JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में कौनसी बात धर्म निरपेक्षता के विचार से संगत है।
(अ) किसी धर्म को राज्य के धर्म के रूप में मान्यता देना।
(ब) राज्य द्वारा किसी खास धर्म के साथ गठजोड़ बनाना।
(स) सरकार द्वारा धार्मिक संस्थाओं की प्रबन्धन समितियों की नियुक्ति करना।
(द) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना।
उत्तर:
(द) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना।

2. निम्न में से कौनसी विशेषता पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता की नहीं है।
(अ) राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति।
(ब) धर्म और राज्य का एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करने की अटल नीति।
(स) विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता पर बल देना।
(द) एक धर्म के भिन्न पंथों के बीच समानता पर बल देना।
उत्तर:
(अ) राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति।

3. निम्न में से कौनसी विशेषता भारतीय धर्म निरपेक्षता की है
(अ) धर्म और राज्य का एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करने की अटल नीति ।
(ब) राज्य धार्मिक सुधारों हेतु दखल नहीं दे सकता।
(स) व्यक्ति और उसके अधिकारों को ही महत्त्व देना।
(द) अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर ध्यान देना।
उत्तर:
(द) अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर ध्यान देना।

4. निम्न में से कौनसी भारतीय धर्म निरपेक्षता की आलोचना नहीं है।
(अ) धर्म-विरोधी
(स) सभी धर्मों को राज्य द्वारा समान संरक्षण
(ब) पश्चिम से आयातित
(द) अल्पसंख्यकवाद।
उत्तर:
(स) सभी धर्मों को राज्य द्वारा समान संरक्षण

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5. धर्म निरपेक्षता की संकल्पना के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
(अ) व्यक्तिगत समानता
(स) अंतः धार्मिक समानता
(ब) अंतर – धार्मिक समानता
(द) अन्तर- धार्मिक व अंत: धार्मिक समानता
उत्तर:
(द) अन्तर- धार्मिक व अंत: धार्मिक समानता

6. धर्म निरपेक्षता विरोध करती है।
(अ) स्वतंत्रता का
(ब) समानता का
(स) धार्मिक वर्चस्व का
(द) राज्य सत्ता का
उत्तर:
(स) धार्मिक वर्चस्व का

7. धर्म निरपेक्षता के यूरोपीय मॉडल में धर्म है।
(अ) एक निजी मामला
(स) चर्च का मामला
(ब) सरकार का मामला
(द) न्यायालय का मामला
उत्तर:
(अ) एक निजी मामला

8. भारतीय धर्म निरपेक्षता राज्य को अनुमति देती है।
(अ) धार्मिक भेदभाव की
(स) धार्मिक सुधार की
(ब) धार्मिक आयोजनों की
(द) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(स) धार्मिक सुधार की

9. धर्म निरपेक्षता बढ़ावा देती हैं।
(अ) धर्मों में समानता को
(ब) धर्मतांत्रिक राज्य को
(स) अस्पृश्यता को
(द) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(अ) धर्मों में समानता को

10. धर्म निरपेक्ष राज्य सत्ता के लिये जरूरी है।
(अ) धर्म में हस्तक्षेप
(स) धर्म का विरोध
(ब) एक राज्य धर्म
(द) धर्म से सम्बन्ध विच्छेद
उत्तर:
(द) धर्म से सम्बन्ध विच्छेद

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11. धर्मनिरपेक्ष राज्यों में निम्न में से कौनसा शामिल नहीं होना चाहिए।
(अ) धार्मिक स्वतंत्रता
(ब) धार्मिक भेदभाव
(सं) अन्तर – धार्मिक समानता
(द) अंत: धार्मिक समानता
उत्तर:
(ब) धार्मिक भेदभाव

12. सभी धर्म निरपेक्ष राज्यों में कौनसी बात सामान्य है।
(अ) वे धर्मतांत्रिक हैं।
(ब) वे किसी खास धर्म की स्थापना करते हैं।
(स) वे न तो धर्मतांत्रिक हैं और न किसी खास धर्म की स्थापना करते हैं।
(द) उपर्युक्त सभी।
उत्तर:
(स) वे न तो धर्मतांत्रिक हैं और न किसी खास धर्म की स्थापना करते हैं।

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. भारत में धर्मनिरपेक्षता का विचार ………………… वाद विवादों और परिचर्चाओं में सदैव मौजूद रहा है।
उत्तर:
सार्वजनिक

2. पड़ौसी देश, पाकिस्तान और बांग्लादेश में ……………….. की स्थिति ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है।
उत्तर:
धार्मिक अल्पसंख्यकों

3. धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त …………………. वर्चस्व का विरोध करता है।
उत्तर:
अंतर – धार्मिक

4. धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त …………………. वर्चस्व का भी विरोध करता है।
उत्तर:
अंतः धार्मिक

5. धर्म और राज्य सत्ता के बीच संबंध विच्छेद ……………………. राज्यसत्ता के लिए जरूरी है।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्ष

6. भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्थित ………………… सुधार की गुंजाइश भी है और अनुकूलता भी।
उत्तर:
धार्मिक

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये

1. भारतीय धर्मनिरपेक्षता का संबंध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी से ही नहीं है, अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है।
उत्तर:
सत्यं

2. भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश नहीं है।
उत्तर:
असत्य

3. भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने अन्तः धार्मिक और अंतर- धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केन्द्रित नहीं किया है।
उत्तर:
असत्य

4. भारतीय धर्मनिरपेक्षता धर्म से सैद्धान्तिक दूरी कायम रखने के सिद्धान्त पर चलती है जो हस्तक्षेप की गुंजाइश भी बनाती है।
उत्तर:
सत्य

5. धर्मनिरपेक्षता के अमेरिकी मॉडल में धर्म और राज्य सत्ता के संबंध विच्छेद को पारस्परिक निषेध के रूप में समझा जाता है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों (अ) धर्मनिरपेक्षता का उत्पीड़न
2. अन्तर धार्मिक वर्चस्व एवं अंतः धार्मिक वर्चस्व दोनों (ब) धर्म के अन्दर वर्चस्ववाद का विरोध करना
3. देश के कुछ हिस्सों में हिन्दू महिलाओं का मंदिरों (स) धर्मनिरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल में प्रवेश वर्जित
4. धर्म और राज्यसत्ता के संबंध विच्छेद को परस्पर निषेध के रूप में समझना (द) भारतीय धर्मनिरपेक्षता का मॉडल
5. वह धर्मनिरेपक्षता जो धर्म और राज्य के बीच पूर्ण (य) धर्मों के बीच वर्चस्ववाद

उत्तर:

1. पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक अल्पसंख्यकों (य) धर्मों के बीच वर्चस्ववाद
2. अन्तर धार्मिक वर्चस्व एवं अंतः धार्मिक वर्चस्व दोनों (अ) धर्मनिरपेक्षता का उत्पीड़न
3. देश के कुछ हिस्सों में हिन्दू महिलाओं का मंदिरों (ब) धर्म के अन्दर वर्चस्ववाद का विरोध करना
4. धर्म और राज्यसत्ता के संबंध विच्छेद को परस्पर निषेध के रूप में समझना (स) धर्मनिरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल में प्रवेश वर्जित
5. वह धर्मनिरेपक्षता जो धर्म और राज्य के बीच पूर्ण (द) भारतीय धर्मनिरपेक्षता का मॉडल


अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
धर्मतांत्रिक राज्य किसे कहा जाता है?
उत्तर;
धर्मतांत्रिक राज्य उस राज्य को कहते हैं जो किसी धर्म विशेष को राज्य का धर्म घोषित कर उसे संरक्षण प्रदान करता है।

प्रश्न 2.
धार्मिक भेदभाव रोकने का कोई एक रास्ता बताइये।
उत्तर:
हमें आपसी जागरूकता के साथ एक साथ मिलकर काम करना चाहिए।

प्रश्न 3.
धर्म निरपेक्षता कैसा समाज बनाना चाहती है?
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता अंतर- धार्मिक तथा अंतः धार्मिक दोनों प्रकार के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहती है।

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प्रश्न 4.
किसी धार्मिक समूह के वर्चस्व को रोकने के लिए राष्ट्र को किस बात से बचना चाहिए?
उत्तर:
राष्ट्र को किसी भी धर्म के साथ किसी भी प्रकार के गठजोड़ से बचना चाहिए।

प्रश्न 5.
धर्म निरपेक्षता किस बात को बढ़ावा देती है?
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता धार्मिक स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा देती है

प्रश्न 6.
भारत में धर्म निरपेक्षता का विकास किस बात को ध्यान में रखकर हुआ है?
उत्तर:
शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को ध्यान में रखकर।

प्रश्न 7.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य धर्म से कैसा सम्बन्ध रखता है?
उत्तर:
इसमें राज्य धर्म के सैद्धान्तिक दूरी रखते हुए उसमें हस्तक्षेप की गुंजाइश रखता है।

प्रश्न 8.
सभी धर्म निरपेक्ष राज्यों में कौनसी चीज सामान्य है?
उत्तर:
सभी धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो धर्मतांत्रिक हैं और न किसी खास धर्म की स्थापना करते हैं।

प्रश्न 9.
“हजारों कश्मीरी पंडितों को घाटी में अपना घर छोड़ने के लिए विवश किया गया। वे दो दशक के बाद भी अपने घर नहीं लौट सके हैं।” यह कथन क्या दर्शाता है?
उत्तर:
यह कथन अन्तर: धार्मिक वर्चस्व और एक धार्मिक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के उत्पीड़न को दर्शाता है।

प्रश्न 10.
धर्म निरपेक्षता के दो पहलू कौनसे हैं?
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता के दो पहलू हैं।

  1. अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का विरोध और
  2. अंतः धार्मिक वर्चस्व का विरोध।

प्रश्न 11.
अन्तर- धार्मिक वर्चस्व से क्या आशय है?
उत्तर:
अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का आशय है। नागरिकों के एक धार्मिक समूह द्वारा दूसरे समूह को बुनियादी आजादी से वंचित करना।

प्रश्न 12.
अंत: धार्मिक वर्चस्व से क्या आशय है?
उत्तर:
अंतः धार्मिक वर्चस्व से आशय है धर्म के अन्दर छिपा वर्चस्व

प्रश्न 13.
धर्मतांत्रिक राष्ट्र किस बात के लिए कुख्यात रहे हैं?
उत्तर:
धर्मतांत्रिक राष्ट्र अपनी श्रेणीबद्धता, उत्पीड़न और दूसरे धार्मिक समूह के सदस्यों को धार्मिक स्वतंत्रता न देने के लिए कुख्यात रहे हैं।

प्रश्न 14.
किन्हीं दो धर्मतांत्रिक राष्ट्रों के उदाहरण दीजिये।
उत्तर:

  1. मध्यकालीन यूरोप में पोप की राज्य सत्ता और
  2. आधुनिक काल में अफगानिस्तान में तालिबानी राज्य सत्ता धर्मतांत्रिक राष्ट्रों के उदाहरण हैं।

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प्रश्न 15.
आधुनिक काल में विद्यमान ऐसा राज्य कौनसा है जो धर्मतांत्रिक न होते हुए भी किसी खास धर्म के साथ गठजोड़ बनाये हुए है? थी।
उत्तर:
पाकिस्तान यद्यपि धर्मतांत्रिक राष्ट्र नहीं है, लेकिन सुन्नी इस्लाम उसका आधिकारिक राज्य धर्म है।

प्रश्न 16.
20वीं सदी में तुर्की में किस शासक ने धर्म निरपेक्षता पर अमल किया?
उत्तर:
मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने।

प्रश्न 17.
मुस्तफा कमाल अतातुर्क की धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप कैसा था?
उत्तर:
मुस्तफा कमाल अतातुर्क की धर्मनिरपेक्षता धर्म में सक्रिय हस्तक्षेप के जरिए उसके दमन की हिमायत करती

प्रश्न 18.
जवाहर लाल नेहरू की धर्म निरपेक्षता का स्वरूप कैसा था?
उत्तर:
नेहरू की धर्म निरपेक्षता थी। सभी धर्मों को राज्य द्वारा समान संरक्षण।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में धर्म निरपेक्षता की स्थिति को लेकर कौनसे मामले काफी पेचीदा हैं?
उत्तर:

  1. एक ओर तो यहाँ प्रायः हर राजनेता धर्म निरपेक्षता की शपथ लेता है, हर राजनीतिक दल धर्म निरपेक्ष होने की घोषणा करता है।
  2. दूसरी ओर, तमाम तरह की चिंताएँ और संदेह धर्म निरपेक्षता को घेरे रहते हैं। पुरोहितों, धार्मिक राष्ट्रवादियों, कुछ राजनीतिज्ञों तथा शिक्षाविदों द्वारा धर्म निरपेक्षता का विरोध किया जाता है।

प्रश्न 2.
धर्म निरपेक्षता क्या है?
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता एक ऐसा नियामक सिद्धान्त है जो अन्तर- धार्मिक और अंतः धार्मिक, दोनों तरह के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहता है। यह धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देता है।

प्रश्न 3.
धर्मों के बीच वर्चस्ववाद से क्या आशय है?
अन्तर:
धार्मिक वर्चस्व को स्पष्ट कीजिये।
अथवा
उत्तर:
धर्मों के बीच वर्चस्ववाद अर्थात् अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का आशय यह है कि किसी देश या समाज में बहुसंख्यक धर्मावलम्बी अल्पसंख्यक धर्मावलम्बियों या किसी एक अल्पसंख्यक धर्मावलम्बियों को उनकी धार्मिक पहचान के कारण उत्पीड़ित करते हैं। दूसरे शब्दों में, नागरिकों के एक धार्मिक समूह को दुनिया की स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है।

प्रश्न 4.
धर्म के अन्दर वर्चस्व ( अन्तः धार्मिक वर्चस्व ) से क्या आशय है?
उत्तर:
किसी देश में जब एक धर्म कई धार्मिक सम्प्रदायों में विभाजित हो जाता है और वे धार्मिक सम्प्रदाय परस्पर अपने से भिन्न मत रखने वाले सम्प्रदाय के सदस्यों के उत्पीड़न में लगे रहते हैं, तो यह अन्तः धार्मिक वर्चस्ववाद कहा जाता है।

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प्रश्न 5.
धार्मिक भेदभाव रोकने के कोई तीन व्यक्तिगत रास्ते बताइये।
उत्तर:

  1. हम आपसी जागरूकता के लिए मिलकर काम करें।
  2. हम शिक्षा के द्वारा लोगों की सोच बदलने का प्रयास करें।
  3. हम साझेदारी और पारस्परिक सहायता के व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा विभिन्न सम्प्रदायों के संदेहों को दूर करें।

प्रश्न 6.
एक राष्ट्र को किसी धार्मिक समूह के वर्चस्व को कैसे रोकना चाहिए?
उत्तर:
एक राष्ट्र को किसी धार्मिक समूह के वर्चस्व को रोकने हेतु निम्न प्रयास करने चाहिए

  1. प्रथमत: संगठित धर्म और राज्य सत्ता के बीच सम्बन्ध विच्छेद होना चाहिए।
  2. दूसरे, उसे किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से परहेज करना होगा।
  3. तीसरे, उसे शांति, धार्मिक स्वतंत्रता, धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्जना से आजादी, अन्तर- धार्मिक तथा अन्तः धार्मिक समानता के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए।

प्रश्न 7.
धर्म निरपेक्षता की यूरोपीय या अमेरिकी मॉडल की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता की यूरोपीय या अमेरिकी मॉडल की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. राज्यसत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और धर्म राज्यसत्ता के मामलों में दखल नहीं देगा। दोनों के अपने अलग-अलग क्षेत्र व सीमाएँ हैं।
  2. राज्य किसी धार्मिक संस्था को मदद नहीं देगा।

प्रश्न 8.
धर्म निरपेक्षता के भारतीय मॉडल की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
धर्मनिरपेक्षता के भारतीय मॉडल की विशेषताएँ :

  1. भारतीय धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी से ही नहीं, अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है।
  2. भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी है।

प्रश्न 9.
भारतीय राज्य धार्मिक सुधारों की पहल करते हुए और धर्म से पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद किये बिना किस आधार पर धर्म निरपेक्ष होने का दावा करता है?
उत्तर:
धार्मिक सुधारों की पहल करते हुए और धर्म से पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद किये बिना भी भारतीय राज्य का धर्म निरपेक्ष चरित्र वस्तुतः इसी वजह से बरकरार है कि वह न तो धर्मतांत्रिक है और न ही किसी धर्म को राजधर्म मानता है। इसके परे, इसने धार्मिक समानता के लिए अत्यन्त परिष्कृत नीति अपनाई है।

प्रश्न 10.
क्या भारतीय धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यकवादी है? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
नहीं, भारतीय धर्मनिरपेक्षता अल्पसंख्यकवादी नहीं है क्योंकि भारत में अल्पसंख्यकों को जो विशेषाधिकार दिये गये हैं, वे उनके धर्म की सुरक्षा तथा बहुसंख्यक धार्मिक समूहों के वर्चस्व को रोकने के लिए दिये गये हैं, न कि उनके वर्चस्व को स्थापित करने के लिए।

प्रश्न 11.
धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है। स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है- हमारे अधिकांश दुःख-दर्द मानव निर्मित हैं, इसलिए उनका अन्त हो सकता है। लेकिन हमारे कुछ कष्ट मानव निर्मित नहीं हैं। धर्म, कला और दर्शन ऐसे दुःख-दर्दों के सटीक प्रत्युत्तर हैं। धर्म निरपेक्षता इस तथ्य को स्वीकार करती है और इसीलिए धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है।

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प्रश्न 12.
धर्म निरपेक्ष होने के लिए किसी राज्य सत्ता को क्या-क्या करना होगा?
उत्तर:
धर्म निरपेक्ष होने के लिए किसी राज्य सत्ता को निम्नलिखित बातों को अपनाना होगाv

  1. धर्म निरपेक्ष होने के लिए राज्य सत्ता को धर्मतांत्रिक होने से इनकार करना होगा अर्थात् संगठित धर्म और राज्यसत्ता के बीच सम्बन्ध विच्छेद होना चाहिए।
  2. उसे किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से परहेज करना होगा।
  3. धर्म निरपेक्ष राज्य को ऐसे सिद्धान्तों और लक्ष्यों के लिए अवश्य प्रतिबद्ध होना चाहिए जो अंशत: ही सही, गैर-धार्मिक स्रोतों से निकलते हैं। ऐसे लक्ष्यों में शांति; धार्मिक स्वतंत्रता; धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्ज़ना से आजादी; और साथ ही अन्तर- धार्मिक व अंत: धार्मिक समानता शामिल रहनी चाहिए।

प्रश्न 13.
धर्म निरपेक्षता के यूरोपीय मॉडल की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल- धर्म निरपेक्षता के यूरोपीय मॉडल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित

  1. राज्य सत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और धर्म राज्यसत्ता के मामलों में दखल नहीं देगा। दोनों के अपने अलग-अलग क्षेत्र हैं और अलग-अलग सीमाएँ हैं।
  2. राज्य किसी धार्मिक संस्था को मदद नहीं देगा। वह धार्मिक समुदायों द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं को वित्तीय सहयोग नहीं देगा।
  3. जब तक धार्मिक समुदायों की गतिविधियाँ देश के कानून द्वारा निर्मित व्यापक सीमा के अन्दर होती हैं, वह इन गतिविधियों में व्यवधान पैदा नहीं कर सकता।
  4. पश्चिमी धर्म निरपेक्षता स्वतंत्रता और समानता की व्यक्तिवादी ढंग से व्याख्या करती है। यह व्यक्तियों की स्वतंत्रता और समानता के अधिकारों की बात करती है। इसमें समुदाय आधारित अधिकारों अथवा अल्पसंख्यक अधिकारों की कोई गुंजाइश नहीं है।
  5. इसमें राज्य समर्थित धार्मिक सुधार के लिए कोई जगह नहीं है।

प्रश्न 14.
भारतीय राज्य धर्म और राज्य के बीच पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद किये बिना अपनी धर्म निरपेक्षता का दावा किस आधार पर करती है? भारतीय धर्म निरपेक्षता में धर्म और राज्यसत्ता के मध्य सम्बन्धों के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
अथवा.
धर्म निरपेक्षता के भारतीय मॉडल को समझाइये।
अथवा
भारतीय धर्म निरपेक्षता की विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
भारतीय धर्म निरपेक्षता का स्वरूप: भारतीय राज्य का धर्म निरपेक्ष चरित्र वस्तुतः इसी वजह से बरकरार है कि वह न तो धर्मतांत्रिक है और न किसी धर्म को राजधर्म मानता है। इस सिद्धान्त को मानते हुए इसने विभिन्न धर्मों व पंथों के बीच समानता हासिल करने के लिए परिष्कृत नीति अपनायी है। इसी नीति के चलते वह अमेरिका शैली में धर्म से विलग भी हो सकता है या जरूरत पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. धर्म के साथ निषेधात्मक सम्बन्ध: भारतीय राज्य धार्मिक अत्याचार का विरोध करने हेतु धर्म के साथ निषेधात्मक सम्बन्ध भी बना सकता है। यह बात अस्पृश्यता पर प्रतिबंध जैसी कार्यवाहियों में झलकती है।
  2. धर्म के साथ जुड़ाव के सम्बन्ध: भारतीय राज्य धर्म के साथ जुड़ाव की सकारात्मक विधि भी चुन सकता है। इसीलिए संविधान तमाम धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी खुद की शिक्षण संस्थाएँ खोलने और चलाने का अधिकार देता है जिन्हें राज्य सत्ता की ओर से सहायता भी मिल सकती है।
  3. शांति, स्वतंत्रता और समानता पर बल: भारतीय राज्य शांति, स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए वह धर्म के साथ निषेधात्मक सम्बन्ध बनाने या जुड़ाव के सम्बन्ध बनाने की कोई भी रणनीति अपना सकता है।
  4. सैद्धान्तिक हस्तक्षेप की अनुमति: भारतीय धर्म निरपेक्षता तमाम धर्मों में सैद्धान्तिक हस्तक्षेप की अनुमति देती है। ऐसा हस्तक्षेप हर धर्म के कुछ खास पहलुओं के प्रति असम्मान प्रदर्शित करता है। जैसे धर्म के स्तर पर मान्य जातिगत विभाजन को अस्वीकार करना।

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प्रश्न 15.
धर्म निरपेक्ष राज्य की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
धर्म निरपेक्ष राज्य की विशेषताएँ। धर्म निरपेक्ष राज्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. धर्म निरपेक्ष राज्य में राज्य सत्ता और धर्म में पृथकता होती है। दोनों के अपने अलग-अलग कार्यक्षेत्र होते हैं।
  2. धर्म निरपेक्ष राज्य किसी विशेष धर्म को न तो राजकीय धर्म मानता है और न किसी विशेष धर्म को संरक्षण प्रदान करता है।
  3. धर्म निरपेक्ष राज्य में सभी धर्मों को कानून के समक्ष समान समझा जाता है। किसी धर्म का दूसरे धर्म पर वर्चस्व स्थापित नहीं होता और न ही राज्य दूसरे धर्मों की तुलना में किसी विशेष धर्म को प्राथमिकता देता है।
  4. धर्म निरपेक्ष राज्य के लोग धार्मिक स्वतंत्रता का उपभोग करते हैं। किसी व्यक्ति पर किसी विशेष धर्म को लादा नहीं जाता। प्रत्येक व्यक्ति को यह स्वतंत्रता दी जाती है कि वह किसी भी धर्म को माने और पूजा की कोई भी विधि अपना सकता है।
  5. सामान्यतः राज्य तब तक लोगों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि किसी धार्मिक समुदाय की गतिविधि या धार्मिक संस्थाएँ कानून के विरुद्ध कार्य न करें तथा शांति व्यवस्था की समस्या खड़ी न करें।
  6. राज्य समाज में व्याप्त विविध धर्मों के बीच कोई भेदभाव नहीं करता है।
  7. राज्य धर्म के आधार पर सरकारी सेवाओं में अवसरों को प्रदान करने तथा अधिकार प्रदान करने के सम्बन्ध में व्यक्तियों के बीच कोई भेदभावपूर्ण कानून नहीं बना सकता है।
  8. धर्म निरपेक्ष राज्य में व्यक्ति को एक नागरिक होने के नाते अधिकार प्रदान किये जाते हैं, न कि किसी धार्मिक समुदाय का सदस्य होने के नाते।

प्रश्न 16.
भारत में राजपत्रित अवकाशों की सूची को ध्यान से पढ़ें। क्या यह भारत में धर्म निरपेक्षता का उदाहरण प्रस्तुत करती है? तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:

  1. भारत में उपर्युक्त राजपत्रित अवकाशों की सूची में सभी धर्मों – हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, जैन तथा बौद्ध धर्मों के प्रमुख त्यौहारों को छुट्टी प्रदान कर प्रत्येक धर्मावलम्बी को अपना त्यौहार स्वतंत्रतापूर्वक मनाने का समान अवसर दिया गया है।
  2. दूसरे, सभी धर्मों के त्यौहारों पर सभी धर्मावलम्बियों को छुट्टी प्रदान की गई है ताकि सभी लोग एक-दूसरे के त्यौहारों में शरीक हो सकें। इस प्रकार सभी धर्मावलम्बियों को समान महत्त्व दिया गया है। यह भारतीय धर्म निरपेक्षता का स्पष्ट उदाहरण है।

प्रश्न 17.
धर्म निरपेक्षता के बारे में नेहरू के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता के बारे में नेहरू के विचार – नेहरू स्वयं किसी धर्म का अनुसरण नहीं करते थे। लेकिन उनके लिए धर्म निरपेक्षता का मतलब धर्म के प्रति विद्वेष नहीं था। उनके लिए धर्म निरपेक्षता का अर्थ था।

  1. सभी धर्मों को राज्य द्वारा समान संरक्षण।
  2. वे ऐसा धर्म निरपेक्ष राष्ट्र चाहते थे जो सभी धर्मों की हिफाजत करे, अन्य धर्मों की कीमत पर किसी एक धर्म की तरफदारी न करे और खुद किसी धर्म को राज्य धर्म के बतौर स्वीकार न करे।
  3. वे धर्म और राज्य के बीच पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद के पक्ष में भी नहीं थे। उनके विचार के अनुसार, समाज में सुधार के लिए धर्मनिरपेक्ष राज्य सत्ता धर्म के मामले में हस्तक्षेप कर सकती है।
  4. उनके लिए धर्म निरपेक्षता का मतलब था तमाम किस्म की साम्प्रदायिकता का पूर्ण विरोध।
  5. उनके लिए धर्म निरपेक्षता सिद्धान्त का मामला भर नहीं था, वह भारत की एकता और अखंडता की एकमात्र गांरटी भी था। इसलिए बहुसंख्यक समुदाय की साम्प्रदायिकता की आलोचना में वे खास तौर पर कठोरता बरतते थे क्योंकि इससे राष्ट्रीय एकता पर खतरा उत्पन्न होता था।

प्रश्न 18.
धर्मों के बीच वर्चस्ववाद को दर्शाने वाले कोई तीन उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
धर्मों के बीच वर्चस्ववाद को दर्शाने वाले तीन उदाहरण निम्नलिखित हैं।

  1. 1984 में दिल्ली और देश के बाकी हिस्सों में लगभग चार हजार सिख मारे गये। पीड़ितों के परिवारजनों का मानना है कि दोषियों को आज तक सजा नहीं मिली है।
  2. हजारों कश्मीरी पंडितों को घाटी में अपना घर छोड़ने के लिए विवश किया गया। वे दो दशकों के बाद भी अपने घर नहीं लौट सके हैं।
  3. सन् 2002 में गुजरात में लगभग 2000 मुसलमान मारे गए। इन परिवारों के जीवित बचे हुए बहुत से सदस्य अभी भी अपने गाँव वापस नहीं जा सके हैं, जहाँ से वे उजाड़ दिए गए थे।
    इन सभी उदाहरणों में हर मामले में किसी एक धार्मिक समुदाय को लक्ष्य किया गया है और उसके लोगों को उनकी धार्मिक पहचान के कारण सताया गया है; उन्हें बुनियादी आजादी से वंचित किया गया है।

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प्रश्न 19.
अंतः धार्मिक वर्चस्व को सोदाहरण समझाइये। धर्म के अन्दर वर्चस्व को स्पष्ट कीजिये।
अथवा
उत्तर:

  1. एक ही धर्म के अन्दर एक वर्ग – विशेष का बोलबाला ( वर्चस्व ) होने की स्थिति अन्तः धार्मिक वर्चस्व की स्थिति कहलाती है।
  2. जब कोई धर्म एक संगठन में बदलता है तो आम तौर पर इसका सर्वाधिक रूढ़िवादी हिस्सा इस पर हावी हो जाता है जो किसी किस्म की असहमति बर्दाश्त नहीं करता। अमेरिका के कुछ हिस्सों में धार्मिक रूढ़िवाद बड़ी समस्या बन गया है जो देश के अन्दर भी शांति के लिए खतरा पैदा कर रहा है और बाहर भी । हिन्दू धर्म में कुछ तबके भेदभाव से स्थायी तौर पर पीड़ित रहे हैं। मसलन, दलितों को हिन्दू मंदिरों में प्रवेश से हमेशा रोका जाता है। देश के कुछ हिस्सों में हिन्दू महिलाओं का भी मंदिरों में प्रवेश वर्जित है।
  3. कई धर्म संप्रदायों में टूट जाते हैं और निरन्तर आपसी हिंसा और भिन्न मत रखने वाले अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न में लगे रहते हैं। उपर्युक्त तीनों ही उदाहरण धर्म के अन्दर वर्चस्व के हैं।

प्रश्न 20.
अल्पसंख्यकवाद से क्या आशय है? क्या भारत में अल्पसंख्यक अधिकारों को विशेषाधिकारों के रूप में देखा जाना चाहिए?
उत्तर:
अल्पसंख्यकवाद: भारतीय धर्मनिरपेक्षता की एक आलोचना अल्पसंख्यकवाद कहकर की जाती है। इसका आशय यह है कि भारतीय राज्य सत्ता अल्पसंख्यक अधिकारों की पैरवी करती है और उन्हें विशेष सुविधाएँ प्रदान करती है। इस प्रकार भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म के आधार पर भेदभाव करती है। लेकिन यह आलोचना त्रुटिपरक है। क्योंकि अपने महत्त्वपूर्ण हितों की पूर्ति किसी व्यक्ति का प्राथमिक अधिकार होता है और जो बात व्यक्तियों के लिए सही . है, वह समुदायों के लिए भी सही होगी।

इस आधार पर अल्पसंख्यकों के सर्वाधिक मौलिक हितों की क्षति नहीं होनी चाहिए और संवैधानिक कानून द्वारा उसकी हिफाजत की जानी चाहिए। भारतीय संविधान में ठीक इसी तरीके से इस पर विचार किया गया है। जिस हद तक अल्पसंख्यकों के अधिकार उनके मौलिक हितों की रक्षा करते हैं, उस हद तक वे न्यायसंगत हैं। अल्पसंख्यकों को जो विशेष अधिकार दिये जा रहे हैं, उसका उद्देश्य उन्हें समान अवसर प्रदान करने की विधान है, न कि उन्हें विशेष अधिकार देना। उनके लिए यह वैसे ही सम्मान और गरिमा से भरा बरताव है जो दूसरों के साथ किया जा रहा है। इसका मतलब यही है कि अल्पसंख्यक अधिकारों को विशेष सुविधा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय धर्म निरपेक्षता और पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारतीय धर्म निरपेक्षता और पश्चिमी धर्म निरपेक्षता में अन्तर – यद्यपि सभी धर्म निरपेक्ष राज्यों में कुछ विशेषताएँ कॉमन होती हैं जैसे-

  1. राज्य धर्म पर आधारित नहीं है।
  2. राज्य किसी विशेष धर्म को न तो अंगीकर करता है और न उसे स्थापित करता है तथा
  3. राज्य और धर्म में पृथकता होती है।

लेकिन राज्य धर्म से किस सीमा तक दूरी रखता है, यह प्रत्येक धर्म निरपेक्ष राज्य में भिन्न-भिन्न होता है। भारतीय धर्म निरपेक्ष मॉडल और अमेरिकी मॉडल पर आधारित पाश्चात्य धर्म निरपेक्ष मॉडल में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं।

1. धर्म और राज्य सत्ता की पृथकता:
पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता के अन्तर्गत राज्य और धर्म के बीच पूर्ण पृथकता है। इस विच्छेद को पारस्पिक निषेध के रूप में समझा जाता है। इसका अर्थ है- राज्य सत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी और धर्म राज्य सत्ता के मामलों में दखल नहीं देगा। दोनों के अपने अलग-अलग कार्य व क्षेत्र हैं। राज्य सत्ता की कोई नीति पूर्णतः धार्मिक तर्क के आधार पर निर्मित नहीं हो सकती। लेकिन भारत में इस तरह की पूर्ण और पारस्परिक पृथकता नहीं है।

भारतीय राज्य सैद्धान्तिक दूरी की नीति का पालन करता है। इसी आधार पर राज्य ने हिन्दुओं में स्त्रियों और दलितों के शोषण का विरोध किया है। इसने भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अन्दर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किये जा सकने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया है।

2. धार्मिक संस्थाओं को सहायता:
पाश्चात्य, धर्म निरपेक्षता के अन्तर्गत, राज्य धार्मिक संस्थाओं को मदद नहीं दे सकता, वह धार्मिक समुदायों द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थाओं को वित्तीय सहयोग नहीं दे सकता। वे अपने कार्यों की व्यवस्था स्वयं के व्यक्तिगत प्रयासों से ही करते हैं। इसी के साथ-साथ राज्य धार्मिक संस्थाओं के कार्यों में तब तक हस्तक्षेप नहीं कर सकता, जब तक कि वे कानून द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करती हैं।

लेकिन भारत में राज्य धार्मिक संस्थाओं को आर्थिक मदद देता है। वह धार्मिक समुदायों और अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं को आर्थिक सहयोग दे सकता है । यह उनके कार्यों में हस्तक्षेप कर सकता है और उनसे कुछ निश्चित नियमों तथा विनियमों को पालन करने के लिए कह सकता है।

3. धर्म की स्वतंत्रता:
पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता स्वतंत्रता और समानता की व्यक्तिवादी ढंग से व्याख्या करती है। इसका अभिप्राय है कि राज्य केवल व्यक्तियों, नागरिकों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को ही मान्यता देता है। यह अल्पसंख्यक समुदायों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को मान्यता नहीं देता।

लेकिन भारत में राज्य न केवल व्यक्तियों, नागरिकों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को मान्यता देता है, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को भी मान्यता देता है। धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी स्वयं की संस्कृति और शैक्षिक संस्थाएँ कायम रखने का अधिकार है तथा वे शांतिपूर्ण ढंग से अपने धर्म का प्रचार भी कर सकती हैं।

4. राज्य समर्थित धार्मिक सुधार:
पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार के लिए कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि यह राज्यसत्ता और धर्मसत्ता के बीच अटल विभाजन में विश्वास करती है। इसलिए राज्य धर्म के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। लेकिन भारतीय धर्मनिरपेक्षता राज्य समर्थित धार्मिक सुधारों की वकालत करती है तथा सैद्धान्तिक दूरी के सिद्धान्त को अपनाती है। इसीलिए भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है। भारतीय राज्य ने बाल विवाह के उन्मूलन और अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म के द्वारा लगाए गए निषेध को खत्म करने हेतु कानून बनाए हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

प्रश्न 2.
धर्म निरपेक्षवाद से क्या आशय है? इसकी प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षवाद का अर्थ: सामान्य अर्थ में धर्म निरपेक्षवाद एक ऐसा वातावरण है जहाँ कानून की दृष्टि में सभी धर्म समान हैं अर्थात् कानून सभी धर्मों के साथ समान रूप से व्यवहार करता है; लोग धार्मिक स्वतंत्रता का उपभोग करते हैं तथा जहाँ राज्य के प्रशासन और मानव जीवन के ऊपर किसी धर्म का वर्चस्व नहीं है। राज्य सत्ता और धर्म को अलग-अलग रखा जाता है और प्रशासन धार्मिक नियमों के अनुसार नहीं चलता बल्कि वह सरकार द्वारा पारित कानूनों के अनुसार चलता है। एक समाज जिसमें ऐसा वातावरण पाया जाता है, उसे धर्म निरपेक्ष समाज कहा जाता है और एक राज्य जिसमें ऐसा वातावरण पाया जाता है उसे धर्म निरपेक्ष राज्य कहा जाता है। धर्म निरपेक्षवाद की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं।

1. डोनाल्ड स्मिथ के शब्दों में, “धर्म निरपेक्ष राज्य वह राज्य है जिसके अन्तर्गत धर्म-विषयक, व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्वतंत्रता सुरक्षित रहती है, जो व्यक्ति के साथ व्यवहार करते समय धर्म को बीच में नहीं लाता है, जो संवैधानिक रूप से किसी धर्म से सम्बन्धित नहीं है और न किसी धर्म की उन्नति का प्रयत्न करता है और न ही किसी धर्म के मामले में हस्तक्षेप करता है। ”

2. श्री लक्ष्मीकांत मैत्र के अनुसार, ” धर्म निरपेक्ष राज्य से अभिप्राय यह है कि ऐसा राज्य धर्म या धार्मिक समुदाय के आधार पर किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई भेदभाव नहीं करता है। इसका अभिप्राय यह है कि राज्य की ओर से . किसी विशिष्ट धर्म को मान्यता प्राप्त नहीं होगी।” उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि धर्म निरपेक्ष राज्य से अभिप्राय एक ऐसे राज्य से है जिसका अपना कोई धर्म नहीं होता और जो धर्म के आधार पर व्यक्तियों में कोई भेदभाव नहीं करता। इसका अर्थ एक अधर्मी या धर्म विरोधी या नास्तिक राज्य से नहीं है बल्कि एक ऐसे राज्य से है जो धार्मिक मामलों में तटस्थ रहता है क्योंकि यह धर्म को व्यक्ति की निजी वस्तु मानता है।

धर्म निरपेक्षवाद की विशेषताएँ: धर्म निरपेक्षवाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. धर्मों के बीच वर्चस्ववाद का विरोध;
धर्म निरपेक्षता को सर्वप्रमुख रूप से ऐसा सिद्धान्त समझा जाना चाहिए जो विभिन्न धर्मों के बीच किसी भी धर्म के वर्चस्ववाद का विरोध करता है अर्थात् यह अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का विरोध करता है। यह समाज में विद्यमान विभिन्न धर्मों के बीच समानता पर बल देता है तथा सभी धर्मों की आजादी को बढ़ावा देता है। दूसरे शब्दों में

  • सभी धर्म समान स्तर पर आधारित हैं और समाज में उनके साथ समानता का व्यवहार किया जाता है।
  • दूसरे धर्मों पर किसी एक धर्म के वर्चस्व का यह विरोध करता है तथा वे एक-दूसरे को समान आदर देते हैं।
  • धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति का दूसरों पर वर्चस्व नहीं होना चाहिए।

2. धर्म के अन्दर वर्चस्व का विरोध:
धर्म निरपेक्षता का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष है। धर्म के अन्दर छुपे वर्चस्व का विरोध करना अर्थात् अन्तः धार्मिक वर्चस्व का विरोध करना। जब कोई धर्म एक संगठन में बदलता है तो आम तौर पर इसका सर्वाधिक रूढ़िवादी हिस्सा इस पर हावी हो जाता है जो किसी किस्म की असहमति बर्दाश्त नहीं करता। अमेरिका के कुछ हिस्सों में धार्मिक रूढ़िवाद बड़ी समस्या बन गया है जो देश के अन्दर भी शांति के लिए खतरा पैदा कर रहा है. और बाहर भी।

हिन्दू धर्म में कुछ तबके भेदभाव से स्थायी रूप से पीड़ित रहे हैं। मसलन, दलितों को हिन्दू मन्दिरों में प्रवेश से रोका जाता रहा है। कई धर्म सम्प्रदायों में टूट जाते हैं और निरन्तर आपसी हिंसा तथा भिन्न मत रखने वाले अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न में लगे रहते हैं। ये स्थितियाँ धर्म के अन्दर वर्चस्ववाद की हैं। धर्म निरपेक्षवाद धर्म के अन्दर वर्चस्ववाद के सभी रूपों का विरोध करता है।

3. धर्म निरपेक्ष राज्य: धर्म निरपेक्षतावाद धर्म निरपेक्ष समाज के साथ-साथ धर्म निरपेक्ष राज्य का समर्थन करता है। धर्म निरपेक्ष राज्य की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं।

  • राज्य सत्ता किसी खास धर्म के प्रमुखों द्वारा संचालित नहीं होनी चाहिए।
  • धार्मिक संस्थाओं और राज्य सत्ता की संस्थाओं के बीच सम्बन्ध विच्छेद अवश्य होना चाहिए।
  • राज्य सत्ता को किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से दूर रहना आवश्यक है।
  • राज्य सत्ता को शांति, धार्मिक स्वतंत्रता, धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्जना से आजादी, अन्तर-1 – धार्मिक समानता और अन्तः धार्मिक समानता के लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए।

4. अन्य विशेषताएँ: धर्म निरपेक्षवाद की निम्न अन्य प्रमुख विशेषताएँ बतायी जा सकती हैं।

  • राज्य को व्यक्तियों के धार्मिक मामलों में तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब तक कि उसकी गतिविधियाँ कानून द्वारा निर्धारित सीमाओं के बाहर न हों, शांति व्यवस्था व देश की एकता व अखंडता के लिए खतरा न हों।
  • समाज में सभी व्यक्तियों को किसी भी धर्म को अपनाने, उसके प्रति विश्वास रखने तथा इच्छानुसार पूजा-पाठ करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

प्रश्न 3.
धर्म निरपेक्षता के भारतीय मॉडल की प्रमुख विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता का भारतीय मॉडल: भारतीय धर्म निरपेक्षता पश्चिमी धर्म निरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित
1. अन्तर-धार्मिक समानता:
भारतीय धर्म निरपेक्षता केवल धर्म और राज्य के बीच सम्बन्ध विच्छेद पर बल नहीं देती है। यह अन्तर- धार्मिक समानता पर अधिक बल देती है। भारत में पहल से ही अन्तर- धार्मिक सहिष्णुता की संस्कृति मौजूद थी। पश्चिमी आधुनिकता के आगमन ने भारतीय चिंतन में समानता की अवधारणा को सतह पर ला दिया जिसने समुदाय के अन्दर समानता पर बल देने की ओर अग्रसर किया और अन्तर सामुदायिकता के विचार को उद्घाटित किया। इस प्रकार धार्मिक विविधता,

‘अन्तर – धार्मिक सहिष्णुता’ और ‘अन्तर – सामुदायिक समानता’ ने परस्पर अन्तःक्रिया कर भारतीय धर्म निरपेक्षता की ‘अन्तर- धार्मिक समानता’ की विशिष्टता को निर्मित किया। ‘ अन्तर- धार्मिक समानता’ की प्रमुख विशेषताओं को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।

  • राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है और न ही वह किसी विशेष धर्म को औपचारिक रूप से बढ़ावा देगा अर्थात् भारतीय राज्य न तो धर्मतांत्रिक है और न ही वह किसी धर्म को राजधर्म मानता है।
  • राज्य की दृष्टि में सभी धर्म एकसमान हैं। वह सभी धर्मों को समान संरक्षण प्रदान करता है।
  • कानून की दृष्टि में सभी धर्मों के व्यक्ति समान हैं। धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता है।
  • सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किए गए हैं। सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है।

2. व्यक्तियों तथा अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार: भारतीय धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है। इस विशेषता के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों का समावेश किया गया है।

  • हर व्यक्ति को अपने पसंद का धर्म मानने तथा अपनी पसंद के अनुसार पूजा-पाठ करने की स्वतंत्रता है। प्रत्येक व्यक्ति को धर्म में विश्वास रखने, धार्मिक कार्य करने तथा प्रचार करने का अधिकार है; लेकिन यह स्वतंत्रता कानून के दायरे में रहते हुए प्राप्त है अर्थात् जब इस स्वतंत्रता का उपभोग करते हुए कोई व्यक्ति कानून एवं व्यवस्था व नैतिकता को खतरे में डालेगा तो राज्य उसकी इस स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकता है।
  • धार्मिक अल्पसंख्यकों को भीं अपनी खुद की संस्कृति और शैक्षिक संस्थाएँ कायम रखने का अधिकार है। सभी धर्मों को दान द्वारा इकट्ठे किये गए धन से संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार है। सभी धर्मों के लोगों को अपने धर्म सम्बन्धी मामलों का प्रबन्ध करने का अधिकार है और वे चल तथा अचल सम्पत्ति प्राप्त कर सकते हैं।
  • सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी इच्छानुसार शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करने एवं उनका प्रबन्ध करने का अधिकार है।
  • सरकार शिक्षा संस्थाओं को अनुदान देते समय धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेगी। किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा या उसकी सहायता से चलाई जाने वाली शिक्षा संस्था में प्रवेश देने से धर्म के आधार पर इनकार नहीं किया जायेगा।

3. राज्य समर्थित धार्मिक सुधा: भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की काफी गुंजाइश है और अनुकूलता भी। इसीलिए भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है। भारतीय राज्य ने बाल-विवाह के उन्मूलन और अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म द्वारा लगाए निषेध को खत्म करने हेतु अनेक कानून बनाए हैं।

4. धर्मों में राज्यसत्ता के सैद्धान्तिक हस्तक्षेप की अनुमति: भारतीय राज्यसत्ता ने धार्मिक समानता हासिल क़रने के लिए अत्यन्त परिष्कृत नीति अपनाई है। इसी नीति के चलते व अमेरिकी शैली में धर्म से पृथक् भी हो सकती है और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकती है। यथा

  • भारतीय राज्य धार्मिक अत्याचार का विरोध करने हेतु धर्म के साथ निषेधात्मक सम्बन्ध भी बना सकता है। यह बात अस्पृश्यता पर प्रतिबन्ध जैसी कार्यवाहियों में झलकती है।
  • भारतीय राज्य धर्मों से जुड़ाव की सकारात्मक विधि भी अपना सकता है। इसीलिए, भारतीय संविधान तमाम धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने खुद की शिक्षण संस्थाएँ खोलने और चलाने का अधिकार देता है जिन्हें राज्य सत्ता की ओर से सहायता भी मिल सकती है।

शांति, स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए भारतीय राज्य सत्ता ये तमाम जटिल रणनीतियाँ अपना सकती है। इस प्रकार भारतीय धर्म निरपेक्षता तमाम धर्मों में राज्य सत्ता के सैद्धान्तिक हस्तक्षेप की अनुमति देती है । ऐसा हस्तक्षेप हर धर्म के कुछ खास पहलुओं के प्रति असम्मान प्रदर्शित करता है तथा यह संगठित धर्मों के कुछ पहलुओं के प्रति एक जैसा सम्मान दर्शाने की अनुमति भी देता है ।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

प्रश्न 4.
भारतीय धर्म निरपेक्षता की आलोचना किन आधारों पर की जाती है? विवेचना कीजिये।
उत्तर:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की आलोचनाएँ: भारतीय धर्म निरपेक्षता की निम्नलिखित आलोचनाएँ की जाती हैं।
1. धर्म विरोधी:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की एक प्रमुख आलोचना यह की जाती है कि यह धर्म विरोधी है। इसके समर्थन में आलोचक निम्नलिखित तर्क देते हैं।

  1. यह संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व का विरोध करती है।
  2. यह धार्मिक पहचान के लिए खतरा पैदा करती है।

लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि ‘संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व का विरोध’ धर्म विरोधी होने का पर्याय नहीं है। दूसरे यह धार्मिक स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा देती है। इसलिए यह धार्मिक पहचान को खतरा पैदा करने के स्थान पर उसकी हिफाजत करती है। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता की धर्म विरोधी होने की आलोचना निराधार है। हाँ, यह धार्मिक पहचान के मतांध, हिंसक, दुराग्रही और अन्य धर्मों के प्रति घृणा उत्पन्न करने वाले रूपों पर अवश्य चोट करती है।

2. पश्चिम से आयातित:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की दूसरी आलोचना यह है कि यह ईसाइयत से जुड़ी हुई है अर्थात् पश्चिमी चीज है और इसीलिए भारतीय परिस्थितियों के लिए अनुपयुक्त है।
धर्म और राज्य का पारस्परिक निषेध जिसे पश्चिमी धर्म निरपेक्ष समाजों का आदर्श माना जाता है; भारतीय धर्म निरपेक्ष राज्य सत्ता की प्रमुख विशेषता नहीं है। भारतीय धर्म निरपेक्ष राज्य सत्ता समुदायों के बीच शांति को बढ़ावा देने के लिए धर्म से सैद्धान्तिक दूरी बनाए रखने की नीति पर चलती है और खास समुदायों की रक्षा के लिए वह उनमें हस्तक्षेप भी कर सकती है।

इस प्रकार यह धर्म निरपेक्षता न तो पूरी तरह से ईसाइयत से जुड़ी है और न शुद्ध पश्चिम से आयातित है, बल्कि यह पश्चिमी और गैर-पश्चिमी दोनों की अन्तःक्रिया से उपजी है जो भारतीय परिस्थितियों के लिए सर्वथा उपयुक्त है। अतः पश्चिम से आयातित होने की आलोचना भी निराधार है।

3. अल्पसंख्यकवाद:
भारतीय धर्म निरपेक्षता पर अल्पसंख्यकवाद का आरोप इस आधार पर मढ़ा जाता है कि यह अल्पसंख्यक अधिकारों की पैरवी करती है। लेकिन ये अल्पसंख्यक अधिकार, उनके विशेषाधिकार नहीं हैं, बल्कि उनके मौलिक हितों की रक्षा करने तक ही सीमित हैं। ये अधिकार अल्पसंख्यक धर्म वालों को वैसा ही सम्मान और गरिमा भरा बरताव प्रदान करने के लिए हैं जैसा कि दूसरों के साथ किया जा रहा है। अतः अल्पसंख्यक अधिकारों को विशेष सुविधाओं के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इस प्रकार भारतीय धर्म निरपेक्षता की अल्पसंख्यकवाद होने की आलोचना भी निराधार है।

4. अतिशय हस्तक्षेपकारी:
एक अन्य आलोचना यह की जाती है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता उत्पीड़नकारी है और समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता में अतिशय हस्तक्षेप करती है। लेकिन यह भारतीय धर्म निरपेक्षता के बारे में गलत समझ है। यद्यपि यह सही है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म और राज्य के पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद के विचार को नहीं स्वीकार करती है और सैद्धान्तिक हस्तक्षेप को मानती है। लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि यह अतिशय हस्तक्षेपकारी व उत्पीड़नकारी है। यह भी सही है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता राज्य सत्ता समर्थित धार्मिक सुधार की इजाजत देती है। लेकिन इसे उत्पीड़नकारी हस्तक्षेप के समान नहीं माना जा सकता। यह धर्म के विकास के लिए है, न कि धर्म के उत्पीड़न के लिए।

5. वोट बैंक की राजनीति:
एक आलोचना यह की जाती हैं कि भारतीय धर्म निरपेक्षता वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है। अनुभवजन्य राजनीति के दावे के रूप में यह पूर्णतः असत्य भी नहीं है। लेकिन लोकतंत्र में राजनेताओं के लिए वोट पाना जरूरी है। यह उनके काम का अंग है और लोकतांत्रिक राजनीति बड़ी हद तक ऐसी ही है। लोगों के किसी समूह के पीछे लगने या उनका वोट पाने की खातिर कोई नीति बनाने का वादा करने के लिए राजनेताओं को दोष देना उचित नहीं है। यदि अल्पसंख्यकों का वोट पाने वाले धर्म निरपेक्ष राजनेता उनकी मांग पूरी करने में समर्थ होते हैं, तो यह धर्म निरपेक्षता की सफलता होगी, क्योंकि धर्म निरपेक्षता अल्पसंख्यकों के हितों की भी रक्षा करती है।

6. एक असंभव परियोजना:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की एक अन्य आलोचना यह की जाती है कि यह एक ऐसी समस्या का हल ढूँढ़ना चाहती है जिसका समाधान है ही नहीं। यह समस्या है। गहरे धार्मिक मतभेद वाले लोग कभी भी एक साथ शांति से नहीं रह सकते। लेकिन यह आलोचना त्रुटिपरक है क्योंकि भारतीय सभ्यता का इतिहास दिखाता है कि इस तरह साथ-साथ रहना बिल्कुल संभव है। ऑटोमन साम्राज्य इसका स्पष्ट उदाहरण है। इसके प्रत्युत्तर में आलोचक यह तर्क दे सकते हैं कि आज ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि अब समानता लगातार प्रभावी सांस्कृतिक मूल्य बनती जा रही है। इसके प्रत्युत्तर में यह कहा जा सकता है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता एक असंभव परियोजना का अनुसरण नहीं वरन् भविष्य की दुनिया को प्रतिबिंब प्रस्तुत करना है।

JAC Class 9 Science Notes Chapter 14 प्राकृतिक सम्पदा

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JAC Board Class 9 Science Notes Chapter 14 प्राकृतिक सम्पदा

→ पृथ्वी पर जीवन मृदा, वायु, जल तथा सूर्य से प्राप्त ऊर्जा जैसी सम्पदाओं पर निर्भर करता है।

→ स्थल और जलाशयों के ऊपर विषम रूप में वायु के गर्म होने के कारण पवनें उत्पन्न होती हैं।

→ जलाशयों से होने वाले जल का वाष्पीकरण तथा संघनन हमें वर्षा प्रदान करता है।

→ किसी क्षेत्र में पहले से विद्यमान वायु के रूप पर होने वाली वर्षा का पैटर्न निर्भर करता है।

→ विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व चक्रीय रूपों में पुनः उपयोग किये जाते हैं जिसके कारण जैवमण्डल के विभिन्न घटकों में एक निश्चित सन्तुलन स्थापित होता है।

JAC Class 9 Science Notes Chapter 14 प्राकृतिक सम्पदा

→ वायु, जल तथा मृदा का प्रदूषण जीवन की गुणवत्ता और जैव विविधताओं को हानि पहुँचाता है।

→ हमें अपनी प्राकृतिक सम्पदाओं को सुरक्षित रखने की आवश्यकता है और उन्हें संपोषणीय रूपों में उपयोग करने की आवश्यकता है।

→ पृथ्वी की सबसे बाहरी परत को स्थलमण्डल कहते हैं।

→ पृथ्वी के 75% भाग पर जल है। इसे जलमण्डल कहते हैं।

JAC Class 9 Science Notes Chapter 14 प्राकृतिक सम्पदा

→ वायु जो पूरी पृथ्वी को कम्बल के समान ढके रहती है, उसे वायुमण्डल कहते हैं।

→ जीवन को आश्रय देने वाला पृथ्वी का वायुमण्डल, स्थलमण्डल तथा जलमण्डल एक-दूसरे से मिलकर जीवन को सम्भव बनाते हैं, उसे जीवमण्डल कहते हैं।

→ सजीव जीवमण्डल के जैविक घटक को बनाते हैं तथा वायु, जल और मृदा जीवमण्डल के निर्जीव घटक हैं।

JAC Class 9 Science Notes Chapter 13 हम बीमार क्यों होते हैं

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JAC Board Class 9 Science Notes Chapter 13 हम बीमार क्यों होते हैं

→ स्वास्थ्य व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक जीवन की एक समग्र समन्वयित अवस्था है।

→ किसी का स्वास्थ्य उसके भौतिक पर्यावरण तथा आर्थिक अवस्था पर निर्भर करता है।

→ रोगों की अवधि के आधार पर इसे तीव्र तथा दीर्घकालिक दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं।

→ रोगों के कारक संक्रामक अथवा असंक्रामक हो सकते हैं।

→ संक्रामक कारक जीवों के विभिन्न वर्ग से हो सकते हैं। ये एककोशिकीय सूक्ष्म जीव अथवा बहुकोशिकीय हो सकते हैं।

JAC Class 9 Science Notes Chapter 13 हम बीमार क्यों होते हैं

→ रोग का उपचार उसके कारक रोगाणु के वर्ग के आधार पर किया जाता है।

→ संक्रामक कारक वायु, जल, शारीरिक सम्पर्क अथवा रोगवाहक द्वारा फैलते हैं।

→ रोगों का निवारण सफल उपचार की अपेक्षा अच्छा है।

→ संक्रामक रोगों का निवारण जन स्वास्थ्य स्वच्छता विधियों द्वारा किया जा सकता है जिससे संक्रामक कारक कम हो जाते हैं।

→ टीकाकरण द्वारा संक्रामक रोगों का निवारण किया जा सकता है।

→ संक्रामक रोगों के निवारण को प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यक है कि सार्वजनिक स्वच्छता तथा टीकाकरण की सुविधा सभी को उपलब्ध हो।

JAC Class 9 Science Notes Chapter 12 ध्वनि

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JAC Board Class 9 Science Notes Chapter 12 ध्वनि

→ किसी कण की वह गति जो एक निश्चित समय के बाद बार-बार दोहराई जाती है, आवर्ती गति कहलाती है।

→ किसी कण द्वारा सरल रेखा में एक निश्चित बिन्दु के इधर-उधर आवर्ती गति हो रही हो तो यह गति काम्पनिक गति या दोलनी गति कहलाती है।

→ माध्यम में कणों के कम्पनों के अनुसार तरंगें दो प्रकार की होती हैं-

  • अनुप्रस्थ तरंगें
  • अनुदैध्र्य तरंगें।

→ ध्वनि विभिन्न वस्तुओं के कंपन करने के कारण उत्पन्न होती है तथा ध्वनि तरंगें, अनुदैध्र्य तरंगें होती हैं।

→ ध्वनि माध्यम में क्रमागत संपीडनों तथा विरलनों के रूप में संचरित होती है।

JAC Class 9 Science Notes Chapter 12 ध्वनि

→ ध्वनि तरंगों में दो क्रमागत संपीडनों या दो क्रमागत विरलनों के बीच की दूरी तरंगदैर्ध्य कहलाती है। इसे λ से प्रदर्शित करते हैं।

→ तरंग द्वारा माध्यम के घनत्व के एक संपूर्ण दोलन में लिए गए समय को आवर्तकाल T कहते हैं।

→ एकांक समय में दोलनों की कुल संख्या को आवृत्ति (v) कहते हैं। v = \(\frac { 1 }{ T }\)

→ तरंग की चाल, उसकी आवृत्ति तथा तरंगदैर्ध्य के गुणनफल के बराबर होती है, अर्थात् v = v λ

→ किसी एकांक क्षेत्रफल से 1 सेकंड में गुजरने वाली ध्वनि ऊर्जा को ध्वनि की तीव्रता कहते हैं।

→ ध्वनि की चाल मुख्यतः संचरित होने वाले माध्यम की प्रकृति तथा ताप पर निर्भर करती है।

→ ध्वनि के आपतित होने की दिशा तथा परावर्तित होने की दिशा, परावर्तक सतह पर खींचे गए अभिलंब से समान कोण बनाते हैं और तीनों एक ही तल में होते हैं।

→ स्पष्ट प्रतिध्वनि सुनने के लिए मूल ध्वनि एवं परावर्तित ध्वनि के बीच कम से कम 0.1 s का समय अंतराल अवश्य होना चाहिए।

→ ध्वनि के तीन अभिलक्षण होते हैं-

  • तारत्व
  • प्रबलता
  • गुणता।

→ मानव में ध्वनि की श्रव्यता की आवृत्तियों का औसत परास 20 हर्ट्ज से 20 किलो हर्ट्ज होता है।

JAC Class 9 Science Notes Chapter 12 ध्वनि

→ 20 हर्ट्ज से कम आवृत्ति की ध्वनियों को अवश्रव्य ध्वनि तथा 20 किलोहर्ट्ज से अधिक आवृत्ति की ध्वनि को पराश्रव्य ध्वनि कहते हैं।

→ पराध्वनि के चिकित्सा तथा प्रौद्योगिक क्षेत्रों में अनेक उपयोग हैं।

→ सोनार एक ऐसी युक्ति है जिसका प्रयोग समुद्र की गहराई नापने, समुद्र की गहराई में किसी अदृश्य वस्तु की उपस्थिति का पता लगाने में किया जाता है।

→ सोनार में पराश्रव्य तरंगों का प्रयोग किया जाता है।

→ एकल आवृत्ति की ध्वनि को टोन कहते हैं तथा अनेक आवृत्तियों के मिश्रण से उत्पन्न ध्वनि को स्वर (Node) कहते हैं।

JAC Class 9 Science Notes Chapter 11 कार्य तथा ऊर्जा

Students must go through these JAC Class 9 Science Notes Chapter 11 कार्य तथा ऊर्जा to get a clear insight into all the important concepts.

JAC Board Class 9th Science Notes Chapter 11  कार्य तथा ऊर्जा

→ यदि किसी वस्तु पर बल लगाने पर वह बल की दिशा में विस्थापित हो जाये, तो यह बल द्वारा वस्तु पर कार्य कहा जाता है।

→ यदि बल लगाने पर वस्तु में विस्थापन न हो तो बल द्वारा किया गया कार्य शून्य होगा।

→ किसी पिण्ड पर किया गया कार्य, उस पर लगाये गये बल के परिमाण तथा बल की दिशा में उसके द्वारा तय की गई। दूरी के गुणन के बराबर होता है। कार्य धनात्मक तथा ऋणात्मक दो प्रकार का हो सकता है।

→ यदि वस्तु के विस्थापन s की दिशा, बल F की दिशा से 6 कोण बनाती है तो बल द्वारा वस्तु पर किया गया कार्य निम्नलिखित सूत्र द्वारा प्राप्त होता है-
W = Fs cosθ

JAC Class 9 Science Notes Chapter 11 कार्य तथा ऊर्जा

→ कार्य का मात्रक जूल है।

→ किसी वस्तु के कार्य करने की कुल क्षमता को उसकी ऊर्जा कहते हैं। ऊर्जा दो प्रकार की होती है- (i) गतिज ऊर्जा। (ii) स्थितिज ऊर्जा।

→ किसी गतिमान वस्तु में उसकी गति के कारण निहित ऊर्जा को गतिज ऊर्जा कहते हैं। यदि m द्रव्यमान की वस्तु v वेग से गतिमान हो तब गतिज ऊर्जा E = mv2

→ किसी गतिमान वस्तु की गतिज ऊर्जा, उसे विरामावस्था से गति की वर्तमान अवस्था तक लाने में किए गए कार्य के बराबर होती है।

→ यदि mm द्रव्यमान की वस्तु पर F बल लगाकर उसे बल की दिशा में दूरी विस्थापित करने में वस्तु का वेग u से बदलकर हो जाता है तब
\(\frac { 1 }{ 2 }\)m (v² – u² ) = F x s

→ किसी वस्तु की स्थिति विशेष के कारण उसके पास जो ऊर्जा होती है, उसे वस्तु की स्थितिज ऊर्जा कहते हैं।

→ गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा U = mgh सूत्र से दी जाती है।

→ सभी प्रकार की ऊर्जाओं का मात्रक जूल है।

→ ऊर्जा संरक्षण के नियमानुसार “ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकतं है और न ही नष्ट की जा सकती है। ऊर्जा केवल एक रूप से दूसरे रूप में रूपान्तरित होती रहती है। ऊर्जा रूपान्तरण के दौरान निकाय की कुल ऊर्जा नियत रहती है।

JAC Class 9 Science Notes Chapter 11 कार्य तथा ऊर्जा

→ गुरुत्वीय त्वरण के अन्तर्गत गिरती हुई वस्तु की गतिज ऊर्जा तथा स्थितिज ऊर्जा का योग पथ के प्रत्येक बिन्दु पर नियत रहता है।

→ किसी वस्तु के कार्य करने की समय दर को उसकी शक्ति कहते हैं। इसे P से प्रदर्शित करते हैं। इसका मात्रक जूल / सेकण्ड अथवा वाट है।
P = \(\frac { W }{ t }\) जहाँ W = किया गया कार्य तथा समय है।

→ यदि कोई कर्ता (एजेंट) एक जूल प्रति सेकण्ड की दर से कार्य करता है तो उसकी शक्ति 1 वाट होती है।

→ शक्ति के अन्य मात्रक किलोवाट तथा अश्वशक्ति हैं।

  • 1 किलोवाट – 1000 वाट
  • 1 अश्वशक्ति – 746 वाट

→ ऊर्जा का व्यावसायिक मात्रक किलोवॉट घण्टा (kWh ) है जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में यूनिट कहते हैं।

→ 1 kW की दर से एक घंटे में व्यय हुई ऊर्जा एक किलोवाट घंटा (1 kWh ) के बराबर होती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. आजादी के समय देश में अधिकांश प्रांत ऐसे थे जिन्हें अंग्रेजों ने गठित किया था
(क) सामान्य भाषा के आधार पर
(ख) सामान्य आर्थिक हित के आधार पर
(ग) सामान्य क्षेत्र के आधार पर
(घ) प्रशासनिक सुविधा के आधार पर
उत्तर:
(घ) प्रशासनिक सुविधा के आधार पर

2. इस समय भारत संघ में कुल राज्य हैं।
(क) 14
(ख) 16
(ग) 25
(घ) 28
उत्तर:
(घ) 28

3. निम्नलिखित में जो संघात्मक शासन प्रणाली की विशेषता नहीं है, वह है।
(क) शक्तियों का विभाजन
(ख) संविधान की सर्वोच्चता
(ग) इकहरी नागरिकता
(घ) न्यायपालिका की स्वतंत्रता
उत्तर:
(ग) इकहरी नागरिकता

4. भारतीय संविधान निर्माताओं को संघात्मक व्यवस्था में एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।
(क) विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रखने के लिए
(ख) राष्ट्रीय एकता की स्थापना के लिए
(ग) विकास की चिंताओं ने
(घ) उपर्युक्त सभी ने
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी ने

5. भारत के राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है।
(क) राष्ट्रपति द्वारा
(ख) मुख्यमंत्री द्वारा
(ग) लोकसभा अध्यक्ष द्वारा
(घ) गृहमंत्री द्वारा।
उत्तर:
(क) राष्ट्रपति द्वारा

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

6. केन्द्र-राज्य सम्बन्धों से जुड़े मसलों की पड़ताल के लिए केन्द्र सरकार द्वारा 1983 में एक आयोग बनाया गया। इस आयोग को जाना जाता है।
(क) योजना आयोग के नाम से
(ख) सरकारिया आयोग के नाम से
(ग) अन्तर्राज्यीय आयोग के नाम से
(घ) लोक सेवा आयोग के नाम से
उत्तर:
(ख) सरकारिया आयोग के नाम से

7. संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में आपसी विवाद को कहा जाता है।
(क) केन्द्र-राज्य विवाद
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय विवाद
(ग) अन्तर्राज्यीय विवाद
(घ) आन्तरिक विवाद
उत्तर:
(ग) अन्तर्राज्यीय विवाद

8. संविधान के अनुच्छेद 370 के द्वारा भारत संघ के किस राज्य को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई थी।
(क) बिहार राज्य को
(ख) उत्तरांचल राज्य को
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य को
(घ) अरुणाचल राज्य को
उत्तर:
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य को

9. भारत में महाराष्ट्र में कौनसा क्षेत्र अभी भी अलग राज्य के लिए संघर्ष कर रहा है।
(क) तेलंगाना क्षेत्र
(ख) विदर्भ क्षेत्र
(ग) उत्तरांचल क्षेत्र
(घ) झारखंड क्षेत्र
उत्तर:
(ख) विदर्भ क्षेत्र

10. वर्तमान में तेलंगाना क्षेत्र एक अलग राज्य है। यह राज्य निम्न में से किस राज्य से अलग होकर बना है-
(क) महाराष्ट्र
(ख) तमिलनाडु
(ग) तेलगूदेशम
(घ) कर्नाटक
उत्तर:
(ग) तेलगूदेशम

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. सोवियत संघ के विघटन के प्रमुख कारण वहाँ शक्तियों का जमाव और अत्यधिक …………………. की प्रवृत्तियाँ थीं।
उत्तर:
केन्द्रीकरण

2. संघीय शासन व्यवस्था में केन्द्र-राज्यों के मध्य किसी टकराव को रोकने के लिए एक ………………….. की व्यवस्था होती है।
उत्तर:
स्वतंत्र न्यायपालिका

3. भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध ……………….. पर आधारित होंगे।
उत्तर:
सहयोग

4. भारतीय संविधान द्वारा एक सशक्त ………………… की स्थापना की गई है।
उत्तर:
केन्द्रीय सरकार

5. हमारी प्रशासकीय व्यवस्था ………………… है।
उत्तर:
इकहरी

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. राज्यपाल की भूमिका केन्द्र और राज्यों के बीच हमेशा ही विवाद का विषय रही है।
उत्तर:
सत्य

2. हमारी संघीय व्यवस्था में नवीन राज्यों के गठन की माँग को लेकर भी तनाव रहा है।
उत्तर:
सत्य

3. दिसम्बर, 1950 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई।
उत्तर:
असत्य

4. कृषि तथा पुलिस समवर्ती सूची के विषय हैं।
उत्तर:
असत्य

5. हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने भारत को विविधता में एकता के रूप में परिभाषित किया है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. प्रतिरक्षा तथा विदेश मामले (क) राज्य सूची के विषय
2. शिक्षा तथा वन (ग) दिसम्बर, 1953 में
3. पुलिस तथा स्थानीय स्वशासन (ख) समवर्ती सूची के विषय
4. राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना (घ) 1956 में
5. भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन (च) संघ सूची के विषय

उत्तर:

1. प्रतिरक्षा तथा विदेश मामले (च) संघ सूची के विषय
2. शिक्षा तथा वन (ख) समवर्ती सूची के विषय
3. पुलिस तथा स्थानीय स्वशासन (क) राज्य सूची के विषय
4. राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना (ग) दिसम्बर, 1953 में
5. भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन (घ) 1956 में

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1
ऐसे चार राज्यों के नाम लिखिये जिनके नाम स्वतंत्रता के बाद परिवर्तित किये गये हैं। पुराने और नये दोनों नाम लिखिये।
उत्तर:
निम्नलिखित राज्यों के नाम परिवर्तित किये गए हैं।

पुराने नाम नए नाम
(1) मैसूर कर्नाटक
(2) मद्रास तमिलनाडु
(3) आंध्रप्रदेश तेलगूदेशम
(4) मुंबई महाराष्ट्र

प्रश्न 2.
ऐसे दो देशों के नाम लिखिये जिन्होंने संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया है।
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत।

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प्रश्न 3.
संघात्मक शासन की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
शक्तियों का विभाजन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता।

प्रश्न 4.
राज्य पुनर्गठन आयाग की स्थापना कब की गई?
उत्तर:
1953 में।

प्रश्न 5.
राज्य पुनर्गठन आयोग की मुख्य सिफारिश क्या थी?
उत्तर:
राज्य पुनर्गठन आयोग ने भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की।

प्रश्न 6.
राज्य सूची में कितने और किस प्रकार के विषय हैं?
उत्तर:
राज्य सूची में 66 विषय हैं। ये स्थानीय महत्त्व के विषय हैं।

प्रश्न 7.
संघ सूची में कितने तथा किस प्रकार के विषय हैं?
उत्तर:
संघ सूची में 97 विषय हैं। ये राष्ट्रीय महत्त्व के विषय हैं।

प्रश्न 8.
समवर्ती सूची किसे कहते हैं?
उत्तर:
समवर्ती सूची में वे विषय आते हैं जिन पर संघ और राज्य दोनों की सरकारें कानून बना सकते हैं। इसमें 47 विषय हैं।

प्रश्न 9.
1958 में स्थापित ‘वेस्टइण्डीज संघ’ 1962 में किस कारण भंग कर दिया गया?
उत्तर:
‘वेस्टइण्डीज संघ’ की केन्द्रीय सरकार कमजोर थी और प्रत्येक संघीय इकाई की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था थी तथा संघीय इकाइयों में राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा थी।

प्रश्न 10.
सोवियत संघ के विघटन के दो प्रमुख कारण बताइये।
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन के दो प्रमुख कारण ये थे।

  1. शक्तियों का अतिशय संघनन और केन्द्रीकरण की प्रवृत्तियाँ।
  2. उजबेकिस्तान जैसे भिन्न भाषा और संस्कृति वाले क्षेत्रों पर रूस का आधिपत्य।

प्रश्न 11.
नाइजीरिया की संघीय व्यवस्था अपने विभिन्न क्षेत्रों में एकता स्थापित करने में क्यों असफल रही है?
उत्तर:
नाइजीरिया की विभिन्न संघीय इकाइयों के बीच धार्मिक, जातीय और आर्थिक समुदाय एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते। इस कारण संघीय व्यवस्था भी वहाँ एकता लाने में असफल रही है।

प्रश्न 12.
संघवाद के वास्तविक कामकाज का निर्धारण किससे होता है?
उत्तर:
संघवाद के वास्तविक कामकाज का निर्धारण राजनीति, संस्कृति, विचारधारा और इतिहास की वास्तविकताओं से होता है।

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प्रश्न 13.
किस प्रकार की संस्कृति में संघवाद का कामकाज आसानी से चलता है?
उत्तर:
आपसी विश्वास, सहयोग, सम्मान और संयम की संस्कृति में संघवाद का कामकाज आसानी से चलता है।

प्रश्न 14.
भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
भारतीय संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि भारतीय संघवाद केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध सहयोग पर आधारित होगा।

प्रश्न 15.
किन चिंताओं ने भारत के संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी?
उत्तर:

  1. विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रख राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने तथा
  2. विकास की चिंताओं ने भारत के संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।

प्रश्न 16.
राज्यपाल की भूमिका किस स्थिति में अधिक विवादास्पद हो जाती है?
उत्तर:
जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं, तब राज्यपाल की भूमिका अधिक विवादास्पद हो जाती है।

प्रश्न 17.
सरकारिया आयोग की नियुक्ति कब और क्यों की गई?
उत्तर:
सरकारिया आयोग की नियुक्ति 1983 में केन्द्र राज्य सम्बन्धों की जांच-पड़ताल के लिए की गई।

प्रश्न 18.
सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्ति के बारे में क्या सुझाव दिए?
उत्तर:
सरकारिया आयोग ने यह सुझाव दिया कि राज्यपाल की नियुक्ति निष्पक्ष होकर की जानी चाहिए।

प्रश्न 19.
स्वायत्तता और अलगाववाद में क्या फर्क है?
उत्तर:
स्वायत्तता से आशय यह है कि संघवाद के अन्तर्गत रहते हुए और अधिक अधिकारों व शक्तियों की माँग करना; जबकि अलगाववाद से आशय है भारत संघ से अलग होकर अपने स्वतन्त्र राज्य की स्थापना करना।

प्रश्न 20.
किस प्रकार की एकता अन्ततः अलगाव को जन्म देती है?
उत्तर:
अनेकता और विविधता को समाप्त करने वाली बाध्यकारी राष्ट्रीय एकता अन्ततः ज्यादा सामाजिक संघर्ष और अलगाव को जन्म देती है।

प्रश्न 21.
सहयोगी संघवाद का आधार किस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था हो सकती है?
उत्तर:
विभिन्नताओं और स्वायत्तता की माँगों के प्रति संवेदनशील तथा उत्तरदायी राजनीतिक व्यवस्था ही सहयोगी संघवाद का एकमात्र आधार हो सकती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 22.
वर्तमान में भारत में कितने राज्य और संघीय क्षेत्र हैं?
उत्तर:
वर्तमान में भारत में 28 राज्य और 9 संघीय क्षेत्र हैं।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संघवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संघवाद से आशय: संघवाद वह शासन प्रणाली है जहाँ संविधान द्वारा केन्द्र और राज्य स्तर की दो राजनीतिक व्यवस्थाएँ स्थापित की जाती हैं और दोनों के बीच शासन की शक्तियों का संविधान द्वारा स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है। इसमें संविधान लिखित तथा सर्वोच्च होता है तथा केन्द्र-राज्यों के बीच किसी टकराव को सीमित रखने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की संघीय विशेषताओं का उल्लेख करें। उत्तर- भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं।

  • भारत का संविधान एक लिखित तथा सर्वोच्च संविधान है।
  • संविधान तीन सूचियों
    1. संघ सूची,
    2. राज्य सूची और
    3. समवर्ती सूची – में अलग-अलग विषयों को परिगणित कर केन्द्र तथा राज्यों की सरकारों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन करता है।
  • इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतंत्र है।
  • इसमें राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

प्रश्न 3.
संघात्मक संविधान की कोई पाँच विशेषताएँ बताओ
उत्तर:

  1. संघात्मक संविधान में केन्द्र तथा प्रान्तों की सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।
  2. इसमें संविधान कठोर, लिखित तथा सर्वोच्च होता है।
  3. इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतन्त्र होती है।
  4. इसमें दोहरी नागरिकता की व्यवस्था की जाती है।
  5. इसमें संसद का दूसरा सदन राज्यों (प्रान्तों) का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 4.
द्विसदनीय विधायिका संघात्मक राज्यों के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है। संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है क्योंकि प्रथम सदन जनता का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा सदन संघ की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। प्रत्येक संघात्मक शासन व्यवस्था में इसीलिए द्विसदनात्मक विधायिका का प्रावधान किया गया है अमेरिका में ‘सीनेट’ और भारत में ‘राज्यसभा’ ऐसे ही दूसरे सदन हैं।

प्रश्न 5.
राज्यों द्वारा अधिक स्वायत्तता की माँग क्यों की जाती है?
अथवा
अधिक स्वायत्तता हेतु राज्यों ने कौन-कौनसी माँगें उठायीं?
उत्तर:
यद्यपि संविधान द्वारा केन्द्र और राज्य के बीच शक्तियों का स्पष्ट बँटवारा किया गया है, लेकिन संविधान में केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया है और देश की एकता व विकास की दृष्टि से उसे राज्य के क्षेत्र में दखल का अधिकार भी दिया गया है। इस कारण भारत में निम्न कारणों से समय-समय पर राज्यों द्वारा अधिक स्वायत्तता की माँग की है।

  1. कुछ राज्यों ने शक्ति विभाजन को राज्य के पक्ष में बदलने तथा राज्यों को ज्यादा तथा महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये जाने के लिए स्वायत्तता की माँग की।
  2. कुछ राज्यों ने आय के स्वतंत्र साधनों तथा संसाधनों पर राज्यों का अधिक नियंत्रण हेतु स्वायत्तता की माँग की।
  3. कुछ राज्यों ने राज्य प्रशासनिक – तंत्र पर केन्द्रीय नियंत्रण से नाराज होकर राज्य स्वायत्तता की माँग की।
  4. तमिलनाडु में हिन्दी के वर्चस्व के विरोध में तथा पंजाब में पंजाबी भाषा और संस्कृति को प्रोत्साहन देने के लिए भी स्वायत्तता की माँग की।

इस प्रकार समय-समय पर राज्यों ने विभिन्न कारणों से केन्द्रीय नियंत्रण के विरोध में स्वायत्तता की माँग की है।

प्रश्न 6.
गवर्नर का पद किस प्रकार केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव का कारण बना हुआ है? कोई दो कारण बताइए
उत्तर:
राज्यपाल के पद के केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव के दो कारण – राज्यपाल का पद केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में अनेक कारणों से तनाव पैदा करता है। ऐसे दो कारण निम्नलिखित हैं।

  1. राज्यपाल यद्यपि राज्य का संवैधानिक पद है, लेकिन उसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राष्ट्रपति उसे पदमुक्त भी कर सकता है। इसलिए वह राज्य में केन्द्र के अभिकर्त्ता के रूप में कार्य करते हुए राज्य के हितों की अनदेखी तक कर देता है
  2.  राज्यपाल को अनेक मामलों व अनेक अवसरों पर स्वयं: विवेक की शक्तियाँ प्राप्त हैं, जैसे राज्य में संवैधानिक शासन के असफल होने की रिपोर्ट भेजना, जब विधानसभा में किसी एक दल को बहुमत न मिला हो तो मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करना; राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु किसी विधेयक को सुरक्षित रखना आदि। इन सभी मामलों में वह केन्द्र के निर्देशों व सलाह के अनुसार कार्य करता है और निष्पक्ष रूप से कार्य नहीं करता है तथा राज्य के हितों की अवहेलना तक कर देता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 7.
भारत के अन्तर्राज्यीय राजनीतिक विवादों के समाधान का सर्वोत्तम साधन क्या हो सकता है? उत्तर-भारतीय संघात्मक व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में सीमा सम्बन्धी तथा नदी जल बँटवारे सम्बन्धी राजनीतिक विवाद चले आ रहे हैं। यदि दो राज्यों के बीच के विवादों का स्वरूप कानूनी या संवैधानिक है तो ऐसे विवादों का निपटारा न्यायपालिका कर देती है, लेकिन जिन विवादों में राजनीतिक पहलू भी समाहित होते हैं; ऐसे विवादों का निपटारा केवल कानूनी आधार पर नहीं किया जा सकता। ऐसे विवादों का सर्वोत्तम समाधान केवल विचार- विमर्श और पारस्परिक विश्वास के आधार पर ही हो सकता है।

प्रश्न 8.
ऐसी दो दशाएँ बताइए जब केन्द्र सरकार राज्य-सूची के विषयों पर कानून बना सकती है? उत्तर- केन्द्र सरकार द्वारा राज्य-सूची के विषयों पर कानून बनाने की परिस्थितियाँ संविधान में सामान्यतः राज्य – सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य विधानसभाओं को ही दिया गया है लेकिन निम्नलिखित दो दशाओं में केन्द्र की विधायिका भी राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।

  1. किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में लिए गए किसी निर्णय को लागू करने या भारत और किसी विदेशी राज्य के बीच हुए किसी समझौते व सन्धि को क्रियान्वित करने के लिए भारत की संसद राज्य – सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।
  2. 2. यदि राज्यसभा 2/3 बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दे कि राज्य सूची का अमुक विषय राष्ट्रीय महत्त्व का है तो संघ की संसद उस विषय पर कानून बना सकती है। ऐसा प्रस्ताव केवल एक वर्ष तक वैध रहता है और राज्यसभा केवल दूसरे वर्ष के लिए उसकी अवधि बढ़ा सकती है। संसद द्वारा निर्मित किया गया ऐसा कानून भी केवल एक वर्ष के लिए ही लागू रहता है।

प्रश्न 9.
अन्तर्राज्यीय विवादों के प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
उत्तर:
अन्तर्राज्यीय विवाद: भारतीय संघीय व्यवस्था में केन्द्र-राज्य विवादों के साथ-साथ दो या दो से अधिक राज्यों में भी आपसी विवाद के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इस प्रकार के कानूनी विवादों का तो न्यायपालिका निपटारा कर देती है, लेकिन जिन विवादों के पीछे राजनीतिक पहलू होते हैं, उनका समाधान केवल विचार-विमर्श और पारस्परिक विश्वास के आधार पर हो सकता है। मुख्य रूप से दो प्रकार के विवाद गम्भीर विवाद पैदा करते हैं। ये निम्नलिखित हैं।

1. सीमा विवाद: राज्य प्रायः
पड़ौसी राज्यों के भू-भाग पर अपना दावा पेश करते हैं। यद्यपि राज्यों की सीमाओं का निर्धारण भाषायी आधार पर किया गया है, लेकिन सीमावर्ती क्षेत्रों में एक से अधिक भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं। अतः इस विवाद को केवल भाषाई आधार पर नहीं सुलझाया जा सकता। ऐसा ही एक विवाद महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच ‘बेलगाम’ को लेकर है। पंजाब से हरियाणा को अलग करने पर उनके बीच न केवल सीमावर्ती क्षेत्रों को लेकर बल्कि राजधानी चण्डीगढ़ को लेकर भी विवाद है। चण्डीगढ़ इन दोनों राज्यों की राजधानी है।

2. नदी-जल विवाद:
अनेक राज्यों के बीच नदियों के जल के बँटवारे को लेकर विवाद बने हुए हैं क्योंकि यह सम्बन्धित राज्यों में पीने के पानी और कृषि की समस्या से जुड़ा है। कावेरी जल विवाद एक ऐसा ही विवाद है जो तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच एक प्रमुख विवाद है। यद्यपि इसे सुलझाने के लिए एक ‘जल -विवाद न्यायाधिकरण ‘ है फिर भी ये दोनों राज्य इसे सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए हैं। ऐसा ही एक विवाद नर्मदा नदी के जल के बँटवारे को लेकर गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बीच है।

प्रश्न 10.
“भारतीय संघवाद की सबसे नायाब विशेषता यह है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संघवाद में अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है। यथा
1. राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व: संघात्मक शासन व्यवस्था में प्राय:
संघ की विधायिका के द्वितीय सदन में प्रत्येक राज्य को समान प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है। अमेरिका और स्विट्जरैण्ड के संघवाद में इस सिद्धान्त को अपनाया गया है। लेकिन भारत में प्रत्येक का आकार और जनसंख्या भिन्न-भिन्न होने के कारण राज्यों को राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व दिया गया है। जहाँ छोटे से छोटे राज्यों को भी न्यूनतम प्रतिनिधित्व अवश्य प्रदान किया गया है, वहाँ इस व्यवस्था से यह भी सुनिश्चित किया गया है कि बड़े राज्यों को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिले।

2. विशिष्ट प्रावधान:
कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान में कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था की गई है। ऐसे अधिकतर प्रावधान पूर्वोत्तर के राज्यों (असम, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आदि) के लिए हैं जहाँ विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय बहुल जनसंख्या निवास करती है। ऐसे ही कुछ विशिष्ट प्रावधान पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल तथा अन्य राज्यों के लिए भी हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“भारत राज्यों का संघ है।” इसकी संघात्मक विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 में कहा गया है कि ” भारत राज्यों का संघ (यूनियन) होगा। राज्य और उनके राज्य – क्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। ” वर्तमान में राज्य की पहली अनुसूची में 28 राज्य तथा 7 राज्य – क्षेत्र विनिर्दिष्ट हैं। इन सबको मिलाकर भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था कायम की गई है। भारत की संघात्मक शासन की विशेषताएँ या भारत के संघवाद की विशेषताएँ भारतीय संविधान में निहित संघात्मक शासन के लक्षण निम्नलिखित हैं।
1. शक्तियों का विभाजन:
प्रत्येक संघीय देश की तरह भारतीय संविधान में केन्द्र और राज्यों की सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों के विभाजन हेतु तीन सूचियाँ बनाई गई हैं।

  1. संघ सूची: इसमें 97 विषय रखे गये हैं,
  2. राज्य सूची: इसमें 66 विषय तथा
  3. समवर्ती सूची: इसमें 47 विषय दिये गये हैं।

संघ-सूची के विषयों पर सिर्फ केन्द्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है। राज्य सूची के विषयों पर सामान्यतः सिर्फ प्रान्तीय विधायिका ही कानून बना सकती है और समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र और प्रान्त दोनों की विधायिकाएँ कानून बना सकती हैं। अवशिष्ट विषय: अवशिष्ट विषय वे सभी विषय कहलायेंगे जिनका उल्लेख किसी भी सूची में नहीं हुआ है, जैसे—साइबर अपराध। ऐसे विषयों पर केवल केन्द्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है।

2. लिखित संविधान:
संघीय व्यवस्था के लिए एक लिखित संविधान की आवश्यकता होती है जिसमें केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट उल्लेख किया जा सके। भारत का संविधान एक लिखित संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। 2017 तक इसमें 101 संशोधन हो चुके हैं।

3. कठोर संविधान:
संघीय व्यवस्था में कठोर संविधान का होना भी बहुत आवश्यक है। भारत का संविधान भी एक कठोर संविधान है क्योंकि संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के दो- तिहाई बहुमत तथा कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों के बहुमत की आवश्यकता होती है।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका:
संघात्मक व्यवस्था में संविधान की सुरक्षा के लिए तथा केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के विवादों का निपटारा करने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है। भारतीय संविधान में भी स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था है। न्यायपालिका के कार्य और अधिकार भारत के संविधान में दिये गये हैं और यह स्वतन्त्र रूप से कार्य करती है।

5. संविधान की सर्वोच्चता:
भारत में संविधान को सर्वोच्च रखा गया है। कोई भी कार्य संविधान के प्रतिकूल नहीं किया जा सकता। सरकार के सभी अंग संविधान के अनुसार ही शासन कार्य चलाते हैं। सरकार का कोई कार्य यदि संविधान के प्रतिकूल होता है तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकती है।

6. इकहरी नागरिकता:
संघीय शासन व्यवस्था में लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं। इस हेतु दोहरी नागरिकता का प्रावधान किया जाता है। लेकिन भारत में इकहरी नागरिकता का ही प्रावधान किया गया है।

7. संघात्मकता के साथ:
साथ एकात्मकता के लक्षण: भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध सहयोग पर आधारित होगा। इस प्रकार विविधता को मान्यता देने के साथ-साथ संविधान एकता पर बल देता है। राष्ट्रीय एकता और विकास की चिन्ताओं ने संविधान निर्माताओं ने संघात्मक व्यवस्था में एक सशक्त केन्द्रीय सरकार की स्थापना की है। इसलिए भारतीय संविधान में संघात्मकता के साथ-साथ एकात्मकता के भी लक्षण पाये जाते हैं। जैसे इकहरी नागरिकता, आपातकालीन प्रावधान, संविधान संशोधन में संसद की प्रमुखता, केन्द्र की प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ तथा राज्यपाल की स्वयंविवेक की शक्तियाँ आदि।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 2.
संघात्मक शासन व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख लक्षणों को स्पष्ट कीजिए
उत्तर:
संघात्मकं शासन व्यवस्था से आशय – संघात्मक शासन व्यवस्था से आशय ऐसी शासन व्यवस्था से है जिसमें शासन केन्द्रीय सरकार तथा इकाइयों की सरकारों के रूप में दोहरी शासन व्यवस्थाएँ होती हैं। संविधान द्वारा शासन की. शक्तियों का विभाजन केन्द्र और प्रान्तों की सरकारों में स्पष्ट रूप से कर दिया जाता है। दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग होते हैं तथा एक-दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करते। इसमें केन्द्र और राज्यों में झगड़ों का फैसला करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की जाती है।

संघात्मक शासन व्यवस्था की विशेषताएँ: संघात्मक शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. सरकारों के दो प्रकार: संघवाद की पहली विशेषता यह है कि इसमें दो प्रकार की सरकारें पायी जाती हैं

  1. संघीय या केन्द्रीय सरकार और
  2. इकाइयों या प्रान्तों की सरकारें यह व्यवस्था राजनीति के दो प्रकार को व्यवस्थित करती है। एक, प्रान्तीय या क्षेत्रीय स्तर पर और दूसरी, केन्द्रीय स्तर पर। दोनों प्रकार की सरकारें संविधान द्वारा निर्धारित अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करती हैं।

2. शक्तियों का बँटवारा: संघात्मक शासन व्यवस्था में शासन की शक्तियों का केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों के बीच संविधान द्वारा वितरित कर दिया जाता है। राष्ट्रीय महत्त्व की शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार को दे दी जाती हैं और समस्त स्थानीय और क्षेत्रीय महत्त्व की शक्तियाँ इकाइयों की सरकारों को दे दी जाती हैं। दोनों सरकारें स्वतन्त्रतापूर्वक अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करती हैं।

3. सर्वोच्च, लिखित तथा कठोर संविधान: संघात्मक शासन व्यवस्था में संविधान लिखित होता है तथा वह सर्वोच्च होता है। दोनों प्रकार की सरकारें उसके प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकतीं। इसमें संशोधन संसद साधारण बहुमत से नहीं कर सकती, बल्कि इसमें संशोधन के लिए उसे विशिष्ट बहुमत की आवश्यकता होती है।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका: संघात्मक शासन व्यवस्था की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें न्यायपालिका स्वतन्त्र होती है। उसके पास न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति होती है। इसका आशय यह है कि यदि कभी कोई सरकार कोई ऐसी विधि या नीति बनाती है जो संविधान के प्रावधानों के प्रतिकूल है तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकती है। इस प्रकार यह केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों, दोनों को अपने क्षेत्र में सीमित रखती है।

5. द्विसदनात्मक विधायिका: संघात्मक शासन व्यवस्था की एक विशेषता द्विसदनात्मक विधायिका का होना है। इसमें निम्न सदन जहां जनता का प्रतिनिधित्व करता है, उच्च सदन राज्यों (इकाइयों) का प्रतिनिधित्व करता है। संघीय व्यवस्था में सामान्यतः द्वितीय सदन में सभी इकाइयों का समान प्रतिनिधित्व रखा जाता है; जैसे कि अमेरिका में सीनेट में प्रत्येक राज्य दो सदस्य भेजता है।

6. दोहरी नागरिकता: संघात्मक शासन व्यवस्था में सामान्यतः दोहरी नागरिकता पाई जाती है। एक, केन्द्रीय सरकार की नागरिकता और दूसरी, इकाइयों की सरकार की नागरिकता अमेरिका में दोहरी नागरिकता दी गई है, लेकिन भारतीय संघात्मक व्यवस्था में इकहरी नागरिकता ही प्रदान की गई है।

7. दोहरी पहचान और निष्ठाएँ: संघात्मक शासन व्यवस्था में लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं एक, राष्ट्र के प्रति निष्ठा तथा राष्ट्रीय पहचान और दूसरी, प्रान्त या क्षेत्र के प्रति पहचान और उसके प्रति निष्ठा। यद्यपि इसमें दोहरी निष्ठाएँ होती हैं, लेकिन इनमें राष्ट्रीय निष्ठा की प्रधानता होती है। उदाहरण के लिए, एक गुजराती या बंगाली होने से अधिक महत्त्वपूर्ण एक भारतीय होना है। इसमें भारत के प्रति निष्ठा, गुज़रात या बंगाल के प्रति निष्ठा से पहले आती है।

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प्रश्न 3.
” भारत के संविधान का स्वरूप संघात्मक है परन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश की परिस्थितियों के अनुसार ऐसी व्यवस्था की है जिससे राष्ट्र की इकाइयों को स्वायत्तता मिली रहे और साथ ही राष्ट्र की एकता भी भंग न हो। इसी कारण भारतीय संविधान स्वरूप में संघात्मक रूप लिए हुए है; उसमें प्रमुख संघात्मक लक्षण विद्यमान हैं लेकिन देश की एकता भंग न हो इसलिए उसमें एकात्मकता के तत्त्व भी पाये जाते हैं जिनके द्वारा केन्द्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाया गया है। यथा भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण

1. संविधान की सर्वोच्चता:
भारत में न तो केन्द्रीय सरकार सर्वोच्च है और न ही राज्य सरकार। यहाँ संविधान सर्वोच्च है। कोई भी सरकार संविधान के प्रतिकूल काम नहीं कर सकती। देश के सभी पदाधिकारी, जैसे- राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री आदि अपना पद ग्रहण करने से पूर्व संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हुए उसके प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं

2. लिखित तथा कठोर संविधान:
भारत का संविधान लिखित है जो संविधान सभा द्वारा निर्मित किया गया है। इसमें संघ व राज्य सम्बन्धी अधिकारों को स्पष्ट रूप से लिखा गया है। इसके साथ-साथ भारत का संविधान कठोर है क्योंकि इसमें संशोधन साधारण बहुमत से नहीं किये जा सकते।

3. अधिकारों का विभाजन:
संविधान में केन्द्र और राज्यों की शक्तियों का तीन सूचियों के माध्यम से स्पष्ट विभाजन किया गया है। राज्य सूची के विषय इकाइयों को, संघ-सूची के विषय केन्द्रीय सरकार को और समवर्ती सूची के विषय दोनों सरकारों को दिये गये हैं। अवशिष्ट विषय केन्द्रीय सरकार को दिये गये हैं।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका:
भारत के संविधान में केन्द्र और राज्यों के विवादों को हल करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई है। वह केन्द्र और राज्यों के कानूनों को संविधान के प्रावधानों के प्रतिकूल होने पर असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकता है।

5. दोहरी शासन व्यवस्था:
भारतीय संघात्मक शासन व्यवस्था में दो प्रकार की सरकारों की व्यवस्था की गई एक, केन्द्रीय सरकार और दूसरी, राज्यों की सरकार। दोनों का गठन संविधान के अनुसार होता है।

भारतीय संविधान में एकात्मकता के लक्षण: यद्यपि भारतीय संविधान स्वरूप से संघात्मक है, लेकिन आत्मा से वह एकात्मक है, क्योंकि इसमें केन्द्रीय सरकार को सशक्त बनाने वाले अनेक प्रावधान किये गये हैं।

1. शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में:
संविधान द्वारा शक्तियों का जो बँटवारा किया गया है उसमें केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है क्योंकि संविधान ने आर्थिक और वित्तीय शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार के हाथ में सौंपी हैं तथा राज्य को आय के बहुत कम साधन दिये गये हैं। दूसरे, अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार को ही सौंपी गई हैं। तीसरे, समवर्ती सूची के विषयों पर भी कानून बनाने में केन्द्रीय सरकार को प्राथमिकता दी गई है।

2. राज्य- सूची पर भी केन्द्रीय सरकार को कानून बनाने की शक्तियाँ: कुछ परिस्थितियों में केन्द्रीय सरकार राज्य-सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है। यथा

  1. यदि राज्यसभा 2/3 बहुमत से राज्य – सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दे तो केन्द्रीय सरकार उस विषय पर कानून बना सकती है।
  2. संकट काल की स्थिति उत्पन्न होने पर केन्द्र को राज्य – सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
  3. यदि कभी दो राज्यों की विधानसभाएँ केन्द्र को राज्य सूची में से किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करें तो इस विषय पर केन्द्र कानून बना सकता है।

3. इकहरी नागरिकता: संघीय शासन व्यवस्था वाले देशों में प्रायः दोहरी नागरिकता प्रदान की जाती है- एक, राष्ट्र की नागरिकता और दूसरी, प्रान्तीय नागरिकता। लेकिन भारत में इकहरी नागरिकता ही प्रदान की गई है। भारत में केवल राष्ट्रीय नागरिकता ही प्रदान की गई है।

4. राज्यपाल द्वारा राज्यों पर नियन्त्रण: भारत में राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख है लेकिन राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह अपने कार्यों के लिए केन्द्र के प्रति ही उत्तरदायी होता है। ऐसी स्थिति में राज्यपाल केन्द्र के एजेण्ट के रूप में कार्य करता है। वह अपने स्वविवेकीय कार्यों को संवैधानिक प्रमुख के रूप में निष्पक्ष रूप से कार्य न करके केन्द्र की सलाह के अनुसार करता है। जब विधानसभा में किसी एक दल का बहुमत नहीं होता तो वह केन्द्र के इशारे पर मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है। वह केन्द्र के निर्देशों के अनुरूप ही राज्य में संकटकाल की घोषणा की सलाह देता है और संकट काल में केन्द्र के निर्देशों को राज्य में लागू करता।

5. राज्यों की केन्द्र पर वित्तीय निर्भरता: सामान्य स्थितियों में भी केन्द्र सरकार की अत्यन्त प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ और उत्तरदायित्व हैं। सबसे पहले तो आय के प्रमुख संसाधनों पर केन्द्र सरकार का नियन्त्रण है। इस प्रकार केन्द्र के पास आय के अनेक संसाधन हैं और राज्य अनुदानों और वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर आश्रित हैं। दूसरे, स्वतन्त्रता के बाद भारत ने तेज आर्थिक प्रगति और विकास के लिए नियोजन को साधन के रूप में अपनाया है।

नियोजन के कारण आर्थिक फैसले लेने की ताकत केन्द्र सरकार के हाथ में सिमटती गई है। केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त योजना आयोग राज्यों के संसाधन – प्रबन्ध की निगरानी करता है। तीसरे, केन्द्र सरकार अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर राज्यों को अनुदान और ऋण देती है । केन्द्र सरकार पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि वह विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाती है।

6. संसद को राज्यों का पुनर्गठन तथा उसके नामों में परिवर्तन करने का अधिकार है: किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियन्त्रण है। संसद किसी राज्य में से उसका राज्य-क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकती है। वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है। सम्बन्धित राज्य से उसकी राय तो ले ली जाती है, परन्तु उसका मानना या न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है। संसद का यह अधिकार सरकार को एकात्मक बनाता है।

7. अखिल भारतीय सेवाएँ: भारत की प्रशासकीय व्यवस्था इकहरी है। अखिल भारतीय सेवाएँ पूरे देश के लिए हैं और इसमें चयनित पदाधिकारी राज्यों के प्रशासन में काम करते हैं। अतः जिलाधीश के रूप में कार्यरत भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी या पुलिस कमिश्नर के रूप में कार्यरत भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों पर केन्द्र सरकार का नियन्त्रण रहता है। राज्य न तो उनके विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकता है और न ही उन्हें सेवा से हटा सकता है।

8. किसी क्षेत्र में सैनिक शासन लागू होना: संघ सरकार की शक्ति को, संविधान के दो अनुच्छेद 33 और 34, उस स्थिति में काफी बढ़ा देते हैं जब किसी क्षेत्र में सैनिक शासन लागू हो जाए। ऐसी स्थिति में संसद केन्द्र या राज्य के किसी भी अधिकारी के द्वारा शान्ति व्यवस्था बनाए रखने या उसकी बहाली के लिए किए गए किसी भी कार्य को जायज ठहरा सकती है। इसी के अन्तर्गत ‘सशस्त्र बल विशिष्ट शक्ति अधिनियम’ का निर्माण किया गया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि यद्यपि संविधान में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया गया है, तथापि व्यवहार में केन्द्र सरकार को अधिक शक्तियाँ प्रदान कर उसमें एकात्मकता की आत्मा बिठा दी गई है।

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प्रश्न 4.
भारत ने संघीय व्यवस्था को क्यों अपनाया? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की है। यद्यपि स्वतन्त्रता से पूर्व भारत पर अंग्रेजों का शासन रहा है और संविधान निर्माता अंग्रेजों की राजनीतिक संस्थाओं से स्वाभाविक रूप से प्रभावित थे। लेकिन इंग्लैण्ड की एकात्मक शासन व्यवस्था के स्वरूप को भारत के संविधान निर्माताओं ने नहीं अपनाया और इसके स्थान पर संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया। इसके कुछ विशेष कारण रहे हैं।

भारत में संघात्मक शासन को अपनाने के कारण: भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाए जाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
1. भारत सरकार 1935 का एक्ट:
1935 के भारत सरकार के एक्ट में भारत में संघीय शासन का प्रावधान किया गया। कांग्रेस प्रारम्भ से ही देश में शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की माँग करती आ रही थी। 1935 के एक्ट में प्रान्तों को स्वायत्तता प्रदान की गई थी। इसमें सभी प्रान्तों, केन्द्रीय सरकार तथा रियासतों के एक फैडरेशन की बात कही गयी लेकिन यह संघ अस्तित्व में न आ सका। इस प्रकार संविधान निर्माता पहले से ही इस व्यवस्था से परिचित थे।

2. रियासतों की समस्या:
जब भारत स्वतन्त्र हुआ, ब्रिटिश सरकार ने सभी देशी रियासतों को स्वतन्त्र कर दिया तथा यह कहा कि वे चाहे तो भारत में मिल सकती हैं, चाहे पाकिस्तान में और चाहे अपने आप को दोनों से स्वतन्त्र रख सकती हैं। भारतीय नेताओं को इन छोटी-बड़ी देशी रियासतों को मिलाना अत्यन्त कठिन दिख रहा था। उन्हें एकात्मक सरकार के ढाँचे की तुलना में संघीय ढाँचे में सम्मिलित करना भारतीय नेताओं को कहीं अधिक आसान लगा।

3. भारतीय दशाएँ:
उस समय की भारतीय दशाओं ने भी संविधान निर्माताओं को विवश कर दिया कि वे संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाएँ। भारत एक विशाल देश है। यहाँ के लोगों में जातीय, क्षेत्र, धर्म, भाषा, रहन-सहन, परम्परा – रीति-रिवाज, भोजन तथा वेशभूषा, संस्कृति तथा आदतों की विविधताएँ हैं। पहाड़ी लोगों की जीवन जीने की शैली, मैदानी लोगों से भिन्न है। यहाँ अनेक क्षेत्रों में जनजातीय लोग निवास करते हैं। इसी स्थिति में केवल संघीय ढाँचा ही इन सब विविधताओं को एकता में पिरो सकता था।

फलतः संविधान निर्माताओं ने देश के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया। संविधान निर्माताओं को यह मान था कि भारतीय समाज में क्षेत्रीय और भाषायी विविधताओं को मान्यता देने की आवश्यकता थी। विभिन्न क्षेत्रों और भाषा-भाषी लोगों को सत्ता में सहभागिता करनी थी तथा इन क्षेत्रों के लोगों को स्वशासन का अवसर देना था। संघात्मक व्यवस्था में ही यह सब सम्भव हो सकता था।

4. भौगोलिक विविधताएँ:
भारत एक उप-महाद्वीप है और एक उप महाद्वीप में प्रशासनिक कुशलता की दृष्टि से एकात्मक शासन की तुलना में संघात्मक शासन उत्तम ठहरता है। क्योंकि भारत के विभिन्न क्षेत्र अपने क्षेत्र में क्षेत्रीय विकास की गतिविधियों के लिए कार्य की स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। इन विविधताओं को समेटने के लिए संघात्मक शासन ही उपयुक्त था। इस प्रकार भारत की संविधान सभा ने संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया।

प्रश्न 5.
भारत के संविधान निर्माताओं ने केन्द्र को अधिक शक्तिशाली क्यों बनाया? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संघीय व्यवस्था में शक्तिशाली केन्द्र भारत में संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ एकात्मकता के लक्षण भी विद्यमान हैं। यद्यपि केन्द्र और राज्यों के कार्यक्षेत्र संविधान द्वारा निश्चित किये गये हैं तो भी केन्द्र सरकार राज्यों के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती है। संविधान में अनेक प्रावधान ऐसे हैं जो संघीय शासन व्यवस्था को एकात्मक शासन में बदल सकते हैं।

संविधान निर्माताओं ने संघीय व्यवस्था की सुरक्षा, कानून एवं व्यवस्था की स्थापना, सामान्य मुद्दों में सामञ्जस्य की स्थापना तथा संघ की इकाइयों की एकजुटता की दृष्टि से केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया है। केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए उत्तरदायी कारक निम्नलिखित कारकों ने संविधान निर्माताओं को केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए प्रेरित किया।

1. संघात्मक व्यवस्था शक्ति के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया के तहत:
भारत में संघात्मक व्यवस्था का निर्माण शक्ति के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया के तहत हुआ है। भारत में प्रान्तों को शक्तियाँ केन्द्र से हस्तांतरित हुई हैं और केन्द्र से शक्तियों को हस्तांतरित कर संघीय व्यवस्था का निर्माण किया गया है। इस प्रक्रिया में यह स्वाभाविक है कि केन्द्र सरकार ने अपने पास अधिक शक्तियाँ रखीं। अमेरिका में स्वतंत्र राज्यों ने अपनी संप्रभुता और शक्तियों को हस्तांतरित कर संघ सरकार का निर्माण किया। इस प्रकार केन्द्र या संघ सरकार को शक्तियाँ राज्यों से हस्तांतरित हुई हैं। इस प्रक्रिया में यह स्वाभाविक था कि राज्य अपने पास अधिक शक्ति रखें । इसलिए वहां राज्यों के पास अधिक शक्तियाँ हैं।

2. इतिहास से सबक:
भारत के संविधान निर्माता इस ऐतिहासिक तथ्य से भलीभांति परिचित थे कि भारत में जब कभी भी केन्द्र की शक्ति कमजोर हुई, देश की एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। केन्द्र की कमजोर सरकार के चलते, प्रान्तों ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित करते हुए विद्रोह कर दिया और विदेशियों को देश पर आक्रमण के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार देश की सुरक्षा तथा एकता के लिए कमजोर केन्द्र हमेशा एक खतरा है। इसलिए उन्होंने संघीय व्यवस्था में भी जानबूझकर केन्द्र को शक्तिशाली बनाया है।

3. देशी रियासतों की समस्या:
जब देश स्वतंत्र हुआ, 600 से अधिक देशी रियासतों को यह विकल्प दिया गया था कि वे चाहे तो भारत में मिल जाएँ, चाहे पाकिस्तान में और चाहे वे अपने आपको स्वतंत्र रखें। इन देशी रियासतों को भारत संघ में मिलाने के लिए दबाव डाला गया। यदि केन्द्र सरकार कमजोर रखी जाती, तो ये देशी रियासतें देश की एकता के लिए खतरा बन सकती थीं और ये रियासतें आसानी से संघ में मिलने को भी राजी नहीं होतीं । इसलिए शक्तिशाली केन्द्र के साथ वाली संघीय व्यवस्था ने ही इस पेचीदी समस्या को सुलझाया।

4. परिस्थितियों की आवश्यकता:
जब संविधान का निर्माण हो रहा था, उस समय विभाजनकारी ताकतें देश में सक्रिय थीं। जातिवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता तथा भाषावाद की जड़ें मजबूत थीं तथा सक्रिय थीं। वे देश की एकता को खतरा पैदा कर रही थीं। इसलिए संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र और देश की एकता की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता महसूस की।

5. आर्थिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता की स्थापना हेतु;
1947 में भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता तो मिल गई थी, लेकिन आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता अभी बहुत दूर थी और आर्थिक-सामाजिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अर्थहीन थी। संविधान निर्माता इस विचार से सहमत थे कि केन्द्र सरकार को शक्तिशाली बनाकर ही इस सामाजिक- आर्थिक स्वतंत्रता को शीघ्र प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि केवल एक शक्तिशाली केन्द्र ही पूरे देश में आर्थिक नीति का निर्माण कर उसे लागू कर सकता है।

6. विश्व में शक्तिशाली केन्द्र की प्रवृत्ति:
आधुनिक काल अन्तर्राष्ट्रीयता का काल है और प्रत्येक राज्य अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अपना अस्तित्व चाहता है। यह कमजोर केन्द्र के चलते प्राप्त नहीं किया जा सकता। इस कारण पूरे विश्व में केन्द्र को शक्तिशाली बनाने की प्रवृत्ति व्याप्त है। भारत के संविधान निर्माताओं पर भी इस प्रवृत्ति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

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प्रश्न 6.
भारत में केन्द्र-राज्य सम्बन्धों पर दलीय राजनीति के प्रमुख चरणों तथा इसके प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत में एक संघात्मक शासन व्यवस्था है लेकिन इसकी प्रवृत्ति केन्द्रीकरण की है या कि प्रवृत्ति से यह एकात्मकता लिये हुए है। भारत में राज्य सरकारों की कार्यप्रणाली में केन्द्र द्वारा हस्तक्षेप किये जा सकने के अनेक प्रावधान स्वयं संविधान में किये गये हैं। इससे केन्द्र – राज्य सम्बन्धों पर प्रभाव पड़ा है। भारत की दलीय राजनीति ने भी केन्द्र- राज्य सम्बन्धों को प्रभावित किया है।

दलीय राजनीति और केन्द्र-राज्य सम्बन्ध – भारतीय संघवाद पर राजनीतिक प्रक्रिया की परिवर्तनशील प्रकृति का काफी प्रभाव पड़ा है। दलीय राजनीति के केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के प्रभाव को इसके निम्न चरणों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।

1. दलीय राजनीति का प्रथम चरण ( स्वतंत्रता से 1966 तक ):
1950 तथा 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संघीय व्यवस्था की नींव रखी। इस दौरान केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस का वर्चस्व था । इस काल में नए राज्यों के गठन की माँग के अलावा केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध शांतिपूर्ण तथा सामान्य रहे। राज्यों को आशा थी कि वे केन्द्र से प्राप्त वित्तीय अनुदानों से विकास कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त केंन्द्र द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए बनाई गई नीतियों के कारण भी राज्यों को काफी आशा बँधी थी। इससे स्पष्ट होता है कि इस काल में केन्द्र और राज्यों में एक दलीय प्रभुत्व था तथा पं. नेहरू का शक्तिशाली व्यक्तित्व था। इस कारण शक्तियों और कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में केन्द्र और राज्यों के बीच इस काल में कोई विवाद, संघर्ष तथा मतभेद नहीं उभरे। केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में कोई तनाव नहीं था।

2. दलीय राजनीति का द्वितीय चरण (1967 से 1988 तक ):
1967 के आम चुनावों से भारत में दलीय राजनीति का द्वितीय चरण प्रारंभ होता है। 1967 के चुनावों में केन्द्र में तो कांग्रेस दल का वर्चस्व बना रहा लेकिन अनेक राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें बनीं और कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा। बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश तथा तमिलनाडु राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ लेकिन लगभग इन सभी राज्यों में अनेक विरोधी दलों ने मिलकर मिली-जुली सरकार का गठन किया। परिणामतः राज्यों की मिली-जुली सरकारें लम्बे समय तक नहीं चल सकीं और भारतीय राजनीति में एक नवीन समस्या सामने आई। यह समस्या दल-बदल की थी।

कांग्रेस दल केन्द्र में सत्तासीन था और उसने राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों को अपदस्थ करने में रुचि ली। इससे राज्यों को और ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की मांग बलवती हुई। इस मांग के पीछे प्रमुख कारण यह था कि केन्द्र और राज्यों में भिन्न-भिन्न दल सत्ता में थे। अतः गैर-कांग्रेसी राज्यों की सरकारों ने केन्द्र की कांग्रेसी सरकार द्वारा किए गए अवांछनीय हस्तक्षेपों का विरोध करना शुरू कर दिया। कांग्रेस के लिए भी विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों से संबंधों के तालमेल की बात पहले जैसी आसान नहीं रही। इस विचित्र राजनैतिक संदर्भ में संघीय व्यवस्था के अन्दर स्वायत्तता की अवधारणा को लेकर वाद-विवाद छिड़ गया।

3. दलीय राजनीति का तृतीय चरण (1989 से अब तक ):
1989 के आम चुनाव में भारतीय राजनीति में एक नया बदलाव आया। अब कांग्रेस केन्द्र से तथा अधिकांश राज्यों से सत्ता से बाहर हो गयी। इस प्रकार भारतीय राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व समाप्त हो गया। केन्द्र में गठबंधन की राजनीति का प्रारंभ हुआ। अनेक राज्यों में गैर-कांगेसी दलों की सरकारों के होने से केन्द्र-र राज्य सम्बन्धों में तनाव बढ़े। ये राज्य अब केन्द्र के साथ खुले संघर्ष के रूप में सामने आए और केन्द्र-राज्य सम्बन्धों की पूर्ण समीक्षा की मांग की ताकि केन्द्र उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप न कर सके। इससे राज्यों का राजनीतिक कद बढ़ा, विविधता का आदर हुआ और एक मँझे हुए संघवाद की शुरुआत हुई।

प्रश्न 7.
केन्द्र-राज्य संबंधों के संदर्भ में राज्य के राज्यपाल की भूमिका तथा अनुच्छेद 356 पर एक निबन्ध लिखिये
उत्तर:
1. केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के संदर्भ में राज्यपाल की भूमिका:
राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख है। वह केन्द्र सरकार की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत तक अपने पद पर बना रहता है। यद्यपि वह 5 साल के लिए नियुक्त किया जाता है लेकिन राष्ट्रपति बिना कारण बताये उसे इस अवधि से पूर्व भी पद से हटा सकता है। इस प्रकार राज्यपाल अपनी नियुक्ति के लिए और अपने पद पर बने रहने के लिए केन्द्रीय मंत्रिमंडल की प्रसन्नता पर निर्भर रहता है।

दूसरी तरफ राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है और सामान्यतः राज्य के मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य करता है। लेकिन इसके साथ ही वह केन्द्र सरकार का अभिकर्ता भी होता है तथा उससे यह आशा की जाती है कि वह कुछ कार्यों को अपने विवेक के अनुसार करेगा। इस स्थिति में वह राज्यमंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य न करके सामान्यतः संघीय सरकार की इच्छाओं के अनुसार कार्य करता है। चूंकि राज्यपाल को दोहरी भूमिकाओं में कार्य करना पड़ता है, इसलिए यह पद केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव का एक कारण बन गया है। राज्यपाल के फैसलों को अक्सर राज्य सरकार के कार्यों में केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है। जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं, तब राज्यपाल की भूमिका और अधिक विवादास्पद हो जाती है।

अनुच्छेद- 356 का दुरुपयोग सामान्यतः जिन राज्यों में केन्द्र के सत्तारूढ़ दल से भिन्न दलों की सरकारें हैं, उन राज्यों में केन्द्र ने राष्ट्रपति शासन लगाने में राज्यपाल के पद का दुरुपयोग किया है। संविधान के अनुच्छेद 356 के द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है। इस प्रावधान को किसी राज्य में तब लागू किया जाता है जब ” ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो कि उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता।” परिणामस्वरूप संघीय सरकार राज्य सरकार का अधिग्रहण कर लेती है। इस विषय पर राष्ट्रपति द्वारा जारी उद्घोषणा को संसद की स्वीकृति प्राप्त करना जरूरी होता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त करने तथा राज्य विधानसभा को निलंबित या विघटित करने की अनुशंसा कर सके। इससे अनेक विवाद पैदा हुए। यथा

(i) कुछ मामलों में राज्य सरकारों को विधायिका में बहुमत होने के बाद भी बर्खास्त कर दिया। 1959 में केरल में और 1967 के बाद अनेक राज्यों में बहुमत की परीक्षा के बिना ही सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया। कुछ मामले सर्वोच्च न्यायालय में भी गए तथा सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि राष्ट्रपति शासन लागू करने के निर्णय की संवैधानिकता की जांच-पड़ताल न्यायालय कर सकता है। 1967 के बाद जब राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तब केन्द्र में सत्तासीन कांग्रेसी सरकार ने अनेक अवसरों पर इसका प्रयोग राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए किया।

(ii) कुछ मामलों में केन्द्र सरकार ने राज्यपाल के माध्यम से राज्य में बहुमत दल या गठबंधन को सत्तारूढ़ होने से रोका। उदाहरण के लिए, 1980 के दशक में केन्द्रीय सरकार ने आंध्रप्रदेश और जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त किया।

2. मुख्यमंत्री की नियुक्ति में राज्यपाल के स्वयंविवेक की भूमिका:
जब किसी राज्य में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने राज्यपाल के माध्यम से उस राज्य में मुख्यमंत्री की नियुक्ति में हस्तक्षेप किया क्योंकि राज्यपाल ने उस समय केन्द्र की सलाह के अनुसार कार्य किया न कि निष्पक्ष संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में। इससे केन्द्र-राज्य सम्बन्धों की दृष्टि से गवर्नर का पद विवादास्पद हो गया।

3. विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु रोक लेना:
राज्य के राज्यपाल के पास यह स्वयंविवेक की शक्ति है कि वह राज्य विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु अपने पास रोक सकता है। इस शक्ति को सामान्यतः उस विधेयक को पारित करने से रोकने या उसे पारित करने में देरी करने के लिए किया गया है, जो केन्द्र की सरकार को पसंद नहीं है। ऐसे विधेयकों को लम्बे समय तक पेंडिंग रखा जा सकता है। इस प्रकार राज्यपाल के पद की कटु आलोचनाएँ की गईं तथा यह मांग भी उठी कि राज्यपाल के पद को ही समाप्त कर दिया जाये। सरकारिया आयोग ने इस सम्बन्ध में यह सुझाव दिया कि राज्यपाल राज्य से बाहर का व्यक्ति होना चाहिए और वे अपने विवेक का प्रयोग बहुत कम करें तथा अच्छी तरह स्थापित परम्पराओं के अनुसार ही करें तथा उन्हें अपना कार्य निष्पक्षता से करना चाहिए।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 8.
संविधान में कुछ राज्यों के लिए विशिष्ट प्रावधान किये गए हैं। उन्हें स्पष्ट कीजिए। क्या वे संघवाद के सिद्धान्त के अनुरूप हैं?
उत्तर:
कुछ राज्यों के लिए विशिष्ट प्रावधान: भारतीय संघवाद की यह अनोखी विशेषता है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ विशिष्ट प्रावधान भी किये गये हैं। शक्ति के बँटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ सभी राज्यों को समान रूप से प्रदान की गई हैं; लेकिन कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप कुछ विशिष्ट अधिकारों की व्यवस्था करता है। यथा

  1. जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान:
    अनुच्छेद 370 के द्वारा जम्मू-कश्मीर को अगस्त 2019 तक विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई थी। स्वतंत्रता के बाद जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भारत में विलय का चयन किया, जबकि अधिकांश मुस्लिम बहुल राज्यों ने पाकिस्तान का चयन किया था। इस परिस्थिति में संविधान में अनुच्छेद 370 के तहत उसे अन्य राज्यों की तुलना में अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई। यथा
  2. अन्य राज्यों के लिए तीन सूचियों द्वारा किया गया शक्ति विभाजन स्वतः प्रभावी होता है लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य में संघीय सूची और समवर्ती सूची में वर्णित शक्तियों का प्रयोग करने के लिए राज्य सरकार की सहमति लेनी पड़ती थी। इससे जम्मू-कश्मीर राज्य को ज्यादा स्वायत्तता मिल जाती थी।
  3. इसके अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर और अन्य राज्यों में एक अन्तर यह था कि राज्य सरकार की सहमति के बिना ‘ जम्मू-कश्मीर में ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर आपातकाल लागू नहीं किया जा सकता था।
  4. संघ सरकार जम्मू-कश्मीर में वित्तीय आपात स्थिति लागू नहीं कर सकती थे।
  5. राज्य के नीति-निर्देशक तत्व भी यहाँ लागू नहीं होते थे।
  6. अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत किये गये भारतीय संविधान के संशेधन भी राज्य सरकार की सहमति से ही जम्मू- कश्मीर में लागू हो सकते हैं।

लेकिन अगस्त 2019 में केन्द्र सरकार ने संविधान के अस्थायी अनुच्छेद 370 तथा 45 – A को संविधान से हटा दिया है तथा जम्मू-कश्मीर राज्य को दो संघीय क्षेत्रों

  • जम्मू-कश्मीर और
  • लद्दाख में परिवर्तित कर दिया है। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर राज्य की यह विशिष्ट स्थिति अब समाप्त हो गई है।

2. उत्तरी-पूर्वी राज्यों के लिए अनुच्छेद 371:
अनुच्छेद 371 के तहत प्रावधान उत्तर- विशेष प्रावधानों की व्यवस्था करता है। ये राज्य हैं – असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर और -पूर्वी राज्यों के लिए मेघालय आदि। इनमें विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय बहुल जनसंख्या निवास करती है। यहाँ के ये निवासी अपनी संस्कृति तथा इतिहास को बनाए रखना चाहते हैं।

3. कुछ अन्य राज्यों में विशिष्ट प्रावधान:
कुछ विशिष्ट प्रावधान कुछ अन्य राज्यों के लिए भी किये गये हैं। ये राज्य हैं। पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश तथा उत्तरांचल तथा अन्य राज्य आंध्रप्रदेश, गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र और सिक्किम; क्योंकि इन राज्यों में कुछ पहाड़ी जनजातियाँ तथा आदिवासी निवास करते हैं। विशिष्ट प्रावधान संघवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं हैं। अनेक लोगों की मान्यता है कि संघीय व्यवस्था में शक्तियों का औपचारिक और समान विभाजन संघ के सभी राज्यों पर समान रूप से लागू होना चाहिए।

अतः जब भी ऐसे विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था संविधान में की जाती है तो उसका कुछ विरोध भी होता है। भारत में विशिष्ट प्रावधानों का विरोध जम्मू-कश्मीर राज्य को प्रदान किये गए अनुच्छेद 370 के प्रति है, अन्य प्रावधानों जैसे अनुच्छेद 371 आदि के प्रति नहीं है। मुखर लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में जिन परिस्थितियों में संघवाद की स्थापना की गयी है, वे परिस्थितियाँ सभी प्रान्तों में एकसमान नहीं थीं।

भारत विविधताओं से भरा देश है और इसलिए कुछ क्षेत्रों के विकास तथा उन्हें देश के अन्य क्षेत्रों के समान लाने के लिए कुछ विशिष्ट प्रावधान किये गये हैं। जिन परिस्थितियों में जम्मू-कश्मीर राज्य भारतीय संघ का भाग बनने को राजी हुआ, उस परिस्थिति में उसे विशिष्ट प्रावधान देने का वायदा किया गया था। अन्य राज्यों में आदिवासियों और पिछड़े राज्यों को उठाने तथा उनकी संस्कृति को संरक्षित रखने की दृष्टि से जो विशिष्ट प्रावधान किए गये हैं, वे संघवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

Jharkhand Board Class 11 Political Science संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका सम्बन्ध किसी मूल्य से है? यदि हाँ, तो वह अन्तर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएँ।
(क) पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा होगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
(घ) बेगार अथवा बंधुआ मजदूरी नहीं करायी जा सकती।
उत्तर:
(क) ‘पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा होगा।’ हाँ, इस कानून का सम्बन्ध समानता और सामाजिक न्याय के सामाजिक मूल्य से है। इसका कारण यह है कि संविधान में स्त्री और पुरुष दोनों को समानता का अधिकार दिया गया है। सरकार किसी कानून में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगी। दूसरे, सामाजिक न्याय का अर्थ भी यही है कि समाज में लिंग, जाति, नस्ल, धर्म आदि के आधार पर कोई भेदभाव न हो। अतः पुत्र और पुत्री दोनों को परिवार की सम्पत्ति में समान हिस्सा दिया जाना सामाजिक न्याय के मूल्य को दर्शाता है। इस प्रकार इस कानून में समानता और सामाजिक न्याय का मूल्य अन्तर्निहित है।

(ख) ‘अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।’ हाँ, इस कानून में भी आर्थिक न्याय का मूल्य अन्तर्निहित है। उपभोक्ता वस्तुओं को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है आवश्यक आवश्यकताओं से संबंधित उपभोक्ता वस्तुएँ और विलासिता की आवश्यकताओं से सम्बन्धित उपभोक्ता वस्तुएँ। इसके अतिरिक्त मानव के शरीर के लिए घातक उपभोक्ता वस्तुएँ भी होती हैं। हम इन्हें तीसरी श्रेणी में ले सकते हैं। ये वस्तुएँ सामान्यतः नशे से सम्बन्धित होती हैं। ऐसी स्थिति में सरकार आर्थिक – न्याय को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग श्रेणी की उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग करती है तथा ऐसे कानून बनाती है।

(ग) ‘किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायेगी। हाँ, इस कानून में धार्मिक मूल्य अन्तर्निहित है और वह है। धर्मनिरपेक्षता का मूल्य/धर्मनिरपेक्षता का आदर्श मूल्य यही है कि राज्य या सरकार सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखेगी तथा किसी भी धर्म विशेष का प्रचार-प्रसार नहीं करेगी। सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा न दिया जाना, धर्मनिरपेक्षता के मूल्य का अनुसरण है।

(घ) ‘बेगार या बंधुआ मजदूरी नहीं करायी जा सकती। हाँ, इस कानून के अन्तर्गत सामाजिक न्याय का मूल्य अन्तर्निहित है। सामाजिक न्याय का यह तकाजा है कि समाज में कसी भी वर्ग का शोषण नहीं किया जाये । यह कानून भी इसी मूल्य को लागू करता है और यह स्थापित करता है कि ‘बेगार या बंधुआ मजदूरी नहीं करायी जा सकती क्योंकि ये दोनों रूप शोषणकारी हैं।’

प्रश्न 2.
नीचे कुछ विकल्प दिये जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता? लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत जाएं।
(क) सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख) अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ) यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी लक्ष्यों से कहीं विचलित न हो
(ङ) शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
उत्तर:
उपर्युक्त विकल्पों में जिस कथन का इस्तेमाल इस कथन- ‘लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत- को पूरा करने के लिए नहीं किया जा सकता वह है। (ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

प्रश्न 3.
संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं। (अ) इनमें से कौनसा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं? कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।
(ब) इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों
(क) आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है। आम जनता इन बहसों की कानून भाषा को नहीं समझ सकती।
(ख) आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियाँ और स्थितियों से अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नए जमाने में इस्तेमाल करना दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।
(ग) संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है।
उत्तर:
(अ) इनमें से (ग) बिन्दु के अन्तर्गत दिया गया कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं तथा इनमें से (क) और (ख) बिन्दु के अन्तर्गत दिये गए कथन इस बात की दलील हैं कि संविधान सभा की बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।

(ब) इनमें से मैं इस पक्ष का समर्थन करूंगा कि संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है। इसलिए अपने संविधान के मूल में निहित राजनीतिक दर्शन को बार-बार याद करना और उसे टटोलना हमारे लिए जरूरी है और यह राजनीतिक दर्शन हमें संविधान सभा की बहसों में दिये गये तर्कों में मिलता है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अन्तर स्पष्ट करें।
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ
(ख) अनुच्छेद 370 और 371
(ग) सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार।
उत्तर:
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ – धर्मनिरपेक्षता की समझ के मामले में भारतीय संविधान पश्चिमी अवधारणा से अलग है। दोनों में निम्नलिखित अन्तर हैं-
1. पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता से आशय व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता से है जबकि भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता से आशय व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता से है।

2. पश्चिम में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध से है जिसका अर्थ है कि धर्म और राज्य दोनों एक-दूसरे के अन्दरूनी मामलों से दूर रहेंगे। लेकिन भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं है क्योंकि यहां धर्म से अनुमोदित ऐसे रिवाजों, जैसे छुआछूत आदि, जो व्यक्ति को उसकी मूल गरिमा और आत्मसम्मान से वंचित करते हैं; को खत्म करने के लिए राज्य को धर्म के अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप करना पड़ा।

अतः यहाँ राज्य स्वतंत्रता और समता जैसे मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए धार्मिक समुदायों की मदद भी कर सकता है और उनके कार्य में हस्तक्षेप भी कर सकता है। इस प्रकार भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक- निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है।

(ख) अनुच्छेद 370 और 371 – अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अस्थायी या संक्रमणकालीन व्यवस्था करता था और अनुच्छेद 371 उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए विशेष उपबन्धों की व्यवस्था करता है। इन दोनों अनुच्छेदों को जगह देकर भारतीय संघवाद ने ‘असमतोल संघवाद’ की अवधारणा को अपनाया है जबकि पाश्चात्य संविधानों में संघवाद की समतोल अवधारणा को अपनाया गया है। पाश्चात्य संविधानों में जहाँ सभी राज्यों को समानता का दर्जा दिया गया है तथा सभी राज्यों के अपने पृथक्-पृथक् संविधान हैं, वहां भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का समावेश करके जम्मू-कश्मीर राज्य को शेष राज्यों की तुलना में विशेष अधिकार दिए गए थे।

लेकिन 2019 में मोदी सरकार ने 370 अनुच्छेद को हटाकर जम्मू-कश्मीर राज्य में अन्य केन्द्र प्रशासित राज्यों के समान एक केन्द्र प्रशासित राज्य बना कर इन विशेष अधिकारों को समाप्त कर दिया है। इसी प्रकार अनुच्छेद 371 का समावेश करके पूर्वी क्षेत्र के कुछ राज्यों को शेष राज्यों की तुलना में विशेष अधिकार दिये गये हैं। अनुच्छेद 371 के तहत नागालैंड व अन्य पूर्वी क्षेत्र के प्रदेशों को विशेष दर्जा दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुसार विभिन्न प्रदेशों के साथ इस असमान बरताव में कोई बुराई नहीं है।

(ग) सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन:
भारतीय संविधान और पाश्चात्य धारणा में सकारात्मक कार्य योजना के सम्बन्ध में बड़ा अन्तर है। अमेरिका का संविधान 1789 में लागू हुआ। वहां सकारात्मक कार्ययोजना, 1964 के नागरिक अधिकार आंदोलन के बाद प्रारंभ हुई जबकि भारतीय संविधान ने इसे लगभग दो दशक पहले ही अपना लिया था। हमारे संविधान ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आंच लाए बगैर सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को स्वीकार किया है और जाति आधारित ‘सकारात्मक कार्य योजना’ के प्रति संवैधानिक वचनबद्धता प्रकट की है। सकारात्मक कार्य योजना के तहत भारत में उदारवादी व्यक्तिवाद को सामाजिक न्याय के सिद्धान्त तथा समूहगत अधिकार के साथ स्वीकार किया है, जबकि पाश्चात्य संविधानों में ऐसा नहीं होता है।

(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार:
पाश्चात्य अवधारणा में सार्वभौम मताधिकार का अधिकार उन देशों में भी जहाँ लोकतंत्र की जड़ स्थायी रूप से जम चुकी थी, कामगार तबके और महिलाओं को काफी देर से दिया गया था जबकि भारतीय राष्ट्रवाद की धारणा में सार्वभौमिक मताधिकार का विचार राष्ट्रवाद के बीज – विचारों में एक है। इसलिए यहां भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को सार्वभौमिक मताधिकार प्रदान किया गया है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धान्त भारत के संविधान में अपनाया गया है?
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग) राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर:
भारतीय संविधान में धर्म-निरपेक्षता के निम्नलिखित सिद्धान्त अपनाए गए हैं।
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें।

(क) विधवाओं के साथ किये जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
(ख) संविधान सभा में फैसलों को स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना प्रक्रियागत उपलब्धि
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना लैंगिक न्याय की उपेक्षा
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 उदारवादी व्यक्तिवाद
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की सम्पत्ति में असमान अधिकार क्षेत्र विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना

उत्तर:
निम्नलिखित कथनों को इस प्रकार सुमेलित किया गया है।

(क) विधवाओं के साथ किये जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी उदारवादी व्यक्तिवाद
(ख) संविधान सभा में फैसलों को स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना प्रक्रियागत उपलब्धि
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 क्षेत्र विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की सम्पत्ति में असमान अधिकार लैंगिक न्याय की उपेक्षा

प्रश्न 7.
यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्कों को पढ़ें और बताएँ कि आप इनमें से किससे सहमत हैं और क्यों?
जयेश: मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज हैं।
सबा: क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? क्या मूल्यों और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपका सकते हैं? महिलाओं और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें ‘पश्चिमी’ कहने जैसा क्या है? और, अगर ऐसा है तो भी क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर दें?
जयेश: मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने उनकी संसदीय शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?
नेहा: तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे । अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसको अपनाने से कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहां से भी आई हो।
उत्तर:
इस चर्चा में जयेश का विचार है कि ‘हमारा संविधान उधार का दस्तावेज है।’ यहाँ पर आलोचना का विषय यह है कि भारतीय संविधान मौलिक नहीं है क्योंकि इसमें बहुत से अनुच्छेद तो भारतीय शासन अधिनियम, 1935 से शब्दशः लिये गये हैं और बहुत से अनुच्छेद विदेशों के संविधानों से लिये गये हैं। इसमें अपना देशी कुछ भी नहीं है। इसमें प्राचीन या मध्यकालीन भारत का कुछ भी नहीं है।

लेकिन सबा का कहना है कि कोई मूल्य या आदर्श भारतीय या पाश्चात्य नहीं हुआ करते। मूल्य तो मूल्य हैं और आदर्श तो आदर्श होते हैं। जब हम यह कहते हैं कि स्त्री और पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए तो यह बात पाश्चात्य और भारतीय दोनों दृष्टिकोण से ही ठीक है। हमें कोई बात केवल इस आधार पर नकारनी नहीं चाहिए कि वह पश्चिमी अवधारणा से ली गई है। लेकिन नेहा का कथन है कि जब हम ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे, न कि शासन व्यवस्था के प्रति।

हमें कोई भी बात जो हमारे लिए उपयोगी हो, उसे अपनाने में यह नहीं देखना चाहिए कि यह कहां से लायी गयी है। इन तर्कों में हम नेहा के तर्क से सहमत हैं कि मानव की अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप जो बात जिस देश के संविधान से ली जाये उसमें कुछ भी गलत नहीं है। दूसरे देशों से ली गई बातें गलत हों, यह कहना सही नहीं है। इसके विपरीत यदि हम पुरातन भारतीय राजनीतिक संस्थाओं को लेना चाहें तो आधुनिक युग में यह जरूरी नहीं कि वे फिट बैठ सकें।

आलोचकों का यह कहना कि भारतीय संविधान में ‘भारतीयता का पुट नहीं है’ न्यायसंगत नहीं है। संविधान निर्माताओं ने भारतीय संविधान में विदेशी संविधानों से जिन संस्थाओं को ग्रहण किया है, उनको खूब सोच-विचार कर ही कि वे भारतीय परिस्थितियों के संदर्भ में उपयोगी हैं या नहीं, ग्रहण किया है तथा उन्हें ग्रहण करते समय भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाला है। इसलिए भारतीय संविधान के निर्माण में परिवर्तन के साथ चयन की कला को भी अपनाया गया है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

प्रश्न 8.
ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता? अपने उत्तर में कारण बताएँ।
उत्तर:
क्या भारत का संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं है? भारत के संविधान की एक आलोचना यह कह कर की जाती है कि यह प्रतिनिध्यात्मक नहीं है। क्योंकि भारतीय संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया था जिसका गठन 1946 में किया गया था। इसके सदस्य प्रान्तीय विधानमण्डलों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुने गये थे। संविधान सभा में 389 सदस्य थे जिनमें से 292 ब्रिटिश प्रान्तों से तथा 93 देशी रियासतों से थे। चार सदस्य चीफ कमिश्नर वाले क्षेत्रों से थे।

3 जून, 1947 को भारत का विभाजन हुआ और संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या घटकर 299 रह गयी जिसमें 284 सदस्यों ने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान पर हस्ताक्षर किये। संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव चूंकि सार्वभौम मताधिकार द्वारा नहीं हुआ था। अतः कुछ विद्वान इसे प्रतिनिधिमूलक नहीं मानते। लेकिन भारतीय संविधान की यह आलोचना कि संविधान निर्मात्री सभा प्रतिनिधि संस्था नहीं थी, त्रुटिपरक है। यद्यपि यह बात सही है कि सभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से नहीं हुआ था और न ही जनमत संग्रह द्वारा ही संविधान को जनता द्वारा अनुसमर्थित कराया गया था, तथापि इस आलोचना में निम्नलिखित कारणों से कोई सार नहीं है।

  1. 1946 में जिन परिस्थितियों में संविधान सभा का निर्माण हुआ, उनमें वयस्क मताधिकार के आधार पर इस प्रकार की सभा का निर्माण संभव नहीं था।
  2. यदि संविधान सभा का गठन प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता अथवा यदि इस संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के प्रारूप पर जनमत संग्रह करवाया जाता, तब भी संविधान सभा का स्वरूप कम या अधिक ऐसा ही होता। क्योंकि 1952 के प्रथम आम चुनाव में संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने चुनाव लड़ा तथा काफी अच्छे बहुमत से विजय प्राप्त की।
  3. तत्कालीन भारत के सबसे प्रमुख राजनैतिक दल ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ ने संविधान सभा को अधिकाधिक प्रतिनिधि स्वरूप प्रदान करने की प्रत्येक संभव और अधिकांश अंशों में सफल चेष्टा की थी।
  4. अगर हम प्रतिनिधित्व को ‘राय’ से जोड़ें तो हमारे संविधान में अप्रतिनिधित्व नहीं है। क्यों संविधान सभा में हर किस्म की राय रखी गयी । यदि हम संविधान सभा में हुई बहसों को पढ़ें तो जाहिर होगा कि सभा में बहुत से मुद्दे उठाए गए और बड़े पैमाने पर राय रखी गयी। सदस्यों ने अपने व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकार पर आधारित मसले ही नहीं बल्कि समाज के विभिन्न तबके के सरोकारों और हितों पर आधारित मसले भी उठाये।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैंगिक: न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-से प्रमाण देंगे? यदि आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
उत्तर:
भारतीय संविधान में लैंगिक न्याय की उपेक्षा: भारतीय संविधान में कुछ सीमाएँ भी हैं। उनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सीमा लैंगिक न्याय पर पर्याप्त ध्यान न देने की है। इसमें लैंगिक न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों खासकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है। यथा गया है

1. परिवार की सम्पत्ति में स्त्रियों और बच्चों को समान अधिकार नहीं दिये गये हैं। बेटे और बेटी में अन्तर किया।

2. मूल सामाजिक-आर्थिक अधिकार राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल किये गये हैं जबकि उन्हें मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी सकती।
समान कार्य के लिए स्त्री तथा पुरुष दोनों को समान वेतन राज्य के द्वारा संरक्षित किया गया है। यह अधिकार नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल किया गया है। यह अधिकार मूल अधिकारों का भाग होना चाहिए था क्योंकि राज्य तभी समान कार्य के लिए स्त्री-पुरुष दोनों को समान वेतन दिला सकता है जबकि नीति निर्देशक तत्त्वों के लिए राज्य केवल प्रयास करेगा।

3. भारत के संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए राज्य द्वारा आरक्षण किये जाने का प्रावधान किया गया है। भारत में स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में बहुत पिछड़ी हुई हैं। आर्थिक-सामाजिक, शैक्षिक सभी दृष्टियों से पिछड़ी हुई हैं। अतः स्त्रियों को आरक्षण की सुविधा प्रदान कर लैंगिक न्याय की स्थापना की जानी चाहिए। आज तक स्त्रियों को 33 प्रतिशत आरक्षण संसद व राज्य विधानमण्डल में नहीं दिलवाया जा सका है।

यदि आज हम संविधान लिख रहे होते तो लैंगिक न्याय के जो प्रावधान नीति-निर्देशक तत्त्वों में दिये गये हैं, उन्हें मूल अधिकारों की श्रेणी में सम्मिलित करते तथा परिवार से जुड़े मुद्दे जैसे। परिवार की सम्पत्ति में स्त्रियों और बच्चों को समान अधिकार दिये जाने का प्रावधान किये जाते तथा स्त्रियों को 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करते।

प्रश्न 10.
क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि। ” एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केन्द्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाय राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों वाले खंड में क्यों रख दिए गए यह स्पष्ट नहीं है।” आपकी जानकारी में सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगें?
उत्तर:
नीति-निर्देशक तत्त्व:
भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्व हैं जो कि आयरलैंड के संविधान से ग्रहण किए गए हैं। भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान में केवल राज्य या सरकार के अंगों व उनकी शक्तियों व संरचना का ही वर्णन नहीं किया है बल्कि इसमें नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है तथा नीति की वह दिशा भी निश्चित की गई है जिसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न केन्द्र तथा राज्यों की सरकारों को करना है। संविधान निर्माताओं का लक्ष्य भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था।

इसलिए उन्होंने नीति- निर्देशक तत्त्वों में ऐसी बातों का समावेश किया, जिन्हें कार्य रूप में परिणत किये जाने पर लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव हो सकती थी। ये निर्देशक तत्त्व हमारे राज्य के सम्मुख कुछ आदर्श उपस्थित करते हैं जिनके द्वारा देश के नागरिकों का सामाजिक, आर्थिक और नैतिक उत्थान हो सकता है।

नीति निर्देशक तत्त्वों की प्रकृति-नीति निर्देशक तत्त्व वाद योग्य नहीं हैं। इन तत्त्वों को किसी भी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकती। इस प्रकार नीति निर्देशक तत्त्वों को मूल अधिकारों के समान वैधानिक शक्ति प्रदान नहीं की गई है। इसका अर्थ है कि नीति निर्देशक तत्त्वों की क्रियान्विति के लिए न्यायालय के द्वारा किसी भी प्रकार के आदेश जारी नहीं किये जा सकते। लेकिन वैधानिक महत्त्व प्राप्त न होने पर भी ये तत्त्व शासन के संचालन के आधारभूत सिद्धान्त हैं और राज्य का यह कर्त्तव्य है कि व्यवहार में सदैव ही इन तत्त्वों का पालन करे।

सामाजिक: आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक वाले खंड में रखने के कारण संविधान निर्माताओं ने नीति निर्देशक तत्त्वों को मूल अधिकारों के खंड में इसलिए नहीं रखा क्योंकि वे इन्हें वाद योग्य नहीं बनाना चाहतेथे । इसका कारण यह था कि भारत उस समय पराधीनता के चंगुल से छूटा था। उसकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि यदि नीति निर्देशक तत्त्वों को वाद योग्य बनाया जाता तो आर्थिक संकट उभर सकता था और उसके कारण समय-समय पर अनेक समस्यायें उठ सकती थीं।

इस स्थिति से बचने के लिए संविधान निर्माताओं ने नीति निर्देशक तत्त्वों के सम्बन्ध में राज्य को निर्देश दिया है कि वे इन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुकूल पूरा करने का प्रयास करें। इनके सम्बन्ध में नागरिकों को यह अधिकार नहीं दिया गया है कि वे इन तत्त्वों को पूरा कराने के लिए राज्य के विरुद्ध न्यायालय में जा सकें।

संविधान का राजनीतिक दर्शन JAC Class 11 Political Science Notes

→ संविधान के दर्शन का क्या आशय है?
कानून और नैतिक मूल्यों के बीच गहरा सम्बन्ध है। इसी कारण संविधान को एक ऐसे दस्तावेज के रूप में देखना जरूरी है जिसके पीछे एक नैतिक दृष्टि काम कर रही हो। संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन का नजरिया अपनाने की जरूरत है। संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन के नजरिये में तीन बातें शामिल हैं।

  • संविधान कुछ अवधारणाओं के आधार पर बना है। जैसे अधिकार, नागरिकता, अल्पसंख्यक, लोकतंत्र आदि इन अवधारणाओं की व्याख्या हमारे लिए जरूरी है।
  • संविधान का निर्माण जिन आदर्शों की नींव पर हुआ है, उन पर हमारी गहरी पकड़ होनी चाहिए।
  • संविधान के आदर्शों और मूल्यों की सुसंगतता के पीछे क्या तर्क दिये गये हैं।

→ इस प्रकार संविधान के अन्तर्निहित नैतिक तत्त्व को जानने और उसके दावे के मूल्यांकन के लिए संविधान के प्रति राजनीतिक दर्शन का नजरिया अपनाने की जरूरत है ताकि हम अपनी शासन व्यावस्था के बुनियादी मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को एक कसौटी पर जांच सकें । संविधान के आदर्श अपने-आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मूल्यों या आदर्शों की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं की जांच हेतु संविधान के आदर्शों का प्रयोग एक कसौटी के रूप में होना चाहिए।

→ संविधान – लोकतांत्रिक बदलाव का साधन:
संविधान को अंगीकार करने का एक बड़ा कारण है-सत्ता को निरंकुश होने से रोकना। संविधान सत्ता के बुनियादी नियम प्रदान करता है और राज्य को निरंकुश होने से रोकता है। संविधान हमें गहरे सामाजिक बदलाव के लिए शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक साधन भी प्रदान करता है। औपनिवेशिक दासता में रहे लोगों के लिए संविधान राजनीतिक आत्मनिर्णय का उद्घोष है।

→ और इसका पहला वास्तविक अनुभव भी। भारतीय संविधान का निर्माण परम्परागत सामाजिक ऊँच-नीच के बंधनों को तोड़ने और स्वतंत्रता, समता और न्याय के युग में प्रवेश के लिए हुआ। इस दृष्टि से संविधान की मौजूदगी सत्तासीन लोगों की शक्ति पर अंकुश ही नहीं लगाती बल्कि जो लोग परम्परागत तौर पर सत्ता से दूर रहे हैं उनका सशक्तिकरण भी करती है। संविधान सभा की ओर मुड़कर क्यों देखें?

→ जब संवैधानिक व्यवहार: बरताव को चुनौती मिले, खतरा मंडराये या उपेक्षा हो, तब इन पर पकड़ बनाए रखने के लिए इनके (व्यवहार – बरतावों के ) मूल्य और अर्थ को समझने के लिए संविधान सभा की बहसों को मुड़कर देखने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं रहता। इसलिए अपने संविधान के मूल में निहित राजनीतिक दर्शन को बार-बार याद करना और उसे टटोलना हमारे लिए जरूरी है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

→ हमारे संविधान का राजनीतिक दर्शन क्या है?
भारतीय संविधान स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रीय एकता का राजनीतिक दर्शन है। इन सबके साथ वह इस बात पर भी बल देता है कि उसके दर्शन पर शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से अमल किया जाये। यथा-

→ व्यक्ति की स्वतंत्रता: भारतीय संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। यह प्रतिबद्धता लगभग एक सदी तक निरंतर चली बौद्धिक और राजनैतिक गतिविधियों का परिणाम है। आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान का अभिन्न अंग है। इसी तरह, मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध हमें स्वतंत्रता प्रदान की गई है। मौलिक अधिकारों में भारतीय संविधान में व्यक्ति की स्वतंत्रता को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान एक उदारवादी संविधान है।

→ सामाजिक न्याय:
भारतीय संविधान का उदारवाद शास्त्रीय उदारवाद से भिन्न है क्योंकि यह सामाजिक न्याय से जुड़ा है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। विविधता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान संविधान का उदारवाद सामुदायिक जीवन-मूल्यों का पक्षधर है। भारतीय संविधान समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा देता है। भारत में अनेक सांस्कृतिक, भाषायी और धार्मिक समुदाय हैं। इन समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ाने के लिए समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता देना जरूरी हो गया। ऐसे ही अधिकारों में से एक है। धार्मिक समुदाय का अपनी शिक्षा संस्था स्थापित करने और चलाने का अधिकार।

→ धर्मनिरपेक्षता: भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य से आशय यह है कि राज्य न तो किसी धार्मिक संस्था की मदद करेगा और न ही उसे बाधा पहुँचायेगा। वह धर्म से एक सम्मानजनक दूरी बनाये रखेगा। इसी प्रकार राज्य नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हुए धर्म को आधार नहीं बनायेगा। राज्य को व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए चाहे उस व्यक्ति का धर्म कोई भी हो।

→ धार्मिक समूहों के अधिकार: भारतीय संविधान सभी धार्मिक समुदायों को शिक्षा संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार प्रदान करता है। भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता होता है।

→ राज्य का हस्तक्षेप करने का अधिकार:
धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ भारत में पारस्परिक निषेध ( धर्म और राज्य दोनों एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों से दूर रहेंगे) नहीं हो सकता क्योंकि धर्म से अनुमोदित रिवाज, जैसे- छुआछूत, व्यक्ति को उसकी मूल गरिमा और आत्मसम्मान से वंचित करते हैं। राज्य के हस्तक्षेप के बिना इनके खात्मे की उम्मीद नहीं थी। इसलिए यहाँ राज्य को धर्म के अन्दरूनी मामले में हस्तक्षेप करना ही पड़ा।

से हस्तक्षेप नकारात्मक के साथ-साथ सकारात्मक भी हो सकते हैं, जैसे- राज्य धार्मिक संगठन द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा संस्थान को धन दे सकता है। यह इस बात पर निर्भर है कि राज्य के किन कदमों से स्वतन्त्रता और समता जैसे मूल्यों को बढ़ावा मिलता है। दूरी है। अतः भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत, भारतीय संविधान की उपलब्धियाँ भारतीय संविधान की ये उपलब्धियाँ हैं।

  • भारतीय संविधान ने उदारवादी व्यक्तिवाद को एक शक्ल देकर उसे मजबूत किया है।
  • भारतीय संविधान ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आंच लाए बगैर सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को स्वीकार किया
  • भारतीय संविधान ने सामुदायिक विविधता व तनाव के बावजूद समूहगत अधिकार प्रदान किये हैं।
  • सार्वभौमिक मताधिकार के प्रति वचनबद्धता भारतीय संविधान की चौथी उपलब्धि है।
  • पूर्वोत्तर से संबंधित अनुच्छेदों को जगह देकर भारतीय संविधान ने ‘असमतोल संघवाद’ जैसी महत्त्वपूर्ण अवधारणा को अपनाया है। लेकिन भारत के लोकतांत्रिक और भाषायी संघवाद ने सांस्कृतिक पहचान के दावे को एकता के दावे के साथ जोड़ने में सफलता पायी है।

→ राष्ट्रीय पहचान: संविधान में समस्त भारतीय जनता की एक राष्ट्रीय पहचान पर निरंतर जोर दिया गया है। हमारी इस राष्ट्रीय पहचान का भाषा या धर्म के आधार पर बनी अलग- अलग पहचानों से कोई विरोध नहीं हैं। भारतीय संविधान में इन दो पहचानों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की गई है। फिर भी, किन्हीं विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय पहचान को वरीयता प्रदान की गई है। फैसला

→ प्रक्रियागत उपलब्धि:

  • भारतीय संविधान का विश्वास राजनीतिक विचार-विमर्श में है।
  • सुलह और समझौते पर बल देना। संविधान सभा इस बात पर अडिग थी कि किसी महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर बहुमत के बजाय सर्वानुमति से लिया जाये।

→ आलोचना: भारतीय संविधान की प्रमुख आलोचनाएँ ये हैं;
यह संविधान अस्तव्यस्त है। भारतीय संविधान में संवैधानिक हैसियत के ऐसे बहुत से वक्तव्यों, ब्यौरों, और कायदों को एक ही दस्तावेज के अन्दर समेट लिया है, जो प्रायः कसे हुए संविधान में संविधान से बाहर होते हैं। जैसे चुनाव आयोग तथा लोक सेवा आयोग सम्बन्धी संवैधानिक प्रावधान।

→ इसमें सबकी नुमाइंदगी नहीं हो सकी है। हमारे संविधान में गैर- नुमाइंदगी इसलिए थी क्योंकि संविधान सभा के सदस्य सीमित मताधिकार से चुने गये थे, न कि सार्वभौमिक मताधिकार से। लेकिन यदि हम संविधान सभा की बहसों को पढ़ें तो स्पष्ट होता है कि सभा में बहुत से मुद्दे उठाये गए और उन पर बड़े पैमाने पर राय रखी गयी। इस दृष्टि से भारतीय संविधान में सबकी नुमाइंदगी दिखाई देती है।

→ यह संविधान भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है। यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान एक विदेशी दस्तावेज है। इसका हर अनुच्छेद पश्चिमी संविधानों की नकल है तथा भारतीय जनता के सांस्कृतिक भावबोध से इसका मेल नहीं बैठता। लेकिन यह आरोप गलत है। यह बात सच है कि भारतीय संविधान आधुनिक और अंशतः पश्चिमी है, लेकिन इससे यह पूरी तरह विदेशी नहीं हो जाता बल्कि यह संविधान सचेत चयन और अनुकूलन का परिणाम है न कि नकल का।

→ संविधान की सीमाएँ।

  • भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
  • इसमें लिंगागत-न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों विशेषकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है।
  • कुछ बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक वाले खंड में डाल दिया गया है। लेकिन संविधान की ये सीमाएँ इतनी गंभीर नहीं हैं कि ये संविधान के दर्शन के लिए ही खतरा पैदा कर दें।

→ निष्कर्ष: भारत का संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है। इसकी केन्द्रीय विशेषताएँ इसे जीवन्त बनाती हैं। संविधान सभा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उत्पन्न संवैधानिक दर्शन को परिष्कार कर उसे संविधान के रूप में विधिक सांस्थानिक रूप प्रदान किया है। संविधान के दर्शन का सर्वोत्तम सार-संक्षेप संविधान की प्रस्तावना में है। इसमें समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व के उद्देश्यों के साथ-साथ यह भी कहा गया है कि जनता ने संविधान का निर्माण किया है और लोकतंत्र एक साधन है जिसके सहारे जनता वर्तमान और भविष्य को आकार देती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

Jharkhand Board Class 11 Political Science संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ InText Questions and Answers

पृष्ठ 200

प्रश्न 1.
मुझे यह बात समझ नहीं आती कि कोई संविधान लचीला या कठोर कैसे होता है? क्या संविधान की कठोरता या उसका लचीलापन उस काल की राजनीति से तय नहीं होता?
उत्तर:
किसी संविधान का लचीला होना या कठोर होना, उस संविधान में की जाने वाली संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करता है। यदि संविधान संशोधन के लिए संसद के 2/3 या 3/4 बहुमत की जरूरत होती है, तो ऐसे संविधान को कठोर कहा जाता है और यदि उसमें संसद सामान्य बहुमत से साधारण विधि की तरह संशोधन कर सकती है, तो उसे लचीला संविधान कहा जाता है। संविधान की कठोरता या उसका लचीलापन उस काल की राजनीति से तय नहीं होता।

पृष्ठ 201

प्रश्न 2.
अगर कुछ राज्य संविधान में संशोधन चाहते हैं तो क्या उनकी बात सुनी जाएगी? क्या ये राज्य संजीव पास बुक्स अपनी तरफ से संशोधन का प्रस्ताव ला सकते हैं? मुझे लगता है कि यह राज्यों की तुलना में केन्द्र को ज्यादा. शक्तियाँ देने का ही एक और उदाहरण है।
उत्तर:
यदि कुछ राज्य संविधान में संशोधन चाहते हैं तो वे अपनी बात को राज्य सभा के सांसदों को राज्यसभा में रखने केलिए दबाव बना सकते हैं, लेकिन औपचारिक रूप से संविधान में संशोधन का प्रस्ताव रखने का राज्यों को कोई अधिकार नहीं दिया गया है। हाँ, यह राज्यों की तुलना में केन्द्र को ज्यादा शक्तियाँ देने का ही एक ओर उदाहरण है।

पृष्ठ 204

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में निम्नलिखित संशोधन करने के लिए कौन-सी शर्तें पूरी की जानी चाहिए?
1. नागरिकता सम्बन्धी अनुच्छेद
2. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
3. केन्द्र सूची में परिवर्तन
4. राज्य की सीमाओं में बदलाव
5. चुनाव आयोग से संबंधित उपबन्ध।
उत्तर:

  1. नागरिकता सम्बन्धी अनुच्छेद: संसद के दोनों सदनों का पृथक्-पृथक् सामान्य बहुमत की शर्त।
  2. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार: विशेष बहुमत की शर्त।
  3. केन्द्र सूची में परिवर्तन: विशेष बहुमत राज्यों द्वारा अनुमोदन।
  4. राज्य की सीमाओं में बदलाव: सामान्य बहुमत।
  5. चुनाव आयोग से संबंधित उपबंध: विशेष बहुमत राज्यों द्वारा अनुमोदन।

पृष्ठ 213

प्रश्न 4.
बताएं कि निम्नलिखित वाक्य सही हैं या गलत?
(क) बुनियादी ढांचे को लेकर दिये गए फैसले के बाद, संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार नहीं रह गया है।
(ख) सर्वोच्च न्यायालय ने हमारे संविधान के बुनियादी तत्वों की एक सूची तैयार की है। इस सूची को बदला नहीं जा सकता।
(ग) न्यायालय को इस बात का फैसला करने का अधिकार है कि किसी संशोधन से बुनियादी संरचना का उल्लंघन होता है या नहीं।
(घ) केशवानंद भारती मामले के बाद यह तय हो चुका है कि संसद संविधान में किस सीमा तक संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(क) – गलत है।
(ग) – सही है।
(ख) – गलत है।
(घ) – सही है।

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प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौनसा वाक्य सही है। संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि।
(क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
(ख) किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो जाता है।
(ग) हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए।
(घ) संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिंबित होना चाहिए।
उत्तर:
उपर्युक्त चारों वाक्यों में (क) वाक्य सही है। यह है। संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि (क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही/गलत का निशान लगाएँ:
(क) राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
(ख) संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास ही होता है।
(ग) न्यायपालिका संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परन्तु उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या के द्वारा वह संविधान को काफी हद तक बदल सकती है।
(घ) संसद संविधान के किसी भी खंड में संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(क) सत्य (ख) असत्य (ग) सत्य (घ) असत्य।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया में भूमिका निभाते हैं? इस प्रक्रिया में ये कैसे शामिल होते हैं?
(क) मतदाता
(ख) भारत का राष्ट्रपति
(ग) राज्य की विधानसभाएँ
(घ) संसद
(ङ) राज्यपाल
(च) न्यायपालिका
उत्तर:
(क) मतदाता: भारत के संविधान संशोधन में मतदाता भाग नहीं लेते हैं।

(ख) भारत का राष्ट्रपति: भारत का राष्ट्रपति संविधान संशोधन में भाग लेता है। संसद के दोनों सदनों से संविधान संशोधन विधेयक पारित होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने पर वह संशोधन विधेयक पारित हो जाता है। राष्ट्रपति को किसी भी संशोधन विधेयक को वापस भेजने का अधिकार नहीं है।

(ग) राज्य की विधानसभाएँ: संविधान की कुछ धाराओं (अनुच्छेदों) में संशोधन करने के लिए संसद के दो- तिहाई बहुमत के साथ-साथ आधे या उससे अधिक राज्यों की विधानसभाओं से भी अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है।

(घ) संसद – भारतीय संविधान में संशोधन का मुख्य घटक संसद है क्योंकि सभी प्रकार के संशोधन संसद में ही प्रस्तावित किये जा सकते हैं। प्रथम प्रकार के संशोधन विधेयक को पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत की ही आवश्यकता होती है। दूसरे प्रकार के संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के पृथक-पृथक विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। तीसरे प्रकार के संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के पृथक-पृथक विशेष बहुमत के साथ-साथ आधे या आधे से अधिक राज्यों की विधानसभाओं के अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार तीनों प्रकार के संविधान संशोधनों में संसद के दोनों सदनों का हाथ अवश्य रहता है।

(ङ) राज्यपाल: संविधान के जिन-जिन अनुच्छेदों में संशोधन हेतु पचास प्रतिशत राज्यों के विधानमण्डलों की अनुमति लेनी होती है, केवल वहां राज्यपाल की लिप्तता पायी जाती है, क्योंकि राज्य विधानमण्डल से पारित संशोधन विधेयक पर राज्यपाल को हस्ताक्षर करने होते हैं।

(च) न्यायपालिका: संविधान संशोधनों में न्यायपालिका की भूमिका नहीं होती है।

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प्रश्न 4.
इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42वां संशोधन अब तक का सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे?
(क) यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
(ख) यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
(ग) इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
(घ) संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।
उत्तर:
42वाँ संविधान संशोधन विभिन्न विवादास्पद संशोधनों में से एक था। उपर्युक्त कारणों में से इसके विवादास्पद होने के निम्नलिखित कारण थे।

  1. यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
  2. इस संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।

यह संविधान संशोधन वास्तव में उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती विवाद में दिये गये निर्णयों को निष्क्रिय करने का प्रयास था। गये थे।
दूसरे, इसमें लोकसभा की अवधि को 5 वर्ष से बढ़ाकर छः वर्ष कर दिया गया था।
इसमें न्यायपालिका की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति को भी प्रतिबंधित कर दिया गया था।
इस संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना, 7वीं अनुसूची तथा संविधान के 53 अनुच्छेदों में परिवर्तित कर दिये

प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों में कौनसा वाक्य विभिन्न संशोधनों के सम्बन्ध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता।
(क) संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
(ख) खंडन-मंडन/बहस और मतभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं।
(ग) कुछ नियमों और सिद्धान्तों को संविधान में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्व दिया गया है। कतिपय संशोधनों के लिए संविधान में विशेष बहुमत की व्यवस्था की गई है।
(घ) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
(ङ) न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।
उत्तर:
उपर्युक्त पांचों कथनों में से भाग (ङ) ही विधायिका और न्यायपालिका के बीच तनाव की उचित व्याख्या नहीं है। यह कथन है कि “न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।”

प्रश्न 6.
बुनियादी ढाँचे के सिद्धान्त के बारे में सही बात को चिह्नित करें। गलत वाक्य को सही करें।
(क) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
(ख) बुनियादी ढाँचे को छोड़कर विधायिका संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर सकती है।
(ग) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढांचे के अन्तर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
(घ) यह सिद्धान्त सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
(ङ) इस सिद्धान्त से न्यायपालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों ने बुनियादी ढांचे के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर:
बुनियादी ढांचे के सिद्धान्त के बारे में (ख), (ग), (घ) और (ङ) वाक्य सही हैं और (क) वाक्य गलत है।
(क) वाक्य को इस प्रकार सही किया जा सकता है। “संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा नहीं किया गया है।

प्रश्न 7.
सन् 2002-2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर निम्नलिखित में से कौनसे निष्कर्ष निकालेंगे।
(क) इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
(ख) इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
(ग) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
(घ) इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अन्तर नहीं रह गया था।
(ङ) ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
उत्तर:
प्रश्न में दिये गए निष्कर्षों में से सही निष्कर्ष हैं।
(ग) और (ङ)। ये इस प्रकार हैं।
(ग) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था तथा
(ङ) ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।

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प्रश्न 8.
संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है? व्याख्या करें।
उत्तर:
विशेष बहुमत से आशय: संविधान के अधिकांश प्रावधानों में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। विशेष बहुमत से यहाँ आशय है। साधारण बहुमत की तुलना में अधिक बहुमत भारत के संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है।

प्रथमतः, संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए। दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए। संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने की आवश्यकता नहीं है।विशेष बहुमत की आवश्यकता: विशेष बहुमत की आवश्यकता को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।

  1. राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी हेतु संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत का प्रावधान इसलिए किया गया है कि उसमें राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी होनी चाहिए। इसका आशय यह है कि जब तक प्रस्तावित विधेयक पर पर्याप्त सहमति न बन पाए तब तक उसे पारित नहीं किया जाना चाहिए।
  2. जनमत की दृष्टि से डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में विशेष बहुमत की आवश्यकता को जनमत से जोड़ते हुए कहा कि “जो लोग संविधान से संतुष्ट नहीं हैं उन्हें इसमें संशोधन करने के लिए सिर्फ दो तिहाई बहुमत की जरूरत है। अगर वे इतना बहुमत भी हासिल नहीं कर सकते तो यह कहना पड़ेगा कि उनकी राय में आम जनता की राय निहित नहीं है।” इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर ने ‘विशेष बहुमत’ को ‘जनता की राय’ से जोड़ते हुए संविधान संशोधन में इसकी आवश्यकता प्रतिपादित की।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं के परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर:
न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याएँ संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और संसद के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते रहते हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं। इस तरह के टकराव पैदा होने पर संसद को संशोधन का सहारा लेकर संविधान की किसी एक व्याख्या को प्रामाणिक सिद्ध करना पड़ता है। यथा। 1970-75 के दौरान संसद और न्यायपालिका के बीच उठे विवाद – 1970-75 के दौरान भारत में संविधान के कतिपय अनुच्छेदों की व्याख्याओं को लेकर संसद और न्यायपालिका के बीच अनेक विवाद उठे तथा इस काल में संसद ने न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार- बार संशोधन किये। यथा

1. मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या पर विवाद के आधार पर हुए संशोधन: मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर संसद और न्यायपालिका के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते रहे हैं। अनेक संशोधन मूल अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्वों के सम्बन्धों तथा संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को स्थापित करने तथा इनसे संबंधित संविधान के प्रावधानों की भिन्न-भिन्न व्याख्या को लेकर हुए हैं। पहला संविधान संशोधन जमींदारी प्रथा के उन्मूलन तथा भूमि सुधारों से संबंधित अनेक कानूनों को संविधान सम्मत बनाने हेतु किया गया।

इन्हें न्यायिक समीक्षा की न्यायिक शक्ति से बाहर कर दिया। 1967 में गोलकनाथ विवाद में न्यायपालिका ने यह व्याख्या की कि संसद मूल अधिकारों में कोई संशोधन नहीं कर सकती। संसद ने 1971 में 24वां संविधान संशोधन किया जिसमें उसने यह स्थापित किया कि संसद संविधान के किसी भाग में संशोधन कर सकती है। सन् 1972 में संसद ने 25वां संविधान संशोधन किया। इसमें उसने नीति निर्देशक तत्वों में दो नये अनुच्छेद 39(b) तथा 39 (c) प्रविष्ट किये।

इनमें यह भी कहा गया कि 39(a) तथा 39 (b) में दिये गए किसी विषय पर बने किसी कानून को इस आधार पर असंवैधानिक नहीं घोषित किया जायेगा कि वे किसी मूल अधिकार का उल्लंघन करते हैं। केशवानंद भारती (1973) के विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने 24वें तथा 25वें संविधान संशोधन की संवैधानिक समीक्षा में इस बात से सहमति दर्शायी कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है लेकिन संशोधन द्वारा किए गए परिवर्तन द्वारा संविधान की मौलिक संरचना को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या से संबंधित विवाद के कारण अनेक संशोधन हुए हैं।

2. संसद की संशोधन करने की शक्ति की सीमा सम्बन्धी व्याख्या पर संसद और न्यायपालिका के विवाद पर हुए संशोधन – 1967 में गोलकनाथ विवाद में न्यायपालिका ने संसद की संशोधन की शक्ति पर यह व्याख्या की है कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है। न्यायपालिका की इस व्याख्या को निरस्त करने के लिए संसद 1971 में 24वां संविधान संशोधन किया जिसमें यह स्थापित किया गया कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है।

लेकिन केशवानंद भारती विवाद में 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्याख्या की कि संसद यद्यपि संविधान के हर भाग में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह संविधान की मौलिक संरचना में कोई संशोधन नहीं कर सकती। संविधान की मौलिक संरचना का निर्धारण न्यायपालिका करेगी। न्यायपालिका की इस व्याख्या को निरस्त करने के लिए संसद ने 1976 में 42वां संविधान संशोधन पारित किया। इस संशोधन के द्वारा संविधान में अन्य अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। जब यह संशोधन पारित किया गया तब देश में आपातकाल जारी था तथा विरोधी दलों के प्रमुख सांसद जेल में थे।

इसी पृष्ठभूमि में 1977 में चुनाव हुए तथा सत्ताधारी दल कांग्रेस की हार हुई। नई सरकार ने 38वें, 39 वें तथा 42वें संशोधनों में अधिकांश को 43वें, 44वें संशोधनों के द्वारा निरस्त कर दिया। इन संशोधनों के माध्यम से संवैधानिक संतुलन को पुनः स्थापित किया गया। मिनर्वा मिल प्रकरण (1980) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने केशवानंद भारती के इस निर्णय को पुनः दोहराया कि संसद – संविधान की मूल संरचना में संशोधन नहीं कर सकती। वर्तमान में राजनैतिक दलों, राजनेताओं, सरकार और संसद ने भी मूल संरचना के विचार को स्वीकार कर लिया है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 10.
अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
उत्तर:
मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि ‘अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।’
प्रजातंत्र में जितना महत्व जनकल्याण को दिया जाता है, उतना ही महत्व इस बात को भी दिया जाता है कि ‘सत्ता का दुरुपयोग न होने पाए। संसद जनता का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि कार्यपालिका तथा न्यायपालिका पर इसको वरीयता दी जानी चाहिए अर्थात् संविधान संशोधन की संसद की शक्ति सर्वोच्च होनी चाहिए; उसकी इस शक्ति पर न्यायपालिका का कोई अंकुश नहीं होना चाहिए। इसी दृष्टि से भारत में न्यायपालिका तथा संसद के विवाद के दौरान संसद का यह दृष्टिकोण था कि उसके पास गरीब, पिछड़े तथा असहाय लोगों के हितों की रक्षा के लिए संशोधन करने की शक्ति मौजूद है।

लेकिन लोकतंत्र में विधायिका के साथ-साथ सरकार के अन्य दोनों अंगों को भी शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इसलिए यह अपेक्षा की जाती है कि संसद की सर्वोच्चता संविधान के ढांचे के अन्तर्गत ही हो। प्रजातंत्र का अर्थ केवल वोट और जनप्रतिनिधियों तक ही सीमित नहीं है। प्रजातंत्र का अर्थ विकासशील संस्थाओं से है और उनके संतुलन से है। इसलिए सभी राजनीतिक संस्थाओं को लोगों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए और दोनों को एक-दूसरे के साथ मिलकर चलना चाहिए। इसलिए यह आवश्यक है कि यदि संविधान में संशोधन का अधिकार संसद ( विधायका) के पास हो, तो न्यायपालिका के पास संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए क्योंकि-

  1. विधायिका को शक्ति संविधान से मिलती है और अन्य अंगों को भी शक्ति उससे मिलती है। अतः सभी अंग अपना कार्य संविधान की सीमा में रहते हुए करें तथा उसके ढांचे के अन्तर्गत ही करें।
  2. सरकार के तीनों अंगों के कार्यों में परस्पर नियंत्रण व संतुलन होना चाहिए ताकि वे लोगों के प्रति उत्तरदायी बने रहें।
  3. जनकल्याण के साथ-साथ लोकतंत्र में शक्ति के दुरुपयोग पर नियंत्रण भी बराबर के महत्व का है।

जनकल्याण हेतु किये जाने वाले संविधान संशोधन विधिक सीमाओं से बाहर नहीं होने चाहिए क्योंकि एक बार संविधान की सीमाओं से बाहर जाने की छूट मिलने पर सत्ताधारी उसका दुरुपयोग भी कर सकते हैं। इसलिए संसद व सरकार अपनी शक्ति का ऐसा दुरुपयोग न कर सके इसके लिए न्यायपालिका को संविधान संशोधनों पर पुनर्विचार का अधिकार होना चाहिए । यदि ऐसा नहीं किया जायेगा तो संसद अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर संविधान को नष्ट कर निरंकुश हो जायेगी। इससे शक्ति संतुलन समाप्त हो जायेगा तथा लोकतंत्र को खतरा उत्पन्न हो जायेगा ।

 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ JAC Class 11 Political Science Notes

→ भारतीय संविधान 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत किया गया तथा इसे 26 जनवरी, 1950 को औपचारिक रूप से लागू किया गया। तब से लेकर आज तक यह संविधान लगातार काम कर रहा है। हमारे देश की सरकार इसी संविधान के अनुसार काम करती है। इसके कारण हैं था।

  • हमें एक मजबूत संविधान विरासत में मिला है।
  • इस संविधान की बनावट हमारे देश की परिस्थितियों के बेहद अनुकूल है।
  • हमारे संविधान-निर्माता अत्यन्त दूरदर्शी थे। उन्होंने भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया
  • हमारा संविधान लचीला है।
  • अदालती फैसले और राजनीतिक व्यवहार – बरताव दोनों ने संविधान के अमल में अपनी परिपक्वता और लचीलेपन का परिचय दिया है। उक्त कारणों से कानूनों की एक बंद और जड़ किताब न बनकर एक जीवन्त दस्तावेज के रूप में विकसित हो सका है।

→ संविधान क्या है?
संविधान समकालीन परिस्थितियों और प्रश्नों से जुड़ा सरकार के निर्माण व संचालन के नियमों का एक मसौदा होता है। उसमें अनेक तत्व स्थायी महत्व के होते हैं, लेकिन यह कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं होता बल्कि उसमें हमेशा संशोधन, बदलाव और पुनर्विचार की गुंजाइश रहती है। इस प्रकार संविधान समाज की इच्छाओं और आकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब होता है तथा यह समाज को लोकतांत्रिक ढंग से चलाने का एक ढांचा भी होता है। क्या भारत का

→ संविधान अपरिवर्तनीय है:
भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान की पवित्रता को बनाए रखने तथा उसमें परिवर्तनशीलता की गुंजाइश होने में संतुलन पैदा करने की कोशिश की है। इस हेतु उन्होंने संविधान को सामान्य कानून से ऊँचा दर्जा दिया तथा उसे इतना लचीला भी बनाया कि उसमें समय की आवश्यकता के अनुरूप यथोचित बदलाव किये जा सकें । अतः स्पष्ट है कि हमारा संविधान कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तवेज नहीं है।

→ संविधान में संशोधन कैसे किया जाता है?
संविधान निर्माता संविधान को एक ही साथ लचीला और कठोर बनाने के पक्ष में थे। लचीला संविधान वह होता है जिसमें आसानी से संशोधन किये जा सकें और कठोर संविधान वह होता है जिसमें संशोधन करना बहुत मुश्किल होता है। भारतीय संविधान में इन दोनों तत्वों का समावेश किया गया है।

→ संविधान संशोधन की प्रक्रिया: संविधान में संशोधन करने के लिए निम्नलिखित तरीके दिये गये हैं

→  संसद में सामान्य बहुमत के आधार पर संशोधन- संविधान में ऐसे कई अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है। ऐसे मामलों में कोई विशेष प्रक्रिया अपनाने की जरूरत नहीं होती। जैसे-नये राज्यों के निर्माण, किसी राज्य के क्षेत्रफल को कम या अधिक करना, किसी राज्य का नाम बदलना आदि। संसद इन अनुच्छेदों में अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया को अपनाए बिना ही साधारण विधि की तरह संशोधन कर सकती है। \

→ अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया को अपनाते हुए संशोधन- संविधान के शेष खंडों में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 368 में दो तरीके दिये गये हैं।

  • संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग विशेष बहुमत के आधार पर संशोधन।
  • संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग विशेष बहुमत के साथ कुल राज्यों की आधी विधायिकाओं की स्वीकृति के आधार पर संशोधन।

संसद के विशेष बहुमत के अलावा किसी बाहरी एजेन्सी जैसे संविधान आयोग या अन्य किसी निकाय की संविधान की संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं है। इसी प्रकार संसद तथा राज्य विधानपालिकाओं में संशोधन पारित होने के बाद इसकी पुष्टि के लिए किसी प्रकार के जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं रखी गयी है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

→ अन्य सभी विधेयकों की तरह संशोधन विधेयक को भी राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है। परन्तु इस मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार भारत में संशोधन प्रक्रिया का आधार निर्वाचित प्रतिनिधियों (संसदीय संप्रभुता ) में निहित है।

→ विशेष बहुमत: संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है:
प्रथमतः संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए। दूसरे, संशोधन का समर्थन

  • करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए।
  • संशोधनं विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता होती है।
  • इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान नहीं है। संशोधन प्रक्रिया के पीछे बुनियादी भावना यह है कि उसमें राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी होनी चाहिए।

→ राज्यों द्वारा अनुमोदन:
राज्यों और केन्द्र सरकार के बीच शक्तियों के वितरण से संबंधित, जनप्रतिनिधित्व से संबंधित या मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए राज्यों की सहमति प्राप्त करना आवश्यक है। संविधान में राज्यों की शक्तियों को सुनिश्चित करने के लिए यह व्यवस्था की गई है कि जब तक आधे राज्यों की विधानपालिकाएँ किसी संशोधन विधेयक को पारित नहीं कर देतीं तब तक वह संशोधन प्रभाव नहीं माना जाता।

→ संविधान में इतने संशोधन क्यों किये गए हैं?
दिसम्बर, 2017 तक संविधान में 101 संशोधन किये जा चुके थे। ये संशोधन समय की जरूरतों के अनुसार किये गये थे, न कि सत्ताधारी दल की राजनीतिक सोच के आधार पर। संशोधनों की विषय-वस्तु अब तक किये गये संशोधनों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है;

→ पहली श्रेणी में वे संशोधन शामिल किये गए हैं जो तकनीकी या प्रशासनिक प्रकृति के हैं और ये संविधान के मूल उपबन्धों को स्पष्ट बनाने, उनकी व्याख्या करने तथा छिट-पुट संशोधन से संबंधित हैं। ये इन उपबन्धों में कोई बदलाव नहीं करते। यथा

  • उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष करना (15वां संशोधन)।
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन ( 55वां संशोधन )।
  • अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण की अवधि को बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन।

→ व्याख्या से सम्बन्धित संशोधन: दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत वे संशोधन आते हैं जिनमें संविधान की व्याख्या निहित रही। जैसे मंत्रिपरिषद की सलाह को राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी बनाना, मौलिक अधिकारों और नीति- निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर संसद और न्यायपालिका के मतभेदों के आधार पर किये गये संशोधन।

→ राजनीतिक आम सहमति के माध्यम से संशोधन: बहुत से संशोधन ऐसे हैं जिन्हें राजनीतिक दलों की आपसी सहमति का परिणाम माना जा सकता है। ये संशोधन तत्कालीन राजनीतिक दर्शन और समाज की आकांक्षाओं को समाहित करने के लिए किये गये थे। जैसे दल-बदल विरोधी कानून ( 52वाँ संशोधन तथा 91वां संशोधन), मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटकर 18 वर्ष करने का 61वां संशोधन तथा 73वां व 74वां संशोधन आदि।

→ विवादास्पद संशोधन:
संविधान के 38वें, 39वें और 42वें संशोधन विशेष रूप से विवादास्पद रहे। 1977 में 43वें तथा 44वें संशोधनों के द्वारा 38वें, 39वें तथा 42वें संशोधनों में किए गए तथा अधिकांश परिवर्तनों को निरस्त कर पुनः संवैधानिक संतुलन को स्थापित किया गया।

→ संविधान की मूल संरचना तथा उसका विकास:
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त को न्यायपालिका ने केशवानंद भारती (1973) के मामले में प्रतिपादित किया था । इस निर्णय ने संविधान के विकास में निम्नलिखित सहयोग दिया:

  • इस निर्णय द्वारा संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएँ निर्धारित की गईं।
  • यह निर्धारित सीमाओं के भीतर संविधान के किसी या सभी भागों के सम्पूर्ण संशोधन को अनुमति देता है।
  • संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन के बारे में न्यायपालिका का फैसला अन्तिम होगा।

विगत तीन दशकों के दौरान बुनियादी संचरना के सिद्धान्त को व्यापक स्वीकृति मिली है। इस सिद्धान्त से संविधान की कठोरता और लचीलेपन का संतुलन और मजबूत हुआ है।

→ न्यायालय के आदेश और संविधान का विकास: संविधान की समझ को बदलने में न्यायिक व्याख्याओं की अहम भूमिका रही है। यथा:

  • न्यायालय ने कहा कि आरक्षित सीटों की संख्या कुल सीटों की संख्या के आधे से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  • न्यायालय ने ही अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण नीति में क्रीमीलेयर का विचार प्रस्तुत किया।
  • न्यायालय ने शिक्षा, जीवन, स्वतंत्रता के अधिकारों के उपबंधों में अनौपचारिक रूप से कई संशोधन किये हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

→ संविधान एक जीवन्त दस्तावेज:
हमारा संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है जो समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है; यह अनुभव से सीखता है। इसलिए समाज में इतने सारे परिवर्तन होने के बाद भी यह अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है तथा टिकाऊ बना हुआ है।

→ न्यायपालिका का योगदान:
न्यायपालिका ने इस बात पर बल दिया है कि सरकार के सब कार्यकलाप संवैधानिक ढांचे के अन्तर्गत किये जाने चाहिए और जनहित के उपाय विधिक सीमा के बाहर नहीं होने चाहिए ताकि सत्ताधारी दल सत्ता का दुरुपयोग न कर सके। इस प्रकार जनकल्याण और ‘सत्ता के दुरुपयोग पर नियंत्रण’ दोनों के बीच न्यायपालिका ने संतुलन स्थापित किया। न्यायपालिका ने ‘मूल संरचना के सिद्धान्त’ का विकास कर सत्ता के दुरुपयोग की संभावनाओं को अवरुद्ध कर दिया है।

→ राजनीतिज्ञों की परिपक्वता:
1967 से 1973 के बीच सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सर्वोच्च होने की प्रतिद्वन्द्विता के तहत केशवानंद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने संविधान की व्याख्या में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। राजनीतिक दलों, राजनेताओं, सरकार तथा संसद ने भी मूल संरचना के संवेदनशील विचार को स्वीकृति प्रदान की है।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ

Jharkhand Board JAC Class 11 History Important Questions Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 History Important Questions Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ

बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

1. यूरोप में सबसे पहले विश्वविद्यालय किस देश के शहरों में स्थापित हुए –
(अ) इंग्लैण्ड
(ब) फ्रांस
(स) इटली
(द) जर्मनी
उत्तर:
(स) इटली

2. जो अध्यापक विश्वविद्यालयों में व्याकरण, अलंकार शास्त्र, कविता, इतिहास आदि विषय पढ़ाते थे, वे कहलाते थे –
(अ) बुद्धिजीवी
(ब) अभिजात
(स) प्रकाण्ड विद्वान
(द) मानवतावादी
उत्तर:
(द) मानवतावादी

3. मानवतावादियों के अनुसार पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होने वाला युग कहलाता है –
(अ) मध्य युग
(स) आधुनिक युग
(ब) उत्तर मध्य युग
(द) अन्धकार युग
उत्तर:
(स) आधुनिक युग

4. वे कौन महान चित्रकार थे, जिनकी रुचि वनस्पति विज्ञान और शरीर रचना विज्ञान से लेकर गणित शास्त्र और कला तक विस्तृत थी-
(अ) दोनातल्लो
(स) जोटो
(ब) माईकल एंजेलो बुआनारोत्ती
(द) जोंटो
उत्तर:
(द) जोंटो

5. ‘दि पाइटा’ नामक प्रतिमा का निर्माण किया था-
(अ) गिबर्टी
(स) राफेल
(ब) राफेल
(द) लियानार्डो दा विंची
उत्तर:
(ब) राफेल

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ

6. जोहानेस गुटेनबर्ग ने पहले छापेखाने का निर्माण किया-
(अ) 1459 में
(ब) 1558 में
(स) 1650 में
(द) 1455 में
उत्तर:
(द) 1455 में

7. जर्मनी में प्रोटेस्टेन्ट सुधार आन्दोलन का सूत्रपात किया-
(अ) इरैस्मस
(ब) जान हस
(स) सेवोनोरोला
(द) मार्टिन लूथर
उत्तर:
(द) मार्टिन लूथर

8. “पृथ्वी समेत समस्त ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं।” इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था –
(अ) गैलिलियो
(ब) मार्टिन लूथर
(स) कैप्लर उत्तरमाला
(द) कोपरनिकस
उत्तर:
(द) कोपरनिकस

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –

1. कैथोलिक चर्च के परम्परागत रीति-रिवाजों, कर्मकांडों के विरुद्ध जो आंदोलन चला उसे …………….. आंदोलन का नाम दिया गया।
2. चर्च के अधिकारियों ने प्राचीन कैथोलिक धर्म का सुधार कर उसकी प्रतिष्ठा के पुनर्स्थापन के प्रयास को …………….. के नाम से जाना जाता है।
3. जर्मनी में प्रोटेस्टेन्ट आंदोलन को शुरू करने वाला …………….. था।
4. यूरोप में 14वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक के सांस्कृतिक परिवर्तन को ……………… कहा जाता है।
5. शरीर विज्ञान, रेखागणित, भौतिकी और सौंदर्य की उत्कृष्ट भावना ने इतालवी कला को नया रूप दिया गया जिसे बाद में …………….. कहा गया।
उत्तर:
1. धर्म सुधार
2. प्रतिधर्म सुधार
3. मार्टिन लूथर
4 पुनर्जागरण
5. यथार्थवाद

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये –

1. बाइजेंटाइन साम्राज्य और इस्लामी देशों के बीच व्यापार के बढ़ने से इटली के तटवर्ती बंदरगाह पुनर्जीवित हो गए।
2. यूरोप में सबसे पहले विश्वविद्यालय फ्रांस के शहरों में स्थापित हुए।
3. ‘रेनेसाँ व्यक्ति’ शब्द का प्रयोग प्रायः उस मनुष्य के लिए किया जाता था जिसकी अनेक रुचियाँ हों और उसे अनेक हुनर में महारत प्राप्त हो।
4. धार्मिक व आध्यात्मिक शिक्षा ने मानवतावादी विचारों को आकार दिया।
5. मानवतावादी संस्कृति की विशेषताओं में से एक था-मानवीय जीवन पर धर्म का नियंत्रण कमजोर होना।
उत्तर:
1. सत्य
2. असत्य
3. सत्य
4. असत्य
5. सत्य

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निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये –

1. इग्नेशियस लोयोला (अ) यूटोपिया
2. कोपरनिकस (ब) प्रोटैस्टेंट सुधारवादी आंदोलन के जनक
3. टॉमस मोर (स) ‘द कोर्टियर’
4. मार्टिन लूथर (द) पृथ्वी समेत सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं
5. वाल्यासार कास्टिलोनी (य) 1540 ई. में ‘सोसायटी ऑफ जीसिस’ संस्था की स्थापना

उत्तर:

1. इग्नेशियस लोयोला (य) 1540 ई. में ‘सोसायटी ऑफ जीसिस’ संस्था की स्थापना
2. कोपरनिकस (द) पृथ्वी समेत सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं
3. टॉमस मोर (अ) यूटोपिया
4. मार्टिन लूथर (ब) प्रोटैस्टेंट सुधारवादी आंदोलन के जनक
5. वाल्यासार कास्टिलोनी (स) ‘द कोर्टियर’

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
दो मुसलमान लेखकों के नाम लिखिए जिनके ग्रन्थों का यूनानी विद्वान अनुवाद कर रहे थे।
उत्तर:
(1) इब्नसिना
(2) अल- राजी।

प्रश्न 2.
लियोनार्दो दा विंची द्वारा बनाए गए दो चित्रों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) मोनालिसा
(2) द लास्ट सपर।

प्रश्न 3.
पन्द्रहवीं शताब्दी में वास्तुकला में अपनाई गई नई शैली किस नाम से विख्यात हुई ?
उत्तर:
‘शास्त्रीय शैली’ के नाम से।

प्रश्न 4.
ऐसे दो व्यक्तियों के नाम लिखिए जो कुशल चित्रकार, मूर्तिकार और वास्तुकार : सभी कुछ थे।
उत्तर:
(1) माइकल एंजेलो
(2) फिलिप्पो ब्रुनेलेशी।

प्रश्न 5.
सेन्ट पीटर के गिरजे के गुम्बद का डिजाइन किसने बनाया था ?
उत्तर:
माईकल एंजेलो ने।

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प्रश्न 6.
माइकल एंजेलो अपनी किन कृतियों के कारण अमर हो गए?
उत्तर:
(1) सिस्टाइन चैपल की छत में लेप चित्र
(2) दि पाइटा
(3) सेन्ट पीटर का गिरजाघर।

प्रश्न 7.
यूरोपवासियों ने चीनियों और मंगोलों से किन तीन प्रमुख तकनीकी नवीकरणों के विषय में ज्ञान प्राप्त किया ?
उत्तर:
(1) आग्नेयास्त्र
(2) कम्पास
(3) फलक।

प्रश्न 8.
सोलहवीं शताब्दी की यूरोप की दो मानवतावादी महिलाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) कसान्द्रा फैदेल
(2) मार्चिसा ईसाबेला दि इस्ते।

प्रश्न 9.
सोलहवीं शताब्दी के दो मानवतावादी विद्वानों के नाम लिखिए जिन्होंने कैथोलिक चर्च की कटु आलोचना की थी ।
उत्तर:
(1) इंग्लैण्ड के टामस मोर
(2) हालैण्ड के इरैस्मस

प्रश्न 10.
जर्मनी में प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन को शुरू करने वाला कौन था ?
उत्तर:
मार्टिन लूथर।

प्रश्न 11.
स्विट्जरलैण्ड में प्रोटेस्टेन्ट धर्म का प्रचार करने वाले दो धर्म सुधारकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) उलरिक ज्विंग्ली
(2) जौं कैल्विन।

प्रश्न 12.
इग्नेशियस लायोला के अनुयायी क्या कहलाते थे ?
उत्तर:
जैसुइट।

प्रश्न 13.
कोपरनिकस कौन था?
उत्तर:
कोपरनिकस पोलैण्ड का वैज्ञानिक था।

प्रश्न 14.
विलियम हार्वे कौन था ?
उत्तर:
इंग्लैण्ड का प्रसिद्ध चिकित्साशास्त्री।

प्रश्न 15.
विलियम हार्वे ने किस सिद्धान्त की खोज की?
उत्तर:
उसने हृदय को रक्त संचालन से जोड़ा।

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प्रश्न 16.
आइजक न्यूटन कौन था ?
उत्तर:
इंग्लैण्ड का प्रसिद्ध वैज्ञानिक

प्रश्न 17.
आइजक न्यूटन ने किस ग्रन्थ की रचना की ?
उत्तर:
‘प्रिन्सिपिया मैथेमेटिका’।

प्रश्न 18.
आइजक न्यूटन ने किस सिद्धान्त की खोज की ?
उत्तर:
पृथ्वी के गुरुत्व – आकर्षण के सिद्धान्त की।

प्रश्न 19.
जर्मनी में किसने कैथोलिक चर्च के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया और कब ?
उत्तर:
1517 में मार्टिन लूथर ने।

प्रश्न 20.
फ्लोरेन्स के चर्च के गुम्बद का डिजाइन किसने बनाया था?
उत्तर:
फिलिप्पो ब्रुनेलेशी ने।

प्रश्न 21.
दोनातल्लो कौन था?
उत्तर:
इटली का प्रसिद्ध मूर्तिकार।

प्रश्न 22.
टालेमी ने किस ग्रन्थ की रचना की ? यह ग्रन्थ किस विषय से सम्बन्धित था ?
उत्तर:
(1) अलमजेस्ट की
(2) खगोलशास्त्र से।

प्रश्न 23.
ओटोमन तुर्कों ने कुस्तुन्तुनिया के बाइजेन्टाइन शासकों को कब पराजित किया?
उत्तर:
1453 ई. में।

प्रश्न 24.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप में ‘नगरीय संस्कृति’ किस प्रकार विकसित हो रही थी ?
उत्तर:
नगरों के लोग अब यह सोचने लगे थे कि वे गाँव के लोगों से अधिक सभ्य हैं । फ्लोरेन्स, वेनिस आदि अनेक नगर कला और विद्या के केन्द्र बन गए।
होती है।

प्रश्न 25.
चौदहवीं शताब्दी से यूरोपीय इतिहास की जानकारी के स्रोतों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर:
इस युग के इतिहास की जानकारी दस्तावेजों, मुद्रित पुस्तकों, चित्रों, मूर्त्तियों, भवनों तथा वस्त्रों से प्राप्त

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प्रश्न 26.
‘रेनेसाँ’ (पुनर्जागरण ) से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘रेनेसाँ’ का शाब्दिक अर्थ है – पुनर्जन्म । यह यूरोप में चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक के सांस्कृतिक परिवर्तनों का सूचक है।

प्रश्न 27.
रांके तथा जैकब बर्कहार्ट नामक इतिहासकारों के विचारों में क्या अन्तर था ?
उत्तर:
रांके के अनुसार इतिहास का पहला उद्देश्य यह है कि वह राज्यों और राजनीति के बारे में लिखे। बर्कहार्ट के अनुसार इतिहास का सरोकार उतना ही संस्कृति से है जितना राजनीति से ।

प्रश्न 28.
बर्कहार्ट ने किस पुस्तक की रचना की और कब की ?
उत्तर:
1860 ई. में बर्कहार्ट ने ‘दि सिविलाईजेशन आफ दि रेनेसाँ इन इटली’ नामक पुंस्तक की रचना की।

प्रश्न 29.
बर्कहार्ट ने इस पुस्तक में क्या बताया है ?
उत्तर:
बर्कहार्ट ने इस पुस्तक में यह बताया कि चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक इटली के नगरों में एक ‘मानवतावादी संस्कृति’ पनप रही थी।

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प्रश्न 30.
बर्कहार्ट ने चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक इटली के नगरों में पनपने वाली मानवतावादी संस्कृति के बारे में क्या लिखा है?
उत्तर:
इटली के नगरों में पनपने वाली मानवतावादी संस्कृति इस नए विश्वास पर आधारित थी कि व्यक्ति अपने बारे में स्वयं निर्णय लेने में समर्थ है।

प्रश्न 31.
इटली में स्वतन्त्र नगर- राज्यों का उदय किस प्रकार हुआ ?
उत्तर:
पश्चिमी यूरोपीय देशों के व्यापार की उन्नति में इटली के नगरों ने प्रमुख भूमिका निभाई। अब वे अपने को स्वतन्त्र नगर-राज्यों का समूह मानते थे ।

प्रश्न 32.
इटली के वेनिस तथा जिनेवा यूरोप के अन्य क्षेत्रों से किस प्रकार भिन्न थे ?
उत्तर:
इन नगरों के धनी व्यापारी नगरों के शासन में सक्रिय रूप से भाग लेते थे जिससे नागरिकता की भावना विकसित होने लगी।

प्रश्न 33.
ग्यारहवीं शताब्दी से पादुआ और बोलोनिया विश्वविद्यालय विधिशास्त्र के अध्ययन केन्द्र क्यों बने रहे ?
उत्तर:
पादुआ और बोलोनिया नगरों के प्रमुख क्रियाकलाप व्यापार और वाणिज्य सम्बन्धी थे । इसलिए यहाँ वकीलों तथा नोटरी की आवश्यकता होती थी।

प्रश्न 34.
इन विश्वविद्यालयों में कानून के अध्ययन में क्या परिवर्तन आया?
उत्तर:
इन विश्वविद्यालयों में कानून के अध्ययन में यह परिवर्तन आया कि अब कानून का अध्ययन रोमन संस्कृति के संदर्भ में किया जाने लगा।

प्रश्न 35.
‘मानवतावाद’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
मानववादियों के अनुसार अभी बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त करना शेष है और यह सब हम केवल धार्मिक शिक्षण से नहीं सीख सकते। मानवतावाद का तात्पर्य उन्नत ज्ञान से लिया जाता है।

प्रश्न 36.
पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में किन लोगों को ‘मानवतावादी’ कहा जाता था ?
उत्तर:
पन्द्रहवीं शताब्दी के शुरू में उन अध्यापकों को ‘मानवतावादी’ कहा जाता था जो व्याकरण, अलंकारशास्त्र, कविता, इतिहास और नीति दर्शन विषय पढ़ाते थे।

प्रश्न 37.
फ्लोरेन्स नगर की प्रसिद्धि में किन दो लोगों की प्रमुख भूमिका थी?
उत्तर:
फ्लोरेन्स नगर की प्रसिद्धि में दाँते अलिगहियरी तथा जोटो की प्रमुख भूमिका थी।

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प्रश्न 38.
‘रेनेसाँ व्यक्ति’ शब्द का प्रयोग किस मनुष्य के लिए किया जाता है ?
अथवा
‘मानवतावादी’ किसे कहा जाता था ?
उत्तर:
‘रेनेसाँ व्यक्ति’ शब्द का प्रयोग प्रायः उस मनुष्य के लिए किया जाता है जिसकी अनेक रुचियाँ हों और अनेक कलाओं में उसे निपुणता प्राप्त हो ।

प्रश्न 39.
मानवतावादियों ने पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होने वाले काल को ‘आधुनिक युग’ ( नये युग) की संज्ञा क्यों दी?
उत्तर:
पन्द्रहवीं शताब्दी में यूरोप में यूनानी और रोमन ज्ञान का पुनरुत्थान हुआ । इसलिए इसे मानवतावादियों ने आधुनिक युग की संज्ञा दी।

प्रश्न 40.
टालेमी द्वारा रचित पुस्तक का नाम लिखिए । यह ग्रन्थ किससे सम्बन्धित था?
उत्तर:
टालेमी ने ‘अलमजेस्ट’ नामक ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ खगोल शास्त्र से सम्बन्धित था जो यूनानी भाषा में लिखा गया था।

प्रश्न 41.
इब्नरुश्द कौन थे ?
उत्तर:
इब्नरुश्द स्पेन के अरबी दार्शनिक थे। उन्होंने दार्शनिक ज्ञान तथा धार्मिक विश्वासों के बीच चल रहे तनावों को सुलझाने का प्रयास किया।

प्रश्न 42.
मानवतावादी विचारों के प्रसार में किन दो तत्त्वों ने योगदान दिया?
उत्तर:
(1) विश्वविद्यालयों तथा स्कूलों में पढ़ाये जाने वाले मानवतावादी विषयों ने की।
(2) कला, वास्तुकला तथा साहित्य ने।

प्रश्न 43.
दोनातेल्लो कौन था ?
उत्तर:
दोनातेल्लो इटली का एक प्रसिद्ध मूर्त्तिकार था। 1416 में उसने सजीव मूर्त्तियाँ बनाकर नयी परम्परा स्थापित

प्रश्न 44.
यूरोप के कलाकारों को वैज्ञानिकों के कार्यों से क्यों सहायता मिली?
उत्तर:
यूरोप के कलाकार हूबहू मूल आकृति जैसी मूर्तियाँ बनाने के इच्छुक थे। इसके लिए उन्हें वैज्ञानिकों के कार्यों से सहायता मिली।

प्रश्न 45.
कलाकारों को अपनी कलाकृतियों की रचना में वैज्ञानिकों के कार्यों से किस प्रकार सहायता मिली?
उत्तर:
नर-कंकालों का अध्ययन करने के लिए कलाकार आयुर्विज्ञान कालेजों की प्रयोगशालाओं में गए।

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प्रश्न 46.
आन्ड्रीयस वसेलियस कौन थे ?
उत्तर:
आन्ड्रीयस वसेलियस बेल्जियम मूल के थे तथा पादुआ विश्वविद्यालय में आयुर्विज्ञान के प्राध्यापक थे1

प्रश्न 47.
आन्ड्रीयस वसेलियस ने आयुर्विज्ञान के विकास में क्या योगदान दिया ?
उत्तर:
वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सूक्ष्म परीक्षण के लिए मनुष्य के शरीर की चीर-फाड़ की। इसी समय से शरीर क्रिया विज्ञान का प्रारम्भ हुआ।

प्रश्न 48.
लियोनार्दो दा विंची कौन थे ?
उत्तर:
लियानार्दो दा विंची इटली के प्रसिद्ध चित्रकार थे। उनकी अभिरुचि वनस्पति विज्ञान और शरीर रचना विज्ञान से लेकर गणित शास्त्र तथा कला तक विस्तृत थी।

प्रश्न 49.
‘यथार्थवाद’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
शरीर-विज्ञान, रेखागणित, भौतिकी और सौन्दर्य की उत्कृष्ट भावना ने इतालवी कला को नया रूप दिया, जिसे बाद में यथार्थवाद कहा गया।

प्रश्न 50.
माईकल एंजेलो के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
माईकल एंजेलो एक कुशल चित्रकार, मूर्तिकार एवं वास्तुकार था। उसने पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में लेप चित्र तथा ‘दि पाइटा’ नामक मूर्ति बनाई।

प्रश्न 51.
सोलहवीं शताब्दी में यूरोपीय लोग मुद्रण प्रौद्योगिकी के विकास के लिए किसके ऋणी थे? इसका क्या कारण था ?
उत्तर:
सोलहवीं शताब्दी में यूरोप में मुद्रण प्रौद्योगिकी का विकास हुआ। इसके लिए यूरोपीय लोग चीनियों तथा मंगोल शासकों के ऋणी थे।

प्रश्न 52.
पन्द्रहवीं शताब्दी में यूरोप में सबसे पहले किस व्यक्ति ने छापेखाने का निर्माण किया और कब किया ?
उत्तर:
1455 में जर्मन मूल के जोहानेस गुटेनबर्ग ने सबसे पहले छापेखाने का निर्माण किया।

प्रश्न 53.
15वीं शताब्दी में यूरोप में नवीन विचारों का प्रसार तेजी से क्यों हुआ ?
उत्तर:
छापेखाने के आविष्कार के बाद यूरोपवासियों को छपी पुस्तकें बड़ी संख्या में उपलब्ध होने लगीं और उनका क्रय-विक्रय होने लगा।

प्रश्न 54.
पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त से यूरोप में मानवतावादी संस्कृति का प्रसार तीव्र गति से क्यों हुआ ?
उत्तर:
15वीं सदी के अन्त से यूरोपीय देशों में छपी हुई पुस्तकों का बड़ी संख्या में उपलब्ध होने से वहाँ मानवतावादी संस्कृति का प्रसार तीव्र गति से हुआ।

प्रश्न 55.
मानवतावादी संस्कृति की दो विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
(1) मानव जीवन पर धर्म का नियन्त्रण कमजोर हो गया।
(2) इटली के निवासी भौतिक सम्पत्ति, शक्ति और गौरव से आकृष्ट थे।

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प्रश्न 56.
फ्रेन्चेस्को बरबारो कौन थे ?
उत्तर:
फ्रेन्चेस्को बरबारो वेनिस के एक मानवतावादी लेखक थे।

प्रश्न 57.
लोरेन्जो वल्ला कौन थे ? उनके मानवतावादी संस्कृति के बारे में क्या विचार थे?
उत्तर:
लोरेन्जो वल्ला एक प्रसिद्ध मानवतावादी लेखक थे। उन्होंने अपनी पुस्तकं ‘आन प्लेजर’ में भोग-विलास पर लगाई गई ईसाई धर्म की निषेधाज्ञा की आलोचना की।

प्रश्न 58.
मैकियावली कौन था ? उसने किस पुस्तक की रचना की ?
उत्तर:
मैकियावली इटली का एक प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक था । उसने ‘दि प्रिंस’ ( 1513 ई.) नामक पुस्तक की रचना की ।

प्रश्न 59.
मैकियावली ने अपनी पुस्तक ‘दि प्रिंस’ में मानव के स्वभाव में क्या विचार प्रकट किए हैं?
उत्तर:
मैकियावली के अनुसार कुछ राजकुमार दानी, दयालु, साहसी होते हैं तो कुछ कंजूस, निर्दयी और कायर होते हैं। उसके अनुसार सभी मनुष्य बुरे हैं।

प्रश्न 60.
कसान्द्रा फैदेल कौन थी ?
उत्तर:
वेनिस निवासी कसान्द्रा फैदेल एक विदुषी महिला थी । वह मानवतावादी शिक्षा की समर्थक थी ।

प्रश्न 61.
कसान्द्रा फैदेल ने स्त्रियों को शिक्षा प्रदान किये जाने के बारे में क्या विचार प्रकट किए हैं?
उत्तर:
कसान्द्रे फैदेल ने लिखा है कि ” प्रत्येक महिला को सभी प्रकार की शिक्षा को प्राप्त करने की इच्छा रखनी चाहिए और उसे ग्रहण करना चाहिए । ”

प्रश्न 62.
कसान्द्रा फैदेल ने किस तत्कालीन विचारधारा को चुनौती दी थी ?
उत्तर:
कसान्द्रा फैदेल ने तत्कालीन इस विचारधारा को चुनौती दी कि एक मानवतावादी विद्वान के गुण एक महिला के पास नहीं हो सकते।

प्रश्न 63.
मार्चिसा ईसाबेला दि इस्ते कौन थी ?
उत्तर:
मार्चिसा ईसाबेला 16वीं शताब्दी की एक प्रतिभाशाली महिला थी । उसने अपने पति की अनुपस्थिति में अपने मंटुआ नामक राज्य पर शासन किया।

प्रश्न 64.
सोलहवीं शताब्दी की रचनाओं से महिलाओं की किन आकांक्षाओं का बोध होता है ?
उत्तर:
स्त्रियों को पुरुष – प्रधान समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए अधिक आर्थिक स्वायत्तता, सम्पत्ति तथा शिक्षा मिलनी चाहिए।

प्रश्न 65.
‘पाप-स्वीकारोक्ति’ (Indulgences) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
‘पाप स्वीकारोक्ति’ एक दस्तावेज था जो पादरियों द्वारा लोगों से धन ऐंठने का सबसे आसान तरीका था। यह दस्तावेज चर्च द्वारा जारी किया जाता था।

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प्रश्न 66.
‘कान्स्टैन्टाइन के अनुदान’ से क्या अभिप्राय है ? मानवतावादियों का इसके बारे में क्या विचार था ?
उत्तर:
‘कान्स्टैन्टाइन के अनुदान’ एक दस्तावेज था। मानवतावादियों के अनुसार न्यायिक और वित्तीय शक्तियों पर पादरियों का दावा इस दस्तावेज से उत्पन्न होता है।

प्रश्न 67.
‘कान्स्टैन्टाइन के अनुदान’ की व्याख्या से यूरोपीय शासक क्यों प्रसन्न हुए?
उत्तर:
क्योंकि मानवतावादी विद्वान यह उजागर करने में सफल रहे कि ‘कान्स्टैन्टाइन के अनुदान’ नामक दस्तावेज असली नहीं था ।

प्रश्न 68.
मार्टिन लूथर कौन था ?
उत्तर:
मार्टिन लूथर जर्मनी का एक महान धर्म – सुधारक था । 1517 में उसने कैथोलिक चर्च के विरुद्ध प्रोटेस्टेन्ट सुधारवाद आन्दोलन शुरू किया।

प्रश्न 69.
एनाबेपटिस्ट सम्प्रदाय के धर्म-सुधारकों की क्या विचारधारा थी?
उत्तर:
एनाबेपटिस्ट सम्प्रदाय के धर्म-सुधारक अधिक उग्र सुधारक थे। उन्होंने हर तरह के सामाजिक उत्पीड़न का विरोध किया ।

प्रश्न 70.
न्यू टेस्टामेन्ट बाइबल के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
न्यू टेस्टामेन्ट बाइबल का वह खण्ड है जिसमें ईसा मसीह का जीवन चरित्र, धर्मोपदेश और प्रारम्भिक अनुयायियों का उल्लेख है ।

प्रश्न 71.
इग्नेशियस लायोला कौन था? उसने किस संस्था की स्थापना की ?
उत्तर:
स्पेन निवासी इग्नेशियस लायोला कैथोलिक चर्च का प्रबल समर्थक था । उसने 1540 में ‘सोसाइटी ऑफ जीसस’ की स्थापना की।

प्रश्न 72.
जेसुइट का क्या ध्येय था ?
उत्तर:
उनका ध्येय निर्धन लोगों की सेवा करना और अन्य संस्कृतियों के बारे में अपने ज्ञान को अधिक व्यापक बनाना था। है।

प्रश्न 73.
ईसाइयों की पृथ्वी के बारे में क्या धारणा थी ?
उत्तर:
ईसाइयों का यह विश्वास था कि पृथ्वी पापों से भरी हुई है और पापों की अधिकता के कारण वह अस्थिर

प्रश्न 74.
‘कोपरनिकसीय क्रान्ति’ से क्या अभिप्राय है?
अथवा
कोपरनिकस ने किस नए सिद्धान्त का प्रतिपादन किया?
उत्तर:
पोलैण्ड के वैज्ञानिक कोपरनिकस ने यह घोषणा की कि पृथ्वी समेत समस्त ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। इसे कोपरनिकसीय क्रान्ति कहते हैं ।

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प्रश्न 75.
कोपरनिकस के सिद्धान्त की पुष्टि करने वाले दो खगोलशास्त्रियों के नाम लिखें।
उत्तर:
दो खगोलशास्त्रियों जोहानेस कैप्लर तथा गैलिलियो गैलिली ने कोपरनिकस के सिद्धान्त की पुष्टि की।

प्रश्न 76.
कैप्लर ने किसके सिद्धान्त का समर्थन किया और किस प्रकार किया ?
उत्तर:
खगोलशास्त्री कैप्लर ने अपने ग्रन्थ ‘कास्मोग्राफिकल मिस्ट्री’ (खगोलीय रहस्य) में कोपरनिकस के सूर्य-केन्द्रित सौर – मण्डलीय सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाया ।

प्रश्न 77.
गैलिलियो कौन था? उसने किस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ?
उत्तर:
गैलिलियो इटली का प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और वैज्ञानिक था। उसने अपने ग्रन्थ ‘दि मोशन ‘(गति) में गतिशील विश्व के सिद्धान्तों की पुष्टि की।

प्रश्न 78.
वैज्ञानिक संस्कृति के प्रसार में योगदान देने वाली दो संस्थाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) 1670 में स्थापित ‘पेरिस अकादमी’ और
(2) 1662 में वास्तविक ज्ञान के प्रसार के लिए लन्दन में गठित ‘रॉयल सोसाइटी’।

प्रश्न 79.
मानववाद की कोईं चार विशेषताएँ बताइये
उत्तर:

  • मानव के विचारों, गुणों पर बल
  • वर्तमान सांसारिक जीवन को सुखी बनाना
  • धार्मिक रूढ़ियों का विरोध
  • स्वतन्त्र चिन्तन, तार्किक दृष्टिकोण।

प्रश्न 80.
पुनर्जागरण ने यूरोप में क्या बदलाव किये?
उत्तर:

  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास
  • मानव के महत्त्व में वृद्धि
  • भौतिक दृष्टिकोण का विकास
  • देशी भाषाओं का विकास।

प्रश्न 81.
प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन के प्रमुख चार उद्देश्य बताइये।
उत्तर:

  • पोप के जीवन में नैतिक सुधार करना
  • चर्च की बुराइयों को दूर करना
  • कैथोलिक धर्म में व्याप्त आडम्बरों को दूर करना
  • ईसाइयों के नैतिक जीवन में सुधार।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक यूरोपीय देशों में विकसित हो रही ‘नगरीय संस्कृति’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
नगरीय संस्कृति – चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक यूरोप के अनेक देशों में नगरों की संख्या बढ़ रही थी। नगरों में एक विशेष प्रकार की ‘नगरीय संस्कृति’ विकसित हो रही थी। नगर के लोगों की अब यह धारणा बनने लगी थी कि वे गाँव के लोगों से अधिक सभ्य हैं। नगर कला और ज्ञान के केन्द्र बन गए।

धनी और अभिजात वर्ग के लोगों ने कलाकारों और विद्वानों को आश्रय प्रदान किया। इसी समय छापेखाने के आविष्कार से लोगों को छपी हुई पुस्तकें प्राप्त होने लगीं। यूरोप में इतिहास की समझ विकसित होने लगी और लोग अपने ‘आधुनिक विश्व’ की तुलना यूनानी व रोमन ‘प्राचीन दुनिया’ से करने लगे। अब यह माना जाने लगा कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार अपना धर्म चुन सकता है।

प्रश्न 2.
चौदहवीं शताब्दी के यूरोपीय इतिहास की जानकारी के साधनों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी से यूरोपीय इतिहास की जानकारी के लिए प्रचुर सामग्री दस्तावेजों, मुद्रित पुस्तकों, चित्रों, मूर्तियों, भवनों तथा वस्त्रों से प्राप्त होती है जो यूरोप और अमेरिका के अभिलेखागारों, कला – चित्रशालाओं और संग्रहालयों में उपलब्ध है। स्विट्जरलैण्ड के ब्रेसले विश्वविद्यालय के इतिहासकार जैकब बर्कहार्ट ने उस काल में हुए सांस्कृतिक परिवर्तनों पर प्रकाश डाला है। रेनेसाँ इन सांस्कृतिक परिवर्तनों का सूचक है। 1860 में बर्कहार्ट ने अपनी पुस्तक ‘दि सिविलाइजेशन ऑफ दि रेनेसां इन इटली’ में साहित्य, वास्तुकला तथा चित्रकला पर प्रकाश डाला तथा इस काल में इटली में पनप रही मानवतावादी संस्कृति को इंगित किया है।

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प्रश्न 3.
पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात् किन परिवर्तनों ने इतालवी संस्कृति के पुनरुत्थान में सहयोग दिया?
उत्तर:
पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात् इटली के राजनीतिक और सांस्कृतिक केन्द्र नष्ट हो गए। इस समय कोई भी संगठित सरकार नहीं थी और रोम का पोप समस्त यूरोपीय राजनीति में अधिक शक्तिशाली नहीं था। वह अपने राज्य में निःसन्देह सार्वभौम था। लेकिन निम्नलिखित परिवर्तनों ने इतालवी संस्कृति के पुनरुत्थान में सहयोग दिया-

  • पश्चिमी यूरोप के देशों का सामन्ती संबंधों तथा लातीनी चर्च के नेतृत्व में एकीकरण होना।
  • पूर्वी यूरोप का बाइजेंटाइन साम्राज्य के शासन में बदलना।
  • धुर पश्चिम में इस्लाम द्वारा एक सांझी सभ्यता का निर्माण करना।

इन परिवर्तनों के कारण बाइजेंटाइन साम्राज्य और इस्लामी देशों के बीच व्यापार बढ़ने से इटली के तटवर्ती बंदरगाह पुनर्जीवित हो गए। मंगोल व चीन के रेशम मार्ग के व्यापार में भी इटली के नगरों की प्रमुख भूमिका रही और वे नगर एक स्वतंत्र भार राज्य के रूप में विकसित हुए।

प्रश्न 4.
कार्डिनल गेसपारो कोन्तारिनी ने अपने नगर – राज्य वेनिस की लोकतान्त्रिक सरकार के बारे में सरकार के बारे में क्या विवरण दिया है?
उत्तर:
कार्डिनल गेसपारो कोन्तारिनी (1483-1542) ने अपने ग्रन्थ ‘दि कॉमनवेल्थ एण्ड गवर्नमेन्ट ऑफ वेनिस’ में लिखा है –
“हमारे वेनिस के संयुक्त मण्डल की संस्था के बारे में जानने पर आपको ज्ञात होगा कि नगर का सम्पूर्ण प्राधिकार एक ऐसी परिषद् के हाथों में है जिसमें 25 वर्ष से अधिक आयु वाले (संभ्रान्त वर्ग के ) सभी पुरुषों को सदस्यता मिल जाती है।” उन्होंने लिखा है कि हमारे पूर्वजों ने सामान्य जनता को नागरिक वर्ग में, जिनके हाथ में संयुक्त मण्डल के शासन की बागडोर है, इसलिए शामिल नहीं किया क्योंकि उन नगरों में अनेक प्रकार की गड़बड़ियाँ और जन-उपद्रव होते रहते थे, जहाँ की सरकार पर जन-सामान्य का प्रभाव रहता था ।

कुछ लोगों का यह विचार था कि यदि संयुक्त मण्डल का शासन-संचालन अधिक कुशलता से करना है, तो योग्यता और सम्पन्नता को आधार बनाना चाहिए। दूसरी ओर सच्चरित्र नागरिक प्रायः निर्धन हो जाते हैं। इसलिए हमारे पूर्वजों ने यह विचार रखा कि धन-सम्पन्नता को आधार न बनाकर कुलीनवंशीय लोगों को प्राथमिकता दी जाए। गरीब लोगों को छोड़ कर सभी नागरिकों का प्रतिनिधित्व सत्ता में होना चाहिए।

प्रश्न 5.
विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में अरबों के योगादन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी में अनेक विद्वानों ने प्लेटो और अरस्तू के ग्रन्थों के अनुवादों का अध्ययन किया। इसके लिए वे अरब के अनुवादकों के ऋणी थे जिन्होंने अतीत की पाण्डुलिपियों का संरक्षण और अनुवाद सावधानीपूर्वक किया था। जिस समय यूरोप के विद्वान यूनानी ग्रन्थों के अरबी अनुवादों का अध्ययन कर रहे थे, उसी समय यूनानी विद्वान अरबी और फारसी विद्वानों की रचनाओं का अनुवाद कर रहे थे।

ये ग्रन्थ प्राकृतिक विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, औषधि विज्ञान और रसायन विज्ञान से सम्बन्धित थे। मुसलमान लेखकों में अरबी के हकीम तथा मध्य एशिया के बुखारा के दार्शनिक ‘इब्न- सिना’ और आयुर्विज्ञान विश्वकोश के लेखक अल-राजी सम्मिलित थे । स्पेन के अरबी दार्शनिक इब्न रुश्द ने दार्शनिक ज्ञान और धार्मिक विश्वासों के बीच रहे तनावों को दूर करने का प्रयास किया। उनकी पद्धति को ईसाई चिन्तकों द्वारा अपनाया गया।

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प्रश्न 6.
मानवतावादियों ने किस काल को ‘मध्य युग’ और किस काल को ‘आधुनिक युग’ की संज्ञा दी ? उत्तर – मानवतावादियों की मान्यता थी कि वे अन्धकार की कई शताब्दियों के पश्चात् सभ्यता के सही रूप को पुनः स्थापित कर रहे हैं। इसके पीछे यह धारणा थी कि रोमन साम्राज्य के टूटने के पश्चात् ‘अन्धकार युग’ प्रारम्भ हुआ। मानवतावादियों की भाँति बाद के विद्वानों ने भी यह स्वीकार कर लिया कि यूरोप में चौदहवीं शताब्दी के बाद ‘नये युग’ का उदय हुआ।

‘मध्यकाल’ शब्द का प्रयोग रोम साम्राज्य के पतन के बाद एक हजार वर्ष की समयावधि के लिए किया गया। उन्होंने ये तर्क प्रस्तुत किये कि ‘मध्य युग’ में कैथोलिक चर्च ने लोगों की सोच को इस प्रकार जकड़ रखा था कि यूनान और रोमवासियों का समस्त ज्ञान उनके मस्तिष्क से निकल चुका था। मानवतावादियों ने ‘आधुनिक’ शब्द का प्रयोग पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होने वाले काल के लिए किया।
मानवतावादियों और बाद के विद्वानों द्वारा प्रयुक्त कालक्रम निम्नानुसार था –
1. 5-14 शताब्दी – मध्य युग
2. 15वीं शताब्दी से – आधुनिक युग।

प्रश्न 7.
कला के बारे में चित्रकार अल्बर्ट ड्यूरर द्वारा व्यक्त किये गये विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कला के बारे में चित्रकार अल्बर्ट ड्यूरर द्वारा व्यक्त किये गये विचार – कला के बारे में चित्रकार अल्बर्ट ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि ” कला प्रकृति में रची-बसी होती हैं। जो इसके सार को पकड़ सकता है वही इसे प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त आप अपनी कला को गणित द्वारा दिखा सकते हैं। जीवन की अपनी आकृति से आपकी कृति जितनी जुड़ी होगी, उतना ही सुन्दर आपका चित्र होगा। कोई भी व्यक्ति केवल अपनी कल्पना मात्र से एक सुन्दर आकृति नहीं बना सकता, जब तक उसने अपने मन को जीवन की प्रतिछवि से न भर लिया हो। ”

प्रश्न 8.
चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक मूर्त्तिकला के क्षेत्र में हुए विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
इस युग में मूर्त्तिकला का पर्याप्त विकास हुआ। रोमन साम्राज्य के पतन के एक हजार वर्ष बाद भी प्राचीन रोम और उसके नगरों के खंडहरों में कलात्मक वस्तुएँ मिलीं। अनेक शताब्दियों पहले बनी आदमी और औरतों की ‘संतुलित मूर्तियों’ के प्रति आदर ने उस परम्परा को कायम रखने हेतु इतालवी वास्तुविदों को प्रोत्साहित किया। 1416 में दोनातेल्लो ने सजीव मूर्त्तियाँ बनाकर नयी परम्परा स्थापित की। गिबर्टी ने फ्लोरेन्स के गिरजाघर के सुन्दर द्वार बनाए।

माईकल एंजेलेस एक महान मूर्त्तिकार था। उसने ‘दि पाइटा’ नामक प्रसिद्ध मूर्ति का निर्माण किया। यह मूर्ति तत्कालीन मूर्त्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। कलाकार हूबहू मूल आकृति जैसी मूर्त्तियाँ बनाना चाहते थे। उनकी इस उत्कंठा को वैज्ञानिकों के कार्यों से सहायता मिली। नर कंकालों का अध्ययन करने के लिए कलाकार आयुर्विज्ञान कॉलेजों की प्रयोगशालाओं में गए। आन्ड्रीस वसेलियस पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सूक्ष्म परीक्षण के लिए मनुष्य के शरीर की चीरफाड़ की । इसी समय से आधुनिक शरीर – क्रिया विज्ञान का प्रारम्भ हुआ।

प्रश्न 9.
आधुनिक काल में चित्रकला के क्षेत्र में हुई उन्नति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
चित्रकारों के लिए नमूने के रूप में प्राचीन कृतियाँ नहीं थीं, परन्तु मूर्त्तिकारों की भाँति उन्होंने यथार्थ चित्र बनाने का प्रयास किया। उन्हें अब यह ज्ञात हो गया कि रेखागणित के ज्ञान से चित्रकार अपने परिदृश्य को भली-भाँति समझ सकता है तथा प्रकाश के बदलते गुणों का अध्ययन करने में उनके चित्रों में त्रि-आयामी रूप दिया जा सकता है। चित्रकारों ने लेपचित्र बनाए। लेपचित्र के लिए तेल के एक माध्यम के रूप में प्रयोग ने चित्रों को पूर्व की तुलना में अधिक रंगीन तथा चटख बना दिया।

उनके अनेक चित्रों में प्रदर्शित वस्त्रों के डिजाइन और रंग संयोजन में चीनी और फारसी चित्रकला का प्रभाव दिखाई देता है जो उन्हें मंगोलों से प्राप्त हुए थे। लियोनार्डो दा विन्ची इस युग के एक महान चित्रकार थे। उन्होंने ‘मोनालिसा’ तथा ‘द लास्ट सपर’ नामक चित्र बनाए। माईकल एंजेलो भी इस युग के एक महान चित्रकार थे।

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प्रश्न 10.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक इटली में वास्तुकला के क्षेत्र में हुए विकास की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पन्द्रहवीं शताब्दी में रोम नगर भव्य इमारतों से सुसज्जित हो उठा। पुरातत्वविदों द्वारा रोम के अवशेषों का उत्खनन किया गया। इसने वास्तुकला की एक ‘नई शैली’ को बढ़ावा दिया, जो वास्तव में रोम साम्राज्यकालीन शैली का पुनरुद्धार थी, जो अब ‘शास्त्रीय शैली’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। धनी व्यापारियों और अभिजात वर्ग के लोगों ने उन वास्तुविदों को अपने भवन बनवाने के लिए नियुक्त किया, जो शास्त्रीय वास्तुकला से परिचित थे।

चित्रकारों और शिल्पकारों ने भवनों को लेपचित्रों, मूर्त्तियों और उभरे चित्रों से भी सुसज्जित किया।
माइकल एंजेलो एक कुशल चित्रकार, मूर्त्तिकार और वास्तुकार थे। उन्होंने पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में लेपचित्र, ‘दि पाइटा’ नामक मूर्ति तथा सेंट पीटर गिरजाघर के गुम्बद का डिजाइन तैयार किया। इन कलाकृतियों के कारण माईकल एंजेलो अमर हो गए। ये समस्त कलाकृतियाँ रोम में ही हैं। फिलिप्पो ब्रुनेलेशी एक प्रसिद्ध वास्तुकार थे जिन्होंने फ्लोरेन्स के भव्य गुम्बद का परिरूप प्रस्तुत किया था।

प्रश्न 11.
मानवतावादी संस्कृति के प्रसार में मुद्रित पुस्तकों के योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यूरोप में सोलहवीं शताब्दी में क्रान्तिकारी मुद्रण प्रौद्योगिकी का विकास हुआ। सन् 1455 में जर्मन मूल के व्यक्ति जोहानेस गुटनबर्ग ( 1400-1458) ने पहले छापेखाने का निर्माण किया। उनकी कार्यशाला में बाइबल की 150 प्रतियाँ छपीं। पन्द्रहवीं शताब्दी तक अनेक क्लासिकी ग्रन्थों का मुद्रण इटली में हुआ था। इन ग्रन्थों में अधिकतर लातिनी ग्रन्थ थे। अब मुद्रित पुस्तकें लोगों को उपलब्ध होने लगीं तथा उनका क्रय-विक्रय होने लगा।

अब लोगों में नये विचारों, मतों आदि का तीव्र गति से प्रसार होने लगा। नये विचारों का प्रसार करने वाली एक मुद्रित पुस्तक सैकड़ों पाठकों तक शीघ्रतापूर्वक पहुँच सकती थी। अब प्रत्येक पाठक बाजार से पुस्तकें खरीदकर पढ़ सकता था। इसके परिणामस्वरूप लोगों को नई-नई जानकारियाँ मिलने लगीं। पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त से इटली की मानवतावादी संस्कृति का यूरोपीय देशों में तीव्र गति से प्रसार हुआ। इसका प्रमुख कारण वहाँ पर छपी हुई पुस्तकों का उपलब्ध होना था।

प्रश्न 12.
लिओन बतिस्ता अल्बर्टी कौन था? उसके कला सिद्धान्त और वास्तुकला सम्बन्धी विचारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लिओन बतिस्ता अल्बर्टी – लिओन बतिस्ता अल्बर्टी एक प्रसिद्ध वास्तुकार था। उसने कला सिद्धान्त तथा वास्तुकला के सम्बन्ध में लिखा है कि, “मैं उसे वास्तुविद मानता हूँ जो नए-नए तरीकों का आविष्कार कर इस तरह अपने निर्माण को पूरा करे कि उसमें भारी वजन को ठीक बैठाया गया हो और सम्पूर्ण कृति के संयोजन और द्रव्यमान में ऐसा सामंजस्य हो कि उसका सर्वाधिक सौन्दर्य उभरकर आए ताकि मानवमात्र के लिए इसका श्रेष्ठ उपयोग हो सके।”

प्रश्न 13.
‘“मानवतावादी संस्कृति के फलस्वरूप मनुष्य की एक नई संकल्पना का प्रसार हुआ। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मानवतावादी संस्कृति के परिणामस्वरूप मानव जीवन पर धर्म का नियन्त्रण कमजोर हुआ। इटली – निवासी अपने वर्तमान जीवन को सुखी और समृद्ध बनाना चाहते थे। वे भौतिक सम्पत्ति, शक्ति तथा गौरव की भावनाओं के प्रति आकृष्ट थे। परन्तु इसका यह मतलब नहीं था कि वे अधार्मिक थे। वेनिस के मानवतावादी लेखक फ्रेन्चेस्को बरबारो ने अपनी एक पुस्तिका में सम्पत्ति प्राप्त करने को एक विशेष गुण बताकर उसका समर्थन किया। लोरेन्जो वल्ला का विश्वास था कि इतिहास का अध्ययन मनुष्य को पूर्णतया जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करता है।

उन्होंने अपनी पुस्तक ‘आन प्लेजर’ में भोग-विलास पर लगाई गई ईसाई धर्म की निषेधाज्ञा की आलोचना की। इस समय लोग अच्छे व्यवहारों में रुचि ले रहे थे। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि व्यक्ति को विनम्रता से बोलना चाहिए, उचित ढंग से वस्त्र पहनने चाहिए तथा सभ्य व्यक्ति की भाँति आचरण करना चाहिए। मानवतावाद ने मानव जीवन को सुखी और सम्पन्न बनाने पर बल दिया। मानवतावाद का अभिप्राय यह भी था कि व्यक्ति विशेष सत्ता और सम्पत्ति की होड़ को छोड़कर अन्य कई माध्यमों से अपने जीवन को एक नये रूप दे सकता था। यह आदर्श इस विश्वास के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ था कि मनुष्य का स्वभाव बहुमुखी है।

प्रश्न 14.
“मध्यकाल की कुछ महिलाएँ बौद्धिक रूप से बहुत रचनात्मक थीं तथा मानवतावादी शिक्षा की भूमिका के बारे में संवेदनशील थीं। ” स्पष्ट कीजिए।
अथवा
मानवतावाद ने यूरोपीय महिलाओं को किस प्रकार प्रभावित किया?
उत्तर:
14वीं सदी से 17वीं सदी तक के काल की कुछ महिलाएँ बौद्धिक रूप से बहुत रचनात्मक थीं और मानवतावादी शिक्षा की भूमिका के बारे में संवेदनशील थीं । वेनिस निवासी कसान्द्रा फेदेले (1465-1558) एक सुशिक्षित एवं मानवतावादी महिला थी। उसने लिखा, ” यद्यपि महिलाओं को शिक्षा न तो पुरस्कार देती है और न किसी सम्मान का आश्वासन, तथापि प्रत्येक महिला को सभी प्रकार की शिक्षा को प्राप्त करने की इच्छा रखनी चाहिए और उसे ग्रहण करना चाहिए।”

फेदेले ने तत्कालीन इस विचारधारा को चुनौती दी कि एक मानवतावादी विद्वान के गुण एक महिला के पास नहीं हो सकते। फेदेले यूनानी और लातिनी भाषा के विद्वान के रूप में विख्यात थी। इस काल की एक अन्य प्रतिभाशाली महिला मार्चिसा ईसाबेला दि इस्ते ( 1474 – 1539) थी। वह मंटुआ निवासी थी। उसने अपने पति की अनुपस्थिति में अपने राज्य पर शासन किया। महिलाएँ पुरुष-प्रधान समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए अधिक आर्थिक स्वायत्तता, सम्पत्ति और शिक्षा प्राप्त करना चाहती थीं।

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प्रश्न 15.
ईसाई धर्म के अन्तर्गत वाद-विवाद का विवरण दीजिए।
अथवा
यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन के प्रारम्भ होने के कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर – ईसाई धर्म के अन्तर्गत वाद-विवाद ( यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन के प्रारम्भ होने के कारण ) –
(1) मानवतावादियों ने उत्तरी यूरोप में ईसाइयों को अपने पुराने धर्म-ग्रन्थों में बताए गए तरीकों से धर्म का पालन करने का आह्वान किया।
(2) उन्होंने कैथोलिक चर्च में व्याप्त कुरीतियों, अनावश्यक कर्मकाण्डों की आलोचना की।
(3) मानववादी मानते थे कि ईश्वर ने मनुष्य बनाया है तथा उसे अपना जीवन स्वतन्त्र रूप से व्यतीत करने की पूरी स्वतन्त्रता भी दी है।
(4) टामस मोर तथा हालैण्ड के इरेस्मस की यह मान्यता थी कि चर्च एक लालची तथा साधारण लोगों से लूट- खसोट करने वाली संस्था बन गई है।
(5) पादरी लोग ‘पाप-स्वीकारोक्ति’ नामक दस्तावेज के माध्यम से लोगों से धन ऐंठ रहे थे। मानवतावादियों ने इसका विरोध किया।
(6) कृषकों ने चर्च द्वारा लगाए गए करों का घोर विरोध किया।
(7) राजकाज में चर्च की हस्तक्षेप की नीति से यूरोप के शासक भी नाराज थे।
(8) 1517 में जर्मनी के युवा भिक्षु मार्टिन लूथर ने कैथोलिक चर्च के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया जो ‘प्रोटेस्टेन्ट सुधारवाद’ कहलाया।

प्रश्न 16.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
(1) ईसाइयों की यह धारणा थी कि पृथ्वी पापों से भरी हुई है और पापों की अधिकता के कारण वह स्थिर है। पृथ्वी ब्रह्माण्ड के बीच में स्थिर है जिसके चारों ओर खगोलीय ग्रह घूम रहे हैं।
(2) पोलैण्ड के वैज्ञानिक कोपरनिकस ने यह घोषणा की कि पृथ्वी समेत सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं।
(3) जर्मन वैज्ञानिक तथा खगोलशास्त्री जोहानेस कैपलर ने अपने ग्रन्थ ‘खगोलीय रहस्य’ में कोपरनिकस के सूर्य- केन्द्रित सौरमण्डलीय सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाया जिससे यह सिद्ध हुआ कि सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार रूप में नहीं, बल्कि दीर्घ वृत्ताकार मार्ग पर परिक्रमा करते हैं।
(4) इटली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक और खगोलशास्त्री गैलिलियो ने अपने ग्रन्थ ‘दि मोशन’ (गति) में गतिशील विश्व के सिद्धान्तों की पुष्टि की।
(5) इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक आइजक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
(6) वैज्ञानिकों ने बताया कि ज्ञान विश्वास से हटकर अवलोकन एवं प्रयोगों पर आधारित है। परिणामस्वरूप भौतिकी, रसायनशास्त्र, जीवविज्ञान आदि के क्षेत्र में अनेक प्रयोग और अन्वेषण कार्य हुए। इतिहासकारों ने मनुष्य और प्रकृति के ज्ञान के इस नए दृष्टिकोण को ‘वैज्ञानिक क्रान्ति’ की संज्ञा दी।

प्रश्न 17.
‘पुनर्जागरण’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोप में सांस्कृतिक क्षेत्र में जो आश्चर्यजनक प्रगति हुई उसे ‘पुनर्जागरण’ के नाम से पुकारा जाता है। ‘पुनर्जागरण’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘फिर से जागना’ परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इसे मानव समाज की बौद्धिक चेतना तथा तर्कशक्ति का पुनर्जन्म कहना अधिक उचित होगा। साधारणतया चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में अनेक सांस्कृतिक तथा बौद्धिक परिवर्तन हुए, जिन्हें ‘पुनर्जागरण’ के नाम से पुकारा जाता है। पुनर्जागरण के फलस्वरूप साहित्य, कला, विज्ञान आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उन्नति हुई। इसी को ‘बौद्धिक पुनरुत्थान’, ‘नवयुग’ आदि नामों से पुकारा जाता है।

प्रश्न. 18.
पुनर्जागरण की विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
(1) स्वतन्त्र चिन्तन को प्रोत्साहन – पुनर्जागरण ने स्वतन्त्र चिन्तन की विचारधारा को प्रोत्साहन दिया।
(2) मानवतावादी विचारधारा का विकास – ‘पुनर्जागरण’ के फलस्वरूप मानवतावादी विचारधारा का विकास हुआ। मानवतावादियों ने प्राचीन यूनानी और रोमन साहित्य के अध्ययन पर बल दिया।
(3) देशी भाषाओं का विकास – पुनर्जागरण के फलस्वरूप देशी भाषाओं का विकास हुआ।
(4) वैज्ञानिक विचारधारा का विकास – पुनर्जागरण के कारण वैज्ञानिक विचारधारा का विकास हुआ।
(5) प्राचीन रूढ़ियों तथा अन्धविश्वासों का विरोध – पुनर्जागरण ने प्राचीन रूढ़ियों, अन्धविश्वासों तथा धार्मिक आडम्बरों पर कुठाराघात किया।
(6) सहज सौन्दर्य की उपासना – अब साहित्य एवं कला में सौन्दर्य एवं प्रेम की भावनाओं को प्रमुख स्थान दिया जाने लगा।

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प्रश्न 19.
माईकल एंजेलो पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
माईकल एंजेलो ( 1475-1564 ) –
माईकल एंजेलो एक कुशल चित्रकार, मूर्त्तिकार तथा वास्तुकार था। उसने पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में 145 चित्रों का निर्माण किया। इन चित्रों में ‘द लास्ट जजमेंट’ (अन्तिम निर्णय ) नामक चित्र सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। उसने ‘दि पाइटा’ नामक मूर्त्ति बनाई, जो तत्कालीन मूर्त्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। इस चित्र में माईकल एंजेलो ने मेरी को ईसा के शरीर को धारण करते हुए दिखाया है। माइकेल एंजेलो ने ठोस संगमरमर को तराशकर डेविड और मूसा की विशाल मूर्त्तियों का भी निर्माण किया। उसने सेंट पीटर के गिरजाघर के गुम्बद का डिजाइन तैयार किया। यह पुनर्जागरणकालीन स्थापत्य कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना माना जाता है। इन कलाकृतियों के कारण माइकेल एंजेलो अमर हो गए।

प्रश्न 20.
लियोनार्डो दा विंची पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
लियोनार्डो दा विंची (1452-1519 ई.) –
लियोनार्डो दा विंची इटली का एक प्रसिद्ध चित्रकार था। वह एक कलाकार, वैज्ञानिक, आविष्कारक और शरीर रचना शास्त्र का अच्छा ज्ञाता था। उसकी आश्चर्यजनक अभिरुचि वनस्पति विज्ञान और शरीर रचना, विज्ञान से लेकर गणितशास्त्र तथा कला तक विस्तृत थी। उसने ‘मोनलिसा ‘ तथा ‘द लास्ट सपर’ नामक चित्र बनाए। इनमें ‘मोनालिसा’ विश्वविख्यात है। लियोनार्डो दा विंची की चित्रकला की प्रमुख विशेषताएँ हैं – प्रकाश और छाया, रंगों का चयन और शारीरिक अंगों का सफल प्रदर्शन। लियोनार्डो का यह स्वप्न था कि वह आकाश में उड़ सके। वह वर्षों तक आकाश में पक्षियों के उड़ने का परीक्षण करता रहा और उसने एक उड़न-मशीन का प्रतिरूप बनाया। उसने अपना नाम ‘लियोनार्डो दा विंची, परीक्षण का अनुयायी’ रखा।

प्रश्न 21.
मार्टिन लूथर कौन था? धर्म सुधार आन्दोलन में उसके योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मार्टिन लूथर – मार्टिन लूथर का जन्म 10 नवम्बर, 1483 को जर्मनी के अजलेवन नामक गाँव में हुआ था। 1517 में मार्टिन लूथर ने ‘पाप – स्वीकारोक्ति’ नामक दस्तावेज की कटु आलोचना की और कैथोलिक चर्च के विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। उसने घोषित किया कि मनुष्य को ईश्वर से सम्पर्क साधने के लिए पादरी की आवश्यकता नहीं है। उसने अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि वे ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखें।

1520 में पोप ने मार्टिन लूथर को ईसाई धर्म से बहिष्कृत कर दिया। परन्तु लूथर ने कैथोलिक चर्च के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा। इस आन्दोलन को प्रोटैस्टेन्ट सुधारवाद की संज्ञा दी गई । जर्मनी तथा स्विट्जरलैण्ड के चर्च ने पोप तथा कैथोलिक चर्च से अपने सम्बन्ध विच्छेद कर लिए। अन्ततः यूरोप के अनेक देशों की भाँति जर्मनी में भी कैथोलिक चर्च ने प्रोटेस्टेन्ट लोगों को अपनी इच्छानुसार पूजा करने की स्वतन्त्रता प्रदान की। 1546 में मार्टिन लूथर की मृत्यु हो गई।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘मानवतावाद’ के विकास में इटली के विश्वविद्यालयों के योगदान की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
मानवतावाद के विकास में इटली के विश्वविद्यालयों का योगदान
मानवतावाद के विकास में इटली के विश्वविद्यालयों के योगदान की विवेचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत की गई है-
(1) इटली के शहरों में विश्वविद्यालयों की स्थापना – यूरोप में सबसे पहले विश्वविद्यालय इटली के शहरों में स्थापित हुए। ग्यारहवीं शताब्दी में पादुआ और बोलेनिया विश्वविद्यालय विधिशास्त्र के अध्ययन केन्द्र रहे। इसका कारण यह था कि नगरों के प्रमुख क्रियाकलाप व्यापार और वाणिज्य सम्बन्धी थे। इसलिए वकीलों और नोटरी की बहुत आवश्यकता होती थी। इनके बिना बड़े पैमाने पर व्यापार करना सम्भव नहीं था। इसलिए विश्वविद्यालयों में कानून का अध्ययन एक उपयोगी एवं लोकप्रिय विषय बन गया था।

(2) कानून के अध्ययन में बदलाव – अब कानून का रोमन संस्कृति के संदर्भ में अध्ययन किया जाने लगा। फ्रांचेस्को पेट्रार्क (1304-1378 ई.) इस परिवर्तन के प्रतिनिधि थे। पेट्राक ने प्राचीन यूनानी तथा रोमन साहित्यकारों की रचनाओं के अध्ययन करने पर बल दिया।

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(3) मानवतावाद – विश्वविद्यालयों के नवीन शिक्षा कार्यक्रम में यह बात शामिल थी कि ज्ञान बहुत विस्तृत है और बहुत कुछ जानना बाकी है। यह सब हम केवल धार्मिक शिक्षण से नहीं सीख सकते। इसी नई संस्कृति को उन्नीसवीं शताब्दी के इतिहासकारों ने ‘मानवतावाद’ की संज्ञा दी। पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में ‘मानवतावादी’ शब्द उन अध्यापकों के लिए प्रयुक्त होता था जो व्याकरण, अलंकार शास्त्र, कविता, इतिहास और नीति दर्शन विषय पढ़ाते थे।

(4) फ्लोरेन्स विश्वविद्यालय – इन क्रान्तिकारी विचारों से इटली के अनेक विश्वविद्यालय प्रभावित हुए। इनमें एक नव – स्थापित विश्वविद्यालय फ्लोरेन्स भी था, जो प्रसिद्ध साहित्यकार पेट्रार्क का स्थायी नगर – निवास था। पन्द्रहवीं शताब्दी में फ्लोरेन्स नगर ने व्यापार, साहित्य, कला आदि अनेक क्षेत्रों में बहुत उन्नति की।

फ्लोरेन्स की प्रसिद्धि में दान्ते अलिगहियरी तथा जोटो नामक दो व्यक्तियों का प्रमुख हाथ था । दाँते इटली का एक प्रसिद्ध साहित्यकार था। उसने धार्मिक विषयों पर एक पुस्तक लिखी । जोटो इटली का एक प्रसिद्ध कलाकार था। उसने जीते-जागते रूपचित्र (पोर्टरेट) बनाए । उसके द्वारा बनाए गए रूपचित्र पहले के कलाकारों की भांति निर्जीव नहीं थे। इसके पश्चात् धीरे-धीरे फ्लोरेन्स इटली के सबसे जीवन्त बौद्धिक नगर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वह शीघ्र ही कलात्मक कलाकृतियों की रचना का केन्द्र बन गया।

प्रश्न 2.
चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक मूर्तिकला के क्षेत्र में हुए विकास की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक मूर्ति कला के क्षेत्र में विकास –
(1) प्राचीन रोम की कलात्मक मूर्त्तियाँ – चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोप में मूर्तिकला का पर्याप्त विकास हुआ। रोमन साम्राज्य के पतन के एक हजार वर्ष बाद भी प्राचीन रोम और उसके नगरों के खण्डहरों में कलात्मक वस्तुएँ प्राप्त हुईं। अनेक शताब्दियों पूर्व बनी पुरुषों और स्त्रियों की सन्तुलित मूर्तियों के प्रति आदर की भावना ने उस परम्परा को बनाए रखने के लिए इतालवी मूर्तिकारों को प्रोत्साहन दिया। मूर्तिकला में भी नवीन शैली अपनाई गई। मूर्तिकला में यथार्थवादी अंकन की शुरुआत इटली की मूर्तिकला में देखी जा सकती है।

(2) दोनातेल्लो और मूर्तिकला – 1416 में फ्लोरेन्स निवासी दोनातेल्लो (1386-1466) ने सजीव मूर्त्तियाँ बना कर नयी परम्परा स्थापित की। उसने प्राचीन यूनानी तथा रोमन मूर्त्तियों का गहन अध्ययन किया था। उसके द्वारा बनाई गई मूर्तियों का विषय मानव-जीवन था। दोनातेल्लो द्वारा निर्मित सन्त मार्क की आदमकद मूर्ति पुनर्जागरण काल की श्रेष्ठ मूर्ति मानी जाती है।

(3) गिबर्टी और मूर्त्तिकला – गिबर्टी भी इस युग का एक महान मूर्त्तिकार था। उसके द्वारा बनाए गए फ्लोरेन्स के गिरजाघर के द्वार अत्यन्त सुन्दर थे। ये दरवाजे काँसे के थे तथा दस लम्बे फलकों पर नक्काशी की गई थी। इन दरवाजों को देखकर प्रसिद्ध मूर्त्तिकार माइकल एंजेलो ने कहा था कि “ये द्वार तो स्वर्ग के द्वार पर रखे जाने योग्य हैं।”

(4) माईकल ऐंजेलो और मूर्त्तिकला – माईकल ऐंजेलो भी इटली का एक महान मूर्त्तिकार था। उसने ‘दि पाइटा’ नामक प्रसिद्ध मूर्ति का निर्माण किया। यह मूर्त्ति तत्कालीन मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। इसमें माईकल ऐंजेलो ने मेरी को ईसा के शरीर को धारण करते हुए दिखाया है। माईकल ऐंजेलो ने ठोस संगमरमर को तराश कर डेविड और मूसा की विशाल मूर्त्तियाँ बनाई थीं।

(5) कलाकारों को वैज्ञानिकों के कार्यों से सहायता मिलना- कलाकार हूबहू मूल आकृति जैसी मूर्त्तियाँ बनाना चाहते थे। उनकी इस उत्कंठा को वैज्ञानिकों के कार्यों से सहायता मिली। नर कंकालों का अध्ययन करने के लिए कलाकार आयुर्विज्ञान कॉलेजों की प्रयोगशालाओं में गए। आन्ड्रीयस वसेलियस पादुआ विश्वविद्यालय में आयुर्विज्ञान के प्राध्यापक थे । वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सूक्ष्म परीक्षण के लिए मनुष्य के शरीर की चीर-फाड़ की। इसी समय से आधुनिक शरीर क्रिया- विज्ञान का प्रारम्भ हुआ।

(6) अन्य यूरोपीय देशों में मूर्त्तिकला का विकास – इंग्लैण्ड के शासक हेनरी सप्तम तथा फ्रांस के शासक फ्रांसिस प्रथम ने अपने-अपने देश में इटली के मूर्तिकारों को आमन्त्रित किया। परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड और फ्रांस में भी नवीन शैली में अनेक सुन्दर मूर्त्तियों का निर्माण किया गया।

प्रश्न 3.
पुनर्जागरण काल में यूरोप में हुए चित्रकला के विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुनर्जागरण काल में यूरोप में चित्रकला का विकास –
(1) यथार्थ चित्रों का निर्माण- पुनर्जागरण काल में चित्रकला का भी पर्याप्त विकास हुआ। चित्रकारों के लिए नमूने के रूप में प्राचीन कलाकृतियाँ नहीं थीं, परन्तु मूर्तिकारों की भांति उन्होंने यथार्थ चित्र बनाने का प्रयास किया। उन्हें अब यह ज्ञात हो गया कि रेखा – गणित के ज्ञान से चित्रकार अपने परिदृश्य को भलीभाँति समझ सकता है तथा प्रकाश के बदलते गुणों का अध्ययन करने से उनके चित्रों में त्रि-आयामी रूप दिया जा सकता है।

चित्रकारों ने लेपचित्र बनाए। लेपचित्र के लिए तेल के एक माध्यम के रूप में प्रयोग ने चित्रों को पूर्व की तुलना में अधिक रंगीन तथा चटख बनाया। उनके अनेक चित्रों में दिखाए गए वस्त्रों के डिजाइन और रंग संयोजन में चीनी और फारसी चित्रकला का प्रभाव दिखाई देता है जो उन्हें मंगोलों से प्राप्त हुई थी।

(2) यथार्थवाद – इस प्रकार शरीर विज्ञान, रेखागणित, भौतिकी और सौन्दर्य की उत्कृष्ट भावना ने इतालवी कला को नवीन रूप प्रदान किया, जिसे बाद में ‘यथार्थवाद’ की संज्ञा दी गई। यथार्थवाद की यह परम्परा उन्नीसवीं शताब्दी तक चलती रही।

(3) लियोनार्डो दा विंची और चित्रकला – लियोनार्डो दा विंची इटली का एक महान चित्रकार था। उसकी अभिरुचि वनस्पति विज्ञान और शरीर रचना विज्ञान से लेकर गणितशास्त्र तथा कला तक विस्तृत थी। उसने ‘मोनालिसा’. तथा ‘द लास्ट सपर’ नामक चित्र बनाए। इनमें ‘मोनालिसा’ विश्वविख्यात है। लियोनार्डो की चित्रकला की प्रमुख विशेषताएँ थीं – प्रकाश और छाया, रंगों का चयन और शारीरिक अंगों का सफल प्रदर्शन।

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(4) माईकल ऐंजेलो और चित्रकला – माईकल ऐंजेलो भी इटली का एक प्रसिद्ध चित्रकार था। उसने पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में 145 चित्रों का निर्माण किया। इन चित्रों में ‘द लास्ट जजमेंट’ ( अन्तिम निर्णय) नामक चित्र सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

(5) राफेल और चित्रकला – राफेल भी पुनर्जागरण काल का एक प्रसिद्ध चित्रकार था। उसके चित्र अपनी सुन्दरता तथा सजीवता के कारण प्रसिद्ध हैं। उसका सबसे प्रसिद्ध चित्र ‘सिस्टाइन मेडोना ‘ है, जिसकी गिनती विश्व के सर्वश्रेष्ठ चित्रों में की जाती है।

( 6 ) टीशियन और चित्रकला – टीशियन भी एक प्रसिद्ध चित्रकार था। उसने पोपों, पादरियों, सामन्तों आदि के अनेक सुन्दर पोर्टरेट (रूपचित्र) बनाए।

(7) जोटो और चित्रकला – जोटो भी एक कुशल चित्रकार था। उसने जीते-जागते रूपचित्र (पोर्टरेट) बनाए। उसके बनाए रूपचित्र पहले के कलाकारों की भांति निर्जीव नहीं थे।

प्रश्न 4.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में वास्तुकला के विकास का विवेचन कीजिए।
अथवा
यूरोप में हुए पुनर्जागरण के बारे में विस्तृत जानकारी दीजिये।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में वास्तुकला का विकास चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में वास्तुकला का पर्याप्त विकास हुआ। इस युग में वास्तुकला के क्षेत्र में हुए विकास का वर्णन निम्नानुसार है –
(1) इटली में वास्तुकला का विकास – पन्द्रहवीं शताब्दी में रोम नगर भव्य इमारतों से सुसज्जित हो उठा। पुरातत्वविदों द्वारा रोम के अवशेषों का उत्खनन किया गया।

इसने वास्तुकला की एक नई शैली को बढ़ावा दिया। यह अब ‘शास्त्रीय शैली’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह शैली वास्तव में रोमन साम्राज्य के समय की शैली का पुनरुद्धार थी। धनी व्यापारियों तथा अभिजात वर्ग के लोगों ने उन वास्तुविदों को अपने भवन बनवाने के लिए नियुक्त किया, जो ‘शास्त्रीय वास्तुकला’ से परिचित थे। चित्रकारों और शिल्पकारों ने भवनों को लेपचित्रों, मूर्त्तियों तथा उभरे चित्रों से भी सुसज्जित किया।

(2) नई शैली – पुनर्जागरण काल में स्थापत्य कला में एक नई शैली का जन्म हुआ जिसमें यूनानी, रोमन तथा अरबी शैलियों का समन्वय था। इस शैली की विशेषताएँ थीं – शृंगार, सजावट तथा डिजाइन। इस शैली में मेहराबों, गुम्बदों तथा स्तम्भों की प्रधानता थी। अब नुकीले मेहराबों के स्थान पर गोल गुम्बदों का निर्माण किया जाने लगा।

(3) फिलिप्पो ब्रूनेलेशी और वास्तुकला – फिलिप्पो ब्रूनेलेशी एक प्रसिद्ध वास्तुकार था। उसने फ्लोरेन्स के भव्य गुम्बद का परिरूप प्रस्तुत किया था। प्रारम्भ में उसने अपना पेशा एक मूर्तिकार के रूप में शुरू किया था।

(4) माईकल ऐंजेलो और वास्तुकला – इस काल में कुछ ऐसे व्यक्ति भी हुए जो कुशल चित्रकार, मूर्तिकार और वास्तुकार, सभी कुछ थे। माईकल ऐंजेलो ऐसे ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे जो एक कुशल चित्रकार, मूर्तिकार और वास्तुकार थे। उन्होंने सेन्ट पीटर के गिरजाघर के गुम्बद का डिजाइन बनाया जो तत्कालीन वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। उन्होंने ‘दि पाइटा’ नामक मूर्ति बनाई तथा पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में अनेक लेपचित्र बनाए। इन कलाकृतियों के कारण माईकल ऐंजेलो अमर हो गए।

(5) अन्य देशों में वास्तुकला का विकास – इटली के पुनर्जागरणकालीन वास्तुकला की नवीन शैली का विकास यूरोप के अनेक देशों में हुआ। पेरिस में ‘लूबरे का प्रासाद’ इसी नवीन शैली में बनाया गया जो तत्कालीन स्थापत्य कला का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। जर्मनी में ‘हैडलबर्ग का दुर्ग’ इस नवीन स्थापत्य शैली की रचना है। लन्दन में निर्मित सन्त पाल का गिरजाघर भी इसी नवीन शैली का एक उत्कृष्ट नमूना है।

प्रश्न 5.
पुनर्जागरण काल में यूरोप में महिलाओं की स्थिति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पुनर्जागरण काल में यूरोप में महिलाओं की स्थिति पुनर्जागरण काल में यूरोप में महिलाओं की स्थिति की विवेचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत की जा सकती –
(1) महिलाओं की शोचनीय स्थिति – प्रारम्भिक वर्षों में यूरोप में महिलाओं की स्थिति सन्तोषजनक नहीं थी। उन्हें वैयक्तिकता तथा नागरिकता के नवीन विचारों से दूर रखा गया। सार्वजनिक जीवन में अभिजात तथा सम्पन्न परिवार के पुरुषों का बोलबाला था। घर-परिवार के मामलों में भी वे ही निर्णय लेते थे। पुरुष विवाह में मिलने वाले महिलाओं के दहेज को अपने पारिवारिक कारोबारों में लगा देते थे, फिर भी महिलाओं को यह अधिकार नहीं था कि वे अपने पति को कारोबार के संचालन के सम्बन्ध में कोई राय या सलाह दें।

प्रायः कारोबारी मैत्री को सुदृढ़ करने के लिए दो परिवारों में परस्पर विवाह – सम्बन्ध होते थे। यदि वधू पक्ष की ओर से पर्याप्त दहेज की व्यवस्था नहीं हो पाती थी, तो विवाहित स्त्रियों को ईसाई मठों में भिक्षुणी का जीवन व्यतीत करने के लिए भेज दिया जाता था। सामान्यतया सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी अत्यन्त सीमित थी और उन्हें घर-परिवार का संचालन करने वाले के रूप में देखा जाता था।

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(2) व्यापारी परिवारों की महिलाओं की अच्छी स्थिति – व्यापारी परिवारों की महिलाओं की स्थिति काफी अच्छी थी। दुकनदारों की स्त्रियाँ दुकानों को चलाने में प्रायः अपने पति की सहायता करती थीं। व्यापारी और साहूकार परिवारों की पत्नियाँ, परिवार के कारोबार को उस समय सम्भालती थीं, जब उनके पति लम्बे समय के लिए व्यापार के लिए दूरस्थ प्रदेशों में चले जाते थे अभिजात एवं सम्पन्न परिवारों के विपरीत, व्यापारी परिवारों में यदि किसी व्यापारी की कम आयु में मृत्यु हो जाती थी, तो उसकी पत्नी सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी।

(3) बौद्धिक रूप से रचनात्मक महिलाओं की भूमिका – पुनर्जागरण काल में कुछ महिलाएँ बौद्धिक रूप से बहुत रचनात्मक थीं तथा मानवतावादी शिक्षा की भूमिका के बारे में संवेदनशील थीं। वेनिस निवासी सान्द्रा फेदेले (1465-1558 ई.) एक सुशिक्षित एवं मानवतावादी महिला थी। उसने महिलाओं की शिक्षा पर बल दिया। फेदेले ने तत्कालीन इस विचारधारा को चुनौती दी कि एक मानवतावादी विद्वान के गुण एक महिला के पास नहीं हो सकते। फेदेले यूनानी और लातिनी भाषा की विदुषी के रूप में विख्यात थी। उसे पादुआ विश्वविद्यालय में भाषण देने के लिए आमन्त्रित किया गया था।

उस समय पादुआ विश्वविद्यालय मानवतावादी शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र था। इस काल की एक अन्य प्रतिभाशाली महिला, मार्चिसा ईसाबेला दि इस्ते (1474 – 1539 ई.) थी। वह मंटुआ निवासी थी। उसने अपने पति की अनुपस्थिति में अपने राज्य पर शासन किया। उसका राज दरबार अपनी बौद्धिक प्रतिभा के लिए प्रसिद्ध था। इस काल की महिलाओं की रचनाओं से उनके इस दृढ़ विश्वास का पता चलता है कि उन्हें पुरुष-प्रधान समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए अधिक आर्थिक स्वायत्तता, सम्पत्ति और शिक्षा मिलनी चाहिए।

प्रश्न 6.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में हुई विज्ञान की प्रगति का वर्णन कीजिए।
अथवा
पुनर्जागरण युग में विज्ञान का जो विकास हुआ, उसका विस्तार से वर्णन कीजिये।
अथवा
पुनर्जागरण काल में विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में विज्ञान की प्रगति
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में हुई विज्ञान की प्रगति का वर्णन निम्नानुसार है –
(1) ज्योतिष एवं खगोल – ईसाइयों की यह धारणा थी कि पृथ्वी पापों से भरी हुई है और पापों की अधिकता के कारण वह स्थिर है। पृथ्वी ब्रह्माण्ड के बीच में स्थिर है, जिसके चारों ओर खगोलीय ग्रह घूम रहे हैं पोलैण्ड के वैज्ञानिक कोपरनिकस ने ईसाइयों की इस धारणा का खण्डन करते हुए यह घोषणा की कि पृथ्वी समेत सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। यह ‘कोपरनिकसीय क्रान्ति’ थी। इटली के वैज्ञानिक ब्रुनो ने कोपरनिकस के सिद्धान्त की पुष्टि की।

इसके बाद जर्मन वैज्ञानिक तथा खगोलशास्त्री जोहानेस कैप्लर ने अपने ग्रन्थ ‘खगोलीय रहस्य’ में कोपरनिकस के सूर्य-केन्द्रित सौर मण्डलीय सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाया जिससे यह सिद्ध हुआ कि सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार रूप में नहीं, बल्कि दीर्घ वृत्ताकार मार्ग पर परिक्रमा करते हैं। इटली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं खगोलशास्त्री गैलिलियो ने अपने ग्रन्थ ‘द मोशन’ (गति) में गतिशील विश्व के सिद्धान्तों की पुष्टि की। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइजक न्यूटन (1642-1727 ई.) ने ‘गुरुत्वाकर्षण की शक्ति’ का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। उसने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। इसलिए हर वस्तु ऊपर से नीच की ओर आती है। पृथ्वी अन्य सभी ग्रहों को भी अपनी ओर खींचती रहती है।

(2) वैज्ञानिक क्रान्ति – वैज्ञानिकों ने बताया कि ज्ञान विश्वास से हटकर अवलोकन एवं प्रयोगों पर आधारित है। परिणामस्वरूप भौतिकी, रसायनशास्त्र, जीव विज्ञान आदि के क्षेत्र में अनेक प्रयोग एवं अन्वेषण कार्य हुए। इतिहासकारों ने मनुष्य और प्रकृति के ज्ञान के इस नवीन दृष्टिकोण को ‘वैज्ञानिक क्रान्ति’ की संज्ञा दी । परिणामस्वरूप सन्देहवादियों और नास्तिकों के मन में समस्त सृष्टि की रचना के स्रोत के रूप में प्रकृति ईश्वर का स्थान लेने लगी। इससे सार्वजनिक क्षेत्र में एक नई वैज्ञानिक संस्कृति की स्थापना हुई।

(3) भौतिक शास्त्र – 1593 में गैलिलियो ने पेण्डुलम का आविष्कार किया जिसके आधार पर आधुनिक घड़ियों का निर्माण हो सका। उसने दूरबीन का आविष्कार किया।

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(4) चिकित्साशास्त्र – नीदरलैण्ड निवासी वेसेलियस (1514-1564) ने 1543 ई. में ‘मानव शरीर की बनावट’ नामक पुस्तक लिखी। उसने इस पुस्तक में शरीर के विभिन्न अंगों की जानकारी दी। वह पहला व्यक्ति था जिसने सूक्ष्म परीक्षण के लिए मनुष्य के शरीर की चीर-फाड़ की। इसी समय से आधुनिक शरीर – क्रिया विज्ञान का प्रारम्भ हुआ । सर विलियम हार्वे ने रक्त प्रवाह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उसने बताया कि हृदय से रक्त का प्रवाह शुरू होता है और तब शरीर के अन्य अंगों में पहुँचता है।

प्रश्न 7.
इटली में सर्वप्रथम पुनर्जागरण आरम्भ होने के क्या कारण थे?
उत्तर:
इटली में सर्वप्रथम पुनर्जागरण के आरम्भ होने के कारण इटली में सर्वप्रथम पुनर्जागरण आरम्भ होने के निम्नलिखित कारण थे-
1. उन्नत व्यापार-भूमध्य सागर के मध्य में स्थित होने के कारण इटली में वाणिज्य – व्यापार की खूब उन्नति हुई और वहाँ बड़े-बड़े नगरों का उदय हुआ। वेनिस, फ्लोरेन्स, मिलान आदि इटली के प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र थे। इन नगरों के धनी लोग विद्वानों, साहित्यकारों, कलाकारों आदि को उदारतापूर्वक संरक्षण देते थे।

2. इटली की भौगोलिक स्थिति – भौगोलिक निकटता की सुविधा के कारण इटली पूर्वी एवं पश्चिमी देशों के बीच व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया था। इसके अतिरिक्त पूर्वी देशों से आने वाले नवीन विचारों को भी सर्वप्रथम इटली ने ग्रहण किया।

3. सांस्कृतिक विशिष्टता – इटली प्राचीन रोमन संस्कृति की जन्मभूमि एवं केन्द्र – बिन्दु था। इटली के नगरों में प्राचीन रोमन सभ्यता तथा संस्कृति के बहुत से स्मारक अब भी लोगों को उसकी याद का आभास कराते थे।

4. रोम ईसाई संस्कृति का प्रमुख केन्द्र- रोम ईसाई संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था। ईसाई धर्म का सर्वोच्च धर्मगुरु पोप रोम में निवास करता था। कुछ पोप विद्या – प्रेमी थे और सांस्कृतिक विकास में रुचि लेते थे।

5. धर्म – युद्ध – धर्म – युद्धों से लौटने वाले सैनिक, व्यापारी आदि लोग सर्वप्रथम इटली के नगरों में रुकते थे। ये लोग पूर्वी देशों की उन्नत सभ्यता तथा संस्कृति से बड़े प्रभावित थे। वे एक नवीन दृष्टिकोण लेकर इटली लौटे थे।

6. नगरों का विकास – इटली में ही नगरों का अधिक विकास हुआ था। इटली के अनेक नगर जैसे फ्लोरेन्स, वेनिस, मिलान आदि काफी समृद्ध एवं उन्नत थे। ये नगर ज्ञान-विज्ञान के भी केन्द्र थे। इन स्वतन्त्र नगरों के सम्पन्न लोगों ने साहित्यकारों तथा कलाकारों को आश्रय प्रदान किया।

7. इटली के विश्वविद्यालय – इटली के प्रमुख नगरों में अनेक विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई जिससे लोगों में – विज्ञान के प्रति रुचि बढ़ी। इन विश्वविद्यालयों में रोमन कानून, चिकित्साशास्त्र आदि विषयों की पढ़ाई भी होती ज्ञान-1 थी।

8. कुस्तुन्तुनिया पर तुर्कों का अधिकार – 1453 में जब तुर्कों ने कुस्तुन्तुनिया नगर पर अधिकार कर लिया, तो वहाँ के यूनानी विद्वान एवं कलाकार अपने ग्रन्थों तथा कलाकृतियों को लेकर सर्वप्रथम इटली पहुँचे और वहीं बस गए। इन यूनानी विद्वानों एवं कलाकारों ने इटलीवासियों को अत्यधिक प्रभावित किया। अतः यूनानी साहित्य, ज्ञान-विज्ञान आदि का अध्ययन सर्वप्रथम इटली के नगरों में ही शुरू हुआ।

9. राजनीतिक स्थिति की अनुकूलता – इटली के कुछ नगर जैसे वेनिस, फ्लोरेन्स आदि स्वतन्त्र नगर – राज्यों के रूप में विकसित हो गए और उनमें जनतन्त्रवादी प्रवृत्तियों का भी विकास होने लगा। ये नगर राज्य पवित्र रोमन सम्राट तथा पोप के नियन्त्रण से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से अपना विकास कर रहे थे। इसलिए इन नगर- राज्यों में साहित्य, कला एवं विज्ञान की पर्याप्त उन्नति हुई।

प्रश्न 8.
यूरोप में हुए पुनर्जागरण के प्रारम्भ होने के कारणों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
यूरोप में पुनर्जागरण के प्रारम्भ होने के कारण यूरोप में हुए पुनर्जागरण के कारण निम्नलिखित थे –
1. धर्म- – युद्ध-धर्म-युद्धों के कारण यूरोपवासी पूर्वी देशों के लोगों के साथ सम्पर्क में आए। इस सम्पर्क के फलस्वरूप यूरोपवासियों को पूर्वी देशों की तर्क शक्ति, प्रयोग-पद्धति तथा वैज्ञानिक खोजों की जानकारी प्राप्त हुई। धर्म- -युद्ध ने यात्राओं तथा भौगोलिक खोजों को बढ़ावा दिया।

2. व्यापार का विकास – व्यापार के विकास के कारण अनेक नगरों का विकास हुआ। इन नये नगरों ने नवीन विचारों के प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। नये नगरों ने स्वतन्त्र चिन्तन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया। धन-सम्पन्न व्यापारियों ने शिक्षा, साहित्य, कला को प्रोत्साहित किया।

3. अरबों का योगदान – व्यापार के सम्बन्ध में यूरोपवासियों का अरबों से सम्पर्क हुआ। अरब लोगों ने अरस्तू, प्लेटो आदि की पुस्तकों का अध्ययन किया था। अतः अरबों के सम्पर्क में आने से यूरोपवासी बड़े लाभान्वित हुए। इन्हीं अरबों के द्वारा उन्हें अपने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान, साहित्य और कला की फिर से जानकारी हुई।

4. मंगोलों का योगदान – मंगोल – सम्राट कुबलई खाँ ने अपने दरबार में अनेक देशों के विद्वानों एवं साहित्यकारों को संरक्षण दे रखा था। यूरोपवासियों ने अरबों तथा मंगोलों से छापाखाना, कागज, बारूद तथा कुतुबनुमा की जानकारी प्राप्त की थी।

5. कागज और छापाखाना – कागज तथा छापेखाने का आविष्कार सर्वप्रथम चीन ने किया। छापेखाने के आविष्कार से पुस्तकें सस्ती कीमत पर बड़ी संख्या में मिलने लगीं। पुस्तकों तथा समाचार-पत्रों के अध्ययन से यूरोपवासी बड़े लाभान्वित हुए। उनके अन्धविश्वास धीरे-धीरे समाप्त होने लगे तथा उनमें तर्क, स्वतन्त्र चिन्तन की भावनाएँ उत्पन्न हुईं।

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6. स्कालिस्टिक विचारधारा – मध्ययुग में यूरोप में स्कालिस्टिक विचारधारा का उदय हुआ था। इस विचारधारा का आधार अरस्तू का तर्कशास्त्र तथा सन्त आगस्टाइन का तत्त्व – ज्ञान था। अरबी ज्ञान से प्रोत्साहित होकर पेरिस, ऑक्सफोर्ड तथा बर्लिन के विश्वविद्यालयों ने इस आन्दोलन को चलाया था। इससे शिक्षा तथा वाद-विवाद को प्रोत्साहन मिला।

7. कुस्तुन्तुनिया पर तुर्कों का अधिकार – 1453 में तुर्कों ने कुस्तुन्तुनिया पर अधिकार कर लिया। अतः वहां के यूनानी विद्वान अनेक ग्रन्थों, कलाकृतियों आदि के साथ इटली, फ्रांस आदि देशों में शरण लेने के लिए पहुँचे। यूरोपवासी यूनान एवं रोम के साहित्य, कला, ज्ञान-विज्ञान आदि से बड़े प्रभावित हुए।

8. भौगोलिक खोजें – भौगोलिक खोजों के कारण यूरोपीय व्यापार की उन्नति हुई। नवीन देशों की खोज से यूरोपवासी विश्व की अन्य सभ्यताओं के सम्पर्क में आए, जिससे उनके ज्ञान में वृद्धि हुई।

9. नगरों का उदय-व्यापार की उन्नति के कारण यूरोप में अनेक नगरों का विकास हुआ। इनमें वेनिस, फ्लोरेन्स, जिनेवा आदि नगर उल्लेखनीय थे। नगरों में रहने वाले लोग स्वतन्त्र वातावरण को पसन्द करते थे तथा अपने वर्तमान जीवन को आनन्द व उल्लास के साथ व्यतीत करना चाहते थे।

10. वैज्ञानिक चेतना – इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक रोजर बैकन ने वैज्ञानिक चेतना जागृत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उसने तर्क और प्रयोग पर बल दिया। कोपरनिकस, ब्रूनी, गैलिलियो आदि वैज्ञानिकों ने ज्योतिष तथा खगोलशास्त्र के क्षेत्र में अनेक नये आविष्कार किये और प्राचीन मान्यताओं का खण्डन किया।

प्रश्न 9.
पुनर्जागरण के परिणामों की विवेचना कीजिए।
अथवा
पुनर्जागरण के यूरोप पर पड़े प्रभावों की विवेचना कीजिए।
अथवा
पुनर्जागरण के प्रभाव बहुत ही व्यापक थे। इसके परिणामों के आधार पर स्पष्ट कीजिये।
अथवा
पुनर्जागरण का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके परिणामों का वर्णन कीजिये।
उत्तर?;
पुनर्जागरण का अर्थ – इसके उत्तर के लिए लघूत्तरात्मक प्रश्न संख्या 17 का अवलोकन करें। पुनर्जागरण के परिणाम / प्रभाव पुनर्जागरण के निम्नलिखित परिणाम / प्रभाव हुए –

1. स्वतन्त्र चिन्तन एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहन – पुनर्जागरण के फलस्वरूप लोग स्वतन्त्रतापूर्वक चिन्तन करने लगे। पुनर्जागरण काल में तर्क और विवेक का महत्त्व बढ़ा। इससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हुआ।

2. मानव के महत्त्व में वृद्धि – पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप मानव के महत्त्व में वृद्धि हुई, अब पठन-पाठन तथा चिन्तन-मनन का विषय धर्म न होकर मनुष्य अथवा संसार हो गया। अब मानव को केन्द्र में रखकर सोचने पर जोर दिया गया।

3. राष्ट्रीयता की भावना का विकास – पुनर्जागरण के फलस्वरूप यूरोपवासियों में अपनी-अपनी सभ्यता तथा संस्कृति के प्रति अभिरुचि बढ़ी, जिससे राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। देशी भाषाओं के विकास ने भी राष्ट्रीयता की भावना के विकास में योगदान दिया।

4. धर्म-सुधार आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करना – पुनर्जागरण के फलस्वरूप लोगों में स्वतन्त्र चिन्तन एवं तार्किक दृष्टिकोण का उदय हुआ। अब लोगों की धार्मिक कर्मकाण्डों एवं अन्धविश्वासों में आस्था नहीं रही। इसके परिणामस्वरूप यूरोप में धर्म- -सुधार आन्दोलन शुरू हुआ।

5. भौतिकवादी दृष्टिकोण का विकास – पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप मनुष्य की धर्म तथा परलोक में रुचि कम हो गई और वह अपने वर्तमान जीवन को सुखी तथा सम्पन्न बनाने के लिए अधिक प्रयास करने लगा। परिणामस्वरूप अधिक सुन्दर नगरों तथा आरामदायक घरों का निर्माण किया जाने लगा ।

6. शिक्षा के क्षेत्र में सुधार – अब विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों को उन्नत बनाने का प्रयास किया जाने लगा। अब विज्ञान एवं गणित के अध्ययन के साथ-साथ समाज – विज्ञान के विषयों पर भी काफी जोर दिया जाने
लगा।

7. इतिहास का वैज्ञानिक अध्ययन – पुनर्जागरण के फलस्वरूप इतिहास का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाने लगा। अब इतिहास में प्रामाणिक तथ्यों पर बल दिया जाने लगा। मैकियावली का ‘फ्लोरेन्स का इतिहास’ इसी पद्धति पर लिखा गया ।

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8. देशी भाषाओं का विकास – पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप देशी भाषाओं का अत्यधिक विकास हुआ। अंग्रेजी, फ्रांसीसी, इतालवी, जर्मन, डच आदि भाषाओं के साहित्य का पर्याप्त विकास हुआ।

9. व्यापार – वाणिज्य की उन्नति – पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप यूरोप में उद्योग-धन्धों तथा व्यापार की महत्त्वपूर्ण उन्नति हुई जिससे औद्योगिक क्रान्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं।

प्रश्न 10.
धर्म-सुधार आन्दोलन से आप क्या समझते हैं? इसके क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
धर्म – सुधार आन्दोलन का अर्थ- सोलहवीं शताब्दी में यूरोप में एक धार्मिक क्रान्ति हुई, जिसे धर्म-सुधार आन्दोलन कहते हैं। मध्यकाल में धार्मिक क्षेत्र में अनेक पाखण्ड, आडम्बर तथा अन्धविश्वास फैले हुए थे। पुनर्जागरण से प्रभावित लोगों ने सोलहवीं शताब्दी में पोप के धार्मिक प्रभुत्व को नष्ट करने, चर्च की कुरीतियों को दूर करने तथा धार्मिक पाखण्डों एवं अन्धविश्वासों को समाप्त करने के लिए आन्दोलन शुरू किया, उसे धर्म-सुधार आन्दोलन कहते हैं। वार्नर तथा मार्टिन लूथर का कथन है कि, ” धर्म-सुधार आन्दोलन पोप पद की सांसारिकता एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक नैतिक विद्रोह था। ”

धर्म-सुधार आन्दोलन के उद्देश्य – धर्म-सुधार आन्दोलन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे –

  • पोप तथा धर्माधिकारियों के जीवन में नैतिक सुधार करना।
  • चर्च की बुराइयों एवं भ्रष्टाचार को दूर करना।
  • कैथोलिक धर्म में व्याप्त आडम्बरों को दूर कर जनता के सामने धर्म का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत करना।
  • रोम के पोप के व्यापक धर्म सम्बन्धी अधिकारों को नष्ट करना।
  • ईसाइयों के नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन को उन्नत करना।

प्रश्न 11.
यूरोप में धर्म-सुधार आन्दोलन के कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
यूरोप में धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण यूरोप में धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण निम्नलिखित थे –
1. मानवतावाद का प्रभाव – पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दियों में उत्तरी यूरोप के विश्वविद्यालयों के अनेक विद्वान मानवतावादी विचारों के प्रति आकृष्ट हुए । उत्तरी यूरोपीय देशों में मानवतावाद ने कैथोलिक चर्च के अनेक अनुयायियों को आकर्षित किया। उन्होंने ईसाइयों को अपने पुराने धर्म-ग्रन्थों में बताए गए तरीकों से धर्म का पालन करने पर बल दिया। उन्होंने कैथोलिक चर्च में व्याप्त कुरीतियों और कर्मकाण्डों की कटु आलोचना की और उनका परित्याग करने पर बल दिया।

2. मानव के सम्बन्ध में नवीन दृष्टिकोण – मानव के बारे में मानवतावादियों का दृष्टिकोण बिल्कुल नया था। वे मानव को एक मुक्त विवेकपूर्ण कर्त्ता मानते थे। वे एक दूरवर्ती ईश्वर में विश्वास रखते थे। उनकी मान्यता थी कि यद्यपि ईश्वर ने मनुष्य बनाया है, परन्तु उसे अपना जीवन मुक्त रूप से चलाने की पूर्ण स्वतन्त्रता भी दी है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मनुष्य को अपनी प्रसन्नता इसी विश्व में वर्तमान में ही ढूँढ़नी चाहिए।

3. चर्च द्वारा जनता का आर्थिक शोषण – चर्च जनता से अनेक प्रकार के कर वसूल करता था। इंग्लैण्ड के टॉमस मोर तथा हॉलैण्ड के इरैस्मस नामक मानवतावादियों का कहना था कि चर्च एक लालची और भ्रष्ट संस्था है। यह साधारण लोगों से मामूली बातों पर लूट-खसोट करता रहता है। किसानों ने चर्च द्वारा लगाए गए अनेक प्रकार के करों का विरोध किया।

4. पोप का राजनीति में हस्तक्षेप – पोप राज्य के आन्तरिक एवं वैदेशिक मामलों में भी हस्तक्षेप करता था। इस कारण यूरोप के शासक भी पोप से नाराज थे।

5. पोप की सांसारिकता तथा विलासिता – पोप अपने धार्मिक एवं नैतिक कर्त्तव्यों को भूलकर अनैतिक और विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। इस कारण जन-साधारण में असन्तोष था।

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6. पादरियों की अनैतिकता – पोप की भाँति पादरी भी अनैतिक और विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। वे उचित – अनुचित तरीकों से धन इकट्ठा करते थे तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। चर्च और मठ दुराचार तथा भ्रष्टाचार के केन्द्र बने हुए थ।

7. विभिन्न धर्म-सुधारकों का योगदान- जॉन वाइक्लिफ तथा जॉन हस नामक धर्म-सुधारकों ने चर्च में व्याप्त बुराइयों तथा पादरियों के अनैतिक जीवन की कटु आलोचना की। सेवोनारोला ने भी चर्च के पाखण्डों की आलोचना की।

8. धनिक वर्ग और व्यापारी वर्ग में असन्तोष- यूरोप का धनिक वर्ग भी चर्च के नियन्त्रण से मुक्त होना चाहता था क्योंकि चर्च वैभवपूर्ण जीवन का पक्षपाती नहीं था। चर्च की आर्थिक नीति से व्यापारी वर्ग में भी असन्तोष था। चर्च के अनुसार ब्याज लेना अनैतिक और पाप है। चर्च की आर्थिक नीति व्यापार की प्रगति में बाधक थी।

9. ‘पाप – स्वीकारोक्ति’ दस्तावेज का विरोध – पादरी लोग ‘पाप-स्वीकारोक्ति’ नामक दस्तावेज के माध्यम से लोगों से धन ऐंठते थे। पादरियों के अनुसार जो व्यक्ति इस दस्तावेज को खरीदेगा, उसे समस्त पापों से मुक्ति मिल जायेगी। परन्तु बुद्धिजीवी और मानवतावादी लोगों ने इस दस्तावेज का विरोध किया।

10. तात्कालिक कारण – 1517 में टेटजल नामक पोप का एक एजेण्ट ‘पाप-स्वीकारोक्ति’ नामक दस्तावेज को बेचने के लिए जर्मनी के विटनबर्ग नगर में पहुँचा। वहाँ जर्मनी के प्रसिद्ध धर्म-सुधारक मार्टिन लूथर ने इसका घोर विरोध किया। उसने इस प्रश्न पर पोप तथा टेटजल को चुनौती दी। यह चुनौती ही धर्म-सुधार आन्दोलन की शुरुआत थी।

प्रश्न 12.
धर्म – सुधार आन्दोलन के परिणामों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
धर्म-स-सुधार आन्दोलन के परिणाम धर्म-सुधार आन्दोलन के निम्नलिखित परिणाम हुए –
1. ईसाई धर्म की एकता की समाप्ति-धर्म-सुधार आन्दोलन के परिणामस्वरूप ईसाई धर्म दो प्रमुख सम्प्रदायों में विभाजित हो गया-कैथोलिक धर्म तथा प्रोटेस्टेन्ट धर्म। इस प्रकार ईसाई धर्म की एकता समाप्त हो गई।

2. प्रतिवादात्मक धर्म – सुधार आन्दोलन – कैथोलिक धर्म के अनुयायियों ने कैथोलिक चर्च में सुधार लाने के लिए एक आन्दोलन प्रारम्भ किया जिसे प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन कहते हैं। इस आन्दोलन के फलस्वरूप कैथोलिक चर्च की अनेक बुराइयों को दूर किया गया।

3. असहिष्णुता का विकास-धर्म-सुधार आन्दोलन के परिणामस्वरूप कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेन्ट सम्प्रदायों के बीच संघर्ष छिड़ गया। धर्म के नाम पर हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। जर्मनी में प्रोटेस्टेन्ट तथा कैथोलिकों के बीच 30 वर्ष तक भयंकर संघर्ष चला जिसमें हजारों लोग मारे गए।

4. नैतिक विकास – धर्म – सुधार आन्दोलन के फलस्वरूप ईसाई धर्म के सभी सम्प्रदायों ने चारित्रिक शुद्धता, नैतिकता, सरल जीवन, आचरण की पवित्रता आदि पर बल दिया। अब कर्मकाण्डों के स्थान पर आचरण की शुद्धता पर अधिक जोर दिया गया।

5. राष्ट्रीय भावना का विकास – विभिन्न देशों में राष्ट्रीय चर्च की स्थापना हुई। प्रोटेस्टेन्ट मत को स्वीकार करने वाले राजाओं पर पोप का अब कोई नियन्त्रण नहीं रहा। इससे भी राष्ट्रीयता को प्रोत्साहन मिला।

6. राजाओं की शक्ति में वृद्धि – पोप के प्रभाव से मुक्त होने के पश्चात् राजाओं की शक्ति तथा निरंकुशता में वृद्धि हुई। अनेक प्रोटेस्टेन्ट राजाओं ने चर्च की भूमि पर अधिकार करके अपनी शक्ति में वृद्धि की

7. शिक्षा का विकास – सभी धार्मिक सम्प्रदायों ने शिक्षा के विकास पर बल दिया। सुधारवादी पोप तथा जैसुइट प्रचारकों ने शिक्षा के विकास में योगदान दिया। इसी प्रकार प्रोटेस्टेन्ट धर्म-प्रचारकों ने भी शिक्षा के विकास पर बल दिया। अब शिक्षा का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष हो गया और चर्च के स्थान पर उस पर राजकीय प्रभाव बढ़ने लगा!

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ

8. बौद्धिक क्रान्ति – धर्म – सुधार आन्दोलन ने प्राचीन रूढ़ियों और अन्धविश्वासों को समाप्त कर दिया और स्वतन्त्र चिन्तन को प्रोत्साहन दिया। अब यूरोपवासियों के मस्तिष्क में क्रान्ति उत्पन्न हो गई और बौद्धिक विकास के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया।

9. व्यापार वाणिज्य की उन्नति – प्रोटेस्टेन्ट धर्म के नेताओं ने एक उचित सीमा तक के अन्दर ब्याज लेना तथा मुनाफा कमाना उचित बताया। इससे वाणिज्य – व्यापार की उन्नति को प्रोत्साहन मिला।

10. लोक-साहित्य का विकास – धर्म-सुधारकों ने अपने विचारों एवं धार्मिक सिद्धान्तों का लोक-भाषाओं में ही प्रचार किया। बाइबल का जर्मन तथा अन्य लोक-भाषाओं में अनुवाद किया गया। परिणामस्वरूप लोक-साहित्य का विकास हुआ।

11. मतभेदों की उत्पत्ति-धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण ईसाई धर्म में अनेक सम्प्रदाय बन गए। प्रोटेस्टेन्ट धर्म भी अनेक सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। कालान्तर में कैथोडिज्म, बैपटिज्म आदि विभिन्न सम्प्रदायों के उदय से भी मतभेदों में और वृद्धि हुई।

प्रश्न 13.
धर्म-सुधार आन्दोलन में मार्टिन लूथर के योगदान की विवेचना कीजिए।
अथवा
मार्टिन लूथर कौन था ? धर्म-सुधार आन्दोलन में इसने क्या योगदान दिया?
उत्तर:
1. प्रारम्भिक जीवनी – धर्म – सुधार आन्दोलन में मार्टिन लूथर का योगदान – जर्मनी में धर्म-सुधार आन्दोलन का सूत्रपात करने वाला मार्टिन लूथर था। मार्टिन लूथर का जन्म 10 नवम्बर, 1483 को जर्मनी के अजलेवन नामक गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था। 1508 में वह विटनबर्ग विश्वविद्यालय में धर्म-शास्त्र का प्राध्यापक बन गया।

2. ‘पाप – स्वीकारोक्ति’ दस्तावेज का विरोध – 1517 में टेटजल नामक पोप का एक एजेण्ट जर्मनी के विटनबर्ग नामक नगर में पहुँचा और धन-संग्रह करने के लिए ‘पोप- स्वीकारोक्ति’ दस्तावेज बेचना शुरू कर दिया। परन्तु मार्टिन लूथर ने इन दस्तावेजों की कटु आलोचना करते हुए कहा कि मनुष्य को ईश्वर से सम्पर्क साधने के लिए पादरी की आवश्यकता नहीं है। उसने लोगों से कहा कि मोक्ष के लिए ईश्वर पर विश्वास करना आवश्यक है। अतः उन्हें ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। यह विश्वास ही उन्हें स्वर्ग में प्रवेश दिला सकता है।

3. मार्टिन लूथर को ईसाई धर्म से निष्कासित करना – मार्टिन लूथर ने विटनबर्ग के चर्च पर ‘पाप-स्वीकारोक्ति’ के विरोध में 95 निबन्ध लिखे। उसने अपने मत के प्रतिपादन के लिए तीन लघु पुस्तिकाओं की रचना की। ये लघु- पुस्तिकाएँ थीं –
(1) एन ओपन लैटर टू दी क्रिश्चियन नोबिलिटी ऑफ दी जर्मन नेशन
(2) चर्च का ‘बेबीलोनिया का कैदी’
(3) ‘एक ईसाई व्यक्ति की स्वतन्त्रता’। लूथर के कार्यों से पोप लियो दशक नाराज हो गया और 1520 में उसने लूथर को ईसाई धर्म से बहिष्कृत कर दिया।

4. मार्टिन लूथर और चार्ल्स पंचम – पवित्र रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम ने 1521 में लूथर के सम्बन्ध में वर्म्स नामक नगर में एक धर्म-सभा बुलाई। इस सभा में चार्ल्स पंचम ने लूथर को ‘नास्तिक’ तथा ‘विधि – बहिष्कृत’ घोषित कर दिया। इस अवसर पर सेक्सनी के राजा फ्रेडरिक ने लूथर को वार्टबर्ग के दुर्ग में शरण दी । यहीं रहते हुए लूथर ने बाइबल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया।

5. प्रोटेस्टेन्ट सुधारवाद – मार्टिन लूथर द्वारा चलाया गया आन्दोलन ‘प्रोटेस्टेन्ट सुधारवाद’ कहलाया। जर्मनी तथा स्विट्जरलैण्ड के चर्च ने पोप तथा कैथोलिक चर्च से अपने सम्बन्ध समाप्त कर लिए। लूथर ने आमूल परिवर्तनवाद का समर्थन नहीं किया । अतः 1525 में दक्षिण व मध्य जर्मनी में किसानों ने विद्रोह कर दिया, तो लूथर ने आह्वान किया कि जर्मन शासक किसानों के विद्रोह का दमन कर दे । अत: 1525 में जर्मन शासकों ने किसानों के विद्रोह को कुचल दिया।

6. जर्मनी में लूथर के विचारों का प्रसार – शीघ्र ही जर्मनी में मार्टिन लूथर के विचारों ने एक लोकप्रिय धर्म- सुधार आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। 1546 में लूथर की मृत्यु हो गई। जर्मनी में 1546 से 1555 तक गृह-युद्ध छिड़ गया। अन्त में 1555 में आग्सबर्ग की सन्धि के अनुसार गृह-युद्ध समाप्त हो गया। इस सन्धि के अनुसार निम्नलिखित शर्तें तय की गईं-हुआ।

  • साम्राज्य – परिषद में कैथोलिकों तथा प्रोटेस्टेन्टों को एकसमान प्रतिनिधित्व दिया जायेगा।
  • प्रत्येक राजा को अपनी प्रजा का धर्म निर्धारित करने का अधिकार दिया गया।
  • प्रोटेस्टेन्ट मत को कानूनी मान्यता प्रदान की गई। जर्मनी के अधिकांश राज्यों में प्रोटेस्टेन्ट धर्म का प्रसार

प्रश्न 14.
प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन से आप क्या समझते हैं? वह कैथोलिक चर्च की बुराइयों का निवारण करने में कहाँ तक सफल रहा?
उत्तर:
प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन – प्रोटेस्टेन्ट धर्म की बढ़ती हुई लोकप्रियता से कैथोलिक धर्म के नेताओं को अत्यधिक चिन्ता हुई। अतः प्रोटेस्टेन्ट धर्म की प्रगति को रोकने तथा कैथोलिक चर्च की बुराइयों को दूर करने के लिए प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन शुरू किया गया।
प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन को सफल बनाने के मुख्य साधन –
1. ट्रेन्ट की कौंसिल (1545-1563 ई.) – कैथोलिक धर्म की बुराइयों को दूर करने तथा कैथोलिक धर्म के मौलिक सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण करने के लिए इटली के ट्रेन्ट नामक नगर में एक कौंसिल आयोजित की गई। इस सभा की बैठकें 1545 से 1563 ई. तक होती रहीं। इन बैठकों में पोप तथा अन्य धर्माधिकारियों ने भाग लिया।

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ट्रेन्ट की कौंसिल के सैद्धान्तिक कार्य –

  1. पोप कैथोलिक धर्म का सर्वोच्च अधिकारी है तथा सभी सिद्धान्तों का अन्तिम व्याख्याता है।
  2. केवल चर्च ही धर्म-ग्रन्थ का अर्थ लगा सकता है।
  3. बाइबल का लैटिन अनुवाद ही प्रामाणिक है।

ट्रेन्ट की कौंसिल के सुधारात्मक कार्य –

  1. चर्च के पदाधिकारियों की पवित्रता, नैतिकता तथा सादगी पर विशेष बल दिया गया।
  2. बिशपों तथा पादरियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाने लगी।
  3. पादरियों का शिक्षित होना अनिवार्य कर दिया गया।
  4. ‘पाप – स्वीकारोक्ति’ दस्तावेजों की बिक्री बन्द कर दी गई।
  5. कैथोलिक चर्चों में पूजा की एक-सी विधि व एक-सी प्रार्थना – पुस्तक रखी गई।

2. सोसाइटी ऑफ जीसस – प्रोटेस्टेन्ट लोगों से संघर्ष करने के लिए स्पेन – निवासी इग्नेशियस लायोला ने 1540 ई. में ‘सोसाइटी ऑफ जीसस’ नामक संस्था की स्थापना की। उनके अनुयायी ‘जैसुइट’ कहलाते थे। उनका ध्येय गरीबों की सेवा करना तथा दूसरी संस्कृतियों के बारे में अपने ज्ञान को अधिक व्यापक बनाना था। इस संस्था ने अनेक स्थानों पर स्कूल स्थापित किये, जहां निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। जैसुइट लोगों ने कैथोलिक धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप इटली, स्पेन, पोलैण्ड, हंगरी, पुर्तगाल आदि देशों में कैथोलिक धर्म पुनः प्रतिष्ठित हो गया।

3. धार्मिक न्यायालय – पोप पाल तृतीय ने 1542 ई. में रोम में धार्मिक न्यायालय की स्थापना की। इसका उद्देश्य कैथोलिक धर्म के विरोधियों को दण्डित करना था । इस न्यायालय ने स्पेन, हालैण्ड, इटली, बेल्जियम आदि देशों में प्रोटेस्टेन्टों का कठोरतापूर्वक दमन किया।

प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन के परिणाम –

  1. ईसाई समाज का विभाजन – इस आन्दोलन के फलस्वरूप ईसाई समाज अनेक सम्प्रदायों में विभाजित हो
  2. प्रोटेस्टेन्ट धर्म की प्रगति का अवरुद्ध होना- इस आन्दोलन के फलस्वरूप प्रोटेस्टेन्ट धर्म की प्रगति अवरुद्ध
  3. कैथोलिक धर्म का पुनरुद्धार – इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप कैथोलिक धर्म का पुनरुद्धार हुआ।
  4. धर्माधिकारियों के जीवन में नैतिकता – कैथोलिक धर्माधिकारियों के जीवन में नैतिकता, सदाचार आदि का हुआ
  5. राष्ट्रीय भावना का विकास – इस आन्दोलन ने राष्ट्रीय भावना के विकास में योगदान दिया।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. राजस्थान और पंजाब सरकार के मध्य विवाद की सुनवाई कौन करेगा?
(क) राजस्थान उच्च न्यायालय
(ग) सर्वोच्च न्यायालय
(ख) पंजाब उच्च न्यायालय
(घ) जिला न्यायालय।
उत्तर:
(ग) सर्वोच्च न्यायालय

2. राजस्थान के जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील कहाँ की जायेगी ।
(क) राजस्थान उच्च न्यायालय में
(ख) रिट के माध्यम से
(ग) सर्वोच्च न्यायालय में
(घ) दिल्ली उच्च न्यायालय में। किस अधिकार के तहत करता है-
उत्तर:
(क) राजस्थान उच्च न्यायालय में

3. सर्वोच्च न्यायालय किसी कानून को असंवैधानिक ।
(क) अपीलीय क्षेत्राधिकार के तहत
(ख) पंजाब उच्च न्यायालय में
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से
(घ) सलाहकारी क्षेत्राधिकार द्वारा।
उत्तर:
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से

4. निम्नलिखित में से कौनसा न्यायिक स्वतन्त्रता के अर्थ से सम्बन्धित नहीं है।
(क) सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के कार्यों में बाधा न पहुँचाएँ।
(ख) सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप न करें।
(ग) न्यायाधीश बिना भय या भेदभाव के अपना कार्य कर सकें।
(घ) न्यायपालिका स्वेच्छाचारी व अनुत्तरदायी हो।
उत्तर:
(घ) न्यायपालिका स्वेच्छाचारी व अनुत्तरदायी हो।

5. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है।
(क) प्रधानमन्त्री द्वारा
(ग) विधि मन्त्री द्वारा
(ख) राष्ट्रपति द्वारा
(घ) लोकसभा अध्यक्ष द्वारा।
उत्तर:
(ख) राष्ट्रपति द्वारा

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6. संघ और राज्यों के बीच के तथा विभिन्न राज्यों के आपसी विवाद सर्वोच्च न्यायालय के निम्न में से किस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आते हैं।
(क) अंपीली क्षेत्राधिकार
(ग) सलाहकारी क्षेत्राधिकार
(ख) मौलिक क्षेत्राधिकार
(घ) रिट सम्बन्धी क्षेत्राधिकार।
उत्तर:
(ख) मौलिक क्षेत्राधिकार

7. कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में उसके किस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत अपील कर सकता है?
(क) मौलिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत
(ख) अपीलीय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत
(ग) सलाहकारी क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(ख) अपीलीय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत

8. जनहित याचिका की शुरुआत भारत में कब से हुई ?
(क) 1979 से
(ख) 1984 से
(ग) 1989 से
(घ) 1999 से।
उत्तर:
(क) 1979 से

9. निम्न में से कौनसा न्यायिक सक्रियता का सकारात्मक पहलू है?
(क) इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया।
(ख) इसने न्यायालयों में काम का बोझ बढ़ाया है।
(ग) इससे तीनों अंगों के कार्यों के बीच का अन्तर धुँधला पड़ा है।
(घ) इससे न्यायालय उन समस्याओं में उलझ गया है जिसे कार्यपालिका को करना चाहिए।
उत्तर:
(क) इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया।

10. अग्र में से कौनसा मुद्दा सुलझ गया है?
(क) क्या संसद संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन कर सकती है?
(ख) जो व्यक्ति विधायिका के विशेषाधिकार हनन का दोषी हो तो क्या वह न्यायालय की शरण ले सकता है?
(ग) सदन के किसी सदस्य के विरुद्ध स्वयं सदन द्वारा यदि कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती है तो क्या वह सदस्य न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है?
(घ) क्या संसद और राज्यों की विधानसभाओं में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली उठायी जा सकती है?
उत्तर:
(क) क्या संसद संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन कर सकती है?

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. न्यायपालिका व्यक्ति के …………….. की रक्षा करती है।
उत्तर:
अधिकारों

2. ………………. के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए।
उत्तर:
न्यायाधीश

3. न्यायाधीशों के कार्यों एवं निर्णयों की …………………. आलोचना नहीं की जा सकती।
उत्तर:
व्यक्तिगत

4. भारतीय संविधान ………………… न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है।
उत्तर:
एकीकृत

5. भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन …………………. रही है।
उत्तर:
जनहित याचिका

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये

1. न्यायपालिका सरकार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
उत्तर:
सत्य

2. भारत में न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ विधायिका द्वारा की जाती है।
उत्तर:
असत्य

3. भारत में न्यायपालिका विधायिका पर वित्तीय रूप से निर्भर है
उत्तर:
असत्य

4. भारत में न्यायपालिका की संरचना एक पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला व अधीनस्थ न्यायालय है।
उत्तर:
सत्य

5. उच्च न्यायालय संघ और राज्यों के बीच के विवादों का निपटारा करता है।
उत्तर:
असत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने की प्रक्रिया। (क) सर्वोच्च न्यायालय
2. फैसले सभी अदालतों को मानने होते हैं। (ख) जिला अदालत
3. जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है। (ग) रिट के रूप में आदेश
4. सर्वोच्च न्यायालय व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जारी करता है (घ) जनहित याचिका
5. न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन। (च) महाभियोग

उत्तर:

1. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने की प्रक्रिया। (च) महाभियोग
2. फैसले सभी अदालतों को मानने होते हैं। (क) सर्वोच्च न्यायालय
3. जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है। (ख) जिला अदालत
4. सर्वोच्च न्यायालय व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जारी करता है (ग) रिट के रूप में आदेश
5. न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन। (घ) जनहित याचिका

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का सबसे बड़ा न्यायालय कौनसा है? इसके मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है। इसके मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

प्रश्न 2.
भारत का सर्वोच्च न्यायालय कहाँ स्थित है?
उत्तर:
भारत का सर्वोच्च न्यायालय नई दिल्ली में स्थित है।

प्रश्न 3.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन और किसकी सलाह पर करता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से कुछ नाम प्रस्तावित करेगा और इसी में से राष्ट्रपति अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा।

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प्रश्न 4.
भारतीय संविधान ने किन उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है? (कोई दो का उल्लेख कीजिए)
उत्तर:

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया जायेगा।
  2. न्यायाधीशों का कार्यकाल सेवानिवृत्ति की आयु तक निश्चित रखा गया है।

प्रश्न 5.
संसद न्यायाधीशों के आचरण पर कब चर्चा कर सकती है?
उत्तर:
संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है जब वह उनको हटाने के प्रस्ताव पर चर्चा कर रही हो।

प्रश्न 6.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति से सम्बन्धित इस परम्परा को कि ‘सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया जायेगा।’ कितनी बार और कब-कब तोड़ा गया है?
उत्तर:
‘सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को ही राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त करेगा’ इस परम्परा को दो बार, सन् 1973 तथा सन् 1975 में तोड़ा गया है।

प्रश्न 7.
भारत में सर्वोच्च न्यायालय के किस न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का असफल प्रयास किया गया?
उत्तर:
सन् 1991-92 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री रामास्वामी के विरुद्ध संसद में महाभियोग का असफल प्रयास किया गया।

प्रश्न 8.
‘भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है।’ इस कथन का क्या आशय है?
उत्तर:
इस कथन का आशय यह है कि भारत में अलग से प्रान्तीय स्तर के न्यायालय नहीं हैं। यहाँ सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय है और फिर उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालय हैं।

प्रश्न 9.
जिला अदालत के कोई दो कार्य लिखिए।
उत्तर:

  1. जिला अदालत जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है।
  2. यह निचली अदालतों के फैसलों पर की गई अपीलों की सुनवाई करती है।

प्रश्न 10.
सर्वोच्च न्यायालय के मौलिक क्षेत्राधिकार को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कुछ मुकदमों की सुनवाई सीधे सर्वोच्च न्यायालय कर सकता है, उनकी सुनवाई निचली अदालतों में नहीं हो सकती उसे सर्वोच्च न्यायालय का मौलिक क्षेत्राधिकार कहा जाता है। ये विवाद हैं। केन्द्र और राज्यों के बीच या विभिन्न राज्यों के आपसी विवाद।

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प्रश्न 11.
सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार से क्या आशय है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय अपील उच्चतम न्यायालय है। कोई भी व्यक्ति उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।

प्रश्न 12.
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले कहाँ तथा किन पर लागू होते हैं?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भारतीय भू-भाग के अन्य सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं। उसके द्वारा दिए गए निर्णय सम्पूर्ण भारत देश में लागू होते हैं।

प्रश्न 13.
जनहित याचिका क्या है?
उत्तर:
जब पीड़ित लोगों की ओर से दूसरों द्वारा जनहित के मुद्दे के आधार पर न्यायालय में याचिका दी जाती है, तो ऐसी याचिका को जनहित याचिका कहा जाता है।

प्रश्न 14.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
‘जनहित याचिका’ गरीबों को सस्ते में न्याय दिलवाकर मदद कर सकती हैं तथा दूसरें लोगों द्वारा भी उनके हित में याचिका दी जा सकती है।

प्रश्न 15.
न्यायपालिका की कौनसी नई भूमिका न्यायिक सक्रियता के नाम से लोकप्रिय हुई?
उत्तर:
जब न्यायपालिका ने अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बनाकर उन पर विचार शुरू कर दिया तो उसकी यह नई भूमिका न्यायिक सक्रियता के नाम से लोकप्रिय हुई

प्रश्न 16.
सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कब कर सकता है?
उत्तर:

  1. मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है।
  2. संघीय संबंधों के मामले में भी वह अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

प्रश्न 17.
भारत की तरह अन्य देशों में भी न्यायिक सक्रियता लोकप्रिय हो रही है। किन्हीं दो देशों के नाम
उत्तर:
दक्षिण एशिया और अफ्रीका के देशों में भी भारत की ही भाँति न्यायिक सक्रियता का प्रयोग किया जा रहा

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्र न्यायपालिका से क्या आशय है?
उत्तर:
स्वतन्त्र न्यायपालिका से आशय: न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय ऐसी स्थिति से है जहाँ न्यायाधीश विवादों का निर्णय करने तथा अपने न्यायिक कार्यों को करने में डर का महसूस नहीं करते हों तथा विधायिका और कार्यपालिका का उन पर कोई दबाव न हो। उनका कार्यकाल निश्चित हो; उनके वेतन तथा भत्तों में विधायिका या कार्यपालिका द्वारा कोई कटौती नहीं की जा सके; उनके कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती हो। न्यायाधीश आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष निर्णय कर सके।

प्रश्न 2.
हमें स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
उत्तर:
हमें निम्नलिखित कारणों से स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता पड़ती है।

  1. हमें निष्पक्ष ढंग से न्याय की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता पड़ती है। यदि न्यायपालिका पर अनावश्यक नियंत्रण होंगे, तो वह निष्पक्ष ढंग से न्याय नहीं कर पायेगी।
  2. हमें कानूनों की ठीक प्रकार से व्याख्या करने तथा उनको लागू करवाने के लिए, स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता पड़ती है।
  3. स्वतंत्र न्यायपालिका ही विधायिका और कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाकर हमारी स्वतंत्रता की रक्षा कर सकती है।

प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति की आयु से पूर्व किस आधार पर और किस प्रकार से पद से हटाया जा सकता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को संसद सिद्ध कदाचार अथवा अक्षमता के आधार पर महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर हटा सकती है। यदि संसद के दोनों सदन अलग-अलग अपने कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दें तो राष्ट्रपति के आदेश से उसे पद से हटाया जा सकता है।

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प्रश्न 4.
आधुनिक युग में न्यायपालिका का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
आधुनिक युग में न्यायपालिका का महत्त्व निम्नलिखित है।

  1. न्यायपालिका ‘कानून के शासन’ की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करती है।
  2. न्यायपालिका व्यक्ति के मौलिक अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा करती है।
  3. यह विवादों को कानून के अनुसार हल करती है।
  4. न्यायपालिका यह भी सुनिश्चित करती है कि लोकतन्त्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले। इस प्रकार यह विधायिका और कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाती है।

प्रश्न 5.
न्यायिक पुनरावलोकन के दो लाभ बताइए।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन के लाभ

  1. न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों तथा कार्यपालिका की नीतियों की व्याख्या करती है और संविधान के प्रतिकूल होने पर उनको असंवैधानिक घोषित कर संविधान की रक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है।
  2. न्यायपालिका न्यायिक पुनरावलोकन द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है।

प्रश्न 6.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार: भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए भेज सकता है। लेकिन न तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी विषय पर सलाह देने के लिए बाध्य है और न ही राष्ट्रपति न्यायालय की सलाह मानने को बाध्य है।

प्रश्न 7.
उच्चतम न्यायालय को सबसे बड़ा न्यायालय क्यों माना जाता है?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है क्योंकि-

  1. इसका फैसला अन्तिम होता है, जो सबको मानना पड़ता है।
  2. इसके फैसले के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती।
  3. यह संविधान के विरुद्ध पास किए गए कानूनों को रद्द कर सकता है।
  4. यह केन्द्र और राज्यों के बीच तथा विभिन्न राज्यों के बीच के आपसी विवादों को हल करता है।
  5. इसे संविधान की व्याख्या का अधिकार है तथा यह नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है।

प्रश्न 8.
सर्वोच्च न्यायालय की परामर्श देने की शक्ति की क्या उपयोगिता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के परामर्श देने की शक्ति की उपयोगिता: सर्वोच्च न्यायालय की परामर्श देने की शक्ति की निम्नलिखित उपयोगिताएँ हैं।

  1. इससे सरकार को छूट मिल जाती है कि किसी महत्त्वपूर्ण मसले पर कार्यवाही करने से पहले वह अदालत की कानूनी राय जान ले। इससे बाद में कानूनी विवाद से बचा जा सकता है।
  2. सर्वोच्च न्यायालय की सलाह मानकर सरकार अपने प्रस्तावित निर्णय या विधेयक में समुचित संशोधन कर सकती है।

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प्रश्न 9.
भारत की न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा किन विधियों से करती है?
उत्तर:
व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा – भारत की न्यायपालिका निम्नलिखित दो विधियों के द्वारा व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है।
1. रिट के माध्यम से: भारत के सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत और उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु रिट जारी करने का अधिकार है। इन रिटों के माध्यम से वह मौलिक अधिकारों को फिर से स्थापित कर सकता है।

2. न्यायिक पुनरावलोकन: सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 13 के तहत किसी कानून को गैर-संवैधानिक घोषित करके व्यक्ति के अधिकारों का संरक्षण करता है।

प्रश्न 10.
भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए कौन-कौनसी योग्यताएँ आवश्यक हैं?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यताएँ – राष्ट्रपति उसी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएँ हों।
(i) वह भारत का नागरिक हो।
(ii) वह कम-से-कम 5 वर्ष तक एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश के पद पर रह चुका हो।
अथवा
वह कम-से-कम 10 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रह चुका हो।
अथवा
वह राष्ट्रपति की दृष्टि में प्रसिद्ध कानून विशेषज्ञ हो।

प्रश्न 11.
“ उच्चतम न्यायालय भारतीय संविधान का संरक्षक है।” व्याख्या कीजिए।
अथवा
भारत के उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय को विधायिका द्वारा बनाए गये कानूनों और कार्यपालिका द्वारा जारी किये गये आदेशों ‘न्यायिक पुनरावलोकन’ का अधिकार प्राप्त है। इस अधिकार के तहत इस बात की जाँच कर सकता है कि कानून या आदेश संविधान के अनुकूल है या नहीं। यदि उसे जाँच में यह लगता है कि उस कानून या आदेश ने संविधान का उल्लंघन किया है तो वह उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय भारतीय संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाता है।

प्रश्न 12.
अभिलेख न्यायालय के रूप में उच्चतम न्यायालय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अभिलेख न्यायालय: सर्वोच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय भी है क्योंकि यह न्यायालय अपनी कार्यवाही तथा निर्णयों का अभिलेख रखने के लिए उन्हें सुरक्षित रखता है ताकि किसी प्रकार के अन्य मुकदमों में उनका हवाला दिया जा सके सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय सभी न्यायालय मानने के लिए बाध्य हैं।

प्रश्न 13.
जिला न्यायालयों को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
जिला न्यायालय: प्रत्येक राज्य में उच्च न्यायालयों के अधीन जिला न्यायालय हैं। ये जिला न्यायालय प्रत्येक जिले में तीन प्रकार के होते हैं।

  1. दीवानी,
  2. फौजदारी और
  3. भू-राजस्व न्यायालय।

ये न्यायालय उच्च न्यायालय के नियन्त्रण में कार्य करते हैं। जिला न्यायालयों में उप-न्यायाधीशों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती हैं। ये न्यायालय सम्पत्ति, विवाह, तलाक सम्बन्धी विवादों की सुनवाई करते हैं।

प्रश्न 14.
लोक अदालत पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
लोक अदालत: भारत में गरीब, दलित, जरूरतमंद लोगों को तेजी से, आसानी से व सस्ता न्याय दिलाने हेतु हमारे देश में न्यायालयों की एक नई व्यवस्था शुरू की गई है जिसे लोक अदालत कहा जाता है। लोक अदालत के पीछे मूल विचार यह है कि न्याय दिलाने में होने वाली देरी खत्म हो, और न्याय जल्दी मिले तथा तेजी से अनिर्णीत मामलों को निपटाया जाये। इस प्रकार लोक अदालत ऐसे मामलों को तय करती है जो अभी तक अदालत नहीं पहुँचे हों या अदालतों में अनिर्णीत पड़े हों।

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प्रश्न 15.
एकीकृत न्यायपालिका से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
एकीकृत न्यायालय: एकीकृत न्यायपालिका से अभिप्राय इस प्रकार की न्यायपालिका से है जिससे समूचे देश के न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार कार्य करते हैं। इसमें देश के सभी न्यायालय सब प्रकार के कानूनों की व्याख्या करते हैं। भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है। इसका अर्थ यह है कि विश्व के अन्य संघीय देशों के विपरीत भारत में अलग से प्रान्तीय स्तर के न्यायालय नहीं हैं।

यहाँ न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय है। नीचे के न्यायालय ऊपर के न्यायालयों की देखरेख में कार्य करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भारतीय भू-भाग के अन्य सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं। उसके द्वारा दिए गए निर्मय सम्पूर्ण देश में लागू होते हैं।

प्रश्न 16.
भारतीय संविधान ने किन उपायों के द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान ने अनेक उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है। यथा
1. न्यायाधीशों की नियुक्ति को दलगत राजनीति से मुक्त रखा जाना: भारत के संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में विधायिका की सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे यह सुनिश्चित किया गया कि इन नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका नहीं रहे।

2. न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार योग्यता: न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए। उसे व्यक्ति के राजनीतिक विचार या निष्ठाओं को नियुक्ति का आधार नहीं बनाया गया है।

3. न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् की सम्मिलित भूमिक:
संविधान में कहा गया है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति वह सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से करेगा। इस प्रकार संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति में मन्त्रिपरिषद् को महत्त्व दिया गया था; लेकिन न्यायाधीशों की नियुक्ति में मंत्रिपरिषद् के बढ़ते हस्तक्षेप को देखते हुए अब सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्तियों की सिफारिश के सम्बन्ध में सामूहिकता का सिद्धान्त स्थापित किया है। इससे मन्त्रिपरिषद् का हस्तक्षेप कम हो गया है।

4. निश्चित कार्यकाल: भारत में न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है। वे सेवानिवृत्त होने तक पद पर बने रहते हैं। केवल अपवादस्वरूप, विशेष स्थितियों में, महाभियोग द्वारा ही न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है।

5. वित्तीय निर्भरता नहीं: न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है।

6. आलोचना से मुक्ति: न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अगर कोई न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है, तो न्यायपालिका को उसे दण्डित करने का अधिकार है।

प्रश्न 17.
सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसकी सेवानिवृत्ति की आयु से पूर्व किस प्रकार हटाया जा सकता है? क्या भारत में किसी न्यायाधीश को महाभियोग द्वारा हटाया गया है?
उत्तर:
न्यायाधीशों को पद से हटाना: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना काफी कठिन है। केवल संसद महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर किसी न्यायाधीश को उसकी सेवानिवृत्ति की आयु से पूर्व पद से हटा सकती है।

महाभियोग की प्रक्रिया: किसी भी न्यायाधीश को उसके सिद्ध कदाचार अथवा अक्षमता के आधार पर पद से हटाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में दोनों सदन पृथक्-पृथक् सदन की समस्त संख्या के बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इस प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद छोड़ने का आदेश देता है।

अब तक भारतीय संसद के पास किसी न्यायाधीश को हटाने का केवल एक प्रस्ताव विचार के लिए आया है। इस मामले में हालांकि दो-तिहाई सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया, लेकिन न्यायाधीश को हटाया नहीं जा सका क्योंकि प्रस्ताव पर सदन की कुल सदस्य संख्या का बहुमत प्राप्त न हो सका ।

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प्रश्न 18.
भारत के उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत के उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार निम्नलिखित हैं।
1. मौलिक क्षेत्राधिकार:
वे मुकदमे जो सर्वोच्च न्यायालय में सीधे ले जाए जा सकते हैं, उसके प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे मुकदमे दो प्रकार के हैं। एक वे, जो केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। संघ तथा राज्यों के बीच या राज्यों के आपसी विवाद इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। दूसरे वे विवाद हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय के अतिरिक्त उच्च न्यायालयों में भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इस श्रेणी के अन्तर्गत नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन सम्बन्धी विवाद आते हैं। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ रिट, जैसे- बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध आदि जारी कर सकता है।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार:
कुछ मुकदमे सर्वोच्च न्यायालय के पास उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील के रूप में आते हैं। ये अपीलें संवैधानिक, दीवानी तथा फौजदारी तीनों प्रकार के मुकदमों में सुनी जा सकती हैं।

3. सलाहकारी क्षेत्राधिकार: भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए भेज सकता है। लेकिन न तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी विषय पर सलाह देने के लिए बाध्य है और न ही राष्ट्रपति न्यायालय की सलाह मानने को।

प्रश्न 19.
जनहित याचिका क्या है? कब और कैसे इसकी शुरुआत हुई?
उत्तर:
जनहित याचिका का प्रारम्भ-कानून की सामान्य प्रक्रिया में कोई व्यक्ति तभी अदालत जा सकता है, जब उसका कोई व्यक्तिगत नुकसान हुआ हो। इसका अर्थ यह है कि अपने अधिकार का उल्लंघन होने पर या किसी विवाद में फँसने पर कोई व्यक्ति न्याय पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। 1979 में इस अवधारणा में परिवर्तन आया। 1979 में न्यायालय ने एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया जिसे पीड़ित लोगों ने नहीं बल्कि उनकी ओर से दूसरों ने दाखिल किया।

1979 में समाचार-पत्रों में विचाराधीन कैदियों के बारे में यह खबर छपी कि यदि उन्हें सजा भी दी गई होती तो उतनी अवधि की नहीं होती जितनी अवधि उन्होंने जेल में विचाराधीन होते हुए काट ली है। इस खबर को आधार बनाकर एक वकील ने एक याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने यह याचिका स्वीकार कर ली। सर्वोच्च न्यायालय में यह मुकदमा चला। यह याचिका जनहित याचिका के रूप में प्रसिद्ध हुई । इस प्रकार 1979 से इसकी शुरुआत सर्वोच्च न्यायालय ने की। बाद में इसी प्रकार के अन्य अनेक मुकदमों को जनहित याचिकाओं का नाम दिया गया।

प्रश्न 20.
जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता की न्यायालय की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जनहित याचिकाएँ न्यायिक सक्रियता का प्रभावी साधन सिद्ध हुई हैं। इस सम्बन्ध में न्यायालय की भूमिका निम्न रूपों में प्रकट हुई है।
1. पीड़ित लोगों के हित के लिए दूसरे लोगों की याचिकाओं को स्वीकार करना:
सबसे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने पीड़ित लोगों की ओर से दूसरे लोगों द्वारा की गई याचिकाओं को स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया । ऐसी याचिकाओं को जनहित याचिकाएँ कहा गया। 1979 के बाद से ऐसे मुकदमों की बाढ़ सी आ गयी जिनमें जनसेवा की भावना रखने वाले नागरिकों एवं स्वयंसेवी संगठनों ने अधिकारों की रक्षा, गरीबों के जीवन को और बेहतर बनाने, पर्यावरण की सुरक्षा और लोकहित से जुड़े अनेक मुद्दों पर न्यायपालिका से हस्तक्षेप की माँग की गई।

2. न्यायिक सक्रियता:
किसी के द्वारा मुकदमा करने पर उस मुद्दे पर विचार करने के साथ-साथ न्यायालय ने अखबार में छपी खबरों और डाक से शिकायतों को आधार बनाकर उन पर भी विचार करना शुरू कर दिया। न्यायपालिका की यह नई भूमिका न्यायिक सक्रियता के रूप में लोकप्रिय हुई।

3. समाज के जरूरतमंद और गरीब लोगों की ओर से सामाजिक संगठनों व वकीलों की याचिकाएँ स्वीकार करना:
1980 के बाद से न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिकाओं के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए न्यायालय ने जनसेवा की भावना से भरे नागरिक, सामाजिक संगठन और वकीलों को जरूरतमंद तथा गरीब लोगों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की इजाजत दी। प्रभाव

  1. इसने न्यायालयों के अधिकारों का दायरा बढ़ा दिया।
  2. इससे विभिन्न समूहों को भी अदालत जाने का अवसर मिला।
  3. इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया तथा कार्यपालिका उत्तरदायी बनने पर बाध्य हुई।
  4. लेकिन इससे न्यायालयों पर काम का बोझ भी पड़ा तथा सरकार के तीनों अंगों के कार्यों के बीच का अन्तर धुँधला गया।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
उच्चतम न्यायालय के गठन, क्षेत्राधिकारों एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संरचना, शक्तियों और भूमिका की विवेचना कीजिए। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का संगठन (संरचना)
उत्तर:
संविधान के अनुसार भारत में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। सर्वोच्च न्यायालय भारत का सर्वोच्च न्यायालय है। शेष सभी न्यायालय इसके अधीन हैं। इसके फैसले भारतीय भू-भाग के अन्य सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं तथा इसके द्वारा दिये गये निर्णय सम्पूर्ण देश में लागू होते हैं। इसके संगठन का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है।
1. न्यायाधीशों की संख्या: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या समय- समय पर बदलती रही है वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश कार्यरत हैं।

2. योग्यताएँ: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने के लिए संविधान में निम्न योग्यताएँ निर्धारित की हैं।

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह कम-से-कम 5 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुका हो।

वह कम-से-कम 10 वर्ष तक किसी एक उच्च न्यायालय या लगातार दो या दो से अधिक न्यायालयों में एडवोकेट रह चुका हो। राष्ट्रपति के विचार में वह कानून का ज्ञाता हो। या

3. कार्यकाल: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष तक की आयु तक रह सकते हैं। इससे पूर्व भी वह त्याग-पत्र दे सकते हैं।

4. नियुक्ति: सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। सामान्यतः राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त करता है। सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से प्रस्तावित नामों में से की जाती है।

5. न्यायाधीशों को पद से हटाना: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को संसद सिद्ध कदाचार अथवा अक्षमता के आधार पर मतदान करने वाले सदस्यों के पृथक्-पृथक् सदन द्वारा 2/3 बहुमत तथा कुल सदस्य संख्या के बहुमत से महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर हटा सकती है। ऐसा प्रस्ताव पारित कर संसद राष्ट्रपति को भेजता है और राष्ट्रपति तब उसे पद से हटा सकता है।

6. वेतन-भत्ते: सर्वोच्च न्यायालय के वेतन-भत्ते समय-समय पर विधि द्वारा निर्धारित किये जाते रहते हैं। लेकिन संविधान के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते के लिए विधायिका की स्वीकृति नहीं की जायेगी। इसके अतिरिक्त उन्हें वाहन भत्ता तथा रहने के लिए मुफ्त सरकारी मकान भी प्राप्त होता है। केवल वित्तीय संकट के काल को छोड़कर और किसी भी स्थिति में न्यायाधीशों के वेतन व भत्ते में कटौती नहीं की जा सकती।

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार एवं शक्तियाँ भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली न्यायालयों में से एक है। लेकिन वह संविधान द्वारा तय की गई सीमा के अन्दर ही काम करता है। सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है

1. प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

  • मौलिक क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय का मौलिक प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत वे विवाद आते हैं जो केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही सुने जा सकते हैं। यथा
    1. यदि दो या दो से अधिक राज्य सरकारों के मध्य आपस में कोई विवाद उत्पन्न हो जाये तो वह मुकदमा केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही सुना जायेगा ।
    2. यदि किसी विषय पर केन्द्रीय सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच कोई मतभेद उत्पन्न हो जाए तो वह मुकदमा भी सीधा सर्वोच्च न्यायालय में ही पेश किया जायेगा ।
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा से सम्बन्धित प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार – इसके अन्तर्गत मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय कहीं भी प्रारम्भ किया जा सकता है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर कोई भी व्यक्ति न्याय पाने के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है । सर्वोच्च न्यायालय अपने विशेष आदेश रिट के रूप में दे सकता है। इन रिटों के माध्यम से न्यायालय कार्यपालिका को कुछ करने या न करने का आदेश दे सकता है ।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय भारत का अन्तिम अपीलीय न्यायालय है। यह उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुन सकता है। सर्वोच्च न्यायालय में निम्नलिखित तीन प्रकार की अपीलें स्वीकार की जाती. हैं।

  • संवैधानिक विषय से सम्बन्धित मुकदमे: यदि उच्च न्यायालय एक प्रमाण-पत्र दे दे कि उसके विचारानुसार किसी मुकदमे में संविधान के किसी अनुच्छेद की व्याख्या सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्न अन्तर्निहित है तो ऐसे मुकदमों की अपील सर्वोच्च न्यायालय सुन सकता है।
  • दीवानी अपीलीय क्षेत्राधिकार: दीवानी मुकदमे सम्पत्ति सम्बन्धी होते हैं। उच्च न्यायालयों द्वारा दीवानी मुकदमों में दिये गए निर्णयों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। लेकिन यह अपील केवल उन्हीं निर्णयों के विरुद्ध की जा सकती है जिनमें सार्वजनिक महत्त्व का कोई कानूनी प्रश्न अन्तर्निहित हो और जिसकी व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जानी आवश्यक है।
  • फौजदारी अपीलीय क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय निम्न प्रकार के फौजदारी मुकदमों की अपीलें सुन सकता है।

(अ) उच्च न्यायालय ने निम्न न्यायालय से मुकदमा अपने पास मँगाकर अपराधी को मृत्यु – दण्ड दिया हो। जब उच्च न्यायालय ने किसी ऐसे अपराधी को मृत्यु – दण्ड दिया हो जिसे निम्न न्यायालय ने बरी कर दिया

(स) जब उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि किसी मामले के सम्बन्ध में कोई अपील सर्वोच्च न्यायालय के सुने जाने के योग्य है। अपीलीय क्षेत्राधिकार से अभिप्राय यह है कि सर्वोच्च न्यायालय पूरे मुकदमे पर पुनर्विचार करेगा और उसके कानूनी मुद्दों की जाँच करेगा । यदि न्यायालय को लगता है कि कानून या संविधान का अर्थ वह नहीं है जो निचली अदालतों ने समझा तो सर्वोच्च न्यायालय उनके निर्णय को बदल सकता है तथा इसके साथ उन प्रावधानों की नई व्याख्या भी दे सकता है

3. सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार: मौलिक और अपीली क्षेत्राधिकार के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय का सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार भी है। इसके अनुसार भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए भेज सकता है। लेकिन न तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी विषय पर सलाह देने के लिए बाध्य है और न ही राष्ट्रपति न्यायालय की सलाह मानने के लिए बाध्य है।

4. संविधान के व्याख्याता के रूप में: संविधान के किसी भी अनुच्छेद के सम्बन्ध में व्याख्या करने का अन्तिम अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है कि संविधान के किसी अनुच्छेद का सही अर्थ क्या है।

5. अभिलेख न्यायालय: सर्वोच्च न्यायालय को संविधान द्वारा अभिलेख न्यायालय बनाया गया है। अभिलेख न्यायालय का अर्थ ऐसे न्यायालय से है जिसके निर्णय सभी न्यायालयों को मानने पड़ते हैं तथा उसके निर्णय अन्य न्यायालयों में नजीर के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। इस न्यायालय को अपनी अवमानना के लिए किसी को भी दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।

6. न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार: सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार के अन्तर्गत व्यवस्थापिका के उन कानूनों को और कार्यपालिका के उन आदेशों को अवैध घोषित कर सकता है जो कि संविधान के विरुद्ध हों।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 2.
भारत की न्यायपालिका की संरचना पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
भारतीय न्यायपालिका की संरचना: भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है। इसका अर्थ यह है कि विश्व के अन्य संघीय देशों के विपरीत भारत में अलग से प्रान्तीय स्तर के न्यायालय नहीं हैं। भारत में न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय हैं। नीचे के न्यायालय अपने ऊपर के न्यायालयों की देखरेख में कार्य करते हैं। यथा

1. सर्वोच्च न्यायालय: भारत में सर्वोच्च न्यायालय देश का सबसे ऊपर का न्यायालय है। इसके फैसले सभी अदालतों को मानने पड़ते हैं। यह उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का तबादला कर सकता है। यह किसी अदालत का मुकदमा अपने पास मँगवा सकता है। यह किसी भी उच्च न्यायालय में चल रहे मुकदमे को दूसरे उच्च न्यायालय में भिजवा सकता है। यह उच्च न्यायालयों के फ़ैसलों पर की गई अपील की सुनवाई कर सकता है।

2. उच्च न्यायालय: उच्च न्यायालय प्रत्येक राज्य का सर्वोच्च न्यायालय है। इसके निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती हैं। इसके अन्य प्रमुख कार्य ये हैं। ये हैं।

  • यह निचली अदालतों के फैसलों पर की गई अपील की सुनवाई कर सकता है।
  • यह मौलिक अधिकारों को बहाल करने के लिए रिट जारी कर सकता है।
  • यह राज्य के क्षेत्राधिकार में आने वाले मुकदमों का निपटारा करता है।
  • यह अधीनस्थ अदालतों का पर्यवेक्षण तथा नियन्त्रण करता है।

3. जिला अदालतें: प्रत्येक उच्च न्यायालय के अधीन जिला न्यायालय आते हैं। जिला अदालतों के प्रमुख कार्य

  • जिला अदालत जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है।
  • यह निचली अदालतों के फैसले पर की गई अपील की सुनवाई करती है।
  •  यह गम्भीर किस्म के आपराधिक मामलों पर फैसला देती है।

4. अधीनस्थ अदालतें: जिला अदालतों के अधीन न्यायालयों को अधीनस्थ अदालतें कहा गया है। ये अदालतें फौजदारी और दीवानी मुकदमों पर विचार करती हैं।

प्रश्न 3.
भारत में सर्वोच्च न्यायालय और संसद के सम्बन्धों पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
सर्वोच्च न्यायालय और संसद के मध्य सम्बन्ध: सरकार के तीन अंग होते हैं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों अंगों में परस्पर सहयोग और आपसी सूझ-बूझ आवश्यक है ताकि देश का शासन सुचारु रूप से चलाया जा सके। लेकिन भारत में समय-समय पर न्यायपालिका और संसद के सम्बन्धों में किसी न किसी कारण से तनाव उत्पन्न होता रहा है। यथा

1. सम्पत्ति के अधिकार के सम्बन्ध में टकराव:
संविधान के लागू होने के तुरन्त बाद सम्पत्ति के अधिकार पर रोक लगाने की संसद की शक्ति पर दोनों के मध्य विवाद उत्पन्न हो गया । संसद सम्पत्ति रखने के अधिकार पर कुछ प्रतिबंध लगाना चाहती थी जिससे भूमि सुधारों को लागू किया जा सके। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती। संसद ने तब संविधान संशोधन का प्रयास किया। लेकिन न्यायालय ने कहा कि संशोधन के द्वारा भी मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता अर्थात् संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती। इस प्रकार संसद और न्यायपालिका के बीच विवाद के निम्नलिखित मुद्दे उभरे।

  • निजी सम्पत्ति के अधिकार का दायरा क्या है?
  • मौलिक अधिकारों को सीमित, प्रतिबंधित और समाप्त करने की संसद की शक्ति का दायरा क्या है?
  • संसद द्वारा संविधान संशोधन की शक्ति का दायरा क्या है?
  • क्या संसद नीति निर्देशक तत्त्वों को लागू करने के लिए ऐसे कानून बना सकती है जो मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करें?

1967 से 1973 के बीच यह विवाद काफी गहरा गया। भूमि सुधार कानूनों के अतिरिक्त निवारक नजरबंदी कानून, नौकरियों में आरक्षण सम्बन्धी कानून, निजी सम्पत्ति के अधिग्रहण सम्बन्धी नियम और अधिग्रहीत निजी सम्पत्ति के मुआवजे सम्बन्धी कानून आदि पर संसद और सर्वोच्च न्यायालय के बीच विवाद उठे। केशवानन्द भारती मुकदमा 1973 का निर्णय – 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया जो संसद और न्यायपालिका के संबंधों के निर्धारण में बहुत महत्त्वपूर्ण बना। यह निर्णय केशवानंद भारती मुकदमे का निर्णय है। इस मुकदमे में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि।

  • संविधान का एक मूल ढांचा है और संसद सहित कोई भी उस मूल ढांचे से छेड़-छाड़ नहीं कर सकता। संसद संविधान संशोधन द्वारा भी इस मूल ढाँचे को नहीं बदल सकती। है।
  • सम्पत्ति का मूल अधिकार मूल ढाँचे का हिस्सा नहीं है और इसलिए उस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता।
  • कोई मुद्दा मूल ढाँचे का भाग है या नहीं इसका निर्णय सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर संविधान की व्याख्या के तहत करेगी।

इस निर्णय से संसद और सर्वोच्च न्यायालय के बीच के विवादों की प्रकृति में परिवर्तन आ गया। क्योंकि संसद ने संविधान संशोधन कर 1979 में सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया।

2. विवाद के वर्तमान मुद्दे: वर्तमान में दोनों दलों के बीच विवाद के निम्न मुद्दे बने हुए हैं।
(i) क्या न्यायपालिका विधायिका की कार्यवाही का नियमन और उसमें हस्तक्षेप कर उसे नियंत्रित कर सकती है? संसदीय व्यवस्था में संसद को अपना संचालन स्वयं करने तथा अपने सदस्यों का व्यवहार नियंत्रित करने की शक्ति है। संसदीय व्यवस्था में विधायिका को विशेषाधिकार के हनन का दोषी पाए जाने पर अपने सदस्य को दंडित करने का अधिकार है।

जो व्यक्ति विधायिका के विशेषाधिकार हनन का दोषी हो क्या वह न्यायपालिका की शरण ले सकता है? सदन के किसी सदस्य के विरुद्ध स्वयं सदन द्वारा कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है तो क्या वह सदस्य न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है? ये मुद्दे अभी भी दोनों के बीच विवाद का विषय बने हुए हैं।

(ii) अनेक अवसरों पर संसद में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली उठाई गई और इसी प्रकार न्यायपालिका ने अनेक अवसरों पर विधायिका की आलोचना की तथा उसे विधायी कार्यों के सम्बन्ध में निर्देश दिए हैं। इन विवादों में न्यायपालिका का मत है कि संसद में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली नहीं उठायी जानी चाहिए और संसद न्यायपालिका के विधायी निर्देशों को संसदीय संप्रभुता के सिद्धान्त का उल्लंघन मानती है। लोकतंत्र में सरकार के दोनों अंगों के एक दूसरे की सत्ता के प्रति सम्मान करते हुए आचरण किये जाने की आवश्यकता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 4.
भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार क्या है? सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन की भूमिका की संक्षिप्त विवेचना कीजिए। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के महत्त्व को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन से आशय:
न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है और यदि वह संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है।
संविधान में कहीं भी न्यायिक पुनरावलोकन शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है लेकिन संविधान मुख्यतः ऐसी दो विधियों का उल्लेख करता है जहाँ सर्वोच्च न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है। यथा

  1. मूल अधिकारों की रक्षा करना: मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है।
  2. केन्द्र-राज्य या राज्यों के परस्पर विवाद को निपटारे के लिए: संघीय सम्बन्धों के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
  3. इसके अतिरिक्त संविधान यदि किसी बात पर मौन है या किसी शब्द या अनुच्छेद के विषय में अस्पष्टता है तो वह संविधान का अर्थों को स्पष्टीकरण हेतु इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत सर्वोच्च न्यायालय किसी कानून को गैर-संवैधानिक घोषित कर उसे लागू होने से रोक सकता है। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति राज्यों की विधायिका द्वारा बनाए कानूनों पर भी लागू होती है। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति द्वारा न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों की और संविधान की व्याख्या कर सकती है। इसके द्वारा न्यायपालिका प्रभावी ढंग से संविधान और नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करती है

न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग: जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति में विस्तार हुआ है।
1. मूल अधिकार के क्षेत्र में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का विस्तार:
उदाहरण के लिए बन्धुआ मजदूर, बाल-श्रमिक अपने शोषण के विरुद्ध अधिकार के उल्लंघन की याचिका स्वयं न्यायपालिका में दायर करने में सक्षम नहीं थे। परिणामतः न्यायालय द्वारा पहले इनके अधिकारों की रक्षा करना सम्भव नहीं हो पा रहा था।

लेकिन न्यायिक सक्रियता व जनहित याचिकाओं के माध्यम से न्यायालय में ऐसे केस दूसरे लोगों, स्वयंसेवी संस्थाओं ने उठाये या स्वयं न्यायालय ने अखबार में छपी घटनाओं के आधार पर स्वयं प्रसंज्ञान लेते हुए ऐसे मुद्दों पर विचार किया। इस प्रवृत्ति ने गरीब और पिछड़े वर्ग के लोगों के अधिकारों को अर्थपूर्ण बना दिया है।

2. कार्यपालिका के कृत्यों के विरुद्ध जाँच:
न्यायपालिका ने कार्यपालिका की राजनैतिक व्यवहार बर्ताव के प्रति संविधान के उल्लंघन की प्रवृत्ति पर भी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति द्वारा अंकुश लगाया है। इसी कारण जो विषय पहले न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में नहीं थे, उन्हें भी अब इस दायरे में ले लिया गया है, जैसे राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियाँ।

अनेक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश दिए हैं, जैसे हवाला मामले, पैट्रोल पम्पों के अवैध आबण्टन जैसे अनेक मामलों में न्यायालय ने सी.बी.आई. को निर्देश दिया कि वह राजनेताओं और नौकरशाहों के विरुद्ध जाँच करे।

3. संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धान्त का प्रतिपादन:
संविधान लागू होने के तुरन्त बाद सम्पत्ति के अधिकार पर रोक लगाने की संसद की शक्ति पर संसद और न्यायपालिका में विवाद खड़ा हो गया। संसद सम्पत्ति रखने के अधिकार पर कुछ प्रतिबन्ध लगाना चाहती थी जिससे भूमि सुधारों को लागू किया जा सके।

लेकिन न्यायालय ने न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के तहत यह निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती। संसद ने तब संविधान संशोधन कर ऐसा करने का प्रयास किया। लेकिन न्यायालय ने 1967 में गोलकनाथ विवाद में यह निर्णय दिया कि संविधान के संशोधन के द्वारा भी मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता।

फलतः संसद और न्यायपालिका के बीच यह मुद्दा केन्द्र में आया कि “संसद द्वारा संविधान संशोधनक शक्ति का दायरा क्या है।” इस मुद्दे का निपटारा सन् 1973 में केशवानन्द भारती के विवाद में सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से हुआ कि संविधान का एक मूल ढाँचा है और संसद उस मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती। संविधान संशोधन द्वारा भी इस मूल ढाँचे को नहीं बदला जा सकता तथा संविधान का मूल ढाँचा क्या है? यह निर्णय करने का अधिकार न्यायालय ने अपने पास रखा है।

इस प्रकार संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर न्यायपालिका ने अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति को व्यापक कर दिया है। साथ ही इस निर्णय में न्यायपालिका ने सम्पत्ति के अधिकार को संविधान का मूल ढाँचा नहीं माना है तथा संसद को उसमें संशोधन के अधिकार को स्वीकार कर लिया है।

न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का महत्त्व: न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।
1. लिखित संविधान की व्याख्या हेतु आवश्यक:
भारत का संविधान एक लिखित संविधान है। लिखित संविधान की शब्दावली कहीं-कहीं अस्पष्ट और उलझी हो सकती है। उसकी व्याख्या के लिए न्यायालय के पास उसकी व्याख्या की शक्ति आवश्यक है।

2. संघात्मक संविधान:
भारत का संविधान एक संघीय संविधान है जिसमें केन्द्र और राज्यों को संविधान द्वारा विभाजित किया गया है। लेकिन यदि केन्द्र और राज्य अपने क्षेत्रों विषयों की सीमाओं का उल्लंघन करें तो कार्य- संचालन मुश्किल हो जायेगा। इसलिए केन्द्र और राज्यों तथा राज्यों के बीच समय-समय पर उठने वाले विवादों का समाधान न्यायपालिका ही कर सकती है। इसलिए ऐसे विवादों के समाधान की दृष्टि से न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति अत्यन्त उपयोगी है।

3. संविधान व मूल अधिकारों की रक्षा:
न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की रक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इसी कार्य के तहत उसने ‘संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया है। साथ ही उसने समय समय पर नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा की है तथा ऐसे कानूनों को असंवैधानिक घोषित किया है जो मूल अधिकारों के विरुद्ध हैं। यही नहीं, न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के अन्तर्गत ही उसने नागरिकों के मूल अधिकारों को अर्थपूर्ण भी बनाया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

Jharkhand Board Class 11 Political Science स्थानीय शासन InText Questions and Answers

प्रश्न 1.
भारत का संविधान ग्राम पंचायत को स्व- शासन की इकाई के रूप में देखता है। नीचे कुछ स्थितियों का वर्णन किया गया है। इन पर विचार कीजिए और बताइये कि स्व- शासन की इकाई बनने के क्रम में ग्राम पंचायत के लिए ये स्थितियाँ सहायक हैं या बाधक?
(क) प्रदेश की सरकार ने एक बड़ी कंपनी को विशाल इस्पात संयंत्र लगाने की अनुमति दी है। इस्पात संयंत्र लगाने से बहुत-से गाँवों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। दुष्प्रभाव की चपेट में आने वाले गाँवों में से एक की ग्राम सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया कि क्षेत्र में कोई भी बड़ा उद्योग लगाने से पहले गांववासियों की राय ली जानी चाहिए और उनकी शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए।
(ख) सरकार का फैसला है कि उसके कुल खर्चे का 20 प्रतिशत पंचायतों के माध्यम से व्यय होगा। (ग) ग्राम पंचायत विद्यालय का भवन बनाने के लिए लगातार धन माँग रही है, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने मांग को यह कहकर ठुकरा दिया है कि धन का आबंटन कुछ दूसरी योजनाओं के लिए हुआ है और धन को अलग मद में खर्च नहीं किया जा सकता।
(घ) सरकार ने डूंगरपुर नामक गाँव को दो हिस्सों में बाँट दिया है और गाँव के एक हिस्से को जमुना तथा दूसरे को सोहना नाम दिया है। अब डूंगरपुर नामक गाँव सरकारी खाते में मौजूद नहीं है।
(ङ) एक ग्राम पंचायत ने पाया कि उसके इलाके में पानी के स्रोत तेजी से कम हो रहे हैं। ग्राम पंचायत ने फैसला किया कि गाँव के नौजवान श्रमदान करें और गाँव के पुराने तालाब तथा कुएँ को फिर से काम में आने लायक बनाएँ।
उत्तर:
(क) यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए सहायक है।
(ख) यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए सहायक है।
(ग) यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए बाधक है।”
(घ) यदि डूंगरपुर के दो हिस्से जमुना और सोहना अलग-अलग हैं किन्तु उनकी ग्राम पंचायत एक ही है तो कोई अन्तर नहीं पड़ता परन्तु यदि सरकार किसी ग्राम के दो हिस्से बनाती है और इसमें वहाँ की ग्राम पंचायत की सहमति नहीं ली जाती तो यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए बाधक है।
(ङ) यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए सहायक हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 2.
मान लीजिये कि आपको किसी प्रदेश की तरफ से स्थानीय शासन की कोई योजना बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ग्राम पंचायत स्व- शासन की इकाई के रूप में काम करे, इसके लिए आप उसे कौन-सी शक्तियाँ देना चाहेंगे? ऐसी पांच शक्तियों का उल्लेख करें और प्रत्येक शक्ति के बारे में दो-दो पंक्तियों में यह भी बताएँ कि ऐसा करना क्यों जरूरी है?
उत्तर:
ग्राम पंचायत स्थानीय स्वशासन की इकाई के रूप में कार्य करे, इसके लिए ग्राम पंचायत को निम्नलिखित शक्तियाँ देनी होंगी:
1. पर्याप्त वित्तीय संसाधन:
ग्राम पंचायत को पर्याप्त वित्तीय संसाधन प्राप्त होने चाहिए। उसे अपने स्तर पर कर लगाने की शक्ति प्राप्त होनी चाहिए ताकि ग्राम पंचायत वित्तीय स्तर पर आत्मनिर्भर हो सके।

2. धन खर्च करने का अधिकार:
पर्याप्त वित्तीय संसाधनों के साथ-साथ ग्राम पंचायत को उन्हें किस ढंग से खर्च करना है, इसका अधिकार भी होना चाहिए। इससे ग्राम पंचायत अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप खर्च कर सकेगी।

3. योजनाएँ बनाने का अधिकार:
ग्राम पंचायत को अपने स्तर पर ग्राम विकास के लिए योजनाएँ बनाने का अधिकार होना चाहिए।

4. शिक्षा तथा तकनीकी सम्बन्धी शक्तियाँ:
ग्राम पंचायत को प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर की शिक्षा, तकनीकी प्रशिक्षण तथा व्यावसायिक शिक्षा, वयस्क और अनौपचारिक शिक्षा की शक्ति प्रदान की जानी चाहिए जिससे ग्रामीण लोगों का मानसिक विकास हो। ग्राम पंचायतों को पुस्तकालय तथा वाचनालय खोलने की शक्ति प्रदान की जानी चाहिए। ऐसा करने से ग्रामीण नवयुवकों को आगे बढ़ने के अवसर प्राप्त होंगे; उनका पिछड़ापन दूर होगा तथा वे राष्ट्र की मुख्य धारा में सम्मिलित होकर अपनी उन्नति के अवसर खोज सकेंगे।

5. सरकारी हस्तक्षेप में कमी:
स्थानीय संस्थाओं को अपने कार्यों में अधिकाधिक सवतंत्रता मिलनी चाहिए और सरकारी हस्तक्षेप कम से कम होना चाहिए। इससे ग्राम पंचायत के प्रतिनिधियों में जिम्मेदारी की भावना पैदा होगी।

प्रश्न 3.
सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संविधान के 73वें संशोधन में आरक्षण के क्या प्रावधान हैं? इन प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व का खाका किस तरह बदला है?
उत्तर:
आरक्षण के प्रावधान सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संविधान के 73वें संशोधन में आरक्षण निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं।

  1. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण: पंचायत चुनावों के तीनों स्तरों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीट में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था अनुसूचित जाति और जनजाति की जनसंख्या के अनुपात में की गई है।
  2. महिलाओं के लिए आरक्षण: सभी पंचायती संस्थाओं में एक-तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। सिर्फ सामान्य श्रेणी की सीटों पर ही महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण नहीं दिया गया है बल्कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर भी महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण की व्यवस्था है।
  3. अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण: इस संविधान संशोधन में यह भी प्रावधान किया गया है कि यदि प्रदेश की सरकार जरूरी समझे, तो वह अन्य पिछड़ा वर्ग को भी सीट में आरक्षण दे सकती है।
  4. अध्यक्ष पद का आरक्षण: उपर्युक्त आरक्षण के प्रावधान मात्र साधारण सदस्यों की सीट तक सीमित नहीं हैं। तीनों ही स्तर पर अध्यक्ष पद तक आरक्षण दिया गया है।

आरक्षण के प्रावधान का प्रभाव इन आरक्षण के प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व का खाका निम्न रूप में परिवर्तित हुआ है।

  1. आरक्षण के उपर्युक्त प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व में सामाजिक स्तर पर काफी परिवर्तन आया है। ग्रामीण स्तर पर, इससे पूर्व जो शक्तियाँ सामाजिक रूप से ऊँचे लोगों को प्राप्त थीं, अब उनमें कमजोर वर्गों की भी भागीदारी हो गयी है तथा उनके निर्णयों में भी इन कमजोर वर्गों की भागीदारी हुई है, जिससे उच्च वर्ग अब अपनी मनमानी नहीं कर पाता।
  2. महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रावधान के कारण पंचायती राज्य स्वशासन के निकायों में महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी सुनिश्चित हुई है। आरक्षण का प्रावधान सरपंच और अध्यक्ष जैसे पदों के लिए भी है। इस कारण निर्वाचित महिला-जनप्रतिनिधियों की एक बड़ी संख्या अध्यक्ष और सरपंच जैसे पदों पर आसीन हुई है। आज कम से कम 200 महिलाएँ जिला पंचायतों की अध्यक्ष हैं। 2000 महिलाएँ प्रखंड या तालुका पंचायत की अध्यक्ष हैं और ग्राम पंचायतों में महिला सरपंचों की संख्या 80 हजार से ज्यादा है।
  3. संसाधनों पर अपने नियंत्रण की दावेदारी करके महिलाओं ने ज्यादा शक्ति और आत्मविश्वास अर्जित किया है तथा स्त्रियों की राजनीतिक समझ पैनी हुई है।

प्रश्न 4.
संविधान के 73वें संशोधन से पहले और संशोधन के बाद स्थानीय शासन के बीच मुख्य भेद बताएँ।
उत्तर:
संविधान के 73वें संशोधन के बाद आए बदलाव – संविधान के 73वें संशोधन से पहले और संशोधन के बाद आए प्रमुख भेद या बदलाव निम्नलिखित हैं।
1. त्रिस्तरीय व्यवस्था: 73वें संविधान संशोधन से पूर्व सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था एकसमान नहीं थी, लेकिन 73वें संविधान संशोधन के बाद अब सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढांचा त्रिस्तरीय।

  1. ग्राम स्तर या प्राथमिक स्तर पर ग्राम पंचायत
  2. खंड स्तर या मध्यवर्ती स्तर पर तालुका पंचायत या पंचायत समिति और
  3. जिला स्तर या उच्च स्तर पर जिला पंचायत है।

2. ग्राम सभा की अनिवार्यता: 73वें संविधान संशोधन से पहले ग्राम सभा की अनिवार्यता नहीं थी, लेकिन अब 73वें संविधान संशोधन में इस बात का प्रावधान किया गया है कि ग्राम सभा अनिवार्य रूप से बनायी जायेगी। पंचायती इलाके में मतदाता के रूप में दर्ज हर व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य होगा।

3. निर्वाचन: 73वें संविधान संशोधन से पूर्व मध्यवर्ती और जिला स्तरों पर प्रतिनिधियों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता था; लेकिन अब 73वें संविधान संशोधन के पश्चात् पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तरों का चुनाव सीधे जनता करती
है।

4. अवधि ( कार्यकाल): पहले पंचायत समिति का कार्यकाल सभी प्रदेशों में एकसमान नहीं था तथा एक निश्चित समय के पश्चात् चुनाव संवैधानिक रूप से अनिवार्य न होकर राज्यों की सरकारों की सुविधा पर निर्भर थे। लेकिन अब 73वें संविधान संशोधन के पश्चात् हर पंचायत निकाय की अवधि पांच साल की होती है। यदि प्रदेश की सरकार पांच साल पूरे होने से पहले पंचायत को भंग करती है, तो इसके छ: माह के अंदर नये चुनाव हो जाने चाहिए। 73वें संविधान संशोधन से पहले पंचायत संस्थाओं को भंग करने के बाद तत्काल चुनाव कराने के सम्बन्ध में कोई प्रावधान नहीं था।

5. आरक्षण: 73वें संविधान संशोधन में सभी पंचायती संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण सभी पदों पर दिया गया है, पहले यह व्यवस्था नहीं थी।

6. विषयों का स्थानान्तरण-संशोधन के बाद अब राज्य सूची के 29 विषय 11वीं अनुसूची में दर्ज कर लिये गए हैं। अनुच्छेद 243 (जी) पंचायतों की शक्ति, प्राधिकार और उत्तरदायित्व : के द्वारा यह प्रावधान किया गया है कि ” किसी प्रदेश की विधायिका कानून बनाकर ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज मामलों में पंचायतों को ऐसी शक्ति और प्राधिकार प्रदान कर सकती है।”

7. राज्य चुनाव आयुक्त: संशोधन के बाद अब प्रदेशों के लिए यह आवश्यक है कि एक राज्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करे जिसकी जिम्मेदारी पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने की होगी। पहले यह काम प्रदेश प्रशासन करता था,
जो प्रदेश की सरकार के अधीन होता है। लेकिन राज्य चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र अधिकारी है। वह प्रदेश की सरकार के अधीन नहीं है।

8. राज्य वित्त आयोग: संशोधन के बाद अब प्रदेशों के लिए हर पांच वर्ष बाद एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना जरूरी है। यह आयोग एक तरफ प्रदेश और दूसरी तरफ स्थानीय शासन की व्यवस्थाओं के बीच राजस्व के बँटवारे का पुनरावलोकन करेगा।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 5.
नीचे लिखी बातचीत पढ़ें। इस बातचीत में जो मुद्दे उठाये गए हैं, उसके बारे में अपना मत दो सौ शब्दों में लिखें।
आलोक: हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया गया है। स्थानीय निकायों में स्त्रियों को आरक्षण देने से सत्ता में उनकी बराबर की भागीदारी सुनिश्चित हुई है।
नेहा: लेकिन महिलाओं का सिर्फ सत्ता के पद पर काबिज होना ही काफी नहीं है। यह भी जरूरी है कि स्थानीय निकायों के बजट में महिलाओं के लिए अलग से प्रावधान हो।
जयेश: मुझे आरक्षण का यह गोरखधंधा पसंद नहीं। स्थानीय निकाय को चाहिए कि वह गाँव के सभी लोगों का ख्याल रखे और ऐसा करने पर महिलाओं और उनके हितों की देखभाल अपने आप हो जाएगी।
उत्तर:
उपर्युक्त बातचीत में महिलाओं के सशक्तिकरण सम्बन्धी मुद्दे उठाये गए हैं।
1. आरक्षण का मुद्दा; यद्यपि संविधान में स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया गया है। लेकिन व्यवहार में स्त्रियों को पुरुषों के समान शक्ति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। इसलिए स्त्रियों को सत्ता में भागीदार हेतु पुरुषों के समकक्ष लाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। 73वें और 74वें संविधान संशोधन द्वारा ग्रामीण व शहरी स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए निर्वाचित पदों का एक-तिहाई भाग आरक्षित किया गया है। इससे महिला सशक्तिकरण आंदोलन को बल मिला और संसद तथा राज्य विधानमंडलों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थान आरक्षित रखने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं।

2. वित्तीय निर्णयों में भागीदारी का मुद्दा: महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए महलाओं को केवल स्थानीय स्तर पर आरक्षण देना ही काफी नहीं है। उन्हें वित्तीय निर्णयों में भी भागीदारी मिलनी चाहिए या उन्हें वित्तीय निर्णयों में भी भागीदार होना चाहिए।

3. महिलाओं के विकास व कल्याण के लिए विशेष प्रयास: यद्यपि ग्राम पंचायत सभी वर्गों के विकास के लिए कार्य करती है तथापि महिलाओं के कल्याण हेतु विशेष प्रयास किए जाने चाहिए। इससे उनकी सामाजिक स्थिति सुधरेगी, उन्हें रोजगार मिलेगा और उनमें राजनैतिक व सामाजिक जागृति आयेगी।

प्रश्न 6.
73वें संशोधन के प्रावधानों को पढ़ें। यह संशोधन निम्नलिखित सरोकारों में से किससे ताल्लुक रखता है?
(क) पद से हटा दिये जाने का भय जन-प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।
(ख) भू-स्वामी, सामन्त और ताकतवर जातियों का स्थानीय निकायों में दबदबा रहता है।
(ग) ग्रामीण क्षेत्रों में निरक्षरता बहुत ज्यादा है। निरक्षर लोग गाँव के विकास के बारे में फैसला नहीं ले सकते हैं।
(घ) प्रभावकारी साबित होने के लिए ग्राम पंचायतों के पास ग्राम की विकास योजना बनाने की शक्ति और संसाधन का होना जरूरी है।
उत्तर:
(क) पद से हटा दिये जाने का भय जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।
73वें संविधान संशोधन के बाद से प्रत्येक 5 वर्ष के बाद पंचायत का चुनाव कराना अनिवार्य है। यदि राज्य सरकार 5 वर्ष पहले ही पंचायत को भंग कर देती है तो 6 माह के अन्दर चुनाव कराना अनिवार्य है। इस प्रकार चुनाव के भय के कारण प्रतिनिधि उत्तरदायी बने रहते हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं जनता चुनाव में उन्हें हरा न दे। उपर्युक्त सभी सरोकारों में से सबसे महत्त्वपूर्ण सरोकार जिससे यह संशोधन ताल्लुक रखता है, वह (क) भाग है। कि ‘पद से हटा दिये जाने का भय जन-प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।

प्रश्न 7.
नीचे स्थानीय शासन के पक्ष में कुछ तर्क दिये गये हैं। इन तर्कों को आप अपनी पसंद से वरीयता क्रम में सजाएँ और बताएँ कि किसी एक तर्क की अपेक्षा दूसरे को आपने ज्यादा महत्त्वपूर्ण क्यों माना है? आपके जानते बेंगैवसल गाँव की ग्राम पंचायत का फैसला निम्नलिखित कारणों से किस पर और कैसे आधारित था?
(क) सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है।
(ख) स्थानीय जनता द्वारा बनायी गयी विकास योजना सरकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गयी विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत होती है।
(ग) लोग अपने इलाके की जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।
(घ) आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जन-प्रतिनिधियों से सम्पर्क कर पाना मुश्किल होता है।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन के पक्ष में जो विभिन्न तर्क दिये गये हैं, उनके वरीयता क्रम निम्न प्रकार हैं।

  1. प्रथम वरीयता भाग (घ) को दी जायेगी क्योंकि आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जनप्रतिनिधियों से सम्पर्क कर पाना मुश्किल होता है। अतः वे स्थानीय शासन के प्रतिनिधियों से सीधे सम्पर्क में रहने के कारण अपनी समस्याओं की शिकायत करके उनसे शीघ्र समाधान करा सकते हैं।
  2. द्वितीय वरीयता भाग (ग) को दी जायेगी क्योंकि लोग अपने इलाके की जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।
  3. तीसरी वरीयता भाग (ख) को दी जायेगी कि स्थानीय जनता द्वारा बनाई गई विकास योजना सरकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गयी विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत होती है।
  4. चौथी वरीयता भाग (क) को दी जाएगी कि सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है।

वसल गांव की ग्राम पंचायत का फैसला इस तर्क पर आधारित था कि लोग अपने इलाके की जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं । सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए। बेंगैवसल गांव की जमीन पर उस गांव का ही हक रहा है। अपनी जमीन के साथ क्या करना है यह फैसला करने का अधिकार भी गांव के हाथ में होना चाहिए।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 8.
आपके अनुसार निम्नलिखित में कौन-सा विकेन्द्रीकरण का साधन है? शेष को विकेन्द्रीकरण के साधन के रूप में आप पर्याप्त विकल्प क्यों नहीं मानते?
(क) ग्राम पंचायत का चुनाव कराना।
(ख) गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन-सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है।
(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत।
(घ) प्रदेश सरकार ने ग्रामीण विकास की एक योजना चला रखी है। प्रखंड विकास अधिकारी ( बीडीओ ) ग्राम पंचायत के सामने एक रिपोर्ट पेश करता है कि इस योजना में कहाँ तक प्रगति हुई है।
उत्तर:
1. इस प्रश्न में दिये गए चारों कथनों (क), (ख) (ग) और (घ) में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विकेन्द्रीकरण का साधन है (ख)। इसमें कहा गया है कि ” गांव के निवासी खुद तय करें कि कौन-सी नीति और योजना गांव के लिए उपयोगी है। क्योंकि इसके अन्तर्गत गाँव के निवासियों को गांव के लिए नीति बनाने और योजना बनाने का अधिकार विकेन्द्रीकृत हुआ है।

आम नागरिक की समस्या और उसके दैनिक जीवन की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए ग्रामीण लोग ग्राम पंचायत के द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान करें। यह सत्ता का विकेन्द्रीकरण है। लोकतंत्र में सत्ता का विकेन्द्रीकरण स्थानीय लोगों की सत्ता में भागीदारी से ही हो सकता है।

2. अन्य तीनों कथन ( क, ग और घ) विकेन्द्रीकरण के साधन के रूप में पर्याप्त विकल्प नहीं हैं क्योंकि- (क) ग्राम पंचायत का चुनाव कराना – ग्राम पंचायत का चुनाव कराना एक प्रक्रिया है। यद्यपि यह स्थानीय स्वशासन का एक भाग है लेकिन इससे यह निर्धारित नहीं होता कि स्थानीय क्षेत्र की समस्याओं के निर्धारण के लिए नीति-निर्माण और योजना बनाने की शक्तियाँ उसे हस्तांतरित की गई हैं। 73वें संविधान संशोधन से पहले भारतीय ग्राम पंचायतों को ऐसी कोई शक्तियाँ प्रदान नहीं की गई थीं, लेकिन निर्वाचन होते थे। ऐसी स्थिति में केवल निर्वाचन ही विकेन्द्रीकरण का पर्याप्त विकल्प नहीं है।

(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत: ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत भी स्थानीय स्वशासन का एक भाग तो हो सकती है लेकिन यह विकेन्द्रीकरण का साधन होने का पर्याप्त विकल्प नहीं है क्योंकि यह बैठक तो उच्च अधिकारी भी बुला सकते हैं। जब तक गांव के निवासी गांव की समस्याओं के समाधान में योजना बनाने तथा नीति निर्माण में भागीदारी नहीं करते, तब तक ग्राम सभा विकेन्द्रीकरण का उपयुक्त विकल्प नहीं बन सकती।

(घ) प्रदेश की सरकार ने ग्रामीण विकास की एक योजना चला रखी है। प्रखंड विकास अधिकारी ग्राम पंचायत के सामने एक रिपोर्ट पेश करता है कि इस योजना में कहाँ तक प्रगति हुई है? यह कथन भी विकेन्द्रीकरण का पर्याप्त विकल्प नहीं है क्योंकि अमुक परियोजना के निर्माण में ग्राम पंचायत की कोई भागीदारी नहीं है और न उसके क्रियान्वयन में ही उसकी कोई भागीदारी है।

प्रश्न 9.
दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र प्राथमिक शिक्षा के निर्णय लेने में विकेन्द्रीकरण की भूमिका का अध्ययन करना चाहता था। उसने गांववासियों से कुछ सवाल पूछे। ये सवाल नीचे लिखे हैं। यदि गांववासियों में आप शामिल होते तो निम्नलिखित प्रश्नों के क्या उत्तर देते ? गाँव का हर बालक/बालिका विद्यालय जाए, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कौन-से कदम उठाए जाने चाहिए इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए ग्राम सभा की बैठक बुलायी जानी है।
(क) बैठक के लिए उचित दिन कौन-सा होगा, इसका फैसला आप कैसे करेंगे? सोचिए कि आपके चुने हुए दिन में कौन बैठक में आ सकता है और कौन नहीं?
(अ) खंड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
(ब) गांव का बाजार जिस दिन लगता है।
(स) रविवार।
(द) नागपंचमी संक्रान्ति।
(ख) बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा? कारण भी बताएँ।
(अ) जिला- कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह
(ब) गांव का कोई धार्मिक स्थान
(स) दलित मोहल्ला
(द) ऊँची जाति के लोगों का टोला
(य) गाँव का स्कूल।
(ग) ग्रामसभा की बैठक में पहले जिला समाहर्ता ( कलेक्टर) द्वारा भेजा गया परिपत्र पढ़ा गया।

परिपत्र में बताया गया था कि शैक्षिक रैली को आयोजित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएँ और रैली किस रास्ते होकर गुजरे। बैठक में उन बच्चों के बारे में चर्चा नहीं हुई जो कभी स्कूल नहीं आते। बैठक में बालिकाओं की शिक्षा के बारे में, विद्यालय भवन की दशा के बारे में और विद्यालय के खुलने बंद होने के समय के बारे में चर्चा नहीं हुई। बैठक रविवार के दिन हुई इसलिए कोई महिला शिक्षक इस बैठक में नहीं आ सकी। लोगों की भागीदारी के लिहाज से इसको आप अच्छा कहेंगे या बुरा? कारण भी बतायें।
(घ) अपनी कक्षा की कल्पना ग्राम सभा के रूप में करें। जिस मुद्दे पर बैठक में चर्चा होनी थी, उस पर कक्षा में बातचीत करें और लक्ष्य को पूरा करने के लिए कुछ सुझायें।
उत्तर:
(क) बैठक के लिए उचित दिन कौनसा होगा? इसका फैसला करने के लिए यह देखना होगा कि बैठक में अधिक से अधिक उपस्थिति किस दिन हो सकती है। जो दिन प्रश्न में सुझाये गये हैं, वे इस प्रकार हैं।
(अ) प्रखंड विकास अधिकारी या कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
(ब) जिस दिन गाँव का बाजार लगता है।
(स) रविवार।
(द) नागपंचमी/संक्रांति।

इन सब दिनों में रविवार का दिन सर्वाधिक उपयुक्त रहेगा क्योंकि इस दिन सभी लोग छुट्टी में होंगे और बैठक में सम्मिलित होने में उन्हें अधिक सुविधा होगी क्योंकि जिस दिन गांव का बाजार लगता है, उस दिन ग्रामीण अपनी खरीददारी करते हैं।

ऐसे में उपस्थिति कम रहेगी। नागपंचमी/संक्रांति पर्व पर बैठक बुलाने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि उस दिन ग्रामवासी अपना त्यौहार मनाने में संलग्न रहेंगे। कलेक्टर या प्रखंड विकास अधिकारी द्वारा तय किये गए दिन कोई भी उनकी सुविधा का कार्य दिवस होगा न कि ग्रामवासियों की सुविधा का।

(ख) बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा? इसके लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह है कि स्थान वह चुना जाये जहाँ अधिकतम ग्रामीण ग्रामसभा की बैठक में उपस्थित हो सकें। प्रश्न में सुझाये गये स्थान इस प्रकार हैं।
(अ) जिला कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह
(ब) गांव का धार्मिक स्थान
(स) दलित मोहल्ला
(द) ऊँची जाति के लोगों का टोला
(य) गांव का स्कूल।
उपर्युक्त सभी स्थानों में ग्रामीण स्कूल बैठक के लिए सबसे उपयुक्त स्थान होगा क्योंकि अन्य स्थानों पर सभी ग्रामीण इकट्ठा होने में एकमत नहीं होंगे।

(ग) लोगों की भागीदारी के लिहाज से बैठक की इस कार्यवाही में कोई कार्य जनता के हित में नहीं किया गया। कलेक्टर द्वारा भेजे गये परिपत्र में मुख्य समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि स्थानीय समस्यायें तो स्थानीय व्यक्तियों की भागीदारी से ही सुलझायी जा सकती हैं।
(घ) अपनी कक्षा को ग्राम सभा के रूप में कल्पना करते हुए सबसे पहले हम एक बैठक बुलाने की घोषणा करेंगे। बैठक का एजेण्डा इस प्रकार होगा।
(अ) उन बच्चों की समस्या पर चर्चा जो कभी स्कूल नहीं आते।
(ब) बालिकाओं की शिक्षा व उनकी समस्याओं के बारे में चर्चा।
(स) विद्यालय भवन की दशा के बारे में चर्चा।
(द) उपर्युक्त समस्याओं के निवारण के लिए धन की व्यवस्था पर विचार।
(य) सांस्कृतिक कार्यक्रमों को स्कूल में आयोजित कराने पर चर्चा।
(र) ग्राम प्रधान द्वारा समापन – भाषण।

लक्ष्य को पूरा करने के लिए निम्न उपाय सुझाये गए।

  1. शिक्षा के अधिकार को क्रियान्वित किया जाए तथा निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा हेतु सरकार को कदम उठाने चाहिए।
  2. प्राथमिक, माध्यमिक शिक्षा को ग्राम पंचायतों को सौंप दिया जाये ताकि शिक्षा के विकास में ग्रामीण लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।
  3. शिक्षा की जागृति हेतु रैलियाँ भी निकाली जायें तथा उन बच्चों के अभिभावकों को चिह्नित किया जाये जो अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज रहे हैं। उनसे सम्पर्क कर

उनकी समस्याओं पर ध्यान दिया जाये। इस सम्बन्ध में उनके द्वारा उठायी गयी शंकाओं का निवारण किया जाये तथा उन्हें शिक्षा-व्यवस्था में भागीदार बनाया जाये।

Jharkhand Board Class 11 Political Science स्थानीय शासन Textbook Questions and Answers

पृष्ठ 179

प्रश्न 1.
स्थानीय शासन लोकतंत्र को मजबूत बनाता है, कैसे?
उत्तर:
स्थानीय शासन लोकतंत्र को मजबूत बनाता हैं। लोकतंत्र का मतलब है: सार्थक भागीदारी तथा जवाबदेही। जीवन्त और मजबूत स्थानीय शासन सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही को सुनिश्चित करता है। स्थानीय शासन के स्तर पर आम नागरिक को उसके जीवन से जुड़े मसलों, जरूरतों और उसके विकास के बारे में फैसला लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है। लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि जो काम स्थानीय स्तर पर किये जा सकते हैं, वे स्थानीय लोगों और उनके प्रतिनिधियों के हाथ में रहने चाहिए। स्थानीय शासन का सम्बन्ध आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी से होता है। इसलिए उसके कार्यों से जनता का ज्यादा सरोकार होता है। इस प्रकार स्थानीय शासन लोकतंत्र को मजबूत बनाता है।

पृष्ठ 182

प्रश्न 2.
नेहरू और डॉ. अम्बेडकर, दोनों स्थानीय शासन के निकायों को लेकर खास उत्साहित नहीं थे। क्या स्थानीय शासन को लेकर उनकी आपत्तियाँ एक जैसी थीं?
उत्तर:
नेहरू और डॉ. अम्बेडकर, दोनों स्थानीय शासन के निकायों को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं थे। स्थानीय शासन के विरोध में दोनों के तर्क अलग-अलग थे। यथा:

  1. नेहरू अति: स्थानीयता को राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए खतरा मानते थे।
  2. डॉ. अंबेडकर का कहना था कि ग्रामीण भारत में जाति-पांति और आपसी फूट के माहौल में स्थानीय शासन अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पायेगा।
    इस प्रकार नेहरू जहाँ स्थानीय शासन का राष्ट्र की एकता और अखंडता की दृष्टि से विरोध करते थे, वहाँ डॉ. अम्बेडकर जाति-पांति और आपसी फूट के माहौल में उसे उचित नहीं मानते थे।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 3.
सन् 1992 से पहले स्थानीय शासन को लेकर संवैधानिक प्रावधान क्यों था?
उत्तर:

  1. सन् 1992 से पहले स्थानीय शासन का विषय प्रदेशों को सौंप दिया गया था। इसलिए इस पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों को था और राज्य सरकारों ने अपने-अपने ढंग से स्थानीय स्वशासन की अलग-अलग संस्थाएँ निर्मित की थीं।
  2. संविधान के नीति: निर्देशक सिद्धान्तों में भी स्थानीय शासन की चर्चा है। इसमें कहा गया है कि देश की हर सरकार अपनी नीति में इसे एक निर्देशक तत्त्व मानकर चले। राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का अंग होने के कारण संविधान का यह प्रावधान अदालती वाद के दायरे में नहीं आता और इसकी प्रकृति प्रधानतः सलाह-मशविरे की है।

स्थानीय शासन JAC Class 11 Political Science Notes

→ केन्द्रीय और प्रादेशिक स्तर पर निर्वाचित सरकार होने के साथ-साथ लोकतंत्र के लिए यह भी आवश्यक है कि स्थानीय स्तर पर स्थानीय मामलों की देखभाल करने वाली एक निश्चित सरकार हो।

→ स्थानीय शासन से आशय-गांव और जिला स्तर के शासन को स्थानीय शासन कहते हैं। यह आम आदमी के सबसे नजदीक का शासन है तथा इसका विषय है-आम नागरिक की समस्यायें और उनकी रोजमर्रा की जिंदगी। इसकी मान्यता है कि स्थानीय ज्ञान और स्थानीय हित लोकतांत्रिक फैसला लेने के अनिवार्य घटक हैं।

→ स्थानीय शासन का महत्त्व:

  • स्थानीय शासन से आम लोगों की समस्याओं का समाधान बहुत तेजी से तथा कम खर्चे में हो जाता है।
  • स्थानीय शासन लोगों के स्थानीय हितों की रक्षा में अत्यन्त कारगर होता है।
  • जीवन्त और मजबूत स्थानीय शासन सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही को सुनिश्चित करता है।
  • स्थानीय शासन को मजबूत करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत बनाने के समान है।

→ भारत में स्थानीय शासन का विकास:

  • प्राचीन भारत में स्थानीय शासन प्राचीन भारत में ‘सभा’ के रूप में स्थानीय शासन था। समय बीतने के साथ गांव की इन सभाओं ने पंचायत का रूप ले लिया। समय बदलने के साथ-साथ पंचायतों की भूमिका और काम भी बदलते रहे।
  • स्वतंत्रता से पूर्व आधुनिक भारत में स्थानीय शासन का विकास: आधुनिक समय में, भारत में स्थानीय शासन के निर्वाचित निकाय सन् 1882 के बाद अस्तित्व में आए। यथा
    • लार्ड रिपन ने इन निकायों – मुकामी बोर्डों (Local Boards ): को बनाने की दिशा में पहलकदमी की।
    • इसके बाद 1919 के भारत शासन अधिनियम के बाद अनेक प्रान्तों में ग्राम पंचायतें बनीं। 1935 के एक्ट के बाद भी यह प्रवृत्ति जारी रही।
    • भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी ने आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण के तहत ग्राम पंचायतों को मजबूत बनाने पर बल दिया।
  • भारतीय संविधान में स्थानीय स्वशासन- जब संविधान बना तो स्थानीय स्वशासन का विषय प्रदेशों को सौंप दिया गया। इस प्रकार संविधान में स्थानीय स्वशासन को यथोचित महत्त्व नहीं मिल सका।
  • स्वतंत्र भारत में स्थानीय स्वशासन- संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के बाद स्थानीय शासन को मजबूत आधार मिला।

→ इससे पहले इस सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रयास किये गयें।

  • 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू किया गया।
  • ग्रामीण इलाकों के लिए त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की गई। गुजरात, महाराष्ट्र ने 1960 में निर्वाचन द्वारा बने स्थानीय निकायों की प्रणाली अपनायी। कई प्रदेशों में स्थानीय निकायों के चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से हुए। अनेक प्रदेशों में स्थानीय निकायों के चुनाव समय-समय पर स्थगित होते रहे। ये निकाय वित्तीय मदद के लिए प्रदेश तथा केन्द्रीय सरकार पर बहुत ज्यादा निर्भर थे।
  • सन् 1989 में पी. के. थुंगन समिति ने स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफारिश की और सन् 1992 में संविधान के 73वें तथा 74वें संशोधन को संसद ने पारित कर स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया।
  • 73वां संविधान संशोधन संविधान का 73वां संविधान संशोधन स्थानीय शासन से जुड़ा है।

→ 73वें संविधान संशोधन के पश्चात् ग्रामीण क्षेत्र में पंचायती राज व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं;

  • त्रिस्तरीय बनावट:
  • ग्राम पंचायत (प्राथमिक स्तर)
  • पंचायत समिति ( मध्यवर्ती स्तर- खंड या तालुका स्तर)
  • जिला पंचायत ( जिला स्तर)

संविधान के 73वें संशोधन में ‘ग्राम सभा’ को भी संवैधानिक महत्त्व दिया गया हैं।

→ चुनाव: पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तर के चुनाव सीधे जनता – ‘पांच साल’ के लिए करती है।

→  आरक्षण: सभी पंचायती संस्थाओं में एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। तीनों स्तर पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीट में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था इन जातियों के जनसंख्या के अनुपात में की गई है। यदि प्रदेश की सरकार आवश्यक समझे तो वह अन्य पिछड़ा वर्ग को भी सीट में आरक्षण दे सकती हैं। तीनों ही स्तर पर अध्यक्ष पद तक आरक्षण दिया गया है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

→  विषयों का स्थानान्तरण: ऐसे 29 विषय जो पहले राज्य सूची में थे, अब पहचान कर संविधान की 11वीं अनुसूची में दर्ज कर लिए गए हैं जिन्हें पंचायती राज संस्थाओं को हस्तांतरित किया जाना है। इन कार्यों का वास्तविक हस्तांतरण प्रदेश के कानून पर निर्भर है। हर प्रदेश यह फैसला करेगा कि इन 29 विषयों में से कितने को स्थानीय निकायों के हवाले करना है।

→ राज्य चुनाव आयुक्त: प्रदेश एक राज्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करेगा जिसकी जिम्मेदारी पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने की होगी। यह चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र अधिकारी होता है। उसका संबंध भारत के चुनाव आयोग से नहीं होता।

→  राज वित्त आयोग: प्रदेशों की सरकार हर पांच वर्ष के लिए एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनायेगी, जो स्थानीय शासन संस्थाओं की आर्थिक स्थिति का जायजा लेगा तथा राजस्व के बंटवारे की समीक्षा करेगा। इस पहल के द्वारा यह सुनिश्चित किया गया है कि ग्रामीण स्थानीय शासन को धन आबंटित करना राजनीतिक मसला न बने।

→ 74वां संविधान संशोधन
संविधान के 74वें संशोधन का सम्बन्ध शहरी स्थानीय शासन के निकाय अर्थात् नगरपालिका से है । सन् 2011 की जनगणना के अनुसार 31 प्रतिशत जनसंख्या शहरी इलाके में रहती है। 73वें संशोधन के सभी प्रावधान, जैसे— प्रत्यक्ष चुनाव, आरक्षण, विषयों का हस्तांतरण, प्रादेशिक चुनाव आयुक्त और प्रादेशिक वित्त आयोग 74वें संशोधन में शामिल हैं तथा नगरपालिकाओं पर लागू हैं। संशोधन के अन्तर्गत इस बात को अनिवार्य बना दिया गया है कि प्रदेश की सरकार 11वीं अनुसूची में दिये गये कार्यों को करने की जिम्मेदारी शहरी स्थानीय शासन- संस्थाओं पर छोड़ दे।

→ 73वें तथा 74वें संशोधन का क्रियान्वयन
अब सभी प्रदेशों ने 73वें तथा 74वें संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए कानून बना दिये हैं तथा उन्हें क्रियान्वित कर दिया है। यथा

  • लगभग सभी प्रदेशों में स्थानीय संस्थाओं के चुनाव हो रहे हैं। हर पांच वर्ष पर इन निकायों के लिए 32 लाख सदस्यों का निर्वाचन होता है। इस प्रकार स्थानीय निकायों के चुनावों के कारण निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है।
  • आरक्षण के प्रावधान के कारण स्थानीय निकायों में महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी सुनिश्चित हुई है। संसाधनों पर अपने नियंत्रण की दावेदारी करके महिलाओं ने ज्यादा शक्ति और आत्मविश्वास अर्जित किया अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण को संविधान संशोधन ने ही अनिवार्य बना दिया है। इसके साथ ही अधिकांश प्रदेशों ने पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण का प्रावधान बनाया है।
  • संविधान के संशोधन ने 29 विषयों को स्थानीय शासन के हवाले किया है। लेकिन अनेक प्रदेशों ने अधिकांश विषय स्थानीय निकायों को नहीं सौंपे हैं।
  • स्थानीय निकाय प्रदेश और केन्द्र की सरकार पर वित्तीय मदद के लिए निर्भर हैं।