Jharkhand Board JAC Class 9 Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 12 वाङ्मनः प्राणस्वरूपम् Textbook Exercise Questions and Answers.
JAC Board Class 9th Sanskrit Solutions Shemushi Chapter 12 वाङ्मनः प्राणस्वरूपम्
JAC Class 9th Sanskrit वाङ्मनः प्राणस्वरूपम् Textbook Questions and Answers
1. एकपदेन उत्तरं लिखत-(एक पद में उत्तर लिखिये-)
(क) अन्नस्य कीदृशः भागः मनः? (अन्न का कैसा भाग मन है?)
उत्तरम् :
अणिष्ठ। (सूक्ष्मतम।)
(ख) मथ्यमानस्य दनः अणिष्ठः भागः किम् भवति? (मथे जाते हुए दही का सूक्ष्म भाग क्या होता है?)
उत्तरम् :
सर्पिः। (घी।)
(ग) मनः कीदृशं भवति? (मन कैसा होता है?)
उत्तरम् :
अन्नमयम्। (अन्नमय।)
(घ) तेजोमयी का भवति? (तेजोमयी क्या होती है?)
उत्तरम् :
वाक्। (वाणी।)
(ङ) पाठेऽस्मिन् आरुणिः कम् उपदिशति? (इस पाठ में आरुणि किसे उपदेश देता है?)
उत्तरम् :
श्वेतकेतुम्। (श्वेतकेतु को।)
(च) “वत्स! चिरञ्जीव” – इति कः वदति? (बेटा चिरायु हो-ऐसा कौन कहता है?)
उत्तरम् :
आरुणि। (आरुणि।)
(छ) अयं पाठः कस्मात् उपनिषदः संगृहीतः? (यह पाठ किस उपनिषद से लिया गया है?)
उत्तरम् :
छान्दोग्योपनिषदः। (छान्दोग्य उपनिषद से।)
2. अधोलिखितानां प्रश्नानामुत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत – (निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत भाषा में लिखिए-)
(क) श्वेतकेतुः सर्वप्रथमम् आरुणिं कस्य स्वरूपस्य विषये पृच्छति? (श्वेतकेतु सबसे पहले आरुणि से किसके स्वरूप के विषय में पूछता है?)
उत्तरम् :
श्वेतकेतुः सर्वप्रथमम् आरुणिं मनसः स्वरूपस्य विषये पृच्छति। (श्वेतकेतु सबसे पहले आरुणि से ‘मन’ के स्वरूप के विषय में पूछता है।)
(ख) आरुणिः प्राणस्वरूपं कथं निरूपयति? (आरुणि प्राण के स्वरूप की कैसे व्याख्या करता है?)
उत्तरम् :
आरुणिः प्राणस्वरूपं निरूपयति यत् पीतानामपां योऽणिष्ठः स प्राणः। (आरुणि प्राण के स्वरूप की व्याख्या करता है कि पिये हुए पानी का जो लघुतम भाग होता है, वह प्राण है।)
(ग) मानवानां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति? (मनुष्यों के चित्त कैसे होते हैं?)
उत्तरम् :
मानवाः यादृशमन्नादिकं गृह्णन्ति, तादृशमेव तेषां चेतांसि भवन्ति। (मनुष्य जैसा अन्न आदि ग्रहण करते हैं, वैसे ही उनके मन हो जाते हैं।)
(घ) सर्पिः किं भवति? (घी क्या होता है?)
उत्तरम् :
मथ्यमानस्य दनः योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति, तत्सर्पिः भवति। (मथे जाते हुए दही की जो सूक्ष्मता है, वह ऊपर की ओर उछलती है, वह घी होता है।)
(ङ) आरुणे: मतानुसारं मनः कीदृशं भवति? (आरुणि के मतानुसार मन कैसा होता है?)
उत्तरम् :
आरुणेः मतानुसारम् अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठः, तन्मनः भवति।
(आरुणि के मतानुसार खाये हुए अन्न.का जो लघुतम भाग होता है, वह मन होता है।)
3. (क) ‘अ’ स्तम्भस्य पदानि ‘ब’ स्तम्भेन दत्तैः पदैः सह यथायोग्यं योजयत ‘अ’ स्तम्भ के पदों को ‘ब’ स्तम्भ में दिये पदों के साथ यथायोग्य जोड़िये-)
अ – ब
मनः – अन्नमयम्
प्राणः – तेजोमयी
वाक् – आपोमयः
उत्तरम् :
अ – ब
मनः – अन्नमयम्
प्राणः – आपोमयः
वाक् – तेजोमयी
(ख) अधोलिखितानां पदानां विलोमपदं पाठात् चित्वा लिखत –
(निम्नलिखित शब्दों के विलोम पद पाठ से चुनकर लिखिए-)
(i) गरिष्ठः ………………
(ii) अधः …………….
(iii) एकवारम् …………
(iv) अनवधीतम् ………..
(v) किञ्चित् ………….
उत्तरम् :
पदम् – विलोमपदम्
(i) गरिष्ठः – अणिष्ठः
(ii) अधः – ऊर्ध्वः
(iii) एकवारम् – भूयः
(iv) अनवधीतम् अधीतम्
(v) किञ्चित् – सर्वम्
4. उदाहरणमनुसृत्य निम्नलिखितेषु क्रियापदेषु ‘तुमुन्’ प्रत्ययं योजयित्वा पदनिर्माणं कुरुत –
(उदाहरण का अनुसरण करके निम्नलिखित क्रियाओं में ‘तुमुन्’ प्रत्यय जोड़कर पद-निर्माण कीजिए-)
यथा- प्रच्छ् + तुमुन् = प्रष्टुम्
(क) श्रु + तुमुन् = …………….
(ख) वन्द् + तुमुन् = …………
(ग) पठ् + तुमुन् = …………..
(घ) कृ + तुमुन् = …………
(ङ) वि + ज्ञा + तुमुन् = ………
(च) वि + आ + ख्या + तुमुन् = …………..
उत्तरम् :
(क) श्रु’ + तुमुन् = श्रोतुम्
(ख) वन्द् + तुमुन् = वन्दितुम्
(ग) पठ् + तुमुन् = पठितुम्
(घ) कृ + तुमुन् = कर्तुम्
(ङ) वि + ज्ञा + तुमुन् = विज्ञातुम् ।
(च) वि + आ + ख्या + तुमुन् = व्याख्यातुम्
5. (अ) निर्देशानुसारं रिक्तस्थानानि पूरयत
(निर्देश के अनुसार रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए-)
(क) अहं किञ्चित् प्रष्टुम् ………।
(इच्छ्-लट् लकारे)
(ख) मनः अन्नमयं ………….।
(भू-लट् लकारे)
(ग) सावधानं …………..।
(श्रु-लोट् लकारे)
(घ) तेजस्विनावधीतम् ………….।
(अस्-लोट्लकारे)
(ङ) श्वेतकेतुः आरुणेः शिष्यः …………। (अस्-लङ् लकारे)
उत्तरम् :
(क) इच्छामि
(ख) भवति
(ग) शृणु
(घ) अस्तु
(ङ) आसीत्।
(आ) उदाहरणमनुसृत्य वाक्यानि रचयत- (उदाहरण के अनुसार वाक्य-रचना कीजिए-)
यथा – अहं स्वदेशं सेवितुम् इच्छामि।
(क)……………. उपदिशामि।
(ख) …………. प्रणमामि।
(ग) ………………आज्ञापयामि।
(घ) …………………. पृच्छामि।
(ङ) ……………… अवगच्छामि।
उत्तरम् :
(क) अहं छात्रान् उपदिशामि।
(ख) अहम् आचार्य प्रणमामि।
(ग) अहं शिष्यं पाठं स्मर्तुम् आज्ञापयामि।
(घ) अहं छात्रं प्रश्नं पृच्छामि।
(ङ) अहं सर्वम् अवगच्छामि।
6. (अ) सन्धिं कुरुत- (सन्धि करो-)
(i) अशितस्य + अन्नस्य = ……………
(ii) इति + अपि + अवधार्यम् = …………
(ii) का + इयम् = ……………..
(iv) नौं + अधीतम् = …………….
(v) भवति + इति = ……………
उत्तरम् :
(i) अशितस्य + अन्नस्य = अशितस्यान्नस्य
(ii) इति + अपि + अवधार्यम् = इत्यप्यवधार्यम्
(iii) का + इयम् = केयम्
(iv) नौ + अधीतम् = नावधीतम्
(v) भवति + इति = भवतीति
(आ) स्थूलपदान्यधिकृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत- (मोटे छपे पदों को लेकर प्रश्न निर्माण कीजिए-)
(i) मध्यमानस्य दनः अणिमा ऊर्ध्वः समुदीषति। (मथे जाते हुए दही की अणिमा ऊपर को उछलती है)
उत्तरम् :
कीदृशस्य दनः अणिमा ऊर्ध्वः समुदीषति? (कैसे दही की अणिमा ऊपर उछलती है?)
(ii) भवता घृतोत्पत्तिरहस्यं व्याख्यातम्। (आपने घृत की उत्पत्ति के रहस्य की व्याख्या की।)
उत्तरम् :
केन घृतोत्पत्तिरहस्यं व्याख्यातम्? (किसके द्वारा घी की उत्पत्ति के रहस्य की व्याख्या की गई?)
(iii) आरुणिम् उपगम्य श्वेतकेतुः अभिवादयति। (आरुणि के पास जाकर श्वेतकेतु अभिवादन करता है।)
उत्तरम् :
आरुणिम् उपगम्य कः अभिवादयति? (आरुणि के पास जाकर कौन अभिवादन करता है?)
(iv) श्वेतकेतुः वाग्विषये पृच्छति। (श्वेतकेतु वाणी के विषय में पूछता है)
उत्तरम् :
श्वेतकेतुः कस्य विषये पृच्छति ? (श्वेतकेतु किसके विषय में पूछता है?)
7. पाठस्य सारांशम् पञ्चवाक्यै लिखत- (पाठ का सारांश पाँच वाक्यों में लिजिए-)
उत्तरम् :
- अशितस्य अन्नस्य योऽणिष्ठः तन्मनः।
- पीतानाम् अपां योऽणिष्ठः सः प्राणः।
- अशितस्य तेजसो योऽणिष्ठः सा वाक्।
- अन्नमयं भवति मनः, आपोमयः प्राणः, तेजोमयी च वाक् भवति।
- मनुष्यः यादृशम् अन्नादिकं गृह्णाति, तादृशमेव तस्य चित्तादिकं भवति।
JAC Class 9th Sanskrit वाङ्मनः प्राणस्वरूपम् Important Questions and Answers
प्रश्न: 1.
मनः किम् अस्ति? (मन क्या है?)
उत्तरम् :
अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठः, तन्मनः।
(खाये हुए अन्न का जो सबसे छोटा भाग है, वह मन है।)
प्रश्न: 2.
वाक् कीदृशी भवति? (वाणी कैसी होती है?)
उत्तरम् :
वाक् तेजोमयी भवति। (वाणी तेज से उत्पन्न होती है।)
प्रश्न: 3.
अत्र किमवधार्यताम्? (यहाँ क्या समझना चाहिए?)
उत्तरम् :
मन: अन्नमयं, प्राणः आपोमयः वाक् च तेजोमयी भवति, इति अत्र अवधार्यताम्।
(मन अन्नमय, प्राण जलमय तथा वाणी तेजोमयी होती है, इस बात को यहाँ जानना चाहिए।)
प्रश्न: 4.
सर्पिः किं भवति? (घी क्या होता है?)
उत्तरम् :
मथ्यमानस्य दनः योऽणिमा, स ऊर्ध्वः, समुदीषति, तत्सर्पिः भवति। (मथे जाते हुए दही का जो सूक्ष्म भाग होता है, वह ऊपर उठता है, वही घी होता है।)
प्रश्नः 5.
श्वेतकेतुः भूयः किं श्रोतुमिच्छति? (श्वेतकेतु पुनः क्या सुनना चाहता है?)
उत्तरम् :
श्वेतकेतुः भूयोऽपि घृतोत्पत्तिरहस्यम् श्रोतुम् इच्छति। (श्वेतकेतु फिर से घी की उत्पत्ति के रहस्य को सुनना चाहता है।)
प्रश्न: 6.
कोऽणिमा मनः भवति? (कौन अणिमा मन होती है?)
उत्तरम् :
अश्यमानस्य अन्नस्य योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति, तन्मनः भवति। (खाये जाते हुए अन्न की जो अणिमा होती है, वह ऊर्ध्वगामिनी होती है, वह है।)
प्रश्नः 7.
उपदेशान्ते आरुणिः श्वेतकेतुं किं विज्ञापयितुमिच्छति? (उपदेश के अन्त में आरुणि श्वेतकेतु को क्या समझाना चाहते हैं?)
उत्तरम् :
उपदेशान्ते आरुणिः श्वेतकेतुं विज्ञापयितुमिच्छति यत् अन्नमयं भवति मनः, आपोमयो भवति प्राण: तेजोमयी च भवति वागिति। (उपदेश के अन्त में आरुणि श्वेतकेतु को समझाना चाहता है कि मन अन्नमय होता है, प्राण जलमय होता है । और वाक् तेजोमयी होती है।)
प्रश्न: 8.
पीयमानानाम्पाम् अणिमा किं भवति? (पीये जाते हुए पानी की अणिमा क्या होती है?)
उत्तरम् :
पीयमानानामपाम् योऽणिमा ऊर्ध्वः समुदीषति, स एव प्राणो भवति।
(पिये जाते हुए पानी की जो अणिमा ऊपर उठती है, वह ही प्राण होती है।)
प्रश्न: 9.
संवादोऽयं कं ग्रन्थमाधृत्य लिखितः? (यह संवाद किस ग्रन्थ को आधार मानकर लिखा गया है?)
उत्तरम् :
संवादोऽयं छान्दोग्योपनिषदः षष्ठाध्यायमाधृत्य लिखितः।
(यह संवाद छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय को आधार मानकर लिखा गया है।)
प्रश्न: 10.
छान्दोग्योपनिषद् कस्य वेदस्य कस्याः शाखायाः ग्रन्थः अस्ति?
(छान्दोग्योपनिषद् किस वेद की किस शाखा का ग्रन्थ है?)।
उत्तरम् :
छान्दोग्योपनिषद् सामवेदस्य कौथुमशाखायाः ग्रन्थः अस्ति।
(छान्दोग्योपनिषद् सामवेद की कौथुम शाखा का ग्रन्थ है।)
रेखांकित पदान्याधृत्य प्रश्न-निर्माणं कुरुत-(रेखांकित पदों के आधार पर प्रश्न निर्माण कीजिए-)
प्रश्न: 1.
अशितस्य अन्नस्य योऽणिष्ठः तत्मनः। (खाये हुए अन्न का जो सूक्ष्मतम है वह मन है।)
उत्तरम् :
कस्य योऽणिष्ठः तत्मनः? (किसका जो सूक्ष्मतम है वह मन है?)
प्रश्न: 2.
पीतानाम् अयाम् अणिष्ठः प्राणः। (पीये हुए जल का सूक्ष्मतम प्राण है।)
उत्तरम् :
केषाम् अणिष्ठः प्राण:? (किनका सूक्ष्मतम प्राण होता है?)
प्रश्न: 3.
तेजसो अणिष्ठः वाक्। (तेज का सूक्ष्मतम वाक् है।)
उत्तरम् :
तेजसो अणिष्ठः का? (तेज का सूक्ष्मतम क्या है?)
प्रश्न: 4.
मनः अन्नमयम्। (मन अन्नमय होता है।)
उत्तरम् :
किम् अन्नमयम् ? (अन्नमय क्या है?)
प्रश्न: 5.
वाक् तेजोमयी। (वाणी तेज युक्त होती है।)
उत्तरम् :
कीदृशी वाक्? (वाणी कैसी होती है?)।
प्रश्नः 6.
मध्यमानस्य दनः अणिमा सर्पिः भवति?
(मथे जाते दही का सूक्ष्मतम घी होता है?).
उत्तरम् :
कस्य मध्यमानस्य अणिमा सर्पिः भवति?
(किसका मथा जाता हुआ सूक्ष्मतम घी होता है?)
प्रश्न: 7.
भवता घृतोत्पत्ति रहस्यं व्याख्यातम्?
(आपके द्वारा घी की उत्पत्ति के रहस्य की व्याख्या की?)
उत्तरम् :
केन घृतोत्पत्ति रहस्यं व्याख्यातम् ?
(किसके द्वारा घी की उत्पत्ति के रहस्य की व्याख्या की?)
प्रश्न: 8.
तेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु। (हम दोनों का अध्ययन तेजस्वी हो।)
उत्तरम् :
कयोः अधीतम् तेजस्वि अस्तु? (किनका अध्ययन तेजस्वी हो?)।
कथाक्रम-संयोजनम्
निम्नलिखितानि वाक्यानि क्रमशः लिखित्वा कथाक्रम-संयोजनं कुरुत –
(निम्न वाक्यों को क्रम से लिखकर कथा क्रम-संयोजन कीजिए-)
- वत्स! उपदेशान्ते भूयोऽहं त्वां विज्ञापयितुम् इच्छामि यदन्नमयमिदं मनः, आपोमयः प्राणः तेजोमयी च वागिति।
- प्रवचनान्ते आरुणिः श्वेतकेतुमुपदिशति।
- अशितस्य तेजसा योऽणिष्ठः ला वाक।
- पीतानामपां योऽणिष्ठः सः प्राण:।
- वत्स! अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठः तन्मनः।
- आरुणिः तं क्रमश: उपदिशति।
- सः एकदा आरुणिं वाङ्मनः प्राणानां स्वरूपम् अपृच्छत्।
- श्वेतकेतुः आरुणे: जिज्ञासुः पुत्रः आसीत्।
उत्तर :
- श्वेतकेतुः आरुणे: जिज्ञासुः पुत्रः आसीत्।
- सः एकदा आरुणिं वाङ्मनः प्राणानां स्वरूपम् अपृच्छत् ।
- आरुणिः तं क्रमशः उपदिशति।
- वत्स! अशितस्यान्नस्योऽणिष्ठः तन्मन:।
- पीतानामपां योऽणिष्ठः सः प्राणः।
- अशितस्य तेजसा योऽणिष्ठः सा वाक् ।
- प्रवचनान्ते आरुणिः श्वेतकेतुम् उपदिशति।
- वत्स! उपदेशान्ते भूयोऽहं त्वां विज्ञापयितुम् इच्छामि यदन्नमयमिदं मनः, आपोमयः प्राणः तेजोमयी च वागिति।
योग्यताविस्तारः
ग्रन्थ-परिचय-छान्दोग्योपनिषद् उपनिषत्साहित्य का प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह सामवेद के उपनिषद् ब्राह्मण का मुख्य भाग है। इसकी. वर्णन पद्धति अत्यधिक वैज्ञानिक और युक्तिसंगत है। इसमें आत्मज्ञान के साथ-साथ उपयोगी कार्यों और उपासनाओं का सम्यक् वर्णन हुआ है। छान्दोग्योपनिषद् आठ अध्यायों में विभक्त है। इसके छठे अध्याय में ‘तत्त्वमसि’ (‘वह तुम हो’) का विस्तार से विवेचन प्राप्त होता है।
आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को उपदेश देते हैं कि खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का होता है। उसका स्थिरतम भाग मल होता है, मध्यम मांस होता है और लघुतम भाग मन होता है। पिया हुआ जल भी तीन प्रकार का होता है-उसका स्थविष्ठ भाग, मूत्र होता है, मध्यभाग लोहित (रक्त) होता है और अणिष्ठ भाग प्राण होता है। भोजन से प्राप्त तेज भी तीन तरह का होता है-उसका स्थविष्ठ भाग अस्थि होता है, मध्यम भाग मज्जा (चर्बी) होती है और जो लघुतम भाग है वह वाणी होती है।
जो खाया जाता है वह अन्न है। अन्न ही निश्चित रूप से मन है। न्याय और सत्य से अर्जित किया हुआ अन्न सात्विक होता है। उसे खाने से मन भी सात्विक होता है। दूषित भावना और अन्याय से अर्जित अन्न तामस होता है। कथ्य का सारांश यह है कि सात्विक भोजन से मन सात्विक होता है, राजसी भोजन से मन राजस होता है और तामस भोजन से मन की प्रवृत्ति भी तामसी हो जाती है।
इस संसार में जल ही जीवन है और प्राण जलमय होता है। तैल (तेल), घृत आदि के भक्षण से वाणी विशद होती है और भाषणादि कार्यों में सामर्थ्य की वृद्धि करती है। इसलिए वाणी को तेजोमयी कहा जाता है। छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाणी तेजोमयी है।
भाषिकविस्तारः
1. मयट् प्रत्यय प्राचुर्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
2. मयट् प्रत्यय का प्रयोग विकार अर्थ में भी किया जाता है।
3. जल को ही जीवन कहा गया है। “जीवयति लोकान् जलम्” यह पञ्चभूतों के अन्तर्गत भूतविशेष है। इसके पर्यायवाची शब्द हैं –
वारि, पानीयम्, उदकम्, उदम्, सलिलम्, तोयम्, नीरम्, अम्बु, अम्भस्, पयस् आदि।
जल की उपयोगिता के विषय में निम्नलिखित श्लोक द्रष्टव्य है –
पानीयं प्राणिनां प्राणस्तदायत्वं हि जीवनम्।
तोयाभावे पिपासातः क्षणात् प्राणैः विमुच्यते॥
(अर्थात् जल प्राणधारियों का प्राण है, जीवन निश्चय ही उस (जल) के अधीन है। जल के अभाव में प्यास से पीड़ित (प्राणी) प्राणों से विमुक्त (रहित) हो जाता है यानी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।)
योग्यता-विस्तार पर आधारित प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
छान्दोग्योपनिषद् में किन विषयों का वर्णन है?
उत्तर :
इस उपनिषद् में आत्मज्ञान के साथ-साथ उपयोगी कार्यों और उपासनाओं का सम्यक् वर्णन है।
प्रश्न 2.
छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय में किसका विस्तार से विवेचन हुआ है?
उत्तर :
छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय में ‘तत्त्वमसि’ (‘वह तुम हो’) का विस्तार से विवेचन हुआ है।
प्रश्न 3.
छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार मन, प्राण और वाक क्या हैं?
उत्तर :
छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार मन अन्नमय, प्राण जलमय तथा वाणी (वाक्) तेजोमयी होती है।
भाषिक विस्तार पर प्रश्नोत्तर
प्रश्न 4.
निम्न शब्दों में मयट् प्रत्यय लगाकर शब्द-रचना कीजिए –
अन्न, आपः, तेजः, मङ्गल, आनन्द, दुःख, शान्ति, स्वार्थ, ब्रह्म।
उत्तर :
शब्द – मयट – रचित पद
रचित पद अन्न + मयट् = अन्नमयः
आपः + मयट् = आपोमयः
तेजः + मयट् = तेजोमयः
मङ्गल + मयट् = मङ्गलमयः
आनन्द + मयट् = आनन्दमयः
दुःख + मयट् = दुःखमयः
शान्ति + मयट् = शान्तिमयः
स्वार्थ + मयट् = स्वार्थमयः
ब्रह्म + मयट् = ब्रह्ममयः
प्रश्न 5.
निम्न शब्दों में ‘मयट्’ प्रत्यय लगाकर स्त्रीलिंग शब्द बनाने के लिए ‘ङीप्’ प्रत्यय लगाइये –
आनन्द, मृत्, स्वर्ण, मङ्गल, स्वार्थ, शान्ति, तेजः, आपः।
उत्तर :
शब्द + मयट् = शब्द (पु.) + ङीप् = शब्द (स्त्री.)
आनन्द + मयट् = आनन्दमयः + ङीप् = आनन्दमयी
मृत् + मयट् = मृण्मयः + ङीप् = मृण्यमी
स्वर्ण + मयट् = स्वर्णमयः + ङीप् = स्वर्णमयी
मङ्गल + मयट् = मङ्गलमयः + ङीप् = मङ्गलमयी
स्वार्थ + मयट् = स्वार्थमयः + ङीप् = स्वार्थमयी
शान्ति + मयट् = शान्तिमयः + ङीप् = शान्तिमयी
तेजः + मयट् = तेजोमयः + ङीप् = तेजोमयी
आपः + मयट् = आपोमयः + ङीप् = आपोमयी
प्रश्न 6.
जल को जीवन क्यों कहा गया है?
उत्तर :
‘जीवयति लोकान जलम्’ अर्थात् जल लोगों को जीवित रखता है या जीवन-दान देता है अतः जल ही जीवन है।
प्रश्न 7.
जल के पाँच पर्यायवाची लिखिए।
उत्तर :
वारि, पानीयम्, उदकम्, नीरम्, तोयम्।
प्रश्न 8.
जल की उपयोगिता सिद्ध कीजिए।
उत्तर :
जल प्राणियों का प्राण है। अत: जीवन इसके अधिकार में है। जल के अभाव में प्यास से पीड़ित व्यक्ति क्षणभर में प्राण त्याग देता है।
प्रश्न 9.
निर्देशानुसार शब्दों के रूप लिखिए
(i) मनस्-पंचमी विभक्ति, एकवचन।
(ii) मनस्-द्वितीया विभक्ति, बहुवचन
(iii) अम्भस्-तृतीया विभक्ति, एकवचन।
(iv) पयस्-षष्ठी विभक्ति, द्विवचन
(v) मनस्-षष्ठी विभक्ति, बहुवचन
(vi) तेजस्-चतुर्थी विभक्ति, एकवचन
(vii) तेजस्-सप्तमी विभक्ति, एकवचन।
(viii) नमस्-सप्तमी विभक्ति, बहुवचन।
उत्तर :
(i) मनसः
(ii) मनांसि
(iii) अम्भसा
(iv) पयसोः
(v) मनसाम्
(vi) तेजसे
(vii) तेजसि
(viii) नमःसु।
प्रश्नाः 10.
निम्न वाक्यों को शुद्ध करके लिखिए –
(क) यतिः मने ईश्वरं स्मरति।
(ख) मनुष्यः पयं पिबति।
(ग) साहित्यम् यशाय अपि लिख्यते।
(घ) अशितस्य तेजेन योऽणिष्ठः सा वाक्।
(ङ) पयेन कमलं कमलेन च पयः शोभते।
उत्तरम् :
(क) यतिः मनसि ईश्वरं स्मरति।
(ख) मनुष्यः पयः पिबति।
(ग) साहित्यम् यशसे अपि लिख्यते।
(घ) अशितस्य तेजसा योऽणिष्ठः सा वाक्।
(ङ) पयसा कमलं कमलेन च पयः शोभते।
वाङ्मनः प्राणस्वरूपम् Summary and Translation in Hindi
पाठ-परिचय – प्रस्तुत पाठ छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय के पञ्चम खण्ड पर आधारित है। यह उपनिषद् सामवेद की कौथुम शाखा से सम्बद्ध है। इस उपनिषद् में आठ अध्याय हैं जो 154 खण्डों में विभक्त हैं। इसमें अनेक रोचक कथाओं द्वारा दार्शनिक विषयों को स्पष्ट किया गया है। इसकी वर्णन पद्धति अत्यधिक वैज्ञानिक और युक्तिसंगत है। इसमें आत्मज्ञान के साथ-साथ उपयोगी कार्यों और उपासनाओं का सम्यक् (भली-भाँति) वर्णन हुआ है।
इसके छठे अध याय में कुल 16 खण्ड हैं जिनमें ‘तत्त्वमसि’ (‘वह तुम हो’) का विस्तार से विवेचन किया गया है। इसके पञ्चम खण्ड में मन, प्राण एवं वाक् (वाणी) के सन्दर्भ में रोचक विवरण प्रस्तुत किया गया है। आर्ष परम्परा में (ऋषियों के मत में) ज्ञान-प्राप्ति के तीन उपाय बताये गये हैं-जिनमें परिप्रश्न (प्रश्न पूछना) भी एक है। यहाँ गुरु सेवापरायण शिष्य वाणी, मन तथा प्राण के विषय में प्रश्न पूछता है और आचार्य उन प्रश्नों का सूक्ष्मता से उत्तर देते हैं।
- श्वेतकेतुः – भगवन्! श्वेतकेतुरहं वन्दे।
- आरुणिः – वत्स! चिरञ्जीव।
- श्वेतकेतुः – भगवन्! किञ्चित्प्रष्टुमिच्छामि।
- आरुणिः – वत्स! किमद्य त्वया प्रष्टव्यमस्ति? श्वेतकेतुः भगवन्! ज्ञातुम् इच्छामि यत् किमिदं मनः?
- आरुणिः – वत्स! अशितस्यान्नस्य योऽणिष्ठः तन्मनः।
- श्वेतकेतुः – कश्च प्राणः? .
- आरुणिः – पीतानाम् अपां योऽणिष्ठः स प्राणः।
- श्वेतकेतुः – भगवन्! का इयं वाक्?
- आरुणिः – वत्स! अशितस्य तेजसा योऽणिष्ठः सा वाक्। सौम्य! मनः अन्नमयं, प्राणः आपोमयः वाक् च तेजोमयी भवति इत्यप्यवधार्यम्।
शब्दार्था: – भगवन! = हे देव! (हे भगवन!), श्वेतकेतरहम = अहं श्वेतकेतः (मैं श्वेतकेत). वन्दे = प्रणमामि (प्रणाम करता हूँ), वत्स = पुत्र (बेटा), चिरञ्जीव = दीर्घकालपर्यन्तं प्राणान् धारय/आयुष्मान् भव (चिरायु हो), भगवन्! = हे देव! (हे देव!), किञ्चित्प्रष्टुमिच्छामि = किंचित् प्रश्नं कर्तुम् ईहे (कुछ पूछना चाहता हूँ), वत्स = पुत्र (बेटा), किमद्य त्वया = भवता अद्य किं (तुम्हें आज क्या), प्रष्टव्यमस्ति = प्रष्टुं योग्यम्/प्रच्छनीयम् अस्ति (पूछने योग्य है), भगवन्! = प्रभो! (हे प्रभु!), ज्ञातुम् इच्छामि = बोधनम् इच्छासि, (जानना चाहता हूँ), यत् = कि,
किमिदं मनः = एतन्मनः किमस्ति (यह ‘मन’ क्या है?), वत्स = पुत्र (बेटा), अशितस्यान्नस्य = खादितस्य धान्यस्य (खाये हुए अन्न का), योऽणिष्ठः = यः लघुतमः भागः (जो सबसे छोटा भाग होता है), तन्मनः = तत् मनः भवति (वह मन होता है), कश्च प्राणः = प्राणः च को भवति (और प्राण क्या होता है?), पीतानाम् = (पिये हुए), अपाम् = जलस्य (पानी का), योऽणिष्ठः = यः अणुतमः भागः (सबसे छोटा भाग जो होता है), सं प्राणः = असौ प्राणः (वह प्राण होता है), भगवन्! = हे प्रभो! (हे प्रभु!), का इयं वाक् = एषा वाणी का भवति (यह वाणी क्या होती है),
वत्स! = हे पुत्र! (हे बेटा!), अशितस्य = खादितस्य (खाये हुए, उपभोग किए हुए), तेजसा = अग्नेः (अग्नि का), योऽणिष्ठः = यः लघुष्ठः भागः (जो सबसे छोटा भाग है),सा वाक = सा वाणी भवति (वह वाक् अर्थात् वाणी होती है), सौम्य = वत्स (हे सौम्य), मनः अन्नमयम् = मनः अन्नविकारभूतं भवति (मन अन्न से निर्मित होता है), प्राणः आपोमयः = प्राणः जलमयः (प्राण जल से परिणत होता है), वाक् च = वाणी च (और वाणी), तेजोमयी = अग्निमयी (अग्नि का परिणामभूत), भवति = जायते (होती है), इत्यप्यवधार्यम् = एवम् अपि अवगन्तव्यम् (यह भी समझने योग्य है या यह भी समझ लेना चाहिए)।
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – यह संवाद हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘वाङ्मन:प्राणस्वरूपम्’ नामक पाठ से लिया है। यह पाठ छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय के पञ्चम खण्ड पर आधारित संवाद रूप में प्रस्तुत किया गया है।
प्रसंग – इस संवाद में आरुणि का पुत्र श्वेतकेतु अपने पिता से मन-प्राण एवं वाणी के विषय में प्रश्न पूछता है। आरुणि उसकी जिज्ञासा को शान्त करते हैं।
अनुवादः
श्वेतकेतु – हे भगवन् ! मैं श्वेतकेतु प्रणाम करता हूँ।
आरुणि – बेटा! चिरायु हो।
श्वेतकेतु – हे भगवन् ! कुछ पूछना चाहता हूँ।
आरुणि – बेटा! तुम्हें आज क्या पूछना है?
श्वेतकेतु – हे प्रभो! पूछना चाहता हूँ-यह मन क्या है?
आरुणि – पुत्र! खाये हुए अन्न का जो सबसे छोटा भाग होता है, वह मन होता है। श्वेतकेतु और प्राण क्या होता है?
आरुणि पिये हुए पानी का जो सबसे छोटा भाग होता है, वह प्राण होता है।
श्वेतकेतु – हे प्रभो! यह (वाणी) क्या होती है?
आरुणि – वत्स! उपभोग किए हुए तेज का जो सबसे छोटा भाग होता है वह वाणी है। सौम्य! मन अन्न से निर्मित होता है, प्राण जल से परिणत होता है और वाणी अग्नि का परिणामभूत होता है। यह भी (तुम्हें) समझ लेना चाहिए। संस्कत-व्याख्याः
सन्दर्भः – संवादोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य’ ‘शेमुष्या:’ वाङ्मन:प्राणस्वरूपम्’ नामक पाठाद् उद्धृतः अस्ति। पाठोऽयं छान्दोग्योपनिषदः षष्ठाध्यायस्य पञ्चमं खण्डमाधृत्य संवादरूपेण प्रस्तूयते। (यह संवाद हमारी ‘शेमुषी’ पाठ्यपुस्तक के ‘वाङ्मन प्राणस्वरूपम्’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ छान्दोग्योपनिषद के छठे अध्याय के पाँचवें खण्ड के आधार पर संवाद रूप में प्रस्तुत किया गया है।)।
प्रसङ्गः – संवादेऽस्मिन् आरुणेः सुतः श्वेतकेतुः स्वपितरं मन-प्राण-वाणीनां विषये प्रश्नानि पृच्छति। आरुणिः तस्य जिज्ञासां शमयति। (इस संवाद में आरुणि पुत्र श्वेतकेतु अपने पिता से मन, प्राण और वाणी के विषय में प्रश्न पूछता है।) (आरुणि उसकी जिज्ञासा शान्त करता है।)
व्याख्या: –
श्वेतकेतुः – हे देव! अहं श्वेतकेतः प्रणमामि। (हे देव! मैं श्वेतकेतु प्रणाम करता हूँ।)
आरुणिः – पुत्रक! आयुष्मान् भव। (बेटा ! चिरायु हो।)
श्वेतकेतुः – हे देव! किञ्चित् प्रश्नं कर्तुम् ईहे। (कुछ प्रश्न करना चाहता हूँ।)
आरुणिः – पुत्र! भवता अद्य किं प्रच्छनीयम्? (बेटा ! आपको आज क्या पूछना है?)
श्वेतकेतुः – हे प्रभो! प्रष्टुमीहे यदेतन्मनः किं भवति? (हे प्रभो! पूछना चाहता हूँ कि यह मन क्या होता है? )
आरुणिः – पुत्र! भक्षितस्य धान्यस्य यः लघुतमः भागः तत् मनः भवति। (पुत्र ! खाये हुए धान का जो लघुतम (सूक्ष्मतम) भाग होता है, वह मन होता है।) श्वेतकेतुः प्राणः च को भवति? (यह प्राण क्या होता है?)
आरुणिः – कृतपानस्य जलस्य यः लघुतमः भागः स प्राणः। (पीये हुए जल का जो लघुतम (सूक्ष्मतम) भाग होता है वह प्राण है।)
श्वेतकेतुः – हे प्रभो! एषा वाणी का भवति? (प्रभो ! यह वाणी क्या होती है?)
आरुणिः – पुत्र! उपभुक्तस्य तेजसः यः अणुतमः भागः, सा वाणी भवति। वत्स! मनः अन्नस्य विकारभूतं भवति, प्राण: जलमयः वाणी चाग्निमयी भवति । एवमपि त्वया अवगन्तव्यम्। (पुत्र ! उपभोग किए गये तेज का जो सूक्ष्मतम भाग होता है वह वाणी होती है। बेटा! मन अन्न का विकार होता है, प्राण जलमय होते हैं और वाणी तेजोमयी होती है। यह भी तुम्हें जान लेना चाहिए।)
अवबोधन कार्यम्
प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरत – (एक शब्द में उत्तर दीजिए-)
(क) महर्षि आरुणेः शिष्यस्य किन्नामासीत् ? (महर्षि आरुणि के शिष्य का क्या नाम था?)
(ख) श्वेतकेतुः सर्वप्रथमं कस्य विषये पृच्छति? (श्वेतकेतु सबसे पहले किसके विषय में पूछता है?)
प्रश्न 2.
पूर्णवाक्येन उत्तरत – (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए-)
(क) किम् इदं मनः? (यह मन क्या है?)
(ख) का इयं वाक्? (यह वाणी क्या है?)
प्रश्न 3.
यथानिर्देशम् उत्तरत-(निर्देशानुसार उत्तर दीजिए –
(क) ‘वाक् च तेजोमयी भवति’ अत्र भवति क्रियापदस्य कर्तृपदं नाट्यांशात् चित्वा लिखत ।
(‘वाक् च तेजोमयी भवति’ यहाँ ‘ भवति’ क्रियापदं का कर्ता नाट्यांश से चुनकर लिखिए।)
(ख) ‘प्रष्टुम्’ इति पदात् प्रत्ययं पृथक् कृत्वा लिखत। (‘प्रष्टुम्’ पद से प्रत्यय पृथक् करके लिखिए।)
उत्तराणि-
(1) (क) श्वेतकेतुः।
(ख) ‘मनसः’ विषये (मन के विषय में)।
(2) (क) अशितस्य अन्नस्य योऽणिष्ठेः तन्मनः। (खाये हुए का जो सूक्ष्मतम भाग है, वह मन है।)
(ख) अशितस्य तेजसा यो अणिष्ठः सा वाक्। (उपयुक्त तेज का जो सारतम भाग है, वह वाणी है।)
(3) (क) ‘वाक्’ इति कर्तृपदं।
(ख) तुमुन् प्रत्ययम्।
2. श्वेतकेतुः – भगवन्! भूय एव मां विज्ञापयतु।
आरुणिः – सौम्य! सावधानं शृणु। मथ्यमानस्य दधनः योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति, तत्सर्पिः भवति।
श्वेतकेतुः – भगवन्! भवता घृतोत्पत्तिरहस्यम् व्याख्यातम्। भूयोऽपि श्रोतुमिच्छामि।
आरुणिः – एवमेव सौम्य! अश्यमानस्य अन्नस्य योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति। तन्मनो भवति। अवगतं न वा?
श्वेतकेतुः – सम्यगवगतं भगवन्!
आरुणिः – वत्स! पीयमानानाम् अपां योऽणिमा स ऊर्ध्वः समुदीषति स एव प्राणो भवति।
शब्दार्था: – भगवन्! = हे देव! (हे भगवन्!), भूय एव = पुनरपि/अतिशयेन एव (और अधिक ही), माम् = मुझे, विज्ञापयतु = प्रबोधयत (समझाइये), सौम्य = सौम्य (हे सौम्य), सावधानम् = सावहितः सन्, ‘ध्यानपूर्वकं (ध्यानपूर्वक), शृणु = आकर्ण्य (सुन), मथ्यमानस्य = आलोड्यमानस्य (मथे जाते हुए), दनः = (दही का), योऽणिमा = या सूक्ष्मता (जो सूक्ष्मता), स ऊर्ध्वः = असौ उपरि (वह ऊपर की ओर), समुदीषति = उत्तिष्ठति/समुच्छलति (उठती है), तत्सर्पिः = तत् घृतम्/आज्यम् (वह घी), भवति = अस्ति (होता है), भगवन्! = हे देव! (हे भगवन्!), भवता = त्वया (आपके द्वारा),
घृतोत्पत्तिरहस्यम् = आज्योद्गमस्य गूढम् (घी के उद्गम का रहस्य), व्याख्यातम् = स्पष्टीकृतम् (व्याख्या की गई), भूयोऽपि = पुनरपि (फिर भी), श्रोतुमिच्छामि = श्रवणाय ईहे (सुनना चाहता हूँ), एवमेव सौम्य = तथैव वत्स (ऐसा ही है सौम्य), अश्यमानस्य = भक्ष्यमाणस्य (खाये जाते हुए का), अन्नस्य = धान्यस्य (अन्न का), योऽणिमा = या सूक्ष्मता (जो सूक्ष्मता है), स ऊर्ध्वः समुदीषति = असौ उपरि समुत्तिष्ठति (वह ऊपर की ओर उठता है),
तन्मनो भवति = तत् मनः अस्ति (वह ही मन है), अवगतं न वा = ज्ञातं त्वया न वा ( समझे अथवा नहीं), सम्यगवगतम् भगवन् = श्रीमन् मया सम्यग् ज्ञातम् . (श्रीमन् मैंने ठीक से जान लिया), वत्स = पुत्र (बेटा), पीयमानानाम् = आचम्यमानानां (पीये जाते हुए), अपाम् = जलानाम् (जलों की), योऽणिमा = या सूक्ष्मता (जो सूक्ष्मता/लघुता है), स ऊर्ध्वः = असौ उपरि (वह ऊपर की ओर), समुदीषति = उच्छलति (जाती है), स एव = असौ (वही), प्राणोः = प्राण:/जीवः (प्राण या जीवन), भवति = अस्ति (है/होता है)।
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – यह संवाद हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्’ नामक पाठ से लिया गया है। यह पाठ छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय के पाँचवें खण्ड पर संवाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
प्रसंग – इस संवाद में श्वेतकेतु द्वारा पूछे गये की आरुणि व्याख्या करते हैं कि अन्न की सूक्ष्मता मन और पानी की सूक्ष्मता प्राण होती है अनुवादः
श्वेतकेतु – हे देव! फिर भी और अधिक (विस्तार से) समझाइये।
आरुणि – सौम्य! सावधान होकर सुनिये। मथे जाते हुए दही की जो सूक्ष्मता होती है वह ऊपर की ओर उठती है, वही घी होता है।
श्वेतकेतु – हे देव! आपके द्वारा घी के उद्गम के रहस्य की व्याख्या की गई (परन्तु) फिर भी मैं (विस्तारपूर्वक) सुनना चाहता हूँ। आरुणि ऐसा ही है सौम्य! खाये जाते हुए अन्न की जो सूक्ष्मता होती है वह ऊपर की ओर उठती है, वही मन होता है। समझे या नहीं?
श्वेतकेतु – हे देव, मैंने अच्छी तरह जान लिया।
आरुणि – बेटा! पिये जाते हुए जल की जो सूक्ष्मता होती है, वह ऊपर की ओर उठती है, वही प्राण होता है।
संस्कत-व्यारव्याः
सन्दर्भः – संवादोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्याः’ ‘वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्’ नामक पाठात् उद्धृतः अस्ति। पाठोऽयं छान्दोग्योपनिषदः षष्ठाध्यायस्य पंचमं खण्डमाधृत्य संवादरूपेण प्रस्तूयते। (यह संवाद हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘वाङ्मनः प्राणस्वरूपम्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह पाठ ‘छान्दोग्योपनिषद्’ के छठे अध्याय के पांचवें खण्ड के आधार पर सवाद रूप में प्रस्तुत किया गया है।)
प्रसङ्गः – संवादेऽस्मिन् श्वेतकेतुना पृष्टः आरुणिः निरूपयति यत् अन्नस्याणिमा मन: अपामणिमा च प्राणः भवति। (इस संवाद में श्वेतकेतु द्वारा पूछा गया आरुणि विवेचन करता है कि अन्न का सूक्ष्म तत्व ‘अणिमा’ मन और पानी का प्राण होता है।)
व्याख्याः
श्वेतकेतुः – हे देव! पुनरपि अतिशयेन एव मां प्रबोधय। (फिर अच्छी प्रकार से मुझे समझाओ।)
आरुणिः – सौम्य! सावहितः सन् आकर्णय। आलोड्यमानस्य दनः या सूक्ष्मता भवति, असौ उपरि समुत्तिष्ठति, तद् घृतं भवति । (सौम्य ! ध्यानपूर्वक (सावधान होकर) सुन। मथे जाते हुए दही से जो सूक्ष्मतम होता है, इसके ऊपर होता है वह घी होता है।)
श्वेतकेतुः – हे देव! स्पष्टीकृतं त्वया आज्योद्गमनस्य गूढं (परञ्च) पुनरपि (अहं) श्रवणाय ईहे।
(हे देव ! आपने घी के उद्गम का रहस्य स्पष्ट किया फिर भी मैं सुनना चाहता हूँ।)
आरुणिः – तथैव वत्स! भक्ष्यमाणस्य धान्यस्य या सूक्ष्मता भवति, असौ उपरि समुत्तिष्ठति। तत् मनः भवति। ज्ञातं न वा? (वत्स ! उसी प्रकार से खाये हुए अन्न की जो सूक्ष्मता होती है जो उससे ऊपर उठकर आती है वह मन होता है। जान गये कि नहीं।)
श्वेतकेत: – सम्यग् मया ज्ञातं देव! (देव ! मैंने अच्छी प्रकार से जान लिया।)
आरुणिः – पुत्र! आचम्यमानानां जलानां या सूक्ष्मता भवति, असौ उपरि उच्छलति, असौ एव प्राणः भवति।
(पुत्र ! पीये जाते हुए जल की जो सूक्ष्मता होती है वह ऊपर उठकर आती है, बस वही प्राण होता है।)
अवबोधन कार्यम्
प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरत- (एक शब्द में उत्तर दीजिए-)
(क) भूयोऽपि पृष्टे ऋषिः शिष्यं किमादिशति? (फिर से पूछने पर ऋषि शिष्य को क्या आदेश देता है?)
(ख) श्वेतकेतुः ज्ञातं ज्ञानं कथं स्वीकरोति? (श्वेतकेतु प्राप्त ज्ञान को कैसे स्वीकार करता है?)
प्रश्न 2.
पूर्णवाक्येन उत्तरत – (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए-)
(क) आरुणिः मनः सोदाहरणं कथं अवबोध याति? (आरुणि मन को उदाहरण सहित कैसे समझाता है?)
(ख) घृतोत्पत्तिः कथं भवति? (घी की उत्पत्ति कैसे होती है?)
प्रश्न 3.
यथानिर्देशम् उत्तरत-(निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-)
(क) ‘घृतम्’ इति पदस्य हेतु नाट्यांशे किं पर्यायपदं प्रयुक्तम्?
(‘घृतम्’ पद के लिए नाट्यांश में क्या पर्याय पद प्रयुक्त किया गया है।)
(ख) ‘अद्यः’ इति पदस्य विलोमपदं नाट्यांशात् चित्वा लिखत।
(‘अध:’ पद का विलोम नाट्यांश से चुनकर लिखिए।)
उत्तराणि :
(1) (क) सावधानं श्रुणु (सावधान होकर सुनो)।
(ख) सम्यगवगतम् (अच्छी तरह समझ गया)।
(2) (क) मथ्यमानस्य दनः योऽणिमा तत्सर्पिः तथैव अशितस्य अन्नस्य योऽणिष्ठ ऊर्ध्वम् समुदीषति तत् मनः।
(जैसे मथे जाते हुए दही से जो सूक्ष्म ऊपर उठता है उसी प्रकार खाये हुए अन्न का जो भाग ऊपर उठता है वह मन है।)
(ख) मथ्यमानस्य दध्नः योऽणिमा ऊर्ध्वं समुदीषति तत्सर्पिः भवति। (मथे जाते हुए दही से जो सूक्ष्म भाग ऊपर उठता है वह घी होता है।)
(3) (क) सर्पिः (घी) ।
(ख) ऊर्ध्व (ऊपर की ओर)।
3. श्वेतकेतुः – भगवन्! वाचमपि विज्ञापयतु।
आरुणिः – सौम्य! अश्यमानस्य तेजसो योऽणिमा, स ऊर्ध्वः समुदीषति। सा खलु वाग्भवति। वत्स! उपदेशान्ते भूयोऽपि त्वां विज्ञापयितुमिच्छामि यत्, अन्नमयं भवति मनः, आपोमयो भवति प्राणाः तेजोमयी च भवति वागिति। किञ्च यादृशमन्नादिकं गृह्णाति मानवस्तादृशमेव तस्य चित्तादिकं भवतीति मंदुपदेशसारः। वत्स! एतत्सर्वं हृदयेन अवधारय।
श्वेतकेतः – यदाज्ञापयति भगवन। एष प्रणमामि।।
आरुणिः – वत्स! चिरञ्जीव। तेजस्वि नौ अधीतम् अस्तु (आवयोः अधीतम् तेजस्वि अस्तु)।
शब्दार्थाः – भगवन्! = हे प्रभो! (हे भगवन्!), वाचमपि = वाक्तत्त्वं, वाणीमपि (वाणी को भी), विज्ञापयतु = प्रबोधय (समझाइये), सौम्य = वत्स (हे सौम्य), अश्यमानस्य तेजसोः= भक्ष्यमाणस्याग्ने: (खाये जाते हुए अन्न के तेज का), योऽणिमा = या सूक्ष्मता (जो सूक्ष्मता), भवति = होती है, स ऊर्ध्वः = असौ उपरि (वह ऊपर की ओर), समुदीषति = उत्तिष्ठति उच्छलति (उछलती है), सा = असौ (वह), खलु = निःसन्देहः (निस्सन्देह), वाग्भवति = वाणी भवति (वाणी होती है), वत्स! = पुत्र! (बेटे!), उपदेशान्ते = प्रवचनावसाने/उपदेशस्य अन्ते (उपदेश के अन्त में),
भूयोऽपि = पुनरपि अतिशयेन (फिर भी और अधिक विस्तार से), त्वाम् = भवन्तम् (आपको), विज्ञापयितुमिच्छामि = प्रबोधयितुम् अभिलषामि (समझाना चाहता हूँ), यत् = कि, अन्नमयं भवति मनः = मनः अन्नस्य धान्यस्य विकारभूतं भवति (मन अन्न से निर्मित होता है), आपोमयो भवति प्राणाः = जलमयः भवति प्राणः (प्राण जल की परिणति होता है), तेजोमयी = अग्निमयी (अग्नि का परिणामभूत), भवति = जायते/अस्ति (होता है),
वागिति = वाणीति (वाणी होती है), किञ्च = और क्या, यादृशम् = यथा (जैसा), अन्नादिकम् = धान्यादिकं (अनाज आदि), गृह्णाति = अश्नाति/खादति (खाता है), मानवः = मनुष्यः (आदमी), तादृशमेव = तथैव (वैसा ही), तस्य = अमुष्य (उसके), चित्तादिकम् = हृदयादिकं (चित्त आदि), भवति = वर्तते (होते हैं), इति = इयदेव (इतना ही), मदुपदेशसारः = मम उपदेशस्य सारतत्त्वः (मेरे उपदेश का सार है), वत्स! = पुत्र! (बेटा!), एतत्सर्वम् = इदं समस्तं (इस सबको), हृदयेन = चित्तेन/मनसि (हृदय से), अवधारय = धारय (धारण करो), यदाज्ञापयति भगवन्! = श्रीमन् यथा आदिशति! (जो आज्ञा भगवन् !), एषः = अयम् अहं (यह मैं), प्रणमामि = नमामि (प्रणाम करता हूँ), वत्स! = पुत्र (बेटा!), चिरञ्जीव = आयुष्मान् भव (चिरायु हो), तेजस्वि = तेजोयुक्तम् (तेजस्विता से युक्त), नौ = आवयोः (हम दोनों का), अधीतम् = पठितं ज्ञानम् (पढ़ा हुआ ज्ञान), अस्तु = भवतु (हो)।
हिन्दी अनुवादः
सन्दर्भ – यह संवाद हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘वाङ्मन:प्राणस्वरूपम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। यह पाठ छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय के पाँचवें खण्ड के आधार पर संवाद रूप में प्रस्तुत किया गया है।
प्रसङ्ग – यहाँ ऋषि आरुणि अपने प्रवचन के अवसान पर श्वेतकेतु को सार रूप में उपदेश देते हैं कि मानव जैसा अन्न और जल ग्रहण करता है, उसके चित्तादिक वैसे ही हो जाते हैं। शिष्य गुरु के उपदेश को सावधानीपूर्वक सुनता है।
अनुवाद – श्वेतकेतु-हे भगवन्! वाणी को भी समझाइये।
खाये जाते हए अन्न के तेज का जो सूक्ष्म रूप होता है, वह ऊपर की ओर उछलता है, नि:सन्देह वह वाणी है। पुत्र! उपदेश के अन्त में मैं और भी अधिक विस्तार से आपको समझाना चाहता हूँ कि मन अन्न का विकार भूत अर्थात् अन्न से निर्मित होता है। प्राण जल की परिणति होता है तथा वाणी अग्नि का परिणाम होती है और क्या, मनुष्य जैसा अनाज आदि खाता है, उसके चित्तादिक वैसे ही होते हैं। बस इतना ही मेरे उपदेश का सार है। बेटे! इस सबको हृदयंगम कर लो।
श्वेतकेतु – जो आज्ञा भगवन् ! यह मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
आरुणि – बेटा! चिरायु हो। हम दोनों का पठित ज्ञान (विद्या) तेजस्विता से युक्त हो।
संस्कत-व्याख्याः
सन्दर्भः – संवादोऽयम् अस्माकं पाठ्यपुस्तकस्य ‘शेमुष्याः’ ‘वाङ्मनःप्राणस्वरूपम्’ नामक पाठात् उद्धृतः अस्ति। पाठोऽयं छान्दोग्योपनिषदः षष्ठाध्यायस्य पञ्चमं खण्डम् आधृत्य संवादरूपेण प्रस्तूयते। (यह संवाद हमारी पाठ्यपुस्तक ‘शेमुषी’ के ‘वाङ्मनः प्राणस्वरूपम्’ पाठ से लिया गया है। यह पाठ ‘छान्दोग्योपनिषद’ के छठे अध्याय के पाँचवें खण्ड के आधार पर संवाद रूप में प्रस्तुत किया गया है।)
प्रसंग: – अत्र ऋषिः आरुणिः स्वप्रवचनस्यावसाने श्वेतुकेतवे साररूपेण उपदिशति यत् मानवः यथा अन्नं जलं च खादति, तस्य चित्तादिकं तथैव भवति। शिष्यः गुरोरुपदेशं सावधानं शृणोति। (यहाँ ऋषि आरुणि अपने प्रवचन के अन्त में श्वेतकेतु को सार रूप में उपदेश देते हैं कि मानव जैसा अन्न-जल खाता है उसका चित्त आदि वैसा ही हो जाता है। शिष्य गुरु के उपदेश को सावधानीपूर्वक सुनता है।)
व्याख्या: – श्वेतकेतुः-हे प्रभो! वाणीमपि मां प्रबोधय। (हे प्रभो! वाणी को भी मुझे समझाइये।)
आरुणिः – वत्स! भक्ष्यमाणस्याग्नेः या सूक्ष्मता भवति, सा उपरि उच्छलति, निःसन्देहः वाणी भवति। पुत्र! प्रवचनावसाने पुनरपि अतिशयेन अहं भवन्तं प्रबोधयितुम् ईहे यत् मनः धान्यस्य विकारभूतमस्ति। जलमयो भवति प्राणः वाणी च अग्निमयी भवति। यथा धान्यादिकम् अश्नाति मनुष्यः तथैव, अमुष्य हृदयादिकं भवति। अयमेव मम प्रवचनस्य सारः। पुत्र! इदं सकलं मनसि धारय हृदयङ्गमं वा कुरु। (वत्स ! खाई -ई अग्नि (तेज) का जो सूक्ष्मतम होता है, वह ऊपर उठकर आता है, निस्संदेह वह वाणी होती है। बेटा ! प्रवचन के अन्त में फिर और अधिक मैं आपको समझा रहा हूँ कि मन धान्य (अन्न) का विकार रूप है। प्राण जलमय होता है और वाणी अग्नि (तेजो) मयी होती है। मनुष्य जिस प्रकार के अन्नादि को खाता है उसी प्रकार उसके हृदय आदि होते हैं। यही मेरे प्रवचन (उपदेश) का सार है। पुत्र ! इस सम्पूर्ण को अपने मन में धारण कर लो अर्थात् हृदयंगम कर लो।
श्वेतकेतुः – यथा आदिशति श्रीमान् ! अयमहं त्वां नमामि। (श्रीमान् ! जैसे आपकी आज्ञा। यह मैं आपको नमस्कार (प्रणाम) करता हूँ।)
आरुणि: – वत्स! आयुष्मान् भव! आवयोः पठितं ज्ञानं तेजोयुक्तं भवतु। (बेटा ! चिरंजीवी हो। हमारा पढ़ा हुआ ज्ञान तेजोमय हो।)
अवबोधन कार्यम्
प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरत- (एक शब्द में उत्तर दीजिए-)
(क) अस्मिन् नाट्यांशे श्वेतकेतुः कस्य विषये ज्ञातुम् इच्छति?
(इस नाट्यांश में श्वेतकेतु किसके विषय में जानना चाहता है?)
(ख) आपोमयः के भवति? (जलमय क्या होता है?)
प्रश्न 2.
पूर्णवाक्येन उत्तरत- (पूरे वाक्य में उत्तर दीजिए-)
(क) अत्र वाचः उत्पत्तिं कथम् उपदिशति? (यहाँ वाणी की उत्पत्ति को कैसे उपदेश देता है?)
(ख) गुरुः किम् आशीर्वादं वितरति? (गुरु क्या आशीर्वाद देता है)
प्रश्न 3.
यथानिर्देशम् उत्तरत-(निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-)
(क) ‘पठितम्’ इति पदस्य पर्यायपदं नाट्यांशात् चित्वा लिखत। (‘पठितम्’ पद का पर्याय नाट्यांश से लिखिए।)
(ख) ‘आपोमयः’ अत्र कः प्रत्ययः? (‘आपोमयः’ यहाँ कौनसा प्रत्यय है?)
उत्तराणि :
(1) (क) वाचः विषये (वाणी के विषय में)।
(ख) प्राणः (प्राण)।
(2) (क) अश्यमानस्य तेजसो योऽणिमा सा ऊर्ध्वं समुद्रोषति सा खलु वाक् भवति। (उपयुक्त तेज का सूक्ष्मभाग जो ऊपर उठकर आता है वह निश्चित रूप से वाणी होती है।)
(ख) वत्सः चिरञ्जीव। तेजस्विनौ अधीतम् अस्तु। (बेटा चिरायु हो, तुम्हारा अध्ययन तेजस्वी हो।)
(3) (क) अधीतम् (पढ़ा हुआ)।
(ख) मयट (इसका मय शेष रहता है)।