Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Vyakaran रस Questions and Answers, Notes Pdf.
JAC Board Class 10 Hindi Vyakaran रस
प्रश्न 1.
साहित्य में रस से क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
दैनिक जीवन में हम रस शब्द का उपयोग अनेक अथों में करते हैं। सर्वप्रथ हम विभिन्न पदार्थो के रस की बात करते हैं। खट्य-माठा, नमकीन अथवा कड़वा रस होता है। जिह्वा के द्वारा हम इस प्रकार के छह रसों का आनंद लेते हैं। दूसरी प्रकार के रस जिनसे हमारा। दैनिक जीवन में परिचय रहता है, वे हैं विभिन्न पदार्थों का सार या निचोड़। किसी पदार्थ का निचोड़, तरलता अथवा पारे गंधक से बनी औषधि आदि को भी रस कह दिया जता है। प्रायः यह भी सुनने को गाने में रस है। इसका अभिप्राय कर्णप्रियता या मधुरता है।
साधु महात्मा एक और रस का वर्णन करते हैं, जिसे ब्रह्मानंद कहा जाता है। पहुँचे हुए योगी ब्रह्म के साथ ऐसा संबंध स्थापित कर लेते हैं कि हर क्षण उन्हें ब्रह्म के निकट होने का आभास होता है और वे उससे आनंदित रहते हैं। यह स्थायी आनंद भी रस माना जाता है। साहित्य में रस, ऐसे आनंद को कहते हैं जो कि पाठक, श्रोता या दर्शक को किसी रचना को गढ़ने, सुनने अथवा मंच पर अभिनीत होते देखकर होता है। जब सहदय (पाठक, श्रोता आदि) को अपने व्यक्तित्व का एहसास पहीं रहता, वह आत्म-विभोर हो उदतार अपे पारेवेश को भूलकर आनद विभीर हो उठता है तो कार्य रस या आजंद ब्रहमानंद के समान हो जाता है । रस का संध यु० के भाव जगत से है।
प्रश्न 2.
रस के अंग अथवा कारण सामग्री का वर्णन कीजिए।
उत्तर :
आचार्य विश्वनाथ ने अपने ग्रंथ ‘साहित्य दर्पण’ में रस के स्वरूप एवं अवयवों पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार ‘विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से व्यक्त हुआ स्थायी भाव ही रस का रूप धारण करता है। इस प्रकार रस के चार अंग स्पष्ट हो जाते हैं, जो निम्नलिखित हैं –
(i) स्थायी भाव – मनुष्य के मन में जन्म से ही कुछ भाव रहते हैं, जिनका धीरे-धीरे विकास होता है। वे भा या अधिक मात्रा में स्थायी रूप से रहते हैं। प्रेम, क्रोध, शोक, घृणा, भय, विस्मय, हास्य आदि ऐसे ही स्थायी भाव हैं। ये भाव मन में सुप्तावस्था में रहते हैं और अवसर आने पर जाग जाते हैं। कोई व्यक्ति हर समय क्रोधित दिखाई नहीं पड़ता। जब उसे अपना कोई शत्रु दिखाई दे, अपने को हानि पहुँचाने वाला दिखाई दे तो मन में क्रोध का भाव जागता है। स्थायी भावों को जागृत करने वाली सामग्री को विभाव कहते हैं। स्थायी भाव ही अभिव्यक्त होकर रस में बदलता है।
(ii) विभाव – विभिन्न प्रकार के स्थायी भावों को जगा देने के जो कारण हैं, उन्हें ‘विभाव’ कहते हैं। विभाव शब्द का अर्थ है विशेष रूप से भाव को जगा देने वाला। स्थायी भाव मन में सोए रहते हैं, विभाव उन्हें जागृत या तीव्र करते हैं। विभाव दो होते हैं –
(क) आलंबन विभाव – आलंबन शब्द का अर्थ हैं, सहारा या आधार। जिन पदार्थों का सहारा लेकर स्थायी भाव जागते हैं, उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं। उदाहरण के लिए बालकृष्ण को देखकर माता यशोदा के हृदय में वात्सल्य जागता है तो ‘बालकृष्ण’ यहाँ पर आलंबन विभाव है। इनकी संख्या असीम है। माता यशोदा के मन में भाव जागा, वह आश्रय है। बालकृष्ण के लिए जागा, कृष्ण यहाँ पर विषय है।
(ख) उद्दीपन विभाव – उद्दीपन का अर्थ है, उद्दीप्त करना, तेज़ करना। आलंबन विभाव द्वारा जगाए गए भावों को उद्दीप्त करने वाले पदार्थ, चेष्टाएँ अथवा भाव उद्दीपन विभाव कहलाते हैं। उदाहरण के लिए बाल-कृष्ण माता यशोदा के निकट आकर खीझते हुए, तोतली बोली में बड़े भाई की शिकायत करते हैं तो उनकी खीझ और तुतलाहट यहाँ पर माँ के हृदय में और अधिक प्यार का संचार करती है। यह खीझ और तुतलाहट यहाँ पर माँ के वात्सल्य भाव को तीव्र कर रही है। इसलिए इसे उद्दीपन विभाव कहा जा सकता है। जितने प्रकार के आलंबन हैं, उनसे कहीं ज्यादा उद्दीपन विभाव हैं। इसलिए इनकी संख्या भी असीम है। आलंबन की चेष्टाएँ और उसके आसपास का वातावरण भी उद्दीपन में गिना जाता है।
(iii) अनुभाव – अनु का अर्थ है पीछे। अनुभाव का अर्थ हुआ, जो भाव के पश्चात जन्म लेते हैं। जब किसी आश्रय या पात्र में विभावों को देखकर स्थायी भाव जाग उठता है तब वह कुछ चेष्टाएँ करेगा, उन्हीं को अनुभाव कहेंगे। अनुभाव, भावों के जागृत होने का परिचय देते हैं। अनुभाव, भावों के कार्य हैं, ये भावों का अनुभव करवाते हैं। उपर्युक्त उदाहरण को यदि आगे बढ़ाएँ तो कहेंगे कि माता यशोदा, बालकृष्ण की चेष्टाओं को देखकर आनंद विभोर हो उठीं और उन्होंने कृष्ण की बलाएँ लीं, उन्हें चूमा तथा गोद में उठा लिया। यशोदा द्वारा बालकृष्ण को चूमना, गोद में उठाना और बलाएँ लेना इस बात का प्रतीक है कि उसमें प्रेमभाव वात्सल्य जाग गया है। इस प्रकार माता यशोदा की ये चेष्टाएँ अनुभाव कही जाएँगी। आश्रय की चेष्टाओं के अनुभाव तथा विषय की चेष्टाओं को उद्दीपन में गिनते हैं। अनुभाव संख्या में आठ माने गए हैं –
(क) स्तंभ (अंगों की जकड़न) – हर्ष, भय, शोक आदि के कारण अंगों की गति अवरुद्ध हो जाती है।
(ख) स्वेद (पसीना आना) – क्रोध, भय, दुख अथवा श्रम से पसीना आ जाता है।
(ग) रोमांच (रोंगटे खड़े होना) – विस्मय, हर्ष अथवा शीत से रोमांच हो जाता है।
(घ) स्वरभंग (स्वर का गद्गद होना) – यह भय, हर्ष, मद, क्रोध आदि से उत्पन्न होता है।
(ङ) कंप (काँपना) – भय, क्रोध, आनंद आदि से भरकर आश्रय का शरीर काँपने लगता है।
(च) विवर्णता (रंग फीका पड़ना, हवाइयाँ उड़ना) – क्रोध, भय, काम, शीत आदि से यह उत्पन्न होता है।
(छ) अश्रु (आँसू बहाना) – आनंद, शोक, भय आदि में आश्रय आँसू बहाने लगता है।
(ज) मूर्छा प्रलाप (होश खो जाना) – काम, मोह, मद आदि से इसकी उत्पत्ति होती है।
(iv) संचारी भाव – स्थायी भावों के बीच-बीच में प्रकट होने वाले भावों को संचारी या व्यभिचारी भाव कहते हैं। संचारी इन्हें इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये थोड़े समय के लिए जागृत होकर लुप्त हो जाते हैं। यदि माता यशोदा कृष्ण की माखनचोरी से क्रोधित होती हैं, उसे मारने के लिए छड़ी उठाती हैं तो माता यशोदा का यह क्रोध अस्थायी है। बालकृष्ण के प्रति वात्सल्य भाव के कारण ही उन्हें क्रोध आ रहा है। यहाँ पर क्रोध संचारी भाव बनकर आया है। कृष्ण ज्यों ही क्षमा माँग लेगा या दुखी दिखाई पड़ेगा, माँ का वात्सल्य उमड़ आएगा।
क्रोध के रहते हुए भी माँ का कृष्ण के प्रति प्रेम रहता है। इस प्रकार स्थायी भाव को पुष्ट करने के लिए समय-समय पर आश्रय के मन में जो भाव जागते हैं, उन्हें संचारी भाव कहते हैं। संचारी भावों को व्यभिचारी भी कह दिया जाता है क्योंकि ये भाव किसी भी स्थायी भाव के साथ आ सकते हैं। किस स्थायी भाव के साथ कौन-सा संचारी भाव आएगा, यह निश्चित नहीं किया जा सकता। इसलिए संचारी भावों को व्यभिचारी भाव भी कह दिया जाता है। संचारी भावों का उदय केवल स्थायी भावों की पुष्टि के लिए होता है। भावों को अनुभावों द्वारा व्यक्त होना चाहिए। भावों का नाम लेकर उनकी गिनती करवाना काव्य में दोष माना जाता है। संचारी भावों की संख्या 33 मानी जाती है।
प्रश्न 3.
‘रस’ के बारे में बताते हुए इसके भेदों के नाम लिखिए।
उत्तर :
साहित्य या काव्य से प्राप्त आनंद को रस कहा जाता है। विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के द्वारा रस की निष्पत्ति होती है। निष्पत्ति का अर्थ है अभिव्यक्ति या प्रकट होना। काव्य, आत्मा के ऊपर पड़े आवरणों को हटाकर हमारे गुप्त भावों को जगा देता है, जिससे आनंद प्राप्त होता है। स्थायी भाव अभिव्यक्त होकर ही आनंद देने योग्य बनते हैं। इस प्रकार परिपक्व एवं अभिव्यक्त स्थायी भाव ही रस बनते हैं। रस की संख्या सामान्यता नौ स्वीकार की जाती है। ये शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, शांत और अद्भुत रस हैं।
कुछ विद्वानों ने वात्सल्य तथा भक्ति को भी रस की कोटि में रखना चाहा है परंतु सामान्यतः इन्हें भावों की कोटि में ही रखा जाता है। इनका स्थायी भाव भी रति ही है। स्थायी भाव एवं संचारी भाव का अंतर स्पष्ट कीजिए। स्थायी भाव, जैसा कि शब्द से ही स्पष्ट है, वे भाव हैं जोकि स्थायी रूप से हृदय में स्थित रहते हैं। एक बार जागृत होने पर ये नष्ट नहीं होते बल्कि अंत तक बने रहते हैं।
संचारी भाव संचरण करते रहते हैं, चलते रहते हैं। ये स्थायी रूप में मन में नहीं रहते बल्कि किसी भी स्थायी भाव के साथ उत्पन्न हो जाते हैं। प्रत्येक रस का स्थायी भाव निश्चित रहता है परंतु संचारी भाव निश्चित रूप से न तो किसी रस से जुड़ते हैं और न ही किसी स्थायी भाव से। एक ही संचारी भाव अनेक स्थायी भावों तथा रसों से जुड़ सकता है। इसीलिए संचारी भाव को व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। इनका उपयोग स्थायी भाव को पुष्ट करने में है।
प्रश्न 4.
स्थायी भाव रसों के अनुसार नौ हैं जबकि संचारी भावों की संख्या 33 है।
उत्तर :
स्थायी भाव, जैसा कि शब्द से ही स्पष्ट है, वे भाव हैं जोकि स्थायी रूप से हृदय में स्थित रहते हैं। एक बार जागृत होने पर ये नष्ट नहीं होते बल्कि अंत तक बने रहते हैं। संचारी भाव संचरण करते रहते हैं, चलते रहते हैं। ये स्थायी रूप में मन में नहीं रहते बल्कि किसी भी स्थायी भाव के साथ उत्पन्न हो जाते हैं।
प्रत्येक रस का स्थायी भाव निश्चित रहता है परंतु संचारी भाव निश्चित रूप से न तो किसी रस से जुड़ते हैं और न ही किसी स्थायी भाव से। एक ही संचारी भाव अनेक स्थायी भावों तथा रसों से जुड़ सकता है। इसीलिए संचारी भाव को व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। इसका उपयोग स्थायी भाव को पुष्ट करने में है।
स्थायी भाव – रस
(क) रति – शृंगार
(ख) हास – हास्य
(ग) शोक – करुण
(घ) क्रोध – रौद्र
(ङ) उत्साह – वीर
(च) भय – भयानक
(छ) जुगुप्सा – वीभत्स
(ज) विस्मय – अद्भुत
(झ) निर्वेद – शांत
कुछ विद्वान प्रभुरति (भक्ति) और वात्सल्य को स्थायी भावों में गिनते हैं और इनसे क्रमशः भक्ति रस और वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति स्वीकार करते हैं।
संचारी भाव – निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिंता, मोह, स्मृति, धृति, लज्जा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सूक्य, नीरसता, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अमर्ष, अवहित्य, उग्रता, मति, व्यधि, उन्माद, त्रास, वितर्क और मरण हैं।
प्रश्न 5.
रस के भेदों का सोदाहरण परिचय दीजिए।
उत्तर :
1. श्रृंगार रस
विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से अभिव्यक्त रति स्थायी भाव शृंगार रस कहलाता है।
रति, प्रेम एक कोमल भाव है। सामाजिक दृष्टि से स्वीकार्य प्रेम ही श्रृंगार का स्थायी भाव बन सकता है। इस रस की रचना में रति का भाव झलकना चाहिए। अश्लील चित्रण इस रस में बाधक ही हैं। ग्राम्य अथवा अशिष्ट व्यवहार का वर्णन श्रृंगार के लिए उपयोगी नहीं। श्रृंगार के दो भेद हैं-संयोग और वियोग शृंगार।
संयोग एवं वियोग शृंगार के उदाहरण निम्नलिखित ढंग से समझे जा सकते हैं –
(क) संयोग श्रृंगार
जब नायक-नायिका एक-दूसरे के निकट होते हैं तब संयोग अवस्था होती है। ऐसे चित्रण में संयोग श्रृंगार रस होता है। संयोग श्रृंगार में नायक-नायिका एक दूसरे की ओर प्रेम से देखते हैं, आपस में बातें करते हैं, साथ-साथ घूमते हैं, तथा वे आपस में प्रेम क्रीड़ा कर सकते हैं।
उदाहरण :
1. “राम को रूप निहारत जानकी, कंकन की नग की परछांही।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टैकि रही पल टारत नाही॥”
(राम के सुंदर रूप पर मुग्ध जानकी लज्जावश सीधे उनकी ओर नहीं देखतीं बल्कि अपने कंगन की परछाईं में राम के सुंदर रूप को देख रही हैं। कंगन जिस बाजू में पहना है उसे बिलकुल भी हिला नहीं रही कि कहीं राम का रूप ओझल न हो जाए। वह निरंतर उस कंगन को देख रही है, जिसमें श्री रामचंद्र जी की परछाईं है।) इस पद्यांश में स्थायी भाव-रति (सीता का राम के प्रति प्रेम)
उदाहरण 2.
कंकन किंकिन नूपुर धुनि-सुनि।
कहत लखन सन राम हृदय गुनि।
मानहु मदन दुंदुभी दीन्हीं।
मनसा विस्व विजय कह कीन्हीं।
अस कहि फिरि चितये तेहि ओरा।
सीय-मुख ससि भये नयन चकोरा।
भये विलोचन चारु अचंचल।
मनहु सकुचि निमि तजेड दुगंचल।
(श्रीराम अपने हृदय में विचारकर लक्ष्मण से कहते हैं कि कंकण, करधनी और पाजेब के शब्द सुनकर लगता है मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प कर डंके पर चोट मारी है। ऐसा कहकर राम ने सीता के मुखरूपी चंद्रमा की ओर ऐसे देखा जैसे उनकी आँखें चकोर बन गई हों। सुंदर आँखें स्थिर हो गईं। मानो निमि ने सकुचाकर पलकें छोड़ दी हों।)
उदाहरण 3.
सुनि सुंदर बैन सुधारस साने सयानी हैं जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन, दे सैन तिन्हैं समुझाई कछू मुसकाइ चली।
तुलसी तेहि ओसर सोहे सबै, अवलोकति लोचन लाहु अली।
अनुराग तड़ाग में मानु उदै विगसी मनो मंजुल कंजकली।
(सीता ने ग्रामवासिनियों के अमृत रस भरे सुंदर वचनों को सुनकर समझ लिया कि वे सब समझदार और चंचल हैं। इसलिए उन्होंने आँखों से कटाक्ष करते हुए संकेत ही में उन्हें समझा दिया और मुसकराकर आगे बढ़ गईं। तुलसीदास कहते हैं कि उस समय मानो उनकी कमल कलियों के समान आँखें प्रेमरूपी तालाब में सूर्य के प्रकाश के कारण खिल गईं।)
(ख) वियोग श्रृंगार –
उदाहरण 1.
जहाँ नायक-नायिका, एक-दूसरे से अलग, दूर हो जाते हैं। ऐसे चित्रांकन को वियोग श्रृंगार कहते हैं।
निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहत पावस ऋतु हम पै जब तै स्याम सिधारे॥
दृग अंजन लागत नहिं कबहू उर कपोल भये कारे॥
(गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव यह वर्षा ऋतु हमारे लिए घातक बन गई है। हमारी आँखों से निरंतर आँसुओं की वर्षा होती है। हम पर तो सदा ही पावस, बरसात छाई रहती है, जब से कृष्ण गोकुल को छोड़कर गए हैं। हमारी आँखों में काजल नहीं ठहरता है तथा आँसुओं के साथ बहे काजल से हमारे गाल और छाती काली हो गई है।) इस पद्यांश में रस की दृष्टि से विश्लेषण निम्नलिखित प्रकार से हैं –
वियोग श्रृंगार के तीन भेद हैं –
(क) पूर्वराग – जब नायक अथवा नायिका वास्तविक रूप में एक-दूसरे से मिलने से पूर्व ही चित्र-दर्शन, गुण कथन अथवा सौंदर्य श्रवण आदि से एक-दूसरे को प्यार करने लगें, तब उस समय के विरह को पूर्वराग का विरह कहेंगे।
(ख) मान – नायक अथवा नायिका रूठकर एक-दूसरे से अलग हो जाएँ तथा अपने अहम के कारण नायक ऊपर से रूठने का नाटक करे तो यह ‘मान’ विरह की स्थिति है।
(ग) प्रवास – मिलने के पश्चात नायक अथवा नायिका का विदेश यात्रा के लिए तैयार होना प्रवास की स्थिति है। वियोग श्रृंगार में वियोगी की दस दशाएँ अभिलाषा, चिंता, स्मृति, गुण कथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण स्वीकार की जाती हैं।
उदाहरण 2.
मधुवन तुम कत रहत हरे।
विरह-वियोग स्थान सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे?
(अरे, मधुवन ! तुम हरे-भरे क्यों हो? तुम श्रीकृष्ण के वियोग में खड़े-खड़े जल क्यों नहीं गए।)
स्थायी भाव-रति।
उदाहरण 3.
कहा लडैते दृग करे, पटे लाल बेहाल।
कहुं मुरली, कहुं पीत पट, कहुं मुकुट वनमाल॥
(राधा के वियोग में श्रीकृष्ण की बाँसुरी कहीं, पीले वस्त्र कहीं और मुकुट कहीं पड़ा है। वे स्वयं निश्चेष्ट दिखाई दे रहे हैं।)
उदाहरण 4.
खड़ी खड़ी अनमनी तोड़ती हुई कुसुम-पंखुड़ियाँ,
किसी ध्यान में पड़ी गवाँ देती घड़ियाँ की घड़ियाँ।
दृग से झरते हुए अश्रु का ज्ञान नहीं होता है,
आया-गया कौन, इसका कुछ ध्यान नहीं होता है।
(देवलोक की अप्सरा उर्वशी पुरुरवा के प्रेम में डूबी अनमनी-सी खड़ी फूलों की पत्तियाँ तोड़ती रहती है, उसी के ध्यान में घंटों व्यतीत कर देती है, आँखों से बहते आँसुओं का उसे पता ही नहीं लगता, उसके पास कौन आया और कौन गया इससे अनजान रहती है।
2. हास्य रस
किसी व्यक्ति या पदार्थ को साधारण से भिन्न अथवा विकृत आकृति में देखकर, विचित्र-रूप में देखकर, विभिन्न प्रकार की चेष्टाएँ देखकर जब पाठक, श्रोता या दर्शक के मन में हास्य विनोद का भाव जागता है, तो उसे हास या हास्य कहते हैं।
उदाहरण –
एक कबूतर देख हाथ में पूछा कहाँ अपर है?
उसने कहा अपर कैसा? वह उड़ गया सपर है।
उत्तेजित हो पूछा उसने, उड़ा? अरे वह कैसे?
‘फड़’ से उड़ा दूसरा बोली, उड़ा देखिए ऐसे।
उपर्युक्त पद्यांश में नूरजहाँ और जहाँगीर में वार्तालाप हो रहा है। रस के आधार पर विश्लेषण आगे दिया गया है –
उदाहरण 2.
बाबू बनने का यार फार्मूला सुनो।
कीजिए इकन्नी खर्च मूंछ की मुँडाई में।
लीजिए सैकेंड हैंड सूट डेढ़ रुपये में,
देसी रिस्ट वाच चार पैसे की कलाई में॥
गूदड़ी बाज़ार का हो बूट भी अधेली वाला,
करो पूरे खर्च आने तीन नेकटाई में।
अठन्नी में हो कोट और चश्मा दुअन्नी में,
‘मुरली’ बनो न बाबू मुद्रिका अढ़ाई में॥
(बाबू बनने के लिए इकन्नी में अपनी मूंछे मुंडवाओ, डेढ़ रुपये में पुराना सूट लो, चार पैसे वाली नकली घड़ी कलाई पर बाँधो, गूदड़ी बाजार से अधेले का पुराना बूट खरीदो, तीन आने में नेकटाई खरीदो, अठन्नी में कोट और दुअन्नी में चश्मा लो। अढ़ाई रुपये खर्च करके बाबू बन जाओ।)
उदाहरण 3.
चना बनावे घासी राम। जिनकी झोली में दुकान।
चना चुरमुर चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुख खोले।
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चना खाते सब बंगाली। जिनकी धोती ढीली ढाली।
चना जोर गर्म।
(चौपट राजा की अँधेर नगरी में घासी राम चने वाला अपने समय का वर्णन व्यंग्यात्मक ढंग से करता है।)
3. करुण रस
किसी प्रिय पात्र के लंबे वियोग की पीड़ा या उसके न रहने पर होने वाले क्लेश को शोक कहते हैं और इसमें करुण रस का परिपाक होता है। करुण रस में शोक स्थायी भाव रहता है, आश्रय शोक संतप्त व्यक्ति होता है, आलंबन विभाव नष्ट प्रिय वस्तु या व्यक्ति रहता है तथा उद्दीपन विभाव से प्रिय का दाह, विलाप, रात्रि, एकांत, श्मशान तथा उस प्रिय की वस्तुएँ आदि रहती हैं। अनुभाव में रोना, पीटना, पछाड़ खाना, आहे भरना आदि आता है। संचारी भावों में विकलता, मोह, ग्लानि, व्याधि, स्मृति, जड़ता आदि प्रयोग होते हैं। करुण में प्रिय के मिलने की आशा नहीं रहती।
उदाहरण 1.
हाय पुत्र हा ! रोहिताश्व ! कहि रोवन लागे,
विविध गुणवान महामर्म वेधी जिय जागे।
हाय ! भयो हो कहा हमें यह जात न जान्यो,
जो पत्नी और पुत्रादिक लौं नाहिं पिछान्यौ॥
रस की दृष्टि से उपर्युक्त पद्य का विश्लेषण आगे दिया गया है –
संचारी भाव – हरिश्चंद्र की चिंता, जड़ता तथा शंका व्यक्त करना है।
यहाँ पर करुण रस का आश्रय हरिश्चंद्र है क्योंकि उसके मन का करुण भाव, विभावादि से जागृत होकर अनुभावादि से व्यक्त होता हुआ रस में बदल रहा है। करुण रस किसी प्रिय की मृत्यु पर होता है, विरह या विप्रलंभ श्रृंगार केवल बिछुड़ने पर होता है। करुण में प्रिय से मिलने की आशा शेष नहीं रहती, विप्रलंभ या वियोग श्रृंगार में यह आशा बनी रहती है।
उदाहरण 2.
मेरे हृदय के हर्ष हा ! अभिमन्यु अब तू है कहाँ।
दृग खोलकर बेटा तनिक तो देख हम सबको यहाँ।
माना खड़े हैं पास तेरे, तू यहीं पर है पड़ा।
निज गुरुजनों के मान का तो, ध्यान था तुझको बड़ा॥
उदाहरण 3.
फिर पीटकर सिर और छाती अश्रु बरसाती हुई।
कुररी सदृश सकरुण गिरा से दैन्य दरसाती हुई।
बहु विधि विलाप-प्रलाप वह करने लगी उस शोक में।
निजप्रिय वियोग समान दुःख होता न कोई लोक में।
स्थायी भाव – शोक।
4. रौद्र रस
किसी शत्रु, विपक्षी, अहितकारी, बुरा चाहने वाले, अथवा उदंड लोगों की चेष्टाओं और कार्यों को देखकर अपने अपमान, अहित, निंदा, अवहेलना अथवा अपकार का जो भाव मन में जागता है, वही पुष्ट होकर रौद्र रस का रूप धारण कर लेता है। पाठक को रौद्र रस का अनभव किसी अन्यायी, अत्याचारी तथा दष्ट व्यक्ति को कहे जाने वाले वचनों अथवा उसके विरुदध की गई चेष्टाओं से होता है।
रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है। आश्रय क्रोधी व्यक्ति होता है; आलंबन विभाव के रूप में शत्रु, देशद्रोही, कपटी, दुराचारी व्यक्ति होते हैं; उद्दीपन विभाव के रूप में उनके किए गए अपराध, अपशब्द, कुचेष्टाएँ तथा अपकार लिए जाते हैं। अनुभावों में हथियार दिखाना, आँखों का लाल होना, क्रूरता से देखना, गर्जना, ललकारना आदि क्रियाएँ आती हैं। संचारी भावों में मोह, मद, उग्रता, स्मृति, गर्व आदि आते हैं।
रौद्र रस में आश्रय के शरीर में विकार आते हैं; जैसे-आँखों तथा मुँह का लाल होना, क्रोध से काँपना आदि। वीर रस में आश्रय उत्साह से भरकर कार्य करता है। उसमें किसी प्रकार का विकार नहीं आता। उदाहरण 1. ‘माखे लखन कुटिल भई भौहें, रद पट फरकत नयन रिसौहे।’ (क्रुद्ध लक्ष्मण की भौंहों में बल बढ़ गए हैं। उनके ओंठ फड़क रहे हैं, आँखें लाल हो गई हैं।)
उदाहरण 2.
रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न संभार।
धनही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥
उदाहरण 3.
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे,
सब शील अपना भूलकर कर तल युगल मलने लगे।
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े,
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठकर खड़े।
5. वीर रस
शत्रु के घमंड को तोड़ने, दीनों की बुरी दशा तथा धर्म की दुर्गति को मिटाने अथवा किसी कठिन कार्य को करने का निश्चय करते हुए जो तीव्र भाव हृदय में पैदा होता है, वह उत्साह है। यह उत्साह ही विभावों द्वारा जागृत, अनुभावों द्वारा व्यक्त तथा संचारियों द्वारा पुष्ट होकर रस बनता है। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह है। शत्रु, दीन, याचक अथवा खलनायक आलंबन बनते हैं। सेना, दुश्मन की ललकार, युद्ध के बाजे अथवा वीर गीत उद्दीपन बनते हैं। आँखों में खून उतरना, शस्त्र सँभालना, गर्जन करना, ताल ठोंकना आदि अनुभाव हैं। स्मृति, ईर्ष्या, हर्ष, गर्व तथा रोमांच आदि संचारी भाव हैं।
वीर रस के भेद –
जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्साह दिखाया जाता है। विभिन्न क्षेत्रों के आधार पर वीरों की विभिन्न कोटियाँ हैं। वीर रस की भी उनके अनुसार चार कोटियाँ बन गई हैं – (1) युद्धवीर (2) दानवीर (3) धर्मवीर (4) दयावीर। कुछ विद्वानों ने कर्मवीर नामक एक अन्य श्रेणी का भी उल्लेख किया है।
उदाहरण 1.
सौमित्र के घननाद का रव अल्प भी न सहा गया।
निज शत्रु को देखे बिना उनसे तनिक न रहा गया।
रघुवीर का आदेश ले युद्धार्थ वे सजने लगे।
रणवाद्य भी निघोष करके धूम से बजने लगे।
सानंद लड़ने के लिए तैयार जल्दी हो गए।
उठने लगे उन के हृदय में भाव नए-नए॥
रस की दृष्टि से विश्लेषण निम्नलिखित प्रकार से होगा –
उदाहरण 2.
उस काल, जिस ओर वह संग्राम करने को गया।
भागते हुए अरि वृंद से मैदान खाली हो गया।
रथ-पथ कहीं भी रुद्ध उसका दृष्टि में आया नहीं।
सन्मुख हुआ जो वीर वह मारा गया तत्क्षण वहीं॥
उदाहरण 3.
मुझ कर्ण का कर्तव्य दृढ़ है माँगने आए जिसे,
निज हाथ से झट काट अपना शीश भी देना उसे।
बस क्या हुआ फिर अधिक, घर पर आ गया अतिथि विसे,
हूँ दे रहा, कुंडल तथा तन-प्राण ही अपने इसे।
6. भयानक रस
किसी डरावनी वस्तु या व्यक्ति को देखने से, किसी अपराध का दंड मिलने के भय से मन में जो व्याकुलता उत्पन्न होती है, वही भय है। भय का भाव जब विभावादि द्वारा जागृत होकर, अनुभावों द्वारा व्यक्त होकर तथा संचारियों द्वारा पुष्ट होकर सामने आता है तो वह भयानक रस में बदल जाता है। भयानक रस का स्थायी भाव भय है। इसका आश्रय भयभीत व्यक्ति है। इस रस के आलंबन भयानक दृश्य, भयानक घटनाएँ भयानक जीव, दुर्घटनाएँ अथवा बलवान शत्रु आदि होते हैं। अनुभावों में कंप, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग एवं मूर्छा आदि को लिया जा सकता है। संचारी भावों में चिंता, स्मृति, ग्लानि, आवेग, त्रास तथा दैन्य आते हैं।
उदाहरण 1.
एक ओर अजगरहि लखि एक ओर मृग राय।
विकल बटोही बीच ही पर्यो मूरछा खाय॥
रस की दृष्टि से उपर्युक्त पंक्तियों का विश्लेषण निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है –
उदाहरण 2
कर्तव्य अपना इस समय होता न मुझको ज्ञात है,
कुरुराज, चिंताग्रस्त मेरा जल रहा सब गात है।
अतएव मुझ को अभय देकर आप रक्षित कीजिए।
या पार्थ-प्रण करने विफल अन्यत्र जाने दीजिए।
उदाहरण 2.
सिर पर बैठो काग, आंखि दोऊ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनंद उर धारत॥
गिद्ध जांघ कहँ खोदि खोदि के मांस उचारत।
स्वान आँगुरिन काटि-काटि के खात विदारत॥
उदाहरण 3.
कहूँ घूम उठत बरति कतहुं है चिता,
कहूँ होत शोर कहूं अरथी धरी है।
कहूं हाड़ परौ कहूं जरो अध जरो बाँस,
कहूं गीध-भीर मांस नोचत अरी अहै॥
8. अद्भुत रस
किसी आश्चर्यजनक, असाधारण अथवा अलौकिक वस्तु को देखकर हृदय में आश्चर्य का भाव घर कर लेता है। ऐसी अवस्था का जब वर्णन किया जाता है तो अद्भुत रस प्रकट होता है। यह रस चमत्कार से पैदा होता है। किसी विलक्षण वस्तु को देखने से जागृत विस्मय का भाव जब अनुभावों से व्यक्त एवं संचारियों से पुष्ट होकर सामने आता है, तो उसे अद्भुत रस कहते हैं।
इस रस का स्थायी भाव विस्मय है, विस्मित व्यक्ति इसका आश्रय है। अद्भुत वस्तु, विचित्र दृश्य, विलक्षण अनुभव अथवा अलौकिक घटना आदि आलंबन बनते हैं। मुँह खुला रह जाना, दाँतों तले अंगुली दबाना, आँखें फाड़कर देखते रह जाना, स्वरभंग, स्वेद एवं स्तंभ आदि अनुभाव होते हैं। वितर्क, हर्ष, आवेग एवं भ्रांति आदि संचारी भाव हैं।
उदाहरण 1.
अखिल भुवन चर-अचर सब, हरिमुख में लखि मातु।
चकित भई गद्-गद् वचन, विकसत दृग, पुलकातु॥
(प्रसंग उस समय का है जबकि माता यशोदा कृष्ण को मुँह खोलने के लिए कहती हैं। उन्हें संदेह है कि कृष्ण के मुँह में मिट्टी है और वह मिट्टी खा रहा था। कृष्ण ने ज्यों ही मुँह खोला तो माता यशोदा को उसमें सारा ब्रह्मांड दिखाई दिया। माता के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।) रस की दृष्टि से उपर्युक्त पद का विश्लेषण निम्नलिखित प्रकार से है –
इस पद्य में आश्चर्य का भाव पुष्ट होकर अद्भुत रस में बदल गया है।
उदाहरण 2.
लीन्हों उखारि पहार विसाल
चल्यो तेहि काल विलंब न लायौ।
मारुत नंदन मारुत को मन को
खगराज को वेग लजायो॥
उदाहरण 3.
गोपों से अपमान जान अपना क्रोधांध होके तभी,
की वर्षा व्रज इंद्र ने सलिल से चाहा, डुबाना सभी।
यों ऐसा गिरिराज आज कर से ऊँचा उठा के अहो।
जाना था किसने कि गोपाशिशु ये रक्षा करेगा कहो।
9. शांत रस
सांसारिक वस्तुओं से विरक्ति, हृदय में तत्व ज्ञान आदि से जो वैराग्य भाव उत्पन्न होता है, उससे चित्त को शांति मिलती है। उस शांति का वर्णन पढ़-सुनकर पाठक के हृदय में ‘शांत रस’ की उद्भावना होती है। शांत रस का स्थायी भाव ‘निर्वेद’ या ‘शम’ है। निर्वेद का अर्थ है-वेदना रहित होना। शम का अर्थ शांत हो जाना है। इस रस का आलंबन प्रिय वस्तु का विनाश, आशा के विरुद्ध वस्तु की प्राप्ति, संसार की नश्वरता, प्रभु चिंतन आदि हैं। यहाँ सत्संग, कथा-श्रवण, तीर्थ-स्नान आदि उद्दीपन होते हैं। अश्रु, रोमांच एवं पुलक आदि अनुभाव बनते हैं तथा धृति, हर्ष, स्मरण और निर्वेद आदि संचारी भाव बनते हैं।
उदाहरण 1.
तुम तजि और कौन पै जाऊँ
काके द्वार जाय सिर नाऊँ, पर हाथ कहाँ बिकाऊँ॥
ऐसो को दाता है समरथ, जाके दिये अघाऊँ।
अंतकाल तुमरो सुमिरन गति अनत कहूँ नहिं जाऊँ॥
रस की दृष्टि से विश्लेषण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है –
उदाहरण 2.
गुरु गोविंद तो एक है, दूजा यह आकार।
आपा मेटि जीवित मरै, तो पावै करतार॥
उदाहरण 3.
भारतमाता का मंदिर यह, समता का संवाद यहाँ।
सबका शिव कल्याण यहाँ, पावे सभी प्रसाद यहाँ॥
दो नये रस
प्राचीन ग्रंथों में नौ रसों को ही मान्यता दी जाती थी पर हिंदी-साहित्य के भक्तिकाल में भक्ति रस और वात्सल्य रस को इनमें सम्मिलित कर रसों की संख्या ग्यारह तक बढ़ा दी गई थी।
10. भक्ति रस
ईश्वर के गुणों के प्रति श्रद्धाभाव से भरकर जब कोई भक्त प्रेम में लीन हो जाता है, तो उसे आनंद देने वाले भक्ति रस का अनुभव होता है। भक्ति राग प्रधान है जबकि ज्ञान विराग प्रधान है। शांत रस में वैराग्य भाव रहता है, भक्ति रस में रागात्मक प्रेम, पूर्ण संबंध रहता है। इसलिए – विद्वानों ने शांत रस से पृथक भक्ति रस को माना। भक्ति का स्थायी भाव देवताओं आदि के प्रति रति है। भक्त के हृदय में रस की उत्पत्ति होने योग्य कोमल तन्मयता का भाव रहता है। भक्ति रस में आश्रय भक्त हृदय होता है। आलंबन प्रभु होता है, उद्दीपन प्रभु का गुण, रूप एवं कार्य होते हैं, भक्त की विह्वलता, आसक्ति आदि से उत्पन्न आँसू अनुभाव होते हैं। हर्ष, औत्सुक्य, चपलता, दैन्य तथा स्मरण आदि संचारी भाव होते हैं। तुलसी, सूर, मीरा आदि की रचनाओं में भक्ति रस को देखा जा सकता है।
उदाहरण 1.
माधव अब न द्रवहु केहि लेखे।
प्रनतपाल पन तोर मोर पन, जिअहुँ कमलपद देखे॥
जब लगि मैं न दीन, दयालु तैं, मैं न दास, तें स्वामी।
तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी।
तू उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत श्रुति गावै।
उदाहरण 2.
अँखड़ियाँ, झाई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़िया छाला पड़ा, राम पुकारि-पुकारि॥
उदाहरण 3.
म्हारो परनाम बाँके बिहारी जी।
मोर मुकुट माथाँ तिलक बिराज्याँ, कुँडल, अलकाँ कारी जी,
अधर मधुर घर वंशी बजावाँ, रीझ रिझावाँ ब्रजनारी जी।
या छब देख्याँ मोहयाँ मीराँ मोहण गिरधारी जी॥
11. वात्सल्य रस
जब बड़ों के हृदय में बच्चों के प्रति स्नेह भाव, विभावादि से पुष्ट होकर अभिव्यक्त होता है तब वहाँ पर वात्सल्य रस होता है। वात्सल्य रस का स्थायी भाव अपत्य स्नेह अथवा संतान स्नेह है, आलंबन बच्चा होता है। उद्दीपन बच्चों की चेष्टाएँ होती हैं। अनुभाव हँसना, पुलकित होना, चूमना आदि आश्रय की चेष्टाएँ होती हैं। हर्ष, आवेग, मोह, चिंता, विषाद, गर्व, उन्माद आदि संचारी भाव हैं।
उदाहरण 1.
किलक अरे, मैं नेक निहारूँ,
इन दाँतों पर मोती वारूँ।
पानी भर आया फूलों के मुँह में आज सवेरे,
हाँ गोपा का दूध जमा है, राहुल! मुख में तेरे।
लटपट चरण, चाल अटपट सी मन भाई है मेरे,
तू मेरी अंगुली धर अथवा मैं तेरा कर धारूँ
इन दाँतों पर मोती वारूँ।
(माता यशोधरा अपने नन्हे राहुल के नए निकले दाँतों की शोभा को देखकर आनंदित होकर कहती है, अरे राहुल! एक बार फिर से तू किलकारी मार, मैं तुम्हारे दूधिया दाँत देखना चाहती हूँ। वह कल्पना करती है कि राहुल के दाँत फूलों पर अटकी चमकीली ओस की बूंदें हैं अथवा माँ का दूध ही जमकर राहुल के श्वेत दाँतों में बदल गया है। बालक राहुल ने अभी-अभी डगमगाते कदमों से चलना सीखा है। इसलिए माँ उसकी बाँह पकड़कर उसे चलाना चाहती है।)
रस की दृष्टि से व्याख्या –
उदाहरण 2.
मैया मैं नहिं माखन खायो।
भोर भये गैयन के पाछे मधुबन मोहि पठायो।
उदाहरण 3.
सुभग सेज सोभित कौसिल्या रुचिर राम-सिसु गोद लियो।
बार-बार विधु-वदन विलोकति लोचन चारु चकोर किये।
कबहुँ पौढ़ि पय-पान करावति, कबहुंक राखाति लाइ हिये।
बाल केलि गावति हलरावति, फुलकति प्रेम-पियूष जिये।
रस : एक दृष्टि में
पाठ्यपुस्तक पर अधारित कबिताओं में वर्णित रसों का विश्लेषण –
शांत रस –
रस की दृष्टि से पद्य की पंक्तियों का विश्लेषण निम्न प्रकार से किया जा सकता है –
1. कितना प्रामाणिक था उसका दुख
लड़की को दान में देते वक्त
जैसे वही उसकी अंतिम पूँजी हो
लड़की अभी सयानी नहीं थी
अभी इतनी भोली सरल थी
कि उसे सुख का आभास तो होता था
लेकिन दुख बाँचना नहीं आता था
पाठिका थी वह धुँधले प्रकाश की
कुछ तुकों और कुछ लयबद्ध पंक्तियों की।
2. माँ ने कहा पानी में झाँककर
अपने चेहरे पर मत रीझना
आग रोटियाँ सेंकने के लिए है
जलने के लिए नहीं
वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह
बंधन हैं स्त्री जीवन के
माँ ने कहा लड़की होना
पर लड़की जैसी दिखाई मत देना।
3. तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढ़स बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
4. एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढेर सारी नदियों के पानी का जादू :
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा :
एक की नहीं,
दो की नहीं,
हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण-धर्म :
फ़सल क्या है ?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण-धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा का थिरकन का!
वीर रस
रस की दृष्टि से विश्लेषण –
1. लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छे दनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥
2. बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू॥
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।
बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें॥
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
जो बिलोकि अनुचित कहेडँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर॥
3. कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥
भानुबंस राके स कलंकू। निपट निरंकु सु अबुधु असंकू ॥
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरबती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।
4. कहेउ लखन मुनि सील तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भये नीकें। गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें॥
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय-हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही॥
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े॥
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे॥
वात्सल्य रस
रस की दृष्टि से व्याख्या –
1. डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,
सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झूलावै, केकी-कीर बरतावै, ‘देव’,
कोकिल हलावै-हुलसावै कर तारी दै॥
पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन,
कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै॥
2. तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात….
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लगे पड़े शेफालिका के फूल बाँस था कि बबूल ?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान ?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो ?
आँख लूँ मैं फेर ?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
3. यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जबकि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान!
शंगार टस
मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोरा सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुती गुहारि जितहिं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही॥
2. हमारै हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी॥
3. फटिक सिलानि सौं सुधार्यो सुधा मंदिर,
उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।
बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए ‘देव’
दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद।
तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति,
मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद।
आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै,
प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद॥
रस की दृष्टि से उपर्युक्त पद्य का विश्लेषण निम्नलिखित प्रकार से है –
करुण रस
मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास,
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।
रस की दृष्टि से उपर्युक्त पद्य का विश्लेषण निम्न प्रकार से है –
अभ्यास के लिए प्रश्नोत्तर –
प्रश्न 1.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में प्रयुक्त रसों के नाम बताइए –
(i) ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
(ii) सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी॥
(iii) हमारै हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
(iv) मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर ।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर ॥
(v) जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर ॥
(vi) आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै,
प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद।
(vii) फटिक सिलानि सौं सुधार्यो सुधा मंदिर,
उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।
(viii) जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत हे ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी॥
(ix) तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।
(x) धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात ……….
छोड़कर तालाब मेरी झोपड़ी में खिल रहे जलजात ॥
(xi) भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण-धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का।
(xii) यश है न वैभव, मान है न सरमाया;
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
(xiii) इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास
(xiv) तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान
(xv) कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी
भूली-सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण
(xvi) वस्त्र और आभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह
बंधन हैं स्त्री जीवन के
(xvii) सुर महिसुर हरिजन अरूरू गाई।
हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।
(xviii) हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम वचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
(xix) सुनि कटु बचन कुठार सुधारा,
हाय-हाय सब सभा पुकारा।
(xx) तार सप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
उत्तर :
(i) वियोग शृंगार रस
(ii) वियोग शृंगार रस
(iii) वियोग शृंगार रस
(iv) भयानक रस
(v) वीर रस
(vi) शृंगार रस
(vii) श्रृंगार रस
(viii) वियोग श्रृंगार रस
(ix) करुण रस
(x) वात्सल्य रस
(xi) शांत रस
(xii) करुण रस
(xiii) करुण रस
(xiv) वात्सल्य रस
(xv) वियोग श्रृंगार रस
(xvi) शांत रस
(xvii) वीर रस
(xviii) भक्ति रस
(xix) भयानक रस
(xx) शांत रस
प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में प्रयुक्त रसों के नाम बताइए –
(i) “डोलि-डोलि कुंडल उठत देई बार-बार,
एरी! वह मुकुट हिये मैं हालि-हालि उठै॥”
(ii) “बारी टारि डारौ कुम्भकर्णहिं बिदारि डारौं,
मारि मेघनादै आजु यौं बल अनन्त हौं।”
(iii) “केशव, कहि न जाइ का कहिये।
देखत तब रचना विचित्र अति समुझि मनहिं मन रहिये॥”
(iv) “हँसि-हँसि भाजे देखि दूलह दिगम्बर को,
पाहुनी जै आवै हिमाचल कै, उछाह में।” “दीठ पर्यो जोतें तोते, नाहिंन टरति छवि,
आँखिन छयो री, छिन-छिन छालि-छालि उठे।”
(vi) सून्य भीति पर चित्र, रंग नहि, तनु बिन लिखा चितेरे।
धोये मिटै न मरै भीति, द:ख : पाइय इहि तन हेरे।।
(vii) मगन भयेई हँसे मगन महेस ठाढ़े,
और हँसे एक हँसि हँसी के उमाह में।
(viii) यज्ञ समाप्त हो चुका, तो भी धधक रही थी ज्वाला
दारुण-दृश्य! रुधिर के छोटे-अस्थि खंड की माला।
(ix) बाजि-बाजि उठत मिठौंहैं सुर बसी भोर,
ठौर-ठौर ढीली गरबीली चालि-चालि उठे।
(x) कहै ‘पद्माकर’ त्रिकूट ही को ढाय डारौं,
डरत करेई जातुधानन को अंत हौं॥
(xi) रविकर नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।
बदन हीन सो ग्रसै चराचर पान करन जे जाहीं॥
(xii) कहै ‘पद्माकर’ सु काहू सौं कहै को कहा,
जोई जहाँ देखै सो हँसेई तहाँ राह में॥
(xiii) वेदों की निर्मम प्रसन्नता पशु की कातर वाणी;
मिलकर वातावरण बना था कोई कुत्सित प्राणी।
(xiv) सीस पर गंगा हँसे भुजनि भुजंग हँसै,
हास ही को दंगा भयौ नंगा के विवाह में।
(xv) कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ माने।
‘तुलसीदास’ परिहरै तीन भ्रम सो आतम पहचान।
(xvi) अच्छहिं निरच्छ कपि ऋच्छहिं उचारौ इनि,
तोत्र तुच्छ तुच्छन को कछुवै न गंत हौं।
(xvii) कहरि-कहरि उठै पीरै पटुका को छोर,
साँवरे की तिरछी चितौनि सालि-सालि उठे।
(xviii) जा दिन मन-पंछी उड़ि-जैहै।
ता दिन तेरे तन तरुवर के सबै पात झरि जैहैं।
(xix) सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि।
(xx) अनुचर अनाथ से रोते थे। जो थे अधीर सब होते थे।
(xxi) जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दुलराइ, मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥
(xxii) अति भीषण हाहाकार हुआ, सूना सब संसार हुआ।
(xxiii) ज्यों-त्यों ‘तुलसी’ कृपालु चरण शरण पावै।
(xxiv) कबहुँ पलक हरि नूदि लेत हैं, कबहुँ उधर फरकावै
(xxv) तू दयालु दीन हौँ तू दानि हौं भिखारी।
उत्तर :
(i) वियोग श्रृंगार रस
(ii) रौद्र रस
(iii) अद्भुत रस
(iv) हास्य रस
(v) वियोग श्रृंगार रस
(vi) अद्भुत रस
(vii) हास्य रस
(viii) वीभत्स रस
(ix) वियोग श्रृंगार रस
(x) रौद्र रस
(xi) अद्भुत रस
(xii) हास्य रस
(xiii) वीभत्स रस
(xiv) हास्य रस
(xv) अद्भुत रस
(xvi) रौद्र रस
(xvii) वियोग श्रृंगार रस
(xviii) शांत रस
(xix) भक्ति रस
(xx) करुण रस
(xxi) वात्सल्य रस
(xxii) करुण रस
(xxiii) भक्ति रस
(xxiv) वात्सल्य रस
(xxv) भक्ति रस
पाठ पर आधारित बहुविकल्पी प्रश्नोत्तर –
1. निर्देशानुसार उचित विकल्प चुनकर लिखिए –
(क) पंक्ति में प्रयुक्त रस है –
कहत, नटत, रीझत, खिझत,
मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौंन में करत हैं,
नैननु ही सौं बात।
(i) वीर रस
(ii) श्रृंगार रस
(iii) शांत रस
(iv) करुण रस
उत्तर :
(ii) श्रृंगार रस
(ख) पंक्ति में प्रयुक्त रस है –
एक ओर अजगरहि लखि, एक ओर मृगराय। विकल बटोही बीच ही, पर्यो मूरछा खाय।।
(i) भयानक रस
(ii) करुण रस
(iii) हास्य रस
(iv) वात्सल्य रस
उत्तर :
(i) भयानक रस
(ग) पंक्ति में प्रयुक्त रस है –
एक मित्र बोले, “लाला तुम किस चक्की का खाते हो? इतने महँगे राशन में भी, तुम तोंद बढ़ाए जाते हो।”
(i) शृंगार रस
(ii) हास्य रस
(iii) करुण रस
(iv) रौद्र रस
उत्तर :
(ii) हास्य रस
(घ) करुण रस का स्थायी भाव क्या है?
(i) भय
(ii) शोक
(iii) क्रोध
(iv) उत्साह
उत्तर :
(ii) शोक
(ङ) पंक्तियों में कौन-सा स्थायी भाव है?
संकटों से वीर घबराते नहीं,
आपदाएँ देख छिप जाते नहीं।
लग गए जिस काम में, पूरा किया
काम करके व्यर्थ पछताते नहीं।
(i) रति
(ii) भय
(iii) क्रोध
(iv) उत्साह
उत्तर :
(iv) उत्साह
(च) पंक्तियों में प्रयुक्त रस है –
एक पल, मेरी प्रिया के दृग-पलक,
थे उठे-ऊपर, सहज नीचे गिरे।
चपलता ने इस विकंपित पुलक से,
दृढ़ किया मानो प्रणय-संबंध था।
(i) हास्य रस
(ii) वीर रस
(iii) शांत रस
(iv) शृंगार रस
उत्तर :
(iv) शृंगार रस
(छ) काव्यांश में कौन-सा स्थायी भाव है?
जसोदा हरि पालने झुलावै। हलरावै, दुलरावै, मल्हावै, जोई-सोई कछु गावै।
(i) उत्साह
(ii) क्रोध
(iii) हास
(iv) वात्सल्य
उत्तर :
(iv) वात्सल्य
(ज) काव्यांश में प्रयुक्त रस है –
साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं, पूरा करूँगा कार्य सब कथनानुसार यथार्थ मैं। जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैं अभी, वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी।
(i) रौद्र रस
(ii) करुण रस
(iii) शृंगार रस
(iv) वात्सल्य रस
उत्तर :
(i) रौद्र रस
(झ) काव्यांश में प्रयुक्त रस है –
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि पाने की ओर बढ़ाए।
(i) हास्य रस
(ii) करुण रस
(iii) वीभत्स रस
(iv) रौद्र रस
उत्तर :
(ii) करुण रस
(ञ) काव्यांश में स्थायी भाव है –
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहै न आनि सुवावै।
तू काहै नहिं बेगहिं आवै, तोको कान्ह बुलावै।
(i) विस्मय
(ii) शोक
(iii) रति
(iv) वत्सल
उत्तर :
(iv) वत्सल
1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(i) रति’ किस रस का स्थायी भाव है?
(ii) ‘करुण’ रस का स्थायी भाव क्या है?
(iii) ‘हास्य’ रस का एक उदाहरण लिखिए।
(iv) निम्नलिखित पंक्तियों में रस पहचान कर लिखिए:
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा मानो मुझे।
उत्तर :
(i) शृंगार
(ii) शोक
(iii) चना बनावे घासी राम। जिनकी झोली में दुकान।
(iv) वीर रस चना चुरमुर-चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुँह खोले।
2. निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(क) ‘हास्य रस’ का एक उदाहरण लिखिए।
(ख) निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में रस पहचानकर लिखिए
रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।
(ग) ‘वीर’ रस का स्थायी भाव क्या है?
(घ) ‘रति’ किस रस का स्थायी भाव है?
उत्तर :
(क) चना बनावे घासी राम। जिनकी झोली में दुकान।
चना चुरमुर चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुख खोले।
(ख) रौद्र रस।
(ग) उत्साह।
(घ) श्रृंगार रस।
3. निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(क) ‘करुण रस’ का एक उदाहरण लिखिए।
(ख) निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में निहित रस पहचान कर लिखिए –
तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप,
साज मिले पंद्रह मिनट, घंटा भर आलाप।
घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता,
धीर-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता।
(ग) “उत्साह’ किस रस का स्थायी भाव है?
(घ) ‘वात्सल्य’ रस का स्थायी भाव क्या है?
(ङ) ‘शृंगार’ रस के कौन-से दो भेद हैं?
उत्तर :
(क) चना बनावे घासी राम। जिनकी झोली में दुकान।
चना चुरमुर चुरमुर बोलै। बाबू खाने को मुख खोले।
(ख) हास्य रस।
(ग) वीर रस।
(घ) वात्सल्य / वत्सल रस
(ङ) संयोग शृंगार, वियोग शृंगार।
4. निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(क) स्थायी भाव से आप क्या समझते हैं?
(ख) हास्य रस का एक उदाहरण लिखिए।
(ग) वत्सल रस का स्थायी भाव क्या है?
(घ) निम्नलिखित पंक्तियों में से रस पहचानकर लिखिए –
जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।
(ङ) क्रोध किस रस का स्थायी भाव है?
उत्तर :
(क) मन में स्थायी रूप से विद्यमान भावों को स्थायी भाव कहते हैं।
(ख) एक कबूतर देख हाथ में पूछा कहाँ अपर है?
उसने कहा अपर कैसा? वह उड़ गया सपर है।
उत्तेजित हो पूछा उसने, उड़ा? अरे वह कैसे?
‘फड’ से उडा दसरा बोली, उडा देखिए ऐसे।
(ग) वात्सल्य
(घ) श्रृंगार रस
(ङ) रौद्र रस
5. निम्नलिखित पाँच में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
1. भय की अधिकता में किस रस की निष्पत्ति होती है?
(क) वीर रस
(ख) करुण रस
(ग) भयानक रस
(घ) रौद्र रस
उत्तर :
(घ) रौद्र रस
2. ‘निर्वेद’ किस रस का स्थायी भाव है?
(क) शांत रस
(ख) करुण रस
(ग) हास्य रस
(घ) शृंगार रस
उत्तर :
(क) शांत रस
3. “तनकर भाला यूँ बोल उठा
राणा मुझको विश्राम न दें।
मुझको वैरी से हृदय-क्षोभ
तू तनिक मुझे आराम न दे’।
उपर्युक्त काव्य पंक्तियों में निहित रस है?
(क) वीर रस
(ख) शांत रस
(ग) करुण रस
(घ) रौद्र रस
उत्तर :
(क) वीर रस
4. किस रस को ‘रसराज’ भी कहा जाता है?
(क) शांत रस
(ख) करुण रस
(ग) हास्य रस
(घ) शृंगार रस
उत्तर :
(घ) शृंगार रस
5. ‘वीभत्स रस’ का स्थायी भाव है?
(क) उत्साह
(ख) शोक
(ग) जुगुप्सा
(घ) हास
उत्तर :
(ग) जुगुप्सा
6. निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं चार के उत्तर लिखिए –
(क) निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों में रस पहचान कर लिखिए –
उस काल मारे क्रोध के, तनु काँपने उनका लगा।
मानो हवा के ज़ोर-से, सोता हुआ सागर जगा।
(ख) ‘वीर रस’ का एक उदाहरण लिखिए।
(ग) ‘शांत रस’ का स्थायी भाव क्या है?
(घ) उद्दीपन से आप क्या समझते हैं?
(ङ) स्थायी भाव से क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
(क) वीर रस।
(ख) धरती की लाज रखने को धरती के वीर,
समर विजय हेतु कसर उठाएँ क्यों?
हमें ललकार, दुत्कार, फुफकार कर,
जीवित यहाँ से ये अरि दल जाएँ, जाएँ क्यों?
(ग) निर्वेद/उदासीनता।
(घ) स्थायी भावों को उद्दीप्त कर रस की अवस्था तक ले जाने वाले भाव उद्दीपन कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-एक पात्रों की चेष्टाओं के रूप में, दूसरे बाह्य वातावरण या प्रकृति रूप में।
(ङ) सहृदय मनुष्य के हृदय में जो भाव स्थायी (स्थिर) रूप से विद्यमान रहते हैं, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। प्रत्येक रस का एक स्थायी भाव होता है।
(ग) निर्वेद/उदासीनता
7. निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं चार के उत्तर लिखिए –
(क) निम्नलिखित काव्य पक्तियों में रस पहचान कर लिखिए –
एक ओर अजगरसिंह लखि, एक ओर मश्गराय।
विकल बटोही बीच ही, पर्यो मूर्छा खाय।।
(ख) रौद्र रस का एक उदाहारण लिखिए।
(ग) करुण रस का स्थायी भाव क्या है?
उत्तर :
(क) भयानक रस
(ख) श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे।
सब शोक अपना भूलकर करतल-युगल मलने लगे।
(ग) शोक।
8. निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं चार के उत्तर लिखिए –
(क) निम्नलिखित काव्य पंक्तियों से रस पहचानकर लिखिए –
विरह का जलजात जीवन, वरिह का जलजात
वेदना जन्म वरुणा में मिला आवास
अश्रु चुनता दिवस इसका, अश्रु गिनती रात
(ख) वीभत्स रस का एक उदाहरण लिखिए।
(ग) हास्य रस का स्थायी भाव लिखिए।
उत्तर :
(क) श्रृंगार रस (वियोग)
(ख) सिर पै बैठ्यो काग, आँख दोऊ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अतिहि आनंद उर धारत।
(ग) हास स्थायी भाव
9. निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर लिखिए –
(क) ‘वीर रस’ का एक उदाहरण लिखिए।
(ख) घृणा के भाव उत्पन्न करने वाले काव्य में कौन-सा रस होगा?
(ग) ‘शृंगार रस’ के दो भेद कौन-से हैं?
(घ) निम्नलिखित काव्य-पक्तियों में रस पहचानकर रस का नाम लिखिए –
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से लिी, पली
अंत भी उसी गोद में ष्टारण
ली, मूंदै दृग वर महामरण!
(ङ) उद्दीपन किसे कहते हैं?
उत्तर :
(क) वीर रस का उदाहरण –
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो।
हाथ में ध्वज रहे बाल दल सजा रहे,
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो।
सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो धीर तुम बढ़े चलो।
(ख) वीभत्स रस।
(ग) 1. संयोग शृंगार रस,
2. वियोग शृंगार रस
(घ) करुण रस।
(ङ) उद्दीपन – आश्रय के मन में उत्पन्न हुए स्थायी भाव को और तीव्र करने वाले विषय की बाहरी चेष्टाओं और बाहरी वातावरण को उद्दीपन कहते हैं।
10. निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर लिखिए –
(ख) निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों में रस पहचानकर रस का नाम लिखिए –
“यह मुरझाया हुआ फूल है, इसका हृदय दुखाना मत।
स्वयं बिखरने वाली इसकी, पंखुड़ियाँ बिखराना मत।।”
(घ) भयानक रस का स्थायी भाव क्या है?
उत्तर :
(ख) करुण रस।
(घ) स्थायी भाव-भय।
11. निम्नलिखित प्रश्नों में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर लिखिए –
(ख) यशोदा हरि पालने झुलावै
हलरावै, दुलरावै, जेहि सेहि कछु गावै।
उपर्युक्त पंक्तियों में किस रस की निज़्पत्ति होती है? रस का नाम लिखिए।
(घ) आलंबन विभाव किसे कहते हैं?
उत्तर :
(ख) वात्सल्य रस।
(घ) आलंबन विभाव – जिन पात्रों या व्यक्तियों के आलंबन अर्थात सहारे से स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं, वे आलंबन विभाव कहलाते हैं।