Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन
Jharkhand Board Class 11 Political Science संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका सम्बन्ध किसी मूल्य से है? यदि हाँ, तो वह अन्तर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएँ।
(क) पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा होगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
(घ) बेगार अथवा बंधुआ मजदूरी नहीं करायी जा सकती।
उत्तर:
(क) ‘पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा होगा।’ हाँ, इस कानून का सम्बन्ध समानता और सामाजिक न्याय के सामाजिक मूल्य से है। इसका कारण यह है कि संविधान में स्त्री और पुरुष दोनों को समानता का अधिकार दिया गया है। सरकार किसी कानून में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगी। दूसरे, सामाजिक न्याय का अर्थ भी यही है कि समाज में लिंग, जाति, नस्ल, धर्म आदि के आधार पर कोई भेदभाव न हो। अतः पुत्र और पुत्री दोनों को परिवार की सम्पत्ति में समान हिस्सा दिया जाना सामाजिक न्याय के मूल्य को दर्शाता है। इस प्रकार इस कानून में समानता और सामाजिक न्याय का मूल्य अन्तर्निहित है।
(ख) ‘अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।’ हाँ, इस कानून में भी आर्थिक न्याय का मूल्य अन्तर्निहित है। उपभोक्ता वस्तुओं को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है आवश्यक आवश्यकताओं से संबंधित उपभोक्ता वस्तुएँ और विलासिता की आवश्यकताओं से सम्बन्धित उपभोक्ता वस्तुएँ। इसके अतिरिक्त मानव के शरीर के लिए घातक उपभोक्ता वस्तुएँ भी होती हैं। हम इन्हें तीसरी श्रेणी में ले सकते हैं। ये वस्तुएँ सामान्यतः नशे से सम्बन्धित होती हैं। ऐसी स्थिति में सरकार आर्थिक – न्याय को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग श्रेणी की उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग करती है तथा ऐसे कानून बनाती है।
(ग) ‘किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायेगी। हाँ, इस कानून में धार्मिक मूल्य अन्तर्निहित है और वह है। धर्मनिरपेक्षता का मूल्य/धर्मनिरपेक्षता का आदर्श मूल्य यही है कि राज्य या सरकार सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखेगी तथा किसी भी धर्म विशेष का प्रचार-प्रसार नहीं करेगी। सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा न दिया जाना, धर्मनिरपेक्षता के मूल्य का अनुसरण है।
(घ) ‘बेगार या बंधुआ मजदूरी नहीं करायी जा सकती। हाँ, इस कानून के अन्तर्गत सामाजिक न्याय का मूल्य अन्तर्निहित है। सामाजिक न्याय का यह तकाजा है कि समाज में कसी भी वर्ग का शोषण नहीं किया जाये । यह कानून भी इसी मूल्य को लागू करता है और यह स्थापित करता है कि ‘बेगार या बंधुआ मजदूरी नहीं करायी जा सकती क्योंकि ये दोनों रूप शोषणकारी हैं।’
प्रश्न 2.
नीचे कुछ विकल्प दिये जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता? लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत जाएं।
(क) सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख) अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ) यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी लक्ष्यों से कहीं विचलित न हो
(ङ) शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
उत्तर:
उपर्युक्त विकल्पों में जिस कथन का इस्तेमाल इस कथन- ‘लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत- को पूरा करने के लिए नहीं किया जा सकता वह है। (ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
प्रश्न 3.
संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं। (अ) इनमें से कौनसा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं? कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।
(ब) इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों
(क) आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है। आम जनता इन बहसों की कानून भाषा को नहीं समझ सकती।
(ख) आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियाँ और स्थितियों से अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नए जमाने में इस्तेमाल करना दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।
(ग) संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है।
उत्तर:
(अ) इनमें से (ग) बिन्दु के अन्तर्गत दिया गया कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं तथा इनमें से (क) और (ख) बिन्दु के अन्तर्गत दिये गए कथन इस बात की दलील हैं कि संविधान सभा की बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।
(ब) इनमें से मैं इस पक्ष का समर्थन करूंगा कि संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है। इसलिए अपने संविधान के मूल में निहित राजनीतिक दर्शन को बार-बार याद करना और उसे टटोलना हमारे लिए जरूरी है और यह राजनीतिक दर्शन हमें संविधान सभा की बहसों में दिये गये तर्कों में मिलता है।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अन्तर स्पष्ट करें।
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ
(ख) अनुच्छेद 370 और 371
(ग) सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार।
उत्तर:
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ – धर्मनिरपेक्षता की समझ के मामले में भारतीय संविधान पश्चिमी अवधारणा से अलग है। दोनों में निम्नलिखित अन्तर हैं-
1. पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता से आशय व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता से है जबकि भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता से आशय व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता से है।
2. पश्चिम में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध से है जिसका अर्थ है कि धर्म और राज्य दोनों एक-दूसरे के अन्दरूनी मामलों से दूर रहेंगे। लेकिन भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं है क्योंकि यहां धर्म से अनुमोदित ऐसे रिवाजों, जैसे छुआछूत आदि, जो व्यक्ति को उसकी मूल गरिमा और आत्मसम्मान से वंचित करते हैं; को खत्म करने के लिए राज्य को धर्म के अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप करना पड़ा।
अतः यहाँ राज्य स्वतंत्रता और समता जैसे मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए धार्मिक समुदायों की मदद भी कर सकता है और उनके कार्य में हस्तक्षेप भी कर सकता है। इस प्रकार भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक- निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है।
(ख) अनुच्छेद 370 और 371 – अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अस्थायी या संक्रमणकालीन व्यवस्था करता था और अनुच्छेद 371 उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए विशेष उपबन्धों की व्यवस्था करता है। इन दोनों अनुच्छेदों को जगह देकर भारतीय संघवाद ने ‘असमतोल संघवाद’ की अवधारणा को अपनाया है जबकि पाश्चात्य संविधानों में संघवाद की समतोल अवधारणा को अपनाया गया है। पाश्चात्य संविधानों में जहाँ सभी राज्यों को समानता का दर्जा दिया गया है तथा सभी राज्यों के अपने पृथक्-पृथक् संविधान हैं, वहां भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का समावेश करके जम्मू-कश्मीर राज्य को शेष राज्यों की तुलना में विशेष अधिकार दिए गए थे।
लेकिन 2019 में मोदी सरकार ने 370 अनुच्छेद को हटाकर जम्मू-कश्मीर राज्य में अन्य केन्द्र प्रशासित राज्यों के समान एक केन्द्र प्रशासित राज्य बना कर इन विशेष अधिकारों को समाप्त कर दिया है। इसी प्रकार अनुच्छेद 371 का समावेश करके पूर्वी क्षेत्र के कुछ राज्यों को शेष राज्यों की तुलना में विशेष अधिकार दिये गये हैं। अनुच्छेद 371 के तहत नागालैंड व अन्य पूर्वी क्षेत्र के प्रदेशों को विशेष दर्जा दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुसार विभिन्न प्रदेशों के साथ इस असमान बरताव में कोई बुराई नहीं है।
(ग) सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन:
भारतीय संविधान और पाश्चात्य धारणा में सकारात्मक कार्य योजना के सम्बन्ध में बड़ा अन्तर है। अमेरिका का संविधान 1789 में लागू हुआ। वहां सकारात्मक कार्ययोजना, 1964 के नागरिक अधिकार आंदोलन के बाद प्रारंभ हुई जबकि भारतीय संविधान ने इसे लगभग दो दशक पहले ही अपना लिया था। हमारे संविधान ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आंच लाए बगैर सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को स्वीकार किया है और जाति आधारित ‘सकारात्मक कार्य योजना’ के प्रति संवैधानिक वचनबद्धता प्रकट की है। सकारात्मक कार्य योजना के तहत भारत में उदारवादी व्यक्तिवाद को सामाजिक न्याय के सिद्धान्त तथा समूहगत अधिकार के साथ स्वीकार किया है, जबकि पाश्चात्य संविधानों में ऐसा नहीं होता है।
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार:
पाश्चात्य अवधारणा में सार्वभौम मताधिकार का अधिकार उन देशों में भी जहाँ लोकतंत्र की जड़ स्थायी रूप से जम चुकी थी, कामगार तबके और महिलाओं को काफी देर से दिया गया था जबकि भारतीय राष्ट्रवाद की धारणा में सार्वभौमिक मताधिकार का विचार राष्ट्रवाद के बीज – विचारों में एक है। इसलिए यहां भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को सार्वभौमिक मताधिकार प्रदान किया गया है।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धान्त भारत के संविधान में अपनाया गया है?
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग) राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर:
भारतीय संविधान में धर्म-निरपेक्षता के निम्नलिखित सिद्धान्त अपनाए गए हैं।
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें।
(क) विधवाओं के साथ किये जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी | आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि |
(ख) संविधान सभा में फैसलों को स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना | प्रक्रियागत उपलब्धि |
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना | लैंगिक न्याय की उपेक्षा |
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 | उदारवादी व्यक्तिवाद |
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की सम्पत्ति में असमान अधिकार | क्षेत्र विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना |
उत्तर:
निम्नलिखित कथनों को इस प्रकार सुमेलित किया गया है।
(क) विधवाओं के साथ किये जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी | उदारवादी व्यक्तिवाद |
(ख) संविधान सभा में फैसलों को स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना | प्रक्रियागत उपलब्धि |
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना | आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि |
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 | क्षेत्र विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना |
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की सम्पत्ति में असमान अधिकार | लैंगिक न्याय की उपेक्षा |
प्रश्न 7.
यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्कों को पढ़ें और बताएँ कि आप इनमें से किससे सहमत हैं और क्यों?
जयेश: मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज हैं।
सबा: क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? क्या मूल्यों और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपका सकते हैं? महिलाओं और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें ‘पश्चिमी’ कहने जैसा क्या है? और, अगर ऐसा है तो भी क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर दें?
जयेश: मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने उनकी संसदीय शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?
नेहा: तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे । अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसको अपनाने से कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहां से भी आई हो।
उत्तर:
इस चर्चा में जयेश का विचार है कि ‘हमारा संविधान उधार का दस्तावेज है।’ यहाँ पर आलोचना का विषय यह है कि भारतीय संविधान मौलिक नहीं है क्योंकि इसमें बहुत से अनुच्छेद तो भारतीय शासन अधिनियम, 1935 से शब्दशः लिये गये हैं और बहुत से अनुच्छेद विदेशों के संविधानों से लिये गये हैं। इसमें अपना देशी कुछ भी नहीं है। इसमें प्राचीन या मध्यकालीन भारत का कुछ भी नहीं है।
लेकिन सबा का कहना है कि कोई मूल्य या आदर्श भारतीय या पाश्चात्य नहीं हुआ करते। मूल्य तो मूल्य हैं और आदर्श तो आदर्श होते हैं। जब हम यह कहते हैं कि स्त्री और पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए तो यह बात पाश्चात्य और भारतीय दोनों दृष्टिकोण से ही ठीक है। हमें कोई बात केवल इस आधार पर नकारनी नहीं चाहिए कि वह पश्चिमी अवधारणा से ली गई है। लेकिन नेहा का कथन है कि जब हम ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे, न कि शासन व्यवस्था के प्रति।
हमें कोई भी बात जो हमारे लिए उपयोगी हो, उसे अपनाने में यह नहीं देखना चाहिए कि यह कहां से लायी गयी है। इन तर्कों में हम नेहा के तर्क से सहमत हैं कि मानव की अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप जो बात जिस देश के संविधान से ली जाये उसमें कुछ भी गलत नहीं है। दूसरे देशों से ली गई बातें गलत हों, यह कहना सही नहीं है। इसके विपरीत यदि हम पुरातन भारतीय राजनीतिक संस्थाओं को लेना चाहें तो आधुनिक युग में यह जरूरी नहीं कि वे फिट बैठ सकें।
आलोचकों का यह कहना कि भारतीय संविधान में ‘भारतीयता का पुट नहीं है’ न्यायसंगत नहीं है। संविधान निर्माताओं ने भारतीय संविधान में विदेशी संविधानों से जिन संस्थाओं को ग्रहण किया है, उनको खूब सोच-विचार कर ही कि वे भारतीय परिस्थितियों के संदर्भ में उपयोगी हैं या नहीं, ग्रहण किया है तथा उन्हें ग्रहण करते समय भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाला है। इसलिए भारतीय संविधान के निर्माण में परिवर्तन के साथ चयन की कला को भी अपनाया गया है।
प्रश्न 8.
ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता? अपने उत्तर में कारण बताएँ।
उत्तर:
क्या भारत का संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं है? भारत के संविधान की एक आलोचना यह कह कर की जाती है कि यह प्रतिनिध्यात्मक नहीं है। क्योंकि भारतीय संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया था जिसका गठन 1946 में किया गया था। इसके सदस्य प्रान्तीय विधानमण्डलों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुने गये थे। संविधान सभा में 389 सदस्य थे जिनमें से 292 ब्रिटिश प्रान्तों से तथा 93 देशी रियासतों से थे। चार सदस्य चीफ कमिश्नर वाले क्षेत्रों से थे।
3 जून, 1947 को भारत का विभाजन हुआ और संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या घटकर 299 रह गयी जिसमें 284 सदस्यों ने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान पर हस्ताक्षर किये। संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव चूंकि सार्वभौम मताधिकार द्वारा नहीं हुआ था। अतः कुछ विद्वान इसे प्रतिनिधिमूलक नहीं मानते। लेकिन भारतीय संविधान की यह आलोचना कि संविधान निर्मात्री सभा प्रतिनिधि संस्था नहीं थी, त्रुटिपरक है। यद्यपि यह बात सही है कि सभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से नहीं हुआ था और न ही जनमत संग्रह द्वारा ही संविधान को जनता द्वारा अनुसमर्थित कराया गया था, तथापि इस आलोचना में निम्नलिखित कारणों से कोई सार नहीं है।
- 1946 में जिन परिस्थितियों में संविधान सभा का निर्माण हुआ, उनमें वयस्क मताधिकार के आधार पर इस प्रकार की सभा का निर्माण संभव नहीं था।
- यदि संविधान सभा का गठन प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता अथवा यदि इस संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के प्रारूप पर जनमत संग्रह करवाया जाता, तब भी संविधान सभा का स्वरूप कम या अधिक ऐसा ही होता। क्योंकि 1952 के प्रथम आम चुनाव में संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने चुनाव लड़ा तथा काफी अच्छे बहुमत से विजय प्राप्त की।
- तत्कालीन भारत के सबसे प्रमुख राजनैतिक दल ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ ने संविधान सभा को अधिकाधिक प्रतिनिधि स्वरूप प्रदान करने की प्रत्येक संभव और अधिकांश अंशों में सफल चेष्टा की थी।
- अगर हम प्रतिनिधित्व को ‘राय’ से जोड़ें तो हमारे संविधान में अप्रतिनिधित्व नहीं है। क्यों संविधान सभा में हर किस्म की राय रखी गयी । यदि हम संविधान सभा में हुई बहसों को पढ़ें तो जाहिर होगा कि सभा में बहुत से मुद्दे उठाए गए और बड़े पैमाने पर राय रखी गयी। सदस्यों ने अपने व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकार पर आधारित मसले ही नहीं बल्कि समाज के विभिन्न तबके के सरोकारों और हितों पर आधारित मसले भी उठाये।
प्रश्न 9.
भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैंगिक: न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-से प्रमाण देंगे? यदि आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
उत्तर:
भारतीय संविधान में लैंगिक न्याय की उपेक्षा: भारतीय संविधान में कुछ सीमाएँ भी हैं। उनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सीमा लैंगिक न्याय पर पर्याप्त ध्यान न देने की है। इसमें लैंगिक न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों खासकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है। यथा गया है
1. परिवार की सम्पत्ति में स्त्रियों और बच्चों को समान अधिकार नहीं दिये गये हैं। बेटे और बेटी में अन्तर किया।
2. मूल सामाजिक-आर्थिक अधिकार राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल किये गये हैं जबकि उन्हें मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी सकती।
समान कार्य के लिए स्त्री तथा पुरुष दोनों को समान वेतन राज्य के द्वारा संरक्षित किया गया है। यह अधिकार नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल किया गया है। यह अधिकार मूल अधिकारों का भाग होना चाहिए था क्योंकि राज्य तभी समान कार्य के लिए स्त्री-पुरुष दोनों को समान वेतन दिला सकता है जबकि नीति निर्देशक तत्त्वों के लिए राज्य केवल प्रयास करेगा।
3. भारत के संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए राज्य द्वारा आरक्षण किये जाने का प्रावधान किया गया है। भारत में स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में बहुत पिछड़ी हुई हैं। आर्थिक-सामाजिक, शैक्षिक सभी दृष्टियों से पिछड़ी हुई हैं। अतः स्त्रियों को आरक्षण की सुविधा प्रदान कर लैंगिक न्याय की स्थापना की जानी चाहिए। आज तक स्त्रियों को 33 प्रतिशत आरक्षण संसद व राज्य विधानमण्डल में नहीं दिलवाया जा सका है।
यदि आज हम संविधान लिख रहे होते तो लैंगिक न्याय के जो प्रावधान नीति-निर्देशक तत्त्वों में दिये गये हैं, उन्हें मूल अधिकारों की श्रेणी में सम्मिलित करते तथा परिवार से जुड़े मुद्दे जैसे। परिवार की सम्पत्ति में स्त्रियों और बच्चों को समान अधिकार दिये जाने का प्रावधान किये जाते तथा स्त्रियों को 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करते।
प्रश्न 10.
क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि। ” एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केन्द्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाय राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों वाले खंड में क्यों रख दिए गए यह स्पष्ट नहीं है।” आपकी जानकारी में सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगें?
उत्तर:
नीति-निर्देशक तत्त्व:
भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्व हैं जो कि आयरलैंड के संविधान से ग्रहण किए गए हैं। भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान में केवल राज्य या सरकार के अंगों व उनकी शक्तियों व संरचना का ही वर्णन नहीं किया है बल्कि इसमें नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है तथा नीति की वह दिशा भी निश्चित की गई है जिसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न केन्द्र तथा राज्यों की सरकारों को करना है। संविधान निर्माताओं का लक्ष्य भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था।
इसलिए उन्होंने नीति- निर्देशक तत्त्वों में ऐसी बातों का समावेश किया, जिन्हें कार्य रूप में परिणत किये जाने पर लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव हो सकती थी। ये निर्देशक तत्त्व हमारे राज्य के सम्मुख कुछ आदर्श उपस्थित करते हैं जिनके द्वारा देश के नागरिकों का सामाजिक, आर्थिक और नैतिक उत्थान हो सकता है।
नीति निर्देशक तत्त्वों की प्रकृति-नीति निर्देशक तत्त्व वाद योग्य नहीं हैं। इन तत्त्वों को किसी भी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकती। इस प्रकार नीति निर्देशक तत्त्वों को मूल अधिकारों के समान वैधानिक शक्ति प्रदान नहीं की गई है। इसका अर्थ है कि नीति निर्देशक तत्त्वों की क्रियान्विति के लिए न्यायालय के द्वारा किसी भी प्रकार के आदेश जारी नहीं किये जा सकते। लेकिन वैधानिक महत्त्व प्राप्त न होने पर भी ये तत्त्व शासन के संचालन के आधारभूत सिद्धान्त हैं और राज्य का यह कर्त्तव्य है कि व्यवहार में सदैव ही इन तत्त्वों का पालन करे।
सामाजिक: आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक वाले खंड में रखने के कारण संविधान निर्माताओं ने नीति निर्देशक तत्त्वों को मूल अधिकारों के खंड में इसलिए नहीं रखा क्योंकि वे इन्हें वाद योग्य नहीं बनाना चाहतेथे । इसका कारण यह था कि भारत उस समय पराधीनता के चंगुल से छूटा था। उसकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि यदि नीति निर्देशक तत्त्वों को वाद योग्य बनाया जाता तो आर्थिक संकट उभर सकता था और उसके कारण समय-समय पर अनेक समस्यायें उठ सकती थीं।
इस स्थिति से बचने के लिए संविधान निर्माताओं ने नीति निर्देशक तत्त्वों के सम्बन्ध में राज्य को निर्देश दिया है कि वे इन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुकूल पूरा करने का प्रयास करें। इनके सम्बन्ध में नागरिकों को यह अधिकार नहीं दिया गया है कि वे इन तत्त्वों को पूरा कराने के लिए राज्य के विरुद्ध न्यायालय में जा सकें।
संविधान का राजनीतिक दर्शन JAC Class 11 Political Science Notes
→ संविधान के दर्शन का क्या आशय है?
कानून और नैतिक मूल्यों के बीच गहरा सम्बन्ध है। इसी कारण संविधान को एक ऐसे दस्तावेज के रूप में देखना जरूरी है जिसके पीछे एक नैतिक दृष्टि काम कर रही हो। संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन का नजरिया अपनाने की जरूरत है। संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन के नजरिये में तीन बातें शामिल हैं।
- संविधान कुछ अवधारणाओं के आधार पर बना है। जैसे अधिकार, नागरिकता, अल्पसंख्यक, लोकतंत्र आदि इन अवधारणाओं की व्याख्या हमारे लिए जरूरी है।
- संविधान का निर्माण जिन आदर्शों की नींव पर हुआ है, उन पर हमारी गहरी पकड़ होनी चाहिए।
- संविधान के आदर्शों और मूल्यों की सुसंगतता के पीछे क्या तर्क दिये गये हैं।
→ इस प्रकार संविधान के अन्तर्निहित नैतिक तत्त्व को जानने और उसके दावे के मूल्यांकन के लिए संविधान के प्रति राजनीतिक दर्शन का नजरिया अपनाने की जरूरत है ताकि हम अपनी शासन व्यावस्था के बुनियादी मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को एक कसौटी पर जांच सकें । संविधान के आदर्श अपने-आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मूल्यों या आदर्शों की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं की जांच हेतु संविधान के आदर्शों का प्रयोग एक कसौटी के रूप में होना चाहिए।
→ संविधान – लोकतांत्रिक बदलाव का साधन:
संविधान को अंगीकार करने का एक बड़ा कारण है-सत्ता को निरंकुश होने से रोकना। संविधान सत्ता के बुनियादी नियम प्रदान करता है और राज्य को निरंकुश होने से रोकता है। संविधान हमें गहरे सामाजिक बदलाव के लिए शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक साधन भी प्रदान करता है। औपनिवेशिक दासता में रहे लोगों के लिए संविधान राजनीतिक आत्मनिर्णय का उद्घोष है।
→ और इसका पहला वास्तविक अनुभव भी। भारतीय संविधान का निर्माण परम्परागत सामाजिक ऊँच-नीच के बंधनों को तोड़ने और स्वतंत्रता, समता और न्याय के युग में प्रवेश के लिए हुआ। इस दृष्टि से संविधान की मौजूदगी सत्तासीन लोगों की शक्ति पर अंकुश ही नहीं लगाती बल्कि जो लोग परम्परागत तौर पर सत्ता से दूर रहे हैं उनका सशक्तिकरण भी करती है। संविधान सभा की ओर मुड़कर क्यों देखें?
→ जब संवैधानिक व्यवहार: बरताव को चुनौती मिले, खतरा मंडराये या उपेक्षा हो, तब इन पर पकड़ बनाए रखने के लिए इनके (व्यवहार – बरतावों के ) मूल्य और अर्थ को समझने के लिए संविधान सभा की बहसों को मुड़कर देखने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं रहता। इसलिए अपने संविधान के मूल में निहित राजनीतिक दर्शन को बार-बार याद करना और उसे टटोलना हमारे लिए जरूरी है।
→ हमारे संविधान का राजनीतिक दर्शन क्या है?
भारतीय संविधान स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रीय एकता का राजनीतिक दर्शन है। इन सबके साथ वह इस बात पर भी बल देता है कि उसके दर्शन पर शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से अमल किया जाये। यथा-
→ व्यक्ति की स्वतंत्रता: भारतीय संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। यह प्रतिबद्धता लगभग एक सदी तक निरंतर चली बौद्धिक और राजनैतिक गतिविधियों का परिणाम है। आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान का अभिन्न अंग है। इसी तरह, मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध हमें स्वतंत्रता प्रदान की गई है। मौलिक अधिकारों में भारतीय संविधान में व्यक्ति की स्वतंत्रता को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान एक उदारवादी संविधान है।
→ सामाजिक न्याय:
भारतीय संविधान का उदारवाद शास्त्रीय उदारवाद से भिन्न है क्योंकि यह सामाजिक न्याय से जुड़ा है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। विविधता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान संविधान का उदारवाद सामुदायिक जीवन-मूल्यों का पक्षधर है। भारतीय संविधान समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा देता है। भारत में अनेक सांस्कृतिक, भाषायी और धार्मिक समुदाय हैं। इन समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ाने के लिए समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता देना जरूरी हो गया। ऐसे ही अधिकारों में से एक है। धार्मिक समुदाय का अपनी शिक्षा संस्था स्थापित करने और चलाने का अधिकार।
→ धर्मनिरपेक्षता: भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य से आशय यह है कि राज्य न तो किसी धार्मिक संस्था की मदद करेगा और न ही उसे बाधा पहुँचायेगा। वह धर्म से एक सम्मानजनक दूरी बनाये रखेगा। इसी प्रकार राज्य नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हुए धर्म को आधार नहीं बनायेगा। राज्य को व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए चाहे उस व्यक्ति का धर्म कोई भी हो।
→ धार्मिक समूहों के अधिकार: भारतीय संविधान सभी धार्मिक समुदायों को शिक्षा संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार प्रदान करता है। भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता होता है।
→ राज्य का हस्तक्षेप करने का अधिकार:
धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ भारत में पारस्परिक निषेध ( धर्म और राज्य दोनों एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों से दूर रहेंगे) नहीं हो सकता क्योंकि धर्म से अनुमोदित रिवाज, जैसे- छुआछूत, व्यक्ति को उसकी मूल गरिमा और आत्मसम्मान से वंचित करते हैं। राज्य के हस्तक्षेप के बिना इनके खात्मे की उम्मीद नहीं थी। इसलिए यहाँ राज्य को धर्म के अन्दरूनी मामले में हस्तक्षेप करना ही पड़ा।
से हस्तक्षेप नकारात्मक के साथ-साथ सकारात्मक भी हो सकते हैं, जैसे- राज्य धार्मिक संगठन द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा संस्थान को धन दे सकता है। यह इस बात पर निर्भर है कि राज्य के किन कदमों से स्वतन्त्रता और समता जैसे मूल्यों को बढ़ावा मिलता है। दूरी है। अतः भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत, भारतीय संविधान की उपलब्धियाँ भारतीय संविधान की ये उपलब्धियाँ हैं।
- भारतीय संविधान ने उदारवादी व्यक्तिवाद को एक शक्ल देकर उसे मजबूत किया है।
- भारतीय संविधान ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आंच लाए बगैर सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को स्वीकार किया
- भारतीय संविधान ने सामुदायिक विविधता व तनाव के बावजूद समूहगत अधिकार प्रदान किये हैं।
- सार्वभौमिक मताधिकार के प्रति वचनबद्धता भारतीय संविधान की चौथी उपलब्धि है।
- पूर्वोत्तर से संबंधित अनुच्छेदों को जगह देकर भारतीय संविधान ने ‘असमतोल संघवाद’ जैसी महत्त्वपूर्ण अवधारणा को अपनाया है। लेकिन भारत के लोकतांत्रिक और भाषायी संघवाद ने सांस्कृतिक पहचान के दावे को एकता के दावे के साथ जोड़ने में सफलता पायी है।
→ राष्ट्रीय पहचान: संविधान में समस्त भारतीय जनता की एक राष्ट्रीय पहचान पर निरंतर जोर दिया गया है। हमारी इस राष्ट्रीय पहचान का भाषा या धर्म के आधार पर बनी अलग- अलग पहचानों से कोई विरोध नहीं हैं। भारतीय संविधान में इन दो पहचानों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की गई है। फिर भी, किन्हीं विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय पहचान को वरीयता प्रदान की गई है। फैसला
→ प्रक्रियागत उपलब्धि:
- भारतीय संविधान का विश्वास राजनीतिक विचार-विमर्श में है।
- सुलह और समझौते पर बल देना। संविधान सभा इस बात पर अडिग थी कि किसी महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर बहुमत के बजाय सर्वानुमति से लिया जाये।
→ आलोचना: भारतीय संविधान की प्रमुख आलोचनाएँ ये हैं;
यह संविधान अस्तव्यस्त है। भारतीय संविधान में संवैधानिक हैसियत के ऐसे बहुत से वक्तव्यों, ब्यौरों, और कायदों को एक ही दस्तावेज के अन्दर समेट लिया है, जो प्रायः कसे हुए संविधान में संविधान से बाहर होते हैं। जैसे चुनाव आयोग तथा लोक सेवा आयोग सम्बन्धी संवैधानिक प्रावधान।
→ इसमें सबकी नुमाइंदगी नहीं हो सकी है। हमारे संविधान में गैर- नुमाइंदगी इसलिए थी क्योंकि संविधान सभा के सदस्य सीमित मताधिकार से चुने गये थे, न कि सार्वभौमिक मताधिकार से। लेकिन यदि हम संविधान सभा की बहसों को पढ़ें तो स्पष्ट होता है कि सभा में बहुत से मुद्दे उठाये गए और उन पर बड़े पैमाने पर राय रखी गयी। इस दृष्टि से भारतीय संविधान में सबकी नुमाइंदगी दिखाई देती है।
→ यह संविधान भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है। यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान एक विदेशी दस्तावेज है। इसका हर अनुच्छेद पश्चिमी संविधानों की नकल है तथा भारतीय जनता के सांस्कृतिक भावबोध से इसका मेल नहीं बैठता। लेकिन यह आरोप गलत है। यह बात सच है कि भारतीय संविधान आधुनिक और अंशतः पश्चिमी है, लेकिन इससे यह पूरी तरह विदेशी नहीं हो जाता बल्कि यह संविधान सचेत चयन और अनुकूलन का परिणाम है न कि नकल का।
→ संविधान की सीमाएँ।
- भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
- इसमें लिंगागत-न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों विशेषकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है।
- कुछ बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक वाले खंड में डाल दिया गया है। लेकिन संविधान की ये सीमाएँ इतनी गंभीर नहीं हैं कि ये संविधान के दर्शन के लिए ही खतरा पैदा कर दें।
→ निष्कर्ष: भारत का संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है। इसकी केन्द्रीय विशेषताएँ इसे जीवन्त बनाती हैं। संविधान सभा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उत्पन्न संवैधानिक दर्शन को परिष्कार कर उसे संविधान के रूप में विधिक सांस्थानिक रूप प्रदान किया है। संविधान के दर्शन का सर्वोत्तम सार-संक्षेप संविधान की प्रस्तावना में है। इसमें समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व के उद्देश्यों के साथ-साथ यह भी कहा गया है कि जनता ने संविधान का निर्माण किया है और लोकतंत्र एक साधन है जिसके सहारे जनता वर्तमान और भविष्य को आकार देती है।