JAC Class 12 History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

Jharkhand Board JAC Class 12 History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Solutions Chapter 14 विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव

Jharkhand Board Class 12 History विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव In-text Questions and Answers

पृष्ठ संख्या 379

प्रश्न 1.
प्रत्येक स्रोत से आपस में बातचीत करने वाले इन लोगों के रुख के बारे में हमें क्या पता चलता है?
उत्तर:
प्रत्येक खोत से हमें आपस में बातचीत करने वालों से यह पता चलता है कि प्रत्येक का दृष्टिकोण अलग-अलग है-
(1) स्रोत एक के अब्दुल लतीफ एक सहृदय व्यक्ति हैं जो अपने पिता की जान बचाने वाले की मदद करके अपने पिता पर चढ़े हुए कर्ज को चुका रहे हैं पाकिस्तान के नागरिक होते हुए भी वे हिन्दुस्तानी से नफरत नहीं करते।

(2) दूसरे स्रोत के इकबाल अहमद अपनी वतनपरस्ती (देशभक्ति) के कारण हिन्दुस्तानियों की मदद नहीं करते हैं। लेकिन उनके दिल में कहीं इंसानियत छिपी है, जिसके कारण वे शोधार्थी को चाय पिलाते तथा अपनी आपबीती सुनाते हैं। दिल्ली में मिलने वाला सिख उन्हें अपने सगे- सम्बन्धी जैसा लगा । वतन छूट जाने पर भी सिख के मन में लाहौर के
मुसलमानों से लगाव था।

(3) तीसरी घटना वाला व्यक्ति घृणा से भरपूर है। जब उसे पता लगा कि शोधार्थी पाकिस्तानी न होकर भारतीय है, उसके मुख से अनायास घृणा भरे शब्द निकल पड़े” वह भारतीयों को अपना कट्टर दुश्मन मानता है।”

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प्रश्न 2.
ये कहानियाँ लोगों की विभाजन सम्बन्धी विभिन्न स्मृतियों के बारे में हमें क्या बताती हैं?
उत्तर:
ये कहानियाँ विभाजन सम्बन्धी स्मृतियों के बारे में हमें बताती हैं कि कुछ लोग विभाजन के बाद भी आपसी भाईचारे में विश्वास रखने वाले थे तथा कुछ बिल्कुल कट्टर शत्रुवत् व्यवहार करने वाले थे।

प्रश्न 3.
इन लोगों ने खुद को और एक-दूसरे को कैसे पेश किया और पहचाना?
उत्तर:
अब्दुल लतीफ ने शोधार्थी के सामने स्वयं को एक सहृदय एहसानमन्द व्यक्ति की तरह पेश किया। इकबाल अहमद ने स्वयं को डरपोक लेकिन अच्छे इंसान की तरह पेश किया तथा तीसरे व्यक्ति ने अपने को सामान्य भारतीयों के कट्टर शत्रु के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी बोलचाल से उन्होंने एक-दूसरे को पहचाना।

पृष्ठ संख्या 387

प्रश्न 4.
लीग की माँग क्या थी? क्या वह ऐसे पाकिस्तान की माँग कर रही थी जैसा हम आज देख रहे हैं?
उत्तर:
लीग की माँग थी कि भौगोलिक दृष्टि से सटी हुई इकाइयों को क्षेत्रों के रूप में चिह्नित किया जाए, जिन्हें बनाने में जरूरत के हिसाब से इलाकों का फिर से ऐसा समायोजन किया जाए कि हिन्दुस्तान के उत्तर-पश्चिम और पूर्वी क्षेत्रों जैसे जिन हिस्सों में मुसलमान बहुसंख्यक हैं उन्हें एकत्र करके ‘स्वतंत्र राज्य’ बना दिया जाए, जिसमें शामिल इकाइयाँ स्वाधीन और स्वायत्त होंगी। मुस्लिम लीग उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल इलाकों के लिए कुछ स्वायत्तता चाहती थी उस समय लीग आज जैसा पाकिस्तान नहीं चाहती थी जैसा अब है आज का पाकिस्तान एक स्वायत्त राज्य न होकर स्वतंत्र राष्ट्र है।

पृष्ठ संख्या 390

प्रश्न 5.
पाकिस्तान के विचार का विरोध करते हुए महात्मा गाँधी ने क्या तर्क दिए?
उत्तर:
पाकिस्तान के विचार का विरोध करते हुए गांधीजी ने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए –

  • हिन्दू और मुसलमान दोनों एक ही मिट्टी से उपजे हैं। उनका खून एक है, वे एक जैसा भोजन करते हैं, एक ही पानी पीते हैं और एक ही भाषा बोलते हैं।
  • लीग द्वारा पाकिस्तान की माँग पूरी तरह गैर- इस्लामिक है और मैं इसे पापपूर्ण कार्य मानता हूँ।
  • इस्लाम मानव की एकता और भाईचारे का समर्थक है न कि मानव परिवार की एकजुटता को तोड़ने का।
  • जो तत्व भारत को एक-दूसरे के खून के प्यासे टुकड़ों में बाँट देना चाहते हैं वे भारत और इस्लाम दोनों के शत्रु हैं।
  • भले ही वे मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दें परन्तु मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते जिसे मैं गलत मानता हूँ।

 पृष्ठ संख्या 391

प्रश्न 6.
भाग 3 को पढ़कर यह जाहिर है कि पाकिस्तान कई कारणों से बना आपके मत में इनमें से कौन से कारण सबसे महत्त्वपूर्ण थे और क्यों ?
उत्तर:

  • अंग्रेजों द्वारा पृथक् चुनाव क्षेत्रों की व्यवस्था से मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिला।
  • अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की नीति से मुस्लिम लोग को पाकिस्तान के निर्माण के लिए प्रोत्साहन मिला।
  • साम्प्रदायिक दंगों के कारण देश में अशान्ति और अव्यवस्था फैल गई परन्तु अंग्रेजों ने इन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया।

पृष्ठ संख्या 394 चर्चा कीजिए

प्रश्न 7.
भारत छोड़ते समय अंग्रेजों ने शान्ति बनाए रखने के लिए क्या किया? महात्मा गाँधी ने ऐसे दुःखद दिनों में क्या किया?
उत्तर:
(1) अंग्रेजों ने शान्ति स्थापित करने के लिए कुछ नहीं किया अपितु पीड़ितों को कांग्रेसी नेताओं की शरण में जाने को कहा।
(2) महात्मा गाँधी जगह-जगह घूम-घूमकर साम्प्रदायिक सौहार्द की अपील कर रहे थे।

पृष्ठ संख्या 396

प्रश्न 8.
किन विचारों की वजह से विभाजन के दौरान कई निर्दोष महिलाओं की मृत्यु हुई और उन्होंने कष्ट उठाया ? भारतीय और पाकिस्तानी सरकारें क्यों अपनी महिलाओं की अदला-बदली के लिए तैयार हुई ? क्या आपको लगता है कि ऐसा करते समय वे सही थे ?
उत्तर:
(1) दोनों सम्प्रदायों के लोग बदले की भावना से और महिलाओं को अपनी कामवासना का शिकार बनाने के लिए महिलाओं पर हमले कर रहे थे सैकड़ों महिलाओं ने अपनी इज्जत बचाने के लिए कुओं में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। इस कारण कई निर्दोष महिलाओं की मृत्यु हुई और उन्हें कष्ट उठाने पड़े।

(2) दोनों सम्प्रदायों की महिलाओं की स्थिति अत्यधिक शोचनीय हो चुकी थी इसलिए भारतीय तथा पाकिस्तानी सरकारें अपनी महिलाओं की अदला-बदली के लिए तैयार हुई।

(3) कुछ सीमा तक वे सही थे परन्तु उन्हें संवेदनशीलता से काम लेते हुए महिलाओं की भावनाओं का भी ध्यान रखना चाहिए था।

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उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में )

प्रश्न 1.
1940 के प्रस्ताव के जरिए मुस्लिम लीग ने क्या माँग की?
उत्तर:
23 मार्च, 1940 को मुस्लिम लीग ने उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल इलाकों के लिए सीमित स्वायत्तता की मांग का प्रस्ताव पेश किया। इस अस्पष्ट से प्रस्ताव में कहीं भी विभाजन या पाकिस्तान का उल्लेख नहीं था बल्कि इस प्रस्ताव के लेखक पंजाब के प्रधानमंत्री और यूनियनिस्ट पार्टी के नेता सिकन्दर हयात खान ने 1 मार्च, 1941 को पंजाब असेम्बली को संबोधित करते हुए घोषणा की थी कि वह ऐसे पाकिस्तान की अवधारणा का विरोध करते हैं, जिसमें यहाँ “मुस्लिम राज और बाकी जगह हिन्दू राज होगा। अगर पाकिस्तान का मतलब यह है कि पंजाब में खालिस मुस्लिम राज कायम होने वाला है तो मेरा उससे कोई वास्ता नहीं है।” उन्होंने संघीय इकाइयों के लिए उल्लेखनीय स्वायत्तता के आधार पर एक ढीले-ढाले (संयुक्त) महासंघ के समर्थन में अपने विचारों को फिर दोहराया।

प्रश्न 2.
कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता था कि बँटवारा बहुत अचानक हुआ?
उत्तर:
शुरुआत में मुस्लिम नेताओं ने भी एक संप्रभु राज्य के रूप में पाकिस्तान की मांग विशेष गंभीरता से नहीं उठाई थी। आरम्भ में शायद स्वयं जिन्ना भी पाकिस्तान की सोच को सौदेबाजी में एक पैंतरे के तौर पर प्रयोग कर रहे थे जिसका वे सरकार द्वारा काँग्रेस को मिलने वाली रियायतों पर रोक लगाने और मुसलमानों के लिए और रियायतें हासिल करने के लिए इस्तेमाल कर सकते थे। बँटवारा बहुत अचानक हुआ इसके बारे में खुद मुस्लिम लीग की राय स्पष्ट नहीं थी।

उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के लिए सीमित स्वायत्तता की माँग (1940) तथा विभाजन (1947) होने के बीच बहुत कम समय केवल 7 वर्ष का अन्तर रहा। किसी को मालूम नहीं था कि पाकिस्तान के गठन का क्या मतलब होगा और उससे भविष्य में लोगों की जिन्दगी किस तरह तय होगी। इसी कारण कुछ लोगों को लगता था कि विभाजन बहुत अचानक हुआ।

प्रश्न 3.
आम लोग विभाजन को किस तरह देखते थे?
उत्तर:
विभाजन के बारे में आम लोगों का विचार था कि यह विभाजन पूर्णतया या तो स्थायी नहीं होगा अथवा शान्ति और कानून व्यवस्था बहाल होने पर सभी लोग अपने गाँव, कस्बे, शहर या राज्य में वापस लौट जाएँगे। कुछ लोग इसे मात्र गृह युद्ध ही मान रहे थे कुछ लोग इसे ‘मार्शल लॉ’, ‘मारामारी’, ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ बता रहे थे। कई लोग इसे ‘महाध्वंस’ (होलोकास्ट) की संज्ञा दे रहे थे। कुछ लोगों के लिए यह विभाजन बहुत दर्दनाक था जिसमें उनके मित्र- सम्बन्धी बिछड़ गए, वे अपने घरों, खेतों, व्यवसाय से वचित हो गए। वास्तव में देखा जाए तो आम लोगों की सोच उनके भोलेपन, अज्ञानता और वास्तविकता से आँखें बन्द करने के समान थी।

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प्रश्न 4.
मुहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तान के विचार का विरोध करते हुए महात्मा गाँधी ने क्या तर्क दिये थे?
अथवा
बंटवारे के विरुद्ध गाँधीजी के विचारों की समीक्षा कीजिये।
अथवा
विभाजन के खिलाफ महात्मा गाँधी की दलील क्या थे?
उत्तर:
गाँधीजी विभाजन के कट्टर विरोधी थे। उन्हें यह पक्का विश्वास था कि वे देश में सांप्रदायिक सद्भाव स्थापित करने में पुनः सफल हो जाएंगे। देशवासी घृणा और हिंसा का रास्ता छोड़कर पुनः आपसी भाईचारे के साथ रहने लगेंगे। गाँधीजी मानते थे कि सैकड़ों सालों से हिन्दू और मुस्लिम भारत में इकट्ठे रहते आए हैं।

वे एक जैसा भोजन करते हैं, एकसी भाषाएँ बोलते हैं तथा एक ही देश का पानी पीते हैं वे शीघ्र आपसी घृणा भूल कर पहले की तरह आपसी मेलजोल से रहने लग जाएँगे। गांधीजी लीग द्वारा पाकिस्तान की माँग को गैर-इस्लामिक व पापपूर्ण मानते थे। उनका मानना था कि इस्लाम एकता व भाईचारे का संदेश देता है, एकजुटता को तोड़ने का नहीं। गाँधीजी का कहना था कि चाहे उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएँ. परन्तु लोग मुझसे ऐसी बात नहीं मनवा सकते, जिसे वे (गाँधीजी ) गलत मानते थे।

प्रश्न 5.
विभाजन को दक्षिण एशिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ क्यों माना जाता है?
उत्तर:
भारत के विभाजन को दक्षिण एशिया के इतिहास में ऐतिहासिक मोड़ माना जाता है। इस विभाजन में लाखों लोग मारे गए, लाखों को रातोंरात अपना घरबार, देश व सम्पत्ति को छोड़कर एक अजनबी स्थान और अजनबी लोगों के बीच जाने को मजबूर होना पड़ा और वहाँ जाकर वे शरणार्थी बन गए। लगभग डेढ़ करोड़ लोगों को भारत और पाकिस्तान के बीच रातों-रात खड़ी कर दी गई सरहद के इस या उस पार जाना पड़ा दोनों ही संप्रदायों के नेता विभाजन के इस दुष्परिणाम की कल्पना भी नहीं कर सके कि विभाजन इतना भयंकर और हिंसात्मक होगा।

विभाजन के कारण लाखों लोगों को अपनी रेशा रेशा जिन्दगी दुबारा शुरू करनी पड़ी। विभाजन का सबसे बड़ा शिकार औरतों को होना पड़ा। उन पर बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया या जबरदस्ती दूसरों के साथ रहने को मजबूर होना पड़ा इन्हीं सब कारणों से इस विभाजन को दक्षिण एशिया के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ कहा गया।

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निम्नलिखित पर एक लघु निबन्ध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में ) –

प्रश्न 6.
आपके अनुसार भारत विभाजन के लिए कौनसी परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं ? उल्लेख कीजिए।
अथवा
ब्रिटिश भारत का बँटवारा क्यों किया गया?
अथवा
भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी कारणों का विवरण दीजिये।
अथवा
उन कारणों का वर्णन कीजिये जिनके कारण भारत का विभाजन हुआ।
उत्तर:
ब्रिटिश भारत के विभाजन के उत्तरदायी कारक – ब्रिटिश भारत के बँटवारे के प्रमुख कारण निम्नलिखित –
(1) अँग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ नीति- अंग्रेज ‘फूट डालो और राज करो की नीति पर चल रहे थे। उन्होंने अपनी नीति को सफल बनाने के लिए सांप्रदायिक ताकतों, साहित्य, लेखों तथा भारतीय मध्यकालीन इतिहास की उन घटनाओं का बार-बार जिक्र किया जिन्होंने सांप्रदायिकता को बढ़ाया।

(2) मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग-23 मार्च, 1940 को मुस्लिम लीग ने उपमहाद्वीप के मुस्लिम- बहुल इलाकों के लिए कुछ स्वायत्तता की माँग का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। यह उसका प्रबल दावा था कि भारत में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाली वही एकमात्र पार्टी है लेकिन 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के त्रिस्तरीय महासंघ के प्रस्ताव को जब कॉंग्रेस और लीग दोनों ने ही नहीं माना तो इसके बाद विभाजन लगभग अनिवार्य हो गया और लीग ने पाकिस्तान की माँग को अमली जामा दिये जाने पर बल दिया।

(3) सांप्रदायिकता में तीव्र वृद्धि-मुसलमानों में मस्जिदों के सामने संगीत बजाए जाने, गोरक्षा आन्दोलन तथा शुद्धिकरण (मुसलमान बने हिन्दुओं को पुनः हिन्दू बनाना) आदि कार्यों से तीव्र आक्रोश व्याप्त था। दूसरी ओर मुस्लिम संगठनों द्वारा तबलीग (प्रचार) तथा तंजीम (संगठन) आन्दोलन चलाकर देश में साम्प्रदायिक वातावरण तैयार किया गया। इससे दोनों सम्प्रदायों में तनाव बढ़ गया।

(4) पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था करना- 1909 के मिण्टो मार्ले सुधारों में मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की गई जिसका साम्प्रदायिक राजनीति की प्रकृति पर गहरा प्रभाव पड़ा। इससे मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिला।

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(5) संयुक्त प्रांत में काँग्रेस द्वारा लीग के साथ गठबंधन सरकार बनाने से इनकार करना 1937 में सम्पन्न हुए चुनावों के बाद संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) में मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहती थी, परन्तु कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के इस प्रस्ताव हुई को ठुकरा दिया जिससे मुसलमानों के मन में निराशा उत्पन्न ये मानने लगे कि अगर भारत अविभाजित रहा तो मुसलमानों के हाथ में राजनीतिक सत्ता नहीं आ पायेगी क्योंकि वे अल्पसंख्यक हैं और मुस्लिम हितों को प्रतिनिधित्व एक मुस्लिम पार्टी ही कर सकती है। काँग्रेस हिन्दुओं की पार्टी है इसलिए मुस्लिम लीग ने विभाजन और पाकिस्तान निर्माण पर जोर दिया।

(6) सांप्रदायिक दंगे- सांप्रदायिक दंगे भी विभाजन का कारण बने। दंगे इससे पूर्व भी हुए थे लेकिन विभाजन से ठीक पूर्व हुए दंगों ने देश के सांप्रदायिक सद्भाव को निगल लिया। सम्पत्ति की हानि हुई महिलाओं और बच्चों पर भयंकर अत्याचार किए गए लोगों का यह मानना था कि विभाजन के बाद सांप्रदायिक दंगों की समस्या हल हो जायेगी।

(7) प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस- 16 अगस्त, 1946 को मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के निर्माण की माँग पर बल देते हुए ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ मनाया। उस दिन कलकत्ता में भीषण दंगा भड़क उठा जो कई दिनों तक चला और उसमें कई हजार लोग मारे गए।

प्रश्न 7.
बँटवारे के समय औरतों के क्या अनुभव रहे?
उत्तर:
बँटवारे के समय औरतों के अनुभव-बँटवारे के समय औरतों के अनुभव बहुत खराब रहे।
यथा –
(1) बलात्कार, अगवा करना तथा खरीदा व बेचा जाना कई विद्वानों ने उस हिंसक काल में औरतों के भयानक अनुभवों के बारे में लिखा है उनके साथ बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया, उन्हें बार-बार खरीदा और बेचा गया। उन्हें अनजान हालात में अजनबियों के साथ एक नई जिन्दगी बसर करने के लिए मजबूर किया गया।

(2) औरतों की बरामदगी औरतों ने जो कुछ भुगता उसके गहरे सदमे के बावजूद बदले हुए हालात में कुछ औरतों ने अपने नए पारिवारिक बंधन विकसित किए। लेकिन भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने इंसानी सम्बन्धों की जटिलता के बारे में कोई संवेदनशील रवैया नहीं अपनाया।

बहुत सारी औरतों को जबरदस्ती घर बिठा ली गई मानते हुए उनके नए परिवारों से छीनकर दोबारा पुराने परिवारों या स्थानों पर भेज दिया गया। औरतों से उनकी मर्जी के बारे में कोई सलाह या मशविरा नहीं किया गया। एक अंदाजे के अनुसार करीब 30,000 औरतों की बरामदगी हुई जिनमें 22,000 मुस्लिम औरतों को भारत से और 8000 हिन्दू व सिख औरतों को पाकिस्तान से निकाला गया। यह मुहिम 1954 तक चलती रही।

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(3) इज्जत की रक्षा हेतु औरतों द्वारा शहादत देना- इस भयंकर समय में जब परिवार के मर्दों को यह लगता कि वे अपनी बीवियों, बहनों और बेटियों को दुश्मनों से नहीं बचा पाएँगे तो वे उनको स्वयं ही मार देते थे। उर्वशी बुटालिया ने अपनी पुस्तक ‘दी अदर साइड ऑफ वायलेंस’ में रावलपिंडी जिले के धुआ गाँव का दर्दनाक किस्सा लिखा है कि तकसीम के समय। विभाजन के समय) सिखों के इस गाँव की 90 औरतों ने दुश्मनों के हाथों पड़ने की बजाय अपनी मर्जी से कुएं में कूद कर जान दे दी थी।

इस गाँव से आए शरणार्थी आज भी दिल्ली के गुरुद्वारे में इस घटना पर कार्यक्रम आयोजित करते हैं तथा उन औरतों की मौत को आत्महत्या न कह उसे शहादत कहते हैं। लेकिन इस कार्यक्रम में उन औरतों को याद नहीं किया जाता जो मरना नहीं चाहती थीं तथा जिन्हें अपनी इच्छा के खिलाफ मौत का रास्ता चुनना पड़ा। उस समय पुरुषों ने औरतों के फैसले को बहादुरी से स्वीकार किया बल्कि कई बार तो उन्होंने औरतों को अपनी जान देने के लिए उकसाया भी हर साल 13 मार्च को शहादत का यह कार्यक्रम आयोजित किया जाता है।

प्रश्न 8.
बँटवारे के सवाल पर कॉंग्रेस की सोच कैसे बदली?
उत्तर:
बैंटवारे के सवाल पर कांग्रेस की सोच बदलने के पीछे कई कारण रहे जो इस प्रकार हैं –
(1) मुस्लिम लीग का पृथक् पाकिस्तान की माँग पर अड़ जाना-कॉंग्रेस मुस्लिम लीग को उसकी राष्ट्र विभाजन की माँग छोड़ने के लिए बहुत प्रयत्न करने पर भी राजी न कर पाई।

(2) काँग्रेस का राष्ट्र की एकता को बनाए रखने का स्वप्न टूटना – मुस्लिम लीग की मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी वाले क्षेत्रों को पाकिस्तान के लिए माँग पर कुछ काँग्रेसी नेताओं के दिमाग में यह विचार उत्पन्न कर दिया कि शायद कुछ समय बाद गाँधीजी देश की एकता को फिर से स्थापित करने में कामयाब हो जायेंगे लेकिन ऐसा हो नहीं सका, उनकी सोच ख्याली पुलाव बनकर रह गई।

(3) प्रत्यक्ष कार्यवाही के दौरान हिंसक दंगे भड़क उठना- मुस्लिम लीग द्वारा प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस की धमकी के साथ ही कलकत्ता व नोआखाली में हिंसक दंगे भड़काना, हिन्दू महासभा द्वारा हिन्दू राष्ट्र की माँग उठाना तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों द्वारा यह घोषणा करना कि यदि लीग और काँग्रेस किसी नतीजे पर नहीं पहुँचते हैं तो भी वे भारत छोड़कर चले जाएँगे आदि घटनाओं ने भी विभाजन को प्रोत्साहित किया। काँग्रेस जानती थी कि 90 साल बीत जाने पर भी अंग्रेज अपने बच्चों और औरतों के लिए वे खतरे नहीं उठाना चाहते थे जो उन्होंने 1857 के दौरान उठाए थे।

(4) 1946 के चुनावों में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मुस्लिम लीग की अपार सफलता- 1946 के चुनाव में जिन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी थी वहाँ मुस्लिम लीग को मिली अपार सफलता, मुस्लिम लीग द्वारा संविधान सभा का बहिष्कार करना, अंतरिम सरकार में लीग का शामिल न होना और जिना द्वारा दोहरे राष्ट्र के सिद्धान्त पर बार- बार जोर देना आदि बातों ने कांग्रेस की मानसिकता को राष्ट्र विभाजन का समर्थक बनाने में सहयोग दिया।

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(5) पंजाब और बंगाल के बंटवारे पर क्षेत्रीय कांग्रेसी नेताओं की सहमति मार्च 1947 में कांग्रेस हाईकमान ने पंजाब को मुस्लिम बहुल तथा हिन्दू/सिख बहुल हिस्सों में बाँटने पर अपनी सहमति दे दी, क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी बंगाल के लिए भी यही सिद्धान्त अपनाया गया। अंकों के खेल में उलझकर पंजाब के बहुत सारे सिख नेता व काँग्रेसी भी इस बात को मान चुके थे कि अब विभाजन अनिवार्य विकृति है जिसे टाला नहीं जा सकता।

उनको लगता था कि वे अविभाजित पंजाब में मुसलमानों से घिर जाएँगे और उन्हें मुस्लिम नेताओं के रहमोकरम पर जीना पड़ेगा। इसलिए वे कमोबेश बँटवारे के फैसले के हक में थे। बंगाल में भी भद्रलोक बंगाली हिन्दुओं का जो तबका सत्ता अपने हाथ में रखना चाहता था, वह ‘मुसलमानों की स्थायी गुलामी’ (उनके एक नेता ने यही शब्द कहे थे) की आशंका से भयभीत था संख्या की दृष्टि से वे कमजोर थे इसलिए उनको लगता था कि प्रांत के विभाजन से ही उनका राजनीतिक प्रभुत्व बना रह सकता है। 1947 में कानून व्यवस्था का नाश हो चुका था। ऐसी परिस्थितियों में कांग्रेस अपनी सोच बदलने के लिए मजबूर हो गई कि शायद बँटवारे के बाद सांप्रदायिक हिंसा खत्म हो जायेगी लेकिन विभाजन के बाद भी 1947-48 तक यह चलती ही रही।

(6) कैबिनेट मिशन के ढीले-ढाले त्रिस्तरीय महासंघ के सुझाव पर कॉंग्रेस और लीग में सहमति न बन पाना- कैबिनेट मिशन के त्रिस्तरीय संघ की योजना को प्रारम्भ में तो सभी प्रमुख दलों ने स्वीकार कर लिया था लेकिन यह समझौता अधिक समय तक नहीं चला क्योंकि सभी पक्षों ने इस योजना के बारे में अलग-अलग व्याख्या की।

प्रश्न 9.
मौखिक इतिहास से विभाजन को हम कैसे समझ सकते हैं ?
अथवा
मौखिक इतिहास के फायदे / नुकसानों की पड़ताल कीजिए। मौखिक इतिहास की पद्धतियों से विभाजन के बारे में हमारी समझ को किस तरह विस्तार मिलता है?
उत्तर:
मौखिक इतिहास के फायदे- मौखिक इतिहास के प्रमुख फायदे निम्नलिखित हैं –
(1) इतिहास को बारीकी से समझने में मदद- व्यक्तिगत स्मृतियाँ जो एक तरह की मौखिक स्रोत हैं- की एक विशेषता यह है कि उनमें हमें अनुभवों और स्मृतियों को और बारीकी से समझने का मौका मिलता है। इससे इतिहासकारों को विभाजन के दौरान लोगों के साथ क्या-क्या हुआ, इस बारे में बहुरंगी और सजीव वृत्तांत लिखने की काबिलियत मिलती है।

(2) उपेक्षित स्त्री-पुरुषों के अनुभवों की पड़ताल करने में सफल मौखिक इतिहास से इतिहासकारों को गरीबों और कमजोरों, औरतों, शरणार्थियों, विधवाओं, व्यापारियों के अनुभवों को उपेक्षा के अंधकार से निकालकर अपने विषय के क्षेत्रों को और फैलाने का मौका मिलता है।

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(3) साक्ष्यों की विश्वसनीयता को तौलना संभव कुछ इतिहासकार मौखिक इतिहास की यह कहकर खारिज कर देते हैं कि मौखिक जानकारियों में सटीकता नहीं होती और उनसे घटनाओं का जो क्रम उभरता है, वह अक्सर सही नहीं होता। लेकिन भारत के विभाजन के संदर्भ में ऐसी गवाहियों की कोई कमी नहीं है जिनसे पता चलता है कि उनके दरमियान अनगिनत लोगों ने कितनी तरह की और कितनी भीषण कठिनाइयों और तनावों का सामना किया।

(4) प्रासंगिकता – अगर इतिहास में साधारण और कमजोरों के वजूद को जगह देनी है तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि बंटवारे का मौखिक इतिहास केवल सतही मुद्दों से सम्बन्धित नहीं है।

मौखिक इतिहास की सीमाएँ –
इतिहासकारों ने मौखिक इतिहास की अग्रलिखित सीमाएँ या दोष बताए हैं-
(1) सामान्यीकरण करना संभव नहीं-इतिहासकारों का तर्क है कि निजी तजुओं की विशिष्टता के सहारे सामान्यीकरण करना अर्थात् किसी सामान्य नतीजे पर पहुँचना मुश्किल होता है।

(2) अप्रासंगिक – कुछ इतिहासकारों का तर्क है कि मौखिक विवरण संतही मुद्दों से ताल्लुक रखते हैं और ये छोटे-छोटे अनुभव इतिहास की वृहत्तर प्रक्रियाओं का कारण ढूँढ़ने में अप्रासंगिक होते हैं।

(3) सटीकता का अभाव – कुछ इतिहासकारों ने यह कहा है कि मौखिक जानकारियों में सटीकता नहीं होती और उनसे घटनाओं का सही क्रम नहीं उभरता है।

(4) निहायत निजी आपबीती अनुभवों की प्राप्ति कठिन बँटवारे के बारे में मौखिक ब्यौरे स्वयं या आसानी से उपलब्ध नहीं होते। उन्हें साक्षात्कार पद्धति के द्वारा हासिल किया जा सकता है और इसमें सबसे मुश्किल यही होता है कि संभवतः इन अनुभवों से गुजरने वाले निहायत निजी आपबीती के बारे में बात करने को राजी ही न हों।

(5) याददाश्त की समस्या मौखिक इतिहास की एक अन्य बड़ी समस्या याददाश्त सम्बन्धी है। किसी घटना के बारे में कुछ दशक बाद जब बात की जाती है तो लोग क्या याद रखते हैं या भूल जाते हैं, यह आंशिक रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि बीच के वर्षों में उनके अनुभव किस प्रकार के रहे हैं। इस दौरान उनके समुदायों और राष्ट्रों के साथ क्या हुआ है। इस प्रकार मौखिक इतिहासकारों को विभाजन के वास्तविक अनुभवों को निर्मित स्मृतियों के जाल से बाहर निकालने का चुनौतीपूर्ण कार्य भी करना पड़ता है।

मौखिक इतिहास की पद्धतियों से विभाजन की समझ को विस्तार –
(1) आम मर्दों औरतों के अनुभवों की पड़ताल – विभाजन का मौखिक इतिहास ऐसे आम स्त्री-पुरुषों के अनुभवों की पड़ताल करने में कामयाब रहा है जिनके वजूद को अब तक नजरअंदाज कर दिया जाता था।

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(2) स्याह खौफनाक दौर से गुजरे लोगों के अनुभवों की जानकारी – विभाजन का एक समग्र वृत्तांत बुनने के लिए बहुत तरह के स्रोतों का इस्तेमाल करना जरूरी है ताकि हम उसे एक घटना के साथ-साथ एक प्रक्रिया के रूप में भी देख सकें और ऐसे लोगों के अनुभवों को समझ सकें जो उस स्याह खौफनाक दौर से गुजर रहे हैं।

विभाजन को समझना : राजनीति, स्मृति, अनुभव JAC Class 12 History Notes

→ भारत का जो विभाजन दो राष्ट्रों में हुआ उसके कारण लाखों लोग उजड़ गए, शरणार्थी बन कर रह गए। इसलिए 1947 में हमारी आजादी से जुड़ी खुशी विभाजन की हिंसा और बर्बरता से बदरंग पड़ गई थी। ब्रिटिश भारत के दो संप्रभु राज्यों— भारत और पाकिस्तान (जिसके पश्चिमी और पूर्वी दो भाग थे) में बँटवारे से कई परिवर्तन अचानक आए। लाखों मारे गए, कइयों की जिन्दगियाँ पलक झपकते बदल गई, शहर बदला, भारत बदला, एक नए देश का जन्म हुआ और ऐसा जनसंहार, हिंसा और विस्थापन हुआ जिसका इतिहास में पहले से कोई उदाहरण नहीं मिलता है।

→ बँटवारे के कुछ अनुभव यहाँ बँटवारे से सम्बन्धित तीन घटनाएँ दी जा रही हैं जिनका बयान उन दुःखद दिनों से गुजरे लोगों ने 1993 में एक शोधकर्ता के सामने किया था। बयान करने वाले पाकिस्तानी थे और शोधकर्ता भारतीय शोधकर्ता का उद्देश्य यह समझना था कि जो लोग पीढ़ियों से कमोबेश मेल-मिलाप से रहते आए थे, उन्होंने 1947 में एक-दूसरे पर इतना कहर कैसे ढाया।

(अ) “मैं तो सिर्फ अपने अब्बा पर चढ़ा हुआ कर्ज चुका रहा हूँ” – शोधकर्ता 1992 की सर्दियों में पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर के इतिहास विभाग के पुस्तकालय में जाया करता था तो वहाँ पर अब्दुल लतीफ नामक एक सज्जन उसकी बहुत मदद करते थे। एक दिन शोधकर्ता ने उनसे मदद का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि बँटवारे के समय एक हिन्दू बुढ़िया माँ ने मेरे अब्बा की जान बचायी थी। इसलिए आपकी मदद करके मैं “अपने अब्बा पर चढ़ा कर्ज चुका रहा हूँ” सुनकर शोधार्थी की आँखों में आँसू छलक आए।

(ब) “बरसों हो गए, मैं किसी पंजाबी मुसलमान से नहीं मिला शोधकर्ता का दूसरा किस्सा लाहौर के यूथ हॉस्टल के मैनेजर के बारे में है जिसने भारतीय होने के कारण शोधकर्ता को हॉस्टल में कमरा देने से मना कर दिया। लेकिन उसने उसे चाय पिलाई तथा दिल्ली का एक किस्सा सुनाया तो उसने कहा कि पचास के दशक में मेरी पोस्टिंग दिल्ली में पाकिस्तानी दूतावास में हुई थी। वहाँ एक सरदार से उसने पंजाबी में पहाड़गंज का पता पूछा तो सरदार ने उससे गले मिलते हुए कहा कि “बरसों हो गए मैं किसी पंजाबी मुसलमान से नहीं मिला। मैं मिलने को तरस रहा था। परन्तु यहाँ पंजाबी बोलने वाले मुसलमान मिलते ही नहीं।”

(स) “ना, नहीं! तुम कभी हमारे नहीं हो सकते” यह शोधकर्ता शोध के ही दौरान लाहौर में एक आदमी से मिला जिसने भूल से उसे अप्रवासी पाकिस्तानी समझ लिया था जब शोधकर्ता ने बताया कि वह भारतीय है तो उसके मुँह से निकल पड़ा, “ओह हिन्दुस्तानी में समझा था आप पाकिस्तानी हैं।” शोधकर्ता ने उसे समझाने की पूरी कोशिश की कि हम दोनों दक्षिण एशियाई हैं लेकिन वह अड़ा रहा कि “ना, नहीं तुम कभी हमारे नहीं हो सकते। तुम्हारे लोगों ने 1947 में मेरा पूरा गाँव का गाँव साफ कर दिया था। हम कट्टर दुश्मन हैं और हमेशा रहेंगे।”

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→ ऐतिहासिक मोड़ –
(अ) बँटवारा या महाध्वंस (होलोकॉस्ट) – बँटवारे में कई लाख लोग मारे गए करोड़ों बेघरबार हो गए तथा अजनबी धरती पर शरणार्थी बनकर रह गए। सबसे ज्यादा ज्यादती औरतों के साथ हुई, उनका अपहरण हुआ, बलात्कार किया गया तथा जबरन दूसरे के साथ रहने को मजबूर होना पड़ा। जानकारों के अनुसार मरने वालों की संख्या 2 से 5 लाख तक रही होगी। ये लोग दुबारा तिनकों से अपनी जिन्दगी खड़ी करने को मजबूर हो गए। जिन्दा बचने वाले ने दूसरे शब्दों में इसे ‘मार्शल लॉ’, ‘मारा-मारी’, ‘रौला’ या ‘हुल्लड़’ कहा है। समकालीन प्रेक्षकों और विद्वानों ने कई बार ‘महाध्वंस’ (होलोकॉस्ट) शब्द का उल्लेख किया है। भारत विभाजन | के समय जो ‘नस्ली सफाया हुआ वह सरकारी कारगुजारी नहीं बल्कि धार्मिक समुदायों के स्वयंभू-प्रतिनिधियों की कारगुजारी थी।

(ब) रूढ़ छवियों की ताकत – भारत में पाकिस्तान के प्रति घृणा का दृष्टिकोण और पाकिस्तान में भारत के प्रति घृणा का दृष्टिकोण रखने वाले दोनों ही विभाजन की उपज हैं।

→ विभाजन क्यों और कैसे हुआ? – विभाजन क्यों और कैसे हुआ इसके अनेक कारण बताए गए हैं। यथा- (अ) हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों की निरन्तरता का लम्बा इतिहास – कुछ इतिहासकार भारतीय भी और पाकिस्तानी भी, यह मानते हैं कि मोहम्मद अली जिन्ना की यह समझ कि औपनिवेशिक भारत में हिन्दू और मुसलमान दो पृथक् राष्ट्र थे, मध्यकालीन इतिहास पर भी लागू की जा सकती है। ये इतिहासकार इस बात पर बल देते हैं कि 1947 की घटनाएँ मध्य और आधुनिक युगों में हुए हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों के लम्बे इतिहास से बारीकी से जुड़ी हुई हैं। यद्यपि उनकी यह बात महत्त्वपूर्ण है तथापि इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि लोगों की मानसिकता पर बदलती परिस्थितियों का असर होता है।

(ब) पृथक् चुनाव क्षेत्र की राजनीति – कुछ अन्य विद्वानों का यह मानना है कि देश का बँटवारा एक ऐसी सांप्रदायिक राजनीति का आखिरी बिन्दु था जो बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में मुसलमानों के लिए बनाए गए पृथक् चुनाव क्षेत्रों की सांप्रदायिक राजनीति से प्रारम्भ हुआ था। लेकिन यह नहीं माना जा सकता कि बँटवारा पृथक् चुनाव क्षेत्रों की प्रत्यक्ष देन है।

(स) अन्य कारण 20वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में सांप्रदायिक अस्मिताएँ कई अन्य कारणों से भी पक्की हुई। 1920-30 के दशकों में कई घटनाओं की वजह से तनाव पैदा हुए। फिर भी ऐसा कहना सही नहीं होगा कि बँटवारा केवल सीधे-सीधे बढ़ते हुए सांप्रदायिक तनावों के कारणों से हुआ। क्योंकि सांप्रदायिक तनावों तथा साम्प्रदायिक राजनीति और विभाजन में गुणात्मक अन्तर है।

सांप्रदायिकता से अभिप्राय साम्प्रदायिकता उस राजनीति को कहा जाता है जो धार्मिक समुदायों के बीच विरोध और झगड़े पैदा करती है ऐसी राजनीति धार्मिक पहचान को बुनियादी और अटल मानती है। यह किसी धार्मिक समुदाय के आंतरिक फर्को को दबाकर उसकी एकता पर बल देती है तथा उसे अन्य समुदाय के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करती है। यह किसी चिह्नित ‘गैर’ के खिलाफ घृणा की राजनीति को पोषित करती हैं। अतः सांप्रदायिकता धार्मिक अस्मिता का विशेष तरह का राजनीतिकरण है जो धार्मिक समुदायों में झगड़े पैदा करवाने की कोशिश करता है।

→ 1937 में प्रांतीय चुनाव और कॉंग्रेस मंत्रालय प्रांतीय संसदों के गठन के लिए 1937 में पहली बार चुनाव कराये गये। इन चुनावों में कांग्रेस के परिणाम अच्छे रहे। लेकिन मुस्लिम लीग इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पायी। उसे कुल मुस्लिम मतों का केवल 44 प्रतिशत ही मिल पाया। इन चुनावों के बाद निम्न कारणों से विभाजन के विचार को बढ़ावा मिला –

(अ) मुस्लिम लीग संयुक्त प्रान्त में कॉंग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहती थी, लेकिन काँग्रेस को यहाँ पूर्ण बहुमत प्राप्त था। इसलिए उसने मुस्लिम लीग का प्रस्ताव ठुकरा दिया। इससे लीग के सदस्यों में यह बात घर कर गई कि अविभाजित भारत में मुसलमानों के हाथों में राजनीतिक सत्ता नहीं आयेगी क्योंकि वे अल्पसंख्यक हैं।

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(ब) मुसलमानों में यह मान्यता उभरी कि मुस्लिम हितों का प्रतिनिधित्व एक मुस्लिम पार्टी ही कर सकती है।

(स) जिला की यह जिद कि मुस्लिम लीग को ही मुसलमानों की एकमात्र प्रवक्ता पार्टी माना जाये, उस समय बहुत कम लोगों को मंजूर भी फलतः 1930 के दशक में लीग ने मुस्लिम क्षेत्रों में एकमात्र प्रवक्ता बनने की अपने कोशिशें दोहरी कर दीं।

(द) काँग्रेस मंत्रालयों ने संयुक्त प्रान्त में मुस्लिम लीग के प्रस्ताव को ठुकरा कर मुस्लिम जनसम्पर्क कार्यक्रम पर अधिक बल न देकर मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकी थी।

→ पाकिस्तान का प्रस्ताव- पाकिस्तान की स्थापना की माँग धीरे-धीरे ठोस रूप ले रही थी। यथा –
(अ) 23 मार्च, 1940 को मुस्लिम लीग ने उपमहाद्वीप के मुस्लिम बहुल इलाकों के लिए कुछ स्वायत्तता की माँग का प्रस्ताव पेश किया। इस अस्पष्ट सी मांग में कहीं भी विभाजन या पाकिस्तान का जिक्र नहीं था। इस प्रस्ताव के लेखक सिकंदर हयात ने संघीय इकाइयों के लिए इस स्वायत्तता के आधार पर एक ढीले-ढाले संयुक्त महासंघ के समर्थन में अपने विचारों को पुनः 1941 में दोहराया।

(ब) कुछ लोगों का मानना है कि पाकिस्तान गठन की माँग उर्दू कवि मो. इकबाल से शुरू होती है जिन्होंने ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ लिखा था 1930 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए उन्होंने एक ‘उत्तर-पश्चिमी भारतीय मुस्लिम राज्य’ की जरूरत पर जोर दिया। उस भाषण में भी उन्होंने एक नये देश की माँग नहीं उठाई थी बल्कि पश्चिमोत्तर भारत में मुस्लिम बहुल इलाकों को शिथिल भारतीय संघ के भीतर एक स्वायत्त इकाई की स्थापना पर जोर दिया था।

→ विभाजन का अचानक हो जाना – पाकिस्तान के बारे में अपनी माँग पर लीग की राय पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी प्रारम्भ में खुद जिला भी पाकिस्तान की सोच को सौदेबाजी में एक पैंतरे के तौर पर ही इस्तेमाल कर रहे थे, जिसका वे सरकार द्वारा काँग्रेस को मिलने वाली रियायतों पर रोक लगाने और मुसलमानों के लिए रियायतें हासिल करने के लिए इस्तेमाल कर सकते थे। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेजों को झुकना पड़ा और संभावित सत्ता हस्तान्तरण के बारे में भारतीय पक्षों के साथ वार्ता जारी की।

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→ युद्धोत्तर घटना क्रम –
(अ) केन्द्रीय कार्यकारिणी सभा का विचार जब युद्ध के बाद 1945 में दुबारा बातचीत प्रारम्भ हुई तो अँग्रेज इस बात पर राजी हो गए कि एक केन्द्रीय कार्यकारिणी सभा बनाई जाएगी, जिसके सभी सदस्य भारतीय होंगे सिवाय वायसराय और सशस्त्र सेनाओं के सेनापति के उनकी राय में यह पूर्ण स्वतंत्रता की ओर प्रारम्भिक कदम होगा। सत्ता हस्तान्तरण के बारे में यह चर्चा टूट गई क्योंकि जिला इस बात पर अड़े हुए थे कि कार्यकारिणी सभा के मुस्लिम सदस्यों का चुनाव करने का अधिकार किसी को नहीं है। पंजाब में यूनियनिस्टों का मुसलमानों में दबदबा था और अंग्रेजों के वफादार होने के कारण अँग्रेज उन्हें नाराज नहीं करना चाहते थे।

मुस्लिम लीग के अतिरिक्त और –

(ब) सामान्य चुनाव – 1946 में पुनः प्रांतीय चुनाव हुए। सामान्य सीटों पर कांग्रेस को एकतरफा सफलता मिली 91.3 प्रतिशत गैर मुस्लिम वोट काँग्रेस को मिले मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर मुस्लिम लीग को भी ऐसी सफलता मिली। मध्य प्रान्त में भी लीग को भारी सफलता मिली। इस प्रकार 1946 में जाकर ही मुस्लिम लोग खुद को मुसलमानों की एकमात्र प्रवक्ता होने का दावा करने में सक्षम बनी।

→ विभाजन का एक संभावित विकल्प –

(अ) मार्च, 1946 में ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने लीग की माँग का अध्ययन करने और स्वतंत्र भारत के लिए एक उचित राजनीतिक रूपरेखा सुझाने के लिए तीन सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल दिल्ली भेजा। इसे कैबिनेट मिशन कहा गया। इस मिशन ने तीन महीने तक भारत का दौरा किया और एक ढीले- ढाले त्रिस्तरीय महासंघ का सुझाव दिया। इसमें भारत अविभाजित ही रहने वाला था, जिसकी केन्द्रीय सरकार काफी कमजोर होती और उसके पास केवल विदेश रक्षा और संचार का जिम्मा होता मौजूदा प्रांतीय सभाओं को तीन हिस्सों क, ख, ग में समूहबद्ध किया जाना था।

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(ब) शुरुआत में सभी प्रमुख पार्टियों ने इस योजना को मान लिया था लेकिन वह समझौता अधिक देर तक नहीं चल पाया। सभी पक्षों ने अलग-अलग ढंग से इसकी व्याख्या की थी। कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव को काँग्रेस और लीग दोनों ने नहीं माना और यह मिशन अपने उद्देश्य में असफल रहा। इसके बाद विभाजन कमोबेश अपरिहार्य हो गया था काँग्रेस के ज्यादातर नेता इसे अवश्यंभावी परिणाम मान चुके थे लेकिन गाँधीजी व अब्दुल गफ्फार खाँ अन्त तक विभाजन का विरोध करते रहे।

→ विभाजन की ओर कैबिनेट मिशन से अपना समर्थन वापस लेने के बाद मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की अपनी माँग को अमली जामा पहनाने के लिए प्रत्यक्ष कार्यवाही करने का फैसला लिया। 16 अगस्त, 1946 को प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाने का ऐलान किया। उसी दिन कलकत्ता में दंगा भड़क उठा, जो कई दिनों तक चला और उसमें कई हजार लोग मारे गए मार्च, 1947 तक उत्तर भारत के बहुत सारे हिस्सों में हिंसा फैल चुकी थी। मार्च, 1947 में काँग्रेस हाईकमान ने पंजाब को मुस्लिम बहुल और हिन्दू सिख बहुल, दो हिस्सों में बाँटने की मंजूरी दे दी। इसे पंजाब के सिख और काँग्रेसी नेताओं ने मान लिया। कॉंग्रेस ने बंगाल के मामले में भी यही सिद्धान्त अपनाने का सुझाव दिया क्योंकि बंगाल में भद्र बंगाली हिन्दुओं का सत्ताधारी तबका मुसलमानों के रहम पर जीना नहीं चाहता था।

→ कानून व्यवस्था का नाश मार्च, 1947 से तकरीबन साल भर तक रक्तपात चलता रहा। इसका एक कारण था कि शासन की संस्थाएँ बिखर चुकी थीं। सांप्रदायिक हिंसा इसलिए अधिक बढ़ रही थी कि पुलिस वाले भी हिन्दू, मुस्लिम और सिख के आधार पर आचरण करने लगे थे। जैसे-जैसे सांप्रदायिक तनाव बढ़ने लगा वैसे- वैसे वर्दीधारियों के प्रति लोगों का भरोसा कमजोर पड़ने लगा। बहुत सारे स्थानों पर न केवल पुलिसवालों ने अपने धर्म व लोगों की मदद की बल्कि उन्होंने दूसरे समुदायों पर हमले भी किए।

→ महात्मा गाँधी एक अकेली फौज –

(अ) दंगों की उथल-पुथल में सांप्रदायिक सद्भाव बहाल करने के लिए एक आदमी की बहादुराना कोशिशें आखिरकार रंग लाने लगीं। 77 साल के बुजुर्ग गाँधीजी ने अहिंसा के अपने जीवन पर्यन्त सिद्धान्त को एक बार फिर आजमाया और अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। उन्हें विश्वास था लोगों का हृदय परिवर्तित किया जा सकता है। वे पूर्वी बंगाल के नोआखाली (वर्तमान बांग्लादेश) से बिहार के गाँवों और कलकत्ता व दिल्ली के दंगों में झुलसी झोपड़पट्टियों की यात्रा पर निकल पड़े। उनकी कोशिश थी कि सांप्रदायिक सद्भावना बनी रहे सभी मिलजुल कर रहें। उन्होंने लोगों को दिलासा दी।

(ब) 28 नवम्बर, 1947 को गुरुनानक जयन्ती के अवसर पर गाँधीजी ने गुरुद्वारा शीशगंज में अपने संबोधन में कहा, “हमारे लिए यह बड़ी शर्म की बात है कि चाँदनी चौक में एक भी मुसलमान दिखाई नहीं देता।” गाँधीजी अपनी हत्या तक दिल्ली में ही रहे पाकिस्तान से आए हिन्दू और सिख शरणार्थी भी गाँधीजी के साथ अनशन में बैठे। उनकी हत्या के बाद दिल्ली के बहुत सारे मुसलमानों ने कहा, “दुनिया सच्चाई की राह पर आ गई थी।”

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→ बँटवारे में औरतों पर अत्याचार – बँटवारे के दौरान औरतों पर बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया, उन्हें बार-बार खरीदा और बेचा गया। अनजान हालत में अजनबियों के साथ उन्हें अपनी जिन्दगी गुजारने के लिए मजबूर होना पड़ा। एक अंदाजे के मुताबिक 30 हजार औरतों को बरामद किया गया। कई स्थानों पर परिवार की इज्जत बचाने के लिए स्वयं मर्दों ने ही अपनी बहन-बेटियों और पत्नियों को जान से मार दिया। कई स्थानों पर शत्रुओं से बचने के लिए औरतों ने कुएँ में कूद कर जान दे दी। इस प्रकार औरतें अपनी इज्जत बचाती थीं।

→ क्षेत्रीय विविधताएँ –
(अ) विभाजन का सबसे ज्यादा खूनी और विनाशकारी रूप पंजाब, उत्तर-पश्चिम से लेकर वर्तमान भारतीय पंजाब, हिमाचल और हरियाणा तक में सामने आया।

(अ) उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) के बहुत सारे परिवार पचास व साठ के दशक तक के शुरुआती सालों में भी पाकिस्तान जाकर बसते रहे। लेकिन बहुत सारों ने भारत में ही रहना पसन्द किया पाकिस्तान गए ऐसे लोग जो उर्दू भाषी थे, जिन्हें वहाँ पर मुहाजिर (अप्रवासी) कहा जाता है, वे सिन्ध प्रान्त के कराची और हैदराबाद इलाके में बस गए। धर्म के नाम पर विभाजन हुआ। लेकिन धर्म पूर्वी और पश्चिम पाकिस्तान को जोड़कर नहीं रख पाया। 1971-72 में पूर्वी पाकिस्तान ने स्वयं को पश्चिम से अलग कर नया राज्य बांग्लादेश बनाया।

→ मदद, मानवता, सद्भावना – हिंसा के कचरे और विभाजन की पीड़ा तले, इंसानियत और सौहार्द का एक विशाल इतिहास दबा पड़ा है क्योंकि आम लोग बँटवारे के समय एक-दूसरे की मदद भी कर रहे थे।

→ मौखिक गवाही और इतिहास –
(अ) मौखिक वृत्तांत, संस्मरण, डायरियाँ, पारिवारिक इतिहास और स्वलिखित ब्यौरे इन सबसे तकसीम (बँटवारे के दौरान आम लोगों की कठिनाइयों और मुसीबतों को समझने में मदद मिलती है। लाखों लोग बँटवारे की पीड़ा तथा एक मुश्किल दौर को चुनौती के रूप में देखते हैं। उनके लिए यह जीवन में अनपेक्षित बदलावों का समय था। 1946-50 के तथा उसके बाद भी जारी रहने वाले इन बदलावों से निपटने के लिए मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और सामाजिक समायोजन की जरूरत थी।

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(ब) व्यक्तिगत स्मृतियों से इतिहासकारों को बँटवारे जैसी घटनाओं के इस बारे में बहुरंगी और सजीव वृत्तांत लिखने की काबिलियत मिलती है मिलना नामुमकिन होता है। दौरान लोगों के साथ क्या-क्या हुआ, सरकारी दस्तावेजों से ऐसी जानकारी

→ कानून व्यवस्था का नाश मार्च, 1947 से तकरीबन साल भर तक रक्तपात चलता रहा। इसका एक कारण था कि शासन की संस्थाएँ बिखर चुकी थीं सांप्रदायिक हिंसा इसलिए अधिक बढ़ रही थी कि पुलिस वाले भी हिन्दू, मुस्लिम और सिख के आधार पर आचरण करने लगे थे। जैसे-जैसे सांप्रदायिक तनाव बढ़ने लगा वैसे- वैसे वर्दीधारियों के प्रति लोगों का भरोसा कमजोर पड़ने लगा। बहुत सारे स्थानों पर न केवल पुलिसवालों ने अपने धर्म व लोगों की मदद की बल्कि उन्होंने दूसरे समुदायों पर हमले भी किए।

→ महात्मा गाँधी एक अकेली फौज –
(अ) दंगों की उथल-पुथल में सांप्रदायिक सद्भाव बहाल करने के लिए एक आदमी की बहादुराना कोशिशें आखिरकार रंग लाने लगीं। 77 साल के बुजुर्ग गाँधीजी ने अहिंसा के अपने जीवन पर्यन्त सिद्धान्त को एक बार फिर आजमाया और अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया। उन्हें विश्वास था लोगों का हृदय परिवर्तित किया जा सकता है। वे पूर्वी बंगाल के नोआखाली (वर्तमान बांग्लादेश) से बिहार के गाँवों और कलकत्ता व दिल्ली के दंगों में झुलसी झोपड़पट्टियों की यात्रा पर निकल पड़े। उनकी कोशिश थी कि सांप्रदायिक सद्भावना बनी रहे सभी मिलजुल कर रहें। उन्होंने लोगों को दिलासा दी।

(ब) 28 नवम्बर, 1947 को गुरुनानक जयन्ती के अवसर पर गाँधीजी ने गुरुद्वारा शीशगंज में अपने संबोधन में कहा, “हमारे लिए यह बड़ी शर्म की बात है कि चाँदनी चौक में एक भी मुसलमान दिखाई नहीं देता।” गाँधीजी अपनी हत्या तक दिल्ली में ही रहे पाकिस्तान से आए हिन्दू और सिख शरणार्थी भी गाँधीजी के साथ अनशन में बैठे। उनकी हत्या के बाद दिल्ली के बहुत सारे मुसलमानों ने कहा, “दुनिया सच्चाई की राह पर आ गई थी।”

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→ बँटवारे में औरतों पर अत्याचार – बँटवारे के दौरान औरतों पर बलात्कार हुए, उनको अगवा किया गया, उन्हें बार-बार खरीदा और बेचा गया। अनजान हालत में अजनबियों के साथ उन्हें अपनी जिन्दगी गुजारने के लिए मजबूर होना पड़ा। एक अंदाजे के मुताबिक 30 हजार औरतों को बरामद किया गया। कई स्थानों पर परिवार की इज्जत बचाने के लिए स्वयं मदों ने ही अपनी बहन-बेटियों और पत्नियों को जान से मार दिया। कई स्थानों पर शत्रुओं से बचने के लिए औरतों ने कुएं में कूद कर जान दे दी। इस प्रकार औरतें अपनी इज्जत बचाती थीं।

→ क्षेत्रीय विविधताएँ –
(अ) विभाजन का सबसे ज्यादा खूनी और विनाशकारी रूप पंजाब, उत्तर-पश्चिम से लेकर वर्तमान भारतीय पंजाब, हिमाचल और हरियाणा तक में सामने आया।

(अ) उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) के बहुत सारे परिवार पचास व साठ के दशक तक के शुरुआती सालों में भी पाकिस्तान जाकर बसते रहे लेकिन बहुत सारों ने भारत में ही रहना पसन्द किया। पाकिस्तान गए ऐसे लोग जो उर्दू भाषी थे, जिन्हें वहाँ पर मुहाजिर (अप्रवासी) कहा जाता है, वे सिन्ध प्रान्त के कराची और हैदराबाद इलाके में बस गए। धर्म के नाम पर विभाजन हुआ। लेकिन धर्म पूर्वी और पश्चिम पाकिस्तान को जोड़कर नहीं रख पाया। 1971-72 में पूर्वी पाकिस्तान ने स्वयं को पश्चिम से अलग कर नया राज्य बांग्लादेश बनाया।

→ मदद, मानवता, सद्भावना – हिंसा के कचरे और विभाजन की पीड़ा तले, इंसानियत और सौहार्द का एक विशाल इतिहास दबा पड़ा है। क्योंकि आम लोग बँटवारे के समय एक-दूसरे की मदद भी कर रहे थे।

→ मौखिक गवाही और इतिहास –
(अ) मौखिक वृत्तांत, संस्मरण, डायरियाँ, पारिवारिक इतिहास और स्वलिखित ब्यौरे इन सबसे तकसीम (बँटवारे के दौरान आम लोगों की कठिनाइयों और मुसीबतों को समझने में मदद मिलती है। लाखों लोग बँटवारे की पीड़ा तथा एक मुश्किल दौर को चुनौती के रूप में देखते हैं। उनके लिए यह जीवन में अनपेक्षित बदलावों का समय था। 1946-50 के तथा उसके बाद भी जारी रहने वाले इन बदलावों से निपटने के लिए मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और सामाजिक समायोजन की जरूरत थी।

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(ब) व्यक्तिगत स्मृतियों से इतिहासकारों को बंटवारे जैसी घटनाओं के दौरान लोगों के साथ क्या-क्या हुआ, इस बारे में बहुरंगी और सजीव वृत्तांत लिखने की काबिलियत मिलती है सरकारी दस्तावेजों से ऐसी जानकारी मिलना नामुमकिन होता है।

(स) मौखिक इतिहास से इतिहासकारों को गरीबों और कमजोरों, औरतों, शरणार्थियों, विधवाओं एवं पेशावरी व्यापारी आदि के अनुभवों को उपेक्षा के अंधकार से निकाल कर अपने विषय के किनारों की तरफ फैलाने का मौका मिलता है। इस प्रकार सम्पन्न और सुज्ञात लोगों की गतिविधियों से आगे जाते हुए विभाजन का मौखिक इतिहास ऐसे मर्दों औरतों के अनुभवों की पड़ताल करने में कामयाब रहा है जिनके वजूद को नजरअंदाज कर दिया जाता था, सहज-स्वाभाविक मान लिया जाता था। यह उल्लेखनीय बात है क्योंकि जो इतिहास हम पढ़ते हैं उसमें आम इंसानों के जीवन और कार्यों को अकसर पहुँच के बाहर या महत्त्वहीन मान लिया जाता है।

(द) अनेक इतिहासकारों को यह शक है कि मौखिक जानकारियों में सटीकता नहीं होती और इनसे घटनाओं का जो क्रम उभरता है वह अकसर सही नहीं होता। ऐसे इतिहासकारों की दलील है कि निजी तजुबों की विशिष्टता के सहारे सामान्यीकरण करना, यानी किसी सामान्य नतीजे पर पहुँचना मुश्किल होता है।

(य) भारत के विभाजन और जर्मनी के महाविध्वंस जैसी घटनाओं के संदर्भ में ऐसी गवाहियों की कोई कमी नहीं होगी, जिनसे पता चलता है कि उनके बीच अनगिनत लोगों ने कितनी तरह की और कितनी भीषण कठिनाइयों व तनावों का सामना किया। मिसाल के तौर पर सरकारी रिपोर्टों से हमें भारतीय और पाकिस्तानी सरकारों द्वारा ‘बरामद ‘ की गई औरतों की अदला-बदली और तादाद का पता चल जाता है। लेकिन उन औरतों ने भोगा क्या, उन पर क्या कुछ बीती इसका जवाब तो सिर्फ वे औरतें ही दे सकती हैं।

काल-रेखा
1930 प्रसिद्ध उर्दू कवि मुहम्मद इकबाल एकीकृत ढीले-ढाले भारतीय संघ के भीतर एक ‘उत्तरपश्चिमी भारतीय मुस्लिम राज्य’ की जरूरत का विचार पेश करते हैं।
1933,1935 कैम्ब्रिज में पढ़ने वाले एक पंजाबी मुसलमान युवक चौधरी रहमत अली ने पाकिस्तान या पाक-स्तान नाम पेश किया।
1937-39 ब्रिटिश भारत के 11 में से 7 प्रांतों में काँग्रेस के मंत्रिमंडल सत्ता में आए।
1940 लाहौर में मुस्लिम लीग मुस्लिम-बहुल इलाकों के लिए कुछ हद तक स्वायत्तता की माँग करते हुए प्रस्ताव पेश करती है।
1346 प्रांतों में चननाव सम्पन्न होते हैं। सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में काँग्रेस को और मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग को शानदार कामयाबी मिलती है।
मार्च से जून ब्रिटिश कैबिनेट अपना तीन सदस्य मिशन दिल्ली भेजता है।
अगस्त मुस्लिम लीग पाकिस्तान की स्थापना के लिए ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही’ के पक्ष में फैसला लेती है।
16 अगस्त कलकत्ता में हिन्दू-सिखों और मुसलमानों के बीच हिंसा फूट पड़ती है, कई दिन चलने वाली इस हिंसा में हजारों लोग मारे जाते हैं।
मार्च, 1947 काँग्रेस हाईकमान पंजाब को मुस्लिम-बहुल और हिन्दू/सिख बहुल हिस्सों में बाँटने के पक्ष में फैसला लेता है और बंगाल में भी इसी सिद्धान्त को अपनाने का आह्वान करता है।
मार्च, 1947 के बाद अँग्रेज भारत छोड़कर जाने लगते हैं।
14-15 अगस्त, 1947 पाकिस्तान का गठन होता है; भारत स्वतंत्र होता है। महात्मा गाँधी सांप्रदायिक सौहार्द बहाल करने के लिए बंगाल का दौरा करते हैं।

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