Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका
Jharkhand Board Class 11 Political Science न्यायपालिका InText Questions and Answers
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प्रश्न 1.
मेरा तो सिर चकरा रहा है और कुछ समझ में नहीं आ रहा। लोकतन्त्र में आप प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति तक की आलोचना कर सकते हैं, न्यायाधीशों की क्यों नहीं? और फिर, यह अदालत की अवमानना क्या बला है? क्या मैं ये सवाल करूँ तो मुझे ‘अवमानना’ का दोषी माना जायेगा?
उत्तर:
भारतीय लोकतन्त्र में प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि हैं, इसलिए हम उनके कार्यों और निर्णयों की आलोचना कर सकते हैं। लेकिन भारतीय संविधान ने लोकतन्त्र की रक्षा, नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा तथा संविधान की सुरक्षा के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और सुरक्षा पर बल देते हुए यह सुनिश्चित किया गया है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका न रहे। इसलिए न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार व्यक्ति के राजनीतिक विचार तथा निष्ठाएँ न होकर कानूनी विशेषज्ञता व योग्यता है।
न्यायाधीशों की सुरक्षा, स्वतन्त्रता और निष्पक्षता को बनाए रखने की दृष्टि से संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अदालत की अवमानना यदि कोई व्यक्ति न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना करता है, तो वह न्यायालय की अवमानना का दोषी है। न्यायालय को उसे दण्डित करने का अधिकार है। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से निर्णय करती है।
यदि मैं यह प्रश्न पूछता हूँ कि मैं न्यायाधीशों की आलोचना क्यों नहीं कर सकता? अदालत की अवमानना क्या है? ऐसे प्रश्न करना तथा उसके कारण खोजना व समझना अदालत की अवमानना नहीं है। क्योंकि इसमें आपने किसी न्यायाधीश के किसी निर्णय की कोई आलोचना नहीं की है, बल्कि यह जानना चाहा है कि हम न्यायाधीशों की आलोचना क्यों नहीं कर सकते और क्या यह लोकतन्त्र के लिए उचित है? यह न्यायाधीशों की अवमानना में नहीं आता है।
प्रश्न 2.
आपकी राय में निम्नलिखित में से कौन-कौन न्यायाधीशों के निर्णय को प्रभावित करते हैं? क्या आप इन्हें ठीक मानते हैं?
(अ) संविधान
(ब) पहले लिए गए फैसले
(स) अन्य अदालतों की राय
(द) जनमत
(य) मीडिया
(र) कानून की परम्पराएँ
(ल) कानून
(व) समय और कर्मचारियों की कमी
(श) सार्वजनिक आलोचना का भय
(स) कार्यपालिका द्वारा कार्यवाही का भय।
उत्तर:
मेरी राय में उपर्युक्त में से निम्नलिखित न्यायाधीशों के निर्णयों को प्रभावित करते हैं और मैं इन्हें ठीक मानता हूँ।
(अ) संविधान
(ब) पहले लिए गए फैसले
(स) अन्य अदालतों की राय
(द) कानून की परम्पराएँ
(व) कानून।
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प्रश्न 3.
मेरा ख्याल है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में मन्त्रिपरिषद् की बात को ज्यादा तरजीह दी जानी चाहिए या फिर यह मान लें कि न्यायपालिका अपनी नियुक्ति आप ही करने वाला निकाय है।
उत्तर:
मैं आपके उपर्युक्त विचारों से सहमत नहीं हूँ क्योंकि यदि न्यायाधीशों की नियुक्ति में मन्त्रिपरिषद् की बात को ज्यादा तरजीह दी जायेगी तो न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ़ जायेगा और कार्यपालिका न्यायपालिका की तटस्थता या निष्पक्षता को खत्म कर उसे प्रतिबद्ध न्यायपालिका की तरफ बढ़ायेगी। यह मानना भी त्रुटिपरक है कि न्यायपालिका अपनी नियुक्ति आप ही करना वाला निकाय है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है, इसमें प्रायः वरिष्ठता की परम्परा का पालन किया जाता है, जिसका आधार अनुभव और योग्यता है।
मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम चार न्यायाधीशों के परामर्श से मुख्य न्यायाधीश कुछ न्यायाधीशों का एक पैनल राष्ट्रपति को भेज देता है। राष्ट्रपति इनमें से किसी की भी नियुक्ति कर सकता है। इस प्रकार अन्तिम निर्णय मन्त्रिपरिषद् द्वारा ही लिया जाता है। मन्त्रिपरिषद् के निर्णय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राजनीतिक निष्ठाओं के प्रभाव में योग्यता को नजर- अंदाज न किया जा सके, इसलिए मन्त्रिपरिषद् के निर्णय पर न्यायाधीशों के परामर्श की कुछ सीमाएँ लगायी गयी हैं। इस प्रकार न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् दोनों महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
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प्रश्न 4.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व: निम्न कारणों से न्यायपालिका की स्वतन्त्रता महत्त्वपूर्ण है।
- समाज में व्यक्तियों के बीच, समूहों के बीच, व्यक्ति या समूह तथा सरकार के बीच उठने वाले विवादों को ‘कानून के शासन के सिद्धान्त’ के आधार पर एक स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही हल किया जा सकता है।
- व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा एक स्वतन्त्र न्यायपालिका ही कर सकती है।
- स्वतन्त्र न्यायपालिका ही यह सुनिश्चित करती है कि लोकतन्त्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले ले।
- स्वतन्त्र न्यायपालिका ही संविधान की रक्षा का कार्य भली-भाँति कर सकती है।
प्रश्न 5.
क्या आपकी राय में कार्यपालिका के पास न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति होनी चाहिए?
उत्तर:
मेरी राय में कार्यपालिका के पास न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति होनी चाहिए, तथापि यह शक्ति निरंकुश नहीं होनी चाहिए, इस पर न्यायालय की सलाह की सीमा भी रहनी चाहिए।
प्रश्न 6.
यदि आप से न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव करने का सुझाव देने को कहा जाये तो आप क्या सुझाव देंगे?
उत्तर:
यदि मुझसे न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव करने का सुझाव देने को कहा जाये तो मैं यह सुझाव दूँगा कि राष्ट्रपति को न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नाम प्रस्तावित करने के लिए बनी कमेटी में चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ-साथ चार वरिष्ठ मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को भी शामिल किया जाना चाहिए जिसमें गृहमन्त्री, विधिमन्त्री व दो अन्य मन्त्री हों। इन आठ व्यक्तियों की कमेटी की सलाह राष्ट्रपति को दी जानी चाहिए।
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प्रश्न 7.
निम्नलिखित दो सूचियों को सुमेलित करें-
सूची – 1
(क) बिहार और भारत सरकार के मध्य विवाद की सुनवाई कौन करेगा?
(ख) हरियाणा के जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील कहाँ की जायेगी?
(ग) एकीकृत न्यायपालिका।
(घ) किसी कानून को असंवैधानिक घोषित करना।
सूची – 2
(1) उच्च न्यायालय
(2) परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार
(3) न्यायिक पुनर्निरीक्षण
(4) मौलिक क्षेत्राधिकार
(5) सर्वोच्च न्यायालय
(6) एकल संविधान।
उत्तर:
(क) बिहार और भारत सरकार के मध्य विवाद की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय करेगा। (क + 5)
(ख) हरियाणा के जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील उच्च न्यायालय में की जायेगी। (ख + 1)
(ग) एकीकृत न्यायपालिका एकल संविधान के कारण है। (ग+6)
(घ) किसी कानून को न्यायपालिका न्यायिक पुनर्निरीक्षण के द्वारा असंवैधानिक घोषित कर सकती है। ( घ+3)
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प्रश्न 8.
सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही फैसले को बदलने की इजाजत क्यों दी गयी है? क्या ऐसा यह मानकर किया गया है कि अदालत से भी चूक हो सकती है? क्या यह सम्भव है कि फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए जो खण्डपीठ बैठी है उसमें वह न्यायाधीश भी शामिल हो, जो फैसला सुनाने वाली खण्डपीठ में था?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही फैसले को बदलने की इजाजत इसलिए दी गई है कि हो सकता है कि पिछले फैसले के समय जो तथ्य सामने नहीं आए हों, उन तथ्यों की रोशनी में उस पर पुनः प्रकाश डाला जा सके। यदि कुछ ऐसे नये तथ्य सामने आते हैं जिनके प्रकाश में पहला फैसला सर्वोच्च न्यायालय को गलत लगता है, तो वह अपने पुराने फैसले को बदल सकता है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय नवीन परिस्थितियों से अनुकूलन करते रहेंगे। यह सम्भव है कि फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए जो खण्डपीठ बैठी है उसमें वह न्यायाधीश भी शामिल हो, जो फैसला सुनाने वाली खण्डपीठ में था।
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प्रश्न 9.
आप एक न्यायाधीश हैं। नागरिकों का एक समूह जनहित याचिका के माध्यम से न्यायालय जाकर प्रार्थना करता है कि वह शहर की नगरपालिका के अधिकारियों को झुग्गी-झोंपड़ियाँ हटाने और शहर को सुन्दर बनाने का काम करने का आदेश दे, ताकि शहर में पूँजी निवेश करने वालों को आकर्षित किया जा सके। उनका तर्क है कि ऐसा करना जनहित में है। झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वालों का पक्ष है कि ऐसा करने पर उनके ‘जीवन के अधिकार’ का हनन होगा। उनका तर्क है कि जनहित के लिए साफ-सुथरे शहर के अधिकार से ज्यादा जीवन का अधिकार महत्त्वपूर्ण है। आप एक निर्णय लिखें और तय करें कि इस ‘जनहित याचिका में जनहित का मुद्दा है या नहीं।
उत्तर:
इस जनहित याचिका में जनहित का मुद्दा नहीं है क्योंकि नागरिकों के समूह ने शहर को सुन्दर बनाने के लिए शहर में पूँजी निवेश करने वालों को आकर्षित करने के लिए नगरपालिका अधिकारियों को झुग्गी-झोंपड़ियाँ हटाने के आदेश के लिए न्यायपालिका को जो जनहित याचिका दी है, उनमें झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले लोगों के हितों को नजर-अंदाज किया है। झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले लोगों का यह पक्ष सही है कि इससे उनके ‘जीवन के अधिकार’ का हनन होगा जो कि साफ- -सुथरे शहर के अधिकार से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
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प्रश्न 10.
न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कब करता है?
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिकता जाँच सकता है और यदि वह संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है। न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग निम्नलिखित दशाओं में करता है।
- जब कभी संसद मूल अधिकारों के विपरीत कोई कानून का निर्माण करती है तो उस कानून के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
- संघीय सम्बन्धों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है। अर्थात् कोई ऐसा कानून या कार्यपालिका का कृत्य जो संविधान में निहित शक्ति – विभाजन की योजना के प्रतिकूल हो तो सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के द्वारा उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है।
प्रश्न 11.
न्यायिक पुनरावलोकन और रिट में क्या अन्तर है?
उत्तर:
रिट याचिकाकर्त्ता के मौलिक अधिकारों को फिर से स्थापित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा उस व्यक्ति या संस्था के विरुद्ध जारी की जाती है, जिसने उसके मौलिक अधिकार का हनन किया है। न्यायिक पुनरावलोकन द्वारा किसी कानून की संवैधानिकता की जाँच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जाती है और सर्वोच्च न्यायालय उसके संविधान के प्रतिकूल होने पर उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है। इस प्रकार रिट द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाती है और न्यायिक पुनरावलोकन के द्वारा संविधान की सुरक्षा की जाती है।
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प्रश्न 12.
निम्न में से न्यायपालिका और संसद के बीच टकराव के कौनसे मुद्दे रहे हैं।
(अ) न्यायाधीशों की नियुक्ति
(ब) न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते
(स) संसद के द्वारा संविधान संशोधन का दायरा
(द) संसद द्वारा न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप।
उत्तर:
न्यायपालिका और संसद के बीच टकराव के मुद्दे रहे हैं।
(अ) न्याधीशों की नियुक्ति।
(स) संसद के द्वारा संविधान संशोधन का दायरा।
(द) संसद द्वारा न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप।
Jharkhand Board Class 11 Political Science न्यायपालिका Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौनसे हैं? निम्नलिखित जो बेमेल हो उसे छाँटें।
(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह ली जाती है।
(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
(ग) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद की दखल नहीं है।
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के लिए निम्नलिखित तरीके हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सलाह ली जाती है। सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से कुछ नाम प्रस्तावित करता है और इसी में से राष्ट्रपति नियुक्तियाँ करेगा। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्तियों की सलाह देने में सामूहिकता का सिद्धान्त प्रतिपादित कर न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित किया है।
- न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता उन्हें कार्यकाल की सुरक्षा प्राप्त है।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद का दखल नहीं है। इससे यह सुनिश्चित किया गया है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में दलगत राजनीति का दखल न हो।
- न्यायपालिका, व्यवस्थापिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है।
- न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की आलोचना नहीं की जा सकती न्यायालय की अवमानना का दोषी पाए जाने पर न्यायपालिका को उसे दण्डित करने का अधिकार है। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से निर्णय करती है। प्रश्न के अन्दर दिये गए बिन्दुओं में जो बेमेल है, वह है- (ग) एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
प्रश्न 2.
क्या न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। देश की न्यायपालिका अपने कार्यों के लिए देश के संविधान, लोकतान्त्रिक परम्परा और नागरिकों के प्रति जवाबदेह है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ उसे निरंकुश बनाना नहीं है, बल्कि उसे बिना किसी भय तथा दलगत राजनीति के दुष्प्रभावों से दूर रखने का प्रयास करना है। इसी दृष्टि से भारत की न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। उसका कार्यकाल अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु तक सुनिश्चित किया गया है तथा उसे आलोचना के भय से मुक्त रखा गया है; ताकि वह निष्पक्ष तथा स्वतन्त्र होकर अपने निर्णय कर सके। हैं?
प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौनसे
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के प्रावधान: न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान में अग्रलिखित प्रावधान किये गये हैं।
1. न्यायाधीशों की नियुक्ति: न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे यह सुनिश्चित किया गया है कि इन नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका न रहे। दूसरे, न्यायाधीशों की नियुक्ति में उसकी योग्यता व विशेषता को आधार बनाया गया है। न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए। उसमें संविधान के प्रति निष्ठा तथा ईमानदारी की भावना होनी चाहिए। उस व्यक्ति के राजनीतिक विचार या निष्ठाएँ उसकी नियुक्ति का आधार नहीं बनायी गयी हैं।
2. न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका: भारतीय संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा किये जाने का प्रावधान है क्योंकि यह पद्धति जनता द्वारा नियुक्ति या विधायिका द्वारा नियुक्ति की तुलना में श्रेष्ठ है। इसके लिए यह प्रस्तावित किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी। साथ ही यह कहा गया है कि कार्यपालिका, न्यायाधीशों की नियुक्ति निर्धारित योग्यता के अनुसार करेगी।
वर्तमान में न्यायपालिका में कार्यपालिका के हस्तक्षेप को दूर करने तथा स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने की दृष्टि से सामूहिकता के सिद्धान्त को स्थापित किया गया है।
कि अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश की सलाह को माने, इस हेतु यह व्यवस्था की गई है कि सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्ययाधीशों की सलाह से नाम प्रस्तावित करेगा और इसी में से राष्ट्रपति नियुक्तियाँ करेगा। इस तरह न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् दोनों महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
3. न्यायाधीशों का लम्बा कार्यकाल: संविधान में न्यायाधीशों का लम्बा कार्यकाल रखा गया है अर्थात् न्यायाधीश अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु (65 वर्ष की आयु) तक अपने पद पर बने रहते हैं। केवल अपवादस्वरूप विशेष स्थितियों में ही न्यायाधीशों को अवकाश प्राप्ति की आयु से पूर्व हटाया जा सकता है। संविधान में न्यायाधीशों को हटाने के लिए बहुत कठिन प्रक्रिया निर्धारित की गई है। संविधान निर्माताओं का मानना था कि हटाने की प्रक्रिया कठिन हो तो न्यायपालिका के सदस्यों का पद सुरक्षित रहेगा।
4. वित्तीय रूप से निर्भरता नहीं: न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। संविधान के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन और भत्तों के लिए विधायिका की स्वीकृति नहीं ली जायेगी।
5. आलोचना के भय से मुक्ति: न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अगर कोई न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है, तो न्यायपालिका को उसे दण्डित करने का अधिकार है। इस अधिकार के कारण कोई उनकी नाजायज आलोचना नहीं कर सकेगा। संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है, जब वह उनको हटाने के प्रस्ताव पर चर्चा कर रही हो। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से निर्णय करती है।
प्रश्न 4.
नीचे दी गई समाचार रिपोर्ट पढ़ें और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें।
(क) मामला किस बारे में है?
(ख) इस मामले में लाभार्थी कौन है?
(ग) इस मामले में फरियादी कौन है?
(घ) सोचकर बताएँ कि कम्पनी की तरफ से कौन-कौनसे तर्क दिये जायेंगे?
(ङ) किसानों की तरफ से कौन-कौनसे तर्क दिये जायेंगे?
सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों को 300 करोड़ रुपये देने को कहा – निजी कारपोरेट ब्यूरो, 24 मार्च, 2005।
मुम्बई: सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस एनर्जी से मुम्बई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपये देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप – ऊर्जा संयन्त्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी। अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया।दहानु मुम्बई से 150 किमी. दूर है।
एक दशक पहले तक इस इलाके की अर्थव्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली – पालन और जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयन्त्र चालू हुआ और इसी के साथ हुई इस इलाके की बर्बादी। अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गयी। कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है।
मछली: पालन बन्द हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयन्त्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी तन्त्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप – ऊर्जा संयन्त्र को प्रदूषण नियन्त्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सकें। सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियन्त्रण का संयन्त्र स्थापित नहीं हुआ।
सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयन्त्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण नियन्त्रण संयन्त्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियन्त्रण संयन्त्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था, इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायन्स से 300 करोड़ रुपये की बैंक गारण्टी देने को कहा।
उत्तर:
(क) यह मामला रिलायन्स ताप – ऊर्जा संयन्त्र द्वारा प्रदूषण के विषय का विवाद है।
(ख) इस मामले में किसान लाभार्थी हैं।
(ग) इस मामले में किसान, पर्यावरणविद् तथा दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण प्रार्थी/फरियादी हैं।
(घ) कम्पनी द्वारा उस क्षेत्र के लोगों के लिए ताप: ऊर्जा संयन्त्र के द्वारा होने वाले लाभों का तर्क दिया जायेगा। क्षेत्र में ऊर्जा की कमी नहीं रहेगी ऐसा आश्वासन दिया जायेगा।
(ङ) किसानों की तरफ से यह तर्क दिया जायेगा कि ताप: ऊर्जा संयन्त्र के कारण न केवल उनकी चीकू की फसलें बरबाद हुई हैं वरन् उनका मछली – पालन का कारोबार भी ठप पड़ गया है। क्षेत्र के लोग बेरोजगार हो गये हैं
प्रश्न 5.
नीचे की समाचार रिपोर्ट पढ़ें और चिन्हित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर की सरकार सक्रिय दिखाई देती है।
(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौनसी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
(ग) इस प्रकरण से सम्बद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से सम्बन्धित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।
सीएनजी – मुद्दे पर केन्द्र और दिल्ली सरकार एक साथ
(स्टाफ रिपोर्टर, द हिन्दू, सितम्बर 23, 2001)
राजधानी के सभी गैर- सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केन्द्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे। दोनों ‘सरकारों’ में इस बात की सहमति हुई है। दिल्ली और केन्द्र की सरकार ने पूरी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरी ईंधन प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।
राजधानी के निजी वाहन धारकों द्वारा सीएनजी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जायेगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो- दो मानक को पूरा करते हैं, उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालांकि केन्द्र और दिल्ली सरकार अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे इनमें समान बिन्दुओं को उठाया जायेगा। केन्द्र सरकार सीएनजी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी।
दिल्ली की मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित और केन्द्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मन्त्री श्रीराम नाईक के बीच हुई बैठक में ये फैसले किये गये। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केन्द्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ. आर. ए. मशेलकर की अगुआई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सीएनजी में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योंकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सीएनजी में बदल पाना असम्भव है। डॉ. मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश की ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है समिति छ: माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।
मुख्यमन्त्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मामले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया- सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सीएनजी की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लम्बी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सीएनजी ईंधन जुटाने तथा अदालत के निर्देशों को अमल में लाने के तरीकों और साधनों पर एक-साथ ध्यान दिया जायेगा।’
सर्वोच्च न्यायालय ने सीएनजी के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इनकार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सीएनजी इस्तेमाल किया जाए, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला। श्री राम नाईक का कहना था कि केन्द्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकिपूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर बनाना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सीएनजी की आपूर्ति पाइपलाइन के जरिए होती है और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाएगी।
उत्तर:
इस समाचार रिपोर्ट में दो सरकारें संयुक्त रूप से एक समस्या को सुलझाने के लिए सक्रिय दिखाई देती हैं। ये हैं।
- भारत सरकार (संघ सरकार)
- दिल्ली सरकार (प्रान्तीय सरकार)
(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका प्रदूषण से बचने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि राजधानी में सरकारी तथा निजी दोनों प्रकार की बसों में सी. एन. जी. का प्रयोग एक निश्चित तिथि तक होने लगे । इस सम्बन्ध में दिल्ली सरकार ने अदालत से यह विनती की कि अदालत के निर्देश पर अमल करने के लिए समय की छूट की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय ने सिटी बसों को महानगर में सीएनजी के प्रयोग से छूट देने को मना किया परन्तु यह भी कहा कि उसने टैक्सी और ऑटो रिक्शा के लिए कभी सीएनजी के लिए दबाव नहीं डाला।
(ख) इस रिपोर्ट में कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों ही शहर बढ़ते प्रदूषण को रोकने में प्रयासरत हैं। कार्यपालिका ने इस सम्बन्ध में दिल्ली में पूरी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरी ईंधन प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला लिया क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है। न्यायपालिका ने इस सम्बन्ध में यह निर्णय दिया कि दोहरी ईंधन प्रणाली को सभी प्रकार के वाहनों के लिए स्वतन्त्र नहीं छोड़ा जा सकता। महानगर में सिटी बसें तो सीएनजी से ही चलायी जायेंगी, लेकिन टैक्सी और ऑटो- रिक्शा के लिए सीएनजी या डीजल किसी का भी उपयोग किया जा सकता है।
(ग) इस प्रकरण में नीतिगत मुद्दा प्रदूषण हटाना है। सभी व्यावसायिक वाहनों जो यूरो-2 मानक को पूरा करते हैं, उन्हें शहर में चलाने की अनुमति दी जाये। सरकार यह भी चाहती है कि समय-सीमा बढ़ाई जाये क्योंकि 10,000 बसों के बेड़े को निश्चित समय में सीएनजी में परिवर्तित करना सम्भव नहीं है। यह कानून बनाने और उसके क्रियान्वयन से जुड़ा प्रश्न है। न्यायालय का यह कहना है कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए सिर्फ सीएनजी का इस्तेमाल किया जाये, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला; कानून की व्याख्या से सम्बन्धित कथन है।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं? सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिल सकती थी। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस नीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिये हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश) में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है, उसे अपना फैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
उत्तर:
इस उदाहरण और भारत की न्याय व्यवस्था में कोई समानता नहीं है। यथा
1. भारत में न्यायिक निर्णय आधुनिक काल में कानून के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के निर्णय दूसरे न्यायालयों में उदाहरण बन जाते हैं और पूर्व के निर्णय के आधार पर निर्णय दिये जाने लगते हैं। और इन पूर्व के निर्णयों को उसी प्रकार की मान्यता होती है, जैसे कि संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की। उपर्युक्त उदाहरण में इक्वाडोर के न्यायालय में इस प्रकार से कार्य नहीं किया जाता। वहाँ पर न्यायालयों के पूर्व निर्णयों को आधार बनाकर निर्णय नहीं दिये जाते।
2. भारत के न्यायालय में न्यायाधीशों को अपना फ़ैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में देना होता है, जिससे एक-समान विवादों के निर्णयों में भी प्रायः समानता बनी रहती है और यदि कभी असमानता आती है तो उसके आधार का भी उल्लेख करना पड़ता है दूसरी तरफ इक्वाडोर के न्यायाधीश को अपना फैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। इसलिए एक समान विवादों में भी निर्णयों में अन्तर आता रहता है। यहाँ तक कि वहाँ कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाता है और वही न्यायाधीश दूसरे दिन उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है। इसमें उसे यह बताने की आवश्यकता नहीं होती कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
प्रश्न 7.
निम्नलिखित कथनों को पढ़िये और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाये जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार; मसलन मूल, अपीली और सलाहकारी से इनका मिलान कीजिए।
(क) सरकार जानना चाहती थी कि क्या वह पाकिस्तान अधिग्रहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के सम्बन्ध में कानून पारित कर सकती है।
(ख) कावेरी नदी के जल विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
(ग) बाँध स्थल से हटाये जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।
उत्तर:
(क) मौलिक क्षेत्राधिकार: प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का आरम्भ उन विवादों से है जो उच्चतम न्यायालय में सीधे तौर पर लिये जाते हैं। ऐसे विवादों को पहले निचली अदालतों में सुनवाई के लिए नहीं लिया जा सकता है। ऐसे विवाद केन्द्र और राज्यों बीच या विभिन्न राज्यों के बीच उठे विवाद होते हैं। अपने इस क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सर्वोच्च न्यायालय न केवल विवादों को सुलझाता है बल्कि संविधान में की गई संघ और राज्य सरकार की शक्तियों की व्याख्या भी करता है।
(ख) अपीलीय क्षेत्राधिकार: अपीलीय क्षेत्राधिकार से अभिप्राय है कि वे विवाद जो किसी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में पाये जा सकते हैं।
(ग) सलाहकारी क्षेत्राधिकार: सलाहकारी क्षेत्राधिकार वह है जिसमें राष्ट्रपति किसी विवाद के बारे में उच्चतम न्यायालय से परामर्श माँगता है। उच्चतम न्यायालय चाहे तो परामर्श दे सकता है और चाहे तो मना कर सकता है। राष्ट्रपति भी उच्चतम न्यायालय के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।
प्रश्न में दिये गये कथनों को विभिन्न क्षेत्राधिकारों से निम्न प्रकार मिलान किया जा सकता हैहै।
(क) ‘सरकार जानना …………….. कर सकती है।
उत्तर:
परामर्शदात्री ( सलाहकारी) क्षेत्राधिकार।
(ख) ‘कावेरी नदी के……………….. लेना चाहती है।’
उत्तर:
मौलिक क्षेत्राधिकार।
(ग) बाँध स्थल से ………………..ठुकरा दिया।
उत्तर:
अपीलीय क्षेत्राधिकार।
प्रश्न 8.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
सन् 1980 के बाद जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई है जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग अर्थात् गरीब लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए न्यायालय ने जन सेवा की भावना से भरे नागरिक, सामाजिक संगठन और वकीलों को समाज के जरूरतमंद और गरीब लोगों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की इजाजत दी है। इससे ऐसे मुकदमों की संख्या में वृद्धि हुई है जिनमें जन सेवा की भावना रखने वाले नागरिकों ने गरीबों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए जनहित याचिका दायर कर न्यायपालिका से हस्तक्षेप की माँग की।
गरीबों का जीवन सुधारने के लिए, गरीब व्यक्तियों के अधिकारों की पूर्ति करने के लिए, शोषण के विरुद्ध अपराध को अर्थपूर्ण बनाने के लिए – बंधुआ मजदूरों की मुक्ति तथा लड़कियों से देह व्यापार कराने को रोकने आदि अनेक प्रकार के शोषण को रोकने के लिए, गरीब व्यक्तियों की उत्पीड़न की समस्याओं से छुटकारा दिलवाने के लिए स्वयंसेवी संगठन जनहित याचिकाओं के द्वारा न्यायालय से हस्तक्षेप की माँग कर सकते हैं। न्यायालय इन शिकायतों को आधार बनाकर उन पर विचार शुरू करता है और पीड़ित व्यक्तियों को शोषण से छुटकारा दिलाता है।
इन जनहित याचिकाओं के प्रचलन से यद्यपि न्यायालयों पर कार्यों का बोझ बढ़ा है, परन्तु इनसे गरीब लोगों को लाभ पहुँचा है। इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया है। इससे कार्यपालिका जवाबदेह बनने पर बाध्य हुई है। अनेक बन्धुआ मजदूरों को शोषण से बचाया गया है तथा खतरनाक कामों में बाल-श्रम पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।
प्रश्न 9.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
हाँ, मैं यह मानता हूँ कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है। न्यायिक सक्रियता कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने के लिए बाध्य करती है। न्यायिक सक्रियता के कारण ही जो विषय पहले न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में नहीं थे, उन्हें भी अब इस दायरे में ले लिया गया है, जैसे राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियाँ। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश दिये हैं, जैसे उसने हवाला मामले, नरसिंहराव मामले और पैट्रोल पम्पों के अवैध आबण्टन जैसे अनेक मामलों सी.बी.आई. को निर्देश दिया कि वह राजनेताओं और नौकरशाहों के विरुद्ध जाँच करे।
भारतीय संविधान शक्ति के सीमित बँटवारे तथा अवरोध और सन्तुलन के एक महीन सिद्धान्त पर आधारित है। अर्थात् सरकार के प्रत्येक अंग का एक स्पष्ट कार्यक्षेत्र है। संसद कानून बनाने और संविधान का संशोधन करने में सर्वोच्च है, कार्यपालिका उन्हें लागू करने तथा न्यायपालिका विवादों को सुलझाने तथा कानून की व्याख्या करने में सर्वोच्च है। ऐसी स्थिति में यदि न्यायपालिका कानूनों को लागू करने के कार्यपालिका के काम में हस्तक्षेप करेगी तो दोनों में विरोध पनप सकता है।
दूसरे, न्यायपालिका के अपने कार्य ही बहुत हैं। उसके समक्ष न्याय हेतु विवादों का हल के लिए अंबार लगा हुआ है। यदि न्यायपालिका न्यायिक सक्रियता के माध्यम से कार्यपालिका के कामों में दखलंदाजी देगी तो वह उन समस्याओं में उलझ जायेगी जो कार्यपालिका को हल करने चाहिए। इससे शक्ति विभाजन के बीच का अन्तर धुँधला जायेगा और परस्पर टकराव बढ़ेगा।
प्रश्न 10.
न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से किस रूप में जुड़ी है? क्या इससे मौलिक अधिकारों के विषय क्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है?
उत्तर:
संविधान ने न्यायपालिका को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व सौंपा है। सर्वोच्च न्यायालय अनेक रिटों के माध्यम से तथा न्यायिक पुनरावलोकन के माध्यम से मौलिक अधिकारों की रक्षा का कार्य करता है। मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है। सामान्य रूप से किसी व्यक्ति के मूल अधिकार के उल्लंघन होने पर वह पीड़ित व्यक्ति ही अपने अधिकार की सुरक्षा के लिए न्यायालय में याचिका प्रस्तुत कर सकता है। लेकिन न्यायिक सक्रियता ने इस स्थिति के विषय – क्षेत्र को निम्न रूपों में बढ़ा दिया है।
1. न्यायिक सक्रियता के चलते न्यायालय ने एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया जो पीड़ित लोगों की ओर से दूसरों ने उसके अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय में प्रार्थना दी हो। ऐसी प्रार्थनाओं को जनहित याचिकाएँ कहा गया। इसी सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने कैदियों के अधिकारों से सम्बन्धित मुकदमे पर विचार किया । इससे ऐसे मुकदमों की बाढ़-सी आ गई जिसमें जन सेवा की भावना रखने वाले नागरिकों तथा स्वयंसेवी संगठनों ने अधिकारों की रक्षा से जुड़े अनेक मुद्दों पर न्यायपालिका से हस्तक्षेप की माँग की ।
2. न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत ही न्यायपालिका ने अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बनाकर उन पर भी विचार करना शुरू कर दिया। न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग आसानी से अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत की शरण नहीं ले सकते थे। इसने शोषण के विरुद्ध अधिकार को अर्थपूर्ण बना दिया क्योंकि बन्धुआ मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करना अब सम्भव हो गया।
इस प्रकार न्यायिक सक्रियता के तहत जनहित याचिकाओं तथा न्यायपालिका की स्वयं की सक्रियता से न्यायालय के अधिकारों का दायरा बढ़ा दिया है। शुद्ध हवा, पानी और अच्छा जीवन पाना पूरे समाज का अधिकार है। न्यायालय का मानना था कि समाज के सदस्य के रूप में, अधिकारों के उल्लंघन पर व्यक्तियों को इन्साफ की गुहार लगाने का अधिकार। इस प्रकार न्यायिक सक्रियता से मौलिक अधिकारों के विषयक्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है।
न्यायपालिका JAC Class 11 Political Science Notes
→ परिचय: हमें स्वतन्त्र न्यायपालिका क्यों चाहिए कानून के शासन की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करने, व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करने, विवादों को कानून के अनुसार हल करने, तानाशाही को रोकने के लिए हमें राजनीतिक दबाव से मुक्त स्वतन्त्र न्यायपालिका चाहिए।
→ न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय: न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि सरकार के अन्य दो अंग- विधायिका और कार्यपालिका—उसके कार्यों में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाएँ ताकि वे ठीक ढंग से न्याय कर सकें; वे अंग न्यायपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप न करें तथा न्यायाधीश बिना किसी भय तथा भेदभाव के अपना कार्य कर सकें । न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता या उत्तरदायित्व का अभाव नहीं है क्योंकि न्यायपालिका देश के संविधान, लोकतांत्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है।
→ भारतीय संविधान ने किन उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है? भारतीय संविधान ने अनेक उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है।
- न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया गया है।
- न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है।
- न्यायाधीशों की पदच्युति की कठिन प्रक्रिया।
- न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है।
- न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती।
→ न्यायाधीशों की नियुक्ति: भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इसमें यह परम्परा है कि सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश को इस पद पर नियुक्त किया जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से करता है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में सामूहिकता का सिद्धान्त स्थापित किया है। इसके तहत सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से कुछ नाम प्रस्तावित करेगा और इसी में से राष्ट्रपति नियुक्तियाँ करेगा। इस प्रकार न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
→ न्यायाधीशों को पद से हटाना: कदाचार साबित होने अथवा अयोग्यता के आधार पर महाभियोग द्वारा संसद किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटा सकती है। लेकिन यह एक कठिन प्रक्रिया है क्योंकि उसके लिए दोनों सदनों से पृथक्-पृथक् उपस्थित 2/3 बहुमत तथा कुल सदस्य संख्या के बहुमत से महाभियोग का प्रस्ताव पारित होना आवश्यक है।
→ न्यायपालिका की संरचना
भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है। भारत में न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है। सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय हैं। यथा-
→ भारत के सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार: भारत के सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार इस प्रकार है।
- मौलिक क्षेत्राधिकार: संघ और राज्यों के बीच तथा विभिन्न राज्यों के बीच आपसी विवादों का निपटारा।
- रिट सम्बन्धी क्षेत्राधिकार: व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए बन्दी – प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध – आदेश, उत्प्रेषण लेख तथा अधिकार – पृच्छा जारी करने का अधिकार।
- अपीलीय क्षेत्राधिकार: दीवानी, फौजदारी तथा संवैधानिक सवालों से जुड़े अधीनस्थ न्यायालयों के मुकदमों की अपील पर सुनवाई करना; भारतीय भू-भाग की किसी अदालत द्वारा पारित मामले या दिए गए फैसले पर स्पेशल लीव पिटीशन के तहत की गई अपील पर सुनवाई की शक्ति।
- सलाहकारी क्षेत्राधिकार: जनहित के मामलों तथा कानून के मसले पर राष्ट्रपति को सलाह देना।
→ न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका।
भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन जनहित याचिका या सामाजिक व्यवहार याचिका है। कानून की सामान्य प्रक्रिया में कोई व्यक्ति तभी अदालत जा सकता है, जब उसका कोई व्यक्तिगत नुकसान हुआ हो अर्थात् अपने अधिकार का उल्लंघन होने पर या किसी विवाद में फँसने पर कोई व्यक्ति न्याय हेतु न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। लेकिन:
- 1979 में न्यायालय ने अपने क्षेत्राधिकार को बढ़ाते हुए एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया जिसे पीड़ित लोगों ने नहीं बल्कि उनकी ओर से दूसरों ने दाखिल किया था; क्योंकि इसमें जनहित से सम्बन्धित एक मुद्दे पर विचार हो रहा था। ऐसे ही अन्य अनेक मुकदमों को जनहित याचिकाओं का नाम दिया गया।
- न्यायपालिका ने स्वयं प्रसंज्ञान लेते हुए अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बनाकर उन पर भी विचार करना शुरू कर दिया। न्यायालय की यह नई भूमिका न्यायिक सक्रियता कहलाती है।
- शुद्ध हवा-पानी और अच्छा जीवन पाना पूरे समाज का अधिकार है, इस आधार पर न्यायालय ने समाज के सदस्य के रूप में इन अधिकारों के उल्लंघन पर व्यक्तियों को न्यायालय में न्याय के लिए याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार प्रदान किया।
- 1980 के बाद न्यायालय ने जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों की पूर्ति के लिए न्यायालय ने जनसेवा की भावना से भरे नागरिक, सामाजिक संगठन और वकीलों को समाज के जरूरतमंद और गरीब लोगों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की इजाजत दी।
→ न्यायिक सक्रियता के लाभ:
- न्यायिक सक्रियता से न केवल व्यक्तियों बल्कि विभिन्न समूहों को भी अदालत जाने का अवसर मिला।
- इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया और कार्यपालिका उत्तरदायी बनने पर बाध्य हुई|
- चुनाव प्रणाली को भी इसने ज्यादा मुक्त और निष्पक्ष बनाने का प्रयास किया।
→ न्यायिक सक्रियता के दोष:
- न्यायिक सक्रियता ने न्यायालयों में काम का बोझ बढ़ाया है।
- इससे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों के बीच का अन्तर धुँधला हो गया
→ न्यायपालिका और अधिकार:
संविधान ऐसी दो विधियों का वर्णन करता है जिससे सर्वोच्च न्यायालय अधिकारों की रक्षा कर सके:
- यह रिट जारी करके मौलिक अधिकारों को फिर से स्थापित कर सकता है।
- यह किसी कानून को गैर संवैधानिक घोषित कर उसे लागू होने से रोकता है। यह प्रावधान न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था करता है।
→ न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था:
- न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ: न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है और यदि वह कानून संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है। (अनु. 13)
- न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति के आधार:
- भारत में संविधान लिखित है और इसमें दर्ज है कि मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है।
- संघीय सम्बन्धों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
→ निष्कर्ष: इससे स्पष्ट होता है कि सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के द्वारा ऐसे किसी भी कानून का परीक्षण कर सकता है, जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो या संविधान में निहित शक्ति विभाजन की योजना के प्रतिकूल हो। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति राज्यों की विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों पर भी लागू होती है। जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता ने शोषण के विरुद्ध अधिकार अर्थपूर्ण बना दिया है।
→ न्यायपालिका और संसद:
न्यायपालिका ने जहाँ अधिकार के मुद्दे पर सक्रियता दिखाई है, वहीं राजनैतिक व्यवहार – बर्ताव से संविधान की अनदेखी करने की कार्यपालिका की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया है। इसी के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को न्यायपालिका ने अब न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में ले लिया है। ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश दिए। यद्यपि भारत के संविधान में सरकार के तीनों अंगों के बीच कार्य का स्पष्ट विभाजन है, तथापि संसद और न्यायपालिका तथा कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव भारतीय राजनीति की विशेषता रही है। यथा-
- सम्पत्ति के अधिकार तथा संसद की संविधान संशोधन की शक्ति से सम्बन्धित टकराव – सम्पत्ति के अधिकार और संसद की संविधान को संशोधन करने की शक्ति के सम्बन्ध में संसद और न्यायपालिका के बीच टकराव हुआ। इस टकराव का पटाक्षेप सर्वोच्च न्यायालय में 1973 में केशवानन्द भारती के मुकदमे के निर्णय से हुआ। इसमें न्यायालय ने निर्णय दिया कि
- संविधान का एक मूल ढाँचा है और संसद सहित कोई भी उस मूल ढाँचे को संशोधित या परिवर्तित नहीं कर सकते।
- सम्पत्ति का अधिकार संविधान के मूल ढाँचे का भाग नहीं है। इसलिए इस पर समुचित प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।
- कोई मुद्दा मूल ढाँचे का हिस्सा है या नहीं, इसका निर्णय न्यायालय करेगा।
- टकराव के अन्य बिन्दु-दोनों के बीच टकराव के अन्य बिन्दु ये हैं:
- क्या न्यायपालिका विधायिका की कार्यवाही का नियमन और उसमें हस्तक्षेप कर उसे नियन्त्रित कर सकती
- जो व्यक्ति विधायिका के विशेषाधिकार हनन का दोषी हो क्या वह न्यायालय की शरण ले सकता है?
- सदन के किसी सदस्य के विरुद्ध स्वयं सदन द्वारा यदि कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती है तो क्या वह न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है?
- अनेक अवसरों पर संसद और राज्यों की विधानसभाओं में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली उठायी गई है। इस विवाद का निर्धारण कैसे हो?
- न्यायपालिका ने भी अनेक अवसरों पर विधायिका की आलोचना की है और उन्हें उनके विधायी कार्यों के सम्बन्ध में निर्देश दिये हैं।