JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

Jharkhand Board Class 12 Political Science लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट InText Questions and Answers

पृष्ठ 104

प्रश्न 1.
गरीब जनता पर सचमुच भारी मुसीबत आई होगी। आखिर गरीबी हटाओ के वादे का हुआ क्या? उत्तर – श्रीमती गांधी ने 1971 के आम चुनावों में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था लेकिन इस नारे के बावजूद भी 1971-72 के बाद के वर्षों में भी देश की सामाजिक-आर्थिक दशा में सुधार नहीं हुआ और यह नारा खोखला साबित हुआ। इसी अवधि में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कई गुना बढ़ोतरी हुई। इससे विभिन्न चीजों की कीमतों में तेजी आई। इस तीव्र मूल्य वृद्धि से लोगों को भारी कठिनाई हुई । बांग्लादेश के संकट से भी भारत की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ा था। लगभग 80 लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पार करके भारत आ गये थे । इसके बाद पाकिस्तान से युद्ध भी करना पड़ा। फलतः गरीबी हटाओ कार्यक्रम के लिए दिये जाने वाले अनुदान में कटौती कर दी गई और यह नारा पूर्णतः असफल साबित हुआ।

पृष्ठ 107

प्रश्न 2.
क्या ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ और ‘प्रतिबद्ध नौकरशाही’ का मतलब यह है कि न्यायाधीश और सरकारी अधिकारी शासक दल के प्रति निष्ठावान हो?
उत्तर:
प्रतिबद्ध नौकरशाही के अन्तर्गत नौकरशाही किसी विशिष्ट राजनीतिक दल के सिद्धान्तों से बंधी हुई होती है और उस दल के निर्देशन में कार्य करती है। प्रतिबद्ध नौकरशाही निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र होकर कार्य नहीं करती; बल्कि इसका कार्य किसी दल विशेष की योजनाओं को बिना किसी प्रश्न उठाए आँखें मूंद कर लागू करना होता है। जहाँ तक प्रतिबद्ध न्यायपालिका का सवाल है यह ऐसी न्यायपालिका होती है, जो एक दल विशेष या सरकार विशेष के प्रति वफादार हो तथा सरकार के निर्देशों के अनुसार चले। इस प्रकार ऐसी व्यवस्था में न्यायपालिका व व्यवस्थापिका की स्वतन्त्रता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है और प्रशासन निरंकुश हो जाता है अर्थात् कानून बनाने एवं फैसला या निर्णय देने की शक्ति केवल एक ही संस्था या दल के पास आ जाती है। इस प्रकार की व्यवस्था प्रायः साम्यवादी देशों में पायी जाती है।

पृष्ठ 108

प्रश्न 3.
यह तो सेना से सरकार के खिलाफ बगावत करने को कहने जैसा जान पड़ता है। क्या यह बात लोकतांत्रिक है?
उत्तर:
नहीं, यह बात लोकतंत्र के खिलाफ है।

पृष्ठ 109

प्रश्न 4.
क्या राष्ट्रपति को मन्त्रिमण्डल की सिफारिश के बगैर आपातकाल की घोषणा करनी चाहिए थी? कितनी अजीब बात है!
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियों का उल्लेख किया गया है। भारत में 1975 में अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की गई जिसमें मन्त्रिमण्डल से सलाह करके आपातकालीन स्थिति की घोषणा का प्रावधान है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने बिना मंत्रिमण्डल की सलाह के राष्ट्रपति को आपातकाल की घोषणा करने की सलाह दी थी, मन्त्रिमण्डल की बैठक उसके बाद हुई। इस प्रकार तत्कालीन परिस्थितियों में चाहें कुछ भी हुआ हो लेकिन वर्तमान में आपातकाल के प्रावधानों में सुधार कर लिया गया है। अंब आंतरिक आपातकाल सिर्फ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में ही लगाया जा सकता है। इसके लिए भी आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिपरिषद् को राष्ट्रपति को लिखित में देनी होगी।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

पृष्ठ 112

प्रश्न 5.
अरे ! सर्वोच्च न्यायालय ने भी साथ छोड़ दिया! उन दिनों सबको क्या हो गया था?
उत्तर:
आपातकाल के दौरान नागरिकों की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिये गये तथा मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गये। लेकिन अनेक उच्च न्यायालयों ने फैसला दिया कि आपातकाल की घोषणा के बावजूद अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर सकती है जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी हो। 1976 के अप्रेल माह में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मान ली। इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिकों से जीवन और आजादी का अधिकार वापस ले सकती है। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फैसलों में से एक माना गया। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बंद हो गए अर्थात् इस काल में सर्वोच्च न्यायालय ने भी जनता का साथ छोड़ दिया था।

पृष्ठ 113

प्रश्न 6.
जिन चंद लोगों ने प्रतिरोध किया, उनकी बात छोड़ दें- बाकियों के बारे में सोचें कि उन्होंने क्या किया ! क्या कर रहे थे बड़े-बड़े अधिकारी, बुद्धिजीवी, सामाजिक-धार्मिक नेता और नागरिक …………..?
उत्तर:
आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकार समाप्त कर दिए गए थे। जिन्होंने विरोध किया उनको जेल में डाल दिया गया, कई नेताओं और बुद्धिजीवियों को नजरबंद कर दिया गया। सरकार के विरोध में कोई भी स्वर उठाता उसको जेल में यातनाएँ दी जातीं। कुछ नेता जो गिरफ्तारी से बच गए वे भूमिगत होकर सरकार के खिलाफ मुहिम जारी रखी। कुछ ने आपातकाल के विरोध में अपनी पदवी लौटा दी। अधिकारी सरकार के प्रति वफादार बने रहे और ऐसा न करने पर उनका निलंबन कर दिया जाता था।

पृष्ठ 121

प्रश्न 7.
अगर उत्तर और दक्षिण के राज्यों में मतदाताओं ने इतने अलग ढर्रे पर मतदान किया, तो हम कैसे कहें कि 1977 के चुनावों का जनादेश क्या था?
उत्तर:
1977 के चुनावों में आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हारी। कांग्रेस को लोकसभा की मात्र 154 सीटें मिलीं। उसे 35 प्रतिशत से भी कम वोट प्राप्त हुए। जनता पार्टी और उसके साथी दलों . को 330 सीटें प्राप्त हुईं। लेकिन तत्कालीन चुनावी नतीजों पर प्रकाश डालें तो यह एहसास होता है कि कांग्रेस देश में हर जगह चुनाव नहीं हारी थी । महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा में उसने कई सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखा था और दक्षिण भारत के राज्यों में तो उसकी स्थिति काफी मजबूत थी। इसका मुख्य कारण यह था कि दक्षिण के राज्यों में आपातकाल के दौरान ज्यादतियाँ नहीं हुई थीं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि चुनावों का जनादेश आपातकाल की ज्यादतियों व उसके दुरुपयोग के विरुद्ध था।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

पृष्ठ 122

प्रश्न 8.
मैं समझ गया! आपातकाल एक तरह से तानाशाही निरोधक टीका था। इसमें दर्द हुआ और बुखार भी आया, लेकिन अन्ततः हमारे लोकतन्त्र के भीतर क्षमता बढ़ी।
उत्तर:
आपातकाल से सबक – आपातकाल के प्रमुख सबक निम्नलिखित हैं-

  1. आपातकाल का प्रथम सबक तो यही है कि भारत से लोकतन्त्र को विदा कर पाना बहुत कठिन है।
  2. दूसरे आपातकाल से संविधान में वर्णित आपातकाल के प्रावधानों के कुछ अर्थगत उलझाव भी प्रकट हुए, जिन्हें बाद में सुधार लिया गया। अब आंतरिक आपातकाल सिर्फ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में लगाया जा सकता है। इसके लिए यह भी जरूरी है कि आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिपरिषद् राष्ट्रपति को लिखित में दे।
  3. तीसरे आपातकाल से हर कोई नागरिक अधिकारों के प्रति ज्यादा सचेत हुआ। आपातकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई।

Jharkhand Board Class 12 Political Science लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट TextBook Questions and Answers

प्रश्न 1.
बताएँ कि आपातकाल के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत-
(क) आपातकाल की घोषणा 1975 में इंदिरा गाँधी ने की।
(ख) आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निष्क्रिय हो गए।
(ग) बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति के मद्देनजर आपातकाल की घोषणा की गई थी।
(घ) आपातकाल के दौरान विपक्ष के अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
(ङ) सी. पी. आई. ने आपातकाल की घोषणा का समर्थन किया।
उत्तर:
(क) गलत,
(ख) सही,
(ग) गलत,
(घ) सही,
(ङ) सही।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन-सा आपातकाल की घोषणा के संदर्भ में मेल नहीं खाता है-
(क) ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान
(ख) 1974 की रेल – हड़ताल
(ग) नक्सलवादी आंदोलन
(घ) इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला
(ङ) शाह आयोग की रिपोर्ट के निष्कर्ष
उत्तर:
(ग) नक्सलवादी आंदोलन

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में मेल बैठाएँ-

(क) संपूर्ण क्रांति (i) इंदिरा गाँधी
(ख) गरीबी हटाओ (ii) जयप्रकाश नारायण
(ग) छात्र आंदोलन (iii) बिहार आंदोलन
(घ) रेल हड़ताल (iv) जॉर्ज फर्नांडिस

उत्तर:

(क) संपूर्ण क्रांति (ii) जयप्रकाश नारायण
(ख) गरीबी हटाओ (i) इंदिरा गाँधी
(ग) छात्र आंदोलन (iii) बिहार आंदोलन
(घ) रेल हड़ताल (iv) जॉर्ज फर्नांडिस

प्रश्न 4.
किन कारणों से 1980 के मध्यावधि चुनाव करवाने पड़े?
उत्तर:
1977 के चुनावों में जनता पार्टी को जनता ने स्पष्ट बहुमत प्रदान किया लेकिन जनता पार्टी के नेताओं में प्रधानमंत्री के पद को लेकर मतभेद हो गया। आपातकाल का विरोध जनता पार्टी को कुछ दिनों के लिए ही एकजुट रख सका। जनता पार्टी के पास किसी एक दिशा, नेतृत्व अथवा साझे कार्यक्रम का अभाव था। केवल 18 महीने में ही मोरारजी देसाई ने लोकसभा में अपना बहुमत खो दिया जिसके कारण मोरारजी देसाई को त्यागपत्र देना पड़ा। मोरारजी देसाई के बाद चरणसिंह कांग्रेस पार्टी के समर्थन से प्रधानमंत्री बने लेकिन चार महीने बाद कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया। अतः जनता पार्टी की सरकार में पारस्परिक तालमेल का अभाव, सत्ता की भूख तथा राजनैतिक अस्थिरता के कारण 1980 में मध्यावधि चुनाव करवाए गए।

प्रश्न 5.
जनता पार्टी ने 1977 में शाह आयोग को नियुक्त किया था। इस आयोग की नियुक्ति क्यों की गई थी? इसके क्या निष्कर्ष थे?
उत्तर:
शाह आयोग का गठन ” 25 जून, 1975 के दिन घोषित आपातकाल के दौरान की गई कार्यवाही तथा सत्ता के दुरुपयोग, अतिचार और कदाचार के विभिन्न आरोपों के विविध पहलुओं” की जाँच के लिए किया गया था । आयोग ने विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों की जांच की और हजारों गवाहों के बयान दर्ज किए। शाह आयोग ने अपनी जाँच के दौरान पाया कि इस अवधि में बहुत सारी ‘अति’ हुई। भारत सरकार ने आयोग द्वारा प्रस्तुत दो अंतरिम रिपोर्टों और तीसरी तथा अंतिम रिपोर्ट की सिफारिशी पर्यवेक्षणों और निष्कर्षों को स्वीकार किया ।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 6.
1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करते हुए सरकार ने इसके क्या कारण बताए थे?
उत्तर:
1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करते हुए सरकार ने इसके निम्नलिखित कारण बताये थे-

  1. सरकार ने कहा कि विपक्षी दलों द्वारा लोकतन्त्र को रोकने की कोशिश की जा रही है तथा सरकार को उचित ढंग से कार्य नहीं करने दिया जा रहा है। आन्दोलनों के कारण हिंसक घटनाएँ हो रही हैं तथा हमारी सेना तथा पुलिस को बगावत के लिए उकसाया जा रहा है। (ii) सरकार ने कहा कि विघटनकारी ताकतों का खुला खेल जारी है और साम्प्रदायिक उन्माद को हवा दी जा रही है, जिससे हमारी एकता पर खतरा मँडरा रहा है।
  2. षड्यंत्रकारी शक्तियाँ सरकार के प्रगतिशील कामों में अड़ंगे लगा रही हैं और उसे गैर-संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहती हैं।

प्रश्न 7.
1977 के चुनावों के बाद पहली दफा केन्द्र में विपक्षी दल की सरकार बनी। ऐसा किन कारणों से संभव हुआ?
उत्तर:
1977 के चुनावों के बाद केन्द्र में पहली बार विपक्षी दल की सरकार बनने के पीछे अनेक कारण जिम्मेदार रहे, इनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  1. बड़ी विपक्षी पार्टियों का एकजुट होना: आपातकाल लागू होने से आहत विपक्षी नेताओं ने आपातकाल के बाद हुए चुनाव के पहले एकजुट होकर ‘जनता पार्टी’ नामक एक नया दल बनाया। कांग्रेस विरोधी मतों के बिखराव को रोका।
  2. जगजीवनराम द्वारा त्याग-पत्र देना: चुनाव से पहले जगजीवनराम ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया तथा कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं ने जगजीवनराम के नेतृत्व में एक नयी पार्टी – ‘कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ बनायी तथा बाद में यह पार्टी जनता पार्टी में शामिल हो गई ।
  3. आपातकाल की ज्यादतियाँ: आपातकाल के दौरान जनता पर अनेक ज्यादतियाँ की गईं। जैसे – संजय गाँधी के नेतृत्व में अनिवार्य नसबंदी कार्यक्रम चलाया गया; प्रेस तथा समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता पर रोक लगा दी गई; हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि हो गई। इन सब कारणों से जनता कांग्रेस से नाराज थी और उसने कांग्रेस के विरोध में मतदान किया।
  4. जनता पार्टी का प्रचार: जनता पार्टी ने 1977 के चुनावों को आपातकाल के ऊपर जनमत संग्रह का रूप दिया तथा इस पार्टी ने चुनाव प्रचार में शासन के अलोकतांत्रिक चरित्र और आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों को मुद्दा बनाया।

प्रश्न 8.
हमारी राजव्यवस्था के निम्नलिखित पक्ष पर आपातकाल का क्या असर हुआ?
1. नागरिक अधिकारों की दशा और नागरिकों पर इसका असर
2. कार्यपालिका और न्यायपालिका के संबंध
3. जनसंचार माध्यमों के कामकाज
4. पुलिस और नौकरशाही की कार्यवाहियाँ ।
उत्तर:

  1. आपातकाल के दौरान नागरिक अधिकारों को निलम्बित कर दिया गया तथा श्रीमती गाँधी द्वारा ‘मीसा कानून’ लागू किया गया जिसके अन्तर्गत किसी भी नागरिक को बिना कारण बताए कानूनी हिरासत में लिया जा सकता था।
  2. आपातकाल में कार्यपालिका एवं न्यायपालिका एक-दूसरे के सहयोगी हो गये, क्योंकि सरकार ने सम्पूर्ण न्यायपालिका को सरकार के प्रति वफादार रहने के लिए कहा तथा आपातकाल के दौरान कुछ हद तक न्यायपालिका सरकार के प्रति वफादार भी रही। इस प्रकार आपातकाल के दौरान न्यायपालिका कार्यपालिका के आदेशों का पालन करने वाली संस्था बन गई थी।
  3. आपातकाल के दौरान जनसंचार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, कोई भी समाचार पत्र सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छाप सकता था तथा जो भी खबर अखबार द्वारा छापी जाती थी उसे
  4. पहले सरकार से स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती थी।
  5. आपातकाल के दौरान पुलिस और नौकरशाही, सरकार के प्रति वफादार बनी रही, यदि किसी पुलिस अधिकारी या नौकरशाही ने सरकार के आदेशों को मानने से मना किया तो उसे या तो निलम्बित कर दिया गया या गिरफ्तार कर लिया गया। इस काल में पुलिस की ज्यादतियाँ बढ़ गई थीं तथा नौकरशाही अनुशासन के नाम पर तानाशाह हो गयी थी। रिश्वतखोरी बढ़ गयी थी।

प्रश्न 9.
भारत की दलीय प्रणाली पर आपातकाल का किस तरह असर हुआ? अपने उत्तर की पुष्टि उदाहरणों से करें।
उत्तर:
आपातकाल का भारतीय दलीय व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा क्योंकि अधिकांश विरोधी दलों को किसी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत नहीं थी। आजादी के समय से लेकर 1975 तक भारत में वैसे भी कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व रहा तथा संगठित विरोधी दल उभर नहीं पाया, वहीं आपातकाल के दौरान विरोधी दलों की स्थिति और भी खराब हुई। आपातकाल के बाद सरकार ने जनवरी, 1977 में चुनाव कराने का फैसला लिया। सभी बड़े विपक्षी दलों ने मिलकर एक नयी पार्टी – ‘ जनता पार्टी’ का गठन कर चुनाव लड़ा और सफलता पायी और सरकार बनाई। इस प्रकार कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि राष्ट्रीय स्तर पर भारत की राजनैतिक प्रणाली द्वि-दलीय हो जायेगी। लेकिन 18 माह में ही जनता पार्टी का यह कुनबा बिखर गया और पुनः दलीय प्रणाली उसी रूप में आ गई।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

प्रश्न 10.
निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें-
1977 के चुनावों के दौरान भारतीय लोकतंत्र, दो- दलीय व्यवस्था के जितना नजदीक आ गया था उतना पहले कभी नहीं आया। बहरहाल अगले कुछ सालों में मामला पूरी तरह बदल गया। हारने के तुरंत बाद कांग्रेस दो टुकड़ों में बँट गई: “जनता पार्टी में भी बड़ी अफरा-तफरी मची” “डेविड बटलर, अशोक लाहिड़ी और प्रणव रॉय। – पार्थ चटर्जी
(क) किन वजहों से 1977 में भारत की राजनीति दो- दलीय प्रणाली के समान जान पड़ रही थी?
(ख) 1977 में दो से ज्यादा पार्टियाँ अस्तित्व में थीं। इसके बावजूद लेखकगण इस दौर को दो- दलीय प्रणाली के नजदीक क्यों बता रहे हैं?
(ग) कांग्रेस और जनता पार्टी में किन कारणों से टूट पैदा हुई ?
उत्तर:
(क) 1977 में भारत की राजनीति दो- दलीय प्रणाली इसलिए जान पड़ती थी; क्योंकि उस समय केवल दो ही दल सत्ता के मैदान में थे, जिसमें सत्ताधारी दल कांग्रेस एवं मुख्य विपक्षी दल जनता पार्टी।

(ख) लेखकगण इस दौर को दो- दलीय प्रणाली के नजदीक इसलिए बता रहे हैं; क्योंकि कांग्रेस कई टुकड़ों. में बँट गई और जनता पार्टी में भी फूट हो गई परंतु फिर भी इन दोनों प्रमुख पार्टियों के नेता संयुक्त नेतृत्व और साझे कार्यक्रम और नीतियों की बात करने लगे। इन दोनों गुटों की नीतियाँ एक जैसी थीं। दोनों में बहुत कम अंतर था । वामपंथी मोर्चे में सी. पी. एम., सी. पी. आई., फारवर्ड ब्लॉक, रिपब्लिकन पार्टी की नीति एवं कार्यक्रमों को इनसे अलग माना जा सकता है।

(ग) 1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार के कारण नेताओं में निराशा पैदा हुई और इस निराशा के कारण फूट पैदा हुई, क्योंकि अधिकांश कांग्रेसी नेता श्रीमती गाँधी के चमत्कारिक नेतृत्व के महापाश से बाहर निकल चुके थे, दूसरी ओर जनता पार्टी में नेतृत्व और विचारधारा को लेकर फूट पैदा हो गई थी। प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारों में आपसी होड़ मच गई।

लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट JAC Class 12 Political Science Notes

→ आपातकाल की पृष्ठभूमि:
1967 के चुनावों के बाद भारतीय राजनीति में व्यापक बदलाव आया। श्रीमती इंदिरा गाँधी एक कद्दावर नेता के रूप में उभरीं और उनकी लोकप्रियता चरम सीमा पर पहुँच गई। इस काल में दलगत प्रतिस्पर्द्धा कहीं ज्यादा तीखी और ध्रुवीकृत हो गई तथा न्यायपालिका और सरकार के सम्बन्धों में तनाव आए। इस काल में कांग्रेस के विपक्ष में जो दल थे उन्हें लग रहा था कि सरकारी प्राधिकार को निजी प्राधिकार मानकर प्रयोग किया जा रहा है और राजनीति हद से ज्यादा व्यक्तिगत होती जा रही है। कांग्रेस की टूट से इंदिरा गांधी और उनके विरोधियों के बीच मतभेद गहरे हो गये थे।

→ आर्थिक संदर्भ:
1971 में ‘गरीबी हटाओ’ का जो नारा दिया गया वह पूर्णतया खोखला साबित हुआ। बांग्लादेश के संकट से भारत की अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ा। लगभग 80 लाख शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पार करके भारत आ गये। युद्ध के बाद अमरीका ने भारत की सहायता बन्द कर दी। इस अवधि में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कई गुना वृद्धि हुई जिससे भारत की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वस्तुओं की कीमतों में जबरदस्त इजाफा हुआ।

→ गुजरात और बिहार में आंदोलन: गुजरात और बिहार में कांग्रेसी सरकार थी। इन राज्यों में हुए आन्दोलनों का प्रदेश की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा।

→ गुजरात में आंदोलन के कारण: 1974 में तेल की कीमतों व आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि के विरुद्ध छात्रों ने आन्दोलन किया। इस आन्दोलन में बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ भी शामिल हो गईं और इस आन्दोलन ने विकराल रूप धारण कर लिया। ऐसे में गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। विपक्षी दलों ने राज्य की विधानसभा के लिए दुबारा चुनाव कराने की मांग की। कांग्रेस (ओ) के प्रमुख नेता मोरारजी देसाई ने कहा कि अगर राज्य में नए सिरे से चुनाव नहीं करवाए गए तो मैं भूख हड़ताल पर बैठ जाऊँगा। मोरारजी अपने कांग्रेस के दिनों में इंदिरा गांधी के मुख्य विरोधी रहे थे। विपक्षी दलों द्वारा समर्थित छात्र आंदोलन के गहरे दबाव में 1975 के जून में विधानसभा के चुनाव हुए। कांग्रेस इस चुनाव में हार गयी।

→ बिहार में आंदोलन के कारण:
1974 के मार्च माह में बिहार में इन्हीं मांगों को लेकर छात्रों द्वारा आन्दोलन छेड़ा गया। आंदोलन के क्रम में उन्होंने जयप्रकाश नारायण (जेपी) को बुलावा भेजा। जेपी तब सक्रिय राजनीति छोड़ चुके थे और सामाजिक कार्यों में लगे हुए थे। जेपी ने छात्रों का निमंत्रण इस शर्त पर स्वीकार किया कि आंदोलन अहिंसक रहेगा और अपने को सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रखेगा। इस प्रकार छात्र आंदोलन ने एक राजनीतिक चरित्र ग्रहण किया और उसके भीतर राष्ट्रव्यापी अपील आई। बिहार के इस आन्दोलन में हर क्षेत्र के लोग जुड़ने लगे। जयप्रकाश नारायण ने बिहार की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने की माँग की। उन्होंने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दायरे में समग्र क्रान्ति का आह्वान किया ताकि उन्हीं के शब्दों में सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना की जा सके।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

→ आन्दोलन का प्रभाव:
बिहार के इस आन्दोलन का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना शुरू हुआ। जयप्रकाश नारायण चाहते थे कि यह आंदोलन देश के दूसरे हिस्सों में भी फैले। इस आंदोलन के साथ-साथ रेलवे कर्मचारियों ने भी राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया, जिससे देश का सम्पूर्ण कामकाज ठप होने का खतरा उत्पन्न हो गया। विशेषज्ञों एवं विद्वानों का मानना था कि ये आन्दोलन राज्य सरकार के खिलाफ नहीं बल्कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व के खिलाफ चलाए गए। इंदिरा गांधी का मानना था कि ये आन्दोलन उनके प्रति व्यक्तिगत विरोध से प्रेरित थे।

→ न्यायपालिका से संघर्ष:

  • न्यायपालिका के साथ इस दौर में सरकार और शासक दल के गहरे मतभेद पैदा हुए। इस क्रम में तीन संवैधानिक मामले उठे क्या संसद मौलिक अधिकारों में कटौती कर सकती है? सर्वोच्च न्यायालय का जवाब था कि संसद ऐसा नहीं कर सकती।
  • दूसरा यह कि क्या संसद संविधान में संशोधन करके सम्पत्ति के अधिकार में काट-छाँट कर सकती है? इस मसले पर भी सर्वोच्च न्यायालय का यही कहना था कि सरकार संविधान में इस तरह संशोधन नहीं कर सकती कि अधिकारों की कटौती हो जाए।
  • तीसरा, संसद ने यह कहते हुए संविधान में संशोधन किया कि वह नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को प्रभावकारी बनाने के लिए मौलिक अधिकारों में कमी कर सकती है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को भी निरस्त कर दिया। इससे सरकार और न्यायपालिका के मध्य संघर्ष उत्पन्न हो गया।

1973 में सरकार ने तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की अनदेखी करके न्यायमूर्ति ए. एन. रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। यह निर्णय राजनीतिक रूप से विवादास्पद बना रहा क्योंकि सरकार ने जिन तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी इस मामले में की थी उन्होंने सरकार के इस कदम के विरुद्ध फैसला दिया।

आपातकाल की घोषणा:
12 जून, 1975 के दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने एक फैसला सुनाया। इस फैसले में उन्होंने लोकसभा के लिए इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैधानिक करार दिया। जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में विपक्षी दलों ने इंदिरा गांधी के इस्तीफे के लिए दबाव डाला। इन दलों ने 25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल प्रदर्शन किया। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी से इस्तीफे की मांग करते हुए राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की घोषणा की। जयप्रकाश नारायण ने सेना, पुलिस और सरकारी कर्मचारियों का आह्वान किया कि वे सरकार के अनैतिक और अवैधानिक आदेशों का पालन न करें। सरकार ने इन घटनाओं के मद्देनजर जवाब में 25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा कर दी। श्रीमती गाँधी की सरकार ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की और राष्ट्रपति ने तुरन्त आपातकाल की उद्घोषणा कर दी।

→  परिणाम:

  • सरकार के इस फैसले से विरोध- आंदोलन एक बार रुक गया। हड़तालों पर रोक लगा दी गई अनेक विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। सरकार ने निवारक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया।
  • आपातकाल की मुखालफत और प्रतिरोध की कई घटनाएँ घटीं। पहली लहर में जो राजनीतिक कार्यकर्ता गिरफ्तारी से रह गए थे वे ‘भूमिगत’ हो गए और सरकार के खिलाफ मुहिम चलायी। इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समैन जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का विरोध किया।
  • इंदिरा गांधी के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में संविधान में संशोधन हुआ। इस संशोधन के द्वारा प्रावधान किया गया कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • आपातकाल के दौरान ही संविधान का 42वां संशोधन पारित हुआ इस संशोधन के माध्यम से संविधान के अनेक हिस्सों में बदलाव किए गए। 42वें संशोधन के माध्यम से हुए अनेक बदलावों में एक था- देश की विधायिका के कार्यकाल को 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 साल करना।

→ आपातकाल के संदर्भ में विवाद;
सरकार का तर्क था कि भारत में लोकतन्त्र है और इसके अनुकूल विपक्षी दलों को चाहिए कि वे निर्वाचित शासक दल को अपनी नीतियों के अनुसार शासन चलाने दें। देश में लगातार गैर-संसदीय राजनीति का सहारा नहीं लिया जा सकता। इससे अस्थिरता पैदा होती है। इंदिरा गांधी ने शाह आयोग को चिट्ठी में लिखा कि षड्यंत्रकारी ताकतें सरकार के प्रगतिशील कार्यक्रमों में अड़ंगे लगा रही थीं और मुझे गैर-संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहती थीं। आपातकाल के आलोचकों का तर्क था कि आजादी के आंदोलन से लेकर लगातार भारत में जन-आंदोलन का एक सिलसिला रहा है।

जयप्रकाश नारायण सहित विपक्ष के नेताओं का विचार था कि लोकतन्त्र में लोगों को सार्वजनिक तौर पर सरकार के विरोध का अधिकार होना चाहिए। लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली को ठप करके आपातकाल लागू करने जैसे अतिचारी कदम उठाने की जरूरत कतई नहीं थी। दरअसल खतरा देश की एकता और अखंडता को नहीं, बल्कि शासक दल और स्वयं प्रधानमंत्री को था । आलोचक कहते हैं कि देश को बचाने के लिए बनाए गए संवैधानिक प्रावधान का दुरुपयोग इंदिरा गांधी ने निजी ताकतों को बचाने के लिए किया ।

JAC Class 12 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट

→ आपातकाल के दौरान क्या-क्या हुआ?:
आपातकाल को सही ठहराते हुए सरकार ने कहा कि इसके जरिए वो कानून व्यवस्था को बहाल करना चाहती थी, कार्यकुशलता बढ़ाना चाहती थी और गरीबों के हित के कार्यक्रम लागू करना चाहती थी । इस उद्देश्य से सरकार ने एक बीससूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की और इसे लागू करने का अपना दृढ़ संकल्प दोहराया। आपातकाल की घोषणा के बाद, शुरुआती महीनों में मध्यवर्ग इस बात से खुश था कि विरोध- आंदोलन समाप्त हो गया और सरकारी कर्मचारियों पर अनुशासन लागू हुआ। आपातकाल के दौरान कई नेताओं की गिरफ्तारी हुई थी। प्रेस पर कई तरह की पाबंदी लगाई गई। इसके अलावा कुछ और गंभीर आरोप लगे थे जो किसी आधिकारिक पद पर नहीं थे, लेकिन सरकारी ताकतों का इन लोगों ने इस्तेमाल किया था। आपातकाल का बुरा असर आम लोगों को भी भुगतना पड़ा। इसके दौरान पुलिस हिरासत में मौत और यातना की घटनाएँ भी सामने आईं। गरीब लोगों को मनमाने तरीके से एक जगह से उजाड़कर दूसरी जगह बसाने की घटनाएँ भी हुईं। जनसंख्या नियंत्रण के बहाने लोगों को अनिवार्य रूप से नसबंदी के लिए मजबूर किया गया।

→ आपातकाल से सबक:

  • आपातकाल से एकबारगी भारतीय लोकतन्त्र की ताकत और कमजोरियाँ उजागर हुईं। यद्यपि पर्यवेक्षक मानते हैं कि आपातकाल के दौरान भारत लोकतान्त्रिक नहीं रह गया था, लेकिन यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि थोड़े दिनों के अंदर कामकाज फिर से लोकतान्त्रिक ढर्रे पर लौट आया। इस तरह आपातकाल का एक सबक तो यही है कि भारत से लोकतन्त्र विदा कर पाना बहुत कठिन है।
  • आपातकाल से संविधान में वर्णित आपातकाल के प्रावधानों के कुछ अर्थगत उलझाव भी प्रकट हुए, जिन्हें बाद में सुधार लिया गया। अब ‘अंदरूनी’ आपातकाल सिर्फ सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में लगाया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को लिखित में दे।
  • आपातकाल से हर कोई नागरिक अधिकारों के प्रति ज्यादा संचेत हुआ। आपातकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई। आपातकाल के बाद की राजनीति – उत्तर भारत में आपातकाल का असर ज्यादा दिखाई दिया। यहाँ विपक्षी दलों ने लोकतन्त्र बचावों के बारे पर चुनाव लड़ा। जनादेश निर्णायक तौर पर आपातकाल के विरुद्ध था। जिन सरकारों को जनता ने लोकतन्त्र विरोधी माना उन्हें मतदान के रूप में उसने भारी दण्ड दिया।

→ लोकसभा चुनाव, 1977:
1977 के चुनावों में आपातकाल का असर व्यापक रूप से दिखाई दिया। इन चुनावों में जनादेश कांग्रेस के विरुद्ध था। कांग्रेस को लोकसभा में मात्र 154 सीटें मिलीं। उसे 35 प्रतिशत से भी कम वोट प्राप्त हुए। जनता पार्टी और उसके साथी दलों को लोकसभा की कुल 542 सीटों में से 330 सीटें मिलीं। खुद जनता पार्टी अकेले 295 सीटों पर जीती और उसे स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। कांग्रेस बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में एक भी सीट न पा सकी।

→ जनता सरकार:
1977 के चुनावों के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी लेकिन इस पार्टी में तालमेल का अभाव था। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने, लेकिन पार्टी के भीतर खींचतान जारी रही। आपातकाल का विरोध जनता पार्टी को कुछ समय तक ही एक रख सका। जनता पार्टी बिखर गई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार ने 18 माह में अपना समर्थन खो दिया। इसके बाद चरण सिंह की सरकार भी केवल 4 माह तक ही चल पायी। 1980 में फिर से लोकसभा चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त की।

→ विरासत:

  • 1969 से पहले तक कांग्रेस विविध विचारधाराओं के नेताओं व कार्यकर्ताओं को एक साथ लेकर चलती थी। अपने बदले हुए स्वभाव में कांग्रेस ने स्वयं को विशेष विचारधारा से जोड़ा। उसने अपने को देश की एकमात्र समाजवादी और गरीबों की हिमायती पार्टी बताना शुरू किया।
  • अप्रत्यक्ष रूप से 1977 के बाद पिछड़े वर्गों की भलाई का मुद्दा भारतीय राजनीति पर हावी होना शुरू हुआ। 1977 के चुनाव परिणामों पर पिछड़ी जातियों के कदम पर असर पड़ा, खासकर उत्तर भारत में।
  •  इस दौर में एक और महत्त्वपूर्ण मामला संसदीय लोकतन्त्र में जन- आंदोलन की भूमिका और उसकी सीमा को लेकर उठा स्पष्ट ही इस दौर में संस्था आधारित लोकतन्त्र में तनाव नजर आया। इस तनाव का एक कारण यह भी कहा जा सकता है कि हमारी दलीय प्रणाली जनता की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम साबित नहीं हुई।

Leave a Comment