JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

Jharkhand Board JAC Class 9 Sanskrit Solutions व्याकरणम् कारक प्रकरणम् Questions and Answers, Notes Pdf.

JAC Board Class 9th Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

कारकस्य परिभाषा – ‘क्रियाजनकत्वं कारकम्’ अथवा ‘क्रियां करोति निर्वर्तयति इति कारकम्।’ अर्थात् यः क्रियां सम्पादयति अथवा यस्य क्रियया सह साक्षात् परम्परया वा सम्बन्धो भवति सः ‘कारकम्’ इति कथ्यते। [क्रिया को जो करता है अथवा क्रिया के साथ जिसका सीधा अथवा परम्परा से सम्बन्ध होता है, वह ‘कारक’ कहा जाता है।
क्रिया के साथ कारकों का साक्षात् अथवा परम्परा से सम्बन्ध कैसे होता है? यह समझने के लिए यहाँ एक वाक्य प्रस्तुत किया जा रहा है। जैसे –
“हे मनुष्याः ! नरदेवस्य पुत्रः जयदेवः स्वहस्तेन कोषात् निर्धनेभ्यः ग्रामे धनं ददाति।” (हे मनुष्यो! नरदेव का पुत्र । जयदेव अपने हाथ से खजाने से निर्धनों के लिए गाँव में धन (को) देता है।)
यहाँ क्रिया के साथ कारकों का सम्बन्ध इस प्रकार प्रश्नोत्तर से जानना चाहिए –

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इस प्रकार यहाँ ‘जयदेव’ इस कर्ता कारक का तो क्रिया से साक्षात् सम्बन्ध है और अन्य कारकों का परम्परा से सम्बन्ध है इसलिए ये सभी कारक कहे जाते हैं। किन्तु इसी वाक्य में ‘हे मनुष्या:!’ और ‘नरदेवस्य’ इन दो पदों का ददाति क्रिया के साथ साक्षात् अथवा परम्परा से सम्बन्ध नहीं है इसलिए ये दो पद कारक नहीं हैं। ‘सम्बन्ध’ कारक तो नहीं होता है, परन्तु उसमें षष्ठी विभक्ति होती है। अतः कारक एवं विभक्ति में गहरा सम्बन्ध होते हुए भी ये अलग-अलग हैं।

‘कारकाणां संख्या’-इत्थं ‘कारकाणां संख्या’ षड् भवति। यथोक्तम् –

कर्ता कर्म च करणं च सम्प्रदानं तथैव च।
अपादानाधिकरणमित्याहुः कारकाणिषट्।।

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(इस प्रकार ‘कारकों की संख्या’ छः होती है। जैसा कि कहा है-कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण-ये छ: कारक कहे गये हैं।)

ध्यातव्यः – संस्कृत में प्रथमा से सप्तमी तक सात विभक्तियाँ होती हैं। ये सात विभक्तियाँ ही कारक का रूप धारण करती हैं। सम्बोधन विभक्ति को प्रथमा विभक्ति के ही अन्तर्गत गिना जाता है। क्रिया से सीधा सम्बन्ध रखने वाले शब्दों को ही कारक माना गया है। षष्ठी विभक्ति का क्रिया से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है, अत: ‘सम्बन्ध’ कारक को कारक नहीं माना गया है। इस प्रकार संस्कृत में कारक छः ही होते हैं तथा विभक्तियाँ सात होती हैं। कारकों में प्रयुक्त विभक्तियों तथा उनके चिह्नों का विवरण इस प्रकार है –

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विभक्ति प्रयोग

विभक्ति – ‘अपदं न प्रयुञ्जीत’ अर्थात् शब्दों को बिना प्रत्यय के प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि बिना प्रत्यय के शब्द ‘अपद’ होते हैं अर्थात् पद नहीं होते। इसलिए शब्दों में ‘सु’ और जस् आदि 21 प्रत्यय लगते हैं, इन्हीं प्रत्ययों के आधार पर शब्दों के सात विभक्तियों में 21 रूप बनते हैं। इन प्रत्ययों को सुप् प्रत्यय कहते हैं। सम्बोधन विभक्ति के तीन रूप प्रथमा विभक्ति के प्रत्ययों से बनते हैं।

1. कर्ता कारक

कता कतारमा प्रथमा विभक्ति – (कर्ताकारकस्य प्रयोगः) (अर्थात् कर्ता कारक का प्रयोग प्र-विभक्ति का है)
कर्ताकारकस्य परिभाषा –

1. “स्वतंत्रः कता” अर्थात् यः क्रियायाः करणे वतन्त्रः भवति सः कर्ता इति कथ्यते। (‘स्वतंत्रः कर्ता’ अर्थात् जो क्रिया के करने में स्वतन्त्र होता है, वह कर्ता कहा जाता है।)

2. क्रियासम्पादकः कर्ता कर्तरि च प्रथमा विभक्तिः भवति। यथा-रामः पठति। (क्रिया का सम्पादन करने वाला कर्ता होता है और कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है, जैसे- राम पढ़ता है।)

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प्रयोगा: – (i) कर्तरि प्रथमा-कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-राम: गृहं गच्छति।
स्वतन्त्रः कर्ता – अर्थात् क्रिया को स्वतन्त्रता से करने वाले को कर्ता कहते हैं। कर्ता का चिह्न ‘ने’ है; वाक्य में कहीं यह चिह्न दिखाई देता है और कहीं इसका लोप हो जाता है। जैसे-‘रमेश ने किताब खरीदी’, इस वाक्य में ‘ने’ चिह्न दिखाई दे रहा है, ‘सुरेश आम खाता है’ इस वाक्य में कर्ता के चिह्न ‘ने’ का लोप है।
संस्कृत में कर्ता के तीन पुरुष, तीन वचन और तीन लिङ्ग होते हैं। यथा (जैसे) –

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प्रथम पुरुष के सर्वनाम रूपों की भाँति ही राम, लता, फल, नदी आदि के रूप तीनों वचनों में प्रयोग में लाये जाते हैं। कर्ता के तीन लिङ्ग-पुंल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग तथा नपुंसकलिङ्ग होते हैं। वाक्य में सामान्य रूप से कर्ता कारक को प्रथमा विभक्ति द्वारा व्यक्त करते हैं।

वाक्य में कर्ता की स्थिति के अनुसार संस्कृत में वाक्य तीन प्रकार के होते हैं –
(i) कर्तृवाच्य (ii) कर्मवाच्य (iii) भाववाच्य।

(i) कर्तृवाच्यः – जब वाक्य में कर्ता की प्रधानता होती है, तो कर्ता में सदैव प्रथमा विभक्ति ही होती है। जैसे-मोहनः पठति। (मोहन पढ़ता है।)
(ii) कर्मवाच्यः – वाक्य में कर्म की प्रधानता होने पर कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है और कर्ता में तृतीया। जैसे-रामेण ग्रन्थः पठ्यते। (राम के द्वारा ग्रन्थ पढ़ा जाता है।)
(iii) भाववाच्यः – वाक्य में भाव (क्रियातत्त्व) की प्रधानता होती है और कर्म नहीं होता है। कर्ता में सदैव तृतीया विभक्ति और क्रिया (आत्मनेपदी) प्रथम पुरुष एकवचन की प्रयुक्त होती है। जैसे-कमलेन गम्यते। (कमल के द्वारा जाया जाता है।)
कर्तृवाच्य वाक्य में कर्ता के अनुसार ही क्रिया का प्रयोग किया जाता है अर्थात् कर्ता जिस पुरुष और वचन का होता है, क्रिया भी उसी पुरुष व वचन की होती है। जैसे –
कर्ता के रूप में प्रयुक्त ‘सर्वनाम शब्द’

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क्रिया के रूप में प्रयुक्त क्रिया शब्द’-पठ् (पढ़ना) (लट् लकार (वर्तमान काल)

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उपर्युक्त 9 कर्ता शब्दों को 9 क्रिया शब्दों के साथ क्रमानुसार मिलाने पर ये 9 वाक्य इस प्रकार बनेंगे –

1. सः पठति। (वह पढ़ता है।)
2. तौ पठतः। (वे दोनों पढ़ते हैं।)
3. ते पठन्ति। (वे सब पढ़ते हैं।)
4. त्वं पठसि। (तुम पढ़ते हो।)
5. युवां पठथः। (तुम दोनों पढ़ते हो।)
6. यूयं पठथ। (तुम सब पढ़ते हो।)
7. अहं पठामि। (मैं पढ़ता हूँ।
8. आवां पठावः। (हम दोनों पढ़ते हैं।)
9. वयं पठामः। (हम सब पढ़ते हैं।)

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नोट: – छात्र कर्ता तथा क्रिया के पुरुष एवं वचन को मिलाकर वाक्य बनायें। वर्तमान काल के समान ही अन्य सभी कालों में भी कर्ता एवं क्रिया के पुरुष एवं वचन को मिलाकर इसी प्रकार 9-9 वाक्य बनेंगे।

2. कर्मकारक

कर्म कारक की परिभाषा – “कर्तुरीप्सिततमं कर्म”-कर्ता की अत्यन्त इच्छा जिस काम को करने में हो, अर्थात् कर्ता बहुत अधिक चाहता है, उसे कर्म कारक कहते हैं, जैसे-मोहनः चित्रं पश्यति। (मोहन चित्र देखता है) यहाँ ‘चित्रम्’ कर्म कारक है, क्योंकि कर्ता – ‘मोहन’ के द्वारा इसको देखना चाहा जा रहा है।
(i) कर्मणि द्वितीया – कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-सा पुस्तकं पठति। यहाँ ‘पुस्तकम्’ की कर्म संज्ञा है, अतः ‘पुस्तकम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई है।

(ii) तथायुक्तं अनीप्सितम् – कर्ता जिसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रखता है, उसे ईप्सितम् कहते हैं और जिसकी इच्छा नहीं रखता उसे अनीप्सित कहते हैं। अनीप्सित पदार्थ पर क्रिया का फल पड़ने पर उसकी कर्म संज्ञा होती है। जैसे-‘दिनेशः विद्यालयं गच्छन्, बालकं पश्यति’ (‘दिनेश विद्यालय को जाता हुआ, बालक को देखता है’) इस वाक्य में ‘बालक अनीप्सित पदार्थ है, फिर भी ‘विद्यालयं’ की तरह प्रयुक्त होने से उसमें कर्म कारक का प्रयोग हुआ है।

3. करण कारक

करणकारकस्य परिभाषा-‘साधकतमं करणम्’ (करण कारक की परिभाषा)-अर्थात् क्रियायाः सिद्धौ यत् सर्वाधिक सहायकं भवति तस्य कारकस्य करणसंज्ञा भवति। (क्रिया की सिद्धि में जो सर्वाधिक सहायक होता है, उस कारक की करण संज्ञा (नाम) होती है।)
यथा (जैसे) –

1. मोहनः कलमेन लिखति। (मोहन कलम से लिखता है) (यहाँ क्रिया ‘लिखति’ में सर्वाधिक सहायक ‘कलम’ है, अतः ‘कलमेन’ में तृतीया हुई।)
2. रमेश: जलेन मुखं प्रक्षालयति। (रमेश जल से मुख को धोता है) (यहाँ ‘प्रक्षालयति’ क्रिया की सिद्धि में सर्वाधिक सहायक जल है, अतः ‘जलेन’ में तृतीया हुई।)
3. रामः दुग्धेन रोटिकां खादति। (राम दूध से रोटी को खाता है) (यहाँ ‘खादति’ क्रिया की सिद्धि में सर्वाधिक सहायक ‘दुग्ध’ है, अतः ‘दुग्धेन’ में तृतीया हुई।)
4. सुरेन्द्रः पादाभ्यां चलति। (सुरेन्द्र पैरों से चलता है) (यहाँ ‘चलति’ क्रिया की सिद्धि में सर्वाधिक सहायक ‘पादौ’ है। अतः ‘पादाभ्यां’ में तृतीया हुई।)

(i) ‘कर्तृकरणयोस्तृतीया’ अर्थात् अनभिहिते कर्तरिकरणे च तृतीया विभक्ति भवति। (अर्थात् कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य वाक्य के अनुक्त कर्ता और करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है।)
जैसे-रामेण बाणेन बाली हतः। (राम ने बाण से बाली को मारा।)
(यहाँ ‘हतः’ कर्मवाच्य में क्त प्रत्यय हुआ है। अतः कर्ता राम अनुक्त है अर्थात् कर्मवाच्य वाक्य का कर्ता है तथा बाण करण कारक है। अतः कर्ता राम तथा करण बाण दोनों शब्दों में तृतीया विभक्ति हुई।)

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(ii) कर्मवाच्य भाववाच्यस्य वा अनुक्त कर्तरि अपि तृतीया विभक्तिः भवति । (कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य के अनुक्त कर्ता में भी तृतीया विभक्ति होती है।)
जैसे – (1) रामेण लेखः लिख्यते (कर्मवाच्ये)(राम के द्वारा लेख लिखा जाता है) (कर्मवाच्य वाक्य में)
(यहाँ कर्मवाच्य वाक्य में ‘राम’ अनुक्त कर्ता है, अतः ‘रामेण’ में तृतीया विभक्ति हुई।)
(2) मया जलं पीयते। (कर्मवाच्ये)(कर्मवाच्य वाक्य में)
(यहाँ कर्मवाच्य वाक्य में ‘अहम्’ अनुक्त कर्मवाच्य वाक्य का कर्ता है, अतः ‘मया’ में तृतीया विभक्ति हुई।)
(3) तेन हस्यते। (भाववाच्ये) (भाववाच्य वाक्य में)
(यहाँ भाववाच्य वाक्य में ‘सः’ अनुक्त अर्थात् भाववाच्य वाक्य का कर्ता है, अतः ‘तेन’ में तृतीया विभक्ति हुई।)
(4) बालकेन शय्यते। (भाववाच्ये) (भावचाच्य वाक्य में)
(यहाँ भाववाच्य वाक्य में ‘बालक’ अनुक्त अर्थात् भाववाच्य वाक्य का कर्ता है, अतः ‘बालकेन’ में तृतीया विभक्ति हुई है।)

4. सम्प्रदान कारक

सम्प्रदान कारक की परिभाषा-जिसको सम्यक् (भली-भाँति) प्रकार से दान दिया जाये अथवा जिसको कोई वस्तु दी जाये, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होती है, ‘कर्मणा यमभिप्रैति सः सम्प्रदानम्’ अर्थात् जिसको कोई वस्तु दी जाती है, वह सम्प्रदान कारक कहलाता है और सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति का ही प्रयोग होता है।
(i) ‘सम्प्रदाने चतुर्थी’ अर्थात् सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति होती है। जिसे कुछ दिया जाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे –

  1. नृपः ब्राह्मणाय धेनुं ददाति। (राजा ब्राह्मण को गाय देता है।)
  2. धनिकः याचकाय वस्त्रं यच्छति। (धनिक याचक को वस्त्र देता है।)
  3. वानराय फलानि देहि। (बन्दर को फल दो।)
  4. बालकेभ्यः पुस्तकं ददाति। (बालकों के लिए पुस्तकें देता है।)
  5. धनिकः विप्राय गौः ददाति। (धनिक ब्राह्मण के लिए गाय देता है।)

यहाँ ऊपर दिये हुए पाँचों वाक्यों के मोटे छपे शब्दों में सम्प्रदान कारक है; क्योंकि इन्हीं को कर्ता ने क्रमशः धेनु, वस्त्र, फल, पुस्तक तथा गौ देकर प्रसन्न किया है।
क्रिया यमभिप्रैति सोऽपि सम्प्रदानम्-अर्थात् केवल दान देना ही नहीं (देने की क्रिया). अपितु कर्म के द्वारा जो अभिप्रेत हो, उसे सम्प्रदान कारक कहा जाता है अर्थात किसी क्रिया विशेष द्वारा भी जो कर्ता को अभिप्रेत इच्छित हो, सम्प्रदान कारक कहा जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि किसी वस्तु को देकर प्रसन्न करने पर सम्बन्धित प्राणी में सम्प्रदान कारक होता है, साथ ही किसी भी क्रिया द्वारा इच्छित प्राणी को सन्तुष्ट अथवा प्रसन्न किया जाता है तो उस सन्तुष्ट होने वाले प्राणी में सम्प्रदान कारक होता है। जैसे –
(1) सा बालकाय नृत्यति। (वह बालक के लिए नाचती है।)
(2) कमला कृष्णाय जलम् आनयति। (कमला कृष्ण के लिए जल लाती है।)

यहाँ पर कर्ता ‘सा’ नृत्य-क्रिया द्वारा अपने बालक को प्रसन्न करना चाहती है। अर्थात् वह अपना नृत्य बालक को देना (प्राप्त कराना) चाहती है अतः बालक में सम्प्रदान कारक है अत: चतुर्थी विभक्ति हुई है। इसी प्रकार द्वितीय वाक्य में कमला जल लाने की क्रिया कृष्ण की सन्तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए कर रही है; अतः उसमें भी क्रिया द्वारा अभिप्रेत (इच्छित) कृष्ण में सम्प्रदान कारक है अतः चतुर्थी विभक्ति हुई है।

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5. अपादान कारक

(1) (क) धुवमपावेऽपादानम् – अर्थात् अपाये सति यद् ध्रुवं तस्य अपादान संज्ञा भवति। (अर्थात् किसी वस्तु या व्यक्ति के अलग होने में जो कारक स्थिर होता है अर्थात् जिससे वस्तु अलग होती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है अर्थात् उस शब्द को अपादान कारक कहा जाता है।

(ख) अपादाने पञ्चमी-अपादाने पञ्चमी विभक्तिः भवति। (अर्थात् अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे –
(i) वृक्षात् पत्रं पतति। (वृक्ष से पत्ता गिरता है।)
(ii) नृपः ग्रामाद् आगच्छति। (राजा गाँव से आता है।)
(iii) बालकः गृहात् आगच्छति। (बालक घर से आता है।)
(iv) अहं विद्यालयात् आगच्छामि (मैं विद्यालय से आता हूँ।)

ऊपर कहे गये चारों उदाहरणों में क्रमशः वृक्ष, ग्राम, गृह और विद्यालय स्थिर कारक हैं और इनसे क्रमशः पत्रं, नृपः, बालकः और अहं अलग हो रहे हैं अतः वृक्ष, ग्राम, गृह और विद्यालय की अपादान कारक संज्ञा (नाम) होने से इनमें पञ्चमी विभक्ति आई है।

6. सम्बन्ध कारक

संस्कृत में ‘सम्बन्ध’ कारक को कारक नहीं माना गया है, जबकि हिन्दी में ‘सम्बन्ध’ कारक को कारक स्वीकारा गया है। इसका कारण यह है कि सम्बन्ध कारक में कर्ता (संज्ञा) का क्रिया के साथ सम्बन्ध व्यक्त नहीं होता, अपितु संज्ञा अथवा सर्वनाम के साथ केवल सम्बन्ध ही प्रकट होता है। संस्कृत में कारक उसे ही कहा जाता है जिसका क्रिया से सीधा सम्बन्ध होता है।
संज्ञा अथवा सर्वनामों का यह सम्बन्ध मुख्य रूप से चार प्रकार का है –
(अ) स्वाभाविक सम्बन्ध; जैसे – बालकस्य क्रीडनम् (बालक का खेलना)
(ब) जन्य-जनक भाव सम्बन्ध; – जैसे – मातुः तनया (माता की पुत्री)
(स) अवयवावयवि भाव सम्बन्ध; – जैसे शरीरस्य अङ्गानि (शरीर के अंग)
(द) स्थान्यदेश भाव सम्बन्धः, जैसे – नगरस्य आपणम् (नगर का बाजार)

हिन्दी में सम्बन्धवाचक शब्दों के साथ ‘रा’, ‘री’, ‘रे’ तथा ‘का’, ‘की’, ‘के’ शब्दांश जुड़े होते हैं। संस्कृत में इस सम्बन्ध को वाक्य में षष्ठी विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है। जैसे –

  1. रामस्य पिता श्री दशरथः आसीत्। (राम के पिता श्री दशरथ थे।)
  2. सीता रामस्य पत्नी आसीत्। (सीता राम की पत्नी थी।)
  3. द्रौपदी अर्जुनस्य भार्या आसीत्। (द्रौपदी अर्जुन की पत्नी थी।)
  4. विद्या सर्वस्य धनम् अस्ति। (विद्या सबका धन है।)
  5. गोः पादः अस्वस्थः अस्ति। (गाय का पैर अस्वस्थ है।)
  6. मृत्तिकायाः शकुन्तः अस्माकम् अस्ति। (मिट्टी का पक्षी हमारा है।)

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7. अधिकरण कारक

‘आधारोऽधिकरणम्’ अर्थात् जिस वस्तु अथवा स्थान पर कार्य किया जाता है, उस आधार में अधिकरण कारक होता है। इसके चिह्न ‘में’ या ‘पर’ हैं।
ध्यान रखे जाने योग्य है कि अधिकरण क्रिया का साक्षात् आधार नहीं होता है, वह तो कर्त्ता और कर्म का आधार होता है। क्रिया कर्ता अथवा कर्म में रहती है। अधिकरण तीन प्रकार का होता है –
(i) उपश्लेषमूलक आधार
(ii) वैषयिक आधार
(iii) अभिव्यापक आधार।

उपश्लेष मूलक आधार का अर्थ है-संयोगादि सम्बन्ध। जैसे-मोहनः आसन्दिकायाम् आस्ते। मोहन कुर्सी पर बैठा है, यहाँ कर्ता मोहन है, उसमें बैठने की क्रिया है। मोहन का आधार है कुर्सी, उसके साथ मोहन का संयोग सम्बन्ध है। अतः कुर्सी औपश्लेषिक आधार है। इसी प्रकार ‘यतिः वने वसति’ में ‘वन’ उपश्लेषमूलक आधार है।

विषयता सम्बन्ध से सम्पन्न होने वाला आधार वैषयिक आधार कहलाता है। उदाहरण के लिए ‘देवदत्तस्य’ मोक्षे इच्छा अस्ति’। इस वाक्य में कर्ता देवदत्त है, उसकी मोक्ष में इच्छा है; अर्थात् उसकी इच्छा का विषय मोक्ष है; अतः यह वैषयिक आधार है।
जिस आधार पर कोई वस्तु समस्त अवयवों में लीन होकर रहती है, वह आधार अभिव्यापक आधार कहलाता है।

जैसे-सर्वस्मिन् आत्मा अस्ति। आत्मा समस्त प्राणियों में रहती है; अतः ‘सर्व’ शब्द में अभिव्यापक आधार है। अतः ‘सर्व’ शब्द में सप्तमी विभक्ति हुई है।
वाक्य में अधिकरण कारक को सप्तमी विभक्ति द्वारा व्यक्त किया जाता है, जैसे –

  1. ग्रामेषु जनाः निवसन्ति। (गाँवों में लोग रहते हैं।)
  2. छात्राः विद्यालये पठन्ति। (छात्र विद्यालय में पढ़ते हैं।)
  3. सिंहः वने वसति। (सिंह वन में रहता है।)
  4. सिंहाः वनेषु गर्जन्ति। (शेर वन में गरजते (दहाड़ते) हैं।)
  5. गङ्गायां जलं वर्तते। (गंगा में जल है।)
  6. शिक्षकः पाठशालायां पाठयति। (शिक्षक पाठशाला में पढ़ाता है।)
  7. आकाशे तारामण्डलमस्ति। (आकाश में तारामण्डल है।)
  8. भवनेषु जनाः वसन्ति। (भवनों में लोग बसते हैं।)

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8. सम्बोधन कारक

  1. जिसको पुकारा जाता है, उसमें सम्बोधन कारक होता है। सम्बोधन कारक में प्रायः प्रथमा विभक्ति होती है।
  2. सम्बोधन के चिह्न हे ! भो ! अरे ! आदि हैं। कभी ये छिपे भी होते हैं।
  3. सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति के रूपों में कुछ शब्दों के एकवचन के रूप में कुछ परिवर्तन भी हो जाता है। जैसे-सीते! त्वं कुत्र असि? (हे सीता! तुम कहाँ हो?)

अन्य उदाहरण –

1. रे सोहन ! त्वं किम् अपश्यः? (अरे सोहन! तुमने क्या देखा था?)
2. भो छात्राः! यूयं विद्यालयं गच्छत। (हे छात्रो! तुम सब विद्यालय जाओ।)

उपपद विभक्ति

संस्कृत में कारकों के अतिरिक्त किसी विशेष अर्थ को व्यक्त करने के लिए अथवा किसी ‘पद’ विशेष के साथ विभक्ति विशेष को लगाये जाने का नियम भी है। नियम के अनुसार प्रयुक्त होने वाली विशेष विभक्ति को ही ‘उपपद विभक्ति’ के नाम से जाना जाता है।

प्रथमा विभक्ति

सूत्र – प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा।
प्रातिपदिकार्थमात्रे, लिङ्गमात्रे, परिमाणमात्रे, वचनमात्रे प्रथमा विभक्तिर्भवति। (प्रातिपदिक का अर्थ बतलाने में, लिङ्ग का ज्ञान कराने में, परिमाण का बोध कराने में और वचन की जानकारी कराने में प्रथमा विभक्ति आती है।
(i) प्रातिपदिकार्थ में – किसी पद (शब्द) के उच्चारण करने पर जिस अर्थ की निश्चित जानकारी होती है उसे प्रातिपदिकार्थ कहते हैं। अर्थात् जाति और व्यक्ति की प्रतीति जिससे होती है उसे प्रातिपदिकार्थ कहते हैं। उदाहरणार्थ-कृष्णः, श्रीः, ज्ञानम् आदि पद प्रातिपदिकार्थ रूप में प्रयुक्त हुए हैं, अतः इनमें प्रथमा विभक्ति है।

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(ii) लिंग मात्र में – किसी पद में लिंग बतलाने के लिए प्रथमा विभक्ति का प्रयोग करते हैं। जैसे-तटः, तटी, तटम्। यहाँ ये तीनों पद (शब्द) क्रमशः पुंल्लिग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग का ज्ञान करा रहे हैं। अत: इन तीनों में प्रथमा विभक्ति है।

(iii) परिमाण मात्र में – नाप या भार का बोध कराने के लिए भी प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे-द्रोणः (एक तोलने का बाँट), आढकम् (एक तोल विशेष) आदि में प्रथमा विभक्ति है।

(iv) वचन मात्र में – एकवचन, द्विवचन और बहुवचन का ज्ञान कराने हेतु भी प्रथमा विभक्ति प्रयुक्त होती है, जैसे-एक: द्वौ, बहवः, क्रमशः एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन में हैं तथा प्रथमा विभक्ति में हैं।
उदाहरण

  1. सभी लोग क्या देखते हैं? सर्वे जनाः किं पश्यन्ति?
  2. प्रयाग एक तीर्थ-स्थान है। प्रयागः एकं तीर्थस्थानम् अस्ति।
  3. अर्जुन एक महान् धनुर्धर था। अर्जुनः एकः महान् धनुर्धरः आसीत्।
  4. मोहन वाराणसी गया। मोहन: वाराणसीम् अगच्छत् ।
  5. जो दौड़ता है वह गिरता है। यः धावति सः पतति।
  6. वह लड़की पढ़ती है। सा बालिका पठति।
  7. आप लोग कहाँ जायेंगे? भवन्तः कुत्र गमिष्यन्ति?
  8. वे सब वहाँ नहीं जायेंगे। ते सर्वे तत्र न गमिष्यन्ति।
  9. छात्र पढ़ते हैं। छात्राः पठन्ति।
  10. वह पुरुष कौन है? सः पुरुषः कः अस्ति?
  11. कौन बालक दौड़ता है? कः बालकः धावति?

(v) अभिधेयमात्रे प्रथमा – अभिधेय का अर्थ है नाम। केवल नाम व्यक्त करना हो तो उसमें प्रथमा विभक्ति लगती है। जैसे-रामः, कृष्णः, गजः देवः। यहाँ ये चारों पद (शब्द) नाम हैं अतः इनमें प्रथमा विभक्ति लगी है।

(vi) अव्यययोगे प्रथमा – अव्यय शब्दों के योग में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-कृष्णः इति सखा अस्ति। (‘कृष्ण’ यह (नामवाला) मित्र है)

(vii) सम्बोधने प्रथमा – सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-हे कृष्ण! यहाँ ‘इति’ अव्यय शब्द से पूर्व वाले ‘कृष्णः’ पद (शब्द) में ‘इति’ अव्यय शब्द के योग के कारण प्रथमा विभक्ति लगी है। यहाँ ‘हे कृष्ण!’ में सम्बोधन विभक्ति (प्रथमा विभक्ति) है।

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(vii) प्रयोजके कर्तरि प्रथमा – प्रयोजक कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-पिता पुत्रं मेघं दर्शयति। यहाँ प्रयोजक कर्ता ‘पिता’ पद (शब्द) में प्रथमा विभक्ति है।

(ix) उक्ते कर्मणि प्रथमा – कर्मवाच्य के वाक्य में कर्म कारक में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-मया कृष्णः दृश्यते। (मेरे द्वारा कृष्ण को देखा जा रहा है) यहाँ कर्म कारक ‘कृष्ण:’ पद (शब्द) में प्रथमा विभक्ति लगी है।

द्वितीया विभक्तिः (कर्मकारकस्य प्रयोगः)

कर्मकारकस्य परिभाषा (कर्म कारक की परिभाषा)-“कर्तुरीप्सिततमं कर्म” अर्थात् कर्ता क्रियया यं सर्वाधिकम् इच्छति तस्य कर्म संज्ञा भवति। (कर्ता की अत्यन्त इच्छा जिस काम को करने में हो, अर्थात् कर्ता जिसे बहुत अधिक चाहता है, उसे कर्म कारक कहते हैं।) जैसे-मोहनः चित्रं पश्यति। (मोहन चित्र को देखता है)
यहाँ ‘चित्रम् कर्म कारक है, क्योंकि कर्ता ‘मोहन’ के द्वारा इसका देखना चाहा जा रहा है। अतः ‘चित्रम्’ में द्वितीया विभक्ति है।

1. कर्मणि द्वितीया – कर्मणि द्वितीया विभक्तिः भवति। (कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है।) जैसे-सा (वह पुस्तक पढ़ती है) यहाँ ‘पुस्तक’ शब्द ‘पठति’ क्रिया का कर्म है, अत: ‘पुस्तकम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई है। अन्य उदाहरण (i) रामः ग्रामं गच्छति। (राम गाँव को जाता है) यहाँ ‘गच्छति’ क्रिया का कर्म ‘ग्रामम्’ है, अतः ‘ग्रामम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई।
(ii) बालकाः वेदं पठन्ति। (बालक वेद को पढ़ते हैं) यहाँ ‘पठन्ति’ क्रिया का कर्म ‘वेद’ है, अत: वेदम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई।
(iii) वयं नाटकं द्रक्ष्यामः। (हम सब नाटक को देखेंगे) यहाँ ‘द्रक्ष्यामः’ क्रिया का कर्म ‘नाटक’ है, अतः ‘नाटकम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई।
(iv) साधुः तपस्याम् अकरोत्। (साधु ने तपस्या की) यहाँ ‘तपस्याम्’ शब्द ‘अकरोत्’ क्रिया का कर्म है, अतः ‘तपस्याम्’ में द्वितीया विभक्ति हुई।
(v) सन्दीपः सत्यं वदेत् । (संदीप को सत्य बोलना चाहिए) यहाँ ‘वदेत्’ क्रिया का कर्म ‘सत्यं’ है। अतः द्वितीया विभक्ति हुई।

2. तथायुक्तं अनीप्सितम् – कर्ता जिसे प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रखता है, उसे ईप्सिततम कहते हैं और जिसकी इच्छा नहीं रखता उसे अनीप्सित कहते हैं। अनीप्सित (अनिच्छित) पदार्थ पर क्रिया का फल पड़ने पर उसकी कर्म संज्ञा होती है। जैसे-‘दिनेशः विद्यालयं गच्छन, बालकं पश्यति’ (दिनेश विद्यालय जाते हए, बालक को देखता है) इस वाक्य में ‘बालकं’ अनीप्सित (अनिच्छित) पदार्थ है, फिर भी ‘विद्यालयं’ की तरह प्रयुक्त होने से उसमें कर्म कारक का प्रयोग हुआ है।

‘अकथितं च’ सूत्र से निम्न सोलह धातुओं तथा इन अर्थों की अन्य धातुओं के होने पर इनके साथ दो कर्म होते हैं, अतः दोनों में द्वितीया विभक्ति ही लगायी जाती है। जैसे – (1) दुह् (दुहना), (2) याच् अथवा भिक्ष (माँगना), (3) पच् (पकाना), (4) दण्ड् (दण्ड देना), (5) रुध् (रोकना), (6) प्रच्छ (पूछना), (7) चि (चुनना), (8) ब्रू अथवा भाष् (बोलना), (9) शास् (बताना), (10) जि (जीतना), (11) मथ् (मथना), (12) मुष् अथवा चुर् (चुराना), (13) नी (ले जाना), (14) हृ (हरण करना), (15) कृष् (खींचना), (16) वह (ढोना या ले जाना)। ये सोलह द्विकर्मक (दो कर्मों वाली) क्रियाएँ हैं। इनके उदाहरण निम्नवत् हैं –

  1. कृषकः अजां दुग्धं दोग्धि। (किसान बकरी का दूध दुहता है।)
  2. सेवकः नृपं क्षमा याचते भिक्षते वा। (सेवक राजा से क्षमा माँगता है।)
  3. पाचकः तण्डुलान् ओदनं पचति। (रसोईया चावलों से भात पकाता है।)
  4. नृपः दुर्जनं शतं दण्डयति। (राजा दुर्जन पर सौ रुपये दण्ड लगाता है।)
  5. कृष्णः ब्रजं गां रुणद्धि। (कृष्ण ब्रज में गाय को रोकता है।)
  6. शिष्यः गुरुं धर्मं पृच्छति। (शिष्य गुरु से धर्म को पूछता है।)
  7. मालाकारः लतां पुष्पाणि चिनोति। (माली लता से फूलों को चुनता है।)
  8. शिक्षकः छात्रं धर्मं ब्रूते भाषते वा। (शिक्षक छात्र से धर्म कहता है।)
  9. जनकः पुत्रं धर्म शास्ति। (पिता पुत्र को धर्म बताता है।)
  10. मोहनः रामं शतं जयति। (मोहन राम से सौ रुपये जीतता है।)
  11. हरिः सागरं सुधां मनाति। (हरि समुद्र से अमृत मथता है।)
  12. रामः देवदत्तं शतं मुष्णाति चोरयति वा। (राम देवदत्त के सौ रुपये चुराता है।)
  13. कृषक: ग्रामम् अजां नयति। (किसान गाँव में बकरी ले जाता है।)
  14. नराः वसुधां रत्नानि कर्षन्ति। (लोग जमीन से रन खोदते हैं। निकालते हैं)
  15. कृषक: भारं ग्रामं कर्षति। (किसान बोझा गाँव ले जाता है।)
  16. कृषक: भारं ग्रामं वहति। (किसान भार को गाँव ले जाता है।)

नोट – यहाँ ऊपर दिये गये 16 वाक्यों में स्थूल पदों में (शब्दों में) कर्म कारक होने के कारण द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त

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द्वितीया उपपद विभक्ति

(1) ‘अधिशीङ्स्थासां कर्म’ – इस सूत्र के अनुसार अधि उपसर्ग पूर्वक शीङ् (सोना), स्था (ठहरना) एवं आस् (बैठना) धातु के आधार की कर्म संज्ञा होती है। अर्थात् सप्तमी विभक्ति के अर्थ में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-हरिः बैकुण्ठम् अधिशेते। (हरि बैकुण्ठ में सोते हैं।) यहाँ बैकुण्ठ में सप्तमी विभक्ति न होकर उक्त अधि उपसर्ग के प्रयोग के कारण द्वितीया विभक्ति हुई है। नृपः सिंहासनम् अधिनिष्ठति (राजा सिंहासन पर बैठता है। सः बलासनम् अध्यास्ते वह कुर्सी पर बैठता है।)

2. उभयतः (दोनों ओर), सर्वत: (सभी ओर या चारों ओर), धिक् (धिक्कार है), उपर्युपरि (उपरि + उपरि = ऊपर-ऊपर), अध्यधि (अधि + अधि = अन्दर-अन्दर) और अधोऽधः (अध: + अधः = नीचे-नीचे) इन शब्दों का योग होने ‘ पर द्वितीया विभक्ति ही होती है।
जैसे –
(1) कृष्णम् उभयतः गोपाः सन्ति। (कृष्ण के दोनों ओर ग्वाले हैं।) (2) ग्रामं सर्वत: जलम् अस्ति। (गाँव के सब ओर जल है।) (3) दुर्जनं धिक्। (दुर्जन को धिक्कार है।) (4) हरिः लोकम् उपर्युपरि अस्ति। (हरि संसार के ऊपर-ऊपर हैं।) (5) हरिः लोकम् अध्यधि वर्तते। (हरि संसार के अन्दर-अन्दर हैं।) (6) पाताल: लोकम् अधोऽधः वर्तते। (पाताल संसार के नीचे-नीचे है।)

3. अभितः परितः समया निकषा हा प्रतियोगेऽपि-इस वार्तिक के अनुसार अभितः (दोनों ओर), परितः (चारों ओर), समया (समीप में), निकषा (समीप में), हा (अफसोस) तथा प्रति (ओर) का योग होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है।
जैसे –

  1. प्रयागम् अभितः नद्यौ स्तः। (प्रयाग के दोनों ओर नदियाँ हैं।)
  2. ग्रामं समया विद्यालयोऽस्ति। (गाँव के समीप में विद्यालय है।)
  3. ग्रामं परितः जलम् अस्ति। (गाँव के चारों ओर जल है।)
  4. विद्यालयः ग्रामं निकषा अस्ति। (विद्यालय गाँव के समीप है।)
  5. हा शठम्। (शठ के प्रति अफसोस है।)
  6. बालकः विद्यालयं प्रति गच्छति। (बालक विद्यालय की ओर जाता है।)

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4. गत्यर्थक अर्थात् गति (चलना, हिलना, जाना) अर्थ वाली क्रियाओं के साथ द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे –
(i) रामः ग्रामं गच्छति (राम गाँव को जाता है।
(ii) सिंहः वनं विचरति। (सिंह वन में विचरण करता हैं।)
(iii) सः स्मृति गच्छति (वह स्मृति को प्राप्त करता है।)
(iv) स परं विषादम् अगच्छत्। (वह परम विषाद को प्राप्त हुआ।)

5. अन्तराऽन्तरेण युक्ते-अर्थात् अन्तरा (बीच या मध्य में), अन्तरेण (बिना) और (विना) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे –
(i) त्वां मां च अन्तरा रामोऽस्ति। (तुम्हारे और मेरे मध्य में राम है।)
(ii) रामम् अन्तरेण न गतिः। (राम के बिना कल्याण नहीं।)
(iii) ज्ञानं विना न सुखम्। (ज्ञान के बिना सुख नहीं।)

6. ‘कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे’ अर्थात् अत्यन्त संयोग हो और कालवाची अथवा मार्गवाची शब्दों का प्रयोग हो तो कालवाची अथवा मार्गवाची शब्दों में द्वितीया विभक्ति आती है। जैसे –
(i) राम: मासम् अधीते पठति वा। (राम महीने भर पढ़ता है।)
(ii) इयं नदी क्रोशं कुटिला अस्ति। (यह नदी कोस भर तक टेढ़ी है।)
(iii) स: क्रोशं पुस्तकं पठति अधीते वा। (वह कोस भर तक पुस्तक पढ़ता है।)
(iv) सः दश दिनानि लिखति। (वह दस दिनों तक लिखता है)।

7. ‘उपान्वध्यावसः’ अर्थात् वस् धातु से पहले उप, अनु, अधि और आ उपसर्गों में से कोई भी उपसर्ग लगा हो, तो वस् धातु के आधार की कर्म संज्ञा हो जाती है अर्थात् सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति ही लगती है। जैसे-(i) हरिः
उम् उपवसति। (ii) हरिः बैकुण्ठम् अनुवसति। (iii) हरिः बैकुण्ठम् अधिवसति। (iv) हरिः बैकुण्ठम् आवसति। अर्थात् हरि बैकुण्ठ में निवास करता है। यह इन चारों संस्कृत के वाक्यों का हिन्दी-अनुवाद है।

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8. ‘अभुक्तर्थस्य न’ अर्थात् जब उपसर्गपूर्वक वस् धातु का अर्थ उपवास करना (भूखा रहना) होता है, तब उसके आधार की कर्म संज्ञा नहीं होती तथा द्वितीया विभक्ति नहीं आती है। बल्कि सप्तमी विभक्ति हो जाती है। जैसे-रामः वने उपवसति। राम वन में उपवास करता (भूखा रहता) है । अनु (ओरं या पीछे) के योग में द्वितीया विभक्ति आती है। जैसे-नृपः चौरम् अनुधावति। (राजा चोर के पीछे दौड़ता है।)

9. अनुर्लक्षणो – अनु का लक्षण-अर्थ व्यक्त होने पर ‘अन’ के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे लक्ष्मणः रामम अनुगच्छति (लक्ष्मण राम के पीछे जाता है।), यज्ञम् अनुप्रावर्षत् (यज्ञ के पश्चात् वर्षा हुई।)

10. एनपा द्वितीया-एनप प्रत्ययान्त शब्द की जिससे निकटता प्रतीत होती है उसमें द्वितीया या षष्ठी होती है। जैसे-नगरं नगरस्य वा दक्षिणेन (नगर के दक्षिण की ओर)
नोट – यहाँ 1 से 10 तक के नियमों के वाक्यों में स्थूल पदों (शब्दों) में द्वितीया विभक्ति हुई है।

तृतीया विभक्ति

‘कर्तृकरणयोस्तृतीया’ अर्थात् उक्त कर्तृवाच्य वाक्य के करण कारक में तथा कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य वाक्य के कर्ता कारक में तृतीया विभक्ति आती है। जैसे –
(1) रामः कलमेन लिखति। (राम कलम से लिखता है।) (यहाँ कर्तृवाच्य वाक्य के करण कारक ‘कलम’ में तृतीया विभक्ति है।
यहाँ कलम लिखने की क्रिया में सहायक है। अत: कलम करण कारक हुआ और इसी कारण ‘कलम’ में तृतीया विभक्ति आयी है।

(2) मया पुस्तकं पठ्यते। (मेरे द्वारा पुस्तक पढ़ी जाती है।)
यह कर्मवाच्य का वाक्य है, अतः कर्ता ‘मया’ में तृतीया विभक्ति आयी है।

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(3) शीलया सुप्यते। (शीला के द्वारा सोया जाता है।)
यह भाववाच्य का वाक्य है, अतः कर्ता ‘शीलया’ में तृतीया विभक्ति आयी है।

(4) ममतया भोजनं पच्यते। (ममता के द्वारा भोजन पकाया जाता है।)
यह कर्मवाच्य का वाक्य है। अतः कर्ता ‘ममतया’ में तृतीया विभक्ति आयी है।

तृतीया उपपद विभक्ति

1. ‘प्रकृत्यादिभिः उपसंख्यानम्’-अर्थात् प्रकृति, प्रायः, गोत्र आदि शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
जैसे –

  1. रामः प्रकृत्या दयालुः। (राम प्रकृति से दयालु है।)
  2. सोमदत्तः प्रायेण याज्ञिकोऽस्ति। (सोमदत्त प्रायः याज्ञिक है।)
  3. सः गोत्रेण गार्योऽस्ति। (वह गोत्र से गार्य है।)
  4. सः सुखेन जीवति। (वह सुख से जीता है।)
  5. सः दुःखेन याति। (वह दुःख से जाता है।)
  6. सिंहः स्वभावेन मनस्वी भवति। (सिंह स्वभाव से मनस्वी होता है।)

2. ‘सहयुक्त प्रधाने’ – अर्थात् सह (साथ), साकं (साथ), समं (साथ) और सार्धं (साथ) के योग में अप्रधान (कर्ता का साथ देने वाले) में तृतीया विभक्ति आती है। जैसे –
सीता रामेण सह गच्छति। (सीता राम के साथ जाती है।)

यहाँ प्रधान कर्ता सीता है और राम अप्रधान है, अतः सह (साथ) का योग होने के कारण ‘राम’ में तृतीया विभक्ति हुई है। जैसे –
पिता पुत्रेण साकं गच्छति। (पिता पुत्र के साथ जाता है।)

3. येनाङ्ग विकारः – शरीर के जिस अंग में विकार हो उस विकार युक्त अंग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –

  1. रामः पादेन खञ्जः। (राम पैर से लँगड़ा है।)
  2. मोहनः कर्णाभ्यां बधिरः। (मोहन कानों से बहरा है।)
  3. सः शिरसा खल्वाटः। (वह सिर से गंजा है।)
  4. कर्णेन बधिरः। (कान से बहरा है।)
  5. पादेन खञ्जः। (पैर से लँगड़ा है।)
  6. हस्तेन लुञ्जर। (हाथ से लूला है।)

4. ऊन (कम), हीन (रहित), अलम् (बस या मना के अर्थ में) तथा किम् आदि न्यूनतावाचक और निषेधवाचक शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –

  1. अलं विवादेन। (विवाद बन्द करो।)
  2. विद्यया हीनः जनः पशुः। (विद्या से हीन मनुष्य पशु है।)
  3. एकेन ऊनः। (एक कम)।
  4. कलहेन किम्। (कलह करना व्यर्थ है।)

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5. तुल्य, सम और सदृश शब्दों के योग में विकल्प से तृतीया और षष्ठी विभक्तियाँ होती हैं। तुल्य, सदृश और सम तीनों शब्दों का अर्थ ‘समान’ है। जैसे –

  1. कृष्णेन/कृष्णस्य वा तुल्यः। (कृष्ण के समान)।
  2. सत्येन/सत्यस्य वा समः। (सत्य के समान)।
  3. रामेण/रामस्य वा सदृशः। (राम के समान)।

6. ‘इत्थं भूतलक्षणे’ अर्थात् जिस लक्षण या चिह्न विशेष से किसी वस्तु या व्यक्ति का बोध होता है, उसमें तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे –

  1. जटाभिः तापसः प्रतीयते। (जटाओं से तपस्वी प्रतीत होता है।)
  2. दण्डेन यतिः ज्ञायते। (दण्ड से यति मालूम होता है।)
  3. स्वरेण रामभद्रम् अनुहरति। (स्वर से राम के समान है।)

7. कार्य, अर्थ, प्रयोजन, गुण तथा उपयोगिता को प्रकट करने वाले अन्य पदों के योग में भी उपयोग में आने वाली वस्तु में इसी नियम से तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –

1. धनेन किं प्रयोजनम्? (धन से क्या प्रयोजन?)
2. कोऽर्थः पुत्रेण जातेन? (पुत्र के उत्पन्न होने से क्या अर्थ?)
3. मूर्खेण पुत्रेण किम्? (मूर्ख पुत्र से क्या लाभ?)

8. ‘अपवर्गे तृतीया’- अर्थात् फलप्राप्ति या कार्यसिद्धि का बोध कराने के लिए समयवाची तथा मार्गवाची शब्दों में अत्यन्त संयोग होने पर तृतीया विभक्ति होती है। यहाँ अपवर्ग का अर्थ फल की प्राप्ति है। जैसे –

मासेन शास्त्रम् अधीतवान्। (महीने भर में शास्त्र पढ़ लिया।)
क्रोशेन पुस्तकं पठितवान्। (कोस भर में पुस्तक पढ़ ली।)
सप्तभिः दिनैः रचितवान्। (सात दिनों में रच लिया।)

9. पृथग्विनानाभिस्तृतीयान्यतरस्याम्।
अर्थात् पृथक्, विना, नाना शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति, द्वितीया विभक्ति और पञ्चमी विभक्ति होती है; जैसे-दशरथः रामेण/रामात्/रामं वा विना/पृथक्/नाना प्राणान् अत्यजत्।

10. हेतौ-हेतु अर्थात् कारण वाचक शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –
(i) रमेशः अध्ययनेन नगरे वसति। (रमेश अध्ययन हेतु नगर में रहता है।)
(ii) विद्यया यशः भवति। (विद्या के द्वारा/के कारण यश होता है।)

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

11. किम्, अपि, प्रयोजनं, अर्थः, लाभः आदि के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –
(i) धनेन किं भवति? (धन से क्या होता है?)
(ii) सद्व्यवहारेण अपि यशः भवति। (सद्व्यवहार से भी यश होता है।)
(iii) अत्र मोदकैः प्रयोजनं न अस्ति। (यहाँ लड्डुओं से प्रयोजन नहीं है।)
(iv) अधार्मिकः पुत्रेण कः अर्थः? (अधार्मिक पुत्र से क्या लाभ है?)
(v) अन्धस्य दीपेन कः लाभः? (अन्धे के लिए दीपक से क्या लाभ है?)

12. सुख, दुःख, प्रकृति, प्राय: के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
(i) सज्जनाः सुखेन जीवन्ति। (सज्जन सुख से जीते हैं।)
(ii) अस्मिन् संसारे सर्वेः दुःखेन जीवनं यापयन्ति। (इस संसार में सब दुःख से जीवन बिताते हैं।)
(iii) कोमल: प्रकृत्या/स्वभावेन साधुः भवति। (कोमल प्रकृति/स्वभाव से साधु होता है।)
(iv) स प्रायेण यज्ञं करोति। (वह प्रायः यज्ञ करता है।)

नोट – यहाँ 1 से 12 तक के नियमों के वाक्यों में स्थूल पदों (शब्दों) में तृतीया विभक्ति हुई है।

चतुर्थी विभक्ति

1. सम्प्रदाने चतुर्थी – अर्थात् सम्प्रदान कारक में चतुर्थी विभक्ति होती है। जिसे कुछ दिया जाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे –

(i) नृपः ब्राह्मणाय धेनुं ददाति। (राजा ब्राह्मण को गाय देता है।)
(ii) धनिकः याचकाय वस्त्रं यच्छति। (धनिक याचक को वस्त्र देता है।)

चतुर्थी उपपद विभक्ति

1. ‘रुच्यर्थानां प्रीयमाणः’ अर्थात् रुच (अच्छा लगना) अर्थ वाली धातुओं (क्रियाओं) के साथ चतुर्थी विभक्ति होती स्तु अच्छी लगती है, उस व्यक्ति में चतुर्थी विभक्ति आती है और जो वस्तु अच्छी लगती है, उसमें प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे –

  1. बालकाय मोदकं रोचते। (बालक को लड्डू अच्छा लगता है।)
  2. हरये भक्तिः रोचते। (हरि को भक्ति अच्छी लगती है।)
  3. मह्यं त्वं रोचसे। (मुझको तुम अच्छे लगते हो।)
  4. तस्मै अहं रोचे। (उसको मैं अच्छा लगता हूँ।)

इस प्रकार के वाक्यों में प्रथमा विभक्ति वाला पद कर्ता कारक माना जाता है, अतः क्रिया प्रथमा विभक्ति वाले पद के पुरुष के अनुसार होती है।
रुच् धातु (क्रिया) के समान अर्थ वाली ‘स्वद्’ (अच्छा लगना) धातु भी है। अत: स्वद् धातु के साथ भी प्रसन्न होने वाले में चतुर्थी विभक्ति आती है। जैसे –

  1. बालकाय मोदकं स्वदते। (बालक को लड्डू अच्छा लगता है।)
  2. गोपालाय दुग्धं स्वदते। (गोपाल को दूध अच्छा लगता है।)
  3. रामाय मोहन: स्वदते। (राम को मोहन अच्छा लगता है।)
  4. सीतायै रामः स्वदते। (सीता को राम अच्छा लगता है।)

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2. ‘क्रुधदुहेासूयार्थानां यं प्रति कोपः’ अर्थात् ‘ क्रुध् (क्रोध करना), द्रुह् (द्रोह करना), ईर्घ्य (ईर्ष्या करना) और असूय (जलन करना) धातुओं के योग में तथा इन धातुओं के समान अर्थ वाली अन्य धातुओं के योग में जिसके ऊपर क्रोध आदि किया जाता है, उसकी सम्प्रदान संज्ञा होने से उसमें चतुर्थी विभक्ति आती है। जैसे –

  1. स्वामी सेवकाय क्रुध्यति कुप्यति वा। (स्वामी सेवक पर क्रोध करता है।)
  2. दुर्जनः सज्जनाय द्रुह्यति। (दुर्जन सज्जन से द्रोह करता है।)
  3. राक्षसः हरये ईर्ध्यति। (राक्षस हरि से ईर्ष्या करता है।)
  4. दुर्योधनः युधिष्ठिराय असूयति। (दुर्योधन युधिष्ठिर से जलन करता है।)

किन्तु अभि, अधि और सम् उपसर्गपूर्वक क्रुध्, द्रुह् धातु के साथ द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे –

1. राक्षसः रामम् अभिक्रुध्यति। (राक्षस राम पर क्रोध करता है।)
2. पिता पुत्रं संक्रुध्यति। (पिता पुत्रं पर क्रोध करता है।)

3. ‘नमः स्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषड्योगाच्च’ अर्थात् नमः (नमस्कार), स्वस्ति (कल्याण), स्वाहा (अग्नि में आहुति), स्वधा (पितरों के लिए अन्नादि का दान), अलं (पर्याप्त, समर्थ) और वषट् (आहुति) के साथ चतुर्थी विभक्ति का ही प्रयोग होता है। जैसे –

  1. श्रीगणेशाय नमः। (श्री गणेश जी के लिए नमस्कार।)
  2. रामाय स्वस्ति। (राम का कल्याण हो।)
  3. अग्नये स्वाहा। (अग्नि के लिए आहुति।)
  4. पितृभ्यः स्वधा। (पितरों के लिए हवि का दान)
  5. हरिः दैत्येभ्यः अलम्। (हरि दैत्यों के लिए पर्याप्त हैं।)
  6. इन्द्राय वषट्। (इन्द्र के लिए हवि का दान।)

विशेष – यहाँ ‘अलम्’ का अर्थ पर्याप्त या समर्थ है, अतः चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है। यदि ‘अलम्’ का प्रयोग मना (निषेध) के अर्थ में होगा, तो वहाँ तृतीया विभक्ति ही होगी।

4. ‘स्पृहेरीप्सितः’ अर्थात् स्पृह (स्पृहा करना) धातु के योग में चाही जाने वाली वस्तु की सम्प्रदान कारक संज्ञा हो जाती है और उसमें चतुर्थी विभक्ति आती है। जैसे –
बालकः पुष्येभ्यः स्पृह्यति। (बालक पुष्यों की स्पृहा करता है।)

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

5. ‘तादर्थ्य चतुर्थी’ अर्थात् जिस प्रयोजन के लिए कोई कार्य किया जाता है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे –

भक्तः मुक्तये हरिं भजति। (भक्त मुक्ति के लिए हरि को भजता है।)
शिशुः दुग्धाय क्रन्दति। (बालक दूध के लिए चीखता है।)

6. हितयोगे च’ (वार्तिक) अर्थात् हित और सुख शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति आती है। जैसे –

विप्राय हितं भूयात्। (ब्राह्मण का हित हो।)
बालकाय सुखं भूयात्। (बालक का सुख हो।)

7. प्रत्याभ्यां श्रुतः पूर्वस्य कर्ता-प्रति या आ उपसर्गपूर्वक श्रु (प्रतिज्ञा करना) धातु के योग में जिससे प्रतिज्ञा की जाती है, उसमें सम्प्रदान कारक होता है। जैसे –

विप्राय गां प्रतिशृणोति। (विप्र से गाय की प्रतिज्ञा करता है।)
याचकाय वस्त्रम् आशृणोति। (याचक से वस्त्र देने की प्रतिज्ञा करता है।)

8. धारेरुत्तमर्णः – धृ (ऋण लेना) धातु के योग में ऋण देने वाले में (साहूकार) चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे –

(i) गणेशः सोमदत्ताय शतं धारयति। (गणेश सोमदत्त से 100 रुपये ऋण/उधार लेता है।)
(ii) जनाः कोषाय धनं धारयन्ति। (लोग खजाने से धन उधार/ऋण लेते हैं।)

9. चतुर्थी विधाने तादर्थ्य उपसंख्यानम्-तादर्थ्य अर्थात् जिस कार्य के लिए कारणवाची शब्द का प्रयोग किया जाता है, उस कारणवाची शब्द में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे –

(i) मोक्षाय हरिं भजति। (मोक्ष के लिए हरि को भजता है।)
(ii) धनाय श्रमं करोति। (धन के लिए श्रम करता है।)

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

10. कथ् (कहना), ख्या (बोलना), ‘नि’ उपसर्गपूर्वक विद्-निवेदय् (निवेदन करना) उपदिश् (उपदेश देना), सम्पद् (होना), कल्प् (होना), भू (होना) आदि धातुओं तथा ‘सुख’ एवं ‘हित’ आदि शब्दों के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।
जैसे –

  1. पिता पुत्राय कथयति। (पिता पुत्र से कहता है।)
  2. शिक्षकः बालकेभ्यः ख्याति। (शिक्षक बालकों से कहता है।)
  3. भक्ताः ईश्वराय निवेदयन्ति। (भक्त ईश्वर से निवेदन करते हैं।)
  4. आचार्यः शिष्येभ्यः उपदिशति। (आचार्य शिष्यों को उपदेश देता है।)
  5. भक्तिः मोक्षाय सम्पद्यते। (भक्ति मोक्ष के लिए होती है।)
  6. विद्या सुखाय कल्पते। (विद्या सुख के लिए होती है।)
  7. पुस्तकं ज्ञानाय अस्ति। (पुस्तक ज्ञान के लिए है।)
  8. सर्वेभ्यः भूतेभ्यः सुखं भवेत्। (सभी जीवों का सुख हो।)
  9. मानवाय हितं भवेत्। (मानव का हित हो।)
  10. शिक्षकः छात्रस्य कथयति। (शिक्षक छात्र से कहता है।)
  11. शिष्यः गुरवे निवेदयति। (शिष्य गुरु से निवेदन करता है।)

नोट – यहाँ 1 से 10 तक नियमों के वाक्यों में स्थूल पदों (शब्दों) में चतुर्थी विभक्ति प्रयुक्त हुई है।

पञ्चमी विभक्ति –

(ख) ‘अपादाने पञ्चमी’ अर्थात् अपादाने पञ्चमी विभक्तिः भवति। अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे – (i) वृक्षात् पत्रं पतति। (वृक्ष से पत्ता गिरता है।)
(ii) नृपः ग्रामाद् आगच्छति। (राजा गाँव से आता है।)

उपर्युक्त दोनों उदाहरणों में क्रमशः ‘वृक्ष’ और ‘ग्राम स्थिर कारक हैं और इनसे क्रमशः ‘पत्र’ और ‘नृपः’ अलग हो रहे हैं। अतः ‘वृक्ष’ और ‘ग्राम’ की अपादान संज्ञा होने से इनमें पञ्चमी विभक्ति आयी है।

पञ्चमी उपपद विभक्ति

1. भीत्रार्थानां भयहेतुः – अर्थात् भयार्थानां रक्षार्थानां च धातूनां प्रयोगे भयस्य यद् हेतुः अस्ति तस्य अपादान संज्ञा भवति अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति। (अर्थात् भय अर्थ की और रक्षा अर्थ की धातुओं के साथ, जिससे भय हो अथवा रक्षा हो, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति आती है। जैसे –
(i) बालकः सिंहात् बिभेति। (बालक शेर से डरता है।) (‘भी’ धातोः प्रयोगे पंचमी विभक्तिः)
(ii) नृपः दुष्टात् रक्षति/त्रायते। (राजा दुष्ट से रक्षा करता है।) (‘रक्ष्’ धातोः प्रयोगे पंचमी विभक्तिः)

अन्य उदाहरण –

(i) बालकः चौराद् बिभेति। (बालक चोर से डरता है।)
(ii) नृपः चौरात् त्रायते। (राजा चोर से रक्षा करता है।)

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

2. आख्यातोपयोगे – अर्थात् यस्मात् नियमपूर्वक विद्या गृह्यते तस्य शिक्षकादिजनस्य अपादानसंज्ञा भवति अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति। (अर्थात् जिससे नियमपूर्वक विद्या ग्रहण की जाती है उस शिक्षक आदि की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पंचमी विभक्ति होती है।) यथा –
(i) शिष्यः उपाध्यायात् अधीते। (शिष्य उपाध्याय से पढ़ता है।) (‘अधि + इ’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः) अध्ययन करना अर्थ की धातु क्रिया के प्रयोग में पंचमी विभक्ति)
(ii) छात्रः शिक्षकात् पठति। (छात्र शिक्षक से पढ़ता है।) (‘पठ्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।) पढ़ना अर्थ की धातु क्रिया के प्रयोग में पंचमी विभक्ति)

3. जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानम् – अर्थात् जुगुप्सा-विराम-प्रमादार्थकधातूनां प्रयोगे यस्मात् घृणादि क्रियते तस्य अपादानसंज्ञा भवति अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति। (जुगुप्सा (घृणा करना), विराम (रुकना) और प्रमाद धानी करना) अर्थ वाली धातुओं (क्रियाओं) के प्रयोग में जिससे घृणा आदि की जाती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है।) जैसे –
(i) महेशः पापात् जुगुप्सते। (महेश पाप से घृणा करता है।)
(‘जुगुप्स्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।) (घृणा करना अर्थ की धातु (क्रिया) के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)

(ii) कुलदीपः अधर्मात् विरमति। (कुलदीप अधर्म से रुकता है।)
(‘विरम्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः) (रुकना अर्थ की धातु (क्रिया) के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)

(ii) मोहनः अध्ययनात् प्रमाद्यति। (मोहन पढ़ने से प्रमाद करता है।)
(‘प्रमद्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः) (असावधानी करना अर्थ की धातु (क्रिया) के प्रयोग में पंचमी विभक्ति)

अन्य उदाहरण –
(i) रामः पापात् जुगुप्सते। (राम पाप से घृणा करता है।)
(ii) कृष्णः पापात् विरमति। (कृष्ण पाप (करने) से रुकता है।)
(iii) नास्तिकः धर्मात् प्रमाद्यति। (नास्तिक धर्म से प्रमाद करता है।)

4. भुवः प्रभवः अर्थात् भूधातोः यः कर्ता, तस्य यद् उत्पत्तिस्थानम्, तस्य अपादानसंज्ञा भवति अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति। (अर्थात् भू (होना) धातु के कर्ता का जो उद्गम स्थान होता है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे –

(i) गंगा हिमालयात् प्रभवति। . (गंगा हिमालय से निकलती है।)
(‘प्रभव्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।) (निकलना अर्थ की धातु (क्रिया) के प्रयोग में पंचमी विभक्ति)

(ii) कश्मीरात् वितस्तानदी प्रभवति। (कश्मीर से वितस्ता नदी निकलती है।)
(‘प्रभव’ धातोः योगे पञ्चमी विभक्तिः) (निकलना अर्थ की “न (क्रिया) के योग में पंचमी विभक्ति)

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

5. जनिकर्तुः प्रकृतिः – अर्थात् जन् धातोः यः कर्ता, तस्य या प्रकृतिः (कारणम् = हेतुः) तस्य अपादानसंज्ञा भवति अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति। (‘जन्’ (उत्पन्न होना) धातु का जो कर्ता है, उसके हेतु (कारण) की अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है।) जैसे –

(i) गोमयात् वृश्चिक: जायते। (गाय के गोबर से बिच्छू उत्पन्न होता है।)
(‘जन्’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः) (उत्पन्न होना अर्थ की धातु (क्रिया) के प्रयोग में पंचमी विभक्ति)

(ii) कामात् क्रोधः जायते। (काम से क्रोध उत्पन्न होता है।)
(‘जन् ‘ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः) (उत्पन्न होना अर्थ की धातु (क्रिया) के प्रयोग में पंचमी विभक्ति)

अन्य उदाहरण –
(i) प्रजापतेः लोक: जायते। (ब्रह्मा से संसार उत्पन्न होता है।)
(ii) मुखाद् अग्निः अजायत। (मुख से अग्नि उत्पन्न हुई।)

उपर्युक्त दोनों वाक्यों में ‘जन्’ धातु के कर्ता क्रमश: ‘लोक’ और ‘अग्नि’ हैं और इनके हेतु क्रमश: ‘प्रजापति’ और ‘मुख’ हैं। अतः ये अपादान कारक हुए, जिससे इनमें पञ्चमी विभक्ति आयी है।

6. दर्शनमिच्छति – अर्थात यदा कर्ता, यस्मात अदर्शनम इच्छति, तदा तस्य कारकस्य अपादानसंज्ञा भवति अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति। (जब कर्ता जिससे अदर्शन (छिपना) चाहता है, तब उस कारक की अपादान संज्ञा होती है और अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति होती है।) जैसे –

(i) बालकः मातुः निलीयते। (बालक माता से छिपता है।)
(ii) महेशः जनकात् निलीयते। (महेश पिता से छिपता है।)

7. वारणार्थानामीप्सितः – अर्थात् वारणार्थानां धातूनां प्रयोगे यः ईप्सितः अर्थः भवति तस्य कारकस्य अपादानसंज्ञा भवति अपादाने च पञ्चमी विभक्तिः भवति। वारण (हटाना) अर्थ की धातु के योग में अत्यन्त इष्ट (प्रिय) वस्तु की अपादान संज्ञा होती है और उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे –
कृषक: यवेभ्यः गां वारयति। (किसान जौ से गाय को हटाता है।)
(‘वृ’ धातोः प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।) (हटाना अर्थ की धातु (क्रिया) के प्रयोग में पंचमी-विभक्ति) यहाँ इष्ट वस्तु यव (जौ) है, अत: इष्ट कारक यव (जौ) की अपादान कारक संज्ञा होने से पञ्चमी विभक्ति आयी है।

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

8. पञ्चमी विभक्तेः-अर्थात् यदा द्वयोः पदार्थयोः कस्यचित् एकस्य पदार्थस्य विशेषता प्रदर्श्यते तदा विशेषणशब्दैः सह ईयसुन् अथवा तरप् प्रत्ययस्य प्रयोगः क्रियते यस्मात् च विशेषता प्रदर्श्यते तस्मिन् पञ्चमी विभक्तेः प्रयोगः भवति। (जब दो पदार्थों में से किसी एक पदार्थ की विशेषता प्रकट की जाती है, तब विशेषण शब्दों के साथ ‘ईयसुन्’ अथवा ‘तरप्’ प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है और जिससे विशेषता प्रकट की जाती है उसमें पञ्चमी विभक्ति होती है। यथा –

(i) रामः श्यामात् पटुतरः अस्ति। (राम श्याम से अधिक चतुर है।)
(‘तरप्’ प्रत्ययप्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः) (‘तरप्’ प्रत्यय के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
(ii) माता भूमेः गुरुतरा अस्ति। (माता भूमि से बढ़कर है।)
(‘तरप’ प्रत्ययप्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।) (‘तरप’ प्रत्यय के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
(iii) जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गात् अपि गरीयसी। (जननी और जन्म-भूमि स्वर्ग से भी महान् हैं।)
(‘ईयसुन्’ प्रत्यय प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः।) (ईयसुन्’ प्रत्यय के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)

9. अधोलिखितशब्दानां योगे पञ्चमी विभक्तिः भवति। (निम्नलिखित शब्दों के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति होती है-)जैसे
(i) ऋते (बिना) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः (‘बिना’ अर्थ वाले ‘ऋते’ शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
ज्ञानात् ऋते मुक्तिः न भवति। (ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती है।)
(ii) प्रभृति शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः (‘से लेकर’ अर्थ वाले शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
स: बाल्यकालात् प्रभृति अद्यावधिः अत्रैव पठति। (वह बचपन से लेकर अब तक यहाँ ही पढ़ता है।)
(iii) बहिः (बाहर) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः (‘बाहर’ अर्थ वाले ‘बहिः’ शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
छात्राः विद्यालयात् बहिः गच्छन्ति। (छात्र विद्यालय से बाहर जाते हैं।)
(iv) पूर्वम् (पहले) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः (‘पहले’ अर्थ वाले ‘पूर्वम्’ शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
विद्यालयगमनात् पूर्व गृहकार्यं कुरु। (विद्यालय जाने से पहले गृहकार्य को करो।)
(v) प्राक् (पूर्व) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः (‘पूर्व’ अर्थ वाले ‘पूर्वम्’ शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
ग्रामात् प्राक् आश्रमः अस्ति। (गाँव से पहले आश्रम है।)
(vi) अन्य (दसरा) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः (‘दसरा’ अर्थ वाले ‘अन्य’ शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
रामात् अन्यः अयं कः अस्ति? (राम के अतिरिक्त यह दूसरा कौन है?)
(vii) अनन्तरम् शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः (‘बाद’ के अर्थ वाले शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
यशवन्तः पठनात् अनन्तरं क्रीडाक्षेत्रं गच्छति। (यशवन्त पढ़ने के बाद खेल के मैदान को जाता है।)
(viii) पृथक् शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः (‘अलग’ के अर्थ वाले शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
नगरात् पृथक् आश्रमः अस्ति। (नगर से अलग आश्रम है।)
(ix) परम् (बाद) शब्दस्य प्रयोगे पञ्चमी विभक्तिः (‘बाद’ के अर्थ में ‘परम्’ शब्द के प्रयोग में पञ्चमी विभक्ति)
रामात् परं श्यामः अस्ति। (राम के बाद श्याम है।)

नोट – यहाँ 1 से 9 तक के नियमों के वाक्यों में स्थूल पदों (शब्दों) में पञ्चमी विभक्ति प्रयुक्त हुई है।

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

6. सम्बन्धकारकस्य प्रयोगः (षष्ठी विभक्तिः)

1. षष्ठी शेषे – अर्थात् सम्बन्धे षष्ठी विभक्तिः भवति। (सम्बन्ध कारक में षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त होती है।) जैसे –
रमेशः संस्कृतस्य पुस्तकं पठति। (रमेश संस्कृत की पुस्तक पढ़ता है।) (‘सम्बन्धे’ षष्ठी विभक्तिः)(सम्बन्ध कारक में षष्ठी विभक्ति)

षष्ठी उपपद विभक्ति

1. यतश्च निर्धारणम् – अर्थात् यदा बहूषु कस्यचित् एकस्य जातिगुणक्रियाभिः विशेषता प्रदर्श्यते तदा विशेषणशब्दैः सह इष्ठन अथवा तमप प्रत्ययस्य प्रयोगः क्रियते यस्मात् च विशेषता प्रदर्शयते तस्मिन षष्ठी विभक्तेः अथवा सप्तम प्रयोगः भवति। (जब बहुत में से किसी एक की जाति, गुण क्रिया के द्वारा विशेषता प्रकट की जाती है, तब विशेषण शब्दों के साथ ‘इष्ठन्’ अथवा ‘तमप्’ प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है और जिससे विशेषता प्रकट की जाती है, उसमें षष्ठी विभक्ति अथवा सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।) जैसे –

कवीनां कालिदासः श्रेष्ठः अस्ति। (कवियों में कालिदास श्रेष्ठ है।)
(‘इष्ठन्’ प्रत्ययस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः ।) (‘श्रेष्ठ’ अर्थ वाले ‘इष्ठन्’ प्रत्यय के प्रयोग में सप्तमी विभक्ति)
कविषु कालिदासः श्रेष्ठः अस्ति। (कवियों में कालिदास श्रेष्ठ हैं।)
(‘इष्ठन्’ प्रत्ययस्य प्रयोगे सप्तमी विभक्तिः।) (‘श्रेष्ठ’ अर्थ वाले ‘इष्ठन्’ प्रत्यय के प्रयोग में सप्तमी विभक्ति)
छात्राणां सुरेशः पटुतमः अस्ति। (छात्रों में सुरेश सबसे चतुर है।)
(‘तमप्’ प्रत्ययस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः।) (‘सबसे अधिक’ अर्थ में ‘तमप्’ प्रत्यय.के प्रयोग में सप्तमी विभक्ति)
छात्रेषु सुरेशः पटुतमः अस्ति। (छात्रों में सुरेश सबसे चतुर है।)।
(‘तमप्’ प्रत्ययस्य प्रयोगे सप्तमी विभक्तिः।) (‘सबसे अधिक’ अर्थ में तमप्’ प्रत्यय के प्रयोग में सप्तमी विभक्ति)

2. अधोलिखितशब्दानां योगे षष्ठी विभक्तिः भवति। (निम्नलिखित शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।) जैसे –

(i) अधः (नीचे) शब्दस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः – (‘नीचे’ अर्थ वाले ‘अधः शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति)
वृक्षस्य अधः बालकः शेते। (वृक्ष के नीचे बालक सोता है।)
(ii) उपरि (ऊपर) शब्दस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः – (‘ऊपर’ अर्थ वाले ‘उपरि’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति)
भवनस्य उपरि खगाः सन्ति। (भवन के ऊपर पक्षी हैं।)
(iii) पुरः (सामने) शब्दस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः – (‘सामने’ अर्थ वाले ‘पुरः’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति)
विद्यालयस्य पुरः मन्दिरम् अस्ति। (विद्यालय के सामने मन्दिर है।)
(iv) समक्षम् (सामने) शब्दस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः – (‘सामने’ अर्थ वाले ‘समक्षम्’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति)
अध्यापकस्य समक्षं शिष्यः अस्ति। (अध्यापक के सामने शिष्य है।)
(v) समीपम् (समीप) शब्दस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः – (‘समीप’ अर्थ वाले ‘समीपम्’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति)
नगरस्य समीपं ग्रामः अस्ति। (नगर के समीप गाँव है।)
(vi) मध्ये (बीच में) शब्दस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः – (‘बीच में’ अर्थ वाले ‘मध्ये’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति)
पशूनां मध्ये ग्वालः अस्ति। (पशुओं के बीच में ग्वाला है।)
(vii) कृते (लिए) शब्दस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः – (‘लिए’ अर्थ वाले ‘कृते’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति)
बालकस्य कृते दुग्धम् आनय। (बालक के लिए दूध लाओ।)
(viii) अन्तः (अन्दर) शब्दस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः – (‘अन्दर’ अर्थ वाले ‘अन्तः’ शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति)
गृहस्य अन्त: माता विद्यते। (घर के अन्दर माता है।)
(ix) अन्तिकम् (समीप में) शब्दस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः – (‘विभक्ति में’ अर्थ-वाले ‘अन्तिकम्’ शब्द के प्रयोग में
षष्ठी-विभक्ति)
एवम् आलोच्य सः पितुः अन्तिकम् आगच्छत्। (इस प्रकार से सोच-विचारकर वह पिता के पास आया।)
(x) अन्ते (अन्त में) शब्दस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिः – (‘अन्त में अर्थ वाले (अन्ते) शब्द के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति) – सः कार्यस्य अन्ते अत्र आगच्छति। (वह कार्य के अन्त में यहाँ आता है।)

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

3. तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम् – अर्थात् तुल्यवाचिशब्दानां योगे षष्ठी अथवा तृतीया विभक्तिः भवति। (तुलनावाची शब्दों के योग में षष्ठी अथवा तृतीया विभक्ति होती है।)
यथा –
(i) सुरेशः महेशस्य तुल्यः अस्ति। (सुरेश महेश के समान है।) (तुल्यार्थे षष्ठी विभक्तिः।)
(ii) सुरेशः महेशेन तुल्यः अस्ति । (सुरेश महेश के समान है।) (तुल्यार्थे तृतीया विभक्तिः।)
(iii) सीता गीतायाः तुल्या विद्यते। (सीता गीता के समान है।) (तुल्यार्थे षष्ठी विभक्तिः।)
(iv) सीता गीतया तुल्या विद्यते। (सीता गीता के समान है।) (तुल्यार्थे तृतीया विभक्तिः।)

नोट – यहाँ 1 से 3 तक के नियमों के वाक्यों में स्थूल पदों (शब्दों) में षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त हुई है।

सप्तमी विभक्ति

1. आधारोऽधिकरणम् – अर्थात् क्रियायाः सिद्धौ यः आधारः भवति तस्य अधिकरणसंज्ञा भवति अधिकरणे च सप्तमी विभक्तिः भवति। (क्रिया की सिद्धि में जो आधार होता है, उसकी अधिकरण संज्ञा होती है और अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है।) यथा –

(i) नृपः सिंहासने तिष्ठति। (राजा सिंहासन पर बैठता है।) (सिंहासने सप्तमी) (‘सिंहासन’ में सप्तमी है)
(ii) वयं ग्रामे निवसामः। (हम गाँव में रहते हैं।) (ग्रामे सप्तमी) (‘ग्राम’ में सप्तमी है)
(iii) तिलेषु तैलं विद्यते। (तिलों में तेल होता है।) (तिलेषु सप्तमी) (‘तिलों’ में सप्तमी है)

सप्तमी उपपद विभक्ति

1. यस्मिन् स्नेहः क्रियते तस्मिन् सप्तमी विभक्तिः भवति। (जिसमें स्नेह किया जाता है उसमें सप्तमी विभक्ति होती है।) जैसे –
पिता पुत्रे स्निह्यति। (पिता पुत्र पर स्नेह करता है।)
(स्निह् धातोः योगे सप्तमी विभक्तिः।) (स्निह धातु के योग में-सप्तमी विभक्ति)

2. संलग्नार्थकशब्दानां चतुरार्थकशब्दानां च योगे सप्तमी विभक्तिः भवति। (संलग्नार्थक और चतुरार्थक शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।) जैसे –
(i) बलदेवः स्वकार्ये संलग्नः अस्ति। (बलदेव अपने कार्य में संलग्न है।)
(‘संलग्नार्थे’ सप्तमी विभक्तिः।) (‘संलग्न’ अर्थ में सप्तमी-विभक्ति)
(ii) जयदेवः संस्कृते चतुरः अस्ति। (जयदेव संस्कृत में चतुर है।)
(‘चतुरार्थे’ सप्तमी विभक्तिः।)(‘चतुर’ अर्थ में सप्तमी विभक्ति)

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

3. अधोलिखितशब्दानां योगे सप्तमी विभक्तिः भवति। (निम्नलिखित शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है।) जैसे –
(i) ‘श्रद्धा’ शब्दस्य प्रयोगे सप्तमी विभक्तिः (‘श्रद्धा’ शब्द के प्रयोग में सप्तमी विभक्ति)
बालकस्य पितरि श्रद्धा अस्ति। (बालक की पिता पर श्रद्धा है।)
(ii) ‘विश्वासः’ शब्दस्य प्रयोगे सप्तमी (‘विश्वास’ शब्द के प्रयोग में सप्तमी विभक्ति)
महेशस्य स्वमित्रे विश्वासः अस्ति। (महेश का अपने मित्र पर विश्वास है।)

4. यस्य च भावेन भावलक्षणम्-अर्थात् यदा एकक्रियायाः अनन्तरम् अपरा क्रिया भवति तदा पूर्वक्रियायां तस्याश्च कर्तरि सप्तमी विभक्तिः भवति (जब एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया होती है तब पूर्व क्रिया में और उसके कर्ता में सप्तमी विभक्ति होती है।) जैसे –
(i) रामे वनं गते दशरथः प्राणान् अत्यजत्। (राम के वन जाने पर दशरथ ने प्राण त्याग दिये।)
एकक्रियायाः अनन्तरम् अपरायाः क्रियायाः प्रयोगे सप्तमी विभक्तिः। (एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया के प्रयोग में सप्तमी विभक्ति) सूर्ये अस्तं गते

(ii) सर्वे बालकाः गृहम् अगच्छन्। (सूर्य के अस्त होने पर सभी बालक घरों को चले गये।)
(एकक्रियायाः अनन्तरम् अपरायाः क्रियायाः प्रयोगे सप्तमी विभक्तिः। (एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया के प्रयोग में सप्तमी विभक्ति)
नोट – यहाँ सभी स्थूल पदों (शब्दों) में सप्तमी विभक्ति प्रयुक्त हुई है।

अभ्यास

प्रश्न: 1.
कारक किसे कहते हैं?
उत्तर :
“साक्षात् क्रियान्वयित्वं कारकत्वम्” अर्थात् क्रिया से साक्षात् (सीधे) सम्बन्ध रखने वाले विभक्तियुक्त पद को ‘कारक’ कहते हैं।

प्रश्न: 2.
कारक कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर :
संस्कृत में कारक छः हैं –

  • कर्ता
  • कर्म
  • करण
  • सम्प्रदान
  • अपादान
  • अधिकरण।

प्रश्न: 3.
कारक और विभक्ति में क्या सम्बन्ध है?
उत्तर :
संस्कृत में प्रथमा से सप्तमी पर्यन्त सात विभक्तियाँ हैं। ये सात विभक्तियाँ ही कारक का रूप धारण करती हैं।

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

प्रश्न: 4.
स्थूल शब्दों के कारक नाम बताइए –
(i) तौ कन्दुकेन क्रीडतः।
उत्तर :
करण कारक।

(ii) रामः श्यामं पश्यति।
उत्तर :
कर्म कारक

(iii) मोहनेन ग्रन्थः पठ्यते।
उत्तर :
कर्ता कारक

(iv) यज्ञदत्तः देवदत्तं शतं जयति।
उत्तर :
कर्म कारक

(v) विप्राय गां ददाति।
उत्तर :
सम्प्रदान कारक

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

(vi) रमेशः विद्यालयात् स्वगृहं याति।
उत्तर :
अपादान कारक।

प्रश्न: 5.
कारकों को किन-किन विभक्तियों द्वारा व्यक्त किया जाता है?
उत्तर :
JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम् 6

प्रश्न: 6.
सम्बन्ध और सम्बोधन कारक क्यों नहीं हैं?
उत्तर :
क्रिया से साक्षात् सम्बन्ध रखने वाले विभक्तियुक्त पदों को कारक कहते हैं। अतः “सम्बन्ध’ एवं ‘संबोधन’ कारक का क्रिया से सीधा सम्बन्ध नहीं होने के कारण इन्हें कारक नहीं माना जाता है। ‘सम्बोधन’ में प्रथमा विभक्ति के शब्दों का ही प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न: 7.
किन्हीं दो कारकों को परिभाषित कीजिए और उनका एक-एक उदाहरण देकर वाक्य से उनकी पुष्टि कीजिए –
कर्ता, कर्म, करण, अपादान, अधिकरण
उत्तर :
साधकतमं करणम् – अर्थात् क्रिया की सिद्धि में अत्यन्त सहायक वस्तु अथवा साधन को करण कारक कहते हैं। उदाहरण
(i) रजक: दण्डेन कुक्कुरं ताडयति। (धोबी डण्डे से कुत्ते को मारता है।)
यहाँ क्रिया ताडयति की सिद्धि में अत्यन्त सहायक वस्तु डण्डा है। अतः ‘दण्डेन’ करण कारक में तृतीया विभक्ति का प्रयोग हुआ है।
(ii) ध्रुवमपायेऽपादानम् – अर्थात् जिस पुरुष, स्थान या वस्तु से अलगाव (पृथकत्व) होता है, उसे ‘अपादान’ कहते हैं।

उदाहरण – (i) बालकः गृहात् गच्छति। (बालक घर से जाता है।) यहाँ बालक ‘गृह’ से अलग हो रहा है। अतः ‘गृह’ में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग हुआ है।

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

प्रश्न: 8.
विभक्ति किसे कहते हैं?
उत्तर :
सभी शब्दों के अन्त में ‘सुप’ आदि 21 प्रत्यय लगते हैं जो शब्द को एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन के रूप में व्यक्त कर सात कारकों में बाँट देते हैं। इन्हीं ‘सुप’ आदि प्रत्ययों से बने शब्दरूप को विभक्ति कहते हैं।

प्रश्न: 9.
विभक्ति के कितने भेद हैं ? नामोल्लेख कीजिए।
उत्तर :
संस्कृत में सात विभक्तियाँ होती हैं – प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, सप्तमी।
कुछ लोग सम्बोधन की गणना भी विभक्ति में करते हुए आठ विभक्तियाँ मानते हैं, किन्तु सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति के ही शब्दों का प्रयोग होता है, अत: उसे विभक्ति नहीं माना जाता है। सम्बोधन का चिह्न-हे, ओ, अरे (!) होता है।

प्रश्न: 10.
कारक विभक्ति को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
संस्कृत में प्रथमा से सप्तमी तक सात विभक्तियाँ होती हैं। ये सात विभक्तियाँ ही कारक का रूप धारण करती हैं। सम्बोधन को प्रथमा विभक्ति के अन्तर्गत ही गिना जाता है। क्रिया से सीधा सम्बन्ध रखने वाले शब्दों को ही कारक माना जाता है। षष्ठी विभक्ति का क्रिया से सीधा सम्बन्ध नहीं होता, अतः सम्बन्ध को कारक नहीं माना गया है। इस प्रकार संस्कृत में कारक छः ही होते हैं तथा विभक्तियाँ सात होती हैं-प्रथमा-कर्ता, द्वितीया-कर्म, तृतीया-करण, चतुर्थी-सम्प्रदान, पञ्चमी-अपादान, सप्तमी-अधिकरण।

प्रश्न: 11.
उपपद विभक्ति की परिभाषा दीजिए और एक उदाहरण से उसकी पुष्टि कीजिए।
उत्तर :
सामान्यतः विभक्तियों का सम्बन्ध क्रिया से होता है, परन्तु कुछ अव्ययों के योग में विशेष विभक्ति का प्रयोग किया जाता है, इन्हीं विशिष्ट विभक्तियों को उपपद विभक्ति कहते हैं। जैसे-त्वं पित्रा सह कुत्र गच्छसि? (तुम पिता के साथ कहाँ जाते हो?) सह (साथ) के योग में तृतीया विभक्ति होती है।

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

प्रश्न: 12.
स्थूल शब्दों में नियम-निर्देशपूर्वक विभक्ति बताइए।
(i) गोपालः धेनुं दुग्धं दोग्धि।
उत्तर :
द्विकर्मक धातु के योग में द्वितीया।

(ii) हरिः बैकुण्ठम् अधिशेते।
उत्तर :
अधि’ उपसर्गपूर्वक ‘शीङ्’ धातु के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।

(iii) विद्यालयं परितः वृक्षाः सन्ति।
उत्तर :
परितः (चारों ओर) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।

(iv) क्रोशं कुटिला नदी।
उत्तर :
‘गति’ अर्थ में द्वितीया विभक्ति होती है।

(v) रामेण सुप्यते।
उत्तर :
कर्म वाच्य के कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है।

(vi) गिरधरः पादेन खञ्जः।
उत्तर :
विकृत अंग में तृतीया विभक्ति होती है।

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

(vii) धर्मेण हीनः पशुभिः समानः।।
उत्तर :
‘हीन’ के योग में तृतीया विभक्ति होती है।

(viii) सुशील: प्रकृत्या साधुः अस्ति।
उत्तर :
प्रकृति/स्वभाव के योग में तृतीया विभक्ति होती है।

(ix) मोक्षाय हरि भजति।
उत्तर :
वैषयिक सम्प्रदान के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।

(x) गोमयाद् वृश्चिकः जायते।
उत्तर :
‘जन्’ धातु एवं इसका अर्थ रखने वाली ‘उद्भव’ धातु के योग में पंचमी विभक्ति होती है।

(xi) गङ्गा हिमालयात् प्रभवति ।
उत्तर :
‘उद्गम’ जन्’ धातु के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है।

(xii) अल्पस्य हेतोर्बहुहातुमिच्छन्
उत्तर :
‘हेतु’ के योग में षष्ठी विभक्ति होती है।

(xii) तिलेषु तैलम्।
उत्तर :
‘आधार’ में सप्तमी विभक्ति होती है।

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

(xiv) गोषु कृष्णा बहुक्षीरा।
उत्तर :
यत्श्च निर्धारणम्’ के अनुसार सप्तमी विभक्ति होती है।

प्रश्न: 13.
समुचितविभक्तिपदेन वार्तालापं पूरयत – (उचित विभक्ति पदों से वार्तालाप को पूर्ण कीजिए-)
मोहन: – त्वं कस्मिन् विद्यालये पठसि?
हरीशः – अहं नवोदयविद्यालये पठामि।
मोहन: – तव विद्यालयः कीदृशः अस्ति?
हरीश: – मे ………… (i) (विद्यालय) परितः वनानि सन्ति।
मोहन: – त्वं विद्यालयं कदा गच्छसि?
हरीश: – अहं विद्यालयं दशवादने गच्छामि।
मोहन: – तव मित्र महेशः तु खञ्जः अस्ति।
हरीश: – आम् सः ……….. (ii) (दण्ड) चलति।
मोहन: – हरीश! तव माता प्रातः काले कुत्र गच्छति ?
हरीश: – मम माता प्रात:काले ………….. (ii) (भ्रमण) गच्छति।
मोहन: – अतिशोभनम् ………….. (iv) (स्वास्थ्यलाभ) मा प्रमदितव्यम्।
सहसा शिक्षकः कक्षे प्रवेशं करोति वदति च अलम् …………. (v) (वार्तालाप)।
उत्तरम् :
(i) विद्यालयं
(ii) दण्डेन
(iii) भ्रमणाय
(iv) स्वास्थ्यलाभात्
(v) वार्तालापेण।

प्रश्न: 14.
कोष्ठकें प्रदत्तशब्दानां समुचितविभक्तिपदैः अधोलिखितं वार्तालापं पूरयत।
(कोष्ठक में दिये गये शब्दों की उचित विभक्ति पदों से निम्नलिखित वार्तालाप को पूर्ण कीजिए।) कमला-महेश! किं त्वमपि (i) …………….(विद्यालय) प्रति गच्छसि?
महेश: – आम् (ii) ……………..(युष्मद्) सह कः गच्छति? कमला-मम कक्षायाः सहपाठिनः आगच्छन्ति।
महेशः – शिक्षकः अपि अधुना गच्छति।
छात्रा: – (iii) ………….(शिक्षक) नमः।
शिक्षकः – नमस्ते। प्रसन्नाः भवन्तु। (iv) ……………(ग्राम) बहिः क्रीडास्थलं गच्छन्ति भवन्तः?
छात्रा: – (v) ………(विद्यालय) पुरतः क्रीडास्थले वयं क्रीडामः।।
उत्तरम् :
(i) विद्यालयं
(ii) त्वया
(iii) शिक्षकाय
(iv) ग्रामात्
(v) विद्यालयस्य।

JAC Class 9 Sanskrit व्याकरणम् कारक प्रकरणम्

प्रश्न: 15.
कोष्ठकगतपदेषु उचितविभक्ति प्रयुज्य वाक्यानि पूरयत –
(कोष्ठक में दिये पदों में उचित विभक्ति प्रयुक्त कर वाक्यों को पूर्ण कीजिए)
(क) पुरा (i) …………….(हस्तिनापुर) शान्तनुः नाम नृपतिः अभवत्।
देवव्रतः (ii) ………………(शान्तनु) गंगायाः च पुत्रः आसीत्।
एकदा शान्तुनः (iii) ……………(यमुना) तीरे सत्यवतीम् अपश्यत्।
यदा देवव्रतः इदं सर्व (iv) …………….(वृत्तान्त) अवागच्छत् स धीवरस्य गृहम् अगच्छत्।
धीवरः सत्यवत्याः विवाहं (v) ………….(नृपति) सह अकरोत्।
उत्तरम् :
(i) हस्तिनापुरे
(ii) शान्तनोः
(iii) यमुनाया:
(iv) वृत्तान्तम्
(v) नृपतिना।

(ख) तत्र (i) ………….. (ग्राम) निकषा एकः देवालयः अस्ति। देवालये बहवः जनाः आगच्छन्ति परं कोऽपि
(ii) ……… (पुत्र) हीनः नास्ति।
(iii) ………… (देवालय) बहिः एक सरोवरः अस्ति। सरोवरे विकसितानि कमलानि
(iv) ……….. (दर्शक) रोचन्ते।
(v) ……….. (सरोवर) तटे एकः उद्यानम् अपि अस्ति।
उत्तरम् :
(i) ग्रामं
(ii) पुत्रैः
(iii) देवालयात्
(iv) दर्शकेभ्यः
(v) सरोवरस्य।

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