Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़
Jharkhand Board Class 11 Political Science संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ InText Questions and Answers
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प्रश्न 1.
मुझे यह बात समझ नहीं आती कि कोई संविधान लचीला या कठोर कैसे होता है? क्या संविधान की कठोरता या उसका लचीलापन उस काल की राजनीति से तय नहीं होता?
उत्तर:
किसी संविधान का लचीला होना या कठोर होना, उस संविधान में की जाने वाली संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करता है। यदि संविधान संशोधन के लिए संसद के 2/3 या 3/4 बहुमत की जरूरत होती है, तो ऐसे संविधान को कठोर कहा जाता है और यदि उसमें संसद सामान्य बहुमत से साधारण विधि की तरह संशोधन कर सकती है, तो उसे लचीला संविधान कहा जाता है। संविधान की कठोरता या उसका लचीलापन उस काल की राजनीति से तय नहीं होता।
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प्रश्न 2.
अगर कुछ राज्य संविधान में संशोधन चाहते हैं तो क्या उनकी बात सुनी जाएगी? क्या ये राज्य संजीव पास बुक्स अपनी तरफ से संशोधन का प्रस्ताव ला सकते हैं? मुझे लगता है कि यह राज्यों की तुलना में केन्द्र को ज्यादा. शक्तियाँ देने का ही एक और उदाहरण है।
उत्तर:
यदि कुछ राज्य संविधान में संशोधन चाहते हैं तो वे अपनी बात को राज्य सभा के सांसदों को राज्यसभा में रखने केलिए दबाव बना सकते हैं, लेकिन औपचारिक रूप से संविधान में संशोधन का प्रस्ताव रखने का राज्यों को कोई अधिकार नहीं दिया गया है। हाँ, यह राज्यों की तुलना में केन्द्र को ज्यादा शक्तियाँ देने का ही एक ओर उदाहरण है।
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प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में निम्नलिखित संशोधन करने के लिए कौन-सी शर्तें पूरी की जानी चाहिए?
1. नागरिकता सम्बन्धी अनुच्छेद
2. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
3. केन्द्र सूची में परिवर्तन
4. राज्य की सीमाओं में बदलाव
5. चुनाव आयोग से संबंधित उपबन्ध।
उत्तर:
- नागरिकता सम्बन्धी अनुच्छेद: संसद के दोनों सदनों का पृथक्-पृथक् सामान्य बहुमत की शर्त।
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार: विशेष बहुमत की शर्त।
- केन्द्र सूची में परिवर्तन: विशेष बहुमत राज्यों द्वारा अनुमोदन।
- राज्य की सीमाओं में बदलाव: सामान्य बहुमत।
- चुनाव आयोग से संबंधित उपबंध: विशेष बहुमत राज्यों द्वारा अनुमोदन।
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प्रश्न 4.
बताएं कि निम्नलिखित वाक्य सही हैं या गलत?
(क) बुनियादी ढांचे को लेकर दिये गए फैसले के बाद, संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार नहीं रह गया है।
(ख) सर्वोच्च न्यायालय ने हमारे संविधान के बुनियादी तत्वों की एक सूची तैयार की है। इस सूची को बदला नहीं जा सकता।
(ग) न्यायालय को इस बात का फैसला करने का अधिकार है कि किसी संशोधन से बुनियादी संरचना का उल्लंघन होता है या नहीं।
(घ) केशवानंद भारती मामले के बाद यह तय हो चुका है कि संसद संविधान में किस सीमा तक संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(क) – गलत है।
(ग) – सही है।
(ख) – गलत है।
(घ) – सही है।
Jharkhand Board Class 11 Political Science संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ Textbook Questions and Answers
प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौनसा वाक्य सही है। संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि।
(क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
(ख) किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो जाता है।
(ग) हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए।
(घ) संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिंबित होना चाहिए।
उत्तर:
उपर्युक्त चारों वाक्यों में (क) वाक्य सही है। यह है। संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि (क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही/गलत का निशान लगाएँ:
(क) राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
(ख) संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास ही होता है।
(ग) न्यायपालिका संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परन्तु उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या के द्वारा वह संविधान को काफी हद तक बदल सकती है।
(घ) संसद संविधान के किसी भी खंड में संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(क) सत्य (ख) असत्य (ग) सत्य (घ) असत्य।
प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया में भूमिका निभाते हैं? इस प्रक्रिया में ये कैसे शामिल होते हैं?
(क) मतदाता
(ख) भारत का राष्ट्रपति
(ग) राज्य की विधानसभाएँ
(घ) संसद
(ङ) राज्यपाल
(च) न्यायपालिका
उत्तर:
(क) मतदाता: भारत के संविधान संशोधन में मतदाता भाग नहीं लेते हैं।
(ख) भारत का राष्ट्रपति: भारत का राष्ट्रपति संविधान संशोधन में भाग लेता है। संसद के दोनों सदनों से संविधान संशोधन विधेयक पारित होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने पर वह संशोधन विधेयक पारित हो जाता है। राष्ट्रपति को किसी भी संशोधन विधेयक को वापस भेजने का अधिकार नहीं है।
(ग) राज्य की विधानसभाएँ: संविधान की कुछ धाराओं (अनुच्छेदों) में संशोधन करने के लिए संसद के दो- तिहाई बहुमत के साथ-साथ आधे या उससे अधिक राज्यों की विधानसभाओं से भी अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है।
(घ) संसद – भारतीय संविधान में संशोधन का मुख्य घटक संसद है क्योंकि सभी प्रकार के संशोधन संसद में ही प्रस्तावित किये जा सकते हैं। प्रथम प्रकार के संशोधन विधेयक को पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत की ही आवश्यकता होती है। दूसरे प्रकार के संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के पृथक-पृथक विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। तीसरे प्रकार के संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के पृथक-पृथक विशेष बहुमत के साथ-साथ आधे या आधे से अधिक राज्यों की विधानसभाओं के अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार तीनों प्रकार के संविधान संशोधनों में संसद के दोनों सदनों का हाथ अवश्य रहता है।
(ङ) राज्यपाल: संविधान के जिन-जिन अनुच्छेदों में संशोधन हेतु पचास प्रतिशत राज्यों के विधानमण्डलों की अनुमति लेनी होती है, केवल वहां राज्यपाल की लिप्तता पायी जाती है, क्योंकि राज्य विधानमण्डल से पारित संशोधन विधेयक पर राज्यपाल को हस्ताक्षर करने होते हैं।
(च) न्यायपालिका: संविधान संशोधनों में न्यायपालिका की भूमिका नहीं होती है।
प्रश्न 4.
इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42वां संशोधन अब तक का सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे?
(क) यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
(ख) यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
(ग) इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
(घ) संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।
उत्तर:
42वाँ संविधान संशोधन विभिन्न विवादास्पद संशोधनों में से एक था। उपर्युक्त कारणों में से इसके विवादास्पद होने के निम्नलिखित कारण थे।
- यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
- इस संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।
यह संविधान संशोधन वास्तव में उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती विवाद में दिये गये निर्णयों को निष्क्रिय करने का प्रयास था। गये थे।
दूसरे, इसमें लोकसभा की अवधि को 5 वर्ष से बढ़ाकर छः वर्ष कर दिया गया था।
इसमें न्यायपालिका की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति को भी प्रतिबंधित कर दिया गया था।
इस संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना, 7वीं अनुसूची तथा संविधान के 53 अनुच्छेदों में परिवर्तित कर दिये
प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों में कौनसा वाक्य विभिन्न संशोधनों के सम्बन्ध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता।
(क) संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
(ख) खंडन-मंडन/बहस और मतभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं।
(ग) कुछ नियमों और सिद्धान्तों को संविधान में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्व दिया गया है। कतिपय संशोधनों के लिए संविधान में विशेष बहुमत की व्यवस्था की गई है।
(घ) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
(ङ) न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।
उत्तर:
उपर्युक्त पांचों कथनों में से भाग (ङ) ही विधायिका और न्यायपालिका के बीच तनाव की उचित व्याख्या नहीं है। यह कथन है कि “न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।”
प्रश्न 6.
बुनियादी ढाँचे के सिद्धान्त के बारे में सही बात को चिह्नित करें। गलत वाक्य को सही करें।
(क) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
(ख) बुनियादी ढाँचे को छोड़कर विधायिका संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर सकती है।
(ग) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढांचे के अन्तर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
(घ) यह सिद्धान्त सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
(ङ) इस सिद्धान्त से न्यायपालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों ने बुनियादी ढांचे के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर:
बुनियादी ढांचे के सिद्धान्त के बारे में (ख), (ग), (घ) और (ङ) वाक्य सही हैं और (क) वाक्य गलत है।
(क) वाक्य को इस प्रकार सही किया जा सकता है। “संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा नहीं किया गया है।
प्रश्न 7.
सन् 2002-2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर निम्नलिखित में से कौनसे निष्कर्ष निकालेंगे।
(क) इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
(ख) इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
(ग) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
(घ) इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अन्तर नहीं रह गया था।
(ङ) ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
उत्तर:
प्रश्न में दिये गए निष्कर्षों में से सही निष्कर्ष हैं।
(ग) और (ङ)। ये इस प्रकार हैं।
(ग) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था तथा
(ङ) ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
प्रश्न 8.
संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है? व्याख्या करें।
उत्तर:
विशेष बहुमत से आशय: संविधान के अधिकांश प्रावधानों में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। विशेष बहुमत से यहाँ आशय है। साधारण बहुमत की तुलना में अधिक बहुमत भारत के संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है।
प्रथमतः, संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए। दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए। संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने की आवश्यकता नहीं है।विशेष बहुमत की आवश्यकता: विशेष बहुमत की आवश्यकता को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।
- राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी हेतु संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत का प्रावधान इसलिए किया गया है कि उसमें राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी होनी चाहिए। इसका आशय यह है कि जब तक प्रस्तावित विधेयक पर पर्याप्त सहमति न बन पाए तब तक उसे पारित नहीं किया जाना चाहिए।
- जनमत की दृष्टि से डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में विशेष बहुमत की आवश्यकता को जनमत से जोड़ते हुए कहा कि “जो लोग संविधान से संतुष्ट नहीं हैं उन्हें इसमें संशोधन करने के लिए सिर्फ दो तिहाई बहुमत की जरूरत है। अगर वे इतना बहुमत भी हासिल नहीं कर सकते तो यह कहना पड़ेगा कि उनकी राय में आम जनता की राय निहित नहीं है।” इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर ने ‘विशेष बहुमत’ को ‘जनता की राय’ से जोड़ते हुए संविधान संशोधन में इसकी आवश्यकता प्रतिपादित की।
प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं के परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर:
न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याएँ संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और संसद के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते रहते हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं। इस तरह के टकराव पैदा होने पर संसद को संशोधन का सहारा लेकर संविधान की किसी एक व्याख्या को प्रामाणिक सिद्ध करना पड़ता है। यथा। 1970-75 के दौरान संसद और न्यायपालिका के बीच उठे विवाद – 1970-75 के दौरान भारत में संविधान के कतिपय अनुच्छेदों की व्याख्याओं को लेकर संसद और न्यायपालिका के बीच अनेक विवाद उठे तथा इस काल में संसद ने न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार- बार संशोधन किये। यथा
1. मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या पर विवाद के आधार पर हुए संशोधन: मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर संसद और न्यायपालिका के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते रहे हैं। अनेक संशोधन मूल अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्वों के सम्बन्धों तथा संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को स्थापित करने तथा इनसे संबंधित संविधान के प्रावधानों की भिन्न-भिन्न व्याख्या को लेकर हुए हैं। पहला संविधान संशोधन जमींदारी प्रथा के उन्मूलन तथा भूमि सुधारों से संबंधित अनेक कानूनों को संविधान सम्मत बनाने हेतु किया गया।
इन्हें न्यायिक समीक्षा की न्यायिक शक्ति से बाहर कर दिया। 1967 में गोलकनाथ विवाद में न्यायपालिका ने यह व्याख्या की कि संसद मूल अधिकारों में कोई संशोधन नहीं कर सकती। संसद ने 1971 में 24वां संविधान संशोधन किया जिसमें उसने यह स्थापित किया कि संसद संविधान के किसी भाग में संशोधन कर सकती है। सन् 1972 में संसद ने 25वां संविधान संशोधन किया। इसमें उसने नीति निर्देशक तत्वों में दो नये अनुच्छेद 39(b) तथा 39 (c) प्रविष्ट किये।
इनमें यह भी कहा गया कि 39(a) तथा 39 (b) में दिये गए किसी विषय पर बने किसी कानून को इस आधार पर असंवैधानिक नहीं घोषित किया जायेगा कि वे किसी मूल अधिकार का उल्लंघन करते हैं। केशवानंद भारती (1973) के विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने 24वें तथा 25वें संविधान संशोधन की संवैधानिक समीक्षा में इस बात से सहमति दर्शायी कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है लेकिन संशोधन द्वारा किए गए परिवर्तन द्वारा संविधान की मौलिक संरचना को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या से संबंधित विवाद के कारण अनेक संशोधन हुए हैं।
2. संसद की संशोधन करने की शक्ति की सीमा सम्बन्धी व्याख्या पर संसद और न्यायपालिका के विवाद पर हुए संशोधन – 1967 में गोलकनाथ विवाद में न्यायपालिका ने संसद की संशोधन की शक्ति पर यह व्याख्या की है कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है। न्यायपालिका की इस व्याख्या को निरस्त करने के लिए संसद 1971 में 24वां संविधान संशोधन किया जिसमें यह स्थापित किया गया कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है।
लेकिन केशवानंद भारती विवाद में 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्याख्या की कि संसद यद्यपि संविधान के हर भाग में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह संविधान की मौलिक संरचना में कोई संशोधन नहीं कर सकती। संविधान की मौलिक संरचना का निर्धारण न्यायपालिका करेगी। न्यायपालिका की इस व्याख्या को निरस्त करने के लिए संसद ने 1976 में 42वां संविधान संशोधन पारित किया। इस संशोधन के द्वारा संविधान में अन्य अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। जब यह संशोधन पारित किया गया तब देश में आपातकाल जारी था तथा विरोधी दलों के प्रमुख सांसद जेल में थे।
इसी पृष्ठभूमि में 1977 में चुनाव हुए तथा सत्ताधारी दल कांग्रेस की हार हुई। नई सरकार ने 38वें, 39 वें तथा 42वें संशोधनों में अधिकांश को 43वें, 44वें संशोधनों के द्वारा निरस्त कर दिया। इन संशोधनों के माध्यम से संवैधानिक संतुलन को पुनः स्थापित किया गया। मिनर्वा मिल प्रकरण (1980) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने केशवानंद भारती के इस निर्णय को पुनः दोहराया कि संसद – संविधान की मूल संरचना में संशोधन नहीं कर सकती। वर्तमान में राजनैतिक दलों, राजनेताओं, सरकार और संसद ने भी मूल संरचना के विचार को स्वीकार कर लिया है।
प्रश्न 10.
अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
उत्तर:
मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि ‘अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।’
प्रजातंत्र में जितना महत्व जनकल्याण को दिया जाता है, उतना ही महत्व इस बात को भी दिया जाता है कि ‘सत्ता का दुरुपयोग न होने पाए। संसद जनता का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि कार्यपालिका तथा न्यायपालिका पर इसको वरीयता दी जानी चाहिए अर्थात् संविधान संशोधन की संसद की शक्ति सर्वोच्च होनी चाहिए; उसकी इस शक्ति पर न्यायपालिका का कोई अंकुश नहीं होना चाहिए। इसी दृष्टि से भारत में न्यायपालिका तथा संसद के विवाद के दौरान संसद का यह दृष्टिकोण था कि उसके पास गरीब, पिछड़े तथा असहाय लोगों के हितों की रक्षा के लिए संशोधन करने की शक्ति मौजूद है।
लेकिन लोकतंत्र में विधायिका के साथ-साथ सरकार के अन्य दोनों अंगों को भी शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इसलिए यह अपेक्षा की जाती है कि संसद की सर्वोच्चता संविधान के ढांचे के अन्तर्गत ही हो। प्रजातंत्र का अर्थ केवल वोट और जनप्रतिनिधियों तक ही सीमित नहीं है। प्रजातंत्र का अर्थ विकासशील संस्थाओं से है और उनके संतुलन से है। इसलिए सभी राजनीतिक संस्थाओं को लोगों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए और दोनों को एक-दूसरे के साथ मिलकर चलना चाहिए। इसलिए यह आवश्यक है कि यदि संविधान में संशोधन का अधिकार संसद ( विधायका) के पास हो, तो न्यायपालिका के पास संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए क्योंकि-
- विधायिका को शक्ति संविधान से मिलती है और अन्य अंगों को भी शक्ति उससे मिलती है। अतः सभी अंग अपना कार्य संविधान की सीमा में रहते हुए करें तथा उसके ढांचे के अन्तर्गत ही करें।
- सरकार के तीनों अंगों के कार्यों में परस्पर नियंत्रण व संतुलन होना चाहिए ताकि वे लोगों के प्रति उत्तरदायी बने रहें।
- जनकल्याण के साथ-साथ लोकतंत्र में शक्ति के दुरुपयोग पर नियंत्रण भी बराबर के महत्व का है।
जनकल्याण हेतु किये जाने वाले संविधान संशोधन विधिक सीमाओं से बाहर नहीं होने चाहिए क्योंकि एक बार संविधान की सीमाओं से बाहर जाने की छूट मिलने पर सत्ताधारी उसका दुरुपयोग भी कर सकते हैं। इसलिए संसद व सरकार अपनी शक्ति का ऐसा दुरुपयोग न कर सके इसके लिए न्यायपालिका को संविधान संशोधनों पर पुनर्विचार का अधिकार होना चाहिए । यदि ऐसा नहीं किया जायेगा तो संसद अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर संविधान को नष्ट कर निरंकुश हो जायेगी। इससे शक्ति संतुलन समाप्त हो जायेगा तथा लोकतंत्र को खतरा उत्पन्न हो जायेगा ।
संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ JAC Class 11 Political Science Notes
→ भारतीय संविधान 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत किया गया तथा इसे 26 जनवरी, 1950 को औपचारिक रूप से लागू किया गया। तब से लेकर आज तक यह संविधान लगातार काम कर रहा है। हमारे देश की सरकार इसी संविधान के अनुसार काम करती है। इसके कारण हैं था।
- हमें एक मजबूत संविधान विरासत में मिला है।
- इस संविधान की बनावट हमारे देश की परिस्थितियों के बेहद अनुकूल है।
- हमारे संविधान-निर्माता अत्यन्त दूरदर्शी थे। उन्होंने भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया
- हमारा संविधान लचीला है।
- अदालती फैसले और राजनीतिक व्यवहार – बरताव दोनों ने संविधान के अमल में अपनी परिपक्वता और लचीलेपन का परिचय दिया है। उक्त कारणों से कानूनों की एक बंद और जड़ किताब न बनकर एक जीवन्त दस्तावेज के रूप में विकसित हो सका है।
→ संविधान क्या है?
संविधान समकालीन परिस्थितियों और प्रश्नों से जुड़ा सरकार के निर्माण व संचालन के नियमों का एक मसौदा होता है। उसमें अनेक तत्व स्थायी महत्व के होते हैं, लेकिन यह कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं होता बल्कि उसमें हमेशा संशोधन, बदलाव और पुनर्विचार की गुंजाइश रहती है। इस प्रकार संविधान समाज की इच्छाओं और आकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब होता है तथा यह समाज को लोकतांत्रिक ढंग से चलाने का एक ढांचा भी होता है। क्या भारत का
→ संविधान अपरिवर्तनीय है:
भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान की पवित्रता को बनाए रखने तथा उसमें परिवर्तनशीलता की गुंजाइश होने में संतुलन पैदा करने की कोशिश की है। इस हेतु उन्होंने संविधान को सामान्य कानून से ऊँचा दर्जा दिया तथा उसे इतना लचीला भी बनाया कि उसमें समय की आवश्यकता के अनुरूप यथोचित बदलाव किये जा सकें । अतः स्पष्ट है कि हमारा संविधान कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तवेज नहीं है।
→ संविधान में संशोधन कैसे किया जाता है?
संविधान निर्माता संविधान को एक ही साथ लचीला और कठोर बनाने के पक्ष में थे। लचीला संविधान वह होता है जिसमें आसानी से संशोधन किये जा सकें और कठोर संविधान वह होता है जिसमें संशोधन करना बहुत मुश्किल होता है। भारतीय संविधान में इन दोनों तत्वों का समावेश किया गया है।
→ संविधान संशोधन की प्रक्रिया: संविधान में संशोधन करने के लिए निम्नलिखित तरीके दिये गये हैं
→ संसद में सामान्य बहुमत के आधार पर संशोधन- संविधान में ऐसे कई अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है। ऐसे मामलों में कोई विशेष प्रक्रिया अपनाने की जरूरत नहीं होती। जैसे-नये राज्यों के निर्माण, किसी राज्य के क्षेत्रफल को कम या अधिक करना, किसी राज्य का नाम बदलना आदि। संसद इन अनुच्छेदों में अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया को अपनाए बिना ही साधारण विधि की तरह संशोधन कर सकती है। \
→ अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया को अपनाते हुए संशोधन- संविधान के शेष खंडों में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 368 में दो तरीके दिये गये हैं।
- संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग विशेष बहुमत के आधार पर संशोधन।
- संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग विशेष बहुमत के साथ कुल राज्यों की आधी विधायिकाओं की स्वीकृति के आधार पर संशोधन।
संसद के विशेष बहुमत के अलावा किसी बाहरी एजेन्सी जैसे संविधान आयोग या अन्य किसी निकाय की संविधान की संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं है। इसी प्रकार संसद तथा राज्य विधानपालिकाओं में संशोधन पारित होने के बाद इसकी पुष्टि के लिए किसी प्रकार के जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं रखी गयी है।
→ अन्य सभी विधेयकों की तरह संशोधन विधेयक को भी राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है। परन्तु इस मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार भारत में संशोधन प्रक्रिया का आधार निर्वाचित प्रतिनिधियों (संसदीय संप्रभुता ) में निहित है।
→ विशेष बहुमत: संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है:
प्रथमतः संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए। दूसरे, संशोधन का समर्थन
- करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए।
- संशोधनं विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता होती है।
- इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान नहीं है। संशोधन प्रक्रिया के पीछे बुनियादी भावना यह है कि उसमें राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी होनी चाहिए।
→ राज्यों द्वारा अनुमोदन:
राज्यों और केन्द्र सरकार के बीच शक्तियों के वितरण से संबंधित, जनप्रतिनिधित्व से संबंधित या मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए राज्यों की सहमति प्राप्त करना आवश्यक है। संविधान में राज्यों की शक्तियों को सुनिश्चित करने के लिए यह व्यवस्था की गई है कि जब तक आधे राज्यों की विधानपालिकाएँ किसी संशोधन विधेयक को पारित नहीं कर देतीं तब तक वह संशोधन प्रभाव नहीं माना जाता।
→ संविधान में इतने संशोधन क्यों किये गए हैं?
दिसम्बर, 2017 तक संविधान में 101 संशोधन किये जा चुके थे। ये संशोधन समय की जरूरतों के अनुसार किये गये थे, न कि सत्ताधारी दल की राजनीतिक सोच के आधार पर। संशोधनों की विषय-वस्तु अब तक किये गये संशोधनों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है;
→ पहली श्रेणी में वे संशोधन शामिल किये गए हैं जो तकनीकी या प्रशासनिक प्रकृति के हैं और ये संविधान के मूल उपबन्धों को स्पष्ट बनाने, उनकी व्याख्या करने तथा छिट-पुट संशोधन से संबंधित हैं। ये इन उपबन्धों में कोई बदलाव नहीं करते। यथा
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष करना (15वां संशोधन)।
- सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन ( 55वां संशोधन )।
- अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण की अवधि को बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन।
→ व्याख्या से सम्बन्धित संशोधन: दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत वे संशोधन आते हैं जिनमें संविधान की व्याख्या निहित रही। जैसे मंत्रिपरिषद की सलाह को राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी बनाना, मौलिक अधिकारों और नीति- निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर संसद और न्यायपालिका के मतभेदों के आधार पर किये गये संशोधन।
→ राजनीतिक आम सहमति के माध्यम से संशोधन: बहुत से संशोधन ऐसे हैं जिन्हें राजनीतिक दलों की आपसी सहमति का परिणाम माना जा सकता है। ये संशोधन तत्कालीन राजनीतिक दर्शन और समाज की आकांक्षाओं को समाहित करने के लिए किये गये थे। जैसे दल-बदल विरोधी कानून ( 52वाँ संशोधन तथा 91वां संशोधन), मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटकर 18 वर्ष करने का 61वां संशोधन तथा 73वां व 74वां संशोधन आदि।
→ विवादास्पद संशोधन:
संविधान के 38वें, 39वें और 42वें संशोधन विशेष रूप से विवादास्पद रहे। 1977 में 43वें तथा 44वें संशोधनों के द्वारा 38वें, 39वें तथा 42वें संशोधनों में किए गए तथा अधिकांश परिवर्तनों को निरस्त कर पुनः संवैधानिक संतुलन को स्थापित किया गया।
→ संविधान की मूल संरचना तथा उसका विकास:
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त को न्यायपालिका ने केशवानंद भारती (1973) के मामले में प्रतिपादित किया था । इस निर्णय ने संविधान के विकास में निम्नलिखित सहयोग दिया:
- इस निर्णय द्वारा संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएँ निर्धारित की गईं।
- यह निर्धारित सीमाओं के भीतर संविधान के किसी या सभी भागों के सम्पूर्ण संशोधन को अनुमति देता है।
- संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन के बारे में न्यायपालिका का फैसला अन्तिम होगा।
विगत तीन दशकों के दौरान बुनियादी संचरना के सिद्धान्त को व्यापक स्वीकृति मिली है। इस सिद्धान्त से संविधान की कठोरता और लचीलेपन का संतुलन और मजबूत हुआ है।
→ न्यायालय के आदेश और संविधान का विकास: संविधान की समझ को बदलने में न्यायिक व्याख्याओं की अहम भूमिका रही है। यथा:
- न्यायालय ने कहा कि आरक्षित सीटों की संख्या कुल सीटों की संख्या के आधे से अधिक नहीं होनी चाहिए।
- न्यायालय ने ही अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण नीति में क्रीमीलेयर का विचार प्रस्तुत किया।
- न्यायालय ने शिक्षा, जीवन, स्वतंत्रता के अधिकारों के उपबंधों में अनौपचारिक रूप से कई संशोधन किये हैं।
→ संविधान एक जीवन्त दस्तावेज:
हमारा संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है जो समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है; यह अनुभव से सीखता है। इसलिए समाज में इतने सारे परिवर्तन होने के बाद भी यह अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है तथा टिकाऊ बना हुआ है।
→ न्यायपालिका का योगदान:
न्यायपालिका ने इस बात पर बल दिया है कि सरकार के सब कार्यकलाप संवैधानिक ढांचे के अन्तर्गत किये जाने चाहिए और जनहित के उपाय विधिक सीमा के बाहर नहीं होने चाहिए ताकि सत्ताधारी दल सत्ता का दुरुपयोग न कर सके। इस प्रकार जनकल्याण और ‘सत्ता के दुरुपयोग पर नियंत्रण’ दोनों के बीच न्यायपालिका ने संतुलन स्थापित किया। न्यायपालिका ने ‘मूल संरचना के सिद्धान्त’ का विकास कर सत्ता के दुरुपयोग की संभावनाओं को अवरुद्ध कर दिया है।
→ राजनीतिज्ञों की परिपक्वता:
1967 से 1973 के बीच सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सर्वोच्च होने की प्रतिद्वन्द्विता के तहत केशवानंद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने संविधान की व्याख्या में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। राजनीतिक दलों, राजनेताओं, सरकार तथा संसद ने भी मूल संरचना के संवेदनशील विचार को स्वीकृति प्रदान की है।