JAC Class 12 History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

Jharkhand Board JAC Class 12 History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

Jharkhand Board Class 12 History संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत In-text Questions and Answers

पृष्ठ संख्या 413

प्रश्न 1.
उद्देश्य प्रस्ताव में ‘लोकतांत्रिक’ शब्द का इस्तेमाल न करने के लिए जवाहर लाल नेहरू ने क्या कारण बताया था?
उत्तर:
उद्देश्य प्रस्ताव में ‘लोकतांत्रिक’ शब्द के इस्तेमाल न करने के पीछे नेहरूजी ने जो कारण बताया वह इस प्रकार है— नेहरूजी ने कहा कि कोई गणराज्य लोकतांत्रिक न हो ऐसा नहीं हो सकता, हमारा पूरा इतिहास इस बात का साक्षी है कि हम लोकतांत्रिक संस्थानों के ही पक्षधर हैं। हमारा लक्ष्य लोकतंत्र ही है। यद्यपि इस प्रस्ताव में हमने लोकतांत्रिक शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है क्योंकि हमें लगा कि यह तो स्वाभाविक ही है कि ‘गणराज्य’ शब्द में लोकतांत्रिक शब्द पहले ही निहित होता है। इसलिए हम अनावश्यक और अनुपयोगी शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहते थे। हमने इस प्रस्ताव में लोकतंत्र की अंतर्वस्तु प्रस्तुत की है बल्कि लोकतंत्र की ही नहीं आर्थिक लोकतंत्र की अन्तर्वस्तु भी प्रस्तुत की है।

पृष्ठ संख्या 415

प्रश्न 2.
स्रोत दो में वक्ता को ऐसा क्यों लगता है कि संविधान सभा ब्रिटिश बंदूकों के साये में काम कर रही है?
उत्तर:
वक्ता सोमनाथ लाहिड़ी को ऐसा इसलिए लगता था कि संविधान ब्रिटिश योजना के अनुसार बना है और मामूली मतभेद के लिए भी उसे संघीय न्यायालय में अथवा ब्रिटिश प्रधानमंत्री के द्वार पर दस्तक देनी होगी। हमारा भविष्य अभी पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। मूल रूप से सत्ता अभी भी अंग्रेजों के हाथ में है और सत्ता का प्रश्न बुनियादी तौर पर अभी तक तय नहीं हुआ है जिसका अर्थ यह निकलता है कि हमारा भविष्य अभी भी पूरी तरह हमारे हाथों में नहीं है।

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पृष्ठ संख्या 416 : चर्चा कीजिए

प्रश्न 3.
जवाहरलाल नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ पर अपने भाषण में कौनसे विचार पेश किए?
उत्तर:
जवाहरलाल नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ पर निम्न विचार अपने भाषण में पेश किए-

  • भारत एक स्वतन्त्र सम्प्रभु गणराज्य होगा।
  • अल्पसंख्यक, पिछड़ों तथा जनजातियों को सभी अधिकार मिलेंगे।
  • भारतीय संविधान में सिर्फ नकल नहीं होगी।
  • भारतीय संविधान का उद्देश्य यह होगा कि लोकतन्त्र के उदारवादी विचारों तथा आर्थिक न्याय के समाजवादी विचारों का एक-दूसरे में समावेश किया जायेगा।

पृष्ठ संख्या 418

प्रश्न 4.
स्रोत तीन व चार को पढ़िए पृथक् निर्वाचिकाओं के विरोध में कौन-कौन से तर्क दिए गए हैं?
उत्तर:
स्रोत 3 व 4 में पृथक् निर्वाचिकाओं के विरोध में निम्नलिखित तर्फ दिए गए हैं-

  • सरदार पटेल ने कहा, “क्या आप मुझे एक भी स्वतंत्र देश दिखा सकते हैं जहाँ पृथक् निर्वाचिका हो? अर्थात् स्वतंत्र देश में पृथक् निर्वाचिका की जरूरत नहीं है।”
  • वह सभी के भले के लिए है कि हम अंग्रेजों द्वारा बोए गए शरारत के बीजों को भूलकर इससे बाहर निकलने की सोचें।
  • गोविन्द बल्लभ पंत ने कहा कि मेरा मानना है कि पृथक् निर्वाचिका अल्पसंख्यकों के लिए आत्मघाती सिद्ध होगी और उन्हें भारी नुकसान पहुँचाएगी। वे हमेशा के लिए अलग बने रहेंगे, कभी भी बहुसंख्यक नहीं बन पाएंगे।
  • अगर अल्पसंख्यक पृथक निर्वाचिकाओं से जीत कर आते रहे तो कभी भी प्रभावी योगदान नहीं दे पाएँगे।
  • क्या अल्पसंख्यक हमेशा अल्पसंख्यकों के रूप में ही रहना चाहते हैं या वे भी एक दिन एक महान् राष्ट्र का अभिन्न अंग बनने का सपना देखते हैं?

पृष्ठ संख्या 419

प्रश्न 5.
जी. बी. पंत निष्ठावादी नागरिकों के अभिलक्षणों को कैसे परिभाषित करते हैं?
उत्तर:
जी.बी. पंत ने निष्ठावान नागरिकों के निम्नलिखित अभिलक्षण बताए है –

  • व्यक्ति को आत्म-अनुशासन की कला सीखनी चाहिए।
  • लोकतंत्र में व्यक्ति को अपने लिए कम तथा दूसरों के लिए अधिक चिन्ता करनी चाहिए।
  • हमारी सारी निष्ठाएँ केवल राज्य पर केन्द्रित होनी चाहिए।
  • यदि व्यक्ति अपने अपव्यय पर अंकुश लगाने की बजाय दूसरों के हितों की तनिक भी चिन्ता नहीं करता, तो ऐसा लोकतंत्र निश्चित रूप से नष्ट हो जाता है।

पृष्ठ संख्या 420

प्रश्न 6.
रंगा द्वारा ‘अल्पसंख्यक’ की अवधारणा को किस तरह परिभाषित किया गया है?
उत्तर:

  • एन. जी. रंगा के अनुसार तथाकथित पाकिस्तानी प्रान्तों में रहने वाले हिन्दू, सिख और यहाँ तक मुसलमान भी अल्पसंख्यक नहीं हैं।
  • असली अल्पसंख्यक तो इस देश की गरीब जनता है जो इतनी दबी-कुचली और उत्पीड़ित है जो अभी तक साधारण नागरिक के अधिकारों का लाभ नहीं उठा पा रही है।
  • असली अल्पसंख्यक वे आदिवासी हैं जिनका सदियों से व्यापारियों, जमींदारों और सूदखोरों द्वारा शोषण किया जा रहा है। इन लोगों को मूलभूत शिक्षा तक नहीं मिल पा रही है असली अल्पसंख्यक यही लोग हैं जिन्हें वास्तव में सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए।

पृष्ठ संख्या 422 चर्चा कीजिए

प्रश्न 7.
आदिवासियों के लिए सुरक्षात्मक उपायों की माँग करते हुए जयपाल सिंह कौन-कौनसे तर्क देते हैं?
उत्तर:
आदिवासियों के लिए सुरक्षात्मक उपायों की माँग करते हुए जयपाल सिंह तर्क देते हैं कि आदिवासी कबीले संख्या के दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं है, परन्तु उन्हें फिर भी संरक्षण की आवश्यकता है क्योंकि उन्हें वहाँ से बेदखल कर दिया गया है जहाँ वे रहते थे। उन्हें उनके जंगल और चरागाहों से दूर कर दिया गया है। इन्हें आदिम और पिछड़ा हुआ मानकर शेष समाज हेय दृष्टि से देखता है।

पृष्ठ संख्या 425

प्रश्न 8.
एक शक्तिशाली केन्द्र सरकार की हिमायत में क्या दलीलें दी जा रही थीं?
उत्तर:
(1) डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि वह एक शक्तिशाली और एकीकृत केन्द्र चाहते हैं। 1935 के गवर्नमेन्ट एक्ट में हमने जो केन्द्र बनाया था, उससे भी अधिक शक्तिशाली केन्द्र चाहते हैं।

(2) देश में हो रही हिंसात्मक घटनाओं पर नियन्त्रण करने के लिए शक्तिशाली केन्द्र होना चाहिए।

(3) बालकृष्ण शर्मा का कहना था कि शक्तिशाली केन्द्र का होना आवश्यक है ताकि वह देशहित में योजनाएँ बना सके, उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को जुटा सके, उचित शासन व्यवस्था स्थापित कर सके और विदेशी आक्रमणों से देश की रक्षा कर सके।

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उत्तर दीजिए ( लगभग 100 से 150 शब्दों में )

प्रश्न 1.
‘उद्देश्य प्रस्ताव’ में किन आदर्शों पर जोर दिया गया था?
उत्तर:
13 दिसम्बर, 1946 को जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसमें संविधान के मूल आदर्शों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई तथा फ्रेमवर्क सुझाया जिसके तहत संविधान का कार्य आगे बढ़ाना था। बंधा-

  • इसमें भारत को एक ‘स्वतन्त्र सम्प्रभु गणराज्य’ घोषित किया गया।
  • इसमें समस्त नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता और न्याय का आश्वासन दिया गया।
  • इसमें इस बात पर भी बल दिया गया कि अल्पसंख्यकों, पिछड़े व जनजातीय क्षेत्रों एवं दमित व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए पर्याप्त रक्षात्मक प्रावधान किए जाएंगे।
  • इसी अवसर पर नेहरू ने बोलते हुए कहा कि उनकी दृष्टि अतीत में हुए उन ऐतिहासिक प्रयोगों की ओर जा रही है जिनमें अधिकारों के ऐसे दस्तावेज तैयार किए गए थे।
  • नेहरू ने कहा कि भारतीय संविधान का उद्देश्य होगा-लोकतंत्र के उदारवादी विचारों और आर्थिक न्याय के समाजवादी विचारों का एक-दूसरे में समावेश करें तथा भारतीय संदर्भ में इनकी रचनात्मक व्याख्या करें।

प्रश्न 2.
विभिन्न समूह’ अल्पसंख्यक’ शब्द को किस तरह परिभाषित कर रहे थे?
उत्तर:
सामान्यतः अल्पसंख्यक शब्द से हमारा तात्पर्य राष्ट्र की कुल जनसंख्या में किसी वर्ग अथवा समुदाय के कम अनुपात से है परन्तु अलग-अलग लोगों ने अपने- अपने ढंग से अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित किया है, जो इस प्रकार हैं –

  1. मद्रास के बी. पोकर बहादुर के अनुसार मुसलमान अल्पसंख्यक थे, क्योंकि मुसलमानों की आवश्यकताओं को गैर-मुसलमान अच्छी प्रकार से नहीं समझ सकते, न ही अन्य समुदायों के लोग मुसलमानों का कोई सही प्रतिनिधि चुन सकते हैं।
  2. कुछ लोग दमित वर्ग के लोगों को हिन्दुओं से अलग करके देख रहे थे, और उनके लिए अधिक स्थानों का आरक्षण चाह रहे थे।
  3. एन. जी. रंगा के अनुसार असली अल्पसंख्यक गरीब और दबे-कुचले लोग थे रंगा आदिवासियों को अल्पसंख्यक मानते थे। उनका शोषण व्यापारियों, जमींदारों तथा सूदखोरों द्वारा किया जा रहा था। जयपालसिंह ने भी आदिवासियों को अल्पसंख्यक बताया।
  4. एन. जी. रंगा के अनुसार अल्पसंख्यक तथाकथित पाकिस्तानी प्रान्तों में रहने वाले हिन्दू, सिख और यहाँ तक मुसलमान भी अल्पसंख्यक नहीं हैं असली अल्पसंख्यक इस देश की जनता है; यह जनता इतनी दमित, उत्पीड़ित और कुचली हुई है कि अभी तक साधारण नागरिक को मिलने वाले लाभ भी नहीं उठा रही है।

प्रश्न 3.
प्रांतों के लिए ज्यादा शक्तियों के पक्ष में क्या तर्क दिए गए?
उत्तर:
राज्यों के अधिकारों की सबसे शक्तिशाली हिमायत मद्रास के सदस्य के संतनम ने प्रस्तुत की। उन्होंने प्रान्तों के लिए ज्यादा शक्तियों के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए –
(1) उन्होंने कहा कि न केवल राज्यों को बल्कि केन्द्र को ताकतवर बनाने के लिए शक्तियों का पुनर्वितरण आवश्यक है। यदि केन्द्र के पास जरूरत से ज्यादा शक्तियाँ होंगी तो वह प्रभावी ढंग से कार्य नहीं कर पाएगा। उसके कुछ दायित्वों को कम करने से और उन्हें राज्यों को सौंप देने से केन्द्र ज्यादा मजबूत हो सकता है।

(2) संतनम का दूसरा तर्क यह था कि शक्तियों का मौजूदा वितरण उन्हें पंगु बना देगा। राजकोषीय प्रावधान प्रांतों को खोखला कर देगा क्योंकि भू-राजस्व के अलावा ज्यादातर कर केन्द्र सरकार के अधिकार में दे दिए गए हैं। यदि पैसा ही नहीं होगा तो राज्यों में विकास परियोजनाएँ कैसे चलेंगी।

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(3) संतनम ने एक और तर्क देते हुए कहा कि अगर पर्याप्त जाँच-पड़ताल किए बिना शक्तियों का प्रस्तावित वितरण लागू कर दिया गया तो हमारा भविष्य अंधकार में पढ़ जाएगा। उन्होंने कहा कि कुछ ही सालों में सारे प्रान्त केन्द्र के विरुद्ध उठ खड़े होंगे। उड़ीसा के एक सदस्य के अनुसार बेहिसाब केन्द्रीकरण के कारण केन्द्र बिखर जाएगा।

प्रश्न 4.
महात्मा गाँधी को ऐसा क्यों लगता था कि हिन्दुस्तानी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए?
अथवा
महात्मा गाँधी हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा क्यों बनाना चाहते थे? विवेचना कीजिये।
उत्तर:
भाषा विचारों के आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम है। इसलिए किसी भी देश में राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करने हेतु एक भाषा का होना आवश्यक है। भारत बहुभाषी देश है। यहाँ विभिन्न संस्कृतियों को आश्रय प्राप्त है, इसलिए यहाँ अनेक भाषाएं बोली जाती हैं।

भाषा के सन्दर्भ में गाँधीजी का मानना था –
(1) महात्मा गाँधी का मानना था कि हिन्दुस्तानी भाषा हिन्दी और उर्दू के मेल से बनी है और यह भारतीय जनता के बहुत बड़े हिस्से की भाषा थी। यह भाषा विविध संस्कृतियों के आदान- प्रदान से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी।

(2) समय बीतने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के स्रोतों से नये-नये शब्द और अर्थ हिन्दुस्तानी भाषा में समाविष्ट होते गए और उसे विभिन्न क्षेत्रों के बहुत सारे लोग समझने लगे।

(3) महात्मा गाँधी ने महसूस किया कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के बीच संचार की आदर्श भाषा बन सकती है। यह हिन्दुओं और मुसलमानों को, उत्तर और दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है। इन सभी कारणों से गाँधीजी हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा बनाना चाहते थे।

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निम्नलिखित पर एक लघु निबन्ध लिखिये (लगभग 250 से 300 शब्दों में)

प्रश्न 5.
वे कौन सी ऐतिहासिक ताकतें थीं जिन्होंने संविधान का रूप तय किया?
उत्तर:
संविधान का रूप तय करने वाली ताकतें संविधान का रूप तय करने वाली प्रमुख ऐतिहासिक ताकतें निम्नलिखित –
(1) काँग्रेस पार्टी काँग्रेस पार्टी देश की एक प्रमुख राजनीतिक ताकत थी जिसने देश के संविधान को लोकतांत्रिक गणराज्य, धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने में भूमिका अदा की थी। संविधान सभा में लगभग 82 प्रतिशत सदस्य कॉंग्रेस पार्टी के थे। कांग्रेस पार्टी में विभिन्न वैचारिक धाराएँ कार्य कर रही थीं।

कॉंग्रेस के तीन सदस्यों की प्रमुख भूमिका रही। ये सदस्य थे- जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल और राजेन्द्र प्रसाद पं. जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ को पेश किया तथा भारत के राष्ट्रीय ध्वज की |रूप-रेखा भी निर्धारित की थी। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कई रिपोर्टों के प्रारूप लिखने में विशेष सहायता की और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।

(2) दलित वर्ग जो नेता दलितों या हरिजनों के पक्षधर थे उन्होंने संविधान को कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समानता व न्याय दिलाने वाला, आरक्षण की व्यवस्था करने वाला, छुआछूत को मिटाने वाला स्वरूप प्रदान करने में योगदान दिया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में काम किया।

(3) वामपंथी विचारधारा-जिन समुदायों या राजनैतिक दलों पर वामपंथी विचारों या समाजवादी विचारों का प्रभाव था, उन्होंने संविधान में समाजवादी ढाँचे के अनुसार सरकार बनाने, भारत को कल्याणकारी राज्य बनाने और धीरे-धीरे समान काम के लिए समान वेतन, बंधुआ मजदूरी समाप्त करने, जमींदारी उन्मूलन आदि की व्यवस्थाएँ करने के लिए वातावरण या संवैधानिक व्यवस्थाएँ तय करने में योगदान दिया।

(4) आदिवासियों के प्रतिनिधि- आदिवासियों से सम्बन्धित नेताओं ने संविधान सभा में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि आदिवासियों के साथ अनेक वर्षों से ब्रिटिश सरकार, जमींदारों, सूदखोरों और साहूकारों ने सही व्यवहार नहीं किया। आदिवासी नेता पृथक् निर्वाचिका बनाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन विधायिका में आदिवासियों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था को आवश्यक समझते थे।

(5) लोगों की आकांक्षा की अभिव्यक्ति पं. नेहरू ने कहा था कि सरकार जनता की इच्छा को अभिव्यक्ति होती है। हमारे पास जनता की शक्ति है। हम उतनी दूर तक ही जायेंगे, जितनी दूर तक लोग हमें ले जाना चाहेंगे। सविधान सभा उन लोगों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का साधन मानी जा रही थी जिन्होंने स्वतन्त्रता के आन्दोलनों में भाग लिया। लोकतन्त्र, समानता तथा न्याय जैसे आदर्श 19वीं शताब्दी से भारत में स्वमाजिक संघर्षो के साथ गहरे तौर पर जुड़ चुके थे। इस प्रकार समाज सुधारकों ने सामाजिक न्याय पर तथा धार्मिक सुधारकों ने धर्मों को न्यायसंगत बनाने पर बल दिया।

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(6) जनमत-संविधान सभा में हुई चर्चाएँ जनमत से भी प्रभावित होती थीं जब संविधान सभा में बहस होती थी तो विभिन्न पक्षों की दलीलें अखबारों में भी छपती थीं और तमाम प्रस्तावों पर सार्वजनिक रूप से बहस चलती थी। इस तरह प्रेस में होने वाली इस आलोचना और जवाबी आलोचना से किसी मुद्दे पर बनने वाली सहमति या असहमति पर गहरा असर पड़ता था सामूहिक सहभागिता बनाने के लिए जनता के सुझाव भी आमंत्रित किए जाते थे।

प्रश्न 6.
दमित समूहों की सुरक्षा के पक्ष में किए गए विभिन्न दावों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
दमित समूहों (जातियों) की सुरक्षा के लिए बहुत सारे दावे किये गए जो निम्नानुसार हैं –
(1) पृथक निर्वाचिका की माँग राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने दमित या दलित जातियों के लिए पृथक् निर्वाचिका की माँग की थी जिसका गाँधीजी ने यह कहते हुए विरोध किया था कि ऐसा करने से यह समुदाय स्थायी रूप से कट जाएगा।

(2) संरक्षण और बचाव संविधान सभा में मौजूद दमित जातियों के सदस्यों का आग्रह था कि अस्पृश्यों अछूतों की समस्या को केवल संरक्षण और बचाव के द्वारा हल नहीं किया जा सकता। उनकी अपंगता के पीछे जाति विभाजित समाज के सामाजिक कायदे-कानूनों और नैतिक मूल्य-मान्यताओं का हाथ है। समाज ने उनकी सेवाओं और श्रम का इस्तेमाल किया है परन्तु उन्हें सामाजिक तौर पर स्वयं से दूर रखा है, अन्य जातियों के लोग उनके साथ घुलने-मिलने से कतराते हैं, उनके साथ भोजन नहीं करते और उन्हें मन्दिरों में प्रवेश से रोका जाता है।

(3) कष्ट उठाने को तैयार नहीं-मद्रास के सदस्य जे. नागप्पा ने कहा था, “हम सदा कष्ट उठाते रहे हैं पर अब और कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं। हमें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हो गया है, हमें मालूम है कि अपनी बात कैसे मनवानी है।” नागप्पा ने दूसरा तर्क दिया कि हरिजन अल्पसंख्यक नहीं है आबादी में उनका हिस्सा 20-25 प्रतिशत है। उनकी पीड़ा का कारण यह है कि उन्हें बाकायदा समाज व राजनीति के हाशिए पर रखा गया है उसका कारण उनकी संख्यात्मक महत्वहीनता नहीं है। उनके पास न तो शिक्षा तक पहुँच थी और न ही शासन में हिस्सेदारी।

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(4) हजारों साल तक दमन-मध्य प्रान्त के सदस्य के. जे. खांडेलकर ने कहा था “हमें हजारों साल तक दबाया गया है। …इस हद तक दबाया गया कि हमारे दिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भावशून्य हो चुका है। न ही हम आगे बढ़ने लायक रह गए हैं। यही हमारी स्थिति हैं।”

(5) अस्पृश्यता का उन्मूलन – भारत को स्वतंत्रता मिलने तथा देश के विभाजन के बाद डॉ. अम्बेडकर ने दमित वर्ग के लिए पृथक् निर्वाचिका को माँग छोड़ दी थी। उन्होंने संविधान के द्वारा अस्पृश्यता उन्मूलन किए जाने और मन्दिरों के द्वार सभी के लिए खोल दिए जाने व तथाकथित निम्न जाति कहे जाने वालों के लिए विद्याविकाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिए जाने का समर्थन किया। बहुत सारे लोगों का मानना था कि इससे भी समस्त समस्याओं का समाधान नहीं हो सकेगा। सामाजिक भेदभाव को केवल संवैधानिक कानून पारित करके समाप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज की सोच में परिवर्तन लाना होगा। परन्तु लोकतान्त्रिक जनता ने इन प्रावधानों का स्वागत किया।

प्रश्न 7.
संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने उस समय की राजनीतिक परिस्थिति और एक मजबूत केन्द्र सरकार की जरूरत के बीच क्या सम्बन्ध देखा?
उत्तर:
तत्कालीन परिस्थितियाँ और मजबूत केन्द्र की आवश्यकता –
संविधान सभा के कुछ सदस्यों द्वारा तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में ताकतवर केन्द्रीय सरकार की वकालत की गई। उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति और एक मजबूत केन्द्र सरकार की जरूरत के बीच निम्नलिखि सम्बन्ध देखा –

(1) शान्ति स्थापित करने, आम सरोकारों के बी समन्वय स्थापित करने तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर देश की आवाज उठाने के लिए मजबूत केन्द्र की आवश्यकत पर बल-जवाहरलाल नेहरू ने तत्कालीन परिस्थितियों शक्तिशाली केन्द्र सरकार की आवश्यकता पर बल देते हु संविधान सभा के अध्यक्ष के नाम लिखे पत्र में कहा कि “अब जबकि विभाजन एक हकीकत बन चुका है.. एक दुर्बल केन्द्रीय शासन की व्यवस्था देश के लिए हानिकारक होगी क्योंकि ऐसा केन्द्र शान्ति स्थापित करने में, आम सरोकारों के बीच समन्वय स्थापित करने में औ- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे देश के लिए आवाज उठाने सक्षम नहीं होगा।”

(2) सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता- डॉ. अम्बेडकर अन्य अनेक सदस्यों ने सड़कों पर हो रही जिस हिंसा के कारण देश टुकड़े-टुकड़े हो रहा था, उसका हवाला देते हुए बार-बार यह कहा कि केन्द्र की शक्तियों में भारी इजाफा होना चाहिए ताकि वह सांप्रदायिक हिंसा को रोक सके डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि 1935 के गवर्नमेन्ट एक्ट में हमने जो केन्द्र बनाया था, उससे भी ज्यादा शक्तिशाली केन्द्र हम चाहते हैं।

(3) योजना बनाने, आर्थिक संसाधनों को जुटाने तथा देश को विदेशी आक्रमण से बचाने के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता संयुक्त प्रान्त के एक सदस्य बालकृष्ण शर्मा ने विस्तार से इस बात पर प्रकाश डाला कि एक शक्तिशाली केन्द्र का होना जरुरी है ताकि वह देश के हित में योजना बना सके उपलब्ध आर्थिक संसाधनों को जुटा सके, एक उचित शासन व्यवस्था स्थापित कर सके और देश को विदेशी आक्रमण से बचा सके।

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(4) प्रान्तीय स्वायत्तता के लिए विभाजन के बाद, राजनैतिक दबाव का कम होना विभाजन से पहले काँग्रेस ने प्रान्तों को काफी स्वायत्तता देने पर अपनी सहमति व्यक्त की थी कुछ हद तक यह मुस्लिम लीग को इस बात का भरोसा दिलाने की कोशिश थी कि जिन प्रान्तों में लीग की सरकार बनी है, यहाँ दखलंदाजी नहीं की जाएगी। लेकिन विभाजन के बाद अब एक विकेन्द्रीकृत संरचना के लिए पहले जैसे राजनैतिक दबाव नहीं रह गये थे इसलिए राष्ट्रवादियों ने अब शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता पर बल दिया।

(5) उस समय विद्यमान एकल राजनीतिक व्यवस्था- औपनिवेशिक शासन द्वारा थोपी गई एकल राजनैतिक व्यवस्था पहले से ही मौजूद थी। उस जमाने में हुई घटनाओं व से केन्द्रीयतावाद को बढ़ावा मिला जिसे अब अफरा-तफरी T पर अंकुश लगाने तथा देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने के लिए और भी जरूरी माना जाने लगा।

प्रश्न 8.
संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकाला ?
अथवा
संविधान सभा ने भाषा विवाद को किस प्रकार सुलझाने का प्रयास किया?
अथवा
संविधान सभा ने भाषा के विवाद को किस प्रकार हल किया? व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
संविधान सभा में भाषा के सुवाल को लेकर कई महीनों तक गरमागरम बहस हुई और कई बार काफी तनाव भी उत्पन्न हुआ। भारत एक बहुभाषी देश है, हर प्रान्त की अपनी-अपनी अलग भाषा है। ऐसे में राष्ट्रभाषा किसे बनाया जाए, यह मुद्दा बहुत ही पेचीदा था।

(1) काँग्रेस व गाँधीजी द्वारा हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने का विचार बीसवीं शताब्दी के तीस के दशक तक कांग्रेस पार्टी ने यह मान लिया था कि हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए। महात्मा गाँधी का मानना था कि हरेक को एक ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे सभी लोग आसानी से समझ सकें हिन्दी व उर्दू के मेल से बनी हिन्दुस्तानी भारतीय जनता के एक बहुत बड़े हिस्से द्वारा बोली व समझी जाती थी और यह विभिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी। जैसे-जैसे समय बीता कई प्रकार के स्रोतों से नए- नए शब्द व अर्थ इसमें समाते गए और उसे विभिन्न क्षेत्रों के बहुत सारे लोग समझने लगे। गाँधीजी को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के संचार की आदर्श भाषा हो सकती है वह हिन्दू-मुसलमानों तथा उत्तर-दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है।

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(2) हिन्दुस्तानी का परिवर्तित रूप तथा हिन्दी और उर्दू की बढ़ती दूरियाँ उन्नीसवीं सदी के आखिर से एक भाषा के रूप में हिन्दुस्तानी में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा था। जैसे-जैसे सांप्रदायिक टकराव गहराते गए हिन्दी व उर्दू के बीच दूरियाँ बढ़ती गई। एक ओर तो हिन्दी से अरबी- फारसी के शब्दों को निकाल कर उसे संस्कृतनिष्ठ बनाने की कोशिश की जा रही थी तो दूसरी तरफ उर्दू लगातार फारसी के निकट होती जा रही थी। परिणाम यह निकला कि भाषा भी धार्मिक पहचान की राजनीति का हिस्सा बन गई। लेकिन हिन्दुस्तानी के साझा चरित्र में गाँधीजी की आस्था कम नहीं हुई।

(3) आर.वी. धुलेकर का हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने पर जोर देना – संयुक्त प्रान्त के सदस्य आर.वी. धुलेकर का विचार था कि संविधान को लिखने की भाषा भी हिन्दी ही होनी चाहिए। इस पर कई सदस्यों ने एतराज किया कि संविधान सभा के सभी सदस्यों को हिन्दी नहीं आती। इसका धुलेकर ने जवाब दिया कि “इस सदन में जो लोग भारत का संविधान रचने बैठे हैं और हिन्दुस्तानी नहीं जानते वे इस सभा के पात्र नहीं हैं। उन्हें चले जाना चाहिये।” धुलेकर की टिप्पणी से सभा में हंगामा खड़ा हो गया, नेहरूजी के हस्तक्षेप के बाद शान्त हुआ। लेकिन भाषा का सवाल अगले तीन साल तक बार-बार कार्यवाहियों में बाधा पैदा करता रहा।

(4) भाषा समिति की रिपोर्ट संविधान सभा की भाषा समिति ने हिन्दी के समर्थकों व विरोधियों के बीच पैदा गतिरोध को तोड़ने हेतु एक फार्मूला प्रस्तुत किया। समिति ने सुझाव दिया कि देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी भारत की राजकीय भाषा होगी। परन्तु इस फार्मूले को समिति ने घोषित नहीं किया था। समिति का मानना था कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। पहले 15 साल तक सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा। प्रत्येक प्रान्त को अपने कामकाज हेतु कोई एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा।

संविधान सभा की भाषा समिति ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा की बजाय राजभाषा कहकर विभिन्न पक्षों की भावनाओं को शान्त करने और सर्व स्वीकृत समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया था। आखिर में कुछ सदस्यों ने जिनमें दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, मद्रास आदि के सदस्य थे, ने कहा कि हिन्दी के लिए जो कुछ भी किया जाए, बड़ी सावधानी से किया जाए तभी इस भाषा का भला हो पायेगा। सभी सदस्यों ने हिन्दी की हिमायत को तो स्वीकार किया लेकिन उसके वर्चस्व को अस्वीकार कर दिया।

JAC Class 12 History Solutions Chapter 15 संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत

संविधान का निर्माण : एक नए युग की शुरुआत JAC Class 12 History Notes

→ भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आया और यह दुनिया का सबसे लंबा संविधान है। भारत के संविधान को दिसम्बर, 1946 से दिसम्बर, 1949 के बीच सूत्रबद्ध किया गया। सविधान सभा के कुल 11 सत्र हुए, जिनमें 165 दिन बैठकों में गए। सत्रों के बीच-बीच विभिन्न समितियाँ और उपसमितियाँ मसविदे को सुधारने एवं संवारने का काम करती थीं।

→ उथल-पुथल का दौर-संविधान निर्माण के पहले के वर्ष काफी उथल-पुथल वाले थे। यह महान् आशाओं का क्षण भी था और भीषण मोहभंग का भी 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद तो कर दिया गया किन्तु इसके साथ ही इसे विभाजित भी कर दिया गया। लोगों की स्मृति में 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन, सुभाष चन्द्र बोस के स्वतंत्रता के प्रयास, शाही भारतीय नौसेना का विद्रोह अभी भी जीवित थे देश के विभिन्न भागों में मजदूरों व किसानों के आन्दोलन जारी थे।

→ व्यापक हिन्दू-मुस्लिम एकता इन जन आन्दोलनों का एक अहम पहलू था इसके विपरीत काँग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों प्रमुख राजनीतिक दल धार्मिक सौहार्द और सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने के लिए सुलह- सफाई की कोशिशों में असफल होते जा रहे थे। अगस्त, 1946 में कलकत्ता में शुरू हुई हिंसा उत्तर और पूर्वी भारत में फैल गई थी। इसके साथ ही देश के विभाजन की घोषणा हुई और असंख्य लोग एक जगह से दूसरी जगह जाने लगे। इससे शरणार्थियों की समस्या खड़ी हो गई थी।

121 नवजात राष्ट्र के सामने इतनी गंभीर एक और समस्या देशी रियासतों को लेकर थी। ब्रिटिश राज के दौरान उपमहाद्वीप का लगभग एक तिहाई भूभाग ऐसे नवाबों और रजवाड़ों के नियन्त्रण में था जो ब्रिटिश ताज की अधीनता स्वीकार कर चुके थे स्वतंत्रता की घोषणा के बाद कुछ महाराजा तो बहुत सारे टुकड़ों में बँटे भारत में स्वतंत्र सत्ता का सपना देख रहे थे इन देशी रियासतों की भारत राज्य में एकीकरण की समस्या सामने थी।

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→ संविधान सभा का गठन –
(क) संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव 1946 के प्रांतीय चुनावों के आधार पर किया गया था। संविधान सभा में ब्रिटिश भारतीय प्रांतों द्वारा भेजे गए सदस्यों के अतिरिक्त रियासतों के प्रतिनिधि भी शामिल थे उन्हें इसलिए शामिल किया गया था क्योंकि ये राज्य एक-एक करके भारतीय संघ में शामिल हो चुके थे मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बहिष्कार किया तथा एक अन्य संविधान बनाकर उसने पाकिस्तान की माँग जारी रखी।

समाजवादी भी शुरुआत में संविधान सभा से परे रहे जिसके कारण उस दौर में संविधान सभा एक ही पार्टी का समूह बनकर रह गई थी और संविधान सभा के 82 प्रतिशत सदस्य काँग्रेस पार्टी के सदस्य थे। लेकिन सभी कांग्रेस सदस्य एकमत नहीं थे। वे समाजवादी, जमींदारी के पक्षधर तथा धर्मनिरपेक्ष विचारधाराओं से सम्बन्धित थे इसलिए मुद्दों पर वाद-विवाद, बातचीत तथा समझौते के द्वारा उन्हें हल करते थे।

(ख) संविधान सभा में हुई चर्चाएँ जनमत से भी प्रभावित होती थीं जब संविधान सभा में बहस होती थी तो विभिन्न पक्षों की दलीलें अखबारों में भी छपती थीं और सभी प्रस्तावों पर सार्वजनिक रूप से बहस चलती थी। इस तरह प्रेस में होने वाली इस आलोचना और जवाबी आलोचना से किसी मुद्दे पर चलने वाली सहमति या असहमति पर गहरा असर पड़ता था।

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→ संविधान सभा में मुख्य आवाजें संविधान सभा में कुल तीन सी सदस्य थे। इनमें से छह सदस्यों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण दिखाई देती है।

यथा –
(क) नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ तथा तिरंगे झण्डे का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था।
(ख) पटेल ने परदे के पीछे रहकर कई प्रारूपों को लिखने में मदद की थी तथा विरोधी विचारों के बीच सहमति पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
(ग) राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे।
(प) डॉ. बी. आर. अम्बेडकर संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे।
(ङ) गुजरात के के.एम. मुंशी और

(च) मद्रास के अल्लादि कृष्णा स्वामी अय्यर दोनों ने ही संविधान के प्रारूप पर महत्वपूर्ण सुझाव दिए। (छ) इन छः सदस्यों को दो प्रशासनिक अधिकारी बी. एन. राव और एस. एन. मुखर्जी जटिल प्रस्तावों को स्पष्ट वैधिक भाषा में व्यक्त करने की क्षमता रखते थे। इस कार्य में कुल मिलाकर तीन वर्ष लगे और इस दौरान हुई चर्चाओं के मुद्रित रिकॉर्ड 11 भारी-भरकम खंडों में प्रकाशित हुए।

→ संविधान की दृष्टि –
(1) उद्देश्य प्रस्ताव 13 दिसम्बर, 1946 को जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ पेश किया। इस प्रस्ताव में भारत के मूल संविधान के आदशों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई। इसमें भारत को ‘स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य घोषित किया गया। नागरिकों को न्याय, समानता व स्वतंत्रता का आश्वासन दिया गया था और यह वचन दिया गया था कि अल्पसंख्यकों, पिछड़े व जनजातीय क्षेत्रों एवं दमित व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए पर्याप्त रक्षात्मक प्रावधान किए जाएँगे। भारतीय संविधान का उद्देश्य यह होगा कि लोकतंत्र के उदारवादी विचारों और आर्थिक न्याय के समाजवादी विचारों का एक-दूसरे में समावेश किया जाए और भारतीय संदर्भ में इन विचारों की रचनात्मक व्याख्या की जाए।

(ii) लोगों की इच्छा –
(क) संविधान सभा के कम्यूनिस्ट सदस्य सोमनाथ लाहिड़ी ने यह प्रश्न उठाया कि संविधान सभा अंग्रेजों की बनाई हुई है और वह अंग्रेजों की योजना को साकार करने का काम कर रही हैं। इसके उत्तर में नेहरू ने कहा कि यह सही है कि राष्ट्रवादी नेता एक भित्र प्रकार की संविधान सभा चाहते थे तथा उस सभा के गठन में ब्रिटिश सरकार का काफी हाथ है तथा इसके कामकाज पर कुछ शर्तें भी लगी हुई हैं, लेकिन इसके पास जनता की ताकत है।

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(ख) संविधान सभा उन लोगों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का साधन मानी जा रही थी, जिन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लिया था। लोकतंत्र, समानता तथा न्याय जैसे आदर्श उन्नीसवीं सदी से भारत में सामाजिक संघर्षो के साथ गहरे तौर पर जुड़ चुके थे।

(ग) जैसे-जैसे प्रतिनिधित्व की मांग बढ़ी, अंग्रेजों को चरणबद्ध ढंग से संवैधानिक सुधार करने पड़े प्रांतीय सरकारों में भारतीयों की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए कई कानून (1909 1919 और 1935) पारित किए गए, जो प्रतिनिध्यात्मक सरकार के लिए लगातार बढ़ती माँग के जवाब में थे। इन्हें पारित करने की प्रक्रिया में भारतीयों की कोई प्रत्यक्ष हिस्सेदारी नहीं थी, उन्हें औपनिवेशिक सरकार ने ही लागू किया था, लेकिन इस सविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान भारतीय जनता के प्रतिनिधियों द्वारा निर्मित तथा एक स्वतंत्र संप्रभु भारतीय गणराज्य के संविधान की कल्पना थी।

→ अधिकारों का निर्धारण नागरिकों के अधिकार किस तरह निर्धारित किये जाएँ? क्या उत्पीड़ित समूहों को कोई विशेष अधिकार मिलने चाहिए? अल्पसंख्यकों के क्या अधिकार हो ? वास्तव में अल्पसंख्यक किसे कहा जाए? जैसे-जैसे संविधान सभा के पटल पर बहस आगे बढ़ी, यह साफ हो का कोई ऐसा उत्तर मौजूद नहीं है जिस पर पूरी सभा सहमत हो यथा –
गया कि इनमें से किसी भी सवाल

(i) पृथक् निर्वाचिका की समस्या – 27 अगस्त, 1947 को मद्रास के बी. पोकर बहादुर ने पृथक निर्वाचिका बनाए रखने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया तथा इसके पक्ष में अपनी दलीलें रखीं। लेकिन पृथक निर्वाचिका की हिमायत में दिए गए बयान से राष्ट्रवादी नेता भड़क गए। विभाजन के कारण तो राष्ट्रवादी नेता और भड़कने लगे। उन्हें निरन्तर गृहयुद्ध, दंगों और हिंसा की आशंका दिखाई देती थी। गोविन्द वल्लभ पंत ने ऐलान किया कि पृथक् निर्वाचिका का प्रस्ताव न केवल राष्ट्र के लिए अपितु अल्पसंख्यकों के लिए भी खतरनाक है।

इन सारी दलीलों के पीछे एक एकीकृत राज्य के निर्माण की चिन्ता काम कर रही थी राजनीतिक एकता और राष्ट्र की स्थापना के लिए प्रत्येक व्यक्ति को राज्य के नागरिक सांचे में ढालना था तथा हर समूह को राष्ट्र के भीतर समाहित किया जाना था संविधान नागरिकों को अधिकार देगा, समुदायों को सांस्कृतिक इकाइयों के रूप में मान्यता दी जा सकती थी, उन्हें सांस्कृतिक अधिकारों का आश्वासन दिया जा सकता था लेकिन राजनीतिक रूप से सभी समुदायों के सदस्यों को राज्य के सामान्य सदस्य के रूप में काम करना था अन्यथा उनकी निष्ठाएँ विभाजित होतीं। 1949 तक संविधान सभा के अधिकतर सदस्य इस बात पर सहमत हो गये थे कि पृथक् निर्वाचन का प्रस्ताव अल्पसंख्यकों के हितों के खिलाफ जाता है।

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(ii) केवल इस प्रस्ताव से काम चलने वाला नहीं है –

(क) उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए किसान आन्दोलन के नेता और समाजवादी विचारों वाले एन. जी. रंगा ने आह्वान किया कि अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या आर्थिक स्तर पर की जानी चाहिए रंगा की नजर में असली अल्पसंख्यक गरीब और दबे-कुचले लोग थे। उन्होंने इस बात का स्वागत किया कि संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को कानूनी अधिकार दिए जा रहे हैं मगर उन्होंने इसकी सीमाओं को भी चिह्नित किया तथा कहा कि ऐसी परिस्थितियाँ बनाई जाएँ जहाँ संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का जनता प्रभावी ढंग से प्रयोग कर सके। इसलिए गरीबों को सहारे की जरूरत है।

(ख) रंगा ने आम जनता और संविधान सभा में उसके प्रतिनिधित्व का दावा करने वालों के बीच मौजूद विशाल खाई की ओर भी ध्यान आकर्षित कराया।

(ग) रंगा ने आदिवासियों को भी ऐसे ही समूहों में गिनाया था। इस समूह के प्रतिनिधियों में जयपाल सिंह जैसे जबरदस्त वक्ता भी शामिल थे।

(घ) जयपाल सिंह ने आदिवासियों की सुरक्षा तथा उन्हें आम आबादी के स्तर पर लाने के लिए जरूरी परिस्थितियाँ रचने की आवश्यकता पर सुन्दर वक्तव्य दिया तथा विधायिका में आदिवासियों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था का होना आवश्यक बताया।

(iii) हमें हजारों साल तक दबाया गया है –
संविधान में दलितों के अधिकारों को किस तरह परिभाषित किया जाए? राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान अम्बेडकर ने दलितों के लिए पृथक् निर्वाचिकाओं की मांग की थी जिसका महात्मा गाँधी ने यह कहते हुए विरोध किया था ऐसा करने से यह समुदाय स्थायी रूप से शेष समाज से कट जाएगा। संविधान सभा इस विवाद को कैसे हल कर सकती थी? दलितों को किस तरह की सुरक्षा दी जा सकती थी? इस पर विभिन्न सदस्यों ने अपने-अपने सुझाव दिये अंततः सविधान सभा में यह निर्णय हुआ कि अस्पृश्यता का उन्मूलन किया जाए, हिन्दू मन्दिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाये और निचली जातियों को विधायिकाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाये। लोकतांत्रिक जनता ने इन प्रावधानों का स्वागत किया।

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→ राज्य की शक्तियाँ –
(क) संविधान सभा में इस बात पर काफी बहस हुई कि केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के क्या अधिकार होने चाहिए? जो लोग शक्तिशाली केन्द्र के पक्ष में थे उनमें से एक जवाहरलाल नेहरू भी थे। उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि दुर्बल केन्द्रीय शासन की व्यवस्था देश के लिए हानिकारक होगी दुर्बल केन्द्र अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे देश के लिए आवाज उठाने में सक्षम नहीं होगा।

(ख) भारतीय संविधान के मसविदे में विषयों की तीन सूचियाँ बनाई गई थीं। केन्द्रीय सूची, राज्य सूची, समवर्ती सूची। पहली सूची के विषय केन्द्र सरकार के अधीन होंगे, जबकि दूसरी सूची के विषय केवल राज्य सरकार के अधीन होंगे। तीसरी सूची के विषय केन्द्र व राज्य दोनों की साझा जिम्मेदारी थे परन्तु अन्य संपों की तुलना में बहुत ज्यादा विषयों को केवल केन्द्रीय नियन्त्रण में रखा गया। समवर्ती सूची में भी प्रांतों की इच्छाओं की उपेक्षा करते हुए बहुत ज्यादा विषय रखे गए।

(ग) संविधान में राजकोषीय संघवाद की भी एक जटिल व्यवस्था बनाई गई कुछ करों (जैसे सीमा शुल्क और कम्पनी कर) से होने वाली सारी आय केन्द्र सरकार के पास रखी गई, कुछ अन्य मामलों (जैसे आबकारी शुल्क और आयकर से होने वाली आय केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच वॉट दी गई। कुछ अन्य मामलों से होने वाली आय (जैसे राज्य स्तरीय शुल्क) पूरी तरह राज्यों को सौंप दी गई। राज्य सरकारों को अपने स्तर पर भी कुछ अधिभार और कर वसूलने का अधिकार दिया गया। उदाहरण के लिए वे जमीन और सम्पत्ति कर, बिक्री कर तथा बोतलबंद शराब पर अलग से कर वसूल सकते थे।

(i) केन्द्र बिखर जाएगा – राज्य के अधिकारों की सबसे शक्तिशाली हिमायत मद्रास के सदस्य संतनम ने पेश की। उन्होंने कहा कि न केवल राज्यों को बल्कि केन्द्र को मजबूत बनाने के लिए शक्तियों का पुनर्वितरण जरूरी है। क्योंकि शक्तियों का वर्तमान वितरण उन्हें पंगु बना देगा। राजकोषीय प्रावधान प्रांतों को खोखला कर | देगा, क्योंकि भू-राजस्व के अलावा ज्यादातर कर केन्द्र सरकार के अधिकार में दे दिए गए हैं। यदि पैसा नहीं होगा तो राज्यों में विकास परियोजनाएँ कैसे चलेंगी। प्रान्तों के बहुत सारे सदस्य भी इस तरह की आशंकाओं से परेशान थे।

(ii) “आज हमें एक शक्तिशाली सरकार की आवश्यकता है – प्रांतों के लिए अधिक शक्तियों की माँग से सभा में तीखी प्रतिक्रियाएँ आने लगीं। शक्तिशाली केन्द्र की जरूरत को असंख्य अवसरों पर रेखांकित किया जा चुका था। अम्बेडकर ने घोषणा की थी कि वह ‘एक शक्तिशाली और एकीकृत केन्द्र चाहते हैं। 1935 के गवर्नमेंट एक्ट में हमने जो केन्द्र बनाया था उससे भी ज्यादा शक्तिशाली केन्द्र चाहते हैं सड़कों पर हो रही जिस हिंसा के कारण देश टुकड़े-टुकड़े हो रहा था उसका सन्दर्भ देते हुए बहुत सारे सदस्यों ने बार-बार यह कहा कि केन्द्र की शक्तियों में बढ़ोतरी होनी चाहिए ताकि वह सांप्रदायिक हिंसा रोक सके।

विभाजन से पहले कांग्रेस ने प्रांतों को काफी स्वायत्तता देने पर अपनी सहमति व्यक्त की थी। कुछ हद तक यह मुस्लिम लीग को इस बात का भरोसा दिलाने की कोशिश थी कि जिन प्रान्तों में लीग की सरकार बनी है वहाँ दखलंदाजी नहीं की जाएगी। लेकिन विभाजन के बाद विकेन्द्रीकृत संरचना के लिए पहले जैसे दबाव नहीं बचे थे।

औपनिवेशिक शासन द्वारा थोपी गई एकल व्यवस्था पहले से ही मौजूद थी उस जमाने में घटी घटनाओं से केन्द्रीयतावाद को और बढ़ावा मिला जिसे अब अफरातफरी पर अंकुश लगाने तथा देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने के लिए और भी जरूरी माना जाने लगा। इस प्रकार संविधान में भारतीय संघ के घटक राज्यों के अधिकारों की ओर स्पष्ट झुकाव दिखाई देता है।

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→ राष्ट्र की भाषा – 1930 के दशक तक काँग्रेस ने यह मान लिया था कि हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जये महात्मा गाँधी का मानना था कि हर एक को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें हिन्दी और उर्दू के मेल से बनी हिन्दुस्तानी भारतीय जनता के बहुत बड़े हिस्से की भाषा थी और यह विविध संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी।

लेकिन उन्नीसवीं सदी के आखिर से एक भाषा के रूप में हिन्दुस्तानी धीरे-धीरे बदल रही थी। जैसे-जैसे सांप्रदायिक टकराव गहरे होते जा रहे थे हिन्दी और उर्दू एक-दूसरे से दूर जा रही थी। एक तरफ तो फारसी और अरबी मूल के सारे शब्दों को हटाकर हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाने की कोशिश की जा रही थी, दूसरी तरफ उर्दू फारसी के नजदीक होती जा रही थी। परिणाम यह हुआ कि भाषा भी धार्मिक पहचान की राजनीति का हिस्सा बन गई। लेकिन हिन्दुस्तानी के साझा चरित्र में महात्मा गाँधी की आस्था कम नहीं हुई।

(क) हिन्दी की हिमायत-संविधान सभा के एक शुरुआती सत्र में संयुक्त प्रांत के काँग्रेसी सदस्य आर. बी. धुलेकर ने इस बात के लिए पुरजोर शब्दों में आवाज उठाई थी कि हिन्दी को संविधान निर्माण की भाषा के रूप में प्रयोग किया जाए तब से भाषा का प्रश्न अगले तीन साल तक बार-बार कार्रवाइयों में बाधा डालता रहा और सदस्यों को उत्तेजित करता रहा। इस बीच संविधान सभा की भाषा समिति ने राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर हिन्दी के समर्थकों और विरोधियों के बीच पैदा हो गए गतिरोध को तोड़ने के लिए एक फार्मूला विकसित किया। समिति ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा की जगह राजभाषा घोषित कर दिया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। पहले 15 साल तक सरकारी कामों में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा। प्रत्येक प्रांत को कोई एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा।

(ख) वर्चस्व का भय मद्रास की सदस्य श्रीमती जी. दुर्गाबाई ने सदन को बताया कि दक्षिण में हिन्दी का विरोध बहुत ज्यादा है, विरोधियों का यह मानना संभवतः सही है कि हिन्दी के लिए हो रहा यह प्रचार प्रांतीय भाषाओं की जड़े खोदने का प्रयास है। इसके बावजूद बहुत सारे अन्य सदस्यों के साथ-साथ उन्होंने भी महात्मा गांधी के आह्नान का पालन किया और दक्षिण में हिन्दी का प्रचार जारी रखा, विरोध का सामना किया, हिन्दी के स्कूल खोले और कक्षाएं चलाई दुर्गाबाई हिन्दुस्तानी को जनता की भाषा स्वीकार कर चुकी थीं।

मगर अब उस भाषा को बदला जा रहा था उर्दू तथा क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को उससे निकालकर उसमें संस्कृतनिष्ठ शब्द भरे जा रहे थे जैसे-जैसे चर्च तीखी होती गई, बहुत सारे सदस्यों ने परस्पर समायोजन व सम्मान की भावना का आह्वान किया। बम्बई के एक सदस्य श्री शंकर राव देव ने कहा कि काँग्रेसी तथा महात्मा गाँधी का अनुवायी होने के नाते वे हिन्दुस्तानी को राष्ट्र की भाषा के रूप में स्वीकार कर चुके हैं, परन्तु उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, “अगर आप (हिन्दी के लिए) दिल से समर्थन चाहते हैं तो आपको ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए जिससे मेरे भीतर संदेह पैदा हो और मेरी आशंकाओं को बल मिले।” मद्रास के श्री टी. ए. रामलिंगम चेट्टियार ने इस बात पर जोर दिया कि जो कुछ भी किया जाए, एतिहात के साथ किया जाए। यदि आक्रामक होकर कार्य किया गया तो हिन्दी का कोई भला नहीं हो पाएगा।

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निष्कर्ष –
(1) भारतीय संविधान गहन विवादों और परिचर्चाओं से गुजरते हुए बना। इसके कई प्रावधान लेनदेन के प्रक्रिया की द्वारा बनाए गए थे उन पर सहमति तब बन पाई जब सदस्यों ने दो विरोधी विचारों के बीच जमीन तैयार कर ली।

(2) परन्तु संविधान के एक केन्द्रीय अभिलक्षण पर काफी हद तक सहमति थी। यह सहमति प्रत्येक वयस्क भारतीय को मताधिकार देने पर थी।

(3) हमारे संविधान की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता भी धर्मनिरपेक्षता पर बल संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता का गुणगान तो नहीं किया गया था परन्तु संविधान व समाज को चलाने के लिए भारतीय संदर्भों में उसे मुख्य अभिलक्षणों का जिक्र आदर्श रूप में किया गया था। मूल अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार और सांस्कृतिक व शैक्षिक अधिकार, समानता का अधिकार इसके प्रमाण हैं।

(4) संविधान सभा के विवादों से हमें यह समझ तो आती है कि सविधान के निर्माण में कैसी-कैसी निरोधी आवाजें उठी थीं और कैसी-कैसी माँगें की गई। ये चर्चाएं हमें उन आदर्शों और सिद्धान्तों के विषय में बताती हैं जिनका वर्णन सविधान निर्माताओं ने किया, परन्तु इन विवादों को समझने में हमें याद रखना चाहिए कि आदर्शों को विशेष संदर्भों के मुताबिक बदला गया। इसके अलावा ऐसा भी हुआ कि सभा के कुछ सदस्यों ने तीन वर्षों में हुई चर्चाओं के साथ-साथ अपने विचार ही बदल डाले। कुछ सदस्यों ने दूसरों के तर्कों के प्रकाश में अपनी समझ बदली और खुले दिलो-दिमाग से काम किया कुछ अन्य सदस्यों आस-पास की घटनाओं को देखते हुए अपने विचार बदल डाले।

काल-रेखा
1945 26 जुलाई दिसम्बर-जनवरी ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार सत्ता में आती है। भारत में आम चुनाव।
1946 16 मई कैबिनेट मिशन अपनी संवैधानिक योजना की घोषणा करता है।
16 जून मुस्लिम लीग कैबिनेट मिशन की संवैधानिक योजना पर स्वीकृति देती है।
16 जून कैबिनेट मिशन केन्द्र में अन्तरिम सरकार के गठन का प्रस्ताव पेश करता है।
2 सितम्बर कांग्रेस अन्तरिम सरकार का गठन करती है, जिसमें नेहरू को उपराष्ट्रपति बनाया जाता है।
13 अक्टूबर मुस्लिम लीग अन्तरिम सरकार में शामिल होने का फैसला लेती है।
3-6 दिसम्बर ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली कुछ भारतीय नेताओं से मिलते हैं। इन वार्ताओं का कोई नतीजा नहीं निकलता है।
9 दिसम्बर संविधान सभा के अधिवेशन शुरू हो जाते हैं।
1947 29 जनवरी मुस्लिम लीग संविधान सभा को भंग करने की माँग करती है।
16 जुलाई अन्तरिम सरकार की अन्तिम बैठक होती है।
11 अगस्त जिन्ना को पाकिस्तान की संविधान सभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया जाता है।
14 अगस्त पाकिस्तान को स्वतन्त्रता : कराची में जश्न।
14-15 अगस्त मध्यरात्रि भारत में स्वतन्त्रता का जश्न।
1949 दिसम्बर भारतीय संविधान पर हस्ताक्षर।

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