JAC Board Class 10th Social Science Notes Geography Chapter 1 संसाधन एवं विकास
पाठ सारांश
- हमारे पर्यावरण में पाये जाने वाला ऐसा पदार्थ अथवा तत्व जिसमें मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता हो, संसाधन कहलाता है।
- मानव स्वयं संसाधनों का एक महत्वपूर्ण भाग है। वह पर्यावरण में पाए जाने वाले पदार्थों को संसाधनों में परिवर्तित कर उनका उपयोग करता है।
- संसाधनों को उनकी उत्पत्ति, समाप्यता, स्वामित्व एवं विकास के स्तर के आधार पर निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है
(अ) उत्पत्ति के आधार पर:
- जैव संसाधन, (मनुष्य, वनस्पतिजात, प्राणीजात आदि),
- अजैव संसाधन (चट्टानें व धातुएँ आदि)।
(ब) समाप्यता के आधार पर:
- नवीकरण योग्य, (सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल, वन तथा वन्य जीवन आदि)
- अनवीकरण योग्य (खनिज व जीवाश्म ईंधन आदि)।
(स) स्वामित्व के आधार पर:
- व्यक्तिगत (भूमि, घर, बाग, चरागाह, तालाब व कुआँ आदि),
- सामुदायिक (चारण भूमि, श्मशान भूमि, खेल के मैदान व पिकनिक स्थल आदि),
- राष्ट्रीय (सड़कें, नहरें, रेल लाइनें, – खनिज पदार्थ, जल संसाधन आदि),
- अन्तर्राष्ट्रीय (तट रेखा से 200 समुद्री मील की दूरी से परे खुले महासागरीय संसाधन आदि)।
(द) विकास के स्तर के आधार पर:
- संभावी, (राजस्थान व गुजरात में पवन और सौर ऊर्जा की संभावना),
- विकसित (सर्वेक्षण के बाद उपयोग की गुणवत्ता व मात्रा का निर्धारण करने वाले संसाधन),
- भंडार (हाइड्रोजन ऊर्जा),
- संचित कोष (बाँधों में जल व वन आदि)
- संसाधन मानव के जीवनयापन के साथ-साथ जीवन की गुणवत्ता बनाये रखने के लिए भी अति आवश्यक हैं।
- मानव ने संसाधनों को प्रकृति की देन समझकर उनका अंधाधुंध उपयोग किया है जिससे अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं, जिनमें पर्यावरण-प्रदूषण, भूमि-निम्नीकरण, भूमंडलीय-तापन व ओजोन-परत का क्षय आदि प्रमुख हैं।
- विश्व स्तर पर उभरते पर्यावरण संरक्षण एवं सामाजिक-आर्थिक विकास की समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने के लिए जून, 1992 में ब्राजील के रियो-डी-जेनेरो नामक शहर में प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय पृथ्वी-सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें 100 से भी अधिक देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया।
- संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए उनका उचित प्रकार से नियोजन आवश्यक है।
- 1968 ई. में ‘क्लब ऑफ रोम’ ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्थित तरीके से संसाधन संरक्षण की वकालत की।
- भारत में भूमि पर पर्वत, पठार, मैदान तथा द्वीप जैसी विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियाँ पाई जाती हैं।
- भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.8 लाख वर्ग किमी. है लेकिन वर्तमान में इसके 93 प्रतिशत भाग के ही भू-उपयोग सम्बन्धी आँकड़े उपलब्ध हैं।
- भारत की राष्ट्रीय वन नीति, 1952 द्वारा निर्धारित वनों के तहत 33 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र वांछित है जो पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाए रखने हेतु जरूरी है।
- भारत में संसाधनों के नियोजन के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही प्रयास किये जा रहे हैं।
- एक लम्बे समय तक निरन्तर भूमि संरक्षण एवं प्रबन्ध की अवहेलना तथा निरन्तर भू-उपयोग के कारण भू-संसाधनों का निम्नीकरण हो रहा है जो एक गम्भीर समस्या है।
- वनारोपण, चारागाहों का उचित प्रबंधन, पशुचारण नियंत्रण एवं खनन नियंत्रण आदि द्वारा भूमि निम्नीकरण की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
- मनुष्य की समस्त प्रारम्भिक आवश्यकताओं का आधार मृदा संसाधन है। मृदा जैव और अजैव दोनों प्रकार के पदार्थों से बनती है। खनिज व जैव-पदार्थों का प्राकृतिक सम्मिश्रण है।
- भारत में उच्चावच, भू-आकृतियाँ, जलवायु एवं वनस्पति की विविधता के कारण अनेक प्रकार की मृदाओं का विकास हुआ है जो निम्नलिखित हैं
- जलोढ़ मृदा
- काली मृदा
- लेटराइट मृदा
- लाल व पीली मृदा
- मरुस्थलीय मृदा
- वन मृदा।
- जलोढ़ मृदा देश की सबसे महत्वपूर्ण मृदा है। यह बहुत उपजाऊ होती है।
- काली मृदा कपास की खेती के लिए प्रसिद्ध है।
- मृदा अपरदन, मृदा की सबसे महत्वपूर्ण समस्या है। इससे मृदा की उर्वर-शक्ति का निरन्तर ह्रास होता रहता है।
- मृदा के संरक्षण हेतु कई उपाय किये जा सकते हैं, जिनमें समोच्च रेखीय जुताई, पट्टीनुमा कृषि, सीढ़ीदार कृषि आदि प्रमुख हैं।
- पर्यावरण की पुनर्स्थापना के लिए लोगों द्वारा इसका प्रबन्धन आवश्यक है। सुखोमाजरी गाँव एवं झबुआ जिले में इस प्रकार का कार्य हुआ है। वहाँ के लोगों ने भूमि निम्नीकरण प्रक्रिया को समाप्त कर दिखाया है।
→ प्रमुख पारिभाषिक शब्दावली
1. संसाधन: हमारे पर्यावरण में उपलब्ध वे समस्त दार्थ या तत्व जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने में प्रयोग किये जाते हैं और जिनका उपयोग करने के लिए तकनीकी 7 उपलब्ध है, जो आर्थिक रूप से संभाव्य एवं सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य हैं, संसाधन कहलाते हैं।
2. जैव संसाधन: वे संसाधन जिनका जैवमण्डल में एक निश्चित जीवन-चक्र होता है, जैव संसाधन (जैविक संसाध न) कहलाते हैं, जैसे-वनस्पति, मनुष्य, पशु-पक्षी, छोटे जीव, वन्य-प्राणी, मछली आदि।
3. अजैव संसाधन: वें संसाधन जिनमें एक निश्चित जीवन-क्रिया का अभाव होता है अर्थात् निर्जीव वस्तुओं से बने होते हैं, अजैव संसाधन कहलाते हैं, जैसे-लोहा, सोना, चाँदी, कोयला, चट्टानें आदि।
4. नवीकरण योग्य संसाधन: वे समस्त संसाधन जिनको भौतिक, रासायनिक अथवा यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा नवीकृत या पुनः उत्पन्न किया जा सकता है, नवीकरण योग्य संसाधन कहलाते हैं। उन्हें पुनः पूर्ति योग्य संसाधन भी कहा जाता है, जैसे-सौर-ऊर्जा, पवन-ऊर्जा, जल, वन, कृषि आदि।
5. अनवीकरण योग्य संसाधन: वे समस्त संसाधन जिनको एक बार उपयोग में लेने के पश्चात् पुनः पूर्ति किया जाना सम्भव नहीं है, अनवीकरण योग्य संसाधन कहलाते हैं। ये संसाधन सीमित मात्रा में होते हैं, जैसे-कोयला, खनिज तेल, यूरेनियम, प्राकृतिक गैस आदि।
6. प्राकृतिक संसाधन: प्रकृति से प्राप्त विभिन्न पदार्थ या तत्व जिनका कोई मानवीय उपयोग होता है, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं, जैसे-सूर्य का प्रकाश, खनिज, धरातल, मिट्टी, जल, वायु व वनस्पति। ये संसाधन प्रकृति द्वारा मनुष्य को दिए गए निःशुल्क उपहार हैं।
7. मानवीय संसाधन: मानव द्वारा विकसित किए गए संसाधन, मानवीय संसाधन कहलाते हैं, जैसे-भवन, गाँव, स्वास्थ्य, शिक्षा, मशीन, उद्योग, सड़क आदि।
8. संभावी संसाधन: किसी प्रदेश विशेष में वे समस्त विद्यमान संसाधन जिनका अब तक उपयोग नहीं किया गया है, संभावी संसाधन कहलाते हैं।
9. विकसित संसाधन: वे समस्त संसाधन जिनका सर्वेक्षण किया जा चुका है एवं उनके उपयोग की गुणवत्ता व मात्रा का निर्धारण किया जा चुका है, विकसित संसाधन कहे जाते हैं।
10. भंडार: हमारे पर्यावरण में उपलब्ध वे समस्त पदार्थ जो मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं परन्तु उपयुक्त प्रौद्योगिकी के अभाव में पहुँच से बाहर हैं, भंडार में सम्मिलित किये जाते हैं।
11. संचित कोष: भण्डार का वह हिस्सा जिसे तकनीकी ज्ञान की सहायता से उपयोग में लाया जा सकता हैं लेकिन जिसका प्रयोग अभी तक आरम्भ नहीं किया गया है, संचित-कोष कहलाता है।
12. पुनःचक्रीय संसाधन: ऐसे संसाधन जिनका उपयोग बार-बार किया जा सकता है, पुनः चक्रीय संसाधन कहलाते हैं, जैसे-लोहा, सोना, चाँदी आदि धातुएँ । इन धातुओं को बार-बार पिघलाकर विभिन्न रूपों में उपयोग किया जा सकता है।
13. अचक्रीय संसाधन: ऐसे संसाधन जिनका उपयोग बार-बार नहीं किया जा सकता, अचक्रीय संसाधन कहलाते हैं, जैसे-जीवाश्म ईंधन, कोयला, खनिज-तेल, प्राकृतिक गैस आदि संसाधन एक बार प्रयोग कर लेने के पश्चात् समाप्त हो जाते हैं।
14. सतत् पोषणीय विकास: सतत् पोषणीय विकास पर्यावरण को बिना हानि पहुँचाए किया जाने वाला विकास है। इसमें वर्तमान विकास प्रक्रिया का निर्धारण भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाता है।
15. संसाधन नियोजन: संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए सर्वमान्य रणनीति को संसाधन नियोजन कहते हैं।
16. संसाधन संरक्षण: प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का अर्थ है-उनका नियोजित एवं विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग करना ताकि हमें अपने संसाधनों का एक लम्बे समय तक पर्याप्त लाभ प्राप्त हो सके।
17. परती भूमि: वह भूमि जिस पर एक या अधिक ऋतुओं में कृषि नहीं की मई हो ताकि उसकी उर्वरता बढ़ सके, परती भूमि कहलाती है।
18. बंजर भूमि: भूमि का वह भाग जिसका कोई उपयोग नहीं होता है, बंजर भूमि कहलाती है।
19. शुद्ध (निवल) बोया गया क्षेत्र: एक कृषि वर्ष में कुल बोया गया क्षेत्र, शुद्ध (निवल) बोया गया क्षेत्र कहलाता
20. चारागाह: घास उत्पन्न करने वाली वह भूमि जिसका उपयोग पशुओं को चराने के लिए किया जाता है।
21. सकल कृषित क्षेत्र: एक कृषि वर्ष में एक बार से अधिक बोए गए क्षेत्र को शुद्ध .(निवल) बोए गए क्षेत्र में जोड़ देना सकल कृषित क्षेत्र कहलाता है।
22. भूमि निम्नीकरण: मानवीय क्रिया-कलापों के कारण भूमि की गुणवत्ता का कम हो जाना भूमि निम्नीकरण कहलाता है।
23. रक्षक मेखला: फसलों के बीच में वृक्षों की कतारें लगाना रक्षक मेखला कहलाता है।
24. मृदा: पृथ्वी की भूपर्पटी की वह सबसे ऊपरी परत जो बारीक विखण्डित चट्टान चूर्ण से बनी होती है और पेड़-पौधों के लिए उपयोगी होती है, मृदा कहलाती है।
25. बांगर: पुरानी जलोढ़ मृदा। इस प्रकार की मृदा में कंकर ग्रन्थियों की मात्रा अधिक होती है।
26. खादर: नवीन जलोढ़ मृदा। इस प्रकार की मृदा में बांगर मृदा की तुलना में अधिक बारीक कण पाये जाते हैं।
27. मृदा अपरदन: मृदा के कटाव एवं उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहते हैं।
28. उत्खात: भूमि-ऐसी भूमि जो अवनलिकाओं के कारण कृषि योग्य नहीं रहती, उत्खात भूमि कहलाती है।
29. खड्ड-भूमि: चम्बल नदी के बेसिन में उत्खात भूमि को खड्ड-भूमि कहा जाता है।
30. चादर अपरदन: जब बहते हुए जल के साथ विस्तृत क्षेत्र की मृदा की ऊपरी परत बह जाती है तो उसे चादर अपरदन कहते हैं।
31. अवनलिका अपरदन: जब बहता हुआ जल मृत्तिकायुक्त मृदाओं को काटते हुए गहरी वाहिकाएँ बनाता है तो उन्हें अवनलिका अपरदन कहते हैं।
32. पवन अपरदन: पवन द्वारा मैदानी अथवा ढालू क्षेत्र से मृदा को उड़ा ले जाने की क्रिया पवन अपरदन कहलाती है।
33. समोच्च जुताई: ढोल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के समानान्तर हल चलाने को समोच्च जुताई कहते हैं।
34. पट्टी कृषि: बड़े खेतों को पट्टियों में बाँटकर उनके बीच में फसल उगाई जाती है तथा पट्टियों में घास उगायी जाती है जिससे पवन के वेग का प्रभाव फसलों पर नहीं पड़ता। इस प्रकार से की जाने वाली कृषि को पट्टी कृषि कहते हैं।
35. निक्षालन: निक्षालन मृदा अपरदन की एक प्रक्रिया है जिसमें मृदा के तत्व भारी वर्षा के कारण बह जाते हैं।