Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता
Jharkhand Board Class 11 Political Science नागरिकता InText Questions and Answers.
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प्रश्न 1.
सत्रहवीं से बीसवीं सदी के बीच यूरोप के गोरे लोगों ने दक्षिण अफ्रीका के लोगों पर अपना शासन कायम रखा। 1994 तक दक्षिण अफ्रीका में अपनाई गई नीतियों के बारे में आगे दिये गए ब्यौरे को पढ़िए।
श्वेत लोगों का मत देने, चुनाव लड़ने और सरकार को चुनने का अधिकार था। वे सम्पत्ति खरीदने और देश में कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र थे। काले लोगों को ऐसे अधिकार नहीं थे। काले और गोरे लोगों के लिए पृथक् मुहल्ले और कालोनियाँ बसाई गई थीं। काले लोगों को अपने पड़ौस के गोरे लोगों की बस्ती में काम करने के लिए ‘पास’ लेने पड़ते थे। उन्हें गोरों के इलाके में अपने परिवार रखने की अनुमति नहीं थी। अलग-अलग रंग के लोगों के लिए विद्यालय भी अलग-अलग थे।
(अ) क्या अश्वेत लोगों को दक्षिण अफ्रीका में पूर्ण और समान सदस्यता मिली हुई थी ? कारण सहित बताइये।
(ब) ऊपर दिया गया ब्यौरा हमें दक्षिण अफ्रीका में विभिन्न समूहों के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में क्या बताता है?
उत्तर:
(अ) नहीं, अश्वेत लोगों को दक्षिण अफ्रीका में पूर्ण और समान सदस्यता नहीं मिली हुई थी क्योंकि पूर्ण और समान सदस्यता के लिए देश के सभी लोगों को कुछ राजनीतिक अधिकार प्रदान किये जाते हैं, जिनमें मत देने का अधिकार, चुनाव लड़ने और सरकार बनाने का अधिकार, देश में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता आदि प्रमुख हैं। दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत लोगों को ये अधिकार नहीं दिये गए थे। अधिकारों और प्रतिष्ठा की समानता नागरिकता के बुनियादी अधिकारों में से एक है।
(ब) ऊपर दिया गया ब्यौरा हमें दक्षिण अफ्रीका में विभिन्न समूहों के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में रंग के आधार पर भेद-भाव को दर्शाता है जिसमें श्वेत लोगों को जो अधिकार प्राप्त हैं और अश्वेत लोगों को वे अधिकार प्राप्त नहीं हैं।
Jharkhand Board Class 11 Political Science नागरिकता Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में नागरिकता में अधिकार और दायित्व दोनों शामिल हैं। समकालीन लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिक किन अधिकारों के उपभोग की अपेक्षा कर सकते हैं? नागरिकों के राज्य और अन्य नागरिकों के प्रति क्या दायित्व हैं?
उत्तर:
राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में नागरिकता में अधिकार और दायित्व दोनों शामिल हैं। समकालीन विश्व में राष्ट्रों ने पने सदस्यों को एक सामूहिक राजनीतिक पहचान अर्थात् नागरिकता, के साथ- साथ कुछ अधिकार भी प्रदान किये हैं। नागरिक अपने राष्ट्र से कुछ बुनियादी अधिकारों के अलावा कहीं भी यात्रा में सहयोग और सुरक्षा की अपेक्षा करते हैं। लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों के अधिकार नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों की सुस्पष्ट प्रकृति विभिन्न राष्ट्रों में भिन्न-भिन्न हो सकती है, लेकिन अधिकतर लोकतांत्रिक देशों ने आज उनमें से कुछ राजनीतिक नागरिक तथा सामाजिक-आर्थिक अधिकार शामिल किये हैं। ये हैं
1. मतदान का अधिकार: जिन देशों में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना की जाती है, उनमें वहाँ के वयस्क नागरिकों को मतदान का अधिकार प्रदान किया जाता है। इस अधिकार के अनुसार लोग समय-समय पर होने वाले चुनावों के द्वारा अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं जो सरकार का निर्माण कर शासन का संचालन करते हैं।
2. चुनाव लड़ने का अधिकार: लोकतांत्रिक राज्यों में प्रत्येक नागरिक को निर्वाचन में खड़ा होने का अधिकार है। निर्वाचित होने के बाद वे नागरिकों के प्रतिनिधि के रूप में सरकार का निर्माण करते हैं
3. सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार: आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार है।
4. अधिकारों और प्रतिष्ठा की समानता का अधिकार: आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में अधिकारों और प्रतिष्ठा की समानता के बुनियादी अधिकार के उपभोग के लिए नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान किया गया है।
5. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार: अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है।
6. आस्था की स्वतंत्रता का अधिकार: अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों ने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को अपनाते हुए नागरिकों को धर्म के प्रति आस्था की स्वतंत्रता प्रदान की है अर्थात् नागरिक किसी भी धर्म को अपना सकता है। राज्य व्यक्ति की आस्था के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
7. न्यूनतम मजदूरी पाने का अधिकार: लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को न्यूनतम मजदूरी पाने का अधिकार प्रदान किया गया है।
8. गमनागमन की स्वतंत्रता का अधिकार: लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों में एक है- गमनागमन की स्वतंत्रता। यह अधिकार कामगारों के लिए विशेष महत्त्व का है। गृह क्षेत्र में काम के अवसर उपलब्ध नहीं होने पर कामगार रोजगार की तलाश में आप्रवास की ओर प्रवृत्त होते हैं।
9. शिक्षा सम्बन्धी अधिकार: अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है। कोई भी नागरिक समूह अपनी भाषा तथा संस्कृति को बनाए रखने के लिए अपने शिक्षा संस्थान खोल सकता है। सरकारी स्कूलों में सबको प्रवेश पाने की समानता प्राप्त है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि समकालीन लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिक अनेक राजनैतिक, नागरिक, आर्थिक तथा सामाजिक अधिकारों के उपभोग की अपेक्षा कर सकते हैं।
नागरिकों के राज्य के प्रति कर्तव्य: नागरिकों के राज्य के प्रति निम्नलिखित दायित्व हैं।
1. राज्य के प्रति भक्ति:
प्रत्येक नागरिक से राज्य के प्रति निष्ठा व भक्ति की आशा की जाती है। प्रत्येक नागरिक का यह कानूनी कर्तव्य है कि वह देशद्रोह न करे और देश पर आए संकट के समय अपना तन-मन-धन न्यौछावर करने को तैयार रहे।
2. कानूनों का पालन करना:
नागरिकों में कानून पालन की भावना से ही राज्य में शांति व व्यवस्था स्थापित हो सकती है। जिस देश में नागरिकों की प्रकृति कानूनों का उल्लंघन करने की होती है, उस देश में शान्ति व व्यवस्था विद्यमान नहीं रहती । अतः कानूनों का पालन करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।
3. टैक्स देना:
सरकार को अपने कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए धंन की आवश्यकता होती है। सरकार टैक्स लगाकर धन की प्राप्ति करती है। अत: नागरिकों का राज्य के प्रति यह कर्तव्य है कि वे अपने हिस्से के करों को ईमानदारी से चुकायें। करों को ईमानदारी से न चुकाने पर राज्य द्वारा दण्ड भी दिया जा सकता है।
4. सैनिक सेवा में भाग लेना: नागरिकों का राज्य के प्रति यह दायित्व भी है कि वे आवश्यकता पड़ने पर देश की सुरक्षा हेतु सेना में भर्ती हों।
नागरिकों के अन्य नागरिकों के प्रति दायित्व: नागरिकों के अन्य नागरिकों के प्रति प्रमुख दायित्व निम्नलिखित हैं।
1. नागरिक अधिकारों का उचित प्रयोग:
लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को जो राजनैतिक, नागरिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकार प्राप्त होते हैं, उन अधिकारों के साथ यह दायित्व भी जुड़ा होता है कि वह अन्य नागरिकों को प्राप्त इन अधिकारों के उपभोग के मार्ग में बाधायें नहीं डाले, अन्य नागरिकों के ऐसे ही अधिकारों का हनन न करे तथा इन अधिकारों का सदुपयोग करे न कि दुरुपयोग।
2. समुदाय के सहजीवन में भागीदार होने और योगदान करने का दायित्व:
नागरिकता में नागरिकों के एक-दूसरे के प्रति और समाज के प्रति निश्चित दायित्व शामिल हैं। इनमें सिर्फ राज्य द्वारा थोपी गई कानूनी बाध्यताएँ ही नहीं हैं, बल्कि समुदाय के सहजीवन में भागीदार होने और योगदान करने का नैतिक दायित्व भी शामिल है।
प्रश्न 2.
सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये तो जा सकते हैं लेकिन हो सकता है कि वे इन अधिकारों का प्रयोग समानता से न कर सकें । इस कथन की व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये तो जा सकते हैं, लेकिन हो सकता है कि वे इन अधिकारों का प्रयोग समानता से न कर सकें। इस कथन का आशय यह है कि समाज के विभिन्न समूह के लोगों की जरूरत और समस्यायें अलग-अलग हो सकती हैं और एक समूह के अधिकार दूसरे समूह के अधिकारों के प्रतिकूल हो सकते हैं। यथा
1. शहरों में झोंपड़पट्टियों तथा फुटपाथों पर रहने वाले लोग:
यद्यपि हमारे देश में सभी वयस्क नागरिकों को मत देने का समान अधिकार दिया गया है, लेकिन मत देने के लिए मतदाता सूची में नाम दर्ज होना आवश्यक है और मतदाता सूची में नाम दर्ज करने के लिए स्थायी पते की जरूरत होती है। शहरों में अनधिकृत बस्तियों, झुग्गी-झोंपड़ियों तथा पटरी पर रहने वाले लोगों के लिए ऐसा स्थायी पता पेश करना कठिन होता है । इस प्रकार ये लोग मत देने के अधिकार का प्रयोग समानता के साथ नहीं कर पाते हैं।
2. रोजगार के लिए एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गये अकुशल श्रमिक:
भारत में सभी नागरिकों को देश के भू- क्षेत्र में कहीं भी गमनागमन की स्वतंत्रता समान रूप से है तथा कोई भी व्यवसाय करने एवं बसने की स्वतंत्रता भी समान रूप से प्राप्त है। अपने गृहक्षेत्र में रोजगार के अवसर उपलब्ध न होने से कामगार रोजगार की तलाश में आप्रवास की ओर प्रवृत्त होते हैं। हमारे देश के विभिन्न हिस्सों में कुशल और अकुशल मजदूरों के लिए बाजार विकसित हुए हैं। इन बाजारों में अधिक संख्या में जब रोजगार बाहर से आने वाले नागरिकों के हाथ में आ जाता है तो उनके खिलाफ स्थानीय लोगों में प्रतिरोध की भावना पैदा होती है।
और कुछ नौकरियों या कामों को राज्य के मूल निवासियों को देने की मांग उठती है। इस हेतु राजनीतिक दलों द्वारा आन्दोलन किये जाते हैं तथा वहाँ के आप्रवासियों को रोजगार में असुविधा पैदा की जाती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि नागरिकों को राज्य के भू-भाग में कहीं भी गमनागमन, व्यवसाय करने तथा बसने की समान स्वतंत्रता का अधिकार तो प्राप्त है, लेकिन कुछ परिस्थितियों में वे इस स्वतंत्रता का प्रयोग समानता से नहीं कर पाते हैं।
3. स्त्रियाँ: स्त्रियों को लगभग सभी समाजों में द्वितीय स्तर का नागरिक समझा जाता है और वे समान अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पाती हैं।
4. शोषित व्यक्ति: सामाजिक असमानताओं के कारण कमजोर वर्ग के लोगों का शोषण किया जाता है, जिसके चलते वे समान अधिकारों का प्रयोग समानता के साथ नहीं कर पाते।
प्रश्न 3.
भारत में नागरिक अधिकारों के लिए हाल के वर्षों में किए गए किन्हीं दो संघर्षों पर टिप्पणी लिखिये। इन संघर्षों में किन अधिकारों की मांग की गई थी?
उत्तर:
भारत में नागरिक अधिकारों के लिए हाल के वर्षों में किए गए दो संघर्ष निम्नलिखित हैं।
1. बाहरी लोगों के प्रवेश को रोकने के लिए संघर्ष:
यदि आजीविका, चिकित्सा या शिक्षा जैसी सुविधाएँ और जल-जमीन जैसे प्राकृतिक साधन सीमित हों, तब बाहरी लोगों के प्रवेश को रोकने की मांग उठती है। यही कारण है कि मुम्बई में हाल के वर्षों में यह नारा दिया गया कि ‘मुम्बई मुंबईकर (मुम्बई वाले ) के लिए’। भारत के अन्य क्षेत्रों में भी इस तरह के संघर्ष होते आए हैं। भारत में गमनागमन की स्वतंत्रता, व्यवसाय की स्वतंत्रता तथा कहीं भी बसने की स्वतंत्रता के तहत अपने गृहक्षेत्र में काम के अवसर न होने पर कामगार रोजगार की तलाश में आप्रवास की ओर प्रवृत्त होते हैं।
रोजगार की तलाश में बिहार व अन्य राज्यों के बहुत से कामगार मुम्बई जाकर काम करने लग गए। इससे वहाँ के रोजगार बाहरी लोगों के हाथों में अधिक संख्या में आ गए। इससे स्थानीय लोगों में प्रतिरोध की भावना पैदा हुई और कुछ नौकरियों या कामों को राज्य के मूल निवासियों या स्थानीय भाषा जानने वाले लोगों तक सीमित रखने की मांग उठी। क्षेत्रीय दलों ने इस मुद्दे को उठाया तथा इस प्रतिरोध ने ‘बाहरी’ के खिलाफ संगठित हिंसा व संघर्ष का रूप धारण कर लिया। इस संघर्ष में स्थानीय लोगों को ही स्थानीय नौकरियाँ या काम दिये जाने की मांग की गई थी।
2. शहरी झोंपड़पट्टियों में रहने वालों की आश्रय के अधिकार की मांग – भारत के हर शहर में बहुत बड़ी आबादी झोंपड़पट्टियों और अवैध कब्जे की जमीन पर बसे लोगों की है। झोंपड़पट्टियों के लोग हाल के वर्षों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और संगठित होकर संघर्षरत हुए हैं। उन्होंने कभी-कभी अदालतों में भी दस्तक दी है। स्थायी आश्रय न होने के कारण उनके लिए वोट देने जैसे बुनियादी राजनीतिक अधिकार का प्रयोग करना भी कठिन हो जाता है क्योंकि मतदाता सूची में नाम दर्ज होने के लिए स्थायी पते की जरूरत होती है।
और अनधिकृत बस्तियों तथा पटरी पर रहने वालों के लिए ऐसा पता पेश करना कठिन होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने मुम्बई की झोंपड़पट्टियों में रहने वालों के अधिकारों के सम्बन्ध सन् 1985 में एक महत्त्वपूर्ण फैसला दिया। याचिका में कार्यस्थल के निकट रहने की वैकल्पिक जगह उपलब्ध न होने के कारण फुटपाथ या झोंपड़पट्टियों में रहने के अधिकार का दावा किया गया था। अगर यहाँ रहने वालों को हटाने के लिए मजबूर किया गया तो उन्हें आजीविका भी गंवानी पड़ेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संविधान की धारा 21 में जीने के अधिकार की गारंटी दी गई है जिसमें आजीविका का अधिकार शामिल है। इसलिए अगर फुटपाथियों को बेदखल करना हो, तो उन्हें आश्रय के अधिकार के तहत पहले वैकल्पिक जगह उपलब्ध करानी होगी।
प्रश्न 4.
शरणार्थियों की समस्यायें क्या हैं? वैश्विक नागरिकता की अवधारणा किस प्रकार उनकी सहायता कर सकती है?
उत्तर:
शरणार्थी से आशय:
युद्ध, उत्पीड़न, अकाल या अन्य कारणों से लोग विस्थापित होते हैं। यदि कोई देश उन्हें स्वीकार करने के लिए राजी नहीं होता और वे घर नहीं लौट सकते तो वे राज्यविहीन या शरणार्थी कहे जाते हैं। वे शिविरों में या अवैध रूप में रहने के लिए मजबूर हो जाते हैं शरणार्थियों की प्रमुख समस्यायें ये हैं।
- शरणार्थी आम तौर पर असुरक्षित हालत में जीवनयापन करते हैं।
- ये शिविरों में या अवैध प्रवासी के रूप में रहने के लिए मजबूर किये जाते हैं।
- वे अक्सर कानूनी तौर पर काम नहीं कर सकते या अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं सकते या सम्पत्ति अर्जित नहीं कर सकते।
- ऐसी समस्यायें लोकतांत्रिक नागरिकता के उस वायदे को चुनौती देती हैं, जो यह कहता है कि समकालीन विश्व में सभी लोगों को नागरिक की पहचान और अधिकार उपलब्ध होने चाहिए। अनेक लोग अपने पसन्द के देश की नागरिकता हासिल नहीं कर सकते, उनके लिए अपनी पहचान का विकल्प भी नहीं होता।
वैश्विक नागरिकता शरणार्थियों की समस्या के रूप में:
शरणार्थियों या राज्यहीन लोगों का प्रश्न आज विश्व के लिए गंभीर समस्या बन गया है। राष्ट्रीय नागरिकता ऐसे लोगों की समस्याओं का समाधान नहीं कर पा रही है। वैश्विक नागरिकता ही इस समस्या का हल प्रस्तुत कर सकती है। यथा
- विश्व नागरिकता से राष्ट्रीय सीमाओं के दोनों ओर की उन समस्याओं का मुकाबला करना आसान हो सकता है जिसमें कई देशों की सरकारों और लोगों की संयुक्त कार्यवाही जरूरी होती है। उदाहरण के लिए इससे प्रवासी और राज्यहीन लोगों की समस्या का सर्वमान्य समाधान पाना आसान हो सकता है या कम से कम उनके बुनियादी अधिकार और सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है, चाहे वे किसी भी देश में रहते हों।
- वैश्विक नागरिकता की अवधारणा हमें याद दिलाती है कि राष्ट्रीय नागरिकता को इस समझदारी से जोड़ने की आवश्यकता है कि हम आज अन्तर्सम्बद्ध विश्व में रहते हैं और हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम विश्व के विभिन्न हिस्सों के लोगों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करें और राष्ट्रीय सीमाओं के पार के लोगों और सरकारों के साथ ‘काम करने के लिए तैयार हों।
प्रश्न 5.
देश के अन्दर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में लोगों के आप्रवासन का आमतौर पर स्थानीय लोग विरोध करते हैं। प्रवासी लोग स्थानीय अर्थव्यवस्था में क्या योगदान दे सकते हैं?
उत्तर:
बाहरी के खिलाफ स्थानीय लोगों का प्रतिरोध:
अगर आजीविका, चिकित्सा या शिक्षा जैसी सुविधायें और जल-जमीन जैसे प्राकृतिक साधन सीमित हों, तो बाहरी लोगों के प्रवेश को रोकने की मांग उठने की संभावना रहती है। ‘मुम्बई मुंबईकर के लिए’ के नारे से ऐसी ही भावनाएँ प्रकट होती हैं। भारत और विश्व के विभिन्न हिस्सों में इस तरह के अनेक संघर्ष होते आए हैं।
जब गृहक्षेत्र में कार्य के अवसर उपलब्ध नहीं होते तो कामगार रोजगार की तलाश में, गमनागमन, व्यवसाय तथा बसने की स्वतंत्रता के तहत आप्रवास की ओर प्रवृत्त होते हैं। शहरों में तेजी से पनपता भवन निर्माण उद्योग देश के विभिन्न हिस्सों के श्रमिकों को आकर्षितं करता है। लेकिन अधिक संख्या में रोजगार बाहर के लोगों के हाथ में जाने के खिलाफ स्थनीय लोगों में प्रतिरोध की भावना पैदा हो जाती है। कुछ नौकरियों या कामों को राज्य के मूल निवासियों या स्थानीय भाषा को जानने वाले लोगों तक सीमित रखने की माँग उठती है। राजनीतिक पार्टियाँ यह मुद्दा उठाती हैं। यह प्रतिरोध बाहरी के खिलाफ संगठित हिंसा का भी रूप ले लेता है। भारत के लगभग सभी क्षेत्र इस तरह के आंदोलनों से गुजर चुके हैं।
स्थानीय लोग निम्नलिखित आधारों पर आप्रवासन का विरोध कर सकते हैं:
1. यदि आप्रवासियों के निरन्तर आगमन के कारण नौकरियों में अवसर तथा व्यवसायों की स्थापना के अवसर घटते जा रहे हों और स्थानीय लोगों में यह भावना घर कर जाए कि इन बाहरी लोगों के कारण वे अपने अधिकारों और जीवनयापन के अवसरों से वंचित हो रहे हैं, तो स्थानीय लोग अपने क्षेत्र में आप्रवासन का विरोध करने लगते हैं।
2. जब क्षेत्र की जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है और लोगों को रहने के लिए निवास की कमी महसूस होने लगती है। कभी-कभी आप्रवासी लोग स्थानीय गरीब लोगों से अच्छी कीमत पर घर तथा अन्य सम्पत्तियाँ खरीद लेते हैं । लेकिन जल्दी ही स्थानीय लोग बाहरी लोगों द्वारा अपने घरों से वंचित किया जाना महसूस करने लगते हैं और वे बाहरी लोगों का विरोध करने लगते हैं।
3. आप्रवासियों के तेजी से आगमन से दिन-प्रतिदिन के उपयोग की वस्तुओं की उपलब्धता पर भी दबाव पड़ता है और कभी-कभी उनकी अत्यधिक कमी आ जाती है या उनकी कीमत बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में स्थानीय लोग बाहरी लोगों के आगमन का विरोध करते हैं।
4. स्थानीय प्रशासन की आधारभूत संरचना नागरिक सुविधाओं, जैसे— पानी की आपूर्ति, विद्युत, गन्दे जल की निकासी तथा यातायात के साधनों आदि की अतिरिक्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाती तो वे सुविधाएँ कीमती हो जाती हैं और स्थानीय लोग इन सुविधाओं के कम होने या अधिक कीमती होने के लिए बाहरी लोगों के आगमन पर उत्तरदायी ठहराते हैं।
5. जब बाहरी लोगों द्वारा अच्छी नौकरियों पर कब्जा कर लिया जाता है और स्थानीय प्रशासन पर भी उनका वर्चस्व हो जाता है तो स्थानीय लोग यह महसूस करने लगते हैं कि इन बाहरी लोगों द्वारा वे पीछे की ओर धकेल दिये गये हैं, तब स्थानीय लोग बाहरी लोगों का विरोध करने लगते हैं।
6. गरीब, अप्रशिक्षित तथा अकुशल बाहरी श्रमिक व्यक्ति कम मजदूरी पर कार्य करना प्रारंभ कर देते हैं तथा झुग्गी-झोंपड़ियों में बुरी दशाओं में रहने लगते हैं तो वे स्थानीय कामगारों पर बुरा प्रभाव डालते हैं तथा इस क्षेत्र में स्वास्थ्यकर वातावरण पर दुष्प्रभाव भी इन गंदी बस्तियों के कारण पड़ता है। फलतः स्थानीय लोग ऐसे अकुशल बाहरी कामगारों का विरोध करने लग जाते हैं।
प्रवासी लोगों का स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान: प्रवासी लोग अपने श्रम से स्थानीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं।
- प्रवासी लोग अन्य पेशों के बीच फेरी वाले, छोटे व्यापारी, सफाईकर्मी या घरेलू नौकर, नल ठीक करने वाले या मिस्त्री होते हैं।
- ये लोग बेंत बुनाई या कपड़ा रंगाई – छपाई या सिलाई जैसे छोटे-छोटे कारोबार भी चलाते हैं।
- प्रवासी लोगों को सफाई या जलापूर्ति जैसी सुविधाएँ मुहैया करने पर कोई भी शहर अपेक्षाकृत कम खर्च करता है।
- बाहर से आने वाले उद्योगपति या पूँजीपति उस क्षेत्र में कारखाने स्थापित कर आर्थिक विकास तथा व्यापारिक गतिविधियों में वृद्धि करते हैं, इससे उस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का विकास होता है।
- एक नया कारखाना क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि करता है।
- इससे क्षेत्र में कुशल तथा अकुशल दोनों प्रकार के कामगारों की आपूर्ति होती है। वे कठिन परिश्रम कर स्थानीय लोगों में भी कठिन परिश्रम कर प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ाते हैं।
प्रश्न 6.
भारत जैसे समान नागरिकता वाले देशों में भी लोकतांत्रिक नागरिकता एक पूर्ण स्थापित तथ्य नहीं वरन् एक परियोजना है। नागरिकता से जुड़े उन मुद्दों की चर्चा कीजिये जो आजकल भारत में उठाये जा रहे हैं।
उत्तर:
भारत में लोकतांत्रिक नागरिकता एक परियोजना है- भारत स्वयं को धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र- राज्य कहता है। भारतीय संविधान ने बहुत ही विविधतापूर्ण समाज को समायोजित करने की कोशिश की है; जैसे इसने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे भिन्न-भिन्न समुदायों, पूर्व में समान अधिकार से वंचित रही महिलाएँ, आधुनिक सभ्यता के साथ माकूल सम्पर्क रखने वाले अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के कुछ सुदूरवर्ती समुदायों और कई अन्य समुदायों को पूर्ण और समान नागरिकता देने का प्रयास किया है। इसने देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित विभिन्न भाषाओं, धर्म और रिवाजों की पहचान बनाए रखने का प्रयास किया है। इसने संविधान के माध्यम से लोगों को
स्थानीय लोग निम्नलिखित आधारों पर आप्रवासन का विरोध कर सकते हैं:
1. यदि आप्रवासियों के निरन्तर आगमन के कारण नौकरियों में अवसर तथा व्यवसायों की स्थापना के अवसर घटते जा रहे हों और स्थानीय लोगों में यह भावना घर कर जाए कि इन बाहरी लोगों के कारण वे अपने अधिकारों और जीवनयापन के अवसरों से वंचित हो रहे हैं, तो स्थानीय लोग अपने क्षेत्र में आप्रवासन का विरोध करने लगते हैं।
2. जब क्षेत्र की जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है और लोगों को रहने के लिए निवास की कमी महसूस होने लगती है। कभी-कभी आप्रवासी लोग स्थानीय गरीब लोगों से अच्छी कीमत पर घर तथा अन्य सम्पत्तियाँ खरीद लेते हैं । लेकिन जल्दी ही स्थानीय लोग बाहरी लोगों द्वारा अपने घरों से वंचित किया जाना महसूस करने लगते हैं और वे बाहरी लोगों का विरोध करने लगते हैं।
3. आप्रवासियों के तेजी से आगमन से दिन-प्रतिदिन के उपयोग की वस्तुओं की उपलब्धता पर भी दबाव पड़ता है और कभी-कभी उनकी अत्यधिक कमी आ जाती है या उनकी कीमत बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में स्थानीय लोग बाहरी लोगों के आगमन का विरोध करते हैं।
4. स्थानीय प्रशासन की आधारभूत संरचना नागरिक सुविधाओं, जैसे पानी की आपूर्ति, विद्युत, गन्दे जल की निकासी तथा यातायात के साधनों आदि की अतिरिक्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाती तो वे सुविधाएँ कीमती हो जाती हैं और स्थानीय लोग इन सुविधाओं के कम होने या अधिक कीमती होने के लिए बाहरी लोगों के आगमन पर उत्तरदायी ठहराते हैं।
5. जब बाहरी लोगों द्वारा अच्छी नौकरियों पर कब्जा कर लिया जाता है और स्थानीय प्रशासन पर भी उनका वर्चस्व हो जाता है तो स्थानीय लोग यह महसूस करने लगते हैं कि इन बाहरी लोगों द्वारा वे पीछे की ओर धकेल दिये गये हैं, तब स्थानीय लोग बाहरी लोगों का विरोध करने लगते हैं।
6. गरीब, अप्रशिक्षित तथा अकुशल बाहरी श्रमिक व्यक्ति कम मजदूरी पर कार्य करना प्रारंभ कर देते हैं तथा झुग्गी-झोंपड़ियों में बुरी दशाओं में रहने लगते हैं तो वे स्थानीय कामगारों पर बुरा प्रभाव डालते हैं तथा इस क्षेत्र में स्वास्थ्यकर वातावरण पर दुष्प्रभाव भी इन गंदी बस्तियों के कारण पड़ता है। फलतः स्थानीय लोग ऐसे अकुशल बाहरी कामगारों का विरोध करने लग जाते हैं।
प्रवासी लोगों का स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान: प्रवासी लोग अपने श्रम से स्थानीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं।
- प्रवासी लोग अन्य पेशों के बीच फेरी वाले, छोटे व्यापारी, सफाईकर्मी या घरेलू नौकर, नल ठीक करने वाले या मिस्त्री होते हैं।
- ये लोग बेंत बुनाई या कपड़ा रंगाई – छपाई या सिलाई जैसे छोटे-छोटे कारोबार भी चलाते हैं।
- प्रवासी लोगों को सफाई या जलापूर्ति जैसी सुविधाएँ मुहैया करने पर कोई भी शहर अपेक्षाकृत कम खर्च करता है।
- बाहर से आने वाले उद्योगपति या पूँजीपति उस क्षेत्र में कारखाने स्थापित कर आर्थिक विकास तथा व्यापारिक गतिविधियों में वृद्धि करते हैं, इससे उस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का विकास होता है।
- एक नया कारखाना क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि करता है।
- इससे क्षेत्र में कुशल तथा अकुशल दोनों प्रकार के कामगारों की आपूर्ति होती है । वे कठिन परिश्रम कर स्थानीय लोगों में भी कठिन परिश्रम कर प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ाते हैं।
प्रश्न 6.
भारत जैसे समान नागरिकता वाले देशों में भी लोकतांत्रिक नागरिकता एक पूर्ण स्थापित तथ्य नहीं वरन् एक परियोजना है। नागरिकता से जुड़े उन मुद्दों की चर्चा कीजिये जो आजकल भारत में उठाये जा रहे हैं।
उत्तर:
भारत में लोकतांत्रिक नागरिकता एक परियोजना है- भारत स्वयं को धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र- राज्य कहता है। भारतीय संविधान ने बहुत ही विविधतापूर्ण समाज को समायोजित करने की कोशिश की है; जैसे इसने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे भिन्न-भिन्न समुदायों, पूर्व में समान अधिकार से वंचित रही महिलाएँ, आधुनिक सभ्यता के साथ माकूल सम्पर्क रखने वाले अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के कुछ सुदूरवर्ती समुदायों और कई अन्य समुदायों को पूर्ण और समान नागरिकता देने का प्रयास किया है। इसने देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित विभिन्न भाषाओं, धर्म और रिवाजों की पहचान बनाए रखने का प्रयास किया है। इसने संविधान के माध्यम से लोगों को उनकी निजी आस्था, भाषा या सांस्कृतिक रिवाजों को छोड़ने के लिए बाध्य किए बिना सभी को समान अधिकार उपलब्ध कराना है।
संविधान में नागरिकता सम्बन्धी प्रावधान:
नागरिकता से सम्बन्धित प्रावधानों का उल्लेख संविधान के दूसरे भाग और संसद द्वारा बाद में पारित कानूनों में हुआ है। संविधान ने लोकतांत्रिक और समावेंशी धारणा को अपनाया है। भारत में जन्म, वंश-परम्परा, पंजीकरण, देशीकरण या किसी भू-क्षेत्र के राजक्षेत्र में शामिल होने से नागरिकता हासिल की जा सकती है। संविधान में नागरिकों के अधिकार और दायित्व दर्ज हैं। यह प्रावधान भी है कि राज्य केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के भी आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव नहीं करेगा। इसमें धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों के अधिकारों को भी संरक्षित किया गया है।
संविधान के प्रावधानों से संघर्ष और विवादों की उत्पत्ति:
संविधान में नागरिकता सम्बन्धी उक्त प्रावधानों ने भी संघर्ष और विवादों को जन्म दिया है। महिला आन्दोलन, दलित आन्दोलन या विकास योजनाओं से विस्थापित लोगों का संघर्ष ऐसे लोगों द्वारा चलाया जा रहा है, जो मानते हैं कि उनकी नागरिकता को पूर्ण अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। भारत के उक्त अनुभव से संकेत मिलते हैं कि किसी देश में लोकतांत्रिक नागरिकता एक परियोजना या लक्ष्य सिद्धि का एक आदर्श है। जैसे-जैसे समाज बदल रहे हैं, वैसे-वैसे नित नए मुद्दे उठाये जा रहे हैं और वे समूह नई मांगें पेश कर रहे हैं जिन्हें लगता है कि वे हाशिये पर ठेले जा रहे हैं। जैसे शहरों में झोंपड़पट्टियों या फुटपाथ पर रहने वाले लोगों द्वारा आश्रय के अधिकार के तहत वैकल्पिक जगह उपलब्ध कराने की मांग, देश के विकास को खतरे में डाले बिना आदिवासियों के रहवास की सुरक्षा की मांग आदि।
नागरिकता JAC Class 11 Political Science Notes
→ नागरिकता का अर्थ तथा परिभाषा: नागरिकता एक राजनैतिक समुदाय की सम्पूर्ण और समान सदस्यता है।
नागरिकता राज्यसत्ता और उसके सदस्यों के बीच सम्बन्धों के निरूपण के रूप में समकालीन विश्व में: राष्ट्रों ने अपने सदस्यों को एक सामूहिक राजनीतिक पहचान के साथ-साथ कुछ अधिकार भी प्रदान किये हैं। इसलिए हम संबद्ध राष्ट्र के आधार पर अपने को भारतीय, जापानी या जर्मन मानते हैं । नागरिक अपने राष्ट्र से कुछ बुनियादी अधिकारों के अलावा कहीं भी यात्रा करने में सहयोग और सुरक्षा की अपेक्षा रखते हैं।
नागरिकों को प्रदत्त अधिकार: नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों की सुस्पष्ट प्रकृति विभिन्न राष्ट्रों में भिन्न-भिन्न हो सकती है, लेकिन अधिकतर लोकतांत्रिक देशों ने आज उनमें से कुछ राजनैतिक अधिकार शामिल किये हैं। यथा मतदान का अधिकार, अभिव्यक्ति या आस्था की स्वतंत्रता जैसे नागरिक अधिकार और न्यूनतम मजदूरी तथा शिक्षा पाने से जुड़े कुछ सामाजिक-आर्थिक अधिकार। अधिकारों और प्रतिष्ठा की समानता नागरिकता के बुनियादी अधिकारों में से एक है। नागरिक आज जिन अधिकारों का प्रयोग करते हैं, उन सभी को संघर्ष के बाद हासिल किया गया है। पूर्ण सदस्यता और समान अधिकार पाने का संघर्ष विश्व के कई हिस्सों में आज भी जारी है।
→ नागरिकता नागरिकों के आपसी सम्बन्धों के निरूपण के रूप में: नागरिकता सिर्फ राज्य सत्ता और उसके सदस्यों के बीच के सम्बन्धों का निरूपण ही नहीं बल्कि यह नागरिकों के आपसी सम्बन्धों का निरूपण भी है। इसमें नागरिकों के एक-दूसरे के प्रति और समाज के प्रति निश्चित दायित्व शामिल हैं। इनमें सिर्फ राष्ट्र द्वारा थोपी गई कानूनी बाध्यताएँ नहीं, बल्कि समुदाय के सहजीवन में भागीदार होने और योगदान करने का नैतिक दायित्व भी शामिल होता है।
→ सम्पूर्ण और समान सदस्यता:
सम्पूर्ण और समान सदस्यता का असली अर्थ क्या है? ( अ ) क्या इसका अर्थ यह होता है कि नागरिकों को देश में जहाँ भी चाहें रहने, पढ़ने या काम करने का समान अधिकार और अवसर मिलना चाहिए? (ब) क्या इसका अर्थ यह है कि सभी अमीर-गरीब नागरिकों को कुछ बुनियादी अधिकार और सुविधाएँ मिलनी चाहिए? यथा-
(अ) भारत में तथा अन्य देशों में नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों में एक है। गमनागमन की स्वतंत्रता यह अधिकार कामगारों के लिए विशेष महत्त्व का है। गृह क्षेत्र में रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं होने पर कामगार रोजगार की तलाश में देश के दूसरे क्षेत्रों में जाते हैं। इससे अधिक संख्या में रोजगार बाहर के लोगों के हाथ में जाने के खिलाफ स्थानीय लोगों में प्रतिरोध की भावना पैदा हो जाती है और कुछ नौकरियों या कामों को राज्य के मूल निवासियों या स्थानीय भाषा को जानने वाले लोगों तक सीमित रखने की मांग उठती है। राजनीतिक दल यह मुद्दा उठाते हैं और यह प्रतिरोध ‘बाहरी लोगों के खिलाफ’ संगठित हिंसा का भी रूप ले लेता है। भारत के लगभग सभी क्षेत्र इस तरह के आन्दोलन से गुजर चुके हैं। तो क्या गमनागमन की स्वतंत्रता में देश के किसी भी हिस्से में काम करने या बसने का अधिकार शामिल है?
(ब) क्या सम्पूर्ण और समान सदस्यता का यह अर्थ है कि सभी गरीब और अमीर नागरिकों को कुछ बुनियादी और समान सुविधाएँ मिलनी चाहिए? कभी-कभी गरीब प्रवासी और कुशल प्रवासी को लेकर हमारी प्रतिक्रिया में अन्तर होता है। हम प्रायः गरीब और अकुशल प्रवासियों को उस तरह स्वागत योग्य नहीं मानते, जिस तरह कुशल और दौलतमंद कामगारों को मानते हैं। इससे लगता है कि गरीब कामगारों को देश में कहीं भी रहने और काम करने का समान अधिकार नहीं है।
इन्हीं दोनों मुद्दों पर आज हमारे देश में बहस जारी है। यद्यपि नागरिक समूह बनाकर, प्रदर्शन कर, मीडिया का उपयोग कर, राजनीतिक दलों से अपील कर या अदालत में जाकर जनमत और सरकारी नीतियों के परखने और प्रभावित करने के लिए स्वतंत्र हैं। अदालतें उस पर निर्णय दे सकती हैं या समाधान हेतु सरकार से आग्रह कर सकती हैं। यह धीमी प्रक्रिया है, लेकिन इससे कई बार न्यूनाधिक सफलताएँ संभव हैं। इसके समाधान हेतु हमें बल प्रयोग के स्थान पर वार्ता और विचार-विमर्श का रास्ता अपनाना चाहिए। यह नागरिकता के प्रमुख दायित्वों में से एक है।
→ समान अधिकार: क्या पूर्ण और समान नागरिकता का अर्थ यह है कि राजसत्ता द्वारा सभी नागरिकों को, चाहे वे अमीर या गरीब हों, कुछ बुनियादी अधिकारों और न्यूनतम जीवन स्तर की गारंटी दी जानी चाहिए? भारत के हर शहर में गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों की समस्याएँ शहर के अन्य लोगों से भिन्न हैं। इसी प्रकार हमारे यहाँ आदिवासियों की भी भिन्न समस्यायें हैं। उनकी जीवन-पद्धति और आजीविका खतरे में पड़ती जा रही है। इससे स्पष्ट होता है कि विभिन्न समूह के लोगों की जरूरत और समस्यायें अलग-अलग हो सकती हैं और एक समूह के अधिकार दूसरे समूह के अधिकारों के प्रतिकूल हो सकते हैं।
नागरिकों के लिए समान अधिकार का अर्थ यह नहीं होता कि सभी लोगों पर समान नीतियाँ लागू कर दी जाएँ क्योंकि विभिन्न समूह के लोगों की जरूरतें भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। यदि नागरिकता का प्रयोजन लोगों को अधिक बराबरी पर लाना है तो नीतियाँ तैयार करते समय लोगों की विभिन्न आवश्यकताओं और दावों का ध्यान रखना आवश्यक है। अतः नागरिकता से सम्बन्धित औपचारिक कानून प्रस्थान बिन्दु भर होते हैं और कानूनों की व्याख्या निरंतर विकसित होती है। सामान्य रूप से समान नागरिकता की अवधारणा का अर्थ यही है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार और सुरक्षा प्रदान करना सरकारी नीतियों का मार्गदर्शन सिद्धान्त हो।
→ नागरिक और राष्ट्र:
राष्ट्र राज्य और नागरिकता: राष्ट्र राज्य की अवधारणा आधुनिक काल में विकसित हुई है। राष्ट्र-राज्यों का दावा है कि उनकी सीमाएँ सिर्फ राज्य क्षेत्र को नहीं, बल्कि एक अनोखी संस्कृति और साझा इतिहास को भी परिभाषित करती हैं। राष्ट्रीय पहचान को एक झंडा, राष्ट्रगान, राष्ट्रभाषा जैसे प्रतीकों से व्यक्त किया जा सकता है। एक लोकतांत्रिक राज्य की राष्ट्रीय पहचान में नागरिकों को ऐसी राजनीतिक पहचान देने की कल्पना होती है, जिसमें राज्य के सभी सदस्य भागीदार हो सकें। लेकिन व्यवहार में अधिकतर देश अपनी पहचान को इस तरह परिभाषित करने की ओर अग्रसर होते हैं, जो कुछ नागरिकों के लिए राष्ट्र के साथ अपनी पहचान कायम करना अन्यों की तुलना में आसान बनाता है।
यह राजसत्ता के लिए भी अन्यों की तुलना में कुछ लोगों को नागरिकता देना आसान कर देता है। उदाहरण के लिए फ्रांस, धर्मनिरपेक्ष और समावेशी होने का दावा करता है लेकिन वह सार्वजनिक जीवन में फ्रांसीसी भाषा-संस्कृति से आत्मसात् होने में बल देता है। लेकिन अपनी पगड़ी पहनने के कारण सिक्ख छात्रों को और सिर पर दुपट्टा पहनने के कारण मुस्लिम लड़कियों को इसके साथ आत्मसात् होना कठिन हो जाता है, जबकि फ्रांसीसी राष्ट्रीय संस्कृति में शामिल होना दूसरे धर्मावलम्बियों के लिए अपेक्षाकृत आसान होता है। दूसरे, नागरिकता के लिए आवेदकों को अनुमति देने की कसौटी हर देश में भिन्न-भिन्न होती है। कुछ समूहों के लिए इनमें कुछ प्रतिषेध स्पष्टतः दिखाई देते हैं।
यथा
→ भारत में नागरिकता: भारत के संविधान ने नागरिकता की लोकतांत्रिक और समावेशी धारणा को अपनाया।
- भारत में जन्म, वंश-परम्परा, पंजीकरण, देशीकरण या किसी भू-क्षेत्र के राज क्षेत्र में शामिल होने से नागरिकता हासिल की जा सकती है।
- संविधान में नागरिकों के अधिकार और दायित्व दर्ज हैं।
- संविधान में यह भी दर्ज है कि राज्य को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के भी आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।
- संविधान में धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों के अधिकारों को भी संरक्षित किया गया है।
- इस तरह के समावेशी प्रावधानों ने भी संघर्ष और विवादों को जन्म दिया है। महिला आन्दोलन, दलित आन्दोलन या विकास योजनाओं से विस्थापित लोगों का संघर्ष ऐसे लोगों द्वारा चलाए जा रहे संघर्षों के कुछ नमूने हैं, जो यह मानते हैं कि उनकी नागरिकता को पूर्ण अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि किसी देश में लोकतांत्रिक नागरिकता लक्ष्य-सिद्धि का एक आदर्श है। सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ कुछ समूह नयी मांगें उठाते हैं जिन पर खुले मस्तिष्क से बातचीत करनी होती है।
→ सार्वभौमिक नागरिकता:
हम प्राय: यह मान लेते हैं कि किसी देश की पूर्ण सदस्यता उन सबको उपलब्ध होनी चाहिए, जो सामान्यतया उस देश में रहते और काम करते हैं या जो नागरिकता के लिए आवेदन करते हैं। यद्यपि अनेक देश वैश्विक और समावेशी नागरिकता का समर्थन करते हैं लेकिन नागरिकता देने की शर्त भी निर्धारित करते हैं। ये शर्तें आमतौर पर देश के संविधान और कानूनों में लिखी होती हैं। अवांछित आगंतुकों, जैसे- शरणार्थियों को नागरिकता से बाहर रखने के लिए राज्य सत्ताएँ ताकत का प्रयोग करती हैं।
→ शरणार्थी समस्या: युद्ध, उत्पीड़न, अकाल या अन्य कारणों से लोग विस्थापित होते हैं। यदि कोई देश उन्हें स्वीकार करने के लिए राजी नहीं होता और वे घर नहीं लौट सकते तो वे राज्यविहीन या शरणार्थी कहे जाते हैं। वे शिविरों में या अवैध प्रवासी के रूप में रहने के लिए मजबूर हो जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने शरणार्थियों की जाँच करने और मदद करने के लिए उच्चायुक्त नियुक्त किया है।
अनेक देशों ने युद्ध या उत्पीड़न से पलायन करने वाले लोगों को अंगीकार करने की नीति अपना रखी है। लेकिन वे भी ऐसे लोगों की अनियंत्रित भीड़ को स्वीकार करने या सुरक्षा के संदर्भ में देश को जोखिम में डालना नहीं चाहेंगे। अतः इनमें से कुछ को ही नागरिकता प्राप्त होती है। ऐसी समस्याएँ लोकतांत्रिक नागरिकता के उस वायदे को चुनौती देती हैं जो यह कहता है कि समकालीन विश्व में सभी लोगों को नागरिक की पहचान और अधिकार उपलब्ध होने चाहिए।
राज्यहीन लोगों का सवाल आज विश्व के लिए गंभीर समस्या बन गया है। राष्ट्रों की सीमाएँ अभी भी युद्ध या राजनीतिक विवादों के जरिए पुनर्परिभाषित की जा रही हैं। राज्यहीन लोगों को आज किस तरह की राजनैतिक पहचान दी जा सकती है? क्या हमें राष्ट्रीय नागरिकता से अधिक सच्ची वैश्विक पहचान हेतु विश्व नागरिकता की धारणा विकसित की जानी चाहिए।
→ विश्व नागरिकता के समर्थन में तर्क:
→ वर्तमान काल में संचार के नए तरीकों ने विश्व के विभिन्न हिस्सों की हलचलों को हमारे तत्काल सम्पर्क के दायरे में ला दिया है। इसलिए चाहे विश्व – कुटुम्ब और वैश्विक समाज अभी विद्यमान नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार आज परस्पर जुड़ा महसूस करते हैं। विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के पीड़ितों की सहायता के लिए विश्व के सभी हिस्सों से उमड़ा भावोद्गार विश्व-समाज के उभार के संकेत हैं। अतः इस भावना को और मजबूत करते हुए विश्व नागरिकता की अवधारणा की दिशा में सक्रिय होना चाहिए।
→ मानवाधिकार की अवधारणा के विकास के साथ-साथ विश्व: नागरिकता की अवधारणा की ओर बढ़ने का समय आ गया है।
→ विश्व: नागरिकता की अवधारणा से राष्ट्रीय सीमाओं के दोनों ओर की उन समस्याओं का मुकाबला करना आसान हो सकता है जिसमें कई देशों की सरकारें और लोगों की संयुक्त कार्यवाही जरूरी होती है।
→ विश्व: नागरिकता की अवधारणा राष्ट्रीय नागरिकता को इस समझदारी से जोड़ने का प्रयास करती है कि हम विश्व के विभिन्न हिस्सों के लोगों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करें।