Jharkhand Board JAC Class 9 Hindi Solutions Sparsh Chapter 12 एक फूल की चाह Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 9 Hindi Solutions Sparsh Chapter 12 एक फूल की चाह
JAC Class 9 Hindi एक फूल की चाह Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(क) कविता की उन पंक्तियों को लिखिए जिनसे निम्नलिखित अर्थ का बोध होता है –
सुखिया के बाहर जाने पर पिता का हृदय काँप उठता था।
(ख) पर्वत की चोटी पर स्थित मंदिर की अनुपम शोभा।
(ग) पुजारी से प्रसाद। फूल पाने पर सुखिया के पिता की मन:स्थिति।
(घ) पिता की वेदना और उसका पश्चाताप
उत्तर :
(क) बहुत रोकता था सुखिया को, न जा खेलने को बाहर;
नहीं खेलना रुकता उसका, नहीं ठहरती वह पल-भर।
मेरा हृदय काँप उठता था, बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ, किसी भाँति इस बार उसे।
(ख) ऊँचे शैल – शिखर के ऊपर, मंदिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण – कलश सरसिज विहसित थे, पाकर समुदित रवि-कर- जाल।
दीप – धूप से आमोदित था, मंदिर का आँगन सारा;
गूँज रही थी भीतर-बाहर, मुखरित उत्सव की धारा।
(ग) मेरे दीप – फूल लेकर वे, अंबा को अर्पित करके,
दिया पुजारी ने प्रसाद जब, आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट, परम लाभ-सा पाकर मैं,
सोचा, बेटी को माँ के ये पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।
(घ) बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर, छाती धधक उठी मेरी,
हाय ! फूल – सी कोमल बच्ची, हुई राख की थी ढेरी !
अंतिम बार गोद में बेटी, तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी तुझको दे न सका मैं हा!
प्रश्न 2.
बीमार बच्ची ने क्या इच्छा प्रकट की थी ?
उत्तर :
बीमार बच्ची ने देवी के प्रसाद के एक फूल को लाकर देने की इच्छा प्रकट की थी।
प्रश्न 3.
सुखिया के पिता पर कौन-सा आरोप लगाकर उसे दंडित किया गया ?
उत्तर :
सुखिया के पिता पर यह आरोप लगाया गया कि उसने मंदिर में घुसकर मंदिर की पवित्रता को नष्ट कर दिया है।
प्रश्न 4.
जेल से छूटने के बाद सुखिया के पिता ने अपनी बच्ची को किस रूप में पाया ?
उत्तर :
जेल से छूटने के बाद सुखिया के पिता ने देखा कि उसकी बच्ची उसके जेल जाने के बाद मर गई थी। उसे उसके परिचितों ने जला दिया था। वह उसके सामने बुझी हुई चिता की राख के ढेर के समान पड़ी हुई थी।
प्रश्न 5.
इस कविता का केंद्रीय भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
‘एक फूल की चाह’ कविता के माध्यम से कवि ने यह स्पष्ट किया है कि स्वतंत्रता से पूर्व हमारे देश में जाति-भेद की समस्या बहुत उग्र थी। जाति विशेष के लोगों को मंदिरों में नहीं जाने दिया जाता था। सुखिया महामारी से पीड़ित थी। उसने अपने पिता से देवी के मंदिर से देवी के प्रसाद के रूप में एक फूल लाने के लिए कहा। उसका पिता मंदिर गया और उसे देवी का प्रसाद भी मिल गया परंतु कुछ लोगों ने उसे पहचान लिया और पीटते हुए न्यायालय ले गए। वहाँ उसे सात दिन का दंड मिला। जब वह लौटकर आया तो उसकी बच्ची मर गई थी। उसका दाह-संस्कार भी उसके पड़ोसियों ने कर दिया था। वह बेटी के अंतिम दर्शन भी नहीं कर सका था।
प्रश्न 6.
इस कविता में से कुछ भाषिक प्रतीकों / बिंबों को छाँटकर लिखिए –
उदाहरण – अंधकार की छाया।
उत्तर :
(क) स्वर्ण – धन
(ग) हृदय – चिताएँ
(ख) पुण्य- पुष्प
(घ) चिरकालिक शुचिता
(ङ) उत्सव की धारा
प्रश्न 7.
निम्नलिखित पंक्तियों का आशय स्पष्ट करते हुए उनका अर्थ- सौंदर्य बताइए-
(क) अविश्रांत बरसा करके भी आँखें तनिक नहीं रीतीं।
(ख) बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर, छाती धधक उठी मेरी।
(ग) हाय ! वही चुपचाप पड़ी थी, अटल शांति-सी धारण कर।
(घ) पापी ने मंदिर में घुसकर, किया अनर्थ बड़ा भारी।
उत्तर :
(क) सुखिया का पिता जेल में बंद निरंतर रोता रहा। वह अपनी बेटी की इच्छा पूरी न कर पाने के कारण मन-ही-मन तड़पता रहा। लगातार रोने पर भी उसकी आँखों से आँसू कम नहीं हुए। मन की पीड़ा आँखों के रास्ते बहती ही रही।
(ख) श्मशान में सुखिया की बेटी की चिता बुझी पड़ी थी। सगे-संबंधी उसे जलाकर जा चुके थे। पिता का हृदय बेटी की चिता को देखकर धधक उठा था।
(ग) बेटी महामारी की चपेट में आ गई थी। हर समय चंचल रहने वाली अटल शांत-सी चुपचाप पड़ी हुई थी। वह कोई गति नहीं कर रही थी: अचंचल थी।
(घ) लोगों ने सुखिया के पिता को इस अपराध में पकड़ लिया था कि वह बीमार बेटी के लिए देवी माँ के चरणों का एक फूल प्रसाद रूप में प्राप्त करने के लिए मंदिर में प्रवेश कर गया था। भक्तों को लगा था कि उसने बहुत अनर्थ कर दिया था। उसने देवी का अपमान किया था।
योग्यता- विस्तार –
प्रश्न 1.
‘एक फूल की चाह’ एक कथात्मक कविता है। इसकी कहानी को संक्षेप में लिखिए।
उत्तर :
विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।
प्रश्न 2.
‘बेटी’ पर आधारित निराला की रचना ‘सरोज- स्मृति’ पढ़िए।
उत्तर :
विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।
प्रश्न 3.
तत्कालीन समाज में व्याप्त स्पृश्य और अस्पृश्य भावना में आज आए परिवर्तनों पर एक चर्चा आयोजित कीजिए।
उत्तर :
विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।
JAC Class 9 Hindi एक फूल की चाह Important Questions and Answers
प्रश्न 1.
मार खाने के बाद सुखिया के पिता ने माँ के भक्तों से क्या कहा ?
उत्तर :
मार खाने के बाद सुखिया के पिता ने माँ के भक्तों से कहा- क्या मेरा पाप माँ की महिमा से भी बड़ा है। क्या वह किसी बात में माँ की महिमा से भी आगे है। तुम लोग माँ के कैसे अजीब भक्त हो जो माँ के सामने ही माँ के गौरव को छोटा बना रहे हो।
प्रश्न 2.
सुखिया के पिता को अंत में किस बात का पछतावा रहा?
उत्तर :
सुखिया के पिता को अंत में इस बात का पछतावा था कि वह अंत समय में अपनी बेटी की देवी के प्रसाद की फूल-प्राप्ति की इच्छा भी पूरी नहीं कर सका। फूल का प्रसाद पहुँचाने में असमर्थ होने के कारण उसे पश्चात्ताप तथा दुख का अनुभव हो रहा था।
प्रश्न 3.
सुखिया का पिता पुजारी के हाथ से प्रसाद क्यों नहीं ले पाया ?
उत्तर :
सुखिया का पिता पुजारी के हाथ से प्रसाद लेना इसलिए भूल गया क्योंकि वह जल्दी-से-जल्दी देवी के मंदिर से पुण्य-पुष्प लाकर अपनी बेटी को देना चाहता था।
प्रश्न 4.
भाव स्पष्ट कीजिए –
(क) देख रहा था – जो सुस्थिर हो, नहीं बैठती थी क्षण-भर
हाय! वही चुपचाप पड़ी थी, अटल शांति-सी धारण कर।
(ख) माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा ?
माँ के सम्मुख ही माँ का तुम, गौरव करते हो छोटा !
उत्तर :
इन प्रश्नों के उत्तर के लिए सप्रसंग व्याख्या का अंश देखें।
प्रश्न 5.
स्वर्ण कलश-सरसिज विहाँसित थे
पाकर समुदित रवि कर – जाल।
उपर्युक्त पंक्तियों के आधार पर बताइए कि स्वर्ण कलश के सौंदर्य की तुलना कवि ने किससे की है ?
उत्तर :
स्वर्ण कलश की तुलना कवि ने कमल के फूलों से की है। जिस प्रकार सूर्य की किरणों से कमल खिल उठते हैं, उसी प्रकार सूर्य की किरणों के प्रकाश से स्वर्ण कलश चमक उठे थे। यहाँ उपमा अलंकार का प्रयोग है। मंदिर के स्वर्ण कलश की उपमा स्वर्ण कमल से दी गई है।
प्रश्न 6.
जान सका न प्रभात सजग से,
हुई अलस कब दोपहरी।
आपके विचार में प्रभात के लिए ‘सजग’ और दोपहर के लिए ‘अलस’ विशेषणों का प्रयोग कवि ने क्यों किया है?
उत्तर :
प्रभात के लिए कवि ने ‘सजग’ विशेषण का प्रयोग इसलिए किया है क्योंकि प्रभात का समय जागरण का समय है। दोपहर के लिए ‘अलस’ विशेषण का प्रयोग इसलिए किया है क्योंकि यह समय आलस्य का भाव उत्पन्न करता है।
प्रश्न 7.
भीतर, “जो डर रहा छिपाए, हाय वही बाहर आया” कौन – सा डर था जो बाहर आया? कैसे?
उत्तर :
महामारी का भयंकर प्रकोप इधर-उधर फैल रहा था। सुखिया के पिता को यह डर था कि कहीं उसकी बेटी को यह रोग न घेर ले। एक दिन सुखिया को बुखार आ गया। यह देखकर पिता के मन में छिपा डर बाहर आ गया। उसे जिसका डर था, वही हुआ।
प्रश्न 8.
‘एक फूल की चाह’ कविता में बालिका के पिता के मन में भय क्यों था ?
उत्तर :
चारों ओर भयंकर महामारी फैली हुई थी। बहुत से बच्चे उस महामारी के प्रकोप से काल का ग्रास हो चुके थे। बालिका सुखिया पिता के बार-बार रोकने पर भी खेलने के लिए घर से बाहर चली जाती थी। इसी कारण पिता के मन में भय था कि कहीं उसकी बेटी महामारी की चपेट में न आ जाए।
प्रश्न 9.
‘एक फूल की चाह’ कविता में कवि क्या कहना चाहता है ?
उत्तर :
इस कविता में कवि यह कहना चाहता है कि ईश्वर की दृष्टि में सब बराबर हैं। जात-पात का भाव व्यर्थ है। कोई ऊँचा या नीचा नहीं है। दूसरों पर अत्याचार करने वाले प्रभुभक्त नहीं हो सकते।
प्रश्न 10.
“छोटी-सी बच्ची को ग्रसने, कितना बड़ा तिमिर आया !” भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
यहाँ तिमिर मौत का सूचक है। छोटी-सी और कोमल बच्ची भयंकर महामारी से ग्रस्त बिस्तर पर पड़ी तड़प रही थी। उस फूल- सी बच्ची की दयनीय दशा देखकर ऐसा लग रहा था मानो प्रचंड महामारी मौत का रूप धारण कर उसे ग्रसने आई हो।
प्रश्न 11.
लोगों की मृत्यु का क्या कारण था ? मृतकों के सगे-संबंधियों का रोना किस प्रकार का वातावरण उत्पन्न कर रहा था ?
उत्तर :
लोगों की मृत्यु का कारण उस क्षेत्र में फैली महामारी थी। महामारी से मरने वालों के सगे-संबंधियों का रोना निरंतर वातावरण में दुख फैला रहा था। उनके हृदय रूपी चिताएँ जल रही थीं, धधक रही थीं व माताओं का रोना सभी दिशाओं को चीरता हुआ फैल रहा था। वे किसी भी प्रकार अपने हृदय को सांत्वना नहीं दे पा रहे थे।
प्रश्न 12.
सुखिया किस प्रकार लेटी हुई थी और उसका पिता उसे क्यों उकसा रहा था ?
उत्तर :
सुखिया महामारी का शिकार बन तेज़ बुखार में तपती हुई स्थिर व शांत लेटी हुई थी। उसका पिता उसे इस प्रकार लेटे देखकर डर रहा था। सुखिया तो कभी शांत होकर नहीं बैठती थी। पिता उसे पहले की तरह चंचल देखना चाहता था, इसलिए उसे देवी के प्रसाद की प्राप्ति के लिए उकसा रहा था ताकि वह कुछ तो बोले।
प्रश्न 13.
लोगों ने सुखिया के पिता की निंदा क्यों की ?
उत्तर :
लोगों ने सुखिया के पिता की निंदा इसलिए की क्योंकि उन लोगों का मंदिर में आना मना था, परंतु वह अपनी बेटी के लिए देवी माँ का प्रसाद लेने आया था। लोगों के अनुसार उसने मंदिर में आकर मंदिर की पवित्रता नष्ट कर दी थी। उसने ऐसा अपराध किया था जो क्षमा के योग्य नहीं था।
व्याख्या :
1. उद्वेलित कर अश्रु – राशियाँ, हृदय – चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचंड हो फैल रही थी इधर-उधर।
क्षीण- कंठ मृतवत्साओं का करुण रुदन दुर्दात नितांत,
भरे हुए था निज कृश रव में हाहाकार अपार अशांत।
शब्दार्थ : उद्वेलित – भाव-विभोर। अश्रु – राशियाँ – आँसुओं की झड़ी। प्रचंड तीव्र। क्षीण कंठ – दबी आवाज़। मृतवत्साओं – जिन माताओं की संतानें मर गई हैं। रुदन रोना। दुर्दात जिसे वश में करना कठिन हो, हृदय को दहलाने वाला। नितांत – बिलकुल। निज – अपना। कृश – कमज़ोर। रव – शोर।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘एक फूल की चाह’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने महामारी से ग्रस्त कन्या की व्यथा को चित्रित किया है जो देवी के चरणों में अर्पित एक फूल की कामना करती है परंतु समाज में व्याप्त छुआछूत की समस्या उसकी इस इच्छापूर्ति में बाधक बन जाती है।
व्याख्या : इन पंक्तियों में कवि महामारी के फैलने का वर्णन करते हुए लिखता है कि लोग महामारी से मर रहे थे। मृतकों के सगे-संबंधी परेशान और पीड़ित हो निरंतर आँसू बहाते थे। उनके हृदय रूपी चिताएँ धधक – धधक कर पीड़ा को व्यक्त करती थीं। भीषण महामारी प्रचंड होकर इधर-उधर फैल रही थी। जिन ममतामयी माताओं की संतानें मौत को प्राप्त हो गई थीं वे अपने कमज़ोर गले से चीख – चिल्ला रही थीं। उनकी करुणा से भरी चीख-पुकार सब दिशाओं में फैल रही थी। अपने कमज़ोर और दीन-हीन हाहाकार के शोर में उनकी अशांत कर देनेवाली अपार मानसिक पीड़ा छिपी हुई थी।
2. बहुत रोकता था सुखिया को, न जा खेलने को बाहर;
नहीं खेलना रुकता उसका, नहीं ठहरती वह पल-भर।
मेरा हृदय काँप उठता था, बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ, किसी भांति इस बार उसे।
शब्दार्थ : निहार – देखकर।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘स्पर्श’ में संकलित कविता ‘एक फूल की चाह से अवतरित हैं। इस कविता के रचयिता श्री सियारामशरण गुप्त हैं। इसमें उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व की दयनीय दशा का चित्रण किया है। महामारी का भयंकर रोग फैल जाता है। एक व्यक्ति अपनी बेटी सुखिया को छूत के इस रोग से बचाने की कोशिश करता है पर अंततः उसकी बेटी इस रोग से प्रभावित हो ही जाती है। इस पद्यांश में पिता की मनःस्थिति का चित्रण हुआ है।
व्याख्या : छूत की बीमारी फैलने पर सुखिया के पिता का हृदय भय से भर गया था कि कहीं उसकी बेटी को भी महामारी का रोग न घेर ले। अतः वह अपनी बेटी को बहुत रोकता था कि वह खेलने के लिए घर से बाहर न जाए। लेकिन स्वभाव से चंचल होने के कारण सुखिया का खेल नहीं रुकता था। वह पलभर के लिए भी घर में न टिकती थी। उसे बाहर गया देखकर पिता का हृदय काँप उठता था। वह यही मनौती मनाता था कि किसी तरह इस बार उसे बचा ले।
3. भीतर जो डर रहा छिपाए, हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को, ताप तप्त मैंने पाया।
ज्वर में विह्वल हो बोली वह, क्या जानूँ किस डर से डर,
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही दो लाकर।
शब्दार्थ : दिवस – दिन। तनु – शरीर। ताप-तप्त – ज्वर, बुखार से पीड़ित। विह्वल – दुखी।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित कविता, ‘एक फूल की चाह’ से अवतरित हैं। इस कविता में कवि ने एक व्यक्ति की दयनीय दशा का चित्रण किया है। उसका हृदय हमेशा डरता रहता था कि कहीं महामारी का रोग उसकी बेटी को ग्रस्त न कर ले।
व्याख्या : वह कहता है कि – मेरे भीतर जो डर का भाव था, वही एक दिन प्रकट रूप में सामने आ गया। मैंने अपनी बेटी सुखिया के शरीर को ज्वर से पीड़ित पाया। ज्वर की पीड़ा से पीड़ित होकर तथा न जाने किस डर से डरकर वह कहने लगी- मुझे देवी के प्रसाद का एक फूल लाकर दो। सुखिया का एक फूल के प्रसाद की कामना करना उसपर दैवी प्रकोप के प्रभाव का प्रमाण प्रस्तुत करता है।
4. क्रमशः कंठ क्षीण हो आया, शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की, चिंता में मैं मन मारे।
जान सका न प्रभात सजग से, हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण- घनों में कब रवि डूबा, कब आई संध्या गहरी।
शब्दार्थ : क्रमशः – क्रम से, सिलसिलेवार। शिथिल – ढीले। अवयव अंग। नव नए। प्रभात – नए। प्रभात – सवेरा। स्वर्ण घने – सोने के रंग जैसे बादल। रवि सूर्य।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित ‘एक फूल की चाह’ नामक कविता से अवतरित की गई हैं। सुखिया का पिता हमेशा इस बात से डरता था कि कहीं उसकी बेटी भी महामारी का शिकार न बन जाए। आखिर वही हुआ जिसका डर था। सुखिया को भी महामारी ने आ घेरा। सुखिया की दशा का वर्णन करते हुए उसका पिता कहता है।
व्याख्या : धीरे-धीरे सुखिया के गले की आवाज़ कमज़ोर हो गई। सारे अंग ढीले पड़ गए। मैं मन को मारे हुए अर्थात उदास हुए नए-नए तरीके सोचने में लीन था। सोचता था इसके लिए फूल कैसे लाया जाए। सवेरे सजग होकर, जागकर मैं यह जान न सका कि कब दोपहर हो गई। यह भी न समझ सका कि कब सुनहरे बादलों में सूर्य डूबा और कब गहरी घनी, अंधकारपूर्ण संध्या आ गई।
5. सभी ओर दिखलाई दी बस, अंधकार की ही छाया,
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने, कितना बड़ा तिमिर आया !
ऊपर विस्तृत महाकाश में, जलते से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थीं आँखें, जगमग जगते तारों से।
शब्दार्थ : ग्रसने – डसने। तिमिर – अंधकार। महाकाश – विशाल आकाश।
प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘एक फूल की चाह’ से अवतरित है। करुण रस से ओत-प्रोत इस कविता में कवि ने समाज के एक वर्ग की दयनीय दशा का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। यहाँ सुखिया की निरंतर बिगड़ती हुई दशा का वर्णन है।
व्याख्या : सुखिया की निरंतर बिगड़ती हुई दशा के कारण उसका निराश पिता कहता है कि यद्यपि मैंने अपनी बेटी का हठ पूरा करने के अनेक उपायों पर विचार किया, किंतु केवल निराशा ही मेरे हाथ लगी। मेरी इतनी सुकुमार और छोटी-सी बालिका को ग्रसने के लिए इतनी प्रचंड महामारी का प्रकोप छाया हुआ था। सुखिया की आँखों से आग निकल रही थी, जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो विस्तृत आकाश में अंगारों की तरह अगणित तारे चमक रहे हों। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार तारों से आकाश के विस्तार का अनुमान नहीं लग पाता, उसी प्रकार सुखिया की झुलसती आँखों से उसके शरीर के ताप का सही अनुमान नहीं लग सकता था।
6. देख रहा था – जो सुस्थिर हो, नहीं बैठती थी क्षण-भर
हाय! वही चुपचाप पड़ी थी, अटल शांति-सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं, उसे स्वयं ही उकसाकर
मुझको देवी के प्रसाद का एक फूल ही दो लाकर।
शब्दार्थ : सुस्थिर एक स्थान पर टिका हुआ, अडिग। अटल – स्थिर।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘एक फूल की चाह से अवतरित हैं। सुखिया रोग ग्रस्त हो जाने के कारण स्थिर अवस्था में पड़ी रहती थी।
व्याख्या : सुखिया का पिता कहता है- जो बेटी स्वभाव से चंचल होने के कारण पल-भर के लिए भी एक स्थान पर टिककर नहीं बैठती थी, वही अब स्थिर शांति धारण किए एक ही स्थान पर पड़ी रहती थी। अब वह दुर्बल तथा क्षीण कंठ होने के कारण बोल भी नहीं सकती थी। उसका पिता अपनी मानसिक शांति के लिए स्वयं उसको उकसाकर एक बार उससे यही सुनना चाहता था – ‘मुझे देवी के प्रसाद का एक फूल लाकर दो।’
7. ऊँचे शैल – शिखर के ऊपर, मंदिर था विस्तीर्ण विशाल;
स्वर्ण कलश सरसिज विहसित थे, पाकर समुदित रवि-कर- जाल।
दीप- धूप से आमोदित था, मंदिर का आँगन सारा;
गूँज रही थी भीतर – बाहर, मुखरित उत्सव की धारा।
शब्दार्थ : शैल शिखिर पर्वत की चोटी। विस्तीर्ण – विस्तृत। विशाल – बहुत बड़े आकारवाला। स्वर्ण कलश – सोने के कलश। सरसिज – कमल। विहसित – हँसते हुए। रवि-कर- जाल सूर्य की किरणों का समूह। आमोदित प्रसन्न।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित ‘एक फूल की चाह’ नामक कविता से अवतरित की गई हैं। कवि मंदिर के बाहरी सौंदर्य तथा भीतरी वातावरण पर प्रकाश डालता हुआ कहता है।
व्याख्या : पर्वत की चोटी पर एक बहुत बड़ा मंदिर था। सूर्य की किरणों के समूह को पाकर सोने का कलश कमल के समान हँसता हुआ दिखाई देता था। भाव यह है कि सूर्य की किरणों का स्पर्श पाकर कमल खिलते हैं। मंदिर का स्वर्णिम कलश भी सूर्य की किरणों का स्पर्श पाकर कमल के समान खिला हुआ दिखाई दे रहा था। दीपकों और सुगंधित धूप से मंदिर का सारा आँगन प्रसन्नता को व्यक्त कर रहा था। मंदिर के भीतर और बाहर उत्सव की धारा प्रकट हो रही थी। भाव यह है कि मंदिर के भीतर जो भजन आदि गाए जा रहे थे, उनकी आवाज़ भी गूँज रही थी।
8. भक्त-वृंद मृदु-मधुर कंठ से, गाते थे सभक्ति मुद-मय-
‘पतित-तारिणी पाप-हारिणी’ माता तेरी जय-जय।’
‘पतित-तारिणी’ तेरी जय जय, मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को, जाने किस बल से ढिकला।
शब्दार्थ : भक्त वृंद – भक्तों का समूह। मुद-मय प्रसन्नतापूर्वक। पतित-तारिणी पापियों को तारने वाली। पाप हारिणी- पापों को हरनेवाली। ढिकला – ढकेला गया; ठेला गया।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘एक फूल की चाह’ से अवतरित हैं। मंदिर में भक्तों का समूह देवी माँ की वंदना कर रहा था।
व्याख्या : भक्तों का समूह भक्ति भाव से भरकर कोमल, मधुर तथा प्रसन्नचित्त मन से यही गा रहा था – हे माता ! तू पतितों को तारनेवाली तथा उनके पापों को हरनेवाली है। हे माता ! तुम्हारी जय-जयकार हो। सुखिया का पिता कहता है कि उन भक्तों के अनुकरण पर मेरे मुख से भी यही निकला – हे पापियों को तारनेवाली तेरी जय हो। वह बिना बढ़े ही भीड़ द्वारा आगे ठेल दिया गया।
9. मेरे दीप – फूल लेकर वे, अंबा को अर्पित करके,
दिया पुजारी ने प्रसाद जब, आगे को अंजलि भरके,
भूल गया उसका लेना झट, परम लाभ-सा पाकर मैं,
सोचा, बेटी को माँ के ये, पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं,
शब्दार्थ : अंबा – माँ, देवी माँ। अर्पित – भेंट। अंजलि – मुट्ठी। पुण्य-पुष्प – पवित्र फूल।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘एक फूल की चाह’ से अवतरित हैं। सुखिया का पिता अपनी बीमार बेटी के लिए देवी के मंदिर में प्रसाद लेने जा पहुँचता है।
व्याख्या : सुखिया का पिता कहता है कि मेरे दीप और फूल को लेकर पुजारी ने देवी माँ के चरणों में अर्पित कर दिए। पुजारी ने जब अपना हाथ आगे बढ़ाकर मुझे प्रसाद दिया तो मैं उसको लेना ही भूल गया। मैंने परम लाभ पाकर यही सोचा कि मैं अपनी बेटी को शीघ्र अति शीघ्र जाकर माँ के पवित्र फूल दूँ।
10. सिंह पौर तक भी आँगन से, नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि – “कैसे यह अछूत भीतर आया ?
पकड़ो, देखो भाग न जावे, बना धूर्त यह धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किए है, भले मानुषों के जैसा !”
शब्दार्थ : सिंह पौर – मंदिर का मुख्य द्वार। सहसा – प्रसंग। अचानक। धूर्त – दुष्ट। परिधान – वस्त्र। मानुषों – मनुष्यों।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘एक फूल की चाह’ से अवतरित हैं। यहाँ सुखिया के पिता के मंदिर में जाने के दुष्परिणाम परिणाम पर प्रकाश डाला है।
व्याख्या : सुखिया का पिता कहता है – मैं माँ के मंदिर से पवित्र फूल लेकर अभी मंदिर के मुख्य द्वार पर भी नहीं पहुँचा था कि अचानक यह आवाज़ सुनाई दी कि यह मंदिर के भीतर कैसे घुस आया। सबने कहा कि उसे पकड़ लो, कहीं भाग न जाए। साफ़-सुथरे कपड़े पहनकर यह दुष्ट भले मानुष का सा रूप धारण करके आ गया है।
11. पापी ने मंदिर में घुसकर किया अनर्थ बड़ा भारी,
कलुषित कर दी है मंदिर की, चिरकालिक शुचिता सारी।
ऐं, क्या मेरा कलुष बड़ा है, देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे, माता की महिमा के भी ?
शब्दार्थ : अनर्थ – अविष्ट। कलुषित – अपवित्र। चिरकालिक – बहुत पुराने समय से चली आ रही। शुचिता – पवित्रता। कलुष – पाप। गरिमा – महानता।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘एक फूल की चाह’ शीर्षक कविता से उद्धृत की गई हैं। जब मंदिर में उपस्थित लोगों को यह पता लगा कि सुखिया का पिता देवी के मंदिर में घुस आया है तो सभी ने उसकी कठोर भर्त्सना एवं निंदा की।
व्याख्या : मंदिर में उपस्थित लोग कहने लगे कि – देखो तो सही, इस पापी ने मंदिर में घुसकर कितना बड़ा अनर्थ कर डाला है। इसने मंदिर की पुरानी पवित्रता को नष्ट कर दिया है। निश्चय ही इसका कृत्य अक्षम्य है। जब सुखिया के पिता ने यह सब सुना तो वह सहज भाव से बोला, हे भाई, क्या मेरा पाप इतना बड़ा है कि देवी की महानता उसे क्षमा नहीं कर सकती ? अभिप्राय यह है कि देवी के समक्ष तो सभी एकसमान हैं- फिर मेरा ही पाप तो इतना बड़ा नहीं है कि मुझे क्षमादान नहीं मिल सकता। मेरी तरह तुम सब भी तो किसी-न-किसी रूप में पापी हो। तात्पर्य यह है कि देवी की गरिमा और महानता को मुझसे और मेरे कृत्यों से कोई क्षति नहीं पहुँच सकती। देवी के सर्वशक्तिशाली रूप के समक्ष मेरा अकिंचन अस्तित्व कोई महत्व नहीं रखता।
12. माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा ?
माँ के सम्मुख ही माँ का तुम, गौरव करते हो छोटा !
कुछ न सुना भक्तों ने, झट से मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार मार कर मुक्के घूँसे, धम-से नीचे गिरा दिया !
शब्दार्थ : सम्मुख – सामने। गौरव – सम्मान।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘एक फूल की चाह’ से अवतरित हैं। इन पंक्तियों में सुखिया के पिता के उद्गारों का मार्मिक वर्णन है।
व्याख्या : सुखिया का पिता देवी के भक्तों को संबोधित कर कहता है कि इतना तुच्छ विचार रखकर तुम माँ के कैसे विचित्र भक्त हो। तुम माँ के सम्मुख ही माँ की महिमा को छोटा कर रहे हो। अभिप्राय यह है कि माँ का मंदिर इतना पवित्र है कि वह किसी भी पापी के प्रवेश से अपवित्र बन ही नहीं सकता। मंदिर को अपवित्र कहना माँ के गौरव का हनन करना है। लेकिन देवी के भक्तों ने उसकी बातों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। उसे पकड़ लिया तथा मुक्के और घूँसे मार-मारकर उसे धरती पर गिरा दिया।
13. मेरे हाथों से प्रसाद भी, बिखर गया हा ! सबका सब
हाय ! अभागी बेटी तुझ तक कैसे पहुँच सके यह अब !
न्यायालय ले गए मुझे वे सात दिवस का दंड विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे देवी का महान अपमान!
शब्दार्थ : न्यायालय – अदालत। दंड – सज़ा। विधान – नियम।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘एक फूल की चाह’ से अवतरित हैं। इन पंक्तियों में सुखिया के पिता की व्यथा का मार्मिक चित्रण है।
व्याख्या : सुखिया का पिता कहता है कि मंदिर में उपस्थित भक्तों ने उसे खूब पीटा, क्योंकि उसने मंदिर में घुसकर घोर अपराध किया था। मार-पीट के दौरान उसके हाथों का प्रसाद भी नीचे गिर गया था। वह सोचता है कि उसकी अभागी बेटी के पास अब प्रसाद कैसे पहुँचे। सुखिया तक उस प्रसाद के पहुँचने की कोई संभावना न थी। अदालत ने उसे इस अपराध के लिए सात दिन की सज़ा सुनाई। लोगों के अनुसार उसके कारण देवी का घोर अपमान हुआ था।
14. मैंने स्वीकृत किया दंड वह शीश झुकाकर चुप ही रह;
उस असीम अभियोग, दोष का क्या उत्तर देता, क्या कह ?
सात रोज़ ही रहा जेल में या कि वहाँ सदियां बीतीं,
अविश्रांत बरसा करके भी आँखें तनिक नहीं रीतीं।
शब्दार्थ : दंड – सज़ा। शीश – सिर। असीम – सीमा से रहित, अत्यधिक। अविश्रांत – लगातार, बिना रुके हुए। तनिक – ज़रा भी। रीतीं – खाली हुईं।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श- भाग एक’ में संकलित कविता ‘एक फूल की चाह’ से ली गई हैं जिसके रचयिता श्री सियारामशरण गुप्त हैं। कवि ने समाज में व्याप्त धर्म पर आधारित रूढ़ियों का सजीव चित्रण किया है। सुखिया के पिता को मंदिर से प्रसाद लेने के अपराध में जेल में भेज दिया गया था जबकि उसकी बेटी घर में पड़ी मौत से लड़ रही थी।
व्याख्या : सुखिया के पिता का कहना है कि उसने न्यायालय के सामने सिर झुकाकर दिए गए दंड को स्वीकार किया। उस पर लगाए गए इतने बड़े आरोप का भला वह क्या कह कर उत्तर देता। उसके पास कहने के लिए कुछ नहीं था। वह सात दिन तक जेल में बंद रहा। उसे ऐसा लगता कि वह सदियों से वहाँ बंद था। निरंतर उसकी आँखें आँसू बहाती रहतीं पर फिर भी वे ज़रा भी खाली न हुईं। आँसू तो उनमें ज्यों- के त्यों भरे ही रहे और बेटी की याद और अपने साथ हुए अन्याय के कारण बरसते रहे।
15. दंड भोगकर जब मैं छूटा, पैर न उठते थे घर को ;
पीछे ठेल रहा था कोई भय जर्जर तनु पंजर को।
पहले की-सी लेने मुझको नहीं दौड़कर आई वह;
उलझी हुई खेल में ही हा ! अबकी दी न दिखाई वह।
शब्दार्थ : दंड – सज़ा। ठेल – धकेल। तनु – शरीर।
प्रसंग : प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक स्पर्श (भाग – एक) में संकलित कविता ‘एक फूल की चाह’ से लिया गया है जिसके रचयिता श्री सियारामशरण गुप्त हैं। बेटी के लिए प्रसाद लेने के लिए पिता मंदिर गया था, पर जाति-भेद के कारण उसे मार-पीट कर सात दिन के लिए जेल में भेज दिया गया था।
व्याख्या : सुखिया के पिता जेल में सजा भोगने के बाद जब घर को लौट रहा था तो ग्लानि के कारण उसके पाँव नहीं उठ रहे थे। डर और कमज़ोरी के कारण उसके लड़खड़ाते शरीर को जैसे कोई पीछे धकेल रहा था। वह आगे बढ़ ही नहीं पा रहा था। आज उसे पहले की तरह लेने के लिए उसकी बेटी सुखिया भागकर आगे से नहीं आई थी और न ही किसी खेल – कूद में ही उलझी हुई दिखाई दी।
16. उसे देखने मरघट को ही गया दौड़ता हुआ वहाँ,
मेरे परिचित बंधु प्रथम ही, फूँक चुके थे उसे जहाँ।
बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर, छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची, हुई राख की थी ढेरी!
अंतिम बार गोद में बेटी, तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी तुझको दे न सका मैं हा!
शब्दार्थ : मरघट मरघट – श्मशान। बंधु मित्र, रिश्तेदार। फूँक चुके – जला चुके।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘स्पर्श (भाग – एक) ‘ में संकलित कविता ‘एक फूल की चाह’ से ली गई हैं जिसके रचयिता श्री सियारामशरण गुप्त हैं। महामारी के कारण बेटी चल बसी थी पर पिता उसे देवी माँ के प्रसाद रूप में एक फूल तक न लाकर दे सका।
व्याख्या : सुखिया का पिता कहता है कि वह अपनी मृतक बेटी को देखने के लिए श्मशान की ओर दौड़ता हुआ पहुँचा लेकिन उसके सगे-संबंधी पहले ही उसके मृतक शरीर को जला चुके थे। उसकी बुझी हुई चिता ही थी। पिता का हृदय धधक पड़ा, वह कराह उठा। हाय ! उसकी फूल – सी कोमल बेटी राख की ढेरी बन चुकी थी। पिता अपनी बेटी को अंतिम बार गोद में भी नहीं ले सका। बेटी ने एक ही तो चीज़ माँगी थी और वह देवी माँ का प्रसाद रूप में एक फूल भी उसे नहीं दे सका था। वह अपनी इच्छा को साथ लेकर ही यहाँ से चली गई।
एक फूल की चाह Summary in Hindi
कवि-परिचय :
जीवन – परिचय – सियारामशरण गुप्त राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई थे। उनका जन्म सन् 1895 ई० में चिरगाँव, जिला झाँसी में हुआ था। श्वास रोग, पत्नी की असामयिक मृत्यु तथा राष्ट्रीय आंदोलन की असफलता ने उनके शरीर को जर्जर कर दिया था। यही कारण है कि उनके काव्य में करुणा, पीड़ा एवं विषाद का स्वर प्रधान हो गया है। सन् 1963 ई० में इनका देहांत हो गया।
रचनाएँ – गुप्त जी ने काव्य-रचना के साथ-साथ कहानी, उपन्यास, निबंध एवं नाटक के क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। वे कवि रूप में ही अधिक प्रसिद्ध हैं। इनकी प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं – मौर्य विजय, दूर्वादल, आर्द्रा, पाथेय, आत्मोत्सर्ग, मृण्मयी, बापू, उन्मुक्त, गोपिका, नकुल, दूर्वादल तथा नोआखली आदि। ‘गीता-संवाद’ में श्रीमद्भगवद गीता का काव्यानुवाद है।
काव्य की विशेषताएँ – सियारामशरण गुप्त की कविताओं में मानवतावाद तथा राष्ट्रवाद की प्रधानता है। अतीत के प्रति अनुराग तथा नवीनता के प्रति आस्था उनके काव्य की अन्य उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। आख्यानक गीति रचने में वे सिद्धहस्त रहे हैं। गाँधी एवं विनोबा के जीवन-दर्शन के प्रभावस्वरूप उन्होंने दया, सहानुभूति, सत्य, अहिंसा एवं परोपकार आदि भावनाओं को विशेष महत्त्व दिया है। गुप्त जी की काव्यभाषा खड़ी बोली है जिसके ऊपर संस्कृत के तत्सम शब्दों का पर्याप्त प्रभाव है।
कविता का सार :
‘एक फूल की चाह’ कविता श्री सियारामशरण गुप्त द्वारा रचित है। इस कविता में एक ओर पुत्री के प्रति पिता के असीम स्नेह का चित्रण है, तो दूसरी ओर समाज में व्याप्त छुआछूत एवं ऊँच-नीच की समस्या पर प्रकाश डाला है। कवि ने इस रचना के माध्यम से यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि किसी के स्पर्श से देवी की पवित्रता और गरिमा नष्ट नहीं होती, बल्कि देवी की शरण में जाने पर सभी पवित्र हो जाते हैं। देवी की महिमा अपरंपार है और उसकी गरिमा पतितों का उद्धार करने में ही है।
किसी स्थान पर भीषण महामारी फैल गई। इस महामारी के भय से बालिका सुखिया का पिता उसे घर से बाहर नहीं जाने देता। फिर भी सुखिया उस महामारी की चपेट में आ ही गई। महामारी से ग्रस्त सुखिया पिता से देवी के प्रसाद में मिलनेवाले फूल को प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त करती है। अपनी जाति के कारण पिता मंदिर में जाकर फूल लाने से डरता है किंतु पुत्री के मोह ने उसे देवी के मंदिर से फूल लाने के लिए विवश कर दिया।
प्रसाद रूप में फूल लेकर जैसे ही वह लौटने लगा, कुछ लोगों ने उसे पहचान लिया तथा पकड़कर बुरी तरह पीटा। फिर उसपर मंदिर की पवित्रता भंग करने का आरोप लगाकर जेल भिजवा दिया। सात दिन का कारावास का दंड भोगकर जब वह घर लौटा तो उसकी प्यारी बेटी सुखिया की मृत्यु हो चुकी थी। अपनी बेटी की अंतिम इच्छा पूरी न कर सकने के कारण उसका हृदय चीत्कार कर उठा।