Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर Textbook Exercise Questions and Answers
JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 1 शीतयुद्ध का दौर
Jharkhand Board Class 12 Political Science शीतयुद्ध का दौर InText Questions and Answers
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प्रश्न 1.
प्रत्येक प्रतिस्पर्धी गुट से कम से कम तीन देशों की पहचान करें।
उत्तर:
- सोवियत संघ गुट के तीन सदस्य देश थे:
- पोलैंड
- पूर्वी जर्मनी और
- रोमानिया।
- अमेरिकी गुट के तीन सदस्य देश थे
- पश्चिमी जर्मनी
- ब्रिटेन और
- फ्रांस
प्रश्न 2.
अध्याय चार में दिये गये यूरोपीय संघ के मानचित्र को देखें और उन चार देशों के नाम लिखें जो पहले ‘वारसा संधि’ के सदस्य थे और अब यूरोपीय संघ के सदस्य हैं।
उत्तर:
(1) रोमानिया
(2) बुल्गारिया
(3) हंगरी
(4) पोलैण्ड।
प्रश्न 3.
इस मानचित्र की तुलना यूरोपीय संघ के मानचित्र तथा विश्व के मानचित्र से करें इस तुलना के बाद क्या आप तीन ऐसे देशों की पहचान कर सकते हैं जो शीतयुद्ध के बाद अस्तित्व में आए।
उत्तर:
(1) उक्रेन
(2) कजाकिस्तान
(3) किरगिस्तान तथा
(4) बेलारूस। (कोई तीन)
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प्रश्न 4.
निम्नलिखित तालिका में तीन-तीन देशों के नाम उनके गुटों को ध्यान में रखकर लिखें- पूँजीवादी गुट, साम्यवादी गुट और गुटनिरपेक्ष आंदोलन।
गुट, साम्यवार्दी गुट और गुटनिरपेक्ष आंदोलन।
उत्तर:
- पूँजीवादी गुट:
- संयुक्त राज्य अमरीका
- ब्रिटेन
- फ्रांस
- साम्यवादी गुट
- सोवियत संघ
- पोलैण्ड
- हंगरी
- गुटनिरपेक्ष आंदोलन:
- भारत
- मिस्न
- घाना।
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प्रश्न 5.
उत्तरी और दक्षिणी कोरिया अभी तक क्यों विभाजित हैं जबकि शीत युद्ध के दौर के बाकी विभाजन मिट गये हैं? क्या कोरिया के लोग चाहते हैं कि विभाजन बना रहे?
उत्तर;
उत्तरी और दक्षिणी कोरिया अभी तक विभाजित हैं क्योंकि इसके पीछे संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के हित निहित हैं । इसलिए यहाँ के शासक वर्ग कोरिया के एकीकरण की ओर कदम नहीं बढ़ा पाये हैं। यद्यपि कोरिया के लोग विभाजन नहीं चाहते।
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प्रश्न 6.
पाँच ऐसे देशों के नाम बताएँ जो दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हुए।
उत्तर:
(1) भारत
(2) पाकिस्तान
(3) घाना
(4) इंडोनेशिया
(5) मिस्र।
Jharkhand Board Class 12 Political Science शीतयुद्ध का दौर TextBook Questions and Answers
प्रश्न 1.
शीतयुद्ध के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
(क) यह संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और उनके साथी देशों के बीच की एक प्रतिस्पर्धा थी।
(ख) यह महाशक्तियों के बीच विचारधाराओं को लेकर एक युद्ध था।
(ग) शीत युद्ध ने हथियारों की होड़ शुरू की।
(घ) अमरीका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।
उत्तर:
(घ) अमरीका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।
प्रश्न 2.
निम्न में से कौन-सा कथन गुट निरपेक्ष आन्दोलन के उद्देश्यों पर प्रकाश नहीं डालता?
संजीव पास बुक्स
(क) उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देशों को स्वतंत्र नीति अपनाने में समर्थ बनाना।
(ख) किसी भी सैन्य संगठन में शामिल होने से इंकार करना।
(ग) वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।
(घ) वैश्विक आर्थिक असमानता की समाप्ति पर ध्यान केन्द्रित करना।
उत्तर:
(ग) वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।
प्रश्न 3.
नीचे महाशक्तियों द्वारा बनाए सैन्य संगठनों की विशेषता बताने वाले कुछ कथन दिए गए हैं। प्रत्येक कथन के सामने सही या गलत का चिह्न लगाएँ।
(क) गठबंधन के सदस्य देशों को अपने भू-क्षेत्र में महाशक्तियों के सैन्य अड्डे के लिए स्थान देना जरूरी था।
(ख) सदस्य देशों को विचारधारा और रणनीति दोनों स्तरों पर महाशक्ति का समर्थन करना था।
(ग) जब कोई राष्ट्र किसी एक सदस्य देश पर आक्रमण करता था तो इसे सभी सदस्य देशों पर आक्रमण समझा जाता था।
(घ) महाशक्तियाँ सभी सदस्य देशों को अपने परमाणु हथियार विकसित करने में मदद करती थीं।
उत्तर:
(क) सही (ख) सही (ग) सही (घ) गलत
प्रश्न 4.
नीचे कुछ देशों की एक सूची दी गई है। प्रत्येक के सामने लिखें कि वह शीत युद्ध के दौरान किस गुट से जुड़ा था?
(क) पोलैंड
(ख) फ्रांस
(ग) जापान
(घ) नाइजीरिया
(ङ) उत्तरी कोरिया
(च) श्रीलंका।
उत्तर:
(क) पोलैंड: साम्यवादी गुट (सोवियत संघ)
(ख) फ्रांस : पूँजीवादी गुट (संयुक्त राज्य अमेरिका)
(ग) जापान : पूँजीवादी गुट (संयुक्त राज्य अमेरिका)
(घ) नाइजीरिया : गुटनिरपेक्ष आंदोलन
(ङ) उत्तरी कोरिया : साम्यवादी गुट (सोवियत संघ)
(च) श्रीलंका : गुटनिरपेक्ष आंदोलन
प्रश्न 5.
शीत युद्ध से हथियारों की होड़ और हथियारों पर नियंत्रण – ये दोनों ही प्रक्रियायें पैदा हुईं। इन दोनों प्रक्रियाओं के क्या कारण थे?
उत्तर:
शीत ‘युद्ध से हथियारों की होड़ और हथियारों पर नियंत्रण ये दोनों ही प्रक्रियायें पैदा हुईं। इन दोनों प्रक्रियाओं के प्रारंभ होने के प्रमुख कारण इस प्रकार थे:
- हथियारों की होड़ की प्रक्रिया के कारण:
- शीत युद्ध के दौरान दोनों ही गठबंधनों के बीच प्रतिद्वन्द्विता समाप्त नहीं हुई थी। इसी कारण एक-दूसरे के प्रति शंका की हालत में दोनों गुटों ने भरपूर हथियार जमा किये और लगातार युद्ध के लिए तैयारी करते रहे।
- हथियारों के बड़े जखीरे को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जरूरी माना जा रहा था।
- हथियारों पर नियंत्रण की प्रक्रिया पैदा होने के कारण:
- दोनों गुट यह अनुभव करते थे कि यदि दोनों गुटों में आमने-सामने युद्ध होता है, तो दोनों ही गुटों की ‘अत्यधिक हानि होगी और दोनों में से कोई भी विजेता बनकर नहीं उभर पायेगा, क्योंकि दोनों ही गुटों के पास परमाणु हथियार थे।
- दोनों देश लगातार यह समझ रहे थे कि संयम के बावजूद युद्ध हो सकता है जिसका परिणाम भयानक होगा। इस कारण समय रहते अमरीका और सोवियत संघ ने कुछेक परमाणविक और अन्य हथियारों को सीमित या समाप्त करने के लिए आपस में सहयोग करने का फैसला किया।
प्रश्न 6.
महाशक्तियाँ छोटे देशों के साथ सैन्य गठबंधन क्यों रखती थीं? तीन कारण बताइये
उत्तर:
महाशक्तियाँ छोटे देशों के साथ निम्न कारणों से सैन्य गठबंधन रखती थीं-
- महत्त्वपूर्ण संसाधन तथा भू-क्षेत्र हासिल करना – महाशक्तियाँ महत्त्वपूर्ण संसाधनों, जैसे तेल और खनिज आदि पर अपने नियंत्रण बनाने तथा इन देशों के भू-क्षेत्रों से अपने हथियार और सेना का संचालन करने की दृष्टि से छोटे देशों के साथ सैन्य गठबंधन रखती थीं।
- सैनिक ठिकाने – महाशक्तियाँ इन देशों में अपने सैनिक अड्डे बनाकर दुश्मन के देश की जासूसी करती थीं।
- आर्थिक मदद – छोटे देश सैन्य गठबंधन के अन्तर्गत आने वाले सैनिकों को अपने खर्चे पर अपने देश में रखते थे, जिससे महाशक्तियों पर आर्थिक दबाव कम पड़ता था।
प्रश्न 7.
कभी-कभी कहा जाता है कि शीतयुद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में एक उदाहरण दें।
उत्तर:
हम इस कथन से सहमत नहीं हैं कि शीत युद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। इसका कारण यह है कि शीत युद्ध के दौरान दोनों ही गुटों में विचारधारा का अत्यधिक प्रभाव था। पूँजीवादी विचारधारा के लगभग सभी देश अमेरिका के गुट में शामिल थे, जबकि साम्यवादी विचारधारा वाले सभी देश सोवियत संघ के गुट में शामिल थे। विपरीत विचारधाराओं वाले देशों में निरन्तर आशंका, संदेह और भय व्याप्त था। जब 1991 में सोवियत संघ के विघटन से एक विचारधारा का भी पतन हो गया और इसके साथ ही शीत युद्ध भी समाप्त हो गया।
प्रश्न 8.
शीत युद्ध के दौरान भारत की अमरीका और सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति क्या थी? क्या आप मानते हैं कि इस नीति ने भारत के हितों को आगे बढ़ाया?
उत्तर:
शीत युद्ध के दौरान भारत की विदेश नीति-शीत युद्ध के दौरान भारत की अमरीका और सोवियत संघ के प्रति गुटनिरपेक्षता की नीति रही। इसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं-
- इसके तहत भारत ने स्वयं को सजग और सचेत रूप से महाशक्तियों की खेमेबन्दी से अलग रखा। लेकिन उसने अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रिय हस्तक्षेप भी किया।
- भारत ने दोनों गुटों के बीच विद्यमान मतभेदों को दूर करने की कोशिश की तथा मतभेदों को पूर्णव्यापी युद्ध का रूप लेने से रोका।
- भारत के राजनयिकों और नेताओं का उपयोग अक्सर शीत युद्ध के दौर के प्रतिद्वन्द्वियों के बीच संवाद कायम करने और मध्यस्थता करने के लिए हुआ।
- शीत युद्ध काल में भारत ने उपनिवेशों के चंगुल से मुक्त हुए नवस्वतंत्र देशों को महाशक्तियों के खेमें में जाने. का पुरजोर विरोध किया ।
- भारत ने उन क्षेत्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों को सक्रिय बनाए रखा जो अमरीका या सोवियत संघ के खेमे से नहीं जुड़े थे।
गुटनिरपेक्षता की नीति और भारतीय हित: हाँ, गुटनिरपेक्षता की नीति ने कम से कम दो तरह से भारत का प्रत्यक्ष रूप से हित साधन किया-
- इस नीति के कारण भारत ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय फैसले ले सका जिससे उसका हित सधता होता हो।
- भारत हमेशा इस स्थिति में रहा कि एक महाशक्ति उसके खिलाफ जाए तो वह दूसरी महाशक्ति के करीब आने की कोशिश करे।
प्रश्न 9.
गुट निरपेक्ष आंदोलन को तीसरी दुनिया के देशों ने तीसरे विकल्प के रूप में समझा। जब शीत युद्ध अपने शिखर पर था तब इस विकल्प ने तीसरी दुनिया के देशों के विकास में कैसे मदद पहुँचाई?
उत्तर:
गुटनिरपेक्ष आंदोलन तीसरी दुनिया के देशों के लिए प्रस्तुत तीसरा विकल्प गुटनिरपेक्षता ने एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरीका के नवस्वतंत्र देशों को एक तीसरा विकल्प दिया। यह विकल्प -दोनों महाशक्तियों के गुटों से अलग रहने का । यह पृथकतावाद नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रियता से युक्त आन्दोलन है।
शीत युद्ध काल में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अपने सदस्य देशों के विकास में भूमिका-
- गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल अधिकांश देशों के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक रूप से और ज्यादा विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी।
- इसी समझ से नव अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ। अंकटाड में 1972 में संयुक्त राष्ट्र के व्यापार और विकास से संबंधित सम्मेलन में प्रस्तुत वैश्विक रिपोर्ट में इन बातों पर बल दिया गया
(क) अल्प विकसित देशों को अपने उन प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त होगा जिनका दोहन पश्चिम के विकसित देश करते हैं।
(ख) अल्प विकसित देशों की पहुँच पश्चिमी देशों के बाजार तक होगी, वे अपना सामान बेच सकेंगे और इस तरह गरीब देशों के लिए यह व्यापार लाभदायक होगा।
(ग) पश्चिमी देशों से मंगायी जा रही प्रौद्योगिकी की लागत कम होगी।
(घ) अल्प विकसित देशों की अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थानों में भूमिका बढ़ेगी।
इसके परिणामस्वरूप गुटनिरपेक्ष आंदोलन आर्थिक दबाव समूह बन गया। इससे स्पष्ट होता है कि जब शीत युद्ध अपने शिखर पर था तब गुटनिरपेक्ष आंदोलन के विकल्प ने तीसरी दुनिया के देशों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।.
प्रश्न 10.
“गुटनिरपेक्ष आंदोलन अब अप्रासंगिक हो गया है।” आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:
वर्तमान में गुट निरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता:
गुटनिरपेक्षता की नीति शीत युद्ध के संदर्भ में पनपी थी। 1990 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में शीत युद्ध का अन्त और सोवियत संघ का विघटन हुआ इसके साथ ही एक अन्तर्राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता और प्रभावकारिता में थोड़ी कमी आई। लेकिन गुट निरपेक्ष आंदोलन अप्रासंगिक नहीं हुआ है। इसकी प्रासंगिकता अभी भी बनी हुई है। यथा
- गुटनिरपेक्षता इस बात की पहचान पर टिकी है कि उपनिवेश की स्थिति से आजाद हुए देशों के बीच ऐतिहासिक जुड़ाव है और यदि ये देश साथ आ जायें तो एक सशक्त ताकत बन सकते हैं।
- कोई भी देश अपनी स्वतंत्र विदेश नीति अपना सकता है।
- यह आंदोलन मौजूदा असमानताओं से निपटने के लिए एक वैकल्पिक विश्व – व्यवस्था बनाने और अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को लोकतंत्रधर्मी बनाने के संकल्प पर टिका है।
- नवोदित राष्ट्रों का आर्थिक और राजनैतिक विकास भी परस्पर सहयोग पर निर्भर है।
- वर्तमान महाशक्ति अमरीका के प्रभाव से मुक्त रहने के लिए भी निर्गुट राष्ट्रों का आपसी सहयोग और भी अधिक आवश्यक है।
- यह नीति आज भी गुटनिरपेक्ष देशों की सुरक्षा, सम्मान और प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
शीतयुद्ध का दौर JAC Class 12 Political Science Notes
→ क्यूबा का मिसाइल संकट:
क्यूबा अमरीकी तट से लगा हुआ द्विपीय देश है। सोवियत संघ के नेता ने क्यूबा को रूस के ‘सैनिक अड्डे’ में परिवर्तित करने हेतु 1962 में वहां परमाणु मिसाइलें तैनात कर दीं। इस बात की भनक अमरीकी राष्ट्रपति को लगी तब उन्होंने और उनके सलाहकारों ने दोनों देशों के बीच शांति बनाए रखने का प्रयास किया। लेकिन अमरीका इस बात को लेकर भी दृढ़ था कि रूस क्यूबा से मिसाइल और परमाणु हथियार हटा ले । ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ शीतयुद्ध का चरम बिन्दु था। शीत युद्ध सिर्फ जोर-आजमाइश, सैनिक गठबन्धन अथवा शक्ति सन्तुलन का मामला भर नहीं था, बल्कि इसके साथ-साथ उदारवादी – पूँजीवादी लोकतान्त्रिक विचारधारा और साम्यवाद व समाजवाद की विचारधारा के बीच एक वास्तविक संघर्ष भी जारी था।
→ शीत युद्ध क्या है?
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद वैश्विक राजनीति के मंच पर दो महाशक्तियों का उदय हुआ। ये थीं- संयुक्त राज्य अमेरिका व समाजवादी सोवियत गणराज्य इन दोनों महाशक्तियों ने विश्व के देशों को पूँजीवादी और साम्यवादी विचारधाराओं में विभाजित कर दिया। इनके पास इतनी क्षमता थी कि विश्व की किसी भी घटना को प्रभावित कर सकें। दोनों का महाशक्ति बनने की होड़ में एक-दूसरे के मुकाबले खड़ा होना शीत युद्ध का कारण बना। दोनों ही पक्षों के पास एक-दूसरे के मुकाबले और परस्पर नुकसान पहुँचाने की इतनी क्षमता थी कि कोई भी पक्ष युद्ध का खतरा नहीं उठाना चाहता था । इस तरह, महाशक्तियों के बीच की गहन प्रतिद्वन्द्विता रक्तरंजित युद्ध का रूप नहीं ले सकी। पारस्परिक ‘अपरोधं’ की स्थिति ने युद्ध तो नहीं होने दिया, लेकिन यह स्थिति पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को नहीं रोक सकी। इस प्रतिद्वन्द्विता की तासीर ठंडी रही। इसलिए इसे शीत युद्ध कहा जाता है।
→ दो – ध्रुवीय विश्व का प्रारम्भ:
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दोनों महाशक्तियों के बीच जारी शीत युद्ध के कारण दुनिया दो गुटों के बीच स्पष्ट रूप से बंट गयी थी । यह विभाजन पहले यूरोप में हुआ। पश्चिमी यूरोप के अधिकतर देशों ने संयुक्त राज्य अमेरिका का पक्ष लिया तो पूर्वी यूरोप सोवियत संघ के खेमे में शामिल हो गया। ये खेमे पश्चिमी और पूर्वी गठबंधन कहलाये । पश्चिमी गठबंधन ने 1949 में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की स्थापना की तो पूर्वी गठबंधन ने 1955 में ‘वारसा पैक्ट’ की स्थापना की। पश्चिमी गठबंधन ने ‘सीटो’ और ‘सेन्टो’ संगठन बनाए तो सोवियत संघ और साम्यवादी चीन ने उत्तरी वियतनाम, उत्तरी कोरिया और इराक के साथ अपने सम्बन्ध मजबूत किये। लेकिन गठबंधनों में परस्पर दरार पड़ने और गुटनिरपेक्ष आंदोलन के विकास के कारण समूचा विश्व दो गुटों में विभाजित नहीं हो सका।
→ शीत युद्ध के दायरे:
शीत युद्ध के दायरे से हमारा आशय ऐसे क्षेत्रों से होता है जहाँ विरोधी खेमों में बँटे देशों के बीच संकट के अवसर आये, युद्ध हुए या इनके होने की संभावना बनी, लेकिन बातें एक हद से ज्यादा नहीं बढ़ीं। दोनों महाशक्तियाँ कोरिया (1950-53), बर्लिन (1958 – 62), कांगो (1960), क्यूबा (1962) तथा कई अन्य जगहों पर सीधे-सीधे मुठभेड़ की स्थिति में आयीं; वियतनाम और अफगानिस्तान में व्यापक जन-हानि हुई, लेकिन विश्व परमाणु संजीव पास बुक्स युद्ध से बचा रहा। युद्धों को टालने में महाशक्तियों के संयम, गुटनिरपेक्ष देशों की भूमिका, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव, शस्त्रीकरण और अस्त्र नियंत्रण संधियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
शीत युद्ध का घटनाक्रम-
→ 1947: साम्यवाद को रोकने के बारे में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमैन का सिद्धान्त।
→ 1947-52: मार्शल योजना – पश्चिमी यूरोप के पुनः निर्माण में अमरीकी सहायता।
→ 1948-49: सोवियत संघ द्वारा बर्लिन की घेराबंदी।
→ 1950-53: कोरियाई युद्ध।
→ 1954: वियतनामियों के हाथों दायन बीयन फू में फ्रांस की हार, जेनेवा समझौते पर हस्ताक्षर, सिएटो का गठन 17वीं समानांतर रेखा द्वारा वियतनाम का विभाजन।
→ 1954-75: वियतनाम में अमरीकी हस्तक्षेप।
→ 1955: बगदाद (सेन्टो) समझौता तथा वारसा संधि।
→ 1956: हंगरी में सोवियत संघ का हस्तक्षेप|
→ 1961: क्यूबा में अमेरिका द्वारा प्रायोजित ‘बे ऑफ पिग्स’ आक्रमणं। बर्लिन की दीवार खड़ी की गई तथा गुटनिरपेक्ष सम्मेलन का बेलग्रेड में आयोजन।
→ 1962: क्यूबा का मिसाइल संकट।
→ 1965: डोमिनिकन रिपब्लिक में अमरीकी हस्तक्षेप।
→ 1968: चेकोस्लोवाकिया में सोवियत हस्तक्षेप।
→ 1972: अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन का चीन दौरा।
→ 1978-89: कंबोडिया में वियतनाम का हस्तक्षेप।
→ 1985: गोर्बाचेव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने; सुधार की प्रक्रिया प्रारंभ।
→ 1989: बर्लिन की दीवार गिरी।
→ 1990: जर्मनी का एकीकरण।
→ 1991: सोवियत संघ का विघटन और शीत युद्ध की समाप्ति।
→ दो – ध्रुवीयता को चुनौती- गुटनिरपेक्षता:
शीत युद्ध के दौरान विश्व दो प्रतिद्वन्द्वी गुटों में बंट रहा था। इसी संदर्भ में गुटनिरपेक्षता ने एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरीका के नव-स्वतंत्र देशों को इन गुटों से अलग रहने का तीसरा विकल्प दिया। गुट निरपेक्ष आंदोलन के पाँच संस्थापक नेता थे- भारत के नेहरू, यूगोस्लाविया के टीटो, मिस्र के नासिर, इंडोनेशिया के सुकर्णों और घाना के एनक्रूमा 1961 के बेलग्रेड गुटनिरपेक्ष आंदोलन के पहले सम्मेलन में जहाँ 25 सदस्य देश शामिल हुए, वहीं 2019 में अजरबेजान में हुए 18वें सम्मेलन में 120 सदस्य देश शामिल हुए। गुटनिरपेक्ष आंदोलन महाशक्तियों के गुटों में शामिल न होने का आंदोलन है। यह न तो पृथकतावाद है और न तटस्थतावाद।
→ नव अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था:
गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल अधिकांश देशों के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक रूप से और ज्यादा विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी। इन देशों का स्वतंत्रता की दृष्टि से भी आर्थिक विकास जरूरी था। इसी समझ से नव अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ 1970 के दशक के मध्य में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने नव अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना के लिए आर्थिक दबाव समूह की भूमिका निभायी लेकिन 1980 के दशक में इसके प्रयास ढीले पड़ गये। भारत और शीत युद्ध – गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में भारत ने दो स्तरों पर अपनी भूमिका निभाई।
- अपने को दोनों महाशक्तियों के खेमे से अलग रखा
- नव – स्वतंत्र देशों को महाशक्तियों के खेमे में जाने से रोका।
भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति सकारात्मक थी; उसने प्रतिद्वंद्वियों के बीच संवाद कायम करने तथा मध्यस्थता के प्रयास किये; दोनों खेमों से अलग अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों, जैसे राष्ट्रकुल, को सक्रिय रखा। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता – गुटनिरपेक्षता के कारण भारत अपने राष्ट्रीय हित साधने में सफल रहा। लेकिन आलोचकों ने भारत की इस नीति को सिद्धान्तविहीन तथा अस्थिर कहा वर्तमान में यह आन्दोलन मौजूदा असमानताओं से निपटने के लिए एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था बनाने तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को लोकतंत्रधर्मी बनाने के संकल्प पर टिका हुआ है।