Jharkhand Board JAC Class 10 Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 8 विचित्रः साक्षी Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 10th Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 8 विचित्रः साक्षी
JAC Class 10th Sanskrit विचित्रः साक्षी Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरं लिखत। (एक शब्द में उत्तर लिखिये)
(क) कीदृशे प्रदेशे पदयात्रा न सुखावहा?
(कैसे प्रदेश में पदयात्रा सुखद नहीं होती?)
(ख) अतिथिः केन प्रबुद्धः?
(अतिथि किससे जाग गया?)
(ग) कृशकायः कः आसीत्?
(कृशकाय कौन था?)
(घ) न्यायाधीश: कस्मै कारागार दण्डम् आदिष्टवान् ?
(न्यायाधीश ने किसके लिये कारागार दण्ड का आदेश दिया)
(ङ) कं निकषा मृत शरीरेण आसीत्?
(किसके निकट मृत शरीर था?)
उत्तराणि :
(क)विजने प्रदेश
(ख) चौरस्य पादध्वनिना
(ग) अभियुक्तः
(घ) आरक्षिणे
(ङ) राजमार्गम्।
प्रश्न 2.
अधोलिखितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत –
(निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए)
(क) निर्धनः जनः कथं वित्तम् उपार्जितवान् ?
(निर्धन व्यक्ति ने कैसे धन कमाया?)
उत्तरम् :
निर्धनः जनः भूरि परिश्रम्य वित्तम् उपार्जितवान्।
(निर्धन व्यक्ति ने पर्याप्त परिश्रम करके धन अर्जित किया।)
(ख) जनः किमर्थं पदातिः गच्छति ?
(व्यक्ति किसलिए पैदल चलता है ?)
उत्तरम् :
जनः परमर्थकार्येन पीडितः बसयानं विहाय पदातिरेव गच्छति।
(व्यक्ति अत्यधिक.धनाभाव से पीड़ित हुआ बस को छोड़कर पैदल ही जाता है।)
(ग) प्रसते निशान्धकारे सः किम अचिन्तयत?
(रात का अँधेरा फैल जाने पर उसने क्या सोचा ?)
उत्तरम् :
सोऽचिन्तयत् यत् निशान्धकारे प्रसृते विजने प्रदेशे पदयात्रा न शुभावहा।
(उसने सोचा कि रात्रि का अन्धकार फैल जाने पर निर्जन प्रदेश में पैदल यात्रा कल्याणकारी नहीं होती।)
(घ) वस्तुतः चौरः कः आसीत् ?
(वास्तव में चोर कौन था ?)
उत्तरम् :
वस्तुतः चौरः आरक्षी आसीत्।
(वास्तव में चोर चौकीदार था।)
(ङ) जनस्य क्रन्दनं निशम्य आरक्षी किमुक्तवान् ?
(व्यक्ति के रुदन को सुनकर चौकीदार ने क्या कहा?)
उत्तरम् :
‘रे दुष्ट! तस्मिन् दिने त्वयाऽहम् चोरितायाः मञ्जूषायाः ग्रहणात् वारितः। इदानीं निज कृत्यस्य फलं भुव। अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे।’
(‘अरे दुष्ट! उस दिन तूने मुझे चुराई गई पेटी ले जाने से रोका था। अब अपने किये हुए का फल भोग। इस चोरी के आरोप में तीन वर्ष का कारावास भोगेगा।’)
(च) मतिवैभवशालिनः दुष्कराणि कार्याणि कथं साधयन्ति ?
(बुद्धिमान् लोग कठिन कार्यों को कैसे साधते हैं ?)
उत्तरम् :
मतिवैभवशालिनः दुष्कराणि कार्याणि नीतिं युक्तिं समालम्ब्य लीलयैव साधयन्ति।
(बुद्धिमान् लोग कठोर कर्मों को भी नीति और युक्ति का सहारा लेकर खेल ही खेल में साध लेते हैं।)
प्रश्न 3.
रेखांकितपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत –
(रेखांकित पदों के आधार पर प्रश्न-निर्माण कीजिए -)
(क) पुत्रं द्रष्टुं सः प्रस्थितः।
(पुत्र को देखने के लिए वह प्रस्थान कर गया।)
उत्तरम् :
कं द्रष्टुं सः प्रस्थितः ?
(किसको देखने के लिए वह प्रस्थान कर गया ?)
(ख) करुणापरो गृही तस्मै आश्रयं प्रायच्छत्।
(दया गृहस्वामी ने उसके लिए आश्रय प्रदान किया।)
उत्तरम् :
करुणापरो गृही कस्मै आश्रयं प्रायच्छत् ?
(दया गृहस्वामी ने किसके लिए आश्रय प्रदान किया ?)
(ग) चौरस्य पादध्वनिना अतिथिः प्रबुद्धः।
(चोर की पदचाप से अतिथि जागा।)
उत्तरम् :
कस्य पादध्वनिना अतिथिः प्रबुद्धः ?
(किसके पदचाप से अतिथि जागा ?)
(घ) न्यायाधीश: बंकिमचन्द्रः आसीत्।
(न्यायाधीश बंकिमचन्द्र था।)
उत्तरम् :
न्यायाधीशः कः आसीत् ?
(न्यायाधीश कौन था ?)
(ङ) सः भारवेदनया क्रन्दति स्म।
(वह वजन की पीड़ा से रोने लगा।)
उत्तरम् :
सः कया क्रन्दति स्म ?
(वह किससे रोने लगा ?)
(च) उभौ शवं चत्वरे स्थापितवन्तौ।
(दोनों ने शव चौराहे पर रख दिया।)
उत्तरम् :
उभौ शवं कुत्र स्थापितवन्तौ ?
(दोनों ने शव कहाँ रख दिया ?)
प्रश्न 4.
यथानिर्देशमुत्तरत –
(निर्देशानुसार उत्तर दीजिए)
(क) आदेशं प्राप्य उभौ अचलताम्’ अत्र किं कर्तृपदम्?
(यहाँ कर्तृपद क्या है?)
उत्तरम् :
उभौ (दोनों)।
(ख) एतेन आरक्षिणा अध्वनि यदुक्तं तदवर्णयामि? अत्र ‘मार्गे’ इत्यर्थे किं पदं प्रयुक्तम्?
उत्तरम् :
अध्वनि (मार्ग में)।
(ग) ‘करुणापरो गृही तस्मै आश्रय प्रायच्छत्’ अत्र ‘तस्मै ‘ इति सर्वनाम पदं कस्मै प्रयुक्तम्?
(यहाँ ‘तस्मै’ सर्वनाम किसके लिये प्रयोग किया गया है? यहाँ ‘मार्गे ‘अर्थ में किस पद का प्रयोग किया गया है?)
उत्तरम् :
अतिथये (अतिथि के लिए)।
(घ) ‘ततोऽसौ तौ अग्रिमे दिने उपस्थातुम् आदिष्टवान्’ अस्मिन् वाक्ये किं क्रियापदम्?
(इस वाक्य में क्रियापद क्या है?)
उत्तरम् :
आदिष्टवान् (आदेश दिया)।
(ङ) ‘दुष्कराण्यपि कर्माणि मतिवैभवशालिना?’ अत्र विशेष्य पदं किम्? (यहाँ विशेष्य पद क्या है?)
उत्तरम् :
कर्माणि (कर्म विशेष्य है)।
प्रश्न 5.
सन्धि/सन्धिविच्छेदं च कुरुत (सन्धि/सन्धि-विच्छेद कीजिए) –
(क) पदातिरेव = ………….. + ……………
(ख) निशान्धकारे = …………. + …………
(ग) अभि + आगतम् = ……………………
(घ) भोजन + अन्ते = ………………………
(ङ) चौरोऽयम् = …………….. + …………
(च) गृह + अभ्यन्तरे = ………………….
(छ) लीलयैव = ………….. + ………..
(ज) यदुक्तम् = ………….. + ………..
(झ) प्रबुद्धः + अतिथिः = …………………।
उत्तरम् :
(क) पदातिरेव = पदातिः + एव
(ख) निशान्धकारे = निशा + अन्धकारे
(ग) अभि + आगतम् = अभ्यागतम्
(घ) भोजन + अन्ते = भोजनान्ते
(ङ) चौरोऽयम् = चौरः + अयम्
(च) गृह + अभ्यन्तरे = गृहाभ्यन्तरे
(छ) लीलयैव = लीलया + एव
(ज) यदुक्तम् = यत् + उक्तम्
(झ) प्रबुद्धः + अतिथिः = प्रबुद्धोऽतिथिः।
प्रश्न 6.
अधोलिखितानि पदानि भिन्न-भिन्नप्रत्ययान्तानि सन्ति। तानि पृथक् कृत्वा निर्दिष्टानां प्रत्ययानामधः लिखत –
(निम्नलिखित पद भिन्न-भिन्न प्रत्ययान्त हैं, उन्हें अलग-अलग करके निर्दिष्ट प्रत्ययों के नीचे लिखिए-)
[परिश्रम्य, उपार्जितवान्, दापयितुम्, प्रस्थितः, द्रष्टुम्, विहाय, पृष्टवान्, प्रविष्टः, आदाय, क्रोशितुम्, नियुक्तः, नीतवान्, निर्णेतुम्, आदिष्टवान्, समागत्य, मुदितः।]
उत्तरम् :
प्रश्न 7.
(अ) अधोलिखितानि वाक्यानि बहुवचने परिवर्तयत –
(निम्नलिखित वाक्यों को बहुवचन में बदलिए)
(क) स बसयानं विहाय पदातिरेव गन्तुं निश्चयं कृतवान्।
(उसने बस छोड़कर पैदल ही जाने का निश्चय किया।)
उत्तरम् :
ते बसयानं विहाय पदातिरेव गन्तुं निश्चयं कृतवन्तः।
(उन्होंने बस छोड़कर पैदल ही जाने का निश्चय किया।)
(ख) चौरः ग्रामे नियुक्तः राजपुरुषः आसीत्।
(चोर गाँव में नियुक्त राजपुरुष था।)
उत्तरम् :
चौरा: ग्रामे नियुक्ताः राजपुरुषाः आसन्।
(चोर ग्राम में नियुक्त सिपाही थे।)
(ग) कश्चन चौरः गृहाभ्यन्तरं प्रविष्टः।
(कोई चोर घर के अन्दर घुस गया।)
उत्तरम् :
केचन चौराः गृहाभ्यन्तरं प्रविष्टाः।
(कुछ चोर घर के अन्दर घुस गए।)
(घ) अन्येयुः तौ न्यायालये स्व-स्व-पक्षं स्थापितवन्तौ।
(दूसरे दिन उन दोनों ने न्यायालय में अपने-अपने पक्ष को रखा।)
उत्तरम् :
अन्येयुः ते न्यायालये स्व-स्व-पक्षं स्थापितवन्तः।
(दूसरे दिन उन्होंने न्यायालय में अपने-अपने पक्ष को रखा।)
(आ) कोष्ठकेषु दत्तेषु पदेषु यथानिर्दिष्टां विभक्तिं प्रयुज्य रिक्तस्थानानि पूरयत –
(कोष्ठक में दिए गए पदों में निर्देशानुसार विभक्ति का प्रयोग करके रिक्तस्थानों की पूर्ति कीजिए)
(क) सः …………. निष्क्रम्य बहिरगच्छत्। (गृहंशब्दे पंचमी)
(ख) गृहस्थः ……… आश्रयं प्रायच्छत्। (अतिथिशब्दे चतुर्थी)
(ग) तौ …………… प्रति प्रस्थितौ। (न्यायाधीशशब्दे द्वितीया)
(घ) ……………. चायाभियाग त्व वषत्रयस्य कारादण्ड लस्यय। (इदम् शब्दे सप्तमी)
चौरस्य ……………… प्रबुद्धः अतिथिः। (पादध्वनि शब्दे तृतीया)
उत्तरम् :
(क) सः गृहात् निष्क्रम्य बहिरगच्छत्।
(वह घर से निकलकर बाहर आ गया।)
(ख) गृहस्थः अतिथये आश्रयं प्रायच्छत्।
(गृहस्थ ने अतिथि के लिए सहारा दे दिया।)
(ग) तौ न्यायाधीशं प्रति प्रस्थितौ।
(वे दोनों न्यायाधीश की ओर प्रस्थान कर गए।)
(घ) अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे।
(इस चोरी के आरोप में तुम तीन वर्ष के कारावास का दण्ड भोगोगे।
(ङ) चौरस्य पादध्वनिना प्रबुद्धः अतिथिः।
(चौर के पैरों की ध्वनि से जागा हुआ अतिथि।)
भाषिकविस्तार:
उपार्जितवान् – उप +। ✓अर्ज + तवतु
दापयितुम् – ✓दा + णिच् + तुमुन्
अदस् (यह) पुँल्लिग सर्वनाम शब्द
अध्वन् (मार्ग) नकारान्त पुंल्लिङ्ग
JAC Class 10th Sanskrit विचित्रः साक्षी Important Questions and Answers
शब्दार्थ चयनम् –
अधोलिखित वाक्येषु रेखांकित पदानां प्रसङ्गानुकूलम् उचितार्थ चित्वा लिखत –
प्रश्न 1.
कश्चन निर्धनो जनः भूरि परिश्रम्य किञ्चिद् वित्तमुपार्जितवान्।
(अ) महत्
(ब) निर्धनः
(स) किञ्चित्
(द) स्वपुत्रम्
चतुर्थी
उत्तरम् :
(अ) महत्
प्रश्न 2.
विजने प्रदेशे पदयात्रा न शुभावहा।
(अ) प्रवेशं
(ब) निर्जने
(स) तत्रैव
(द) निवसन्
उत्तरम् :
(ब) निर्जने
प्रश्न 3.
रात्रौ तस्मिन् गृहे कश्चन चौरः गृहाभ्यन्तरं प्रविष्ट:
(अ) तस्यामेव
(ब) निहिता
(स) भवने
(द) पलायितः
उत्तरम् :
(स) भवने
प्रश्न 4.
यद्यपि ग्रामस्य आरक्षी एव चौर आसीत्
(अ) ध्वनिना
(ब) धावत्
(स) आरभत
(द) रक्षापुरुषः
उत्तरम् :
(द) रक्षापुरुषः
प्रश्न 5.
अग्रिमे दिने स आरक्षी चौर्याभियोगे तं न्यायालयं नीतवान्।
(अ) अमुम्
(ब) अन्येधुः
(स) लयम्
(द) श्रुतवान्
उत्तरम् :
(अ) अमुम्
प्रश्न 6.
तस्य मृतशरीरं राजमार्ग निकषा वर्तते –
(अ) वृत्तमवगल्य
(ब) समया
(स) उपस्थातुम्
(द) समागत्य
उत्तरम् :
(ब) समया
प्रश्न 7.
आदेशं प्राप्य उभौ प्राचलताम् –
(अ) चलताम्
(ब) काष्ठपटले
(स) द्वावेव
(द) अभियुक्तश्च
उत्तरम् :
(स) द्वावेव
प्रश्न 8.
इदानीं निजकृत्यस्य फलं भुव –
(अ) आसीत्
(ब) चोरितायाः
(स) चौर्याभियोगे
(द) परिणामम्
उत्तरम् :
(द) परिणामम्
प्रश्न 9.
न्यायाधीशेन पुनस्तौ घटनायाः विषये वक्तुमादिष्टौ –
(अ) कथयितुम्
(ब) प्रस्तुतवति
(स) आश्चर्यमघटत्
(द) मान्यवर
उत्तरम् :
(अ) कथयितुम्
प्रश्न 10.
न्यायाधीशः आरक्षिणे कारादण्डमादिश्य तं जनं ससम्मानं मुक्तवान् –
(अ) अध्वनि
(ब) अत्यजत्
(स) रक्षिणे
(घ) अपमानं
उत्तरम् :
(ब) अत्यजत्
संस्कृतमाध्यमेन प्रश्नोत्तराणि –
एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दीजिए)
प्रश्न 1.
उच्चैः क्रोशितुं कः आरभत ?
(जोर-जोर से कौन चीखने लगा ?)
उत्तरम् :
चौरः (चोर)।
प्रश्न 2.
स्वगृहात् निष्क्रम्य तत्र के आगच्छन् ?
(अपने घर से निकलकर वहाँ कौन आ नये ?)
उत्तरम् :
ग्रामवासिनः (ग्रामवासी)।
प्रश्न 3.
चौरः काम् आदाय पलायितः ?
(चोर किसको लेकर भागा ?)
उत्तरम् :
मञ्जूषाम्। (पेटी को)
प्रश्न 4.
न्यायाधीशः कं निर्दोषम् अमन्यत ?
(न्यायाधीश ने किसको निर्दोष माना ?)
उत्तरम् :
अतिथिम् (अतिथि को)।
प्रश्न 5.
शवं न्यायालये आनेतुं कः आदिष्टवान् ?
(शव को न्यायालय में लाने का आदेश किसने दिया ?)
उत्तरम् :
न्यायाधीशः (न्याय करने वाले अधिकारी ने)।
प्रश्न 6.
भारवेदनया कः क्रन्दति स्म ?
(भार के कष्ट से कौन चीखा ?)
उत्तरम् :
अभियुक्तः (अपराधी)।
प्रश्न 7.
उच्चैः कः अहसत् ?
(जोर से कौन हँसा ?)
उत्तरम् :
आरक्षी (चौकीदार)।
प्रश्न 8.
तम् अतिथिं ससम्मानं कः मुक्तवान् ?
(उस अतिथि को ससम्मान किसने मुक्त किया ?)
उत्तरम् :
न्यायाधीशः (न्यायाधिकारी ने)।
प्रश्न 9.
किं समालम्ब्य दुष्कराण्यपि कर्माणि कुर्वते ?
(किसका सहारा लेकर कठिन कार्य भी कर लेते हैं ?)
उत्तरम् :
नीतियुक्तिम् (नीति से पूर्ण)।
प्रश्न 10.
निशान्धकारे प्रसृते कुत्र पदयात्रा न शुभावहा ?
(रात का अँधेरा फैलने पर कहाँ पैदल यात्रा हितकारी नहीं ?)
उत्तरम् :
विजनेप्रदेशे (एकान्त प्रदेश में)।
प्रश्न 11.
भूरिपरिश्रम्य कः किञ्चिद् वित्तमुपार्जितवान् ?
(बहुत परिश्रम करके किसने कुछ धन कमाया ?)
उत्तरम् :
कश्चन निर्धनोजनः (किसी गरीब ने)।
प्रश्न 12.
रात्रौ तस्मिन् गृहे कः प्रविष्टः ?
(रात्रि में उस घर में कौन प्रविष्ट हो गया ?)
उत्तरम् :
चौरः (चोर)।
प्रश्न 13.
चौरस्य पादध्वनिना कः प्रबुद्धः ?
(चोर के पैरों की ध्वनि से कौन जाग गया ?)
उत्तरम् :
अतिथिः (आया हुआ व्यक्ति)।
प्रश्न 14.
चौर्याभियोगे तं न्यायालयं कः नीतवान् ?
(चोरी के मुकदमे में उसको न्यायालय कौन ले गया ?)
उत्तरम् :
आरक्षी (चौकीदार)।
प्रश्न 15.
न्यायाधीशो नाम किम् आसीत् ?
(न्यायाधीश का नाम क्या था ?)
उत्तरम् :
बंकिमचन्द्रः (बंकिमचन्द्र चटर्जी)।
प्रश्न 16.
आदेशं प्राप्य उभौ किम् अकुरुताम् ?
(आदेश पाकर दोनों ने क्या किया ?)
उत्तरम् :
प्राचलताम् (चल दिए)।
प्रश्न 17.
सुपुष्टदेह कः आसीत् ?
(हष्ट-पुष्ट शरीर वाला कौन था ?)
उत्तरम् :
आरक्षी (चौकीदार)।
प्रश्न 18.
न्यायाधीशेन पुनस्तौ कस्य विषये वक्तुमादिष्टौ?
(न्यायाधीश ने फिर से उन दोनों को किसके विषय में बोलने
का आदेश दिया ?)
उत्तरम् :
घटनायाः (घटना के)।
प्रश्न 19.
न्यायाधीशः कस्मै कारादण्डमादिष्टवान्।
(न्यायाधीश ने किसके लिए कारावास (कैद) के दण्ड का आदेश दिया ?)
उत्तरम् :
आरक्षिणे (चौकीदार के लिए)।
पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए)
प्रश्न 20.
पुत्रं द्रष्टुं कः प्रस्थितः ?
(पुत्र को देखने के लिए किसने प्रस्थान किया ?)
उत्तरम् :
निर्धन: पिता (गरीब पिता ने)।
प्रश्न 21.
कः तस्मै आश्रयं प्रायच्छत् ?
(किसने उसे आश्रय प्रदान किया ?)
उत्तरम् :
करुणापरो गृही तस्मै आश्रयं प्रायच्छत्।
(दयालु गृहस्थ ने उसे सहारा प्रदान किया।)
प्रश्न 22.
पिता कस्मात् व्याकुलोऽजायत ?
(पिता किसलिए व्याकुल हो गया ?)
उत्तरम् :
एकदा पिता तनूजस्य (पुत्रस्य) रुग्णावस्थाम् आकर्ण्य व्याकुलोऽजायत।
(एक दिन पिता पुत्र के बीमार होने की सूचना पाकर व्याकुल हो गया।)
प्रश्न 23.
सर्ववृत्तम् अवगम्य न्यायाधीशः किम् अमन्यत ?
(सारा वृत्तान्त जानकर न्यायाधीश ने क्या माना ?)
उत्तरम् :
सर्वं वृत्तम् अवगम्य न्यायाधीशः तम् अतिथिं निर्दोषम् अमन्यत आरक्षिणं च दोषभाजनम्।।
(सारा वृत्तान्त जानकर न्यायाधीश ने उस अतिथि को निर्दोष माना और चौकीदार को दोष का पात्र।)
प्रश्न 24.
अभियुक्तस्य कृते किं दुष्करम् आसीत् ?
(अभियुक्त के लिए क्या मुश्किल था ?)
उत्तरम् :
भारवतः शवस्य स्कन्धेन वहनम् अभियुक्तस्य कृते दुष्करम् आसीत्।।
(बोझिल लाश का कन्धे पर ढोना अभियुक्त के लिए मुश्किल था।)
प्रश्न 25.
शवः उत्थाय किमवदत् ?
(लाश ने उठकर क्या कहा ?)
उत्तरम् :
मान्यवर ! एतेन आरक्षिणा अध्वनि यदुक्तं तद् वर्णयामि – ‘त्वया अहं चोरितायाः मञ्जूषायाः ग्रहणात् वारितः, अतः निजकृत्यस्य फलं भुव’। (मान्यवर ! इस चौकीदार ने रास्ते में जो कहा उसका मैं वर्णन करता हूँ- ‘तुमने मुझे चुराई गई पेटी को ले जाने से रोका अतः अपने कृत्य का फल भोगो’।)
प्रश्न 26.
निर्धनजनस्य पुत्रः कुत्र निवसन् अध्ययने संलग्नः समभूत्।
(गरीब का बेटा कहाँ रहकर अध्ययन में लग गया?)
उत्तरम् :
निर्धनजनस्य पुत्रः छात्रावासे निवसन् अध्ययने संलग्नः समभूत्।
(गरीब का बेटा छात्रावास में रहते हुए अध्ययन में लग गया।)
प्रश्न 27.
चौरः उच्चैः क्रोशितुं किम् आरभत?
(चोर ने जोर-जोर से क्या चीखना प्रारंभ किया ?)
उत्तरम् :
चौरः उच्चैः क्रोशितुमारभत् “चौरोऽयं चौरोऽयम्” इति।
(चोर ने जोर से चीखना प्रारंभ किया-यह चोर है, यह चोर है।
प्रश्न 28.
अग्रिमे दिने स आरक्षी किम् अकरोत् ?
(अगले दिन चौकीदार ने क्या किया ?)
उत्तरम् :
अग्रिमे दिने स आरक्षी तं अतिथिं चौर्याभियोगे न्यायालयं नीतवान्।
(अगले दिन वह चौकीदार उस अतिथि को चोरी के मुकदमे में न्यायालय ले गया।)
प्रश्न 29.
आरक्षी अभियुक्तश्च कीदृशौ आस्ताम् ?
(चौकीदार और अभियुक्त कैसे थे ?)
उत्तरम् :
आरक्षी सुपुष्टदेहः आसीत् अभियुक्तश्च अतीव कृषकायः आसीत्।
(चौकीदार हृष्टपुष्ट था और अभियुक्त अत्यन्त दुबला-पतला था।)
प्रश्न 30.
न्यायालये किमाश्चर्यम् अघटत् ?
(न्यायालय में क्या आश्चर्य घटा ?)
उत्तरम् :
सः शवः प्रावारकमपसार्य उतिष्ठत् ?
(वह शव चादर हटाकर उठ खड़ा हुआ।)
अन्वय-लेखनम् –
अधोलिखितश्लोकस्यान्वयमाश्रित्य रिक्तस्थानानि मञ्जूषातः समुचितपदानि चित्वा पूरयत।
(नीचे लिखे श्लोक के अन्वय के आधार पर रिक्तस्थानों की पूर्ति मंजूषा से उचित पद चुनकर कीजिए।)
दुष्कराण्यपि कर्माणि ………………… लीलयैव प्रकुर्वते।।
मञ्जूषा – नीतियुक्तिम्, लीलया दुष्कराणि, अपि।
‘मति वैभवशालिनः (i) ……… समालम्ब्य (ii) ……… कर्माणि (iii) ………. (iv) ……… एव प्रकुर्वते।’ उत्तरम् : (i) नीतियुक्तिम् (ii) दुष्कराणि (ii) अपि (iv) लीलया।
प्रश्ननिर्माणम् –
अधोलिखित वाक्येषु स्थूलपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत –
1. निर्धनः भूरि परिश्रम्य किञ्चिद्वित्तमुपार्जितवान्।
(निर्धन ने बहुत परिश्रम करके कुछ धन उपार्जित किया।)
2. तस्य तनयः छात्रावासे निवसन् अध्ययने संलग्नः समभूत्।
(उसका बेटा छात्रावास में रहता हुआ अध्ययन में लग गया।)
3. व्याकुलो निर्धनः पत्रं द्रष्टुं प्रस्थितः।
(व्याकुल निर्धन पुत्र को देखने प्रस्थान कर गया।)
4. परमर्थकार्येन पीडितः सः बसयानं विहाय पदातिरेव प्राचलत्।
(अत्यधिक आर्थिक कमजोरी से पीड़ित वह बस को छोड़कर पैदल ही चल पड़ा।)
5. सायं समयेऽसौ गन्तव्याद् दूरे आसीत्।
(शाम के समय वह गन्तव्य से दूर था।)
6. करुणापरो गृही अतिथये आश्रयं प्रायच्छत्।
(दयालु गृहस्वामी ने अतिथि के लिए आश्रय दे दिया।)
7. विचित्रा दैवगतिः।
(भाग्य की गति विचित्र है।)
8. कश्चन चौरः गृहाभ्यन्तरं प्रविष्टः।
(कोई चोर घर के अन्दर घुस गया।)
9. अतिथिमेव चौरं मत्वाऽभर्त्सयन्।
(अतिथि को ही चोर मानकर निन्दा की।)
10. अग्रिमे दिने तौ न्यायालये उपस्थातुम् आदिष्टवान्। – (अगले दिन उन दोनों को न्यायालय में उपस्थित होने का आदेश दिया।)
उत्तराणि :
1. निर्धन: भूरि परिश्रम्य किम् उपार्जितवान् ?
2. तस्य तनयः छात्रावासे निवसन् कस्मिन् संलग्नः समभूत्?
3. व्याकुलो निर्धनः कं द्रष्टुं प्रस्थितः ?
4. केन पीडितः सः बसयानं विहाय पदातिरेव प्राचलत् ?
5. सायं समयेऽसौकस्मात् दूरे आसीत् ?
6. करुणापरो गृही कस्मै आश्रयं प्रायच्छत् ?
7. कीदृशा दैवगतिः ?
8. कश्चन चौरः कुत्र प्रविष्टः ?
9. कम् एव चौरं मत्वाऽभर्स्यन् ?
10. अग्रिमे दिने तौ किं कर्तुम् आदिष्टवान् ?
भावार्थ-लेखनम् –
अधोलिखित पद्यांश संस्कृते भावार्थं लिखत –
दुष्कराण्यपि ………………………… लीलयैव प्रकुर्वते।।
भावार्थ – बुद्धिमन्तः नीत्याः युक्तयाः च आश्रयं गृहीत्वा कष्टकराणि अपि करणीयानि कार्याणि कौतुकेन सुगमतया वा सम्पादयन्ति।
अधोलिखितानां सूक्तीनां भावबोधनं सरलसंस्कृतभाषया लिखत –
(निम्नलिखित सूक्तियों का भावार्थ सरल संस्कृत भाषा में लिखिए-)
(i) निशान्धकारे प्रसृते विजने प्रदेशे पदयात्रा न शुभावहा।
भावार्थः – रात्रिकाले विस्तृते अन्धकारे निर्जने भूभागे मार्गे वा पदयात्रा शोभनीया सुखदा वा न भवति यतः अन्धकारे किमपि अशोभनीयं घटितुं शक्नोति।
(रात के समय विस्तृत अँधेरे में सुनसान प्रदेश में अथवा मार्ग में पैदल यात्रा शोभनीय या सुखद नहीं होती क्योंकि अन्धकार में कुछ भी अशोभनीय घटना घट सकती है।)
(ii) विचित्रा दैवगतिः।
भावार्थ: – भाग्यस्य गतिः अद्भुत आश्चर्यकरा च भवति। दैवात् अकस्मात् एव शुभमशुभम् वा किमपि घटितुं शक्नोति। (भाग्य की गति अद्भुत और आश्चर्य करने वाली होती है। भाग्यवश अचानक ही शुभ या अशुभ कुछ भी घट सकता है।)
(iii) दुष्कराण्यपि कर्माणि मतिवैभवशालिनः।।
भावार्थ: – बुद्धिमन्तः जनाः नीतिगतां युक्तिम् आश्रित्य दुर्लभकार्याणि अपि सुगमतया सम्पादयन्ति।
(बुद्धिमान् लोग नीतियुक्त तरीके का सहारा लेकर कठिन कार्य को भी सम्पन्न कर सकते हैं।)
पाठ-सार –
प्रश्न – ‘विचित्र साक्षी’ इति पाठस्य सारांशः हिन्दी भाषायां।
उत्तर :
किसी धनहीन मनुष्य ने पर्याप्त मेहनत करके कुछ धन अर्जित किया। इससे वह अपने बेटे को महाविद्यालय में प्रवेश दिलाने के योग्य हो गया। एक दिन वह पिता पुत्र की अस्वस्थता के बारे में सुनकर उद्विग्न हो गया। बेटे को देखने के लिये उसने बस की सवारी छोड़कर पैदल ही चल दिया रात के अंधकार के फैलने पर समीप के गाँव में किसी दयालु गृहस्थ के यहाँ उसने आश्रय लिया। भाग्य की गति अनोखी होती है।
उसी रात उस घर में चोर घुस गया। उस घर में रखी हुई पेटी को लेकर भाग गया। आगन्तुक ने चोर को पकड़ लिया परन्तु वह चोर ही चिल्लाने लगा – “यह चोर है यह चोर है।” इस प्रकार चोर जो कि वहाँ का चौकीदार था, उसने उस आगन्तुक को चोर है, ऐसा प्रचार करके आगन्तुक को ही जेल में डाल दिया। आगामी दिन वह रक्षापुरुष उस (अतिथि) को न्यायालय ले गया। न्यायाधिकारी बंकिम चन्द्र ने अलग-अलग दोनों का स्पष्टीकरण सुना।
उसी समय कोई वहीं का निवासी कर्मचारी निवेदन करने लगा कि यहाँ से दो कोस दूर पर कोई मनुष्य किसी द्वारा मारा हुआ है। उसका शव सड़क के समीप है। आदेश दीजिये क्या किया जाये? न्यायाधिकारी ने रक्षापुरुष और अभियुक्त को उस शव को न्यायालय के अन्दर लाने का आदेश दिया। आज्ञा प्राप्त करके दोनों प्रस्थान कर गये। उस स्थान पर समीप ही एक काठ के तख्ते पर रखे हुये चादर से ढंके हुये शरीर को कंधे पर उठाकर न्यायालय की ओर प्रस्थान कर गये।
रक्षापुरुष (चौकीदार) हृष्ट-पुष्ट शरीर था और अभियोगी दुर्बल शरीर वाला था। भारयुक्त लाश को कंधे पर ढोना उसके लिये कष्टदायक था। वह वजन के कष्ट से चिल्ला उठा। उसकी चीख को सुनकर प्रसन्न हुआ चौकीदार उससे बोला “अरे दुष्ट! उस दिन मुझे तुमने चोरी की पेटी को ले जाने से रोका था, अब भोग अपने कर्म का फल। इस चोरी के मुकदमे में तुम तीन साल तक कारावास का दण्ड प्राप्त करोगे। ऐसा कहकर वह उच्च स्वर से हँसा। जैसे-तैसे दोनों ने लाश को लाकर एक चबूतरे पर रख दिया।
न्यायाधीश ने पुनः उन दोनों को घटना के विषय में कहने की आज्ञा दी। रक्षापुरुष द्वारा अपना बयान करने पर अर्थात् जब रक्षापुरुष अपना बयान कर रहा था तभी एक अनोखी घटना घटी, उस लाश ने (जो कि जीवित था) चादर को हटाकर न्यायाधीश महोदय को प्रणाम करके रास्ते का सारा वृत्तांत सुना दिया। न्यायाधीश ने रक्षापुरुष (चौकीदार) को अपराधी मानकर जेल में डालने की आज्ञा दी तथा उस व्यक्ति (अतिथि) को सम्मान सहित मुक्त कर दिया। अतएव कहा गया है-बुद्धिमान नीति का सहारा लेकर कठिनाई से किए जाने वाले कार्य को सरलता से अथवा खेल-खेल में पूरा करते हैं।
विचित्रः साक्षी Summary and Translation in Hindi
पाठ-परिचय – प्रस्तुत कथा बंगला के सुप्रसिद्ध साहित्यकार बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा न्यायाधीश के रूप में दिये गये एक फैसले पर आधारित है। इसके रचयिता श्री ओमप्रकाश ठाकुर हैं। चटर्जी जितने महान् साहित्यकार थे, उतने ही प्रसिद्ध न्यायाधीश भी रहे। नीर-क्षीर विभागार्थ वे कभी-कभी ऐसी युक्तियों का प्रयोग करते थे कि गवाह के अभाव में भी न्याय हो सके। इस कथा में भी विद्वान न्यायाधीश ने एक ऐसी ही युक्ति का प्रयोग करके न्याय करने में सफलता पायी है।
मूलपाठः,शब्दार्थाः,सप्रसंग हिन्दी-अनुवादः
1 कश्चन निर्धनो जनः भूरि परिश्रम्य किञ्चिद् वित्तमुपार्जितवान्। तेन स्वपुत्रं एकस्मिन् महाविद्यालये प्रवेशं दापयितुं सफलो जातः। तत्तनयः तत्रैव छात्रावासे निवसन् अध्ययने संलग्नः समभूत्। एकदा स पिता तनूजस्य रुग्णतामाकर्ण्य व्याकुलो जातः पुत्रं द्रष्टुं च प्रस्थितः। परमर्थकार्येन पीडितः स बसयानं विहाय पदातिरेव प्राचलत्।
पदातिक्रमेण संचलन् सायं समयेऽप्यसौ गन्तव्याद् दूरे आसीत्। निशान्धकारे प्रसृते विजने प्रदेशे पदयात्रा न शुभावहा। एवं विचार्य स पावस्थिते ग्रामे रात्रिनिवासं कर्तुं कञ्चिद् गृहस्थमुपागतः। करुणापरो गृही तस्मै आश्रयं प्रायच्छत्।
शब्दार्थाः – कश्चन = कश्चित् (किसी), निर्धनः = धनहीनः, दरिद्रः (गरीब), जनः = मनुष्यः (व्यक्ति ने). भूरि = महत्, पर्याप्तम् (बहुत, पर्याप्त), परिश्रम्य = श्रमं कृत्वा (मेहनत करके), किञ्चित् = कतिपयं (कुछ), वित्तम् : धनम् (धन), उपार्जितवान् = अर्जितवान्, (कमाया), तेन = अमुना (उससे), [सः = वह], स्वपुत्रम् = स्वकीयम् आत्मजम्, सुतम् (अपने बेटे को), एकस्मिन् महाविद्यालये = (एक महाविद्यालय में), प्रवेशं दापयितुम् = प्रवेशं कारयितुम्, प्रापयितुम् (प्रवेश दिलाने में), सफलो जातः = समर्थः अभवत् (सफल हो गया), तत्तनयः = तस्य पुत्रः, आत्मजः (उसका बेटा),
तत्रैव = तस्मिन्नेव (उसी, वही), छात्रावासे = विद्यार्थिनिवासे (छात्रावास में), निवसन् = निवासं कुर्वन् (रहता हुआ), अध्ययने = पठने (अध्ययन करने में), संलग्नः = निरत (संलग्न हो गया) समभूत् = अजायत (हो गया), एकदा = एकस्मिन् दिवसे (एक दिन), स पिता = असौ जनकः (वह पिता), तनूजस्य = पुत्रस्य (बेटे की), रुग्णताम् = अस्वस्थताम् (बीमारी को), आकर्ण्य = श्रुत्वा (सुनकर), व्याकुलो = व्यग्रः, उद्विग्नः (व्याकुल), जातः = अजायत, अभवत् (हो गया, हुआ), पुत्रम् च = सुतम् च आत्मजम् (और बेटे को), द्रष्टुम् = ईक्षितुम्, अवलोकयितुम् (देखने के लिए), प्रस्थितः = प्रस्थानम् अकरोत् (प्रस्थान कर गया), परमर्थकार्येन = परञ्च धनस्य अत्यधिक अभावेन (परन्तु धन के अत्यधिक अभाव से), पीडितः = क्लेशयुक्तः, दुःखितः (खिन्न), स = असौ (वह), बसयानं (बस-गाड़ी को), विहाय = त्यक्त्वा (छोड़कर), पदातिरेव = पादाभ्याम् एव (पैदल ही), प्राचलत् = प्रस्थितः (चला गया)।
पदातिक्रमेण = पादाभ्याम् एव सतत् (पैदल ही लगातार), सञ्चलन् = चलन्नेव (चलते हुए), सायं समये अपि = संध्याकाले अपि (सायंकाल भी), असौ = सः (वह), गन्तव्याद् दूरे = गन्तव्यस्थानात् दूरे (गन्तव्य स्थान से दूर), आसीत् = अवर्तत (था), निशान्धकारे = रात्रेः तमसि (रात के अंधेरे के), प्रसृते = विस्तृते (फैलने पर), विजने प्रदेशे = निर्जन प्रदेशे (निर्जन प्रदेश में), पदयात्रा = पदातियात्रा, पादाभ्याम् प्रयाणम् (पदयात्रा), न शुभावहा = न. कल्याणकर: (कल्याणकारी नहीं), एवं विचार्य = इत्थं विचिन्त्य (इस प्रकार सोचकर), सः = असौ (वह),
पाशवस्थिते ग्रामे = समीपस्थे ग्रामे, समीपे विद्यमाने ग्रामे (पास में बसे गाँव में), रात्रिनिवासम् = निशावासम् (रैन बसेरा), कर्तुम् = विधातुम् (करने के लिए), कञ्चिद् = कञ्चन (किसी), गृहस्थमुपागतः = दम्पत्योः समीपम् आगच्छत् (दम्पती के पास आया), करुणापरो = करुणोपेतः, दयार्द्रः (करुणामय), गही = गृहस्वामी (घर के मालिक ने), तस्मै = अमुष्मै (उसके लिए), आश्रयम् = शरणम् (सहारा), प्रायच्छत् =प्राददात् (दे दिया)।
सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक शेमुषी के ‘विचित्र साक्षी’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ मूलतः श्रीमान् ओम प्रकाश ठक्कुर द्वारा रचित कथा का सम्पादित अंश है। इस कथा में न्यायाधीश श्री वंकिम चन्द्र चटर्जी महोदय द्वारा एक ऐसी युक्ति का प्रयोग किया गया है जिसे बिना गवाह के भी न्याय किया जा सकता है। इस गद्यांश में कथानायककी आर्थिक स्थिति का चित्रण किया गया है, जिससे बाध्य होकर वह एक किसी गृहस्थ में आश्रय लेता है।
हिन्दी-अनुवादः – किसी गरीब व्यक्ति ने बहुत परिश्रम करके कुछ धन कमाया। उससे वह अपने बेटे को एक महाविद्यालय में प्रवेश दिलाने में समर्थ हो गया। उसका बेटा वहीं छात्रावास में रहता हुआ अध्ययन में संलग्न हो गया। एक दिन वह पिता बेटे की बीमारी (की बात) सुनकर व्याकुल हुआ और बेटे को देखने के लिए चल दिया, परन्तु धन के अत्यधिक अभाव के कारण खिन्न हुआ वह बस को छोड़कर पैदल ही चल पड़ा।
पैदल ही लगातार चलते हुए सायंकाल को भी वह अपने गन्तव्य से दूर रहा (था) रात का अँधेरा फैलने पर ‘एकान्त प्रदेश में पैदल यात्रा हितकारी (कल्याणकारी) नहीं’ इस प्रकार सोचकर वह पास में बसे गाँव में रैन-बसेरा करने के लिए किसी गृहस्थ के पास आया। करुणामय घर के मालिक ने उसे सहारा (आश्रय) प्रदान किया।
2 विचित्रा दैवगतिः। तस्यामेव रात्रौ तस्मिन् गृहे कश्चन चौरः गृहाभ्यन्तरं प्रविष्टः। तत्र निहितामेकां मञ्जूषाम् आदाय पलायितः। चौरस्य पादध्वनिना प्रबुद्धोऽतिथि: चौरशङ्कया तमन्वधावत् अगृह्णाच्च, परं विचित्रमघटत। शितुमारभत “चौरोऽयं चौरोऽयम्” इति। तस्य तारस्वरेण प्रबुद्धाः ग्रामवासिनः स्वगृहाद् निष्क्रम्य तत्रागच्छन् वराकमतिथिमेव च चौरं मत्वाऽभसंयन्। यद्यपि ग्रामस्य आरक्षी.एव चौर आसीत्। तत्क्षणमेव रक्षापुरुषः तम् अतिथिं चौरोऽयम् इति प्रख्याप्य कारागृहे प्राक्षिपत्।
शब्दार्थाः – दैवगतिः = दैवस्य भाग्यस्य, गतिः स्थितिः, विधेर्विधानम् (भाग्य की गति, लीला), विचित्रा = अद्भुता (अनोखी), [भवति = होती है], तस्यामेव रात्रौ = अमुष्याम् एव निशायाम् (उसी रात में), तस्मिन् गृहे = अमुष्मिन् भवने (उस घर में), कश्चन चौरः = कश्चित् तस्करः (कोई चोर), गृहाभ्यान्तरं प्रविष्टः = भवनस्य मध्ये प्रवेशमकरोत् (घर के अन्दर घुस गया), तत्र = तस्मिन् गृहे (वहाँ), निहितामेकाम् = विद्यमानां, स्थितामेकां (रखी हुई एक), मञ्जूषाम् = पेटिकाम् (पेटी को), आदाय = नीत्वा, गृहीत्वा (लेकर), पलायितः = अधावत्, (भाग गया), चौरस्य = तस्करस्य (चोर की), पादध्वनिना = चरणपातशब्देन (पदचाप से),
प्रबुद्धो = जागृतः (जागा हुआ), अतिथिः = आगन्तुकः, अभ्यागतः (अतिथि), चौरशङ्कया = तस्करस्य संशयेन (चोर की आशङ्का से), तमन्वधावत् = अमुमन्वसरत् अन्वगच्छत् (उसके पीछे दौड़ा), अगृहणाच्च = प्राप्तवान् च (और पकड़ लिया), परम् = परञ्च (लेकिन), विचित्रमघटत = अद्भुतमजायत घटितवान् (अनोखी घटना घटी), चौरः एव = तस्करः एव (चोर ही), उच्चैः = उच्चस्वरेण (जोर-जोर से), क्रोशितुम् = क्रन्दितुम्, चीत्कर्तुम् (चिल्लाना/चीखना), आरभत = आरम्भमकरोत्, आरब्धवान् (आरम्भ कर दिया), ‘चौरोऽयं चौरोऽयम्’ = एषः चौरः, एषः चौरः (यह चोर है, यह चोर है ), इति = एवं (इस प्रकार), तस्य = अमुष्य (उसके), तारस्वरेण = उच्चस्वरेण (उच्चस्वर से), प्रबुद्धाः = जागृताः (जागे हुए), ग्रामवासिनः = ग्राम्याः, ग्रामीणजनाः (गाँव में रहने वाले लोग),
स्वगृहाद् = स्व स्व भवनात् (अपने-अपने घर से), निष्क्रम्य = निर्गत्य (निकलकर), तत्रागच्छन् = तस्मिन् स्थाने आयाताः, आगतवन्तः (वहाँ आ गये), वराकमतिथिमेव च = दीनमागन्तुकमेक च (और उस बेचारे अतिथि को ही), चोरं मत्वा = तस्करं मत्वा (चोर मानकर), अभर्स्यन् = भर्त्सना, निन्दामकुर्वन् (निन्दा की), यद्यपि = वस्तुतः (वास्तव में), ग्रामस्य आरक्षी = ग्रामस्य रक्षापुरुषः (गाँव का पुलिस कर्मचारी, चौकीदार), एव चौरः आसीत् = एव तस्करोऽवर्तत (ही चोर था), तत्क्षणमेव = तत्कालमेव (तत्काल ही), रक्षापुरुषः = आरक्षी (रक्षापुरुष ने), तमतिथिम् = तमागन्तुकम् (उस अतिथि को), चौरोऽयम् = एषः तस्करः (यह चोर है), इति प्रख्याप्य = इति प्रचार्य (इस प्रकार प्रचार करके), (तम्) कारागारे = बन्दीगृहे (जेल में), प्राक्षिपत् = न्यगृणीत (डाल दिया)।
सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक शेमुषी के ‘विचित्रः साक्षी’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह पाठ श्रीमान् ओम प्रकाश ठक्कुर महोदय रचित कथा का सम्पादित अंश है। इस अंश में कथा-नायक का दुर्भाग्य वर्णित है कि उसकी उपस्थिति में ही घर में कोई चोर प्रवेश करता है तथा अतिथि द्वारा किया गया हित भी अहित हो गया।
हिन्दी-अनुवादः – भाग्य की लीला बड़ी अनोखी होती है। उसी रात में उस घर में कोई चोर घर के अन्दर घुस गया। वहाँ रखी एक पेटी को लेकर वह भाग गया। चोर की पदचाप से जागा हुआ अतिथि चोर की आशंका से चोर के पीछे दौड़ा और पकड़ लिया। लेकिन एक अनोखी घटना घटी कि उस चोर ने ही जोर-जोर से चीखना आरम्भ कर दिया। ‘यह चोर है, यह चोर है’। उसके उच्च स्वर से जागे हुए गाँव में रहने वाले लोग अपने-अपने घर से निकलकर वहाँ आ गये और उस बेचारे अतिथि को ही चोर मानकर निन्दा करने लगे। वास्तव में गाँव का चौकीदार ही चोर था। तत्काल ही उस आरक्षी (रखवाले, पुलिसवाले) ने ‘यह चोर है’ ऐसा प्रचार करके उसे बंदीगृह अर्थात् जेल में डाल दिया।
3 अनिमे दिने स आरक्षी चौर्याभियोगे तं न्यायालयं नीतवान्। न्यायाधीशो बंकिमचन्द्रः उभाभ्यां पृथक्-पृथक् विवरणं श्रुतवान्। सर्वं वृत्तमवगत्य स तं निर्दोषम् अमन्यत आरक्षिणं च दोषभाजनम्। किन्तु प्रमाणाभावात् स निर्णेतुं नाशक्नोत्। ततोऽसौ तौ अग्रिमे दिने उपस्थातुम् आदिष्टवान्। अन्येद्यः तौ न्यायालये स्व-स्व-पक्षं पुनः स्थापितवन्तौ। तदैव कश्चिद् तत्रत्यः कर्मचारी समागत्य न्यवेदयत् यत् इतः क्रोशद्वयान्तराले कश्चिज्जनः केनापि हतः। तस्य मृतशरीरं राजमार्ग निकषा वर्तते। आदिश्यतां किं करणीयमिति। न्यायाधीशः आरक्षिणम् अभियुक्तं च तं शवं न्यायालये आनेतुमादिष्टवान्।
शब्दार्थाः – अग्रिमे दिने = आगामिदिवसे, अन्येधुः (अगले दिन), स आरक्षी = असौ रक्षापुरुषः (वह चौकीदार), चौर्याभियोगे = स्तेयस्यप्रकरणे (चोरी के मुकदमे में), तम् = अमुम् (उसको), न्यायालयम् = न्यायाधिकरणम् (न्यायालय को), नीतवान् = अनयत् (ले गया), न्यायाधीशः बंकिमचन्द्रः = न्यायाधिकारी बंकिमचन्द्रः (न्यायाधीश बंकिमचन्द्र ने), पृथक-पृथक् = भिन्नभिन्नम् (अलग-अलग), विवरणम् = स्पष्टीकरणम् (विवरण को), श्रुतवान् = अशृणोत् (सुना), सर्वम् = सम्पूर्णम् (पूरे), वृत्तमवगत्य = विवरणं, वृत्तान्तम् ज्ञात्वा (वृत्तान्त को जानकर),
स तं = असौ अमुम् (उसने उसे), निर्दोषम् = निरपराद्धम् (निरपराध), अमन्यत = मतघान् (माना), आरक्षिणं च = रक्षापुरुषं च सैनिकं (और रखवाले या चौकीदार को), दोषभाजनम् = अपराधस्य पात्रम् (दोष का भागीदार), किन्तु = परञ्च (लेकिन), प्रमाणाभावात् = प्रमाणस्य साक्षिणः अभावात् (गवाह के अभाव में, गवाह न होने के कारण), सः = असौ (वह), निर्णेतुम् नाशक्नोत् = निर्णयं कर्तुम् न अशक्नोत् (निर्णय नहीं कर सका), ततोऽसौ = ततः सः (तब उसने), तौ = अमू (उन दोनों को), अग्रिमे दिने = आगामिदिवसे, अपरेधुः (अगले दिन), उपस्थातुम् = उपस्थापयितुम् (उपस्थित होने के लिए), आदिष्टवान् = आज्ञप्तवान्, आज्ञां दत्तवान् (आदेश प्रदान किया), अन्येयुः = अपरे दिवसे (दूसरे दिन), तौ = अमू उभौ (उन दोनों ने),
न्यायालये = न्यायाधिकरणे (न्यायालय में), स्व- स्व-पक्षम् = आत्मनः कथनं, मन्तव्यम् (अपने-अपने पक्ष को), पुनः = द्वि-वारम् (फिर से), स्थापितवन्तौ = अस्थापयताम् (स्थापित किया), तदैव = तस्मिन्नेव काले (उसी समय, तभी), कश्चित् = कश्चन, कोऽपि (किसी), तत्रत्यः = तत्रभवः, तत्र निवसन् तत्रैव वास्तव्यः (वहाँ के निवासी), कर्मचारी = कर्मकारः, कार्यकर्ता, सेवकः, भृत्यः (कर्मचारी ने), समागत्य = प्राप्य, आगम्य (आकर), न्यवेदयत् = निवेदितवान् (निवेदन किया), यत् = कि, इतः = अत्रतः (यहाँ से), कोशद्वयान्तराले = द्वयोः क्रोशयोः मध्ये (दो कोस के मध्य, दो कोस की दूरी पर),
कश्चिज्जनः = कोऽपि मनुष्यः (कोई आदमी), केनापि = केनचित् (किसी के द्वारा), हतः = मारितः व्यापदितः (मारा गया), तस्य = अमुष्य (उसकी), मृतशरीरम् = शवः (लाश), राजमार्गम् = राज्ञः पथम्, जनपथस्य (राजमार्ग के, सड़क के), निकषा = समया, समीपं (समीप), वर्तते = अस्ति (है), आदिश्यताम् = आदेशं दीयताम् (आदेश दिया जाय, दीजिए), किं करणीयमिति = किं कर्त्तव्यमिति (क्या करना चाहिए), न्यायाधीशः = न्यायाधिकारी (न्यायाधीश ने), आरक्षिणम् = रक्षापुरुषम् (सैनिक को), अभियुक्तम् च = अपराधिनम् च अभियोगारोपितम् (और अभियुक्त को), तं शवम् = अमुम् मृतशरीरम् (उस लाश को), न्यायालये = न्यायाधिकरणे (न्यायालय में), आनेतुम् = आनयनाय (लाने के लिए), आदिष्टवान् = आज्ञां दत्तवान्, आज्ञप्तवान् (आदेश दिया)।।
सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह गद्यांश हमारी शेमुषी पाठ्यपुस्तक के विचित्र साक्षी’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ मूलतः श्री ओम प्रकाश ठक्कुर रचित कथा का संपादित अंश है। इस गद्यांश में एक शव लाया जाता है, जो न्यायालय में साक्षी बनेगा।
हिन्दी-अनुवादः – अगले दिन वह चौकीदार (रक्षापुरुष) चोरी के मुकदमे में उस (अतिथि) को न्यायालय ले गया। न्यायाधीश बंकिमचन्द्र ने अलग-अलग विवरण (बयान) सुना। पूरे वृत्तान्त को जानकर उस (न्यायाधीश) ने उस (अतिथि) को निरपराध माना और रक्षापुरुष को अपराधी (माना) लेकिन प्रमाण के अभाव में वह (न्यायाधीश) निर्णय नहीं कर सका। तब उस (न्यायाधीश) ने उन दोनों (अतिथि एवं राजपुरुष) को अगले दिन उपस्थित होने के लिए आदेश प्रदान किया। दूसरे दिन उन दोनों ने न्यायालय में अपने-अपने पक्ष को फिर से स्थापित किया। तभी वहाँ के किसी रहने वाले ने आकर निवेदन किया कि यहाँ से दो कोस की दूरी पर कोई आदमी किसी के द्वारा मार दिया गया है, उसकी लाश सड़क के पास (समीप) है। आदेश दीजिए, क्या करना चाहिए। न्यायाधीश ने रक्षा पुरुष (सैनिक) और अभियुक्त को, उस शव को न्यायालय में लाने के लिए आदेश दिया।
4 आदेशं प्राप्य उभौ प्राचलताम्। तत्रोपेत्य काष्ठपटले निहितं पटाच्छादितं देहं स्कन्धेन वहन्तौ न्यायाधिकरणं प्रति प्रस्थितौ। आरक्षी सुपुष्टदेह आसीत्, अभियुक्तश्च अतीव कृशकायः। भारवतः शवस्य स्कन्धेन वहनं तत्कृते दुष्करम् आसीत्। स भारवेदनया क्रन्दति स्म। तस्य क्रन्दनं निशम्य मुदित आरक्षी तमुवाच- ‘रे दुष्ट ! तस्मिन् दिने त्वयाऽहं चोरिताया मञ्जूषाया ग्रहणाद्वारितः। इदानीं निजकृत्यस्य फलं भुक्ष्व। अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य कारादण्डं लप्स्यसे’ इति प्रोच्य उच्चैः अहसत्। यथाकथञ्चिद् उभौ शवमानीय एकस्मिन् चत्वरे स्थापितवन्तौ।
शब्दार्थाः – आदेशम् = आज्ञाम् (आदेश को), प्राप्य = लब्ध्वा (पाकर), उभौ = द्वावेव (दोनों ही), प्राचलताम् = प्रस्थितौ (चल पड़े), तत्रोपेत्य = तस्मिन् स्थाने समीपं गत्वा (वहाँ पास जाकर), काष्ठपटले = काष्ठस्य पटले (लकड़ी के तख्ते पर), निहितं = स्थापितम् (रखे), पटाच्छादितम् = वस्त्रेण आवृतम् (कपड़े से ढके हुए), देहम् = शरीरम् (मृत शरीर को), स्कन्धेन = कन्धे से, वहन्तौ = वहनं कुर्वन्तौ, वहमानौ (ढोते हुए), न्यायाधिकरणम् प्रति + न्यायालयं प्रति (न्यायालय की ओर), प्रस्थितौ = प्रस्थानं कृतवन्तौ (प्रस्थान कर गये/किया), आरक्षी = रक्षापुरुषः (सैनिक, चौकीदार), सुपुष्टदेहः = सुपोषितशरीरः (हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला), आसीत् = अवर्तत (था), अभियुक्तश्च = अभियोगोपेतः च (अपराधी), कृशकायः = दुर्बल शरीरः (कमजोर शरीर वाला), (आसीत् = था), भारवतः = भारयुक्तस्य भारवाहिनः (भारी),
शवस्य = मृतशरीरस्य (लाश को), (स्कन्धेन = कन्धे पर), वहनं = वोढुम् (ढोना), तत्कृते = तस्मै (उसके लिए), दुष्करम् = कष्टकरम् (मुश्किल), आसीत् = अवर्तत (था), सः = असौ (वह), भारवेदनया = भारस्य वेदनया, भारपीडया (वजन की पीड़ा से), क्रन्दति स्म = चीत्करोति स्म, रोदिति स्म (चीख रहा था), तस्य = अमुष्य (उसके), क्रन्दनं = चीत्कारं (चीत्कार को), निशम्य = श्रुत्वा (सुनकर), मुदितः = प्रसन्न, आरक्षी = रक्षापुरुषः (चौकीदार), तमुवाच = अमुम् अवदत् (उससे बोला), रे दुष्ट ! = अरे दुर्जन! (अरे दुष्ट !), तस्मिन् = अमुष्मिन् (उस), दिने = दिवसे (दिन), त्वयाऽहं = भवता अहम् त्वया (तुमने मुझे), चोरितायाः = चौर्यस्य (चोरी की), मञ्जूषायाः = पेटिकायाः (पेटी को), ग्रहणात् = नयनात् (ले जाने से),
वारितः = वारितवान् (रोका), इदानीम् = अधुना (अब), निजकृत्यस्य = स्वकर्मणः (अपने कर्म का, करनी का), फलम् = परिणामम् (परिणाम), भुक्ष्व = भवान् अनुभवतु (भोगो, अनुभव करो), अस्मिन् = एतस्मिन् (इस), चौर्याभियोगे = स्तेयाभियोगे, प्रकरणे (चोरी के मुकदमे में), त्वम् = भवान् (तुम), वर्षत्रयस्य = त्रयाणाम् अब्दानाम् (तीन वर्ष का), कारादण्डम् = कारावासस्य दण्डम् (कैद, जेल का दण्ड), लप्स्यसे = प्राप्स्यसि (पाओगे, भोगोगे), इति प्रोच्य = एवं उक्त्वा (ऐसा कहकर), उच्चैः = उच्चस्वरेण (जोर से), अहसत् = हसितवान् (हँसा), यथाकथंचित् = येन-केन-प्रकारेण (जैसे-तैसे), उभौ = द्वावेव (दोनों), शवमानीय = मृतशरीरम् नीत्वा (लाश को लेकर), एकस्मिन् चत्वरे = एकस्मिन् चतुर्मार्गे, चतुस्थे (एक चौराहे पर), स्थापितवन्तौ = अस्थापयताम् (रख दिया)।
सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘विचित्र साक्षी’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह पाठ श्री ओम प्रकाश ठक्कुर रचित कथा का सम्पादित अंश है। इस गद्यांश में आरक्षी और अतिथि का संवाद प्रस्तुत किया गया है, जो संवाद न्यायालय में प्रमाण होगा।
हिन्दी-अनुवादः – आदेश पाकर दोनों (अभियुक्त और आरक्षी) ही चल पड़े। वहाँ पास जाकर लकड़ी के तख्ने पर रखे हुए कपड़े से ढके हुए (मृत) शरीर को कन्धे पर ढोते हुए न्यायालय की ओर प्रस्थान किया। चौकीदार हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला था (और) अपराधी कमजोर (दुबले-पतले) शरीर वाला (था)। भारी लाश का कन्धे पर ढोना उसके लिए मुश्किल (कठिन कार्य) था। वह वजन की पीड़ा से चीख रहा था। उसके चीत्कार (रुदन) को सुनकर प्रसन्न हुआ चौकीदार उससे बोला -‘अरे दुष्ट! उस दिन तूने मुझे चोरी की पेटी को ले जाने से रोका था। अब अपनी करनी का फल भोग। इस चोरी के मुकदमे में तुम तीन वर्ष की कैद भोगोगे’ ऐसा कहकर वह जोर से हँसा। जैसे-तैसे दोनों ने लाश को लाकर चौराहे पर रख दिया।
5. न्यायाधीशेन पुनस्तौ घटनायाः विषये वक्तुमादिष्टौ। आरक्षिणि निजपक्षं प्रस्तुतवति आश्चर्यमघटत् स शवः प्रावारकमपसार्य न्यायाधीशमभिवाद्य निवेदितवान्- मान्यवर ! एतेन आरक्षिणा अध्वनि यदुक्तं तद् वर्णयामि ‘त्वयाऽहंचोरितायाः मञ्जूषायाः ग्रहणाद्वारितः, अतः निजकृत्यस्य फलं भुक्ष्व। अस्मिन् चौर्याभियोगे त्वं वर्षत्रयस्य
कारादण्ड लप्स्यसे’ इति।
न्यायाधीशः आरक्षिणे कारादण्डमादिश्य तं जनं ससम्मानं मुक्तवान्।
अतएवोच्यते-दुष्कराण्यपि कर्माणि मतिवैभवशालिनः।
नीतिं युक्ति समालम्ब्य लीलयैव प्रकुर्वते।।
शब्दार्थाः – न्यायाधीशेन = न्यायाधिकारिणा (न्यायाधीश ने), पुनस्तौ = पुनः अमू उभौ (फिर से उन दोनों को), घटनायाः विषये = घटितस्य विषये (घटना के विषय में), वक्तुमादिष्टौ = कथयितुम् आज्ञप्तौ (कहने/बोलने का आदेश दिया), आरक्षिणि = रक्षापुरुषे (रक्षापुरुष के), निजपक्षम् = आत्मकथ्यम् (अपने पक्ष को), प्रस्तुतवति = उक्तवति (कह देने पर), अर्थात् जब रक्षापुरुष (चौकीदार) अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहा था (तब), आश्चर्यमघटत् = अद्भुतमजायत (आश्चर्यजनक घटना घटी), सः = असौ (वह), शवः = मृतकायः (लाश), प्रावारकम् = उत्तरीय वस्त्रम् (लबादे को), अपसार्य = अपवार्य (दूर करके), न्यायाधीशमभिवाद्य = न्यायाधिकारिणम् प्रणम्य अभिवादनं कृत्वा (जज को प्रणाम करके),
निवेदितवान् = न्यवेदयत् (निवेदन किया), मान्यवर ! = मान्येषु श्रेष्ठ ! (हे माननीय!), एतेन = अनेन (इस), आरक्षिणा = रक्षापुरुषेण (चौकीदार ने), अध्वनि = मार्गे (मार्ग में), यदुक्तम् = यत् कथितम् (जो कहा था), तद् वर्णयामि = तस्य वर्णनं करोमि, तत् वदामि (उसका वर्णन करता हूँ), त्वयाहम् = त्वं माम् (तुमने मुझे), चोरितायाः = चौर्यस्य (चोरी की), मञ्जूषायाः = पेटिकायाः (पेटी को), ग्रहणात् = नयनात् (ले जाने से), वारितः = अवरोधितः, निवारितः, न्यवारयः (रोका था), अत: निजकृत्यस्य = अतः स्वकर्मणः, कृतस्य (अपनी करनी का), फलम् = परिणाम (परिणाम), भुक्ष्व = अनुभव (भोगो), अस्मिन् = एतस्मिन् (इस),
चौर्याभियोगे = स्तेयप्रकरणे (चोरी के मुकदमे में, आरोप में), त्वं वर्षत्रयस्य = त्वं त्रयाणां अब्दानां (तीन वर्ष का), कारादण्डम् = कारागृह निग्रहस्य दण्डं (कैद/जेल का दण्ड), लप्स्यसे = प्राप्स्यसि (प्राप्त करोगे, पाओगे), न्यायाधीशः = न्यायाधिकारी (जज ने), आरक्षिणे = रक्षापुरुषाय (चौकीदार को), कारादण्डमादिश्य = कारागृहनिग्रहदण्डम् आज्ञाप्य (कैद के दण्ड की आज्ञा देकर), तम् जनं = अमुम् पुरुषम् (उस मनुष्य को), ससम्मानम् – सम्मानेन सहितम् (सम्मान/इज्जत के साथ), मुक्तवान् = अत्यजत् (छोड़ दिया), अत एवोच्यते = अतः एव कथ्यते (इसलिए कहा जाता है)।
दुष्कराण्यपि ……………………………………… प्रकुर्वते।।
अन्वयः – मतिवैभवशालिनः नीतिं युक्तिं समालम्ब्य दुष्कराणि कर्माणि अपि लीलया एव प्रकुर्वते।
शब्दार्थाः – मतिवैभवशालिनः = बुद्धिमन्तः (बुद्धिमान् लोग), नीतियुक्तिम् = नीतिगतयुक्तिम् (नैतिक तरीके का), समालम्ब्य = आश्रयं गृहीत्वा, आश्रित्य (सहारा लेकर), दुष्कराणि = कष्टेन करणीयानि (कठिनाई से किए जाने योग्य), कार्याणि अपि = कर्माणि अपि (कार्यों को भी), लीलयैव = कौतुकेन, सुगमतया (खेल ही खेल में, सरलता से), प्रकुर्वते = कुर्वन्ति, सम्पादयन्ति (कर लेते हैं )।
सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक शेमुषी के ‘विचित्र साक्षी’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ मूलतः श्री ओम प्रकाश ठक्कुर रचित कथा का सम्पादित अंश है। इस गद्यांश में न्यायालय में शव को साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, क्योंकि वह जीवित था। उसने पूरे संवाद को सुना था। यही संवाद यहाँ प्रमाण है।
हिन्दी-अनुवादः – न्यायाधीश ने फिर से उन दोनों को घटना के विषय में बोलने का आदेश दिया। रक्षापुरुष (चौकीदार) के अपने पक्ष को प्रस्तुत करने पर अर्थात् जब चौकीदार अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहा था, तब एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह लाश लबादे चादर को दूर करके (फेंककर) [उठ खडी हुई तथा] न्यायाधिकारी (जज) को अभिवादन करके (पुरुष रूप से) निवेदन करने लगी- “माननीय! इस चौकीदार ने मार्ग में जो कहा था (मैं) उसका वर्णन करता हूँ तुमने मुझे चोरी की पेटी को ले जाने से रोका था। अतः अब अपने किये हुए (करनी) का फल भोगो। इस चोरी के आरोप में तुम तीन वर्ष का कैद का दण्ड पाओगे।” न्यायाधीश ने चौकीदार सिपाही को कैद के दण्ड का आदेश (आज्ञा) देकर उस व्यक्ति (अतिथि) को ससम्मान (सम्मान के साथ) मुक्त कर दिया। इसलिए कहा जाता है बुद्धिमान् लोग नैतिक तरीके का सहारा लेकर कठिनाई से किये जाने योग्य कार्यों को भी खेल ही खेल में कर लेते हैं।