Jharkhand Board JAC Class 12 Geography Important Questions Chapter 5 भूसंसाधन तथा कृषि Important Questions and Answers.
JAC Board Class 12 Geography Important Questions Chapter 5 भूसंसाधन तथा कृषि
बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)
प्रश्न – दिए गए चार वैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर चुनकर लिखो –
1. किस प्रकार की कृषि को Slash and Burn कृषि कहते हैं ?
(A) आदि निर्वाह
(B) गहन निर्वाह
(C) रोपण
(D) व्यापारिक।
उत्तर:
(A) आदि निर्वाह
2. भारत का किस फ़सल के उत्पादन में विश्व में दूसरा स्थान है ?
(A) चाय
(B) कहवा
(C) चावल
(D) कपास।
उत्तर:
(C) चावल
3. भारत में कौन-सा राज्य ज्वार का सबसे बड़ा उत्पादक है ?
(A) पंजाब
(B) महाराष्ट्र
(C) कर्नाटक
(D) राजस्थान
उत्तर:
(B) महाराष्ट्र
4. किस फ़सल उत्पादन में भारत का विश्व में पहला स्थान है ?
(A) पटसन
(B) कहवा
(C) चाय
(D) चावल
उत्तर:
(C) चाय
5. बाबा बूदन पहाड़ियों पर किस फ़सल की कृषि आरम्भ की गई ?
(A) चाय
(B) कहवा
(C) चावल
(D) कपास।
उत्तर:
(B) कहवा
6. ‘सोने का रेशा’ किसे कहते हैं ?
(A) कपास
(B) रेशम
(C) पटसन
(D) ऊन।
उत्तर:
(C) पटसन
7. निम्नलिखित में से कौन-सी रबी की फ़सल है ?
(A) चावल
(B) मोटा अनाज
(C) चना
(D) कपास।
उत्तर:
(C) चना
8. कौन-सी फ़सल दलहन फ़सल है ?
(A) दालें
(B) मोटा अनाज
(C) ज्वार
(D) तोरिया।
उत्तर:
(A) दालें
9. किसी फ़सल की सहायता के लिए कौन-सा मूल्य निर्धारित किया जाता है ?
(A) उच्चतम समर्थन मूल्य
(B) निम्नतम समर्थन मूल्य
(C) दरमियाना समर्थन मूल्य
(D) प्रभावशाली समर्थन मूल्य।
उत्तर:
(B) निम्नतम समर्थन मूल्य
10. कपास के लिए कितने दिन का पाला रहित मौसम चाहिए ?
(A) 100
(B) 150
(C) 200
(D) 250
उत्तर:
(C) 200
11. कौन – सा राज्य सर्वाधिक गेहूं उत्पादक राज्य है ?
(A) पंजाब
(B) हरियाणा
(C) उत्तर प्रदेश
(D) राजस्थान
उत्तर:
(C) उत्तर प्रदेश
12. भारत में कुल खाद्य उत्पादन कितना है ?
(A) 7 करोड़ टन
(B) 10 करोड़ टन
(C) 15 करोड़ टन
(D) 23 करोड़ टन।
उत्तर:
(D) 23 करोड़ टन।
13. किस ऋतु में खरीफ़ की फ़सलें बोई जाती हैं ?
(A) शीत
(B) ग्रीष्म
(C) बसन्त
(D) पतझड़।
उत्तर:
(A) शीत
14. भारत के निवल कृषि क्षेत्र हैं
(A) 77%
(B) 67%
(C) 45%
(D) 43%.
उत्तर:
(D) 43%.
15. भारत में खाद्य फ़सलों के अधीन क्षेत्र हैं
(A) 34%
(B) 44%
(C) 54%
(D) 64%
उत्तर:
(C) 54%
वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions )
प्रश्न 1.
देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र में कितने प्रतिशत भाग पर कृषि होती है ?
उत्तर:
– 47%
प्रश्न 2.
भारत में परती भूमि कितने प्रतिशत है ?
उत्तर:
7.6%
प्रश्न 3.
भारत में औसत शस्य गहनता कितनी है ?
उत्तर:
135%
प्रश्न 4.
भारत में खाद्यान्न उत्पादन कितना है ?
उत्तर:
320 करोड़ टन।
प्रश्न 5.
भारत में चावल का कुल उत्पादन कितना है ?
उत्तर:
850 लाख टन।
प्रश्न 6.
भारत में गेहूँ का कुल उत्पादन कितना है ?
उत्तर:
-687 लाख टन।
प्रश्न 7.
भारत में गेहूँ की प्रति हेक्टेयर उपज कितनी है ?
उत्तर:
2743 कि० ग्रा० प्रति हेक्टेयर।
प्रश्न 8.
भारत में दालों का कुल उत्पादन बताओ।
उत्तर:
1 करोड़ टन।
प्रश्न 9.
भारत में तिलहन का कुल उत्पादन कितना है ?
उत्तर:
1.89 करोड टन।
प्रश्न 10.
भारत में चाय की कुल उत्पादन कितना है ?
उत्तर:
8 लाख टन।
प्रश्न 11.
भारत में कितने प्रतिशत लोग जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं ?
उत्तर:
70 प्रतिशत।
प्रश्न 12.
परती भूमि क्या है ?
उत्तर:
वह भूमि जिसमें एक से पांच वर्ष तक कोई फ़सल न उगाई गई हो।
प्रश्न 13.
शुद्ध बोये गए क्षेत्र की दृष्टि से भारत का विश्व में कौन-सा स्थान है ?
उत्तर:
दूसरा स्थान।
प्रश्न 14.
भारत में शस्य गहनता किस राज्य में सर्वाधिक है ?
उत्तर:
पंजाब – 189 प्रतिशत।
प्रश्न 15.
वे तीन उद्देश्य बताओ जिनके लिए भूमि का प्रयोग होता है ?
उत्तर:
उत्पादन, निवास तथा मनोरंजन।
प्रश्न 16.
उस सरकारी संस्था का नाम बताओ जो भौगोलिक क्षेत्रफल के आंकड़े प्रदान करती हैं ?
उत्तर:
सर्वे ऑफ इण्डिया
प्रश्न 17.
किस भूमि को सांझा सम्पत्ति संसाधन कहते हैं ?
उत्तर:
ग्रामीण पंचायतों के अधिकार में भूमि।
प्रश्न 18.
भूमि को परती क्यों छोड़ा जाता है ?
उत्तर:
ताकि भूमि अपनी खोई हुई उर्वरता पुनः प्राप्त कर सके।
प्रश्न 19.
फ़सलों की गहनता ज्ञात करने का सूत्र बताओ।
उत्तर:
फ़सल गहनता =
कुल बोया गया क्षेत्र
शुद्ध बोया गया क्षेत्र
x 100
प्रश्न 20.
भारत में फ़सलों की मुख्य ऋतुएं बताओ।
उत्तर:
खरीफ़, रबी तथा जायद।
प्रश्न 21.
आर्द्रता के आधार पर दो प्रकार की कृषि बताओ।
उत्तर:
शुष्क कृषि तथा आर्द्र कृषि
प्रश्न 22.
पश्चिमी बंगाल में वर्ष में बोई जाने वाली चावल की तीन किस्में बताओ।
उत्तर:
ओस, अमन, बोरो।
प्रश्न 23.
भारत में बोये जाने वाले प्रमुख तिलहन बताओ।
उत्तर:
मूंगफली, तोरिया, सरसों, सोयाबीन, सूरजमुखी।
प्रश्न 24.
पंजाब में लम्बे रेशे वाली कपास को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
नरमा।
प्रश्न 25.
पश्चिम बंगाल में चाय के तीन उत्पादक क्षेत्र बताओ।
उत्तर:
दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी, कूचबिहार।
प्रश्न 26.
भारत में उत्पन्न किए जाने वाले कहवे के तीन प्रकार बताओ।
उत्तर:
अरेबिका, रोबस्टा, लाईबीरिका।
प्रश्न 27.
भारत तथा विश्व में भूमि – मानव अनुपात क्या है ?
उत्तर:
0.31 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति भारत में 0.59 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति विश्व में
प्रश्न 28.
भारत में कितने क्षेत्र में जल सिंचाई होती है ?
उत्तर:
204.6 लाख हेक्टेयर में
प्रश्न 29.
भारत में कितने क्षेत्र में लवणता तथा क्षारता के कारण भूमि व्यर्थ हुई है ?
उत्तर:
80 लाख हेक्टेयर।
प्रश्न 30.
बहुफ़सलीकरण का क्या प्रभाव पड़ा है ?
उत्तर:
परती भूमि में कमी हुई रश्न
प्रश्न 31.
भारत की दो प्रमुख अनाजी फ़सलें बताओ। कोई दो राज्यों के नाम लिखो जो कि इन फ़सलों के प्रमुख उत्पादक हैं।
उत्तर:
गेहूँ तथा चावल प्रमुख अनाजी खाद्यान्न हैं।
प्रमुख उत्पादक –
(क) गेहूँ – उत्तर प्रदेश तथा पंजाब।
(ख) चावल – उत्तर प्रदेश तथा पंजाब।
प्रश्न 32.
भारत में कॉफ़ी का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य
उत्तर:
कर्नाटक
प्रश्न 33.
भारत में कॉफी की किस किस्म का अधिक उत्पादन होता है ?
उत्तर:
अरेबिका कॉफी।
प्रश्न 34.
औस, अमन और बोरो किस खाद्य फ़सलों के नाम हैं ?
उत्तर:
चावल।
प्रश्न 35.
भारत में शुष्क कृषि वाले प्रदेशों की एक फ़सल का नाम लिखो।
उत्तर:
बाजरा।
प्रश्न 36.
भारत में अधिकतम चावल पैदा करने वाला राज्य कौन-सा है ?
उत्तर:
पश्चिम बंगाल।
प्रश्न 37.
भारत में चाय का अधिकतम उत्पादन करने वाला राज्य कौन-सा है ?
उत्तर:
असम
अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)
प्रश्न 1.
भौगोलिक क्षेत्र तथा रिपोर्टिंग क्षेत्र में अन्तर स्पष्ट करो।
उत्तर:
भूराजस्व विभाग भू-उपयोग सम्बन्धी अभिलेख रखता है। भू-उपयोग संवर्गों का योग कुल प्रतिवेदन (रिपोर्टिंग ) क्षेत्र के बराबर होता है जो कि भौगोलिक क्षेत्र से भिन्न है । भारत की प्रशासकीय इकाइयों के भौगोलिक क्षेत्र की सही जानकारी देने का दायित्व भारतीय सर्वेक्षण विभाग पर है । भूराजस्व तथा सर्वेक्षण विभाग दोनों में मूलभूत अन्तर यह है कि भू-राजस्व द्वारा प्रस्तुत क्षेत्रफल पत्रों के अनुसार रिपोर्टिंग क्षेत्र पर आधारित है जो कि कम या अधिक हो सकता है। कुल भौगोलिक क्षेत्र भारतीय सर्वेक्षण विभाग के सर्वेक्षण पर आधारित है तथा यह स्थायी है।
प्रश्न 2.
वास्तविक वन क्षेत्र तथा वर्गीकृत वन क्षेत्रों में अन्तर बताओ।
उत्तर:
वास्तविक वन क्षेत्र वर्गीकृत वन क्षेत्र से भिन्न होता है। वर्गीकृत वन क्षेत्र का सरकार द्वारा सीमांकन किया जाता है जहां वन विकसित हो सकें। परन्तु वास्तविक वन क्षेत्र वह क्षेत्र है जो वास्तविक रूप से वनों से ढके हैं।
प्रश्न 3.
कृषि भूमि पर निरन्तर दबाव के कारण बताओ।
उत्तर:
यद्यपि समय के साथ, कृषि क्रियाकलापों का अर्थव्यवस्था में योगदान कम होता जाता है, भूमि पर कृषि क्रियाकलापों का दबाव कम नहीं होता। कृषि भूमि पर बढ़ते दबाव के कारण हैं –
(अ) प्रायः विकासशील देशों में कृषि पर निर्भर व्यक्तियों का अनुपात अपेक्षाकृत धीरे-धीरे घटता है जबकि कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान तीव्रता से कम होता है।
(ब) वह जनसंख्या में कृषि सेक्टर पर निर्भर होती है। प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है।
प्रश्न 4.
भू-उपयोग के कौन-से वर्गों के क्षेत्र में वृद्धि हुई है तथा क्यों ?
उत्तर:
तीन संवर्गों में वृद्धि व चार संवर्गों के अनुपात में कमी दर्ज की गई है। वन क्षेत्रों, गैर-कृषि कार्यों में प्रयुक्त भूमि, वर्तमान परती भूमि आदि के अनुपात में वृद्धि हुई है। वृद्धि के निम्न कारण हो सकते हैं –
- ग़ैर-कृषि कार्यों में प्रयुक्त क्षेत्र में वृद्धि दर अधिकतम है। इसका कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की बदलती संरचना है, जिसकी निर्भरता औद्योगिक व सेवा सेक्टरों तथा अवसंरचना सम्बन्धी विस्तार पर उत्तरोतर बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त गांवों व शहरों में, बस्तियों के अन्तर्गत क्षेत्रफल में विस्तार से भी इसमें वृद्धि हुई है।
- देश में वन क्षेत्र में वृद्धि सीमांकन के कारण हुई न कि देश में वास्तविक वन आच्छादित क्षेत्र के कारण।
- वर्तमान परती क्षेत्र में वृद्धि वर्षा की अनियमितता तथा फ़सल – चक्र पर निर्भर है।
प्रश्न 5.
भू-उपयोग के किन वर्गों के क्षेत्र में कमी हुई है ?
उत्तर:
वे चार भू-उपयोग संवर्ग, जिनमें क्षेत्रीय अनुपात में गिरावट आई है – बंजर, व्यर्थ भूमि व कृषि योग्य व्यर्थ भूमि, चरागाहों तथा तरु फ़सलों के अन्तर्गत क्षेत्र तथा निवल बोया गया क्षेत्र।
कारण –
- समय के साथ जैसे – जैसे कृषि तथा गैर कृषि कार्यों हेतु भूमि पर दबाव बढ़ा, वैसे-वैसे व्यर्थ एवं कृषि योग्य व्यर्थ भूमि में समयानुसार कमी इसकी साक्षी है।
- निवल बोए गए क्षेत्र में धीमी वृद्धि दर्ज की जाती रही है। निवल बोए गए क्षेत्र में न्यूनता का कारण ग़ैर-कृषि में प्रयुक्त भूमि के अनुपात का बढ़ना हो सकता है।
- चरागाह भूमि में कमी का कारण कृषि पर बढ़ता दबाव है।
प्रश्न 6.
दक्षिणी भारत में फ़सलों की ऋतुओं में विशेष परिवर्तन नहीं होता। क्यों ?
उत्तर:
फ़सलों की कृषि सिंचित भूमि पर की जाती है यद्यपि इस प्रकार की पृथक् फ़सल ऋतुएं देश के दक्षिण भागों में नहीं पाई जातीं। यहां का अधिकतम तापमान वर्षभर किसी भी उष्ण कटिबन्धीय फ़सल की बुवाई में सहायक है, इसके लिए पर्याप्त आर्द्रता उपलब्ध होनी चाहिए। इसलिए देश के इस भाग में, जहां भी पर्याप्त मात्रा में सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध हैं, एक कृषि वर्ष में एक ही फ़सल तीन बार उगाई जा सकती है।
प्रश्न 7.
भारत में कृषि विकास के समर्थन में तीन कारकों का वर्णन करो।
उत्तर:
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
- वर्ष 2001 में देश की लगभग 53 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी।
- भारत में कृषि की महत्ता इस तथ्य से आंकी जा सकती है कि देश के 57 प्रतिशत भू-भाग पर कृषि की जाती; जबकि विश्व में कुल भूमि पर केवल 12 प्रतिशत भू-भाग पर कृषि की जाती है।
- भारत का एक बड़ा भू-भाग कृषि के अन्तर्गत होने के बावजूद यहां भूमि पर दबाव अधिक है। यहां प्रति व्यक्ति कृषि भूमि का अनुपात केवल 0.31 हेक्टेयर है जो विश्व औसत (0.59 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति) से लगभग आधा है। भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात्, अनेक कठिनाइयों के बावजूद कृषि में अत्यधिक प्रगति की है।
प्रश्न 8.
कृषि की परिभाषा दो। कृषि के लिए किन दशाओं की आवश्यकता होती है ?
उत्तर:
भूमि से उपज प्राप्त करने की कला को कृषि कहते हैं। मिट्टी को जोतने, गोड़ने, फ़सलें उगाने तथा पशु पालने की कार्य-प्रणाली को कृषि कहते हैं। अंग्रेज़ी का ‘एग्रीकल्चर’ (Agriculture) शब्द लैटिन भाषा के दो शब्दों ‘एगर’ (ager) अर्थात् भूमि तथा ‘कल्चरा’ (cultura) अर्थात् जुताई से मिलकर बना है। इस प्रकार कृषि का अर्थ है जुताई करना ( फसलें उगाना) और पशुओं का पालना।
कृषि के लिए आवश्यक दशाएं – हम सभी जानते हैं कि सारी भूमि कृषि के योग्य नहीं होती हैं। फ़सलें उगाने के लिए निम्नलिखित की आवश्यकता होती है –
भौतिक दशाएं – समतल भूमि, उपजाऊ मृदा, पर्याप्त वर्षा और अनुकूल तापमान।
मानवीय दशाएं – मनुष्य के द्वारा भूमि का उपयोग इन बातों पर भी निर्भर करता है – प्रौद्योगिकी, काश्तकारी की अवधि तथा उनका आकार, सरकारी नीतियां और अन्य अनेक अवसंरचनात्मक कारक।
प्रश्न 9.
भारत में बोया गया शुद्ध क्षेत्र कितना है ? इसका विश्व में कौन-सा स्थान है ?
उत्तर:
1950-51 में बोया गया शुद्ध क्षेत्र 11.87 करोड़ हेक्टेयर था, जो बढ़कर 1998-99 में 14.26 करोड़ हेक्टेयर हो गया था। इस प्रकार देश के कुछ भौगोलिक क्षेत्र के 46.59 प्रतिशत भाग में आजकल खेती होती है, जबकि 1950-51 में यह 36.1 प्रतिशत था। लगभग 2.34 करोड़ हेक्टेयर भूमि परती है, जो कुल प्रतिवेदित क्षेत्र का 7.6 के प्रतिशत है। इस प्रकार भारत का आधे से अधिक क्षेत्र कृषि के अन्तर्गत है । यहां यह जानना प्रासंगिक होगा कि कुल भौगोलिक क्षेत्र के सन्दर्भ में भारत का संसार में सातवां स्थान है, लेकिन कृषि के अन्तर्गत भूमि के सन्दर्भ में इसका दूसरा स्थान है। प्रथम स्थान पर संयुक्त राज्य अमेरिका है, जो भूमि- क्षेत्र में भारत में ढाई गुना बड़ा।
प्रश्न 10.
भारत में बोये गए शुद्ध क्षेत्रफल का उच्च अनुपात क्यों है ?
उत्तर:
कुल भौगोलिक क्षेत्र के अनुपात में बोया गया शुद्ध क्षेत्र सभी राज्यों में एक समान नहीं है। अरुणाचल प्रदेश में शुद्ध बोया गया क्षेत्र 3.2 प्रतिशत है, जबकि हरियाणा और पंजाब में यह 82.20 प्रतिशत है। सतलुज गंगा के जलोढ़ मैदान, गुजरात के मैदान, काठियावाड़ का पठार, महाराष्ट्र का पठार, पश्चिमी बंगाल का मैदान, अत्यधिक कृषि क्षेत्र हैं। कृषि क्षेत्र के इतने अधिक अनुपात के कारण ये हैं –
- सामान्य ढाल वाली भूमि
- उपजाऊ और आसानी से जुताई योग्य जलोढ़ और
- काली मृदा
- अनाज की कृषि के लिए अनुकूल जलवायु
- सिंचाई की उत्तम सुविधाएं तथा
- जनसंख्या के उच्च घनत्व का अत्यधिक दबाव।
पर्वतीय और सूखे क्षेत्रों का उच्चावच, जलवायु और मृदा और कृषि के लिए उपयुक्त नहीं है, अतः इन क्षेत्रों में कृषि की व्यापकता कम है ।
प्रश्न 11.
पंजाब राज्य में सर्वाधिक शस्य गहनता के क्या कारण हैं ?
उत्तर:
पंजाब राज्य में भारत में सर्वाधिक शस्य गहनता 189 प्रतिशत है। पंजाब राज्य में 94 प्रतिशत से अधिक फ़सलगत क्षेत्र सिंचित हैं। सिंचाई अधिक शस्य गहनता का प्रमुख निर्धारक है। मृदा की सुघट्यता तथा उर्वरता भाग शस्य गहनता को अधिक करती है। जनसंख्या का अधिक दबाव भी शस्य गहनता को प्रभावित करता है । आधुनिक अधिक उपज देने वाली फसलें भी शस्य गहनता को बढ़ावा देती हैं।
प्रश्न 12.
‘भारतीय कृषि आज भी वर्षाधीन है। व्याख्या करो
उत्तर:
भारतीय कृषि आज भी वर्षाधीन है। 14.28 करोड़ हेक्टेयर के फ़सलगत शुद्ध क्षेत्र ( 1996-97 ) में से केवल 5.51 करोड़ हेक्टेयर ( 38.5%) क्षेत्र तक ही सिंचित है। मोटे अनाज और ज्वार, बाजरा, दालें, तिलहन और कपास मुख्य वर्षा पोषित फ़सलें हैं। 75 से० मी० से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसे वर्षापोषित कृषि कहते हैं
प्रश्न 13.
वर्तमान समय में भारतीय कृषि की किन्हीं तीन आर्थिक समस्याओं का वर्णन कीजिए ।
उत्तर:
- विपणन सुविधाओं की कमी या उचित ब्याज पर ऋण न मिलने के कारण किसान कृषि के विकास के लिए आवश्यक संसाधन नहीं जुटा पाता है ।
- कृषि में अधिक उपज देने वाले बीजों, उर्वरक के सीमित प्रयोग के कारण उत्पादकता निम्न है।
- भूमि पर जनसंख्या का दबाव दिन प्रति दिन बढ़ रहा है । परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति फ़सलगत भूमि में कमी हो रही है। यह भूमि 0.219 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है। जोतों के छोटे होने के कारण निवेश की क्षमता भी कम है।
प्रश्न 14.
भारत में फ़सल प्रतिरूपों का वर्णन करो।
उत्तर:
फ़सल प्रतिरूप (Cropping Pattern) – सभी फ़सलों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है – खाद्य फ़सलें तथा ग़ैर-खाद्य फ़सलें । खाद्य फ़सलों का पुनः तीन उपवर्गों में विभाजन किया जा सकता है –
- अनाज और ज्वार बाजरा
- दालें और
- फल तथा सब्ज़ियां।
अनाज, ज्वार – बाजरा और दालों को सामूहिक रूप से खाद्यान्न भी कहते हैं। ग़ैर-खाद्य फ़सलों में तिलहन, रेशेदार फ़सलें, अनेक रोपण फ़सलें तथा चारे की फ़सलें प्रमुख हैं ।
प्रश्न 15.
भारत में कृषि उत्पादकता अभी भी कम क्यों है ? तीन प्रमुख कारण लिखिए।
उत्तर:
भारत में प्रति हेक्टेयर फ़सलों की उपज कम है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –
- अधिक उपज वाले बीजों का कम प्रयोग – केवल 16% कृषिकृत भूमि HYV बीजों के अधीन है।
- पुरानी कृषि विधियां – मृदा का उपजाऊपन निरन्तर कम हो रहा है। उर्वरकों का अधिक प्रयोग नहीं है। कीटनाशक तथा उत्तम बीजों का प्रयोग कम है।
- निम्न निवेश – किसान निर्धन है, पूंजी की कमी के कारण कृषि में अधिक निर्वेश नहीं है। जनसंख्या के अधिक दबाव के कारण जोतों का आकार घट रहा है। जल सिंचाई का प्रयोग सीमित है। इसलिए उत्पादकता कम है।
प्रश्न 16.
भारत में हरित क्रान्ति की तीन प्रमुख उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
- हरित क्रान्ति की सबसे अधिक उल्लेखनीय उपलब्धि खाद्यान्नों के उत्पादन में भारी वृद्धि है। खाद्यान्नों का उत्पादन 1965-66 में 7.2 करोड़ टन था जो 2010-11 में 23 करोड़ टन हो गया।
- घरेलू उत्पादन में वृद्धि के परिणामस्वरूप खाद्यान्नों का आयात घटते घटते अब बिल्कुल समाप्त हो गया है। 1965 में खाद्यान्नों का आयात 1.03 करोड़ टन था जो घटकर 1983-84 में 24 लाख टन रह गया तथा अब कोई आयात नहीं है।
- कृषिकृत क्षेत्र में तथा उपज प्रति हेक्टेयर में वृद्धि हुई है। अधिक उपज वाले बीजों के प्रयोग, जल सिंचाई तथा उर्वरक के प्रयोग में वृद्धि हुई है।
प्रश्न 17.
शुष्क कृषि तथा आर्द्र कृषि की तीन-तीन विशेषताएं बताते हुए अन्तर स्पष्ट करो।
उत्तर:
- शुष्क कृषि उन प्रदेशों तक सीमित है जहां वार्षिक वर्षा 75 सें० मी० से कम है। जबकि आर्द्र कृषि (75 सें० मी० से अधिक) अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में की जाती है ।
- शुष्क कृषि में आर्द्रता संरक्षण विधियां अपनाई जाती हैं जबकि आर्द्र कृषि क्षेत्रों में बाढ़ों तथा मृदा अपरदन की समस्याएं होती हैं ।
- शुष्क कृषि में कठोर फ़सलें तथा शुष्क वातावरण सहन करने वाली फ़सलें बोई जाती हैं जैसे रागी, बाजरा, मूंग आदि । परन्तु आर्द्र कृषि में चावल, पटसन, गन्ने की कृषि होती है।
लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)
प्रश्न 1.
स्वामित्व के आधार पर भूमिका का वर्गीकरण करो। साझा सम्पत्ति संसाधनों की विशेषताएं बताओ। उन्हें प्राकृतिक संसाधन क्यों कहते हैं ?
उत्तर:
भूमि के स्वामित्व के आधार पर इसे मोटे तौर पर दो वर्गों में बांटा जाता है।
(1) निजी भू-सम्पत्ति तथा
(2) साझा सम्पत्ति संसाधन।
पहले वर्ग की भूमिका पर व्यक्तियों का निजी स्वामित्व अथवा कुछ व्यक्तियों का सम्मिलित निजी स्वामित्व होता है। दूसरे वर्ग की भूमियां सामुदायिक उपयोग हेतु राज्यों के स्वामित्व में होती हैं । साझा सम्पत्ति संसाधन – पशुओं के लिए चारा, घरेलू उपयोग हेतु ईंधन, लकड़ी तथा साथ ही अन्य वन उत्पाद जैसे – फल, रेशे, गिरी, औषधीय पौधे आदि उपलब्ध कराती हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन छोटे कृषकों तथा अन्य आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के व्यक्तियों के जीवन-यापन में इन भूमियों का विशेष महत्त्व है; क्योंकि इनमें से अधिकतर भूमिहीन होने के कारण पशुपालन से प्राप्त आजीविका पर निर्भर हैं। महिलाओं के लिए भी इन भूमियों का विशेष महत्त्व है। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में चारा व ईंधन लकड़ी के एकत्रीकरण की ज़िम्मेदारी उन्हीं की होती है । इन भूमियों में कमी से उन्हें चारे तथा ईंधन की तलाश में दूर तक भटकना पड़ता है।
साझा सम्पत्ति संसाधनों को सामुदायिक प्राकृतिक संसाधन भी कहा जा सकता है, जहां सभी सदस्यों को इसके उपयोग का अधिकार होता है तथा किसी विशेष के सम्पत्ति अधिकार न होकर सभी सदस्यों के कुछ विशेष कर्त्तव्य भी हैं। सामुदायिक वन, चरागाहों, ग्रामीण जलीय क्षेत्र तथा अन्य सार्वजनिक स्थान साझा सम्पत्ति संसाधन के ऐसे उदाहरण हैं जिसका उपयोग एक परिवार से बड़ी इकाई करती है तथा यही उसके प्रबन्धन के दायित्वों का निर्वहन करती हैं ।
प्रश्न 2.
भूमि संसाधनों का क्या महत्त्व है ? तीन तथ्य बताओ।
उत्तर:
भू-संसाधनों का महत्त्व उन लोगों के लिए अधिक है जिनकी आजीविका कृषि पर निर्भर है
- द्वितीयक व तृतीयक आर्थिक क्रियाओं की अपेक्षा कृषि पूर्णतया भूमि पर आधारित है। अन्य शब्दों में, कृषि उत्पादन में भूमि का योगदान अन्य सैक्टरों में इसके योगदान से अधिक है। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीनता प्रत्यक्ष रूप से वहां की ग़रीबी से सम्बन्धित है।
- भूमि की गुणवत्ता कृषि उत्पादकता को प्रभावित करती है जो अन्य कार्यों में नहीं है
- ग्रामीण क्षेत्रों में भू-स्वामित्व का आर्थिक मूल्य के अतिरिक्त सामाजिक मूल्य भी है तथा प्राकृतिक आपदाओं या निजी विपत्ति में एक सुरक्षा की भांति है एवं समाज में प्रतिष्ठा बढ़ाता है।
प्रश्न 3.
भारत में निवल बोए गए क्षेत्र में बढ़ोत्तरी की सम्भावनाएं सीमित हैं।’ व्याख्या करो कि किस प्रकार कृषि भूमि में वृद्धि की जा सकती है?
उत्तर:
समस्त कृषि भूमि संसाधनों का अनुमान – निवल बोया गया क्षेत्र तथा सभी प्रकार की परती भूमि और कृषि योग्य व्यर्थ भूमियों के योग से लगाया जा सकता है। तालिका 5.1 से यह निष्कर्ष निकालता है कि पिछले वर्षों में समस्त रिपोर्टिंग क्षेत्र से कृषि भूमि का प्रतिशत कम हुआ है । कृषि योग्य व्यर्थ भूमि संवर्ग में कमी के बावजूद कृषि योग्य भूमि में कमी आई है। भारत में निवल बोए गए क्षेत्र में बढ़ोत्तरी की संभावनाएं सीमित हैं । अतः भूमि बचत प्रौद्योगिकी विकसित करना आज अत्यन्त आवश्यक है।
यह प्रौद्योगिकी दो भागों में बांटी जा सकती हैं- पहली, वह जो प्रति इकाई भूमि में फ़सल विशेष की उत्पादकता बढ़ाएं तथा दूसरी, वह प्रौद्योगिकी जो एक कृषि में गहन भू-उपयोग से सभी फ़सलों का उत्पादन बढ़ाएं। दूसरी प्रौद्योगिकी का लाभ यह है कि इसमें सीमित भूमि से भी कुल उत्पादन बढ़ने के साथ श्रमिकों की मांग भी पर्याप्त रूप से बढ़ती है। भारत जैसे देश में भूमि की कमी तथा श्रम की अधिकता है, ऐसी स्थिति में फ़सल सघनता की आवश्यकता केवल भू-उपयोग हेतु वांछित है, अपितु ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोज़गारी जैसी आर्थिक समस्या को भी कम करने के लिए आवश्यक है।
प्रश्न 4.
भारत में विभिन्न फ़सलों की ऋतुओं का वर्णन करो। प्रत्येक ऋतु में बोई जाने वाली फ़सलें बताओ ।
उत्तर:
हमारे देश के उत्तरी व आन्तरिक भागों में तीन प्रमुख फ़सल ऋतुएं- खरीफ, रबी व ज़ायद के नाम से जानी जाती हैं।
- खरीफ़ की फ़सलें अधिकतर दक्षिण-पश्चिमी मानसून के साथ बोई जाती हैं जिसमें उष्ण कटिबन्धीय फ़सलें सम्मिलित हैं, जैसे- चावल, कपास, जूट, ज्वार, बाजरा व अरहर आदि।
- रबी की ऋतु अक्तूबर-नवम्बर में शरद ऋतु से प्रारम्भ होकर मार्च-अप्रैल में समाप्त होती है। इस समय कम तापमान शीतोष्ण तथा उपोष्ण कटिबन्धीय फ़सलों जैसे- गेहूं, चना तथा सरसों आदि फ़सलों की बुवाई में सहायक है।
- ज़ायद एक अल्पकालिक ग्रीष्मकालीन, फ़सल ऋतु है, जो रबी की कटाई के बाद प्रारम्भ होता है। इस ऋतु में तरबूज, खीरा, ककड़ी, सब्ज़ियां व चारे की फ़सलों की कृषि सिंचित भूमि पर की जाती है।
प्रश्न 5.
पंजाब तथा हरियाणा राज्यों में वर्षा की कमी के बावजूद चावल की कृषि होती है। क्यों ?
उत्तर:
पंजाब व हरियाणा पारम्परिक रूप से चावल उत्पादक राज्य नहीं हैं। हरित क्रान्ति के अन्तर्गत हरियाणा, पंजाब के सिंचित क्षेत्रों में चावल की कृषि 1970 से प्रारम्भ की गई। उत्तम किस्म के बीजों, अपेक्षाकृत अधिक खाद सिंचाई तथा कीटनाशकों का प्रयोग एवं शुष्क जलवायु के कारण फ़सलों में रोग प्रतिरोधता आदि कारक इस प्रदेश में चावल की अधिक पैदावार के उत्तरदायी हैं। इसकी प्रति हेक्टेयर पैदावार मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व उड़ीसा के वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में बहुत कम है।
प्रश्न 6.
रक्षित सिंचाई कृषि तथा उत्पादक सिंचाई कृषि में अन्तर बताओ।
उत्तर:
आर्द्रता के प्रमुख उपलब्ध स्रोत के आधार पर कृषि को सिंचित कृषि तथा वर्षा निर्भर ( बारानी ) कृषि में वर्गीकृत किया जाता है। सिंचित कृषि में भी सिंचाई के उद्देश्य के आधार पर अन्तर पाया जाता है, जैसे- रक्षित सिंचाई कृषि तथा उत्पादक सिंचाई कृषि । रक्षित सिंचाई का मुख्य उद्देश्य आर्द्रता की कमी के कारण फ़सलों को नष्ट होने से बचाना है जिसका अभिप्राय यह है कि वर्षा के अतिरिक्त जल की कमी को सिंचाई द्वारा पूरा किया जाता है। इस प्रकार की सिंचाई का उद्देश्य अधिकतम क्षेत्र को पर्याप्त आर्द्रता उपलब्ध कराना है। उत्पादक सिंचाई का उद्देश्य फ़सलों को पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध कराकर उत्पादकता प्राप्त कराना है । उत्पादक सिंचाई में जल निवेश की मात्रा रक्षित सिंचाई की अपेक्षा अधिक होती है।
प्रश्न 7.
भारत में बोए जाने वाले प्रमुख तिलहन तथा उनके क्षेत्र बताओ।
उत्तर:
खाद्य तेल निकालने के लिए तिलहन की खेती की जाती है। मालवा पठार, मराठवाड़ा, गुजरात, राजस्थान शुष्क भागों तथा आंध्र प्रदेश के तेलंगाना व रायलसीमा प्रदेश, भारत के प्रमुख तिलहन उत्पादक क्षेत्र हैं। देश के कुल शस्य क्षेत्र के लगभग 14 प्रतिशत भाग पर तिलहन फसलें बोई जाती हैं। भारत की प्रमुख तिलहन फ़सलों में मूंगफली, तोरिया, सरसों, सोयाबीन तथा सूरजमुखी सम्मिलित हैं।
प्रश्न 8.
भारत में कृषि वृद्धि तथा प्रौद्योगिकी के विकास का वर्णन करो।
उत्तर:
पिछले पचास वर्षों में कृषि उत्पादन तथा प्रौद्योगिकी में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है।
1. उत्पादन – बहुत-सी फ़सलों जैसे- चावल तथा गेहूँ के उत्पादन तथा पैदावार में प्रभावशाली वृद्धि हुई है तथा फ़सलों मुख्यतः गन्ना, तिलहन तथा कपास के उत्पादन में प्रशंसनीय वृद्धि हुई है। भारत को दालों, चाय, जूट तथा पशुधन, दुग्ध उत्पादन में प्रथम स्थान प्राप्त है। यह चावल, गेहूँ, मूंगफली, गन्ना तथा सब्ज़ियों का दूसरा बड़ा उत्पादक देश है।
2. जल सिंचाई – सिंचाई के प्रसार ने देश में कृषि उत्पादन बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है । इसने आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी जैसे बीजों की उत्तम किस्में, रासायनिक खादों, कीटनाशकों तथा मशीनरी के प्रयोग के लिए आधार प्रदान किया है। 1950-51 से वर्ष 2000-01 तक, कुल सिंचित क्षेत्र 208.5 लाख से बढ़कर 546.6 लाख हेक्टेयर हो गया।
3. प्रौद्योगिकी – देश के विभिन्न क्षेत्रों में आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी का प्रसार तीव्रता से हुआ है। पिछले 40 वर्षों में रासायनिक उर्वरकों की खपत में भी 15 गुना वृद्धि हुई है। भारत में वर्ष 2001-02 में रासायनिक उर्वरकों की प्रति हेक्टेयर खपत 91 किलोग्राम थी, जो विश्व की औसत खपत ( 90 किलोग्राम) के समान थी परन्तु पंजाब तथा हरियाणा के सिंचित भागों में यह देश की औसत खपत से चार गुना अधिक है।
प्रश्न 9.
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का क्या महत्त्व है ?
उत्तर:
भारत एक कृषि प्रधान (Agricultural) देश है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला ही नहीं बल्कि जीवन-यापन की एक विधि है। देश की कुल श्रमिक शक्ति का 70% भाग कृषि कार्य में लगा हुआ है। देश के शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (Net national product) में 26 प्रतिशत का योगदान है। कृषि देश की लगभग 100 करोड़ जनसंख्या को भोजन प्रदान करती है। लगभग 20 करोड़ पशु कृषि से ही चारा प्राप्त करते हैं। कृषि नई महत्त्वपूर्ण उद्योगों जैसे सूती वस्त्र, पटसन, चीनी आदि को कच्चा माल प्रदान करती है। कई कृषि पदार्थ निर्यात करके लगभग 5000 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त की जाती है जोकि देश के कुल निर्यात का लगभग 10% है।
प्रश्न 10.
भारतीय कृषि को कौन-से पर्यावरणीय कारक एक सशक्त आधार प्रदान करते हैं ?
उत्तर:
भारत में शताब्दियों से कृषि का विकास किया जा रहा है। यहां अनेक प्रकार की फ़सलों की कृषि की जाती है। भारत चावल, गेहूँ, पटसन, कपास, चाय, गन्ना आदि उपजों में विश्व में विशेष स्थान रखता है। निम्नलिखित भौगोलिक दशाएं कृषि को एक सशक्त आधार प्रदान करती हैं –
- विशाल भूमि क्षेत्र
- कृषिगत भूमि का उच्च प्रतिशत
- उपजाऊ मृदा
- लम्बा वर्द्धन काल (Long growing period)
- दीर्घ जलवायु परास (Wide climatic range)
प्रश्न 11.
फ़सलों की गहनता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
फ़सलों की गहनता (Intensity of Cropping) से अभिप्राय यह है कि एक खेत में एक कृषि वर्ष में कितनी फ़सलें उगाई जाती हैं। यदि वर्ष में केवल एक फ़सल उगाई जाती है तो फ़सल का सूचकांक 100 है, यदि दो फ़सलें उगाई जाती हैं तो यह सूचकांक 200 होगा। अधिक फ़सल अधिक भूमि उपयोग की क्षमता प्रकट करती है।
शस्य गहनता को निम्नलिखित सूत्र की मदद से निकाला जा सकता है –
पंजाब राज्य में शस्य गहनता 166 प्रतिशत, हरियाणा में 158 प्रतिशत, पश्चिमी बंगाल में 147 प्रतिशत तथा उत्तर प्रदेश में 145 प्रतिशत है। उच्चतर शस्य गहनता वास्तव में कृषि के उच्चतर तीव्रीकरण को प्रदर्शित करती है।
प्रश्न 12.
शुष्क कृषि का क्या अर्थ है ?
अथवा
शुष्क कृषि किसे कहते हैं ?
उत्तर:
शुष्क कृषि (Dry Farming):
75 से० मी० से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में या जल सिंचाई रहित प्रदेशों में शुष्क कृषि की जाती है। यह कृषि उन क्षेत्रों में की जाती है, जहां नमी को देर तक रख सकने वाली मिट्टी हो या पानी को एकत्रित करने की सुविधा हो। वर्षा से पहले खेतों को जोत कर मिट्टी मुलायम कर देते हैं ताकि वर्षा का जल गहराई तक पहुंच सके। ऐसे प्रदेशों में वर्ष में एक ही फ़सल उगाई जाती है। प्रायः गेहूँ, कपास, चने तथा दालों की फ़सलें उगाई जाती हैं। भारत में राजस्थान, गुजरात तथा हरियाणा के कई क्षेत्रों में शुष्क खेती होती है।
प्रश्न 13.
परती भूमि से क्या अभिप्राय है ? परती भूमि की अवधि को किस प्रकार घटाया जा सकता है ?
उत्तर”
एक ही खेत पर लम्बे समय तक लगातार फ़सलें उत्पन्न करने से मृदा के पोषक तत्त्व समाप्त हो जाते हैं। मृदा की उपजाऊ शक्ति को पुनः स्थापित करने के लिए भूमि को एक मौसम या पूरे वर्ष बिना कृषि किये खाली छोड़ दिया जाता है। इस भूमि को परती भूमि (Fallow land) कहते हैं। इस प्राकृतिक क्रिया द्वारा मृदा का उपजाऊपन बढ़ जाता है। जब भूमि को एक मौसम के लिए खाली छोड़ा जाता है तो उसे चालू परती भूमि कहते हैं। एक वर्ष से अधिक समय वाली भूमि को प्राचीन परती भूमि कहते हैं। इस भूमि में उर्वरक के अधिक उपयोग से परती भूमि की अवधि को घटाया जा सकता है।
प्रश्न 14.
शस्यावर्तन किसे कहते हैं ? शस्यावर्तन क्यों अपनाया जाता है ?
अथवा
उत्तर:
एक ही खेत में फ़सलों को बदल-बदल कर बोने की पद्धति को शस्यावर्तन (Crop Rotations) कहते हैं । उदाहरण के लिए एक खेत में अनाज की फ़सल के बाद दालें या तिलहन की फ़सल उपजाई जाती है। फ़सलों का चुनाव मिट्टी के उपजाऊपन तथा किसान की समझदारी पर निर्भर करता है। यदि किसी भूमि पर बार-बार एक ही फ़सल उगाई जाए तो मिट्टी के उपजाऊ तत्त्व कम हो जाते हैं। मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बनाए रखने के लिए शस्यावर्तन अपनाया जाता है। अनाज की फ़सल के बाद सामान्य फलियों की फ़सल बोई जाती है। यह फसल मृदा में नाइट्रोजन की कमी को पूरा कर देती है।
प्रश्न 15.
भारत की दो प्रमुख खाद्यान्न फ़सलों के नाम बताइए। इन दोनों फ़सलों की जलवायु तथा मृदा सम्बन्धी आवश्यकताओं में तीन असमानताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
गेहूँ तथा चावल भारत की दो प्रमुख खाद्यान्न फ़सलें हैं। गेहूँ को शीत- आर्द्र उपज काल तथा पकते समय गर्म – शुष्क मौसम चाहिए। चावल की कृषि के लिए वर्ष भर गर्म-आर्द्र मौसम की आवश्यकता है। गेहूँ की कृषि के लिए दरमियानी वर्षा (50 से० मी०) तथा चावल की कृषि के लिए अधिक वर्षा (200 से० मी०) की आवश्यकता है। गेहूँ के लिए दोमट मिट्टी उपयुक्त है जबकि चावल की कृषि नदी घाटियों की जलोढ़ मिट्टी में की जाती है।
प्रश्न 16.
खरीफ़ और रबी फ़सलों में अन्तर स्पष्ट करो।
उत्तर:
रबी फसलें (Rabi Crops ):
- वर्षा ऋतु के पश्चात् शीतकाल में बोई जाने वाली फ़सलों को रबी की फ़सलें कहते हैं।
- गेहूँ, जौ, चना आदि रबी की फसलें हैं।
- ये फ़सलें ग्रीष्मकाल में पक कर तैयार होती हैं। शीतोष्ण जलवायु प्रदेशों में रबी की फ़सलें महत्त्वपूर्ण होती हैं।
खरीफ़ फ़सलें (Kharif Crops ):
- वर्षा ऋतु के आरम्भ में ग्रीष्म काल में बोई जाने वाली फ़सलों को खरीफ़ की फ़सलें कहते हैं।
- चावल, मक्का, कपास, तिलहन खरीफ़ की फ़सलें हैं।
- ये फ़सलें शीतकाल से पहले पक कर तैयार होती हैं। उष्ण जलवायु प्रदेशों में खरीफ़ की फ़सलें महत्त्वपूर्ण होती हैं।
प्रश्न 17.
गन्ने के लिए जलवायु की दशाएं दक्षिणी भारत में अधिक उत्तम हैं, फिर भी गन्ने का अधिक उत्पादन उत्तरी भारत में होता है। इसके क्या कारण हैं ?
उत्तर:
गन्ना एक उष्ण कटिबन्धीय फ़सल है। इसकी उपज के लिए जलवायु की आदर्श दशाएं दक्षिणी भारत में मिलती हैं। इसकी अधिक उत्पादकता के सभी क्षेत्र 15° उत्तर अक्षांश के दक्षिण में मिलते हैं। तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश में गन्ने की प्रति हेक्टेयर उपज अधिक है। यह उपज 80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से अधिक है जबकि उत्तरी भारत में केवल 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
परन्तु गन्ने के कुल उत्पादन का 60% भाग उत्तरी भारत से प्राप्त होता है।
यहां उपजाऊ मिट्टी जल- सिंचाई के अधिक विस्तार, गन्ने के बेचने की सुविधाओं के कारण उत्पादन अधिक है। यहां शुष्क शीत ऋतु सर्दियों में पाले के कारण गन्ने में रस की मात्रा कम होती है तथा प्रति हेक्टेयर उपज भी कम होती है । दक्षिणी भारत में उच्च तापमान, छोटी शुष्क ऋतु, पाला रहित जलवायु तथा लम्बे वर्धनकाल के कारण गन्ने की प्रति हेक्टेयर उपज अधिक है। परन्तु दक्षिणी भारत में उपजाऊ मिट्टी की कमी के कारण गन्ने का कृषीय क्षेत्रफल कम है तथा कुल उत्पादन उत्तरी भारत की तुलना में कम है।
प्रश्न 18.
हरित क्रान्ति की योजना भारत में सर्वत्र लागू क्यों नहीं की जा सकी है ?
उत्तर:
हरित क्रान्ति वास्तव में खाद्यान्न क्रान्ति है। इसके परिणाम इतने आशाजनक नहीं रहे हैं जितनी कि आशा की जाती थी। खाद्यान्न के अतिरिक्त अन्य फ़सलों के क्षेत्र में अधिक उपज देने वाली किस्मों की कृषि को अपनाया गया है, जैसे कपास की नई किस्में गुजरात तथा तमिलनाडु में उगाई गई हैं। हरित क्रान्ति की योजना देश के चुने हुए क्षेत्रों में ही सफल रही है।
इसे देश के सभी भागों में लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि –
- बहुत-से भागों में जल – सिंचाई के साधन कम हैं ।
- उर्वरकों का उत्पादन, मांग की पूर्ति के लिए अपर्याप्त है ।
- नये कृषि साधनों पर अधिक खर्च करने के लिए पूंजी की कमी है।
- इस योजना से छोटे किसानों को कोई विशेष लाभ नहीं पहुंचा है।
- यह योजना केवल सीमित भागों में ही सफल रही है, जहां जल सिंचाई के पर्याप्त साधन थे । इस योजना में कृषि तथा लघु सिंचाई पर विशेष जोर नहीं दिया गया है।
- छोटे आकार के खेतों में कृषि यन्त्रों का प्रयोग सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है।
- अधिक उपज प्राप्त करने वाली विधियां केवल कुछ ही फसलों के प्रयोग में लाई गई हैं।
प्रश्न 19.
भारत के किन प्रदेशों में फ़सलों की गहनता अधिक, सामान्य, कम है ?
उत्तर:
भारत में फ़सलों की गहनता वास्तविक बोये जाने वाले क्षेत्र पर निर्भर करती है। उपजाऊ भूमि, सिंचाई के पर्याप्त साधनों तथा उत्तम कृषि विधियों के कारण कई प्रदेशों में फ़सलों की गहनता अधिक है। सिंचाई साधनों की कमी, वर्षा की कमी, बाढ़ों की अधिकता के कारण कई क्षेत्रों में भूमि उपयोग बहुत कम है तथा फ़सलों की गहनता कम है।
फसलों की गहनता का प्रादेशिक वितरण इस प्रकार है –
1. अधिक गहनता वाले प्रदेश – फ़सलों की अधिक गहनता के क्षेत्र पूर्वी तटीय मैदान, पश्चिमी असम घाटी, त्रिपुरा तथा उत्तरी मैदान के अनेक भागों में मिलते हैं। यहां पर वर्षा 80-100 से० मी० होती है; भूमि उपजाऊ है तथा सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं। प्रायः वर्ष में तीन-तीन फ़सलें उगाई जाती हैं।
2. सामान्य गहनता के प्रदेश – तमिलनाडु में ऊंचे तथा कर्नाटक के पठारी भाग, मध्यवर्ती भारत की पहाड़ियां, गंगा, सतलुज के मैदान में फ़सलों की सामान्य गहनता मिलती है। यह प्रायः दो फ़सली क्षेत्र है। इन भागों में सिंचाई के साधनों के विस्तार के कारण साल में दो फसलें प्राप्त की जाती हैं।
3. कम गहनता वाले प्रदेश – भारत में दक्कन, राजस्थान के शुष्क प्रदेशों में पूर्वी हिमालय के अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में कश्मीर तथा हिमालय के ठण्डे प्रदेशों में फ़सलों की गहनता कम मिलती है। ठण्डे प्रदेशों में फ़सलों का उपज काल कम होता है तथा शुष्क प्रदेशों में वर्षा की कमी के कारण साल में केवल एक फ़सल ही प्राप्त की जाती है ।
प्रश्न 20.
कौन-से ऐसे कारक हैं जिनके चलते खरीफ़ और रबी फ़सलों में अन्तर स्पष्ट किया जा सके ?
उत्तर:
कारक | रबी फसलें (Rabi crops): | खरीफ़ फ़सलें (Kharif crops ): |
बुआई का समय | (1) वर्षा ऋतु के पश्चात् शीतकाल में बोई जाने वाली फ़सलों को रबी की फ़सलें कहते हैं। | (1) वर्षा ऋतु के आरम्भ में ग्रीष्म काल में बोई जाने वाली फ़सलों को खरीफ़ की फ़सलें कहते हैं। |
प्रमुख फ़सलें | (2) गेहूं, जौं, चना आदि रबी की फसलें हैं। | (2) चावल, मक्का, कपास, खरीफ़ की फ़सलें हैं। तिलहन |
पकने का समय तथा संबंधित जलवायु | (3) ये फ़सलें ग्रीष्मकाल में पक कर तैयार होती हैं। शीतोष्ण जलवायु प्रदेशों में रबी की फ़सलें महत्त्वपूर्ण होती हैं। | (3) ये फ़सलें शीतकाल से पहले पक कर तैयार होती हैं। उष्ण जलवायु प्रदेशों में खरीफ़ की फ़सलें महत्त्व पूर्ण होती हैं। |
प्रश्न 21.
हरित क्रान्ति की योजना भारत के चुनिंदा क्षेत्रों में ही मिल सकी। यह योजना भारत में सर्वत्र लागू क्यों नहीं की जा सकी ? इसके लिए मुख्य उत्तरदायित्व कौन-से मूल्य आधारित कारण हैं ?
उत्तर:
हरित – क्रान्ति वास्तव में खाद्यान्न क्रान्ति है। इसके परिणाम इतने आशा जनक नहीं रहे हैं जितनी कि आशा की जाती थी। खाद्यान्न के अतिरिक्त अन्य फ़सलों के क्षेत्र में अधिक उपज देने वाली किस्मों की कृषि को अपनाया गया है, जैसे कपास की नई किस्में गुजरात तथा तमिलनाडु में उगाई गई हैं। हरित क्रान्ति की योजना देश के चुने हुए क्षेत्रों में ही सफल रही है।
इसे देश के सभी भागों में लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि –
- सिंचाई साधनों की कमी : बहुत-से भागों में जल – सिंचाई के साधन कम हैं।
- अपर्याप्त मांग : उर्वरकों का उत्पादन, मांग की पूर्ति के लिए अपर्याप्त है।
- पूंजी का अभाव : नये कृषि साधनों पर अधिक खर्च करने के लिए पूंजी की कमी है। इसलिए इस योजना से छोटे किसानों को कोई विशेष लाभ नहीं पहुंचा है। यह योजना केवल सीमित भागों में ही सफल रही है, यहां जल सिंचाई के पर्याप्त साधन थे। इस योजना में कृषि तथा लघु सिंचाई पर विशेष जोर नहीं दिया गया है।
- छोटे आकार के खेतों में कृषि यन्त्रों का प्रयोग सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है।
- अधिक उपज प्राप्त करने वाली विधियां केवल कुछ ही फसलों के प्रयोग में लाई गई हैं।
निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Questions )
प्रश्न 1.
भारत की मुख्य फ़सलों के नाम लिखो। इनके वितरण, उत्पादन तथा उपज की दशाओं का वर्णन करो।
उत्तर:
भारत एक कृषि प्रधान देश है जहां लगभग 70% लोगों का प्रमुख धन्धा कृषि है। इसलिए भारत को कृषकों का देश कहा जाता है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 42% भाग (लगभग 14 करोड़ हेक्टेयर भूमि ) में कृषि की जाती है। देश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार अनेक प्रकार की महत्त्वपूर्ण फ़सलें उत्पन्न की जाती हैं। इनमें से खाद्य पदार्थ (Food Crops) सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। कुल बोई हुई भूमि का 80% भाग खाद्य पदार्थों के लिए प्रयोग किया जाता है। भारत की फ़सलों को निम्नलिखित वर्गों में बांटा जाता है-
- खाद्यान्न (Foodgrains) – चावल, गेहूँ, जौं, ज्वार, बाजरा, मक्की, चने, दालें इत्यादि।
- पेय पदार्थ (Beverage Crops ) – चाय तथा कहवा।
- रेशेदार पदार्थ (Fibre Crops ) – कपास तथा पटसन।
- तिलहन (Oil Seeds) – मूंगफली, तिल, सरसों, अलसी आदि।
- कच्चे माल (Raw Materials) – गन्ना, तम्बाकू, रबड़ आदि।
1. चावल (Rice):
महत्त्व – भारत में चावल की कृषि प्राचीन काल से हो रही है। भारत को चावल की जन्म भूमि माना जाता है। इसे ‘Gift of India’ भी कहते हैं। चावल भारत का मुख्य खाद्यान्न (Master Grain) है। भारत संसार का 22% चावल उत्पन्न करता है तथा यह संसार में दूसरे स्थान पर है। उपज की दशाएं – मुख्यतः चावल गर्म आर्द्र मानसूनी प्रदेशों की उपज है।
1. तापमान – चावल की कृषि के लिए ऊंचे तापमान (20°C) की आवश्यकता है। तेज़ वायु तथा बादल हानिकारक हैं।
2. वर्षा – चावल की कृषि के लिए वार्षिक वर्षा 200 सै०मी० से कम न हो। वर्षा की कमी के साथ-साथ चावल की कृषि भी कम होती जाती है।
3. जल सिंचाई – कम वर्षा वाले क्षेत्र में जल सिंचाई की सहायता से चावल की कृषि होती है। जैसे- पंजाब, हरियाणा में।
4. मिट्टी – चावल के लिए चिकनी मिट्टी या दोमट मिट्टी की आवश्यकता होती है। इसी कारण चावल नदी घाटियों, डेल्टाओं तथा तटीय मैदानों में अधिक होता है।
5. धरातल – चावल के लिए समतल भूमि की आवश्यकता है ताकि वर्षा व जल सिंचाई से प्राप्त जल खेतों में खड़ा रह सके। पहाड़ी ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेती की जाती है।
6. सस्ते मज़दूर – चावल की कृषि में सभी कार्य – जोतना, बोना, पौधे लगाना, फ़सल काटना, हाथ से करने पड़ते हैं । इसलिए घनी जनसंख्या वाले प्रदेशों में सस्ते मज़दूरों की आवश्यकता होती है।उत्पादन – देश की 25% बोई हुई भूमि पर चावल की कृषि होती है। 450 लाख हेक्टेयर भूमि में 890 लाख मीट्रिक टन चावल उत्पन्न होता है । प्रति हेक्टयर उपज 1365 कि० ग्राम है।
उपज के क्षेत्र (Areas of Cultivation ) – भारत में राजस्थान तथा दक्षिणी पठार के शुष्क भागों को छोड़कर सारे भारत में चावल की कृषि होती है। भारत में चावल की कृषि के लिए आदर्श शाएं पाई जाती हैं। भारत में चावल की कृषि वर्षा की मात्रा के अनुसार है।
- पश्चिमी बंगाल – यह राज्य भारत में सबसे अधिक चावल का उत्पादन करता है । इस राज्य की 80% भूमि पर चावल की कृषि होती है। सारा साल ऊंचे तापमान व अधिक वर्षा के कारण वर्ष में तीन फ़सलें अमन, ओस तथा बोरो होती हैं। शीतकाल में अमन की फ़सल मुख्य फ़सल है।
- तमिलनाडु – इस राज्य में वर्ष में दो फ़सलें होती हैं। यह राज्य चावल उत्पन्न करने में दूसरे स्थान पर है।
- आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा – पूर्वी तटीय मैदान तथा नदी डेल्टाओं में चावल की कृषि होती है।
- बिहार, उत्तर प्रदेश – भारत के उत्तरी मैदान में उपजाऊ क्षेत्रों में जल सिंचाई की सहायता से चावल का अधिक उत्पादन है।
- पंजाब, हरियाणा – इन राज्यों में प्रति हेक्टेयर उपज सबसे अधिक है। ये राज्य भारत में कमी वाले भागों को चावल
भेजते हैं। इन्हें भारत का चावल का कटोरा कहते हैं।
2. गेहूँ (Wheat):
महत्त्व – भारत में प्राचीन काल में सिन्ध घाटी में गेहूँ की खेती के चिह्न मिले हैं। गेहूँ संसार का सर्वश्रेष्ठ तथा मुख्य खाद्य पदार्थ है। भारत संसार का 8% गेहूँ उत्पन्न करता है तथा इसका दूसरा स्थान उपज की दशाएं – गेहूँ शीतोष्ण कटिबन्ध का पौधा है। भारत में यह रबी की फ़सल है।
- तापमान – गेहूँ के बोते समय कम तापक्रम (15°C) तथा पकते समय ऊँचा तापक्रम (20°C) आवश्यक है।
- वर्षा – गेहूँ के लिए साधारण वर्षा (50 cm) चाहिए। शीतकाल में बोते समय साधारण वर्षा तथा पकते समय गर्म शुष्क मौसम ज़रूरी है। तेज़ हवाएं तथा बादल हानिकारक हैं। भारत में गेहूँ के लिए बोते समय आदर्श जलवायु मिलती है, परन्तु पकते समय कई असुविधाएं होती हैं।
- जल – सिंचाई – कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल – सिंचाई आवश्यक है, जैसे- पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में।
- मिट्टी – गेहूँ के लिए दोमट मिट्टी, चिकनी मिट्टी उत्तम है। मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद बहुत लाभदायक है।
- धरातल – गेहूँ के लिए समतल मैदानी भूमि चाहिए ताकि उस पर कृषि यन्त्र और जल – सिंचाई का प्रयोग किया जा सके।
- गेहूँ की कृषि के लिए कृषि यन्त्रों, उत्तम बीज व खाद के प्रयोग के प्रति एकड़ उपज में वृद्धि होती है।
- गेहूँ की कृषि के लिए सस्ते मज़दूर चाहिएं।
उत्पादन – पिछले कुछ सालों में हरित क्रान्ति के कारण देश में गेहूँ की पैदावार में वृद्धि हुई है। देश की 14% बोई हुई भूमि पर गेहूं की कृषि होती है। देश में लगभग 270 लाख हेक्टेयर भूमि पर 800 लाख टन गेहूँ उत्पन्न होता है। प्रति हेक्टेयर उपज 2618 कि० ग्राम है। उपज के क्षेत्र भारत में अधिक वर्षा रेतीली भूमि तथा मरुस्थलों को छोड़ कर उत्तरी भारत के सभी राज्यों में गेहूँ की कृषि होती है। पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत शीत के कारण गेहूँ नहीं होता।
1. उत्तर प्रदेश – यह राज्य भारत में सबसे अधिक गेहूँ उत्पन्न करता है। इस राज्य में गंगा-यमुना दोआब, तराई प्रदेश, गंगा – घाघरा दोआब प्रमुख क्षेत्र हैं । इस प्रदेश में नहरों द्वारा जल – सिंचाई तथा शीत काल की वर्षा की सुविधा है।
2. पंजाब – इसे भारत का अन्न भण्डार (Granary of India) कहते हैं। यहां उपजाऊ मिट्टी, शीत काल की वर्षा, जल – सिंचाई व खाद की सुविधाएं प्राप्त हैं । इस राज्य में मालवा का मैदान तथा दोआबा प्रमुख क्षेत्र हैं।
3. अन्य क्षेत्र –
(क) हरियाणा – हरियाणा में रोहतक – करनाल क्षेत्र।
(ख) मध्य प्रदेश में भोपाल – जबलपुर क्षेत्र
(ग) राजस्थान में गंगानगर क्षेत्र।
(घ) बिहार में तराई क्षेत्र।
3. गन्ना ( Sugarcane)
महत्त्व – गन्ना भारत का मूल पौधा है। भारत में यह एक व्यापारिक फ़सल है। भारत में चीनी उद्योग गन्ने पर निर्भर करता है। इसके अतिरिक्त गन्ने से कई पदार्थ जैसे कागज़ शीरा, खाद, मोम आदि भी तैयार किए जाते हैं।
उपज की दशाएं – गन्ना उष्ण आर्द्र प्रदेशों की उपज है।
1. तापमान – गन्ने के लिए सारा साल उंचे तापक्रम ( 25°C) की आवश्यकता है। अति अधिक शीत तथा पाला फसल के लिए हानिकारक है।
2. वर्षा – गन्ने के लिए 100 से 200 सै०मी० वर्षा चाहिए। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल – सिंचाई के साधन प्रयोग किए जाते हैं। गन्ने के पकते समय शुष्क जलवायु उत्तम होती है तथा अधिक वर्षा से गन्ने का रस पतला पड़ जाता है।
3. मिट्टी – गन्ने के लिए शहरी उपजाऊ मिट्टी उपयोगी है। मिट्टी में चूना तथा फॉस्फोरस का अंश अधिक होना चाहिए। नदी घाटियों की कांप की मिट्टी गन्ने के लिए सर्वश्रेष्ठ होती है।
4. सस्ते श्रमिक – गन्ने कृषि में अधिकतर कार्य से हाथ से किए जाते हैं, इसलिए सस्ते श्रम की आवश्यकता होती है। भारत की स्थिति – भारत में गन्ने की कृषि के लिए आदर्श दशाएं दक्षिणी भारत में मिलती हैं। यहां ऊंचे तापक्रम एवं पर्याप्त वर्षा है। उत्तरी भारत में लम्बी शुष्क ऋतु व पाले के कारण अनुकूल दशाएं नहीं हैं।
फिर भी उपजाऊ मिट्टी व जल – सिंचाई के कारण भारत का 60% गन्ना उत्तरी मैदान में होता है। भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है।
उत्पादन – भारत में संसार में सबसे अधिक क्षेत्रफल पर गन्ने की कृषि होती है, परन्तु प्रति हेक्टेयर उपज बहुत कम है। संसार का 40% गन्ना क्षेत्र भारत में है, परन्तु उत्पादन केवल 10% है। देश में 33 लाख हेक्टेयर भूमि में 2900 लाख टन गन्ना उत्पन्न किया जाता है।
उपज के क्षेत्र (Areas of Cultivation ) – भारत का 60% गन्ना उत्तरी भारत में उत्पन्न किया जाता है।
1. उत्तर प्रदेश – यह राज्य भारत में सबसे अधिक गन्ना उत्पन्न करता है। यहां पर गन्ना उत्पन्न करने के तीन क्षेत्र हैं –
(क) दोआब क्षेत्र – रुड़की से मेरठ तक।
(ख) तराई क्षेत्र – बरेली, शाहजहांपुर।
(ग) पूर्वी क्षेत्र – गोरखपुर
गोरखपुर को भारत का जावा (Jave of India) – भी कहते हैं। यहां गन्ने की कृषि के लिए कई सुविधाएं हैं –
- 100-200 सै०मी० वर्षा
- उपजाऊ मिट्टी
- जल- सिंचाई के साधन
- चीनी मिलों का अधिक होना।
2. दक्षिणी भारत – दक्षिणी भारत में अनुकूल जलवायु तथा अधिक प्रति हेक्टेयर उपज के कारण गन्ने की कृषि महत्त्वपूर्ण हो रही है –
(क) आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा व गोदावरी डेल्टे
(ख) तमिलनाडु में कोयम्बटूर क्षेत्र।
(ग) महाराष्ट्र में गोदावरी घाटी का नासिक क्षेत्र।
(घ) कर्नाटक में कावेरी घाटी।
3. अन्य क्षेत्र
- पंजाब में गुरदासपुर, जालन्धर क्षेत्र।
- हरियाणा में रोहतक, गुड़गाँव क्षेत्र।
- बिहार में तराई का चम्पारण क्षेत्र।
4. चाय (Tea)
महत्त्व – चाय एक पेय पदार्थ है। भारत में चाय एक व्यापारिक फ़सल है जिसकी कृषि बागवानी कृषि के रूप में होती है। भारत संसार की 35% चाय उत्पन्न करता है तथा इसका पहला स्थान है भारत संसार में चाय निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश है। देश में लगभग 700 चाय कम्पनियां हैं। देश में लगभग 12,000 चाय बागान हैं जिनमें 10 लाख मज़दूर काम करते हैं। उपज की दशाएं (Conditions of Growth) – चाय गर्म आर्द्र प्रदेशों का पौधा है।
1. तापमान – चाय के लिए सारा साल समान रूप से ऊंचे तापमान ( 25°C से 30°C) की आवश्यकता है। ऊंचे ताप के कारण वर्षभर पत्तियों की चुनाई हो सकती है, जैसे असम में।
2. वर्षा – चाय के लिए अधिक वर्षा (150 से०मी०) होनी चाहिए। वर्षा सारा साल समान रूप से हो। शुष्क मौसम (विशेषकर ग्रीष्मकाल ) चाय के लिए हानिकारक है। चाय के पौधों के लिए कुछ वृक्षों की छाया अच्छी होती है।
3. मिट्टी – चाय के उत्तम स्वाद के लिए गहरी मिट्टी चाहिए जिसमें पोटाश, लोहा तथा फॉस्फोरस का अधिक अंश हो।
4. धरातल — चाय की कृषि पहाड़ी ढलानों पर की जाती है ताकि पौधों की जड़ों में पानी इकट्ठा न हो। प्राय: 300 मीटर की ऊंचाई वाले प्रदेश उत्तम माने जाते हैं।
5. श्रम – चाय की पत्तियों को चुनने, सुखाने तथा डिब्बों में बन्द करने के लिए सस्ते मज़दूर चाहिएं। प्रायः स्त्रियों को इन कार्यों में लगाया जाता है।
6. प्रबन्ध – बाग़ान के अधिक विस्तार के कारण उचित प्रबन्ध व अधिक पूंजी की आवश्यकता होती है।
उत्पादन – देश में 42 लाख हेक्टेयर भूमि पर 99 करोड़ किलोग्राम चाय का उत्पादन होता है। देश में हरी चाय (Green Tea) तथा काली चाय (Black Tea) दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। विभिन्न राज्यों में चाय का उत्पादन इस प्रकार है –
उपज के क्षेत्र – भारतीय चाय का उत्पादन दक्षिणी भारत की अपेक्षा उत्तरी भारत में कहीं अधिक है। देश में चाय के क्षेत्र एक-दूसरे से दूर-दूर हैं।
1. असम – यह राज्य भारत में सबसे अधिक चाय उत्पन्न करता है। इस राज्य में ब्रह्मपुत्र घाटी तथा दुआर का प्रदेश चाय के प्रमुख क्षेत्र हैं। इस राज्य को कई सुविधाएं प्राप्त हैं –
- मानसून जलवायु
- अधिक वर्षा तथा ऊंचे तापमान
- पहाड़ी ढलानें
- उपजाऊ मिट्टी
- योग्य प्रबन्ध।
2. पश्चिमी बंगाल – इस राज्य में दार्जिलिंग क्षेत्र की चाय अपने विशेष स्वाद (Special Flavour) के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। यहां अधिक ऊंचाई, अधिक नमी व कम तापमान के कारण चाय धीरे-धीरे बढ़ती है। जलपाइगुड़ी भी प्रसिद्ध क्षेत्र है।
3. दक्षिणी भारत – दक्षिणी भारत में नीलगिरि की पहाड़ियां (Nilgiri), इलायची तथा अनामलाई की पहाड़ियों में चाय उत्पन्न की जाती है।
(क) तमिलनाडु में कोयम्बटूर तथा नीलगिरी क्षेत्र।
(ख) केरल में मालाबार तट।
(ग) कर्नाटक में कुर्ग क्षेत्र।
(घ) महाराष्ट्र में रत्नागिरी क्षेत्र।
4. अन्य क्षेत्र –
(क) झारखण्ड में रांची का पठार
(ख) हिमाचल प्रदेश में पालमपुर का क्षेत्र।
(ग) उत्तराखण्ड में देहरादून का क्षेत्र
(घ) त्रिपुरा क्षेत्र।
व्यापार – भारत संसार में तीसरा बड़ा चाय ( 35%) निर्यातक देश है। देश के उत्पादन का लगभग 1/4 भाग विदेशों को निर्यात किया जाता है। इससे लगभग 1100 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। यह निर्यात मुख्यतः इंग्लैण्ड, रूस, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा आदि 80 देशों को होता है। विदेशों में चाय के निर्यात को बढ़ाने तथा चाय के स्तर को उन्नत करने के लिए चाय बोर्ड (Tea Board) की स्थापना की गई है।
5. कपास (Cotton ):
महत्त्व – कपास एक रेशेदार पदार्थ है। देश की महत्त्वपूर्ण व्यापारिक फ़सल है। भारत में प्राचीनकाल से कपास की कृषि हो रही है । भारत में सूती वस्त्र उद्योग कपास पर निर्भर है। भारत संसार की 9% कपास उत्पन्न करता है तथा चौथे स्थान पर है। भारत में अधिकतर छोटे रेशे वाली कपास ( 22 किलोमीटर लम्बी ) उत्पन्न होती है।
उपज की दशाएं – कपास उष्ण प्रदेशों की उपज है तथा खरीफ़ की फ़सल है।
- तापमान – कपास के लिए तेज़, चमकदार धूप तथा उच्च तापमान ( 25°C) की आवश्यकता है। पाला इसके लिए हानिकारक है। अतः इसे 200 दिन पाला रहित मौसम चाहिए।
- वर्षा – कपास के लिए 50 से०मी० वर्षा चाहिए । चुनते समय शुष्क पाला रहित मौसम चाहिए । फ़सल पकते समय वर्षा न हो।
- जल – सिंचाई – कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल – सिंचाई के साधन प्रयोग किए जाते हैं, जैसे पंजाब में। इससे प्रति हेक्टेयर उपज भी अधिक होती है।
- मिट्टी – कपास के लिए लावा की काली मिट्टी सबसे उचित है। लाल मिट्टी तथा नदियों की कांप की मिट्टी ( दोमट मिट्टी) में भी कपास की कृषि होती है।
- सस्ता श्रम – कपास के लिए सस्ते मज़दूरों की आवश्यकता है। कपास चुनने के लिए स्त्रियों को लगाया जाता है।
- धरातल – कपास की कृषि के लिए समतल मैदानी भाग अनुकूल होते हैं । साधारण ढाल वाले क्षेत्रों में पानी इकट्ठा नहीं होता।
उत्पादन – भारत में 242 लाख हेक्टेयर भूमि पर 242 लाख गांठे कपास उत्पन्न की जाती है।
उपज के क्षेत्र – भारत में जलवायु तथा मिट्टी में विभिन्नता के कारण कपास के क्षेत्र बिखरे हुए हैं। उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिणी भारत में अधिक कपास होती है-
1. काली मिट्टी का कपास क्षेत्र – काली मिट्टी का कपास क्षेत्र सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश राज्यों के भाग शामिल हैं। गुजरात राज्य भारत में सबसे अधिक कपास उत्पन्न करता है । इस राज्य के खानदेश व बरार क्षेत्रों में देशी कपास की कृषि होती है।
2. लाल मिट्टी का क्षेत्र – तमिलनाडु, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश राज्यों में लाल मिट्टी (Red Soil) क्षेत्र में लम्बे रेशे वाली कपास (कम्बोडियन) उत्पन्न होती है।
3. दरियाई मिट्टी का क्षेत्र-उत्तरी भारत में दरियाई मिट्टी के क्षेत्रों में लम्बे रेशे वाली अमरीकन कपास (नरमा) की कृषि होती है। पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान राज्य प्रमुख क्षेत्र हैं। पंजाब में जल – सिंचाई के कारण देश में सबसे अधिक प्रति हेक्टेयर उत्पादन है। भविष्य – भारत से छोटे रेशे वाली कपास का निर्यात होता है, परन्तु सूती वस्त्र उद्योग के लिए लम्बे रेशे वाली कपास आयात की जाती है। देश में प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ाया जा रहा है। लम्बे रेशे वाली कपास के क्षेत्र में वृद्धि की जा रही है । आशा है, कपास के उत्पादन में देश शीघ्र ही आत्मनिर्भर हो जाएगा।
6. पटसन (Jute ):
महत्त्व – पटसन भारत का मूल पौधा है। पटसन एक महत्त्वपूर्ण उपयोगी तथा सस्ता रेशा है। इसे सोने का रेशा कहते हैं। इससे टाट, बोरे, पर्दे, गलीचे तथा दरियां आदि बनाई जाती हैं। व्यापार में महत्त्व के कारण इसे थोक व्यापार का खाकी कागज़ भी कहते हैं। भारत का पटसन उद्योग पटसन की कृषि पर निर्भर करता है।
उपज की दशाएं – पटसन मानसून खण्ड में उष्ण आर्द्र प्रदेशों का पौधा है।
1. तापमान – पटसन के लिए सारा साल ऊंचे तापमान (27°C) की आवश्यकता है। पटसन खरीफ़ की फ़सल है।
2. वर्षा – पटसन के लिए अधिक वर्षा (150 से० मी०) की आवश्यकता पड़ती है। वर्षा सारा साल समान रूप से होती है।
3. मिट्टी – पटसन के लिए गहरी उपजाऊ मिट्टी उपयोगी है। नदियों में बाढ़ क्षेत्र, डेल्टा प्रदेश पटसन के लिए आदर्श क्षेत्र होते हैं यहां नदियों द्वारा हर वर्ष मिट्टी की नई परत बिछ जाती है। खाद का भी अधिक प्रयोग किया जाता है।
4. स्वच्छ जल – पटसन को काटकर धोने के लिए नदियों के साफ़ पानी की आवश्यकता होती है।
5. सस्ता श्रम – पटसन को काटने, धोने और छीलने के लिए सस्ते तथा कुशल मज़दूरों की आवश्यकता होती है।
उत्पादन – भारत संसार का 35% पटसन उत्पन्न करता है तथा दूसरे स्थान पर है। विभाजन के कारण पटसन क्षेत्र का अधिकांश भाग बांग्लादेश को प्राप्त हो गया है। भारत में 7 लाख हेक्टेयर भूमि पर 12 लाख टन पटसन उत्पन्न होती है।
उपज के क्षेत्र – देश के विभाजन के कारण पटसन क्षेत्र कम हो गया है, परन्तु नए क्षेत्रों में पटसन की कृषि से इस कमी को पूरा किया जा रहा है।
1. पश्चिमी बंगाल – यह राज्य भारत में सबसे अधिक पटसन (36 लाख गांठें ) उत्पन्न करता है। इस राज्य में कई सुविधाएं हैं
- नदी घाटियां तथा गंगा डेल्टाई प्रदेश
- अधिक वर्षा
- ऊँचा तापमान
- अनेक नदियां
- सस्ते मज़दूर।
2. आसाम – आसाम में ब्रह्मपुत्र घाटी पटसन के लिए प्रसिद्ध है। इस राज्य में कामरूप तथा गोलपाड़ा जिले प्रसिद्ध हैं।
3. बिहार – इस राज्य के तराई प्रदेश में पटसन उत्पन्न होता है।
4. दक्षिणी भारत – दक्षिणी भारत में महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के डेल्टों में पटसन की कृषि होती है।
5. अन्य प्रदेश
(क) उत्तर प्रदेश में गोरखपुर क्षेत्र।
(ख) आन्ध्र प्रदेश में विशाखापट्टनम क्षेत्र|
(ग) छत्तीसगढ़ में रायपुर क्षेत्र।
(घ) केरल में मालाबार तट।
(ङ) उत्तरी-पूर्वी भाग में मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर राज्य।
7. कहवा (Coffee):
कहवा (Coffee) कहवा भी चाय की तरह एक लोकप्रिय पेय पदार्थ है।
उपज की दशाएं – कहवा उष्ण कटिबन्ध के उष्ण- आर्द्र प्रदेशों का पौधा है। यह एक प्रकार के सदाबहार पौधे के फूलों (Berries) के बीजों (Beans) को सुखा कर पीसकर चूर्ण तैयार कर लिया जाता है।
1. तापमान (Temperature ) – कहवे के उत्पादन के लिए सारा साल ऊंचा तापमान ( औसत 22°C) होना चाहिए। पाला (Frost ) तथा तेज हवाएं (Strong winds) कहवे की कृषि के लिए हानिकारक होती हैं। इसलिए कहवे की कृषि सुरक्षित ढलानों (Protected hill-slopes) पर की जाती है।
2. वर्षा – कहवे के लिए 100 से 150 से०मी० वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है। वर्षा का वितरण वर्षभर समान रूप से हो। शुष्क ऋतु में जल सिंचाई के साधन प्रयोग किए जाते हैं। फल पकते समय ठण्डे शुष्क मौसम की आवश्यकता होती है।
3. छायादार वृक्ष – सूर्य की सीधी व तेज़ किरणें कहवे के लिए हानिकारक होती हैं। इसलिए कहवे के बागों में केले तथा दूसरे छायादार फल उगाए जाते हैं। जो छाया के अतिरिक्त सहायक आय का भी साधन हैं।
4. मिट्टी – कहवे की कृषि के लिए गहरी, छिद्रदार उपजाऊ मिट्टी चाहिए जिसमें लोहा चूना तथा वनस्पति के अंश अधिक हों। लावा की मिट्टी तथा दोमट मिट्टी कहवे के लिए अनुकूल होती है।
5. धरातल – कहवे के बाग़ पठारों तथा ढलानों पर लगाए जाते हैं, ताकि पानी का अच्छा निकास हो। कहवे की कृषि 1000 मीटर तक ऊंचे प्रदेशों में की जाती है।
6. सस्ते श्रमिक – कहवे की कृषि के लिए सस्ते तथा अधिक मज़दूरों की आवश्यकता होती है। पेड़ों को छांटने, बीज तोड़ने तथा कहवा तैयार करने के लिए सभी कार्य हाथों से किए जाते हैं।
7. बीमारियों की रोकथाम – कहवे के बाग़ में बीटल नामक कीड़े तथा कई बीमारियों के कारण भारत, श्रीलंका तथा इण्डोनेशिया में नष्ट हो गए हैं। इन बीमारियों की रोकथाम आवश्यक है।
उत्पादन – भारत में कहवे की कृषि एक मुस्लिम फ़कीर बाबा बूदन द्वारा लाए गए बीजों द्वारा आरम्भ की गई। भारत में कहवे का पहला बाग़ सन् 1830 में कर्नाटक राज्य के चिकमंगलूर क्षेत्र में लगाया गया। धीरे-धीरे कहवे की कृषि में विकास होता है। अब भारत में लगभग दो लाख हेक्टेयर भूमि पर दो लाख टन कहवे का उत्पादन होता है। देश में कहवे की खपत कम है। देश के कुल उत्पादन का 60% भाग विदेशों को निर्यात कर दिया जाता है। इस निर्यात से लगभग 1500 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। यह निर्यात कोजीकोड (केरल) चेन्नईं तथा बंगलौर की बन्दरगाहों से किया जाता है।
उपज के क्षेत्र – भारत के कहवे के बाग़ दक्षिणी पठार की पर्वतीय ढलानों पर ही मिलते हैं। उत्तरी भारत में ठण्डी जलवायु के कारण कहवे की कृषि नहीं होती।
(क) कर्नाटक राज्य – यह राज्य भारत में सबसे अधिक कहवा उत्पन्न करता है। यहां पश्चिमी घाट तथा नीलगिरि की पहाड़ियों पर कहवे के बाग़ मिलते हैं। इस राज्य में शिमोगा, कादूर, हसन तथा कुर्ग क्षेत्र कहवे के लिए प्रसिद्ध हैं।
(ख) तमिलनाडु – इस राज्य में उत्तरी आरकाट से लेकर त्रिनेवली तक के क्षेत्र में कहवे के बाग़ मिलते हैं। यहां नीलगिरि तथा पलनी की पहाड़ियों की मिट्टी या जलवायु कहवे की कृषि के अनुकूल है।
(ग) केरल – केरल राज्य में इलायची की पहाड़ियों का क्षेत्र।
(घ) महाराष्ट्र में सातारा जिला।
(ङ) इसके अतिरिक्त आन्ध्र प्रदेश, असम, पश्चिमी बंगाल तथा अण्डेमान द्वीप में कहवे की कृषि के लिए यत्न किए जा रहे हैं ।
8. मोटे अनाज ( Millets):
(i) ज्वार (Jowar ) – खाद्यान्न में क्षेत्रफल की दृष्टि से ज्वार का तीसरा स्थान है। ज्वार 45 से०मी० से कम वर्षा वाले शुष्क और अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में उगाई जा सकती है। इसकी वृद्धि के लिए उच्च तापमान की आवश्यकता होती है । यह सामान्यतः कम उपजाऊ मिट्टियों और अनिश्चित वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाई जाती है । ज्वार रबी और खरीफ़ दोनों की ही फ़सल है। यह भारत के लगभग एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में उगाई जाती है। संकर बीजों की मदद से इसका उत्पादन सन् 2005-06 में 77 लाख टन हो गया था।
सम्पूर्ण प्रायद्वीपीय भारत में ज्वार पैदा की जाती है। लेकिन इसका सबसे अधिक संकेन्द्रण भारी और मध्यम वर्ग की काली मिट्टियों वाले तथा 100 से० मी० से कम वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में है। ज्वार के सम्पूर्ण फ़सलगत क्षेत्र का आधा भाग महाराष्ट्र में है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश तमिलनाडु और मध्य प्रदेश अन्य प्रमुख ज्वार उत्पादक राज्य हैं।
(ii) बाजरा (Bajra ) – बाजरा हल्की मिट्टियों और शुष्क क्षेत्रों में पैदा किया जाता है। इसीलिए यह अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट और उथली काली मिट्टियों में खूब पैदा किया जाता है। बाजरे की खेती के लिए महत्त्वपूर्ण क्षेत्र ये हैं- राजस्थान की मरुस्थली और अरावली की पहाड़ियां, दक्षिणी पश्चिमी हरियाणा, चंबल द्रोणी, दक्षिण पश्चिमी उत्तर प्रदेश, कच्छ, काठियावाड़ और उत्तरी गुजरात, महाराष्ट्र में पश्चिमी घाट के पवन विमुख ढाल। बाजरा वर्षापोषित खरीफ़ की फ़सल है। देश के कुल क्षेत्र के 76 लाख हेक्टेयर ( लगभग 5.0%) क्षेत्र में बाजरे की खेती की जाती है। कुल उत्पादन सन् 2005-06 में 104 लाख टन हो गया। राजस्थान देश का सबसे बड़ा बाजरा उत्पादक राज्य है। अन्य प्रमुख बाजरा उत्पादक राज्य ये हैं – उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा।
(iii) मक्का (Maize ) – देश के कुल फ़सलगत क्षेत्र के 3.6 प्रतिशत भाग में मक्का बोई जाती है। इसका कुल उत्पादन 1.2 करोड़ टन था। मक्का के क्षेत्रफल और उत्पादन दोनों में ही तेज़ी से वृद्धि हुई है। संकर जाति के उपज बढ़ाने वाले बीजों, उर्वरकों और सिंचाई के साधनों ने इसकी उत्पादकता बढ़ाने में सहायता की है। सन् 1951 और 2001 की अवधि में मक्का का उत्पादन दस गुना बढ़ गया है। मक्का की खेती सारे भारत में की जाती है। मक्का के उत्पादन में कर्नाटक का पहला स्थान है। इसके बाद उत्तर प्रदेश, बिहार और आंध्र प्रदेश का स्थान है। मक्का के अन्य उत्पादक राज्य हैं – मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और हिमाचल प्रदेश
(iv) दालें (Pulses) – भारतीय भोजन में दालें प्रोटीन का मुख्य स्रोत हैं। ये फलीदार फ़सलें हैं तथा ये अपनी जड़ों के द्वारा मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ाकर उसकी उर्वरता में वृद्धि करती है। दालों को कम नमी की आवश्यकता होती है। अतः ये शुष्क दशाओं में भी पनपती है। तुर, उड़द, मूंग और मोठ खरीफ़ की प्रमुख फ़सलें हैं तथा चना, मटर, तुर और मसूर रबी की फ़सलें हैं। दालों के अन्तर्गत क्षेत्रफल सन् 2000-01 में दो करोड़ हेक्टेयर हो गया। इसी अवधि में उनका उत्पादन भी बढ़कर 1.07 करोड़ टन हो गया।
(v) चना (Grams) – देश में दाल की प्रमुख फ़सल है। प्रमुख चना उत्पादक क्षेत्र ये हैं- मध्य प्रदेश का मालवा का पठार, राजस्थान का उत्तर पूर्वी भाग और दक्षिणी उत्तर प्रदेश। अधिक उत्पादन मध्य प्रदेश में होता है। उत्तर प्रदेश का चने के उत्पादन में दूसरा स्थान है। तुर दाल की महत्त्वपूर्ण फ़सल है। तुर के प्रमुख उत्पादक राज्य महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश हैं।
प्रश्न 2.
हरित क्रान्ति से क्या अभिप्राय है ? कृषि उत्पादकता की वृद्धि में प्रयोग की जाने वाली विधियों का वर्णन करो । हरित क्रान्ति के प्रभावों का वर्णन करो ।
उत्तर:
हरित क्रान्ति (Green Revolution):
भारतीय कृषि एक परम्परागत कृषि संगठन है। कृषि क्षेत्र में एक मौलिक और मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता को देखते हुए एक नवीन कृषि प्रणाली को अपनाया गया है जिसे हरित क्रान्ति कहते हैं। हरित क्रान्ति वास्तव में एक खाद्यान्न क्रान्ति है जिससे सम्पूर्ण कृषि उत्पादन प्रक्रिया को एक नवीन मोड़ दे दिया है । हरित क्रान्ति भारतीय कृषि में आधुनिकीकरण की योजना भारत एक कृषि प्रधान देश है। देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है।
परन्तु प्राचीन विधियों के कारण कृषि का विकास नहीं हो पाया है। भारत में घनी आबादी तथा निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण खाद्यान्नों की कमी एक गम्भीर समस्या का रूप धारण कर रही है। इस कमी को पूरा करने के लिए कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए एक सामूहिक तथा वैज्ञानिक योजना लागू की गई। हरित क्रान्ति के पीछे निहित उद्देश्य हैं कि भारतीय भूमि हरीतिमा हरित क्रान्ति की मुख्य विशेषताएं – हरित क्रान्ति में निम्नलिखित तकनीकी विधियों पर बल दिया गया है
1. उन्नत बीजों का प्रयोग [Use of High Yielding Varieites (HYV)] – कृषि अनुसंधान के परिणामस्वरूप अधिक उपज देने वाले बीजों का विकास किया गया है। कम समय में तैयार होने वाली किस्में विकसित की गई हैं जिनमें वर्ष में 2 से अधिक फ़सलें प्राप्त की जा सकती हैं। इससे बहुफसलीय प्रणाली को प्रोत्साहन मिला है। गेहूं की नई किस्में जैसे कल्याण, सोना आदि तथा चावल की नई किस्में जैसे ‘विजय’, ‘रत्ना’, ‘पद्मा’ आदि के प्रयोग से उपज में वृद्धि हुई है। अब चावल 300 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में उत्तम बीजों की कृषि की जाती है ।
2. उर्वरकों का अधिक प्रयोग (Use of Fertilizers ) – हमारे देश में गोबर खाद की वार्षिक प्राप्ति लगभग 100 करोड़ टन है, परन्तु इसका 40% भाग ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस प्राकृतिक खाद की अपर्याप्तता के कारण उर्वरक के उत्पादन और प्रयोग पर अधिक बल दिया जा रहा है। भारत में प्रति हेक्टेयर भूमि में खाद का प्रयोग विदेशों की तुलना में बहुत कम है । उर्वरक के अधिक प्रयोग से प्रति हेक्टेयर उत्पादन में बहुत वृद्धि हुई है।
3. सिंचाई क्षेत्र में विस्तार (Increase in Irrigated Area ) – सिंचाई वर्षा अधिक की कमी को पूरा करती हैं तथा कृषि उपज बढ़ाने का साधन है। नहरों के अतिरिक्त सिंचाई की छोटी तथा बड़ी योजनाओं पर अधिक बल दिया गया है। नलकूपों का विस्तार किया गया है। इससे फसलों को गहनता तथा प्रति हेक्टेयर उपज में वृद्धि हुई है।
4. नवीन कृषि यन्त्रों का प्रयोग (Use of New Agricultural Machinery ) – कृषि क्षेत्र में पुराने औज़ारों के स्थान पर आधुनिक मशीनों, यन्त्रों का प्रयोग बढ़ाया जा रहा है। कृषि क्षेत्र में मुख्यतः ट्रैक्टर, कम्बाइन हारवेस्टर, पिकर, ड्रिल आदि उपकरण प्रयुक्त होते हैं। कृषि उपकरणों को लोकप्रिय, सुगम बनाने के लिए कई कृषि उद्योग निगम स्थापित किए गए हैं। यान्त्रिक कृषि से देश के कृषि आधारित उद्योगों के लिए पर्याप्त कच्चा माल भी उपलब्ध हो सकता है । इस प्रकार कृषि तथा उद्योग एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं। यान्त्रिक कृषि से बहु- फ़सली कृषि प्रणाली (Multiple Cropping) का विकास हुआ है।
5. कीटनाशक औषधियों का प्रयोग ( Use of Pesticides ) – कीड़ों तथा बीमारियों से फ़सलों की सुरक्षा आवश्यक है । इसलिए कीटनाशक औषधियों का उत्पादन तथा वितरण कार्य एक सुनिश्चित ढंग से किया जा रहा हरित क्रान्ति के अधीन इनका प्रयोग बढ़ाया गया है।
6. भूमि सुधार (Land Reforms) – हरित क्रान्ति में नवीन विधियों के प्रयोग के साथ-साथ कृषि में भूमि सुधारों की ओर पर्याप्त ध्यान दिया गया है। मूलभूत सुधारों के बिना नवीन कृषि टैक्नोलॉजी व्यर्थ सिद्ध होगी।
7. भू-संरक्षण कार्यक्रम (Soil Conservation ) – भूमि कटाव रोकने तथा भूमि की उर्वरता को बनाए रखने की दृष्टि से विभिन्न पग उठाए गए हैं। मरुस्थलों के विस्तार को रोकने, शुष्क कृषि प्रणाली के विस्तार के कार्य अपनाए जा रहे हैं। देश में लगभग 500 लाख एकड़ बेकार भूमि को कृषि योग्य बनाने व सुधारने के प्रयत्न किए जा रहे हैं। ‘कल्लर’ (क्षारीय) भूमि तथा कन्दरायुक्त भूमि को कृषि योग्य बनाया जा रहा है। इस प्रकार जल प्लावन (Water Logging), क्षारीयता (Salination) तथा भू-क्षरण (Soil Erosion) के कार्यक्रम अपनाए गए हैं। मिट्टियों के सर्वेक्षण पर भी ध्यान दिया गया है।
8. गहन कृषि (Intensive Farming ) – कई राज्यों में भू-खण्डों के स्तर पर गहन कृषि तथा पैकेज प्रोग्राम आरम्भ किए गए। कालान्तर में इसे गहन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम (IAAP) में बदल दिया गया। इससे किसानों को कृषि में प्रयोग होने वाली सभी साधनों की सुविधा प्रदान की गई ताकि उत्पादन में वृद्धि हो सके।
हरित क्रान्ति के प्रभाव (Effects of Green Revolution)
1. कृषि उत्पादन में वृद्धि (Increase in Agricultural Production ) – हरित क्रान्ति एक महत्त्वपूर्ण कृषि योजना है जिसका मुख्य उद्देश्य खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाकर देश में खाद्यान्न की कमी को दूर करना है। देश के विभाजन के पश्चात् खाद्यान्नों की कमी हो गईं। सन् 1964-65 में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन केवल 9 करोड़ टन था। इस कमी को पूरा करने के लिए विदेशों से खाद्यान्न आयात किए जाते थे। जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण कृषि क्षेत्र को एक नया मोड़ दिया गया, जिसके कारण खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि हुई है। देश में खाद्यान्नों का कुल उत्पादन लगभग 259 करोड़ टन हो गया।
वर्ष | खाद्यान्न उत्पादन (करोड़ टन) |
1966 67 | 7.4 |
1970-71 | 10.7 |
1977-78 | 11.0 |
1980-81 | 13.5 |
1984-85 | 15.0 |
1993-94 | 18.0 |
2011-2012 | 259 |
2. प्रति हेक्टेयर उपज में वृद्धि (Increase in Yield per Hectare ) – हरित क्रान्ति वास्तव में खाद्यान्न क्रान्ति ही है। इसके लिए जल सिंचाई के साधनों में विस्तार किया गया। उर्वरकों का अधिक मात्रा में प्रयोग करके प्रति हेक्टेयर उपज को बढ़ाया गया। अधिक उपज देने वाली फ़सलों की कृषि पर ज़ोर दिया गया। चुने हुए क्षेत्रों में गेहूँ तथा चावल की नई विदेशी किस्मों का प्रयोग किया गया। गेहूँ की नई किस्में कल्याण, S-308, चावल की किस्में रत्ना, जया आदि का प्रयोग किया गया। पंजाब के लुधियाना क्षेत्र में गेहूँ का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 13 क्विंटल से बढ़कर 33 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक जा पहुंचा है। गोदावरी डेल्टा में चावल प्रति हेक्टेयर उत्पादन, लगभग दुगुना हो गया है। इस प्रकार कृषि योग्य भूमि के विस्तार से नहीं अपितु प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ा कर ही खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि के लक्ष्य को पूरा किया गया है।
3. कृषि आधारित उद्योगों का बड़ी तेज़ी से विकास हुआ है।
4. यन्त्रीकरण तथा जल सिंचाई साधनों के प्रयोग से ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली तथा डीजल की खपत बढ़ी है।
त्रुटियां (Drawbacks) – हरित क्रान्ति वास्तव में खाद्यान्न क्रान्ति है। इसके परिणाम इतने आशा जनक नहीं रहे हैं, जितनी की आशा की जाती थी । खाद्यान्न के अतिरिक्त अन्य फ़सलों के क्षेत्र में अधिक उपज देने वाली किस्मों को अपनाया गया है। जैसे – कपास की नई किस्में गुजरात तथा तमिलनाडु में उगाई गई हैं । हरित क्रान्ति की योजना देश के चुने हुए क्षेत्रों में ही सफल रही है । इसे देश के सभी भागों में लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि –
- बहुत से भागों में जल सिंचाई के साधन कम हैं।
- उर्वरकों का उत्पादन मांग की पूर्ति के लिए अपर्याप्त है।
- नए कृषि साधनों पर अधिक खर्च करने के लिए पूंजी की कमी है।
- इस योजना से छोटे किसानों को कोई विशेष लाभ नहीं पहुंचा है।
- यह योजना केवल सीमित भागों में ही सफल रही है। इस योजना में कृषि तथा लघु सिंचाई पर विशेष जोर नहीं दिया गया है।
- छोटे आकार के खेतों में कृषि यन्त्रों का प्रयोग सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है।
- अधिक उपज प्राप्त करने वाली विधियां केवल कुछ ही फ़सलों के प्रयोग में लाई गई हैं।
- हरित – क्रान्ति द्वारा क्षेत्रीय असन्तुलन बढ़ गया है क्योंकि इसमें उपजाऊ क्षेत्रों पर ही ध्यान दिया गया है।
- व्यापारिक फ़सलों के उत्पादन में भी वृद्धि की आवश्यकता है।
फिर भी यह कहा जा सकता है कि हरित क्रान्ति कृषि के ग्रामीण सर्वांगीण और बहुमुखी विकास की योजना है जो कृषि क्षेत्र में आत्म-निर्भरता प्राप्त करने में सहायक होगी।
प्रश्न 3.
भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याओं का वर्णन करो।
उत्तर:
भारतीय कृषि की समस्याएं:
भारतीय कृषि की समस्याएं विभिन्न प्रकार की हैं। अधिकतर कृषि समस्याएं प्रादेशिक हैं तथापि कुछ समस्याएं सर्वव्यापी हैं जिसमें भौतिक बाधाओं से लेकर संस्थागत अवरोध शामिल हैं। यद्यपि कृषि के विकास के लिए बहुत अधिक प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन संसार के विकसित देशों की तुलना में हमारी कृषि की उत्पादकता अब भी कम है। इस परिस्थिति के लिए अनेक कारक संयुक्त रूप से ज़िम्मेदार हैं।
इनको चार वर्गों में बांटा गया है:
- पर्यावरणीय
- आर्थिक
- संस्थागत
- प्रौद्योगिकीय
1. अनियमित मानसून पर निर्भरता – सबसे गंभीर समस्या मानसून का अनिश्चित स्वरूप है। तापमान तो सारे साल ही ऊंचे रहते हैं। अतः यदि नियमित रूप में जल की पर्याप्त आपूर्ति होती रहे तो पूरे वर्ष फसलें पैदा की जा सकती हैं। लेकिन ऐसा संभव नहीं है क्योंकि देश के अधिकतर भागों में वर्षा केवल 3 या 4 महीनों में ही होती है। यही नहीं वर्षा की मात्रा तथा ॠतुनिष्ठ और प्रादेशिक वितरण अत्यधिक परिवर्तनशील है। इस परिस्थिति का कृषि के विकास पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। भारत में कृषि क्षेत्र का केवल एक तिहाई भाग ही सिंचित है। शेष कृषि क्षेत्र में फ़सलों का उत्पादन प्रत्यक्ष रूप से वर्षा पर निर्भर है।
जहां तक वर्षा का संबंध है, देश के अधिकतर भाग, उपार्द्र, अर्ध शुष्क और शुष्क हैं। इन क्षेत्रों में अक्सर सूखा पड़ता रहता है। राजस्थान तथा अन्य क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम तथा अत्यधिक अविश्वसनीय है। ये क्षेत्र सूखा व बाढ़ दोनों से प्रभावित हैं। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सूखा एक सामान्य परिघटना है लेकिन यहां यदा कदा बाढ़ भी आ जाती है। वर्ष 2006 में महाराष्ट्र, गुजरात तथा राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में आई आकस्मिक बाढ़ उदाहरण है। सूखा तथा बाढ़ भारतीय कृषि के जुड़वा संकट बने हुए हैं। सिंचाई की सुविधाओं के विकास और वर्षा जल संग्रहण के द्वारा इन प्रदेशों की उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है।
2. निम्न उत्पादकता – अंतर्राष्ट्रीय स्तर की उपेक्षा भारत में फ़सलों की उत्पादकता कम है। भारत में अधिकतर फ़सलों जैसे- चावल, गेहूँ, कपास व तिलहन की प्रति हेक्टेयर पैदावार अमेरिका, रूस तथा जापान से कम है। भू संसाधनों पर अधिक दबाव के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तुलना में भारत में श्रम उत्पादकता भी बहुत कम है। देश के विस्तृत वर्षा निर्भर विशेषकर शुष्क क्षेत्रों में अधिकतर मोटे अनाज, दालें तथा तिलहन की खेती की जाती है तथा यहाँ इनकी उत्पादकता बहुत कम है।
3. आर्थिक कारक – कृषि में निवेश जैसे अधिक उपज देने वाले बीज, उर्वरक आदि और परिवहन की सुविधाएं आर्थिक कारक हैं। विपणन सुविधाओं की कमी या उचित ब्याज पर ऋण का न मिलने के कारण किसान कृषि के विकास के लिए आवश्यक संसाधन नहीं जुटा पाता है। इसका परिणाम होता है-निम्न उत्पादकता। सच्चाई तो यह है कि भूमि पर जनसंख्या का दबाव दिनों-दिन बढ़ रहा है। परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति फसलगत भूमि में कमी हो रही है। 1921 में यह 0.444 हेक्टेयर, 1961 में 0.296 हेक्टेयर तथा और भी घटकर 1991 में 0.219 हेक्टेयर रह गई है। जोतों के छोटे होने के कारण निवेश की क्षमता भी कम है।
4. संस्थागत कारक – जनसंख्या के दबाव के कारण जोतों का उपविभाजन (पीढ़ियों के अनुसार बंटवारा) और छितराव हो रहा है। 1961-62 में कुल जोतों में से 52% जोतें सीमांत आकार में (दो हेक्टेयर से कम) और छोटी थीं। 1990-91 में कुल जोतों में छोटी जोतों का प्रतिशत बढ़कर 78 हो गया। इन छोटी जोतों में भी छोटे-छोटे खेत दूर दूर बिखरे हैं। जोतों का अनार्थिक होना (आर्थिक दृष्टि से अनुपयुक्त आकार) कृषि के आधुनिकीकरण की प्रमुख बाधा हैं। भूमि के स्वामित्व की व्यवस्था बड़े पैमाने पर निवेश के अनुकूल नहीं है, क्योंकि काश्तकारी की अवधि अनिश्चित बनी रहती है। अगली पीढ़ी में भूमि में बँटवारे से भू जोतों का पुनः विखण्डन हो गया है।
5. प्रौद्योगिकीय कारक – कृषि के तरीके पुराने और रूढ़िवादी / परम्परागत हैं। अधिकतर किसान आज भी लकड़ी का हल और बैलों का ही उपयोग करते हैं। मशीनीकरण बहुत सीमित है। उर्वरकों और अधिक उपज देने वाले बीजों का उपयोग भी सीमित है। फसलगत क्षेत्र के केवल एक तिहाई क्षेत्र के लिए ही सिंचाई की सुविधाएं जुटाई जा सकी हैं। इसका वितरण वर्षा की कमी और परिवर्तनशील के अनुरूप नहीं है। ये दशाएं कृषि की उत्पादकता और इसकी गहनता को निम्न स्तर पर बनाए हुए हैं।
6. भूमि सुधारों की कमी – भूमि के असमान वितरण के कारण भारतीय किसान लंबे समय से शोषित हैं । अंग्रेज़ी शासन के दौरान, तीन भूराजस्व प्रणालियों-महालवाड़ी, रैयतवाड़ी तथा ज़मींदारी में से ज़मींदारी प्रथा किसानों के लिए सबसे अधिक शोषणकारी रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्, भूमि सुधारों को प्राथमिकता दी गई, लेकिन ये सुधार कमज़ोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण पूर्णतः फलीभूत नहीं हुए। अधिकतर राज्य सरकारों ने राजनीतिक रूप से शक्तिशाली ज़मींदारों के खिलाफ़ कठोर राजनीतिक निर्णय लेने में टालमटोल किया। भूमि सधारों के लागू न होने के परिणामस्वरूप कृषि योग्य भूमि का असमान वितरण जारी रहा जिससे कृषि विकास में बाधा रही है ।