JAC Class 10 Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 11 प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्

Jharkhand Board JAC Class 10 Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 11 प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद् Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 10th Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 11 प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्

JAC Class 10th Sanskrit प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद् Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरं लिखत (एक शब्द में उत्तर लिखिये)
(क) कः चन्दन दासं दृष्टुम् इच्छति?
(चन्दनदास से कौन मिलना चाहता है?)
उत्तरम् :
चाणक्यः।

(ख) चन्दनदासस्य वणिज्या कीदृशी आसीत्?
(चन्दनदास का व्यापार कैसा था?)
उत्तरम् :
अखण्डिता (बाधा रहित)।

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(ग) किं दोषम् उत्पादयति?
(क्या दोष पैदा करता है?)
उत्तरम् :
गृहजन प्रच्छादनम्। (घरवालों को छुपाना)।

(घ) चाणक्य के द्रष्टुम् इच्छति?
(चाणक्य किससे मिलना चाहता है?)
उत्तरम् :
चन्दनदासम् (चन्दन दास का)।

(ङ) कः शङ्कनीयः भवति ?
(कौन शंका के योग्य होता है?)
उत्तरम् :
अत्यादरः (अधिक आदर)।

प्रश्न 2.
अधोलिखितप्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत –
(निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए)
(क) चन्दनदासः कस्य गहजनं स्वगृहे रक्षति स्म ?
(चन्दनदास किसके परिवारवालों को अपने घर में रखता था ?)
उत्तरम् :
चन्दनदासः अमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षति स्म।
(चन्दनदास अमात्य राक्षस के परिवार के लोगों को अपने घर में रखता था।)

(ख) तृणानां केन सह विरोधः अस्ति ?
(तिनको का किसके साथ विरोध है ?)
उत्तरम् :
तृणानाम् अग्निना सह विरोधः अस्ति।
(तिनकों का अग्नि के साथ विरोध है।)

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(ग) पाठेऽस्मिन् चन्दनदासस्य तुलना केन सह कृता ?
(इस पाठ में चन्दनदास की तुलना किसके साथ की गई है?)
उत्तरम् :
पाठेऽस्मिन् चन्दनदासस्य तुलना शिविना सह कृता।
(इस पाठ में चन्दनदास की तुलना शिवि के साथ की गई है।)

(घ) प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियं के इच्छन्ति ?
(कौन (लोग) प्रसन्नस्वभाव वालों से उपकार का बदला चाहते हैं ?)
उत्तरम् :
प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियं राजानः इच्छन्ति। (राजा (लोग) प्रसन्न स्वभाव वालों से उपकार का बदला चाहते

(ङ) कस्य प्रसादेन चन्दनदासस्य वणिज्या अखण्डिता ? (किसकी कृपा से चन्दनदास का व्यापार निर्बाध था ?)
उत्तरम् :
आर्यचाणक्यस्य प्रसादेन चन्दनदासस्य वणिज्या अखण्डिता।
(आर्य चाणक्य की कृपा से चन्दनदास का व्यापार निर्बाध था।)

प्रश्न 3.
स्थूलाक्षरपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत –
(मोटे छपे शब्दों के आधार पर प्रश्न-निर्माण कीजिए)
(क) शिविना विना इदं दुष्करं कार्यं कः कुर्यात्
(शिवि के बिना यह दुष्कर कर्म कौन करे।)
उत्तरम् : केन विना इदं दुष्करं कार्य कः कुर्यात् ?
(किसके बिना यह दुष्कर कर्म कौन करे ?)

(ख) प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृत्।
(प्राणों से भी प्यारा मित्र (होता है)।)
उत्तरम् :
प्राणेभ्योऽपि प्रियः कः ?
(प्राणों से भी प्यारा कौन है?)

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(ग) आर्यस्य प्रसादेनं मे वणिज्या अखण्डिता।
(आर्य की कृपा से मेरा व्यापार निर्बाध है।)
उत्तरम् :
कस्य प्रसादेन मे वणिज्या अखण्डिता।
(किसकी कृपा से मेरा व्यापार निर्बाध है ?)

(घ) प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः राजानः प्रतिप्रियमिच्छन्ति।
(प्रसन्नस्वभाव वालों से राजा लोग प्रत्युपकार का बदला चाहते
उत्तरम् :
प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः के प्रतिप्रियमिच्छन्ति ?
(प्रसन्न स्वभाव वालों से कौन प्रत्युपकार का बदला चाहते हैं ?)

(ङ) तणानाम् अग्निना सह विरोधो भवति।
(तिनकों का आग के साथ विरोध होता है।)
उत्तरम् :
केषाम् अग्निना सह विरोधो भवति ?
(किनका अग्नि के साथ विरोध होता है ?)

प्रश्न 4.
यथानिर्देशमुत्तरत् –
(क) ‘अखण्डिता मे वणिज्या’- अस्मिन् वाक्ये क्रियापदं किम्?
(ख) पूर्वम् ‘अनृतम्’ इदानीम् आसीत् इति परस्परविरुद्ध वचने – अस्मात् वाक्यात् ‘अधुना’ इति पदस्य समानार्थकपदं चित्वा लिखत।
(ग) ‘आर्य! किं मे भयं दर्शयसि’ अत्र ‘आर्य’ इति सम्बोधनपदं कस्मै प्रयुक्तम्?
(घ) ‘प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः’ अस्मिन् वाक्ये कर्तृपदं किम्?
(ङ). तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे’ अस्मिन् वाक्ये विशेष्यपदं किम्?
उत्तरम् :
(क) अखण्डिता
(ख) इदानीम्
(ग) चाणक्याय
(घ) राजानः
(ङ) गृहे।

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प्रश्न 5. निर्देशानुसारम् सन्धि/सन्धिविच्छेदं कुरुत –
(निर्देश के अनुसार सन्धि/सन्धि-विच्छेद कीजिए)
(क) यथा – कः + अपि = कोऽपि
प्राणेभ्यः + अपि = …………
………. + अस्मि = सज्जोऽस्मि
आत्मनः + ………. = आत्मनोऽधिकारसदृशम्।
उत्तरम् :
प्राणेभ्यः + अपि = प्राणेभ्योऽपि
सज्जः + अस्मि = सज्जोऽस्मि
आत्मनः + अधिकारसदृशम् = आत्मनोऽधिकारसदृशम्।

(ख) यथा – सत् + चित् = सच्चित्।
शरत् + चन्द्रः = ……………..।
कदाचित् + च = ……………..।
उत्तरम् :
शरत् + चन्द्रः = शरच्चन्द्रः।
कदाचित् + च = कदाचिच्च।

प्रश्न 6.
कोष्ठकेषु दत्तयोः पदयोः शुद्धं विकल्पं विचित्य रिक्तस्थानानि पूरयत –
(कोष्ठकों में दिए हुए दो पदों में से शुद्ध विकल्प चुनकर रिक्तस्थानों की पूर्ति कीजिए)
(क) …………… विना इदं दुष्करं कः कुर्यात् ? (चन्दनदासस्य/चन्दनदासेन)
उत्तरम् :
चन्दनदासेन

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(ख) …………… इदं वृत्तान्तं निवेदयामि। (गुरवे/गुरोः)
उत्तरम् :
गुरवे

(ग) आर्यस्य ……….. अखण्डिता मे वणिज्या। (प्रसादात्/प्रसादेन)
उत्तरम् :
प्रसादेन

(घ) अलम् ……………। (कलहेन/कलहात्)
उत्तरम् :
कलहेन।

(ङ) वीरः …………… बालं रक्षति। (सिंहेन/सिंहात्)
उत्तरम् :
सिंहात्।

(च) ………. भीतः मम भ्राता सोपानात् अपतत्।। (कुक्कुरेण/कुक्कुरात्)
उत्तरम् :
कुक्कुरात्।

(छ) छात्रः …………… प्रश्नं पृच्छति। (आचार्यम्/आचार्येण)
उत्तरम् :
आचार्यम्।

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प्रश्न 7.
अधोदत्तमञ्जूषातः समुचितपदानि गृहीत्वा विलोमपदानि लिखत –
(नीचे दिए गए मञ्जूषा (बॉक्स) से उचित पद लेकर विलोम पद लिखिए)
[असत्यम्, पश्चात्, गुणः, आदरः, तदानीम्, तत्र पदानि]
(क) अनादरः ………..
(ख) गुणः ………..
(ग) पश्चात् ………..
(घ) असत्यम् ………..
(ङ) तदानीम् ………..
(च) तत्र ………..
उत्तराणि :
(क) आदरः
(ख) दोषः
(ग) पूर्वम्
(घ) सत्यम्
(ङ) इदानीम्
(च) अत्र

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प्रश्न 8.
उदाहरणमनुसृत्य अधोलिखितानि पदानि प्रयुज्य पञ्चवाक्यानि रचयत –
(उदाहरण के अनुसार निम्न पदों का प्रयोग करके पाँच वाक्य बनाइए-)
यथा – निष्क्रम्य – शिक्षिका पुस्तकालयात् निष्क्रम्य कक्षां प्रविशति।
पदानि –
(क) उपसृत्य ……………….
(ख) प्रविश्य ………………
(ग) द्रष्टुम् …………………
(घ) इदानीम् ……………..
(ङ) अत्र ………………
उत्तराणि :
(क) उपसत्य स आह, एषः श्रेष्ठी चन्दनदासः।
(ख) वने प्रविश्य रामः पर्णकुटीम् अरचयत्।
(ग) अहं त्वां द्रष्टुम् इच्छामि।
(घ) इदानीं भवान् कुत्र गच्छति ?
(ङ) अत्र मम विद्यालयः स्थितः।

JAC Class 10th Sanskrit प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद् Important Questions and Answers

शब्दार्थ चयनम् –

अधोलिखित वाक्येषु रेखांकित पदानां प्रसङ्गानुकूलम् उचितार्थ चित्वा लिखत –

प्रश्न 1.
वत्स ! मणिकारश्रेष्ठिनं चन्दनदासमिदानीं द्रष्टुमिच्छामि।
(अ) रत्नकार
(ब) तथेति
(स) श्रेष्ठिन्
(द) परिक्रामतः
उत्तरम् :
(अ) रत्नकार

प्रश्न 2.
उपाध्याय ! अयं श्रेष्ठी चन्दनदासः।
(अ) स्वागतं ते
(ब) गुरुदेव
(स) आत्मगतम्
(द) वणिज्या
उत्तरम् :
(ब) गुरुदेव

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प्रश्न 3.
नन्दस्यैव अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति।
(अ) नन्दराज्यम्
(ब) नन्दस्यैव
(स) धनस्य सम्बधः
(द) उत्पादयति
उत्तरम् :
(स) धनस्य सम्बधः

प्रश्न 4.
पुनरधन्यो राज्ञो विरुद्ध इति आर्येणावगम्यते ?
(अ) श्रेष्ठिन्!
(ब) आज्ञापयतु
(स) प्रथमम्
(द) नृपस्य
उत्तरम् :
(द) नृपस्य

प्रश्न 5.
अयमीदृशो विरोधः यत् त्वमद्यापि-
(अ) मतभेदः
(ब) राजापथ्यकारिणः
(स) स्वगृहे
(द) निवेदितम्
उत्तरम् :
(अ) मतभेदः

प्रश्न 6.
गृहेषु गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति।
(अ) इच्छतामपि
(ब) स्थापयित्वा
(स) दोषमुत्पादयति।
(द) परस्परं
उत्तरम् :
(ब) स्थापयित्वा

प्रश्न 7.
भो श्रेष्ठिन् ! शिरसि भयम्, अतिदूरं तत्प्रतिकारः।
(अ) इदानीम्
(ब) कथम् न
(स) मस्तके
(द) तंदुलः
उत्तरम् :
(स) मस्तके

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प्रश्न 8.
चन्दनदास ! एष एव ते निश्चयः ?
(अ),समर्पयामि
(ब) अयम्
(स) त्वम्
(द) तव
उत्तरम् :
(द) तव

प्रश्न 9.
क इदं दुष्करं कुर्यादिदानीं शिविना विना –
(अ) कठिन।
(ब) स्वगतम्
(स) साधुः
(द) अतिदूरम्
उत्तरम् :
(अ) कठिन।

प्रश्न 10.
ननु भवता प्रष्टव्याः स्मः –
(अ) निश्चितमेव
(ब) राज्ञो विरुद्धः
(स) प्रथमम्
(घ) पिधाय
उत्तरम् :
(अ) निश्चितमेव

संस्कृतमाध्यमेन प्रश्नोत्तराणि –

एकपदेन उत्तरत (एक शब्द में उत्तर दीजिए)

प्रश्न 1.
चाणकस्य कृपया कस्य वणिज्या अखण्डिता ?
(चाणक्य की कृपा से किसका व्यापार बाधारहित था ?)
उत्तरम् :
चन्दनदासस्य (चन्दनदास का)।

प्रश्न 2.
कः सम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति ?
(कौनसा सम्बन्ध प्रेम पैदा करता है ?)
उत्तरम् :
अर्थसम्बन्धः (धन का संबंध)।

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प्रश्न 3.
कुत्र अविरुद्धवृत्तिः ?
(कहाँ विरोध रहित स्वभाव वाले बनो ?)
उत्तरम् :
राजनि (राजा के प्रति)।

प्रश्न 4.
केन चन्दनदासो राज्ञो विरुद्ध इति अवगम्यते ?
(कौन ‘चन्दनदास राजा के विरुद्ध है’ यह जानता है? )
उत्तरम् :
चाणक्यः (चाणक्य)।

प्रश्न 5.
अमात्यराक्षसस्य गृहजनः का क्या गृहे असीत ?
(अमात्य राक्षस के घरवाले किसके घर में थे ?)
उत्तरम् :
चन्दनदासस्य (चन्दनदास के)।

प्रश्न 6.
चन्दनदासानुसारम् अलीकम चायनसाय क्रेन निवेदितम् ?
(चन्दनदास के अनुसार चाणवले मिथ्या किसने कहा ?)
उत्तरम् :
केनाप्यनार्येण (किलो दुष्ट थे)।

प्रश्न 7.
चन्दनदासस्य दुष्कर कार्य किमामील ?
(चन्दनदास का दुष्कर कार्य क्या था ?)
उत्तरम् :
निश्चयः (निश्चय)।

प्रश्न 8.
‘क इदं दुष्करं कुर्यादिदानीं शिविना विना’ अत्र किं क्रियापदम् ?
(‘क इदं दुष्करं कुर्यादिदानी शिविना विना’ यहाँ क्रियापद क्या है ?)
उत्तरम् :
कुर्यात् (करे)।

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प्रश्न 9.
मणिकारश्रेष्ठिनं कः द्रष्टुम् इच्छति ?
(जौहरी सेठ से कौन मिलना चाहता है ?)
उत्तरम् :
चाणक्यः (चाणक्य)।

प्रश्न 10.
चाणक्यः कं द्रष्टुम् इच्छति ?
(चाणक्य किससे मिलना चाहता है ?)
उत्तरम् :
चन्दनदासम् (चन्दनदास से)।

प्रश्न 11.
चाणक्यानुसारं चन्दनदासः राजानं प्रति कीदृशः भवितव्य ?
(चाणक्य के अनुसार चन्दनदास राजा के प्रति कैसा हो?)
उत्तरम् :
अविरुद्धवृत्तिर्भव (विरोध रहित स्वभाव वाले।)

प्रश्न 12.
कस्तावत् प्रथमम् ? (कौन प्रमुख है?)
उत्तरम् :
भवान् (आप, चन्दनदास)।

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प्रश्न 13.
के भीताः देशान्तरं व्रजन्ति ?
(डरे हुए कौन परदेश जाते हैं ?)
उत्तरम् :
राजपुरुषाः (राजपुरुष)।

प्रश्न 14.
चाणक्यानुसारं चन्दनदासस्य वचने कीदृशे आस्ताम् ?
(चाणक्य के अनुसार चन्दनदास के दोनों वचन कैसे थे ?)
उत्तरम् :
परस्परविरुद्धे (दोनों परस्पर विरुद्ध)।

प्रश्न 15.
चन्दनदासः कस्य गृहजनं न समर्पयति ?
(चन्दनदास किसके परिवारीजनों को नहीं सौंपता है?)
उत्तरम् :
राक्षसस्य (राक्षस के)।

प्रश्न 16.
अस्मिन् नाट्यांशे चन्दनदासस्य तुलना केन सह कृता ?
(इस नाट्यांश में चन्दनदास कीतुलना किसके साथ की गई है ?)
उत्तरम् :
शिविना (शिवि से)।

पूर्णवाक्येन उत्तरत (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए)

प्रश्न 17.
चन्दनदासः काम् आज्ञाम् इच्छति ?
(चन्दनदास क्या आज्ञा चाहता है ?)
उत्तरम् :
चन्दनदास: ‘किं कियत् च अस्मज्जनादिश्यते’ इति आज्ञाम् इच्छति।
(चन्दनदास ने ‘क्या और कितना हम लोगों को आदेश दिया जाता है’ ऐसी आज्ञा चाहता है।)

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प्रश्न 18.
चन्दनदासेन चाणक्यः किं प्रष्टव्यः ?
(चन्दनदास से चाणक्य क्या पूछता है?)
उत्तरम् :
यो श्रेष्ठिन ! स चापरिक्लेशः कथमाविर्भवति ?
(सेठजी, वह सुख किस प्रकार प्राप्त होता है ?)

प्रश्न 19.
चन्दनदासः कर्णौ पिधाय किम् अवदत्?
(चन्दनदास कानों को ढंककर क्या बोला ?)
उत्तरम् :
चन्दनदासः कर्णौ पिधाय अवदत्-शान्तं पापम्, शान्तं पापम्। कीदृशस्तृणानामाग्निना सह विरोधः?
(कानों पर हाथ रखकर चन्दनदास ने कहा- पाप शान्त हो, पाप शांत हो तिनकों के साथ आग का कैसा विरोध ?)

प्रश्न 20.
अमात्यराक्षसस्य गृहजनविषये चन्दनदासः कथं स्वीकरोति ?
(अमात्य राक्षस के घरवालों के विषय में चन्दनदास कैसे स्वीकार करता है ?)
उत्तरम् :
‘तस्मिन् समये तु अमात्यराक्षसस्य गृहजनः मम गृहे आसीत्’ इदानीं क्व गतः, न जानामि।
(उस समय तो अमात्य राक्षस के घरवाले मेरे घर में थे, अब कहाँ गये, नहीं जानता हूँ।)

प्रश्न 21.
चन्दनदासः कोऽस्ति ?
(चन्दनदास कौन है ?)
उत्तरम् :
चन्दनदासः मणिकारः श्रेष्ठी अस्ति।
(चन्दनदास जौहरी सेठ है।)

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प्रश्न 22.
अविरुद्धवत्तिः कस्मिन भवेत ?
(किसके प्रति अनकल व्यवहार करने वाला होना चाहिए ?)
उत्तरम् :
राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भवेत्।
(राजा के प्रति अनुकूल व्यवहार करने वाला होना चाहिए।)

प्रश्न 23.
भीताः पूर्वराजपुरुषाः किं कुर्वन्ति ?
(डरे हुए पूर्व राजपुरुष क्या करते हैं?)
उत्तरम् :
भीताः पूर्वराजपुरुषाः पौराणामिच्छतामपि गृहेषु गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति।
(डरे हुए पूर्व राजपुरुष नगरवासियों के चाहने पर भी उनके घरों पर स्वजनों को रखकर परदेश चले जाते हैं।)

प्रश्न 24.
“किं मे भयं दर्शयसि” इति कः कं प्रति कथयति?
(…. कौन किसके प्रति कहता है ?)
उत्तरम् :
चन्दनदासः चाणक्यं प्रति कथयति।
(चन्दनदास चाणक्य के प्रति कहता है।)

अन्वय-लेखनम् –

अधोलिखितश्लोकस्यान्वयमाश्रित्य रिक्तस्थानानि मञ्जूषातः समुचितपदानि चित्वा पूरयत।
(नीचे लिखे श्लोक के अन्वय के आधार पर रिक्तस्थानों की पूर्ति मंजूषा से उचित पद चुनकर कीजिए।)
सुलभेष्वर्थलाभेषु ……………. …………………. शिविना विना।।

मञ्जूषा – सुलभेषु, संवेदने, शिविना, कः।

परस्य (i)……… अर्थलाभेषु (ii)……… इदं दुष्करं कर्म जने (लोके) (iii)……… विना (iv)……… कुर्यात्।
उत्तरम् :
(i) संवेदने (ii) सुलभेषु (iii) शिविनाः (iv) कः।

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प्रश्ननिर्माणम् –

अधोलिखित वाक्येषु स्थूलपदमाधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत –

1. चाणक्यः मणिकारश्रेष्ठिनं चन्दनदासं द्रष्टुमिच्छति।
(चाणक्य रत्नकार चन्दनदास को देखना चाहता है।)
2. शिष्यः चन्दनदासेन सह प्रविशति।
(शिष्य चन्दनदास के साथ प्रवेश करता है।)
3. आर्यस्य प्रसादेन अखण्डिता मे वणिज्या।
(आर्य की कृपा से मेरा व्यापार निर्विघ्न है।)
4. राजानः प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति।
(राजा लोग प्रसन्न प्रकृति वाले का प्रत्युपकार करते हैं।)
5. नन्दस्य अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति।
(नन्द का अर्थ सम्बन्ध प्रीति पैदा करता है।)
6. राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भवेत्।
(राजा में विरोधी प्रवृत्ति वाला नहीं होना चाहिए।)
7. भीताः पूर्वराजपुरुषाः गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति।
(डरे हुए पूर्व राजपुरुष घरवालों (स्वजनों) को रखकर परदेश चले जाते हैं।)
8. अग्निना सह तृणानां विरोधः।
(अग्नि के साथ तिनकों (घास) का विरोध है।)
9. प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहत्।
(प्राणों से भी प्रिय स्वजन होता है।)
(माध्यमिक परीक्षा, 2013)
10. अत्यादरः शङ्कनीयः।
(अधिक आदर शंका करने योग्य होता है।)
उत्तराणि :
1. चाणक्यः कं द्रष्टुम् इच्छति ?
2. शिष्यः केन सह प्रविशति ?
3. कस्य प्रसादेन अखण्डिता मे वणिज्या ?
4. राजानः काभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति ?
5. कस्य अर्थसम्बन्धः प्रीतिम् उत्पादयति ?
6. कस्मिन् अविरुद्धवृत्तिर्भवेत् ?
7. के गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति ?
8. केन सह तृणानां विरोधः ?
9. कः प्राणेभ्योऽपि प्रियः ?
10. कः शङ्कनीयः ?

भावार्थ-लेखनम् –

अधोलिखित पद्यांश संस्कृते भावार्थं लिखत सुलभेष्वर्थलाभेषु ……………………………कुर्यादिदानीं शिविना विना।।

भावार्थ – अन्यस्य वस्तु समर्पिते कृते, धन प्राप्तेषु, सहजेषु सत्सु एतत् स्वार्थं त्यक्त्वा परस्य वस्तु रक्षणं-कर्त्तव्यम् लोके कठिनम्, शिविमन्तरेण कः सम्पादयेत्।।

अधोलिखितानां सूक्तीनां भावबोधनं सरलसंस्कृतभाषया लिखत –
(निम्नलिखित सूक्तियों का भावबोध सरल संस्कृत भाषा में लिखिए-)

(i) अत्यादरः शङ्कनीयः।

भावार्थः – यः मनुष्यः अत्यधिकम् आदरं करोति, सः वञ्चनप्रयोजनेन करोति अतः अत्यधिक: आदरः शङ्कां जनयति। (जो मनुष्य अत्यधिक आदर करता है, वह छलने के प्रयोजन से करता है। अत: अधिक आदर शंका को पैदा करता है।)

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(ii) प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः।

भावार्थ: – प्रसन्नेभ्यः प्रजाजनेभ्यः नृपाः प्रतिकाररूपेण आत्मानं प्रति अपि प्रियम् एव इच्छन्ति।
(प्रसन्न प्रजाजनों से राजा लोग बदले में अपने लिए भी प्रिय ही चाहते हैं।)

(iii) राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भव।

भावार्थ: – प्रजाजनैः सदैव राजानं प्रति अनुकूलवृत्तिः एव भवेत्।
(प्रजाजनों को सदैव राजा के प्रति अनुकूल व्यवहार वाला ही होना चाहिए।)

(iv) कः पुनरधन्यो राज्ञो विरुद्धः।

भावार्थ: – कोऽपि मनुष्यः नृपस्य प्रतिकूलं कार्यं न कुर्यात्। यः नृपस्य विरुद्धः भवति सः धन्यः न भवति। (किसी भी मनुष्य को राजा के प्रतिकूल कार्य नहीं करना चाहिए। जो राजा के विरुद्ध होता है वह धन्य नहीं होता।)

(v) कीदृशस्तृणानाम् अग्निना सह विरोधः।

भावार्थ: – अग्निः तु तृणान् ज्वालयति, यतः असौ सामर्थ्यवान् भवति अत: अग्निना सह तृणानां विरोधः कथं सम्भवति तथैव नृपैः सह अपि प्रजाजनानां वैरम् अपि असम्भवः। (आग तो घास को जलाती है। क्योंकि वह सामर्थ्यवान् होती है अतः आग के साथ तिनकों का विरोध कैसे सम्भव हो सकता है। उसी प्रकार राजाओं के साथ प्रजाजनों का वैर भी असम्भव है।)

प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद् Summary and Translation in Hindi

पाठ-परिचय – ‘काव्येषु नाटकं रम्यम्’ ऐसी उक्ति प्रसिद्ध है। संस्कृत साहित्य में नाटकों की एक लम्बी श्रृंखला है जिसमें विविध नाटकों की कड़ियाँ जुड़ी हुई हैं। इन्हीं नाटकों में कूटनीति एवं राजनीति से भरपूर एक प्रसिद्ध नाटक है ‘मुद्राराक्षसम्’। प्रस्तुत पाठ ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ महाकवि विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ के प्रथम अंक से सङ्कलित है। नन्दवंश का विनाश करने के बाद उसके हितैषियों को खोज-खोजकर पकड़वाने के क्रम में चाणक्य, अमात्य राक्षस एवं उसके परिजनों की जानकारी प्राप्त करने के लिए चन्दनदास से वार्तालाप करते हैं किन्तु चाणक्य को अमात्य राक्षस के विषय में कोई सुराग न देता हुआ चन्दनदास अपनी मित्रता पर दृढ़ रहता है।

उसके मैत्री भाव से प्रसन्न होते हुए भी चाणक्य जब उसे राजदण्ड का भय दिखाता है तब चन्दनदास राजदण्ड भोगने के लिए सहर्ष प्रस्तुत हो जाता है। इस प्रकार अपने मित्र के लिए प्राणों का भी उत्सर्ग करने के लिए तत्पर चन्दनदास अपनी सुहृद्-निष्ठा का एक ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।

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मूलपाठः,शब्दार्थाः, सप्रसंग हिन्दी-अनुवादः

1.

  • चाणक्यः – वत्स ! मणिकारश्रेष्ठिनं चन्दनदासमिदानीं द्रष्टुमिच्छामि।
  • शिष्यः – तथेति (निष्क्रम्य चन्दनदासेन सह प्रविश्य) इतः इतः श्रेष्ठिन् (उभौ परिक्रामतः)
  • शिष्यः – (उपसृत्य) उपाध्याय ! अयं श्रेष्ठी चन्दनदासः।
  • चन्दनदासः – जयत्वार्यः
  • चाणक्यः – श्रेष्ठिन् ! स्वागतं ते। अपि प्रचीयन्ते संव्यवहाराणां वृद्धिलाभाः ?
  • चन्दनदासः – (आत्मगतम्) अत्यादरः शङ्कनीयः। (प्रकाशम्) अथ किम्। आर्यस्य प्रसादेन अखण्डिता मे वणिज्या।
  • चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन् ! प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः।
  • चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः, किं कियत् च अस्मज्जनादिष्यते इति।

शब्दार्थाः = वत्स ! = पुत्र ! (बेटा)। मणिकारश्रेष्ठिनम् = रत्नकारं वणिजम्, रत्नानां व्यवसायिनम् (रत्नों के व्यापारी)। चन्दनदासमिदानीम् = चन्दनदास इत्याख्यम् अधुना (चन्दनदास नामक को अब)। द्रष्टुमिच्छामि = परामृष्टुं वाञ्छामि (मिलना चाहता हूँ )। तथेति = तथैव भवतु (वैसा ही हो)। निष्क्रम्य = बहिर्गत्वा (बाहर निकलकर)। चन्दनदासेन सह प्रविष्य = चन्दनदासेन श्रेष्ठिना सार्धं प्रवेशं कृत्वा (चन्दनदास के साथ प्रवेश करके)। इतः इतः = अत्र एहि (इधर-इधर आएँ)।

श्रेष्ठिन् = हे धनिक ! (हे सेठ जी !)। उभौ = द्वावेव (दोनों)। परिक्रामतः = घूमते हैं। उपसृत्य = समीपं गत्वा (पास जाकर)। उपाध्याय ! = हे गुरुदेव ! (हे गुरु जी !)। अयम् = एषः (यह)। श्रेष्ठी = धनिकः (सेठ)। जयत्वार्यः = विजयतामार्यः (आर्य की जय हो)। स्वागतं ते = अभिनन्दन भवतः (आपका स्वागत है)। अपि = किम् (क्या)। प्रचीयन्ते = वृद्धिं प्राप्नुवन्ति (बढ़ रहे हैं)। संव्यवहाराणां = व्यापाराणाम् (व्यापारों का)। वृद्धिलाभाः = लाभ वृद्धयः (लाभांशों की वृद्धि)। आत्मगतम् = मनसि एव (मन ही मन)। अत्यादरः = अत्यधिक: सम्मानः (अत्यधिक आदर)।

शङ्कनीयः = सन्देहास्पदम् (शंका करने योग्य है)। प्रकाशम् = प्रकटम् (सबके समक्ष)। अथ किम् = आम् कथन्न (जी हाँ, क्यों नहीं)। आर्यस्य = श्रीमतः (आर्य की)। प्रसादेन = कृपया (कृपा से)। अखण्डिताः = निर्बाधः (बाधा रहित हैं)। मे = मम (मेरे)। वणिज्या = व्यवसायाः वाणिज्यम् (व्यापार)। भो श्रेष्ठिन्! = रे धनिक ! (अरे सेठ जी !)। प्रीताभ्यः = प्रसन्नाभ्यः (प्रसन्नजनों के प्रति)। प्रकृतिभ्यः = प्रजायैः (प्रजा के लिये)। प्रतिप्रियमिच्छन्ति = प्रत्युपकारम् वाञ्छन्ति (उपकार के बदले उपकार करना चाहते हैं)। राजानः = नृपाः (राजा लोग)। आज्ञापयतु आर्यः = श्रेष्ठजनः आज्ञां देहि, आदिशतु (आर्य आज्ञा दें, आदेश दें)। किं कियत् च = किं कियन्मानञ्च (क्या और कितना)। अस्मज्जनादिष्यते = अस्मभ्यम् आज्ञां दीयते (हमें आज्ञा दी जाती है)।

सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह नाट्यांश हमारी शेमुषी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सहृद’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नाटक के पहले अंक से सङ्कलित है। इस नाट्यांश में चाणक्य मणिकार चन्दनदास से मिलना चाहता है परन्तु चन्दनदास इस अत्यादर में शङ्का करता है।

JAC Class 10 Sanskrit Solutions Chapter 11 प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्

हिन्दी-अनुवादः :

  • चाणक्य – बेटा (वत्स) ! अब मैं रत्नों के व्यापारी चन्दनदास से मिलना चाहता हूँ।
  • शिष्य – वैसा ही हो। (बाहर निकलकर और चन्दनदास के साथ प्रवेश करके) इधर, इधर (आइए) सेठ जी ! (दोनों घूमते हैं)।
  • शिष्य – (पास जाकर) गुरुदेव ! यह सेठ चन्दनदास है।
  • चन्दनदास – आर्य की जय हो।
  • चाणक्य – सेठ जी ! आपका स्वागत है। क्या व्यापार में आपकी लाभवृद्धियाँ बढ़ रही हैं ?
  • चन्दनदास – (मन ही मन) अत्यधिक आदर शंका करने योग्य होता है। (प्रकट में) जी हाँ, आर्य की कृपा से मेरे व्यापार बाधारहित हैं।
  • चाणक्य – अरे सेठ जी ! प्रसन्न स्वभाव से लोगों के लिए राजा प्रत्युपकार चाहते हैं।
  • चन्दनदास – आर्य आज्ञा दें, क्या और कितना हमारे लिए आदेश दिया जाता है।

2 चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन् ! चन्द्रगुप्तराज्यमिदं न नन्दराज्यम्। नन्दस्यैव अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति।
चन्द्रगुप्तस्य तु भवतामपरिक्लेश एव।
चन्दनदासः – (सहर्षम्) आर्य ! अनुगृहीतोऽस्मि।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन् ! स चापरिक्लेशः कथमाविर्भवति इति ननु भवता प्रष्टव्याः स्मः।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आयः।।
चाणक्यः – राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भव।
चन्दनदासः – आर्य ! कः पुनरधन्यो राज्ञो विरुद्ध इति आर्येणावगम्यते ?
चाणक्यः – भवानेव तावत् प्रथमम्।
चन्दनदासः – (कर्णी पिधाय) शान्तं पापम्, शान्तं पापम्। कीदृशस्तृणानामग्निना सह विरोध: ?

शब्दार्थाः – भो श्रेष्ठिन् = हे धनिक ! (अरे सेठ जी)। चन्द्रगुप्तराज्यमिदम् = चन्द्रगुप्तस्य एतद् शासनम् (यह चन्द्रगुप्त का राज्य है)। न नन्दराज्यम् = न तु नंदस्य शासनम् (न कि नन्द का राज्य)। नन्दस्यैव = नन्दस्य राज्यम् एव (नंद के राज्य में ही)। अर्थसम्बन्धः = धनस्य सम्बन्धः (धन के प्रति लगाव)। प्रीतिमुत्पादयति = स्नेहं जनयति (स्नेह पैदा करता है)। चन्द्रगुप्तस्य तु = चन्द्रगुप्तमौर्यस्य तु (चन्द्रगुप्त मौर्य का तो)। भवताम् = युष्माकम् (आपका)। अपरिक्लेश एव = दुःखाभावः एव (दुःख का अभाव ही है)। सहर्षम् = प्रसन्नतासहितम् (प्रसन्नता के साथ)। अ = श्रीमन् ! (हे श्रीमान् जी!)।

अनगृहीतोऽस्मि = सानुकम्पोऽस्मि (अनुगृहीत हुआ हूँ )। भो श्रेष्ठिन! = हे वणिक ! (अरे सेठ जी!)। स चापरिक्लेशः = असौ च दुःखाभावः (और वह दुःख का अभाव)। कथमाविर्भवति = कथम् अवतरितः (कैसे अवतरित होता है)। इति ननु भवता = एवं निश्चितमेव त्वया (इस प्रकार निश्चय ही आपके द्वारा)। प्रष्टव्याः स्मः = प्रष्टुं योग्याः स्मः (पूछने योग्य हैं)। आज्ञापयतु आर्यः = आर्यः आदिशतु (आर्य आदेश दें)। राजनि = नृपे (राजा में, राजा के प्रति)। अविरुद्धवत्तिर्भव = अविरुद्धस्वभावः भव (विरोध-रहित स्वभाव वाले बनो)।

आर्य ! = हे श्रीमन् !(हे श्रीमान् जी!)। कः पुनरधन्यो = पुनः कः हतभाग्यः (फिर कौन अभागा)। राज्ञो विरुद्धः = नृपस्य विरोधे (राजा के विरोध में)। अस्ति = है। इति आर्येणावगम्यते – इति देवेन ज्ञायते (इसे श्रीमान् द्वारा जाना जाता है, अर्थात् आप इसे जानते हैं)। भवान् एव = त्वम् एव, श्रीमान् एव (आप ही)। तावत् = तर्हि (तो)। प्रथमम् = प्रमुखः (प्रमुख हैं)। कर्णी = श्रवणौ (कानों को)। पिधाय = आच्छाद्य (बन्द करके)। शान्तं पापम् = अघः नश्यतु (पाप शान्त हो)। कीदृशस्तृणानामग्निना सह विरोधः = अनलेन सह घासस्य/तृणस्य कीदृशः मतभेदः (अग्नि के साथ तिनके का क्या विरोध)।

सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह नाट्यांश हमारी शेमुषी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ पाठ से लिया गया है। मूलत: यह पाठ महाकवि विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नाटक के प्रथम अंक से सङ्कलित है। इस नाट्यांश में चाणक्य और चन्दनदास के संवाद के बहाने प्रसंग आरंभ किया जाता है।

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हिन्दी-अनुवादः –

  • चाणक्य – अरे सेठ जी ! यह चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य है न कि नन्द का राज्य। नन्द के राज्य में ही धन के प्रति लगाव स्नेह पैदा करता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के (राज्य में) तो आपको दुःख का अभाव ही है।
  • चन्दनदास – (प्रसन्नता के साथ) आर्य ! मैं अनुगृहीत हुआ।
  • चाणक्य – अरे सेठ जी ! और वह दुःख का अभाव अति सुख कैसे उत्पन्न होता है, यह आपको निश्चित ही हमसे पूछना चाहिए।
  • चन्दनदास – आर्य ! आदेश दें।
  • चाणक्य – राजा के प्रति अविरोधी (विरोधहीन अर्थात् अनुकूल) व्यवहार वाले बनो।
  • चन्दनदास – आर्य ! फिर ऐसा कौन अभागा है जो राजा का विरोधी हो। ऐसा श्रीमान् जानते ही हैं आप ही बताएँ।
  • चाणक्य – प्रथम (प्रमुख) तो आप ही हैं।
  • चन्दनदास – (कानों को बन्द करके अर्थात् कानों पर हाथ रखकर) पाप शान्त हो, पाप शान्त हो (अरे राम, राम) तिनकों के साथ आग का कैसा विरोध ?

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3 चाणक्यः – अयमीदृशो विरोधः यत् त्वमद्यापि राजापथ्यकारिणोऽमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षसि।
चन्दनदासः – आर्य ! अलीकमेतत्। केनाप्यनार्येण आर्याय निवेदितम्।।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन् ! अलमाशङ्कया। भीताः पूर्वराजपुरुषाः पौराणामिच्छतामपि गृहेषु गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति। ततस्तत्तच्छादनं दोषमुत्पादयति।
चन्दनदासः – एवं नु इदम्। तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।
चाणक्यः – पूर्वम् ‘अनृतम्’, इदानीम् ‘आसीत्’ इति परस्परविरुद्ध वचने।
चन्दनदासः – आर्य ! तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षस्य गृहजन इति।

शब्दार्थाः – अयम् = एषः (यह)। ईदृशो = अस्य प्रकारस्य, एतद्विधः (ऐसा, इस प्रकार का)। विरोधः = मतभेदः (विरोध)। यत् त्वमद्यापि = यद् भवान् अधुनापि (कि आप अब, आज भी)। राजापथ्यकारिणः = नृपस्य अपकारिणः (राजा का अहित करने वाले)। अमात्यराक्षसस्य = मन्त्रिणः राक्षसस्य (मन्त्री राक्षस के)। गृहजनम् = परिवारिजनम् (परिवार वालों की)। स्वगृहे = आत्मनः भवने (अपने घर में)। रक्षसि = रक्षां करोति (रक्षा करते हो)। आर्य ! = (हे महोदय!)। अलीकमेतत् = असत्यम् इदम्, अनृतमिदम् (यह झूठ है)। केनाप्यनार्येण = कोऽपि दुष्टः (किसी दुष्ट ने)।

आर्याय = महोदयाय (आर्य से)। निवेदितम् = निवेदितवान् (निवेदन किया है; कहा है)। भो श्रेष्ठिन् = रे धनिक ! (अरे सेठजी)। अलमाशङ्कया = सन्देहस्य आवश्यकता न वर्तते, सन्देहं मा कुरु (शङ्का मत करो)। भीताः = भयाक्रान्ताः (डरे हुए)। पूर्वराजपुरुषाः = पूर्वराज्ञः सैनिकाः, पूर्वनृपस्य सेवकाः (भूतपूर्व राजा के सैनिक)। पौराणाम् = नगरवासिनाम् (नगरवासियों के)। इच्छतामपि = वाञ्छतामपि, इच्छुकानामपि (चाहने वालों के भी)। गृहेषु = भवनेषु (घरों में)। गृहजनम् = परिवारिजनान् (परिवार के लोगों को)। निक्षिप्य = स्थापयित्वा (रखकर)।

देशान्तरम् = परदेशम् (परदेश को)। व्रजन्ति = गच्छन्ति, प्रस्थानं कुर्वन्ति (चले जाते हैं)। ततः = तत्पश्चात् (उसके बाद)। तत् आच्छादनम् = तस्य गोपायनम् (उसे छिपाना, छुपाकर रखना)। दोषमुत्पादयति = अपराधं जनयति (अपराध को जन्म देता है, पैदा करता है)। एवं नु इदम् = नैवम् एत् (ऐसा नहीं है)। तस्मिन् समये = तदा (उस समय)। अस्मद् गृहे = अस्माकम् आवासे (हमारे घर पर)। अमात्यराक्षसस्य = मन्त्रिणः राक्षसस्य (अमात्य राक्षस के)। गृहजनः = परिजनः (परिवार के लोग)। आसीत् = अवर्तत (थे)। पूर्वम् = पूर्वकाले, प्रथमस्तु (पहले तो)। अनृतम् = मिथ्या, असत्यम् (झूठ)। इदानीम् = अधुना (अब)।

आसीत् = अवर्तत (था)। इति परस्परं = एवम् अन्यान्ययोः (इस प्रकार एक दूसरे .के)। विरुद्ध वचने = विपरीतकथने (विपरीत वचन होने पर)। आर्य ! = हे श्रीमन् ! (हे महोदय!)। तस्मिन् समये = तस्मिन् काले, तदा (तब, उस समय)। अस्मद्गृहे = अस्माकम् आवासे (हमारे घर में)। अमात्यराक्षसस्य = मन्त्रिणः राक्षसस्य (अमात्य राक्षस के)। गृहजनः = परिजनः (परिवार के लोग)। आसीत् = अवर्तत (था/थे)।

सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह नाट्यांश हमारी शेमुषी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नाटक के प्रथम अंक से सङ्कलित है। इस नाट्यांश में चाणक्य अपने कथ्य को चन्दनदास से कहता है और अन्वेषण आरम्भ कर देता है।।

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हिन्दी-अनुवादः :

  • चाणक्य – यह ऐसा विरोध है कि आप अब भी राजा का अहित करने वाले मन्त्री राक्षस के परिवारवालों को अपने घर में छुपाकर रक्षा करते हैं।
  • चन्दनदास – आर्य ! यह (बिल्कुल) झूठ है। किसी दुष्ट ने (आपसे) ऐसा कह दिया है।
  • चाणक्य – अरे सेठ जी ! शंका मत करो। भूतपूर्व राजा के डरे हुए सैनिक चाहने वाले नगरवासियों के घरों में अपने परिजनों को भी रखकर परदेश को जाते हैं। तब उस अमात्य राक्षस का छुपाना दोष या अपराध को जन्म देता है।
  • चन्दनदास – ऐसा नहीं है, उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस के परिवार के लोग थे।
  • चाणक्य – पहले ‘अनृतम्’ (झूठ) अब ‘आसीत्’ (थे) इस प्रकार आपस में (परस्पर) विरोधी वचन है।
  • चन्दनदास – आर्य ! उस समय (तब) हमारे घर में अमात्य राक्षस के परिवार वाले थे (अब नहीं हैं)।

4. चाणक्यः – अथेदानी क्व गतः ?
चन्दनदासः – न जानामि।
चाणक्यः – कथं न ज्ञायते नाम ? भो श्रेष्ठिन् ! शिरसि भयम्, अतिदूरं तत्प्रतिकारः।
चन्दनदासः – आर्य! किं मे भयं दर्शयसि ? सन्तमपि गेहे अमात्यराक्षसस्य गृहजनं न समर्पयामि, किं पुनरसन्तम् ?
चाणक्यः – चन्दनदास ! एष एव ते निश्चयः ?
चन्दनदासः – बाढम्, एष एव मे निश्चयः।
चाणक्यः – (स्वगतम्) साधु ! चन्दनदास साधु।

सुलभेष्वर्थलाभेषु परसंवेदने जने।
क इदं दुष्करं कुर्यादिदानीं शिविना विना।।

शब्दार्थाः – अथ = एतत्पश्चात् (तो फिर)। इदानीम् = अधुना (अब)। क्व – कुत्र (कहाँ)। गतः = प्रस्थितः यातः (गए)। न जानामि = न मया ज्ञायते (नहीं जानता, मुझे पता नहीं)। कथम् न = कस्मात् न (क्यों नहीं)। ज्ञायते नाम = अवगम्यते (जानते हो)। भो श्रेष्ठिन् ! = रे धनिक ! (अरे सेठजी)। शिरसि = मस्तके (सिर पर)। भयम् = भीतिः (डर है)। तत्प्रतिकारं = तस्योपचारम् (उसका उपचार)। अतिदूरम् = अत्यधिकं दूरे स्थितम् (बहुत दूर पर है)। आर्य! = (हे महोदय)। किं मे भयं दर्शयति = अपि मां भयभीतं करोषि (क्या मुझे डरा रहे हो)।

सन्तमपि गेहे = गृहे विद्यमानं अपि (घर में होते हुए भी)। अमात्यराक्षसस्य = मन्त्रिणः राक्षसस्य (अमात्य राक्षस के)। गृहजनम् = परिवारस्य सदस्यान् (परिवारीजनों को)। न समर्पयामि = न प्रत्यर्पयामि (नहीं लौटाता)। किं पुनरसन्तम् = किं पुनः न निवसन्तम् (न रहने वालों का तो कहना क्या)। एष एव = अयमेव (यही)। ते = तव (तेरा)। निश्चयः = संकल्पः (निश्चय है)। बाढम् = आम् (हाँ)। एषः एव = अयमेव (यही)। मे = मम (मेरा)। निश्चयः = दृढसंकल्पः (निश्चय है)। स्वगतम् = आत्मगतम् (मन ही मन)। साधुः धन्यः = अतिसुन्दरम् (बहुत अच्छे, निश्चय ही, धन्य हो)। चन्दनदास साधु = धन्योऽसि चन्दनदास! (चन्दनदास, तुम धन्य हो)।

सुलभेष्वर्थलाभेषु …………………………. शिविना विना।।

अन्वयः – परस्य संवेदने अर्थलाभेषु सुलभेषु इदं दुष्करं कर्म जने (लोके) शिविना विना कः कुर्यात्।

शब्दार्थाः – परस्य = अन्यस्य (दूसरे की वस्तु को)। संवेदने = समर्पणे कृते सति (समर्पित करने पर)। सुलभेषु = धन प्राप्तेषु सहजेषु सत्सु (धन की प्राप्ति आसान हो जाने पर भी)। इदम् = एतद् स्वार्थं त्यक्त्वा परस्य वस्तुरक्षणम् (यह)। कर्म = कर्त्तव्यम् (कार्य)। जने = लोके (मनुष्यों में)। दुष्करम् = कठिनम् (मुश्किल है)। शिविना विना = शिविमन्तरेण (दानवीर शिवि के अतिरिक्त)। कः कुर्यात् = कः सम्पादयेत् (कौन करे)।

सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह नाट्यांश हमारी शेमुषी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त रचित नाटक ‘मुद्राराक्षसम्’ नाटक के प्रथम अंक से सङ्कलित किया गया है। इस अंश में चाणक्य और चन्दनदास का संवाद विवाद में परिवर्तित हो जाता है।

JAC Class 10 Sanskrit Solutions Chapter 11 प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्

हिन्दी-अनुवादः :

  • चाणक्य – तो अब कहाँ गए ?
  • चन्दनदास – मैं नहीं जानता (मुझे पता नहीं)।
  • चाणक्य – क्यों नहीं जानते हो। अरे सेठजी, डर तो सिर पर सवार है और (उसका) उपाय बहुत दूर है।
  • चन्दनदास – आर्य ! क्या मुझे डरा रहे हैं ? घर में होते हुए भी अमात्य राक्षस के परिवार के लोगों को नहीं दे सकता हूँ फिर न होने पर तो कहना ही क्या ?
  • चाणक्य – चन्दनदास ! क्या तुम्हारा यही निश्चय है ?
  • चन्दनदास – हाँ, मेरा यही निश्चय है।
  • चाणक्य – (मन ही मन) धन्य हो चन्दनदास, तुम धन्य हो।
    दूसरे की वस्तु को समर्पित करने पर धन की प्राप्ति आसान हो जाने पर भी यह (स्वार्थ त्यागकर दूसरे की वस्तु की रक्षा करने का) कार्य मनुष्यों में अत्यन्त कठिन कार्य है। दानवीर शिवि के (तुम्हारे) अलावा (अतिरिक्त) इसे और कौन करे।

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