Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता
Jharkhand Board Class 11 Political Science स्वतंत्रता InText Questions and Answers
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प्रश्न 1.
यदि अपने परिधान का चयन अपनी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है तो नीचे दी गई उन स्थितियों को किस तरह देखेंगे जिनमें खास तरह के परिधान पर प्रतिबंध लगाया गया है?
1. माओ के शासनकाल में चीन में सभी लोगों को ‘माओ सूट’ पहनना पड़ता था। तर्क यह था कि यह समानता की अभिव्यक्ति है।
2. एक मौलवी द्वारा सानिया मिर्ज़ा के खिलाफ फतवा जारी किया गया; क्योंकि उसका पहनावा उस पहनावे के खिलाफ माना गया जो महिलाओं के लिए तय किया गया है।
3. क्रिकेट के टैस्ट मैचों में यह जरूरी है कि हर खिलाड़ी सफेद कपड़े पहने।
4. छात्र-छात्राओं को विद्यालय में एक निर्धारित वेशभूषा में रहना पड़ता है।
उत्तर:
- “माओ के शासन काल में चीन में सभी लोगों को ‘माओ सूट’ पहनना पड़ता था।” यह परिधान के चयन की चीनी लोगों की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध था। क्योंकि यह प्रतिबन्ध राज्यशक्ति के बल पर लगाए गए थे, जिनके खिलाफ लड़ना मुश्किल था।
- एक मौलवी द्वारा सानिया मिर्जा के पहनावे के खिलाफ फतवा जारी करना भी पहनावे के चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध था । धार्मिक नेताओं को अपने धार्मिक क्षेत्र के बाहर समाज के अन्य कार्यस्थलों में पहनावे की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई अधिकार नहीं है।
- ‘क्रिकेट के टैस्ट मैचों में यह जरूरी है कि हर खिलाड़ी सफेद कपड़े पहने।’ यह अपने परिधान में चयन की अपनी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध नहीं है; क्योंकि खेल के नियम के तहत खिलाड़ियों ने स्वेच्छापूर्वक इस नियम को स्वीकार किया है, जो खेल के नियमों की परम्परा के रूप में माना जा रहा है, इससे खिलाड़ियों की स्वतंत्रता सीमित नहीं होती है।
- ‘छात्र-छात्राओं को विद्यालय में एक निर्धारित वेश-भूषा में रहना पड़ता है।’ यह विद्यालय के विद्यार्थियों की पहचान हेतु विद्यालय प्रशासन के एक नियम के रूप में पालन किया जाता है। इससे परिधान पहनने की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं लगता है; क्योंकि विद्यालय के बाहर छात्र को इसकी पूर्ण स्वतंत्रता है।
प्रश्न 2.
मनचाहे परिधान पर प्रतिबंध सभी मामलों में न्यायोचित है या केवल कुछ में? यह स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध का मामला कब बन जाता है?
उत्तर:
मनचाहे परिधान पर प्रतिबंध केवल कुछ मामलों में ही न्यायोचित है, सभी मामलों में नहीं। जब ये प्रतिबन्ध किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता द्वारा या राज्य की शक्ति के बल पर लोगों की इच्छा के विरुद्ध जबरन लाद दिये जाते हैं, तो यह मनचाहे परिधान पहनने की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध का मामला बन जाते हैं। लेकिन जब ये प्रतिबन्ध किसी क्षेत्र विशेष में, विशेष कार्य के दौरान, विशिष्ट कार्य के लिए नियम के रूप में लगाए जाते हैं।
तो इन प्रतिबन्धों से परिधान चयन की स्वतंत्रता का हनन नहीं होता है, जैसे टैस्ट क्रिकेट के खिलाड़ियों पर सफेद कपड़े पहनने का नियम, विद्यालय के छात्रों को निर्धारित गणवेश में आने का नियम । लेकिन जब ये प्रतिबन्ध किसी संगठित (सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक) सत्ता द्वारा सामान्य रूप से जबरन शक्ति के बल पर लादे जाते हैं, जैसे माओ काल में माओ सूट पहनने का प्रतिबन्ध या किसी मौलवी द्वारा किसी विशेष पहनावे को लादना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कटौती करते हैं।
प्रश्न 3.
परिधान के चयन की हमारी स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों को लगाने का अधिकार किसको है?
1. क्या धार्मिक नेताओं को परिधान के मामले में निर्णय देने का अधिकार होना चाहिए?
2. क्या यह राज्य को तय करना चाहिए कि कोई क्या पहने?
3. क्या क्रिकेट खेलते समय खिलाड़ियों के पहनावे के नियम तय करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड उपयुक्त संस्था है?
उत्तर:
- धार्मिक नेताओं को परिधान के मामले में निर्णय देने का अधिकार नहीं होना चाहिए।
- नहीं, राज्य को यह तय नहीं करना चाहिए कि कोई क्या पहने।
- हाँ, क्रिकेट खेलते समय खिलाड़ियों के पहनावे के नियम तय करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड उपयुक्त’ संस्था है।
प्रश्न 4.
क्या प्रतिबंध आरोपित करना अन्यायपूर्ण होता है? क्या यह कई तरीके से व्यक्तियों की अभिव्यक्ति को कम करते हैं?
उत्तर:
परिधान चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध आरोपित करना हमेशा अन्यायपूर्ण नहीं होता है। यदि ये प्रतिबन्ध किसी विशेष संस्था, जैसे: स्कूल, क्रिकेट संघ आदि ने उनके व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से संस्था के नियमों केतहत लगाये गए हों, तो वे अन्यायपूर्ण नहीं होते हैं। दूसरे शब्दों में, औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध अर्थात् यदि उन प्रतिबंधों के पीछे तार्किकता है कि वे जिन पर लगाये जा रहे हैं: औचित्यपूर्ण हैं। लेकिन जब ये प्रतिबंध किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता या राज्य की शक्ति के बल पर आरोपित किये जाते हैं;
तब ये हमारी स्वतंत्रता की कटौती इस प्रकार करते हैं कि उनके खिलाफ लड़ना मुश्किल हो जाता है। अत: जब हमें किन्हीं स्थितियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाता है, तब ये प्रतिबंध हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करते हैं। यह कई तरीके से व्यक्तियों की अभिव्यक्ति को कम करते हैं, जैसे।
- माओ के शासनकाल में चीन में सभी लोगों को माओ सूट पहनने के लिए बाध्य किया गया। इसने व्यक्ति की परिधान के चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को कम किया।
- किसी मौलवी द्वारा स्त्रियों के किसी पहनावे के खिलाफ फतवा जारी करना भी परिधानों के चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करता है।
Jharkhand Board Class 11 Political Science स्वतंत्रता Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
स्वतंत्रता से क्या आशय है? क्या व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता में कोई सम्बन्ध है?
उत्तर:
स्वतंत्रता का अर्थ-स्वतंत्रता के दो पक्ष हैं।
- व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव और
- ऐसी स्थितियों का होना, जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें। राजनीतिक सिद्धान्त में इन्हें क्रमशः स्वतंत्रता के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू कहा जाता है। यथा
1. स्वतंत्रता का नकारात्मक अर्थ:
नकारात्मक दृष्टि से ‘व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव ही स्वतंत्रता है।’ इस दृष्टिकोण से यदि किसी व्यक्ति पर बाहरी नियंत्रण या दबाव न हों और वह बिना किसी पर निर्भर हुए निर्णय ले सके तथा स्वायत्त तरीके से व्यवहार कर सके, तो वह व्यक्ति स्वतंत्र माना जा सकता है। लेकिन समाज में रहने वाला कोई भी व्यक्ति हर किस्म की सीमा और प्रतिबन्धों की पूर्ण अनुपस्थिति की उम्मीद नहीं कर सकता। अतः बाहरी प्रतिबन्धों के अभाव से आशय उन सामाजिक प्रतिबन्धों का कम से कम होना है, जो हमारी स्वतंत्रतापूर्वक चयन करने की क्षमता पर रोक-टोक लगाते हैं।
2. स्वतंत्रता का सकारात्मक अर्थ – सकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति की आत्म-अभिव्यक्ति की योग्यता का विस्तार करना और उसके अन्दर की संभावनाओं को विकसित करना है। इस अर्थ में स्वतंत्रता वह स्थिति है, जिसमें लोग अपनी रचनात्मकता और क्षमताओं का विकास कर सकें। अतः सकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता से आशय ऐसी स्थितियों के होने से है जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें।
अतः स्वतंत्रता वह सब कुछ करने की शक्ति है जिससे किसी दूसरे को आघात न पहुँचे। व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता में सम्बन्ध व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता दोनों परस्पर पूरक हैं। राष्ट्र की स्वतंत्रता में ही व्यक्ति की स्वतंत्रता संभव है। इसे निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।
- यदि एक राष्ट्र किसी अन्य शक्तिशाली राष्ट्र के अधीन है तो वह राष्ट्र स्वतंत्र नहीं है। ऐसे राष्ट्र के सदस्य स्वतंत्रता की आशा नहीं कर सकते। साम्राज्यवादी राष्ट्र अपने अधीन राष्ट्र के लोगों की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबंध लाद देता है। स्पष्ट है कि यदि राष्ट्र स्वतंत्र नहीं है तो उस राष्ट्र के व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबन्ध लगे होते हैं।
- एक गुलाम राष्ट्र के लोगों को अन्य राष्ट्रों में वही आदर व सम्मान नहीं मिलता है, जो एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों को मिलता है।
- एक परतंत्र राष्ट्र अपने नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से अपने समस्त संसाधनों का उपयोग नहीं कर पाता है; क्योंकि विदेशी शासक उन संसाधनों का उपयोग अपने देश के हित की दृष्टि से करते हैं।
- एक परतंत्र राष्ट्र के लोगों का आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक दृष्टि से शोषण किया जाता है।
- एक परतंत्र राष्ट्र के लोग अपनी पसंद की सरकार का चयन नहीं कर सकते। उन्हें स्वयं की सरकार चलाने की स्वतंत्रता नहीं मिलती।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि एक राष्ट्र की स्वतंत्रता और व्यक्तियों की स्वतंत्रता परस्पर पूरक हैं। एक स्वतंत्र राष्ट्र में ही लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हो सकती है, जिसमें व्यक्तियों की स्वतंत्रता संभव है।
प्रश्न 2.
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में क्या अन्तर है?
उत्तर:
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में अन्तर स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं।
- स्वतंत्रता की नकारात्मक अवधारणा से आशय है। बाहरी प्रतिबन्धों के अभाव के रूप में स्वतंत्रता, जबकि स्वतंत्रता की सकारात्मक अवधारणा से आशय है- स्वयं को अभिव्यक्त करने के अवसरों के विस्तार के रूप में स्वतंत्रता। दूसरे शब्दों में, नकारात्मक स्वतंत्रता से आशय बंधनों के न होने से है, जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता से आशय अनुचित बंधनों के न होने से है।
- नकारात्मक स्वतंत्रता का सरोकार अहस्तक्षेप के अनुलंघनीय क्षेत्र से है। नकारात्मक स्वतंत्रता अहस्तक्षेप के क्षेत्र का अधिकाधिक विस्तार करना चाहती है। दूसरी तरफ, सकारात्मक स्वतंत्रता के पक्षधरों का मानना है कि व्यक्ति केवल समाज में ही स्वतंत्र हो सकता है, समाज से बाहर नहीं। इसीलिए वह समाज को ऐसा बनाने का प्रयास करते हैं, जो व्यक्ति के विकास का रास्ता साफ करे। इस प्रकार सकारात्मक स्वतंत्रता का सम्बन्ध समाज की सम्पूर्ण दशाओं से है, न कि केवल कुछ क्षेत्र से।
- नकारात्मक स्वतंत्रता का तर्क होता है कि वह कौन-सा क्षेत्र है, जिसका स्वामी मैं हूँ? नकारात्मक स्वतंत्रतां का तर्क यह स्पष्ट करता है कि व्यक्ति क्या करने में मुक्त (स्वतंत्र ) है। इसके उलट सकारात्मक स्वतंत्रता के तर्क ‘कुछ करने की स्वतंत्रता’ के विचार की व्याख्या से जुड़े हैं। ये तर्क इस सवाल के जवाब में आते हैं कि ‘मुझ पर शासन कौन करता है?’ और इसका आदर्श उत्तर होगा, “मैं स्वयं पर शासन करता हूँ ।” इसका सरोकार व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को इस तरह सुधारने से है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में कम से कम अवरोध रहे।
- नकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य का व्यक्ति पर बहुत सीमित नियंत्रण होता है, इसके अनुसार राज्य स्वतंत्रताओं का शत्रु है जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विकास के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप कर सकता है क्योंकि राज्य स्वतंत्रता का शत्रु न होकर स्वतंत्रता में सहायक है।
- नकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार वह शासन सर्वोत्तम है, जो व्यक्ति के कम से कम क्षेत्र में हस्तक्षेप करता है अर्थात् कम से कम शासन करता है, जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार राज्य को नागरिकों के कल्याण हेतु सभी क्षेत्रों में कानून बनाकर हस्तक्षेप करने का अधिकार है।
- नकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा पहुँचाता है अर्थात् कानून और स्वतंत्रता परस्पर विरोधी हैं; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता में वृद्धि करता है; अर्थात् कानून व स्वतंत्रता परस्पर पूरक हैं।
प्रश्न 3.
सामाजिक प्रतिबन्धों से क्या आशय है? क्या किसी भी प्रकार के प्रतिबंध स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं?
उत्तर:
सामाजिक प्रतिबन्धों से आशय: एक सामाजिक प्रतिबंध सम्पूर्ण समाज के हित तथा कल्याण के लिए व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर लगाए जाने वाला प्रतिबन्ध है। समाज में रहते हुए कोई भी व्यक्ति सामाजिक प्रतिबन्धों से पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकता। समाज में व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों का होना आवश्यक है। इसीलिए कहा जाता है कि स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं है, बल्कि औचित्यपूर्ण प्रतिबंधों का होना है।एक व्यक्ति, जब जंगल में अकेला रहता है, वहाँ वह जो चाहे करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन एक समाज में रहते हुए वह मनचाहे कार्य करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता।
समाज में रहते हुए एक व्यक्ति को अपने स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करते समय समाज के अन्य लोगों की सुविधाओं और असुविधाओं को ध्यान में रखना पड़ता है। उदाहरण के लिए मुझे अपना वाहन चलाने की स्वतंत्रता है, लेकिन वाहन चलाते समय मुझे यह ध्यान रखना पड़ेगा कि वह वाहन चलाने की दूसरों की स्वतंत्रता में बाधक न बने। इसलिए वाहन चलाने की मेरी स्वतंत्रता पर यह प्रतिबंध लगाया गया है कि मैं अपना वाहन सड़क के बायीं ओर ही चलाऊँ, न कि दोनों तरफ; ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने वाहन चलाने की स्वतंत्रता का बिना किसी व्यवधान के उपभोग कर सके।
अतः व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर सामाजिक प्रतिबन्ध इसलिए लादे जाते हैं, ताकि सभी व्यक्ति उस स्वतंत्रता का आनंद ले सकें। केवल औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध (Reasonable Constraints) ही स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं। समाज में समस्त प्रतिबंधों को स्वतंत्रता के लिए आवश्यक नहीं कहा जा सकता। जो प्रतिबंध औचित्यपूर्ण नहीं हैं, वे स्वतंत्रता के जो लिए आवश्यक नहीं है। केवल औचित्यपूर्ण प्रतिबंध ही स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं। औचित्यपूर्ण प्रतिबंध वे हैं, कि स्वतंत्रता को उपभोग्य योग्य बनाते हैं तथा व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हितकारी होते हैं तथा वे स्वतंत्रता के कार्य-क्षेत्र का विस्तार करते हैं।
ऐसे प्रतिबन्धों के स्रोत हैं। लोगों की स्वेच्छा, प्रतिनिध्यात्मक तथा उत्तरदायी सरकार द्वारा निर्मित कानून, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायालय के निर्णय तथा लोकतांत्रिक राज्यों के संविधान औचित्यपूर्ण प्रतिबंध समाज के सदस्यों की स्वेच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं। समाज में स्वतंत्रता पर औचित्यपूर्ण प्रतिबन्धों की आवश्यकता के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं।
1. लोगों के कार्यों पर प्रतिबन्धों के बिना समाज में रहना संभव नहीं है- लोगों के कार्यों पर प्रतिबंधों के बिना समाज में अराजकता फैल जाएगी, यह अव्यवस्था के गर्त में पहुँच जायेगा।
2. समाज के संघर्षों व हिंसा पर नियंत्रण के लिए प्रतिबन्धों की आवश्यकता है। लोगों के बीच मत-मतांतर हो सकते हैं, उनकी महत्त्वाकांक्षाओं में टकराव हो सकते हैं, वे सीमित साधनों के लिए प्रतिस्पद्ध हो सकते हैं। प्रतिबन्धों के अभाव में ऐसे अन्यान्य कारणों से समाज के लोग परस्पर संघर्षरत हो सकते हैं। ये संघर्ष कई बार हिंसा और जन हानि तक ले जाते हैं। इसलिए हर समाज को हिंसा पर नियंत्रण और विवाद के निपटारे के लिए कोई न कोई तरीका अपनाना आवश्यक होता है। ऐसे किसी भी तरीके में व्यक्ति के कार्यों की निरपेक्ष स्वतंत्रता पर औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध ही होते हैं।
3. समाज के निर्माण के लिए भी कुछ प्रतिबन्धों की आवश्यकता होती है -कुछ ऐसे कानूनी और राजनैतिक प्रतिबन्ध होने चाहिए, जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि एक समूह के विचारों को दूसरे पर आरोपित किए बिना आपसी अंतरों पर चर्चा और वाद-विवाद हो सके। बदतर स्थिति में हमें किसी के विचारों से एकरूप हो जाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में हमें अपनी स्वतंत्रता को बचाने के लिए कानून के संरक्षण की और भी ज्यादा जरूरत होती है।
4. घृणा के प्रचार तथा गंभीर क्षति पहुंचाने वाले कार्यों पर प्रतिबन्ध आवश्यक – घृणा का प्रचार और गंभीर क्षति पहुँचाने वाले कार्यों पर प्रतिबंध लगाया जाना आवश्यक होता है, लेकिन ये प्रतिबन्ध इतने कड़े न हों कि स्वतंत्रता ही नष्ट हो जाये।
5. औचित्यपूर्ण प्रतिबंधों का स्वरूप – प्रतिबन्ध औचित्यपूर्ण होने चाहिए। समाज में स्वतंत्रता की रक्षा के लिए औचित्यपूर्ण प्रतिबन्धों का स्वरूप इस प्रकार होना चाहिए।
- प्रतिबन्ध समुचित होने चाहिए तथा उन्हें तर्क की कसौटी पर कसा जा सके।
- ऐसे प्रतिबन्धों में न तो अतिरेक हो और न ही असंतुलन, क्योंकि तब यह समाज में स्वतंत्रता की सामान्य दशा पर असर डालेगा।
- हमें प्रतिबंध लगाने की आदत को विकसित नहीं होने देना चाहिए; क्योंकि ऐसी आदत तो स्वतंत्रता को खतरे में डाल देगी।
प्रश्न 4.
नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में राज्य की क्या भूमिका है?
उत्तर:
नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में राज्य की भूमिका: एक व्यक्ति कानून और व्यवस्था के वातावरण तथा भली-भाँति परिभाषित तथा ठीक ढंग से लागू किये गये कानूनों की स्थिति वाले राज्य में ही स्वतंत्रता के उपभोग का आनंद ले सकता है। इसलिए राज्य कानून के माध्यम से नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यथा।
- राज्य कानूनों के माध्यम से नागरिकों की स्वतंत्रता को परिभाषित करता है।
- राज्य कानूनों के द्वारा उस वातावरण का निर्माण करता है जिसमें नागरिक स्वतंत्रता का व्यवहार में उपभोग कर पाते हैं ।
- राज्य किसी विशेष स्वतंत्रता के क्षेत्र को परिभाषित करता है कि उस स्वतंत्रता का उपभोग किन दशाओं में और किस सीमा तक किया जा सकता है।
- राज्य नागरिकों की उन स्वतंत्रताओं पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाता है, जो पर-संबंध कार्यों से संबंधित हैं ताकि वे किसी दूसरे को और दूसरे उसको हानि न पहुँचा सकें।
- राज्य कानून के संरक्षण द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करता है; क्योंकि राज्य के कानूनों में उन नागरिकों को जो स्वतंत्रताओं के निरपेक्ष प्रयोग द्वारा दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा डालते हैं, दण्ड दिये जाने के प्रावधान होते
हैं। - लोकतंत्र में सरकार द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता के हनन करने पर भी स्वतंत्रता के संरक्षण के प्रावधान होते है।
- राज्य की न्यायपालिका नागरिकों की स्वतंत्रता के उल्लंघन से संबंधित विवादों का निपटारा करती है। इस प्रकार राज्य नागरिकों की स्वतंत्रता का निर्माण करता है, उसे परिभाषित करता है तथा उसकी रक्षा करता यह विदेशी आक्रमणों से नागरिकों की रक्षा कर उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करता है। लेकिन कई बार राज्य सरकार अपनी सत्ता का दुरुपयोग भी करती है, जैसे- किसी सरकारी नीति या कार्य के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन की अनुमति न देना। सरकार का यह कार्य नागरिकों की स्वतंत्रता को सीमित करता व हनन करता है।
प्रश्न 5.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? आपकी राय में इस स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबन्ध क्या होंगे? उदाहरण सहित बताइये।
उत्तर:
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है। एक व्यक्ति की अपने विचारों को दूसरों को अभिव्यक्ति करने की स्वतंत्रता । वह बिना किसी भय और बाधा के अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हो। इसमें लोगों के बीच भाषण देने की स्वतंत्रता तथा समाचार पत्र द्वारा अपने विचारों को दूसरों तक सम्प्रेषित करने की स्वतंत्रता निहित है। वर्तमान वैज्ञानिक युग में नवीन आविष्कारों जैसे कम्प्यूटर एवं मोबाइल तथा इण्टरनेट इत्यादि द्वारा भी विचारों की अभिव्यक्ति की जाती है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबंध जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता या राज्य की शक्ति के बल पर, किसी समस्या के अल्पकालीन समाधान के रूप में लगाए जाते हैं, तो वे अनुचित होते हैं, उन्हें औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए दीपा मेहता को काशी में विधवाओं पर फिल्म बनाने पर प्रतिबंध करना, ओब्रे मेनन की ‘रामायण रिटोल्ड’ और सलमान रुश्दी की ‘द सेटानिक वर्सेस’ समाज के कुछ हिस्सों में विरोध के बाद प्रतिबंधित कर दी गईं। इस तरह के प्रतिबन्ध आसान लेकिन अल्पकालीन समाधान हैं, क्योंकि यह तात्कालिक मांग को पूरा कर देते हैं लेकिन समाज में स्वतंत्रता की दूरगामी संभावनाओं की दृष्टि से बहुत खतरनाक हैं और ऐसे प्रतिबन्धों से प्रतिबंध लगाने की आदत विकसित हो जाती है।
लेकिन हमारी राय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबन्ध निम्न प्रकार होंगे
- यदि हम स्वेच्छापूर्वक या अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पाने के लिए कुछ प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हैं, तो ऐसे प्रतिबन्धों से हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित नहीं होती।
- अगर हमें किन्हीं स्थितियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा रहा है, तब भी हम नहीं कह सकते कि हमारी स्वतंत्रता की कटौती की जा रही है।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर न्यायोचित सीमाएँ लगाई जा सकती हैं, जैसे-इससे कानून एवं व्यवस्था की स्थिति नहीं बिगड़ती हो, यह नैतिकता के विरुद्ध नहीं हो, यह समाज में विद्रोह पैदा नहीं करती हो, साम्प्रदायिकता को बढ़ावा नहीं देती हो, राष्ट्र की एकता व अखंडता के विरुद्ध न हो आदि। लेकिन इन सीमाओं को उचित प्रक्रिया के तहत ही लगाया जाना चाहिए तथा इसके पीछे नैतिक तर्कों का समर्थन होना चाहिए।
स्वतंत्रता JAC Class 11 Political Science Notes
→ स्वतंत्रता का आदर्श:
मानव इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जब अधिक शक्तिशाली समूहों ने लोगों या समुदायों का शोषण किया, उन्हें गुलाम बनाया या उन्हें अपने आधिपत्य में ले लिया। लेकिन इतिहास हमें ऐसे वर्चस्व के खिलाफ शानदार संघर्षों के प्रेरणादायी उदाहरण भी देता है । ये स्वतंत्रता के लिए संघर्षों के उदाहरण हैं जो लोगों की इस आकांक्षा को दिखाते हैं कि वे अपने जीवन और नियति का नियंत्रण स्वयं करें तथा उनका अपनी इच्छाओं और गतिविधियों को स्वतंत्रता से व्यक्त करने का अवसर बना रहे। न केवल व्यक्ति वरं समाज भी अपनी स्वतंत्रता को महत्त्व देते हैं और चाहते हैं कि उनकी संस्कृति और भविष्य की रक्षा हो।
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का एक उदाहरण दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन के खिलाफ मंडेला और उसके साथियों का अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों और स्वतंत्रता के रास्ते की बाधाओं को दूर करने का संघर्ष था जिसे मंडेला ने अपनी आत्मकथा ‘लॉँग वाक टू फ्रीडम’ (स्वतंत्रता के लिए लम्बी यात्रा) में व्यक्त किया है। ऐसा ही एक अन्य उदाहरण म्यांमार के सैनिक शासन के विरुद्ध लोकतंत्र की स्थापना के लिए ऑग सान सू की का संघर्ष है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘फ्रीडम फ्रॉम फीयर’ में अपने स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों व संघर्ष को अभिव्यक्त किया है। स्वतंत्रता का यही आदर्श हमारे राष्ट्रीय संघर्ष और ब्रिटिश, फ्रांसीसी तथा पुर्तगाली उपनिवेशवाद के खिलाफ एशिया – अफ्रीका के लोगों के संघर्ष के केन्द्र में था । यह आदर्श है-
- अन्यायपूर्ण प्रतिबन्धों और स्वतंत्रता के मार्ग की बाधाएँ दूर करना।
- गरिमापूर्ण मानवीय जीवन जीने के लिए अपने भय पर विजय पाना।
→ स्वतंत्रता क्या है?
स्वतंत्रता की नकारात्मक परिभाषा: “व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव ही स्वतंत्रता है। इसके अनुसार स्वतंत्र होने का अर्थ उन सामाजिक प्रतिबन्धों को कम से कम करना है जो हमारी स्वतंत्रतापूर्वक चयन करने की क्षमता पर रोक-टोक लगाएं। लेकिन प्रतिबन्धों का न होना स्वतंत्रता का केवल एक पहलू है।
→ स्वतंत्रता की सकारात्मक परिभाषा: स्वतंत्रता का एक सकारात्मक पहलू भी है।
“स्वतंत्रता का सकारात्मक पहलू यह है कि ऐसी स्थितियों का होना जिनमें लोग अपनी रचनात्मकता और क्षमताओं का विकास कर सकें।” इसका अभिप्राय यह है कि स्वतंत्र होने के लिए समाज को उन बातों को विस्तार देना चाहिए जिससे व्यक्ति, समूह, समुदाय या राष्ट्र अपने भाग्य की दशा और स्वरूप का निर्धारण करने में समर्थ हो सकें। इस अर्थ में स्वतंत्रता व्यक्ति की रचनाशीलता, संवेदनशीलता और क्षमताओं के भरपूर विकास को बढ़ावा देती है। इस प्रकार बाहरी प्रतिबंधों का अभाव और ऐसी स्थितियों का होना जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें, स्वतंत्रता के ये दोनों ही पहलू महत्त्वपूर्ण हैं। स्वतंत्र समाज-एक स्वतंत्र समाज वह है, जिसमें व्यक्ति अपने हित संवर्धन न्यूनतम प्रतिबन्धों के बीच करने में समर्थ हो।
→ प्रतिबन्धों के स्रोत: व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों के प्रमुख स्रोत हैं।
- प्रभुत्व और बाहरी नियंत्रण ( जो बलपूर्वक या गैर-लोकतांत्रिक सरकार के द्वारा कानून की सहायता से लगाए जा सकते हैं),
- सामाजिक असमानता,
- अत्यधिक आर्थिक असमानता।
→ हमें प्रतिबन्धों की आवश्यकता क्यों है?
हमें सामाजिक अव्यवस्था से बचने के लिए कुछ प्रतिबन्धों की आवश्यकता है। हर समाज को असहमतियों के कारण होने वाली हिंसा पर नियंत्रण और विवाद के निपटारे के लिए कोई न कोई ऐसा तरीका अपनाना आवश्यक होता
है। कि लोग एक-दूसरे के विचारों का सम्मान करें और दूसरे पर अपने विचार थोपने का प्रयास न करें। ऐसे समाज के निर्माण के लिए कुछ प्रतिबन्धों की आवश्यकता होती है। समाज में कुछ ऐसे कानूनी और राजनैतिक प्रतिबन्ध होने चाहिए, जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि एक समूह के विचारों को दूसरे पर आरोपित किये बिना आपसी अन्तरों पर चर्चा और वाद-विवाद हो सके। बदतर स्थिति में हमें किसी के विचारों से एकरूप हो जाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में हमें अपनी स्वतंत्रता को बचाने के लिए कानून के संरक्षण की ओर ज्यादा आवश्यकता होती
→ हानि सिद्धांत:
जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने निबंध ‘ऑन लिबर्टी’ में बहुत प्रभावपूर्ण तरीके से ‘हानि सिद्धान्त’ को स्वतंत्रता के संदर्भ में उठाया है। “सिद्धान्त यह है कि किसी के कार्य करने की स्वतंत्रता में व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हस्तक्षेप | करने का इकलौता लक्ष्य आत्म-रक्षा है । सभ्य समाज के किसी सदस्य की इच्छा के खिलाफ शक्ति के औचित्यपूर्ण | प्रयोग का एकमात्र उद्देश्य किसी अन्य को हानि से बचाना हो सकता है।”
→ मिल ने व्यक्ति के कार्यों को दो भागों में बाँटा है:
- स्व-सम्बद्ध कार्य और
- पर – सम्बद्ध कार्य। स्व-सम्बद्ध कार्य-स्व-सम्बद्ध कार्य वे हैं, जिनके प्रभाव केवल इन कार्यों को करने वाले व्यक्ति पर पड़ते हैं।
पर-सम्बद्ध कार्य – पर सम्बद्ध कार्य वे हैं, जो कर्ता के साथ-साथ बाकी लोगों पर भी प्रभाव डालते हैं। मिल का तर्क है कि स्व-सम्बद्ध कार्य और निर्णयों के मामले में राज्य या बाहरी सत्ता को कोई हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है; लेकिन पर सम्बद्ध कार्यों पर बाहरी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। पर सम्बद्ध कार्य वे हैं जिनके बारे में कहा जा सके कि अगर तुम्हारी गतिविधियों से मुझे कुछ नुकसान (हानि) होता है; तो स्वतंत्रता से जुड़े ऐसे मामलों में राज्य किसी व्यक्ति को ऐसे कार्य करने से रोक सकता है।
लेकिन स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए यह जरूरी है कि किसी को होने वाली ‘हानि’ गंभीर हो। छोटी- मोटी हानि के लिए मिल कानून की ताकत की जगह केवल सामाजिक रूप से अमान्य करने का सुझाव देता है। अतः किन्हीं पर सम्बद्ध कार्यों पर कानूनी शक्ति से प्रतिबन्ध तभी लगाना चाहिए जब वे निश्चित व्यक्तियों को गंभीर नुकसान पहुँचाए अन्यथा समाज को स्वतंत्रता की रक्षा के लिए थोड़ी असुविधा सहनी चाहिए। घृणा का प्रचार और गंभीर क्षति पहुँचाने वाले कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं, लेकिन प्रतिबन्ध इतने कड़े न हों कि स्वतंत्रता नष्ट हो जाए। भारत के संविधान में ‘ औचित्यपूर्ण प्रतिबंध’ पद का प्रयोग किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रतिबंध समुचित हों तथा उन्हें तर्क की कसौटी पर कसा जा सके। ऐसे प्रतिबंधों में न तो अतिरेक हो और न ही असंतुलन क्योंकि तब यह समाज में स्वतंत्रता की सामान्य दशा पर प्रभाव डालेगा। साथ ही हमें प्रतिबन्ध लगाने की आदत को विकसित नहीं होने देना चाहिए।
→ नकारात्मक स्वतंत्रता:
नकारात्मक स्वतंत्रता से आशय है। बाहरी प्रतिबंधों से अभाव के रूप में स्वतंत्रता। नकारात्मक स्वतंत्रता उस क्षेत्र को पहचानने और बचाने का प्रयास करती है, जिसमें व्यक्ति अनुलंघनीय हो। यह ऐसा क्षेत्र होगा जिसमें किसी बाहरी सत्ता का हस्तक्षेप नहीं होगा। इस प्रकार नकारात्मक स्वतंत्रता का सरोकार अहस्तक्षेप के अनुलंघनीय क्षेत्र से है। यह क्षेत्र कितना बड़ा होना चाहिए और इसमें क्या – क्या शामिल होना चाहिए, यह वाद-विवाद का विषय है। लेकिन अहस्तक्षेप का यह क्षेत्र जितना बड़ा होगा, स्वतंत्रता उतनी ही अधिक होगी।
→ सकारात्मक स्वतंत्रता:
सकारात्मक स्वतंत्रता से आशय है। स्वयं को अभिव्यक्त करने के अवसरों के विस्तार के रूप में स्वतंत्रता। सकारात्मक स्वतंत्रता के तर्क ‘कुछ करने की स्वतंत्रता’ के विचार की व्याख्या से जुड़े हैं। इसका आशय यह है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में कम से कम अवरोध रहें। व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का विकास करने के लिए भौतिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जगत में समर्थकारी सकारात्मक स्थितियों का लाभ मिलना ही चाहिए । व्यक्ति केवल समाज में ही स्वतंत्र हो सकता है,
समाज से बाहर नहीं और इसीलिए वे इस समाज को ऐसा बनाने का प्रयास करते हैं, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का रास्ता साफ करे। आमतौर पर ये दोनों तरह की स्वतंत्रताएँ साथ – साथ चलती हैं और एक-दूसरे का समर्थन करती हैं। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि निरंकुश शासन सकारात्मक स्वतंत्रता के तर्कों का सहारा लेकर अपने शासन को न्यायोचित सिद्ध करने की कोशिश करे।
→ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का मुद्दा ‘अहस्तक्षेप के लघुत्तम क्षेत्र’ से जुड़ा हुआ माना जाता है। मिल ने कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रतिबंधित नहीं होनी चाहिए।
मिल ने अपनी पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ में कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें भी होनी चाहिए जिनके विचार आज की स्थितियों में गलत या भ्रामक लग रहे हैं। इस कथन के पक्ष में उन्होंने चार कारण प्रस्तुत किए हैं।
- कोई भी विचार पूरी तरह से गलत नहीं होता, उसमें कुछ न कुछ सत्य का अंश भी छुपा होता है।
- सत्य विरोधी विचारों के टकराव से पैदा होता है।
- विचारों के संघर्ष का सतत महत्त्व है। जब हम इसे विरोधी विचार के सामने रखते हैं तभी इस विचार का विश्वसनीय होना सिद्ध होता है।
- जिसे हम सत्य समझते हैं, जरूरी नहीं वही सत्य हो। कई बार जिन विचारों को किसी समय पूरे समाज ने गलत समझा और दबाया था, बाद में वे सत्य पाये गये।
अतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बुनियादी मूल्य है और जो लोग इसको सीमित करना चाहते हैं, उनसे बचने के लिए समाज को कुछ असुविधाओं को सहन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। प्रतिबंध तात्कालिक समस्या का समाधान हो सकते हैं क्योंकि ये तात्कालिक माँग को पूरा कर देते हैं लेकिन ये प्रतिबंध लगाने की आदत का विकास करते हैं।
दीपा मेहता की काशी में विधवाओं पर बनायी जा रही फिल्म को काशी में न बनने देना; सलमान रुश्दी की ‘द सेटानिक वर्सेस’ पुस्तक को प्रतिबंधित किया जाना; ‘द लास्ट टेम्पटेशन ऑफ क्राइस्ट’ नामक फिल्म को प्रतिबंधित करना आदि आसान लेकिन अल्पकालीन समाधान हैं; क्योंकि ये तात्कालिक मांग को पूरा कर देते हैं; लेकिन समाज में स्वतंत्रता की दूरगामी संभावनाओं की दृष्टि से यह स्थिति बहुत खतरनाक है। क्योंकि प्रतिबंध लगाने से प्रतिबंध लगाने की आदत विकसित हो जाती है।
→ प्रतिबन्धों का औचित्य और अनौचित्य:
- जब ये प्रतिबन्ध किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता या राज्य की शक्ति के बल पर लगाए जाते हैं तो ये हमारी स्वतंत्रता की कटौती इस प्रकार करते हैं कि उनके खिलाफ लड़ना मुश्किल हो जाता है।
- यदि हम स्वेच्छापूर्वक या अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पाने के लिए कुछ प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हैं, तो हमारी स्वतंत्रता उस प्रकार से सीमित नहीं होती है।
- स्वतंत्रता हमारे विकल्प चुनने के सामर्थ्य और क्षमताओं में छुपी होती है और जब हम विकल्प चुनते हैं तो हमें अपने कार्यों और उसके परिणामों की जिम्मेदारी भी स्वीकार करनी होगी।