JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद
Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद Textbook Exercise Questions and Answers.
Jharkhand Board Class 11 Political Science राष्ट्रवाद Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
राष्ट्र किस प्रकार से बाकी सामूहिक संबद्धताओं से अलग है?
उत्तर:
अन्य सामूहिक संबद्धताओं से राष्ट्र भिन्न है। राष्ट्र लोगों का वह समूह है जिनकी जाति, भाषा, धर्म की कुछ सामान्य (Common) विशेषताएँ होती हैं तथा जिनकी साझी राजनीतिक आकांक्षाएँ या साझा इतिहास होता है। यह मनुष्यों के अन्य प्रकार के समूहों व समुदायों से भिन्न है। यथा
- यह परिवार से भिन्न है। प्राथमिक सम्बन्धों के आधार पर यह परिवार से भिन्न होता है। परिवार का आधार प्राथमिक सम्बन्ध होते हैं और इस कारण परिवार का प्रत्येक सदस्य दूसरे सदस्यों के व्यक्तित्व और चरित्र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी रखता है। लेकिन राष्ट्र के लिए यह संभव नहीं है क्योंकि इसके सभी सदस्यों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध नहीं होते हैं।
- यह नातेदारी समूह जनजाति या अन्य सगोत्रीय समूहों से भी इस आधार पर भिन्न है क्योंकि इन समूहों के सदस्य रक्त या विवाह सम्बन्धों व वंश परम्परा पर आधारित होते हैं जबकि राष्ट्र के सदस्यों के लिए रक्त सम्बन्धों या विवाह सम्बन्धों के आधार पर सम्बन्धित होना आवश्यक नहीं है। यदि हम इन समूहों के सभी सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से नहीं भी जानते हों तो भी आवश्यकता पड़ने पर हम उन सूत्रों को खोज सकते हैं जो इन्हें आपस में जोड़ते हैं। लेकिन राष्ट्र के सदस्य के रूप में हम अपने राष्ट्र के अधिकतर सदस्यों को सीधे तौर पर न कभी जान पाते हैं और न उनके साथ वंशानुगत नाता जोड़ने की जरूरत पड़ती है।
- यह समाज से भिन्न है। एक राष्ट्र के सदस्यों के लिए एकता की भावना या अपनी राजनीतिक पहचान का होना आवश्यक है जबकि समाज के सदस्यों में एकता की भावना हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती।
- यह अन्य समुदायों से भिन्न है। यह अन्य समुदायों से इस आधार पर भिन्न है कि संघ के सदस्यों के साथ-साथ काम करने के लिए साझे उद्देश्य होते हैं, जबकि राष्ट्र के सदस्यों के ऐसे कोई विशिष्ट उद्देश्य नहीं होते।
- यह राज्य से भी भिन्न है। राष्ट्र राज्य से इस आधार पर भिन्न है कि राज्य राजनैतिक रूप से संप्रभुता प्राप्त संगठन है जबकि राष्ट्र के पास संप्रभुता नहीं होती है और न ही राष्ट्र राजनैतिक रूप से संगठित होता है।
प्रश्न 2.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार से आप क्या समझते हैं? किस प्रकार यह विचार राष्ट्र-राज्यों के निर्माण और उनको मिल रही चुनौती में परिणत होता है?
उत्तर:
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार से आशय: बाकी सामाजिक समूहों से अलग राष्ट्र अपना शासन अपने आप करने और भविष्य को तय करने का अधिकार चाहते हैं। इसी को राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार कहा जाता है।
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के दावे मैं राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करता है कि उसके पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाये । प्रायः ऐसी मांग निम्न प्रकार के लोगों की ओर से आती है।
- वे लोग जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें साझी पहचान का बोध हो।
- कुछ मामलों में आत्म-निर्णय के ऐसे दावे एक स्वतंत्र राज्य बनाने की उस इच्छा से भी जुड़े होते हैं। इन दावों का सम्बन्ध किसी समूह की संस्कृति की संरक्षा से होता है।
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार राष्ट्र: राज्यों के निर्माण के रूप में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अनेक दावे किसी समूह की संस्कृति की संरक्षा के लिए एक स्वतंत्र राज्य बनाने की इच्छा के रूप में सामने आए। इन दावों ने राष्ट्र- राज्यों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। यथा
1. एक संस्कृति और एक राज्य की अवधारणा के तहत राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार:
19वीं सदी में यूरोप में एक संस्कृति और एक राज्य’ की मान्यता ने जोर पकड़ा। फलस्वरूप प्रथम विश्वयुद्ध के बाद राज्यों की पुनर्व्यवस्था में इस विचार को आजमाया गया। वर्साय की संधि से बहुत-से छोटे और नव स्वतंत्र राज्यों का गठन हुआ। लेकिन ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की मांगों को संतुष्ट करने से राज्यों की सीमाओं में बदलाव हुए। अलग-अलग सांस्कृतिक समुदायों को अलग-अलग राष्ट्र-राज्य मिले- इसे ध्यान में रखकर सीमाओं को बदला गया। इस प्रयास के बावजूद अधिकतर राज्यों की सीमाओं के अन्दर एक से अधिक नस्ल और संस्कृति के लोग रहते थे। ये छोटे-छोटे समुदाय राज्य के अन्दर अल्पसंख्यक थे और अक्सर नुकसानदेह स्थितियों में रहते थे। फिर भी इस प्रयास के अन्तर्गत बहुत सारे राष्ट्रवादी समूहों को राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के अन्तर्गत राजनीतिक मान्यता प्रदान की गई जो स्वयं को एक अलग राष्ट्र के रूप में देखते थे और अपने भविष्य को तय करने तथा अपना शासन स्वयं चलाना चाहते थे।
2. राजनीतिक स्वाधीनता के साथ राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार:
एशिया एवं अफ्रीका में औपनिवेशिक प्रभुत्व के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों ने राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के तहत राजनीतिक स्वाधीनता के लिए संघर्ष चलाया। राष्ट्रीय आंदोलनों का मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता राष्ट्रीय समूहों को सम्मान एवं मान्यता प्रदान करेगी और वहाँ के लोगों के सामूहिक हितों की रक्षा करेगी। अधिकांश राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन राष्ट्र के लिए न्याय, अधिकार और समृद्धि हासिल करने के लक्ष्य से प्रेरित थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका के देशों को राजनीतिक स्वाधीनता के तहत राष्ट्रीय आत्म निर्णय का अधिकार मिला और अनेक नए राष्ट्र-राज्यों का निर्माण हुआ।
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार राष्ट्र-राज्यों को मिल रही चुनौती के रूप में: राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार ने एक तरफ जहाँ राष्ट्र-राज्यों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं अब यह अधिकार राष्ट्र-राज्यों को चुनौती भी प्रस्तुत कर रहा है। यथा
1. जब राष्ट्रीय आत्म: निर्णय का अधिकार ‘एक संस्कृति: एक राज्य’ की अवधारणा के रूप में मिला तो अनेक नए राष्ट्रों को यूरोप में मान्यता मिली। लेकिन इन राज्यों के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की समस्या ज्यों की त्यों बनी
रही।
2. एशिया और अफ्रीका में औपनिवेशिक प्रभुत्व के खिलाफ राजनीतिक स्वाधीनता की अवधारणा के साथ राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के तहत नवीन राष्ट्र-राज्यों का जन्म हुआ। लेकिन इस क्षेत्र के अनेक देश आबादी के देशान्तरण, सीमाओं परं युद्ध और हिंसा की चपेट में आते रहे। इन राष्ट्र-राज्यों में अनेक भू-क्षेत्रों में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग अल्पसंख्यक समूह कर रहे हैं। वस्तुतः आज राष्ट्र-राज्य इस दुविधा में फँसे हुए हैं कि आत्म-निर्णय के इन आन्दोलनों से कैसे निपटा जाये। बहुत से लोग यह महसूस करने लगे हैं कि समाधान नए राज्यों के गठन में नहीं बल्कि वर्तमान राज्यों को अधिकाधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है।
प्रश्न 3.
हम देख चुके हैं कि राष्ट्रवाद लोगों को जोड़ भी सकता है और तोड़ भी सकता है। उन्हें मुक्त कर सकता है और उनमें कटुता और संघर्ष भी पैदा कर सकता है। उदाहरणों के साथ उत्तर दीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद ने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है। इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है तो इसके साथ ही यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है। यथा
1. राष्ट्रवाद ने जनता को जोड़ा है। राष्ट्रवाद ने जनता को जोड़ा है। राष्ट्रवाद से जनता में एकता की भावना का संचार हुआ है। उदाहरण के लिए 19वीं शताब्दी के यूरोप में राष्ट्रवाद ने कई छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण द्वारा वृहत्तर राष्ट्र – राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। आज के जर्मनी और इटली का गठन एकीकरण और सुदृढ़ीकरण की इसी प्रक्रिया के जरिए हुआ था। राज्य की सीमाओं के सुदृढ़ीकरण के साथ स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियाँ भी उत्तरोत्तर राष्ट्रीय निष्ठाओं और सर्वमान्य जनभाषाओं के रूप में विकसित हुईं। नए राष्ट्रों के लोगों ने एक नई राजनीतिक पहचान अर्जित की, जो राष्ट्र-राज्य की सदस्यता पर आधारित थी। आज अरबी राष्ट्रवाद में तमाम अरबी देशों के लोगों को अखिल अरब संघ में एकताबद्ध कर सकता है।
2. राष्ट्रवाद ने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है। राष्ट्रवाद का आधार राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार है। आत्म-निर्णय के अधिकार के दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करता है कि उसके पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता दी जाए। एशिया और अफ्रीका में औपनिवेशिक अत्याचारी शासन के विरोध में राष्ट्रवादी भावना से प्रेरित होकर लोगों ने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन चलाये। राष्ट्रीय आन्दोलनों का मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता राष्ट्रीय समूहों को सम्मान और मान्यता प्रदान करेगी और वहाँ के लोगों के सामूहिक हितों की रक्षा करेगी। फलतः राष्ट्रवाद ने एशिया और अफ्रीका में अत्याचारी शासकों से लोगों को स्वतंत्रता प्रदान की है।
3. राष्ट्रवाद लोगों को तोड़ सकता है, उनमें कटुता और संघर्ष भी पैदा कर सकता है। यूरोप में ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की राष्ट्रवाद की मांगों को संतुष्ट करने के लिए राज्यों की सीमाओं में बदलाव हुए। इससे सीमाओं के एक ओर से दूसरी ओर बड़ी संख्या में विस्थापन हुए। इसके परिणामस्वरूप लाखों लोग अपने घरों से उजड़ गए और उस जगह से उन्हें बाहर धकेल दिया गया जहाँ पीढ़ियों से उनका घर था। बहुत सारे लोग साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार हुए। इसी प्रकार राष्ट्रवाद की अवधारणा के तहत भारत और पाकिस्तान दो राष्ट्रों का जन्म हुआ। इसके कारण भी लाखों लोगों को एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में धकेला गया। इससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्रवाद लोगों को तोड़ सकता है और उनमें कटुता और संघर्ष भी पैदा कर सकता है। इसके कारण बहुत से सीमा विवाद पैदा होते हैं। शरणार्थियों की समस्यायें सामने आती हैं।
4. उपराष्ट्रीयताओं का उभार राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार से प्रेरित होकर एक राष्ट्र में उपराष्ट्रीयताओं का उभार होता है और वे अपने भू-क्षेत्र में नवीन राष्ट्र के निर्माण के लिए संघर्ष करने लग जाते हैं। ऐसे राष्ट्रीय आत्म- निर्णय के लिए संघर्ष दुनिया के विभिन्न भागों में अब भी चल रहे हैं। स्पेन में बास्क राष्ट्रवादी आन्दोलन इसी प्रकार का है।
प्रश्न 4.
वंश, भाषा, धर्म या नस्ल में से कोई भी पूरे विश्व में राष्ट्रवाद के लिए साझा कारण होने का दावा नहीं कर सकता टिप्पणी कीजिये।
उत्तर:
बहुत से लोगों का मानना है कि एकसमान भाषा या जातीय वंश परम्परा जैसी साझी सांस्कृतिक पहचान व्यक्तियों को एक राष्ट्र के रूप में बांध सकती है। लेकिन वंश, भाषा या नस्ल में से कोई भी पूरे विश्व में राष्ट्रवाद के लिए साझा कारण होने का दावा नहीं कर सकता। यथा
1. धर्म और भाषा: यद्यपि एक ही भाषा बोलना आपसी संवाद को आसान बना देता है और समान धर्म होने पर बहुत सारे विश्वास और सामाजिक रीति-रिवाज साझे हो जाते हैं। एक जैसे त्यौहार मनाना, एक जैसे अवसरों पर छुट्टियाँ चाहना और एक जैसे प्रतीकों को धारण करना लोगों को करीब ला सकता है, तथापि यह उन मूल्यों के भीतर खतरा भी उत्पन्न कर सकता है जिन्हें हम लोकतंत्र में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इसके दो कारण हैं। यथा
(i) धार्मिक विविधता:
दुनिया के सभी बड़े धर्म अंदरूनी तौर से विविधता से भरे हुए हैं। वे अपने समुदाय के अन्दर चलने वाले संवाद के कारण ही बने और बढ़े हैं। परिणामस्वरूप धर्म के अन्दर बहुत से पंथ बन जाते हैं और धार्मिक ग्रन्थों और नियमों की उनकी व्याख्यायें अलग-अलग होती हैं। अगर हम इन विभिन्नताओं की अवहेलना करें और एक समान धर्म के आधार पर एक पहचान स्थापित कर दें तो आशंका है कि हम बहुत ही वर्चस्ववादी और दमनकारी समाज का निर्माण कर दें
(ii) सांस्कृतिक विविधता:
अधिकतर समाज सांस्कृतिक विविधता से भरे हैं। एक ही भू-क्षेत्र में विभिन्न धर्म और भाषाओं के लोग साथ-साथ रहते हैं। किसी राज्य की सदस्यता की शर्त के रूप में किसी खास धार्मिक या भाषायी पहचान को आरोपित कर देने से कुछ समूह निश्चित रूप से शामिल होने से रह जायेंगे। इससे शामिल नहीं किए गए समूहों को हानि होगी। इससे ‘समान बर्ताव और सबके लिए स्वतंत्रता’ के उस आदर्श में भारी कटौती होगी, जिसे हम लोकतंत्र में अमूल्य मानते हैं। इन्हीं कारणों से यह बेहतर होगा कि राष्ट्र की कल्पना सांस्कृतिक पदों में न की जाए। अतः लोकतंत्र में किसी खास धर्म, नस्ल या भाषा की सम्बद्धता के स्थान पर एक मूल्य समूह के प्रति निष्ठा की जरूरत है।
2. नस्ल व वंश: राष्ट्रवाद के निर्माण और विकास के लिए नस्ल या वंश की एकता एक आवश्यक तत्त्व एक नस्ल या वंश के सदस्यों में स्वाभाविक रूप से एकता की भावना पाई जाती है। परन्तु आधुनिक विद्वानों ने इसे राष्ट्रवाद के निर्माण व विकास का मूल तत्त्व नहीं माना है क्योंकि एक ही राज्य में विभिन्न वंशों और नस्लों के लोग रहते हैं।
प्रश्न 5.
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले कारकों पर सोदाहरण रोशनी डालिए।
उत्तर:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले कारक राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित है।
1. साझे विश्वास:
राष्ट्र विश्वास के जरिये बनता है। यह समूह के भविष्य के लिए सामूहिक पहचान और दृष्टिकोण का प्रमाण है, जो स्वतन्त्र राजनैतिक अस्तित्व का आकांक्षी है। एक राष्ट्र का अस्तित्व तभी कायम रह सकता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्र की तुलना हम एक टीम से कर सकते हैं। जब हम टीम की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय लोगों के ऐसे समूह से है, जो एक साथ काम करते या खेलते हैं तथा वे स्वयं को एकीकृत समूह मानते हैं। अगर वे अपने बारे में इस तरह नहीं सोचते तो एक टीम की उनकी हैसियत खत्म हो जायेगी और वे खेल खेलने वाले अलग-अलग व्यक्ति रह जायेंगे।
2. इतिहास:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला दूसरा प्रमुख कारक साझा इतिहास है। जो लोग अपने को एक राष्ट्र मानते हैं उनके भीतर अपने बारे में स्थायी ऐतिहासिक पहचान की भावना होती है। वे देश की स्थायी ऐतिहासिक पहचान का खाका प्रस्तुत करने के लिए साझा स्मृतियों, किंवदन्तियों और ऐतिहासिक अभिलेखों के जरिये अपने लिए इतिहासबोध निर्मित करते हैं। उदाहरण के लिए भारत के राष्ट्रवादियों ने यह दावा करने के लिए कि एक सभ्यता के रूप में भारत का लम्बा और अटूट इतिहास रहा है और यह सभ्यतामूलक निरन्तरता और एकता भारतीय राष्ट्र की बुनियाद है।
3. भू-क्षेत्र:
बहुत सारे राष्ट्रों की पहचान एक खास भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ी हुई है। किसी खास भू-क्षेत्र पर लम्बे समय तक साथ-साथ रहना और उससे जुड़ी साझे अतीत की यादें लोगों को एक सामूहिक पहचान का बोध देती हैं। ये उन्हें एक होने का एहसास देती हैं। इसलिए जो लोग स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में देखते हैं, वे एक गृहभूमि की बात करते हैं। राष्ट्र अपनी गृहभूमि का बखान मातृभूमि, पितृभूमि या पवित्र भूमि के रूप में करते हैं।
4. साझे राजनीतिक आदर्श:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला एक अन्य कारक ‘साझे राजनीतिक आदर्श’ हैं। भविष्य के बारे में साझा नजरिया और अपना स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व बनाने की सामूहिक चाहत, राष्ट्र को शेष समूहों से अलग करती है। राष्ट्र के सदस्यों की इस बारे में एक साझा दृष्टि होती है कि वे किस तरह का राज्य बनाना चाहते हैं। वे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद जैसे मूल्यों और सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं । इन शर्तों के आधार पर वे साथ-साथ रहना चाहते हैं। इस प्रकार साझे राजनीतिक आदर्श राष्ट्र के रूप में उनकी राजनीतिक पहचान को बनाते हैं।
5. साझी राजनीतिक पहचान:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला एक अन्य कारक ‘साझी राजनैतिक ‘पहचान’ का होना है। राष्ट्र की कल्पना राजनीतिक शब्दावली में की जानी चाहिए अर्थात् लोकतंत्र में किसी खास धर्म, नस्ल या भाषा से संबद्धता की जगह एक मूल्य – समूह के प्रति निष्ठा की जरूरत होती है। इस मूल्य-समूह को देश के संविधान में भी दर्ज किया जा सकता है।
प्रश्न 6.
संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के साथ बर्ताव करने में तानाशाही की अपेक्षा लोकतंत्र अधिक समर्थ होता है। कैसे?
उत्तर:
संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के साथ बर्ताव करने में तानाशाही की अपेक्षा लोकतंत्र अधिक समर्थ होता है क्योंकि संघर्षरत राष्ट्रवादी समूहों की आकांक्षाओं का समाधान नए राज्यों के गठन में नहीं बल्कि वर्तमान राज्यों को अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है। इसका समाधान यह सुनिश्चित करने में है कि अलग-अलग सांस्कृतिक और नस्लीय पहचानों के लोग देश में समान नागरिक और साथियों की तरह सह-अस्तित्वपूर्वक रह सकें। यह न केवल आत्म-निर्णय के नए दावों के उभार से पैदा होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए वरन् मजबूत और एकताबद्ध राज्य बनाने के लिए जरूरी होगा। यथा-
- लोकतांत्रिक शासन ‘समान व्यवहार और सबके लिए स्वतंत्रता’ के आदर्श को लेकर चलता है लेकिन तानाशाही शासन में यह आदर्श नहीं अपनाया जाता। इसका अभिप्राय यह है कि लोकतंत्र में किसी खास धर्म, नस्ल या भाषा की सम्बद्धता की जगह एक मूल्य समूह के प्रति निष्ठा की जरूरत होती है। इस मूल्य समूह को देश के संविधा में दर्ज कर संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को संतुष्ट किया जा सकता है। लोकतांत्रिक राज्य अपनी सामूहिक राष्ट्रीय पहचान को साझे राजनैतिक आदर्शों के आधार पर गढ़कर सभी समूहों को एक राष्ट्र के रूप में निरूपित कर सकते हैं ।
- लोकतांत्रिक देश सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने और संरक्षित करने के उपाय कर सकता है। इस हेतु प्रायः सभी लोकतांत्रिक देशों ने अल्पसंख्यक समूहों एवं उनके सदस्यों की भाषा, संस्कृति एवं धर्म के लिए संवैधानिक संरक्षा का अधिकार प्रदान कर दिया है।
- लोकतांत्रिक देशों में इन समूहों को विधायी संस्थाओं और अन्य राजकीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार देकर कानून द्वारा समान व्यवहार एवं सुरक्षा का अधिकार भी प्रदान किया जा सकता है।
- लोकतंत्र में राष्ट्रीय पहचान को समावेशी रीति से परिभाषित किया जाता है ताकि संघर्षरत राष्ट्रवादी सदस्यों की महत्ता और अद्वितीय योगदान को मान्यता मिल सके।
- संघर्षरत समूहों की मांगों से निपटने के लिए उदारता और दक्षता की आवश्यकता होती है। लोकतांत्रिक देश संघर्षरत समूहों को राष्ट्रीय समुदाय के एक अंग के रूप में मान्यता देकर अत्यन्त उदारता एवं दक्षता के साथ व्यवहार बर्ताव कर उनकी समस्याओं का समाधान कर सकता है।
प्रश्न 7.
आपकी राय में राष्ट्रवाद की सीमाएँ क्या हैं?
उत्तर:
राष्ट्रवाद की सीमाएँ: हमारी दृष्टि में राष्ट्रवाद की प्रमुख सीमाएँ या राष्ट्रवाद के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं।
1. राष्ट्रवाद शीघ्र ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाता है:
राष्ट्रवाद की एक प्रमुख सीमा यह है कि राष्ट्रवाद दूसरे राष्ट्रों के प्रति घृणा की जड़ों से प्रेरित होता है। इसलिए यह शीघ्र ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाता है और उस के लोग अन्य राष्ट्रों के साथ दुश्मनी का व्यवहार करना प्रारंभ कर देते हैं। वे अपने राष्ट्र को विश्व में सर्वाधिक विकसित और शक्तिशाली बनाने के प्रयास शुरू कर देते हैं। इस प्रकार राष्ट्रों के बीच में प्रजातियाँ उभारी जाती हैं। प्रजाति की अवधारणा इसलिए हानिप्रद होती है क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र इसके लिए प्रत्येक उचित – अनुचित साधनों को अपनाता है। प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों को नीचा दिखाने का प्रयास करता है।
2. राष्ट्रवाद बड़े राष्ट्रों को छोटे राष्ट्रों में विभाजित करने की प्रेरणा देता है:
राष्ट्रवाद लोगों को राष्ट्रीय आत्म- निर्णय के आधार पर बड़े राष्ट्रों को भंग कर छोटे-छोटे राष्ट्रों के निर्माण की मांग की प्रेरणा देता है । प्रायः सभी समाज बहुलवादी हैं जिनमें विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं के लोग निवास करते हैं। एक राष्ट्र के अन्तर्गत एक भू-क्षेत्र के लोगों में अपनी किसी विशेष पहचान के आधार पर एक पृथक् राष्ट्र की भावना विकसित हो जाती है और वे अपने लिए पृथक् स्वतंत्र राष्ट्र के लिए संघर्ष शुरू कर देते हैं। यूरोप में 20वीं सदी के प्रारंभ में आस्ट्रियाई – हंगेरियाई और रूसी साम्राज्य और इनके साथ एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्य के विघटन के मूल्य में राष्ट्रवाद ही था।
3. राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने की समस्या:
यदि किसी राज्य में दो या दो से अधिक राष्ट्रीयताओं के लोग निवास करते हैं तो उस राज्य में राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने की समस्या बनी रहती है। लोगों के अन्दर राष्ट्रवाद की चेतना उन्हें विभाजित रखती है और वे पृथक् राज्यों के लिए संघर्ष करते रहते हैं। इस प्रकार किसी राज्य में दो या दो से अधिक राष्ट्रीयताओं के लोग एक राष्ट्र के सदस्यों के रूप में कार्य नहीं कर पाते हैं।
4. व्यक्तियों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं में कटौती:
राष्ट्रवाद प्रायः लोगों के अधिकारों में कटौती कर देता है। शासक राष्ट्रवाद के नाम लोगों की भावनाओं को प्रेरित कर उनके अधिकारों और स्वतंत्रताओं में कटौती करने की कोशिश करता है और लोग राष्ट्र के आदर तथा महत्त्व के लिए अपने अधिकारों व स्वतंत्रताओं की चिन्ता नहीं करते और तानाशाह या महत्त्वाकांक्षी शासक इन भावनाओं का अनुचित लाभ उठाते हैं।
5. राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है:
राष्ट्रवाद शीघ्र ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाता है और उग्र राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद के विस्तार की प्रेरणा देता है और अपने पड़ौसी कमजोर राष्ट्रों पर अधिकार करने की प्रक्रिया जारी हो `जाती है। यह प्रक्रिया युद्ध और सैनिक आक्रमण की धमकियों के रूप में जारी रहती है। इस प्रकार यह साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का समर्थन करता है। उदाहरण के लिए हिटलर के शासनकाल में जर्मनी ने आर्य प्रजाति की उच्चता की वकालत की और इसके तहत जर्मन लोग सोचते थे कि आर्य जाति संसार की अन्य सभी प्रजातियों पर शासन करने के लिए है। इस धारणा के तहत हिटलर ने अन्य राष्ट्रों पर आक्रमण की नीति को अपनाया और उसका परिणाम द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में सामने आया।
6. राष्ट्रवाद अलगाववादी आंदोलनों को प्रेरित करता है:
राष्ट्रवाद राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की अवधारणा के तहत भारत तथा अन्य राष्ट्रों में पृथकतावादी राष्ट्रीय आंदोलनों को प्रेरित कर रहा है। भारत की स्वतंत्रता के समय मुस्लिम लीग ने मुस्लिम भारतीयों के लिए पृथक् राष्ट्र-राज्य की मांग की जिसके परिणामस्वरूप भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों का उदय हुआ। आज दुनिया के अनेक भागों में हम ऐसे राष्ट्रवादी संघर्षों को देख सकते हैं जो मौजूदा राष्ट्रों के अस्तित्व के लिए खतरे पैदा कर रहे हैं। ऐसे पृथकतावादी आंदोलन अन्य जगहों के साथ-साथ कनाडा के क्यूबेकवासियों, उत्तरी स्पेन के बास्कवासियों, तुर्की और ईरान के कुर्दों और श्रीलंका के तमिलों द्वारा भी चलाए जा रहे हैं। इन अलगाववादी आंदोलनों के प्रमुख कारक रहे हैं। साम्प्रदायिकता, जातीयता, प्रान्तीयता, भाषावाद तथा संकीर्ण व्यक्तिवाद।
राष्ट्रवाद JAC Class 11 Political Science Notes
→ राष्ट्रवाद का परिचय:
आम राय में राष्ट्रवाद शब्द को कुछ प्रतीकों के साथ स्पष्ट किया जाता है, जैसे- राष्ट्रीय ध्वज, देशभक्ति, देश के लिए बलिदान, सत्ता और शक्ति के साथ विविधता की भावना। दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक है।
→ राष्ट्रवाद एक सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त या एक प्रभावी शक्ति के रूप में पिछली दो शताब्दियों के दौरान निम्नलिखित प्रभावों के कारण राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में उभरा है जिसने इतिहास रचने में योगदान दिया है। यथा
- इसने उत्कट निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को प्रेरित किया है।
- जनता को जोड़ने के साथ-साथ विभाजित भी किया है।
- इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है।
- यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है।
- यह साम्राज्यों और राष्ट्रों के ध्वस्त होने का भी एक कारण रहा है तथा राष्ट्रवादी संघर्षों ने राष्ट्रों और साम्राज्यों की सीमाओं के निर्धारण – पुनर्निर्धारण में योगदान किया है। वर्तमान विश्व विभिन्न राष्ट्र-राज्यों में विभाजित है और राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्संयोजन की प्रक्रिया अभी भी जारी है।
→ राष्ट्रवाद के चरण-राष्ट्रवाद कई चरणों से होकर गुजरा है। यथा
- 19वीं सदी में यूरोप में इसने कई छोटी: छोटी रियासतों के एकीकरण और सुदृढ़ीकरण से वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। जैसे जर्मनी और इटली का एकीकरण तथा लातिनी अमेरिका में नए राज्यों की स्थापना आदि।
- राज्य की सीमाओं के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियाँ भी उत्तरोत्तर राष्ट्रीय निष्ठाओं एवं सर्वमान्य जनभाषाओं के रूप में विकसित हुईं।
- राष्ट्र-राज्य की सदस्यता पर आधारित लोगों ने एक नई राजनीतिक पहचान अर्जित की।
- राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में हिस्सेदार भी रहा। ( 20वीं सदी में आस्ट्रिया, हंगरी, रूसी, एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, पुर्तगाली साम्राज्यों के विघटन के रूप में राष्ट्रवाद ही था।)
- राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया अभी जारी है।
राष्ट्र से आशय: राष्ट्र बहुत हद तक एक ‘काल्पनिक’ समुदाय होता है, जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बंधा होता है। यह कुछ खास मान्यताओं पर आधारित होता है जिन्हें लोग उस समग्र समुदाय के लिए गढ़ते हैं, जिससे वे अपनी पहचान कायम करते हैं।
राष्ट्र के सम्बन्ध में प्रमुख मान्यताएँ:
→ साझे विश्वास: राष्ट्र विश्वास के जरिए बनता है। यह समूह के भविष्य के लिए सामूहिक पहचान और सामूहिक दृष्टि का प्रमाण है, जो स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व का आकांक्षी है। अतः एक राष्ट्र का अस्तित्व तभी क़ायम रहता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ हैं।
→ इतिहास: जो लोग अपने को एक राष्ट्र मानते हैं उनके भीतर अपने बारे में बहुधा स्थायी ऐतिहासिक पहचान की भावना होती है। इस सम्बन्ध में वे साझी स्मृतियों, किंवदंतियों और ऐतिहासिक अभिलेखों की रचना के जरिये अपने लिए इतिहास बोध निर्मित करते हैं ।
→ भू-क्षेत्र: बहुत सारे राष्ट्रों की पहचान एक खास भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ी हुई है। किसी खास भू-क्षेत्र पर लम्बे समय तक साथ-साथ रहना और उससे जुड़ी अतीत की यादें लोगों को एक सामूहिक पहचान का बोध देती हैं। ये उन्हें एक होने का एहसास भी देती हैं। राष्ट्र अपनी गृह – भूमि का विभिन्न तरीकों से बखान करते हैं, जैसे मातृभूमि, पितृभूमि, पवित्र भूमि आदि।
→ साझे राजनीतिक आदर्श:
राष्ट्र के सदस्यों की इस बारे में एक साझा दृष्टि होती है कि वे किस तरह का राज्य बनाना चाहते हैं। इस हेतु वे प्रायः लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद जैसे मूल्यों और सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं। लोकतंत्र में कुछ राजनीतिक मूल्यों और आदर्शों के लिए साझी प्रतिबद्धता ही किसी राष्ट्र का सर्वाधिक वांछित आधार है। इसके अन्तर्गत राष्ट्र के सदस्य कुछ दायित्वों से बंधे होते हैं । ये दायित्व सभी लोगों के नागरिकों के रूप में अधिकारों को पहचान लेने से पैदा होते हैं। इससे उनकी राजनीतिक पहचान बनती है तथा राष्ट्र मजबूत होता है।
→ साझी राजनीतिक पहचान:
लोकतंत्र में साझी राजनीतिक समझ के लिए किसी खास नस्ल, धर्म, भाषा से सम्बद्धता की जगह एक मूल्य समूह के प्रति निष्ठा की आवश्यकता होती है। इस मूल्य समूह को देश के संविधान में भी दर्ज किया जा सकता है। अतः राष्ट्र के लिए एक साझी राजनैतिक पहचान का होना भी आवश्यक है।
→ राष्ट्रीय आत्म-निर्णय अर्थात् लोग स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में क्यों निरूपित करते हैं? राष्ट्र अपना आत्म-निर्णय का अधिकार मांगते हैं। आत्म-निर्णय के दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करता है कि उसकी संस्कृति की रक्षा हेतु एक पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता दी जाये। प्रायः ऐसी मांगें उन लोगों की ओर से आती हैं जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें साझी पहचान का बोध हो।
कुछ मामलों में आत्म-निर्णय के ऐसे दावे एक स्वतंत्र राज्य बनाने की इच्छा से भी जुड़े होते हैं। इन दावों का सम्बन्ध किसी समूह की संस्कृति की रक्षा से होता है।
दूसरी तरह के दावे 19वीं सदी के यूरोप में सामने आए। उस समय ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की मान्यता ने जोर पकड़ा। अलग-अलग सांस्कृतिक समुदायों को अलग-अलग राष्ट्र-राज्य मिले- इसे ध्यान में रखकर सीमाओं को बदला गया। लेकिन फिर भी नवगठित राष्ट्र-राज्यों की सीमाओं के अन्दर एक से अधिक नस्ल और संस्कृति के लोग रहते थे। ऐसे राज्यों में अल्पसंख्यक हानिप्रद स्थितियों में रहते थे। ऐसे बहुत सारे समूहों को राजनीतिक मान्यता प्रदान की गई जो स्वयं को एक अलग राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे और अपने भविष्य को तय करने तथा अपना शासन स्वयं चलाना चाहते थे। लेकिन इन राष्ट्र-राज्यों के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही।
एशिया: अफ्रीका में औपनिवेशिक प्रभुत्व के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों ने राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की घोषणा की। इन्होंने राजनैतिक स्वाधीनता के साथ-साथ राष्ट्र की मान्यता भी प्राप्त की अब वे राष्ट्र-राज्य अपने को विरोधाभासी स्थिति में पाते हैं जिन्होंने संघर्षों की बदौलत स्वाधीनता प्राप्त की, लेकिन अब वे अपने भू-क्षेत्रों में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों का विरोध कर रहे हैं।
→ राष्ट्र-राज्यों में वर्तमान में उठे आत्म-निर्णय के आन्दोलनों से निपटने के लिए विद्वानों ने निम्न सुझाव दिये हैं।
- राज्यों को अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाया जाये।
- अल्पसंख्यक समूहों के अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान की कद्र की जाये।
→ राष्ट्रवाद और बहुलवाद: विभिन्न संस्कृतियाँ और समुदाय एक ही देश में फल-फूल सकें इसके लिए अनेक लोकतांत्रिक देशों ने सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने और संरक्षित करने के उपायों को शुरू किया है।
- विभिन्न देशों में अल्पसंख्यक समूहों एवं अनेक सदस्यों को भाषा, संस्कृति एवं धर्म के लिए संवैधानिक संरक्षा के अधिकार दिये गये हैं।
- कुछ मामलों में इन समूहों को विधायी संस्थाओं और अन्य राजकीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया है। ये अधिकार इन समूहों के सदस्यों के लिए कानून द्वारा समान व्यवहार एवं सुरक्षा के साथ ही समूह की सांस्कृतिक पहचान के लिए भीं सुरक्षा का प्रावधान करते हैं।
- इन समूहों को राष्ट्रीय समुदाय के एक अंग के बतौर भी मान्यता दी गई है।
- इसके बावजूद यह हो सकता है कि कुछ समूह पृथक् राज्य की मांग पर अडिग रहें। ऐसी मांगों को अत्यन्त उदारता एवं दक्षता के साथ निपटाना आवश्यक है।
→ निष्कर्ष: यद्यपि राष्ट्रीय आत्म निर्णय के अधिकार में राष्ट्रीयताओं के लिए स्वतंत्र राज्य का अधिकार भी सम्मिलित है, तथापि प्रत्येक राष्ट्रीय समूह को स्वतंत्र राज्य प्रदान करना न तो मुमकिन है और न वांछनीय। यह आर्थिक और राजनैतिक क्षमता की दृष्टि से बेहद छोटे राज्यों के गठन की ओर ले सकता है जिसमें अल्पसंख्यक समूहों की समस्यायें और बढ़ेंगी।
अतः राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की पुनः यह व्याख्या की जाती है कि राज्य के भीतर किसी राष्ट्रीयता के लिए कुछ लोकतांत्रिक अधिकारों की स्वीकृति।