Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता
Jharkhand Board Class 11 Political Science समानता InText Questions and Answers
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प्रश्न 1.
मैं जिन लोगों को जानता हूँ, वे सभी किसी न किसी धर्म में विश्वास करते हैं। मैं जिन धर्मों के बारे जानता हूँ, वे सभी समानता का संदेश देते हैं। जब ऐसा है, तो दुनिया में असमानता क्यों है?
उत्तर:
यद्यपि समानता की बात सभी आस्थाओं और धर्मों में समाविष्ट है। हर धर्म ईश्वर की रचना के रूप में प्रत्येक मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। इसके बावजूद दुनिया में असमानता व्याप्त है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।
- बहुत सी सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में पद, धन, हैसियत या विशेषाधिकार की असमानता कायम रखती हैं।
- मनुष्यों के बीच नस्ल और रंग के आधार पर भेदभाव असमानता को बढ़ाते रहे हैं।
- लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग-अलग चयन के कारण भी असमानताएँ पाई जाती हैं।
- जब लोगों के बरताव में कुछ असमानताएँ लंबे काल तक विद्यमान रहती हैं, तो वे हमें मनुष्य की प्राकृतिक विशेषताओं पर आधारित लगने लगती हैं। उदाहरण के लिए औरतें अनादि काल से ‘अबला’ कही जाती थीं।
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प्रश्न 2.
भारत में आर्थिक असमानता दर्शाने वाले कुछ आंकड़े।
यहाँ भारत की 2011 की जनगणना से लिए गए घरेलू सम्पदा और सुविधाओं के बारे में कुछ आंकड़े प्रस्तुत हैं। इन आंकड़ों को गाँव और शहर के बीच की असमानता को समझने के लिए पढ़िये। आपका परिवार इन आंकड़ों में कहाँ आता है?
परिवार जिनके पास है…… | ग्रामीण परिवार % | शहरी परिवार % | अपने परिवार के लिए (√) या × लगाएँ |
बिजली का कनेक्शन | 55 | 93 | |
मकान में सरकारी नल का कनेक्शन | 35 | 71 | |
मकान में स्नान घर | 45 | 87 | |
टेलिविजन | 33 | 77 | |
स्कूटर/मोपेड/मोटर | 14 | 35 | |
साइकिल | 2 | 10 |
उत्तर:
अपने परिवार के लिए (√) या (×) का चिन्ह यह देखते हुए लगाएं कि आपके परिवार में ये सुविधाएँ हैं या नहीं हैं। हैं तो (√) और नहीं तो (×)
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प्रश्न 3.
इन चित्रों पर नजर डालें
ये चित्र क्या संकेत करते हैं?
उत्तर:
ये चित्र मनुष्यों के बीच नस्ल और रंग के आधार पर भेदभाव की ओर संकेत करते हैं। ये हममें से अधिकांश को अस्वीकार्य हैं। वास्तव में इस तरह के भेदभाव समानता के हमारे आत्मबोध का उल्लंघन करता है। समानता का हमारा आत्म-बोध कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और परवाह के हकदार हैं।
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प्रश्न 4.
छात्र का कथन है कि “पुरुष स्त्रियों से बढ़कर हैं। यह एक प्राकृतिक असमानता है। आप इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कर सकते।” छात्रा का कथन है कि “मेरे हर विषय में तुमसे ज्यादा अंक आते हैं। मैं घर के काम में माँ का हाथ भी बंटाती हूँ। तुम मुझसे बढ़कर कैसे हो?” ये दोनों कथन प्राकृतिक असमानता के किस प्रकार के मिथ से संबंधित हैं?
उत्तर:
प्राकृतिक असमानता और सामाजिक असमानताएँ अलग-अलग होती हैं लेकिन इन दोनों तरह की असमानताओं में अन्तर हमेशा साफ और अपने आप में स्पष्ट नहीं होता। जब लोगों के बरताव में कुछ असमानताएँ लंबे काल तक विद्यमान रहती हैं, तो वे हमें मनुष्य की प्राकृतिक विशेषताओं पर आधारित लगने लगती हैं। ऐसा लगने लगता है कि वे जन्मगत हों और आसानी से बदल नहीं सकतीं। उदाहरण के लिए, औरतें अनादिकाल से अबला कही जाती थीं।
उन्हें भीरु और पुरुषों से कम बुद्धि का माना जाता था, जिन्हें विशेष संरक्षण की जरूरत थी। इसलिए यह मान लिया गया था कि औरतों को समान अधिकार से वंचित करना न्यायसंगत है। छात्र का कथन इसी तथ्य की ओर इंगित करता है। लेकिन छात्रा का कथन व उसके द्वारा दिये गए तथ्य इस मिथक को तोड़ते हैं और इस ओर संकेत करते हैं कि यह असमानता प्राकृतिक नहीं सामाजिक है और न्याससंगत नहीं है।
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प्रश्न 5.
शिक्षा में असमानता:
नीचे दी गई तालिका में विभिन्न समुदायों की शैक्षिक स्थिति से जुड़े कुछ आंकड़े दिए गए हैं।
1. इन समुदायों की शैक्षिक स्थिति में जो अन्तर है, क्या वे महत्त्वपूर्ण हैं?
2. क्या इन अन्तरों का होना केवल एक संयोग है या ये अन्तर जाति व्यवस्था के असर की ओर संकेत करते हैं?
3. आज यहाँ जाति-व्यवस्था के अलावा और किन कारणों का प्रभाव देखते हैं?
शहरी भारत में उच्च शिक्षा में जातिगत समुदायों में असमानता
जाति/समुदाय | प्रति हजार लोगों में स्नातकों की संख्या |
अनुसूचित जाति | 47 |
मुस्लिम | 61 |
हिन्दू (पिछड़ी जातियाँ) | 86 |
अनुसूचित जनजाति | 109 |
ईसाई | 237 |
सिक्ख | 250 |
हिन्दू उच्च जातियाँ | 253 |
अन्य धार्मिक समुदाय | 315 |
अखिल भारतीय औसत | 155 |
उत्तर:
- हाँ, इन समुदायों की शैक्षिक स्थिति में जो अन्तर है, वह महत्त्वपूर्ण है।
- ये अन्तर जाति-व्यवस्था के असर की ओर संकेत करते हैं। इसमें स्पष्ट दिखाई देता है कि हिन्दू समाज की पिछड़ी जातियाँ तथा अनुसूचित जातियाँ जहाँ शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक पिछड़ी हुई हैं, वे राष्ट्रीय औसत से बहुत पीछे हैं, वहाँ हिन्दू समाज की उच्च जातियों का शैक्षिक स्तर राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है।
- दी गई तालिका में दर्शाये गए आंकड़ों से शिक्षा की स्थिति पर प्रभाव डालने वाले प्रमुख कारक ये बताए जा सकते हैं।
(क) जाति व्यवस्था:
हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था ने शिक्षा की स्थिति को प्रभावित किया है। दलित या पिछड़ी जातियों के लोगों को हिन्दू समाज में अध्ययन की सुविधाओं का अभाव था। जबकि उच्च जातियों को इन सुविधाओं से वंचित नहीं किया गया था। इस कारण शैक्षिक स्थितियों में काफी अन्तर देखा जा सकता है।
(ख) धर्म:
मुस्लिम समाज में जाति: पांति के न होने पर भी शिक्षा का स्तर अत्यधिक गिरा हुआ है, जबकि अन्य धर्मावलम्बियों का शिक्षा का स्तर अच्छा है।
(ग) आर्थिक असमानता:
भारत में आर्थिक असमानता ने भी शिक्षा पर प्रभाव डाला है। आर्थिक रूप विपन्न वर्ग, चाहे वह किसी भी जाति व धर्म का रहा हो, शिक्षा के क्षेत्र में, आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्ग की तुलना में और पिछड़ा रहा है; क्योंकि ऐसे परिवारों के बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएँ मुहैया नहीं हो पाती हैं; उन्हें शीघ्र ही अपने जीवनयापन के लिए मजदूरी के लिए दौड़ना पड़ता है।
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प्रश्न 6.
नीचे दी गई स्थितियों पर विचार करें। क्या इनमें से किसी भी स्थिति में विशेष और विभेदकारी बरताव करना न्यायोचित होगा?
1. कामकाजी महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिलना चाहिए।
2. एक विद्यालय में दो छात्र दृष्टिहीन हैं। विद्यालय को उनके लिए कुछ विशेष उपकरण खरीदने के लिए धनराशि खर्च करनी चाहिए।
3. गीता बास्केटबाल बहुत अच्छा खेलती है। विद्यालय को उसके लिए बास्केटबाल कोर्ट बनाना चाहिए जिससे वह अपनी योग्यता का और भी विकास कर सके।
4. जीत के माता-पिता चाहते हैं कि वह पगड़ी पहने। इरफान चाहते हैं कि वह जुम्मे (शुक्रवार) को नमाज पढ़े, ऐसी बातों को ध्यान में रखते हुए स्कूल को जीत से यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि वह क्रिकेट खेलते समय हेलमेट पहने और इरफान के अध्यापक को शुक्रवार को उससे दोपहर बाद की कक्षाओं के लिए रुकने को नहीं कहना चाहिए।
उत्तर:
- कामकाजी महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिलना न्यायोचित होगा।
- दृष्टिहीन छात्रों के अध्यापन के लिए विद्यालय को उनके लिए कुछ विशेष उपकरण खरीदने हेतु धनराशि खर्च करना न्यायोचित होगा।
- केवल गीता के लिए बास्केटबाल कोर्ट बनाना न्यायोचित नहीं होगा; हाँ, यदि विद्यालय में बास्केटबाल के खेल को खिलाने के लिए सभी विद्यार्थियों या सभी खिलाड़ियों की दृष्टि से कोर्ट बनाना ही न्यायोचित होगा।
- हाँ, जीत को क्रिकेट खेलते समय हेलमेट पहनने तथा इरफान के अध्यापक को शुक्रवार को उससे दोपहर बाद की कक्षाओं के रुकने के लिए नहीं कहना चाहिए। दोनों ही स्थितियाँ न्यायोचित हैं।
Jharkhand Board Class 11 Political Science समानता Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है जबकि कुछ अन्य का कहना है कि वास्तव में समानता प्राकृतिक है और जो असमानता हम चारों ओर देखते हैं उसे समाज ने पैदा किया है। आप किस मत का समर्थन करते हैं? कारण दीजिए।
उत्तर:
दोनों ही मतों में सत्यांश है और अलग-अलग दृष्टिकोण से दोनों ही सही हैं। यथा
1. समानता प्राकृतिक है:
जब हम यह कहते हैं कि समानता प्राकृतिक है, उसका आशय यह है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं। हर धर्म ईश्वर की रचना के रूप में मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। साझी मानवता की यह धारणा ही ‘सार्वभौमिक मानवाधिकार’ जैसी धारणाओं के पीछे हैं। इस प्रकार मानवता की दृष्टि से समानता प्राकृतिक है। लेकिन जन्मगत विशिष्टताओं और योग्यताओं की दृष्टि से समानता प्राकृतिक नहीं है।
2. असमानता प्राकृतिक भी है और सामाजिक भी: मैं इस मत का समर्थन करता हूँ कि असमानता प्राकृतिक भी है और सामाजिक भी। यथा
(i) प्राकृतिक असमानताएँ:
प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, योग्यताओं, विशिष्टताओं और उनके अलग-अलग चयन के कारण पैदा होती हैं। प्राय: प्राकृतिक असमानताओं को बदला नहीं जा सकता।
(ii) सामाजिक असमानताएँ:
समाजजनित असमानताएँ वे होती हैं, जो समाज में अवसरों की असमानता होने या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण किये जाने से पैदा होती हैं। बहुत सी सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में पद, धन, हैसियत या विशेषाधिकार की असमानता कायम रखती हैं। ये सभी असमानताएँ सामाजिक हैं। हम समाज में दोनों प्रकार की असमानताएँ देखते हैं। प्राकृतिक असमानताएँ जहाँ न्यायोचित हैं, वहीं सामाजिक असमानताएँ न्यायोचित नहीं हैं। इसलिए ऐसी असमानताओं पर हमारा ध्यान अधिक जाता है। लोकतांत्रिक राज्यों में ऐसी असमानताओं को दूर करने का प्रयास भी किया जा रहा है।
प्रश्न 2.
एक मत है कि पूर्ण आर्थिक समानता न तो संभव है और न वांछनीय। एक समाज ज्यादा से ज्यादा बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। क्या आप इस तर्क से सहमत हैं? अपना तर्क दीजिये।
उत्तर:
हाँ, मैं इस तर्क से सहमत हूँ कि पूर्ण आर्थिक समानता न तो संभव है और न वांछनीय। एक समाज ज्यादा से ज्यादा बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। आर्थिक असमानता ऐसे समाज में विद्यमान होती है जिसमें व्यक्तियों और वर्गों के बीच धन, दौलत, आय में खासी भिन्नता हो। क्योंकि समाज में धन, दौलत या आय की पूरी समानता संभवत: कभी विद्यमान नहीं रही।
आज अधिकतर लोकतंत्र लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं। लेकिन समान अवसरों के साथ भी असमानता बनी रह सकती है, लेकिन इसमें यह संभावना हुई है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर बना सकता है। अतः स्पष्ट है कि चूंकि व्यक्तियों में प्राकृतिक रूप से प्रतिभा, क्षमता, योग्यता तथा जन्मगत विशिष्टताओं में भिन्नता होती है, इसी कारण उनमें पूर्ण आर्थिक समानता का होना संभव नहीं है।
लेकिन एक समाज बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है क्योंकि अत्यधिक आर्थिक असमानता के जो सामाजिक कारण हैं, वे हैं- समाज में अवसरों की असमानता का होना या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण करना। इन कारणों का निवारण करके समाज आर्थिक असमानता की इस खाई को कम कर सकता है। इस हेतु वह औपचारिक (कानूनी तथा संवैधानिक) समान अवसरों की समानता प्रदान करके; असमानतामूलक सभी सामाजिक विशेषाधिकारों तथा निषेधों को समाप्त करके, अशक्तों और वंचितों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान करके इस खाई को कम कर सकता है।
प्रश्न 3.
नीचे दी गई अवधारणा और उसके उचित उदाहरणों में मेल बैठायें।
(क) सकारात्मक कार्यवाही | (1) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है। |
(ख) अवसर की समानता | (2) बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं। |
(ग) समान अधिकार | (3) प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिये। |
उत्तर:
(क) सकारात्मक कार्यवाही का द्योतक है। | बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं। |
(ख) अवसर की समानता का द्योतक है। | प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिये। |
(ग) समान अधिकार का द्योतक है। | प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है। |
प्रश्न 4.
किसानों की समस्या से संबंधित एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार छोटे और सीमांत किसानों को बाजार से अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता। रिपोर्ट में सलाह दी गई कि सरकार को बेहतर मूल्य सुनिश्चित करने के लिये हस्तक्षेप करना चाहिये। लेकिन यह प्रयास केवल लघु और सीमांत किसानों तक ही सीमित रहना चाहिये। क्या यह सलाह समानता के सिद्धान्त से संभव है?
उत्तर:
हाँ, यह सलाह समानता के सिद्धान्त से संभव है। समानता के सिद्धान्त को यथार्थ में बदलने के लिए औपचारिक या कानूनी समानता पर्याप्त नहीं है। कभी-कभी यह सुनिश्चित करने के लिए कि लोग समान अधिकारों का उपभोग कर सकें; हमें प्रत्येक व्यक्ति को लगभग एक समान मानने तथा प्रत्येक को मूलतः समान मानने में अन्तर करना चाहिए। मूलत: समान व्यक्तियों को विशेष परिस्थितियों में अलग-अलग बरताव की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन ऐसे सभी मामलों में सर्वोपरि उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना होना चाहिए।
छोटे और सीमान्त किसानों को अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण बाजार से अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता। इन्हें उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए सरकार उन बाधाओं को दूर करने की नीतियाँ बनाकर समानता के सिद्धान्त व्यावहारिक बना सकती है।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से किस में समानता के किस सिद्धान्त का उल्लंघन होता है और क्यों?
(क) कक्षा का हर बच्चा नाटक का पाठ अपना क्रम आने पर पढ़ेगा।
(ख) कनाडा सरकार ने दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति से 1960 तक यूरोप के श्वेत नागरिकों को कनाडा में आने और बसने के लिये प्रोत्साहित किया।
(ग) वरिष्ठ नागरिकों के लिये अलग से रेलवे आरक्षण की एक खिड़की खोली गई।
(घ) कुछ वन क्षेत्रों को निश्चित आदिवासी समुदायों के लिये आरक्षित कर दिया गया है।
उत्तर:
- उपर्युक्त में (क) और (ग) कथन में समानता के किसी सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं हुआ है।
- (ख) कथन में रंग के आधार पर समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन है। समानता का औपचारिक सिद्धान्त यह है कि कानून सब मनुष्यों के साथ समानता का बर्ताव करेगा; जाति, धर्म, रंग, लिंग के आधार पर कोई भेदभावपूर्ण कानून नहीं बनायेगा। लेकिन कनाडा की सरकार ने समानता के इस सिद्धान्त का उल्लंघन करते हुए रंग के आधार पर भेदभावपूर्ण कानून बनाया और द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति से 1960 तक यूरोप के श्वेत नागरिकों को ही कनाडा में आने और बसने के लिए प्रोत्साहित किया।
- (घ) कथन में प्राकृतिक समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है, क्योंकि प्रकृति सभी के लिए है। कुछ वन क्षेत्र को केवल निश्चित आदिवासी समुदायों के लिए नहीं बल्कि सभी आदिवासी समुदायों, चाहे वे किसी धर्म, जाति, वंश या नस्ल के अन्तर्गत आते हों, के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए। ऐसा न होने पर असमानता का विकास होगा।
प्रश्न 6.
यहाँ महिलाओं को मताधिकार देने के पक्ष में कुछ तर्क दिये गये हैं। इनमें से कौनसे तर्क समानता के विचार से संगत हैं? कारण भी दीजिये।
(क) स्त्रियाँ हमारी माताएँ हैं। हम अपनी माताओं को मताधिकार से वंचित करके अपमानित नहीं करेंगे।
(ख) सरकार के निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं इसलिये शासकों के चुनाव में उनका भी मत होना चाहिये ।
(ग) महिलाओं को मताधिकार न देने से परिवारों में मतभेद पैदा हो जायेंगे।
(घ) महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है। मताधिकार से वंचित करके लंबे समय तक उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता है।
उत्तर:
उपर्युक्त में (ख) “सरकार के निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं। इसलिए शासकों के चुनाव में उनका भी मत होना चाहिए।” तथा (घ ) ” महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है। मताधिकार से वंचित करके लम्बे समय तक उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता है। ” के तर्क समानता के विचार से संगत हैं क्योंकि
- समानता की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि जाति, नस्ल, धर्म या लिंग पर ध्यान दिए बिना ‘सभी नागरिकों के साथ कानून एक समान बर्ताव करे’ इसलिए मताधिकार के अधिकार को लिंग के आधार पर न दिया जाना समानता के औपचारिक सिद्धान्त के अनुकूल है।
- समानता का दावा है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य (स्त्री और पुरुष दोनों) समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं। साझी मानवता की यह धारणा ही ‘सार्वभौमिक मताधिकार’ का सबल समर्थन करती है।
- स्त्री और पुरुष के बीच की असमानता: जैविक या लिंगभेद प्राकृतिक और जन्मजात है। इस आधार पर स्त्रियों को मताधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
- लोकतंत्र में सरकार जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों से बनती है और उसके निर्णय सम्पूर्ण समाज (स्त्री और पुरुष दोनों) को प्रभावित करते हैं। ये निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी समान रूप से प्रभावित करते हैं। इसलिए शासकों के चुनाव में समाज के समस्त वयस्क नागरिकों को मत देने का अधिकार होना चाहिए। इस दृष्टि से शासकों के चुनाव में महिलाओं को भी मताधिकार मिलना चाहिए। चूंकि महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है, अतः महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखना समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन है।
समानता JAC Class 11 Political Science Notes
→ समानता महत्त्वपूर्ण क्यों है?
समानता एक शक्तिशाली नैतिक और राजनीतिक आदर्श के रूप में कई शताब्दियों से मानव समाज को प्रेरित और निर्देशित करता रहा है। यथा-
→ समानता की बात सभी आस्थाओं और धर्मों में समाविष्ट है।
→ समानता की अवधारणा एक राजनीतिक आदर्श के रूप में उन विशिष्टताओं पर बल देती है जिसमें सभी मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के फर्क के बाद भी साझेदार होते हैं।
→ समानता का दावा है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं। ‘सार्वभौमिक मताधिकार’ या ‘मानवता के प्रति अपराध’ जैसी धारणाओं के पीछे यही साझी मानवंता की धारणा रहती है। आधुनिक काल में ‘सभी मनुष्यों की समानता’ का राजसत्ता के खिलाफ संघर्षों में एकजुटता लाने वाले नारे के रूप में इस्तेमाल किया गया है।
→ आज समानता व्यापक रूप से स्वीकृत आदर्श है, जिसे अनेक देशों के संविधान और कानूनों में सम्मिलित किया गया है। फिर भी समाज में हमारे चारों ओर समानता की बजाय असमानता नजर आती है। इस संसार में धन- संपदा, अवसर, कार्य स्थिति और शक्ति की भारी असमानता है। इससे यह प्रश्न उठते हैं कि ये असमानताएँ सामाजिक जीवन के स्थायी और अपरिहार्य लक्षण हैं, जो मनुष्यों की प्रतिभा और योग्यता के साथ-साथ सामाजिक विकास और सम्पन्नता में उनके योगदान के अन्तर को भी प्रतिबिंबित करते हैं? क्या ये असमानताएँ हमारी सामाजिक स्थिति और नियमों के कारण पैदा होती हैं? इस तरह के प्रश्नों ने समानता को सामाजिक और राजनीतिक सिद्धान्त का केन्द्रीय विषय बना दिया है।
→ समानता क्या है?
समानता का हमारा आत्म-बोध कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और परवाह के हकदार हैं। लेकिन इसका आशय हमेशा एक जैसा व्यवहार करने से नहीं है क्योंकि कोई भी समाज अपने सभी सदस्यों के साथ सभी स्थितियों में पूर्णतया एक समान बरताव नहीं कर सकता है। समाज के सहज कार्य-व्यापार के लिए कार्य का विभाजन आवश्यक है। अलग-अलग काम से लोगों का अलग-अलग महत्त्व व लाभ होता है। कई बार इस बरताव में यह अन्तर न केवल स्वीकार्य हो सकता है, बल्कि आवश्यक भी लग सकता है। लेकिन कुछ अलग किस्म की असमानताएँ अन्यायपूर्ण लग सकती हैं। इसलिए यह प्रश्न उठता है कि कौन-सी विशिष्टताएँ और विभेद स्वीकार किये जाने योग्य हैं और कौन-से नहीं।
जन्म, धर्म, नस्ल, जाति या लिंग के आधार पर की जाने वाली असमानताओं को हम अस्वीकार करते हैं। लेकिन अपनी आकांक्षाओं, लक्ष्यों और क्षमताओं व प्रयासों के आधार पर स्थापित होने वाली असमानताओं को हम अस्वीकार नहीं कर सकते। निष्कर्ष यह है कि हमसे जो व्यवहार किया जाता है और हमें जो भी अवसर प्राप्त होते हैं, वे जन्म या सामाजिक परिस्थितियों से निर्धारित नहीं होने चाहिए। अवसरों की समानता समानता की अवधारणा में यह निहित है कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और अवसरों के हकदार हैं।
→ प्राकृतिक और सामाजिक असमानताएँ:
राजनैतिक सिद्धान्त में प्राकृतिक असमानताओं और समाजजनित असमानताओं में अन्तर किया जाता है।
→ प्राकृतिक असमानताएँ: प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग- अलग चयन के कारण पैदा होती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ समाज में अवसरों की असमानता होने या शोषण किये जाने से पैदा होती हैं।
→ प्राकृतिक असमानताएँ लोगों की जन्मगत विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम मानी जाती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ समाज द्वारा पैदा की गई होती हैं।
→ प्राकृतिक असमानताएँ अपरिवर्तनीय होती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ अपरिवर्तनीय नहीं होतीं। प्राकृतिक और समाजजनित असमानताओं में अन्तर करना इसलिए उपयोगी है कि इससे स्वीकार की जा सकने लायक और अन्यायपूर्ण असमानताओं को अलग-अलग करने में मदद मिलती है। लेकिन (क) इनसे हमेशा अन्तर साफ और स्पष्ट नहीं होता, विशेषकर जब समाजजनित असमानताओं ने परम्पराओं और प्रथाओं का रूप ले लिया हो। (ख) प्राकृतिक मानी गई कुछ भिन्नताएँ अब अपरिवर्तनीय नहीं रहीं। विज्ञान और तकनीकी प्रगति से यह संभव बनाया है।
इसीलिए आज यदि विकलांग लोगों को उनकी विकलांगता से उबरने के लिए जरूरी मदद और उनके कामों के लिए उचित पारिश्रमिक देने से इस आधार पर इनकार कर दिया जाये कि प्राकृतिक रूप से वे कम सक्षम हैं, तो यह अधिकतर लोगों को अन्यायपूर्ण लगेगा। इसलिए प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं के अन्तर को किसी समाज के कानून और नीतियों का निर्धारण करने में मानदण्ड के रूप में उपयोग करना कठिन होता है। इसलिए बहुत से सिद्धान्तकार अपने चयन से पैदा हुई असमानता और व्यक्ति के विशेष परिवार या परिस्थितियों में जन्म लेने से पैदा हुई असमानता में अन्तर करते हैं। यह दूसरी तरह की असमानता ही समानता के पक्षधर लोगों के सरोकार का स्रोत है। वे चाहते हैं। कि परिवेश से जन्मी असमानता को न्यूनतम और समाप्त किया जाये।
→ समानता के तीन आयाम:
समाज में व्याप्त अलग-अलग तरह की असमानताओं को पहचानते समय विभिन्न विचारकों और विचारधाराओं ने समानता के तीन आयामों को रेखांकित किया है। ये हैं।
- राजनीतिक,
- सामाजिक और
- आर्थिक। यथा।
→ राजनीतिक समानता:
लोकतांत्रिक समाजों में सभी सदस्यों को समान नागरिकता प्रदान करना राजनीतिक समानता में शामिल है। समान नागरिकता के साथ मतदान का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आने-जाने की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की स्वतंत्रता तथा धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता प्राप्त होती है। ये ऐसे अधिकार हैं जो नागरिकों को अपना विकास करने तथा राज्य के काम-काज में भाग लेने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक माने जाते हैं। ये केवल औपचारिक अधिकार हैं जिन्हें संविधान और कानूनों द्वारा सुनिश्चित किया गया है।
→ सामाजिक समानता:
सामाजिक समानता से आशय है-अवसरों की समानता तथा समाज में सभी सदस्यों के जीवन-यापन के लिए अन्य चीजों के अतिरिक्त पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी शिक्षा पाने का अवसर, उचित पोषक आहार व न्यूनतम वेतन जैसी कुछ न्यूनतम चीजों की गारंटी। इनके अभाव में समाज में अवसरों की समानता व्यावहारिक नहीं हो सकती।
→ आर्थिक समानता:
आर्थिक असमानता ऐसे समाज में विद्यमान होती है जिसमें व्यक्तियों और वर्गों के बीच धन, दौलत, आय में खासी भिन्नता हो। लोकतंत्र में लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता है, जिसमें यह संभावना छुपी है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर कर सकता है। लेकिन पीढ़ीगत आर्थिक असमानताएँ समाज को वर्गों में बांट देती हैं। एक ओर अल्पसंख्यक साधन-सम्पन्न धनी वर्ग (पूँजीपति वर्ग) होता है तो दूसरी ओर साधनहीन बहुसंख्यक गरीब वर्ग होता है। अमीर वर्गों की शक्ति के कारण ऐसे समाज को खुला व समतावादी बनाने के लिए सुधारना ज्यादा कठिन साबित हो सकता है।
→ मार्क्सवादी विचारधारा
मार्क्स के अनुसार खाईनुमा असमानताओं का मूल कारण महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों पर निजी स्वामित्व है। निजी स्वामित्व मालिकों के वर्ग को अमीर (धनी) बनाने के साथ-साथ राजनीतिक ताकत भी देता है जो उन्हें राज्य की नीतियों और कानूनों को प्रभावित करने में सक्षम बनाता है और वे लोकतांत्रिक सरकार के लिए खतरा साबित हो सकते हैं। मार्क्स के अनुसार आर्थिक असमानताएँ सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा देती हैं, इसलिए समाज में असमानता से निबटने के लिए उत्पादन के साधनों व सम्पत्ति पर जनता का नियंत्रण होना आवश्यक है।
→ उदारवादी विचारधारा
उदारवादी समाज में संसाधनों और लाभांशों के वितरण के सर्वाधिक कारगर और उचित तरीके के रूप में प्रतिद्वन्द्विता के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। उनका मानना है कि जब तक प्रतिस्पर्द्धा स्वतंत्र और खुली होगी,
असमानता की खाइयाँ नहीं बनेंगी और लोगों को अपनी प्रतिभा और प्रयासों का लाभ मिलता रहेगा। उदारवादियों के लिए नौकरियों में नियुक्ति और शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए चयन के उपाय के रूप में प्रतिस्पर्द्धा का सिद्धान्त सर्वाधिक न्यायोचित और कारगर है। उदारवादियों का मानना है कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ परस्पर जुड़ी हुई नहीं हैं।
इनमें से हर क्षेत्र की असमानताओं का निराकरण ठोस ढंग से करना चाहिए। लोकतंत्र राजनैतिक समानता प्रदान करने का साधन है और आर्थिक तथा सामाजिक समानता की स्थापना के लिए विविध रणनीतियों की खोज करने की आवश्यकता है। हम समानता को बढ़ावा कैसे दे सकते हैं? समानता को बढ़ावा देने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने आवश्यक हैं।
→ औपचारिक समानता की स्थापना:
समानता लाने की दिशा में पहला कदम असमानता और विशेषाधिकार की औपचारिक व्यवस्था को समाप्त करना होगा। चूंकि ऐसी बहुत सी व्यवस्थाओं को कानून का समर्थन प्राप्त है, इसलिए सरकार और कानून को असमानता की व्यवस्थाओं को संरक्षण देना बन्द करना आवश्यक है। अधिकतर लोकतांत्रिक संविधान और सरकारें औपचारिक रूप से समानता के सिद्धान्त को स्वीकार कर चुकी हैं। इनमें सभी | नागरिकों को कानून का समान संरक्षण तथा कानून के समक्ष समानता को स्वीकार किया गया है।
→ विभेदक बरताव द्वारा समानता:
समानता के सिद्धान्त को यथार्थ में बदलने के लिए कानून के समक्ष समानता ( औपचारिक समानता) पर्याप्त नहीं है, इसलिए वंचित वर्गों को यथार्थ में समानता प्रदान करने के लिए कुछ विशेष सुविधाएँ देने की आवश्यकता होती है। इसे विभेदक बरताव द्वारा समानता की स्थापना कहा जाता है। कुछ देशों ने अवसरों की समानता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक कार्यवाही’ की नीतियाँ अपनाई हैं। भारत में इस हेतु आरक्षण की नीति अपनाई है।
→ सकारात्मक कार्यवाही:
सकारात्मक कार्यवाही इस विचार पर आधारित है कि कानून द्वारा औपचारिक समानता स्थापित कर देना पर्याप्त नहीं है। इस हेतु कुछ सकारात्मक कदम उठाये जाने आवश्यक हैं। सकारात्मक कार्यवाही की अधिकतर नीतियाँ अतीत की असमानताओं के संचयी दुष्प्रभावों को दुरुस्त करने के लिए बनाई जाती हैं। जैसे – वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और होस्टल जैसी सुविधाओं, नौकरियों के लिए प्रवेश हेतु विशेष नीतियाँ बनाना । इन नीतियों के द्वारा वंचित समुदायों, जो अन्य लोगों से समानता के आधार पर प्रतिस्पर्द्धा करने में सक्षम नहीं हैं, को सहायता देना। आरक्षण का प्रावधान एक ऐसी ही सकारात्मक कार्यवाही का उदाहरण है। सकारात्मक कार्यवाही के रूप में विशेष सहायता को एक निश्चित अवधि तक चलने वाला तदर्थ उपाय माना गया है।
सकारात्मक कार्यवाही अर्थात् आरक्षण की नीतियों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। समान अवसर के लक्ष्य से सभी सहमत हैं। विवाद उन नीतियों के बारे में है जो राज्य को इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनानी चाहिए। क्या राज्य को वंचित समुदायों के लिए कुछ स्थान आरक्षित कर देने चाहिए या उन्हें कम उम्र से ही विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि इन बच्चों की योग्यता और प्रतिभा का विकास हो सके? इसी प्रकार वंचित कौन है? वंचित की पहचान आर्थिक आधार पर की जाये या सामाजिक आधार पर?
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि मूलतः समान व्यक्तियों को विशेष स्थितियों में अलग-अलग बरताव की जरूरत हो सकती है। लेकिन ऐसे सभी मामलों में सर्वोपरि उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना ही होगा। विशेष बरताव के लिए औचित्य सिद्ध करना और सावधानीपूर्वक विचार करना आवश्यक है। हमें इस सम्बन्ध में यह सावधानी भी बरतनी चाहिए कि विशेष बरताव वर्चस्व या शोषण की नई संरचनाओं को जन्म न दे। विशेष बरताव का उद्देश्य और औचित्य एक न्यायपरक और समतामूलक समाज को बढ़ावा देना है।