Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका
Jharkhand Board Class 11 Political Science विधायिका InText Questions and Answers
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प्रश्न 1.
इन समाचारों पर विचार करें और सोचें कि यदि विधायिकाएँ न होतीं, तो क्या होता ? प्रत्येक रिपोर्ट को पढ़ने के बाद बताएँ कि कैसे कार्यपालिका को नियंत्रित करने में विधायिका सफल या असफल रही (क) 28 फरवरी, 2002; केन्द्रीय वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने केन्द्रीय बजट प्रस्तावों में 50 किलोग्राम यूरिया खाद की बोरी की कीमत 12 रुपये बढ़ाने तथा दो अन्य खादों के दाम में भी कुछ वृद्धि करने के प्रस्ताव की ‘घोषणा की। इससे खाद के दामों में 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यूरिया खाद के वर्तमान मूल्य 4830 रु. प्रति टन पर 80 प्रतिशत सब्सिडी है। 11 मार्च 2002; विपक्ष के जबर्दस्त विरोध के कारण वित्तमंत्री को खाद के दामों में वृद्धि के प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा।
उत्तर:
कार्यपालिका को नियंत्रित करने में विधायिका निम्न प्रकार सफल रही। तथा
(ख) 4 जून, 1998 को लोकसभा में यूरिया खाद और पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि को लेकर विवादास्पद स्थिति बन गई। पूरे विपक्ष ने सदन से बहिर्गमन किया। इस मुद्दे पर सदन में दो दिनों तक गर्मा-गर्मी रही। वित्त मंत्री ने अपने बजट प्रस्तावों में यूरिया खाद के दामों में मात्र 50 पैसे प्रति किलोग्राम की वृद्धि का प्रस्ताव किया था जिससे उस पर सब्सिडी कम की जा सके। इस विरोध के परिणामस्वरूप, वित्त मंत्री यशवन्त सिन्हा को मूल्य वृद्धि के प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा।
उत्तर:
में दिये गये समाचार बजट प्रस्तावों से संबंधित हैं। यह कार्यपालिका पर विधायका के वित्तीय नियंत्रण को स्पष्ट करता है। सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था बजट के द्वारा की जाती है। संसदीय स्वीकृति के लिए बजट बनाना और उसे पेश करना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है। इस जिम्मेदारी के कारण विधायिका को कार्यपालिका के खजाने पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जाता है।
लोकहित को देखते हुए सरकार के किसी बजट प्रस्ताव को स्वीकृत करने से विधायिका मना कर सकती है। उपर्युक्त दोनों समाचारों में विधायिका ने बजट प्रस्तावों में यूरिया खाद और पेट्रोलियम के बढ़ाये गये दामों का विरोध किया और इस विरोध के स्वरूप अन्ततः वित्तमंत्री को इन प्रस्तावों को वापस लेना पड़ा। इससे स्पष्ट होता है कि वित्तीय नियंत्रण द्वारा विधायिका सरकार की नीतियों पर भी नियंत्रण करती है।
(ग) 22 फरवरी, 1983; एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए आज लोकसभा ने सर्वसम्मति से सरकारी काम- काज को स्थगित करने तथा असम पर बहस करने को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया। गृहमंत्री पी. सी. सेठी ने बयान दिया ” असम में रहने वाले सभी समुदायों और समूहों के बीच सद्भाव कायम करने के लिए मैं अलग-अलग विचार और नीतियों से प्रतिबद्धता रखने वाले आप सभी सदस्यों का सहयोग चाहता हूँ। यह समय विवाद का नहीं वरन् घाव पर मरहम लगाने का है।”
उत्तर:
स्थगन प्रस्ताव द्वारा नियंत्रण: 22 फरवरी, 1983 के (ग) के अन्तर्गत दिये गये समाचार में स्थगन प्रस्ताव के माध्यम से विधायिका द्वारा कार्यपालिका पर सफल नियंत्रण को दर्शाया गया है। लोकहित के मामले में विधायिका स्थगन प्रस्ताव रखकर के विधायिका में चल रहे किसी कार्य को रोककर उस ‘लोकहित’ के मुद्दे पर विचार करने तथा उस पर ध्यान देने के लिए कार्यपालिका को बाध्य करने का प्रयास करती है।
22 फरवरी, 1983 को जब लोकसभा ने गृहमंत्री के समक्ष स्थगन प्रस्ताव के माध्यम से असम की समस्या पर विचार करने के लिए प्राथमिकता देने का प्रश्न उठाया तो गृहमंत्री ने विधायिका के दबाव को समझते हुए सरकारी कामकाज स्थगित करने और असम पर बहस करने को प्राथमिकता देने की बात को स्वीकार कर लिया । यहाँ विधायिका स्थगन प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण करने में सफल रही है।
(घ) 3 मार्च, 1985: लोकसभा में कांग्रेस के सदस्यों ने आन्ध्रप्रदेश में हरिजनों (अनुसूचित जाति) के उत्पीड़न के प्रति विरोध जताया।
उत्तर:
ध्यान आकर्षित करना: (घ) में 3 मार्च, 1985 को लोकसभा में कांग्रेस के सदस्यों ने आंध्रप्रदेश में हरिजनों (अनुसूचित जाति के लोगों) के उत्पीड़न के प्रति विरोध जताकर सरकार का ध्यान इस मुद्दे की तरफ आकर्षित किया है। इस प्रकार विधायिका ने विभिन्न रूपों में कार्यपालिका को नियंत्रित किया है नकर लिया। यहाँ विधायिका स्थगन प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण करने में सफल रही है।
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प्रश्न 2.
क्या आप मानते हैं कि राज्यसभा की संरचना ने भारत में राज्यों की स्थिति को संरक्षित किया है?
उत्तर:
यद्यपि भारत में राज्यसभा की संरचना में देश के सभी राज्यों को अमेरिका की तरह समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है, बल्कि विभिन्न राज्यों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया गया है। इसके बावजूद राज्यसभा की संरचना ने भारत में राज्यों की स्थिति को संरक्षित किया है। क्योंकि समान प्रतिनिधित्व दिये जाने पर उत्तरप्रदेश और सिक्किम को राज्यसभा में बराबर प्रतिनिधित्व मिलता। इससे छोटे-बड़े राज्यों के साथ न्याय नहीं होता । इस विसंगति से बचने के लिए ही यहाँ ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों को अधिक और कम जनसंख्या वाले राज्यों को कम प्रतिनिधित्व दिया गया है।
प्रश्न 3.
क्या राज्यसभा के चुनाव अप्रत्यक्ष न होकर प्रत्यक्ष होने चाहिए? इससे क्या फायदा या नुकसान होगा?
उत्तर:
भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था स्थापित की गई है। संघात्मक शासन व्यवस्था में विधायिका के दोनों सदनों में प्रथम सदन सीधे जनता का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा सदन राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार भारत में राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है। इसका उद्देश्य राज्य के हितों का संरक्षण करना है। इसलिए राज्य के हितों को प्रभावित करने वाला प्रत्येक मुद्दा इसकी सहमति और स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए राज्य सभा के चुनाव अप्रत्यक्ष रखे गये हैं। राज्यसभा के प्रतिनिधि सीधे जनता द्वारा निर्वाचित नहीं होते बल्कि प्रत्येक राज्य की विधानसभा के सदस्य उनका निर्वाचन करते हैं।
- यदि राज्य सभा के चुनाव अप्रत्यक्ष न होकर प्रत्यक्ष रूप से होते तो उसके सदस्य अपने आपको राज्य का प्रतिनिधि न समझकर जनता का प्रतिनिधि समझते। ऐसी स्थिति में वे राज्य के हितों के संरक्षण के उद्देश्य से भटक जाते जो कि संघात्मक शासन की महती आवश्यकता है।
- यदि राज्य सभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते तो लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के साथ राज्य सभा के निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन की समस्या आती और दोनों प्रकार के प्रतिनिधि अपने आपको जनप्रतिनिधि समझते। ऐसी स्थिति में दोनों में शक्ति संतुलन स्थापित करने की समस्या पैदा हो जाती।
- भारत में संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ संसदात्मक शासन व्यवस्था अपनायी गयी है। संसदात्मक शासन व्यवस्था निम्न सदन जनता का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा सदन राज्यों का तथा वर्गों का। इस दृष्टि से मन्त्रिपरिषद निम्न सदन के प्रति ही उत्तरदायी होती है। यदि राज्य सभा को जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित किया जाता तो उसके सदस्य भी जनता का प्रतिनिधित्व करते तथा मंत्रिपरिषद को उसके प्रति भी उत्तरदायी ठहराना पड़ता। इससे विसंगति पैदा हो जाती।
प्रश्न 4.
1971 की जनगणना से लोकसभा में सीटों की संख्या नहीं बढ़ी है। क्या आप मानते हैं कि इसे बढ़ाना चाहिए? इसके लिए क्या आधार होना चाहिए?
उत्तर;
वर्तमान में लोकसभा के 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं। यह संख्या 1971 की जनगणना से चली आ रही है। हमारा मानना है कि लोकसभा की सीटों की संख्या पर्याप्त हैं, इसे और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए लोकसभा के चुनावों के लिए पूरे देश को लगभग समान जनसंख्या वाले 543 निर्वाचन क्षेत्रों में बांटकर प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुने जाने के वर्तमान आधार को ही जारी रखना चाहिए।
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प्रश्न 5.
सरकार से विरोध दर्ज कराने का एक आम तरीका है, सदन से वाकआउट’ करना, क्या यह काम जरूरत से ज्यादा हुआ है?
उत्तर:
‘प्रश्नकाल’ सरकार की कार्यपालिका और प्रशासकीय एजेंसियों पर निगरानी रखने का सबसे प्रभावी तरीका है। इस काल में संसद में अधिकतर प्रश्न लोकहित के विषयों, जैसे मूल्य वृद्धि, अनाज की उपलब्धता, समाज के कमजोर वर्गों के विरुद्ध अत्याचार, दंगे, कालाबाजारी आदि पर सरकार से सूचनाएँ मांगने के लिए होते हैं। इसमें सदस्यों को सरकार की आलोचना करने तथा अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं को उठाने का अवसर मिलता है। प्रश्नकाल के दौरान वाद-विवाद इतने तीखे हो जाते हैं कि अनेक सदस्यों द्वारा अपनी बात रखने के लिए प्राय: सदन से बहिर्गमन करने जैसे कदम उठाये जाते हैं। इसमें सदन का बहुत समय बर्बाद हो जाता है। लेकिन यह कदम सरकार से रियायत प्राप्त।
संजीव पास बुक्स करने के राजनीतिक तरीके हैं और इससे कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है। यह काम संसद में विपक्ष द्वारा उठाये जा रहे लोकहित के मुद्दों से जुड़ा रहा है। जैसे-जैसे देश में समस्याएँ बढ़ी हैं; सरकार जैसे-जैसे उन समस्याओं के प्रति संवेदनहीन हुई है, वैसे-वैसे विधायिका में प्रश्नकाल में ये मुद्दे पुरजोर तरीके से उठे हैं और ‘वाक आउट’ जैसे कदम भी उठे हैं। अतः इन कदमों को जरूरत से ज्यादा नहीं कहा जा सकता। बल्कि यह कहा जा सकता है कि देश में लोकहित सम्बन्धी समस्याएँ बढ़ी हैं, उनको हल करने में सरकार असफल रही है तथा संवेदनहीन हुई है। परिणामतः उसी परिणाम में कार्यपालिका को नियंत्रित करने के लिए ‘वाक आउट’ जैसे कदम बढ़े हैं।
Jharkhand Board Class 11 Political Science विधायिका Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
आलोक मानता है कि किसी देश को कारगर सरकार की जरूरत होती है जो जनता की भलाई करे अतः यदि हम सीधे-सीधे अपना प्रधानमंत्री और मंत्रीगण चुन लें और शासन का काम उन पर छोड़ दें, तो हमें विधायिका की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर;
आलोक का यह विचार त्रुटिपरक है। हम इससे सहमत नहीं हैं। क्योंकि यदि आलोक के विचार के हिसाब से मंत्रिपरिषद का गठन किया जाये और विधायिका का गठन नहीं हो, ऐसी स्थिति में कार्यपालिका ही विधायिका का कार्य करेगी। और यदि विधायिका और कार्यपालिका के कार्य एक ही संस्था को दे दिये जाएँ तो कार्यपालिका निरंकुश हो जायेगी । ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री और मंत्रीगण के कार्यों पर किसी का नियंत्रण नहीं रहेगा। इससे नागरिकों की स्वतंत्रता समाप्त हो सकती है। इसलिए कार्यपालिका को निरंकुश होने से रोकने के लिए, नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए विधायिका का होना आवश्यक है।
प्रश्न 2.
किसी कक्षा में द्वि-सदन प्रणाली के गुणों पर बहस चल रही थी। चर्चा में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आयीं। इन तर्कों को पढ़िये और इनसे अपनी सहमति – असहमति के कारण बताइये।
(क) नेहा ने कहा कि द्विसदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता।
(ख) शमा का तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए।
(ग) त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती।
उत्तर:
(क) नेहा का यह कथन कि द्विसदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता, सत्य नहीं है क्योंकि भारत जैसे विशाल देश के अन्दर जहाँ अनेक विविधताएँ हैं, 28 राज्य और 7 संघ शासित क्षेत्र हैं; वहाँ पर दूसरा सदन होना ही चाहिए जो इन विभिन्न राज्यों तथा संघ शासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व कर सके तथा प्रथम सदन द्वारा जल्दबाजी में लिए गए निर्णयों पर पुनर्विचार कर उन्हें यथोचित रूप दे सके।
(ख) शमा का यह कथन कि द्वितीय सदन में विशेषज्ञों को मनोनीत किया जाना चाहिए, उचित है। हमारे देश में राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में कला, साहित्य, विज्ञान और समाज सेवा के क्षेत्र से जुड़े 12 सदस्यों की नियुक्ति करता है। लेकिन इसके अतिरिक्त राज्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए उस क्षेत्र के निर्वाचित सदस्यों का होना भी आवश्यक है।
(ग) त्रिदेव के इस तर्क से भी कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती, हम सहमत नहीं हैं क्योंकि द्वितीय सदन संघात्मक राज्यों में इकाइयों के प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ वह पुनर्विचार का महत्वपूर्ण कार्य भी करता है। एक सदन द्वारा लिया गया प्रत्येक निर्णय दूसरे सदन में निर्णय के लिए भेजा जाता है। इससे हर मुद्दे को दो बार जांचने का मौका मिलता है। यदि एक सदन जल्दबाजी में कोई निर्णय ले लेता है तो दूसरे सदन में बहस के दौरान उस पर पुनर्विचार संभव हो पाता है।
प्रश्न 3.
लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में क्यों कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है?
उत्तर:
लोकसभा कार्यपालिका पर राज्यसभा की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली ढंग से नियंत्रण रख सकती है क्योंकि।
1. अविश्वास प्रस्ताव;
प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है, राज्यसभा के प्रति नहीं। राज्य सभा मंत्रिपरिषद से प्रश्न पूछ सकती है, लेकिन उसे हटा नहीं सकती; जबकि लोकसभा मंत्रिपरिषद पर सीधा नियंत्रण करती है। लोकसभा यदि सरकार के प्रति अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर दे, तो सरकार गिर जाती है। राज्यसभा मंत्रिपरिषद की आलोचना तो कर सकती है लेकिन उसे हटा नहीं सकती । इस दृष्टि से राज्य सभा की अपेक्षा लोकसभा कार्यपालिका को अधिक कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है।
2. बजट पर नियंत्रण:
सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था बजट के द्वारा रखी जाती है। सरकार के लिए संसाधन स्वीकृत करने से विधायिका मना कर सकती है। धन विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं और वही उसे संशोधित या अस्वीकृत कर सकती है। राज्यसभा के पास धन विधेयक को केवल 14 दिन तक ही रोके रखने का अधिकार है। यदि लोकसभा में धन विधेयक गिर जाता है तो सरकार को त्यागपत्र देना होता है। राज्यसभा के पास यह शक्ति नहीं है।
इससे स्पष्ट होता है कि राज्यसभा सरकार की आलोचना तो कर सकती है, पर उसे हटा नहीं सकती जबकि लोकसभा सरकार की आलोचना करने के साथ-साथ उसे हटा भी सकती है। अतः लोकसभा राज्यसभा की तुलना में मंत्रिपरिषद पर अधिक कारगर ढंग से नियंत्रण रख सकती है।
प्रश्न 4.
लोकसभा कार्यपालिका पर कारगर ढंग से नियंत्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है। क्या आप इससे सहमत हैं? कारण बताएँ।
उत्तर:
हाँ, हम इस बात से सहमत हैं कि लोकसभा यद्यपि कार्यपालिका पर नियंत्रण बनाए रखती है लेकिन नियंत्रण के साथ-साथ लोकसभा एक ऐसा मंच है जहाँ जनता की इच्छाओं और भावों की अभिव्यक्ति की जाती है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।
1. लोकसभा के लिए जनता सीधे सदस्यों को चुनती है। यह देश के विभिन्न क्षेत्रीय, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक समूहों के अलग-अलग विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। यह देश में वाद-विवाद का सर्वोच्च और सबसे लोकतांत्रिक तथा खुला मंच है। इसके पास कार्यपालिका का चयन करने और उसे बर्खास्त करने की शक्ति भी है विचार-विमर्श करने की उसकी शक्ति पर कोई अंकुश नहीं है। सदस्यों को किसी भी विषय पर निर्भीकता से बोलने की स्वतंत्रता है। इससे लोकसभा राष्ट्र के समक्ष आने वाले हर मुद्दे का विश्लेषण कर पाती है। यह विचार-विमर्श हमारी लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया की आत्मा है।
2. लोकसभा में विधेयक प्रस्तुत किये जाने से पहले ही इस बात पर काफी बहस होती है कि उस विधेयक की क्या जरूरत है। कोई भी राजनीतिक दल अपने चुनावी वायदों को पूरा करने या आगामी चुनावों को जीतने के इरादे से किसी विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकता है। अनेक हित-समूह, मीडिया और नागरिक संगठन भी किसी विधेयक को लाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकते हैं। दूसरे, लोकसभा में सदस्यों को कार्यपालिका द्वारा बनाई गई नीतियों और उसके क्रियान्वयन के तरीकों पर भी बहस करने का अवसर मिलता है।
प्रश्नकाल में मंत्रियों को सदस्यों के तीखे प्रश्नों का जवाब देना पड़ता है। शून्यकाल में इसके सदस्य किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठा सकते हैं। लोकहित के मामले में आधे घण्टे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव आदि का भी विधान है। प्रश्नकाल में सदस्यों को अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं को उठाने का अवसर मिलता है। प्रश्नकाल में तीखे वाद-विवाद होते हैं।
अतः स्पष्ट है कि लोकसभा जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है।
प्रश्न 5.
नीचे संसद को ज्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे?
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर संसद को दंडित कर सकें।
उत्तर:
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए – इसका अभिप्राय यह है कि संसद का कार्यकाल अधिक लम्बा रखा जाए। मैं इस प्रस्ताव से असहमत हूँ। यदि इस सुझाव को मान लिया जायेगा तो संसद अर्थात् लोकसभा की अवधि 5 वर्ष से अधिक की हो जायेगी। (चूंकि राज्यसभा एक स्थायी सदन है।) लोकसभा की लम्बी अवधि कर दी जायेगी तो लोकसभा सदस्य एक बार लम्बी अवधि के लिए चुने जाने पर जनता की आशाओं और उनके हितों का ध्यान नहीं रखेंगे।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए: मैं इस सुझाव से सहमत हूँ क्योंकि सांसद अपने कर्त्तव्यों का पालन ईमानदारी से नहीं करते। बहुत से सांसद सदन में होने वाली चर्चा में भाग ही नहीं लेते। यदि संसद सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जायेगी तो सभी सांसद संसद की कार्यवाही में संजीव पास बुक्स भाग लेंगे, इस कार्यवाही में उनकी रुचि बढ़ेगी तथा अपने क्षेत्र की समस्याओं को सही ढंग से समय-समय पर उठाते रहेंगे।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दंडित कर सकें – मैं इस सुझाव से सहमत हूँ क्योंकि अध्यक्ष लोकसभा की कार्यवाही चलाने में अन्तिम अधिकारी है उसे लोकसभा में अनुशासन बनाए रखना है। परन्तु आजकल संसद सदस्य सदन के अन्दर इस प्रकार से व्यवधान उत्पन्न करते हैं कि सदन की कार्यवाही चलाना कठिन हो जाता है। सत्र चलने के समय में अधिकांश समय सदन स्थगित रहते हैं क्योंकि सांसदों द्वारा गलत व्यवहार किया जाता है, उनकी गतिविधियाँ शर्मनाक होती हैं।
ऐसी स्थितियों को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि अध्यक्ष को ऐसे सदस्यों को दण्डित करने का पूर्ण अधिकार हो। यद्यपि, इसमें एक खतरा अवश्य है कि अध्यक्ष बहुमत दल का सदस्य होता है और इस दृष्टि से उसका दृष्टिकोण भेदभावपरक हो सकता है; तथापि इस खतरे को मोल लेते हुए भी संसद की कार्यवाहियों को सुचारु रूप से चलाने के लिए अध्यक्ष को यह अधिकार दिया ही जाना चाहिए।
प्रश्न 6.
आरिफ यह जानना चाहता था कि अगर मंत्री ही अधिकांश महत्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत करते हैं और बहुसंख्यक दल अक्सर सरकारी विधेयक को पारित कर देता है, तो फिर कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की भूमिका क्या है? आप आरिफ को क्या उत्तर देंगे ?
उत्तर:
आरिफ ने अपने प्रश्न में यह बात उठायी है कि जब अधिकांश महत्वपूर्ण विधेयक मंत्रियों द्वारा प्रस्तावित किये जाते हैं और बहुमत दल उसको पारित करवा ही देता है तो संसद की क्या भूमिका रह जाती है? यह सत्य है कि संसदात्मक शासन व्यवस्था में बहुमत दल के लिए यह आवश्यक होता है कि मंत्रियों द्वारा प्रस्तावित विधेयक अवश्य पारित हो जाने चाहिए अन्यथा सरकार गिर जायेगी।
सरकारी विधेयक पारित न होने पर मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सरकार को बचाने के लिए सत्तादल को वे विधेयक पारित करवाने अनिवार्य हो जाते हैं। लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं है कि विधि निर्माण प्रक्रिया में संसद की कोई भूमिका नहीं है। विधि निर्माण प्रक्रिया में इस स्थिति के होते हुए भी संसद की महत्वपूर्ण भूमिका है।
- निजी विधेयक भी संसद में प्रस्तावित किये जाते हैं। संसद में इन विधेयकों को अलग-अलग सोपानों से गुज़रना पड़ता है तथा उस पर प्रत्येक सोपान में चर्चा होती है।
- प्रत्येक सरकारी विधेयक को भी विभिन्न सोपानों से गुजरना पड़ता है, जैसे
- प्रस्तुतीकरण व प्रथम वाचन
- द्वितीय वाचन
- समिति स्तर
- रिपोर्ट स्तर
- तृतीय वाचन। इन सोपानों के बाद ही विधेयक पर मतदान होता है।
एक सदन में पारित होने के बाद विधेयक दूसरे सदन में जाता है। दूसरे सदन में यह आवश्यक नहीं है कि सत्तारूढ़ दल का बहुमत हो ही। ऐसी स्थिति में यहाँ विधेयक को कठिन परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ता है। जब दूसरा सदन भी उसे पारित कर देता है तो राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। विधेयक निर्माण की इस समूची संसदीय प्रक्रिया में प्रत्येक विधेयक पर गंभीरता से विचार संभव हो पाता है तथा उसकी खामियों में आवश्यक संशोधन भी कर दिया जाता है। यदि विधि निर्माण प्रक्रिया में संसद की भूमिका को हटा देंगे तो विधेयकों पर गंभीरतापूर्वक विचार संभव नहीं हो सकेगा।
तीसरे, यदि विधि निर्माण प्रक्रिया में संसद की भूमिका को हटा दिया जाये तो कार्यपालिका ही विधि निर्माता हो जायेगी। विधि निर्माण में उस पर कोई अंकुश नहीं रह जायेगा तथा वह निरंकुश होकर लोकहितकारी विधायकों से विमुख हो सकती है तथा उन्हें अत्याचारीपूर्ण ढंग से कार्यान्वित कर सकती है। इससे नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन हो जायेगा तथा कार्यपालिका पर विधि निर्माण के क्षेत्र में कोई नियंत्रण नहीं रह जायेगा।
प्रश्न 7.
आप निम्नलिखित में से किस कथन से सबसे ज्यादा सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण दें।
( क ) सांसद/विधायकों को अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट होनी चाहिए।
(ख) दलबदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसद/विधायकों पर बढ़ा है।
(ग) दलबदल हमेशा स्वार्थ के लिए होता है और इस कारण जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।
उत्तर:
1. उपर्युक्त तीनों कथनों में से हम दूसरे कथन (ख) से सबसे ज्यादा सहमत हैं कि दलबदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसद / विधायकों पर बढ़ा है। इसका कारण यह है कि नेता का आदेश सांसदों/विधायकों को मानना पड़ता है अन्यथा वे दल-बदल विरोधी कानून के अन्तर्गत अपनी सदस्यता से हाथ धो बैठते हैं। पार्टी नेतृत्व का इसमें दबदबा रहता है और पार्टी अध्यक्ष सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने तथा पार्टी के निर्णय के अनुसार मतदान करने के लिए व्हिप जारी करते हैं। व्हिप का उल्लंघन करने वाले सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी जाती है।
2. हम (क) कथन से इसलिए सहमत नहीं हैं क्योंकि यदि सांसद/विधायकों को अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट दे दी जायेगी तो इससे उन नागरिकों की इच्छा का दमन होगा जिन्होंने उसे चुनकर संसद/विधानमण्डल में भेजा था।
3. (ग) कथन से हम इसलिए सहमत नहीं हैं क्योंकि इसमें दल-बदल के कारण विधायक या सांसद को जो दण्ड निर्धारित किया गया है वह यह है कि उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री पद के लिए अयोग्य करार किया जाता है। लेकिन यह दण्ड पर्याप्त नहीं है क्योंकि उसकी सदस्यता संसद/विधानमण्डल में बराबर बनी रहेगी।
प्रश्न 8.
डॉली और सुधा में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि मौजूदा वक्त में संसद कितनी कारगर और प्रभावकारी है। डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिर्गमन) करने में ज्यादा। सुधा का तर्क था कि लोकसभा में अलग-अलग सरकारों ने मुँह की खायी है, धराशायी हुई हैं। आप सुधा या डॉली के तर्क के पक्ष या विपक्ष में और कौन – सा तर्क देंगे?
उत्तर:
” डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिगर्मन) करने में ज्यादा।” डॉली के इस कथन में आंशिक सत्यता है। यथा
1. संसद वाद:
विवाद के बीच अपने जरूरी काम को अंजाम दे रही है। जब हम दूरदर्शन पर संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देख रहे होते हैं तो सदन में सदस्य कटुता लिए हुए एक-दूसरे की टांग खींचते नजर आते हैं। विभिन्न दलों के बीच आपस में बहस होती रहती है। कई बार ऐसा लगता है कि राष्ट्र का धन बरबाद हो रहा है। लेकिन संसद तो वाद-विवाद का मंच ही है। इस वाद-विवाद के जरिये ही संसद अपने सभी जरूरी काम को अंजाम देती है।
2. कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है:
प्रश्नकाल के दौरान वाद-विवाद इतने तीखे हो जाते हैं कि अनेक सदस्यों द्वारा अपनी बात रखने के लिए प्रायः ऊँची आवाज में बोलना, अध्यक्ष के आसन के पास चले जाना तथा सदन से बहिर्गमन करने जैसी घटनाएँ देखी जा सकती हैं। इसमें सदन का बहुत समय बर्बाद हो जाता है। लेकिन इसी के साथ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये सभी कदम सरकार से रियायत प्राप्त करने के राजनीतिक तरीके हैं और इससे कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है।
3. अधिकांश सदस्य अभी भी मर्यादापूर्ण बहस में रुचि रखते हैं- वाद- विवाद सार्थक और शांतिपूर्ण होना चाहिए। कुछ सदस्यों की लापरवाही के कारण संसद की कार्यकुशलता और दक्षता निकट समय में कम हुई है। कुछ सदस्य अपने दायित्वों का निर्वाह ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं। उनका व्यवहार पक्षपातपूर्ण है। वे सदन में शोर-शराबा उत्पन्न करते हैं। इसी संदर्भ में डॉली ने कहा है कि यह संसद में गिरावट का समय चल रहा है और संसद की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने में अधिक समय खर्च किया जा रहा है। लेकिन अधिकांश सदस्य अपने अधिकारों व दायित्वों का प्रयोग संसद में अभी भी उचित रूप से कर रहे हैं।
वे सदन में वाद-विवाद में ईमानदारी से भाग लेते हैं जिससे सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से चलती रहती है। इससे सदन की गरिमा भी बनी रहती है। इससे स्पष्ट होता है कि कुछ सदस्यों के अनुचित व्यवहार के कारण सदन का काम-काज प्रभावित होता है, लेकिन अधिकांश सदस्यों के ईमानदारी से कार्य करने के कारण अभी भी सदन की गरिमा बनी हुई है। आवश्यकता इस बात की है कि सदन में किये जा रहे व्यवहार को और अधिक मर्यादापूर्ण बनाने के प्रयास किये जाएँ। इसके लिए यह आवश्यक है कि सदन के पास पर्याप्त समय हो, सदस्य मर्यादापूर्ण बहस में रुचि पैदा करें तथा उसमें प्रभावशाली ढंग से भाग लें।
प्रश्न 9.
किसी विधेयक को कानून बनने के क्रम में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है, उन्हें क्रमवार सजाएँ।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है – बताएँ कि वह अगर इस पर हस्ताक्षर नहीं करता/करती है, तो क्या होता है?
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है- समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(छ) संबद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि – मंत्रालय का कानून – विभाग विधेयक तैयार करता है।
उत्तर:
विधेयक पारित होने की क्रमिक अवस्थाओं को क्रमवार निम्न प्रकार सजाया गया है-
(ज) विधि मंत्रालय का कानून – विभाग विधेयक तैयार करता है।
(छ) सम्बद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है। समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ, उसमें यह पारित होता है।
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति से विधेयक कानून बन जाता
परन्तु यदि राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर न करे, वह उसे रोक ले या उस पर स्वीकृति न दे तो निम्नलिखित स्थितियाँ उभरेंगी।
प्रथमतः राष्ट्रपति उस विधेयक को दुबारा संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकता है और यदि संसद उसे दुबारा पारित करके पुनः राष्ट्रपति के पास भेजती है तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी स्वीकृति देनी ही होगी। लेकिन यदि धन विधेयक या संविधान संशोधन विधेयक है तो राष्ट्रपति को उसे पुनर्विचार के लिए भेजने का भी अधिकार नहीं है, इन पर राष्ट्रपति को हस्ताक्षर करने ही होंगे।
दूसरे, संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेजने की कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रपति किसी भी विधेयक को बिना किसी समय-सीमा के अपने पास लंबित रख सकता है। इसे कई बार ‘पाकिट वीटो’ भी कहा जाता है । इस प्रकार राष्ट्रपति विधेयक को ठंडे बस्ते में भी डाल सकता है।
प्रश्न 10.
संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
विभिन्न विधायी कार्यों के लिए संसदीय समितियों का गठन संसदीय कामकाज का एक महत्वपूर्ण पहलू है। ये समितियाँ केवल कानून बनाने में ही नहीं, वरन् सदन के दैनिक कार्यों में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यथा
- चूंकि संसद केवल अपने अधिवेशन के दौरान ही बैठती है, इसलिए उसके पास अत्यन्त सीमित समय होता है।
- किसी कानून को बनाने के लिए उससे जुड़े विषय का गहन अध्ययन करना पड़ता है। इसके लिए उस पर ज्यादा ध्यान और समय देने की जरूरत पड़ती है।
- अन्य और भी कई महत्त्वपूर्ण कार्य होते हैं, जैसे विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान माँगों का अध्ययन, विभिन्न विभागों के द्वारा किये गये खर्चों की जाँच, भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल आदि।
संसदीय समितियाँ संसद के विधायी कार्यों के अतिरिक्त इन सब कार्यों को भी करती हैं। संसदीय समितियों की व्यवस्था का संसद पर प्रभाव-समितियों की इस व्यवस्था ने संसद का कार्यभार हल्का कर दिया है। अनेक महत्वपूर्ण विधेयकों को समितियों को भेजा गया। संसद ने समितियों द्वारा किये गये काम में छुट- पुट बदलाव करके मंजूरी दे दी है। प्राय: समितियों द्वारा सुझाये गये सुझावों को संसद ने मंजूर कर लिया है।
विधायिका JAC Class 11 Political Science Notes
→ संसद या विधायिका का महत्त्व ( हमें संसद क्यों चाहिए?)
संसद या विधायिका जनता द्वारा निर्वाचित होती है और जनता के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है। यह कानून निर्माण का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है तथा जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है। यह सभी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का केन्द्र तथा प्रतिनिधिक लोकतंत्र का आधार है। यह मंत्रिमंडल पर नियंत्रण रखती है तथा इसके पास कार्यपालिका का चयन करने और बर्खास्त करने की भी शक्ति है। यह वाद-विवाद का सबसे लोकतांत्रिक खुला मंच है। अपनी संरचनात्मक विशेषता के कारण यह सरकार के सभी अंगों में सबसे ज्यादा प्रतिनिधिक है।
→ भारत में विधायिका का नाम तथा स्वरूप:
संसद: भारत की राष्ट्रीय विधायिका का नाम संसद है। भारतीय संसद में दो सदन हैं प्रथम सदन को लोकसभा और दूसरे सदन को राज्यसभा कहते हैं।
विधान मण्डल: राज्यों की विधायिकाओं को विधानमण्डल कहते हैं। संविधान ने राज्यों को एक सदनात्मक या द्विसदनात्मक विधायिका स्थापित करने का विकल्प दिया है। वर्तमान में केवल छ : राज्यों में ही द्वि-सदनात्मक विधायिकाएँ हैं। ये हैं।
- आंध्रप्रदेश
- बिहार
- कर्नाटक
- महाराष्ट्र
- तेलंगाना
- उत्तरप्रदेश।
→ द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका की आवश्यकता जब किसी विधायिका में दो सदन होते हैं, तो उसे द्वि- सदनात्मक विधायिका कहते हैं। भारतीय संसद एक द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका है। द्विसदनात्मक विधायिका के लाभ ये हैं
- समाज के सभी वर्गों और देश के सभी क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व संभव।
- संसद के प्रत्येक निर्णय पर दूसरे सदन में पुनर्विचार संभव।
→ राज्य सभा (अ) राज्यसभा का संगठन:
राज्यों का प्रतिनिधित्व तथा आधार: जनसंख्या – राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से होता है। राज्य विधान सभा के निर्वाचित सदस्य राज्य विधानसभा के सदस्यों को चुनते हैं । राज्यसभा में देश के विभिन्न क्षेत्रों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया गया है। इस दृष्टि से ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों को ज्यादा और कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों को कम प्रतिनिधित्व दिया गया है । जनसंख्या के आधार पर संविधान की चौथी अनुसूची में प्रत्येक राज्य से निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या निर्धारित कर दी गई हैं।
→ कार्यकाल: राज्यसभा के सदस्यों को 6 वर्ष के लिए निर्वाचित किया जाता है। उन्हें दुबारा निर्वाचित किया जा सकता है।
→ स्थायी सदन: राज्य सभा एक स्थायी सदन है क्योंकि इसके सभी सदस्य अपना कार्यकाल एक साथ पूरा नहीं करते। प्रत्येक दो वर्ष पर राज्य सभा के 1/3 सदस्य अपना कार्यकाल पूरा करते हैं और इन 1/3 सीटों के लिए चुनाव होते हैं। इस तरह राज्य सभा कभी भी पूरा तरह भंग नहीं होती।
→ मनोनीत सदस्य: निर्वाचित सदस्यों के अतिरिक्त राज्य सभा में 12 मनोनीत सदस्य होते हैं। साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष उपलब्धि पाने वाले व्यक्तियों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाता है।
(ब) राज्य सभा की शक्तियाँ राज्यसभा की प्रमुख शक्तियाँ इस प्रकार हैं।
- विधि निर्माण सम्बन्धी शक्ति: सामान्य विधेयकों पर विचार कर उन्हें पारित करती है। धन विधेयकों में संशोधन प्रस्तावित कर सकती है तथा संवैधानिक संशोधनों को पारित करती है।
- कार्यपालिका पर नियंत्रण की शक्ति: प्रश्न पूछकर तथा संकल्प और प्रस्ताव प्रस्तुत करके कार्यपलिका पर नियंत्रण करती है।
- निर्वाचन तथा पदच्युक्ति सम्बन्धी शक्ति: राज्य सभा राष्ट्रपंति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भागीदारी करती है। उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव केवल राज्य सभा में ही लाया जा सकता है। यह
- महाभियोग द्वारा राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया में भाग लेती है।
- विशेष शक्तियाँ: यह संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।
→ लोकसभा (अ) लोकसभा का संगठन:
निर्वाचन: लोकसभा के लिए जनता सीधे (प्रत्यक्ष निर्वाचन से) सदस्यों को चुनती है। लोकसभा चुनावों के लिए पूरे देश को लगभग समान जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है। चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के मत का मूल्य बराबर होता है। इस समय लोकसभा के 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं। कार्यकाल-लोकसभा के लिए सदस्यों को 5 वर्ष के लिए चुना जाता है। लेकिन बहुमत की सरकार न बनाने की स्थिति में अथवा प्रधानमंत्री की लोकसभा भंग करने की सलाह पर राष्ट्रपति लोकसभा को 5 वर्ष की अवधि से पहले भी भंग कर सकता है।
(ब) लोकसभा की शक्तियाँ लोकसभा की प्रमुख शक्तियाँ ये हैं।
- कानून निर्माण करना
- वित्तीय शक्तियाँ
- कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना
- संविधान में संशोधन करना
- निर्वाचन सम्बन्धी शक्तियाँ
- न्य शक्तियाँ जैसे आपातकाल की घोषणा को स्वीकृति देना, महाभियोग लगाने की शक्ति, समिति और आयोगों का गठन करना आदि। यथा
→ लोकसभा की विशेष शक्तियाँ: कुछ ऐसी शक्तियाँ हैं जिनका प्रयोग केवल लोकसभा ही कर सकती है।
- धन सम्बन्धी विधेयक प्रस्तुत करना, उसे संशोधित या अस्वीकृत करना।
- मंत्रिपरिषद् के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पारित करना।
→ लोकसभा और राज्यसभा की समान शक्तियाँ:
- सामान्य और संवैधानिक विधेयकों को पारित करना।
- राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाना
- उपराष्ट्रपति को हटाना आदि।
→ संसद की शक्तियाँ व कार्य संसद के प्रमुख कार्य व शक्तियाँ निम्नलिखित हैं।
- विधायी कामकाज
- कार्यपालिका पर नियंत्रण तथा उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना
- वित्तीय कार्य
- प्रतिनिधित्व
- बहस का मंच
- संवैधानिक कार्य
- निर्वाचन सम्बन्धी कार्य
- न्यायिक कार्य
→ संसद कानून कैसे बनाती है? संसद द्वारा कानून बनाने के लिए एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जाती है जिसमें किसी विधेयक को कई अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है।
- विधेयक का प्रस्तुतीकरण: ( प्रथम वाचन) विधेयक यदि धन विधेयक नहीं है तो उसे किसी भी सदन प्रस्तुत किया जा सकता है। लेकिन धन विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है।
- विधेयक का द्वितीय वाचन: दूसरे चरण में विधेयक को या तो समिति के पास भेजा जाता है या उस पर सदन में चर्चा होती है। समिति को भेजे जाने पर समिति रिपोर्ट देती है। सदन इस रिपोर्ट को स्वीकार या अस्वीकार करता है। इसके बाद सदन में विधेयक पर विस्तृत विचार-विमर्श होता है। जो विधेयक समिति को नहीं भेजा जाता है, तो उस पर विस्तृत चर्चा होती है।
- तृतीय वाचन: तृतीय चरण में विधेयक पर मतदान होता है। पारित हो जाने पर उसे दूसरे सदन में भेजा जाता है।
- दूसरे सदन की प्रक्रिया: दूसरे सदन में उपर्युक्त प्रक्रिया अपनाई जाती है। दूसरा सदन या तो इसे स्वीकार कर लेता है या इस पर सुझाव भेजता है। यदि प्रथम सदन इस सुझाव को स्वीकार नहीं करता तो राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है जिसकी अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है । संयुक्त बैठक में उस पर मतदान किया जाता है और उसे स्वीकार या रद्द किया जाता है।
→ राष्ट्रपति के हस्ताक्षर: दोनों सदनों से पारित होने के बाद विधेयक राष्ट्रपति के पास जाता है। राष्ट्रपति या तो विधेयक को मंजूरी देता है या उसे पुनर्विचार के लिए लौटा देता है। लेकिन यदि संसद उसे पुनः पारित कर राष्ट्रपति के पास भेज देती है, तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी मंजूरी देनी ही होती है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद विधेयक कानून बन जाता है। विधेयकों के विभिन्न प्रकार – विधेयकों के विभिन्न प्रकार होते हैं। यथा
- सरकारी विधेयक या निजी सदस्यों का विधेयक।
- वित्त विधेयक या गैर – वित्त विधेयक।
- सामान्य विधेयक या संविधान संशोधन विधेयक।
धन विधेयक: धन विधेयक केवल लोकसभा में पेश किया जाता है। लोकसभा से पारित होने के बाद वह राज्य सभा में जाता है। राज्यसभा या तो उसे स्वीकार कर लेती है या संशोधन प्रस्तावित कर सकती है, लेकिन अस्वीकार नहीं कर सकती। यदि राज्य सभा 14 दिनों तक उस पर कोई निर्णय नहीं ले तो उसे राज्य सभा द्वारा पारित मान लिया जाता है। धन विधेयकों में राज्यसभा द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को लोकसभा मान भी सकती है और नहीं भी।
→ संसद द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण: संसद अनेक विधियों का प्रयोग कर कार्यपालिका को नियंत्रित करती है।
- बहस और वाद-विवाद: प्रश्नकाल, शून्यकाल, आधे घंटे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव आदि के माध्यम से संसद बहस या वाद-विवाद द्वारा मंत्रिपरिषद पर नियंत्रण रखती है।
- कानूनों की स्वीकृति या अस्वीकृति: इस अधिकार के द्वारा भी संसद कार्यपालिका पर नियंत्रण करती है।
- वित्तीय नियंत्रण: धन स्वीकृत करने से पहले लोकसभा सरकार से धन मांगने के कारणों पर चर्चा कर, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक व लोक लेखा समिति की रिपोर्ट पर धन के दुरुपयोग के मामलों की जाँच कर, आदि वित्तीय नियंत्रणों द्वारा विधायिका सरकार की नीतियों पर नियंत्रण करती है।
- अविश्वास प्रस्ताव: विधायिका अपने सबसे सशक्त हथियार ‘अविश्वास प्रस्ताव’ पेश कर सरकार पर नियंत्रण स्थापित करती है। सन् 1989 के बाद से अपने प्रति सदन के अविश्वास के कारण अनेक सरकारों को त्यागपत्र देना पड़ा।
→ संसदीय समितियों की कार्यविधि: संसदीय समितियाँ कानून बनाने के साथ-साथ सदन के दैनिक कार्यों में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यथा
- संसदीय समितियों के कार्य-संसदीय समितियों के प्रमुख कार्य ये हैं।
- किसी कानून को बनाने के लिए उससे जुड़े विषय का गहन अध्ययन करना।
- विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान माँगों का अध्ययन।
- विभिन्न विभागों द्वारा किये गए खर्चों की जाँच।
- भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल।
- स्थायी समितियाँ: स्थायी समितियाँ विभिन्न विभागों के कार्यों, उनके बजट, खर्चे तथा उनसे संबंधित विधेयकों की देखरेख करती है।
- संयुक्त संसदीय समितियाँ: इन समितियों में संसद के दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। इनका गठन किसी विधेयक पर संयुक्त चर्चा अथवा वित्तीय अनियमितताओं की जाँच के लिए किया जा सकता है।
सामान्यतः समितियों द्वारा दिये गये सुझावों को संसद स्वीकार कर लेती है।
→ संसद स्वयं को कैसे नियंत्रित करती है?
- संविधान में संसद की कार्यवाही को सुचारु ढंग से चलाने के लिए प्रावधान बनाए गए हैं। सदन का अध्यक्ष इनके अनुसार सदन का संचालन करता है।
- सदन का अध्यक्ष दलबदल से संबंधित अंतिम निर्णय लेता है और यदि यह सिद्ध हो जाये कि किसी सदस्य ने दल बदल किया है, तो उसकी सदन की सदस्यता समाप्त हो जाती है।