JAC Class 12 History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

Jharkhand Board JAC Class 12 History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

Jharkhand Board Class 12 History राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ InText Questions and Answers

पृष्ठ संख्या 30

प्रश्न 1.
ऐसे कौनसे क्षेत्र हैं जहाँ राज्य और नगर सर्वाधिक सघन रूप से बसे थे?
उत्तर:
मानचित्र – 1 को देखने से स्पष्ट होता है कि मध्य गंगा घाटी अर्थात् पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा वर्तमान बिहार और झारखण्ड वाले क्षेत्र सर्वाधिक घने बसे थे।

पृष्ठ संख्या 31 : चर्चा कीजिए

प्रश्न 2.
मगध के शक्तिशाली महाजनपद के रूप में उदय के प्रमुख कारण लिखिए।
अथवा
मगध की सत्ता के विकास के लिए आरम्भिक और आधुनिक लेखकों ने क्या-क्या व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं? एक-दूसरे से कैसे भिन्न हैं?
अथवा
मगध साम्राज्य के उत्थान के दो महत्त्वपूर्ण कारण बताइये।
उत्तर:
आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार मगध की सत्ता के विकास के कारक-आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार मगध की सत्ता के विकास के प्रमुख कारक निम्नलिखित थे –

  • मगध का प्रदेश बहुत उपजाक था।
  • मगध में लोहे की खदानें भी सरलता से उपलब्ध थीं। लोहे से उपकरण और हथियार बनाना सरल होता था।
  • मगध के जंगली क्षेत्रों में हाथी उपलब्ध थे जो सेना के एक महत्त्वपूर्ण अंग थे।
  • गंगा और इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता व सुलभ होता था।

आरम्भिक इतिहासकारों के अनुसार मगध की सत्ता के विकास के कारण आरम्भिक जैन और बौद्ध इतिहासकारों के अनुसार बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्म नन्द जैसे प्रसिद्ध तथा महत्त्वाकांक्षी शासकों की नीतियाँ मगध के विकास के लिए उत्तरदायी थीं।

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पृष्ठ संख्या 31

प्रश्न 3.
राजगीर के किले की दीवारों का निर्माण क्यों किया गया?
उत्तर:
प्रारम्भ में राजगीर मगध महाजनपद की राजधानी थी। पहाड़ियों के बीच बसा राजगीर एक किलेबन्द शहर था। किलेबन्द शहर में राजा, मन्त्रियों तथा प्रमुख अधिकारियों . के निवास स्थान बने हुए थे यहाँ अनेक सैनिक टुकड़ियाँ भी रहती थीं। इस प्रकार राजगीर (राजनीतिक), सैनिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ था। अतः राजगीर की शत्रु से रक्षा के लिए शहर के चारों ओर दीवार का निर्माण किया गया था।

पृष्ठ संख्या 32

प्रश्न 4.
सिंह शीर्ष को आज महत्त्वपूर्ण क्यों माना जाता है?
उत्तर:
अशोक द्वारा बनवाया गया सारनाथ का पाषाण स्तम्भ तत्कालीन स्थापत्यकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस स्तम्भ के शीर्ष भाग पर बनी चार शेरों की मूर्तियाँ बड़ी सजीव तथा आकर्षक हैं। शेर के नीचे के पत्थर पर चार धर्म चक्र तथा चार पशु-घोड़ा, शेर, हाथी एवं बैल चित्र अंकित हैं। अशोक के सिंह शीर्ष को भारत सरकार ने राज्य चिह्न के रूप में अपनाया है। यह हमारी शूरवीरता, शान्तिप्रियता तथा एकता का प्रतीक है। इसलिए सिंह शीर्ष को आज महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

पृष्ठ संख्या 33

प्रश्न 5.
क्या यह भी सम्भव है कि जो क्षेत्र शासकों के अधीन नहीं थे, वहाँ भी उन्होंने अभिलेख उत्कीर्ण करवाए होंगे ?
उत्तर:
प्रायः शासक उन्हीं क्षेत्रों में अभिलेख उत्कीर्ण करवाते थे, जो उनके अधीन होते थे अतः यह सम्भव नहीं है कि जो क्षेत्र शासकों के अधीन नहीं थे, वहाँ भी उन्होंने अपने अभिलेख उत्कीर्ण करवाये थे।

पृष्ठ संख्या 34

प्रश्न 6.
विभिन्न व्यावसायिक समूहों के निरीक्षण के लिए इन अधिकारियों को क्यों नियुक्त किया जाता था?
उत्तर:
मौर्य सम्राट कुशल प्रशासक थे। उन्होंने विभिन्न व्यावसायिक समूहों के निरीक्षण के लिए अनेक अधिकारियों को नियुक्त किया। अकेला एक अधिकारी समस्त व्यावसायिक गतिविधियों पर सुचारु रूप से नियन्त्रण नहीं रख सकता था। इसलिए मौर्य सम्राटों द्वारा व्यावसायिक समूहों के निरीक्षण के लिए अनेक अधिकारियों को नियुक्त किया जाता था ताकि आर्थिक गतिविधियाँ बिना किसी अवरोध के सुचारु रूप से चलती रहें तथा वाणिज्य-व्यापार का समुचित विकास होता रहे।

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पृष्ठ संख्या 34 चर्चा कीजिए

प्रश्न 7.
मेगस्थनीज और ‘अर्थशास्त्र’ से उद्धत अंशों को पुनः पढ़िए मौर्य शासन के इतिहास लेखन में ये ग्रन्थ कितने उपयोगी हैं?
उत्तर:
मेगस्थनीज-मेगस्थनीज की पुस्तक ‘इण्डिका’ से चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था तथा मौर्यकालीन सामाजिक अवस्था के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि नदियों की देखरेख, भूमि-मापन, शिकारियों के संचालन, कर वसूल करने आदि कार्यों के लिए अनेक अधिकारी नियुक्त किए जाते थे मेगस्थनीज ने सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए एक समिति और 6 उपसमितियों का उल्लेख किया है एक उपसमिति नौसेना, दूसरी समिति रसद विभाग, तीसरी समिति पैदल सेना, चौथी समिति अश्वारोही सेना, पाँचवीं समिति रथ सेना तथा छठी समिति हाथी सेना का प्रबन्ध करती थी। मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि पाटलिपुत्र नगर का प्रबन्ध करने के लिए 30 सदस्यों की एक परिषद् होती थी।

यह परिषद् पाँच-पाँच सदस्यों की 6 समितियों में विभक्त थी। ये 6 समितियाँ थीं –

  1. शिल्पकला समिति
  2. विदेशी यात्री समिति
  3. जनसंख्या समिति
  4. वाणिज्य समिति
  5. उद्योग समिति
  6. कर समिति

अर्थशास्त्र – चाणक्यकृत ‘अर्थशास्त्र’ से मौर्यो की शासन व्यवस्था तथा मौर्यकालीन सामाजिक और आर्थिक स्थिति के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है। ‘अर्थशास्त्र’ में सैनिक और प्रशासनिक संगठन के बारे में विस्तृत विवरण मिलते हैं। अर्थशास्त्र से मौर्यकालीन सम्राट, मन्त्रिपरिषद् प्रशासनिक विभागों, गुप्तचर व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, सैन्य – व्यवस्था, राजकीय आय के साधनों आदि के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। इस प्रकार मेगस्थनीज और ‘अर्थशास्त्र’ मौर्यशासन के इतिहास लेखन में अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ हैं। पृष्ठ संख्या 35

प्रश्न 8.
यदि यूनानी विवरण सही है, तो बताइये कि इतनी बड़ी सेना के भरण-पोषण के लिए मौर्य शासकों को किस तरह के संसाधनों की जरूरत पड़ती होगी?
उत्तर:
यूनानी इतिहासकारों के अनुसार मौर्य सम्राट के पास 6 लाख पैदल सैनिक 30 हजार घुड़सवार तथा 9 हजार हाथी थे। इतनी बड़ी सेना के भरण-पोषण के लिए मौर्य शासकों को निम्नलिखित संसाधनों की आवश्यकता पड़ती होगी –
(1) राजस्व मौर्य सम्राटों को भूमिकर, आयात- निर्यात कर, बिक्रीकर, वनों खानों जुर्माने न्यायालय- शुल्क, व्यावसायियों पर कर आदि अनेक करों से राजस्व की प्राप्ति होती थी। विभिन्न प्रकार के जुमनों तथा सम्पत्ति की जब्ती से भी राज्य की आमदनी होती थी।

(2) सैन्य सामग्री – सैनिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तलवार, भाले, धनुष-बाण, कवच, टोप आदि हथियार बनाए जाते थे। राजकीय कारखानों में सैन्य सामग्री, हथियारों आदि का निर्माण किया जाता था।

(3) यातायात के साधन सैनिक अभियानों में सफलता प्राप्त करने के लिए यह भी आवश्यक था कि यातायात के साधनों का विकास किया जाए। अतः मौर्य शासकों ने अनेक सड़कों का निर्माण करवाया। उनकी मरम्मत तथा रखरखाव का भी उचित प्रबन्ध किया जाता था। जल यातायात के साधनों का विकास किया गया।

(4) रसद – कृषि, उद्योग-धन्धों तथा व्यापार वाणिज्य की उन्नति को भी प्रोत्साहन दिया गया।

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पृष्ठ संख्या 36

प्रश्न 9.
राजा को किस प्रकार दर्शाया गया है?
उत्तर:
चित्र 24 में कुषाण राजा कनिष्क को ‘देवपुत्र’ के रूप में दर्शाया गया है।

प्रश्न 10.
लोग पाण्ड्य सरदारों के लिए यह उपहार क्यों लाए ? सरदार इन उपहारों का उपयोग किसलिए करते होंगे?
उत्तर:
सरदार शक्तिशाली व्यक्ति होते थे। वे विशेष अनुष्ठानों का संचालन करते थे, युद्ध के समय सेना का नेतृत्व करते थे तथा विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता की भूमिका निभाते थे। वे अपने अधीन लोगों से भेंट लेते थे। अतः लोग पाण्ड्य सरदारों का बहुत सम्मान करते थे क्योंकि वे उनकी आक्रमणकारियों से रक्षा करते थे इसलिए वे सरदारों के लिए विभिन्न प्रकार के उपहार लाते थे सरदार इन उपहारों को अपने समर्थकों में बांट देते होंगे। सम्भव है कि वे कुछ उपहारों का स्वयं भी उपयोग करते होंगे।

पृष्ठ संख्या 37

प्रश्न 11.
इस मूर्ति में ऐसी क्या विशेषताएँ हैं जिनसे यह प्रतीत होता है कि यह एक राजा की मूर्ति है ? (चित्र के लिए देखें पाठ्यपुस्तक का पृष्ठ 37 चित्र 2.5 )
उत्तर:
इस मूर्ति की निम्नलिखित विशेषताओं से प्रतीत होता है कि यह एक राजा की मूर्ति है –
(1) मूर्ति को निरकुंश एवं गौरवपूर्ण मुद्रा में दिखाया गया है।
(2) उसके एक हाथ में तलवार तथा दूसरे हाथ में म्यान है।
(3) उसकी वेशभूषा शाही है।

पृष्ठ संख्या 37 चर्चा कीजिए

प्रश्न 12.
राजाओं ने दिव्य स्थिति का दावा क्यों किया?
उत्तर:
विदेशी राजाओं के लिए उच्च स्थिति प्राप्त करने तथा अपनी प्रजा से अपनी आज्ञाओं का पालन करवाने का एक प्रमुख साधन विभिन्न देवी-देवताओं के साथ जुड़ना था। अतः लगभग प्रथम शताब्दी ई. पूर्व से प्रथम शताब्दी ई. में अनेक विदेशी राजाओं ने दिव्य स्थिति का दावा प्रस्तुत किया और अपने को देवतुल्य प्रस्तुत किया।

पृष्ठ संख्या 38

प्रश्न 13.
शासकों ने सिंचाई के प्रबन्ध क्यों किए ?
उत्तर:
(1) उपज बढ़ाने के लिए शासकों ने सिंचाई के प्रबन्ध किये। इससे राज्य की आय में भी वृद्धि होती श्री भूमि कर राज्य की आय का प्रमुख साधन था।
(2) कृषि लोगों के जीवन निर्वाह का प्रमुख साधन था। इसलिए कृषि की उन्नति के लिए सिंचाई के साधनों का प्रबन्ध करना आवश्यक था।
(3) कुछ राजा प्रजावत्सल होते थे अतः उन्होंने किसानों की भलाई के लिए सिंचाई का उत्तम प्रबन्ध किया।

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पृष्ठ संख्या 39

प्रश्न 14.
क्या ये सीमा चिह्न विवाद के हल के लिए पर्याप्त रहे होंगे ?
उत्तर:
निःसंदेह ये सीमाचिह्न प्राचीनकाल में सीमा सम्बन्धी विवादों के हल के लिए पर्याप्त रहे होंगे। पृष्ठ संख्या 40

प्रश्न 15.
इस अंश में वर्णित लोगों को व्यवसाय के आधार पर आप कैसे वर्गीकृत करेंगे ?
उत्तर:
इस अंश में वर्णित लोगों को व्यवसाय के आधार पर निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता

  • कितन
  • श्रमिक
  • फल-फूल बेचने वाले माली।

पृष्ठ संख्या 41

प्रश्न 16.
इस गाँव में कौन-कौनसी वस्तुएँ पैदा की जाती थीं?
उत्तर:
इस गाँव में खनिज पदार्थ, खदिर वृक्ष, जानवरों की खाल, घास, कोयला, फूल, दूध, मदिरा आदि वस्तुएँ पैदा की जाती थीं।

पृष्ठ संख्या 41 चर्चा कीजिए

प्रश्न 17.
यह पता कीजिए कि क्या आपके राज्य में हल से खेती, सिंचाई तथा धान की रोपाई की जाती है? और अगर नहीं तो क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्थाएँ हैं?
उत्तर:
विद्यार्थी इसको स्वयं करें। इसके लिए विद्यार्थी, शिक्षक अथवा अभिभावक की सहायता ले सकते हैं।

पृष्ठ संख्या 43

प्रश्न 18.
तीसरी सहस्त्राब्दी ई. पूर्व में हड़प्पा सभ्यता जिस क्षेत्र में फैली, क्या वहाँ कोई नगर थे?
उत्तर:
तीसरी सहस्राब्दी ई. पूर्व में हड़प्पा सभ्यता के अन्तर्गत मोहनजोदड़, हड़प्या, कालीबंगा, लोथल, चन्द्रदड़ो आदि नगर थे।

पृष्ठ संख्या 44

प्रश्न 19.
लेखक ने यह सूची क्यों तैयार की थी?
उत्तर:
‘पेरिप्लस ऑफ एरीब्रियन सी’ के लेखक एक यूनानी समुद्र यात्री ने अनेक वस्तुओं की सूची तैयार की। लेखक इस सूची के माध्यम से यह बताना चाहता है कि अनेक वस्तुओं का समुद्री मार्गों द्वारा आयात-निर्यात किया जाता था। इसके लिए उसने अनेक वस्तुओं की सूची तैयार की थी। लेखक के अनुसार भारत में भारी मात्रा में पुखराज, सिक्कों, सुरमा, मूंगे, कच्चे शीशे, तौबे, टिन और सीसे का आयात किया जाता था तथा भारत से काली मिर्च, दालचीनी आदि का निर्यात किया जाता था।

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पृष्ठ संख्या 45 चर्चा कीजिए

प्रश्न 20.
व्यापार में विनिमय के लिए क्या-क्या प्रयोग होता था? उल्लिखित स्रोतों से किस प्रकार के विनिमय का पता चलता है? क्या कुछ विनिमय ऐसे भी हैं जिनका ज्ञान स्रोतों से नहीं हो पाता है?
उत्तर:
(1) व्यापार में विनिमय के लिए सिक्कों का प्रयोग व्यापार में विनिमय के लिए विभिन्न प्रकार के सिक्कों का प्रयोग किया जाता था। छठी शताब्दी ई. पूर्व में चाँदी और ताँबे के आहत सिक्कों का प्रचलन था इन सिक्कों को राजाओं ने जारी किया था। सोने के सिक्के सबसे पहले प्रथम शताब्दी ईसवी में कुषाण राजाओं ने जारी किये थे। दक्षिण भारत में रोमन सिक्के बड़ी संख्या में मिले हैं। इससे स्पष्ट है कि दक्षिण भारत का रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध था। पंजाब और हरियाणा जैसे क्षेत्रों के यौधेयगण राज्यों ने भी सिक्के जारी किये थे। व्यापार में यौधेय सिक्कों का भी प्रयोग किया जाता था। सोने के सबसे उत्कृष्ट सिक्के गुप्त सम्राटों ने जारी किये थे। इन सिक्कों के माध्यम से दूर देशों से व्यापार विनिमय करने में आसानी होती थी।

(2) व्यापार में विनिमय के लिए वस्तुओं का प्रयोग- व्यापार में विनिमय के लिए वस्तुओं का भी प्रयोग किया जाता था जैसे सूती कपड़े, मसाले, बहुमूल्य धातुएँ, जूट, कपास, जड़ी-बूटियाँ आदि सोने के सिक्कों के व्यापक प्रयोग से जात होता है कि बहुमूल्य वस्तुओं और भारी मात्रा में वस्तुओं का विनिमय भी किया जाता था।

पृष्ठ संख्या 46

प्रश्न 21.
क्या कुछ देवनागरी अक्षर ब्राह्मी से मिलते- जुलते हैं? क्या कुछ भिन्न भी हैं? (चित्र के लिए देखें पाठ्यपुस्तक का पृष्ठ 46 )
उत्तर:
हाँ, देवनागरी का ‘द’ अक्षर ब्राह्मी के ‘द’ अक्षर से मिलता-जुलता है। ‘क’ बनावट भी ब्राह्मी अक्षर अन्य अक्षर ब्राह्मी से भिन्न हैं।

पृष्ठ संख्या 47

प्रश्न 22.
अभिलेखशास्त्रियों ने पतिवेदक शब्द का अर्थ संवाददाता बताया है। आधुनिक संवाददाता की तुलना में पतिवेदक के दायित्व कितने भिन्न रहे होंगे?
उत्तर:
आधुनिक संवाददाता की तुलना में पतिवेदक के दायित्व काफी भिन्न रहे होंगे। पतिवेदक का यह दायित्व था कि वह लोगों के समाचार सम्राट तक सदैव पहुँचाए । चाहे सम्राट कहीं भी हो, चाहे वह खाना खा रहा हो, अन्तःपुर में हो, विश्राम कक्ष में हो, गोशाला में हो या उसे पालकी में ले जाया जा रहा हो, अथवा वह वाटिका में हो, उसे लोगों के समाचार तुरन्त पहुँचाए जाएँ। परन्तु आधुनिक संवाददाता का यह दायित्व नहीं है कि उपर्युक्त परिस्थितियों में व्यक्ति तक समाचार पहुँचाए। वह अपनी सुविधानुसार लोगों तक समाचार पहुँचा सकता है। इस प्रकार पतिवेदक प्रजा तथा राज्य के बीच सन्देशवाहक का भी काम करता था।

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पृष्ठ संख्या 48 चर्चा कीजिए

प्रश्न 23.
मानचित्र 2 देखिए और अशोक के अभिलेख के प्राप्ति स्थान की चर्चा कीजिए क्या उनमें कोई एक-सा प्रारूप दिखता है?
उत्तर:
मानचित्र – 2 के अनुसार अशोक के अभिलेख प्राप्ति के स्थान निम्नलिखित हैं-

  1. मानसेहरा
  2. शहबाजगढ़ी
  3. कलसी
  4. कंदहार
  5. गिरनार
  6. जौगड़
  7. बहपुर
  8. शिशुपालगढ़
  9. सोपारा
  10. गुजर
  11. सिदपुर
  12. सारनाथ
  13. लौरिया नन्दनगढ़
  14. मास्को
  15. रुम्मिनदेई
  16. रामपुरवा

अशोक के उपर्युक्त अभिलेखों की भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ हमें प्राप्त होती हैं इन विशेष श्रेणियों के अभिलेखों में एकरूपता दिखाई देती है।

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निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 100 से 150 शब्दों में दीजिए –
प्रश्न 1.
आरम्भिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाणों की चर्चा कीजिए। हड़प्पा के नगरों के प्रमाण से ये प्रमाण कितने भिन्न है?
उत्तर:
आरम्भिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाण-
(1) लगभग छठी शताब्दी ई. पूर्व में भारत में अनेक नगरों का उदय हुआ। इन नगरों में उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे और थालियां मिली हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। इन्हें ‘उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र’ कहा जाता है। इनका प्रयोग सम्भवतः धनी लोग करते होंगे।

(2) यहाँ से सोने, चाँदी, काँस्य, तांबे, हाथीदाँत, शीशे के बने गहनों, उपकरणों, हथियारों, बर्तनों, सीप और पक्की मिट्टी आदि के प्रमाण मिले हैं।

(3) दानात्मक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इम नगरों में बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहकार आदि शिल्पकार रहते थे। लौहकार लोहे का सामान बनाते थे परन्तु हड़प्पा के नगरों में लोहे के प्रयोग के प्रमाण नहीं मिले हैं।

(4) नगरों में उत्पादकों एवं व्यापारियों के संघ बने हुए जिन्हें ‘श्रेणी’ कहा जाता था ये श्रेणियों पहले कच्चा माल खरीदती थीं तथा फिर उनसे सामान तैयार कर बाजारों में बेच देती थीं। परन्तु हड़प्पा के नगरों में इन श्रेणियों के होने के प्रमाण नहीं मिलते हैं।

(5) यह सम्भव है कि शिल्पकारों ने नगरों में रहने वाले प्रतिष्ठित लोगों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए कई प्रकार के लौह उपकरणों का प्रयोग किया हो। परन्तु हड़प्पा के नगरों में लौह उपकरणों के प्रयोग का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।

(6) हड़प्पा सभ्यता में मनके बनाने, मातृदेवी, काँसे की मूर्तियाँ बनाने, मुहरें बनाने आदि के शिल्प विकसित थे, परन्तु आरम्भिक ऐतिहासिक नगरों में ये प्रमाण नहीं मिलते।

प्रश्न 2.
महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षणों का वर्णन कीजिए।
अथवा
महाजनपदों की कोई सी चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षण – छठी शताब्दी ई. पूर्व भारत में अनेक महाजनपदों का उदय हुआ। बौद्ध और जैन धर्म के आरम्भिक ग्रन्थों में महाजनपद के नाम से 16 राज्यों का उल्लेख मिलता है। महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षण निम्नलिखित थे –

  1. अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन होता था। परन्तु गण और संघ के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में कई ब्लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था।
  2. प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जिसे प्रायः किले से घेरा जाता था किलेबन्दे राजधानियों के रख-रखाव, प्रारम्भी सेनाओं और नौकरशाही के लिए भारी आर्थिक स्रोतों की आवश्यकता होती थी।
  3. लगभग छठी शताब्दी ई. पूर्व से संस्कृत में ब्राह्मणों द्वारा रचित धर्मशास्त्रों में शासकों तथा अन्य लोगों के लिए नियम निर्धारित किये गए और यह अपेक्षा की . जाती थी कि शासक क्षत्रिय वर्ग से ही होंगे।
  4. किसानों, व्यापारियों और शिल्पकारों से कर तथा भेंट वसूलना शासक का कर्तव्य माना जाता था।
  5. पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण करके धन इकट्ठा करना भी एक वैध उपाय माना जाता था।
  6. धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ और नौकरशाही तन्त्र संगठित कर लिया।

प्रश्न 3.
सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण इतिहासकार कैसे करते हैं?
उत्तर:
इतिहासकारों द्वारा सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करना-
(1) इतिहासकार अभिलेखों, ग्रन्थों, सिक्कों, चित्रों आदि विभिन्न प्रकार के स्रोतों का अध्ययन करते हैं तथा उनकी सहायता से सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करते हैं।

(2) साहित्यिक ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि उत्तर भारत, दक्कन पठार क्षेत्र और कर्नाटक आदि क्षेत्रों में कृषक बस्तियाँ अस्तित्व में आई और दक्कन तथा दक्षिण भारत के क्षेत्रों में चरवाहा बस्तियाँ स्थापित हुई।

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(3) पुरातात्विक स्रोतों से पता चलता है कि ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के दौरान मध्य दक्षिण भारत में शवों के अन्तिम संस्कार के नवीन तरीके भी ज्ञात हुए कुछ शवों के साथ लोहे के औजार और हथियार भी दफनाये जाते थे।

(4) अभिलेखों से ज्ञात होता है कि प्राकृत भाषाएँ जनसामान्य की भाषाएँ होती थीं।

(5) जातक कथाओं से पता चलता है कि राजा तथा ग्रामीण प्रजा के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण रहते थे। शासक अपनी प्रजा पर भारी कर लगाते थे. जिससे लोग अत्याचारों से बचने के लिए अपने घर छोड़ कर जंगलों में भाग जाते थे।

(6) किसान उपज बढ़ाने के लिए लोहे के फाल वाले हलों का प्रयोग करते थे तथा खेतों की सिंचाई के लिए कुओं, तालाबों तथा नहरों का प्रयोग करते थे।

(7) बौद्ध ग्रन्थों में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों, छोटे किसानों और बड़े-बड़े जमींदारों का उल्लेख मिलता है।

(8) प्रभावती गुप्त के अभिलेख से हमें ग्रामीण प्रजा का पता चलता है।

(9) दानात्मक अभिलेखों से नगरों में रहने वाले शिल्पकारों, उत्पादकों और व्यापारियों के संघों (श्रेणियों) के बारे में जानकारी मिलती है। राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते हैं, उसे अभिलेखों में ऑकत किया ही गया हो। उदाहरण के लिए, खेती की दैनिक प्रक्रियाएँ और दैनिक जीवन के सुख-दुःख का उल्लेख अभिलेखों में नहीं मिलता, क्योंकि प्रायः अभिलेख बड़े और विशेष अवसरों का वर्णन करते हैं।

प्रश्न 4.
पाण्ड्य सरदार (स्रोत 3) को दी जाने वाली वस्तुओं की तुलना दंगुन गाँव (स्रोत 8) की वस्तुओं से कीजिए आपको क्या समानताएँ और असमानताएँ दिखाई देती हैं?
उत्तर:
पाण्ड्य सरदार को दी जाने वाली वस्तुएँ- पाण्ड्य सरदार को हाथी दांत, सुगन्धित लकड़ी, हिरणों के बाल से बने चंवर, मधु, चन्दन, गेरू, सुरमा, हल्दी, इलायची, मिर्च आदि वस्तुएँ भेंट की गई। इसके अतिरिक्त लोगों ने उसे नारियल, आम, जड़ी-बूटी, फल, प्याज, गन्ना, फूल, सुपारी, केला तथा बाघ के बच्चे, हाथी, बन्दर, भालु, मृग, मोर, कस्तुरी, जंगली मुर्गे, बोलने वाले तोते, शेर आदि भी उपहार में दिए। दंगुन गाँव की वस्तुएँ – दंगुन गाँव की वस्तुओं में घास, जानवरों की खाल, कोयला, मदिरा, नमक, खनिज पदार्थ, खदिर वृक्ष के उत्पाद, फूल, दूध आदि सम्मिलित हैं।

समानताएँ – फूल की समानता पाई जाती है।
असमानताएँ – हाथीदाँत, सुगन्धित लकड़ी, हिरणों के बाल से बने चंवर, मधु, चन्दन, गेरू, सुरमा, हल्दी, इलायची, मिर्च, नारियल, आम, जड़ी-बूटी, फल, प्याज, गन्ना, सुपारी, केला तथा अनेक पशु-पक्षी, घास, जानवरों की खाल, कोयला, मदिरा, नमक, खनिज पदार्थ, खंदिर वृक्ष के उत्पाद, दूध आदि वस्तुओं में असमानताएं पाई जाती हैं।

प्रश्न 5.
अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याओं की सूची बनाइये।
उत्तर:
अभिलेखशास्त्रियों की समस्याएँ- अभिलेखशास्त्रियों की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं –
(1) कभी-कभी अक्षरों को हल्के ढंग से उत्कीर्ण किया जाता है, जिन्हें पढ़ पाना कठिन होता है।
(2) अभिलेख नष्ट भी हो सकते हैं, जिससे अक्षर लुत जाते हैं।
(3) अभिलेखों के शब्दों के वास्तविक अर्थ के बारे में पूर्ण रूप से ज्ञान हो पाना भी हमेशा आसान नहीं होता क्योंकि कुछ अर्थ किसी विशेष स्थान या समय से सम्बन्धित होते हैं।
(4) यद्यपि अभिलेख हजारों की संख्या में प्राप्त हुए हैं, परन्तु सभी के न तो अर्थ निकाले जा सके हैं और न ही उनके अनुवाद किए गए हैं।
(5) अनेक अभिलेख और भी रहे होंगे परन्तु अब उनका अस्तित्व नहीं बचा है इसलिए जो अभिलेख अभी उपलब्ध हैं, वे सम्भवतः कुल अभिलेखों के अंश मात्र हैं।
(6) अभिलेखों के सम्बन्ध में एक और मौलिक समस्या भी है। यह आवश्यक नहीं है कि जिसे हम आज राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते हैं, उसे अभिलेखों में ऑकत किया ही गया हो। उदाहरण के लिए, खेती की दैनिक प्रक्रियाएँ और दैनिक जीवन के सुख-दुःख का उल्लेख अभिलेखों में नहीं मिलता, क्योंकि प्रायः अभिलेख बड़े और विशेष अवसरों का वर्णन करते हैं।
(7) अभिलेख सदैव उन्हीं व्यक्तियों के विचार व्यक्त करते हैं, जो उन्हें बनवाते थे। इन अभिलेखों में सामान्य लोगों के विचारों के विषय में जानकारी नहीं मिलती। निम्नलिखित पर एक लघु निबन्ध लिखिए। (लगभग 500 शब्दों में)

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प्रश्न 6.
मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। अशोक के अभिलेखों में इनमें से कौन- कौनसे तत्त्वों के प्रमाण मिलते हैं?
अथवा
मौर्य प्रशासन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षण मौर्य साम्राज्य को भारत का प्रथम विस्तृत तथा स्वतन्त्र साम्राज्य माना जाना है क्योंकि इस साम्राज्य का अपना व्यवस्थित प्रशासन तथा नियमावली थी। इसी के आधार पर मौर्य साम्राज्य एक महान् साम्राज्य का स्वरूप धारण कर पाया। मौर्य प्रशासन में तत्कालीन समय में अनेक विशेषताएँ विद्यमान थीं। मेगस्थनीज के विवरण, कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा अशोक के अभिलेखों से हमें मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की व्यापक जानकारी प्राप्त होती है।

मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षण निम्नलिखित थे –
(1) पाँच प्रमुख राजनीतिक केन्द्र- मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केन्द्र थे राजधानी पाटलिपुत्र तथा चार प्रान्तीय केन्द्र – तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि और सुवर्णगिरि। इनमें से मौर्य साम्राज्य का सबसे बड़ा केन्द्र पाटलिपुत्र था; जो मौर्य साम्राज्य की राजधानी था। शेष प्रान्तीय केन्द्र थे। इन राजनीतिक केन्द्रों का उल्लेख अशोक के अभिलेखों में मिलता है।

(2) असमान प्रशासनिक व्यवस्था इतिहासकारों के अनुसार मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था समान नहीं थी। मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित क्षेत्र एक जैसे नहीं थे। ये क्षेत्र बड़े विविध और भिन्न-भिन्न प्रकार के थे-कहाँ अफगानिस्तान के पहाड़ी क्षेत्र और कहाँ उड़ीसा के तटवर्ती क्षेत्र। परन्तु यह सम्भव है कि मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र तथा उसके आस-पास के प्रान्तीय केन्द्रों पर सबसे प्रबल प्रशासनिक नियन्त्रण रहा हो।

(3) प्रशासनिक केन्द्रों का चयन प्रान्तीय केन्द्रों का चयन बड़े ध्यान से किया गया था। तक्षशिला तथा उज्जयिनी दोनों लम्बी दूरी वाले महत्त्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग पर स्थित थे। कर्नाटक में स्थित सुवर्णगिरि (अर्थात् सोने के पहाड़) सोने की खदान के लिए उपयोगी था।

(4) आवागमन को बनाए रखना साम्राज्य में संचालन के लिए स्थल और जल दोनों मार्गों से आवागमन बनाए रखना अत्यन्त आवश्यक था। राजधानी पाटलिपुत्र से प्रान्तों तक जाने में कई सप्ताह या महीनों का समय लग जाता था। इस बात को ध्यान में रखते हुए यात्रियों के लिए खान-पान और उनकी सुरक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती होगी।

(5) सेना का प्रबन्ध-मौर्य सम्राटों ने एक विशाल सेना का गठन किया था यूनानी इतिहासकारों के अनुसार मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के पास छः लाख पैदल सैनिक, तीस हजार घुड़सवार तथा नौ हजार हाथी थे कुछ इतिहासकार इस विवरण को अतिशयोक्तिपूर्ण मानते हैं। मेगस्थनीज ने सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए एक समिति तथा उपसमितियों का उल्लेख किया है।

इन उपसमितियों के कार्य निम्नलिखित थे-

  • पहली उपसमिति नौसेना का संचालन करती थी।
  • दूसरी उपसमिति यातायात एवं खान-पान का संचालन करती थी।
  • तीसरी उपसमिति का काम पैदल सैनिकों का संचालन करना था।
  • चौथी उपसमिति अश्वारोहियों का संचालन करती
  • पाँचवीं उपसमिति रथारोहियों का संचालन करती
  • छठी उपसमिति का काम हाथियों का संचालन करना था।

दूसरी उपसमिति विविध प्रकार के काम करती थी, जैसे उपकरणों के ढोने के लिए बैलगाड़ियों की व्यवस्था करना, सैनिकों के लिए भोजन और जानवरों के लिए चारे की व्यवस्था करना तथा सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों और शिल्पकारों की नियुक्ति करना।

(6) धम्म महामात्रों की नियुक्ति-अशोक ने अपने साम्राज्य को अखण्ड बनाये रखने का प्रयास किया। ऐसा उन्होंने धम्म के प्रचार के द्वारा भी किया। धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्र नामक विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गई।

(7) पतिवेदकों की नियुक्ति – अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि लोगों के समाचार जानने के लिए अशोक ने ‘पतिवेदक’ नामक अधिकारी नियुक्त किए थे। अपने एक अभिलेख में अशोक कहते हैं, “लोगों के समाचार हम तक पतिवेदक सदैव पहुँचाएँ। चाहे में कहीं भी खाना खा रहा हूँ, अन्तःपुर में हूँ, या फिर पालकी में मुझे ले जाया जा रहा हो, अथवा वाटिका में हैं। मैं लोगों के विषयों का निराकरण हर स्थल पर करूंगा।” अर्थात् ये प्रतिवेदक समाचार पहुँचाने के लिए कहीं भी कभी भी सम्राट् तक सीधे पहुँच सकते थे।

प्रश्न 7.
यह बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री डी.सी. सरकार का वक्तव्य है : “भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है, जिसका प्रतिबिम्ब अभिलेखों में नहीं है” : चर्चा कीजिए।
अथवा
इतिहास लेखन में अभिलेखों के महत्त्व पर निबन्ध लिखिए।
उत्तर:
अभिलेखों द्वारा भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों के बारे में जानकारी बीसवीं शताब्दी के सुविख्यात अभिलेखशास्वी डी.सी. सरकार ने ठीक ही कहा है कि “भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसका प्रतिबिम्ब अभिलेखों में नहीं है।” भारतीयों के जीवन, संस्कृति तथा गतिविधियों के बारे में अभिलेखों से निम्नलिखित जानकारी मिलती है –
(1) राज्यों की सीमाओं की जानकारी-अभिलेखों से विभिन्न शासकों के राज्यों की सीमाओं की जानकारी मिलती है। अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केन्द्र थे –

  • राजधानी पाटलिपुत्र
  • तक्षशिला (प्रान्तीय केन्द्र)
  • उज्जयिनी (प्रान्तीय केन्द्र)
    तोसलि (प्रान्तीय केन्द्र)
  • सुवर्णगिरि (प्रान्तीय केन्द्र)।

(2) शासकों के नाम, उपाधियाँ, वंशावली की जानकारी – अभिलेखों से हमें शासकों के नाम, उपाधियों तथा वंशावली के बारे में जानकारी मिलती है। अशोक के अभिलेखों में अशोक के लिए ‘देवानामप्रिय’ तथा ‘पियदस्सी’ (प्रियदर्शी) आदि नामों का भी प्रयोग किया गया है। इस प्रकार अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अशोक ‘देवानामप्रिय’ तथा ‘पियदस्सी’ के नामों से भी पुकारे जाते थे।

(3) काल निर्धारण- कई अभिलेखों में इनके निर्माण की तिथि भी उत्कीर्ण होती है। जिन अभिलेखों पर तिथि नहीं मिलती है, उनका काल-निर्धारण प्रायः पुरालिपि अथवा लेखन शैली के आधार पर किया जा सकता है।

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(4) भाषाओं और लिपियों के बारे में जानकारी- प्राचीनतम अभिलेख प्राकृत भाषाओं में लिखे जाते थे। प्राकृत भाषा जनसाधारण की भाषा होती थी। अनेक अभिलेख संस्कृत, पालि, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओं में भी मिलते हैं। इनसे तत्कालीन साहित्यिक प्रगति के बारे में जानकारी मिलती है। अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए हैं। पश्चिमोत्तर के कुछ अभिलेखों में खरोष्ठी लिपि प्रयुक्त की गई है। इस प्रकार मौर्य काल में प्रचलित लिपियों के बारे में जानकारी मिलती है।

(5) राज्य तथा किसानों के बीच सम्बन्ध की जानकारी प्राचीन भारत में भूमिदान अभिलेखों के प्रमाण मिलते हैं। भूमिदान प्रायः धार्मिक संस्थाओं या ब्राह्मणों को दिए जाते थे। इन अभिलेखों से ग्रामीण प्रजा के बारे में भी जानकारी मिलती है। भूमिदान के प्रचलन से राज्य तथा किसानों के बीच सम्बन्धों की जानकारी मिलती है।

(6) प्रशासन सम्बन्धी जानकारी- अशोक के अभिलेखों से मौर्य साम्राज्य के प्रमुख प्रशासनिक अधिकारियों के बारे में जानकारी मिलती है। सम्राट अशोक ने धम्म महामात्र, अन्त: महामात्र स्त्री अध्यक्ष महामात्र, पतिवेदक आदि अनेक अधिकारी नियुक्त किए थे।

(7) समकालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति की जानकारी – अभिलेखों से समकालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जानकारी मिलती है।

(8) ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी प्रयाग प्रशस्ति’ से समुद्रगुप्त की विजयों, उपलब्धियों के बारे में जानकारी मिलती है। अशोक के शिलालेखों से उसकी कलिंग की विजय के बारे में पता चलता है।

(9) शासकों के चरित्र तथा व्यक्तित्व-अभिलेखों से हमें तत्कालीन शासकों के चरित्र तथा व्यक्तित्व के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है ‘प्रयाग प्रशस्ति’ से समुद्रगुप्त की चारित्रिक विशेषताओं, ‘जूनागढ़ अभिलेख’ से शक शासक रुद्रदामन के चरित्र एवं व्यक्तित्व के बारे में जानकारी मिलती है।

(10) सामाजिक वर्गों की जानकारी हमें दानात्मक अभिलेखों से नगरों में रहने वाले बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहकार, अधिकारी, धार्मिक गुरु, व्यापारी आदि के बारे में जानकारी मिलती है।

(11) कला के स्तर की जानकारी अभिलेखों से तत्कालीन कला की उत्कृष्टता का बोध होता है।

(12) धार्मिक स्थिति की जानकारी- अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि उसने धम्म के प्रचार- प्रसार के लिए अनेक उपाय किये थे उसके अभिलेखों में उसके बौद्ध धर्मावलम्बी होने का पता चलता है। अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि उसने बाराबर की पहाड़ियों में आजीविक सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए तीन गुफाएँ दान में दी थीं। इससे अशोक की धर्म- सहिष्णुता का बोध होता है।

प्रश्न 8.
उत्तर – मौर्यकाल में विकसित राजत्व के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
उत्तर- मौर्यकाल में विकसित राजत्व के विचार –
उत्तर- भारतीय प्रारम्भ से ही अधिक धार्मिक प्रवृत्ति के रहे हैं, वे अपने जीवन की लगभग प्रत्येक स्थिति, परिस्थिति को धर्म के साथ जोड़कर देखते हैं इस तथ्य का लाभ मौर्यों के पतन के उपरान्त भारत आयी अनेक आक्रमणकारी जातियों ने उठाया। इन आक्रमणकारियों को तत्कालीन ब्राह्मणवादी वैदिक व्यवस्था के चतुर्वर्ण में कोई स्थान प्राप्त नहीं हो पा रहा था; उदाहरण के लिए एक स्थान पर यवनों को म्लेच्छ कहा गया है।

अतः इन आक्रमणकारियों को ब्राह्मणवादी चतुर्वर्ण व्यवस्था में स्थान प्राप्त करने हेतु, भारतीयों का विश्वास जीतने हेतु स्वयं को भारतीय दिखाने हेतु तथा भारत में अपना स्थायी साम्राज्य स्थापित करने के लिए स्वयं को दैवीय सिद्ध करना आवश्यक था। यह कार्य उन्होंने अपने सिक्कों, अभिलेख लेख, साहित्य तथा विभिन्न उपाधियों के माध्यम से सम्पादित किया। उत्तर-मौर्यकाल में विकसित राजत्व के विचारों का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है –

(1) दैविक राजा:
उत्तर- मौर्यकालीन राजाओं के लिए उच्च स्थिति प्राप्त करने का एक साधन विभिन्न देवी- देवताओं के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करना था। मध्य एशिया से लेकर पश्चिमोत्तर भारत तक शासन करने वाले कुषाण शासकों ने (लगभग प्रथम शताब्दी ई. पूर्व से प्रथम शताब्दी ई. तक) अपने आपको दैविक राजाओं के रूप में प्रस्तुत किया। जिस प्रकार के राजधर्म (राजत्व के सिद्धान्त) को कुषाण शासकों ने प्रस्तुत करने का प्रयास किया, उसका सर्वश्रेष्ठ प्रमाण उनके सिक्कों और मूर्तियों से प्राप्त होता है।

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(2) कुषाण शासकों का राजत्व का विचार:
(i) उत्तर- प्रदेश में मथुरा के निकट माट के एक देवस्थान पर कुषाण शासकों की विशालकाय मूर्तियाँ लगाई गई थीं। अफगानिस्तान के एक देवस्थान पर भी इसी प्रकार की मूर्तियाँ मिली हैं। कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि इन मूर्तियों के द्वारा कुषाण शासक स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे। कई कुषाण शासकों ने अपने नाम के आगे ‘देवपुत्र’ की उपाधि भी धारण की थी। सम्भवतः वे उन चीनी सम्राटों से प्रेरित हुए होंगे, जो स्वयं को ‘स्वर्गपुत्र’ कहते थे।

(ii) एक कुषाण सिक्के में कुषाण सम्राट कनिष्क को देव तुल्य प्रदर्शित किया गया है। इस सिक्के के अग्र भाग प्रकार लोहे के प्रचलन ने द्वितीय नगरीकरण, महाजनपदों के निर्माण तथा विशाल मगध साम्राज्य की स्थापना में अपना प्रत्यक्ष योगदान दिया।

(2) हल का प्रचलनकरों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए किसान उपज बढ़ाने के उपाय ढूंढ़ने लगे। उपज बढ़ाने का एक तरीका हल का प्रचलन था। हल का प्रयोग छठी शताब्दी ई. पूर्व से ही गंगा और कावेरी नदी की घाटियों के उपजाऊ कछारी क्षेत्र में होने लगा था। भारी वर्षा होने वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हलों के द्वारा उर्वर भूमि की जुताई की जाने लगी। इसके अतिरिक्त गंगा की घाटी में धान की रोपाई की जाती थी जिससे उपज में भारी वृद्धि होने लगी परन्तु धान की रोपाई के लिए किसानों को कठोर परिश्रम करना पड़ता था।

(3) लोहे के फाल वाले हलों का सीमित उपयोग- यद्यपि लोहे के फाल वाले हलों का उपयोग करने से फसलों की उपज बढ़ गई, परन्तु ऐसे हलों का उपयोग उपमहाद्वीप के केवल कुछ ही भागों तक सीमित था। पंजाब तथा राजस्थान के अर्धशुष्क इलाकों में लोहे के फाल वाले हल का प्रयोग बीसवीं सदी में शुरू हुआ।

(4) कुदाल का उपयोग उपमहाद्वीप के पूर्वोत्तर तथा मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले किसान खेती के लिए कुदाल का उपयोग करते थे कुदाल का उपयोग इस प्रकार के इलाकों के लिए कहीं अधिक उपयोगी था।

(5) कुओं, तालाबों तथा नहरों से सिंचाई करना- उपज बढ़ाने का एक और तरीका कुओं, तालाबों तथा कहीं- कहीं नहरों से सिंचाई करना था। व्यक्तिगत लोगों तथा कृषक समुदायों ने मिलकर सिंचाई के साधनों के विकास में योगदान दिया। व्यक्तिगत रूप से तालाबों, कुओं और नहरों आदि सिंचाई के साधनों को विकसित करने वाले लोग प्राय: राजा या प्रभावशाली लोग थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के सौराष्ट्र के गवर्नर पुष्यगुप्त ने सौराष्ट्र में सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था।

(6) कृषि के नवीन तौर-तरीकों के प्रभाव-कृषि के नवीन तौर-तरीकों के निम्नलिखित प्रभाव हुए –

(i) खेती से जुड़े लोगों में भेद बढ़ना – इससे यद्यपि खेतों की इन नयी तकनीकों से उपज तो बढ़ी, परन्तु खेती से जुड़े लोगों में भेद बढ़ने लगे। बौद्ध कथाओं में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों, छोटे किसानों तथा बड़े-बड़े जमींदारों का उल्लेख मिलता है। पालि भाषा में गहपति का उल्लेख मिलता है जिसका प्रयोग छोटे किसानों तथा जमींदारों के लिए किया जाता था।
(ii) बड़े-बड़े जमींदारों तथा ग्राम प्रधानों का प्रभुत्व- बड़े-बड़े जमींदार और ग्राम प्रधान शक्तिशाली माने जाते थे जो प्रायः किसानों पर नियन्त्रण रखते थे। ग्राम प्रधान का पद प्रायः वंशानुगत होता था। प्रारम्भिक तमिल संगम साहित्य में गाँवों के रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है, जैसे कि बेल्लालर या बड़े जमींदार, हलवाहा या उल्चर और दास अणिमई। यह प्रतीत होता है कि वर्गों की यह विभिन्नता भूमि के स्वामित्व, श्रम और नई प्रौद्योगिकी के उपयोग पर आधारित होगी। ऐसी परिस्थिति में भूमि का स्वामित्व महत्वपूर्ण हो गया था।

 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ JAC Class 12 History Notes

→ उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में विकास- हड़प्पा सभ्यता के पश्चात् 1500 वर्षों के दौरान उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में कई प्रकार के विकास हुए। इस अवधि में ऋग्वेद की रचना हुई उत्तर भारत, दक्कन पठार क्षेत्र, कर्नाटक आदि में कृषक बस्तियाँ बसीं। इस युग में शवों के अन्तिम संस्कार के नये तरीके सामने आए।

→ नये परिवर्तन – ईसा पूर्व छठी शताब्दी से नए परिवर्तनों के प्रमाण मिलते हैं। इस युग में आरम्भिक राज्यों, साम्राज्यों और रजवाड़ों का विकास हुआ। सम्पूर्ण महाद्वीप में नये नगरों का उदय हुआ ।

→ विकास की जानकारी अभिलेखों, ग्रन्थों, सिक्कों तथा चित्रों से इस युग मेँ हुए विकास की जानकारी मिलती है।

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→ प्रिंसेप और पियदस्सी 1830 के दशक में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी | तथा खरोष्ठी लिपियों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की। अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर पियदस्सी नामक राजा का नाम लिखा था। कुछ अभिलेखों पर अशोक भी लिखा था।

→ अभिलेख – अभिलेख उन्हें कहते हैं जो पत्थर, धातु या मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर खुदे होते हैं। इन अभिलेखों में उन लोगों की उपलब्धियों का उल्लेख होता है जो उन्हें बनवाते हैं।

→ जनपद – जनपद का अभिप्राय उस भूखण्ड से है, जहाँ कोई जन. (लोग, कुल या जनजाति) अपना पाँव रखता है अथवा बस जाता है।

→ सोलह महाजनपद – छठी शताब्दी ई. पूर्व में भारत में सोलह महाजनपदों का उदय हुआ। बौद्ध एवं जैन धर्म के ग्रन्थों में सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। वज्जि, मगध, कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार, अवन्ति आदि महत्त्वपूर्ण महाजनपद थे। प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी।

→ मगध महाजनपद : सोलह महाजनपदों में प्रथम छठी से चौथी शताब्दी ई. पूर्व में मगध (आधुनिक बिहार) सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया। इसके शक्तिशाली होने के प्रमुख कारण थे –

  • खेती की उपज का अच्छा होना
  • यहाँ लोहे की खदानों का उपलब्ध होना
  • हाथियों का उपलब्ध होना
  • आवागमन का सस्ता और सुलभ होना
  • विभिन्न शासकों की नीतियाँ।

प्रारम्भ में राजगाह (राजगीर का प्राकृत नाम) मगध की राजधानी थी, बाद में चौथी शताब्दी ई. पूर्व में पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया गया।

→ मौर्य साम्राज्य का उदय-मगध के साम्राज्य का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य था। उसने 321 ई. पूर्व में मगध साम्राज्य की स्थापना की। उसका साम्राज्य पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और ब्लूचिस्तान तक फैला हुआ था। मौर्य साम्राज्य के इतिहास की जानकारी के लिए यूनानी राजदूत मेगस्थनीज द्वारा लिखा गया विवरण और कौटिल्य कृत ‘अर्थशास्त्र’ बड़े उपयोगी ग्रन्थ हैं।

→ अशोक अशोक को आरम्भिक भारत का सर्वप्रसिद्ध शासक माना जा सकता है। उसने कलिंग पर विजय प्राप्त की। अशोक पहला सम्राट था जिसने अपने अधिकारियों और प्रजा के लिए संदेश पत्थरों एवं स्तम्भों पर लिखवाये। अशोक ने अपने अभिलेखों के माध्यम से ‘धम्म’ का प्रचार किया। धम्म के प्रमुख सिद्धान्त थे—बड़ों के प्रति आदर, संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवकों और दासों के साथ उदार व्यवहार तथा दूसरे के धर्मों और परम्पराओं का आदर।

→ मौर्य साम्राज्य का प्रशासन मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केन्द्र थे राजधानी पाटलिपुत्र तथा चार प्रान्तीय केन्द्र — तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि तथा सुवर्णगिरि मेगस्थनीज ने सैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए एक समिति तथा 6 उपसमितियों का उल्लेख किया है। अशोक ने धम्म के प्रचार के लिए ‘धम्म महामात्त’ नामक अधिकारी नियुक्त किए।

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→ मौर्य साम्राज्य का महत्त्व उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी के इतिहासकारों को मौर्य साम्राज्य चुनौतीपूर्ण तथा उत्साहवर्द्धक लगा। मौर्यकालीन पत्थर की मूर्तियाँ स्तम्भ आदि अद्भुत कला के प्रमाण थे। इतिहासकारों के अनुसार अशोक एक बहुत शक्तिशाली तथा परिश्रमी और विनम्र शासक थे इसलिए बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी नेताओं ने अशोक को प्रेरणा का स्रोत माना

→ मौर्य साम्राज्य की त्रुटियाँ
(1) मौर्य साम्राज्य केवल 150 वर्ष तक ही अस्तित्व में रहा।
(2) मौर्य साम्राज्य उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में नहीं फैल पाया था।

→ दक्षिण के राजा और सरदार-तमिलकम में चोल, चेर और पाण्ड्य जैसी सरदारियों का उदय हुआ। ये राज्य बहुत ही समृद्ध और स्थायी सिद्ध हुए प्राचीन तमिल संगम ग्रन्थों से इन सरदारों के बारे में जानकारी मिलती है। 15. दैविक राजा कुषाण शासकों ने उच्च स्थिति प्राप्त करने के लिए अपने आपको देवी-देवताओं के साथ जुड़ने का प्रयास किया। वे मूर्तियों के द्वारा स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे। कई कुषाण शासक अपने नाम के
आगे ‘देवपुत्र’ की उपाधि लगाते थे।

→ गुप्त साम्राज्य – गुप्त शासकों का इतिहास साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों की सहायता से लिखा गया है। इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख के नाम से प्रसिद्ध ‘प्रयाग प्रशस्ति’ की रचना हरिषेण ने की थी हरिषेण समुद्रगुप्त के राजकवि थे।

→ सुदर्शन झील सुदर्शन झील एक कृत्रिम जलाशय था। इसका निर्माण मौर्य काल में एक स्थानीय राज्यपाल द्वारा किया गया था। इसके बाद शक शासक स्द्रदामन ने इस झील की मरम्मत अपने खर्चे से करवाई थी गुप्तवंश के एक शासक ने एक बार फिर इस झील की मरम्मत करवाई थी।

→ राजा और प्रजा के बीच सम्बन्ध- हमें ‘जातक कथाओं’ तथा ‘पंचतन्त्र’ जैसे ग्रन्थों से राजा और प्रजा के बीच सम्बन्धों की जानकारी मिलती है जातक कथाओं की रचना पहली सहस्राब्दी ई. के मध्य में पालि भाषा में की गई थी। जातक कथाओं से पता चलता है कि राजा और प्रजा, विशेषकर ग्रामीण प्रजा के बीच सम्बन्ध तनावपूर्ण रहते थे। इसके दो प्रमुख कारण थे –
(1) राजा अपने राजकोष को भरने के लिए प्रजा से बड़े-बड़े करों की माँग करते थे।
(2) चोरों और डाकुओं से प्रजा की रक्षा के प्रति शासक लोग उदासीन रहते थे। संकट से बचने के लिए किसान लोग अपने-अपने गाँव छोड़ कर जंगल की ओर भाग जाते थे।

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→ उपज बढ़ाने के उपाय भारी वर्षा होने वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हलों से उर्वर भूमि की जुताई की जाने लगी। गंगा की घाटी में धान रोपने के कारण भी उपज में भारी वृद्धि होने लगी। उपज बढ़ाने का एक और तरीका कुओं, तालाबों तथा नहरों के माध्यम से सिंचाई करना था।

→ ग्रामीण समाज में विभिन्नताएँ खेती से जुड़े लोगों में उत्तरोत्तर भेद बढ़ता जा रहा था। बौद्ध कथाओं में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों, छोटे किसानों और बड़े-बड़े जमींदारों का उल्लेख मिलता है। पालि भाषा में गहपति का प्रयोग छोटे किसानों और जमींदारों के लिए किया जाता था।

→ मनुस्मृति मनुस्मृति आरम्भिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रन्थ है इसकी रचना संस्कृत भाषा में दूसरी शताब्दी ई. पूर्व और दूसरी शताब्दी ई. के मध्य की गई थी।

→ हर्षचरित हर्षचरित संस्कृत में लिखी गई कन्नौज के शासक हर्षवर्धन की जीवनी है। इसके लेखक बाणभट्ट थे जो हर्षवर्धन के राजकवि थे।

→ भूमिदान और नए सम्भ्रान्त ग्रामीण- भूमिदान प्रायः धार्मिक संस्थाओं और ब्राह्मणों को दिए गए थे। भूमिदान सम्भवतः उन लोगों को प्रमाण रूप में दिया जाता था जो भूमिदान लेते थे। प्रभावती गुप्त ने भी भूमिदान किया था। उनका यह उदाहरण एक विरला ही था कुछ इतिहासकारों का मत है कि भूमिदान शासकों द्वारा कृषि को नगर क्षेत्रों में प्रोत्साहित करने की एक रणनीति थी। कुछ इतिहासकारों का मत है कि भूमिदान से दुर्बल होते राजनीतिक प्रभुत्व का संकेत मिलता है। भूमिदान के प्रचलन से राज्य तथा किसानों के बीच सम्बन्धों की जानकारी मिलती है।

→ नगर एवं व्यापार नगरों का विकास छठी शताब्दी ई. पूर्व में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में हुआ। प्रायः सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे थे जैसे पाटलिपुत्र नदी मार्ग के किनारे बसा था तथा उज्जयिनी भूतल मार्ग के किनारे बसा था।

→ पाटलिपुत्र का इतिहास- पाटलिपुत्र का विकास पाटलिग्राम नामक एक गाँव से हुआ। फिर पांचवीं शताब्दी ई. पूर्व में मगध शासकों ने इसे अपनी राजधानी बनाया। चौधी शताब्दी ई. पूर्व में यह मौर्य साम्राज्य की राजधानी और एशिया के सबसे बड़े नगरों में से एक बन गया।

→ नगरीय जनसंख्या – शासक वर्ग और राजा किलेबन्द नगरों में रहते थे। इन स्थलों की खुदाई में उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे और थालियाँ मिली हैं जिन पर चमकदार कलाई चढ़ी है। इन्हें ‘उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र’ कहा जाता है। सम्भवतः इनका उपयोग अमीर लोग करते होंगे। हमें दानात्मक अभिलेखों से नगरों में रहने वाले बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहकार, अधिकारी, व्यापारी आदि के बारे में विवरण लिखे मिलते हैं। उत्पादकों एवं व्यापारियों के संघ ‘ श्रेणी’ कहलाते थे।

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→ उपमहाद्वीप और उसके बाहर का व्यापार छठी शताब्दी ई. पूर्व से ही उपमहाद्वीप में नदी मार्गों और भूमार्गों का जाल बिछ गया था और कई दिशाओं में फैल गया था। नमक, अनाज, कपड़ा, धातु से बनी वस्तुएँ, पत्थर, लकड़ी आदि अनेक वस्तुएँ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाई जाती थीं। रोमन साम्राज्य में काली मिर्च, कपड़ों व जड़ी-बूटियों की भारी माँग थी।

→ सिक्के और राजा-चाँदी और ताँबे के आहत सिक्के सबसे पहले ढाले गए तथा प्रयोग में आए। शासकों की प्रतिमा और नाम के साथ सबसे पहले सिक्के हिन्द-यूनानी शासकों ने जारी किए थे। सोने के सिक्के सबसे पहले प्रथम शताब्दी ईसवी में कुषाण शासकों ने जारी किए थे। दक्षिण भारत के अनेक पुरास्थलों से बड़ी संख्या में रोमन सिक्के मिले हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत व्यापारिक दृष्टि से रोमन साम्राज्य से सम्बन्धित था। गुप्त शासकों के आरम्भिक सिक्कों में प्रयुक्त सोना अतिउत्तम था परन्तु छठी शताब्दी ई. से सोने के सिक्के मिलने कम हो गए। इसका एक कारण तो यह है कि रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दूरवर्ती व्यापार में कमी आई।

→ मुद्राशास्त्रमुद्राशास्त्र सिक्कों का अध्ययन है। इसके साथ ही उन पर पाए जाने वाले चित्रलिपि आदि तथा उनकी धातुओं का विश्लेषण भी ‘मुद्राशास्त्र’ के अन्तर्गत मिलता है।

→ अभिलेखों का अर्थ निकालना ब्राह्मी लिपि का प्रयोग अशोक के अभिलेखों में किया गया है। सबसे पहले जेम्स प्रिंसेप ने अशोककालीन ब्राह्मी लिपि को 1838 ई. में पढ़ने में सफलता प्राप्त की। पश्चिमोत्तर के अभिलेखों में खरोष्ठी लिपि प्रयुक्त हुई है। यूनानी भाषा पढ़ने वाले यूरोपीय विद्वानों ने सिक्कों में खरोष्ठी लिपि में लिखे हुए अक्षरों का मेल किया।

→ अभिलेखों से प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्य-अशोक के एक अभिलेख में उसकी दो उपाधियों का उल्लेख मिलता है –

  • देवानांप्रिय ( देवताओं का प्रिय) तथा
  • पियदस्सी (देखने में सुन्दर )।

अभिलेख साक्ष्य की सीमा-यद्यपि कई हजार अभिलेख प्राप्त हुए हैं लेकिन सभी के अर्थ नहीं निकाले जा सके हैं या प्रकाशित किए गए हैं या उनके अनुवाद किए गए हैं। इनके अतिरिक्त और अनेक अभिलेख रहे होंगे जो कालान्तर में सुरक्षित नहीं बचे हैं।

कालरेखा 1.
प्रमुख राजनीतिक और आर्थिक विकास
लगभग 600-500 ई.पू. धान की रोपाई गंगा घाटी में नगरीकरण महाजनपद आहत सिक्के
लगभग 500-400 ई.पू. मगध के शासकों की सत्ता पर पकड़
लगभग 327-325 ई. पू. सिकन्दर का आक्रमण
लगभग 321 ई.पू. चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण
लगभग 272/268-231 ई.पू. अशोक का शासन
लगभग 185 ई.पू. मौर्य साम्राज्य का अन्त
लगभग 200-100 ई.पू. पश्चिमोत्तर में शक – शासन; दक्षिण भारत में चोल; चेर व पाण्ड्य; दक्कन में सातवाहन
लगभग 100-200 ई. तक पश्चिमोत्तर के शक (मध्य एशिया के लोग) शासक; रोमन व्यापार सोने के सिक्के कनिष्क का राज्यारोहण
लगभग 78 ई. सातवाहन और शक शासकों द्वारा भूमिदान के अभिलेखीय प्रमाण
लगभग 100-200 ई. गुप्त शासन का आरम्भ
लगभग 320 ई. समुद्रगुप्त
लगभग 335-375 ई. चन्द्रगुप्त द्वितीय दक्कन में वाकाटक
लगभग 375-415 ई. कर्नाटक में चालुक्यों का उदय और तमिलनाडु में पल्लवों का उदय कन्नौज के राजा हर्षवर्धन; चीनी यात्री श्वैन त्सांग की यात्रा
लगभग 500-600 ई. अरबों की सिन्ध पर विजय
लगभग 606-647 ई. धान की रोपाई गंगा घाटी में नगरीकरण महाजनपद आहत सिक्के
लगभग 712 ई. मगध के शासकों की सत्ता पर पकड़

 

JAC Class 12 History Solutions Chapter 2 राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ

कालरेखा 2.
अभिलेखशास्त्र के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति

अठारहवीं शताब्दी –
1784 बंगाल एशियाटिक सोसाइटी का गठन
उन्नीसवीं शताब्दी –
1810 का दशक जेम्स प्रिंसेप द्वारा अशोक के ब्राह्मी अभिलेखों का अर्थ लगाना
1838 जेम्स प्रिंसेप द्वारा अशोक के ब्राह्मी अभिलेखों का अर्थ लगाना
1877 अलेक्जेंडर कनिंघम ने अशोक के अभिलेखों के एक अंश को प्रकाशित किया
1886 दक्षिण भारत के अभिलेखों के शोधपत्र ‘एपिग्राफिआ कर्नाटिका’ का प्रथम अंक
1888 ‘एपिग्राफिआ इंडिका’ का प्रथम अंक
बीसवीं शताब्दी – डी.सी. सरकार ने इंडियन एपिग्राफी एंड इंडियन ‘एपिग्राफिकल ग्लोसरी’ प्रकाशित की।
1965-66

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