Jharkhand Board JAC Class 9 Hindi Solutions Sparsh Chapter 9 रैदास के पद Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 9 Hindi Solutions Sparsh Chapter 9 रैदास के पद
JAC Class 9 Hindi रैदास के पद Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(क) पहले पद में भगवान और भक्त की जिन-जिन चीज़ों से तुलना की गई है, उनका उल्लेख कीजिए।
(ख) पहले पद की प्रत्येक पंक्ति के अंत में तुकांत शब्दों के प्रयोग से नाद-सौंदर्य आ गया है, जैसे – पानी, समानी आदि। इस पद से अन्य तुकांत शब्द छाँटकर लिखिए।
(ग) पहले पद में कुछ शब्द अर्थ की दृष्टि से परस्पर संबद्ध हैं। ऐसे शब्दों को छाँटकर लिखिए। उदाहरण: दीपक → बाती।
(घ) दूसरे पद में कवि ने ‘गरीब निवाजु’ किसे कहा है ? स्पष्ट कीजिए।
(ङ) दूसरे पद की ‘जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै’ इस पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
(च) रैदास’ ने अपने स्वामी को किन-किन नामों से पुकारा है ?
(छ) निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रूप लिखिए – मोरा, चंद, खाती, जोति, बरै, राती, छत्रु, धेरै, छोति, तुहीं, गुसईआ।
उत्तर :
(क) भगवान की तुलना – चंदन, घने बादल, चंद्रमा, दीपक, मोती, सुहागा, स्वामी।
भक्त की तुलना – पानी, मोर, चकोर, बाती, धागा, सोना, दास।
(ख) तुकांत शब्द – मोरा – चकोरा, बाती – राती, धागा – सुहागा, दासा – रैदासा।
(ग) चंदन → पानी; घनबन → मोरा; चंद → चकोरा; मोती → धागा; सोना → सुहागा ; स्वामी → दास।
(घ) कवि ने ‘गरीब निवाजु’ अपने आराध्य परमात्मा को कहा है, क्योंकि वे सदा गरीबों तथा दीन-दुखियों पर दया करते हैं।
(ङ) इस पंक्ति के माध्यम से कवि यह स्पष्ट करता है कि जिन लोगों को संसार के लोग अछूत समझते हैं, ऐसे लोगों पर परमात्मा दया करके उनकी सदा सहायता करते हैं। परमात्मा कोई भेदभाव नहीं करते। वे सब पर समान रूप से दया करते हैं।
(च) कवि ने अपने स्वामी को गरीब निवाजु, स्वामी, गोसाई, गोबिंद, हरि कहकर पुकारा है।
(छ) मोरा = मोर। चंद = चंद्रमा, चाँद। बाती = बत्ती। जोति = ज्योत। बर = जले। राती = रात, रात्रि। छत्रु = छत्र। धर = धरना। छोति = छूत। तुहीं = तुम ही, आप ही। गुसईआ = गोसाई, स्वामी।
प्रश्न 2.
नीचे लिखी पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए –
(क) जाकी अँग- अँग बास समानी
(ख) जैसे चितवत चंद चकोरा
(ग) जाकी जोति बरै दिन राती
(घ) ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै
(ङ) नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै
उत्तर :
(क) भक्त स्वयं गुणों से रहित है। वह पानी के समान रंग-रहित और गंध-रहित है, लेकिन ईश्वररूपी चंदन का सान्निध्य पाकर वह धन्य हो जाता है। वह गुणों की प्राप्ति कर लेता है। ईश्वरीय भक्ति उसे पापों से मुक्त करके उसके जीवन को सार्थकता प्रदान करती है।
(ख) भक्त तो सदा भवसागर पार करवाने वाले परमात्मा के प्रति स्वयं को अर्पित कर देना चाहता है। वह हर पल उसी के रूप-दर्शन करने की इच्छा करता है। जिस प्रकार चकोर अपने प्रिय चंद्रमा को निहारना चाहता है, उसी प्रकार संत रैदास भी प्रभूरूपी चाँद को एकटक देखना चाहते हैं; वे अपने ध्यान को किसी दूसरी ओर नहीं लगाना चाहते।
(ग) कवि कहता है कि ईश्वर सृष्टि के कण-कण में समाया हुआ है। प्रत्येक प्राणी में उसी की ज्योति जगमगा रही है। उसी के कारण हम जीवित हैं। वही हमारे श्वासों को चला रहा है।
(घ) कवि बताना चाहता है कि जीवों पर जैसी कृपा ईश्वर करता है, वैसी कृपा कोई और नहीं कर सकता। वही दीन-दुखियों का रक्षक है। उसके बिना मानव का सहायक कोई और नहीं है।
(ङ) परमात्मा किसी से नहीं डरता। वह तो नीच कों भी उच्च बना देता है। वह अपने भक्तों पर दया करके उनका उद्धार कर देता है।
प्रश्न 3.
रैदास के इन पदों का केंद्रीय भाव अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
पहले पद ‘अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी’ में कवि अपने आराध्य को सदा स्मरण करता है, क्योंकि वह स्वयं को उनसे अलग नहीं मानता। उसके अनुसार वह पानी है, तो प्रभु चंदन हैं। इसी प्रकार से वह स्वयं को मोर, चकोर, बाती, धागा, सोना तथा सेवक कहता है और अपने प्रभु को घनश्याम, चाँद, दीपक, मोती, सुहागा और स्वामी मानता है।
दूसरे पद ‘ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै’ में कवि ने अपने आराध्य के दयालु रूप का वर्णन किया है जो ऊँच-नीच, सुवर्ण-अवर्ण, अमीर-गरीब आदि का भेदभाव नहीं जानता। वह किसी भी कुल-गोत्र में उत्पन्न अपने भक्त को सहज भाव से अपनाकर उसे दुनिया में सम्मान दिलाता है तथा उसे सांसारिक बंधनों से मुक्त कर अपने चरणों में स्थान देता है। ईश्वर द्वारा नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना, सैन जैसे निम्न जाति में उत्पन्न भक्तों को समाज में उच्च स्थान दिलाने तथा उनका उद्धार करने के उदाहरण देकर कवि ने अपने इस कथन को सिद्ध किया है।
योग्यता – विस्तार –
प्रश्न 1.
भक्त कवि कबीर, गुरु नानक, नामदेव और मीराबाई की रचनाओं का संकलन कीजिए।
प्रश्न 2.
पाठ में आए दोनों पदों को याद कीजिए और कक्षा में गाकर सुनाइए।
उत्तर :
विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।
JAC Class 9 Hindi रैदास के पद समान Important Questions and Answers
प्रश्न 1.
रैदास की भक्ति की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर :
रैदास की भक्ति भक्त के मन की पुकार है, जो परमात्मा को रिझाने और पाने के लिए व्याकुल हैं। वे संतों के समान दार्शनिक सिद्धांतों के चक्कर में नहीं पड़े। उन्होंने सीधी-सादी और व्यावहारिक भाषा में अपने भक्त हृदय को प्रकट किया। उनकी भक्ति सच्चे हृदय की आवाज़ को व्यक्त करती है। वे हृदय के सच्चे थे और तर्क-वितर्क से उपलब्ध होने वाले कोरे ज्ञान की अपेक्षा सत्य से पूर्ण अनुभूति में अधिक विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि राम का परिचय पाने के बाद ही हम अपने मन की दुविधा को दूर कर सकते हैं।
जिस प्रकार ‘तूंबा’ जल के ऊपर ही रहता है, उसी प्रकार हमें भी संसार में वैसे ही विचरण करना चाहिए। भक्ति दिखावे का नाम नहीं है। जब तक मनुष्य पूर्ण वैराग्य की स्थिति प्राप्त नहीं करता, तब तक भक्ति के नाम पर की जाने वाली सब साधनाएँ केवल भ्रम और आडंबर है जिनसे कोई लाभ नहीं हो सकता। सोने की शुद्धि का परिचय उसे पीटे, काटे, तपाने या सुरक्षित रखने से नहीं होता बल्कि सुहागे के साथ संयोग से होता है। हमारे हृदय में निर्मलता तभी उत्पन्न होती है, जब परमात्मा से हमारी पहचान हो जाती है।
प्रश्न 2.
रैदास ने जिस ‘राम’ की भक्ति की थी, उसका परिचय दीजिए।
उत्तर :
कबीर के ‘निर्गुण राम’ के समान रैदास का ‘सत्य राम’ भी निर्गुण और निराकार है, जिसे वे ‘माधो’ कहकर पुकारते हैं। यह राम का वह रूप नहीं है, जिन्हें सामान्य लोग जानते हैं। वह सर्वव्यापक और निर्गुण है; वह निराकार है; सब उसमें व्याप्त है और वह सबमें व्याप्त है। राम सदा एक रस है। वह निर्गुण, निराकार, उदय-अस्त से रहित, सर्वत्र व्यापक, निश्चल, अजन्मा, अनंत, अनुपम, निर्भय, अगम, अगोचर, अक्षर, अतर्क, अनादि, अनंत, निर्विकार और अविनाशी है।
उसमें न कर्म है और न अकर्म; न शुभ है और न अशुभ; न शीत है और न अशीत; न योग है और न भोग। वह शिव – अशिव, धर्म-अधर्म, जरा-मरण, दृष्टि- अदृष्टि, गेय – अगेय आदि के बंधन से परे है। वह एक है। वह अद्वितीय है। वह मूर्ति में नहीं है। जो मूर्ति को पूजते हैं, वे कच्ची बुद्धि वाले हैं। राम तो वह है, जिसका न कोई नाम है और न ही स्थान। वह सबमें व्याप्त है; उसे कहीं बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं होती।
प्रश्न 3.
रैदास ने स्वयं को पानी और प्रभु को चंदन क्यों माना है ?
उत्तर :
रैदास को प्रभु नाम जपने की लगन लगी है। वे स्वयं को पानी और प्रभु को चंदन मानते हैं। पानी का रंग, गंध व कोई स्वाद नहीं होता, परंतु जब पानी प्रभु-रूपी चंदन के साथ मिल जाता है तो उसमें भी रंग और सुगंध आ जाती है। कवि कहता है कि यदि उसमें कोई गुण विद्यमान है, तो ईश्वर की भक्ति के कारण है। ईश्वर ही सभी गुणों को प्रदान कर अपने भक्त को गुणवान बना देता है।
प्रश्न 4.
रैदास ने स्वयं की तुलना मोर से क्यों की है ?
उत्तर :
रैदास ने स्वयं की तुलना मोर से की है। जिस प्रकार बादलों को देखकर मोर अपने हृदय की प्रसन्नता को नाच नाचकर प्रकट करता है, उसी प्रकार भक्त – रूपी कवि भी प्रभु रूपी बादल को अपने मन में अनुभव करता है तथा आत्मविभोर होकर नाच उठता है।
प्रश्न 5.
कवि ने स्वयं को धागा क्यों माना है ?
उत्तर :
ईश्वर का स्वरूप निराकार है। भक्त अपनी भक्ति के द्वारा उस स्वरूप का गुणगान करता है। वह स्वयं को प्रभु का सेवक बताता है। कवि स्वयं को उस धागे के समान मानता है, जो भक्ति के अमूल्य मोतियों को ईश्वर – नाम के रूप में पिरोता है। ईश्वर भक्त को अपने गुणों से प्रभावित करता है। भक्त के लिए वे सारे गुण मोती के समान हैं, जिन्हें वह भक्ति भावना रूपी धागे में पिरोता है। इसलिए रैदास ने स्वयं को धागा बताया है।
प्रश्न 6.
रैदास ने प्रभु को कैसा बताया है ?
उत्तर :
रैदास ने प्रभु को उदार, कृपालु तथा दयालु बताया है। उनके अतिरिक्त गरीबों तथा दीन-दुखियों का स्वामी अथवा रक्षक अन्य कोई नहीं है। वे ही सबके रक्षक और स्वामी हैं।
प्रश्न 7.
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती ॥
उपरोक्त पंक्तियों में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
उत्तर :
संत रैदास ने दास्य-भाव की भक्ति को प्रकट किया है और माना है कि उनका अस्तित्व परमात्मा के कारण है। परमात्मा ही गुणों का भंडार है और वही अपने भक्तों पर दया करता है। कवि की भाषा सधुक्कड़ी है, जिसमें तद्भव शब्दावली की अधिकता है। स्वरमैत्री ने संगीतात्मकता का गुण प्रदान किया है। अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश और उपमा का सहज, सुंदर और स्वाभाविक प्रयोग सराहनीय है। माधुर्य गुण, शांत रस और अभिधा शब्द-शक्ति का सुंदर प्रयोग किया गया है।
प्रश्न 8.
कवि रैदास को किसकी आदत पड़ गई है, जो छोड़ने से भी नहीं छूट रही ?
उत्तर :
कवि रैदास बड़े ही दीन भाव से प्रभु से कहते हैं कि हे ईश्वर मुझे तो ‘राम-नाम’ जपने की रट लग गई है। दिन हो या रात – हर पल हर समय मेरी जिह्वा ‘राम-नाम’ का जप करती रहती है। यह आदत ऐसी पड़ गई है कि अब छूटने से भी नहीं छूट रही।
प्रश्न 9.
कवि रैदास ने प्रभु को कैसा माना है ?
उत्तर :
कवि रैदास ने प्रभु को सबका रक्षक माना है। कवि के अनुसार उनके प्रभु दयावान हैं। वे सभी प्राणियों पर अपनी अनुकम्पा बनाए रखते हैं। उनकी दृष्टि में कोई छोटा-बड़ा नहीं है। वे दया के सागर तथा करुणाशील हैं। वे दीन-दुखियों पर दया करने वाले हैं और सभी प्राणियों को एक भाव से देखते हैं।
प्रश्न 10.
कवि ने दूसरे पद में ऊँच-नीच तथा भेदभाव से संबंधित क्या बातें कही हैं ?
उत्तर :
कवि ने दूसरे पद में स्पष्ट किया है कि ईश्वर के समक्ष ऊँच-नीच का कोई भेदभाव नहीं है। वे किसी को छोटा-बड़ा नहीं मानते। वे सभी को एक दृष्टि से देखते हैं। वे किसी भी कुल, गोत्र, जाति आदि में उत्पन्न अपने भक्त को समान रूप से अपना कर तथा उसे समुचित सम्मान देकर उसका उद्धार करते हैं। यही उस परमपिता परमेश्वर की दयालुता है।
प्रश्न 11.
दूसरे पद में कवि ने परमात्मा द्वारा किन लोगों के उद्धार की बात कही है ?
उत्तर :
दूसरे पद में कवि ने परमात्मा द्वारा नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना और सैन जैसे लोगों की भक्ति व आराधना से प्रसन्न होकर उनका उद्धार करने की बात कही है।
प्रश्न 12.
कवि रैदास के पदों की भाषा-शैली स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कवि रैदास ने अपने पदों में मुख्य रूप से सरल तथा प्रचलित ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। इनकी भाषा में कहीं-कहीं उर्दू, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी आदि के शब्दों का प्रयोग भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इनके पदों में स्वरमैत्री तथा संगीतात्मकता का गुण सर्वत्र विद्यमान है। पदों में तत्सम शब्दों के स्थान पर तद्भव शब्दों की अधिकता है। इन्होंने सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग अत्यंत सहज ढंग से किया है।
रैदास के पद Summary in Hindi
कवि-परिचय :
जीवन-परिचय -रैदास अथवा रविदास निर्गुण काव्यधारा के संत कवियों में प्रमुख माने जाते हैं। आदि ग्रंथ के अनुसार इनका जन्म काशी में हुआ था। इनका समय सन् 1388 ई० से लेकर सन् 1518 ई० तक का माना जाता है। ये कबीर के समकालीन थे। इनके गुरु रामानंद थे। गृहस्थी होते हुए भी इनका जीवन संतों के समान था। इन्होंने अपनी रचनाओं में अपने पूर्ववर्ती और समकालीन संत कवियों नामदेव, कबीर आदि की भी चर्चा की है। इनके ज्ञान से प्रभावित होकर मीराबाई ने इन्हें अपना गुरु स्वीकार किया था। तत्कालीन शासक सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली भी आमंत्रित किया था।
रचनाएँ – रैदास द्वारा रचित दो ग्रंथ – ‘ रविदास की बानी’ और ‘रविदास के पद’ हैं। श्री गुरु ग्रंथ साहब में भी इनके कुछ पद संग्रहीत हैं। इनकी समस्त रचनाएँ ‘रैदास की बानी’ के नाम से उपलब्ध हैं।
काव्य की विशेषताएँ – रैदास ने अपनी रचनाओं में निर्गुण निराकार ब्रह्म के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की है, किंतु सगुणोपासना से भी इनका कोई विरोध नहीं था। इसलिए इन्होंने अपनी वाणी में निर्गुण-निराकार परमात्मा को स्मरण करने के लिए सगुणोपासना में प्रचलित परमात्मा के माधव, हरि, गोबिंद, राम, केशव आदि शब्दों का निस्संकोच भाव से प्रयोग किया है। इन्होंने एकाग्र मन तथा एकनिष्ठ भाव से प्रभु स्मरण पर बल दिया है।
रैदास जातिगत भेदभाव, तीर्थ, व्रत, आडंबरपूर्ण पूजा आदि में विश्वास नहीं रखते थे। वे सहज, सरल तथा आडंबरहीन प्रभु-भक्ति करते थे। इनकी वाणी में आत्मा-परमात्मा की एकता का भाव व्यक्त हुआ है। वे आत्मा को परमात्मा का अभिन्न अंश मानते थे। इनकी वाणी में प्रमुखता लोक-कल्याण का भाव रहा है।
रैदास ने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से सरल तथा प्रचलित ब्रजभाषा का प्रयोग किया है; इसमें कहीं-कहीं खड़ी बोली, अवधी, राजस्थानी, अरबी-फ़ारसी तथा उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी दिखाई दे जाता है। इनके पद ‘खालिक – सिकस्ता मैं तेरा’ में अरबी, फ़ारसी और उर्दू के शब्दों का बहुत प्रयोग हुआ है।
प्रचलित उपमानों तथा नाथों और निरंजनों के सहज, शून्य आदि शब्द भी प्राप्त होते हैं। इन्होंने मुक्तक गेय पदों, दोहा, चौपाई आदि छंदों में अपनी रचनाएँ की हैं। रैदास का काव्य भक्तिभाव से परिपूर्ण है, जिसमें निर्गुण ब्रह्म की आराधना के साथ-साथ गुरु-भक्ति, लोक कल्याण, कर्तव्य पालन, सत्संग, नाम-स्मरण आदि का महत्व प्रतिपादित किया गया है।
पदों का सार :
पाठ्य-पुस्तक में रैदास द्वारा रचित दो पद संकलित हैं। पहले पद में कवि ने अपने आराध्य की आराधना करते हुए स्पष्ट किया है कि उसे राम-नाम की रट लग गई है, जिसे वह अब छोड़ नहीं सकता। वह अपने प्रभु को चंदन और स्वयं को पानी; उन्हें घनश्याम और स्वयं को मोर; उन्हें चाँद तथा स्वयं को चकोर मानता है। वह अपने प्रभु को दीपक स्वयं को बाती; उन्हें मोती स्वयं को धागा तथा उन्हें स्वामी और स्वयं को उनका दास मानकर उनकी भक्ति करता है।
दूसरे पद में कवि ने प्रभु को सबका रक्षक माना है। कवि के अनुसार दुखियों पर दया करने वाला परमात्मारूपी स्वामी उस जैसे व्यक्ति को भी महान बना देता है। संसार जिसे अछूत मानता है, उसी पर परमात्मा द्रवित होकर कृपा करता है। वह किसी से भी नहीं डरता और नीच को भी ऊँचा बना देता है। कवि कहता है कि उसी परमात्मा की कृपा से नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना, सैन जैसे निम्न जाति में उत्पन्न व्यक्तियों का भी उद्धार हो गया था।
व्याख्या –
1. अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी,
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा ॥
बास – सुगंध। घन बादल। बरै जले। सोनहिं सोने में।
शब्दार्थ : बास – सुगंध। घन – बादल। बंर – जले। सोनहिं – सोने में।
प्रसंग : प्रस्तुत पद रैदास द्वारा रचित है, जोकि हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पर्श’ (भाग – 1) में संकलित है। इस पद में कवि ने अपने आराध्य के प्रति अपनी अटूट भक्ति का परिचय दिया है।
व्याख्या : रैदास कहते हैं कि हे मेरे प्रभु ! अब मुझे राम नाम जपने की रट लग गई है, जो मुझसे किसी प्रकार से भी नहीं छूट सकती। हे प्रभु! आप चंदन के समान हैं और मैं पानी जैसा हूँ। मैं गंध से रहित पानी की तरह था, जिसमें आपके चंदन रूप की सुगंध घुलकर मेरे अंग-अंग में समा गई है। आप घने बादलों का समूह हैं और मैं मोर हूँ। मैं आपको ऐसे देखता हूँ, जैसे चंद्रमा को चकोर देखता है। आप दीपक हैं और मैं उसमें जलने वाली बत्ती हूँ, जिसकी ज्योत दिन-रात जलती रहती है। आप मोती हैं और मैं मोती को पिरोने वाला धागा हूँ। जैसे सोने को सुहागा शुद्ध कर देता है, वैसे ही आपने मुझे पवित्र कर दिया है। हे प्रभु! आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका दास हूँ। ऐसी ही भक्ति रैदास आपकी करता है।
2. ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै॥
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै ॥
शब्दार्थ : लाल – स्वामी। गरीब निवाजु – गरीबों पर कृपा करने वाला। गुसईआ – स्वामी। माथै छत्रु धेरै महान बनाना। जाकी जिसकी। छोति – छुआछूत, अस्पृश्यता। ढरै द्रवित होना, दया करना। नामदेव महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत; इन्होंने मराठी और हिंदी दोनों – भाषाओं में रचना की है। तिलोचनु (त्रिलोचन ) – एक प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य, जो ज्ञानदेव और नामदेव के गुरु थे। सधना – एक उच्च कोटि के संत, जो नामदेव के समकालीन माने जाते हैं। सैनु ये भी एक प्रसिद्ध संत हैं, ‘आदि गुरुग्रंथ साहब’ में संग्रहीत पद के आधार पर इन्हें रामानंद का समकालीन माना जाता है। जीउ – इच्छा। सरै – होना।
प्रसंग : प्रस्तुत पद रैदास द्वारा रचित है, जो हमारी पाठ्यपुस्तक ‘स्पर्श’ (भाग – 1) में संकलित है। इस पद में कवि ने स्पष्ट किया है कि परमात्मा के सामने ऊँच-नीच का कोई भेदभाव नहीं है। वह किसी भी कुल, गोत्र, जाति आदि में उत्पन्न अपने भक्त को समान रूप से अपनाकर और उसे समुचित सम्मान देकर उसका उद्धार करता है।
व्याख्या : कवि प्रभु की उदारता, कृपालुता तथा दयालुता का वर्णन करते हुए कहता है कि आपके अतिरिक्त गरीबों तथा दीन-दुखियों का स्वामी अथवा रक्षक अन्य कोई नहीं है। आप गरीबों के रक्षक तथा स्वामी हैं। आपने ही मुझ जैसे व्यक्ति को इतनी महानता प्रदान की है। जिनके स्पर्श को भी दुनिया वाले बुरा मानते हैं, ऐसे लोगों पर भी आप दया करते हैं। कवि कहता है कि मेरा गोबिंद तो नीच को भी उच्च बना देता है; वह किसी से डरता नहीं है। उस परमात्मा ने नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना और सैन जैसे लोगों की भक्ति से प्रसन्न होकर उनका उद्धार कर दिया। रविदास कहते हैं कि ‘हे संतो ! हरि की इच्छा से सभी कार्य संपन्न हो जाते हैं’।