Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Sanchayan Chapter 2 सपनों के-से दिन Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 10 Hindi Solutions Sanchayan Chapter 2 सपनों के-से दिन
JAC Class 10 Hindi सपनों के-से दिन Textbook Questions and Answers
बोध-प्रश्न –
प्रश्न 1.
कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं बनती-पाठ के किस अंश से यह सिद्ध होता है?
उत्तर :
लेखक के अनुसार कोई भी भाषा आपसी व्यवहार में बाधा नहीं डाल सकती। लेखक बचपन में जहाँ रहता था, वहाँ पर अधिकतर घर राजस्थान या हरियाणा से आकर बसे हुए लोगों के थे। वहाँ पर उन लोगों के व्यापार तथा दुकानदारी थी। उन लोगों की भाषा और रहन-सहन स्थानीय लोगों से भिन्न था। उनकी बोली बहुत कम समझ में आती थी। कुछ शब्द तो ऐसे थे, जिन्हें सुनकर हँसी आती थी। परंतु खेल के समय उन लोगों की भाषा में कोई अंतर नहीं आता था। वे सब एक-दूसरे की भाषा को अच्छी तरह समझ लेते थे। इसलिए लेखक ने कहा है कि भाषा आपसी व्यवहार में कोई बाधा नहीं बनती।
प्रश्न 2.
पीटी साहब की ‘शाबाश’ फ़ौज के तमगों-सी क्यों लगती थी? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
पीटी मास्टर प्रीतम चंद बहुत सख्त स्वभाव और अनुशासन में रहने वाले व्यक्ति थे। वे छोटी-से-छोटी गलती पर भी बच्चों को बुरी
तरह मारते थे। बच्चों ने उन्हें कभी भी हँसते या मुस्कुराते हुए नहीं देखा था। वे उनसे बहुत डरते थे कि पता नहीं कब ‘खाल खींचने’ वाला मुहावरा प्रत्यक्ष हो जाए। बच्चों को स्काउटिंग की परेड का अभ्यास करवाते समय यदि कोई गलती नहीं होती थी, तो वे बच्चों को ‘शाबाश’ कहते थे। बच्चों को वह शाबाश फ़ौज के तमगों जैसी लगती थी। बच्चों को लगता कि उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण कार्य अच्छे : ढंग से संपन्न किया है, जिस कारण पीटी साहब से शाबाश रूपी तमगा मिला है।
प्रश्न 3.
नयी श्रेणी में जाने और नयी कॉपियों और पुरानी किताबों से आती विशेष गंध से लेखक का बालमन क्यों उदास हो उठता था?
उत्तर :
लेखक को नई श्रेणी में जाने का कोई उत्साह नहीं होता था। उसे नई कॉपियों और पुरानी किताबों में से एक अजीब-सी गंध आती थी। वह उस गंध को कभी नहीं समझ सका लेकिन वह गंध उसे उदास कर देती थी। इसके पीछे कारण हो सकता है कि नई श्रेणी की पढ़ाई मास्टरों से पड़ने वाली मार का भय उसके मन में गहरी जड़ें जमा चुका था, इसलिए नई कक्षा में जाने पर लेखक को खुशी नहीं होती थी। पाठ को अच्छी तरह समझ न आने पर मास्टरों से चमड़ी उधेड़ने वाले मुहावरों को प्रत्यक्ष होते हुए देखना ही उसे अंदर तक उदास कर देता था।
प्रश्न 4.
स्काउट परेड करते समय लेखक अपने को महत्वपूर्ण ‘आदमी’ फ़ौजी जवान क्यों समझने लगता था?
उत्तर :
लेखक को अपने स्कूल में यदि कुछ अच्छा लगता था तो वह था-स्काउट परेड। स्काउट परेड के लिए धोबी से धुली खाकी वर्दी और पॉलिश किए जूते पहनने को मिलते थे। परेड करते समय मास्टर प्रीतम चंद विह्सल बजाते हुए लेफ्ट-राइट, राइट टर्न या लेफ्ट टर्न या अबाउट टर्न कहते थे। उस समय छोटे बूटों की एड़ियों पर दाएँ-बाएँ या एकदम पीछे मुड़कर बूटों की ठक-ठक से आगे बढ़ते जाना उन्हें अच्छा लगता था। उस समय वे स्वयं को विद्यार्थी नहीं फ़ौजी जवान समझते थे।
प्रश्न 5.
हेडमास्टर शर्मा जी ने पीटी साहब को क्यों मुअत्तल कर दिया?
उत्तर :
पीटी उन्हें मास्टर प्रीतम चंद चौथी कक्षा को फ़ारसी भाषा पढ़ाते थे। बच्चों के लिए फ़ारसी भाषा अंग्रेज़ी से भी कठिन थी। फ़ारसी पढ़ाते हुए उन्हें अभी एक सप्ताह हुआ था कि उन्होंने चौथी कक्षा के छात्रों को एक शब्द-रूप याद करके लाने और अगले दिन सुनाने का आदेश दिया। शब्द-रूप बहुत कठिन था। मार के डर से बच्चे सारा दिन शब्द-रूप याद करते रहे, परंतु वह उन्हें याद नहीं हुआ। अगले दिन कोई भी बच्चा शब्द-रूप नहीं सुना पाया। पीटी साहब ने अपने सख्त स्वभाव के अनुरूप बच्चों को झुककर टाँगों में से बाँहें निकालकर कान पकड़ने की सजा सुनाई। कमजोर बच्चे तीन-चार मिनट में ही थकने लगे। हेडमास्टर शर्मा जी ने जब यह दृश्य देखा, तो उन्हें सहन नहीं हुआ। उन्होंने पीटी साहब को बच्चों के साथ बुरा व्यवहार करने पर मुअत्तल कर दिया।
प्रश्न 6.
लेखक के अनुसार उन्हें स्कूल खुशी से भागे जाने की जगह न लगने पर भी कब और क्यों उन्हें स्कूल जाना अच्छा लगने लगा?
अथवा
स्कूल किस प्रकार की स्थिति में अच्छा लगने लगता है और क्यों?
उत्तर :
लेखक को स्कूल कभी भी ऐसी जगह नहीं लगता था, जहाँ खुशी से जाया जाए। स्कूल जाना उसके लिए एक सज़ा के समान था। परंतु एक-दो अवसर ऐसे होते थे, जब उसे स्कूल जाना अच्छा लगता था। पीटी मास्टर जब स्कूल में स्काउटिंग की परेड का अभ्यास करवाते थे, उस समय वे बच्चों के हाथों में नीली-पीली झंडियाँ पकड़ा देते थे। मास्टर जी के वन, टू, थ्री कहने पर बच्चे झंडियों को ऊपर नीचे, दाएँ-बाएँ करते थे। उस समय हवा में लहराती हुई झंडियाँ बच्चों को अच्छी लगती थीं। उन्हें पहनने के लिए खाकी वर्दी और पॉलिश किए जूते मिलते थे। गले में दोरंगा रूमाल पहनने को मिलता था। उस समय स्कूल के सभी बच्चे खुशी-खुशी स्कूल जाते थे।
प्रश्न 7.
लेखक अपने छात्र जीवन में स्कूल से छुट्टियों में मिले काम को पूरा करने के लिए क्या-क्या योजनाएँ बनाया करता था और उसे पूरा न कर पाने की स्थिति में किसकी भाँति बहादुर बनने की कल्पना किया करता था?
उत्तर :
लेखक के छात्र जीवन में अप्रैल से स्कूल आरंभ होते थे। डेढ़ महीना स्कूल जाने के बाद उन्हें डेढ़-दो महीने की छुट्टियाँ होती थीं। पहला एक महीना वे खेल-कूद में व्यतीत करते थे या फिर अपनी माँ के साथ ननिहाल जाते थे। यदि ननिहाल नहीं जाते, तो घर के पास तालाब में नहाते और पास के टीले की रेत से खेलते थे। रेत से खेलना और तालाब में नहाने का क्रम अनगिनत बार चलता था।
जब छुट्टियों का एक महीना शेष बचता था, तो स्कूल से मिले काम की याद आने लगती थी। हिसाब वाले मास्टर दो सौ से कम सवाल नहीं देते थे। वे दस सवाल हर रोज़ करने की योजना बनाते। इस प्रकार दो सौ सवाल बीस दिन में पूरे हो जाएंगे, ऐसा सोचकर फिर खेल में लग जाते थे। इस प्रकार पंद्रह दिन निकल जाते थे। फिर वे पंद्रह सवाल प्रतिदिन करने की सोचते थे। लेखक के कई साथियों को छुट्टियों में स्कूल का काम करने की अपेक्षा मास्टर के हाथों से मार खाना सस्ता सौदा लगता था। लेखक के साथियों में ‘ओमा’ नाम का एक साथी था, जो बहुत बहादुर था। लेखक भी काम करने की अपेक्षा ‘ओमा’ की तरह बहादुर बनकर मार खाने के लिए तैयार हो जाता था।
प्रश्न 8.
पाठ में वर्णित घटनाओं के आधार पर पीटी सर की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
पाठ में वर्णित घटनाओं के आधार पर पीटी सर की चारित्रिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं –
1. व्यक्तित्व – मास्टर प्रीतम चंद देखने में दुबले-पतले लगते थे, परंतु उनका शरीर गठीला था। उनका कद छोटा था। चेहरे पर माता के दाग थे। उनकी आँखें बाज़ जैसी तेज़ थीं। वे खाकी वर्दी और फ़ौजियों वाले भारी-भरकम बूट पहनते थे। बूटों की ऊँची एड़ियों – के नीचे खुरियाँ लगी रहती थीं। पंजों के नीचे मोटे सिरों वाले कील लगे हुए थे। उनका पूरा व्यक्तित्व बच्चों को भयभीत करने वाला था।
2. अनुशासन पसंद – मास्टर प्रीतम चंद अनुशासन में रहना पसंद करते थे। उन्हें अनुशासनहीनता पसंद नहीं थी। स्कूल में प्रार्थना के समय सभी लड़के कद के अनुसार कतारों में सीधे खड़े होते थे। यदि कोई लड़का हिलता हुआ दिखाई दे जाता था, तो मास्टर प्रीतम चंद उस लड़के को वहीं बुरी तरह मारने लगते थे।
3. कठोर स्वभाव – मास्टर प्रीतम चंद का स्वभाव बहुत कठोर था। बच्चे उनसे बहत डरते थे। बच्चों ने उन्हें कभी हँसते या मुस्कुराते हुए नहीं देखा था। स्काउटिंग की परेड का अभ्यास करवाते समय यदि कोई गलती नहीं होती, तो वे बच्चों को ‘शाबाश’ कहते थे। बच्चों के लिए वह ‘शाबास’ किसी फ़ौजी तमगे से कम नहीं होती थी। पीटी साहब के मुंह से निकली ‘शाबाश’ सारा साल कॉपियों पर मास्टरों से मिलने वाली ‘गुडों’ से ऊपर होती थी।
4. भावना रहित – मास्टर प्रीतम चंद में मानवीय भावनाएँ बिलकुल नहीं थीं। वे छोटे-छोटे बच्चों को छोटी-से-छोटी गलती पर बड़ी-से-बड़ी सजा देने में झिझकते नहीं थे। एक बार मास्टर प्रीतम चंद ने चौथी कक्षा के बच्चों को शब्द-रूप याद करके न आने पर उन्हें झुककर टाँगों के पीछे से बाँहें निकालकर कान पकड़ने की सजा दी। कमजोर और छोटे बच्चे तीन-चार मिनट में ही जलन और थकान के कारण गिर पड़े, परंतु मास्टर जी पर इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। अपने इसी अमानवीय व्यवहार के कारण उन्हें हेडमास्टर शर्मा जी ने नौकरी से निकाल दिया था।
5. पक्षी प्रेम – मास्टर प्रीतम चंद को छोटे-छोटे बच्चों के साथ कोई दया या प्रेम नहीं था, परंतु उन्हें पक्षियों से प्रेम था। उन्होंने दो तोते पाले हुए थे। वे उन तोतों को बादाम की गिरियाँ खिलाते और उनसे मीठी-मीठी बातें करते थे। पीटी साहब का पक्षियों से मीठी-मीठी बातें करना बच्चों को एक चमत्कार लगता था। जो अध्यापक स्कूल में बच्चों को निर्दयता से मारे और घर में पक्षियों के साथ अच्छा व्यवहार करे, यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। पीटी साहब को अपने कठोर और अमानवीय स्वभाव के कारण ही स्कूल से मुअत्तल किया गया था। उन्हें अपनी गलती पर कोई पछतावा नहीं था।
प्रश्न 9.
विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए पाठ में अपनाई गई युक्तियों और वर्तमान में स्वीकृत मान्यताओं के संबंध में अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर :
लेखक के अनुसार उनके साथ विद्यार्थी जीवन में बहुत कठोर और अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उनके मन में अध्यापकों की मार का इतना डर बैठ गया था कि उन्हें नई कक्षा में जाने की कोई खुशी नहीं होती थी। स्कूल उन्हें एक जेल के समान लगता था, जहाँ वे कैद की सजा काटने के लिए जाते थे। अधिकतर बच्चे स्कूल जाने की अपेक्षा माँ-बाप के साथ उनके काम में हाथ बँटाना अधिक उचित मानते थे।
वर्तमान समय में स्कूल के अध्यापक बच्चों को कठोर शारीरिक दंड नहीं देते। यदि कोई अध्यापक ऐसा करता है, तो उस पर कानूनी कार्यवाही की जा सकती है। वर्तमान में अध्यापकों को बच्चों के मनोविज्ञान को समझने का प्रशिक्षण दिया जाता है। पढ़ाई में कमजोर बच्चों के साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए, उन्हें प्रशिक्षण के समय सिखाया जाता है।
यदि कोई शरारती बच्चा हो, जो प्यार से समझाने से भी नहीं समझता, उस पर माँ-बाप के कहने पर ही सख्ती की जाती है या उसे बाल मनोचिकित्सक से परामर्श करने का सुझाव दिया जाता है। वर्तमान समय में बच्चों को आने वाले कल का निर्माता समझा जाता है। इसलिए उनके मन में स्कूल के प्रति भय को निकालने के लिए स्कूल का वातावरण खुशहाल बनाया जाता है जिससे बच्चों का शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास हो सके।
प्रश्न 10.
बचपन की यादें मन को गुदगुदाने वाली होती हैं विशेषकर स्कूली दिनों कीं। अपने अब तक के स्कूली जीवन की खट्टी-मीठी यादों को लिखिए।
उत्तर :
बचपन की यादें कभी किसी को नहीं भूलतीं। उन दिनों मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था। घर से स्कूल के रास्ते में एक बड़ी-सी कोठी थी। उसमें बाहरी दीवार के पास फलों के अनेक पेड़ उगे थे। मैं अपने मित्रों के साथ बाहर से पत्थर फेंककर फलों को प्रायः तोड़ने की कोशिश करता था। कभी-कभी कोई फल टूटकर बाहर भी आ गिरता था और हम उस कच्चे-पक्के फल को पाकर इतने प्रसन्न हुआ करते थे, जैसे हमें कोई खजाना मिल गया हो।
हमारे घर के पास एक जोहड़ था। हम हर रोज़ उसके किनारे बैठकर उसमें तैरते-उछलते मेंढकों को घंटों देखा करते थे। वे कभी पानी में डुबकी लगाते थे, तो कभी किनारे पर आ जाते थे। जब वे गले की झिल्ली फुलाकर टर्र-टरी किया करते थे, तो हमें बड़ा मज़ा आता था।
प्रश्न 11.
प्रायः अभिभावक बच्चों को खेल-कूद में ज्यादा रुचि लेने पर रोकते हैं और समय बरबाद न करने की नसीहत देते हैं। बताइए –
(क) खेल आपके लिए क्यों जरूरी हैं?
(ख) आप कौन से ऐसे नियम-कायदों को अपनाएँगे जिससे अभिभावकों को आपके खेल पर आपत्ति न हो?
उत्तर :
(क) जीवन में खेल का बहुत महत्व है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए खेल परम आवश्यक है। स्वस्थ शरीर वाला व्यक्ति संसार के सभी सुखों को प्राप्त करता है। खेल-कूद से शरीर ही स्वस्थ नहीं रहता अपितु उसका बौद्धिक विकास भी होता है। इससे मनुष्य को मानसिक थकावट नहीं होती; शरीर में स्फूर्ति आती है; शिथिलता और आलस्य दूर भागता है। खेलने से बच्चों में एकता की भावना का विकास होता है। उनमें मिल-जुलकर रहने की आदत का विकास होता है। दूसरे बच्चों के साथ खेलने से बच्चे अकेलेपन का शिकार नहीं होते। खेल से बच्चों में नेतृत्व, अनुशासन, धैर्य, सहनशीलता, मेल-जोल, सहयोग आदि के गुण स्वतः ही विकसित हो जाते हैं। इसलिए बच्चों के लिए खेल ज़रूरी है।
(ख) खेल से बच्चों का शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास होता है। परंतु अधिक खेलना बच्चों के भविष्य के लिए खतरनाक है। इसलिए बच्चों के लिए कुछ ऐसे नियम बनाने चाहिए, जिससे उनके खेलने और पढ़ाई में संतुलन बना रहे। बच्चों को खेलने का समय निर्धारित करना चाहिए। खेलने से पहले उन्हें अपना स्कूल का कार्य समाप्त कर लेना चाहिए। इससे अभिभावकों को भी उनके खेलने से परेशानी नहीं होगी। खेलने के बाद कुछ शारीरिक थकावट अवश्य होती है, परंतु कुछ देर आराम करने के बाद शरीर और दिमाग ताजगी से भर जाते हैं।
उस समय स्कूल से मिले अन्य कार्य पूरे किए जा सकते हैं तथा माता-पिता के कार्य में उनकी सहायता की जा सकती है। बच्चों को ऐसे खेल खेलने चाहिए जिनमें चोट लगने का डर न हो। उन्हें सड़क के बीच में नहीं खेलना चाहिए। खेल ऐसे न हों, जिनसे उन्हें या दूसरों को कोई नुकसान पहुँचे। खेलने के लिए खुले स्थान का चुनाव करना चाहिए, जो घर से अधिक दूर न हो। यदि बच्चे अपने बनाए नियमों का उचित ढंग से पालन करें, तो अभिभावक भी उनको खेलने से मना नहीं करेंगे। अभिभावकों को भी पता होता है कि खेलने से बच्चों में शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक गुणों का विकास होता है।
JAC Class 10 Hindi सपनों के-से दिन Important Questions and Answers
प्रश्न 1.
लेखक के साथ खेलने वाले बच्चों की हालत कैसी होती थी?
उत्तर :
लेखक के साथ खेलने वाले सभी बच्चों का हाल एक जैसा होता था। बच्चों के पैर नंगे होते थे। उन्होंने फटी-मैली कच्छी पहनी होती थी। उनके कुर्ते बिना बटनों के होते थे। कई बच्चों के कुर्ते फटे हुए भी होते थे। अधिकतर बच्चों को खेलते समय चोट लग जाती थी। चोट लगने पर घर पहुँचकर माँ, बहन या पिताजी से बहुत मार पड़ती थी। किसी को भी चोट में से बहते खून को देखकर तरस नहीं आता था।
प्रश्न 2.
लेखक के समय में अभिभावक बच्चों को स्कूल भेजने में दिलचस्पी क्यों नहीं लेते थे?
उत्तर :
लेखक के समय में बच्चों या अभिभावकों को स्कूल में कोई खास दिलचस्पी नहीं होती थी। जिन बच्चों की पढ़ाई में रचचि नहीं होती थी, वह अपना बस्ता किसी तालाब में फेंक आते और फिर कभी स्कूल नहीं जाते थे। अभिभावक भी बच्चों को अपने साथ अपने काम में लगा लेते थे। उनके अनुसार पढ़-लिखकर उन्होंने कौन-सा तहसीलदार बनना था। उनकी यही सोच बच्चों को स्कूल से दूर रखती थी।
प्रश्न 3.
“बचपन में घास अधिक हरी और फूलों की सुगंध अधिक मनमोहक लगती है”-लेखक ने ऐसा क्यों कहा?
उत्तर :
बचपन में बच्चे हर प्रकार के भेदभाव, समस्याओं तथा छल-कपट से दूर होते हैं। उनकी अपनी अलग दुनिया होती है, जिसमें वे मस्त रहते हैं। वे इस बात से बेखबर होते हैं कि उनके आस-पास के संसार में क्या हो रहा है। वे अपने दुख में दुखी और अपनी खुशी में खुश होते हैं, इसलिए उनके लिए अपने आस-पास का वातावरण अधिक खुशगवार और सुहावना होता है। उन्हें पतझड़ में भी बहार दिखाई देती है। बचपन में बच्चे अल्हड़ और अलमस्त होते हैं, इसलिए उन्हें घास अधिक हरी और फूलों की सुगंध अधिक मनमोहक लगती है।
प्रश्न 4.
लेखक को बचपन में स्कूल जाते समय किन-किन चीज़ों की महक आज भी याद है?
उत्तर :
लेखक को अपने बचपन के दिन और स्कूल आज भी अच्छी तरह याद हैं। कुछ चीज़ों की महक उसे आज भी अच्छी तरह से याद है। उनके स्कूल के अंदर जाने के रास्ते के दोनों ओर अलियार के बड़े ढंग से कटे-छाँटे झाड़ उगे हुए थे। उनमें से आने वाली नीम के पत्तों जैसी महक लेखक आज भी आँख बंद करके अनुभव कर सकता है। स्कूल की क्यारियों में कई तरह के फूल लगे होते थे। उन फूलों को वे चपरासी की नज़र बचाकर तोड़ लेते थे। उन फूलों की तेज़ गंध को भी लेखक आँख बंद करके अनुभव कर सकता है।
प्रश्न 5.
लेखक बचपन में अपनी छुट्टियों को किस प्रकार व्यतीत करता था?
अथवा
तालाब में तैरने का आनंद लेखक कैसे लेता था?
उत्तर :
लेखक अपनी छुट्टियाँ खेलने-कूदने में व्यतीत करता था। छुट्टियाँ होते ही वह अपनी माँ के साथ नाना के घर चला जाता था। वहाँ का तालाब भी उनके घर के पास वाले तालाब जितना ही बड़ा था। दोपहर तक तालाब पर नहाते थे, फिर घर आकर नानी से कुछ भी माँगकर खा लेते थे। जिस साल लेखक नाना के घर नहीं जाता था, उस साल अपने घर के पास बने तालाब में मित्रों के साथ नहाता था। तालाब में नहाकर वे पास के टीले की रेत में खेलते थे। उस टीले की गरम रेत को अपने शरीर पर लगाते थे। फिर रेत को धोने के लिए तालाब में छलाँग लगाते थे। ऐसा दिन में कितनी बार करते थे, यह उन्हें याद नहीं था। ऐसे ही उनकी छुट्टियाँ खेल-कूद में बीत जाती थीं।
प्रश्न 6.
पाठ में वर्णित ‘ओमा’ का व्यक्तित्व कैसा था?
अथवा
ओमा का लड़ाई करने का क्या ढंग था?
उत्तर :
लेखक के साथियों में ‘ओमा’ उनका नेता था। ओमा बहुत बहादुर था। वह किसी से नहीं डरता था। उस जैसा लड़का उनके समूह में नहीं था। ओमा’ की सूरत सबसे भिन्न थी। उसका सिर बहुत बड़ा था, ऐसा लगता था जैसे बड़ा मटका हो। उसका कद छोटा था, इसलिए छोटे कद पर बड़ा सिर अजीब लगता था। उसका सिर जितना बड़ा था, चेहरा उतना ही छोटा था। उसकी बातें, गालियाँ और मारपीट का ढंग अलग ही था। वह अपने हाथ-पैरों से नहीं लड़ता था। वह अपने सिर से लड़ने वाले की छाती पर वार करता था। उससे दुगुने शरीर वाले लड़के भी उसके वार को सहन नहीं कर सकते थे। उसके सिर की चोट पड़ते ही लड़के दर्द से चिल्लाने लगते थे। उसके सिर की टक्कर को लड़के ‘रेल-बम्बा’ कहकर बुलाते थे।
प्रश्न 7.
हेडमास्टर शर्मा जी का स्वभाव कैसा था?
उत्तर :
हेडमास्टर शर्मा जी का स्वभाव सरल था। वह कभी किसी की पिटाई नहीं करते थे। वह पाँचवीं कक्षा से लेकर आठवीं कक्षा तक के छात्रों को अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। वह उस समय के मास्टरों से भिन्न थे। वे बच्चों की चमड़ी उधेड़ने में विश्वास नहीं करते थे। यदि उन्हें किसी बच्चे पर क्रोध आ भी जाता तो वे जल्दी आँखें सकपकाने लगते थे। अपने हाथ से इस प्रकार थप्पड़ लगाते थे, जैसे हाथ में नमकीन पापड़ी पकड़ ली हो। बच्चों को उनके पीरियड में पढ़ना सबसे अधिक अच्छा लगता था।
प्रश्न 8.
लेखक के परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर किस प्रकार उसकी पढ़ाई पूरी हुई थी?
उत्तर :
लेखक के परिवार की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी। उस समय एक-दो रुपये में सारी किताबें आ जाया करती थीं, परंतु यह उस समय में बड़ी रकम समझी जाती थी, जिससे घर का गुजारा अच्छी तरह हो सकता था। इसलिए उन दिनों अमीर परिवारों के बच्चे स्कूल जाया करते थे। लेखक अपने दो परिवारों में पहला लड़का था, जो स्कूल जाने लगा था। उसके परिवार की स्थिति देखते हुए हेडमास्टर शर्मा जी एक अमीर बच्चे की किताबें लाकर उसको दे देते थे। कॉपियों, पेंसिलों, होल्डर या स्याही-दवात पर साल भर में मुश्किल से एक या दो रुपये खर्च होता था। यदि हेडमास्टर शर्मा जी उसकी मदद नहीं करते, तो उसकी तीसरी-चौथी कक्षा में ही पढ़ाई छूट जाती।
प्रश्न 9.
आज का बचपन लेखक के बचपन से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर :
आज का बचपन लेखक के बचपन से बहुत भिन्न है। आजकल के बच्चों के पास पहले के बच्चों की तरह न खेलने का समय है आज और न ही खुला स्थान है। बच्चों को बचपन से ही बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर या कुछ और बनने के लिए उकसाया जाता है, जिससे बच्चे महत्वाकांक्षी बन जाते हैं। वे भी अपना भविष्य बनाने के लिए खेल-कूद को बेकार समझने लगते हैं। आज के बच्चे लेखक के मस्त, अल्हड़ या ब समाप्त होती जा रही है। बच्चों के सार्वभौमिक विकास के लिए उन्हें पढ़ाई के साथ-साथ खेलने के लिए भी प्रेरित करना चाहिए, जिससे वे बड़े होकर एक अच्छा नागरिक बन देश और समाज के निर्माण में अपना योगदान दे सकें।
प्रश्न 10.
ननिहाल जाने पर लेखक को क्या सुख मिलता था?
उत्तर :
छुट्टियों में लेखक अपनी माँ के साथ ननिहाल चला जाता था। वहाँ नानी उसे खूब दूध, दही, मक्खन खिलाती थी। वह उसे बहुत प्यार करती थी। वहाँ वह तालाब में खब नहाता और बाद में नानी से जो मन में आता, माँगकर खाता था।
प्रश्न 11.
फ़ौज में भर्ती करने के लिए अफ़सरों के साथ नौटंकी वाले क्यों आते थे?
उत्तर :
लेखक जहाँ रहता था, वहाँ के लोगों को अंग्रेज़ ‘जबरन’ फ़ौज में भर्ती नहीं कर पा रहे थे। इसलिए लोगों को फ़ौज में भर्ती होने का लालच देने के लिए वे नौटंकी वालों के साथ आते और रात को गाँव में खुले मैदान में शामियाने लगाकर नौटंकी वालों से फ़ौज के सुख-आराम, बहादुरी आदि के दृश्यों का मंचन करवाते थे। इसके साथ ही कुछ मसखरे गाने भी गाते थे, जिनसे आकर्षित होकर कई नौजवान फ़ौज में भर्ती होने के लिए तैयार हो जाते थे।
प्रश्न 12.
स्कूल की पिटाई का डर भुलाने के लिए लेखक क्या सोचा करता था ?
उत्तर :
स्कूल की पिटाई का डर भुलाने के लिए लेखक उन बहादुर लड़कों के समान यह सोचा करता था कि छुट्टियों का काम करने की बजाय मास्टरों की पिटाई अधिक सस्ता सौदा है। ऐसे में उसे ओमा याद आ जाता था, जो उन जैसे सब लड़कों का नेता था।
प्रश्न 13.
हेडमास्टर साहब का विद्यार्थियों के साथ कैसा व्यवहार था?
उत्तर :
हेडमास्टर शर्मा जी का अपने विद्यार्थियों के साथ व्यवहार अत्यंत मृदुल था। वे पाँचवीं और आठवीं कक्षा को अंग्रेजी पढ़ाते थे। वे कभी भी किसी विद्यार्थी को डाँटते नहीं थे। जब कभी उन्हें गुस्सा आता, तो वे बहुत जल्दी-जल्दी अपनी आँखें झपकाते हुए उल्टी उँगलियों से एक हल्की-सी चपत लगा देते थे। यह चपत विद्यार्थियों को भाई भीखे की नमकीन पापड़ी जैसी मज़ेदार लगती थी।
सपनों के-से दिन Summary in Hindi
पाठ का सार :
‘सपनों के-से दिन’ पाठ के लेखक ‘गुरदयाल सिंह’ हैं। इस पाठ के माध्यम से लेखक ने अपने स्कूल के दिनों का वर्णन किया है। बच्चों को स्कूल की पढ़ाई से अधिक साथियों के साथ खेलना अच्छा लगता है। स्कूल उन्हें जेल के समान प्रतीत होता है। लेखक बचपन में जिन बच्चों के साथ खेलता था, उन सभी की पारिवारिक स्थिति लगभग एक जैसी थी। प्राय: सभी बच्चे मैली कच्छी और टूटे बटनों वाला कुर्ता पहने हुए होते थे। खेलते हुए प्रायः घुटने, पैर और पिंडलियों पर चोट लग जाती थी। चोट लगने पर घर में किसी को तरस नहीं आता था।
चोट देखकर माँ, बहन या पिता के हाथ से जोरदार पिटाई होती थी। पिटाई होने के बावजूद बच्चे फिर अगले दिन खेलने के लिए तैयार हो जाते थे। लेखक और उसके साथियों में से अधिकतर बच्चों को स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था। उन दिनों यदि बच्चों को स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था, तो माँ-बाप भी उनके साथ जबरदस्ती । नहीं करते थे। वे भी बच्चों को अपने साथ काम में लगा लेते थे।
थोड़ा-सा बड़े होने पर वे बच्चों को बहीखाते का हिसाब-किताब सिखा देना आवश्यक समझते थे। बचपन में बच्चों को सबकुछ अच्छा लगता था, केवल उन्हें स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता था। लेखक को अपने स्कूल जाने का रास्ता याद था, जिसके दोनों ओर काँटेदार झाड़ियाँ थीं। उनके पत्तों की महक नीम जैसी थी, जिसे लेखक आज भी अपनी साँसों में अनुभव करता है। स्कूल की क्यारियों में कई तरह के फूल लगे हुए थे, जिन्हें वे लोग चपरासी की नज़र बचाकर तोड़ लेते थे।
उन फूलों की खुशबू आज भी याद है। नई कक्षा में जाना अच्छा लगता था, परंतु साथ में डर भी लगता था कि मास्टरों से पहले से अधिक मार पड़ेगी। उन दिनों स्कूल में डेढ़ महीना पढ़ाई होने के बाद डेढ़-दो महीने की छुट्टियाँ होती थीं। छुट्टियों के शुरू के दो-तीन सप्ताह खेलने में बीत जाते थे। वे अपनी माँ के साथ नाना के घर जाकर छुट्टियों का भरपूर आनंद लेते थे। यदि किसी कारण नाना के घर नहीं जाते थे, तो घर के पास बने तालाब में सारा दिन खेलते थे।
तालाब में नहाकर गीले बदन ही पास में पड़ी रेत में खेलते और फिर से तालाब में कूद जाते। ऐसा वे एक बार नहीं, न जाने कितनी बार करते थे। उनमें कोई भी अच्छा तैराक नहीं था। यदि कोई बच्चा गहरे पानी में चला जाता था, तो दूसरे बच्चे उसे भैंस के सींग या पूँछ पकड़कर बाहर आने की सलाह देते थे। इसी तरह छुट्टियों का एक महीना बीत जाता था। एक महीना शेष रहने पर स्कूल से मिले काम की याद आने लगती थी। हिसाब के अध्यापक दो सौ सवाल करके लाने के लिए कहते थे। बच्चे अपने मन में हिसाब लगाते थे कि यदि दस सवाल भी प्रतिदिन किए जाएँ, तो बीस दिन में काम समाप्त हो जाएगा। इसलिए दस दिन और खेला जा सकता है।
दस की बजाय पंद्रह दिन खेल में निकल जाते थे। पंद्रह सवाल प्रतिदिन करने की सोचकर एक-दो दिन और खेल में निकल जाते थे। ऐसे ही हिसाब लगाते लगाते छुट्टियाँ कम होती जाती थीं और स्कूल जाने का भय सताने लगता था। कुछ सहपाठियों को छुट्टियों में काम करने की अपेक्षा स्कूल में मास्टर के हाथ से मार खाना अधिक सस्ता सौदा लगता था। लेखक जो पिटाई से डरता था, वह भी उनकी संगत में रहकर उनकी तरह सोचने लगता था। उनका नेता ‘ओमा’ था। ‘ओमा’ की सभी बातें अलग ढंग की थीं।
लड़ाई में उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता था। लेखक का स्कूल बहुत छोटा था। उसमें केवल नौ कमरे थे। दाईं ओर से पहला कमरा मुख्याध्यापक श्री मदनमोहन शर्मा का था। पीटी मास्टर प्रीतम चंद की पिटाई के डर से सभी बच्चे प्रार्थना में सीधे कतारों में खड़े रहते थे। यदि कोई बच्चा उसे पीटी मास्टर बुरी तरह पीटते थे। मास्टर प्रीतम चंद से विपरीत स्वभाव वाले हेडमास्टर शर्मा थे। वे कभी किसी बच्चे को नहीं मारते थे। वे पाँचवीं कक्षा से आठवीं कक्षा तक के छात्रों को अंग्रेजी पढ़ाते थे। लेखक को अपना स्कूल कभी पसंद नहीं आया।
पहली कक्षा से लेकर चौथी कक्षा तक अधिकतर बच्चे स्कूल रोते हुए जाते थे। उन्हें स्कूल स्काउटिंग का अभ्यास करते समय अच्छा लगता था। पीटी मास्टर अभ्यास करवाते समय नीली-पीली झंडियाँ बच्चों के हाथों में दे देते थे। अभ्यास के समय वे खाकी वर्दी के साथ गले में दो रंगा रूमाल पहनते थे। जब कभी अभ्यास करते हुए पीटी मास्टर के मुँह से ‘शाबाश’ का शब्द सुनने को मिल जाता, तो उस समय ऐसा लगता जैसे फौज में मिलने वाले सभी तमगे उन्हें मिल गए हों।
लेखक के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए हेडमास्टर शर्मा एक अमीर परिवार के लड़के की किताबें लाकर उसे दे देते थे। अपने स्कूल के हेडमास्टर के कारण ही लेखक अपनी शुरू की पढ़ाई पूरी कर सका। लेखक अपने परिवार का पहला लड़का था, जो स्कूल जाने लगा था। लेखक को नई कक्षा में जाने पर कभी कोई खुशी अनुभव नहीं होती थी। उसे किताबों और कॉपियों में से अजीब-सी गंध आती थी, जिससे उसका मन उदास हो जाता था। इसका कारण उसे आज भी समझ में नहीं आता।
इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते थे; जैसे-आगे की पढ़ाई का कठिन होना या नए मास्टरों से मार का भय। यह भय मन के अंदर गहरी जड़ें जमा चुका था। इसलिए लेखक को नई कक्षा में जाने का कोई उत्साह नहीं होता था। उसे स्कूल उस समय अच्छा लगता था, जब मास्टर प्रीतम चंद उनसे परेड करवाते थे। फ़ौजी वर्दी पहनकर वे स्वयं को महत्वपूर्ण व्यक्ति समझने लगते थे। दूसरे विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों ने 1923 में नाभा रियासत के राजा को तमिलनाडु के कोडाएकेनाल में गिरफ्तार कर लिया था। उनका बेटा बाहर पढ़ता था, इसलिए रियासत में अंग्रेज़ी शासन की चलती थी।
उस समय अंग्रेजी फौज़ में भर्ती करने के लिए कुछ अफसर नौटंकी वालों को अपने साथ लेकर गाँव-गाँव जाते थे वे ग्रामीण लोगों को नौटंकी वालों के माध्यम से फौज़ में भर्ती होने के लाभ दिखाते थे, जिससे लालच में आकर अनेक लोग फौज़ में भर्ती हो जाते थे। लेखक को भी स्काउटिंग की परेड में जब धुली वर्दी और पॉलिश किए बूट मिलते थे, तो वह स्वयं को फौजी से कम नहीं समझता था। बच्चों ने कभी मास्टर प्रीतम चंद को हँसते या मुस्कुराते हुए नहीं देखा था। उनका व्यक्तित्व और फौज़ी पहनावा बच्चों को भयभीत करने वाला था। बच्चे उनसे डरते ही नहीं थे अपितु नफ़रत भी करते थे। मास्टर प्रीतम चंद चौथी कक्षा के बच्चों को फ़ारसी पढ़ाते थे। एक दिन उन्होंने सभी बच्चों को शब्द-रूप याद करने के लिए कहा।
अगले दिन उन्होंने सब बच्चों से शब्द-रूप सुने, परंतु किसी भी बच्चे को पूरी तरह शब्द-रूप याद नहीं थे। मास्टर जी ने सभी बच्चों को टाँगों के पीछे से बाँहें निकालकर कान पकड़ने और पीठ ऊँची करने के लिए कहा। कमजोर बच्चे सहन नहीं कर सके; तीन चार मिनट बाद वे गिरने लगे थे। जब लेखक की बारी आई, उसी समय हेडमास्टर शर्मा जी उधर से निकले। उन्होंने पीटी सर को बच्चों से इतना बुरा व्यवहार करते देखा, तो उन्हें सहन नहीं हुआ। उन्होंने उन्हें बहुत डाँटा और उनकी शिकायत डायरेक्टर को लिखकर भेज दी।
जब तक ऊपर से आदेश नहीं आ जाते थे, तब तक पीटी सर स्कूल में नहीं आ सकते थे। लेकिन बच्चों के मन में फ़ारसी की घंटी बजते ही दहशत बैठ जाती थी। वह उस समय दूर होती थी, जब कक्षा में शर्मा जी या नौहरिया सर फ़ारसी पढ़ाने नहीं आ जाते थे। पीटी मास्टर कई दिनों तक स्कूल नहीं आए। वे बाजार में एक दुकान के ऊपर बने किराए के चौबारे में रहते थे। उन्होंने दो तोते पाले हुए थे। उन्हें नौकरी से निकाले जाने की कोई चिंता नहीं थी। वे अपने तोतों को बादाम खिलाते और उनसे मीठी-मीठी बातें करने में अपना दिन व्यतीत करते थे। बच्चों को यह एक चमत्कार लगता था कि जो मास्टर स्कूल में बच्चों को बुरी तरह मारता था, वह अपने तोतों के साथ कैसे मीठी बातें कर लेता था।
कठिन शब्दों के अर्थ :
लहू – खून, गुस्सैल – गुस्से वाले, ट्रेनिंग – प्रशिक्षण, लंडे – हिसाब-किताब लिखने की पंजाबी लिपि, बहियाँ – खाता, जिसमें हिसाब-किताब लिखा जाता है, – अनुभव, खेडण – खेलने के, सुगंध – खुशबू, बास – महक, फ़र्क – अंतर, चपड़ासी – चपरासी, ननिहाल – नाना का घर, दुम – पूँछ, दाढ़स – धीरज, गंदला – गंदा, कतार – पंक्ति, खाल खींचना – बुरी तरह मारना,
चपत – थप्पड़, तमगा – मेडल, डिसिप्लिन – अनुशासन, सतिगुर – सतगुरु, परमात्मा, धनाढ्य – अमीर, हरफनमौला – पारंगत, विद्वान, हर शिक्षा में निपुण, लेफ्ट-राइट – बायाँ-दायाँ, विह्सल – सीटी, टर्न – मुड़ना, रियासत – राज्य, जंग – लड़ाई, देहांत – स्वर्गवास, जबरन – ज़बरदस्ती, बलपूर्वक, अठे – यहाँ, उठै – वहाँ, लीतर – टूटे हुए पुराने जूते, बर्बरता – हैवानियत, बहुत बुरा व्यवहार, मुअत्तल – निलंबित, महकमाए तालीम – शिक्षा विभाग, मंजूरी – अनुमति बहाल करना – फिर से नौकरी पर रखना