Jharkhand Board JAC Class 12 History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 12 History Solutions Chapter 8 किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य
Jharkhand Board Class 12 History किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य In-text Questions and Answers
पृष्ठ संख्या 198
प्रश्न 1.
कृषि जीवन के उन पहलुओं का विवरण दीजिए जो बाबर को उत्तर भारत के इलाके की खासियत लगी।
उत्तर:
‘बाबरनामा’ के रचयिता बाबर के अनुसार भारत के कृषि समाज की यह विशेषता थी कि भारत में बस्तियाँ और गाँव, वस्तुतः शहर के शहर, एक क्षण में ही वीरान भी हो जाते थे और पुनः बस भी जाते थे वर्षों से बसे हुए किसी बड़े शहर के निवासी जो उसे छोड़कर चले जाते थे तथा वे लोग यह काम कुछ इस प्रकार करते थे कि डेढ़ दिनों के भीतर उनका हर नामोनिशान वहाँ से मिट जाता था।
दूसरी ओर, भारत के लोग यदि किसी स्थान पर बसना चाहते थे, तो उन्हें पानी के रास्ते खोदने की आवश्यकता नहीं होती थी; क्योंकि उनकी समस्त फसलें वर्षा के पानी में ही उगती थीं। चूँकि भारत की आबादी बेशुमार है, लोग उमड़ते चले आते थे। वे एक सरोवर या कुआँ बना लेते थे, उन्हें घर बनाने या दीवार खड़ी करने की भी आवश्यकता नहीं होती थी। यहाँ खस की घास बहुतायत में पाई जाती थी। यहाँ जंगल अपार थे तथा झोंपड़ियाँ बना ली जाती थीं। इस प्रकार अकस्मात् एक गाँव या शहर खड़ा हो जाता था।
पृष्ठ संख्या 199
प्रश्न 2.
सिंचाई के जिन साधनों का उल्लेख बाबर ने किया है, उनकी तुलना विजयनगर की सिंचाई व्यवस्था से कीजिए। इन दोनों अलग-अलग प्रणालियों में किस- किस तरह के संसाधनों की आवश्यकता पड़ती होगी? इनमें से किन-किन प्रणालियों में कृषि तकनीक में सुधार के लिए किसानों की भागेदारी आवश्यक होती होगी?
उत्तर:
बाबर के अनुसार शरद ऋतु की फसलें वर्षा के पानी से ही पैदा हो जाती थीं और बंसन्त ऋतु की फसलें तो तब भी पैदा हो जाती थीं, जब वर्षा बिल्कुल ही नहीं होती थी। छोटे पेड़ों तक बाल्टियों अथवा रहट के द्वारा पानी पहुँचाया जाता था। कुछ स्थानों पर रहट के द्वारा सिंचाई की जाती थी। रहट या लकड़ी के गुटकों पर बँधे घड़ों से कुओं से पानी निकाला जाता था रहट द्वारा निकाला गया कुओं का जल संकरा नाला खोदकर खेतों तक पहुँचाया जाता था।
उत्तर भारत में कुछ क्षेत्रों के लोग बाल्टियों से सिंचाई करते थे। विजयनगर में सिंचाई नहरों, झीलों, जलाशयों, बाँधों, वर्षा आदि के पानी से की जाती थी। बाबर के अनुसार सिंचाई के लिए रहट एवं बाल्टियों का प्रयोग किया जाता था। इसके लिए रस्सी, लकड़ी के गुटकों, घड़ों पहियों, बैलों, लकड़ी के कन्नों, बेलन आदि संसाधनों की आवश्यकता पड़ती थी। विजयनगर राज्य में जलाशयों, बाँधों, झीलों आदि के निर्माण के लिए फावड़े, टोकरियों, सीमेंट या कंकरीट, हजारों श्रमिकों, पाइपों आदि संसाधनों की आवश्यकता पड़ती थी।
सिंचाई की रहट प्रणाली, कुओं को खोदने, बैलों को पालने, चमड़े या लकड़ी की बाल्टियाँ बनाने के लिए किसानों की भागीदारी की आवश्यकता पड़ती थी। विजयनगर में तालाब बनाने, बाँध बनाने, जल आपूर्ति के लिए पाइप बनाने तथा जल धाराओं से पानी इकट्ठा करने आदि कार्यों में किसानों की भागीदारी की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। ये कार्य प्रायः शासकों द्वारा करवाए जाते थे।
पृष्ठ संख्या 201
प्रश्न 3.
चित्र (पृष्ठ 201, 8.3 ) में महिलाएँ और पुरुष क्या-क्या करते दिखाए गए हैं? गाँव की वास्तुकला का भी वर्णन कीजिए।
उत्तर:
चित्र में महिलाएँ सूत कातते, बर्तन बनाने की मिट्टी को साफ करते और उसे गूँथते तथा बच्चों की देखभाल करते हुए दर्शायी गई हैं। साथ ही, उन्हें भोजन पकाते और मसाला कूटते भी दिखाया गया है। पुरुष को खड़ा होकर सभी व्यवस्था पर नजर रखते हुए दिखाया गया है। गाँव में मिट्टी और ईंट के बने मकान दिखाई दे रहे हैं। कुछ झोपड़ियाँ भी हैं। मिट्टी से बने अन्न भण्डार भी दिखाई पड़ रहे हैं।
पृष्ठ संख्या 203
प्रश्न 4.
चित्रकार ने गाँव के बुजुर्गों और कर अधिकारियों में फर्क कैसे डाला है ? (चित्र 8.4 )
उत्तर:
- चित्र में गाँव के बुजुर्ग अधिक संख्या (11 सदस्य) में दिखाए गए हैं
- कुछ बुजुर्ग जमीन पर बैठे हुए हैं तथा कुछ खड़े हुए हैं
- अधिकारी संख्या में दो हैं तथा दोनों अच्छी वेशभूषा में दर्शाए गए हैं
- अधिकारी लोग प्रभावशाली दिखाई देते हैं
- अधिकारियों के सम्मुख अनेक दस्तावेज दिखाए गए हैं।
पृष्ठ संख्या 204
प्रश्न 5.
चित्र में दर्शायी गयी गतिविधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
- चित्र में कपड़ा बुनने के आरम्भ से लेकर पूर्ण होने तक के विभिन्न चरण दिखाए गए हैं।
- चित्र में रंग-बिरंगे कपड़े दिखाए गए हैं।
- एक व्यक्ति को कपास की खेती करते दिखाया गया है।
- एक व्यक्ति को कपड़े की गाँठ ढोते दिखाया गया है।
- एक व्यक्ति कपड़े को साफ कर रहा है।
- एक व्यक्ति कपड़े को बुन रहा है।
- एक व्यक्ति भट्टी पर कपड़े को रंग रहा है।
- चित्र में दिखाए गए व्यक्ति कपड़े की विविधता को दर्शाते हैं।
पृष्ठ संख्या 206 चर्चा कीजिए
प्रश्न 6.
इस अनुभाग में जिन पंचायतों का जिक्र किया गया है, वे आपके अनुसार किस प्रकार से आज की ग्राम पंचायतों से मिलती-जुलती थीं अथवा भिन्न थीं?
उत्तर:
समानताएँ प्रस्तुत अनुभाग में वर्णित पंचायतों तथा आज की ग्राम पंचायतों में निम्नलिखित समानताएँ थीं –
(1). दोनों ग्रामीणों की विभिन्न समस्याओं का निवारण करने का प्रयास करती हैं।
(2) सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में ग्राम पंचायत का एक मुखिया होता था। आज भी ग्राम पंचायत का एक प्रमुख होता है जो सरपंच कहलाता है।
(3) उस समय ग्रामीण लोगों की भलाई के लिए पंचायत द्वारा कुएँ, छोटे-मोटे बाँध, नहर, जलाशय आदि बनवाये जाते थे। आज भी ग्राम पंचायतों द्वारा गाँवों में सफाई करवाने, रोशनी का प्रबन्ध करने, स्कूल, अस्पताल, जलाशय, कुएँ आदि बनवाने, लोगों के मनोरंजन के लिए वाचनालय, पुस्तकालय, दूरदर्शन केन्द्र आदि बनवाने की व्यवस्था की जाती है।
(4) उस समय भी ग्राम पंचायतों को जुर्माना लगाने और छोटे-मोटे झगड़ों को निपटाने का अधिकार था आज भी ग्राम पंचायतों को सिविल और फौजदारी के छोटे-मोटे झगड़ों को निपटाने तथा साधारण जुर्माना करने का अधिकार है।
विभिन्नताएँ –
(1) 16वीं तथा सत्रहवीं शताब्दियों में ग्राम पंचायतों में बुजुर्ग लोग होते थे। प्रायः वे गाँव के महत्त्वपूर्ण लोग हुआ करते थे तथा उनके पास अपनी सम्पत्ति में पैतृक अधिकार होते थे। इनका चुनाव नहीं होता था परन्तु वर्तमान में ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव किया जाता है। गाँव के लोग एक सरपंच और कुछ पंचों का चुनाव करते हैं। उस समय ग्राम पंचायतों में अनुसूचित एवं जनजातियों और महिलाओं के लिए स्थान सुरक्षित नहीं रखे जाते थे परन्तु वर्तमान में इनके लिए स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं।
(2) उस समय पंचायत का एक मुखिया होता था जो मुकदम या मंडल कहलाता थी। वर्तमान में ग्राम पंचायत का मुखिया सरपंच कहलाता है। राज्य की ओर से 1 एक सचिव . और कुछ अन्य अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है।
(3) उस समय पंचायत में विभिन्न जातियों तथा सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व होता था परन्तु इसमें सन्देह है कि छोटे-मोटे और निम्न काम करने वाले खेतिहर मजदूरों के लिए उसमें कोई स्थान होता होगा परन्तु वर्तमान में दलित जातियों के लोगों के लिए स्थान सुरक्षित रखे गए हैं।
(4) उस समय पंचायत का एक बड़ा काम यह सुनिश्चित करना था कि गाँव में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के लोग अपनी जाति की सीमाओं के अन्दर रहें। वे जाति की अवहेलना रोकने के लिए प्रयत्नशील रहती र्थी; परन्तु वर्तमान में ग्राम पंचायतों का यह उत्तरदायित्व नहीं है।
(5) उस समय पंचायत को समुदाय से निष्कासित करने जैसे गम्भीर दंड देने का अधिकार था। परन्तु वर्तमान में ग्राम पंचायत को यह अधिकार नहीं है।
(6) उस समय गाँव में हर जाति की अपनी पंचायत होती थी तथा अधिकतर मामलों में राज्य जाति पंचायत के निर्णयों को मानता था परन्तु वर्तमान में राज्य जाति पंचायत के निर्णयों को मानने के लिए बाध्य नहीं है।
पृष्ठ संख्या 207
प्रश्न 7.
क्या आपके प्रान्त में कृषि भूमि पर महिलाओं और मर्दों की पहुँच में कोई फर्क है?
उत्तर:
विद्यार्थी यह स्वयं करें।
पृष्ठ संख्या 208
प्रश्न 8
आप इस चित्र (89) में जो देखते हैं, उसका वर्णन कीजिए। इसमें ऐसा कौनसा सांकेतिक तत्त्व है, जो शिकार और एक आदर्श न्याय व्यवस्था को जोड़ता है ?
उत्तर:
मुगलकाल में सम्राट अपनी प्रजा को न्याय प्रदान करने के लिए शिकार अभियान का आयोजन करते थे। इस चित्र में हिरण, नीलगाय आदि अनेक जानवर दिखाए गए हैं। मुगल सम्राट शाहजहाँ नीलगाय का शिकार करते हुए दिखाए गए हैं। नीलगाय किसानों की फसलों को काफी नुकसान पहुँचाती है। इसलिए ऐसे जानवरों का शिकार करना एक आदर्श न्याय व्यवस्था का प्रतीक है। पृष्ठ संख्या 209
प्रश्न 9.
यह पद्यांश जंगल में घुसपैठ के कौनसे रूपों को उजागर करता है? जंगल में रहने वाले लोगों के अनुसार पद्यांश में किन्हें ‘विदेशी’ बताया गया है?
उत्तर:
यह पद्यांश सोलहवीं शताब्दी के एक कवि मुकुंदराम चक्रवर्ती द्वारा लिखित एक कविता चंडी मंगल का एक अंश है। इस पद्यांश में कालकेतु नामक एक सरदार द्वारा जंगल का सफाया कर साम्राज्य बनाने के सम्बन्ध में. काव्यात्मक रूप से वर्णन किया गया है। कालकेतु ने हजारों लोगों के साथ विभिन्न साधनों से जंगल का सफाया कर यहाँ के मूल निवासियों यहाँ तक कि पशुओं को भी पलायन करने को विवश कर दिया। इस कविता में बाहर से आए इन लोगों को विदेशी कहा गया है।
पृष्ठ संख्या 210
प्रश्न 10.
अबुल फजल ने परिवहन के कौन स तरीकों का उल्लेख किया है? आपके अनुसार इनका प्रयोग क्यों किया जाता था? मैदानों से जो सामान पहाड़ पर ले जाए जाते थे, उनमें से हर एक वस्तु किस काम में लाई जाती होगी? इसका खुलासा कीजिए।
उत्तर:
(1) अबुल फजल ने परिवहन के निम्न तरीकों का उल्लेख किया है –
- इन्सानों के सिर तथा पीठ पर सामान ढोया जाता था।
- मोटे-मोटे घोड़ों की पीठ पर
- मोटे-मोटे बकरों की पीठ पर सामान ढोया जाता था।
(2) मेरे विचारानुसार, उस समय बड़े पैमाने पर आधुनिक यातायात के साधन जैसे- ट्रक, रेलगाड़ी, मोटर, वारुयान आदि उपलब्ध नहीं थे, इसलिए इन्सानों, घोड़ों, आदि का यातायात के साधनों के रूप में प्रयोग किया जाता था। इसके अतिरिक्त मोटे-मोटे बकरे तथा घोड़े आदि दुर्गम पहाड़ी रास्तों में सामान ढोने का काम सुगमता से करते थे।
कुछ गरीब लोग भी अपने जीवन निर्वाह के लिए सामान ढोने का काम करते थे। वे पहाड़ी रास्तों में सामान ढोने के अभ्यस्त भी थे इसलिए इन्सानों, घोड़ों, बकरों आदि का यातायात के साधनों के रूप में प्रयोग किया जाता था। मैदानों से जो वस्तुएँ पहाड़ों पर ले जाई जाती थीं, इनमें से अधिकांश का प्रयोग दैनिक जीवन में होता था। कुछ वस्तुओं का प्रयोग छोटे-मोटे उद्योगों में किया जाता था। कुछ वस्तुएँ विलासिता से सम्बन्धित थीं।
पृष्ठ संख्या 213 चर्चा कीजिए
प्रश्न 11.
आजादी के बाद भारत में जमींदारी व्यवस्था समाप्त कर दी गई। इस अनुभाग को पढ़िए तथा उन कारणों की पहचान कीजिए जिनकी वजह से ऐसा किया गया।
उत्तर:
आजादी के बाद भारत में जमींदारी व्यवस्था को समाप्त कर दिए जाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित धे –
- जमींदारों की आय तो खेती से आती थी, परन्तु वे कृषि उत्पादन में सीधे भागीदारी नहीं करते थे। उन्हें समाज में उच्च स्थिति प्राप्त थी तथा उन्हें कुछ विशेष सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ मिली हुई थीं।
- जमींदार वर्ग बड़ा समृद्ध वर्ग था। इस समृद्धि का कारण उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन थी। प्रायः इन जमीनों पर दिहाड़ी के मजदूर या पराधीन मजदूर काम करते थे। वे इन मजदूरों का शोषण करते थे।
- जमींदारों के पास विपुल आर्थिक और सैनिक संसाधन थे वे राज्य की ओर से कर वसूल करते थे जिसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था। अधिकांश जमींदारों के पास अपने किले और सैनिक टुकड़ियाँ थीं। इन साधनों के बल पर वे गरीबों, किसानों और मजदूरों का शोषण करते थे। ये कमजोर लोगों को उनकी जमीनों से बेदखल कर देते थे।
- जमींदारी प्रथा, जाति प्रथा और ऊँच-नीच के भेद- भाव को प्रोत्साहन देती थी।
- दारों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे।
- यह व्यवस्था असमानता, विशेषाधिकारों एवं शोषण पर आधारित थी।
पृष्ठ संख्या 214
प्रश्न 12.
अपने अधीन इलाकों में जमीन का वर्गीकरण करते समय मुगल राज्य ने किन सिद्धान्तों का पालन किया? राजस्व निर्धारण किस प्रकार किया जाता था?
उत्तर:
(1) मुगल सम्राटों ने अपनी गहरी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए जमीनों का वर्गीकरण किया। उन्होंने प्रत्येक (वर्ग की जमीन) के लिए अलग-अलग राजस्व निर्धारित किया ताकि न्यायोचित राजस्व निर्धारित किया जा सके।
(2) मुगल काल में भूमि चार वर्गों में बाँटी गई –
(1) पोलज
(2) परौती
(3) चचर
(4) बंजर पोलज जमीन वह थी, जिसमें एक के बाद एक हर फसल की वार्षिक खेती होती थी और जिसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता था। परौती वह जमीन थी, जिस पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती थी। चचर वह भूमि थी, जो कि तीन या चार वर्षों तक खाली रहती थी। बंजर वह जमीन थी, जिस पर पाँच या उससे अधिक वर्षों से खेती नहीं की गई थी।
पहले दो प्रकार की जमीन की तीन किस्में थीं –
(1) अच्छी
(2) मध्यम
(3) खराब हर वर्ग की जमीन की उपज को जोड़ दिया जाता था और इसका तीसरा हिस्सा मध्यम उत्पाद माना जाता था तथा उसका एक- तिहाई हिस्सा राजकीय शुल्क माना जाता था।
पृष्ठ संख्या 215 चर्चा कीजिए
प्रश्न 13.
क्या आप मुगलों की भूराजस्व प्रणाली को एक लचीली व्यवस्था मानेंगे ?
उत्तर:
हाँ, हम मुगलों की भूराजस्व प्रणाली को एक लचीली व्यवस्था मानते हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं –
(1) किसानों से भूमिकर नकद अथवा अनाज के रूप में वसूल किया जाता था।
(2) साम्राज्य की भूमि की पैमाइश करवाई गई और भूमि के आंकड़ों को संकलित किया गया।
(3) राजस्व अधिकारियों को आदेश दिया गया कि वे राजस्व वसूली में बल प्रयोग करें।
(4) अतिवृष्टि, अकाल, अनावृष्टि आदि की दशा में भूराजस्व माफ कर दिया जाता था। राज्य द्वारा पीड़ित किसानों को आर्थिक सहायता दी जाती थी।
पृष्ठ संख्या 215
प्रश्न 14.
राजस्व निर्धारण व वसूली की प्रत्येक प्रणाली में खेतिहरों पर क्या फर्क पड़ता होगा?
उत्तर:
(1) कणकुत प्रणाली में प्रायः अनुमान से किया गया भूमि का आकलन पर्याप्त रूप से सही परिणाम देता था। इसलिए इस प्रणाली में खेतिहरों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता होगा।
(2) मटाई अथवा भाओली प्रणाली में अनेक समझदार निरीक्षकों की आवश्यकता पड़ती थी परन्तु उस काल में प्रायः अधिकांश निरीक्षक स्वाथी, धोखेबाज तथा मक्कार होते थे इसलिए खेतिहरों को उनकी धोखेबाजी का शिकार बनना पड़ता था।
(3) खेत बढाई प्रणाली में बीज बोने के बाद खेत बाँट लिए जाते थे। यह प्रणाली भी त्रुटिपूर्ण थी। अतः इसका भी खेतिहरों पर हानिप्रद प्रभाव पड़ता होगा।
(4) लॉंग बटाई प्रणाली में फसल काटने के बाद राजस्व अधिकारी उसका ढेर बना लेते थे और फिर उसे आपस में बाँट लेते थे। इस प्रणाली में बेइमानी की गुंजाइश रहती थी जिसके परिणामस्वरूप खेतिहरों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता होगा।
प्रश्न 15.
आपकी राय में मुगल बादशाह औरंगजेब ने विस्तृत सर्वेक्षण पर क्यों जोर दिया?
उत्तर:
मुगल सम्राट औरंगजेब एक कुशल प्रशासक था। उसे वित्तीय मामलों की अच्छी जानकारी थी। मुगल काल में प्रत्येक प्रान्त में जुती हुई जमीन और जोतने योग्य जमीन दोनों की नपाई की गई औरंगजेब चाहता था कि राज्य अधिक से अधिक राजस्व वसूल करे; परन्तु इसके साथ-साथ किसानों के कल्याण को भी ध्यान में रखा जाए। एक ओर वह सरकार के वित्तीय हितों को भी सुनिश्चित करना चाहता था, दूसरी ओर वह किसानों की भलाई पर भी उचित ध्यान देना चाहता था इसलिए उसने हर गाँव, हर किसान के बारे में खेती की वर्तमान स्थिति का पता लगाने का आदेश दिया। औरंगजेब द्वारा विस्तृत सर्वेक्षण पर जोर देने का यही कारण था।
पृष्ठ संख्या 216 चर्चा कीजिए
प्रश्न 16.
पता लगाइए कि वर्तमान में आपके राज्य में कृषि उत्पादन पर कर लगाए जाते हैं या नहीं। आज की राज्य सरकारों की राजकोषीय नीतियों और मुगल राजकोषीय नीतियों में समानताओं और भिन्नताओं को समझाइए।
उत्तर:
(1) वर्तमान में अधिकांश राज्य सरकारें कृषि उत्पादनों पर कर नहीं लगाती हैं, अपितु कृषकों को अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करती हैं।
(2) मुगल राज्य की आय का मुख्य स्रोत कृषि तथा भू-राजस्व व्यवस्था थी।
(3) वर्तमान सरकारें कृषि से आय प्राप्त नहीं करतीं अपितु उन्हें अनेक प्रकार की सब्सिडी प्रदान करती हैं।
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निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 100-150 शब्दों में दीजिए।
प्रश्न 1.
कृषि इतिहास लिखने के लिए ‘आइन’ को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने में कौनसी समस्याएँ हैं? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं?
उत्तर:
कृषि इतिहास लिखने के लिए ‘आइन’ का स्रोत के रूप में प्रयोग करने में समस्याएँ –
- शासक वर्ग का दृष्टिकोण किसानों के बारे में, जो कुछ हमें ‘आइन’ से ज्ञात होता है, वह शासक वर्ग का दृष्टिकोण है। यह किसानों के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व नहीं करती।
- आँकड़ों के जोड़ में गलतियाँ आइन’ में आँकड़ों के जोड़ में कई गलतियाँ पाई गई हैं।
- संख्यात्मक आँकड़ों में विषमताएँ ‘ आइन’ के संख्यात्मक आँकड़ों में विषमताएँ हैं। सभी प्रान्तों से आँकड़े एक ही रूप में एकत्रित नहीं किए गए उदाहरणार्थ, जहाँ कई प्रान्तों के लिए जमींदारों की जाति से सम्बन्धित विस्तृत सूचनाएँ संकलित की गई, वहीं बंगाल और उड़ीसा के लिए ऐसी सूचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
- मूल्यों और मजदूरी की दरों की अपर्याप्त सूची मूल्यों और मजदूरी की दरों की जो विस्तृत सूची ‘आइन’ में दी भी गई है, वह साम्राज्य की राजधानी आगरा या उसके आस-पास के क्षेत्रों से ली गई है।
इससे स्पष्ट है कि देश के शेष भागों के लिए इन आँकड़ों की प्रासंगिकता सीमित है। इतिहासकारों का इन समस्याओं से निपटना- इन समस्याओं से निपटने के लिए इतिहासकार सत्रहवीं तथा अठारहवीं सदियों के गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान से मिलने वाले उन दस्तावेजों का प्रयोग कर सकते हैं, जो सरकार की आमदनी की विस्तृत जानकारी देते हैं। इसके अतिरिक्त ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भी बहुत से दस्तावेज हैं जो पूर्वी भारत में कृषि सम्बन्धों की उपयोगी रूप-रेखा प्रस्तुत करते हैं। इनमें किसानों, जमींदारों और राज्य के मध्य विवाद दर्ज हैं।
प्रश्न 2.
सोलहवीं सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज गुजारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सोलहवीं सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को केवल गुजारे के लिए खेती नहीं कहा जा सकता यद्यपि सोलहवीं सत्रहवीं सदी में दैनिक आहार की खेती पर | अधिक जोर दिया जाता था तथा गेहूं, चावल, ज्वार आदि फसलों का अधिक उत्पादन किया जाता था, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं था कि इस युग में भारत में खेती केवल गुजारा करने के लिए की जाती थी। कृषि राजस्व का भी एक महत्त्वपूर्ण स्रोत थी। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं –
(1) खेती मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान की जाती थी –
- एक खरीफ ( पतझड़ में) और
- दूसरी रबी (बसन्त में)।
इस प्रकार सूखे इलाकों और अंजर भूमि को छोड़कर अधिकांश स्थानों पर वर्ष में कम से कम दो फसलें होती थीं। जहाँ वर्षा या सिंचाई के अन्य साधन हर समय उपलब्ध थे, वहाँ तो वर्ष में तीन फसलें भी उगाई. जाती थीं।
(2) इस युग में मुगल राज्य किसानों को जिन्स-ए- कामिल (सर्वोत्तम फसलें) नामक फसलों की खेती करने के लिए प्रोत्साहन देता था; क्योंकि इन फसलों से राज्य को अधिक कर मिलता था। इन फसलों में कपास और गन्ने की फसलें मुख्य थीं तिलहन (जैसे, सरसों) तथा दलहन भी नकदी फसलों में सम्मिलित थी। थे। इससे ज्ञात होता है कि एक औसत किसान की जमीन पर पेट भरने के लिए होने वाले उत्पादन तथा व्यापार के लिए किए जाने वाले उत्पादन एक दूसरे से जुड़े हुए व्यापार भी कृषि पर पर्याप्त सीमा तक निर्भर थे।
प्रश्न 3.
मुगलकालीन कृषि समाज में महिलाओं की भूमिका की विवेचना कीजिए।
अथवा
कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण दीजिए।
अथवा
सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी में कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का वर्णन कीजिये।
अथवा
मुगलकालीन भारत में कृषि आधारित समाज में महिलाओं की भूमिका की व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका –
(1) खेती के कार्य में सहायता करना- सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दियों में महिलाएँ और पुरुष कन्धे से कन्धा मिलाकर खेतों में काम करते थे। पुरुष खेत जोतते थे व हल चलाते थे, जबकि महिलाएँ बुआई, निराई कटाई तथा पकी हुई फसलों बने का दाना निकालने का काम करती थीं। फिर भी महिलाओं की जैव-वैज्ञानिक क्रियाओं को लेकर लोगों के मन में पूर्वाग्रह रहे। उदाहरण के लिए, पश्चिमी भारत में मासिक-धर्म वाली महिलाओं को हल या कुम्हार का चाक छूने की अनुमति नहीं थी। इसी प्रकार बंगाल में अपने मासिक धर्म के समय महिलाएँ पान के बागान में प्रवेश नहीं कर सकती थीं।
(2) अन्य कृषि सम्बन्धी गतिविधियों में संलग्न – रहना – इस समय महिलाएँ कृषि के अतिरिक्त अन्य कृषि सम्बन्धी गतिविधियों में भी संलग्न रहती थीं, जैसे-सूत काराना, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को साफ करना और गूंधना, कपड़ों पर कढ़ाई करना आदि। ये सभी कार्य महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे। किसी वस्तु का जितना वाणिज्यीकरण होता था, उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की उतनी ही माँग होती थी। वास्तव में किसान और दस्तकार महिलाएँ आवश्यकता पड़ने पर न केवल खेतों में काम करती थीं, बल्कि नियोक्ताओं के घरों पर भी जाती थीं और बाजारों में भी इस प्रकार कृषि उत्पादन में महिलाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।
प्रश्न 4.
विचाराधीन काल में मौद्रिक कारोबार की अहमियत की विवेचना उदाहरण देकर कीजिए।
उत्तर:
विचाराधीन काल (मुगल काल ) में मौद्रिक कारोबार की अहमियत ( महत्त्व ) – सोलहवीं तथा सत्रहवीं सदी में यूरोप के साथ भारत के व्यापार में अत्यधिक विस्तार हुआ। इस कारण भारत के समुद्र पार व्यापार की अत्यधिक उन्नति हुई तथा कई नई वस्तुओं का व्यापार भी शुरू हो गया। निरन्तर बढ़ते व्यापार के कारण, भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं का भुगतान करने के लिए एशिया में भारी मात्रा में चाँदी आई। इस चाँदी का एक बड़ा भाग भारत में पहुँचा। यह स्थिति भारत के लिए लाभप्रद थी क्योंकि यहाँ चाँदी के प्राकृतिक संसाधन नहीं थे।
परिणामस्वरूप सोलहवीं से अठारहवीं सदी के बीच भारत में धातु मुद्रा विशेषकर चाँदी के रुपयों की उपलब्धि में अच्छी स्थिरता बनी रही। इस प्रकार अर्थव्यवस्था में मुद्रा संचार और सिक्कों की ढलाई में अभूतपूर्व विस्तार हुआ तथा मुगल – साम्राज्य को नकदी कर वसूलने में आसानी इटली के यात्री जोवान्नी कारेरी ने लगभग 1690 ई. में भारत की यात्रा की थी उसने इस बात का बड़ा सजीव चित्र प्रस्तुत किया है कि किस प्रकार चाँदी समस्त विश्व से होकर भारत पहुँचती थी उसके वृत्तान्त से हमें यह भी जात होता है कि सत्रहवीं शताब्दी के भारत में भारी मात्रा में नकदी और वस्तुओं का आदान-प्रदान हो रहा था। इसके अतिरिक्त गाँवों में भी आपसी लेन देन नकदी में होने लगा। जो दस्तकार निर्यात के लिए उत्पादन करते थे, उन्हें उनकी मजदूरी या पूर्व भुगतान भी नकद में ही मिलता था।
प्रश्न 5.
उन सबूतों की जाँच कीजिए जो ये सुझाते हैं कि मुगल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व बहुत महत्त्वपूर्ण था।
उत्तर:
मुगल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व का महत्त्वपूर्ण होना –
(1) मुगल साम्राज्य की आय का प्रमुख साधन- भूमि से मिलने वाला राजस्व मुगल साम्राज्य की आय का प्रमुख साधन था। इसलिए कृषि उत्पादन पर नियन्त्रण रखने के लिए तथा तीव्रगति से फलते मुगल साम्राज्य में राजस्व के आकलन तथा वसूली के लिए एक प्रशासनिक तन्त्र की स्थापना की आवश्यकता थी। दीवान इस प्रशासनिक तन्त्र का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। दीवान के कार्यालय पर सम्पूर्ण राज्य की वित्तीय व्यवस्था के देख-रेख की जिम्मेदारी थी। इस प्रकार हिसाब रखने वाले तथा राजस्व अधिकारी कृषि- सम्बन्धों को नया रूप देने में एक निर्णायक शक्ति के रूप में प्रकट हुए। अमील गुजार प्रमुख रूप से राजस्व वसूल करने वाला अधिकारी था।
(2) अधिक से अधिक राजस्व वसूल करने का प्रयास अकबर ने अमील-गुजार या राजस्व वसूल करने वाले अधिकारियों को यह आदेश दिया कि वे किसानों से नकद भुगतान वसूल करने के साथ फसलों के रूप में भी भुगतान का विकल्प खुला रखें। राजस्व निर्धारित करते समय राज्य अपना हिस्सा अधिक से अधिक रखने का प्रयास करता था, परन्तु स्थानीय स्थिति के कारण कभी-कभी वास्तव में इतनी वसूली कर पाना सम्भव नहीं हो पाता था।
(3) जोतने योग्य जमीन की माप करवाना प्रत्येक प्रान्त में जुती हुई जमीन और जोतने योग्य जमीन दोनों की माप करवाई गई। अकबर के शासनकाल में अबुल फ़जल ने अपने ग्रन्थ’ आइन’ में ऐसी जमीनों के सभी आँकड़े संकलित किये। अकबर के बाद के मुगल सम्राटों के शासनकाल में भी जमीन की माप करवाये जाने के प्रयास जारी रहे।
निम्नलिखित पर लघु निबन्ध लिखिए। (लगभग 250- 300 शब्दों में)
प्रश्न 6.
आपके अनुसार कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक सम्बन्धों को प्रभावित करने में जाति किस हद तक एक कारक थी?
उत्तर:
कृषि समाज में सामाजिक
व आर्थिक सम्बन्धों को
प्रभावित करने में जाति की भूमिका –
(1) खेतिहर किसानों का अनेक समूहों में विभक्त होना जाति तथा अन्य जाति जैसे भेदभावों के कारण खेतिहर लगा जो दस्तकार निर्यात के लिए उत्पादन करते थे, उन्हें उनकी मजदूरी या पूर्व भुगतान भी नकद में ही मिलता था। किसान कई प्रकार के समूहों में विभक्त थे। खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की थी जो निकृष्ट समझे जाने वाले कार्यों में लगे हुए थे अथवा फिर खेतों में मजदूरी करते थे।
यद्यपि खेती योग्य जमीन का अभाव नहीं था, फिर भी कुछ जातियों के लोगों को केवल निकृष्ट समझे जाने वाले काम ही दिए जाते थे। इस प्रकार वे निर्धनता में जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य थे। उपलब्ध आँकड़ों तथा तथ्यों से ज्ञात होता है कि गाँव की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग ऐसे ही लोगों के समूहों का था। इन लोगों के पास संसाधन सबसे कम थे तथा ये जाति-व्यवस्था के प्रतिबन्धों से बंधे थे। इनकी स्थिति न्यूनाधिक आधुनिक भारत में रहने वाले दलितों जैसी ही थी।
(2) अन्य सम्प्रदायों में भी भेदभावों का प्रसार- ऐसे भेदभावों का प्रसार अन्य सम्प्रदायों में भी होने लगा था। मुसलमान समुदायों में हलालखोरान जैसे निकृष्ट काम से जुड़े समूह गांव की सीमाओं के बाहर ही रह सकते थे। इसी प्रकार बिहार में मल्लाहजादाओं (शाब्दिक अर्थ – नाविकों के पुत्र) की स्थिति भी दासों जैसी थी ।
(3) बीच के समूहों में जाति, गरीबी और सामाजिक स्थिति के बीच सम्बन्ध न होना-यद्यपि समाज के निम्न वर्गों में जाति, गरीबी और सामाजिक स्थिति के बीच सीधा सम्बन्ध था, परन्तु ऐसा सम्बन्ध बीन के समूहों में नहीं था। सत्रहवीं शताब्दी में मारवाड़ में लिखी गई एक पुस्तक राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में की गई है। इस पुस्तक के अनुसार जाट भी किसान थे, परन्तु जाति व्यवस्था में उनको स्थिति राजपूतों की तुलना में नीची थी।
(4) अन्य जातियों की स्थिति सत्रहवीं सदी में वृन्दावन (उत्तर प्रदेश) के क्षेत्र में रहने वाले गौरव समुदाय के लोगों ने भी राजपूत होने का दावा किया, यद्यपि ये लांग जमीन को जुताई के काम से जुड़े हुए थे। पशुपालन और बागवानों में बढ़ते मुनाफे के कारण अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक सोढ़ी में ऊपर उठीं अर्थात् उनके सामाजिक स्तर में वृद्धि हुई। पूर्वी प्रदेशों में पशुपालक और मछुआरी जातियाँ भी किसानों जैसी सामाजिक स्थिति पाने लगीं। इनमें सदगोप एवं कैवर्त जातियाँ सम्मिलित थीं।
प्रश्न 7.
सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगलवासियों की जिन्दगी किस तरह बदल गई?
अथवा
सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में जंगलवासियों के जीवन में किस प्रकार परिवर्तन आ गया? वर्णन कीजिये।
अथवा
बनवासी कौन थे? सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दियों में उनके जीवन में कैसे परिवर्तन आया?
उत्तर:
जंगलवासी सोलहवीं एवं सत्रहवीं सदी में भारत में जमीन के विशाल भाग जंगलों या झाड़ियों से घिरे थे। समसामयिक रचनाएँ जंगल में रहने वालों के लिए ‘जंगली’ शब्द का प्रयोग करती हैं परन्तु जंगली होने का अर्थ यह नहीं था कि वे असभ्य थे। उन दिनों इस शब्द का प्रयोग ऐसे लोगों के लिए होता था जिनका जीवन निर्वाह जंगल के उत्पादों, शिकार और स्थानान्तरीय खेती से होता था। ये काम मौसम के अनुसार होते थे जैसे भीलों में बसन्त के मौसम में जंगल के उत्पाद इकट्ठे किये जाते, गर्मियों में मछलियाँ पकड़ी जातीं, मानसून के महीनों में खेती की जाती तथा शरद और जाड़े के महीनों में शिकार किया जाता था। निरन्तर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहना जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक प्रमुख विशेषता थी। सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगलवासियों . के जीवन में परिवर्तन
सोलहवीं तथा सत्रहवीं सदी में जंगलवासियों के जीवन ‘में निम्नलिखित परिवर्तन हुए –
(1) बाहरी शक्तियों का जंगलों में प्रवेश – बाहरी शक्तियों, जंगलों में कई तरह से प्रवेश करती थीं। उदाहरणार्थ- राज्य को सेना के लिए हाथियों की आवश्यकता होती थी। इसलिए मुगल सम्राटों के द्वारा जंगलवासियों से ली जाने वाली पेशकश (भेंट) में प्राय: हाथी भी सम्मिलित होते थे। दरबारी इतिहासकारों के अनुसार शिकार अभियान के नाम पर युगल सम्राट अपने विशाल साम्राज्य के कोने-कोने का दौरा करता था। इस प्रकार वह अपने साम्राज्य के भिन्न- भिन्न प्रदेशों के लोगों की समस्याओं और शिकायतों से अवगत होता था और उन पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देता था दरबारी कलाकारों के चित्रों में शिकारी के अनेक दृश्य दिखाए गए हैं। र इन चित्रों में चित्रकार प्राय: छोटा-सा एक ऐसा दृश्य अंकित कर देते थे जो शासक के सद्भावनापूर्ण होने का संकेत देता 5 था।
(2) वाणिज्यिक खेती का प्रभाव- वाणिज्यिक खेती का असर एक बाह्य कारक के रूप में जंगलवासियों के जीवन पर भी पड़ता था। शहद, मधुमोम और लाक जैसे जंगल के उत्पादों की बहुत माँग थी। लाक जैसी वस्तुएँ तो सत्रहवीं सदी में भारत से समुद्र पार होने वाले निर्यात की मुख्य वस्तुएँ थीं। हाथी भी पकड़े और बेचे जाते थे। 5 व्यापार के अन्तर्गत वस्तुओं की अदला-बदली भी होती थी। कुछ कबीले भारत और अफगानिस्तान के बीच होने वाले स्थलीय व्यापार में लगे हुए थे जैसे पंजाब का लोहानी कबीला। वे पंजाब के गाँवों और शहरों के बीच होने वाले व्यापार में भी भाग लेते थे।
(3) सामाजिक प्रभाव सामाजिक कारणों से भी जंगलवासियों के जीवन में परिवर्तन हुए। ग्रामीण समुदाय के बड़े आदमियों की भाँति जंगली कबीलों के भी सरदार होते थे। कई कबीलों के सरदार जमींदार बन गए तथा कुछ तो राजा भी हो गए। इस स्थिति में उन्हें सेना का गठन करने की आवश्यकता हुई। उन्होंने अपने ही वंश के लोगों को सेना में भर्ती किया अथवा अपने ही भाई बन्धुओं से सैन्य सेवा की माँग की।
(4) सांस्कृतिक प्रभाव जंगली प्रदेशों में नए सांस्कृतिक प्रभावों के विस्तार की भी शुरुआत हुई कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि नए बसे हुए प्रदेशों के खेतिहर समुदायों ने जिस प्रकार धीरे-धीरे इस्लाम को ग्रहण किया, उसमें सूफी सन्तों (पीर) ने भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
प्रश्न 8.
मुगलकालीन जमींदारी व्यवस्था की विवेचना कीजिए।
अथवा
मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है –
(1) कमाई का स्रोत कृषि- मुगल भारत में जमींदारों की कमाई का स्रोत तो कृषि था, परन्तु वे कृषि उत्पादन में सीधे भागीदारी नहीं करते थे।
(2) विशेष सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त होना-ग्रामीण समाज में उच्च स्थिति के कारण जमींदारों को कुछ विशेष सामाजिक
और आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त थीं। समाज में जमींदारों की उच्च स्थिति के दो कारण थे –
(1) उनकी जाति तथा
(2) उनके द्वारा राज्य को दी जाने वाली कुछ विशेष प्रकार की सेवाएँ।
(3) जमींदारों की समृद्धि-जमींदार वर्ग समृद्धि का कारण उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन थी। इसे मिल्कियत कहते थे अर्थात् सम्पत्ति प्रायः इन जमीनों पर दिहाड़ी के मजदूर अथवा पराधीन मजदूर काम करते थे। जमींदार अपनी इच्छा के अनुसार इन जमीनों को बेच सकते थे, किसी अन्य व्यक्ति के नाम कर सकते थे अथवा उन्हें गिरवी रख सकते थे।
(4) जमींदारों की शक्ति के स्रोत जमींदारों की शक्ति का एक अन्य स्रोत यह था कि वे प्रायः राज्य की ओर से कर वसूल कर सकते थे। इसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था। सैनिक संसाधन भी जमींदारों की शक्ति का एक और स्रोत था।
(5) मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक सम्बन्धों की पिरामिड के रूप में कल्पना-यदि हम मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक सम्बन्धों को एक पिरामिड के रूप में देखें, तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का हिस्सा थे अर्थात् जमींदारों का समाज में सर्वोच्च स्थान था।
(6) जमींदारों की उत्पत्ति का स्त्रोत- समसामयिक दस्तावेजों से ऐसा प्रतीत होता है कि युद्ध में विजय जमींदारों की उत्पत्ति का सम्भावित स्रोत रहा होगा। प्रायः जमींदारी फैलाने का एक तरीका था शक्तिशाली सैनिक सरदारों द्वारा कमजोर लोगों को बेदखल करना।
(7) जमींदारी को पुख्ता करने की प्रक्रिया – जमींदारी को पुख्ता करने की प्रक्रिया धीमी थी।
इसे निम्न तरीकों से पुख्ता किया जा सकता था –
- नयी जमीनों को बसा कर
- अधिकारों के हस्तान्तरण के द्वारा
- राज्य के आदेश से
- या फिर खरीद कर
(8) परिवार या वंश पर आधारित जमींदारियों का पुख्ता होना कई कारणों ने मिलकर परिवार या वंश पर आधारित जमदारियों को पुख्ता होने का अवसर दिया। उदाहरणार्थ, राजपूतों और जाटों ने ऐसी रणनीति अपनाकर उत्तर भारत में जमीन की बड़ी-बड़ी पट्टियों पर अपना नियन्त्रण पुख्ता किया।
(9) खेती योग्य जमीनों को बसाने में नेतृत्व प्रदान करना- जमींदारों ने खेती योग्य जमीनों को बसाने में नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने खेतिहरों को खेती के उपकरण व उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी सहायता दी।
(10) गाँव के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आना- जमींदारी के क्रय-विक्रय से गाँवों के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई। इसके अतिरिक्त जमींदार अपनी मिल्कियत की जमीनों की फसल भी बेचते थे।
(11) बाजार (हाट) स्थापित करना- जमींदार प्रायः बाजार (हाट) स्थापित करते थे जहाँ किसान भी अपनी फसलें बेचने आते थे।
(12) किसानों से सम्बन्धों में पारस्परिकता, पैतृक तथा संरक्षण का पुट होना- यद्यपि इसमें कोई सन्देह नहीं कि जमींदार शोषण करने वाला वर्ग था, परन्तु किसानों से उनके सम्बन्धों में पारस्परिकता, पैतृकवाद तथा संरक्षण का पुट था। सत्रहवीं शताब्दी में भारी संख्या में कृषि विद्रोह हुए और उनमें राज्य के विरुद्ध जमींदारों को किसानों का समर्थन मिला।
प्रश्न 9.
पंचायत और गाँव का मुखिया किस प्रकार से ग्रामीण समाज का नियमन करते थे? विवेचन कीजिए।
उत्तर:
पंचायत और गाँव का मुखिया –
(1) पंचायत गाँव की पंचायत बुजुगों की सभा होती थी। प्रायः वे गाँव के महत्त्वपूर्ण लोग हुआ करते थे जिनके पास अपनी सम्पत्ति के पैतृक अधिकार होते थे। जिन गाँवों में कई जातियों के लोग रहते थे, वहाँ प्राय पंचायत में भी विविधता पाई जाती थी यह एक ऐसा अल्पतन्त्र था, जिसमें गाँव के अलग-अलग सम्प्रदायों और जातियों का प्रतिनिधित्व होता था। पंचायत का निर्णय गाँव में सबको मानना पड़ता था।
(2) पंचायत का मुखिया पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था। मुखिया ‘मुकदम या मंडल’ कहलाता था। गाँव की आय व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का प्रमुख काम था। इस काम में पंचायत का पटवारी उसकी सहायता करता था।
(3) पंचायत का खर्चा पंचायत का खर्चा गाँव के उस आम खजाने से चलता था जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान देता था।
- इस आम खजाने से उन कर अधिकारियों की खातिरदारी का खर्चा भी किया जाता था, जो समय-समय पर गाँव का दौरा किया करते थे।
- इस खजाने का प्रयोग बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं से निपटने के लिए भी होता था।
- इस कोष का प्रयोग ऐसे सामुदायिक कार्यों के लिए किया जाता था, जो किसान स्वयं नहीं कर सकते थे, जैसे कि मिट्टी के छोटे-मोटे बाँध बनाना या नहर खोदना।
(4) ग्रामीण समाज का नियमन –
- जाति की अवहेलना को रोकना पंचायत का एक प्रमुख काम यह सुनिश्चित करना था कि गाँव में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के लोग अपनी जाति की सीमाओं के अन्दर रहें।
- जुर्माना लगाने तथा समुदाय से निष्कासित करने का अधिकार पंचायतों को जुर्माना लगाने तथा दोषी को समुदाय से निष्कासित करने जैसे अधिक गम्भीर दंड देने के अधिकार थे। समुदाय से निष्कासित करना एक कठोर कदम था, जो एक सीमित समय के लिए लागू किया जाता था। इस अवधि में वह अपनी जाति तथा व्यवसाय से हाथ धो बैठता था।
(5) जाति पंचायतें ग्राम पंचायत के अतिरिक्त गाँव में प्रत्येक जाति की अपनी पंचायत होती थी। समाज में ये जाति पंचायतें पर्याप्त शक्तिशाली होती थीं।
- राजस्थान में जाति-पंचायतें भिन्न-भिन्न जातियों के लोगों के बीच दीवानी के झगड़ों का निपटारा करती थीं।
- वे जमीन से जुड़े दावेदारियों के झगड़ों को सुलझाती थीं।
- वे यह तय करती थीं कि विवाह जातिगत मानदंडों के अनुसार हो रहे हैं या नहीं।
- फौजदारी न्याय को छोड़कर अधिकांश मामलों में राज्य जाति पंचायतों के निर्णयों को मानता था।
(6) पंचायतों से शिकायत करना पश्चिमी भारत विशेषकर राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे प्रान्तों से प्राप्त दस्तावेजों में ऐसे कई प्रार्थना पत्र सम्मिलित हैं, जिनमें पंचायत से ‘ऊँची ‘ जातियों या राज्य के अधिकारियों के विरुद्ध जबरन कर वसूली अथवा बेगार वसूली की शिकायत की गई है।
किसान, ज़मींदार और राज्य : कृषि समाज और मुगल साम्राज्य JAC Class 12 History Notes
→ किसान और कृषि उत्पादन सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी में भारत में लगभग 85 प्रतिशत लोग गाँवों में रहते थे। खेतिहर समाज की बुनियादी इकाई गाँव थी जिसमें किसान रहते थे। किसान जमीन की जुताई, बीज बोने फसल की कटाई करने आदि का कार्य करते थे। इसके अतिरिक्त वे कृषि आधारित वस्तुओं के उत्पादन में भी भाग लेते थे; जैसे शक्कर, तेल इत्यादि।
→ ग्रामीण समाज के स्रोत सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों के कृषि इतिहास को समझने के लिए हमारे मुख्य स्रोत वे ऐतिहासिक ग्रन्थ व दस्तावेज हैं जो मुगल दरबार की निगरानी में लिखे गए थे। ‘आइन-ए-अकबरी’ इनमें से महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थों में एक था ‘आइन-ए-अकबरी’ की रचना अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुलफजल ने की थी। इस ग्रन्थ में खेतों की नियंत्रित जुताई की व्यवस्था करने के लिए राज्य के प्रतिनिधियों द्वारा करों की वसूली के लिए और राज्य तथा जमींदारों के बीच के सम्बन्धों के नियमन के लिए जो प्रबन्ध राज्य ने किए थे, उनका लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है।
अन्य स्रोत थे –
(1) गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान आदि से मिलने वाले दस्तावेज तथा
(2) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दस्तावेज
→ आइन-ए-अकबरी का उद्देश्य आइन-ए-अकबरी का मुख्य उद्देश्य अकबर के साम्राज्य की एक ऐसी रूपरेखा प्रस्तुत करनी थी जहाँ एक सुदृद सत्ताधारी वर्ग सामाजिक मेल-जोल बनाकर रखता था। किसानों के बारे में जो कुछ हमें ‘आइन’ से ज्ञात होता है, वह शासक वर्ग का दृष्टिकोण है।
→ किसान और उनकी जमीन मुगलकाल के भारतीय फारसी स्रोत किसान के लिए प्रायः रैयत या मुजरियान शब्द का प्रयोग करते थे। इसके साथ ही किसान या आसामी जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया जाता था। सत्रहवीं शताब्दी के स्रोत दो प्रकार के किसानों का उल्लेख करते हैं –
(1) खुद काश्त तथा
(2) पाहि काश्त।
खुद काश्त किसान उन्हीं गाँवों में रहते थे, जिनमें उनकी जमीनें थीं। पाहि काश्त किसान वे खेतिहर थे, जो दूसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे लोग अपनी इच्छा से भी पाहि काश्त किसान बनते थे। उत्तर भारत के एक औसत किसान के पास शायद ही कभी एक जोड़ी बैल और दो हल से अधिक कुछ होता था। अधिकतर किसानों के पास इससे भी कम होता था। गुजरात में वे किसान समृद्ध माने जाते थे जिनके पास लगभग 6 एकड़ जमीन होती थी। दूसरी ओर बंगाल में एक औसत किसान की जमीन की ऊपरी सीमा 5 एकड़ थी। वहाँ 10 एकड़ जमीन वाले किसान को धनी माना जाता था। खेती निजी स्वामित्व के सिद्धान्त पर आधारित थी।
→ सिंचाई – जमीन की प्रचुरता, मजदूरों की उपलब्धता तथा किसानों की गतिशीलता के कारण कृषि का निरन्तर विस्तार हुआ चावल, गेहूँ, ज्वार इत्यादि फसलें सबसे अधिक उगाई जाती थीं। मानसून भारतीय कृषि की रीढ़ था जैसा कि आज भी है परन्तु कुछ ऐसी फसलें भी थीं, जिनके लिए अतिरिक्त पानी की आवश्यकता थी इसलिए इनके लिए सिंचाई के कृत्रिम उपाय बनाने पड़े। उत्तर भारत में राज्य ने कई नहरें व नाले खुदवाये और कई पुरानी नहरों की मरम्मत करवाई जैसे कि शाहजहाँ के शासनकाल में पंजाब में ‘शाह नहर’।
→ तकनीक किसान पशुबल पर आधारित तकनीकों का भी प्रयोग करते थे। वे लकड़ी के उस हल्के हल का प्रयोग करते थे जिसको एक छोर पर लोहे की नुकीली धार या फाल लगाकर बनाया जा सकता था चैलों के जोड़े के सहारे खींचे जाने वाले बरमे का प्रयोग बीज बोने के लिए किया जाता था। परन्तु बीजों को हाथ से छिड़ककर बोने का रिवाज अधिक प्रचलित था। मिट्टी की गुड़ाई और निराई के लिए लकड़ी के मूठ वाले लोहे के पतले धार प्रयुक्त किये जाते थे।
→ फसलें — मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी – (1) खरीफ ( पतझड़ में) तथा (2) रबी (बसन्त में)। सूखे प्रदेशों और बंजर भूमि को छोड़कर अधिकतर स्थानों पर वर्ष में कम से कम दो फसलें होती थीं। जहाँ वर्षा या सिंचाई के अन्य साधन हर समय उपलब्ध थे, वहाँ तो वर्ष में तीन फसलें भी उगाई जाती थीं।
→ जिन्स-ए-कामिल स्रोतों में हमें प्राय: जिन्स-ए-कामिल (सर्वोत्तम फसलें) जैसे शब्द मिलते हैं। कपास और गन्ना जैसी फसलें ‘जिन्स-ए-कामिल थीं। तिलहन (जैसे सरसों) तथा दलहन भी नकदी फसलें कहलाती थीं। 9. विश्व के विभिन्न भागों से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुँचने वाली फसलें सत्रहवीं शताब्दी में विश्व के विभिन्न भागों से कई नई फसलें भारतीय उपमहाद्वीप पहुंचीं। उदाहरणार्थ, मक्का भारत में अफ्रीका और स्पेन के मार्ग से आया। टमाटर, आलू और मिर्च जैसी सब्जियाँ भी नई दुनिया से लाई गई। अनानास और पपीता जैसे फल भी वहीं से भारत लाए गए।
→ खेतिहर किसान- किसान एक सामूहिक ग्रामीण समुदाय के भाग थे। ग्रामीण समुदाय के तीन घटक थे –
(1) खेतिहर किसान
(2) पंचायत
(3) गाँव का मुखिया (मुकद्दम वा मंडल)।
खेतिहर किसान कई प्रकार के समूहों में बटे हुए थे। खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की थी, जो नीच समझे जाने वाले कामों में लगे थे अथवा फिर खेतों में काम करते थे। कुछ जातियों के लोगों को केवल नीच समझे जाने वाले काम ही दिए जाते थे। गाँव की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग ऐसे ही समूहों का था। इनके पास संसाधन सबसे कम थे और ये जाति व्यवस्था के प्रतिबन्धों से बँधे हुए थे। इनकी दशा न्यूनाधिक वैसी ही थी जैसी कि आधुनिक भारत में दलितों की। समाज के निम्न वर्गों में जाति, गरीबी तथा सामाजिक हैसियत के बीच सीधा सम्बन्ध था ऐसा बीच के समूहों में नहीं था। सत्रहवीं शताब्दी में मारवाड़ में लिखी गई एक पुस्तक में राजपूतों का उल्लेख किसानों के रूप में किया गया है।
→ पंचायतें और मुखिया – गाँव की पंचायत में बुजुर्ग लोग होते थे। प्रायः वे गाँव के प्रतिष्ठित एवं महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हुआ करते थे। उनके पास अपनी सम्पत्ति के पैतृक अधिकार होते थे। पंचायत का निर्णय गाँव में सबको मानना पड़ता था। पंचायत का सरदार (प्रधान) एक मुखिया होता था, जिसे मुकद्दम या मंडल कहते थे। प्रायः मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था। मुखिया अपने पद पर तभी तक बना रहता था जब तक कि गाँव के बुजुर्गों को उस पर भरोसा था। गाँव की आय व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का प्रमुख कार्य था और इसमें पंचायत का पटवारी उसकी सहायता करता था।
पंचायत का खर्चा गाँव के उस सामान्य कोष से चलता था, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान देता था पंचायत का एक अन्य बड़ा काम यह सुनिश्चित करना था कि गाँव में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के लोग अपनी जाति की सीमाओं के अन्दर रहें। पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे गम्भीर दंड देने के अधिकार थे। ग्राम पंचायत के अतिरिक्त गाँव में हर जाति की अपनी पंचायत होती थी। समाज में ये पंचायतें काफी शक्तिशाली होती थीं। राजस्थान में जाति पंचायतें अलग-अलग जातियों के लोगों के बीच दीवानी के झगड़ों का निपटारा करती थीं तथा ये जमीन से सम्बन्धित दावेदारियों के झगड़ों का निपटारा करती थीं।
→ ग्रामीण दस्तकार – गाँवों में दस्तकार काफी अच्छी संख्या में रहते थे। कहीं-कहीं तो कुल घरों के 25 प्रतिशत पर दस्तकारों के थे। कई खेतिहर दस्तकारी का काम भी करते थे; जैसे – रंगरेजी, कपड़े पर छपाई, मिट्टी के बर्तनों को पकाना, खेती के औजारों को बनाना या उनकी मरम्मत करना। कुम्हार, लुहार, बढ़ई, नाई, सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकार भी अपनी सेवाएँ गाँव के लोगों को देते थे जिसके बदले गाँव वाले उन्हें विभिन्न तरीकों से उन सेवाओं की अदायगी करते थे। प्रायः या तो उन्हें फसल का एक भाग दे दिया जाता था या फिर गाँव की जमीन का एक टुकड़ा। – बंगाल में जमींदार उनकी सेवाओं के बदले लौहारों, बढ़ई और सुनारों को दैनिक भत्ता तथा भोजन के लिए नकदी देते थे। इस व्यवस्था को जजमानी कहते थे।
→ ग्राम ‘एक छोटा गणराज्य – उन्नीसवीं शताब्दी के कुछ अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय गाँवों को एक ऐसे ‘छोटे गणराज्य’ के रूप में देखा जहाँ लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों और श्रम का बँटवारा करते थे। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि गाँव में सामाजिक बराबरी थी। सम्पत्ति का व्यक्तिगत स्वामित्व होता था और जाति तथा सामाजिक लिंग के नाम पर समाज में गहरी विषमताएँ थीं कुछ शक्तिशाली लोग गाँव की समस्याओं पर निर्णय लेते थे तथा दुर्बल वर्गों का शोषण करते थे। न्याय करने का भी अधिकार उन्हें ही प्राप्त था मुगलों के केन्द्रीय क्षेत्रों |में कर की गणना तथा वसूली भी नकद में की जाती थी।
→ कृषि समाज में महिलाएँ पुरुष खेत जोतते थे व हल चलाते थे तथा महिलाएँ बुआई, निराई और कटाई के साथ-साथ पकी हुई फसल का दाना निकालती थीं। सूत कातने, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को साफ करने और गूंथने, कपड़ों पर कढ़ाई जैसे दस्तकारी के काम उत्पादन के ऐसे पहलू थे जो महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे। वास्तव में किसान और दस्तकार महिलाएँ आवश्यकता पड़ने पर न केवल खेतों में काम करती थीं, बल्कि नियोक्ताओं के घरों पर भी जाती थीं और बाजारों में भी कई ग्रामीण सम्प्रदायों में विवाह के लिए ‘वधू की कीमत अदा करने की आवश्यकता पड़ती थी, न कि दहेज की तलाकशुदा महिलाएँ और विधवाएँ दोनों ही वैधानिक रूप से विवाह कर सकती थीं।
इसका कारण यह था कि बच्चे पैदा करने की योग्यता के कारण महिलाओं को महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था। महिलाओं की प्रजनन शक्ति के महत्व को ध्यान में रखते हुए महिला पर परिवार और समुदाय के पुरुषों द्वारा प्रबल नियंत्रण रखा जाता था। बेवफाई के संदेह पर ही महिलाओं को भवानक दंड दिए जा सकते थे। भूमिहर भद्रजनों में महिलाओं को पैतृक सम्पत्ति का अधिकार था। पंजाब में महिलाएँ पैतृक सम्पत्ति के विक्रेता के रूप में ग्रामीण भूमि के बाजार में सक्रिय भागेदारी रखती थीं। वे उसे बेचने अथवा गिरवी रखने के लिए स्वतंत्र थीं। बंगाल में भी महिला जमींदार पाई जाती थीं। अठारहवीं शताब्दी की सबसे बड़ी और प्रसिद्ध जमींदारियों में राजशाही की जमींदारी थी जिसकी कर्त्ता-धर्ता एक महिला थी।
→ जंगल और कबीले इस काल में जमीन के विशाल भाग जंगल या झाड़ियों से घिरे थे उस समय जंगलों के प्रसार का औसत लगभग 40 प्रतिशत था। समसामयिक रचनाएँ जंगल में रहने वालों के लिए ‘जंगली’ शब्द का प्रयोग करती थीं। परन्तु जंगली होने का अर्थ सभ्यता का न होना बिल्कुल नहीं था। उन दिनों इस शब्द का प्रयोग ऐसे लोगों के लिए होता था जिनका जीवन निर्वाह जंगल के उत्पादों, शिकार और स्थानान्तरित खेती से होता था ये काम ऋतु के अनुसार होते थे। उदाहरण के लिए भीलों में बसन्त के मौसम में जंगल के उत्पाद इकट्ठे किये जाते। गर्मियों में मछिलयाँ पकड़ी जातीं, मानसून के महीनों में खेती की जाती और शरद व जाड़े के महीनों में शिकार किया जाता था। लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहना, इन जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक विशेषता थी। राज्य के लिए जंगल बदमाशों को शरण देने वाला अड्डा था।
→ जंगलों में घुसपैठ जंगलों में बाहरी शक्तियाँ कई प्रकार से प्रवेश करती थीं। उदाहरण के लिए, राज्य को सेना के लिए हाथियों की आवश्यकता होती थी इसलिए जंगलवासियों से ली जाने वाली पेशकश में प्रायः हाथी भी शामिल होते थे।
→ शिकार अभियान-मुगल राजनीतिक विचारधारा में प्रजाजनों से न्याय करने का राज्य के गहरे सरोकार का एक लक्षण ‘शिकार अभियान’ था दरबारी इतिहासकारों के अनुसार शिकार अभियान के नाम पर मुगल सम्राट अपने विशाल साम्राज्य के भिन्न-भिन्न प्रदेशों का दौरा करते थे और इस प्रकार वहाँ के लोगों की समस्याओं और शिकायतों पर व्यक्तिगत रूप से मनन करते थे।
→ जंगलवासियों पर वाणिज्यिक खेती का प्रभाव- वाणिज्यिक खेती का प्रभाव जंगलवासियों के जीवन पर भी पड़ता था। शहद, मधु, मोम और लाक जैसे जंगलों के उत्पादों की बहुत माँग थी। हाथी भी पकड़े और बेचे जाते थे व्यापार के अन्तर्गत वस्तुओं का विनिमय भी होता था।
→ सामाजिक प्रभाव कई कबीलों के सरदार जमींदार बन गए, कुछ तो राजा भी हो गए, उन्होंने अपनी सेनाओं का गठन किया। उन्होंने अपने ही खानदान के लोगों को सेना में भर्ती किया। सिन्ध प्रदेश की कबीलाई सेनाओं में 6000 घुड़सवार तथा 7000 पैदल सैनिक होते थे। असम में अहोम राजाओं के अपने ‘पायक’ होते थे ये वे लोग थे जिन्हें जमीन के बदले सैनिक सेवा देनी पड़ती थी।
→ सांस्कृतिक प्रभाव कुछ इतिहासकारों के अनुसार नये बसे क्षेत्रों के खेतिहर समुदायों ने जिस प्रकार धीरे- धीरे इस्लाम को अपनाया, उसमें सूफी सन्तों ने एक बड़ी भूमिका निभाई थी।
→ जमींदार जमींदार अपनी जमीन के स्वामी होते थे। इन्हें ग्रामीण समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त थी तथा कुछ विशेष सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ भी प्राप्त थीं, जमींदारों की बढ़ी हुई प्रतिष्ठा के कारण थे –
(1) जाति
(2) उनके द्वारा राज्य को कुछ विशेष प्रकार की सेवाएँ देना।
जमींदारों के पास विस्तृत व्यक्तिगत जमीन थी। यह उनकी समृद्धि का कारण था। उनकी व्यक्तिगत जमीन ‘मिल्कियत’ कहलाती थी मिल्कियत जमीन पर जमींदार के निजी प्रयोग के लिए खेती होती थी। प्रायः इन जमीनों पर दिहाड़ी के मजदूर या पराधीन मजदूर काम करते थे। जमींदार अपनी इच्छानुसार इन जमीनों को बेच सकते थे, किसी और के नाम कर सकते थे या इन्हें गिरवी रख सकते थे।
→ जमींदार की शक्ति के स्रोत जमींदारों की शक्ति के स्रोत थे –
(1) वे प्राय: राज्य की ओर से कर वसूल करते थे। इसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था।
(2) सैनिक संसाधन भी उनकी शक्ति के स्रोत थे। अधिकतर जमींदारों के पास अपने किले भी थे और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी थीं जिनमें घुड़सवारों, तोपखाने तथा पैदल सैनिकों के जत्थे होते थे।
→ सामाजिक स्थिति यदि हम मुगल कालीन गाँवों में सामाजिक सम्बन्धों की कल्पना एक पिरामिड के रूप में करें, तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का भाग थे अर्थात् उनका स्थान सबसे ऊँचा था।
→ जमींदारों की उत्पत्ति के स्रोत जमींदारों की उत्पत्ति के स्रोत थे –
(1) युद्ध में जमींदारों की विजय
(2) शक्तिशाली सैनिक सरदारों द्वारा दुर्बल लोगों को बेदखल करना।
→ जमींदारी को पुख्ता करने की प्रक्रिया – जमींदारी को पुख्ता करने की प्रक्रिया धीमी थी। यह काम कई प्रकार से किया जा सकता था –
- नई जमीनों को बसाकर
- अधिकारों के हस्तान्तरण द्वारा
- राज्य के आदेश से
- भूमि खरीदकर यही वे प्रक्रियाएँ थीं जिनके द्वारा अपेक्षाकृत निम्न जातियों के लोग भी जमींदारी वर्ग में सम्मिलित हो सकते थे क्योंकि इस काल में जमींदारी खुलेआम खरीदी और बेची जाती थी।
→ परिवार या वंश पर आधारित जमींदारियों को पुख्ता होने का अवसर मिलना-कई कारणों ने मिलकर परिवार या वंश पर आधारित जमींदारियों को पुख्ता होने का अवसर दिया। उदाहरण के तौर पर राजपूतों और जाटों ने ऐसी रणनीति अपनाकर उत्तर भारत में जमीन की बड़ी-बड़ी पट्टियों पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। इसी प्रकार मध्य तथा दक्षिण-पश्चिम बंगाल में किसान पशुचारियों (जैसे सद्गोप) ने शक्तिशाली जमींदारियाँ खड़ी कीं।
→ जमींदारों का योगदान –
- जमींदारों ने कृषि योग्य जमीनों को बसाने में नेतृत्व प्रदान किया और खेतिहरों को खेती के उपकरण व उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी सहायता की।
- जमींदारी के क्रय-विक्रय से गाँवों के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई
- जमींदार अपनी मिल्कियत की जमीनों की फसल भी बेचते थे।
- जमींदार प्राय: बाजार (हाट) स्थापित करते थे जहाँ किसान भी अपनी फसलें बेचने आते थे।
→ जमींदारों से किसानों के सम्बन्ध-यद्यपि जमींदार शोषण करने वाला वर्ग था, परन्तु किसानों से उनके सम्बन्धों में पारस्परिकता, पैतृकवाद तथा संरक्षण का पुट था भक्ति संतों ने जमींदारों को किसानों के शोषक या उन पर अत्याचार करने वाले के रूप में नहीं दर्शाया। इसके अतिरिक्त सत्रहवीं सदी में हुए कृषि विद्रोहों में राज्य के विरुद्ध जमींदारों को प्रायः किसानों का समर्थन मिला।
→ भू-राजस्व प्रणाली जमीन से मिलने वाला राजस्व मुगल साम्राज्य की आर्थिक नींव थी सम्पूर्ण साम्राज्य में राजस्व के आकलन व वसूली के लिए उचित व्यवस्था की गई थी। दीवान के कार्यालय पर सम्पूर्ण साम्राज्य की वित्तीय व्यवस्था की देख-रेख की जिम्मेदारी थी।
भू-राजस्व के प्रबन्ध के दो चरण थे –
(1) कर निर्धारण
(2) वास्तविक वसूली ‘जमा’ निर्धारित रकम थी तथा ‘हासिल’ वास्तव में वसूली गई रकम थी।
राजस्व निर्धारित करते समय राज्य अपना भाग अधिक से अधिक रखने का प्रयास करता था प्रत्येक प्रान्त में जुती हुई जमीन और जोतने योग्य जमीन दोनों की नपाई की गई। अकबर के शासनकाल में अबुलफजल ने अपने ग्रन्थ ‘आइन-ए-अकबरी’ में ऐसी जमीनों के सभी आँकड़े संकलित किए। अकबर के बाद के शासकों के शासनकाल में भी जमीन की नपाई के प्रयास जारी रहे। 1665 में औरंगजेब ने अपने राजस्व कर्मचारियों को स्पष्ट निर्देश दिया कि हर गाँव में खेतिहरों की संख्या का वार्षिक हिसाब रखा जाए।
→ अकबर के शासनकाल में भूमि का वर्गीकरण-अकबर के शासनकाल में भूमि का वर्गीकरण किया गया –
(1) पोलज
(2) परौती
(3) चचर
(4) बंजर पोलज भूमि को कभी खाली नहीं छोड़ा जाता था तथा परौती भूमि पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती थी। चचर भूमि वह थी जिसे तीन या चार वर्षों तक खाली रखा जाता था। बंजर भूमि वह भूमि थी जिस पर पाँच या दस से अधिक वर्षों से खेती नहीं की गई थी।
पोलज और परती भूमि की तीन किस्में थीं –
(1) अच्छी
(2) मध्यम
(3) खराब हर प्रकार की जमीन की उपज को जोड़ दिया जाता था तथा इसका तीसरा भाग ओसत उपज माना जाता था इसका एक तिहाई भाग राजकीय शुल्क माना जाता था।
→ अमीन – अमीन एक सरकारी कर्मचारी था। उसे यह सुनिश्चित करना होता था कि प्रान्तों में राजकीय नियम-कानूनों का पालन हो रहा है।
→ राजस्व वसूल करने की प्रणालियां मुगल काल में राजस्व वसूल करने की प्रमुख प्रणालियाँ थीं –
(1) कणकुत प्रणाली
(2) बटाई प्रणाली
(3) खेत बटाई
(4) लांग बटाई।
→ मनसबदारी व्यवस्था मुगल प्रशासनिक व्यवस्था के शीर्ष पर एक सैनिक नौकरशाही तंत्र ( मनसबदारी ) था, जिस पर राज्य के सैनिक व नागरिक मामलों की जिम्मेदारी थी कुछ मनसबदारों को नकदी भुगतान किया जाता था, जबकि उनमें से अधिकांश मनसबदारों को साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजस्व के आवंटन के द्वारा भुगतान किया | जाता था। समय-समय पर मनसबदारों का तबादला किया जाता था।
→ चाँदी का बहाव खोजी यात्राओं तथा नयी दुनिया की खोज से यूरोप के साथ भारत के व्यापार में अत्यधिक विस्तार हुआ। इस कारण भारत के समुद्रपार व्यापार में एक ओर भौगोलिक विविधता आई, तो दूसरी ओर अनेक नई वस्तुओं का व्यापार भी शुरू हो गया। निरन्तर बढ़ते व्यापार के साथ, भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं का भुगतान न करने के लिए एशिया में भारी मात्रा में चाँदी आई। इस चाँदी का एक बड़ा भाग भारत की ओर खिंच गया।
परिणामस्वरूप सोलहवीं से अठारहवीं सदी के बीच भारत में धातु मुद्रा विशेषकर चाँदी के रुपयों की उपलब्धि में अच्छी स्थिरता बनी रही इसके साथ ही एक ओर तो अर्थ व्यवस्था में मुद्रा संचार और सिक्कों की ढलाई में अभूतपूर्व विस्तार हुआ, तो दूसरी ओर मुगल राज्य को नकदी कर वसूलने में आसानी हुई। इटली के यात्री जोवान्नी कारेरी ने लिखा है कि संसार भर में विचरने वाला सारा सोना-चांदी अन्ततः भारत में पहुँच जाता है। इसी यात्री से हमें यह भी ज्ञात होता है कि सत्रहवीं सदी के भारत में बड़ी अद्भुत मात्रा में नकद और वस्तुओं का आदान-प्रदान हो रहा था।
→ अबुल फजल की आइन-ए-अकबरी अकबर के शासन के बयालीसवें वर्ष, 1598 ई. में पाँच संशोधनों के बाद, इस ग्रन्थ को पूरा किया गया। इस ग्रन्थ में दरबार, प्रशासन, सेना के संगठन, राजस्व के स्रोत, अकबरकालीन प्रान्तों के भूगोल, लोगों के साहित्यिक, सांस्कृतिक व धार्मिक रिवाजों पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है। अकबर के प्रशासन के समस्त विभागों और प्रान्तों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। यह ग्रन्थ अकबर के शासन के अन्तर्गत | मुगल साम्राज्य के बारे में सूचनाओं की खान है। आइन-ए-अकबरी पाँच भागों में विभाजित है। इसके पहले तीन भागों में मुगल प्रशासन का विवरण मिलता है। चौथे और पाँचवें भागों में भारत के लोगों के धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों का वर्णन है। इनके अन्त में अकबर के ‘शुभ वचनों का एक संग्रह भी है।
कालरेखा 1 |
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1526 | दिल्ली के सुल्तान, इब्राहीम लोदी को पानीपत में हराकर बाबर का पहला मुगल बादशाह बनना |
1530-40 | हुमायूँ के शासन का पहला चरण |
1540-55 | शेरशाह से हार कर हुमायूँ का सफावी दरबार में प्रवासी बनकर रहना |
1555-56 | हुमायूँद्वारा खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करना |
1556-1605 | अकबर का शासनकाल |
1605-1627 | जहाँगीर का शासनकाल |
1628-1658 | शाहजहाँ का शासनकाल |
1658-1707 | औरंगजेब का शासनकाल |
1739 | नादिरशाह द्वारा भारत पर आक्रमण करना और दिल्ली को लूटना |
1761 | अहमद शाह अब्दाली द्वारा पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों को पराजित करना |
1765 | बंगाल के दीवानी अधिकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सौंपे जाना |
1857 | अंग्रेजों द्वारा अन्तिम मुगल बादशाह शाह जफर को गद्दी से हटाना और देश निकाला देकर रंगून (आज का यांगोन, म्यांमार में) भेजना। |