Jharkhand Board JAC Class 9 Hindi Solutions अपठित बोध अपठित गद्यांश Questions and Answers, Notes Pdf.
JAC Board Class 9 Hindi अपठित बोध अपठित गद्यांश
अपठित-बोध के अंतर्गत विद्यार्थी को किसी अपठित गद्यांश और काव्यांश को पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर देने हैं। उत्तर देने से पूर्व अपठित को अच्छी प्रकार से पढ़कर समझ लेना चाहिए। जिन प्रश्नों के उत्तर पूछे जाते हैं, वे उसी में ही छिपे रहते हैं। उत्तर पूर्ण रूप से सटीक होने चाहिए। काव्यांश पर आधारित प्रश्नों में भावात्मकता, लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। अपठित का शीर्षक भी पूछा जाता है। शीर्षक अपठित में व्यक्त भावों के अनुरूप होना चाहिए। ध्यान रहे कि शीर्षक से अपठित का मूल – भाव भी स्पष्ट होना चाहिए। व्याकरण से संबंधित प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं।
अपठित गद्यांश के महत्वपूर्ण उदाहरण –
निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए –
1. भाषा और धर्म किसी भी संस्कृति के मूलाधार होते हैं। धर्म वह मूल्य तय करता है जिनसे जनसमूह संचालित होते हैं और भाषा सनातन मानव परंपराओं की वाहक और नई अभिव्यक्ति का वाहन दोनों है। निर्मल के रचना संसार में भारतीय धर्मों और भाषाओं की आश्यचर्यपूर्ण भिन्नता के प्रति एक सहज उत्सुकता और आदर का भाव हर कहीं है लेकिन इसी के साथ एक त्रासद अहसास भी है कि असली लड़ाई बाहरी युद्ध क्षेत्रों में नहीं, मनुष्यों के मनों में चलती है और आवश्यकता नहीं कि उस लड़ाई में जीत हमेशा उदात्त, धैर्यवान और क्षमाशील तत्वों की ही हो।
इस दर्शन के कारण आदमी, देवता, नदी, पर्वत, वनोपवन से जुड़े मिथकों की एक धुंध हमेशा उनके मन को आधुनिक जीवन जीने के बीच स्वदेश, परदेश पर कहीं घेरे रहती है। ” मिथक मनुष्य को ‘सर्जना’ उतनी नहीं, जितना वह मनुष्य की अज्ञात, अनाम, सामूहिक चेनता का अंग हैं इसके द्वारा अर्थ ग्रहण किया जाता है।…. कला चेतना की उपज है (जो)….. उदात्ततम क्षणों में मिथक होने का स्वप्न देखती है….. जिसमें व्यक्ति और समूह का भेद मिट जाता है।”
प्रश्न :
- ‘संस्कृति’ और ‘सामूहिक’ शब्दों में प्रत्यय लिखिए।
- संस्कृति के मूलाधार किसे माना जाता है ?
- निर्मल वर्मा के साहित्य में क्या उपलब्ध होता है ?
- कला क्या है ?
- संस्कृति के अनुशासन से क्या उत्पन्न होता है ?
- गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
- ‘इ’ और ‘इक’।
- संस्कृति के मूलाधार भाषा और धर्म को माना जाता है क्योंकि इन्हीं के द्वारा जीवन मूल्य और सनातन परंपराओं का वहन और जीवन का संचालन होता है।
- निर्मल वर्मा के साहित्य में भारतीय धर्मों और भाषाओं की आश्चर्यजनक उत्सुकता और आदर का भाव विद्यमान है। साथ ही मानव के मन में उत्पन्न होने वाले भिन्न-भिन्न भाव भी उपलब्ध होते हैं।
- कला चेतना की उपज है जिसमें मिथकों के माध्यम से व्यक्ति और समूह का भेद मिट जाता है।
- संस्कृति के अनुशासन से किसी लेखक में सच्चे और कठोर आत्मालोचन की क्षमता उत्पन्न होती है। इससे संस्कृति के नए आयाम रचने की शक्ति मिलती है।
- भाषा और धर्म।
2. हमारा हिमालय से कन्याकुमारी तक फैला हुआ देश, आकार और आत्मा दोनों दृष्टियों से महान और सुंदर है। उसका बाह्य सौंदर्य विविधता की सामंजस्यपूर्ण स्थिति है और आत्मा का सौंदर्य विविधता में छिपी हुई एकता की अनुभूति है। चाहे कभी न गलने वाला हिम का प्राचीर हो, चाहे कभी न जमने वाला अतल समुद्र हो, चाहे किरणों की रेखाओं से खचित हरीतिमा हो, चाहे एकरस शून्यता ओढ़े हुए मरु हो, चाहे साँवले भरे मेघ हों, चाहे लपटों में साँस लेता हुआ बवंडर हो, सब अपनी भिन्नता में भी एक ही देवता के विग्रह को पूर्णता देते हैं। जैसे मूर्ति के एक अंग का टूट जाना संपूर्ण देव – विग्रह को खंडित कर देता है, वैसे ही हमारे देश की अखंडता के लिए विविधता की स्थिति है।
यदि इस भौगोलिक विविधता में व्याप्त सांस्कृतिक एकता न होती, तो यह विविध नदी, पर्वत, वनों का संग्रह मात्र रह जाता। परंतु इस महादेश की प्रतिभा ने इसकी अंतरात्मा को एक रसमयता में प्लावित करके इसे विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान किया है, जिससे यह आसमुद्र एक नाम की परिधि में बँध जाता है। हर देश अपनी सीमा में विकास पाने वाले जीवन के साथ एक भौतिक इकाई है, जिससे वह समस्त विश्व की भौतिक और भौगोलिक इकाई से जुड़ा हुआ है। विकास की दृष्टि से उसकी दूसरी स्थिति आत्म-रक्षात्मक तथा व्यवस्थापरक राजनीतिक सत्ता में है।
प्रश्न :
- अवतरण का उचित शीर्षक दीजिए।
- ‘सुंदरता’ और ‘भौगोलिक’ में प्रत्यय बताइए।
- कौन एक ही देवता के विग्रह को पूर्णता प्रदान करते हैं ?
- हमारे देश की अखंडता के लिए विविधता की स्थिति कैसी है ?
- विकास की दृष्टि से किसी देश की स्थिति किसमें है?
- हमारे देश की अखंडता के लिए कैसी स्थिति आवश्यक है ?
उत्तर :
- देश की सांस्कृतिक एकता।
- ‘ता’ और ‘इक’।
- ऊँचे-ऊँचे बर्फ से ढके पर्वत, अतल गहराई वाले सागर, रेगिस्तान घने काले बादल, बवंडर आदि देवता के विग्रह को पूर्णता प्रदान करते हैं।
- हमारे देश की अखंडता के लिए विविधता की स्थिति वैसी ही है जैसे किसी मूर्ति की पूर्णता। मूर्ति का एक अंग भी टूट जाना देव-विग्रह को जैसे खंडित कर देता है वैसे ही हमारे देश की अखंडता है।
- विकास की दृष्टि से किसी देश की स्थिति आत्मरक्षात्मक और व्यवस्थात्मक राजनीतिक सत्ता में है। वह उसकी सांस्कृतिक गतिशीलता में है।
- हमारे देश की अखंडता के लिए विविधता की स्थिति आवश्यक है।
3. आज हम एक स्वतंत्र राष्ट्र की स्थिति पा चुके हैं, राष्ट्र की अनिवार्य विशेषताओं में दो हमारे पास हैं – भौगोलिक अखंडता और सांस्कृतिक एकता, परंतु अब तक हम उस वाणी को प्राप्त नहीं कर सके हैं जिसमें एक स्वतंत्र राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों के निकट अपना परिचय देता है जहाँ तक बहुभाषा- भाषी होने का प्रश्न है, ऐसे देश की संख्या कम नहीं है जिनके भिन्न भागों में भिन्न भाषाओं की स्थिति है। पर उनकी अविच्छिन्न स्वतंत्रता की के परंपरा ने उन्हें सम-विषम स्वरों से एक राग रच लेने की क्षमता दे दी है।
हमारे देश की कथा कुछ दूसरी है। हमारी परतंत्रता आँधी-तूफ़ान समान नहीं आई, जिसका आकस्मिक संपर्क तीव्र अनुभूति से अस्तित्व को कंपित कर देता है। वह तो रोग के कीटाणु लाने वाले मंद समीर के समान साँस में समाकर शरीर में व्याप्त हो गई है। हमने अपने संपूर्ण अस्तित्व से उसके भार को दुर्वह नहीं अनुभव किया और हमें यह ऐतिहासिक सत्य भी विस्मृत हो गया कि कोई भी विजेता विजित कर राजनीतिक प्रभुत्व पाकर ही संतुष्ट नहीं होता, क्योंकि सांस्कृतिक प्रभुत्व के बिना राजनीतिक विजय न पूर्ण है, न स्थायी। घटनाएँ संस्कारों में चिर जीवन पाती हैं और संस्कार के अक्षय वाहक, शिक्षा, साहित्य, कला आदि हैं। राष्ट्र-जीवन की पूर्णता के लिए उसके मनोजगत को मुक्त करना होगा और यह कार्य विशेष प्रयत्न- साध्य है, क्योंकि शरीर को बाँधने वाली श्रृंखला से आत्मा को जकड़ने वाली श्रृंखला अधिक दृढ़ होती है।
प्रश्न :
- राष्ट्र की कौन-सी अनिवार्य विशेषताएँ हमारे पास हैं ?
- हमारी परतंत्रता कैसे आई ?
- किसके बिना राजनीतिक विजय अपूर्ण है ?
- संस्कार के अक्षय वाहक क्या हैं ?
- राष्ट्र जीवन की पूर्णता के लिए किसे मुक्त करना होगा ?
- उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
- हमारे पास राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता एवं भौगोलिक अखंडता है।
- हमारी परतंत्रता रोग के कीटाणु लाने वाली वायु जैसी आई।
- सांस्कृतिक प्रभुत्व के बिना राजनीतिक विजय न पूर्ण है और न ही स्थायी है।
- संस्कार के अक्षय वाहक कला, शिक्षा एवं साहित्य हैं।
- राष्ट्र जीवन की पूर्णता के लिए हमें अपने मनोजगत को मुक्त करना होगा।
- राष्ट्र – जीवन।
4. जल और मानव-जीवन का संबंध अत्यंत घनिष्ठ है। वास्तव में जल ही जीवन है। विश्व की प्रमुख संस्कृतियों का जन्म बड़ी-बड़ी नदियों के किनारे ही हुआ है। बचपन से ही हम जल की उपयोगिता, शीतलता और निर्मलता के कारण उसकी ओर आकर्षित होते रहे हैं। किंतु नल के नीचे नहाने और जलाशय में डुबकी लगाने में ज़मीन-आसमान का अंतर है। हम जलाशयों को देखते ही मचल उठते हैं, उसमें तैरने के लिए। आज सर्वत्र सहस्त्रों व्यक्ति प्रतिदिन सागरों, नदियों और झीलों में तैरकर मनोविनोद करते हैं और साथ ही अपना शरीर भी स्वस्थ रखते हैं।
स्वच्छ और शीतल जल में तैरना तन को स्फूर्ति ही नहीं मन को शांति भी प्रदान करता है। तैराकी आनंद की वस्तु होने के साथ-साथ हमारी आवश्यकता भी है। नदियों के आस – पास गाँव के लोग सड़क मार्ग न होने पर एक-दूसरे से तभी मिल सकते हैं जब उन्हें तैरना आता हो अथवा नदियों में नावें हों। प्राचीनकाल में नावें कहाँ थीं ? तब तो आदमी को तैरकर ही नदियों को पार करना पड़ता था। किंतु तैरने के लिए आदिम मनुष्य को निश्चय ही प्रयत्न और परिश्रम करना पड़ता होगा, क्योंकि उसमें अन्य प्राणियों की भाँति तैरने की जन्मजात क्षमता नहीं है।
जल में मछली आदि जलजीवों को स्वच्छंद विचरण करते देख मनुष्य ने उसी प्रकार तैरना सीखने का प्रयत्न किया और धीरे-धीरे उसने इस कार्य में इतनी निपुणता प्राप्त कर ली कि आज तैराकी एक कला के रूप में गिनी जाने लगी। विश्व में जो भी खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं, उनमें तैराकी प्रतियोगिता अनिवार्य रूप से सम्मिलित की जाती है।
प्रश्न :
- विश्व की प्रमुख संस्कृतियों का जन्म कहाँ से हुआ ?
- तैराकी के द्वारा क्या लाभ प्राप्त होते हैं ?
- प्राचीनकाल में तैराकी मानव के लिए आवश्यक क्यों थी ?
- आदिमानव को तैराकी की प्रेरणा कैसे मिली होगी ?
- मनुष्य के लिए ‘तैराकी’ कैसी क्षमता है ?
- तैराकी की विश्व में महत्ता कैसे प्रकट होती है ?
उत्तर :
- विश्व की प्रमुख संस्कृतियों का जन्म बड़ी-बड़ी नदियों के किनारे हुआ।
- तैराकी द्वारा मनोविनोद, शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक शांति मिलती है।
- एक-दूसरे तक पहुँचने के लिए नदियों को तैरकर पार करना पड़ता था।
- आदिमानव को तैराकी की प्रेरणा जलचरों से मिली होगी।
- मनुष्य के लिए तैराकी अभ्यास से प्राप्त क्षमता है।
- तैराकी की विश्वस्तरीय विभिन्न खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेकर विजित होने से।
5. भाषणकर्ता के गुणों में तीन गुण श्रेष्ठ माने जाते हैं – सादगी, असलियत और जोश। यदि भाषणकर्ता बनावटी भाषा में बनावटी बातें करता है तो श्रोता तत्काल ताड़ जाते हैं। इस प्रकार के भाषणकर्ता का प्रभाव समाप्त होने में देरी नहीं लगती। यदि वक्ता में उत्साह की कमी हो तो भी उसका भाषण निष्प्राण हो जाता है। उत्साह से ही किसी भी भाषण में प्राणों का संचार होता है। भाषण को प्रभावशाली बनाने के लिए उसमें उतार- चढ़ाव, तथ्य और आँकड़ों का समावेश आवश्यक है। अतः उपर्युक्त तीनों गुणों का समावेश एक अच्छे भाषणकर्ता के लक्षण हैं तथा इनके बिना कोई भी भाषणकर्ता श्रोताओं पर अपना प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकता।
प्रश्न :
- इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
- अच्छे भाषण के कौन-से गुण होते हैं ?
- श्रोता किसे तत्काल ताड़ जाते हैं ?
- कैसे भाषण का प्रभाव देर तक नहीं रहता ?
- ‘श्रोता’ तथा ‘जोश’ शब्दों के अर्थ लिखिए।
- ‘उत्साह से ही किसी भी भाषण में प्राणों का संचार होता है।’ अर्थ की दृष्टि से कौन – सा भेद है?
उत्तर :
- श्रेष्ठ भाषणकर्ता।
- अच्छे भाषण में सादगी, तथ्य, उत्साह, आँकड़ों का समावेश होना चाहिए।
- जो भाषणकर्ता बनावटी भाषा में बनावटी बातें करता है, उसे श्रोता तत्काल ताड़ जाते हैं।
- जिस भाषण में सादगी, वास्तविकता और उत्साह नहीं होता, उस भाषण का प्रभाव देर तक नहीं रहता।
- श्रोता = सुनने वाला। जोश = आवेग, उत्साह।
- विधानवाचक वाक्य।
6. सांप्रदायिक सद्भाव और सौहार्द बनाए रखने के लिए हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि प्रेम से प्रेम और विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है और यह भी नहीं भूलना चाहिए कि घृणा से घृणा का जन्म होता है जो दावाग्नि की तरह सबको जलाने का काम करती है। महात्मा गांधी घृणा को प्रेम से जीतने में विश्वास करते थे। उन्होंने सर्वधर्म सद्भाव द्वारा सांप्रदायिक घृणा को मिटाने का आजीवन प्रयत्न किया। हिंदू और मुसलमान दोनों की धार्मिक भावनाओं को समान आदर की दृष्टि से देखा। सभी धर्म शांति के लिए भिन्न-भिन्न उपाय और साधन बताते हैं। धर्मों में छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं है। सभी धर्म सत्य, प्रेम, समता, सदाचार और नैतिकता पर बल देते हैं, इसलिए धर्म के मूल में पार्थक्य या भेद नहीं है।
प्रश्न :
- घृणा से किसका जन्म होता है ?
- इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
- सभी धर्म किन बातों पर बल देते हैं ?
- सांप्रदायिक सद्भावना कैसे बनाए रखी जा सकती है ?
- महात्मा गांधी घृणा को कैसे जीतना चाहते थे ?
- ‘छोटे-बड़े’ शब्द में कौन-सा समास है?
उत्तर :
- घृणा का जन्म होता है
- सांप्रदायिक सद्भाव
- सभी धर्म, सत्य, प्रेम, समता, सदाचार और नैतिकता पर बल देते हैं।
- सांप्रदायिक सद्भावना बनाए रखने के लिए सब धर्मों वालों को आपस में प्रेम और विश्वास बनाए रखते हुए सब धर्मों का समान रूप से आदर करना चाहिए।
- महात्मा गांधी घृणा को प्रेम से जीतना चाहते थे।
- द्वंद्व समास।
7. विद्यार्थी का अहंकार आवश्यकता से अधिक बढ़ता जा रहा है और दूसरे उसका ध्यान अधिकार पाने में है, अपना कर्तव्य पूरा करने में नहीं। अहं बुरी चीज़ कही जा सकती है। यह सब में होता है। एक सीमा तक आवश्यक भी है। परंतु आज के विद्यार्थियों में इतना बढ़ गया है कि विनय के गुण उनमें नाम मात्र को नहीं रह गए हैं। गुरुजनों या बड़ों की बात का विरोध करना उनके जीवन का अंग बन गया है। इन्हीं बातों के कारण विद्यार्थी अपने उन अधिकारों को, जिनके वे अधिकारी नहीं हैं, उसे भी वे अपना समझने लगे हैं। अधिकार और कर्तव्य दोनों एक- दूसरे से जुड़े रहते हैं। स्वस्थ स्थिति वही कही जा सकती हैं जब दोनों का संतुलन हो। आज का विद्यार्थी अधिकार के प्रति सजग है, परंतु वह अपने कर्तव्यों की ओर से विमुख हो गया है।
प्रश्न :
- आधुनिक विद्यार्थियों में नम्रता की कमी क्यों होती जा रही है ?
- विद्यार्थी प्रायः किसका विरोध करते हैं ?
- विद्यार्थी में किसके प्रति सजगता अधिक हैं ?
- रेखांकित शब्दों के अर्थ लिखिए।
- गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
- ‘अधिकारी’ शब्द से प्रत्यय और उपसर्ग अलग करके लिखिए।
उत्तर :
- आधुनिक विद्यार्थियों में अहंकार बढ़ने और विनम्रता न होने से नम्रता की कमी होती जा रही है।
- विद्यार्थी प्रायः गुरुजनों या बड़ों की बातों का विरोध करते हैं।
- विद्यार्थियों में अपने अधिकारों के प्रति सजगता अधिक है।
- विनय = नम्रता। सजग = सावधान।
- विद्यार्थियों में अहंकार।
- अधि उपसर्ग, ई प्रत्यय।
8. जीवन घटनाओं का समूह है। यह संसार एक बहती नदी के समान है। इसमें बूँद न जाने किन-किन घटनाओं का सामना करती जूझती आगे बढ़ती है। देखने में तो इस बूँद की हस्ती कुछ भी नहीं। जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं जो मनुष्य को असंभव से संभव की ओर ले जाती हैं। मनुष्य अपने को महान कार्य कर सकने में समर्थ समझने लगता है। मेरे जीवन में एक रोमांचकारी घटना है जिसे मैं आपको सुनाना चाहती हूँ। यह घटना जीवन के सुख-दुख के मधुर मिलन का रोमांच लिए है।
प्रश्न :
- जीवन क्या है ?
- लेखिका क्या सुनाना चाहती है ?
- नदी की धारा में पानी की एक बूँद का क्या महत्व है ?
- रेखांकित शब्दों के अर्थ लिखिए।
- यह संसार कैसा है?
- गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर :
- जीवन घटनाओं का समूह है।
- लेखिका अपने जीवन की एक रोमांचकारी घटना सुनाना चाहती है।
- नदी की धारा पानी की एक-एक बूँद से मिलकर बनती है, इसलिए नदी की धारा में पानी की एक बूँद भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
- हस्ती = महत्व, अस्तित्व, वजूद। रोमांचकारी = आनंद देने वाली, पुलकित करने वाली।
- यह संसार एक बहती नदी के समान है।
- जीवन : एक संघर्ष।
9. लोग कहते हैं कि मेरा जीवन नाशवान है। मुझे एक बार पढ़कर लोग फेंक देते हैं। मेरे लिए एक कहावत बनी है “पानी केरा बुदबुदा अस अखबार की जात, पढ़ते ही छिप जात है, ज्यों तारा प्रभात।” पर मुझे अपने इस जीवन पर भी गर्व है। मर कर भी मैं दूसरों के काम आता हूँ। मेरे सच्चे प्रेमी मेरे सारे शरीर को फाइल में क्रम से सँभाल कर रखते हैं। कई लोग मेरे उपयोगी अंगों को काटकर रख लेते हैं। मैं रद्दी बनकर भी ग्राहकों की कीमत का एक तिहाई भाग अवश्य लौटा देता हूँ। इस प्रकार महान उपकारी होने के कारण मैं दूसरे ही दिन नया जीवन पाता हूँ और अधिक ज़ोर-शोर से सज-धज के आता हूँ। इस प्रकार एक बार फिर सबके मन में समा जाता हूँ। तुमको भी ईर्ष्या होने लगी है न मेरे जीवन से। भाई ईर्ष्या नहीं स्पर्धा करो। आप भी मेरी तरह उपकारी बनो। तुम भी सबकी आँखों के तारे बन जाओगे।
प्रश्न :
- अखबार का जीवन नाशवान कैसे है ?
- अखबार क्या- क्या लाभ पहुँचाता है ?
- यह किस प्रकार उपकार करता है ?
- इन शब्दों के अर्थ लिखिए – उपयोगी, स्पर्धा।
- गद्यांश का उपयुक्त ‘शीर्षक’ दीजिए।
- हमें ईर्ष्या के स्थान पर क्या करना चाहिए?
उत्तर :
- इसे लोग एक बार पढ़ कर फेंक देते हैं। इसलिए अखबार का जीवन नाशवान है।
- अखबार ताज़े समाचार देने के अतिरिक्त रद्दी बनकर लिफाफे बनाने के काम आता है। कुछ लोग उपयोगी समाचार काट कर फाइल बना लेते हैं।
- रद्दी के रूप में बिककर वह अपना एक-तिहाई मूल्य लौटाकर उपकार करता है।
- उपयोगी = काम में आने वाला। स्पर्धा = मुकाबला।
- ‘अखबार’।
- हमें ईर्ष्या के स्थान पर स्पर्धा करनी चाहिए।
10. आपका जीवन एक संग्राम स्थल है जिसमें आपको विजयी बनना है। महान जीवन के रथ के पहिए फूलों से भरे नंदन वन में नहीं गुज़रते, कंटकों से भरे बीहड़ पथ पर चलते हैं। आपको ऐसे ही महान जीवन पथ का सारथी बनकर अपनी यात्रा को पूरा करना है। जब तक आपके पास आत्म-विश्वास का दुर्जय शास्त्र नहीं है, न तो आप जीवन की ललकार का सामना कर सकते हैं, न जीवन संग्राम में विजय प्राप्त कर सकते हैं और न महान जीवनों के सोपानों पर चढ़ सकते हैं। जीवन पथ पर आप आगे बढ़ रहे हैं, दुख और निराशा की काली घटाएँ आपके मार्ग पर छा रही हैं, आपत्तियों का अंधकार मुँह फैलाए आपकी प्रगति को निगलने के लिए बढ़ा चला आ रहा है। लेकिन आपके हृदय में आत्म-विश्वास की दृढ़ ज्योति जगमगा रही है तो इस दुख एवं निराशा का कुहरा उसी प्रकार कट जाएगा, जिस प्रकार सूर्य की किरणों के फूटते ही अंधकार भाग जाता है।
प्रश्न :
- महान जीवन के रथ किस पथ से गुज़रते हैं ?
- आप किस शस्त्र के द्वारा जीवन के कष्टों का सामना कर सकते हैं ?
- निराशा की काली घटाएँ किस प्रकार समाप्त हो जाती हैं ?
- रेखांकित शब्दों के अर्थ लिखिए।
- गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
- आत्मविश्वास को कौन – सा शास्त्र कहा गया है?
उत्तर :
- महान जीवन के रथ फूलों से भरे वनों से ही नहीं गुज़रते बल्कि कांटों से भरे बीहड़ पथ पर भी चलते हैं। द्वारा हम जीवन के कष्टों का सामना कर सकते हैं।
- आत्म-विश्वास के शस्त्र के द्वारा हम जीवन के कष्टों का सामना कर सकते हैं।
- आत्म-विश्वास की दृढ़ ज्योति के आगे निराशा की काली घटाएँ समाप्त हो जाती हैं।
- सोपानों सीढ़ियों। ज्योति प्रकाश।
- शीर्षक – आत्मविश्वास।
- आत्मविश्वास को दुर्जय शास्त्र कहा गया है।
11. सहयोग एक प्राकृतिक नियम है, यह कोई बनावटी तत्व नहीं है, प्रत्येक पदार्थ, प्रत्येक व्यक्ति का काम आंतरिक सहयोग पर अवलंबित है। किसी मशीन का उसके पुर्जों के साथ संबंध है। यदि उसका एक भी पुर्जा खराब हो जाता है तो वह मशीन चल नहीं सकती। किसी शरीर का उसके आँख, कान, नाक, हाथ, पाँव आदि पोषण करते हैं। किसी अंग पर चोट आती है, मन एकदम वहाँ पहुँच जाता है। पहले क्षण आँख देखती है, दूसरे क्षण हाथ सहायता के लिए पहुँच जाता है। इसी तरह समाज और व्यक्ति का संबंध है। समाज शरीर है तो व्यक्ति उसका अंग है। जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अंग परस्पर सहयोग करते हैं उसी तरह समाज के विकास के लिए व्यक्तियों का आपसी सहयोग अनिवार्य है। शरीर को पूर्णता अंगों के सहयोग से मिलती है। समाज को पूर्णता व्यक्तियों के सहयोग से मिलती है। प्रत्येक व्यक्ति, जो कहीं पर भी है, अपना काम ईमानदारी और लगन से करता रहे, तो समाज फलता-फूलता है।
प्रश्न :
- समाज कैसे फलता-फूलता है ?
- शरीर के अंग कैसे सहयोग करते हैं ?
- समाज और व्यक्तियों का क्या संबंध है ?
- ‘अवलंबित’ में कौन-सा प्रत्यय है?
- गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
- समाज को पूर्णता कैसी मिलती है?
उत्तर :
- प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपना काम मेहनत, लगन और ईमानदारी से करने पर समाज फलता-फूलता है।
- शरीर के अंग शरीर को स्वस्थ रखने में सहयोग करते हैं। जैसे जब शरीर के किसी अंग को चोट लगती है तो मन के संकेत पर आँख और हाथ उसकी सहायता के लिए पहुँच जाते हैं।
- समाज और व्यक्तियों का आपस में घनिष्ठ संबंध है। समाज के विकास के लिए व्यक्तियों को आपस में मिल-जुलकर काम करना होता है। समाज को पूर्णता भी व्यक्तियों के सहयोग से मिलती है।
- ‘इत’ प्रत्यय है।
- शीर्षक – व्यक्ति और समाज।
- व्यक्तियों के सहयोग से समाज को पूर्णता मिलती है।
12. भारतवर्ष एक धर्म-निरपेक्ष गणतंत्र है। यहाँ प्रत्येक धर्मावलम्बी को अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप अपने आराध्य देव की आराधना करने की स्वतंत्रता है। किंतु कुछ स्वार्थी तत्व देश की एकता को खंडित करने के लिए धर्म के नाम पर लोगों के मन में विष भरकर सांप्रदायिक दंगे कराते रहते हैं। इसमें कुछ लोग देश का विभिन्न संप्रदायों के आधार पर विभाजन करना चाहते हैं। हमें इस षड्यंत्र से सावधान रहना चाहिए तथा देश में सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखना चाहिए, क्योंकि “मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।”
प्रश्न :
- भारतवर्ष कैसा गणतंत्र है ?
- हमारे देश में प्रत्येक धर्मावलंबी को किस कार्य की स्वतंत्रता है ?
- हमें किस षड्यंत्र से सावधान रहना चाहिए ?
- ‘आराध्य’ और ‘मज़हब’ शब्दों के अर्थ लिखिए।
- गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए !
- ‘धर्मावलंबी’ में कौन-सा समास है?
उत्तर :
- भारतवर्ष एक धर्मनिरपेक्ष गणतन्त्र है।
- हमारे देश में प्रत्येक धर्मावलम्बी को अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप अपने आराध्य देव की आराधना करने की स्वतन्त्रता है।
- हमें देश की एकता को खंडित करने वाले तथा धर्म के नाम पर सांप्रदायिक दंगा कराने वालों के षड्यन्त्र से सावधान रहना चाहिए।
- आराध्य = पूजनीय, मज़हब = धर्म।
- सांप्रदायिक सद्भाव।
- संबंध तत्पुरुष समास।
13. राष्ट्रीयता का प्रमुख उपकरण देश होता है जिसके आधार पर राष्ट्रीयता का जन्म तथा विकास होता है। इस कारण देश की इकाई राष्ट्रीयता के लिए आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता को खंडित करने के उद्देश्य से कुछ विघटनकारी शक्तियाँ हमारे देश को देश न कहकर उपमहाद्वीप के नाम से संबोधित करती हैं। भौगोलिक दृष्टि से भारत के विस्तृत भू-खंड, जिसमें अनेक नदियाँ और पर्वत कभी-कभी प्राकृतिक बाधाएँ भी उपस्थित कर देते हैं, को ये शक्तियाँ संकीर्ण क्षेत्रीयता की भावनाएँ विकसित करने में सहायता करती हैं।
प्रश्न :
- राष्ट्रीयता का प्रमुख उपकरण क्या है ?
- देश की इकाई किसलिए आवश्यक है ?
- भौगोलिक दृष्टि से भारत कैसा है ?
- ‘राष्ट्रीय तथा भौगोलिक’ शब्दों से प्रत्यय अलग करके लिखिए।
- इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
- भारत के विस्तृत भूखंड में कौन प्राकृतिक बाधाएँ उत्पन्न करते हैं?
उत्तर :
- राष्ट्रीयता का प्रमुख उपकरण देश है।
- देश की इकाई राष्ट्रीयता के लिए आवश्यक है।
- भौगोलिक दृष्टि से भारत उपमहाद्वीप जैसा है जिसमें अनेक नदियाँ, पहाड़ और विस्तृत भूखंड है।
- ईय और इक।
- राष्ट्रीयता।
- नदियाँ और पर्वत प्राकृतिक बाधाएँ उत्पन्न करते हैं।
14. दस गीदड़ों की अपेक्षा एक सिंह अच्छा है। सिंह – सिंह और गीदड़ – गीदड़ है। यही स्थिति परिवार के उन सदस्य की होती है जिनकी संख्या आवश्यकता से अधिक हो। न भरपेट भोजन, न तन ढकने के लिए वस्त्र। न अच्छी शिक्षा, न मनचाहा रोज़गार। गृहपति प्रतिक्षण चिंता में डूबा रहता है। रात की नींद और दिन का चैन गायब हो जाता है। बार-बार दूसरों पर निर्भर होने की विवशता। सम्मान और प्रतिष्ठा तो जैसे सपने की बातें हों। यदि दुर्भाग्यवश गृहपति न रहे तो आश्रितों का कोई टिकाना नहीं। इसलिए आवश्यक है कि परिवार छोटा हो।
प्रश्न :
- परिवार के सदस्यों की क्या स्थिति होती है ?
- गृहपति प्रतिक्षण चिंता में क्यों डूबा रहता है ?
- रात की नींद और दिन का चैन क्यों गायब हो जाता है ?
- ‘प्रतिक्षण’ में कौन-सा समास है?
- गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
- गृहपति किसे कहा गया है ?
उत्तर :
- जिस परिवार की संख्या आवश्यकता से अधिक होती है, उस परिवार को न भरपेट भोजन, न वस्त्र, न अच्छी शिक्षा और न ही मनचाहा रोज़गार मिलता है। उनकी स्थिति दस गीदड़ों जैसी हो जाती है।
- गृहपति प्रतिक्षण परिवार के भरण-पोषण की चिंता में डूबा रहता है कि इतने बड़े परिवार का गुजारा कैसे होगा ?
- रात की नींद और दिन का चैन इसलिए गायब हो जाता है क्योंकि बड़े परिवार के गृहपति को दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। उसका सम्मान तथा प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है। उसे अपने मरने के बाद परिवार की दुर्दशा के संबंध में सोचकर बेचैनी होती है।
- क्षण-क्षण = अव्ययीभाव समास।
- छोटा परिवार : सुखी परिवार।
- गृहपति घर के मालिक को कहा गया है।
15. अकेलेपन की समस्या आज के मशीनी युग में बढ़ती ही जा रही है। यह समस्या घर-परिवार व समाज में प्रत्येक स्थान पर मुँह खोले खड़ी दिखाई देती है। यह अकेलापन मनुष्य की नियति बनकर उसे ग्रसित कर रहा है। इसका कारण चाहे विघटित होते हुए संयुक्त परिवार हों, चाहे पारस्परिक संबंधों की विच्छिन्नता हो, चाहे मशीनी सभ्यता का प्रभाव हो, चाहे पुराने जीवन मूल्यों का खंड-खंड होकर बिखरा जाना हो, परंतु इस वास्तविकता को किसी भी दशा में नकारा नहीं जा सकता कि आज यह अकेलेपन की समस्या समाज में धीरे-धीरे अपने प्रभाव व अनुपात में वृद्धि की ओर अग्रसर हो चुकी है। आज पारिवारिक संबंधों में भी औपचारिकता घर कर चुकी है। हममें से न जाने कितने ऐसे लोग हैं जो बताएँ या न बताएँ; पर कहीं-न-कही किसी-न-किसी सीमा तक अकेलेपन की समस्या से संत्रस्त हैं।
प्रश्न :
- मशीनी युग में कौन-सी समस्या बढ़ती जा रही है ?
- आज के पारिवारिक संबंध कैसे हो चुके हैं ?
- अकेलेपन के मुख्य कारण कौन-से हैं ?
- ‘अकेलापन’ और ‘औपचारिकता’ में कौन-से प्रत्यय हैं?
- इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
- अकेलापन क्या बनकर मनुष्य को ग्रसित कर रहा है?
उत्तर :
- मशीनी युग में अकेलेपन की समस्या बढ़ती जा रही है ?
- आज के पारिवारिक संबंध औपचारिक हो गए हैं।
- अकेलेपन के मुख्य कारण विघटित होते हुए संयुक्त परिवार, आपसी संबंध में गिरावट, मशीनी युग का प्रभाव तथा पुराने मूल्यों का बिखरना है।
- पन तथा इक, ता।
- अकेलेपन की त्रासदो।
- अकेलापन मनुष्य को नियति बनकर ग्रसित कर रहा है।
16. हिंदी की वर्तमान दशा पर प्रकाश डालने से पूर्व इसके उद्भव और विकास से आपका परिचय कराना चाहती हूँ। हिंदी के उद्भव की प्रक्रिया बहुत प्राचीन है। संस्कृत दो रूपों में बँटी – वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत। संस्कृत के लौकिक रूप से प्राकृत भाषा आई। प्राकृत के अपभ्रंश से शौरसैनी भाषा उत्पन्न हुई जिससे आज प्रयुक्त होने वाली पश्चिमी हिंदी भाषा का आविर्भाव हुआ। तुलसीदास और जायसी ने जिस अवधी भाषा का प्रयोग किया वह अर्ध मागधी प्राकृत से विकसित हुई। सूरदास, नंददास और अष्टछाप के कवियों ने जिस ब्रजभाषा में काव्य-रचना की वह शौरसैनी अथवा नगर अपभ्रंश से विकसित हुई।
भौगोलिक दृष्टि से खड़ी बोली उस बोली को कहते हैं जो रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ़्फ़रनगर, सहारनपुर, देहरादून, अंबाला और पटियाला के पूर्वी भागों में बोली जाती है। चौदहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम अमीर खुसरो ने इसे ‘भारत के मुसलमानों की भाषा’ कहकर इसमें काव्य-रचना की थी। तत्पश्चात भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, पंत आदि ने इसे अपने साहित्य में प्रयुक्त किया और आज देश के लाखों साहित्यकार इसमें साहित्य-रचना कर रहे हैं। भाषा विज्ञान की दृष्टि से पश्चिमी हिंदी को ही हिंदी कहा जाता है और इस भू-भाग की भाषा थी जिसे प्राचीनकाल में अंतर्वेद कहते थे। इस भाषा में अरबी, फ़ारसी के शब्दों को भी स्वीकार किया गया।
प्रश्न :
- हिंदी के उद्भव से पूर्व संस्कृत की क्या दशा थी ?
- प्राकृत भाषा का विकास किससे हुआ था ?
- भाषा विज्ञान की दृष्टि से हिंदी का क्या स्वरूप है ?
- शौरसैनी से विकसित किस भाषा से किन कवियों ने काव्य रचना की ?
- ‘भौगोलिक’ शब्द में कौन-सा प्रत्यय प्रयुक्त हुआ है ?
- भौगोलिक दृष्टि से खड़ी बोली किसे कहते हैं?
उत्तर :
- हिंदी के उद्भव से पूर्व संस्कृत भाषा वैदिक और लौकिक संस्कृत दो रूपों में विभक्त हो गई थी।
- प्राकृत भाषा का विकास संस्कृत भाषा के लौकिक रूप से हुआ था।
- भाषा विज्ञान की दृष्टि से पश्चिमी हिंदी को हिंदी कहा जाता है, जिसमें अरबी-फ़ारसी के शब्दों को भी स्वीकार किया गया है।
- शौरसैनी से विकसित ब्रजभाषा में अष्टछाप के सूरदास, नंददास आदि कवियों ने काव्य रचना की।
- ‘इक’ प्रत्यय।
- भौगोलिक दृष्टि से खड़ी बोली उस बोली को कहते हैं जो रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, अंबाला और पटियाला के पूर्वी भागों में बोली जाती है।
17. मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म 31 जुलाई, सन् 1880 को बनारस के लमही नामक ग्राम में हुआ। उनका वास्तविक नाम धनपत राय था। उनका बचपन अभावों में ही बीता और हर प्रकार के संघर्षों को झेलते हुए उन्होंने बी० ए० तक शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने शिक्षा विभाग में नौकरी की किंतु असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूरी तरह लेखन कार्य में जुट गए। वे तो जन्म से ही लेखक और चिंतक थे। शुरू में वे उर्दू में नवाबराय के नाम से लिखने लगे। एक ओर समाज की कुरीतियों और दूसरी ओर तत्कालीन व्यस्था के प्रति निराशा और आक्रोश था। उनके लेखों में कमाल का जादू था।
वे अपनी बात को बड़ी ही प्रभावशाली ढंग से लिखते थे। जनता की खबरें पहुँच गयीं। अंग्रेजा सरकार ने उनके लेखों पर रोक लगा दी। किंतु, उनके मन में उठने वाले स्वतंत्र एवं क्रांतिकारी विचारों को भला कौन रोक सकता था। इसके बाद उन्होंने ‘प्रेमचंद’ के नाम से लिखना शुरू कर दिया। इस तरह से धनपतराय से प्रेमचंद बन गए। ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘निर्मला’, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ आदि इनके प्रमुख उपन्यास हैं जिनमें सामाजिक समस्याओं का सफल चित्रण है।
इनके अतिरिक्त उन्होंने ‘ईदगाह’, ‘नमक का दारोगा’, ‘दो बैलों की कथा’, ‘बड़े भाई साहब’ और ‘पंच परमेश्वर’ आदि अनेक अमर कहानियाँ भी लिखीं। वे आजीवन शोषण, रूढ़िवादिता, अज्ञानता और अत्याचारों के विरुद्ध अबाधित गति से लिखते रहे। गरीबों, किसानों, विधवाओं और दलितों की समस्याओं का प्रेमचंद जी ने बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। वे समाज में पनप चुकी कुरीतियों से बहुत आहत होते थे इसलिए उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रयास इनकी रचनाओं में सहज ही देखा जा सकता है। निःसंदेह वे महान उपन्यासकार और कहानीकार थे। सन 1936 में इनका देहांत हो गया।
प्रश्न :
- मुंशी प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम क्या था ?
- प्रेमचंद ने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र क्यों दे दिया था ?
- वे आजीवन किसके विरुद्ध लिखते रहे?
- ‘अबाधित’ तथा ‘आहत’ शब्दों के अर्थ लिखिए।
- प्रेमचंद के मन में किसके प्रति आक्रोश और निराशा थी ?
- प्रेमचंद के प्रमुख उपन्यासों के नाम बताइए।
उत्तर :
- मुंशी प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम धनपत राय था।
- प्रेमचंद ने असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था।
- वे आजीवन सामाजिक समस्याओं से जुड़कर शोषण, अज्ञानता, रूढ़िवादी और गरीब किसानों, विधवाओं, दलितों आदि की विभिन्न समस्याओं और कुरीतियों को विरुद्ध लिखते रहे।
- ‘अबाधित’ – बिना किसी रुकावट के, ‘आहत’ – दुखी।
- प्रेमचंद के मन में समाज की कुरीतियों और देश की तत्कालीन व्यवस्था के प्रति आक्रोश और निराशा थी।
- प्रेमचंद के प्रमुख उपन्यास – सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि तथा गोदान हैं।
18. आज की मौत कल पर ढकेलते-ढकेलते एक दिन ऐसा आ जाता है कि उस दिन मरना ही पड़ता है। यह प्रसंग उन पर नहीं आता, जो ‘मरण के पहले ‘ मर लेते हैं। जो अपना मरण आँखों से देखते हैं, जो मरण का ‘ अगाऊ’ अनुभव कर लेते हैं उनका मरण है। और, जो मरण के अगाऊ अनुभव से जी चुराते हैं, उनकी छाती पर मरण आ पड़ता है। सामने खंभा है, यह बात अंधे को उस खंभे का छाती में प्रत्यक्ष धक्का लगने के बाद मालूम होती है। आँख वाले को यह खंभा पहले ही दिखाई देता है। अतः उसका धक्का उसकी छाती को नहीं लगता। जिंदगी की ज़िम्मेदारी कोई गिरी मौत नहीं है और मौत कौन ऐसी बड़ी मौत है ? अनुभव के अभाव से यह सारा होता है।
जीवन और मरण दोनों आनंद की वस्तु होनी चाहिए। कारण, अपने परम प्रिय पिता ने – ईश्वर ने वे हमें दिए हैं। ईश्वर ने जीवन दुखमय नहीं रचा। पर, हमें जीवन जीना आना चाहिए। कौन पिता है, जो अपने बच्चों के लिए परेशानी की जिंदगी चाहेगा ? तिस पर ईश्वर के प्रेम और करुणा का कोई पार है ? वह अपने लाडले बच्चों के लिए सुखमय जीवन का निर्माण करेगा कि परेशानियों और झंझटों से भरा जीवन रचेगा ? कल्पना की क्या आवश्यकता है, प्रत्यक्ष ही देखिए न, हमारे लिए जो चीज़ जितनी ज़रूरी है, उसके उतनी ही सुलभता से मिलने का इंतज़ाम ईश्वर की ओर से है।
पानी से हवा ज़्यादा ज़रूरी है, तो ईश्वर ने हवा को अधिक सुलभ किया है। जहाँ नाक है, वहाँ हवा मौजूद है। पानी से अन्न की ज़रूरत कम होने की वजह से पानी प्राप्त करने की बनिस्बत अन्न प्राप्त करने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है। आत्मा सबसे अधिक महत्व की वस्तु होने के कारण, वह हर एक को हमेशा के लिए दे डाली गई है। ईश्वर की ऐसी प्रेमपूर्ण योजना है। इसका ख्याल न करके हम निकम्मे, जड़-जवाहरात जमा करने में जितने जड़ बन जाएँ, उतनी तकलीफ़ हमें होगी। पर, यह हमारी जड़ता का दोष है, ईश्वर का नहीं।
प्रश्न :
- अनुभव और अभाव में प्रयुक्त उपसर्ग लिखिए।
- मरण से पहले मरने का क्या तात्पर्य है?
- जीवन और मरण कैसे होने चाहिए?
- जीवन के लिए आवश्यक सुख-दुख कौन प्रदान करता है?
- सबसे अधिक महत्वपूर्ण वस्तु कौन-सी है ? वह कहाँ है ?
- आत्मा किस प्रकार की योजना है? इसका ख्याल न करने से क्या होगा ?
उत्तर :
- ‘अनु’ और ‘अ’।
- मृत्यु तो सभी को आनी है चाहे कोई इससे भयभीत हो या न हो। जो मौत से बिना भयभीत हुए जीवन की राह में आने वाली मुसीबतों को बिना परवाह किए टकराने का साहस रखते हैं वे मरण से पहले ही नहीं मरते।
- जीवन और मरण दोनों ही आनंद की वस्तुएँ होनी चाहिए क्योंकि इन दोनों को ईश्वर ने प्रदान किया है।
- जीवन के लिए सभी सुख – दुःख ईश्वर ही प्रदान करता है। उसी ने हवा दी और उसी ने पानी।
- सबसे महत्वपूर्ण वस्तु आत्मा है जो परमात्मा ने सभी को सदा के लिए दे दी है।
- आत्मा एक प्रेम पूर्ण योजना है। इसका ख्याल न करके हम जड़, निकम्मे तथा जड़-जवाहरात जमा करने में जड़ बन जाएँगे और तकलीफ होगी।
19. सच्चरित्र दुनिया की समस्त संपत्तियों में श्रेष्ठ संपत्ति मानी गयी है। पृथ्वी, आकाश, जल, वायु और अग्नि पंचभूतों से बना मानव शरीर मौत के बाद समाप्त हो जाता है किंतु चरित्र का अस्तित्व बना रहता है। बड़े- बड़े चरित्रवान ऋषि-मुनि, विद्वान, महापुरुष आदि इसका प्रमाण हैं। आज भी श्रीराम, महात्मा बुद्ध, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती आदि अनेक विभूतियाँ समाज में पूजनीय हैं। ये अपने सच्चरित्र के द्वारा इतिहास और समाज को नयी दिशा देने में सफल रहे हैं। समाज में विद्या और धन भला किस काम का।
अतः विद्या और धन के साथ-साथ चरित्र का अर्जन अत्यंत आवश्यक है। यद्यपि लंकापति रावण वेदों और शास्त्रों का महान ज्ञाता और अपार धन का स्वामी था किंतु सीता हरण जैसे कुकृत्य के कारण उसे अपयश का सामना करना पड़ा। आज युगों बीत जाने पर भी उसकी चरित्रहीनता के कारण उसके प्रतिवर्ष पुतले बनाकर जलाए जाते हैं। चरित्रहीनता को कोई भी पसंद नहीं करता। ऐसा व्यक्ति आत्मशांति, आत्मसम्मान और आत्मसंतोष से सदैव वंचित रहता है। वह कभी भी समाज में पूजनीय स्थान नहीं ग्रहण कर पाता है। जिस तरह पक्की ईंटों से पक्के भवन का निर्माण होता है उसी तरह सच्चरित्र से अच्छे समाज का निर्माण होता है। अतएव सच्चरित्र ही अच्छे समाज की नींव है।
प्रश्न :
- दुनिया की समस्त संपत्तियों में किसे श्रेष्ठ माना गया है ?
- रावण को क्यों अपयश का सामना करना पड़ा ?
- चरित्रहीन व्यक्ति सदैव किससे वंचित रहता है?
- ‘सच्चरित्र’ और ‘यद्यपि ‘ में संधि-विच्छेद कीजिए।
- उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
- चरित्रहीन व्यक्ति के पुतले क्यों जलाए जाते हैं?
उत्तर :
- सच्चरित्र को दुनिया की समस्त संपत्तियों में श्रेष्ठ माना गया है।
- रावण को सीता जी के हरण के कारण अपयश का सामना करना पड़ा।
- चरित्रहीन व्यक्ति सदैव आत्मशांति, आत्मसम्मान और आत्मसंतोष से वंचित रहता है।
- सत् + चरित्र, यदि + अपि।
- श्रेष्ठ संपत्ति – सच्चरित्रता।
- उसकी चरित्रहीनता के कारण उसके प्रतिवर्ष पुतले जलाए जाते हैं।
20. हस्तकला ऐसे कलात्मक कार्य को कहा जाता है जो उपयोगी होने के साथ-साथ सजाने, पहनने आदि के काम आता है। ऐसे कार्य मुख्य रूप से हाथों से अथवा छोटे-छोटे आसान उपकरणों या साधनों की मदद से ही किए जाते हैं। अपने हाथों से सजावट, पहनावे, बरतन, गहने, गहने, खिलौने आदि से संबंधित चीजों का निर्माण करने वालों को हस्तशिल्पी या दस्तकार कहा जाता है। इसमें अधिकतर पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवार काम करते आ रहे हैं। जो चीजों मशीनों के माध्यम से बड़े स्तर पर बनाई जाती हैं उन्हें हस्तशिल्प की श्रेणी में नहीं लिया जाता।
भारत में हस्तशिल्प के पर्याप्त अवसर हैं। सभी राज्यों की हस्तकला अनूठी है। पंजाब में हाथ से की जाने वाली कढ़ाई की विशेष तकनीक को फुलवारी कहा जाता है। इस प्रकार की कढ़ाई से बने दुपट्टे, सूट, चादरें विश्व भर में बहुत प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त मंजे (लकड़ी के ढाँचे पर रस्सियों से बने हुए एक प्रकार के पलंग), पंजाबी जूतियाँ आदि भी प्रसिद्ध हैं। राजस्थान वस्त्रों, कीमती हीरे जवाहरात से जड़े आभूषणों, चमकते हुए बर्तनों, मीनाकारी, वड़ियाँ, पापड़, चूर्ण, भुजिया के लिए जाना जाता है।
आंध्र प्रदेश सिल्क की साड़ियों, केरल हाथी दाँत की नक्काशी और शीशम की लकड़ी के फर्नीचर, बंगाल हाथ से बुने हुए कपड़े, तमिलनाडु ताम्र मूर्तियों एवं कांजीवरम साड़ियों, मैसूर रेशम और चंदन की लकड़ी की वस्तुओं, कश्मीर अखरोट की लकड़ी के बने फर्नीचर, कढ़ाई वाली शालों तथा गलीचों, असम बेंत के फर्नीचर, लखनऊ चिकनकारी वाले कपड़ों, बनारस ज़री वाली सिल्की साड़ियों, मध्य प्रदेश चंदेरी और कोसा सिल्क के लिए प्रसिद्ध है। हस्तकला के क्षेत्र में रोज़गार की अनेक संभावनाएँ हैं। हस्तकला के क्षेत्र में निपुणता प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ा हुआ जा सकता है। इसमें निपुणता के साथ-साथ आत्मविश्वास, धैर्य और संयम की भी आवश्यकता रहती है। इस क्षेत्र के जानकारों का कहना है कि जब आप उत्कृष्ट व अनूठी चीज़ बनाते हैं तो हस्तकला के मुरीद लोगों की कमी नहीं रहती।
प्रश्न :
- हस्तशिल्पी किसे कहते हैं?
- हस्तकला किसे कहते हैं?
- किन चीज़ों को हस्तकला की श्रेणी में नहीं लिया जाता ?
- पंजाब में हस्तकला के रूप में कौन-कौन सी चीजें प्रसिद्ध हैं?
- ‘दस्तकार’ तथा ‘निपुणता’ शब्दों से प्रत्यय अलग करके लिखिए।
- फुलवारी किसे कहा जाता है?
उत्तर :
- अपने हाथों से सजावट, पहनावे, बरतन, गहने, खिलौने आदि का निर्माण करने वाले को हस्तशिल्पी कहते हैं।
- हस्तकला उस श्रेष्ठ कलात्मक कार्य को कहते हैं जो समाज के लिए उपयोगी होने के साथ-साथ सजाने, पहनने आदि के काम आता है।
- वे चीजें जो मशीनों के माध्यम से बड़े स्तर पर तैयार की जाती हैं उन्हें हस्तशिल्प की श्रेणी में नहीं लिया जाता।
- पंजाब में हाथ से की जाने वाली कढ़ाई (फुलकारी) से बने दुपट्टे, सूट, चादरें विश्व भर में बहुत प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त मंजे (लकड़ी के ढाँचे पर रस्सियों से बने हुए एक प्रकार के पलंग), पंजाबी जूतियाँ आदि भी अति प्रसिद्ध हैं।
- कार, ता।
- पंजाब में हाथ से की जाने वाली विशेष कढ़ाई की विशेष तकनीक को फुलवारी कहते हैं।
21. व्यापार और वाणिज्य ने यातायात के साधनों को सुलभ बनाने में योग दिया है। यद्यपि यातायात के साधनों में उन्नति युद्धों के कारण भी हुई है, तथापि युद्ध स्थायी संस्था नहीं है। व्यापार से रेलों, जहाजों आदि को प्रोत्साहन मिलता है और इनसे व्यापार को। व्यापार के आधार पर हमारे डाक तार विभाग भी फले-फूले हैं। व्यापार ही देश की सभ्यता का मापदंड है। दूसरे देशों से जो हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, वह व्यापार के बल – भरोसे होती है। व्यापार में आयात और निर्यात दोनों ही सम्मिलित हैं। व्यापार और वाणिज्य की समृद्धि के लिए व्यापारी को अच्छा आचरण रखना बहुत आवश्यक है। उसे सत्य से प्रेम करना चाहिए।
अकेला यही गुण उसे अनेक सांसारिक झंझटों से बचाने में सफल हो सकेगा और उसे एक चतुर व्यापारी बना सकेगा, क्योंकि जो आदमी सच्चा होता है वह अपने काम-काज और व्यवहार में सादगी से काम लेता है। फल यह होता है कि उससे गलती कम होती है और नुकसान उठाने के अवसर बहुत कम आते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं उनके अपने रोज्याना के काम-काज और व्यवहार में उचित – अनुचित और अच्छे-बुरे का ध्यान अवश्य बना रहता है। व्यापारी को आशावादी और शांत स्वभाव का होना चाहिए।
उसे न निराश होने की आवश्यकता है और न क्रोध करने की। यदि आज थोड़ा नुकसान हुआ है तो कल फ़ायदा भी ज़रूर होगा, यह सोचकर उसे घबराना नहीं चाहिए। सेवा की पतवार के सहारे अपने व्यापार अथवा व्यवसाय की नाव को उत्साह सहित भँवर से निकाल ले जाने में बुद्धिमानी है। हारकर हाथ-पैर छोड़ देने से यश नहीं मिलता। व्यापार ने हमारे सुख-साधनों को बढ़ाकर हमारे जीवन का स्तर ऊँचा किया है। हमारे विशाल भवन, गगनचुंबी अट्टालिकाएँ, स्वच्छ दुग्ध, फेनोज्ज्वल कटे-छटे वस्त्र, विद्युत – प्रकाश, रेडियो, तार, टेलीविजन, रेल और मोटरें सब हमारे व्यापार पर ही आश्रित हैं। व्यापार में दूसरे देशों पर हमारी निर्भरता अभी बढ़ी हुई है। जब तक यह निर्भरता रहेगी तब तक हम सच्चे अर्थ में स्वतंत्र नहीं हो सकते हैं।
प्रश्न :
- इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
- देश की सभ्यता का मापदंड किसे कहा गया है?
- किसी व्यापारी का आचरण कैसा होना चाहिए?
- व्यापारी को आशावादी क्यों होना चाहिए ?
- व्यापार ने सुख-साधनों को कैसे बढ़ाया है?
- हमें व्यापार के क्षेत्र में क्या करना चाहिए?
उत्तर :
- शीर्षक सफल व्यापारी है।
- व्यापार देश की सभ्यता का मापदंड है।
- व्यापार और वाणिज्य की समृद्धि के लिए किसी भी व्यापारी के सत्य प्रेमी, सादगी पसंद, चतुर और व्यवहार कुशल होना चाहिए। उसे उचित – अनुचित में भेद की समझ होनी चाहिए। उसे विवेकी और आशावादी होना चाहिए।
- किसी भी व्यापार में लाभ-हानि तो लगी रहती है। आशावादी बनकर उसे नुकसान की स्थिति को सहना आना चाहिए। निराशा की भावना उसे और उसके व्यापार को अधिक क्षति पहुँचा सकती है।
- व्यापार ने सारे समाज के सुख-साधनों को बढ़ाया है। हमारे जीवन स्तर को ऊँचा किया है। ऊँचे-ऊँचे भवन, वैज्ञानिक उपकरण तथा सभी सुख – सामग्री व्यापार पर ही आश्रित हैं।
- हमें व्यापार के क्षेत्र में आयात को कम कर निर्यात को बढ़ाना चाहिए। जब तक हम सामग्री के लिए दूसरे देशों पर निर्भर करते रहेंगे तब तक हम विकसित नहीं होंगे। हमें आत्मनिर्भर बनना चाहिए।
22. किशोरावस्था में शारीरिक और सामाजिक परिवर्तन आते हैं और इन्हीं परिवर्तनों के साथ किशोरों की भावनाएँ भी प्रभावित होती हैं। बार-बार टोकना, अधिक उपदेशात्मक बातें किशोर सहन नहीं करना चाहते। कोई बात बुरी लगने पर वे क्रोध में शीघ्र आ जाते हैं। यदि उनका कोई मित्र बुरा है तब भी वे यह दलील देते हैं कि वह चाहे बुरा है किन्तु मैं तो बुरा नहीं हूँ। कई बार वे बेवजह बहस एवं ज़िद्द के कारण क्रोध करने लगते हैं। अभिभावकों को उनके साथ डाँट-डपट नहीं अपितु प्यार से पेश आना चाहिए।
उन्हें सृजनात्मक कार्यों में लगाने के साथ-साथ बाज़ार से स्वयं फल-सब्ज़ियाँ लाना, बिजली-पानी का बिल अदा करना आदि कार्यों में लगाकर उनकी ऊर्जा को उचित दिशा में लगाना चाहिए। अभिभावकों को उन पर विश्वास दिखाना चाहिए। उनके अच्छे कामों की प्रशंसा की जानी चाहिए। किशोरों को भी चाहिए कि वे यह समझें कि उनके माता-पिता मात्र उनका भला चाहते हैं। किशोर पढ़ाई को लेकर भी चिंतित रहते हैं। वे परीक्षा में अच्छे नंबर लेने का दबाव बना लेते हैं जिससे उनके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ता है।
इसके लिए उन्हें स्वयं योजनाबद्ध तरीके से मन लगाकर पढ़ना चाहिए। उन्हें दिनचर्या में खेलकूद, सैर, व्यायाम, संगीत आदि को भी शामिल करना चाहिए। इससे उनका तनाव कम होगा। उन्हें शिक्षकों से उचित मार्गदर्शन लेना चाहिए। माता-पिता को भी उन पर अच्छे नंबरों का दबाव नहीं बनाना चाहिए और न ही किसी से उनकी तुलना करनी चाहिए। अपने किसी सहपाठी या पड़ोस में किसी को सफलता मिलने पर कई किशोरों में ईर्ष्या की भावना आ जाती है। जबकि उन्हें ईर्ष्या नहीं, प्रतिस्पर्धा रखनी चाहिए।
कई बार कुछ किशोर किसी विषय को कठिन मानकर उससे भय खाने लगते हैं कि इसमें पास होंगे कि नहीं जबकि उन्हें समझना चाहिए कि किसी समस्या का हल डर से नहीं अपितु उसका सामना करने से हो सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ किशोर शर्मीले स्वभाव के होते हैं, अधिक संवेदनशील होते हैं। उनका दायरा भी सीमित होता है। वे अपने उसी दायरे के मित्रों को छोड़कर अन्य लोगों से शर्माते हैं। इसके लिए उन्हें स्कूल की पाठ्येतर क्रियाओं में भाग लेना चाहिए जिससे उनकी झिझक दूर हो सके।
प्रश्न :
- किशोरावस्था में किशोरों की भावनाएँ किस प्रकार प्रभावित होती हैं?
- किशोरों की ऊर्जा को उचित दिशा में कैसे लगाना चाहिए ?
- किशोर अपनी चिंता और दबाव को किस प्रकार दूर कर सकते हैं ?
- ‘प्रतिस्पर्धा’ तथा ‘संवेदनशील’ शब्दों के अर्थ लिखिए।
- किशोर क्या सहन नहीं करते ?
- गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- विभिन्न प्रकार के शारीरिक और सामाजिक परिवर्तन किशोरावस्था में आते हैं और इन्हीं के कारण उनकी भावनाएँ बहुत तीव्रता से प्रभावित होती हैं।
- किशोरों की सृजनात्मक कार्यों में लगाने के साथ-साथ उपयोगी कार्यों की तरफ़ दिशा दिखानी चाहिए और उन्हें बाज़ार से फल-सब्ज़ियाँ लेने भेजना, बिजली-पानी का बिल अदा करने आदि कार्यों में लगाकर उनकी ऊर्जा को उचित दिशा में उन्मुख करना चाहिए।
- किशोर योजनाबद्ध और व्यवस्थित तरीके से पढ़कर, खेलकूद में भाग लेकर, सैर, व्यायाम और संगीत, सामाजिक गतिविधियों आदि को सम्मिलित करके अपनी चिंता और दबाव को दूर कर सकते हैं।
- ‘प्रतिस्पर्धा ‘ – होड़, ‘संवेदनशील’ – भावुक।
- किशोर किसी बात पर उन्हें बार-बार टोकना, सदा उपदेश देते रहना, सहन नहीं करते तथा किसी बात में बुरा लगने पर शीघ्र ही क्रोध में आ जाते हैं।
- किशोरावस्था।
23. जब एक उपभोक्ता अपने घर पर बैठे इंटरनेट के माध्यम से विभिन्न वस्तुओं की खरीददारी करता है तो उसे ऑन लाइन खरीददारी कहा जाता है। इस तरह की खरीददारी आज अत्यंत लोकप्रिय हो गई है। दुकानों, शोरूमों आदि के खुलने और बंद होने का समय होता है किंतु ऑनलाइन खरीददारी का कोई विशेष समय नहीं है। आप जब चाहें इंटरनेट के माध्यम से खरीददारी कर सकते हैं। आप फर्नीचर, किताबें, सौंदर्य प्रसाधन, वस्त्र, खिलौने, जूते, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आदि कुछ भी ऑनलाइन खरीद सकते हैं।
यद्यपि यह बहुत ही सुविधाजनक व लाभदायक है तथापि इसमें कई जोखिम भी समाविष्ट हैं। अतः ऑनलाइन खरीददारी करते समय सावधानी बरतनी चाहिए। सबसे पहले इस बात का यान रखें कि जिस वेबसाइट से आप खरीददारी करने जा रहे हैं वह वास्तविक है अथवा वस्तुओं की कीमतों का तुलनात्मक अध्ययन करके ही खरीददारी करें। बिक्री के नियम एवं शर्तों को पढ़ने के बाद उसका प्रिंट लेना समझदारी होगी। यदि आप क्रेडिट कार्ड के माध्यम से भुगतान करते हैं तो भुगतान के बाद तुरंत जाँच लें कि आपने जो कीमत चुकाई है वह सही है या नहीं।
यदि आप उससे कोई भी परिवर्तन पाते हैं तो तत्काल संबंधित अधिकारियों से संपर्क स्थापित करके उन्हें सूचित करें। वैसे ऐसी साइटों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जिसमें ऑर्डर की गई वस्तु की प्राप्ति होने पर नकद भुगतान करने ही सुविधा हो एवं खरीदी गई वस्तु नापसंद होने पर वापस करने का प्रावधान हो।
प्रश्न :
- ऑनलाइन खरीददारी किसे कहा जाता है ?
- आप इंटरनेट के माध्यम से ऑनलाइन क्या-क्या खरीददारी कर सकते हो ?
- क्रेडिट कार्ड से भुगतान करने के पश्चात यदि कोई अनियमितता पायी जाती है तो हमें क्या करना चाहिए ?
- ‘समाविष्ट’ और ‘प्राथमिकता’ शब्दों के अर्थ लिखिए।
- किस साइट से ऑनलाइन खरीद करनी चाहिए ?
- ‘प्रतिस्पर्धा ‘ शब्द का समानार्थक लिखिए।
उत्तर :
- जब कोई उपभोक्ता बिना बाज़ार गए अपने घर बैठे-बैठे इंटरनेट के माध्यम से तरह-तरह की वस्तुओं की खरीददारी करता है तो उसे ऑनलाइन खरीददारी कहा जाता है।
- हम इंटरनेट के माध्यम से फर्नीचर, वस्त्र, खिलौने, जूते, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, किताबें, सौंदर्य प्रसाधन आदि कुछ भी ऑनलाइन खरीद सकते हैं।
- क्रेडिट कार्ड से भुगतान करने के पश्चात यदि कोई अनियमितता पायी जाती है तो तुरंत ही संबंधित अधिकारियों को इसकी सूचना दी जानी चाहिए।
- समाविष्ट – सम्मिलित होना, प्राथमिकता – वरीयता।
- ऐसी साइटस से ऑनलाइन खरीद करनी चाहिए जिसमें ऑर्डर दी गई वस्तु की प्राप्ति होने पर भुगतान करने की सुविधा हो तथा खरीदी वस्तु पसंद नहीं आने पर वापस भी की जा सके।
- प्रतियोगिता।
24. पंजाब की संस्कृति का भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है। पंजाब की धरती पर चारों वेदों की रचना हुई। यहीं प्राचीनतम सिंधु घाटी की सभ्यता का जन्म हुआ। यह गुरुओं की पवित्र धरती है। यहाँ गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु गोविंद सिंह जी तक दस गुरुओं ने धार्मिक चेतना तथा लोक-कल्याण के अनेक सराहनीय कार्य किए हैं। गुरु तेग बहादुर जी एवं गुरु गोविंद सिंह जी के चारों साहिबज़ादों का बलिदान हमारे लिए प्रेरणादायक है और ऐसा उदाहरण संसार में अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देता। यहाँ अमृतसर का श्री हरमंदिर साहिब प्रमुख धार्मिक स्थल है।
इसके अतिरिक्त आनंदपुर साहिब, कीरतपुर साहिब, मुक्तसर साहिब, फतेहगढ़ साहिब के गुरुद्वारे भी प्रसिद्ध हैं। देश के स्वतंत्रता संग्राम में पंजाब के वीरों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। देश के अन्न भंडार के लिए सबसे अधिक अनाज पंजाब ही देता है। पंजाब में लोहड़ी, वैशाखी, होली, दशहरा, दीपावली आदि त्योहारों के अवसरों पर मेलों का आयोजन भी हर्षोल्लास से किया जाता है। आनंदपुर साहिब का होला मोहल्ला, मुक्तसर का माघी मेला, सरहिंद में शहीदी जोड़ मेला, फ़रीदकोट में शेख फरीद आगम पर्व, सरहिंद में रोज़ा शरीफ पर उर्स और छपार मेला जगराओं की रोशनी आदि प्रमुख हैं।
पंजाबी संस्कृति के विकास में पंजाबी साहित्य का भी महत्वपूर्ण स्थान है। मुसलमान सूफ़ी संत शेख फ़रीद, शाह हुसैन, बुल्लेशाह, गुरु नानकदेव जी, शाह मोहम्मद, गुरु अर्जनदेव जी आदि की वाणी में पंजाबी साहित्य के दर्शन होते हैं। इसके बाद दामोदर, पीलू, वारिस शाह, भाई वीर सिंह, कवि पूर्ण सिंह, धनीराम चात्रिक, शिव कुमार बटालवी, अमृता प्रीतम आदि कवियों, जसवंत सिंह, गुरदयाल सिंह और मोहन सिंह शीतल आदि उपन्यासकारों तथा अजमेर सिंह औलख, बलवंत गार्गी तथा गुरशरण सिंह आदि नाटककारों की पंजाबी साहित्य के उत्थान में सराहनीय भूमिका रही है।
प्रश्न :
- चारों वेदों की रचना कहाँ हुई ?
- पंजाब के प्रमुख ऐतिहासिक स्थल कौन-से हैं?
- पंजाब के प्रमुख त्योहार कौन-से हैं?
- देश के स्वतंत्रता संग्राम में पंजाब का क्या योगदान था ?
- ‘प्रेरणादायक’ और ‘हर्षोल्लास’ में संधि-विच्छेद कीजिए।
- किन लोगों का बलिदान हमारे लिए प्रेरणादायक है ?
उत्तर :
- पंजाब की धरती पर चारों वेदों की रचना हुई।
- अमृतसर, आनंदपुर साहिब, फतेहगढ़ साहिब, कीरतपुर साहिब, मुक्तसर साहिब आदि पंजाब के प्रमुख ऐतिहासिक स्थल हैं।
- लोहड़ी, वैशाखी, होली, दशहरा, दीपावली आदि पंजाब के प्रमुख त्योहार हैं।
- देश के स्वतंत्रता संग्राम में पंजाब के वीरों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था।
- प्रेरणा दायक, हर्ष + उल्लास।
- गुरुतेग बहादुर जी एवं गुरु गोविंद जी के चारों साहिबजादों का बलिदान प्रेरणादायक हैं।
25. इस संसार में प्रकृति द्वारा मनुष्य को प्रदत्त सबसे अमूल्य उपहार ‘समय’ है। ढह गई इमारत को दुबारा खड़ा किया जा सकता है। बीमार व्यक्ति को इलाज द्वारा स्वस्थ किया जा सकता है; खोया हुआ धन दुबारा प्राप्त किया जा सकता है; किंतु एक बार बीता समय दुबारा नहीं पाया जा सकता। जो समय के महत्व को पहचानता है, वह उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। जो समय का तिरस्कार करता है, हर काम में टालमटोल करता है, समय को बरबाद करता है, समय भी उसे एक दिन बरबाद कर देता है।
समय पर किया गया हर काम सफलता में बदल जाता है जबकि समय के बीत जाने पर बहुत कोशिशों के बावजूद भी कार्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता। समय का सदुपयोग केवल कर्मठ व्यक्ति ही कर सकता है, लापरवाह, कामचोर और आलसी नहीं। आलस्य मनुष्य की बुद्धि और समय दोनों का नाश करता है। समय के प्रति सावधान रहने वाला मनुष्य आलस्य से दूर भागता है तथा परिश्रम, लगन और सत्कर्म को गले लगाता है। विद्यार्थी जीवन में समय का अत्यधिक महत्व होता है। विद्यार्थी को अपने समय का सदुपयोग ज्ञानार्जन में करना चाहिए न कि अनावश्यक बातों, आमोद-प्रमोद या फैशन में।
प्रश्न :
- प्रकृति द्वारा मनुष्य को दिया गया सबसे अमूल्य उपहार क्या है?
- समय के प्रति सावधान रहने वाला व्यक्ति किससे दूर भागता है?
- विद्यार्थी को समय का सदुपयोग कैसे करना चाहिए?
- ‘कर्मठ’ तथा ‘तिरस्कार’ शब्दों के अर्थ लिखिए।
- उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
- गद्यांश से विशेषण शब्द छाँटकर लिखिए।
उत्तर :
- प्रकृति के द्वारा मनुष्य को दिया गया अमूल्य उपहार समय
- समय के प्रति सावधान रहने वाला व्यक्ति आलस्य से दूर भागता है।
- विद्यार्थी को समय का सदुपयोग ज्ञानार्जन से करना चाहिए।
- कर्मठ – परिश्रमी, तिरस्कार – अपमान।
- समय – प्रकृति का अमूल्य उपहार।
- कर्मठ, लापरवाह, कामचोर, आलसी, बीमार आदि विशेषण शब्द हैं।
26. व्यवसाय या रोज़गार पर आधारित शिक्षा व्यावसायिक शिक्षा कहलाती है। भारत सरकार इस दिशा में सराहनीय भूमिका निभा रही है। इस शिक्षा को प्राप्त करके विद्यार्थी शीघ्र ही अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। प्रतियोगिता के इस दौर में तो इस शिक्षा का महत्व और भी बढ़ जाता है व्यावसायिक शिक्षा में ऐसे कोर्स रखे जाते हैं जिनमें व्यावहारिक प्रशिक्षण अर्थात प्रेक्टिकल ट्रेनिंग पर अधिक जोर दिया जाता है। यह आत्मनिर्भरता के लिए एक बेहतर कदम है। व्यावसायिक शिक्षा के महत्व को देखते हुए भारत और राज्य सरकारों ने इसे स्कूल स्तर पर शुरू किया है। निजी संस्थाएँ भी इस क्षेत्र में सराहनीय भूमिका निभा रही हैं।
कुछ स्कूलों में तो नौवीं कक्षा से ही व्यावसायिक शिक्षा दी जाती है। परंतु बड़े पैमाने पर इसे ग्यारहवीं कक्षा से शुरू किया गया है। व्यावसायिक शिक्षा का दायरा काफ़ी विस्तृत है। विद्यार्थी अपनी पसंद और क्षमता के आधार पर विभिन्न व्यावसायिक कोर्सों में प्रवेश ले सकते हैं। कॉमर्स – क्षेत्र में कार्यालय प्रबंधन, आशुलिपि और कंप्यूटर एप्लीकेशन, बैंकिंग, लेखापरीक्षण, मार्केटिंग एंड सेल्ज़मैनशिप आदि व्यावसायिक कोर्स आते हैं। इंजीनियरिंग क्षेत्र में इलेक्ट्रिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स, एयर कंडीशनिंग एंड रेफ़रीजरेशन एवं ऑटोमोबाइल टेक्नोलॉजी आदि व्यावसायिक कोर्स आते हैं।
कृषि – क्षेत्र में डेयरी उद्योग, बागवानी तथा कुक्कुट (पोल्ट्री) उद्योग से संबंधित व्यावसायिक कोर्स किए जा सकते हैं। गृह विज्ञान क्षेत्र में स्वास्थ्य, ब्यूटी, फैशन तथा वस्त्र उद्योग आदि व्यावसायिक कोर्स आते हैं। हेल्थ एंड पैरामेडिकल क्षेत्र में मेडिकल लेबोरटरी, एक्स-रे टेक्नोलॉजी एवं हेल्थ केयर साइंस आदि व्यावसायिक कोर्स किए जा सकते हैं। आतिथ्य एवं पर्यटन क्षेत्र में फूड प्रोडक्शन, होटल मैनेजमेंट, टूरिज्म एंड ट्रैवल, बेकरी से संबंधित व्यावसायिक कोर्स किए जा सकते हैं। सूचना तकनीक के तहत आई०टी० एप्लीकेशन कोर्स किया जा सकता है। इनके अतिरिक्त पुस्तकालय प्रबंधन, जीवन बीमा, पत्रकारिता आदि व्यावसायिक कोर्स किए जा सकते हैं।
प्रश्न :
- व्यावसायिक शिक्षा से आपका क्या अभिप्राय है?
- इंजीनियरिंग क्षेत्र में कौन-कौन से व्यावसायिक कोर्स आते हैं?
- व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने से क्या लाभ है?
- कॉमर्स क्षेत्र में कौन-कौन से व्यावसायिक कोर्स आते हैं?
- ‘आधारित’ और ‘व्यावसायिक’ में प्रत्यय अलग करके लिखिए।
- उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
- व्यवसाय अथवा रोजगार पर आधारित शिक्षा को व्यावसायिक शिक्षा कहते हैं।
- इंजीनियरिंग क्षेत्र में इलेक्ट्रिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स, एयर कंडीशनिंग एंड रेफ्रीजरेशन और ऑटोमोबाइल टेक्नोलॉजी आदि व्यावसायिक कोर्स आते हैं।
- व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करके विद्यार्थी शीघ्र ही अपने पैरों पर खड़ा होकर कमाने लगता है।
- कॉमर्स क्षेत्र में कार्यालय प्रबंधन, आशुलिपि, कंप्यूटर एप्लीकेशन, बैंकिंग, लेखापरीक्षण, सेल्स, मार्केटिंग, इंश्योरेंस आदि व्यावसायिक कोर्स आते हैं।
- इत और इक।
- व्यावसायिक शिक्षा।
27. समय वह संपत्ति है जो प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से मिली है। जो लोग इस धन को संचित रीति से बरतते हैं, वही शारीरिक सुख तथा आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। इसी समय संपत्ति के सदुपयोग से एक जंगली मनुष्य सभ्य और देवता स्वरूप बन सकता है। उसी के द्वारा मूर्ख विद्वान, निर्धन धनवान और यज्ञ अनुभवी बन सकता है। संतोष, हर्ष या सुख मनुष्य को कदापि प्राप्त नहीं होता जब तक वह उचित रीति से समय का उपयोग नहीं करता। समय निःसंदेह एक रत्न-शील है। जो कोई उसे अपरिमित और अगणित रूप से अंधाधुंध व्यय करता है, वह दिन-दिन अकिंचन, रिक्त हस्त और दरिद्र होता है।
वह आजीवन खिन्न रहकर भाग्य को कोसता रहता है, मृत्यु भी उसे इस जंजाल और दुख से छुड़ा नहीं सकती। सच तो यह है कि समय नष्ट करना एक प्रकार की आत्म-हत्या है, अंतर केवल इतना ही है कि आत्मघात सर्वदा के लिए जीवन – जंजाल छुड़ा देती है और समय के दुरुपयोग से एक निर्दिष्ट काल तक जीवनमृत की दशा बनी रहती है। ये ही मिनट, घंटे और दिन प्रमाद और अकर्मण्यता में बीतते जाते हैं। यदि मनुष्य विचार करे, गणना करे, तो उनकी संख्या महीनों तथा वर्षों तक पहुँचती है।
यदि उसे कहा जाता है कि तेरी आयु से दस-पाँच वर्ष घटा दिए तो नि:संदेह उनके हृदय पर भारी आघात पहुँचता, परन्तु वह स्वयं निश्चेष्ट बैठे अपने अमूल्य जीवन को नष्ट कर रहा है और क्षय एवं विनाश पर कुछ भी शोक नहीं करता। यद्यपि समय की निरूपभोगिता आयु को घटाती है, परंतु यदि हानि होती है तो अधिक चिंता की बात न थी, क्योंकि संसार में सब को दीर्घायु प्राप्त नही होती; परंतु सबसे बड़ी हानि जो समय की दुरुपयोगिता और अकर्मण्यता से होती है, वह यह कि पुरुषार्थहीन और निरीह पुरुष के विचार अपवित्र और दूषित हो जाते हैं। वास्तव में बात तो यह है कि मनुष्य कुछ-न-कुछ करने के लिए बनाया गया है।
जब चित्त और मन लाभदायक कार्य में लवलीन नहीं होते, तब उनका झुकाव बुराई और पाप की ओर अवश्य हो जाता है। इस हेतु यदि मनुष्य सचमुच ही मनुष्य बनना चाहता है तो सब कामों से बढ़कर श्रेष्ठ कार्य उसके लिए यह है कि वह एक पल भी व्यर्थ न सोचे, प्रत्येक कार्य के लिए पृथक समय और प्रत्येक समय के लिए कार्य निश्चित करे।
प्रश्न :
1. किस प्रकार के व्यक्ति शारीरिक और आत्मिक सुख प्राप्त कर सकते हैं ?
2. समय का सदुपयोग न करने से क्या अहित हो सकता है ?
3. समय नष्ट करने को आत्मघात किस प्रकार माना जा सकता है ?
4. मनुष्य की सफलता का क्या रहस्य है ?
5. मनुष्य को सचमुच मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
6. इस गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर :
1. जो लोग समय के महत्व को समझकर उसका नियमित रूप से पालन करते हैं, वे ही शारीरिक और आत्मिक सुख प्राप्त कर सकते हैं।
2. समय का सदुपयोग न करने से मनुष्य अपने जीवन में किसी प्रकार का भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। यह अज्ञान के कारण मूर्ख तथा धन के अभाव में ग़रीब रहेगा।
3. आत्मघात के द्वारा व्यक्ति अपने जीवन को समाप्त कर लेता है और समय नष्ट करके वह अमूल्य जीवन में विभिन्न प्रकार के कष्टों को इकट्ठा कर लेता है जिससे जीवन बोझ बन जाता है। उसके दुख उसे मृतक की पीड़ा से बढ़कर कष्टकारी हो जाते हैं।
4. मनुष्य के लिए समय ईश्वर द्वारा दी गई अमूल्य संपत्ति है उसके सदुपयोग से जीवन का विकास होता है। शारीरिक तथा आत्मिक सुख और आनंद की प्राप्ति होती है। इसका उपयोग बहुमूल्य पदार्थ के समान करना चाहिए। इसको खोना जीवन को खोना है। समय का दुरुपयोग करने वाला मृत्यु में भी सुख नहीं पाता। समय नष्ट करने से आयु घटती है और विचार दूषित बनता है। आलसी, पापी और शैतान की कोटि में आते हैं। मनुष्य जीवन की सार्थकता कर्मठ होने में है। प्रत्येक क्षण का सदुपयोग जीवन की सफलता का परिचायक है।
5. मनुष्य को एक पल व्यर्थ सोचे बिना, प्रत्येक कार्य के लिए पृथक समय और प्रत्येक समय के लिए कार्य निश्चित करे। तभी वह सचमुच मनुष्य बन सकता है।
6. ‘समय का सदुपयोग’।
28. साहित्यकार बहुधा अपने देशकाल में प्रवाहित होता है। जब कोई लहर देश में उठती है, साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है। उसकी विशाल आत्मा अपने देश बंधुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है, पर उसके क्रंदन में भी व्यापकता होती है। वह स्वदेश होकर भी सार्वभौमिक रहता है। ‘टाम काका की कुटिया’ गुलामी की प्रथा से व्यथित हृदय की रचना है, पर आज उस प्रथा के उठ जाने पर भी उसमें व्यापकता है कि लोग उसे पढ़कर मुग्ध हो जाते हैं।
सच्चा साहित्य कभी पुराना नहीं होता। वह सदा नया बना रहता है। दर्शन और विज्ञान समय की गति के अनुसार बदलते रहते हैं। पर साहित्य तो हृदय की वस्तु है और मानव – हृदय में तबदीलियाँ नहीं होतीं। हर्ष और विस्मय, क्रोध और द्वेष, आशा और भय उपज भी हमारे मन पर उसी तरह अधिकृत हैं, जैसे आदिकवि वाल्मीकि के समय में भी और कदाचित अनंत मन पर उसी तक रहेंगे। रामायण के काल का समय अब नहीं है, महाभारत का समय भी अतीत हो गया। पर ये ग्रंथ अभी तक नए हैं। साहित्य ही सच्चा इतिहास है, क्योंकि इसमें अपने देश और काल का जैसे चित्र होता है, वैसा कोरे इतिहास में नहीं हो सकता। घटनाओं की तालिका इतिहास नहीं है और न राजाओं की लड़ाइयाँ ही इतिहास है। इतिहास जीवन के विभिन्न अंगों की प्रगति का नाम और जीवन पर साहित्य अपने देश-काल का प्रतिबिंब होता है।
प्रश्न :
1. साहित्यकार अपने साहित्य के लिए प्रेरणा कहाँ से प्राप्त करता है ?
2. साहित्य में व्यक्त समाज की पीड़ा का क्या कारण होता है ?
3. ‘साहित्य कभी पुराना नहीं होता’ इस धारणा का क्या कारण है ?
4. सच्चा इतिहास किसे माना जाना चाहिए ?
5. उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
6. समय और गति के अनुसार कौन बदलते हैं?
उत्तर :
1. प्रत्येक साहित्यकार अपने साहित्य के लिए प्रेरणा अपने समाज से प्राप्त करता है। देश में उत्पन्न किसी भी प्रकार की हलचल उसे प्रभावित करती है। लोगों के सुख-दुख उसे व्यथित करते हैं और वह उन सुख – दुखों को साहित्य के माध्यम से प्रकट करने लगता है।
2. प्रत्येक साहित्यकार अपने समाज से प्रभावित होता है और लोगों के दुखों को अनुभव करके उन्हें वाणी प्रदान करता है। साहित्यकार भावुक होता है और उसे लोगों की पीड़ा अपनी पीड़ा लगने लगती है।
3. साहित्य मानव मन और उसके व्यवहार से संबंधित है। मानव के हृदय में उत्पन्न होने वाले भाव कभी नहीं बदलते। दुख, सुख, विस्मय, क्रोध, द्वेष, आशा, निराशा, भय आदि सदा उसे समान रूप से प्रभावित करते हैं। जब वे साहित्य के माध्यम से प्रकट हो जाते हैं तो शाश्वत गुण प्राप्त कर सदा नया रूप प्राप्त किए रहते हैं।
4. साहित्यकार अपने देश की परिस्थितियों से प्रभावित होता है। उसकी वाणी में व्यापकता होती है। इसलिए वह देश का होकर भी स्वदेशीय बन जाता है। सच्चा साहित्य मानवीय अनुभूतियों का चित्रण होने के कारण कभी पुरानी नहीं होता। रामायण और महाभारत अमर रचनाएँ हैं। इतिहास और साहित्य में बड़ा अन्तर होता है। इतिहास में घटनाओं की तालिका और राजाओं के नाम और उनके कारनामे होते हैं। इसे सच्चा इतिहास नहीं कहा जा सकता है। सच्चा इतिहास तो साहित्य ही है।
5. साहित्यकार और समाज।
6. दर्शन और विज्ञान समय और गति के अनुसार बदलते हैं।
29. शिक्षा के क्षेत्र के समान चिकित्सा के क्षेत्र में भी स्त्रियों का सहयोग वांछनीय है। हमारा स्त्री – समाज रोगों से जर्जर हो रहा है। उसकी संतान कितनी अधिक संख्या से असमय ही काल का ग्रास बन रही है, यह पुरुष से अधिक स्त्री की खोज का विषय है। जितनी सुयोग्य स्त्रियाँ इस क्षेत्र में होंगी, उतना ही अधिक समाज का लाभ होगा। स्त्री में स्वाभाविक कोमलता पुरुष की अपेक्षा अधिक होती है, साथ ही पुरुष के समान व्यवसाय बुद्धि प्रायः उसमें नहीं रहती है। अतः वह इस कार्य को अधिक सहानुभूति के साथ ही कर सकती है।
इसी कारण रोगी की परिचर्या के लिए नर्स ही रखी जाती है। यह सत्य है कि न सब पुरुष ही इस कार्य के लिए उपयुक्त होते हैं और न सब स्त्रियाँ, परंतु जिन्हें इस गुरुतम कर्तव्य के लिए रुचि और सुविधाएँ दोनों ही मिली हैं, उन स्त्रियों का इस क्षेत्र में प्रवेश करना उचित ही होगा। कुछ इनी – गिनी स्त्री – चिकित्सक भी हैं, परंतु समाज अपनी आवश्यकता के समय ही उनसे संपर्क रखता है। उसका शिक्षिकाओं से अधिक बहिष्कार है, कम नहीं। ऐसी महिलाओं में से, जिन्होंने सुयोग्य एवं संपन्न व्यक्तियों से विवाह करके बाहर के वातावरण की नीरसता को घर की सरसता में मिलाना चाहा, उन्हें प्रायः असफलता ही प्राप्त हो सकी।
उनका इस प्रकार घर की सीमा से बाहर ही कार्य करना पतियों की प्रतिष्ठा के अनुकूल सिद्ध न हो सका। इसलिए अंत में उन्हें अपनी शक्तियों को घर तक ही सीमित रखने के लिए बाध्य होना पड़ा। वे पारिवारिक जीवन में कितनी सुखी हुईं, यह कहना तो कठिन है, परन्तु उन्हें इस प्रकार खोकर स्त्री- समाज अधिक प्रसन्न न हो सका। यदि झूठी प्रतिष्ठा की भावना इस प्रकार की बाधा न डालती और वे अवकाश के समय कुछ अंश इस कर्तव्य के लिए भी रख सकतीं तो अवश्य ही समाज का अधिक कल्याण होता।
प्रश्न :
1. स्त्रियाँ चिकित्सा क्षेत्र में अधिक सफलता क्यों प्राप्त कर सकती हैं ?
2. प्रायः स्त्रियाँ चिकित्सक के रूप में इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकीं, जितना पुरुष चिकित्सक। क्यों ?
3. समाज का कल्याण कब अधिक अच्छा हो पाता है ?
4. स्त्री चिकित्सकों के पतियों को किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए ?
5. ऊपर दिए गए गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
6. ‘स्वाभाविक’ शब्द में प्रत्यय अलग करके लिखिए।
उत्तर –
1. स्त्रियाँ अपेक्षाकृत अधिक भावुक और मानसिक रूप में कोमल होती हैं। उनमें पुरुषों से अधिक कोमलता होती है। वे उतनी व्यावसायिक कभी नहीं हो सकतीं जितने पुरुष होते हैं। उनमें सहानुभूति की भावना अधिक होती है, इसलिए वे चिकित्सा के क्षेत्र में अधिक सफलता प्राप्त कर सकती हैं।
2. स्त्री चिकित्सकों के साथ समाज में प्रायः तभी संपर्क रखा जाता है जब उसे उसकी आवश्यकता होती है। साथ ही वे विवाह के पश्चात घर-बाहर के प्रति ठीक प्रकार से ताल-मेल नहीं बिठा पातीं जिस कारण परिवार में असंतुष्टि की भावना पनपने लगती है। वे घर-बाहर दोनों जगह असंतोष उत्पत्ति के कारण उतनी प्रतिष्ठित नहीं हो पातीं जितने पुरुष चिकित्सक।
3. यदि स्त्री चिकित्सक घर-बाहर से ठीक प्रकार से संतुलन बना पातीं तो समाज का अधिक कल्याण हो पाता।
4. स्त्रियों को शिक्षा के क्षेत्र के समान चिकित्सा के क्षेत्र में भी आना चाहिए। वे शरीर तथा स्वभाव दोनों से इस व्यवसाय के लिए उपयुक्त हैं। भारतीय महिलाएँ प्रायः बीमार तथा कमजोर रहती हैं। उनके बच्चे भी अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं। इन समस्याओं की खोज स्त्रियाँ भली-भाँति कर सकती हैं। कुछ स्त्रियाँ इस व्यवसाय को अपनाना चाहती हैं पर उनके पति इस व्यवसाय को अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते हैं। उन्हें विवश होकर इस व्यवसाय से विमुख होना पड़ता है। पतियों को समाज के हित के लिए निरर्थक सम्मान की भावना का त्याग करना चाहिए।
5. ‘स्त्री चिकित्सक’।
6. स्वभाव + इक (प्रत्यय)।
निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर दिए गए बहुविकल्पी प्रश्नों के सही विकल्प वाले उत्तर चुनिए –
1. अहिंसा और कायरता कभी साथ नहीं चलती। मैं पूरी तरह शस्त्र – सज्जित मनुष्य के हृदय से कायर होने की कल्पना कर सकता हूँ। हथियार रखना कायरता नहीं तो डर का होना तो प्रकट करता ही है, परंतु सच्ची अहिंसा शुद्ध निर्भयता के बिना असंभव है। क्या मुझमें बहादुरों की वह अहिंसा है? केवल मेरी मृत्यु ही इसे बताएगी। अगर कोई मेरी हत्या करे और मैं मुँह से हत्यारे के लिए प्रार्थना करते हुए तथा ईश्वर का नाम जपते हुए और हृदये मंदिर में उसकी जीती-जागती उपस्थिति का भान रखते हुए मरूँ तो ही कहा जाएगा कि मझमें बहादुरों की अहिंसा थी। मेरी सारी शक्तियों के क्षीण हो जाने से अपंग बनकर मैं एक हारे हुए आदमी के रूप में नहीं मरना चाहता। किसी हत्यारे की गोली भले मेरे जीवन का अंत कर दे, मैं उसका स्वागत करूँगा।
लेकिन सबसे ज़्यादा तो मैं अंतिम श्वास तक अपना कर्तव्य पालन करते हुए ही मरना पसंद करूंगा। मुझे शहीद होने की तमन्ना नहीं है। लेकिन अगर धर्म की रक्षा का उच्चतम कर्तव्य पालन करते हुए मुझे शहादत मिल जाए तो मैं उसका पात्र माना जाऊँगा। भूतकाल में मेरे प्राण लेने के लिए मुझ पर अनेक बार आक्रमण किए गए हैं, परंतु आज तक भगवान ने मेरी रक्षा की है और प्राण लेने का प्रयत्न करने वाले अपने किए पर पछताए हैं। लेकिन अगर कोई आदमी यह मानकर मुझ पर गोली चलाए कि वह एक दुष्ट का खात्मा कर रहा है, तो वह एक सच्चे गांधी की हत्या नहीं करेगा, बल्कि उस गांधी की करेगा जो उसे दुष्ट दिखाई दिया था।
(क) अहिंसा और कायरता के बारे में क्या कहा गया है?
(i) कभी – कभी एक साथ चलती है।
(ii) हमेशा साथ चलती है।
(iii) दोनों खतरनाक होती हैं।
(iv) कभी साथ नहीं चलती।
उत्तर :
(iv) कभी साथ नहीं चलती।
(ख) सच्ची अहिंसा किसके बिना असंभव है?
(i) कायरता के बिना
(ii) शुद्ध निर्भयता के बिना
(iii) ममता के बिना
(iv) शुद्ध जड़ता के बिना
उत्तर :
(ii) शुद्ध निर्भयता के बिना
(ग) गांधी जी किस प्रकार मरना पसंद करेंगे?
(i) कर्तव्य पालन करते हुए
(ii) शत्रु को बदले की भावना से मारते हुए
(iii) हिंसा करते हुए
(iv) सभी विकल्प
उत्तर :
(i) कर्तव्य पालन करते हुए
(घ) प्राण लेने का प्रयत्न करने वालों के साथ क्या हुआ है ?
(i) कोई फर्क नहीं पड़ा है।
(ii) आंतरिक ग्लानि नहीं हुई।
(iii) अपने किए पर पछताए हैं।
(iv) कभी झुके नहीं हैं।
उत्तर :
(iii) अपने किए पर पछताए हैं।
(ङ) किसी हत्यारे की गोली भले मेरे जीवन का अंत कर दे, मैं उसका
(i) उसका जड़ से खात्मा करूँगा।
(ii) हृदय से स्वागत करूँगा।
(iii) उसको मिट्टी में मिला दूँगा।
(iv) मैं उसकी प्रशंसा करूँगा।
उत्तर :
(ii) हृदय से स्वागत करूँगा।
2. तानाशाह जनमानस के जागरण को कोई महत्व नहीं देता। उसका निर्माण ऊपर से चलता है, किंतु यह लादा हुआ भार – स्वरूप निर्माण हो जाता है। सच्चा राष्ट्र-निर्माण वह है, जो जनमानस की तैयारी पर आधारित रहता है। योजनाएँ शासन और सत्ता बनाएँ, उन्हें कार्यरूप में परिणत भी करें, किंतु साथ ही उन्हें चिर स्थायी बनाए रखने एवं पूर्णतया उद्देश्य पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि जनमानस उन योजनाओं के लिए तैयार हो। स्पष्ट शब्दों में हम कह सकते हैं कि सत्ता राष्ट्र-निर्माण रूपी फ़सल के लिए हल चलाने वाले किसान का कार्य तो कर सकती है, किंतु उसे भूमि जनमानस को ही बनानी पड़ेगी।
अन्यथा फ़सल या तो हवाई होगी या फिर गमलों की फ़सल होगी। जैसा आजकल ‘अधिक अन्न उपजाओ’ आंदोलन के कर्णधार भारत के मंत्रिगण कराया करते हैं। इस फ़सल को किस-किस बुभुक्षित के सामने रखेगी शासन सत्ता? यह प्रश्न मस्तिष्क में चक्कर ही काटा करता है। इस विवेचन से हमने राष्ट्र-निर्माण में जनमानस की तैयारी का महत्व पहचान लिया है। यह जनमानस किस प्रकार तैयार होता है ? इस प्रश्न का उत्तर आपको समाचार पत्र देगा।
निर्माण – काल में यदि समाचार – पत्र सत्समालोचना से उतरकर ध्वंसात्मक हो गया तो निश्चित रूप से वह कर्तव्यच्युत हो जाता है, किंतु सत्समालोचना निर्माण के लिए उतनी ही आवश्यक है, जितना निर्माण का समर्थन। जनमानस को तैयार करने के लिए समाचार-पत्र किस नीति को अपनाएँ ? यह प्रश्न अपने में एक विवाद लिए हुए है; क्योंकि भिन्न-भिन्न समाचार-पत्र भिन्न-भिन्न नीतियों को उद्देश्य बनाकर प्रकाशित होते हैं। यहाँ तक कि राष्ट्र-निर्माण की योजनाएँ भी उनके मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न होती हैं।
(क) सच्चा राष्ट्र-निर्माण किसे कहा गया है?
(i) जो जनमानस की तैयारी पर आधारित रहता है।
(ii) जो केवल योजना – निर्माण पर आधारित रहता है।
(iii) जो केवल शासन की तानाशाही पर आधारित रहता है।
(iv) जो आकस्मिक तैयारी पर आधारित रहता है।
उत्तर :
(i) जो जनमानस की तैयारी पर आधारित रहता है।
(ख) किस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है?
(i) जनमानस केवल व्यय करने के लिए तैयार हो।
(ii) सरकार की सख्ती से तैयारी हो।
(iii) जनमानस उन सभी योजनाओं के लिए मन से तैयार हो।
(iv) योजनाओं के लिए केवल कामगारों की पूर्ण तैयारी हो।
उत्तर :
(iii) जनमानस उन सभी योजनाओं के लिए मन से तैयार हो।
(ग) शासन और सत्ता को लेखक ने क्या हिदायत दी है?
(i) शासन और सत्ता योजनाएँ बनाएँ।
(ii) योजनाओं को कार्यरूप में परिणत भी करें।
(iii) योजनाओं को चिर – स्थायी बनाए।
(iv) ये सभी विकल्प।
उत्तर :
(iv) ये सभी विकल्प।
(घ) राष्ट्र-निर्माण में जनमानस की आवश्यकता पर लेखक क्या कहते हैं?
(i) सत्ता राष्ट्र-निर्माण रूपी फ़सल के लिए किसान का कार्य तो कर सकती है।
(ii) राष्ट्र-निर्माण रूपी फ़सल के लिए भूमि जनमानस को ही बनाना होगा।
(iii) भूमि का निर्माण आधुनिक यंत्रों से करना होगा।
(iv) (i) व (ii) विकल्प
उत्तर :
(iv) (i) व (ii) विकल्प
(ङ) जनमानस तैयार करने का साधन क्या है ?
(i) आलोचना
(ii) समाचार – पत्र
(iii) सरकार
(iv) संविधान
उत्तर :
(ii) समाचार – पत्र
3. काव्य- कला गतिशील कला है; किंतु चित्रण – कला स्थायी कला है। काव्य में शब्दों की सहायता से क्रियाओं और घटनाओं का वर्णन किया जा सकता है। कविता का प्रवाह समय द्वारा बँधा हुआ नहीं है। समय और कविता दोनों ही प्रगतिशील हैं; इसलिए कविता समय के साथ परिवर्तित होने वाली क्रियाओं, घटनाओं और परिस्थितियों का वर्णन समुचित रूप से कर सकती है। चित्रण – कला स्थायी होने के कारण समय के केवल एक पल को पदार्थों के केवल एक रूप को अंकित कर सकती है। चित्रण – कला में केवल पदार्थों का चित्रण हो सकता है।
कविता में परिवर्तनशील परिस्थितियों, घटनाओं और क्रियाओं का वर्णन हो सकता है, इसलिए कहा जा सकता है कि कविता का क्षेत्र चित्रकला से विस्तृत है। कविता द्वारा व्यक्त किए हुए एक-एक भाव और कभी-कभी कविता के एक शब्द के लिए अलग चित्र उपस्थित किए जा सकते हैं। किंतु पदार्थों का अस्तित्व समय से परे तो है नहीं, उनका भी रूप समय के साथ बदलता रहता है और ये बदलते हुए रूप बहुत अंशों में समय का प्रभाव प्रकट करते हैं। इसी प्रकार क्रिया और गति, बिना पदार्थों के आधार के संभव नहीं। इस भाँति किसी अंश में कविता पदार्थों का सहारा लेती है और चित्रण – कला प्रगतिवान समय द्वारा प्रभावित होती है, पर यह सब गौण रूप से होता है।
हमने लिखा है कि पदार्थों का चित्रण चित्रकला का काम है, कविता का नहीं। इस पर कुछ लोग आपत्ति कर सकते हैं कि काव्य-कला के माध्यम से अधिक शब्द सर्वशक्तिमान हैं, उनसे जो काम चाहे लिया जा सकता है; पदार्थों के वर्णन में वे उतने ही काम के हो सकते हैं जितने क्रियाओं के, पर यह अस्वीकार करते हुए भी कि शब्द बहुत कुछ करने में समर्थ हैं, यह नहीं माना जा सकता कि वे पदार्थों का चित्रण उसी सुंदरता से कर सकते हैं जिस सुंदरता से चित्र।
(क) काव्य में क्रियाओं और घटनाओं का वर्णन किसकी सहायता से किया जा सकता है?
(i) शब्दों की सहायता से
(ii) संगीत की सहायता से
(iii) कल्पना की सहायता से
(iv) ये सभी विकल्प
उत्तर :
(i) शब्दों की सहायता से
(ख) चित्रण – कला स्थायी होने के कारण पदार्थों के केवल –
(i) एक रूप को तथा समय के एक पल को ही चित्रित कर सकती है।
(ii) परिवर्तनशील परिस्थितियों, घटनाओं और क्रियाओं का वर्णन नहीं कर सकती है।
(iii) प्रभाव उत्पन्न कर सकती है।
(iv) ये सभी विकल्प
उत्तर :
(iv) ये सभी विकल्प
(ग) पदार्थों का चित्रण किस कला का काम है?
(i) काव्यकला का
(ii) वास्तुकला का
(iii) चित्रकला
(iv) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(iii) चित्रकला
(घ) काव्य-कला के माध्यम से शब्दों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
(i) अधिक सर्वशक्तिमान होते हैं।
(ii) वे क्रियाओं के समान पदार्थों के वर्णन भी प्रभवी ढंग से कर सकते हैं।
(iii) शब्द चित्रकला के समान पदार्थों का चित्रण कर सकते हैं।
(iv) इनमें से सभी विकल्प
उत्तर :
(iv) इनमें से सभी विकल्प
(ङ) चित्र को देखकर मन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
(i) हम चित्र को भूल जाते हैं।
(ii) हम चित्रित पदार्थों को अपनी आँखों के सामने देखने लगते हैं।
(iii) हम काल्पनिक पदार्थों को अपने आँखों के सामने देखने लगते हैं।
(iv) (i) व (ii) विकल्प
उत्तर :
(iv) (i) व (ii) विकल्प
4. हमारे बाल्यकाल के संस्कार ही जीवन का ध्येय निर्धारित करते हैं, अतः यदि वैभव में हमारी संतान ऐसे व्यक्तियों की छाया में ज्ञान प्राप्त करेगी, जिनमें चरित्र तथा सिद्धांत की विशेषता नहीं है, जिनमें संस्कारजनित अनेक दोष हैं, तो फिर विद्यार्थियों के चरित्र पर भी उसी की छाप पड़ेगी और भविष्य में उनके ध्येय भी उसी के अनुसार स्वार्थमय तथा अस्थिर होंगे। शिक्षा एक ऐसा कर्तव्य नहीं है जो किसी पुस्तक को प्रथम पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक पढ़ने से ही पूर्ण हो जाता हो, वरन् वह ऐसा कर्तव्य है जिसकी परिधि सारे जीवन को घेरे हुए है और पुस्तकें ऐसे साँचे हैं जिनमें ढालकर उसे सुडौल बनाया जा सकता है।
यह वास्तव में आश्चर्य का विषय है कि हम अपने साधारण कार्यों के लिए करने वालों में जो योग्यता देखते हैं, वैसी योग्यता भी शिक्षकों में नहीं ढूँढ़ते। जो हमारी बालिकाओं, भविष्य की माताओं का निर्माण करेंगे उनके प्रति हमारी उदासीनता को अक्षम्य ही कहना चाहिए। देश-विशेष, समाज – विशेष तथा संस्कृति – विशेष के अनुसार किसी के मानसिक विकास के साधन और सुविधाएँ उपस्थित करते हुए उसे विस्तृत संसार का ऐसा ज्ञान करा देना ही शिक्षा है, जिससे वह अपने जीवन में सामंजस्य का अनुभव कर सके और उसे अपने क्षेत्र – विशेष के साथ ही बाहर भी उपयोगी बना सके। यह महत्वपूर्ण कार्य ऐसा नहीं है जिसे किसी विशिष्ट संस्कृति से अनभिज्ञ चंचल चित्त और शिथिल चरित्र वाले व्यक्ति सुचारु रूप से संपादित कर सकें।
परंतु प्रश्न यह है कि इस महान उत्तरदायित्व के योग्य व्यक्ति कहाँ से लाए जाएँ ? पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या उँगलियों पर गिनने योग्य है और उनमें भी भारतीय संस्कृति के अनुसार शिक्षिताएँ बहुत कम हैं, जो हैं उनके जीवन के ध्येयों में इस कर्तव्य की छाया का प्रवेश भी निषिद्ध समझा जाता है। कुछ शिक्षिकावर्ग को उच्छृंखलता समझी जाने वाली स्वतंत्रता के कारण और कुछ अपने संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण अन्य महिलाएँ अध्यापन कार्य तथा उसे जीवन का लक्ष्य बनाने वालियों को अवज्ञा और अनादर की दृष्टि से देखने लगी हैं।
अतः जीवन के आदि से अंत तक कभी किसी के अवकाश के क्षण में उनका ध्यान इस आवश्यकता की ओर नहीं जाता, जिसकी पूर्ति पर उनकी संतान का भविष्य निर्भर है। अपने सामाजिक दायित्वों को समझा जाना चाहिए। यह समाज में आज सबसे बड़ी कमी है।
(क) संस्कारजनित दोषों से युक्त व्यक्तियों से ज्ञान प्राप्त करने पर विद्यार्थियों के चरित्र पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
(i) विद्यार्थियों के चरित्र पर भी उसी की छाप पड़ती है।
(ii) उनके ध्येय भी उसी के अनुसार स्वार्थमय तथा अस्थिर होते हैं।
(iii) उनके ध्येय निश्चित स्वार्थयुक्त और स्थिर रहते हैं।
(iv) (i) व (ii) विकल्प
उत्तर :
(iv) (i) व (ii) विकल्प
(ख) शिक्षा को कैसा कर्तव्य बताया गया है ?
(i) शिक्षा की परिधि में सभी प्रकार के जीवन संबंधित क्षेत्र आ जाते हैं।
(ii) शिक्षा सबको प्रभावित नहीं करती है।
(iii) शिक्षा का क्षेत्र सीमित होता है।
(iv) शिक्षा की बुनियादी ज़रूरत नहीं है।
उत्तर :
(i) शिक्षा की परिधि में सभी प्रकार के जीवन संबंधित क्षेत्र आ जाते हैं।
(ग) लेखक ने किसे आश्चर्य किसे कहा है?
(i) अपने साधारण कार्य करवाने के लिए भी हम लोगों में योग्यता खोजते हैं।
(ii) भविष्य की माताओं का निर्माण करने वाली शिक्षिकाओं के प्रति उदासीन हो जाते हैं।
(iii) भविष्य के बालकों को तैयार करने वाली माताओं के प्रति नतमस्तक हो जाते हैं।
(iv) (i) तथा (ii) विकल्प।
उत्तर :
(iv) (i) तथा (ii) विकल्प।
(घ) शिक्षा वास्तव में क्या है?
(i) विस्तृत संसार का ज्ञान करा देना ही शिक्षा है।
(ii) जो मानव की ज़रूरतों की सीमित विकास करती है।
(iii) जो स्वयं को आवश्यक साधन के रूप में नहीं मानती।
(iv) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर :
(i) विस्तृत संसार का ज्ञान करा देना ही शिक्षा है।
(ङ) गद्यांश का शीर्षक लिखिए-
(i) आश्चर्य का विषय
(ii) व्यक्तियों की छाया
(iii) जीवन का ध्येय
(iv) उत्तरदायित्व
उत्तर :
(iii) जीवन का ध्येय
5. हमें स्थिर बुद्धि वाला बनना चाहिए परंतु स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य के लक्षण क्या हैं? स्थिर बुद्धि वाला पुरुष सभी इच्छाओं को त्याग देता है और हमेशा संतुष्ट रहता है। उसका मन दुख में विचलित अथवा व्याकुल नहीं होता। सुखों की उसे कोई कामना भी नहीं होती। अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में वह समान रहता है। ऐसे कर्मयोगी की बुद्धि स्थिर अर्थात अटल हो जाती है। इंद्रियों को वश में करने का अभ्यास मनुष्य को बार-बार करना चाहिए।
जो मनुष्य सांसारिक विषय-वस्तुओं के बारे में सोचता है, उसे विषयों से लगाव हो जाता है। तब उसे इन विषयों या भोग-विलास की वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा होती है। फिर उसमें ‘लोभ’ पैदा हो जाता है। लोभ के बाधा पड़ने पर उसे क्रोध आ जाता है। क्रोध से मूढ़ता या अज्ञानता उत्पन्न होती है। मूढ़ता से स्मृति यानी विचारों को याद रखने की शक्ति समाप्त हो जाती है। स्मृति नष्ट होने पर विवेक नष्ट हो जाता है। ऐसे मनुष्य का हर प्रकार से पतन होता है।
(क) स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति की क्या विशेषता है?
(i) वह सभी इच्छाओं को सर्वोपरि रखता है।
(iii) वह अपनी इच्छाओं को त्याग देता है।
(ii) वह हमेशा संतुष्ट रहता है।
(iv) (ii) तथा (iii)
उत्तर :
(iv) (ii) तथा (iii)
(ख) स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए कौन-सा कथन अनुचित है?
(i) उसका मन दुख में विचलित होता है।
(ii) उसका मन दुख में व्याकुल नहीं होता।
(iii) उसे सुखों की प्राप्ति की कोई इच्छा नहीं होती।
(iv) अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समान रहता है।
उत्तर :
(i) उसका मन दुख में विचलित होता है।
(ग) स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति को क्या कहा गया है?
(i) राजयोगी
(ii) कर्मयोगी
(iii) ध्यानयोगी
(iv) तंत्रयोगी
उत्तर :
(ii) कर्मयोगी
(घ) मनुष्य को कौन-सा अभ्यास बार-बार करना चाहिए?
(i) दूसरे प्राणियों को वश में करने का
(ii) इंद्रियों को काबू से बाहर करने का
(iii) इच्छाओं को दमन करने का
(iv) इंद्रियों को वश में करने का
उत्तर :
(iv) इंद्रियों को वश में करने का
(ङ) मनुष्य को लोभ कब पैदा होता है?
(i) सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छा होने पर
(ii) प्राकृतिक वस्तुओं के सौंदर्य को देखकर
(iii) केवल धन के भंडार को देखकर
(iv) अनमोल वस्तुओं की कीमतें देखकर
उत्तर :
(i) सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छा होने पर
6. जितनी अनिच्छा से हम सलाह को स्वीकार करते हैं उतनी अनिच्छा से किसी अन्य को नहीं। सलाह देने वाले के बारे में हम सोचते हैं कि वह हमारी समझ को अपमान की दृष्टि से देख रहा है अथवा हमें बच्चा या बुद्धू मानकर व्यवहार कर रहा है। हम उसे एक अव्यक्त सेंसर मानते हैं और ऐसे अवसरों पर हमारी भलाई के लिए जो उत्साह दिखाया जाता है, उसे हम एक पूर्व धारणा या धृष्टता मानते हैं। इसकी सच्चाई यह है कि जो सलाह देने का बहाना करता है, वह इसी कारण से हमारे ऊपर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करता है।
इसके अतिरिक्त कोई और कारण नहीं हो सकता किंतु अपने से हमारी तुलना करते हुए, वह हमारे आचरण अथवा समझदारी में कोई दोष देखता है। इन कारणों से, सलाह को स्वीकार्य बनाने से कठिन कोई कला नहीं है और वास्तव में प्राचीन और आधुनिक दोनों युग के लेखकों ने इस कला में जितनी दक्षता प्राप्त की है, उसी आधार पर स्वयं को एक-दूसरे से अधिक विशिष्ट प्रमाणित किया है। इस कटु पक्ष को रोचक बनाने के कितने उपाय काम में लाए गए हैं? कुछ सर्वोत्तम शब्दों में अपनी शिक्षा हम तक पहुँचाते हैं, कुछ अत्यंत सुसंगत ढंग से, कुछ वाकचातुर्य से और अन्य छोटे मुहावरों में। पर मैं सोचता हूँ कि सलाह देने के विभिन्न उपायों में जो सबसे अधिक प्रसन्नता देता है, वह गलत है, वह चाहे किसी भी रूप में आए। यदि हम इस रूप में शिक्षा देने या सलाह देने की बात सोचते हैं तो वह अन्य सबसे बेहतर है क्योंकि सबसे कम झटका लगता है।
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक है –
(i) शिक्षा
(ii) समझदारी
(iii) सलाह
(iv) भलाई
उत्तर :
(iii) सलाह
(ख) ‘इच्छा’ शब्द का विपरीतार्थक शब्द है –
(i) मन
(ii) दिल
(iii) भक्ति
(iv) अनिच्छा
उत्तर :
(iv) अनिच्छा
(ग) सलाह देने वाले के बारे में हम क्या सोचते हैं?
(i) वह समझ को सम्मान की नज़र से देख रहा है।
(ii) वह समझ को अपमान की नज़र से देख रहा है।
(iii) वह समझ को कूटनीतिक नज़र से देख रहा है।
(iv) इनमें से सभी विकल्प। लग जाते हैं?
उत्तर :
(ii) वह समझ को अपमान की नज़र से देख रहा है।
(घ) भलाई के लिए दिखाए गए उत्साह को हम क्या मानने
(i) पूर्व धारणा
(ii) धृष्टता
(iii) अग्रिम समझ
(iv) विकल्प (i) तथा (ii)
उत्तर :
(iv) विकल्प (i) तथा (ii)
(ङ) सलाह को स्वीकार करना कैसी कला है?
(i) आसान कला है।
(ii) कठिन कला है।
(iii) चमत्कारिक कला है।
(iv) दैनिक कला है।
उत्तर :
(ii) कठिन कला है।
7. यदि मनुष्य की आयु सौ वर्ष की मानी जाती है, तो इतने वर्षों तक वह स्वस्थ रहकर जिए, तभी इस दीर्घ आयु की सार्थकता है। ‘पहला सुख नीरोगी काया’ कहावत का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को आगे-पीछे होता ही है। फिर भी हम स्वास्थ्य को बनाए रखने में पूर्णत: जागरूक नहीं रहते। कदाचित हमारे पास तत्संबंधी पर्याप्त जानकारी का अभाव और अभ्यास की लगन का अभाव होता है। शरीर को सशक्त, सुगठित एवं नीरोगी रखने के लिए प्राणायाम बहुत लाभप्रद है।
प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ है- ‘प्राण’ और ‘आयाम’ अर्थात ‘विस्तार’। वास्तव में प्राण स्थूल पृथ्वी पर प्रत्येक वस्तु का संचालन करता हुआ दिखाई देता है और विश्व में विचार रूप से स्थित है। दूसरे शब्दों में, प्राण का संबंध मन से, मन का संबंध बुद्धि से और बुद्धि का संबंध आत्मा से और आत्मा का संबंध परमात्मा से है। इस प्रकार प्राणायाम का उद्देश्य शरीर में व्याप्त प्राणशक्ति को उत्प्रेरित संचारित, नियमित और संतुलित करना है। यही कारण है कि प्राणायाम को योग विज्ञान का एक अमोघ साधन माना गया है।
मनु के अनुसार जिस प्रकार अग्नि में सोना आदि धातुएँ गलाने से उनका मैल दूर होता है, उसी प्रकार प्राणायाम करने से शरीर की इंद्रियों का मैल दूर होता है। जिस प्रकार शरीर की शुद्धि के लिए स्नान की आवश्यकता है, ठीक उसी प्रकार मन की शुद्धि के लिए प्राणायाम की आवश्यकता है। प्राणायाम से शरीर स्वस्थ और नीरोगी रहता है। इससे दीर्घ आयु प्राप्त होती है, स्मरण शक्ति बढ़ती है और मानसिक रोग दूर होते हैं।
(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक है-
(i) दीर्घ आयु की सार्थकता
(ii) प्राणशक्ति
(iii) प्राणायाम
(iv) स्वास्थ्य और मनुष्य
उत्तर :
(iii) प्राणायाम
(ख) कहावत के अनुसार मनुष्य का पहला सुख क्या है?
(i) नीरोगी मन
(ii) नीरोगी काया
(iii) चंचल मन
(iv) स्वस्थ मस्तिष्क
उत्तर :
(ii) नीरोगी काया
(ग) प्राणायाम क्यों बहुत लाभप्रद है?
(i) शरीर को सशक्त बनाता है।
(ii) शरीर सुगठित बनाता है।
(iii) नीरोगी रहने में सहायक होता है।
(iv) ये सभी विकल्प
उत्तर :
(iv) ये सभी विकल्प
(घ) स्थूल पृथ्वी पर कौन संचालन करता है?
(i) आयाम
(ii) प्राण
(iii) वायु
(iv) जल
उत्तर :
(ii) प्राण
(ङ) प्राणायाम का उद्देश्य है-
(i) प्राण शक्ति को उत्प्रेरित करना
(ii) प्राण शक्ति को नियमित करना
(iii) प्राण शक्ति को संतुलित करना
(iv) ये सभी विकल्प
उत्तर :
(iv) ये सभी विकल्प
8. महात्माओं और विद्वानों का सबसे बड़ा लक्षण है-आवाज़ को ध्यान से सुनना। यह आवाज़ कुछ भी हो सकती है। कौओं की कर्कश आवाज़ से लेकर नदियों की छलछल तक। मार्टिन लूथर किंग के भाषण से लेकर किसी पागल के बड़बड़ाने तक। अमूमन ऐसा होता नहीं। यह सच है कि हम सुनना चाहते ही नहीं। बस बोलना चाहते हैं। हमें लगता है कि इससे लोग हमें बेहतर तरीके से समझेंगे। हालाँकि ऐसा होता नहीं। हमें पता ही नहीं चलता और अधिक बोलने की कला हमें अनसुना करने की कला में पारंगत कर देती है।
एक मनोवैज्ञानिक ने अपने अध्ययन में पाया कि जिन घरों के अभिभावक ज़्यादा बोलते हैं, वहाँ बच्चों में सही-गलत से जुड़ा स्वाभाविक ज्ञान कम विकसित हो पाता है, क्योंकि जितनी अनिच्छा ज़्यादा बोलना बातों को विरोधाभासी तरीके से सामने रखता है और सामने वाला बस शब्दों के जाल में फँसकर रह जाता है। बात औपचारिक हो या अनौपचारिक, दोनों स्थितियों में हम दूसरे की न सुन, बस हावी होने की कोशिश करते हैं।
खुद ज़्यादा बोलने और दूसरों को अनसुना करने से ज़ाहिर होता है कि हम अपने बारे में ज़्यादा सोचते हैं और दूसरों के बारे में कम। ज़्यादा बोलने वालों के दुश्मनों की भी संख्या ज़्यादा होती है। अगर आप नए दुश्मन बनाना चाहते हैं, तो अपने दोस्तों से ज़्यादा बोलें और अगर आप नए दोस्त बनाना चाहते हैं, तो दुश्मनों से कम बोलें। अमेरिका के सर्वाधिक चर्चित राष्ट्रपति रूजवेल्ट अपने माली तक के साथ कुछ समय बिताते और इस दौरान उसकी बातें ज़्यादा सुनने की कोशिश करते। वह कहते थे कि लोगों को अनसुना करना अपनी लोकप्रियता के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। इसका लाभ यह मिला कि ज़्यादातर अमेरिकी नागरिक उनके सुख में सुखी होते, और दुख में दुखी।
(क) गद्यांश का उचित शीर्षक है –
(i) बोलने की कला
(iii) आवाज़
(ii) स्वाभाविक ज्ञान
(iv) दोस्ती दुश्मनी
उत्तर :
(iii) आवाज़
(ख) अधिक बोलने की कला हमें किस कला में पारंगत कर देती है?
(i) अनसुना करने की कला
(iii) प्रशंसा करने की कला
(ii) चाटुकारिता करने की कला
(iv) लीपापोती करने की कला
उत्तर :
(i) अनसुना करने की कला में
(ग) जिन घरों के अभिभावक ज्यादा बोलते हैं, वहाँ बच्चों में क्या असर पड़ता है?
(i) सही-गलत का स्वाभाविक ज्ञान कम विकसित होता है।
(ii) सांसारिक ज्ञान अधिक विकसित होता है।
(iii) पारिवारिक ज्ञान अधूरा रह जाता है।
(iv) अधूरा ज्ञान अधिक विकसित होता है।
उत्तर :
(i) सही-गलत का स्वाभाविक ज्ञान कम विकसित होता है।
(घ) ज़्यादा बोलने से क्या होता है?
(i) बातों को सामान्य रूप से सामने रखता है।
(ii) बातों को विरोधाभाषी तरीके से सामने रखता है।
(iii) बातों को रोचक तरीके से प्रकट करता है।
(iv) बातों को सारहीन करके सामने रखता है।
उत्तर :
(ii) बातों को विरोधाभाषी तरीके से सामने रखता है।
(ङ) नए दोस्त बनाने के लिए क्या करना ज़रूरी है?
(i) दुश्मनों से कम बोलना चाहिए।
(ii) पुराने मित्रों से अधिक बोलना चाहिए।
(iii) दुश्मनों से काम पड़ने पर बोलना चाहिए।
(iv) अनजान लोगों से कभी-कभार बोलना चाहिए।
उत्तर :
(i) दुश्मनों से कम बोलना चाहिए।