Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन Textbook Exercise Questions and Answers
JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन
Jharkhand Board Class 12 Political Science पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन InText Questions and Answers
पृष्ठ 118
प्रश्न 1.
जंगल के सवाल पर राजनीति, पानी के सवाल पर राजनीति और वायुमण्डल के मसले पर राजनीति! फिर किस बात में राजनीति नहीं है।
उत्तर:
वर्तमान में विश्व की स्थिति कुछ ऐसी बन गई है, जहाँ प्रत्येक बात में राजनीति होने लगी है। इससे ऐसा लगता है कि अब कोई विषय ऐसा नहीं बचा है जिस पर राजनीति हावी नहीं हो।
पृष्ठ 119
प्रश्न 2.
पर दिए गए चित्र में अँगुलियों को चिमनी और विश्व को एक लाईटर के रूप में दिखाया गया है। ऐसा क्यों?
उत्तर:
दिए गए चित्रों में अँगुलियाँ उद्योगों से चिमनी से निकलने वाले प्रदूषण को दर्शाती हैं और लाइटर प्राकृतिक संसाधनों के जलने और घटने का प्रतिनिधित्व करता है।
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प्रश्न 3.
क्या पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी और गरीब देशों के नजरिये में अन्तर है?
उत्तर:
हाँ, पृथ्वी की सुरक्षा को लेकर धनी और गरीब देशों के नजरिये में अन्तर है। धनी देशों की मुख्य चिंता ओजोन परत की छेद और वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) को लेकर है जबकि गरीब देश आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबंधन के आपसी रिश्ते को सुलझाने के लिए ज्यादा चिंतित हैं। धनी देश पर्यावरण के मुद्दे पर उसी रूप में चर्चा करना चाहते हैं जिस रूप में पर्यावरण आज मौजूद है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो, जबकि निर्धन देशों का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को हानि अधिकांशतः विकसित देशों के औद्योगिक विकास से पहुँची है। यदि धनी देशों ने पर्यावरण को अधिक हानि पहुँचायी है तो उन्हें इस हानि की भरपाई करने की जिम्मेदारी भी अधिक उठानी चाहिए। साथ ही निर्धन देशों पर वे प्रतिबंध न लगें जो विकसित देशों पर लगाए जाने हैं।
पृष्ठ 122
प्रश्न 4.
क्योटो प्रोटोकॉल के बारे में और अधिक जानकारी एकत्र करें। किन बड़े देशों ने इस पर दस्तखत नहीं किये और क्यों?
उत्तर:
क्योटो प्रोटोकॉल – जलवायु परिवर्तन के संबंध में विभिन्न देशों के सम्मेलन का आयोजन जापान के क्योटो शहर में 1 दिसम्बर से 11 दिसम्बर, 1997 तक हुआ। इस सम्मेलन में 150 देशों ने हिस्सा लिया और जलवायु परिवर्तन को कम करने की वचनबद्धता को रेखांकित किया। इस प्रोटोकॉल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए सुनिश्चित, ठोस और समयबद्ध उपाय करने पर बल दिया गया। 11 दिसम्बर, 1997 को क्योटो प्रोटोकॉल (न्यायाचार) को विकसित और विकासशील दोनों प्रकार के देशों द्वारा स्वीकार कर लिया गया। इस न्यायाचार (प्रोटोकॉल) के प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित हैं-
- इसमें विकसित देशों को अपने सभी छः ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन स्तर को 2008 से 2012 तक 1990 के स्तर से औसतन 5.2% कम करने को कहा गया।
- यूरोपीय संघ को सन् 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन स्तर में 8%, अमेरिका को 7%, जापान तथा कनाडा को 6% की कमी करनी होगी, जबकि रूस को अपना वर्तमान उत्सर्जन स्तर 1990 के स्तर पर बनाए रखना होगा।
- इस अवधि में आस्ट्रेलिया को अपने उत्सर्जन स्तर को 8 प्रतिशत तक बढ़ाने की छूट दी गई।
- विकासशील देशों को निर्धारित लक्ष्य के उत्सर्जन स्तर में कमी करने की अनुमति दी गई।
- इस प्रोटोकॉल में उत्सर्जन के दायित्वों की पूर्ति के लिए विकासशील देश विकास में स्वैच्छिक भागीदारी में शामिल होंगे। इस हेतु विकासशील देशों में पूँजी निवेश करने के लिए विकसित देशों को ऋण की सुविधा उपलब्ध होगी।
पृष्ठ 124
प्रश्न 5.
लोग कहते हैं कि लातिनी अमरीका में एक नदी बेच दी गई। साझी संपदा कैसे बेची जा सकती है?
उत्तर:
साझी संपदा का अर्थ होता है–ऐसी संपदा जिस पर किसी समूह के प्रत्येक सदस्य का स्वामित्व हो। ऐसे संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख-रखाव के संदर्भ में समूह के हर सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होते हैं और समान उत्तरदायित्व निभाने होते हैं। लेकिन वर्तमान में निजीकरण, आबादी की वृद्धि और पारिस्थितिकी तंत्र की गिरावट समेत कई कारणों से पूरी दुनिया में साझी संपदा का आकार घट रहा है। गरीबों को उसकी उपलब्धता कम हो रही है। संभवत: लातिनी अमरीका में इन्हीं किन्हीं कारणों से नदी पर किसी मनुष्य समुदाय या राज्य ने उस पर अधिकार कर लिया हो और वह साझी संपदा न रहने दी गई हो। ऐसी स्थिति में उसे उसके स्वामित्व वाले समूह किसी अन्य को बेच दिया हो। इस प्रकार साझी संपदा को निजी सम्पदा में परिवर्तित कर उसे बेचा जा रहा है।
पृष्ठ 125
प्रश्न 6.
मैं समझ गया! पहले उन लोगों ने धरती को बर्बाद किया और अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है। क्या यही है हमारा पक्ष ?
उत्तर:
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु परिवर्तन से संबंधित बुनियादी नियमाचार के अन्तर्गत चर्चा चली कि तेजी से औद्योगिक होते देश (जैसे–ब्राजील, चीन और भारत) नियमाचार की बाध्यताओं का पालन करते हुए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करें। भारत इस बात के खिलाफ है। उसका कहना है कि भारत पर इस तरह की बाध्यता आयद करना अनुचित है क्योंकि 2030 तक उसकी प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर मात्र 1.6 ही होगी, जो आधे से भी कम होगी। बावजूद विश्व के ( सन् 2000 ) औसत ( 3.8 टन प्रति व्यक्ति) के आधे से भी कम होगा।
भारत या विकासशील देशों के उक्त तर्कों को देखते यह आलोचनात्मक टिप्पणी की गई है कि पहले उन लोगों ने अर्थात् विकसित देशों ने धरती को बर्बाद किया, इसलिए उन पर उत्सर्जन कम करने की बाध्यता को लागू करना न्यायसंगत है और विकासशील देशों में कार्बन की दर कम है इसलिए इन देशों पर बाध्यता नहीं लागू की जाये। इसका यह अर्थ निकाला गया है कि अब धरती को चौपट करने की हमारी बारी है। लेकिन भारत या विकासशील देशों का अपने पक्ष रखने का यह आशय नहीं है, बल्कि आशय यह है कि विकासशील देशों में अभी कार्बन उत्सर्जन दर बहुत कम है तथा 2030 तक यह मात्र 1.6 टन प्रति व्यक्ति ही होगी, इसलिए इन देशों को अभी इस नियमाचार की बाध्यता से छूट दी जाये ताकि वे अपना आर्थिक और सामाजिक विकास कर सकें। साथ ही ये देश स्वेच्छा से कार्बन की उत्सर्जन दर को कम करने का प्रयास करते रहेंगे।
पृष्ठ 127
प्रश्न 7.
क्या आप पर्यावरणविदों के प्रयास से सहमत हैं? पर्यावरणविदों को यहाँ जिस रूप में चित्रित किया गया है क्या आपको वह सही लगता है? (चित्र के लिए देखिए पाठ्यपुस्तक पृष्ठ संख्या 127 )
उत्तर:
चित्र में दूर से पर्यावरणविदों को अपने किसी उपकरण वृक्ष को जांचते हुए या पानी देते हुए दिखाया गया है। एक व्यक्ति के पीछे पाँच प्राणी खड़े हैं। वे वृक्ष की तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। पेड़ पर एक खम्भा है जिस पर विद्युत की तारें दिखाई देती हैं। शायद वे पेड़ को सूखा समझकर इसे काटे जाने की सिफारिश करना चाहते हैं। वे विशेषज्ञ होते हुए पर्यावरण पर पड़ रहे प्रभावों को नहीं देख रहे हैं। वे पर्यावरण के संरक्षण में स्थानीय लोगों के ज्ञान, अनुभव एवं सहयोग की भी बात करते हुए नहीं दिखाई दे रहे हैं। अतः यह चित्र पर्यावरणविदों को जिस रूप में चित्रित कर रहा है, वह सही नहीं लगता।
पृष्ठ 131
प्रश्न 8.
पृथ्वी पर पानी का विस्तार ज्यादा और भूमि का विस्तार कम है। फिर भी, कार्टूनिस्ट ने जमीन को पानी की अपेक्षा ज्यादा बड़े हिस्से में दिखाने का फैसला किया है। यह कार्टून किस तरह पानी की कमी को चित्रित करता है? (कार्टून के लिए देखिए पाठ्यपुस्तक का पृष्ठ संख्या 131 )
उत्तर:
पृथ्वी पर पानी का विस्तार ज्यादा और भूमि का विस्तार कम है। फिर भी, कार्टूनिस्ट ने जमीन को पानी की अपेक्षा ज्यादा बड़े हिस्से में दिखाने का फैसला किया है। यह कार्टून विश्व में पीने योग्य जल की कमी को चित्रित करता है। विश्व के कुछ भागों में पीने योग्य साफ पानी की कमी हो रही है तथा विश्व के हर हिस्से में स्वच्छ जल समान मात्रा में मौजूद नहीं है। इस जीवनदायी संसाधन की कमी के कारण हिंसक संघर्ष हो सकते हैं । कार्टूनिस्ट ने इसी को इंगित करते हुए विश्व में जमीन की तुलना में पानी की मात्रा को कम दिखाया है क्योंकि समुद्रों का पानी पीने योग्य नहीं है, इसलिए उसे इस जल की मात्रा में शामिल नहीं किया गया है।
पृष्ठ 132
प्रश्न 9.
आदिवासी जनता और उनके आंदोलनों के बारे में कुछ ज्यादा बातें क्यों नहीं सुनायी पड़तीं ? क्या मीडिया का उनसे कोई मनमुटाव है?
उत्तर:
आदिवासी जनता और उनके आंदोलनों से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में लम्बे समय तक उपेक्षित रहे हैं। इसका प्रमुख कारण मीडिया के लोगों तक इनके सम्पर्क का अभाव रहा है। 1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों के आदिवासियों के नेताओं के बीच सम्पर्क बढ़ा है। इससे उनके साझे अनुभवों और सरकारों को शक्ल मिली है तथा 1975 में इन लोगों की एक वैश्विक संस्था ‘वर्ल्ड काउंसिल ऑफ इंडिजिनस पीपल’ का गठन हुआ तथा इनसे सम्बन्धित अन्य स्वयंसेवी संगठनों का गठन हुआ है।
अब इनके मुद्दों तथा आंदोलनों की बातें भी मीडिया में उठने लगी हैं। अतः स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी लोगों की संस्थाओं के न होने के कारण मीडिया में इनकी बातें अधिक नहीं सुनाई पड़ती हैं। जैसे-जैसे आदिवासी समुदाय अपने संगठनों को अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर संगठित करता जायेगा, उन संगठनों के माध्यम से उनके मुद्दे और आंदोलनं भी मीडिया में मुखरित होंगे।
Jharkhand Board Class 12 Political Science पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन Text Book Questions and Answers
प्रश्न 1.
पर्यावरण के प्रति बढ़ते सरोकारों का क्या कारण है? निम्नलिखित में सबसे बेहतर विकल्प चुनें।
(क) विकसित देश प्रकृति की रक्षा को लेकर चिंतित हैं।
(ख) पर्यावरण की सुरक्षा मूलवासी लोगों और प्राकृतिक पर्यावासों के लिए जरूरी है।
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है।
(घ) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(ग) मानवीय गतिविधियों से पर्यावरण को व्यापक नुकसान हुआ है और यह नुकसान खतरे की हद तक पहुँच गया है।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित कथनों में प्रत्येक के आगे सही या गलत का चिह्न लगायें ये कथन पृथ्वी सम्मेलन के बारे में हैं।-
(क) इसमें 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भाग लिया।
(ख) यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में हुआ।
(ग) वैश्विक पर्यावरणीय मुद्दों ने पहली बार राजनीतिक धरातल पर ठोस आकार ग्रहण किया ।
(घ) यह महासम्मेलनी बैठक थी।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) सही,
(घ) सही।
प्रश्न 3.
‘विश्व की साझी विरासत’ के बारे में निम्नलिखित में कौन-से कथन सही हैं?
(क) धरती का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष को ‘विश्व की साझी विरासत’ माना जाता है।
(ख) ‘विश्व की साझी विरासत’ किसी राज्य के संप्रभु क्षेत्राधिकार में नहीं आते।
(ग) ‘विश्व की साझी विरासत’ के प्रबंधन के सवाल पर उत्तरी और दक्षिणी देशों के बीच मतभेद हैं
(घ) उत्तरी गोलार्द्ध के देश ‘विश्व की साझी विरासत’ को बचाने के लिए दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से कहीं ज्यादा चिंतित हैं।
उत्तर:
(क) सही,
(ख) सही,
(ग) सही,
(घ) गलत।
प्रश्न 4.
रियो सम्मेलन के क्या परिणाम हुये?
उत्तर:
रियो सम्मेलन के परिणाम – सन् 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ का पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर केन्द्रित ‘रियो’ या ‘पृथ्वी’ सम्मेलन हुआ इस सम्मेलन के निम्न प्रमुख परिणाम हुए-
- वैश्विक राजनीति के दायरे में पर्यावरण को लेकर बढ़ते सरोकारों को इस सम्मेलन में एक ठोस रूप मिला।
- इसमें जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के सम्बन्ध में कुछ नियम – आचार निर्धारित हुए।
- इसमें ‘एजेंडा-21’ के रूप में विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाये गये।
- इसमें ‘टिकाऊ विकास’ की धारणा को विकास रणनीति के रूप में सम्मान प्राप्त हुआ।
- रियो सम्मेलन में पर्यावरण सुरक्षा की साझी परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धान्त को मान लिया गया। इसका तात्पर्य है कि पर्यावरण के विश्वव्यापी क्षय में विभिन्न देशों का योगदान अलग-अलग है जिसे देखते हुए इन राष्ट्रों की पर्यावरण रक्षा के प्रति साझी, किन्तु अलग-अलग जिम्मेदारी होगी।
प्रश्न 5.
‘विश्व की साझी विरासत’ का क्या अर्थ है? इसका दोहन और प्रदूषण कैसे होता है?
उत्तर:
विश्व की साझी विरासत से आशय: विश्व की साझी विरासत’ का अर्थ है कि ऐसी सम्पदा जिस पर किसी एक व्यक्ति, समुदाय या देश का अधिकार न हो, बल्कि विश्व के सम्पूर्ण समुदाय का उस पर हक हो। विश्व के कुछ हिस्से और क्षेत्र किसी एक देश के संप्रभु क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैं। इसलिए उनका प्रबंधन साझे तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। उन्हें विश्व की साझी विरासत कहा जाता है। इसमें पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष शामिल हैं।
विश्व की साझी विरासत का दोहन:
विश्व की साझी विरासत का दोहन औद्योगीकरण, यातायात, बढ़ते वैश्विक व्यापार के रूप में किया जा रहा है।
विश्व की साझी विरासत में प्रदूषण – विश्व की साझी विरासत को गैर-जिम्मेदाराना ढंग से उपयोग करने के रूप प्रदूषित किया जा रहा है । यथा-
- अंटार्कटिका क्षेत्र के कुछ हिस्से तेल के रिसाव के दबाव में अपनी गुणवत्ता खो रहे हैं
- समुद्री सतह में मछली और समुद्री जीवों के अतिशय दोहन, समुद्री तटों पर औद्योगिक प्रदूषण, भारी मात्रा में प्रदूषित जल को समुद्र में डालना तथा अत्यधिक मशीनीकरण के कारण समुद्रीय पर्यावरण की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है।
- औद्योगीकरण, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, यातायात के साधनों के बढ़ने से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है।
प्रश्न 6.
साझ परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियों’ से क्या अभिप्राय है? हम इस विचार को कैसे लागू कर सकते हैं?
उत्तर;
साझी तथा अलग-अलग जिम्मेदारियों से आशय – विश्व पर्यावरण की रक्षा के सम्बन्ध में साझी परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारी से आशय यह है कि धरती के पर्यावरण की रक्षा के लिए सभी राष्ट्र आपस में सहयोग करेंगे। लेकिन पर्यावरण के विश्वव्यापी अपक्षय में विभिन्न राष्ट्रों का योगदान अलग-अलग है। इसे देखते हुए इसकी रक्षा में विभिन्न राष्ट्रों की अलग-अलग जिम्मेदारियाँ हैं। इसमें विकासशील देशों की तुलना में विकसित देशों की जिम्मेदारी अधिक है। ‘साझी परन्तु अलग-अलग जिम्मेदारियाँ’ के सिद्धान्त को लागू करना – साझी समझ तथा अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धान्त को निम्न प्रकार से लागू किया जा सकता है।
- सभी देश विश्वबंधुत्व की भावना से आपस में सहयोग करें।
- विकसित देशों के समाजों का वैश्विक पर्यावरण पर दबाव ज्यादा है और इनके पास विपुल प्रौद्योगिकीय तथा वित्तीय साधन हैं। इसे देखते हुए ये देश टिकाऊ विकास के प्रयास में अपनी विशिष्ट जिम्मेदारी निभायें।
- सभी देश अपनी क्षमतानुसार पर्यावरण की सुरक्षा में अपनी जिम्मेदारी निभायें।
- विकासशील देशों का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम है, इसलिए इन पर क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं को लादा न जाए।
- विकासशील देश स्वेच्छा से इस ओर अपनी जिम्मेदारी उठाते जाएँ।
प्रश्न 7.
वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे 1990 के दशक से विभिन्न देशों के प्राथमिक सरोकार क्यों बन गए हैं?
उत्तर:
निम्नलिखित कारणों से वैश्विक पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे 1990 के दशक से विभिन्न देशों के प्राथमिक सरोकार बन गये हैं-
- खाद्य उत्पादन में कमी आना – दुनिया में जहाँ जनसंख्या बढ़ रही है, वहाँ कृषि योग्य भूमि में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। दूसरे, जलराशि की कमी तथा जलीय प्रदूषण, चरागाहों की समाप्ति, भूमि की उर्वरता की कमी के कारण खाद्यान्न उत्पादन जनसंख्या के अनुपात में कम हो रहा है।
- स्वच्छ जल की उपलब्धता में कमी आना – विकासशील देशों की एक अरब बीस करोड़ जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होता और यहाँ इस वजह से 30 लाख से ज्यादा बच्चे हर साल मौत के शिकार हो रहे हैं।
- जैव-विविधता की हानि होना-वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, लोग विस्थापित हो रहे हैं तथा जैव- विविधता की हानि जारी है।
- ओजोन गैस की मात्रा में क्षय होना- धरती के ऊपरी वायुमंडल में ओजोन गैस की मात्रा में लगातार कमी हो रही है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र और मनुष्य के स्वास्थ्य पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है।
- समुद्रतटीय क्षेत्रों में प्रदूषण का बढ़ना- पूरे विश्व में समुद्रतटीय क्षेत्रों का प्रदूषण भी बढ़ रहा है। इससे समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता में भारी गिरावट आ रही है।
प्रश्न 8.
पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी है कि विभिन्न देश सुलह और सहकार की नीति अपनाएँ पर्यावरण के सवाल पर उत्तरी और दक्षिणी देशों के बीच जारी वार्ताओं की रोशनी में इस कथन की पुष्टि करें।
उत्तर:
1980 के दशक से तेजी से बढ़ते वैश्विक पर्यावरणीय प्रदूषण के गंभीर खतरों को देखते हुए विश्व के अधिकांश देशों ने पृथ्वी को बचाने के लिए परस्पर सुलह और सहकार नीति अपनाने के लिए परस्पर बातचीत की। यद्यपि पृथ्वी को बचाने के लिए उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों ने अपनी वचनबद्धता दिखाई, लेकिन इनके बीच जो वार्ताएँ हुईं उनमें पर्यावरण के सवाल पर निम्न सहमतियाँ तथा असहमतियाँ उभरी हैं-
- रियो सम्मेलन में ‘ एजेंडा – 21’ के रूप में टिकाऊ विकास के तरीके पर दोनों में सहमति बनी, लेकिन यह समस्या बनी रही कि इस पर अमल कैसे किया जाएगा।
- ‘वैश्विक सम्पदा’ की सुरक्षा के प्रश्न पर सहयोग करने की दृष्टि से अंटार्कटिका संधि (1959), मांट्रियल न्यायाचार 1987 तथा अंटार्कटिका न्यायाचार 1991 हुए, लेकिन इनमें किसी सर्वसम्मत पर्यावरणीय एजेण्डा पर सहमति नहीं बन पायीं।
- क्योटो प्रोटोकॉल, 1997 में दोनों गोलार्द्ध के बीच मतभेद और बढ़ गये । जहाँ विकासशील देशों का कहना है कि विकसित देशों की भूमिका इस सम्बन्ध में अधिक होनी चाहिए क्योंकि प्रदूषण उनके द्वारा अधिक किया जा रहा है, वहीं विकसित देश समान जिम्मेदारी पर बल दे रहे हैं।
- इसके बाद हुए सम्मेलनों में भी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में तुरंत कटौती की आवश्यकता पर तो सहमति बनी, पर यह समयबद्ध नहीं हो पायी।
प्रश्न 9.
विभिन्न देशों के सामने सबसे गंभीर चुनौती वैश्विक पर्यावरण को आगे कोई नुकसान पहुँचाये बगैर आर्थिक विकास करने की है। यह कैसे हो सकता है? कुछ उदाहरणों के साथ समझायें।
उत्तर:
वर्तमान परिस्थितियों में विभिन्न देशों के सामने सबसे गंभीर चुनौती पर्यावरण को आगे कोई नुकसान पहुँच ये बगैर आर्थिक विकास करने की है। यह निम्न प्रकार से संभव हो सकता है-
- विकसित देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर में निरन्तर कमी लाने की एक समयबद्ध तथा बाध्यतामूलक न्यायाचार का पालन करें।
- विकासशील देशों में आर्थिक विकास जारी रह सके और पर्यावरण प्रदूषण न बढ़े इसके लिए विकसित देशों को स्वच्छ विकास यांत्रिकी परियोजनाओं को चलाने के लिए पूँजी निवेश करना चाहिए तथा विकासशील देशों को इसके लिए ऋण सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए ।
- सभी देश ऊर्जा का और अधिक कुशलता के साथ प्रयोग करें तथा ऊर्जा के असमाप्य संसाधनों, जैसे – सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा का विकास करें।
- पानी को दूषित करने वाले लोगों व उद्योगों पर जुर्माना लगायें।
- उद्योगों से सुरक्षापूर्ण व सफाई युक्त उत्पादन की विधियों को अपनायें।
- कूड़े-कचरे के प्रबंध के लिए राष्ट्रीय योजना तैयार करें तथा कूड़े-कचरे की खपत के प्रारूपों को बदलें।
- पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को रोकें तथा वृक्षारोपण को एक राष्ट्रीय अभियान बनाएँ।
- वर्षा के पानी को संरक्षित करें।
पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन JAC Class 12 Political Science Notes
→ वैश्विक राजनीति में पर्यावरण की चिंता-
(1) विश्व में कृषि योग्य भूमि में उर्वरता की कमी होने, चरागाहों के चारे खत्म होने, मत्स्य-भंडारों के घटने तथा जलाशयों में प्रदूषण बढ़ने से खाद्य उत्पादन में कमी आ रही है।
(2) प्रदूषित पेयजल व स्वच्छता की सुविधा की कमी के कारण विकासशील देशों में 30 लाख से भी अधिक बच्चे प्रतिवर्ष मौत के शिकार हो रहे हैं।
(3) वनों की अंधाधुंध कटाई से जैव-विविधता में कमी आ रही है।
(4) वायुमंडल में ओजोन गैस की परत में छेद होने से पारिस्थितिकीय तंत्र और मानव स्वास्थ्य पर खतरा मंडरा रहा है।
(5) समुद्र तटों पर बढ़ते प्रदूषण से समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता में भारी गिरावट आ रही है।
→ पर्यावरण के ये मामले निम्न अर्थों में वैश्विक राजनीति के हिस्से हैं-
- इन मसलों में अधिकांश ऐसे हैं कि किसी एक देश की सरकार इनका पूरा समाधान अकेले दम पर नहीं कर सकती।
- पर्यावरण को नुकसान कौन पहुँचाता है? इस पर रोक लगाने की जिम्मेदारी किसकी है? ऐसे सवालों के जवाब इस बात से निर्धारित होते हैं कि कौन देश कितना ताकतवर है?
- संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) सहित अनेक अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं पर सम्मेलन कराये, इस विषय के अध्ययन को बढ़ावा दिया ताकि पर्यावरण की समस्याओं पर कारगर प्रयासों की शुरुआत हो।
→ पृथ्वी सम्मेलन (1992 ) – 1992 में संयुक्त राष्ट्र संघ का पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर केन्द्रित एक सम्मेलन ब्राजील के रियो डी जनेरियो में हुआ जिसे पृथ्वी सम्मेलन के नाम से जाना जाता है।
- इस सम्मेलन में यह बात खुलकर सामने आई कि विश्व के धनी और विकसित देश तथा गरीब और विकासशील देश पर्यावरण के अलग-अलग एजेंडों के पैरोकार हैं।
- रियो सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और वानिकी के सम्बन्ध में कुछ नियम-आचार निर्धारित हुए।
- इसमें इस बात पर सहमति बनी कि आर्थिक विकास का तरीका ऐसा होना चाहिए कि इससे पर्यावरण को हानि न पहुँचे। इसमें एजेंडा – 21 के तहत विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाये गये।
→ विश्व की साझी संपदा की सुरक्षा-
विश्व के कुछ हिस्से और क्षेत्र किसी एक देश के संप्रभु क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैं। इसलिए उनका प्रबंधन साझे तौर पर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। इन्हें वैश्विक साझी संपदा या ‘मानवता की साझी विरासत’ कहा जाता है। इसमें पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष शामिल हैं। वैश्विक सम्पदा की सुरक्षा की दिशा में यद्यपि कुछ महत्त्वपूर्ण समझौते, जैसे—अंटार्कटिका संधि (1959), मांट्रियल न्यायाचार (प्रोटोकाल 1987) और अंटार्कटिका पर्यावरणीय न्यायाचार (1991), हो चुके हैं; तथापि अनेक बिन्दुओं पर देशों में मतभेद हैं। किसी सर्व – सामान्य पर्यावरणीय एजेंडे पर सहमति नहीं बन पायी है। बाहरी अंतरिक्ष क्षेत्र के प्रबंधन पर भी उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों के बीच मौजूद असमानता का असर पड़ा है। धरती के वायुमण्डल और समुद्री सतह के समान यहाँ भी महत्त्वपूर्ण मसला प्रौद्योगिकी और औद्योगिक विकास का है।
पर्यावरण के सम्बन्ध में दक्षिणी और उत्तरी गोलार्द्ध के देशों के
दृष्टिकोणों में अन्तर
→ पर्यावरण को लेकर उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के दृष्टिकोणों में अन्तर निम्न हैं:
- उत्तर के विकसित देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो, दक्षिण के विकासशील देशों का कहना है कि विकसित देशों ने पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुँचाया है, उन्हें इस नुकसान की भरपाई की ज्यादा जिम्मेदारी उठानी चाहिए।
- विकासशील देश अभी औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं, इसलिए उन पर वे प्रतिबंध न लगें जो विकसित देशों पर लगाये जाने हैं।
→ साझी तथा अलग-अलग जिम्मेदारियाँ:
1992 में हुए पृथ्वी सम्मेलन में विकासशील देशों के उक्त तर्क को मान लिया गया और इसे ‘साझी तथा अलग-अलग जिम्मेदारियों का सिद्धान्त’ कहा गया। जलवायु परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के नियमाचार (1992) में भी इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हुए संधि की गई है तथा 1997 के क्योटो प्रोटोकाल की बाध्यताओं से विकासशील देशों को मुक्त रखा गया है।
→ साझी संपदा:
साझी संपदा के पीछे मूल तर्क यह है कि ऐसे संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख- रखाव के संदर्भ में समूह के हर सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होंगे और समान उत्तरदायित्व निभाने होंगे। लेकिन निजीकरण, गहनतर खेती, जनसंख्या वृद्धि और पारिस्थितिकी तंत्र की गिरावट समेत कई कारणों से पूरी दुनिया में साझी संपदा का आकार घट रहा है, उसकी गुणवत्ता और गरीबों को उसकी उपलब्धता कम हो रही है।
→ पर्यावरण के मसले में भारत का पक्ष:
भारत ने 2002 में क्योटो प्रोटोकाल (1997) पर हस्ताक्षर किये और इसका अनुमोदन किया। भारत, चीन और अन्य विकासशील देशों को क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से छूट दी गई है क्योंकि औद्योगीकरण के दौर में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में इनका कुछ खास योगदान नहीं है। लेकिन क्योटो प्रोटोकाल के आलोचकों ने कहा भारत-चीन आदि देशों को जल्दी ही क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं को मानना चाहिये। भारत ने इस सम्बन्ध में अपने पक्ष को निम्न प्रकार रखा है।
- 2005 के जून में ग्रुप-8 के देशों की बैठक में भारत ने बताया कि विकासशील देशों में ग्रीन हाउस गैसों की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर विकसित देशों की तुलना में नाममात्र है। इनके उत्सर्जन दर में कमी करने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी विकसित देशों की है।
- भारत पर्यावरण से जुड़े अन्तर्राष्ट्रीय मसलों में ज्यादातर ऐतिहासिक उत्तरदायित्व का तर्क रखता है कि ऐतिहासिक और मौजूदा जवाबदेही ज्यादातर विकसित देशों की है।
- तेजी से औद्योगिक होते देश, जैसे चीन व भारत आदि देशों को नियमाचार की बाध्यताओं को पालन करते हुए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना चाहिए। भारत का कहना है कि यह बात इस नियमाचार की मूल भावना के विरुद्ध है। भारत में 2030 तक कार्बन का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विश्व के औसत के आधे से भी कम होगा।
- भारत की सरकार विभिन्न कार्यक्रमों के जरिये पर्यावरण से संबंधित वैश्विक प्रयासों में शिरकत कर रही है।
- विकासशील देशों को रियायती शर्तों पर नये और अतिरिक्त वित्तीय संसाधन तथा प्रौद्योगिकी मुहैया कराने की दिशा में कोई सार्थक प्रगति नहीं हुई है।
- भारत चाहता है कि दक्षेस के देश पर्यावरण के प्रमुख मुद्दों पर समान राय बनाएँ।
→ पर्यावरण आंदोलन:
पर्यावरण की चुनौतियों के मद्देनजर कुछ महत्त्वपूर्ण पहल पर्यावरण के प्रति सचेत कार्यकर्ताओं ने की है। इन | कार्यकर्ताओं में कुछ तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर और बाकी स्थानीय स्तर पर सक्रिय हैं।
- वनों की कटाई के विरुद्ध आंदोलन – दक्षिणी देशों के वन – आंदोलनों पर बहुत दबाव है । इसके बावजूद तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में वनों की कटाई खतरनाक गति से जारी है।
- खनिज उद्योग के विरुद्ध आन्दोलन – खनिज उद्योग रसायनों का भरपूर उपयोग करता है, भूमि और जल मार्गों को प्रदूषित करता है तथा स्थानीय वनस्पतियों का विनाशं करता है। इसके कारण जन समुदायों को विस्थापित होना पड़ता है। विश्व के विभिन्न भागों में खनिज उद्योग के प्रति आंदोलन चले हैं। इसका एक उदाहरण फिलीपीन्स में आस्ट्रेलियाई बहुराष्ट्रीय कम्पनी ‘वेस्टर्न माइनिंग कॉरपोरेशन’ के खिलाफ चला आंदोलन है।
- बड़े बांधों के खिलाफ आंदोलन – कुछ आंदोलन बड़े बांधों के खिलाफ चल रहे हैं जिन्होंने नदियों को बचाने के आंदोलन का रूप ले लिया है। भारत में नर्मदा आंदोलन सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है।
→ संसाधनों की भू-राजनीति:
यूरोपीय ताकतों के विश्वव्यापी प्रसार का एक मुख्य साधन और मकसद संसाधन रहे हैं। संसाधनों को लेकर राज्यों के बीच तनातनी हुई है। संसाधनों से जुड़ी भू-राजनीति को पश्चिमी दुनिया ने ज्यादातर व्यापारिक संबंध, युद्ध तथा शक्ति के संदर्भ में सोचा। इस सोच के मूल में था संसाधनों की मौजूदगी तथा समुद्री नौवहन में दक्षता।
→ इमारती लकड़ी का महत्त्व और भू-राजनीति: समुद्री नौवहन के लिए आवश्यक इमारती लकड़ियों की आपूर्ति 17वीं सदी के बाद में यूरोपीय शक्तियों की प्राथमिकताओं में रही।
→ तेल की विश्व राजनीति: शीत युद्ध के दौरान विकसित देशों ने तेल और इमारती लकड़ी, खनिज आदि संसाधनों की सतत आपूर्ति के लिए कई तरह के कदम उठाये, जैसे–संसाधन दोहन के इलाकों तथा समुद्री परिवहन मार्गों के इर्द-गिर्द सेना की तैनाती, महत्त्वपूर्ण संसाधनों का भंडारण, संसाधनों के उत्पादक देशों में मनपसंद सरकारों की बहाली तथा बहुराष्ट्रीय निगमों और अपने हित साधक अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों को समर्थन देना आदि। इसके पीछे सोच यह थी कि संसाधनों तक पहुँच अबाध रूप से रहे क्योंकि सोवियत संघ इसे खतरे में डाल सकता था। दूसरी चिंता यह थी कि खाड़ी के देशों में मौजूद तेल तथा एशिया के देशों में मौजूद खनिज पर विकसित देशों का नियंत्रण बना रहे।
वैश्विक रणनीति में तेल प्रमुख संसाधन बना हुआ है। 20वीं सदी में विश्व की अर्थव्यवस्था तेल पर निर्भर रही है। तेल के साथ विपुल संपदा जुड़ी हुई है। इसीलिए इस पर कब्जा जमाने के लिए राजनीतिक संघर्ष छिड़ता है। पश्चिम एशिया, विशेषकर खाड़ी क्षेत्र, विश्व के कुल तेल – उत्पादन का 30 प्रतिशत मुहैया कराता है। सऊदी अरब के पास विश्व के कुल तेल भंडार का एक चौथाई हिस्सा मौजूद है। सऊदी अरब विश्व में सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है। इराकका स्थान दूसरा है।
→ स्वच्छ जल के लिए संघर्ष: विश्व – राजनीति के लिए पानी एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। विश्व के कुछ भागों में साफ पानी की कमी हो रही है तथा विश्व के हर हिस्से में स्वच्छ जल समान मात्रा में मौजूद नहीं है। इसलिए 21वीं सदी में इस जीवनदायनी संसाधन को लेकर हिंसक संघर्ष होने की संभावना है। देशों के बीच स्वच्छ जल- संसाधनों को हथियाने या उनकी सुरक्षा करने के लिए झड़पें हुई हैं। बहुत से देशों के बीच नदियों का साझा है और उनके बीच सैन्य संघर्ष होते रहते हैं। तुर्की, सीरिया और इराक के बीच फरात नदी पर बांध के निर्माण को लेकर एक- दूसरे से ठनी हुई है।
→ मूलवासी और उनके अधिकार:
मूलवासी ऐसे लोगों के वंशज हैं जो किसी मौजूदा देश में बहुत दिनों से रहते चले आ रहे हैं। लेकिन किसी दूसरी संस्कृति या जातीय मूल के लोग विश्व के दूसरे हिस्से से उस देश में आए और इन लोगों को अधीन बना लिया। ये मूलवासी आज भी अपनी परम्परा, सांस्कृतिक रिवाज और अपने खास सामाजिक-आर्थिक ढर्रे पर जीवन-यापन करना ही पसंद करते हैं। भारत सहित विश्व के विभिन्न हिस्सों में लगभग 30 करोड़ मूलवासी विद्यमान हैं। दूसरे सामाजिक आंदोलनों की तरह मूलवासी भी अपने संघर्ष, एजेंडा और अधिकारों की आवाज उठाते हैं यथा
- विश्व राजनीति में इनकी आवाज विश्व: बिरादरी में बराबरी का दर्जा पाने के लिए उठी है। इन्हें आदिवासी कहा जाता है। सरकारों से इनकी मांग है कि इन्हें मूलवासी कौम के रूप में स्वतंत्र पहचान रखने वाला समुदाय माना जाए। ये अपने मूल वास स्थान पर अपने अधिकार की दावेदारी प्रस्तुत करते हैं।
- भारत में इन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में जाना जाता है। ये कुल जनसंख्या का 8% हैं। ये अपने जीवन-यापन के लिए खेती पर निर्भर हैं। आजादी के बाद चली विकास की परियोजनाओं में इन लोगों को बड़ी संख्या में विस्थापित होना पड़ा है।
- 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ में ‘मूल वासी लोगों की विश्व परिषद्’ का गठन हुआ। इसके अतिरिक्त आदिवासियों के सरकारों से संबद्ध 10 अन्य स्वयंसेवी संगठनों को भी यह दर्जा दिया गया है।