Jharkhand Board JAC Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 9 साखियाँ एवं सबद Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 9 साखियाँ एवं सबद
JAC Class 9 Hindi साखियाँ एवं सबद Textbook Questions and Answers
साखियाँ –
प्रश्न 1.
‘मानसरोवर’ से कवि का क्या आशय है ?
उत्तर :
‘मानसरोवर’ संतों के द्वारा प्रयुक्त प्रतीकात्मक शब्द है जिसका अर्थ हृदय के रूप में लिया जाता है जो भक्ति भावों से भरा हुआ हो।
प्रश्न 2.
कवि ने सच्चे प्रेमी की क्या कसौटी बताई है ?
उत्तर :
सच्चा प्रेमी संसार की सभी विषय-वासनाओं को समाप्त कर देने की क्षमता रखता है। वह बुराई रूपी विष को अमृत में बदल देता है।
प्रश्न 3.
तीसरे दोहे में कवि ने किस प्रकार के ज्ञान को महत्त्व दिया है?
उत्तर:
कबीर की दृष्टि में ऐसा ज्ञान अति महत्त्वपूर्ण है जो हाथी के समान समर्थ और शक्तिमान है। जो भक्ति मार्ग की ओर प्रवृत्त होकर भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ता है; जीवात्मा को परमात्मा की प्राप्ति कराता है और राह में व्यर्थ की आलोचना करने वालों की जरा भी परवाह नहीं करता।
प्रश्न 4.
इस संसार में सच्चा संत कौन कहलाता है ?
उत्तर :
इस संसार में सच्चा संत वही है जो पक्ष-विपक्ष के विवाद में पड़े बिना सबको एकसमान समझता है; वह लड़ाई-झगड़े से दूर रहकर ईश्वर की भक्ति में अपना ध्यान लगाता है और दुनियादारी के झूठे झगड़ों में कभी नहीं बढ़ता।
प्रश्न 5.
अंतिम दो दोहों के माध्यम से कबीर ने किस प्रकार की संकीर्णताओं की ओर संकेत किया है ?
उत्तर :
मनुष्य ईश्वर को पाना चाहता है पर वह सच्चे और पवित्र मन से ऐसा नहीं करना चाहता। वह दूसरों के बहकावे में आकर आडंबरों के जंजाल को स्वीकार कर लेता है तथा धर्म के अलग-अलग आधार बना लेता है। हिंदू काशी से तो मुसलमान काबा से जुड़कर ब्रह्म को पाना चाहते हैं। वे उस ब्रह्म को भिन्न-भिन्न नामों से पुकारकर स्वयं को दूसरों से अलग कर लेते हैं। वे भूल जाते हैं कि ब्रहम एक ही है। जिस प्रकार मोटे आटे से मैदा बनता है पर लोग उन दोनों को अलग मानने लगते हैं। उसी प्रकार मनुष्य अलग-अलग धर्म स्वीकार कर परमात्मा के स्वरूप को भी भिन्न-भिन्न मानने लगते हैं। जन्म से कोई छोटा-बड़ा, अच्छा-बुरा नहीं होता। हर व्यक्ति अपने कर्मों से जाना-पहचाना जाता है और उसी के अनुसार फल प्राप्त करता है, समाज में अपना नाम बनाता है। किसी ऊँचे वंश में उत्पन्न हुआ व्यक्ति यदि बुरे कर्म करे तो वह ऊँचा नहीं कहलाता। नीच कर्म करने वाला नीच ही कहलाता है।
प्रश्न 6.
किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके कुल से होती है या उसके कर्मों से ? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर :
किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके कर्मों से होती है न कि उसके कुल से। ऊँचे कुल में उत्पन्न होनेवाला व्यक्ति यदि नीच कर्म करता है तो उसे ऊँचा नहीं माना जा सकता। वह नीच ही कहलाता है। सोने के बने कलश में यदि शराब भरी हो तो भी उसकी निंदा ही की जाती है। सज्जन उसकी प्रशंसा नहीं करते। व्यक्ति अपने कर्मों से ऊँचा बनता है। किसी भी कुल में जनमा व्यक्ति यदि पवित्र कर्म तथा सत्कर्म करता है तो वह ऊँचा व महान बनता है।
प्रश्न 7.
काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –
उत्तर :
हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज- दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि ॥
देखिए साखी संख्या तीन के साथ दिया गया सराहना संबंधी प्रश्न ‘घ’।
सबद –
प्रश्न 8.
मनुष्य ईश्वर को कहाँ-कहाँ ढूँढ़ता फिरता है ?
उत्तर
मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उसे मंदिर-मस्जिद में ढूँढ़ता है। वह उसे काबा में ढूँढ़ता है, कैलाश पर्वत पर ढूँढ़ता है, वह उसे क्रिया-कर्म में ढूँढ़ता है, योग-साधनाओं में पाना चाहता है। वह उसे वैराग्य मार्ग पर चलकर पाना चाहता है।
प्रश्न 9.
कबीर ने ईश्वर-प्राप्ति के लिए किन प्रचलित विश्वासों का खंडन किया है ?
उत्तर :
कबीर ने ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन प्रचलित विश्वासों का खंडन किया है जो समाज में युगों से प्रचलित हैं। विभिन्न धर्मों को मानने वाले अपने-अपने ढंग से धार्मिक स्थलों पर पूजा-अर्चना करते हैं। हिंदू मंदिरों में जाते हैं तो मुसलमान मस्जिदों में। कोई ब्रह्म की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के क्रिया-कर्म करता है तो कोई योग-साधना करता है। कोई वैराग्य को अपना लेता है पर इससे उसकी प्राप्ति नहीं होती। कबीर का मानना है कि ईश्वर हर प्राणी में स्वयं बसता है। इसलिए उसे कहीं बाहर ढूँढ़ने का प्रयत्न पूरी तरह व्यर्थ है।
प्रश्न 10.
कबीर ने ईश्वर को ‘सब स्वाँसों की स्वाँस में’ क्यों कहा है?
उत्तर :
ईश्वर हर प्राणी में है, वह कहीं भी बाहर नहीं है। वह तो उनकी स्वाँसों की साँस में है। जब तक जीव की साँस चलती है तब तक वह जीवित है, प्राणवान है और सभी प्राणियों में ब्रह्म का वास है। इसीलिए कबीर ने ईश्वर को ‘सब स्वाँसों की स्वाँस में’ कहा है।
प्रश्न 11.
कबीर ने ज्ञान के आगमन की तुलना सामान्य हवा से न कर आँधी से क्यों की ?
उत्तर :
सामान्य हवा जीवन के लिए उपयोगी है। वह जीवन का आधार है पर उसमें इतनी क्षमता नहीं होती कि दृढ़ता से बनी किसी छप्पर की छत को उड़ा सके, उसे नष्ट-भ्रष्ट कर सके। कबीर ने ज्ञान के आगमन की तुलना आँधी से की है ताकि उससे भ्रम रूपी छप्पर उड़ जाए। माया उसे सदा के लिए बाँधकर न रख सके। ज्ञान के द्वारा ही मन की दुविधा मिटती है, कुबुद्धि का घड़ा फूटता है।
प्रश्न 12.
ज्ञान की आँधी का भक्त के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर :
ज्ञान की आँधी से भक्त के जीवन के भ्रम दूर हो जाते हैं। माया उसे बाँधकर नहीं रख सकती। उसके मन की दुविधा मिट जाती है। वह मोह-माया के बंधनों से छूट जाता है। अज्ञान और विषय-वासनाएँ मिट जाती हैं, उनका जीवन में कोई स्थान नहीं रह जाता। शरीर कपट से रहित हो जाता है। ईश्वर के प्रेम और अनुग्रह की वर्षा होने लगती है। ज्ञान रूपी सूर्य के उदय हो जाने से अज्ञान का अंधकार क्षीण हो जाता है। परमात्मा की भक्ति का सब तरफ उजाला फैल जाता है।
प्रश्न 13.
भाव स्पष्ट कीजिए –
(क) हिति चित्त की द्वै यूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा
(ख) आँधी पीछे जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
उत्तर :
(क) जब ज्ञान रूपी आँधी बहने लगती है तब माया के द्वारा जीव को बहुत देर तक बाँधकर नहीं रखा जा सकता। इससे मन के दुविधा रूपी दोनों खंभे गिर जाते हैं जिन पर भ्रम रूपी छप्पर टिकता है। छप्पर का आधारभूत मोह रूपी खंभा टूट गया जिस कारण तृष्णा रूपी छप्पर भूमि पर गिर गया।
(ख) ज्ञान की आँधी के बाद भगवान के प्रेम और अनुग्रह की जो वर्षा हुई उससे भक्त पूरी तरह प्रभु-प्रेम के रस में भीग गए। उनका अज्ञान पूरी तरह मिट गया।
रचना और अभिव्यक्ति –
प्रश्न 14.
संकलित साखियों और पदों के आधार पर कबीर के धार्मिक और सांप्रदायिक सद्भाव संबंधी विचारों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
कबीर निर्गुण काव्य-धारा के संत थे। जिन्होंने बड़े स्पष्ट रूप से अपने विचारों को प्रकट किया था। संकलित साखियों और पदों के आधार पर उनके धार्मिक और सांप्रदायिक भेद-भाव संबंधी विचार प्रकट किए जा सकते हैं। उन्होंने प्रेम के महत्त्व, संत के लक्षण, ज्ञान की महिमा, बाह्याडंबरों का विरोध आदि का वर्णन अपनी साखियों तथा पदों में किया है। वे मानते हैं कि जब हृदय में भक्ति- भाव पूर्ण रूप से भरे होते हैं तब हंस रूपी आत्माएँ कहीं भी और नहीं जाना चाहतीं बल्कि वहीं से मुक्ति रूपी मोतियों को चुनना चाहती हैं।
जब भक्त परस्पर मिल जाते हैं तो प्रभु भक्ति परिपक्व हो जाती है, तब उन्हें मायात्मक संसार के प्रति कोई रुचि नहीं रह जाती है। तब संसार की सभी विषय-वासनाएँ मिट जाती हैं। मानव को ज्ञान रूपी हाथी पर सवार होकर भक्ति मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ते जाना चाहिए। उसे आलोचना करनेवालों की कदापि परवाह नहीं करनी चाहिए। संत जन कभी पक्ष-विपक्ष के विवाद में नहीं पड़ते। जो व्यक्ति निरपेक्ष होकर ईश्वर के नाम में लीन हो जाते हैं वही चतुर ज्ञानी होते हैं। हिंदू और मुसलमान ईश्वर के वास्तविक सत्य को समझे बिना एक-दूसरे के प्रति दुराग्रह करते हैं।
मनुष्य को इनसे दूर रहकर सार्वभौम सत्य को समझना चाहिए। परमात्मा शाश्वत सत्य है। उसमें कोई भेद नहीं पर अलग-अलग धर्मों को माननेवाले परमात्मा के स्वरूप में भी भेद करते हैं। इस संसार में व्यक्ति अपनी करनी से बड़ा बनता है न कि अपने ऊँचे परिवार से। ऊँचे परिवार में उत्पन्न सदा ऊँचा नहीं होता। मानव परमात्मा को प्राप्त करने के लिए तरह- तरह के रास्ते अपनाते हैं। वे बाह्याडंबरों को अपनाते हैं पर इससे परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। परमात्मा न तो मंदिर में बसता है और न ही मस्जिद में।
वह क्रिया-कर्मों, योग-साधना और वैराग्य से भी प्राप्त नहीं होता। वह तो हर प्राणी में है। यदि उसे प्राप्त करने की भावना हो तो वह मन की पवित्रता से पाया जा सकता है। जब हृदय में ज्ञान रूपी आँधी चलने लगती है तो सभी प्रकार के भ्रम दूर हो जाते हैं। और माया जीव को बाँधकर नहीं रख पाती। दुविधाएँ समाप्त हो जाती हैं। जब परमात्मा के प्रेम की वर्षा होती है तो भक्त उसमें पूरी तरह से भीग जाते हैं। ज्ञान का सूर्य उदित हो जाने पर अज्ञान का अंधकार मिट जाता है और परमात्मा की भक्ति का सर्वत्र उजाला हो जाता है।
भाषा-अध्ययन –
प्रश्न 15.
निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए –
पखापखी, अनत, जोग, जुगति, बैराग, निरपख।
उत्तर :
- घखापखी – पक्ष-विप
- अनत – अन्यत्र
- जोग – योग
- चुताति – युक्ति
- बैराग – वैराग्य
- निरपख – निरपेक्ष
JAC Class 9 Hindi साखियाँ एवं सबद Important Questions and Answers
प्रश्न 1.
साखी का क्या अर्थ है ? कबीर के दोहे साखी क्यों कहलाते हैं ?
उत्तर :
साखी’ शब्द ‘साक्षी’ का तद्भव रूप है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-आँखों से देखा गवाह या गवाही। कबीर अशिक्षित थे, जिसे उन्होंने ‘मसि कागद छुऔ नहिं, कलम गहि नहिं हाथ’ कहकर स्वयं स्वीकार किया है। उन्होंने अपने परिवेश में जो कुछ घटित हुआ उसे स्वयं अपनी आँखों से देखा और उसे अपने ढंग से व्यक्त किया। इसे साक्षात्कार का नाम भी दिया जा सकता है। स्वयं कबीर के शब्दों में ‘साखी आँखी ज्ञान की’, ‘कबीर के दोहे साखी इसलिए कहलाते हैं क्योंकि इनमें कबीर की कल्पना मात्र का उल्लेख नहीं है बल्कि केवल दो-दो पंक्तियों में जीवन का सार व्यंजित किया गया है। उनका साखियों में व्यंजित ज्ञान ‘पोथी पंखा’ नहीं है प्रत्युत’ आँखों देखा’ है। यह भी माना जाता है कि इनकी साखियों का सीधा संबंध गुरु के उपदेशों से है। कबीर ग्रंथावली में साखियों को अनेक उपभोगों में बाँटा गया है।
प्रश्न 2.
पद के लिए ‘सबद’ शब्द का प्रयोग कबीर की वाणी में किन अर्थों में हुआ है ? कबीर के पदों में किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
कंबीर के ‘बीजक’ में सबद भाग पदों में कहा गया है। ये सभी गेयता के गुणों से संपन्न हैं और इनकी रचना विभिन्न राग-रागिनियों के आधार पर हुई है। इनमें कबीर के दर्शन – चिंतन का विस्तृत अंकन हुआ है। ‘सबद’ का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है- एक तो पद के रूप में और दूसरा परम तत्व के अर्थ में।
पदों के द्वारा कबीर के दृष्टिकोण बड़े सुंदर ढंग से व्यंजित हुए हैं। इनमें उन्होंने आत्मा के ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु के प्रति श्रद्धा को आवश्यक बतलाया है क्योंकि – ‘ श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्।’ इन्होंने पदों में माया संबंधी विचारों को गंभीरतापूर्वक व्यक्त किया है और गुरु को गोविंद से भी बड़ा माना है। पदों में ब्रह्म संबंधी विचारों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। पदों में कबीर ने रहस्यवाद के प्रकाशन के साथ-साथ तत्कालीन समाज की झलक भी प्रस्तुत की गई है।
प्रश्न 3.
कबीर की भाषा पर प्रकाश डालिए।
उत्तर :
कबीर अशिक्षित थे-ऐसा उन्होंने स्वयं ‘मसि कागद छुऔ नहिं’ कहकर स्वीकार किया है। संभवतः इसीलिए उन्होंने किसी परिनिष्ठित भाषा का प्रयोग अपनी काव्य-रचना के लिए नहीं किया। उन्होंने कई भाषाओं के शब्दों को अपने काव्य में व्यवहृत किया, जिस कारण उनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ अथवा ‘खिचड़ी’ कहा जाता है।
कबीर की भाषा के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। कबीर ने स्वयं अपनी भाषा के विषय में कहा है –
बोली हमारी पूरब की, हमें लखै नहिं कोय।
हमको तो सोई लखे, धुर पूरब का होय ॥
भाषा का निर्णय प्रायः शब्दों के आधार पर नहीं किया जाता। इसका आधार क्रियापद संयोजक शब्द तथा कारक-चिह्न हैं, जो वाक्य विन्यास के लिए आवश्यक होते हैं। कबीर की भाषा में केवल शब्द ही नहीं, क्रियापद, कारक आदि भी अनेक भाषाओं के मिलते हैं, इनके क्रियापद प्राय: ब्रजभाषा और खड़ी बोली के हैं; कारक-चिह्न अवधी, ब्रज और राजस्थानी के हैं। वास्तव में उनकी भाषा भावों के अनुसार बदलती दिखाई देती है।
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया।” परंतु डॉ० रामकुमार वर्मा को इनकी भाषा में कोई विशेषता दिखाई नहीं देती। उनके अनुसार, “कबीर की भाषा बहुत अपरिष्कृत है, उसमें कोई विशेष सौंदर्य नहीं है।”
भाषा में भाव उत्पन्न करनेवाली अन्य शक्तियों में शब्द, अलंकार, छंद, गुण, मुहावरे, लोकोक्ति आदि प्रमुख हैं। कबीर की भाषा में वही स्वर व्यंजन प्रयुक्त हुए हैं जो आदि भारतीय आर्य भाषा से चले आए हैं। इन्होंने तत्सम शब्दों का पर्याप्त प्रयोग किया पर तद्भव शब्दों का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक किया है। क्योंकि ये साहित्य के नहीं, जनसाधारण के कवि थे। इनके श्रोता साधारण वर्ग के थे। कबीर घुमक्कड़ प्रकृति के थे। अतः इन्होंने देशज शब्दों का काफ़ी प्रयोग किया है। पंजाबी और राजस्थानी के बहुत अधिक शब्दों को इन्होंने प्रयोग किया। साथ ही सामाजिक परिस्थितियों के कारण अरबी और फ़ारसी के बहुत-से शब्दों का प्रयोग किया।
प्रश्न 4.
कबीर की दृष्टि में ‘मानसरोवर’ और ‘सुभर जल’ का क्या अर्थ है ?
उत्तर :
कबीर जी के अनुसार ‘मानसरोवर’ से अभिप्राय है कि किस भक्त का मन है जो भक्ति रूपी जल से पूरी तरह भरा हुआ है। ‘सुभर जल’ से अभिप्राय यह है कि भक्त का मन भक्ति के भावों से परिपूर्ण रूप से भर चुका है। वहाँ अब और किसी प्रकार के भावों की कोई जगह नहीं है अर्थात भक्ति के भावों से घिरे व्यक्ति के लिए सांसारिक विषय वासनाएँ कोई स्थान नहीं रखती हैं।
प्रश्न 5.
‘मुकुताफल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं ॥”
उपरोक्त व्यक्ति में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
उत्तर :
यह पंक्ति कबीर द्वारा रचित है। इसमें दोहा छंद है। जिसमें स्वरमैत्री का सहज प्रयोग है इसी कारण लयात्मकता की सृष्टि हुई है। अनुप्रास और रूपक का सहज स्वाभाविक प्रयोग सराहनीय है। लक्षणा शब्द-शक्ति के प्रयोग ने कवि के कथन को गंभीरता और भाव प्रवणता प्रदान की है। शांत रस विद्यमान है। तद्भव शब्दों की अधिकता है।
प्रश्न 6.
विष कब अमृत में बदल जाता है ?
उत्तर :
मानव में छिपे पाप, बुरी भावना, विषय वासना रूपी विष उस समय अमृत बन जाते हैं, जब एक परम भक्त दूसरे परम भक्त से मिल जाता है। उस समय सभी प्रकार के अँधेरे समाप्त हो जाते हैं, मन के विकार दूर हो जाते हैं। इस तरह उनका विषय-वासना रूपी विष समाप्त हो जाता है और वे अमृत समान हो जाते हैं।
प्रश्न 7.
कवि ने संसार के किस व्यवहार को अनुचित और उचित माना है ?
उत्तर :
कवि ने संसार के उस व्यवहार को अनुचित माना है जो व्यर्थ ही दूसरों की आलोचना करता रहता है। वह अपने इस व्यवहार के कारण अच्छे-बुरे में भेद नहीं कर पाता है।
उस मानव का व्यवहार उचित है जो दूसरों के बुरे व्यवहार को अनदेखा करके, अपना वक्त बरबाद किए बिना, भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ता हैं तथा सबके साथ एकसमान व्यवहार करता है।
प्रश्न 8.
‘स्वान रूप संसार है’ – ऐसा क्यों कहा गया है ? हमें क्या करना चाहिए ?
उत्तर :
कवि ने इस संसार को ‘स्वान’ कहा है अर्थात कुत्ते के समान कहा है क्योंकि इस संसार में मनुष्य का व्यवहार कुत्ते के समान है। वह स्वयं को ठीक मानता है और दूसरों को बुरा-भला कहता है। वह उनकी आलोचना करता रहता है।
हमें दूसरों के द्वारा की जानेवाली निंदा – उपहास की परवाह नहीं करनी चाहिए। अपने मन में आए भक्ति और साधना के भावों पर स्थिर रहकर कर्म करना चाहिए।
प्रश्न 9.
पखापखी क्या है ? इसमें डूबकर सारा संसार किसे भूल रहा है ?
उत्तर :
पखापखी से अभिप्राय यह है कि मनुष्य के मन में छिपे तेरे-मेरे, पक्ष-विपक्ष और परस्पर लड़ाई-झगड़े हैं। मनुष्य इस पखापखी के चक्कर में पड़कर ईश्वर के नाम और भक्तिभाव को भूल जाता है, मनुष्य को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसकी भक्ति और सत्कर्म उसके साथ जाएँगे।
प्रश्न 10.
कवि ने हिंदू-मुसलमान को मरा हुआ क्यों मान लिया है और उनके अनुसार जीवित कौन है ?
उत्तर :
कवि ने हिंदू-मुसलमान दोनों को मरा हुआ माना है क्योंकि दोनों ही ईश्वर के वास्तविक सच को समझे बिना आपसी भेद-भाव में उलझकर ईश्वर के नाम को भूल गए हैं। कवि के अनुसार केवल वही मनुष्य जीवित है, जो धार्मिक भेद-भावों से दूर रहकर, प्रत्येक प्राणी के हृदय में बसनेवाले चेतन राम और अल्लाह का स्मरण करता है।
प्रश्न 11.
कबीर ने किस बात का विरोध किया है और मनुष्य को किस बात की प्रेरणा दी है ?
उत्तर :
कबीर ने अपनी रचना में इस बात का विरोध किया है कि ईश्वर के रूप, नाम, स्थल अनेक हैं, उनको मानने वाले भी अलग-अलग हैं। वास्तव में ईश्वर एक है उसमें कोई अंतर नहीं है। इसीलिए उन्होंने मनुष्य को आपस में हिंदू-मुसलमान का आपसी भेदभाव मिटाकर, ईश्वर के सच्चे रूप की भक्ति करने की प्रेरणा दी है।
प्रश्न 12.
ऊँचे कुल से क्या तात्पर्य है ? कबीर ने किस व्यक्ति को ऊँचा नहीं माना ? कोई व्यक्ति किस कारण से महान बन सकता है ?
उत्तर :
सामान्यतः आर्थिक और सामाजिक रूप से श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित परिवारवाले व्यक्ति को ऊँचे कुल का माना जाता है। कबीर जी के अनुसार ऊँचे कुल में जन्म लेने पर कोई व्यक्ति ऊँचा नहीं बन जाता है। ऊँचा और महान बनने के लिए व्यक्ति को सत्कर्म और परमार्थ करने चाहिए तथा सद्गुणों को अपनाना तथा दुर्गुणों से बचाना चाहिए।
प्रश्न 13.
कबीर जी की उद्धृत साखियों की भाषा की विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कबीर जी द्वारा रचित साखियों की भाषा सधुक्कड़ी है। इनमें ब्रज, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी तथा पंजाबी के शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं इन्होंने आम बोलचाल की भाषा का भी प्रयोग किया है। इनकी साखियों की भाषा में कहीं-कहीं बौद्धिकता के दर्शन भी गुण भी होते हैं। यह बौद्धिकता प्रायः उपदेशात्मक साखियों में द्रष्टव्य है। इनमें मुक्तक शैली का प्रयोग है। इनमें नीति तत्व के सभी विद्यमान हैं।
प्रश्न 14.
‘कबीर जी एक समाज सुधारक भी थे।’ क्या आप इस कथन से सहमत हैं ?
उत्तर :
कबीरदास एक संत, महात्मा, साधक और कवि थे। कबीरदास का काव्य समाज के लिए एक निश्चित संदेश लिए हुए है। उन्होंने अपने युग के समाज को सुधारने का प्रयास किया। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में फैले अंध-विश्वासों, रूढ़ियों तथा कर्म-कांडों का विरोध किया। संत कबीर ने मानव – मात्र की एकता एवं भ्रातृत्व का प्रचार किया। उन्होंने जन्म पर आधारित ऊँच-नीच की मान्यताओं का खंडन किया। इस प्रकार संत कबीर एक समाज सुधारक ठहरते हैं।
प्रश्न 15.
कबीर जी ने किस प्रकार के ब्रह्म की आराधना की है ?
उत्तर :
कबीर जी निर्गुणवादी थे। उन्होंने कहीं भी सूरदास तथा तुलसीदास की भाँति निर्गुण- सगुण का समन्वय स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। उनका ब्रह्म अविगत है। वह संसार के कण-कण में हैं। उसे कहीं बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं।
सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण एवं सौंदर्य सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
1. मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
मुकुताफल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं॥
शब्दार्थ : सुभर – अच्छी तरह भरा हुआ। केलि – क्रीड़ा, खेल। हंसा – हृदय रूपी जीव। मुकुताफल – मोती। उड़ि – उड़कर। अनत – अन्यत्र कहीं और।
प्रसंग – प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ में संकलित ‘साखियाँ’ से ली गई है जिसके रचयिता संत कबीर हैं। जब मानव के हृदय में भक्ति का भाव पूरी तरह से भरा होता है तो उसका ध्यान किसी दूसरी तरफ़ नहीं जाता। वह तो भक्ति भाव में डूबा रहना चाहता है।
व्याख्या – कबीर कहते हैं कि हृदय रूपी मानसरोवर जब भक्ति के जल से पूरी तरह भरा हुआ होता है तो हंस रूपी आत्माएँ उसी में क्रीड़ाएँ करती हैं। वे आनंद में भरकर मुक्ति रूपी मोतियों को वहाँ से चुगते हैं। वे उड़कर, विमुख होकर अब अन्य साधनाओं को नहीं अपनाना चाहतीं। भाव है कि परमात्मा के नाम में डूब जाने वाले भक्त स्वयं को भक्ति भाव में ही लीन रखने के प्रयत्न करते हैं तथा सांसारिक विषय-वासनाओं से दूर ही रहते हैं।
अर्थग्रहण एवं सौंदर्य – सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) कवि की दृष्टि में ‘मानसरोवर’ और ‘सुभर जल’ का क्या गहन अर्थ है ?
(ख) कवि ने हंस किसे माना है ?
(ग) हंस कहीं भी उड़कर क्यों नहीं जाना चाहते ?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) ‘मुकुताफल मुकता चुगैं’ से क्या तात्पर्य है ?
(च) इस साखी का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
(क) कवि की दृष्टि में मानसरोवर किसी भक्त का वह मन है जिसमें भक्ति रूपी जल पूरी तरह से भरा हुआ है। ‘सुभर जल’ से यह प्रकट होता है कि भक्त के हृदय में भक्ति भावों के अतिरिक्त किसी प्रकार के विकारी भाव नहीं हैं। वह भक्ति भाव से इतना अधिक भरा हुआ है कि वहाँ सांसारिक विषय-वासनाओं के समाने का कोई स्थान ही नहीं है।
(ख) कवि ने भक्तों, संतों और साधुओं को हंस माना है जो भक्ति भाव में डूबे रहते हैं।
(ग) भक्त रूपी हंस मुक्ति रूपी मोतियों को चुगने के कारण कहीं भी उड़कर नहीं जाना चाहते।
(घ) कबीर के द्वारा रचित साखी में दोहा छंद है जिसमें स्वरमैत्री का सहज प्रयोग किया गया है जिस कारण लयात्मकता की सृष्टि हुई है। अनुप्रास और रूपक का सहज स्वाभाविक प्रयोग सराहनीय है। लक्षणा शब्द-शक्ति के प्रयोग ने कवि के कथन को गंभीरता और भाव प्रवणता प्रदान की है। शांत रस विद्यमान है। तद्भव शब्दों की अधिकता है।
(ङ) इस कथन का तात्पर्य है कि जीवात्माएँ सांसारिकता से मुक्त होकर ईश्वर के नामरूपी मोती चुग रही हैं। वे प्रभु-भक्ति में लीन हैं।
(च) कवि ने ईश्वर के ध्यान में लीन भक्तों की मानसिक दशा का वर्णन किया है कि वे अपने हृदय में मुक्ति का आनंददायी फल अनुभव कर परम सुख और आत्मिक शुद्धता को अनुभव कर रहे हैं। वे पवित्रता से परिपूर्ण अपने मन को कहीं और नहीं लगाना चाहते।
2. प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ॥
शब्दार्थ : विष – विषय-वासनाएँ।
प्रसंग : प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ में संकलित ‘साखियाँ’ से ली गई है जिसके रचयिता संत कबीर हैं। ईश्वर भक्त सदा अपने जैसे भक्त को ढूँढ़ता रहता है और जब भी उसे अपने उद्देश्य में सफलता मिल जाती है वह पूरी तरह से इस संसार से विमुख हो जाता है।
व्याख्या : कबीर कहते हैं कि मैं परमात्मा के नाम से प्रेम करनेवाला अपने जैसे किसी प्रभु के प्रेमी को खोज रहा हूँ पर मुझे कोई प्रभु – प्रेमी मिल नहीं रहा। जब एक भक्त को दूसरा भक्त मिल जाता है तो उसके लिए संसार की सभी विषय-वासनाएँ मिट जाती हैं। उनका विषय-वासना रूपी विष समाप्त हो जाता है तथा वे अमृत के समान हो जाती हैं। भाव है कि जब किसी प्रभु प्रेमी को अपने जैसा प्रभु – प्रेमी मिल जाता है तो उन दोनों की प्रभु भक्ति परिपक्व हो जाती है और फिर उन्हें माया से भरे संसार के प्रति कोई रुचि नहीं रह जाती।
अर्थग्रहण एवं सौंदर्य सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) कबीर ने प्रेमी किसे कहा है ?
(ख) प्रेमी को अपने-सा प्रेमी क्यों नहीं मिलता ?
(ग) प्रेमी को प्रेमी मिल जाने से सारा विष अमृत क्यों हो जाता है ?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) साखी का भाव सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(च) ‘मैं’ में छिपा अर्थ किसके लिए है ?
(छ) ‘विष’ और ‘अमृत’ की प्रतीकात्मकता स्पष्ट कीजिए।
(ज) विष कब अमृत में बदल जाता है ?
उत्तर :
(क) कबीर ने परमात्मा के भक्त को प्रेमी कहा है।
(ख) परमात्मा का भक्त अपने जैसे भक्त को पाना चाहता है पर वह सरलता से नहीं मिलता क्योंकि संसार के अधिकांश लोग तो भक्ति से दूर रहकर विषय-वासनाओं में डूबे रहते हैं
(ग) ईश्वर प्रेमी को ईश्वर प्रेमी मिल जाने से सारा विष अमृत हो जाता है क्योंकि उन्हें भक्ति रूपी अमृत की प्राप्ति की ही इच्छा होती है; विषय-वासनाओं की नहीं।
(घ) कबीर ने सीधी-साधी सरल भाषा में भक्ति रस के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। ‘प्रेमी’ में लाक्षणिकता विद्यमान है। तत्सम और तद्भव शब्दों का समन्वित प्रयोग किया गया है। प्रसाद गुण तथा शांत रस विद्यमान हैं। दोहा छंद का प्रयोग है। स्वरमैत्री ने गेयता का गुण प्रदान किया है।
(ङ) कबीर ने प्रभु-भक्त का साथ प्राप्त करना चाहा है पर वह प्रयत्न करके भी ऐसा करने में सफल नहीं हो पाया। वह ईश्वर-प्रेमी को प्राप्त न करने के कारण परेशान है।
(च) ‘मैं’ में छिपा अर्थ किसी भी ईश्वर भक्त को प्रकट करता है। वह केवल कवित की ओर संकेत नहीं करता।
(छ) ‘विष’ मानव मन में छिपे पापों, बुरी भावनाओं, बुराइयों, वासनाओं आदि का प्रतीक है और ‘अमृत’ पुण्य, मुक्ति, सद्भावना, भक्ति आदि को प्रकट करता है।
(ज) ईश्वर भक्तों के परस्पर मिल जाने से मन के पाप मिट जाते हैं और तब विष अमृत में बदल जाता है।
3. हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि॥
शब्दार्थ : हस्ती – हाथी। दुलीचा – कालीन, छोटा आसन, गलीचा। डारि – डालकर, रखकर। स्वान – कुत्ता। भूँकन दे – भौंकने दो। झख मारि – मज़बूर होना; वक्त बेकार करना।
प्रसंग : प्रस्तुत साखी संत कबीरदास के द्वारा रचित है जिसे हमारी पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ में ‘साखियाँ’ नामक पाठ में संकलित किया गया है। कवि का मानना है कि यह संसार तो अज्ञानी है और सभी के प्रति व्यर्थ ही कुछ-न-कुछ कहता रहता है। इसलिए इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए।
व्याख्या : कबीर कहते हैं कि हे मानव, तुम ज्ञान रूपी हाथी पर सहज स्वरूप स्थिति का गलीचा डालो। यह संसार तो अज्ञानी है जो कुत्ते के समान व्यर्थ ही भौंकता रहता है। उसकी परवाह किए बिना तुम उसे व्यर्थ भौंककर अपना वक्त बेकार करने दो और तुम भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ते जाओ।
अर्थग्रहण एवं सौंदर्य सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) कवि ने संसार के व्यवहार को कैसा माना है ?
(ख) कवि की दृष्टि में ज्ञान का रूप कैसा है ?
(ग) ‘सहज दुलीचा’ क्या है ?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ङ) ‘स्वान रूप संसार है’ – ऐसा क्यों कहा गया है ? हमें क्या करना चाहिए ?
(च) कवि ने मानव को क्या प्रेरणा दी है ?
(छ) कवि ने किस ज्ञान को श्रेष्ठ माना है ?
(ज) इस साखी का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
(क) कवि ने संसार के उस व्यवहार को अनुचित माना है जो व्यर्थ ही दूसरों की आलोचना करता रहता है। वह तो अच्छे-बुरे के बीच भेद भी नहीं कर पाता।
(ख) कवि की दृष्टि में ज्ञान हाथी के समान सबल है जो अपना मार्ग खुद बना सकता है जिसे किसी की परवाह नहीं होती।
(ग) ‘सहज दुलीचा’ ईश्वर के नाम की वह सहज स्वरूप स्थिति है जो भक्त के मन को ईश्वर की ओर बढ़ाती है।
(घ) कबीर ने भक्ति के मार्ग में आगे बढ़नेवालों को प्रेरणा दी है कि वे व्यर्थ की आलोचनाओं की परवाह न करें। दोहा छंद में तत्सम और तद्भव शब्दों का सहज प्रयोग किया गया है। लाक्षणिकता ने भाव गहनता को प्रकट किया है। स्वर मैत्री ने गेयता का गुण उत्पन्न किया है। शांत रस का प्रयोग है।
(ङ) कवि ने इस संसार को स्वान रूप कहा है क्योंकि इस संसार में हम सभी लोग अपने-आप को ठीक मानते हुए दूसरों को बुरा-भला कहते हैं। व उनकी आलोचना करते रहते हैं। हमें दूसरों के द्वारा की जानेवाली निंदा – उपहास की परवाह नहीं करनी चाहिए। अपने मन में आए भक्ति और साधना के भावों पर स्थिर रहकर कर्म करना चाहिए।
(च) कवि ने मानव को प्रेरणा दी है कि वह लोकनिंदा की परवाह न करे और ईश्वर के नाम में डूबा रहे।
(छ) कवि ने साधना से प्राप्त उस ज्ञान को श्रेष्ठ माना है जो मानव स्वयं प्राप्त करता है।
(ज) कवि ने प्रभु भक्तों को अपनी भक्ति में डूबे रहने की सलाह देते हुए निंदकों और आलोचकों को बुरा माना है।
4. पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान।
निरपख होइ के हरि भजै, सोई संत सुजान॥
शब्दार्थ : पखापखी – पक्ष-विपक्ष जग – संसार। कारनै – कारण। सोई – वही। सुजान – चतुर, ज्ञानी।
प्रसंग : प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ में संकलित ‘साखियाँ’ से ली गई है जिसके रचयिता निर्गुण भक्ति के संत कबीर हैं। यह संसार आपसी लड़ाई-झगड़े और तेरा मेरा करते हुए भक्ति मार्ग से दूर होता जा रहा है जो उसके लिए उचित नहीं है।
व्याख्या : कबीर कहते हैं कि यह संसार पक्ष-विपक्ष के झगड़े में उलझकर ईश्वर के नाम को भुलाकर इससे दूर होता जा रहा है। उसके लिए तेरे-मेरे का भेद ही प्रमुख है। जो व्यक्ति निरपक्ष होकर ईश्वर का नाम भजता है वही चतुर – ज्ञानी संत है। भाव यह है कि यह संसार तो झूठा है और इसे यहीं रह जाना है। इस संसार को छोड़ने के बाद मनुष्य के साथ यह नहीं जाएगा बल्कि उसकी भक्ति और सत्कर्म जाएँगे। इसलिए उसे ईश्वर के नाम की ओर उन्मुख होना चाहिए।
अर्थग्रहण एवं सौंदर्य सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) ‘पखापखी’ क्या है ?
(ख) सारा संसार किसे भुला रहा है ?
(ग) संत – सुजान कौन हो सकता है ?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) सच्चा संत कौन है ?
(च) ईश्वर के नाम-स्मरण के लिए किस प्रकार की भावना होनी चाहिए ?
(छ) संसार किस कारण से भूला हुआ है ?
उत्तर :
(क) मानव मन में छिपी तेरे-मेरे, पक्ष-विपक्ष और परस्पर लड़ाई-झगड़े का भाव ही पखापखी है।
(ख) सांसारिकता में उलझकर यह सारा संसार ईश्वर के नाम और भक्ति भाव को भुला रहा है।
(ग) संत – सुजान वही हो सकता है जो अपसी भेद-भाव को त्याग कर परमात्मा के नाम के प्रति स्वयं को लगा दे।
(घ) कबीर ने दोहा छंद का प्रयोग करते हुए उपदेशात्मक स्वर में प्रेरणा दी है कि मानव को आपसी लड़ाई-झगड़े और भेद-भाव को मिटाकर ईश्वर के नाम की ओर उन्मुख होना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा करता है वही ‘संत सुजान’ कहलाने के योग्य है। तद्भव शब्दावली का सहज प्रयोग किया गया है। अनुप्रास अलंकार का सहज-स्वाभाविक प्रयोग सराहनीय है। प्रसाद गुण और शांत रस विद्यमान है। स्वरमैत्री ने लयात्मकता का गुण प्रदान किया है।
(ङ) सच्चा संत वह है जो किसी वैर – विरोध, पक्ष-विपक्ष की परवाह किए बिना ईश्वर की भक्ति में डूबा रहता है।
(च) ईश्वर के नाम-स्मरण के लिए मानव को निरपेक्ष होना चाहिए। उसे किसी के विरोध- समर्थन, निंदा – प्रशंसा आदि की परवाह नहीं करनी चाहिए।
(छ) यह संसार आपसी लड़ाई-झगड़े, तर्क-वितर्क आदि के कारण ईश्वर को भूला हुआ है।
5. हिंदू मुआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ।
कहै कबीर सो जीवता, जो दुहुँ के निकट न जाइ ॥
शब्दार्थ : मुआ – मर गया। खुदाइ – परमात्मा। निकट – पास।
प्रसंग : प्रस्तुत साखी हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज’ में संकलित ‘साखियाँ’ से ली गई है जिसके रचयिता निर्गुण संत कबीर हैं। मनुष्य परमात्मा के रहस्य को बिना समझे धर्म के बंधन में पड़ा रहता है और स्वयं को परमात्मा के नाम से दूर कर लेता है।
व्याख्या : कबीर कहते हैं कि हिंदू और मुसलमान ईश्वर के वास्तविक सच को समझे बिना क्रमशः राम और अल्लाह शब्दों को दुराग्रहपूर्वक पकड़कर डूब मरे। इस संसार में वह सावधान है जो इन दोनों के फैलाए धोखे के जाल में नहीं फँसता और सार्वभौमिक सत्यता को समझता है कि प्रत्येक प्राणी के हृदय में बसनेवाला चेतन ही राम और अल्लाह है।
अर्थग्रहण एवं सौंदर्य – सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) हिंदू और मुसलमान ईश्वर को किस-किस नाम से पुकारते हैं ?
(ख) कवि के अनुसार कौन-सा मानव सावधान है ?
(ग) कवि ने किस सार्वभौमिक सत्य को प्रकट करने का प्रयत्न किया है ?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) कवि ने हिंदू-मुसलमान दोनों को मरा हुआ क्यों माना है ?
(च) कवि के अनुसार जीवित कौन है ?
(छ) कवि मनुष्य से क्या अपेक्षा करता है ?
उत्तर :
(क) हिंदू ईश्वर को ‘राम’ नाम से और मुसलमान ‘खुदा’ नाम से पुकारते हैं।
(ख) कवि के अनुसार वह मानव सावधान है जो हिंदुओं और मुसलमानों के राम और अल्लाह शब्दों को दुराग्रहपूर्वक स्वीकार नहीं करता।
(ग) परमात्मा तो हर प्राणी के हृदय में बसता है। वह किसी धर्म विशेष के अधिकार में नहीं है। यह एक सार्वभौमिक सत्य है। कवि ने इसी सत्य को इस साखी के द्वारा प्रकट किया है।
(घ) कबीर ने माना है कि परमात्मा घट-घट में समाया हुआ है। वह केवल ‘राम’ या ‘अल्लाह’ नामों में छिपा हुआ नहीं है। उसे तो हर कोई पा सकता है। अभिधा शब्द-शक्ति के प्रयोग ने कवि के कथन को सरलता और सहजता प्रदान की है। प्रसाद गुण और शांत रस विद्यमान है। अनुप्रास अलंकार का सहज प्रयोग है। गेयता का गुण विद्यमान है।
(ङ) कवि के हिंदू-मुसलमान दोनों को मरा हुआ माना है क्योंकि वे दोनों आपसी भेद-भाव में उलझकर ईश्वर को भूल गए हैं।
(च) कवि ने अनुसार जीवित केवल वह है जो धार्मिक भेद-भावों से दूर रहकर ईश्वर का नाम लेते हैं।
(छ) कवि मनुष्य से अपेक्षा करता है वह जात-पात को भुलाकर ईश्वर के नाम में डूबा रहे।
6. काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम॥
शब्दार्थ काबा – मुसलमानों का पवित्र तीर्थस्थल। कासी काशी, वाराणसी। भया हो गया। मोट – मोटा। चून – आटा।
प्रसंग : प्रस्तुत साखी महात्मा कबीर के द्वारा रचित है जिसे हमारी पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ में संकलित ‘साखियाँ’ पाठ से लिया गया है। परमात्मा घट-घट में समाया हुआ है। न तो वह किसी विशेष तीर्थस्थान पर है और न ही किसी विशेष नाम से जाना जाता है। उसे मन की भावना और भक्ति के भाव से स्मरण करो तो वह तुम्हें प्राप्त हो जाएगा।
व्याख्या : कबीर कहते हैं कि चाहे मुसलमानों के पवित्र धार्मिक स्थल काबा में जाओ या हिंदुओं की धार्मिक नगरी काशी में; चाहे उसे राम के नाम से ढूँढ़ो या रहीम में – वह वास्तव में एक ही है। उसमें कोई भेद नहीं है। वह तो सार्वभौमिक सत्य है जो सब जगह एक-सा ही है। मनुष्य अपनी भिन्न सोच के कारण उसे अलग-अलग चाहे मानता रहे। मोटा आटा ही तो मैदे में बदलता है। उन दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं है। है, मानव! तू उन्हें बैठकर बिना किसी भेद-भाव के खा; अपना पेटभर। भाव है कि परमात्मा को चाहे कही भी ढूँढ़ो और किसी भी नाम से पुकारो पर वास्तव में वह एक ही है
अर्थग्रहण एवं सौंदर्य – सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) कवि ने ‘काबा’, ‘कासी’, ‘राम’, ‘रहीम’ शब्दों के माध्यम से क्या प्रकट करना चाहा है ?
(ख) ‘मोट चून मैदा भया’ में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(ग) कबीर ने किस भाव का विरोध किया है ?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) कबीर ने क्या प्रेरणा दी है ?
(च) काबा कासी कैसे हो गया ?
उत्तर :
(क) कवि ने ‘काबा’ और ‘कासी’ के माध्यम से प्रकट करना चाहा है कि परमात्मा किसी विशेष धार्मिक स्थल पर प्राप्त नहीं होता बल्कि वह तो सभी जगह ही मिलता है। ‘राम’ और ‘रहीम’ शब्दों के माध्यम से यह कहना चाहा है कि परमात्मा तो प्रत्येक धर्म में एक ही है। उसके नाम बदलने से वह नहीं बदल जाता। उसे किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है।
(ख) जिस प्रकार मोटा आटा ही मैदा में बदल जाता है उसी प्रकार विभिन्न धर्मों को माननेवाले ईश्वर को भिन्न नामों से पुकार लेते हैं और उसके स्वरूप में भेद मानते हैं पर वास्तव में उसमें कोई भेद नहीं है। ईश्वर तो एक ही है।
(ग) कबीर ने इस भाव का विरोध किया है कि ईश्वर के रूप, नाम अनेक हैं; स्वरूप अलग हैं और वह भिन्न धर्मों को मानने वालों के धर्म – स्थलों पर रहता है। वास्तव में ईश्वर एक ही है। उसमें कोई अंतर नहीं है।
(घ) कबीर मानते हैं कि परमात्मा सर्वत्र है। हिंदू-मुसलमान चाहे उसे अलग-अलग नाम से पुकारते हैं पर वास्तव में उसमें कोई अंतर नहीं है। अनुप्रास और दृष्टांत अलंकारों का सहज प्रयोग सराहनीय है। अभिधा शब्द – शक्ति के प्रयोग ने कवि के कथन को सरलता और सरसता प्रदान की है। प्रसाद गुण और शांत रस का प्रयोग है, स्वरमैत्री ने लय की उत्पत्ति की है।
(ङ) कबीर ने हिंदू-मुसलमान को आपसी भेदभाव मिटाने और ईश्वर का स्मरण करने की प्रेरणा दी है।
(च) जब हिंदू – मुसलमान में भेद-भाव समाप्त हो गया तो काबा काशी के समान हो गया।
7. ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊंच न होइ।
सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोइ॥
शब्दार्थ : जनमिया जन्म लिया। करनी कार्य। सुबरन – स्वर्ण, सोना। सुरा – मदिरा, शराब। सोइ – उसकी।
प्रसंग : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचित ‘साखियाँ’ से ली गई है। जिसे हमारी पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ में संकलित किया गया है। इसमें कवि ने सज्जन और दुर्जन की संगति के परिणामों का वर्णन किया है।
व्याख्या : इस साखी में कवि कहता है कि ऊँचे वंश में जन्म लेने से कर्म ऊँचे नहीं हो जाते हैं। सोने का कलश मदिरा से भरा हो तो भी सज्जन उसकी भी निंदा ही करते हैं। क्योंकि केवल ऊँचे वंश में जन्म लेने से ही कोई महान नहीं हो जाता उसे ऊँचा उसके महान कार्य बनाते हैं।
अर्थग्रहण एवं सौंदर्य – सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) कबीर ने किस व्यक्ति को ‘ऊँचा’ नहीं माना ?
(ख) साधु किसकी निंदा करते हैं ?
(ग) कोई व्यक्ति किस कारण महान बन जाता है ?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) ‘ऊँचे कुल’ से क्या तात्पर्य है ?
(च) सोने का कलश भी बुरा क्यों कहलाता है ?
(छ) मनुष्य की श्रेष्ठता किसमें छिपी है ?
उत्तर :
(क) कबीर ने उस व्यक्ति को ऊँचा नहीं माना जो अवगुणों से भरा हुआ हो। किसी भी व्यक्ति को केवल ऊँचे परिवार में जन्म लेना ही महान नहीं बनाता।
(ख) साधु प्रत्येक उस व्यक्ति की निंदा करते हैं जो दुर्गुणों से भरे हुए हैं।
(ग) कोई व्यक्ति अपने द्वारा किए जानेवाले सत्कर्मों और अपने सद्गुणों से महान बन जाता है।
(घ) कबीर के द्वारा रचित उपदेशात्मक शैली की साखी में किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता उसके सद्गुणों में मानी गई है, उसके ऊँचे परिवार में नहीं। स्वरमैत्री के प्रयोग ने कवि की वाणी को लयात्मकता प्रदान की है। अनुप्रास का सहज प्रयोग किया गया है। प्रसाद गुण और अभिधा शब्द – शक्ति ने कथन को सरलता और सरसता प्रदान की है। शांत रस विद्यमान है। तद्भव शब्दावली की अधिकता है।
(ङ) आर्थिक और सामाजिक रूप से श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित परिवार के व्यक्ति को ऊँचे कुल का माना जाता है।
(च) सोने का कलश तब बुरा माना जाता है जब उसमें समाज के द्वारा निंदनीय शराब भरी हुई हो।
(छ) मनुष्य की श्रेष्ठता उसके द्वारा किए जाने वाले ऊँचे कामों में छिपी रहती है।
2. सबद (पद)
सप्रसंग व्याख्या, अर्थग्रहण एवं सौंदर्य-सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
1. मोकों कहाँ ढूँढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौने क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पलभर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में ॥
शब्दार्थ : मोकों – मुझे। बंदे – मानव। देवल – मंदिर। काबे – काबा, मुसलमानों का पवित्र तीर्थस्थल। कैलास – कैलाश पर्वत। कौने – किसी। बैराग – वैराग्य। तुरतै – शीघ्र, तुरंत ही। तालास – खोज।
प्रसंग : प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ से संकलित है जिसे संत कबीर ने रचा है। कवि का मानना है कि ईश्वर की प्राप्ति कहीं बाहर से नहीं होती बल्कि वह तो सर्वत्र विद्यमान है। उसे तो अपने भीतर की पवित्रता से ही प्राप्त किया जा सकता है।
व्याख्या : कबीर के अनुसार निर्गुण ब्रह्म मानव को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे मानव! तुम मुझे कहाँ ढूँढ़ते फिरते हो ? मैं तो तुम्हारे ही पास हूँ। मैं न तो मंदिर में हूँ और न ही मस्जिद में। मैं न मुसलमानों के पवित्र तीर्थस्थल काबा में बसता हूँ और न ही हिंदुओं के धार्मिक स्थल कैलाश पर्वत पर। मैं किसी भी क्रिया-कर्म और आडंबर में नहीं हूँ और न ही मेरी प्राप्ति योग-साधनाओं से हो सकती है। मैं वैराग्य धारण करने से भी नहीं मिलता। यदि तुम वास्तव में ही मुझे खोजना चाहते हो तो मैं तुम्हें पलभर की तलाश में मिल जाऊँगा। तुम अपने मन की पवित्रता से मुझे प्राप्त करने का प्रयत्न करो। कबीर कहते हैं कि हे भाई, साधुओ, सुनो। मैं तो तुम्हारी साँसों के साँस में बसता हूँ। मुझे अपने भीतर से ही खोजने का प्रयत्न करो।
अर्थग्रहण एवं सौंदर्य – सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) कवि ने किस शैली में किसे संबोधित किया है ?
(ख) निर्गुण ब्रह्म कहाँ-कहाँ पर नहीं मिलता है ?
(ग) ब्रह्म की प्राप्ति कहाँ हो सकती है ?
(घ) पद में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) ‘मैं’ और ‘तेरे’ शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुए हैं ?
(च) व्यक्ति किसे पलभर में नहीं ढूँढ़ सकता ?
उत्तर :
(क) कवि ने निर्गुण ब्रह्म के द्वारा आत्मकथात्मक शैली में उन मानवों को संबोधित किया है जो परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हैं।
(ख) निर्गुण ब्रह्म को मंदिर, मस्जिद, काबा, कैलाश, क्रिया-कर्म, आडंबर, योग, वैराग्य आदि में नहीं पाया जा सकता।
(ग) ब्रहम की प्राप्ति तो पलभर की तलाश से ही संभव है क्योंकि वह तो हर प्राणी के भीतर उसकी साँसों की साँस में बसता है। हर प्राणी को ब्रह्म अपने भीतर से ही प्राप्त होता है।
(घ) कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार के आडंबर का विरोध किया है और माना है कि उसे अपने हृदय की पवित्रता से अपने भीतर ही ढूँढ़ा जा सकता है। कवि ने तद्भव शब्दावली का अधिकता से प्रयोग किया है। लयात्मकता का गुण विद्यमान है। अनुप्रास अलंकार का स्वाभाविक प्रयोग सराहनीय है। प्रसाद गुण, अभिधा शब्द – शक्ति और शांत रस ने कथन को सरलता और सहजता प्रदान की है।
(ङ) कवि ने ‘मैं’ का प्रयोग ईश्वर और ‘तेरे’ का प्रयोग मनुष्य के लिए किया है।
(च) व्यक्ति ईश्वर को पलभर में ढूँढ़ सकता है क्योंकि वह तो हर व्यक्ति में बसता है। वह साँस – साँस में पहचान कर ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।
2. संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उड़ाँनी, माया रहै न बाँधी॥
हिति चित्त की वै यूँनी गिराँनी, मोह बलिँडा तूटा।
त्रिस्नाँ छाँनि पर घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा॥
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी॥
आँधी पीछे जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर भाँन के प्रगटे उदति भया तम खीनाँ॥
शब्दार्थ : भ्रम – धोखा। टाटी – छप्पर, परदे के लिए लगाया हुआ बाँस आदि की फट्टियों का पल्ला। दुचिते – दुविधा से ग्रस्त। द्वै – दोनों। थूँनि – स्तंभ, खंभे, जिन पर छप्पर टिकता है। गिराँनी – गिर गए। बलिँडा – छप्पर को सँभालनेवाला आधारभूत म्याल (खंभा)। त्रिस्नाँ – तृष्णा, लालच। छाँनि – छप्पर। दुमिति – बुद्धि। भाँडाँ फूटा – भेद खुल गया। निरचू – थोड़ा भी। चुवै – रिसता है, चूता है। बूठा – बरसा। पीछै – पीछे, बाद में। भाँन – सूर्य। तम – अँधेरा। खीनाँ – क्षीण हुआ।
प्रसंग : प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य पुस्तक में महात्मा कबीरदास के द्वारा पदों से संकलित किया गया है। इनमें रहस्यात्मकता तथा तत्कालीन परिस्थितियों की सुंदर अभिव्यक्ति हो पाई है। यह पद कबीर की दार्शनिक मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करता है। ज्ञान के प्रभाव से अज्ञान और भ्रम रूपी छप्पर उड़ जाता है और जीवात्मा की तृष्णा मिट जाती है।
व्याख्या : हे संतो! मेरे हृदय में ज्ञान रूपी आँधी चलने लगी है। इससे भ्रम रूपी छप्पर उड़ गया है, जिसमें ब्रह्म छिपा हुआ था। माया अब जीव को बाँधकर नहीं रख सकती। इस छप्पर की सारी सामग्री छिन्न-भिन्न हो गई हैं। मन के दुविधा रूपी दोनों खंभे गिर गए हैं जिन पर यह टिका हुआ था। इस छप्पर का आधारभूत मोह रूपी ‘खंभा’ भी टूट गया है और तृष्णा रूपी छान ज्ञान की आँधी से टूटकर भूमि पर गिर गया है।
कुबुद्धि का घड़ा फूट गया है अर्थात अज्ञान और विषय-वासना का जीवन में कोई स्थान नहीं रहा है। शरीर कपट से रहित हो गया है। ज्ञान की आँधी के पश्चात भगवान के प्रेम और अनुग्रह की वर्षा हुई है जिससे भक्तजन प्रभु- प्रेम के रस में भीग गए हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि ज्ञान रूपी सूर्य के उदय होते ही अज्ञान का अंधकार क्षीण हो गया है अर्थात ज्ञान और परमात्मा की भक्ति का सर्वत्र उजाला हो गया।
अर्थग्रहण एवं सौंदर्य सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर –
प्रश्न :
(क) कवि ने भ्रम नष्ट होने तथा ज्ञान की प्राप्ति का रूपक किसकी सहायता से बाँधा है ?
(ख) तृष्णा रूपी छप्पर को भूमि पर किसने गिरा दिया ?
(ग) अज्ञान का अंधकार किस कारण क्षीण हुआ था ?
(घ) पद में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) कबीर ने ‘छप्पर’ किस प्रकार बाँधा था ?
(च) मनुष्य में कौन-कौन से विकार थे ?
(छ) कबीर ने किस ज्ञान की बात कही है ?
(ज) ‘भाँन’ किसका प्रतीक है ?
उत्तर :
(क) कवि ने भ्रम नष्ट होने तथा ज्ञान की प्राप्ति का रूपक मानव मन में भ्रम रूपी छप्पर के उड़ जाने से बाँधा है।
(ख) तृष्णा रूपी छप्पर को ज्ञान की तेज़ आँधी ने भूमि पर गिरा दिया था।
(ग) अज्ञान का अंधकार ज्ञान रूपी सूर्य के उदय होने से क्षीण हुआ था।
(घ) कबीर ने ज्ञान और भक्ति के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए माना है कि इन्हीं से अज्ञान का नाश हो सकता है। तद्भव शब्दावली का अधिकता से प्रयोग किया गया है। लौकिक बिंबों की योजना बहुत सटीक और सार्थक है। स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है। अनुपात, सांगरूपक और रूपकातिशयोक्ति अलंकारों का सहज प्रयोग सराहनीय है। लाक्षणिकता ने कवि के कथन को गहनता प्रदान की है।
(ङ) कबीर ने भ्रम रूपी छप्पर, दुविधा रूपी खंभों, तृष्णा रूपी छान तथा माया रूपी रस्सी से बाँधा था, जिसमें मोह रूपी आधार खंभा था।
(च) मनुष्य माया, मोह, तृष्णा, दुर्बुद्धि, अज्ञान आदि विकारों से युक्त था।
(छ) कबीर ने प्रभु-भक्ति रूपी ज्ञान की बात कही है।
(च) ‘भाँन’ ज्ञान रूपी सूर्य का प्रतीक है।
साखियाँ एवं सबद Summary in Hindi
कवि-परिचय :
संत कबीर हिंदी – साहित्य के भक्तिकाल की महान विभूति थे। उन्होंने अपने बारे में कुछ न कहकर भक्त, सुधारक और साधक का कार्य किया था। माना जाता है कि उनका जन्म सन् 1398 ई० में काशी में हुआ था तथा उनकी मृत्यु सन् 1518 में काशी के निकट मगहर में हुई थी। उनका पालन-पोषण नीरू और नीमा नामक एक निस्संतान बुनकर दंपति के द्वारा किया गया था। कबीर विवाहित थे। उनकी पत्नी का नाम लोई था। कबीर ने स्वयं संकेत दिया था कि उनका एक पुत्र और एक पुत्री थी जिनका नाम कमाल और कमाली था।
कबीर निरक्षर थे पर उनका ज्ञान किसी विद्वान से कम नहीं था। वे मस्तमौला, फक्कड़ और लापरवाह फ़कीर थे। वे जन्मजात विद्रोही, निर्भीक, परम संतोषी और क्रांतिकारी सुधारक थे। उन्हें न तो तत्कालीन शासकों का कोई भय था और न ही विभिन्न धार्मिक संप्रदायों का। कबीर की प्रामाणिक रचना ‘बीजक’ है, जिसके तीन भाग हैं – साखी, सबद और रमैनी। इनकी कुछ रचनाएँ गुरु ग्रंथ साहब में भी संकलित हैं।
कबीर निर्गुणी थे। उनका मानना था कि ईश्वर इस विश्व के कण-कण में विद्यमान है। वह फूलों की सुगंध से भी पतला, अजन्मा और निर्विकार है। उसे कहीं बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो सदा हमारे साथ है। कबीर ने गुरु को परमात्मा से भी अधिक महत्त्व दिया है क्योंकि परमात्मा की कृपा होने से पहले गुरु की कृपा का होना आवश्यक है। गुरु ही अपने ज्ञान से शिष्य के अज्ञान को समाप्त करता है। कबीर ने हिंदू-मुसलमानों में प्रचलित विभिन्न अंधविश्वासों, रूड़ियों और आडंबरों का कड़ा विरोध किया था।
वे बहुदेववाद और अवतारवाद में विश्वास नहीं करते थे। वे मानवधर्म की स्थापना को महत्त्व देते थे इसलिए उन्होंने जाति-पाति और वर्ग-भेद का विरोध किया। वे हिंदू-मुसलमानों में एकता स्थापित करना चाहते थे। उनका मत था कि भजन सदा मन में होना चाहिए। दिखावे के लिए चिल्ला-चिल्लाकर भक्ति का ढोंग करने से भगवान नहीं मिलते। आत्मशुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। मानवतावादी समाज की स्थापना की जानी चाहिए। वे शासन, समाज, धर्म आदि समस्त क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते थे।
कबीर की भाषा जन – भाषा के निकट थी। उन्होंने साखी, दोहा, चौपाई की शैली में अपनी वाणी प्रस्तुत की थी। उसमें गति तत्व के सभी गुण विद्यमान हैं। उनकी भाषा में अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी, फ़ारसी, अरबी, राजस्थानी, पंजाबी आदि के शब्द बहुत अधिक हैं। इनकी भाषा को खिचड़ी भी कहते हैं। निश्चित रूप से कबीर युग प्रवर्तक क्रांतिकारी थे।
1. साखियाँ
साखियों का सार :
संत कबीर ने निर्गुण भक्ति के प्रति अपनी आस्था के भावों को प्रकट करते हुए माना है कि हृदय रूपी का मानसरोवर भक्ति जल से पूरी तरह भरा हुआ है जिसमें हंस रूपी आत्माएँ मुक्ति रूपी मोती चुनती हैं। अपार आनंद प्राप्त करने के कारण वे अब उसे छोड़कर कहीं और नहीं जाना चाहतीं। जब परमात्मा से प्रेम करनेवाले साधुजन आपस में मिल जाते हैं तो जीवन में सुख ही सुख शेष रह जाते हैं।
जब भक्ति ज्ञानमार्ग पर आगे बढ़ती है तो संसार में विरोध करनेवाले उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते। पक्ष-विपक्ष के कारण सभी परमात्मा के नाम से दूर रहते हैं। इससे दूर होकर जो परमात्मा का स्मरण करता है वहीं संत कहलाता है। आडंबरों और परमात्मा का नाम लेने के लिए ढोंग करने से उसकी प्राप्ति नहीं होती। यदि कोई ऊँचे परिवार में जन्म लेकर श्रेष्ठ कार्य नहीं करता तो पूजनीय नहीं हो सकता। सोने के कलश में भरी शराब की भी निंदा की जाती है; प्रशंसा नहीं।
2. सबद (पद)
पदों का सार :
निर्गुण भक्ति के प्रति अपने निष्ठाभाव को प्रकट करते हुए कबीर मानते हैं कि ईश्वर को मनुष्य अपने अज्ञान के कारण इधर-उधर ढूँढ़ने का प्रयास करता है। वह नहीं जानता कि ईश्वर तो उसके अपने भीतर ही छिपा हुआ है। न तो वह मंदिर में है और न ही मस्जिद में, न काबा में और न ही कैलाश पर्वत पर वह किसी आडंबर, योग, विराग और क्रिया-कर्म से प्राप्त नहीं होता। यदि उसे अपने भीतर से ही ढूँढ़ने का प्रयत्न किया जाए तो वह सरलता से प्राप्त हो सकता है क्योंकि वह तो प्रत्येक व्यक्ति के श्वासों में बसता है। पलभर की तलाश से ही उसे पाया जा सकता है।
कबीर मानते हैं कि उनके हृदय में ज्ञान की आँधी चलने लगी है जिस कारण भ्रम रूपी छप्पर उड़ गया है, जिसमें ब्रहम छिपा हुआ था। अब माया उसे बाँधकर नहीं रख सकती। ज्ञान की आँधी के बाद शरीर कपट से रहित हो गया और ईश्वर के प्रेम की उस पर वर्षा हो गई। इससे भक्तजन प्रभु के प्रेम-रस में भीग गए। परमात्मा की भक्ति का उजाला सर्वत्र हो गया।