JAC Class 9 Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 11 पर्यावरणम्

Jharkhand Board JAC Class 9 Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 11 पर्यावरणम् Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 9th Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 11 पर्यावरणम्

JAC Class 9th Sanskrit पर्यावरणम् Textbook Questions and Answers

1. एकपदेन उत्तरं लिखत- (एक शब्द में उत्तर लखिए-)
(क) मानवः कुत्र सुरक्षितः तिष्ठति? (मनुष्य कहाँ सुरक्षित है?)
उत्तरम् :
पर्यावरणकुक्षौ (पर्यावरण की कोख में)।

(ख) सुरक्षितं पर्यावरणं कुत्र उपलभ्यते? (सुरक्षित पर्यावरण कहाँ प्राप्त होता था?)
उत्तरम् :
वने। (वन में)।

(ग) आर्षवचनं किमस्ति? (प्रामाणिक वचन क्या है?)
उत्तरम् :
धर्मो रक्षति रक्षितः। (रक्षित ही धर्म की रक्षा करता है।)

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(घ) पर्यावरणमपि कस्य अङ्गम् इति? (पर्यावरण भी किसका अंग है?)
उत्तरम् :
धर्मस्य (धर्म का)।

(ङ) लोकरक्षा कया संभवति? (लोक रक्षा किससे हो सकती है?)
उत्तरम् :
पर्यावरणेन। (पर्यावरण से।)

(च) प्रकृति केषां संरक्षणाय यतते? (प्रकृति किनके संरक्षण का यत्न करती है?)
उत्तरम् :
समेषां प्राणीनाम्। (सभी प्राणियों की।)

2. अधोलिखितानां प्रश्नानामुत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत – (निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए-)
(क) प्रकृतेः प्रमुखतत्त्वानि कानि सन्ति? (प्रकृति के प्रमुख तत्त्व क्या हैं?).
उत्तरम् :
पृथिवी, जलं, तेजः, वायुः आकाशश्च प्रकृतेः प्रमुखतत्त्वानि सन्ति। (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश प्रकृति के प्रमुख तत्त्व हैं।)

(ख) स्वार्थान्धः मानवः किं करोति? (स्वार्थ में अन्धा मानव क्या करता है?)
उत्तरम् :
स्वार्थान्धः मानवः पर्यावरणं नाशयति। (स्वार्थ में अन्धा हुआ मानव पर्यावरण को नष्ट करता है।)

(ग) पर्यावरणे विकृते जाते किं भवति? (पर्यावरण के विकृत होने पर क्या होता है?)
उत्तरम् :
पर्यावरणे विकृते जाते विविधाः रोगाः भीषणसमस्याश्च जायन्ते। (पर्यावरण के विकृत होने पर विविध रोग तथा भीषण समस्याएँ पैदा हो जाते है।)

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(घ) अस्माभिः पर्यावरणस्य रक्षा कथं करणीया? (हमें पर्यावरण की रक्षा कैसे करनी चाहिए?)
उत्तरम् :
प्रकृतेः तत्त्वानि संरक्ष्य अस्माभिः पर्यावरणस्य रक्षा करणीया। (हमें प्रकृति के तत्त्वों की रक्षा करके पर्यावरण की रक्षा करनी चाहिए।)

(ङ) लोकरक्षा कथं सम्भवति? (लोकरक्षा कैसे सम्भव होती है?)
उत्तरम् :
लोकरक्षा प्रकृतिरक्षयैव सम्भवति। (लोक-रक्षा प्रकृति-रक्षा से ही सम्भव है।)

(च) परिष्कृतं पर्यावरणम् अस्मभ्यं किं किं ददाति? (शुद्ध पर्यावरण हमें क्या-क्या देता है)
उत्तरम् :
परिष्कृतं पर्यावरणम् अस्मभ्यं सांसारिकजीवनसुखं, सद्विचारं, सत्यसंकल्पं माङ्गलिकसामग्री च प्रददाति।
(शुद्ध पर्यावरण हमारे लिए सांसारिक जीवनसुख, अच्छे विचार, सत्यसंकल्प और मांगलिक सामग्री प्रदान करता है।)

3. स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत- (मोटे छपे पदों को आधार मानकर प्रश्न-रचना कीजिए-)
(क) वनवृक्षाः निर्विवेकं छिद्यन्ते। (वन-वृक्ष बिना सोचे काट दिये जाते हैं।)
उत्तरम् :
के निर्विवेकं छिद्यन्ते? (विवेकरहित होकर क्या काट दिये जाते हैं?)

(ख) वृक्षकर्तनात् शुद्धवायुः न प्राप्यते। (वृक्ष काटने से शुद्ध वायु नहीं मिलती।)
उत्तरम् :
कस्मात् (केषां) कर्तनात् शुद्धवायुः न प्राप्यते? (क्या काटने से शुद्ध वायु प्राप्त नहीं होती?)

(ग) प्रकृतिः जीवनसुखं प्रददाति। (प्रकृति जीवन-सुख देती है।)
उत्तरम् :
प्रकृतिः किं प्रददाति? (प्रकृति क्या देती है?)

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(घ) अजातशिशुः मातृगर्भे सुरक्षितः तिष्ठति। (अजन्मा बालक माँ के गर्भ में सुरक्षित रहता है।)
उत्तरम् :
अजातशिशुः कुत्र सुरक्षितः तिष्ठति? (अजन्मा बालक कहाँ सुरक्षित रहता है?)

(ङ) पर्यावरणरक्षणं धर्मस्य अङ्गम् अस्ति। (पर्यावरणरक्षण धर्म का अंग है।)
उत्तरम् :
पर्यावरणरक्षणं कस्य अङ्गम् अस्ति? (पर्यावरणरक्षण किसका अङ्ग है?)

4. उदाहरणमनुसृत्य पदरचनां कुरुत – (उदाहरण का अनुसरण करके पद-रचना कीजिए-)
(क) यथा-जले चरन्ति इति

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(ख) यथा-न पेयम् इति

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5. उदाहरणमनुसृत्य पदनिर्माणं कुरुत – (उदाहरण के अनुसार पद-निर्माण कीजिए-)
यथा – वि + कृ + क्तिन् = विकृतिः
उत्तराणि :
(क) प्र + गम् + क्तिन् = प्रगतिः
(ख) दृश् + क्तिन् + ……….. = दृष्टिः
(ग) गम् + क्तिन् + ……….. =  गतिः
(घ) मन् क्तिन् + ……… = मतिः
(ङ) शम् + क्तिन् + ………. = शान्तिः
(च) भी + क्तिन् + ………… = भीतिः
(छ) जन् + क्तिन् + ………. = गतिः
(ज) भज् + तिन् + ……….. = भक्तिः
(झ) नी + क्तिन् + ………… = नीतिः।

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6. निर्देशानुसारं परिवर्तयत-(निर्देश के अनुसार परिवर्तित कीजिए-)
यथा-स्वार्थान्धो मानवः अद्य पर्यावरणं नाशयति। (बहुवचने)
स्वार्थान्धाः मानवाः अद्य पर्यावरणं नाशयन्ति।

(क) सन्तप्तस्य मानवस्य मङ्गलं कुतः? (बहुवचने) (सन्तप्त मानव का कल्याण कहाँ से है?)
उत्तरम् :
सन्तप्तानां मानवानां मङ्गलं कुतः? (सन्तप्त मानवों का कल्याण कहाँ से है?)

(ख) मानवाः पर्यावरणकुक्षौ सुरक्षिताः भवन्ति। (एकवचने) (मनुष्य पर्यावरण के गर्भ में सुरक्षित हैं।)
उत्तरम् :
मानवः पर्यावरणकुक्षौ सुरक्षितः भवति। (मनुष्य पर्यावरण के गर्भ में सुरक्षित है।)

(ग) वनवृक्षाः निर्विवेकं छिद्यन्ते। (एकवचने) (वनवृक्ष विवेकहीन होकर काटे जाते हैं।)
उत्तरम् :
वनवृक्षः निर्विवेक छिद्यते। (वनवृक्ष विवेकहीन होकर काटा जाता है।)

(घ) गिरिनिर्झरा: निर्मलं जलं प्रयच्छन्ति। (द्विवचने) (पहाड़ी झरने निर्मल जल प्रदान करते हैं।)
उत्तरम् :
गिरिनिर्झरौ निर्मलं जलं प्रयच्छतः। (दो पहाड़ी झरने निर्मल जल प्रदान करते हैं।)

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(ङ) सरित् निर्मलं जलं प्रयच्छति। (बहुवचने) (नदी निर्मल जल प्रदान करती है।)
उत्तरम् :
सरितः निर्मलं जलं प्रयच्छन्ति। (नदियाँ निर्मल जल प्रदान करती हैं।) पर्यावरणरक्षणाय भवन्तः किं करिष्यन्ति इति विषये पञ्चवाक्यानि लिखत। (पर्यावरण की सुरक्षा हेतु आप क्या करेंगे, इस विषय पर पाँच वाक्य लिखिए।). यथा-अहं विषाक्तम् अवकरं नदीषु न पातयिष्यामि। (मैं जहरीले कूड़े को नदियों में नहीं डालूँगा।)
उत्तरम् :
(क) वयं वक्षारोपणं करिष्यामः। (हम पेड लगायेंगे)
(ख) वयं प्रकृति रक्षिष्यामः। (हम प्रकृति की रक्षा करेंगे।)
(ग) वयं वृक्षान् न कर्तयिष्यामः। (हम वृक्षों को नहीं काटेंगे।)
(घ) वयं वन्यपशून् न व्यापादयिष्यामः। (हम वन्यपशुओं को नहीं मारेंगे।)
(ङ) वयं वापीकूपतडागानां निर्माणं करिष्यामः। (हम बावड़ियों, कुओं और तालाबों का निर्माण करेंगे।)

8. (क) उदाहरणमनुसृत्य उपसर्गान् पृथक् कृत्वा लिखत – (उदाहरण के अनुसार उपसर्गों को अलग करके लिखिए-)
यथा-संरक्षणाय = सम्
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(ख) उदाहरणमनुसत्य अधोलिखितानां समस्तपदानां विग्रहं लिखत –
(उदाहरण के अनुसार निम्नलिखित समस्त पदों के विग्रह लिखिये-)
यथा – तेजोवायुः = तेजः वायुः च
गिरिनिर्झराः = गिरयः निर्झरा: च
(i) पत्रपुष्पे = …………..
(ii) लतावृक्षौ = ……………
(iii) पशुपक्षी = ………….
(iv) कीटपतङ्गौ = …………
उत्तराणि :
(i) पत्रं पुष्पं च
(ii) लता वृक्षः च
(iii) पशुः पक्षी च
(iv) कीट: पतङ्गः च

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परियोजनाकार्यम्

(क) विद्यालयप्राङ्गणे स्थितस्य उद्यानस्य वृक्षाः पादपाश्च कथं सुरक्षिताः स्युः तदर्थं प्रयत्नः करणीयः इति सप्तवाक्येषु लिखत- (विद्यालय प्रांगण में स्थित बाग के पेड़-पौधे कैसे सुरक्षित हों, इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए, इस पर सात वाक्य लिखिए-)
उत्तरम् :
(i) वृक्षान् परितः सुरक्षा-कवचं स्थापनीयम्। (वृक्षों के चारों ओर सुरक्षा कवच (बाड़) लगाना चाहिए।)
(ii) अस्माभिः ते क्षतात् रक्षणीयाः। (हमें उनकी क्षति से रक्षा करनी चाहिए।)
(iii) वृक्षाणां, पादपानां लतानां च पुष्पाणि-पत्राणि न त्रोटनीयानि। (वृक्षों, पौधों और लताओं के फूल-पत्ते नहीं तोड़ने चाहिए।)
(iv) यथासमयं ते जलेन सिंचनीयाः। (यथासमय उन्हें जल से सींचना चाहिए।)
(v) यथाकालं जीर्णानि पत्राणि शाखाः च कर्तनीयानि। (यथासमय पुराने पत्ते और शाखाएँ काट देनी चाहिए।)
(vi) वर्षाकाले वृक्षारोपणमपि करणीयम्। (वर्षाकाल में वृक्षारोपण भी करना चाहिए।)
(vii) वयं वृक्षाणां पादपानां च रक्षणार्थम् अन्यान् छात्रान् अपि प्रेरयेम।
(हमें वृक्षों और पौधों की रक्षा के लिए अन्य छात्रों को भी प्रेरित करना चाहिए।)

(ख) अभिभावकस्य शिक्षकस्य वा सहयोगेन एकस्य वृक्षस्य आरोपणं करणीयम्, यदि स्थानम् अस्ति तर्हि विद्यालय प्राङ्गणे, नास्ति चेत् स्वस्मिन् प्रतिवेशे गृहे वा कृतं सर्वं दैनन्दिन्यां लिखित्वा शिक्षकं दर्शय।
(अभिभावक अथवा शिक्षक के सहयोग से एक वृक्ष लगाइये, यदि स्थान है तो विद्यालय प्राङ्गण में, नहीं है तो अपने पड़ोस में या घर में) किए हुए को सबको डायरी में लिखकर शिक्षक को दिखाइये।
उत्तरम् :
छात्र स्वयं करें।

JAC Class 9th Sanskrit पर्यावरणम् Important Questions and Answers

प्रश्न: 1.
प्रकृतिः केषां संरक्षणाय प्रयतते? (प्रकृति किनके संरक्षण का प्रयत्न करती है?)
उत्तरम् :
प्रकृतिः समेषां प्राणिनां संरक्षणाय प्रयतते। (प्रकृति सभी प्राणियों के संरक्षण का प्रयत्न करती है।):

प्रश्न: 2.
प्रकृतेः प्रमुखतत्त्वानि मिलित्वा किं रचयन्ति? (प्रकृति के प्रमुख तत्त्व मिलकर किसकी रचना करते हैं?)
उत्तरम् :
प्रकृतेः प्रमुखतत्त्वानि मिलित्वा अस्माकं पर्यावरणं रचयन्ति। (प्रकृति के प्रमुख तत्त्व मिलकर हमारे पर्यावरण की रचना करते हैं।)

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प्रश्न: 3.
मानवः किमिव पर्यावरणकुक्षौ वसति? (मानव किसकी तरह पर्यावरण के गर्भ में रहता है?)
उत्तरम् :
यथा अजातः शिशुः मातृगर्भे सुरक्षितः तिष्ठति तथैव मानवः पर्यावरणकुक्षौ। (जैसे अजन्मा बालक माँ के गर्भ में सुरक्षित रहता है वैसे ही मानव पर्यावरण के गर्भ में।)

प्रश्न: 4.
मानवमङ्गलं कथम् असम्भवम् अस्ति? (मानव का कल्याण क्यों असम्भव है?)
उत्तरम् :
जलप्लावनैः, अग्निभयैः, भूकम्पैः, वात्याचक्र: उल्कापातादिभिश्च सन्तप्तस्य मानवस्य मङ्गलम् असम्भवम् अस्ति।
(बाढ़, अग्निभय, भूकम्प, तूफान, उल्कापात आदि से पीड़ित मानव का कल्याण असम्भव है।)

प्रश्न: 5.
विहगाः कलकूजितैः किं ददति? (पक्षी कलरव से क्या देते हैं?)
उत्तरम् :
विहगा: कलकजितैः श्रोतरसायनं ददति। (पक्षी कलरव से कर्णामत (कानों में अमत घोल) देते हैं।)

प्रश्न: 6.
प्राचीनकाले ऋषयः कुत्र निवसन्ति स्म? (प्राचीनकाल में ऋषि कहाँ रहते थे?)
उत्तरम् :
प्राचीनकाले ऋषयः वने निवसन्ति स्म। (प्राचीनकाल में ऋषि वन में रहते थे।)

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प्रश्न: 7.
ऋषयः वने किमर्थं निवसन्ति स्म? (ऋषिजन वन में क्यों रहते थे?)
उत्तरम् :
यतः वने एव सरक्षितं पर्यावरणं प्राप्नोति स्म।
(क्योंकि वन में ही सरक्षित पर्यावरण प्राप्त होता था।)

प्रश्नः 8.
नद्यः गिरिनिर्झराश्च किं प्रयच्छन्ति? (नदियाँ और पहाड़ी झरने क्या देते हैं ?)
उत्तरम् :
नद्यः गिरिनिर्झराः च मानवाय अमृतस्वादु निर्मलं जलं प्रयच्छन्ति।
(नदियाँ और पहाड़ी झरने मानव के लिए अमृत के स्वाद वाला स्वच्छ जल प्रदान करते हैं।)

प्रश्न: 9.
वृक्षाः लताश्च कानि अधिकं यच्छन्ति? (पेड़ और लताएँ क्या अधिक देते हैं?)
उत्तरम् :
वृक्षाः लताश्च फलानि, पुष्पाणि ईंधनकाष्ठानि च अधिकं यच्छन्ति।
(वृक्ष और लताएँ फल, फूल और ईंधन की लकड़ी अधिक देते हैं।)

प्रश्न: 10.
कीदृशः मानवः पर्यावरणं नाशयति?
(कैसा मानव पर्यावरण को नष्ट कर देता है?)
उत्तरम् :
स्वार्थान्धः मानवः पर्यावरणं नाशयति।
(स्वार्थ में अन्धा हुआ मानव पर्यावरण को नष्ट कर देता है।)

प्रश्न: 11.
वनेषु छिन्नेषु किं भवति?
(जंगलों के नष्ट होने पर क्या होता है?)
उत्तरम् :
वनेषु छिन्नेषु अवृष्टिः भवति। (जंगलों के नष्ट होने पर वर्षा नहीं होती है।)

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प्रश्न: 12.
वनवृक्षाणां कर्तनेन किं भवति? (वनवृक्षों के काटने से क्या होता है?)
उत्तरम् :
वनवृक्षाणां कर्तनेन अवृष्टिः भवति, शरणरहिताः वनपशवः ग्रामेषु उपद्रवं कुर्वन्ति। (वनवृक्षों के काटने से वर्षा नहीं होती है, शरणरहित जंगली पशु गाँवों में उपद्रव करते हैं।)

प्रश्न: 13.
विविधाः रोगाः कथं जायन्ते? (अनेक प्रकार के रोग कैसे पैदा होते हैं?)
उत्तरम् :
पर्यावरणे विकृतिम् उपगते विविधाः रोगाः जायन्ते। (पर्यावरण के विकृत होने पर अनेक प्रकार के रोग पैदा होते हैं।)

प्रश्न: 14.
आर्षवचनं किम्? (ऋषियों का वचन (कथन) क्या है?)
उत्तरम् :
‘धर्मोरक्षति रक्षितः’ इत्यार्षवचनम्। (सुरक्षित धर्म रक्षा करता है, यह ऋषियों का कथन है।)

रेखांकित पदान्याश्रित्य प्रश्न निर्माणं कुरुत-(रेखांकित पदों के आधार पर प्रश्नों का निर्माण कीजिए-)

प्रश्न: 1.
प्रकृतिः समेषां प्राणिनां रक्षणाय यतते। (प्रकृति सभी प्राणियों की रक्षा के लिए प्रयत्न करती है।)
उत्तरम् :
प्रकृति केषां रक्षणाय यतते? (प्रकृति किनकी रक्षा के लिए प्रयत्न करती है?)

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प्रश्न: 2.
इयं सुखसाधनैः तर्पयति। (यह सुख-साधनों से पुष्ट करती है।)
उत्तरम् :
इयं कैः तर्पयति? (यह किससे तृप्त करती है?)

प्रश्न: 3.
अजातः शिशुः मातृगर्भे सुरक्षितः तिष्ठति। (अजन्मा बच्चा माँ के गर्भ में सुरक्षित रहता है।)
उत्तरम् :
अजातशिशु कुत्र सुरक्षितः तिष्ठति? (अजन्मा शिशु कहाँ सुरक्षित रहता है?)

प्रश्न: 4.
परिष्कृतं पर्यावरणम् मांगलिक सामग्री प्रददाति। (शुद्ध पर्यावरण मांगलिक सामग्री देता है।)
उत्तरम् :
परिष्कृत पर्यावरणम् किं प्रददाति ? (शुद्ध पर्यावरण क्या देता है?)

प्रश्नः 5.
प्रकृति-प्रकोपैः आतङ्कितो जनः किमपि कर्तुं न प्रभवति? (प्रकृति के प्रकोप से आतङ्कित मनुष्य कुछ नहीं कर सकता?)
उत्तरम् :
कैः आतङ्कितः जनः किमपि कर्तुं न प्रभवति? (किनसे आतंकित मानव कुछ नहीं कर सकता?)

प्रश्न: 6.
अस्माभिः प्रकृतिः रक्षणीया। (हमें प्रकृति की रक्षा करनी चाहिए।)
उत्तरम् :
अस्माभि का रक्षणीया? (हमें किसकी रक्षा करनी चाहिए?)

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प्रश्नः 7.
सरितः अमृतस्वाद जलं प्रयच्छन्ति। (नदियाँ अमृत के समान स्वादिष्ट जल प्रदान करती हैं।)
उत्तरम् :
सरितः कीदृशं जलं प्रयच्छन्ति? (नदियाँ कैसा जल प्रदान करती हैं?)

प्रश्न: 8.
स्वल्पलाभाय जनाः बहुमूल्यानि वस्तूनि नाशयन्ति। (थोड़े से लाभ के लिए लोग बहुमूल्य वस्तुओं को नष्ट कर देते हैं।) .
उत्तरम् :
जनाः कस्मै बहुमूल्यानि वस्तूनि नाशयन्ति ? (लोग किसलिए बहुमूल्य वस्तुओं को नष्ट कर देते हैं?)

प्रश्न: 9.
यन्त्राणां विषाक्तं जलं नद्यां पतति। (यंत्रों का जहरीला जल नदी में गिरता है।) उत्तरम-केषां विषाक्तं जलं नद्यां पतति? (किनका जहरीला जल नदी में गिरता है?)

प्रश्न: 10.
नदीजलमपि अपेयं जायते। (नदी का जल भी अपेय हो जाता है।)
उत्तरम् :
नदीजलमपि कीदृशं भवति? (नदी का जल कैसा हो जाता है?)

कथाक्रम-संयोजनम्।

अधोलिखितानि वाक्यानि क्रमशः लिखित्वा कथाक्रम-संयोजनं कुरुत (निम्नलिखित वाक्यों को क्रम से लिखकर कथाक्रम-संयोजन कीजिए-)

1. प्रकृतिः अस्मभ्यं निर्मलं जलं, शुद्धवायुं, फलानि, पुष्पाणि, काष्ठानि भोज्यानि च ददाति।
2. अतः नदीजलमपेयं वायुः च प्रदूषितः जातः, अवृष्टिः भवति, वनाभावे पशवः ग्रामेषु उपद्रवं विदधति।
3. यतः स्थलचराः पृथिव्याः जलचराः च जलस्य मलापनोदनं कुर्वन्ति।
4. अस्माभिः वापीकूपतडागादिनिर्माणं करणीयं जन्तवश्च रक्षणीयाः।
5. अतः प्रकृतिरस्माभिः रक्षणीया यतः तेनैव पर्यावरणं रक्षितं भविष्यति।
6. स्वार्थान्धः मानवः पर्यावरणमद्य नाशयति वृक्षान् कर्तयति च।
7. पृथिवी, जलं, तेजो, वायुः आकाशश्च एतानि पञ्चतत्त्वानि मिलित्वा अस्माकं पर्यावरणं रचयन्ति ।
8. प्रकृतिरक्षयैव सम्भवति लोकरक्षेति न संशयः। ..
उत्तरम् :
1. पृथिवी, जलं, तेजो, वायुः आकाशश्च एतानि पञ्चतत्त्वानि मिलित्वा अस्माकं पर्यावरणं रचयन्ति।
2. अतः प्रकृतिरस्माभिः रक्षणीया यतः तेनैव पर्यावरणं रक्षितं भविष्यति।
3. प्रकृतिः अस्मभ्यं निर्मलं जलं, शुद्धवायुं, फलानि, पुष्पाणि, काष्ठानि भोज्यानि च ददाति ।
4. स्वार्थान्धः मानवः पर्यावरणमद्य नाशयति वृक्षान् कर्तयति च।
5. अत: नदीजलमपेयं वायुः च प्रदूषितः जातः, अवृष्टिः भवति, वनाभावे पशवः ग्रामेषु उपद्रवं विदधति।
6. अस्माभिः वापीकूपतडागादिनिर्माणं करणीयं जन्तवश्च रक्षणीयाः।
7. यतः स्थलचराः पृथिव्याः जलचराः च जलस्य मलापनोदनं कुर्वन्ति।
8. प्रकृतिरक्षयैव सम्भवति लोकरक्षेति न संशयः।

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योग्यताविस्तारः

(क) निम्नलिखित शब्दयुग्मों के भेद देखने योग्य हैं –
सङ्कल्पः – सत्सङ्कल्पः
आचारः – सदाचारः
जनः – सज्जनः
सङ्गतिः – सत्सङ्गतिः
मतिः – सन्मतिः

(ख) आर्षवचन-ऋषि के द्वारा कहा गया वचन (कथन) ‘आर्षवचन’ कहलाता है।
(ग) पञ्चतत्त्व-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इन पाँच तत्त्वों से ही यह शरीर बनता है।

योग्यता-विस्तार पर आधारित प्रश्नोत्तर

निम्न प्रश्नों के उत्तर हिन्दी में एक वाक्य में लिखिए –

प्रश्न 1.
निम्न शब्दों में ‘च्चि’ प्रत्यय जोड़कर सार्थक शब्द बनाइये –
स्व, ऊर, प्रमाण, अङ्ग, संघ।
उत्तर :
स्व + च्चि + कृ + ल्यप् = स्वीकृत्य (स्वीकार करके)
ऊर + च्चि + कृ + ल्यप् = ऊरीकृत्य (कहकर)
प्रमाण + च्वि प्रमाणीकृतः (प्रमाणित किया हुआ).
अङ्ग + च्चि + कृ + ल्यप् = अङ्गीकृत्य (स्वीकार करके)
संघ + च्वि + भू + क्त = संघीभूतः (इकट्ठे हुए)

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प्रश्न 2.
निम्न शब्दों से पूर्व सद्’ लगाकर पद-रचना कीजिए सङ्कल्पः, सङ्गतिः आचरणम्, मतिः, जनः।
उत्तर :
सद् + सङ्कल्पः = सत्सङ्कल्पः,
सद् + संगतिः = सत्संगतिः, सद् + आचरणम् = सदाचरणम्,
सद् + मतिः = सन्मतिः, सद् + जनः = सज्जनः।

प्रश्न 3.
आर्षवचन किसे कहते हैं?
उत्तर :
ऋषि के द्वारा कहा गया वचन (कथन) ‘आर्षवचन’ कहलाता है।

प्रश्न 4.
मानव शरीर किन पञ्चतत्त्वों से मिलकर बना है?
उत्तर :
मानव शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश, इन पाँच तत्त्वों से मिलकर बना है।
समानान्तर श्लोक व सूक्तियाँ। पर्यावरण से सम्बन्धित निम्न उक्तियाँ एवं श्लोक पढ़ने योग्य तथा याद करने योग्य हैं
चान्य ह-

हमारी संस्कृति में वृक्ष वन्दनीय हैं, इसलिए वृक्षों को काटना, उखाड़ना वर्जित है।

दशकूपसमा वापी दशवापीसमो ह्रदः।
दशहदसमः पुत्रो दशपुत्रसमो द्रुमः॥
(मत्स्य पुराणम्)

अर्थात् दस कुओं के समान एक बावड़ी है, दस बावड़ियों के समान एक तालाब है। दस तालाबों के समान एक पुत्र – है। दस पुत्रों के समान एक वृक्ष होता है।
तुलसी का पौधा भारतीय संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। न केवल धार्मिक अपितु चिकित्सा की दृष्टि से भी यह रक्षा करने योग्य है। इसीलिए घर के आँगन में इसके रोपण का महत्त्व है। पुराण और वैद्यक ग्रन्थों के अनुसार तुलसी का पौधा वायु-प्रदूषण को दूर करता है। कहा गया है –

‘तुलसी’ कानने चैव गृहे यस्यावतिष्ठते।
तद्गृहं तीर्थमित्याहुः नायान्ति यमकिङ्कराः॥
तुलसीगन्धमादाय यत्र गच्छति मारुतः।
दिशो दश पुनात्याशु भूतग्रामांश्चतुर्विधान्॥ (पद्मोत्तरखण्डम्)

अर्थात् ‘तुलसी’ (का पौधा) जंगल में और जिसके घर में भी रहता है, उस घर को तीर्थ कहते हैं, (वहाँ) यमराज के दूत नहीं आते हैं। जहाँ वायु ‘तुलसी’ (के पौधे) की गन्ध को लेकर जाती है, शीघ्र ही दसों दिशाओं, प्राणियों
और गाँवों को चारों तरफ पवित्र करती है।।
तुलसी का रस तीव्रज्वर को नष्ट करता है। कहा गया है-

पीतो मरीचिचूर्णेन तुलसीपत्रजो रसः।
द्रोणपुष्परसोप्येवं निहन्ति विषम ज्वरम्॥ (शाळ्धर)

अर्थात् कालीमिर्च के चूर्ण के साथ ‘तुलसी के पत्ते के रस का पिया जाना, इसी प्रकार ‘द्रोण पुष्प’ का रस भी विषम ज्वर को नष्ट करता है।।

वृक्षारोपण का महत्त्व –

तारयेद् वृक्षरोपी तु तस्माद् वृक्षान् प्ररोपयेत्।
तस्य पुत्रा भवन्त्येव पादपा नात्र संशयः॥

अर्थात् वृक्ष को लगाने वाला तो (वृक्ष के लगाने से) वर जाता है (मुक्ति पा जाता है।) इसलिए वृक्षों को उगाना (लगाना) चाहिए। इसमें सन्देह नहीं कि वृक्ष ही उस वृक्ष लगाने वाले) के पुत्र होते हैं।।

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समानान्तर श्लोक व सूक्तियों पर प्रश्नोत्तर

प्रश्नाः 1.
एकः वृक्षः कति कूपैः समः भवति?
(एक वृक्ष कितने कुओं के समान होता है?)
उत्तरम् :
एकः वृक्षः दशसहस्रकूपसमः भवति।
(एक वृक्ष दस हजार कुओं के बराबर होता है।)

प्रश्नाः 2.
यस्मिन् गृहे तुलसीपादपः भवति, तद्गृहं किमिव भवति?
(जिस घर में तुलसी का पौधा हो, वह घर किसकी तरह होता है?)
उत्तरम् :
यस्मिन् गृहे तुलसीपादपः भवति, तद्गृहं तीर्थवत् भवति।
(जिस घर में तुलसी का पौधा हो, वह घर तीर्थ के समान होता है।)

प्रश्नाः 3.
यमकिङ्कराः कुत्र नायान्ति?
(यम के दूत कहाँ नहीं आते?)
उत्तरम् :
यस्मिन् गृहे तुलसीपादपः भवति, तत्र यमकिङ्कराः नायान्ति।
(जिस घर में तुलसी का पौधा होता है, वहाँ यमदूत नहीं आते।)

प्रश्नाः 4.
तुलसीगन्धः किं करोति? (तुलसी की गन्ध क्या करती है?)
उत्तरम् :
तुलसीगन्धः दशदिशः पुनाति।
(तुलसी की गन्ध दसों दिशाओं को पवित्र कर देती है।)

JAC Class 9 Sanskrit Solutions Chapter 11 पर्यावरणम्

प्रश्नाः 5.
शार्ङ्गधरानुसारेण तुलसीदलस्य किमुपयोगः?
(शाङ्गधर के अनुसार तुलसीदल का क्या उपयोग है?)
उत्तरम् :
मरीचिचूर्णेन सह पीत: तुलसीपत्रजः रस: विषम ज्वरं निहन्ति।
(कालीमिर्च के चूर्ण के साथ पिया हुआ तुलसी के पत्ते का रस विषम ज्वर को नष्ट करता है।)

पर्यावरणम् Summary and Translation in Hindi

पाठ-परिचय – पर्यावरण-प्रदूषण विश्व की भयङ्कर एवं ज्वलन्त समस्या है। प्रस्तुत पाठ्यांश पर्यावरण को ध्यान में रखकर लिखा गया एक लघु निबन्ध है। वर्तमान युग में प्रदूषित वातावरण मानव-जीवन के लिए भयङ्कर अभिशाप बन गया है। नदियों का जल कलुषित हो रहा है, वन वृक्ष-विहीन हो रहे हैं, मिट्टी का कटाव बढ़ने से बाढ़ की समस्या बढ़ती जा रही है। कल-कारखानों और वाहनों के धुएँ से वायु विषैली हो रही है। वन्य-प्राणियों की जातियाँ भी दिन पर दिन नष्ट हो रही हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार वृक्षों एवं वनस्पतियों के अभाव में मनुष्यों के लिए जीवित रहना असम्भव प्रतीत होता है।

पत्र, पुष्प, फल, काष्ठ, छाया एवं औषधि प्रदान करने वाले पादपों एवं वृक्षों की उपयोगिता वर्तमान समय में पूर्वापेक्षया अधिक है। ऐसी परिस्थिति में हमारा कर्तव्य है कि हम पर्यावरण के संरक्षणार्थ उपाय करें। वृक्षारोपण, नदी-जल की स्वच्छता, ऊर्जा के संरक्षण, वापी, कूप, तड़ाग, उद्यान आदि के निर्माण और उनको स्वच्छ रखने में प्रयत्नशील हों, ताकि जीवन सुखमय एवं उपद्रवरहित हो सके।

मूलपाठः,शब्दार्याः,सप्रसंगहिन्दी अनुवादः,सप्रसंगसंस्कृत-व्यारव्याःअवबोधनकार्यम् च

1. प्रकृतिः समेषां प्राणिनां संरक्षणाय यतते। इयं सर्वान् पुष्णाति विविधैः प्रकारैः, सुखसाधनैः च तर्पयति। पृथिवी, जलम्, तेजः, वायुः, आकाशः च अस्याः प्रमुखानि तत्त्वानि। तान्येव मिलित्वा पृथक्तया वाऽस्माकं पर्यावरणं रचयन्ति। आवियते परितः समन्तात् लोकः अनेन इति पर्यावरणम्। यथा अजातश्शिशुः मातृगर्भे सुरक्षितः तिष्ठति तथैव मानवः पर्यावरणकुक्षौ। परिष्कृतं प्रदूषणरहितं च पर्यावरणम् अस्मभ्यं सांसारिक जीवनसुखं, सद्विचारं, सत्यसङ्कल्पं माङ्गलिकसामग्रीञ्च प्रददाति। प्रकृतिकोपैः आतङ्कितो जनः किं कर्तुं प्रभवति? जलप्लावनैः, अग्निभयैः, भूकम्पैः, वात्याचक्रैः, उल्कापातादिभिश्च सन्तप्तस्य मानवस्य क्व मङ्गलम्?

JAC Class 9 Sanskrit Solutions Chapter 11 पर्यावरणम्

शब्दार्थाः – प्रकृतिः = सृष्टेः पञ्चतत्त्वानि (प्रकृति), समेषाम् = सर्वेषाम् (सभी), प्राणिनाम्= जीवानां/सत्त्वानाम् (जीवधारियों की), संरक्षणाय = सम्यक् रक्षितुम् (भली-भाँति रक्षा करने के लिए), यतते = प्रयत्न/प्रयासं करोति (प्रयत्न करती है), इयम् = एषा प्रकृतिः (यह प्रकृति), सर्वान् = समेषान् (सभी को), पुष्णाति = पोषणं करोति (पोषण करती है/पुष्ट करती है), विविधैः = अनेकैः (अनेक), प्रकारैः = विधैः (प्रकार से), सुखसाधनैः = सुखस्योपकरणैः/सुखोपायैः (सुख के साधनों से), तर्पयति = तृप्तं करोति, तोषयति (तृप्त करती है), च = और, पृथिवी = भूमिः (पृथ्वी),

जलम् = तोयम् (जल), तेजः = तेजोः (तेज/अग्नि), वायुः = पवनः (वायु/हवा), आकाशः = अम्बर:/शून्यः (आकाश), च = और, अस्याः (प्रकृतेः) = एतस्याः (प्रकृतेः) (इस प्रकृति के), प्रमुखानि = मुख्यानि (मुख्य), तत्त्वानि = मूलभूतानि (तत्त्व), तान्येव = अमून्येव (वे ही तत्त्व), मिलित्वा = संघीभूतानि (मिलकर), पृथक्तया = पृथक्-पृथक् रूपेण/एकैकम् (अलग-अलग), वा = अथवा (या), अस्माकम् = अस्माकं प्राणिनाम् (हम प्राणियों का), पर्यावरणम् = वातावरणम् (वातावरण), रचयन्ति = सृजन्ति (बनाते हैं), आवियते = आवृणोति (घेरे रहता है), परितः = समन्तात् (चारों ओर से), समन्तात् = सर्वतः (सभी ओर से), लोकः अनेन = संसारः एतेन (संसार इससे), इति = एवं (इस प्रकार से),

पर्यावरणम् = वातावरणं (वातावरण है), यथा = येन प्रकारेण (जैसे/जिस प्रकार), अजातश्शिशुः = अनुत्पन्नः जातकः (अजन्मा शिशु/जिसका जन्म नहीं हुआ हो), मातृगर्भे = मातुः कुक्षौ (माँ के गर्भ में), सुरक्षितः = सम्यक् रक्षितः (सुरक्षित), तिष्ठति = विद्यते/स्थिरायति (ठहरता है), तथैव = तेनैव प्रकारेण (उसी प्रकार/वैसे ही), मानवः = मनुष्यः (मनुष्य), पर्यावरणकुक्षौ = वातावरणस्य गर्भे (पर्यावरण के गर्भ में), परिष्कृतम् = परिमार्जितम्/शुद्धीकृतम् (शुद्ध किया हुआ), प्रदूषणरहितम् = दोषरहितम् (प्रदूषण रहित), च पर्यावरणम् = च वातावरणम् (और वातावरण), अस्मभ्यम् = नः (हमारे लिए), सांसारिकम् = संसारविषयक/जगत्सम्बन्धिनम् (संसार सम्बन्धी), जीवनसुखम् = जीवितस्यानन्दम् (जीवन का सुख या आनन्द),

सद्विचारम् = उत्तमचिन्तनम् (अच्छे विचार), सत्यसङ्कल्पम् = ऋतस्य संकल्पम् (सत्य का संकल्प), माङ्गलिकसामग्री च = कल्याणकारकवस्तूनि च (और मांगलिक सामग्री), प्रददाति = प्रयच्छति/प्रदानं करोति (प्रदान करता है। देता है), प्रकृतिकोपैः = प्रकृतेः कोपैः/क्रोधैः (प्रकृति के कोपों से/नाराजी से), आतङ्कितोः = भयभीतः (डरा हुआ), जनः = मानवः (व्यक्ति), किं कर्तुं प्रभवति = किं विधातुं समर्थ:/शक्नोति (क्या कर सकता है), जलप्लावनैः = जलौघैः (बाढ़ से), अग्निभयैः = अनलप्रसारस्य प्रज्ज्वलनस्य भीतिभिः (आग लगने के डर से), भूकम्पैः = धराविचलनैः (धरती हिलने से/भूकम्पों से), वात्याचक्रः = वायुचक्रैः (आँधी/बवंडर से), उल्कापातादिभिः = तारकपतनादिभिः (उल्का गिरने आदि से), सन्तप्तस्य = सन्तापयुतस्य/पीडितस्य (तपे हुए पीड़ित), मानवस्य = मनुष्यमात्रस्य (मानव का), क्व = कुतः (कहाँ), मङ्गलम् = कल्याणं सम्भवति (भला कल्याण कैसे सम्भव है)।

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हिन्दी अनुवादः

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘पर्यावरणम्’ नामक पाठ से लिया गया है। प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश में लेखक पर्यावरण का अर्थ, महत्त्व तथा प्रदूषित पर्यावरण के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहता है-

अनुवाद – प्रकृति सभी जीवधारियों की भली-भाँति रक्षा करने के लिए प्रयत्न करती है। यह सभी का पोषण करती है तथा अनेक प्रकार के सुख के साधनों से तृप्त करती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इस प्रकृति के प्रमुख तत्त्व हैं। वे ही तत्त्व मिलकर अथवा अलग – अलग हम प्राणियों के पर्यावरण को बनाते हैं। जिससे चारों और या सभी ओर से यह लोक घिरा हुआ है, वह पर्यावरण है। जैसे अजन्मा शिशु माँ के गर्भ में सुरक्षित ठहरता (रहता) है वैसे ही मनुष्य पर्यावरण के गर्भ में (सुरक्षित) रहता है।

शुद्ध और प्रदूषण रहित वातावरण हमारे लिए संसार सम्बन्धी जीवन का सुख या आनन्द, अच्छे विचार, सत्य संकल्प और मांगलिक सामग्री प्रदान करता है। प्रकृति के कोप से भयभीत (डरा हुआ) व्यक्ति क्या कर सकता है? बाढ़ों से, आग लगने के डर से, धरती हिलने से, आँधी-तूफान से तथा उल्कापात आदि से सन्तप्त हुए मानक का कल्याण कहाँ सम्भव है?

संस्कत-व्याख्याः

सन्दर्भ: – गद्यांशोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्याः’ ‘पर्यावरणम्’ नामक पाठात् उद्धृतः अस्ति। (यह गद्यांश हमारी ‘शेमुषी’ पाठ्यपुस्तक के ‘पर्यावरणम्’ पाठ से उद्धृत है।)

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प्रसङ्गः – गद्यांशेऽस्मिन् लेखक: पर्यावरणस्य अर्थ, महत्त्वं प्रदूषितपर्यावरणस्य च मानवजीवने प्रभावं वर्णयन् कथयति
(इस गद्यांश में लेखक पर्यावरण का अर्थ, महत्व तथा प्रदूषित पर्यावरण का मानव-जीवन पर प्रभाव वर्णन करते हुए कहता है।)

व्याख्या: – प्रकृतिः सर्वान् जीवान् सम्यग् रक्षितुं प्रयासं करोति। एषा प्रकृतिः समेषां पोषणं करोति अनेकविधैः सुखोपायैः च तृप्तं करोति। भूमिः, तोयं, तेजः, पवनः आकाशः च एतस्याः प्रकृते: मुख्यानि तत्त्वानि सन्ति। अमूनि एव संघीभूतानि पृथक्-पृथक् रूपेण वा अस्माकं प्राणिनां वातावरणं सृजन्ति। आवृणोति समन्तात् सर्वतः च संसारं यत् तत् पर्यावरणम्। येन प्रकारेण अनुत्पन्न: जातक: मातुः कुक्षौ सम्यग् रक्षितः विद्यते स्थिरः वा भवति तेनैव प्रकारेण मनुष्यः वातावरणस्य गर्भे तिष्ठति। परिमार्जितं दोषरहितं च वातावरणं नः जगत्सम्बन्धिनं जीवनस्य आनन्दम्, उत्तम-चिन्तनम्, ऋतस्य संकल्पम्, कल्याणकारकाणिः वस्तूनि च प्रयच्छति।

प्रकृतेः कोपात् भयभीत: मानवः किं विधातुं समर्थः? जलौघैः, प्रज्ज्वलनस्य भीतिभिः, धराविचलनैः, वायुचक्रैः तारकपतनादिभिः सन्तापयुक्तस्य पीडितस्य मनुष्यमात्रस्य कल्याणं कुतः सम्भवति? (प्रकृति सभी प्राणियों की भलीभाँति रक्षा करने का प्रयास करती है। यह प्रकृति सभी का पोषण करती है और अनेक सुख के उपायों से सन्तुष्ट करती है। भूमि, जल, तेज (अग्नि) वायु और आकाश (रिक्त स्थान) इस प्रकृति के प्रमुख अंग हैं। ये ही इकट्ठे होकर अथवा अलग-अलग रूप में हमारे प्राणियों का वातावरण सृजित करते हैं अर्थात् बनाते हैं। जो सभी ओर से संसार को आवृत करता है अर्थात् ढकता है वह पर्यावरण है।

जिस प्रकार से अजन्मा अर्थात् जन्म से पूर्व प्राणी माँ के गर्भ में सुरक्षित रहता है अथवा स्थिर रहता है, इसी प्रकार मनुष्य वातावरण के गर्भ में रहता है। शुद्धीकृत और दोष रहित वातावरण हमें संसार सम्बन्धी जीवन का आनन्द, श्रेष्ठ चिन्तन, सत्य-संकल्प और कल्याणकारी वस्तुएँ प्रदान करता है। प्रकृति के कोप (नाराजी) से भयभीत मानव क्या करने से समर्थ है। बाढ़ों से, आग लगने के भय, भूकम्पों, आँधी-तूफानों, उल्कापातों (तारे टूटने) से समाप्त हुआ मानव मात्र का कल्याण कहाँ सम्भव है।)

अवबोधन कार्यम्

प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरत- (एक शब्द में उत्तर दीजिए-)
(क) प्राणिनां संरक्षणाय का यतते? (प्राणियों के संरक्षण के लिए कौन यत्न करती है?)
(ख) प्रकृत्याः कति तत्वानि? (प्रकृति के कितने तत्व हैं?)

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प्रश्न 2.
पूर्णवाक्येन उत्तरत – (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए-)
(क) कानि मिलित्वा अस्माकं पर्यावरणं रचयन्ति? (क्या मिलकर हमारा पर्यावरण बनाते हैं ?)
(ख) किमिदं पर्यावरणम् ? (यह पर्यावरण क्या है?)

प्रश्न 3.
यथानिर्देशम् उत्तरत-(निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-)
(क) ‘इयं सर्वान् पुष्णाति’ वाक्ये इयं सर्वनाम पदं कस्मै प्रयुक्तम्?
(इयं सर्वान् पुष्णाति’ वाक्ये इयं सर्वनाम पद किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?)
(ख) ‘रचयन्ति’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं गद्यांशात् चित्वा लिखत्।
(‘रचयन्ति’ क्रियापद का कर्तृपद गद्यांश से चुनकर लिखिए।)
उत्तराणि :
(1) (क) प्रकृतिः।
(ख) पञ्च (पाँच)।

(2) (क) पृथिवी, जलं, तेजः, वायुः आकाशः च प्रकृत्याः पञ्चतत्वानि मिलित्वा पृथक्तया वा अस्माकं पर्यावरणं रचयन्ति।
(पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये प्रकृति के पाँच तत्व मिलकर या पृथक्-पृथक् पर्यावरण की रचना करते हैं।)
(ख) आवियते परितः समन्तात् लोकः अनेन इति पर्यावरणम्। (चारों ओर से यह संसार जिनसे ढका हुआ है वह पर्यावरण है।)

(3) (क) प्रकृतिः।
(ख) प्रकृत्याः तत्वानि (प्रकृति के तत्व)।

2. अत एव अस्माभिः प्रकृतिः रक्षणीया। तेन च पर्यावरणं रक्षितं भविष्यति। प्राचीनकाले लोकमङ्गलाशसिन ऋषयो वने निवसन्ति स्म। यतो हि वने सुरक्षितं पर्यावरणमुपलभ्यते स्म। तत्र विविधा विहगाः कलकूजिश्रोत्ररसायनं ददति।
सरितो गिरिनिर्झराश्च अमृतस्वादु निर्मलं जलं प्रयच्छन्ति। वृक्षा लताश्च फलानि पुष्पाणि इन्धनकाष्ठानि च बाहुल्येन समुपहरन्ति। शीतलमन्दसुगन्धवनपवना औषधकल्पं प्राणवायु वितरन्ति।

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शब्दार्था: – अत एव = अतः (इसलिए), अस्माभिः = अस्माभिः मानवैः (हम मनुष्यों द्वारा), प्रकृतिः = प्रकृति, रक्षणीया = रक्षितव्या (रक्षा करने योग्य है/रक्षा की जानी चाहिए), तेन च = अमुना प्रकृतिरक्षणेन च (और इस प्रकृति-संरक्षण से), पर्यावरणम् = वातावरणम् (पर्यावरण), रक्षितम् = सुरक्षितं (सुरक्षित), भविष्यति = (हो जायेगा), प्राचीनकाले = पुरा/ अतीतकाले (पुराने समय में), लोकमङ्गलाशसिनः = समाजकल्याणकामाः (जनता के कल्याण को चाहने वाले), ऋषयो = मन्त्रद्रष्टारः (ऋषिजन), वने = अरण्ये/कानने (वन में),

निवसन्ति स्म = निवासम् अकुर्वन् (निवास करते थे), यतो हि = क्योंकि, वने = अरण्ये (जंगल में), सुरक्षितम् = संरक्षितम् (भली-भाँति रक्षा किया हुआ), पर्यावरणम् = वातावरणम् (पर्यावरण), उपलभ्यते स्म = प्राप्यते स्म (प्राप्त किया जाता था), तत्र = वहाँ। विविधाः = अनेकविधाः (अनेक प्रकार के), विहगाः = खगाः (पक्षी), कलकूजितै = कलरवैः कूजितैः (कलरव से), श्रोत्ररसायनम् = कर्णामृतम् (कानों को अच्छ लगने वाला रसायन), ददति = यच्छन्ति (देते हैं), सरितोः = नद्यः (नदियाँ),

गिरिनिर्झराश्च = पर्वतीयाः जलप्रपाताश्च (और पर्वतीय झरने), अमृतस्वादुः = सुधावत् स्वादिष्टम् (अमृत के समान स्वादिष्ट),निर्मलम् = विमलं/स्वच्छं (स्वच्छ), जलम् = तोयम् (जल को), प्रयच्छन्ति = ददति (देते हैं), वृक्षाः = तरवः (पेड़), लताश्च = वल्लर्यश्च (और बेलें), फलानि = स्वादूनि फलानि (स्वादिष्ट फल), पुष्पाणि = कुसमानि/सुमनानि (फूल), इन्धनकाष्ठानि च = ज्वलनदारुश्च (जलाने की लकड़ी), बाहुल्येन = प्रभूतायां मात्रायाम् (बहुत अधिक मात्रा में), समुपहरन्ति = सम्यग्रूपेण उपहारस्वरूपं यच्छन्ति (भली-भाँति भेंट स्वरूप प्रदान करते हैं),

शीतलमन्दसुगन्धवनपवनाः = शीतलाः, मन्दाः सुरभिताः च अरण्यस्य वायवः (ठंडी-ठंडी, मन्द-मन्द चलने वाली और सुगन्धित वन की वायु), औषधकल्पम् = औषधिसदृशम् (औषधि के समान), प्राणवायुः = श्वसनाय पवनम् (साँस लेने के लिए प्राणवायु), वितरन्ति = वितरणं कुर्वन्ति (वितरण करती हैं)।

हिन्दी अनुवादः

सन्दर्भ – यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘पर्यावरणम्’ नामक पाठ से लिया गया है।
प्रसंग – इस गद्यांश में लेखक प्राचीनकाल की स्थिति को प्रस्तुत कर मानव के लिए वनों अथवा प्रकृति के योगदान का वर्णन करता है क्योंकि प्रकृति ही हमारे लिए दैनिक प्रयोग की वस्तुएँ प्रदान करती है।

अनुवाद-इसलिए हम मनुष्यों को प्रकृति की रक्षा करनी चाहिए। उस (प्रकृति-रक्षण) से पर्यावरण सुरक्षित होगा। प्राचीनकाल में (पुराने समय में) जनता के कल्याण को चाहने वाले ऋषिजन वन में निवास करते थे। क्योंकि जंगल में ही भली-भाँति रक्षा किया हुआ पर्यावरण प्राप्त किया जाता था। अनेक प्रकार के पक्षी कलरव व कूजन से वहाँ अमृत के समान कानों को अच्छा लगने वाला रसायन प्रदान करते हैं।

नदियाँ और पर्वतीय झरने अमृत के समान स्वादिष्ट स्वच्छ जल देते हैं। पेड़ और बेलें फल, फूल और ईंधन की लकड़ी बहुत अधिक मात्रा में भली-भाँति भेंट स्वरूप प्रदान करते हैं। वन का शीतल, मन्द और सुगन्धित पवन (साँस लेने के लिए) प्राणवायु वितरित करता है।

संस्कत-व्याख्याः

सन्दर्भ: – गद्यांशोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्याः’ ‘पर्यावरणम्’ नामक पाठात् उद्धृतः अस्ति। (यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘पर्यावरणम्’ पाठ से उद्धृत है।)

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प्रसङ्गः – अस्मिन् गद्यांशे लेखकः प्राचीनकालस्य स्थितिं प्रस्तुत्य मानवाय वनानां प्रकृतेः वा योगदानं वर्णयति यतः प्रकृतिः एव अस्मभ्यं सर्वाणि दैनिकप्रयोगस्य वस्तूनि प्रददाति। (इस गद्यपांश में लेखक प्राचीन काल की स्थिति प्रस्तुत करके मानव के लिए वनों अथवा प्रकृति के योगदान का वर्णन करता है क्योंकि प्रकृति ही हमें सभी दैनिक प्रयोग की वस्तुएँ प्रदान करती है।)

व्याख्या – अतः प्राकृतिकतत्त्वानि अस्माभिः मानवैः सुरक्षितव्यानि सन्ति। अमुना प्रकृतिरक्षणेन च वातावरणं सुरक्षितं भविष्यति। अतीतेकाले समाजकल्याणकामाः मन्त्रद्रष्टारः ऋषयः अरण्ये एव निवासम् अकुर्वन्। यतः अरण्ये एव संरक्षितं शुद्धं वातावरणं प्राप्यते स्म। अनेकविधाः खगाः कलरवै: कूजितैश्च तस्मिन् स्थाने कर्णामृतं यच्छन्ति। नद्यः पर्वतीयाः जलप्रपाताः च सुधावत् स्वादिष्टं स्वच्छं तोयं ददति। तरवः वल्लर्यः च फलानि कुसुमानि ज्वलन दारुः च प्रभूतायां मात्रायां सम्यग्रूपेण उपहारस्वरूपं यच्छन्ति। शीतलाः, मन्दाः सुरभिताः च अरण्यस्य वायवः ओषधिसदृशं श्वसनाय पवनम् यच्छन्ति।

(अतः प्रकृतिक तत्वों की हम मनुष्यों द्वारा सुरक्षा की जानी चाहिए। इस प्रकृति की सुरक्षा से वातावरण सुरक्षित होगा। प्राचीन काल में समाज कल्याण की भावना रखने के इच्छुक मन्त्र दृष्टा ऋषियों ने वन में ही निवास किया था। क्योंकि वन में ही सुरक्षित शुद्ध वातावरण प्राप्त किया जाता है। अनेक प्रकार के पक्षी कलरवों और कूजने से जहाँ कानों के लिए अमृत प्रदान करते है। नदियाँ, पर्वत, और झरने अमृत के समान स्वादिष्ट जल प्रदान करते हैं। पेड़ और बेले फल, फूल और जलाने की लकड़ी पर्याप्त मात्रा में अच्छी तरह उपहार के रूप में (बिना मूल्य के) देती है। शीतल, मन्द और सुगन्धित वन की हवा औषधि के समान साँस लेने के लिए हवा देती हैं।)

अवबोधन कार्यम्

प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरत – (एक शब्द में उत्तर दीजिए-)
(क) अस्माभिः का रक्षणीया? (हमें किसकी रक्षा करनी चाहिए?)
(ख) ऋषयः कुत्र निवसन्ति स्म? (ऋषि लोग कहाँ रहते थे?)

प्रश्न 2.
पूर्णवाक्येन उत्तरत- (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए-)
(क) ऋषयः वने कस्मात् निवसन्ति स्म? (ऋषि वन में क्यों रहते थे?)
(ख) प्राणवायुं के वितरन्ति? (प्राणवायु का वितरण कौन करते हैं?)

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प्रश्न 3.
यथानिर्देशम् उत्तरत-(निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-)
(क) ‘औषधकल्पं प्राणवायुम्’ अत्र विशेषणपदं किम्?
(‘औषधकल्पं प्राणवायुम्’ यहाँ विशेषण पद क्या है?)
(ख) “वितरन्ति’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं गद्यांशात् चित्वा लिखत।
(‘वितरन्ति’ क्रियापद का कर्तृपद गद्यांश से चुनकर लिखिए।)
उत्तराणि :
(1) (क) प्रकृतिः।
(ख) वने।

(2) (क) यतो हि वने सुरक्षितं पर्यावरणमुपलभ्यते स्म। (क्योंकि वन में सुरक्षित पर्यावरण प्राप्त होता था।)
(ख) शीतलमन्द सुगन्धपवनाः औषध कल्पं प्राणवायुं वितरन्ति। (शीतल-मन्द-सुगन्धित पवन औषध के समान प्राणवायु का वितरण करती है।)

(3) (क) औषधकल्पम् (औषधि के समान)।
(ख) पवनाः (हवायें)।

3. परन्तु स्वार्थान्धो मानवः तदेव पर्यावरणम् अद्य नाशयति। स्वल्पलाभाय जना बहुमूल्यानि वस्तूनि नाशयन्ति। जनाः यन्त्रागाराणां विषाक्तं जलं नद्यां निपातयन्ति। तेन मत्स्यादीनां जलचराणां च क्षणेनैव नाशो भवति। नदीजलमपि तत्सर्वथाऽपेयं जायते। मानवाः व्यापारवर्धनाय वनवृक्षान् निर्विवेकं छिन्दन्ति। तस्मात् अवृष्टिः प्रवर्धते, वनपशवश्च शरणरहिता ग्रामेषु उपद्रवं विदधति। शुद्धवायुरपि वृक्षकर्तनात् सङ्कटापन्नो जायते। एवं हि स्वार्थान्धमानवैः विकृतिम् उपगता प्रकृतिः एव सर्वेषां विनाशकी भवति। विकृतिमुपगते पर्यावरणे विविधाः रोगाः भीषणसमस्याश्च सम्भवन्ति। तत्सर्वमिदानी चिन्तनीयं प्रतिभाति।

शब्दार्थाः – परन्तु = परञ्च (लेकिन), स्वार्थान्धोः = स्वार्थेन दृष्टिहीनः (मतलब में अन्धा हुआ), मानवः तदेव = मनुष्यः तत् एव (मनुष्य उसी), पर्यावरणम् अद्य = वातावरणम् अधुना (पर्यावरण को आज), नाशयति = विनष्टं करोति (नष्ट कर रहा है), स्वल्पलाभाय = अत्यल्पमात्रायां हिताय (बहुत थोड़ी मात्रा में लाभ के लिए), जनाः = लोकाः/मनुष्याः (मनुष्य), बहुमूल्यानि = महार्हाणि (अत्यधिक कीमती), वस्तूनि = उपकरणानि (चीजों को), नाशयन्ति = नष्टं कुर्वन्ति (नष्ट कर देते हैं),

जनाः = लोग, यन्त्रागाराणाम् = यन्त्रालयानां/कलालयानाम् (कारखानों का), विषाक्तं जलम् = विषयुक्त/सविषं वारि (जहरीला जल), नद्याम् = सरिति (नदी में), निपातयन्ति = क्षिप्यन्ति (डाल दिए जाते हैं), तेन = जिससे, मत्स्यादीनाम् = मीनादीनाम् (मछली आदि का), जलचराणाम् = जल-जन्तूनाम् (जल में रहने वाले जीवों का), च = ओर, क्षणेनैव = क्षणमात्रेण एव (एक क्षण में ही), नाशो भवति = विनाशः जायते (नाश हो जाता है), नदीजलमपि = अपि (नदी का जल भी), तत्सर्वथा = पूर्णरूपेण (पूरी तरह), अपेयम् = पातुम् अयोग्यम् (न पीने योग्य), जायते = भवति (हो जाता है), मानवाः = मनुष्य,

व्यापारवर्धनाय = वाणिज्यवृद्ध्यर्थम् (व्यापार वृद्धि के लिए/व्यापार बढ़ाने के लिए), वनवृक्षान्ः = अरण्यस्य तरवः (जंगल के पेड़), निर्विवेकम् = विवेकं विस्मृत्य (विवेकरहित होकर/बिना विचारे), छिन्दन्ति = उच्छेद्यन्ति (काट दिये जाते हैं), तस्मात् = तस्मात (जिसकी वजह से), अवृष्टिः = अनावृष्टिः (वर्षा का न होना), प्रवर्धते = वृद्धि याति (बढ़ता है), वनपशवश्च = वनवासिनः पशवः च (और जगली पशु), शरणरहिताः अशरणाः (बिना शरण के),

ग्रामेषु = वासेषु/वस्तिषु (गाँवों में), उपद्रवम् = विघ्नं/विप्लवं (उपद्रव), विदधति = कुर्वन्ति (करते हैं), शुद्धवायुरपि = स्वच्छः पवनः अपि (स्वच्छ हवा भी), वृक्षकर्तनात् = वृक्षाणाम् उच्छेदनात् (पेड़ों के काटने से), सङ्कटापन्नो जायतेः = आपद्ग्रस्तः भूतः (संकट में पड़ जाती है/आपत्तिग्रस्त हो जाती है), एवम् हि = अनेन प्रकारेण एव (इस प्रकार से ही), स्वार्थान्धमानवैः = स्वार्थेन अन्धीभूतैः मनुष्यैः (मतलब में अन्धे हुए मनुष्यों द्वारा), विकृतिम् = विकारं (विकार को), उपगता = प्राप्ता (प्राप्त हुई), प्रकृतिः एव = प्रकृतिव (प्रकृति ही), सर्वेषाम् = अमीषाम् (उनकी),

विनाशकी = विनाशिका (विनाश करने वाली), भवति = सञ्जात (हो गई), विकृतिमुपगते = विकारे प्राप्ते (विकृत होने पर), पर्यावरणे = वातावरणे (पर्यावरण के), विविधाः = अनेके (अनेक), रोगाः = पीडाः/कायक्लेशाः (बीमारियाँ), भीषणसमस्याश्च = भयंकर समस्याः च (और भयंकर समस्याएँ), सम्भवन्ति = भवन्ति/प्रादुर्भवन्ति (पैदा हो जाती हैं), तत्सर्वम् = अदः सर्वम् (वह सभी), इदानीम् = अधुना (अब), चिन्तनीयम् = चिन्तायाः विषयः (चिन्ता का विषय), प्रतिभाति = ज्ञायते (लगता है)।

JAC Class 9 Sanskrit Solutions Chapter 11 पर्यावरणम्

हिन्दी अनुवादः

सन्दर्भ-यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘पर्यावरणम्’ नामक पाठ से लिया गया है। – प्रसंग-इस गद्यांश में लेखक मानव की स्वार्थपरता को प्रस्तुत करके प्रदूषण के दुष्परिणाम का वर्णन करते हुए विकृत प्रकृति के विषय में कहता है।

अनुवाद – लेकिन मतलब में अन्धा हुआ मनुष्य आज उसी पर्यावरण को नष्ट कर रहा है। बहुत थोड़े लाभ के लिए मनुष्य अत्यधिक कीमती चीजों को नष्ट कर देते हैं। कारखानों का जहरीला पानी नदी में डाल (फेंक) दिया जाता है जिससे जल में रहने वाले मछली आदि जीवों का एक क्षण में ही नाश हो जाता है। नदी का जल भी पूरी तरह से न पीने योग्य हो जाता है।

जंगल के पेड़ बिना बिचारे (अविवेकपूर्ण) व्यापार बढ़ाने के लिए काट दिये जाते हैं। जिसकी वजह से वर्षा का न होना बढ़ता है। शरणहीन जंगली पशु गाँवों में उपद्रव करते हैं। स्वच्छ वायु भी वृक्षों के काटने से आपत्तिग्रस्त हो जाती है। इस प्रकार मतलब में अन्धे हुए मनुष्यों द्वारा विकृति को प्राप्त हुई यह प्रकृति उनकी विनाशिका (विनाश करने वाली) हो गई है। पर्यावरण के विकृत हो जाने पर विविध रोग, विकार और भयंकर समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। अब यह सब चिन्ता का विषय ज्ञात होता है।

संस्कत-व्यारव्याः

सन्दर्भः – गद्यांशोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्याः’ ‘पर्यावरणम्’ नामक पाठात् उद्धृतः अस्ति। (यह गद्यांश हमारी ‘शेमुषी’ पाठ्यपुस्तक के ‘पर्यावरणम्’ पाठ से उद्धृत है।

प्रसंग: – गद्यांशेऽस्मिन् लेखकः मानवस्य स्वार्थपरतां प्रस्तूय प्रदूषणस. दुष्परिणामं वर्णयन् विकृतप्रकृतिविषये कथयति। (इस गद्यांश में लेखक मनुष्य की स्वार्थपरता को प्रस्तुत करके प्रदूषण के दुष्परिणाम का वर्णन करता हुआ विकृत प्रकृति के विषय में कहता है।)

व्याख्या: – परञ्च स्वार्थेन दृष्टिहीनः मनुष्यः तदेव वातावरणं (प्रकृतेः सन्तुलनं) विनष्टं करोति। अल्पमात्राय स्वहिताय मनुष्याः महार्हाणि वस्तूनि नष्टं कुर्वन्ति। कलालयानां सविषं वारि सरिति क्षिप्यते यस्मात् कारणात् मीनादीनां जलजन्तूनां क्षणमात्रेणैव विनाशो भवति। सरितः वारि अपि पूर्णरूपेण पातुमयोग्यम् भवति। अरण्यतरवः विवेकं विस्मृत्य वाणिज्यवृद्धये उच्छेद्यन्ते यस्मात् अनावृष्टिः वृद्धिं याति, अशरणाः वनवासिनः पशवः वस्तिषु विघ्नं विप्लवं वा कुर्वन्ति। स्वच्छः पवनोऽपि वृक्षाणाम् उच्छेदनात् आपद्ग्रस्तो भूतः। अनेन प्रकारेण स्वार्थेऽन्धीभूतैः जनैर्विकारमुपगता प्रकृतिरेव अमीषां विनाशिका अभवत्।

वातावरणे विकारे प्राप्ते अनेके कायक्लेशाः भयङ्करसमस्याः च प्रादुर्भवन्ति। सर्वमदः अधुना चिन्तायाः विषयः ज्ञायते। (परन्तु स्वार्थ से अन्धा हुआ मनुष्य उसी वातावरण (प्राकृतिक सन्तुलन) को नष्ट करता है। थोड़े से अपने मतलब के लिए मनुष्य मूल्यवान् वस्तुओं को नष्ट कर देते हैं? कारखानों का जहरीला पानी नदियों में डाला जाता है, जिसके कारण मछली आदि जल के जीवों का क्षण मात्र में विनाश हो जाता है। नदियों में पानी भी पूरी तरह से पीने के अयोग्य हो जाता है।

जंगल के पेड़ विवेक को भूलकर अर्थात् बिना विचारे व्यापार बढ़ाने के लिए काट दिये जाते हैं, जिससे वर्षा नहीं होती है। शरण के अभाव में जंगली पशु बस्तियों में विघ्न या उपद्रव करते हैं। स्वच्छ हवा भी वृक्षों के काटने से आपद् ग्रस्त हो जाती है। इस प्रकार से स्वार्थ में अन्धे हुए लोगों के द्वारा विकार को प्राप्त हुई प्रकृति ही इनकी विनाशक हो गई। वातावरण में विकार (दोष) होने पर अनेक शारीरिक कष्ट और भयंकर समस्यायें पैदा हो जाती हैं। यह सब चिन्ता का विषय हो जाता है।

JAC Class 9 Sanskrit Solutions Chapter 11 पर्यावरणम्

अवबोधन कार्यम्

प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरत- (एक शब्द में उत्तर दीजिए-)
(क) कीदृशः मानवः पर्यावरणं नाशयति? (कैसा मानव पर्यावरण का नाश करता है?)
(ख) विकृतिम् उपगता प्रकृतिः कीदृशी भवति? (विकृत हुई प्रकृति कैसी हो जाती है?)

प्रश्न 2.
पूर्णवाक्येन उत्तरत- (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए-)
(क) विकृतिमुपगते पर्यावरणे किं भवति? (पर्यावरण विकृत होने पर क्या होता है?)
(ख) जलचराणां नाशः कथं भवति? (जलचरों का नाश कैसे होता है?)

प्रश्न 3.
यथानिर्देशम् उत्तरत-(निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-)
(क) ‘अमृतमयम्’ इति पदस्य विलोमार्थकं पदं गद्यांशात् चित्वा लिखत।
(‘अमृतमयम्’ पद का विलोम गद्यांश से चुनकर लिखिए।)
(ख) ‘तस्मात् अवृष्टिः प्रवर्धते’ अत्र ‘तस्मात्’ इति सर्वनामपदं कस्य स्थाने प्रयुक्तम् ?
(तस्मात् अवृष्टिः प्रवर्धते’ यहाँ ‘तस्मात्’ सर्वनाम पद किसके स्थान पर प्रयोग हुआ है?)
उत्तराणि :
(1) (क) स्वार्थान्धः (स्वार्थ में अन्धा)।
(ख) विनाशकी (विनाशकारी)।

(2) (क) विकृतिम् उपगते पर्यावरणे विविधारोगाः भीषण समस्याः च सम्भवन्ति। (पर्यावरण के विकृत हो जाने पर विविध रोग तथा भीषण समस्या सम्भव होती हैं।)
(ख) यन्त्रागाराणां विषाक्तं जलं नद्यां निपातयन्ति तेन मत्स्यादीनां जलचराणां च क्षणेन एव नाशः भवन्ति। (कारखानों के विषैले जल कोनदियों में गिराने से उससे मछली आदि जलचर क्षणभर में नष्ट (मर) जाते हैं।)

(3) (क) विषाक्तम् (जहरीला)।
(ख) वृक्षकर्तनात्/वृक्षच्छेदनात् (वृक्ष काटने से)।

4. धर्मो रक्षति रक्षितः इत्यार्षवचनम्। पर्यावरणरक्षणमपि धर्मस्यैवाङ्गमिति ऋषयः प्रतिपादितवन्तः। अत एव वापीकूपतडागादिनिर्माणं देवायतन-विश्रामगृहादिस्थापनञ्च धर्मसिद्धेः स्रोतो रूपेण अङ्गीकृतम्। कुक्कुर-सूकर-सर्प-नकुलादि स्थलचराः, मत्स्य-कच्छप-मकरप्रभृतयः जलचराश्च अपि रक्षणीयाः, यतः ते स्थलमलानाम अपनोदिनः जलमलानाम् अपहारिणश्च। प्रकृतिरक्षया एव लोकरक्षा सम्भवति इत्यत्र नास्ति संशयः।

शब्दार्थाः – धर्मः = शास्त्रोक्तः निर्देशः (शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट कर्त्तव्य), रक्षति = रक्षां करोति (रक्षा करता है), रक्षितः । = सुरक्षितः (रक्षा किया हुआ/सुरक्षित), इत्यार्षवचनम् = इति आर्षवचनम् = इति ऋषीणां प्रामाणिक वाक्यम् (यह ऋषियों … द्वारा कहा हुआ प्रामाणिक वचन है), पर्यावरणरक्षणमपि = पर्यावरणस्य संरक्षा अपि (पर्यावरण की रक्षा करना भी), धर्मस्यैवाङमस्ति = धर्मस्य एव भागम् अस्ति (धर्म का ही एक अंग है), इति = एवं (इस प्रकार),

ऋषयः = मन्त्रद्रष्टारः (मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने), प्रतिपादितवन्तः = प्रतिष्ठापितवन्तः (प्रतिपादित किया है), अत एव = अस्मात् कारणाद् एव (इसीलिए), वापीकूपतडागादिनिर्माणम् = ससोपानलघुजलाशयानां, कूपानां सरोवराणां च निर्माणकार्यम् (सीढ़ियों समेत छोटे जलाशय/बावड़ी, कुआँ, तालाब आदि का निर्माण-कार्य), देवायतनम् = देवालयःमन्दिरम् (देवालय/मन्दिर), विश्रामगृह = विश्रान्तिस्थलम् (विश्रामघर), आदि = आदीनाम् (आदि का), स्थापनञ्च = निर्माणं च (स्थापित करना या बनाना),

धर्मसिद्धेः = धर्मस्य साधनरूपेण (धर्म की सिद्धि के), स्रोतोरूपेणः = आगमस्थलरूपेण (स्रोत के रूप में), अङ्गीकृतम् = स्वीकृतम् (स्वीकार किये गये), कुक्कुरः = सारमेयः (कुत्ता), सूकरः = वराहः (सूअर), सर्पः = अहिः (साँप), नकुलः = (नेवला), आदि = आदयः (आदि), स्थलचराः = धरायां चरन्तः (थलचर), मत्स्यः = मीनः (मछली), कच्छपः = कूर्मः (कछुआ), मकरः = ग्राहः (मगरमच्छ), प्रभृतयः = आदयः (आदि), जलचराश्च असि = जल-जन्तवः च अपि (और जल के जीव भी), रक्षणीयाः = रक्षितव्याः (रक्षा करने योग्य हैं/रक्षा की जानी चाहिए), यतः ते = यतोऽमी (क्योंकि वे),

स्थलमलानाम् अपनो दिनः = भूमिमलानाम् अपसारिणः (धरती की गन्दगी को दूर करने वाले), जलमलापनाम् अपहारिणश्च = उदकमलापसारिणः च (और पानी की गन्दगी को दूर करने वाले होते हैं), प्रकृतिरक्षया = प्रकृति रक्षणेन एव प्रकृति की रक्षा करने से ही), लोकरक्षा = लोकानां सुरक्षा (लोगों की सुरक्षा), सम्भवति = शक्या भवति (सम्भव होती है), इत्यत्र = यहाँ इसमें। न संशयः = न सन्देहः (सन्देह नहीं)। हिन्दी अनुवादः

सन्दर्भ – यह गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘पर्यावरणम्’ नामक पाठ से लिया गया है।

प्रसंग – इस गद्यांश में लेखक पर्यावरण-रक्षण को धर्म के अंग के रूप में ही वर्णन करते हुए थलचरों और जलचरों के रक्षण को भी धर्म के ही रूप में प्रतिपादित करता है।

अनुवाद – रक्षा किया हुआ धर्म (लोक की) रक्षा करता है, यह ऋषियों का प्रामाणिक वचन है। पर्यावरण की रक्षा करना भी धर्म का ही एक अंग है। ऐसा मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने प्रतिपादित किया है। इसलिए बावड़ी, कुआँ, तालाब आदि का निर्माण, देवालय (मन्दिर) विश्राम घर आदि को स्थापित करना या बनाना धर्म की सिद्धि के स्रोत के रूप में स्वीकार किये गये हैं। कुत्ता, सूअर, साँप, नेवला आदि थलचर, मछली, कछुआ, मगरमच्छ आदि जल के जीव भी रक्षा करने योग्य हैं। . क्योंकि वे धरती की गन्दगी को दूर करने वाले और पानी की गन्दगी को दूर करने वाले होते हैं। धरती की रक्षा करने से ही लोगों की रक्षा सम्भव है, इसमें सन्देह नहीं।

संस्कत-व्याख्याः

JAC Class 9 Sanskrit Solutions Chapter 11 पर्यावरणम्

सन्दर्भ: – गद्यांशोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्याः’ ‘पर्यावरणम्’ नामक पाठात् उद्धृतः अस्ति। (यह गद्यांश हमारी ‘शेमुषी’ पाठ्यपुस्तक के ‘पर्यावरणम्’ पाठ से उद्धृत है।)

प्रसंग:-गद्यांशेऽस्मिन् लेखकः पर्यावरणरक्षणं धर्मस्य अङ्गरूपेण वर्णयन् थलचराणां जलचराणां च रक्षणमपि धर्मस्यैव अङ्गरूपेण प्रतिपादयति। (इस गद्यांश में लेखक पर्यावरण संरक्षण को धर्म का अंग बताते हुए थलचर और जलचरों के संरक्षण को भी धर्म का अंग प्रतिपादित करता है।)

व्याख्या: – सुरक्षितः धर्म: लोकान् रक्षति, इति ऋषीणां प्रामाणिकं वचनम्। पर्यावरणस्य रक्षा अपि धर्मस्य एव अङ्गम् अस्ति। इति मन्त्रद्रष्टारः ऋषिजनाः प्रतिष्ठापितवन्तः। तस्मात् एव कारणात् ससोपानलघुजलाशयानां, कूपानां सरोवराणां च निर्माणकार्य, देवालयानां, विश्रामस्थालानाम् इत्यादीनां निर्माणं धर्मसाधनस्य आगमस्थलरूपेण अङ्गीकृतम्। सारमेयशूकर सर्पनकुलादयः धरायामचरन्तः मीन-कूर्म-ग्राह-आदयः जलजन्तवश्चापि रक्षितव्याः यतोऽमी भूमिमलापसारिण: उदकमला पसारिणश्च (सन्ति)। भूमेः रक्षणेन एव लोकानां सुरक्षा शक्या भवति इति, नात्र सन्देहः।

(‘सुरक्षित धर्म लोकों की रक्षा करता है, यह ऋषियों का प्रमाणित वचन है। पर्यावरण की रक्षा करना भी एक धर्म का ही अंग है। ऐसा मन्त्रदृष्टा ऋषिजनों ने प्रतिपादित किया है। इसी कारण से बावड़ी, कुआँ और तालाबों का निर्माण-कार्य देवालयों (मन्दिरों), धर्मशाला आदि का निर्माण धर्म की सिद्धि के स्रोत स्वीकार किये गये हैं। कत्ता, शकर, साँप, नेवला आदि धरती पर विचरण करते हुए, मछली, कछुआ, मगरमच्छ आदि जल-जन्तु आदि की भी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि ये भूमि के मल (गंदगी) को हटाकर गंदगी को दूर करने वाले होते है। भूमि के संरक्षण से ही लोगों की सुरक्षा सम्भव हो सकती है, इसमें कोई सन्देह नहीं।)

अवबोधन कार्यम्

प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरत- (एक शब्द में उत्तर दीजिए-)
(क) ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ इति कीदृशं वचनम्? (‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ यह कैसा वचन है?) .
(ख) धर्मस्यैक अंगं किं प्रोक्तम् ? (धर्म का एक अंग क्या कहा गया है?)

प्रश्न 2.
पूर्णवाक्येन उत्तरत- (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए-)
(क) धर्मसिद्धेः स्रोतोरूपेण किं स्वीकृतम् ? (धर्म-स्रोत के रूप में किसे स्वीकार किया गया है?)
(ख) प्रकृति रक्षया किं सम्भवति? (प्रकृति की रक्षा से क्या सम्भव है?)

JAC Class 9 Sanskrit Solutions Chapter 11 पर्यावरणम्

प्रश्न 3.
यथानिर्देशम् उत्तरत-(निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-).
(क) ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ इत्येन पदेषु किं क्रियापदम्?
(‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ इनमें से क्रिया पद क्या है?)
(ख) ‘जलचराश्चापि रक्षणीया’ वाक्ये किं पदं अव्ययपदम्?
(‘जलचराश्चापि रक्षणीया’ वाक्य में कौनसा पद अव्यय है?)
उत्तराणि
(1) (क) आर्षवचनम् (ऋषि प्रयुक्त)।
(ख) पर्यावरणरक्षणम् (पर्यावरण का संरक्षण)।

(2) (क) वापी-कूप-तडागादि निर्माणं देवायतन-विश्रामगृहादिस्थापनाञ्च धर्मसिद्धेः स्रोतोरूपेण अङ्गीकृतम्।
(बाबड़ी, कुआ, तालाब आदि का निर्माण, मन्दिर, धर्मशाला आदि की स्थापना धर्म-सिद्धि के स्रोत के रूप में स्वीकार किये गये हैं।)
(ख) प्रकृतिरक्षया एव लोकरक्षा सम्भवति। (प्रकृति की रक्षा से ही लोकरक्षा सम्भव है।)

(3) (क) रक्षति (रक्षा करता है)।
(ख) अपि (भी)।

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