Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति Textbook Exercise Questions and Answers
JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति
Jharkhand Board Class 12 Political Science नियोजित विकास की राजनीति InText Questions and Answers
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प्रश्न 1.
क्या आप यह कह रहे हैं कि ‘आधुनिक’ बनने के लिए ‘पश्चिमी’ होना जरूरी नहीं है? क्या यह सम्भव है?
उत्तर:
आधुनिक बनने के लिए पश्चिमी होना जरूरी नहीं है। प्रायः आधुनिकीकरण का सम्बन्ध पाश्चात्यीकरण से माना जाता है लेकिन यह सही नहीं है, क्योंकि आधुनिक होने का अर्थ मूल्यों एवं विचारों में समस्त परिवर्तन से लगाया जाता है और यह परिवर्तन समाज को आगे की ओर ले जाने वाले होने चाहिए। आधुनिकीकरण में परिवर्तन केवल विवेक पर ही नहीं बल्कि सामाजिक मूल्यों पर भी आधारित होते हैं। इसमें वस्तुतः समाज के मूल्य साध्य और लक्ष्य भी निर्धारित करते हैं कि कौनसा परिवर्तन अच्छा है और कौनसा बुरा है; कौनसा परिवर्तन आगे की ओर ले जाने वाला है और कौनसा अधोगति में पहुँचाने वाला है। जबकि पाश्चात्यीकरण मूल्यमुक्तता पर बल देता है, इसका न कोई क्रम होता है और न कोई दिशा इस प्रकार आधुनिक बनने के लिए पश्चिमी होना जरूरी नहीं है।
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प्रश्न 2.
अरे! मैं तो भूमि सुधारों को मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने की तकनीक समझता था।
उत्तर:
भूमि सुधार का तात्पर्य मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने की तकनीक तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके अन्तर्गत अनेक तत्त्वों को सम्मिलित किया जाता है-
- जमींदारी एवं जागीरदारी व्यवस्था को समाप्त करना।
- जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ करके कृषिगत कार्य को अधिक सुविधाजनक बनाना।
- बेकार एवं बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने हेतु व्यवस्था करना।
- कृषिगत भू- जोतों की उचित व्यवस्था करना।
- सिंचाई के साधनों का विकास करना।
- अच्छे खाद व उन्नत बीजों की व्यवस्था करना।
- किसानों द्वारा उत्पन्न खाद्यान्नों की उचित कीमत दिलाने का प्रयास करना।
- किसानों को समय-समय पर विभिन्न प्रकार के ऋण व विशेष अनुदानों की व्यवस्था करना आदि।
Jharkhand Board Class 12 Political Science नियोजित विकास की राजनीति TextBook Questions and Answers
प्रश्न 1
‘बॉम्बे प्लान’ के बारे में निम्नलिखित में कौनसा बयान सही नहीं है?
(क) यह भारत के आर्थिक भविष्य का एक ब्लू-प्रिंट था।
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।
(ग) इसकी रचना कुछ अग्रणी उद्योगपतियों ने की थी।
(घ) इसमें नियोजन के विचार का पुरजोर समर्थन किया गया था।
उत्तर:
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।
प्रश्न 2.
भारत ने शुरूआती दौर में विकास की जो नीति अपनाई उसमें निम्नलिखित में से कौनसा विचार शामिल नहीं था?
(क) नियोजन
(ख) उदारीकरण
(ग) सहकारी खेती
(घ) आत्मनिर्भरता ।
उत्तर:
(ख) उदारीकरण।
प्रश्न 3.
भारत में नियोजित अर्थव्यवस्था चलाने का विचार ग्रहण किया गया था:
(क) बॉम्बे प्लान से
(ख) सोवियत खेमे के देशों के अनुभवों से
(ग) समाज के बारे में गाँधीवादी विचार से
(घ) किसान संगठनों की मांगों से
(क) सिर्फ ख और घ
(ग) सिर्फ घ और ग
(ख) सिर्फ क और ख
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
उपर्युक्त सभी।
प्रश्न 4.
निम्नलिखित का मेल करें:
(क) चरणसिंह | (i) औद्योगीकरण |
(ख) पी.सी. महालनोबिस | (ii) जोनिंग |
(ख) सिर्फ क और ख | (iii) किसान |
(घ) उपर्युक्त सभी | (iv) सहकारी डेयरी |
उत्तर:
(क) चरणसिंह | (iii) किसान |
(ख) पी.सी. महालनोबिस | (i) औद्योगीकरण |
(ग) बिहार का अकाल | (ii) जोनिंग |
(घ) वर्गीज कुरियन | (iv) सहकारी डेयरी |
प्रश्न 5.
आजादी के समय विकास के सवाल पर प्रमुख मतभेद क्या थे? क्या इन मतभेदों को सुलझा लिया गया?
उत्तर:
आजादी के समय विकास के सवाल पर मतभेद -आजादी के समय विकास के सवाल पर विभिन्न मतभेद थे। यथा
- आर्थिक संवृद्धि के साथ सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए सरकार कौन- सी भूमिका निभाये ? इस सवाल पर मतभेद था।
- विकास के दो मॉडलों – उदारवादी – पूँजीवादी मॉडल और समाजवादी मॉडल में से किस मॉडल को अपनाया जाये ? इस बात पर मतभेद था।
- कुछ लोग औद्योगीकरण को उचित रास्ता मानते थे तो कुछ की नजर में कृषि का विकास करना और ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी को दूर करना सर्वाधिक जरूरी था।
- कुछ अर्थशास्त्री केन्द्रीय नियोजन के पक्ष में थे जबकि अन्य कुछ विकेन्द्रित नियोजन को विकास के लिए आवश्यक मानते थे।
मतभेदों को सुलझाना – उपर्युक्त में से कुछ मतभेदों को सुलझा लिया गया है परन्तु कुछ को सुलझाना अभी भी शेष है, जैसे
- सभी में इस बात पर सहमति बनी कि देश के व्यापार उद्योगों और कृषि को क्रमशः व्यापारियों, उद्योगपतियों और किसानों के भरोसे पूर्णत: नहीं छोड़ा जा सकता है।
- लगभग सभी इस बात पर सहमत थे कि विकास का अर्थ आर्थिक संवृद्धि और सामाजिक-आर्थिक न्याय दोनों ही है।
- इस बात पर भी सहमति हो गई कि गरीबी मिटाने और सामाजिक-आर्थिक पुनर्वितरण के काम की जिम्मेदारी सरकार की होगी।
- विकास के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाने पर सहमति बनी।
प्रश्न 6.
पहली पंचवर्षीय योजना का किस चीज पर सबसे ज्यादा जोर था ? दूसरी पंचवर्षीय योजना पहली से किन अर्थों में अलग थी?
उत्तर:
पहली पंचवर्षीय योजना में देश में लोगों को गरीबी के जाल से निकालने का प्रयास किया गया और इस योजना में ज्यादा जोर कृषि क्षेत्र पर दिया गया। इसी योजना के अन्तर्गत बाँध और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया। भाखड़ा नांगल जैसी विशाल परियोजनाओं के लिए बड़ी धनराशि आवंटित की गई। इस योजना में भूमि सुधार पर जोर दिया गया और इसे देश के विकास की बुनियादी चीज माना गया।
दोनों में अन्तर:
- प्रथम पंचवर्षीय एवं द्वितीय पंचवर्षीय योजना में प्रमुख अन्तर यह था कि जहाँ प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र पर अधिक बल दिया गया, वहीं दूसरी योजना में भारी उद्योगों के विकास पर अधिक जोर दिया गया।
- पहली पंचवर्षीय योजना का मूलमंत्र था – -धीरज, जबकि दूसरी पंचवर्षीय योजना तेज संरचनात्मक परिवर्तन पर बल देती थी।
प्रश्न 7.
हरित क्रान्ति क्या थी? हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक और दो नकारात्मक परिणामों का उल्लेख करें।
उत्तर:
- हरित क्रान्ति का अर्थ – “हरित क्रान्ति से अभिप्राय कृषिगत उत्पादन की तकनीक को सुधारने तथा कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि करने से है।” इसके तीन तत्व थे
- कृषि का निरन्तर विस्तार
- दोहरी फसल लेना
- अच्छे बीजों का प्रयोग इस प्रकार हरित क्रांति का अर्थ है – सिंचित और असिंचित कृषि क्षेत्रों में अधिक उपज देने वाली किस्मों को आधुनिक कृषि पद्धति से उगाकर उत्पादन बढ़ाना।
- हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक परिणाम- हरित क्रांति के निम्न सकारात्मक परिणाम निकले-
- हरित क्रान्ति से खेतिहर पैदावार में सामान्य किस्म का इजाफा हुआ ( ज्यादातर गेहूँ की पैदावार बढ़ी) और देश में खाद्यान्न की उपलब्धता में बढ़ोत्तरी हुई।
- हरित क्रांति के कारण कृषि में मँझोले दर्जे के किसानों यानी मध्यम श्रेणी के भू-स्वामित्व वाले किसानों का उभार हुआ।
- हरित क्रान्ति के नकारात्मक परिणाम – हरित क्रान्ति के दो नकारात्मक परिणाम निम्न हैं-
- इस क्रान्ति से गरीब किसानों और भू-स्वामियों के बीच का अंतर बढ़ गया।
- इससे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश जैसे इलाके कृषि की दृष्टि से समृद्ध हो गए जबकि बाकी इलाके खेती के मामले में पिछड़े रहे।
प्रश्न 8.
“नियोजन के शुरुआती दौर में ‘कृषि बनाम उद्योग’ का विवाद रहा।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिक विकास बनाम कृषि विकास का विवाद चला था। इस विवाद में क्या-क्या तर्क दिए गए थे?
उत्तर:
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिक विकास और कृषि विकास में किस क्षेत्र के विकास पर जोर दिया जाय, का विवाद चला। इस विवाद के सम्बन्ध में विभिन्न तर्क दिये गये। यथा
- कृषि क्षेत्र का विकास करने वाले विद्वानों का यह तर्क था कि इससे देश आत्मनिर्भर बनेगा तथा किसानों की दशा में सुधार होगा, जबकि औद्योगिक विकास का समर्थन करने वालों का यह तर्क था कि औद्योगिक विकास से देश में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे तथा देश में बुनियादी सुविधाएँ बढ़ेंगी।
- अनेक लोगों का मानना था कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में कृषि के विकास की रणनीति का अभाव था और इस योजना के दौरान उद्योगों पर जोर देने के कारण खेती और ग्रामीण इलाकों को चोट पहुँचेगी।
- कई अन्य लोगों का सोचना था कि औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर को तेज किए बगैर गरीबी के मकड़जाल से मुक्ति नहीं मिल सकती । कृषि विकास हेतु तो अनेक कानून बनाये जा चुके हैं, लेकिन औद्योगिक विकास की दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं हुए हैं।
प्रश्न 9.
” अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका पर जोर देकर भारतीय नीति-निर्माताओं ने गलती की। अगर शुरूआत से ही निजी क्षेत्र को खुली छूट दी जाती तो भारत का विकास कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से होता ।” इस विचार के पक्ष या विपक्ष में अपने तर्क दीजिए।
उत्तर:
उपर्युक्त विचार के पक्ष व विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं- पक्ष में तर्क-
- भारत ने 1990 के दशक से ही नई आर्थिक नीति अपनायी है। तब से यह तेजी से उदारीकरण और वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा है। यदि यह नीति प्रारम्भ से ही अपना ली गई होती तो भारत का विकास अधिक बेहतर होता।
- अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसी बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ भी उन्हीं देशों को अधिक ऋण व निवेश के संसाधन प्रदान करती हैं जहाँ निजी क्षेत्र को खुली छूट दी जाती है। जिन बड़े कार्यों के लिए सरकार पूँजी जुटाने में असमर्थ होती है उन कार्यों में अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और देशी बड़े-बड़े पूँजीपति लोग पूँजी लगा सकते हैं।
- अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता में भारत तभी ठहर सकता था जब निजी क्षेत्र को छूट दे दी गई होती।
विपक्ष में तर्क- निजी क्षेत्र के विपक्ष में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं
- भारत में कृषिगत और औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार सरकारी वर्ग की प्रभावशाली नीतियों व कार्यक्रमों से हुआ। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत पिछड़ जाता।
- भारत में विकसित देशों की तुलना में जनसंख्या ज्यादा है। यहाँ बेरोजगारी है, गरीबी है। यदि पश्चिमी देशों की होड़ में भारत सरकारी हिस्से को अर्थव्यवस्था में कम कर दिया जाएगा तो बेरोजगारी बढ़ेगी, गरीबी फैलेगी, धन और पूँजी कुछ ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों में केन्द्रित हो जाएगी जिससे आर्थिक विषमता और बढ़ जाएगी।
- भारत कृषि-प्रधान देश है। वह विकसित देशों के कृषि उत्पादन से मुकाबला नहीं कर सकता। कृषि क्षेत्र में सरकारी सहयोग राशि के बिना कृषि का विकास रुक जायेगा।
प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें- आजादी के बाद के आरंभिक वर्षों में कांग्रेस पार्टी के भीतर दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ पनपीं। एक तरफ राष्ट्रीय पार्टी कार्यकारिणी ने राज्य के स्वामित्व का समाजवादी सिद्धांत अपनाया, उत्पादकता को बढ़ाने के साथ- साथ आर्थिक संसाधनों के संकेंद्रण को रोकने के लिए अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों का नियंत्रण और नियमन किया। दूसरी तरफ कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार ने निजी निवेश के लिए उदार आर्थिक नीतियाँ अपनाईं और उसके बढ़ावे के लिए विशेष कदम उठाए। इसे उत्पादन में अधिकतम वृद्धि की अकेली कसौटी पर जायज ठहराया गया। – फ्रैंकिन फ्रैंकल
(क) यहाँ लेखक किस अंतर्विरोध की चर्चा कर रहा है? ऐसे अंतर्विरोध के राजनीतिक परिणाम क्या होंगे?
(ख) अगर लेखक की बात सही है तो फिर बताएँ कि कांग्रेस इस नीति पर क्यों चल रही थी? क्या इसका संबंध विपक्षी दलों की प्रकृति से था?
(ग) क्या कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व और इसके प्रांतीय नेताओं के बीच भी कोई अंतर्विरोध था?
उत्तर:
(क) उपर्युक्त अवतरण में लेखक कांग्रेस पार्टी के अन्तर्विरोध की चर्चा कर रहा है जो क्रमशः वामपंथी विचारधारा से और दूसरा खेमा दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित था अर्थात् जहाँ कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समाजवादी सिद्धान्तों में विश्वास रखती थी, वहीं राष्ट्रीय कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार निजी निवेश को बढ़ावा दे रही थी। इस प्रकार के अन्तर्विरोध से देश में राजनीतिक अस्थिरता फैलने की सम्भावना रहती है।
(ख) कांग्रेस इस नीति पर इसलिए चल रही थी, कि कांग्रेस में सभी विचारधाराओं के लोग शामिल थे तथा सभी लोगों के विचारों को ध्यान में रखकर ही कांग्रेस पार्टी इस प्रकार का कार्य कर रही थी। इसके साथ-साथ कांग्रेस पार्टी ने इस प्रकार की नीति इसलिए भी अपनाई ताकि विपक्षी दलों के पास आलोचना का कोई मुद्दा न रहे।
(ग) कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व एवं प्रान्तीय नेताओं में कुछ हद तक अन्तर्विरोध पाया जाता था। जहाँ केन्द्रीय नेतृत्व राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों को महत्त्व देता था, वहीं प्रान्तीय नेता प्रान्तीय एवं स्थानीय मुद्दों को महत्त्व देते थे। परिणामस्वरूप कांग्रेस के प्रभावशाली क्षेत्रीय नेताओं ने आगे चलकर अपने अलग-अलग राजनीतिक दल बनाए, जैसे- चौधरी चरण सिंह ने क्रांति दल या भारतीय लोकदल बनाया तो उड़ीसा में बीजू पटनायक ने उत्कल कांग्रेस का गठन किया।
नियोजित विकास की राजनीति JAC Class 12 Political Science Notes
→ नियोजित विकास का सम्बन्ध उचित रीति से सोच-विचार कर कदम उठाने से है। प्रत्येक क्रिया नियोजित विकास की क्रिया कहलाती है जो विभिन्न कार्यों को सम्पन्न करने हेतु दूरदर्शिता, विचार-विमर्श तथा उद्देश्यों एवं उनकी प्राप्ति हेतु प्रयुक्त होने वाले साधनों की स्पष्टता पर आधारित हो।
→ राजनीतिक फैसले और विकास-
- भारत में नियोजित विकास की राजनीति आरम्भ करने से पहले विभिन्न तरह से विचार-विमर्श किये गये तथा तत्कालीन बाजार शक्तियों, लोगों की आकांक्षाओं एवं पर्यावरण पर विकास के पड़ने वाले तथ्यों को ध्यान में रखा गया।
- अच्छे नियोजन के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु नियोजन के लक्ष्य एवं उद्देश्य स्पष्ट होने चाहिए इसके साथ ही साधनों की व्यवस्था, लचीलापन, समन्वय, व्यावहारिकता, पद- सोपान तथा निरन्तरता जैसे विषयों पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
- भारत में उड़ीसा राज्य की सरकार ने राज्य में इस्पात की बहुतायत को देखते हुए इन क्षेत्रों में उद्योग विकसित करने का मानस बनाया। लेकिन इस क्षेत्र में आदिवासियों के विस्थापन व पर्यावरण जैसी समस्या उभरकर सामने आई जिसको हल करना सरकार की पहली प्राथमिकता थी। इस प्रकार विकास योजनाओं को लागू करने से पहले पर्याप्त सोच-विचार की आवश्यकता है।
→ राजनीतिक टकराव:
विकास से जुड़े निर्णयों से प्रायः सामाजिक – समूह के हितों को दूसरे सामाजिक – समूह के हितों की तुलना में तौला जाता है। साथ ही मौजूदा पीढ़ी के हितों और आने वाली पीढ़ी के हितों को भी लाभ-हानि की तुला पर मापना पड़ता है। किसी भी लोकतन्त्र में ऐसे फैसले जनता द्वारा लिए जाने चाहिए या कम से कम इन फैसलों पर विशेषज्ञों की स्वीकृति की मुहर होनी चाहिए। आजादी के बाद आर्थिक संवृद्धि और सामाजिक न्याय की स्थापना हो इसके लिए सरकार कौन – सी भूमिका निभाए? इस सवाल को लेकर पर्याप्त मतभेद था।
क्या कोई ऐसा केन्द्रीय संगठन जरूरी है जो पूरे देश के लिए योजनाएँ बनाये ? क्या सरकार को कुछ महत्त्वपूर्ण उद्योग और व्यवसाय खुद चलाने चाहिए? अगर सामाजिक न्याय आर्थिक संवृद्धि की जरूरतों के आड़े आता हो तो ऐसी सूरत में सामाजिक न्याय पर कितना जोर देना उचित होगा ? इनमें से प्रत्येक सवाल पर टकराव हुए जो आज तक जारी हैं
→ विकास की धारणाएँ:
भारत ने तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मिश्रित मॉडल को अपनाया स्वतन्त्रता के समय भारत के सामने विकास के दो मॉडल थे। पहला उदारवादी – पूँजीवादी मॉडल था। यूरोप के अधिकतर हिस्सों और संयुक्त राज्य अमरीका में यही मॉडल अपनाया गया था। दूसरा समाजवादी मॉडल था, इसे सोवियत संघ ने अपनाया था। भारत ने इन दोनों मॉडलों के तत्त्वों को सम्मिलित करते हुए मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल को अपनाया। आजादी के आंदोलन के दौरान ही एक सहमति बन गई थी और नेताओं की इस पसंद में यही सहमति प्रतिबिंबित हो रही थी।
राष्ट्रवादी नेताओं के मन में यह बात बिल्कुल साफ थी कि आजाद भारत की सरकार के आर्थिक सरोकार अंग्रेजी हुकूमत के आर्थिक सरोकारों से एकदम अलग होंगे। आजाद भारत की सरकार अंग्रेजी हुकूमत की तरह संकुचित व्यापारिक हितों की पूर्ति के लिए काम नहीं करेगी। आजादी के आन्दोलन के दौरान ही यह बात भी साफ हो गई थी कि गरीबी मिटाने और सामाजिक-आर्थिक पुनर्वितरण के काम का मुख्य जिम्मा सरकार का होगा।
→ नियोजन:
नियोजन के विचार को 1940 और 1950 के दशक में पूरे विश्व में जनसमर्थन मिला था। यूरोप महामंदी का शिकार होकर सबक सीख चुका था; जापान और चीन ने युद्ध की विभीषिका झेलने के बाद अपनी अर्थव्यवस्था फिर खड़ी कर ली थी और सोवियत संघ ने 1930 तथा 1940 के दशक में भारी कठिनाइयों के बीच शानदार आर्थिक प्रगति की थी। इन सभी बातों के कारण नियोजन के पक्ष में दुनियाभर में हवा बह रही थी।
→ योजना आयोग:
योजना आयोग की स्थापना मार्च, 1950 में भारत – सरकार ने एक सीधे-सादे प्रस्ताव के जरिये की। यह आयोग एक सलाहकार की भूमिका निभाता है और इसकी सिफारिशें तभी प्रभावकारी हो पाती हैं जब मन्त्रिमण्डल उन्हें मंजूर करे।
→ शुरुआती कदम:
सोवियत संघ की तरह भारत ने भी पंचवर्षीय योजनाओं का विकल्प चुना। योजना के अनुसार केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारों के बजट को दो हिस्सों में बाँटा गया। एक हिस्सा गैर योजना- व्यय का था। इसके अंतर्गत सालाना आधार पर दैनंदिन मदों पर खर्च करना था। दूसरा हिस्सा योजना-व्यय का था।
→ प्रथम पंचवर्षीय योजना:
1951 में प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रारूप जारी हुआ इस योजना की कोशिश देश को गरीबी के मकड़जाल से निकालने की थी। पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र पर जोर दिया गया था। इसी योजना के अंतर्गत बाँध और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया । भाखड़ा नांगल जैसी विशाल परियोजनाओं के लिए बड़ी धनराशि आबंटित की गई।
→ औद्योगीकरण की तेज रफ्तार:
दूसरी पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों के विकास पर जोर दिया गया। पी.सी. महालनोबिस के नेतृत्व में अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों के एक समूह ने यह योजना तैयार की थी। हरा योजना के अंतर्गत सरकार ने देशी उद्योगों को संरक्षण देने के लिए आयात पर भारी शुल्क लगाया। संरक्षण की इस नीति से निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को आगे बढ़ने में मदद मिली। औद्योगीकरण पर दिए गए इस जोर ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास को एक नया आयाम दिया। तीसरी पंचवर्षीय योजना दूसरी योजना से कुछ खास अलग नहीं थी। आलोचकों के अनुसार दूसरी पंचवर्षीय योजना से इनकी रणनीतियों में शहरों की तरफदारी नजर आने लगी थी।
→ विकेन्द्रित नियोजन:
जरूरी नहीं है कि नियोजन केन्द्रीकृत ही हो, केरल में विकेन्द्रित नियोजन अपनाया गया जिसे ‘केरल मॉडल’ कहा जाता है। इसमें इस बात के प्रयास किये गए कि लोग पंचायत, प्रखण्ड और जिला स्तर की योजनाओं को तैयार करने में शामिल हों। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमि सुधार, गरीबी उन्मूलन पर जोर दिया गया।
→ मुख्य विवाद: विकास से जुड़े दो मुख्य विवाद या प्रश्न निम्न उठे
- कृषि बनाम उद्योग
- निजी क्षेत्र बनाम सार्वजनिक क्षेत्र
भारत जैसी पिछड़ी अर्थव्यवस्था में सरकार देश के ज्यादा संसाधन किस क्षेत्र अर्थात् कृषि में लगाये या उद्योग में तथा विकास के जो दो नये मॉडल थे, भारत ने उनमें से किसी को नहीं अपनाया। पूँजीवादी मॉडल में विकास का काम पूर्णतया निजी क्षेत्र के भरोसे होता है। भारत ने यह रास्ता नहीं अपनाया। भारत ने विकास का समाजवादी मॉडल भी नहीं अपनाया जिसमें निजी सम्पत्ति को समाप्त कर दिया जाता है और हर तरह के उत्पादन पर राज्य का नियन्त्रण होता है। इन दोनों ही मॉडलों की कुछ बातों को ले लिया गया और अपने-अपने देश में इन्हें मिले-जुले रूप में लागू किया गया। इसी कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था कहा जाता है। इस मॉडल की आलोचना दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों खेमों से हुई।
→ मुख्य परिणाम: नियोजित विकास की शुरुआती कोशिशों को देश के आर्थिक विकास और सभी नागरिकों की भलाई के लक्ष्य में आंशिक सफलता मिली। नियोजित आर्थिक विकास के निम्न प्रमुख परिणाम निकले
- बुनियाद: इस दौर में भारत के आगामी विकास की बुनियाद पड़ी। इस काल में भारत की बड़ी विकास- परियोजनाएँ, सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ भारी उद्योग, परिवहन तथा संचार का आधारभूत ढाँचा आदि की स्थापना हुई।
- भूमि सुधार: इस अवधि में भूमि सुधार के गम्भीर प्रयत्न हुए। जमींदारी प्रथा को समाप्त किया गया, . छोटी जोतों को एक-साथ किया गया तथा भूमि की अधिकतम सीमा तय की गई।
- खाद्य संकट: इस काल में सूखे, युद्ध, विदेशी मुद्रा संकट तथा खाद्यान्न की भारी कमी की समस्या का सामना करना पड़ा। खाद्य संकट के कारण सरकार को गेहूँ का आयात करना पड़ा।
→ हरित क्रान्ति: भारत में हरित क्रान्ति की शुरुआत 1960 के दशक में हुई। हरित क्रान्ति के तीन तत्त्व थे-
- कृषि का निरन्तर विस्तार
- दोहरी फसल का उद्देश्य तथा
- अच्छे बीजों का प्रयोग
हरित क्रान्ति से उत्पादन में रिकार्ड वृद्धि हुई, विशेषकर कृषिगत क्षेत्र में वृद्धि हुई तथा औद्योगिक विकास एवं बुनियादी ढाँचे में भी विकास हुआ। हरित क्रान्ति की कुछ कमियाँ भी रही हैं, जैसे- खाद्यान्न संकट बने रहना तथा केवल उत्तरी राज्यों को ही लाभ मिलना तथा धनी किसानों को ही लाभ मिलना इत्यादि।
→ बाद के बदलाव:
1960 के दशक में श्रीमती गाँधी के नेतृत्व में सरकार ने यह फैसला किया कि अर्थव्यवस्था के नियंत्रण और निर्देशन में राज्य बड़ी भूमिका निभायेगा। 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया लेकिन सरकारी नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्था के पक्ष में बनी सहमति अधिक दिनों तक कायम नहीं रही क्योंकि
- भारत की आर्थिक प्रगति दर 3-3.5 प्रतिशत ही रही।
- सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भ्रष्टाचार, अकुशलता का जोर बढ़ा।
- नौकरशाही के प्रति लोगों का विश्वास टूट गया।
फलतः 1980 के दशक के बाद से अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को कम कर दिया गया।