JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 8 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ

Jharkhand Board Class 12 Political Science क्षेत्रीय आकांक्षाएँ InText Questions and Answers

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प्रश्न 1.
क्या इसका मतलब यह हुआ कि क्षेत्रवाद साम्प्रदायिकता के समान खतरनाक नहीं है? क्या हम यह भी कह सकते हैं कि क्षेत्रवाद अपने आप में खतरनाक नहीं?
उत्तर:
सामान्यतः लोकतान्त्रिक व्यवस्था में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राष्ट्र विरोधी नहीं माना जाता। इसके साथ ही लोकतान्त्रिक राजनीति में इस बात के पूरे अवसर होते हैं कि विभिन्न दल और समूह क्षेत्रीय पहचान, आकांक्षा अथवा किसी खास क्षेत्रीय समस्या को आधार बनाकर लोगों की भावनाओं की नुमाइंदगी करें। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में क्षेत्रीय राजनीति का एक अर्थ यह भी है कि क्षेत्रीय मुद्दों और समस्याओं पर नीति निर्माण की प्रक्रिया में समुचित ध्यान दिया जाए और उन्हें इसमें भागीदारी भी दी जाए। दूसरी तरफ साम्प्रदायिकता धार्मिक या भाषायी समुदाय पर आधारित एक संकीर्ण मनोवृत्ति है जो धार्मिक या भाषायी अधिकारों तथा हितों को राष्ट्रीय हितों के ऊपर रखती है इसलिए यह समाज विरोधी तथा राष्ट्रविरोधी मनोवृत्ति है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि क्षेत्रवाद साम्प्रदायिकता के समान खतरनाक नहीं है।

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प्रश्न 2.
खतरे की बात हमेशा सीमांत के राज्यों के संदर्भ में ही क्यों उठाई जाती है? क्या इस सबके पीछे विदेशी हाथ ही होता है?
उत्तर:
प्रायः यह देखा गया है कि सीमांत प्रदेशों में ही क्षेत्रवाद एवं अलगाववाद की समस्या अधिक पायी जाती है। इसका मुख्य कारण वहाँ की जनता की राजनीतिक आकांक्षाओं के साथ-साथ विदेशी ताकतों का हाथ होना माना जा सकता है। जम्मू-कश्मीर, पंजाब और पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों में घटित होने वाली विभिन्न घटनाएँ इसका उदाहरण माना जा सकता है। कश्मीरियों द्वारा अलग से स्वतन्त्र राष्ट्र की और पंजाब द्वारा खालिस्तान की माँग के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ रहा है।

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प्रश्न 3.
पर यह सारी बात तो सरकार, अधिकारियों, नेताओं और आतंकवादियों के बारे में है। कश्मीरी जनता के बारे में कोई कुछ क्यों नहीं कहता? लोकतन्त्र में तो जनता की इच्छा को महत्त्व दिया जाना चाहिए। क्यों मैं ठीक कह रही हूँ न?
उत्तर:
जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों का एक तबका कश्मीर को एक अलग राष्ट्र बनाना चाहता है; दूसरा कश्मीर का विलय पाकिस्तान में चाहता है तथा तीसरा तबका कश्मीर को भारत संघ का ही हिस्सा रहने देना चाहता है, लेकिन अधिक स्वायत्तता चाहता है। जम्मू और लद्दाख के लोग उपेक्षित बरताव तथा पिछड़ेपन से छुटकारा हेतु तबका, अधिक स्वायत्तता चाहते हैं। इस वजह से पूरे राज्य की स्वायत्तता की माँग जितनी प्रबल है उतनी ही प्रबल माँग इस राज्य के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी स्वायत्तता को लेकर है।

जम्मू-कश्मीर पर प्रायः अलगाववादियों, आतंकवादियों एवं विभिन्न राजनीतिज्ञों की प्रशासनिक नीतियों का प्रभाव रहा है लेकिन वहाँ जनमत की इच्छा का सम्मान करते हुए जम्मू-कश्मीर के लोगों की इच्छानुसार प्रशासनिक निर्णय लिया जाना चाहिए अर्थात् जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में जनमत संग्रह की नीति का पालन किया जाना चाहिए। जिससे इस क्षेत्र की समस्त समस्याओं का स्थायी समाधान हो सके।

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प्रश्न 1.
निम्नलिखित में मेल करें:

(क) सामाजिक-धार्मिक पहचान के आधार पर राज्य का निर्माण (i) नगालैंड/मिजोरम
(ख) भाषायी पहचान और केंद्र के साथ तनाव (ii) झारखंड / छत्तीसगढ़
(ग) क्षेत्रीय असंतुलन के फलस्वरूप राज्य का निर्माण (iii) पंजाब
(घ) आदिवासी पहचान के आधार पर अलगाववादी माँग (iv) तमिलनाडु

उत्तर:

(क) सामाजिक-धार्मिक पहचान के आधार पर राज्य का निर्माण (iii) पंजाब
(ख) भाषायी पहचान और केंद्र के साथ तनाव (iv) तमिलनाडु
(ग) क्षेत्रीय असंतुलन के फलस्वरूप राज्य का निर्माण (i) झारखंड / छत्तीसगढ़
(घ) आदिवासी पहचान के आधार पर अलगाववादी माँग (ii) नगालैंड/मिजोरम

प्रश्न 2.
पूर्वोत्तर के लोगों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति कई रूपों में होती है। बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलन, ज्यादा स्वायत्तता की माँग के आंदोलन और अलग देश बनाने की माँग करना ऐसी ही कुछ अभिव्यक्तियाँ हैं। पूर्वोत्तर के मानचित्र पर इन तीनों के लिये अलग-अलग रंग भरिये और दिखाइये कि किस राज्य में कौन-सी प्रवृत्ति ज्यादा प्रबल है?
उत्तर:

  1. बाहरी लोगों के खिलाफ आन्दोलन – असम
  2. ज्यादा स्वायत्तता की माँग के आन्दोलन – मेघालय
  3. अलग देश बनाने की माँग – मिजोरम

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(अलग देश बनाने की माँग नगालैण्ड व मिजोरम ने की थी। कुछ समय पश्चात् मिजोरम स्वायत्त राज्य बनने के लिए तैयार हो गया। मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मणिपुर को राज्य का दर्जा दे दिया गया है।) अतः मिजोरम की माँग का समाधान हो गया है, लेकिन नगालैण्ड में अलगाववाद की समस्या का पूर्ण हल अभी तक नहीं हो पाया है।

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प्रश्न 3.
पंजाब समझौते के मुख्य प्रावधान क्या थे? क्या ये प्रावधान पंजाब और उसके पड़ौसी राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने के कारण बन सकते हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर:
पंजाब समझौता: जुलाई, 1985 में अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचंद सिंह लोंगोवाल और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच एक समझौता हुआ जिसे पंजाब – समझौता कहा जाता है। इस समझौते के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं-

  1. मारे गये निरपराध व्यक्तियों के लिए मुआवजा: एक सितम्बर, 1982 के बाद हुई किसी कार्यवाही या आन्दोलन में मारे गए लोगों को अनुग्रह राशि के भुगतान के साथ सम्पत्ति की क्षति के लिए मुआवजा दिया जाएगा।
  2. सेना में भर्ती; देश के सभी नागरिकों को सेना में भर्ती का अधिकार होगा और चयन के लिए केवल योग्यता ही आधार रहेगा।
  3. सेना से निकाले हुए व्यक्तियों का पुनर्वास: सेना से निकाले हुए व्यक्तियों और उन्हें लाभकारी रोजगार दिलाने के प्रयास किए जाएंगे।
  4. विशेष सुरक्षा अधिनियम को वापस लेने पर सहमति:  पंजाब में उग्रवाद प्रभावित लोगों को मुआवजा प्रदान करने तथा उनके साथ अच्छा व्यवहार करने को तैयार हो गई तथा पंजाब से विशेष सुरक्षा अधिनियम को वापस लेने की बात पर भी सहमत हो गई।
  5. सीमा विवाद:  चण्डीगढ़ की राजधानी परियोजना क्षेत्र और सुखना ताला पंजाब को दिए जाएंगे । केन्द्र शासित प्रदेश के अन्य पंजाबी क्षेत्र पंजाब को तथा हिन्दी भाषी क्षेत्र हरियाणा को दिए जाएंगे।
    ये प्रावधान पंजाब और उसके पड़ौसी राज्यों के बीच तनाव बढ़ाने का कारण नहीं बन सकते हैं क्योंकि इसमें इन राज्यों के विवादास्पद मुद्दों को नहीं छुआ गया है।

प्रश्न 4.
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव के विवादास्पद होने के क्या कारण थे?
उत्तर:
आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव के विवादास्पद होने का मुख्य कारण यह था कि इस प्रस्ताव में पंजाब सूबे के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग की गई, जो कि परोक्ष रूप से एक अलग सिख राष्ट्र की माँग को बढ़ावा देती है। दूसरे यह प्रस्ताव ‘सिख वर्चस्व’ का ऐलान करता था।

प्रश्न 5.
आपकी राय में कश्मीर में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ उभर आने के कारण स्पष्ट कीजिए।
अथवा
जम्मू-कश्मीर की अंदरूनी विभिन्नताओं की व्याख्या कीजिए और बताइए कि इन विभिन्नताओं के कारण इस राज्य में किस तरह अनेक क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने सिर उठाया है।
उत्तर:
अंदरूनी विभिन्नताएँ:
जम्मू-कश्मीर में अधिकांश रूप में अंदरूनी विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। जम्मू- कश्मीर राज्य में तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र – जम्मू कश्मीर और लद्दाख शामिल हैं। जम्मू पहाड़ी क्षेत्र है, इसमें हिन्दू-मुस्लिम और सिक्ख अर्थात् कई धर्मों एवं भाषाओं के लोग रहते हैं। कश्मीर में मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या अधिक है और यहाँ पर हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। जबकि लद्दाख पर्वतीय क्षेत्र है, इसमें बौद्ध, मुस्लिम की आबादी है। इतनी विभिन्नताओं के कारण यहाँ पर कई क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने सिर उठाया है। यथा

  1. इसमें पहली आकांक्षा कश्मीरी पहचान की है जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है। कश्मीर के निवासी सबसे पहले अपने को कश्मीरी तथा बाद में कुछ और मानते थे
  2. राज्य में उग्रवाद और आतंकवाद को दूर करना भी यहाँ के लोगों की एक मुख्य आकांक्षा है।
  3. स्वायत्तता की बात जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के लोगों को अलग-अलग ढंग से लुभाती है। यहाँ पूरे राज्य में स्वायत्तता की माँग जितनी प्रबल है, उतनी ही प्रबल माँग राज्य के विभिन्न भागों में अपनी-अपनी स्वायत्तता को लेकर है। जम्मू-कश्मीर में कई राजनीतिक दल हैं, जो जम्मू-कश्मीर के लिए स्वायत्तता की माँग करते रहते हैं। इसमें नेशनल कांफ्रेंस सबसे महत्त्वपूर्ण दल है।
  4. इसके अतिरिक्त कुछ उग्रवादी संगठन भी हैं, जो धर्म के नाम पर जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करना चाहते हैं

प्रश्न 6.
कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर विभिन्न पक्ष क्या हैं? इनमें से कौनसा पक्ष आपको समुचित जान पड़ता है? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
कश्मीर की स्वायत्तता का मसला- कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर मुख्य रूप से दो पक्ष सामने आते हैं- प्रथम पक्ष वह है जो धारा 370 को समाप्त करना चाहता है, जबकि दूसरा पक्ष वह है जो इस राज्य को और अधिक स्वायत्तता देना चाहता हैं। यदि इन दोनों पक्षों का उचित ढंग से अध्ययन किया जाए तो प्रथम पक्ष अधिक उचित दिखाई पड़ता है जो धारा 370 को समाप्त करने के पक्ष में है। उनका तर्क है कि इस धारा के कारण यह राज्य भारत के साथ पूरी तरह नहीं मिल पाया है। इसके साथ-साथ जम्मू-कश्मीर को अधिक स्वायत्तता देने से कई प्रकार की राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याएँ भी पैदा होती हैं।

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प्रश्न 7.
असम आन्दोलन सांस्कृतिक अभिमान और आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था। व्याख्या कीजिए।
अथवा
ऑल असम स्टूडेंटस यूनियन (आ सू) द्वारा चलाये गये आंदोलनों की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर:
असम आन्दोलन – 1979 से 1985 तक असम में बाहरी लोगों के खिलाफ चला, असम आंदोलन असम के सांस्कृतिक अभियान और आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था क्योंकि-
1. असमी लोगों के मन में यह भावना घर कर गई थी कि असम में बांग्लादेश से आए विदेशी लोगों को पहचान कर उन्हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्थानीय असमी जनता अल्पसंख्यक हो जायेगी। यह उन्हें असमी संस्कृति पर ख़तरा दिखाई दे रहा था। अतः 1979 में ऑल असम स्टूडेंट यूनियन ने जब यह माँग की कि 1951 के बाद जितने भी लोग असम में आकर बसे हैं उन्हें असम से बाहर भेजा जाए, तो इस आंदोलन को पूरे असम में समर्थन मिला।

2. असम आंदोलन के पीछे आर्थिक मसले भी जुड़े थे। असम में तेल, चाय और कोयले जैसे प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद व्यापक गरीबी थी। यहाँ की जनता ने माना कि असम के प्राकृतिक संसाधन बाहर भेजे जा रहे हैं और असमी लोगों को कोई फायदा नहीं हो रहा है। दूसरे, भारत के अन्य राज्यों से या किसी अन्य देश से आए लोग यहाँ के रोजगार के अवसरों को हथिया रहे हैं और यहाँ की जनता उनसे वंचित हो रही है।

प्रश्न 8.
हर क्षेत्रीय आन्दोलन अलगाववादी माँग की तरफ अग्रसर नहीं होता । इस अध्याय से उदाहरण देकर इस तथ्य की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत के कई क्षेत्रों में काफी समय से कुछ क्षेत्रीय आन्दोलन चल रहे हैं, परन्तु सभी क्षेत्रीय आन्दोलन अलगाववादी आन्दोलन नहीं होते अर्थात् कुछ क्षेत्रीय आन्दोलन भारत से अलग नहीं होना चाहते बल्कि अपने लिए अलग राज्य की मांग करते हैं, जैसे—झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का आन्दोलन, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों द्वारा चलाया गया आन्दोलन तथा तेलंगाना प्रजा समिति द्वारा चलाया गया आन्दोलन इत्यादि ऐसे ही आन्दोलन रहे हैं और अपने क्षेत्र के लिए एक पृथक् राज्य के गठन के बाद ये आन्दोलन समाप्त हो गये हैं ।

प्रश्न 9.
भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांगों से ‘विविधता में एकता’ के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति होती है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? तर्क दीजिए।
उत्तर:
हाँ, मैं इस कथन से सहमत हूँ कि भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांगों से विविधता में एकता के सिद्धान्त की अभिव्यक्ति होती है क्योंकि देश के विभिन्न क्षेत्रों से विभिन्न प्रकार की माँगें उठीं। तमिलनाडु में जहाँ हिन्दी भाषा के विरोध और अंग्रेजी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में बनाए रखने की माँग उठी, तो असम में विदेशियों को असम से बाहर निकालने की माँग उठी, नगालैंड और मिजोरम में अलगाववाद की माँग उठी तो आंध्रप्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश व अन्य राज्यों में भाषा के आधार पर अलग राज्य बनाने की माँग उठी।

इसी प्रकार उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ तथा झारखण्ड क्षेत्रों में प्रशासनिक सुविधा तथा आदिवासियों के हितों की रक्षा हेतु अलग राज्य बनाने के. आंदोलन हुए। अभी भी विभिन्न क्षेत्रों से भिन्न-भिन्न प्रकार की माँगें उठ रही हैं जिनका मुख्य आधार क्षेत्रीय पिछड़ापन है । इससे स्पष्ट होता है कि भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय माँगों से विविधता के दर्शन होते हैं। भारत सरकार ने इन माँगों के निपटारे के लिए लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाते हुए एकता का परिचय दिया है।

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प्रश्न 10.
नीचे लिखे अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें:
हजारिका का एक गीत एकता की विजय पर है; पूर्वोत्तर के सात राज्यों को इस गीत में एक ही माँ की सात बेटियाँ कहा गया है. मेघालय अपने रास्ते गई अरुणाचल भी अलग हुई और मिजोरम असम के द्वार पर दूल्हे की तरह दूसरी बेटी से ब्याह रचाने को खड़ा है इस गीत का अंत असमी लोगों की एकता को बनाए रखने के संकल्प के साथ होता है और इसमें समकालीन असम में मौजूद छोटी-छोटी कौमों को भी अपने साथ एकजुट रखने की बात कही गई है। करबी और मिजिंग भाई-बहन हमारे ही प्रियजन हैं। संजीव बरुआ
(क) लेखक यहाँ किस एकता की बात कर रहा है?
(ख) पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के अन्य राज्य क्यों बनाए गए?
(ग) क्या आपको लगता है कि भारत के सभी क्षेत्रों के ऊपर एकता की यही बात लागू हो सकती है? क्यों?
उत्तर:
(क) लेखक यहाँ पर पूर्वोत्तर राज्यों की एकता की बात कर रहा है।

(ख) सभी समुदायों की सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए तथा आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के अन्य राज्य बनाए गए।

(ग) भारत के सभी क्षेत्रों पर एकता की यह बात लागू हो सकती है, क्योंकि भारत के सभी राज्यों में अलग- अलग धर्मों एवं जातियों के लोग रहते हैं तथा देश की एकता एवं अखण्डता के लिए उनमें एकता कायम करना आवश्यक है। दूसरे, भारत के संविधान में क्षेत्रीय विभिन्नताओं और आकांक्षाओं के लिए पर्याप्त व्यवस्था की गई है। तीसरे, देश के नेता तथा सभी राजनीतिक दल एकता के समर्थक हैं।

क्षेत्रीय आकांक्षाएँ JAC Class 12 Political Science Notes

→ क्षेत्र और राष्ट्र:
भारत में 1980 के दशक में देश के विभिन्न हिस्सों में स्वायत्तता की माँगें उठीं। लोगों ने स्वायत्तता की माँगों को लेकर संवैधानिक नियमों का उल्लंघन करते हुए हथियार तक उठाये। भारत सरकार ने इन मांगों को दबाने के लिए जवाबी कार्यवाही की, जिससे अनेक बार राजनीतिक तथा चुनावी प्रक्रिया अवरुद्ध हुई।

→ भारत सरकार का नजरिया:
राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और भारत के संविधान के बारे में अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि देश में विभिन्न क्षेत्रों और भाषायी समूह को अपनी संस्कृति को बनाये रखने का अधिकार होगा। भारत ने एकता की भावधारा से बँधे एक ऐसे सामाजिक जीवन के निर्माण का निर्णय लिया जिससे एक समाज को आकार देने वाली तमाम संस्कृतियों की विशिष्टता बनी रहे।

→ तनाव के दायरे:
आजादी के बाद भारत में क्षेत्रीय तनाव के विभिन्न मुद्दे उभरे जिनमें प्रमुख हैं-

  • आजादी के तुरन्त बाद जम्मू-कश्मीर का मामला सामने आया। यह सिर्फ भारत और पाकिस्तान के मध्य संघर्ष का मामला नहीं था। कश्मीर घाटी के लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं का सवाल भी इससे जुड़ा हुआ था।
  • ठीक इसी प्रकार पूर्वोत्तर के कुछ भागों में भारत का अंग होने के मसले पर सहमति नहीं थी। पहले नगालैण्ड में और फिर मिजोरम में भारत से अलग होने की माँग करते हुए जोरदार आंदोलन चले।
  • दक्षिण भारत में द्रविड़ आन्दोलन से जुड़े कुछ समूहों ने एक समय अलग राष्ट्र की बात उठायी थी।
  • अलगाव के इन आन्दोलनों के अतिरिक्त देश में भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की माँग करते हुए जन-आन्दोलन चले। मौजूदा कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात ऐसे ही आन्दोलनों वाले राज्यों में हैं।

→ जम्मू-कश्मीर:
जम्मू-कश्मीर भारत और पाकिस्तान के मध्य एक बड़ा मुद्दा है। 1947 से पहले जम्मू-कश्मीर में राजशाही थी। इसके हिन्दू शासक भारत में शामिल होना नहीं चाहते थे और उन्होंने अपने स्वतन्त्र राज्य के लिए भारत और पाकिस्तान के साथ समझौता करने की कोशिश की। कश्मीर समस्या की प्रमुख जड़ों को निम्न प्रकार समझा जा सकता है-

→  राज्य में नेशनल कान्फ्रेंस के शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जन-आन्दोलन चला। शेख अब्दुल्ला चाहते थे कि महाराजा पद छोड़ें, लेकिन वे पाकिस्तान में शामिल होने के खिलाफ थे। नेशनल कान्फ्रेंस एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था। इसका कांग्रेस के साथ काफी समय से गठबन्धन था। राष्ट्रीय राजनीति के कई प्रमुख नेता शेख अब्दुल्ला के मित्र थे। इनमें नेहरू भी शामिल थे।

→ अक्टूबर, 1947 में पाकिस्तान ने कबायली घुसपैठ को अपनी तरफ से कश्मीर पर कब्जा करने भेजा। ऐसे में महाराज भारतीय सेना से मदद माँगने को मजबूर हुए। भारत ने सैन्य मदद उपलब्ध करवाई और कश्मीर घाटी से घुसपैठियों को खदेड़ा। इससे पहले भारत सरकार ने महाराजा से भारत संघ में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करा लिए। इस बारे में सहमति जताई गई कि स्थिति सामान्य होने पर जम्मू-कश्मीर की नियति का फैसला जनमत सर्वेक्षण द्वारा होगा। मार्च, 1948 में शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रधानमन्त्री बने ( राज्य में सरकार के मुखिया को तब प्रधानमन्त्री कहा जाता था )। भारत, जम्मू एवं कश्मीर की स्वायत्तता को बनाए रखने पर सहमत हो गया। इसे संविधान में धारा 370 का प्रावधान करके संवैधानिक दर्जा दिया गया।

→ बाहरी और आन्तरिक दबाव:
जम्मू-कश्मीर की राजनीति हमेशा विवादग्रस्त एवं संघर्षयुक्त रही। इसमें बाहरी एवं आन्तरिक दोनों कारण हैं। कश्मीर समस्या का एक कारण पाकिस्तान का रवैया है। उसने हमेशा यह दावा किया है कि कश्मीर घाटी पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। 1947 में इस राज्य में पाकिस्तान ने कबायली हमला कराया। इसके परिणामस्वरूप राज्य का एक हिस्सा पाकिस्तानी नियन्त्रण में आ गया। भारत ने दावा किया कि यह क्षेत्र का अवैध अधिग्रहण है। पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को आजाद कश्मीर कहा । 1947 के बाद कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष का एक बड़ा मुद्दा रहा है। आन्तरिक रूप से देखें तो भारतीय संघ में कश्मीर की हैसियत को लेकर विवाद रहा। कश्मीर को संविधान में धारा 370 के अन्तर्गत विशेष स्थान दिया गया है। धारा 370 के तहत जम्मू एवं कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा स्वायत्तता दी गई है।

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→ 1948 के बाद की राजनीति:
प्रधानमन्त्री बनने के बाद शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में सुधार हेतु अनेक कदम उठाये। उन्होंने भूमि सुधार व जन-कल्याण हेतु अनेक कार्यक्रम चलाये लेकिन केन्द्र सरकार से मतभेद होने के कारण उन्हें 1953 में पद से हटा दिया गया। 1953 से लेकर 1974 तक राज्य की राजनीति पर कांग्रेस का असर रहा। विभाजित हो चुकी नेशनल कांफ्रेंस कांग्रेस के समर्थन से राज्य में कुछ समय तक सत्तासीन रही लेकिन बाद में यह कांग्रेस में मिल गयी। इस तरह राज्य की सत्ता सीधे कांग्रेस के नियन्त्रण में आ गई। इस बीच शेख अब्दुल्ला और भारत सरकार के बीच सुलह की कोशिश जारी रही। आखिरकार, 1974 में इन्दिरा गाँधी के साथ शेख अब्दुल्ला ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और वे राज्य के मुख्यमन्त्री बने।

→ विद्रोही तेवर और उसके बाद:
1984 में विधानसभा चुनाव हुए। आधिकारिक नतीजे बता रहे थे कि नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबन्धन को भारी बहुमत मिला है। फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने। बहराल लोग यह मान रहे थे कि चुनावों में धाँधली हुई है और चुनाव परिणाम जनता की पसंद की नुमाइंदगी नहीं कर रहे। 1980 के दशक से ही यहाँ के लोगों में प्रशासनिक अक्षमता को लेकर रोष पनप रहा था। 1989 तक राज्य उग्रवादी आन्दोलन की गिरफ्त में आ चुका था। इस आन्दोलन में लोगों को अलग कश्मीर के नाम पर लामबंद किया जा रहा था। 1990 के बाद से इस राज्य के लोगों को उग्रवादियों और सेना की हिंसा भुगतनी पड़ी। 1996 में एक बार फिर इस राज्य में विधानसभा चुनाव हुए। फारुख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस की सरकार बनी और उसने जम्मू-कश्मीर के लिए क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग की। जम्मू-कश्मीर में 2002 के चुनाव बड़े निष्पक्ष ढंग से हुए । नेशनल कांफ्रेंस को बहुमत नहीं मिल पाया। इस चुनाव में पीपुल्स डेमोक्रेटिक अलायंस (पीडीपी) और कांग्रेस की गठबन्धन सरकार सत्ता में आई।

→ 2002 और इससे आगे:
गठबंधन के अनुसार मुफ्ती मोहम्मद तीन वर्षों तक सरकार के मुखिया रहे, इसके बाद गुलामनबी आजाद मुखिया बने। 2008 में कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और 2008 के नवंबर-दिसंबर में चुनाव करवाया गया। उमर अब्दुल्ला मुखिया बने। 2014 के चुनाव में पीडीपी और बीजेपी का गठबंधन हुआ और मिली-जुली सरकार सत्ता में आई । 2018 में बीजेपी ने अपना सहयोग वापस ले लिया। फलस्वरूप कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। 5 अगस्त, 2019 को जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 द्वारा अनुच्छेद 370 समाप्त कर दिया गया। राज्य को पुनर्गठित कर दो केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख बना दिये गये।

→ पंजाब:
1980 के दशक में पंजाब में भी बड़े बदलाव आए। इस प्रान्त की सामाजिक बनावट विभाजन के समय पहली बार बदली थी। 1966 में पंजाबी भाषी प्रान्त का निर्माण हुआ। सिखों की राजनीतिक शाखा के रूप में 1920 के दशक में अकाली दल का गठन हुआ था। अकाली दल ने पंजाबी सूबा के गठन का आन्दोलन चलाया। पंजाबी- भाषी सूबे में सिख बहुसंख्यक हो गये। राजनीतिक संदर्भ-पंजाबी सूबे के पुनर्गठन के बाद अकाली दल ने यहाँ 1967 और इसके बाद 1977 में सरकार बनाई। 1970 के दशक में अकालियों के एक तबके ने पंजाब के लिए स्वायत्तता की माँग उठायी। 1973 में आनंदपुर साहिब में हुए एक सम्मेलन में क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग उठायी गयी। 1980 में अकाली दल की सरकार बर्खास्त हो गई तो अकाली दल ने पंजाब तथा पड़ौसी राज्यों के बीच पानी के बँटवारे को लेकर आन्दोलन चलाया।

→ हिंसा का चक्र:
जल्दी ही अकाली आन्दोलन का नेतृत्व नरम पंथियों के हाथों से निकल कर चरमपंथियों के हाथों में आ गया और इस आन्दोलन ने सशस्त्र विद्रोह का रूप ले लिया। उग्रवादियों ने अमृतसर स्थित सिखों के तीर्थ स्थल स्वर्णमन्दिर में अपना मुख्यालय बनाया और स्वर्णमन्दिर एक हथियारबंद किले में तब्दील हो गया। 1984 के जून माह में भारत सरकार ने ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया । यह स्वर्णमन्दिर में की गई सैन्य कार्यवाही का कूट नाम था । कुछ और त्रासद घटनाओं ने पंजाब की समस्या को एक जटिल रास्ते पर खड़ा कर दिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की 31 अक्टूबर, 1984 के दिन उनके आवास के बाहर उन्हीं के अंगरक्षकों ने हत्या कर दी। श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या के कारण दिल्ली में बड़े पैमाने पर सिख विरोधी दंगे हुए जिसमें लगभग 2000 सिख स्त्री-पुरुष एवं बच्चे मारे गये।

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→ शांति की ओर:
984 के चुनावों के बाद तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने नरमपंथी अकाली नेताओं से बातचीत की शुरुआत की। अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचरन सिंह लोंगोवाल के साथ 1985 की जुलाई में एक समझौता हुआ। इस समझौते को राजीव गाँधी लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता कहा जाता है । यह समझौता पंजाब में अमन कायम करने की क्रिया में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। लेकिन पंजाब में हिंसा का चक्र लगभग एक दशक तक चलता रहा। केन्द्र सरकार ने पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। इससे सामान्य राजनीतिक तथा चुनावी प्रक्रिया बाधित हुई। 1992 में पंजाब के चुनावों में 24 प्रतिशत मतदाता मत डालने आए। 1990 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में पंजाब में शांति बहाल हुई तथा 1997 में चुनाव में लोगों ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। अब पंजाब में पुनः आर्थिक विकास और सामाजिक परिवर्तन के मुद्दे प्रमुख हो गये हैं।

→ पूर्वोत्तर:
पूर्वोत्तर राज्यों में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ 1980 के दशक में एक निर्णायक मोड़ पर आ गई थीं। क्षेत्र में सात राज्य हैं। इन्हें ‘सात बहनें’ कहा जाता है। इस क्षेत्र में देश की कुल 4 फीसदी आबादी निवास करती है। लेकिन भारत के कुल क्षेत्रफल में पूर्वोत्तर के हिस्से को देखते हुए यह आबादी दोगुनी कही जाएगी। 22 किलोमीटर लंबी एक पतली सी राहदारी इस इलाके को शेष भारत से जोड़ती है अन्यथा इस क्षेत्र की सीमाएँ चीन, म्यांमार और बांग्लादेश से लगती हैं और यह इलाका भारत के लिए एक तरह से दक्षिण-पूर्वी एशिया का प्रवेश द्वार है।

इस इलाके में 1947 के बाद अनेक परिवर्तन आये हैं। पूर्वोत्तर के पूरे इलाके का बड़े व्यापक स्तर पर राजनीतिक पुनर्गठन हुआ है। नगालैण्ड को 1963 में राज्य बनाया गया। मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा 1972 में राज्य बने जबकि अरुणाचल प्रदेश को 1987 में राज्य का दर्जा दिया गया। 1947 के भारत विभाजन से पूर्वोत्तर के इलाके भारत के शेष भागों से एकदम अलग-थलग पड़ गए और इसका अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव पड़ा। पूर्वोत्तर के राज्यों में राजनीति में तीन मुद्दे हावी हैं

  • स्वायत्तता की माँग,
  • अलगाव के आन्दोलन तथा
  • बाहरी लोगों का विरोध।

→ स्वायत्तता की माँग:
आजादी के वक्त मणिपुर और त्रिपुरा को छोड़ दें तो यह पूरा इलाका असम कहलाता था। गैर- असमी लोगों को जब लगा कि असम की सरकार उन पर असमी भाषा थोप रही है तो इस इलाके से राजनीतिक स्वायत्तता की माँग उठी। पूरे राज्य में असमी भाषा को लादने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और दंगे हुए। बड़े जनजाति समुदाय के नेता असम से अलग होना चाहते थे। इन लोगों ने ‘ईस्टर्न इंडिया ट्राइबल यूनियन’ का गठन किया जो 1960 में कहीं ज्यादा व्यापक ‘आल पार्टी हिल्स कांफ्रेंस’ में बदल गया। इन नेताओं की माँग थी कि असम से

→ अलग एक जन:
जातीय राज्य बनाया जाए। आखिरकार एक जनजातीय राज्य की जगह असम को काट कर कई जनजातीय राज्य बने। केन्द्र सरकार ने अलग-अलग वक्त पर असम को बाँटकर मेघालय, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश बनाया। 1972 तक पूर्वोत्तर का पुनर्गठन पूरा हो चुका था लेकिन स्वायत्तता की माँग खत्म नहीं हुई। उदाहरण के लिए, असम के बोडो, करबी और दिमसा जैसे समुदायों ने अपने लिए अलग राज्य की माँग की। अपनी माँग के पीछे उन्होंने जनमत तैयार करने के प्रयास किए, जन-आंदोलन चलाए और विद्रोही कार्यवाहियाँ भी कीं।
संघीय राजव्यवस्था के कुछ और प्रावधानों का उपयोग करके स्वायत्तता की मांग को सन्तुष्ट करने की कोशिश की गई और इन समुदायों को असम में ही रखा गया। करबी और दिमसा समुदायों को जिला परिषद् के अन्तर्गत स्वायत्तता दी गई। बोडो जनजाति को हाल ही में स्वायत्त परिषद् का दर्जा दिया गया है।

→ अलगाववादी आंदोलन:
पूर्वोत्तर राज्यों में स्वायत्तता की माँग के साथ – साथ अलगाववादी ताकतों का भी बोलबाला बढ़ा। अलगाववादी देश से अलग होकर अपने को एक अलग राष्ट्र के रूप में प्रतिस्थापित करना चाहते थे। भारत के पूर्वोत्तर के राज्य असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, नगालैण्ड, मिजोरम, त्रिपुरा में इस प्रकार की माँगें उठती रहती हैं।

→ बाहरी लोगों के खिलाफ आन्दोलन:
पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर अप्रवासी भारतीय आये हैं। इससे एक खास समस्या उत्पन्न हुई है। स्थानीय जनता इन्हें बाहरी समझती है और बाहरी लोगों के खिलाफ उसके मन गुस्सा है। भारत के दूसरे राज्यों अथवा किसी अन्य देश से आये लोगों को यहाँ की जनता रोजगार के अवसरों और राजनीतिक सत्ता के एतबार से एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखती है। स्थानीय लोग बाहर से आये लोगों के बारे में मानते हैं कि ये लोग यहाँ की जमीन हथिया रहे हैं। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया है और कभी-कभी इन बातों के कारण हिंसक घटनाएँ भी होती हैं।

→ समाहार और राष्ट्रीय अखण्डता:
आजादी के छह दशक बाद भी राष्ट्रीय अखण्डता के कुछ मामलों का समाधान पूरी तरह से नहीं हो पाया। क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लगातार एक न एक रूप से उभरती रहीं। कभी कहीं से अलग राज्य बनाने की माँग उठी तो कहीं आर्थिक विकास का मसला उठा। कहीं-कहीं से अलगाववाद के स्वर उभरे। 1980 के बाद के दौर में भारत की राजनीति इन तनावों के घेरे में रही और समाज के विभिन्न तबके की माँगों में पटरी बैठा पाने की लोकतान्त्रिक राजनीति की क्षमता की परीक्षा हुई।

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