JAC Class 12 History Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

Jharkhand Board JAC Class 12 History Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान Important Questions and Answers.

JAC Board Class 12 History Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

1. 1857 के विद्रोह का प्रारम्भ हुआ –
(क) मेरठ से
(ग) कलकत्ता से
(ख) बरेली से
(घ) दिल्ली से
उत्तर:
(क) मेरठ से

2. 1857 के विद्रोह के प्रारम्भ की तारीख थी –
(क) 15 मई
(ख) 13 मई
(ग) 10 मई
(घ) 31 मई
उत्तर:
(ग) 10 मई

3. दिल्ली पहुँचकर सिपाहियों ने अपना नेता घोषित किया –
(क) बहादुरशाह जफर को
(ख) रानी लक्ष्मीबाई को
(ग) नाना धुन्धुपन्त को
(घ) बेगम हजरत महल को
उत्तर:
(क) बहादुरशाह जफर को

4. ‘फिरंगी’ शब्द जिस भाषा का है, वह है –
(क) अरब
(ख) फारसी
(ग) उर्दू
(घ) हिन्दी
उत्तर:
(ख) फारसी

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5. 1857 के विद्रोह के समय उत्तर प्रदेश के बड़ौत परगने संगठित करने वाला नेता था –
(क) भूरामल
(ख) शाहमल
(ग) पीरामल
(घ) लादूमल
उत्तर:
(ख) शाहमल

6. छोटा नागपुर में कोल आदिवासियों का नेता था –
(क) गोनू
(ख) सिन्धू
(ग) मोनू
(घ) भीकू
उत्तर:
(क) गोनू

7. जिस राइफल के कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी लगी होने की चर्चा थी, वह थी –
(क) 303 राइफल
(ख) एनफील्ड राइफल
(ग) एस. एल. राइफल
(घ) ए.के. 47 राइफल
उत्तर:
(ख) एनफील्ड राइफल

8. 1857 के विद्रोह के समय भारत में अंग्रेज गवर्नर जनरल था –
(ख) लॉर्ड रिपन
(क) लॉर्ड डलहौजी
(ग) लॉर्ड केनिंग
(घ) लॉर्ड वेलेजली
उत्तर:
(ग) लॉर्ड केनिंग

9. सतीप्रथा को अवैध घोषित करने वाला कानून बना थी
(क) 1828 में
(ख) 1829 में
(ग) 1835 में
(घ) 1827 में
उत्तर:
(ख) 1829 में

10. ” ये गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” यह कहना था –
(क) लॉर्ड विलियम बैंटिक का
(ख) लॉर्ड डलहौजी का
(ग) लॉर्ड केनिंग का
(घ) लॉर्ड मुनरो का
उत्तर:
(ख) लॉर्ड डलहौजी का

11. 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण था-
(क) चर्बी वाले कारतूस
(ख) वेलेजली की सहायक सन्धि
(ग) ईसाई धर्म प्रचारक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) चर्बी वाले कारतूस

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12. कानपुर में विद्रोहियों का नेतृत्व किसने किया?
(क) नाना साहिब
(ख) तांत्या टोपे
(ग) रानी लक्ष्मीबाई
(घ) वाजिद अली
उत्तर:
(क) नाना साहिब

13. जमदार कुँवर सिंह का सम्बन्ध था –
(क) बरेली से
(ख) अजमेर से
(ग) आरा से
(घ) कलकत्ता से
उत्तर:
(ग) आरा से

14. एनफील्ड राइफलों का सर्वप्रथम प्रयोग किस गवर्नर जनरल ने प्रारम्भ किया?
(क) लॉर्ड हार्डिंग
(ग) लॉर्ड डलहौजी
(ख) लॉर्ड वेलेजली
(घ) हेनरी हार्डिंग
उत्तर:
(घ) हेनरी हार्डिंग

15. किस अंग्रेज गवर्नर जनरल ने सहायक सन्धि प्रारम्भ कौ ?
(क) लॉर्ड डलहौजी
(ख) लॉर्ड केनिंग
(ग) लॉर्ड क्लाइव
(घ) लॉर्ड वेलेजली
उत्तर:
(घ) लॉर्ड वेलेजली

16. अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से हटाकर कहाँ निष्कासित किया गया था ?
(क) कलकत्ता
(ख) बम्बई
(ग) रंगून
(घ) जयपुर
उत्तर:
(क) कलकत्ता

17. बंगाल आर्मी की पौधशाला कहा जाता था –
(क) कानपुर को
(ख) अवध को
(ग) अहमदाबाद को
(घ) अजमेर को
उत्तर:
(ख) अवध को

18. ‘रिलीफ ऑफ लखनऊ’ का चित्रकार कौन था?
(क) फेलिस विएतो
(ख) टॉमस जोन्स बार्कर
(ग) जोजेफ
(घ) पंच
उत्तर:
(ख) टॉमस जोन्स बार्कर

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19. किस भारतीय लेखिका ने यह कविता लिखी- “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।”
(क) रानी लक्ष्मीबाई
(ख) महादेवी वर्मा
(ग) सुभद्रा कुमारी चौहान
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) सुभद्रा कुमारी चौहान

20. विद्रोह के दौरान अवध मिलिट्री पुलिस के कैप्टेन कौन थे?
(क) कैप्टेन हियसें
(ख) नाना साहिब
(ग) शाह मल
(घ) हेनरी लॉरेंस
उत्तर:
(क) कैप्टेन हियसे

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

1. ……………….. “की दोपहर बाद मेरठ छावनी में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया।
2. फिरंगी, फारसी भाषा का शब्द है जो ……………. शब्द से निकला है।
3. फ्रांस्वा सिस्टन ………………. के देसी ईसाई इंस्पेक्टर थे।
4. 1858 के अन्त में विद्रोह विफल होने के पश्चात् नाना साहिब भागकर …………… चले गए थे।
6. मौलवी …………… 1857 के विद्रोह में अहम भूमिका निभाने वाले बहुत सारे मौलवियों में से एक थे।
7. स्थानीय स्तर पर राजा कहलाने वाले शाहमल ने एक अंग्रेज अफसर के बंगले में डेरा डाला, उसे …………… का नाम दिया गया।
8. गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि को …………… कहा जाता था।
9. लॉर्ड वेलेजली द्वारा तैयार की गई सहायक सन्धि को अवध में ……………से लागू कर दी गई थी।
10. ताल्लुकदारों के रवैये को रायबरेली के पास स्थित …………… के राजा हनवन्त सिंह ने सबसे अच्छी तरह व्यक्त किया था।
11. ………….को बंगाल आर्मी की पौधशाला की संज्ञा दी गई थी।
12. …………… के चित्रकार जोजेफ नोएल पेटन हैं।
13. लखनऊ में विद्रोह की शुरुआत …………… मई को हुई थी।
उत्तर:
1. 10 मई, 1857
2. फ्रैंक
3. सीतापुर
4. नेपाल
5. पेशवा बाजीराव द्वितीय
6. अहमदुल्ला शाह
7. न्याय भवन
8. रेजीडेंट
9.1801
10. कालाकंकर
11. अवध
12. इन मेमोरियम
13. 30

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
झाँसी में 1857 के विद्रोह का नेतृत्व किसने किया?
उत्तर:
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने

प्रश्न 2.
1857 के विद्रोह के समय मुगल बादशाह कौन था?
उत्तर:
बहादुरशाह जफर

प्रश्न 3.
अवध पर कब्जे में अंग्रेजों की दिलचस्पी क्यों थी?
उत्तर:
(1) अवध की जमीन कपास तथा नील की खेती हेतु अत्यधिक उपयुक्त थी।
(2) यह उत्तरी भारत का बाजार बन सकता था।

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प्रश्न 4.
1857 के विद्रोह के संदर्भ में इंग्लैण्ड और भारत में छपी तस्वीरों से दोनों देशों के लोगों में उत्पन्न संवेदनाओं की संक्षेप में तुलना कीजिए।
उत्तर:
ब्रिटेन के लोग विद्रोहियों को कुचलने की माँग कर रहे थे ये तस्वीरें भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना जगा रही थीं।

प्रश्न 5.
1857 के विद्रोह के समय भारत में मुगल सम्राट कौन थे?
उत्तर:
बहादुरशाह जफर।

प्रश्न 6.
ब्रिटिश अधिकारियों ने 1857 के विद्रोह को किस रूप में देखा ?
उत्तर:
सैनिक विद्रोह के रूप में।

प्रश्न 7.
दिल्ली पर विद्रोहियों के कब्जे का विद्रोह पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर:
दिल्ली पर विद्रोहियों के कब्जे के समाचार ने गंगा घाटी की छावनियों एवं दिल्ली के पश्चिम की कुछ छावनियों में विद्रोह को तीव्रता प्रदान की।

प्रश्न 8.
1857 के विद्रोह में साहूकार व अमीर लोग विद्रोहियों के क्रोध का शिकार क्यों बने?
उत्तर:
क्योंकि विद्रोही साहूकारों व अमीर लोगों को किसानों का उत्पीड़क व अंग्रेजों का पिट्ठू मानते थे।

प्रश्न 9.
लखनऊ में ब्रिटिश राज के ढहने की खबर पर लोगों ने किसे अपना नेता घोषित किया?
उत्तर:
नवाब वाजिद अली शाह के युवा बेटे बिरजिस कद्र को।

प्रश्न 10.
गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि को क्या कहा जाता था?
उत्तर:
रेजीडेंट।

प्रश्न 11.
सहायक संधि कब तैयार की गई थी?
उत्तर:
सहायक संधि 1798 में तैयार की गई थी।

प्रश्न 12.
अवध की रियासत को किस सन् में औपचारिक रूप से ब्रिटिश साम्राज्य का अंग घोषित किया गया ?
उत्तर:
सन् 1856 में।

प्रश्न 13.
अवध के अधिग्रहण के बाद 1856 में कौनसी ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था लागू की गई थी?
उत्तर:
एकमुश्त बन्दोबस्त नामक भू-राजस्व व्यवस्था।

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प्रश्न 14.
अवध जैसे जिन इलाकों में 1852 के दौरान प्रतिरोध बेहद सघन और लम्बा चला था, वहाँ लड़ाई की बागडोर किनके हाथों में थी?
उत्तर:
ताल्लुकदारों और उनके किसानों के हाथों में।

प्रश्न 15.
विद्रोहियों के बारे में अंग्रेजों की क्या राय थी?
उत्तर:
वे विद्रोहियों को एहसान फरामोश और बर्बर मानते थे।

प्रश्न 16.
विद्रोहियों ने दिल्ली पर अधिकार कब किया?
उत्तर:
11 मई, 1857 को

प्रश्न 17.
1857 के विद्रोह का सूत्रपात कब हुआ और कहाँ से हुआ?
उत्तर:
(1) 10 मई, 1857 को
(2) मेरठ से

प्रश्न 18.
1857 के विद्रोह का नेतृत्व करने वाले चार नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) बहादुर शाह जफर
(2) नाना साहिब
(3) रानी लक्ष्मी बाई
(4) कुंवर सिंह

प्रश्न 19.
उत्तर प्रदेश के बड़ौत परगने में अंग्रेजों के विरुद्ध लोगों को विद्रोह करने के लिए किसने संगठित किया? वह किस कुटुम्ब से सम्बन्धित था?
उत्तर:
(1) शाहमल ने
(2) जाट कुटुम्ब से

प्रश्न 20.
1857 के विद्रोह से पूर्व भारतीय सैनिकों को कौनसी राइफलें दी गई थीं?
उत्तर:
एनफील्ड राइफल।

प्रश्न 21.
भारतीय सैनिकों ने किस अफवाह से प्रेरित होकर एनफील्ड राइफलों के कारतूसों का प्रयोग करने से क्यों इनकार कर दिया था ?
उत्तर:
इन कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी लगी हुई थी।

प्रश्न 22.
अंग्रेजों ने 1857 के विद्रोह से पूर्व गोद लेने को अवैध घोषित कर अनेक रियासतों पर अधिकार कर लिया था। ऐसी किन्हीं तीन रियासतों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) झांसी
(2) सतारा
(3) नागपुर।

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प्रश्न 23.
अंग्रेजों ने अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से हटा कर कहाँ निष्कासित कर दिया था ?
उत्तर:
कलकत्ता ।

प्रश्न 24.
“देह से जान जा चुकी थी, शहर की काया बेजान थी।” इस प्रकार का शोक और विलाप किस घटना पर किया जा रहा था?
उत्तर:
अवध के नवाब वाजिद अली शाह के कलकत्ता निष्कासन पर।

प्रश्न 25.
सामान्यतः विद्रोह का सन्देश किनके द्वारा फैल रहा था?
उत्तर:
सामान्यतः विद्रोह का सन्देश आम पुरुषों, महिलाओं एवं धार्मिक लोगों के माध्यम से फैल रहा था।

प्रश्न 26.
अवध के अधिग्रहण के बाद विद्रोहियों ने किसके नेतृत्व में अंग्रेजों का प्रतिरोध किया ?
उत्तर:
बेगम हजरत महल।

प्रश्न 27.
‘ बंगाल आर्मी की पौधशाला’ किस राज्य को कहा जाता था?
उत्तर:
अवध को ।

प्रश्न 28.
आजमगढ़ घोषणा किसके द्वारा जारी की गई थी और कब?
उत्तर:
(1) बहादुरशाह जफर के द्वारा
(2). 25 अगस्त, 1857 को

प्रश्न 29.
किस राज्य में अंग्रेजों के विरुद्ध प्रतिरोध सबसे लम्बा चला?
उत्तर:
अवध में।

प्रश्न 30.
1857 के विद्रोह को किस रूप में याद किया जाता है?
उत्तर:
भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के रूप में।

प्रश्न 31.
‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसीवाली रानी थी’ यह कविता किसने लिखी?
उत्तर:
सुभद्रा कुमारी चौहान ने

प्रश्न 32.
1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण क्या था?
उत्तर:
सैनिकों द्वारा गाव और सुअर की चर्बी लगे कारतूसों का विरोध

प्रश्न 33.
विद्रोहियों ने अंग्रेजों के अतिरिक्त साहूकारों और अमीरों पर हमला क्यों किया?
उत्तर:
क्योंकि वे इन्हें अपना शोषणकर्ता, उत्पीड़क होने के साथ अंग्रेजों का वफादार तथा पिट्टू मानते थे।

प्रश्न 34.
मौलवी अहमदुल्ला शाह के बारे में लोगों की क्या धारणा थी?
उत्तर:
लोगों की यह राय थी कि उनके पास कई जादुई ताकतें हैं।

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प्रश्न 35.
चिनहट की लड़ाई में किसकी हार हुई ?
उत्तर:
अंग्रेज सेनापति हेनरी लारेंस की।

प्रश्न 36.
सिंहभूम कहाँ है? इसमें किसानों का नेतृत्व किसने किया?
उत्तर:
सिंहभूम वर्तमान में झारखण्ड में है। वहाँ किसानों का नेतृत्व गोनू ने किया था।

प्रश्न 37.
सैनिकों के साजो-सामान के आधुनिकीकरण का प्रयास किसने किया और इसका क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
(1) गवर्नर जनरल हार्डिंग ने
(2) उसने एनफील्ड राइफलों का प्रयोग शुरू किया।

प्रश्न 38.
अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में कब व किसने मिलाया ?
उत्तर:
अवध को 1856 ई. में लार्ड डलहौजी ने ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया।

प्रश्न 39.
अवध के अधिग्रहण का वहाँ की जनता पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
अवध के अधिग्रहण से वहाँ की जनता अंग्रेजों के विरुद्ध हो गई क्योंकि बहुत से लोग बेरोजगार हो गए।

प्रश्न 40.
अवध के अधिग्रहण का वहाँ के ताल्लुकदारों पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर:
अंग्रेजों ने अनेक ताल्लुकदारों की जमीनें छीन लीं, उनकी सेनाएँ भंग कर दी और उनके किले नष्ट कर दिए।

प्रश्न 41.
रंग बाग का निर्माण किसने करवाया ?
उत्तर:
नवाब वाजिद अली शाह ने

प्रश्न 42.
जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति किस बात पर क्रोध था?
उत्तर:
अंग्रेजों ने अनेक भू-स्वामियों की जमीनें छीन लीं तथा घरेलू उद्योगों को नष्ट कर दिया।

प्रश्न 43.
विद्रोहियों की उद्घोषणाएँ किस डर को व्यक्त कर रही थीं?
उत्तर:
ब्रिटिश सत्ता हिन्दू और मुसलमानों की जाति और धर्म को नष्ट करके उन्हें ईसाई बनाने पर तुली थी।

प्रश्न 44.
विद्रोह को दबाने के लिए उत्तर भारत में अंग्रेजों ने क्या कार्यवाही की ?
उत्तर:
विद्रोह को दबाने के लिए कई पूरे उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया।

प्रश्न 45.
दिल्ली पर कब्जा करने में अंग्रेजों को कब सफलता मिल पाई ?
उत्तर:
दिल्ली पर दो तरफ से हमले किए गए। अंग्रेजों को दिल्ली पर पुनः कब्जा करने में सितम्बर, 1857 में सफलता मिली।

प्रश्न 46.
अवध के विद्रोह दमन के बारे में फॉरसिथ के विचार लिखिए।
उत्तर:
अवध में फॉरसिथ का यह अनुमान था कि अवध की तीन-चौथाई वयस्क पुरुष आबादी युद्ध में लगी हुई थी।

प्रश्न 47.
1857 के विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों द्वारा उठाए गए कोई दो कदम बताइये ।
उत्तर:
(1) सम्पूर्ण उत्तर भारत में मार्शल ला लागू कर दिया गया।
(2) ब्रिटेन से नई सैनिक टुकड़ियाँ मंगाई गई।

प्रश्न 48.
विद्रोह के दौरान अंग्रेजों ने दहशत फैलाने के लिए क्या किया?
उत्तर:
अंग्रेजों द्वारा विद्रोहियों को तोप के मुँह से बाँध कर उड़ाया गया या सरेआम फाँसी पर लटकाया गया।

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प्रश्न 49.
ब्रिटिश अखबारों तथा पत्रिकाओं ने विद्रोह के बारे में क्या लिखा?
उत्तर:
ब्रिटिश अखबारों तथा पत्रिकाओं में विद्रोही सैनिकों द्वारा की गई हिंसा को बड़े लोमहर्षक शब्दों में छापा गया।

प्रश्न 50.
लखनऊ रेजीडेन्सी की रक्षा अंग्रेजों ने कैसे की?
उत्तर:
जेम्स आट्रम तथा हेनरी हेवलॉक ने वहाँ पहुँचकर विद्रोहियों को तितर-बितर किया और कैम्पबेल ने ब्रिटिश सेना को घेरे से छुड़ाया।

प्रश्न 51.
इन मेमोरियम’ चित्र का चित्रकार कौन था?
उत्तर:
‘इन मेमोरियम’ चित्र का चित्रकार जोजेफ नोएल पेटन था।

प्रश्न 52.
फिरंगी कौन थे?
उत्तर:
पश्चिमी लोगों को फिरंगी कहा जाता था।

प्रश्न 53.
विद्रोही ब्रिटिश राज को किस नाम से पुकारते थे?
उत्तर:
फिरंगी राज।

प्रश्न 54.
विद्रोहियों द्वारा स्थापित शासन संरचना का प्राथमिक उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
बुद्ध की जरूरतों को पूरा करना।

प्रश्न 55.
किस भविष्यवाणी से विद्रोहियों को विद्रोह करने के लिए प्रोत्साहन मिला?
उत्तर:
प्लासी युद्ध के बाद 100 वर्ष पूरा होते ही 23 जून, 1857 को ब्रिटिश शासन समाप्त हो जाने की भविष्यवाणी से।

प्रश्न 56.
लार्ड विलियम बैंटिक के किन सामाजिक सुधारों से भारतीयों में असन्तोष व्याप्त था ?
उत्तर:
लार्ड विलियम बैंटिक ने सती प्रथा को समाप्त करने तथा हिन्दू विधवा विवाह को वैधता देने हेतु कानून बनाए थे।

प्रश्न 57.
रेजीडेन्ट को किस राज्य में तैनात किया जाता था?
उत्तर:
रेजीडेन्ट को ऐसे राज्य में तैनात किया जाता था जो अंग्रेजों के प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत नहीं था।

प्रश्न 58.
“ये गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” यह कथन किसका था और किस रियासत के बारे में था?
उत्तर:
(1) यह कथन लार्ड डलहौजी का था।
(2) यह अवध की रियासत के बारे में था।

प्रश्न 59.
अंग्रेजों ने अवध के किस नवाब को क्या आरोप लगाकर गद्दी से हटाया था?
उत्तर:
अंग्रेजों ने वाजिद अली शाह को यह कहकर गद्दी से हटाया कि वह अच्छी तरह शासन नहीं चला रहे थे।

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प्रश्न 60.
ब्रिटिश प्रेस में गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग की किस घोषणा का मजाक उड़ाया गया ?
उत्तर:
फेनिंग की घोषणा का मजाक उड़ाया गया कि नमीं और दयाभाव से सैनिकों की वफादारी प्राप्त करने में मदद मिलेगी।

प्रश्न 61.
सहायक सन्धि किसके द्वारा तैयार की गई थी?
उत्तर:
सहायक सन्धि लार्ड वेलेजली के द्वारा तैया की गई थी।

प्रश्न 62.
अवध को किसने ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित किया था?
उत्तर:
लार्ड डलहौजी ने।

प्रश्न 63.
मौलवी अहमदुल्ला शाह कौन थे ?
उत्तर:
मौलवी अहमदुल्ला शाह ने 1857 के विद्रोह के लिए लोगों को संगठित किया और चिनहट के अंग्रेजों को परास्त किया।

प्रश्न 64.
1857 के विद्रोह के लिए लोगों को संगठित करने वाले दो विद्रोही नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) शाहमल
(2) मौलवी अहमदुल्ला शाह।

प्रश्न 65.
1857 के विद्रोह से पूर्व लोगों में फैली हुई दो अफवाहों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) गाय और सुअर की चर्बी लगे हुए कारतूसों का प्रचलन
(2) सैनिकों के आटे में गाय और सुअर की हड्डियों का चूरा मिलाना।

प्रश्न 66.
रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु कब व कैसे हुई ?
उत्तर:
अंग्रेजों से लड़ते हुए जून, 1858 में रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु हुई।

प्रश्न 67.
अवध के ताल्लुकदारों में व्याप्त असन्तोष के दो कारण बताइये।
उत्तर:
(1) तालुकदारों को उनकी जमीनों से बेदखल करना
(2) उनकी सेनाओं को भंग करना।

प्रश्न 68.
1857 की क्रान्ति एक सैनिक विद्रोह था अथवा स्वतन्त्रता संग्राम? अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए।
उत्तर:
1857 ई. की क्रान्ति स्पष्ट रूप से एक स्वतन्त्रता संग्राम था क्योंकि इस क्रान्ति में प्रत्येक धर्म, जाति और समूह के लोगों ने भाग लिया था।

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प्रश्न 69.
अवध में लार्ड वेलेजली द्वारा सहायक सन्धि कब लागू की गई ?
उत्तर:
1801 ई. में।

प्रश्न 70.
लखनऊ रेजीडेन्सी के घेरे में विद्रोहियों द्वारा लखनऊ का कौनसा कमिश्नर मारा गया?
उत्तर:
सर हेनरी लारेन्स।

प्रश्न 71.
किन अंग्रेज अधिकारियों ने लखनऊ रेजीडेन्सी का घेरा डालने वाले विद्रोहियों को परास्त कर दिया ?
उत्तर:
जेम्स औट्रम, हेनरी हेवलाक तथा कैम्पबेल ने।

प्रश्न 72.
किसकी भारतीय सैनिकों के प्रति दया और सहानुभूति दिखाए जाने की नीति का अंग्रेजी समाचारपत्रों में मजाक उड़ाया गया ?
उत्तर:
भारत के गवर्नर जनरल कैनिंग की।

लघुत्तरात्मक प्रश्न 

प्रश्न 1.
मेरठ छावनी के विद्रोही सिपाहियों ने मुगल सम्राद् बहादुरशाह को क्या सन्देश पहुँचाया?
उत्तर:
दिल्ली के लाल किले के फाटक पर पहुँचकर मेरठ छावनी के विद्रोही सैनिकों ने मुगल सम्राट् बहादुरशाह को यह सन्देश पहुँचाया कि “हम मेरठ के सभी अंग्रेज पुरुषों को मारकर आए हैं क्योंकि वे हमें गाय और सूअर की चर्बी में लिपटे कारतूसों को दाँतों से खींचने के लिए मजबूर कर रहे थे। इससे हिन्दू और मुसलमानों, दोनों का धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। आप हमें अपना आशीर्वाद दे एवं हमारा नेतृत्व करें।”

प्रश्न 2.
मेरठ से विद्रोही सैनिकों का जत्था दिल्ली के लाल किले के फाटक पर कब पहुँचा? बहादुर शाह से मुलाकात का विद्रोह पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
मेरठ से विद्रोही सैनिकों का जत्था दिल्ली के लाल किले के फाटक पर 11 मई, 1857 को पहुंचा। किले में घुसे इन सैनिकों ने माँग की कि सम्राट् बहादुरशाह उन्हें अपना आशीर्वाद प्रदान करें। विद्रोही सैनिकों से घिरे बहादुरशाह के पास उनकी बात मानने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प न था। इस तरह इस विद्रोह ने एक वैधता | प्राप्त कर ली क्योंकि अब इसे मुगल बादशाह के नाम पर चलाया जा सकता था।

प्रश्न 3.
‘ब्रिटिश शासन’ ताश के किले की तरह बिखर गया। यह कथन किसने व क्यों कहा?
उत्तर:
मेरठ छावनी से प्रारम्भ भारतीय सैनिकों का विद्रोह मई-जून 1857 में तीव्र गति से देश भर में फैला। अंग्रेजों के पास विद्रोहियों की कार्यवाहियों का कोई जवाब नहीं था। उन्हें केवल अपनी जान व घर-बार बचाने की चिन्ता थी। इसी स्थिति के सन्दर्भ में एक अंग्रेज अधिकारी ने लिखा है कि “ब्रिटिश शासन ताश के किले की तरह बिखर गया।”

प्रश्न 4.
कला और साहित्य ने 1857 की स्मृति को जीवित रखने में किस प्रकार योगदान दिया ?
उत्तर:
(1) क्रान्तिकारी नेताओं को ऐसे नायकों के रूप में चित्रित किया जाता था जो देश को बुद्ध-स्थल की ओर ले जा रहे हैं। उन्हें लोगों को दमनकारी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उत्तेजित करते हुए चित्रित किया जाता था।
(2) झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य का गौरवगान करने वाली कविताएँ लिखी गई सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।” अमर हो गई।

प्रश्न 5.
“ये गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” अवध के विषय में लार्ड डलहौजी के उक्त विचारों की सत्यता का परीक्षण कीजिये।
उत्तर:
अंग्रेज अवध पर अधिकार करने के लिए लालायित थे क्योंकि वहाँ की जमीन नील और कपास की खेती के लिए उपयोगी थी और इस प्रदेश को उत्तरी भारत के एक बड़े बाजार के रूप में विकसित किया जा सकता था अतः 1856 में डलहौजी ने अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाकर उसे अपदस्थ कर दिया और अवध पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार अवध के विषय में कहा गया उपर्युक्त कथन सत्य सिद्ध हुआ।

प्रश्न 6.
दिल्ली उर्दू अखबार ने 14 जून, 1857 की अपनी रिपोर्ट में क्या लिखा?
उत्तर:
शहर में आम लोगों के लिए साग-सब्जी मिलना बन्द हो गया है। चंद बड़े लोगों को ही बाग- बगीचों से सब्जियाँ मिल पाती हैं। गरीब, मध्यम वर्ग उनको देखकर होंठों पर जीभ फिराकर रह जाता है। पानी भरने वालों ने पानी भरना बन्द कर दिया है तथा कुलीन लोग खुद घड़ों में पानी भरकर लाते हैं तब जाकर घर में खाना बनता है। शहर की आबोहवा खराब हो रही है। गन्दगी और बीमारियों के कारण महामारी फैल सकती है।

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प्रश्न 7.
सिस्टन की भेंट किससे हुई तथा दोनों में क्या वार्तालाप हुआ? लिखिए।
उत्तर:
सहारनपुर में सिस्टम की भेंट बिजनौर के मुस्लिम तहसीलदार से हुई। तहसीलदार ने उसे क्रान्तिकारी समझा और उससे अवध के बारे में बातचीत की। तहसीलदार ” क्या खबर है अवध की? काम कैसा चल रहा है?” सिस्टन” अगर हमें अवध में काम मिलता है, तो जनाब ए आली को भी पता लग जाएगा।” तहसीलदार ” भरोसा रखो, इस बार हम कामयाब होंगे। मामला काबिल हाथों में है।” यह तहसीलदार बिजनौर के विद्रोहियों का सबसे बड़ा नेता था।

प्रश्न 8.
कालाकांकर के राजा हनवन्तसिंह ने अंग्रेज अफसर से अपनी पीड़ा किन शब्दों में व्यक्त की? लिखिए।
उत्तर:
“साहिब आपके मुल्क के लोग हमारे देश में आए और उन्होंने हमारे राजाओं को खदेड़ दिया। एक ही झटके में आपने मेरे पुरखों की जमीन मेरे से छीन ली। मैं चुप रहा। फिर अचानक आपका बुरा वक्त शुरू हो गया। यहाँ के लोग आपके खिलाफ खड़े हो गए। तब आप मेरे पास आए, जिसे आपने बर्बाद किया था। मैंने आपकी जान बचाई है। लेकिन अब मैं अपने सिपाहियों को लेकर लखनऊ जा रहा हूँ, ताकि आपको देश से खदेड़ सकूँ।”

प्रश्न 9.
आजमगढ़ घोषणा किसके द्वारा किन वर्गों के लिए जारी की गई? धार्मिक नेताओं के लिए इसमें क्या कहा गया?
उत्तर:
आजमगढ़ घोषणा 25 अगस्त, 1857 को मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वारा जमींदारों, व्यापारियों, सरकारी कर्मचारियों, कारीगरों और धार्मिक नेताओं के लिए जारी की गई। पण्डित और फकीर क्रमश: हिन्दू और मुस्लिम धर्मों के अभिभावक हैं। यूरोपीय दोनों धर्मों के शत्रु हैं और फिलहाल धर्म के कारण ही अंग्रेजों के खिलाफ एक युद्ध छिड़ा हुआ है। इसलिए पण्डितों और फकीरों का फर्ज है कि वे खुद को हमारे सामने पेश करें और इस पवित्र युद्ध में अपनी भूमिका निभाएँ।

प्रश्न 10.
इस स्रोत के आधार पर बताइये कि सिपाहियों ने क्यों विद्रोह में भाग लिया?
उत्तर:
(i) सिपाहियों को चर्बी लगे कारतूस चलाने को दिए गए, जिन्हें मुँह से काटकर खोलना पड़ता था । इससे उनका धर्म भ्रष्ट हो सकता था।
(ii) मना करने पर अनेक सिपाहियों को दण्डित किया गया, उन्हें जेल में बन्द कर दिया गया।
(iii) हम अपनी आस्था की रक्षा के लिए अंग्रेजों से लड़े। हम दो साल तक इसलिए लड़े, ताकि हमारी आस्था और मजहब दूषित न हो। अगर एक हिन्दू या मुसलमान का धर्म ही नष्ट हो गया, तो दुनिया में बचेगा ही क्या?

प्रश्न 11.
ग्रामीण अवध क्षेत्र से रिपोर्ट भेजने वाले अफसर ने अपनी रिपोर्ट में क्या लिखा?
उत्तर:
ग्रामीण अवध क्षेत्र से रिपोर्ट भेजने वाले अफसर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा- ” अवध के लोग उत्तर से जोड़ने वाली संचार लाइन पर जोर बना रहे हैं। ये लोग गाँव वाले हैं तथा यूरोपीय लोगों की पकड़ से बाहर हैं। पल में बिखर जाते हैं और पल में फिर जुट जाते हैं। शासकीय अधिकारियों का कहना है कि इन गाँव वालों की संख्या बहुत बड़ी है और उनके पास बाकायदा बंदूकें हैं।”

प्रश्न 12.
सहायक सन्धि ने अवध के नवाब को किस प्रकार असहाय बना दिया था?
उत्तर:
सहायक सन्धि के कारण अवध का नवाब वाजिद अली शाह अपनी सैनिक शक्ति से वंचित हो गया फलस्वरूप वह अपनी रियासत में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए दिन-प्रतिदिन अंग्रेजों पर निर्भर होता जा रहा था नवाब का विद्रोही मुखियाओं एवं ताल्लुकदारों पर भी कोई नियन्त्रण न रहा था।

प्रश्न 13.
अंग्रेजों द्वारा अवध के अधिग्रहण का स्थानीय जनता पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
अंग्रेजों द्वारा अवध के अधिग्रहण के कारण स्थानीय जनता ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हो गई क्योंकि नवाब को हटाने से दरबार और उसकी संस्कृति नष्ट हो गई। संगीतकारों, नर्तकों, कवियों, बावचियों, नौकरों, सरकारी कर्मचारियों एवं अनेक लोगों की रोजी-रोटी समाप्त हो गयी थी।

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प्रश्न 14.
बहादुर शाह जफर कौन थे? संक्षेप में बताइए ।
उत्तर:
बहादुरशाह जफर द्वितीय अन्तिम मुगल सम्राट् था। अंग्रेज अधिकारियों ने कहा था कि बहादुरशाह जफर के उपरान्त उसके उत्तराधिकारियों को दिल्ली के लाल किले में नहीं रहने दिया जायेगा। इसी कारण से बहादुरशाह अंग्रेजों के विरुद्ध हो गये। विद्रोहियों ने जब बहादुरशाह से अपना प्रधान सेनापति बनने को कहा तो कुछ संकोच के साथ वह इस पर राजी हो गये। यद्यपि बहादुरशाह उस समय तक अत्यधिक वृद्ध हो चुके थे तो भी उन्होंने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। बहादुरशाह ने सैनिकों द्वारा आरम्भ किये गये इस विद्रोह को युद्ध का रूप प्रदान कर दिया। किन्तु बहादुरशाह की यह योजना सफल नहीं हो सकी तथा उनको गिरफ्तार करके रंगून भेज दिया गया।

प्रश्न 15.
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
रानी लक्ष्मीबाई 1857 ई. के स्वतन्त्रता संग्राम की अग्रणी महिला क्रान्तिकारी थी। उनके पति को अंग्रेजों ने पुत्र गोद लेने की आज्ञा प्रदान नहीं की थी। लक्ष्मीबाई अपने पति की मृत्यु के उपरान्त झाँसी की शासिका बर्नी । इन्होंने कई युद्धों में अंग्रेजों को परास्त किया। 1858 ई. में अंग्रेज सेनापति हयूरोज ने झाँसी पर आक्रमण किया। तांत्या टोपे के साथ मिलकर इन्होंने बड़ी वीरता के साथ अपने किले की रक्षा की किन्तु वह पराजित हुई फिर भी अंग्रेजों को वाँछित सफलता प्राप्त नहीं हुई रानी ने वीरतापूर्वक शत्रुओं का सामना किया किन्तु रानी के कुछ अधिकारी अंग्रेजों से मिल गये। अतः रानी लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुई।

प्रश्न 16.
1857 की क्रान्ति के परिणामों पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
(1) भारत से ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन हमेशा के लिए समाप्त हो गया और उसके स्थान पर 1858 से महारानी विक्टोरिया की घोषणा के साथ भारत में ब्रिटिश ताज का शासन प्रारम्भ हो गया।
(2) अंग्रेजों की दमनात्मक नीति से भारतवासियों में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ।
(3) भारत की जनता में राष्ट्रीयता की भावना जगाने में इस क्रान्ति का सबसे बड़ा योगदान रहा। इसके फलस्वरूप भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन शुरू हुआ।

प्रश्न 17.
मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर ने विद्रोहियों का नेतृत्व करना क्यों स्वीकार कर लिया था?
उत्तर:
10 मई, 1857 को सैनिकों ने मेरठ में विद्रोह कर दिया। विद्रोही सैनिक 11 मई को दिल्ली पहुँच गए। उन्होंने मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को बताया कि अंग्रेज उन्हें गाय और सुअर की चर्बी लगे हुए कारतूस दाँतों से खींचने के लिए बाध्य कर रहे थे जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों का धर्म भ्रष्ट हो सकता था। इस समय बहुत से सैनिक लाल किले में प्रविष्ट हो गए। इन परिस्थितियों में मुगल- सम्राट को विद्रोहियों का नेतृत्व करना स्वीकार करना पड़ा।

प्रश्न 18.
विभिन्न सैनिक छावनियों के सैनिकों के बीच अच्छा संचार बना हुआ था।” स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
जब सातवीं अवध हरेग्युलर केवेलरी ने मई, 1857 के प्रारम्भ में नये कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया, तो उन्होंने 48वीं नेटिव इन्फेन्ट्री को लिखा कि “हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए यह निर्णय लिया है और 48वीं नेटिव इन्फेन्ट्री के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं।” इस प्रकार विभिन्न सैनिक छावनियों में सम्पर्क बना ‘हुआ था तथा सैनिक या उनके सन्देशवाहक एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहे थे। सभी लोगं विद्रोह को सफल बनाने के लिए प्रयत्नशील थे।

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प्रश्न 19.
1857 के विद्रोह सुनियोजित थे।” स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
41वीं नेटिव इन्फेन्ट्री ने अवध मिलिट्री पुलिस से अनुरोध किया कि अवध मिलिट्री पुलिस को या तो कैप्टेन हियरों का वध कर देना चाहिए या उसे गिरफ्तार करके उनके हवाले कर देना चाहिए। जब अवध मिलिट्टी पुलिस ने इन दोनों बातों को अस्वीकार कर दिया, तो इस मामले पर विचार करने के लिए हर रेजीमेन्ट के देशी अधिकारियों की एक पंचायत बुलाई गई। ये पंचायतें रात को कानपुर सिपाही लाइनों में जुटती थीं और सैनिक सामूहिक रूप से निर्णय लेते थे।

प्रश्न 20.
“अनेक स्थानों पर विद्रोह का सन्देश आम पुरुषों और महिलाओं के द्वारा तथा धार्मिक लोगों के द्वारा फैल रहा था।” व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
मेरठ में हाथी पर सवार एक फकीर विद्रोह का सन्देश फैला रहा था तथा उससे भारतीय सैनिक बार- बार मिलने जाते थे। लखनऊ में अवध पर अधिकार के बाद अनेक धार्मिक नेता ब्रिटिश शासन को समाप्त करने का अलख जगा रहे थे। कुछ स्थानों पर स्थानीय नेता लोगों को विद्रोह के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। शाहमल ने उत्तरप्रदेश में बड़ौत परगने के गाँव वालों को तथा छोटा नागपुर स्थित सिंहभूम के एक किसान गोनू ने वहाँ के आदिवासियों को संगठित किया।

प्रश्न 21.
नाना साहेब कौन थे? संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
नाना साहेब 1857 के विद्रोह के एक प्रमुख सेनापति थे। नाना साहेब एक वीर मराठा तथा पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र थे। उन्होंने स्वयं को जून, 1857 में कानपुर में पेशवा घोषित कर दिया किन्तु अंग्रेजों ने उन्हें पेशवा मानने से मना कर दिया। नाना साहेब ने प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजों का वीरता के साथ मुकाबला किया। कानपुर में क्रान्तिकारियों का नेतृत्व भी नाना साहेब ने किया तथा कर्नल नील से जबरदस्त संघर्ष किया। कर्नल नील अवध (वर्तमान उत्तर प्रदेश) से क्रान्तिकारियों का पूर्ण रूप से दमन करना चाहता था अतः कर्नल नील तथा नाना साहेब में भीषण युद्ध हुआ। दुर्भाग्य से युद्ध में नाना साहेब पराजित हो गये तथा वह वहाँ से भागकर नेपाल चले गये।

प्रश्न 22.
1857 की क्रान्ति के दौरान राजनीतिक असन्तोष के क्या कारण थे?
उत्तर:
1857 की क्रान्ति के दौरान राजनीतिक असन्तोष के निम्नलिखित कारण थे –
(1) मुगल बादशाह का अपमान-अंग्रेजों के भारत आगमन के पश्चात् मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर था। अन्तिम मुगल बादशाह बहादुर शाह का शासन केवल लाल किले तक ही सीमित था।

(2) नाना साहिब व रानी लक्ष्मीबाई से अनुचित व्यवहार – लार्ड डलहौजी ने दत्तक प्रथा पर रोक लगाकर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को शासक मानने से इन्कार कर दिया तथा झाँसी को हड़पने की नीति अपनाई जिससे रानी झाँसी अंग्रेजों के विरुद्ध हो गयी। नाना साहिब पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे अंग्रेजों ने उनकी पेंशन बन्द कर दी।

(3) अवध का अनुचित विलय- लार्ड डलहौजी ने अवध के नवाब वाजिद अली शाह पर कुशासन का आरोप लगाकर उन्हें हटा दिया तथा 1856 ई. में अवध का अंग्रेजी राज्य में विलय कर लिया।

(4) डलहौजी की हड़प नीति- डलहौजी ने अपनी साम्राज्यवादी हड़प नीति के तहत अनेक रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया फलस्वरूप उन रियासतों के शासक अंग्रेजों के विरुद्ध हो गये।

प्रश्न 23.
1857 ई. के विद्रोह के धार्मिक कारण कौन-कौनसे थे?
उत्तर:
1857 के विद्रोह के अनेक कारण उत्तरदायी थे। इसमें से धार्मिक कारण निम्न थे –
(1) 1813 में ईसाई मिशनरियों को भारत में कार्य करने की इजाजत दे दी।
(2) ये मिशनरियाँ भारतीयों को लालच देकर ईसाई बना रही थीं।
(3) लॉर्ड विलियम बैंटिक ने सती प्रथा सहित अनेक समाज सुधार किये जिसे भारतीयों ने अपने धर्म के विरुद्ध समझा।
(4) अनेक हिन्दू सिपाहियों को समुद्र मार्ग से बाहर भेजा गया। उस समय हिन्दू समुद्र की यात्रा करना अपवित्र मानते थे।
इन्हीं सब घटनाओं ने 1857 ई. के विद्रोह की नींव रखी।

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प्रश्न 24.
कानपुर और झांसी में किन नेताओं ने विद्रोहियों का नेतृत्व करना स्वीकार किया था?
उत्तर:
कानपुर में सैनिकों और शहर के लोगों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब को विद्रोह का नेतृत्व सम्भालने के लिए बाध्य किया। झांसी में भी रानी लक्ष्मी बाई को जनता के दबाव में विद्रोह की बागडोर सम्भालनी पड़ी। कुछ ऐसी ही स्थिति बिहार में आरा के स्थानीय जमींदार कुँवर सिंह की भी लखनऊ में ब्रिटिश राज की समाप्ति की सूचना पर लोगों ने नवाब वाजिद अली शाह के युवा पुत्र बिरजिस कद्र को अपना नेता घोषित कर दिया था।

प्रश्न 25.
सहायक सन्धि क्या थी और इसे किसने लागू किया था?
उत्तर:
सन् 1798 में लॉर्ड वेलेजली ने देशी शासकों पर कम्पनी का नियंत्रण स्थापित करने हेतु सहायक संधि की। इसकी शर्तें निम्न प्रकार थीं—
(1) देशी शासक को अपने खर्चे पर एक अंग्रेजी सेना अपने राज्य में रखनी होगी।
(2) बिना अंग्रेजों की अनुमति के वह देशी शासक किसी अन्य राज्य से न तो संधि करेगा और न ही युद्ध करेगा।
(3) बदले में अंग्रेज उस शासक को आन्तरिक एवं बाहरी चुनौतियों से रक्षा करेंगे।

प्रश्न 26.
1857 ई. की क्रान्ति में शाहमल के कार्यों का मूल्यांकन कीजिये।
अथवा
शाहमल कौन था और उसने 1857 के विद्रोह में क्या भूमिका निभाई?
उत्तर:
शाहमल उत्तर प्रदेश के बड़ौत परगने के एक बड़े गाँव के रहने वाले एक जाट परिवार में पैदा हुए थे। शाहमल ने चौरासी देस के मुखियाओं और काश्तकारों को संगठित किया तथा लोगों को विद्रोह करने हेतु प्रेरित किया। शाहमल के आदमियों ने सरकारी इमारतों पर हमला करके उन्हें नष्ट किया। लोग शाहमल को राजा के नाम से पुकारते थे। जुलाई, 1857 में शाहमल वीरगति को प्राप्त हो गए।

प्रश्न 27.
मौलवी अहमदुल्ला शाह कौन थे और उनके बारे में लोगों में क्या विश्वास था?
उत्तर:
हैदराबाद में शिक्षा प्राप्त करने के बाद कम उम्र में ही मौलवी अहमदुल्ला शाह उपदेशक बन गये थे। 1856 में उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध जिहाद (धर्मयुद्ध) का प्रचार करते हुए और लोगों को विद्रोह के लिए तैयार करते हुए देखा गया। जनता का मानना था कि मौलवी में जादुई ताकतें हैं, जिससे अंग्रेज उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं। 22वीं नेटिव इन्फैंट्री ने उन्हें अपना नेता चुन लिया। उन्होंने चिनहट की लड़ाई में हेनरी लारेंस की टुकड़ी को पराजित किया।

प्रश्न 28.
किन अफवाहों के द्वारा लोगों को विद्रोह करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था?
उत्तर:
(1) सिपाहियों में यह अफवाह फैली हुई थी कि उनकी राइफलों में प्रयुक्त किए जाने वाले कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी लगी थी। इनका प्रयोग करने से उनकी जाति तथा धर्म के भ्रष्ट होने की सम्भावना थी।

(2) यह अफवाह भी जोरों पर थी कि अंग्रेजों ने बाजार में मिलने वाले आटे में गाय और सुअर की हड्डियों का चूरा मिलवा दिया है इसका उद्देश्य हिन्दुओं और मुसलमानों की जाति तथा धर्म को नष्ट करना था।

प्रश्न 29.
भारतीय लोग अफवाहों में विश्वास क्यों कर रहे थे?
अथवा
“अफवाहें तभी फैलती हैं, जब वे प्रभावशाली होती हैं, जब लोगों में बहुत ज्यादा भय और सन्देह फैल जाए।” 1857 के विद्रोह के संदर्भ में यह कथन कहाँ तक सत्य था?
उत्तर:
(1) लार्ड विलियम बैंटिक द्वारा सती प्रथा को समाप्त करने तथा हिन्दू विधवा विवाह को वैधता प्रदान करने वाले कानून बनाये गए थे। इनसे भारतीयों में असन्तोष
था।
(2) लार्ड डलहौजी द्वारा अवध, शांसी तथा सतारा जैसी रियासतों पर अधिकार करने से भारतीय नरेशों और जनता में आक्रोश व्याप्त था वहाँ अंग्रेजों द्वारा अपने ढंग की शासन व्यवस्था, अपने कानून, भू-राजस्व वसूली की अपनी व्यवस्था लागू किये जाने से भी भारतीयों में असन्तोष था ।

प्रश्न 30.
“देह से जान जा चुकी थी।” व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
जब 1856 में अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से हटाकर कलकत्ता निष्कासित कर दिया तो अवध के लोगों में दुःख और शोक की लहर दौड़ गई। एक लेखक ने लिखा था कि “देह से जान जा चुकी गया, थी। शहर की कला बेजान थी। कोई सड़क, बाजार और घर ऐसा न था, जहाँ से जान-ए-आलम (नवाब वाजिद अली शाह) से बिछुड़ने पर विलाप का शोर न गूँज रहा हो।”

प्रश्न 31.
अवध के नवाब वाजिद अली शाह के कलकत्ता निष्कासन से लोगों को दुःख और अपमान का एहसास क्यों हुआ?
उत्तर:
(1) अवध का नवाब वाजिद अली शाह अवध की जनता में बड़ा लोकप्रिय था। लोग उसे दिल से चाहते थे। अतः नवाब के निष्कासन पर लोगों को प्रबल आघात पहुँचा।
(2) नवाब को अपदस्थ किये जाने से दरबार और उसकी संस्कृति भी समाप्त हो गई थी।
(3) नवाब के निष्कासन से अनेक संगीतकारों, नर्तकों, कवियों, कारीगरों, बावर्चियों, नौकरों, सरकारी कर्मचारियों और बहुत सारे लोगों की रोजी-रोटी जाती रही।

प्रश्न 32.
“ताल्लुकदारों की सत्ता छिनने के परिणामस्वरूप पूरी सामाजिक व्यवस्था भंग हो गई।” विवेचना कीजिये।
उत्तर:
जनता की दृष्टि में बहुत से ताल्लुकदार दयालु संरक्षक की भाँति आचरण करते थे। वे संकटपूर्ण परिस्थितियों में किसानों की सहायता भी करते थे। अब इस बात की कोई गारन्टी नहीं थी कि कठिन समय में या फसल खराब होने पर सरकार राजस्व माँग में कोई कमी करेगी। न ही किसानों को इस बात की आशा थी कि तीज-त्यौहारों पर उन्हें कोई ऋण और सहायता मिल जायेगी जो पहले ताल्लुकदारों से मिल जाती थी।

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प्रश्न 33.
1857 के जन-विद्रोह से पहले अवध के सैनिकों में असन्तोष के क्या कारण थे?
उत्तर:
(1) सैनिक कम वेतन और समय पर अवकाश न मिलने के कारण असन्तुष्ट थे।
(2) सैनिक अधिकारी सैनिकों के साथ अपमानजनक व्यवहार करते थे।
(3) गाय और सुअर की चर्बी लगे हुए कारतूसों के कारण भी सैनिकों में असन्तोष था ।
(4) बंगाल आर्मी के सैनिकों में बहुत सारे सैनिक अवध के गाँवों से भर्ती होकर आए थे उनके ग्रामीणों से अच्छे सम्बन्ध थे। अतः जब सैनिक अपने अधिकारियों के विरुद्ध हथियार उठाते थे, तो ग्रामीण लोग उनका साथ देते थे।

प्रश्न 34.
बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी आन्दोलन को 1857 के घटनाक्रम से क्या प्रेरणा मिल रही थी ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
1857 का विद्रोह प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम था जिसमें देश के सभी वर्गों के लोगों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध मिलकर संघर्ष किया था। कलाकारों और साहित्यकारों ने 1857 के विद्रोह के नेताओं को ऐसे नायकों के रूप में प्रस्तुत किया जो देश को रणस्थल की ओर ले जा रहे थे। बहादुरशाह, नाना साहिब, रानी लक्ष्मी बाई, कुंवर सिंह आदि ने अपने पराक्रमपूर्ण कार्यों, त्याग और बलिदान से भारतीयों में राष्ट्रीयता का प्रसार किया और राष्ट्रीय आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार की।

प्रश्न 35.
ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था का ताल्लुकदारों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
एकमुश्त बन्दोबस्त के द्वारा ताल्लुकदारों को बेदखल किया जाने लगा। आँकड़ों से पता चलता है कि अंग्रेजों के आने से पहले ताल्लुकदारों के पास अवध के 67% गाँव थे एकमुश्त बन्दोबस्त लागू होने के बाद यह संख्या घटकर 38 प्रतिशत रह गई दक्षिण अवध के ताल्लुकदारों पर सबसे बुरी मार पड़ी। कुछ के आधे से अधिक गाँव उनके हाथ से निकल गए। इस प्रकार ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था ने ताल्लुकदारों की प्रतिष्ठा तथा सत्ता को प्रबल आघात पहुँचाया।

प्रश्न 36.
एकमुश्त बन्दोबस्त से न तो ताल्लुकदार खुश थे और न ही कृषक वर्ग खुश था, क्यों? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
एकमुश्त बन्दोबस्त लागू करने की योजना के पीछे अंग्रेजों की यह सोच थी कि वे ताल्लुकदारों को हटाकर जमीन का मालिकाना हक असली मालिकों यानी किसानों को सौंप देंगे। इससे किसानों के शोषण में कमी आयेगी तथा राजस्व वसूली में भी वृद्धि होगी और ताल्लुकदारों की शक्ति में कमी आयेगी लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हो पाया। ताल्लुकदार बेदखल किए गए और राजस्व वसूली में भी इजाफा हुआ लेकिन किसानों के बोझ में कमी नहीं आई।

प्रश्न 37.
विद्रोही किस वैकल्पिक सत्ता की तलाश कर रहे थे?
उत्तर:
ब्रिटिश शासन ध्वस्त हो जाने के बाद विद्रोही नेता अठारहवीं सदी की पूर्व व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना चाहते थे। इन नेताओं ने पुरानी दरबारी संस्कृति का सहारा लिया। विभिन्न पदों पर नियुक्तियाँ की गई भू-राजस्व वसूली और सैनिकों के वेतन भुगतान का प्रबन्ध किया गया। लूटपाट बन्द करने के हुक्मनामे जारी किए गए तथा इसके साथ ही अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध जारी रखने की योजनाएँ भी बनाई गई। सेना की कमान श्रृंखला तय की गई।

प्रश्न 38.
1857 के विद्रोह के पूर्व अंग्रेज अफसरों और सैनिकों के सम्बन्धों की विवेचना कीजिये।
उत्तर:
(1) 1820 के दशक में गोरे अफसरों के अपने सैनिकों और मातहतों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध थे। वे उनके साथ मौज-मस्ती करते थे, मल्लयुद्ध करते थे तथा तलवारबाजी करते थे।
(2) 1840 के दशक में अफसरों और सैनिकों के सम्बन्धों में काफी बदलाव आ गया था। अफसर सिपाहियों को कमतर नस्ल का मानने लगे थे। वे उनकी भावनाओं की जरा भी कद्र नहीं करते थे सैनिकों के साथ गाली- गलौज और शारीरिक हिंसा साधारण बात हो गई।

प्रश्न 39.
विद्रोहियों द्वारा परस्पर सम्पर्क करने के लिए संचार के कौन-से माध्यम थे?
उत्तर:
(1) विभिन्न छावनियों के सैनिक या उनके संदेशवाहक विद्रोह का संदेश देने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहे थे (2) 41वीं नेटिव इन्फेन्ट्री ने अंग्रेजों पर आक्रमण करने के लिए अवध मिलिट्री पुलिस से सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया। (3) सामूहिक रूप से निर्णय लेने के लिए देशी अफसरों की पंचायतें आयोजित की जा रही थीं। सैनिक एक साथ बैठकर अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेते थे।

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प्रश्न 40.
अंग्रेज अवध पर अधिकार करने के लिए क्यों लालायित थे?
उत्तर:
(1) अंग्रेजों की मान्यता थी कि अवध की भूमि नील और कपास की खेती के लिए बहुत लाभदायक थी और इस प्रदेश को उत्तरी भारत के एक बड़े बाजार के रूप में विकसित किया जा सकता था
(2) अंग्रेज मराठा- भूमि, दोआब, कर्नाटक, पंजाब, बंगाल आदि पर अपना आधिपत्य स्थापित कर चुके थे। अवध पर अधिकार करके अंग्रेज क्षेत्रीय विस्तार की आकांक्षा पूरी करना चाहते थे।

प्रश्न 41.
20वीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन ने किससे प्रेरणा ली?
उत्तर:
20वीं शताब्दी में भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन ने 1857 के घटनाक्रम से प्रेरणा ली। इस विद्रोह के आस- पास राष्ट्रवादी कल्पना का एक विस्तृत दृश्य जगत बुन दिया गया था तथा इसको प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के रूप में याद किया जाता था, जिसमें प्रत्येक वर्ग ने साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध मिल-जुलकर संघर्ष किया था।

प्रश्न 42.
इतिहास लेखन की तरह कला और साहित्य ने भी 1857 की स्मृति को जीवित रखने में योगदान दिया? रानी लक्ष्मीबाई का उदाहरण देते हुए स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इतिहास लेखन की तरह कला और साहित्य ने भी 1857 की स्मृति को जीवित रखने में योगदान दिया। साहित्य एवं चित्रों में 1857 के विद्रोह के नेताओं को एक ऐसे नायकों के रूप में प्रस्तुत किया जाता था जो देश को युद्ध स्थल की ओर ले जा रहे थे। उन्हें जनता को अत्याचारी साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध उत्तेजित करते हुए चित्रित किया जाता था। एक हाथ में घोड़े की रास एवं दूसरे हाथ में तलवार लिए हुए अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाली रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का गौरव गान करते हुए कविताएँ लिखी गयीं। देश के विभिन्न हिस्सों में बच्चे सुभद्रा कुमारी चौहान की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए बड़े हो रहे थे ” खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।”

प्रश्न 43.
1857 के विद्रोही उत्पीड़न के किन प्रतीकों के विरुद्ध थे?
उत्तर:

  • विद्रोही अंग्रेजों द्वारा देशी रियासतों पर अधिकार करने के लिए उनकी निन्दा करते थे
  • ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था ने बड़े-छोटे भू-स्वामियों को जमीन से बेदखल कर दिया था और विदेशी व्यापार ने दस्तकारों तथा बुनकरों को बर्बाद कर दिया था।
  • अंग्रेजों ने स्थापित सुन्दर जीवन शैली को नष्ट कर दिया था।
  • अंग्रेज हिन्दुओं और मुसलमानों की जाति तथा धर्म को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील थे।
  • सूदखोर भी सामान्य जनता का शोषण करते थे।

प्रश्न 44.
अंग्रेजों ने विद्रोहियों के दमन के लिए क्या उपाय किये?
उत्तर:

  • सम्पूर्ण उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। यह घोषित किया गया कि विद्रोह की केवल एक ही सजा हो सकती है सजा-ए-मौत’
  • ब्रिटेन से नई सैनिक टुकड़ियाँ मंगाई गई
  • अंग्रेजों ने जमींदारों तथा किसानों की एकता को भंग करने हेतु जमींदारों को आश्वस्त किया कि उन्हें उनकी जागीरें लौटा दी जायेंगी।
  • स्वामिभक्त जमींदारों को पुरस्कृत किया गया तथा विद्रोही जमींदारों को उनकी जमीनों से बेदखल कर दिया गया।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
1857 के विद्रोह को नेतृत्व प्रदान करने वाले नेताओं तथा अनुयायियों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
1857 के विद्रोह को नेतृत्व प्रदान करने वाले नेता और अनुयायी 1857 के विद्रोह को नेतृत्व प्रदान करने वाले नेताओं और अनुयायियों का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

(1) मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर 10 मई 1857 को भारतीय सैनिकों ने मेरठ में विद्रोह कर दिया। विद्रोही सैनिक 11 मई को दिल्ली पहुँच गए। उन्होंने मुगल- सम्राट बहादुरशाह जफर को बताया कि अंग्रेज उन्हें गाय और सुअर की चर्बी लगे हुए कारतूसों को दाँतों से खींचने के लिए बाध्य कर रहे थे, जिससे हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों का धर्म भ्रष्ट हो सकता था। इस समय बहुत से सैनिक लालकिले में प्रविष्ट हो गये और उन्होंने मुगल- सम्राट से उन्हें नेतृत्व प्रदान करने की प्रार्थना की। इन परिस्थितियों में मुगल सम्राट बहादुरशाह को विद्रोहियों का नेतृत्व करने के लिए बाध्य होना पड़ा। बहादुरशाह के पास अन्य कोई विकल्प नहीं था।

(2) नाना साहिब कानपुर में सैनिकों और शहर के लोगों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब से विद्रोह का नेतृत्व करने का अनुरोध किया जिसे उन्हें स्वीकार करना पड़ा। नाना साहिब के पास भी विद्रोह का नेतृत्व संभालने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था।

(3) झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई 1857 के विद्रोह की गुंज झाँसी में भी सुनाई दी। सैनिकों और आम जनता ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई से विद्रोह का नेतृत्व सँभालने की प्रार्थना की रानी लक्ष्मीबाई को सैनिकों और आम जनता के दबाव में विद्रोह का नेतृत्व सँभालना पड़ा।

(4) कुँवर सिंह बिहार के लोगों ने भी 1857 के विद्रोह में भाग लिया। आरा (बिहार) के लोगों ने वहाँ के जमींदार कुँवर सिंह से विद्रोह का नेतृत्व सँभालने की गुजारिश की। उन्हें भी विवश होकर विद्रोह का नेतृत्व संभालना पड़ा।

(5) बिरजिस कद्र लखनऊ में ब्रिटिश राज की समाप्ति की सूचना पर लखनऊ के लोगों ने अवध के नवाब वाजिद अली शाह के युवा पुत्र विरजिस कद्र को अपना नेता घोषित कर दिया।

JAC Class 12 History Important Questions Chapter 11 विद्रोही और राज : 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान

(6) अन्य नेता-मेरठ में हाथी पर सवार एक फकीर ने विद्रोह के सन्देश का प्रसार किया। शाहमल ने उत्तर प्रदेश में बढ़ौत परगने के गाँव वालों को संगठित किया और अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया छोटा नागपुर स्थित सिंहभूम के एक आदिवासी किसान गोनू ने वहाँ के कोल आदिवासियों को नेतृत्व प्रदान किया हैदराबाद में शिक्षा प्राप्त मौलवी अहमदुल्ला शाह ने गाँव-गाँव में जाकर लोगों को अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित किया। 1857 में उन्होंने चिनहट की लड़ाई में हेनरी लारेन्स की सैनिक टुकड़ियों को परास्त किया।

प्रश्न 2.
1857 के जनविद्रोह का आरम्भ किस प्रकार हुआ? इसके विस्तार को भी बतलाइए।
उत्तर:
1857 के जनविद्रोह का आरम्भ- 1857 के जनविद्रोह का आरम्भ 10 मई, 1857 को दोपहर पश्चात् मेरठ छावनी से हुआ था। यहाँ इस विद्रोह की शुरुआत भारतीय सैनिकों की पैदल सेना ने की। शीघ्र ही यह विद्रोह घुड़सवार सेना एवं शहर तक फैल गया। शहर और आस-पास क गाँवों के लोग सैनिकों के साथ जुड़ गए सैनिकों ने हथियार एवं गोला बारूद से भरे हुए शस्त्रागार पर अधिकार कर लिया।

विद्रोह का विस्तार- 1857 के विद्रोह का विस्तार देशव्यापी होता चला गया। विद्रोही सैनिक 11 मई, 1857 को प्रातः लाल किले के फाटक पर पहुँचे। रमजान का महीना था मुगल बादशाह बहादुरशाह नमाज पढ़कर एवं सहरी खाकर उठे ही थे कि उन्हें फाटक पर शोरगुल सुनाई दिया। बाहर खड़े सैनिकों ने उन्हें बताया कि वे मेरठ के सभी अंग्रेज पुरुषों को मारकर आए हैं क्योंकि वे हमें गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूस दाँतों से खोलने के लिए मजबूर कर रहे थे।

इससे हिन्दू और मुसलमान दोनों का धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। तब तक विद्रोही सैनिकों का एक और दल दिल्ली में प्रवेश कर चुका था। दिल्ली शहर की आम जनता भी उनके साथ जुड़ने लगी। अनेकों अंग्रेज मारे गये। दिल्ली के अमीर लोगों पर भी हमले हुए और लूटपाट हुई। विद्रोही सैनिकों से घिरे बहादुरशाह के पास उनकी बात मानने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था। इस तरह विद्रोह ने एक नेतृत्व प्राप्त कर लिया क्योंकि अब उसे मुगल बादशाह बहादुर शाह के नाम पर चलाया जा सकता था। 12 व 13 मई 1857 को उत्तर भारत में शान्ति रही परन्तु जैसे ही यह खबर फैली कि दिल्ली पर विद्रोहियों का अधिकार हो चुका है तथा इस विद्रोह को मुगल बादशाह बहादुरशाह ने समर्थन दे दिया, परिस्थितियों में तेजी से बदलाव आया।

गंगा घाटी एवं दिल्ली के पश्चिम की कुछ छावनियों में विद्रोह के स्वर तीव्र होने लगे। विद्रोह में आम जनता के सम्मिलित होने से हमलों में विस्तार आता गया। लखनऊ, कानपुर एवं बरेली जैसे बड़े शहरों में साहूकार एवं धनिक वर्ग के लोगों पर भी विद्रोहियों ने हमले प्रारम्भ कर दिये। अधिकांश स्थानों पर धनिक वर्ग के घर-बार लूटकर ध्वस्त कर दिए गए। इन छिटपुट विद्रोहों ने शीघ्र ही चौतरफा विद्रोह का रूप धारण कर लिया।

ब्रिटिश शासन की सत्ता की खुलेआम अवहेलना होने लगी। 1857 के विद्रोह का विस्तार अवध (लखनऊ) में भी हुआ। यहाँ विद्रोह का सबसे भयंकर रूप देखने को मिला। अंग्रेजों ने यहाँ के नवाब वाजिद अली शाह को शासन से हटा दिया था। यहाँ विद्रोह का नेतृत्व नवाब के. युवा पुत्र बिरजिस कद्र ने किया था कानपुर में विद्रोह का नेतृत्व नाना साहब ने झांसी में रानी लक्ष्मीबाई ने तथा बिहार के आरा में स्थानीय जमींदार कुंवर सिंह ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। इस प्रकार 1857 का जन विद्रोह का विस्तार होता चला गया।

प्रश्न 3.
1857 के विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने क्या-क्या कार्यवाहियों की?
उत्तर:
1857 के विद्रोह के दमन के लिए अंग्रेजों ने निम्नलिखित उपाय किये –
(1) नये कानूनों को लागू करना मई-जून, 1857 में पारित किए गए कानूनों के जरिए पूरे उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। फौजी अफसरों के अलावा आम अंग्रेजों को भी ऐसे हिन्दुस्तानियों पर मुकदमा चलाने और उनको दण्डित करने का अधिकार दे दिया गया, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था।

(2) दिल्ली पर नियंत्रण के लिए दोतरफा आक्रमण – नए विशेष कानूनों और ब्रिटेन से मंगाई गई सैनिक टुकड़ियों से लैस अंग्रेज सरकार ने विद्रोह को ‘कुचलने का काम शुरू कर दिया विद्रोहियों की तरह अंग्रेज भी दिल्ली के महत्व को जानते थे इसलिए उन्होंने दिल्ली पर दो तरफ से हमला किया। एक कलकत्ते की ओर से और दूसरा पंजाब की ओर से। दिल्ली पर नियंत्रण की मुहिम सितम्बर के आखिर में जाकर पूरी हुई। इसका एक कारण था कि पूरे उत्तर भारत के विद्रोही राजधानी को बचाने के लिए दिल्ली में एकत्र हो गए थे।

(3) गंगा के मैदान में विद्रोहियों का दमनगंगा के मैदान में भी अंग्रेजों को धीरे-धीरे बढ़त हासिल हुई, क्योंकि उन्हें गाँव-दर-गाँव को जीतना था। आम देहाती जनता और आसपास के लोग उनके खिलाफ थे जैसे ही अंग्रेजों ने अपनी उपद्रव विरोधी कार्यवाही शुरू की, वैसे ही उन्हें एहसास हो गया कि वे जिनसे जूझ रहे हैं, उनके पीछे बेहिसाब जनसमर्थन मौजूद है।

(4) विद्रोहियों की एकता को तोड़ने के प्रयास-विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने अपनी सैनिक ताकत का भयानक पैमाने पर इस्तेमाल किया। साथ ही उत्तर प्रदेश के भू-स्वामियों और काश्तकारों के विरोध की धार कम करने के लिए अंग्रेजों ने उनकी एकता को तोड़ने के प्रयास भी किए। इसके लिए उन्होंने बड़े जमींदारों को यह आश्वासन दिया कि उनकी जागीरें लौटा दी जायेंगी। विद्रोह का रास्ता अपनाने वाले जागीरदारों की जागीरें जब्त युवा पुत्र बिरजिस कद्र ने किया था कानपुर में विद्रोह का नेतृत्व नाना साहब ने झांसी में रानी लक्ष्मीबाई ने तथा बिहार के आरा में स्थानीय जमींदार कुंवर सिंह ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। इस प्रकार 1857 का जन विद्रोह का विस्तार होता चला गया।

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प्रश्न 3.
1857 के विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने क्या-क्या कार्यवाहियों की?
उत्तर:
1857 के विद्रोह के दमन के लिए अंग्रेजों ने निम्नलिखित उपाय किये
(1) नये कानूनों को लागू करना मई-जून, 1857 में पारित किए गए कानूनों के जरिए पूरे उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। फौजी अफसरों के अलावा आम अंग्रेजों को भी ऐसे हिन्दुस्तानियों पर मुकदमा चलाने और उनको दण्डित करने का अधिकार दे दिया गया, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था।

(2) दिल्ली पर नियंत्रण के लिए दोतरफा आक्रमण – नए विशेष कानूनों और ब्रिटेन से मंगाई गई सैनिक टुकड़ियों से लैस अंग्रेज सरकार ने विद्रोह को ‘कुचलने का काम शुरू कर दिया विद्रोहियों की तरह अंग्रेज भी दिल्ली के महत्व को जानते थे इसलिए उन्होंने दिल्ली पर दो तरफ से हमला किया। एक कलकत्ते की ओर से और दूसरा पंजाब की ओर से। दिल्ली पर नियंत्रण की मुहिम सितम्बर के आखिर में जाकर पूरी हुई। इसका एक कारण था कि पूरे उत्तर भारत के विद्रोही राजधानी को बचाने के लिए दिल्ली में एकत्र हो गए थे।

(3) गंगा के मैदान में विद्रोहियों का दमनगंगा के मैदान में भी अंग्रेजों को धीरे-धीरे बढ़त हासिल हुई, क्योंकि उन्हें गाँव-दर-गाँव को जीतना था। आम देहाती जनता और आसपास के लोग उनके खिलाफ थे जैसे ही अंग्रेजों ने अपनी उपद्रव विरोधी कार्यवाही शुरू की, वैसे ही उन्हें एहसास हो गया कि वे जिनसे जूझ रहे हैं, उनके पीछे बेहिसाब जनसमर्थन मौजूद है।

(4) विद्रोहियों की एकता को तोड़ने के प्रयास-विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने अपनी सैनिक ताकत का भयानक पैमाने पर इस्तेमाल किया। साथ ही उत्तर प्रदेश के भू-स्वामियों और काश्तकारों के विरोध की धार कम करने के लिए अंग्रेजों ने उनकी एकता को तोड़ने के प्रयास भी किए। इसके लिए उन्होंने बड़े जमींदारों को यह आश्वासन दिया कि उनकी जागीरें लौटा दी जायेंगी। विद्रोह का रास्ता अपनाने वाले जागीरदारों की जागीरें जब्त कर ली गई। जो अंग्रेजों के वफादार थे, उन्हें पुरस्कृत किया गया। बहुत सारे जमींदार या तो अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते मारे गए या भागकर नेपाल चले गए, जहाँ और भूख स्पे दम तोड़ दिया।

(5) दहशत का प्रदर्शन आम जनता में दहशत फैलाने के लिए अंग्रेजों ने विद्रोहियों को खुलेआम फाँसी पर लटकाया या तोपों के मुँह से बाँधकर उड़ाया, जिससे लोग विद्रोह करने से डरें।

प्रश्न 4.
1857 ई. में फैली अफवाहों पर लोग क्यों विश्वास कर रहे थे? विस्तारपूर्वक बताइए।
उत्तर:
1857 ई. में फैली अफवाहों पर लोग निम्न कारणों से विश्वास कर रहे थे –
(1) ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार का सुधारात्मक कार्य यदि 1857 की अफवाहों को 1820 के दशक से अंग्रेजों द्वारा अपनायी जा रही नीतियों के सन्दर्भ में देखा जाए तो इनका अर्थ आसानी से समझा जा सकता है। उस समय गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक के नेतृत्व में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार पश्चिमी शिक्षा, पश्चिमी विचार एवं पश्चिमी संस्थानों के माध्यम से भारतीय समाज में आवश्यक सुधार करने हेतु विशेष प्रकार की नीतियाँ लागू कर रही थी।

(2) सती प्रथा का निषेध-गवर्नर जनरल लार्ड विलियम वैटिक ने 1829 ई. में सती प्रथा को समाप्त करने के लिए एक कानून का निर्माण किया जिसमें सती प्रथा को अवैध ठहराया गया। इसके अतिरिक्त हिन्दू विधवा विवाह को वैधता प्रदान करने के लिए कानून बनाए गए थे।

(3) डलहौजी की हड़प नीति- लार्ड डलहौजी ने भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को विस्तार प्रदान करने के लिए शासकीय कमजोरी एवं दत्तकता को अवैध घोषित कर देने के बहाने अवध, झाँसी व सतारा जैसी अनेक रियासतों को अपने नियन्त्रण में ले लिया था। जैसे ही कोई भारतीय रियासत अंग्रेजों के अधिकार में आती, वहाँ पर अंग्रेज अधिकारी अपने ढंग की शासन पद्धति, अपने कानून, भूमि विवाद निपटाने की पद्धति एवं भू-राजस्व वसूली की अपनी व्यवस्था लागू कर देते थे। उत्तर भारत के लोगों पर इन कार्यवाहियों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।

(4) ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के अंग्रेज अधिकारियों ने ईसाई धर्म का प्रसार करने हेतु ईसाई धर्म प्रचारकों को प्रोत्साहित किया। भारत के निर्धन वर्ग के लोग ईसाई धर्म को स्वीकार कर रहे थे क्योंकि उन्हें अंग्रेजों द्वारा अनेक सुविधाएँ प्राप्त हो रही थीं, इस प्रकार नवीन सुधारक नीतियों एवं ईसाई धर्म प्रचारको की गतिविधियों से इस सोच को बल मिल रहा था कि अंग्रेजों द्वारा भारतीयों की सभ्यता व संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है, ऐसे अनिश्चित वातावरण में अफवाहें रातों रात फैलने लगती थीं।

प्रश्न 5.
“ये गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” डलहौजी की इस टिप्पणी को विस्तार से समझाइए।
उत्तर:
अपनी हड़प नीति के लिए कुख्यात लॉर्ड डलहौजी ने 1851 में अवध की रियासत के विषय में कहा था कि ये गिलास फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” 1856 में अर्थात् इस टिप्पणी के पाँच वर्ष बाद अवध पर कुशासन का आरोप लगाकर ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया तथा अवध के नवाब को वहाँ से निर्वासित कर कलकत्ता भेज दिया गया। रियासतों पर अनैतिक रूप से कब्जे की शुरुआत 1798 ई. में आरम्भ हुई थी, जब निजाम को जबरदस्ती लॉर्ड वेलेजली ने सहायक सन्धि पर हस्ताक्षर करने को विवश कर दिया। इसके कुछ समय उपरान्त अर्थात् 1801 ई. में अवध पर सहायक सन्धि थोप दी गयी थी।

इस सहायक सन्धि में शर्त यह थी कि नवाब अपनी सेना समाप्त कर देगा, रियासत में अंग्रेज रेजीडेण्टों की नियुक्ति की जायेगी तथा दरबार में एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखा जायेगा। इसके अतिरिक्त नवाव ब्रिटिश रेजीडेण्ट की सलाह पर अपने कार्य करेगा। विशेषकर अन्य राज्यों के साथ सम्बन्धों में रेजीडेण्ट की स्वीकृति लेनी अनिवार्य होगी। अपनी सैनिक शक्ति से वंचित हो जाने के उपरान्त नवाब अपनी रियासत में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए अंग्रेजों पर निर्भर होता जा रहा था। नवाब का अब विद्रोही मुखियाओं तथा ताल्लुकदारों पर कोई विशेष नियन्त्रण नहीं रहा।

धीरे-धीरे अवध पर कब्जा करने में अंग्रेजों की रुचि बढ़ती जा रही थी। उन्हें लगता था कि वहाँ की जमीन नील तथा कपास की कृषि के लिये सर्वोत्तम है तथा इस क्षेत्र को एक बड़े बाजार के रूप में विकसित किया जा सकता है। 1850 के दशक के आरम्भ तक अंग्रेज भारत के अधिकांश भागों पर कब्जा कर चुके थे मराठा प्रदेश, दोआब, कर्नाटक, पंजाब, सिंध तथा बंगाल इत्यादि सभी अंग्रेजों के हाथ में आ चुके थे। इस समय मात्र अवध ही एक बड़ा प्रान्त था जहाँ ब्रिटिश शासन स्थापित नहीं हो सकता था। अतः अंग्रेजों ने असंगत आरोप लगाकर अवध को अपने कब्जे में ले लिया।

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प्रश्न 6.
“अफवाहों और भविष्यवाणियों ने 1857 के विद्रोह को प्रोत्साहित किया।” विवेचना कीजिये।
उत्तर:
1857 के विद्रोह को फैलाने में अफवाहों और भविष्यवाणियों का भी भरपूर योगदान रहा और इन अफवाहों ने लोगों को विद्रोह करने के लिए उत्प्रेरित किया। यथा-
(1) चर्बी वाले कारतूस मेरठ से दिल्ली आने | वाले विद्रोही सैनिकों ने मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को बताया कि उन्हें जो कारतूस चलाने को दिए गए, उनमें गाय और सुअर की चर्बी का लेप लगा था। अगर वे इन कारतूसों को से लगाएंगे तो उनका धर्म नष्ट हो जाएगा। सिपाहियों का इशारा एनफील्ड राइफल की ओर f था। अंग्रेजों के लाख समझाने पर भी सिपाहियों की यह भ्रान्ति खत्म नहीं हुई और यह अफवाह जंगल की आग की तरह उत्तर भारत की समस्त छावनियों में फैल गई।

(2) अफवाह का स्त्रोत- राइफल इंस्ट्रक्शन डिपो के कमांडेण्ट कैप्टन राइट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि, “दमदम स्थित शस्वागार में काम करने वाले ‘नीची जाति’ के एक खलासी ने जनवरी, 1857 के तीसरे हफ्ते में एक ब्राह्मण सिपाही से पानी पिलाने को कहा था। ब्राह्मण सिपाही ने यह कहकर पानी पिलाने से इनकार कर दिया कि ‘नीची जाति’ के छूने से लोटा अपवित्र हो जाएगा।” इस पर खलासी ने जवाब दिया कि, ” (वैसे भी) जल्दी ही तुम्हारी जाति भ्रष्ट होने वाली है, क्योंकि अब तुम्हें गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूस मिलेंगे, जिन्हें तुम्हें मुँह से खींचना पड़ेगा।” इस अफवाह ने सैनिकों को क्रोधित कर दिया।

(3) आटे में हड्डियों का चूरा-1857 की शुरुआत में यह अफवाह भी जोरों पर फैली कि अंग्रेज सरकार ने हिन्दुओं और मुसलमानों की जाति और धर्म को नष्ट करने के लिए एक भयानक साजिश रची है। इस मकसद को प्राप्त करने के लिए उन्होंने बाजार में मिलने वाले आटे में गाय और सुअर की हड्डियों को पिसवाकर मिलवा दिया है। चारों ओर शक व भय फैल गया कि अंग्रेज हिन्दुस्तानियों को ईसाई बनाना चाहते हैं। शहरों और छावनियों में सिपाहियों ने आटे को छूने से भी मना कर दिया। इस अफवाह ने भी लोगों को विद्रोह के लिए उत्प्रेरित किया।

(4) 100 वर्ष पूरे होने पर अंग्रेजी राज के समाप्त होने की भविष्यवाणी- किसी बड़ी कार्यवाही के आह्वान को इस भविष्यवाणी से और बल मिला कि प्लासी के युद्ध (23 जून, 1757) के सौ साल पूरे होते ही 23 जून, 1857 को अंग्रेजी राज खत्म हो जायेगा। इस भविष्यवाणी से विद्रोह को प्रेरणा मिली।

(5) चपातियाँ बाँटना-उत्तर भारत के विभिन्न भागों से गाँव-गाँव में चपातियाँ बैटने की खबरें आ रही थीं। बताते हैं कि रात में एक आदमी आकर गाँव के चौकीदार को एक चपाती देता था तथा पाँच और चपाती बनाकर अगले गाँवों में पहुंचाने का निर्देश दे जाता था। यह सिलसिला यूँ ही चलता जाता था। जनता इसे किसी आने वाली उथल-पुथल का संकेत मान रही थी।

प्रश्न 7.
1857 के विद्रोह के पूर्व फैलने वाली अफवाहें और भविष्यवाणियाँ जनता के भय, उनकी आशंकाओं और विश्वासों को व्यक्त कर रही थीं।” विवेचना कीजिये।
अथवा
“अफवाहें तभी फैलती हैं, जब वे प्रभावशाली साबित होती हैं, जब लोगों में बहुत ज्यादा भय और | सन्देह फैल जाए।” 1857 के विद्रोह के संदर्भ में यह कथन कहाँ तक सत्य था?
अथवा
1857 के विद्रोह के राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक कारणों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
1857 के विद्रोह के पूर्व फैलने वाली अफवाहें और भविष्यवाणियाँ लोगों के भय, आशंकाओं, उनके विश्वासों और प्रतिबद्धताओं को उजागर कर रही थीं। अफवाहें तभी फैलती हैं जब लोगों के मस्तिष्क में गहरे दबे डर और सन्देह की अनुगूँज सुनाई देती है। 1857 में फैली अफवाहों पर लोग निम्न कारणों से विश्वास कर रहे थे –

(1) पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार यदि 1857 की अफवाहों को 1820 के दशक से अंग्रेजों द्वारा अपनाई जा रही नीतियों के सन्दर्भ में देखा जाए तो इनका अर्थ आसानी म से समझा जा सकता है। गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार पश्चिमी शिक्षा, पश्चिमी विचार और पश्चिमी संस्थानों के द्वारा भारतीय समाज को सुधारने के लिए खास नीतियाँ लागू कर रही थी। भारतीय समाज के कुछ लोगों की सहायता से उन्होंने अंग्रेजी माध्यम के स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्थापित किए थे जिनमें पश्चिमी विज्ञान और उदार कलाओं (Liberal Arts) के बारे में पढ़ाया जाता था।

(2) सामाजिक सुधार विलियम बैंटिक ने 1829 न में सतीप्रथा को बन्द करने के लिए एक कानून बनाया, क जिसमें सतीप्रथा को अवैध घोषित करते हुए दण्डनीय , अपराध कहा गया। इसके अतिरिक्त हिन्दू विधवा विवाह को वैध ठहराते हुए उसे कानूनी मान्यता दे दी गई। अंग्रेजों द्वारा सामाजिक कार्यों में हस्तक्षेप करने से भारतीयों में
न असन्तोष उत्पन्न हुआ।

(3) डलहौजी की हड़प नीति-डलहौजी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने के लिए शासकीय कमजोरी तथा दत्तकता को अवैध घोषित कर देने के बहानों के द्वार अवध, झाँसी, सतारा, नागपुर जैसी बहुत सी रियासतों क अपने कब्जे में ले लिया था। जैसे ही कोई रियासत अंग्रेजों के अधिकार में आती थी, वहाँ पर अंग्रेज अपने ढंग की शासन पद्धति, अपने कानून, भूमि विवाद निपटाने के अपने तरीके और भू-राजस्व वसूली की अपनी व्यवस्था लागू क देते थे।

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उत्तर भारत के लोगों पर इन कार्यवाहियों का गहरा असर पड़ा। जनता पर नई नीतियों व कार्यवाहियों का प्रभाव- इन कार्यवाहियों से लोगों को लगने लगा कि अब तक जिन चीजों की वे कद्र करते थे, जिनको पवित्र मानते थे चाहे वे राजे-रजवाड़े हों या सामाजिक, धार्मिक रीति- रिवाज हों या भूमि स्वामित्व, लगान अदायगी की प्रणाली हो, इन सबको नष्ट करके उन पर एक ऐसी व्यवस्था लादी जा रही थी जो ज्यादा हृदयहीन, परायी और दमनकारी थी।

(4) ईसाई धर्म का प्रचार- अंग्रेज अफसरों ने ईसाई धर्म को बढ़ावा देने के लिए पादरियों को प्रोत्साहित किया। इससे भी भारतीयों में असन्तोष व्याप्त था।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित क्रान्तिकारियों के विषय में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
1. रानी लक्ष्मीबाई
2. नाना साहेब
3. बहादुरशाह द्वितीय।
उत्तर:
1. रानी लक्ष्मीबाई लक्ष्मीबाई 1857 ई. के स्वतन्त्रता संग्राम की अग्रणी महिला क्रान्तिकारी थीं। वह झाँसी की रानी थी। उनके पति को अंग्रेजों ने पुत्र गोद लेने की आज्ञा प्रदान नहीं की थी। लक्ष्मीबाई अपने पति की मृत्यु के उपरान्त झाँसी की शासिका बनीं। इन्होंने कई युद्धों में अंग्रेजों को परास्त किया। 1858 ई. में अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज ने झाँसी पर आक्रमण किया। ताँत्या टोपे के साथ मिलकर इन्होंने बड़ी वीरता के साथ अपने किले की रक्षा की किन्तु वह पराजित हुई।

2. नाना साहेब नाना साहेब 1857 के विद्रोह के एक प्रमुख सेनापति थे। नाना साहेब एक वीर मराठा तथा पेशवा बाजीराव के दसक पुत्र थे। उन्होंने स्वयं को जून, 1857 मँ कानपुर में पेशवा घोषित कर दिया। किन्तु अंग्रेजों ने उन्हें पेशवा मानने से इन्कार कर दिया। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने नाना साहेब की 80,000 पाउण्ड की पेंशन भी बन्द कर दी। इससे नाना साहेब अंग्रेजों से अत्यधिक क्रुद्ध हो गये। नाना साहेब ने प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजों का वीरता के साथ मुकाबला किया। कानपुर में क्रान्तिकारियों का नेतृत्व भी नाना साहेब ने किया तथा कर्नल नील से जबरदस्त संघर्ष किया।

3. बहादुरशाह द्वितीय बहादुरशाह जफर द्वितीय 7 अन्तिम मुगल सम्राट् था अंग्रेज अधिकारियों ने कहा था कि बहादुरशाह जफर के उपरान्त उसके उत्तराधिकारियों को दिल्ली लाल किले में रहने नहीं दिया जाएगा। इसी कारण बहादुरशाह अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए। विद्रोहियों ने जब बहादुरशाह से अपना प्रधान सेनापति बनने को कहा तो कुछ संकोच के साथ वह इस पर राजी हो गये। बहादुरशाह ने सैनिकों द्वारा आरम्भ किये गये इस विद्रोह को युद्ध का रूप प्रदान कर दिया। बहादुरशाह ने भारत की सभी रियासतों, जमींदारों तथा सरदारों को पत्र लिखकर एकजुट होने तथा संगठित होने का अनुरोध किया। किन्तु बहादुरशाह की यह योजना सफल नहीं हो सकी तथा उनको गिरफ्तार करके रंगून भेज दिया गया।

प्रश्न 9.
1857 के विद्रोह ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रोत्साहित किया।” विवेचना कीजिये।
उत्तर:
1857 के विद्रोह द्वारा भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रोत्साहित करना 1857 के विद्रोह ने बीसवीं शताब्दी के भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रोत्साहित किया। इस विद्रोह के इर्द- गिर्द राष्ट्रवादी कल्पना का एक विस्तृत ताना-बाना बुन दिया
गया था।

(1) प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1857 के विद्रोह को प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की संज्ञा दी जाती है। इस व्यापक विद्रोह में देश के हर वर्ग के लोगों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध मिलकर लड़ाई लड़ी थी। इसमें हिन्दुओं और मुसलमानों ने कन्धा से कन्धा मिलाकर अंग्रेजों का प्रतिरोध किया था। उनका प्रमुख उद्देश्य अंग्रेजी शासन को समाप्त कर उनके चंगुल से भारत को स्वतन्त्र कराना था।

(2) कला और साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार – अनेक कलाकारों एवं साहित्यकारों ने भी अपनी कलाकृतियों एवं रचनाओं द्वारा भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया। उन्होंने 1857 के विद्रोह के नेताओं को ऐसे नायकों के रूप में प्रस्तुत किया जो देश को रणस्थल की ओर ले जा रहे थे। उन्हें लोगों को दमनकारी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उत्तेजित करते हुए चित्रित किया जाता था। इन विद्रोही नायक-नायिकाओं की प्रशंसा में अनेक कविताएँ लिखी गई।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर, नाना साहिब, कुंवर सिंह, बेगम हजरत महल आदि के पराक्रमपूर्ण कार्यों, साहस, त्याग और बलिदान ने भारतीयों को अत्यधिक प्रभावित किया और वे उनके लिए प्रेरणा के स्रोत बन गए। एक हाथ में घोड़े की रास और दूसरे हाथ में तलवार थामे अपनी मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए लड़ाई लड़ने वाली रानी लक्ष्मीबाई की शूरवीरता का गौरवगान करते हुए कविताएँ लिखी गई।

रानी झांसी को एक ऐसे मर्दाना योद्धा के रूप में चित्रित किया जाता था जो शत्रु दल का पीछा करते हुए और ब्रिटिश सैनिकों का वध करते हुए आगे बढ़ रही थी। सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित ‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी’ नामक कविता सम्पूर्ण देश में लोकप्रिय थी। इस प्रकार भारतीय राष्ट्रवादी चित्र हमारी राष्ट्रवादी कल्पना को निर्धारित करने में सहायता दे रहे थे। इस प्रकार 1857 ई. के विद्रोह ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोगों में राष्ट्रीय भावना का प्रसार किया। इसने बीसवीं शताब्दी के राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार कर दी।

JAC Class 12 Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय Important Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

बहुचयनात्मक प्रश्न

1. खेती-बाड़ी के औजार के लिए गाँव वालों को किस पेड़ की लकड़ी की आवश्यकता थी?
(क) शीशम
(ख) अंगू
(ग) सागौन
(घ) बबूल
उत्तर:
(ख) अंगू

2. सूचना के अधिकार का आंदोलन किस सन् में प्रारंभ हुआ
(क) 1989
(ख) 1987
(ग) 1990
(घ) 1988
उत्तर:
(ग) 1990

3. चिपको आंदोलन की शुरुआत किस राज्य से हुई?
(क) उत्तराखण्ड
(ख) छत्तीसगढ़
(ग) झारखण्ड
(घ) मध्यप्रदेश
उत्तर:
(क) उत्तराखण्ड

4. गोलपीठ कविता किसके द्वारा लिखी गई है?
(क) फणीश्वर नाथ रेणु
(ख) नामदेव ढसाल
(ग) रवीन्द्रनाथ टैगोर
(घ) मैथिलीशरण गुप्त
उत्तर:
(ख) नामदेव ढसाल

5. बीकेयू किन प्रदेशों के किसानों का संगठन था?
(क) पंजाब और हरियाणा
(ख) पश्चिम उत्तरप्रदेश और पंजाब
(ग) हरियाणा और महाराष्ट्र
(घ) पश्चिम उत्तरप्रदेश और हरियाणा
उत्तर:
(घ) पश्चिम उत्तरप्रदेश और हरियाणा

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6. मार्क्सवादी-लेनिनवादी समूहों को किस नाम से जाना जाता है?
(क) माओवादी
(ख) नक्सलवादी
(ग) गाँधीवादी
(घं) आतंकवादी
उत्तर:
(ख) नक्सलवादी

7. दलित पैंथर्स का गठन किया गया
(क) 1970
(ख) 1972
(ग) 1973
(घ) 1977
उत्तर:
(ख) 1972

8. चिपको आंदोलन किससे संबंधित है?
(क) पर्यावरण.
(ख) मानवीय
(ग) राष्ट्रीय
(घ) प्रांतीय
उत्तर:
(क) पर्यावरण

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए :

1. देश ने आजादी के बाद …………… का मॉडल अपनाया था।
उत्तर:
नियोजित विकास

2. नामदेव ढसाल ………………… के प्रसिद्ध कवि थे।
उत्तर:
मराठी

3. ……………. से संकेत दलित समुदाय की ओर किया गया है।
उत्तर:
अँधेरे की पदयात्रा

4. दलित पैंथर्स नामक संगठन का निर्माण ………………..में सन् ……………….. में हुआ।
उत्तर:
महाराष्ट्र, 1972

5. दलितों पर हो रहे अत्याचार से संबंधित कानून …………………. में बनाया गया।
उत्तर:
1989

6. ……………. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसानों का संगठन था।
उत्तर:
भारतीय किसान यूनियन

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
चिपको आंदोलन का सम्बन्ध किस प्रदेश से है?
उत्तर:
उत्तराखण्ड।

प्रश्न 2.
भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् विकास का कौनसा प्रतिमान अपनाया?
उत्तर:
नियोजित विकास का प्रतिमान

प्रश्न 3.
नामदेव ढसाल कौन थे?
उत्तर:
नामदेव ढसाल मराठी के प्रसिद्ध कवि थे।

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प्रश्न 4.
प्रमुख कवि नामदेव ढसाल का सम्बन्ध किस राज्य से था?
उत्तर:
महाराष्ट्र राज्य से।

प्रश्न 5.
महेन्द्र सिंह टिकैत क्यों प्रसिद्ध हैं?
उत्तर:
महेन्द्र सिंह टिकैत भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष के रूप में प्रसिद्ध हैं।

प्रश्न 6.
दलित पैंथर्स नामक संगठन किसके द्वारा स्थापित किया गया?
उत्तर:
दलित पैंथर्स नामक संगठन का उदय 1972 में दलित युवाओं द्वारा स्थापित किया गया।

प्रश्न 7.
भारतीय किसान यूनियन का गठन किस प्रदेश में हुआ था?
उत्तर:
उत्तरप्रदेश में।

प्रश्न 8.
मछुआरों के राष्ट्रीय संगठन का क्या नाम है?
उत्तर:
नेशनल फिश वर्कर्स फोरम।

प्रश्न 9.
नामदेव ढसाल कौन थे? उनके दलित पैंथर्स समर्थक विचारों का उनकी एक मराठी कविता के आधार पर संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
नामदेव ढसाल मराठी के प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने अनेक रचनाएँ लिखीं जिनमें से कुछ बहुत प्रसिद्ध अंधेरे में पदयात्रा और सूरजमुखी आशीषों वाला फकीर है।

प्रश्न 10.
पंचायती राज की स्थापना कौनसे संवैधानिक संशोधन द्वारा लागू हुई?
उत्तर:
73वें संवैधानिक संशोधन द्वारा।

प्रश्न 11.
‘सूरजमुखी आशीषों वाला फकीर’ किनको इंगित करता है?
उत्तर:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर।

प्रश्न 12.
बामसेफ का पूरा नाम लिखिए।
उत्तर:
बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी एम्पलाईज फेडरेशन।

प्रश्न 13.
हरित क्रांति से किस राज्य के किसानों को फायदा मिला?
उत्तर:
हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तरप्रदेश|

प्रश्न 14.
सूचना के अधिकार के आन्दोलन की शुरुआत कब हुई?
उत्तर:
1990 में।

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प्रश्न 15.
संसद ने सूचना के अधिकार विधेयक को कब पास किया?
उत्तर:
2002 में।

प्रश्न 16.
पिछड़े वर्ग का पिता किसे कहा जाता है?
उत्तर:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर को।

प्रश्न 17.
राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना 1992 में की गई।

प्रश्न 18.
सुन्दरलाल बहुगुणा, मेधा पाटकर तथा बाबा आमटे किस आन्दोलन से सम्बन्ध रखते हैं?
उत्तर:
पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन।

प्रश्न 19.
चिपको आन्दोलन की शुरुआत कब हुई?
उत्तर:
1973 में।

प्रश्न 20.
मछुआरों की संख्या के लिहाज से भारत का विश्व में कौनसा स्थान है?
उत्तर:
दूसरा।

प्रश्न 21.
जन आन्दोलन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
ऐसे आन्दोलन जो लोगों की किसी समस्या या जनहित को लेकर चलाये जाते हैं उन्हें जन आन्दोलन कहते हैं।

प्रश्न 22.
चिपको आन्दोलन का उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
चिपको आन्दोलन का उद्देश्य वनों की रक्षा करना था।

प्रश्न 23.
चिपको आंदोलन का नूतन पहलू क्या था?
उत्तर:
चिपको आंदोलन का नूतन पहलू जंगल के वृक्षों की अंधाधुंध कटाई को रोकना था।

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प्रश्न 24.
महाराष्ट्र में दलितों के हितों की रक्षा के लिए कौनसा संगठन बनाया गया और कब बनाया गया?
उत्तर:
महाराष्ट्र में 1972 में दलित युवाओं का संगठन दलित पैन्थर्स बनाया गया।

प्रश्न 25.
आन्ध्रप्रदेश के किस जिले में सबसे पहले ताड़ी (शराब) विरोधी आन्दोलन आरम्भ हुआ?
उत्तर:
ताड़ी (शराब) विरोधी आन्दोलन का आरम्भ नेल्लौर जिले में हुआ

प्रश्न 26.
आंध्रप्रदेश के नैल्लोर जिले के ताड़ी आंदोलन में महिलाओं ने क्या किया था?
उत्तर:
नैल्लोर में लगभग 5000 महिलाओं ने ताड़ी की बिक्री बंद करने संबंधी एक प्रस्ताव पास कर जिला कलेक्टर को भेजा।

प्रश्न 27.
नेशनल फिश वर्कर्स फोरम ने सरकार से कब लड़ाई लड़ी?
उत्तर:
नेशनल फिश वर्कर्स फोरम ने 1977 में केन्द्र सरकार के साथ अपनी पहली कानूनी लड़ाई लड़ी। प्रश्न 28. किन्हीं दो किसान आन्दोलनों के नाम लिखें।
उत्तर:
किसान आन्दोलनों के नाम हैं।  तिभागा आन्दोलन, तेलंगाना आन्दोलन।

प्रश्न 29.
नेशनल फिश वर्कर्स फोरम ने केन्द्र सरकार से पहली कानूनी लड़ाई कब लड़ी?
उत्तर:
1997 में।

प्रश्न 30.
भारत में हुए किन्हीं दो पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित आन्दोलनों के नाम लिखिए।
उत्तर:
पर्यावरण संरक्षण से सम्बन्धित आन्दोलन हैं।  चिपको आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन।

प्रश्न 31.
ए. एन. एफ. (ANF) का पूरा नाम लिखिए।
उत्तर:
ए. एन. एफ. (ANF) का पूरा नाम है। नेशनल फिश वर्कर्स फोरम (National Fish Workers Forum)।

प्रश्न 32.
बी. के. यू. (BKU) का पूरा नाम बताइये।
उत्तर:
बी. के. यू. (BKU) का पूरा नाम है। भारतीय किसान यूनियन।

प्रश्न 33.
औपनिवेशिक दौर के प्रमुख आंदोलन कौन से थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक दौर के प्रमुख आंदोलन किसान आंदोलन, मजदूर संगठनों के आंदोलन, आदिवासी मजदूर संगठनों के आंदोलन तथा स्वाधीनता आंदोलन थे।

प्रश्न 34.
ताड़ी – विरोधी आंदोलन का नारा क्या था?
उत्तर:
ताड़ी की बिक्री बंद करो।

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प्रश्न 35.
संविधान के किन संशोधन के अंतर्गत महिलाओं को स्थानीय राजनीतिक निकायों में आरक्षण दिया गया?
उत्तर:
73वें और 74वें।

प्रश्न 36.
सूचना का अधिकार के आंदोलन की शुरुआत कब हुई और इसका नेतृत्व किसने किया?
उत्तर:
सूचना का अधिकार के आंदोलन की शुरुआत 1990 में हुई और इसका नेतृत्व मजदूर किसान शक्ति संगठन ने किया।

प्रश्न 37.
सूचना का अधिकार को राष्ट्रपति की मंजूरी कब हासिल हुई?
उत्तर:
जून, 2005

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
चिपको आन्दोलन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
चिपको आन्दोलन की शुरुआत 1973 में उत्तराखण्ड राज्य में हुई । इस आन्दोलन के द्वारा स्त्री-पुरुषों ने पेड़ों की व्यावसायिक कटाई के विरोध हेतु पेड़ों को अपनी बाँहों में घेर लिया ताकि उन्हें काटने से बचाया जा सके। यह विरोध आगामी दिनों में भारत के पर्यावरण आंदोलन के रूप में बदल गया तथा ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में विश्वप्रसिद्ध हुआ।

प्रश्न 2.
भारत में नारी आन्दोलन की मुख्य विशेषता बताइये।
उत्तर:
भारत में नारी आन्दोलन की मुख्य विशेषता यह है कि यह एक गैर- राजनीतिक आन्दोलन है। इसका प्रमुख उद्देश्य महिलाओं का उत्थान करना है।

प्रश्न 3.
महिला सशक्तिकरण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
महिला सशक्तिकरण से तात्पर्य महिलाओं की समाज में दोयम दर्जे की भूमिका को समाप्त करना तथा समाज की मुख्यधारा के साथ जोड़ते हुए सभी क्षेत्रों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने से है।

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प्रश्न 4.
सूचना के अधिकार का आंदोलन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सूचना के अधिकार के आंदोलन का प्रारंभ 1990 में हुआ। राजस्थान में कार्य कर रहे ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ ने भीम तहसील में सरकार के सामने यह माँग रखी कि अकाल राहत कार्य तथा मजदूरों को दिए जाने वाले वेतन के रिकार्ड का सार्वजनिक खुलासा किया जाये । यही माँग आगे चलकर सूचना के अधिकार आन्दोलन में बदल गई।

प्रश्न 5.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन के प्रमुख नेता का नाम बताइए। उन्होंने इस आन्दोलन को कैसे आगे बढ़ाया?
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन की प्रमुख नेता मेधा पाटकर हैं। 1980 के दशक में इस आन्दोलन की तरफ लोगों का ध्यान उस समय आकर्षित हुआ जब विस्थापित लोग सुसंगठित हुए और इस आन्दोलन के जाने-माने कार्यकर्ता बाबा आमटे, सुन्दरलाल बहुगुणा आदि इसमें शामिल हुए।

प्रश्न 6.
नर्मदा बचाओ आंदोलन के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
नर्मदा बचाओ आन्दोलन पर संक्षिप्त नोट लिखिए ।
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आन्दोलन बाँध परियोजनाओं के विरुद्ध चलाया गया आन्दोलन था। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य बांध द्वारा विस्थापित लोगों के उचित पुनर्वास की व्यवस्था करना था। राज्य अधिकारियों द्वारा पुनर्वास की योजना को उचित ढंग से लागू नहीं किया जा रहा था। इसलिए मानवाधिकारों से जुड़े हुए कार्यकर्ता इस आंदोलन के समर्थक बन गये।

प्रश्न 7.
तेलंगाना आन्दोलन क्या था?
उत्तर:
तेलंगाना आन्दोलन हैदराबाद राज्य में 1946 में जागीरदारों द्वारा की जा रही जबरन एवं अत्यधिक वसूली के विरोध में चलाया गया क्रान्तिकारी आन्दोलन था । क्रान्तिकारी किसानों ने पाँच हजार गुरिल्ला सैनिक तैयार किए और जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ किया। भारत सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने पर यह आन्दोलन समाप्त हुआ।

प्रश्न 8.
चिपको आंदोलन की मुख्य माँगें क्या थीं?
उत्तर:
चिपको आंदोलन की मुख्य माँगें निम्न थीं।

  1. जंगल की कटाई का कोई भी ठेका बाहरी व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए।
  2. स्थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर कारगर नियंत्रण होना चाहिए।
  3. सरकार लघु उद्योगों के लिए कम कीमत की सामग्री उपलब्ध कराए और इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी संतुलन को नुकसान पहुँचाए बिना यहाँ का विकास सुनिश्चित करे।
  4. आंदोलन ने भूमिहीन वन कर्मचारियों का आर्थिक मुद्दा भी उठाया और न्यूनतम मजदूरी की गारंटी की माँग की।

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प्रश्न 9.
ताड़ी विरोधी आन्दोलन क्या था?
उत्तर:
वर्ष 1992 के सितम्बर और अक्टूबर में आंध्रप्रदेश के गांवों में महिलाओं ने शराब के विरुद्ध लड़ाई छेड़ रखी थी। यह लड़ाई शराब माफिया और सरकार दोनों के खिलाफ थी। इस आंदोलन ने वृहद् रूप धारण कर लिया तो इसे राज्य में ताड़ी – विरोधी आंदोलन के रूप में जाना गया।

प्रश्न 10.
चिपको आंदोलन में महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी की। इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चिपको आंदोलन में महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी की। इस आंदोलन में महिलाओं ने शराबखोरी की लत के खिलाफ भी लगातार आवाज उठायी।

प्रश्न 11.
सरदार सरोवर परियोजना को कब और कहाँ प्रारंभ किया गया था?
उत्तर:
1980 के दशक के प्रारंभ में सरदार सरोवर परियोजना को मध्यप्रदेश में नर्मदा घाटी में प्रारंभ किया गया।

प्रश्न 12.
सरदार सरोवर परियोजना के क्या लाभ बताये गये?
उत्तर:
सरदार सरोवर परियोजना के अन्तर्गत एक बहुउद्देश्यीय बांध बनाने का प्रस्ताव है। इसके निर्माण से तीन राज्यों में पीने का पानी, सिंचाई तथा बिजली के उत्पादनं की सुविधा उपलब्ध करायी जा सकेगी। कृषि की उपज में गुणात्मक बढ़ोतरी होगी तथा इससे बाढ़ और सूखे की आपदाओं पर अंकुश लगाया जा सकेगा।

प्रश्न 13.
महिला सशक्तिकरण के लिए कोई दो सुझाव दीजिए।
उत्तर:

  1. महिलाओं के लिए उचित शिक्षा व्यवस्था की जाए ताकि उनका मानसिक विकास हो सके। इससे उनका दृष्टिकोण व्यापक होगा और वे अपने अधिकारों के प्रति सजग होंग ।
  2. महिलाएँ भी पुरुषों के समान क्षमता और सूझबूझ रखती हैं। महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।

प्रश्न 14.
सत्तर और अस्सी के दशक में समाज के कई तबकों का राजनीतिक दलों से मोहभंग होने का क्या कारण था?
उत्तर:
सत्तर और अस्सी के दशक में समाज के कई तबकों का राजनीतिक दलों से मोहभंग हुआ क्योंकि जनता पार्टी के रूप में गैर-कांग्रेसवाद का प्रयोग कुछ खास नहीं चल पाया और इसकी असफलता से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल भी कायम हुआ था और इसका एक कारण सरकार की आर्थिक नीतियाँ भी रहीं।

प्रश्न 15.
नियोजित विकास के मॉडल को अपनाने के पीछे दो लक्ष्य क्या थे?
उत्तर:
नियोजित विकास का मॉडल अपनाने के पीछे दो लक्ष्य निम्न थे।

  1. आर्थिक संवृद्धि
  2. आय का समतापूर्ण बँटवारा।

प्रश्न 16.
जन आन्दोलनों से क्या अभिप्राय है?
अथवा
जन आन्दोलनों की प्रकृति पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
जन आन्दोलन- जन आन्दोलन वे आन्दोलन होते हैं, जो प्राय: समाज के संदर्भ या श्रेणी के क्षेत्रीय अथवा स्थानीय हितों, माँगों और समस्याओं से प्रेरित होकर प्रायः लोकतान्त्रिक तरीके से चलाए जाते हैं। चिपको आन्दोलन, दलित पैंथर्स आन्दोलन तथा ताड़ी विरोधी आन्दोलन इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

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प्रश्न 17.
दलित पैंथर्स क्या था? इसकी किन्हीं दो माँगों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
दलित पैंथर्स – दलित हितों की दावेदारी के क्रम में महाराष्ट्र में सन् 1972 में दलित युवाओं का एक ‘संगठन ‘दलित पैंथर्स’ बना। दलित पैंथर्स की माँगें:

  1. जाति आधारित असमानता व भौतिक साधनों के मामले में दलितों के साथ हो रहे अन्याय समाप्त हों।
  2. आरक्षण के कानून और सामाजिक न्याय की नीतियों का कारगर ढंग से क्रियान्वयन हो।

प्रश्न 18.
दलित पैंथर्स की किन्हीं दो गतिविधियों पर प्रकाश डालिये।
उत्तर:

  1. दलित पैंथर्स ने दलित अधिकारों की दावेदारी करते हुए जन कार्यवाही का रास्ता अपनाया।
  2. महाराष्ट्र के विभिन्न इलाकों में दलितों पर बढ़ रहे अत्याचारों से लड़ना दलित पैंथर्स की एक अन्य प्रमुख गतिविधि थी। इसके परिणामस्वरूप सरकार ने 1989 में दलित अत्याचार करने वाले के लिए कठोर दंड के प्रावधान वाला एक व्यापक कानून बनाया।

प्रश्न 19.
‘दल आधारित आंदोलनों’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
दल आधारित आन्दोलन:
मुम्बई, कोलकाता तथा कानपुर जैसे औद्योगिक शहरों में सभी बड़े दलों ने मजदूरों को लामबंद करने के लिए अपने-अपने मजदूर संगठन बनाए। आंध्रप्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र के किसान कंम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में लामबन्द हुए। दलों के नेतृत्व में गठित इन आंदोलनों को ‘दल आधारित आंदोलन’ कहा गया।

प्रश्न 20.
नामदेव ढसाल कौन थे? उनके दलित पैंथर्स समर्थक ( पक्षधर ) विचारों की उनकी मराठी कविता के आधार पर संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
नामदेव ढसाल: नामदेव ढसाल मराठी भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। उनकी मराठी कविता के आधार पर कहा जा सकता है कि।

  1. वे दलितों के प्रति सच्ची हमदर्दी रखते थे।
  2. वे दलितों को एक गरिमापूर्ण स्थान दिलाने के लिए जुझारू संघर्ष की बात करते थे।
  3. वे डॉ. अम्बेडकर को प्रेरणा पुरुष मानते थे।

प्रश्न 21.
जन आंदोलनों ने किस प्रकार लोकतंत्र को अभिव्यक्ति दी?
उत्तर:
जन आंदोलनों का इतिहास हमें लोकतांत्रिक राजनीति को अच्छी तरह से समझने में सहायता करता है। प्रथमतः, इन आंदोलनों का उद्देश्य दलीय राजनीति की बुराइयों को दूर करना था। दूसरे, इन आंदोलनों ने समाज के उन नये वर्गों की सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी, जो अपनी समस्याओं को चुनावी राजनीति के माध्यम से हल नहीं कर पा रहे थे।

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प्रश्न 22.
स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं की स्थिति: स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं को पुरुषों के समान समानता का दर्जा प्राप्त हुआ है। महिलाएँ किसी भी प्रकार की शिक्षा या प्रशिक्षण को चुनने के लिए स्वतन्त्र हैं। वे सार्वजनिक सेवाओं के हर क्षेत्र में अपनी भूमिका निभा रही हैं। परन्तु ग्रामीण समाज में अभी भी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है जिसे दूर किये जाने की आवश्यकता है। यद्यपि कानूनी तौर पर महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किये गये हैं परन्तु आदि काल से चली आ रही पुरुष प्रधान व्यवस्था में व्यावहारिक रूप में महिलाओं के साथ अभी भी भेदभाव किया जाता है।

प्रश्न 23.
” ताड़ी विरोधी आन्दोलन महिला आन्दोलन का हिस्सा था ।” कारण बताइये।
उत्तर:
वर्ष 1992 के सितम्बर और अक्टूबर में आंध्रप्रदेश के गांवों में महिलाओं ने ताड़ी अर्थात् शराब के विरुद्ध लड़ाई छेड़ रखी थी। इस आंदोलन ने जब वृहद रूप धारण कर लिया तो यह महिला आंदोलन का हिस्सा बन गया क्योंकि।

  1. यह ताड़ी विरोध के साथ-साथ घरेलू हिंसा, दहेज-प्रथा कार्यस्थल एवं सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन बन गया जो कि महिला आंदोलन के मुख्य मुद्दे थे।
  2. इस आंदोलन ने महिलाओं के मुद्दों के प्रति समाज में व्यापक जागरूकता उत्पन्न की।
  3. इसमें महिलाओं को विधायिका में दिये जाने वाले आरक्षण के मामले उठे।
    इस प्रकार ताड़ी विरोधी आंदोलन महिला आंदोलन का हिस्सा था।

प्रश्न 24.
आजादी के शुरुआती 20 सालों में अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय संवृद्धि होने के बावजूद गरीबी और असमानता बरकरार रही क्यों?
उत्तर:
आजादी के शुरुआती 20 सालों में अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय वृद्धि होने के बावजूद गरीबी और असमानता बरकरार रही क्योंकि आर्थिक संवृद्धि के लाभ समाज के हर तबके को समान मात्रा में नहीं मिले। जाति और लिंग पर आधारित सामाजिक असमानताओं ने गरीबी के मसले को और ज्यादा जटिल तथा धारदार बना दिया। शहरी- औद्योगिक क्षेत्र तथा ग्रामीण कृषि क्षेत्र के बीच न पाटी जा सकने वाली दूरी पैदा हुई। समाज के विभिन्न समूहों के बीच अपने साथ हो रहे अन्याय और वंचना का भाव प्रबल हुआ।

प्रश्न 25.
जन आंदोलन का क्या अर्थ है? दल समर्थित (दलीय) और स्वतंत्र (निर्दलीय) आंदोलन का स्वरूप स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
जन-आन्दोलन: प्रजातांत्रिक मर्यादाओं तथा संवैधानिकियमों के आधार पर तथा सामाजिक शिष्टाचार से संबंधित नियमों के पालन सहित सरकारी नीतियों, कानून व प्रशासन सहित किसी मुद्दे पर व्यक्तियों के समूह या समूहों के द्वारा असहमति प्रकट किया जाना जन-आंदोलन कहलाता है।

  1. दल आधारित आंदोलन: जब कभी राजनैतिक दल या राजनीतिक दलों के समर्थन प्राप्त समूहों द्वारा आंदोलन किये जाते हैं तो इन्हें दलीय आंदोलन कहा जाता है। जैसे किसान सभा आंदोलन एक दलीय आंदोलन था।
  2. स्वतंत्र जन आंदोलन: जब आंदोलन असंगठित लोगों के समूह द्वारा संचालित किये जाते हैं, तो वे निर्दलीय जन आंदोलन कहलाते हैं। जैसे—चिपको आंदोलन, दलित पैंथर्स आंदोलन|

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प्रश्न 26.
महिला सशक्तिकरण के साधन के रूप में संसद और राज्य विधानसभाओं में सीटों के आरक्षण की व्यवस्था का परीक्षण कीजिए।
उत्तर:
महिला सशक्तिकरण के लिए यह आवश्यक है कि महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाया जाए। जब तक स्थानीय संस्थाओं, विधानमण्डलों और संसद में महिलाओं के लिए स्थान सुरक्षित नहीं किये जाते तब तक महिलाओं की स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। 73वें – 74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय संस्थाओं में तो महिलाओं के लिए कुल निर्वाचित पदों का एक-तिहाई भाग आरक्षित कर दिया गया है। इससे महिला सशक्तिकरण आन्दोलन को बल मिला। लेकिन संसद तथा राज्य विधान मण्डलों में अभी तक महिलाओं को आरक्षण प्रदान नहीं किया जा सका है।

प्रश्न 27.
क्या आप पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों पर आरक्षण के पक्ष में हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए आरक्षण की यह व्यवस्था सही है; क्योंकि

  1. यह संस्था तभी सफलतापूर्वक कार्य कर सकती है जब इसके संगठन में पुरुष और स्त्रियों दोनों को स्थान मिले।
  2. यदि स्त्रियों को पंचायतों में आरक्षण दिया जाता है तो पंचायत और अधिक लोकतान्त्रिक संस्था बनेगी तथा लोगों का उस पर विश्वास बना रहेगा। क्योंकि स्त्रियाँ शारीरिक रूप से निर्बल होती हैं, इस कारण भी उनको अपनी सुरक्षा के लिए पंचायतों में आरक्षण दिया जाना चाहिए।
  3. ग्रामीण स्तर पर महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बहुत कम है, यदि पंचायतों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की जाती हैं, तो इससे राजनीति में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ेगी तथा उन्हें राजनीतिक शिक्षा भी मिलेगी।

प्रश्न 28.
आरक्षण व्यवस्था के पक्ष में कोई चार तर्क दीजिए।
उत्तर:
आरक्षण व्यवस्था के पक्ष में तर्क आरक्षण व्यवस्था के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं।

  1. सामाजिक सम्मान में वृद्धि: आरक्षण की नीति के फलस्वरूप कमजोर वर्ग के लोग सार्वजनिक सेवा के किसी भी उच्च पद को प्राप्त करने में सफल हो सकेंगे, जिससे उनके सामाजिक सम्मान में वृद्धि होगी।
  2. राजनीतिक भागीदारी में वृद्धि: आरक्षण की नीति के कारण समाज के उच्च वर्गों के साथ-साथ निम्न वर्गों को भी शासन प्रणाली और राजनीतिक व्यवस्था में अपनी भागीदारी निभाने का अवसर मिलता है।
  3. राजनीतिक चेतना में वृद्धि: कमजोर वर्गों के शिक्षित लोग अब अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति पहले से अधिक जागरूक हैं।
  4. आर्थिक उन्नति में सहायक: आरक्षण की नीति से समाज के गरीब वर्गों के लिए वर्षों से रुके हुए व्यवसाय के अवसर खुलेंगे, जिससे उनकी आर्थिक उन्नति होगी।

प्रश्न 29.
आरक्षण नीति के विरोध में कोई चार तर्क दीजिए।
उत्तर:
आरक्षण नीति के विरोध में तर्क- आरक्षण की नीति के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं।

  1. समानता के सिद्धान्त के विरुद्ध: आरक्षण की व्यवस्था समानता के मूल अधिकार के विरुद्ध है।
  2. जातिगत भेदभाव को बढ़ावा: इस व्यवस्था से जातिवाद को बहुत अधिक बढ़ावा मिला है।
  3. आरक्षण का लाभ सभी को समान रूप से नहीं: आरक्षण का लाभ अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों के सभी लोगों को नहीं मिल पाया है। इससे लाभ इन जातियों के एक छोटे से वर्ग ने उठाया है।
  4. निर्भरता को बढ़ावा: आरक्षण के कारण अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों की आत्म- निर्भरता में कमी हुई है।

प्रश्न 30.
किन्हीं तीन किसान आन्दोलनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
किसान आन्दोलन: तीन प्रमुख किसान आन्दोलन निम्नलिखित हैं।

  1. तिभागा आन्दोलन: तिभागा आन्दोलन 1946-47 में बंगाल में प्रारम्भ हुआ। यह आन्दोलन मुख्यतः जोतदारों के विरुद्ध मझोले किसान एवं बंटाईदारों का संयुक्त प्रयास था। इस आन्दोलन का मुख्य कारण भीषण अकाल था।
  2. तेलंगाना किसान आन्दोलन: तेलंगाना आन्दोलन हैदराबाद राज्य में 1946 में जागीरदारों द्वारा की जा रही जबरन एवं अत्यधिक वसूली के विरोध में चलाया गया क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन था।
  3. आधुनिक आन्दोलन: 1980 के दशक में महाराष्ट्र, गुजरात तथा पंजाब के किसानों ने कपास के दामों को कम किए जाने के विरोध में आन्दोलन किया। 1987 में किसानों के द्वारा गुजरात विधानसभा का घेराव किये जाने के कारण पुलिस ने किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार किए।

प्रश्न 31.
स्वयंसेवी संगठन अथवा स्वयंसेवी क्षेत्र के संगठन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
राजनीतिक धरातल पर सक्रिय कई समूहों का विश्वास लोकतांत्रिक संस्थाओं और चुनावी राजनीति से उठ गया। ये समूह दलगत राजनीति से अलग हुए और अपने विरोध के स्वर देने के लिए इन्होंने जनता को लामबंद करना शुरू किया। इस काम में विभिन्न तबकों के राजनीतिक कार्यकर्ता आगे आए और दलित तथा आदिवासी जैसे वंचितों को लामबंद करना शुरू किया। मध्यवर्ग तथा युवा कार्यकर्ताओं ने गाँव के गरीब लोगों के बीच रचनात्मक कार्यक्रम तथा सेवा संगठन चलाए। इन संगठनों के सामाजिक कार्यों की प्रकृति स्वयंसेवी थी इसलिए इन संगठनों को स्वयंसेवी संगठन या स्वयंसेवी क्षेत्र का संगठन कहा गया।

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प्रश्न 32.
नर्मदा बचाओ आंदोलन के पक्ष और विपक्ष में दो-दो तर्क दीजिये।
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आंदोलन के पक्ष में तर्क।

  1. बाँध के निर्माण से संबंधित राज्यों के 245 गाँव डूबने की आशंका थी। इससे ढाई लाख लोग निर्वासित हो सकते थे।
  2. इस प्रकार की परियोजनाओं का लोगों के स्वास्थ्य, आजीविका, संस्कृति और पर्यावरण पर कुप्रभाव पड़ता नर्मदा बचाओ आंदोलन के विपक्ष में तर्क है।
  3. नर्मदा पर बांध के निर्माण से गुजरात के एक बहुत बड़े हिस्से सहित तीन पड़ोसी राज्यों में पीने का पानी, सिंचाई, विद्युत उत्पादन की सुविधा उपलब्ध कराई जा सकेगी और कृषि उपज में वृद्धि होगी।
  4. बाँध निर्माण से बाढ़ व सूखे की आपदाओं पर रोक लगाई जा सकेगी।

प्रश्न 33.
स्वयंसेवी संगठनों को स्वतंत्र राजनीतिक संगठन क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
स्वयंसेवी संगठनों ने स्वयं को दलगत राजनीति से दूर रखा। स्थानीय अथवा क्षेत्रीय स्तर पर ये संगठन न तो चुनाव लड़े और न ही इन्होंने किसी एक राजनीतिक दल को अपना समर्थन दिया। हालांकि ये संगठन राजनीति में विश्वास करते थे और उसमें भागीदारी भी करना चाहते थे लेकिन इन्होंने राजनीतिक भागीदारी के लिए राजनीतिक दलों को नहीं चुना। इसी कारण इन संगठनों को स्वतंत्र राजनीतिक संगठन कहा जाता है।

प्रश्न 34.
अन्य पिछड़ा वर्ग का ‘ सम्पन्न तबका’ (Creamy Layer) पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पिछड़ा वर्ग का सम्पन्न तबका (Creamy Layer) सम्पन्न तबका पिछड़े वर्गों में वह वर्ग है जो सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से सम्पन्न है और जो राजनीतिक कारणों से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का लाभ उठा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा है कि यह वर्ग यदि सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न है तो उसे पिछड़ा वर्ग से अलग किया जाए; क्योंकि इसे पिछड़ा वर्ग नहीं माना जा सकता।

प्रश्न 35.
डॉ. भीमराव अम्बेडकर पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर: दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म सन् 1891 में एक महर परिवार में हुआ। इन्होंने इंग्लैण्ड एवं अमेरिका से वकालत की शिक्षा ग्रहण की। 1923 में इन्होंने वकालत का पेशा अपनाया। सन् 1926 से 1934 तक ये बम्बई विधान परिषद् के सदस्य रहे। इन्होंने गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया। 1942 में यह वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य नियुक्त किए गए। इन्हें भारत के संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। इन्हें स्वतन्त्र भारत का विधि मंत्री भी बनाया गया। इन्होंने हिंदू कोड बिल पास करवाया एवं संविधान में अनुसूचित जातियों को आरक्षण प्रदान करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 1956 में इनका निधन हो गया।

प्रश्न 36.
भारत में लोकप्रिय जन आंदोलन से सीखे सबकों (पाठों ) का मूल्यांकन कीजिये।
उत्तर:
जन आंदोलन के सबक – जन आंदोलनों के द्वारा पढ़ाये जाने वाले प्रमुख सबक निम्नलिखित हैं।

  1. जन आंदोलन के द्वारा लोगों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने में सहायता मिली है।
  2. इन आंदोलनों का उद्देश्य लोकतान्त्रिक दलीय राजनीति की खामियों को दूर करना था।
  3. इन आंदोलनों ने समाज के उन नये वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी है जो अपनी समस्याओं को चुनावी राजनीति के माध्यम से हल नहीं कर पा रहे थे।
  4. समाज के गहरे तनावों और जनता के क्षोभ को इन आंदोलनों ने एक सार्थक दिशा दी है।
  5. इन आंदोलनों ने भारतीय लोकतंत्र के बनाया है। तथा लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया है।

प्रश्न 37.
स्वयंसेवी संगठनों के अनुसार लोकतांत्रिक सरकार की प्रकृति में सुधार कैसे आएगा?
उत्तर:
स्वयंसेवी संगठनों का मानना था कि स्थानीय मसलों के समाधान में स्थानीय नागरिकों की सीधी और सक्रिय भागीदारी राजनीतिक दलों की अपेक्षा कहीं ज्यादा कारगर होगी। इन संगठनों का विश्वास था कि लोगों की सीधी भागीदारी से लोकतांत्रिक सरकार की प्रकृति में सुधार आएगा।

प्रश्न. 38.
वर्तमान में स्वयंसेवी संगठनों की प्रकृति में आए बदलावों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
स्वयंसेवी संगठन शहरी और ग्रामीण इलाकों में लगातार सक्रिय हैं। परंतु अब इनकी प्रकृति बदल गई है। बाद के समय में ऐसे अनेक संगठनों का वित्त पोषण विदेशी एजेंसियों से होने लगा है। ऐसी एजेंसियों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सर्विस एजेंसियाँ भी शामिल हैं। इन संगठनों को बड़े पैमाने पर जब विदेशी धनराशि प्राप्त होती है जिससे स्थानीय पहल का आदर्श कुछ कमजोर हुआ है।

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प्रश्न 39.
भारत में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं का परीक्षण कीजिए।
उत्तर:
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण हेतु योजनाएँ भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के कल्याण हेतु निम्नलिखित योजनाएँ चलायी जा रही हैं-

  1. शिक्षा के क्षेत्र में सभी राज्यों में इनके लिए उच्च स्तर तक शिक्षा निःशुल्क कर दी गई है। विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में इनके लिए स्थान आरक्षित किए गए हैं।
  2. इन वर्गों की छात्राओं के लिए छात्रावास योजना प्रारम्भ की गई है।
  3. 1987 में भारत के जनजाति सहकारी बाजार विकास संघ की स्थापना की गई। 1992-93 में जनजातीय क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों की व्यवस्था की गई।
  4. मार्च, 1992 में बाबा साहब आम्बेडकर संस्था की स्थापना की गई। इन सबके अतिरिक्त इस समय 194 जनजातीय विकास योजनाएँ चल रही हैं।

प्रश्न 40.
महिला सशक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति, 2001 के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण (2001) के उद्देश्य – राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण नीति के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं।

  1. सकारात्मक आर्थिक और सामाजिक नीतियों द्वारा ऐसा वातावरण तैयार करना जिसमें महिलाओं को अपनी पूर्व क्षमता को पहचानने का मौका मिले और उनका पूर्ण विकास हो।
  2. महिलाओं द्वारा पुरुषों की भाँति राजनीतिक, आर्थिक-सामाजिक, सांस्कृतिक और नागरिक सभी क्षेत्रों में समान स्तर पर भी मानवीय अधिकारों और मौलिक स्वतन्त्रताओं का कानूनी और वास्तविक उपभोग।
  3. स्वास्थ्य देखभाल, प्रत्येक स्तर पर उन्नत शिक्षा, जीविका एवं व्यावसायिक मार्गदर्शन, रोजगार, समान पारिश्रमिक, सामाजिक सुरक्षा और सार्वजनिक पदों आदि में महिलाओं को समान सुविधाएँ।
  4. न्याय व्यवस्था को मजबूत बनाकर महिलाओं के विरुद्ध होने वाले किसी प्रकार के अत्याचारों का उन्मूलन करना।

प्रश्न 41.
सूचना का अधिकार अधिनियम क्या है? भारत में इसे कब पारित किया गया था?
उत्तर:
सूचना का अधिकार भारतीय संसद द्वारा पारित वह अधिनियम है जो नागरिकों के सूचना के अधिकार के बारे में नियमों और प्रक्रियाओं को निर्धारित करता है। इस अधिनियम के अंतर्गत भारत का कोई भी नागरिक किसी भी. सरकारी प्राधिकरण से सूचना प्राप्त करने हेतु अनुरोध कर सकता है और यह सूचना संबंधित विभाग को ज्यादा से ज्यादा 30 दिनों में उपलब्ध करानी होती है। भारत में यह विधेयक 2005 में पारित हुआ था।

प्रश्न 42.
भारत में पर्यावरण सुरक्षा हेतु क्या – क्या कदम उठाये जा रहे हैं? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
अथवा
पर्यावरणीय आन्दोलन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पर्यावरणीय सुरक्षा आन्दोलन: भारत में पर्यावरण की सुरक्षा हेतु अनेक कदम उठाये जा रहे हैं, जिनमें प्रमुख हैं।

  1. स्वतन्त्र भारत में वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए अनेक स्थानों पर अभयारण्यों की स्थापना की गई और इन अभयारण्यों में सभी प्रकार के जीवों की सुरक्षा की व्यवस्था की गई, जिससे जंगलों की संख्या बढ़े और वातावरण स्वच्छ
    हो।
  2. पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी गई तथा सर्वत्र वृक्षारोपण कार्य प्रारम्भ किया गया। वृक्षों की कटाई रोकने के लिए उत्तरप्रदेश के पहाड़ी इलाकों में चिपको आन्दोलन चलाया गया।
  3. सिंचाई के लिए विभिन्न बाँधों की व्यवस्था की गई, इन बाँधों में सिंचाई एवं विद्युत उत्पादन दोनों कार्य चलने लगे।
  4. भारत में विकास की क्रान्ति के संदर्भ में कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति का नारा दिया गया और अन्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त की गई।

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प्रश्न 43.
भारतीय किसान यूनियन (BKU) की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
अथवा
भारतीय किसान यूनियन की किन्हीं दो विशेषताओं को लिखिए।
उत्तर:
भारतीय किसान यूनियन ( बी. के.यू.) की विशेषताएँ – भारतीय किसान यूनियन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. सरकार पर अपनी माँगों को मनवाने के लिए बीकेयू (BKU) ने रैली, धरना, प्रदर्शन और जेल भरो आन्दोलन का सहारा लिया।
  2. इस संगठन ने जातिगत समुदायों को आर्थिक मसले पर एकजुट करने के लिए जाति पंचायत की परम्परागत संस्था का उपयोग किया।
  3. बीकेयू (BKU) के लिए धनराशि और संसाधन इन्हीं जातिगत संगठनों के माध्यम से प्राप्त किया जाता था।
  4. 1990 के दशक में भारतीय किसान यूनियन ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा। यह संगठन अपने संख्या बल के आधार पर राजनीति में एक दबाव समूह की तरह सक्रिय था।

प्रश्न 44.
किसान आंदोलन 80 के दशक में सबसे ज्यादा सफल सामाजिक आंदोलन था। इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
1990 के दशक के शुरुआती सालों तक बीकेयू ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा था। यह अपने सदस्यों के संख्या बल के दम पर राजनीति में एक दबाव समूह की तरह सक्रिय था। इस संगठन ने राज्यों में मौजूद अन्य किसान संगठनों को साथ लेकर अपनी कुछ माँगें भी मनवा ली थीं। इस आंदोलन की सफलता के पीछे इसके सदस्यों की राजनीतिक मोल-भाव की क्षमता का हाथ था।

प्रश्न 45.
जन आंदोलन के आलोचक इन आंदोलनों का विरोध क्यों करते हैं?
उत्तर:
जन आंदोलन के आलोचक अकसर यह दलील देते हैं कि हड़ताल, धरना और रैली जैसी सामूहिक कार्रवाईयों से सरकार के कामकाज पर बुरा असर पड़ता है। उनके अनुसार इस तरह की गतिविधियों से सरकार की निर्णय-प्रक्रिया बाधित होती है तथा रोजमर्रा की लोकतांत्रिक व्यवस्था भंग होती है।

प्रश्न 46.
जन आंदोलन में भाग लेने वाले समूह चुनावी शासन- भूमि से अलग जन-कार्रवाई और लामबंदी की रणनीति क्यों अपनाते हैं?
उत्तर:
जन आंदोलन में भाग लेने वाली जनता सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित तथा अधिकारहीन वर्गों से संबंध रखती है। इन समूहों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अपनी बातों को कहने का पर्याप्त मौका नहीं मिलता है। इसी कारण ये समूह चुनावी शासन – भूमि से अलग जन- कार्रवाई और लामबंदी की रणनीति अपनाते हैं।

प्रश्न 47.
दलित पैंथर्स संगठन ने दलित अधिकारों की दावेदारी के लिए जन-कार्रवाई का रास्ता क्यों अपनाया?
उत्तर:
दलितों के सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न को रोक पाने में कानून की व्यवस्था नाकाम साबित हो रही थी। दलित जिन राजनीतिक दलों का समर्थन कर रहे थे जैसे रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, वे चुनावी राजनीति में सफल नहीं हो पा रही थीं। ये पार्टियाँ हमेशा निशाने पर रहती थीं, चुनाव जीतने के लिए इन्हें किसी दूसरी पार्टी से गठबंधन करना पड़ता था । ये पार्टियाँ टूट का भी शिकार हुईं। इन वजहों से ‘दलित पैंथर्स’ ने दलित अधिकारों की दावेदारी करते हुए जन- कार्रवाई का रास्ता अपनाया।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् होने वाले प्रमुख किसान आन्दोलनों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् किसान आन्दोलन: स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में हुए कुछ प्रमुख किसान आन्दोलन निम्नलिखित हैं।
1. तिभागा आन्दोलन:
तिभागा आन्दोलन 1946-47 में बंगाल में प्रारम्भ हुआ। यह आन्दोलन मुख्यतः जोतदारों के विरुद्ध मझोले किसानों एवं बटाईदारों का संयुक्त आन्दोलन था। इस आन्दोलन के कारण कई गाँवों में किसान सभा का शासन स्थापित हो गया। परन्तु औद्योगिक मजदूर वर्ग और बड़े किसानों के समर्थन के बिना यह शीघ्र ही समाप्त हो गया।

2. तेलंगाना आन्दोलन:
तेलंगाना आन्दोलन हैदराबाद राज्य में 1946 में जागीरदारों द्वारा की जा रही जबरन एवं अत्यधिक वसूली के विरोध में चलाया गया क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन था। इस आन्दोलन में क्रान्तिकारी किसानों ने पाँच हजार गुरिल्ला किसान तैयार कर जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिया। भारत सरकार द्वारा हस्तक्षेप करने पर यह आन्दोलन समाप्त हो गया।

3. आधुनिक किसान आन्दोलन:
मार्च, 1987 में गुजरात के किसानों ने अपनी मांगें मनवाने के लिए विधान सभा का घेराव करने की योजना बनाई। सरकार ने गुजरात विधानसभा (गांधीनगर) की किलेबंदी कर दी। पुलिस ने किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार किए और किसानों ने पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध ग्राम बंद करने की अपील की, जिसके कारण गुजरात के अनेक शहरों में दूध और सब्जी की समस्या कई दिनों तक रही।

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प्रश्न 2.
सरकार की सार्वजनिक नीतियों पर जन आंदोलनों का प्रभाव काफी सीमित रहा है। विस्तारपूर्वक उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सरकार की सार्वजनिक नीतियों पर जन आंदोलनों का प्रभाव सीमित रहा है। इसके निम्न कारण हैं:

  1. समकालीन सामाजिक आंदोलन किसी एक मुद्दे के इर्द-गिर्द ही जनता को लामबंद करते हैं। इस तरह वे समाज के किसी एक वर्ग का ही प्रतिनिधित्व कर पाते हैं। इसी सीमा के कारण सरकार इन आंदोलनों की जायज माँगों को ठुकराने का साहस कर पाती है।
  2. लोकतांत्रिक राजनीति वंचित वर्गों के व्यापक गठबंधन को लेकर ही चलती है जबकि जनआंदोलनों के नेतृत्व में यह बात संभव नहीं हो पाती।
  3. राजनीतिक दलों को जनता के विभिन्न वर्गों के बीच सामंजस्य बैठाना पड़ता है, जबकि जन आंदोलनों का नेतृत्व इस वर्गीय हित के प्रश्नों को कायदे से सँभाल नहीं पाता। एक सच्चाई यह भी है कि राजनीतिक दलों ने समाज के वंचित और अधिकार हीन लोगों के मुद्दे पर ध्यान देना छोड़ दिया है।
  4. हालाँकि जन आंदोलन का नेतृत्व भी ऐसे मुद्दों को सीमित ढंग से ही उठा पाता है।
  5. विगत वर्षों में राजनीतिक दलों और जन आंदोलनों का आपसी संबंध भी कमजोर होता गया है। इससे राजनीति में सूनेपन का माहौल पनपा है।

प्रश्न 3.
दलित पैंथर्स संगठन के उदय और गतिविधियों पर लेख लिखिए।
उत्तर:
1. दलित पैंथर्स संगठन का उदय:
सातवें दशक के शुरुआती सालों से शिक्षित दलितों की पहली पीढ़ी ने अनेक मंचों से अपने हक की आवाज उठायी। इनमें अधिकतर शहर की झुग्गी बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे दलित हितों की दावेदारी के इसी क्रम में महाराष्ट्र में 1972 में दलित युवाओं का एक संगठन ‘दलित पैंथर्स’ बना। आजादी के बाद के सालों में दलित समूह प्रमुखतः “जाति-आधारित असमानता और भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। वे इस बात को लेकर सचेत थे कि संविधान में जाति-आधारित किसी भी तरह के भेदभावों के विरुद्ध गारंटी दी गई है।

2. दलित पैंथर्स संगठन की गतिविधि:
आरक्षण के कानून तथा सामाजिक न्याय की नीतियों का कारगर क्रियान्वयन के लिए इस संगठन ने संघर्ष किया। महाराष्ट्र के विभिन्न इलाकों में दलितों पर बढ़ रहे अत्याचार से लड़ना इस संगठन की मुख्य गतिविधियों में से एक था । दलित पैंथर्स संगठन ने दलितों पर हो रहे अत्याचार के मामलों पर लगातार विरोध आंदोलन चलाया। इस संगठन का वृहत्तर विचारात्मक एजेंडा जाति प्रथा को समाप्त करना तथा भूमिहीन गरीब किसान, शहरी औद्योगिक मजदूर और दलित सहित सारे वंचित वर्गों का एक संगठन खड़ा करना था।

प्रश्न 4.
भारत के किन्हीं दो सामाजिक आंदोलनों का उल्लेख कीजिये। उनके मुख्य उद्देश्यों की व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
भारत के दो प्रमुख सामाजिक आंदोलन इस प्रकार हैं।

  • महिला आंदोलन:
    1. महिला आंदोलन प्रारंभ में घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, कार्यस्थल और सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कार्य करने वाले मध्यवर्गीय शहरी महिलाओं के बीच क्रियाशील थे।
    2. आठवें दशक के दौरान यह आंदोलन परिवार के अन्दर व उसके बाहर होने वाली यौन हिंसा के मुद्दों पर केन्द्रित रहा इन आंदोलनों ने दहेज प्रथा का विरोध, व्यक्तिगत तथा सम्पत्ति कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की।
    3. नब्बे के दशक में महिला आंदोलन समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व हेतु महिला आरक्षण की भी माँग करने लगा।
  • चिपको आंदोलन:
    चिपको आंदोलन का प्रारंभ उत्तराखंड के 2-3 गाँवों से व्यावसायिक प्रयोग हेतु पेड़ों को काटने से रोकने के सम्बन्ध में हुआ। इस आंदोलन से ये मुद्दे उठे

    1. जंगल की कटाई का ठेका बाहरी व्यक्ति को न दिया जाये तथा स्थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन पर कारगर नियंत्रण होना चाहिए।
    2. सरकार लघु उद्योगों हेतु कम कीमत की सामग्री उपलब्ध कराए तथा इस क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन को हानि पहुँचाये बिना यहाँ का विकास सुनिश्चित करे।
    3. चिपको आंदोलन में महिलाओं ने शराबखोरी की बात के विरोध में भी निरन्तर आवाज उठायी।

प्रश्न 5.
बीसवीं शताब्दी के 70 और 80 के दशकों में उदित-विकसित हुए गैर-राजनीतिक दलों वाले ( अथवा राजनैतिक दलों से स्वतन्त्र) आंदोलन पर लेख लिखिए।
उत्तर:
गैर-राजनैतिक या राजनैतिक स्वतन्त्र आन्दोलन के कारण 70 और 80 के दशकों में उदित हुए गैर-राजनैतिक या राजनीतिक दलों से स्वतन्त्र आन्दोलन के प्रमुख कारण अग्रलिखित हैं।

  1. गैर-कांग्रेसवाद का असफल होना: 70 और 80 के दशक में समाज के कई तबकों का राजनीतिक दलों के आचार-व्यवहार से मोहभंग हुआ। असफलता से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल कायम हुआ जिनसे राजनीतिक दलों से स्वतन्त्र आन्दोलनों का उदय हुआ।
  2. केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों से निराश: सरकार बेरोजगारी, गरीबी, महँगाई नहीं रोक सकी इसलिए सरकार की आर्थिक नीतियों से लोगों का मोहभंग हुआ।
  3. आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ: बीसवीं शताब्दी के सत्तर और अस्सी के दशकों में जाति और लिंग पर आधारित मौजूदा असमानताओं ने गरीबी के मसले को और ज्यादा जटिल और धारदार बना दिया।
  4. अनेक समूहों का लोकतन्त्र से विश्वास उठ गया: राजनीतिक धरातल पर सक्रिय कई समूहों का लोकतान्त्रिक संस्थाओं और चुनावी राजनीति से विश्वास उठ गया। ये समूह दलगत राजनीति से अलग हुए और अपने विरोध को स्वर देने के लिए इन्होंने आवाम को लामबंद करना शुरू किया। इस प्रकार 1970-80 के दशक में गैर-राजनैतिक या राजनीतिक दलों से स्वतन्त्र आन्दोलनों की विशेष भूमिका रही।

प्रश्न 6.
‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ की विवेचना कीजिए।
अथवा
नर्मदा बचाओ आंदोलन का परिचय देते हुए इसकी प्रमुख गतिविधियों पर प्रकाश डालिये।
उत्तर:
नर्मदा बचाओ आंदोलन आठवें दशक के प्रारंभ में नर्मदा घाटी में विकास परियोजना के तहत मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र से गुजरने वाली नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर 30 बड़े और 135 मझौले तथा 300 छोटे बाँध बनाने का प्रस्ताव रखा गया। गुजरात के सरदार सरोवर तथा मध्यप्रदेश के नर्मदा सागर बाँध के रूप में दो सबसे बड़ी और बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं का निर्धारण किया गया। नर्मदा नदी के बचाव में नर्मदा बचाओ आंदोलन चला। इस आंदोलन ने इन बाँधों के निर्माण का विरोध किया तथा इन परियोजनाओं के औचित्य पर भी सवाल उठाए हैं। प्रमुख गतिविधियाँ

  • आंदोलन के नेतृत्व ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि इन परियोजनाओं का लोगों के पर्यावास, आजीविका, संस्कृति तथा पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा है।
  • प्रारंभ में आंदोलन ने परियोजना से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित सभी लोगों के समुचित पुनर्वास किये जाने की माँग रखी।
  • बाद में इस आंदोलन ने इस बात पर बल दिया कि ऐसी परियोजनाओं की निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय समुदाय की भागीदारी होनी चाहिए।
  • अब आंदोलन बड़े बांधों की खुली मुखालफत करता
  • आंदोलन ने अपनी माँगें मुखर करने के लिए हरसंभव लोकतांत्रिक रणनीति का इस्तेमाल किया। यथा
    1. इसने अपनी बात न्यायपालिका से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय मंचों तक उठायी।
    2. इसके नेतृत्व ने सार्वजनिक रैलियां तथा सत्याग्रह जैसे तरीकों का भी प्रयोग किया।

JAC Class 12 Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

प्रश्न 7.
जन आंदोलन के मुख्य कारण व भारतीय राजनीति पर प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जन आंदोलन के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं।

  • राजनीतिक दलों के आचार: व्यवहार से मोह भंग होना सत्तर और अस्सी के दशक में समाज के कई तबकों का राजनीतिक दलों के आचार-व्यवहार से मोह भंग हो गया। इससे दल-रहित जन-आंदोलनों का उदय हुआ।
  • सरकार की आर्थिक नीतियों से मोह भंग होना: सरकार की आर्थिक नीतियों से भी लोगों का मोह भंग हुआ क्योंकि जाति और लिंग आधारित सामाजिक असमानताओं ने गरीबी के मुद्दे को और ज्यादा जटिल बना दिया।
  • लोकतांत्रिक संस्थाओं और चुनावी राजनीति से विश्वास उठना: राजनीतिक धरातल पर सक्रिय कई समूहों का विश्वास लोकतांत्रिक संस्थाओं और चुनावी राजनीति से उठ गया। इन समूहों ने दलगत राजनीति से अलग होकर आवाम को लामबंद कर अपने विरोध को स्वर दिया। भारतीय राजनीति पर जन आंदोलनों का प्रभाव भारतीय राजनीति पर जन आंदोलनों के निम्नलिखित प्रभाव पड़े:
    1. इन्होंने उन नये वर्गों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को अभिव्यक्ति दी जो अपनी समस्याओं को चुनावी राजनीति के जरिये हल नहीं कर पा रहें थे।
    2. विभिन्न सामाजिक समूहों के लिए ये आंदोलन अपनी बात रखने का बेहतर माध्यम बनकर उभरे।
    3. समाज के गहरे तनावों और जनता के क्षोभ को एक सार्थक दिशा देकर इन आंदोलनों ने भारतीय लोकतंत्र के जनाधार को बढ़ाया है।
    4. ये आंदोलन जनता की जायज मांगों के नुमाइंदा बनकर उभरे हैं।

प्रश्न 8.
ताड़ी विरोधी आंदोलन से आपका क्या अभिप्राय है? विवेचना करें।
उत्तर:
ताड़ी विरोधी आंदोलन: ताड़ी विरोधी आंदोलन की शुरुआत 1992 में आंध्रप्रदेश के नेल्लौर जिले से मानी जाती है। इस आंदोलन के अन्तर्गत ग्रामीण महिलाओं ने शराब के खिलाफ लड़ाई छेड़ी और शराब की बिक्री पर पाबंदी लगाने की माँग की। यह लड़ाई शराब माफिया और सरकार दोनों के खिलाफ थी। ताड़ी-विरोधी आंदोलन में दो परस्पर विरोधी गुट थे। एक शराब माफिया और दूसरा ताड़ी के कारण पीड़ित परिवार। शराबखोरी से सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को हो रही थी।

इससे परिवार की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी थी तथा परिवार में तनाव और मारपीट का माहौल बनने लगा था। दूसरी तरफ शराब के ठेकेदार ताड़ी व्यापार पर एकाधिकार बनाए रखने के लिए अपराधों में व्यस्त थे।
इस आंदोलन ने जब वृहद रूप धारण कर लिया तो यह महिला आंदोलन का हिस्सा बन गया क्योंकि:

  1. यह ताड़ी विरोध के साथ-साथ घरेलू हिंसा, दहेज-प्रथा, कार्यस्थल एवं सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन बन गया।
  2. इसने महिलाओं के मुद्दों के प्रति समाज में व्यापक जागरूकता उत्पन्न की
  3. इसमें महिलाओं को विधायिका में दिये जाने वाले आरक्षण के मामले उठे।

प्रश्न 9.
नेशनल फिशवर्कर्स फोरम पर विस्तारपूर्वक लेख लिखिए।
उत्तर:
मछुआरों की संख्या के लिहाज से भारत का विश्व में दूसरा स्थान है। अपने देश के पूर्वी और पश्चिमी दोनों ही तटीय क्षेत्रों में देसी मछुआरा समुदायों के हजारों परिवार का पेशा मत्सोद्योग है। सरकार ने जब मशीनीकृत मत्स्य- आखेट और भारतीय समुद्र में बड़े पैमाने पर मत्स्य – दोहन के लिए ‘बॉटम ट्रऊलिंग’ जैसे प्रौद्योगिकी के उपयोग की अनुमति दी तो मछुआरों के जीवन और आजीविका के आगे संकट आ खड़ा हुआ। पूरे 70 और 80 के दशक के दौरान मछुआरों के स्थानीय स्तर के संगठन अपनी आजीविका के मसले पर राज्य सरकारों से लड़ते रहे।

1980 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में आर्थिक उदारीकरण की नीति की शुरुआत हुई तो बाध्य होकर मछुआरों के स्थानीय संगठनों ने अपना राष्ट्रीय मंच बनाया। इसका नाम ‘नेशनल फिशवर्कर्स फोरम’ रखा गया। इस संगठन ने 1997 में केन्द्र सरकार से पहली कानूनी लड़ाई लड़ी और उसमें सफलता भी पाई। इस क्रम में इसके कामकाज ने एक ठोस रूप भी ग्रहण किया। इसकी लड़ाई सरकार की खास नीति के खिलाफ थी । केन्द्र सरकार की इस नीति के अंतर्गत व्यावसायिक जहाजों को गहरे समुद्र में मछली मारने की इजाजत दी गई थी।

इस नीति के कारण बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए भी इस क्षेत्र के दरवाजे खुल गए थे। 1990 के पूरे दशक में एनएफएम ने केन्द्र सरकार से अनेक कानूनी लड़ाई लड़ी और सार्वजनिक संघर्ष भी किया। इस फोरम ने उन लोगों के हितों की रक्षा के प्रयास किए जो जीवनयापन के लिए मछली मारने के पेशे से जुड़े थे न कि इस क्षेत्र में मात्र लाभ के लिए निवेश करते हैं। सन् 2002 में इस संगठन ने राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। इस हड़ताल का कारण विदेशी कंपनियों को सरकार द्वारा मछली मारने का लाइसेंस जारी करने के विरोध में किया गया था।

JAC Class 12 Political Science Important Questions Chapter 7 जन आंदोलनों का उदय

प्रश्न 10.
ताड़ी विरोधी आंदोलन का उदय किस प्रकार हुआ ? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
आंध्र प्रदेश के नेल्लौर जिले के दुबरगंटा गाँव में 1990 के शुरुआती समय में महिलाओं के बीच प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रम चलाया गया। इसमें महिलाओं ने बड़ी संख्या में पंजीकरण कराया। कक्षाओं में महिलाएँ घर के पुरुषों द्वारा देशी शराब, ताड़ी आदि पीने की शिकायतें करती थीं। ग्रामीणों को शराब पीने की लत लग चुकी थी। इस वजह से वे शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो गए थे। इस लत की वजह से ग्रामीण अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हो रही थी। लोगों पर कर्ज का बोझ बढ़ गया। पुरुष अपने काम में गैर-हाजिर रहने लगे। शराबखोरी से सबसे ज्यादा

संजीव पास बुक्स दिक्कत महिलाओं को हो रही थी। क्योंकि इस आदत से परिवार की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। परिवार में तनाव और मारपीट का माहौल बनने लगा। इन कारणों की वजह से नेल्लोर में महिलाएँ ताड़ी की बिक्री के खिलाफ आगे आईं और उन्होंने शराब की दुकानों को बंद कराने के लिए दबाव बनाना शुरू किया। यह खबर दूसरे गाँवों में फैलते ही दूसरे गांवों महिलाओं ने भी इस आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। प्रतिबंध संबंधी एक प्रस्ताव को पास कर जिला कलेक्टर को भेजा गया। यह आंदोलन धीरे-धीरे पूरे राज्य में फैल गया।

प्रश्न 11.
सूचना के अधिकार का आंदोलन के बारे में विस्तारपूर्वक लिखिए।
उत्तर:
सूचना के अधिकार का आंदोलन जन आंदोलनों की सफलता का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। यह आंदोलन सरकार से एक बड़ी माँग को पूरा कराने में सफल रहा है। इस आंदोलन की शुरुआत 1990 में हुई और इसका नेतृत्व मजदूर किसान शक्ति संगठन ने किया। राजस्थान में काम कर रहे इस संगठन ने सरकार के सामने यह माँग रखी कि अकाल राहत कार्य और मजदूरों को दी जाने वाली पगार के रिकॉर्ड का सार्वजनिक खुलासा किया जाए। यह माँग राजस्थान के एक अत्यंत ही पिछड़े क्षेत्र से उठायी गयी।

इस मुहिम के तहत ग्रामीणों प्रशासन से अपने वेतन और भुगतान के बिल उपलब्ध कराने को कहा क्योंकि इन लोगों का अनुमान था कि विकास कार्यों में लगाए जाने वाले धन की हेराफेरी हुई है। पहले 1994 और उसके बाद 1996 में एम के एस एस ने जन सुनवाई का आयोजन किया और प्रशासन को इस मामले में अपना पक्ष स्पष्ट करने को कहा। आंदोलन के दबाव में सरकार को राजस्थान पंचायती राज अधिनियम में संशोधन करना पड़ा।

नए कानून के तहत जनता को पंचायत के दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतिलिपि प्राप्त करने की अनुमति मिल गई। 1996 में एम के एस एस ने दिल्ली में सूचना के अधिकार को लेकर राष्ट्रीय समिति का गठन किया। इन आंदोलनों के परिणामस्वरूप 2002 में ‘सूचना की स्वतंत्रता’ नाम का विधेयक पारित हुआ था। परंतु यह एक कमजोर अधिनियम था। सन् 2004 में सूचना के अधिकार के विधेयक को सदन में रखा। जून में 2005 में इस विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी हासिल हुई।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 3 तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य

Jharkhand Board JAC Class 11 History Important Questions Chapter 3 तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 History Important Questions Chapter 3 तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य

बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

1. आगस्टस कौन था?
(अ) रोम का सेनापति
(ब) बिशप
(स) प्रधानमन्त्री
(द) रोम का प्रथम सम्राट्।
उत्तर:
(द) रोम का प्रथम सम्राट्।

2. किस रोमन सम्राट ने भारत की विजय का स्वप्न देखा था –
(अ) आगस्टस
(ब) टिबेरियस
(स) त्राजान
(द) कान्स्टैन्टाइन।
उत्तर:
(स) त्राजान

3. सैनेट में किसका बोलबाला था ?
(अ) सेना का
(ब) पुरोहितों का
(स) अभिजात वर्ग का
(द) श्रमिकों का।
उत्तर:
(स) अभिजात वर्ग का

4. सेन्ट आगस्टीन कौन थे?
(अ) रोम के पोप
(ब) उत्तरी अफ्रीका के हिप्पो नगर के बिशप
(स) ईसाई धर्म का प्रचारक
(द) चर्च के पादरी।
उत्तर:
(ब) उत्तरी अफ्रीका के हिप्पो नगर के बिशप

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 3 तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य

5. सबसे बढ़िया अंगूरी शराब के लिए कौनसा प्रदेश प्रसिद्ध था –
(अ) कैम्पैनिया
(ब) इटली
(स) सिसली
(द) स्पेन।
उत्तर:
(अ) कैम्पैनिया

6. दास-समूहों के प्रयोग की निन्दा करने वाले इतिहासकार थे –
(अ) हेरोडोटस
(ब) टिसीटस
(स) वरिष्ठ प्लिनी
(द) होमर।
उत्तर:
(स) वरिष्ठ प्लिनी

7. वह कौनसा नगर था जो 79 ई. में ज्वालामुखी फटने से दफन हो गया था?
(अ) ऐडेसा
(ब) पोम्पेई
(स) सिकन्दरिया
(द) रोम।
उत्तर:
(ब) पोम्पेई

8. किस रोमन सम्राट का शासन काल शान्ति के लिए याद किया जाता है –
(अ) टिबेरियस
(ब) आगस्टस
(स) कान्स्टैन्टाइन
(द) त्राजान।
उत्तर:
(ब) आगस्टस

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रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –

1. रोम साम्राज्य में स्त्रियों की …………….. स्थिति काफी सुदृढ़ थी।
2. रोम साम्राज्य की अर्थव्यवस्था बहुत कुछ …………….. के बल पर चलती थी।
3. ईसा मसीह के जन्म से लेकर 630 ई. के दशक तक की अवधि में यूरोप, उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व तक के क्षेत्र में दो सशक्त, …………….. और …………….. के साम्राज्यों का शासक था।
4. प्रथम सम्राट, ऑगस्टस ने 27 ई. पू. जो राज्य स्थापित किया उसे …………….. कहा जाता था।
5. सत्ता का सहज परिवर्तन सुनिश्चित करने के लिए ऑंगस्टस ने ……………..
उत्तर:
1. कानूनी
2. दास श्रम
3. रोग, ईरान
4. प्रिंसपेट
5. टिबेरियस

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छौंटिये –

1. ऑगस्टस का शासन काल शान्ति के लिए याद किया जाता है।
2. रोमन साम्राज्य के प्रारंभिक विस्तार में एकमात्र अभियान सम्राट ट्वेिरियस ने 113-117 ईस्वी में चलाया।
3. इटली के सिवाय, रोमन साम्राज्य के सभी क्षेत्र प्रान्तों में बंटे हुए थे।
4. प्रथम शताब्दी में रोम साम्राज्य को बेहद तनाव की स्थिति से गुजरना पड़ा।
5. रोमन साम्राज्य के काल में स्पेन की सोने और चांदी की खानों में जल- शक्ति से खुदाई की जाती थी।
उत्तर:
1. सत्य
2. असत्य
3. सत्य
4. असत्य
5. सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये –

1. एम्फ (अ) स्पेन में उत्पादित जैतून के तेल के कंटेनर
2. ड्रेसल – 20 (ब) ओवन आकार की झोंपड़ियां
3. मैपालिया (स) स्पेन की पहाड़ियों की चोटियों पर बसे गाँव
4. केस्टोला (द) निम्नतर वर्ग
5. हयूमिलिओरिस (य) मटके या कंटेनर

उत्तर:

1. एम्फोरा (य) मटके या कंटेनर
2. ड्रेसल – 20 (अ) स्पेन में उत्पादित जैतून के तेल के कंटेनर
3. मैपालिया (ब) ओवन आकार की झोंपड़ियां
4. केस्टोला (स) स्पेन की पहाड़ियों की चोटियों पर बसे गाँव
5. ह्यूमिलिओरिस (द) निम्नतर वर्ग

 

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
रोमन साम्राज्य को किन दो भागों में बाँटा जा सकता है?
उत्तर:
(1) पूर्ववर्ती साम्राज्य तथा
(2) परवर्ती साम्राज्य।

प्रश्न 2.
रोम में गणतन्त्र की अवधि क्या थी?
उत्तर;
509 ई. पूर्व से 27 ई. पूर्व तक।

प्रश्न 3.
आगस्टस कौन था ?
उत्तर:
आगस्टस रोम का प्रथम सम्राट था।

प्रश्न 4.
रोमन साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास में तीन प्रमुख खिलाड़ी कौन थे ?
उत्तर:

  • सम्राट
  • सैनेट
  • सेना।

प्रश्न 5.
रोम में गृह-युद्ध कब हुआ था?
उत्तर:
रोम में गृह-युद्ध 66 ई. में हुआ था।

प्रश्न 6.
रोम के शहरी जीवन की एक प्रमुख विशेषता बताइये।
उत्तर:
सार्वजनिक स्नान गृह।

प्रश्न 7.
रोम में किस प्रकार के परिवार का व्यापक रूप से चलन था ?
उत्तर:
रोम में एकल परिवार का व्यापक रूप से चलन था।

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प्रश्न 8.
रोमन साम्राज्य में किस नगर में साक्षरता व्यापक रूप से विद्यमान थी ?
उत्तर:
पोम्पई नगर में।

प्रश्न 9.
रोमन साम्राज्य के ऐसे चार क्षेत्रों के नाम लिखिए जो अपनी असाधारण उर्वरता के कारण प्रसिद्ध थे ।
अथवा
स्ट्रैबो तथा प्लिनी के अनुसार रोमन साम्राज्य के घनी आबादी वाले तथा धन-सम्पन्न चार नगर कौन-से थे ?
उत्तर:

  • कैम्पैनिया
  • सिसली
  • फैय्यूम
  • गैलिली।

प्रश्न 10.
रोमन साम्राज्य के ऐसे दो क्षेत्रों का उल्लेख कीजिये जो बहुत कम उन्नत अवस्था में थे।
उत्तर:
(1). नुमीडिया (आधुनिक अल्जीरिया) तथा
(2) स्पेन का उत्तरी क्षेत्र।

प्रश्न 11.
रोम के कौन-से दो प्रदेश रोम को भारी मात्रा में गेहूँ का निर्यात करते थे ?
उत्तर:
(1) सिसली तथा
(2) बाइजैकियम।

प्रश्न 12.
रोमन सम्राट कान्स्टैन्टाइन ने किस नगर को अपनी दूसरी राजधानी बनाया?
उत्तर:
कुस्तुन्तुनिया को।

प्रश्न 13.
रोमवासियों के चार प्रमुख देवी-देवताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • जूपिटर
  • जूनो
  • मिनर्वा
  • मार्स।

प्रश्न 14.
‘एकाश्म’ का शाब्दिक अर्थ बताइये।
उत्तर:
एकाश्म का तात्पर्य एक बड़ी चट्टान का टुकड़ा होता है। यह विविधता की कमी का सूचक है।

प्रश्न 15.
सातवीं शताब्दी में रोमन साम्राज्य अधिकतर किस नाम से जाना जाता था?
उत्तर:
बाइजेंटियम।

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प्रश्न 16.
रोम में सालिडस नामक सोने का सिक्का किसने चलाया था?
उत्तर:
रोमन सम्राट कान्स्टैन्टाइन ने।

प्रश्न 17.
रोम साम्राज्य का ईसाईकरण करने का श्रेय किस सम्राट को दिया जाता है?
उत्तर:
कान्स्टैन्टाइन को।

प्रश्न 18.
रोम के लोग किस नाम के वृक्षों पर लेखन कार्य करते थे?
उत्तर:
पेपाइरस नाम के वृक्षों पर।

प्रश्न 19.
आगस्टस ने ‘प्रिंसिपेट’ की स्थापना कब की थी?
उत्तर:
27 ई. पूर्व में।

प्रश्न 20.
रोम क्यों प्रसिद्ध है ?
उत्तर:
अपने विशाल साम्राज्य, गणतन्त्रीय व्यवस्था, कला, साहित्य की उन्नति के कारण।

प्रश्न 21.
रोम साम्राज्य का विस्तार क्षेत्र बताइए।
उत्तर:
रोम साम्राज्य में आज का अधिकांश यूरोप और उर्वर अर्द्धचन्द्राकार क्षेत्र अर्थात् पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ्रीका का बहुत बड़ा हिस्सा शामिल था।

प्रश्न 22.
रोम के इतिहास की स्रोत सामग्री को किन वर्गों में बाँटा जा सकता है ?
उत्तर:
रोम के इतिहास की स्रोत सामग्री को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है –

  • पाठ्य सामग्री
  • प्रलेख या दस्तावेज तथा
  • भौतिक अवशेष

प्रश्न 23.
रोम्मन गणतन्त्र ( रिपब्लिक) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
रोम साम्राज्य में गणतन्त्र ( रिपब्लिक) एक ऐसी शासन व्यवस्था थी जिसमें वास्तविक सत्ता ‘सैनेट’ नामक निकाय में निहित थी।

प्रश्न 24.
‘प्रिंसिपेट’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
रोमन सम्राट आगस्टस ने 27 ई. पूर्व में जो राज्य स्थापित किया था, उसे ‘प्रिंसिपेट’ कहा जाता था।

प्रश्न 25.
रोमन सम्राट आगस्टस को ‘प्रमुख नागरिक’ क्यों माना जाता था?
उत्तर:
रोमन सम्राट आगस्टस को यह प्रदर्शित करने के लिए कि वह निरंकुश शासक नहीं था, ‘प्रमुख नागरिक’ माना जाता था।

प्रश्न 26.
सैनेट से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
सैनेट रोम का वह निकाय था जिसमें कुलीन एवं अभिजात वर्गों अर्थात् मुख्यतः रोम के धनी परिवारों का प्रतिनिधित्व था ।

प्रश्न 27.
रोमन सम्राटों के बुरे व अच्छे होने का मापदण्ड क्या माना जाता था ?
उत्तर:
सैनेट के सदस्यों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने वाले सम्राट सबसे बुरे तथा सैनेट के सदस्यों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं करने वाले सम्राट अच्छे सम्राट माने जाते थे।

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प्रश्न 28.
रोम में गणतन्त्र को समाप्त करके किसने अपनी सत्ता स्थापित की थी ?
उत्तर:
रोम में गणतन्त्र को समाप्त करके आगस्टस ने 27 ई. पू. में अपनी सत्ता स्थापित की थी।

प्रश्न 29.
रोम की सेना की क्या विशेषताएँ थीं?
उत्तर:
(1) रोम की सेना एक व्यावसायिक सेना थी जिसमें प्रत्येक सैनिक को वेतन दिया जाता था।
(2) प्रत्येक सैनिक को न्यूनतम 25 वर्ष तक सेवा करनी पड़ती थी।

प्रश्न 30.
रोमन सेना निरन्तर आन्दोलन क्यों करती रहती थी ?
उत्तर:
रोमन सेना अच्छे वेतन तथा सेवा शर्तों के लिए निरन्तर आन्दोलन करती रहती थी।

प्रश्न 31.
रोमन सम्राटों की सफलता किस बात पर निर्भर करती थी?
उत्तर:
रोमन सम्राटों की सफलता इस बात पर निर्भर करती थी कि वे सेना पर कितना नियन्त्रण रख पाते थे।

प्रश्न 32.
रोम में गृह-युद्ध क्यों होते थे ?
उत्तर:
जब सेनाएँ विभाजित हो जाती थीं, तो इसका परिणाम सामान्यतः गृह-युद्ध होता था।

प्रश्न 33.
गृह-युद्ध से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
गृह-युद्ध अपने ही देश में सत्ता प्राप्त करने के लिए किया गया सशस्त्र संघर्ष है।

प्रश्न 34.
त्राजान कौन था ? उसने साम्राज्य – विस्तार के लिए कब अभियान किया ?
उत्तर:
त्राजान रोम का सम्राट था। उसने साम्राज्य के विस्तार के लिए 113-117 ई. में एक सैनिक अभियान

प्रश्न 35.
सम्राट आगस्टस का शासन काल किस बात के लिए प्रसिद्ध है ?
उत्तर:
सम्राट आगस्टस का शासन काल शान्ति के लिए याद किया जाता है।

प्रश्न 36.
‘निकटवर्ती पूर्व’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
‘निकटवर्ती पूर्व’ से अभिप्राय भूमध्य सागर के बिल्कुल पूर्वी प्रदेशों से है। इसमें सीरिया, फिलिस्तीन और मेसोपोटामिया के प्रान्त, अरब आदि प्रदेश शामिल थे।

प्रश्न 37.
रोमन सम्राट अत्यन्त विस्तृत और दूर-दूर तक फैले हुए साम्राज्य पर किस प्रकार नियन्त्रण रखते थे?
उत्तर:
सम्पूर्ण साम्राज्य में दूर-दूर तक अनेक नगर स्थापित किये गये थे जिनके माध्यम से समस्त साम्राज्य पर नियन्त्रण रखा जाता था।

प्रश्न 38.
रोम में साम्राज्यिक प्रणाली के मूल आधार कौन थे ?
उत्तर:
भूमध्य सागर के तटों पर स्थापित बड़े शहरी केन्द्र जैसे कार्थेज, सिकन्दरिया तथा एंटिऑक रोम साम्राज्यिक प्रणाली के मूल आधार थे।

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प्रश्न 39.
रोम साम्राज्य के प्रत्यक्ष शासन का विस्तार किस प्रकार हुआ ?
उत्तर:
रोम के प्रान्तीय राज्य क्षेत्र में अनेक आश्रित राज्यों के मिला लिए जाने से रोम साम्राज्य के प्रत्यक्ष शासन का विस्तार हुआ।

प्रश्न 40.
रोम के सन्दर्भ में नगर के शहरी केन्द्र का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रोम के सन्दर्भ में नगर एक ऐसा शहरी केन्द्र था, जिसके अपने दण्डनायक (मजिस्ट्रेट), नगर परिषद् तथा एक निश्चित राज्य – क्षेत्र था।

प्रश्न 41.
रोमन साम्राज्य में शहरी लोगों को उच्च स्तर के मनोरंजन उपलब्ध थे। उदाहरण देकर इसकी पुष्टि कीजिये।
उत्तर:
एक कैलेण्डर से हमें ज्ञात होता है कि एक वर्ष में कम-से-कम 176 दिन रोम में कोई-न-कोई मनोरंजक कार्यक्रम या प्रदर्शन अवश्य होता था।

प्रश्न 42.
तीसरी शताब्दी में ईरान के किस शासक ने रोमन साम्राज्य पर आक्रमण किया और रोमन सेना का संहार किया?
उत्तर:
ईरान के शासक शापुर प्रथम ने आक्रमण कर 60,000 रोमन सेना का सफाया कर दिया तथा रोमन साम्राज्य की पूर्वी राजधानी एंटिऑक पर अधिकार कर लिया।

प्रश्न 43.
तीसरी शताब्दी में रोमन साम्राज्य को अत्यधिक तनाव की स्थिति से गुजरना पड़ा। इसका एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
तीसरी शताब्दी में थोड़े-थोड़े अन्तर से 47 वर्षों में 25 सम्राट रोम की गद्दी पर बैठे। इस अवधि में रोमन साम्राज्य को अत्यधिक तनाव की स्थिति में से गुजरना पड़ा था।

प्रश्न 44.
रोमन परिवारों में किन्हें सम्मिलित किया जाता था और क्यों ?
उत्तर:
रोमन परिवारों में पति-पत्नी, अवयस्क बच्चों तथा दासों को सम्मिलित किया जाता था क्योंकि रोमवासियों के लिए परिवार की यही अवधारणा थी।

प्रश्न 45.
रोम में स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी क्या अधिकार प्राप्त थे ?
उत्तर:
रोम में महिला अपने पिता की मुख्य उत्तराधिकारी बनी रहती थी और अपने पिता की मृत्यु होने पर उसकी सम्पत्ति की स्वतन्त्र मालिक बन जाती थी।

प्रश्न 46.
सेंट आगस्टीन कौन थे ?
उत्तर:
सेंट आगस्टीन 396 ई. से उत्तरी अफ्रीका के हिप्पो नामक नगर में बिशप थे। चर्च के बौद्धिक इतिहास में उनका उच्चतम स्थान था।

प्रश्न 47.
रोम में महिलाओं को पुरुषों के अधीन रहना पड़ता था और महिलाओं पर उनके पति प्राय: हावी रहते थे इसकी पुष्टि किस साक्ष्य से होती है ?
उत्तर:’
सेंट आगस्टीन नामक प्रसिद्ध बिशप ने लिखा है कि उनकी माता की उनके पिता द्वारा नियमित रूप से पिटाई की जाती थी।

प्रश्न 48.
रोमन साम्राज्य में पिताओं का अपने बच्चों पर अत्यधिक कानूनी नियन्त्रण होता था । इसे उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में अवांछित बच्चों के मामलों में पिताओं को उन्हें जीवित रखने या मार डालने तक का कानूनी अधिकार प्राप्त था।

प्रश्न 49.
रोमन साम्राज्य में कौनसी मुख्य व्यापारिक मदें थीं जिनका अधिक मात्रा में उपयोग होता था ? ये वस्तुएँ कहाँ से मँगाई जाती थीं?
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में गेहूँ, अंगूरी शराब तथा जैतून का तेल मुख्य व्यापारिक मदें थीं जो स्पेन, गैलिक प्रान्तों, उत्तरी अफ्रीका, मिस्र तथा इटली से मँगाई जाती थीं।

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प्रश्न 50.
एम्फोरा से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में शराब, जैतून का तेल तथा अन्य तरल पदार्थों की ढुलाई जिन मटकों या कंटेनरों से होती थी, उन्हें ‘एम्फोरा’ कहते थे।

प्रश्न 51.
‘ड्रेसल – 20’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
स्पेन में उत्पादित जैतून का तेल मुख्य रूप से ऐसे कंटेनरों से ले जाया जाता था जिन्हें ड्रेसल – 20 कहते हैं।

प्रश्न 52.
ड्रेसल – 20 का नाम किसके नाम पर आधारित है?
उत्तर:
ड्रेसल – 20 का नाम हेनरिक डेसिल नामक पुरातत्त्वविद् के नाम पर आधारित है जिसने ऐसे कन्टेनरों का रूप सुनिश्चित किया था ।

प्रश्न 53.
कैम्पैनिया क्यों प्रसिद्ध था ?
उत्तर:
कैम्पैनिया एक धन-सम्पन्न नगर था। रोम में सबसे बढ़िया प्रकार की अंगूरी शराब कैम्पैनिया से आती थीं।

प्रश्न 54.
ऋतु प्रवास से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
ग्वालों तथा चरवाहों का अपने जानवरों को चराने के लिए चरागाहों की खोज में मौसम के अनुसार आवागमन ऋतु प्रवास कहलाता है।

प्रश्न 55.
मैपालिया से क्या अभिप्राय है? –
उत्तर:
चरवाहे तथा अर्द्ध- यायावर ओवन ( Oven) आकार की झोंपड़ियाँ उठाए इधर-उधर घूमते-फिरते थे, जिन्हें मैपालिया कहते थे ।

प्रश्न 56.
स्पेन के उत्तरी क्षेत्र के कौनसे गाँव कैस्टेला कहलाते थे ?
उत्तर:
स्पेन के उत्तरी क्षेत्र अधिकतर केल्टिक भाषी – किसानों की आबादी थी, जो पहाड़ियों की चोटियों पर बसे गाँवों में रहते थे, जिन्हें कैस्टेला कहा जाता था।

प्रश्न 57.
रोमन साम्राज्य में किस प्रौद्योगिकी क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई ?
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में जल- शक्ति से मिलें चलाने की प्रौद्योगिकी में विशेष प्रगति हुई।

प्रश्न 58.
रोमन साम्राज्य में जल- शक्ति से मिलें चलाने की प्रौद्योगिकी की उन्नति का एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
स्पेन की सोने और चाँदी की खानों में जल शक्ति से खुदाई की जाती थी और पहली तथा दूसरी शताब्दियों में इन खानों से खनिज निकाले जाते थे।

प्रश्न 59.
रोमन साम्राज्य में दासता का सबसे अधिक प्रचलन किन क्षेत्रों में था?
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में भूमध्य सागर तथा निकटवर्ती पूर्व (पश्चिमी एशिया) दोनों ही क्षेत्रों में दासता का सबसे अधिक प्रचलन था।

प्रश्न 60.
रोमन साम्राज्य में लोग दासों के साथ कैसा बर्ताव करते थे?
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में उच्च वर्ग के लोग दासों के प्रति प्राय: क्रूरतापूर्ण व्यवहार करते थे, परन्तु साधारण लोग उनके प्रति कहीं अधिक सहानुभूति रखते थे।

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प्रश्न 61.
‘दास – प्रजनन’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में दास प्रजनन दासों की संख्या बढ़ाने की एक ऐसी प्रथा थी जिसके अन्तर्गत दास-दासियों को अधिकाधिक बच्चे उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था।

प्रश्न 62.
रोमन साम्राज्य में जब दासों की आपूर्ति में कमी आने लगी तो दास श्रम का प्रयोग करने वालों ने किन उपायों का सहारा लिया ?
उत्तर:
दास-श्रम का प्रयोग करने वालों ने दास – प्रजनन अथवा वेतनभोगी मजदूरों की नियुक्ति जैसे उपायों का सहारा लिया ।

प्रश्न 63.
प्लिनी ने दास-समूहों के प्रयोग की निन्दा क्यों की थी?
उत्तर:
प्लिनी ने दास – समूहों के प्रयोग की यह कहकर निन्दा की कि यह उत्पादन आयोजित करने का सबसे बुरा तरीका है।

प्रश्न 64.
रोमन साम्राज्य में श्रमिकों पर नियन्त्रण करने के लिए किये जाने वाले दो उपायों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) श्रमिकों को जंजीरों में डालकर रखा जाता था।
(2) श्रमिकों को दागा जाता था ताकि भागने या छिपने पर उन्हें पहचाना जा सके।

प्रश्न 65.
आगस्टीन के पत्रों से तत्कालीन दास प्रथा के बारे में क्या जानकारी मिलती है ?
उत्तर:
आगस्टीन के पत्रों से जानकारी मिलती है कि कभी-कभी माता-पिता अपने बच्चों को 25 वर्ष के लिए बेचकर बन्धुआ मजदूर बना लेते थे

प्रश्न 66.
‘यहूदी विद्रोह’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
66 ई. में जूडेया में रोम की सरकार के विरुद्ध यहूदी विद्रोह हुआ था जिसमें क्रान्तिकारियों ने साहूकारों के ऋण-पत्र नष्ट कर दिये थे।

प्रश्न 67.
‘फ्रैंकिन्सेंस’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
फ्रैंकिन्सेंस से अभिप्राय है – सुगन्धित राल। इसका प्रयोग धूप-अगरबत्ती और इत्र बनाने के लिए किया जाता था।

प्रश्न 68.
सबसे अच्छी किस्म की राल रोम में कहाँ से आती थी ?
उत्तर:
सबसे अच्छी किस्म की सुगन्धित राल रोम में अरब प्रायद्वीप से आती थी ।

प्रश्न 69.
इतिहासकार टैसिटस द्वारा उल्लिखित रोमन साम्राज्य के चार सामाजिक वर्गों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • सैनेटर
  • अश्वारोही या नाइट वर्ग
  • जनता का सम्माननीय वर्ग
  • फूहड़ निम्नतर वर्ग अर्थात् कमीनकारु।

प्रश्न 70.
‘परवर्ती पुराकाल’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘परवर्ती पुराकाल’ से अभिप्राय रोम साम्राज्य के उद्भव, विकास और पतन के इतिहास की उस अवधि से है जो चौथी से सातवीं शताब्दी तक फैली हुई थी।

प्रश्न 71.
परवर्ती पुराकाल में सांस्कृतिक क्षेत्र में हुए दो परिवर्तनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) रोमन सम्राट कान्स्टैन्टाइन द्वारा ईसाई धर्म को राज-धर्म बना लेने का निर्णय
(2) सातवीं शताब्दी में इस्लाम का उदय।

प्रश्न 72.
सैनेटर और नाइट ( अश्वारोही) वर्गों में क्या समानता थी ?
उत्तर:
सैनेटरों की भाँति अधिकतर नाइट (अश्वारोही) जमींदार होते थे।

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प्रश्न 73.
सैनेटरों और नाइट (अश्वारोही) वर्गों में क्या अन्तर था ?
उत्तर:
सैनेटरों के विपरीत नाइट वर्ग के कई लोग जहाजों के मालिक, व्यापारी और साहूकार होते थे अर्थात् वे व्यापारिक गतिविधियों में संलग्न रहते थे।

प्रश्न 74.
परवर्ती साम्राज्य में चाँदी के सिक्कों का प्रचलन क्यों बन्द हो गया था ?
उत्तर:
स्पेन की खानों से चाँदी मिलनी बन्द हो गई थी और सरकार के पास चाँदी के सिक्कों के प्रचलन के लिए पर्याप्त चाँदी नहीं रह गई थी।

प्रश्न 75.
इतिहासकार ओलिंपि ओडोरस के अनुसार रोम नगर में रहने वाले कुलीन परिवारों की क्या आमदनी थी?
उत्तर:
इतिहासकार ओलिंपि ओडोरस के अनुसार रोम नगर में रहने वाले कुलीन परिवारों को अपनी सम्पत्ति से प्रतिवर्ष 4,000 पाउण्ड सोने की आय प्राप्त होती थी।

प्रश्न 76.
रोमन सम्राट डायोक्लीशियन ने साम्राज्य को थोड़ा छोटा क्यों बना लिया ?
उत्तर:
रोमन सम्राट डायोक्लीशियन ने अनुभव किया कि साम्राज्य का विस्तार बहुत अधिक हो चुका है और उसके अनेक प्रदेशों का सामरिक अथवा आर्थिक दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है।

प्रश्न 77.
सम्राट डायोक्लीशियन के द्वारा किये गए दो सैनिक सुधारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) सम्राट डायोक्लीशियन ने साम्राज्य की सीमाओं पर किले बनवाये।
(2) उसने असैनिक कार्यों को सैनिक कार्यों से अलग कर दिया।

प्रश्न 78.
रोमन सम्राट् कान्स्टैन्टाइन द्वारा मौद्रिक क्षेत्र में किये गये परिवर्तन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
रोमन सम्राट कान्स्टैन्टाइन ने ‘सालिडस’ नामक एक नया सिक्का चलाया जो 4.5 ग्राम शुद्ध सोने का बना हुआ था।

प्रश्न 79.
सम्राट कान्स्टैन्टाइन के समय में प्रतिष्ठापित प्रमुख प्रौद्योगिकियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
तेल की मिलों, शीशे के कारखानों, पेंच की प्रेसों तथा विभिन्न प्रकार की पानी की मिलों जैसी नई प्रौद्योगिकियाँ प्रतिष्ठापित हुईं।

प्रश्न 80.
“रोमवासियों की पारम्परिक धार्मिक संस्कृति बहुदेवतावादी थी।” दो उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(1) रोमवासी अनेक पंथों तथा उपासना पद्धतियों में विश्वास रखते थे।
(2) वे अनेक देवी-देवताओं की उपासना किया करते थे।

प्रश्न 81.
ईसाईकरण से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
ईसाईकरण उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा ईसाई धर्म भिन्न-भिन्न जन-और वहाँ का प्रमुख धर्म बना दिया गया।

प्रश्न 82.
‘रोमोत्तर राज्य’ से आप क्या समझते हैं ? समूहों के बीच फैलाया गया
उत्तर:
जर्मन मूल के समूहों द्वारा छठी शताब्दी में पश्चिमी रोमन साम्राज्य में स्थापित किये गए अपने-अपने राज्य ‘रोमोत्तर राज्य’ कहलाते हैं।

प्रश्न 83.
तीन प्रमुख रोमोत्तर राज्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • स्पेन में विसिगोथों का राज्य
  • गाल में फ्रैंकों का राज्य
  • इटली में लोंबार्डों का राज्य।

प्रश्न 84.
जस्टीनियन की दो विजयों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) जस्टीनियन ने 533 ई. में अफ्रीका को वैंडलों के अधिकार से मुक्त करा लिया।
(2) उसने आस्ट्रेगोथों को पराजित कर इटली पर अधिकार कर लिया ।

प्रश्न 85.
जस्टीनियन के अभियानों का क्या परिणाम हुआ ?
उत्तर:
इनसे देश तहस-नहस हो गया और लोम्बार्डों के आक्रमण के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया।

प्रश्न 86.
किस घटना को ‘प्राचीन विश्व इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक क्रान्ति’ कहा जाता है ?
उत्तर:
अरब प्रदेश से शुरू होने वाले इस्लाम के विस्तार को ‘प्राचीन विश्व इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक क्रान्ति’ कहा जाता है।

प्रश्न 87.
642 ई. तक पूर्वी रोमन तथा ससानी दोनों राज्यों के बड़े-बड़े भागों पर किन लोगों ने अधिकार कर लिया ?
उत्तर:
642 ई. तक पूर्वी रोमन तथा संसानी दोनों राज्यों के बड़े- बड़े भागों पर अरब लोगों ने अधिकार कर लिया।

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प्रश्न 88.
बर्बर या बारबेरियन से क्या अभिप्राय है? संक्षेप में वर्णन कीजिये।
उत्तर:
जर्मन मूल की जनजातियों अथवा राज्य समुदायों ने रोमन साम्राज्य के अनेक प्रान्तों पर आक्रमण किया। रोमन लोग इन्हें बारबेरियन कहते थे।

प्रश्न 89.
रोमवासियों के चार प्रमुख देवी-देवताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • जूपिटर
  • मिनर्वा
  • जूनो
  • मार्स।

प्रश्न 90.
‘पैपाइरस’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
पैपाइरस एक सरकंडा जैसा पौधा था जो मिस्र में नील नदी के किनारे उगता था। इससे कागज तैयार किया जाता था। रोमन लोग इस कागज पर लिखते थे।

प्रश्न 91.
बलात् भर्ती वाली सेना किसे कहा जाता था ?
उत्तर:
बलात् भर्ती वाली सेना वह होती थी जिसमें कुछ वर्गों या समूहों के वयस्क पुरुषों को अनिवार्य रूप से सैनिक सेवा करनी पड़ती थी।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
रोम के इतिहास को जानने के मुख्य स्रोतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रोम के इतिहास को जानने के स्रोतों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है –

  1. पाठ्य सामग्री
  2. प्रलेख अथवा दस्तावेज और
  3. भौतिक अवशेष।

(1) पाठ्य सामग्री – पाठ्य सामग्री के अन्तर्गत समकालीन व्यक्तियों द्वारा लिखा गया उस काल का इतिहास, पत्र, व्याख्यान, प्रवचन, कानून आदि सम्मिलित हैं।

(2) प्रलेख या दस्तावेज – प्रलेखों या दस्तावेजों में मुख्य रूप से उत्कीर्ण अभिलेख या पैपाइरस वृक्ष के पत्तों आदि पर लिखी गई पाण्डुलिपियाँ सम्मिलित हैं। काफी बड़ी संख्या में संविदा-पत्र, लेख, संवाद पत्र और सरकारी दस्तावेज आज भी ‘पैपाइरस’ पत्र पर लिखे हुए पाए गए हैं और पैपाइरस शास्त्री कहे जाने वाले विद्वानों द्वारा प्रकाशित किये गए हैं।

(3) भौतिक अवशेष – भौतिक अवशेषों में अनेक प्रकार की वस्तुएँ शामिल हैं जो मुख्य रूप से पुरातत्त्वविदों को खुदाई और सर्वेक्षण के द्वारा अपनी खोजों में प्राप्त हुई हैं। इनमें इमारतें, स्मारक, मिट्टी के बर्तन, सिक्के आदि शामिल हैं।

प्रश्न 2.
रोम साम्राज्य की भौगोलिक स्थिति स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रोम साम्राज्य की भौगोलिक स्थिति – यूरोप और अफ्रीका के महाद्वीप एक समुद्र द्वारा एक-दूसरे को पृथक् किए हुए हैं जो पश्चिम में स्पेन से लेकर पूर्व में सीरिया तक फैला हुआ है। यह समुद्र भूमध्य सागर कहलाता है। भूमध्य सागर उन दिनों रोम साम्राज्य का हृदय था। रोम का भूमध्य सागर तथा उसके आस-पास उत्तर और दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर प्रभुत्व था। उत्तर में साम्राज्य की सीमा दो महान नदियाँ राइन और डैन्यूब निर्धारित करती थीं। दक्षिण सीमा का निर्धारण सहारा नामक एक विस्तृत रेगिस्तान से होता था । इस प्रकार रोम साम्राज्य एक अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था।

प्रश्न 3.
ईरानी साम्राज्य की भौगोलिक स्थिति का वर्णन कीजिये!
उत्तर:
ईरानी साम्राज्य की भौगोलिक स्थिति-ईरानी साम्राज्य में कैस्पियन सागर के दक्षिण से लेकर पूर्वी अरब तक का सम्पूर्ण प्रदेश और कभी-कभी अफगानिस्तान के कुछ क्षेत्र भी सम्मिलित थे। रोम और ईरानी साम्राज्यों ने विश्व के उस अधिकांश भाग को आपस में बाँट रखा था जिसे चीनी लोग ता – चिन (वृहत्तर चीन या पश्चिम) कहा करते थे।

प्रश्न 4.
रोमन साम्राज्य तथा ईरानी साम्राज्य में अन्तर बताइए।
अथवा
रोमन साम्राज्य सांस्कृतिक दृष्टि से ईरान की तुलना में किस प्रकार अधिक विविधतापूर्ण था ?
उत्तर:
रोमन साम्राज्य तथा ईरानी साम्राज्य में अन्तर – रोमन साम्राज्य सांस्कृतिक दृष्टि से ईरान की तुलना में कहीं अधिक विविधतापूर्ण था। ईरान पर पहले पार्थियन तथा बाद में ससानी राजवंशों ने शासन किया। उन्होंने जिन लोगों पर शासन किया, उनमें अधिकतर ईरानी थे। इसके विपरीत, रोमन साम्राज्य ऐसे क्षेत्रों तथा संस्कृतियों का एक मिला-जुला रूप था, जो कि मुख्यतः सरकार की एक साझा प्रणाली द्वारा एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए थे । रोमन साम्राज्य में अनेक भाषाएँ बोली जाती थीं, परन्तु प्रशासन में लैटिन तथा यूनानी भाषाओं का ही प्रयोग किया जाता था।

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प्रश्न 5.
रोम साम्राज्य में स्थापित गणतन्त्र शासन व्यवस्था की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
रोम साम्राज्य में स्थापित गणतन्त्र शासन व्यवस्था – रोम साम्राज्य में गणतन्त्र एक ऐसी शासन व्यवस्था थी जिसमें वास्तविक सत्ता ‘सैनेट’ नामक निकाय में निहित थी। सैनेट में धनी परिवारों के एक समूह का वर्चस्व था जिन्हें अभिजात कहा जाता था। व्यावहारिक तौर पर गणतन्त्र अभिजात वर्ग की सरकार थी जिसका शासन ‘सैनेट’ नामक संस्था के माध्यम से चलता था। सैनेट की सदस्यता जीवन-भर चलती थी और उसके लिए जन्म की अपेक्षा धन और पद-प्रतिष्ठा को अधिक महत्त्व दिया जाता था। गणतन्त्र का शासन 509 ई. पूर्व से 27 ई. पूर्व तक चला।

प्रश्न 6.
रोमन सम्राट आगस्टस द्वारा स्थापित राज्य ‘प्रिंसिपेट’ का वर्णन कीजिए।
अथवा
रोम राज्य के संदर्भ में ‘प्रिंसिपेट’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
रोमन सम्राट आगस्टस द्वारा स्थापित राज्य ‘प्रिंसिपेट’ – प्रथम रोमन सम्राट आगस्टस ने 27 ई. पूर्व में जो राज्य स्थापित किया था, उसे ‘प्रिंसिपेट’ कहा जाता था। आगस्टस अपने राज्य का एकछत्र शासक था तथा राज्य की सम्पूर्ण सत्ता उसके हाथों में केन्द्रित थी । उसने यह दर्शाने का प्रयास किया कि वह केवल एक ‘प्रमुख नागरिक’ (लैटिन भाषा में प्रिंसेप्स) था, निरंकुश शासक नहीं था। ऐसा उसने ‘सैनेट’ को सम्मान प्रदान करने के लिए किया। उसने सैनेट. को प्रभावहीन बनाने का प्रयास नहीं किया ।

प्रश्न 7.
प्रिंसिपेट में ‘सैनेट’ तथा ‘सम्राट’ की स्थिति की विवेचना कीजिये। अभिजात वर्ग के क्या कार्य एवं अधिकार थे ?
अथवा
उत्तर:
सैनेट – सैनेट ने रोम में गणतन्त्र के शासन काल में सत्ता पर अपना नियन्त्रण स्थापित किया था। रोम में सैनेट का अस्तित्व कई शताब्दियों तक बना रहा था । सैनेट में कुलीन एवं अभिजात वर्गों अर्थात् रोम के धनी परिवारों का बोलबाला रहा था। कालान्तर में इस संस्था में इतालवी मूल के जमींदारों को भी सम्मिलित कर लिया गया था। सैनेट और सम्राटों के सम्बन्ध-सम्राटों का मूल्यांकन इस बात से किया जाता था कि वे सैनेट के प्रति किस प्रकार का व्यवहार करते थे। वे सम्राट सबसे बुरे माने जाते थे जो सैनेट के सदस्यों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते थे, उनके प्रति सन्देहशील रहते थे तथा उनके साथ क्रूरतापूर्ण बर्ताव करते थे।

प्रश्न 8.
रोमन साम्राज्य में सेना के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में सम्राट और सैनेट के बाद सेना शासन की एक प्रमुख और महत्त्वपूर्ण संस्था थी। रोम की सेना एक व्यावसायिक सेना थी जिसमें प्रत्येक सैनिक को वेतन दिया जाता था और उसे कम-से-कम 25 वर्ष तक सेवा करनी पड़ती थी। सेना साम्राज्य में सबसे बड़ा एकल संगठित निकाय थी जिसमें चौथी शताब्दी तक 6,00,000 सैनिक थे।

सेना का काफी प्रभाव था और उसके पास निश्चित रूप से सम्राटों का भाग्य निश्चित करने की शक्ति थी। रोमन साम्राज्य के सैनिक अधिक वेतन तथा अच्छी सेवा शर्तों के लिए निरन्तर आन्दोलन करते थे। कभी-कभी ये आन्दोलन सैनिक विद्रोहों का रूप धारण कर लेते थे। सम्राटों की सफलता इस बात पर निर्भर करती थी कि वे सेना पर कितना नियन्त्रण रख पाते थे। जब सेनाएँ विभाजित हो जाती थीं, तो साम्राज्य को गृह-युद्ध का सामना करना पड़ता था।

प्रश्न 9.
प्रथम दो शताब्दियों में अन्य देशों के प्रति रोमन सम्राटों की नीति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
प्रथम दो शताब्दियों में रोम के अन्य देशों के साथ युद्ध भी बहुत कम हुए। रोमन सम्राट आगस्टस एवं टिबेरियस द्वारा प्राप्त किया गया साम्राज्य पहले ही इतना विस्तृत था कि इसमें और अधिक विस्तार करना अनुपयोगी मालूम होता था। आगस्टस का शासन काल शान्ति के लिए प्रसिद्ध है क्योंकि रोमन लोगों को यह शान्ति दीर्घकाल तक चले आन्तरिक संघर्षों और सदियों की सैनिक विजयों के पश्चात् मिली थी। साम्राज्य के विस्तार के लिए एकमात्र अभियान रोमन सम्राट त्राजान ने 113 – 117 ई. में किया जिसके फलस्वरूप उसने फरात नदी के पार के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था, परन्तु उसके उत्तराधिकारियों ने उन प्रदेशों पर से अपना अधिकार हटा लिया।

प्रश्न 10.
” पूर्ववर्ती रोमन साम्राज्य की प्रारम्भिक काल की एक विशेष उपलब्धि यह थी कि रोमन साम्राज्य के प्रत्यक्ष शासन का क्रमिक रूप से काफी विस्तार हुआ। ” कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पूर्ववर्ती रोमन साम्राज्य के प्रारम्भिक काल की एक विशेष उपलब्धि यह थी कि रोमन साम्राज्य के प्रत्यक्ष शासन का क्रमिक रूप से काफी विस्तार हुआ। इस काल में अनेक आश्रित राज्यों को रोम के प्रान्तीय राज्य-क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया गया। निकटवर्ती पूर्व में ऐसे बहुत से राज्य मौजूद थे। दूसरी शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में फरात नदी के पश्चिम में स्थित राज्यों पर भी रोम ने अधिकार कर लिया। ये राज्य अत्यन्त समृद्ध थे। वास्तव में इटली के सिवाय रोमन साम्राज्य के सभी क्षेत्र प्रान्तों में बँटे हुए थे और उनसे कर वसूल किया जाता था। दूसरी शताब्दी में रोमन साम्राज्य स्काटलैण्ड से आर्मीनिया की सीमाओं तक तथा सहारा से फरात और कभी-कभी उससे भी आगे तक फैला हुआ था। इस समय रोमन साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था।

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प्रश्न 11.
रोमन सम्राटों ने इतने बड़े साम्राज्य पर नियन्त्रण करने और शासन का संचालन करने के लिए क्या उपाय किये?
उत्तर:
रोमन सम्राटों द्वारा विस्तृत साम्राज्य पर शासन करना – सम्पूर्ण रोमन साम्राज्य में दूर-दूर तक अनेक नगर स्थापित किये गए थे, जिनके माध्यम से समस्त साम्राज्य पर नियन्त्रण रखा जाता था। भूमध्य सागर के तटों पर स्थापित बड़े शहरी केन्द्र जैसे कार्थेज, सिकन्दरिया तथा एंटिऑक आदि साम्राज्यिक प्रणाली के मूल आधार थे। इन्हीं शहरों के माध्यम से रोमन सरकार ‘प्रान्तीय ग्रामीण क्षेत्रों’ पर कर लगाने में सफल हुई थी। इसके फलस्वरूप साम्राज्य को विपुल धन-सम्पदा प्राप्त होती थी। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि स्थानीय उच्च वर्ग रोमन साम्राज्य को कर वसूली और अपने क्षेत्रों के प्रशासन के कार्य में सहायता देते थे।

प्रश्न 12.
” इटली और अन्य प्रान्तों के बीच सत्ता का आकस्मिक अन्तरण वास्तव में, रोम के राजनीतिक इतिहास का एक अत्यन्त रोचक पहलू रहा है। ” विवेचना कीजिए।
उत्तर:
दूसरी और तीसरी शताब्दियों के दौरान, अधिकतर प्रशासक तथा सैनिक अफसर उच्च प्रान्तीय वर्गों में से होते थे। इस तरह उनका एक नया संभ्रान्त वर्ग बन गया जो कि सैनेट के सदस्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली था, क्योंकि उसे रोमन सम्राटों का समर्थन प्राप्त था। रोमन सम्राट गैलीनस ( 253 – 268 ई.) ने सैनेटरों को सैनिक कमान से हटाकर इस नये वर्ग के उत्थान में योगदान दिया।

उसने सैनेटरों को सेना में सेवा करने अथवा इस तर्क पहुँच रखने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था ताकि वे साम्राज्य पर अपना नियन्त्रण स्थापित न कर सकें। दूसरी शताब्दी के दौरान तथा तीसरी शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में सेना तथा प्रशासन में अधिकाधिक लोग प्रान्तों से लिए जाने लगे क्योंकि इस क्षेत्र के लोगों को भी नागरिकता मिल चुकी थी जो पहले इटली तक ही सीमित थी। सैनेट पर कम-से-कम तीसरी शताब्दी तक इतालवी मूल के लोगों का प्रभुत्व बना रहा, परन्तु बाद में प्रान्तों से लिए गए सैनेटर बहुसंख्यक हो गए थे।

प्रश्न 13.
रोम के सन्दर्भ में नगर कैसा शहरी केन्द्र था ?
उत्तर:
नगर का शहरी – केन्द्र होना – रोम के सन्दर्भ में नगर एक ऐसा शहरी केन्द्र था, जिसके अपने दण्डनायक ( मजिस्ट्रेट), नगर परिषद् (सिटी काउन्सिल) और अपना एक सुनिश्चित राज्य क्षेत्र था जिसमें उसके अधिकार – क्षेत्र में आने वाले कई ग्राम सम्मिलित थे । इस प्रकार किसी भी शहर के अधिकार – क्षेत्र में कोई दूसरा शहर नहीं हो सकता था, किन्तु उसके अन्तर्गत कई गाँव होते थे। किसी गाँव को शहर का दर्जा मिलना सम्राट की कृपा पर निर्भर करता था। इसी प्रकार अप्रसन्न होने पर सम्राट किसी शहर को गाँव का दर्जा प्रदान कर सकता था।

प्रश्न 14.
रोमन साम्राज्य के शहरी जीवन की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
शहरी जीवन की विशेषताएँ –

  1. शहरों में खाने की कमी नहीं थी।
  2. अकाल के दिनों में भी शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अच्छी सुविधाएँ प्राप्त होने की सम्भावना रहती
  3. सार्वजनिक स्नान गृह रोम के शहरी जीवन की एक प्रमुख विशेषता थी।
  4. शहरी लोगों को उच्च स्तर के मनोरंजन प्राप्त थे। उदाहरण के लिए, एक कलेंडर से हमें ज्ञात होता है कि एक वर्ष में कम-से-कम 176 दिन वहाँ कोई-न-कोई मनोरंजक कार्यक्रम या प्रदर्शन अवश्य होता था।
  5. शहरों में साक्षरता विद्यमान थी।
  6. नगर प्रशासनिक इकाइयों के रूप में क्रियाशील थे। इसलिए वहाँ पर लोगों की सुख-सुविधाओं का ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा, अधिक ध्यान रखा जाता था।

प्रश्न 15.
डॉ. गैलेन के अनुसार रोमन शहरों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के साथ किये जाने वाले व्यवहार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
डॉ. गैलेन ने लिखा है कि कई प्रान्तों में निरन्तर अनेक वर्षों से पड़ रहे अकाल ने लोगों को यह बता दिया था कि लोगों में कुपोषण के कारण बीमारियाँ हो रही हैं। शहरों में रहने वाले लोगों का फसल कटाई के शीघ्र पश्चात् अगले पूरे वर्ष के लिए काफी मात्रा में खाद्यान्न अपने भण्डारों में एकत्रित कर लेना एक रिवाज था।

गेहूँ, जौ, सेम तथा मसूर और दालों का काफी बड़ा भाग शहरियों द्वारा ले जाने के बाद भी कई प्रकार की दालें किसानों के लिए बची रह गई थीं। सर्दियों के लिए जो कुछ भी बचा था, उसे खा-पीकर समाप्त कर देने के बाद ग्रामीण लोगों को बसन्त ॠतु से ऐसे खाद्यों पर निर्भर रहना पड़ा जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक थे। उन लोगों ने वृक्षों की टहनियाँ, छालें, जड़ें, झाड़ियाँ, अखाद्य पेड़-पौधे और पत्ते खाकर अपने प्राणों को बचाए रखा।

प्रश्न 16.
रोमन साम्राज्य में तीसरी शताब्दी में आए संकटों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
तीसरी शताब्दी में रोमन साम्राज्य को अनेक संकटों का सामना करना पड़ा। इसकी पुष्टि निम्नलिखित तथ्यों से होती है-

(1) 225 ई. में ईरान में एक साम्राज्यवादी और आक्रामक वंश का प्रादुर्भाव हुआ। इस वंश के लोग स्वयं को ससानी कहते थे। एक प्रसिद्ध शिलालेख से ज्ञात होता है कि ईरान के शासक शापुर प्रथम ने 60,000 रोमन सेना का सफाया कर दिया था और रोम साम्राज्य की पूर्वी राजधानी एंटिऑक पर अधिकार भी कर लिया था।

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(2) इसी दौरान जर्मन मूल की कई जनजातियों ने राइन तथा डैन्यूब नदी की सीमाओं की ओर बढ़ना आरम्भ कर दिया। इन जनजातियों ने 233 से 280 ई. तक की अवधि में उन प्रान्तों की पूर्वी सीमा पर बार-बार आक्रमण किये जो काला सागर से लेकर आल्पस तथा दक्षिणी जर्मनी तक फैले हुए थे। परिणामस्वरूप रोमवासियों को डैन्यूब से आगे का क्षेत्र छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा।

(3) रोमन सम्राज्य में तीसरी शताब्दी में थोड़े-थोड़े अन्तर से अनेक सम्राट ( 47 वर्षों में 25 सम्राट) गद्दी पर बैठे । इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि तीसरी शताब्दी में रोमन साम्राज्य को भीषण तनाव की स्थिति से गुजरना पड़ा।

प्रश्न 17.
सेन्ट आगस्टीन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सेन्ट आगस्टीन-सेन्ट आगस्टीन (354-430) 396 ई. से उत्तरी अफ्रीका के हिप्पो नामक नगर के प्रसिद्ध बिशप थे। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन उत्तरी अफ्रीका में व्यतीत किया था। कैथोलिक चर्च के बौद्धिक इतिहास में उनका उच्चतम स्थान था। बिशप लोग ईसाई समुदाय में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण क्यक्ति माने जाते थे और प्रायः वे बहुत शक्तिशाली होते थे। उन्होंने रोमन साम्राज्य में महिलाओं की शोचनीय स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है कि उनकी माता की उनके पिता द्वारा नियमित रूप से पिटाई की जाती थी। जिस नगर में वे बड़े हुए वहाँ की अधिकतर पलियाँ इसी तरह की पिटाई से अपने शरीर पर लगी खरोंचें दिखाती रहती थीं।

प्रश्न 18.
रोमन साम्राज्य में साक्षरता की स्थिति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रोमर साम्राज्य में साक्षरता की स्थिति-रोमन साम्राज्य में काम-चलाऊ साक्षरता की दरें साम्राज्य के विभिन्न भागों में काफी अलग-अलग थीं। उदाहरण के लिए रोम के पोम्पेई नगर में काम-चलाऊ साक्षरता व्यापक रूप से विद्यमान थी। इसके विपरीत, मिस्न में काम-चलाऊ साक्षरता की दर काफी कम थी। मिस्र से प्राप्त दस्तावेज हमें यह बताते हैं कि अमुक व्यक्ति ‘क’ अथवा ‘ख’ पढ़ या लिख नहीं सकता था। किन्तु यहाँ भी साक्षरता निश्चित रूप से सैनिकों, सैनिक अधिकारियों, सम्पदा-प्रबन्धकों आदि कुछ वर्गों के लोगों में अपेक्षाकृत अंधिक व्यापक थी।

प्रश्न 19.
“रोमन साम्राज्य में सांस्कृतिक विविधता कई रूपों एवं स्तरों पर दिखाई देती है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में सांस्कृतिक विविधता-रोमन साम्राज्य में सांस्कृतिक विविधता कई रूपों एवं स्तरों पर दिखाई देती है। इसकी पुष्टि निम्नलिखित तथ्यों से होती है-

  1. रोमन साम्राज्य में धार्मिक सम्प्रदायों तथा स्थानीय देवी-देवताओं में बहुत विविधता थी।
  2. साम्राज्य में बोल-चाल की अनेक भाषाएँ प्रचलित थीं।
  3. साम्राज्य में वेशभूषा की विविध शैलियाँ प्रचलित थीं।
  4. रोमन लोग तरह-तरह के भोजन खाते थे।
  5. साम्राज्य में सामाजिक संगठनों के रूप भिन्न-भिन्न थे।
  6. उनकी बस्तियों के अनेक रूप थे।
  7. अरामाइक निकटवर्ती पूर्व का प्रमुख भाषा-समूह था। मिस्न में काप्टिक; उत्तरी अफ्रीका में प्यूनिक तथा बरबर और स्पेन तथा उत्तर-पश्चिम में कैल्टिक भाषा बोली जाती थी।

प्रश्न 20.
रोमन साम्राज्य की आर्थिक प्रगति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य की आर्थिक प्रगति –
(1) रोमन साम्राज्य में बन्दरगाहों, खानों, खदानों, ईंट-भट्टों, जैतून के तेल की फैक्ट्रियों आदि की संख्या बहुत अधिक थी, जिनसे साम्राज्य का आर्थिक आधारभूत ढाँचा काफी मजबूत था।

(2) गेहूँ, अंगूरी शराब तथा जैतून का तेल मुख्य व्यापारिक मदें थीं। ये वस्तुएँ मुख्यतः स्पेन, गैलिक प्रान्तों, उत्तरी अफ्रीका, मिस्न तथा अपेक्षाकृत कम मात्रा में इटली से आती थीं।

(3) शराब, जैतून का तेल तथा अन्य तरल पदार्थों की ढुलाई ऐसे मटकों या कंटेनरों में होती थी, जिन्हें ‘एम्फोरा’ कहते थे।

(4) स्पेन में जैतून का तेल निकालने का उद्यम 140-160 ई. के वर्षों में अपने चरमोत्कर्ष पर था। उन दिनों स्पेन में उत्पादित जैतून का तेल मुख्य रूप से ऐसे कंटेनरों में ले जाया जाता था जिन्हें ‘ड्रेसल -20 कहते थे।

(5) रोमन साम्राज्य के अन्तर्गत बहुत से ऐसे क्षेत्र आते थे जो अपनी असाधारण उर्वरता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। इनमें इटली के कैम्पैनिया, सिसली, मिस्न के फैय्यूम, गैलिली, बाइजैकियम (ट्यूनीसिया), दक्षिणी गाल तथा बाएटिका (दक्षिणी स्पेन) के प्रदेश उल्लेखनीय थे।

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(6) सबसे बढ़िया किस्म की अंगूरी शराब कैम्पैनिया से आती थी। सिसली तथा बाइजैकियम रोम को भारी मात्रा में गेहूँ का निर्यात करते थे। गैलिली में गहन खेती की जाती थी।

(7) इस काल में जल-शक्ति से मिलें चलाने की प्रौद्योगिकी में खासी प्रगति हुई। स्पेन की सोने और चाँदी की खानों में जल-शक्ति से खुदाई की जाती थी।

(8) उस समय साम्राज्य में सुगठित वाणिज्यिक तथा बैंकिंग व्यवस्था थी।

प्रश्न 21.
रोमन साम्राज्य में दासों के प्रति किये गए व्यवहार के बारे में रोमन इतिहासकार टीसटस न क्या लिखा है?
उत्तर:
रोमन इतिहासकार टैसिटस ने लिखा है कि शहर के शासक ल्यूसियस पेडेनियस सेकेण्डस का उसके एक दास ने वध कर दिया। प्राचीन रिवाज के अनुसार यह आवश्यक था कि एक ही छत के नीचे रहने वाले प्रत्येक दास को फाँसी की सजा दी जाए। परन्तु बहुत से निर्दोष लोगों के प्राण बचाने के लिए एक भीड़ इकट्ठी हो गई और शहर में दंगे शुरू हो गए। भीड़ ने सैनेट भवन को घेर लिया।

यद्यपि सैनेट भवन में सैनेटरों ने दासों के प्रति अत्यधिक कठोर व्यवहार किये जाने का विरोध किया गया, परन्तु अधिकांश सदस्यों ने सजा में परिवर्तन किए जाने का विरोध किया। अन्त में उन सैनेटरों की बात मानी गई जो दासों को फाँसी दिए जाने के समर्थक थे। परन्तु पत्थर और जलती हुई मशालें लिए क्रुद्ध भीड़ ने इस आदेश को लागू किये जाने से रोका। परन्तु रोमन सम्राट नीरो ने अभिलेख द्वारा ऐसे लोगों को बुरी तरह फटकारा और उन समस्त. रास्तों पर सेना को नियुक्त कर दिया जहाँ सैनिकों के साथ दोषियों को फाँसी पर चढ़ाने के लिए ले जाया जा रहा था।

प्रश्न 22.
रोमन साम्राज्य में दासों की स्थिति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में दासों की स्थिति-भूमध्यसागर और निकटवर्ती पूर्व दोनों ही क्षेत्रों में दासता की जड़ें… बहुत गहरी थीं। वहाँ दास-प्रथा बड़े पैमाने पर प्रचलित थी। इटली में तो गुलामों का बोलबाला था। रोमन सम्राट आगस्टस के शासन काल में इटली की कुल 75 लाख की जनसंख्या में 30 लाख दास थे। यद्यपि उच्च वर्ग के लोग दासों के प्रति प्रायः क्रूरतापूर्ण व्यवहार करते थे, परन्तु सामान्य लोग दासों के प्रति काफी सहानुभूति रखते थे।

जब प्रथम शताब्दी में शान्ति स्थापित होने के साथ लड़ाई-झगड़े कम हो गए, तो दासों की आपूर्ति में कमी आने लगी और दास – श्रम का प्रयोग करने वालों को दास – प्रजनन अथवां वेतनभोगी मजदूरों जैसे विकल्पों का सहारा लेना पड़ा। बाद की अवधि में कृषि क्षेत्र में अधिक संख्या में दास-मजदूर नहीं रहे। अब इन दासों और मुक्त हुए गुलामों को व्यापार-प्रबन्धकों के रूप में बड़ी संख्या में नियुक्त किया जाने लगा। मालिक प्रायः अपने दासों अथवा मुक्त हुए दासों को अपनी ओर से व्यापार चलाने के लिए पूँजी की व्यवस्था कर देते थे और कभी-कभी उन्हें सम्पूर्ण कारोबार सौंप देते थे।

प्रश्न 23.
पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में रोमन अभिजात वर्ग की आमदनियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में रोमन अभिजात वर्ग की आमदनियाँ – इतिहासकार ओलिंपि ओडोरस के अनुसार रोम के उच्च घरानों में से प्रत्येक के पास अपनी आय में वह सब कुछ उपलब्ध था जो एक मध्यम आकार के शहरों में हो सकता है। एक घुड़दौड़ का मैदान ( हिप्पोड्रोम), अनेक मंच – मन्दिर, फव्वारे और विभिन्न प्रकार स्नानागार आदि थे। बहुत से रोमन परिवारों को अपनी सम्पत्ति से प्रतिवर्ष 4,000 पाउण्ड सोने की आय प्राप्त होती थी। इसमें अनाज, शराब और अन्य उपज शामिल नहीं थी; इन उपजों को बेचने पर सोने में प्राप्त आय के एक-तिहाई के बराबर आय हो सकती थी। सेम में द्वितीय श्रेणी के परिवारों की आय 1,000 अथवा 1,500 पाउण्ड सोना थी।

प्रश्न 24.
रोमन साम्राज्य के परवर्ती काल में वहाँ की नौकरशाही के उच्च तथा मध्य वर्गों की स्थिति का वर्णन कीजिए। सरकार ने इन वर्गों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए क्या उपाय किये?
उत्तर:
परवर्ती काल में रोमन साम्राज्य की नौकरशाही के उच्च तथा मध्य वर्गों की आर्थिक दशा – परवर्ती काल में रोमन साम्राज्य. की नौकरशाही के उच्च तथा मध्य वर्ग अपेक्षाकृत बहुत धनी थे क्योंकि उन्हें अपना वेतन सोने के रूप में मिलता था और वे अपनी आय का काफी बड़ा हिस्सा जमीन आदि खरीदने में लगाते थे। इसके अतिरिक्त रोमन साम्राज्य में भ्रष्टाचार बहुत फैला हुआ था, विशेष रूप से न्याय प्रणाली तथा सैन्य आपूर्ति के प्रशासन में। उच्च अधिकारी और गवर्नर लूट- खसोट और रिश्वत के द्वारा खूब धन कमाते थे। अतः सरकार ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए अनेक कानून बनाए। इतिहासकारों एवं अन्य बुद्धिजीवियों ने भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों की कटु निन्द्रा की।

प्रश्न 25.
परवर्ती काल में रोम के तानाशाह सम्राटों पर अंकुश लगाने के लिए क्या उपाय किये गए ?
उत्तर:
रोम के तानाशाह सम्राटों पर अंकुश लगाना- रोमन राज्य तानाशाही पर आधारित था। रोम के सम्राट अपना विरोध अथवा आलोचना सहन नहीं करते थे । वे हिंसात्मक उपायों द्वारा अपने विरोधियों का दमन करने का प्रयास करते थे। परन्तु चौथी शताब्दी तक आते-आते रोमन कानून की एक प्रेबल परम्परा शुरू हो गई थी और उसने रोम के तानाशाह सम्राटों पर अंकुश लगाने का प्रयास किया। इन कानूनों के अन्तर्गत सम्राट लोग अपनी मनमानी नहीं कर सकते थे।

नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनों का प्रभावशाली ढंग से प्रयोग किया जाता था। कानूनों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए एम्ब्रोस नामक शक्तिशाली बिशप ने कहा था कि यदि सम्राट सामान्य जनता के प्रति कठोर एवं दमनकारी नीति अपनायें, तो बिशप भी उतनी ही अधिक शक्ति से उनका मुकाबला करें।

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प्रश्नं 26.
रोमन साम्राज्य की सामाजिक संरचनाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य की सामाजिक संरचनाएँ – इतिहासकार टैसिटस के अनुसार रोमन साम्राज्य निम्नलिखित प्रमुख वर्गों में विभाजित था –

  • सेनेटर या अभिजात वर्ग
  • अश्वारोही वर्ग
  • जनता का सम्माननीय मध्यम वर्ग
  • निम्नतर वर्ग तथा
  • दास। यथा

(1) अभिजात वर्ग तथा अश्वारोही वर्ग-साम्राज्य के परवर्ती काल में सैनेटर और अश्वारोही वर्ग एकीकृत होकर एक विस्तृत अभिजात वर्ग बन चुके थे। यह ‘परवर्ती रोमन’ अभिजात वर्ग अत्यधिक धनवान था किन्तु कई तरीकों से यह विशुद्ध सैनिक संभ्रान्त वर्ग से कम शक्तिशाली था जिनकी पृष्ठभूमि अधिकतर अभिजातवर्गीय नहीं थी।

(2) मध्यम वर्ग – मध्यम वर्गों में नौकरशाही और सेना की सेवा से जुड़े आम लोग सम्मिलित थे, किन्तु इस वर्ग में अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध सौदागर तथा किसान भी सम्मिलित थे जिनमें से बहुत से लोग पूर्वी प्रान्तों के निवासी थे। टैसिटस ने इस सम्माननीय मध्यम वर्ग का महान सीनेट गृहों के आश्रितों के रूप में वर्णन किया है। मुख्य रूप से सरकारी सेवा और राज्य पर निर्भरता ही इन मध्यम वर्गीय परिवारों का भरण-पोषण करती थी।

(3) निम्नतर वर्ग तथा दास – मध्यम वर्ग से नीचे निम्नतर वर्गों का एक विशाल समूह था, जिन्हें सामूहिक रूप से ‘ह्यूमिलिओरिस’ अर्थात् ‘निम्नतर वर्ग’ कहा जाता था। इनमें ग्रामीण श्रमिक सम्मिलित थे, जिनमें बहुत से लोग स्थायी रूप से बड़ी जागीरों में नियोजित थे। इनमें औद्योगिक और खनन प्रतिष्ठानों के कामगार, प्रवासी कामगार, स्व-1 -नियोजित शिल्पकार, कभी-कभी काम करने वाले श्रमिक सम्मिलित थे। इसके अतिरिक्त दास वर्ग में बड़ी संख्या में गुलाम लोग सम्मिलित थे।

प्रश्न 27.
परवर्ती काल में रोमन सम्राट कान्स्टैन्टाइन द्वारा किये गए सुधारों का वर्णन कीजिए। उसके समय में हुई आर्थिक प्रगति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
रोमन सम्राट कान्स्टैन्टाइन द्वारा किये गये सुधार-
(1) कान्स्टैन्टाइन ने मौद्रिक क्षेत्र में अनेक सुधार किये। उसने सॉलिडस नामक सोने का एक नया सिक्का चलाया जो 4.5 ग्राम शुद्ध सोने का बना हुआ था। यह सिक्का रोमन साम्राज्य की समाप्ति के बाद भी चलता रहा।

(2) कान्स्टैन्टाइन ने एकदूसरी राजधानी कुस्तुन्तुनिया का निर्माण करवाया। यह नई राजधानी तीन ओर समुद्र से घिरी हुई थी।

(3) मौद्रिक स्थायित्व तथा बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण आर्थिक विकास में तेजी आई।

(4) पुरातात्विक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि औद्योगिक प्रतिष्ठानों सहित ग्रामीण उद्योग-धन्धों तथा व्यापार के विकास में काफी पूँजी लगाई गई। तेल की मिलों, शीशे के कारखानों, पेंच की प्रेसों तथा पानी की मिलों की स्थापना की गई।

(5) इन सभी के फलस्वरूप शहरी सम्पदा एवं समृद्धि में अत्यधिक वृद्धि हुई जिससे स्थापत्य कला का विकास हुआ तथा भोग-विलास के साधनों में तेजी आई।

प्रश्न 28.
परवर्ती काल में रोमन साम्राज्य की धार्मिक स्थिति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
“परवर्ती काल में रोमन साम्राज्य की धार्मिक स्थिति-

  1. रोमन लोग बहुदेववादी थे। ये लोग अनेक पंथों एवं उपासना पद्धतियों में विश्वास रखते थे।
  2. ये लोग जूपिटर, मिनर्वा, जूनो मार्स आदि अनेक देवी-देवताओं की पूजा किया करते थे।
  3. इन्होंने देवी-देवताओं की पूजा के लिए अनेक मन्दिरों, मठों और देवालयों का निर्माण किया था।
  4. रोमन साम्राज्य का एक अन्य बड़ा धर्म यहूदी था। परन्तु यहूदी धर्म में अनेक विविधताएँ विद्यमान थीं।
  5. चौथी या पाँचवीं शताब्दियों में साम्राज्य का ‘ईसाईकरण’ एक क्रमिक एवं जटिल प्रक्रिया के रूप में हुआ।
  6. चौथी शताब्दी में भिन्न-भिन्न धार्मिक समुदायों के बीच की सीमाएँ इतनी कठोर एवं गहरी नहीं थीं, जितनी कि आगे चलकर हो गईं। ऐसा शक्तिशाली बिशपों के प्रयासों के परिणामस्वरूप हुआ।

प्रश्न 29.
प्राचीन विश्व इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक क्रान्ति से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अरब प्रदेश से शुरू होने वाले इस्लाम के विस्तार को ‘प्राचीन विश्व इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक क्रान्ति’ कहा जाता है। 642 ई. तक पूर्वी रोमन और ससानी दोनों राज्यों के बड़े- बड़े भाग भीषण युद्ध के बाद अरबों के अधिकार में आ गए थे, परन्तु उभरते हुए इस्लामी राज्य की विजयें, अरब जनजातियों को पराजित करने से ही हुईं। अरब देशों से शुरू होकर ये विजयें सीरियाई रेगिस्तान तथा इराक की सीमाओं तक पहुँच गईं जिसके बाद मुस्लिम सेनाएँ दूर- दूर तक के प्रदेश में गईं।

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प्रश्न 30.
रोमन साम्राज्य के पतन की परिस्थितियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य के पतन की परिस्थितियाँ – छठी शताब्दी में रोमन साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया शुरू हो गई। साम्राज्य का पश्चिमी भाग राजनीतिक दृष्टि से विखण्डित हो गया । उत्तर से आने वाले जर्मन मूल के समूहों (गोथ, वेंडल, लोंबार्ड आदि) ने सभी बड़े प्रान्तों पर अधिकार कर लिया और अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिए जिन्हें ‘रोमोत्तर राज्य’ कहा जाता है। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य थे – स्पेन में विसिगोथों का राज्य, गाल में फ्रैंकों का राज्य (लगभग 511-587) और इटली में लोम्बार्डों का राज्य (568-774)।

533 ई. में जस्टीनियन ने अफ्रीका को वेंडलों के आधिपत्य से मुक्त करा लिया और इटली पर अधिकार कर लिया परन्तु इससे देश तहस-नहस हो गया और लोम्बार्डों के आक्रमण के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया। सातवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में रोम और ईरान के बीच युद्ध पुनः छिड़ गया। ईरान के ससानी शासकों ने मिस्र सहित पूर्वी प्रान्तों पर आक्रमण कर दिया। परन्तु 620 के दशक में बाइजेन्टियन (रोमन साम्राज्य ) ने इन प्रान्तों पर पुनः अधिकार कर लिया। 642 ई. तक पूर्वी रोमन और ससानी राज्यों के बड़े-बड़े भागों पर अरबों ने अधिकार कर लिया।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
” सम्राट, अभिजात वर्ग और सेना रोमन साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास में तीन मुख्य खिलाड़ी थे। ” स्पष्ट कीजिए
अथवा
रोमन साम्राज्य की तीन प्रमुख राजनीतिक संस्थाओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास के तीन मुख्य खिलाड़ी रोमन साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास के तीन मुख्य खिलाड़ी निम्नलिखित थे –
(1) सम्राट – सम्राट राज्य का एकछत्र शासक था। साम्राज्य की सभी शक्तियाँ उसके हाथ में केन्द्रित थीं। इस प्रकार वह सत्ता का वास्तविक स्रोत था। परन्तु उसे ‘प्रमुख नागरिक’ कहा जाता था। ऐसा सैनेट के महत्त्व को बनाए रखने तथा उसे सम्मान प्रदान करने के लिए किया गया था। सम्राट यह प्रदर्शित करना चाहता था कि वह निरंकुश शासक नहीं है।

(2) अभिजात वर्ग अथवा सैनेट- सैनेट में धनवान परिवारों के समूह का बोलबाला था जिन्हें अभिजात कहा जाता था। गणतन्त्र काल में सैनेट ने ही सत्ता पर अपना नियन्त्रण बनाए रखा था। सैनेट एक ऐसी संस्था थी जिसमें कुलीन एवं अभिजात वर्गों अर्थात् धनी परिवारों के सदस्य सम्मिलित थे। सम्राटों का मूल्यांकन इस बात से किया जाता था कि वे सैनेट प्रति किस प्रकार का व्यवहार करते थे।

जो सम्राट सैनेट के सदस्यों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते थे और उन्हें सन्देह की दृष्टि से देखते थे, वे सबसे बुरे सम्राट माने जाते थे। कई सैनेटर गणतन्त्र युग में लौटने की अभिलाषा करते थे, सैनेटों को यह ज्ञात अवश्य हो गया था कि यह असम्भव था। परन्तु अधिकतर सैनेट की सदस्यता जीवन-भर चलती थी और उसके लिए जन्म की अपेक्षा धन और पद-प्रतिष्ठा को प्राथमिकता दी जाती थी। रोम में सैनेट का अस्तित्व कई शताब्दियों तक रहा था।

(3) सेना – सेना भी साम्राज्यिक शासन की एक महत्त्वपूर्ण संस्था थी। रोम की सेना एक व्यावसायिक सेना थी जिसमें प्रत्येक सैनिक को वेतन दिया जाता था और उसे कम-से-कम 25 वर्ष तक सेवा करनी पड़ती थी। इस प्रकार एक वेतनभोगी सेना का होना रोमन साम्राज्य की एक प्रमुख विशेषता थी। सेना साम्राज्य में सबसे बड़ा एकल संगठित निकाय थी। चौथी शताब्दी तक रोमन सेना में 6,00,000 सैनिक थे। सेना काफी प्रभावशाली थी और उसमें सम्राटों का भाग्य निश्चित करने की शक्ति थी। सैनिक अच्छे वेतन और सेवा शर्तों के लिए निरन्तर आन्दोलन करते रहते थे।

कभी-कभी ये आन्दोलन सैनिक विद्रोहों का रूप धारण कर लेते थे। सैनेट सेना घृणा करती थी और उससे भयभीत रहती थी, क्योंकि सेना हिंसा का स्रोत थी। सम्राटों की सफलता इस बात पर निर्भर करती थी कि वे सेना पर कितना नियन्त्रण रख पाते थे। जब सेनाएँ विभाजित हो जाती थीं, तो इसके परिणामस्वरूप साम्राज्य को गृह युद्ध का सामना करना पड़ता था। 69 ई. में रोम में गृहयुद्ध के परिणामस्वरूप एक के बाद एक कुल मिलाकर चार सम्राट सत्तासीन हुए थे।

प्रश्न 2.
रोमन समाज की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
रोमन समाज की प्रमुख विशेषताएँ
रोमन समाज की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत की गई है –
(1) सामाजिक संरचनाएँ – इतिहासकार टैसिटस के अनुसार रोमन साम्राज्य निम्नलिखित प्रमुख वर्गों में विभाजित था-

  • सेनेटर या अभिजात वर्ग
  • अश्वारोही वर्ग
  • जनता का सम्माननीय मध्यम वर्ग
  • निम्नतर वर्ग तथा
  • दास।

साम्राज्य के परवर्ती काल के सेनेटर और अश्वारोही वर्ग एकीकृत होकर एक विस्तृत अभिजात वर्ग बन चुके थे। यह ‘परवर्ती रोमन’ अभिजात वर्ग अत्यधिक धनवान था किन्तु कई तरीकों में यह विशुद्ध सैनिक सम्भ्रान्त वर्ग से कम शक्तिशाली था। मध्यम वर्ग में नौकरशाही और सेना की सेवा से जुड़े हुए आम लोग सम्मिलित थे, किन्तु इस वर्ग में अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध सौदागर तथा किसान भी सम्मिलित थे। मध्यम वर्ग से नीचे निम्नतर वर्गों का एक विशाल समूह था, जिन्हें सामूहिक रूप से ‘ह्यूमिलिओरिस’ अर्थात् ‘निम्नतर वर्ग’ कहा जाता था। इनमें ग्रामीण श्रमिक सम्मिलित थे, जिनमें बहुत से लोग स्थायी रूप से बड़ी जागीरों में नियोजित थे।

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(2) एकल परिवार – रोमन समाज में एकल परिवार का व्यापक रूप से चलन था। वयस्क पुत्र अपने पिता के परिवारों के साथ नहीं रहते थे। वयस्क भाई भी बहुत कम साझे परिवार में रहते थे। परन्तु दासों को परिवार में सम्मिलित किया जाता था क्योंकि रोमवासियों के लिए परिवार की यही अवधारणा थी।

(3) विवाह – प्रथम शताब्दी ई. पूर्व तक विवाह का स्वरूप ऐसा था कि पत्नी अपने पति को अपनी सम्पत्ति हस्तान्तरित नहीं किया करती थी परन्तु अपने पैतृक परिवार में वह अपने पूरे अधिकार बनाए रखती थी। स्त्री का दहेज वैवाहिक अवधि में उसके पति के पास चला जाता था, परन्तु स्त्री अपने पिता की मुख्य उत्तराधिकारी बनी रहती थी। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह उसकी सम्पत्ति की स्वतन्त्र मालिक बन जाती थी।

इस प्रकार रोमन साम्राज्य की स्त्रियों को सम्पत्ति के स्वामित्व व संचालन में व्यापक कानूनी अधिकार प्राप्त थे। तलाक देना अपेक्षाकृत सरल था। इसके लिए पति अथवा पत्नी द्वारा केवल विवाह भंग करने के निश्चय की सूचना देना ही पर्याप्त था। पुरुष प्राय: 28-29, 30-32 की आयु में विवाह करते थे, जबकि लड़कियाँ 16-18 व 22-23 की आयु में विवाह करती थीं। विवाह प्रायः परिवार द्वारा नियोजित किये जाते थे।

(4) स्त्रियों को प्रताड़ना – परिवारों में पुरुषों का बोलबाला था। यही कारण है कि स्त्रियों पर उनके पति प्रायः हावी रहते थे और उनके साथ कठोर बर्ताव करते थे। प्रसिद्ध कैथोलिक बिशप आगस्टीन ने लिखा है कि उनकी माता की उनके पिता द्वारा नियमित रूप से पिटाई की जाती थी। जिस नगर में वे बड़े हुए थे वहाँ की अधिकतर पत्नियाँ इसी तरह की पिटाई से अपने शरीर पर लगी खरोंचें दिखाती रहती थीं। इससे पता चलता है कि रोमन समाज में स्त्रियों की दशा शोचनीय थी।

(5) पिता का अपने बच्चों पर कानूनी नियन्त्रण होना- रोमन समाज में पिताओं का अपने बच्चों पर अत्यधिक कानूनी नियन्त्रण होता था। अवांछित बच्चों के मामले में पिता को उन्हें जीवित रखने अथवा मार डालने तक का कानूनी अधिकार प्राप्त था। साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि कभी-कभी पिता अपने बच्चों को मारने के लिए उन्हें ठण्ड में छोड़ देते थे।

(6) साक्षरता – काम चलाऊ साक्षरता की दरें साम्राज्य के विभिन्न भागों में अलग-अलग थीं। उदाहरण के लिए, रोम के पोम्पेई नगर में काम चलाऊ साक्षरता व्यापक रूप में मौजूद थी। दूसरी ओर, मिस्र से प्राप्त दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि वहाँ साक्षरता की दर काफी कम थी। यहाँ भी साक्षरता का निश्चित रूप से कुछ वर्गों के लोगों जैसे कि सैनिकों, सैनिक अधिकारियों, सम्पदा -प्रबन्धकों आदि के लोगों में अपेक्षाकृत अधिक थी।

प्रश्न 3.
रोमन साम्राज्य में दासों की स्थिति पर प्रकाश डालिए। साम्राज्य में श्रम – प्रबन्धन तथा श्रमिकों पर नियन्त्रण सम्बन्धी अवधारणा का वर्णन कीजिए।
अथवा
रोमन साम्राज्य में श्रमिकों और दासों की स्थिति पर लेख लिखिए।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में दासों की स्थिति रोमन साम्राज्य में दास प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित थी। भूमध्य सागर और निकटवर्ती पूर्व दोनों ही क्षेत्रों में दासता की जड़ें बहुत गहरी थीं। आगस्टस के शासन काल में इटली की कुल 75 लाख जनसंख्या में से 30 लाख दास थे। उन दिनों दासों को पूँजी निवेश की दृष्टि से देखा जाता था। यद्यपि उच्च वर्ग के लोग दासों के प्रति प्रायः व्यवहार करते थे, परन्तु साधारण लोग उनके प्रति काफी सहानुभूति रखते थे। क्रूरतापूर्ण रोम की अर्थव्यवस्था में दासों की भूमिका – जब प्रथम शताब्दी में रोमन साम्राज्य में शान्ति स्थापित होने के साथ लड़ाई-झगड़े कम हो गए तो दासों की आपूर्ति में कमी आ गई।

अतः दास- श्रम का प्रयोग करने वालों को दास- प्रजनन अथवा वेतनभोगी श्रमिकों जैसे विकल्पों का सहारा लेना पड़ा। वेतनभोगी मजदूर सस्ते पड़ते थे तथा उन्हें सरलता से छोड़ा और रखा जा सकता था। दास- श्रमिकों को वर्ष भर रखना पड़ता था और इस अवधि में उन्हें भोजन देना पड़ता तथा उनके अन्य खर्चे भी उठाने पड़ते थे।

इसके परिणामस्वरूप दास – श्रमिकों को रखने से लागत बढ़ जाती थी। इसलिए बाद की अवधि में कृषि – क्षेत्र में अधिक संख्या में दास – मजदूर नहीं रहे। दूसरी ओर, इन दासों और मुक्त हुए दासों को व्यापार-1 र- प्रबन्धकों के रूप में व्यापक रूप से नियुक्त किया जाने लगा। मालिक अपनी ओर से व्यापार चलाने के लिए उन्हें पूँजी देते थे और कभी-कभी अपना सम्पूर्ण कारोबार उन्हें सौंप देते थे। श्रम-प्रबन्धन और श्रमिकों पर नियन्त्रण सम्बन्धी अवधारणा – रोमन साम्राज्य में श्रम – प्रबन्धन पर विशेष ध्यान दिया गया था। इस सम्बन्ध में कृषि विषयक लेखकों ने निम्नलिखित अवधारणाओं पर बल दिया है –

(1) कोलूमेल्ला के सुझाव –
(i) प्रथम शताब्दी के लेखक कोलूमेल्ला ने सिफारिश की थी कि ज़मींदारों को अपनी आवश्यकता से दुगुनी संख्या में उपकरणों तथा औजारों का सुरक्षित भण्डार रखना चाहिए ताकि उत्पादन निरन्तर होता रहे।

(ii) दासों तथा श्रमिकों के कार्यों की निगरानी रखने पर भी विशेष बल दिया गया। नियोक्ताओं की यह मान्यता थी कि निरीक्षण के बिना कभी भी कोई काम ठीक से नहीं करवाया जा सकता। इसलिए दासों तथा मुक्त हुए दासों के कार्यों के निरीक्षण की व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया गया। निरीक्षण को सरल बनाने के लिए कामगारों को कभी-कभी छोटे दलों में विभाजित कर दिया जाता था। कोलूमेल्ला ने दस-दस श्रमिकों के समूह बनाने की सिफारिश की थी और इस बात पर बल दिया कि इन छोटे समूहों में यह बताना अपेक्षाकृत सरल होता है कि उनमें से कौन काम कर रहा है और कौन काम से जी चुरा रहा है।

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(2) इतिहासकार वरिष्ठ प्लिनी का विश्लेषण –
(i) ‘प्रकृति विज्ञान’ नामक पुस्तक के रचयिता वरिष्ठ प्लिनी ने दास-समूहों के प्रयोग की यह कहकर निन्दा की कि यह उत्पादन संगठित करने का सबसे बुरा तरीका है क्योंकि इस प्रकार अलग-अलग समूह में काम करने वाले दासों को सामान्यतया पैरों में जंजीर डाल कर एक साथ रखा जाता था।

(ii) रोमन साम्राज्य में कुछ औद्योगिक प्रतिष्ठानों ने तो इससे भी अधिक कड़े नियन्त्रण लागू कर रखे थे। वरिष्ठ प्लिनी ने सिकन्दरिया की फ्रैंकिन्सेंस (सुगन्धित राल ) की फैक्ट्रियों की परिस्थितियों का वर्णन किया है। उनके अनुसार कितना ही कड़ा निरीक्षण रखें, काफी प्रतीत नहीं होता था। वरिष्ठ प्लिनी ने लिखा है कि ” कामगारों के एप्रेनों पर एक सील लगा दी जाती है, उन्हें अपने सिर पर एक गहरी जाली वाला मास्क या नेट पहनना पड़ता है और उन्हें फैक्ट्री से बाहर जाने के लिए अपने सभी कपड़े उतारने पड़ते हैं।” सम्भवतः यही बात अधिकांश फैक्ट्रियों और कारखानों पर लागू होती थी।

(iii) 398 ई. के एक कानून में यह कहा गया है कि कामगारों को दागा जाता था ताकि भागने या छिपने का प्रयत्न करने पर उन्हें पहचाना जा सके।

(iv) कई निजी मालिक कामगारों के साथ ऋण-संविदा के रूप में अनुबन्ध कर लेते थे ताकि वे यह दावा कर सकें कि उनके कर्मचारी उनके कर्जदार हैं। इस प्रकार वे अपने कामगारों पर कड़ा नियन्त्रण रखते थे।

(3) आगस्टीन के विचार – आगस्टीन के एक पत्र से हमें यह जानकारी प्राप्त होती है कि कभी-कभी माता- पिता अपने बच्चों को 25 वर्ष के लिए बेच कर बन्धुआ मजदूर बना देते थे। ग्रामीण ऋणग्रस्तता और भी अधिक व्यापक थी।

प्रश्न 4.
रोमन साम्राज्य की सामाजिक संरचना की विवेचना कीजिए।
अथवा
रोमन साम्राज्य की सामाजिक श्रेणियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
I. पूर्ववर्ती काल में रोमन साम्राज्य की प्रमुख सामाजिक श्रेणियाँ – इतिहासकार टैसिटस के अनुसार पूर्ववर्ती काल में रोमन साम्राज्य की प्रमुख सामाजिक श्रेणियाँ निम्नलिखित थीं –

  • सैनेटर-तीसरी शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में सैनेट की सदस्य संख्या लगभग 1000 थी। कुल सैनेटरों में लगभग आधे सैनेटर अभी भी इतालवी परिवारों के थे।
  • अश्वारोही या नाइट वर्ग।
  • जनता का सम्माननीय वर्ग, जिनका सम्बन्ध महान घरानों से था।
  • फूहड़ निम्नतर वर्ग अथवा कमीनकारु ( प्लेब्स सोर्डिडा ) – ये लोग सर्कस तथा थियेटर तमाशे देखने के शौकीन थे।
  • दास।

II. परवर्ती काल में रोमन साम्राज्य की प्रमुख सामाजिक श्रेणियाँ – परवर्ती काल में रोमन साम्राज्य की प्रमुख सामाजिक श्रेणियाँ निम्नलिखित थीं –
(1) अभिजात वर्ग- परवर्ती काल में सैनेटर और नाइट (अश्वारोही) एकीकृत होकर एक विस्तृत अभिजात वर्ग बन चुके थे। इनके कुल परिवारों में से कम-से-कम आधे परिवार अफ्रीकी या पूर्वी मूल के थे। यह अभिजात वर्ग अत्यधिक धनवान था परन्तु विशुद्ध सैनिक संभ्रान्त वर्ग की तुलना में कम शक्तिशाली था।

(2) मध्यम वर्ग – मध्यम वर्ग में नौकरशाही और सेना की सेवा से जुड़े सामान्य लोग सम्मिलित थे। इसमें अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध सौदागर तथा किसान भी शामिल थे। इन मध्यम वर्ग के परिवारों का जीवन निर्वाह सरकारी सेवा तथा राज्य पर निर्भरता द्वारा होता था।

(3) निम्नतर वर्ग – मध्यम वर्ग के नीचे निम्न वर्ग का एक विशाल समूह था, जिसे सामूहिक रूप से ‘ह्यूमिलि ओरिस’ अर्थात् ‘निम्नतर वर्ग’ कहा जाता था । इस वर्ग में निम्नलिखित वर्गों के लोग सम्मिलित थे –

  • ग्रामीण श्रमिक – इनमें बहुत से लोग स्थायी रूप से बड़ी जागीरों में काम करते थे।
  • औद्योगिक और खनन प्रतिष्ठानों के श्रमिक
  • प्रवासी कामगार-ये अनाज तथा जैतून की फसल कटाई और निर्माण उद्योग में अधिकांश श्रम की पूर्ति करते
  • स्व-नियोजित शिल्पकार-ये लोग मजदूरी पाने वाले श्रमिकों की तुलना में अच्छा खाते-पीते थे।
  • अस्थायी अथवा कभी-कभी काम करने वाले श्रमिक
  • दास-ये विशेष रूप से सम्पूर्ण पश्चिमी साम्राज्य में पाए जाते थे।

प्रश्न 5.
परवर्ती पुराकाल में रोमन साम्राज्य में सांस्कृतिक तथा प्रशासनिक क्षेत्रों में हुए परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
अथवा
“परवर्ती पुराकाल में रोमन साम्राज्य में शहरी सम्पदा एवं समृद्धि में अत्यधिक वृद्धि हुई।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परवर्ती पुराकाल में रोमन साम्राज्य में सांस्कृतिक तथा प्रशासनिक परिवर्तन ‘परवर्ती पुराकाल’ शब्द का प्रयोग रोमन साम्राज्य के इतिहास की उस अन्तिम अवधि का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो प्रायः चौथी से सातवीं शताब्दी तक फैली हुई थी। इस काल में रोमन साम्राज्य में धार्मिक तथा प्रशासनिक क्षेत्रों में निम्नलिखित परिवर्तन हुए-
(1) धार्मिक परिवर्तन –

  • चौथी शताब्दी में रोमन सम्राट कान्स्टैन्टाइन ने ईसाई धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया। इसके फलस्वरूप रोमन साम्राज्य में ईसाई धर्म का व्यापक रूप से प्रसार हुआ।
  • सातवीं शताब्दी में इस्लाम का उदय हुआ।

(2) प्रशासनिक परिवर्तन- राज्य के प्रशासनिक ढाँचे में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। ये परिवर्तन सम्राट डायोक्लीशियन (284-305 ई.) के समय से शुरू हुए।

यथा –

  • सम्राट डायोक्लीशियन के समय में हुए परिवर्तन-
  • सम्राट डायोक्लीशियन ने महसूस किया कि साम्राज्य का विस्तार बहुत अधिक हो चुका है और उसके अनेक प्रदेशों का सामरिक अथवा आर्थिक दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है, इसलिए उसने उन प्रदेशों को छोड़ कर साम्राज्य को थोड़ा छोटा बना लिया।
  • उसने साम्राज्य की सीमाओं पर किले बनवाए।
  • उसने प्रान्तों का पुनर्गठन किया और असैनिक कार्यों को सैनिक कार्यों से पृथक् कर दिया।
  • उसने सेनापतियों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की, जिससे इन सैनिक अधिकारियों की शक्ति में वृद्धि हुई।

(ii) सम्राट कान्स्टैन्टाइन के समय में हुए परिवर्तन – सम्राट कान्स्टैन्टाइन के समय में अग्रलिखित परिवर्तन हुए –

  • सम्राट् कान्स्टैन्टाइन ने मौद्रिक क्षेत्र में अनेक सुधार किये। उसने ‘सालिडस’ नामक एक नया सिक्का चलाया जो 4.5 ग्राम शुद्ध सोने का बना हुआ था। ये सिक्के बहुत बड़े पैमाने पर ढाले जाते थे और बहुत बड़ी संख्या में चलन में थे।
  • कान्स्टैन्टाइन ने कुस्तुन्तुनिया का निर्माण करवाया और उसे अपनी दूसरी राजधानी बनाया। यह नई राजधानी तीन ओर समुद्र से घिरी हुई थी।
  • नई राजधानी के लिए नयी सैनेट की आवश्यकता थी, इसलिए चौथी शताब्दी में शासक वर्ग का तीव्र गति से विकास हुआ।

(3) आर्थिक क्षेत्र में प्रगति – मौखिक स्थायित्व और बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण आर्थिक विकास में तेजी आई। औद्योगिक प्रतिष्ठानों तथा ग्रामीण उद्योग-धन्धों और व्यापार के विकास में काफी पूँजी लगाई गई। इनमें तेल की मिलें, शीशे के कारखाने, पेंच की प्रेसें तथा पानी की मिलें उल्लेखनीय थीं। लम्बी दूरी के व्यापार में भी काफी पूँजी का निवेश किया गया जिसके फलस्वरूप ऐसे व्यापार का पुनरुत्थान हुआ। शहरी सम्पदा तथा समृद्धि में अत्यधिक वृद्धि – उपर्युक्त परिवर्तनों के फलस्वरूप शहरी सम्पदा तथा समृद्धि में अत्यधिक वृद्धि हुई जिससे स्थापत्य कला के क्षेत्र में उन्नति हुई तथा भोग-विलास के साधनों में वृद्धि हुई।

शासक वर्ग के कुलीन लोग, पहले से कहीं अधिक धनवान और शक्तिशाली हो गए। विभिन्न दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध था, जहाँ मुद्रा का व्यापक रूप से प्रयोग होता था तथा ग्रामीण सम्पदाएँ भारी मात्रा में सोने के रूप में लाभ कमाती थीं। छठी शताब्दी में सम्राट जस्टीनियन के शासन काल में अकेले मिस्र से प्रतिवर्ष 25 लाख सालिडस (लगभग 35,000 पाउण्ड सोना) से अधिक धन राशि करों के रूप में प्राप्त होती थी। वास्तव में पाँचवीं और छठी शताब्दियों में पश्चिमी एशिया के बड़े-बड़े ग्रामीण क्षेत्र अधिक विकसित और घने बसे हुए थे।

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प्रश्न 6.
विश्व के इतिहास में रोमन सभ्यता की देन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
विश्व के इतिहास में रोमन सभ्यता की देन विश्व के इतिहास में रोमन सभ्यता की देन को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है –
(1) विस्तृत साम्राज्य की स्थापना का मार्ग दिखाना – रोम निवासियों ने अनेक देशों को अपने अधीन करके साम्राज्य स्थापित किया। यह साम्राज्य बहुत विस्तृत था। इतना बड़ा साम्राज्य इससे पहले कोई जाति स्थापित नहीं कर की थी। इस प्रकार उन्होंने एक बड़ा साम्राज्य स्थापित करके संसार के अन्य लोगों को विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने का मार्ग दिखाया।

(2) उत्तम प्रबन्ध – विस्तृत रोमन साम्राज्य का प्रबन्ध बड़े उत्तम ढंग से किया गया, वहाँ अशान्ति एवं अव्यवस्था नहीं थी। इस साम्राज्य ने विभिन्न जातियों को एक सूत्र में पिरोय।

(3) धार्मिक सहिष्णुता – रोमन साम्राज्य ने विश्व को धार्मिक सहिष्णुता का मार्ग दिखाया। रोमन साम्राज्य में विभिन्न जातियों तथा धर्मों के लोग रहते थे, लेकिन इस आधार पर किसी भी नागरिक को तंग नहीं किया जाता था।

(4) सैनिक संगठन और अनुशासन-रोम ने अनेक सेनानायकों को जन्म दिया जिन्होंने विशाल सेनाएँ रखीं और उसका अच्छा प्रबन्ध किया। अतः विशाल सैनिक संगठन और अनुशासन रोम की ही देन है।

(5) कानून – आधुनिक विधानशास्त्र का उद्भव रोम से ही माना जाता है। कानूनों का एक संग्रह जस्टीनियन ने सर्वप्रथम संसार के समक्ष रखा। आज भी यूरोप के अनेक देशों में कानून का आधार यही संग्रह है।

(6) ईसाई मत का विस्तार – रोमन शासक कांस्टैंटाइन ने ईसाई धर्म को अपनाकर उसे अपने सारे साम्राज्य का राज्य धर्म बना दिया। इसके बाद ईसाई धर्म का तेजी से विस्तार हुआ।

(7) भवन निर्माण कला – भवन निर्माण कला में भी रोमनों की विश्व को बड़ी देन है। उन्होंने जो अनेक मंदिर, स्नानागार, थियेटर, राजमहल आदि बनवाए वे स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

(8) लैटिन भाषा का विकास – लैटिन भाषा का रोमन साम्राज्य में अत्यधिक विकास हुआ।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 2 लेखन कला और शहरी जीवन

Jharkhand Board JAC Class 11 History Important Questions Chapter 2 लेखन कला और शहरी जीवन Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 History Important Questions Chapter 2 लेखन कला और शहरी जीवन

बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

1. मेसोपोटामिया वर्तमान में किस राज्य का हिस्सा है?
(अ) ईरान
(ब) कुवैत
(स) तुकी
(द) इराक।
उत्तर:
(द) इराक।

2. मेसोपोटामिया के किस भाग में सर्वप्रथम नगरों और लेखन प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ?
(अ) उत्तरी भाग
(ब) दक्षिणी भाग
(स) पूर्वी भाग
(द) पूर्वोत्तर भाग।
उत्तर:
(ब) दक्षिणी भाग

3. मेसोपोटामिया के प्राचीनतम नगरों का निर्माण शुरू हो गया था –
(अ) 7000 ई. पूर्व
(ब) 5000 ई. पूर्व
(स) 3000 ई.पू.
(द) 2000 ई. पूर्व।
उत्तर:
(स) 3000 ई.पू.

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4. शहरी जीवन की प्रमुख विशेषता है –
(अ) शिल्पियों की अधिकता
(ब) उत्तम जलवायु
(स) शिक्षित लोगों का आवास
(द) श्रम-विभाजन।
उत्तर:
(द) श्रम-विभाजन।

5. मेसोपोटामिया की लिपि कहलाती थी-
(अ) वर्णाक्षर लिपि
(ब) संकेतांत्मक लिपि
(स) कीलाकार (क्यूनीफार्म)
(द) प्राकृतिक लिपि।
उत्तर:
(स) कीलाकार (क्यूनीफार्म)

6. मेसोपोटामिया की सबसे पुरानी ज्ञात भाषा थी-
(अ) अक्कदी
(ब) बेबीलोनियुन
(स) असीरियाई
(द) सुमेरियन।
उत्तर:
(द) सुमेरियन।

7. युद्धबन्दियों तथा स्थानीय लोगों को अनिवार्य रूप से मन्दिरों में तथा राजा के यहाँ काम करना पड़ता था। उन्हें काम के बदले दिया जाता था-
(अ) वेतन
(ब) अनाज
(स) लूट का हिस्सा
(द) पारिश्रमिक।
उत्तर:
(ब) अनाज

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8. असुरबनिपाल कौन था?
(अ) पुरोहित
(ब) योद्धा
(स) असीरियाई शासक
(द) शिल्पी।
उत्तर:
(स) असीरियाई शासक

निम्नलिखित रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –

1. शहरी जीवन की शुरुआत ……………. में हुई।
2. फरात और दजला नदियों के बीच स्थित मेसोपोटामिया प्रदेश आजकल ……………. गणराज्य का हिस्सा है।
3. आरंभिक काल में मेसोपोटामिया प्रदेशं को मुख्यतः इसके शहरीकृत दक्षिणी भाग को ……………. कहा जाता था।
4. 2000 ई. पू. के बाद मेसोपोटामिया के दक्षिणी क्षेत्र को ……………. कहा जाने लगा।
5. 1100 ई. पूर्व से मेसोपोटामिया क्षेत्र को ……………. कहा जाने लगा।
6. शहरी अर्थव्यवस्थाओं में ………….. के अलावा व्यापार, उत्पादन तथा सेवाओं की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
उत्तर:
1. मेसोपोटामिया
2. इराक
3. सुमेर, अक्कद
4. बेबीलोनिया
5. असीरिया
6. खाद्य उत्पादन।

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-
1. मेसोपोटामिया के प्राचीनतम नगरों का निर्माण लगभग 3000 ई. पू. में शुरू हो गया था।
2. कुशल परिवहन व्यवस्था शहरी विकास के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होती है।
3. मेसोपोटामिया की सबसे पुरानी ज्ञात भाषा अक्कदी थी।
4. सुमेर के व्यापार की पहली घटना को एनमर्कर के साथ जोड़ा जाता है।
5. 2000 ई. पूर्व के बाद मारी नगर मंदिर नगर के रूप में खूब फला-फूला।
उत्तर:
1. सत्य
2. असत्य
3. असत्य
4. सत्य
5. असत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये –

1. उरुक (अ) नगर का एक रिहायशी इलाका
2. मारी (ब) गडरिये
3. उर (स) उरूक नगर का शासक
4. यायावर समुदायों के झुंड (द) शाही नगर
5. गिल्गेमिश (य) मंदिर नगर

उत्तर:

1. उरुक (य) मंदिर नगर
2. मारी (द) शाही नगर
3. उर (अ) नगर का एक रिहायशी इलाका
4. यायावर समुदायों के झुंड (ब) गडरिये
5. गिल्गेमिश (स) उरूक नगर का शासक

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मेसोपोटामिया किन नदियों के बीच स्थित है?
उत्तर:
मेसोपोटामिया फरात तथा दज़ला नदियों के बीच स्थित है।

प्रश्न 2.
वर्तमान में मेसोपोटामिया किस गणराज्य का हिस्सा है?
उत्तर:
वर्तमान में मेसोपोटामिया इराक गणराज्य का हिस्सा है।

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प्रश्न 3.
मेसोपोटामिया में प्रचलित भाषाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
सुमेरियन, अक्कदी तथा अरामाइक भाषाएँ।

प्रश्न 4.
सभी पुरानी व्यवस्थाओं में कहाँ की खेती सबसे अधिक उपज देने वाली हुआ करती थी?
उत्तर:
दक्षिणी मेसोपोटामिया की।

प्रश्न 5.
शहरी जीवन की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) श्रम – विभाजन तथा
(2) व्यापार।

प्रश्न 6.
प्राचीन काल में मेसोपोटामिया में व्यापार के लिए विश्व मार्ग के रूप में कौनसा जल मार्ग काम करता
उत्तर:
फरात नदी जलमार्ग।

प्रश्न 7.
मेसोपोटामिया की लिपि क्या कहलाती थी ?
उत्तर:
क्यूनीफार्म अथवा कीलाकार।

प्रश्न 8.
मेसोपोटामिया की सबसे पुरानी ज्ञात भाषा कौनसी थी ?
उत्तर:
सुमेरियन भाषा।

प्रश्न 9.
मेसोपोटामिया की परम्परागत कथाओं के अनुसार मेसोपोटामिया में सर्वप्रथम किस राजा ने व्यापार और लेखन की व्यवस्था की थी ?
उत्तर:
उरुक के राजा एनमार्कर ने।

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प्रश्न 10.
मेसोपोटामियावासियों के दो प्रमुख देवताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) उर (चन्द्र देवता) तथा
(2) इन्नाना (प्रेम व युद्ध की देवी )।

प्रश्न 11.
मारी नगर के समृद्ध होने का क्या कारण था ?
उत्तर:
मारी नगर के व्यापार का उन्नत होना।

प्रश्न 12.
मेसोपोटामिया के प्रसिद्ध महाकाव्य का नाम लिखिए।
उत्तर:
गिल्गेमिश महाकाव्य।

प्रश्न 13.
नैबोनिडस कौन था?
उत्तर:
नैबोनिडस स्वतन्त्र बेबीलोन का अन्तिम शासक था।

प्रश्न 14.
यायावर से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
यायावर गड़रिये खानाबदोश होते थे।

प्रश्न 15.
मेसोपोटामिया का नाम यूनानी भाषा के किन शब्दों से बना है ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया यूनानी भाषा के दो शब्दों – ‘मेसोस’ तथा ‘पोटैमोस’ से बना है।

प्रश्न 16.
बाइबल के अनुसार जल-प्लावन के बाद परमेश्वर ने किस नाम के मनुष्य को चुना ?
उत्तर:
नोआ नाम के मनुष्य को।

प्रश्न 17.
‘क्यूनीफार्म’ से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया की लिपि ‘क्यूनीफार्म’ कहलाती थी।

प्रश्न 18.
‘क्यूनीफार्म’ शब्द की उत्पत्ति किन शब्दों से हुई है ?
उत्तर:
क्यूनीफार्म शब्द लातिनी शब्द क्यूनियस (खूँटी) और ‘फोर्मा’ (आकार) से बना है।

प्रश्न 19.
मेसोपोटामिया का दक्षिणी भाग क्या कहलाता था ?
उत्तर:
रेगिस्तान।

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प्रश्न 20.
उरुक से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
उरुक मेसोपोटामिया का एक अत्यन्त सुन्दर मंदिर शहर था।

प्रश्न 21.
मेसोपोटामिया का शाब्दिक अर्थ बताइए।
उत्तर:
मेसोपोटामिया का शाब्दिक अर्थ है-दो नदियों के बीच में स्थित प्रदेश

प्रश्न 22.
मेसोपोटामिया की सभ्यता अपनी किन विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध है?
उत्तर:
मेसोपोटामिया की सभ्यता अपनी सम्पन्नता, शहरी जीवन, विशाल एवं समृद्ध साहित्य, गणित तथा खगोल विद्या के लिए प्रसिद्ध है।

प्रश्न 23.
यूरोपवासियों के लिए मेसोपोटामिया क्यों महत्त्वपूर्ण था ?
उत्तर:
यूरोपवासियों के लिए मेसोपोटामिया इसलिए महत्त्वपूर्ण था क्योंकि बाइबिल के प्रथम भाग ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ में इसका उल्लेख कई सन्दर्भों में किया गया है।

प्रश्न 24.
मेसोपोटामिया में पुरातत्त्वीय खोज कब शुरू हुई? वहाँ किन दो स्थलों पर उत्खनन कार्य किया गया?
उत्तर:
(1) मेसोपोटामिया में पुरातत्त्वीय खोज 1840 के दशक में हुई।
(2) यहाँ उरुक तथा मारी में उत्खनन कार्य कई दशकों तक चलता रहा।

प्रश्न 25.
मेसोपोटामिया में खेती कब शुरू हो गई थी ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया में 7000 से 6000 ई. पूर्व के बीच खेती शुरू हो गई थी।

प्रश्न 26.
मेसोपोटामिया (इराक) के किस भाग में सबसे पहले नगरों तथा लेखन प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया के दक्षिणी भाग में सबसे पहले नगरों तथा लेखन प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ।

प्रश्न 27.
मेसोपोटामिया के रेगिस्तानों में शहरों का प्रादुर्भाव क्यों हुआ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया के रेगिस्तानों में शहरों के लिए भरण-पोषण का साधन बन सकने की क्षमता थी। फरात तथा दजला नामक नदियाँ अपने साथ उपजाऊ मिट्टी लाती थीं ।

प्रश्न 28.
मेसोपोटामिया के प्राचीनतम नगरों का निर्माण कब शुरू हुआ ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया के प्राचीनतम नगरों का निर्माण कांस्य युग अर्थात् 3000 ई. पूर्व में शुरू हुआ था।

प्रश्न 29.
मेसोपोटामिया के किस नगर से ‘वार्का शीर्ष’ नामक मूर्तिकला का नमूना प्राप्त हुआ और कब हुआ ?
उत्तर:
3000 ई. पू. मेसोपोटामिया के उरुक नामक नगर से ‘वार्का शीर्ष’ नामक मूर्तिकला का नमूना प्राप्त हुआ।

प्रश्न 30.
मेसोपोटामिया के लोग किन वस्तुओं का निर्यात और आयात करते थे ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया के लोग लकड़ी, ताँबा, राँगा, चाँदी, सोना, सीपी, पत्थर आदि का आयात करते थे तथा कपड़े और कृषिजन्य उत्पाद का निर्यात करते थे।

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प्रश्न 31.
परिवहन का सबसे सस्ता तरीका क्या है और क्यों है ?
उत्तर:
परिवहन का सबसे सस्ता तरीका जलमार्ग होता है क्योंकि थलमार्ग की तुलना में पशुओं से माल की ढुलाई करने में अधिक खर्चा लगता है।

प्रश्न 32.
मेसोपोटामिया में पाई गई पहली पट्टिकाएँ कब की हैं?
उत्तर:
मेसोपोटामिया में पाई गई पहली पट्टिकाएँ लगभग 3200 ई. पूर्व की हैं। उनमें चित्र जैसे चिह्न और संख्याएँ दी गई हैं।

प्रश्न 33.
मेसोपोटामिया के लोग लिखने के लिए किसका प्रयोग करते थे ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया के लोग लिखने के लिए मिट्टी की पट्टिकाओं का प्रयोग करते थे 1

प्रश्न 34.
मेसोपोटामिया में लेखन का प्रयोग किन कार्यों में किया जाता था ?
उत्तर:
हिसाब-किताब रखने, शब्दकोश बनाने, राजाओं की उपलब्धियों का उल्लेख करने तथा कानूनों में परिवर्तन करने के कार्यों में ।

प्रश्न 35.
सुमेरियन भाषा का स्थान किस भाषा ने ले लिया और कब ?
उत्तर:
2400 ई. पूर्व के बाद सुमेरियन भाषा का स्थान अक्कदी भाषा ने ले लिया ।

प्रश्न 36.
मेसोपोटामिया में लेखन कार्य क्यों महत्त्वपूर्ण माना जाता था ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया में लेखन कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता था क्योंकि लेखन कार्य के लिए बड़ी कुशलता की आवश्यकता होती थी ।

प्रश्न 37.
दक्षिणी मेसोपोटामिया में शहरों का विकास कब हुआ ?
उत्तर:
5000 ई. पूर्व से दक्षिणी मेसोपोटामिया में बस्तियों का विकास होने लगा था। इन बस्तियों में से कुछ ने प्राचीन शहरों का रूप धारण कर लिया था।

प्रश्न 38.
प्रारम्भ में मेसोपोटामिया में विकसित होने वाले कितने प्रकार के शहर थे ?
उत्तर:
तीन प्रकार के शहर –

  • मन्दिरों के चारों ओर विकसित हुए शहर
  • व्यापार के केन्द्रों के रूप में विकसित हुए शहर
  • शाही शहर।

प्रश्न 39.
मेसोपोटामिया का सबसे पहला ज्ञात मन्दिर कौनसा था ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया का सबसे पहला ज्ञात मन्दिर एक छोटा-सा देवालय था जो कच्ची ईंटों का बना हुआ था।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 2 लेखन कला और शहरी जीवन

प्रश्न 40.
मेसोपोटामिया के प्रारम्भिक मन्दिरों और साधारण घरों में क्या अन्तर था ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया के प्रारम्भिक मन्दिरों की बाहरी दीवारें भीतर और बाहर की ओर मुड़ी हुई होती थीं, परन्तु साधारण घरों की दीवारें ऐसी नहीं होती थीं।

प्रश्न 41.
प्राय: प्रारम्भिक मन्दिर साधारण घरों की भाँति क्यों माने जाते थे?
उत्तर:
प्राय: प्रारम्भिक मन्दिर साधारण घरों की भाँति होते थे क्योंकि मन्दिर भी किसी देवता का घर माना जाता था।

प्रश्न 42.
मेसोपोटामिया में कृषि को हानि पहुँचाने वाले दो कारण लिखिए।
अथवा
मेसोपोटामिया में प्राकृतिक उपजाऊपन होने के बावजूद कृषि को कई बार संकटों का सामना क्यों करना पड़ता था ?
उत्तर:
(1) फरात नदी की प्राकृतिक धाराओं में बहुत अधिक पानी आना
(2) कभी – कभी इन धाराओं द्वारा अपना मार्ग बदल लेना।

प्रश्न 43:
मेसोपोटामिया के तत्कालीन गाँवों में जमीन और पानी के लिए बार-बार झगड़े क्यों हुआ करते थे ?
उत्तर:
(1) जलधारा के नीचे की ओर बसे हुए गाँवों को पानी नहीं मिलना।
(2) लोगों द्वारा अपने हिस्सों की नदी में से गाद (मिट्टी ) नहीं निकालना।

प्रश्न 44.
मेसोपोटामिया के धार्मिक जीवन की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर;
(1) मेसोपोटामियावासी अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे।
(2) वे देवी-देवताओं को अन्न, मछली आदि अर्पित करते थे।

प्रश्न 45.
‘स्टेल’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘स्टेल’ पत्थर के ऐसे शिलापट्ट होते हैं, जिन पर अभिलेख उत्कीर्ण किये जाते हैं।

प्रश्न 46.
चाक का निर्माण शहरी अर्थव्यवस्था के लिए उपयुक्त क्यों सिद्ध हुआ ?
उत्तर:
चाक से कुम्हार की कार्यशाला में एक साथ बड़े पैमाने पर अनेक एक जैसे बर्तन सरलता से बनाए जाने

प्रश्न 47.
मेसोपोटामिया के नगरों की सामाजिक व्यवस्था में धन-सम्पत्ति के अधिकतर हिस्से पर किस वर्ग का अधिकार था ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया के नगरों की सामाजिक व्यवस्था में धन-सम्पत्ति के अधिकतर हिस्से पर उच्च या संभ्रान्त वर्ग का अधिकार था ।

प्रश्न 48.
इस बात की पुष्टि किस तथ्य से होती है कि मेसोपोटामिया के नगरों की सामाजिक व्यवस्था में धन-सम्पत्ति के अधिकतर हिस्से पर उच्च वर्ग का अधिकार था ?
उत्तर:
अधिकतर बहुमूल्य चीजें जैसे आभूषण, सोने के पात्र आदि बड़ी मात्रा में राजाओं तथा रानियों की कब्रों तथा समाधियों में उनके साथ दफनाई गई मिली हैं।

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प्रश्न 49.
मेसोपोटामिया में जल निकासी की क्या व्यवस्था थी?
उत्तर:
मेसोपोटामिया में वर्षा के पानी का निकास नालियों के माध्यम से भीतरी आँगनों में बने हुए हौजों में ले जाया जाता था।

प्रश्न 50.
उर नगर में घरों की दहलीजों को क्यों ऊँचा उठाना पड़ता था ?
उत्तर:
उर नगर में घरों की दहलीजों को ऊँचा उठाना पड़ता था तकि वर्षा के बाद कीचड़ बहकर घरों के भीतर न आ सके।

प्रश्न 51.
उर के निवासियों में घरों, के बारे में प्रचलित दो अन्धविश्वासों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) यदि घर की देहली ऊँची उठी हुई हो, तो वह धन-दौलत लाती है।
(2) यदि सामने का दरवाजा किसी दूसरे के घर की ओर न खुले, तो वह सौभाग्य प्रदान करता है।

प्रश्न 52.
मारी नगर कहाँ स्थित था ?
उत्तर:
मारी नगर फरात नदी की ऊर्ध्व धारा पर स्थित था।

प्रश्न 53.
मारी नगर का अधिकांश भाग किस काम में लिया जाता था ?
उत्तर:
मारी नगर का अधिकांश भाग भेड़-बकरी चराने के लिए ही काम में लिया जाता था।

प्रश्न 54.
मारी नगर के किसानों तथा खानाबदोशों के बीच झगड़े होने के दो कारण बताइए।
उत्तर:
(1) खानाबदोश अपनी भेड़-बकरियों को किसानों के बोए हुए खेतों से गुजार कर ले जाते थे।
(2) खानाबदोश किसानों पर हमला कर उनका माल लूट लेते थे।

प्रश्न 55.
इस बात की पुष्टि किस तथ्य से होती है कि मेसोपोटामिया का समाज और वहाँ की संस्कृति भिन्न- भिन्न समुदायों के लोगों और संस्कृतियों के लिए खुली थी ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया में बसने वाले खानाबदोश अक्कदी, एमोराइट, असीरियाई और आर्मीनियन आदि विभिन्न जातियों के थे ।

प्रश्न 56.
मारी का विशाल राजमहल किन चीजों का प्रमुख केन्द्र था ?
उत्तर:
मारी का विशाल राजमहल वहाँ के शाही परिवार, प्रशासन, उत्पादन, विशेष रूप से कीमती धातुओं के आभूषणों के निर्माण का मुख्य केन्द्र था।

प्रश्न 57.
मारी के राजा के भोजन में प्रतिदिन कौनसे खाद्य पदार्थ पेश किये जाते थे ?
उत्तर:
मारी के राजा के भोजन में प्रतिदिन आटा, रोटी, मांस, मछली, फल, मदिरा, बीयर आदि पेश किये जाते थे।

प्रश्न 58.
मारी नगर से किन वस्तुओं का निर्यात किया जाता था और किन देशों को किया जाता था ?
उत्तर:
मारी नगर से लकड़ी, ताँबा, राँगा, तेल, मदिरा आदि वस्तुएँ नावों के द्वारा फरात नदी के रास्ते तुर्की, सीरिया, लेबनान आदि देशों में भेजी जाती थीं।

प्रश्न 59.
मारी नगर में साइप्रस के किस द्वीप से किस धातु का आयात किया जाता था ?
उत्तर:
मारी नगर में साइप्रस के अलाशिया से ताँबे का आयात किया जाता था ।

प्रश्न 60.
गिल्गेमिश महाकाव्य से क्या ज्ञात होता है ?
उत्तर:
गिल्गेमिश महाकाव्य से ज्ञात होता है कि मेसोपोटामिया के लोग अपने नगरों पर बहुत अधिक गर्व करते

प्रश्न 61.
गिल्गेमिश कौन था ?
उत्तर:
गिल्गेमिश उरुक नगर का राजा था। वह एक महान योद्धा था तथा उसने दूर-दूर तक के अनेक प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया था।

प्रश्न 62.
मेसोपोटामिया की सभ्यता की विश्व को सबसे बड़ी देन क्या है ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया की सभ्यता की विश्व को सबसे बड़ी देन उसकी कालगणना और गणित की विद्वतापूर्ण परम्परा है।

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प्रश्न 63.
मेसोपोटामिया निवासियों ने समय का विभाजन किस प्रकार किया था ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया निवासियों ने एक वर्ष को 12 महीनों में, एक महीने को 4 सप्ताहों में, एक दिन को 24 घण्टों में और एक घण्टे को 60 मिनट में बाँटा था।

प्रश्न 64.
मेसोपोटामियावासियों द्वारा किये गए समय के विभाजन को किन लोगों ने अपनाया था?
उत्तर:
मेसोपोटामियावासियों द्वारा किये गए समय के विभाजन को सिकन्दर महान के उत्तराधिकारियों, रोम तथा फिर मुस्लिम देशों और फिर मध्ययुगीन यूरोप ने अपनाया था।

प्रश्न 65.
असुरबनिपाल के पुस्तकालय का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
असुरबनिपाल के पुस्तकालय में कुल मिलाकर 1000 मूल ग्रन्थ तथा लगभग 30,000 पट्टिकाएँ थीं जिन्हें विषयानुसार वर्गीकृत किया गया था।

प्रश्न 66.
असीरियाई शासक बेबीलोनिया को उच्च संस्कृति का केन्द्र क्यों मानते थे?
उत्तर:
क्योंकि बेबीलोनिया के कई नगर पट्टिकाओं के विशाल संग्रह तैयार किये जाने और प्राप्त करने के लिए प्रसिद्ध थे।

प्रश्न 67.
नैबोपोलास्सर कौन था?
उत्तर:
नैबोपोलास्सर दक्षिणी कछार का एक महान योद्धा था। उसने बेबीलोनिया को 625 ई. पू. में असीरियन लोगों के आधिपत्य से मुक्त कराया था।

प्रश्न 68.
नैबोनिडस ने किस मूर्ति की मरम्मत करवाई और किस कारण करवाई?
उत्तर:
नैबोनिडस ने देवताओं के प्रति भक्ति और राजा के प्रति अपनी निष्ठा के कारण अक्कद के राजा सारगोन की टूटी हुई मूर्ति की मरम्मत करवाई

प्रश्न 69.
‘वार्का शीर्ष’ के बारे में संक्षेप में लिखिए।
अथवा
वार्का शीर्ष के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
3000 ई. पूर्व उरुक नगर में एक स्त्री का सिर एक सफेद संगमरमर को तराश कर बनाया गया था। यह मूर्तिकला का श्रेष्ठ नमूना है।

प्रश्न 70.
विश्व को मेसोपोटामिया की दो देन बताइये।
उत्तर:
(1) मेसोपोटामिया की कालगणना
(2) गणित की विद्वत्तापूर्ण परम्परा का विकास।

प्रश्न 71.
हौज किसे कहा जाता था ?
उत्तर:
हौज जमीन में एक ऐसा ढका हुआ गड्ढा होता था जिसमें पानी और मल जाता था।

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प्रश्न 72.
इन्नाना कौन थी ?
उत्तर:
इन्नाना मेसोपोटामिया की प्रेम व युद्ध की देवी थी।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मेसोपोटामिया की स्थिति तथा इसके प्राथमिक इतिहास पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
मेसोपोटामिया फरात और दजला नामक नदियों के बीच स्थित है। यह प्रदेश आजकल इराक गणराज्य का हिस्सा है। प्रारम्भ में इस प्रदेश को मुख्यतः इसके शहरीकृत दक्षिणी भाग को सुमेर तथा अक्कद कहा जाता था। 2000 ई.पू. के बाद दक्षिणी क्षेत्र को बेबीलोनिया कहा जाने लगा। 1100 ई. पू. में असीरियाई लोगों ने उत्तर में अपना राज्य स्थापित कर लिया।

अत: 1100 ई. पू. से यह क्षेत्र असीरिया कहा जाने लगा। मेसोपोटामिया की प्रथम ज्ञात भाषा सुमेरियन थी। लगभग 2400 ई. पूर्व में अक्कदी भाषा का प्रचलन हो गया। 1400 ई. पूर्व से अरामाइक भाषा का प्रचलन शुरू हुआ। यह भाषा हिब्रू से मिलती-जुलती थी और 1000 ई.पू. के बाद व्यापक रूप से बोली जाने लगी थी।

प्रश्न 2.
यूरोपवासी मेसोपोटामिया को महत्त्वपूर्ण क्यों मानते थे?
उत्तर:
यूरोपवासी मेसोपोटामिया को महत्त्वपूर्ण मानते थे क्योंकि बाइबल के प्रथम भाग ‘ओल्ड टेस्टामेन्ट’ में इसका उल्लेख अनेक सन्दर्भों में किया गया है। उदाहरण के लिए ओल्ड टेस्टामेन्ट की ‘बुक ऑफ जेनेसिस’ में ‘शिमार’ का उल्लेख है जिसका अर्थ सुमेर से है। यूरोप के यात्री और विद्वान लोग मेसोपोटामिया को एक प्रकार से अपने पूर्वजों की भूमि मानते थे।

प्रश्न 3.
बाइबल में उल्लिखित जल-प्लावन की घटना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बाइबल के अनुसार पृथ्वी पर सम्पूर्ण जीवन को नष्ट करने वाला जल – प्लावन हुआ था । किन्तु ईश्वर ने जल-प्लावन के पश्चात् भी जीवन को पृथ्वी पर सुरक्षित रखने के लिए नोआ नामक एक व्यक्ति को चुना । नोआ ने एक अत्यन्त विशाल नौका का निर्माण किया और उसमें सभी जीव-जन्तुओं का एक – एक जोड़ा रख दिया। जल-प्लावन के समय नौका में रखे सभी जोड़े सुरक्षित बच गए परन्तु बाकी सब कुछ नष्ट हो गया।

प्रश्न 4.
मेसोपोटामिया के परम्परागत साहित्य में वर्णित ‘जल – प्लावन आख्यान’ का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मेसोपोटामिया के परम्परागत साहित्य में वर्णित ‘जल – प्लावन आख्यान’ में बताया गया है कि एक बार देवता मनुष्य जाति को नष्ट करने पर उतारू हो गए परन्तु एनकी ने जिउसूद्र नामक एक व्यक्ति को यह रहस्य बता दिया । जिउसूद्र ने एनकी के आदेशानुसार एक विशाल नौका बनाई और उसे अनेक जीवों के जोड़ों और अन्नादि से भर लिया । अपने परिवार को भी उसने नाव पर चढ़ा लिया। फिर भीषण जल-प्लावन आया जो सात दिन तक चलता रहा। जिउसूद्र ने देवताओं को बलि दी जिससे वे उस पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे अमृत्व प्रदान किया और दिलमुन पर्वत पर उसे स्थान दिया।

प्रश्न 5.
इराक की भौगोलिक स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
इराक भौगोलिक विविधता का देश है। इसके पूर्वोत्तर भाग में हरे-भरे, ऊँचे-नीचे मैदान हैं जो धीरे-धीरे वृक्षों से ढके हुए पर्वतों के रूप में फैलते गए हैं। यहाँ साफ पानी के झरने तथा जंगली फूल हैं। यहाँ अच्छी फसल के लिए पर्याप्त वर्षा हो जाती है। उत्तर में ऊँची भूमि है जहाँ स्टेपी- घास के मैदान हैं। यहाँ पशु-पालन ‘खेती की अपेक्षा आजीविका का अच्छा साधन है। सर्दियों की वर्षा के पश्चात् भेड़-बकरियाँ यहाँ उगने वाली छोटी-छोटी झाड़ियों और घास से अपना भरण-पोषण करती हैं। पूर्व में दजला की सहायक नदियाँ ईरान के पहाड़ी प्रदेशों में जाने के लिए परिवहन के अच्छे साधन हैं। दक्षिणी भाग एक रेगिस्तान है।

प्रश्न 6.
मेसोपोटामिया के दक्षिण भाग (रेगिस्तान) में सबसे पहले नगरों के प्रादुर्भाव के क्या कारण थे?
उत्तर:
मेसोपोटामिया के दक्षिणी भाग (रेगिस्तान) में सबसे पहले नगरों के प्रादुर्भाव के निम्नलिखित कारण थे –
(1) इन रेगिस्तानों में शहरों के लिए भरण-पोषण का साधन बन सकने की क्षमता थी, क्योंकि फरात और दजला नामक नदियाँ उत्तरी पहाड़ों से निकल कर अपने साथ उपजाऊ बारीक मिट्टी लाती रही हैं। जब इन नदियों में बाढ़ आती है अथवा जब इनके पानी का सिंचाई के लिए खेतों में ले जाया जाता है, तब यह उपजाऊ मिट्टी वहाँ जमा हो जाती है।

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(2) फरात नदी रेगिस्तान में प्रवेश करने के बाद कई धाराओं में बँटकर बहने लगती है। कभी-कभी इन धाराओं में बाढ़ आ जाती है। प्राचीन काल में ये धाराएँ सिंचाई की नहरों का काम देती थीं। इनमें आवश्यकता पड़ने पर गेहूँ, जौ, मटर, मसूर आदि के खेतों की सिंचाई की जाती थी। इस प्रकार वर्षा की कमी के बावजूद सभी पुरानी सभ्यताओं में दक्षिणी मेसोपोटामिया की खेती सबसे अधिक उपज देती थी।

प्रश्न 7.
मेसोपोटामिया में नगरों के उदय के परिणामस्वरूप कौन-कौनसे प्रमुख परिवर्तन दिखाई दिए?
उत्तर:
मेसोपोटामिया में नगरों के उदय व उनके विकास के परिणामस्वरूप समाज में निम्न प्रमुख परिवर्तन दिखाई दिए –

  • नगरों के विकास के परिणामस्वरूप कृषि के साथ-साथ संगठित व्यापार, श्रम विभाजन, वितरण और भंडारण की गतिविधियों को बढ़ावा मिला।
  • नगरों के विकास के परिणामस्वरूप ऐसी प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ जिसमें कुछ लोग आदेश देते थे और दूसरे • उनका पालन करते थे।
  • शहरी अर्थव्यवस्था को अपना हिसाब-किताब रखने की आवश्यकता हुई । हिसाब-किताब लिखने के लिए कीलाक्षर लिपि का विकास हुआ तथा पट्टिकाओं की आवश्यकता पड़ी।
  • नगरों के परिणामस्वरूप मुद्राओं के द्वारा वस्तु-विनिमय शुरू हुआ तथा मुद्रा का प्रचलन हुआ।
  • नगरों के उदय के साथ-साथ अन्य प्रकार की आर्थिक गतिविधियाँ प्रचलन में आयीं, जैसे— नक्काशीकारी, बढईगिरी, बर्तन बनाने की कला आदि।

प्रश्न 8.
शहरीकरण के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा
‘श्रम-विभाजन शहरी जीवन की विशेषता है।” स्पष्ट कीजिए।
अथवा
मेसोपोटामिया की सभ्यता का शहरीकरण कैसे हुआ? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
शहरी अर्थव्यवस्था में खाद्य उत्पादन के अतिरिक्त व्यापार, उत्पादन और भिन्न-भिन्न प्रकार की सेवाओं की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। नगर के लोग आत्म-निर्भर नहीं होते हैं। वे नगर या गाँव के अन्य लोगों द्वारा उत्पन्न वस्तुओं या दी जाने वाली सेवाओं के लिए उन पर आश्रित होते हैं। उनमें आपस में बराबर लेन-देन होता रहता है। सभी लोग एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। इसलिए श्रम विभाजन होता है जिसके अन्तर्गत लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति एक-दूसरे के उत्पादन अथवा सेवाओं के द्वारा करते हैं। इस प्रकार श्रम विभाजन शहरी जीवन की विशेषता है।

प्रश्न 9.
शहरीकरण के लिए कौनसे महत्त्वपूर्ण कारक आवश्यक होते हैं?
उत्तर:
शहरीकरण के लिए निम्नलिखित कारकों का होना आवश्यक है-

  1. प्राकृतिक उर्वरता तथा खाद्य उत्पादन का उच्च स्तर।
  2. कुशल जल परिवहन का होना।
  3. व्यापारिक गतिविधियों का होना तथा श्रम विभाजन और विशेषीकरण।
  4. विभिन्न शिल्पों का विकास।
  5. विभिन्न प्रकार की सेवाओं की उपलब्धि।
  6. सुव्यवस्थित प्रबन्ध व्यवस्था, जिससे राज्य में शांति व्यवस्था बनी रहे।

प्रश्न 10.
मेसोपोटामिया में कितने प्रकार के नगरों का निर्माण हुआ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया में तीन प्रकार के नगरों का निर्माण हुआ।
यथा –
(1 ) मंदिर नगर – पहले प्रकार के नगर मंदिर नगर थे। यहाँ पहले मंदिर की स्थापना हुई और फिर उसके इर्द- गिर्द लोग बसते चले गए। उरुक सबसे पुराना मंदिर नगर था।

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(2) व्यापारिक नगर – मेसोपोटामिया में कुछ नगरों का विकास व्यापारिक केन्द्रों के रूप में हुआ। व्यापारिक गतिविधियों के कारण लोग व्यापारिक केन्द्रों के इर्द-गिर्द बसते चले गए और वे नगरों के रूप में विकसित हो गए।

(3) शाही नगर – कुछ नगरों का निर्माण सत्ता का केन्द्र अर्थात् राजधानी होने के कारण हुआ।

प्रश्न 11.
शहरी अर्थव्यवस्था में एक सामाजिक संगठन का होना क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
शहरी अर्थव्यवस्था में एक सामाजिक संगठन का होना आवश्यक है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित
(1) शहरी विनिर्माताओं के लिए ईंधन, धातु, विभिन्न प्रकार के पत्थर, लकड़ी आदि आवश्यक वस्तुएँ अलग- अलग स्थानों से आती हैं। इनके लिए संगठित व्यापार और भण्डारण की भी आवश्यकता होती है।
(2) शहरों में अनाज और अन्य खाद्य-पदार्थ गाँवों से आते हैं और उनके संग्रह तथा वितरण के लिए व्यवस्था करनी होती है।
(3) नगरों में अनेक प्रकार की गतिविधियाँ चलती रहती हैं जिनमें तालमेल बैठाना पड़ता है। उदाहरणार्थ, मुद्रा काटने वालों को केवल पत्थर ही नहीं, उन्हें तराशने के लिए औजार तथा बर्तन भी चाहिए। इस प्रकार कुछ लोग आदेश देने वाले होते हैं और कुछ उनका पालन करने वाले होते हैं।
(4) शहरी अर्थव्यवस्था में अपना हिसाब-किताब लिखित रूप में रखना होता है। इसके लिए अनेक सक्षम व्यक्तियों की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 12.
“वार्का शीर्ष मेसोपोटामिया की मूर्ति कला का एक विश्व प्रसिद्ध नमूना है।” स्पष्ट कीजिए। उत्तर- उरुक नामक नगर में 3000 ई.पू. स्त्री का सिर एक सफेद संगमरमर को तराश कर बनाया गया था। इसकी आँखों और भौंहों में क्रमशः नीले लाजवर्द तथा सफेद सीपी और काले डामर की जड़ाई की गई होगी। इस मूर्ति के सिर के ऊपर एक खाँचा बना हुआ है जो शायद आभूषण पहनने के लिए बनाया गया था । यह मूर्ति अत्यन्त सुन्दर है। यह मूर्तिकला का एक विश्व-प्रसिद्ध नमूना है। इसके मुख, ठोड़ी और गालों की सुकोमल – सुन्दर बनावट के लिए इसकी प्रशंसा की जाती है। यह एक ऐसे कठोर पत्थर में तराशा गया है जिसे बहुत अधिक दूरी से लाया गया होगा।

प्रश्न 13.
मेसोपोटामिया में किन वस्तुओं का आयात और निर्यात किया जाता था ?
उत्तर:

  • मेसोपोटामिया में खाद्य – संसाधनों की प्रचुरता होते हुए भी, वहाँ खनिज संसाधनों का अभाव था। इसलिए प्राचीन काल में मेसोपोटामियावासी सम्भवतः लकड़ी, ताँबा, राँगा, चाँदी, सोना, सीपी और विभिन्न प्रकार के पत्थरों को तुर्की और ईरान अथवा खाड़ी – पार के देशों से मँगाते थे।
  • ये लोग इन वस्तुओं के बदले में इन देशों को कपड़ा तथा कृषि-उत्पाद का निर्यात करते थे।
  • इन वस्तुओं का नियमित रूप से आदान-प्रदान तभी सम्भव था जबकि इसके लिए कोई सामाजिक संगठन हो। दक्षिणी मेसोपोटामिया के लोगों ने ऐसे संगठन की स्थापना करने की शुरुआत की।

प्रश्न 14.
कुशल परिवहन व्यवस्था शहरी विकास के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण होती है?
उत्तर:
कुशल परिवहन व्यवस्था शहरी विकास के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। अनाज या काठ कोयला भारवाही पशुओं की पीठ पर रखकर अथवा बैल – गाड़ियों में डालकर शहरों में लाना- – ले जाना अत्यन्त कठिन होता है। इसका कारण यह है कि इसमें बहुत अधिक समय लगता है और पशुओं के चारे आदि पर भी काफी खर्चा आता है। शहरी अर्थव्यवस्था इसका बोझ उठाने के लिए सक्षम नहीं होती। जलमार्ग परिवहन का सबसे सस्ता तरीका होता है।

अनाज के बोरों से लदी हुई नावें या बजरे नदी की धारा या हवा के वेग से चलते हैं, जिसमें कोई खर्चा नहीं लगता, जबकि पशुओं से माल की ढुलाई पर काफी खर्चा आता है। प्राचीन मेसोपोटामिया की नहरें तथा प्राकृतिक जलधाराएँ छोटी-बड़ी बस्तियों के बीच माल के परिवहन का अच्छा मार्ग थीं फरात नदी उन दिनों व्यापार के लिए ‘विश्व – मार्ग’ के रूप में महत्त्वपूर्ण थी।

प्रश्न 15.
मेसोपोटामिया में लेखन कला के विकास पर एक टिप्पणी लिखिए।
अथवा
कलाकार लिपि के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
मेसोपोटामिया के लोग लेखन कला से परिचित थे। उनके पास अपनी लिपि थी। मेसोपोटामिया में जो पहली पट्टिकाएँ पाई गई हैं, वे लगभग 3200 ई.पू. की हैं। उनमें चित्र जैसे चिह्न और संख्याएँ दी गई हैं। वहाँ बैलों, मछलियों, रोटियों आदि की लगभग 5 हजार सूचियाँ मिली हैं। मेसोपोटामिया में लेखन कार्य की शुरुआत तभी हुई जब समाज को अपने लेन-देन का स्थायी हिसाब रखने की आवश्यकता पड़ी, क्योंकि शहरी जीवन में लेन-देन अलग-अलग समय पर होते थे, उन्हें करने वाले भी कई लोग होते थे और सौदा भी कई प्रकार की वस्तुओं के विषय में होता था। मेसोपोटामिया के लोग मिट्टी की पट्टिकाओं पर लिखा करते थे।

लिपिक चिकनी मिट्टी को गीला करता था और उसे ऐसे आकार की पट्टी का रूप दे देता था, जिसे वह सरलता से अपने एक हाथ में पकड़ सके। वह उसकी सतहों को चिकनी बना लेता था तथा फिर सरकंडे की तीली की नोक से वह उसकी नम चिकनी सतह पर कीलाकार चिह्न बना देता था। धूप में सुखाने पर ये पट्टिकाएँ पक्की हो जाती थीं। इस प्रकार मेसोपोटामिया से कीलाकार लिपि का जन्म हुआ।

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पूपन 16.
ऐसोपोटासिया में पुन्दिा निर्माण महत्व बताइए
अथवा
मेसोपोटामिया के प्रारम्भिक धर्म (मन्दिर एवं पूजा) को समझाइये
उत्तर:
5000 ई. पूर्व से दक्षिणी मेसोपोटामिया में बस्तियों का विकास होने लगा था। इन बस्तियों में से प्राचीन मंदिर उहरों का रूप ग्रहण कर लिया। बाहर से आकर बसने वाले लोगों ने अपने गाँवों में कुछ मन्दिरों का निर्माण करना या उनका पुनर्निर्माण करना शुरू कर दिया। सबसे पहला ज्ञात मन्दिर एक छोटा-सा देवालय था जो कच्ची ईंटों का बना हुआ था। मन्दिर विभिन्न प्रकार के देवी – देवताओं के निवास स्थान थे। इन देवी-देवताओं में उर (चन्द्र) तथा इन्नाना (प्रेम व युद्ध की देवी) प्रमुख थे।

ये मन्दिर ईंटों से बनाए जाते थे और धीरे-धीरे इनका आकार बढ़ता गया। इन मन्दिरों के खुले आँगनों के चारों ओर कई कमरे बने होते थे। कुछ प्रारम्भिक मन्दिर साधारण घरों जैसे थे; क्योंकि मन्दिर भी किसी देवता का घर ही होता था। देवता पूजा का केन्द्र-बिन्दु होता था। लोग देवी – देवता को प्रसन्न करने के लिए अन्न- दही, मछली आदि भेंट करते थे। आराध्यदेव सैद्धान्तिक रूप से खेतों, मत्स्य क्षेत्रों और स्थानीय लोगों के पशु-धन का स्वामी माना जाता था।

प्रश्न 17.
मेसोपोटामिया में प्राकृतिक उपजाऊपन होने के बावजूद कृषि को कई बार संकटों का सामना क्यों करना पड़ता था ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया में प्राकृतिक उपजाऊपन होने के बावजूद कृषि को कई बार निम्नलिखित कारणों से संकटों का सामना करना पड़ता था-
(1) फरात नदी की प्राकृतिक धाराओं में किसी वर्ष तो बहुत अधिक पानी बह आता था और फसलों को डुबो देता था और कभी-कभी ये धाराएँ अपना मार्ग बदल लेती थीं, जिससे खेत सूखे रह जाते थे।

(2) जो लोग इन धाराओं के ऊपरी क्षेत्रों में रहते थे, वे अपने निकट की जलधारा से इतना अधिक पानी अपने
खेतों में ले लेते थे कि धारा के नीचे की ओर बसे हुए गाँवों को पानी ही नहीं मिलता था।

(3) ये लोग अपने हिस्से की नदी में से मिट्टी नहीं निकालते थे, जिससे बहाव रुक जाता था और नीचे वाले क्षेत्रों के लोगों को पानी नहीं मिल पाता था। इसलिए मेसोपोटामिया के तत्कालीन ग्रामीण क्षेत्रों में जमीन और पानी के लिए बार-बार झगड़े हुआ करते थे।

प्रश्न 18.
उरुक में हुई तकनीकी प्रगति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
उरुक के शासक के आदेश से साधारण लोग पत्थर खोदने, धातु – खनिज लाने, मिट्टी से ईंटें तैयार करने और मन्दिरों में लगाने तथा सुदूर देशों में जाकर मन्दिरों के लिए उपयुक्त सामान लाने के कार्यों में जुटे रहते थे। इसके फलस्वरूप 3000 ई.पू. के आस-पास उरुक शहर में अत्यधिक तकनीकी प्रगति हुई। इस तकनीकी प्रगति का वर्णन अग्रानुसार है –
(1) अनेक प्रकार के शिल्पों के लिए काँसे के औजारों का प्रयोग किया जाने लगा।

(2) वास्तुविदों ने ईंटों के स्तम्भ बनाना सीख लिया था क्योंकि बड़े-बड़े कमरों की छतों के बोझ को सम्भालने के लिए शहतीर बनाने के लिए उपयुक्त लकड़ी नहीं मिलती थी।

(3) सैकड़ों लोग चिकनी मिट्टी के शंकु (कोन) बनाने और पकाने के काम में लगे रहते थे। इन शंकुओं को भिन्न-भिन्न रंगों में रंग कर मन्दिरों की दीवारों में लगाया जाता था जिससे वे दीवारें विभिन्न रंगों से आकर्षक दिखाई देती थीं।

(4) उरुक में मूर्तिकला के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण उन्नति हुई। मूर्तियाँ अधिकतर आयातित पत्थरों से बनाई जाती थीं।

(5) कुम्हार के चाक के निर्माण से प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक युगान्तरकारी परिवर्तन आया। चाक से कुम्हार की कार्यशाला में एक साथ बड़े पैमाने पर अनेक एक जैसे बर्तन सरलता से बनाए जाने लगे।

प्रश्न 19.
” मुद्रा (मोहर) सार्वजनिक जीवन में नगरवासी की भूमिका को दर्शाती थी। ” स्पष्ट कीजिए।
अथवा
मेसोपोटामिया में मुद्रा – निर्माण कला पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
मेसोपोटामिया में पहली सहस्राब्दी ई. पूर्व से अन्त तक पत्थर की बेलनाकार मुद्राएँ बनाई जाती थीं। इनके बीच में छेद होता था। इस छेद में एक तीली लगाकर मुद्रा को गीली मिट्टी के ऊपर घुमाया जाता था। इस प्रकार उनसे निरन्तर चित्र बनता जाता था। इन मुद्राओं को अत्यन्तं कुशल कारीगरों द्वारा उकेरा जाता था। कभी-कभी उनमें ऐसे लेख होते थे, जैसे मालिक का नाम, उसके इष्टदेव का नाम और उसकी अपनी पदीय स्थिति आदि।

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किसी कपड़े की गठरी या बर्तन के मुँह को चिकनी मिट्टी से लीप-पोत कर उस पर वह मोहर घुमाई जाती थी जिससे उसमें अंकित लिखावट मिट्टी की सतह पर छा जाती थी। इससे उस गठरी या बर्तन में रखी चाजों को मोहर लगाकर सुरक्षित रखा जा सकता था। जब इस मोहर को मिट्टी की बनी पट्टिका पर लिखे पत्र पर घुमाया जाता था, तो वह मोहर उस पत्र की प्रामाणिकता को प्रदर्शित करती थी । इस प्रकार मुद्रा सार्वजनिक जीवन में नगरवासी की भूमिका को प्रकट करती थी।

प्रश्न 20.
मेसोपोटामियावासियों की विवाह – प्रणाली का वर्णन कीजिए।
उत्तर- विवाह करने की इच्छा के सम्बन्ध में घोषणा की जाती थी और कन्या के माता-पिता उसके विवाह के लिए अपनी सहमति प्रदान करते थे। उसके पश्चात् वर पक्ष के लोग वधू को कुछ उपहार देते थे। जब विवाह की रस्म पूरी हो जाती थी, तब दोनों पक्षों की ओर से एक-दूसरे को उपहार दिये जाते थे और वे एकसाथ बैठकर भोजन करते थे। इसके बाद वे मन्दिर में जाकर देवी-देवता को भेंट चढ़ाते थे। जब नववधू को उसकी सास लेने आती थी, तब वधू को उसके पिता के द्वारा उसकी दाय का भाग दे दिया जाता था।

प्रश्न 21.
मारी नगर के पशुचारकों की स्थिति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
2000 ई. पूर्व के बाद मारी नगर शाही राजधानी के रूप में विकसित हुआ। मारी नगर फरात नदी की ऊर्ध्वधारा पर स्थित है। इस ऊपरी क्षेत्र में खेती और पशुपालन साथ-साथ चलते थे। यद्यपि मारी राज्य में किसान और पशुचारक दोनों प्रकार के लोग होते थे, परन्तु वहाँ का अधिकांश भाग भेड़-बकरी चराने के लिए ही काम में लिया जाता था।

पशुचारकों को जब अनाज, धातु के औजारों आदि की आवश्यकता पड़ती थी तब वे अपने पशुओं तथा उनके पनीर, चमड़ा तथा मांस आदि के बदले ये चीजें प्राप्त करते थे। बाड़े में रखे जाने वाले पशुओं के गोबर से बनी खाद भी किसानों के लिए बहुत उपयोगी होती थी। फिर भी मारी राज्य में किसानों तथा गड़रियों के बीच कई बार झगड़े हो जाते थे।

प्रश्न 22.
मारी राज्य में किसानों तथा गड़रियों के बीच झगड़े होने के कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
मारी राज्य में किसानों तथा गड़रियों के बीच कई बार झगड़े हो जाते थे। इन झगड़ों के निम्नलिखित कारण थे –
(1) गड़रिये कई बार अपनी भेड़-बकरियों को पानी पिलाने के लिए किसानों के बोए हुए खेतों से गुजार कर ले जाते थे जिससे किसानों की फसलों को हानि पहुँचती थी।
(2) ये गड़रिये खानाबदोश होते थे और कई बार किसानों के गाँवों पर हमला कर उनका माल लूट लेते थे। इससे दोनों पक्षों में कटुता बढ़ती थी।
(3) दूसरी ओर, बस्तियों में रहने वाले लोग भी इन गड़रियों का मार्ग रोक देते थे तथा उन्हें अपने पशुओं को नदी – नहर तक नहीं ले जाने देते थे।

प्रश्न 23.
“मेसोपोटामिया का समाज और वहाँ की संस्कृति भिन्न-भिन्न समुदायों के लोगों और संस्कृतियों का मिश्रण था। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मेसोपोटामिया के कृषि से समृद्ध हुए मुख्य भूमि – प्रदेश में यायावर समुदायों के झुण्ड के झुण्ड पश्चिमी मरुस्थल से आते रहते थे। ये गड़रिये गर्मियों में अपने साथ इस उपजाऊ क्षेत्र के बोए हुए खेतों में अपनी भेड़-बकरियाँ ले आते थे। गड़रियों के ये समूह फसल काटने वाले श्रमिकों अथवा भाड़े के सैनिकों के रूप में आते थे और समृद्ध होकर यहीं बस जाते थे। उनमें से कुछ तो बहुत शक्तिशाली थे जिन्होंने यहाँ अपनी स्वयं की सत्ता स्थापित करने की शक्ति प्राप्त कर ली थी।

ये खानाबदोश लोग अक्कदी, एमोराइट, असीरियाई तथा आर्मीनियन जाति के थे। मारी के राजा एमोराइट समुदाय के थे। उनकी वेश-भूषा वहाँ के मूल निवासियों से अलग होती थी तथा वे मेसोपोटामिया के देवी-देवताओं का आदर करते थे। उन्होंने स्टेपी क्षेत्र के देवता डैगन के लिए मारी नगर में एक अन्य मन्दिर का निर्माण भी करवाया। इस प्रकार मेसोपोटामिया का समाज और वहाँ की संस्कृति भिन्न-भिन्न समुदायों के लोगों और संस्कृतियों के लिए खुली थी तथा सम्भवतः विभिन्न जातियों और समुदायों के लोगों के परस्पर मिश्रण से ही वहाँ की सभ्यता में जीवन-शक्ति उत्पन्न हो गई थी।

प्रश्न 24.
जिमरीलिम के मारी स्थित राजमहल का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
जिमरीलिम का मारी स्थित राजमहल –

  1. मारी स्थित विशाल राजमहल वहाँ के शाही परिवार का निवास-स्थान था। इसके अतिरिक्त वह प्रशासन और उत्पादन, विशेष रूप से कीमती धातुओं के आभूषणों के निर्माण का मुख्य केन्द्र भी था।
  2. यह राजमहल विश्व में प्रसिद्ध था जिसे देखने के लिए दूसरे देशों के लोग भी आते थे।
  3. यह राजमहल 2.4 हैक्टेयर के क्षेत्र में स्थित एक अत्यन्त विशाल भवन था जिसमें 260 कक्ष बने हुए थे।
  4. मारी के राजा जिमरीलिम के भोजन की मेज परं प्रतिदिन भारी मात्रा में खाद्य पदार्थ प्रस्तुत किये जाते थे जिनमें आटा, रोटी, मांस, मछली, फल, मदिरा, बीयर आदि सम्मिलित थीं।
  5. राजमहल का केवल एक ही प्रवेश-द्वार था जो उत्तर की ओर बना हुआ था। उसके विशाल खुले प्रांगण सुन्दर पत्थरों से जड़े हुए थे।
  6. राजमहल में राजा के विदेशी अतिथियों तथा अपने प्रमुख लोगों से मिलने वाले कक्ष में सुन्दर भित्तिचित्र लगे हुए।

प्रश्न 25.
मारी के राजाओं को अपने राज्य की सुरक्षा के लिए सदा सतर्क और सावधान क्यों रहना पड़ता था?
उत्तर:
मारी के राजाओं को अपने राज्य की सुरक्षा के लिए सदा सतर्क और सावधान रहना पड़ता था। यद्यपि मारी राज्य में विभिन्न जनजातियों के पशुचारकों को घूमने-फिरने की अनुमति तो थी, परन्तु उनकी गतिविधियों पर कड़ी दृष्टि रखी जाती थी। राजा के पदाधिकारियों को इन पशुचारकों की गतिविधियों के बारे में अपने राजा को सूचना देनी पड़ती थी। इस बात का पता राजाओं तथा उनके पदाधिकारियों के बीच हुए पत्र-व्यवहार से चलता है। एक बार एक पदाधिकारी ने राजा को लिखा था कि उसने रात्रि में बार-बार आग से किये गए ऐसे संकेतों को देखा है जो एक शिविर से दूसरे शिविर को भेजे गए थे और उसे सन्देह है कि कहीं किसी धावे या हमले की योजना तो नहीं बनाई जा रही है।

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प्रश्न 26.
“मारी नगर एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मारी नगर एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्यापारिक स्थल पर स्थित था, जहाँ से होकर लकड़ी, ताँबा, राँगे, तेल, मदिरा और अन्य कई वस्तुओं को नावों के द्वारा फरात नदी के मार्ग से दक्षिण और तुर्की, सीरिया और लेबनान के ऊँचे प्रदेशों के बीच लाया ले जाया जाता था। व्यापार की उन्नति के कारण मारी नगर अत्यन्त समृद्ध शहर बना हुआ था। दक्षिणी नगरों में घिसाई – पिसाई के पत्थर, चक्कियाँ, लकड़ी, शराब तथा तेल के पीपे ले जाने वाले जलपोत मारी में रुका करते थे।

मारी के अधिकारी जलपोत पर जाकर उस पर लदे हुए सामान की जाँच करते थे और उसमें लदे हुए सामान की कीमत का लगभग 10 प्रतिशत प्रभार वसूल करते थे। जौ एक विशेष प्रकार की नौकाओं में आता था। कुछ पट्टिकाओं में साइप्रस के द्वीप ‘अलाशिया’ से आने वाले ताँबे का उल्लेख मिला है। यह द्वीप उन दिनों ताँबे तथा टिन के व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। यहाँ राँगे का भी व्यापार होता था क्योंकि काँसा, औजार तथा हथियार बनाने के लिए यह एक मुख्य औद्योगिक सामग्री था। इसलिए इसके व्यापार का काफी महत्त्व था। इस प्रकार मारी नगर व्यापार और समृद्धि के मामले में अद्वितीय था।

प्रश्न 27.
मेसोपोटामिया के नगरों की खुदाई के फलस्वरूप मेसोपोटामिया की सभ्यता के बारे में क्या जानकारी मिलती है?
उत्तर:
मेसोपोटामिया के नगरों में हुए उत्खनन कार्य के फलस्वरूप पुरातत्त्वविदों को इमारतों, मूर्तियों, आभूषणों, औजारों, मोहरों, मन्दिरों आदि के अवशेष प्राप्त हुए जिनसे मेसोपोटामिया की सभ्यता के बारे में काफी जानकारी मिलती है।
यथा –
(i) खुदाई में ‘अबुसलाबिख’ नामक एक छोटा कस्बा 2500 ई. पूर्व में लगभग 10 हैक्टेयर क्षेत्र में बसा हुआ था और इसकी जनसंख्या 10,000 से कम थी। पुरातत्त्वविदों ने इसकी दीवारों की ऊपरी सतहों को सर्वप्रथम खरोंचकर निकाला। उन्हें नीचे की मिट्टी कुछ नम मिली और भिन्न-भिन्न रंगों, उसकी बनावट, ईंटों की दीवारों की स्थिति आदि की जानकारी प्राप्त की।

(ii) उन्हें पौधों और पशुओं की अनेक प्रजातियों की जानकारी मिली।

(iii) उन्हें बड़ी मात्रा में जली हुई मछलियों की हड्डियाँ मिलीं।

(iv) उन्हें वहाँ गोबर के उपलों के जले हुए ईंधन में से निकले हुए पौधों के बीज और रेशे मिले। इससे ज्ञात हुआ कि इस स्थान पर रसोईघर था।

(v) वहाँ की गलियों में सूअरों के छोटे बच्चों के दाँत पाए गए हैं जिनसे ज्ञात होता है कि यहाँ सूअर विचरण करते थे।

(vi) वहाँ के घरों में कुछ कमरों पर पोपलर के लट्ठों, खजूर की पत्तियों तथा घास-फूस की छतें थीं और कुछ कमरे बिना किसी छत के थे।

प्रश्न 28.
गिल्गेमिश महाकाव्य से मेसोपोटामिया की संस्कृति में शहरों के महत्त्व के बारे में क्या जानकारी मिलती है?
उत्तर:
मेसोपोटामियावासी शहरी जीवन को महत्त्व देते थे। ‘गिलोमिश महाकाव्य’ से ज्ञात होता है कि मेसोपोटामिया के लोग अपने नगरों पर बहुत अधिक गर्व करते थे। गिल्गेमिश महाकाव्य 12 पट्टियों पर लिखा गया था। गिल्गेमिश ने राजा एनमर्कर के कुछ समय बाद उरुक नगर पर शासन किया था। वह एक महान योद्धा था। उसने दूर- दूर तक के अनेक प्रदेशों को जीत कर अपने अधीन कर लिया था। परन्तु जब उसके घनिष्ठ मित्र की अचानक मृत्यु हो गई तो उसे प्रबल आघात पहुँचा।

इससे दुःखी होकर वह अमरत्व की खोज में निकल पड़ा। उसने सम्पूर्ण संसार का चक्कर लगाया, परन्तु उसे अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिली। अन्त में गिोमिश अपने नगर उरुक नगर लौट आया। एक दिन जब वह शहर की चहारदीवारी के निकट भ्रमण कर रहा था, तो उसकी दृष्टि उन पकी ईंटों पर पड़ी, जिनसे उसकी नींव डाली गई थी। वह भाव-विभोर हो उठा। यहीं पर ही गिल्गेमिश महाकाव्य की लम्बी साहसपूर्ण और वीरतापूर्ण कहानी का अन्त हो गया। इस प्रकार गिल्गेमिश को अपने नगर में ही सान्त्वना मिलती है, जिसे उसकी प्रिय प्रजा ने बनाया था।

प्रश्न 29.
विश्व को मेसोपोटामिया की सभ्यता की क्या देन है ?
अथवा
गणित, ज्योतिष शास्त्र व खगोल विद्या के क्षेत्र में मेसोपोटामिया की देन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मेसोपोटामिया की सभ्यता की विश्व को सबसे बड़ी देन उसकी काल-गणना और गणित की विद्वत्तापूर्ण परम्परा है। विश्व को मेसोपोटामिया की देन का वर्णन निम्नानुसार है –
(1) 1800 ई. पूर्व के आस-पास कुछ पट्टिकाएँ मिली हैं, जिनमें गुणा और भाग की तालिकाएँ, वर्ग तथा वर्गमूल और चक्रवृद्धि ब्याज की सारणियाँ दी गई हैं। इनमें दो का वर्गमूल दिया गया है जो सही उत्तर से थोड़ा-सा ही भिन्न है।

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(2) मेसोपोटामियावासियों ने पृथ्वी के चारों ओर चन्द्रमा की परिक्रमा के अनुसार एक वर्ष को 12 महीनों में, एक महीने को 4 सप्ताहों, एक दिन को 24 घण्टों में और एक घण्टे को 60 मिनट में विभाजित किया था। सिकन्दर के उत्तराधिकारियों ने समय के इस विभाजन को अपनाया, वहाँ से वह रोम और फिर इस्लामी देशों को मिला और फिर मध्ययुगीन यूरोप में पहुँचा।

(3) मेसोपोटामियावासी सूर्य और चन्द्र ग्रहण के घटित होने का हिसाब भी रखते थे।

(4) वे रात को आकाश में तारों और तारामण्डल की स्थिति पर बराबर दृष्टि रखते थे तथा उनका हिसाब रखते थे।

प्रश्न 30.
नैबोपोलास्सर तथा उनके उत्तराधिकारियों के समय में बेबीलोनिया के विकास का वर्णन कीजिए।
अथवा
बेबीलोन नगर की मुख्य विशेषतायें बताइये।
उत्तर:
नैबोपोलास्सर दक्षिणी कछार का एक महान योद्धा था। उसने बेबीलोनिया को 625 ई. पूर्व में असीरियन लोगों के आधिपत्य से मुक्ति दिलाई। उसके उत्तराधिकारियों ने बेबीलोनिया के राज्य का विस्तार किया और बेबीलोन में भवन-निर्माण की योजनाएँ पूरी कीं। 539 ई. पूर्व में ईरान के एकेमिनिड लोगों द्वारा विजित होने के पश्चात् तथा 331 ई. पूर्व में सिकन्दर महान से पराजित होने तक बेबीलोन विश्व का एक प्रमुख नगर बना रहा।

प्रमुख विशेषताएँ – इस नगर की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं –

  1. इसका क्षेत्रफल 850 हैक्टेयर से अधिक था।
  2. इसकी चहारदीवारी तिहरी थी।
  3. इसमें विशाल राजमहल तथा मन्दिर बने हुए थे।
  4. इसमें एक जिगुरात अर्थात् सीढ़ीदार मीनार थी।
  5. इस नगर के मुख्य अनुष्ठान केन्द्र तक शोभा यात्रा के लिए एक विस्तृत मार्ग बना हुआ था।
  6. इसके व्यापारिक घराने दूर-दूर तक व्यापार करते थे।
  7. इसके गणितज्ञों तथा खगोलविदों ने अनेक नई खोजें की थीं।

प्रश्न 31.
” नैबोनिडस मेसोपोटामिया की प्राचीन परम्पराओं का पालक था। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नैबोनिडस स्वतन्त्र बेबीलोनिया का अन्तिम शासक था। उसने लिखा है कि उसे सपने में उर के नगर- देवता ने सुदूर – दक्षिण के उस पुरातन नगर का कार्य – भार सम्भालने के लिए एक महिला पुरोहित को नियुक्त करने का आदेश दिया। उसने लिखा, “चूँकि बहुत लम्बे समय से उच्च महिला पुरोहित का प्रतिष्ठान भुला दिया गया था नैबोनिडस ने लिखा है कि उसे एक बहुत पुराने राजा (1150 ई. पू.) का पट्टलेख मिला और उस पर उसने महिला पुरोहित की आकृति अंकित देखी।

उसने उसके आभूषणों और वेशभूषा को ध्यानपूर्वक देखा। फिर उसने अपनी पुत्री को वैसी ही वेशभूषा से सुसज्जित कर महिला पुरोहित के रूप में प्रतिष्ठित किया। कुछ समय बाद नैबोनिडस के व्यक्ति उसके पास एक टूटी हुई मूर्ति लाए जिस पर अक्कद के राजा सारगोन (2370 ई.पू.) का नाम उत्कीर्ण था। नैबोनिडस ने लिखा है कि ” देवताओं के प्रति भक्ति और राजा के प्रति अपनी निष्ठा के कारण, मैंने कुशल शिल्पियों को बुलाया और उसका खण्डित सिर बदलवा दिया। ”

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“इराक भौगोलिक विविधता का देश है।” इस कथन के सन्दर्भ में मेसोपोटामिया की भौगोलिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मेसोपोटामिया की भौगोलिक विशेषताएँ मेसोपोटामिया की भौगोलिक विशेषताएँ निम्नलिखित थीं –
(1) भौगोलिक स्थिति – इराक भौगोलिक विविधता का देश है। इसके पूर्वोत्तर भाग में हरे-भरे, ऊँचे-नीचे मैदान हैं, जो वृक्षों से ढके हुए पर्वतों के रूप में फैलते गए हैं। यहाँ स्वच्छ झरने तथा जंगली फूल हैं। यहाँ अच्छी उपज के लिए पर्याप्त वर्षा हो जाती है। यहाँ 7000 ई.पू. से 5000 ई.पू. के बीच खेती की शुरुआत हो गई थी।

उत्तर में ऊँची भूमि है जहाँ ‘स्टेपी’ घास के मैदान हैं। यहाँ पशुपालन खती की अपेक्षा लोगों के आजीविका का अधिक अच्छा साधन है। सर्दियों की वर्षा के पश्चात्, भेड़-बकरियाँ छोटी-छोटी झाड़ियों तथा घास से अपना भरण-पोषण करती हैं। पूर्व में जला की सहायक नदियाँ ईरान के पहाड़ी प्रदेशों में जाने के लिए परिवहन का अच्छा साधन हैं। दक्षिणी भाग एक रेगिस्तान है और यहीं पर सबसे पहले नगरों तथा लेखन प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ।

(2) उपज – फरात नदी रेगिस्तान में प्रवेश करने के पश्चात् कई धाराओं में बँटकर बहने लगती है। कभी-कभी इन धाराओं में बाढ़ आ जाती है। पुराने युग में ये धाराएँ सिंचाई की नहरों का काम देती थीं। इनसे आवश्यकता पड़ने पर गेहूँ, जौ, मटर या मसूर के खेतों की सिंचाई की जाती थी। इस प्रकार यहाँ गेहूँ, जौ, खजूर, मटर या मसूर की खेती की ती थी। प्राचीन सभ्यताओं में दक्षिणी मेसोपोटामिया की खेती सबसे अधिक उपज देने वाली हुआ करती थी। फिर भी वहाँ फसलों की खेती के लिए आवश्यक वर्षा की कुछ कमी रहती थी।

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(3) पशुपालन – खेती के अतिरिक्त भेड़-बकरियाँ स्टेपी घास के मैदानों, पूर्वोत्तरी मैदानों और पहाड़ों के ढालों `पर पाली जाती थीं। इनसे प्रचुर मात्रा में मांस, दूध और ऊन आदि
वस्तुएँ मिलती थीं। इसके अतिरिक्त मछली – पालन भी प्रचलित था तथा नदियों में मछलियों की कोई कमी नहीं थी।

प्रश्न 2.
शहरी विकास के लिए आवश्यक कारकों की विवेचना कीजिए।
अथवा
मेसोपोटामिया के शहरी जीवन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
मेसोपोटामिया में लेखन कला का विकास लेखन या लिपि का अर्थ है – उच्चरित ध्वनियाँ, जो दृश्य संकेतों के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं।
(1) मिट्टी की पट्टिकाओं पर लेखन कार्य – मेसोपोटामिया में जो पहली पट्टिकाएँ पाई गई हैं, वे लगभग 3200 ई. पूर्व की हैं। उनमें चित्र जैसा चिह्न और संख्याएँ दी गई हैं। वहाँ बैलों, मछलियों, रोटियों आदि की लगभग 5000 सूचियाँ मिली हैं। इससे ज्ञात होता है कि मेसोपोटामिया में लेखन कार्य तभी शुरू हुआ था जब समाज को अपने लेन- देन का स्थायी हिसाब रखने की आवश्यकता हुई क्योंकि शहरी जीवन में लेन-देन अलग-अलग समय पर होते थे। उन्हें करने वाले भी कई लोग होते थे और सौदा भी कई प्रकार की वस्तुओं के बारे में होता था।

(2) मिट्टी की पट्टिकाओं पर कीलाकार चिह्न बनाना – मेसोपोटामिया के लोग मिट्टी की पट्टिकाओं पर लिखा करते थे। लिपिक चिकनी मिट्टी को गीला करता था और फिर उसको गूंथ कर और थापकर एक ऐसे आकार की पट्टी का रूप दे देता था जिसे वह सरलता से अपने एक हाथ में पकड़ सके। वह उसकी सतहों को चिकना बना लेता था । इसके बाद सरकंडे की तीली की तीखी नोक से वह उसकी नम चिकनी सतह पर कीलाक्षर चिह्न (क्यूनीफार्म) बना देता था।

जब ये पट्टिकाएँ धूप में सूख जाती थीं, तो पक्की हो जाती थीं और वे मिट्टी के बर्तनों जैसी ही मजबूत हो जाती थीं इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजना भी अपेक्षाकृत आसान था। जब पट्टिकाओं पर लिखा हुआ कोई हिसाब असंगत हो जाता था, तो उस पर कोई नया चिह्न या अक्षर नहीं लिखा जा सकता था। इस प्रकार प्रत्येक सौदे के लिए चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, एक पृथक् पट्टिका की आवश्यकता होती थी । इसीलिए मेसोपोटामिया के खुदाई स्थलों पर अनेक पट्टिकाएँ मिली हैं।

(3) लेखन का प्रयोग – लगभग 2600 ई.पू. के आस-पास वर्ण कीलाकार हो गए और भाषा सुमेरियन रही। अब लेखन का प्रयोग हिसाब-किताब रखने के लिए ही नहीं, बल्कि शब्दकोश बनाने, भूमि के हस्तान्तरण को कानूनी मान्यता प्रदान करने, राजाओं के कार्यों और उपलब्धियों का वर्णन करने तथा कानून में परिवर्तनों की उद्घोषणा करने के लिए किया जाने लगा। 2400 ई. पूर्व के बाद सुमेरियन भाषा का स्थान अक्कदी भाषा ने ले लिया। अक्कदी भाषा में . कीलाकार लेखन की प्रणाली ई. सन् की पहली शताब्दी तक अर्थात् 2 हजार से अधिक वर्षों तक चलती रही।

(4) लेखन प्रणाली – मेसोपोटामिया में जिस ध्वनि के लिए कीलाक्षर या कीलाकार चिह्न का प्रयोग किया जाता था, वह एक अकेला व्यंजन या स्वर नहीं होता था परन्तु अक्षर होते थे। इस प्रकार मेसोपोटामिया के लिपिक को सैकड़ों चिह्न सीखने पड़ते थे और उसे गीली पट्टी पर उसके सूखने से पहले ही लिखना होता था। लेखन कार्य के लिए बड़ी कुशलता की जरूरत होती थी, इसलिए लेखन कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता था। इस प्रकार, किसी भाषा – विशेष की ध्वनियों को एक दृश्य-‍ -रूप में प्रस्तुत करना मेसोपोटामियावासियों की एक महान् बौद्धिक उपलब्धि मानी जाती थी।

(5) साक्षरता – मेसोपोटामिया में साक्षर लोगों की संख्या बहुत कम थी । मेसोपोटामिया में बहुत कम लोग पढ़- लिख सकते थे। इसका कारण यह था कि न केवल प्रतीकों या चिह्नों की संख्या सैकड़ों में थी, बल्कि ये कहीं अधिक जटिल भी थे। यदि राजा स्वयं पढ़ सकता था, तो वह चाहता था कि प्रशस्तिपूर्ण अभिलेखों में उन तथ्यों का उल्लेख अवश्य किया जाए।

प्रश्न 4.
दक्षिणी मेसोपोटामिया के शहरीकरण का वर्णन करते हुए वहाँ के मन्दिरों के निर्माण एवं उनके महत्त्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
दक्षिणी मेसोपोटामिया का शहरीकरण – 5000 ई.पू. से दक्षिणी मेसोपोटामिया में बस्तियों का विकास होने लगा था। इन बस्तियों में से कुछ ने प्राचीन शहरों का रूप धारण कर लिया।

ये शहर मुख्यतः तीन प्रकार के थे –
(1) पहले वे शहर जो मन्दिरों के चारों ओर विकसित हुए।
(2) दूसरे वे शहर जो व्यापार के केन्द्रों के रूप में विकसित हुए।
(3) शेष शाही शहर।
(1) मन्दिरों का निर्माण – मेसोपोटामिया में बाहर से आकर बसने वालों ने अपने गाँवों में कुछ चुने हुए स्थानों पर मन्दिरों का निर्माण करवाया या उनका पुनर्निर्माण करवाना शुरू किया। सबसे पहला ज्ञात मन्दिर एक छोटा-सा देवालय था, जो कच्ची ईंटों का बना हुआ था। मन्दिर विभिन्न प्रकार के देवी-देवताओं के निवास स्थान थे, जैसे-उर (चन्द्र देवता), अन (आकाश देवता), इन्नाना ( प्रेम और युद्ध की देवी )।

(2) मन्दिरों का स्वरूप- ये मन्दिर ईंटों से बनाए जाते थे और समय के साथ इनके आकार बढ़ते गए क्योंकि उनके खुले आँगनों के चारों ओर कई कमरे बने होते थे। कुछ प्रारम्भिक मन्दिर साधारण घरों की तरह होते थे, क्योंकि मन्दिर भी किसी देवता का घर ही होता था, परन्तु मन्दिरों की बाहरी दीवारें कुछ विशेष अन्तरालों के बाद भीतर और बाहर की ओर मुड़ी हुई होती थीं। यही मन्दिरों की विशेषता थी। परन्तु साधारण घरों की दीवारें ऐसी नहीं होती थीं।

(3) देवी-देवता को भेंट अर्पित करना – देवता पूजा का केन्द्र-बिन्दु होता था। मेसोपोटामियावासी देवी- देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अन्न, दही, मछली, खजूर आदि लाते थे। इन वस्तुओं का एक भाग देवी-देवताओं को अर्पित कर दिया जाता था। आराध्यदेव सैद्धान्तिक रूप से खेतों, मत्स्य क्षेत्रों और स्थानीय लोगों के पशुधन का स्वामी माना जाता था।

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(4) मन्दिरों के क्रियाकलापों में वृद्धि – धीरे-धीरे मन्दिरों के क्रियाकलाप बढ़ते चले गए।
यथा –
(i) कालान्तर में उपज को उत्पादित वस्तुओं में बदलने की प्रक्रिया (जैसे तेल निकालना, अनाज पीसना, कातना और ऊनी कपड़ा बुनना आदि) मन्दिरों में ही की जाती थी।
(ii) घर-परिवार से ऊपर के स्तर के व्यवस्थापक, व्यापारियों के नियोक्ता, अन्न, हल जोतने वाले पशुओं, रोटी, जौ की शराब, मछली आदि के आवंटन और वितरण के लिखित अभिलेखों के पालक के रूप में मन्दिरों ने धीरे-धीरे अपने क्रिया-‍ -कलाप बढ़ा लिए।
(iii) यह परिवार के ऊपरी स्तर के उत्पादन का केन्द्र बन गया। इस प्रकार मंदिरों ने मुख्य शहरी संस्था का रूप धारण कर लिया।

प्रश्न 5.
मेसोपोटामिया में राजा का प्रादुर्भाव किस प्रकार हुआ ? उसके प्रभाव और शक्ति में वृद्धि किस प्रकार हुई ?
उत्तर:
मेसोपोटामिया में ‘राजा’ का प्रादुर्भाव – मेसोपोटामिया के तत्कालीन देहातों में जमीन और पानी के लिए बार-बार झगड़े हुआ करते थे। जब किसी क्षेत्र में दीर्घकाल तक लड़ाई चलती थी, तो लड़ाई में जीतने वाले मुखिया, अपने साथियों व समर्थकों को लूट का माल बाँट कर उन्हें प्रसन्न कर देते थे तथा पराजित हुए समूहों में से लोगों को बन्दी बनाकर अपने साथ ले जाते थे जिन्हें वे अपने चौकीदार या नौकर बना लेते थे। इस प्रकार, वे अपना प्रभाव और अनुयायियों की संख्या बढ़ा लेते थे। परन्तु युद्ध में विजयी होने वाले ये नेता स्थायी रूप से समुदाय के मुखिया नहीं बने रहते थे।

राजाओं की शक्ति तथा प्रभाव में वृद्धि –
(1) समुदाय के कल्याण पर ध्यान देना – कालान्तर में समुदाय के इन नेताओं ने समुदाय के कल्याण पर अधिक ध्यान देना शुरू कर दिया, जिसके फलस्वरूप नई-नई संस्थाओं और परिपाटियों का जन्म हुआ।

(2) मन्दिरों के सौन्दर्यीकरण पर बल देना – इस समय के विजेता मुखियाओं ने बहुमूल्य भेंटों को देवताओं पर अर्पित करना शुरू कर दिया जिससे कि समुदाय के मन्दिरों की सुन्दरता बढ़ गई। उन्होंने लोगों को बहुमूल्य पत्थरों तथा धातुओं को लाने के लिए भेजा, जो देवताओं और समुदाय को लाभ पहुँचा सकें, मन्दिर की धन-सम्पदा के वितरण का तथा मन्दिरों में आने-जाने वाली वस्तुओं का अच्छी प्रकार से हिसाब-किताब रख सकें। इस व्यवस्था ने राजा को ऊँचा स्थान दिलाया तथा समुदाय पर उसका नियन्त्रण स्थापित किया।

(3) ग्रामीणों की सुरक्षा – राजाओं ने ग्रामीणों को अपने पास बसने के लिए प्रोत्साहित किया जिससे कि वे आवश्यकता पड़ने पर तुरन्त अपनी सेना संगठित कर सकें। इसके अतिरिक्त लोग एक-दूसरे के निकट रहने से स्वयं को अधिक सुरक्षित अनुभव कर सकते थे।

(4) युद्धबन्दियों और स्थानीय लोगों से अनिवार्य रूप से काम लेना – युद्धबन्दियों और स्थानीय लोगों को अनिवार्य रूप से मन्दिर का या प्रत्यक्ष रूप से शासक का काम करना पड़ता था। जिन्हें काम पर लगाया जाता था, उन्हें काम के बदले अनाज दिया जाता था। सैकड़ों ऐसी राशन-सूचियाँ मिली हैं जिनमें काम करने वाले लोगों के नामों के आगे उन्हें दिये जाने वाले अन्न, कपड़े, तेल आदि की मात्रा लिखी गई है।

प्रश्न 6.
मेसोपोटामिया में कला के क्षेत्र में हुई उन्नति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मेसोपोटामिया में कला के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति हुई।

(1) भवन निर्माण कला – मेसोपोटामिया के लोग मिट्टी की धूप में सूखी हुई ईंटों से मकान बनाते थे। मकानों मध्य एक विशाल कक्ष (हॉल) रहता था, जिससे होकर अन्य कक्षों में जाया जाता था। बाद में खुले आँगन बनने लगे। धन-सम्पन्न लोगों के मकान मिट्टी के टीलों पर बनाये जाते थे। अन्दर की दीवारों पर प्लास्तर किया जाता था। भवन- *निर्माण में स्तम्भों और मेहराबों का प्रयोग भी किया जाता था। वास्तुविदों ने ईंटों के स्तम्भों को बनाना सीख लिया था क्योंकि उन दिनों बड़े-बड़े कमरों की छतों के बोझ को सम्भालने के लिए शहतीर बनाने हेतु उपयुक्त लकड़ी नहीं मिलती थी।

मेसोपोटामिया में अनेक मन्दिरों का भी निर्माण किया गया। मन्दिर ईंटों से बनाए जाते थे और धीरे-धीरे इनका आकार बढ़ता गया। मन्दिरों को देवताओं का निवास-स्थान माना जाता था। प्रत्येक नगर में विशाल मीनारों वाला एक मन्दिर होता था, जिसमें मेहराब, गुम्बद तथा स्तम्भ बहुत ही सुन्दर होते थे। सुमेरियन कला की सबसे बड़ी विशेषता ‘ज़िगुरात’ है। यह एक सीढ़ीदार मीनार थी। इन जिगुरातों का निर्माण एक ऊँचे चबूतरे पर किया जाता था जिसमें एक के ऊपर एक छज्जे का निर्माण किया जाता था।

(2) मूर्ति – कला – मेसोपोटामिया में मूर्तिकला की भी पर्याप्त उन्नति हुई। उर नगर की खुदाई में अनेक सुन्दर मूर्तियाँ मिली हैं। एक रथ पर सवार एक राजा की मूर्ति बड़ी सुन्दर और सजीव है। यहाँ एक मन्दिर के सामने चबूतरे पर बैल की एक अत्यन्त सजीव मूर्ति रखी हुई है। मेसोपोटामिया में मूर्तिकला के सुन्दर नमूने अधिकतर आयातित पत्थरों से तैयार किये जाते थे। 3000 ई. पूर्व उरुक नगर में एक स्त्री का सिर एक सफेद संगमरमर को तराश कर बनाया गया था। यह वार्का शीर्ष मेसोपोटामिया की मूर्ति कला का एक विश्व-प्रसिद्ध नमूना है।

(3) चित्रकला – मेसोपोटामिया में चित्रकला की भी उन्नति हुई। मेसोपोटामियावासी अपने मन्दिरों तथा दीवारों को पशुओं और मनुष्यों के चित्रों से सजाते थे। चित्रकारों द्वारा युद्ध के दृश्य भी चित्रित किये जाते थे।

(4) अन्य कलाएँ – मेसोपोटामिया के स्वर्णकार सोने-चाँदी के सुन्दर आभूषण और बर्तन बनाते थे। एक समाधि में एक राजकुमार के सिर पर स्वर्ण की भारी चादर का बना हुआ मुकुट मिला है जिस पर स्वर्णकार ने अद्भुत कौशल का प्रदर्शन किया है। धातु – पात्रों पर नक्काशी का बहुत सुन्दर काम भी मिलता है । यहाँ मिट्टी के सुन्दर बर्तन भी बनाये जाते थे।

प्रश्न 7.
मेसोपोटामिया की सामाजिक व्यवस्था की विवेचना कीजिए।
अथवा
मेसोपोटामिया के शहरी जीवन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मेसोपोटामिया के नगरों की सामाजिक व्यवस्था (शहरी जीवन) – मेसोपोटामिया के नगरों की सामाजिक व्यवस्था का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है –
(1) समाज का वर्गीकरण – मेसोपोटामिया का समाज तीन वर्गों में विभाजित था –
(1) उच्च वर्ग
(2) मध्यम वर्ग
(3) निम्न वर्ग।
समाज में उच्च या सम्भ्रान्त वर्ग का बोलबाला था। अधिकांश धन-सम्पत्ति पर इसी वर्ग का अधिकार था। इस बात की पुष्टि इस बात से होती है कि बहुमूल्य वस्तुएँ, जैसे आभूषण, सोने के पात्र, सफेद सीपियाँ, लाजवर्द जड़े हुए लकड़ी के वाद्य यन्त्र, सोने के सजावटी खंजर आदि विशाल मात्रा में उर नामक नगर में राजाओं और रानियों की कुछ कब्रों या समाधियों में उनके साथ दफनाई गई मिली हैं। परन्तु सामान्य लोगों की दशा शोचनीय थी।

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(2) परिवार – विवाह, उत्तराधिकार आदि के मामलों से सम्बन्धित कानूनी दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि मेसोपोटामिया के समाज में एकल परिवार को ही आदर्श माना जाता था। एकल परिवार में एक पुरुष, उसकी पत्नी और बच्चे शामिल होते थे। फिर भी विवाहित पुत्र और उसका परिवार प्राय: अपने माता-पिता के साथ ही रहा करता था। पिता परिवार का मुखिया होता था। पुत्र ही पिता की सम्पत्ति का वास्तविक उत्तराधिकारी होता था।

(3) विवाह – विवाह करने की इच्छा के बारे में घोषणा की जाती थी और कन्या के माता-पिता उसके विवाह के लिए अपनी सहमति देते थे। उसके पश्चात् वर पक्ष के लोग वधू को कुछ उपहार भेंट में देते थे। विवाह की रस्म पूरी हो जाने के बाद दोनों पक्षों की ओर से उपहारों का आदान-प्रदान किया जाता था। वे एक-साथ बैठकर भोजन करते थे तथा मन्दिर में जाकर भेंट चढ़ाते थे। जब वधू को उसकी सास लेने आती थी, तब वधू को उसके पिता द्वारा उसकी दाय का हिस्सा दे दिया जाता था। पिता के घर, खेत और पशुधन पर उसके पुत्रों का अधिकार होता था।

प्रश्न 8.
उर नगर की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
उर नगर की प्रमुख विशेषताएँ उर नगर की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन निम्नानुसार है –
1. नगर- नियोजन की पद्धति का अभाव – मेसोपोटामिया के उर नामक नगर में सबसे पहले खुदाई की गई थी। नगर में टेढ़ी-मेढ़ी तथा सँकरी गलियाँ पाई गईं। इससे ज्ञात होता है कि पहिए वाली गाड़ियाँ वहाँ के अनेक घरों तक नहीं पहुँच सकती थीं। अन्न के बोरे तथा ईंधन के गट्ठे सम्भवतः गधों पर लादकर घरों तक लाए जाते थे। पतली व घुमावदार गलियों तथा घरों के भूखण्डों के एक जैसा आकार न होने से पता चलता है कि उर में नगर नियोजन की पद्धति का
अभाव था।

2. जल – निकासी – जल निकासी की नालियों और मिट्टी की नलिकाएँ उर नगर के घरों के भीतरी आँगन में पाई गई हैं जिससे ज्ञात होता है कि घरों की छतों का ढलान भीतर की ओर होता था और वर्षा का पानी निकास नालियों के माध्यम से भीतरी आँगन में बने हुए हौजों में ले जाया जाता था। यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि एक साथ तेज वर्षा आने पर घर के बाहर कच्ची गलियाँ बुरी तरह कीचड़ से न भर जायें।

3. गलियों में कूड़ा-कचरा डालना – उर नगर के लोग अपने घर का सारा कूड़ा-कचरा गलियों में डाल देते थे। यह कूड़ा- – कचरा आने-जाने वाले लोगों के पैरों के नीचे आता रहता था। गलियों में कूड़ा-कचरा डालते रहने से गलियों की सतहें ऊँची उठ जाती थीं जिसके फलस्वरूप कुछ समय बाद घरों की दहलीजों को भी ऊँचा उठाना पड़ता था ताकि वर्षा के पश्चात् कीचड़ बहकर घरों के भीतर प्रवेश न कर सक।

4. दरवाजों से होकर रोशनी का आना- कमरों के अन्दर रोशनी खिड़कियों से नहीं बल्कि उन दरवाजों से होकर आती थी जो आँगन में खुला करते थे। इससे घरों के परिवारों में गोपनीयता भी बनी रहती थी।

5. घरों के बारे में प्रचलित अन्धविश्वास – लोगों में घरों के बारे में कई प्रकार के अन्धविश्वास प्रचलित थे। इस सम्बन्ध में उर नगर में शकुन-अपशकुन सम्बन्धी बातें पट्टिकाओं पर लिखी मिली हैं। लोगों में निम्नलिखित अन्धविश्वास प्रचलित थे –

  • यदि घर की दहली ऊँची उठी हुई हो, तो वह धन-दौलत लाती है।
  • सामने का दरवाजा यदि किसी दूसरे के घर की ओर न खुले, तो वह सौभाग्य प्रदान करता है।
  • यदि घर का लकड़ी का मुख्य दरवाजा (भीतर की ओर न खुल कर) बाहर की ओर खुले, तो पत्नी अपने पति के लिए कष्टों का कारण बनेगी।

6. कब्रिस्तान – उर में नगरवासियों के लिए एक कब्रिस्तान था, जिसमें शासकों तथा सामान्य लोगों की समाधियाँ पाई गई हैं। परन्तु कुछ लोग साधारण घरों के फर्शों के नीचे भी दफनाए हुए पाए गए थे।

प्रश्न 9.
मेसोपोटामिया के मारी नगर की प्रमुख विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
मारी नगर की प्रमुख विशेषताएँ 2000 ई. पूर्व के बाद मारी नगर शाही राजधानी के रूप में खूब विकसित हुआ। मारी नगर फरात नदी की ऊर्ध्वधारा पर स्थित है। इस नगर की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(1) खेती और पशुपालन – मारी राज्य में खेती और पशुपालन साथ-साथ चलते थे। यद्यपि मारी राज्य में किसान और पशुचारक दोनों ही प्रकार के लोग होते थे, परन्तु उस प्रदेश का अधिकांश भाग भेड़-बकरी चराने के लिए ही काम में लिया जाता था।

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(2) अनाज, धातु आदि प्राप्त करना – पशुचारकों को जब अनाज, धातु के औजारों आदि की आवश्यकता पड़ती थी, तब वे अपने पशुओं तथा उनके पनीर, चमड़ा, मांस आदि के बदले ये वस्तुएँ प्राप्त करते थे। पशुओं के गोबर से बनी खाद भी किसानों के लिए बड़ी उपयोगी होती थी। फिर भी किसानों तथा गड़रियों के बीच कई बार झगड़े हो जाया करते थे।

(3) मारी के राजाओं द्वारा मेसोपोटामिया के देवी-देवताओं का आदर करना-मारी के राजा एमोराइट समुदाय के थे। उनकी वेशभूषा वहाँ के मूल निवासियों से भिन्न होती थी। वे मेसोपोटामिया के देवी-देवताओं का आदर करते थे। उन्होंने स्टेपी क्षेत्र के देवता डैगन के लिए मारी नगर में एक मन्दिर का निर्माण करवाकर अपनी धर्म – सहिष्णुता का परिचय दिया।

(4) व्यापार का प्रमुख केन्द्र – मारी नगर एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्यापारिक स्थल पर स्थित था। यहाँ से लकड़ी, ताँबा, राँगा, तेल, मदिरा तथा अन्य कई प्रकार का सामान नावों के द्वारा फरात नदी के मार्ग से दक्षिण और तुर्की, सीरिया तथा लेबनान के प्रदेशों में लाया ले जाया जाता था। व्यापार की उन्नति के कारण मारी नगर एक अत्यन्त समृद्ध नगर बना हुआ था। दक्षिणी नगरों को घिसाई – पिसाई के पत्थर, चक्कियाँ, लकड़ी, शराब तथा तेल के पीपे ले जाने वाले जलपोत मारी में रुका करते थे।

मारी के अधिकारी जलपोतों पर लदे हुए सामान की जाँच करते थे तथा जलपोतों को आगे बढ़ने. की अनुमति देने के पहले उसमें लदे हुए माल के मूल्य का लगभग 10 प्रतिशत प्रभार वसूल करते थे। कुछ पट्टिकाओं में साइप्रस के द्वीप ‘अलाशिया’ से आने वाले ताँबे का उल्लेख मिला है। अलाशिया उन दिनों ताँबे तथा टिन के व्यापार के लिए बहुत प्रसिद्ध था। परन्तु यहाँ राँगे का भी व्यापार होता था जबकि काँसा औजार और हथियार बनाने के लिए एक मुख्य औद्योगिक सामग्री थी। इसलिए इसके व्यापार का अत्यधिक महत्त्व था। मारी राज्य सैनिक दृष्टि से उतना शक्तिशाली नहीं था, परन्तु व्यापार और समृद्धि के मामले में वह अद्वितीय था।

प्रश्न 10.
मेसोपोटामिया की विश्व को क्या देन है?
अथवा
मेसोपोटामिया में हुई ज्ञान-विज्ञान की उन्नति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
मेसोपोटामिया की विश्व को देन ( ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति )
मेसोपाटामिया की विश्व को सबसे बड़ी देन उसकी काल-गणना तथा गणित की विद्वत्तापूर्ण परम्परा है। मेसोपोटामिया में ज्ञान – विज्ञान के क्षेत्र में निम्नलिखित उन्नति हुई –

(1) गणित-मेसोपोटामियावासी गुणा, भाग, जोड़, बाकी, वर्गमूल, घनमूल आदि जानते थे। 1800 ई. पूर्व के -पास की कुछ पट्टिकाएँ मिली हैं, जिनमें गुणा और भाग की तालिकाएँ, वर्ग तथा वर्गमूल और चक्रवृद्धि ब्याज की सारणियाँ दी गई हैं। उनमें 2 का जो वर्गमूल दिया गया है वह इसके सही उत्तर से थोड़ा-सा ही भिन्न है।

(2) ज्योतिष तथा खगोल विद्या – मेसोपोटामिया के लोगों ने ज्योतिष तथा खगोल विद्या के क्षेत्र में भी पर्याप्त उन्नति की। उन्होंने चन्द्रमा की गति के आधार पर एक कैलेण्डर का निर्माण किया था। उन्होंने एक वर्ष को 12 महीनों में, एक महीने को चार सप्ताहों में, एक दिन को 24 घण्टों में तथा एक घण्टे को 60 मिनट में विभाजित किया था।

समय के इस विभाजन को सिकन्दर के उत्तराधिकारियों ने अपनाया, वहाँ से वह रोम तथा मुस्लिम देशों में पहुँचा और फिर मध्ययुगीन यूरोप में पहुँचा। जब कभी सूर्य और चन्द्रग्रहण होते थे, तो वर्ष, मास और दिन के अनुसार उनके घटित होने का हिसाब रखा जाता था। इसी प्रकार ये लोग रात्रि में आकाश में तारों और तारामण्डल की स्थिति पर नजर रखते थे तथा उनका हिसाब रखते थे।

(3) चिकित्साशास्त्र – मेसोपोटामिया का चिकित्साशास्त्र मुख्यतः जादू-टोने तक सीमित था। फिर वैद्यों का एक वर्ग के रूप में अस्तित्व था। तीसरी सहस्राब्दी ई. पूर्व के मध्य का एक ऐसा अभिलेख मिला है जिस पर एक वैद्य के महत्त्वपूर्ण नुस्खे हैं।

(4) नाप-तौल – मेसोपोटामियावासियों का एक मीना 60 शेकल का होता था। एक शेकल 8.416 ग्राम के बराबर तथा एक मीना एक पौण्ड से कुछ अधिक होता था।

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(5) लेखन कला और साहित्य – मेसोपोटामिया में सर्वप्रथम लेखन कला का जन्म हुआ। मेसोपोटामिया के लोग मिट्टी की पट्टिकाओं पर लिखा करते थे। उनकी लिपि ‘क्यूनीफार्म’ अथवा ‘कीलाकार’ कहलाती थी। मेसोपोटामिया में साहित्य के क्षेत्र में भी पर्याप्त विकास हुआ। मेसोपोटामिया में ‘गिलगमेश’ नामक महाकाव्य की रचना हुई, जिसकी गिनती विश्व के प्राचीनतम महाकाव्यों में की जाती है। असीरियाई शासक असुरबनिपाल ने एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना की जिसमें 1000 मूल ग्रन्थ थे तथा लगभग 30,000 पट्टिकाएँ थीं, जिन्हें विषयानुसार – वर्गीकृत किया गया था।

(6) अन्य देन –

  • कुम्हार के चाक का प्रयोग मेसोपोटामिया के लोगों ने संभवत: सबसे पहले किया।
  • लिखित विधि संहिता सर्वप्रथम बेबोलोनिया के शासक हम्मूराबी द्वारा विश्व को दी गई।
  • नगर राज्यों की स्थापना संभवत: मेसोपोटामिया में सर्वप्रथम हुई।
  • बैंक प्रणाली, व्यापारिक समझौते एवं हुंडी प्रणाली का विकास सर्वप्रथम यहीं हुआ।

प्रश्न 11.
असुरबनिपाल द्वारा स्थापित पुस्तकालय का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
असुरबनिपाल द्वारा स्थापित पुस्तकालय – असीरिया के शासक दक्षिणी क्षेत्र बेबीलोनिया को उच्च संस्कृति केन्द्र मानते थे। असुरबनिपाल ( 668-627 ई. पू.) असीरिया का अन्तिम शासक था। वह विद्या – प्रेमी शासक था। उसने अपनी राजधानी निनवै में एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना की। उसने इतिहास, महाकाव्य, शकुन साहित्य, ज्योतिष विद्या, स्तुतियों और कविताओं की पट्टिकाओं को एकत्रित करने का भरसक प्रयास किया और वह अपने उद्देश्य में सफल रहा।

पुरानी पट्टिकाओं का पता लगाना – असुरबनिपाल ने अपने लिपिकों को दक्षिण में पुरानी पट्टिकाओं का पता लगाने के लिए भेजा क्योंकि दक्षिण में लिपिकों को विद्यालयों में पढ़ना-लिखना सिखाया जाता था, जहाँ उन्हें काफी बड़ी संख्या में पट्टिकाओं की नकलें तैयार करनी होती थीं।

बेबीलोनिया में ऐसे भी नगर थे जो पट्टिकाओं के विशाल संग्रह तैयार किये जाने और प्राप्त करने के लिए प्रसिद्ध थे, यद्यपि 1800 ई.पू. के बाद सुमेरियन भाषा बोली जानी बन्द हो गई थी, परन्तु विद्यालयों में वह शब्दावलियों, संकेत-सूचियों, द्विभाषी (सुमेरी और अक्कदी) पट्टिकाओं आदि के . माध्यम से अब भी पढ़ाई जाती थी। अत : 650 ई. पूर्व में भी 2000 ई.पू. तक प्राचीन कीलाकार अक्षरों में लिखी पट्टिकाएँ पढ़ी जा सकती थीं। असुरबनिपाल के व्यक्ति भी जानते थे कि प्राचीन पट्टिकाओं तथा उनकी प्रतिकृतियों को कहाँ ढूँढ़ा और प्राप्त किया जा सकता है।

गिलगमेश महाकाव्य की पट्टिकाओं की प्रतियाँ तैयार की गईं। प्रतियाँ तैयार करने वाले उनमें अपना नाम और तिथि अंकित करते थे। कुछ पट्टिकाओं के अन्त में असुरबनिपाल का उल्लेख भी मिलता है। “मैं असुरबनिपाल, ब्रह्माण्ड का सम्राट, असीरिया का शासक, जिसे देवताओं ने विशाल बुद्धि प्रदान की है। मैंने देवताओं के बुद्धि-विवेक को पट्टिकाओं पर लिखा है और मैंने पट्टिकाओं की जाँच की और उन्हें संगृहीत किया।

मैंने उन्हें निनवै स्थित अपने इष्टदेव नाबू के मन्दिर के पुस्तकालय में भविष्य के उपयोग के लिए रख दिया। ” इन पट्टिकाओं की सूची तैयार करवाई गई। इसके लिए पट्टिकाओं पर मिट्टी के लेबल से इस प्रकार अंकित किया “असंख्य पट्टिकाएँ भूत-प्रेत निवारण विषय पर, ‘अमुक’ व्यक्ति द्वारा लिखी गईं।” गया: असुरबनिपाल के पुस्तकालय में कुल मिलाकर 1000 मूल ग्रन्थ थे और लगभग 30,000 पट्टिकाएँ थीं, जिन्हें विषयानुसार वर्गीकृत किया गया था।

प्रश्न 12.
बेबीलोनिया के विकास पर एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर:
बेबीलोनिया का विकास- दक्षिणी कछार के एक पराक्रमी शासक नैबोपोलास्सर ने बेबीलोनिया को 625 ई. पूर्व में असीरियन लोगों के आधिपत्य से मुक्ति दिलाई। उसके उत्तराधिकारियों ने अपने राज्य-क्षेत्र का विस्तार किया और बेबीलोन में अनेक भवन बनवाये। उस समय से लेकर 539 ई. पूर्व में ईरान के एकेमेनिड लोगों द्वारा विजित होने के पश्चात् और 331 ई. पूर्व में सिकन्दर से पराजित होने तक बेबीलोन विश्व का एक प्रमुख नगर बना रहा। बेबीलोन का क्षेत्रफल 850 हैक्टेयर से अधिक था।

इसकी चहारदीवारी तिहरी थी। इसमें विशाल राजमहल तथा मन्दिर विद्यमान थे। इसमें जिगुरात अर्थात् सीढ़ीदार मीनार थी और नगर के मुख्य अनुष्ठान – केन्द्र तक शोभायात्रा के लिए विस्तृत मार्ग बना हुआ था। इसका व्यापार उन्नत अवस्था में था। व्यापारी लोग दूर-दूर तक अपना व्यवसाय करते थे।

यहाँ विज्ञान के क्षेत्र में भी पर्याप्त उन्नति हुई तथा यहाँ के गणितज्ञों एवं खगोलविदों ने अनेक नई खोजें की थीं। नैबोनिस द्वारा मेसोपोटामिया की प्राचीन परम्पराओं का सम्मान करना – नैबोनिडस स्वतन्त्र बेबीलोन का अन्तिम शासक था। उसने लिखा है कि उर के नगर-देवता ने उसे सपने में दर्शन दिये और उसे सुदूर दक्षिण के उस प्राचीन नगर का कार्य – भार सम्भालने के लिए एक महिला पुरोहित को नियुक्त करने का आदेश दिया।

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उसने लिखा, चूँकि बहुत लम्बे समय से उच्च महिला पुरोहित का प्रतिष्ठान भुला दिया गया था, उसके विशिष्ट लक्षणों को कहीं नहीं बताया गया है, मैंने दिन-प्रतिदिन उसके बारे में सोचा – नैबोनिडस ने आगे लिखा है कि उसे एक बहुत पुराने राजा (1150 ई. पूर्व के लगभग) का पट्टलेख मिला और उस पर उसने महिला पुरोहित की आकृति अंकित देखी। उसने उसके आभूषणों और वेशभूषा को ध्यानपूर्वक देखा। फिर उसने अपनी पुत्री को वैसी ही वेशभूषा से सुसज्जित कर महिला पुरोहित के रूप में प्रतिष्ठित किया।

कालान्तर में नैबोनिडस के व्यक्ति उसके पास एक टूटी हुई मूर्ति लाए जिस पर अक्कद के राजा सारगोन का नाम उत्कीर्ण था। सारगोन ने 2370 ई. पूर्व के आस-पास शासन किया था। नैबोनिडस ने भी प्राचीन युग के इस महान शासक के सम्बन्ध में सुन रखा था। नैबोनिडस ने यह अनुभव किया कि उसे उस मूर्ति की मरम्मत करानी चाहिए। वह लिखता है, “देवताओं के प्रति भक्ति और राजा के प्रति अपनी निष्ठा के कारण, मैंने कुशल शिल्पियों को बुलाया और उसका खण्डित सिर बदलवा दिया। “

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

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पृष्ठ 79

प्रश्न 1.
सत्रहवीं से बीसवीं सदी के बीच यूरोप के गोरे लोगों ने दक्षिण अफ्रीका के लोगों पर अपना शासन कायम रखा। 1994 तक दक्षिण अफ्रीका में अपनाई गई नीतियों के बारे में आगे दिये गए ब्यौरे को पढ़िए।
श्वेत लोगों का मत देने, चुनाव लड़ने और सरकार को चुनने का अधिकार था। वे सम्पत्ति खरीदने और देश में कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र थे। काले लोगों को ऐसे अधिकार नहीं थे। काले और गोरे लोगों के लिए पृथक् मुहल्ले और कालोनियाँ बसाई गई थीं। काले लोगों को अपने पड़ौस के गोरे लोगों की बस्ती में काम करने के लिए ‘पास’ लेने पड़ते थे। उन्हें गोरों के इलाके में अपने परिवार रखने की अनुमति नहीं थी। अलग-अलग रंग के लोगों के लिए विद्यालय भी अलग-अलग थे।
(अ) क्या अश्वेत लोगों को दक्षिण अफ्रीका में पूर्ण और समान सदस्यता मिली हुई थी ? कारण सहित बताइये।
(ब) ऊपर दिया गया ब्यौरा हमें दक्षिण अफ्रीका में विभिन्न समूहों के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में क्या बताता है?
उत्तर:
(अ) नहीं, अश्वेत लोगों को दक्षिण अफ्रीका में पूर्ण और समान सदस्यता नहीं मिली हुई थी क्योंकि पूर्ण और समान सदस्यता के लिए देश के सभी लोगों को कुछ राजनीतिक अधिकार प्रदान किये जाते हैं, जिनमें मत देने का अधिकार, चुनाव लड़ने और सरकार बनाने का अधिकार, देश में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता आदि प्रमुख हैं। दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत लोगों को ये अधिकार नहीं दिये गए थे। अधिकारों और प्रतिष्ठा की समानता नागरिकता के बुनियादी अधिकारों में से एक है।

(ब) ऊपर दिया गया ब्यौरा हमें दक्षिण अफ्रीका में विभिन्न समूहों के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में रंग के आधार पर भेद-भाव को दर्शाता है जिसमें श्वेत लोगों को जो अधिकार प्राप्त हैं और अश्वेत लोगों को वे अधिकार प्राप्त नहीं हैं।

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प्रश्न 1.
राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में नागरिकता में अधिकार और दायित्व दोनों शामिल हैं। समकालीन लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिक किन अधिकारों के उपभोग की अपेक्षा कर सकते हैं? नागरिकों के राज्य और अन्य नागरिकों के प्रति क्या दायित्व हैं?
उत्तर:
राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में नागरिकता में अधिकार और दायित्व दोनों शामिल हैं। समकालीन विश्व में राष्ट्रों ने पने सदस्यों को एक सामूहिक राजनीतिक पहचान अर्थात् नागरिकता, के साथ- साथ कुछ अधिकार भी प्रदान किये हैं। नागरिक अपने राष्ट्र से कुछ बुनियादी अधिकारों के अलावा कहीं भी यात्रा में सहयोग और सुरक्षा की अपेक्षा करते हैं। लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों के अधिकार नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों की सुस्पष्ट प्रकृति विभिन्न राष्ट्रों में भिन्न-भिन्न हो सकती है, लेकिन अधिकतर लोकतांत्रिक देशों ने आज उनमें से कुछ राजनीतिक नागरिक तथा सामाजिक-आर्थिक अधिकार शामिल किये हैं। ये हैं

1. मतदान का अधिकार: जिन देशों में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना की जाती है, उनमें वहाँ के वयस्क नागरिकों को मतदान का अधिकार प्रदान किया जाता है। इस अधिकार के अनुसार लोग समय-समय पर होने वाले चुनावों के द्वारा अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं जो सरकार का निर्माण कर शासन का संचालन करते हैं।

2. चुनाव लड़ने का अधिकार: लोकतांत्रिक राज्यों में प्रत्येक नागरिक को निर्वाचन में खड़ा होने का अधिकार है। निर्वाचित होने के बाद वे नागरिकों के प्रतिनिधि के रूप में सरकार का निर्माण करते हैं

3. सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार: आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार है।

4. अधिकारों और प्रतिष्ठा की समानता का अधिकार: आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में अधिकारों और प्रतिष्ठा की समानता के बुनियादी अधिकार के उपभोग के लिए नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान किया गया है।

5. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार: अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है।

6. आस्था की स्वतंत्रता का अधिकार: अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों ने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को अपनाते हुए नागरिकों को धर्म के प्रति आस्था की स्वतंत्रता प्रदान की है अर्थात् नागरिक किसी भी धर्म को अपना सकता है। राज्य व्यक्ति की आस्था के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा।

7. न्यूनतम मजदूरी पाने का अधिकार: लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को न्यूनतम मजदूरी पाने का अधिकार प्रदान किया गया है।

8. गमनागमन की स्वतंत्रता का अधिकार: लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों में एक है- गमनागमन की स्वतंत्रता। यह अधिकार कामगारों के लिए विशेष महत्त्व का है। गृह क्षेत्र में काम के अवसर उपलब्ध नहीं होने पर कामगार रोजगार की तलाश में आप्रवास की ओर प्रवृत्त होते हैं।

9.  शिक्षा सम्बन्धी अधिकार: अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है। कोई भी नागरिक समूह अपनी भाषा तथा संस्कृति को बनाए रखने के लिए अपने शिक्षा संस्थान खोल सकता है। सरकारी स्कूलों में सबको प्रवेश पाने की समानता प्राप्त है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि समकालीन लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिक अनेक राजनैतिक, नागरिक, आर्थिक तथा सामाजिक अधिकारों के उपभोग की अपेक्षा कर सकते हैं।

नागरिकों के राज्य के प्रति कर्तव्य: नागरिकों के राज्य के प्रति निम्नलिखित दायित्व हैं।

1. राज्य के प्रति भक्ति:
प्रत्येक नागरिक से राज्य के प्रति निष्ठा व भक्ति की आशा की जाती है। प्रत्येक नागरिक का यह कानूनी कर्तव्य है कि वह देशद्रोह न करे और देश पर आए संकट के समय अपना तन-मन-धन न्यौछावर करने को तैयार रहे।

2. कानूनों का पालन करना:
नागरिकों में कानून पालन की भावना से ही राज्य में शांति व व्यवस्था स्थापित हो सकती है। जिस देश में नागरिकों की प्रकृति कानूनों का उल्लंघन करने की होती है, उस देश में शान्ति व व्यवस्था विद्यमान नहीं रहती । अतः कानूनों का पालन करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।

3. टैक्स देना:
सरकार को अपने कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए धंन की आवश्यकता होती है। सरकार टैक्स लगाकर धन की प्राप्ति करती है। अत: नागरिकों का राज्य के प्रति यह कर्तव्य है कि वे अपने हिस्से के करों को ईमानदारी से चुकायें। करों को ईमानदारी से न चुकाने पर राज्य द्वारा दण्ड भी दिया जा सकता है।

4. सैनिक सेवा में भाग लेना: नागरिकों का राज्य के प्रति यह दायित्व भी है कि वे आवश्यकता पड़ने पर देश की सुरक्षा हेतु सेना में भर्ती हों।

नागरिकों के अन्य नागरिकों के प्रति दायित्व: नागरिकों के अन्य नागरिकों के प्रति प्रमुख दायित्व निम्नलिखित हैं।

1. नागरिक अधिकारों का उचित प्रयोग:
लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को जो राजनैतिक, नागरिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकार प्राप्त होते हैं, उन अधिकारों के साथ यह दायित्व भी जुड़ा होता है कि वह अन्य नागरिकों को प्राप्त इन अधिकारों के उपभोग के मार्ग में बाधायें नहीं डाले, अन्य नागरिकों के ऐसे ही अधिकारों का हनन न करे तथा इन अधिकारों का सदुपयोग करे न कि दुरुपयोग।

2. समुदाय के सहजीवन में भागीदार होने और योगदान करने का दायित्व:
नागरिकता में नागरिकों के एक-दूसरे के प्रति और समाज के प्रति निश्चित दायित्व शामिल हैं। इनमें सिर्फ राज्य द्वारा थोपी गई कानूनी बाध्यताएँ ही नहीं हैं, बल्कि समुदाय के सहजीवन में भागीदार होने और योगदान करने का नैतिक दायित्व भी शामिल है।

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प्रश्न 2.
सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये तो जा सकते हैं लेकिन हो सकता है कि वे इन अधिकारों का प्रयोग समानता से न कर सकें । इस कथन की व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये तो जा सकते हैं, लेकिन हो सकता है कि वे इन अधिकारों का प्रयोग समानता से न कर सकें। इस कथन का आशय यह है कि समाज के विभिन्न समूह के लोगों की जरूरत और समस्यायें अलग-अलग हो सकती हैं और एक समूह के अधिकार दूसरे समूह के अधिकारों के प्रतिकूल हो सकते हैं। यथा

1. शहरों में झोंपड़पट्टियों तथा फुटपाथों पर रहने वाले लोग:
यद्यपि हमारे देश में सभी वयस्क नागरिकों को मत देने का समान अधिकार दिया गया है, लेकिन मत देने के लिए मतदाता सूची में नाम दर्ज होना आवश्यक है और मतदाता सूची में नाम दर्ज करने के लिए स्थायी पते की जरूरत होती है। शहरों में अनधिकृत बस्तियों, झुग्गी-झोंपड़ियों तथा पटरी पर रहने वाले लोगों के लिए ऐसा स्थायी पता पेश करना कठिन होता है । इस प्रकार ये लोग मत देने के अधिकार का प्रयोग समानता के साथ नहीं कर पाते हैं।

2. रोजगार के लिए एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गये अकुशल श्रमिक:
भारत में सभी नागरिकों को देश के भू- क्षेत्र में कहीं भी गमनागमन की स्वतंत्रता समान रूप से है तथा कोई भी व्यवसाय करने एवं बसने की स्वतंत्रता भी समान रूप से प्राप्त है। अपने गृहक्षेत्र में रोजगार के अवसर उपलब्ध न होने से कामगार रोजगार की तलाश में आप्रवास की ओर प्रवृत्त होते हैं। हमारे देश के विभिन्न हिस्सों में कुशल और अकुशल मजदूरों के लिए बाजार विकसित हुए हैं। इन बाजारों में अधिक संख्या में जब रोजगार बाहर से आने वाले नागरिकों के हाथ में आ जाता है तो उनके खिलाफ स्थानीय लोगों में प्रतिरोध की भावना पैदा होती है।

और कुछ नौकरियों या कामों को राज्य के मूल निवासियों को देने की मांग उठती है। इस हेतु राजनीतिक दलों द्वारा आन्दोलन किये जाते हैं तथा वहाँ के आप्रवासियों को रोजगार में असुविधा पैदा की जाती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि नागरिकों को राज्य के भू-भाग में कहीं भी गमनागमन, व्यवसाय करने तथा बसने की समान स्वतंत्रता का अधिकार तो प्राप्त है, लेकिन कुछ परिस्थितियों में वे इस स्वतंत्रता का प्रयोग समानता से नहीं कर पाते हैं।

3. स्त्रियाँ: स्त्रियों को लगभग सभी समाजों में द्वितीय स्तर का नागरिक समझा जाता है और वे समान अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पाती हैं।

4. शोषित व्यक्ति: सामाजिक असमानताओं के कारण कमजोर वर्ग के लोगों का शोषण किया जाता है, जिसके चलते वे समान अधिकारों का प्रयोग समानता के साथ नहीं कर पाते।

प्रश्न 3.
भारत में नागरिक अधिकारों के लिए हाल के वर्षों में किए गए किन्हीं दो संघर्षों पर टिप्पणी लिखिये। इन संघर्षों में किन अधिकारों की मांग की गई थी?
उत्तर:
भारत में नागरिक अधिकारों के लिए हाल के वर्षों में किए गए दो संघर्ष निम्नलिखित हैं।
1. बाहरी लोगों के प्रवेश को रोकने के लिए संघर्ष:
यदि आजीविका, चिकित्सा या शिक्षा जैसी सुविधाएँ और जल-जमीन जैसे प्राकृतिक साधन सीमित हों, तब बाहरी लोगों के प्रवेश को रोकने की मांग उठती है। यही कारण है कि मुम्बई में हाल के वर्षों में यह नारा दिया गया कि ‘मुम्बई मुंबईकर (मुम्बई वाले ) के लिए’। भारत के अन्य क्षेत्रों में भी इस तरह के संघर्ष होते आए हैं। भारत में गमनागमन की स्वतंत्रता, व्यवसाय की स्वतंत्रता तथा कहीं भी बसने की स्वतंत्रता के तहत अपने गृहक्षेत्र में काम के अवसर न होने पर कामगार रोजगार की तलाश में आप्रवास की ओर प्रवृत्त होते हैं।

रोजगार की तलाश में बिहार व अन्य राज्यों के बहुत से कामगार मुम्बई जाकर काम करने लग गए। इससे वहाँ के रोजगार बाहरी लोगों के हाथों में अधिक संख्या में आ गए। इससे स्थानीय लोगों में प्रतिरोध की भावना पैदा हुई और कुछ नौकरियों या कामों को राज्य के मूल निवासियों या स्थानीय भाषा जानने वाले लोगों तक सीमित रखने की मांग उठी। क्षेत्रीय दलों ने इस मुद्दे को उठाया तथा इस प्रतिरोध ने ‘बाहरी’ के खिलाफ संगठित हिंसा व संघर्ष का रूप धारण कर लिया। इस संघर्ष में स्थानीय लोगों को ही स्थानीय नौकरियाँ या काम दिये जाने की मांग की गई थी।

2. शहरी झोंपड़पट्टियों में रहने वालों की आश्रय के अधिकार की मांग – भारत के हर शहर में बहुत बड़ी आबादी झोंपड़पट्टियों और अवैध कब्जे की जमीन पर बसे लोगों की है। झोंपड़पट्टियों के लोग हाल के वर्षों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और संगठित होकर संघर्षरत हुए हैं। उन्होंने कभी-कभी अदालतों में भी दस्तक दी है। स्थायी आश्रय न होने के कारण उनके लिए वोट देने जैसे बुनियादी राजनीतिक अधिकार का प्रयोग करना भी कठिन हो जाता है क्योंकि मतदाता सूची में नाम दर्ज होने के लिए स्थायी पते की जरूरत होती है।

और अनधिकृत बस्तियों तथा पटरी पर रहने वालों के लिए ऐसा पता पेश करना कठिन होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने मुम्बई की झोंपड़पट्टियों में रहने वालों के अधिकारों के सम्बन्ध सन् 1985 में एक महत्त्वपूर्ण फैसला दिया। याचिका में कार्यस्थल के निकट रहने की वैकल्पिक जगह उपलब्ध न होने के कारण फुटपाथ या झोंपड़पट्टियों में रहने के अधिकार का दावा किया गया था। अगर यहाँ रहने वालों को हटाने के लिए मजबूर किया गया तो उन्हें आजीविका भी गंवानी पड़ेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संविधान की धारा 21 में जीने के अधिकार की गारंटी दी गई है जिसमें आजीविका का अधिकार शामिल है। इसलिए अगर फुटपाथियों को बेदखल करना हो, तो उन्हें आश्रय के अधिकार के तहत पहले वैकल्पिक जगह उपलब्ध करानी होगी।

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प्रश्न 4.
शरणार्थियों की समस्यायें क्या हैं? वैश्विक नागरिकता की अवधारणा किस प्रकार उनकी सहायता कर सकती है?
उत्तर:
शरणार्थी से आशय:
युद्ध, उत्पीड़न, अकाल या अन्य कारणों से लोग विस्थापित होते हैं। यदि कोई देश उन्हें स्वीकार करने के लिए राजी नहीं होता और वे घर नहीं लौट सकते तो वे राज्यविहीन या शरणार्थी कहे जाते हैं। वे शिविरों में या अवैध रूप में रहने के लिए मजबूर हो जाते हैं शरणार्थियों की प्रमुख समस्यायें ये हैं।

  1. शरणार्थी आम तौर पर असुरक्षित हालत में जीवनयापन करते हैं।
  2. ये शिविरों में या अवैध प्रवासी के रूप में रहने के लिए मजबूर किये जाते हैं।
  3. वे अक्सर कानूनी तौर पर काम नहीं कर सकते या अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं सकते या सम्पत्ति अर्जित नहीं कर सकते।
  4. ऐसी समस्यायें लोकतांत्रिक नागरिकता के उस वायदे को चुनौती देती हैं, जो यह कहता है कि समकालीन विश्व में सभी लोगों को नागरिक की पहचान और अधिकार उपलब्ध होने चाहिए। अनेक लोग अपने पसन्द के देश की नागरिकता हासिल नहीं कर सकते, उनके लिए अपनी पहचान का विकल्प भी नहीं होता।

वैश्विक नागरिकता शरणार्थियों की समस्या के रूप में:
शरणार्थियों या राज्यहीन लोगों का प्रश्न आज विश्व के लिए गंभीर समस्या बन गया है। राष्ट्रीय नागरिकता ऐसे लोगों की समस्याओं का समाधान नहीं कर पा रही है। वैश्विक नागरिकता ही इस समस्या का हल प्रस्तुत कर सकती है। यथा

  1. विश्व नागरिकता से राष्ट्रीय सीमाओं के दोनों ओर की उन समस्याओं का मुकाबला करना आसान हो सकता है जिसमें कई देशों की सरकारों और लोगों की संयुक्त कार्यवाही जरूरी होती है। उदाहरण के लिए इससे प्रवासी और राज्यहीन लोगों की समस्या का सर्वमान्य समाधान पाना आसान हो सकता है या कम से कम उनके बुनियादी अधिकार और सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है, चाहे वे किसी भी देश में रहते हों।
  2. वैश्विक नागरिकता की अवधारणा हमें याद दिलाती है कि राष्ट्रीय नागरिकता को इस समझदारी से जोड़ने की आवश्यकता है कि हम आज अन्तर्सम्बद्ध विश्व में रहते हैं और हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम विश्व के विभिन्न हिस्सों के लोगों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करें और राष्ट्रीय सीमाओं के पार के लोगों और सरकारों के साथ ‘काम करने के लिए तैयार हों।

प्रश्न 5.
देश के अन्दर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में लोगों के आप्रवासन का आमतौर पर स्थानीय लोग विरोध करते हैं। प्रवासी लोग स्थानीय अर्थव्यवस्था में क्या योगदान दे सकते हैं?
उत्तर:
बाहरी के खिलाफ स्थानीय लोगों का प्रतिरोध:
अगर आजीविका, चिकित्सा या शिक्षा जैसी सुविधायें और जल-जमीन जैसे प्राकृतिक साधन सीमित हों, तो बाहरी लोगों के प्रवेश को रोकने की मांग उठने की संभावना रहती है। ‘मुम्बई मुंबईकर के लिए’ के नारे से ऐसी ही भावनाएँ प्रकट होती हैं। भारत और विश्व के विभिन्न हिस्सों में इस तरह के अनेक संघर्ष होते आए हैं।

जब गृहक्षेत्र में कार्य के अवसर उपलब्ध नहीं होते तो कामगार रोजगार की तलाश में, गमनागमन, व्यवसाय तथा बसने की स्वतंत्रता के तहत आप्रवास की ओर प्रवृत्त होते हैं। शहरों में तेजी से पनपता भवन निर्माण उद्योग देश के विभिन्न हिस्सों के श्रमिकों को आकर्षितं करता है। लेकिन अधिक संख्या में रोजगार बाहर के लोगों के हाथ में जाने के खिलाफ स्थनीय लोगों में प्रतिरोध की भावना पैदा हो जाती है। कुछ नौकरियों या कामों को राज्य के मूल निवासियों या स्थानीय भाषा को जानने वाले लोगों तक सीमित रखने की माँग उठती है। राजनीतिक पार्टियाँ यह मुद्दा उठाती हैं। यह प्रतिरोध बाहरी के खिलाफ संगठित हिंसा का भी रूप ले लेता है। भारत के लगभग सभी क्षेत्र इस तरह के आंदोलनों से गुजर चुके हैं।

स्थानीय लोग निम्नलिखित आधारों पर आप्रवासन का विरोध कर सकते हैं:
1. यदि आप्रवासियों के निरन्तर आगमन के कारण नौकरियों में अवसर तथा व्यवसायों की स्थापना के अवसर घटते जा रहे हों और स्थानीय लोगों में यह भावना घर कर जाए कि इन बाहरी लोगों के कारण वे अपने अधिकारों और जीवनयापन के अवसरों से वंचित हो रहे हैं, तो स्थानीय लोग अपने क्षेत्र में आप्रवासन का विरोध करने लगते हैं।

2. जब क्षेत्र की जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है और लोगों को रहने के लिए निवास की कमी महसूस होने लगती है। कभी-कभी आप्रवासी लोग स्थानीय गरीब लोगों से अच्छी कीमत पर घर तथा अन्य सम्पत्तियाँ खरीद लेते हैं । लेकिन जल्दी ही स्थानीय लोग बाहरी लोगों द्वारा अपने घरों से वंचित किया जाना महसूस करने लगते हैं और वे बाहरी लोगों का विरोध करने लगते हैं।

3. आप्रवासियों के तेजी से आगमन से दिन-प्रतिदिन के उपयोग की वस्तुओं की उपलब्धता पर भी दबाव पड़ता है और कभी-कभी उनकी अत्यधिक कमी आ जाती है या उनकी कीमत बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में स्थानीय लोग बाहरी लोगों के आगमन का विरोध करते हैं।

4. स्थानीय प्रशासन की आधारभूत संरचना नागरिक सुविधाओं, जैसे— पानी की आपूर्ति, विद्युत, गन्दे जल की निकासी तथा यातायात के साधनों आदि की अतिरिक्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाती तो वे सुविधाएँ कीमती हो जाती हैं और स्थानीय लोग इन सुविधाओं के कम होने या अधिक कीमती होने के लिए बाहरी लोगों के आगमन पर उत्तरदायी ठहराते हैं।

5. जब बाहरी लोगों द्वारा अच्छी नौकरियों पर कब्जा कर लिया जाता है और स्थानीय प्रशासन पर भी उनका वर्चस्व हो जाता है तो स्थानीय लोग यह महसूस करने लगते हैं कि इन बाहरी लोगों द्वारा वे पीछे की ओर धकेल दिये गये हैं, तब स्थानीय लोग बाहरी लोगों का विरोध करने लगते हैं।

6. गरीब, अप्रशिक्षित तथा अकुशल बाहरी श्रमिक व्यक्ति कम मजदूरी पर कार्य करना प्रारंभ कर देते हैं तथा झुग्गी-झोंपड़ियों में बुरी दशाओं में रहने लगते हैं तो वे स्थानीय कामगारों पर बुरा प्रभाव डालते हैं तथा इस क्षेत्र में स्वास्थ्यकर वातावरण पर दुष्प्रभाव भी इन गंदी बस्तियों के कारण पड़ता है। फलतः स्थानीय लोग ऐसे अकुशल बाहरी कामगारों का विरोध करने लग जाते हैं।

प्रवासी लोगों का स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान: प्रवासी लोग अपने श्रम से स्थानीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं।

  1. प्रवासी लोग अन्य पेशों के बीच फेरी वाले, छोटे व्यापारी, सफाईकर्मी या घरेलू नौकर, नल ठीक करने वाले या मिस्त्री होते हैं।
  2. ये लोग बेंत बुनाई या कपड़ा रंगाई – छपाई या सिलाई जैसे छोटे-छोटे कारोबार भी चलाते हैं।
  3. प्रवासी लोगों को सफाई या जलापूर्ति जैसी सुविधाएँ मुहैया करने पर कोई भी शहर अपेक्षाकृत कम खर्च करता है।
  4. बाहर से आने वाले उद्योगपति या पूँजीपति उस क्षेत्र में कारखाने स्थापित कर आर्थिक विकास तथा व्यापारिक गतिविधियों में वृद्धि करते हैं, इससे उस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का विकास होता है।
  5. एक नया कारखाना क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि करता है।
  6. इससे क्षेत्र में कुशल तथा अकुशल दोनों प्रकार के कामगारों की आपूर्ति होती है। वे कठिन परिश्रम कर स्थानीय लोगों में भी कठिन परिश्रम कर प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ाते हैं।

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प्रश्न 6.
भारत जैसे समान नागरिकता वाले देशों में भी लोकतांत्रिक नागरिकता एक पूर्ण स्थापित तथ्य नहीं वरन् एक परियोजना है। नागरिकता से जुड़े उन मुद्दों की चर्चा कीजिये जो आजकल भारत में उठाये जा रहे हैं।
उत्तर:
भारत में लोकतांत्रिक नागरिकता एक परियोजना है- भारत स्वयं को धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र- राज्य कहता है। भारतीय संविधान ने बहुत ही विविधतापूर्ण समाज को समायोजित करने की कोशिश की है; जैसे इसने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे भिन्न-भिन्न समुदायों, पूर्व में समान अधिकार से वंचित रही महिलाएँ, आधुनिक सभ्यता के साथ माकूल सम्पर्क रखने वाले अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के कुछ सुदूरवर्ती समुदायों और कई अन्य समुदायों को पूर्ण और समान नागरिकता देने का प्रयास किया है। इसने देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित विभिन्न भाषाओं, धर्म और रिवाजों की पहचान बनाए रखने का प्रयास किया है। इसने संविधान के माध्यम से लोगों को

स्थानीय लोग निम्नलिखित आधारों पर आप्रवासन का विरोध कर सकते हैं:
1. यदि आप्रवासियों के निरन्तर आगमन के कारण नौकरियों में अवसर तथा व्यवसायों की स्थापना के अवसर घटते जा रहे हों और स्थानीय लोगों में यह भावना घर कर जाए कि इन बाहरी लोगों के कारण वे अपने अधिकारों और जीवनयापन के अवसरों से वंचित हो रहे हैं, तो स्थानीय लोग अपने क्षेत्र में आप्रवासन का विरोध करने लगते हैं।

2. जब क्षेत्र की जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है और लोगों को रहने के लिए निवास की कमी महसूस होने लगती है। कभी-कभी आप्रवासी लोग स्थानीय गरीब लोगों से अच्छी कीमत पर घर तथा अन्य सम्पत्तियाँ खरीद लेते हैं । लेकिन जल्दी ही स्थानीय लोग बाहरी लोगों द्वारा अपने घरों से वंचित किया जाना महसूस करने लगते हैं और वे बाहरी लोगों का विरोध करने लगते हैं।

3. आप्रवासियों के तेजी से आगमन से दिन-प्रतिदिन के उपयोग की वस्तुओं की उपलब्धता पर भी दबाव पड़ता है और कभी-कभी उनकी अत्यधिक कमी आ जाती है या उनकी कीमत बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में स्थानीय लोग बाहरी लोगों के आगमन का विरोध करते हैं।

4. स्थानीय प्रशासन की आधारभूत संरचना नागरिक सुविधाओं, जैसे पानी की आपूर्ति, विद्युत, गन्दे जल की निकासी तथा यातायात के साधनों आदि की अतिरिक्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाती तो वे सुविधाएँ कीमती हो जाती हैं और स्थानीय लोग इन सुविधाओं के कम होने या अधिक कीमती होने के लिए बाहरी लोगों के आगमन पर उत्तरदायी ठहराते हैं।

5. जब बाहरी लोगों द्वारा अच्छी नौकरियों पर कब्जा कर लिया जाता है और स्थानीय प्रशासन पर भी उनका वर्चस्व हो जाता है तो स्थानीय लोग यह महसूस करने लगते हैं कि इन बाहरी लोगों द्वारा वे पीछे की ओर धकेल दिये गये हैं, तब स्थानीय लोग बाहरी लोगों का विरोध करने लगते हैं।

6. गरीब, अप्रशिक्षित तथा अकुशल बाहरी श्रमिक व्यक्ति कम मजदूरी पर कार्य करना प्रारंभ कर देते हैं तथा झुग्गी-झोंपड़ियों में बुरी दशाओं में रहने लगते हैं तो वे स्थानीय कामगारों पर बुरा प्रभाव डालते हैं तथा इस क्षेत्र में स्वास्थ्यकर वातावरण पर दुष्प्रभाव भी इन गंदी बस्तियों के कारण पड़ता है। फलतः स्थानीय लोग ऐसे अकुशल बाहरी कामगारों का विरोध करने लग जाते हैं।

प्रवासी लोगों का स्थानीय अर्थव्यवस्था में योगदान: प्रवासी लोग अपने श्रम से स्थानीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं।

  1. प्रवासी लोग अन्य पेशों के बीच फेरी वाले, छोटे व्यापारी, सफाईकर्मी या घरेलू नौकर, नल ठीक करने वाले या मिस्त्री होते हैं।
  2. ये लोग बेंत बुनाई या कपड़ा रंगाई – छपाई या सिलाई जैसे छोटे-छोटे कारोबार भी चलाते हैं।
  3. प्रवासी लोगों को सफाई या जलापूर्ति जैसी सुविधाएँ मुहैया करने पर कोई भी शहर अपेक्षाकृत कम खर्च करता है।
  4. बाहर से आने वाले उद्योगपति या पूँजीपति उस क्षेत्र में कारखाने स्थापित कर आर्थिक विकास तथा व्यापारिक गतिविधियों में वृद्धि करते हैं, इससे उस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का विकास होता है।
  5. एक नया कारखाना क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में भी वृद्धि करता है।
  6. इससे क्षेत्र में कुशल तथा अकुशल दोनों प्रकार के कामगारों की आपूर्ति होती है । वे कठिन परिश्रम कर स्थानीय लोगों में भी कठिन परिश्रम कर प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ाते हैं।

प्रश्न 6.
भारत जैसे समान नागरिकता वाले देशों में भी लोकतांत्रिक नागरिकता एक पूर्ण स्थापित तथ्य नहीं वरन् एक परियोजना है। नागरिकता से जुड़े उन मुद्दों की चर्चा कीजिये जो आजकल भारत में उठाये जा रहे हैं।
उत्तर:
भारत में लोकतांत्रिक नागरिकता एक परियोजना है- भारत स्वयं को धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र- राज्य कहता है। भारतीय संविधान ने बहुत ही विविधतापूर्ण समाज को समायोजित करने की कोशिश की है; जैसे इसने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे भिन्न-भिन्न समुदायों, पूर्व में समान अधिकार से वंचित रही महिलाएँ, आधुनिक सभ्यता के साथ माकूल सम्पर्क रखने वाले अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के कुछ सुदूरवर्ती समुदायों और कई अन्य समुदायों को पूर्ण और समान नागरिकता देने का प्रयास किया है। इसने देश के विभिन्न हिस्सों में प्रचलित विभिन्न भाषाओं, धर्म और रिवाजों की पहचान बनाए रखने का प्रयास किया है। इसने संविधान के माध्यम से लोगों को उनकी निजी आस्था, भाषा या सांस्कृतिक रिवाजों को छोड़ने के लिए बाध्य किए बिना सभी को समान अधिकार उपलब्ध कराना है।

संविधान में नागरिकता सम्बन्धी प्रावधान:
नागरिकता से सम्बन्धित प्रावधानों का उल्लेख संविधान के दूसरे भाग और संसद द्वारा बाद में पारित कानूनों में हुआ है। संविधान ने लोकतांत्रिक और समावेंशी धारणा को अपनाया है। भारत में जन्म, वंश-परम्परा, पंजीकरण, देशीकरण या किसी भू-क्षेत्र के राजक्षेत्र में शामिल होने से नागरिकता हासिल की जा सकती है। संविधान में नागरिकों के अधिकार और दायित्व दर्ज हैं। यह प्रावधान भी है कि राज्य केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के भी आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव नहीं करेगा। इसमें धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों के अधिकारों को भी संरक्षित किया गया है।

संविधान के प्रावधानों से संघर्ष और विवादों की उत्पत्ति:
संविधान में नागरिकता सम्बन्धी उक्त प्रावधानों ने भी संघर्ष और विवादों को जन्म दिया है। महिला आन्दोलन, दलित आन्दोलन या विकास योजनाओं से विस्थापित लोगों का संघर्ष ऐसे लोगों द्वारा चलाया जा रहा है, जो मानते हैं कि उनकी नागरिकता को पूर्ण अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। भारत के उक्त अनुभव से संकेत मिलते हैं कि किसी देश में लोकतांत्रिक नागरिकता एक परियोजना या लक्ष्य सिद्धि का एक आदर्श है। जैसे-जैसे समाज बदल रहे हैं, वैसे-वैसे नित नए मुद्दे उठाये जा रहे हैं और वे समूह नई मांगें पेश कर रहे हैं जिन्हें लगता है कि वे हाशिये पर ठेले जा रहे हैं। जैसे शहरों में झोंपड़पट्टियों या फुटपाथ पर रहने वाले लोगों द्वारा आश्रय के अधिकार के तहत वैकल्पिक जगह उपलब्ध कराने की मांग, देश के विकास को खतरे में डाले बिना आदिवासियों के रहवास की सुरक्षा की मांग आदि।

नागरिकता JAC Class 11 Political Science Notes

→ नागरिकता का अर्थ तथा परिभाषा: नागरिकता एक राजनैतिक समुदाय की सम्पूर्ण और समान सदस्यता है।
नागरिकता राज्यसत्ता और उसके सदस्यों के बीच सम्बन्धों के निरूपण के रूप में समकालीन विश्व में: राष्ट्रों ने अपने सदस्यों को एक सामूहिक राजनीतिक पहचान के साथ-साथ कुछ अधिकार भी प्रदान किये हैं। इसलिए हम संबद्ध राष्ट्र के आधार पर अपने को भारतीय, जापानी या जर्मन मानते हैं । नागरिक अपने राष्ट्र से कुछ बुनियादी अधिकारों के अलावा कहीं भी यात्रा करने में सहयोग और सुरक्षा की अपेक्षा रखते हैं।

नागरिकों को प्रदत्त अधिकार: नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों की सुस्पष्ट प्रकृति विभिन्न राष्ट्रों में भिन्न-भिन्न हो सकती है, लेकिन अधिकतर लोकतांत्रिक देशों ने आज उनमें से कुछ राजनैतिक अधिकार शामिल किये हैं। यथा मतदान का अधिकार, अभिव्यक्ति या आस्था की स्वतंत्रता जैसे नागरिक अधिकार और न्यूनतम मजदूरी तथा शिक्षा पाने से जुड़े कुछ सामाजिक-आर्थिक अधिकार। अधिकारों और प्रतिष्ठा की समानता नागरिकता के बुनियादी अधिकारों में से एक है। नागरिक आज जिन अधिकारों का प्रयोग करते हैं, उन सभी को संघर्ष के बाद हासिल किया गया है। पूर्ण सदस्यता और समान अधिकार पाने का संघर्ष विश्व के कई हिस्सों में आज भी जारी है।

→ नागरिकता नागरिकों के आपसी सम्बन्धों के निरूपण के रूप में: नागरिकता सिर्फ राज्य सत्ता और उसके सदस्यों के बीच के सम्बन्धों का निरूपण ही नहीं बल्कि यह नागरिकों के आपसी सम्बन्धों का निरूपण भी है। इसमें नागरिकों के एक-दूसरे के प्रति और समाज के प्रति निश्चित दायित्व शामिल हैं। इनमें सिर्फ राष्ट्र द्वारा थोपी गई कानूनी बाध्यताएँ नहीं, बल्कि समुदाय के सहजीवन में भागीदार होने और योगदान करने का नैतिक दायित्व भी शामिल होता है।

→ सम्पूर्ण और समान सदस्यता:
सम्पूर्ण और समान सदस्यता का असली अर्थ क्या है? ( अ ) क्या इसका अर्थ यह होता है कि नागरिकों को देश में जहाँ भी चाहें रहने, पढ़ने या काम करने का समान अधिकार और अवसर मिलना चाहिए? (ब) क्या इसका अर्थ यह है कि सभी अमीर-गरीब नागरिकों को कुछ बुनियादी अधिकार और सुविधाएँ मिलनी चाहिए? यथा-

(अ) भारत में तथा अन्य देशों में नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों में एक है। गमनागमन की स्वतंत्रता यह अधिकार कामगारों के लिए विशेष महत्त्व का है। गृह क्षेत्र में रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं होने पर कामगार रोजगार की तलाश में देश के दूसरे क्षेत्रों में जाते हैं। इससे अधिक संख्या में रोजगार बाहर के लोगों के हाथ में जाने के खिलाफ स्थानीय लोगों में प्रतिरोध की भावना पैदा हो जाती है और कुछ नौकरियों या कामों को राज्य के मूल निवासियों या स्थानीय भाषा को जानने वाले लोगों तक सीमित रखने की मांग उठती है। राजनीतिक दल यह मुद्दा उठाते हैं और यह प्रतिरोध ‘बाहरी लोगों के खिलाफ’ संगठित हिंसा का भी रूप ले लेता है। भारत के लगभग सभी क्षेत्र इस तरह के आन्दोलन से गुजर चुके हैं। तो क्या गमनागमन की स्वतंत्रता में देश के किसी भी हिस्से में काम करने या बसने का अधिकार शामिल है?

(ब) क्या सम्पूर्ण और समान सदस्यता का यह अर्थ है कि सभी गरीब और अमीर नागरिकों को कुछ बुनियादी और समान सुविधाएँ मिलनी चाहिए? कभी-कभी गरीब प्रवासी और कुशल प्रवासी को लेकर हमारी प्रतिक्रिया में अन्तर होता है। हम प्रायः गरीब और अकुशल प्रवासियों को उस तरह स्वागत योग्य नहीं मानते, जिस तरह कुशल और दौलतमंद कामगारों को मानते हैं। इससे लगता है कि गरीब कामगारों को देश में कहीं भी रहने और काम करने का समान अधिकार नहीं है।

इन्हीं दोनों मुद्दों पर आज हमारे देश में बहस जारी है। यद्यपि नागरिक समूह बनाकर, प्रदर्शन कर, मीडिया का उपयोग कर, राजनीतिक दलों से अपील कर या अदालत में जाकर जनमत और सरकारी नीतियों के परखने और प्रभावित करने के लिए स्वतंत्र हैं। अदालतें उस पर निर्णय दे सकती हैं या समाधान हेतु सरकार से आग्रह कर सकती हैं। यह धीमी प्रक्रिया है, लेकिन इससे कई बार न्यूनाधिक सफलताएँ संभव हैं। इसके समाधान हेतु हमें बल प्रयोग के स्थान पर वार्ता और विचार-विमर्श का रास्ता अपनाना चाहिए। यह नागरिकता के प्रमुख दायित्वों में से एक है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

→ समान अधिकार: क्या पूर्ण और समान नागरिकता का अर्थ यह है कि राजसत्ता द्वारा सभी नागरिकों को, चाहे वे अमीर या गरीब हों, कुछ बुनियादी अधिकारों और न्यूनतम जीवन स्तर की गारंटी दी जानी चाहिए? भारत के हर शहर में गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों की समस्याएँ शहर के अन्य लोगों से भिन्न हैं। इसी प्रकार हमारे यहाँ आदिवासियों की भी भिन्न समस्यायें हैं। उनकी जीवन-पद्धति और आजीविका खतरे में पड़ती जा रही है। इससे स्पष्ट होता है कि विभिन्न समूह के लोगों की जरूरत और समस्यायें अलग-अलग हो सकती हैं और एक समूह के अधिकार दूसरे समूह के अधिकारों के प्रतिकूल हो सकते हैं।

नागरिकों के लिए समान अधिकार का अर्थ यह नहीं होता कि सभी लोगों पर समान नीतियाँ लागू कर दी जाएँ क्योंकि विभिन्न समूह के लोगों की जरूरतें भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। यदि नागरिकता का प्रयोजन लोगों को अधिक बराबरी पर लाना है तो नीतियाँ तैयार करते समय लोगों की विभिन्न आवश्यकताओं और दावों का ध्यान रखना आवश्यक है। अतः नागरिकता से सम्बन्धित औपचारिक कानून प्रस्थान बिन्दु भर होते हैं और कानूनों की व्याख्या निरंतर विकसित होती है। सामान्य रूप से समान नागरिकता की अवधारणा का अर्थ यही है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार और सुरक्षा प्रदान करना सरकारी नीतियों का मार्गदर्शन सिद्धान्त हो।

→ नागरिक और राष्ट्र:
राष्ट्र राज्य और नागरिकता: राष्ट्र राज्य की अवधारणा आधुनिक काल में विकसित हुई है। राष्ट्र-राज्यों का दावा है कि उनकी सीमाएँ सिर्फ राज्य क्षेत्र को नहीं, बल्कि एक अनोखी संस्कृति और साझा इतिहास को भी परिभाषित करती हैं। राष्ट्रीय पहचान को एक झंडा, राष्ट्रगान, राष्ट्रभाषा जैसे प्रतीकों से व्यक्त किया जा सकता है। एक लोकतांत्रिक राज्य की राष्ट्रीय पहचान में नागरिकों को ऐसी राजनीतिक पहचान देने की कल्पना होती है, जिसमें राज्य के सभी सदस्य भागीदार हो सकें। लेकिन व्यवहार में अधिकतर देश अपनी पहचान को इस तरह परिभाषित करने की ओर अग्रसर होते हैं, जो कुछ नागरिकों के लिए राष्ट्र के साथ अपनी पहचान कायम करना अन्यों की तुलना में आसान बनाता है।

यह राजसत्ता के लिए भी अन्यों की तुलना में कुछ लोगों को नागरिकता देना आसान कर देता है। उदाहरण के लिए फ्रांस, धर्मनिरपेक्ष और समावेशी होने का दावा करता है लेकिन वह सार्वजनिक जीवन में फ्रांसीसी भाषा-संस्कृति से आत्मसात् होने में बल देता है। लेकिन अपनी पगड़ी पहनने के कारण सिक्ख छात्रों को और सिर पर दुपट्टा पहनने के कारण मुस्लिम लड़कियों को इसके साथ आत्मसात् होना कठिन हो जाता है, जबकि फ्रांसीसी राष्ट्रीय संस्कृति में शामिल होना दूसरे धर्मावलम्बियों के लिए अपेक्षाकृत आसान होता है। दूसरे, नागरिकता के लिए आवेदकों को अनुमति देने की कसौटी हर देश में भिन्न-भिन्न होती है। कुछ समूहों के लिए इनमें कुछ प्रतिषेध स्पष्टतः दिखाई देते हैं।
यथा

→ भारत में नागरिकता: भारत के संविधान ने नागरिकता की लोकतांत्रिक और समावेशी धारणा को अपनाया।

  • भारत में जन्म, वंश-परम्परा, पंजीकरण, देशीकरण या किसी भू-क्षेत्र के राज क्षेत्र में शामिल होने से नागरिकता हासिल की जा सकती है।
  • संविधान में नागरिकों के अधिकार और दायित्व दर्ज हैं।
  • संविधान में यह भी दर्ज है कि राज्य को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के भी आधार पर नागरिकों के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।
  • संविधान में धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों के अधिकारों को भी संरक्षित किया गया है।
  • इस तरह के समावेशी प्रावधानों ने भी संघर्ष और विवादों को जन्म दिया है। महिला आन्दोलन, दलित आन्दोलन या विकास योजनाओं से विस्थापित लोगों का संघर्ष ऐसे लोगों द्वारा चलाए जा रहे संघर्षों के कुछ नमूने हैं, जो यह मानते हैं कि उनकी नागरिकता को पूर्ण अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि किसी देश में लोकतांत्रिक नागरिकता लक्ष्य-सिद्धि का एक आदर्श है। सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ कुछ समूह नयी मांगें उठाते हैं जिन पर खुले मस्तिष्क से बातचीत करनी होती है।

→ सार्वभौमिक नागरिकता:
हम प्राय: यह मान लेते हैं कि किसी देश की पूर्ण सदस्यता उन सबको उपलब्ध होनी चाहिए, जो सामान्यतया उस देश में रहते और काम करते हैं या जो नागरिकता के लिए आवेदन करते हैं। यद्यपि अनेक देश वैश्विक और समावेशी नागरिकता का समर्थन करते हैं लेकिन नागरिकता देने की शर्त भी निर्धारित करते हैं। ये शर्तें आमतौर पर देश के संविधान और कानूनों में लिखी होती हैं। अवांछित आगंतुकों, जैसे- शरणार्थियों को नागरिकता से बाहर रखने के लिए राज्य सत्ताएँ ताकत का प्रयोग करती हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

→ शरणार्थी समस्या: युद्ध, उत्पीड़न, अकाल या अन्य कारणों से लोग विस्थापित होते हैं। यदि कोई देश उन्हें स्वीकार करने के लिए राजी नहीं होता और वे घर नहीं लौट सकते तो वे राज्यविहीन या शरणार्थी कहे जाते हैं। वे शिविरों में या अवैध प्रवासी के रूप में रहने के लिए मजबूर हो जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने शरणार्थियों की जाँच करने और मदद करने के लिए उच्चायुक्त नियुक्त किया है।

अनेक देशों ने युद्ध या उत्पीड़न से पलायन करने वाले लोगों को अंगीकार करने की नीति अपना रखी है। लेकिन वे भी ऐसे लोगों की अनियंत्रित भीड़ को स्वीकार करने या सुरक्षा के संदर्भ में देश को जोखिम में डालना नहीं चाहेंगे। अतः इनमें से कुछ को ही नागरिकता प्राप्त होती है। ऐसी समस्याएँ लोकतांत्रिक नागरिकता के उस वायदे को चुनौती देती हैं जो यह कहता है कि समकालीन विश्व में सभी लोगों को नागरिक की पहचान और अधिकार उपलब्ध होने चाहिए।
राज्यहीन लोगों का सवाल आज विश्व के लिए गंभीर समस्या बन गया है। राष्ट्रों की सीमाएँ अभी भी युद्ध या राजनीतिक विवादों के जरिए पुनर्परिभाषित की जा रही हैं। राज्यहीन लोगों को आज किस तरह की राजनैतिक पहचान दी जा सकती है? क्या हमें राष्ट्रीय नागरिकता से अधिक सच्ची वैश्विक पहचान हेतु विश्व नागरिकता की धारणा विकसित की जानी चाहिए।

→ विश्व नागरिकता के समर्थन में तर्क:

→ वर्तमान काल में संचार के नए तरीकों ने विश्व के विभिन्न हिस्सों की हलचलों को हमारे तत्काल सम्पर्क के दायरे में ला दिया है। इसलिए चाहे विश्व – कुटुम्ब और वैश्विक समाज अभी विद्यमान नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार आज परस्पर जुड़ा महसूस करते हैं। विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के पीड़ितों की सहायता के लिए विश्व के सभी हिस्सों से उमड़ा भावोद्गार विश्व-समाज के उभार के संकेत हैं। अतः इस भावना को और मजबूत करते हुए विश्व नागरिकता की अवधारणा की दिशा में सक्रिय होना चाहिए।

→ मानवाधिकार की अवधारणा के विकास के साथ-साथ विश्व: नागरिकता की अवधारणा की ओर बढ़ने का समय आ गया है।

→ विश्व: नागरिकता की अवधारणा से राष्ट्रीय सीमाओं के दोनों ओर की उन समस्याओं का मुकाबला करना आसान हो सकता है जिसमें कई देशों की सरकारें और लोगों की संयुक्त कार्यवाही जरूरी होती है।

→ विश्व: नागरिकता की अवधारणा राष्ट्रीय नागरिकता को इस समझदारी से जोड़ने का प्रयास करती है कि हम विश्व के विभिन्न हिस्सों के लोगों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करें।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 अधिकार

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पृष्ठ 72

प्रश्न 1.
समूह या समुदाय विशेष को दिए गए निम्न अधिकारों में से कौन-से न्यायोचित हैं? चर्चा कीजिए
(अ) एक शहर में जैन समुदाय के लोगों ने अपना विद्यालय खोला और उसमें केवल अपने समुदाय के छात्र – छात्राओं को ही प्रवेश दिया।
(ब) हिमाचल प्रदेश में वहाँ के स्थायी निवासियों के अलावा बाकी लोग जमीन या अन्य अचल सम्पत्ति नहीं खरीद सकते।
(स) एक सह शिक्षा विद्यालय के प्रधानाध्यापक ने एक सर्कुलर जारी किया कि कोई भी छात्रा किसी भी प्रकार का पश्चिमी परिधान नहीं पहनेगी।
(द) हरियाणा की एक पंचायत ने निर्णय दिया कि अलग-अलग जातियों के जिस लड़के और लड़की ने शादी कर ली थी, वे अब गांव में नहीं रहेंगे।
उत्तर:
समूह का समुदाय विशेष को दिए गए उपर्युक्त अधिकारों में से (ब) न्यायोचित है।

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प्रश्न 1.
अधिकार क्या हैं और वे महत्त्वपूर्ण क्यों हैं? अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
अधिकार से आशय:
अधिकार व्यक्ति के वे दावे हैं, जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हो तथा राज्य द्वारा संरक्षण प्राप्त हो। एक नागरिक, व्यक्ति और मनुष्य होने के नाते अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज के समक्ष कुछ मांगें (दावे) प्रस्तुत करते हैं और शेष समाज सामाजिक हित की दृष्टि से व्यक्ति की उन माँगों को मान्यता प्रदान कर देता है तो वे मांगें या दावे अधिकार कहलाते हैं। समाज में इन अधिकारों को कार्यान्वित करने के लिए कानूनी मान्यता की भी आवश्यकता होती है। अतः अधिकार राज्य के संरक्षण के बिना प्रभावहीन हैं। इसलिए वास्तविक अर्थों में अधिकार के लिए व्यक्ति की मांगों को समाज द्वारा मान्यता तथा राज्य का संरक्षण आवश्यक होता है।

प्रो. अर्नेस्ट बार्कर ने कहा है कि ” अधिकार राज्य द्वारा संरक्षित उस क्षमता का नाम है जिससे समाज में मुझे एक विशिष्ट स्थिति मिली होती है। अधिकार वे कानूनी परिस्थितियाँ हैं जो व्यक्ति को कुछ कार्यों को करने की स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं। “वाइल्ड के अनुसार, “कुछ विशेष कार्यों को करने की स्वतंत्रता की विवेकपूर्ण माँग को अधिकार कहा जाता है।” इस प्रकार अधिकार ऐसी अनिवार्य परिस्थितियाँ हैं जो मानवीय विकास हेतु जरूरी हैं। वह व्यक्ति की माँग तथा उसका हक है, जिसे समाज, राज्य तथा कानून भौतिक मान्यता देते हुए उसकी रक्षा करते हैं।

अधिकार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं? अधिकार निम्नलिखित दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

  1. अधिकार लोगों के सम्मान और गरिमा का जीवन बसर करने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
  2. अधिकार हमारी दक्षता और प्रतिभा के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
  3. अधिकार सरकार को निरंकुश बनने से रोकते हैं
  4. अधिकार सामाजिक कल्याण का एक साधन हैं।

अधिकारों का दावा करने के लिए उपयुक्त आधार; अधिकारों का दावा करने के लिए निम्नलिखित उपयुक्त आधार हो सकते हैं:
1. हमारे सम्मान और गरिमा का आधार:
अधिकारों की दावेदारी का पहला आधार यह है कि अधिकार उन बातों का द्योतक है, जिन्हें मैं और अन्य लोग सम्मान और गरिमा का जीवन बसर करने के लिए आवश्यक समझते हैं। उदाहरण के लिए, आजीविका का अधिकार सम्मानजनक जीवन जीने के लिए जरूरी है। लाभकर रोजगार में नियोजित होना व्यक्ति को आर्थिक स्वतंत्रता देता है, इसीलिए यह उसकी गरिमा के लिए प्रमुख है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार हमें सृजनात्मक और मौलिक होने का मौका देता है।

2. हमारी बेहतरी का आधार:
अधिकारों की दावेदारी का दूसरा आधार यह है कि वे हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं। ये लोगों को उनकी दक्षता और प्रतिभा विकसित करने में सहयोग देते हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षा का अधिकार हमारी तर्क शक्ति विकसित करने में मदद करता है, हमें उपयोगी कौशल प्रदान करता है और जीवन में सूझ- बूझ के साथ चयन करने में सक्षम बनाता है। व्यक्ति के कल्याण के लिए इस हद तक शिक्षा को अनिवार्य समझा जाता है कि उसे सार्वभौमिक अधिकार माना गया है।

अगर कोई मांग या दावा हमारे स्वास्थ्य और कल्याण के लिए हानिकारक है, तो उसे अधिकार नहीं माना जा सकता। उदाहरण के लिए, चूंकि नशीली दवाएँ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं तथा ये अन्यों के साथ हमारे सम्बन्धों पर बुरा प्रभाव डालती हैं, इसलिए हम यह दावा नहीं कर सकते कि हमें नशीले पदार्थों के सेवन करने का अधिकार होना चाहिए। नशीले पदार्थ न केवल हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाते हैं, बल्कि वे कभी-कभी हमारे आचरण के रंग-ढंग को बदल देते हैं और हमें अन्य लोगों के लिए खतरा करार देते हैं। अतः धूम्रपान करने या प्रतिबंधित दवाओं के सेवन को अधिकार के रूप में मान्य नहीं किया जा सकता।

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प्रश्न 2.
किन आधारों पर अधिकार अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक माने जाते हैं?
उत्तर:
अधिकारों की सार्वभौमिक प्रकृति के आधार: निम्नलिखित दो आधारों पर अधिकार अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक माने जाते हैं।
(अ) प्राकृतिक अधिकारों का विचार
(ब) मानवाधिकार

(अ) प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धान्त:
17वीं तथा 18वीं शताब्दी में राजनीतिक सिद्धान्तकार यह तर्क देते थे कि हमारे लिए अधिकार प्रकृति या ईश्वर प्रदत्त हैं। हमें जन्म से अधिकार प्राप्त हैं। अतः कोई व्यक्ति या शासक उन्हें हमसे छीन नहीं सकता। उन्होंने मनुष्य के तीन प्राकृतिक अधिकार चिन्हित किये  जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार और सम्पत्ति का अधिकार अन्य सभी अधिकार इन मूलभूत अधिकारों से ही निकले हैं। ये अधिकार हमें व्यक्ति होने के नाते प्राप्त हैं, क्योंकि ये ईश्वर प्रदत्त हैं। इसलिए ये अपनी प्रकृति में सार्वभौमिक प्राकृतिक अधिकारों के विचार का प्रयोग राज्यों अथवा सरकारों के द्वारा स्वेच्छाचारी शक्ति के प्रयोग का विरोध करने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए किया जाता था।

(ब) मानवाधिकार:
वर्तमान में प्राकृतिक अधिकार शब्द से ज्यादा मानवाधिकार शब्द का प्रयोग हो रहा है, क्योंकि अधिकारों के प्राकृतिक या ईश्वर प्रदत्त होने का विचार आज अस्वीकार्य लग रहा है। आजकल अधिकारों को ऐसी गारंटियों के रूप में देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है जिन्हें मनुष्य ने एक अच्छा जीवन जीने के लिए स्वयं ही खोजा या पाया है। मानव अधिकारों के पीछे यह मान्यता है कि सभी लोग, मनुष्य होने मात्र से कुछ चीजों को पाने के अधिकारी हैं। एक मानव के रूप में प्रत्येक मनुष्य समान महत्त्व का है अर्थात् एक आंतरिक दृष्टि से सभी मनुष्य समान हैं और कोई भी व्यक्ति दूसरों का नौकर होने के लिए पैदा नहीं हुआ है। इसलिए सभी मनुष्यों को स्वतंत्र रहने और अपनी पूरी संभावना को साकार करने का समान अवसर मिलना चाहिए।

अधिकारों की इसी समझदारी पर संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकारों का सार्वभौम घोषणा पत्र बना है। इस विचार का प्रयोग नस्ल, जाति, धर्म, लिंग पर आधारित विद्यमान असमानताओं को चुनौती देने के लिए किया जाता रहा है। पूरी दुनिया के उत्पीड़ित मनुष्य सार्वभौम मानवाधिकार की अवधारणा का इस्तेमाल उन कानूनों को चुनौती देने के लिए कर रहे हैं जो उन्हें पृथक करने वाले और समान अवसरों तथा अधिकारों से वंचित करते हैं। विविध समाजों में ज्यों-ज्यों नये खतरे और चुनौतियाँ उभरती आई हैं, त्यों-त्यों उन मानवाधिकारों की सूची लगातार बढ़ती गई है, जिनका लोगों ने दावा किया है।

जैसे पर्यावरण की सुरक्षा की आवश्यकता ने स्वच्छ हवा, शुद्ध पानी, टिकाऊ विकास जैसे अधिकारों की माँग पैदा की है। इसी प्रकार युद्ध या प्राकृतिक संकट के दौरान महिलाओं व बच्चों की समस्याओं ने आजीविका के अधिकार, बच्चों के अधिकार जैसे अधिकारों की मांग भी पैदा की है। ये दावे मानव गरिमा के अतिक्रमण के प्रति नैतिक आक्रोश का भाव व्यक्त करते हैं और वे समस्त मानव समुदाय हेतु अधिकारों के प्रयोग और विस्तार के लिए लोगों से एकजुट होने का आह्वान करते हैं।

प्रश्न 3.
संक्षेप में उन नए अधिकारों की चर्चा कीजिए जो हमारे देश के सामने रखे जा रहे हैं। उदाहरण के लिए आदिवासियों के अपने रहवास और जीने के तरीके को संरक्षित रखने तथा बच्चों के बंधुआ मजदूरी के खिलाफ अधिकार जैसे नये अधिकारों को लिया जा सकता है।
उत्तर:
भारत में संविधान द्वारा नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किये गये हैं। ये मौलिक अधिकार बाकी सारे अधिकारों के स्रोत हैं। हमारा संविधान और हमारे कानून हमें और बहुत सारे अधिकार देते हैं और साल दर साल अधिकारों का दायरा बढ़ता गया है। यथा
1. समय-समय पर अदालतों ने ऐसे फैसले दिये हैं जिनसे अधिकारों का दायरा बढ़ा है। प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार, सूचना का अधिकार और शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकारों के ही विस्तार हैं। अब स्कूली शिक्षा हर भारतीय का अधिकार बन चुकी है। 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दिलाना सरकार की जिम्मेदारी है। संसद ने नागरिकों को सूचना का अधिकार देने वाला कानून भी पारित कर दिया है जो कि विचारों और . अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत ही है। हमें सरकारी दफ्तरों से सूचना मांगने और पाने का अधिकार है।

2. सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन के अधिकार को नया विस्तार देते हुए उसमें भोजन के अधिकार को भी शामिल कर दिया है।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार के अन्तर्गत बेगार प्रथा का निषेध किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने बेगार प्रथा के अन्तर्गत ही ‘बंधुआ मजदूरी प्रथा’ को भी अन्तर्निहित किया है और बंधुआ मजदूरी का भी निषेध किया है। इसके अन्तर्गत ही बच्चों की बंधुआ मजदूरी के खिलाफ अधिकार निहित है तथा सभी प्रकार की बंधुआ मजदूरी को अवैध घोषित कर दिया गया है तथा उसके विरुद्ध अधिकार प्रदान किया गया है। लोकहित याचिकाओं के माध्यम से यह अधिकार प्रभावी बनाया गया है।

4. आदिवासियों को भी अपने रहने और जीने के तरीके संरक्षित रखने के अधिकार को संस्कृति के अधिकार के. तहत लिया जा सकता है। इस प्रकार हमारे देश के सामने अनेक नये अधिकार रखे जा रहे हैं। इन अधिकारों की मांग या तो वंचित समुदाय अपने संघर्ष के द्वारा प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं या न्यायपालिका अपने निर्णयों द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अन्तर्निहित सिद्धान्त के द्वारा इनका विस्तार कर रहे हैं।

प्रश्न 4.
राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों में अंतर बताइये। हर प्रकार के अधिकार के उदाहरण भी दीजिये।
उत्तर:
राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकारों में अन्तर
1. राजनीतिक अधिकार:
राजनीतिक अधिकार नागरिकों के कानून के समक्ष बराबरी तथा राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी का हक देते हैं तथा ये नागरिक स्वतंत्रताओं से जुड़े होते हैं। इस प्रकार राजनीतिक अधिकार किसी सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली की बुनियाद का निर्माण करते हैं। राजनीतिक अधिकार सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाकर, शासकों की अपेक्षा लोगों के सरोकार को अधिक महत्त्व देकर तथा सभी लोगों के लिए सरकार के निर्णयों को प्रभावित करने का मौका सुनिश्चित करने में सहयोग करते हैं।

राजनीतिक अधिकारों के प्रमुख उदाहरण हैं। वोट देने और प्रतिनिधि चुनने, चुनाव लड़ने, राजनीतिक पार्टियाँ बनाने या उनमें शामिल होने का अधिकार; स्वतंत्रता व समानता का अधिकार, निष्पक्ष जांच का अधिकार, विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार तथा असहमति प्रकट करने तथा प्रतिवाद करने का अधिकार आदि।

2. आर्थिक अधिकार:
आर्थिक अधिकार वे होते हैं जो नागरिकों को बुनियादी जरूरतों – भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य आदि की जरूरतों की पूर्ति हेतु पर्याप्त मजदूरी और मेहनत की उचित परिस्थितियों जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराते हैं। राजनीतिक अधिकारों को पूरी तरह से व्यवहार में लाने के लिए बुनियादी जरूरतों की पूर्ति आवश्यक है। फुटपाथ पर रहने और बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए संघर्ष करने वालों के लिए अपने-आप में राजनीतिक अधिकार का कोई मूल्य नहीं है।
इस प्रकार राजनीतिक अधिकार जहाँ लोकतांत्रिक प्रणाली की नींव का निर्माण करते हैं, वहीं आर्थिक अधिकार उस नींव पर भव्य तथा रहने योग्य भवन का निर्माण करते हैं। प्रमुख आर्थिक अधिकार हैं। काम का अधिकार, न्यूनतम वेतन प्राप्त करने का अधिकार, समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार, अवकाश का अधिकार, प्रसूति अवकाश, आर्थिक सुरक्षा का अधिकार आदि।

3. सांस्कृतिक अधिकार:
लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आजकल राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के साथ नागरिकों के सांस्कृतिक अधिकारों को भी मान्यता दे रही हैं। सांस्कृतिक अधिकार से आशय है। अपनी भाषा और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने से संबंधित स्वतंत्रताएँ व सुविधायें प्राप्त करना। प्रमुख सांस्कृतिक अधिकार हैं। अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार, अपनी भाषा और संस्कृति के शिक्षण के लिए संस्थाएँ बनाने का अधिकार आदि। सांस्कृतिक अधिकार किसी समुदाय को बेहतर जिंदगी जीने के लिए आवश्यक माने जाते हैं।

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प्रश्न 5.
अधिकार राज्य की सत्ता पर कुछ सीमाएँ लगाते हैं। उदाहरण सहित व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
अधिकार और राज्य की सत्ता पर सीमाएँ: अधिकार राज्य से किये जाने वाले दावे हैं; इनके माध्यम से हम राज्य सत्ता से कुछ मांग करते हैं और राज्य की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उन अधिकारों को लागू करने के लिए आवश्यक उपायों का प्रवर्तन करे, जिससे हमारे अधिकारों की पूर्ति सुनिश्चित हो सके। लेकिन अधिकारों को लागू करने के सम्बन्ध में अधिकार राज्य की सत्ता पर अनेक सीमाएँ भी लगाते हैं। यथा।

1. प्रत्येक अधिकार निर्देशित करता है कि राज्य को क्या करना है।
अधिकार राज्य को कुछ खास तरीकों से काम करने के लिए वैधानिक दायित्व सौंपते हैं। प्रत्येक अधिकार निर्देशित करता है कि राज्य के लिए क्या करने योग्य है और क्या नहीं? उदाहरण के लिए, मेरा जीवन जीने का अधिकार राज्य को ऐसे कानून बनाने के लिए बाध्य करता है, जो दूसरों के द्वारा क्षति पहुँचाने से मुझे बचा सके। यह अधिकार राज्य से मांग करता है कि वह मुझे चोट या नुकसान पहुँचाने वालों को दंडित करे।

यदि कोई समाज महसूस करता है कि जीने के अधिकार का अर्थ अच्छे स्तर के जीवन का अधिकार है, तो वह राज्य सत्ता से ऐसी नीतियों के अनुपालन की अपेक्षा करता है, जो स्वस्थ जीवन के लिए स्वच्छ पर्यावरण और अन्य आवश्यक निर्धारकों का प्रावधान करे। इस प्रकार मेरा अधिकार यहाँ राजसत्ता पर यह सीमा लगाता है कि वह खास तरीके से काम करने के अपने वैधानिक दायित्व को पूरा करे।

2. अधिकार यह भी बताते हैं कि राज्य को क्या कुछ नहीं करना है।
अधिकार सिर्फ यह ही नहीं बताते कि राज्य को क्या करना है, वे यह भी बताते हैं कि राज्य को क्या कुछ नहीं करना है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार कहता है कि राज्यसत्ता महज अपनी मर्जी से उसे गिरफ्तार नहीं कर सकती। अगर वह किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है, तो उसे इस कार्रवाई को जायज ठहराना पड़ेगा और उसे किसी न्यायालय के समक्ष इस व्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करने का कारण बताना होगा। इसीलिए, मुझे पकड़ने से पहले गिरफ्तारी का वारंट दिखाना पुलिस के लिए आवश्यक होता है। इस प्रकार मेरे अधिकार राजसत्ता पर कुछ अंकुश भी लगाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि हमारे अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की सत्ता वैयक्तिक जीवन और स्वतंत्रता का उल्लंघन किये बगैर कार्य करे।

3. जनकल्याण की सीमा: हमारे अधिकार राज्य सत्ता पर जनकल्याण हेतु कार्य करने की सीमा भी लगाते हैं। राज्य संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न हो सकता है, उसके द्वारा निर्मित कानून बलपूर्वक लागू किये जा सकते हैं, लेकिन संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न राज्य का अस्तित्व अपने लिए नहीं, बल्कि व्यक्ति के हित के लिए होता है। इसमें जनता का ही अधिक महत्त्व है। इसलिए सत्तारूढ़ सरकार को उसके ही कल्याण के लिए काम करना होता है। शासक अपनी समस्त कार्यवाहियों के लिए जनता के प्रति जवाबदेह है। इसलिए उसे लोगों के अधिकारों के उपभोग की उचित परिस्थितियाँ पैदा करते हुए लोगों की भलाई सुनिश्चित करनी आवश्यक है।

अधिकार JAC Class 11 Political Science Notes

→ अधिकार क्या हैं?
अधिकार मूल रूप से व्यक्ति का ऐसा दावा है जिसका औचित्य सिद्ध हो तथा जिसे शेष समाज ऐसे वैध दावे के रूप में स्वीकार करे जिसका अनुमोदन अनिवार्य हो । अधिकारों की दावेदारी के दो प्रमुख आधार हैं। इसका पहला आधार यह है कि ये वे बातें या वे दावे या मांगें हैं, जिन्हें मैं और अन्य लोग सम्मान और गरिमा का जीवन बसर करने के लिए महत्त्वपूर्ण और आवश्यक समझते हैं और इसका दूसरा आधार यह है कि ये हमारी बेहतरी के लिए आवश्यक हैं। ये लोगों को उनकी दक्षता और प्रतिभा विकसित करने में सहयोग देते हैं।

→ अधिकार कहाँ से आते हैं?
प्राकृतिक अधिकारों की अवधारणा: 17वीं और 18वीं शताब्दी में राजनीतिक सिद्धान्तकारों का मत था कि हमारे लिए अधिकार प्रकृति या ईश्वर प्रदत्त हैं। ये जन्मजात हैं, कोई इन्हें हमसे छीन नहीं सकता। उन्होंने मनुष्य के तीन प्राकृतिक अधिकार चिन्हित किये थे। ये थे

  • जीवन का अधिकार
  • स्वतंत्रता का अधिकार और
  • संपत्ति का अधिकार अन्य तमाम अधिकार इन्हीं तीन अधिकारों से ही निकले हैं।

→ मानवाधिकार सम्बन्धी अवधारणा:
वर्तमान काल में मानवाधिकार शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके प्राकृतिक होने का विचार आज अस्वीकार्य लगता है। अधिकारों को ऐसी गारंटियों के रूप में देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है जिन्हें मनुष्य ने एक अच्छा जीवन जीने के लिए स्वयं ही खोजा या पाया है। मानव अधिकारों के पीछे मूल मान्यता यह है कि सभी लोग मनुष्य होने के नाते कुछ चीजों को पाने के अधिकारी हैं, जैसे उन्हें स्वतंत्र रहने तथा समान अवसर दिये जाने का अधिकार है।

संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकारों के सार्वभौमिक घोषणापत्र में उन मानव-अधिकारों का उल्लेख किया गया है जिन्हें विश्व सामूहिक रूप से गरिमा और आत्मसम्मान से परिपूर्ण जिंदगी जीने के लिए आवश्यक मानता है। विविध समाजों में ज्यों-ज्यों नए खतरे और चुनौतियाँ उभर रही हैं, त्यों-त्यों इन मानवाधिकारों की सूची निरन्तर बढ़ रही है।

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→ कानूनी अधिकार और राज्य सत्ता मानवाधिकारों के दावों की नैतिक अपील चाहे जितनी हो, उनकी सफलता की डिग्री कुछ कारकों पर निर्भर है। इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। सरकारों और कानून का समर्थन। यही कारण है कि अधिकारों की कानूनी मान्यता को इतना महत्त्व दिया जाता है। अनेक देशों में अधिकारों के विधेयक वहाँ के संविधान में प्रतिष्ठित रहते हैं। संविधान में उन अधिकारों का उल्लेख रहता है, जो बुनियादी महत्त्व के माने जाते हैं। अपने देश में इन्हें हम मौलिक अधिकार कहते हैं।

→ कानूनी और संवैधानिक मान्यता: अनेक सिद्धान्तकारों ने अधिकार को ऐसे दावों के रूप में परिभाषित किया है, जिन्हें राज्य मान्य किया हो। लेकिन कानूनी मान्यता के आधार पर किसी अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता, कानूनी मान्यता से हमारे अधिकारों को समाज में एक खास दर्जा अवश्य मिलता है। अधिकतर मामलों में अधिकार राज्य से किए जाने वाले दावे हैं। अधिकारों के माध्यम से हम राज्यसत्ता से कुछ माँग करते हैं। राज्य जब उन मांगों को सामाजिक हित की दृष्टि से मान्यता दे देते हैं और समाज उन्हें स्वीकार कर लेता है, तो वे मांगें अधिकार बन जाते हैं

  • अधिकार राज्य से किये जाने वाले दावे हैं। अधिकारों के माध्यम से हम राज्य सत्ता से कुछ मांग करते हैं। राज्य की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अधिकारों को प्रवर्तन में लाने के लिए आवश्यक उपाय करे।
  • अधिकार राज्य को कुछ खास तरीकों से कार्य करने के लिए वैधानिक दायित्व सौंपते हैं कि राज्य को क्या कुछ करना है और क्या कुछ नहीं करना है। दूसरे शब्दों में, अधिकार यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य की सत्ता वैयक्तिक जीवन और स्वतंत्रता की मर्यादा का उल्लंघन किये बिना काम करे अर्थात् उसके द्वारा निर्मित कानून जनता के हित के लिए हों और शासक अपनी कार्यवाहियों के लिए जवाबदेह हो।

→ अधिकारों के प्रकार अधिकारों के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं।

  • राजनीतिक अधिकार: राजनीतिक अधिकार नागरिकों को कानून के समक्ष बराबरी और राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी का हक देते हैं। इनमें मत देने, प्रतिनिधि चुनने, चुनाव लड़ने, राजनैतिक दल बनाने या उनमें शामिल होने जैसे अधिकार शामिल हैं। राजनीतिक अधिकार नागरिक स्वतंत्रताओं से जुड़े होते हैं; जैसे- स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायिक जाँच का अधिकार, विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार, प्रतिवाद करने तथा असहमति प्रकट करने का अधिकार।
  • आर्थिक अधिकार: भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, बेरोजगारी भत्ता आदि सुविधाएँ अपनी बुनियादी करने के लिए दी जाती हैं।
  • सांस्कृतिक अधिकार: अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा पाने का अधिकार, अपनी भाषा और संस्कृति के शिक्षण के लिए संस्थाएँ बनाने का अधिकार।
  • बुनियादी अधिकार: ुछ अधिकार जैसे जीने का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, समान व्यवहार का अधिकार और राजनीतिक भागीदारी का अधिकार बुनियादी (मूल) अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त हैं।

→ अधिकार और जिम्मेदारियाँ अधिकार न केवल राज्य पर जिम्मेदारी डालते हैं कि वह खास तरीके से काम करे बल्कि ये नागरिकों पर भी निम्नलिखित जिम्मेदारियाँ डालते हैं।

→ अधिकार हमें बाध्य करते हैं कि हम कुछ ऐसी चीजों की भी रक्षा करें, जो हम सबके लिए हितकर हैं; जैसे  वायु और जल प्रदूषण कम से कम करना, नए वृक्ष लगाना आदि।

→ अधिकार यह अपेक्षा करते हैं कि मैं अन्य लोगों के अधिकारों का सम्मान करूँ। अर्थात् मेरे अधिकार सब के लिए बराबर और एक ही अधिकार के सिद्धान्त से सीमाबद्ध हैं। टकराव की स्थिति में हमें अपने अधिकारों को संतुलित करना होता है।

→ नागरिकों को अपने अधिकारों पर लगाए जाने वाले नियंत्रण के बारे में चौकस रहना होगा। यह देखना आवश्यक है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नागरिक स्वतंत्रताओं पर थोपे गए प्रतिबन्ध अपने आप में लोगों के अधिकारों के लिए खतरा न बन जाएँ क्योंकि इनका आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है। इसलिए हमें अपने और दूसरों के अधिकारों की रक्षा में सतर्क व जागरूक रहना चाहिए क्योंकि ये लोकतांत्रिक समाज की नींव का निर्माण करते हैं।

→ मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा की प्रस्तावना
10 दिसम्बर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को स्वीकार किया और लागू किया। इसमें सभी सदस्य देशों से मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के पाठ को प्रचारित करने का आह्वान किया गया है। इस घोषणा में मानव की गरिमा और समानता पर बल देते हुए भाषण तथा विश्वास की स्वतंत्रता, विधि का शासन, राष्ट्रों के मध्य मित्रतापूर्ण संबंधों की स्थापना, पुरुषों तथा महिलाओं के प्रति समान अधिकारों के प्रति विश्वास तथा मानव अधिकारों और मूल स्वतंत्रताओं के विश्वस्तर पर सम्मान और अनुपालन को प्रोत्साहित किया गया है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

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Jharkhand Board Class 11 Political Science सामाजिक न्याय InText Questions and Answers

पृष्ठ 56

प्रश्न 1.
नीचे दी गई स्थितियों की जांच करें और बताएँ कि क्या वे न्यायसंगत हैं। अपने तर्क के साथ यह भी बताएँ कि प्रत्येक स्थिति में न्याय का कौनसा सिद्धान्त काम कर रहा है।
(अ) एक दृष्टिहीन छात्र सुरेश को गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए साढ़े तीन घंटे मिलते हैं, जबकि अन्य सभी छात्रों को केवल तीन घंटे।
(ब) गीता बैसाखी की सहायता से चलती है। अध्यापिका ने गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए उसे साढ़े तीन घंटे का समय देने का निश्चय किया।
(स) एक अध्यापक कक्षा के कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने के लिए कुछ अतिरिक्त अंक देता है।
(द) एक प्रोफेसर अलग-अलग छात्राओं को उनकी क्षमताओं के मूल्यांकन के आधार पर अलग-अलग प्रश्न-पत्र बाँटता है।
(य) संसद में एक प्रस्ताव विचाराधीन है कि संसद की कुल सीटों में से एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाएं।
उत्तर:
(अ) ” एक दृष्टिहीन छात्र सुरेश को गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए साढ़े तीन घंटे मिलते हैं, जबकि अन्य सभी छात्रों को केवल तीन घंटे।” हाँ, यह स्थिति न्यायसंगत है। इस स्थिति में न्याय का विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त काम कर रहा है। लोगों की विशेष जरूरतों को ध्यान में रखने का सिद्धान्त समान बरताव के सिद्धान्त का विस्तार ही करता है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाये। प्रस्तुत स्थिति में दृष्टिहीन छात्र सुरेश दृष्टि वाले छात्रों के समान नहीं है, इसलिए उसे प्रश्नपत्र’ हल करने के लिए 3 घंटे के स्थान पर साढ़े तीन घंटे का समय दिया जाना न्यायसंगत है।

(ब) ” गीता बैसाखी की सहायता से चलती है। अध्यापिका ने गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए उसे साढ़े तीन घंटे का समय देने का निश्चय किया। ” यह स्थिति न्यायसंगत नहीं है क्योंकि यह न्याय के समान लोगों के प्रति समान बरताव के सिद्धान्त का उल्लंघन है। गीता का बैसाखी से चलना, परीक्षा हाल में प्रश्नपत्र हल करने के प्रसंग में ‘विशेष जरूरत के विशेष ख्याल’ के सिद्धान्त की आवश्यकता पैदा नहीं करता है; बल्कि वह अन्य छात्रों की तरह ही समान स्थिति में है। ऐसी स्थिति में साढ़े तीन घंटे देना न्यायसंगत नहीं ठहरता।

(स) “एक अध्यापक कक्षा के कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने के लिए कुछ अतिरिक्त अंक देता है।” कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने की दृष्टि से कुछ अतिरिक्त अंक देना न्यायसंगत है। इसमें न्याय के विशेष जरूरतों के विशेष ख्याल का सिद्धान्त काम कर रहा है।

(द) “एक प्रोफेसर अलग-अलग छात्राओं को उनकी क्षमताओं के मूल्यांकन के आधार पर अलग-अलग प्रश्न- पत्र बाँटता है।” यह स्थिति न्यायसंगत नहीं है। इसमें न्याय के समान लोगों के साथ समान लोगों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें काम और कार्यकलापों के आधार पर जांचा जाना चाहिए। छात्राओं को प्रतिफल उनकी क्षमता के अनुसार समान आधार पर ही किया जाना आवश्यक है।

(य) “संसद में,एक प्रस्ताव विचाराधीन है कि संसद की कुल सीटों में से एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाएँ।” यह स्थिति न्यायसंगत है तथा इसमें न्याय का विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त काम कर रहा है।

Jharkhand Board Class 11 Political Science सामाजिक न्याय Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का क्या मतलब है? हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ कैसे बदला?
उत्तर:
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने से आशय:
न्याय में सभी लोगों की भलाई निहित रहती है। एक न्यायसंगत शासक या सरकार को भी न्याय हेतु जनता की भलाई की चिन्ता करनी होगी। जनता की भलाई की सुनिश्चितता में हर व्यक्ति को उसका उचित हिस्सा देना शामिल है। इस प्रकार न्याय में हर व्यक्ति को उसका उचित हिस्सा देना शामिल है। इसी को कहा जाता है कि हर व्यक्ति को उसका प्राप्य दिया जाये, यही न्याय है। प्राचीन काल से लेकर आज तक यह न्याय हमारी समझ का महत्त्वपूर्ण अंग बना हुआ है।

लेकिन प्राचीन समय से लेकर अब तक इस धारणा में कुछ परिवर्तन आए हैं। उदाहरण के लिए प्राचीन काल में प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का अर्थ था – व्यक्ति के गलत कार्य पर उसे सजा दी जाये और उसके अच्छे कार्य के लिए उसे पुरस्कृत किया जाये। लेकिन आधुनिक समय में प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का अर्थ यह लिया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हो। न्याय के लिए यह आवश्यक है कि हम सभी व्यक्तियों को समुचित और बराबर का महत्त्व दें।

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प्रश्न 2.
अध्याय में दिये गये न्याय के तीन सिद्धान्तों की संक्षेप में चर्चा करें। प्रत्येक को उदाहरण के साथ समझाइये।
उत्तर:
न्याय के सिद्धान्त अध्याय में न्याय के जो तीन सिद्धान्त दिये गये हैं वे निम्नलिखित हैं।
1. समान लोगों के प्रति समान व्यवहार:
न्याय का पहला सिद्धान्त यह है कि समकक्षों के साथ समान व्यवहार किया जाये। माना जाता है कि मनुष्य होने के नाते सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसलिए वे समान अधिकार और समान व्यवहार के अधिकारी हैं। उदाहरण के लिए, आज अधिकांश उदारवादी जनतंत्रों में सभी नागरिकों को समान मूल अधिकार व राजनैतिक अधिकार, जैसे- स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार, मताधिकार, जीवन का अधिकार आदि दिये गये हैं। ये अधिकार सभी व्यक्तियों को राजनीतिक प्रक्रियाओं में भागीदार बनाते हैं।

समान अधिकारों के अतिरिक्त समकक्षों के साथ समान व्यवहार के सिद्धान्त के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाये। उन्हें उनके काम और कार्यकलापों के आधार पर जांचा जाना चाहिए, इस आधार पर नहीं कि वे किस समुदाय के सदस्य हैं। उदाहरण के लिए, अगर भिन्न जातियों के दो व्यक्ति एक ही काम करते हैं, जैसे- शिक्षक का कार्य, तो उन्हें समान पारिश्रमिक मिलना चाहिए। यदि किसी काम के लिए एक व्यक्ति को सौ रुपये और दूसरे व्यक्ति को पिचहत्तर रुपये सिर्फ इसलिए मिलते हैं, क्योंकि वे भिन्न जातियों के हैं, या भिन्न रंग के हैं, तो यह अनुचित और अन्यायपूर्ण है।

2. समानुपातिक न्याय:
‘समान कार्य के लिए समान व्यवहार’ के न्याय के सिद्धान्त के अतिरिक्त न्याय का दूसरा सिद्धान्त है। समानुपातिक न्याय ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिसमें हम महसूस करें कि हर एक के साथ समान बरताव करना अन्याय होगा। उदाहरण के लिए, अगर हमारे स्कूल में यह फैसला किया जाये कि परीक्षा में शामिल होने वाले सभी लोगों को बराबर अंक दिए जाएँगे, क्योंकि सब एक ही स्कूल के विद्यार्थी हैं और सबने एक ही दी है, तो ऐसा करना अन्यायपूर्ण रहेगा। यहाँ पर यह न्यायसंगत होगा कि छात्रों को उनकी उत्तर-पुस्तिकाओं की गुणवत्ता द्वारा किये गए प्रयास के अनुसार अंक दिए जाएँ।

इस प्रकार ऐसे सभी मामलों में न्याय का अर्थ होगा- लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और अर्हता के अनुपात में पुरस्कृत करना। किसी काम के लिए वांछित मेहनत, कौशल, संभावित खतरे आदि कारकों को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग पारिश्रमिक निर्धारण करना उचित और न्यायसंगत होगा। अतः समाज में न्याय के लिए समान व्यवहार के सिद्धान्त का समानुपातिकता के सिद्धान्त के साथ संतुलन बिठाने की आवश्यकता है।

3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त-न्याय का तीसरा सिद्धान्त है। समाज में पारिश्रमिक या कर्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की विशेष आवश्यकताओं का भी ख्याल रखा जाये। इसे सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने का तरीका माना जा सकता है। समाज के सदस्यों के रूप में लोगों की बुनियादी हैसियत और अधिकारों के लिहाज से न्याय के लिए यह आवश्यक है कि समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाये। लेकिन समान व्यवहार के सिद्धान्त पर अमल कभी-कभी योग्यता को उचित प्रतिफल देने के खिलाफ खड़ा हो सकता है।

ऐसी स्थिति में योग्यता को पुरस्कृत करने के लिए समानुपातिक न्याय के सिद्धान्त को क्रियान्वित किया जाता है। लेकिन योग्यता को ही पुरस्कृत करने को न्याय का प्रमुख सिद्धान्त मानने पर जोर देने का अर्थ यह होगा कि हाशिये पर खड़े तबके कई क्षेत्रों में वंचित रह जायेंगे, क्योंकि अच्छे पोषाहार और अच्छी शिक्षा जैसी सुविधाओं तक उनकी पहुँच नहीं हो पाती है। इसलिए न्याय के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों की विशेष आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाये। उदाहरण के लिए, विकलांगता वाले लोगों को कुछ खास मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझना न्यायसंगत होता है। इसी प्रकार अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच न होना भी ऐसा कारक है, जिन्हें अनेक देशों में विशेष बरताव का आधार समझा जाता है।

हमारे देश में अच्छी सुविधा, स्वास्थ्य और ऐसी अन्य सुविधाओं तक पहुँच का अभाव जाति आधारित सामाजिक भेदभाव से जुड़ा है। इसीलिए संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। देश के विभिन्न समूह, भिन्न-भिन्न नीतियों की तरफदारी कर सकते हैं, जो इस पर निर्भर करता है कि वे न्याय के किस सिद्धान्त पर बल देते हैं । ऐसी स्थिति में सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह एक न्यायपरक समाज को बढ़ावा देने के लिए न्याय के विभिन्न सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य स्थापित करे।

प्रश्न 3.
क्या विशेष जरूरतों का सिद्धान्त सभी के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के विरुद्ध है?
उत्तर:
नहीं, लोगों की विशेष जरूरतों का सिद्धान्त सभी के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है, बल्कि उसका विस्तार है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों, जैसे विकलांगता या वंचितता आदि में अन्य के समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाये।

प्रश्न 4.
“निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को युक्तिसंगत आधार पर सही ठहराया जा सकता है।” रॉल्स ने इस तर्क को आगे बढ़ाने में ‘अज्ञानता के आवरण’ के विचार का उपयोग किस प्रकार किया?
उत्तर:
निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण:
समाज में सामाजिक न्याय पाने के लिए सरकारों को यह सुनिश्चित करना होता है कि कानून और नीतियाँ सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू होने के साथ-साथ न्यायसंगत भी हों। इस सम्बन्ध में रॉल्स ने ‘अज्ञानता के आवरण का सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया है। यथा अज्ञानता के आवरण का सिद्धान्त

1. अज्ञानता के आवरण से आशय:
जॉन रॉल्स ने कहा है कि निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यह है कि हम स्वयं को एक ‘अज्ञानता के आवरण’ की परिस्थिति में होने की कल्पना करें जहाँ हमें यह
निर्णय लेना है कि समाज को कैसे संगठित किया जाये। रॉल्स के अनुसार, ” अज्ञानता के आवरण के अन्तर्गत समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपने संभावित स्थान और पद के बारे में सर्वथा अज्ञान रहेगा।”

2. अज्ञानता के आवरण में सोचना:
रॉल्स तर्क देते हैं कि यदि हमें यह नहीं मालूम हो कि हम कौन होंगे और भविष्य के समाज में हमारे लिए कौनसे विकल्प खुले होंगे, तब हम भविष्य के उस समाज के नियमों और संगठन के बारे में जिस निर्णय का समर्थन करेंगे, वह तमाम सदस्यों के लिए अच्छा होगा। रॉल्स ने इसे ‘अज्ञानता के आवरण’ में सोचना कहा है। वे आशा करते हैं कि समाज में अपने संभावित स्थान और हैसियत के बारे में पूर्ण अज्ञानता की हालत में हर आदमी यह नहीं जानता कि वह कौन होगा और उसके लिए क्या लाभप्रद होगा, इसलिए हर कोई सबसे बुरी स्थिति के समाज की कल्पना करेगा।

3. कमजोर तबके के लोगों के लिए यथोचित अवसरों की सुनिश्चितता:
यद्यपि वह अपने स्वभाव के अनुसार स्वयं के हितों को ध्यान में रखकर निर्णय करेगा, लेकिन अज्ञानता के आवरण में वह संगठन के ऐसे नियमों के बारे में सोचेगा जो कमजोर तबकों के लिए यथोचित अवसर सुनिश्चित कर सकें। इस दृष्टि से वह यह चाहेगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन सभी लोगों को प्राप्त हों।

4. सभी लोगों से विवेकशीलता की उम्मीद:
‘अज्ञानता के आवरण’ वाली स्थिति की विशेषता यह है कि इसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बंधती है क्योंकि अज्ञानता के आवरण में रहकर जब वे चुनते हैं तो वे पायेंगे कि सबसे बुरी स्थिति से ही सोचना उनके लिए हितकर होगा। इससे यह प्रकट होगा कि विवेकशील मनुष्य न केवल सबसे बुरे संदर्भ को ध्यान में रखते हुए चीजों को देखेंगे, बल्कि वे यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों। दोनों चीजों को साथ-साथ लेकर चलना है।

इसीलिए सभी के हित में होगा कि निर्धारित नीतियों और नियमों से सम्पूर्ण समाज को लाभ हो, किसी एक खास हिस्से को नहीं। यहाँ निष्पक्षता विवेकसम्मत कार्रवाई का परिणाम है, न कि परोपकार या उदारता का इसीलिए रॉल्स तर्क देते हैं कि नैतिकता नहीं बल्कि विवेकशील चिंतन हमें समाज के लाभ और लाभों के वितरण के मामले में निष्पक्ष होकर विचार करने की ओर प्रेरित करता है और अज्ञानता के आवरण वाली स्थिति लोगों को विवेकशील बनाए रखती है।

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प्रश्न 5.
आमतौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें क्या मानी गई हैं? इस न्यूनतम को सुरक्षित करने में सरकार की क्या जिम्मेदारी है?
उत्तर:
व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें – आमतौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की ‘न्यूनतम बुनियादी जरूरतें ये मानी गई हैं।

  1. स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की बुनियादी मात्रा अर्थात् भोजन,
  2. आवास,
  3. शुद्ध पेयजल की आपूर्ति,
  4. शिक्षा और
  5. न्यूनतम मजदूरी तथा
  6. तन ढकने के लिए आवश्यक कपड़ा।

न्यूनतम को सुरक्षित करने में सरकारी जिम्मेदारी
लोगों की न्यूनतम बुनियादी जरूरतों की पूर्ति लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी मानी जाती है। लेकिन इस लक्ष्य को पाने का सर्वोत्तम तरीका क्या होगा, इस पर विवाद चल रहा है। कुछ विद्वानों का मत है कि मुक्त बाजार के जरिए खुली प्रतियोगिता को बढ़ावा देना समाज के सुविधा प्राप्त सदस्यों को नुकसान पहुँचाए बगैर सुविधाहीनों की मदद करने का तरीका ही सर्वोत्तम तरीका है। दूसरे लोगों का मत है कि गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधायें मुहैया कराने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए । यहाँ पर हमारा प्रतिपाद्य इस न्यूनतम को सुनिश्चित करने में सरकार की जिम्मेदारी की विवेचना करना है। यथा

  1. सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन – मानक सुनिश्चित करने हेतु राज्य हस्तक्षेप करे, ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्द्धा करने में समर्थ हो ।
  2. यद्यपि स्वास्थ्य, सेवा, शिक्षा तथा ऐसी अन्य बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति के लिए निजी एजेन्सियों को प्रोत्साहित किया जाये, तथापि राज्य की नीतियाँ इन सेवाओं को खरीदने के लिए लोगों को सशक्त बनाने की कोशिश करें।
  3. राज्य के लिए यह भी जरूरी हो सकता है कि वह उन वृद्धों और राोगियों को विशेष सहायता प्रदान करे, जो प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सकते। लेकिन इससे आगे राज्य की भूमिका नियम कानून का ढाँचा बरकरार रखने तक ही सीमित रहनी चाहिए, जिससे व्यक्तियों के बीच बाधाओं से मुक्त प्रतिद्वन्द्विता सुनिश्चित हो।
  4. सरकार को यह देखना चाहिए कि अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध हों। यदि इन सेवाओं की कीमत अधिक होगी तो वे गरीबों की पहुँच से बाहर हो जाएँगी।
  5. गरीब वर्ग को न्यूनतम सुविधाएँ प्राप्त हों, इस हेतु सरकार छोटे-छोटे कुटीर उद्योग व अन्य छोटे उद्योगों को बढ़ावा देकर गरीब वर्ग को रोजगार उपलब्ध कराकर उनकी गरीबी दूर करने का प्रयास कर सकती है। वह बेरोजगारों को अपना व्यवसाय शुरू करने को प्रेरित करने हेतु बैंकों से सस्ते दर पर ऋण उपलब्ध करा सकती है।

प्रश्न 6.
सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिये राज्य की कार्यवाही को निम्न में से कौन-से तर्क से वाजिब ठहराया जा सकता है?
(क) गरीब और जरूरतमंदों को निःशुल्क सेवायें देना एक धर्म कार्य के रूप में न्यायोचित है
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(ग) कुछ लोग प्राकृतिक रूप से आलसी होते हैं और हमें उनके प्रति दयालु होना चाहिये।
(घ) सभी के लिये बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।
उत्तर:
उपर्युक्त में से सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिए राज्य की कार्रवाई को (ख) के तर्क, कि ” सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है, से वाजिब ठहराया जा सकता है।

सामाजिक न्याय JAC Class 11 Political Science Notes

→ न्याय का सरोकार समाज में हमारे जीवन और सार्वजनिक जीवन को व्यवस्थित करने के नियमों और तरीकों से होता है, जिनके द्वारा समाज के विभिन्न सदस्यों के बीच सामाजिक लाभ और सामाजिक कर्त्तव्यों का बंटवारा किया जाता है।

→ न्याय क्या है?
विभिन्न संस्कृतियों और परम्पराओं में न्याय की अवधारणा की व्याख्या भिन्न-भिन्न तरीकों से की गई है। यथा

  • प्राचीन भारतीय समाज में न्याय धर्म के साथ जुड़ा था।
  • चीन के दार्शनिक कनफ्यूशियस के अनुसार गलत करने वालों को दंडित कर और भले लोगों को पुरस्कृत कर राजा को न्याय कायम रखना चाहिए।
  • प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में कहा कि न्याय में सभी लोगों का हित निहित रहता है। जैसे एक डाक्टर अपने सभी मरीजों की भलाई की चिन्ता करता है, उसी तरह एक न्यायसंगत शासक या सरकार को भी जनता की भलाई की चिंता करनी होगी। जनता की भलाई की सुनिश्चितता में हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा देना शामिल है।
  • आधुनिक काल में भी न्याय में हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा देना शामिल है। लेकिन आज न्याय की हमारी समझ इस समझ से जुड़ गई है कि मनुष्य होने के नाते हर मनुष्य का प्राप्य क्या है। कांट का इस सम्बन्ध में कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए समुचित और बराबर अवसर प्राप्त हों। न्याय के लिए जरूरी है कि हम सभी व्यक्तियों को समुचित और बराबरी की अहमियत दें।

→ न्याय के सिद्धान्त
‘हर व्यक्ति को उसका प्राप्य प्राप्त हो’ आधुनिक समाज में न्याय के सम्बन्ध में इस बात पर सहमति है। लेकिन हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाये, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्त सामने आये हैं।

→ समान लोगों के प्रति समान बरताव का सिद्धान्त: हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाय, इस सम्बन्ध में कई सिद्धान्त पेश किये गये हैं। उनमें से एक है। – समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धान्त। मनुष्य होने के नाते सभी मनुष्य समान अधिकार और समान बरताव के अधिकारी हैं। आधुनिक काल में अधिकांश उदारवादी जनतंत्रों में सभी व्यक्तियों को जीवन, स्वतंत्रता, समानता तथा मताधिकार के अधिकार दिये गए हैं, साथ ही इन अधिकारों के उपयोग के लिए वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध भी किया गया है।

→ समानुपातिक न्याय का सिद्धान्त: ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिसमें हम महसूस करें कि हर एक के साथ समान बरताव अन्याय होगा। ऐसे मामलों में न्याय का मतलब होगा, लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और अर्हता के अनुपात में पुरस्कृत करना अर्थात् किसी काम के लिए वांछित मेहनत, कौशल, संभावित खतरे आदि कारकों को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग पारिश्रमिक का निर्धारण उचित और न्यायसंगत होगा । इसलिए समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धान्त का समानुपातिकता के सिद्धान्त के साथ संतुलन बैठाने की आवश्यकता है।

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→ विशेष जरूरतों के विशेष ख्याल का सिद्धान्त:
न्याय के जिस तीसरे सिद्धान्त को हम समाज के लिए मान्य करते हैं, वह है। पारिश्रमिक या कर्त्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की विशेष जरूरतों का ख्याल रखने का सिद्धान्त। यह सिद्धान्त ‘समान बरताव के सिद्धान्त’ का विस्तार है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाये। विकलांगता वाले लोगों को कुछ खास मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझा जा सकता है।

हमारे संविधान में इसी दृष्टि से ही अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में तथा शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह एक न्यायपरक समाज को बढ़ावा देने के लिए न्याय के उपर्युक्त तीनों सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य स्थापित करे ।

→ न्यायपूर्ण बंटवारा
सामाजिक न्याय का सरोकार वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से भी है, चाहे यह राष्ट्रों के बीच वितरण का मामला हो या किसी समाज के अन्दर विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के बीच का । यदि समाज में गंभीर सामाजिक या आर्थिक असमानताएँ हैं, तो यह जरूरी होगा कि समाज के कुछ प्रमुख संसाधनों का पुनर्वितरण हो, जिससे नागरिकों को जीने के लिए समतल धरातल मिल सके। इसी संदर्भ में भारत में विभिन्न राज्य सरकारों ने जमीन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन के अधिक न्यायपूर्ण वितरण के लिए भूमि सुधार लागू करने जैसे कदम भी उठाए हैं।

→ रॉल्स का न्याय सिद्धान्त:
अज्ञानता का कल्पित आवरण में निर्णय हेतु सोचना: रॉल्स का न्याय सिद्धान्त इस प्रश्न से शुरू होता है कि हम ऐसे निर्णय पर कैसे पहुँचें जो निष्पक्ष और न्यायसंगत हो? रॉल्स का कहना है कि निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यह है कि हम ‘अज्ञानता के आवरण’ में निर्णय लें। अज्ञानता के आवरण वाली स्थिति की विशेषता यह है कि उसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बनती है क्योंकि इस आवरण में रहते हुए यदि हम निर्णय करते हैं तो सबसे बुरी स्थिति से ही हम सोचना हितकर समझते हैं क्योंकि हमें नहीं मालूम कि भविष्य में हम किस स्थिति में होंगे, हो सकता है कि वर्तमान में जो सबसे बुरी स्थिति हमें दिखाई दे रही है, भविष्य में, निर्णय लेने के बाद, हमें यही स्थिति मिले। इसलिए हम इस स्थिति से ही सोचना प्रारंभ करेंगे।

→ अज्ञानता के कल्पित आवरण में विवेकशील चिंतन संभव:
अज्ञानता का कल्पित आवरण ओढ़ना उचित कानूनों और नीतियों की प्रणाली तक पहुँचने का पहला कदम है। क्योंकि इस आवरण में विवेकशील मनुष्य यह सुनिश्चित करने की भी कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों। अज्ञानता के इस आवरण में व्यक्ति ऐसे नियम चाहेगा जो सबसे बुरी स्थिति में जीने वालों की भी रक्षा कर सकें, क्योंकि कोई नहीं जानता कि आगामी समाज में वे कौनसी जगह लेंगे। इसके साथ ही वे यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा चुनी गई नीतियाँ बेहतर स्थिति वालों को कमजोर न बना दें, क्योंकि हो सकता है वे स्वयं भविष्य के उस समाज में सुविधासम्पन्न स्थिति में पैदा हों। इस प्रकार वे ऐसे नियम चाहेंगे जिनसे समाज के सभी प्रकार के लोगों को फायदा हो, न कि किसी एक खास हिस्से का।

→ वितरण हेतु निष्पक्षता विवेकसम्मत चिंतन व कार्यवाही का परिणाम – यहाँ पर निष्पक्षता विवेकसम्मत कार्यवाही का परिणाम है, न कि परोपकार या उदारता का । इस प्रकार रॉल्स का कहना है कि विवेकशील चिंतन हमें समाज में लाभ और साधनों के वितरण के मामले में निष्पक्ष होकर विचार की ओर प्रेरित करता है।

→ सामाजिक न्याय का अनुसरण
न्यायपूर्ण समाज को लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ जरूर मुहैया करानी चाहिए, ताकि वे स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जीने में सक्षम हो सकें, समाज में अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें तथा समान अवसरों के माध्यम से 1. अपने चुने हुए लक्ष्य की ओर बढ़ सकें। आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी इन बुनियादी स्थितियों के महत्त्वपूर्ण हिस्से हैं। लोगों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी समझी जाती है ।
अगर हम सब इस बात पर सहमत हो जाएँ कि राज्य को न्यूनतम बुनियादी स्थितियों को मुहैया करने के लिए सबसे वंचित सदस्यों की सहायता करनी चाहिए, तब इससे जुड़ा दूसरा प्रश्न यह मुखरित होता है कि इस हेतु राज्य सरकार क्या रास्ता अपनाये। क्या यह खुली प्रतियोगिता का रास्ता अपनाये या राज्य हस्तक्षेप करके गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधायें मुहैया कराये। यथा-

→ मुक्त. बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप
मुक्त बाजार के पक्ष में तर्क- राज्य को समाज के सबसे वंचित सदस्यों की सहायता के लिए एक रास्ता तो यह अपनाना चाहिए कि वह मुक्त बाजार के जरिये खुली प्रतियोगिता को बढ़ावा दे। इसके समर्थकों ने इसके समर्थन में जो तर्क दिये हैं, वे निम्नलिखित हैं।

  • मुक्त बाजार के जरिये खुली प्रतियोगिता से योग्यता और प्रतिभा वाले व्यक्तियों को अधिक प्रतिफल मिलेगा जबकि अक्षम लोगों को कम प्रतिफल मिलेगा । इसका मुख्य आधार योग्यता, प्रतिभा और कौशल होगा।
  • मुक्त बाजारी वितरण हमें ज्यादा विकल्प प्रदान करता है।

→ मुक्त बाजार के विपक्ष तथा राज्य के हस्तक्षेप के पक्ष में तर्क

  • यद्यपि मुक्त बाजार और निजी उद्यम द्वारा प्रदत्त सेवाएँ सरकारी सेवाओं से बेहतर होती हैं, लेकिन अधिक कीमत के कारण वे गरीब लोगों की पहुँच से बाहर हो जाती हैं। इससे कमजोर सुविधाहीन लोग अवसरों से वंचित हो सकते हैं।
  • मुक्त बाजार प्रायः पहले से ही सुविधासम्पन्न लोगों के हक में काम करने का रुझान दिखलाते हैं। इसलिए राज्य को हस्तक्षेप करके समाज के सभी सदस्यों को बुनियादी सुविधायें उपलब्ध कराने की पहल करनी चाहिए।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता

Jharkhand Board Class 11 Political Science समानता InText Questions and Answers

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प्रश्न 1.
मैं जिन लोगों को जानता हूँ, वे सभी किसी न किसी धर्म में विश्वास करते हैं। मैं जिन धर्मों के बारे जानता हूँ, वे सभी समानता का संदेश देते हैं। जब ऐसा है, तो दुनिया में असमानता क्यों है?
उत्तर:
यद्यपि समानता की बात सभी आस्थाओं और धर्मों में समाविष्ट है। हर धर्म ईश्वर की रचना के रूप में प्रत्येक मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। इसके बावजूद दुनिया में असमानता व्याप्त है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. बहुत सी सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में पद, धन, हैसियत या विशेषाधिकार की असमानता कायम रखती हैं।
  2. मनुष्यों के बीच नस्ल और रंग के आधार पर भेदभाव असमानता को बढ़ाते रहे हैं।
  3. लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग-अलग चयन के कारण भी असमानताएँ पाई जाती हैं।
  4. जब लोगों के बरताव में कुछ असमानताएँ लंबे काल तक विद्यमान रहती हैं, तो वे हमें मनुष्य की प्राकृतिक विशेषताओं पर आधारित लगने लगती हैं। उदाहरण के लिए औरतें अनादि काल से ‘अबला’ कही जाती थीं।

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प्रश्न 2.
भारत में आर्थिक असमानता दर्शाने वाले कुछ आंकड़े।
यहाँ भारत की 2011 की जनगणना से लिए गए घरेलू सम्पदा और सुविधाओं के बारे में कुछ आंकड़े प्रस्तुत हैं। इन आंकड़ों को गाँव और शहर के बीच की असमानता को समझने के लिए पढ़िये। आपका परिवार इन आंकड़ों में कहाँ आता है?

परिवार जिनके पास है…… ग्रामीण परिवार % शहरी परिवार % अपने परिवार के लिए (√) या × लगाएँ
बिजली का कनेक्शन 55 93
मकान में सरकारी नल का कनेक्शन 35 71
मकान में स्नान घर 45 87
टेलिविजन 33 77
स्कूटर/मोपेड/मोटर 14 35
साइकिल 2 10

उत्तर:
अपने परिवार के लिए (√) या (×) का चिन्ह यह देखते हुए लगाएं कि आपके परिवार में ये सुविधाएँ हैं या नहीं हैं। हैं तो (√) और नहीं तो (×)

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प्रश्न 3.
इन चित्रों पर नजर डालें
JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता 1
ये चित्र क्या संकेत करते हैं?
उत्तर:
ये चित्र मनुष्यों के बीच नस्ल और रंग के आधार पर भेदभाव की ओर संकेत करते हैं। ये हममें से अधिकांश को अस्वीकार्य हैं। वास्तव में इस तरह के भेदभाव समानता के हमारे आत्मबोध का उल्लंघन करता है। समानता का हमारा आत्म-बोध कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और परवाह के हकदार हैं।

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प्रश्न 4.
छात्र का कथन है कि “पुरुष स्त्रियों से बढ़कर हैं। यह एक प्राकृतिक असमानता है। आप इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कर सकते।” छात्रा का कथन है कि “मेरे हर विषय में तुमसे ज्यादा अंक आते हैं। मैं घर के काम में माँ का हाथ भी बंटाती हूँ। तुम मुझसे बढ़कर कैसे हो?” ये दोनों कथन प्राकृतिक असमानता के किस प्रकार के मिथ से संबंधित हैं?
उत्तर:
प्राकृतिक असमानता और सामाजिक असमानताएँ अलग-अलग होती हैं लेकिन इन दोनों तरह की असमानताओं में अन्तर हमेशा साफ और अपने आप में स्पष्ट नहीं होता। जब लोगों के बरताव में कुछ असमानताएँ लंबे काल तक विद्यमान रहती हैं, तो वे हमें मनुष्य की प्राकृतिक विशेषताओं पर आधारित लगने लगती हैं। ऐसा लगने लगता है कि वे जन्मगत हों और आसानी से बदल नहीं सकतीं। उदाहरण के लिए, औरतें अनादिकाल से अबला कही जाती थीं।

उन्हें भीरु और पुरुषों से कम बुद्धि का माना जाता था, जिन्हें विशेष संरक्षण की जरूरत थी। इसलिए यह मान लिया गया था कि औरतों को समान अधिकार से वंचित करना न्यायसंगत है। छात्र का कथन इसी तथ्य की ओर इंगित करता है। लेकिन छात्रा का कथन व उसके द्वारा दिये गए तथ्य इस मिथक को तोड़ते हैं और इस ओर संकेत करते हैं कि यह असमानता प्राकृतिक नहीं सामाजिक है और न्याससंगत नहीं है।

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प्रश्न 5.
शिक्षा में असमानता:
नीचे दी गई तालिका में विभिन्न समुदायों की शैक्षिक स्थिति से जुड़े कुछ आंकड़े दिए गए हैं।
1. इन समुदायों की शैक्षिक स्थिति में जो अन्तर है, क्या वे महत्त्वपूर्ण हैं?
2. क्या इन अन्तरों का होना केवल एक संयोग है या ये अन्तर जाति व्यवस्था के असर की ओर संकेत करते हैं?
3. आज यहाँ जाति-व्यवस्था के अलावा और किन कारणों का प्रभाव देखते हैं?
शहरी भारत में उच्च शिक्षा में जातिगत समुदायों में असमानता

जाति/समुदाय प्रति हजार लोगों में स्नातकों की संख्या
अनुसूचित जाति 47
मुस्लिम 61
हिन्दू (पिछड़ी जातियाँ) 86
अनुसूचित जनजाति 109
ईसाई 237
सिक्ख 250
हिन्दू उच्च जातियाँ 253
अन्य धार्मिक समुदाय 315
अखिल भारतीय औसत 155

उत्तर:

  1. हाँ, इन समुदायों की शैक्षिक स्थिति में जो अन्तर है, वह महत्त्वपूर्ण है।
  2. ये अन्तर जाति-व्यवस्था के असर की ओर संकेत करते हैं। इसमें स्पष्ट दिखाई देता है कि हिन्दू समाज की पिछड़ी जातियाँ तथा अनुसूचित जातियाँ जहाँ शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक पिछड़ी हुई हैं, वे राष्ट्रीय औसत से बहुत पीछे हैं, वहाँ हिन्दू समाज की उच्च जातियों का शैक्षिक स्तर राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है।
  3. दी गई तालिका में दर्शाये गए आंकड़ों से शिक्षा की स्थिति पर प्रभाव डालने वाले प्रमुख कारक ये बताए जा सकते हैं।

(क) जाति व्यवस्था:
हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था ने शिक्षा की स्थिति को प्रभावित किया है। दलित या पिछड़ी जातियों के लोगों को हिन्दू समाज में अध्ययन की सुविधाओं का अभाव था। जबकि उच्च जातियों को इन सुविधाओं से वंचित नहीं किया गया था। इस कारण शैक्षिक स्थितियों में काफी अन्तर देखा जा सकता है।

(ख) धर्म:
मुस्लिम समाज में जाति: पांति के न होने पर भी शिक्षा का स्तर अत्यधिक गिरा हुआ है, जबकि अन्य धर्मावलम्बियों का शिक्षा का स्तर अच्छा है।

(ग) आर्थिक असमानता:
भारत में आर्थिक असमानता ने भी शिक्षा पर प्रभाव डाला है। आर्थिक रूप विपन्न वर्ग, चाहे वह किसी भी जाति व धर्म का रहा हो, शिक्षा के क्षेत्र में, आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्ग की तुलना में और पिछड़ा रहा है; क्योंकि ऐसे परिवारों के बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएँ मुहैया नहीं हो पाती हैं; उन्हें शीघ्र ही अपने जीवनयापन के लिए मजदूरी के लिए दौड़ना पड़ता है।

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प्रश्न 6.
नीचे दी गई स्थितियों पर विचार करें। क्या इनमें से किसी भी स्थिति में विशेष और विभेदकारी बरताव करना न्यायोचित होगा?
1. कामकाजी महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिलना चाहिए।
2. एक विद्यालय में दो छात्र दृष्टिहीन हैं। विद्यालय को उनके लिए कुछ विशेष उपकरण खरीदने के लिए धनराशि खर्च करनी चाहिए।
3. गीता बास्केटबाल बहुत अच्छा खेलती है। विद्यालय को उसके लिए बास्केटबाल कोर्ट बनाना चाहिए जिससे वह अपनी योग्यता का और भी विकास कर सके।
4. जीत के माता-पिता चाहते हैं कि वह पगड़ी पहने। इरफान चाहते हैं कि वह जुम्मे (शुक्रवार) को नमाज पढ़े, ऐसी बातों को ध्यान में रखते हुए स्कूल को जीत से यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि वह क्रिकेट खेलते समय हेलमेट पहने और इरफान के अध्यापक को शुक्रवार को उससे दोपहर बाद की कक्षाओं के लिए रुकने को नहीं कहना चाहिए।
उत्तर:

  1. कामकाजी महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिलना न्यायोचित होगा।
  2. दृष्टिहीन छात्रों के अध्यापन के लिए विद्यालय को उनके लिए कुछ विशेष उपकरण खरीदने हेतु धनराशि खर्च करना न्यायोचित होगा।
  3. केवल गीता के लिए बास्केटबाल कोर्ट बनाना न्यायोचित नहीं होगा; हाँ, यदि विद्यालय में बास्केटबाल के खेल को खिलाने के लिए सभी विद्यार्थियों या सभी खिलाड़ियों की दृष्टि से कोर्ट बनाना ही न्यायोचित होगा।
  4. हाँ, जीत को क्रिकेट खेलते समय हेलमेट पहनने तथा इरफान के अध्यापक को शुक्रवार को उससे दोपहर बाद की कक्षाओं के रुकने के लिए नहीं कहना चाहिए। दोनों ही स्थितियाँ न्यायोचित हैं।

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प्रश्न 1.
कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है जबकि कुछ अन्य का कहना है कि वास्तव में समानता प्राकृतिक है और जो असमानता हम चारों ओर देखते हैं उसे समाज ने पैदा किया है। आप किस मत का समर्थन करते हैं? कारण दीजिए।
उत्तर:
दोनों ही मतों में सत्यांश है और अलग-अलग दृष्टिकोण से दोनों ही सही हैं। यथा
1. समानता प्राकृतिक है:
जब हम यह कहते हैं कि समानता प्राकृतिक है, उसका आशय यह है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं। हर धर्म ईश्वर की रचना के रूप में मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। साझी मानवता की यह धारणा ही ‘सार्वभौमिक मानवाधिकार’ जैसी धारणाओं के पीछे हैं। इस प्रकार मानवता की दृष्टि से समानता प्राकृतिक है। लेकिन जन्मगत विशिष्टताओं और योग्यताओं की दृष्टि से समानता प्राकृतिक नहीं है।

2. असमानता प्राकृतिक भी है और सामाजिक भी: मैं इस मत का समर्थन करता हूँ कि असमानता प्राकृतिक भी है और सामाजिक भी। यथा

(i) प्राकृतिक असमानताएँ:
प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, योग्यताओं, विशिष्टताओं और उनके अलग-अलग चयन के कारण पैदा होती हैं। प्राय: प्राकृतिक असमानताओं को बदला नहीं जा सकता।

(ii) सामाजिक असमानताएँ:
समाजजनित असमानताएँ वे होती हैं, जो समाज में अवसरों की असमानता होने या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण किये जाने से पैदा होती हैं। बहुत सी सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में पद, धन, हैसियत या विशेषाधिकार की असमानता कायम रखती हैं। ये सभी असमानताएँ सामाजिक हैं। हम समाज में दोनों प्रकार की असमानताएँ देखते हैं। प्राकृतिक असमानताएँ जहाँ न्यायोचित हैं, वहीं सामाजिक असमानताएँ न्यायोचित नहीं हैं। इसलिए ऐसी असमानताओं पर हमारा ध्यान अधिक जाता है। लोकतांत्रिक राज्यों में ऐसी असमानताओं को दूर करने का प्रयास भी किया जा रहा है।

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प्रश्न 2.
एक मत है कि पूर्ण आर्थिक समानता न तो संभव है और न वांछनीय। एक समाज ज्यादा से ज्यादा बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। क्या आप इस तर्क से सहमत हैं? अपना तर्क दीजिये।
उत्तर:
हाँ, मैं इस तर्क से सहमत हूँ कि पूर्ण आर्थिक समानता न तो संभव है और न वांछनीय। एक समाज ज्यादा से ज्यादा बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। आर्थिक असमानता ऐसे समाज में विद्यमान होती है जिसमें व्यक्तियों और वर्गों के बीच धन, दौलत, आय में खासी भिन्नता हो। क्योंकि समाज में धन, दौलत या आय की पूरी समानता संभवत: कभी विद्यमान नहीं रही।

आज अधिकतर लोकतंत्र लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं। लेकिन समान अवसरों के साथ भी असमानता बनी रह सकती है, लेकिन इसमें यह संभावना हुई है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर बना सकता है। अतः स्पष्ट है कि चूंकि व्यक्तियों में प्राकृतिक रूप से प्रतिभा, क्षमता, योग्यता तथा जन्मगत विशिष्टताओं में भिन्नता होती है, इसी कारण उनमें पूर्ण आर्थिक समानता का होना संभव नहीं है।

लेकिन एक समाज बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है क्योंकि अत्यधिक आर्थिक असमानता के जो सामाजिक कारण हैं, वे हैं- समाज में अवसरों की असमानता का होना या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण करना। इन कारणों का निवारण करके समाज आर्थिक असमानता की इस खाई को कम कर सकता है। इस हेतु वह औपचारिक (कानूनी तथा संवैधानिक) समान अवसरों की समानता प्रदान करके; असमानतामूलक सभी सामाजिक विशेषाधिकारों तथा निषेधों को समाप्त करके, अशक्तों और वंचितों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान करके इस खाई को कम कर सकता है।

प्रश्न 3.
नीचे दी गई अवधारणा और उसके उचित उदाहरणों में मेल बैठायें।

(क) सकारात्मक कार्यवाही (1) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।
(ख) अवसर की समानता (2) बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं।
(ग) समान अधिकार (3) प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिये।

उत्तर:

(क) सकारात्मक कार्यवाही का द्योतक है। बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं।
(ख) अवसर की समानता का द्योतक है। प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिये।
(ग) समान अधिकार का द्योतक है। प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।

प्रश्न 4.
किसानों की समस्या से संबंधित एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार छोटे और सीमांत किसानों को बाजार से अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता। रिपोर्ट में सलाह दी गई कि सरकार को बेहतर मूल्य सुनिश्चित करने के लिये हस्तक्षेप करना चाहिये। लेकिन यह प्रयास केवल लघु और सीमांत किसानों तक ही सीमित रहना चाहिये। क्या यह सलाह समानता के सिद्धान्त से संभव है?
उत्तर:
हाँ, यह सलाह समानता के सिद्धान्त से संभव है। समानता के सिद्धान्त को यथार्थ में बदलने के लिए औपचारिक या कानूनी समानता पर्याप्त नहीं है। कभी-कभी यह सुनिश्चित करने के लिए कि लोग समान अधिकारों का उपभोग कर सकें; हमें प्रत्येक व्यक्ति को लगभग एक समान मानने तथा प्रत्येक को मूलतः समान मानने में अन्तर करना चाहिए। मूलत: समान व्यक्तियों को विशेष परिस्थितियों में अलग-अलग बरताव की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन ऐसे सभी मामलों में सर्वोपरि उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना होना चाहिए।

छोटे और सीमान्त किसानों को अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण बाजार से अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता। इन्हें उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए सरकार उन बाधाओं को दूर करने की नीतियाँ बनाकर समानता के सिद्धान्त व्यावहारिक बना सकती है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से किस में समानता के किस सिद्धान्त का उल्लंघन होता है और क्यों?
(क) कक्षा का हर बच्चा नाटक का पाठ अपना क्रम आने पर पढ़ेगा।
(ख) कनाडा सरकार ने दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति से 1960 तक यूरोप के श्वेत नागरिकों को कनाडा में आने और बसने के लिये प्रोत्साहित किया।
(ग) वरिष्ठ नागरिकों के लिये अलग से रेलवे आरक्षण की एक खिड़की खोली गई।
(घ) कुछ वन क्षेत्रों को निश्चित आदिवासी समुदायों के लिये आरक्षित कर दिया गया है।
उत्तर:

  1. उपर्युक्त में (क) और (ग) कथन में समानता के किसी सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं हुआ है।
  2. (ख) कथन में रंग के आधार पर समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन है। समानता का औपचारिक सिद्धान्त यह है कि कानून सब मनुष्यों के साथ समानता का बर्ताव करेगा; जाति, धर्म, रंग, लिंग के आधार पर कोई भेदभावपूर्ण कानून नहीं बनायेगा। लेकिन कनाडा की सरकार ने समानता के इस सिद्धान्त का उल्लंघन करते हुए रंग के आधार पर भेदभावपूर्ण कानून बनाया और द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति से 1960 तक यूरोप के श्वेत नागरिकों को ही कनाडा में आने और बसने के लिए प्रोत्साहित किया।
  3. (घ) कथन में प्राकृतिक समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है, क्योंकि प्रकृति सभी के लिए है। कुछ वन क्षेत्र को केवल निश्चित आदिवासी समुदायों के लिए नहीं बल्कि सभी आदिवासी समुदायों, चाहे वे किसी धर्म, जाति, वंश या नस्ल के अन्तर्गत आते हों, के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए। ऐसा न होने पर असमानता का विकास होगा।

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प्रश्न 6.
यहाँ महिलाओं को मताधिकार देने के पक्ष में कुछ तर्क दिये गये हैं। इनमें से कौनसे तर्क समानता के विचार से संगत हैं? कारण भी दीजिये।
(क) स्त्रियाँ हमारी माताएँ हैं। हम अपनी माताओं को मताधिकार से वंचित करके अपमानित नहीं करेंगे।
(ख) सरकार के निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं इसलिये शासकों के चुनाव में उनका भी मत होना चाहिये ।
(ग) महिलाओं को मताधिकार न देने से परिवारों में मतभेद पैदा हो जायेंगे।
(घ) महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है। मताधिकार से वंचित करके लंबे समय तक उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता है।
उत्तर:
उपर्युक्त में (ख) “सरकार के निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं। इसलिए शासकों के चुनाव में उनका भी मत होना चाहिए।” तथा (घ ) ” महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है। मताधिकार से वंचित करके लम्बे समय तक उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता है। ” के तर्क समानता के विचार से संगत हैं क्योंकि

  1. समानता की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि जाति, नस्ल, धर्म या लिंग पर ध्यान दिए बिना ‘सभी नागरिकों के साथ कानून एक समान बर्ताव करे’ इसलिए मताधिकार के अधिकार को लिंग के आधार पर न दिया जाना समानता के औपचारिक सिद्धान्त के अनुकूल है।
  2. समानता का दावा है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य (स्त्री और पुरुष दोनों) समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं। साझी मानवता की यह धारणा ही ‘सार्वभौमिक मताधिकार’ का सबल समर्थन करती है।
  3. स्त्री और पुरुष के बीच की असमानता: जैविक या लिंगभेद प्राकृतिक और जन्मजात है। इस आधार पर स्त्रियों को मताधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
  4. लोकतंत्र में सरकार जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों से बनती है और उसके निर्णय सम्पूर्ण समाज (स्त्री और पुरुष दोनों) को प्रभावित करते हैं। ये निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी समान रूप से प्रभावित करते हैं। इसलिए शासकों के चुनाव में समाज के समस्त वयस्क नागरिकों को मत देने का अधिकार होना चाहिए। इस दृष्टि से शासकों के चुनाव में महिलाओं को भी मताधिकार मिलना चाहिए। चूंकि महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है, अतः महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखना समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन है।

समानता JAC Class 11 Political Science Notes

→ समानता महत्त्वपूर्ण क्यों है?
समानता एक शक्तिशाली नैतिक और राजनीतिक आदर्श के रूप में कई शताब्दियों से मानव समाज को प्रेरित और निर्देशित करता रहा है। यथा-

→ समानता की बात सभी आस्थाओं और धर्मों में समाविष्ट है।

→ समानता की अवधारणा एक राजनीतिक आदर्श के रूप में उन विशिष्टताओं पर बल देती है जिसमें सभी मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के फर्क के बाद भी साझेदार होते हैं।

→ समानता का दावा है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं। ‘सार्वभौमिक मताधिकार’ या ‘मानवता के प्रति अपराध’ जैसी धारणाओं के पीछे यही साझी मानवंता की धारणा रहती है। आधुनिक काल में ‘सभी मनुष्यों की समानता’ का राजसत्ता के खिलाफ संघर्षों में एकजुटता लाने वाले नारे के रूप में इस्तेमाल किया गया है।

→ आज समानता व्यापक रूप से स्वीकृत आदर्श है, जिसे अनेक देशों के संविधान और कानूनों में सम्मिलित किया गया है। फिर भी समाज में हमारे चारों ओर समानता की बजाय असमानता नजर आती है। इस संसार में धन- संपदा, अवसर, कार्य स्थिति और शक्ति की भारी असमानता है। इससे यह प्रश्न उठते हैं कि ये असमानताएँ सामाजिक जीवन के स्थायी और अपरिहार्य लक्षण हैं, जो मनुष्यों की प्रतिभा और योग्यता के साथ-साथ सामाजिक विकास और सम्पन्नता में उनके योगदान के अन्तर को भी प्रतिबिंबित करते हैं? क्या ये असमानताएँ हमारी सामाजिक स्थिति और नियमों के कारण पैदा होती हैं? इस तरह के प्रश्नों ने समानता को सामाजिक और राजनीतिक सिद्धान्त का केन्द्रीय विषय बना दिया है।

→ समानता क्या है?
समानता का हमारा आत्म-बोध कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और परवाह के हकदार हैं। लेकिन इसका आशय हमेशा एक जैसा व्यवहार करने से नहीं है क्योंकि कोई भी समाज अपने सभी सदस्यों के साथ सभी स्थितियों में पूर्णतया एक समान बरताव नहीं कर सकता है। समाज के सहज कार्य-व्यापार के लिए कार्य का विभाजन आवश्यक है। अलग-अलग काम से लोगों का अलग-अलग महत्त्व व लाभ होता है। कई बार इस बरताव में यह अन्तर न केवल स्वीकार्य हो सकता है, बल्कि आवश्यक भी लग सकता है। लेकिन कुछ अलग किस्म की असमानताएँ अन्यायपूर्ण लग सकती हैं। इसलिए यह प्रश्न उठता है कि कौन-सी विशिष्टताएँ और विभेद स्वीकार किये जाने योग्य हैं और कौन-से नहीं।

जन्म, धर्म, नस्ल, जाति या लिंग के आधार पर की जाने वाली असमानताओं को हम अस्वीकार करते हैं। लेकिन अपनी आकांक्षाओं, लक्ष्यों और क्षमताओं व प्रयासों के आधार पर स्थापित होने वाली असमानताओं को हम अस्वीकार नहीं कर सकते। निष्कर्ष यह है कि हमसे जो व्यवहार किया जाता है और हमें जो भी अवसर प्राप्त होते हैं, वे जन्म या सामाजिक परिस्थितियों से निर्धारित नहीं होने चाहिए। अवसरों की समानता समानता की अवधारणा में यह निहित है कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और अवसरों के हकदार हैं।

→ प्राकृतिक और सामाजिक असमानताएँ:
राजनैतिक सिद्धान्त में प्राकृतिक असमानताओं और समाजजनित असमानताओं में अन्तर किया जाता है।

→ प्राकृतिक असमानताएँ: प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग- अलग चयन के कारण पैदा होती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ समाज में अवसरों की असमानता होने या शोषण किये जाने से पैदा होती हैं।

→ प्राकृतिक असमानताएँ लोगों की जन्मगत विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम मानी जाती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ समाज द्वारा पैदा की गई होती हैं।

→ प्राकृतिक असमानताएँ अपरिवर्तनीय होती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ अपरिवर्तनीय नहीं होतीं। प्राकृतिक और समाजजनित असमानताओं में अन्तर करना इसलिए उपयोगी है कि इससे स्वीकार की जा सकने लायक और अन्यायपूर्ण असमानताओं को अलग-अलग करने में मदद मिलती है। लेकिन (क) इनसे हमेशा अन्तर साफ और स्पष्ट नहीं होता, विशेषकर जब समाजजनित असमानताओं ने परम्पराओं और प्रथाओं का रूप ले लिया हो। (ख) प्राकृतिक मानी गई कुछ भिन्नताएँ अब अपरिवर्तनीय नहीं रहीं। विज्ञान और तकनीकी प्रगति से यह संभव बनाया है।

इसीलिए आज यदि विकलांग लोगों को उनकी विकलांगता से उबरने के लिए जरूरी मदद और उनके कामों के लिए उचित पारिश्रमिक देने से इस आधार पर इनकार कर दिया जाये कि प्राकृतिक रूप से वे कम सक्षम हैं, तो यह अधिकतर लोगों को अन्यायपूर्ण लगेगा। इसलिए प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं के अन्तर को किसी समाज के कानून और नीतियों का निर्धारण करने में मानदण्ड के रूप में उपयोग करना कठिन होता है। इसलिए बहुत से सिद्धान्तकार अपने चयन से पैदा हुई असमानता और व्यक्ति के विशेष परिवार या परिस्थितियों में जन्म लेने से पैदा हुई असमानता में अन्तर करते हैं। यह दूसरी तरह की असमानता ही समानता के पक्षधर लोगों के सरोकार का स्रोत है। वे चाहते हैं। कि परिवेश से जन्मी असमानता को न्यूनतम और समाप्त किया जाये।

→ समानता के तीन आयाम:
समाज में व्याप्त अलग-अलग तरह की असमानताओं को पहचानते समय विभिन्न विचारकों और विचारधाराओं ने समानता के तीन आयामों को रेखांकित किया है। ये हैं।

  • राजनीतिक,
  • सामाजिक और
  • आर्थिक। यथा।

→ राजनीतिक समानता:
लोकतांत्रिक समाजों में सभी सदस्यों को समान नागरिकता प्रदान करना राजनीतिक समानता में शामिल है। समान नागरिकता के साथ मतदान का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आने-जाने की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की स्वतंत्रता तथा धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता प्राप्त होती है। ये ऐसे अधिकार हैं जो नागरिकों को अपना विकास करने तथा राज्य के काम-काज में भाग लेने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक माने जाते हैं। ये केवल औपचारिक अधिकार हैं जिन्हें संविधान और कानूनों द्वारा सुनिश्चित किया गया है।

→ सामाजिक समानता:
सामाजिक समानता से आशय है-अवसरों की समानता तथा समाज में सभी सदस्यों के जीवन-यापन के लिए अन्य चीजों के अतिरिक्त पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी शिक्षा पाने का अवसर, उचित पोषक आहार व न्यूनतम वेतन जैसी कुछ न्यूनतम चीजों की गारंटी। इनके अभाव में समाज में अवसरों की समानता व्यावहारिक नहीं हो सकती।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता

→ आर्थिक समानता:
आर्थिक असमानता ऐसे समाज में विद्यमान होती है जिसमें व्यक्तियों और वर्गों के बीच धन, दौलत, आय में खासी भिन्नता हो। लोकतंत्र में लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता है, जिसमें यह संभावना छुपी है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर कर सकता है। लेकिन पीढ़ीगत आर्थिक असमानताएँ समाज को वर्गों में बांट देती हैं। एक ओर अल्पसंख्यक साधन-सम्पन्न धनी वर्ग (पूँजीपति वर्ग) होता है तो दूसरी ओर साधनहीन बहुसंख्यक गरीब वर्ग होता है। अमीर वर्गों की शक्ति के कारण ऐसे समाज को खुला व समतावादी बनाने के लिए सुधारना ज्यादा कठिन साबित हो सकता है।

→ मार्क्सवादी विचारधारा
मार्क्स के अनुसार खाईनुमा असमानताओं का मूल कारण महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों पर निजी स्वामित्व है। निजी स्वामित्व मालिकों के वर्ग को अमीर (धनी) बनाने के साथ-साथ राजनीतिक ताकत भी देता है जो उन्हें राज्य की नीतियों और कानूनों को प्रभावित करने में सक्षम बनाता है और वे लोकतांत्रिक सरकार के लिए खतरा साबित हो सकते हैं। मार्क्स के अनुसार आर्थिक असमानताएँ सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा देती हैं, इसलिए समाज में असमानता से निबटने के लिए उत्पादन के साधनों व सम्पत्ति पर जनता का नियंत्रण होना आवश्यक है।

→ उदारवादी विचारधारा
उदारवादी समाज में संसाधनों और लाभांशों के वितरण के सर्वाधिक कारगर और उचित तरीके के रूप में प्रतिद्वन्द्विता के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। उनका मानना है कि जब तक प्रतिस्पर्द्धा स्वतंत्र और खुली होगी,
असमानता की खाइयाँ नहीं बनेंगी और लोगों को अपनी प्रतिभा और प्रयासों का लाभ मिलता रहेगा। उदारवादियों के लिए नौकरियों में नियुक्ति और शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए चयन के उपाय के रूप में प्रतिस्पर्द्धा का सिद्धान्त सर्वाधिक न्यायोचित और कारगर है। उदारवादियों का मानना है कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ परस्पर जुड़ी हुई नहीं हैं।

इनमें से हर क्षेत्र की असमानताओं का निराकरण ठोस ढंग से करना चाहिए। लोकतंत्र राजनैतिक समानता प्रदान करने का साधन है और आर्थिक तथा सामाजिक समानता की स्थापना के लिए विविध रणनीतियों की खोज करने की आवश्यकता है। हम समानता को बढ़ावा कैसे दे सकते हैं? समानता को बढ़ावा देने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने आवश्यक हैं।

→ औपचारिक समानता की स्थापना:
समानता लाने की दिशा में पहला कदम असमानता और विशेषाधिकार की औपचारिक व्यवस्था को समाप्त करना होगा। चूंकि ऐसी बहुत सी व्यवस्थाओं को कानून का समर्थन प्राप्त है, इसलिए सरकार और कानून को असमानता की व्यवस्थाओं को संरक्षण देना बन्द करना आवश्यक है। अधिकतर लोकतांत्रिक संविधान और सरकारें औपचारिक रूप से समानता के सिद्धान्त को स्वीकार कर चुकी हैं। इनमें सभी | नागरिकों को कानून का समान संरक्षण तथा कानून के समक्ष समानता को स्वीकार किया गया है।

→ विभेदक बरताव द्वारा समानता:
समानता के सिद्धान्त को यथार्थ में बदलने के लिए कानून के समक्ष समानता ( औपचारिक समानता) पर्याप्त नहीं है, इसलिए वंचित वर्गों को यथार्थ में समानता प्रदान करने के लिए कुछ विशेष सुविधाएँ देने की आवश्यकता होती है। इसे विभेदक बरताव द्वारा समानता की स्थापना कहा जाता है। कुछ देशों ने अवसरों की समानता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक कार्यवाही’ की नीतियाँ अपनाई हैं। भारत में इस हेतु आरक्षण की नीति अपनाई है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता

→ सकारात्मक कार्यवाही:
सकारात्मक कार्यवाही इस विचार पर आधारित है कि कानून द्वारा औपचारिक समानता स्थापित कर देना पर्याप्त नहीं है। इस हेतु कुछ सकारात्मक कदम उठाये जाने आवश्यक हैं। सकारात्मक कार्यवाही की अधिकतर नीतियाँ अतीत की असमानताओं के संचयी दुष्प्रभावों को दुरुस्त करने के लिए बनाई जाती हैं। जैसे – वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और होस्टल जैसी सुविधाओं, नौकरियों के लिए प्रवेश हेतु विशेष नीतियाँ बनाना । इन नीतियों के द्वारा वंचित समुदायों, जो अन्य लोगों से समानता के आधार पर प्रतिस्पर्द्धा करने में सक्षम नहीं हैं, को सहायता देना। आरक्षण का प्रावधान एक ऐसी ही सकारात्मक कार्यवाही का उदाहरण है। सकारात्मक कार्यवाही के रूप में विशेष सहायता को एक निश्चित अवधि तक चलने वाला तदर्थ उपाय माना गया है।

सकारात्मक कार्यवाही अर्थात् आरक्षण की नीतियों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। समान अवसर के लक्ष्य से सभी सहमत हैं। विवाद उन नीतियों के बारे में है जो राज्य को इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनानी चाहिए। क्या राज्य को वंचित समुदायों के लिए कुछ स्थान आरक्षित कर देने चाहिए या उन्हें कम उम्र से ही विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि इन बच्चों की योग्यता और प्रतिभा का विकास हो सके? इसी प्रकार वंचित कौन है? वंचित की पहचान आर्थिक आधार पर की जाये या सामाजिक आधार पर?

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि मूलतः समान व्यक्तियों को विशेष स्थितियों में अलग-अलग बरताव की जरूरत हो सकती है। लेकिन ऐसे सभी मामलों में सर्वोपरि उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना ही होगा। विशेष बरताव के लिए औचित्य सिद्ध करना और सावधानीपूर्वक विचार करना आवश्यक है। हमें इस सम्बन्ध में यह सावधानी भी बरतनी चाहिए कि विशेष बरताव वर्चस्व या शोषण की नई संरचनाओं को जन्म न दे। विशेष बरताव का उद्देश्य और औचित्य एक न्यायपरक और समतामूलक समाज को बढ़ावा देना है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

Jharkhand Board Class 11 Political Science स्वतंत्रता InText Questions and Answers

पृष्ठ 25

प्रश्न 1.
यदि अपने परिधान का चयन अपनी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है तो नीचे दी गई उन स्थितियों को किस तरह देखेंगे जिनमें खास तरह के परिधान पर प्रतिबंध लगाया गया है?
1. माओ के शासनकाल में चीन में सभी लोगों को ‘माओ सूट’ पहनना पड़ता था। तर्क यह था कि यह समानता की अभिव्यक्ति है।
2. एक मौलवी द्वारा सानिया मिर्ज़ा के खिलाफ फतवा जारी किया गया; क्योंकि उसका पहनावा उस पहनावे के खिलाफ माना गया जो महिलाओं के लिए तय किया गया है।
3. क्रिकेट के टैस्ट मैचों में यह जरूरी है कि हर खिलाड़ी सफेद कपड़े पहने।
4. छात्र-छात्राओं को विद्यालय में एक निर्धारित वेशभूषा में रहना पड़ता है।
उत्तर:

  1. “माओ के शासन काल में चीन में सभी लोगों को ‘माओ सूट’ पहनना पड़ता था।” यह परिधान के चयन की चीनी लोगों की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध था। क्योंकि यह प्रतिबन्ध राज्यशक्ति के बल पर लगाए गए थे, जिनके खिलाफ लड़ना मुश्किल था।
  2. एक मौलवी द्वारा सानिया मिर्जा के पहनावे के खिलाफ फतवा जारी करना भी पहनावे के चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध था । धार्मिक नेताओं को अपने धार्मिक क्षेत्र के बाहर समाज के अन्य कार्यस्थलों में पहनावे की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई अधिकार नहीं है।
  3. ‘क्रिकेट के टैस्ट मैचों में यह जरूरी है कि हर खिलाड़ी सफेद कपड़े पहने।’ यह अपने परिधान में चयन की अपनी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध नहीं है; क्योंकि खेल के नियम के तहत खिलाड़ियों ने स्वेच्छापूर्वक इस नियम को स्वीकार किया है, जो खेल के नियमों की परम्परा के रूप में माना जा रहा है, इससे खिलाड़ियों की स्वतंत्रता सीमित नहीं होती है।
  4. ‘छात्र-छात्राओं को विद्यालय में एक निर्धारित वेश-भूषा में रहना पड़ता है।’ यह विद्यालय के विद्यार्थियों की पहचान हेतु विद्यालय प्रशासन के एक नियम के रूप में पालन किया जाता है। इससे परिधान पहनने की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं लगता है; क्योंकि विद्यालय के बाहर छात्र को इसकी पूर्ण स्वतंत्रता है।

प्रश्न 2.
मनचाहे परिधान पर प्रतिबंध सभी मामलों में न्यायोचित है या केवल कुछ में? यह स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध का मामला कब बन जाता है?
उत्तर:
मनचाहे परिधान पर प्रतिबंध केवल कुछ मामलों में ही न्यायोचित है, सभी मामलों में नहीं। जब ये प्रतिबन्ध किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता द्वारा या राज्य की शक्ति के बल पर लोगों की इच्छा के विरुद्ध जबरन लाद दिये जाते हैं, तो यह मनचाहे परिधान पहनने की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध का मामला बन जाते हैं। लेकिन जब ये प्रतिबन्ध किसी क्षेत्र विशेष में, विशेष कार्य के दौरान, विशिष्ट कार्य के लिए नियम के रूप में लगाए जाते हैं।

तो इन प्रतिबन्धों से परिधान चयन की स्वतंत्रता का हनन नहीं होता है, जैसे टैस्ट क्रिकेट के खिलाड़ियों पर सफेद कपड़े पहनने का नियम, विद्यालय के छात्रों को निर्धारित गणवेश में आने का नियम । लेकिन जब ये प्रतिबन्ध किसी संगठित (सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक) सत्ता द्वारा सामान्य रूप से जबरन शक्ति के बल पर लादे जाते हैं, जैसे माओ काल में माओ सूट पहनने का प्रतिबन्ध या किसी मौलवी द्वारा किसी विशेष पहनावे को लादना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कटौती करते हैं।

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प्रश्न 3.
परिधान के चयन की हमारी स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों को लगाने का अधिकार किसको है?
1. क्या धार्मिक नेताओं को परिधान के मामले में निर्णय देने का अधिकार होना चाहिए?
2. क्या यह राज्य को तय करना चाहिए कि कोई क्या पहने?
3. क्या क्रिकेट खेलते समय खिलाड़ियों के पहनावे के नियम तय करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड उपयुक्त संस्था है?
उत्तर:

  1. धार्मिक नेताओं को परिधान के मामले में निर्णय देने का अधिकार नहीं होना चाहिए।
  2. नहीं, राज्य को यह तय नहीं करना चाहिए कि कोई क्या पहने।
  3. हाँ, क्रिकेट खेलते समय खिलाड़ियों के पहनावे के नियम तय करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड उपयुक्त’ संस्था है।

प्रश्न 4.
क्या प्रतिबंध आरोपित करना अन्यायपूर्ण होता है? क्या यह कई तरीके से व्यक्तियों की अभिव्यक्ति को कम करते हैं?
उत्तर:
परिधान चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध आरोपित करना हमेशा अन्यायपूर्ण नहीं होता है। यदि ये प्रतिबन्ध किसी विशेष संस्था, जैसे: स्कूल, क्रिकेट संघ आदि ने उनके व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से संस्था के नियमों केतहत लगाये गए हों, तो वे अन्यायपूर्ण नहीं होते हैं। दूसरे शब्दों में, औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध अर्थात् यदि उन प्रतिबंधों के पीछे तार्किकता है कि वे जिन पर लगाये जा रहे हैं: औचित्यपूर्ण हैं। लेकिन जब ये प्रतिबंध किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता या राज्य की शक्ति के बल पर आरोपित किये जाते हैं;

तब ये हमारी स्वतंत्रता की कटौती इस प्रकार करते हैं कि उनके खिलाफ लड़ना मुश्किल हो जाता है। अत: जब हमें किन्हीं स्थितियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाता है, तब ये प्रतिबंध हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करते हैं। यह कई तरीके से व्यक्तियों की अभिव्यक्ति को कम करते हैं, जैसे।

  1. माओ के शासनकाल में चीन में सभी लोगों को माओ सूट पहनने के लिए बाध्य किया गया। इसने व्यक्ति की परिधान के चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को कम किया।
  2. किसी मौलवी द्वारा स्त्रियों के किसी पहनावे के खिलाफ फतवा जारी करना भी परिधानों के चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करता है।

Jharkhand Board Class 11 Political Science स्वतंत्रता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता से क्या आशय है? क्या व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता में कोई सम्बन्ध है?
उत्तर:
स्वतंत्रता का अर्थ-स्वतंत्रता के दो पक्ष हैं।

  1. व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव और
  2. ऐसी स्थितियों का होना, जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें। राजनीतिक सिद्धान्त में इन्हें क्रमशः स्वतंत्रता के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू कहा जाता है। यथा

1. स्वतंत्रता का नकारात्मक अर्थ:
नकारात्मक दृष्टि से ‘व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव ही स्वतंत्रता है।’ इस दृष्टिकोण से यदि किसी व्यक्ति पर बाहरी नियंत्रण या दबाव न हों और वह बिना किसी पर निर्भर हुए निर्णय ले सके तथा स्वायत्त तरीके से व्यवहार कर सके, तो वह व्यक्ति स्वतंत्र माना जा सकता है। लेकिन समाज में रहने वाला कोई भी व्यक्ति हर किस्म की सीमा और प्रतिबन्धों की पूर्ण अनुपस्थिति की उम्मीद नहीं कर सकता। अतः बाहरी प्रतिबन्धों के अभाव से आशय उन सामाजिक प्रतिबन्धों का कम से कम होना है, जो हमारी स्वतंत्रतापूर्वक चयन करने की क्षमता पर रोक-टोक लगाते हैं।

2. स्वतंत्रता का सकारात्मक अर्थ – सकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति की आत्म-अभिव्यक्ति की योग्यता का विस्तार करना और उसके अन्दर की संभावनाओं को विकसित करना है। इस अर्थ में स्वतंत्रता वह स्थिति है, जिसमें लोग अपनी रचनात्मकता और क्षमताओं का विकास कर सकें। अतः सकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता से आशय ऐसी स्थितियों के होने से है जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें।

अतः स्वतंत्रता वह सब कुछ करने की शक्ति है जिससे किसी दूसरे को आघात न पहुँचे। व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता में सम्बन्ध व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता दोनों परस्पर पूरक हैं। राष्ट्र की स्वतंत्रता में ही व्यक्ति की स्वतंत्रता संभव है। इसे निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।

  1. यदि एक राष्ट्र किसी अन्य शक्तिशाली राष्ट्र के अधीन है तो वह राष्ट्र स्वतंत्र नहीं है। ऐसे राष्ट्र के सदस्य स्वतंत्रता की आशा नहीं कर सकते। साम्राज्यवादी राष्ट्र अपने अधीन राष्ट्र के लोगों की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबंध लाद देता है। स्पष्ट है कि यदि राष्ट्र स्वतंत्र नहीं है तो उस राष्ट्र के व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबन्ध लगे होते हैं।
  2. एक गुलाम राष्ट्र के लोगों को अन्य राष्ट्रों में वही आदर व सम्मान नहीं मिलता है, जो एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों को मिलता है।
  3. एक परतंत्र राष्ट्र अपने नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से अपने समस्त संसाधनों का उपयोग नहीं कर पाता है; क्योंकि विदेशी शासक उन संसाधनों का उपयोग अपने देश के हित की दृष्टि से करते हैं।
  4. एक परतंत्र राष्ट्र के लोगों का आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक दृष्टि से शोषण किया जाता है।
  5. एक परतंत्र राष्ट्र के लोग अपनी पसंद की सरकार का चयन नहीं कर सकते। उन्हें स्वयं की सरकार चलाने की स्वतंत्रता नहीं मिलती।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि एक राष्ट्र की स्वतंत्रता और व्यक्तियों की स्वतंत्रता परस्पर पूरक हैं। एक स्वतंत्र राष्ट्र में ही लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हो सकती है, जिसमें व्यक्तियों की स्वतंत्रता संभव है।

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प्रश्न 2.
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में क्या अन्तर है?
उत्तर:
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में अन्तर स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं।

  1. स्वतंत्रता की नकारात्मक अवधारणा से आशय है। बाहरी प्रतिबन्धों के अभाव के रूप में स्वतंत्रता, जबकि स्वतंत्रता की सकारात्मक अवधारणा से आशय है- स्वयं को अभिव्यक्त करने के अवसरों के विस्तार के रूप में स्वतंत्रता। दूसरे शब्दों में, नकारात्मक स्वतंत्रता से आशय बंधनों के न होने से है, जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता से आशय अनुचित बंधनों के न होने से है।
  2. नकारात्मक स्वतंत्रता का सरोकार अहस्तक्षेप के अनुलंघनीय क्षेत्र से है। नकारात्मक स्वतंत्रता अहस्तक्षेप के क्षेत्र का अधिकाधिक विस्तार करना चाहती है। दूसरी तरफ, सकारात्मक स्वतंत्रता के पक्षधरों का मानना है कि व्यक्ति केवल समाज में ही स्वतंत्र हो सकता है, समाज से बाहर नहीं। इसीलिए वह समाज को ऐसा बनाने का प्रयास करते हैं, जो व्यक्ति के विकास का रास्ता साफ करे। इस प्रकार सकारात्मक स्वतंत्रता का सम्बन्ध समाज की सम्पूर्ण दशाओं से है, न कि केवल कुछ क्षेत्र से।
  3. नकारात्मक स्वतंत्रता का तर्क होता है कि वह कौन-सा क्षेत्र है, जिसका स्वामी मैं हूँ? नकारात्मक स्वतंत्रतां का तर्क यह स्पष्ट करता है कि व्यक्ति क्या करने में मुक्त (स्वतंत्र ) है। इसके उलट सकारात्मक स्वतंत्रता के तर्क ‘कुछ करने की स्वतंत्रता’ के विचार की व्याख्या से जुड़े हैं। ये तर्क इस सवाल के जवाब में आते हैं कि ‘मुझ पर शासन कौन करता है?’ और इसका आदर्श उत्तर होगा, “मैं स्वयं पर शासन करता हूँ ।” इसका सरोकार व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को इस तरह सुधारने से है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में कम से कम अवरोध रहे।
  4. नकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य का व्यक्ति पर बहुत सीमित नियंत्रण होता है, इसके अनुसार राज्य स्वतंत्रताओं का शत्रु है जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विकास के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप कर सकता है क्योंकि राज्य स्वतंत्रता का शत्रु न होकर स्वतंत्रता में सहायक है।
  5. नकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार वह शासन सर्वोत्तम है, जो व्यक्ति के कम से कम क्षेत्र में हस्तक्षेप करता है अर्थात् कम से कम शासन करता है, जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार राज्य को नागरिकों के कल्याण हेतु सभी क्षेत्रों में कानून बनाकर हस्तक्षेप करने का अधिकार है।
  6. नकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा पहुँचाता है अर्थात् कानून और स्वतंत्रता परस्पर विरोधी हैं; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता में वृद्धि करता है; अर्थात् कानून व स्वतंत्रता परस्पर पूरक हैं।

प्रश्न 3.
सामाजिक प्रतिबन्धों से क्या आशय है? क्या किसी भी प्रकार के प्रतिबंध स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं?
उत्तर:
सामाजिक प्रतिबन्धों से आशय: एक सामाजिक प्रतिबंध सम्पूर्ण समाज के हित तथा कल्याण के लिए व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर लगाए जाने वाला प्रतिबन्ध है। समाज में रहते हुए कोई भी व्यक्ति सामाजिक प्रतिबन्धों से पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकता। समाज में व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों का होना आवश्यक है। इसीलिए कहा जाता है कि स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं है, बल्कि औचित्यपूर्ण प्रतिबंधों का होना है।एक व्यक्ति, जब जंगल में अकेला रहता है, वहाँ वह जो चाहे करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन एक समाज में रहते हुए वह मनचाहे कार्य करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता।

समाज में रहते हुए एक व्यक्ति को अपने स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करते समय समाज के अन्य लोगों की सुविधाओं और असुविधाओं को ध्यान में रखना पड़ता है। उदाहरण के लिए मुझे अपना वाहन चलाने की स्वतंत्रता है, लेकिन वाहन चलाते समय मुझे यह ध्यान रखना पड़ेगा कि वह वाहन चलाने की दूसरों की स्वतंत्रता में बाधक न बने। इसलिए वाहन चलाने की मेरी स्वतंत्रता पर यह प्रतिबंध लगाया गया है कि मैं अपना वाहन सड़क के बायीं ओर ही चलाऊँ, न कि दोनों तरफ; ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने वाहन चलाने की स्वतंत्रता का बिना किसी व्यवधान के उपभोग कर सके।

अतः व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर सामाजिक प्रतिबन्ध इसलिए लादे जाते हैं, ताकि सभी व्यक्ति उस स्वतंत्रता का आनंद ले सकें। केवल औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध (Reasonable Constraints) ही स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं। समाज में समस्त प्रतिबंधों को स्वतंत्रता के लिए आवश्यक नहीं कहा जा सकता। जो प्रतिबंध औचित्यपूर्ण नहीं हैं, वे स्वतंत्रता के जो लिए आवश्यक नहीं है। केवल औचित्यपूर्ण प्रतिबंध ही स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं। औचित्यपूर्ण प्रतिबंध वे हैं, कि स्वतंत्रता को उपभोग्य योग्य बनाते हैं तथा व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हितकारी होते हैं तथा वे स्वतंत्रता के कार्य-क्षेत्र का विस्तार करते हैं।

ऐसे प्रतिबन्धों के स्रोत हैं। लोगों की स्वेच्छा, प्रतिनिध्यात्मक तथा उत्तरदायी सरकार द्वारा निर्मित कानून, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायालय के निर्णय तथा लोकतांत्रिक राज्यों के संविधान औचित्यपूर्ण प्रतिबंध समाज के सदस्यों की स्वेच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं। समाज में स्वतंत्रता पर औचित्यपूर्ण प्रतिबन्धों की आवश्यकता के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं।
1. लोगों के कार्यों पर प्रतिबन्धों के बिना समाज में रहना संभव नहीं है- लोगों के कार्यों पर प्रतिबंधों के बिना समाज में अराजकता फैल जाएगी, यह अव्यवस्था के गर्त में पहुँच जायेगा।

2. समाज के संघर्षों व हिंसा पर नियंत्रण के लिए प्रतिबन्धों की आवश्यकता है। लोगों के बीच मत-मतांतर हो सकते हैं, उनकी महत्त्वाकांक्षाओं में टकराव हो सकते हैं, वे सीमित साधनों के लिए प्रतिस्पद्ध हो सकते हैं। प्रतिबन्धों के अभाव में ऐसे अन्यान्य कारणों से समाज के लोग परस्पर संघर्षरत हो सकते हैं। ये संघर्ष कई बार हिंसा और जन हानि तक ले जाते हैं। इसलिए हर समाज को हिंसा पर नियंत्रण और विवाद के निपटारे के लिए कोई न कोई तरीका अपनाना आवश्यक होता है। ऐसे किसी भी तरीके में व्यक्ति के कार्यों की निरपेक्ष स्वतंत्रता पर औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध ही होते हैं।

3. समाज के निर्माण के लिए भी कुछ प्रतिबन्धों की आवश्यकता होती है -कुछ ऐसे कानूनी और राजनैतिक प्रतिबन्ध होने चाहिए, जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि एक समूह के विचारों को दूसरे पर आरोपित किए बिना आपसी अंतरों पर चर्चा और वाद-विवाद हो सके। बदतर स्थिति में हमें किसी के विचारों से एकरूप हो जाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में हमें अपनी स्वतंत्रता को बचाने के लिए कानून के संरक्षण की और भी ज्यादा जरूरत होती है।

4. घृणा के प्रचार तथा गंभीर क्षति पहुंचाने वाले कार्यों पर प्रतिबन्ध आवश्यक – घृणा का प्रचार और गंभीर क्षति पहुँचाने वाले कार्यों पर प्रतिबंध लगाया जाना आवश्यक होता है, लेकिन ये प्रतिबन्ध इतने कड़े न हों कि स्वतंत्रता ही नष्ट हो जाये।

5. औचित्यपूर्ण प्रतिबंधों का स्वरूप – प्रतिबन्ध औचित्यपूर्ण होने चाहिए। समाज में स्वतंत्रता की रक्षा के लिए औचित्यपूर्ण प्रतिबन्धों का स्वरूप इस प्रकार होना चाहिए।

  1. प्रतिबन्ध समुचित होने चाहिए तथा उन्हें तर्क की कसौटी पर कसा जा सके।
  2. ऐसे प्रतिबन्धों में न तो अतिरेक हो और न ही असंतुलन, क्योंकि तब यह समाज में स्वतंत्रता की सामान्य दशा पर असर डालेगा।
  3. हमें प्रतिबंध लगाने की आदत को विकसित नहीं होने देना चाहिए; क्योंकि ऐसी आदत तो स्वतंत्रता को खतरे में डाल देगी।

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प्रश्न 4.
नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में राज्य की क्या भूमिका है?
उत्तर:
नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में राज्य की भूमिका: एक व्यक्ति कानून और व्यवस्था के वातावरण तथा भली-भाँति परिभाषित तथा ठीक ढंग से लागू किये गये कानूनों की स्थिति वाले राज्य में ही स्वतंत्रता के उपभोग का आनंद ले सकता है। इसलिए राज्य कानून के माध्यम से नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यथा।

  1. राज्य कानूनों के माध्यम से नागरिकों की स्वतंत्रता को परिभाषित करता है।
  2. राज्य कानूनों के द्वारा उस वातावरण का निर्माण करता है जिसमें नागरिक स्वतंत्रता का व्यवहार में उपभोग कर पाते हैं ।
  3. राज्य किसी विशेष स्वतंत्रता के क्षेत्र को परिभाषित करता है कि उस स्वतंत्रता का उपभोग किन दशाओं में और किस सीमा तक किया जा सकता है।
  4. राज्य नागरिकों की उन स्वतंत्रताओं पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाता है, जो पर-संबंध कार्यों से संबंधित हैं ताकि वे किसी दूसरे को और दूसरे उसको हानि न पहुँचा सकें।
  5. राज्य कानून के संरक्षण द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करता है; क्योंकि राज्य के कानूनों में उन नागरिकों को जो स्वतंत्रताओं के निरपेक्ष प्रयोग द्वारा दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा डालते हैं, दण्ड दिये जाने के प्रावधान होते
    हैं।
  6. लोकतंत्र में सरकार द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता के हनन करने पर भी स्वतंत्रता के संरक्षण के प्रावधान होते है।
  7. राज्य की न्यायपालिका नागरिकों की स्वतंत्रता के उल्लंघन से संबंधित विवादों का निपटारा करती है। इस प्रकार राज्य नागरिकों की स्वतंत्रता का निर्माण करता है, उसे परिभाषित करता है तथा उसकी रक्षा करता यह विदेशी आक्रमणों से नागरिकों की रक्षा कर उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करता है। लेकिन कई बार राज्य सरकार अपनी सत्ता का दुरुपयोग भी करती है, जैसे- किसी सरकारी नीति या कार्य के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन की अनुमति न देना। सरकार का यह कार्य नागरिकों की स्वतंत्रता को सीमित करता व हनन करता है।

प्रश्न 5.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? आपकी राय में इस स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबन्ध क्या होंगे? उदाहरण सहित बताइये।
उत्तर:
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है। एक व्यक्ति की अपने विचारों को दूसरों को अभिव्यक्ति करने की स्वतंत्रता । वह बिना किसी भय और बाधा के अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हो। इसमें लोगों के बीच भाषण देने की स्वतंत्रता तथा समाचार पत्र द्वारा अपने विचारों को दूसरों तक सम्प्रेषित करने की स्वतंत्रता निहित है। वर्तमान वैज्ञानिक युग में नवीन आविष्कारों जैसे कम्प्यूटर एवं मोबाइल तथा इण्टरनेट इत्यादि द्वारा भी विचारों की अभिव्यक्ति की जाती है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबंध जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता या राज्य की शक्ति के बल पर, किसी समस्या के अल्पकालीन समाधान के रूप में लगाए जाते हैं, तो वे अनुचित होते हैं, उन्हें औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए दीपा मेहता को काशी में विधवाओं पर फिल्म बनाने पर प्रतिबंध करना, ओब्रे मेनन की ‘रामायण रिटोल्ड’ और सलमान रुश्दी की ‘द सेटानिक वर्सेस’ समाज के कुछ हिस्सों में विरोध के बाद प्रतिबंधित कर दी गईं। इस तरह के प्रतिबन्ध आसान लेकिन अल्पकालीन समाधान हैं, क्योंकि यह तात्कालिक मांग को पूरा कर देते हैं लेकिन समाज में स्वतंत्रता की दूरगामी संभावनाओं की दृष्टि से बहुत खतरनाक हैं और ऐसे प्रतिबन्धों से प्रतिबंध लगाने की आदत विकसित हो जाती है।

लेकिन हमारी राय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबन्ध निम्न प्रकार होंगे

  1. यदि हम स्वेच्छापूर्वक या अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पाने के लिए कुछ प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हैं, तो ऐसे प्रतिबन्धों से हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित नहीं होती।
  2. अगर हमें किन्हीं स्थितियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा रहा है, तब भी हम नहीं कह सकते कि हमारी स्वतंत्रता की कटौती की जा रही है।
  3. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर न्यायोचित सीमाएँ लगाई जा सकती हैं, जैसे-इससे कानून एवं व्यवस्था की स्थिति नहीं बिगड़ती हो, यह नैतिकता के विरुद्ध नहीं हो, यह समाज में विद्रोह पैदा नहीं करती हो, साम्प्रदायिकता को बढ़ावा नहीं देती हो, राष्ट्र की एकता व अखंडता के विरुद्ध न हो आदि। लेकिन इन सीमाओं को उचित प्रक्रिया के तहत ही लगाया जाना चाहिए तथा इसके पीछे नैतिक तर्कों का समर्थन होना चाहिए।

 स्वतंत्रता JAC Class 11 Political Science Notes

→ स्वतंत्रता का आदर्श:
मानव इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जब अधिक शक्तिशाली समूहों ने लोगों या समुदायों का शोषण किया, उन्हें गुलाम बनाया या उन्हें अपने आधिपत्य में ले लिया। लेकिन इतिहास हमें ऐसे वर्चस्व के खिलाफ शानदार संघर्षों के प्रेरणादायी उदाहरण भी देता है । ये स्वतंत्रता के लिए संघर्षों के उदाहरण हैं जो लोगों की इस आकांक्षा को दिखाते हैं कि वे अपने जीवन और नियति का नियंत्रण स्वयं करें तथा उनका अपनी इच्छाओं और गतिविधियों को स्वतंत्रता से व्यक्त करने का अवसर बना रहे। न केवल व्यक्ति वरं समाज भी अपनी स्वतंत्रता को महत्त्व देते हैं और चाहते हैं कि उनकी संस्कृति और भविष्य की रक्षा हो।

स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का एक उदाहरण दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन के खिलाफ मंडेला और उसके साथियों का अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों और स्वतंत्रता के रास्ते की बाधाओं को दूर करने का संघर्ष था जिसे मंडेला ने अपनी आत्मकथा ‘लॉँग वाक टू फ्रीडम’ (स्वतंत्रता के लिए लम्बी यात्रा) में व्यक्त किया है। ऐसा ही एक अन्य उदाहरण म्यांमार के सैनिक शासन के विरुद्ध लोकतंत्र की स्थापना के लिए ऑग सान सू की का संघर्ष है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘फ्रीडम फ्रॉम फीयर’ में अपने स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों व संघर्ष को अभिव्यक्त किया है। स्वतंत्रता का यही आदर्श हमारे राष्ट्रीय संघर्ष और ब्रिटिश, फ्रांसीसी तथा पुर्तगाली उपनिवेशवाद के खिलाफ एशिया – अफ्रीका के लोगों के संघर्ष के केन्द्र में था । यह आदर्श है-

  • अन्यायपूर्ण प्रतिबन्धों और स्वतंत्रता के मार्ग की बाधाएँ दूर करना।
  • गरिमापूर्ण मानवीय जीवन जीने के लिए अपने भय पर विजय पाना।

→ स्वतंत्रता क्या है?
स्वतंत्रता की नकारात्मक परिभाषा: “व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव ही स्वतंत्रता है। इसके अनुसार स्वतंत्र होने का अर्थ उन सामाजिक प्रतिबन्धों को कम से कम करना है जो हमारी स्वतंत्रतापूर्वक चयन करने की क्षमता पर रोक-टोक लगाएं। लेकिन प्रतिबन्धों का न होना स्वतंत्रता का केवल एक पहलू है।

→ स्वतंत्रता की सकारात्मक परिभाषा: स्वतंत्रता का एक सकारात्मक पहलू भी है।
“स्वतंत्रता का सकारात्मक पहलू यह है कि ऐसी स्थितियों का होना जिनमें लोग अपनी रचनात्मकता और क्षमताओं का विकास कर सकें।” इसका अभिप्राय यह है कि स्वतंत्र होने के लिए समाज को उन बातों को विस्तार देना चाहिए जिससे व्यक्ति, समूह, समुदाय या राष्ट्र अपने भाग्य की दशा और स्वरूप का निर्धारण करने में समर्थ हो सकें। इस अर्थ में स्वतंत्रता व्यक्ति की रचनाशीलता, संवेदनशीलता और क्षमताओं के भरपूर विकास को बढ़ावा देती है। इस प्रकार बाहरी प्रतिबंधों का अभाव और ऐसी स्थितियों का होना जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें, स्वतंत्रता के ये दोनों ही पहलू महत्त्वपूर्ण हैं। स्वतंत्र समाज-एक स्वतंत्र समाज वह है, जिसमें व्यक्ति अपने हित संवर्धन न्यूनतम प्रतिबन्धों के बीच करने में समर्थ हो।

→ प्रतिबन्धों के स्रोत: व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों के प्रमुख स्रोत हैं।

  • प्रभुत्व और बाहरी नियंत्रण ( जो बलपूर्वक या गैर-लोकतांत्रिक सरकार के द्वारा कानून की सहायता से लगाए जा सकते हैं),
  • सामाजिक असमानता,
  • अत्यधिक आर्थिक असमानता।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

→ हमें प्रतिबन्धों की आवश्यकता क्यों है?
हमें सामाजिक अव्यवस्था से बचने के लिए कुछ प्रतिबन्धों की आवश्यकता है। हर समाज को असहमतियों के कारण होने वाली हिंसा पर नियंत्रण और विवाद के निपटारे के लिए कोई न कोई ऐसा तरीका अपनाना आवश्यक होता
है। कि लोग एक-दूसरे के विचारों का सम्मान करें और दूसरे पर अपने विचार थोपने का प्रयास न करें। ऐसे समाज के निर्माण के लिए कुछ प्रतिबन्धों की आवश्यकता होती है। समाज में कुछ ऐसे कानूनी और राजनैतिक प्रतिबन्ध होने चाहिए, जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि एक समूह के विचारों को दूसरे पर आरोपित किये बिना आपसी अन्तरों पर चर्चा और वाद-विवाद हो सके। बदतर स्थिति में हमें किसी के विचारों से एकरूप हो जाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में हमें अपनी स्वतंत्रता को बचाने के लिए कानून के संरक्षण की ओर ज्यादा आवश्यकता होती

→ हानि सिद्धांत:
जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने निबंध ‘ऑन लिबर्टी’ में बहुत प्रभावपूर्ण तरीके से ‘हानि सिद्धान्त’ को स्वतंत्रता के संदर्भ में उठाया है। “सिद्धान्त यह है कि किसी के कार्य करने की स्वतंत्रता में व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हस्तक्षेप | करने का इकलौता लक्ष्य आत्म-रक्षा है । सभ्य समाज के किसी सदस्य की इच्छा के खिलाफ शक्ति के औचित्यपूर्ण | प्रयोग का एकमात्र उद्देश्य किसी अन्य को हानि से बचाना हो सकता है।”

→ मिल ने व्यक्ति के कार्यों को दो भागों में बाँटा है:

  • स्व-सम्बद्ध कार्य और
  • पर – सम्बद्ध कार्य। स्व-सम्बद्ध कार्य-स्व-सम्बद्ध कार्य वे हैं, जिनके प्रभाव केवल इन कार्यों को करने वाले व्यक्ति पर पड़ते हैं।

पर-सम्बद्ध कार्य – पर सम्बद्ध कार्य वे हैं, जो कर्ता के साथ-साथ बाकी लोगों पर भी प्रभाव डालते हैं। मिल का तर्क है कि स्व-सम्बद्ध कार्य और निर्णयों के मामले में राज्य या बाहरी सत्ता को कोई हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है; लेकिन पर सम्बद्ध कार्यों पर बाहरी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। पर सम्बद्ध कार्य वे हैं जिनके बारे में कहा जा सके कि अगर तुम्हारी गतिविधियों से मुझे कुछ नुकसान (हानि) होता है; तो स्वतंत्रता से जुड़े ऐसे मामलों में राज्य किसी व्यक्ति को ऐसे कार्य करने से रोक सकता है।

लेकिन स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए यह जरूरी है कि किसी को होने वाली ‘हानि’ गंभीर हो। छोटी- मोटी हानि के लिए मिल कानून की ताकत की जगह केवल सामाजिक रूप से अमान्य करने का सुझाव देता है। अतः किन्हीं पर सम्बद्ध कार्यों पर कानूनी शक्ति से प्रतिबन्ध तभी लगाना चाहिए जब वे निश्चित व्यक्तियों को गंभीर नुकसान पहुँचाए अन्यथा समाज को स्वतंत्रता की रक्षा के लिए थोड़ी असुविधा सहनी चाहिए। घृणा का प्रचार और गंभीर क्षति पहुँचाने वाले कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं, लेकिन प्रतिबन्ध इतने कड़े न हों कि स्वतंत्रता नष्ट हो जाए। भारत के संविधान में ‘ औचित्यपूर्ण प्रतिबंध’ पद का प्रयोग किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रतिबंध समुचित हों तथा उन्हें तर्क की कसौटी पर कसा जा सके। ऐसे प्रतिबंधों में न तो अतिरेक हो और न ही असंतुलन क्योंकि तब यह समाज में स्वतंत्रता की सामान्य दशा पर प्रभाव डालेगा। साथ ही हमें प्रतिबन्ध लगाने की आदत को विकसित नहीं होने देना चाहिए।

→ नकारात्मक स्वतंत्रता:
नकारात्मक स्वतंत्रता से आशय है। बाहरी प्रतिबंधों से अभाव के रूप में स्वतंत्रता। नकारात्मक स्वतंत्रता उस क्षेत्र को पहचानने और बचाने का प्रयास करती है, जिसमें व्यक्ति अनुलंघनीय हो। यह ऐसा क्षेत्र होगा जिसमें किसी बाहरी सत्ता का हस्तक्षेप नहीं होगा। इस प्रकार नकारात्मक स्वतंत्रता का सरोकार अहस्तक्षेप के अनुलंघनीय क्षेत्र से है। यह क्षेत्र कितना बड़ा होना चाहिए और इसमें क्या – क्या शामिल होना चाहिए, यह वाद-विवाद का विषय है। लेकिन अहस्तक्षेप का यह क्षेत्र जितना बड़ा होगा, स्वतंत्रता उतनी ही अधिक होगी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

→ सकारात्मक स्वतंत्रता:
सकारात्मक स्वतंत्रता से आशय है। स्वयं को अभिव्यक्त करने के अवसरों के विस्तार के रूप में स्वतंत्रता। सकारात्मक स्वतंत्रता के तर्क ‘कुछ करने की स्वतंत्रता’ के विचार की व्याख्या से जुड़े हैं। इसका आशय यह है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में कम से कम अवरोध रहें। व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का विकास करने के लिए भौतिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जगत में समर्थकारी सकारात्मक स्थितियों का लाभ मिलना ही चाहिए । व्यक्ति केवल समाज में ही स्वतंत्र हो सकता है,

समाज से बाहर नहीं और इसीलिए वे इस समाज को ऐसा बनाने का प्रयास करते हैं, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का रास्ता साफ करे। आमतौर पर ये दोनों तरह की स्वतंत्रताएँ साथ – साथ चलती हैं और एक-दूसरे का समर्थन करती हैं। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि निरंकुश शासन सकारात्मक स्वतंत्रता के तर्कों का सहारा लेकर अपने शासन को न्यायोचित सिद्ध करने की कोशिश करे।

→ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का मुद्दा ‘अहस्तक्षेप के लघुत्तम क्षेत्र’ से जुड़ा हुआ माना जाता है। मिल ने कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रतिबंधित नहीं होनी चाहिए।
मिल ने अपनी पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ में कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें भी होनी चाहिए जिनके विचार आज की स्थितियों में गलत या भ्रामक लग रहे हैं। इस कथन के पक्ष में उन्होंने चार कारण प्रस्तुत किए हैं।

  • कोई भी विचार पूरी तरह से गलत नहीं होता, उसमें कुछ न कुछ सत्य का अंश भी छुपा होता है।
  • सत्य विरोधी विचारों के टकराव से पैदा होता है।
  • विचारों के संघर्ष का सतत महत्त्व है। जब हम इसे विरोधी विचार के सामने रखते हैं तभी इस विचार का विश्वसनीय होना सिद्ध होता है।
  • जिसे हम सत्य समझते हैं, जरूरी नहीं वही सत्य हो। कई बार जिन विचारों को किसी समय पूरे समाज ने गलत समझा और दबाया था, बाद में वे सत्य पाये गये।

अतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बुनियादी मूल्य है और जो लोग इसको सीमित करना चाहते हैं, उनसे बचने के लिए समाज को कुछ असुविधाओं को सहन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। प्रतिबंध तात्कालिक समस्या का समाधान हो सकते हैं क्योंकि ये तात्कालिक माँग को पूरा कर देते हैं लेकिन ये प्रतिबंध लगाने की आदत का विकास करते हैं।

दीपा मेहता की काशी में विधवाओं पर बनायी जा रही फिल्म को काशी में न बनने देना; सलमान रुश्दी की ‘द सेटानिक वर्सेस’ पुस्तक को प्रतिबंधित किया जाना; ‘द लास्ट टेम्पटेशन ऑफ क्राइस्ट’ नामक फिल्म को प्रतिबंधित करना आदि आसान लेकिन अल्पकालीन समाधान हैं; क्योंकि ये तात्कालिक मांग को पूरा कर देते हैं; लेकिन समाज में स्वतंत्रता की दूरगामी संभावनाओं की दृष्टि से यह स्थिति बहुत खतरनाक है। क्योंकि प्रतिबंध लगाने से प्रतिबंध लगाने की आदत विकसित हो जाती है।

→ प्रतिबन्धों का औचित्य और अनौचित्य:

  • जब ये प्रतिबन्ध किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता या राज्य की शक्ति के बल पर लगाए जाते हैं तो ये हमारी स्वतंत्रता की कटौती इस प्रकार करते हैं कि उनके खिलाफ लड़ना मुश्किल हो जाता है।
  • यदि हम स्वेच्छापूर्वक या अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पाने के लिए कुछ प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हैं, तो हमारी स्वतंत्रता उस प्रकार से सीमित नहीं होती है।
  • स्वतंत्रता हमारे विकल्प चुनने के सामर्थ्य और क्षमताओं में छुपी होती है और जब हम विकल्प चुनते हैं तो हमें अपने कार्यों और उसके परिणामों की जिम्मेदारी भी स्वीकार करनी होगी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Jharkhand Board Class 11 Political Science राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय InText Questions and Answers

पृष्ठ 3

प्रश्न 1.
पाठ्यपुस्तक के पृष्ठ 3 के कार्टून में एक स्त्री अपने राजनेता पति से अपने बच्चे के झूठ और धोखाधड़ी के सम्बन्ध में शिकायत करती हुई कहती है कि ” आपको तुरन्त राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए।
आपके काम-काज का इस पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है । वह सोचता है कि वह झूठ और धोखाधड़ी से काम चला सकता है।
उत्तर:
इस कार्टून में आर. के. लक्ष्मण ने स्वार्थपूर्ण और घोटालों से भरी राजनीति पर व्यंग्य करते हुए राजनीति के इस अर्थ को चित्रित किया है कि कई अन्य के लिए राजनीति वही है, जो राजनेता करते हैं। अगर वे राजनेताओं को दल- बदल करते, झूठे वायदे और बढ़े- चढ़े दावे करते, विभिन्न तबकों से जोड़-तोड़ करते, निजी या सामूहिक स्वार्थों में निष्ठुरता से रत और घृणित रूप में हिंसा पर उतारू होता देखते हैं तो वे राजनीति का सम्बन्ध ‘घोटालों’ से जोड़ते हैं।

इस तरह की सोच इतनी प्रचलित है कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हम हर संभव तरीके से अपने स्वार्थ को साधनों में लग जाते हैं। इसी गंदी राजनीति के जनता में प्रभाव को इस कार्टून में दर्शाया जा रहा है और राजनेताओं पर यह व्यंग्य किया गया है कि इनके ऐसे कृत्यों से राजनीति का सम्बन्ध किसी भी तरीके से निजी स्वार्थ साधने के धन्धे से जुड़ गया है।

पृष्ठ 5

प्रश्न 2.
ऐसे किसी भी राजनीतिक चिंतक के बारे में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये, जिसका उल्लेख अध्याय में किया गया है।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स – कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी में राइन नदी के तटवर्ती भाग के ट्रीब्ज नामक स्थान पर 1818 ई. में हुआ। मार्क्स के माता-पिता यहूदी वंश के थे लेकिन जब वे 6 वर्ष के थे तब उनके पिता और परिवार के सदस्यों ने ईसाई धर्म अपना लिया। प्रारंभिक शिक्षा के बाद मार्क्स ने बान विश्वविद्यालय में दर्शन और इतिहास का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने बर्लिन और जेना के विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया।

यहाँ उन्होंने यूनानी और हीगल के दर्शन का अध्ययन किया। शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह एक पत्र के सम्पादक बने, लेकिन वह पत्र जल्दी ही बंद हो गया। बाद में उन्होंने. साम्राज्यवादी साहित्य का अध्ययन किया तथा 1845 में वे इंग्लैंड चले गये, जहाँ उनकी मित्रता ऐंजिल्स से हुई। मार्क्स ने स्वयं और ऐंजिल्स के साथ मिलकर अनेक ग्रंथों की रचना की, जिसमें ‘साम्यवादी घोषणापत्र’, ‘दास कैपीटल’, ‘होली फैमिली’ आदि प्रमुख हैं। सन् 1883 में इंग्लैंड में ही उनकी मृत्यु हो गई।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

पृष्ठ 6

प्रश्न 3.
क्या आप पहचान सकते हैं कि नीचे दिए गये प्रत्येक कथन/स्थिति में कौन – सा राजनीतिक सिद्धांत/मूल्य प्रयोग में आया है?
(क) मुझे विद्यालय में कौन-सा विषय पढ़ना है, यह तय करना मेरा अधिकार होना चाहिए। (ख) छुआछूत की प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया है।
(ग) कानून के समक्ष सभी भारतीय समान हैं।
(घ) अल्पसंख्यक समुदाय के लोग अपनी पाठशालाएँ और विद्यालय स्थापित कर सकते हैं।
(ङ) भारत की यात्रा पर आये हुये विदेशी, भारतीय चुनाव में मतदान नहीं कर सकते।
(च) मीडिया या फिल्मों पर कोई भी सेंसरशिप नहीं होनी चाहिये।
(छ) विद्यालय के वार्षिकोत्सव की योजना बनाते समय छात्र – छात्राओं से सलाह ली जानी चाहिए।
(ज) गणतंत्र दिवस के समारोह में प्रत्येक को भाग लेना चाहिये।
उत्तर:
(क) स्वतंत्रता
(ख) समानता
(ग) समानता
(घ) धर्मनिरपेक्षता
(ङ) नागरिकता
(च) स्वतंत्रता
(छ) लोकतंत्र
(ज) लोकतंत्र।

Jharkhand Board Class 11 Political Science राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
राजनीतिक सिद्धान्त के बारे में नीचे लिखे कौन-से कथन सही हैं और कौनसे गलत?
(क) राजनीतिक सिद्धान्त उन विचारों पर चर्चा करते हैं जिनके आधार पर राजनीतिक संस्थाएँ बनती हैं।
(ख) राजनीतिक सिद्धान्त विभिन्न धर्मों के अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं।
(ग) ये स्वतंत्रता और समानता जैसी अवधारणाओं के अर्थ की व्याख्या करते हैं।
(घ) ये राजनैतिक दलों के प्रदर्शन की भविष्यवाणी करते हैं।
उत्तर:
(क) सही
(ख) गलत
(ग) सही
(घ) गलत।

प्रश्न 2.
“राजनीति उस सबसे बढ़कर है, जो राजनेता करते हैं।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं? उदाहरण भी दीजिये।
उत्तर:
हम इस कथन से सहमत हैं कि राजनीति उस सबसे बढ़कर है, जो राजनेता करते हैं; क्योंकि राजनीति के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों को सम्मिलित किया जाता है
1. राजनेताओं के राजनैतिक व्यवहार: राजनेताओं का वह राजनैतिक व्यवहार जो जनता और समाज के हित से संबंधित लिये जाने वाले निर्णयों से संबंधित है।

2. सरकार के कार्यकलाप: राजनीतिक संगठन और सामूहिक निर्णय का वह ढांचा अर्थात् राजनैतिक संस्थाएँ जो हमें साथ रहने के उपाय खोजने और एक-दूसरे के प्रति अपने कर्त्तव्यों को कबूलने में मदद करती हैं, इन संस्थाओं के साथ सरकारें भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सरकारें कैसे बनती हैं और कैसे कार्य करती हैं आदि।

3. सरकार को प्रभावित करने के लिए जनता की मांगें, विरोध प्रदर्शन व संघर्ष: राजनीति सरकार के कार्यकलापों तक ही सीमित नहीं होती। सरकारों के कार्यकलाप लोगों के जीवन को भिन्न-भिन्न तरीकों से प्रभावित करते हैं। ये कार्यकलाप जनता के जीवन को उन्नत करने में सहायक भी हो सकते हैं या उनके जीवन को संकट में डालने वाले हो सकते हैं। इसलिए हम सरकार पर जनहितकारी नीतियाँ बनाने के उद्देश्य से संस्थाएँ बनाते हैं, मांगों को स्वीकार कराने के लिए प्रचार अभियान चलाते हैं तथा सरकार की गलत नीतियों का विरोध करते हैं; सरकारी कृत्यों पर वाद-विवाद और विचार-विमर्श करते हुए राजनीतिक प्रक्रियाओं, राजनैतिक दलों, नेताओं के व्यवहार व निर्णयों के बारे में तर्कसंगत कारण तलाशते हैं। ये सभी कार्य भी राजनीति के अन्तर्गत आते हैं।

अत: यह कहा जा सकता है कि राजनीति का जन्म इस तथ्य से होता है कि हमारे और हमारे समाज के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित । इस सम्बन्ध में समाज में चलने वाली विविध वार्ताओं के माध्यम से सामूहिक निर्णय लिए जाते हैं। इन वार्ताओं में एक तरफ तो सरकार के कार्य और उनका जनता पर होने वाले प्रभाव के तथ्य शामिल होते हैं तो दूसरी तरफ जनता का संघर्ष और उसके निर्णय लेने पर इस संघर्ष का प्रभाव शामिल होता है। इन समस्त क्रियाओं के सम्मिलित रूप को राजनीति कहा जाता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

प्रश्न 3.
” लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए नागरिकों का जागरूक होना जरूरी है।” टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए नागरिकों का जागरूक होना आवश्यक है। यथा
1. जागरूक नागरिक साझा हितों को गढ़ने तथा व्यक्त करने में अधिक समर्थ: लोकतंत्र में सभी को मत देने तथा अन्य मसलों पर फैसला करने का अधिकार नागरिकों को मिलता है। इन दायित्वपूर्ण कार्यों के निर्वहन के लिए उन राजनीतिक विचारों और संस्थाओं, जो हमारी दुनिया को आकार देते हैं, की जानकारी का होना नागरिकों के लिए सहायक होती है। यदि हम विचारशील और परिपक्व हैं, तो हम अपने साझा हितों को गढ़ने तथा व्यक्त करने के लिए नये माध्यमों का उपयोग कर सकते हैं।

2. जागरूक नागरिक राजनेताओं को जनाभिमुखी बनाते हैं: नागरिक के रूप में, हम किसी संगीत कार्यक्रम के श्रोता जैसे होते हैं जो कार्यक्रम तय करते हैं, प्रस्तुति का रसास्वादन करते हैं और नये अनुरोध करते हैं। लेकिन संगीतकार, संगीत के जानकार और उसके कद्रदान श्रोताओं के समक्ष ही बेहतर प्रदर्शन करते हैं। इसी तरह शिक्षित और सचेत नागरिक ही राजनीति करने वालों को जनाभिमुखी बनाते हैं।

3. राजनेताओं द्वारा की जा रही उपेक्षाओं का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं। जागरूक नागरिक लिखकर बोलकर तथा प्रदर्शन करके देश की सरकार तथा राजनेताओं को उनके कार्यक्रम, घोषित योजनाओं, वायदों के प्रति उनकी की जा रही उपेक्षाओं के प्रति ध्यान आकर्षित कर सकते हैं।

4. संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर जनमत का निर्माण: जागरूक नागरिक स्वस्थ जनमत के निर्माण में सहायक होते हैं क्योंकि वे मतदान व्यवहार में जाति, संप्रदाय, क्षेत्रवाद व भाषावाद जैसी संकीर्ण भावनाओं में न बहकर योग्यता को तरजीह देते हैं।

प्रश्न 4.
राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन हमारे लिए किन रूपों में उपयोगी है? ऐसे चार तरीकों की पहचान करें जिनमें राजनीतिक सिद्धान्त हमारे लिए उपयोगी हों।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन की उपयोगिता
राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन हमारे लिए निम्न प्रकार से उपयोगी है:
1. एक छात्र के रूप में राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन की उपयोगिता: राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन राजनेताओं, नीतिनिर्माताओं, राजनीति के अध्यापकों, संविधान और कानूनों की व्याख्या करने वाले वकीलों व जजों, शोषण का पर्दाफाश करने वाले और नये अधिकारों की मांग करने वाले कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के लिए उपयोगी है। एक छात्र के लिए राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन इसलिए उपयोगी है; क्योंकि छात्र भविष्य में उपर्युक्त पेशों में किसी एक को चुन सकते हैं। इसलिए परोक्ष रूप से राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन हमारे लिए आवश्यक है।

2. एक नागरिक के रूप में राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन की उपयोगिता:
लोकतंत्र में नागरिकों को मत देने और अन्य मामलों पर फैसला लेना होता है। इस दायित्वपूर्ण कार्य के निर्वहन के लिए राजनीतिक विचारों और राजनीतिक संस्थाओं की बुनियादी जानकारी हमारे लिए (एक नागरिक के लिए) सहायक होती है। यह जानकारी हमें तर्कशील बनाती है तथा निर्णय लेने में सहायक होती है। राजनीतिक सिद्धान्तों का अध्ययन कर हम विचारशील और परिपक्व होकर अपने साझा हितों को गढ़ने और व्यक्त करने के लिए नये माध्यमों का उपयोग कर सकते हैं तथा राजनेताओं को जनाभिमुखी बना सकते हैं।

3. राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन से हम अपने विचारों और भावनाओं में उदार हो जाते हैं- राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन हमें राजनीतिक चीजों के बारे में अपने विचारों और भावनाओं के परीक्षण के लिए प्रोत्साहित करता है और हम अपने विचारों और भावनाओं के प्रति उदार होते जाते हैं।

4. न्याय और समानता के बारे में सुव्यवस्थित सोच का ज्ञानराजनीतिक सिद्धान्त हमें न्याय व समानता के बारे में सुव्यवस्थित सोच से अवगत कराते हैं, ताकि हम अपने विचारों को परिष्कृत कर सकें और सार्वजनिक हित में सुविज्ञ तरीके से तर्क-वितर्क कर सकें।

प्रश्न 5.
क्या एक अच्छा प्रभावपूर्ण तर्क औरों को आपकी बात सुनने के लिए बाध्य कर सकता है?
उत्तर:
हाँ, एक अच्छा और प्रभावपूर्ण तर्क दूसरों को आपकी बात सुनने के लिए बाध्य कर सकता है; क्योंकि उसमें उदारता तथा सार्वजनिक हित का सामञ्जस्य होता है तथा यह सुव्यवस्थित होता है। ऐसी बात को गलत साबित करना अति कठिन होता है।

प्रश्न 6.
क्या राजनीतिक सिद्धान्त पढ़ना, गणित पढ़ने के समान है? अपने उत्तर के पक्ष में कारण दीजिए।
उत्तर:
हाँ, राजनीतिक सिद्धान्त का पढ़ना, गणित पढ़ने के समान है; क्योंकि।
1. राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन एक छात्र के लिए उतना ही उपयोगी है, जितना कि एक गणित का अध्ययन। जिस प्रकार एक छात्र का गणित का ज्ञान गणितज्ञ या इंजीनियर जैसे व्यक्तियों के लिए उपयोगी व आवश्यक है, उसी प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन राजनेताओं, नीति-निर्माताओं, राजनीति पढ़ाने वाले अध्यापकों, संविधान की व्याख्या करने वाले जजों व वकीलों आदि के लिए उपयोगी व आवश्यक है।

2. जिस प्रकार गणित का ज्ञान, विशेषकर बुनियादी अंकगणित का ज्ञान, व्यक्ति के जीवन में उपयोगी होता है, उसी प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त का बुनियादी ज्ञान, उचित तथा अनुचित निर्णयों में भेद करने का ज्ञान, एक नागरिक के लिए लोकतंत्र में उपयोगी होता है।

राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय JAC Class 11 Political Science Notes

→ राजनीतिक सिद्धान्त, हमें सरकार की जरूरत क्यों है? सरकार का सर्वश्रेष्ठ रूप कौन-सा है? क्या कानून हमारी स्वतंत्रता को सीमित करता है? राजसत्ता की अपने नागरिकों के प्रति क्या देनदारी होती है ? नागरिक के रूप में हमारे क्या दायित्व हैं? आदि प्रश्नों की पड़ताल करता है और राजनीतिक जीवन को अनुप्राणित करने वाले स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे मूल्यों के बारे में सुव्यवस्थित रूप से विचार करता है।

→ राजनीतिक सिद्धान्त का उद्देश्य:
राजनीतिक सिद्धान्त का उद्देश्य नागरिकों को राजनीतिक प्रश्नों के बारे में तर्कसंगत ढंग से सोचने और सामयिक राजनीतिक घटनाओं को सही तरीके से आँकने का प्रशिक्षण देना है। राजनीति क्या है?
लोग राजनीति के बारे में अलग-अलग राय रखते हैं। यथा

→ राजनेता और चुनाव लड़ने वाले लोग अथवा राजनीतिक पदाधिकारी राजनीति को एक प्रकार की जनसेवा बताते हैं। राजनीति से जुड़े अन्य लोग राजनीति को दांव-पेच से जोड़ते हैं।

→ कई अन्य के लिए राजनीति वही है, जो राजनेता करते हैं और जब वे राजनेताओं को दल-बदल करते, झूठे वायदे करते, विभिन्न तबकों से जोड़-तोड़ करते और निजी या सामूहिक स्वार्थ साधने के रूप में देखते हैं, तो उनकी दृष्टि में राजनीति का सम्बन्ध किसी भी तरह से निजी स्वार्थ साधने के धंधे से जुड़ गया है। लेकिन राजनीति के ये अर्थ त्रुटिपरक हैं ।

→ निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि राजनीति किसी भी समाज का महत्त्वपूर्ण और अविभाज्य अंग है। राजनीतिक संगठन और सामूहिक निर्णय के किसी ढांचे के बगैर कोई भी समाज जिन्दा नहीं रह सकता। राजनीति का जन्म इस तथ्य से होता है कि हमारे और हमारे समाज के लिए क्या उचित एवं वांछनीय है और क्या नहीं? इस बारे में हमारी दृष्टि अलग-अलग होती है। इसमें समाज में चलने वाली वार्ताओं के माध्यम से सामूहिक निर्णय किये जाते हैं। इन वार्ताओं में एक स्तर से सरकारों के कार्य और इन कार्यों से जनता का जुड़ा होना शामिल होता है तो दूसरे स्तर से जनता के संघर्ष और सरकारों के निर्णयों पर संघर्ष का प्रभाव शामिल होता है। इस प्रकार जब जनता सामाजिक विकास को बढ़ावा देने और सामान्य समस्याओं के समाधान हेतु परस्पर वार्ता करती है और सामूहिक गतिविधियों में भाग लेती है, तो उसे राजनीति कहते हैं।

→ राजनीतिक सिद्धान्त में हम क्या पढ़ते हैं?

  1. राजनीतिक सिद्धान्त उन विचारों और नीतियों के व्यवस्थित रूप को प्रतिबिंबित करता है, जिनसे हमारे सामाजिक जीवन, सरकार और संविधान ने आकार ग्रहण किया है।
    करता
  2. यह स्वतंत्रता, समानता, न्याय, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं का अर्थ स्पष्ट करता है।
  3. यह कानून का राज, अधिकारों का बंटवारा और न्यायिक पुनरावलोकन जैसी नीतियों की सार्थकता की जाँच है।
  4. विभिन्न तर्कों की जाँच-पड़ताल के साथ-साथ राजनीतिक सिद्धान्तकार हमारे वर्तमान राजनीतिक अनुभवों की छानबीन करते हैं और भावी रुझानों तथा संभावनाओं को चिन्हित करते हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

→ राजनीतिक सिद्धान्त की प्रासंगिकता:
स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र से संबंधित प्रश्न अभी भी उठ रहे हैं और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में ये अलग-अलग रफ्तार से बढ़ रहे हैं। जैसे- सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में समानता का प्राप्त न होना, कुछ लोगों का मूल आवश्यकताओं से वंचित होना आदि।

→ यद्यपि हमारे संविधान में स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है, फिर भी हमें हरदम नई व्याख्याओं का सामना करना पड़ रहा है। नई परिस्थितियों के संदर्भ में मोलिक अधिकारों की नई व्याख्यायें की जा रही हैं। ये व्याख्यायें नई समस्याओं का समाधान कर रही हैं। जैसे आजीविका के अधिकार को जीवन के अधिकार में शामिल करने के लिए अदालतों द्वारा पुनर्व्याख्या की गई है।

→ जैसे-जैसे हमारी दुनिया बदल रही है, हम स्वतंत्रता और स्वतंत्रता पर संभावित खतरों के नये-नये आयामों को खोज रहे हैं। जैसे वैश्विक संचार तकनीक से जंगल की सुरक्षा के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं का एक नेटवर्क बन रहा है, वहीं आतंकवादियों का भी एक नेटवर्क बना है। राजनीतिक सिद्धान्त में ऐसे अनेक प्रश्नों के संभावित उत्तरों के सिलसिले में हमारे लिए सीखने के लिए बहुत कुछ हैं और इसीलिए यह प्रासंगिक है।

→ राजनीतिक सिद्धान्तों को व्यवहार में उतारना
राजनीतिक अवधारणाओं के अर्थ को राजनीतिक सिद्धान्तकार यह देखते हुए स्पष्ट करते हैं कि आम भाषा में इसे कैसे समझा और बरता जाता है। वे विविध अर्थों और रायों पर विचार-विमर्श और उनकी जांच-पड़ताल भी सुव्यवस्थित तरीके से करते हैं। उदाहरण के लिए, अवसर की समानता कब पर्याप्त है? कब लोगों को विशेष बरताव की जरूरत होती है? ऐसा विशेष बरताव कब तक और किस हद तक किया जाना चाहिए? क्या गरीब बच्चों को स्कूल में बने रहने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु दोपहर का भोजन दिया जाना चाहिए? ऐसे प्रश्नों की ओर वे मुखातिब होते हैं।

ये मसले पूर्णतः व्यावहारिक हैं। वे शिक्षा और रोजगार के बारे में सार्वजनिक नीतियाँ तय करने में मार्गदर्शन करते हैं। समानता की तरह ही अन्य अवधारणाओं के सम्बन्ध में राजनीतिक सिद्धान्तकारों को रोजमर्रा के विचारों के प्रसंग में संभावित अर्थों पर विचार-विमर्श करना पड़ता है और नीतिगत विकल्पों को सूत्रबद्ध करना पड़ता है।

→ हमें राजनीतिक सिद्धान्त क्यों पढ़ने चाहिए?
हमें राजनीतिक सिद्धान्त पढ़ने चाहिए; क्योंकि।

  • राजनीतिक सिद्धान्तों का अध्ययन राजनेताओं, नीति निर्माता नौकरशाहों, राजनीतिक सिद्धान्त पढ़ाने वाले अध्यापकों, वकीलों, जजों, शोषण का पर्दाफाश करने वाले कार्यकर्ताओं व पत्रकारों आदि ऐसे सभी समूहों के लिए प्रासंगिक है।
  • दायित्वपूर्ण कार्य निर्वहन के लिए उन राजनीतिक विचारों और संस्थाओं की बुनियादी जानकारी हमारे लिए सहायक होती है, जो हमारी दुनिया को आकार देते हैं। राजनीतिक सिद्धान्तों का अध्ययन नागरिकों के लिए आवश्यक है क्योंकि शिक्षित और सचेत नागरिक राजनीति करने वालों को जनाभिमुख बना देते हैं।
  • राजनीतिक सिद्धान्त हमें राजनीतिक चीजों के बारे में अपने विचारों और भावनाओं के परीक्षण के लिए प्रोत्साहित करता है और थोड़ी अधिक सतर्कता से चीजों को देखने से हम अपने विचारों और भावनाओं में उदार हो जाते हैं।
  • राजनीतिक सिद्धान्त हमें न्याय या समानता के बारे में सुव्यवस्थित सोच से अवगत कराते हैं, ताकि हम अपने विचारों को परिष्कृत कर सकें और सार्वजनिक हित में तर्क-वितर्क कर सकें।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति Textbook Exercise Questions and Answers.

Jharkhand Board Class 11 Political Science शांति Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
क्या आप जानते हैं कि एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है? क्या मस्तिष्क शांति को बढ़ावा दे सकता है? और क्या मानव मस्तिष्क पर केन्द्रित रहना शांति स्थापना के लिए पर्याप्त है?
उत्तर:
वर्तमान लोकतांत्रिक काल में यदि हम एक शांतिपूर्ण दुनिया चाहते हैं तो लोगों के सोचने के तरीकों में बदलाव लाना आवश्यक है क्योंकि लोगों के मस्तिष्क यदि शांति के बारे में सोचेंगे तो हिंसात्मक गतिविधियाँ अपने आप कम हो जायेंगी। संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनिसेफ) के संविधान ने भी यह उचित टिप्पणी की है कि “चूंकि युद्ध का प्रारंभ लोगों के दिमाग में होता है, इसलिए शांति के बचाव भी लोगों के दिमाग में ही रचे जाने चाहिए ।” इस तरह के प्रयास के लिए करुणा जैसे पुराने आध्यात्मिक सिद्धान्त और ध्यान जैसे अभ्यास उपयुक्त हैं। यही कारण है कि आज शांति को बढ़ावा देने के लिए शांतिपूर्ण आन्दोलन जारी हैं। इस आन्दोलन को विभिन्न तबके के लोगों ने बढ़ावा दिया है जिनमें लेखक, वैज्ञानिक, शिक्षक, पत्रकार, पुजारी, राजनेता और मजदूर – सभी शामिल हैं। इस आन्दोलन ने शांति अध्ययन नामक ज्ञान की एक नई शाखा का भी सृजन किया है और इंटरनेट जैसे संप्रेषण के नए माध्यम का कारगर इस्तेमाल भी किया है।

लेकिन केवल मानव मस्तिष्क पर केन्द्रित रहकर शांति की स्थापना नहीं हो सकती। मस्तिष्क तो शांति स्थापना का एक उपाय दे सकता है। इस उपाय को कारगर व उचित ढंग से संरचनात्मक हिंसा को निर्मूल करके ही किया जा सकता है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना संरचनात्मक हिंसा के निर्मूल करने के लिए अनिवार्य है क्योंकि शांति संतुष्ट लोगों के समस्त सहअस्तित्व में ही संभव है। दूसरे, जिस प्रकार विश्व में छः क्षेत्र परमाणु हथियार मुक्त क्षेत्र बने हैं, उस दिशा में अन्य क्षेत्रों को भी पहल करनी होगी। जापान और कोस्टारिका देशों की तरह अन्य देशों को भी सैन्य बल न रखने की दिशा में पहल करनी होगी।

प्रश्न 2.
राज्य को अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा अवश्य ही करनी चाहिए। हालांकि कई बार राज्य के कार्य इसके कुछ नागरिकों के खिलाफ हिंसा के स्रोत होते हैं। कुछ उदाहरणों की मदद से इस पर टिप्पणी कीजिए ।
उत्तर- राज्य का प्रथम अनिवार्य एवं आवश्यक दायित्व यह है कि यह सभी का जीवन व उनके अधिकार रखे। इस दायित्व को पूरा करने के लिए राज्य के पास पुलिस, अर्ध सैनिक बल तथा सेनाएँ होती हैं। राज्य कमजोर लोगों को सबलों से, निर्धनों को अमीरों के अन्यायों एवं मनमानी से, चोर, लुटेरों, डाकुओं तथा हत्यारों से सभी की रक्षा करता है।

राज्य नागरिकों को अनेक मौलिक तथा अन्य अधिकार प्रदान करता है। इनकी रक्षा के लिए राज्य पुलिस तथा न्यायपालिका की व्यवस्था करता है। उसी के प्रयासों से कानून के समक्ष समानता तथा कानून का राज्य बना रहता है। यद्यपि राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सेना या पुलिस का प्रयोग अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए करेगा लेकिन व्यवहार में वह इन शक्तियों का प्रयोग अपने ही नागरिकों के विरोध के स्वर को दबाने के लिए करता रहा है राज्य कई बार धारा 144 लागू करता है, कई बार वह कर्फ्यू लगा देता है।

जो लोग राज्य के कुछ निर्णयों, सिद्धान्तों  योजनाओं को अपने विरुद्ध समझकर भूख हड़ताल, प्रदर्शन, आंदोलन आदि करते हैं, तो राज्य कई बार मनमाने ढंग से पुलिस बल का इस्तेमाल करता है। कई बार राज्य अनधिकृत मकानों को गिराता है, सील करता है, तो लोग हिंसा पर उतारू हो जाते हैं और राज्य उनके विरुद्ध भी पुलिस बल का प्रयोग करता है। राज्य का हिंसा का व्यवहार निरंकुश शासन और म्यांमार जैसी सैनिक तानाशाही में सबसे अधिक स्पष्ट दिखता है। जबकि लोकतांत्रिक शासन प्रणालियों में अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा के अधिक कारगर प्रयत्न किये गये हैं क्योंकि लोकतंत्र में राज्य सत्ता जनता के प्रति जबावदेह होती है।

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प्रश्न 3.
शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो। क्या आप सहमत हैं?
उत्तर:
शांति सर्वोत्तम रूप में स्वतंत्रता, समानता व शांति के वातावरण में ही संभव है – यह विचार पूर्णतया सही है कि शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो।
जहाँ समानता नहीं होगी, वहाँ स्वामी और नौकर के सम्बन्ध या शोषक तथा शोषित के सम्बन्ध हो सकते हैं। ऐसी दशा में भ्रातृत्व तथा पारस्परिक सहयोग की भावना का अभाव होगा। इसी प्रकार जहाँ स्वतंत्रता का वातावरण नहीं होगा, वहाँ कुछ लोग स्वतंत्रता से वंचित हो सकते हैं तथा वे अपने व्यक्तित्व के विकास के समान अवसरों की स्वतंत्रता से वंचित हो सकते हैं; वे अधिक शक्तिशाली लोगों द्वारा शोषित किये जायेंगे, ऐसी स्थिति में उनमें भ्रातृत्व की भावना नहीं हो सकती। इसी प्रकार जहाँ न्याय नहीं होगा, वहाँ कुछ लोग दूसरों के द्वारा शोषित तथा पीड़ित किये जायेंगे।

वे कुछ लोगों की सुविधाओं के लिए उत्पीड़ित किये जायेंगे। ऐसे लोगों में शांति की भावना कैसे पैदा हो सकती है। सन्त एक्विनास के शब्दों में ऐसा राज्य जहाँ न्याय नहीं है, वह राज्य न होकर लुटेरों का समूह है और कोई भी व्यक्ति लुटेरों के बीच में अपने को सुरक्षित और शांतिपूर्ण कैसे महसूस कर सकता है। दूसरे, यदि किसी राज्य में स्वतंत्रता, समानता और न्याय की स्थापना नहीं हुई है, तो वहाँ प्रायः इनकी प्राप्ति के लिए आंदोलन चलते रहते हैं, जिसके कारण वहाँ शांति नहीं हो पाती। अतः समानता तथा स्वतंत्रता के साथ-साथ न्याय भी सर्वोत्तम शांति के रूप की स्थापना के लिए जरूरी है। जिस समाज में समानता, स्वतंत्रता और न्याय विद्यमान होता है, उस समाज के लोग संतुष्ट रहते हैं, उनको अपने व्यक्तित्व के विकास के समान अवसर मिलते हैं तथा उनका शोषण नहीं होता है। वे स्वेच्छा से राज्य के आदर्श का पालन करते हैं तथा समाज में शांति रहती है।

प्रश्न 4.
हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं?
उत्तर:
यह कथन सर्वथा उचित है कि हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। अक्सर यह दावा किया जाता है कि कभी-कभी हिंसा शांति लाने की अपरिहार्य पूर्व शर्त जैसी होती है। यह तर्क दिया जाता है कि तानाशाहों और उत्पीड़कों को जबरन अर्थात् हिंसा के द्वारा शक्ति से हटाकर ही उनको, जनता का निरन्तर नुकसान पहुँचाने से रोका जा सकता है। या फिर, उत्पीड़ित लोगों के मुक्ति संघर्षों को हिंसा के कुछ इस्तेमाल के बावजूद न्यायपूर्ण ठहराया जा सकता है।

लेकिन अच्छे मकसद से भी हिंसा का सहारा लेना आत्मघाती हो सकता है क्योंकि हिंसा के एक बार शुरू हो जाने पर इसकी प्रवृत्ति नियंत्रण से बाहर हो जाने की होती है और इसके कारण यह अपने पीछे मौत और बर्बादी की एक श्रृंखला छोड़ जाती है। अतः स्पष्ट है कि हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता क्योंकि हिंसा का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक कठिनाइयों व हानियों से गुजरता है, वे उसके भीतर कुंठा पैदा कर देती हैं और ये कुंठाएँ व शिकायतें आने वाली पीढ़ियों में भी पाई जाती हैं जो कभी भी उग्र रूप धारण कर सकती हैं।

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प्रश्न 5.
विश्व में शांति स्थापना के जिन दृष्टिकोणों की अध्याय में चर्चा की गई है, उनके बीच क्या अन्तर है?
उत्तर:
शांति कायम करने के दृष्टिकोण – अध्याय में विश्व में शांति स्थापना के लिए निम्नलिखित तीन दृष्टिकोणों की चर्चा की गई है

1. राष्ट्रों को केन्द्रीय स्थान देना:
पहला दृष्टिकोण राष्ट्रों को केन्द्रीय स्थान देता है, उनकी संप्रभुता का आदर करता है और उनके बीच प्रतिद्वन्द्विता को जीवन्त सत्य मानता है। उसकी मुख्य चिन्ता प्रतिद्वन्द्विता के उपयुक्त प्रबन्धन तथा संघर्ष की आशंका का शमन सत्ता-सन्तुलन की पारस्परिक व्यवस्था के माध्यम से करने की होती है। वैसा एक संतुलन 19वीं सदी में प्रचलित था, जब प्रमुख यूरोपीय देशों ने संभावित आक्रमण को रोकने और बड़े पैमाने पर युद्ध से बचने के लिए अपने सत्ता-संघर्षों में गठबंधन बनाते हुए तालमेल किया।

2. राज्यों की अन्तर्निर्भरता तथा सहयोग:
दूसरा दृष्टिकोण राष्ट्रों की गहराई तक जमी आपसी प्रतिद्वन्द्विता की प्रकृति को स्वीकार करता है, लेकिन इसका जोर सकारात्मक उपस्थिति और परस्पर निर्भरता की संभावनाओं पर है। यह विभिन्न देशों के बीच विकासमान सामाजिक-आर्थिक सहयोग को रेखांकित करता है क्योंकि ये सहयोग राष्ट्र की संप्रभुता को नरम करेंगे और अन्तर्राष्ट्रीय समझदारी को प्रोत्साहित करेंगे। पररणामस्वरूप वैश्विक संघर्ष कम होंगे, जिससे शांति की बेहतर संभावनाएँ बनेंगी। इसका उदाहरण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का यूरोप है जो आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकीकरण की ओर बढ़ता गया है।

3. वैश्वीकरण का दृष्टिकोण:
तीसरा दृष्टिकोण पहली दो पद्धतियों या दृष्टिकोणों से इस रूप में भिन्न है कि यह राष्ट्र आधारित व्यवस्था को मानव इतिहास की समाप्तप्राय अवस्था मानता है। यह अधिराष्ट्रीय व्यवस्था का मनोचित्र बनाता है और वैश्विक समुदाय के अभ्युदय को विश्व शांति की विश्वसनीय गारण्टी मानता है। वैसे समुदायों के बीच बहुराष्ट्रीय निगम और जन आंदोलन जैसे विविध गैर सरकारी कर्ताओं की क्रियाओं में देखे जा सकते हैं। वैश्वीकरण की प्रक्रिया राष्ट्रों की पहले से ही घट गई प्रधानता और संप्रभुता को अधिक क्षीण कर रही है, जिसके फलस्वरूप विश्व: शांति कायम होने की परिस्थिति तैयार हो रही है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि तीनों दृष्टिकोणों में निम्न महत्त्वपूर्ण अन्तर पाये जाते हैं। पहले दृष्टिकोण में संप्रभु राष्ट्र राज्यों को महत्त्वपूर्ण स्थान देकर उनके बीच विद्यमान पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को स्वीकार करते हुए शक्ति-संतुलन पर बल दिया गया है, तो दूसरे दृष्टिकोण में राष्ट्र-राज्यों की पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को स्वीकार तो किया गया है, लेकिन इससे आर्थिक-सामाजिक सहयोग द्वारा शांति स्थापना पर बल दिया गया है, जबकि तीसरा दृष्टिकोण संप्रभुं राष्ट्र राज्यों की व्यवस्था व उसकी प्रतिद्वन्द्विता को ही नकारता है और वैश्वीकरण व वैश्विक समुदाय के माध्यम से विश्व शांति चाहता है।

शांति JAC Class 11 Political Science Notes

→ भूमिका: शांति की वांछनीयता को लेकर ऊपरी आम सहमति अपेक्षाकृत हाल-फिलहाल की घटना है। अतीत के अनेक महत्त्वपूर्ण चिंतकों, जैसे जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे, इटली के समाज सिद्धान्तकार विल्फ्रेडो पैरेटये आदि ने शांति के बारे में नकारात्मक ढंग से लिखा है और इन्होंने संघर्ष तथा ताकत को सभ्यता की उन्नति का मार्ग बताया है। दूसरी तरफ लगभग सभी धार्मिक उपदेशों में शांति को महत्त्व दिया गया है। आधुनिक काल में महात्मा गाँधी व अन्य अनेक चिंतकों ने शांति का प्रबल पक्ष लिया है। शांति के प्रति समकालीन आग्रह के निशान 20वीं सदी के अत्याचारों फासीवाद, नाजीवाद का उदय, विश्वयुद्धों, भारत-पाक विभाजन, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चली प्रचंड हथियारों की प्रतिस्पर्द्धा व सैनिक प्रतिद्वन्द्विता आदि-घटनाओं में देखे जा सकते हैं।

अगर लोग आज शांति का गुणगान करते हैं तो महज इसलिए नहीं कि वे इसे अच्छा विचार मानते हैं। शांति की अनुपस्थिति की भारी कीमत चुकाने के बाद मानवता ने इसका महत्व पहचाना है। त्रासद संघर्षों के प्रेत हमें लगातार कचोटते रहते हैं। आज जीवन अतीत के किसी भी समय से कहीं अधिक असुरक्षित है क्योंकि हर जगह के लोग आतंकवाद के बढ़ते खतरों का सामना कर रहे हैं। शांति लगातार बहुमूल्य इसलिए बनी हई है कि इस पर खतरे का सामान हमेशा मौजूद ह ।

→ शांति का अर्थ

  • शांति युद्ध की अनुपस्थिति के रूप में – शांति की परिभाषा अक्सर युद्ध की अनुपस्थिति के रूप में की जाती है। लेकिन यह परिभाषा भ्रामक है। यद्यपि प्रत्येक युद्ध शांति के अभाव की ओर जाता है, लेकिन शांति का हर अभाव युद्ध का रूप ले यह जरूरी नहीं है। उदाहरण के लिए रवांडा या बोस्निया में जो हुआ वह इस तरह का युद्ध नहीं था।
  • शांति सभी प्रकार के हिंसक संघर्षों के अभाव के रूप में शांति की दूसरी परिभाषा युद्ध, दंगा, नरसंहार, कत्ल या सामान्य शारीरिक प्रहार समेत सभी प्रकार के हिंसक संघर्षों के अभाव के रूप में की जाती है। लेकिन जाति भेद, वर्ग भेद, पितृसत्ता, उपनिवेशवाद, नस्लवाद और साम्प्रदायिकता भी हिंसक संघर्ष न होकर ‘संरचनात्मक हिंसा’ है जो अशांतिकारक है।

→ संरचनात्मक हिंसा के विभिन्न रूप-हिंसा प्रायः
समाज की मूल संरचना में ही रची-बसी है। संरचनात्मक हिंसा के बड़े पैमाने के दुष्परिणाम हैं- जातिभेद, वर्गभेद, पितृसत्ता, उपनिवेशवाद, नस्लवाद और साम्प्रदायिकता। न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और संघर्ष के कारणों को साफ-साफ व्यक्त करने और बातचीत द्वारा हल करने के जरिये ही प्राप्त की जा सकती है।

→ हिंसा की समाप्ति:
करुणा, ध्यान, आधुनिक नीरोगकारी तकनीक, मनोविश्लेषण तथा न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना आदि संरचनात्मक हिंसा को निर्मूल करने के लिए अनिवार्य हैं। शांति एक बार में हमेशा के लिए हासिल नहीं की जा सकती। शांति कोई अंतिम स्थिति नहीं बल्कि ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें व्यापकता अर्थों में मानव कल्याण की स्थापना के लिए जरूरी नैतिक और भौतिक संसाधनों के सक्रिय क्रियाकलाप शामिल होते हैं।

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→ क्या हिंसा कभी शांति को प्रोत्साहित कर सकती है?
प्रायः यह दावा किया जाता है कि हिंसा एक बुराई है लेकिन कभी-कभी यह शांति लाने की अपरिहार्य पूर्व शर्त जैसी होती है। लेकिन अच्छे मकसद से भी हिंसा का सहारा लेना आत्मघाती हो सकता है क्योंकि इसकी प्रवृत्त्रण से बाहर हो जाने की होती है और इसके कारण यह अपने पीछे मौत और बर्बादी की एक श्रृंखला छोड़ जाती है।

शांतिवादी का मकसद प्रतिरोध के अहिंसक स्वरूप पर बल देना है, जैसे सविनय अवज्ञा। नागरिक अवज्ञा के दबाव में अन्यायपूर्ण संरचनाएँ भी रास्ता दे सकती हैं। जैसे गांधी और मार्टिन लूथर किंग ने किया। कभी-कभार वे अपनी विसंगतियों के बोझ से भी ध्वस्त हो सकती हैं, जैसे सोवियत व्यवस्था का विघटन।

→ शांति और राज्य सत्ता:

  • संप्रभु राज्य में हर हालत में अपने हितों को बचाने और बढ़ाने की प्रवृत्ति पायी जाती है।
  • मानवाधिकार के नाम पर हर राज्य अपने नागरिकों के हितों के नाम पर बाकी लोगों को हानि पहुँचाने को तैयार रहता है।
  • प्रत्येक राज्य ने बल प्रयोग के अपने उपकरणों को मजबूत किया है।
  • विश्व अलग- अलग संप्रभु राष्ट्रों में विभाजित है। इससे शांति के रास्ते में अवरोध उत्पन्न होते हैं।

इन समस्याओं का दीर्घकालिक समाधान सार्थक लोकतंत्रीकरण और अधिक नागरिक आजादी की एक कारगर पद्धति में है। इसके माध्यम से राज्य सत्ता को ज्यादा जवाबदेह बनाया जा सकता है। इस प्रकार लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों के लिए संघर्ष और शांति के सुरक्षित बने रहने के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है।

→ शांति कायम करने के विभिन्न तरीके: शांति कायम करने के विभिन्न तरीके रहे हैं। इनमें प्रमुख हैं:

  • सत्ता संतुलन
  • सामाजिक-आर्थिक सहयोग (आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकीकरण)
  • वैश्वीकरण संयुक्त राष्ट्र के अंग- सुरक्षा परिषद्, आर्थिक-सामाजिक परिषद् और मानवाधिकार आयोग उक्त तीनों ही पद्धतियों के प्रमुख तत्वों को साकार कर सकते हैं।

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→ समकालीन चुनौतियाँ:

  • यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ ने शांति की स्थापना में अनेक उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं, लेकिन वह शांति के खतरों को समाप्त करने में सफल नहीं हुआ है। इसके बजाय
  • दबंग राष्ट्रों जैसे अफगानिस्तान या महाशक्तियों का संप्रभुता का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन करते हुए सीधी सैनिक कार्यवाहियाँ करना, और इराक में अमेरिकी हस्तक्षेप
  • आक्रामक राष्ट्रों के स्वार्थपूर्ण आचरण से आतंकवाद का उदय व विस्तार
  • नस्ल संहार अर्थात् किसी समूचे जनसमूह का व्यवस्थित संहार आदि ने शांति के समक्ष चुनौतियाँ पैदा की हैं।

→ विश्व शांति के सिद्धान्त के पालन के रूप: शांति के समक्ष बढ़ती चुनौतियाँ होने का अर्थ यह नहीं है कि शांति एक चुका हुआ सिद्धान्त है। शांति का सिद्धान्त आज भी प्रासंगिक है। यथा

  • जापान और कोस्टारिका देशों द्वारा सैन्य बल नहीं रखना।
  • विश्व के अनेक हिस्सों में परमाणविक हथियार के मुक्त क्षेत्र – दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र, लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका, दक्षिणी प्रशान्त क्षेत्र और मंगोलिया।
  • सोवियत संघ का विघटन और महाशक्तियों की सैनिक प्रतिद्वन्द्विता की समाप्ति।
  • अनेक विश्व शांति आन्दोलनों का जारी रहना तथा उसका विस्तार।
  • महिला सशक्तीकरण तथा पर्यावरण सुरक्षा जैसे आंदोलन|
  • शांति अध्ययन की शाखा का जन्म – इंटरनेट जैसे संप्रेषण के नए माध्यम का कारगर प्रयोग। ये तथ्य आज भी शांति के सिद्धान्त को रेखांकित करते हैं।

निष्कर्ष: शांति के क्रियाकलापों में सद्भावनापूर्ण सामाजिक सम्बन्ध के सृजन और संवर्द्धन के अविचल प्रयास शामिल होते हैं, जो मानव कल्याण और खुशहाली के लिए प्रेरित होते हैं।