JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. आजादी के समय देश में अधिकांश प्रांत ऐसे थे जिन्हें अंग्रेजों ने गठित किया था
(क) सामान्य भाषा के आधार पर
(ख) सामान्य आर्थिक हित के आधार पर
(ग) सामान्य क्षेत्र के आधार पर
(घ) प्रशासनिक सुविधा के आधार पर
उत्तर:
(घ) प्रशासनिक सुविधा के आधार पर

2. इस समय भारत संघ में कुल राज्य हैं।
(क) 14
(ख) 16
(ग) 25
(घ) 28
उत्तर:
(घ) 28

3. निम्नलिखित में जो संघात्मक शासन प्रणाली की विशेषता नहीं है, वह है।
(क) शक्तियों का विभाजन
(ख) संविधान की सर्वोच्चता
(ग) इकहरी नागरिकता
(घ) न्यायपालिका की स्वतंत्रता
उत्तर:
(ग) इकहरी नागरिकता

4. भारतीय संविधान निर्माताओं को संघात्मक व्यवस्था में एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।
(क) विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रखने के लिए
(ख) राष्ट्रीय एकता की स्थापना के लिए
(ग) विकास की चिंताओं ने
(घ) उपर्युक्त सभी ने
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी ने

5. भारत के राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है।
(क) राष्ट्रपति द्वारा
(ख) मुख्यमंत्री द्वारा
(ग) लोकसभा अध्यक्ष द्वारा
(घ) गृहमंत्री द्वारा।
उत्तर:
(क) राष्ट्रपति द्वारा

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

6. केन्द्र-राज्य सम्बन्धों से जुड़े मसलों की पड़ताल के लिए केन्द्र सरकार द्वारा 1983 में एक आयोग बनाया गया। इस आयोग को जाना जाता है।
(क) योजना आयोग के नाम से
(ख) सरकारिया आयोग के नाम से
(ग) अन्तर्राज्यीय आयोग के नाम से
(घ) लोक सेवा आयोग के नाम से
उत्तर:
(ख) सरकारिया आयोग के नाम से

7. संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में आपसी विवाद को कहा जाता है।
(क) केन्द्र-राज्य विवाद
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय विवाद
(ग) अन्तर्राज्यीय विवाद
(घ) आन्तरिक विवाद
उत्तर:
(ग) अन्तर्राज्यीय विवाद

8. संविधान के अनुच्छेद 370 के द्वारा भारत संघ के किस राज्य को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई थी।
(क) बिहार राज्य को
(ख) उत्तरांचल राज्य को
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य को
(घ) अरुणाचल राज्य को
उत्तर:
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य को

9. भारत में महाराष्ट्र में कौनसा क्षेत्र अभी भी अलग राज्य के लिए संघर्ष कर रहा है।
(क) तेलंगाना क्षेत्र
(ख) विदर्भ क्षेत्र
(ग) उत्तरांचल क्षेत्र
(घ) झारखंड क्षेत्र
उत्तर:
(ख) विदर्भ क्षेत्र

10. वर्तमान में तेलंगाना क्षेत्र एक अलग राज्य है। यह राज्य निम्न में से किस राज्य से अलग होकर बना है-
(क) महाराष्ट्र
(ख) तमिलनाडु
(ग) तेलगूदेशम
(घ) कर्नाटक
उत्तर:
(ग) तेलगूदेशम

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. सोवियत संघ के विघटन के प्रमुख कारण वहाँ शक्तियों का जमाव और अत्यधिक …………………. की प्रवृत्तियाँ थीं।
उत्तर:
केन्द्रीकरण

2. संघीय शासन व्यवस्था में केन्द्र-राज्यों के मध्य किसी टकराव को रोकने के लिए एक ………………….. की व्यवस्था होती है।
उत्तर:
स्वतंत्र न्यायपालिका

3. भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध ……………….. पर आधारित होंगे।
उत्तर:
सहयोग

4. भारतीय संविधान द्वारा एक सशक्त ………………… की स्थापना की गई है।
उत्तर:
केन्द्रीय सरकार

5. हमारी प्रशासकीय व्यवस्था ………………… है।
उत्तर:
इकहरी

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. राज्यपाल की भूमिका केन्द्र और राज्यों के बीच हमेशा ही विवाद का विषय रही है।
उत्तर:
सत्य

2. हमारी संघीय व्यवस्था में नवीन राज्यों के गठन की माँग को लेकर भी तनाव रहा है।
उत्तर:
सत्य

3. दिसम्बर, 1950 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई।
उत्तर:
असत्य

4. कृषि तथा पुलिस समवर्ती सूची के विषय हैं।
उत्तर:
असत्य

5. हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने भारत को विविधता में एकता के रूप में परिभाषित किया है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. प्रतिरक्षा तथा विदेश मामले (क) राज्य सूची के विषय
2. शिक्षा तथा वन (ग) दिसम्बर, 1953 में
3. पुलिस तथा स्थानीय स्वशासन (ख) समवर्ती सूची के विषय
4. राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना (घ) 1956 में
5. भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन (च) संघ सूची के विषय

उत्तर:

1. प्रतिरक्षा तथा विदेश मामले (च) संघ सूची के विषय
2. शिक्षा तथा वन (ख) समवर्ती सूची के विषय
3. पुलिस तथा स्थानीय स्वशासन (क) राज्य सूची के विषय
4. राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना (ग) दिसम्बर, 1953 में
5. भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन (घ) 1956 में

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1
ऐसे चार राज्यों के नाम लिखिये जिनके नाम स्वतंत्रता के बाद परिवर्तित किये गये हैं। पुराने और नये दोनों नाम लिखिये।
उत्तर:
निम्नलिखित राज्यों के नाम परिवर्तित किये गए हैं।

पुराने नाम नए नाम
(1) मैसूर कर्नाटक
(2) मद्रास तमिलनाडु
(3) आंध्रप्रदेश तेलगूदेशम
(4) मुंबई महाराष्ट्र

प्रश्न 2.
ऐसे दो देशों के नाम लिखिये जिन्होंने संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया है।
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 3.
संघात्मक शासन की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
शक्तियों का विभाजन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता।

प्रश्न 4.
राज्य पुनर्गठन आयाग की स्थापना कब की गई?
उत्तर:
1953 में।

प्रश्न 5.
राज्य पुनर्गठन आयोग की मुख्य सिफारिश क्या थी?
उत्तर:
राज्य पुनर्गठन आयोग ने भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की।

प्रश्न 6.
राज्य सूची में कितने और किस प्रकार के विषय हैं?
उत्तर:
राज्य सूची में 66 विषय हैं। ये स्थानीय महत्त्व के विषय हैं।

प्रश्न 7.
संघ सूची में कितने तथा किस प्रकार के विषय हैं?
उत्तर:
संघ सूची में 97 विषय हैं। ये राष्ट्रीय महत्त्व के विषय हैं।

प्रश्न 8.
समवर्ती सूची किसे कहते हैं?
उत्तर:
समवर्ती सूची में वे विषय आते हैं जिन पर संघ और राज्य दोनों की सरकारें कानून बना सकते हैं। इसमें 47 विषय हैं।

प्रश्न 9.
1958 में स्थापित ‘वेस्टइण्डीज संघ’ 1962 में किस कारण भंग कर दिया गया?
उत्तर:
‘वेस्टइण्डीज संघ’ की केन्द्रीय सरकार कमजोर थी और प्रत्येक संघीय इकाई की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था थी तथा संघीय इकाइयों में राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा थी।

प्रश्न 10.
सोवियत संघ के विघटन के दो प्रमुख कारण बताइये।
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन के दो प्रमुख कारण ये थे।

  1. शक्तियों का अतिशय संघनन और केन्द्रीकरण की प्रवृत्तियाँ।
  2. उजबेकिस्तान जैसे भिन्न भाषा और संस्कृति वाले क्षेत्रों पर रूस का आधिपत्य।

प्रश्न 11.
नाइजीरिया की संघीय व्यवस्था अपने विभिन्न क्षेत्रों में एकता स्थापित करने में क्यों असफल रही है?
उत्तर:
नाइजीरिया की विभिन्न संघीय इकाइयों के बीच धार्मिक, जातीय और आर्थिक समुदाय एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते। इस कारण संघीय व्यवस्था भी वहाँ एकता लाने में असफल रही है।

प्रश्न 12.
संघवाद के वास्तविक कामकाज का निर्धारण किससे होता है?
उत्तर:
संघवाद के वास्तविक कामकाज का निर्धारण राजनीति, संस्कृति, विचारधारा और इतिहास की वास्तविकताओं से होता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 13.
किस प्रकार की संस्कृति में संघवाद का कामकाज आसानी से चलता है?
उत्तर:
आपसी विश्वास, सहयोग, सम्मान और संयम की संस्कृति में संघवाद का कामकाज आसानी से चलता है।

प्रश्न 14.
भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
भारतीय संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि भारतीय संघवाद केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध सहयोग पर आधारित होगा।

प्रश्न 15.
किन चिंताओं ने भारत के संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी?
उत्तर:

  1. विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रख राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने तथा
  2. विकास की चिंताओं ने भारत के संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।

प्रश्न 16.
राज्यपाल की भूमिका किस स्थिति में अधिक विवादास्पद हो जाती है?
उत्तर:
जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं, तब राज्यपाल की भूमिका अधिक विवादास्पद हो जाती है।

प्रश्न 17.
सरकारिया आयोग की नियुक्ति कब और क्यों की गई?
उत्तर:
सरकारिया आयोग की नियुक्ति 1983 में केन्द्र राज्य सम्बन्धों की जांच-पड़ताल के लिए की गई।

प्रश्न 18.
सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्ति के बारे में क्या सुझाव दिए?
उत्तर:
सरकारिया आयोग ने यह सुझाव दिया कि राज्यपाल की नियुक्ति निष्पक्ष होकर की जानी चाहिए।

प्रश्न 19.
स्वायत्तता और अलगाववाद में क्या फर्क है?
उत्तर:
स्वायत्तता से आशय यह है कि संघवाद के अन्तर्गत रहते हुए और अधिक अधिकारों व शक्तियों की माँग करना; जबकि अलगाववाद से आशय है भारत संघ से अलग होकर अपने स्वतन्त्र राज्य की स्थापना करना।

प्रश्न 20.
किस प्रकार की एकता अन्ततः अलगाव को जन्म देती है?
उत्तर:
अनेकता और विविधता को समाप्त करने वाली बाध्यकारी राष्ट्रीय एकता अन्ततः ज्यादा सामाजिक संघर्ष और अलगाव को जन्म देती है।

प्रश्न 21.
सहयोगी संघवाद का आधार किस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था हो सकती है?
उत्तर:
विभिन्नताओं और स्वायत्तता की माँगों के प्रति संवेदनशील तथा उत्तरदायी राजनीतिक व्यवस्था ही सहयोगी संघवाद का एकमात्र आधार हो सकती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 22.
वर्तमान में भारत में कितने राज्य और संघीय क्षेत्र हैं?
उत्तर:
वर्तमान में भारत में 28 राज्य और 9 संघीय क्षेत्र हैं।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संघवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संघवाद से आशय: संघवाद वह शासन प्रणाली है जहाँ संविधान द्वारा केन्द्र और राज्य स्तर की दो राजनीतिक व्यवस्थाएँ स्थापित की जाती हैं और दोनों के बीच शासन की शक्तियों का संविधान द्वारा स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है। इसमें संविधान लिखित तथा सर्वोच्च होता है तथा केन्द्र-राज्यों के बीच किसी टकराव को सीमित रखने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की संघीय विशेषताओं का उल्लेख करें। उत्तर- भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं।

  • भारत का संविधान एक लिखित तथा सर्वोच्च संविधान है।
  • संविधान तीन सूचियों
    1. संघ सूची,
    2. राज्य सूची और
    3. समवर्ती सूची – में अलग-अलग विषयों को परिगणित कर केन्द्र तथा राज्यों की सरकारों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन करता है।
  • इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतंत्र है।
  • इसमें राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

प्रश्न 3.
संघात्मक संविधान की कोई पाँच विशेषताएँ बताओ
उत्तर:

  1. संघात्मक संविधान में केन्द्र तथा प्रान्तों की सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।
  2. इसमें संविधान कठोर, लिखित तथा सर्वोच्च होता है।
  3. इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतन्त्र होती है।
  4. इसमें दोहरी नागरिकता की व्यवस्था की जाती है।
  5. इसमें संसद का दूसरा सदन राज्यों (प्रान्तों) का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 4.
द्विसदनीय विधायिका संघात्मक राज्यों के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है। संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है क्योंकि प्रथम सदन जनता का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा सदन संघ की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। प्रत्येक संघात्मक शासन व्यवस्था में इसीलिए द्विसदनात्मक विधायिका का प्रावधान किया गया है अमेरिका में ‘सीनेट’ और भारत में ‘राज्यसभा’ ऐसे ही दूसरे सदन हैं।

प्रश्न 5.
राज्यों द्वारा अधिक स्वायत्तता की माँग क्यों की जाती है?
अथवा
अधिक स्वायत्तता हेतु राज्यों ने कौन-कौनसी माँगें उठायीं?
उत्तर:
यद्यपि संविधान द्वारा केन्द्र और राज्य के बीच शक्तियों का स्पष्ट बँटवारा किया गया है, लेकिन संविधान में केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया है और देश की एकता व विकास की दृष्टि से उसे राज्य के क्षेत्र में दखल का अधिकार भी दिया गया है। इस कारण भारत में निम्न कारणों से समय-समय पर राज्यों द्वारा अधिक स्वायत्तता की माँग की है।

  1. कुछ राज्यों ने शक्ति विभाजन को राज्य के पक्ष में बदलने तथा राज्यों को ज्यादा तथा महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये जाने के लिए स्वायत्तता की माँग की।
  2. कुछ राज्यों ने आय के स्वतंत्र साधनों तथा संसाधनों पर राज्यों का अधिक नियंत्रण हेतु स्वायत्तता की माँग की।
  3. कुछ राज्यों ने राज्य प्रशासनिक – तंत्र पर केन्द्रीय नियंत्रण से नाराज होकर राज्य स्वायत्तता की माँग की।
  4. तमिलनाडु में हिन्दी के वर्चस्व के विरोध में तथा पंजाब में पंजाबी भाषा और संस्कृति को प्रोत्साहन देने के लिए भी स्वायत्तता की माँग की।

इस प्रकार समय-समय पर राज्यों ने विभिन्न कारणों से केन्द्रीय नियंत्रण के विरोध में स्वायत्तता की माँग की है।

प्रश्न 6.
गवर्नर का पद किस प्रकार केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव का कारण बना हुआ है? कोई दो कारण बताइए
उत्तर:
राज्यपाल के पद के केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव के दो कारण – राज्यपाल का पद केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में अनेक कारणों से तनाव पैदा करता है। ऐसे दो कारण निम्नलिखित हैं।

  1. राज्यपाल यद्यपि राज्य का संवैधानिक पद है, लेकिन उसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राष्ट्रपति उसे पदमुक्त भी कर सकता है। इसलिए वह राज्य में केन्द्र के अभिकर्त्ता के रूप में कार्य करते हुए राज्य के हितों की अनदेखी तक कर देता है
  2.  राज्यपाल को अनेक मामलों व अनेक अवसरों पर स्वयं: विवेक की शक्तियाँ प्राप्त हैं, जैसे राज्य में संवैधानिक शासन के असफल होने की रिपोर्ट भेजना, जब विधानसभा में किसी एक दल को बहुमत न मिला हो तो मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करना; राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु किसी विधेयक को सुरक्षित रखना आदि। इन सभी मामलों में वह केन्द्र के निर्देशों व सलाह के अनुसार कार्य करता है और निष्पक्ष रूप से कार्य नहीं करता है तथा राज्य के हितों की अवहेलना तक कर देता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 7.
भारत के अन्तर्राज्यीय राजनीतिक विवादों के समाधान का सर्वोत्तम साधन क्या हो सकता है? उत्तर-भारतीय संघात्मक व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में सीमा सम्बन्धी तथा नदी जल बँटवारे सम्बन्धी राजनीतिक विवाद चले आ रहे हैं। यदि दो राज्यों के बीच के विवादों का स्वरूप कानूनी या संवैधानिक है तो ऐसे विवादों का निपटारा न्यायपालिका कर देती है, लेकिन जिन विवादों में राजनीतिक पहलू भी समाहित होते हैं; ऐसे विवादों का निपटारा केवल कानूनी आधार पर नहीं किया जा सकता। ऐसे विवादों का सर्वोत्तम समाधान केवल विचार- विमर्श और पारस्परिक विश्वास के आधार पर ही हो सकता है।

प्रश्न 8.
ऐसी दो दशाएँ बताइए जब केन्द्र सरकार राज्य-सूची के विषयों पर कानून बना सकती है? उत्तर- केन्द्र सरकार द्वारा राज्य-सूची के विषयों पर कानून बनाने की परिस्थितियाँ संविधान में सामान्यतः राज्य – सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य विधानसभाओं को ही दिया गया है लेकिन निम्नलिखित दो दशाओं में केन्द्र की विधायिका भी राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।

  1. किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में लिए गए किसी निर्णय को लागू करने या भारत और किसी विदेशी राज्य के बीच हुए किसी समझौते व सन्धि को क्रियान्वित करने के लिए भारत की संसद राज्य – सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।
  2. 2. यदि राज्यसभा 2/3 बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दे कि राज्य सूची का अमुक विषय राष्ट्रीय महत्त्व का है तो संघ की संसद उस विषय पर कानून बना सकती है। ऐसा प्रस्ताव केवल एक वर्ष तक वैध रहता है और राज्यसभा केवल दूसरे वर्ष के लिए उसकी अवधि बढ़ा सकती है। संसद द्वारा निर्मित किया गया ऐसा कानून भी केवल एक वर्ष के लिए ही लागू रहता है।

प्रश्न 9.
अन्तर्राज्यीय विवादों के प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
उत्तर:
अन्तर्राज्यीय विवाद: भारतीय संघीय व्यवस्था में केन्द्र-राज्य विवादों के साथ-साथ दो या दो से अधिक राज्यों में भी आपसी विवाद के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इस प्रकार के कानूनी विवादों का तो न्यायपालिका निपटारा कर देती है, लेकिन जिन विवादों के पीछे राजनीतिक पहलू होते हैं, उनका समाधान केवल विचार-विमर्श और पारस्परिक विश्वास के आधार पर हो सकता है। मुख्य रूप से दो प्रकार के विवाद गम्भीर विवाद पैदा करते हैं। ये निम्नलिखित हैं।

1. सीमा विवाद: राज्य प्रायः
पड़ौसी राज्यों के भू-भाग पर अपना दावा पेश करते हैं। यद्यपि राज्यों की सीमाओं का निर्धारण भाषायी आधार पर किया गया है, लेकिन सीमावर्ती क्षेत्रों में एक से अधिक भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं। अतः इस विवाद को केवल भाषाई आधार पर नहीं सुलझाया जा सकता। ऐसा ही एक विवाद महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच ‘बेलगाम’ को लेकर है। पंजाब से हरियाणा को अलग करने पर उनके बीच न केवल सीमावर्ती क्षेत्रों को लेकर बल्कि राजधानी चण्डीगढ़ को लेकर भी विवाद है। चण्डीगढ़ इन दोनों राज्यों की राजधानी है।

2. नदी-जल विवाद:
अनेक राज्यों के बीच नदियों के जल के बँटवारे को लेकर विवाद बने हुए हैं क्योंकि यह सम्बन्धित राज्यों में पीने के पानी और कृषि की समस्या से जुड़ा है। कावेरी जल विवाद एक ऐसा ही विवाद है जो तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच एक प्रमुख विवाद है। यद्यपि इसे सुलझाने के लिए एक ‘जल -विवाद न्यायाधिकरण ‘ है फिर भी ये दोनों राज्य इसे सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए हैं। ऐसा ही एक विवाद नर्मदा नदी के जल के बँटवारे को लेकर गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बीच है।

प्रश्न 10.
“भारतीय संघवाद की सबसे नायाब विशेषता यह है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संघवाद में अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है। यथा
1. राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व: संघात्मक शासन व्यवस्था में प्राय:
संघ की विधायिका के द्वितीय सदन में प्रत्येक राज्य को समान प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है। अमेरिका और स्विट्जरैण्ड के संघवाद में इस सिद्धान्त को अपनाया गया है। लेकिन भारत में प्रत्येक का आकार और जनसंख्या भिन्न-भिन्न होने के कारण राज्यों को राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व दिया गया है। जहाँ छोटे से छोटे राज्यों को भी न्यूनतम प्रतिनिधित्व अवश्य प्रदान किया गया है, वहाँ इस व्यवस्था से यह भी सुनिश्चित किया गया है कि बड़े राज्यों को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिले।

2. विशिष्ट प्रावधान:
कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान में कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था की गई है। ऐसे अधिकतर प्रावधान पूर्वोत्तर के राज्यों (असम, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आदि) के लिए हैं जहाँ विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय बहुल जनसंख्या निवास करती है। ऐसे ही कुछ विशिष्ट प्रावधान पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल तथा अन्य राज्यों के लिए भी हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“भारत राज्यों का संघ है।” इसकी संघात्मक विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 में कहा गया है कि ” भारत राज्यों का संघ (यूनियन) होगा। राज्य और उनके राज्य – क्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। ” वर्तमान में राज्य की पहली अनुसूची में 28 राज्य तथा 7 राज्य – क्षेत्र विनिर्दिष्ट हैं। इन सबको मिलाकर भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था कायम की गई है। भारत की संघात्मक शासन की विशेषताएँ या भारत के संघवाद की विशेषताएँ भारतीय संविधान में निहित संघात्मक शासन के लक्षण निम्नलिखित हैं।
1. शक्तियों का विभाजन:
प्रत्येक संघीय देश की तरह भारतीय संविधान में केन्द्र और राज्यों की सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों के विभाजन हेतु तीन सूचियाँ बनाई गई हैं।

  1. संघ सूची: इसमें 97 विषय रखे गये हैं,
  2. राज्य सूची: इसमें 66 विषय तथा
  3. समवर्ती सूची: इसमें 47 विषय दिये गये हैं।

संघ-सूची के विषयों पर सिर्फ केन्द्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है। राज्य सूची के विषयों पर सामान्यतः सिर्फ प्रान्तीय विधायिका ही कानून बना सकती है और समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र और प्रान्त दोनों की विधायिकाएँ कानून बना सकती हैं। अवशिष्ट विषय: अवशिष्ट विषय वे सभी विषय कहलायेंगे जिनका उल्लेख किसी भी सूची में नहीं हुआ है, जैसे—साइबर अपराध। ऐसे विषयों पर केवल केन्द्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है।

2. लिखित संविधान:
संघीय व्यवस्था के लिए एक लिखित संविधान की आवश्यकता होती है जिसमें केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट उल्लेख किया जा सके। भारत का संविधान एक लिखित संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। 2017 तक इसमें 101 संशोधन हो चुके हैं।

3. कठोर संविधान:
संघीय व्यवस्था में कठोर संविधान का होना भी बहुत आवश्यक है। भारत का संविधान भी एक कठोर संविधान है क्योंकि संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के दो- तिहाई बहुमत तथा कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों के बहुमत की आवश्यकता होती है।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका:
संघात्मक व्यवस्था में संविधान की सुरक्षा के लिए तथा केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के विवादों का निपटारा करने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है। भारतीय संविधान में भी स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था है। न्यायपालिका के कार्य और अधिकार भारत के संविधान में दिये गये हैं और यह स्वतन्त्र रूप से कार्य करती है।

5. संविधान की सर्वोच्चता:
भारत में संविधान को सर्वोच्च रखा गया है। कोई भी कार्य संविधान के प्रतिकूल नहीं किया जा सकता। सरकार के सभी अंग संविधान के अनुसार ही शासन कार्य चलाते हैं। सरकार का कोई कार्य यदि संविधान के प्रतिकूल होता है तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकती है।

6. इकहरी नागरिकता:
संघीय शासन व्यवस्था में लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं। इस हेतु दोहरी नागरिकता का प्रावधान किया जाता है। लेकिन भारत में इकहरी नागरिकता का ही प्रावधान किया गया है।

7. संघात्मकता के साथ:
साथ एकात्मकता के लक्षण: भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध सहयोग पर आधारित होगा। इस प्रकार विविधता को मान्यता देने के साथ-साथ संविधान एकता पर बल देता है। राष्ट्रीय एकता और विकास की चिन्ताओं ने संविधान निर्माताओं ने संघात्मक व्यवस्था में एक सशक्त केन्द्रीय सरकार की स्थापना की है। इसलिए भारतीय संविधान में संघात्मकता के साथ-साथ एकात्मकता के भी लक्षण पाये जाते हैं। जैसे इकहरी नागरिकता, आपातकालीन प्रावधान, संविधान संशोधन में संसद की प्रमुखता, केन्द्र की प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ तथा राज्यपाल की स्वयंविवेक की शक्तियाँ आदि।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 2.
संघात्मक शासन व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख लक्षणों को स्पष्ट कीजिए
उत्तर:
संघात्मकं शासन व्यवस्था से आशय – संघात्मक शासन व्यवस्था से आशय ऐसी शासन व्यवस्था से है जिसमें शासन केन्द्रीय सरकार तथा इकाइयों की सरकारों के रूप में दोहरी शासन व्यवस्थाएँ होती हैं। संविधान द्वारा शासन की. शक्तियों का विभाजन केन्द्र और प्रान्तों की सरकारों में स्पष्ट रूप से कर दिया जाता है। दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग होते हैं तथा एक-दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करते। इसमें केन्द्र और राज्यों में झगड़ों का फैसला करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की जाती है।

संघात्मक शासन व्यवस्था की विशेषताएँ: संघात्मक शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. सरकारों के दो प्रकार: संघवाद की पहली विशेषता यह है कि इसमें दो प्रकार की सरकारें पायी जाती हैं

  1. संघीय या केन्द्रीय सरकार और
  2. इकाइयों या प्रान्तों की सरकारें यह व्यवस्था राजनीति के दो प्रकार को व्यवस्थित करती है। एक, प्रान्तीय या क्षेत्रीय स्तर पर और दूसरी, केन्द्रीय स्तर पर। दोनों प्रकार की सरकारें संविधान द्वारा निर्धारित अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करती हैं।

2. शक्तियों का बँटवारा: संघात्मक शासन व्यवस्था में शासन की शक्तियों का केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों के बीच संविधान द्वारा वितरित कर दिया जाता है। राष्ट्रीय महत्त्व की शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार को दे दी जाती हैं और समस्त स्थानीय और क्षेत्रीय महत्त्व की शक्तियाँ इकाइयों की सरकारों को दे दी जाती हैं। दोनों सरकारें स्वतन्त्रतापूर्वक अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करती हैं।

3. सर्वोच्च, लिखित तथा कठोर संविधान: संघात्मक शासन व्यवस्था में संविधान लिखित होता है तथा वह सर्वोच्च होता है। दोनों प्रकार की सरकारें उसके प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकतीं। इसमें संशोधन संसद साधारण बहुमत से नहीं कर सकती, बल्कि इसमें संशोधन के लिए उसे विशिष्ट बहुमत की आवश्यकता होती है।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका: संघात्मक शासन व्यवस्था की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें न्यायपालिका स्वतन्त्र होती है। उसके पास न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति होती है। इसका आशय यह है कि यदि कभी कोई सरकार कोई ऐसी विधि या नीति बनाती है जो संविधान के प्रावधानों के प्रतिकूल है तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकती है। इस प्रकार यह केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों, दोनों को अपने क्षेत्र में सीमित रखती है।

5. द्विसदनात्मक विधायिका: संघात्मक शासन व्यवस्था की एक विशेषता द्विसदनात्मक विधायिका का होना है। इसमें निम्न सदन जहां जनता का प्रतिनिधित्व करता है, उच्च सदन राज्यों (इकाइयों) का प्रतिनिधित्व करता है। संघीय व्यवस्था में सामान्यतः द्वितीय सदन में सभी इकाइयों का समान प्रतिनिधित्व रखा जाता है; जैसे कि अमेरिका में सीनेट में प्रत्येक राज्य दो सदस्य भेजता है।

6. दोहरी नागरिकता: संघात्मक शासन व्यवस्था में सामान्यतः दोहरी नागरिकता पाई जाती है। एक, केन्द्रीय सरकार की नागरिकता और दूसरी, इकाइयों की सरकार की नागरिकता अमेरिका में दोहरी नागरिकता दी गई है, लेकिन भारतीय संघात्मक व्यवस्था में इकहरी नागरिकता ही प्रदान की गई है।

7. दोहरी पहचान और निष्ठाएँ: संघात्मक शासन व्यवस्था में लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं एक, राष्ट्र के प्रति निष्ठा तथा राष्ट्रीय पहचान और दूसरी, प्रान्त या क्षेत्र के प्रति पहचान और उसके प्रति निष्ठा। यद्यपि इसमें दोहरी निष्ठाएँ होती हैं, लेकिन इनमें राष्ट्रीय निष्ठा की प्रधानता होती है। उदाहरण के लिए, एक गुजराती या बंगाली होने से अधिक महत्त्वपूर्ण एक भारतीय होना है। इसमें भारत के प्रति निष्ठा, गुज़रात या बंगाल के प्रति निष्ठा से पहले आती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 3.
” भारत के संविधान का स्वरूप संघात्मक है परन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश की परिस्थितियों के अनुसार ऐसी व्यवस्था की है जिससे राष्ट्र की इकाइयों को स्वायत्तता मिली रहे और साथ ही राष्ट्र की एकता भी भंग न हो। इसी कारण भारतीय संविधान स्वरूप में संघात्मक रूप लिए हुए है; उसमें प्रमुख संघात्मक लक्षण विद्यमान हैं लेकिन देश की एकता भंग न हो इसलिए उसमें एकात्मकता के तत्त्व भी पाये जाते हैं जिनके द्वारा केन्द्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाया गया है। यथा भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण

1. संविधान की सर्वोच्चता:
भारत में न तो केन्द्रीय सरकार सर्वोच्च है और न ही राज्य सरकार। यहाँ संविधान सर्वोच्च है। कोई भी सरकार संविधान के प्रतिकूल काम नहीं कर सकती। देश के सभी पदाधिकारी, जैसे- राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री आदि अपना पद ग्रहण करने से पूर्व संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हुए उसके प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं

2. लिखित तथा कठोर संविधान:
भारत का संविधान लिखित है जो संविधान सभा द्वारा निर्मित किया गया है। इसमें संघ व राज्य सम्बन्धी अधिकारों को स्पष्ट रूप से लिखा गया है। इसके साथ-साथ भारत का संविधान कठोर है क्योंकि इसमें संशोधन साधारण बहुमत से नहीं किये जा सकते।

3. अधिकारों का विभाजन:
संविधान में केन्द्र और राज्यों की शक्तियों का तीन सूचियों के माध्यम से स्पष्ट विभाजन किया गया है। राज्य सूची के विषय इकाइयों को, संघ-सूची के विषय केन्द्रीय सरकार को और समवर्ती सूची के विषय दोनों सरकारों को दिये गये हैं। अवशिष्ट विषय केन्द्रीय सरकार को दिये गये हैं।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका:
भारत के संविधान में केन्द्र और राज्यों के विवादों को हल करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई है। वह केन्द्र और राज्यों के कानूनों को संविधान के प्रावधानों के प्रतिकूल होने पर असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकता है।

5. दोहरी शासन व्यवस्था:
भारतीय संघात्मक शासन व्यवस्था में दो प्रकार की सरकारों की व्यवस्था की गई एक, केन्द्रीय सरकार और दूसरी, राज्यों की सरकार। दोनों का गठन संविधान के अनुसार होता है।

भारतीय संविधान में एकात्मकता के लक्षण: यद्यपि भारतीय संविधान स्वरूप से संघात्मक है, लेकिन आत्मा से वह एकात्मक है, क्योंकि इसमें केन्द्रीय सरकार को सशक्त बनाने वाले अनेक प्रावधान किये गये हैं।

1. शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में:
संविधान द्वारा शक्तियों का जो बँटवारा किया गया है उसमें केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है क्योंकि संविधान ने आर्थिक और वित्तीय शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार के हाथ में सौंपी हैं तथा राज्य को आय के बहुत कम साधन दिये गये हैं। दूसरे, अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार को ही सौंपी गई हैं। तीसरे, समवर्ती सूची के विषयों पर भी कानून बनाने में केन्द्रीय सरकार को प्राथमिकता दी गई है।

2. राज्य- सूची पर भी केन्द्रीय सरकार को कानून बनाने की शक्तियाँ: कुछ परिस्थितियों में केन्द्रीय सरकार राज्य-सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है। यथा

  1. यदि राज्यसभा 2/3 बहुमत से राज्य – सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दे तो केन्द्रीय सरकार उस विषय पर कानून बना सकती है।
  2. संकट काल की स्थिति उत्पन्न होने पर केन्द्र को राज्य – सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
  3. यदि कभी दो राज्यों की विधानसभाएँ केन्द्र को राज्य सूची में से किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करें तो इस विषय पर केन्द्र कानून बना सकता है।

3. इकहरी नागरिकता: संघीय शासन व्यवस्था वाले देशों में प्रायः दोहरी नागरिकता प्रदान की जाती है- एक, राष्ट्र की नागरिकता और दूसरी, प्रान्तीय नागरिकता। लेकिन भारत में इकहरी नागरिकता ही प्रदान की गई है। भारत में केवल राष्ट्रीय नागरिकता ही प्रदान की गई है।

4. राज्यपाल द्वारा राज्यों पर नियन्त्रण: भारत में राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख है लेकिन राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह अपने कार्यों के लिए केन्द्र के प्रति ही उत्तरदायी होता है। ऐसी स्थिति में राज्यपाल केन्द्र के एजेण्ट के रूप में कार्य करता है। वह अपने स्वविवेकीय कार्यों को संवैधानिक प्रमुख के रूप में निष्पक्ष रूप से कार्य न करके केन्द्र की सलाह के अनुसार करता है। जब विधानसभा में किसी एक दल का बहुमत नहीं होता तो वह केन्द्र के इशारे पर मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है। वह केन्द्र के निर्देशों के अनुरूप ही राज्य में संकटकाल की घोषणा की सलाह देता है और संकट काल में केन्द्र के निर्देशों को राज्य में लागू करता।

5. राज्यों की केन्द्र पर वित्तीय निर्भरता: सामान्य स्थितियों में भी केन्द्र सरकार की अत्यन्त प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ और उत्तरदायित्व हैं। सबसे पहले तो आय के प्रमुख संसाधनों पर केन्द्र सरकार का नियन्त्रण है। इस प्रकार केन्द्र के पास आय के अनेक संसाधन हैं और राज्य अनुदानों और वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर आश्रित हैं। दूसरे, स्वतन्त्रता के बाद भारत ने तेज आर्थिक प्रगति और विकास के लिए नियोजन को साधन के रूप में अपनाया है।

नियोजन के कारण आर्थिक फैसले लेने की ताकत केन्द्र सरकार के हाथ में सिमटती गई है। केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त योजना आयोग राज्यों के संसाधन – प्रबन्ध की निगरानी करता है। तीसरे, केन्द्र सरकार अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर राज्यों को अनुदान और ऋण देती है । केन्द्र सरकार पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि वह विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाती है।

6. संसद को राज्यों का पुनर्गठन तथा उसके नामों में परिवर्तन करने का अधिकार है: किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियन्त्रण है। संसद किसी राज्य में से उसका राज्य-क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकती है। वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है। सम्बन्धित राज्य से उसकी राय तो ले ली जाती है, परन्तु उसका मानना या न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है। संसद का यह अधिकार सरकार को एकात्मक बनाता है।

7. अखिल भारतीय सेवाएँ: भारत की प्रशासकीय व्यवस्था इकहरी है। अखिल भारतीय सेवाएँ पूरे देश के लिए हैं और इसमें चयनित पदाधिकारी राज्यों के प्रशासन में काम करते हैं। अतः जिलाधीश के रूप में कार्यरत भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी या पुलिस कमिश्नर के रूप में कार्यरत भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों पर केन्द्र सरकार का नियन्त्रण रहता है। राज्य न तो उनके विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकता है और न ही उन्हें सेवा से हटा सकता है।

8. किसी क्षेत्र में सैनिक शासन लागू होना: संघ सरकार की शक्ति को, संविधान के दो अनुच्छेद 33 और 34, उस स्थिति में काफी बढ़ा देते हैं जब किसी क्षेत्र में सैनिक शासन लागू हो जाए। ऐसी स्थिति में संसद केन्द्र या राज्य के किसी भी अधिकारी के द्वारा शान्ति व्यवस्था बनाए रखने या उसकी बहाली के लिए किए गए किसी भी कार्य को जायज ठहरा सकती है। इसी के अन्तर्गत ‘सशस्त्र बल विशिष्ट शक्ति अधिनियम’ का निर्माण किया गया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि यद्यपि संविधान में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया गया है, तथापि व्यवहार में केन्द्र सरकार को अधिक शक्तियाँ प्रदान कर उसमें एकात्मकता की आत्मा बिठा दी गई है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 4.
भारत ने संघीय व्यवस्था को क्यों अपनाया? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की है। यद्यपि स्वतन्त्रता से पूर्व भारत पर अंग्रेजों का शासन रहा है और संविधान निर्माता अंग्रेजों की राजनीतिक संस्थाओं से स्वाभाविक रूप से प्रभावित थे। लेकिन इंग्लैण्ड की एकात्मक शासन व्यवस्था के स्वरूप को भारत के संविधान निर्माताओं ने नहीं अपनाया और इसके स्थान पर संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया। इसके कुछ विशेष कारण रहे हैं।

भारत में संघात्मक शासन को अपनाने के कारण: भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाए जाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
1. भारत सरकार 1935 का एक्ट:
1935 के भारत सरकार के एक्ट में भारत में संघीय शासन का प्रावधान किया गया। कांग्रेस प्रारम्भ से ही देश में शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की माँग करती आ रही थी। 1935 के एक्ट में प्रान्तों को स्वायत्तता प्रदान की गई थी। इसमें सभी प्रान्तों, केन्द्रीय सरकार तथा रियासतों के एक फैडरेशन की बात कही गयी लेकिन यह संघ अस्तित्व में न आ सका। इस प्रकार संविधान निर्माता पहले से ही इस व्यवस्था से परिचित थे।

2. रियासतों की समस्या:
जब भारत स्वतन्त्र हुआ, ब्रिटिश सरकार ने सभी देशी रियासतों को स्वतन्त्र कर दिया तथा यह कहा कि वे चाहे तो भारत में मिल सकती हैं, चाहे पाकिस्तान में और चाहे अपने आप को दोनों से स्वतन्त्र रख सकती हैं। भारतीय नेताओं को इन छोटी-बड़ी देशी रियासतों को मिलाना अत्यन्त कठिन दिख रहा था। उन्हें एकात्मक सरकार के ढाँचे की तुलना में संघीय ढाँचे में सम्मिलित करना भारतीय नेताओं को कहीं अधिक आसान लगा।

3. भारतीय दशाएँ:
उस समय की भारतीय दशाओं ने भी संविधान निर्माताओं को विवश कर दिया कि वे संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाएँ। भारत एक विशाल देश है। यहाँ के लोगों में जातीय, क्षेत्र, धर्म, भाषा, रहन-सहन, परम्परा – रीति-रिवाज, भोजन तथा वेशभूषा, संस्कृति तथा आदतों की विविधताएँ हैं। पहाड़ी लोगों की जीवन जीने की शैली, मैदानी लोगों से भिन्न है। यहाँ अनेक क्षेत्रों में जनजातीय लोग निवास करते हैं। इसी स्थिति में केवल संघीय ढाँचा ही इन सब विविधताओं को एकता में पिरो सकता था।

फलतः संविधान निर्माताओं ने देश के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया। संविधान निर्माताओं को यह मान था कि भारतीय समाज में क्षेत्रीय और भाषायी विविधताओं को मान्यता देने की आवश्यकता थी। विभिन्न क्षेत्रों और भाषा-भाषी लोगों को सत्ता में सहभागिता करनी थी तथा इन क्षेत्रों के लोगों को स्वशासन का अवसर देना था। संघात्मक व्यवस्था में ही यह सब सम्भव हो सकता था।

4. भौगोलिक विविधताएँ:
भारत एक उप-महाद्वीप है और एक उप महाद्वीप में प्रशासनिक कुशलता की दृष्टि से एकात्मक शासन की तुलना में संघात्मक शासन उत्तम ठहरता है। क्योंकि भारत के विभिन्न क्षेत्र अपने क्षेत्र में क्षेत्रीय विकास की गतिविधियों के लिए कार्य की स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। इन विविधताओं को समेटने के लिए संघात्मक शासन ही उपयुक्त था। इस प्रकार भारत की संविधान सभा ने संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया।

प्रश्न 5.
भारत के संविधान निर्माताओं ने केन्द्र को अधिक शक्तिशाली क्यों बनाया? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संघीय व्यवस्था में शक्तिशाली केन्द्र भारत में संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ एकात्मकता के लक्षण भी विद्यमान हैं। यद्यपि केन्द्र और राज्यों के कार्यक्षेत्र संविधान द्वारा निश्चित किये गये हैं तो भी केन्द्र सरकार राज्यों के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती है। संविधान में अनेक प्रावधान ऐसे हैं जो संघीय शासन व्यवस्था को एकात्मक शासन में बदल सकते हैं।

संविधान निर्माताओं ने संघीय व्यवस्था की सुरक्षा, कानून एवं व्यवस्था की स्थापना, सामान्य मुद्दों में सामञ्जस्य की स्थापना तथा संघ की इकाइयों की एकजुटता की दृष्टि से केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया है। केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए उत्तरदायी कारक निम्नलिखित कारकों ने संविधान निर्माताओं को केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए प्रेरित किया।

1. संघात्मक व्यवस्था शक्ति के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया के तहत:
भारत में संघात्मक व्यवस्था का निर्माण शक्ति के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया के तहत हुआ है। भारत में प्रान्तों को शक्तियाँ केन्द्र से हस्तांतरित हुई हैं और केन्द्र से शक्तियों को हस्तांतरित कर संघीय व्यवस्था का निर्माण किया गया है। इस प्रक्रिया में यह स्वाभाविक है कि केन्द्र सरकार ने अपने पास अधिक शक्तियाँ रखीं। अमेरिका में स्वतंत्र राज्यों ने अपनी संप्रभुता और शक्तियों को हस्तांतरित कर संघ सरकार का निर्माण किया। इस प्रकार केन्द्र या संघ सरकार को शक्तियाँ राज्यों से हस्तांतरित हुई हैं। इस प्रक्रिया में यह स्वाभाविक था कि राज्य अपने पास अधिक शक्ति रखें । इसलिए वहां राज्यों के पास अधिक शक्तियाँ हैं।

2. इतिहास से सबक:
भारत के संविधान निर्माता इस ऐतिहासिक तथ्य से भलीभांति परिचित थे कि भारत में जब कभी भी केन्द्र की शक्ति कमजोर हुई, देश की एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। केन्द्र की कमजोर सरकार के चलते, प्रान्तों ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित करते हुए विद्रोह कर दिया और विदेशियों को देश पर आक्रमण के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार देश की सुरक्षा तथा एकता के लिए कमजोर केन्द्र हमेशा एक खतरा है। इसलिए उन्होंने संघीय व्यवस्था में भी जानबूझकर केन्द्र को शक्तिशाली बनाया है।

3. देशी रियासतों की समस्या:
जब देश स्वतंत्र हुआ, 600 से अधिक देशी रियासतों को यह विकल्प दिया गया था कि वे चाहे तो भारत में मिल जाएँ, चाहे पाकिस्तान में और चाहे वे अपने आपको स्वतंत्र रखें। इन देशी रियासतों को भारत संघ में मिलाने के लिए दबाव डाला गया। यदि केन्द्र सरकार कमजोर रखी जाती, तो ये देशी रियासतें देश की एकता के लिए खतरा बन सकती थीं और ये रियासतें आसानी से संघ में मिलने को भी राजी नहीं होतीं । इसलिए शक्तिशाली केन्द्र के साथ वाली संघीय व्यवस्था ने ही इस पेचीदी समस्या को सुलझाया।

4. परिस्थितियों की आवश्यकता:
जब संविधान का निर्माण हो रहा था, उस समय विभाजनकारी ताकतें देश में सक्रिय थीं। जातिवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता तथा भाषावाद की जड़ें मजबूत थीं तथा सक्रिय थीं। वे देश की एकता को खतरा पैदा कर रही थीं। इसलिए संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र और देश की एकता की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता महसूस की।

5. आर्थिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता की स्थापना हेतु;
1947 में भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता तो मिल गई थी, लेकिन आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता अभी बहुत दूर थी और आर्थिक-सामाजिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अर्थहीन थी। संविधान निर्माता इस विचार से सहमत थे कि केन्द्र सरकार को शक्तिशाली बनाकर ही इस सामाजिक- आर्थिक स्वतंत्रता को शीघ्र प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि केवल एक शक्तिशाली केन्द्र ही पूरे देश में आर्थिक नीति का निर्माण कर उसे लागू कर सकता है।

6. विश्व में शक्तिशाली केन्द्र की प्रवृत्ति:
आधुनिक काल अन्तर्राष्ट्रीयता का काल है और प्रत्येक राज्य अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अपना अस्तित्व चाहता है। यह कमजोर केन्द्र के चलते प्राप्त नहीं किया जा सकता। इस कारण पूरे विश्व में केन्द्र को शक्तिशाली बनाने की प्रवृत्ति व्याप्त है। भारत के संविधान निर्माताओं पर भी इस प्रवृत्ति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 6.
भारत में केन्द्र-राज्य सम्बन्धों पर दलीय राजनीति के प्रमुख चरणों तथा इसके प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत में एक संघात्मक शासन व्यवस्था है लेकिन इसकी प्रवृत्ति केन्द्रीकरण की है या कि प्रवृत्ति से यह एकात्मकता लिये हुए है। भारत में राज्य सरकारों की कार्यप्रणाली में केन्द्र द्वारा हस्तक्षेप किये जा सकने के अनेक प्रावधान स्वयं संविधान में किये गये हैं। इससे केन्द्र – राज्य सम्बन्धों पर प्रभाव पड़ा है। भारत की दलीय राजनीति ने भी केन्द्र- राज्य सम्बन्धों को प्रभावित किया है।

दलीय राजनीति और केन्द्र-राज्य सम्बन्ध – भारतीय संघवाद पर राजनीतिक प्रक्रिया की परिवर्तनशील प्रकृति का काफी प्रभाव पड़ा है। दलीय राजनीति के केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के प्रभाव को इसके निम्न चरणों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।

1. दलीय राजनीति का प्रथम चरण ( स्वतंत्रता से 1966 तक ):
1950 तथा 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संघीय व्यवस्था की नींव रखी। इस दौरान केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस का वर्चस्व था । इस काल में नए राज्यों के गठन की माँग के अलावा केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध शांतिपूर्ण तथा सामान्य रहे। राज्यों को आशा थी कि वे केन्द्र से प्राप्त वित्तीय अनुदानों से विकास कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त केंन्द्र द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए बनाई गई नीतियों के कारण भी राज्यों को काफी आशा बँधी थी। इससे स्पष्ट होता है कि इस काल में केन्द्र और राज्यों में एक दलीय प्रभुत्व था तथा पं. नेहरू का शक्तिशाली व्यक्तित्व था। इस कारण शक्तियों और कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में केन्द्र और राज्यों के बीच इस काल में कोई विवाद, संघर्ष तथा मतभेद नहीं उभरे। केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में कोई तनाव नहीं था।

2. दलीय राजनीति का द्वितीय चरण (1967 से 1988 तक ):
1967 के आम चुनावों से भारत में दलीय राजनीति का द्वितीय चरण प्रारंभ होता है। 1967 के चुनावों में केन्द्र में तो कांग्रेस दल का वर्चस्व बना रहा लेकिन अनेक राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें बनीं और कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा। बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश तथा तमिलनाडु राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ लेकिन लगभग इन सभी राज्यों में अनेक विरोधी दलों ने मिलकर मिली-जुली सरकार का गठन किया। परिणामतः राज्यों की मिली-जुली सरकारें लम्बे समय तक नहीं चल सकीं और भारतीय राजनीति में एक नवीन समस्या सामने आई। यह समस्या दल-बदल की थी।

कांग्रेस दल केन्द्र में सत्तासीन था और उसने राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों को अपदस्थ करने में रुचि ली। इससे राज्यों को और ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की मांग बलवती हुई। इस मांग के पीछे प्रमुख कारण यह था कि केन्द्र और राज्यों में भिन्न-भिन्न दल सत्ता में थे। अतः गैर-कांग्रेसी राज्यों की सरकारों ने केन्द्र की कांग्रेसी सरकार द्वारा किए गए अवांछनीय हस्तक्षेपों का विरोध करना शुरू कर दिया। कांग्रेस के लिए भी विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों से संबंधों के तालमेल की बात पहले जैसी आसान नहीं रही। इस विचित्र राजनैतिक संदर्भ में संघीय व्यवस्था के अन्दर स्वायत्तता की अवधारणा को लेकर वाद-विवाद छिड़ गया।

3. दलीय राजनीति का तृतीय चरण (1989 से अब तक ):
1989 के आम चुनाव में भारतीय राजनीति में एक नया बदलाव आया। अब कांग्रेस केन्द्र से तथा अधिकांश राज्यों से सत्ता से बाहर हो गयी। इस प्रकार भारतीय राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व समाप्त हो गया। केन्द्र में गठबंधन की राजनीति का प्रारंभ हुआ। अनेक राज्यों में गैर-कांगेसी दलों की सरकारों के होने से केन्द्र-र राज्य सम्बन्धों में तनाव बढ़े। ये राज्य अब केन्द्र के साथ खुले संघर्ष के रूप में सामने आए और केन्द्र-राज्य सम्बन्धों की पूर्ण समीक्षा की मांग की ताकि केन्द्र उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप न कर सके। इससे राज्यों का राजनीतिक कद बढ़ा, विविधता का आदर हुआ और एक मँझे हुए संघवाद की शुरुआत हुई।

प्रश्न 7.
केन्द्र-राज्य संबंधों के संदर्भ में राज्य के राज्यपाल की भूमिका तथा अनुच्छेद 356 पर एक निबन्ध लिखिये
उत्तर:
1. केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के संदर्भ में राज्यपाल की भूमिका:
राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख है। वह केन्द्र सरकार की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत तक अपने पद पर बना रहता है। यद्यपि वह 5 साल के लिए नियुक्त किया जाता है लेकिन राष्ट्रपति बिना कारण बताये उसे इस अवधि से पूर्व भी पद से हटा सकता है। इस प्रकार राज्यपाल अपनी नियुक्ति के लिए और अपने पद पर बने रहने के लिए केन्द्रीय मंत्रिमंडल की प्रसन्नता पर निर्भर रहता है।

दूसरी तरफ राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है और सामान्यतः राज्य के मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य करता है। लेकिन इसके साथ ही वह केन्द्र सरकार का अभिकर्ता भी होता है तथा उससे यह आशा की जाती है कि वह कुछ कार्यों को अपने विवेक के अनुसार करेगा। इस स्थिति में वह राज्यमंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य न करके सामान्यतः संघीय सरकार की इच्छाओं के अनुसार कार्य करता है। चूंकि राज्यपाल को दोहरी भूमिकाओं में कार्य करना पड़ता है, इसलिए यह पद केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव का एक कारण बन गया है। राज्यपाल के फैसलों को अक्सर राज्य सरकार के कार्यों में केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है। जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं, तब राज्यपाल की भूमिका और अधिक विवादास्पद हो जाती है।

अनुच्छेद- 356 का दुरुपयोग सामान्यतः जिन राज्यों में केन्द्र के सत्तारूढ़ दल से भिन्न दलों की सरकारें हैं, उन राज्यों में केन्द्र ने राष्ट्रपति शासन लगाने में राज्यपाल के पद का दुरुपयोग किया है। संविधान के अनुच्छेद 356 के द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है। इस प्रावधान को किसी राज्य में तब लागू किया जाता है जब ” ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो कि उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता।” परिणामस्वरूप संघीय सरकार राज्य सरकार का अधिग्रहण कर लेती है। इस विषय पर राष्ट्रपति द्वारा जारी उद्घोषणा को संसद की स्वीकृति प्राप्त करना जरूरी होता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त करने तथा राज्य विधानसभा को निलंबित या विघटित करने की अनुशंसा कर सके। इससे अनेक विवाद पैदा हुए। यथा

(i) कुछ मामलों में राज्य सरकारों को विधायिका में बहुमत होने के बाद भी बर्खास्त कर दिया। 1959 में केरल में और 1967 के बाद अनेक राज्यों में बहुमत की परीक्षा के बिना ही सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया। कुछ मामले सर्वोच्च न्यायालय में भी गए तथा सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि राष्ट्रपति शासन लागू करने के निर्णय की संवैधानिकता की जांच-पड़ताल न्यायालय कर सकता है। 1967 के बाद जब राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तब केन्द्र में सत्तासीन कांग्रेसी सरकार ने अनेक अवसरों पर इसका प्रयोग राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए किया।

(ii) कुछ मामलों में केन्द्र सरकार ने राज्यपाल के माध्यम से राज्य में बहुमत दल या गठबंधन को सत्तारूढ़ होने से रोका। उदाहरण के लिए, 1980 के दशक में केन्द्रीय सरकार ने आंध्रप्रदेश और जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त किया।

2. मुख्यमंत्री की नियुक्ति में राज्यपाल के स्वयंविवेक की भूमिका:
जब किसी राज्य में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने राज्यपाल के माध्यम से उस राज्य में मुख्यमंत्री की नियुक्ति में हस्तक्षेप किया क्योंकि राज्यपाल ने उस समय केन्द्र की सलाह के अनुसार कार्य किया न कि निष्पक्ष संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में। इससे केन्द्र-राज्य सम्बन्धों की दृष्टि से गवर्नर का पद विवादास्पद हो गया।

3. विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु रोक लेना:
राज्य के राज्यपाल के पास यह स्वयंविवेक की शक्ति है कि वह राज्य विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु अपने पास रोक सकता है। इस शक्ति को सामान्यतः उस विधेयक को पारित करने से रोकने या उसे पारित करने में देरी करने के लिए किया गया है, जो केन्द्र की सरकार को पसंद नहीं है। ऐसे विधेयकों को लम्बे समय तक पेंडिंग रखा जा सकता है। इस प्रकार राज्यपाल के पद की कटु आलोचनाएँ की गईं तथा यह मांग भी उठी कि राज्यपाल के पद को ही समाप्त कर दिया जाये। सरकारिया आयोग ने इस सम्बन्ध में यह सुझाव दिया कि राज्यपाल राज्य से बाहर का व्यक्ति होना चाहिए और वे अपने विवेक का प्रयोग बहुत कम करें तथा अच्छी तरह स्थापित परम्पराओं के अनुसार ही करें तथा उन्हें अपना कार्य निष्पक्षता से करना चाहिए।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 8.
संविधान में कुछ राज्यों के लिए विशिष्ट प्रावधान किये गए हैं। उन्हें स्पष्ट कीजिए। क्या वे संघवाद के सिद्धान्त के अनुरूप हैं?
उत्तर:
कुछ राज्यों के लिए विशिष्ट प्रावधान: भारतीय संघवाद की यह अनोखी विशेषता है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ विशिष्ट प्रावधान भी किये गये हैं। शक्ति के बँटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ सभी राज्यों को समान रूप से प्रदान की गई हैं; लेकिन कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप कुछ विशिष्ट अधिकारों की व्यवस्था करता है। यथा

  1. जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान:
    अनुच्छेद 370 के द्वारा जम्मू-कश्मीर को अगस्त 2019 तक विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई थी। स्वतंत्रता के बाद जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भारत में विलय का चयन किया, जबकि अधिकांश मुस्लिम बहुल राज्यों ने पाकिस्तान का चयन किया था। इस परिस्थिति में संविधान में अनुच्छेद 370 के तहत उसे अन्य राज्यों की तुलना में अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई। यथा
  2. अन्य राज्यों के लिए तीन सूचियों द्वारा किया गया शक्ति विभाजन स्वतः प्रभावी होता है लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य में संघीय सूची और समवर्ती सूची में वर्णित शक्तियों का प्रयोग करने के लिए राज्य सरकार की सहमति लेनी पड़ती थी। इससे जम्मू-कश्मीर राज्य को ज्यादा स्वायत्तता मिल जाती थी।
  3. इसके अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर और अन्य राज्यों में एक अन्तर यह था कि राज्य सरकार की सहमति के बिना ‘ जम्मू-कश्मीर में ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर आपातकाल लागू नहीं किया जा सकता था।
  4. संघ सरकार जम्मू-कश्मीर में वित्तीय आपात स्थिति लागू नहीं कर सकती थे।
  5. राज्य के नीति-निर्देशक तत्व भी यहाँ लागू नहीं होते थे।
  6. अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत किये गये भारतीय संविधान के संशेधन भी राज्य सरकार की सहमति से ही जम्मू- कश्मीर में लागू हो सकते हैं।

लेकिन अगस्त 2019 में केन्द्र सरकार ने संविधान के अस्थायी अनुच्छेद 370 तथा 45 – A को संविधान से हटा दिया है तथा जम्मू-कश्मीर राज्य को दो संघीय क्षेत्रों

  • जम्मू-कश्मीर और
  • लद्दाख में परिवर्तित कर दिया है। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर राज्य की यह विशिष्ट स्थिति अब समाप्त हो गई है।

2. उत्तरी-पूर्वी राज्यों के लिए अनुच्छेद 371:
अनुच्छेद 371 के तहत प्रावधान उत्तर- विशेष प्रावधानों की व्यवस्था करता है। ये राज्य हैं – असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर और -पूर्वी राज्यों के लिए मेघालय आदि। इनमें विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय बहुल जनसंख्या निवास करती है। यहाँ के ये निवासी अपनी संस्कृति तथा इतिहास को बनाए रखना चाहते हैं।

3. कुछ अन्य राज्यों में विशिष्ट प्रावधान:
कुछ विशिष्ट प्रावधान कुछ अन्य राज्यों के लिए भी किये गये हैं। ये राज्य हैं। पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश तथा उत्तरांचल तथा अन्य राज्य आंध्रप्रदेश, गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र और सिक्किम; क्योंकि इन राज्यों में कुछ पहाड़ी जनजातियाँ तथा आदिवासी निवास करते हैं। विशिष्ट प्रावधान संघवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं हैं। अनेक लोगों की मान्यता है कि संघीय व्यवस्था में शक्तियों का औपचारिक और समान विभाजन संघ के सभी राज्यों पर समान रूप से लागू होना चाहिए।

अतः जब भी ऐसे विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था संविधान में की जाती है तो उसका कुछ विरोध भी होता है। भारत में विशिष्ट प्रावधानों का विरोध जम्मू-कश्मीर राज्य को प्रदान किये गए अनुच्छेद 370 के प्रति है, अन्य प्रावधानों जैसे अनुच्छेद 371 आदि के प्रति नहीं है। मुखर लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में जिन परिस्थितियों में संघवाद की स्थापना की गयी है, वे परिस्थितियाँ सभी प्रान्तों में एकसमान नहीं थीं।

भारत विविधताओं से भरा देश है और इसलिए कुछ क्षेत्रों के विकास तथा उन्हें देश के अन्य क्षेत्रों के समान लाने के लिए कुछ विशिष्ट प्रावधान किये गये हैं। जिन परिस्थितियों में जम्मू-कश्मीर राज्य भारतीय संघ का भाग बनने को राजी हुआ, उस परिस्थिति में उसे विशिष्ट प्रावधान देने का वायदा किया गया था। अन्य राज्यों में आदिवासियों और पिछड़े राज्यों को उठाने तथा उनकी संस्कृति को संरक्षित रखने की दृष्टि से जो विशिष्ट प्रावधान किए गये हैं, वे संघवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं हैं।

Leave a Comment