Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन Important Questions and Answers.
JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन
बहुविकल्पीय प्रश्न
1. बताएँ कि निम्नलिखित में से कौन-सा अधिकार वैयक्तिक स्वतंत्रता का अंश है।
(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
(ख) धर्म की स्वतंत्रता
(ग) अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
(घ) सार्वजनिक स्थलों पर बराबरी की पहुँच
उत्तर:
(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
2. बताएँ कि निम्नलिखित में से कौन-सा अधिकार वैयक्तिक स्वतंत्रता का अंश नहीं है।
(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
(ख) अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
(ग) मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध स्वतंत्रता
(घ) अंतरात्मा का अधिकार से किसके द्वारा हुआ है।
उत्तर:
(ख) अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
3. भारत के संविधान का अंगीकार निम्नलिखित में
(क) ब्रिटिश ताज के द्वारा
(ख) ब्रिटिश संसद के द्वारा
(ग) भारत के वायसराय के द्वारा
(घ) भारत के लोगों के द्वारा
उत्तर:
(घ) भारत के लोगों के द्वारा
4. संविधान के दर्शन का सर्वोत्तम सार-संक्षेप है।
(क) संविधान के मूल अधिकारों में
(ख) संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों में
(ग) संविधान की प्रस्तावना में
(घ) संविधान के मूल कर्त्तव्यों में
उत्तर:
(ग) संविधान की प्रस्तावना में
5. निम्नलिखित में से कौनसा कथन असत्य है।
(क) भारत में अदालतों और सरकारों के बीच संविधान की अनेक व्याख्याओं पर असहमति है।
(ख) केन्द्र और प्रादेशिक सरकारों के बीच मत – भिन्नता है।
(ग) राजनीतिक दल संविधान की विविध व्याख्याओं के आधार पर पूरे जोर-शोर से लड़ते हैं।
(घ) आम नागरिक संविधान के अंतर्निहित दर्शन में विश्वास नहीं करते हैं।
उत्तर:
(घ) आम नागरिक संविधान के अंतर्निहित दर्शन में विश्वास नहीं करते हैं।
6. निम्नलिखित में कौनसी भारतीय संविधान की सीमा नहीं है–
(क) भारतीय संविधान ने ‘असमतोल संघवाद’ जैसी अवधारणा को अपनाया है।
(ख) भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
(ग) भारतीय संविधान में लिंगगत न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों विशेषकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है।
(घ) कुछ बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में डाल दिया गया है।
उत्तर:
(क) भारतीय संविधान ने ‘असमतोल संघवाद’ जैसी अवधारणा को अपनाया है।
7. निम्नलिखित में कौनसा कथन भारतीय संविधान की आलोचना से सम्बन्धित है।
(क) भारत के संविधान में अचल और लचीले संविधान दोनों की विशेषताओं का मिश्रण है
(ख) संविधान में भारतीय जनता की राष्ट्रीय पहचान पर निरंतर जोर दिया गया है।
(ग) भारतीय संविधान निर्मात्री सभा में सबकी नुमाइंदगी नहीं हो सकी है
(घ) भारत का संविधान एक धर्म – निरेपक्ष संविधान है।
उत्तर:
(ग) भारतीय संविधान निर्मात्री सभा में सबकी नुमाइंदगी नहीं हो सकी है
8. निम्नलिखित में से कौनसा कथन भारतीय संविधान की आलोचना से सम्बन्धित नहीं है।
(क) भारत का संविधान अस्त-व्यस्त है।
(ख) भारत का संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है।
(ग) भारत का संविधान प्रतिनिधित्वपूर्ण नहीं है।
(घ) भारत का संविधान एक विदेशी दस्तावेज है।
उत्तर:
(ख) भारत का संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है।
9. भारतीय संविधान की प्रक्रियात्मक उपलब्धि है।
(क) सर्वानुमति से फैसले लेने के प्रति संविधान सभा की दृढ़ता।
(ख) सार्वभौमिक मताधिकार के प्रति वचनबद्धता
(ग) धर्मनिरपेक्ष संविधान
(घ) व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्धता
उत्तर:
(क) सर्वानुमति से फैसले लेने के प्रति संविधान सभा की दृढ़ता।
10. शांति का संविधान कहा जाता है।
(क) भारत के संविधान को
(ग) फ्रांस के पंचम गणतंत्र को
(ख) अमेरिका के संविधान को
(घ) जापान के संविधान को
उत्तर:
(घ) जापान के संविधान को
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें
1. सन् 1947 के जापानी संविधान को बोलचाल में…………………… संविधान कहा जाता है।
उत्तर:
शांति
2. संविधान को अंगीकार करने का एक बड़ा कारण है- सत्ता को ……………………… होने से रोकना।
उत्तर:
निरंकुश
3. संविधान हमें गहरे सामाजिक बदलाव के लिए शांतिपूर्ण …………………….. साधन भी प्रदान करता है।
उत्तर:
लोकतांत्रिक
4. संविधान, कमजोर लोगों को उनका वाजिब ……………………… सामुदायिक रूप में हासिल करने की ताकत देता है।
उत्तर:
हक
5. भारत का संविधान स्वतंत्रता, …………………. लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रीय एकता के लिए प्रतिबद्ध है।
उत्तर:
समानता
निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये
1. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान का अभिन्न अंग है।
उत्तर:
सत्य
2. भारतीय संविधान शास्त्रीय उदारवाद से इस अर्थ में अलग है कि यह सामाजिक न्याय से जुड़ा है
उत्तर:
सत्य
3. भारतीय संविधान ने समुदायों को मान्यता न देकर सामुदायिक प्रतिद्वन्द्विता को समाप्त किया है
उत्तर:
असत्य
4. धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ भारत में पारस्परिक निषेध है।
उत्तर:
असत्य
5. सार्वभौम मताधिकार का विचार भारतीय राष्ट्रवाद के बीज विचारों में एक है।
उत्तर:
सत्य
निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये
1. शांति संविधान | (क) राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत |
2. भारतीय संविधान की सीमा | (ख) सार्वभौमिक मताधिकार |
3. भारतीय राष्ट्रवाद का बीज विचार | (ग) राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी |
4. मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट | (घ) जापान का संविधान |
5. भारतीय धर्मनिरपेक्षता की विशेषता | (ङ) सन् 1928 |
उत्तर:
1. शांति संविधान | (घ) जापान का संविधान |
2. भारतीय संविधान की सीमा | (क) राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत |
3. भारतीय राष्ट्रवाद का बीज विचार | (ख) सार्वभौमिक मताधिकार |
4. मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट | (ङ) सन् 1928 |
5. भारतीय धर्मनिरपेक्षता की विशेषता | (ग) राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी |
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
संविधान में अन्तर्निहित दर्शन को समझना क्यों जरूरी है?
उत्तर:
संविधान में अन्तर्निहित नैतिक तत्त्व को जानने और उसके दावे के मूल्यांकन तथा शासन-व्यवस्था के मूल- मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को एक कसौटी पर जांच कर सकने के लिए संविधान में अन्तर्निहित दर्शन को समझना जरूरी है।
प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की किन्हीं दो मूलभूत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की दो मूलभूत विशेषताएँ ये हैं।
- व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध संविधान।
- सामाजिक न्याय से जुड़ा संविधान।
प्रश्न 3.
संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन के नजरिये से हमारा क्या आशय है?
उत्तर:
इसमें तीन बातें शामिल हैं।
- संविधान की अवधारणाओं की व्याख्या,
- अवधारणाओं की इन व्याख्याओं से मेल खाती समाज व शासन व्यवस्था की तस्वीर तथा
- शासन व्यवस्था के सम्बन्ध में अलग-अलग व्याख्याओं की जांच की एक कसौटी का होना।
प्रश्न 4.
संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन का नजरिया अपनाना क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
संविधान के अन्तर्निहित नैतिक तत्त्व को जानने और उसके दावे के मूल्यांकन के लिए संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन का नजरिया अपनाने की जरूरत है।
प्रश्न 5.
एक अच्छे संविधान की क्या आवश्यकता है? कोई दो कारण लिखिये।
उत्तर:
- एक अच्छे संविधान की आवश्यकता का सबसे बड़ा कारण है। सत्ता को निरंकुश होने से रोकना।
- इसका दूसरा कारण यह है कि संविधान हमें गहरे सामाजिक बदलाव के लिए शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक साधन भी प्रदान करता है।
प्रश्न 6.
एक राजनीति के विद्यार्थी के लिए संविधान निर्माताओं के सरोकार और मंशा को जानना क्यों जरूरी है?
उत्तर:
जब संवैधानिक व्यवहार को चुनौती मिले, खतरा मंडराये या उपेक्षा हो तब इन व्यवहारों के मूल्य और अर्थ को समझने के लिए संविधान निर्माताओं के सरोकार और मंशा को जानना जरूरी है।
प्रश्न 7.
भारत के संविधान का राजनीतिक दर्शन क्या है?
उत्तर:
भारत के संविधान का राजनीतिक दर्शन स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रीय एकता के लिए प्रतिबद्धता का है।
प्रश्न 8.
भारत का संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। इसमें निहित किन्हीं तीन स्वतंत्रताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
- मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध स्वतंत्रता
- अंतरात्मा का अधिकार।
प्रश्न 9.
भारतीय संविधान का उदारवाद शास्त्रीय उदारवाद से किन दो बातों में भिन्न है?
उत्तर:
शास्त्रीय उदारवाद सामाजिक न्याय और सामुदायिक जीवन मूल्यों के ऊपर हमेशा व्यक्ति को तरजीह देता है, जबकि भारतीय संविधान के उदारवाद सामाजिक न्याय और सामुदायिक जीवन मूल्यों को व्यक्ति के ऊपर तरजीह देता है।
प्रश्न 10.
हमारा संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है। इसका कोई एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
हमारा संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान।
प्रश्न 11.
समाज के विभिन्न समुदायों के बीच बराबरी का रिश्ता कायम करने तथा उन्हें उदार बनाने के लिए पश्चिमी राष्ट्रों के संविधानों में क्या किया गया है?
उत्तर:
समाज के विभिन्न समुदायों के बीच बराबरी का रिश्ता कायम करने तथा उन्हें उदार बनाने के लिए पश्चिमी राष्ट्रों के संविधानों ने इन समुदायों को मान्यता न देकर किया है।
प्रश्न 12.
भारतीय संविधान में समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा देने के लिए क्या रास्ता अपनाया है? उत्तर- भारतीय संविधान ने समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता देकर इनके बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा दिया है, जैसे- धार्मिक समुदाय का अपनी शिक्षा संस्था स्थापित करने और चलाने का अधिकार।
प्रश्न 13.
मुख्य धारा की पश्चिमी धारणा में धर्मनिरपेक्षता को किस रूप में देखा गया है?
उत्तर:
मुख्य धारा की पश्चिमी धारणा में व्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्ति की नागरिकता से संबंधित अधिकारों की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता को धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध के रूप में देखा गया है।
प्रश्न 14.
धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध से क्या आशय है?
उत्तर:
धर्म और राज्य के ‘पारस्परिक निषेध’ शब्द का आशय है– धर्म और राज्य दोनों एक-दूसरे के क्षेत्र से अलग रहेंगे, एक-दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
प्रश्न 15.
भारतीय संविधान में दी गई धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी मॉडल से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर:
भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता का मॉडल पश्चिमी मॉडल से निम्न दो रूपों में भिन्न है।
- भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता न होकर व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता से है।
- भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी
प्रश्न 16.
भारतीय संविधान की कोई दो केन्द्रीय विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
- भारतीय संविधान ने उदारवादी व्यक्तिवाद को एक नया रूप देकर उसे विकसित किया है।
- इसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को भी स्वीकार किया है।
प्रश्न 17.
अनुच्छेद 371 को जगह देकर भारतीय संविधान ने किस प्रकार के संघवाद की अवधारणा को अपनाया
उत्तर:
अनुच्छेद 371 को जगह देकर भारतीय संविधान ने ‘असमतोल संघवाद’ जैसी अवधारणा को अपनाया प्रश्न 18. भारतीय संविधान की दो प्रक्रियागत उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की दो प्रक्रियागत उपलब्धियाँ ये हैं।
- संविधान निर्माण में स्वार्थों के स्थान पर तर्कबुद्धि पर बल दिया गया है।
- महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर निर्णय सर्वानुमति से लिए गए हैं।
प्रश्न 19.
भारतीय संविधान की कोई दो आलोचनाएँ लिखिये।
उत्तर:
- भारतीय संविधान के निर्माण में जनता का प्रतिनिधित्व नहीं हो सका है।
- यह संविधान एक विदेशी दस्तावेज है।
प्रश्न 20.
भारतीय संविधान की कोई दो सीमाएँ बताइये।
उत्तर:
- भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
- इसमें कुछ बुनियादी आर्थिक-सामाजिक अधिकारों को राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में डाल दिया गया है।
लघूत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रस्तुत ‘ अवसर और प्रतिष्ठा की समानता’ से क्या आशय है?
उत्तर:
अवसर और प्रतिष्ठा की समानता: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए ‘प्रतिष्ठा की समानता’ शब्द से आशय है कि भारत के सभी नागरिकों के साथ बिना किसी प्रतिष्ठा के भेदभाव के समाज में समान व्यवहार किया जायेगा। सभी नागरिक भारतीय समाज में समान हैं तथा सब पर कानून समान रूप से लागू होंगे। अवसर की समानता का आशय है कि सभी नागरिकों को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समान अवसर प्राप्त होंगे। धर्म, जाति, वंश, लिंग, रंग तथा सम्पत्ति के आधार पर इसमें कोई भेद नहीं किया जायेगा।
प्रश्न 2.
” औपनिवेशिक दासता में रहे लोगों के लिए संविधान राजनीतिक आत्मनिर्णय का उद्घोष और इसका पहला वास्तविक अनुभव है।” स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
संविधान राजनीतिक आत्मनिर्णय का उद्घोष है। औपनिवेशिक दासता में रह रहे लोगों के लिए संविधान सभा की मांग पूर्ण आत्मनिर्णय की सामूहिक मांग का प्रतिरूप है क्योंकि सिर्फ औपनिवेशिक देश की जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से बनी संविधान सभा को ही बिना बाहरी हस्तक्षेप के उस देश का संविधान बनाने का अधिकार है। संविधान पहला वास्तविक अनुभव संविधान सभा सिर्फ जनप्रतिनिधियों अथवा योग्य वकीलों का जमावड़ा भर नहीं है बल्कि यह स्वयं में औपनिवेशिक राष्ट्र द्वारा अपने बनाए नए आवरण को पहनने की तैयारी भी है।
प्रश्न 3.
संविधान के महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
संविधान के महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।
- संविधान शासन व्यवस्था के बुनियादी नियम प्रदान करता है।
- यह राज्य को निरंकुश बनने से रोकता है।
- संविधान हमें गहरे सामाजिक बदलाव के लिए शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक साधन भी प्रदान करता है।
- औपनिवेशिक दासता में रह रहे लोगों के लिए संविधान राजनीतिक आत्मनिर्णय का उद्घोष है तथा इसका पहला वास्तविक अनुभव भी।
- संविधान कमजोर लोगों को उनका वाजिब हक सामुदायिक रूप में हासिल करने की ताकत देता है।
प्रश्न 4.
भारतीय संविधान का राजनीतिक दर्शन क्या है?
उत्तर:
भारतीय संविधान का राजनीतिक दर्शन: भारतीय संविधान उदारवादी, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, संघवादी, सामुदायिक जीवन-मूल्यों का हामी, धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों तथा अधिकार – वंचित वर्गों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील तथा एक सर्व सामान्य राष्ट्रीय पहचान बनाने को प्रतिबद्ध संविधान है। संक्षेप में, यह संविधान स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा एक न एक किस्म की राष्ट्रीय एकता के लिए प्रतिबद्ध है। दूसरे, संविधान का जोर इस बात पर है कि उसके दर्शन पर शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से अमल किया जाये।
प्रश्न 5.
भारतीय संघवाद की ‘असमतोल संघवाद’ की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
असमतोल संघवाद: ‘असमतोल संघवाद’ से आशय है कि भारतीय संघ की विभिन्न इकाइयों की कानूनी हैसियत और विशेषाधिकार में महत्त्वपूर्ण अन्तर है। यहाँ कुछ इकाइयों की विशेष जरूरतों को ध्यान में रखते हुए संविधान की रचना में इन्हें विशेष दर्जा दिया गया है। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 371 के अन्तर्गत पूर्वोत्तर भारत के अनेक राज्यों को विशेष प्रावधानों का लाभ दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुसार विभिन्न प्रदेशों के साथ इस असमान बर्ताव में कोई बुराई नहीं है।
प्रश्न 6.
” भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है। ” स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक: निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है। इसका आशय यह है कि राज्य सभी धर्मों से समान दूरी रखेगा लेकिन स्वतंत्रता, समता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए वह किसी धर्म के मामले में हस्तक्षेप कर सकता है या वह किसी धार्मिक सम्प्रदाय को इस हेतु सहयोग कर सकता है।
प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की चार प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
भारतीय संविधान की विशेषताएँ – भारतीय संविधान की अनेक विशेषताएँ हैं जिनमें से चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. व्यक्ति की स्वतंत्रता:
भारत का संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। इसके अन्तर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मनमानी गिरफ्तारी के प्रति स्वतंत्रता तथा अन्य वैयक्तिक स्वतंत्रताएँ, जैसे- अन्तरात्मा का अधिकार आदि प्रदान किये गए भारतीय संविधान की यह विशेषता मजबूत उदारवादी नींव पर प्रतिष्ठित है।
2. सामाजिक न्याय तथा सामुदायिक जीवन:
मूल्यों का पक्षधर: भारत का संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है। अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। साथ ही भारतीय संविधान का उदारवाद सामुदायिक जीवन-मूल्यों का पक्षधर है । इसमें समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता दी गई है।
3. धर्मनिरपेक्षता:
भारतीय संविधान निर्माताओं ने पश्चिम की ‘पारस्परिक निषेध’ धर्मनिरपेक्ष अवधारणा की वैकल्पिक धारणा का विकास किया है। क्योंकि भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता से है, न कि केवल व्यक्ति की निजी धार्मिक स्वतंत्रता का । दूसरे, भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है।
4. सार्वभौम मताधिकार: भारतीय संविधान में सार्वभौम मताधिकार को अपनाया गया है। सार्वभौम मताधिकार का विचार भारतीय राष्ट्रवाद के बीज विचारों में एक है।
प्रश्न 8.
भारतीय संविधान की सीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की सीमाएँ: भारतीय संविधान की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं।
- केन्द्रीकृत राष्ट्रीय एकता की धारणा: भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
- लिंगगत न्याय की उपेक्षा: भारतीय संविधान में लिंगगत न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों खासकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया। इसमें परिवार की सम्पत्ति के बंटवारे में पुत्र और पुत्री के बीच असमान अधिकार दिये गये हैं।
- सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्त्वों का हिस्सा बनाना भारत जैसे विकासशील देश में कुछ बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों का अभिन्न हिस्सा बनाने के बजाय उसे राज्य के नीति-निर्देशक खंड में डालकर उपेक्षित कर दिया है क्योंकि इन अधिकारों को लागू करने के लिए नागरिक न्यायालय में वाद दायर नहीं कर सकते।
प्रश्न 9.
प्रस्तावना में दिये गये भारतीय संविधान के उद्देश्यों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के उद्देश्य: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं।
- न्याय: सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय।
- स्वतंत्रता विचार: अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं पूजा की स्वतंत्रता।
- समानता: प्रतिष्ठा और अवसर की समानता।
- बंधुता: व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बंधुता।
प्रश्न 10.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में दिये गये ‘हम भारत के लोग’ शब्द से क्या आशय है?
उत्तर:
हम भारत के लोग;
प्रस्तावना के ‘हम भारत के लोग शब्द से यह अभिप्राय है कि भारत के संविधान को महान व्यक्तियों के एक एक समूह ने नहीं प्रदान किया है, बल्कि इसकी रचना और इसका अंगीकार ‘हम भारत के लोग’ के द्वारा हुआ है। इस तरह जनता स्वयं अपनी नियति की नियंता है और लोकतंत्र का एक साधन है जिसके सहारे लोग अपने वर्तमान और भविष्य को आंकार देते हैं । आज प्रस्तावना के इस उद्घोष को पचास साल से ज्यादा हो चुके हैं। अनेक व्याख्याओं, असहमतियों, मत – विभिन्नताओं के चलते हुए भी पिछले पचास वर्षों से हर कोई संविधान के इस अन्तर्निहित दर्शन में विश्वास रखते हुए चलता आया है, वह यह है कि यह संविधान हम सब भारतवासियों का और भारतवासियों के लिए है।
निबन्धात्मक प्रश्न
प्रश्न 1.
संविधान के दर्शन का क्या आशय है? इसको समझना क्यों जरूरी है?
उत्तर:
संविधान के दर्शन से आशय: कानून और नैतिक मूल्य के बीच गहरा संबंध है। संविधान कानूनों का एक ऐसा दस्तावेज है जिसके पीछे नैतिक दृष्टि काम कर रही है। संविधान के कानूनों में निहित यही नैतिक व राजनैतिक दृष्टि संविधान का राजनैतिक दर्शन है। इसमें निम्नलिखित तीन बातें शामिल हैं-
1. अवधारणाएँ: संविधान कुछ अवधारणाओं के आधार पर बना है। इन अवधारणाओं की व्याख्या हमारे लिए आवश्यक है। कुछ प्रमुख अवधारणाएँ ये हैं। अधिकार, नागरिकता, अल्पसंख्यक, लोकतंत्र आदि।
2. आदर्श: संविधान का निर्माण जिन आदर्शों की नींव पर हुआ है, उन आदर्शों पर हमारी गहरी पकड़ होनी चाहिए अर्थात् हमारे सामने एक ऐसे समाज और शासन व्यवस्था की तस्वीर साफ-साफ होनी चाहिए जो संविधान की मूल अवधारणाओं की हमारी व्याख्या से मेल खाती हो।
3. संविधान सभा की बहसों में निहित तर्क:
भारतीय संविधान को संविधान सभा की बहसों के साथ जोड़कर पढ़ा जाना चाहिए ताकि सैद्धान्तिक रूप से हम यह बता सकें कि ये आदर्श कहां तक और क्यों ठीक हैं तथा आगे उनमें कौनसे सुधार किये जा सकते हैं। किसी मूल्य को यदि हम संविधान की बुनियाद बताते हैं, तो हमारे लिए यह बताना जरूरी हो जाता है कि यह मूल्य सही और सुसंगत क्यों है? संविधान निर्माताओं ने जब भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में किसी खास मूल्य-समूह को अपनाया तो ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि उनके पास इस मूल्य समूह के जायज ठहराने के लिए कुछ तर्क मौजूद थे।
ये तर्क भी संविधान के अन्तर्निहित दर्शन से संबंधित हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान के अन्तर्निहित दर्शन के अन्तर्गत मुख्यतः संविधान की अवधारणाओं की व्याख्या, संविधान के आदर्श तथा इन आदर्शों का औचित्य ठहराने के लिए संविधान सभा में दिये गए तर्क आते हैं।
संविधान के अन्तर्निहित दर्शन को समझना आवश्यक है संविधान के अन्तर्निहित दर्शन को जानने और उसके दावे के मूल्यांकन के लिए संविधान के प्रति राजनीतिक दर्शन का दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है ताकि हम अपनी शासन व्यवस्था के बुनियादी मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को एक कसौटी पर जांच सकें। दूसरे शब्दों में संविधान की शासन व्यवस्था के बुनियादी मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को एक कसौटी पर जांचने के लिए संविधान के अन्तर्निहित दर्शन को समझना आवश्यक है।
आदर्शों को मिलने वाली चुनौतियाँ व विविध व्याख्याएँ; आज संविधान के बहुत से आदर्शों को अनेक रूप में चुनौती मिल रही है। यथा
- इन आदर्शों पर बार-बार न्यायालयों में तर्क-वितर्क होते हैं। विधायिका, राजनीतिक दल, मीडिया, स्कूल तथा विश्वविद्यालयों में इन पर विचार-विमर्श होता है, बहस चलती है और इन पर सवाल उठाये जाते हैं।
- इन आदर्शों की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की जाती है और कभी-कभी अल्पकालिक क्षुद्र स्वार्थी के लिए इनके साथ चालबाजी भी की जाती है।
- परीक्षा की आवश्यकता: उपर्युक्त कारणों से इस बात की परीक्षा की आवश्यकता होती है कि।
- संविधान के आदर्शों और अन्य हलकों में इन आदर्शों की अभिव्यक्ति के बीच कहीं कोई गंभीर खाई तो नहीं
- विभिन्न संस्थाओं द्वारा इन आदर्शों की की जाने वाली अलग-अलग व्याख्याओं की तुलना की जाये। अलग- अलग व्याख्याओं के कारण इन व्याख्याओं के बीच विरोध पैदा होता है। यहां यह जांचने की जरूरत आ पड़ती है कि कौनसी व्याख्या सही है। इस जांच-परख में संविधान के दर्शन का प्रयोग एक कसौटी के रूप में किया जाना चाहिए। अतः स्पष्ट है कि शासन-व्यवस्था के बुनियादी मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को जांचने के लिए एक कसौटी के रूप में संविधान के दर्शन को जानना अति आवश्यक।
प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषताएँ क्या हैं?
अथवा
भारतीय संविधान की केन्द्रीय विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
अथव
भारतीय संविधान की आधारभूत महत्त्व की उपलब्धियों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषताएँ
अथवा
भारतीय संविधान की आधारभूत महत्त्व की उपलब्धियाँ: भारतीय संविधान की मूलभूत या केन्द्रीय विशेषताओं तथा उसकी आधारभूत महत्त्व की उपलब्धियों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।
1. लोकतंत्र:
भारतीय संविधान के दर्शन का प्रमुख आधारभूत तत्त्व लोकतंत्र है। भारतीय जनता लोकतंत्र को बहुत अधिक महत्त्व देती है। यही कारण है कि यहाँ राजनैतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में लोकतंत्र को अपनाया गया है। संविधान न केवल राजनैतिक लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध है, बल्कि उसमें नीति-निर्देशक तत्त्वों के माध्यम से सामाजिक- आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना की रूपरेखा व नीतियाँ भी प्रस्तुत की गई हैं। संविधान में लोकतांत्रिक राजनैतिक संस्थाओं के गठन के प्रावधान किये गये हैं।
संघीय संसद, राज्यों की विधायिकाओं का गठन जनता के निर्वाचन द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए किया जाता है तथा सरकारों को इन जन-प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है। इस प्रकार संविधान में लोकतंत्र को अपनाने के पीछे यही दर्शन रहा है कि समस्त निर्णय जो जनता को प्रभावित कर सकते हैं, जनता द्वारा लिये जाने चाहिए और ये निर्णय केवल बहुमत के आधार पर ही नहीं बल्कि जनमत तथा लोगों की बड़ी संख्या की स्वतंत्र सहमति पर आधारित होने चाहिए। इस प्रकार लोकतंत्र भारतीय संविधान के दर्शन का आधारभूत तत्त्व है।
2. समानता:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता भी संविधान के दर्शन का आधारभूत तत्त्व है। संविधान में कहा गया है कि सभी नागरिक कानून के समक्ष समान हैं तथा सभी को कानून का समान संरक्षण मिलेगा। राज्य जाति, रंग, लिंग, प्रजाति और सम्पत्ति के आधार पर कोई भेदभावपूर्ण कानून नहीं बनायेगा। लेकिन सामाजिक रूप से शोषित और वंचित लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाने तथा जीवन के प्रत्येक पक्ष में समानता लाने के लिए ऐसे वर्गों के लिए संविधान में कुछ विशेष प्रावधान किये गये हैं। ये विशेष प्रावधान भेदभाव को बढ़ावा नहीं देते हैं बल्कि ये व्यवहार में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समानता को स्थापित करने के सकारात्मक कदम हैं ।
3. व्यक्ति की स्वतंत्रता:
संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। यह प्रतिबद्धता लगभग एक सदी तक निरंतर चली बौद्धिक और राजनैतिक गतिविधियों का परिणाम है। 19वीं सदी के प्रारंभ में भी राममोहन राय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की काट-छांट का विरोध किया था तथा इस बात पर बल दिया कि राज्य के लिए यह जरूरी है कि वह अभिव्यक्ति की असीमित आजादी प्रदान करे। पूरे ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय प्रेस की आजादी की मांग निरन्तर उठाते रहे। इसीलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान का अभिन्न अंग है।
इसी तरह, मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध नागरिकों को स्वतंत्रता दी गई है। इसके अतिरिक्त अन्य वैयक्तिक स्वतंत्रताएँ जैसे- अंतरात्मा का अधिकार, आदि इसमें प्रदान की गई हैं। ये व्यक्तिगत स्वतंत्रताएँ उदारवादी लोकतांत्रिक विचारधारा का अभिन्न अंग हैं। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान मजबूत उदारवादी नींव पर खड़ा है। यही कारण है कि संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों में व्यक्ति की स्वतंत्रताओं को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है।
4. सामाजिक न्याय:
भारतीय संविधान योरोपीय शास्त्रीय परम्परा में उदारवादी नहीं है । शास्त्रीय उदारवाद जहाँ सामाजिक न्याय और सामाजिक मूल्यों के ऊपर हमेशा व्यक्ति को महत्त्व देता है, वहाँ भारत के संविधान का उदारवाद में व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक न्याय और सामाजिक मूल्यों को भी महत्त्व दिया गया है। भारतीय संविधान का उदारवाद शास्त्रीय उदारवाद से दो मायनों में अलग है।
- भारत का संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।
- संविधान के विशेष प्रावधानों के कारण ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए विधायिका में सीटों का आरक्षण तथा सरकारी नौकरियों में इन वर्गों को आरक्षण देना संभव हो सका है।
5. समुदाय आधारित अधिकारों तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान:
भारतीय संविधान का उदारवाद सामुदायिक जीवन-मूल्यों का पक्षधर है। भारतीय संविधान समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा देता है। भारतीय सामुदायिक जीवन-मूल्यों को खुले तौर पर स्वीकार करते हैं। इसके साथ ही भारत में अनेक सांस्कृतिक समुदाय हैं। यहाँ बहुत से भाषायी और धार्मिक समुदाय हैं। संविधान में समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता दी गई है। ऐसे ही अधिकारोंमें एक है। धार्मिक समुदाय का अपनी शिक्षा संस्था स्थापित करने और चलाने का अधिकार। सरकार ऐसी संस्थाओं को धन दे सकती है। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान धर्म को सिर्फ व्यक्ति का निजी मामला नहीं मानता।
6. धर्मनिरपेक्षता:
भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष संविधान है। पश्चिमी विचारधारा में धर्मनिरपेक्षता को धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध के रूप में देखा गया है। इसका आशय यह है कि राज्य को न तो किसी धर्म की कोई मदद करनी चाहिए और न उसके कार्यों में हस्तक्षेप करना चाहिए। उसे धर्म से एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखनी चाहिए। व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह आवश्यक है। राज्य को व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए चाहे उस व्यक्ति का धर्म कोई भी हो। भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पाश्चात्य धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से दो रूपों में भिन्न है।
- भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता से है। इसीलिए भारतीय संविधान सभी धार्मिक समुदायों को अपने शिक्षा संस्थान स्थापित करने और उन्हें चलाने का अधिकार प्रदान करता है।
- भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है, न कि पारस्परिक निषेध राज्य समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता, समता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए अवसर के अनुकूल धर्म के मामले में हस्तक्षेप कर सकता है; वह धार्मिक संगठन द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा संस्थान को धन भी दे सकता है।
7. सार्वभौम मताधिकार:
भारतीय संविधान सार्वभौम मताधिकार के प्रति वचनबद्ध है। भारतीय राष्ट्रवाद की धारणा में हमेशा एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की बात विद्यमान रही है जो समाज के प्रत्येक सदस्य की इच्छा पर आधारित है। सार्वभौम मताधिकार का विचार भारतीय राष्ट्रवाद के बीज विचारों में एक है।
8. संघवाद:
भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना करना है। संविधान में संघात्मक व्यवस्था के प्रावधानों जैसे—संविधान की सर्वोच्चता, शक्तियों का केन्द्र तथा राज्यों की सरकारों के मध्य बँटवारा, स्वतंत्र न्यायपालिका आदि के साथ-साथ एक मजबूत केन्द्रीय सरकार के निर्माण की बात मानी गई है। एक तरफ तो संघवाद का झुकाव केन्द्र सरकार की मजबूती की ओर है दूसरी तरफ भारतीय संघ की विभिन्न इकाइयों की कानूनी हैसियत और विशेषाधिकार में महत्त्वपूर्ण अन्तर है।
इस प्रकार भारतीय संघवाद संवैधानिक रूप से असमतोल है। पूर्वोत्तर से संबंधित अनुच्छेद 371 को जगह देकर भारतीय संविधान ने असमतोल संघवाद जैसी अवधारणा को अपनाया। लेकिन भारतीय संविधान के अनुसार विभिन्न प्रदेशों के साथ इस असमान व्यवहार में कोई बुराई नहीं है।
9. राष्ट्रीय पहचान:
संविधान में समस्त भारतीय जनता की एक राष्ट्रीय पहचान पर निरंतर जोर दिया गया है। हमारी एक राष्ट्रीय पहचान का भाषा या धर्म के आधार पर बनी अलग- अलग पहचानों से कोई विरोध नहीं है । भारतीय संविधान में इन दो पहचानों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की गई है। फिर भी, किन्हीं विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय पहचान को वरीयता प्रदान की गई है।
10. स्वतंत्र न्यायपालिका:
भारत के संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है। निष्पक्ष न्याय, नागरिकों के अधिकारों की रक्षा, संघ सरकार – राज्य सरकार व राज्य सरकारों के मध्य उत्पन्न विवादों को इसके माध्यम से दूर करने का प्रयास किया जाता है।
प्रश्न 3.
भारतीय संविधान की क्या आलोचनाएँ की गई हैं? इसकी प्रमुख सीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की आलोचना: भारतीय संविधान की कई आलोचनाएँ की गई हैं, इनमें से तीन प्रमुख आलोचनाएँ अग्रलिखित हैं।
1. भारतीय संविधान अस्त-व्यस्त: भारतीय संविधान की पहली आलोचना यह की जाती है कि यह संविधान अस्त- व्यस्त या ढीला-ढाला है। इसके पीछे यह धारणा काम करती है कि किसी देश का संविधान एक कसे हुए दस्तावेज के रूप में मौजूद होना चाहिए। लेकिन यह बात संयुक्त राज्य अमरीका जैसे देश के लिए भी सच नहीं है, जहां संविधान एक कसे हुए दस्तावेज के रूप में है। वास्तविकता यह है कि किसी देश का संविधान एक दस्तावेज तो होता ही है, लेकिन इसमें संवैधानिक हैसियत के अन्य दस्तावेजों को भी शामिल किया जाता है।
इससे यह संभव है कि कुछ महत्त्वपूर्ण संवैधानिक वक्तव्य व से नियम उस कसे हुए दस्तावेज से बाहर मिलें जिसे संविधान कहा जाता है। भारत में संवैधानिक हैसियत के ऐसे बहुत वक्तव्यों, ब्यौरों और कायदों को एक ही दस्तावेज के अन्दर समेट लिया गया है। जैस चुनाव आयोग और लोक सेवा आयोग सम्बन्धी प्रावधान भी भारत के संविधान के अंग हैं। इसलिए यह अमेरिका के संविधान की तरह एक कसा हुआ संविधान नहीं बन पाया है।
2. भारतीय संविधान निर्मात्री सभा समस्त जनता की प्रतिनिधि नहीं थी: भारतीय संविधान की दूसरी आलोचना संविधान सभा के प्रतिनिधित्व को लेकर की जाती है कि संविधान सभा के सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित नहीं थे, वे प्रान्तों की विधानसभाओं द्वारा निर्वाचित थे। साथ ही संविधान सभा के सदस्य सीमित मताधिकार से चुने गये थे, न कि सार्वभौमिक मताधिकार से। इस दृष्टि से देखें तो स्पष्ट है कि हमारे संविधान में समस्त जनता का प्रतिनिधित्व नहीं हो सका है। लेकिन यदि प्रतिनिधित्व के दूसरे पक्ष ‘राय’ के आधार पर इस आलोचना का विश्लेषण करें तो हमारे संविधान में गैर- नुमाइंदगी नहीं दिखाई देती है।
क्योंकि संविधान सभा में लगभग हर किस्म की राय रखी गई। संविधान सभा की बहसों में बहुत से मुद्दे उठाये गए और बड़े पैमाने पर राय रखी गई । सदस्यों ने अपने व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकार पर आधारित मसले ही नहीं बल्कि समाज के विभिन्न तबकों के सरोकारों और हितों पर आधारित मसले भी उठाये। अतः राय की दृष्टि से उक्त आलोचना भी पूर्णत: सही नहीं है। क्योंकि संविधान निर्माण के बाद हुए पहले आम चुनाव में संविधान सभा के सभी सदस्य निर्वाचित हुए।
3. यह संविधान भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है। भारतीय संविधान की एक अन्य आलोचना यह की जाती है कि यह एक विदेशी दस्तावेज है। इसका हर अनुच्छेद पश्चिमी संविधानों की नकल है और भारतीय जनता के सांस्कृतिक भावबोध से इसका मेल नहीं बैठता। संविधान सभा के भी बहुत से सदस्यों ने यह बात उठायी थी। लेकिन यह आलोचना भ्रामक है क्योंकि:
(i) अनेक भारतीयों ने चिंतन के आधुनिक तरीके को आत्मसात कर लिया है। इन लोगों के लिए पश्चिमीकरण अपनी परंपरा के विरोध का एक तरीका था। राममोहन राय ने इस प्रवृत्ति की शुरुआत की थी और आज भी यह प्रवृत्ति दलितों द्वारा जारी है।
(ii) जब पश्चिमी आधुनिकता का स्थानीय सांस्कृतिक व्यवस्था से टकराव हुआ तो एक किस्म की संकर संस्कृति उत्पन्न हुई। यह संकर-संस्कृति पश्चिमी आधुनिकता से कुछ लेने और कुछ छोड़ने की रचनात्मक प्रक्रिया का परिणाम थी। ऐसी प्रक्रिया को न तो पश्चिमी आधुनिकता में ढूंढा जा सकता है और न ही देशी परम्परा में। पश्चिमी आधुनिकता और देशी सांस्कृतिक व्यवस्था के संयोग से उत्पन्न इस बहुमुखी परिघटना में वैकल्पिक आधुनिकता का चरित्र है। इस तरह, जब हम अपना संविधान बना रहे थे तो हमारे मन में परंपरागत भारतीय और पश्चिमी मूल्यों के स्वस्थ मेल का भाव था । अतः यह संविधान सचेत चयन और अनुकूलन का परिणाम है, न कि नकल का।
भारतीय संविधान की सीमाएँ: भारतीय संविधान की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं।
- भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
- इसमें लिंगगत न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों विशेषकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है।
- यह बात स्पष्ट नहीं है कि एक गरीब और विकासशील देश में कुछ बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों का अभिन्न हिस्सा बनाने के बजाय उसे राज्य के नीति-निर्देशक तत्व वाले खंड में क्यों डाल दिया गया है। लेकिन संविधान की ये सीमाएँ इतनी गंभीर नहीं हैं कि ये संविधान के दर्शन के लिए ही खतरा पैदा कर दें।