Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व
Jharkhand Board Class 11 Political Science चुनाव और प्रतिनिधित्व InText Questions and Answers
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प्रश्न 1.
क्या बिना चुनाव के लोकतन्त्र कायम रह सकता है?
उत्तर:
नहीं, बिना चुनाव के लोकतन्त्र कायम नहीं रह सकता क्योंकि वर्तमान लोकतन्त्र का स्वरूप प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र है जो जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा ही संचालित होता है।
प्रश्न 2.
क्या बिना लोकतन्त्र के चुनाव हो सकता है?
उत्तर:
यद्यपि बिना लोकतन्त्र के निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनाव नहीं हो सकता। लेकिन बहुत सारे गैर-लोकतान्त्रिक देशों में भी चुनाव होते हैं। वास्तव में गैर-लोकतान्त्रिक शासक स्वयं को लोकतान्त्रिक साबित करने के लिए बहुत आतुर रहते हैं। इसके लिए वे चुनावों को ऐसे ढंग से कराते हैं कि उनके शासन को कोई खतरा न हो।
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प्रश्न 3.
50 प्रतिशत से भी कम वोट और 80 प्रतिशत से अधिक सीटें। क्या यह ठीक है? हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसी गड़बड़ व्यवस्था को कैसे स्वीकार किया?
उत्तर:
50 प्रतिशत से भी कम वोट पाने वाले दल को 80 प्रतिशत से अधिक सीटें मिलना ‘सर्वाधिक वोट से जीत वाली (FPTP) व्यवस्था में ही सम्भव है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों के लिए इसी निर्वाचन विधि को अपनाया है। भारत में ‘सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था’ के अपनाने के कारण- भारत के संविधान निर्माताओं ने सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था (फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट सिस्टम) को अपनाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे।
1. सरल विधि: समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की तुलना में ‘सर्वाधिक वोट से जीत वाली प्रणाली’ सरल है। उन सामान्य मतदाताओं के लिए जिन्हें राजनीति और चुनाव का विशेष ज्ञान नहीं है, वे इस चुनाव प्रणाली को आसानी से समझ सकते हैं। स्वतन्त्रता के समय सामान्य भारतीय मतदाताओं की भी यही स्थिति थी। इस तथ्य को समझते हुए संविधान निर्माताओं ने इस चुनाव व्यवस्था को अपनाया।
2. स्पष्ट विकल्प का होना: सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था में मतदाताओं के सामने स्पष्ट विकल्प होते हैं, जबकि समानुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था में इस स्पष्ट विकल्प का अभाव होता है। राजनीति की वास्तविकता को ध्यान में रखकर मतदाता किसी प्रत्याशी को भी वरीयता दे सकता है और किसी दल को भी। वह चाहे तो इन दोनों में, मतदान के समय सन्तुलन बनाने की भी कोशिश कर सकता है। सर्वाधिक वोट से जीत वाली प्रणाली मतदाताओं को केवल दलों में ही नहीं वरन् उम्मीदवारों में भी चयन का स्पष्ट विकल्प देती है। अन्य चुनावी व्यवस्थाओं में, विशेषकर समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में, मतदाताओं को किसी एक दल को चुनने का विकल्प दिया जाता है; लेकिन प्रत्याशियों का चयन पार्टी द्वारा जारी की गई सूची के अनुसार होता है।
3. प्रतिनिधि का मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होना: समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था में किसी क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधित्व करने वाला और मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी, कोई एक प्रतिनिधि नहीं होता। लेकिन
संजीव पास बुक्स सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था में किसी निर्वाचन क्षेत्र के मतदाता जानते हैं कि उनका प्रतिनिधि कौन है और उसे उत्तरदायी ठहरा सकते हैं।
4. सरकार का स्थायित्व: भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत के लिए संसदीय शासन व्यवस्था को अपनाया। संसदीय प्रणाली की प्रकृति की यह माँग है कि कार्यपालिका को विधायिका में बहुमत प्राप्त हो। संविधान निर्माता यह समझते थे कि समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली पर आधारित चुनाव संसदीय प्रणाली में सरकार के स्थायित्व के लिए उपयुक्त नहीं होंगे क्योंकि इसमें मतों के प्रतिशत के अनुपात में विधायिका में सीटें बँट जायेंगी। ‘सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली’ में प्राय: बड़े दलों या गठबन्धनों को बोनस के रूप में मत प्रतिशत से अतिरिक्त कुछ सीटें मिल जाती हैं । अत: यह प्रणाली एक स्थायी सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त कर संसदीय सरकार को सुचारु और प्रभावी ढंग से काम करने का अवसर देती है।
5. विभिन्न वर्गों में एकजुटता प्रदान करने की दृष्टि से उपयुक्त: सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली एक निर्वाचन क्षेत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों को एकजुट होकर चुनाव जीतने में मदद करती है जबकि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में, समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली प्रत्येक समुदाय को अपनी एक राष्ट्रव्यापी पार्टी बनाने को प्रेरित करेगी। यह बात भी हमारे संविधान निर्माताओं के मस्तिष्क में रही होगी।
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प्रश्न 4.
भारत की आबादी में मुसलमान 14.2 प्रतिशत हैं। लेकिन लोकसभा में मुसलमान सांसदों की संख्या सामान्यतः 6 प्रतिशत से थोड़ा कम रही है जो जनसंख्या के अनुपात में आधे से भी कम है। यही स्थिति अधिकतर राज्य विधानसभाओं में भी है। तीन छात्रों ने इन तथ्यों से तीन अलग-अलग निष्कर्ष निकाले। आप बतायें कि आप उनसे सहमत हैं या असहमत और क्यों?
हिलाल: यह सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली के अन्याय को दिखाता है। हमें समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनानी चाहिए थी।
आरिफ: यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण देने के औचित्य को बताता है। आवश्यकता इस बात की है कि मुसलमानों को भी उसी तरह का आरक्षण दिया जाये, जैसा अनुसूचित जातियों और जनजातियों को दिया गया।
सबा: सभी मुसलमानों को एक जैसा मानकर बात करने का कोई मतलब नहीं है। मुसलमान महिलाओं को इसमें कुछ भी नहीं मिलेगा। हमें मुसलमान महिलाओं के लिए अलग आरक्षण चाहिए।
उत्तर:
भारत के संविधान में धर्म-आधारित आरक्षण का निषेध किया गया है लेकिन पिछड़े हुए लोगों को समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण देने की व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। मेरी दृष्टि से चूँकि मुस्लिम महिलाएँ अधिक पिछड़ी हुई अवस्था में हैं, इसलिए ‘मुस्लिम महिला वर्ग’ को पिछड़ा वर्ग मानते हुए मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसलिए इससे एक तरफ तो भारत की संसद तथा विधानसभाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा तथा मुस्लिम महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व होने से उनकी समस्याएँ विधायिका में रखी जा सकेंगी। इस दृष्टि से मैं सबा के मत से सहमत हूँ।
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प्रश्न 5.
मैं इतनी समझ रखती हूँ कि भविष्य में अपने कैरियर को चुन सकूँ और इतनी उम्रदराज हूँ कि ड्राइविंग लाइसेंस बना सकूँ, तो क्या मैं इतनी बड़ी नहीं कि वोट डाल सकूँ? यदि ये कानून मुझ पर लागू होते हैं, तो मैं इन कानूनों को बनाने वाले के बारे में फैसला क्यों नहीं ले सकती?
उत्तर:
भारत में 18 वर्ष के प्रत्येक वयस्क नागरिक को वोट देने का अधिकार प्राप्त है। चूँकि आप ड्राइविंग लाइसेंस बनवा सकने की उम्र रखती हैं, जो कि कम-से-कम 18 वर्ष है। इस दृष्टि से आप एक वयस्क भारतीय नागरिक हैं तथा भविष्य में अपना कैरियर चुन सकने की समझ रखती हैं अर्थात् पागल तथा चित्त विकृत नहीं हैं। अतः आप वोट डाल सकती हैं और वोट डालकर कानून बनाने वाले जनप्रतिनिधियों (विधायकों या संसद सदस्यों) के बारे में फैसला ले सकती हैं।
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प्रश्न 6.
क्या बहुसदस्यीय निर्वाचन आयोग की व्यवस्था भारत में स्थायी हो गयी है या सरकार एक सदस्यीय निर्वाचन आयोग को दुबारा कायम कर सकती है? क्या संविधान इस खेल की आज्ञा देता है?
उत्तर:
संविधान में यह स्पष्ट लिखा है। कि निर्वाचन आयोग में एक निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य उतने निर्वाचन आयुक्त होंगे जितने कि राष्ट्रपति समय-समय पर नियत करे। अतः सरकार एकसदस्यीय निर्वाचन आयोग की व्यवस्था को दुबारा कायम कर सकती है। संविधान इसकी आज्ञा देता है। जहाँ तक बहुसदस्यीय निर्वाचन आयोग की व्यवस्था के स्थायित्व का प्रश्न है, संवैधानिक दृष्टि से तो यह व्यवस्था स्थायी नहीं है। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह स्थायित्व का रूप ले चुकी है। 1993 से निर्वाचन आयोग की व्यवस्था बहुसदस्यीय बनी हुई है। अब इस बात पर सामान्य सहमति बन चुकी है कि बहुसदस्यीय निर्वाचन आयोग ज़्यादा उपयुक्त है क्योंकि इससे आयोग की शक्तियों में साझेदारी हो गई है और आयोग पहले से कहीं ज्यादा जवाबदेह बन गया है।
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प्रश्न 7.
क्या कानून में परिवर्तन करके चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोका जा सकता है? क्या केवल कानून बदलने से कोई चीज वास्तव में बदलती है?
उत्तर:
केवल ‘कानून’ में परिवर्तन करके ही चुनावों में धन और बल के प्रयोग को नहीं रोका जा सकता है। इसके लिए कानून में परिवर्तन के साथ-साथ अन्य प्रयास भी किये जाने चाहिए। यथा यह आवश्यक है कि धन और बल के प्रयोग को रोकने में जो संवैधानिक संस्थाएँ हैं, वे प्राप्त शक्तियों का और प्रभावशाली ढंग से प्रयोग करें। उदाहरण के लिए 20 वर्ष पहले की तुलना में आज निर्वाचन आयोग अधिक स्वतन्त्र तथा प्रभावी है। ऐसा इसलिए नहीं हुआ है कि निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ या उसकी संवैधानिक सुरक्षा बढ़ा दी गई है बल्कि निर्वाचन आयोग ने केवल उन शक्तियों का और प्रभावशाली ढंग से प्रयोग करना शुरू कर दिया है।
जो उसे संविधान में पहले से ही प्राप्त थीं। दूसरे, चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोकने के लिए कानून में परिवर्तन, निर्वाचन आयोग के और प्रभावशाली ढंग से अपनी शक्तियों के प्रयोग करने के साथ-साथ जनता को स्वयं भी और अधिक सतर्क रहना होगा तथा राजनीतिक कार्यों में और अधिक सक्रियता से भाग लेना आवश्यक है। तीसरे, चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोकने के लिए यह भी आवश्यक है कि ऐसी राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक संगठनों का विकास किया जाये जो स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कराने के लिए पहरेदारी करें।
इससे स्पष्ट होता है कि चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोकने के लिए चौतरफा प्रयास किये जाने आवश्यक हैं। प्रथम कानून में आवश्यक परिवर्तन किया जाये; दूसरे, संवैधानिक संस्थाएँ और अधिक प्रभावशाली ढंग से अपनी शक्तियों का प्रयोग करें; तीसरे, जनता स्वयं अधिक सतर्क और सक्रिय हो और चौथे, इस हेतु अन्य राजनीतिक संस्थाओं व राजनीतिक संगठनों का विकास किया जाये। अकेले कानून में परिवर्तन करने से चुनावों में धन और बल के प्रयोग को नहीं रोका जा सकता है।
Jharkhand Board Class 11 Political Science चुनाव और प्रतिनिधित्व Textbook Questions and Answers
1. निम्नलिखित में कौन प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के सबसे नजदीक बैठता है?
(क) परिवार की बैठक में होने वाली चर्चा।
(ख) कक्षा – संचालक ( क्लास – मॉनीटर) का चुनाव।
(ग) किसी राजनीतिक दल द्वारा अपने उम्मीदवार का चयन।
(घ) मीडिया द्वारा करवाये गये जनमत-संग्रह।
उत्तर:
(घ) मीडिया द्वारा करवाये गये जनमत-संग्रह
2. इनमें से कौनसा कार्य चुनाव आयोग नहीं करता है?
(क) मतदाता सूची तैयार करना
(ग) मतदान केन्द्रों की स्थापना
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण।
उत्तर;
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण
(ख) उम्मीदवारों का नामांकन
(घ) आचार-संहिता लागू करना
3. निम्नलिखित में कौनसी बात राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों के चुनाव की प्रणाली में समान है?
(क) 18 वर्ष से ज्यादा की उम्र का हर नागरिक मतदान करने के योग्य है।
(ख) विभिन्न प्रत्याशियों के बारे में मतदाता अपनी पसन्द को वरीयता क्रम में रख सकता है।
(ग) प्रत्येक मत का समान मूल्य होता है।
(घ) विजयी उम्मीदवार को आधे से अधिक मत प्राप्त होने चाहिए । उत्तर-(ग) प्रत्येक मत का समान मूल्य होता है।
(नोट : राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव राज्य विधानसभा के सदस्य करते हैं जहाँ प्रत्येक विधायक के मत का मूल्य एक होता है। इसी प्रकार लोकसभा के सदस्यों का चुनाव वयस्क नागरिक करते हैं। इसमें एक मतदाता के मत का मूल्य एक ही होता है।)
4. फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में वही प्रत्याशी विजेता घोषित किया जाता है जो।
(क) डाक से आने वाले मतों में सर्वाधिक संख्या में मत अर्जित करता है।
(ख) देश में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले दल का सदस्य हो।
(ग) चुनाव क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।
(घ) 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करके प्रथम स्थान पर आता है।
उत्तर:
(ग) चुनाव क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।
प्रश्न 5.
पृथक् निर्वाचन मण्डल और आरक्षित चुनाव क्षेत्र के बीच क्या अन्तर है? संविधान निर्माताओं ने पृथक् निर्वाचन मण्डल को क्यों स्वीकार नहीं किया?
उत्तर:
पृथक् निर्वाचन मण्डल और आरक्षित चुनाव क्षेत्र के बीच अन्तर: आरक्षित चुनाव क्षेत्र व्यवस्था से यह आशय है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में सभी वर्गों के मतदाता वोट डालेंगे लेकिन प्रत्याशी उसी समुदाय या सामाजिक वर्ग का होगा जिसके लिए यह सीट आरक्षित है। पृथक् निर्वाचन मण्डल का आशय यह है कि किसी समुदाय के प्रतिनिधि के चुनाव में केवल उसी समुदाय के मतदाता ही मत डालेंगे। पृथक् निर्वाचन मण्डल व्यवस्था को नहीं अपनाने के कारण – संविधान निर्माताओं ने उपर्युक्त दोनों व्यवस्थाओं में से पृथक् निर्वाचन मण्डल व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इसके स्वीकार नहीं किये जाने के निम्नलिखित कारण बताये
- पृथक् निर्वाचन मण्डल व्यवस्था के अपनाने से समाज में एकता नहीं हो पायेगी पृथक् निर्वाचन मण्डल की व्यवस्था भारत के लिए अभिशाप रही। भारत का विभाजन कराने में इस व्यवस्था का भी सहयोग रहा है।
- पृथक् निर्वाचन मण्डल में प्रत्याशी केवल अपने समुदाय या वर्ग का हित ही सोच पाता है और एकीकृत समाज के भावों की उपेक्षा करने लगता है, जबकि आरक्षित चुनाव क्षेत्र व्यवस्था में विजयी प्रत्याशी अपने क्षेत्र के अन्तर्गत समाज के सभी वर्गों के हित की बात सोचने को बाध्य रहता है। यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने पृथक् निर्वाचन मण्डल पद्धति को स्वीकार नहीं किया।
प्रश्न 6.
निम्नलिखित में कौनसा कथन गलत है? इसकी पहचान करें और किसी एक शब्द अथवा पद को बदल कर, जोड़कर अथवा नये क्रम में सजाकर इसे सही करें।
(क) एक फर्स्ट- पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली ( जो सबसे आगे वही जीते प्रणाली) का पालन भारत के हर चुनाव में होता है।
(ख) चुनाव आयोग पंचायत और नगरपालिका के चुनावों का पर्यवेक्षण नहीं करता।
(ग) भारत का राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त को नहीं हटा सकता।
(घ) चुनाव आयोग में एक से ज्यादा चुनाव आयुक्त की नियुक्ति अनिवार्य है।
उत्तर:
(क) ‘एक फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली (जो सबसे आगे, वही जीते प्रणाली) का पालन भारत के हर चुनाव में होता है।’ यह कथन गलत है। इसमें एक वाक्यांश जोड़कर पुनः सही रूप में इस प्रकार लिखा गया है।
‘भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा और विधान परिषदों के सदस्यों के चुनावों को छोड़कर फर्स्ट- पास्ट- द-पोस्ट प्रणाली का पालन भारत के शेष सभी चुनावों में होता है।’
(ख) सही कथन इस प्रकार है। ‘चुनाव आयोग स्थानीय निकायों के चुनावों का पर्यवेक्षण नहीं करता।
(ग) सही कथन इस प्रकार है। भारत का राष्ट्रपति निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से हटा सकता है।
(घ) सही कथन इस प्रकार है। निर्वाचन आयोग में एक से अधिक निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति विधिक आदेश सूचक है।
प्रश्न 7.
भारत की चुनाव प्रणाली का लक्ष्य समाज के कमजोर तबके की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना है। लेकिन अभी तक हमारी विधायिका में महिला सदस्यों की संख्या 12 प्रतिशत तक पहुँची है। इस स्थिति में सुधार के लिए आप क्या उपाय सुझायेंगे?
उत्तर:
भारत की चुनाव प्रणाली का लक्ष्य समाज के कमजोर तबके की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना है। इस सन्दर्भ में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों तथा आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। लेकिन अभी तक हमारी विधायिका में महिला सदस्यों की संख्या 12 प्रतिशत तक ही पहुँची है। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिला सदस्यों की नुमाइंदगी बढ़ाने की बात लगभग सभी दल करते हैं। लेकिन जब-जब इस प्रकार का विधेयक संसद में प्रस्तुत किया जाता है तो उसको सामान्यतः प्रस्तुत करने ही नहीं दिया जाता। विधायिका में महिला सदस्यों की स्थिति में सुधार के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए
- लोकसभा तथा विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
- देश में महिलाओं के लिए उचित शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए ताकि शिक्षा प्राप्त कर उनमें जागरूकता आए और वह अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर स्वयं आगे बढ़कर चुनाव लड़े और विजयी होकर राजनीति में भाग ले।
प्रश्न 8.
एक नये देश के संविधान के बारे में आयोजित किसी संगोष्ठी में वक्ताओं ने निम्नलिखित आशाएँ जतायीं। प्रत्येक कथन के बारे में बतायें कि उनके लिए फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट ( सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली) उचित होगी या समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली प्रणाली?
(क) लोगों को इस बात की साफ-साफ जानकारी होनी चाहिए कि उनका प्रतिनिधि कौन है ताकि वे उसे निजी तौर पर जिम्मेदार ठहरा सकें।
(ख) हमारे देश में भाषायी रूप से अल्पसंख्यकों के छोटे-छोटे समुदाय हैं और देश भर में फैले हैं, हमें इनकी ठीक-ठीक नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना चाहिए।
(ग) विभिन्न दलों के बीच सीट और वोट को लेकर कोई विसंगति नहीं रखनी चाहिए।
(घ) लोग किसी अच्छे प्रत्याशी को चुनने में समर्थ होने चाहिए भले ही वे उसके राजनीतिक दल को पसन्द न करते हों।
उत्तर:
(क) फर्स्ट-पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली (सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली)
(ख) समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली
(ग) समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (घ) फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली।
प्रश्न 9.
एक भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने एक राजनीतिक दल का सदस्य बनकर चुनाव लड़ा। इस मसले पर कई विचार सामने आये। एक विचार यह था कि भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एक स्वतन्त्र नागरिक है। उसे किसी राजनीतिक दल में होने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। दूसरे विचार के अनुसार, ऐसे विकल्प की सम्भावना कायम रखने से चुनाव आयोग की निष्पक्षता प्रभावित होगी। इस कारण, भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। आप इसमें किस पक्ष से सहमत हैं और क्यों?
उत्तर:
मैं इस विचार से सहमत हूँ कि भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र नागरिक है। उसे किसी राजनीतिक दल में होने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। इसका कारण यह है कि चुनाव में उम्मीदवारों को चुनने की शक्ति मतदाताओं के पास होती है, न कि राजनीतिक दलों के पास। भूतपूर्व चुनाव आयुक्त चुनाव में अपने पद का प्रयोग नहीं कर सकता क्योंकि मतदाताओं की संख्या बहुत अधिक होती है और उनके साथ उसका किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं होता है अत: वह चुनाव की निष्पक्षता को प्रभावित नहीं कर सकता।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर वकालत करने का प्रतिबंध इसलिए होता है क्योंकि न्यायाधीश होने के समय अन्य न्यायाधीशों पर उसका नियंत्रण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से होता है। वह अपने प्रभाव से उन्हें प्रभावित कर सकता है। लेकिन मुख्य निर्वाचन आयुक्त इस रूप में मतदाताओं को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होता है। वह चुनाव लड़ते समय जनता की अदालत में खड़ा होता है और प्रजातंत्र में जनता का फैसला निर्णायक होता है। अतः मेरी दृष्टि से भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को एक स्वतंत्र नागरिक के रूप में चुनाव लड़ने का अधिकार है।
प्रश्न 10.
भारत का लोकतन्त्र अब अनगढ़ ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को छोड़कर समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? इस कथन के पक्ष अथवा विपक्ष में – तर्क दें।
संजीव पास बुक्स उत्तर: मैं इस कथन से सहमत हूँ कि भारत का लोकतन्त्र अब अनगढ़ ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को छोड़कर समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है। इस कथन के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं।
1. समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली से दलों के मत प्रतिशत और प्राप्त सीटों में एक समानता आयेगी। फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में जो राजनैतिक दल जितने प्रतिशत वोट प्राप्त करता है, उसके अनुपात में उसे सीटें प्राप्त नहीं होती हैं। या तो उसकी सीटों की संख्या प्राप्त मत प्रतिशत से बहुत अधिक होती है या बहुत कम। उदाहरण के लिए 1984 में आम चुनाव के समय लोकसभा में कांग्रेस ने 48% मत प्राप्त करके जहाँ 415 सीटें प्राप्त कीं, वहीं भाजपा को 7.4% मत प्राप्त करने पर केवल दो सीटें मिलीं। समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली को अपनाने से यह विसंगति समाप्त हो जायेगी। इससे लोकतन्त्र सुदृढ़ होगा।
2. समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनाने से सही अर्थों में बहुमत प्राप्त प्रत्याशी ही विजयी होगा। ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली में एक निर्वाचन क्षेत्र में कई उम्मीदवार होने के कारण 30 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाला प्रत्याशी ही विजयी हो जाता है, जबकि हारने वाले उम्मीदवारों को 70 प्रतिशत मत मिले। इस प्रकार इस प्रणाली में अल्पमत वाला उम्मीदवार भी जनता का प्रतिनिधित्व करता है। अतः वर्तमान में लोकतन्त्र का सही प्रतिनिधित्व करने के लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए।
3. स्वतन्त्रता के समय भारतीय मतदाता को प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र की परिपक्व समझ नहीं थी। इसलिए ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को उसकी सरलता को देखते हुए अपनाया गया था। लेकिन भारतीय लोकतन्त्र अब परिपक्व हो गया है। यहाँ का आम मतदाता लोकतान्त्रिक प्रणाली को अपना चुका है। ऐसी स्थिति में अब वह समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का भी सही उपयोग कर सकेगा क्योंकि अब यहाँ दलीय व्यवस्था बहुदलीय व द्विदलीय रूप में विकसित हो चुकी है। लोगों का दलों के प्रति रुझान स्पष्ट हो रहा है और वे दलीय आधार पर प्रत्याशियों को मत दे रहे हैं।
4. स्वतन्त्रता के समय ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को अपनाने का एक अन्य कारण इस बात की सम्भावना थी कि समानुपातिक प्रतिनिधिक प्रणाली में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सकेगा। लेकिन 1986 के बाद से भारत में बहुदलीय गठबन्धन की कार्यप्रणाली प्रचलन में आ गई है और अब यहाँ गठबन्धन सरकारें बनाना अनिवार्य हो गया है। तो ऐसी स्थिति में दलों को प्राप्त मत प्रतिशत और सीटों के बीच संतुलन बिठाकर ही लोकतंत्र के सही रूप में सार्थक करना चाहिए क्योंकि विभिन्न दल जब अब गठबन्धन कर सरकारें बना रहे हैं तो उस स्थिति में भी बना लेंगे।
5. अन्त में वर्तमान लोकतान्त्रिक युग में जनता का सही प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के लिए भारत में समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए। चूँकि भारत विविधताओं का देश है जिसमें प्रत्येक वर्ग, विचारधाराओं का उचित प्रतिनिधित्व के लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व अधिक सार्थक है।
चुनाव और प्रतिनिधित्व JAC Class 11 Political Science Notes
→ लोकतंत्र और चुनाव:
(अ) लोकतन्त्र – लोकतन्त्र के दो प्रकार हैं।
- प्रत्यक्ष लोकतन्त्र और
- अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र।
→ प्रत्यक्ष लोकतन्त्र: प्रत्यक्ष लोकतन्त्र में नागरिक रोजमर्रा के फैसलों और सरकार चलाने में सीधे भाग लेते हैं। प्राचीन यूनान के नगर राज्य प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के उदाहरण माने जाते हैं। आधुनिक युग में स्थानीय स्वशासन की ‘ग्राम सभाएँ’ इसकी उदाहरण हैं।
→ अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र: लेकिन जब लाखों-लाख लोगों को निर्णय लेना हो, तो इस प्रकार के प्रत्यक्ष लोकतन्त्र को व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। ऐसी व्यवस्था में नागरिक अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं जो देश के शासन और प्रशासन को चलाने में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। ऐसे शासन को अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र या प्रतिनिध्यात्मक शासन कहा जाता है।
→ चुनाव या निर्वाचन: अपने प्रतिनिधियों को चुनने की विधि को चुनाव या निर्वाचन कहते हैं निर्वाचन का महत्त्व – सरकार के संचालन हेतु लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं। इसलिए चुनाव महत्त्वपूर्ण हो जाता है। आज चुनाव पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के जाने-पहचाने प्रतीक हो गये हैं। लोकतन्त्र और चुनाव एक-दूसरे के पूरक हैं। लेकिन सभी चुनाव लोकतांत्रिक नहीं होते। बहुत सारे गैर लोकतांत्रिक देशों में भी चुनाव होते हैं। लोकतांत्रिक संवैधानिक नियमों के अनुसार चुनाव कराने की व्यवस्था लोकतांत्रिक चुनाव को एक गैर लोकतांत्रिक चुनाव से अलग करती है।
→ संविधान और निर्वाचन: एक लोकतान्त्रिक देश का संविधान चुनावों के लिए कुछ मूलभूत नियम बनाता है और इस सम्बन्ध में विस्तृत नियम बनाने का काम विधायिका पर छोड़ देता है। संविधान का लक्ष्य होता है।
- एक स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव जिसे लोकतान्त्रिक चुनाव कहा जा सके तथा।
- न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व।
→ भारत में चुनाव व्यवस्था: लोकतान्त्रिक चुनाव में जनता वोट देती है और उसकी इच्छा ही यह तय करती है कि कौन चुनाव जीतेगा लेकिन लोगों के द्वारा अपनी रुचि को व्यक्त करने के अनेक तरीके हो सकते हैं और उनकी पसन्द की गणना करने की भी बहुत सारी विधियाँ हो सकती हैं। इस प्रकार प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र में निर्वाचन की अनेक प्रणालियाँ होती हैं। भारत के संविधान में दो प्रकार की निर्वाचन प्रणालियों को अपनाया गया है।
→ सर्वाधिक मत से जीतने वाली प्रणाली ( जो सबसे आगे वही जीते ):
इस व्यवस्था में जिस प्रत्याशी को अन्य सभी प्रत्याशियों से अधिक वोट मिल जाते हैं, उसे ही निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। विजयी प्रत्याशी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि कुल मतों का बहुमत मिले। इस विधि को ‘जो सबसे आगे वही जीते प्रणाली’ ( फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट सिस्टम) कहते हैं। भारत में लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के चुनाव आदि के लिए संविधान में इसी विधि को स्वीकार किया गया है। विशेषताएँ – इस प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं।
- इसके अन्तर्गत पूरे देश को छोटी-छोटी भौगोलिक इकाइयों में बाँट दिया जाता है जिसे निर्वाचन क्षेत्र या जिला कहते हैं।
- हर निर्वाचन क्षेत्र से केवल एक प्रतिनिधि चुना जाता है।
- मतदाता प्रत्याशी को वोट देता है।
- पार्टी को प्राप्त वोटों के अनुपात से अधिक या कम सीटें विधायिका में मिल सकती हैं।
- विजयी उम्मीदवार को जरूरी नहीं कि वोटों का बहुमत (50% + 1 ) मिले।
- यूनाइटेड किंगडम और भारत में यह प्रणाली अपनायी गई है।
→ समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली: दलों को प्राप्त मतों के अनुपात में विधायिका में प्रत्येक दल को सीटें प्रदान करने की व्यवस्था को समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली कहा जाता है। विशेषताएँ समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं।
- समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में किसी बड़े भौगोलिक क्षेत्र को एक निर्वाचन क्षेत्र मान लिया जाता है। पूरा का पूरा देश भी एक निर्वाचन क्षेत्र गिना जा सकता है।
- इसमें एक निर्वाचन क्षेत्र से कई प्रतिनिधि चुने जा सकते हैं।
- इसमें मतदाता प्रत्याशी को नहीं बल्कि पार्टी को वोट देता है।
- हर पार्टी को प्राप्त मत के अनुपात में विधायिका में सीटें हासिल होती हैं।
- विजयी उम्मीदवार को वोटों का बहुमत हासिल होता है।
- इजरायल और नीदरलैंड में यह व्यवस्था अपनायी गयी है। भारत में केवल अप्रत्यक्ष चुनावों के लिए इसे सीमित रूप में अपनाया गया है।
→ समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के रूप: समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तीन रूपों का उल्लेख किया जा सकता है।
- इजरायल और नीदरलैंड में प्रचलित रूप: इजरायल और नीदरलैंड में पूरे देश को एक निर्वाचन क्षेत्र माना जाता है और प्रत्येक पार्टी को राष्ट्रीय चुनावों में प्राप्त वाटों के अनुपात में सीटें दे दी जाती हैं।
- अर्जेंटीना और पुर्तगाल में प्रचलित रूप: अर्जेन्टीना और पुर्तगाल में पूरे देश को बहु सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक पार्टी प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए अपने प्रत्याशियों की एक सूची जारी करती है जिसमें उतने ही नाम होते हैं जितने प्रत्याशियों को उस निर्वाचन क्षेत्र से चुना जाना होता है। एक पार्टी को किसी निर्वाचन क्षेत्र में जितने मत प्राप्त होते हैं, उसी आधार पर उसे उस निर्वाचन क्षेत्र में सीटें दे दी जाती हैं। इस प्रकार उक्त दोनों प्रणालियों में किसी निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनिधि वास्तव में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि होते हैं। मतदाता प्रत्याशी को वोट न देकर राजनीतिक दलों को वोट देते हैं।
→ भारत में प्रचलित रूप: भारत में समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को केवल अप्रत्यक्ष चुनावों के लिए ही सीमित रूप में अपनाया गया है। भारत का संविधान राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा और विधान परिषदों के चुनावों के
लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का एक तीसरा और जटिल स्वरूप प्रस्तावित करता है। इसे ‘एकल संक्रमणीय मत प्रणाली’ कहते हैं। भारत में सर्वाधिक वोट प्रणाली क्यों स्वीकार की गई? भारत में सर्वाधिक वोट प्रणाली के स्वीकार करने के प्रमुख कारण हैं।
- सर्वाधिक वोट प्रणाली एक सरल तथा लोकप्रिय प्रणाली है।
- इसमें चुनाव के समय मतदाताओं के पास स्पष्ट विकल्प होते हैं। यह प्रणाली मतदाताओं को केवल दलों में ही नहीं वरन् उम्मीदवारों में भी चयन का स्पष्ट विकल्प देती है।
- इस प्रणाली में किसी निर्वाचन क्षेत्र के लोग यह जानते हैं कि उनका प्रतिनिधि कौन है और वे उसे उत्तरदायी ठहरा सकते हैं।
- यह प्रणाली एक स्थायी सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त कर संसदीय सरकार को सुचारु और प्रभावी ढंग से काम करने का अवसर देती है।
- यह प्रणाली एक निर्वाचन क्षेत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों को एकजुट होकर चुनाव जीतने में मदद करती है।
→ निर्वाचन क्षेत्रों का आरक्षण
भारत के संविधान निर्माताओं ने दलित उत्पीड़ित सामाजिक समूहों के लिए उचित और न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने हेतु निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण की व्यवस्था को अपनाया है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत, किसी निर्वाचन क्षेत्र में सभी मतदाता वोट तो डालेंगे लेकिन प्रत्याशी केवल उसी समुदाय या सामाजिक वर्ग का होगा जिसके लिए वह सीट आरक्षित है। भारत का संविधान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं में आरक्षण की व्यवस्था करता है। प्रारम्भ में यह व्यवस्था 10 वर्ष के लिए की गई थी, पर अनेक संवैधानिक संशोधनों द्वारा इसे बढ़ाकर 2020 तक कर दिया गया है। आरक्षण की अवधि खत्म होने पर संसद इसे और आगे बढ़ाने का निर्णय ले सकती है।
संविधान अन्य उपेक्षित या कमजोर वर्गों के लिए इस प्रकार के आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं करता। स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित कर दी गई हैं। परिसीमन आयोग भारत में परिसीमन आयोग एक स्वतन्त्र संस्था है जिसका गठन राष्ट्रपति करते हैं। इसका गठन पूरे देश में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा खींचने तथा निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण हेतु किया जाता है। यह चुनाव आयोग के साथ मिलकर काम करता है।
→ स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव: किसी भी चुनाव प्रणाली की कसौटी यह है कि वह एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया सुनिश्चित कर सके, जिसमें मतदाताओं की आकांक्षाएँ चुनाव परिणामों में न्यायपूर्ण ढंग से व्यक्त हो सकें।
(स) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार: लोकतान्त्रिक चुनावों में देश के सभी वयस्क नागरिकों को चुनाव में मत देने के अधिकार को ही सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहा जाता है। भारतीय संविधान में प्रत्येक वयस्क भारतीय नागरिक को वोट देने का अधिकार प्रदान किया गया है।
(द) चुनाव लड़ने का अधिकार: भारत में सभी भारतीय नागरिकों को चुनाव में खड़े होने और जनता का प्रतिनिधि होने का अधिकार है। लेकिन विभिन्न पदों पर चुनाव लड़ने की न्यूनतम आयु अर्हता भिन्न-भिन्न है। जैसे- लोकसभा और विधानसभा प्रत्याशी के लिए कम-से-कम 25 वर्ष की आयु आवश्यक है। राज्यसभा के लिए न्यूनतम आयु 30 वर्ष है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अर्हताएँ भी हैं। लेकिन चुनाव लड़ने के लिए आय, शिक्षा, वर्ग या लिंग के आधार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
(य) स्वतन्त्र निर्वाचन आयोग:
संगठन: भारत में एक स्वतन्त्र निर्वाचन आयोग का प्रावधान किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा कुछ अन्य चुनाव आयुक्त होते हैं। वर्तमान में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा दो अन्य चुनाव आयुक्त हैं। भारत में निर्वाचन आयोग की सहायता करने के लिए प्रत्येक राज्य में एक मुख्य निर्वाचन अधिकारी होता है। निर्वाचन आयोग स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए जिम्मेदार नहीं होता।
→ कार्यकाल: संविधान मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के कार्यकाल की सुरक्षा देता है। उन्हें 6 वर्षों के लिए अथवा 65 वर्ष की आयु तक (जो पहले खत्म हो) के लिए नियुक्त किया जाता है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त को कार्यकाल समाप्त होने के पूर्व राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है; पर इसके लिए संसद के दोनों सदनों को विशेष बहुमत (2/3 बहुमत से पारित कर इस आशय का प्रतिवेदन राष्ट्रपति को देना होगा। निर्वाचन आयुक्तों को भारत का राष्ट्रपति हटा सकता है।
→ कार्य मतदाता सूची तैयार करना: चुनाव के संचालन का अधीक्षण, निर्देशन और नियन्त्रण करना; चुनाव कार्यक्रम तय करना, राजनीतिक दलों व उम्मीदवारों के लिए एक आदर्श आचार संहिता लागू करना, आवश्यकता होने पर किसी क्षेत्र में दोबारा मतगणना की आज्ञा देना, राजनीतिक दलों को मान्यता देना तथा उन्हें चुनाव चिह्न आवण्टित करना आदि प्रमुख कार्य चुनाव आयोग के हैं। पिछले 65 वर्षों में भारत में लोकसभा के 16 चुनाव हो चुके हैं।
→ चुनाव सुधार:
वयस्क मताधिकार, चुनाव लड़ने की स्वतन्त्रता और एक स्वतन्त्र निर्वाचन आयोग की स्थापना के द्वारा भारत में चुनावों को स्वतन्त्र और निष्पक्ष बनाने की कोशिश की गई है। लेकिन पिछले 65 वर्षों के अनुभव के बाद निर्वाचन आयोग, विभिन्न राजनीतिक दलों, स्वतन्त्र समूहों और अनेक विद्वानों द्वारा चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए अनेक सुझाव दिये गए हैं। चुनाव सम्बन्धी प्रावधानों को संशोधन करने से सम्बन्धित कुछ सुझाव ये है।
- संसद और विधानसभाओं में 1/3 सीटों पर महिलाओं को चुनने हेतु विशेष प्रावधान बनाए जायें।
- चुनावी राजनीति में धन के प्रभाव को नियन्त्रित किया जाये।
- फौजदारी मुकदमे वाले उम्मीदवार को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाये।
- चुनाव प्रचार में जाति एवं धर्म के आधार पर की जाने वाली अपीलों को प्रतिबन्धित किया जाये।
- राजनीतिक दलों की कार्यविधि को और अधिक पारदर्शी और लोकतान्त्रिक बनाने के लिए कानून बनाया जाये।
→ चुनाव सुधारों के अतिरिक्त चुनावों को स्वतन्त्र व निष्पक्ष बनाने के दो अन्य तरीके ये हैं।
- जनता स्वयं ही और अधिक सतर्क रहे तथा राजनीतिक कार्यों में और सक्रियता से भाग ले।
- इसके लिए अनेक राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक संगठनों का विकास किया जाये।
→ (ल) भारत में चुनाव व्यवस्था की सफलता के मापदण्ड।
- स्वतन्त्रतापूर्वक प्रतिनिधियों का चुनाव तथा शान्तिपूर्ण ढंग से सरकारों का बदलना।
- चुनाव प्रक्रिया में बढ़ती जनता की रुचि तथा उम्मीदवारों और दलों की बढ़ती संख्या।
- सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को साथ लेकर चलना।
- अधिकतर भागों में चुनाव परिणाम चुनावी अनियमितताओं से अप्रभावित।
- चुनावों का लोकतान्त्रिक जीवन का अभिन्न अंग बन जाना।
भारत में मतदाता के अन्दर आत्मविश्वास बढ़ा है तथा मतदाताओं की नजरों में निर्वाचन आयोग का कद बढ़ा हैं।