Jharkhand Board JAC Class 11 History Solutions Chapter 4 इस्लाम का उदय और विस्तार-लगभग 570-1200 ई. Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 11 History Solutions Chapter 4 इस्लाम का उदय और विस्तार-लगभग 570-1200 ई.
Jharkhand Board Class 11 History इस्लाम का उदय और विस्तार-लगभग 570-1200 ई. In-text Questions and Answers
पृष्ठ 86
क्रियाकलाप 1: खिलाफत की बदलती हुई राजधानियों की पहचान करिए। आपके अनुसार सापेक्षिक तौर पर इनमें से कौनसी केन्द्र में स्थित थी ?
उत्तर:
पैगम्बर साहब हजरत मुहम्मद की मृत्यु के बाद प्रथम तीन खलीफाओं, अबू बकर, उमर और उथमान ने मदीना को अपनी राजधानी बनाया। चौथे खलीफा अली ने अपने को ‘कुफा’ नगर में स्थापित कर लिया। उमय्यद वंश के प्रथम खलीफा मुआविया ने दमिश्क को अपनी राजधानी बनाया। अब्बासी वंश के खलीफाओं ने बगदाद को अपनी राजधानी बनाया। समारा दूसरी अब्बासी राजधानी थी। 750 ई. में एक अन्य शिया राजवंश फातिमी ने ‘फातिमी खिलाफत’ की स्थापना की। फातिमी राजवंश के खलीफाओं ने काहिरा को अपनी राजधानी बनाया। इनमें से बगदाद सापेक्षिक तौर पर केन्द्र में स्थित थी।
पृष्ठ 93.
‘क्रियाकलाप – 2 : बसरा में सुबह के एक दृश्य का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
खलीफाओं के समय में बसरा में सुबह का एक दृश्य – प्रातः काल से ही बसरा में लोगों की गतिविधियाँ शुरू हो गई थीं। बसरा के इस्लाम धर्मावलम्बी मस्जिद में नमाज पढ़ रहे थे। व्यापारी लोग नाव द्वारा अपने सामान को ले जाने के लिए तैयारी कर रहे थे। एक नाव बसरा की ओर जा रही थी जिसके नाविक भारतीय थे तथा यात्री अरबी। कुछ लोग बाजार से हरी सब्जियाँ तथा फल आदि खरीद रहे थे।
पृष्ठ 98
क्रियाकलाप 3 : दाईं ओर दिये गए उद्धरण पर टिप्पणी कीजिए। क्या आज के विद्यार्थी के लिए यह प्रासंगिक होगा?
उत्तर:
बारहवीं शताब्दी के बगदाद में कानून और चिकित्सा के विषयों के विद्वान अब्द अल लतीफ ने अपने आदर्श विद्यार्थी को उपदेश देते हुए कहा है कि उसे प्रत्येक विषय के ज्ञान के लिए अपने अध्यापकों का सहारा लेना चाहिए। उसे केवल पुस्तकों से ही विज्ञान नहीं सीखना चाहिए। उसे अपने अध्यापकों का आदर करना चाहिए। उसे पुस्तक को कण्ठस्थ कर लेना चाहिए और पुस्तक के अर्थ को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। उसे इतिहास की पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए। उसे पैगम्बर की जीवनी को पढ़ना चाहिए और उनके पद- चिह्नों पर चलना चाहिए। अध्ययन और चिन्तन-मनन पूरा करने के बाद खुदा के नाम का स्मरण करना चाहिए और उसका गुणगान करना चाहिए।
उपर्युक्त उद्धरण में बताई गई बातें आज के लिए काफी सीमा तक प्रासंगिक हैं। आदर्श विद्यार्थी के लिए गहन अध्ययन करना, अध्यापकों का सम्मान करना, इतिहास, जीवनियों और राष्ट्रों के अनुभवों का अध्ययन करना, अल्लाह (ईश्वर) के गुण-गान करना आदि बातें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा प्रासंगिक हैं । परन्तु यह बात प्रासंगिक नहीं है कि केवल पुस्तकों और अध्यापकों से ही ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। आज हम दूरसंचार के साधनों से उच्च कोटि का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और अपनी जटिल समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। दूसरे, पुस्तक को कंठस्थ करना भी प्रासंगिक नहीं है।
पृष्ठ 103
क्रियाकलाप 4 : इस अध्याय के कौनसे चित्र आपको सबसे अच्छे लगे और क्यों ?
उत्तर:
मुझे इस अध्याय के 1233 ई. में स्थापित मुस्तनसिरिया मदरसे के आँगन का चित्र तथा फिलिस्तीन के खिरबत-अल-मफजर महल के स्नान गृह के फर्श का चित्र सबसे अच्छे लगे हैं। मुस्तनसिरिया मदरसे का चित्र तत्कालीन इस्लामी वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। इससे इस्लामी राज्य में शिक्षा की स्थिति और उन्नति पर प्रकाश पड़ता है। फिलिस्तीन के खिरबत – अल-मफजर महल के स्नानगृह का चित्र बड़ा सुन्दर और आकर्षक है। इस पर सुन्दर पच्चीकारी की गई है। नीचे दिए गए दृश्य में शान्ति व युद्ध का चित्रण किया गया है जो तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश डालता है।
Jharkhand Board Class 11 History इस्लाम का उदय और विस्तार-लगभग 570-1200 ई. Text Book Questions and Answers
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
सातवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में बेदुइयों के जीवन की क्या विशेषताएँ थीं?
उत्तर:
सातवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में बेदुइयों के जीवन की विशेषताएँ –
(1) सातवीं शताब्दी में अरब के लोग विभिन्न कबीलों में बँटे हुए थे। प्रत्येक कबीले का नेतृत्व एक शेख द्वारा किया जाता था।
(2) अनेक अरब कबीले खानाबदोश या बद्दू अर्थात् बेदुइन होते थे। ये लोग खजूर आदि खाद्य पदार्थों तथा अपने ऊँटों लिए चारे की तलाश में रेगिस्तान के सूखे क्षेत्रों से हरे-भरे क्षेत्रों की ओर जाते रहते थे।
(3) कुछ बदू शहरों में बस गए थे और व्यापार अथवा खेती का काम करने लगे थे।
(4) खलीफा के सैनिकों में अधिकतर बेदुइन थे। वे रेगिस्तान के किनारों पर बसे शहरों जैसे कुफा और बसरा में शिविरों में रहते थे। वे अपने प्राकृतिक आवास-स्थलों के निकट और खलीफा की कमान के अन्तर्गत बने रहना चाहते थे।
(5) बद्दू लोगों के अपने देवी तथा देवता थे जिनकी पूजा बुतों (सनम) के रूप में मस्जिदों में की जाती थी।
प्रश्न 2.
‘अब्बासी क्रान्ति’ से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
अब्बीसी क्रांति – अब्बासी लोग मक्का के निवासी तथा पैगम्बर मुहम्मद के चाचा अब्बास के वंशज थे उनका विद्रोह खुरासान ( पूर्वी ईरान) के बहुत दूर स्थित क्षेत्र में शुरू हुआ था। खुरासान में अरब सैनिक अधिकांशतः इराक से आए थे और वे सीरियाई लोगों के प्रभुत्व से नाराज थे। खुरासान के अरब नागरिक उमय्यद शासन से इसलिए असन्तुष्ट थे क्योंकि उन्होंने करों में रियायतें देने तथा विशेषाधिकार देने के जो वचन दिये थे, वे पूरे नहीं किए थे।
ईरानी लोग उमय्यद शासन से इसलिए नाराज थे कि उन्हें अरबों के तिरस्कार का शिकार होना पड़ा था और वे भी उमय्यद वंश की सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते थे। 750 ई. में अब्बासी वंश ने, उमय्यद वंश के शासन को समाप्त कर, सत्ता पर अधिकार कर लिया। उन्होंने यह आश्वासन दिया कि वे पैगम्बर मुहम्मद साहब के मूल इस्लाम की पुनर्स्थापना करेंगे। इसी को अब्बासी क्रांति कहते हैं। इस क्रांति से वंश परिवर्तन के साथ-साथ इस्लाम के राजनैतिक ढाँचे तथा उनकी संस्कृति में भी परिवर्तन हुए।
प्रश्न 3.
अरबों, ईरानियों व तुर्कों द्वारा स्थापित राज्यों की बहुसंस्कृतियों के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
अरबों द्वारा स्थापित राज्य में मुसलमान, ईसाई, यहूदी, ईरानी, तुर्क आदि संस्कृतियों के लोग रहते थे। ईरानी साम्राज्य में भी अरब, ईरानी आदि संस्कृतियों का विकास हुआ। अब्बासी शासन के अन्तर्गत अरबों के प्रभाव में कमी आई तथा रानी संस्कृति का महत्त्व बढ़ गया। अब्बासियों ने अपनी राजधानी प्राचीन ईरानी महानगर टेसीफोन के निकट बगदाद में स्थापित की। अब्बासी शासकों ने खिलाफत की धार्मिक स्थिति और कार्यों को मजबूत बनाया और इस्लामी संस्थाओं तथा विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया।
नौवीं शताब्दी में अब्बासी राज्य कमजोर हो गया क्योंकि सेना और नौकरशाही में अरब – समर्थक तथा ईरान- समर्थक गुटों का आपस में झगड़ा हो गया। 950 से 1200 के मध्य इस्लामी समाज किसी एकल राजनीतिक व्यवस्था अथवा किसी संस्कृति की एकल भाषा (अरबी) से नहीं, बल्कि सामान्य आर्थिक और सांस्कृतिक प्रतिरूपों से संगठित बना रहा। अब इस्लामी संस्कृति की भाषा के रूप में फारसी भाषा का विकास किया गया।
अरबों, ईरानियों तथा तुर्कों के राज्यों में विद्वान, कलाकार और व्यापारी मुक्त रूप से घूमते रहते थे और अपने विचारों का प्रसार करते थे। दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दियों में तुर्की सल्तनत के उदय से अरबों और ईरानियों के साथ एक तीसरा प्रजातीय समूह जुड़ गया। तुर्क, तुर्किस्तान के मध्य एशियाई घास के मैदानों के खानाबदोश कबाइली लोग थे जिन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया। वे कुशल घुड़सवार और वीर योद्धा थे।
प्रश्न 4.
यूरोप व एशिया पर धर्म- युद्धों का क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर:
यूरोप व एशिया पर धर्म – युद्धों का प्रभाव – यूरोप व एशिया पर धर्म- युद्धों के निम्नलिखित प्रभाव हुए –
(1) मुस्लिम राज्यों ने अपनी ईसाई प्रजा के प्रति कठोर नीति अपनाई। दीर्घकालीन युद्धों की कटुतापूर्ण यादों और मिली-जुली जनसंख्या वाले प्रदेशों में सुरक्षा की आवश्यकता के परिणामस्वरूप मुस्लिम राज्यों की नीति में परिवर्तन आया और उन्होंने ईसाई लोगों के साथ कठोरतापूर्ण व्यवहार किया।
(2) मुस्लिम सत्ता की स्थापना के बावजूद भी पूर्व और पश्चिम के बीच व्यापार में इटली के व्यापारिक समुदायों जैसे पीसा, जेनोआ तथा वैनिस का प्रभाव बढ़ गया।
(3) धर्म- युद्धों के कारण यूरोपवासी पूर्वी देशों के लोगों के साथ सम्पर्क में आए जिसके फलस्वरूप उन्हें पूर्वी देशों की तर्क शक्ति, प्रयोग – पद्धति और वैज्ञानिक खोजों की जानकारी प्राप्त हुई।
(4) धर्म-युद्धों के कारण यूरोप के पूर्वी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हुए व नए-नए पदार्थों का ज्ञान
हुआ। यूरोपवासियों को रेशम, कपास, चीनी, सीसे के बर्तनों, गरम मसालों आदि से परिचय हुआ।
(5) धीरे-धीरे यूरोप की इस्लाम में सैनिक दिलचस्पी समाप्त हो गई और उसका ध्यान अपने आन्तरिक राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास की ओर केन्द्रित हो गया।
(6) यूरोप व एशिया के लोगों में धैर्य व उत्साह की वृद्धि हुई।
(7) सामन्तों की शक्ति को आघात पहुँचा और यूरोपीय शासकों की शक्ति में वृद्धि हुई। खलीफा की कमान के अन्तर्गत बने रहना चाहते थे।
(5) बद्दू लोगों के अपने देवी तथा देवता थे जिनकी पूजा बुतों (सनम) के रूप में मस्जिदों में की जाती थी।
प्रश्न 2.
‘अब्बासी क्रान्ति’ से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
अब्बीसी क्रांति – अब्बासी लोग मक्का के निवासी तथा पैगम्बर मुहम्मद के चाचा अब्बास के वंशज थे उनका विद्रोह खुरासान ( पूर्वी ईरान) के बहुत दूर स्थित क्षेत्र में शुरू हुआ था। खुरासान में अरब सैनिक अधिकांशतः इराक से आए थे और वे सीरियाई लोगों के प्रभुत्व से नाराज थे। खुरासान के अरब नागरिक उमय्यद शासन से इसलिए असन्तुष्ट थे क्योंकि उन्होंने करों में रियायतें देने तथा विशेषाधिकार देने के जो वचन दिये थे, वे पूरे नहीं किए थे।
ईरानी लोग उमय्यद शासन से इसलिए नाराज थे कि उन्हें अरबों के तिरस्कार का शिकार होना पड़ा था और वे भी उमय्यद वंश की सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते थे। 750 ई. में अब्बासी वंश ने, उमय्यद वंश के शासन को समाप्त कर, सत्ता पर अधिकार कर लिया। उन्होंने यह आश्वासन दिया कि वे पैगम्बर मुहम्मद साहब के मूल इस्लाम की पुनर्स्थापना करेंगे। इसी को अब्बासी क्रांति कहते हैं। इस क्रांति से वंश परिवर्तन के साथ-साथ इस्लाम के राजनैतिक ढाँचे तथा उनकी संस्कृति में भी परिवर्तन हुए।
प्रश्न 3.
अरबों, ईरानियों व तुर्कों द्वारा स्थापित राज्यों की बहुसंस्कृतियों के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
अरबों द्वारा स्थापित राज्य में मुसलमान, ईसाई, यहूदी, ईरानी, तुर्क आदि संस्कृतियों के लोग रहते थे। ईरानी साम्राज्य में भी अरब, ईरानी आदि संस्कृतियों का विकास हुआ। अब्बासी शासन के अन्तर्गत अरबों के प्रभाव में कमी आई तथा रानी संस्कृति का महत्त्व बढ़ गया। अब्बासियों ने अपनी राजधानी प्राचीन ईरानी महानगर टेसीफोन के निकट बगदाद में स्थापित की। अब्बासी शासकों ने खिलाफत की धार्मिक स्थिति और कार्यों को मजबूत बनाया और इस्लामी संस्थाओं तथा विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। नौवीं शताब्दी में अब्बासी राज्य कमजोर हो गया क्योंकि सेना और नौकरशाही में अरब – समर्थक तथा ईरान- समर्थक गुटों का आपस में झगड़ा हो गया।
950 से 1200 के मध्य इस्लामी समाज किसी एकल राजनीतिक व्यवस्था अथवा किसी संस्कृति की एकल भाषा (अरबी) से नहीं, बल्कि सामान्य आर्थिक और सांस्कृतिक प्रतिरूपों से संगठित बना रहा। अब इस्लामी संस्कृति की भाषा के रूप में फारसी भाषा का विकास किया गया। अरबों, ईरानियों तथा तुर्कों के राज्यों में विद्वान, कलाकार और व्यापारी मुक्त रूप से घूमते रहते थे और अपने विचारों का प्रसार करते थे। दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दियों में तुर्की सल्तनत के उदय से अरबों और ईरानियों के साथ एक तीसरा प्रजातीय समूह जुड़ गया। तुर्क, तुर्किस्तान के मध्य एशियाई घास के मैदानों के खानाबदोश कबाइली लोग थे जिन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया। वे कुशल घुड़सवार और वीर योद्धा थे।
प्रश्न 4.
यूरोप व एशिया पर धर्म- युद्धों का क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर:
यूरोप व एशिया पर धर्म – युद्धों का प्रभाव – यूरोप व एशिया पर धर्म- युद्धों के निम्नलिखित प्रभाव हुए –
(1) मुस्लिम राज्यों ने अपनी ईसाई प्रजा के प्रति कठोर नीति अपनाई । दीर्घकालीन युद्धों की कटुतापूर्ण यादों और मिली-जुली जनसंख्या वाले प्रदेशों में सुरक्षा की आवश्यकता के परिणामस्वरूप मुस्लिम राज्यों की नीति में परिवर्तन आया और उन्होंने ईसाई लोगों के साथ कठोरतापूर्ण व्यवहार किया।
(2) मुस्लिम सत्ता की स्थापना के बावजूद भी पूर्व और पश्चिम के बीच व्यापार में इटली के व्यापारिक समुदायों जैसे पीसा, जेनोआ तथा वैनिस का प्रभाव बढ़ गया।
(3) धर्म- युद्धों के कारण यूरोपवासी पूर्वी देशों के लोगों के साथ सम्पर्क में आए जिसके फलस्वरूप उन्हें पूर्वी देशों की तर्क शक्ति, प्रयोग – पद्धति और वैज्ञानिक खोजों की जानकारी प्राप्त हुई।
(4) धर्म-युद्धों के कारण यूरोप के पूर्वी देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हुए व नए-नए पदार्थों का ज्ञान हुआ। यूरोपवासियों को रेशम, कपास, चीनी, सीसे के बर्तनों, गरम मसालों आदि से परिचय हुआ।
(5) धीरे-धीरे यूरोप की इस्लाम में सैनिक दिलचस्पी समाप्त हो गई और उसका ध्यान अपने आन्तरिक राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास की ओर केन्द्रित हो गया।
(6) यूरोप व एशिया के लोगों में धैर्य व उत्साह की वृद्धि हुई।
(7) सामन्तों की शक्ति को आघात पहुँचा और यूरोपीय शासकों की शक्ति में वृद्धि हुई। यह मस्जिदों का शहर है। उमैय्यद मस्जिद यहाँ की सबसे प्रसिद्ध मस्जिद है। कृषि तथा पशुपालन यहाँ के लोगों की जीविका के मुख्य साधन हैं।
इस्लाम का उदय और विस्तार-लगभग 570-1200 ई. JAC Class 11 History Notes
पाठ-सार
1. अरब में इस्लाम का उदय – सन् 612-632 में पैगम्बर मुहम्मद साहब ने एक ईश्वर, अल्लाह की पूजा करने का और आस्तिकों के एक ही समाज की सदस्यता का प्रचार किया। यह इस्लाम का मूल था। अरब लोग कबीलों में बँटे हुए थे। प्रत्येक कबीले का नेतृत्व एक शेख द्वारा किया जाता था। प्रत्येक कबीले के अपने स्वयं के देवी-देवता होते थे, जो बुतों (सनम ) के रूप में मस्जिदों में पूजे जाते थे।
2. मक्का – पैगम्बर मुहम्मद का अपना कबीला कुरैश कबीला मक्का में रहता था और उसका वहाँ के मुख्य धर्म-स्थल पर नियन्त्रण था। इस स्थल का ढाँचा घनाकार था और उसे ‘काबा’ कहा जाता था, जिसमें बुत रखे हुए थे। काबा को एक पवित्र स्थान माना जाता था।
3. पैगम्बर द्वारा अपने आप को खुदा का सन्देशवाहक घोषित करना – 612 ई. के आसपास पैगम्बर मुहम्मद ने अपने आप को खुदा का सन्देशवाहक घोषित किया जिन्हें यह प्रचार करने का आदेश दिया गया था कि केवल अल्लाह की ही आराधना की जानी चाहिए। इबादत (आराधना) की विधियाँ बड़ी सरल थीं।
- दैनिक प्रार्थना (सलात)
- नैतिक सिद्धान्त जैसे-खैरात बाँटना
- चोरी न करना। पैगम्बर मुहम्मद साहब के धर्म-सिद्धान्त को स्वीकार करने वाले लोग मुसलमान कहलाये।
4. पैगम्बर मुहम्मद द्वारा मदीना की ओर कूच करना – मक्का के समृद्ध लोगों द्वारा विरोध करने पर 622 ई. में पैगम्बर मुहम्मद को अपने अनुयायियों के साथ मक्का छोड़कर मदीना जाना पड़ा। जिस बर्ष पैगम्बर मुहम्मद मदीना पहुँचे, उस वर्ष से मुस्लिम कलैण्डर अर्थात् हिजरी सन् की शुरुआत हुई।
5. मक्का पर विजय – पैगम्बर मुहम्मद ने मदीना में एक राजनैतिक व्यवस्था की स्थापना की जिसने उनके अनुयायियों को सुरक्षा प्रदान की। उम्मा (आस्तिकों) को एक बड़े समुदाय के रूप में बदला तथा धर्म को परिष्कृत कर अनुयायियों के लिए मजबूत बनाया। पैगम्बर मुहम्मद साहब ने मक्का पर भी विजय प्राप्त की। मक्कावासियों नें इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। एक धार्मिक प्रचारक और राजनैतिक नेता के रूप में पैगम्बर मुहम्मद की प्रतिष्ठा दूर- दूर तक फैल गई। मदीना उभरते हुए इस्लामिक राज्य की प्रशासनिक राजधानी और मक्का उसका धार्मिक केन्द्र बन गया। यह राज्य व्यवस्था काफी लम्बे समय तक अरब कबीलों और कुलों का राज्य संघ बनी रही। 632 ई. में मुहम्मद साहब की मृत्यु हो गई।
6. खलीफाओं का शासन – विस्तार, गृह युद्ध और सम्प्रदाय निर्माण – 632 ई. में पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु के पश्चात् इस्लामी राजसत्ता की बागडोर उम्मा (आस्तिकों के समाज) को सौंप दी गई। इसके फलस्वरूप खिलाफत की संस्था अस्तित्व में आई, जिसमें समुदाय का नेता पैगम्बर का प्रतिनिधि ( खलीफा ) बन गया। पहले चार खलीफाओं- अबू बकर, उमर, उथमान, अली – ने पैगम्बर द्वारा दिए गए मार्ग-निर्देशों के अन्तर्गत उनका कार्य जारी रखा।
पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु के एक दशक के अन्दर अरब – इस्लामी राज्य ने नील और आक्सस के बीच के विशाल क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। अली के समय में मुसलमानों में दरार उत्पन्न हुई, गृहयुद्ध हुए तथा अली के अनुयायी दो गुटों में बंट गए। एक अली व उसे पुत्र हुसैन का गुट तथा दूसरा मुआविया गुट। 661 ई. में मुआविया ने अपने आपको अगला खलीफा घोषित कर दिया और उमय्यद वंश की स्थापना की।
7. उमय्यद वंश की स्थापना और राजतन्त्र का केन्द्रीकरण – 661 ई. में मुआवियों ने उमय्यद वंश की स्थापना की जो 750 ई. तक चलता रहा। इस काल में मदीना में स्थापित खिलाफत नष्ट हो गई और उसका स्थान सत्तावादी राजतंत्र ने ले लिया। पहला उमय्यद खलीफा मुआविया ने दमिश्क को अपनी राजधानी बनाया। उसने वंशगत उत्तराधिकार की परम्परा प्रारंभ की। इसके फलस्वरूप उमय्यद 90 वर्ष तक सत्ता में बने रहे। उमय्यद राज्य एक साम्राज्यिक शक्ति बन गया था। वह शासन – कला और सीरियाई सैनिकों की वफादारी के बल पर चल रहा था, लेकिन इस्लाम इसे वैधता प्रदान करता रहा। उन्होंने अपनी अरबी पहचान बनाए रखी।
8. अब्बासी क्रान्ति – 750 ई. में अब्बासियों ने उमय्यद वंश के शासन को समाप्त कर दिया। अब्बासी शासन के अन्तर्गत ईरानी संस्कृति का महत्त्व बढ़ गया और अरबों के प्रभाव में कमी आई। अब्बासियों ने बगदाद को अपनी राजधानी बनाया और इस्लामी संस्थाओं तथा विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। अब्बासी मुहम्मद साहब के चाचा अब्बास के वंशज थे
9. खिलाफत का विघटन – अब्बासी राज्य नौवीं शताब्दी से कमजोर होता गया। उनकी सत्ता मध्य इराक तथा पश्चिमी ईरान तक सीमित रह गई। 945 ई. में ईरान के बुवाही नामक शिया वंश ने बगदाद पर अधिकार कर लिया। बुवाही शासकों ने विभिन्न उपाधियाँ धारण कीं, लेकिन ‘खलीफा’ की पदवी धारण नहीं की। उन्होंने अब्बासी खलीफा को अपने सुन्नी प्रजाजनों के प्रतीकात्मक मुखिया के रूप में बनाए रखा। 969 ई. में फातिमी खिलाफत की स्थापना हुई जिसने मिस्र के शहर काहिरा को अपनी राजधानी बनाया। दोनों प्रतिस्पर्धी राजवंशों (बुवाही तथा फातिमी) ने शिया प्रशासकों, विद्वानों को आश्रय प्रदान किया।
10. तुर्की सल्तनत का उदय – दसवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दियों में तुर्की सल्तनत का उदय हुआ। तुर्की सल्तनत के उदय से अरबों, ईरानियों के साथ एक तीसरा प्रजातीय समूह – तुर्क – जुड़ गया। गजनी सल्तनत की स्थापना अल्पतिगिन ने की थी जिसे महमूद गजनवी ने सुदृढ़ बना दिया था। महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद सल्जुक तुर्की ने खुरासान को जीतकर निशापुर को अपनी राजधानी बनाया। 1055 में उन्होंने बगदाद को अपने अधीन किया। खलीफा ने गरिल बेग को सुल्तान की उपाधि प्रदान की।
11. धर्म – युद्ध – 1095 ई. में पोप ने बाइजेंटाइन सम्राट के साथ मिलकर पवित्र स्थान जेरुस्लम को मुक्त कराने के लिए ईश्वर के नाम पर युद्ध के लिए आह्वान किया। 1095 और 1291 के बीच ईसाइयों और मुसलमानों के बीच अनेक युद्ध लड़े गये, जिन्हें धर्म- युद्ध कहते हैं। प्रथम धर्म – युद्ध ( 1098 – 1099 ई.) में फ्रांस और इटली के सैनिकों ने सीरिया में एंटीआक और जेरुस्लम पर अधिकार कर लिया। दूसरे धर्म – युद्ध (1145 – 1149) में एक जर्मन तथा फ्रांसीसी सेना ने दमिश्क पर अधिकार करने का प्रयास किया, परन्तु उन्हें पराजय का मुँह देखना पड़ा। 1189 में तीसरा धर्म – युद्ध हुआ। अन्त में मिस्र के शासकों ने 1291 में धर्म- युद्ध करने वाले सभी ईसाइयों को समस्त फिलिस्तीन से बाहर निकाल दिय।
12. अर्थव्यवस्था –
(i) कृषि – लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था। जमीन के मालिक बड़े और छोटे किसान थे. और कहीं-कहीं राज्य था । कृषि भूमि का सर्वोपरि नियन्त्रण राज्य के हाथों में था । अरबों द्वारा जीती गई भूमि पर, जो मालिकों के हाथों में रहती थी, कर (खराज) लगता था जो उपज के आधे से लेकर उसके पाँचवें हिस्से के बराबर होता था। कपास, संतरा, केला, तरबूज आदि की खेती की गई और यूरोप को उनका निर्यात भी किया गया।
(ii) शहरीकरण – बहुत से नये शहरों की स्थापना की गई जिनका उद्देश्य मुख्य रूप से अरब सैनिकों को बसाना था। कुफा, बसरा, फुस्तात, काहिरा आदि प्रसिद्ध नगर थे। शहर के केन्द्र में दो भवन – समूह थे, जहाँ से सांस्कृतिक तथा आर्थिक शक्ति का प्रसारण होता था। उनमें से एक मस्जिद तथा दूसरी केन्द्रीय मण्डी होती थी। शहर के प्रशासकों, विद्वानों और व्यापारियों के लिए घर होते थे, जो केन्द्र के निकट होते थे। सामान्य नागरिकों और सैनिकों के रहने के क्वार्टर बाहरी घेरे में होते थे।
(iii) व्यापार-पाँच शताब्दियों तक अरब और ईरानी व्यापारियों का चीन, भारत और यूरोप के बीच के समुद्री व्यापार पर एकाधिकार रहा। यह व्यापार लाल सागर तथा फारस की खाड़ी से होता था। मसालों, कपड़ों, चीनी मिट्टी की चीजों, बारूद आदि को भारत और चीन से जहाजों पर लाया जाता था। यहाँ से माल को जमीन पर ऊँटों के काफिलों के द्वारा बगदाद, दमिश्क, एलेप्पो आदि के भण्डार गृहों तक ले जाया जाता था। सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के बनाए जाते थे। इस्लामी राज्य ने व्यापार व्यवस्था के उत्तम तरीकों को विकसित किया। साख-पत्रों का उपयोग व्यापारियों, साहूकारों द्वारा धन को एक स्थान से दूसरे स्थान और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को अन्तरित करने के लिए किया जाता था।
13. विद्या और संस्कृति – मध्यकाल में उलमा अपना समय कुरान पर टीका लिखने और मुहम्मद साहब की प्रामाणिक उक्तियों और कार्यों को लिखने में लगाते थे। इस्लामी कानून तैयार करने के लिए विधिवेत्ताओं ने तर्क और अनुमान का प्रयोग भी किया। आठवीं और नौवीं शताब्दी में कानून की चार शाखाएँ बन गई थीं। ये मलिकी, हनफी, शफीई और हनबली थीं। शरीआ ने सुन्नी समाज के भीतर सभी सम्भव कानूनी मुद्दों के बारे में मार्ग-प्रदर्शन किया था।
14. सूफी – मध्यकालीन इस्लाम के धार्मिक विचारों वाले लोगों का एक समूह बन गया था, जिन्हें सूफी कहा जाता है। ये लोग तपश्चर्या और रहस्यवाद के द्वारा खुदा का अधिक गहरा और अधिक वैयक्तिक ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे। सर्वेश्वरवाद ईश्वर और उसकी सृष्टि के एक होने का विचार है जिसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य की आत्मा को उसके निर्माता अर्थात् परमात्मा के साथ मिलाना चाहिए। ईश्वर से मिलन, ईश्वर के साथ तीव्र प्रेम के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। सूफीवाद का द्वार सभी के लिए खुला है।
15. ज्ञान – विज्ञान – इब्नसिना का यह विश्वास नहीं था कि कयामत के दिन व्यक्ति फिर से जीवित हो जाता था। उसने ‘चिकित्सा के सिद्धान्त’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें आहार – विज्ञान के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। इस्लाम – पूर्व काल की सबसे अधिक लोकप्रिय रचना सम्बोधन गीत (कसीदा) था। अबु नुवास ने शराब और पुरुष – प्रेम जैसे नये विषयों पर उत्कृष्ट श्रेणी की कविताओं की रचना की। रुदकी को नई फारसी कविता का जनक माना जाता था । इस कविता में छोटे गीत-काव्य (गज़ल) और रुबाई जैसे नये रूप शामिल थे। उमर खय्याम ने रुबाई को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया।
16. गजनी – फारसी साहित्यिक जीवन का केन्द्र – 11वीं शताब्दी के प्रारम्भ में गजनी फारसी साहित्यिक जीवन का केन्द्र बन गया था। महमूद गजनवी के दरबार में अनेक उच्च कोटि के कवि और विद्वान रहते थे। इनमें सबसे . अधिक प्रसिद्ध फिरदौसी थे जिसने ‘शाहनामा’ नामक पुस्तक की रचना की थी। यह इस्लामी साहित्य की एक श्रेष्ठ रचना मानी जाती है।
17. इतिहास लेखन की परम्परा – पढ़े-लिखे मुस्लिम समाजों में इतिहास लिखने की परम्परा अच्छी तरह स्थापित थी। बालाधुरी के ‘अनसब- अल – अशरफ’ तथा ताबरी के तारीख – अलं – रसूल वल मुलुक में सम्पूर्ण मानव- इतिहास का वर्णन किया गया है।
18. कला – स्पेन से मध्य एशिया तक फैली हुई मस्जिदों, इबादतगाहों और मकबरों का बुनियादी नमूना एक जैसा था-मेहराबें, गुम्बदें, मीनार, खुले सहन। इस्लाम की पहली शताब्दी में, मस्जिद ने एक विशिष्ट वास्तुशिल्पीय रूप प्राप्त कर लिया था। मस्जिद में एक खुला प्रांगण, सहन, एक फव्वारा अथवा जलाशय, एक बड़ा कमरा आदि की व्यवस्था होती थी । बड़े कमरे की दो विशेषताएँ होती थीं- दीवार में एक मेहराब और एक मंच। इमारत में एक मीनार जुड़ी होती है। इस्लामी धार्मिक कला में प्राणियों के चित्रण की मनाही से कला के दो रूपों को बढ़ावा मिला – खुशनवीसी (सुन्दर लिखने की कला) तथा अरबेस्क (ज्यामितीय और वनस्पतीय डिजाइन )।