JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 8 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना

Jharkhand Board JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 8 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Geography Solutions Chapter 8 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना

बहु-विकल्पी प्रश्न (Multiple Choice Questions)

प्रश्न-दिए गए चार वैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर चुनिए
1. निम्नलिखित में से कौन-सी गैस वायुमण्डल में सबसे अधिक मात्रा में मौजूद है?
(A) ऑक्सीजन
(B) आर्गन
(C) नाइट्रोजन
(D) कार्बन डाइऑक्साइड।
उत्तर:
नाइट्रोजन।

2. वह वायुमण्डलीय परत जो मानव जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है
(A) समतापमण्डल
(B) क्षोभमण्डल
(C) मध्यमण्डल
(D) आयनमण्डल।
उत्तर:
क्षोभमण्डल।

3. समुद्री नमक, पराग, राख, धुएं की कालिमा, महीन मिट्टी-ये किससे सम्बन्धित हैं?
(A) गैस
(B) जलवाष्प
(C) धूलकण
(D) उल्कापात।
उत्तर:
धूलकण।

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4. निम्नलिखित में से कितनी ऊँचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा नगनय हो जाती है?
(A) 90 कि० मी०
(B) 100 कि० मी०
(C) 120 कि० मी०
(D) 150 कि० मी०।
उत्तर:
(C) 120 कि० मी०।

5. निम्नलिखित में से कौन-सी गैस सौर विकिरण के लिए पारदर्शी है तथा पार्थिव विकिरण के लिए अपारदर्शी है?
(A) ऑक्सीजन
(B) नाइट्रोजन
(C) हीलियम
(D) कार्बन डाइऑक्साइड।
उत्तर:
(D) कार्बन डाइऑक्साइड।

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
वायुमण्डल से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए वायु के आवरण को वायुमण्डल कहते हैं। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण वायुमण्डल सदा पृथ्वी के साथ सटा रहता है तथा पृथ्वी का एक अभिन्न अंग है। वायुमण्डल के कारण ही पृथ्वी पर जीवन है तथा पृथ्वी एक महत्त्वपूर्ण ग्रह है।

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प्रश्न 2.
मौसम एवं जलवायु के प्रमुख तत्त्व बताओ।
उत्तर:
वायुमण्डल दशाएं जो मौसम की रचना करती हैं मौसम के तत्व कहलाती हैं। जैसे:

  1. तापमान
  2. समुद्र तल से ऊंचाई
  3. पवनें
  4. धूप
  5. आर्द्रता
  6. मेघावरण
  7. वर्षा
  8. धुन्ध तथा कोहरा।

प्रश्न 3.
वायुमण्डल की संरचना के बारे में लिखें।
उत्तर:
वायुमण्डल में ऑक्सीजन (21%) तथा नाईट्रोजन प्रमुख गैसें हैं। शेष गैसें कार्बन डाइऑक्साइड, मिथैन, ओज़ोन, हाईड्रोजन हैं।

प्रश्न 4.
वायुमण्डल के सभी संस्तरों में क्षोभ मण्डल सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण क्यों है?
उत्तर:
क्षोभमण्डल वायुमण्डल की सबसे निचली परत है जो कई कारणों से महत्त्वपूर्ण है

  1. पृथ्वी के धरातल पर जलवायु स्थितियों का निर्माण करने वाली महत्त्वपूर्ण क्रियाएं इसी परत में होती हैं।
  2. इस परत में गैसों, धूल-कण तथा जलवाष्प की मात्रा अधिक पाई जाती है। इसलिए मेघ, वर्षा, कोहरा आदि क्रियाएं इसी परत में होती हैं।
  3. इस अस्थिर भाग में संवाहिक धाराएं चलती हैं जो ताप और आर्द्रता को ऊंचाई तक ले जाती हैं।
  4. इस भाग में संचालन क्रिया द्वारा वायुमण्डल की विभिन्न परतें गर्म होती हैं। ऊंचाई के साथ-साथ तापमान कम होता है। तापमान कम होने की दर 1°C प्रति 165 मीटर है।
  5. इस भाग में अस्थिर वायु के कारण वायु विक्षोभ तथा आंधी तूफान चलते हैं। वायु परिवर्तन के कारण मौसम परिवर्तन होता रहता है।
  6. क्षोभमण्डल के मध्य अक्षांशीय क्षेत्र में ही चक्रवात उत्पन्न होते हैं। उपरोक्त कारणों से स्पष्ट है कि क्षोभमण्डल वायुमण्डल की सबसे महत्त्वपूर्ण परत है जो मानवीय  या-कलापों पर प्रभाव डालती है।

वायुमण्डल में मौजूद विभिन्न गैसों का महत्त्व निम्नलिखित है:

  1. नाइट्रोजन-नाइट्रोजन एक अक्रियाशील गैस है। यह मानव तथा जीव-जन्तुओं की सुरक्षा करती है। जानवरों तथा पौधों के लिए यह एक आवश्यक गैस है।
  2. ऑक्सीजन-शुष्क वायु में ऑक्सीजन की मात्रा 20.95% होती है। ऑक्सीजन का महत्त्व मानव जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है। इसके बिना जीवन सम्भव नहीं।
  3. कार्बन डाइऑक्साइड-यह गैस सौर विकिरण को सोख लेती हैं। यह एक ग्रीन हाऊस गैस है। इसकी वृद्धि के कारण ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि हो रही है।
  4. ओज़ोन-यह गैस वायुमण्डल के ऊपरी भाग में महत्त्वपूर्ण है। यह गैस सूर्य की परा बैंगनी किरणों को सोख कर पृथ्वी को इसके प्रभाव से बचाती है।

निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रश्न 1.
वायुमण्डल के संगठन (रचना) की व्याख्या करो।
उत्तर:
वायुमण्डल अनेक गैसों, जलवाष्प तथा धूल-कणों के मिश्रण से बना हुआ है।

1. गैसें (Gases) वायुमण्डल में ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन प्रमुख गैसें हैं । नाइट्रोजन की मात्रा 78% तथा ऑक्सीजन की मात्रा 21% है। शेष 1% में अन्य गैसें कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, ओज़ोन, आर्गन, हाइड्रोजन, हीलियम आदि शामिल हैं। इन गैसों की मात्रा कम व अधिक होती रहती है। भारी गैसें वायुमण्डल की निचली परतों में तथा हल्की गैसें ऊपरी परतों में पाई जाती हैं।

ऑक्सीजन, नाइट्रोजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड जीव-जन्तुओं तथा पौधों का आधार हैं। 120 कि० मी० की ऊंचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य हो जाती है। इसी प्रकार कार्बन डाइऑक्साइड एवं जलवाष्प पृथ्वी की सतह से 90 कि० मी० की ऊंचाई तक ही पाए जाते हैं। विभिन्न गैसों की मात्रा इस प्रकार है

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प्रश्न 2.
वायुमण्डल का चित्र खींचो और इसकी संरचना की व्याख्या करो।
उत्तर:
वायुमण्डल की संरचना अथवा परतें (Structure or Layers of the Atmosphere):
ऊंचाई के साथ वायु दाब तथा ऊष्णता कम होती जाती है । अत: इसी को आधार मान कर वायुमण्डल को निम्नलिखित परतों में विभक्त करते हैं

(i) क्षोभ मण्डल तथा अधोमण्डल (Troposphere): वायुमण्डल की क्षैतिज परतों में से क्षोभमण्डल सबसे निचली परत है। भूतल से इसकी रेडियो तरंगें मध्यमान ऊंचाई 13 किलोमीटर है। इसमें जलवाष्प,धूल-कण तथा भारी गैसें मिलती हैं। इस मण्डल का मानव के लिए महत्त्व अत्यधिक है। क्योंकि ऋतु परिवर्तन तथा ऋतु से सम्बन्धित अन्य कार्य इसी परतमें होते हैं।

इसमें निरन्तर पवनें तथा संवहनीय धाराएं (Con-vectional Currents) चलती हैं। क्षोभ मण्डल समताप मण्डल में ऊंचाई के अनुसार तापमान निम्न हो जाता है। प्रति 165 मीटर की ऊंचाई पर 1° सेण्टीग्रेड तापमान कम क्षोभ सीमा होता जाता है। इस मण्डल में परिवर्तन होते रहते हैं।

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(ii) मध्यस्तरअथवा क्षोभसीमा (Tropopause):
तापमान (फ) यह वायुमण्डल की वह परत है जहां क्षोभमण्डल समाप्त हो जाता है। एक अन्य नवीन परत समताप प्रारम्भ हो जाती है। मध्यस्तर की चौड़ाई लगभग [latex}1 \frac{1}{2} [/latex] किलोमीटर है। इस परत में प्रविष्ट होते ही क्षोभमण्डल की पवन तथा संवहनीय धाराएं समाप्त हो जाती हैं। यहां तापमान स्थिर रहता है। वायु तापमान भूमध्य रेखा पर -80° C तथा ध्रुवों पर -45° C रहता है।

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(iii) समतापमण्डल (Stratosphere):
मध्यस्तर के ऊपर समताप मण्डल है। इसकी ऊंचाई भूमध्य रेखा पर अधिक तथा ध्रुवों पर कम है। इसी प्रकार ग्रीष्मकाल में इसकी ऊंचाई शीतकाल की अपेक्षा अधिक होती है। स्पूतनिकों (Sputniks) द्वारा किए अन्वेषणों से इसकी ऊंचाई 16 से 80 किलोमीटर तक आंकी गई है। इस मण्डल में ऊंचाई के अनुसार तापमान में वृद्धि नहीं होती अपितु यह समान रहता है। इसमें विकिरण (Radiation) द्वारा ताप क्षोभसीमा. का ग्रहण ताप की मुक्ति के समान होता है। फलत: इसे क्षोभमण्डल समताप मण्डल कहते हैं। ध्रुवों के ऊपर -45° C तथा भूमध्यरेखा पर -80° तापमान रहता है।

(iv) ओज़ोन मण्डल (Ozonesphere):
इस मण्डल में ओजोन गैस की प्रधानता के कारण इसे ओज़ोन मण्डल कहते हैं। ओजोन गैस सूर्य से निकलने वाली अत्यन्त ऊष्ण पराबैंगनी किरणों को सोख लेती है। वायुमण्डल में यदि यह परत न होती तो पृथ्वी पर विद्यमान प्राणी जीवन को अपार हानि होती । पराबैंगनी किरणों से मनुष्य अन्धे हो जाते हैं तथा उनका शरीर झुलस जाता है। इस मण्डल की ऊंचाई 20 से 80 किलोमीटर तथा प्रति किलोमीटर ऊंचाई पर 16° सैण्टीग्रेड तापमान बढ़ जाता है अतः यह मण्डल अत्यन्त गर्म है।

(v) मध्य मण्डल (Merosphere):
यह समताप मण्डल से ऊपर 80 कि० मी० की ऊंचाई तक इसका विस्तार है। ऊंचाई के साथ तापमान बढ़ने लगता है। 80 कि० मी० की ऊंचाई तक तापमान-100°C होता है। ऊपरी सीमा को मध्य सीमा कहते हैं।

(vi) आयन मण्डल (Ionosphere):
यह मण्डल 80 से 400 किलोमीटर की ऊंचाई पर विद्यमान है। इसमें तापमान का वितरण असमान एवं अनिश्चित है। इस मण्डल में बड़ी ही विस्मयकारी विद्युतकीय घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं। इस परिमण्डल में विद्युत् से चार्ज कण ईओन मिलते हैं। पृथ्वी से ऊपर जाने वाली रेडियो तरंगें पृथ्वी पर पुनः लौट आती हैं।

(vi) बाह्य मण्डल (Exosphere):
वायुमण्डल की यह सर्वोच्च परत है जिसकी ऊंचाई 400 किलोमीटर से अधिक है। अधिकांशतः इसमें हाइड्रोजन तथा हीलियम गैसें विद्यमान हैं। यहां वायु विरल है। यहां का तापमान 6,000° सैण्टीग्रेड होने का अनुमान है।

 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना JAC Class 11 Geography Notes

→ मौसम (Weather)-मौसम शब्द का अर्थ है “किसी स्थान पर किसी विशेष या निश्चित समय में वायुमण्डल की दशाओं, तापक्रम, दबाव, हवाओं, नमी, मेघ और वर्षा के कुल जोड़ का अध्ययन करना।” जलवायु (Climate)-किसी स्थान की जलवायु उस स्थान पर एक लम्बे समय की वायुमण्डल की दशाओं के कुल जोड़ का अध्ययन होती है। यह एक लम्बे समय का औसत मौसम होती है।

→ मौसम तथा जलवायु के तत्त्व (Elements of Weather and Climate): मौसम के तत्त्व हैं

  • तापमान
  • दबाव
  • हवाएं
  • धूप
  • मेघावरण
  • आर्द्रता
  • वर्षा
  • धुन्ध तथा कोहरा।

जलवायु के तत्त्व हैं

  • अक्षांश
  • समुद्र तल से ऊंचाई
  • स्थल तथा जल का वितरण
  • वायुदाब का वितरण
  • प्रचलित पवनें
  • महासागरीय धाराएं
  • पर्वतीय अवरोध।

→ वायुमण्डल (Atmosphere): पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए वायु के आवरण को वायुमण्डल कहते हैं। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण वायुमण्डल सदा पृथ्वी के साथ सटा रहता है तथा पृथ्वी का एक अभिन्न । अंग है। वायुमण्डल के कारण ही पृथ्वी पर जीवन है तथा पृथ्वी एक महत्त्वपूर्ण ग्रह है। यहां जीवनदायिनी गैस ऑक्सीजन आदि मिलती है।

JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 8 वायुमंडल का संघटन तथा संरचना

→ वायुमण्डल का संघटन (Composition of Atmosphere): वायुमण्डल की संरचना मुख्य तीन तत्त्वों द्वारा होती है(1) गैसें (Gases) नाइट्रोजन (78%), ऑक्सीजन (21%) तथा अन्य (1%)।

→ जल वाष्प (Water Vapour): वायुमण्डल में 2% जल वाष्प पाया जाता है।

→ धूल कण (Dust Particles): ये सूर्यताप को जज़ब करके बादल तथा धुन्ध की रचना करते हैं।

→ वायुमण्डल की परतें (Layers of Atmosphere): तापमान तथा घनत्व के आधार पर वायुमण्डल को निम्नलिखित पांच परतों में बाँटा जा सकता ह

  • क्षोभमण्डल या अधोमण्डल (Troposphere): सबसे निचली परत।
  • समताप मण्डल (Stratosphere): क्षोभ मण्डल से ऊपरी परत।
  • ओज़ोन मण्डल (Ozonesphere): ओज़ोन गैस क्षेत्र।
  • आयन मण्डल (lonosphere): आयन गैस क्षेत्र।
  • बाह्य मण्डल (Exosphere): सबसे बाहरी परत।

JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास

Jharkhand Board JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Geography Solutions Chapter 7 भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास

बहु-विकल्पी प्रश्न (Multiple Choice Questions)

प्रश्न-दिए गए चार वैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर चुनिए
1. स्थलरूप विकास की किस अवस्था में अधोमुख कटाव प्रमुख होता है?
(A) तरुणावस्था
(B) प्रथम प्रौढावस्था
(C) अन्तिम प्रौढ़ावस्था
(D) जीर्णावस्था।
उत्तर:
तरुणावस्था।

2. एक गहरी घाटी जिसकी विशेषता सीढ़ीनुमा खड़े ढाल होते हैं, वह किस नाम से जानी जाती है?
(A) U. आकार घाटी
(B) अन्धी घाटी
(C) गार्ज
(D) कैनियन।
उत्तर:
कैनियन।

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3. निम्न में से किन प्रदेशों में रासायनिक अपक्षय प्रक्रिया यान्त्रिक अपक्षय प्रक्रिया से अधिक शक्तिशाली है?
(A) आर्द्र प्रदेश
(B) शुष्क प्रदेश
(C) चूना पत्थर प्रदेश
(D) हिमनद प्रदेश।
उत्तर:
आर्द्र प्रदेश।

4. निम्न में से कौन-सा वक्तव्य लेपीज़ (Lapies) शब्द को परिभाषित करता है?
(A) छोटे से मध्यम आकार के उथले गर्त
(B) ऐसे स्थलरूप जिनके ऊपरी खुलाव वृत्ताकार व नीचे से कोण के आकार के होते हैं
(C) ऐसे स्थलरूप जो धरातल से जल के टपकने से बनते हैं
(D) अनियमित धरातल जिनके तीखे कटक व खांच हों।
उत्तर:
अनियमित धरातल जिनके तीखे कटक व खांच हों।

5. शहरे, लम्बे विस्तृत गर्त या बेसिन जिनके शीर्ष दिवाल खड़े ढाल वाले व किनारे खड़े व अवतल होते हैं, उन्हें रहते हैं?
(A) सर्क
(B) पाश्विक हिमोढ़ा
(C) घाटी हिमनद
(C) एस्कर।
उत्तर:
(A) सर्क।

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6. तटीय भागों में जान-माल के लिये सबसे खतरनाक तरंग कौन-सी है?
(A) स्थानांतरणी तरंग
(B) अधःप्रवाह
(C) सुनामी
(D) भम्नोमि।
उत्तर:
सुनामी।

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
चट्टानों में अधःकर्तित विसर्प और मैदानी भागों में जलोढ़ के सामान्य विसर्प क्या बताते हैं?
उत्तर:
नदी के बाढ़ मैदान तथा डैल्टा में मन्द ढाल के कारण जलोढ़ के विसर्प बनते हैं। ये विसर्प लूप आकार के होते हैं। ये क्षैतिज कटाव को प्रकट करते हैं। कठोर चट्टानों में गहरे कटाव के कारण अधः कर्तित विसर्प बनते हैं। ये लगातार उत्थान के कारण गहरे होते जाते हैं तथा गहरे गार्ज व कैनियन का रूप बन जाते हैं।

प्रश्न 2.
घाटी रंध्र अथवा युवाला का विकास कैसे होता है?
उत्तर;
चूना पत्थर चट्टानों के तल पर घुलन क्रिया द्वारा घोल गर्मों का विकास होता है। ये कार्ट क्षेत्र में मिलते हैं। यह एक प्रकार के छिद्र होते हैं जो ऊपर से वृत्ताकार व नीचे कीप की आकृति के होते हैं। कन्दराओं की छत गिरने से कई घोल रंध्र आपस में मिल जाते हैं जो लम्बी, तंग तथा विस्तृत खाइयाँ बनती हैं जिन्हें घाटी रंध्रया युवाला कहते हैं।

प्रश्न 3.
हिमनद घाटियों में कई रैखिक निक्षेपण स्थल रूप मिलते हैं। इनकी अवस्थिति व नाम बताएं।
उत्तर:
हिमनदी घाटी में मृतिका के निक्षेप से कई स्थल कम मिलते हैं जिन्हें हिमोढ़ कहते हैं। हिमनदी के समानांतर पार्शिवक हिमोढ़ बनते हैं। दो पार्शिवक हिमोढ़ मिल कर मध्य भाग में मध्यस्थ हिमोढ़ बनाते हैं। हिमनदी के तल पर तलस्थ हिमोढ़ मिलते हैं। हिमनद के अन्तिम भाग में अन्तस्थ हिमोढ़ मिलते हैं।

(ग) निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

प्रश्न 1.
आई व शुष्क जलवायु प्रदेशों में प्रवाहित जल ही सबसे महत्त्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है। विस्तार से वर्णन करो।
उत्तर;
भू-तल को समतल करने वाले बाह्य कार्यकर्ताओं में नदी का कार्य सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। वर्षा का जो जल धरातल पर बहते पानी (Run off) के रूप में बह जाता है, नदियों का रूप धारण कर लेता है। नदी का कार्य तीन प्रकार का होता है

  1. अपरदन (Erosion)
  2. परिवहन (Transportation)
  3. निक्षेप (Deposition)

1. अपरदन (Erosion) नदी का मुख्य कार्य अपनी तली तथा किनारों पर अपरदन करना है।
अपरदन की विधियां (Types of Erosion): नदी का अपरदन निम्नलिखित विधियों द्वारा होता है

  • रासायनिक अपरदन (Chemical Erosion): यह अपरदन घुलन क्रिया (Solution) द्वारा होता है। नदी जल के सम्पर्क में आने वाली चट्टानों के नमक (Salts) घुलकर पानी के साथ मिल जाते हैं।
  • भौतिक अपरदन (Mechanical Erosion): नदी के साथ बहने वाले कंकड़, पत्थर आदि नदी की तली तथा किनारों को काटते रहते हैं। किनारों के कटने से नदी चौड़ी और तल के कटने से गहरी होती है।

भौतिक कटाव तीन प्रकार के होते हैं
(a) शीर्षवत् अपरदन (Down Cutting)
(b) तटीय अपरदन (Side Cutting)
(c) संनिघर्षण (Attrition)

नदी के अपरदन द्वारा निम्नलिखित भू-आकार बनते हैं:
I. ‘V’ आकार घाटी (‘V’ Shaped Valley):
नदी पर्वतीय भाग में अपने तल को गहरा करती है जिसके कारण ‘V’ आकार की गहरी घाटी बनती है। ऐसी घाटियों को कैनियन (Canyons) या प्रपाती खड्ड कहते हैं और जो कठोर तथा शुष्क प्रदेशों में बनती हैं।
उदाहरण: (i) अमेरिका (U.S.A.) में कोलोरेडो घाटी में ग्रैंड कैनियन (Grand Canyon) 200 किलोमीटर लम्बी तथा 2,000 मीटर गहरी है। यह (I) आकार की है।

II. गार्ज (Gorges):
पर्वतीय भाग में बहुत गहरे और तंग नदी मार्ग को गार्ज (Gorge) या कन्दरा कहते हैं। पर्वतीय प्रदेश ऊंचे उठते रहते हैं, परन्तु नदियां लगातार गहरा कटाव करती रहती हैं। इस प्रकार ऐसे नदी का निर्माण होता है जिसकी दीवारें लम्बवत् होती हैं। असम में ब्रह्मपुत्र नदी तथा हिमाचल प्रदेश में सतलुज नदी गहरे गार्ज बनाती हैं।

III. जल प्रपात तथा क्षिप्रिका (Waterfall and Rapids):
जब अधिक ऊँचाई से जल अधिक वेग से कठोर चट्टान खड़े ढाल पर बहता है तो उसे जल प्रपात कहते हैं। जलप्रपात चट्टानों की भिन्न-भिन्न रचना के कारण बनते हैं।
(क) जब कठोर चट्टानों की परत नर्म चट्टानों की परत पर क्षैतिज (Horizontal) अवस्था में हो तो नीचे की नर्म चट्टानें जल्दी कट जाती हैं। चट्टान के सिरे पर जल-प्रपात बनता है। जल-प्रपात पीछे की ओर खिसकता मुलायम चट्टानें रहता है जिससे एक संकरी मगर गहरी घाटी का निर्माण होता है।
उदाहरण: (i) यू० एस० ए० में नियाग्रा जलप्रपात जो कि 120 मीटर ऊंचा है।
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(ii) विक्टोरिया जलप्रपात में पानी 50 मीटर की ऊंचाई से गिरता है।
(ख) जब कठोर तथा नर्म चट्टानें एक दूसरे के समानान्तर लम्बवत् (Vertical) हों तो कठोर चट्टान की ढाल पर जल-प्रपात बनता है।
उदाहरण: अमेरिका में यैलो स्टोन नदी (Yellow Stone River) का जल-प्रपात। जब कठोर तथा मुलायम चट्टानों की पर्ते एक-दूसरे के ऊपर बिछी हों तथा कुछ झुकी हों तो क्षिप्रिका (Rapids) की एक श्रृंखला बन जाती है। क्षिप्रिका कांगो नदी (Congo River) में लिविंगस्टोन फाल्ज (Livingstone Falls) नाम के 32 झरनों की एक श्रृंखला है।

IV. जलज गर्त (Pot Holes):
नदी के जल में चट्टानें भंवर उत्पन्न हो जाते हैं। नरम चट्टानों में गड्ढे बन जाते हैं। इनमें जल के साथ छोटे-बड़े पत्थर घूमते हैं। इन पत्थरों के घुमाव (Drilling) से भयानक गड्ढे बनते हैं जिन्हें जलज गर्त कहते हैं।
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2. परिवहन (Transportation):
अपरदन के पश्चात् नदी का दूसरा प्रधान कार्य परिवहन (Transportation) होता है। नदी खुर्चे हुए पदार्थ को अपने साथ बहाकर ले जाती है। इस पदार्थ को नदी का भार (Load of the River) कहते हैं।
नदी का परिवहन कार्य दो तत्त्वों पर निर्भर करता है

  1. नदी का वेग (Velocity of River): नदी के वेग तथा परिवहन शक्ति में निम्नलिखित अनुपात होता हैपरिवहन शक्ति = (नदी का वेग)
  2. जल की मात्रा (Volume of Water): नदी में जल की मात्रा तथा आकार के बढ़ जाने से नदी अधिक भार बहाकर ले जा सकती है।

3. निक्षेप (Deposition):
नदी का निक्षेप का कार्य रचनात्मक होता है। आर्थिक महत्त्व के स्थल रूप बनते हैं। अपरदन व निक्षेप एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों की दशाएं उलट होती हैं। नदी की निचली घाटी में निक्षेप की क्रिया होती है। यह निक्षेप नदी के तल में या नदी के किनारों पर या सागर में होता है। नदी की गहराई कम हो जाती है, परन्तु चौड़ाई बढ़ने लगती है। निक्षेप क्रिया द्वारा निम्नलिखित भू-आकार बनते हैं

(i) जलोढ़ पंख (Alluvial Fans):
जब नदी पर्वत के सहारे नीचे उतर कर समतल भाग में प्रवेश करती है तो नदी का वेग एकदम कम हो जाता है; इसलिए पर्वतों की ढाल के आधार के पास अर्द्ध-वृत्ताकार रूप में पदार्थों का जमाव होता है जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं। कई जलोढ़ पंखों के मिलने से भाबर क्षेत्र बना है।
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(ii) विसर्प अथवा घुमाव (Meanders):
नदी जब अपरदन अपरदन बल खाते हुए बहती है तो उसके टेढ़े-मेढ़े रास्ते में छोटेमोटे घुमाव पड़ जाते हैं जिन्हें नदी विसर्प (Meanders) निक्षेप कहते हैं। नदी के अवतल किनारों (Concave sides) पर तेज़ धारा के कारण-कटाव होता है परन्तु नदी के उत्तल किनारों (Convex sides) पर धीमी धारा के कारण निक्षेप निक्षेप होता है।
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(iii) गो-खुर झील (Ox-bow Lake):
जब दो घुमाव अति निकट आते हैं तो एक-दूसरे को काटते (Intersect) हैं तथा मिल जाते हैं। नदी में जब बाढ़ आती है तो नदी घुमाव के लम्बे मार्ग को छोड़ कर फिर छोटे (Short cut) व पुराने मार्ग से बहने लगती है। एक घुमाव का किनारा दूसरे घुमाव के किनारे से मिल जाता है। इस प्रकार एक धनुषाकार का घुमाव नदी से कट जाता है। इसे गो-खुर झील (Ox-bow Lake) कहते हैं। गंगा नदी के मार्ग में ऐसी कई गोखुर झीलें हैं।
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(iv) बाढ़ का मैदान (Flood Plain):
जब नदी में बाढ़ आती है तो नदी का भार किनारों को पार कर के दूरदूर तक जमा हो जाता है। इसमें कीचड़ और जलोढ़ मिट्टी (Silt) फैल जाती है। इसे बाढ़ का मैदान कहते हैं। ये मैदान बहुत उपजाऊ होते हैं तथा प्रति वर्ष इनमें उपजाऊ मिट्टी की नई परत बिछ जाती है, जैसे-भारत में गंगा का मैदान, चीन में ह्वांग-हो (Hwang-Ho) का मैदान।
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(v) तटबन्ध (Leeves):
नदी के दोनों किनारों पर मिट्टी के जमाव द्वारा कम ऊंचाई वाले टीलों को तटबन्ध (Leeves) कहते हैं। बार-बार जमाव के कारण नदी का तल तथा किनारे बड़े ऊंचे होते हैं। कई बार बाढ़ के समय में किनारे टूट जाते हैं तो बहुत हानि होती है। भयंकर बाढ़ें आती हैं। चीन की ह्वांग-हो नदी की भीषण बाढ़ों का यही कारण है। इसलिए इसे ‘चीन का शोक’ कहते हैं।

(vi) डेल्टा (Delta):
समुद्र में गिरने से पहले नदी का भार अधिक हो जाता है तथा नदी की धारा बहुत धीमी हो जाती है। फलस्वरूप नदी अपने मुख पर अपने भार का निक्षेप कर देती है। समुद्र में नदी का निक्षेप एक मैदान के रूप में आगे बढ़ता है जिससे त्रिकोणाकार का स्थल रूप भूमध्य सागर बनता है जिसे डेल्टा कहते हैं। यह यूनानी भाषा के शब्द सिकन्द्रिया डेल्टा से मिलता-जुलता है तथा इसका प्रयोग सब से नील नदी पोर्ट सइद पहले नील नदी के डेल्टा के लिए किया गया था। डेल्टे दो प्रकार के होते हैं
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(क) नियमित (Regular): यह त्रिकोण आकार का होता है, जैसे-गंगा या नील नदी का डेल्टा।
(ख) अनियमित या पंजा डेल्टा (Irregular or Bird’s Foot Delta): यह डेल्टा पक्षी के पंजे के समान होता है जिससे बहुत-सी वितरिकाएं (Distributaries) होती हैं, जैसे-संयुक्त राज्य अमेरिका में मिसीसिपी (Mississippi) नदी का डैल्टा। विभक्त धाराओं के जाल से बनी नदी को गुम्फित नदी कहते हैं। नील, पो, वालग आदि डेल्टाओं से गंगा, ब्रह्मपुत्र डेल्टा सब से बड़ा है जिसका क्षेत्रफल 1,25,000 वर्ग० कि० मी० है।

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प्रश्न 2.
हिमनदी ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों को निम्न पहाड़ियों व मैदानों में कैसे परिवर्तित करते हैं या किस प्रक्रिया से यह कार्य सम्पन्न होता है? बताइए।
उत्तर:
हिमनदी (Glacier): खिसकते हुए हिम पिण्ड को हिमनदी कहते हैं। (A Glacier is a large mass of moving ice.)
हिमनदी के कारण: हिमनदी हिम क्षेत्रों से जन्म लेती है। लगातार हिमपात के कारण हिम खण्डों का भार बढ़ जाता है। यह हिम समूह निचले ढलान की ओर खिसकने लगता है इसे हिमनदी कहते हैं। हिमनदी के खिसकने के कई कारण हैं

  1. अधिक हिम का भार (Pressure)
  2. ढाल (Slope)
  3. गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravity)

हिमनदी के प्रकार (Types of Glaciers): आकार व क्षेत्रफल की दृष्टि से हिमनदियां दो प्रकार की होती हैं

  1. घाटी हिमनदी (Valley Glaciers)
  2. महाद्वीपीय हिमनदी (Continental Glaciers)

1. घाटी हिमनदी (Valley Glaciers):
इन्हें पर्वतीय हिमनदी (Mountain Glaciers) भी कहते हैं। ये हिम नदी ऊँचे पर्वतों की चोटियों से उतर कर घाटियों में बहती है। सबसे पहले आल्पस पर्वत (Alps) में मिलने के कारण इन्हें अल्पाइन (Alpine) हिमनदी भी कहते हैं। हिमालय पर्वत पर इस प्रकार के कई हिमनद हैं, जैसे-गंगोत्री हिमनद।

2. महाद्वीपीय हिमनदी (Continental Glaciers):
विशाल ध्रुवीय क्षेत्रों में फैले हुए हिमनद को महाद्वीपीय हिमनदी या हिम चादर (ice sheets) कहते हैं । लगातार हिमपात, नीचे तापक्रम तथा कम वाष्पीकरण के कारण हिम पिघलती नहीं। संसार की सबसे बड़ी हिम चादर अण्टार्कटिका (Antartica) 130 लाख वर्ग कि०मी० क्षेत्र में 4000 फुट मोटी है।

ग्रीनलैंड में ऐसी चादर का क्षेत्रफल 17 लाख वर्ग कि०मी० है। हिम क्षेत्रों में खिसकते हुए हिम पिण्ड को हिमनदी कहते हैं। जल की भांति हिमनदी अपरदन, परिवहन तथा निक्षेप तीनों कार्य करती है। हिमनदी पर्वतीय प्रदेशों में अपरदन का कार्य, मैदानों में निक्षेप का कार्य तथा पठारों पर रक्षात्मक कार्य करती है। अपरदन (Erosion): हिमनदी अनेक क्रियाओं द्वारा अपरदन का कार्य करती है

  1. उखाड़ना (Plucking)
  2. गड्ढे बनाना (Grooving)
  3. 41411 (Grinding)

हिमनदी अपने मार्ग से बड़े-बड़े पत्थरों को उखाड़ कर गड्ढे उत्पन्न कर देती है। यह पत्थर चट्टानों के साथ रगड़ते, घिसते चलते हैं तथा हिमनदी की तली तथा किनारों को चिकना बनाते हैं। पर्वतीय प्रदेशों की रूपरेखा बदल जाती है।

अपरदन द्वारा बने भू-आकार:
I. हिमागार (Cirque):
पर्वतीय ढलानों पर गोल आकार के गड्ढों को हिमागार या सर्क कहते हैं। (“Cirques are semi-circular hollows at the side of
mountain.”) इनका आकार आराम कुर्सी के समान होता है। पाले द्वारा तुषार चीरण (Frost Wedging) की क्रिया से इनका आकार बड़ा हो जाता है। कभी-कभी इन गड्ढों में झील बन जाती है जिसे टार्न झील (Tarn Lake) कहते हैं। इन्हें फ्रांस में सर्क, स्कॉटलैण्ड में कौरी (Corrie) तथा जर्मनी में कैरन (Karren) कहते हैं।

II. श्रृंग (Horn):
जब किसी पहाड़ी के चारों ओर के सर्क आपस में मिल जाते हैं तो उनके पीछे के कटाव से नुकीली चोटियां बनती हैं। स्विटज़रलैण्ड में आल्पस पर्वत की एक प्रसिद्ध शृंग मैटर हार्न (Matter Horn) है तथा हिमालय पर्वत से त्रिशूल पर्वत।

III. कॉल (Col):
किसी पहाड़ी के दोनों ओर के हिमागारों के आपस में मिलने के कारण घोड़े की काठी जैसी आकृति वाला दर्रा बन जाता है जिसे कॉल कहते हैं।

IV. यू-आकार की घाटी (U-Shaped Valley):
जब हिमनदी किसी ‘V’ आकार की नदी घाटी में प्रवेश करती है तो उस घाटी का रूप ‘U’ अक्षर जैसा बन जाता है। यह घाटी गहरी हो जाती है। इसकी तली सपाट तथा चौरस होती है। इसके किनारे खड़े ढाल वाले होते हैं। इसे हिमानी द्रोणी (Glacial trough) भी कहते हैं। जैसे उत्तरी अमेरिका में सेंट लारेंस घाटी (St. Lawrence Valley) समुद्र में डूबी हुई ‘U’ आकार की घाटियों को फियोर्ड (Fiord) कहते हैं, जैसे-नार्वे के तट पर।

V. लटकती घाटी (Hanging Valley):
हिमनदी की मुख्य घाटी अधिक गहरी होती है परन्तु उसमें मिलने वाली सहायक घाटी कम गहरी होती है। जब हिम पिघलती है तो सहायक घाटी मुख्य घाटी से ऊँची रह जाती है तथा मुख्य घाटी की दीवार के साथ संगम स्थल पर लटकती हुई प्रतीत होती है। इस लटकती घाटी का जल मुख्य घाटी में गिरता है तो प्रपात (Water Fall) का निर्माण होता है।

निक्षेप (Deposition):
जब हिमनदी पिघलती है तो उसका अधिकांश भाग अग्र भाग (snout) के निकट ही जमा हो जाता है। हिमनदी अपने भार को विभिन्न आकार तथा विस्तार के टीलों के रूप में जमा करती है। इन टीलों को हिमोढ़ (Moraines) कहते हैं। हिमोढ़ लम्बे कटक (Ridge) के रूप में लगभग 100 फीट ऊँचे होते हैं।

निक्षेप के स्थान के आधार पर हिमोढ़ चार प्रकार के होते हैं
1. पाश्विक हिमोढ़ (Lateral Moraines):
हिमनदी के किनारों के साथ-साथ बने लम्बे तथा संकरे हिमोढ़ को पाश्विक हिमोढ़ कहते हैं।

2. मध्यवर्ती हिमोढ़ (Medial Moraines):
दो मध्यवर्ती हिमोढ़ हिमनदियों के संगम के कारण उनके भीतरी किनारे वाले हिमोढ़ मिल कर एक हो जाते हैं। उसे मध्यवर्ती हिमोढ़ कहते हैं। कश्मीर में पर्वतीय चरागाह इन्हीं पर विकसित पाश्विक हिमोढ़ हुए हैं।

3. अन्तिम हिमोढ़ (Terminal Moraines):
अन्तिम हिमोढ़ हिमनदी के पिघल जाने पर हिमनदी के अन्तिम किनारे पर बने हिमोढ़ को अन्तिम हिमोढ़ कहते हैं।

4. तलस्थ हिमोढ़ (Ground Moraines):
हिमनदी की तली या आधार पर जमे हुए पदार्थ के ढेर को तलस्थ हिमोढ़ कहते हैं।

5. अन्य भू-आकार:
हिमनदी से पिघला हुआ जल कई स्थलाकारों को जन्म देता है। जलधाराओं से बारीक मिट्टी के निक्षेप से बाह्य मैदान (Out-wash plain) बनता है। उल्टी नाव या अंडे की शक्ल जैसी पहाड़ियां बनती हैं जिन्हें ड्रमलिन (Drumlin) कहते हैं। रेत, बजरी के निक्षेप से बनी कम ऊंचाई की श्रेणयों को एस्कर (Esker) कहते हैं। हिमनदी की अन्तिम सीमा पर टीलों की दीवार बन जाती है जिसे केमवेदिका कहते हैं।

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प्रश्न 3.
मरुस्थली क्षेत्रों में पवनें कैसे अपना कार्य करती हैं? क्या मरुस्थलों में यही एक कारक स्थलरूपों का निर्माण करता है?
उत्तर:
मरुस्थलों व शुष्क प्रदेशों में वनस्पति व नमी की कमी के कारण वायु अपरदन, परिवहन तथा निक्षेप कार्य करती है। इसलिए इसे शुष्क स्थल रूपरेखा (Arid Tropography) या वातज स्थल रूपरेखा भी कहते हैं। अपरदन के रूप-वायु अपरदन निम्नलिखित क्रियाओं से होता है

  1. नीचे का कटाव (Under Cutting)
  2. नालीदार कटाव (Gully Erosion)
  3. खुरचना (Scratching)
  4. चिकनाना (Polishing)

अपरदन (Erosion): वायु द्वारा अपरदन तीन प्रकार से होता है
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(ग) अपघर्षण (Abrasion):
वायु के धूलि-कण इसके अपरदन के यन्त्र (Tools) हैं। तीव्र गति वाली वायु धूलि-कणों को एक शक्ति के साथ चट्टानों से टकराती है। ये कण एक रेगमार (Sand paper) की भान्ति कटाव करते हैं। इस अपघर्षण की क्रिया से कई भू-आकार बनते हैं।

(i) छत्रक (Mushroom):
चट्टानों के निचले भाग व चारों तरफ से नीचे का कटाव (Under cutting) होता है। इस कटाव से एक पतले से आधार स्तम्भ (Pillar) के ऊपरी छतरी के आकार की चट्टानें खड़ी रहती हैं। नीचे की चट्टानें एक गुफा के समान कट जाती हैं। इसे छत्रक (Mushroom) या गारा (Gara) कहते हैं। चित्र-छत्रक जोधपुर के निकट छत्रक शैल मिलते हैं।
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(ii) ज्यूज़न (Zeugen):
ढक्कनदार दवात के आकार के स्थल रूपों को ज्यूज़न कहते हैं। ऊपरी भाग कठोर तथा कम चौड़ा होता है परन्तु निचला नरम भाग अधिक कटाव के कारण अधिक चौड़ा होता है।

(iii) यारडांग (Yardang):
वायु के लगातार एक ही दिशा में कटाव के कारण नुकीली चट्टानों का निर्माण होता है। इन्हें यारडांग कहते हैं। ये पसलियों (Ribs) की भान्ति तीव्र ढाल वाले होते हैं। ये भू-आकार चट्टानों के लम्ब (Vertical) रूप के कारण बनते हैं।

(iv) पुल तथा खिड़की (Bridge and Win-dow):
लम्बे समय तक कटाव के कारण चट्टानों की बीच बड़े-बड़े छिद्र बन जाते हैं। चट्टानों के आर-पार एक मेहराब (Arch) की आकृति का निर्माण हो जाता है, जैसे-U.S.A में Hope Window.

(v) इन्सेलबर्ग (Inselberg):
कठोर चट्टानों के ऊंचे टीलों को इन्सेलबर्ग कहते हैं। चारों ओर से कटाव के कारण ये तिरछी ढाल वाले तथा गुम्बदाकार होते हैं। ये ग्रेनाइट (Granite) तथा नीस (Gneiss) जैसी कठोर चट्टानों से बने होते हैं।

निक्षेप (Deposition): जब वायु का वेग कम हो जाता है तो उसे अपना भार कहीं-न-कहीं छोड़ना पड़ता है। इस निक्षेप से रेत के टीले तथा लोएस प्रदेश बनते हैं।

I. रेत के टीले (Sand Dunes):
जब रेत के मोटे कण टीलों के रूप में जमा हो जाते हैं तो उन्हें बालू का स्तूप कहते हैं (Sand dunes are hills of wind blown sand.)

  1. लम्बे बालूका स्तूप (Longitudinal dunes): ये प्रचलित वायु की दिशा के समानान्तर बनते हैं। इनकी आकृति लम्बी पहाड़ी की भान्ति होती है।
  2. आड़े बालूका स्तूप (Transverse dunes): ये प्रचलित पवन की दिशा के समकोण पर बनते हैं। इनकी शक्ल अर्द्ध-चन्द्राकार होती है।
  3. बरखान (Barkhans): यह अर्द्ध-चन्द्राकार टीले हैं जिनमें पवन मुखी ढाल उत्तल (Convex) तथा पवन विमुखी ढाल अवतल (Concave) होता है। इनकी आकृति दरांती (Sickle) या दूज के चांद (Crescent Moon) के समान होती है। बरखाना तुर्की शब्द है जिसका अर्थ है बालू की पहाड़ी। ये टीले खिसकते रहते हैं।

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II. लोएस (Loess):
दूर स्थानों से उठाकर लाई हुई बारीक मिट्टी के जमाव को लोएस कहते हैं। मरुस्थलों की सीमा पर रेत के बारीक कणों के निक्षेप में से लोएस प्रदेश बनते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण प्रदेश चीन के उत्तर-पश्चिमी भाग में पीली मिट्टी का लोएस प्रदेश है जो 3 लाख वर्ग मील के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह मिट्टी मध्य एशिया के गोबी मरुस्थल से लाई गई है। यह उपजाऊ मिट्टी है।

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प्रश्न 4.
चूना चट्टानें आर्द्र व शुष्क जलवायु में भिन्न व्यवहार करती है। क्यों? चूना प्रदेशों में प्रमुख भू आकृतिक प्रक्रिया कौन सी है और इसके परिणाम क्या हैं?
उत्तर:
भूमिगत जल का कार्य (Work Underground Water):
भूमिगत जल का महत्त्वपूर्ण कार्य चूने के प्रदेशों में होता है। भूमिगत जल ऐसे प्रदेशों में विशेष प्रकार की भू-रचना का निर्माण करता है। ऐसे प्रदेश के पत्थरों के रेगिस्तान, वनस्पतिहीन तथा असमतल होते हैं। जल को वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड मिल जाती है। इसमें चूने का पत्थर घुल जाता है। ‘कार्ट’ शब्द यूगोस्लाविया के चूने की चट्टानों के प्रदेश से लिया गया है। इस प्रकार चूने की चट्टानों के प्रदेश की भू-रचना को कार्ट भू-रचना कहते हैं। ऐसे प्रदेश फ्रांस में, संयुक्त राज्य अमेरिका में, फ्लेरेडा तथा केन्टुकी प्रदेश, मैक्सिको में यूकाटन प्रदेश तथा भारत में खासी, रोहतास, पहाड़ियां, कांगड़ा घाटी व जबलपुर क्षेत्र हैं।

भूमिगत जल के कार्य (Works of Under-ground Water):
नदी, पवन, हिमनदी की तुलना में भूमिगत जल का कार्य कम महत्त्वपूर्ण है। इसका कारण भूमिगत जल की मन्द गति है। कम गति के कारण वास्तव में परिवहन का कार्य नहीं होता। अतः भूमिगत जल का कार्य मुख्यतः दो प्रकार से होता है

  • अपरदन (Erosion)
  • निक्षेप (Deposition)

I. अपरदन के रूप (Kinds of Erosion): भूमिगत जल द्वारा अपरदन के कई रूप हैं

  1. घुलने की क्रिया (Solution)
  2. जलगति क्रिया (Hydraulic Action)
  3. अपघर्षण (Abrasion)

अपरदन से बने भू-आकार (Land formed by Erosion):
(i) लैपीज़ (Lappies):
चूने के घुल जाने से गहरे गड्ढे बन जाते हैं। इनके बीच एक-दूसरे के समानान्तर पतली नुकीली पहाड़ियां दिखाई देती हैं। इन तेज़-धारी वाली पहाड़ियां (Knife-edged Ridges) को लैपीज़ या कैरन (Karren), क्लिन्ट (Clint) या बोगाज़ (Bogaz) कहते हैं। ऐसे प्रदेश में धरातल कटा-फटा दिखाई देता है। इन गड्ढों की दीवारें सीधी होती हैं।

(ii) घोल छिद्र (Sink Holes):
भूमिगत जल घुलन क्रिया से दरारों को बड़ा करता है तथा बड़े-बड़े तथा चौड़े गड्ढे बना देता है। इन खुले गड्ढों द्वारा नदियां नीचे चली जाती हैं। इन्हें डोलाइन (Doline) या विलय छिद्र (Swallow Holes) या घोल छिद्र (Sink Holes) कहते हैं। कई घोल छिद्रों के आपस में मिल जाने से एक गड्ढा बन जाता है जिसे युवाला (Uvala) कहते हैं। इन छिद्रों के कारण धरातल का जल-प्रवाह लुप्त हो जाता है तथा शुष्क घाटियां (Dry Valleys) बनती हैं। नदी जल भमि के नीचे अपनी घाटी बनाता है जिन्हें आधी घाटियां (Blind Valleys) कहते हैं। कई गड्ढों में वर्षा का पानी भर जाने से कार्ट झील (Karst Lake) बन जाती है।

(iii) गुफाएं (Caves):
घुलन क्रिया से भूमि के निचले भाग खोखले हो जाते हैं। धरातल पर कठोर भाग छत के रूप में खड़े रहते हैं। इस प्रकार भूमि के भीतर की मीलों लम्बी-चौड़ी गुफाएं बन जाती हैं। गहरी कन्दराओं को पोनोर (Ponor) कहते हैं, परन्तु लम्बी बरामदों जैसी गुफाओं में गैलरी (Galleries) का निर्माण होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के केन्टुकी के प्रदेश की मैमथ गुफाएं (Mammoth caves) संसार भर में प्रसिद्ध हैं जोकि 48 कि० मी० लम्बी हैं। भारत में मध्य प्रदेश के बस्तर जिले में कोतामसर (Kotamsar) की गुफाएं प्रसिद्ध हैं जिनका बड़ा अक्ष (Chamber) 100 मीटर लम्बा तथा 12 मीटर ऊंचा है।

(iv) प्राकृतिक पुल (Natural Bridges): जहां गुफाओं के कुछ अश नीचे धंस जाते हैं और कठोर भाग खड़े रहते हैं तो प्राकृतिक पुल बनते हैं जैसे आयरलैण्ड में मार्बल आर्क (Marble Arch)।

(v) राजकुण्ड (Poljes): गुफाओं की छतों के गिर जाने से भूतल पर बड़े-बड़े गड्ढे बन जाते हैं। इन विशाल गड्ढों को राजकुण्ड (Poljes) कहा जाता है।

II. निक्षेप (Deposition):
भूमिगत जल द्वारा निक्षेप निम्नलिखित दशाओं में होता है

  1. जब जल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा कम हो जाए।
  2. जल की घुलन शक्ति कम हो जाए।
  3. अधिक वाष्पीकरण से जल भाप बन जाए।
  4. जल की मात्रा कम हो जाए।
  5. खनिज के घुल जाने के पश्चात् जल स्वयं ही निक्षेप करता है।
  6. दबाव तथा तापक्रम कम होने से।

निक्षेप से बने भू-आकार (Land forms formed by Deposition): भूमिगत जल बड़ी मात्रा में खनिज पदार्थ घोल लेता है। इस पदार्थ के निक्षेप से कई भू-आकार बनते हैं
1. स्टैलैक्टाइट (Stalactite):
गुफा की छत से टपकते जल में चूना घुला रहता है। जब जल वाष्प बन जाता है तो चूने का कुछ अंश छत पर जमा हो जाता है। धीरे-धीरे उसकी लम्बाई नीचे की ओर बढ़ जाती है। इन पतले, नुकीले, लटकते हुए स्तम्भों को स्टैलैक्टाइट (Stalactite) कहते हैं। यह स्तम्भ मुड़ कर बाजे की पाइप (Organ Pipe) का रूप धारण कर लेते हैं। विचित्र आकार के कारण इन्हें लटकते हुए परदे (Hanging Curtains) भी कहा जाता है।

2. स्टैलैगमाइट (Staiagmite):
गुफा को छत से रिसने वाला जल नीचे फर्श पर चूने का निक्षेप करता है। यह जमाव ऊपर की ओर स्तम्भ का रूप धारण कर लेता है। इस मोटे व बेलनाकार स्तम्भ को स्टैलैगमाइट (Stalagmite) कहते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में एक गुफा में एक ऐसे स्तम्भ का आकार 60 मीटर तथा ऊंचाई 30 मीटर तक है।

3. कन्दरा स्तम्भ (Cave Pillar):
ये दोनों स्तम्भ बढ़ते-बढ़ते आपस में मिल जाते हैं तो गुफा की दीवार की भान्ति कन्दरा स्तम्भ (Cave Pillar) बन जाते हैं। ये स्तम्भ खोखले होते हैं। ये खटकाने से बहुत सुन्दर आवाज़ करते हैं। स्टैलैक्टाइट

4. हम्स (Hums):
ये विस्तृत चूने के ढेर होते स्टैलैगमाइट हैं। ये गुम्बदादार (Dome-shaped) होते हैं। ये विशाल गड्ढों में पॉलजी (Poljes) में जमा होते रहते हैं।

5. ड्रिप स्टोन (Drip Stone):
जब गुफा की छत से जल छिद्र से न गिर कर छत की दरारों से टपकता है, तो गुफा की तली में परदे के समान चूने का लम्बवत् चित्र-स्टैलैक्टाइट और स्टैलैगमाइट जमाव हो जाता है। इस जमाव को ड्रिप स्टोन कहते हैं।
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भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास JAC Class 11 Geography Notes

→ अनावरण के बाह्य कार्यकर्ता (External agents of change): निम्नलिखित प्रमुख बाह्य कार्यकर्ता जो भूतल पर परिवर्तन लाते हैं

  • अपक्षय
  • नदी
  • हिम नदी
  • पवन
  • सागरीय तरंगें।

→ नदी मार्ग के भाग (Sections of River Course): नदी मार्ग को निम्नलिखित तीन भागों में बांटा जा सकता है

  • ऊपरी भाग या पर्वतीय भाग।
  • मध्यवर्ती भाग या मैदानी भाग
  • निचला भाग या डैल्टा भाग।

→ नदी का अपरदन कार्य (Work of Erosion by River) नदी द्वारा अपरदन के दो प्रकार हैं: घोलीकरण, यांत्रिक अपरदन-तटीय अपरदन, शीर्षवत् अपरदन तथा संनिघर्षण। अपरदन द्वारा निम्नलिखित भू-आकार बनते हैं

  • V-आकार घाटी
  • गार्ज तथा कैनियन
  • जलप्रपात
  • झरने।

नदी द्वारा निक्षेप से बनने वाले भू-आकार (Landforms formed by River Deposition)

  • जलोढ़ पंख
  • विसर्प
  • गोखुर झील
  • बाढ़ के मैदान
  • डैल्टा।

→ हिमनदी (Glaciers): खिसकते हुए हिम पिण्ड को हिम नदी कहते हैं। हिमनदी हिम क्षेत्रों से जन्म लेतीहै। आकार व क्षेत्रफल की दृष्टि से हिमनदियां दो प्रकार की हैं
घाटी हिम नदी।, महाद्वीपीय हिम नदी।

→ हिमनदी द्वारा अपरदन (Erosion by a glaciers): हिमनदी अपरदन का कार्य निम्नलिखित क्रियाओं द्वारा करती है

  • उखाड़ना
  • गड्ढे बनाना
  • पीसना
  • चिकनाना।

→ इसके अपरदन से निम्नलिखित भू-आकार बनते हैं।

  • हिमागार
  • श्रृंग
  • कॉल
  • U-आकार घाटी
  • लटकती घाटी।

→ हिमनदी द्वारा निक्षेप (Deposition by glaciers): हिमनदी के पिघलने पर इसके मलबे का निक्षेप होता है। यह निक्षेप टीलों के रूप में होता है जिसे हिमोढ़ कहते हैं। हिमोढ़ चार प्रकार के होते हैं|

  • पाश्विक हिमोढ़
  • मध्यवर्ती हिमोढ़
  • अन्तिम हिमोढ़
  • तलस्थ हिमोढ़।

→ वायु द्वारा अपरदन (Wind Erosion): वायु अपरदन निम्नलिखित क्रियाओं से होता है

  • नीचे का कटाव
  • नालीदार कटाव,
  • खुरचना
  • चिकनाना। वायु अपरदन में अपवाहन, अपघर्षण तथा संनिघर्षण महत्त्वपूर्ण हैं।

वायु अपरदन से:

  • छत्रक
  • यारडांग
  • ज्यूज़ेन
  • पुल
  • इन्सेलबर्ग बनते हैं।

→ वायु निक्षेप (Wind deposition): जब वायु का वेग कम होता है तो निक्षेप से रेत के टीले तथा लोएस निक्षेप बनते हैं। रेत के टीले तीन प्रकार के होते हैं

  • लम्बे बालूका स्तूप
  • आड़े बालूव’ स्तूप
  • बरखान टीले।

→ सागरीय तरंगें (Sea Waves): सागरीय तरंगों का कार्य तटों तक सीमित होता है। यह अपरदन ल दाब क्रिया, अपघर्षण, घुलन क्रिया द्वारा होता है। लहरों के अपरदन से खाड़िया, मृगु, गुफाएं, वात छिद्र तथा स्टक बनते हैं। लहरों द्वारा निक्षेप से पुलिन, रोधिकाएं, लैगून तथा स्पिट बनते हैं।

JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 6 भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ

Jharkhand Board JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 6 भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Geography Solutions Chapter 6 भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ

बहु-विकल्पी प्रश्न (Multiple Choice Questions)

प्रश्न-दिए गए चार वैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर चुनिए
(i) निम्नलिखित में से कौन-सी एक अनुक्रमिक प्रक्रिया है?
(A) निक्षेप
(B) ज्वालामुखीयता
(C) पटल-विरूपण
(D) अपरदन।
उत्तर:
अपरदन।

2. जलयोजन प्रक्रिया निम्नलिखित पदार्थों में से किसे प्रभावित करती है?
(A) ग्रेनाइट
(B) क्वार्ट्ज
(C) चीका (क्ले) मिट्टी
(D) लवण।
उत्तर:
लवण।

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3. मलवा अवधाव को किस श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है?
(A) भूस्खलन
(B) तीव्र प्रवाही वृहत् संचलन
(C) मंद प्रवाही वृहत् संचलन
(D) अवतलन/धसकन।
उत्तर:
मंद प्रवाही वृहत् संचलन।

4. निम्न में कौन-सा कारक बृहत क्षरण को प्रभावित नहीं करता?
(A) विवर्तन
(B) चट्टानों का प्रकार
(C) गुरुत्वाकर्षण
(D) जलवायु।
उत्तर:
चट्टानों का प्रकार।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
अपक्षय पृथ्वी पर जैव विविधता के लिए उत्तरदायी है। कैसे?
उत्तर:
जैविक अपक्षय, जीवों की वृद्धि या संचलन से उत्पन्न अपक्षय-वातावरण एवं भौतिक परिवर्तन से खनिजों एवं आयन्स के स्थानान्तर की दिशा में एक योगदान है। केंचुओं, दीमकों, चूहों, कुंतकों इत्यादि जैसे जीवों द्वारा बिल खोदने एवं वेजिंग (फान) के द्वारा नयी सतहों (Surfaces) का निर्माण होता है जिससे रासायनिक प्रक्रिया के लिए अनावृत्त (Expose) सतह में नमी एवं हवा के वेधन में सहायता मिलती है। मानव भी वनस्पतियों को अस्त-व्यस्त कर, खेत जोतकर एवं मिट्टी में कृषि करके धरातलीय पदार्थों में वायु, जल एवं खनिजों के मिश्रण तथा उनमें नये सम्पर्क स्थापित करने में सहायक होता है।

सड़ने वाले पौधों एवं पशुओं के पदार्थ; ह्यमिक, कार्बनिक एवं अन्य अम्ल जैसे तत्त्वों के उत्पादन में योगदान देते हैं जिससे कुछ तत्त्वों का सड़ना, क्षरण तथा घुलन बढ़ जाता है। शैवाल, खनिज पोषकों (Nutrients) लौह एवं मैंगनीज़ ऑक्साइड के संकेद्रण में सहायक होता है। पौधों की जड़ें धरातल के पदार्थों पर ज़बरदस्त दबाव डालती हैं तथा उन्हें यान्त्रिक ढंग (Mechanically) से तोड़कर अलग-अलग कर देती हैं।

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प्रश्न 2.
वृहत संचलन जो वास्तविक तीव्र एवं गोचर/अवगमन हैं वे क्या हैं? सूची बद्ध कीजिए।
उत्तर:
वृहत संचलन की सक्रियता के कई कारक होते हैं। वे इस प्रकार हैं

  1. प्राकृतिक एवं कृत्रिम साधनों द्वारा ऊपर के पदार्थों के टिकने के आधार का हटाना।
  2. ढालों की प्रवणता एवं ऊंचाई में वृद्धि,
  3. पदार्थों के प्राकृतिक अथवा कृत्रिम भराव से जुड़ने के कारण उत्पन्न अतिभार,
  4. अत्यधिक वर्षा, संतृप्ति एवं ढाल के पदार्थों के स्नेहन (Lubrication) द्वारा उत्पन्न अतिभार,
  5. मूल ढाल की सताह पर से पदार्थ या भार का हटना,
  6. भूकम्प आना,
  7. विस्फोट या मशीनों का कम्पन (Vibration),
  8. अत्यधिक प्राकृतिक रिसाव,
  9. झीलों, जलाशयों एवं नदियों से भारी मात्रा में जल निष्कासन एवं परिणामस्वरूप ढालों एवं नदी तटों के नीचे से जल का मंद गति से बहना,
  10. प्राकृतिक वनस्पति का अन्धाधुन्ध विनाश।

प्रश्न 3.
विभिन्न गतिशील एवं शक्तिशाली बहिर्जनिक भू-आकृतिक कारक क्या हैं तथा वह क्या प्रधान कार्य सम्पन्न करते हैं?
उत्तर:
गतिशील एवं शक्तिशाली बहिर्जनिक, भू-आकृतिक कारक, प्रवाहित जल, हिमानी, हवा, लहरें धाराएँ हैं। ये धरातल के पदार्थों को हटाने, ले जाने तथा निक्षेप के कार्य सम्पन्न करते हैं। इनका उद्देश्य भू-आकृतियों का विघर्षण करना है। प्रश्न

प्रश्न 4.
क्या मृदा निर्माण में अपक्षय एक आवश्यक अनिवार्यता है?
उत्तर:
मृदा निर्माण अपक्षय पर निर्भर करता है। अपक्षय शैलों को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ने तथा मृदा निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। यह अपरदन में सहायक हैं। मलबे के परिवहन तथा निक्षेप से ही मृदा निर्माण होता है।

JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 6 भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ

प्रश्न 5.
क्या भौतिक एवं रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं? यदि नहीं तो क्यों? सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
दोनों क्रियाएं सामूहिक रूप से कार्य करती हैं। कभी एक क्रिया प्रधान होती है तो कभी दूसरी क्रिया प्रधान होती है। दोनों क्रियाओं में विखण्डन तथा अपघटन होता है। दोनों में जल, दाब तथा गैसें सहायक होती हैं।

रासायनिक अपक्षय प्रक्रियाएँ: रासायनिक अपक्षय में क्रियाओं का एक समूह कार्य करता है जैसे विलयन, कार्बोनेटीकरण, जल योजन, ऑक्सीकरण। ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइ-ऑक्साइड इन क्रियाओं को तीव्र गति प्रदान करती है। भौतिक अपक्षय क्रियाएँ: ये क्रियाएं यांत्रिक क्रियाएं हैं जिनमें निम्नलिखित बल कार्य करते हैं:

  1. गुरुत्वाकर्षण बल
  2. तापमान वृद्धि के कारण विस्तारण बल
  3. जल का दवाब इन बलों के कारण शैलों का विघटन होता है। ये प्रक्रियाएं लघु व मन्द होती हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1.
हमारी पृथ्वी भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के दो विरोधात्मक वर्गों के खेल का मैदान है। विवेचना करो।
उत्तर:
धरातल पृथ्वी मण्डल के अन्तर्गत उत्पन्न हुए बाह्य बलों एवं पृथ्वी के अन्दर अद्भुत आन्तरिक बलों से अनवरत प्रभावित होता है तथा यह सर्वदा परिवर्तनशील है। बाह्य बलों को बहिर्जनिक (Exogenic) तथा आन्तरिक बलों को अन्तर्जनित (Endogenic) बल कहते हैं। बहिर्जनिक बलों की क्रियाओं का परिणाम होता है-उभरी हुई भू-आकृतियों का विघर्षण (Wearing down) तथा बेसिन/निम्न क्षेत्रों/गों का भराव (अधिवृद्धि/तल्लोचन) धरातल पर अपरदन के माध्यम से उच्चावच के मध्य अन्तर के कम होने के तथ्य को तल सन्तुलन (Gradation) कहते हैं।

अन्तर्जनित शक्तियां निरन्तर धरातल के भागों को ऊपर उठाती हैं या उनका निर्माण करती हैं तथा बहिर्जनिक प्रक्रियाएं उच्चावच में भिन्नता को सम (बराबर) करने में असफल रहती हैं। अतएव भिन्नता तब तक बनी रहती है जब तक बहिर्जनिक एवं अन्तर्जनित बलों के विरोधात्मक कार्य चलते रहते हैं। सामान्यतः अन्तर्जनित बल मूल रूप से भू-आकृति निर्माण करने वाले बल हैं तथा बहिर्जनिक प्रक्रियाएं मुख्य रूप से भूमि विघर्षण बल होती हैं।

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प्रश्न 2.
“बाह्यजनिक भू-आकृतिक प्रक्रियाएं अपनी अन्तिम ऊर्जा सूर्य की गर्मी से प्राप्त करती हैं।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
धरातल पर बाह्य भू-आकृतिक क्रियाएं भिन्न-भिन्न अक्षांशों में भिन्न-भिन्न होती हैं। यह सूर्य से प्राप्त गर्मी में भिन्नता के कारण हैं। विभिन्न जलवायु प्रदेशों में तथा ऊंचाई में अन्तर के कारण सूर्यताप प्राप्ति में स्थानीय विभिन्नता पाई जाती है। इस प्रकार वायु का वेग, वर्षा की मात्रा, हिमानी, तुषार आदि क्रियाओं में विभिन्नता सूर्यातप के कारण हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Question)

प्रश्न 1.
आप किस प्रकार मदा निर्माण प्रक्रियाओं और मृदा निर्माण कारकों के बीच अन्तर करेंगे? जलवायु और भौतिक क्रियाओं की मृदा निर्माण में क्या भूमिका है? दो महत्त्वपूर्ण कारकों के रूप लिखो।
उत्तर:
मृदा निर्माण के कारक सभी मृदा निर्माण की प्रक्रियाएं अपक्षय से जुड़ी हैं। लेकिन कई अन्य कारक अपक्षय के अंतिम उत्पाद को प्रभावित करते हैं। इनमें से पांच प्राथमिक कारक हैं। ये अकेले अथवा सम्मिलित रूप से विभिन्न प्रकार की मृदाओं के विकास के लिए उत्तरदायी हैं। ये कारक हैं

समय (Time):
आदर्श दशाओं में एक पहचान योग्य मृदा परिच्छेदिका का विकास 200 वर्षों में हो सकता है। परन्तु कम अनुकूल परिस्थितियों में यह समय हज़ारों वर्षों का हो सकता है। समय तथा अन्य विशिष्ट कारकों-जलवायु, जनक सामग्री, स्थलाकृति तथा जैविक पदार्थ के प्रभावों द्वारा मृदा विकास की दर निर्धारित होती है।

मृदा निर्माण की प्रक्रियाएँ (Processes of Soil Formation):
मृदा निर्माण में अनेक प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं और किसी सीमा तक मृदा परिच्छेदिका को प्रभावित कर सकती हैं। ये प्रक्रियाएं निम्नलिखित हैं
(i) अवक्षालन:
यह मृत्तिका अथवा अन्य महीन कणों का यांत्रिक विधि से स्थान परिवर्तन है, जिसमें वे मृदा परिच्छेदिका में नीचे ले जाए जाते हैं।

(ii) संपोहन:
यह मृदा परिच्छेदिका के निचले संस्तरों में ऊपर से बहाकर लाए गए पदार्थों का संचयन है।

(iii) केलूवियेशन:
यह निक्षालन के समान पदार्थ का नीचे की ओर संचलन है, परन्तु जैविक संकुल यौगिकी के प्रभाव में।

(iv) निक्षालन:
इसमें घोल रूप में पदार्थों को किसी संस्तर से हटाकर नीचे की ओर ले जाना है।

1. जनक पदार्थ (Parent Material):
कमजोर तरीके से संयोजित बलुआ पत्थर से बनी मृदा बलुई होगी और शैल चट्टान से बनी मृदा उथली तथा महीन गठन वाली होगी। इसी प्रकार मृत्तिका निर्माण में अपघट्य गहरे रंग वाले खनिजों का उच्च प्रतिशत क्वार्ट्ज की अपेक्षा अधिक सहायक है। इस प्रकार जनक पदार्थ अपक्षय की विभिन्न दरों द्वारा मृदा निर्माण को प्रभावित करता है। मूल शैल तट स्थान (In Situ) या अवशिष्ट मृदा या लाए गए निक्षेप (परिवहन कृत) (Transported) भी हो सकती है।

2. जलवायु (Climate):
आर्द्र क्षेत्रों में अत्यधिक अपक्षय तथा निक्षालन के कारण अम्लीय मृदा का निर्माण होता है। निम्न वर्षा वाले क्षेत्रों में चूने के संचयन या धारण के कारण क्षारीय मृदा का निर्माण होता है। विभिन्न प्रकार के मृदा निर्माण में जलवायु एक
अत्यधिक प्रभावी कारक है, विशेषकर तापमान और वर्षा के प्रभावों के कारण वनस्पति पर अपने प्रभाव के कारण, जलवायु मृदा निर्माण में परोक्ष भूमिका भी निभाती है।

3. जीवजात (Vegetation):
जैविक उत्सर्ग एवं अपशिष्ट पदार्थों के अपघटन तथा जीवित पौधों तथा पशुओं की क्रियाओं का मदा विकास में विशेष हाथ होता है। बिलकारी प्राणी जैसे-छछंदर, प्रेअरी डॉग, केंचुआ, चींटी और दीमक आदि धीरे-धीरे जैविक पदार्थों का अपघटन करके तथा दुर्बल अम्ल तैयार करके, जो शीघ्र ही खनिजों को घोल देता है, मृदा विकास में सहायक होते हैं।

4. स्थलाकृति (Topographes):
पहाड़ियों के तीव्र ढालों पर मृदा आवरण पतला होता है और इसका कारण पृष्ठीय प्रवाह के कारण भूपृष्ठ का अपरदन है। इसके विपरीत पहाड़ियों के मंद ढालों पर मृदा की परत मोटी होती है। इसका कारण वनस्पति की प्रचुरता
और पर्याप्त जल का मृदा के नीचे गहराई तक चला जाना है। स्थल-रुद्ध गर्तों में प्रवाहित जल का अधिकांश भाग आता है, जो घनी वनस्पति आवरण के लिए सहायक है, लेकिन ऑक्सीकरण की कमी के कारण अपघटन धीमा हो जाता है। इससे ऐसी मृदा की उत्पत्ति होती है, जो जैविक पदार्थों में समृद्ध होती है। स्थलाकृति, जल एवं तापमान के साथ अपने सम्बन्ध के द्वारा मृदा निर्माण को प्रभावित करती है।

JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 6 भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ

भू-आकृतिक प्रक्रियाएँ  JAC Class 11 Geography Notes

→ अनावरण (Denudation): पृथ्वी के धरातल को समतल करने की क्रिया को अनावरण कहते हैं। बाह्य कार्यकर्ता धरातल को समतल करने का यत्न करते हैं।

→ अपरदन (Erosion): भूतल पर कांट-छांट तथा खुरचने की क्रिया को अपरदन कहते हैं। यह कार्य गतिशील कारकों द्वारा जैसे जल, हिम नदी, वायु द्वारा होता है।

→ अपक्षरण (Weathering): पृथ्वी की बाहरी स्थिर शक्तियों द्वारा चट्टानों को विखण्डन तथा अपघटन की क्रिया से तोड़ने-फोड़ने के कार्य को अपक्षरण कहते हैं। अपक्षरण चट्टानों को कमजोर करके अपरदन में सहायता करता है।

→ अपक्षरण के कारक (Factors):

  • चट्टानों की संरचना
  • भूमि का ढाल
  • जलवायु
  • वनस्पति
  • शैल सन्धियां।

→ अपक्षरण के प्रकार (Types of Weathering):

  • भौतिक अथवा यान्त्रिक अपक्षरण
  • रासायनिक

→ भौतिक अपक्षरण (Physical Weathering): यान्त्रिक साधनों द्वारा चट्टानों के विघटन (संरचना के परिवर्तन के बिना) को भौतिक अपक्षरण कहते हैं। यह क्रिया तापमान, पाला, पवन तथा वर्षा द्वारा होती है।

→ रासायनिक अपक्षरण (Chemical Weathering): रासायनिक विधियों से चट्टानों के अपने ही स्थान पर अपघटन को रासायनिक अपक्षरण कहते हैं। ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन आदि गैसों के प्रभाव से निम्नलिखित क्रियाओं द्वारा अपक्षरण होता है

  • ऑक्सीकरण
  • कार्बोनेटीकरण
  • जलयोजन
  • घोलीकरण।

→ मृदा (Soil):
मृदा भूतल की ऊपरी सतह का आवरण है। यह चट्टानों के चूर्ण तथा वनस्पति के गले-सड़े अंश की एक पतली पर्त है।

→ मृदा संस्तर (Soil Horizons): मृदा के पार्श्व चित्र में तीन पर्ते या संस्तर पाए जाते हैं

  • अ-संस्तर
  • ब-संस्तर
  • स-संस्तर।

→ मृदा का महत्त्व (Importance of Soils): मृदा एक मूल्यवान् प्राकृतिक सम्पदा है। मानवता मृदा पर निर्भर है, अनेक मानवीय तथा आर्थिक क्रियाएं मृदा पर निर्भर हैं।

→ मृदा अपरदन (Soil Erosion): भू-तल की ऊपरी सतह से उपजाऊ मृदा का उड़ जाना या बह जाना मृदा अपरदन कहलाता है। जल, वायु तथा वर्षा मृदा अपरदन के प्रमुख कारक हैं।

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→ मृदा अपरदन के प्रकार (Types of Soil Erosion):

  • धरातलीय अपरदन
  • नालीदार कटाव
  • वायु

→ अपरदन। मृदा अपरदन के कारण (Causes of Soil Erosion):

  • मूसलाधार वर्षा
  • तीव्र ढलान
  • तीव्र गति पवनें
  • अनियन्त्रित पशुचारण
  • स्थानान्तरी कृषि
  • वनों की कटाई।

→ मृदा संरक्षण के उपाय (Methods of Soil Conservation): मृदा संरक्षण, बचाव, पुनर्निर्माण तथा । उपजाऊपन कायम रखना आवश्यक है। विभिन्न उपायों का प्रयोग किया जाता है

  • वनारोपण
  • नियन्त्रित पशुचारण
  • सीढ़ीनुमा कृषि
  • नदी बांध निर्माण
  • फसलों का हेर-फेर।

JAC Board Solutions Class 11 in Hindi & English Jharkhand Board

JAC Jharkhand Board Class 11th Solutions in Hindi & English Medium

JAC Class 11 History Solutions Chapter 3 तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य

Jharkhand Board JAC Class 11 History Solutions Chapter 3 तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 History Solutions Chapter 3 तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य

Jharkhand Board Class 11 History तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य In-text Questions and Answers

पृष्ठ 63

प्रश्न 1.
रोमन साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास में कौन तीन मुख्य खिलाड़ी थे? प्रत्येक के बारे में एक-दो पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास में तीन मुख्य खिलाड़ी – रोमन साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास में निम्नलिखित तीन मुख्य खिलाड़ी थे –
(1) सम्राट्
(2) सैनेट
(3) सेना।

(1) सम्राट्-सम्राट् साम्राज्य का एकछत्र शासक और सत्ता का वास्तविक स्रोत था। वह एक ‘प्रमुख नागरिक’ कहलाता था। ऐसा ‘सैनेट’ को सम्मान प्रदान करने के लिए किया गया था।
(2) सैनेट – सैनेट में धनी परिवारों के एक छोटे से समूह का बोलबाला रहता था, जिन्हें ‘अभिजात’ कहा जाता था। रोम में सैनेट का अस्तित्व कई शताब्दियों तक रहा। इसमें कुलीन एवं अभिजात वर्गों के लोगों का प्रतिनिधित्व था, परन्तु कालान्तर में इतालवी मूल के जमींदारों को भी सम्मिलित कर लिया गया। जब रोम में एक ‘गणतन्त्र’ था, तब सत्ता पर सैनेट का नियन्त्रण था। सम्राटों की परख इस बात से की जाती थी कि वे सैनेट के प्रति किस प्रकार का व्यवहार करते थे।
(3) सेना – रोम की सेना एक व्यावसायिक सेना थी जिसमें प्रत्येक सैनिक को वेतन दिया जाता था। सेना साम्राज्य की सबसे बड़ी एकल संगठित निकाय थी और उसके पास सम्राटों का भाग्य निर्धारित करने की शक्ति थी।

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प्रश्न 2.
रोमन सम्राट् अपने इतने बड़े साम्राज्य पर शासन कैसे कर लेता था ? इसके लिए किसका सहयोग महत्त्वपूर्ण था ?
उत्तर:
सम्पूर्ण रोमन साम्राज्य में दूर-दूर तक अनेक नगर स्थापित किये गए थे जिनके माध्यम से समस्त साम्राज्य पर नियन्त्रण रखा जाता था। भूमध्य सागर के तटों पर स्थापित बड़े शहरी केन्द्र जैसे कार्थेज, सिकन्दरिया तथा एंटिऑक आदि साम्राज्यिक प्रणाली के मूल आधार थे। इन्हीं शहरों के माध्यम से रोमन सरकार प्रान्तीय ग्रामीण क्षेत्रों पर कर लगाने में सफल हो पाती थी, जिनसे साम्राज्य को अधिकांश धन-सम्पत्ति प्राप्त होती थी।

इस प्रकार स्थानीय उच्च वर्ग रोमन साम्राज्य को कर वसूली तथा अपने क्षेत्रों के प्रशासन के कार्य में महत्त्वपूर्ण सहयोग देते थे। दूसरी और तीसरी शताब्दियों में अधिकतर प्रशासक तथा सैनिक अधिकारी इन्हीं उच्च प्रान्तीय वर्गों में से होते थे। इस प्रकार उनका एक नया संभ्रांत वर्ग बन गया जो सैनेट के सदस्यों की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली था, क्योंकि उसे सम्राटों का समर्थन प्राप्त था।

पृष्ठ 66

क्रियाकलाप 2 : रोमन साम्राज्य में ‘स्त्रियाँ’ कहाँ तक आत्मनिर्भर थीं? रोमन परिवार की स्थिति की तुलना आज के भारतीय परिवार की स्थिति से करो।
उत्तर:
रोमन साम्राज्य में स्त्रियाँ काफी आत्मनिर्भर थीं। स्त्री अपने पति को अपनी सम्पत्ति हस्तान्तरित नहीं करती थी। वह अपने पैतृक परिवार में अपने पूरे अधिकार बनाए रखती थी। यद्यपि महिला का दहेज वैवाहिक अवधि के दौरान उसके पति के पास चला जाता था, किन्तु महिला अपने पिता की मुख्य उत्तराधिकारी बनी रहती थी और अपने पिता की मृत्यु के उपरान्त उसकी सम्पत्ति की स्वतन्त्र मालिक बन जाती थी। इस प्रकार रोम की स्त्रियों को सम्पत्ति के स्वामित्व तथा संचालन में अनेक कानूनी अधिकार प्राप्त थे। कानून के अनुसार पति-पत्नी को संयुक्त रूप से एक वित्तीय हस्ती नहीं, बल्कि अलग-अलग दो वित्तीय हस्तियाँ माना जाता था तथा पत्नी को पूर्ण कानूनी स्वतन्त्रता प्राप्त थी। रोम में तलाक देना अपेक्षाकृत सरल था।

रोमन परिवार की स्थिति की वर्तमान भारतीय परिवार की स्थिति से तुलना –
(i) एकल परिवार के स्वरूप में अन्तर – रोमन समाज में एकल परिवार का व्यापक रूप से चलन था। वयस्क पुत्र अपने पिता के परिवार के साथ नहीं रहते थे। वयस्क भाई भी बहुत कम साझे परिवार में रहते थे। दूसरी ओर, दासों को परिवार में सम्मिलित किया जाता था क्योंकि रोमवासियों के लिए परिवार की यही अवधारणा थी। वर्तमान भारत में भी एकल परिवार का व्यापक चलन है अधिकांश वयस्क पुरुष एकल परिवार में रहना पसन्द करते हैं। परन्तु वे अपने परिवारों में दासों को सम्मिलित नहीं करते।

(ii) स्त्रियों की आत्मनिर्भरता सम्बन्धी अन्तर – रोमन साम्राज्य में स्त्रियाँ काफी आत्मनिर्भर थीं। यद्यपि शहरों में रहने वाली भारतीय महिलाएँ कुछ सीमा तक आत्मनिर्भर हैं, परन्तु उनकी संख्या काफी सीमित है। ग्रामीण स्त्रियाँ पूरी तरह से पुरुषों पर निर्भर रहती हैं।

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(iii) विवाह सम्बन्धी अन्तर – रोम में पुरुष 28-29, 30-32 की आयु में विवाह करते थे तथा लड़कियाँ 16-18 तथा 22-23 की आयु में विवाह करती थीं। परन्तु भारत में 18 वर्ष के लड़के तथा लड़की को वयस्क माना जाता है। 18 वर्ष से कम आयु की लड़की को विवाह करने का वैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है। भारत में शहरों में रहने वाले पुरुष प्रायः 25-26 वर्ष की आयु में तथा लड़कियाँ प्राय: 22-23 वर्ष की आयु में विवाह करना पसन्द करते हैं। फिर भी स्त्रियों को अनेक सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का सामना करना पड़ता है1

(iv) तलाक सम्बन्धी अन्तर – रोम में तलाक देना अपेक्षाकृत सरल था, परन्तु भारतीय महिलाओं के लिए तलाक देने की प्रक्रिया काफी जटिल है।

(v) पति – पत्नी सम्बन्ध सम्बन्धी तुलना-रोम में महिलाओं पर उनके पतियों का प्रभुत्व रहता था और वे प्रायः अपनी पत्नियों की पिटाई करते थे। पिताओं का अपने बच्चों पर अत्यधिक कानूनी नियन्त्रण होता था। अवांछित बच्चों के मामले में उन्हें जीवित रखने या मार डालने का कानूनी अधिकार प्राप्त था। यद्यपि वर्तमान भारतीय परिवारों में भी पुरुषों. की प्रधानता स्थापित है, परन्तु प्रायः पुरुष अपनी पत्नियों की पिटाई करना पसन्द नहीं करते। उनका अपने बच्चों पर कानूनी नियन्त्रण भी नहीं होता है अर्थात् अवांछित बच्चों के मामले में उन्हें अपने बच्चों को मार डालने का कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है।

पृष्ठ 67

क्रियाकलाप 3 : मिट्टी के बर्तनों के अवशेषों पर काम करने वाले पुरातत्त्वविद् बहुत कुछ जासूसों की तरह होते हैं। क्यों? स्पष्ट करो। ‘एम्फोरा’ हमें रोमन काल के भूमध्यसागरीय क्षेत्र के आर्थिक जन-जीवन के बारे में क्या बताते हैं?
उत्तर:
मिट्टी के बर्तनों के अवशेषों पर काम करने वाले पुरातत्त्वविद् बहुत कुछ जासूसों की तरह होते हैं। शराब, जैतून का तेल तथा अन्य तरल पदार्थों की ढुलाई ऐसे मटकों या कंटेनरों में होती थी जिन्हें ‘एम्फोरा’ कहते थे। इन मटकों के टूटे हुए टुकड़े बहुत बड़ी संख्या में अभी भी विद्यमान हैं।

पुरातत्त्वविद् इन टुकड़ों को ठीक से जोड़कर इन कंटेनरों को फिर से सही रूप देने और यह पता लगाने में सफल हुए हैं कि उनमें क्या-क्या ले जाया जाता था। इसके अतिरिक्त, प्राप्त वस्तुओं की मिट्टी का भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में उपलब्ध चिकनी मिट्टी के नमूनों के साथ मिलाने करके पुरातत्त्वविद् हमें उनके निर्माण-स्थल के बारे में जानकारी देने में सफल हुए हैं। इसी प्रकार जासूस विभिन्न साक्ष्यों को इकट्ठा कर, उनका विश्लेषण कर अज्ञात एवं रहस्यात्मक तथ्यों का पता लगा लेते हैं।

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भूमध्यसागरीय क्षेत्र में अनेक खुदाई के स्थलों पर पाए गए भिन्न-भिन्न प्रकार के एम्फोरा पात्रों के अवशेषों और उनके मिलने के स्थानों के आधार पर पुरातत्त्वविद् यह बताने में सफल हुए हैं कि स्पेन के जैतून के तेल के उत्पाद अपने इतालवी प्रतिद्वन्द्वियों से तेल का बाजार छीनने में सफल हुए।

बाद में उत्तरी अफ्रीका के उत्पादकों ने स्पेन के जैतून के तेल के उत्पादकों जैसा स्थान प्राप्त कर लिया और तीसरी तथा चौथी शताब्दियों के अधिकांश भाग में इनका उस क्षेत्र में वर्चस्व रहा। दूसरे शब्दों में, भिन्न-भिन्न प्रदेशों के जमींदार एवं उत्पादक अलग-अलग वस्तुओं का बाजार हथियाने क लिए आपस में प्रतिस्पर्द्धा करते थे। पुरातत्त्वविदों की भाँति जासूस भी विभिन्न घटनाओं के साक्ष्यों को इकट्ठा कर, उनका विश्लेषण कर निष्कर्ष निकाल लेते हैं।

पृष्ठ 70

क्रियाकलाप 4: इस अध्याय में तीन ऐसे लेखकों का उल्लेख किया गया है जिनकी रचनाओं का प्रयोग यह बताने के लिए किया गया है कि रोम के लोग अपने कामगारों के साथ कैसा बर्ताव करते थे? क्या आप उनके नाम बता सकते हैं? उस अनुभाग को स्वयं फिर से पढ़िए और उन दो तरीकों का वर्णन कीजिए जिनकी सहायता से रोम के लोग अपने श्रमिकों पर नियन्त्रण रखते थे।
उत्तर:
रोमन लोगों का अपने कामगारों के साथ बर्ताव – निम्नलिखित तीन लेखकों कोलूमेल्ला, वरिष्ठ प्लिनी तथा आगस्टीन ने अपनी रचनाओं में यह बताया है कि रोम के लोग अपने कामगारों के साथ कैसा बर्ताव करते थे।

(1) कोलूमेल्ला (निरीक्षण द्वारा श्रमिकों पर नियन्त्रण) – दक्षिणी स्पेन से आए पहली शताब्दी के लेखक कोलूमेल्ला ने सिफारिश की थी कि जमींदारों को अपनी आवश्यकता से दुगुनी संख्या में उपकरणों तथा औजारों का सुरक्षित भण्डार रखना चाहिए जिससे उत्पादन निरन्तर होता रहे क्योंकि दास सम्बन्धी श्रम- समय की हानि ऐसी मदों की लागत से अधिक बैठती है।

मालिकों की यह आम धारणा थी कि निरीक्षण बिना कभी भी कोई काम ठीक से नहीं करवाया जा सकता। इसलिए मुक्त तथा दास दोनों प्रकार के श्रमिकों के लिए निरीक्षण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष था। निरीक्षण को सरल बनाने के लिए कामगारों को कभी-कभी छोटे दलों में बाँट दिया जाता था। कोलूमेल्ला ने दस-दस श्रमिकों के समूह बनाने का सुझाव दिया था और उसने यह दावा किया कि इन छोटे समूहों में यह बताना अपेक्षाकृत सरल होता है कि उनमें से कौन काम कर रहा है और कौन काम नहीं कर रहा है।

(2) वरिष्ठ प्लिनी (श्रमिकों को दागना) – प्रकृति विज्ञान के प्रसिद्ध लेखक वरिष्ठ प्लिनी ने दास – समूहों के प्रयोग की यह कहकर निन्दा की कि यह उत्पादन आयोजित करने का सबसे खराब तरीका है क्योंकि इस प्रकार पृथक् – पृथक् समूह में काम करने वाले दासों को प्राय: पैरों में जंजीर डालकर एक-साथ रखा जाता था। ऐसे तरीके कठोर और क्रूर मालूम होते हैं, परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज विश्व में ज्यादातर कारखाने श्रम नियन्त्रण के कुछ इसी प्रकार के सिद्धान्त लागू करते हैं। वास्तव में रोमन साम्राज्य में कुछ औद्योगिक प्रतिष्ठानों ने तो इससे भी अधिक कठोर नियन्त्रण लागू कर रखे थे।

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वरिष्ठ प्लिनी ने सिकन्दरिया की फ्रैंकिन्सेंस अर्थात् सुगन्धित राल के कारखानों की स्थिति का वर्णन किया है। “कामगारों के एप्रेनों पर एक सील लगा दी जाती है, उन्हें अपने सिर पर एक गहरी जाली वाला मास्क या नेट पहनना पड़ता है और उन्हें कारखाने से बाहर जाने के लिए अपने सभी कपड़े उतारने पड़ते हैं। ” तीसरी शताब्दी के राज्यादेश में मिस्र के किसानों द्वारा अपने गाँव छोड़ कर जाने का उल्लेख है जिसमें यह कहा गया है कि वे इसलिए गाँव छोड़कर जा रहे थे ताकि उन्हें खेती के काम में न लगना पड़े।

शायद यही बात ज्यादातर फैक्ट्रियों और कारखानों पर लागू होती थी। 398 ई. के एक कानून में यह कहा गया है कि कामगारों को दागा जाता था ताकि यदि वे भागने और छिपने का प्रयत्न करें तो उन्हें पहचाना जा सके। कई निजी स्वामी कामगारों के साथ ऋण- संविदा के रूप में करार ले लेते थे ताकि वे यह दावा कर सकें कि उनके कर्मचारी उनके कर्जदार हैं और इस प्रकार वे अपने कामगारों पर कड़ा नियन्त्रण रखते थे। बहुत से निर्धन परिवारों ने तो जीवित रहने के लिए ही कर्जदारी स्वीकार कर ली थी।

(3) आगस्टीन – अभी हाल ही में खोजे गए आगस्टीन के पत्रों में से एक पत्र से हमें ज्ञात होता है कि कभी-कभी माता-पिता अपने बच्चों को 25 वर्ष के लिए बेचकर बन्धुआ मजदूर बना देते थे। आगस्टीन ने एक बार अपने एक वकील मित्र से पूछा कि पिता की मृत्यु हो जाने पर क्या इन बच्चों को स्वतन्त्र किया जा सकता था। ग्रामीण ऋणग्रस्तता और भी अधिक व्यापक थी। इस ऋणग्रस्तता का एक उदाहरण इस घटना से मिलता है कि 66 ईस्वी के प्रबल यहूदी विद्रोह में क्रान्तिकारियों ने जनता का समर्थन प्राप्त करने के लिए साहूकारों के ऋण-पत्र (बॉण्ड) नष्ट कर दिये थे।

रोमन लोगों द्वारा अपने श्रमिकों पर नियन्त्रण के दो तरीके –
(1) निरीक्षण द्वारा – रोमन मालिकों की यह मान्यता थी कि निरीक्षण या देखभाल के बिना कोई भी कार्य ठीक ढंग से नहीं करवाया जा सकता। इसलिए मुक्त तथा दास, दोनों प्रकार के श्रमिकों के लिए निरीक्षण एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। निरीक्षण को सरल बनाने हेतु कामगारों को कभी-कभी छोटे दलों में बाँट दिया जाता था।

(2) श्रमिकों को दागना – रोमन साम्राज्य में कामगारों को दागने की प्रथा प्रचलित थी, रोम में 398 के एक कानून में यह कहा गया है कि कामगारों को दागा जाता था, जिससे यदि वे भागने और छिपने का प्रयत्न करें, तो उन्हें पहचाना जा सके। कई निजी मालिक कामगारों के साथ ऋण संविदा के रूप में एक समझौता कर लेते थे ताकि वे यह दावा कर सकें कि उनके कर्मचारी उनके कर्जदार हैं और इस प्रकार वे अपने कामगारों पर कड़ा नियन्त्रण रखते थे। आगस्टीन के एक पत्र से ज्ञात होता है कि कभी-कभी माता-पिता अपने बच्चों को 25 वर्ष के लिए बेच कर बन्धुआ मजदूर बना देते थे। मालिक इन बच्चों को दाग देते थे ताकि निश्चित अवधि तक वे उनके बन्धुआ मजदूर ही रहे।

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लघूत्तरात्मक प्रश्न –

प्रश्न 1.
यदि आप रोम साम्राज्य में रहे होते, तो कहाँ रहना पसन्द करते- नगरों में या ग्रामीण क्षेत्र में ? कारण बताइए थी।
उत्तर- यदि मैं रोम साम्राज्य में रहा होता, तो नगरों में रहना पसन्द करता। इसके निम्नलिखित कारण थे –
(1) शहरों में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी।
(2) अकाल के दिनों में भी शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अच्छी सुविधाएँ प्राप्त होने की सम्भावना रहती
(3) सार्वजनिक स्नान – गृह रोम के शहरी जीवन की एक प्रमुख विशेषता थी।
(4) शहरी लोगों को उच्चस्तर के मनोरंजन उपलब्ध थे।

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(5) शहर उद्योग-धन्धों एवं व्यापार के भी प्रमुख केन्द्र होते थे। नगरों में अनेक खानें, खदानें, ईंट-भट्टे, जैतून के तेल की फैक्टरियाँ आदि उपलब्ध थीं जिससे वहाँ का आर्थिक आधारभूत ढाँचा सुदृढ़ था। यहाँ आजीविका कमाने की कोई समस्या नहीं थी। लोगों का जीवन स्तर उन्नत था। उनका जीवन सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण था। शहर आर्थिक सम्पन्नता के केन्द्र बने हुए थे।
(6) नगरों में साक्षरता की दर भी अधिक थी। नगरों में अनेक विद्यालय स्थापित थे, जहाँ विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करते थे।
(7) नगरों में लोगों का जीवन ग्रामीण लोगों के जीवन की अपेक्षा सुरक्षित था। नगर प्रशासनिक इकाइयों के रूप में क्रियाशील थे। इसलिए वहाँ पर लोगों की सुख-सुविधाओं पर ज्यादा ध्यान दिया जाता था।

प्रश्न 2.
इस अध्याय में उल्लिखित कुछ छोटे शहरों, बड़े नगरों, समुद्रों और प्रान्तों की सूची बनाइये और उन्हें नक्शे पर खोजने की कोशिश कीजिये। क्या आप अपने द्वारा बनाई गई सूची में संकलित किन्हीं तीन विषयों के बारे में कुछ कह सकते हैं?
उत्तर:
(1) छोटे शहरों की सूची – इटली में कैम्पेनिया, सिसली, पोम्पेई, मिस्र में फैय्यूम, गैलिली, बाइजैकियम ( ट्यूनीशिया), दक्षिणी गाल, बेटिका, हिसपेनिया, नुमीडिया। आदि।
(2) बड़े शहरों की सूची – कार्थेज, एंटिओक, कुंस्तुन्तुनिया, सिकन्दरिया, रोम, बगदाद, दमिश्क, मक्का, मदीना
(3) समुद्रों की सूची – अटलांटिक महासागर, लाल सागर, काला सागर, कैस्पियन सागर, एड्रियाटिक सागर, आयोनियन सागर, एजियन सागर, टिरेनियन सागर, भूमध्यसागर।
(4) प्रान्तों की सूची – गाल (आधुनिक फ्रांस), हिसपेनिया, बेटिका, ब्रिटेन, मारिटामिया ( मोरक्को), ट्यूनीशिया, मिस्र; मकदूनिया, कैम्पेनिया।

तीन विषयों का वर्णन –
(1) नगर – रोमन साम्राज्यं के नगर उद्योग, व्यापार, शिक्षा, साहित्य, कला, ज्ञान-विज्ञान आदि के प्रमुख केन्द्र थे। यहाँ के निवासियों को अनेक सुविधाएँ प्राप्त थीं तथा उनका जीवन स्तर उन्नत था।

(2) समुद्र – रोमन साम्राज्य के प्रमुख नगर समुद्रों के किनारों पर स्थित थे। इन मुहानों पर बड़े बन्दरगाह और पत्तन बनाए गए थे। इनके माध्यम से अनेक देशों के साथ व्यापार किया जाता था। रोमन साम्राज्य का व्यापार बहुत उन्नत था।

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(3) प्रान्त – इंटली के सिवाय, रोमन साम्राज्य के सभी क्षेत्र प्रान्तों में बँटे हुए थे और उनसे कर वसूला जाता था। सम्पूर्ण साम्राज्य में दूर-दूर तक अनेक नगर स्थापित किए गए थे जिनके माध्यम से समस्त साम्राज्य पर नियन्त्रण रखा जाता था। इन्हीं शहरों के माध्यम से सरकार प्रान्तीय ग्रामीण क्षेत्रों पर कर लगाती थी। दूसरी और तीसरी शताब्दियों के दौरान अधिकतर प्रशासक तथा सैनिक अधिकारी उच्च प्रान्तीय वर्गों में से होते थे।

प्रश्न 3.
कल्पना कीजिए कि आप रोम की एक गृहिणी हैं जो घर की जरूरत की वस्तुओं की खरीददारी की सूची बना रही हैं। अपनी सूची में आप कौनसी वस्तुएँ शामिल करेंगी?
उत्तर:
यदि मैं रोम की एक गृहिणी होती, तो मैं घर की जरूरत की वस्तुओं की खरीददारी की सूची में निम्नलिखित वस्तुएँ शामिल करती-गेहूँ, जौ, मक्का, चावल, बाजरा, दालें, सब्जियाँ, फल, दूध, मक्खन, अण्डे, मांस, जैतून का तेल, मसाले, लकड़ी, कोयला, विभिन्न प्रकार के बर्तन, बच्चों, पुरुषों तथा परिवार के अन्य सदस्यों के लिए वस्त्र, बच्चों के लिए खिलौने, खेल-सामग्री तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ, फर्नीचर जैसे कुर्सी, मेज, पलंग, आभूषण, सौन्दर्य प्रसाधन, दवाइयाँ आदि।

प्रश्न 4.
आपको क्या लगता है कि रोमन सरकार ने चाँदी में मुद्रा को ढालना क्यों बन्द किया होगा और वह सिक्कों के उत्पादन के लिए कौनसी धातु का उपयोग करने लगे?
उत्तर:
परवर्ती रोमन साम्राज्य में प्रथम तीन शताब्दियों से प्रचलित चाँदी – आधारित मौद्रिक प्रणाली समाप्त कर दी गई। इसका कारण यह था कि स्पेन की खानों से चाँदी मिलना बन्द हो गया था और रोमन सरकार के पास चाँदी की मुद्रा के प्रचलन के लिए ‘पर्याप्त चाँदी नहीं रह गई थी । इसलिए रोमन सरकार ने चाँदी की मुद्रा को ढालना बन्द कर दिया। दूसरी ओर रोमन साम्राज्य में सोना प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था । अतः रोमन सम्राट कान्स्टैन्टाइन ने सोने पर आधारित नई मौद्रिक – प्रणाली स्थापित की। उसने सालिडास नामक सोने का सिक्का चलाया जो शुद्ध रूप में 45 ग्राम सोने का बना था। यह सिक्का रोमन साम्राज्य स्थापित होने के बाद भी चलता रहा।

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निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 5.
अगर सम्राट त्राजान भारत पर विजय प्राप्त करने में वास्तव में सफल रहे होते और रोमवासियों का इस देश पर अनेक सदियों तक कब्जा रहा होता, तो क्या आप सोचते हैं कि भारत वर्तमान समय के देश से किस प्रकार भिन्न होता?
उत्तर:
रोमन लोगों के अधीन रहने पर भारत का वर्तमान समय के देश से भिन्न होना यदि सम्राट त्राजान भारत पर विजय प्राप्त करने में वास्तव में सफल रहे होते और रोमवासियों का इस देश पर अनेक सदियों तक कब्जा रहा होता, तो भारत वर्तमान समय के देश से काफी भिन्न होता।

(1) प्रशासन – भारतीय प्रशासन परं रोमन प्रशासन का प्रभाव पड़ता। भारत में लोकतन्त्र के स्थान पर राजतन्त्र होता। रोमन साम्राज्य की भाँति भारतीय प्रशासन में सम्राट, सैनेट (अभिजात वर्ग) तथा सेना का प्रमुख स्थान होता। भारत के प्रशासनिक ढाँचे में उन्नति हुई होती।

(2) शहरों का महत्त्व – रोमन साम्राज्य में शहर साम्राज्यिक प्रणाली के मूल आधार थे। इन्हीं शहरों के माध्यम से सरकार प्रान्तीय ग्रामीण क्षेत्रों पर कर लगाने में सफल हो पाती थी। रोम के सन्दर्भ में नगर एक ऐसा शहरी केन्द्र था, जिसके अपने दण्डनायक, नगर परिषद् और अपना एक सुनिश्चित राज्य – क्षेत्र था जिसमें अनेक ग्राम शामिल थे। भारत में भी शहरों के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक महत्त्व में वृद्धि होती। सार्वजनिक स्नान-गृह रोम के शहरी जीवन की एक प्रमुख विशेषता थी। शहरी लोगों को उच्च स्तर के मनोरंजन उपलब्ध थे। भारत के शहरी जीवन पर भी इसका प्रभाव पड़ता।

(3) स्त्रियों की स्थिति – रोम की महिलाओं को सम्पत्ति के स्वामित्व व संचालन में व्यापक कानूनी अधिकार प्राप्त थे तलाक देना अपेक्षाकृत सरल था और इसके लिए पति अथवा पत्नी द्वारा केवल विवाह – भंग करने के निश्चय की सूचना देना ही पर्याप्त था। इस प्रकार भारत में तलाक देना और सरल हो जाता। रोम में बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। अतः भारत में भी बाल-विवाह का प्रचलन नहीं होता।

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(4) परिवार – रोम में एकल परिवार का व्यापक रूप से प्रचलन था । अतः भारत में संयुक्त परिवार प्रथा की बजाय एकल परिवार का ही प्रचलन होता। रोम में परिवार में पिता का अपने बच्चों पर अत्यधिक कानूनी नियन्त्रण होता था। भारतीय परिवारों पर भी इसका प्रभाव पड़ता।

(5) आर्थिक क्षेत्र में उन्नति – रोमन साम्राज्य का आर्थिक आधारभूत ढाँचा काफी सुदृढ़ था। रोमन साम्राज्य में व्यापार की अत्यधिक उन्नति हुई थी। वहाँ के अनेक क्षेत्र अत्यधिक उपजाऊ थे। वहाँ उत्पादकता का स्तर बहुत ऊँचा था। वहाँ चाँदी के सिक्कों के स्थान पर सोने के सिक्कों का प्रचलन था। अतः भारत भी आर्थिक क्षेत्र में अत्यन्त समृद्ध होता तथा यहाँ भी सोने के सिक्के प्रचलन में होते। भारत के यूरोपीय देशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित होते।

(6) दास प्रथा – रोम में दास प्रथा का प्रचलन था। दासों के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। भारत में भी दास प्रथा का प्रचलन होता।

(7) ईसाई धर्म का प्रचार – रोमन साम्राज्य में ईसाई धर्म का व्यापक प्रचार था। रोमन सम्राट कान्स्टैन्टाइन ने ईसाई धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया था। इसका भारत पर भी प्रभाव पड़ता और सम्भवतः ईसाई धर्म को राजधर्म बना दिया जाता।

(8) भारतीय संस्कृति पर प्रभाव – रोमन साम्राज्य का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव पड़ने की सम्भावना थी। इससे भारत में पश्चिमीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती थी। परिणामस्वरूप रोमन सभ्यता का भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। इससे भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के आध्यात्मिक तत्त्वों को हानि पहुँच सकती थी तथा भौतिकवाद में वृद्धि हो सकती थी। इसके अतिरिक्त चित्रकला, भवन निर्माण कला, मूर्तिकला पर भी रोमन कला का प्रभाव होता।

प्रश्न 6.
अध्याय को ध्यानपूर्वक पढ़ कर उसमें से रोमन समाज और अर्थव्यवस्था को आपकी दृष्टि में आधुनिक दर्शाने वाले आधारभूत अभिलक्षण चुनिए।
उत्तर:
I. रोमन समाज को आधुनिक दर्शाने वाले आधारभूत अभिलक्षण – रोमन समाज को आधुनिक दर्शाने वाले आधारभूत अभिलक्षण निम्नलिखित हैं –
(1) एकल परिवार – रोमन समाज की अपेक्षाकृत अधिक आधुनिक विशेषताओं में से एक विशेषता यह थी कि उन दिनों एकल परिवार का व्यापक रूप से चलन था। वयस्क पुत्र अपने पिता के परिवारों के साथ नहीं रहते थे तथा वयस्क भाई बहुत कम संयुक्त परिवार में रहते थे।

(2) स्त्रियों की स्थिति – प्रथम शताब्दी ई. पू. तक स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी अनेक अधिकार प्राप्त थे। पत्नी अपने पति को अपनी सम्पत्ति हस्तान्तरित नहीं किया करती थी । परन्तु अपने पैतृक परिवार में वह अपने पूरे अधिकार बनाए रखती थी।

स्त्री का दहेज वैवाहिक अवधि के दौरान उसके पति के पास चला जाता था, परन्तु स्त्री अपने पिता की मुख्य उत्तराधिकारिणी बनी रहती थी और अपने पिता की मृत्यु होने पर उसकी सम्पत्ति की स्वतन्त्र स्वामिनी बन जाती थी। इस प्रकार रोम की स्त्रियों को सम्पत्ति के स्वामित्व व नियन्त्रण में व्यापक कानूनी अधिकार प्राप्त थे। रोम में तलाक देना अपेक्षाकृत सरल था और इसके लिए पति अथवा पत्नी द्वारा केवल विवाह – विच्छेद करने के निश्चय की सूचना देना ही पर्याप्त था।

(3) विवाह – रोमन समाज में वयस्क होने पर ही विवाह किया जाता था। पुरुष 28 – 29, 30-32 की आयु में विवाह करते थे तथा लड़कियाँ 16-18 व 22-23 वर्ष की आयु में विवाह करती थीं।

(4) साक्षस्ता – कामचलाऊ साक्षरता अर्थात् पढ़ने-लिखने की योग्यता की दरें साम्राज्य के विभिन्न भागों में अलग-अलग थीं। एक ओर पोम्पई नगर में काम चलाऊ साक्षरता व्यापक रूप में पाई जाती थी जबकि मिस्र में साक्षरता संजीव पास बुक्स की दर काफी कम थी। यहाँ भी साक्षरता निश्चित रूप से कुछ वर्गों के लोगों जैसे सैनिकों, सैनिक अधिकारियों, सम्पत्ति – प्रबन्धवों आदि में अपेक्षाकृत अधिक व्यापक थी।

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(5) सार्वजनिक स्नान गृह – सार्वजनिक स्नान गृह रोम के शहरी जीवन की एक प्रमुख विशेषता थी।

(6) मनोरंजन के साधन – शहरी लोगों को उच्च स्तर के मनोरंजन उपलब्ध थे। उदाहणार्थ, से हमें ज्ञात होता है कि एक वर्ष में कम-से-कम 176 दिन वहाँ कोई-न-कोई मनोरंजक कार्यक्रम या प्रदर्शन अवश्य होता था।

II. रोमन अर्थव्यवस्था को आधुनिक दर्शाने वाले आधारभूत लक्षण –
(1) आर्थिक आधारभूत संरचना का मजबूत होना – रोमन साम्राज्य में बन्दरगाहों, खानों, खदानों, ईंट-भट्टों, जैतून के तेल की फैक्ट्रियों आदि की संख्या काफी अधिक थी जिनसे उसका आर्थिक आधारभूत ढाँचा काफी मजबूत था। गेहूँ, शराब, जैतून का तेल आदि मुख्य व्यापारिक वस्तुएँ थीं। ये वस्तुएँ मुख्यतः स्पेन, गैलिक प्रान्तों, उत्तरी अफ्रीका, मिस्र तथा अपेक्षाकृत कम मात्रा में इटली से आती थीं जहाँ इन फसलों के लिए उपयुक्त स्थितियाँ उपलब्ध थीं।

(2) शराब, जैतून का तेल तथा अन्य तरल पदार्थों की ढुलाई- शराब, जैतून के तेल तथा अन्य तरल पदार्थों की ढुलाई ऐसे मटकों या कन्टेनरों में होती थी जिन्हें ‘एम्फोरा’ कहते थे। स्पेन में जैतून का तेल निकालने का उद्यम 140-160 ई. के वर्ष में अपनी चरम उन्नति पर था । स्पेन में उत्पादित जैतून का तेल मुख्य रूप से ऐसे कन्टेनरों में ले जाया जाता था जिन्हें ‘ड्रेसल – 20’ कहते थे। भिन्न-भिन्न प्रदेशों के जमींदार एवं उत्पादक विभिन्न वस्तुओं के बाजार पर अधिकार करने के लिए आपस में प्रतिस्पर्द्धा करते रहते थे ।

(3) उर्वर प्रदेश – रोमन साम्राज्य के बहुत से प्रदेश अत्यधिक उपजाऊ थे। इन प्रदेशों में इटली में कैम्पैनिया, सिसली, मिस्र में फैय्यूम, गैलिली, बाइजैकियम (ट्यूनीसिया ), दक्षिणी गाल तथा बाएंटिका ( दक्षिणी स्पेन) अपनी असाधारण उर्वरता के लिए प्रसिद्ध थे। स्ट्रैबो तथा प्लिनी जैसे इतिहासकारों के अनुसार ये सभी प्रदेश साम्राज्य के घनी जनसंख्या वाले और सबसे धनी प्रदेशों में से कुछ थे। सबसे बढ़िया किस्म की अंगूरी शराब कैम्पैनिया से आती थी। सिसली और बाइजैकियम रोम को भारी मात्रा में गेहूँ का निर्यात करते थे । गैलिली में गहन खेती की जाती थी। इतिहासकार जोसिफ ने लिखा है कि ” प्रदेशवासियों ने जमीन के एक-एक इंच टुकड़े पर खेती कर रखी है। ”

(4) जल शक्ति का विकास – भूमध्य सागर के आस-पास पानी की शक्ति का भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता था। इस काल में जल-शक्ति से मिलें चलाने की प्रौद्योगिकी में काफी उन्नति हुई। स्पेन की सोने और चाँदी की खानों में जल – शक्ति से खुदाई की जाती थी और पहली तथा दूसरी शताब्दियों में इन खानों से बड़े पैमाने पर खनिज निकाले जाते थे।

(5) उत्पादकता का स्तर ऊँचा होना- उस समय उत्पादकता का स्तर इतना ऊँचा था कि 19वीं शताब्दी तक अर्थात् लगभग 1700 वर्ष बाद भी ऐसे उत्पादन के स्तर देखने को नहीं मिलते। उस समय सुगठित वाणिज्यिक और बैंकिंग व्यवस्था थी और धन का व्यापक रूप से प्रयोग होता था। रोमन सम्राट कान्स्टैन्टाइन ने ‘सालिडास’ नामक सोने का सिक्का, चलाया, जो रोमन साम्राज्य के समाप्त होने के पश्चात् भी चलता रहा था। परवर्ती काल में साम्राज्य में सोने के सिक्के प्रचलित रहे।

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(6) रोमन अभिजात वर्ग के पास अतुल धन-सम्पत्ति का होना – रोमन अभिजात वर्ग के पास अतुल धन- सम्पत्ति थी। बहुत से रोमन परिवारों को अपनी सम्पत्ति से प्रतिवर्ष 4 हजार पौण्ड सोने की आय प्राप्त होती थी, जिसमें अनाज, शराब और अन्य उपज शामिल नहीं थीं। इन उपजों को बेचने पर सोने में प्राप्त आय के एक-तिहाई के बराबर आय हो सकती थी। रोम में ‘द्वितीय श्रेणी के परिवारों की आय 1000 अथवा 1500 पौण्ड सोना थी।

तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य JAC Class 11 History Notes

पाठ- सार

1. रोम साम्राज्य- रोम साम्राज्य दूर-दूर तक फैला हुआ था। इसमें आज का अधिकांश यूरोप और उर्वर अर्द्ध- चन्द्राकार क्षेत्र अर्थात् पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ्रीका का बहुत बड़ा भाग शामिल था। यह साम्राज्य अनेक स्थानीय संस्कृतियों तथा भाषाओं के वैभव से सम्पन्न था; स्त्रियों की कानूनी स्थिति काफी सुदृढ़ थी। लेकिन अर्थव्यवस्था दास-श्रम के बल पर चलती थी। इस कारण जनता का एक बड़ा भाग स्वतंत्रता से वंचित था। पांचवीं शताब्दी व उसके बाद इसका पश्चिमी साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया लेकिन पूर्वी भाग अत्यन्त समृद्ध बना रहा।

2. रोमन तथा ईरानी साम्राज्य – ईसा मसीहा के जन्म से लेकर 630 के दशक की अवधि में अधिकांश यूरोप, उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व तक के विशाल क्षेत्र में दो सशक्त साम्राज्यों-रोम साम्राज्य और ईरान साम्राज्य-का शासन था तथा ये आपस में संघर्षरत रहे।

3. रोम के इतिहासकारों के पास स्रोत- सामग्री – रोम के इतिहासकारों के पास स्रोत- सामग्री का विशाल भण्डार था। इस स्रोत -सामग्री को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है –
(1) पाठ्य सामग्री
(2) प्रलेख या दस्तावेज
(3) भौतिक अवशेष।

4. रोमन साम्राज्य का आरम्भिक काल – रोमन साम्राज्य को मोटे तौर पर दो चरणों में बाँटा जा सकता है, जिन्हें ‘पूर्ववर्ती चरण’ और ‘परवर्ती चरण’ कहा जा सकता है। रोमन साम्राज्य में प्रशासन के प्रयोजन के लिए लैटिन तथा यूनानी भाषाओं का प्रयोग किया जाता था।

5. पूर्ववर्ती चरण –
(i) गणतन्त्र में वास्तविक सत्ता ‘सैनेट’ नामक निकाय में निहित थी। गणतन्त्र 509 ई. पूर्व से 27 ई. पूर्व तक चला। 27 ई. पूर्व में रोम सम्राट् आगस्टस ने जो राज्य स्थापित किया, उसे ‘प्रिंसिपेट’ कहा जाता था। उसने सैनेट के महत्त्व को बनाए रखा। सैनेट में कुलीन एवं अभिजात वर्गों का प्रतिनिधित्व था। सम्राट और सैनेट के बाद सामाजिक शासन की एक अन्य प्रमुख संस्था सेना थी। यह व्यावसायिक सेना थी। इस प्रकार सम्राट, अभिजात वर्ग तथा सेना साम्राज्य के राजनीतिक इतिहास में तीन मुख्य खिलाड़ी थे। 509 ई. पूर्व से तीसरी शताब्दी के मुख्य भाग तक के काल को पूर्ववर्ती रोमन साम्राज्य कहा जाता है।

(ii) रोमन साम्राज्य का विस्तार – रोमन साम्राज्य के प्रत्यक्ष शासन का काफी विस्तार हुआ। इसके लिए अनेक आश्रित राज्यों को रोम के प्रान्तीय राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। दूसरी शताब्दी में रोमन साम्राज्य स्काटलैण्ड से आर्मेनिया की सीमाओं तक और सहारा से फरात तथा कभी-कभी उससे भी आगे तक फैला हुआ था।

(iii) नगरों के माध्यम से साम्राज्य पर नियन्त्रण रखना – सम्पूर्ण साम्राज्य में दूर-दूर तक अनेक नगर स्थापित किये गये थे, जिनके माध्यम से समस्त साम्राज्य पर नियन्त्रण रखा जाता था। इन्हीं नगरों के माध्यम से सरकार प्रान्तीय ग्रामीण क्षेत्रों पर कर लगाने में सफल हो पाती थी।

(iv) सार्वजनिक स्नान गृह – सार्वजनिक स्नानगृह रोम के शहरी जीवन की एक प्रमुख विशेषता थी। शहरी लोगों को उच्च स्तर के मनोरंजन उपलब्ध थे।

(v) तीसरी शताब्दी का संकट – तीसरी शताब्दी में रोम को अनेक संकटों का सामना करना पड़ा। ईरान के शासक शापुर प्रथम ने रोम साम्राज्य की पूर्वी राजधानी एंटिआक पर अधिकार कर लिया। कई जर्मन मूल की जनजातियों ने राइन तथा डेन्यूब नदियों की सीमाओं की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और उन प्रान्तों की सीमाओं पर आक्रमण किया।

(vi) लिंग – रोम में एकल परिवार का प्रचलन था। महिलाओं को सम्पत्ति के स्वामित्व तथा संचालन में व्यापक कानूनी अधिकार प्राप्त थे। तलाक देना अपेक्षाकृत आसान था। स्त्रियों पर उनके पतियों का नियन्त्रण रहता था। पिता का अपने बच्चों पर कानूनी नियन्त्रण होता था। कानून के अनुसार पति और पत्नी को अलग-अलग दो वित्तीय हस्तियाँ माना जाता था तथा पत्नी को पूर्ण वैधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी।

(vii) साक्षरता- कामचलाऊ साक्षरता की दरें साम्राज्य के विभिन्न भागों में काफी अलग-अलग थीं। पोम्पई नगर में काम-चलाऊ साक्षरता व्यापक रूप में विद्यमान थी।

(viii) संस्कृति – रोमन साम्राज्य में सांस्कृतिक विविधता कई रूपों में दिखाई देती है, जैसे-धार्मिक सम्प्रदायों तथा स्थानीय देवी-देवताओं की भरपूर विविधता, बोलचाल की अनेक भाषाएँ, वेशभूषा की विविध शैलियाँ, अलग-अलग प्रकार के भोजन आदि।

(ix) आर्थिक विस्तार – साम्राज्य में बन्दरगाहों, खदानों, ईंट-भट्टों, जैतून के तेल के कारखानों आदि की संख्या काफी अधिक थी। गेहूँ, अंगूरी शराब तथा जैतून का तेल मुख्य व्यापारिक मदें थीं। इटली में कैम्पेनिया, सिसली, मिस्र में फैय्यूम, गैलिली, बाइजैकियम, दक्षिणी गाल तथा बाएटिका अत्यधिक उपजाऊ क्षेत्र थे।

सिसली तथा बाइजैकियम रोम को भारी मात्रा में गेहूँ का निर्यात करते थे। परन्तु रोम क्षेत्र के अनेक बड़े-बड़े हिस्से बहुत कम उन्नत अवस्था में थे। स्पेन की सोने और चाँदी की खानों में जल – शक्ति से खुदाई की जाती थी और इन खानों से खनिज निकाले जाते थे। उत्पादकता का स्तर ऊँचा था। बैंकिंग व्यवस्था थी।

(x) श्रमिकों पर नियन्त्रण – रोमन साम्राज्य में दासों की बहुत बड़ी संख्या थी। जहाँ उच्च वर्ग के लोग दासों के प्रति प्राय: क्रूरतापूर्ण व्यवहार करते थे, वहीं दूसरी ओर साधारण लोग उनके प्रति कहीं अधिक सहानुभूति रखते थे। जब दासों की आपूर्ति में कमी आने लगी तो दास प्रजनन अथवा वेतनभोगी मजदूरों जैसे विकल्पों का सहारा लिया गया। रोमन साम्राज्य में कुछ औद्योगिक प्रतिष्ठानों ने श्रमिकों से सम्बंन्धित कड़े नियन्त्रण लगा रखे थे। कामगारों को दागा जाता था ताकि यदि वे भागने का प्रयत्न करें तो उन्हें पहचाना जा सके।

(xi) सामाजिक श्रेणियाँ – साम्राज्य में सैनेटर, अश्वारोही वर्ग, जनता का सम्माननीय वर्ग, निम्नतर वर्ग, दास आदि विभिन्न सामाजिक समूह थे। सैनेटर तथा अश्वारोही वर्ग अभिजात वर्ग थे। मध्यम वर्ग में नौकरशाही और सैनिक लोग शामिल थे, परन्तु इसमें समृद्ध सौदागर तथा किसान भी शामिल थे। निम्नतर वर्ग में ग्रामीण श्रमिक शामिल थे।

6. परवर्ती पुराकाल या परवर्ती साम्राज्य – तीसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर सातवीं शताब्दी तक के काल में परवर्ती रोमन साम्राज्य के नाम से जाना जाता है। सम्राट डायोक्लीशियन (284-305 ई.) ने सामरिक तथा आर्थिक दृष्टि से महत्त्वहीन क्षेत्रों को छोड़कर साम्राज्य के विस्तार को कम किया। सम्राट कांस्टेन्टाइन ने इनके अतिरिक्त कुछ अन्य परिवर्तन साम्राज्य के अन्तर्गत किए।

यथा –

  • सम्राट कान्स्टैन्टाइन ने ‘सालिडस’ नामक एक नया सिक्का चलाया।
  • उसने दूसरी राजधानी कुस्तुन्तुनिया का निर्माण किया।
  • उसके समय में तेल की मिलों, शीशे के कारखानों आदि की स्थापना हुई। इन सभी के फलस्वरूप शहरी सम्पदा और समृद्धि में अत्यधिक वृद्धि हुई।
  • धार्मिक स्थिति – रोमन लोग अनेक देवी-देवताओं की उपासना करते थे। ये लोग जूपिटर, जूनो, मिनर्वा, मार्स आदि अनेक देवताओं की पूजा करते थे। यहूदी धर्म रोम साम्राज्य का एक अन्य बड़ा धर्म था। चौथी या पाँचवीं शताब्दियों में साम्राज्य का ईसाईकरण हुआ।
  • रोमन साम्राज्य का पतन – जर्मन मूल के अनेक समूहों ने पश्चिमी साम्राज्य के सभी बड़े प्रान्तों पर अधिकार कर लिया और अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिए जिन्हें रोमोत्तर राज्य कहा जा सकता है। सातवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों तक आते-आते रोम और ईरान के बीच लड़ाई फिर छिड़ गई। ईरानी शासकों ने मिस्र सहित सभी विशाल पूर्वी प्रान्तों परं आक्रमण कर दिया। 642 तक अरबों ने पूर्वी रोमन और ससानी दोनों राज्यों के बड़े-बड़े भागों पर अधिकार कर लिया।

JAC Class 11 History Solutions Chapter 3 तीन महाद्वीपों में फैला हुआ साम्राज्य - 1

JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 9 सौर विकिरण, ऊष्मा संतुलन एवं तापमान

Jharkhand Board JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 9 सौर विकिरण, ऊष्मा संतुलन एवं तापमान Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Geography Solutions Chapter 9 सौर विकिरण, ऊष्मा संतुलन एवं तापमान

बहु-विकल्पी प्रश्न (Multiple Choice Questions)

प्रश्न-दिए गए चार वैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर चुनिए
1. निम्नलिखित में से कौन-सी गैस वायुमण्डल में सबसे अधिक मात्रा में मौजूद है?
(A) ऑक्सीजन
(B) आर्गन
(C) नाइट्रोजन
(D) कार्बन डाइऑक्साइड।
उत्तर:
नाइट्रोजन।

2. 21 जून की दोपहर सूर्य लम्बवत् होता है
(A) विषुवत् रेखा पर
(B) 23.5°N
(C) 66.5°
(D) 66.5°N
उत्तर:
(B) 23.5°N.

JAC Class 11 Geography Solutions Chapter 9 सौर विकिरण, ऊष्मा संतुलन एवं तापमान

3. निम्न में से किन शहरों में दिन ज्यादा लम्बा होता है?
(A) त्रिवेन्द्रम
(B) हैदराबाद
(C) चण्डीगढ़
(D) नागपुर।
उत्तर:
(C) चण्डीगढ़।

4. वायुमण्डल मुख्यतः गर्म होता है
(A) लघु तरंगदैर्ध्य वाले सौर विकिरण से
(B) लम्बी तरंगदैर्ध्य वाले स्थलीय विकिरण से
(C) परावर्तित सौर विकिरण से
(D) प्रकीर्णित सौर विकिरण से।
उत्तर:
(B) लम्बी तंरगदैर्ध्य वाले स्थलीय विकिरण से।

5. पृथ्वी के विषुवत् रेखीय क्षेत्रों की अपेक्षा उत्तरी गोलार्द्ध के उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों का तापमान अधिकतम होता है, इसका मुख्य कारण है
(A) विषुवत् रेखीय क्षेत्रों की अपेक्षा उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में कम बादल होते हैं।
(B) उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में गर्मी के दिनों की लम्बाई विषुवतीय क्षेत्रों से ज़्यादा होती है।
(C) उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में ‘ग्रीन हाऊस प्रभाव’ विषुवतीय क्षेत्रों की अपेक्षा ज्यादा होता है।
(D) उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र विषुवतीय क्षेत्रों की अपेक्षा महासागरीय क्षेत्र के ज्यादा करीब है।
उत्तर:
(A) विषुवत् रेखीय क्षेत्रों की अपेक्षा उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में कम बादल होते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए।
प्रश्न 1.
पृथ्वी पर तापमान का असमान वितरण किस प्रकार जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है?
उत्तर:
तापमान का असमान वितरण पाया जाता है। सूर्यातप की भिन्नता के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर जलवायु तथा मौसम में भिन्नता पाई जाती है। उष्ण कटिबन्ध की अपेक्षा विषुवत् रेखा पर कम मात्रा में तापमान पाया जाता है।

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प्रश्न 2.
वे कौन-से कारक हैं जो पृथ्वी पर तापमान के वितरण को प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
किसी भी स्थान पर वायु का तापमान निम्नलिखित कारकों द्वारा प्रभावित होता है

  1. उस स्थान का अक्षांश
  2. समुद्र तल से ऊंचाई
  3. समुद्र से दूरी
  4. वायुसंहति का परिसंचरण
  5. कोष्ण तथा ठण्डी महासागरीय धाराएं
  6. स्थानीय कारक।

प्रश्न 3.
भारत में मई में तापमान सर्वाधिक होता है लेकिन अत्यन्त ग्रीष्म के बाद तापमान अधिकतम नहीं होता। क्यों?
उत्तर:
भारत में मई मास सबसे अधिक गर्म होता है। सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लम्ब पड़ती हैं जो कि भारत को दो भागों में बांटती हैं। इसके पश्चात् वर्षा ऋतु होने के कारण तापमान का औसत रूप 6’7°C गिर जाता है।

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प्रश्न 4.
साइबेरिया के मैदान में वार्षिक तापान्तर सर्वाधिक होता है। क्यों?
उत्तर:
साइबेरिया की स्थिति आर्कटिक वृत्त के उत्तर में है, यहां सर्वाधिक तापान्तर महाद्वीपीयता (Continentality) के कारण है। यहां ग्रीष्म ऋतु में 10°C तापमान होता है जबकि शीत ऋतु में-18°C से – 48°C तक तापमान गिर जाता है। इस प्रकार यहां वार्षिक तापान्तर 60°C रहता है।

निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए।
प्रश्न 1.
अक्षांश और पृथ्वी के अक्ष का झुकाव किस प्रकार पृथ्वी की सतह पर प्राप्त होने वाली विकिरण की मात्रा को प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
धरातल पर प्राप्त होने वाले सौर विकिरण को सूर्यातप कहते हैं। सूर्यातप की मात्रा सूर्य की किरणों के आपतन कोण पर निर्भर करती है।

  1. लम्ब किरणें तिरछी किरणों की अपेक्षा कम स्थान घेरती हैं। इस प्रकार प्रति इकाई क्षेत्र प्राप्त ताप अधिक होता है।
  2. लम्ब किरणों को तिरछी किरणों की अपेक्षा वायुमण्डल का थोड़ा भाग पार करना पड़ता है। इसलिए वायुमण्डल में मिली गैसें, जलवाष्प द्वारा अवशोषण, परावर्तन तथा बिखराव से सूर्यातप की मात्रा कम नष्ट होती है।

भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाते हुए तापमान लगातार कम होता जाता है। किसी भी अक्षांश पर तापमान सूर्य की किरणों के कोण पर निर्भर है। लम्ब किरणें तिरछी किरणों की अपेक्षा थोड़े स्थान को घेरती हैं। अतः प्रति इकाई क्षेत्र प्राप्त ऊष्मा अधिक होती है। तिरछी किरणें वायुमण्डल में अधिक दूरी तय करती हैं तथा इनकी बहुत-सी गर्मी जलवाष्प अथवा धूलकणों द्वारा सोख ली जाती है। भूमध्य रेखा पर सारा वर्ष सूर्य की किरणें लम्बवत् पड़ती हैं तथा इन प्रदेशों में उच्च तापमान पाए जाते हैं। ध्रुवों की ओर तिरछी किरणों के कारण कम तापमान पाए जाते हैं।

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प्रश्न 2.
पृथ्वी और वायुमण्डल किस प्रकार ताप को सन्तुलित करते हैं? इसकी व्याख्या करें।
उत्तर:
पृथ्वी तथा वायुमण्डल ताप का सन्तुलन रखते हैं जिसे ताप बजट कहते हैं।
ताप बजट (Heat Budget):
ताप बजट से अभिप्राय ताप सन्तुलन से भी है। पृथ्वी पर जितनी मात्रा में सूर्य विकिरण से ताप प्राप्त होता है, उतनी ही मात्रा में ताप स्थलीय विकिरण द्वारा अन्तरिक्ष में वापस चला जाता है। इस प्रकार पृथ्वी तथा वायुमण्डल के ताप में एक सन्तुलन स्थापित हो जाता है।

मान लो कि वायुमण्डल की ऊपरी सतह पर प्राप्त होने वाला ताप 100 इकाई है। इसमें से केवल 51 इकाई ताप ही पृथ्वी पर पहुंचता है। इसमें से 49 इकाई ताप वायुमण्डल तथा अन्तरिक्ष में लौट जाता है। शून्य में परावर्तन हुई इस ऊष्मा को एल्बेडो (Albedo of the earth) कहते हैं।
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इस प्रकार सूर्य से प्राप्त 51 इकाई ताप पुनः वायुमण्डल को गर्म करने में लग जाता है। इसे पृथ्वी का ताप सन्तुलन या बजट कहते हैं।
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प्रश्न 3.
जनवरी में पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के बीच तापमान के विश्व व्यापी वितरण की तुलना करें।
उत्तर:
तापमान का विश्व वितरण-(जुलाई तथा जनवरी)-तापमान का वितरण मानचित्रों पर समताप रेखाओं द्वारा दिखाया जाता है। यह वितरण वार्षिक होता है। ग्रीष्म ऋतु का तापमान जुलाई तथा शीत ऋतु का तापमान जनवरी के महीनों के मानचित्रों द्वारा प्रकट किया जाता है।

1. जनवरी में तापमान वितरण के लक्षण:
जनवरी में अधिकतम तापमान महाद्वीपों पर पाया जाता है। दक्षिण अमेरिका, (अफ्रीका) तथा ऑस्ट्रेलिया के स्थल खण्डों पर तापमान 30°C से अधिक होता है। उच्चतम ताप मकर रेखा के साथ-साथ पाया जाता है। जनवरी मास में न्यूनतम तापमान उत्तर पूर्वी एशिया में पाया जाता है। साइबेरिया में वोयांस्क में-50°C तक निम्नतम तापमान पाया गया है। उत्तरी गोलार्द्ध में समताप रेखाएं महासागरों पर ध्रुवों की ओर तथा महाद्वीपों पर भूमध्य रेखा की ओर झुकी होती हैं।
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दक्षिणी गोलार्द्ध में समताप रेखाएं महासागरों पर भूमध्य रेखा की ओर तथा महाद्वीपों पर ध्रुवों की ओर झुकी होती हैं। इस प्रकार समताप रेखाएं सूर्य की स्थिति के साथ-साथ खिसक जाती हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में समताप रेखाएं नियमित तथा पूर्व-पश्चिम दिशा में अक्षांशों के समानान्तर पाई जाती हैं क्योंकि यहां जल की अधिकता है, परन्तु उत्तरी गोलार्द्ध में ये रेखाएं अनियमित होती हैं।

2. जुलाई की समताप रेखाएं (July Iso-therms):
जुलाई उत्तरी गोलार्द्ध का अत्यन्त उष्ण तथा दक्षिणी गोलार्द्ध का शीतल मास होता है। इस समय सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में कर्क रेखा पर लगभग लम्बवत पडता है, जिससे वहां ग्रीष्म ऋतु तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में शीत ऋतु होती है। इस समय उत्तरी गोलार्द्ध के एक अत्यधिक विस्तृत भाग में 30° सेल्सियस से भी अधिक तापमान रहता है।
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उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका तथा एशिया के मरुस्थलों एवं अर्द्धशुष्क भूमियों में भी भीषण गर्मी पड़ती है। पाकिस्तान में जेकोबाबाद (Jacobabad) तथा लीबिया में ऐल अजीजिया (EL Azizia) संसार के सबसे अधिक गर्म स्थान हैं। ऐल अज़ीज़िया में तो तापमान 58° सेल्सियस तक इंगित किया गया है। निम्नतम तापमान भी ग्रीनलैण्ड के मध्य भाग में मिलता है।

सौर विकिरण, ऊष्मा संतुलन एवं तापमान JAC Class 11 Geography Notes

→ सूर्यातप-सूर्य वायुमण्डल के ताप का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इस प्रकार धरातल पर प्राप्त होने वाले सौर्य विकिरण को सूर्यातप कहते हैं। सूर्यातप तीन शब्दों के जोड़ से बना है।

→ सूर्यातप (Insolation) = In + sol + ation
In = Incoming
Sol = Solar
ation = Radiation

→ तापमान (Temperature): तापमान किसी पदार्थ में ताप की मात्रा का सू चक है। किसी स्थान पर छाया में वायु की मापी हुई गर्मी को तापमान कहते हैं।

→ तापमान का माप (Measurement of Temperature): स्क्सि के उच्चतम तथा न्यूनतम थर्मामीटर द्वारा तापमान मापा जाता है। ताप मापने की दो इकाइयां हैं
(i) सेंटीग्रेड मापक
(ii) फॉरनहाइट।

→ दैनिक तापान्तर (Daily Range of Temperature): किसी स्थान पर उस दिन के उच्चतम तथा न्यूनतम तापमान के अन्तर को उस स्थान का दैनिक तापान्तर कहते हैं।

→ वार्षिक तापान्तर (Annual Range of Temperature): किसी वर्ष के सबसे गर्म तथा सबसे ठण्डे महीनों के औसत मासिक तापमान के अन्तर को वार्षिक तापान्तर कहते हैं।

→ समताप रेखाएं (Isotherms): यह दो शब्दों के योग से बना है। Iso शब्द का अर्थ है-समान और therm शब्द का अर्थ है-तापमान। इसलिए समताप रेखाएं का अर्थ है-धरातल पर समान तापमान वाले स्थानों को जोड़ने वाली रेखाएं।

→ ताप कटिबन्ध (Temperature Zone): यूनानी विद्वानों ने तापमान तथा अक्षांशों के आधार पर पृथ्वी को तीन ताप कटिबन्धों में बांटा है

  • उष्ण कटिबन्ध (Torrid Zone): \(23 \frac{1}{2}\)° उत्तर से दक्षिण तक।
  • शीतोष्ण कटिबन्ध (Temperature Zone): दोनों गोलार्द्ध में \(23 \frac{1}{2}^{\circ} \) तथा \(66 \frac{1}{2}^{\circ}\) अक्षांश के मध्य।
  • शीत कटिबन्ध (Frigid Zone): ध्रुवों तथा के मध्य अक्षांश।

→ वायुमण्डल कैसे गर्म होता है? (Heating of Atmosphere): वायुमण्डल को गर्म करने में निम्नलिखित प्रक्रियाएं मुख्य भूमिका निभाती हैं

  • संचालन
  • संवहन क्रिया
  • विकिरण।

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→ वायुमण्डल का ग्रीन हाऊस प्रभाव (Green House Effect of Atmosphere): वायुमण्डल भूतल द्वारा सौर विकिरण से गर्म होता है। इसकी तुलना एक शीशे के घर या ग्रीन हाऊस से की जाती है जिसमें ध्रुवीय प्रदेशों में फूल आदि उगाए जाते हैं। इन शीशे के घरों में बाहर से सौर विकिरण अन्दर प्रवेश कर
सकता है परन्तु यह ताप विकिरण बाहर नहीं जा सकता।

→ विश्व के तापमान में वृद्धि (Global warming):  ईंधनों के जलने से (कोयला, गैस, पेट्रोलियम), भूमि की कृषि, औद्योगीकरण, तीव्र गति वाले परिवहन के साधन तथा वनों की कटाई से पिछले 100 वर्षों में पृथ्वी का औसत तापमान 0.5°C बढ़ गया है।

→ तापमान प्रतिलोम (Inversion of Temperature): ऊँचाई के बढ़ने के साथ-साथ 1°C प्रति 165 मीटर की दर से तापमान कम होता जाता है, परन्तु कई बार अस्थाई रूप से ऊंचाई के साथ-साथ तापमान । में वृद्धि होती है। ऐसी स्थिति में जब ठण्डी वायु धरातल के निकट और गर्म वायु इसके ऊपर हो तो इसे तापमान प्रतिलोम कहते हैं।

→ तापमान को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting Temperature):  स्थान-स्थान पर तथा विभिन्न अक्षांशों पर तापमान विभिन्नता निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करती है

  • अक्षांश
  • ऊंचाई
  • समुद्र से दूरी
  • प्रचलित पवनें
  • समुद्री धाराएं
  • पर्वतों की दिशा
  • भूमि की ढलान
  • मेघ तथा वर्षा
  • वनस्पति तथा मिट्टियां।