JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति Textbook Exercise Questions and Answers.

Jharkhand Board Class 11 Political Science शांति Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
क्या आप जानते हैं कि एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है? क्या मस्तिष्क शांति को बढ़ावा दे सकता है? और क्या मानव मस्तिष्क पर केन्द्रित रहना शांति स्थापना के लिए पर्याप्त है?
उत्तर:
वर्तमान लोकतांत्रिक काल में यदि हम एक शांतिपूर्ण दुनिया चाहते हैं तो लोगों के सोचने के तरीकों में बदलाव लाना आवश्यक है क्योंकि लोगों के मस्तिष्क यदि शांति के बारे में सोचेंगे तो हिंसात्मक गतिविधियाँ अपने आप कम हो जायेंगी। संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनिसेफ) के संविधान ने भी यह उचित टिप्पणी की है कि “चूंकि युद्ध का प्रारंभ लोगों के दिमाग में होता है, इसलिए शांति के बचाव भी लोगों के दिमाग में ही रचे जाने चाहिए ।” इस तरह के प्रयास के लिए करुणा जैसे पुराने आध्यात्मिक सिद्धान्त और ध्यान जैसे अभ्यास उपयुक्त हैं। यही कारण है कि आज शांति को बढ़ावा देने के लिए शांतिपूर्ण आन्दोलन जारी हैं। इस आन्दोलन को विभिन्न तबके के लोगों ने बढ़ावा दिया है जिनमें लेखक, वैज्ञानिक, शिक्षक, पत्रकार, पुजारी, राजनेता और मजदूर – सभी शामिल हैं। इस आन्दोलन ने शांति अध्ययन नामक ज्ञान की एक नई शाखा का भी सृजन किया है और इंटरनेट जैसे संप्रेषण के नए माध्यम का कारगर इस्तेमाल भी किया है।

लेकिन केवल मानव मस्तिष्क पर केन्द्रित रहकर शांति की स्थापना नहीं हो सकती। मस्तिष्क तो शांति स्थापना का एक उपाय दे सकता है। इस उपाय को कारगर व उचित ढंग से संरचनात्मक हिंसा को निर्मूल करके ही किया जा सकता है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना संरचनात्मक हिंसा के निर्मूल करने के लिए अनिवार्य है क्योंकि शांति संतुष्ट लोगों के समस्त सहअस्तित्व में ही संभव है। दूसरे, जिस प्रकार विश्व में छः क्षेत्र परमाणु हथियार मुक्त क्षेत्र बने हैं, उस दिशा में अन्य क्षेत्रों को भी पहल करनी होगी। जापान और कोस्टारिका देशों की तरह अन्य देशों को भी सैन्य बल न रखने की दिशा में पहल करनी होगी।

प्रश्न 2.
राज्य को अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा अवश्य ही करनी चाहिए। हालांकि कई बार राज्य के कार्य इसके कुछ नागरिकों के खिलाफ हिंसा के स्रोत होते हैं। कुछ उदाहरणों की मदद से इस पर टिप्पणी कीजिए ।
उत्तर- राज्य का प्रथम अनिवार्य एवं आवश्यक दायित्व यह है कि यह सभी का जीवन व उनके अधिकार रखे। इस दायित्व को पूरा करने के लिए राज्य के पास पुलिस, अर्ध सैनिक बल तथा सेनाएँ होती हैं। राज्य कमजोर लोगों को सबलों से, निर्धनों को अमीरों के अन्यायों एवं मनमानी से, चोर, लुटेरों, डाकुओं तथा हत्यारों से सभी की रक्षा करता है।

राज्य नागरिकों को अनेक मौलिक तथा अन्य अधिकार प्रदान करता है। इनकी रक्षा के लिए राज्य पुलिस तथा न्यायपालिका की व्यवस्था करता है। उसी के प्रयासों से कानून के समक्ष समानता तथा कानून का राज्य बना रहता है। यद्यपि राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सेना या पुलिस का प्रयोग अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए करेगा लेकिन व्यवहार में वह इन शक्तियों का प्रयोग अपने ही नागरिकों के विरोध के स्वर को दबाने के लिए करता रहा है राज्य कई बार धारा 144 लागू करता है, कई बार वह कर्फ्यू लगा देता है।

जो लोग राज्य के कुछ निर्णयों, सिद्धान्तों  योजनाओं को अपने विरुद्ध समझकर भूख हड़ताल, प्रदर्शन, आंदोलन आदि करते हैं, तो राज्य कई बार मनमाने ढंग से पुलिस बल का इस्तेमाल करता है। कई बार राज्य अनधिकृत मकानों को गिराता है, सील करता है, तो लोग हिंसा पर उतारू हो जाते हैं और राज्य उनके विरुद्ध भी पुलिस बल का प्रयोग करता है। राज्य का हिंसा का व्यवहार निरंकुश शासन और म्यांमार जैसी सैनिक तानाशाही में सबसे अधिक स्पष्ट दिखता है। जबकि लोकतांत्रिक शासन प्रणालियों में अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा के अधिक कारगर प्रयत्न किये गये हैं क्योंकि लोकतंत्र में राज्य सत्ता जनता के प्रति जबावदेह होती है।

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प्रश्न 3.
शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो। क्या आप सहमत हैं?
उत्तर:
शांति सर्वोत्तम रूप में स्वतंत्रता, समानता व शांति के वातावरण में ही संभव है – यह विचार पूर्णतया सही है कि शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो।
जहाँ समानता नहीं होगी, वहाँ स्वामी और नौकर के सम्बन्ध या शोषक तथा शोषित के सम्बन्ध हो सकते हैं। ऐसी दशा में भ्रातृत्व तथा पारस्परिक सहयोग की भावना का अभाव होगा। इसी प्रकार जहाँ स्वतंत्रता का वातावरण नहीं होगा, वहाँ कुछ लोग स्वतंत्रता से वंचित हो सकते हैं तथा वे अपने व्यक्तित्व के विकास के समान अवसरों की स्वतंत्रता से वंचित हो सकते हैं; वे अधिक शक्तिशाली लोगों द्वारा शोषित किये जायेंगे, ऐसी स्थिति में उनमें भ्रातृत्व की भावना नहीं हो सकती। इसी प्रकार जहाँ न्याय नहीं होगा, वहाँ कुछ लोग दूसरों के द्वारा शोषित तथा पीड़ित किये जायेंगे।

वे कुछ लोगों की सुविधाओं के लिए उत्पीड़ित किये जायेंगे। ऐसे लोगों में शांति की भावना कैसे पैदा हो सकती है। सन्त एक्विनास के शब्दों में ऐसा राज्य जहाँ न्याय नहीं है, वह राज्य न होकर लुटेरों का समूह है और कोई भी व्यक्ति लुटेरों के बीच में अपने को सुरक्षित और शांतिपूर्ण कैसे महसूस कर सकता है। दूसरे, यदि किसी राज्य में स्वतंत्रता, समानता और न्याय की स्थापना नहीं हुई है, तो वहाँ प्रायः इनकी प्राप्ति के लिए आंदोलन चलते रहते हैं, जिसके कारण वहाँ शांति नहीं हो पाती। अतः समानता तथा स्वतंत्रता के साथ-साथ न्याय भी सर्वोत्तम शांति के रूप की स्थापना के लिए जरूरी है। जिस समाज में समानता, स्वतंत्रता और न्याय विद्यमान होता है, उस समाज के लोग संतुष्ट रहते हैं, उनको अपने व्यक्तित्व के विकास के समान अवसर मिलते हैं तथा उनका शोषण नहीं होता है। वे स्वेच्छा से राज्य के आदर्श का पालन करते हैं तथा समाज में शांति रहती है।

प्रश्न 4.
हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं?
उत्तर:
यह कथन सर्वथा उचित है कि हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। अक्सर यह दावा किया जाता है कि कभी-कभी हिंसा शांति लाने की अपरिहार्य पूर्व शर्त जैसी होती है। यह तर्क दिया जाता है कि तानाशाहों और उत्पीड़कों को जबरन अर्थात् हिंसा के द्वारा शक्ति से हटाकर ही उनको, जनता का निरन्तर नुकसान पहुँचाने से रोका जा सकता है। या फिर, उत्पीड़ित लोगों के मुक्ति संघर्षों को हिंसा के कुछ इस्तेमाल के बावजूद न्यायपूर्ण ठहराया जा सकता है।

लेकिन अच्छे मकसद से भी हिंसा का सहारा लेना आत्मघाती हो सकता है क्योंकि हिंसा के एक बार शुरू हो जाने पर इसकी प्रवृत्ति नियंत्रण से बाहर हो जाने की होती है और इसके कारण यह अपने पीछे मौत और बर्बादी की एक श्रृंखला छोड़ जाती है। अतः स्पष्ट है कि हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता क्योंकि हिंसा का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक कठिनाइयों व हानियों से गुजरता है, वे उसके भीतर कुंठा पैदा कर देती हैं और ये कुंठाएँ व शिकायतें आने वाली पीढ़ियों में भी पाई जाती हैं जो कभी भी उग्र रूप धारण कर सकती हैं।

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प्रश्न 5.
विश्व में शांति स्थापना के जिन दृष्टिकोणों की अध्याय में चर्चा की गई है, उनके बीच क्या अन्तर है?
उत्तर:
शांति कायम करने के दृष्टिकोण – अध्याय में विश्व में शांति स्थापना के लिए निम्नलिखित तीन दृष्टिकोणों की चर्चा की गई है

1. राष्ट्रों को केन्द्रीय स्थान देना:
पहला दृष्टिकोण राष्ट्रों को केन्द्रीय स्थान देता है, उनकी संप्रभुता का आदर करता है और उनके बीच प्रतिद्वन्द्विता को जीवन्त सत्य मानता है। उसकी मुख्य चिन्ता प्रतिद्वन्द्विता के उपयुक्त प्रबन्धन तथा संघर्ष की आशंका का शमन सत्ता-सन्तुलन की पारस्परिक व्यवस्था के माध्यम से करने की होती है। वैसा एक संतुलन 19वीं सदी में प्रचलित था, जब प्रमुख यूरोपीय देशों ने संभावित आक्रमण को रोकने और बड़े पैमाने पर युद्ध से बचने के लिए अपने सत्ता-संघर्षों में गठबंधन बनाते हुए तालमेल किया।

2. राज्यों की अन्तर्निर्भरता तथा सहयोग:
दूसरा दृष्टिकोण राष्ट्रों की गहराई तक जमी आपसी प्रतिद्वन्द्विता की प्रकृति को स्वीकार करता है, लेकिन इसका जोर सकारात्मक उपस्थिति और परस्पर निर्भरता की संभावनाओं पर है। यह विभिन्न देशों के बीच विकासमान सामाजिक-आर्थिक सहयोग को रेखांकित करता है क्योंकि ये सहयोग राष्ट्र की संप्रभुता को नरम करेंगे और अन्तर्राष्ट्रीय समझदारी को प्रोत्साहित करेंगे। पररणामस्वरूप वैश्विक संघर्ष कम होंगे, जिससे शांति की बेहतर संभावनाएँ बनेंगी। इसका उदाहरण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का यूरोप है जो आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकीकरण की ओर बढ़ता गया है।

3. वैश्वीकरण का दृष्टिकोण:
तीसरा दृष्टिकोण पहली दो पद्धतियों या दृष्टिकोणों से इस रूप में भिन्न है कि यह राष्ट्र आधारित व्यवस्था को मानव इतिहास की समाप्तप्राय अवस्था मानता है। यह अधिराष्ट्रीय व्यवस्था का मनोचित्र बनाता है और वैश्विक समुदाय के अभ्युदय को विश्व शांति की विश्वसनीय गारण्टी मानता है। वैसे समुदायों के बीच बहुराष्ट्रीय निगम और जन आंदोलन जैसे विविध गैर सरकारी कर्ताओं की क्रियाओं में देखे जा सकते हैं। वैश्वीकरण की प्रक्रिया राष्ट्रों की पहले से ही घट गई प्रधानता और संप्रभुता को अधिक क्षीण कर रही है, जिसके फलस्वरूप विश्व: शांति कायम होने की परिस्थिति तैयार हो रही है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि तीनों दृष्टिकोणों में निम्न महत्त्वपूर्ण अन्तर पाये जाते हैं। पहले दृष्टिकोण में संप्रभु राष्ट्र राज्यों को महत्त्वपूर्ण स्थान देकर उनके बीच विद्यमान पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को स्वीकार करते हुए शक्ति-संतुलन पर बल दिया गया है, तो दूसरे दृष्टिकोण में राष्ट्र-राज्यों की पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को स्वीकार तो किया गया है, लेकिन इससे आर्थिक-सामाजिक सहयोग द्वारा शांति स्थापना पर बल दिया गया है, जबकि तीसरा दृष्टिकोण संप्रभुं राष्ट्र राज्यों की व्यवस्था व उसकी प्रतिद्वन्द्विता को ही नकारता है और वैश्वीकरण व वैश्विक समुदाय के माध्यम से विश्व शांति चाहता है।

शांति JAC Class 11 Political Science Notes

→ भूमिका: शांति की वांछनीयता को लेकर ऊपरी आम सहमति अपेक्षाकृत हाल-फिलहाल की घटना है। अतीत के अनेक महत्त्वपूर्ण चिंतकों, जैसे जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे, इटली के समाज सिद्धान्तकार विल्फ्रेडो पैरेटये आदि ने शांति के बारे में नकारात्मक ढंग से लिखा है और इन्होंने संघर्ष तथा ताकत को सभ्यता की उन्नति का मार्ग बताया है। दूसरी तरफ लगभग सभी धार्मिक उपदेशों में शांति को महत्त्व दिया गया है। आधुनिक काल में महात्मा गाँधी व अन्य अनेक चिंतकों ने शांति का प्रबल पक्ष लिया है। शांति के प्रति समकालीन आग्रह के निशान 20वीं सदी के अत्याचारों फासीवाद, नाजीवाद का उदय, विश्वयुद्धों, भारत-पाक विभाजन, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चली प्रचंड हथियारों की प्रतिस्पर्द्धा व सैनिक प्रतिद्वन्द्विता आदि-घटनाओं में देखे जा सकते हैं।

अगर लोग आज शांति का गुणगान करते हैं तो महज इसलिए नहीं कि वे इसे अच्छा विचार मानते हैं। शांति की अनुपस्थिति की भारी कीमत चुकाने के बाद मानवता ने इसका महत्व पहचाना है। त्रासद संघर्षों के प्रेत हमें लगातार कचोटते रहते हैं। आज जीवन अतीत के किसी भी समय से कहीं अधिक असुरक्षित है क्योंकि हर जगह के लोग आतंकवाद के बढ़ते खतरों का सामना कर रहे हैं। शांति लगातार बहुमूल्य इसलिए बनी हई है कि इस पर खतरे का सामान हमेशा मौजूद ह ।

→ शांति का अर्थ

  • शांति युद्ध की अनुपस्थिति के रूप में – शांति की परिभाषा अक्सर युद्ध की अनुपस्थिति के रूप में की जाती है। लेकिन यह परिभाषा भ्रामक है। यद्यपि प्रत्येक युद्ध शांति के अभाव की ओर जाता है, लेकिन शांति का हर अभाव युद्ध का रूप ले यह जरूरी नहीं है। उदाहरण के लिए रवांडा या बोस्निया में जो हुआ वह इस तरह का युद्ध नहीं था।
  • शांति सभी प्रकार के हिंसक संघर्षों के अभाव के रूप में शांति की दूसरी परिभाषा युद्ध, दंगा, नरसंहार, कत्ल या सामान्य शारीरिक प्रहार समेत सभी प्रकार के हिंसक संघर्षों के अभाव के रूप में की जाती है। लेकिन जाति भेद, वर्ग भेद, पितृसत्ता, उपनिवेशवाद, नस्लवाद और साम्प्रदायिकता भी हिंसक संघर्ष न होकर ‘संरचनात्मक हिंसा’ है जो अशांतिकारक है।

→ संरचनात्मक हिंसा के विभिन्न रूप-हिंसा प्रायः
समाज की मूल संरचना में ही रची-बसी है। संरचनात्मक हिंसा के बड़े पैमाने के दुष्परिणाम हैं- जातिभेद, वर्गभेद, पितृसत्ता, उपनिवेशवाद, नस्लवाद और साम्प्रदायिकता। न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और संघर्ष के कारणों को साफ-साफ व्यक्त करने और बातचीत द्वारा हल करने के जरिये ही प्राप्त की जा सकती है।

→ हिंसा की समाप्ति:
करुणा, ध्यान, आधुनिक नीरोगकारी तकनीक, मनोविश्लेषण तथा न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना आदि संरचनात्मक हिंसा को निर्मूल करने के लिए अनिवार्य हैं। शांति एक बार में हमेशा के लिए हासिल नहीं की जा सकती। शांति कोई अंतिम स्थिति नहीं बल्कि ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें व्यापकता अर्थों में मानव कल्याण की स्थापना के लिए जरूरी नैतिक और भौतिक संसाधनों के सक्रिय क्रियाकलाप शामिल होते हैं।

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→ क्या हिंसा कभी शांति को प्रोत्साहित कर सकती है?
प्रायः यह दावा किया जाता है कि हिंसा एक बुराई है लेकिन कभी-कभी यह शांति लाने की अपरिहार्य पूर्व शर्त जैसी होती है। लेकिन अच्छे मकसद से भी हिंसा का सहारा लेना आत्मघाती हो सकता है क्योंकि इसकी प्रवृत्त्रण से बाहर हो जाने की होती है और इसके कारण यह अपने पीछे मौत और बर्बादी की एक श्रृंखला छोड़ जाती है।

शांतिवादी का मकसद प्रतिरोध के अहिंसक स्वरूप पर बल देना है, जैसे सविनय अवज्ञा। नागरिक अवज्ञा के दबाव में अन्यायपूर्ण संरचनाएँ भी रास्ता दे सकती हैं। जैसे गांधी और मार्टिन लूथर किंग ने किया। कभी-कभार वे अपनी विसंगतियों के बोझ से भी ध्वस्त हो सकती हैं, जैसे सोवियत व्यवस्था का विघटन।

→ शांति और राज्य सत्ता:

  • संप्रभु राज्य में हर हालत में अपने हितों को बचाने और बढ़ाने की प्रवृत्ति पायी जाती है।
  • मानवाधिकार के नाम पर हर राज्य अपने नागरिकों के हितों के नाम पर बाकी लोगों को हानि पहुँचाने को तैयार रहता है।
  • प्रत्येक राज्य ने बल प्रयोग के अपने उपकरणों को मजबूत किया है।
  • विश्व अलग- अलग संप्रभु राष्ट्रों में विभाजित है। इससे शांति के रास्ते में अवरोध उत्पन्न होते हैं।

इन समस्याओं का दीर्घकालिक समाधान सार्थक लोकतंत्रीकरण और अधिक नागरिक आजादी की एक कारगर पद्धति में है। इसके माध्यम से राज्य सत्ता को ज्यादा जवाबदेह बनाया जा सकता है। इस प्रकार लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों के लिए संघर्ष और शांति के सुरक्षित बने रहने के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है।

→ शांति कायम करने के विभिन्न तरीके: शांति कायम करने के विभिन्न तरीके रहे हैं। इनमें प्रमुख हैं:

  • सत्ता संतुलन
  • सामाजिक-आर्थिक सहयोग (आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकीकरण)
  • वैश्वीकरण संयुक्त राष्ट्र के अंग- सुरक्षा परिषद्, आर्थिक-सामाजिक परिषद् और मानवाधिकार आयोग उक्त तीनों ही पद्धतियों के प्रमुख तत्वों को साकार कर सकते हैं।

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→ समकालीन चुनौतियाँ:

  • यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ ने शांति की स्थापना में अनेक उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं, लेकिन वह शांति के खतरों को समाप्त करने में सफल नहीं हुआ है। इसके बजाय
  • दबंग राष्ट्रों जैसे अफगानिस्तान या महाशक्तियों का संप्रभुता का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन करते हुए सीधी सैनिक कार्यवाहियाँ करना, और इराक में अमेरिकी हस्तक्षेप
  • आक्रामक राष्ट्रों के स्वार्थपूर्ण आचरण से आतंकवाद का उदय व विस्तार
  • नस्ल संहार अर्थात् किसी समूचे जनसमूह का व्यवस्थित संहार आदि ने शांति के समक्ष चुनौतियाँ पैदा की हैं।

→ विश्व शांति के सिद्धान्त के पालन के रूप: शांति के समक्ष बढ़ती चुनौतियाँ होने का अर्थ यह नहीं है कि शांति एक चुका हुआ सिद्धान्त है। शांति का सिद्धान्त आज भी प्रासंगिक है। यथा

  • जापान और कोस्टारिका देशों द्वारा सैन्य बल नहीं रखना।
  • विश्व के अनेक हिस्सों में परमाणविक हथियार के मुक्त क्षेत्र – दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र, लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका, दक्षिणी प्रशान्त क्षेत्र और मंगोलिया।
  • सोवियत संघ का विघटन और महाशक्तियों की सैनिक प्रतिद्वन्द्विता की समाप्ति।
  • अनेक विश्व शांति आन्दोलनों का जारी रहना तथा उसका विस्तार।
  • महिला सशक्तीकरण तथा पर्यावरण सुरक्षा जैसे आंदोलन|
  • शांति अध्ययन की शाखा का जन्म – इंटरनेट जैसे संप्रेषण के नए माध्यम का कारगर प्रयोग। ये तथ्य आज भी शांति के सिद्धान्त को रेखांकित करते हैं।

निष्कर्ष: शांति के क्रियाकलापों में सद्भावनापूर्ण सामाजिक सम्बन्ध के सृजन और संवर्द्धन के अविचल प्रयास शामिल होते हैं, जो मानव कल्याण और खुशहाली के लिए प्रेरित होते हैं।

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