JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Jharkhand Board Class 11 Political Science सामाजिक न्याय InText Questions and Answers

पृष्ठ 56

प्रश्न 1.
नीचे दी गई स्थितियों की जांच करें और बताएँ कि क्या वे न्यायसंगत हैं। अपने तर्क के साथ यह भी बताएँ कि प्रत्येक स्थिति में न्याय का कौनसा सिद्धान्त काम कर रहा है।
(अ) एक दृष्टिहीन छात्र सुरेश को गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए साढ़े तीन घंटे मिलते हैं, जबकि अन्य सभी छात्रों को केवल तीन घंटे।
(ब) गीता बैसाखी की सहायता से चलती है। अध्यापिका ने गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए उसे साढ़े तीन घंटे का समय देने का निश्चय किया।
(स) एक अध्यापक कक्षा के कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने के लिए कुछ अतिरिक्त अंक देता है।
(द) एक प्रोफेसर अलग-अलग छात्राओं को उनकी क्षमताओं के मूल्यांकन के आधार पर अलग-अलग प्रश्न-पत्र बाँटता है।
(य) संसद में एक प्रस्ताव विचाराधीन है कि संसद की कुल सीटों में से एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाएं।
उत्तर:
(अ) ” एक दृष्टिहीन छात्र सुरेश को गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए साढ़े तीन घंटे मिलते हैं, जबकि अन्य सभी छात्रों को केवल तीन घंटे।” हाँ, यह स्थिति न्यायसंगत है। इस स्थिति में न्याय का विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त काम कर रहा है। लोगों की विशेष जरूरतों को ध्यान में रखने का सिद्धान्त समान बरताव के सिद्धान्त का विस्तार ही करता है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाये। प्रस्तुत स्थिति में दृष्टिहीन छात्र सुरेश दृष्टि वाले छात्रों के समान नहीं है, इसलिए उसे प्रश्नपत्र’ हल करने के लिए 3 घंटे के स्थान पर साढ़े तीन घंटे का समय दिया जाना न्यायसंगत है।

(ब) ” गीता बैसाखी की सहायता से चलती है। अध्यापिका ने गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए उसे साढ़े तीन घंटे का समय देने का निश्चय किया। ” यह स्थिति न्यायसंगत नहीं है क्योंकि यह न्याय के समान लोगों के प्रति समान बरताव के सिद्धान्त का उल्लंघन है। गीता का बैसाखी से चलना, परीक्षा हाल में प्रश्नपत्र हल करने के प्रसंग में ‘विशेष जरूरत के विशेष ख्याल’ के सिद्धान्त की आवश्यकता पैदा नहीं करता है; बल्कि वह अन्य छात्रों की तरह ही समान स्थिति में है। ऐसी स्थिति में साढ़े तीन घंटे देना न्यायसंगत नहीं ठहरता।

(स) “एक अध्यापक कक्षा के कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने के लिए कुछ अतिरिक्त अंक देता है।” कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने की दृष्टि से कुछ अतिरिक्त अंक देना न्यायसंगत है। इसमें न्याय के विशेष जरूरतों के विशेष ख्याल का सिद्धान्त काम कर रहा है।

(द) “एक प्रोफेसर अलग-अलग छात्राओं को उनकी क्षमताओं के मूल्यांकन के आधार पर अलग-अलग प्रश्न- पत्र बाँटता है।” यह स्थिति न्यायसंगत नहीं है। इसमें न्याय के समान लोगों के साथ समान लोगों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें काम और कार्यकलापों के आधार पर जांचा जाना चाहिए। छात्राओं को प्रतिफल उनकी क्षमता के अनुसार समान आधार पर ही किया जाना आवश्यक है।

(य) “संसद में,एक प्रस्ताव विचाराधीन है कि संसद की कुल सीटों में से एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाएँ।” यह स्थिति न्यायसंगत है तथा इसमें न्याय का विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त काम कर रहा है।

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प्रश्न 1.
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का क्या मतलब है? हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ कैसे बदला?
उत्तर:
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने से आशय:
न्याय में सभी लोगों की भलाई निहित रहती है। एक न्यायसंगत शासक या सरकार को भी न्याय हेतु जनता की भलाई की चिन्ता करनी होगी। जनता की भलाई की सुनिश्चितता में हर व्यक्ति को उसका उचित हिस्सा देना शामिल है। इस प्रकार न्याय में हर व्यक्ति को उसका उचित हिस्सा देना शामिल है। इसी को कहा जाता है कि हर व्यक्ति को उसका प्राप्य दिया जाये, यही न्याय है। प्राचीन काल से लेकर आज तक यह न्याय हमारी समझ का महत्त्वपूर्ण अंग बना हुआ है।

लेकिन प्राचीन समय से लेकर अब तक इस धारणा में कुछ परिवर्तन आए हैं। उदाहरण के लिए प्राचीन काल में प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का अर्थ था – व्यक्ति के गलत कार्य पर उसे सजा दी जाये और उसके अच्छे कार्य के लिए उसे पुरस्कृत किया जाये। लेकिन आधुनिक समय में प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का अर्थ यह लिया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हो। न्याय के लिए यह आवश्यक है कि हम सभी व्यक्तियों को समुचित और बराबर का महत्त्व दें।

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प्रश्न 2.
अध्याय में दिये गये न्याय के तीन सिद्धान्तों की संक्षेप में चर्चा करें। प्रत्येक को उदाहरण के साथ समझाइये।
उत्तर:
न्याय के सिद्धान्त अध्याय में न्याय के जो तीन सिद्धान्त दिये गये हैं वे निम्नलिखित हैं।
1. समान लोगों के प्रति समान व्यवहार:
न्याय का पहला सिद्धान्त यह है कि समकक्षों के साथ समान व्यवहार किया जाये। माना जाता है कि मनुष्य होने के नाते सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसलिए वे समान अधिकार और समान व्यवहार के अधिकारी हैं। उदाहरण के लिए, आज अधिकांश उदारवादी जनतंत्रों में सभी नागरिकों को समान मूल अधिकार व राजनैतिक अधिकार, जैसे- स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार, मताधिकार, जीवन का अधिकार आदि दिये गये हैं। ये अधिकार सभी व्यक्तियों को राजनीतिक प्रक्रियाओं में भागीदार बनाते हैं।

समान अधिकारों के अतिरिक्त समकक्षों के साथ समान व्यवहार के सिद्धान्त के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाये। उन्हें उनके काम और कार्यकलापों के आधार पर जांचा जाना चाहिए, इस आधार पर नहीं कि वे किस समुदाय के सदस्य हैं। उदाहरण के लिए, अगर भिन्न जातियों के दो व्यक्ति एक ही काम करते हैं, जैसे- शिक्षक का कार्य, तो उन्हें समान पारिश्रमिक मिलना चाहिए। यदि किसी काम के लिए एक व्यक्ति को सौ रुपये और दूसरे व्यक्ति को पिचहत्तर रुपये सिर्फ इसलिए मिलते हैं, क्योंकि वे भिन्न जातियों के हैं, या भिन्न रंग के हैं, तो यह अनुचित और अन्यायपूर्ण है।

2. समानुपातिक न्याय:
‘समान कार्य के लिए समान व्यवहार’ के न्याय के सिद्धान्त के अतिरिक्त न्याय का दूसरा सिद्धान्त है। समानुपातिक न्याय ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिसमें हम महसूस करें कि हर एक के साथ समान बरताव करना अन्याय होगा। उदाहरण के लिए, अगर हमारे स्कूल में यह फैसला किया जाये कि परीक्षा में शामिल होने वाले सभी लोगों को बराबर अंक दिए जाएँगे, क्योंकि सब एक ही स्कूल के विद्यार्थी हैं और सबने एक ही दी है, तो ऐसा करना अन्यायपूर्ण रहेगा। यहाँ पर यह न्यायसंगत होगा कि छात्रों को उनकी उत्तर-पुस्तिकाओं की गुणवत्ता द्वारा किये गए प्रयास के अनुसार अंक दिए जाएँ।

इस प्रकार ऐसे सभी मामलों में न्याय का अर्थ होगा- लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और अर्हता के अनुपात में पुरस्कृत करना। किसी काम के लिए वांछित मेहनत, कौशल, संभावित खतरे आदि कारकों को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग पारिश्रमिक निर्धारण करना उचित और न्यायसंगत होगा। अतः समाज में न्याय के लिए समान व्यवहार के सिद्धान्त का समानुपातिकता के सिद्धान्त के साथ संतुलन बिठाने की आवश्यकता है।

3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त-न्याय का तीसरा सिद्धान्त है। समाज में पारिश्रमिक या कर्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की विशेष आवश्यकताओं का भी ख्याल रखा जाये। इसे सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने का तरीका माना जा सकता है। समाज के सदस्यों के रूप में लोगों की बुनियादी हैसियत और अधिकारों के लिहाज से न्याय के लिए यह आवश्यक है कि समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाये। लेकिन समान व्यवहार के सिद्धान्त पर अमल कभी-कभी योग्यता को उचित प्रतिफल देने के खिलाफ खड़ा हो सकता है।

ऐसी स्थिति में योग्यता को पुरस्कृत करने के लिए समानुपातिक न्याय के सिद्धान्त को क्रियान्वित किया जाता है। लेकिन योग्यता को ही पुरस्कृत करने को न्याय का प्रमुख सिद्धान्त मानने पर जोर देने का अर्थ यह होगा कि हाशिये पर खड़े तबके कई क्षेत्रों में वंचित रह जायेंगे, क्योंकि अच्छे पोषाहार और अच्छी शिक्षा जैसी सुविधाओं तक उनकी पहुँच नहीं हो पाती है। इसलिए न्याय के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों की विशेष आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाये। उदाहरण के लिए, विकलांगता वाले लोगों को कुछ खास मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझना न्यायसंगत होता है। इसी प्रकार अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच न होना भी ऐसा कारक है, जिन्हें अनेक देशों में विशेष बरताव का आधार समझा जाता है।

हमारे देश में अच्छी सुविधा, स्वास्थ्य और ऐसी अन्य सुविधाओं तक पहुँच का अभाव जाति आधारित सामाजिक भेदभाव से जुड़ा है। इसीलिए संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। देश के विभिन्न समूह, भिन्न-भिन्न नीतियों की तरफदारी कर सकते हैं, जो इस पर निर्भर करता है कि वे न्याय के किस सिद्धान्त पर बल देते हैं । ऐसी स्थिति में सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह एक न्यायपरक समाज को बढ़ावा देने के लिए न्याय के विभिन्न सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य स्थापित करे।

प्रश्न 3.
क्या विशेष जरूरतों का सिद्धान्त सभी के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के विरुद्ध है?
उत्तर:
नहीं, लोगों की विशेष जरूरतों का सिद्धान्त सभी के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है, बल्कि उसका विस्तार है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों, जैसे विकलांगता या वंचितता आदि में अन्य के समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाये।

प्रश्न 4.
“निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को युक्तिसंगत आधार पर सही ठहराया जा सकता है।” रॉल्स ने इस तर्क को आगे बढ़ाने में ‘अज्ञानता के आवरण’ के विचार का उपयोग किस प्रकार किया?
उत्तर:
निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण:
समाज में सामाजिक न्याय पाने के लिए सरकारों को यह सुनिश्चित करना होता है कि कानून और नीतियाँ सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू होने के साथ-साथ न्यायसंगत भी हों। इस सम्बन्ध में रॉल्स ने ‘अज्ञानता के आवरण का सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया है। यथा अज्ञानता के आवरण का सिद्धान्त

1. अज्ञानता के आवरण से आशय:
जॉन रॉल्स ने कहा है कि निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यह है कि हम स्वयं को एक ‘अज्ञानता के आवरण’ की परिस्थिति में होने की कल्पना करें जहाँ हमें यह
निर्णय लेना है कि समाज को कैसे संगठित किया जाये। रॉल्स के अनुसार, ” अज्ञानता के आवरण के अन्तर्गत समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपने संभावित स्थान और पद के बारे में सर्वथा अज्ञान रहेगा।”

2. अज्ञानता के आवरण में सोचना:
रॉल्स तर्क देते हैं कि यदि हमें यह नहीं मालूम हो कि हम कौन होंगे और भविष्य के समाज में हमारे लिए कौनसे विकल्प खुले होंगे, तब हम भविष्य के उस समाज के नियमों और संगठन के बारे में जिस निर्णय का समर्थन करेंगे, वह तमाम सदस्यों के लिए अच्छा होगा। रॉल्स ने इसे ‘अज्ञानता के आवरण’ में सोचना कहा है। वे आशा करते हैं कि समाज में अपने संभावित स्थान और हैसियत के बारे में पूर्ण अज्ञानता की हालत में हर आदमी यह नहीं जानता कि वह कौन होगा और उसके लिए क्या लाभप्रद होगा, इसलिए हर कोई सबसे बुरी स्थिति के समाज की कल्पना करेगा।

3. कमजोर तबके के लोगों के लिए यथोचित अवसरों की सुनिश्चितता:
यद्यपि वह अपने स्वभाव के अनुसार स्वयं के हितों को ध्यान में रखकर निर्णय करेगा, लेकिन अज्ञानता के आवरण में वह संगठन के ऐसे नियमों के बारे में सोचेगा जो कमजोर तबकों के लिए यथोचित अवसर सुनिश्चित कर सकें। इस दृष्टि से वह यह चाहेगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन सभी लोगों को प्राप्त हों।

4. सभी लोगों से विवेकशीलता की उम्मीद:
‘अज्ञानता के आवरण’ वाली स्थिति की विशेषता यह है कि इसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बंधती है क्योंकि अज्ञानता के आवरण में रहकर जब वे चुनते हैं तो वे पायेंगे कि सबसे बुरी स्थिति से ही सोचना उनके लिए हितकर होगा। इससे यह प्रकट होगा कि विवेकशील मनुष्य न केवल सबसे बुरे संदर्भ को ध्यान में रखते हुए चीजों को देखेंगे, बल्कि वे यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों। दोनों चीजों को साथ-साथ लेकर चलना है।

इसीलिए सभी के हित में होगा कि निर्धारित नीतियों और नियमों से सम्पूर्ण समाज को लाभ हो, किसी एक खास हिस्से को नहीं। यहाँ निष्पक्षता विवेकसम्मत कार्रवाई का परिणाम है, न कि परोपकार या उदारता का इसीलिए रॉल्स तर्क देते हैं कि नैतिकता नहीं बल्कि विवेकशील चिंतन हमें समाज के लाभ और लाभों के वितरण के मामले में निष्पक्ष होकर विचार करने की ओर प्रेरित करता है और अज्ञानता के आवरण वाली स्थिति लोगों को विवेकशील बनाए रखती है।

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प्रश्न 5.
आमतौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें क्या मानी गई हैं? इस न्यूनतम को सुरक्षित करने में सरकार की क्या जिम्मेदारी है?
उत्तर:
व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें – आमतौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की ‘न्यूनतम बुनियादी जरूरतें ये मानी गई हैं।

  1. स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की बुनियादी मात्रा अर्थात् भोजन,
  2. आवास,
  3. शुद्ध पेयजल की आपूर्ति,
  4. शिक्षा और
  5. न्यूनतम मजदूरी तथा
  6. तन ढकने के लिए आवश्यक कपड़ा।

न्यूनतम को सुरक्षित करने में सरकारी जिम्मेदारी
लोगों की न्यूनतम बुनियादी जरूरतों की पूर्ति लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी मानी जाती है। लेकिन इस लक्ष्य को पाने का सर्वोत्तम तरीका क्या होगा, इस पर विवाद चल रहा है। कुछ विद्वानों का मत है कि मुक्त बाजार के जरिए खुली प्रतियोगिता को बढ़ावा देना समाज के सुविधा प्राप्त सदस्यों को नुकसान पहुँचाए बगैर सुविधाहीनों की मदद करने का तरीका ही सर्वोत्तम तरीका है। दूसरे लोगों का मत है कि गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधायें मुहैया कराने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए । यहाँ पर हमारा प्रतिपाद्य इस न्यूनतम को सुनिश्चित करने में सरकार की जिम्मेदारी की विवेचना करना है। यथा

  1. सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन – मानक सुनिश्चित करने हेतु राज्य हस्तक्षेप करे, ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्द्धा करने में समर्थ हो ।
  2. यद्यपि स्वास्थ्य, सेवा, शिक्षा तथा ऐसी अन्य बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति के लिए निजी एजेन्सियों को प्रोत्साहित किया जाये, तथापि राज्य की नीतियाँ इन सेवाओं को खरीदने के लिए लोगों को सशक्त बनाने की कोशिश करें।
  3. राज्य के लिए यह भी जरूरी हो सकता है कि वह उन वृद्धों और राोगियों को विशेष सहायता प्रदान करे, जो प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सकते। लेकिन इससे आगे राज्य की भूमिका नियम कानून का ढाँचा बरकरार रखने तक ही सीमित रहनी चाहिए, जिससे व्यक्तियों के बीच बाधाओं से मुक्त प्रतिद्वन्द्विता सुनिश्चित हो।
  4. सरकार को यह देखना चाहिए कि अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध हों। यदि इन सेवाओं की कीमत अधिक होगी तो वे गरीबों की पहुँच से बाहर हो जाएँगी।
  5. गरीब वर्ग को न्यूनतम सुविधाएँ प्राप्त हों, इस हेतु सरकार छोटे-छोटे कुटीर उद्योग व अन्य छोटे उद्योगों को बढ़ावा देकर गरीब वर्ग को रोजगार उपलब्ध कराकर उनकी गरीबी दूर करने का प्रयास कर सकती है। वह बेरोजगारों को अपना व्यवसाय शुरू करने को प्रेरित करने हेतु बैंकों से सस्ते दर पर ऋण उपलब्ध करा सकती है।

प्रश्न 6.
सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिये राज्य की कार्यवाही को निम्न में से कौन-से तर्क से वाजिब ठहराया जा सकता है?
(क) गरीब और जरूरतमंदों को निःशुल्क सेवायें देना एक धर्म कार्य के रूप में न्यायोचित है
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(ग) कुछ लोग प्राकृतिक रूप से आलसी होते हैं और हमें उनके प्रति दयालु होना चाहिये।
(घ) सभी के लिये बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।
उत्तर:
उपर्युक्त में से सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिए राज्य की कार्रवाई को (ख) के तर्क, कि ” सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है, से वाजिब ठहराया जा सकता है।

सामाजिक न्याय JAC Class 11 Political Science Notes

→ न्याय का सरोकार समाज में हमारे जीवन और सार्वजनिक जीवन को व्यवस्थित करने के नियमों और तरीकों से होता है, जिनके द्वारा समाज के विभिन्न सदस्यों के बीच सामाजिक लाभ और सामाजिक कर्त्तव्यों का बंटवारा किया जाता है।

→ न्याय क्या है?
विभिन्न संस्कृतियों और परम्पराओं में न्याय की अवधारणा की व्याख्या भिन्न-भिन्न तरीकों से की गई है। यथा

  • प्राचीन भारतीय समाज में न्याय धर्म के साथ जुड़ा था।
  • चीन के दार्शनिक कनफ्यूशियस के अनुसार गलत करने वालों को दंडित कर और भले लोगों को पुरस्कृत कर राजा को न्याय कायम रखना चाहिए।
  • प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में कहा कि न्याय में सभी लोगों का हित निहित रहता है। जैसे एक डाक्टर अपने सभी मरीजों की भलाई की चिन्ता करता है, उसी तरह एक न्यायसंगत शासक या सरकार को भी जनता की भलाई की चिंता करनी होगी। जनता की भलाई की सुनिश्चितता में हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा देना शामिल है।
  • आधुनिक काल में भी न्याय में हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा देना शामिल है। लेकिन आज न्याय की हमारी समझ इस समझ से जुड़ गई है कि मनुष्य होने के नाते हर मनुष्य का प्राप्य क्या है। कांट का इस सम्बन्ध में कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए समुचित और बराबर अवसर प्राप्त हों। न्याय के लिए जरूरी है कि हम सभी व्यक्तियों को समुचित और बराबरी की अहमियत दें।

→ न्याय के सिद्धान्त
‘हर व्यक्ति को उसका प्राप्य प्राप्त हो’ आधुनिक समाज में न्याय के सम्बन्ध में इस बात पर सहमति है। लेकिन हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाये, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्त सामने आये हैं।

→ समान लोगों के प्रति समान बरताव का सिद्धान्त: हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाय, इस सम्बन्ध में कई सिद्धान्त पेश किये गये हैं। उनमें से एक है। – समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धान्त। मनुष्य होने के नाते सभी मनुष्य समान अधिकार और समान बरताव के अधिकारी हैं। आधुनिक काल में अधिकांश उदारवादी जनतंत्रों में सभी व्यक्तियों को जीवन, स्वतंत्रता, समानता तथा मताधिकार के अधिकार दिये गए हैं, साथ ही इन अधिकारों के उपयोग के लिए वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध भी किया गया है।

→ समानुपातिक न्याय का सिद्धान्त: ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिसमें हम महसूस करें कि हर एक के साथ समान बरताव अन्याय होगा। ऐसे मामलों में न्याय का मतलब होगा, लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और अर्हता के अनुपात में पुरस्कृत करना अर्थात् किसी काम के लिए वांछित मेहनत, कौशल, संभावित खतरे आदि कारकों को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग पारिश्रमिक का निर्धारण उचित और न्यायसंगत होगा । इसलिए समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धान्त का समानुपातिकता के सिद्धान्त के साथ संतुलन बैठाने की आवश्यकता है।

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→ विशेष जरूरतों के विशेष ख्याल का सिद्धान्त:
न्याय के जिस तीसरे सिद्धान्त को हम समाज के लिए मान्य करते हैं, वह है। पारिश्रमिक या कर्त्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की विशेष जरूरतों का ख्याल रखने का सिद्धान्त। यह सिद्धान्त ‘समान बरताव के सिद्धान्त’ का विस्तार है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाये। विकलांगता वाले लोगों को कुछ खास मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझा जा सकता है।

हमारे संविधान में इसी दृष्टि से ही अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में तथा शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह एक न्यायपरक समाज को बढ़ावा देने के लिए न्याय के उपर्युक्त तीनों सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य स्थापित करे ।

→ न्यायपूर्ण बंटवारा
सामाजिक न्याय का सरोकार वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से भी है, चाहे यह राष्ट्रों के बीच वितरण का मामला हो या किसी समाज के अन्दर विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के बीच का । यदि समाज में गंभीर सामाजिक या आर्थिक असमानताएँ हैं, तो यह जरूरी होगा कि समाज के कुछ प्रमुख संसाधनों का पुनर्वितरण हो, जिससे नागरिकों को जीने के लिए समतल धरातल मिल सके। इसी संदर्भ में भारत में विभिन्न राज्य सरकारों ने जमीन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन के अधिक न्यायपूर्ण वितरण के लिए भूमि सुधार लागू करने जैसे कदम भी उठाए हैं।

→ रॉल्स का न्याय सिद्धान्त:
अज्ञानता का कल्पित आवरण में निर्णय हेतु सोचना: रॉल्स का न्याय सिद्धान्त इस प्रश्न से शुरू होता है कि हम ऐसे निर्णय पर कैसे पहुँचें जो निष्पक्ष और न्यायसंगत हो? रॉल्स का कहना है कि निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यह है कि हम ‘अज्ञानता के आवरण’ में निर्णय लें। अज्ञानता के आवरण वाली स्थिति की विशेषता यह है कि उसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बनती है क्योंकि इस आवरण में रहते हुए यदि हम निर्णय करते हैं तो सबसे बुरी स्थिति से ही हम सोचना हितकर समझते हैं क्योंकि हमें नहीं मालूम कि भविष्य में हम किस स्थिति में होंगे, हो सकता है कि वर्तमान में जो सबसे बुरी स्थिति हमें दिखाई दे रही है, भविष्य में, निर्णय लेने के बाद, हमें यही स्थिति मिले। इसलिए हम इस स्थिति से ही सोचना प्रारंभ करेंगे।

→ अज्ञानता के कल्पित आवरण में विवेकशील चिंतन संभव:
अज्ञानता का कल्पित आवरण ओढ़ना उचित कानूनों और नीतियों की प्रणाली तक पहुँचने का पहला कदम है। क्योंकि इस आवरण में विवेकशील मनुष्य यह सुनिश्चित करने की भी कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों। अज्ञानता के इस आवरण में व्यक्ति ऐसे नियम चाहेगा जो सबसे बुरी स्थिति में जीने वालों की भी रक्षा कर सकें, क्योंकि कोई नहीं जानता कि आगामी समाज में वे कौनसी जगह लेंगे। इसके साथ ही वे यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा चुनी गई नीतियाँ बेहतर स्थिति वालों को कमजोर न बना दें, क्योंकि हो सकता है वे स्वयं भविष्य के उस समाज में सुविधासम्पन्न स्थिति में पैदा हों। इस प्रकार वे ऐसे नियम चाहेंगे जिनसे समाज के सभी प्रकार के लोगों को फायदा हो, न कि किसी एक खास हिस्से का।

→ वितरण हेतु निष्पक्षता विवेकसम्मत चिंतन व कार्यवाही का परिणाम – यहाँ पर निष्पक्षता विवेकसम्मत कार्यवाही का परिणाम है, न कि परोपकार या उदारता का । इस प्रकार रॉल्स का कहना है कि विवेकशील चिंतन हमें समाज में लाभ और साधनों के वितरण के मामले में निष्पक्ष होकर विचार की ओर प्रेरित करता है।

→ सामाजिक न्याय का अनुसरण
न्यायपूर्ण समाज को लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ जरूर मुहैया करानी चाहिए, ताकि वे स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जीने में सक्षम हो सकें, समाज में अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें तथा समान अवसरों के माध्यम से 1. अपने चुने हुए लक्ष्य की ओर बढ़ सकें। आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी इन बुनियादी स्थितियों के महत्त्वपूर्ण हिस्से हैं। लोगों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी समझी जाती है ।
अगर हम सब इस बात पर सहमत हो जाएँ कि राज्य को न्यूनतम बुनियादी स्थितियों को मुहैया करने के लिए सबसे वंचित सदस्यों की सहायता करनी चाहिए, तब इससे जुड़ा दूसरा प्रश्न यह मुखरित होता है कि इस हेतु राज्य सरकार क्या रास्ता अपनाये। क्या यह खुली प्रतियोगिता का रास्ता अपनाये या राज्य हस्तक्षेप करके गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधायें मुहैया कराये। यथा-

→ मुक्त. बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप
मुक्त बाजार के पक्ष में तर्क- राज्य को समाज के सबसे वंचित सदस्यों की सहायता के लिए एक रास्ता तो यह अपनाना चाहिए कि वह मुक्त बाजार के जरिये खुली प्रतियोगिता को बढ़ावा दे। इसके समर्थकों ने इसके समर्थन में जो तर्क दिये हैं, वे निम्नलिखित हैं।

  • मुक्त बाजार के जरिये खुली प्रतियोगिता से योग्यता और प्रतिभा वाले व्यक्तियों को अधिक प्रतिफल मिलेगा जबकि अक्षम लोगों को कम प्रतिफल मिलेगा । इसका मुख्य आधार योग्यता, प्रतिभा और कौशल होगा।
  • मुक्त बाजारी वितरण हमें ज्यादा विकल्प प्रदान करता है।

→ मुक्त बाजार के विपक्ष तथा राज्य के हस्तक्षेप के पक्ष में तर्क

  • यद्यपि मुक्त बाजार और निजी उद्यम द्वारा प्रदत्त सेवाएँ सरकारी सेवाओं से बेहतर होती हैं, लेकिन अधिक कीमत के कारण वे गरीब लोगों की पहुँच से बाहर हो जाती हैं। इससे कमजोर सुविधाहीन लोग अवसरों से वंचित हो सकते हैं।
  • मुक्त बाजार प्रायः पहले से ही सुविधासम्पन्न लोगों के हक में काम करने का रुझान दिखलाते हैं। इसलिए राज्य को हस्तक्षेप करके समाज के सभी सदस्यों को बुनियादी सुविधायें उपलब्ध कराने की पहल करनी चाहिए।

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