Jharkhand Board JAC Class 10 Hindi Solutions Sparsh Chapter 4 मनुष्यता Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 10 Hindi Solutions Sparsh Chapter 4 मनुष्यता
JAC Class 10 Hindi मनुष्यता Textbook Questions and Answers
(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
प्रश्न 1.
कवि ने कैसी मृत्यु को सुमृत्यु कहा है ?
उत्तर :
कवि का मत है कि यह संसार नश्वर है। जिस मनुष्य ने इस संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है। लेकिन इस संसार में उस मनुष्य की मृत्यु सुमृत्यु बन जाती है, जिसे मरने के बाद भी याद किया जाता है। कवि के अनुसार हमें जीवन में सदैव ऐसे कार्य करने चाहिए, जिससे लोग हमें मरने के बाद भी याद करें। जो व्यक्ति सदैव दूसरों की भलाई का कार्य करता है, वह इस संसार में मरने के बाद भी याद किया जाता है। ऐसी मृत्यु को ही कवि ने सुमृत्यु कहा है।
प्रश्न 2.
उदार व्यक्ति की पहचान कैसे हो सकती है?
उत्तर :
कवि का कहना है कि जो व्यक्ति संपूर्ण विश्व में आत्मीयता का भाव भरता है अर्थात जो सभी प्राणियों के साथ अपनेपन का व्यवहार करता है, वही व्यक्ति उदार होता है। ऐसे उदार व्यक्ति के गुणों का सदैव गुणगान होता है। उसके यश की मधुर ध्वनि सर्वत्र गूंजती है। आत्मीयता के भाव से संपन्न व्यक्ति को सारा संसार पूजता है; पृथ्वी भी उसका आभार व्यक्त करती है। सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार ही उदार व्यक्ति की पहचान है।
प्रश्न 3.
कवि ने दधीचि, कर्ण आदि महान व्यक्तियों का उदाहरण देकर ‘मनुष्यता’ के लिए क्या संदेश दिया है?
उत्तर :
कवि ने दधीचि, कर्ण आदि महान व्यक्तियों का उदाहरण देकर मनुष्यता को त्याग का संदेश दिया है। कवि के अनुसार समाज कल्याण के लिए यदि हमें अपने प्राणों को भी न्योछावर करना पड़े, तो हमें इसके लिए सहर्ष तैयार रहना चाहिए। त्याग करने से ही मनुष्य महान बनता है। कवि यह भी संदेश देना चाहता है कि व्यक्ति को अपने सद्गुणों को कभी छोड़ना नहीं चाहिए। जो व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी सवृत्तियों को नहीं छोड़ता, वह सदा पूजनीय बनता है। इसके साथ-साथ व्यक्ति को अधिक लोगों की भलाई के लिए व्यक्तिगत सुख-दुख भी चिंता नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न 4.
कवि ने किन पंक्तियों में यह व्यक्त किया है कि हमें गर्व-रहित जीवन व्यतीत करना चाहिए?
उत्तर :
कवि के अनुसार हमें कभी भी धन-संपत्ति का अभिमान नहीं करना चाहिए। कवि ने निम्नलिखित पंक्तियों में इस भाव को व्यक्त किया है –
“रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।”
प्रश्न 5.
‘मनुष्य मात्र बंधु है’ से आप क्या समझते हैं ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कवि यहाँ पर स्पष्ट करना चाहता है कि प्रत्येक मनुष्य एक-दूसरे का भाई-बंधु है। हम सबका पिता परमपिता परमेश्वर है। यह बात प्रसिद्ध। है कि हम सब उस ईश्वर की संतान हैं। इस दृष्टि से हम सबमें भाईचारा होना चाहिए। कवि दुख प्रकट करता है कि आज मनुष्य ही मनुष्य के दुखों को दूर करने का प्रयास नहीं कर रहा। कवि चाहता है कि इस संसार में सभी मनुष्य परस्पर भाईचारे का व्यवहार करें।
प्रश्न 6.
कवि ने सबको एक होकर चलने की प्रेरणा क्यों दी है ?
उत्तर :
कवि चाहता है कि सभी एक होकर चलें। ऐसा करने से हम अपने मार्ग में आने वाली विपत्तियों और बाधाओं का सरलता से सामना कर सकेंगे। एक अकेला व्यक्ति जीवन में आने वाली कठिनाइयों को सरलता से नहीं झेल सकता। मिलकर चलने से परस्पर भिन्नता का भाव भी दूर हो जाता है। सभी जानते हैं कि एकता में बल होता है; एक और एक ग्यारह होते हैं। इसी कारण कवि ने सबको एक होकर चलने की प्रेरणा दी है।
प्रश्न 7.
व्यक्ति को किस प्रकार का जीवन व्यतीत करना चाहिए? इस कविता के आधार पर लिखिए। (निबंधात्मक प्रश्न)
उत्तर :
कवि के अनुसार व्यक्ति को सदैव परोपकार करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिए। स्वार्थपूर्ण जीवन जीना पशुओं का स्वभाव है, मनुष्य का नहीं। मनुष्य को उदारता और त्यागशीलता जैसे गुण अपने व्यक्तित्व में लाने चाहिए। दूसरों की भलाई के लिए यदि अपना सर्वस्व न्योछावर करना पड़े, तो व्यक्ति को उसके लिए भी तैयार रहना चाहिए। व्यक्ति के व्यवहार में दूसरों के प्रति सहानुभूति तथा करुणा का भाव होना चाहिए। व्यक्ति को धन-संपत्ति का घमंड न करते हुए ईश्वर में विश्वास रखना चाहिए। व्यक्ति को सदैव दूसरों के दुख दूर करने का प्रयास करते रहना चाहिए। ऐसा जीवन जीना ही सच्चा जीवन है।
प्रश्न 8.
‘मनुष्यता’ कविता के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाहता है ?
अथवा
‘मनुष्यता’ कविता के माध्यम से कवि ने किन गुणों को अपनाने का संकेत दिया है?
अथवा
“कर चले हम फिदा’ अथवा ‘मनुष्यता’ कविता का प्रतिपाद्य लगभग 100 शब्दों में लिखिए।
उत्तर :
‘मनुष्यता’ कविता के माध्यम से कवि परोपकार, त्याग और दानशीलता से परिपूर्ण जीवन जीने का संदेश देना चाहता है। कवि का मत है कि जो व्यक्ति दूसरों का भला चाहता है, उसी व्यक्ति का जीवन सफल है। ऐसे मनुष्य की मृत्यु भी सुमृत्यु है, क्योंकि उसके मरने के बाद लोग उसे याद करते हैं। परोपकारी, दानशील और त्यागी व्यक्ति ही सदा यश प्राप्त करता है। अतः इन गुणों को अपने व्यक्तित्व में लाना आवश्यक है। कवि के अनुसार मनुष्य को धन-संपत्ति का कभी भी अभिमान नहीं करना चाहिए। सभी मनुष्य ईश्वर की सं हैं। अतः सभी को एक होकर चलना चाहिए और परस्पर भाईचारे का व्यवहार करना चाहिए।
(ख) निम्नलिखित पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए –
प्रश्न :
1. सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?
2. रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
3. चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति, विज जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
उत्तर :
1. कवि के कहने का भाव यह है कि दूसरों के प्रति सहानुभूति रखना ही सबसे बड़ी पूँजी है। जो मनुष्य दूसरों के सुख-दुख को देखकर द्रवित होता है, वह धनवान है। ऐसा मनुष्य सरलता से सभी को अपने वश में कर सकता है। महात्मा बुद्ध ने अपने करुणापूर्ण व्यवहार से ही सभी का मन जीत लिया था। उनके करुणापूर्ण व्यवहार के कारण सारा संसार उनके आगे झुकता है।
2. कवि यहाँ व्यक्ति को चेतावनी देते हुए कहता है कि धन-संपत्ति के नशे में डूबकर कभी भी उस पर घमंड नहीं करना चाहिए। अपने आपको धन का स्वामी समझकर घमंड करना उचित नहीं है। इस संसार में कोई अनाथ नहीं है। ईश्वर सदा सबकी सहायता करते हैं। जो व्यक्ति ईश्वर में विश्वास करता है, उस पर ईश्वर कृपा करते हैं और उसका कल्याण करते हैं।
3. कवि का मत है कि सभी को एक होकर प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़ना चाहिए। एक होकर चलने से रास्ते में आने वाली बाधाओं और मुसीबतों को सरलता से दूर किया जा सकता है। लेकिन ध्यान रहे कि एक होकर चलते हुए परस्पर वंद्व पैदा न होने पाए। सभी वाद-विवाद रहित होकर एक मार्ग पर चलते रहें; सभी का आपस में खूब भाईचारा हो।
योग्यता विस्तार –
प्रश्न 1.
अपने अध्यापक की सहायता से रंतिदेव, दधीचि, कर्ण आदि पौराणिक पात्रों के विषय में जानकारी प्राप्त कीजिए। उत्तर :
विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।
प्रश्न 2.
‘परोपकार’ विषय पर आधारित दो कविताओं और दो दोहों का संकलन कीजिए। उन्हें कक्षा में सुनाइए।
उत्तर :
विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।
परियोजना कार्य –
प्रश्न 1.
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की कविता ‘कर्मवीर’ तथा अन्य कविताओं को पढ़िए तथा कक्षा में सुनाइए।
प्रश्न 2.
भवानी प्रसाद मिश्र की प्राणी वही प्राणी है’ कविता पढ़िए तथा दोनों कविताओं के भावों में व्यक्त हुई समानता को लिखिए।
उत्तर :
विद्यार्थी अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से स्वयं करें।
JAC Class 10 Hindi मनुष्यता Important Questions and Answers
लघु उत्तरीय प्रश्न :
प्रश्न 1.
कवि ने मनुष्य और पशु में क्या अंतर बताया है?
उत्तर :
कवि का मानना है कि मनुष्य पशु से श्रेष्ठ जीव है। मनुष्य में चेतना शक्ति की प्रबलता होती है। वह अपनी स्वार्थपूर्ति के साथ-साथ दूसरों की भलाई करने में भी सक्षम होता है। वह जो कमाता है और जो कुछ भी उत्पादित करता है, उससे दूसरों का हित करने में समर्थ होता है। दूसरी ओर पशु केवल अपना पेट भरने तक सीमित होते हैं। वे चरागाह में जाते हैं और अपने-अपने हिस्से का भोजन चरने में ही जीवन व्यतीत कर देते हैं। वे न तो किसी की भलाई कर पाते हैं और न ही किसी के कल्याण की सोच पाते हैं। उनके पास मनुष्य के समान सोचने-समझने की शक्ति नहीं होती।
प्रश्न 2.
कवि ने उदार व्यक्ति के विषय में क्या-क्या बताया है ?
उत्तर :
कवि का मत है कि जो व्यक्ति उदार होता है, उसका सदैव गुणगान होता है। संपूर्ण पृथ्वी भी उसके प्रति आभार व्यक्त करती है। उदार व्यक्ति के यश की मधुर ध्वनि चारों दिशाओं में गूंजती है। सारा संसार उसकी पूजा करता है। उदार व्यक्ति संपूर्ण विश्व में अपनेपन का भाव भरता है। अतः कवि ने उसका स्थान ऊँचा बताया है।
प्रश्न 3.
‘फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं’-इस पंक्ति से क्या तात्पर्य है?
उत्तर :
कवि स्पष्ट करना चाहता है कि संसार में सभी मनुष्य परस्पर भाई-बंधु हैं। सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं। ऊपरी तौर पर जो भिन्नता दिखाई देती है, वह उनके कर्मों के फल के कारण हैं। कोई अच्छे कर्मों के कारण सुखी दिखाई देता है, तो कोई बुरे कर्मों के कारण दुखी है। ये कर्म ही मनुष्य के सुख-दुख का कारण हैं। मनुष्य के कर्म ही ऊपरी तौर पर मनुष्य में भेद कर रहे हैं। वास्तव में सभी मनुष्य समान हैं। अतः सबमें भाईचारा होना चाहिए।
प्रश्न 4.
मैथिलीशरण गुप्त ने गवरहित जीवन बिताने के लिए क्या तर्क दिए हैं?
उत्तर :
मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविता ‘मनुष्यता’ में मनुष्य को परोपकार, दयालुता, परमार्थ, सेवाभाव आदि का उपदेश दिया है। उनके अनुसार केवल वही मनुष्य संसार में मनुष्य कहलाने के योग्य है, जिसके हृदय में दूसरों के लिए दया, परोपकार और निस्वार्थ सेवा का भाव हो। कवि कहता है कि ऐसे मनुष्य का जीवन ही नहीं बल्कि मृत्यु भी सार्थक होती है। कवि ने कविता में महर्षि दधीचि, रंतिदेव, कर्ण, उशीनर आदि महादानियों व परोपकारियों के उदाहरण देकर लोगों को उनसे प्रेरणा प्राप्त करने के लिए कहा है।
प्रश्न 5.
कविता की किन पंक्तियों में कवि ने एक होकर चलने का संदेश दिया है?
उत्तर :
कवि ने दी गई पंक्तियों में एक होकर चलने का संदेश दिया है चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए, विपत्ति, विघ्न जो पड़े उन्हें ढकेलते हुए। घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी, अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी। तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
प्रश्न 6.
कवि के अनुसार पशुओं का स्वभाव कैसा होता है ?
उत्तर :
कवि के अनुसार पशुओं का स्वभाव स्वार्थी होता है। वे केवल अपना पेट भरने तक ही सीमित होते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य अपनी भूख को शांत करना है। इसके अलावा उनमें कुछ भी सोचने-समझने की बुद्धि नहीं होती। इसलिए उनमें परोपकार की भावना भी नहीं होती।
प्रश्न 7.
कैसा मनुष्य संसार के लिए पूजनीय बन जाता है?
उत्तर :
जो मनुष्य विश्व के सभी प्राणियों के साथ अपनेपन का व्यवहार करता है; जो सदैव दूसरों के लिए हितकारी तथा मंगलकारी होता है जो उदार एवं दयालु होता है, वही मनुष्य संसार के लिए पूजनीय बन जाता है।
प्रश्न 8.
‘दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी’ पंक्ति का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस पंक्ति के माध्यम से कवि ने महर्षि दधीचि के त्याग, परोपकार एवं उदारता को चित्रित किया है। महर्षि दधीचि उदारता एवं दानशीलता के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने मानवता एवं समाज-कल्याण के लिए अपनी हड्डियाँ इंद्रदेव को दान में दे दी थी। इंद्र ने उनकी हड्डियों से वज्र बनाया और वृत्रासुर नामक राक्षस का संहार किया।
प्रश्न 9.
‘वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे’ पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस पंक्ति का भाव है कि वही सच्चा मनुष्य होता है, जो मनुष्य के लिए मरता है; जो सदैव मानवता के कल्याण हेतु कार्य करता है, जो उदारता, आत्मीयता एवं परोपकार की भावना को लेकर जीवनयापन करता है; जिसमें मानवता के प्रति सच्ची निष्ठा एवं टीस होती है; जो मानवता के लिए अपने प्राणों तक का भी बलिदान कर देता है।
प्रश्न 10.
कवि की दृष्टि में धनी मनुष्य कौन है?
उत्तर :
कवि की दृष्टि में धनी मनुष्य वह है, जिसके हृदय में दूसरे मनुष्यों के लिए सच्ची करुणा, प्रेम एवं सहानुभूति होती है। यह संपूर्ण धरा स्वयं ही उसके वश में हो जाती है। जो सहानुभूतिपूर्वक सबके दिलों पर राज करता है, सभी मनुष्य उसके वशीभूत हो जाते हैं।
मनुष्यता Summary in Hindi
कवि-परिचय :
जीवन – जो स्थान माला में प्रथम पुष्प का तथा गगन में प्रथम नक्षत्र का है, वही स्थान वर्तमान हिंदी कविता में गुप्त जी का है। राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक युग के कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। गुप्त जी ने अपने कुशल हाथों से सरस्वती की वीणा पर राष्ट्रीयता की मधुर धुन निकाली और संपूर्ण भारतवर्ष में उनकी भारती गूंज उठी। गुप्त जी का जन्म सन 1886 में झाँसी के चिरगाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम रामचरण गुप्त था। संपूर्ण परिवार की भगवान राम पर अपार श्रद्धा थी। गुप्त जी पर भी परिवार के संस्कारों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। वे राम के अनन्य उपासक बन गए –
राम, तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है,
कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।
गुप्त जी ने मुंशी अजमेर जी की देख-रेख में आरंभिक शिक्षा प्राप्त की। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का संपर्क इनके लिए वरदान साबित हुआ। उन्होंने गुप्त जी की महान प्रतिभा को परखा और उन्हें आदर्शमय पथ पर बढ़ने की प्रेरणा दी। गुप्त जी पर गांधीजी के व्यक्तित्व का भी प्रभाव था। सन 1964 में इनका देहावसान हुआ। रचनाएँ-गुप्त जी एक साधक कवि थे। उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का आश्रय लेकर हिंदी साहित्य को अनुपम ग्रंथ-रत्न प्रदान किए। उन्होंने भारत की प्राचीन और अर्वाचीन दोनों प्रकार की संस्कृतियों को अपने काव्य का विषय बनाया। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं –
जयद्रथ वध, भारत-भारती, हिंदू, पंचवटी, अनघ, रंग में भंग, गुरुकुल, गुरु तेगबहादुर, चंद्रहास, तिलोत्तमा, शकुंतला, नहुष, बक संहार, किसान, साकेत, यशोधरा, मंगलघट, जय भारत, द्वापर, काबा और कर्बला, विश्व वेदना आदि। इनमें जयद्रथ वध महाभारत की एक घटना पर आधारित खंड-काव्य है; भारत-भारती में भारत के अतीतकालीन गौरव, वर्तमानकालीन शोचनीय दशा तथा भविष्य के लिए संदेश की ध्वनि है –
हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी॥
पंचवटी में लक्ष्मण के उदात्त और तपस्वी रूप का चित्रण है। ‘साकेत’ और ‘यशोधरा’ दोनों प्रबंधकाव्य हैं। ये दोनों रचनाएँ गुप्त जी की लोकप्रियता का आलोक स्तंभ हैं। ‘साकेत’ में रामायण की प्राचीन कथा को नवीनता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस रचना का प्रमुख लक्ष्य उपेक्षित पात्र उर्मिला के चरित्र की विशेषताएँ प्रदर्शित करना है। यशोधरा में नारी-जीवन के त्यागमय रूप का चित्रण है।
साहित्यिक विशेषताएँ – गुप्त जी का काव्य अनेक विशेषताओं का पुंज है राष्ट्रीयता की भावना, प्रकृति के विविध रूपों का चित्रण, भारतीय नारी के त्याग का चित्रण, संस्कृति प्रेम, नवीनता के प्रति आस्था, समन्वय भावना, जातीय एकता आदि उनके काव्य की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। गुप्त जी एक आशावादी कवि रहे हैं। उन्होंने मानव को अपनी परिस्थितियों का अंधकार चीरकर सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है –
जिस युग में हम हुए वही तो अपने लिए बड़ा है,
अहा ! हमारे आगे कितना कर्म-क्षेत्र पड़ा है।
अपने जीवन में भी उन्होंने सदैव त्याग-भावना को ही महत्व दिया है –
अर्पित हो मेरा मनुज काय
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय।
गुप्त जी के काव्य में विविधता का स्वर है, इसलिए उनके काव्य में प्राय: सभी रसों का सफल चित्रण मिलता है। उनके काव्य में श्रृंगार, करुण, शांत, वीर तथा वात्सल्य रस का पूर्ण परिपाक हुआ है। इन पंक्तियों में अभिमन्यु को युद्ध-कुशलता के माध्यम से वीर रस की अभिव्यक्ति दर्शनीय है –
करता हुआ वध वैरियों का वैर शोधन के लिए।
रण मध्य वह फिरने लगा अति दिव्य युति धारण किए।
उस काल जिस-जिस ओर भी संग्राम करने वह गया।
भागते हुए अरिवृन्द से मैदान खाली हो गया।
गुप्त जी ने खड़ी बोली का परिपक्व रूप प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा पर ब्रज और संस्कृत का भी पर्याप्त प्रभाव है। गुप्त जी ने प्रबंध काव्य, गीतिकाव्य, मुक्तक काव्य आदि सभी काव्य रूपों की रचना की है। अलंकारों के प्रयोग ने भाषा को प्रभावशाली बना दिया है। गुप्त जी राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रधान कवि थे। वे जातीय संस्कृति के गौरव को अक्षुण्ण रखने वाले कवि थे।
नंददुलारे वाजपेयी जी ने गुप्त जी की स्तुति में कहा है-“मैथिलीशरण जी हिंदी के इस युग के पहले कवि हैं, जिन्होंने कविता की ज्योति समय, समाज और आत्मा के भीतर देखी है; जिन्होंने कविता की अबाध गति से हिंदी समाज को अभिसिंचित किया है।” डॉ० इंद्रनाथ मदान ने गुप्त जी को “गंगा का कवि” तथा पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इन्हें शास्त्रीय दृष्टि से हिंदी का ‘महाकवि’ कहा है। महात्मा गांधी ने ही इन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की संज्ञा प्रदान की थी।
कविता का सार :
प्रस्तुत कविता ‘मनुष्यता’ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित श्रेष्ठ रचना है। इस कविता में कवि ने मनुष्य को परोपकार करने की प्रेरणा देने के साथ-साथ परस्पर एकजुट होकर चलने का संदेश दिया है। कवि का मत है कि यह संसार मरणशील है, किंतु जो मनुष्य अपने सद्गुणों के कारण मरने के बाद भी अमर हो जाता है, उसी की मृत्यु महान बन जाती है। जो मनुष्य केवल अपनी स्वार्थपूर्ति में लगे रहते हैं, उनका आचरण पशुओं के समान है। सच्चा मनुष्य वही है, जो दूसरों के कल्याण के लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर करने के लिए तैयार रहता है।
ऐसे उदार हृदयी का ही सम्मान होता है और उसके यश की मधुर ध्वनि चारों ओर गूंजती है। कवि ने परम दानी रंतिदेव, महर्षि दधीचि, कर्ण आदि की दानवीरता और त्यागशीलता का उदाहरण देकर संदेश दिया है कि परोपकार के लिए अपने प्राणों की बलि देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। कवि के अनुसार जिस मनुष्य के हृदय में सहानुभूति है, वह धनवान है।
महात्मा बुद्ध के करुणापूर्ण स्वभाव के कारण ही सारा विश्व उनके आगे नतमस्तक हो गया था। कवि मनुष्य को चेतावनी देते हुए कहता है कि कभी भी धन के नशे में नहीं डूबना चाहिए; धन पर घमंड करना व्यर्थ है। मनुष्य को सदा एक-दूसरे की सहायता करने का प्रयास करते रहना चाहिए। सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं। इस कारण सभी एक-दूसरे के भाई-बंधु हैं। हमारी आंतरिक एकता के स्पष्ट साक्षी हमारे वेद हैं। कवि पुन: कहता है कि सभी को एक होकर प्रसन्नतापूर्वक निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए।
एक होकर चलते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि परस्पर मेल-जोल में कमी न आए और वैचारिक मतभेद भी न बढ़े। जो मनुष्य दूसरों की सहायता करता है, उसका कल्याण अपने आप हो जाता है। अतः दूसरों की सहायता करनी चाहिए। सच्चा मनुष्य वही है, जो दूसरों की सहायता के लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर करने को तैयार रहता है।
सप्रसंग व्याख्या –
मनुष्यता –
1. विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
शब्दार्थ : मर्त्य – मरणशील। सुमृत्यु – अच्छी मृत्यु। वृथा – व्यर्थ में, बेकार में। पशु-प्रवृत्ति – पशुओं जैसा स्वभाव।
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘मनुष्यता’ से लिया गया है। इसमें कवि ने मनुष्य को मनुष्यता और परोपकार की प्रेरणा दी है।
व्याख्या : कवि कहता है कि हमें यह भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि हमारा जीवन मरणशील है अर्थात् सबने एक-न-एक दिन अवश्य मरना है। यह जानते हुए भी मनुष्य को मृत्यु से कभी डरना नहीं चाहिए। मनुष्य का जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसके मरने के बाद भी उसके सद्गुणों के कारण सभी उसे याद करें। यदि मनुष्य की ऐसी मृत्यु नहीं होती, तो उसका जीना और मरना-दोनों ही व्यर्थ हैं। जो मनुष्य केवल अपने लिए जीवित नहीं रहता; जो सदैव परोपकार में लगा रहता है, वही अमर है। उसे सदा याद किया जाता है। दूसरी ओर जो मनुष्य अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जीवित रहता है, वह पशुओं के समान है। पशु भी अपना पेट भरने के लिए ही जीता है। कवि का मत है कि सच्चा मनुष्य वही है, जो सदा दूसरों का भला करता है और जो परोपकार के लिए अपना जीवन व्यतीत कर देता है।
2. उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सुष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
शब्दार्थ : उदार – दानशील, दाता, देने वाला। धरा – पृथ्वी। कृतार्थ भाव – आभार। कीर्ति – यश। कूजती – मधुर ध्वनि करती। समस्त सृष्टि – सारा संसार। आत्म भाव – अपनापन।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘मनुष्यता’ से ली गई हैं। इसमें उन्होंने बताया है कि उदार एवं परोपकारी मनुष्य को सदा सम्मान मिलता है।
व्याख्या : कवि कहता है कि जो मनुष्य दानशील प्रवृत्ति का होता है, उसका सदैव गुणगान होता है। उस दानशील मनुष्य का पृथ्वी भी आभार व्यक्त करती है। ऐसे मनुष्य के यश की मधुर ध्वनि चारों दिशाओं में गूंजती है। वह मनुष्य संपूर्ण विश्व के लिए पूजनीय हो जाता है अर्थात् सभी उसकी पूजा करते हैं, जो विश्व के सभी प्राणियों के साथ अपनेपन का व्यवहार करता है। यह अपनेपन का भाव अखंडित होता है। कवि पुनः कहता है कि जो मनुष्य दूसरों की सहायता करता है, वही सच्चा मनुष्य है।
3. कुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
शब्दार्थ : क्षुधार्त – भूख से व्याकुल, रंतिदेव – एक प्रसिद्ध दानी राजा। करस्थ – हाथ में पकड़ा हुआ। दधीचि = एक प्रसिद्ध ऋषि जिन्होंने अपनी हडियाँ दान में दी थीं। परार्थ – दूसरों के लिए। अस्थिजाल – हडियों का समूह। उशीनर – गांधार देश का राजा। क्षितीश – राजा। स्वमांस – अपना मांस। सहर्ष – प्रसन्नतापूर्वक। शरीर-चर्म – शरीर की चमड़ी। अनित्य देह – नश्वर शरीर।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘मनुष्यता’ से ली गई हैं। इन पंक्तियों में कवि ने विश्व प्रसिद्ध दानी महापुरुषों का वर्णन करते हुए मनुष्य को त्याग करने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या : कवि कहता है कि हमारे देश में समय-समय पर अनेक दानी महापुरुष हुए हैं। इन महापुरुषों ने अपने प्राणों की चिंता किए बिना अपना सर्वस्व दान कर दिया। भूख से व्याकुल रंतिदेव ने अपने भोजन की थाली सामने बैठे कुत्ते को दे दी। महर्षि दधीचि ने असुरों का संहार करने के लिए अपनी हड्डियाँ इंद्र को दान में दे दी। उनकी हड्डियों से बने वज्र से ही असुरों का संहार हुआ।
गांधार के राजा क्षितीश ने अपने शरीर का सारा मांस ही दान कर दिया। इसी तरह कुंतीपुत्र कर्ण ने भी अपने कवच-कुंडल इंद्र को दान में दे दिए। ये कवच-कुंडल उसे सूर्य दवारा प्रदान किए गए थे और उसके प्राण रक्षक थे, किंतु इंद्र दवारा याचना करने पर उसने उन्हें दान कर दिया। कवि कहता है कि इस नश्वर शरीर के लिए चिरंतन जीव को कभी डरना नहीं चाहिए अर्थात शरीर नश्वर है और उसकी चिंता करना व्यर्थ है। वास्तव में सच्चा मनुष्य वही है, जो इस संसार में दूसरों की सहायता करते हुए जीता है।
4. सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
शब्दार्थ : महाविभूति – बड़ी भारी पूँजी। वशीकृता – वश में की हुई। मही – पृथ्वी। विरुद्वाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा – महात्मा बुद्ध ने करुणावश उस समय की पारंपरिक मान्यताओं का विरोध किया था। विनीत – विनम्र भाव से। परोपकार – दूसरों का भला।
प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘मनुष्यता’ से लिया गया है। इसमें कवि ने मनुष्य को परोपकार करने की प्रेरणा देते हुए दूसरों के प्रति करुणा भाव रखने की बात कही है।
व्याख्या : कवि कहता है कि जिस मनुष्य के हृदय में दूसरे प्राणियों के प्रति सहानुभूति का भाव है, वही धनी है। दूसरों के प्रति सहानुभूति ही सबसे बड़ी पूँजी है। जो मनुष्य दूसरों के प्रति सहानुभूति रखता है, वह सभी को वश में कर सकता है। यह संपूर्ण पृथ्वी अपने आप उसके वश में हो जाती है। कवि महात्मा बुद्ध के करुणापूर्ण स्वभाव के विषय में कहता है कि उन्होंने प्राणी मात्र के प्रति करुणा का भाव होने के कारण ही तत्कालीन पारंपरिक मान्यताओं का विरोध किया था। उनके इस कार्य से सारा संसार उनके सामने विनम्र होकर झुक गया। कवि पुनः कहता है कि जो मनुष्य दूसरों का भला करता है, वही उदार हृदयी है, सच्चा मनुष्य वही है, जो दूसरों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है।
5. रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ: त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
शब्दार्थ : मदांध – जो गर्व में अंधा हो। वित्त – धन-संपत्ति। गर्व – अभिमान। चित्त – हृदय। त्रिलोकनाथ – तीनों लोकों के स्वामी, ईश्वर। अतीव – बहुत अधिक। भाग्यहीन – दुर्भाग्यशाली। अधीर – व्याकुल, बेचैन।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘मनुष्यता’ से ली गई हैं। इन पंक्तियों में कवि ने मनुष्य को धन-संपत्ति पर अधिक घमंड न करके ईश्वर पर विश्वास करने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या : कवि कहता है कि मनुष्य को धन-संपत्ति के घमंड में अंधा होकर सबकुछ भूल नहीं जाना चाहिए। धन-संपत्ति तुच्छ वस्तु है; इसका कभी अभिमान नहीं करना चाहिए। अपने आपको धन का स्वामी समझकर घमंड करना व्यर्थ है।
मनुष्य को सदा याद रखना चाहिए कि इस संसार में कोई भी अनाथ नहीं है; ईश्वर सबके साथ है। ईश्वर अत्यंत दयालु और गरीबों के बंधु हैं। वे सदा सबकी सहायता करते हैं। जो मनुष्य स्वयं को गरीब समझकर सदा बेचैन रहते हैं और उस ईश्वर पर विश्वास नहीं करते, वे बहुत दुर्भाग्यशाली होते हैं। कवि पुनः कहता है कि इस संसार में सच्चा मनुष्य वही है, जो दूसरों की सहायता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है।
6. अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥
शब्दार्थ : अनंत – असीम। समक्ष – सामने। स्वबाहु – अपनी बाँहें। परस्परावलंब – एक-दूसरे का सहारा। अमर्त्य – देवता। अंक – गोद। अपंक – कलंक रहित, पवित्र।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘मनुष्यता’ से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने मनुष्य को मानवता की रक्षा के लिए आत्म-बलिदान देने की प्रेरणा दी है। व्याख्या कवि कहता है कि इस असीम अंतरिक्ष में अनेक देव हैं, जो अपनी बाँहों को फैलाकर खड़े हैं और कहते हैं कि सभी एक दूसरे का सहारा लेकर उठो और आगे बढ़ो। कवि सबको कलंकरहित व निष्पाप होकर देवताओं की गोद में चढ़ने के लिए कहता है। वह कहता है कि हमें ऐसा नहीं बनना चाहिए कि हम किसी के काम भी न आएँ। वास्तव में मनुष्य वही है, जो दूसरे मनुष्य के लिए आत्म-बलिदान देने के लिए भी तत्पर रहे।
7. ‘मनुष्य मात्र बंधु हैं’ यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद है।
अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
शब्दार्थ : बंधु – भाई। विवेक – ज्ञान। स्वयंभू – ईश्वर। बाह्य – बाहरी, ऊपरी। अंतरैक्य – आंतरिक एकता। प्रमाणभूत – साक्षी। व्यथा – पीड़ा, दुख। हरे – दूर करे।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘मनुष्यता’ नामक कविता से ली गई हैं। इसमें उन्होंने सभी लोगों को परस्पर भाईचारा बनाए रखने का संदेश दिया है।
व्याख्या : कवि कहता है कि सभी मनुष्य परस्पर भाई-बंधु हैं। यह ज्ञान ही सबसे बड़ा ज्ञान है। सभी जानते हैं कि परमपिता परमात्मा सबका पिता है और हम सब उसकी संतान हैं। एक ही पिता होने के कारण हम सभी आपस में भाई-बंधु हैं। प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार फल मिलता है, जिससे ऊपरी तौर पर कुछ भेद दिखाई देता है; किंतु हम सब आंतरिक रूप से एक हैं। हमारी आंतरिक एकता के साक्षी हमारे वेद हैं। कवि दुख प्रकट करते हुए कहता है कि सभी मनुष्य भाई-बंधु होते हुए भी एक-दूसरे का दुख दूर करने का प्रयास नहीं करते। वास्तव में सच्चा मनुष्य वही है, जो दूसरों की सहायता के लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर कर देता है।
8. चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति, विध जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तथी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
शब्दार्थ : अभीष्ट – इच्छित। सहर्ष – प्रसन्नतापूर्वक। विपत्ति – मुसीबत। विघ्न – बाधा। हेलमेल – मेल-जोल । भिन्नता – अनेकता। अतर्क – तर्क रहित। सतर्क – सावधान।
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘मनुष्यता’ से ली गई हैं। इसमें उन्होंने सभी लोगों को एक होकर चलने की प्रेरणा दी है।
व्याख्या : कवि कहता है कि सभी मनुष्य एक होकर इच्छित मार्ग पर प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़ते रहें। रास्ते में आने वाली मुसीबतों और बाधाओं को सब मिलकर दूर करें। एक होकर चलते हुए मेल-जोल में कमी नहीं आनी चाहिए; साथ ही विचारों की भिन्नता भी न बढ़े। सभी मनुष्य तर्करहित होकर एक ही मार्ग पर सावधानीपूर्वक चलते रहें। उनमें किसी प्रकार का मनमुटाव पैदा न हो। कवि का मत है कि जो दूसरों का कल्याण करता है, उसका कल्याण अपने आप हो जाता है। वास्तव में सच्चा मनुष्य वही है, जो दूसरों की भलाई के लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर कर देता है।