है।
अनुवाद – पुरुष-अरे तपस्वी! (तू) मुझे रोकता है? प्रयत्न से क्या नहीं सिद्ध होता है? शिलाओं की क्या जरूरत है? दृढ़ संकल्प के साथ बालू से ही पुल बाँधूंगा।
तपोदत्त – अचम्भा है! बालू से ही पुल बनाओगे (क्या)? बालू जल के प्रवाह में ठहर जायेगी क्या? आपने (यह कभी) सोचा है या नहीं?
पुरुष – (उपहास के साथ) सोचा है, सोचा है। अच्छी तरह सोचा है। मैं सीढ़ियों के मार्ग से अट्टालिका पर चढ़ने में विश्वास नहीं रखता। उछलकर (छलाँग मारकर) ही जाने में समर्थ हूँ।
तपोदत्त-(व्यंग्यसहित) बहुत अच्छा, बहुत अच्छा! तुम तो हनुमान् जी से भी बढ़कर निकले। पुरुष-(सोच-विचार कर) – इसमें क्या सन्देह है? और क्या बिना लिपि और अक्षर-ज्ञान के केवल तपस्या से यदि विद्या तेरे वश में हो जाये तो मेरा यह पुल भी वैसा ही है।
संस्कत-व्यारव्याः
सन्दर्भ: – नाट्यांशोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्या:’ ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठात् उद्धृतः अस्ति। पाठोऽयं सोमदेवरचितस्य कथासरित्सागरस्य सप्तमलम्बकात् संकलितो अस्ति। (यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ पाठ से उद्धृत है । यह पाठ ‘सौमदेवरचित’ कथासारित्सागर’ के सातवें लम्बक से लिया गया है।)
प्रसंग: – नाटयांशेऽस्मिन परुषवेषः इन्द्रः नद्यां सिकतासेतनिर्माणस्य निष्फलप्रयत्न कत्वा तपोदत्तं परिश्रमं. लिपिज्ञानम, अक्षरज्ञानं तेषाम् अभ्यासं च प्रति अनुप्रेरयति। (इस नाट्यांश में पुरुष वेष में इन्द्र नदी में बालू से सेतु निर्माण का निष्फल प्रयास करके तपोदत्त को परिश्रम, लिपिज्ञान, अक्षर ज्ञान और उनके अभ्यास के प्रति प्रेरित करता है।
व्याख्या – पुरुष:-हे तापस! कस्मात् कारणात् माम् अवरोधयसि? प्रयासेन किं न सिध्यति? प्रस्तराणां किं महत्त्वम्? दृढसङ्कल्पेन बालुकाभिरेव धरणं निर्मास्ये। (पुरुष-हे तपस्वी, किसलिए मुझे मना कर रहे हो? प्रयास से किया सिद्ध नहीं होता। पत्थरों का क्या महत्व। दृढ़ संकल्प से बालू से भी पुल बनाया जा सकता है।)
तपोदत्तः – कुतूहलम्, बालुकाभिरेव धरणं निर्मास्यसे? अपि बालुकाः सलिलधारायां स्थिराः भविष्यन्ति? अपि त्वया विचारितं न वा? (तपोदत्त-आश्चर्य, बालू से पुल बनाओगे? क्या बालू पानी के प्रवाह में ठहर जायेगी? क्या तुमने यह सोचा भी है या नहीं।)
पुरुष – (उपहासपर्वकम) अनेकशः विचारितम। सम्यगरूपेण विचारितम। अहं पद्धतिसरणिभिः अटटालिकायाः उपरि गन्तुं विश्वासं न करोमि। सम्यग उपरि प्लुत्वा एव यातुं समर्थोऽस्मि। ((उपहासपूर्वक) अनेक बार विचार किया है। अच्छी तरह विचार किया हैं। मैं सीढ़ियों से छत पर चढ़ने में विश्वास नहीं करता। अच्छी तरह ऊपर उछलकर ही जाने में समर्थ करता हा
तपोदत्तः – (व्यङ्ग्येन सहितम्) उत्तमः, त्वं तु हनुमन्तमपि उल्लङ्घयसि। (व्यङ्ग्य के साथ) (बहुत अच्छा तुम तो हनुमान जी को भी लाँघ गये।)
पुरुषः – (विचारसहितम्) का अत्र शङ्का वर्तते? किञ्च लिपिज्ञानं वर्णज्ञानं च अन्तरेण मात्र तपश्चर्याभिः यदि विद्या अधिंगृह्यते तदा इदं मे धरणम् एवमेव। (सोचकर) (इसमें क्या सन्देह? जब लिपिज्ञान और अक्षर ज्ञान के बिना मात्र तप से ही यदि विद्या ग्रहण की जा सकती है तो मेरा यह पुल भी इसी प्रकार से है।)
अवबोधन कार्यम् –
एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दीजिए)
(क) परुषः केन मार्गेण न गन्तम इच्छति? (परुष किस मार्ग से नहीं जाना चाहता?)
(ख) तपोदत्तः पुरुषं सव्यङ्ग्यं किं कथयति? (पुरुष से तपोदत्त व्यंग्यपूर्वक क्या कहता है?)
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए)
(क) तपोदत्ते अवरुद्धे पुरुषः तं किम् उत्तरति? (तपोदत्त के रोकने पर पुरुष उसे क्या उत्तर देता है?)
(ख) पुरुषः सोत्प्रासम् तपोदत्तं किं कथयति? (पुरुष उपहासपूर्वक तपोदत्त से क्या कहता है?)
3. यथानिर्देशम् उत्तरत (निर्देशानुसार उत्तर दीजिए)
(क) ‘भवता चिन्तितं न वा’ इति वाक्यात् क्रियापदं पृथक् कृत्वा लिखत।
(भवता चिन्तितं न वा’ इस वाक्य से क्रियापद अलग कर लिखिए।)
‘बालुकाभिः’ इति पदस्य- पर्यायवाचिपदं गद्यांशात् चित्वा लिखत।
(‘बालुकाभिः’ पद का पर्यायवाचि पद गद्यांश से चुनकर लिखिए।)
उत्तराणि :
1. (क) सोपानमार्गेण (सीढ़ियों से)।
(ख) आञ्जनेयमपि अतिक्रामसि (हनुमान से भी बढ़कर हो)।
2. (क) भोः तपस्विन् ! कथं माम् अवरोधं करोषि? प्रयत्नेन किं न सिद्धं भवति ?
(ख) चिन्तितम्! नाहं सोपान-सहायतया अधिरोढुं विश्वसिमि। समुत्प्लत्येव गन्तुं क्षमोऽस्म्।ि (सोचा! मैं सीढ़ियों की सहायता से नहीं चढ़ना चाहता। छलाँग मार कर जाने की क्षमता रखता हूँ।)
3. (क) चिन्तितम् (सोचा गया)।
(ख) सिकताभिः (बालू से)।
4. तपोदत्तः – (सवैलक्ष्यम् आत्मगतम्)
अये! मामेवोद्दिश्य भद्रपुरुषोऽयम् अधिक्षिपति! नूनं सत्यमत्र पश्यामि। अक्षरज्ञानं विनैव वैदुष्यमवाप्तुम् अभिलषामि! तदियं भगवत्याः शारदाया अवमानना। गुरुगृहं गत्वैव विद्याभ्यासो मया करणीयः। पुरुषार्थैरेव लक्ष्यं प्राप्यते। (प्रकाशम्)
भो नरोत्तम! नाऽहं जाने यत् कोऽस्ति भवान्। परन्तु भवद्भिः उन्मीलितं मे नयनयुगलम्। तपोमात्रेण विद्यामवाप्तुं प्रयतमानः अहमपि सिकताभिरेव सेतुनिर्माणप्रयासं करोमि। तदिदानी विद्याध्ययनाय गुरुकुलमेव गच्छामि।
(सप्रणामं गच्छति)
शब्दार्थाः – संवैलक्ष्यम् = सलज्जम् (लज्जापूर्वक), आत्मगतम् = स्वगतम् (अपने आप से), अये! = अरे! (ओह!), मामेवोद्दिश्य = मामेव लक्ष्यीकृत्य (मुझे ही लक्ष्य बनाकर), भद्रपुरुसोऽयम्ः = एषः सज्जनः (यह भलामानुष), अधिक्षिपति = आक्षिपति (आक्षेप कर रहा है), नूनम् = निश्चयमेव (निश्चित रूप से), सत्यमत्र = अस्मिन् वचने ऋतं (इस बात में सत्य को), पश्यामि = ईक्षे (देख रहा हूँ), अक्षरज्ञानं विनैव = वर्णज्ञानमन्तरेण (वर्ण ज्ञान के बिना),
वैदुष्यमवाप्तुम् = पाण्डित्यम् प्राप्तुम् (विद्वत्ता प्राप्ति को), अभिलषामि = इच्छामि (चाहता हूँ), तदियम् = तदेषा (तो यह), भगवत्याः = देव्याः (देवी), शारदायाः = सरस्वत्याः (सरस्वती का), अवमानना = अपमानम् (अपमान है), गुरुगृहम् = गुरोरावासं/ आश्रमं (गुरु के घर पर), गत्वैव = प्राप्यैव (जाकर के ही), विद्याभ्यासः = विद्याध्ययनम् (विद्या का अभ्यास), मया = अहम् (मेरे द्वारा/मैं), करणीयः = कुर्याम् (करना चाहिए),
पुरुषार्थैरेव = परिश्रमेण एव/उद्यमेनैव (परिश्रम से ही) लक्ष्यम् = उद्देश्यम् (उद्देश्य), प्राप्यते = लभ्यते (पाया जाता है), प्रकाशम् = सार्वजनिकरूपेण (सबके सामने), भो नरोत्तम! = हे मानवश्रेष्ठ! (हे मनुष्यों में श्रेष्ठ!), अहं न जाने = नाऽहं जानामि (मैं नहीं जानता), यत् कोऽस्ति भवान् = यत् त्वं कोऽसि (कि आप/तुम कौन हो), परन्तु = परञ्च (लेकिन), भवद्भिः = युष्माभिः (आप द्वारा/आपने), उन्मीलितम् = उद्घाटितम् (खोल दिया),
मे = मम (मेरे), नयनयुगलम् = नेत्रयुगलम् (आँखों को), तपोमात्रेण = केवलं तपसा (केवल तपस्या से), विद्यामवाप्तुम् = ज्ञानं लब्धुम् (ज्ञान प्राप्त करने के लिए), प्रयतमानः = प्रयासं कुर्वन् (प्रयास करता हुआ), अहमपि = मैं भी.सिकताभिरेव = बालकाभिरेव (बाल से ही), सेतनिर्माणप्रयासम = धरणसष्टिप्रयत्नम (पल बनाने का प्रयास). करोमि = करता हूँ, तदिदानीम् = तर्हि अधुना (तो अब), विद्याध्ययनाय = विद्यार्जनाय (विद्या प्राप्ति के लिए), गुरुकुलमेव = गुरोः आश्रमम् एव (गुरु के आश्रम को ही), गच्छामि = प्रस्थानं करोमि (प्रस्थान करता हूँ), सप्रणामम् = अभिवादनेन सहितम् (प्रणाम करके), गच्छति = याति (जाता है/प्रस्थान करता है)।
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेवकृत … ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लम्बक से संकलित है।
प्रसंग – इस नाट्यांश में तपोदत्त के लिए अपने निरर्थक प्रयास का ज्ञान हो जाता है। अतः वह पुरुष वेषधारी इन्द्र के व्यंग्य को समझकर अध्ययन के प्रति अनुप्रेरित होकर गुरुकुल को प्रस्थान कर जाता है।
अनुवाद – (लज्जापूर्वक अपने आपसे)
अरे! यह भलामानुष तो मुझे ही लक्ष्य करके आक्षेप कर रहा है। निश्चित रूप से यहाँ मैं सत्य देख रहा हूँ (अर्थात् इसकी बात सच है) अक्षर-ज्ञान के बिना ही (मैं) विद्वत्ता प्राप्त करना चाहता हूँ, तो यह भगवती (देवी) सरस्वती का अपमान ही है। मुझे गुरु के घर जाकर विद्या का अभ्यास करना चाहिए। परिश्रम से ही लक्ष्य प्राप्त किया जाता है।
(सबके समक्ष)
हे पुरुषों में श्रेष्ठ! मैं नहीं जानता कि आप कौन हैं परन्तु आपने मेरी आँखें खोल दी। तप मात्र से ही विद्या प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता हुआ मैं भी बालू से ही पुल बनाने का प्रयास कर रहा हूँ। तो अब विद्याध्ययन (पढ़ाई) हेतु गुरुकुल को ही जाता हूँ।
(प्रणाम सहित जाता है।)
संस्कत-व्यारव्याः
सन्दर्भ: – नाट्यांशोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्याः’ ‘सिकतासेतुः’ नामक पाठाद् उद्धृतः अस्ति। पाठोऽयं सोमदेवकृतस्य कथासरित्सागरस्य सप्तमलम्बकात् संकलितोऽस्ति। (यह नाट्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘सिकतासेतुः’ पाठ से उद्धृत है। यह पाठ सोमदेव-कृत ‘कथासरित्सागर’ के सप्तम लंबक से संकलित है।)
प्रसंगः – नाट्यांशेऽस्मिन् तपोदत्ताय स्वकीयस्य निरर्थकप्रयासस्य ज्ञानं भवति। अतोऽसौ पुरुषरूपिणः इन्द्रस्य व्यङ्ग्यम् अवगम्य अध्ययन प्रति अनुप्रेरित: भूत्वा गुरुकुलं च गच्छति। (इस नाट्यांश में तपोदत्त के अपने निरर्थक प्रयास का ज्ञान होता है। अतः वह पुरुषरूपी इन्द्र के व्यङ्ग्य को समझकर अध्ययन के प्रति अनुप्रेरित होकर गुरुकुल को जाता है।
व्याख्याः – तपोदत्तः (सलज्जम् स्वगतम्) अरे मामेव लक्ष्यीकृत्य एषः सज्जनः आक्षिपति। निश्चितमेव अस्मिन् वचने यथार्थम् ईक्षे। वर्णज्ञानमन्तरेण पाण्डित्यं लब्धुम् इच्छामि। तदिदं देव्याः सरस्वत्याः अपमानम् अस्ति। गुरोः आवासम् एव प्राप्य अहं विद्याध्ययनं कुर्याम्। उद्यमेन एव उद्देश्यं लभ्यते। (सार्वजनिकरूपेण) हे मानवश्रेष्ठ! अहं न जानामि यत्त्वम् कोऽसि? परञ्च युष्माभिः मम नेत्रयुगलम् उद्घाटितम्। केवलं तपसा ज्ञानं लब्धुं प्रयासं कुर्वन् अहमपि बालुकाभिरेव धरणसृष्टिप्रयत्न करोमि। तर्हि अधुना विद्यार्जनाय अहं गुरोः आश्रमं प्रति प्रस्थानं करोमि।
इति अभिवादनेन सह याति। ((तपोदत्त लज्जा के साथ स्वयं से) (अरे मुझे ही निशाना बनाकर यह सज्जन आक्षेप कर रहा है। निश्चित ही इसके कथन में सच दिख रहा है। वर्णज्ञान के बिना विद्वत्ता प्राप्त करना चाहता हूँ। तो यह तो देवी सरस्वती का अपमान है। गुरु के आश्रम में ही पहुँचकर मुझे विद्याध्ययन करना चाहिए। परिश्रम से ही लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। (खुले में) हे मानव श्रेष्ठ ! मैं जानता हूँ कि तुम कोई भी हो? परन्तु तुमने मेरी आँखें खोल दी। केवल तप से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हुए मैं भी बालू से पुल बनाने का प्रयत्न कर रहा हूँ। तो आज ही विद्या प्राप्त करने के लिए मैं आश्रम की ओर प्रस्थान करता हूँ। ऐसा कहकर अभिवादन के साथ जाता है।)
अवबोधन कार्यम् –
1. एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दीजिए)
(क) पुरुषस्य आक्षेपे तपोदत्तः किं पश्यति? (पुरुष के आक्षेप में तपोदत्त क्या देखता है?)
(ख) कैः लक्ष्यं प्राप्यते? (लक्ष्य किनसे प्राप्त किया जाता है?)
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूर्ण वाक्य में उत्तर दीजिए)
(क) भगवत्याः शारदायाः अवमानना का? (भगवती शारदा का अपमान क्या है? )
(ख) पुरुषस्य आक्षेपं श्रुत्वा तपोदत्तः किं निर्णयति? (पुरुष के आक्षेप को सुनकर तपोदत्त क्या निर्णय लेता है?)
3. यथानिर्देशम् उत्तरत (निर्देशानुसार उत्तर दीजिए)
(क) ‘निमीलितम्’ इति पदस्य पर्यायं गद्यांशात् चित्वा लिखत।
(ख) ‘करणीयः’ इति पदे प्रत्यय लिखत। (करणीयः पद में प्रत्यय लिखिए।) .
उत्तराणि :
1.(क) सत्यम्।
(ख) पुरुषार्थेः (परिश्रम से)।
(क) अक्षरज्ञानं विना वैदुष्यं प्राप्तुं प्रयास:तु भगवत्याः शारदयाः अवमानना। (अक्षरज्ञान के बिना विद्वत्ता प्राप्त करने का प्रयास भगवती सरस्वती की. अवमानना है।)
(ख). ‘नूनं सत्यम् अत्र पश्यामि । अक्षरज्ञानं विना एव वैदुष्यं प्राप्तुम् इच्छामि तदियं भगवत्याः सरस्वती अवमाननाः। गुरु गहं गत्वा विद्याभ्यासः मया करणीयः। पुरुषाथैरेव लक्ष्यं प्राप्यते। (निश्चित सत्य देख रहा हूँ। अक्षरज्ञान के बिना ही विद्वत्ता प्राप्त करना चाहता हूँ तो यह भगवती सरस्वती का अपमान है। गुरु-घर जाकर विद्या का अभ्यास मुझे करना चाहिए। पुरुषार्थ से ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है।)
3. (क) उन्मीलितम् (उधारे हुए)
(ख) अनीयर् प्रत्यय।