Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार
Jharkhand Board Class 11 Political Science अधिकार InText Questions and Answers
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प्रश्न 1.
समूह या समुदाय विशेष को दिए गए निम्न अधिकारों में से कौन-से न्यायोचित हैं? चर्चा कीजिए
(अ) एक शहर में जैन समुदाय के लोगों ने अपना विद्यालय खोला और उसमें केवल अपने समुदाय के छात्र – छात्राओं को ही प्रवेश दिया।
(ब) हिमाचल प्रदेश में वहाँ के स्थायी निवासियों के अलावा बाकी लोग जमीन या अन्य अचल सम्पत्ति नहीं खरीद सकते।
(स) एक सह शिक्षा विद्यालय के प्रधानाध्यापक ने एक सर्कुलर जारी किया कि कोई भी छात्रा किसी भी प्रकार का पश्चिमी परिधान नहीं पहनेगी।
(द) हरियाणा की एक पंचायत ने निर्णय दिया कि अलग-अलग जातियों के जिस लड़के और लड़की ने शादी कर ली थी, वे अब गांव में नहीं रहेंगे।
उत्तर:
समूह का समुदाय विशेष को दिए गए उपर्युक्त अधिकारों में से (ब) न्यायोचित है।
Jharkhand Board Class 11 Political Science अधिकार Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
अधिकार क्या हैं और वे महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
अधिकार से आशय:
अधिकार व्यक्ति के वे दावे हैं, जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हो तथा राज्य द्वारा संरक्षण प्राप्त हो। एक नागरिक, व्यक्ति और मनुष्य होने के नाते अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज के समक्ष कुछ मांगें (दावे) प्रस्तुत करते हैं और शेष समाज सामाजिक हित की दृष्टि से व्यक्ति की उन माँगों को मान्यता प्रदान कर देता है तो वे मांगें या दावे अधिकार कहलाते हैं। समाज में इन अधिकारों को कार्यान्वित करने के लिए कानूनी मान्यता की भी आवश्यकता होती है। अतः अधिकार राज्य के संरक्षण के बिना प्रभावहीन हैं। इसलिए वास्तविक अर्थों में अधिकार के लिए व्यक्ति की मांगों को समाज द्वारा मान्यता तथा राज्य का संरक्षण आवश्यक होता है।
प्रो. अर्नेस्ट बार्कर ने कहा है कि ” अधिकार राज्य द्वारा संरक्षित उस क्षमता का नाम है जिससे समाज में मुझे एक विशिष्ट स्थिति मिली होती है। अधिकार वे कानूनी परिस्थितियाँ हैं जो व्यक्ति को कुछ कार्यों को करने की स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं। “वाइल्ड के अनुसार, “कुछ विशेष कार्यों को करने की स्वतंत्रता की विवेकपूर्ण माँग को अधिकार कहा जाता है।” इस प्रकार अधिकार ऐसी अनिवार्य परिस्थितियाँ हैं जो मानवीय विकास हेतु जरूरी हैं। वह व्यक्ति की माँग तथा उसका हक है, जिसे समाज, राज्य तथा कानून भौतिक मान्यता देते हुए उसकी रक्षा करते हैं।
अधिकार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं? अधिकार निम्नलिखित दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
- अधिकार लोगों के सम्मान और गरिमा का जीवन बसर करने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
- अधिकार हमारी दक्षता और प्रतिभा के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
- अधिकार सरकार को निरंकुश बनने से रोकते हैं
- अधिकार सामाजिक कल्याण का एक साधन हैं।
अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार; अधिकारों का दावा करने के लिए निम्नलिखित उपयुक्त आधार हो सकते हैं:
1. हमारे सम्मान और गरिमा का आधार:
अधिकारों की दावेदारी का पहला आधार यह है कि अधिकार उन बातों का द्योतक है, जिन्हें मैं और अन्य लोग सम्मान और गरिमा का जीवन बसर करने के लिए आवश्यक समझते हैं। उदाहरण के लिए, आजीविका का अधिकार सम्मानजनक जीवन जीने के लिए जरूरी है। लाभकर रोजगार में नियोजित होना व्यक्ति को आर्थिक स्वतंत्रता देता है, इसीलिए यह उसकी गरिमा के लिए प्रमुख है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार हमें सृजनात्मक और मौलिक होने का मौका देता है।
2. हमारी बेहतरी का आधार:
अधिकारों की दावेदारी का दूसरा आधार यह है कि वे हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं। ये लोगों को उनकी दक्षता और प्रतिभा विकसित करने में सहयोग देते हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षा का अधिकार हमारी तर्क शक्ति विकसित करने में मदद करता है, हमें उपयोगी कौशल प्रदान करता है और जीवन में सूझ- बूझ के साथ चयन करने में सक्षम बनाता है। व्यक्ति के कल्याण के लिए इस हद तक शिक्षा को अनिवार्य समझा जाता है कि उसे सार्वभौमिक अधिकार माना गया है।
अगर कोई मांग या दावा हमारे स्वास्थ्य और कल्याण के लिए हानिकारक है, तो उसे अधिकार नहीं माना जा सकता। उदाहरण के लिए, चूंकि नशीली दवाएँ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं तथा ये अन्यों के साथ हमारे सम्बन्धों पर बुरा प्रभाव डालती हैं, इसलिए हम यह दावा नहीं कर सकते कि हमें नशीले पदार्थों के सेवन करने का अधिकार होना चाहिए। नशीले पदार्थ न केवल हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाते हैं, बल्कि वे कभी-कभी हमारे आचरण के रंग-ढंग को बदल देते हैं और हमें अन्य लोगों के लिए खतरा करार देते हैं। अतः धूम्रपान करने या प्रतिबंधित दवाओं के सेवन को अधिकार के रूप में मान्य नहीं किया जा सकता।
प्रश्न 2.
किन आधारों पर अधिकार अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक माने जाते हैं?
उत्तर:
अधिकारों की सार्वभौमिक प्रकृति के आधार: निम्नलिखित दो आधारों पर अधिकार अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक माने जाते हैं।
(अ) प्राकृतिक अधिकारों का विचार
(ब) मानवाधिकार
(अ) प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त:
17वीं तथा 18वीं शताब्दी में राजनीतिक सिद्धान्तकार यह तर्क देते थे कि हमारे लिए अधिकार प्रकृति या ईश्वर प्रदत्त हैं। हमें जन्म से अधिकार प्राप्त हैं। अतः कोई व्यक्ति या शासक उन्हें हमसे छीन नहीं सकता। उन्होंने मनुष्य के तीन प्राकृतिक अधिकार चिन्हित किये जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार और सम्पत्ति का अधिकार अन्य सभी अधिकार इन मूलभूत अधिकारों से ही निकले हैं। ये अधिकार हमें व्यक्ति होने के नाते प्राप्त हैं, क्योंकि ये ईश्वर प्रदत्त हैं। इसलिए ये अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक प्राकृतिक अधिकारों के विचार का प्रयोग राज्यों अथवा सरकारों के द्वारा स्वेच्छाचारी शक्ति के प्रयोग का विरोध करने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए किया जाता था।
(ब) मानवाधिकार:
वर्तमान में प्राकृतिक अधिकार शब्द से ज्यादा मानवाधिकार शब्द का प्रयोग हो रहा है, क्योंकि अधिकारों के प्राकृतिक या ईश्वर प्रदत्त होने का विचार आज अस्वीकार्य लग रहा है। आजकल अधिकारों को ऐसी गारंटियों के रूप में देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है जिन्हें मनुष्य ने एक अच्छा जीवन जीने के लिए स्वयं ही खोजा या पाया है। मानव अधिकारों के पीछे यह मान्यता है कि सभी लोग, मनुष्य होने मात्र से कुछ चीजों को पाने के अधिकारी हैं। एक मानव के रूप में प्रत्येक मनुष्य समान महत्त्व का है अर्थात् एक आंतरिक दृष्टि से सभी मनुष्य समान हैं और कोई भी व्यक्ति दूसरों का नौकर होने के लिए पैदा नहीं हुआ है। इसलिए सभी मनुष्यों को स्वतंत्र रहने और अपनी पूरी संभावना को साकार करने का समान अवसर मिलना चाहिए।
अधिकारों की इसी समझदारी पर संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणा पत्र बना है। इस विचार का प्रयोग नस्ल, जाति, धर्म, लिंग पर आधारित विद्यमान असमानताओं को चुनौती देने के लिए किया जाता रहा है। पूरी दुनिया के उत्पीड़ित मनुष्य सार्वभौम मानवाधिकार की अवधारणा का इस्तेमाल उन कानूनों को चुनौती देने के लिए कर रहे हैं जो उन्हें पृथक करने वाले और समान अवसरों तथा अधिकारों से वंचित करते हैं। विविध समाजों में ज्यों-ज्यों नये खतरे और चुनौतियाँ उभरती आई हैं, त्यों-त्यों उन मानवाधिकारों की सूची लगातार बढ़ती गई है, जिनका लोगों ने दावा किया है।
जैसे पर्यावरण की सुरक्षा की आवश्यकता ने स्वच्छ हवा, शुद्ध पानी, टिकाऊ विकास जैसे अधिकारों की माँग पैदा की है। इसी प्रकार युद्ध या प्राकृतिक संकट के दौरान महिलाओं व बच्चों की समस्याओं ने आजीविका के अधिकार, बच्चों के अधिकार जैसे अधिकारों की मांग भी पैदा की है। ये दावे मानव गरिमा के अतिक्रमण के प्रति नैतिक आक्रोश का भाव व्यक्त करते हैं और वे समस्त मानव समुदाय हेतु अधिकारों के प्रयोग और विस्तार के लिए लोगों से एकजुट होने का आह्वान करते हैं।
प्रश्न 3.
संक्षेप में उन नए अधिकारों की चर्चा कीजिए जो हमारे देश के सामने रखे जा रहे हैं। उदाहरण के लिए आदिवासियों के अपने रहवास और जीने के तरीके को संरक्षित रखने तथा बच्चों के बंधुआ मजदूरी के खिलाफ अधिकार जैसे नये अधिकारों को लिया जा सकता है।
उत्तर:
भारत में संविधान द्वारा नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं। ये मौलिक अधिकार बाकी सारे अधिकारों के स्रोत हैं। हमारा संविधान और हमारे कानून हमें और बहुत सारे अधिकार देते हैं और साल दर साल अधिकारों का दायरा बढ़ता गया है। यथा
1. समय-समय पर अदालतों ने ऐसे फैसले दिये हैं जिनसे अधिकारों का दायरा बढ़ा है। प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार, सूचना का अधिकार और शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकारों के ही विस्तार हैं। अब स्कूली शिक्षा हर भारतीय का अधिकार बन चुकी है। 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दिलाना सरकार की जिम्मेदारी है। संसद ने नागरिकों को सूचना का अधिकार देने वाला कानून भी पारित कर दिया है जो कि विचारों और . अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत ही है। हमें सरकारी दफ्तरों से सूचना मांगने और पाने का अधिकार है।
2. सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन के अधिकार को नया विस्तार देते हुए उसमें भोजन के अधिकार को भी शामिल कर दिया है।
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार के अन्तर्गत बेगार प्रथा का निषेध किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने बेगार प्रथा के अन्तर्गत ही ‘बंधुआ मजदूरी प्रथा’ को भी अन्तर्निहित किया है और बंधुआ मजदूरी का भी निषेध किया है। इसके अन्तर्गत ही बच्चों की बंधुआ मजदूरी के खिलाफ अधिकार निहित है तथा सभी प्रकार की बंधुआ मजदूरी को अवैध घोषित कर दिया गया है तथा उसके विरुद्ध अधिकार प्रदान किया गया है। लोकहित याचिकाओं के माध्यम से यह अधिकार प्रभावी बनाया गया है।
4. आदिवासियों को भी अपने रहने और जीने के तरीके संरक्षित रखने के अधिकार को संस्कृति के अधिकार के. तहत लिया जा सकता है। इस प्रकार हमारे देश के सामने अनेक नये अधिकार रखे जा रहे हैं। इन अधिकारों की मांग या तो वंचित समुदाय अपने संघर्ष के द्वारा प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं या न्यायपालिका अपने निर्णयों द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अन्तर्निहित सिद्धान्त के द्वारा इनका विस्तार कर रहे हैं।
प्रश्न 4.
राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों में अंतर बताइये। हर प्रकार के अधिकार के उदाहरण भी दीजिये।
उत्तर:
राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों में अन्तर
1. राजनीतिक अधिकार:
राजनीतिक अधिकार नागरिकों के कानून के समक्ष बराबरी तथा राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी का हक देते हैं तथा ये नागरिक स्वतंत्रताओं से जुड़े होते हैं। इस प्रकार राजनीतिक अधिकार किसी सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली की बुनियाद का निर्माण करते हैं। राजनीतिक अधिकार सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाकर, शासकों की अपेक्षा लोगों के सरोकार को अधिक महत्त्व देकर तथा सभी लोगों के लिए सरकार के निर्णयों को प्रभावित करने का मौका सुनिश्चित करने में सहयोग करते हैं।
राजनीतिक अधिकारों के प्रमुख उदाहरण हैं। वोट देने और प्रतिनिधि चुनने, चुनाव लड़ने, राजनीतिक पार्टियाँ बनाने या उनमें शामिल होने का अधिकार; स्वतंत्रता व समानता का अधिकार, निष्पक्ष जांच का अधिकार, विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार तथा असहमति प्रकट करने तथा प्रतिवाद करने का अधिकार आदि।
2. आर्थिक अधिकार:
आर्थिक अधिकार वे होते हैं जो नागरिकों को बुनियादी जरूरतों – भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य आदि की जरूरतों की पूर्ति हेतु पर्याप्त मजदूरी और मेहनत की उचित परिस्थितियों जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराते हैं। राजनीतिक अधिकारों को पूरी तरह से व्यवहार में लाने के लिए बुनियादी जरूरतों की पूर्ति आवश्यक है। फुटपाथ पर रहने और बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए संघर्ष करने वालों के लिए अपने-आप में राजनीतिक अधिकार का कोई मूल्य नहीं है।
इस प्रकार राजनीतिक अधिकार जहाँ लोकतांत्रिक प्रणाली की नींव का निर्माण करते हैं, वहीं आर्थिक अधिकार उस नींव पर भव्य तथा रहने योग्य भवन का निर्माण करते हैं। प्रमुख आर्थिक अधिकार हैं। काम का अधिकार, न्यूनतम वेतन प्राप्त करने का अधिकार, समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार, अवकाश का अधिकार, प्रसूति अवकाश, आर्थिक सुरक्षा का अधिकार आदि।
3. सांस्कृतिक अधिकार:
लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आजकल राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के साथ नागरिकों के सांस्कृतिक अधिकारों को भी मान्यता दे रही हैं। सांस्कृतिक अधिकार से आशय है। अपनी भाषा और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने से संबंधित स्वतंत्रताएँ व सुविधायें प्राप्त करना। प्रमुख सांस्कृतिक अधिकार हैं। अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार, अपनी भाषा और संस्कृति के शिक्षण के लिए संस्थाएँ बनाने का अधिकार आदि। सांस्कृतिक अधिकार किसी समुदाय को बेहतर जिंदगी जीने के लिए आवश्यक माने जाते हैं।
प्रश्न 5.
अधिकार राज्य की सत्ता पर कुछ सीमाएँ लगाते हैं। उदाहरण सहित व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
अधिकार और राज्य की सत्ता पर सीमाएँ: अधिकार राज्य से किये जाने वाले दावे हैं; इनके माध्यम से हम राज्य सत्ता से कुछ मांग करते हैं और राज्य की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उन अधिकारों को लागू करने के लिए आवश्यक उपायों का प्रवर्तन करे, जिससे हमारे अधिकारों की पूर्ति सुनिश्चित हो सके। लेकिन अधिकारों को लागू करने के सम्बन्ध में अधिकार राज्य की सत्ता पर अनेक सीमाएँ भी लगाते हैं। यथा।
1. प्रत्येक अधिकार निर्देशित करता है कि राज्य को क्या करना है।
अधिकार राज्य को कुछ खास तरीकों से काम करने के लिए वैधानिक दायित्व सौंपते हैं। प्रत्येक अधिकार निर्देशित करता है कि राज्य के लिए क्या करने योग्य है और क्या नहीं? उदाहरण के लिए, मेरा जीवन जीने का अधिकार राज्य को ऐसे कानून बनाने के लिए बाध्य करता है, जो दूसरों के द्वारा क्षति पहुँचाने से मुझे बचा सके। यह अधिकार राज्य से मांग करता है कि वह मुझे चोट या नुकसान पहुँचाने वालों को दंडित करे।
यदि कोई समाज महसूस करता है कि जीने के अधिकार का अर्थ अच्छे स्तर के जीवन का अधिकार है, तो वह राज्य सत्ता से ऐसी नीतियों के अनुपालन की अपेक्षा करता है, जो स्वस्थ जीवन के लिए स्वच्छ पर्यावरण और अन्य आवश्यक निर्धारकों का प्रावधान करे। इस प्रकार मेरा अधिकार यहाँ राजसत्ता पर यह सीमा लगाता है कि वह खास तरीके से काम करने के अपने वैधानिक दायित्व को पूरा करे।
2. अधिकार यह भी बताते हैं कि राज्य को क्या कुछ नहीं करना है।
अधिकार सिर्फ यह ही नहीं बताते कि राज्य को क्या करना है, वे यह भी बताते हैं कि राज्य को क्या कुछ नहीं करना है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार कहता है कि राज्यसत्ता महज अपनी मर्जी से उसे गिरफ्तार नहीं कर सकती। अगर वह किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है, तो उसे इस कार्रवाई को जायज ठहराना पड़ेगा और उसे किसी न्यायालय के समक्ष इस व्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करने का कारण बताना होगा। इसीलिए, मुझे पकड़ने से पहले गिरफ्तारी का वारंट दिखाना पुलिस के लिए आवश्यक होता है। इस प्रकार मेरे अधिकार राजसत्ता पर कुछ अंकुश भी लगाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि हमारे अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की सत्ता वैयक्तिक जीवन और स्वतंत्रता का उल्लंघन किये बगैर कार्य करे।
3. जनकल्याण की सीमा: हमारे अधिकार राज्य सत्ता पर जनकल्याण हेतु कार्य करने की सीमा भी लगाते हैं। राज्य संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न हो सकता है, उसके द्वारा निर्मित कानून बलपूर्वक लागू किये जा सकते हैं, लेकिन संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य का अस्तित्व अपने लिए नहीं, बल्कि व्यक्ति के हित के लिए होता है। इसमें जनता का ही अधिक महत्त्व है। इसलिए सत्तारूढ़ सरकार को उसके ही कल्याण के लिए काम करना होता है। शासक अपनी समस्त कार्यवाहियों के लिए जनता के प्रति जवाबदेह है। इसलिए उसे लोगों के अधिकारों के उपभोग की उचित परिस्थितियाँ पैदा करते हुए लोगों की भलाई सुनिश्चित करनी आवश्यक है।
अधिकार JAC Class 11 Political Science Notes
→ अधिकार क्या हैं?
अधिकार मूल रूप से व्यक्ति का ऐसा दावा है जिसका औचित्य सिद्ध हो तथा जिसे शेष समाज ऐसे वैध दावे के रूप में स्वीकार करे जिसका अनुमोदन अनिवार्य हो । अधिकारों की दावेदारी के दो प्रमुख आधार हैं। इसका पहला आधार यह है कि ये वे बातें या वे दावे या मांगें हैं, जिन्हें मैं और अन्य लोग सम्मान और गरिमा का जीवन बसर करने के लिए महत्त्वपूर्ण और आवश्यक समझते हैं और इसका दूसरा आधार यह है कि ये हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं। ये लोगों को उनकी दक्षता और प्रतिभा विकसित करने में सहयोग देते हैं।
→ अधिकार कहाँ से आते हैं?
प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा: 17वीं और 18वीं शताब्दी में राजनीतिक सिद्धान्तकारों का मत था कि हमारे लिए अधिकार प्रकृति या ईश्वर प्रदत्त हैं। ये जन्मजात हैं, कोई इन्हें हमसे छीन नहीं सकता। उन्होंने मनुष्य के तीन प्राकृतिक अधिकार चिन्हित किये थे। ये थे
- जीवन का अधिकार
- स्वतंत्रता का अधिकार और
- संपत्ति का अधिकार अन्य तमाम अधिकार इन्हीं तीन अधिकारों से ही निकले हैं।
→ मानवाधिकार सम्बन्धी अवधारणा:
वर्तमान काल में मानवाधिकार शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके प्राकृतिक होने का विचार आज अस्वीकार्य लगता है। अधिकारों को ऐसी गारंटियों के रूप में देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है जिन्हें मनुष्य ने एक अच्छा जीवन जीने के लिए स्वयं ही खोजा या पाया है। मानव अधिकारों के पीछे मूल मान्यता यह है कि सभी लोग मनुष्य होने के नाते कुछ चीजों को पाने के अधिकारी हैं, जैसे उन्हें स्वतंत्र रहने तथा समान अवसर दिये जाने का अधिकार है।
संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकारों के सार्वभौमिक घोषणापत्र में उन मानव-अधिकारों का उल्लेख किया गया है जिन्हें विश्व सामूहिक रूप से गरिमा और आत्मसम्मान से परिपूर्ण जिंदगी जीने के लिए आवश्यक मानता है। विविध समाजों में ज्यों-ज्यों नए खतरे और चुनौतियाँ उभर रही हैं, त्यों-त्यों इन मानवाधिकारों की सूची निरन्तर बढ़ रही है।
→ कानूनी अधिकार और राज्य सत्ता मानवाधिकारों के दावों की नैतिक अपील चाहे जितनी हो, उनकी सफलता की डिग्री कुछ कारकों पर निर्भर है। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। सरकारों और कानून का समर्थन। यही कारण है कि अधिकारों की कानूनी मान्यता को इतना महत्त्व दिया जाता है। अनेक देशों में अधिकारों के विधेयक वहाँ के संविधान में प्रतिष्ठित रहते हैं। संविधान में उन अधिकारों का उल्लेख रहता है, जो बुनियादी महत्त्व के माने जाते हैं। अपने देश में इन्हें हम मौलिक अधिकार कहते हैं।
→ कानूनी और संवैधानिक मान्यता: अनेक सिद्धान्तकारों ने अधिकार को ऐसे दावों के रूप में परिभाषित किया है, जिन्हें राज्य मान्य किया हो। लेकिन कानूनी मान्यता के आधार पर किसी अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता, कानूनी मान्यता से हमारे अधिकारों को समाज में एक खास दर्जा अवश्य मिलता है। अधिकतर मामलों में अधिकार राज्य से किए जाने वाले दावे हैं। अधिकारों के माध्यम से हम राज्यसत्ता से कुछ माँग करते हैं। राज्य जब उन मांगों को सामाजिक हित की दृष्टि से मान्यता दे देते हैं और समाज उन्हें स्वीकार कर लेता है, तो वे मांगें अधिकार बन जाते हैं
- अधिकार राज्य से किये जाने वाले दावे हैं। अधिकारों के माध्यम से हम राज्य सत्ता से कुछ मांग करते हैं। राज्य की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अधिकारों को प्रवर्तन में लाने के लिए आवश्यक उपाय करे।
- अधिकार राज्य को कुछ खास तरीकों से कार्य करने के लिए वैधानिक दायित्व सौंपते हैं कि राज्य को क्या कुछ करना है और क्या कुछ नहीं करना है। दूसरे शब्दों में, अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की सत्ता वैयक्तिक जीवन और स्वतंत्रता की मर्यादा का उल्लंघन किये बिना काम करे अर्थात् उसके द्वारा निर्मित कानून जनता के हित के लिए हों और शासक अपनी कार्यवाहियों के लिए जवाबदेह हो।
→ अधिकारों के प्रकार अधिकारों के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं।
- राजनीतिक अधिकार: राजनीतिक अधिकार नागरिकों को कानून के समक्ष बराबरी और राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी का हक देते हैं। इनमें मत देने, प्रतिनिधि चुनने, चुनाव लड़ने, राजनैतिक दल बनाने या उनमें शामिल होने जैसे अधिकार शामिल हैं। राजनीतिक अधिकार नागरिक स्वतंत्रताओं से जुड़े होते हैं; जैसे- स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जाँच का अधिकार, विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार, प्रतिवाद करने तथा असहमति प्रकट करने का अधिकार।
- आर्थिक अधिकार: भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, बेरोजगारी भत्ता आदि सुविधाएँ अपनी बुनियादी करने के लिए दी जाती हैं।
- सांस्कृतिक अधिकार: अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार, अपनी भाषा और संस्कृति के शिक्षण के लिए संस्थाएँ बनाने का अधिकार।
- बुनियादी अधिकार: ुछ अधिकार जैसे जीने का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, समान व्यवहार का अधिकार और राजनीतिक भागीदारी का अधिकार बुनियादी (मूल) अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त हैं।
→ अधिकार और जिम्मेदारियाँ अधिकार न केवल राज्य पर जिम्मेदारी डालते हैं कि वह खास तरीके से काम करे बल्कि ये नागरिकों पर भी निम्नलिखित जिम्मेदारियाँ डालते हैं।
→ अधिकार हमें बाध्य करते हैं कि हम कुछ ऐसी चीजों की भी रक्षा करें, जो हम सबके लिए हितकर हैं; जैसे वायु और जल प्रदूषण कम से कम करना, नए वृक्ष लगाना आदि।
→ अधिकार यह अपेक्षा करते हैं कि मैं अन्य लोगों के अधिकारों का सम्मान करूँ। अर्थात् मेरे अधिकार सब के लिए बराबर और एक ही अधिकार के सिद्धान्त से सीमाबद्ध हैं। टकराव की स्थिति में हमें अपने अधिकारों को संतुलित करना होता है।
→ नागरिकों को अपने अधिकारों पर लगाए जाने वाले नियंत्रण के बारे में चौकस रहना होगा। यह देखना आवश्यक है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नागरिक स्वतंत्रताओं पर थोपे गए प्रतिबन्ध अपने आप में लोगों के अधिकारों के लिए खतरा न बन जाएँ क्योंकि इनका आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है। इसलिए हमें अपने और दूसरों के अधिकारों की रक्षा में सतर्क व जागरूक रहना चाहिए क्योंकि ये लोकतांत्रिक समाज की नींव का निर्माण करते हैं।
→ मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा की प्रस्तावना
10 दिसम्बर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को स्वीकार किया और लागू किया। इसमें सभी सदस्य देशों से मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के पाठ को प्रचारित करने का आह्वान किया गया है। इस घोषणा में मानव की गरिमा और समानता पर बल देते हुए भाषण तथा विश्वास की स्वतंत्रता, विधि का शासन, राष्ट्रों के मध्य मित्रतापूर्ण संबंधों की स्थापना, पुरुषों तथा महिलाओं के प्रति समान अधिकारों के प्रति विश्वास तथा मानव अधिकारों और मूल स्वतंत्रताओं के विश्वस्तर पर सम्मान और अनुपालन को प्रोत्साहित किया गया है।