JAC Board Class 10th Social Science Important Questions Geography Chapter 1 संसाधन एवं विकास
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. उत्पत्ति के आधार पर संसाधनों को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है
(क) जैव और अजैव
(ख) नवीकरण योग्य व अनवीकरण योग्य
(ग) प्राकृतिक और मानवीय
(घ) संभावी व विकसित।
2. निम्न में से कौन अजैव संसाधन है?
(क) चट्टानें
(ख) पशु
(ग) पौधे
(घ) मछलियाँ
3. नवीकरण योग्य संसाधन है
(क) पवन ऊर्जा
(ख) वन
(ग) जल
(घ) ये सभी।
4. अचक्रीय संसाधन है
(क) जीवाश्म ईंधन
(ख) पवन ऊर्जा
(ग) पशु
(घ) मनुष्य।
5. रियो डी जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन कब हुआ था
(क) 1990
(ख) 1991 में
(ग) 1992 में
(घ) 1995 में
6. भूमि एक ……….. संसाधन है?
(क) प्राकृतिक
(ख) मानव-निर्मित
(ग) सौर ऊर्जा से निर्मित
(घ) इनमें से कोई नहीं
7. जलोढ़ मृदा निम्न में से किस फसल की खेती के लिए उपयुक्त है?
(क) गन्ना
(ख) चावल
(ग) गेहूँ
(घ) ये सभी
8. लाल-पीली मृदा कहाँ पाई जाती है?
(क) दक्कन के पठारी क्षेत्र में
(ख) मालवा प्रदेश में
(ग) ब्रह्मपुत्र घाटी में
(घ) थार रेगिस्तान में
रिक्त स्थान सम्बन्यी प्रश्न
निम्नलिखित रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए:
1. पर्थावरण में पाए जाने वाले ऐसे पदार्थ या तत्व जिनसे मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति हो …….. कहलाते हैं।
उत्तर:
संसाधन
2. जून, 1992 में ब्राजील के ………नामक शहर में प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय पृथ्वी-सम्मेलन का आयोजन हुआ।
उत्तर:
रियो ही जेनेरो,
3. भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल……….है।
उत्तर:
3.32 .8 लाख वर्ग किमी,
4. ………..शुमेसर द्वारा लिखित पुस्तक है।
उत्तर:
स्माल इन,ब्यूटीफुल,
5. फसलों के बीच वृक्षों की कतारें लगाना कहलाता है।
उत्तर:
रक्षक मेखला।
लयूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
संसाधनों को तत्यों या पदार्थों के निर्माण में सह्तयक कारकों के आधारे पर कितने भार्गों में बाँटा जा सकता है?
उत्तर:
- प्राकृतिंक संसाधन,
- मानवीय संसाधन।
प्रश्न 2.
नवीकरण योग्य संसाधन किसे कहते हैं?
अथवा
असमाप्य संसाधन से क्या अभिप्राय हैं?
उत्तर:
ऐसे संसाधन जिनको पुन: उपयोग में लाया जा सके, नवीकरण योग्य या अतमाप्य संसाधन कहें जाते हैं।
प्रश्न 3.
अनवीकरणीय संसाधन के कोई चार उदाइरण लिखिए।
उत्तर:
- कोयला,
- व्वानिज-तेल,
- यूरेनियम,
- प्राकृतिक गैस।
प्रश्न 4.
विकास के स्तर के आधार पर संसाधन कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
विकास के स्तर के आधार पर संसाधन चार प्रकार के होते हैं
- संभावी
- विकसित
- संचित कोष
- भंडार।
प्रश्न 5.
सतत् पोषणीय विकास का क्या अर्थ है?
अथवा
सत्तत् पोषणीय विकास से आपका क्या आशय है?
उत्तर:
सतत् पोषणीय विकास का अर्थ है कि विकास पर्यावरण को हानि न पहूँचाए और वर्तमान विकास की प्रक्रिया भविष्य की पीड़ियों की आवश्यकताओं की अवतेलना न करे।
प्रश्न 6.
रियो-ड़ी-जेनेरो पृध्वी सम्नेलन का मुख्य उदेश्य क्या था?
उत्तर:
रियो-डी-जेनेरो पृध्वी सम्मेलन का मुख्य उद्हेश्य विश्व स्तर पर उभरते पर्यावरण संरक्षण एवं आर्थिक-सामाजिक विकास की समस्याओं का हल हैदा था।
प्रश्न 7.
संसाधन नियोजन से आप क्या समझते है?
उत्तर:
संसाधनों के बिबेकपूर्ण उपयोग के लिए सर्वमान्य रणर्नीति को संसाधन नियोज़न कहते है।
प्रश्न 8.
प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का क्या अर्थ है?
उत्तर:
प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का अर्थ है उनका नियोजित एवं बिवेकपूर्ण डंग से उपयोग करना ताकि इन संखाधर्नों से एक लम्बे समय तक पर्याप्त लाभ प्राप्त हो सके।
प्रश्न 9.
शुमेसर द्वारा लिखित पुस्तक का क्या नाम है?
उत्तर:
शुमेंसर द्वारा लिखित पुस्तक का नाम ‘स्माल इज ब्युटीफुल है।
प्रश्न 10.
भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल कितना है?
उत्तर:
भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल $32.8$ लाख वर्ग किमी. है।
प्रश्न 11.
दो ऐसे राज्यों के नाम बताइए जहाँ अति पशुचारण भूमि निम्नीकरण का मुख्य कारण है?
उत्तर:
- गुजरात,
- राजस्थान।
प्रश्न 12.
मृदा निर्माण में किन कारकों का योगदान होता है?
उत्तर:
मृदा निर्माण में जनक शैल, जलवायु, वनस्पति, उच्चावच, अन्य जैव पदार्थ एवं समय की लम्बी अवधि आदि कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
प्रश्न 13.
भारतीय मृदा को कितने भागों में बाँटा जा सकता है ?
उत्तर:
- जलोढ़ मृदा,
- काली मृदा,
- लाल व पीली मृदा,
- लेटराइट मृदा,
- मरुस्थलीय मृदा,
- वन मृदा।
प्रश्न 14.
आयु के आधार पर जलोढ़ मृदा को किन दो वर्गों में बाँटा जाता है?
उत्तर:
- पुराना जलोढ़ (बांगर)
- नया जलोढ़ (खादर)
प्रश्न 15.
किस मृदा में नमीधारण करने की क्षमता अधिक होती हैं? कारण दें।
उत्तर:
काली मृदा में नमीधारण करने की क्षमता अधिक होती है क्योंकि काली मृदा बहुत बारीक कणों अर्थात् मृत्तिका से बनी होती है।
प्रश्न 16.
काली मृदा की जुताई मानसून की पहली बौछार से ही क्यों शुरू कर दी जाती है?
उत्तर:
क्योंकि गीली होने पर यह मृदा चिपचिपी हो जाती है और इसको जोतना मुश्किल हो जाता है।
प्रश्न 17.
काली मृदा की दो विशेषताएँ लिखिए ।
उत्तर:
- काली मृदा बहुत महीन कणों अर्थात् मृत्तिका से बनी होती है
- गर्म और शुष्क मौसम में इन मृदाओं में गहरी दररें पड़ जाती हैं जिससे इनमें अच्छी तरह वायु मिश्रित हो जाती है।
प्रश्न 18.
लेटराइट मृदा भारत के किन-किन क्षेत्रों
उत्तर:
यह मृदा कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आन्द्र प्रदेश, ओडिशा तथा पश्चिम बंगाल क्षेत्रों में पाई जाती है।
प्रश्न 19.
नीचे दिए गए किसी मृदा के लक्षणों को पढ़िए और सम्बन्धित मृदा का नाम लिखिए-
(क) अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में विकसित होती है।
(ख) अत्यधिक निक्षालन प्रक्रिया घटित होती है।
(ग) ह्रूमस की मात्रा कम पाई जाती है।
उत्तर:
लेटराइट मृदा
प्रश्न 20.
काजू की फसल उगाने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त मृदा कौन-सी है?
उत्तर:
लाल लेटराइट मृदा।
प्रश्न 21.
मरुस्थलीय मृदा की नीचे की परतों में चूने के कंकर की सतह पायी जाती है ? क्यों ?
उत्तर:
क्योंकि मृदा की सतह के नीचे कैल्शियम की मात्रा बढ़ती चली जाती है।
प्रश्न 22.
मृदा अपरदन कितने प्रकार का होता है?
उत्तर:
मृदा अपरदन तीन प्रकार का होता है:
- अवनलिका अपरदन,
- परत अपरदन,
- वायु अपरदन।
प्रश्न 23.
मृदा अपरदन को किस प्रकार रोका जा सकता है?
उत्तर:
मृदा अपरदन को जलप्रवाह की तीव्रता को कम करके तथा वृक्षारोपण द्वारा रोका जा सकता है।
प्रश्न 24.
भूस्खलन के लिए उत्तरदायी प्राकृतिक एवं मानवजनित कारक कौन-से हैं?
उत्तर:
- प्राकृतिक कारक-पवन,
- मानवजनित कारक वनोन्मूलन ।
लघूत्तरात्मक प्रश्न (SA1)
प्रश्न 1.
संसाधन क्या हैं? उदाहरण दीजिए।
अथवा
संसाधन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
हमारे पर्यावरण में उपलब्ध वे समस्त वस्तुएँ जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रयोग की जाती हैं और जिनको बनाने के लिए तकनीकी ज्ञान उपलब्ध है, जो आर्थिक रूप से संभाव्य एवं सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य हैं, संसाधन कहलाती हैं।
संसाधन का अर्थ केवल प्राकृतिक तत्व ही नहीं है अपितु मानवीय या सांस्कृतिक तत्व भी महत्वपूर्ण संसाधन होते हैं। इस प्रकार कोई भी वस्तु जो मानव के लिए उपयोगी हो अथवा उपयोगिता में सहायक हो, संसाधन कहलाती है जैसे-खनिज तेल, कोयला, जल, खनिज, प्राकृतिक वनस्पति, जीव-जन्तु आदि।
प्रश्न 2.
संसाधनों के वर्गीकरण के विभिन्न आधार कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
संसाधनों के वर्गीकरण के विभिन्न आधार
- उत्पत्ति के आधार पर जैविक व अजैविक।
- समाप्यता के आधार पर नवीकरण योग्य और अनवीकरण योग्य:
- स्वामित्व के आधार पर व्यक्तिगत, सामुदायिक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय।
- विकास की अवस्था के आधार पर संभावी, विकसित, भण्डार एवं संचित कोष।
प्रश्न 3.
नवीकरण योग्य एवं अनवीकरण योग्य संसाधनों में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
अथवा
नव्यकरणीय एवं अनत्व्यकरणीय संसाधनों में अन्तर बताइए।
उत्तर:
नवीकरण योग्य एवं अनवीकरण योग्य संसाधनों में निम्नलिखित अन्तर हैं:
नवीकरण योग्य (नव्यकरणीय) | अनवीकरण योग्य (अनव्यकरणीय) |
1. ये वे संसाधन हैं जिनका पुनः उपयोग सम्भव है। | 1. ये वे संसाधन हैं जो एक बार उपयोग करने के बाद नष्ट हो जाते हैं। पुनः उपयोग सम्भव नहीं है। |
2. ये पर्यावरण में प्रदूषण नहीं फैलाते हैं। | 2. ये पर्यावरण में प्रदूषण फैलाते हैं। |
3. पवन, जल, मृदा, वन, सौर-ऊर्जा आदि नवीकरण योग्य योग्य संसाधन हैं। | 3. कोयला, खनिज-तेल, प्राकृतिक गैस आदि अनवीकरण संसाधन हैं। |
प्रश्न 4.
अन्तर्राष्ट्रीय संसाधनों का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
किसी देश की तटरेखा से 200 समुद्री मील की दूरी से परे खुले महासागरीय संसाधन अन्तर्राष्ट्रीय संसाधन होते हैं। इन पर किसी देश का अधिकार नहीं होता है। इन्हें कुछ अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ नियन्त्रित करती हैं। इन संसाधनों का अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की सहमति के बिना उपयोग नहीं किया जा सकता।
प्रश्न 5.
संसाधन नियोजन की क्या आवश्यकता है?
अथवा
संसाधन नियोजन क्यों आवश्यक है? बताइए।
उत्तर:
संसाधनों के नियोजन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है
- अधिकांश संसाधनों की आपूर्ति सीमित होती है।
- अधिकांश संसाधनों का वितरण सम्पूर्ण देश में समान नहीं होता है, अतः समुचित वितरण हेतु नियोजन आवश्यक है।
- संसाधनों की बर्बादी पर रोक लगती है।
- पर्यावरण प्रदूषण मुक्त हो जाता है।
- वर्तमान में सभी को संसाधन प्राप्त होते हैं।
- संसाधनों को भावी पीढ़ियों के लिए बनाये रखा जा सकता है।
प्रश्न 6.
मृदा के निर्माण में शैलें किस प्रकार एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती हैं? संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
मृदा के निर्माण में शैलें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। शैलें अपने ही स्थान पर अपक्षय प्रक्रिया के अन्तर्गत टूटकर चूर्ण हो जाती हैं। इसमें वनस्पति तत्व मिलकर उपजाऊ मृदा का निर्माण कर देते हैं। इस प्रकार शैलें मृदा निर्माण का आधार प्रदान करती हैं।
प्रश्न 7.
लाल व पीली मृदा का निर्माण कैसे होता है? यह मृदा कहाँ पायी जाती है?
उत्तर:
लाल व पीली मृदा का निर्माण प्राचीन रवेदार आग्नेय चट्टानों के अपक्षय के कारण होता है। इन मृदाओं का लाल रंग रवेदार आग्नेय और रूपान्तरित चट्टानों में लौह धातु के प्रसार के कारण होता है। इनका पीला रंग इनमें जलयोजन के कारण होता है। लाल व पीली मृदा के क्षेत्र ये मृदाएँ ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी हिस्सों एवं पश्चिमी घाट के पहाड़ी भागों में पायी जाती हैं।
प्रश्न 8.
लेटराइट मृदा का निर्माण एवं उसकी महत्वपूर्ण विशेषताएँ बताइए।
अथवा
लेटराइट मृदा का विकास कहाँ होता है ? उसकी विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
लेटराइट मृदा का निर्माण/विकास:
लेटराइट मृदा उच्च तापमान एवं अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में विकसित होती है। यह भारी वर्षा से अत्यधिक निक्षालन का परिणाम है। लेटराइट मृदा की विशेषताएँ
- इस मृदा का निर्माण भारी वर्षा के कारण अत्यधिक निक्षालन से होता है।
- इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा कम पायी जाती है।
- इस मृदा में कृषि करने के लिए खाद एवं उर्वरकों की पर्याप्त मात्रा डालनी पड़ती है।
- यह मृदा चाय, कॉफी व काजू की फसल के लिए उपयुक्त है।
प्रश्न 9.
मरुस्थलीय मृदा की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
मरुस्थलीय मृदा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- इन मृदाओं का रंग लाल व भूरा होता है।
- ये मृदाएँ आमतौर पर रेतीली व लवणीय होती हैं।
- शुष्क जलवायु एवं वनस्पति की कमी के कारण इस मृदा में जलवाष्पन दर अधिक है।
- इस मृदा में ह्यूमस व नमी की मात्रा कम पायी जाती है।
- यह मृदा अनुपजाऊ होती है लेकिन इसे उपयुक्त तरीके से सिंचित करके कृषि योग्य बनाया जा सकता है।
प्रश्न 10.
चादर अपरदन और अवनलिका अपरदन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मृदा के कटाव और उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहते हैं। जब जल विस्तृत क्षेत्र को ढके हुए ढाल के साथ नीचे की ओर बहता है तो ऐसी स्थिति में उस क्षेत्र की ऊपरी मृदा जल के साथ बह जाती है। इसे चादर अपरदन कहा जाता है। कई बार तेजी से बहता हुआ जल नीचे की नरम मृदा को काटते-काटते गहरी नालियाँ बना देता है तो ऐसे अपरदन को अवनलिका अपरदन कहा जाता है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न (SA2)
प्रश्न 1.
संसाधनों को उनकी उत्पत्ति एवं समाप्यता के आधार पर वर्गीकृत कीजिए। प्रत्येक वर्ग का एक-एक उदाहरण भी दीजिए।
उत्तर:
उत्पत्ति के आधार पर संसाधनों को निम्नलिखित दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है
1. जैव (जैविक) संसाधन:
वे संसाधन जिनका जैवमण्डल में एक निश्चित जीवन चक्र होता है, जैव संसाधन कहलाते हैं। इन संसाधनों की प्राप्ति जैवमण्डल से होती है तथा इनमें जीवन व्याप्त होता है, जैसे-मनुष्य, वनस्पति जगत, प्राणि जगत आदि।
2. अजैव (अजैविक) संसाधन:
वे संसाधन जिनमें एक निश्चित जीवन-क्रिया का अभाव होता है और निर्जीव वस्तुओं से निर्मित होते हैं। अजैव संसाधन कहलाते हैं, जैसे-लोहा, सोना, चाँदी, कोयला व चट्टानें आदि।
समाप्यता के आधार पर संसाधनों को निम्नलिखित दो वर्गों में बाँटा जा सकता है
1. नवीकरण योग्य संसाधन:
वे समस्त संसाधन जिनको भौतिक, रासायनिक अथवा यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा नवीकृत अथवा पुनः उत्पन्न किया जा सकता है, नवीकरण योग्य संसाधन अथवा पुनः पूर्ति योग्य संसाधन कहलाते हैं, जैसे-जल, वन, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि।
2. अनवीकरण योग्य संसाधन:
वे समस्त संसाधन जिनको एक बार उपयोग में लेने के पश्चात् पुनः पूर्ति किया जाना सम्भव नहीं है, अनवीकरण योग्य संसाधन कहलाते हैं। इन संसाधनों का विकास एक लम्बे अन्तराल में होता है। इनको बनने में लाखों वर्ष लग जाते हैं, जैसे-खनिज तेल, कोयला, परमाणु-खनिज आदि।
प्रश्न 2.
स्वामित्व के आधार पर आप किस प्रकार संसाधनों का वर्गीकरण करेंगे?
अथवा
स्वामित्व के आधार पर चार प्रकार के संसाधनों की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
स्वामित्व के आधार पर संसाधनों को निम्नलिखित चार प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है
1. व्यक्तिगत संसाधन:
वे संसाधन जिन पर व्यक्तिगत स्वामित्व होता है, व्यक्तिगत संसाधन कहलाते हैं। जैसे-बाग, चारागाह, कुआँ, तालाब, भूखण्ड, घर, कार आदि।
2. सामुदायिक संसाधन:
ऐसे संसाधन जो समुदाय के सभी सदस्यों के लिए समान रूप से उपलब्ध होते हैं, सामुदायिक संसाधन कहलाते हैं, जैसे-खेल का मैदान, चारागाह, श्मशान-भूमि, तालाब.आदि।
3. राष्ट्रीय संसाधन:
वे सभी संसाधन जिन पर केन्द्र अथवा राज्य सरकार का नियंत्रण होता है, राष्ट्रीय संसाधन कहलाते हैं। देश की राजनीतिक सीमाओं के अन्तर्गत समस्त भूमि एवं 12 समुद्री मील दूर तक महासागरीय क्षेत्र एवं इसमें पाये जाने वाले संसाधनों पर सम्बन्धित राष्ट्र का स्वामित्व होता है।
4. अन्तर्राष्ट्रीय संसाधन:
इन संसाधनों को अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ नियन्त्रित करती हैं। तट रेखा से 200 समुद्री मील की दूरी (अपवर्जक आर्थिक क्षेत्र) से परे खुले महासागरीय संसाधनों पर किसी एक देश का अधिकार नहीं होता है। इन्हें बिना किसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की सहमति के कोई देश उपयोग नहीं कर सकता।
प्रश्न 3.
विकास के स्तर के आधार पर संसाधनों का वर्गीकरण कीजिए।
अथवा
संसाधनों को किस तरह उनके विकास की स्थिति के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित करते हैं? प्रत्येक वर्ग के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
विकास के स्तर (स्थिंति) के आधार पर संसाधनों को निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित कर सकते हैं
1. सम्भावी संसाधन:
किसी प्रदेश विशेष में समस्त विद्यमान संसाधन जिनका अब तक उपयोग नहीं किया गया है, सम्भावी संसाधन कहलाते हैं।
उदाहरण के लिए भारत के पश्चिमी क्षेत्र विशेषकर राजस्थान और गुजरात में सौर व पवन-ऊर्जा संसाधनों की अपार सम्भावना है परन्तु उनका सही ढंग से विकास नहीं हुआ है।
2. विकसित संसाधन:
वे समस्त संसाधन जिनका सर्वेक्षण किया जा चुका है एवं उनके उपयोग की गुणवत्ता व मात्रा का निर्धारण किया जा चुका है, विकसित संसाधन कहलाते हैं। संसाधनों का विकास प्रौद्योगिकी एवं उनकी सम्भाव्यता के स्तर पर निर्भर करता है। . उदाहरण-लोहा, कोयला, मैंगनीज आदि। . .
3. भंडार:
पर्यावरण में उपलब्ध वे समस्त पदार्थ जो मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं परन्तु उपयुक्त प्रौद्योगिकी के अभाव में उसकी पहुँच से बाहर हैं, भंडार में सम्मिलित किये जाते हैं, जैसे- भूतापीय ऊर्जा। इसके अतिरिक्त जल भी भण्डार की श्रेणी में सम्मिलित है। जल दो ज्वलनशील गैसों हाइड्रोजन व ऑक्सीजन का यौगिक है तथा यह ऊर्जा का प्रमुख स्रोत बन सकता है परन्तु इस उद्देश्य से इसका प्रयोग करने के लिए हमारे पास आवश्यक प्रौद्योगिकी ज्ञान उपलब्ध नहीं है।
4. संचित कोष:
भण्डार का वह हिस्सा जिसे तकनीकी ज्ञान की सहायता से उपयोग में लाया जा सकता है लेकिन जिसका उपयोग अभी तक प्रारम्भ नहीं किया गया है, संचित कोष कहलाता है।
उदाहरण-वन, बाँधों में जल आदि।
प्रश्न 4.
संसाधन क्यों महत्वपूर्ण हैं? संसाधनों के अविवेकपूर्ण उपयोग से किस तरह की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं?
उत्तर:
मनुष्य के जीवनयापन तथा जीवन की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए संसाधन महत्वपूर्ण हैं। संसाधन किसी भी प्रकार के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं परन्तु संसाधनों के अविवेकपूर्ण एवं अति उपयोग के कारण कई सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, जो निम्नलिखित हैं
- कुछ लोगों ने स्वार्थ के लिए संसाधनों का निर्ममतापूर्वक दोहन किया है जिसके फलस्वरूप वे समाप्त होने के कगार पर हैं।
- समाज में कुछ लोगों के हाथों में संसाधनों के जमा होने से समाज का दो वर्गों में विभाजन हो गया है-संसाधन सम्पन्न (अमीर) एवं संसाधन विहीन (गरीब)।
- संसाधनों के अविवेकपूर्ण शोषण से विभिन्न वैश्विक पारिस्थितिकी समस्याएँ, जैसे- भूमण्डलीय तापन, ओजोन परत का क्षरण, पर्यावरण प्रदूषण, भूमि निम्नीकरण आदि उभरकर सामने आयी हैं।
प्रश्न 5.
रियो-डी-जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन, 1992 की प्रमुख बातों को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
सन् 1992 में आयोजित रियो-डी-जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। उत्तर-रियो-डी-जेनेरो पृथ्वी सम्मेलन, 1992 की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं
- जून, 1992 में 100 से भी अधिक देशों के राष्ट्राध्यक्ष ब्राजील (दक्षिण अमेरिका) के शहर रियो डी-जेनेरो में प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय पृथ्वी सम्मेलन में एकत्रित हुए।
- इस सम्मेलन का आयोजन विश्व स्तर पर उभरते पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक एवं आर्थिक विकास की समस्याओं का हल ढूँढ़ने के लिए किया गया था।
- इस सम्मेलन में उपस्थि नेताओं ने भू-मण्डलीय जलवायु परिवर्तन एवं जैविक विविधता के एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किये थे।
- इस सम्मेलन में भूमंडलीय वन सिद्धान्तों पर सहमति हुई।
- 21 वीं शताब्दी में सतत् पोषणीय विकास के लिए एजेंडा 21 को स्वीकृति प्रदान की गयी। जिसका प्रमुख उद्देश्य भूमंडलीय सतत् पोषणीय विकास प्राप्त करना था। इस एजेंडे को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन के तत्वावधान में राष्ट्राध्यक्षों द्वारा स्वीकृति प्रदान की गयी थी।
प्रश्न 6.
एजेण्डा-21 से आप क्या समझते हैं?
अथवा
एजेण्डा-21 क्या है? इसके उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
जून, 1992 में 100 से अधिक देशों के राष्ट्राध्यक्षों का एक सम्मेलन ब्राजील के रियो-डी-जेनेरो शहर में अन्तर्राष्ट्रीय पृथ्वी सम्मेलन के नाम से हुआ। इस सम्मेलन का उद्देश्य विश्व स्तर पर उभरते पर्यावरणीय खतरों को रोकना एवं सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का हल ढूँढ़ना था। इसी सम्मेलन में एकत्रित नेताओं ने भू-मण्डलीय जलवायु परिवर्तन एवं जैविक-विविधता के एक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किये थे।
यही घोषणा पत्र एजेण्डा-21 के नाम से जाना जाता है। इस घोषणा पत्र का मुख्य उद्देश्य भू-मण्डलीय जलवायु परिवर्तन के खतरों को रोकना, जैविक-विविधता, पर्यावरण संरक्षण के लिए उपाय करना एवं भू-मण्डलीय सतत् पोषणीय विकास प्राप्त करना है। अतः एजेण्डा-21 एक विस्तृत कार्य सूची है जिसका उद्देश्य सभान हितों, पारस्परिक आवश्यकताओं एवं सम्मिलित जिम्मेदारियों के अनुसार विश्व सहयोग के साथ पर्यावरणीय क्षति, निर्धनता एवं बीमारियों से निपटना है।
प्रश्न 7.
संसाधन नियोजन से आप क्या समझते हैं? क्या भारत जैसे राष्ट्र को संसाधन नियोजन की आवश्यकता है? कारण बताइए।
उत्तर:
संसाधन नियोजन से तात्पर्य संसाधनों के न्यायसंगत वितरण एवं उनके विवेकपूर्ण उपयोग से है। हाँ, संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए नियोजन एक सर्वमान्य रणनीति है। भारत एक विशाल देश है, यहाँ विविध प्रकार के संसाधन मिलते हैं। अतः भारत को उसके संसाधनों की उपलब्धता में विविधता के कारण संसाधन नियोजन की आवश्यकता है। इसके कारण निम्नलिखित हैं
1. भारत में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ कुछ संसाधनों की प्रचुरता है जबकि अन्य प्रकार के संसाधनों की वहाँ कमी है। उदाहरण के लिए; राजस्थान में सौर व पवन-ऊर्जा की अपार संभावनाएँ हैं जबकि जल संसाधनों की पर्याप्त कमी है।
2. कुछ क्षेत्र संसाधनों की उपलब्धता के सन्दर्भ में आत्मनिर्भर हैं, जैसे-झारखण्ड, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्य खनिजों एवं कोयला के मामले में धनी हैं तथा अरुणाचल प्रदेश में जल संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, परन्तु यहाँ आधारभूत विकास का अभाव है, जिसके कारण संसाधन नियोजन की आवश्यकता है।
3. कुछ क्षेत्रों में आवश्यक संसाधनों की अत्यधिक कमी है। उदाहरण के लिए लद्दाख का शीत मरुस्थल देश के अन्य भागों से अलग-थलग है। यह प्रदेश सांस्कृतिक विरासत में धनी है लेकिन यहाँ पानी तथा आधारभूत संरचनाओं व कुछ महत्वपूर्ण खनिजों की कमी है। उपर्युक्त समस्त कारणों से राष्ट्रीय, प्रादेशिक एवं स्थानीय स्तर पर सन्तुलित संसाधन नियोजन की आवश्यकता है।
प्रश्न 8.
संसाधन नियोजन की प्रक्रिर का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
संसाधन नियोजन के विविध सोपानों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संसाधन नियोजन-संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए नियोजन एक सर्वमान्य रणनीति है। भारत जैसे विविधतापूर्ण संसाधनों वाले देश में यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। हमारे देश में राष्ट्रीय, प्रादेशिक एवं स्थानीय स्तर पर संसाधन नियोजन की आवश्यकता है। अतः संसाधनों के उपयुक्त उपयोग के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक संसाधन नियोजन कहलाती है।
संसाधन नियोजन की प्रक्रिया/सोपान:
राष्ट्रीय, प्रादेशिक एवं स्थानीय स्तर पर संसाधन नियोजन करना आसान कार्य नहीं है, यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें निम्नलिखित सोपान हैं
- देश के विभिन्न प्रदेशों में संसाधनों को पहचानकर उनकी तालिका बनाना, इस कार्य में क्षेत्रीय सर्वेक्षण, मानचित्र बनाना तथा संसाधनों का गुणात्मक व मात्रात्मक अनुमान लगाना एवं उनका मापन करना है।
- संसाधन विकास योजनाएँ लागू करने के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी, कौशल एवं संस्थागत नियोजन ढाँचा तैयार करना।
- संसाधन विकास योजनाओं तथा राष्ट्रीय विकास योजनाओं में समन्वय स्थापित करना। हमारे देश में स्वतन्त्रता के पश्चात् से ही संसाधन नियोजन के उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही प्रयास किये गये हैं।
प्रश्न 9.
संसाधनों के संरक्षण की क्या आवश्यकता है? इस सन्दर्भ में गाँधीजी के क्या विचार थे?
उत्तर:
हमें निम्नलिखित कारणों से संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता है
- पृथ्वी की सतह पर संसाधन सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं।
- तीव्र जनसंख्या वृद्धि, औद्योगीकरण, कृषि में आधुनिकीकरण एवं शहरीकरण के कारण संसाधनों की माँग में लगातार वृद्धि हो रही है। अतः संसाधनों के बढ़ते अति उपयोग के कारण पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।
- संसाधनों के अति उपयोग के कारण सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।
- हमारा जीवन, मिट्टी, जल, भूमि, वायु, वन, खनिज आदि पर निर्भर है। अतः हमें अपने अस्तित्व को बनाए रखने व अपनी प्रगति के लिए इन संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता है।
संसाधनों के संरक्षण के सम्बन्ध में गाँधीजी के विचार:
गाँधीजी ने संसाधनों के संरक्षण पर निम्नलिखित शब्दों में अपनी चिन्ता व्यक्त की, “हमारे पास हर व्यक्ति की आवश्यकता पूर्ति के लिए बहुत कुछ है लेकिन किसी के लालच की सन्तुष्टि के लिए नहीं अर्थात् हमारे पास पेट भरने के लिए बहुत कुछ है लेकिन पेटी भरने के लिए नहीं।” इस प्रकार गाँधीजी ने लालची एवं स्वार्थी व्यक्तियों तथा आधुनिक प्रौद्योगिकी की शोषक-प्रवृत्ति को वैश्विक स्तर पर संसाधनों के क्षय का मूल कारण माना है।
प्रश्न 10.
भू-उपयोग प्रारूप से आप क्या समझते हैं? भारत में भू-उपयोग को निर्धारित करने वाले कौन-कौन से कारक हैं?
उत्तर:
भू-उपयोग प्रारूप-भू-उपयोग प्रारूप से तात्पर्य भूमि का विभिन्न उद्देश्यों के लिए उपयोग की रूपरेखा है, जैसे-कृषि, पशुचारण, खनन, सड़क, रेल, भवन आदि का निर्माण। भारत में भू-उपयोग को निर्धारित करने वाले कारक निम्न हैं
1. भू-आकृति:
ऊपरी मृदा की परत वाली चट्टानी भूमि, तीव्र ढाल वाली भूमि, दलदली भूमि आदि कृषि के लिए उपयुक्त नहीं होती। सिंचित, उपजाऊ समतल भूमि का ही उपयोग विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के लिए किया जाता है।
2. जलवायु:
भारत का दोनों कटिबन्धों में विस्तार है। यहाँ उष्ण व शीतोष्ण, दोनों प्रकार की जलवायु पाये जाने के कारण वर्षभर फसलें उगायी जाती हैं। इस तरह की जलवायु ने हमारे देश की भूमि को उच्च कृषि उत्पादक एवं प्राकृतिक वनस्पति के विकास की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण बना दिया है।
3. मृदा के प्रकार:
भारत में विभिन्न प्रकार की मृदाएँ पाये जाने के कारण फसलों में भी विविधता दिखाई देती है।
4. मानवीय कारक:
मानवीय कारक, जैसे-जनसंख्या घनत्व, तकनीकी क्षमता, सांस्कृतिक परम्परा आदि ऐसे अन्य कारक हैं जो भूमि के उपयोग को निर्धारित करते हैं।
प्रश्न 11.
भारत में भूमि निम्नीकरण के लिए कौन-कौन से कारक उत्तरदायी हैं?
अथवा
भारत में भू-अपरदन के लिए उत्तरदायी किन्हीं चार कारणों की व्याख्या करें।
अथवा
किन्हीं चार मानव कार्यकलापों का उल्लेख करें जो भारत में भूमि निम्नीकरण के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं।
उत्तर:
भारत में भूमि निम्नीकरण (भू-अपरदन) के लिए उत्तरदायी चार मानवीय कार्यकलाप निम्नलिखित हैं
1. खनन:
खनन, भूमि निम्नीकरणं के लिए एक प्रमुख उत्तरदायी कारक है। जब खनिजों की खुदाई या निष्कर्षण कार्य समाप्त हो जाता है तो खदानों को खुला छोड़ दिया जाता है, जिससे भूमि का निम्नीकरण (अपरदन) प्रारम्भ हो जाता इस तरह की भूमि कृषि तथा अन्य आर्थिक गतिविधियों के लिए अनुपयुक्त हो जाती है। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा आदि राज्य इसके उदाहरण हैं। .
2. अत्यधिक सिंचाई:
अत्यधिक सिंचाई के कारण भी भूमि निम्नीकृत हो जाती है। इसमें जल के जमाव के कारण मृदा की लवणता व क्षारीयता में वृद्धि हो जाती है। पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अधिक सिंचाई भी भूमि निम्नीकरण का कारण बनी है।
3. अति पशुचारण:
एक लम्बे शुष्क-काल के दौरान पशुओं द्वारा घास की जड़ों तक को चर लिया जाता है जिससे मृदा नरम पड़ जाती है, जो भूमि निम्नीकरण का कारण बनती है। भारत के राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में अति पशुचारण भूमि निम्नीकरण का एक प्रमुख कारण है।
4. खनिज प्रक्रियाएँ:
खनिज प्रक्रियाएँ जैसे सीमेंट उद्योग में चूना-पत्थर को पीसना, मृदा बर्तन उद्योग में खड़िया, मिट्टी और सेलखड़ी के प्रयोग से अत्यधिक मात्रा में वायुमण्डल में धूल विसर्जित होती है। जब इसकी परत भूमि पर जम जाती है तो मृदा की जल सोखने की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है। यह भी मृदा निम्नीकरण का एक प्रमुख कारण है।
प्रश्न 12.
भूमि-निम्नीकरण को नियन्त्रित करने के उपाय सुझाइए।
अथवा
भू-निम्नीकरण की समस्या को किस तरह हल किया जा सकता है? कोई चार उपाय बताइए।
उत्तर:
भूमि एक महत्वपूर्ण संसाधन है। इस संसाधन का उपयोग हमारे पूर्वज प्राचीनकाल से करते आये हैं तथा भावी पीढ़ी भी इसी भूमि का उपयोग करेगी, हम अपनी मूल आवश्यकताओं का 95 प्रतिशत से अधिक भाग भूमि से प्राप्त करते हैं।
मानवीय क्रियाकलापों से न केवल भूमि का निम्नीकरण हो रहा है वरन् भूमि को हानि पहुँचाने वाली प्राकृतिक शक्तियों को भी बल मिला है। आज भूमि निम्नीकरण की समस्या का हल किया जाना अति आवश्यक है। भूमि-निम्नीकरण की समस्या को हल करने के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं
1.वृक्षारोपण:
वनस्पतियाँ भूमि को सुरक्षात्मक आवरण प्रदान करती हैं। वानस्पतिक आवरण के कारण पानी सीधा जमीन पर नहीं गिर पाता है। फलत: यह मिट्टी की उर्वरता को बनाये रखने में मदद करती हैं। वनारोपण भूमि निम्नीकरण की समस्या सुलझाने में बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है।
2. पेड़ों की रक्षक:
मेखला-पेड़ों की रक्षक-मेखला का निर्माण भी भूमि निम्नीकरण को कम करने में सहायक होता है।
3. रेतीले टीलों का स्थिरीकरण:
मरुस्थलीय क्षेत्रों में बालू के टीलों का स्थिरीकरण भी बहुत जरूरी है। यह कार्य काँटेदार पौधों को लगाकर किया जा सकता है।
4. औद्योगिक स्राव व कूड़े:
करकट की ठीक निकासी-उद्योगों से निकलने वाला गंदा पानी एवं अन्य वर्जनीय पदार्थ भूमि निम्नीकरण के मुख्य कारण हैं। इसलिए औद्योगिक कचरे व जल को संशोधित करने के पश्चात् ही विसर्जित करके जल और भूमि प्रदूषण कम किया जा सकता है।
प्रश्न 13.
जलोढ़ मृदा की प्रमुख विशेषताएँ कौन कौन-सी हैं?
अथवा
भारत के अधिकांश भू-भाग पर किस प्रकार की मृदा पायी जाती है? ऐसी मृदा की कोई चार विशेषताएँ लिखिए।
अथवा
भारत में कौन-सी मृदा सर्वाधिक विस्तृत रूप से फैली और महत्वपूर्ण है?
अथवा
जलोढ़ मृदा का निर्माण कैसे होता है? जलोढ़ मृदा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में अधिकांश भू-भाग पर जलोढ़ मृदा विस्तृत रूप में फैली हुई है। यह हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी तन्त्रों सिंधु, गंगा ब्रह्मपुत्र द्वारा लाए गए निक्षेपों से बनी है। पूर्वी तट के नदी डेल्टा भी जलोढ़ मृदा से बने हैं। जलोढ़ मृदा की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं
- जलोढ़ मृदा सबसे अधिक उपजाऊ और अधिक विस्तार वाली है। यह मृदा विस्तृत रूप से सम्पूर्ण उत्तरी भारत के मैदान में फैली हुई है।
- जलोढ़ मृदा में रेत, सिल्ट एवं मृत्तिका के विभिन्न अनुपात पाये जाते हैं।
- अधिकतर जलोढ़ मृदाएँ पोटाश, फास्फोरस व चूनायुक्त होती हैं।
- जलोढ़ बहाकर लाई गई मृदा है। यह मृदा नदियों द्वारा बहाकर लाये गये निक्षेपों से बनी है।
- कणों के आकार के अतिरिक्त जलोढ़ मृदा की पहचान उसकी आयु से भी होती है।
- आयु के आधार पर जलोढ़ मृदाएँ दो प्रकार की होती हैं। पुरानी जलोढ़ व नवीन जलोढ़।
- पुरानी जलोढ़ को ‘बांगर’ एवं नवीन जलोढ़ को ‘खादर’ कहते हैं। बांगर मृदा में कंकर ग्रन्थियों की मात्रा अधिक होती है।
- खादर मृदा में बांगर मृदा की तुलना में अधिक बारीक कण पाये जाते हैं।
- जलोढ़ मृदा में पेड़-पौधों का सड़ा-गला अंश (ह्यूमस) बहुत अधिक मात्रा में मिलता है।
- अधिक उपजाऊ होने के कारण जलोढ़ मृदा वाले क्षेत्रों में गहन कृषि की जाती है तथा यहाँ जनसंख्या घनत्व भी अधिक मिलता है।
- सूखे क्षेत्रों की जलोढ़ मृदाएँ अधिक क्षारीय होती हैं। इन मृदाओं का सही उपचार एवं सिंचाई करके इनकी पैदावार में वृद्धि की जा सकती है।
प्रश्न 14.
काली मृदा किन-किन क्षेत्रों में पायी जाती है? इसकी विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
काली मृदा का क्षेत्र-काली मृदा को ‘रेगर’ मृदा के नाम से भी जाना जाता है। काली मृदा कपास की खेती के लिए अधिक उपयुक्त समझी जाती है जिस कारण इसे काली कपास मृदा के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार की मृदा दक्कन पठार (बेसाल्ट) क्षेत्र के उत्तरी-पश्चिमी भागों में पायी जाती है तथा लाल जनक शैलों से बनी है।
ये मृदाएँ महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के पठार पर पायी जाती हैं तथा दक्षिण-पूर्वी दिशा में गोदावरी व कृष्णा नदियों की घाटियों तक फैली हुई हैं। काली मृदा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
- काली मृदा का निर्माण अत्यन्त बारीक मृत्तिका से होता है।
- इस मृदा में नमी धारण करने की क्षमता बहुत अधिक होती है।
- इस मृदा में कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश एवं चूना प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
- इस मृदा में फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है।
- गर्म व शुष्क मौसम में इस मृदा में दरारें पड़ जाती हैं, जिसके कारण इसमें वायु मिश्रित हो जाती है।
- गीली होने पर यह मृदा चिपचिपी हो जाती है।
- यह मृदा कपास की खेती के लिए बहुत उपयोगी है, इसलिए इसे काली कपासी मिट्टी भी कहा जाता है।
- इस मृदा का स्थानीय नाम रेगर (रेगड़) मृदा भी है।
प्रश्न 15.
मृदा क्षरण का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
मृदा अपरदन क्या है? इसके प्रकार भी बताइए।
उत्तर:
मृदा-क्षरण (मृदा-अपरदन)-प्राकृतिक कारकों द्वारा मृदा का कटाव एवं अपरदन कारकों द्वारा उसका स्थानान्तरण मृदा-क्षरण या मृदा-अपरदन कहलाता है। सामान्यतः मृदा के बनने एवं अपरदन की क्रियाएँ साथ-साथ चलती रहती हैं तथा दोनों में संतुलन बना रहता है।
प्राकृतिक तथा मानवीय कारकों द्वारा यह सन्तुलन बिगड़ जाता है। मृदा क्षरण/मृदा-अपरदन के प्रकार-मृदा-अपरदन में भाग लेने वाले कारकों व स्थिति के आधार पर मृदा क्षरण/मृदा-अपरदन को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है
1. जलीय अपरदन:
जल के विभिन्न रूपों, जैसे-नदियों, झीलों, हिमनदी, झरनों आदि के द्वारा जब मिट्टी का क्षरण होता है तो उसे जलीय-अपरदन कहते हैं। इनमें नदियाँ मृदा अपरदन की प्रमुख कारक हैं। नदियाँ मृदा-अपरदन इन दो रूपों में करती हैं।
(i) चादर अपरदन:
इसे तलीय अथवा परत क्षरण भी कहते हैं। तीव्र गति से प्रवाहित जल द्वारा मिट्टी की ऊपरी परत को काटकर बहा ले जाया जाता है, इसे चादर अपरदन कहते हैं। कई बार जल विस्तृत क्षेत्र को ढके हुए ढाल के साथ नीचे की ओर बहता है। ऐसी स्थिति में इस क्षेत्र की ऊपरी परत घुलकर जल के साथ बह जाती है।
(ii) अवनलिका अपरदन:
जब जल बहुत अधिक तीव्र गति से बहता हुआ लम्बवत् अपरदन द्वारा मिट्टी को कुछ गहराई तक काटकर बहा ले जाता है और छोटी-छोटी अवनलिकाओं का निर्माण हो जाता है तो उसे अवनलिका अपरदन कहा जाता है। ऐसी भूमि कृषि योग्य नहीं रह जाती है और उसे उत्खात भूमि के नाम से जाना जाता है। चम्बल बेसिन क्षेत्र में ऐसी भूमि को खड्ड भूमि कहा जाता है।
2. पवन-अपरदन:
पवन मृदा अपरदन का दूसरा महत्वपूर्ण कारक है। पवन द्वारा अपरदन मुख्यतः मरुस्थलीय एवं शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में होता है। इन भागों में जब पवन तीव्र गति से चलती है तो वह एक स्थान की मिट्टी को उड़ाकर दूसरे स्थान तक पहुँचा देती है। इस प्रकार पवन द्वारा मैदान अथवा ढालू क्षेत्र से मृदा को उड़ा ले जाने की प्रक्रिया को पवन अपरदन कहा जाता है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारत में पायी जाने वाली मृदाओं के प्रमुख प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत जैसे विशाल देश में कई प्रकार की मृदाएँ पाई जाती हैं, जो निम्नलिखित हैं
1. जलोढ़ मदा:
भारत के विशाल उत्तरी मैदानों में नदियों द्वारा पर्वतीय प्रदेशों से बहाकर लायी गयी जीवाश्मों से युक्त उर्वर मिट्टी मिलती है जिसे काँप अथवा कछारी मिट्टी भी कहते हैं। यह मिट्टी हिमालय पर्वत से निकलने वाली तीन प्रमुख नदियों-सतलज, गंगा, ब्रह्मपुत्र तथा इनकी सहायक नदियों द्वारा बहाकर लाई एवं अवसाद के रूप में जमा की गई है। जलोढ़ मिट्टी पूर्व-तटीय मैदानों विशेषकर महानदी, गोदावरी, कृष्णा व कावेरी नदियों के डेल्टाई प्रदशों में भी मिलती है।
जिन क्षेत्रों में बाढ़ का जल नहीं पहुँच पाता है वहाँ पुरातन जलोढ़ मिट्टी पायी जाती है जिसे ‘बांगर’ कहा जाता है। वास्तव में यह मिट्टी भी नदियों द्वारा बहाकर लायी गयी प्राचीन काँप मिट्टी ही है। इसके साथ ही जिन क्षेत्रों में नदियों ने नवीन काँप मिट्टी का जमाव किया है, उसे नवीन जलोढ़ या ‘खादर’ के नाम से जाना जाता है। अधिक उपजाऊ होने के कारण जलोढ़ मृदा वाले क्षेत्रों में गहन कृषि की जाती है तथा यहाँ जनसंख्या का घनत्व भी अधिक मिलता है।
2. काली या रेगर मृदा:
इस मृदा को रेगर मृदा के नाम से भी जाना जाता है। इस मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी क्रिया द्वारा लावा के जमने एवं फिर उसके विखण्डन के फलस्वरूप हुआ है। इस मिट्टी में कपास की खोती अधिक होती है इसलिए इसे काली कपास मृदा भी कहा जाता है। इस मिट्टी में नमी को धारण करने की क्षमता अधिक होती है। इसमें लोहांश, कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश व चूना आदि तत्वों की मात्रा अधिक होती है। इस प्रकार की मृदा दक्कन पठारी क्षेत्र के उत्तरी-पश्चिमी भागों, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठारी क्षेत्रों में पाई जाती है।
3. लाल व पीली मृदा:
इस प्रकार की मृदा का विस्तार ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा मैदान के दक्षिणी छोर एवं पश्चिमी घाट की पहाड़ियों व दक्कन पठार के पूर्वी व दक्षिणी हिस्सों में पाया जाता है।
इन मृदाओं का लाल रंग रवेदार, आग्नेय एवं रूपान्तरित चट्टानों में लौह धातु के प्रसार के कारण तथा पीला रंग जलयोजन के कारण होता है।
4. लेटराइट मृदा:
इस प्रकार की मृदा उच्च तापमान एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में विकसित होती है। इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा कम पायी जाती है। भरत में इस मृदा का विस्तार महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट क्षेत्रों, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के कुछ भागों, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल एवं उत्तरी-पूर्वी राज्यों में मिलता है। इस मृदा में अधिक मात्रा में खाद व रासायनिक उर्वरक डालकर ही खेती की जा सकती है।
5. मरुस्थलीय मृदा:
इस मृदा का रंग लाल व भूरा होता है। यह मृदा रेतीली व लवणीय होती है। यह मृदा शुष्क जलवायविक दशाओं में पायी जाती है। शुष्क जलवायु और उच्च तापमान के कारण जल वाष्पन की दर अधिक होती है। इस मृदा में ह्यूमस व नमी की मात्रा कम होती है। राजस्थान व गुजरात राज्य में इस मृदा का विस्तार पाया जाता है। इस मृदा को सिंचित करके कृषि योग्य बनाया जा सकता है।
6. वन मदा:
इस प्रकार की मृदा का विस्तार पर्वतीय क्षेत्रों में मिलता है। नदी घाटियों में ये मदाएँ दोमट व सिल्टदार होती हैं परन्तु ऊपरी ढालों पर इनका गठन मोटे कणों द्वारा होता है। हिमाच्छादित क्षेत्रों में इस मृदा की प्रकृति अम्लीय होती है तथा इसमें ह्यूमस की मात्रा भी नहीं होती है। नदी-घाटियों के निचले भागों में विशेषकर नदी सोपानों एवं जलोढ़ परतों आदि में यह मृदा बहुत अधिक उपजाऊ होती है।
प्रश्न 2.
मृदा अपरदन के कारण एवं इसके संरक्षण के उपाय लिखिए।
उत्तर:
मृदा अपरदन के कारण-मृदा अपदरन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- कृषि के गलत तरीकों से मृदा अपरदन होता है। गलत ढंग से हल चलाने जैसे ढाल पर ऊपर से नीचे हल चलाने से वाहिकाएँ बन जाती हैं, जिसके अन्दर से बहता पानी आसानी से मृदा का कटाव करता है।
- शुष्क व बलुई क्षेत्रों में तीव्र हवा मृदा अपरदन का प्रमुख कारण है। खुली तथा ढीली बलुई मृदा की ऊपरी परत को पवन आसानी से उड़ा ले जाती है।
- पेड़ों की अविवेकपूर्ण तरीके से कटाई से मृदा भी शीघ्र अपरदित होना प्रारम्भ हो जाती है।
- वनोन्मूलन के कारण बार-बार बाढ़ें आती हैं जो मृदा को हानि पहुँचाती हैं।
- खनन एवं निर्माण कार्य भी मृदा को अपरदित करने में सहायता प्रदान करते हैं।
मृदा संरक्षण के उपाय:
मिट्टी एक आधारभूत प्राकृतिक संसाधन है। यह धरातल पर निवास करने वाले मानव व जीव-जन्तुओं के जीवन का आधार है। आज मिट्टी का अवशोषण विभिन्न तरीकों से हुआ है इसलिए बहुत-से क्षेत्रों में मिट्टियाँ नष्ट हो गयी हैं और कुछ नष्टप्राय हैं।
मिट्टी एक ऐसा संसाधन है जो नव्यकरणीय है, इसे बचाया जा सकता है। इसे सतत् उपयोग में लाया जा सकता है और इसमें गुण वृद्धि की जा सकती है। अतएव मृदा संरक्षण आवश्यक है। मृदा संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं
1. समोच्च रेखीय जुताई:
ढाल वाली कृषि भूमि पर समोच्च रेखाओं के समानांतर हल चलाने से ढाल के साथ जल बहाव की गति घटती है। इसे समोच्च रेखीय जुताई कहा जाता है। यह मृदा संरक्षण का प्रभावी उपाय है।
2. सोपानी कृषि:
इसे सीढ़ीदार कृषि भी कहते हैं। इस प्रकार की कृषि में पहाड़ी ढलानों को काटकर कई चौड़ी सीढ़ियाँ बना दी जाती हैं। ये सीढ़ियाँ मृदा अपरदन को रोकती हैं। पश्चिमी एवं मध्य हिमालय क्षेत्र में इस प्रकार की कृषि बहुत अधिक की जाती है।
3. पट्टी कृषि:
इस प्रकार की कृषि में बड़े-बड़े खेतों को पट्टियों में बाँट दिया जाता है। फसलों के बीच में घास की पट्टियाँ उगायी जाती हैं। ये पवनों द्वारा जनित बल को कमजोर करती हैं।
4. रक्षक मेखला:
पेड़ों को कतारों में लगाकर रक्षक मेखला बनाना भी पवनों की गति को कम करता है। इन रक्षक पट्टियों का पश्चिमी भारत में रेत के टीलों के स्थायीकरण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इनके अतिरिक्त अनियन्त्रित पशुचारण व स्थानान्तरित कृषि पर प्रतिबन्ध, फसल-चक्र, पड़त-कृषि, बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का प्रबन्धन, जल-प्रबन्धन, बहु फसली कृषि, नये वन क्षेत्रों का विकास एवं उजड़े वनों का पुनः रोपण, अवनलिका नियन्त्रण एवं प्रबन्धन द्वारा भी मृदा-संरक्षण किया जा सकता है।
तालिका सम्बन्धी प्रश्न
प्रश्न 1.
संसाधनों का वर्गीकरण एक तालिका के रूप में प्रदर्शित कीजिए।
उत्तर: