JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Jharkhand Board Class 11 Political Science सामाजिक न्याय InText Questions and Answers

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प्रश्न 1.
नीचे दी गई स्थितियों की जांच करें और बताएँ कि क्या वे न्यायसंगत हैं। अपने तर्क के साथ यह भी बताएँ कि प्रत्येक स्थिति में न्याय का कौनसा सिद्धान्त काम कर रहा है।
(अ) एक दृष्टिहीन छात्र सुरेश को गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए साढ़े तीन घंटे मिलते हैं, जबकि अन्य सभी छात्रों को केवल तीन घंटे।
(ब) गीता बैसाखी की सहायता से चलती है। अध्यापिका ने गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए उसे साढ़े तीन घंटे का समय देने का निश्चय किया।
(स) एक अध्यापक कक्षा के कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने के लिए कुछ अतिरिक्त अंक देता है।
(द) एक प्रोफेसर अलग-अलग छात्राओं को उनकी क्षमताओं के मूल्यांकन के आधार पर अलग-अलग प्रश्न-पत्र बाँटता है।
(य) संसद में एक प्रस्ताव विचाराधीन है कि संसद की कुल सीटों में से एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाएं।
उत्तर:
(अ) ” एक दृष्टिहीन छात्र सुरेश को गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए साढ़े तीन घंटे मिलते हैं, जबकि अन्य सभी छात्रों को केवल तीन घंटे।” हाँ, यह स्थिति न्यायसंगत है। इस स्थिति में न्याय का विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त काम कर रहा है। लोगों की विशेष जरूरतों को ध्यान में रखने का सिद्धान्त समान बरताव के सिद्धान्त का विस्तार ही करता है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाये। प्रस्तुत स्थिति में दृष्टिहीन छात्र सुरेश दृष्टि वाले छात्रों के समान नहीं है, इसलिए उसे प्रश्नपत्र’ हल करने के लिए 3 घंटे के स्थान पर साढ़े तीन घंटे का समय दिया जाना न्यायसंगत है।

(ब) ” गीता बैसाखी की सहायता से चलती है। अध्यापिका ने गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए उसे साढ़े तीन घंटे का समय देने का निश्चय किया। ” यह स्थिति न्यायसंगत नहीं है क्योंकि यह न्याय के समान लोगों के प्रति समान बरताव के सिद्धान्त का उल्लंघन है। गीता का बैसाखी से चलना, परीक्षा हाल में प्रश्नपत्र हल करने के प्रसंग में ‘विशेष जरूरत के विशेष ख्याल’ के सिद्धान्त की आवश्यकता पैदा नहीं करता है; बल्कि वह अन्य छात्रों की तरह ही समान स्थिति में है। ऐसी स्थिति में साढ़े तीन घंटे देना न्यायसंगत नहीं ठहरता।

(स) “एक अध्यापक कक्षा के कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने के लिए कुछ अतिरिक्त अंक देता है।” कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने की दृष्टि से कुछ अतिरिक्त अंक देना न्यायसंगत है। इसमें न्याय के विशेष जरूरतों के विशेष ख्याल का सिद्धान्त काम कर रहा है।

(द) “एक प्रोफेसर अलग-अलग छात्राओं को उनकी क्षमताओं के मूल्यांकन के आधार पर अलग-अलग प्रश्न- पत्र बाँटता है।” यह स्थिति न्यायसंगत नहीं है। इसमें न्याय के समान लोगों के साथ समान लोगों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें काम और कार्यकलापों के आधार पर जांचा जाना चाहिए। छात्राओं को प्रतिफल उनकी क्षमता के अनुसार समान आधार पर ही किया जाना आवश्यक है।

(य) “संसद में,एक प्रस्ताव विचाराधीन है कि संसद की कुल सीटों में से एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाएँ।” यह स्थिति न्यायसंगत है तथा इसमें न्याय का विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त काम कर रहा है।

Jharkhand Board Class 11 Political Science सामाजिक न्याय Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का क्या मतलब है? हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ कैसे बदला?
उत्तर:
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने से आशय:
न्याय में सभी लोगों की भलाई निहित रहती है। एक न्यायसंगत शासक या सरकार को भी न्याय हेतु जनता की भलाई की चिन्ता करनी होगी। जनता की भलाई की सुनिश्चितता में हर व्यक्ति को उसका उचित हिस्सा देना शामिल है। इस प्रकार न्याय में हर व्यक्ति को उसका उचित हिस्सा देना शामिल है। इसी को कहा जाता है कि हर व्यक्ति को उसका प्राप्य दिया जाये, यही न्याय है। प्राचीन काल से लेकर आज तक यह न्याय हमारी समझ का महत्त्वपूर्ण अंग बना हुआ है।

लेकिन प्राचीन समय से लेकर अब तक इस धारणा में कुछ परिवर्तन आए हैं। उदाहरण के लिए प्राचीन काल में प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का अर्थ था – व्यक्ति के गलत कार्य पर उसे सजा दी जाये और उसके अच्छे कार्य के लिए उसे पुरस्कृत किया जाये। लेकिन आधुनिक समय में प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का अर्थ यह लिया जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हो। न्याय के लिए यह आवश्यक है कि हम सभी व्यक्तियों को समुचित और बराबर का महत्त्व दें।

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प्रश्न 2.
अध्याय में दिये गये न्याय के तीन सिद्धान्तों की संक्षेप में चर्चा करें। प्रत्येक को उदाहरण के साथ समझाइये।
उत्तर:
न्याय के सिद्धान्त अध्याय में न्याय के जो तीन सिद्धान्त दिये गये हैं वे निम्नलिखित हैं।
1. समान लोगों के प्रति समान व्यवहार:
न्याय का पहला सिद्धान्त यह है कि समकक्षों के साथ समान व्यवहार किया जाये। माना जाता है कि मनुष्य होने के नाते सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसलिए वे समान अधिकार और समान व्यवहार के अधिकारी हैं। उदाहरण के लिए, आज अधिकांश उदारवादी जनतंत्रों में सभी नागरिकों को समान मूल अधिकार व राजनैतिक अधिकार, जैसे- स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार, मताधिकार, जीवन का अधिकार आदि दिये गये हैं। ये अधिकार सभी व्यक्तियों को राजनीतिक प्रक्रियाओं में भागीदार बनाते हैं।

समान अधिकारों के अतिरिक्त समकक्षों के साथ समान व्यवहार के सिद्धान्त के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाये। उन्हें उनके काम और कार्यकलापों के आधार पर जांचा जाना चाहिए, इस आधार पर नहीं कि वे किस समुदाय के सदस्य हैं। उदाहरण के लिए, अगर भिन्न जातियों के दो व्यक्ति एक ही काम करते हैं, जैसे- शिक्षक का कार्य, तो उन्हें समान पारिश्रमिक मिलना चाहिए। यदि किसी काम के लिए एक व्यक्ति को सौ रुपये और दूसरे व्यक्ति को पिचहत्तर रुपये सिर्फ इसलिए मिलते हैं, क्योंकि वे भिन्न जातियों के हैं, या भिन्न रंग के हैं, तो यह अनुचित और अन्यायपूर्ण है।

2. समानुपातिक न्याय:
‘समान कार्य के लिए समान व्यवहार’ के न्याय के सिद्धान्त के अतिरिक्त न्याय का दूसरा सिद्धान्त है। समानुपातिक न्याय ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिसमें हम महसूस करें कि हर एक के साथ समान बरताव करना अन्याय होगा। उदाहरण के लिए, अगर हमारे स्कूल में यह फैसला किया जाये कि परीक्षा में शामिल होने वाले सभी लोगों को बराबर अंक दिए जाएँगे, क्योंकि सब एक ही स्कूल के विद्यार्थी हैं और सबने एक ही दी है, तो ऐसा करना अन्यायपूर्ण रहेगा। यहाँ पर यह न्यायसंगत होगा कि छात्रों को उनकी उत्तर-पुस्तिकाओं की गुणवत्ता द्वारा किये गए प्रयास के अनुसार अंक दिए जाएँ।

इस प्रकार ऐसे सभी मामलों में न्याय का अर्थ होगा- लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और अर्हता के अनुपात में पुरस्कृत करना। किसी काम के लिए वांछित मेहनत, कौशल, संभावित खतरे आदि कारकों को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग पारिश्रमिक निर्धारण करना उचित और न्यायसंगत होगा। अतः समाज में न्याय के लिए समान व्यवहार के सिद्धान्त का समानुपातिकता के सिद्धान्त के साथ संतुलन बिठाने की आवश्यकता है।

3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त-न्याय का तीसरा सिद्धान्त है। समाज में पारिश्रमिक या कर्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की विशेष आवश्यकताओं का भी ख्याल रखा जाये। इसे सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने का तरीका माना जा सकता है। समाज के सदस्यों के रूप में लोगों की बुनियादी हैसियत और अधिकारों के लिहाज से न्याय के लिए यह आवश्यक है कि समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाये। लेकिन समान व्यवहार के सिद्धान्त पर अमल कभी-कभी योग्यता को उचित प्रतिफल देने के खिलाफ खड़ा हो सकता है।

ऐसी स्थिति में योग्यता को पुरस्कृत करने के लिए समानुपातिक न्याय के सिद्धान्त को क्रियान्वित किया जाता है। लेकिन योग्यता को ही पुरस्कृत करने को न्याय का प्रमुख सिद्धान्त मानने पर जोर देने का अर्थ यह होगा कि हाशिये पर खड़े तबके कई क्षेत्रों में वंचित रह जायेंगे, क्योंकि अच्छे पोषाहार और अच्छी शिक्षा जैसी सुविधाओं तक उनकी पहुँच नहीं हो पाती है। इसलिए न्याय के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों की विशेष आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाये। उदाहरण के लिए, विकलांगता वाले लोगों को कुछ खास मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझना न्यायसंगत होता है। इसी प्रकार अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच न होना भी ऐसा कारक है, जिन्हें अनेक देशों में विशेष बरताव का आधार समझा जाता है।

हमारे देश में अच्छी सुविधा, स्वास्थ्य और ऐसी अन्य सुविधाओं तक पहुँच का अभाव जाति आधारित सामाजिक भेदभाव से जुड़ा है। इसीलिए संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सरकारी नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। देश के विभिन्न समूह, भिन्न-भिन्न नीतियों की तरफदारी कर सकते हैं, जो इस पर निर्भर करता है कि वे न्याय के किस सिद्धान्त पर बल देते हैं । ऐसी स्थिति में सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह एक न्यायपरक समाज को बढ़ावा देने के लिए न्याय के विभिन्न सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य स्थापित करे।

प्रश्न 3.
क्या विशेष जरूरतों का सिद्धान्त सभी के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के विरुद्ध है?
उत्तर:
नहीं, लोगों की विशेष जरूरतों का सिद्धान्त सभी के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है, बल्कि उसका विस्तार है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों, जैसे विकलांगता या वंचितता आदि में अन्य के समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाये।

प्रश्न 4.
“निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को युक्तिसंगत आधार पर सही ठहराया जा सकता है।” रॉल्स ने इस तर्क को आगे बढ़ाने में ‘अज्ञानता के आवरण’ के विचार का उपयोग किस प्रकार किया?
उत्तर:
निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण:
समाज में सामाजिक न्याय पाने के लिए सरकारों को यह सुनिश्चित करना होता है कि कानून और नीतियाँ सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू होने के साथ-साथ न्यायसंगत भी हों। इस सम्बन्ध में रॉल्स ने ‘अज्ञानता के आवरण का सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया है। यथा अज्ञानता के आवरण का सिद्धान्त

1. अज्ञानता के आवरण से आशय:
जॉन रॉल्स ने कहा है कि निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यह है कि हम स्वयं को एक ‘अज्ञानता के आवरण’ की परिस्थिति में होने की कल्पना करें जहाँ हमें यह
निर्णय लेना है कि समाज को कैसे संगठित किया जाये। रॉल्स के अनुसार, ” अज्ञानता के आवरण के अन्तर्गत समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपने संभावित स्थान और पद के बारे में सर्वथा अज्ञान रहेगा।”

2. अज्ञानता के आवरण में सोचना:
रॉल्स तर्क देते हैं कि यदि हमें यह नहीं मालूम हो कि हम कौन होंगे और भविष्य के समाज में हमारे लिए कौनसे विकल्प खुले होंगे, तब हम भविष्य के उस समाज के नियमों और संगठन के बारे में जिस निर्णय का समर्थन करेंगे, वह तमाम सदस्यों के लिए अच्छा होगा। रॉल्स ने इसे ‘अज्ञानता के आवरण’ में सोचना कहा है। वे आशा करते हैं कि समाज में अपने संभावित स्थान और हैसियत के बारे में पूर्ण अज्ञानता की हालत में हर आदमी यह नहीं जानता कि वह कौन होगा और उसके लिए क्या लाभप्रद होगा, इसलिए हर कोई सबसे बुरी स्थिति के समाज की कल्पना करेगा।

3. कमजोर तबके के लोगों के लिए यथोचित अवसरों की सुनिश्चितता:
यद्यपि वह अपने स्वभाव के अनुसार स्वयं के हितों को ध्यान में रखकर निर्णय करेगा, लेकिन अज्ञानता के आवरण में वह संगठन के ऐसे नियमों के बारे में सोचेगा जो कमजोर तबकों के लिए यथोचित अवसर सुनिश्चित कर सकें। इस दृष्टि से वह यह चाहेगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन सभी लोगों को प्राप्त हों।

4. सभी लोगों से विवेकशीलता की उम्मीद:
‘अज्ञानता के आवरण’ वाली स्थिति की विशेषता यह है कि इसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बंधती है क्योंकि अज्ञानता के आवरण में रहकर जब वे चुनते हैं तो वे पायेंगे कि सबसे बुरी स्थिति से ही सोचना उनके लिए हितकर होगा। इससे यह प्रकट होगा कि विवेकशील मनुष्य न केवल सबसे बुरे संदर्भ को ध्यान में रखते हुए चीजों को देखेंगे, बल्कि वे यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों। दोनों चीजों को साथ-साथ लेकर चलना है।

इसीलिए सभी के हित में होगा कि निर्धारित नीतियों और नियमों से सम्पूर्ण समाज को लाभ हो, किसी एक खास हिस्से को नहीं। यहाँ निष्पक्षता विवेकसम्मत कार्रवाई का परिणाम है, न कि परोपकार या उदारता का इसीलिए रॉल्स तर्क देते हैं कि नैतिकता नहीं बल्कि विवेकशील चिंतन हमें समाज के लाभ और लाभों के वितरण के मामले में निष्पक्ष होकर विचार करने की ओर प्रेरित करता है और अज्ञानता के आवरण वाली स्थिति लोगों को विवेकशील बनाए रखती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

प्रश्न 5.
आमतौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें क्या मानी गई हैं? इस न्यूनतम को सुरक्षित करने में सरकार की क्या जिम्मेदारी है?
उत्तर:
व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें – आमतौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की ‘न्यूनतम बुनियादी जरूरतें ये मानी गई हैं।

  1. स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की बुनियादी मात्रा अर्थात् भोजन,
  2. आवास,
  3. शुद्ध पेयजल की आपूर्ति,
  4. शिक्षा और
  5. न्यूनतम मजदूरी तथा
  6. तन ढकने के लिए आवश्यक कपड़ा।

न्यूनतम को सुरक्षित करने में सरकारी जिम्मेदारी
लोगों की न्यूनतम बुनियादी जरूरतों की पूर्ति लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी मानी जाती है। लेकिन इस लक्ष्य को पाने का सर्वोत्तम तरीका क्या होगा, इस पर विवाद चल रहा है। कुछ विद्वानों का मत है कि मुक्त बाजार के जरिए खुली प्रतियोगिता को बढ़ावा देना समाज के सुविधा प्राप्त सदस्यों को नुकसान पहुँचाए बगैर सुविधाहीनों की मदद करने का तरीका ही सर्वोत्तम तरीका है। दूसरे लोगों का मत है कि गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधायें मुहैया कराने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए । यहाँ पर हमारा प्रतिपाद्य इस न्यूनतम को सुनिश्चित करने में सरकार की जिम्मेदारी की विवेचना करना है। यथा

  1. सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन – मानक सुनिश्चित करने हेतु राज्य हस्तक्षेप करे, ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्द्धा करने में समर्थ हो ।
  2. यद्यपि स्वास्थ्य, सेवा, शिक्षा तथा ऐसी अन्य बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति के लिए निजी एजेन्सियों को प्रोत्साहित किया जाये, तथापि राज्य की नीतियाँ इन सेवाओं को खरीदने के लिए लोगों को सशक्त बनाने की कोशिश करें।
  3. राज्य के लिए यह भी जरूरी हो सकता है कि वह उन वृद्धों और राोगियों को विशेष सहायता प्रदान करे, जो प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सकते। लेकिन इससे आगे राज्य की भूमिका नियम कानून का ढाँचा बरकरार रखने तक ही सीमित रहनी चाहिए, जिससे व्यक्तियों के बीच बाधाओं से मुक्त प्रतिद्वन्द्विता सुनिश्चित हो।
  4. सरकार को यह देखना चाहिए कि अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध हों। यदि इन सेवाओं की कीमत अधिक होगी तो वे गरीबों की पहुँच से बाहर हो जाएँगी।
  5. गरीब वर्ग को न्यूनतम सुविधाएँ प्राप्त हों, इस हेतु सरकार छोटे-छोटे कुटीर उद्योग व अन्य छोटे उद्योगों को बढ़ावा देकर गरीब वर्ग को रोजगार उपलब्ध कराकर उनकी गरीबी दूर करने का प्रयास कर सकती है। वह बेरोजगारों को अपना व्यवसाय शुरू करने को प्रेरित करने हेतु बैंकों से सस्ते दर पर ऋण उपलब्ध करा सकती है।

प्रश्न 6.
सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिये राज्य की कार्यवाही को निम्न में से कौन-से तर्क से वाजिब ठहराया जा सकता है?
(क) गरीब और जरूरतमंदों को निःशुल्क सेवायें देना एक धर्म कार्य के रूप में न्यायोचित है
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(ग) कुछ लोग प्राकृतिक रूप से आलसी होते हैं और हमें उनके प्रति दयालु होना चाहिये।
(घ) सभी के लिये बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।
उत्तर:
उपर्युक्त में से सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिए राज्य की कार्रवाई को (ख) के तर्क, कि ” सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है, से वाजिब ठहराया जा सकता है।

सामाजिक न्याय JAC Class 11 Political Science Notes

→ न्याय का सरोकार समाज में हमारे जीवन और सार्वजनिक जीवन को व्यवस्थित करने के नियमों और तरीकों से होता है, जिनके द्वारा समाज के विभिन्न सदस्यों के बीच सामाजिक लाभ और सामाजिक कर्त्तव्यों का बंटवारा किया जाता है।

→ न्याय क्या है?
विभिन्न संस्कृतियों और परम्पराओं में न्याय की अवधारणा की व्याख्या भिन्न-भिन्न तरीकों से की गई है। यथा

  • प्राचीन भारतीय समाज में न्याय धर्म के साथ जुड़ा था।
  • चीन के दार्शनिक कनफ्यूशियस के अनुसार गलत करने वालों को दंडित कर और भले लोगों को पुरस्कृत कर राजा को न्याय कायम रखना चाहिए।
  • प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ में कहा कि न्याय में सभी लोगों का हित निहित रहता है। जैसे एक डाक्टर अपने सभी मरीजों की भलाई की चिन्ता करता है, उसी तरह एक न्यायसंगत शासक या सरकार को भी जनता की भलाई की चिंता करनी होगी। जनता की भलाई की सुनिश्चितता में हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा देना शामिल है।
  • आधुनिक काल में भी न्याय में हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा देना शामिल है। लेकिन आज न्याय की हमारी समझ इस समझ से जुड़ गई है कि मनुष्य होने के नाते हर मनुष्य का प्राप्य क्या है। कांट का इस सम्बन्ध में कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए समुचित और बराबर अवसर प्राप्त हों। न्याय के लिए जरूरी है कि हम सभी व्यक्तियों को समुचित और बराबरी की अहमियत दें।

→ न्याय के सिद्धान्त
‘हर व्यक्ति को उसका प्राप्य प्राप्त हो’ आधुनिक समाज में न्याय के सम्बन्ध में इस बात पर सहमति है। लेकिन हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाये, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्त सामने आये हैं।

→ समान लोगों के प्रति समान बरताव का सिद्धान्त: हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाय, इस सम्बन्ध में कई सिद्धान्त पेश किये गये हैं। उनमें से एक है। – समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धान्त। मनुष्य होने के नाते सभी मनुष्य समान अधिकार और समान बरताव के अधिकारी हैं। आधुनिक काल में अधिकांश उदारवादी जनतंत्रों में सभी व्यक्तियों को जीवन, स्वतंत्रता, समानता तथा मताधिकार के अधिकार दिये गए हैं, साथ ही इन अधिकारों के उपयोग के लिए वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव का निषेध भी किया गया है।

→ समानुपातिक न्याय का सिद्धान्त: ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिसमें हम महसूस करें कि हर एक के साथ समान बरताव अन्याय होगा। ऐसे मामलों में न्याय का मतलब होगा, लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और अर्हता के अनुपात में पुरस्कृत करना अर्थात् किसी काम के लिए वांछित मेहनत, कौशल, संभावित खतरे आदि कारकों को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग पारिश्रमिक का निर्धारण उचित और न्यायसंगत होगा । इसलिए समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धान्त का समानुपातिकता के सिद्धान्त के साथ संतुलन बैठाने की आवश्यकता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 सामाजिक न्याय

→ विशेष जरूरतों के विशेष ख्याल का सिद्धान्त:
न्याय के जिस तीसरे सिद्धान्त को हम समाज के लिए मान्य करते हैं, वह है। पारिश्रमिक या कर्त्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की विशेष जरूरतों का ख्याल रखने का सिद्धान्त। यह सिद्धान्त ‘समान बरताव के सिद्धान्त’ का विस्तार है क्योंकि समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाये। विकलांगता वाले लोगों को कुछ खास मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझा जा सकता है।

हमारे संविधान में इसी दृष्टि से ही अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में तथा शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह एक न्यायपरक समाज को बढ़ावा देने के लिए न्याय के उपर्युक्त तीनों सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य स्थापित करे ।

→ न्यायपूर्ण बंटवारा
सामाजिक न्याय का सरोकार वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से भी है, चाहे यह राष्ट्रों के बीच वितरण का मामला हो या किसी समाज के अन्दर विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के बीच का । यदि समाज में गंभीर सामाजिक या आर्थिक असमानताएँ हैं, तो यह जरूरी होगा कि समाज के कुछ प्रमुख संसाधनों का पुनर्वितरण हो, जिससे नागरिकों को जीने के लिए समतल धरातल मिल सके। इसी संदर्भ में भारत में विभिन्न राज्य सरकारों ने जमीन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन के अधिक न्यायपूर्ण वितरण के लिए भूमि सुधार लागू करने जैसे कदम भी उठाए हैं।

→ रॉल्स का न्याय सिद्धान्त:
अज्ञानता का कल्पित आवरण में निर्णय हेतु सोचना: रॉल्स का न्याय सिद्धान्त इस प्रश्न से शुरू होता है कि हम ऐसे निर्णय पर कैसे पहुँचें जो निष्पक्ष और न्यायसंगत हो? रॉल्स का कहना है कि निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यह है कि हम ‘अज्ञानता के आवरण’ में निर्णय लें। अज्ञानता के आवरण वाली स्थिति की विशेषता यह है कि उसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बनती है क्योंकि इस आवरण में रहते हुए यदि हम निर्णय करते हैं तो सबसे बुरी स्थिति से ही हम सोचना हितकर समझते हैं क्योंकि हमें नहीं मालूम कि भविष्य में हम किस स्थिति में होंगे, हो सकता है कि वर्तमान में जो सबसे बुरी स्थिति हमें दिखाई दे रही है, भविष्य में, निर्णय लेने के बाद, हमें यही स्थिति मिले। इसलिए हम इस स्थिति से ही सोचना प्रारंभ करेंगे।

→ अज्ञानता के कल्पित आवरण में विवेकशील चिंतन संभव:
अज्ञानता का कल्पित आवरण ओढ़ना उचित कानूनों और नीतियों की प्रणाली तक पहुँचने का पहला कदम है। क्योंकि इस आवरण में विवेकशील मनुष्य यह सुनिश्चित करने की भी कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों। अज्ञानता के इस आवरण में व्यक्ति ऐसे नियम चाहेगा जो सबसे बुरी स्थिति में जीने वालों की भी रक्षा कर सकें, क्योंकि कोई नहीं जानता कि आगामी समाज में वे कौनसी जगह लेंगे। इसके साथ ही वे यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा चुनी गई नीतियाँ बेहतर स्थिति वालों को कमजोर न बना दें, क्योंकि हो सकता है वे स्वयं भविष्य के उस समाज में सुविधासम्पन्न स्थिति में पैदा हों। इस प्रकार वे ऐसे नियम चाहेंगे जिनसे समाज के सभी प्रकार के लोगों को फायदा हो, न कि किसी एक खास हिस्से का।

→ वितरण हेतु निष्पक्षता विवेकसम्मत चिंतन व कार्यवाही का परिणाम – यहाँ पर निष्पक्षता विवेकसम्मत कार्यवाही का परिणाम है, न कि परोपकार या उदारता का । इस प्रकार रॉल्स का कहना है कि विवेकशील चिंतन हमें समाज में लाभ और साधनों के वितरण के मामले में निष्पक्ष होकर विचार की ओर प्रेरित करता है।

→ सामाजिक न्याय का अनुसरण
न्यायपूर्ण समाज को लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ जरूर मुहैया करानी चाहिए, ताकि वे स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जीने में सक्षम हो सकें, समाज में अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें तथा समान अवसरों के माध्यम से 1. अपने चुने हुए लक्ष्य की ओर बढ़ सकें। आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी इन बुनियादी स्थितियों के महत्त्वपूर्ण हिस्से हैं। लोगों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी समझी जाती है ।
अगर हम सब इस बात पर सहमत हो जाएँ कि राज्य को न्यूनतम बुनियादी स्थितियों को मुहैया करने के लिए सबसे वंचित सदस्यों की सहायता करनी चाहिए, तब इससे जुड़ा दूसरा प्रश्न यह मुखरित होता है कि इस हेतु राज्य सरकार क्या रास्ता अपनाये। क्या यह खुली प्रतियोगिता का रास्ता अपनाये या राज्य हस्तक्षेप करके गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधायें मुहैया कराये। यथा-

→ मुक्त. बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप
मुक्त बाजार के पक्ष में तर्क- राज्य को समाज के सबसे वंचित सदस्यों की सहायता के लिए एक रास्ता तो यह अपनाना चाहिए कि वह मुक्त बाजार के जरिये खुली प्रतियोगिता को बढ़ावा दे। इसके समर्थकों ने इसके समर्थन में जो तर्क दिये हैं, वे निम्नलिखित हैं।

  • मुक्त बाजार के जरिये खुली प्रतियोगिता से योग्यता और प्रतिभा वाले व्यक्तियों को अधिक प्रतिफल मिलेगा जबकि अक्षम लोगों को कम प्रतिफल मिलेगा । इसका मुख्य आधार योग्यता, प्रतिभा और कौशल होगा।
  • मुक्त बाजारी वितरण हमें ज्यादा विकल्प प्रदान करता है।

→ मुक्त बाजार के विपक्ष तथा राज्य के हस्तक्षेप के पक्ष में तर्क

  • यद्यपि मुक्त बाजार और निजी उद्यम द्वारा प्रदत्त सेवाएँ सरकारी सेवाओं से बेहतर होती हैं, लेकिन अधिक कीमत के कारण वे गरीब लोगों की पहुँच से बाहर हो जाती हैं। इससे कमजोर सुविधाहीन लोग अवसरों से वंचित हो सकते हैं।
  • मुक्त बाजार प्रायः पहले से ही सुविधासम्पन्न लोगों के हक में काम करने का रुझान दिखलाते हैं। इसलिए राज्य को हस्तक्षेप करके समाज के सभी सदस्यों को बुनियादी सुविधायें उपलब्ध कराने की पहल करनी चाहिए।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता

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पृष्ठ 32

प्रश्न 1.
मैं जिन लोगों को जानता हूँ, वे सभी किसी न किसी धर्म में विश्वास करते हैं। मैं जिन धर्मों के बारे जानता हूँ, वे सभी समानता का संदेश देते हैं। जब ऐसा है, तो दुनिया में असमानता क्यों है?
उत्तर:
यद्यपि समानता की बात सभी आस्थाओं और धर्मों में समाविष्ट है। हर धर्म ईश्वर की रचना के रूप में प्रत्येक मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। इसके बावजूद दुनिया में असमानता व्याप्त है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. बहुत सी सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में पद, धन, हैसियत या विशेषाधिकार की असमानता कायम रखती हैं।
  2. मनुष्यों के बीच नस्ल और रंग के आधार पर भेदभाव असमानता को बढ़ाते रहे हैं।
  3. लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग-अलग चयन के कारण भी असमानताएँ पाई जाती हैं।
  4. जब लोगों के बरताव में कुछ असमानताएँ लंबे काल तक विद्यमान रहती हैं, तो वे हमें मनुष्य की प्राकृतिक विशेषताओं पर आधारित लगने लगती हैं। उदाहरण के लिए औरतें अनादि काल से ‘अबला’ कही जाती थीं।

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प्रश्न 2.
भारत में आर्थिक असमानता दर्शाने वाले कुछ आंकड़े।
यहाँ भारत की 2011 की जनगणना से लिए गए घरेलू सम्पदा और सुविधाओं के बारे में कुछ आंकड़े प्रस्तुत हैं। इन आंकड़ों को गाँव और शहर के बीच की असमानता को समझने के लिए पढ़िये। आपका परिवार इन आंकड़ों में कहाँ आता है?

परिवार जिनके पास है…… ग्रामीण परिवार % शहरी परिवार % अपने परिवार के लिए (√) या × लगाएँ
बिजली का कनेक्शन 55 93
मकान में सरकारी नल का कनेक्शन 35 71
मकान में स्नान घर 45 87
टेलिविजन 33 77
स्कूटर/मोपेड/मोटर 14 35
साइकिल 2 10

उत्तर:
अपने परिवार के लिए (√) या (×) का चिन्ह यह देखते हुए लगाएं कि आपके परिवार में ये सुविधाएँ हैं या नहीं हैं। हैं तो (√) और नहीं तो (×)

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प्रश्न 3.
इन चित्रों पर नजर डालें
JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता 1
ये चित्र क्या संकेत करते हैं?
उत्तर:
ये चित्र मनुष्यों के बीच नस्ल और रंग के आधार पर भेदभाव की ओर संकेत करते हैं। ये हममें से अधिकांश को अस्वीकार्य हैं। वास्तव में इस तरह के भेदभाव समानता के हमारे आत्मबोध का उल्लंघन करता है। समानता का हमारा आत्म-बोध कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और परवाह के हकदार हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता

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प्रश्न 4.
छात्र का कथन है कि “पुरुष स्त्रियों से बढ़कर हैं। यह एक प्राकृतिक असमानता है। आप इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कर सकते।” छात्रा का कथन है कि “मेरे हर विषय में तुमसे ज्यादा अंक आते हैं। मैं घर के काम में माँ का हाथ भी बंटाती हूँ। तुम मुझसे बढ़कर कैसे हो?” ये दोनों कथन प्राकृतिक असमानता के किस प्रकार के मिथ से संबंधित हैं?
उत्तर:
प्राकृतिक असमानता और सामाजिक असमानताएँ अलग-अलग होती हैं लेकिन इन दोनों तरह की असमानताओं में अन्तर हमेशा साफ और अपने आप में स्पष्ट नहीं होता। जब लोगों के बरताव में कुछ असमानताएँ लंबे काल तक विद्यमान रहती हैं, तो वे हमें मनुष्य की प्राकृतिक विशेषताओं पर आधारित लगने लगती हैं। ऐसा लगने लगता है कि वे जन्मगत हों और आसानी से बदल नहीं सकतीं। उदाहरण के लिए, औरतें अनादिकाल से अबला कही जाती थीं।

उन्हें भीरु और पुरुषों से कम बुद्धि का माना जाता था, जिन्हें विशेष संरक्षण की जरूरत थी। इसलिए यह मान लिया गया था कि औरतों को समान अधिकार से वंचित करना न्यायसंगत है। छात्र का कथन इसी तथ्य की ओर इंगित करता है। लेकिन छात्रा का कथन व उसके द्वारा दिये गए तथ्य इस मिथक को तोड़ते हैं और इस ओर संकेत करते हैं कि यह असमानता प्राकृतिक नहीं सामाजिक है और न्याससंगत नहीं है।

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प्रश्न 5.
शिक्षा में असमानता:
नीचे दी गई तालिका में विभिन्न समुदायों की शैक्षिक स्थिति से जुड़े कुछ आंकड़े दिए गए हैं।
1. इन समुदायों की शैक्षिक स्थिति में जो अन्तर है, क्या वे महत्त्वपूर्ण हैं?
2. क्या इन अन्तरों का होना केवल एक संयोग है या ये अन्तर जाति व्यवस्था के असर की ओर संकेत करते हैं?
3. आज यहाँ जाति-व्यवस्था के अलावा और किन कारणों का प्रभाव देखते हैं?
शहरी भारत में उच्च शिक्षा में जातिगत समुदायों में असमानता

जाति/समुदाय प्रति हजार लोगों में स्नातकों की संख्या
अनुसूचित जाति 47
मुस्लिम 61
हिन्दू (पिछड़ी जातियाँ) 86
अनुसूचित जनजाति 109
ईसाई 237
सिक्ख 250
हिन्दू उच्च जातियाँ 253
अन्य धार्मिक समुदाय 315
अखिल भारतीय औसत 155

उत्तर:

  1. हाँ, इन समुदायों की शैक्षिक स्थिति में जो अन्तर है, वह महत्त्वपूर्ण है।
  2. ये अन्तर जाति-व्यवस्था के असर की ओर संकेत करते हैं। इसमें स्पष्ट दिखाई देता है कि हिन्दू समाज की पिछड़ी जातियाँ तथा अनुसूचित जातियाँ जहाँ शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक पिछड़ी हुई हैं, वे राष्ट्रीय औसत से बहुत पीछे हैं, वहाँ हिन्दू समाज की उच्च जातियों का शैक्षिक स्तर राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है।
  3. दी गई तालिका में दर्शाये गए आंकड़ों से शिक्षा की स्थिति पर प्रभाव डालने वाले प्रमुख कारक ये बताए जा सकते हैं।

(क) जाति व्यवस्था:
हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था ने शिक्षा की स्थिति को प्रभावित किया है। दलित या पिछड़ी जातियों के लोगों को हिन्दू समाज में अध्ययन की सुविधाओं का अभाव था। जबकि उच्च जातियों को इन सुविधाओं से वंचित नहीं किया गया था। इस कारण शैक्षिक स्थितियों में काफी अन्तर देखा जा सकता है।

(ख) धर्म:
मुस्लिम समाज में जाति: पांति के न होने पर भी शिक्षा का स्तर अत्यधिक गिरा हुआ है, जबकि अन्य धर्मावलम्बियों का शिक्षा का स्तर अच्छा है।

(ग) आर्थिक असमानता:
भारत में आर्थिक असमानता ने भी शिक्षा पर प्रभाव डाला है। आर्थिक रूप विपन्न वर्ग, चाहे वह किसी भी जाति व धर्म का रहा हो, शिक्षा के क्षेत्र में, आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्ग की तुलना में और पिछड़ा रहा है; क्योंकि ऐसे परिवारों के बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएँ मुहैया नहीं हो पाती हैं; उन्हें शीघ्र ही अपने जीवनयापन के लिए मजदूरी के लिए दौड़ना पड़ता है।

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प्रश्न 6.
नीचे दी गई स्थितियों पर विचार करें। क्या इनमें से किसी भी स्थिति में विशेष और विभेदकारी बरताव करना न्यायोचित होगा?
1. कामकाजी महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिलना चाहिए।
2. एक विद्यालय में दो छात्र दृष्टिहीन हैं। विद्यालय को उनके लिए कुछ विशेष उपकरण खरीदने के लिए धनराशि खर्च करनी चाहिए।
3. गीता बास्केटबाल बहुत अच्छा खेलती है। विद्यालय को उसके लिए बास्केटबाल कोर्ट बनाना चाहिए जिससे वह अपनी योग्यता का और भी विकास कर सके।
4. जीत के माता-पिता चाहते हैं कि वह पगड़ी पहने। इरफान चाहते हैं कि वह जुम्मे (शुक्रवार) को नमाज पढ़े, ऐसी बातों को ध्यान में रखते हुए स्कूल को जीत से यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि वह क्रिकेट खेलते समय हेलमेट पहने और इरफान के अध्यापक को शुक्रवार को उससे दोपहर बाद की कक्षाओं के लिए रुकने को नहीं कहना चाहिए।
उत्तर:

  1. कामकाजी महिलाओं को मातृत्व अवकाश मिलना न्यायोचित होगा।
  2. दृष्टिहीन छात्रों के अध्यापन के लिए विद्यालय को उनके लिए कुछ विशेष उपकरण खरीदने हेतु धनराशि खर्च करना न्यायोचित होगा।
  3. केवल गीता के लिए बास्केटबाल कोर्ट बनाना न्यायोचित नहीं होगा; हाँ, यदि विद्यालय में बास्केटबाल के खेल को खिलाने के लिए सभी विद्यार्थियों या सभी खिलाड़ियों की दृष्टि से कोर्ट बनाना ही न्यायोचित होगा।
  4. हाँ, जीत को क्रिकेट खेलते समय हेलमेट पहनने तथा इरफान के अध्यापक को शुक्रवार को उससे दोपहर बाद की कक्षाओं के रुकने के लिए नहीं कहना चाहिए। दोनों ही स्थितियाँ न्यायोचित हैं।

Jharkhand Board Class 11 Political Science समानता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है जबकि कुछ अन्य का कहना है कि वास्तव में समानता प्राकृतिक है और जो असमानता हम चारों ओर देखते हैं उसे समाज ने पैदा किया है। आप किस मत का समर्थन करते हैं? कारण दीजिए।
उत्तर:
दोनों ही मतों में सत्यांश है और अलग-अलग दृष्टिकोण से दोनों ही सही हैं। यथा
1. समानता प्राकृतिक है:
जब हम यह कहते हैं कि समानता प्राकृतिक है, उसका आशय यह है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं। हर धर्म ईश्वर की रचना के रूप में मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। साझी मानवता की यह धारणा ही ‘सार्वभौमिक मानवाधिकार’ जैसी धारणाओं के पीछे हैं। इस प्रकार मानवता की दृष्टि से समानता प्राकृतिक है। लेकिन जन्मगत विशिष्टताओं और योग्यताओं की दृष्टि से समानता प्राकृतिक नहीं है।

2. असमानता प्राकृतिक भी है और सामाजिक भी: मैं इस मत का समर्थन करता हूँ कि असमानता प्राकृतिक भी है और सामाजिक भी। यथा

(i) प्राकृतिक असमानताएँ:
प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, योग्यताओं, विशिष्टताओं और उनके अलग-अलग चयन के कारण पैदा होती हैं। प्राय: प्राकृतिक असमानताओं को बदला नहीं जा सकता।

(ii) सामाजिक असमानताएँ:
समाजजनित असमानताएँ वे होती हैं, जो समाज में अवसरों की असमानता होने या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण किये जाने से पैदा होती हैं। बहुत सी सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में पद, धन, हैसियत या विशेषाधिकार की असमानता कायम रखती हैं। ये सभी असमानताएँ सामाजिक हैं। हम समाज में दोनों प्रकार की असमानताएँ देखते हैं। प्राकृतिक असमानताएँ जहाँ न्यायोचित हैं, वहीं सामाजिक असमानताएँ न्यायोचित नहीं हैं। इसलिए ऐसी असमानताओं पर हमारा ध्यान अधिक जाता है। लोकतांत्रिक राज्यों में ऐसी असमानताओं को दूर करने का प्रयास भी किया जा रहा है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता

प्रश्न 2.
एक मत है कि पूर्ण आर्थिक समानता न तो संभव है और न वांछनीय। एक समाज ज्यादा से ज्यादा बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। क्या आप इस तर्क से सहमत हैं? अपना तर्क दीजिये।
उत्तर:
हाँ, मैं इस तर्क से सहमत हूँ कि पूर्ण आर्थिक समानता न तो संभव है और न वांछनीय। एक समाज ज्यादा से ज्यादा बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। आर्थिक असमानता ऐसे समाज में विद्यमान होती है जिसमें व्यक्तियों और वर्गों के बीच धन, दौलत, आय में खासी भिन्नता हो। क्योंकि समाज में धन, दौलत या आय की पूरी समानता संभवत: कभी विद्यमान नहीं रही।

आज अधिकतर लोकतंत्र लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं। लेकिन समान अवसरों के साथ भी असमानता बनी रह सकती है, लेकिन इसमें यह संभावना हुई है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर बना सकता है। अतः स्पष्ट है कि चूंकि व्यक्तियों में प्राकृतिक रूप से प्रतिभा, क्षमता, योग्यता तथा जन्मगत विशिष्टताओं में भिन्नता होती है, इसी कारण उनमें पूर्ण आर्थिक समानता का होना संभव नहीं है।

लेकिन एक समाज बहुत अमीर और बहुत गरीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है क्योंकि अत्यधिक आर्थिक असमानता के जो सामाजिक कारण हैं, वे हैं- समाज में अवसरों की असमानता का होना या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण करना। इन कारणों का निवारण करके समाज आर्थिक असमानता की इस खाई को कम कर सकता है। इस हेतु वह औपचारिक (कानूनी तथा संवैधानिक) समान अवसरों की समानता प्रदान करके; असमानतामूलक सभी सामाजिक विशेषाधिकारों तथा निषेधों को समाप्त करके, अशक्तों और वंचितों को कुछ विशेष सुविधाएँ प्रदान करके इस खाई को कम कर सकता है।

प्रश्न 3.
नीचे दी गई अवधारणा और उसके उचित उदाहरणों में मेल बैठायें।

(क) सकारात्मक कार्यवाही (1) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।
(ख) अवसर की समानता (2) बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं।
(ग) समान अधिकार (3) प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिये।

उत्तर:

(क) सकारात्मक कार्यवाही का द्योतक है। बैंक वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज की ऊँची दर देते हैं।
(ख) अवसर की समानता का द्योतक है। प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिये।
(ग) समान अधिकार का द्योतक है। प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।

प्रश्न 4.
किसानों की समस्या से संबंधित एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार छोटे और सीमांत किसानों को बाजार से अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता। रिपोर्ट में सलाह दी गई कि सरकार को बेहतर मूल्य सुनिश्चित करने के लिये हस्तक्षेप करना चाहिये। लेकिन यह प्रयास केवल लघु और सीमांत किसानों तक ही सीमित रहना चाहिये। क्या यह सलाह समानता के सिद्धान्त से संभव है?
उत्तर:
हाँ, यह सलाह समानता के सिद्धान्त से संभव है। समानता के सिद्धान्त को यथार्थ में बदलने के लिए औपचारिक या कानूनी समानता पर्याप्त नहीं है। कभी-कभी यह सुनिश्चित करने के लिए कि लोग समान अधिकारों का उपभोग कर सकें; हमें प्रत्येक व्यक्ति को लगभग एक समान मानने तथा प्रत्येक को मूलतः समान मानने में अन्तर करना चाहिए। मूलत: समान व्यक्तियों को विशेष परिस्थितियों में अलग-अलग बरताव की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन ऐसे सभी मामलों में सर्वोपरि उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना होना चाहिए।

छोटे और सीमान्त किसानों को अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण बाजार से अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता। इन्हें उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए सरकार उन बाधाओं को दूर करने की नीतियाँ बनाकर समानता के सिद्धान्त व्यावहारिक बना सकती है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में से किस में समानता के किस सिद्धान्त का उल्लंघन होता है और क्यों?
(क) कक्षा का हर बच्चा नाटक का पाठ अपना क्रम आने पर पढ़ेगा।
(ख) कनाडा सरकार ने दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति से 1960 तक यूरोप के श्वेत नागरिकों को कनाडा में आने और बसने के लिये प्रोत्साहित किया।
(ग) वरिष्ठ नागरिकों के लिये अलग से रेलवे आरक्षण की एक खिड़की खोली गई।
(घ) कुछ वन क्षेत्रों को निश्चित आदिवासी समुदायों के लिये आरक्षित कर दिया गया है।
उत्तर:

  1. उपर्युक्त में (क) और (ग) कथन में समानता के किसी सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं हुआ है।
  2. (ख) कथन में रंग के आधार पर समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन है। समानता का औपचारिक सिद्धान्त यह है कि कानून सब मनुष्यों के साथ समानता का बर्ताव करेगा; जाति, धर्म, रंग, लिंग के आधार पर कोई भेदभावपूर्ण कानून नहीं बनायेगा। लेकिन कनाडा की सरकार ने समानता के इस सिद्धान्त का उल्लंघन करते हुए रंग के आधार पर भेदभावपूर्ण कानून बनाया और द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति से 1960 तक यूरोप के श्वेत नागरिकों को ही कनाडा में आने और बसने के लिए प्रोत्साहित किया।
  3. (घ) कथन में प्राकृतिक समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है, क्योंकि प्रकृति सभी के लिए है। कुछ वन क्षेत्र को केवल निश्चित आदिवासी समुदायों के लिए नहीं बल्कि सभी आदिवासी समुदायों, चाहे वे किसी धर्म, जाति, वंश या नस्ल के अन्तर्गत आते हों, के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए। ऐसा न होने पर असमानता का विकास होगा।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता

प्रश्न 6.
यहाँ महिलाओं को मताधिकार देने के पक्ष में कुछ तर्क दिये गये हैं। इनमें से कौनसे तर्क समानता के विचार से संगत हैं? कारण भी दीजिये।
(क) स्त्रियाँ हमारी माताएँ हैं। हम अपनी माताओं को मताधिकार से वंचित करके अपमानित नहीं करेंगे।
(ख) सरकार के निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं इसलिये शासकों के चुनाव में उनका भी मत होना चाहिये ।
(ग) महिलाओं को मताधिकार न देने से परिवारों में मतभेद पैदा हो जायेंगे।
(घ) महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है। मताधिकार से वंचित करके लंबे समय तक उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता है।
उत्तर:
उपर्युक्त में (ख) “सरकार के निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी प्रभावित करते हैं। इसलिए शासकों के चुनाव में उनका भी मत होना चाहिए।” तथा (घ ) ” महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है। मताधिकार से वंचित करके लम्बे समय तक उन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता है। ” के तर्क समानता के विचार से संगत हैं क्योंकि

  1. समानता की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि जाति, नस्ल, धर्म या लिंग पर ध्यान दिए बिना ‘सभी नागरिकों के साथ कानून एक समान बर्ताव करे’ इसलिए मताधिकार के अधिकार को लिंग के आधार पर न दिया जाना समानता के औपचारिक सिद्धान्त के अनुकूल है।
  2. समानता का दावा है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य (स्त्री और पुरुष दोनों) समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं। साझी मानवता की यह धारणा ही ‘सार्वभौमिक मताधिकार’ का सबल समर्थन करती है।
  3. स्त्री और पुरुष के बीच की असमानता: जैविक या लिंगभेद प्राकृतिक और जन्मजात है। इस आधार पर स्त्रियों को मताधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
  4. लोकतंत्र में सरकार जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों से बनती है और उसके निर्णय सम्पूर्ण समाज (स्त्री और पुरुष दोनों) को प्रभावित करते हैं। ये निर्णय पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी समान रूप से प्रभावित करते हैं। इसलिए शासकों के चुनाव में समाज के समस्त वयस्क नागरिकों को मत देने का अधिकार होना चाहिए। इस दृष्टि से शासकों के चुनाव में महिलाओं को भी मताधिकार मिलना चाहिए। चूंकि महिलाओं से मिलकर आधी दुनिया बनती है, अतः महिलाओं को मताधिकार से वंचित रखना समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन है।

समानता JAC Class 11 Political Science Notes

→ समानता महत्त्वपूर्ण क्यों है?
समानता एक शक्तिशाली नैतिक और राजनीतिक आदर्श के रूप में कई शताब्दियों से मानव समाज को प्रेरित और निर्देशित करता रहा है। यथा-

→ समानता की बात सभी आस्थाओं और धर्मों में समाविष्ट है।

→ समानता की अवधारणा एक राजनीतिक आदर्श के रूप में उन विशिष्टताओं पर बल देती है जिसमें सभी मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के फर्क के बाद भी साझेदार होते हैं।

→ समानता का दावा है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं। ‘सार्वभौमिक मताधिकार’ या ‘मानवता के प्रति अपराध’ जैसी धारणाओं के पीछे यही साझी मानवंता की धारणा रहती है। आधुनिक काल में ‘सभी मनुष्यों की समानता’ का राजसत्ता के खिलाफ संघर्षों में एकजुटता लाने वाले नारे के रूप में इस्तेमाल किया गया है।

→ आज समानता व्यापक रूप से स्वीकृत आदर्श है, जिसे अनेक देशों के संविधान और कानूनों में सम्मिलित किया गया है। फिर भी समाज में हमारे चारों ओर समानता की बजाय असमानता नजर आती है। इस संसार में धन- संपदा, अवसर, कार्य स्थिति और शक्ति की भारी असमानता है। इससे यह प्रश्न उठते हैं कि ये असमानताएँ सामाजिक जीवन के स्थायी और अपरिहार्य लक्षण हैं, जो मनुष्यों की प्रतिभा और योग्यता के साथ-साथ सामाजिक विकास और सम्पन्नता में उनके योगदान के अन्तर को भी प्रतिबिंबित करते हैं? क्या ये असमानताएँ हमारी सामाजिक स्थिति और नियमों के कारण पैदा होती हैं? इस तरह के प्रश्नों ने समानता को सामाजिक और राजनीतिक सिद्धान्त का केन्द्रीय विषय बना दिया है।

→ समानता क्या है?
समानता का हमारा आत्म-बोध कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और परवाह के हकदार हैं। लेकिन इसका आशय हमेशा एक जैसा व्यवहार करने से नहीं है क्योंकि कोई भी समाज अपने सभी सदस्यों के साथ सभी स्थितियों में पूर्णतया एक समान बरताव नहीं कर सकता है। समाज के सहज कार्य-व्यापार के लिए कार्य का विभाजन आवश्यक है। अलग-अलग काम से लोगों का अलग-अलग महत्त्व व लाभ होता है। कई बार इस बरताव में यह अन्तर न केवल स्वीकार्य हो सकता है, बल्कि आवश्यक भी लग सकता है। लेकिन कुछ अलग किस्म की असमानताएँ अन्यायपूर्ण लग सकती हैं। इसलिए यह प्रश्न उठता है कि कौन-सी विशिष्टताएँ और विभेद स्वीकार किये जाने योग्य हैं और कौन-से नहीं।

जन्म, धर्म, नस्ल, जाति या लिंग के आधार पर की जाने वाली असमानताओं को हम अस्वीकार करते हैं। लेकिन अपनी आकांक्षाओं, लक्ष्यों और क्षमताओं व प्रयासों के आधार पर स्थापित होने वाली असमानताओं को हम अस्वीकार नहीं कर सकते। निष्कर्ष यह है कि हमसे जो व्यवहार किया जाता है और हमें जो भी अवसर प्राप्त होते हैं, वे जन्म या सामाजिक परिस्थितियों से निर्धारित नहीं होने चाहिए। अवसरों की समानता समानता की अवधारणा में यह निहित है कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और अवसरों के हकदार हैं।

→ प्राकृतिक और सामाजिक असमानताएँ:
राजनैतिक सिद्धान्त में प्राकृतिक असमानताओं और समाजजनित असमानताओं में अन्तर किया जाता है।

→ प्राकृतिक असमानताएँ: प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग- अलग चयन के कारण पैदा होती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ समाज में अवसरों की असमानता होने या शोषण किये जाने से पैदा होती हैं।

→ प्राकृतिक असमानताएँ लोगों की जन्मगत विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम मानी जाती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ समाज द्वारा पैदा की गई होती हैं।

→ प्राकृतिक असमानताएँ अपरिवर्तनीय होती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ अपरिवर्तनीय नहीं होतीं। प्राकृतिक और समाजजनित असमानताओं में अन्तर करना इसलिए उपयोगी है कि इससे स्वीकार की जा सकने लायक और अन्यायपूर्ण असमानताओं को अलग-अलग करने में मदद मिलती है। लेकिन (क) इनसे हमेशा अन्तर साफ और स्पष्ट नहीं होता, विशेषकर जब समाजजनित असमानताओं ने परम्पराओं और प्रथाओं का रूप ले लिया हो। (ख) प्राकृतिक मानी गई कुछ भिन्नताएँ अब अपरिवर्तनीय नहीं रहीं। विज्ञान और तकनीकी प्रगति से यह संभव बनाया है।

इसीलिए आज यदि विकलांग लोगों को उनकी विकलांगता से उबरने के लिए जरूरी मदद और उनके कामों के लिए उचित पारिश्रमिक देने से इस आधार पर इनकार कर दिया जाये कि प्राकृतिक रूप से वे कम सक्षम हैं, तो यह अधिकतर लोगों को अन्यायपूर्ण लगेगा। इसलिए प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं के अन्तर को किसी समाज के कानून और नीतियों का निर्धारण करने में मानदण्ड के रूप में उपयोग करना कठिन होता है। इसलिए बहुत से सिद्धान्तकार अपने चयन से पैदा हुई असमानता और व्यक्ति के विशेष परिवार या परिस्थितियों में जन्म लेने से पैदा हुई असमानता में अन्तर करते हैं। यह दूसरी तरह की असमानता ही समानता के पक्षधर लोगों के सरोकार का स्रोत है। वे चाहते हैं। कि परिवेश से जन्मी असमानता को न्यूनतम और समाप्त किया जाये।

→ समानता के तीन आयाम:
समाज में व्याप्त अलग-अलग तरह की असमानताओं को पहचानते समय विभिन्न विचारकों और विचारधाराओं ने समानता के तीन आयामों को रेखांकित किया है। ये हैं।

  • राजनीतिक,
  • सामाजिक और
  • आर्थिक। यथा।

→ राजनीतिक समानता:
लोकतांत्रिक समाजों में सभी सदस्यों को समान नागरिकता प्रदान करना राजनीतिक समानता में शामिल है। समान नागरिकता के साथ मतदान का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आने-जाने की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की स्वतंत्रता तथा धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता प्राप्त होती है। ये ऐसे अधिकार हैं जो नागरिकों को अपना विकास करने तथा राज्य के काम-काज में भाग लेने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक माने जाते हैं। ये केवल औपचारिक अधिकार हैं जिन्हें संविधान और कानूनों द्वारा सुनिश्चित किया गया है।

→ सामाजिक समानता:
सामाजिक समानता से आशय है-अवसरों की समानता तथा समाज में सभी सदस्यों के जीवन-यापन के लिए अन्य चीजों के अतिरिक्त पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी शिक्षा पाने का अवसर, उचित पोषक आहार व न्यूनतम वेतन जैसी कुछ न्यूनतम चीजों की गारंटी। इनके अभाव में समाज में अवसरों की समानता व्यावहारिक नहीं हो सकती।

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→ आर्थिक समानता:
आर्थिक असमानता ऐसे समाज में विद्यमान होती है जिसमें व्यक्तियों और वर्गों के बीच धन, दौलत, आय में खासी भिन्नता हो। लोकतंत्र में लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता है, जिसमें यह संभावना छुपी है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर कर सकता है। लेकिन पीढ़ीगत आर्थिक असमानताएँ समाज को वर्गों में बांट देती हैं। एक ओर अल्पसंख्यक साधन-सम्पन्न धनी वर्ग (पूँजीपति वर्ग) होता है तो दूसरी ओर साधनहीन बहुसंख्यक गरीब वर्ग होता है। अमीर वर्गों की शक्ति के कारण ऐसे समाज को खुला व समतावादी बनाने के लिए सुधारना ज्यादा कठिन साबित हो सकता है।

→ मार्क्सवादी विचारधारा
मार्क्स के अनुसार खाईनुमा असमानताओं का मूल कारण महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों पर निजी स्वामित्व है। निजी स्वामित्व मालिकों के वर्ग को अमीर (धनी) बनाने के साथ-साथ राजनीतिक ताकत भी देता है जो उन्हें राज्य की नीतियों और कानूनों को प्रभावित करने में सक्षम बनाता है और वे लोकतांत्रिक सरकार के लिए खतरा साबित हो सकते हैं। मार्क्स के अनुसार आर्थिक असमानताएँ सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा देती हैं, इसलिए समाज में असमानता से निबटने के लिए उत्पादन के साधनों व सम्पत्ति पर जनता का नियंत्रण होना आवश्यक है।

→ उदारवादी विचारधारा
उदारवादी समाज में संसाधनों और लाभांशों के वितरण के सर्वाधिक कारगर और उचित तरीके के रूप में प्रतिद्वन्द्विता के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। उनका मानना है कि जब तक प्रतिस्पर्द्धा स्वतंत्र और खुली होगी,
असमानता की खाइयाँ नहीं बनेंगी और लोगों को अपनी प्रतिभा और प्रयासों का लाभ मिलता रहेगा। उदारवादियों के लिए नौकरियों में नियुक्ति और शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए चयन के उपाय के रूप में प्रतिस्पर्द्धा का सिद्धान्त सर्वाधिक न्यायोचित और कारगर है। उदारवादियों का मानना है कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ परस्पर जुड़ी हुई नहीं हैं।

इनमें से हर क्षेत्र की असमानताओं का निराकरण ठोस ढंग से करना चाहिए। लोकतंत्र राजनैतिक समानता प्रदान करने का साधन है और आर्थिक तथा सामाजिक समानता की स्थापना के लिए विविध रणनीतियों की खोज करने की आवश्यकता है। हम समानता को बढ़ावा कैसे दे सकते हैं? समानता को बढ़ावा देने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने आवश्यक हैं।

→ औपचारिक समानता की स्थापना:
समानता लाने की दिशा में पहला कदम असमानता और विशेषाधिकार की औपचारिक व्यवस्था को समाप्त करना होगा। चूंकि ऐसी बहुत सी व्यवस्थाओं को कानून का समर्थन प्राप्त है, इसलिए सरकार और कानून को असमानता की व्यवस्थाओं को संरक्षण देना बन्द करना आवश्यक है। अधिकतर लोकतांत्रिक संविधान और सरकारें औपचारिक रूप से समानता के सिद्धान्त को स्वीकार कर चुकी हैं। इनमें सभी | नागरिकों को कानून का समान संरक्षण तथा कानून के समक्ष समानता को स्वीकार किया गया है।

→ विभेदक बरताव द्वारा समानता:
समानता के सिद्धान्त को यथार्थ में बदलने के लिए कानून के समक्ष समानता ( औपचारिक समानता) पर्याप्त नहीं है, इसलिए वंचित वर्गों को यथार्थ में समानता प्रदान करने के लिए कुछ विशेष सुविधाएँ देने की आवश्यकता होती है। इसे विभेदक बरताव द्वारा समानता की स्थापना कहा जाता है। कुछ देशों ने अवसरों की समानता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक कार्यवाही’ की नीतियाँ अपनाई हैं। भारत में इस हेतु आरक्षण की नीति अपनाई है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 समानता

→ सकारात्मक कार्यवाही:
सकारात्मक कार्यवाही इस विचार पर आधारित है कि कानून द्वारा औपचारिक समानता स्थापित कर देना पर्याप्त नहीं है। इस हेतु कुछ सकारात्मक कदम उठाये जाने आवश्यक हैं। सकारात्मक कार्यवाही की अधिकतर नीतियाँ अतीत की असमानताओं के संचयी दुष्प्रभावों को दुरुस्त करने के लिए बनाई जाती हैं। जैसे – वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और होस्टल जैसी सुविधाओं, नौकरियों के लिए प्रवेश हेतु विशेष नीतियाँ बनाना । इन नीतियों के द्वारा वंचित समुदायों, जो अन्य लोगों से समानता के आधार पर प्रतिस्पर्द्धा करने में सक्षम नहीं हैं, को सहायता देना। आरक्षण का प्रावधान एक ऐसी ही सकारात्मक कार्यवाही का उदाहरण है। सकारात्मक कार्यवाही के रूप में विशेष सहायता को एक निश्चित अवधि तक चलने वाला तदर्थ उपाय माना गया है।

सकारात्मक कार्यवाही अर्थात् आरक्षण की नीतियों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। समान अवसर के लक्ष्य से सभी सहमत हैं। विवाद उन नीतियों के बारे में है जो राज्य को इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनानी चाहिए। क्या राज्य को वंचित समुदायों के लिए कुछ स्थान आरक्षित कर देने चाहिए या उन्हें कम उम्र से ही विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि इन बच्चों की योग्यता और प्रतिभा का विकास हो सके? इसी प्रकार वंचित कौन है? वंचित की पहचान आर्थिक आधार पर की जाये या सामाजिक आधार पर?

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि मूलतः समान व्यक्तियों को विशेष स्थितियों में अलग-अलग बरताव की जरूरत हो सकती है। लेकिन ऐसे सभी मामलों में सर्वोपरि उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना ही होगा। विशेष बरताव के लिए औचित्य सिद्ध करना और सावधानीपूर्वक विचार करना आवश्यक है। हमें इस सम्बन्ध में यह सावधानी भी बरतनी चाहिए कि विशेष बरताव वर्चस्व या शोषण की नई संरचनाओं को जन्म न दे। विशेष बरताव का उद्देश्य और औचित्य एक न्यायपरक और समतामूलक समाज को बढ़ावा देना है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

Jharkhand Board Class 11 Political Science स्वतंत्रता InText Questions and Answers

पृष्ठ 25

प्रश्न 1.
यदि अपने परिधान का चयन अपनी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है तो नीचे दी गई उन स्थितियों को किस तरह देखेंगे जिनमें खास तरह के परिधान पर प्रतिबंध लगाया गया है?
1. माओ के शासनकाल में चीन में सभी लोगों को ‘माओ सूट’ पहनना पड़ता था। तर्क यह था कि यह समानता की अभिव्यक्ति है।
2. एक मौलवी द्वारा सानिया मिर्ज़ा के खिलाफ फतवा जारी किया गया; क्योंकि उसका पहनावा उस पहनावे के खिलाफ माना गया जो महिलाओं के लिए तय किया गया है।
3. क्रिकेट के टैस्ट मैचों में यह जरूरी है कि हर खिलाड़ी सफेद कपड़े पहने।
4. छात्र-छात्राओं को विद्यालय में एक निर्धारित वेशभूषा में रहना पड़ता है।
उत्तर:

  1. “माओ के शासन काल में चीन में सभी लोगों को ‘माओ सूट’ पहनना पड़ता था।” यह परिधान के चयन की चीनी लोगों की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध था। क्योंकि यह प्रतिबन्ध राज्यशक्ति के बल पर लगाए गए थे, जिनके खिलाफ लड़ना मुश्किल था।
  2. एक मौलवी द्वारा सानिया मिर्जा के पहनावे के खिलाफ फतवा जारी करना भी पहनावे के चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध था । धार्मिक नेताओं को अपने धार्मिक क्षेत्र के बाहर समाज के अन्य कार्यस्थलों में पहनावे की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई अधिकार नहीं है।
  3. ‘क्रिकेट के टैस्ट मैचों में यह जरूरी है कि हर खिलाड़ी सफेद कपड़े पहने।’ यह अपने परिधान में चयन की अपनी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध नहीं है; क्योंकि खेल के नियम के तहत खिलाड़ियों ने स्वेच्छापूर्वक इस नियम को स्वीकार किया है, जो खेल के नियमों की परम्परा के रूप में माना जा रहा है, इससे खिलाड़ियों की स्वतंत्रता सीमित नहीं होती है।
  4. ‘छात्र-छात्राओं को विद्यालय में एक निर्धारित वेश-भूषा में रहना पड़ता है।’ यह विद्यालय के विद्यार्थियों की पहचान हेतु विद्यालय प्रशासन के एक नियम के रूप में पालन किया जाता है। इससे परिधान पहनने की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई प्रतिबंध नहीं लगता है; क्योंकि विद्यालय के बाहर छात्र को इसकी पूर्ण स्वतंत्रता है।

प्रश्न 2.
मनचाहे परिधान पर प्रतिबंध सभी मामलों में न्यायोचित है या केवल कुछ में? यह स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध का मामला कब बन जाता है?
उत्तर:
मनचाहे परिधान पर प्रतिबंध केवल कुछ मामलों में ही न्यायोचित है, सभी मामलों में नहीं। जब ये प्रतिबन्ध किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता द्वारा या राज्य की शक्ति के बल पर लोगों की इच्छा के विरुद्ध जबरन लाद दिये जाते हैं, तो यह मनचाहे परिधान पहनने की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध का मामला बन जाते हैं। लेकिन जब ये प्रतिबन्ध किसी क्षेत्र विशेष में, विशेष कार्य के दौरान, विशिष्ट कार्य के लिए नियम के रूप में लगाए जाते हैं।

तो इन प्रतिबन्धों से परिधान चयन की स्वतंत्रता का हनन नहीं होता है, जैसे टैस्ट क्रिकेट के खिलाड़ियों पर सफेद कपड़े पहनने का नियम, विद्यालय के छात्रों को निर्धारित गणवेश में आने का नियम । लेकिन जब ये प्रतिबन्ध किसी संगठित (सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक) सत्ता द्वारा सामान्य रूप से जबरन शक्ति के बल पर लादे जाते हैं, जैसे माओ काल में माओ सूट पहनने का प्रतिबन्ध या किसी मौलवी द्वारा किसी विशेष पहनावे को लादना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कटौती करते हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 3.
परिधान के चयन की हमारी स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों को लगाने का अधिकार किसको है?
1. क्या धार्मिक नेताओं को परिधान के मामले में निर्णय देने का अधिकार होना चाहिए?
2. क्या यह राज्य को तय करना चाहिए कि कोई क्या पहने?
3. क्या क्रिकेट खेलते समय खिलाड़ियों के पहनावे के नियम तय करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड उपयुक्त संस्था है?
उत्तर:

  1. धार्मिक नेताओं को परिधान के मामले में निर्णय देने का अधिकार नहीं होना चाहिए।
  2. नहीं, राज्य को यह तय नहीं करना चाहिए कि कोई क्या पहने।
  3. हाँ, क्रिकेट खेलते समय खिलाड़ियों के पहनावे के नियम तय करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड उपयुक्त’ संस्था है।

प्रश्न 4.
क्या प्रतिबंध आरोपित करना अन्यायपूर्ण होता है? क्या यह कई तरीके से व्यक्तियों की अभिव्यक्ति को कम करते हैं?
उत्तर:
परिधान चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध आरोपित करना हमेशा अन्यायपूर्ण नहीं होता है। यदि ये प्रतिबन्ध किसी विशेष संस्था, जैसे: स्कूल, क्रिकेट संघ आदि ने उनके व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से संस्था के नियमों केतहत लगाये गए हों, तो वे अन्यायपूर्ण नहीं होते हैं। दूसरे शब्दों में, औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध अर्थात् यदि उन प्रतिबंधों के पीछे तार्किकता है कि वे जिन पर लगाये जा रहे हैं: औचित्यपूर्ण हैं। लेकिन जब ये प्रतिबंध किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता या राज्य की शक्ति के बल पर आरोपित किये जाते हैं;

तब ये हमारी स्वतंत्रता की कटौती इस प्रकार करते हैं कि उनके खिलाफ लड़ना मुश्किल हो जाता है। अत: जब हमें किन्हीं स्थितियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाता है, तब ये प्रतिबंध हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करते हैं। यह कई तरीके से व्यक्तियों की अभिव्यक्ति को कम करते हैं, जैसे।

  1. माओ के शासनकाल में चीन में सभी लोगों को माओ सूट पहनने के लिए बाध्य किया गया। इसने व्यक्ति की परिधान के चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को कम किया।
  2. किसी मौलवी द्वारा स्त्रियों के किसी पहनावे के खिलाफ फतवा जारी करना भी परिधानों के चयन की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित करता है।

Jharkhand Board Class 11 Political Science स्वतंत्रता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता से क्या आशय है? क्या व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता में कोई सम्बन्ध है?
उत्तर:
स्वतंत्रता का अर्थ-स्वतंत्रता के दो पक्ष हैं।

  1. व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव और
  2. ऐसी स्थितियों का होना, जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें। राजनीतिक सिद्धान्त में इन्हें क्रमशः स्वतंत्रता के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू कहा जाता है। यथा

1. स्वतंत्रता का नकारात्मक अर्थ:
नकारात्मक दृष्टि से ‘व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव ही स्वतंत्रता है।’ इस दृष्टिकोण से यदि किसी व्यक्ति पर बाहरी नियंत्रण या दबाव न हों और वह बिना किसी पर निर्भर हुए निर्णय ले सके तथा स्वायत्त तरीके से व्यवहार कर सके, तो वह व्यक्ति स्वतंत्र माना जा सकता है। लेकिन समाज में रहने वाला कोई भी व्यक्ति हर किस्म की सीमा और प्रतिबन्धों की पूर्ण अनुपस्थिति की उम्मीद नहीं कर सकता। अतः बाहरी प्रतिबन्धों के अभाव से आशय उन सामाजिक प्रतिबन्धों का कम से कम होना है, जो हमारी स्वतंत्रतापूर्वक चयन करने की क्षमता पर रोक-टोक लगाते हैं।

2. स्वतंत्रता का सकारात्मक अर्थ – सकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति की आत्म-अभिव्यक्ति की योग्यता का विस्तार करना और उसके अन्दर की संभावनाओं को विकसित करना है। इस अर्थ में स्वतंत्रता वह स्थिति है, जिसमें लोग अपनी रचनात्मकता और क्षमताओं का विकास कर सकें। अतः सकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता से आशय ऐसी स्थितियों के होने से है जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें।

अतः स्वतंत्रता वह सब कुछ करने की शक्ति है जिससे किसी दूसरे को आघात न पहुँचे। व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता में सम्बन्ध व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता दोनों परस्पर पूरक हैं। राष्ट्र की स्वतंत्रता में ही व्यक्ति की स्वतंत्रता संभव है। इसे निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।

  1. यदि एक राष्ट्र किसी अन्य शक्तिशाली राष्ट्र के अधीन है तो वह राष्ट्र स्वतंत्र नहीं है। ऐसे राष्ट्र के सदस्य स्वतंत्रता की आशा नहीं कर सकते। साम्राज्यवादी राष्ट्र अपने अधीन राष्ट्र के लोगों की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबंध लाद देता है। स्पष्ट है कि यदि राष्ट्र स्वतंत्र नहीं है तो उस राष्ट्र के व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबन्ध लगे होते हैं।
  2. एक गुलाम राष्ट्र के लोगों को अन्य राष्ट्रों में वही आदर व सम्मान नहीं मिलता है, जो एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों को मिलता है।
  3. एक परतंत्र राष्ट्र अपने नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से अपने समस्त संसाधनों का उपयोग नहीं कर पाता है; क्योंकि विदेशी शासक उन संसाधनों का उपयोग अपने देश के हित की दृष्टि से करते हैं।
  4. एक परतंत्र राष्ट्र के लोगों का आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक दृष्टि से शोषण किया जाता है।
  5. एक परतंत्र राष्ट्र के लोग अपनी पसंद की सरकार का चयन नहीं कर सकते। उन्हें स्वयं की सरकार चलाने की स्वतंत्रता नहीं मिलती।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि एक राष्ट्र की स्वतंत्रता और व्यक्तियों की स्वतंत्रता परस्पर पूरक हैं। एक स्वतंत्र राष्ट्र में ही लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हो सकती है, जिसमें व्यक्तियों की स्वतंत्रता संभव है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 2.
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में क्या अन्तर है?
उत्तर:
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में अन्तर स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं।

  1. स्वतंत्रता की नकारात्मक अवधारणा से आशय है। बाहरी प्रतिबन्धों के अभाव के रूप में स्वतंत्रता, जबकि स्वतंत्रता की सकारात्मक अवधारणा से आशय है- स्वयं को अभिव्यक्त करने के अवसरों के विस्तार के रूप में स्वतंत्रता। दूसरे शब्दों में, नकारात्मक स्वतंत्रता से आशय बंधनों के न होने से है, जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता से आशय अनुचित बंधनों के न होने से है।
  2. नकारात्मक स्वतंत्रता का सरोकार अहस्तक्षेप के अनुलंघनीय क्षेत्र से है। नकारात्मक स्वतंत्रता अहस्तक्षेप के क्षेत्र का अधिकाधिक विस्तार करना चाहती है। दूसरी तरफ, सकारात्मक स्वतंत्रता के पक्षधरों का मानना है कि व्यक्ति केवल समाज में ही स्वतंत्र हो सकता है, समाज से बाहर नहीं। इसीलिए वह समाज को ऐसा बनाने का प्रयास करते हैं, जो व्यक्ति के विकास का रास्ता साफ करे। इस प्रकार सकारात्मक स्वतंत्रता का सम्बन्ध समाज की सम्पूर्ण दशाओं से है, न कि केवल कुछ क्षेत्र से।
  3. नकारात्मक स्वतंत्रता का तर्क होता है कि वह कौन-सा क्षेत्र है, जिसका स्वामी मैं हूँ? नकारात्मक स्वतंत्रतां का तर्क यह स्पष्ट करता है कि व्यक्ति क्या करने में मुक्त (स्वतंत्र ) है। इसके उलट सकारात्मक स्वतंत्रता के तर्क ‘कुछ करने की स्वतंत्रता’ के विचार की व्याख्या से जुड़े हैं। ये तर्क इस सवाल के जवाब में आते हैं कि ‘मुझ पर शासन कौन करता है?’ और इसका आदर्श उत्तर होगा, “मैं स्वयं पर शासन करता हूँ ।” इसका सरोकार व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों को इस तरह सुधारने से है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में कम से कम अवरोध रहे।
  4. नकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य का व्यक्ति पर बहुत सीमित नियंत्रण होता है, इसके अनुसार राज्य स्वतंत्रताओं का शत्रु है जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विकास के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप कर सकता है क्योंकि राज्य स्वतंत्रता का शत्रु न होकर स्वतंत्रता में सहायक है।
  5. नकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार वह शासन सर्वोत्तम है, जो व्यक्ति के कम से कम क्षेत्र में हस्तक्षेप करता है अर्थात् कम से कम शासन करता है, जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार राज्य को नागरिकों के कल्याण हेतु सभी क्षेत्रों में कानून बनाकर हस्तक्षेप करने का अधिकार है।
  6. नकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा पहुँचाता है अर्थात् कानून और स्वतंत्रता परस्पर विरोधी हैं; जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता के अनुसार कानून व्यक्ति की स्वतंत्रता में वृद्धि करता है; अर्थात् कानून व स्वतंत्रता परस्पर पूरक हैं।

प्रश्न 3.
सामाजिक प्रतिबन्धों से क्या आशय है? क्या किसी भी प्रकार के प्रतिबंध स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं?
उत्तर:
सामाजिक प्रतिबन्धों से आशय: एक सामाजिक प्रतिबंध सम्पूर्ण समाज के हित तथा कल्याण के लिए व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर लगाए जाने वाला प्रतिबन्ध है। समाज में रहते हुए कोई भी व्यक्ति सामाजिक प्रतिबन्धों से पूर्णत: मुक्त नहीं हो सकता। समाज में व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों का होना आवश्यक है। इसीलिए कहा जाता है कि स्वतंत्रता का अर्थ प्रतिबंधों का अभाव नहीं है, बल्कि औचित्यपूर्ण प्रतिबंधों का होना है।एक व्यक्ति, जब जंगल में अकेला रहता है, वहाँ वह जो चाहे करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन एक समाज में रहते हुए वह मनचाहे कार्य करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता।

समाज में रहते हुए एक व्यक्ति को अपने स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करते समय समाज के अन्य लोगों की सुविधाओं और असुविधाओं को ध्यान में रखना पड़ता है। उदाहरण के लिए मुझे अपना वाहन चलाने की स्वतंत्रता है, लेकिन वाहन चलाते समय मुझे यह ध्यान रखना पड़ेगा कि वह वाहन चलाने की दूसरों की स्वतंत्रता में बाधक न बने। इसलिए वाहन चलाने की मेरी स्वतंत्रता पर यह प्रतिबंध लगाया गया है कि मैं अपना वाहन सड़क के बायीं ओर ही चलाऊँ, न कि दोनों तरफ; ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने वाहन चलाने की स्वतंत्रता का बिना किसी व्यवधान के उपभोग कर सके।

अतः व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर सामाजिक प्रतिबन्ध इसलिए लादे जाते हैं, ताकि सभी व्यक्ति उस स्वतंत्रता का आनंद ले सकें। केवल औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध (Reasonable Constraints) ही स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं। समाज में समस्त प्रतिबंधों को स्वतंत्रता के लिए आवश्यक नहीं कहा जा सकता। जो प्रतिबंध औचित्यपूर्ण नहीं हैं, वे स्वतंत्रता के जो लिए आवश्यक नहीं है। केवल औचित्यपूर्ण प्रतिबंध ही स्वतंत्रता के लिए आवश्यक हैं। औचित्यपूर्ण प्रतिबंध वे हैं, कि स्वतंत्रता को उपभोग्य योग्य बनाते हैं तथा व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हितकारी होते हैं तथा वे स्वतंत्रता के कार्य-क्षेत्र का विस्तार करते हैं।

ऐसे प्रतिबन्धों के स्रोत हैं। लोगों की स्वेच्छा, प्रतिनिध्यात्मक तथा उत्तरदायी सरकार द्वारा निर्मित कानून, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायालय के निर्णय तथा लोकतांत्रिक राज्यों के संविधान औचित्यपूर्ण प्रतिबंध समाज के सदस्यों की स्वेच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं। समाज में स्वतंत्रता पर औचित्यपूर्ण प्रतिबन्धों की आवश्यकता के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं।
1. लोगों के कार्यों पर प्रतिबन्धों के बिना समाज में रहना संभव नहीं है- लोगों के कार्यों पर प्रतिबंधों के बिना समाज में अराजकता फैल जाएगी, यह अव्यवस्था के गर्त में पहुँच जायेगा।

2. समाज के संघर्षों व हिंसा पर नियंत्रण के लिए प्रतिबन्धों की आवश्यकता है। लोगों के बीच मत-मतांतर हो सकते हैं, उनकी महत्त्वाकांक्षाओं में टकराव हो सकते हैं, वे सीमित साधनों के लिए प्रतिस्पद्ध हो सकते हैं। प्रतिबन्धों के अभाव में ऐसे अन्यान्य कारणों से समाज के लोग परस्पर संघर्षरत हो सकते हैं। ये संघर्ष कई बार हिंसा और जन हानि तक ले जाते हैं। इसलिए हर समाज को हिंसा पर नियंत्रण और विवाद के निपटारे के लिए कोई न कोई तरीका अपनाना आवश्यक होता है। ऐसे किसी भी तरीके में व्यक्ति के कार्यों की निरपेक्ष स्वतंत्रता पर औचित्यपूर्ण प्रतिबन्ध ही होते हैं।

3. समाज के निर्माण के लिए भी कुछ प्रतिबन्धों की आवश्यकता होती है -कुछ ऐसे कानूनी और राजनैतिक प्रतिबन्ध होने चाहिए, जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि एक समूह के विचारों को दूसरे पर आरोपित किए बिना आपसी अंतरों पर चर्चा और वाद-विवाद हो सके। बदतर स्थिति में हमें किसी के विचारों से एकरूप हो जाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में हमें अपनी स्वतंत्रता को बचाने के लिए कानून के संरक्षण की और भी ज्यादा जरूरत होती है।

4. घृणा के प्रचार तथा गंभीर क्षति पहुंचाने वाले कार्यों पर प्रतिबन्ध आवश्यक – घृणा का प्रचार और गंभीर क्षति पहुँचाने वाले कार्यों पर प्रतिबंध लगाया जाना आवश्यक होता है, लेकिन ये प्रतिबन्ध इतने कड़े न हों कि स्वतंत्रता ही नष्ट हो जाये।

5. औचित्यपूर्ण प्रतिबंधों का स्वरूप – प्रतिबन्ध औचित्यपूर्ण होने चाहिए। समाज में स्वतंत्रता की रक्षा के लिए औचित्यपूर्ण प्रतिबन्धों का स्वरूप इस प्रकार होना चाहिए।

  1. प्रतिबन्ध समुचित होने चाहिए तथा उन्हें तर्क की कसौटी पर कसा जा सके।
  2. ऐसे प्रतिबन्धों में न तो अतिरेक हो और न ही असंतुलन, क्योंकि तब यह समाज में स्वतंत्रता की सामान्य दशा पर असर डालेगा।
  3. हमें प्रतिबंध लगाने की आदत को विकसित नहीं होने देना चाहिए; क्योंकि ऐसी आदत तो स्वतंत्रता को खतरे में डाल देगी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 4.
नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में राज्य की क्या भूमिका है?
उत्तर:
नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में राज्य की भूमिका: एक व्यक्ति कानून और व्यवस्था के वातावरण तथा भली-भाँति परिभाषित तथा ठीक ढंग से लागू किये गये कानूनों की स्थिति वाले राज्य में ही स्वतंत्रता के उपभोग का आनंद ले सकता है। इसलिए राज्य कानून के माध्यम से नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यथा।

  1. राज्य कानूनों के माध्यम से नागरिकों की स्वतंत्रता को परिभाषित करता है।
  2. राज्य कानूनों के द्वारा उस वातावरण का निर्माण करता है जिसमें नागरिक स्वतंत्रता का व्यवहार में उपभोग कर पाते हैं ।
  3. राज्य किसी विशेष स्वतंत्रता के क्षेत्र को परिभाषित करता है कि उस स्वतंत्रता का उपभोग किन दशाओं में और किस सीमा तक किया जा सकता है।
  4. राज्य नागरिकों की उन स्वतंत्रताओं पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाता है, जो पर-संबंध कार्यों से संबंधित हैं ताकि वे किसी दूसरे को और दूसरे उसको हानि न पहुँचा सकें।
  5. राज्य कानून के संरक्षण द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करता है; क्योंकि राज्य के कानूनों में उन नागरिकों को जो स्वतंत्रताओं के निरपेक्ष प्रयोग द्वारा दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा डालते हैं, दण्ड दिये जाने के प्रावधान होते
    हैं।
  6. लोकतंत्र में सरकार द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता के हनन करने पर भी स्वतंत्रता के संरक्षण के प्रावधान होते है।
  7. राज्य की न्यायपालिका नागरिकों की स्वतंत्रता के उल्लंघन से संबंधित विवादों का निपटारा करती है। इस प्रकार राज्य नागरिकों की स्वतंत्रता का निर्माण करता है, उसे परिभाषित करता है तथा उसकी रक्षा करता यह विदेशी आक्रमणों से नागरिकों की रक्षा कर उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करता है। लेकिन कई बार राज्य सरकार अपनी सत्ता का दुरुपयोग भी करती है, जैसे- किसी सरकारी नीति या कार्य के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन की अनुमति न देना। सरकार का यह कार्य नागरिकों की स्वतंत्रता को सीमित करता व हनन करता है।

प्रश्न 5.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है? आपकी राय में इस स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबन्ध क्या होंगे? उदाहरण सहित बताइये।
उत्तर:
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है। एक व्यक्ति की अपने विचारों को दूसरों को अभिव्यक्ति करने की स्वतंत्रता । वह बिना किसी भय और बाधा के अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हो। इसमें लोगों के बीच भाषण देने की स्वतंत्रता तथा समाचार पत्र द्वारा अपने विचारों को दूसरों तक सम्प्रेषित करने की स्वतंत्रता निहित है। वर्तमान वैज्ञानिक युग में नवीन आविष्कारों जैसे कम्प्यूटर एवं मोबाइल तथा इण्टरनेट इत्यादि द्वारा भी विचारों की अभिव्यक्ति की जाती है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबंध जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता या राज्य की शक्ति के बल पर, किसी समस्या के अल्पकालीन समाधान के रूप में लगाए जाते हैं, तो वे अनुचित होते हैं, उन्हें औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए दीपा मेहता को काशी में विधवाओं पर फिल्म बनाने पर प्रतिबंध करना, ओब्रे मेनन की ‘रामायण रिटोल्ड’ और सलमान रुश्दी की ‘द सेटानिक वर्सेस’ समाज के कुछ हिस्सों में विरोध के बाद प्रतिबंधित कर दी गईं। इस तरह के प्रतिबन्ध आसान लेकिन अल्पकालीन समाधान हैं, क्योंकि यह तात्कालिक मांग को पूरा कर देते हैं लेकिन समाज में स्वतंत्रता की दूरगामी संभावनाओं की दृष्टि से बहुत खतरनाक हैं और ऐसे प्रतिबन्धों से प्रतिबंध लगाने की आदत विकसित हो जाती है।

लेकिन हमारी राय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर समुचित प्रतिबन्ध निम्न प्रकार होंगे

  1. यदि हम स्वेच्छापूर्वक या अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पाने के लिए कुछ प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हैं, तो ऐसे प्रतिबन्धों से हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित नहीं होती।
  2. अगर हमें किन्हीं स्थितियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा रहा है, तब भी हम नहीं कह सकते कि हमारी स्वतंत्रता की कटौती की जा रही है।
  3. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर न्यायोचित सीमाएँ लगाई जा सकती हैं, जैसे-इससे कानून एवं व्यवस्था की स्थिति नहीं बिगड़ती हो, यह नैतिकता के विरुद्ध नहीं हो, यह समाज में विद्रोह पैदा नहीं करती हो, साम्प्रदायिकता को बढ़ावा नहीं देती हो, राष्ट्र की एकता व अखंडता के विरुद्ध न हो आदि। लेकिन इन सीमाओं को उचित प्रक्रिया के तहत ही लगाया जाना चाहिए तथा इसके पीछे नैतिक तर्कों का समर्थन होना चाहिए।

 स्वतंत्रता JAC Class 11 Political Science Notes

→ स्वतंत्रता का आदर्श:
मानव इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जब अधिक शक्तिशाली समूहों ने लोगों या समुदायों का शोषण किया, उन्हें गुलाम बनाया या उन्हें अपने आधिपत्य में ले लिया। लेकिन इतिहास हमें ऐसे वर्चस्व के खिलाफ शानदार संघर्षों के प्रेरणादायी उदाहरण भी देता है । ये स्वतंत्रता के लिए संघर्षों के उदाहरण हैं जो लोगों की इस आकांक्षा को दिखाते हैं कि वे अपने जीवन और नियति का नियंत्रण स्वयं करें तथा उनका अपनी इच्छाओं और गतिविधियों को स्वतंत्रता से व्यक्त करने का अवसर बना रहे। न केवल व्यक्ति वरं समाज भी अपनी स्वतंत्रता को महत्त्व देते हैं और चाहते हैं कि उनकी संस्कृति और भविष्य की रक्षा हो।

स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का एक उदाहरण दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन के खिलाफ मंडेला और उसके साथियों का अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों और स्वतंत्रता के रास्ते की बाधाओं को दूर करने का संघर्ष था जिसे मंडेला ने अपनी आत्मकथा ‘लॉँग वाक टू फ्रीडम’ (स्वतंत्रता के लिए लम्बी यात्रा) में व्यक्त किया है। ऐसा ही एक अन्य उदाहरण म्यांमार के सैनिक शासन के विरुद्ध लोकतंत्र की स्थापना के लिए ऑग सान सू की का संघर्ष है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘फ्रीडम फ्रॉम फीयर’ में अपने स्वतंत्रता सम्बन्धी विचारों व संघर्ष को अभिव्यक्त किया है। स्वतंत्रता का यही आदर्श हमारे राष्ट्रीय संघर्ष और ब्रिटिश, फ्रांसीसी तथा पुर्तगाली उपनिवेशवाद के खिलाफ एशिया – अफ्रीका के लोगों के संघर्ष के केन्द्र में था । यह आदर्श है-

  • अन्यायपूर्ण प्रतिबन्धों और स्वतंत्रता के मार्ग की बाधाएँ दूर करना।
  • गरिमापूर्ण मानवीय जीवन जीने के लिए अपने भय पर विजय पाना।

→ स्वतंत्रता क्या है?
स्वतंत्रता की नकारात्मक परिभाषा: “व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव ही स्वतंत्रता है। इसके अनुसार स्वतंत्र होने का अर्थ उन सामाजिक प्रतिबन्धों को कम से कम करना है जो हमारी स्वतंत्रतापूर्वक चयन करने की क्षमता पर रोक-टोक लगाएं। लेकिन प्रतिबन्धों का न होना स्वतंत्रता का केवल एक पहलू है।

→ स्वतंत्रता की सकारात्मक परिभाषा: स्वतंत्रता का एक सकारात्मक पहलू भी है।
“स्वतंत्रता का सकारात्मक पहलू यह है कि ऐसी स्थितियों का होना जिनमें लोग अपनी रचनात्मकता और क्षमताओं का विकास कर सकें।” इसका अभिप्राय यह है कि स्वतंत्र होने के लिए समाज को उन बातों को विस्तार देना चाहिए जिससे व्यक्ति, समूह, समुदाय या राष्ट्र अपने भाग्य की दशा और स्वरूप का निर्धारण करने में समर्थ हो सकें। इस अर्थ में स्वतंत्रता व्यक्ति की रचनाशीलता, संवेदनशीलता और क्षमताओं के भरपूर विकास को बढ़ावा देती है। इस प्रकार बाहरी प्रतिबंधों का अभाव और ऐसी स्थितियों का होना जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें, स्वतंत्रता के ये दोनों ही पहलू महत्त्वपूर्ण हैं। स्वतंत्र समाज-एक स्वतंत्र समाज वह है, जिसमें व्यक्ति अपने हित संवर्धन न्यूनतम प्रतिबन्धों के बीच करने में समर्थ हो।

→ प्रतिबन्धों के स्रोत: व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों के प्रमुख स्रोत हैं।

  • प्रभुत्व और बाहरी नियंत्रण ( जो बलपूर्वक या गैर-लोकतांत्रिक सरकार के द्वारा कानून की सहायता से लगाए जा सकते हैं),
  • सामाजिक असमानता,
  • अत्यधिक आर्थिक असमानता।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

→ हमें प्रतिबन्धों की आवश्यकता क्यों है?
हमें सामाजिक अव्यवस्था से बचने के लिए कुछ प्रतिबन्धों की आवश्यकता है। हर समाज को असहमतियों के कारण होने वाली हिंसा पर नियंत्रण और विवाद के निपटारे के लिए कोई न कोई ऐसा तरीका अपनाना आवश्यक होता
है। कि लोग एक-दूसरे के विचारों का सम्मान करें और दूसरे पर अपने विचार थोपने का प्रयास न करें। ऐसे समाज के निर्माण के लिए कुछ प्रतिबन्धों की आवश्यकता होती है। समाज में कुछ ऐसे कानूनी और राजनैतिक प्रतिबन्ध होने चाहिए, जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि एक समूह के विचारों को दूसरे पर आरोपित किये बिना आपसी अन्तरों पर चर्चा और वाद-विवाद हो सके। बदतर स्थिति में हमें किसी के विचारों से एकरूप हो जाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में हमें अपनी स्वतंत्रता को बचाने के लिए कानून के संरक्षण की ओर ज्यादा आवश्यकता होती

→ हानि सिद्धांत:
जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने निबंध ‘ऑन लिबर्टी’ में बहुत प्रभावपूर्ण तरीके से ‘हानि सिद्धान्त’ को स्वतंत्रता के संदर्भ में उठाया है। “सिद्धान्त यह है कि किसी के कार्य करने की स्वतंत्रता में व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हस्तक्षेप | करने का इकलौता लक्ष्य आत्म-रक्षा है । सभ्य समाज के किसी सदस्य की इच्छा के खिलाफ शक्ति के औचित्यपूर्ण | प्रयोग का एकमात्र उद्देश्य किसी अन्य को हानि से बचाना हो सकता है।”

→ मिल ने व्यक्ति के कार्यों को दो भागों में बाँटा है:

  • स्व-सम्बद्ध कार्य और
  • पर – सम्बद्ध कार्य। स्व-सम्बद्ध कार्य-स्व-सम्बद्ध कार्य वे हैं, जिनके प्रभाव केवल इन कार्यों को करने वाले व्यक्ति पर पड़ते हैं।

पर-सम्बद्ध कार्य – पर सम्बद्ध कार्य वे हैं, जो कर्ता के साथ-साथ बाकी लोगों पर भी प्रभाव डालते हैं। मिल का तर्क है कि स्व-सम्बद्ध कार्य और निर्णयों के मामले में राज्य या बाहरी सत्ता को कोई हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है; लेकिन पर सम्बद्ध कार्यों पर बाहरी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। पर सम्बद्ध कार्य वे हैं जिनके बारे में कहा जा सके कि अगर तुम्हारी गतिविधियों से मुझे कुछ नुकसान (हानि) होता है; तो स्वतंत्रता से जुड़े ऐसे मामलों में राज्य किसी व्यक्ति को ऐसे कार्य करने से रोक सकता है।

लेकिन स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए यह जरूरी है कि किसी को होने वाली ‘हानि’ गंभीर हो। छोटी- मोटी हानि के लिए मिल कानून की ताकत की जगह केवल सामाजिक रूप से अमान्य करने का सुझाव देता है। अतः किन्हीं पर सम्बद्ध कार्यों पर कानूनी शक्ति से प्रतिबन्ध तभी लगाना चाहिए जब वे निश्चित व्यक्तियों को गंभीर नुकसान पहुँचाए अन्यथा समाज को स्वतंत्रता की रक्षा के लिए थोड़ी असुविधा सहनी चाहिए। घृणा का प्रचार और गंभीर क्षति पहुँचाने वाले कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं, लेकिन प्रतिबन्ध इतने कड़े न हों कि स्वतंत्रता नष्ट हो जाए। भारत के संविधान में ‘ औचित्यपूर्ण प्रतिबंध’ पद का प्रयोग किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रतिबंध समुचित हों तथा उन्हें तर्क की कसौटी पर कसा जा सके। ऐसे प्रतिबंधों में न तो अतिरेक हो और न ही असंतुलन क्योंकि तब यह समाज में स्वतंत्रता की सामान्य दशा पर प्रभाव डालेगा। साथ ही हमें प्रतिबन्ध लगाने की आदत को विकसित नहीं होने देना चाहिए।

→ नकारात्मक स्वतंत्रता:
नकारात्मक स्वतंत्रता से आशय है। बाहरी प्रतिबंधों से अभाव के रूप में स्वतंत्रता। नकारात्मक स्वतंत्रता उस क्षेत्र को पहचानने और बचाने का प्रयास करती है, जिसमें व्यक्ति अनुलंघनीय हो। यह ऐसा क्षेत्र होगा जिसमें किसी बाहरी सत्ता का हस्तक्षेप नहीं होगा। इस प्रकार नकारात्मक स्वतंत्रता का सरोकार अहस्तक्षेप के अनुलंघनीय क्षेत्र से है। यह क्षेत्र कितना बड़ा होना चाहिए और इसमें क्या – क्या शामिल होना चाहिए, यह वाद-विवाद का विषय है। लेकिन अहस्तक्षेप का यह क्षेत्र जितना बड़ा होगा, स्वतंत्रता उतनी ही अधिक होगी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 स्वतंत्रता

→ सकारात्मक स्वतंत्रता:
सकारात्मक स्वतंत्रता से आशय है। स्वयं को अभिव्यक्त करने के अवसरों के विस्तार के रूप में स्वतंत्रता। सकारात्मक स्वतंत्रता के तर्क ‘कुछ करने की स्वतंत्रता’ के विचार की व्याख्या से जुड़े हैं। इसका आशय यह है कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में कम से कम अवरोध रहें। व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का विकास करने के लिए भौतिक, राजनीतिक एवं सामाजिक जगत में समर्थकारी सकारात्मक स्थितियों का लाभ मिलना ही चाहिए । व्यक्ति केवल समाज में ही स्वतंत्र हो सकता है,

समाज से बाहर नहीं और इसीलिए वे इस समाज को ऐसा बनाने का प्रयास करते हैं, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का रास्ता साफ करे। आमतौर पर ये दोनों तरह की स्वतंत्रताएँ साथ – साथ चलती हैं और एक-दूसरे का समर्थन करती हैं। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि निरंकुश शासन सकारात्मक स्वतंत्रता के तर्कों का सहारा लेकर अपने शासन को न्यायोचित सिद्ध करने की कोशिश करे।

→ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का मुद्दा ‘अहस्तक्षेप के लघुत्तम क्षेत्र’ से जुड़ा हुआ माना जाता है। मिल ने कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रतिबंधित नहीं होनी चाहिए।
मिल ने अपनी पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ में कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें भी होनी चाहिए जिनके विचार आज की स्थितियों में गलत या भ्रामक लग रहे हैं। इस कथन के पक्ष में उन्होंने चार कारण प्रस्तुत किए हैं।

  • कोई भी विचार पूरी तरह से गलत नहीं होता, उसमें कुछ न कुछ सत्य का अंश भी छुपा होता है।
  • सत्य विरोधी विचारों के टकराव से पैदा होता है।
  • विचारों के संघर्ष का सतत महत्त्व है। जब हम इसे विरोधी विचार के सामने रखते हैं तभी इस विचार का विश्वसनीय होना सिद्ध होता है।
  • जिसे हम सत्य समझते हैं, जरूरी नहीं वही सत्य हो। कई बार जिन विचारों को किसी समय पूरे समाज ने गलत समझा और दबाया था, बाद में वे सत्य पाये गये।

अतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बुनियादी मूल्य है और जो लोग इसको सीमित करना चाहते हैं, उनसे बचने के लिए समाज को कुछ असुविधाओं को सहन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। प्रतिबंध तात्कालिक समस्या का समाधान हो सकते हैं क्योंकि ये तात्कालिक माँग को पूरा कर देते हैं लेकिन ये प्रतिबंध लगाने की आदत का विकास करते हैं।

दीपा मेहता की काशी में विधवाओं पर बनायी जा रही फिल्म को काशी में न बनने देना; सलमान रुश्दी की ‘द सेटानिक वर्सेस’ पुस्तक को प्रतिबंधित किया जाना; ‘द लास्ट टेम्पटेशन ऑफ क्राइस्ट’ नामक फिल्म को प्रतिबंधित करना आदि आसान लेकिन अल्पकालीन समाधान हैं; क्योंकि ये तात्कालिक मांग को पूरा कर देते हैं; लेकिन समाज में स्वतंत्रता की दूरगामी संभावनाओं की दृष्टि से यह स्थिति बहुत खतरनाक है। क्योंकि प्रतिबंध लगाने से प्रतिबंध लगाने की आदत विकसित हो जाती है।

→ प्रतिबन्धों का औचित्य और अनौचित्य:

  • जब ये प्रतिबन्ध किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता या राज्य की शक्ति के बल पर लगाए जाते हैं तो ये हमारी स्वतंत्रता की कटौती इस प्रकार करते हैं कि उनके खिलाफ लड़ना मुश्किल हो जाता है।
  • यदि हम स्वेच्छापूर्वक या अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पाने के लिए कुछ प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हैं, तो हमारी स्वतंत्रता उस प्रकार से सीमित नहीं होती है।
  • स्वतंत्रता हमारे विकल्प चुनने के सामर्थ्य और क्षमताओं में छुपी होती है और जब हम विकल्प चुनते हैं तो हमें अपने कार्यों और उसके परिणामों की जिम्मेदारी भी स्वीकार करनी होगी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय Textbook Exercise Questions and Answers.

Jharkhand Board Class 11 Political Science राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय InText Questions and Answers

पृष्ठ 3

प्रश्न 1.
पाठ्यपुस्तक के पृष्ठ 3 के कार्टून में एक स्त्री अपने राजनेता पति से अपने बच्चे के झूठ और धोखाधड़ी के सम्बन्ध में शिकायत करती हुई कहती है कि ” आपको तुरन्त राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए।
आपके काम-काज का इस पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है । वह सोचता है कि वह झूठ और धोखाधड़ी से काम चला सकता है।
उत्तर:
इस कार्टून में आर. के. लक्ष्मण ने स्वार्थपूर्ण और घोटालों से भरी राजनीति पर व्यंग्य करते हुए राजनीति के इस अर्थ को चित्रित किया है कि कई अन्य के लिए राजनीति वही है, जो राजनेता करते हैं। अगर वे राजनेताओं को दल- बदल करते, झूठे वायदे और बढ़े- चढ़े दावे करते, विभिन्न तबकों से जोड़-तोड़ करते, निजी या सामूहिक स्वार्थों में निष्ठुरता से रत और घृणित रूप में हिंसा पर उतारू होता देखते हैं तो वे राजनीति का सम्बन्ध ‘घोटालों’ से जोड़ते हैं।

इस तरह की सोच इतनी प्रचलित है कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हम हर संभव तरीके से अपने स्वार्थ को साधनों में लग जाते हैं। इसी गंदी राजनीति के जनता में प्रभाव को इस कार्टून में दर्शाया जा रहा है और राजनेताओं पर यह व्यंग्य किया गया है कि इनके ऐसे कृत्यों से राजनीति का सम्बन्ध किसी भी तरीके से निजी स्वार्थ साधने के धन्धे से जुड़ गया है।

पृष्ठ 5

प्रश्न 2.
ऐसे किसी भी राजनीतिक चिंतक के बारे में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये, जिसका उल्लेख अध्याय में किया गया है।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स – कार्ल मार्क्स का जन्म जर्मनी में राइन नदी के तटवर्ती भाग के ट्रीब्ज नामक स्थान पर 1818 ई. में हुआ। मार्क्स के माता-पिता यहूदी वंश के थे लेकिन जब वे 6 वर्ष के थे तब उनके पिता और परिवार के सदस्यों ने ईसाई धर्म अपना लिया। प्रारंभिक शिक्षा के बाद मार्क्स ने बान विश्वविद्यालय में दर्शन और इतिहास का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने बर्लिन और जेना के विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया।

यहाँ उन्होंने यूनानी और हीगल के दर्शन का अध्ययन किया। शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह एक पत्र के सम्पादक बने, लेकिन वह पत्र जल्दी ही बंद हो गया। बाद में उन्होंने. साम्राज्यवादी साहित्य का अध्ययन किया तथा 1845 में वे इंग्लैंड चले गये, जहाँ उनकी मित्रता ऐंजिल्स से हुई। मार्क्स ने स्वयं और ऐंजिल्स के साथ मिलकर अनेक ग्रंथों की रचना की, जिसमें ‘साम्यवादी घोषणापत्र’, ‘दास कैपीटल’, ‘होली फैमिली’ आदि प्रमुख हैं। सन् 1883 में इंग्लैंड में ही उनकी मृत्यु हो गई।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

पृष्ठ 6

प्रश्न 3.
क्या आप पहचान सकते हैं कि नीचे दिए गये प्रत्येक कथन/स्थिति में कौन – सा राजनीतिक सिद्धांत/मूल्य प्रयोग में आया है?
(क) मुझे विद्यालय में कौन-सा विषय पढ़ना है, यह तय करना मेरा अधिकार होना चाहिए। (ख) छुआछूत की प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया है।
(ग) कानून के समक्ष सभी भारतीय समान हैं।
(घ) अल्पसंख्यक समुदाय के लोग अपनी पाठशालाएँ और विद्यालय स्थापित कर सकते हैं।
(ङ) भारत की यात्रा पर आये हुये विदेशी, भारतीय चुनाव में मतदान नहीं कर सकते।
(च) मीडिया या फिल्मों पर कोई भी सेंसरशिप नहीं होनी चाहिये।
(छ) विद्यालय के वार्षिकोत्सव की योजना बनाते समय छात्र – छात्राओं से सलाह ली जानी चाहिए।
(ज) गणतंत्र दिवस के समारोह में प्रत्येक को भाग लेना चाहिये।
उत्तर:
(क) स्वतंत्रता
(ख) समानता
(ग) समानता
(घ) धर्मनिरपेक्षता
(ङ) नागरिकता
(च) स्वतंत्रता
(छ) लोकतंत्र
(ज) लोकतंत्र।

Jharkhand Board Class 11 Political Science राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
राजनीतिक सिद्धान्त के बारे में नीचे लिखे कौन-से कथन सही हैं और कौनसे गलत?
(क) राजनीतिक सिद्धान्त उन विचारों पर चर्चा करते हैं जिनके आधार पर राजनीतिक संस्थाएँ बनती हैं।
(ख) राजनीतिक सिद्धान्त विभिन्न धर्मों के अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं।
(ग) ये स्वतंत्रता और समानता जैसी अवधारणाओं के अर्थ की व्याख्या करते हैं।
(घ) ये राजनैतिक दलों के प्रदर्शन की भविष्यवाणी करते हैं।
उत्तर:
(क) सही
(ख) गलत
(ग) सही
(घ) गलत।

प्रश्न 2.
“राजनीति उस सबसे बढ़कर है, जो राजनेता करते हैं।” क्या आप इस कथन से सहमत हैं? उदाहरण भी दीजिये।
उत्तर:
हम इस कथन से सहमत हैं कि राजनीति उस सबसे बढ़कर है, जो राजनेता करते हैं; क्योंकि राजनीति के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों को सम्मिलित किया जाता है
1. राजनेताओं के राजनैतिक व्यवहार: राजनेताओं का वह राजनैतिक व्यवहार जो जनता और समाज के हित से संबंधित लिये जाने वाले निर्णयों से संबंधित है।

2. सरकार के कार्यकलाप: राजनीतिक संगठन और सामूहिक निर्णय का वह ढांचा अर्थात् राजनैतिक संस्थाएँ जो हमें साथ रहने के उपाय खोजने और एक-दूसरे के प्रति अपने कर्त्तव्यों को कबूलने में मदद करती हैं, इन संस्थाओं के साथ सरकारें भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सरकारें कैसे बनती हैं और कैसे कार्य करती हैं आदि।

3. सरकार को प्रभावित करने के लिए जनता की मांगें, विरोध प्रदर्शन व संघर्ष: राजनीति सरकार के कार्यकलापों तक ही सीमित नहीं होती। सरकारों के कार्यकलाप लोगों के जीवन को भिन्न-भिन्न तरीकों से प्रभावित करते हैं। ये कार्यकलाप जनता के जीवन को उन्नत करने में सहायक भी हो सकते हैं या उनके जीवन को संकट में डालने वाले हो सकते हैं। इसलिए हम सरकार पर जनहितकारी नीतियाँ बनाने के उद्देश्य से संस्थाएँ बनाते हैं, मांगों को स्वीकार कराने के लिए प्रचार अभियान चलाते हैं तथा सरकार की गलत नीतियों का विरोध करते हैं; सरकारी कृत्यों पर वाद-विवाद और विचार-विमर्श करते हुए राजनीतिक प्रक्रियाओं, राजनैतिक दलों, नेताओं के व्यवहार व निर्णयों के बारे में तर्कसंगत कारण तलाशते हैं। ये सभी कार्य भी राजनीति के अन्तर्गत आते हैं।

अत: यह कहा जा सकता है कि राजनीति का जन्म इस तथ्य से होता है कि हमारे और हमारे समाज के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित । इस सम्बन्ध में समाज में चलने वाली विविध वार्ताओं के माध्यम से सामूहिक निर्णय लिए जाते हैं। इन वार्ताओं में एक तरफ तो सरकार के कार्य और उनका जनता पर होने वाले प्रभाव के तथ्य शामिल होते हैं तो दूसरी तरफ जनता का संघर्ष और उसके निर्णय लेने पर इस संघर्ष का प्रभाव शामिल होता है। इन समस्त क्रियाओं के सम्मिलित रूप को राजनीति कहा जाता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

प्रश्न 3.
” लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए नागरिकों का जागरूक होना जरूरी है।” टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए नागरिकों का जागरूक होना आवश्यक है। यथा
1. जागरूक नागरिक साझा हितों को गढ़ने तथा व्यक्त करने में अधिक समर्थ: लोकतंत्र में सभी को मत देने तथा अन्य मसलों पर फैसला करने का अधिकार नागरिकों को मिलता है। इन दायित्वपूर्ण कार्यों के निर्वहन के लिए उन राजनीतिक विचारों और संस्थाओं, जो हमारी दुनिया को आकार देते हैं, की जानकारी का होना नागरिकों के लिए सहायक होती है। यदि हम विचारशील और परिपक्व हैं, तो हम अपने साझा हितों को गढ़ने तथा व्यक्त करने के लिए नये माध्यमों का उपयोग कर सकते हैं।

2. जागरूक नागरिक राजनेताओं को जनाभिमुखी बनाते हैं: नागरिक के रूप में, हम किसी संगीत कार्यक्रम के श्रोता जैसे होते हैं जो कार्यक्रम तय करते हैं, प्रस्तुति का रसास्वादन करते हैं और नये अनुरोध करते हैं। लेकिन संगीतकार, संगीत के जानकार और उसके कद्रदान श्रोताओं के समक्ष ही बेहतर प्रदर्शन करते हैं। इसी तरह शिक्षित और सचेत नागरिक ही राजनीति करने वालों को जनाभिमुखी बनाते हैं।

3. राजनेताओं द्वारा की जा रही उपेक्षाओं का ध्यान आकर्षित कर सकते हैं। जागरूक नागरिक लिखकर बोलकर तथा प्रदर्शन करके देश की सरकार तथा राजनेताओं को उनके कार्यक्रम, घोषित योजनाओं, वायदों के प्रति उनकी की जा रही उपेक्षाओं के प्रति ध्यान आकर्षित कर सकते हैं।

4. संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर जनमत का निर्माण: जागरूक नागरिक स्वस्थ जनमत के निर्माण में सहायक होते हैं क्योंकि वे मतदान व्यवहार में जाति, संप्रदाय, क्षेत्रवाद व भाषावाद जैसी संकीर्ण भावनाओं में न बहकर योग्यता को तरजीह देते हैं।

प्रश्न 4.
राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन हमारे लिए किन रूपों में उपयोगी है? ऐसे चार तरीकों की पहचान करें जिनमें राजनीतिक सिद्धान्त हमारे लिए उपयोगी हों।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन की उपयोगिता
राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन हमारे लिए निम्न प्रकार से उपयोगी है:
1. एक छात्र के रूप में राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन की उपयोगिता: राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन राजनेताओं, नीतिनिर्माताओं, राजनीति के अध्यापकों, संविधान और कानूनों की व्याख्या करने वाले वकीलों व जजों, शोषण का पर्दाफाश करने वाले और नये अधिकारों की मांग करने वाले कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के लिए उपयोगी है। एक छात्र के लिए राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन इसलिए उपयोगी है; क्योंकि छात्र भविष्य में उपर्युक्त पेशों में किसी एक को चुन सकते हैं। इसलिए परोक्ष रूप से राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन हमारे लिए आवश्यक है।

2. एक नागरिक के रूप में राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन की उपयोगिता:
लोकतंत्र में नागरिकों को मत देने और अन्य मामलों पर फैसला लेना होता है। इस दायित्वपूर्ण कार्य के निर्वहन के लिए राजनीतिक विचारों और राजनीतिक संस्थाओं की बुनियादी जानकारी हमारे लिए (एक नागरिक के लिए) सहायक होती है। यह जानकारी हमें तर्कशील बनाती है तथा निर्णय लेने में सहायक होती है। राजनीतिक सिद्धान्तों का अध्ययन कर हम विचारशील और परिपक्व होकर अपने साझा हितों को गढ़ने और व्यक्त करने के लिए नये माध्यमों का उपयोग कर सकते हैं तथा राजनेताओं को जनाभिमुखी बना सकते हैं।

3. राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन से हम अपने विचारों और भावनाओं में उदार हो जाते हैं- राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन हमें राजनीतिक चीजों के बारे में अपने विचारों और भावनाओं के परीक्षण के लिए प्रोत्साहित करता है और हम अपने विचारों और भावनाओं के प्रति उदार होते जाते हैं।

4. न्याय और समानता के बारे में सुव्यवस्थित सोच का ज्ञानराजनीतिक सिद्धान्त हमें न्याय व समानता के बारे में सुव्यवस्थित सोच से अवगत कराते हैं, ताकि हम अपने विचारों को परिष्कृत कर सकें और सार्वजनिक हित में सुविज्ञ तरीके से तर्क-वितर्क कर सकें।

प्रश्न 5.
क्या एक अच्छा प्रभावपूर्ण तर्क औरों को आपकी बात सुनने के लिए बाध्य कर सकता है?
उत्तर:
हाँ, एक अच्छा और प्रभावपूर्ण तर्क दूसरों को आपकी बात सुनने के लिए बाध्य कर सकता है; क्योंकि उसमें उदारता तथा सार्वजनिक हित का सामञ्जस्य होता है तथा यह सुव्यवस्थित होता है। ऐसी बात को गलत साबित करना अति कठिन होता है।

प्रश्न 6.
क्या राजनीतिक सिद्धान्त पढ़ना, गणित पढ़ने के समान है? अपने उत्तर के पक्ष में कारण दीजिए।
उत्तर:
हाँ, राजनीतिक सिद्धान्त का पढ़ना, गणित पढ़ने के समान है; क्योंकि।
1. राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन एक छात्र के लिए उतना ही उपयोगी है, जितना कि एक गणित का अध्ययन। जिस प्रकार एक छात्र का गणित का ज्ञान गणितज्ञ या इंजीनियर जैसे व्यक्तियों के लिए उपयोगी व आवश्यक है, उसी प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन राजनेताओं, नीति-निर्माताओं, राजनीति पढ़ाने वाले अध्यापकों, संविधान की व्याख्या करने वाले जजों व वकीलों आदि के लिए उपयोगी व आवश्यक है।

2. जिस प्रकार गणित का ज्ञान, विशेषकर बुनियादी अंकगणित का ज्ञान, व्यक्ति के जीवन में उपयोगी होता है, उसी प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त का बुनियादी ज्ञान, उचित तथा अनुचित निर्णयों में भेद करने का ज्ञान, एक नागरिक के लिए लोकतंत्र में उपयोगी होता है।

राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय JAC Class 11 Political Science Notes

→ राजनीतिक सिद्धान्त, हमें सरकार की जरूरत क्यों है? सरकार का सर्वश्रेष्ठ रूप कौन-सा है? क्या कानून हमारी स्वतंत्रता को सीमित करता है? राजसत्ता की अपने नागरिकों के प्रति क्या देनदारी होती है ? नागरिक के रूप में हमारे क्या दायित्व हैं? आदि प्रश्नों की पड़ताल करता है और राजनीतिक जीवन को अनुप्राणित करने वाले स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे मूल्यों के बारे में सुव्यवस्थित रूप से विचार करता है।

→ राजनीतिक सिद्धान्त का उद्देश्य:
राजनीतिक सिद्धान्त का उद्देश्य नागरिकों को राजनीतिक प्रश्नों के बारे में तर्कसंगत ढंग से सोचने और सामयिक राजनीतिक घटनाओं को सही तरीके से आँकने का प्रशिक्षण देना है। राजनीति क्या है?
लोग राजनीति के बारे में अलग-अलग राय रखते हैं। यथा

→ राजनेता और चुनाव लड़ने वाले लोग अथवा राजनीतिक पदाधिकारी राजनीति को एक प्रकार की जनसेवा बताते हैं। राजनीति से जुड़े अन्य लोग राजनीति को दांव-पेच से जोड़ते हैं।

→ कई अन्य के लिए राजनीति वही है, जो राजनेता करते हैं और जब वे राजनेताओं को दल-बदल करते, झूठे वायदे करते, विभिन्न तबकों से जोड़-तोड़ करते और निजी या सामूहिक स्वार्थ साधने के रूप में देखते हैं, तो उनकी दृष्टि में राजनीति का सम्बन्ध किसी भी तरह से निजी स्वार्थ साधने के धंधे से जुड़ गया है। लेकिन राजनीति के ये अर्थ त्रुटिपरक हैं ।

→ निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि राजनीति किसी भी समाज का महत्त्वपूर्ण और अविभाज्य अंग है। राजनीतिक संगठन और सामूहिक निर्णय के किसी ढांचे के बगैर कोई भी समाज जिन्दा नहीं रह सकता। राजनीति का जन्म इस तथ्य से होता है कि हमारे और हमारे समाज के लिए क्या उचित एवं वांछनीय है और क्या नहीं? इस बारे में हमारी दृष्टि अलग-अलग होती है। इसमें समाज में चलने वाली वार्ताओं के माध्यम से सामूहिक निर्णय किये जाते हैं। इन वार्ताओं में एक स्तर से सरकारों के कार्य और इन कार्यों से जनता का जुड़ा होना शामिल होता है तो दूसरे स्तर से जनता के संघर्ष और सरकारों के निर्णयों पर संघर्ष का प्रभाव शामिल होता है। इस प्रकार जब जनता सामाजिक विकास को बढ़ावा देने और सामान्य समस्याओं के समाधान हेतु परस्पर वार्ता करती है और सामूहिक गतिविधियों में भाग लेती है, तो उसे राजनीति कहते हैं।

→ राजनीतिक सिद्धान्त में हम क्या पढ़ते हैं?

  1. राजनीतिक सिद्धान्त उन विचारों और नीतियों के व्यवस्थित रूप को प्रतिबिंबित करता है, जिनसे हमारे सामाजिक जीवन, सरकार और संविधान ने आकार ग्रहण किया है।
    करता
  2. यह स्वतंत्रता, समानता, न्याय, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं का अर्थ स्पष्ट करता है।
  3. यह कानून का राज, अधिकारों का बंटवारा और न्यायिक पुनरावलोकन जैसी नीतियों की सार्थकता की जाँच है।
  4. विभिन्न तर्कों की जाँच-पड़ताल के साथ-साथ राजनीतिक सिद्धान्तकार हमारे वर्तमान राजनीतिक अनुभवों की छानबीन करते हैं और भावी रुझानों तथा संभावनाओं को चिन्हित करते हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

→ राजनीतिक सिद्धान्त की प्रासंगिकता:
स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र से संबंधित प्रश्न अभी भी उठ रहे हैं और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में ये अलग-अलग रफ्तार से बढ़ रहे हैं। जैसे- सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में समानता का प्राप्त न होना, कुछ लोगों का मूल आवश्यकताओं से वंचित होना आदि।

→ यद्यपि हमारे संविधान में स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है, फिर भी हमें हरदम नई व्याख्याओं का सामना करना पड़ रहा है। नई परिस्थितियों के संदर्भ में मोलिक अधिकारों की नई व्याख्यायें की जा रही हैं। ये व्याख्यायें नई समस्याओं का समाधान कर रही हैं। जैसे आजीविका के अधिकार को जीवन के अधिकार में शामिल करने के लिए अदालतों द्वारा पुनर्व्याख्या की गई है।

→ जैसे-जैसे हमारी दुनिया बदल रही है, हम स्वतंत्रता और स्वतंत्रता पर संभावित खतरों के नये-नये आयामों को खोज रहे हैं। जैसे वैश्विक संचार तकनीक से जंगल की सुरक्षा के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं का एक नेटवर्क बन रहा है, वहीं आतंकवादियों का भी एक नेटवर्क बना है। राजनीतिक सिद्धान्त में ऐसे अनेक प्रश्नों के संभावित उत्तरों के सिलसिले में हमारे लिए सीखने के लिए बहुत कुछ हैं और इसीलिए यह प्रासंगिक है।

→ राजनीतिक सिद्धान्तों को व्यवहार में उतारना
राजनीतिक अवधारणाओं के अर्थ को राजनीतिक सिद्धान्तकार यह देखते हुए स्पष्ट करते हैं कि आम भाषा में इसे कैसे समझा और बरता जाता है। वे विविध अर्थों और रायों पर विचार-विमर्श और उनकी जांच-पड़ताल भी सुव्यवस्थित तरीके से करते हैं। उदाहरण के लिए, अवसर की समानता कब पर्याप्त है? कब लोगों को विशेष बरताव की जरूरत होती है? ऐसा विशेष बरताव कब तक और किस हद तक किया जाना चाहिए? क्या गरीब बच्चों को स्कूल में बने रहने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु दोपहर का भोजन दिया जाना चाहिए? ऐसे प्रश्नों की ओर वे मुखातिब होते हैं।

ये मसले पूर्णतः व्यावहारिक हैं। वे शिक्षा और रोजगार के बारे में सार्वजनिक नीतियाँ तय करने में मार्गदर्शन करते हैं। समानता की तरह ही अन्य अवधारणाओं के सम्बन्ध में राजनीतिक सिद्धान्तकारों को रोजमर्रा के विचारों के प्रसंग में संभावित अर्थों पर विचार-विमर्श करना पड़ता है और नीतिगत विकल्पों को सूत्रबद्ध करना पड़ता है।

→ हमें राजनीतिक सिद्धान्त क्यों पढ़ने चाहिए?
हमें राजनीतिक सिद्धान्त पढ़ने चाहिए; क्योंकि।

  • राजनीतिक सिद्धान्तों का अध्ययन राजनेताओं, नीति निर्माता नौकरशाहों, राजनीतिक सिद्धान्त पढ़ाने वाले अध्यापकों, वकीलों, जजों, शोषण का पर्दाफाश करने वाले कार्यकर्ताओं व पत्रकारों आदि ऐसे सभी समूहों के लिए प्रासंगिक है।
  • दायित्वपूर्ण कार्य निर्वहन के लिए उन राजनीतिक विचारों और संस्थाओं की बुनियादी जानकारी हमारे लिए सहायक होती है, जो हमारी दुनिया को आकार देते हैं। राजनीतिक सिद्धान्तों का अध्ययन नागरिकों के लिए आवश्यक है क्योंकि शिक्षित और सचेत नागरिक राजनीति करने वालों को जनाभिमुख बना देते हैं।
  • राजनीतिक सिद्धान्त हमें राजनीतिक चीजों के बारे में अपने विचारों और भावनाओं के परीक्षण के लिए प्रोत्साहित करता है और थोड़ी अधिक सतर्कता से चीजों को देखने से हम अपने विचारों और भावनाओं में उदार हो जाते हैं।
  • राजनीतिक सिद्धान्त हमें न्याय या समानता के बारे में सुव्यवस्थित सोच से अवगत कराते हैं, ताकि हम अपने विचारों को परिष्कृत कर सकें और सार्वजनिक हित में तर्क-वितर्क कर सकें।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति Textbook Exercise Questions and Answers.

Jharkhand Board Class 11 Political Science शांति Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
क्या आप जानते हैं कि एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है? क्या मस्तिष्क शांति को बढ़ावा दे सकता है? और क्या मानव मस्तिष्क पर केन्द्रित रहना शांति स्थापना के लिए पर्याप्त है?
उत्तर:
वर्तमान लोकतांत्रिक काल में यदि हम एक शांतिपूर्ण दुनिया चाहते हैं तो लोगों के सोचने के तरीकों में बदलाव लाना आवश्यक है क्योंकि लोगों के मस्तिष्क यदि शांति के बारे में सोचेंगे तो हिंसात्मक गतिविधियाँ अपने आप कम हो जायेंगी। संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनिसेफ) के संविधान ने भी यह उचित टिप्पणी की है कि “चूंकि युद्ध का प्रारंभ लोगों के दिमाग में होता है, इसलिए शांति के बचाव भी लोगों के दिमाग में ही रचे जाने चाहिए ।” इस तरह के प्रयास के लिए करुणा जैसे पुराने आध्यात्मिक सिद्धान्त और ध्यान जैसे अभ्यास उपयुक्त हैं। यही कारण है कि आज शांति को बढ़ावा देने के लिए शांतिपूर्ण आन्दोलन जारी हैं। इस आन्दोलन को विभिन्न तबके के लोगों ने बढ़ावा दिया है जिनमें लेखक, वैज्ञानिक, शिक्षक, पत्रकार, पुजारी, राजनेता और मजदूर – सभी शामिल हैं। इस आन्दोलन ने शांति अध्ययन नामक ज्ञान की एक नई शाखा का भी सृजन किया है और इंटरनेट जैसे संप्रेषण के नए माध्यम का कारगर इस्तेमाल भी किया है।

लेकिन केवल मानव मस्तिष्क पर केन्द्रित रहकर शांति की स्थापना नहीं हो सकती। मस्तिष्क तो शांति स्थापना का एक उपाय दे सकता है। इस उपाय को कारगर व उचित ढंग से संरचनात्मक हिंसा को निर्मूल करके ही किया जा सकता है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना संरचनात्मक हिंसा के निर्मूल करने के लिए अनिवार्य है क्योंकि शांति संतुष्ट लोगों के समस्त सहअस्तित्व में ही संभव है। दूसरे, जिस प्रकार विश्व में छः क्षेत्र परमाणु हथियार मुक्त क्षेत्र बने हैं, उस दिशा में अन्य क्षेत्रों को भी पहल करनी होगी। जापान और कोस्टारिका देशों की तरह अन्य देशों को भी सैन्य बल न रखने की दिशा में पहल करनी होगी।

प्रश्न 2.
राज्य को अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा अवश्य ही करनी चाहिए। हालांकि कई बार राज्य के कार्य इसके कुछ नागरिकों के खिलाफ हिंसा के स्रोत होते हैं। कुछ उदाहरणों की मदद से इस पर टिप्पणी कीजिए ।
उत्तर- राज्य का प्रथम अनिवार्य एवं आवश्यक दायित्व यह है कि यह सभी का जीवन व उनके अधिकार रखे। इस दायित्व को पूरा करने के लिए राज्य के पास पुलिस, अर्ध सैनिक बल तथा सेनाएँ होती हैं। राज्य कमजोर लोगों को सबलों से, निर्धनों को अमीरों के अन्यायों एवं मनमानी से, चोर, लुटेरों, डाकुओं तथा हत्यारों से सभी की रक्षा करता है।

राज्य नागरिकों को अनेक मौलिक तथा अन्य अधिकार प्रदान करता है। इनकी रक्षा के लिए राज्य पुलिस तथा न्यायपालिका की व्यवस्था करता है। उसी के प्रयासों से कानून के समक्ष समानता तथा कानून का राज्य बना रहता है। यद्यपि राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सेना या पुलिस का प्रयोग अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए करेगा लेकिन व्यवहार में वह इन शक्तियों का प्रयोग अपने ही नागरिकों के विरोध के स्वर को दबाने के लिए करता रहा है राज्य कई बार धारा 144 लागू करता है, कई बार वह कर्फ्यू लगा देता है।

जो लोग राज्य के कुछ निर्णयों, सिद्धान्तों  योजनाओं को अपने विरुद्ध समझकर भूख हड़ताल, प्रदर्शन, आंदोलन आदि करते हैं, तो राज्य कई बार मनमाने ढंग से पुलिस बल का इस्तेमाल करता है। कई बार राज्य अनधिकृत मकानों को गिराता है, सील करता है, तो लोग हिंसा पर उतारू हो जाते हैं और राज्य उनके विरुद्ध भी पुलिस बल का प्रयोग करता है। राज्य का हिंसा का व्यवहार निरंकुश शासन और म्यांमार जैसी सैनिक तानाशाही में सबसे अधिक स्पष्ट दिखता है। जबकि लोकतांत्रिक शासन प्रणालियों में अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा के अधिक कारगर प्रयत्न किये गये हैं क्योंकि लोकतंत्र में राज्य सत्ता जनता के प्रति जबावदेह होती है।

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प्रश्न 3.
शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो। क्या आप सहमत हैं?
उत्तर:
शांति सर्वोत्तम रूप में स्वतंत्रता, समानता व शांति के वातावरण में ही संभव है – यह विचार पूर्णतया सही है कि शांति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो।
जहाँ समानता नहीं होगी, वहाँ स्वामी और नौकर के सम्बन्ध या शोषक तथा शोषित के सम्बन्ध हो सकते हैं। ऐसी दशा में भ्रातृत्व तथा पारस्परिक सहयोग की भावना का अभाव होगा। इसी प्रकार जहाँ स्वतंत्रता का वातावरण नहीं होगा, वहाँ कुछ लोग स्वतंत्रता से वंचित हो सकते हैं तथा वे अपने व्यक्तित्व के विकास के समान अवसरों की स्वतंत्रता से वंचित हो सकते हैं; वे अधिक शक्तिशाली लोगों द्वारा शोषित किये जायेंगे, ऐसी स्थिति में उनमें भ्रातृत्व की भावना नहीं हो सकती। इसी प्रकार जहाँ न्याय नहीं होगा, वहाँ कुछ लोग दूसरों के द्वारा शोषित तथा पीड़ित किये जायेंगे।

वे कुछ लोगों की सुविधाओं के लिए उत्पीड़ित किये जायेंगे। ऐसे लोगों में शांति की भावना कैसे पैदा हो सकती है। सन्त एक्विनास के शब्दों में ऐसा राज्य जहाँ न्याय नहीं है, वह राज्य न होकर लुटेरों का समूह है और कोई भी व्यक्ति लुटेरों के बीच में अपने को सुरक्षित और शांतिपूर्ण कैसे महसूस कर सकता है। दूसरे, यदि किसी राज्य में स्वतंत्रता, समानता और न्याय की स्थापना नहीं हुई है, तो वहाँ प्रायः इनकी प्राप्ति के लिए आंदोलन चलते रहते हैं, जिसके कारण वहाँ शांति नहीं हो पाती। अतः समानता तथा स्वतंत्रता के साथ-साथ न्याय भी सर्वोत्तम शांति के रूप की स्थापना के लिए जरूरी है। जिस समाज में समानता, स्वतंत्रता और न्याय विद्यमान होता है, उस समाज के लोग संतुष्ट रहते हैं, उनको अपने व्यक्तित्व के विकास के समान अवसर मिलते हैं तथा उनका शोषण नहीं होता है। वे स्वेच्छा से राज्य के आदर्श का पालन करते हैं तथा समाज में शांति रहती है।

प्रश्न 4.
हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं?
उत्तर:
यह कथन सर्वथा उचित है कि हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। अक्सर यह दावा किया जाता है कि कभी-कभी हिंसा शांति लाने की अपरिहार्य पूर्व शर्त जैसी होती है। यह तर्क दिया जाता है कि तानाशाहों और उत्पीड़कों को जबरन अर्थात् हिंसा के द्वारा शक्ति से हटाकर ही उनको, जनता का निरन्तर नुकसान पहुँचाने से रोका जा सकता है। या फिर, उत्पीड़ित लोगों के मुक्ति संघर्षों को हिंसा के कुछ इस्तेमाल के बावजूद न्यायपूर्ण ठहराया जा सकता है।

लेकिन अच्छे मकसद से भी हिंसा का सहारा लेना आत्मघाती हो सकता है क्योंकि हिंसा के एक बार शुरू हो जाने पर इसकी प्रवृत्ति नियंत्रण से बाहर हो जाने की होती है और इसके कारण यह अपने पीछे मौत और बर्बादी की एक श्रृंखला छोड़ जाती है। अतः स्पष्ट है कि हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता क्योंकि हिंसा का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक कठिनाइयों व हानियों से गुजरता है, वे उसके भीतर कुंठा पैदा कर देती हैं और ये कुंठाएँ व शिकायतें आने वाली पीढ़ियों में भी पाई जाती हैं जो कभी भी उग्र रूप धारण कर सकती हैं।

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प्रश्न 5.
विश्व में शांति स्थापना के जिन दृष्टिकोणों की अध्याय में चर्चा की गई है, उनके बीच क्या अन्तर है?
उत्तर:
शांति कायम करने के दृष्टिकोण – अध्याय में विश्व में शांति स्थापना के लिए निम्नलिखित तीन दृष्टिकोणों की चर्चा की गई है

1. राष्ट्रों को केन्द्रीय स्थान देना:
पहला दृष्टिकोण राष्ट्रों को केन्द्रीय स्थान देता है, उनकी संप्रभुता का आदर करता है और उनके बीच प्रतिद्वन्द्विता को जीवन्त सत्य मानता है। उसकी मुख्य चिन्ता प्रतिद्वन्द्विता के उपयुक्त प्रबन्धन तथा संघर्ष की आशंका का शमन सत्ता-सन्तुलन की पारस्परिक व्यवस्था के माध्यम से करने की होती है। वैसा एक संतुलन 19वीं सदी में प्रचलित था, जब प्रमुख यूरोपीय देशों ने संभावित आक्रमण को रोकने और बड़े पैमाने पर युद्ध से बचने के लिए अपने सत्ता-संघर्षों में गठबंधन बनाते हुए तालमेल किया।

2. राज्यों की अन्तर्निर्भरता तथा सहयोग:
दूसरा दृष्टिकोण राष्ट्रों की गहराई तक जमी आपसी प्रतिद्वन्द्विता की प्रकृति को स्वीकार करता है, लेकिन इसका जोर सकारात्मक उपस्थिति और परस्पर निर्भरता की संभावनाओं पर है। यह विभिन्न देशों के बीच विकासमान सामाजिक-आर्थिक सहयोग को रेखांकित करता है क्योंकि ये सहयोग राष्ट्र की संप्रभुता को नरम करेंगे और अन्तर्राष्ट्रीय समझदारी को प्रोत्साहित करेंगे। पररणामस्वरूप वैश्विक संघर्ष कम होंगे, जिससे शांति की बेहतर संभावनाएँ बनेंगी। इसका उदाहरण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का यूरोप है जो आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकीकरण की ओर बढ़ता गया है।

3. वैश्वीकरण का दृष्टिकोण:
तीसरा दृष्टिकोण पहली दो पद्धतियों या दृष्टिकोणों से इस रूप में भिन्न है कि यह राष्ट्र आधारित व्यवस्था को मानव इतिहास की समाप्तप्राय अवस्था मानता है। यह अधिराष्ट्रीय व्यवस्था का मनोचित्र बनाता है और वैश्विक समुदाय के अभ्युदय को विश्व शांति की विश्वसनीय गारण्टी मानता है। वैसे समुदायों के बीच बहुराष्ट्रीय निगम और जन आंदोलन जैसे विविध गैर सरकारी कर्ताओं की क्रियाओं में देखे जा सकते हैं। वैश्वीकरण की प्रक्रिया राष्ट्रों की पहले से ही घट गई प्रधानता और संप्रभुता को अधिक क्षीण कर रही है, जिसके फलस्वरूप विश्व: शांति कायम होने की परिस्थिति तैयार हो रही है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि तीनों दृष्टिकोणों में निम्न महत्त्वपूर्ण अन्तर पाये जाते हैं। पहले दृष्टिकोण में संप्रभु राष्ट्र राज्यों को महत्त्वपूर्ण स्थान देकर उनके बीच विद्यमान पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को स्वीकार करते हुए शक्ति-संतुलन पर बल दिया गया है, तो दूसरे दृष्टिकोण में राष्ट्र-राज्यों की पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता को स्वीकार तो किया गया है, लेकिन इससे आर्थिक-सामाजिक सहयोग द्वारा शांति स्थापना पर बल दिया गया है, जबकि तीसरा दृष्टिकोण संप्रभुं राष्ट्र राज्यों की व्यवस्था व उसकी प्रतिद्वन्द्विता को ही नकारता है और वैश्वीकरण व वैश्विक समुदाय के माध्यम से विश्व शांति चाहता है।

शांति JAC Class 11 Political Science Notes

→ भूमिका: शांति की वांछनीयता को लेकर ऊपरी आम सहमति अपेक्षाकृत हाल-फिलहाल की घटना है। अतीत के अनेक महत्त्वपूर्ण चिंतकों, जैसे जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे, इटली के समाज सिद्धान्तकार विल्फ्रेडो पैरेटये आदि ने शांति के बारे में नकारात्मक ढंग से लिखा है और इन्होंने संघर्ष तथा ताकत को सभ्यता की उन्नति का मार्ग बताया है। दूसरी तरफ लगभग सभी धार्मिक उपदेशों में शांति को महत्त्व दिया गया है। आधुनिक काल में महात्मा गाँधी व अन्य अनेक चिंतकों ने शांति का प्रबल पक्ष लिया है। शांति के प्रति समकालीन आग्रह के निशान 20वीं सदी के अत्याचारों फासीवाद, नाजीवाद का उदय, विश्वयुद्धों, भारत-पाक विभाजन, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चली प्रचंड हथियारों की प्रतिस्पर्द्धा व सैनिक प्रतिद्वन्द्विता आदि-घटनाओं में देखे जा सकते हैं।

अगर लोग आज शांति का गुणगान करते हैं तो महज इसलिए नहीं कि वे इसे अच्छा विचार मानते हैं। शांति की अनुपस्थिति की भारी कीमत चुकाने के बाद मानवता ने इसका महत्व पहचाना है। त्रासद संघर्षों के प्रेत हमें लगातार कचोटते रहते हैं। आज जीवन अतीत के किसी भी समय से कहीं अधिक असुरक्षित है क्योंकि हर जगह के लोग आतंकवाद के बढ़ते खतरों का सामना कर रहे हैं। शांति लगातार बहुमूल्य इसलिए बनी हई है कि इस पर खतरे का सामान हमेशा मौजूद ह ।

→ शांति का अर्थ

  • शांति युद्ध की अनुपस्थिति के रूप में – शांति की परिभाषा अक्सर युद्ध की अनुपस्थिति के रूप में की जाती है। लेकिन यह परिभाषा भ्रामक है। यद्यपि प्रत्येक युद्ध शांति के अभाव की ओर जाता है, लेकिन शांति का हर अभाव युद्ध का रूप ले यह जरूरी नहीं है। उदाहरण के लिए रवांडा या बोस्निया में जो हुआ वह इस तरह का युद्ध नहीं था।
  • शांति सभी प्रकार के हिंसक संघर्षों के अभाव के रूप में शांति की दूसरी परिभाषा युद्ध, दंगा, नरसंहार, कत्ल या सामान्य शारीरिक प्रहार समेत सभी प्रकार के हिंसक संघर्षों के अभाव के रूप में की जाती है। लेकिन जाति भेद, वर्ग भेद, पितृसत्ता, उपनिवेशवाद, नस्लवाद और साम्प्रदायिकता भी हिंसक संघर्ष न होकर ‘संरचनात्मक हिंसा’ है जो अशांतिकारक है।

→ संरचनात्मक हिंसा के विभिन्न रूप-हिंसा प्रायः
समाज की मूल संरचना में ही रची-बसी है। संरचनात्मक हिंसा के बड़े पैमाने के दुष्परिणाम हैं- जातिभेद, वर्गभेद, पितृसत्ता, उपनिवेशवाद, नस्लवाद और साम्प्रदायिकता। न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और संघर्ष के कारणों को साफ-साफ व्यक्त करने और बातचीत द्वारा हल करने के जरिये ही प्राप्त की जा सकती है।

→ हिंसा की समाप्ति:
करुणा, ध्यान, आधुनिक नीरोगकारी तकनीक, मनोविश्लेषण तथा न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना आदि संरचनात्मक हिंसा को निर्मूल करने के लिए अनिवार्य हैं। शांति एक बार में हमेशा के लिए हासिल नहीं की जा सकती। शांति कोई अंतिम स्थिति नहीं बल्कि ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें व्यापकता अर्थों में मानव कल्याण की स्थापना के लिए जरूरी नैतिक और भौतिक संसाधनों के सक्रिय क्रियाकलाप शामिल होते हैं।

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→ क्या हिंसा कभी शांति को प्रोत्साहित कर सकती है?
प्रायः यह दावा किया जाता है कि हिंसा एक बुराई है लेकिन कभी-कभी यह शांति लाने की अपरिहार्य पूर्व शर्त जैसी होती है। लेकिन अच्छे मकसद से भी हिंसा का सहारा लेना आत्मघाती हो सकता है क्योंकि इसकी प्रवृत्त्रण से बाहर हो जाने की होती है और इसके कारण यह अपने पीछे मौत और बर्बादी की एक श्रृंखला छोड़ जाती है।

शांतिवादी का मकसद प्रतिरोध के अहिंसक स्वरूप पर बल देना है, जैसे सविनय अवज्ञा। नागरिक अवज्ञा के दबाव में अन्यायपूर्ण संरचनाएँ भी रास्ता दे सकती हैं। जैसे गांधी और मार्टिन लूथर किंग ने किया। कभी-कभार वे अपनी विसंगतियों के बोझ से भी ध्वस्त हो सकती हैं, जैसे सोवियत व्यवस्था का विघटन।

→ शांति और राज्य सत्ता:

  • संप्रभु राज्य में हर हालत में अपने हितों को बचाने और बढ़ाने की प्रवृत्ति पायी जाती है।
  • मानवाधिकार के नाम पर हर राज्य अपने नागरिकों के हितों के नाम पर बाकी लोगों को हानि पहुँचाने को तैयार रहता है।
  • प्रत्येक राज्य ने बल प्रयोग के अपने उपकरणों को मजबूत किया है।
  • विश्व अलग- अलग संप्रभु राष्ट्रों में विभाजित है। इससे शांति के रास्ते में अवरोध उत्पन्न होते हैं।

इन समस्याओं का दीर्घकालिक समाधान सार्थक लोकतंत्रीकरण और अधिक नागरिक आजादी की एक कारगर पद्धति में है। इसके माध्यम से राज्य सत्ता को ज्यादा जवाबदेह बनाया जा सकता है। इस प्रकार लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों के लिए संघर्ष और शांति के सुरक्षित बने रहने के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है।

→ शांति कायम करने के विभिन्न तरीके: शांति कायम करने के विभिन्न तरीके रहे हैं। इनमें प्रमुख हैं:

  • सत्ता संतुलन
  • सामाजिक-आर्थिक सहयोग (आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकीकरण)
  • वैश्वीकरण संयुक्त राष्ट्र के अंग- सुरक्षा परिषद्, आर्थिक-सामाजिक परिषद् और मानवाधिकार आयोग उक्त तीनों ही पद्धतियों के प्रमुख तत्वों को साकार कर सकते हैं।

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→ समकालीन चुनौतियाँ:

  • यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ ने शांति की स्थापना में अनेक उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं, लेकिन वह शांति के खतरों को समाप्त करने में सफल नहीं हुआ है। इसके बजाय
  • दबंग राष्ट्रों जैसे अफगानिस्तान या महाशक्तियों का संप्रभुता का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन करते हुए सीधी सैनिक कार्यवाहियाँ करना, और इराक में अमेरिकी हस्तक्षेप
  • आक्रामक राष्ट्रों के स्वार्थपूर्ण आचरण से आतंकवाद का उदय व विस्तार
  • नस्ल संहार अर्थात् किसी समूचे जनसमूह का व्यवस्थित संहार आदि ने शांति के समक्ष चुनौतियाँ पैदा की हैं।

→ विश्व शांति के सिद्धान्त के पालन के रूप: शांति के समक्ष बढ़ती चुनौतियाँ होने का अर्थ यह नहीं है कि शांति एक चुका हुआ सिद्धान्त है। शांति का सिद्धान्त आज भी प्रासंगिक है। यथा

  • जापान और कोस्टारिका देशों द्वारा सैन्य बल नहीं रखना।
  • विश्व के अनेक हिस्सों में परमाणविक हथियार के मुक्त क्षेत्र – दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र, लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र, दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका, दक्षिणी प्रशान्त क्षेत्र और मंगोलिया।
  • सोवियत संघ का विघटन और महाशक्तियों की सैनिक प्रतिद्वन्द्विता की समाप्ति।
  • अनेक विश्व शांति आन्दोलनों का जारी रहना तथा उसका विस्तार।
  • महिला सशक्तीकरण तथा पर्यावरण सुरक्षा जैसे आंदोलन|
  • शांति अध्ययन की शाखा का जन्म – इंटरनेट जैसे संप्रेषण के नए माध्यम का कारगर प्रयोग। ये तथ्य आज भी शांति के सिद्धान्त को रेखांकित करते हैं।

निष्कर्ष: शांति के क्रियाकलापों में सद्भावनापूर्ण सामाजिक सम्बन्ध के सृजन और संवर्द्धन के अविचल प्रयास शामिल होते हैं, जो मानव कल्याण और खुशहाली के लिए प्रेरित होते हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता Textbook Exercise Questions and Answers.

Jharkhand Board Class 11 Political Science धर्मनिरपेक्षता InText Questions and Answers

पृष्ठ 110

प्रश्न 1.
कुछ ऐसे तरीकों की सूची बनाओ जिनके माध्यम से साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा दिया जा सकता है।
उत्तर:
साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए निम्न तरीके अपनाये जा सकते हैं।
(1) हम आपसी जागरूकता के लिए एक साथ मिलकर काम करें।
(2) लोगों की सोच को बदलने के लिए शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल दें
(3) साझेदारी और पारस्परिक सहायता के व्यक्तिगत उदाहरण भी विभिन्न समुदायों के बीच पूर्वाग्रह और संदेहों को कम करने में योगदान दे सकते हैं।
(4) आधुनिक समाज में धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना करके हम साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा दे सकते हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

पृष्ठ 112

प्रश्न 2.
क्या आप ऐसी धर्म निरपेक्षता की कल्पना कर सकते हैं, जो आपको अपनी पहचान से जुड़ा नाम रखने और आपको पसंद के कपड़े पहनने की आजादी न दे और आपकी बोलचाल की भाषा ही बदल डाले ? आपके खयाल से अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता भारतीय धर्म निरपेक्षता से किन मायनों में भिन्न है?
उत्तर:
हाँ, हम ऐसी धर्म निरपेक्षता की कल्पना कर सकते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद तुर्की में अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता इसी प्रकार की धर्म निरपेक्षता थी। यथा- – 20वीं सदी के प्रारंभ में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने तुर्की में धर्म में हस्तक्षेप के माध्यम से धर्म निरपेक्षता की हिमायत की। उसने इस तरह की धर्म निरपेक्षता न केवल प्रस्तुत की बल्कि उस पर अमल भी किया। उसकी धर्म निरपेक्षता की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं

  1. मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने सर्वप्रथम अपना नाम मुस्तफा कमाल पाशा से बदलकर कमाल अतातुर्क कर लिया। अतातुर्क का अर्थ होता है। तुर्कों का पिता।
  2. हैट कानून के जरिए मुसलमानों द्वारा पहनी जाने वाली परंपरागत फैज टोपी को प्रतिबंधित कर दिया गया।
  3. स्त्री-पुरुषों के लिए पश्चिमी पोशाकों को बढ़ावा दिया गया।
  4. तुर्की पंचांग की जगह पश्चिमी (ग्रिगेरियन) पंचांग लाया गया।
  5. 1928 में नई तुर्की वर्णमाला को संशोधित लैटिन रूप में अपनाया गया।

वे तुर्की के सार्वजनिक जीवन में खिलाफत को समाप्त कर देने के लिए कटिबद्ध थे। वे मानते थे कि परम्परागत सोच-विचार और अभिव्यक्ति से नाता तोड़े बगैर तुर्की को उसकी दुःखद स्थिति से नहीं उबारा जा सकता। परिणामतः उसने तुर्की में उक्त किस्म की धर्म निरपेक्षता को लागू किया। अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता और भारतीय धर्म निरपेक्षता में अन्तर

  1. भारतीय धर्म निरपेक्षता न तो नाम बदलने से सम्बन्धित है। वह अपने पहचान से जुड़े नाम रखने की पूर्ण आजादी प्रदान करती है, जबकि अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता अपनी पहचान से जुड़े नाम बदलने पर बल देती है।
  2. भारतीय धर्म निरपेक्षता आपको अपने पसंद के कपड़े पहनने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है। यहाँ कोई भी धर्मावलम्बी अपनी पहचान से जुड़े तथा अपने पसंद के कपड़े पहन सकता है। लेकिन कमाल अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता आपको परम्परागत विचारों व सोचों से जुड़े कपड़ों को पहनने की आजादी को खत्म करती है। इसीलिए उसने मुसलमानों की परम्परागत फैज टोपी को पहनने को प्रतिबंधित कर दिया तथा पश्चिमी परिधानों को पहनने को बढ़ावा दिया।
  3. भारतीय धर्म निरपेक्षता आपको अपनी बोल-चाल की भाषाओं को बनाए रखनी की आजादी देती है जबकि अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता ने तुर्की लोगों की बोलचाल की भाषा को ही बदल दिया।

पृष्ठ 116

प्रश्न 3.
क्या धर्म निरपेक्षता नीचे लिखी बातों के संगत है।
1. अल्पसंख्यक समुदाय की तीर्थ यात्रा को आर्थिक अनुदान देना।
2. सरकारी कार्यालयों में धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन करना।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता उक्त दोनों बातों के लिए संगत नहीं है क्योंकि धर्म निरपेक्षता धर्म और राज्य सत्ता के बीच सम्बन्ध विच्छेद पर बल देती है। साथ ही राज्य को किसी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक गठजोड़ से परहेज करना भी आवश्यक है। उक्त दोनों बातों को राज्य द्वारा करने पर धर्म निरपेक्षता के इस सिद्धान्त का उल्लंघन होता है।

पृष्ठ 119

प्रश्न 4.
राज्य धर्मों के साथ एक समान बरताव किस तरह कर सकता है। क्या हर धर्म के लिए बराबर संख्या में छुट्टी कर देने से ऐसा किया जा सकता है? या सार्वजनिक अवसरों पर किसी भी प्रकार के धार्मिक समारोह पर रोक लगाकर समान बरताव किया जा सकता है?
उत्तर:
राज्य धर्मों के साथ एक समान बरताव: सभी धर्मो को समान संरक्षण देकर, सभी धर्मों की हिफाजत कर, अन्य धर्मों की कीमत पर किसी एक धर्म की तरफदारी न करके तथा स्वयं किसी भी धर्म को राज्य धर्म के रूप में स्वीकार न करके कर सकता है। राज्य द्वारा हर धर्म के लिए बराबर संख्या में छुट्टी देना तथा सार्वजनिक अवसरों पर किसी प्रकार के धार्मिक समारोह की रोक लगाना सभी धर्मों के साथ समान बर्ताव के व्यवहार के अन्तर्गत ही आते हैं।

Jharkhand Board Class 11 Political Science धर्मनिरपेक्षता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्न में से कौन-सी बातें धर्म निरपेक्षता के विचार से संगत हैं? कारण सहित बताइये
(क) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना।
(ख) किसी धर्म को राज्य के धर्म के रूप में मान्यता देना।
(ग) सभी धर्मों को राज्य का समान आश्रय होना।
(घ) विद्यालयों में अनिवार्य प्रार्थना होना।
(ङ) किसी अल्पसंख्यक समुदाय को अपने पृथक् शैक्षिक संस्थान बनाने की अनुमति होना।
(च) सरकार द्वारा धार्मिक संस्थाओं की प्रबंधन समितियों की नियुक्ति करना।
(छ) किसी मंदिर में दलितों के प्रवेश के निषेध को रोकने के लिए सरकार का हस्तक्षेप।
उत्तर:
निम्नलिखित बातें धर्म निरपेक्षता के विचार से संगत हैं
(क) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना।
(ग) सभी धर्मों को राज्य का समान आश्रय होना।
(ङ) किसी अल्पसंख्यक समुदाय को अपने पृथक् शैक्षिक संस्थान बनाने की अनुमति देना।
(छ) किसी मंदिर में दलितों के प्रवेश के निषेध को रोकने के लिए सरकार का हस्तक्षेप।

(क) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना:
प्रत्येक प्रकार की धर्म निरपेक्षता के रूप में यह मूल सिद्धान्त निहित है कि धर्म निरपेक्षता अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का विरोध करती है। यह कथन कि किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व नहीं है, इस सिद्धान्त का पालन करता है। अतः यह धर्म निरपेक्षता के विचार से संगत है।

(ग) सभी धर्मों को राज्य का समान आश्रय होना:
धर्मनिरपेक्ष होने के लिए राज्य सत्ता को किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से परहेज करना आवश्यक है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि राज्य का अपना कोई धर्म न हो बल्कि वह सभी धर्मों को समान संरक्षण व आश्रय प्रदान करे। इस दृष्टि से यह कथन कि ‘सभी धर्मों को राज्य का समान आश्रय है’ धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त से संगत है।

(ङ) किसी अल्पसंख्यक समुदाय को अपने पृथक् शैक्षिक संस्थान बनाने की अनुमति देना:
यदि हम यूरोपीय मॉडल की धर्म निरपेक्षता की दृष्टि से विचार करें तो यह कथन धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त से असंगत है क्योंकि यूरोपीय संकल्पना में स्वतंत्रता और समानता का तात्पर्य है। व्यक्तियों की स्वतंत्रता व समुदाय को अपनी पसंद का आचरण करने की स्वतंत्रता रहे। समुदाय आधारित अधिकारों अथवा अल्पसंख्यक अधिकारों की वहाँ कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन यदि हम भारतीय मॉडल की धर्म निरपेक्षता की संकल्पना की दृष्टि से विचार करें तो यह कथन धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त से संगत है क्योंकि भारतीय धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी से ही नहीं है, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है। इसके अन्तर्गत धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी अपनी खुद की. संस्कृति और शैक्षिक संस्थाएँ कायम करने का अधिकार है।

(छ) किसी मंदिर में दलितों के प्रवेश के निषेध को रोकने के लिए सरकार का हस्तक्षेप:
पश्चिमी धर्म निरपेक्षता की संकल्पना की दृष्टि से यह कार्य धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त से असंगत है क्योंकि इस तरह की धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार के लिए कोई जगह नहीं है, लेकिन भारतीय धर्म निरपेक्षता की संकल्पना की दृष्टि से यह कार्य संगत है क्योंकि भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी है और अनुकूलता भी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

प्रश्न 2.
धर्म निरपेक्षता के पश्चिमी और भारतीय मॉडल की कुछ विशेषताओं का आपस में घालमेल हो गया है। उन्हें अलग करें और एक नई सूची बनाएँ।

पश्चिमी धर्म निरपेक्षता भारतीय धर्म निरपेक्षता
धर्म और राज्य का एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति
करने की अटल नीति एक धर्म के भिन्न पंथों के बीच समानता पर जोर देना
विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता एक मुख्य सरोकार होना समुदाय आधारित अधिकारों पर कम ध्यान देना
अल्पसंख्यक अधिकारों पर ध्यान देना व्यक्ति और धार्मिक समुदायों दोनों के अधिकारों का संरक्षण
व्यक्ति और उसके अधिकारों को केन्द्रीय महत्त्व देना भारतीय धर्म निरपेक्षता

उत्तर:
धर्म निरपेक्षता के पश्चिमी और भारतीय मॉडल की विशेषताओं को निम्न प्रकार सूचीबद्ध किया गया है।

पश्चिमी धर्म निरपेक्षता भारतीय धर्म निरपेक्षता
1. धर्म और राज्य का एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करने की अंटल नीति 1. राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति
2. विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता एक मुख्य सरोकार होना 2. एक धर्म के भिन्न पंथों के बीच समानता पर जोर देना
3. समुदाय आधारित अधिकारों पर कम ध्यान देना 3. अल्पसंख्यक अधिकारों पर ध्यान देना।
4. व्यक्ति और उसके अधिकारों को केन्द्रीय महत्त्व दिया जाना 4. व्यक्ति और धार्मिक समुदाय दोनों के अधिकारों का संरक्षण

प्रश्न 3.
धर्म निरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? क्या इसकी बराबरी धार्मिक सहनशीलता से की जा सकती
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता से आशय:
धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त का पहला पक्ष यह है कि यह अन्तर धार्मिक वर्चस्व का विरोध करता है और इसका दूसरा पक्ष यह है कि यह अन्तः धार्मिक वर्चस्व यानी धर्म के अन्दर छुपे हुए वर्चस्व का विरोध करता है। इस प्रकार यह अवधारणा संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व के सभी रूपों का विरोध करती है। यह धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देती है। धर्म निरपेक्षता और धार्मिक सहनशीलता में अन्तर

  1. धार्मिक सहनशीलता धार्मिक वर्चस्व की विरोधी नहीं है, जबकि धर्म निरपेक्षता धार्मिक वर्चस्व की विरोधी है।
  2. धार्मिक सहनशीलता में धार्मिक स्वतंत्रता प्रायः सीमित होती है, जबकि धर्म निरपेक्षता में धार्मिक सहनशीलता अपेक्षाकृत अधिक होती है। हो सकता है कि धार्मिक सहनशीलता में हर किसी को धार्मिक स्वतंत्रता के अवसर मिल जाएँ लेकिन ऐसी स्वतंत्रता प्रायः सीमित होती है, जबकि धर्म निरपेक्षता में राज्य सत्ता धर्मसत्ता के मामले में हस्तक्षेप नहीं करती और किसी धर्म का धार्मिक वर्चस्व नहीं होता है, इसलिए इसमें धार्मिक स्वतंत्रता के सभी को समान अवसर प्राप्त हैं।
  3. धार्मिक सहनशीलता हममें उन लोगों को बर्दाश्त करने की क्षमता पैदा करती है, जिन्हें हम बिल्कुल नापसंद करते हैं; जबकि धर्म निपरेक्षता में ऐसे बर्दाश्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इससे स्पष्ट होता है कि सहिष्णुता या धार्मिक सहनशीलता तथा धर्म निरपेक्षता में काफी अन्तर है तथा धर्म निरपेक्षता की बराबरी धार्मिक सहनशीलता से नहीं की जा सकती।

प्रश्न 4.
क्या आप नीचे दिए गए कथनों से सहमत हैं? उनके समर्थन या विरोध के कारण भी दीजिए।
(क) धर्म निरपेक्षता हमें धार्मिक पहचान बनाए रखने की अनुमति नहीं देती है।
(ख) धर्म निरपेक्षता किसी धार्मिक समुदाय के अन्दर या विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच असमानता के खिलाफ है।
(ग) धर्म निरपेक्षता के विचार का जन्म पश्चिमी और ईसाई समाज में हुआ है। यह भारत के लिए उपयुक्त नहीं है।
उत्तर:
(क) धर्म निरपेक्षता हमें धार्मिक पहचान बनाए रखने की अनुमति नहीं देती है। हम इस कथन से सहमत नहीं हैं क्योंकि धर्म निरपेक्षता धर्म और राज्य का एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करने तथा विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता और एक धर्म के विभिन्न पंथों के बीच समानता तथा किसी धर्म के वर्चस्व का विरोध करने की नीति है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को अपनाने के लिए स्वतंत्र है। वह इस प्रकार उसे अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखने की पूर्ण स्वतंत्रता देती है। इसलिए यह कहना गलत है कि धर्म निरपेक्षता हमें धार्मिक पहचान बनाए रखने की अनुमति नहीं देती है।

(ख) धर्म निरपेक्षता किसी धार्मिक समुदाय के अन्दर या विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच असमानता के खिलाफ है। हम इस कथन से सहमत हैं क्योंकि धर्म निरपेक्षता का विचार धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और
उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देता है तथा असमानता का विरोध करता है। यह अन्तर: धार्मिक तथा अन्तः धार्मिक दोनों तरह के वर्चस्वों के खिलाफ है तथा दोनों तरह के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहता है।

(ग) धर्म निरपेक्षता के विचार का जन्म पश्चिमी और ईसाई समाज में हुआ है। यह भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। हम इस विचार से सहमत नहीं हैं। यद्यपि भारतीय धर्म निरपेक्षता के सम्बन्ध में यह आलोचना की जाती है कि यह ईसाइयत से जुड़ी है, पश्चिमी चीज है और इसीलिए भारतीय परिस्थितियों के लिए अनुपयुक्त है। लेकिन इस विचार से हम असहमत हैं क्योंकि।

  1. पतलून से लेकर इंटरनेट और संसदीय लोकतंत्र तक लाखों पश्चिमी चीजें भारत में प्रचलित हैं जिनकी जड़ें पश्चिम में हैं, क्या वे भारतीयों के लिए अनुपयुक्त हैं।
  2. धर्म निरपेक्ष होने के लिए प्रत्येक राष्ट्र का अपना स्वयं का लक्ष्य होता है। पश्चिमी धर्म निरपेक्षता का लक्ष्य ईसाइयत से राज्य का सम्बन्ध विच्छेद करना था। धर्म और राज्य का पारस्परिक निषेध पश्चिमी धर्म निरपेक्ष समाजों का आदर्श है; लेकिन भारत ने इस सिद्धान्त को उतनी कट्टरता के साथ नहीं अपनाया है।
  3. भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य सत्ता धर्म से सैद्धान्तिक दूरी बनाए रखते हुए भी खास समुदायों की रक्षा के लिए उसमें हस्तक्षेप भी कर सकती है। यह भारतीय धर्म निरपेक्षता न तो ईसाइयत से पूरी तरह जुड़ी हुई है और न भारतीय जमीन पर सीधा-सीधा पश्चिमी आरोपण ही है।

प्रश्न 5.
भारतीय धर्म निरपेक्षता का जोर धर्म और राज्य के अलगाव पर नहीं वरन् उससे अधिक किन्हीं बातों पर है। इस कथन को समझाइये
उत्तर:
भारतीय धर्म निरपेक्षता पश्चिमी धर्म निरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है। भारतीय धर्म निरपेक्षता केवल धर्म और राज्य के बीच सम्बन्ध विच्छेद पर बल नहीं देती। अन्तर- धार्मिक समानता भारतीय धर्म निरपेक्षता की संकल्पना के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भारतीय धर्म निरपेक्षता की संकल्पना की विशिष्ट बातें निम्नलिखित हैं।
1. अन्तर-धार्मिक सहिष्णुता:
भारतीय धर्म निरपेक्षता का विचार गहरी धार्मिक विविधता के संदर्भ में उदित हुआ है। यह विविधता पश्चिमी आधुनिक विचारों और राष्ट्रवाद के आगमन से पहले की चीज है। भारत में पहले से ही अन्तर- धार्मिक सहिष्णुता की संस्कृति मौजूद थी। यह संस्कृति धार्मिक वर्चस्व की विरोधी नहीं है तथा इसमें धार्मिक आजादी प्रायः सीमित होती है तथा यह लोगों में बर्दाश्त करने की क्षमता पैदा करती है।

2. अन्तर-सामुदायिक समानता:
पश्चिमी आधुनिकता के आगमन ने भारतीय चिंतन में समानता की अवधारणा को सतह पर ला दिया। उसने इस धारणा को धारदार बनाया और हमें समुदाय के अन्दर समानता पर बल देने की ओर अग्रसर किया। उसने हमारे समाज को मौजूद श्रेणीबद्धता को हटाने के लिए अन्तर-सामुदायिक समानता के विचार को भी उद्घाटित किया। इस तरह भारतीय समाज में पहले से विद्यमान धार्मिक विविधता और पश्चिम से आए विचारों के बीच अंतर्क्रिया शुरू हुई; जिसके फलस्वरूप भारतीय धर्म निरपेक्षता ने विशिष्ट रूप ग्रहण किया।

3. यह अंतः धार्मिक और अन्तर:
धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केन्द्रित करती है। भारतीय धर्म निरपेक्षता में अन्त:धार्मिक और अन्तर- धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केन्द्रित किया गया है। इसने हिन्दुओं के अन्दर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अन्दर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किये जा सकने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया । इस प्रकार यह पश्चिमी धर्म निरपेक्षता से भिन्न हो गई।

4. व्यक्तियों और अल्पसंख्यक समुदायों दोनों प्रकार की धार्मिक स्वतंत्रता से सम्बद्ध:
पश्चिमी धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध केवल व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता से ही है जबकि भारतीय धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है। इसके अन्तर्गत हर आदमी को अपने पसंद का धर्म मानने के अधिकार के साथ-साथ धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी अपनी स्वयं की संस्कृति और शैक्षिक संस्थाएँ कायम करने का अधिकार है।

5. राज्य समर्थित धार्मिक सुधार:
भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी है और अनुकूलता भी। इसीलिए भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है। भारतीय राज्य ने बाल विवाह के उन्मूलन और अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म के द्वारा लगाए गए निषेध को खत्म करने हेतु अनेक कानून बनाए हैं।

6. न धर्मतांत्रिक और न धर्म से विलग:
भारतीय धर्मनिरपेक्षता का चरित्र धर्मतांत्रिक नहीं है क्योंकि यह किसी धर्म को राजधर्म नहीं मानता है। यह पूर्णतः धर्म से विलग भी नहीं है। यह धर्म से विलग भी हो सकता है और जरूरत पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है।
इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता का जोर धर्म और राज्य के अलगाव पर नहीं वरन् राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति देने, अल्पसंख्यक अधिकारों पर ध्यान देने, व्यक्ति और धार्मिक समुदाय दोनों के अधिकारों के संरक्षण देने पर अधिक है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

प्रश्न 6.
‘सैद्धान्तिक दूरी’ क्या है ? उदाहरण सहित समझाइये
उत्तर:
सैद्धान्तिक दूरी से आशय:
धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त यह मांग करता है कि राज्य धर्म से दूरी बनाए रखे। इसका आशय यह है कि राज्य और धर्म में पृथकता होनी चाहिए। पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता के मॉडल में राज्य और धर्म के बीच अटल या पूर्ण पृथकता या पूर्ण दूरी पर बल दिया जाता है। लेकिन भारतीय धर्म निरपेक्षता के मॉडल में राज्य और धर्म की पूर्ण पृथकता को नहीं अपनाया गया है। इसमें सैद्धान्तिक दूरी के सिद्धान्त पर बल दिया गया है। सैद्धान्तिक दूरी से आशय यह है कि सामान्यतः राज्य धर्म से एक दूरी बनाए रखता है और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है। लेकिन विशिष्ट परिस्थितियों में राज्य धार्मिक क्षेत्र में हस्तक्षेप भी कर सकता है। ये विशिष्ट परिस्थितियाँ हैं—भेदभाव, शोषण और असमानता की।

उदाहरण के लिए भारत में राज्य ने हिन्दुओं में अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए संविधान में अस्पृश्यता को अपराध घोषित कर दिया है। इसी प्रकार राज्य ने हस्तक्षेप करके दलितों को मंदिरों में प्रवेश, सार्वजनिक स्थलों के उपयोग, कुओं, तालाबों तथा शैक्षिक संस्थाओं के प्रयोग के लिए अनुमति प्रदान की है। इसी प्रकार राज्य ईसाइयत और इस्लाम में भी हस्तक्षेप कर सकता है, जब वह देखता है कि धर्म व्यक्ति के मूल अधिकारों का उल्लंघन कर रहा है, अन्याय या शोषण कर रहा है। दूसरे, भारतीय राज्य सुधारों को समर्थन करके धर्म का विकास भी कर सकता है अर्थात् वह धर्म सुधार हेतु हस्तक्षेप कर सकता है। इसी को सैद्धान्तिक दूरी कहा जाता है।

धर्मनिरपेक्षता JAC Class 11 Political Science Notes

→ धर्म निरपेक्षता क्या है?
धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त के दो पक्ष हैं। इसका पहला पक्ष यह है कि यह अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का विरोध करता है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि यह अंतः धार्मिक वर्चस्व यानी धर्म के अंदर छुपे हुए वर्चस्व का विरोध करता है। इस प्रकार धर्म निरपेक्षता संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व के सभी रूपों की विरोधी है। यह धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देती है। इस प्रकार धर्म निरपेक्षता की अवधारणा को नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही दृष्टि से स्पष्ट किया जाता है। यथा

  • नकारात्मक अर्थ में धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त संस्थागत धार्मिक वर्चस्व के सभी रूपों का विरोधी होने के नाते यह अन्तर- धार्मिक वर्चस्व तथा अन्तः धार्मिक वर्चस्व दोनों को नकारता है।
  • सकारात्मक अर्थ में धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त धर्मों के अन्दर की आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देता ह।

→ धर्मों के बीच वर्चस्ववाद:
धर्मों के बीच वर्चस्ववाद से यह आशय है कि एक क्षेत्र में बहुसंख्यक धर्म वाला सम्प्रदाय अल्पसंख्यक धर्मावलम्बियों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेता है और फिर वह अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों का उत्पीड़न करता है। उदाहरण के लिए, इसी धार्मिक वर्चस्ववाद के चलते

  • 1984 में दिल्ली में हजारों सिखं मारे गए;
  • हजारों कश्मीरी पंडितों को घाटी में अपना घर विवश होकर छोड़ना पड़ा;
  • सन् 2002 में गुजरात में लगभग 2000 मुसलमान मारे गये आदि।

→ धर्म के अन्दर वर्चस्व:
कई धर्म संप्रदायों में विभाजित हो जाते हैं और निरन्तर आपसी हिंसा तथा भिन्न मत रखने वाले अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न में लगे रहते हैं। इस प्रकार यह धर्म के अन्दर वर्चस्व का रूप ग्रहण कर लेता है। धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त धर्म के अन्दर के वर्चस्व के रूप का भी विरोध करता है। इस प्रकार धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त संस्थागत धार्मिक वर्चस्व के सभी रूपों का विरोध करता है। इस प्रकार धर्म निरपेक्षता ऐसा नियामक सिद्धान्त है जो धर्म निरपेक्ष समाज, उक्त दोनों तरह के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहता है जिसमें धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा दिया जाता हों।

→ धर्म निरपेक्ष राज्य:
धार्मिक भेदभाव को रोकने के लिए आपसी जागरूकता, शिक्षा, साझेदारी, पारस्परिक सहायता, भलाई की भावना का विकास आदि रास्तों को अपनाया जा सकता है। लेकिन इनसे अधिक शक्तिशाली रास्ता धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना करना है। एक धर्म निरपेक्ष राज्य सत्ता में निम्न विशेषताएँ होनी आवश्यक हैं।

  • राज्य सत्ता किसी खास धर्म के प्रमुखों द्वारा संचालित नहीं हो। धार्मिक संस्थाओं और राज्यसत्ता की संस्थाओं के बीच सम्बन्ध नहीं होना चाहिए।
  • राज्य सत्ता को किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से परहेज करना होगा।
  • धर्म निरपेक्ष राज्य को ऐसे सिद्धान्तों और लक्ष्यों के लिए अवश्य प्रतिबद्ध होना चाहिए जो गैर धार्मिक स्रोतों से निकलते हों, जैसे शांति, धार्मिक स्वतंत्रता; धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्जना से आजादी ; तथा अन्तर- – धार्मिक व अन्तः धार्मिक समानता। धर्म निरपेक्ष राज्य का कोई एक निश्चित मॉडल नहीं बताया जा सकता। राजनैतिक धर्म निरपेक्षता किसी भी रूप में स्थापित हो सकती हैं। यहाँ अग्रलिखित दो मॉडलों को स्पष्ट किया गया है।

→ धर्म निरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल:

  • यूरोपीय मॉडल के सभी धर्म निरपेक्ष राज्य न तो धर्मतांत्रिक हैं और न किसी खास धर्म की स्थापना करते हैं।
  • इसमें राज्य सत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती है और न धर्मसत्ता राज्य के मामलों में दखल देती है। दोनों के अपने अलग-अलग क्षेत्र तथा सीमाएँ हैं।
  • राज्य न तो धर्म के आधार पर कोई नीति बनायेगा और न किसी धार्मिक संस्था को मदद देगा।
  • देश के कानून की सीमा के अन्दर संचालित धार्मिक समुदायों की गतिविधियों में राज्य व्यवधान पैदा नहीं कर सकता।
  • यह संकल्पना स्वतंत्रता और समानता की व्यक्तिवादी ढंग से व्याख्या करती है। इसमें समुदाय आधारित अधिकारों या अल्पसंख्यकों के अधिकारों की कोई गुंजाइश नहीं है। इस तरह की धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार के लिए कोई जगह नहीं है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

→ धर्म निरपेक्षता का भारतीय मॉडल:
भारतीय धर्म निरपेक्षता में अंतः धार्मिक और अन्तर- धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केन्द्रित किया गया है। परिणामस्वरूप भारतीय धर्म निरपेक्षता पश्चिमी धर्म निरपेक्षता से निम्न रूपों में भिन्न रूप में सामने आई हैं।

  • इसने पिछड़ों और अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किये जाने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया।
  • भारतीय धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी से ही नहीं है, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है।
  • भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी है और अनुकूलता भी। इसीलिए भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है। राज्य ने बाल विवाह के उन्मूलन और अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म द्वारा लगाए निषेध को खत्म करने हेतु अनेक कानून बनाए हैं।

इस प्रकार भारतीय राज्य के धर्म निरपेक्ष चरित्र की प्रमुख विशेषता यह है कि वह न तो धर्मतांत्रिक है और न ही किसी धर्म को राजधर्म मानता है। लेकिन वह धार्मिक समानता हासिल करने के लिए अमेरिकी शैली में धर्म से विलग भी हो सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है। वह धार्मिक अत्याचार का विरोध करने हेतु धर्म के साथ निषेधात्मक सम्बन्ध भी बना सकता है और वह जुड़ाव की सकारात्मक विधि भी अपना सकता है। अस्पृश्यता का निषेध जहाँ निषेधात्मक जुड़ाव है, वहीं धार्मिक अल्पसंख्यकों को शिक्षा संस्थाएँ खोलने व चा का अधिकार देना सकारात्मक जुड़ाव को दर्शाता है। भारतीय धर्म निरपेक्षता तमाम धर्मों में राजसत्ता के सैद्धान्तिक हस्तक्षेप की अनुमति देती है।

→भारतीय धर्म निरपेक्षता की आलोचनाएँ:
धर्म विरोधी: कुछ लोग यह कहते हैं कि भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी है क्योंकि यह संस्थागत धार्मिक वर्चस्व का विरोध करती है। लेकिन इसके आधार पर इसे धर्म विरोधी नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग इस आधार पर इसे धर्म विरोधी कहते हैं कि यह धार्मिक पहचान के लिए खतरा पैदा करती है। लेकिन यह विचार भी त्रुटिपरक है क्योंकि यह धार्मिक स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा देती है। अतः यह धार्मिक पहचान के लिए खतरा नहीं बल्कि उसकी हिफाजत करती है। हाँ, वह धार्मिक पहचान के मतांध, हिंसक, दुराग्रही, औरों का बहिष्कार करने वाले और अन्य धर्मों के प्रति घृणा उत्पन्न करने वाले रूपों पर अवश्य चोट करती है।

→ पश्चिम से आयातित:
दूसरी आलोचना यह है कि यह पश्चिम से आयातित है। इसीलिए भारतीय परिस्थितियों के लिए अनुपयुक्त है। लेकिन यह विचार त्रुटिपरक है क्योंकि यहाँ ऐसी धर्म निरपेक्षता विकसित हुई है जो न तो पूरी तरह ईसाइयत से जुड़ी है और न भारतीय जमीन से। तथ्य यह है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता में पश्चिमी और गैर-पश्चिमी दोनों मार्गों का अनुसरण किया गया है।

→ अल्पसंख्यकवाद:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की तीसरी आलोचना अल्पसंख्यकवाद सम्बन्धी है। इसके तहत कहा जाता है कि यह अल्पसंख्यक अधिकारों की पैरवी करती है। इसके प्रत्युत्तर में यह कहा जा सकता है कि अल्पसंख्यक अधिकारों को विशेष अधिकारों या विशेष सुविधाओं के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसके पीछे सिर्फ यह धारणा है कि अल्पसंख्यकों के सर्वाधिक मौलिक हितों की क्षति नहीं होनी चाहिए और संवैधानिक कानून द्वारा. उनकी हिफाजत की जानी चाहिए।

→ अतिशय अहस्तक्षेपकारी:
चौथी आलोचना यह की जाती है कि धर्म निरपेक्षता उत्पीड़नकारी है और समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता में अतिशय हस्तक्षेप करती है। लेकिन यह आलोचना भी त्रुटिपरक है क्योंकि भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म से सैद्धान्तिक दूरी कायम रखने पर चलती है जो हस्तक्षेप की गुंजाइश भी बनाती है लेकिन यह हस्तक्षेप अपने आप में उत्पीड़नकारी हस्तक्षेप नहीं होता।

→ वोट बैंक की राजनीति:
पांचवीं आलोचना यह की जाती है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है। लेकिन लोकतंत्र में राजनेताओं के लिए वोट पाना जरूरी है। यह उनके काम का अंग है और लोकतांत्रिक राजनीति बड़ी हद तक ऐसी ही है। यह तथ्य कि धर्म निरपेक्ष दल वोट बैंक का इस्तेमाल करते हैं, कष्टकारक नहीं है। भारत में हर समुदाय के संदर्भ में सभी दल ऐसा करते हैं।

→ एक असंभव परियोजना:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की एक अन्य आलोचना यह की जाती है कि “यह धर्म निरपेक्षता नहीं चल सकती क्योंकि यह बहुत कुछ करना चाहती है, यह ऐसी समस्या का हल ढूँढ़ना चाहती है, जिसका समाधान है ही नहीं।” क्योंकि गहरे धार्मिक मतभेद वाले लोग कभी भी शांति से एक साथ नहीं रह सकते। लेकिन यह दावा गलत है। भारत में इस तरह साथ-साथ रहना बिल्कुल संभव रहा है। दूसरे, भारतीय धर्म निरपेक्षता एक असंभव परियोजना का अनुसरण नहीं है बल्कि यह भविष्य की दुनिया का प्रतिबिंब प्रस्तुत कर रही है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद Textbook Exercise Questions and Answers.

Jharkhand Board Class 11 Political Science राष्ट्रवाद Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
राष्ट्र किस प्रकार से बाकी सामूहिक संबद्धताओं से अलग है?
उत्तर:
अन्य सामूहिक संबद्धताओं से राष्ट्र भिन्न है। राष्ट्र लोगों का वह समूह है जिनकी जाति, भाषा, धर्म की कुछ सामान्य (Common) विशेषताएँ होती हैं तथा जिनकी साझी राजनीतिक आकांक्षाएँ या साझा इतिहास होता है। यह मनुष्यों के अन्य प्रकार के समूहों व समुदायों से भिन्न है। यथा

  1. यह परिवार से भिन्न है। प्राथमिक सम्बन्धों के आधार पर यह परिवार से भिन्न होता है। परिवार का आधार प्राथमिक सम्बन्ध होते हैं और इस कारण परिवार का प्रत्येक सदस्य दूसरे सदस्यों के व्यक्तित्व और चरित्र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी रखता है। लेकिन राष्ट्र के लिए यह संभव नहीं है क्योंकि इसके सभी सदस्यों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध नहीं होते हैं।
  2. यह नातेदारी समूह जनजाति या अन्य सगोत्रीय समूहों से भी इस आधार पर भिन्न है क्योंकि इन समूहों के सदस्य रक्त या विवाह सम्बन्धों व वंश परम्परा पर आधारित होते हैं जबकि राष्ट्र के सदस्यों के लिए रक्त सम्बन्धों या विवाह सम्बन्धों के आधार पर सम्बन्धित होना आवश्यक नहीं है। यदि हम इन समूहों के सभी सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से नहीं भी जानते हों तो भी आवश्यकता पड़ने पर हम उन सूत्रों को खोज सकते हैं जो इन्हें आपस में जोड़ते हैं। लेकिन राष्ट्र के सदस्य के रूप में हम अपने राष्ट्र के अधिकतर सदस्यों को सीधे तौर पर न कभी जान पाते हैं और न उनके साथ वंशानुगत नाता जोड़ने की जरूरत पड़ती है।
  3. यह समाज से भिन्न है। एक राष्ट्र के सदस्यों के लिए एकता की भावना या अपनी राजनीतिक पहचान का होना आवश्यक है जबकि समाज के सदस्यों में एकता की भावना हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती।
  4. यह अन्य समुदायों से भिन्न है। यह अन्य समुदायों से इस आधार पर भिन्न है कि संघ के सदस्यों के साथ-साथ काम करने के लिए साझे उद्देश्य होते हैं, जबकि राष्ट्र के सदस्यों के ऐसे कोई विशिष्ट उद्देश्य नहीं होते।
  5. यह राज्य से भी भिन्न है। राष्ट्र राज्य से इस आधार पर भिन्न है कि राज्य राजनैतिक रूप से संप्रभुता प्राप्त संगठन है जबकि राष्ट्र के पास संप्रभुता नहीं होती है और न ही राष्ट्र राजनैतिक रूप से संगठित होता है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार से आप क्या समझते हैं? किस प्रकार यह विचार राष्ट्र-राज्यों के निर्माण और उनको मिल रही चुनौती में परिणत होता है?
उत्तर:
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार से आशय: बाकी सामाजिक समूहों से अलग राष्ट्र अपना शासन अपने आप करने और भविष्य को तय करने का अधिकार चाहते हैं। इसी को राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार कहा जाता है।
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के दावे मैं राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करता है कि उसके पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाये । प्रायः ऐसी मांग निम्न प्रकार के लोगों की ओर से आती है।

  1. वे लोग जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें साझी पहचान का बोध हो।
  2. कुछ मामलों में आत्म-निर्णय के ऐसे दावे एक स्वतंत्र राज्य बनाने की उस इच्छा से भी जुड़े होते हैं। इन दावों का सम्बन्ध किसी समूह की संस्कृति की संरक्षा से होता है।

राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार राष्ट्र: राज्यों के निर्माण के रूप में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अनेक दावे किसी समूह की संस्कृति की संरक्षा के लिए एक स्वतंत्र राज्य बनाने की इच्छा के रूप में सामने आए। इन दावों ने राष्ट्र- राज्यों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। यथा

1. एक संस्कृति और एक राज्य की अवधारणा के तहत राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार:
19वीं सदी में यूरोप में एक संस्कृति और एक राज्य’ की मान्यता ने जोर पकड़ा। फलस्वरूप प्रथम विश्वयुद्ध के बाद राज्यों की पुनर्व्यवस्था में इस विचार को आजमाया गया। वर्साय की संधि से बहुत-से छोटे और नव स्वतंत्र राज्यों का गठन हुआ। लेकिन ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की मांगों को संतुष्ट करने से राज्यों की सीमाओं में बदलाव हुए। अलग-अलग सांस्कृतिक समुदायों को अलग-अलग राष्ट्र-राज्य मिले- इसे ध्यान में रखकर सीमाओं को बदला गया। इस प्रयास के बावजूद अधिकतर राज्यों की सीमाओं के अन्दर एक से अधिक नस्ल और संस्कृति के लोग रहते थे। ये छोटे-छोटे समुदाय राज्य के अन्दर अल्पसंख्यक थे और अक्सर नुकसानदेह स्थितियों में रहते थे। फिर भी इस प्रयास के अन्तर्गत बहुत सारे राष्ट्रवादी समूहों को राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के अन्तर्गत राजनीतिक मान्यता प्रदान की गई जो स्वयं को एक अलग राष्ट्र के रूप में देखते थे और अपने भविष्य को तय करने तथा अपना शासन स्वयं चलाना चाहते थे।

2. राजनीतिक स्वाधीनता के साथ राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार:
एशिया एवं अफ्रीका में औपनिवेशिक प्रभुत्व के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों ने राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के तहत राजनीतिक स्वाधीनता के लिए संघर्ष चलाया। राष्ट्रीय आंदोलनों का मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता राष्ट्रीय समूहों को सम्मान एवं मान्यता प्रदान करेगी और वहाँ के लोगों के सामूहिक हितों की रक्षा करेगी। अधिकांश राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन राष्ट्र के लिए न्याय, अधिकार और समृद्धि हासिल करने के लक्ष्य से प्रेरित थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका के देशों को राजनीतिक स्वाधीनता के तहत राष्ट्रीय आत्म निर्णय का अधिकार मिला और अनेक नए राष्ट्र-राज्यों का निर्माण हुआ।

राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार राष्ट्र-राज्यों को मिल रही चुनौती के रूप में: राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार ने एक तरफ जहाँ राष्ट्र-राज्यों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं अब यह अधिकार राष्ट्र-राज्यों को चुनौती भी प्रस्तुत कर रहा है। यथा

1. जब राष्ट्रीय आत्म: निर्णय का अधिकार ‘एक संस्कृति: एक राज्य’ की अवधारणा के रूप में मिला तो अनेक नए राष्ट्रों को यूरोप में मान्यता मिली। लेकिन इन राज्यों के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की समस्या ज्यों की त्यों बनी
रही।

2. एशिया और अफ्रीका में औपनिवेशिक प्रभुत्व के खिलाफ राजनीतिक स्वाधीनता की अवधारणा के साथ राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के तहत नवीन राष्ट्र-राज्यों का जन्म हुआ। लेकिन इस क्षेत्र के अनेक देश आबादी के देशान्तरण, सीमाओं परं युद्ध और हिंसा की चपेट में आते रहे। इन राष्ट्र-राज्यों में अनेक भू-क्षेत्रों में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग अल्पसंख्यक समूह कर रहे हैं। वस्तुतः आज राष्ट्र-राज्य इस दुविधा में फँसे हुए हैं कि आत्म-निर्णय के इन आन्दोलनों से कैसे निपटा जाये। बहुत से लोग यह महसूस करने लगे हैं कि समाधान नए राज्यों के गठन में नहीं बल्कि वर्तमान राज्यों को अधिकाधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 3.
हम देख चुके हैं कि राष्ट्रवाद लोगों को जोड़ भी सकता है और तोड़ भी सकता है। उन्हें मुक्त कर सकता है और उनमें कटुता और संघर्ष भी पैदा कर सकता है। उदाहरणों के साथ उत्तर दीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद ने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है। इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है तो इसके साथ ही यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है। यथा

1. राष्ट्रवाद ने जनता को जोड़ा है। राष्ट्रवाद ने जनता को जोड़ा है। राष्ट्रवाद से जनता में एकता की भावना का संचार हुआ है। उदाहरण के लिए 19वीं शताब्दी के यूरोप में राष्ट्रवाद ने कई छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण द्वारा वृहत्तर राष्ट्र – राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। आज के जर्मनी और इटली का गठन एकीकरण और सुदृढ़ीकरण की इसी प्रक्रिया के जरिए हुआ था। राज्य की सीमाओं के सुदृढ़ीकरण के साथ स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियाँ भी उत्तरोत्तर राष्ट्रीय निष्ठाओं और सर्वमान्य जनभाषाओं के रूप में विकसित हुईं। नए राष्ट्रों के लोगों ने एक नई राजनीतिक पहचान अर्जित की, जो राष्ट्र-राज्य की सदस्यता पर आधारित थी। आज अरबी राष्ट्रवाद में तमाम अरबी देशों के लोगों को अखिल अरब संघ में एकताबद्ध कर सकता है।

2. राष्ट्रवाद ने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है। राष्ट्रवाद का आधार राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार है। आत्म-निर्णय के अधिकार के दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करता है कि उसके पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता दी जाए। एशिया और अफ्रीका में औपनिवेशिक अत्याचारी शासन के विरोध में राष्ट्रवादी भावना से प्रेरित होकर लोगों ने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन चलाये। राष्ट्रीय आन्दोलनों का मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता राष्ट्रीय समूहों को सम्मान और मान्यता प्रदान करेगी और वहाँ के लोगों के सामूहिक हितों की रक्षा करेगी। फलतः राष्ट्रवाद ने एशिया और अफ्रीका में अत्याचारी शासकों से लोगों को स्वतंत्रता प्रदान की है।

3. राष्ट्रवाद लोगों को तोड़ सकता है, उनमें कटुता और संघर्ष भी पैदा कर सकता है। यूरोप में ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की राष्ट्रवाद की मांगों को संतुष्ट करने के लिए राज्यों की सीमाओं में बदलाव हुए। इससे सीमाओं के एक ओर से दूसरी ओर बड़ी संख्या में विस्थापन हुए। इसके परिणामस्वरूप लाखों लोग अपने घरों से उजड़ गए और उस जगह से उन्हें बाहर धकेल दिया गया जहाँ पीढ़ियों से उनका घर था। बहुत सारे लोग साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार हुए। इसी प्रकार राष्ट्रवाद की अवधारणा के तहत भारत और पाकिस्तान दो राष्ट्रों का जन्म हुआ। इसके कारण भी लाखों लोगों को एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में धकेला गया। इससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्रवाद लोगों को तोड़ सकता है और उनमें कटुता और संघर्ष भी पैदा कर सकता है। इसके कारण बहुत से सीमा विवाद पैदा होते हैं। शरणार्थियों की समस्यायें सामने आती हैं।

4. उपराष्ट्रीयताओं का उभार राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार से प्रेरित होकर एक राष्ट्र में उपराष्ट्रीयताओं का उभार होता है और वे अपने भू-क्षेत्र में नवीन राष्ट्र के निर्माण के लिए संघर्ष करने लग जाते हैं। ऐसे राष्ट्रीय आत्म- निर्णय के लिए संघर्ष दुनिया के विभिन्न भागों में अब भी चल रहे हैं। स्पेन में बास्क राष्ट्रवादी आन्दोलन इसी प्रकार का है।

प्रश्न 4.
वंश, भाषा, धर्म या नस्ल में से कोई भी पूरे विश्व में राष्ट्रवाद के लिए साझा कारण होने का दावा नहीं कर सकता टिप्पणी कीजिये।
उत्तर:
बहुत से लोगों का मानना है कि एकसमान भाषा या जातीय वंश परम्परा जैसी साझी सांस्कृतिक पहचान व्यक्तियों को एक राष्ट्र के रूप में बांध सकती है। लेकिन वंश, भाषा या नस्ल में से कोई भी पूरे विश्व में राष्ट्रवाद के लिए साझा कारण होने का दावा नहीं कर सकता। यथा

1. धर्म और भाषा: यद्यपि एक ही भाषा बोलना आपसी संवाद को आसान बना देता है और समान धर्म होने पर बहुत सारे विश्वास और सामाजिक रीति-रिवाज साझे हो जाते हैं। एक जैसे त्यौहार मनाना, एक जैसे अवसरों पर छुट्टियाँ चाहना और एक जैसे प्रतीकों को धारण करना लोगों को करीब ला सकता है, तथापि यह उन मूल्यों के भीतर खतरा भी उत्पन्न कर सकता है जिन्हें हम लोकतंत्र में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इसके दो कारण हैं। यथा

(i) धार्मिक विविधता:
दुनिया के सभी बड़े धर्म अंदरूनी तौर से विविधता से भरे हुए हैं। वे अपने समुदाय के अन्दर चलने वाले संवाद के कारण ही बने और बढ़े हैं। परिणामस्वरूप धर्म के अन्दर बहुत से पंथ बन जाते हैं और धार्मिक ग्रन्थों और नियमों की उनकी व्याख्यायें अलग-अलग होती हैं। अगर हम इन विभिन्नताओं की अवहेलना करें और एक समान धर्म के आधार पर एक पहचान स्थापित कर दें तो आशंका है कि हम बहुत ही वर्चस्ववादी और दमनकारी समाज का निर्माण कर दें

(ii) सांस्कृतिक विविधता:
अधिकतर समाज सांस्कृतिक विविधता से भरे हैं। एक ही भू-क्षेत्र में विभिन्न धर्म और भाषाओं के लोग साथ-साथ रहते हैं। किसी राज्य की सदस्यता की शर्त के रूप में किसी खास धार्मिक या भाषायी पहचान को आरोपित कर देने से कुछ समूह निश्चित रूप से शामिल होने से रह जायेंगे। इससे शामिल नहीं किए गए समूहों को हानि होगी। इससे ‘समान बर्ताव और सबके लिए स्वतंत्रता’ के उस आदर्श में भारी कटौती होगी, जिसे हम लोकतंत्र में अमूल्य मानते हैं। इन्हीं कारणों से यह बेहतर होगा कि राष्ट्र की कल्पना सांस्कृतिक पदों में न की जाए। अतः लोकतंत्र में किसी खास धर्म, नस्ल या भाषा की सम्बद्धता के स्थान पर एक मूल्य समूह के प्रति निष्ठा की जरूरत है।

2. नस्ल व वंश: राष्ट्रवाद के निर्माण और विकास के लिए नस्ल या वंश की एकता एक आवश्यक तत्त्व एक नस्ल या वंश के सदस्यों में स्वाभाविक रूप से एकता की भावना पाई जाती है। परन्तु आधुनिक विद्वानों ने इसे राष्ट्रवाद के निर्माण व विकास का मूल तत्त्व नहीं माना है क्योंकि एक ही राज्य में विभिन्न वंशों और नस्लों के लोग रहते हैं।

प्रश्न 5.
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले कारकों पर सोदाहरण रोशनी डालिए।
उत्तर:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले कारक राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित है।
1. साझे विश्वास:
राष्ट्र विश्वास के जरिये बनता है। यह समूह के भविष्य के लिए सामूहिक पहचान और दृष्टिकोण का प्रमाण है, जो स्वतन्त्र राजनैतिक अस्तित्व का आकांक्षी है। एक राष्ट्र का अस्तित्व तभी कायम रह सकता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्र की तुलना हम एक टीम से कर सकते हैं। जब हम टीम की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय लोगों के ऐसे समूह से है, जो एक साथ काम करते या खेलते हैं तथा वे स्वयं को एकीकृत समूह मानते हैं। अगर वे अपने बारे में इस तरह नहीं सोचते तो एक टीम की उनकी हैसियत खत्म हो जायेगी और वे खेल खेलने वाले अलग-अलग व्यक्ति रह जायेंगे।

2. इतिहास:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला दूसरा प्रमुख कारक साझा इतिहास है। जो लोग अपने को एक राष्ट्र मानते हैं उनके भीतर अपने बारे में स्थायी ऐतिहासिक पहचान की भावना होती है। वे देश की स्थायी ऐतिहासिक पहचान का खाका प्रस्तुत करने के लिए साझा स्मृतियों, किंवदन्तियों और ऐतिहासिक अभिलेखों के जरिये अपने लिए इतिहासबोध निर्मित करते हैं। उदाहरण के लिए भारत के राष्ट्रवादियों ने यह दावा करने के लिए कि एक सभ्यता के रूप में भारत का लम्बा और अटूट इतिहास रहा है और यह सभ्यतामूलक निरन्तरता और एकता भारतीय राष्ट्र की बुनियाद है।

3. भू-क्षेत्र:
बहुत सारे राष्ट्रों की पहचान एक खास भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ी हुई है। किसी खास भू-क्षेत्र पर लम्बे समय तक साथ-साथ रहना और उससे जुड़ी साझे अतीत की यादें लोगों को एक सामूहिक पहचान का बोध देती हैं। ये उन्हें एक होने का एहसास देती हैं। इसलिए जो लोग स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में देखते हैं, वे एक गृहभूमि की बात करते हैं। राष्ट्र अपनी गृहभूमि का बखान मातृभूमि, पितृभूमि या पवित्र भूमि के रूप में करते हैं।

4. साझे राजनीतिक आदर्श:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला एक अन्य कारक ‘साझे राजनीतिक आदर्श’ हैं। भविष्य के बारे में साझा नजरिया और अपना स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व बनाने की सामूहिक चाहत, राष्ट्र को शेष समूहों से अलग करती है। राष्ट्र के सदस्यों की इस बारे में एक साझा दृष्टि होती है कि वे किस तरह का राज्य बनाना चाहते हैं। वे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद जैसे मूल्यों और सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं । इन शर्तों के आधार पर वे साथ-साथ रहना चाहते हैं। इस प्रकार साझे राजनीतिक आदर्श राष्ट्र के रूप में उनकी राजनीतिक पहचान को बनाते हैं।

5. साझी राजनीतिक पहचान:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला एक अन्य कारक ‘साझी राजनैतिक ‘पहचान’ का होना है। राष्ट्र की कल्पना राजनीतिक शब्दावली में की जानी चाहिए अर्थात् लोकतंत्र में किसी खास धर्म, नस्ल या भाषा से संबद्धता की जगह एक मूल्य – समूह के प्रति निष्ठा की जरूरत होती है। इस मूल्य-समूह को देश के संविधान में भी दर्ज किया जा सकता है।

प्रश्न 6.
संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के साथ बर्ताव करने में तानाशाही की अपेक्षा लोकतंत्र अधिक समर्थ होता है। कैसे?
उत्तर:
संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के साथ बर्ताव करने में तानाशाही की अपेक्षा लोकतंत्र अधिक समर्थ होता है क्योंकि संघर्षरत राष्ट्रवादी समूहों की आकांक्षाओं का समाधान नए राज्यों के गठन में नहीं बल्कि वर्तमान राज्यों को अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है। इसका समाधान यह सुनिश्चित करने में है कि अलग-अलग सांस्कृतिक और नस्लीय पहचानों के लोग देश में समान नागरिक और साथियों की तरह सह-अस्तित्वपूर्वक रह सकें। यह न केवल आत्म-निर्णय के नए दावों के उभार से पैदा होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए वरन् मजबूत और एकताबद्ध राज्य बनाने के लिए जरूरी होगा। यथा-

  1. लोकतांत्रिक शासन ‘समान व्यवहार और सबके लिए स्वतंत्रता’ के आदर्श को लेकर चलता है लेकिन तानाशाही शासन में यह आदर्श नहीं अपनाया जाता। इसका अभिप्राय यह है कि लोकतंत्र में किसी खास धर्म, नस्ल या भाषा की सम्बद्धता की जगह एक मूल्य समूह के प्रति निष्ठा की जरूरत होती है। इस मूल्य समूह को देश के संविधा में दर्ज कर संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को संतुष्ट किया जा सकता है। लोकतांत्रिक राज्य अपनी सामूहिक राष्ट्रीय पहचान को साझे राजनैतिक आदर्शों के आधार पर गढ़कर सभी समूहों को एक राष्ट्र के रूप में निरूपित कर सकते हैं ।
  2. लोकतांत्रिक देश सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने और संरक्षित करने के उपाय कर सकता है। इस हेतु प्रायः सभी लोकतांत्रिक देशों ने अल्पसंख्यक समूहों एवं उनके सदस्यों की भाषा, संस्कृति एवं धर्म के लिए संवैधानिक संरक्षा का अधिकार प्रदान कर दिया है।
  3. लोकतांत्रिक देशों में इन समूहों को विधायी संस्थाओं और अन्य राजकीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार देकर कानून द्वारा समान व्यवहार एवं सुरक्षा का अधिकार भी प्रदान किया जा सकता है।
  4. लोकतंत्र में राष्ट्रीय पहचान को समावेशी रीति से परिभाषित किया जाता है ताकि संघर्षरत राष्ट्रवादी सदस्यों की महत्ता और अद्वितीय योगदान को मान्यता मिल सके।
  5. संघर्षरत समूहों की मांगों से निपटने के लिए उदारता और दक्षता की आवश्यकता होती है। लोकतांत्रिक देश संघर्षरत समूहों को राष्ट्रीय समुदाय के एक अंग के रूप में मान्यता देकर अत्यन्त उदारता एवं दक्षता के साथ व्यवहार बर्ताव कर उनकी समस्याओं का समाधान कर सकता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 7.
आपकी राय में राष्ट्रवाद की सीमाएँ क्या हैं?
उत्तर:
राष्ट्रवाद की सीमाएँ: हमारी दृष्टि में राष्ट्रवाद की प्रमुख सीमाएँ या राष्ट्रवाद के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं।
1. राष्ट्रवाद शीघ्र ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाता है:
राष्ट्रवाद की एक प्रमुख सीमा यह है कि राष्ट्रवाद दूसरे राष्ट्रों के प्रति घृणा की जड़ों से प्रेरित होता है। इसलिए यह शीघ्र ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाता है और उस के लोग अन्य राष्ट्रों के साथ दुश्मनी का व्यवहार करना प्रारंभ कर देते हैं। वे अपने राष्ट्र को विश्व में सर्वाधिक विकसित और शक्तिशाली बनाने के प्रयास शुरू कर देते हैं। इस प्रकार राष्ट्रों के बीच में प्रजातियाँ उभारी जाती हैं। प्रजाति की अवधारणा इसलिए हानिप्रद होती है क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र इसके लिए प्रत्येक उचित – अनुचित साधनों को अपनाता है। प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों को नीचा दिखाने का प्रयास करता है।

2. राष्ट्रवाद बड़े राष्ट्रों को छोटे राष्ट्रों में विभाजित करने की प्रेरणा देता है:
राष्ट्रवाद लोगों को राष्ट्रीय आत्म- निर्णय के आधार पर बड़े राष्ट्रों को भंग कर छोटे-छोटे राष्ट्रों के निर्माण की मांग की प्रेरणा देता है । प्रायः सभी समाज बहुलवादी हैं जिनमें विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं के लोग निवास करते हैं। एक राष्ट्र के अन्तर्गत एक भू-क्षेत्र के लोगों में अपनी किसी विशेष पहचान के आधार पर एक पृथक् राष्ट्र की भावना विकसित हो जाती है और वे अपने लिए पृथक् स्वतंत्र राष्ट्र के लिए संघर्ष शुरू कर देते हैं। यूरोप में 20वीं सदी के प्रारंभ में आस्ट्रियाई – हंगेरियाई और रूसी साम्राज्य और इनके साथ एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्य के विघटन के मूल्य में राष्ट्रवाद ही था।

3. राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने की समस्या:
यदि किसी राज्य में दो या दो से अधिक राष्ट्रीयताओं के लोग निवास करते हैं तो उस राज्य में राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने की समस्या बनी रहती है। लोगों के अन्दर राष्ट्रवाद की चेतना उन्हें विभाजित रखती है और वे पृथक् राज्यों के लिए संघर्ष करते रहते हैं। इस प्रकार किसी राज्य में दो या दो से अधिक राष्ट्रीयताओं के लोग एक राष्ट्र के सदस्यों के रूप में कार्य नहीं कर पाते हैं।

4. व्यक्तियों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं में कटौती:
राष्ट्रवाद प्रायः लोगों के अधिकारों में कटौती कर देता है। शासक राष्ट्रवाद के नाम लोगों की भावनाओं को प्रेरित कर उनके अधिकारों और स्वतंत्रताओं में कटौती करने की कोशिश करता है और लोग राष्ट्र के आदर तथा महत्त्व के लिए अपने अधिकारों व स्वतंत्रताओं की चिन्ता नहीं करते और तानाशाह या महत्त्वाकांक्षी शासक इन भावनाओं का अनुचित लाभ उठाते हैं।

5. राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है:
राष्ट्रवाद शीघ्र ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाता है और उग्र राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद के विस्तार की प्रेरणा देता है और अपने पड़ौसी कमजोर राष्ट्रों पर अधिकार करने की प्रक्रिया जारी हो `जाती है। यह प्रक्रिया युद्ध और सैनिक आक्रमण की धमकियों के रूप में जारी रहती है। इस प्रकार यह साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का समर्थन करता है। उदाहरण के लिए हिटलर के शासनकाल में जर्मनी ने आर्य प्रजाति की उच्चता की वकालत की और इसके तहत जर्मन लोग सोचते थे कि आर्य जाति संसार की अन्य सभी प्रजातियों पर शासन करने के लिए है। इस धारणा के तहत हिटलर ने अन्य राष्ट्रों पर आक्रमण की नीति को अपनाया और उसका परिणाम द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में सामने आया।

6. राष्ट्रवाद अलगाववादी आंदोलनों को प्रेरित करता है:
राष्ट्रवाद राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की अवधारणा के तहत भारत तथा अन्य राष्ट्रों में पृथकतावादी राष्ट्रीय आंदोलनों को प्रेरित कर रहा है। भारत की स्वतंत्रता के समय मुस्लिम लीग ने मुस्लिम भारतीयों के लिए पृथक् राष्ट्र-राज्य की मांग की जिसके परिणामस्वरूप भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों का उदय हुआ। आज दुनिया के अनेक भागों में हम ऐसे राष्ट्रवादी संघर्षों को देख सकते हैं जो मौजूदा राष्ट्रों के अस्तित्व के लिए खतरे पैदा कर रहे हैं। ऐसे पृथकतावादी आंदोलन अन्य जगहों के साथ-साथ कनाडा के क्यूबेकवासियों, उत्तरी स्पेन के बास्कवासियों, तुर्की और ईरान के कुर्दों और श्रीलंका के तमिलों द्वारा भी चलाए जा रहे हैं। इन अलगाववादी आंदोलनों के प्रमुख कारक रहे हैं। साम्प्रदायिकता, जातीयता, प्रान्तीयता, भाषावाद तथा संकीर्ण व्यक्तिवाद।

 राष्ट्रवाद JAC Class 11 Political Science Notes

→ राष्ट्रवाद का परिचय:
आम राय में राष्ट्रवाद शब्द को कुछ प्रतीकों के साथ स्पष्ट किया जाता है, जैसे- राष्ट्रीय ध्वज, देशभक्ति, देश के लिए बलिदान, सत्ता और शक्ति के साथ विविधता की भावना। दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक है।

→ राष्ट्रवाद एक सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त या एक प्रभावी शक्ति के रूप में पिछली दो शताब्दियों के दौरान निम्नलिखित प्रभावों के कारण राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में उभरा है जिसने इतिहास रचने में योगदान दिया है। यथा

  • इसने उत्कट निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को प्रेरित किया है।
  • जनता को जोड़ने के साथ-साथ विभाजित भी किया है।
  • इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है।
  • यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है।
  • यह साम्राज्यों और राष्ट्रों के ध्वस्त होने का भी एक कारण रहा है तथा राष्ट्रवादी संघर्षों ने राष्ट्रों और साम्राज्यों की सीमाओं के निर्धारण – पुनर्निर्धारण में योगदान किया है। वर्तमान विश्व विभिन्न राष्ट्र-राज्यों में विभाजित है और राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्संयोजन की प्रक्रिया अभी भी जारी है।

→ राष्ट्रवाद के चरण-राष्ट्रवाद कई चरणों से होकर गुजरा है। यथा

  • 19वीं सदी में यूरोप में इसने कई छोटी: छोटी रियासतों के एकीकरण और सुदृढ़ीकरण से वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। जैसे जर्मनी और इटली का एकीकरण तथा लातिनी अमेरिका में नए राज्यों की स्थापना आदि।
  • राज्य की सीमाओं के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियाँ भी उत्तरोत्तर राष्ट्रीय निष्ठाओं एवं सर्वमान्य जनभाषाओं के रूप में विकसित हुईं।
  • राष्ट्र-राज्य की सदस्यता पर आधारित लोगों ने एक नई राजनीतिक पहचान अर्जित की।
  • राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में हिस्सेदार भी रहा। ( 20वीं सदी में आस्ट्रिया, हंगरी, रूसी, एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, पुर्तगाली साम्राज्यों के विघटन के रूप में राष्ट्रवाद ही था।)
  • राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया अभी जारी है।

राष्ट्र से आशय: राष्ट्र बहुत हद तक एक ‘काल्पनिक’ समुदाय होता है, जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बंधा होता है। यह कुछ खास मान्यताओं पर आधारित होता है जिन्हें लोग उस समग्र समुदाय के लिए गढ़ते हैं, जिससे वे अपनी पहचान कायम करते हैं।

राष्ट्र के सम्बन्ध में प्रमुख मान्यताएँ:
→  साझे विश्वास: राष्ट्र विश्वास के जरिए बनता है। यह समूह के भविष्य के लिए सामूहिक पहचान और सामूहिक दृष्टि का प्रमाण है, जो स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व का आकांक्षी है। अतः एक राष्ट्र का अस्तित्व तभी क़ायम रहता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ हैं।

→ इतिहास: जो लोग अपने को एक राष्ट्र मानते हैं उनके भीतर अपने बारे में बहुधा स्थायी ऐतिहासिक पहचान की भावना होती है। इस सम्बन्ध में वे साझी स्मृतियों, किंवदंतियों और ऐतिहासिक अभिलेखों की रचना के जरिये अपने लिए इतिहास बोध निर्मित करते हैं ।

→  भू-क्षेत्र: बहुत सारे राष्ट्रों की पहचान एक खास भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ी हुई है। किसी खास भू-क्षेत्र पर लम्बे समय तक साथ-साथ रहना और उससे जुड़ी अतीत की यादें लोगों को एक सामूहिक पहचान का बोध देती हैं। ये उन्हें एक होने का एहसास भी देती हैं। राष्ट्र अपनी गृह – भूमि का विभिन्न तरीकों से बखान करते हैं, जैसे मातृभूमि, पितृभूमि, पवित्र भूमि आदि।

→ साझे राजनीतिक आदर्श:
राष्ट्र के सदस्यों की इस बारे में एक साझा दृष्टि होती है कि वे किस तरह का राज्य बनाना चाहते हैं। इस हेतु वे प्रायः लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद जैसे मूल्यों और सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं। लोकतंत्र में कुछ राजनीतिक मूल्यों और आदर्शों के लिए साझी प्रतिबद्धता ही किसी राष्ट्र का सर्वाधिक वांछित आधार है। इसके अन्तर्गत राष्ट्र के सदस्य कुछ दायित्वों से बंधे होते हैं । ये दायित्व सभी लोगों के नागरिकों के रूप में अधिकारों को पहचान लेने से पैदा होते हैं। इससे उनकी राजनीतिक पहचान बनती है तथा राष्ट्र मजबूत होता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

→ साझी राजनीतिक पहचान:
लोकतंत्र में साझी राजनीतिक समझ के लिए किसी खास नस्ल, धर्म, भाषा से सम्बद्धता की जगह एक मूल्य समूह के प्रति निष्ठा की आवश्यकता होती है। इस मूल्य समूह को देश के संविधान में भी दर्ज किया जा सकता है। अतः राष्ट्र के लिए एक साझी राजनैतिक पहचान का होना भी आवश्यक है।

→ राष्ट्रीय आत्म-निर्णय अर्थात् लोग स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में क्यों निरूपित करते हैं? राष्ट्र अपना आत्म-निर्णय का अधिकार मांगते हैं। आत्म-निर्णय के दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करता है कि उसकी संस्कृति की रक्षा हेतु एक पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता दी जाये। प्रायः ऐसी मांगें उन लोगों की ओर से आती हैं जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें साझी पहचान का बोध हो।
कुछ मामलों में आत्म-निर्णय के ऐसे दावे एक स्वतंत्र राज्य बनाने की इच्छा से भी जुड़े होते हैं। इन दावों का सम्बन्ध किसी समूह की संस्कृति की रक्षा से होता है।

दूसरी तरह के दावे 19वीं सदी के यूरोप में सामने आए। उस समय ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की मान्यता ने जोर पकड़ा। अलग-अलग सांस्कृतिक समुदायों को अलग-अलग राष्ट्र-राज्य मिले- इसे ध्यान में रखकर सीमाओं को बदला गया। लेकिन फिर भी नवगठित राष्ट्र-राज्यों की सीमाओं के अन्दर एक से अधिक नस्ल और संस्कृति के लोग रहते थे। ऐसे राज्यों में अल्पसंख्यक हानिप्रद स्थितियों में रहते थे। ऐसे बहुत सारे समूहों को राजनीतिक मान्यता प्रदान की गई जो स्वयं को एक अलग राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे और अपने भविष्य को तय करने तथा अपना शासन स्वयं चलाना चाहते थे। लेकिन इन राष्ट्र-राज्यों के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही।

एशिया: अफ्रीका में औपनिवेशिक प्रभुत्व के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों ने राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की घोषणा की। इन्होंने राजनैतिक स्वाधीनता के साथ-साथ राष्ट्र की मान्यता भी प्राप्त की अब वे राष्ट्र-राज्य अपने को विरोधाभासी स्थिति में पाते हैं जिन्होंने संघर्षों की बदौलत स्वाधीनता प्राप्त की, लेकिन अब वे अपने भू-क्षेत्रों में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों का विरोध कर रहे हैं।

→ राष्ट्र-राज्यों में वर्तमान में उठे आत्म-निर्णय के आन्दोलनों से निपटने के लिए विद्वानों ने निम्न सुझाव दिये हैं।

  • राज्यों को अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाया जाये।
  • अल्पसंख्यक समूहों के अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान की कद्र की जाये।

→ राष्ट्रवाद और बहुलवाद: विभिन्न संस्कृतियाँ और समुदाय एक ही देश में फल-फूल सकें इसके लिए अनेक लोकतांत्रिक देशों ने सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने और संरक्षित करने के उपायों को शुरू किया है।

  • विभिन्न देशों में अल्पसंख्यक समूहों एवं अनेक सदस्यों को भाषा, संस्कृति एवं धर्म के लिए संवैधानिक संरक्षा के अधिकार दिये गये हैं।
  • कुछ मामलों में इन समूहों को विधायी संस्थाओं और अन्य राजकीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया है। ये अधिकार इन समूहों के सदस्यों के लिए कानून द्वारा समान व्यवहार एवं सुरक्षा के साथ ही समूह की सांस्कृतिक पहचान के लिए भीं सुरक्षा का प्रावधान करते हैं।
  • इन समूहों को राष्ट्रीय समुदाय के एक अंग के बतौर भी मान्यता दी गई है।
  • इसके बावजूद यह हो सकता है कि कुछ समूह पृथक् राज्य की मांग पर अडिग रहें। ऐसी मांगों को अत्यन्त उदारता एवं दक्षता के साथ निपटाना आवश्यक है।

→ निष्कर्ष: यद्यपि राष्ट्रीय आत्म निर्णय के अधिकार में राष्ट्रीयताओं के लिए स्वतंत्र राज्य का अधिकार भी सम्मिलित है, तथापि प्रत्येक राष्ट्रीय समूह को स्वतंत्र राज्य प्रदान करना न तो मुमकिन है और न वांछनीय। यह आर्थिक और राजनैतिक क्षमता की दृष्टि से बेहद छोटे राज्यों के गठन की ओर ले सकता है जिसमें अल्पसंख्यक समूहों की समस्यायें और बढ़ेंगी।
अतः राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की पुनः यह व्याख्या की जाती है कि राज्य के भीतर किसी राष्ट्रीयता के लिए कुछ लोकतांत्रिक अधिकारों की स्वीकृति।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

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प्रश्न 1.
मेरा तो सिर चकरा रहा है और कुछ समझ में नहीं आ रहा। लोकतन्त्र में आप प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति तक की आलोचना कर सकते हैं, न्यायाधीशों की क्यों नहीं? और फिर, यह अदालत की अवमानना क्या बला है? क्या मैं ये सवाल करूँ तो मुझे ‘अवमानना’ का दोषी माना जायेगा?
उत्तर:
भारतीय लोकतन्त्र में प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि हैं, इसलिए हम उनके कार्यों और निर्णयों की आलोचना कर सकते हैं। लेकिन भारतीय संविधान ने लोकतन्त्र की रक्षा, नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा तथा संविधान की सुरक्षा के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और सुरक्षा पर बल देते हुए यह सुनिश्चित किया गया है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका न रहे। इसलिए न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार व्यक्ति के राजनीतिक विचार तथा निष्ठाएँ न होकर कानूनी विशेषज्ञता व योग्यता है।

न्यायाधीशों की सुरक्षा, स्वतन्त्रता और निष्पक्षता को बनाए रखने की दृष्टि से संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अदालत की अवमानना यदि कोई व्यक्ति न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना करता है, तो वह न्यायालय की अवमानना का दोषी है। न्यायालय को उसे दण्डित करने का अधिकार है। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से निर्णय करती है।

यदि मैं यह प्रश्न पूछता हूँ कि मैं न्यायाधीशों की आलोचना क्यों नहीं कर सकता? अदालत की अवमानना क्या है? ऐसे प्रश्न करना तथा उसके कारण खोजना व समझना अदालत की अवमानना नहीं है। क्योंकि इसमें आपने किसी न्यायाधीश के किसी निर्णय की कोई आलोचना नहीं की है, बल्कि यह जानना चाहा है कि हम न्यायाधीशों की आलोचना क्यों नहीं कर सकते और क्या यह लोकतन्त्र के लिए उचित है? यह न्यायाधीशों की अवमानना में नहीं आता है।

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प्रश्न 2.
आपकी राय में निम्नलिखित में से कौन-कौन न्यायाधीशों के निर्णय को प्रभावित करते हैं? क्या आप इन्हें ठीक मानते हैं?
(अ) संविधान
(ब) पहले लिए गए फैसले
(स) अन्य अदालतों की राय
(द) जनमत
(य) मीडिया
(र) कानून की परम्पराएँ
(ल) कानून
(व) समय और कर्मचारियों की कमी
(श) सार्वजनिक आलोचना का भय
(स) कार्यपालिका द्वारा कार्यवाही का भय।
उत्तर:
मेरी राय में उपर्युक्त में से निम्नलिखित न्यायाधीशों के निर्णयों को प्रभावित करते हैं और मैं इन्हें ठीक मानता हूँ।
(अ) संविधान
(ब) पहले लिए गए फैसले
(स) अन्य अदालतों की राय
(द) कानून की परम्पराएँ
(व) कानून।

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प्रश्न 3.
मेरा ख्याल है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में मन्त्रिपरिषद् की बात को ज्यादा तरजीह दी जानी चाहिए या फिर यह मान लें कि न्यायपालिका अपनी नियुक्ति आप ही करने वाला निकाय है।
उत्तर:
मैं आपके उपर्युक्त विचारों से सहमत नहीं हूँ क्योंकि यदि न्यायाधीशों की नियुक्ति में मन्त्रिपरिषद् की बात को ज्यादा तरजीह दी जायेगी तो न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ़ जायेगा और कार्यपालिका न्यायपालिका की तटस्थता या निष्पक्षता को खत्म कर उसे प्रतिबद्ध न्यायपालिका की तरफ बढ़ायेगी। यह मानना भी त्रुटिपरक है कि न्यायपालिका अपनी नियुक्ति आप ही करना वाला निकाय है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है, इसमें प्रायः वरिष्ठता की परम्परा का पालन किया जाता है, जिसका आधार अनुभव और योग्यता है।

मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम चार न्यायाधीशों के परामर्श से मुख्य न्यायाधीश कुछ न्यायाधीशों का एक पैनल राष्ट्रपति को भेज देता है। राष्ट्रपति इनमें से किसी की भी नियुक्ति कर सकता है। इस प्रकार अन्तिम निर्णय मन्त्रिपरिषद् द्वारा ही लिया जाता है। मन्त्रिपरिषद् के निर्णय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राजनीतिक निष्ठाओं के प्रभाव में योग्यता को नजर- अंदाज न किया जा सके, इसलिए मन्त्रिपरिषद् के निर्णय पर न्यायाधीशों के परामर्श की कुछ सीमाएँ लगायी गयी हैं। इस प्रकार न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् दोनों महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

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प्रश्न 4.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व: निम्न कारणों से न्यायपालिका की स्वतन्त्रता महत्त्वपूर्ण है।

  1. समाज में व्यक्तियों के बीच, समूहों के बीच, व्यक्ति या समूह तथा सरकार के बीच उठने वाले विवादों को ‘कानून के शासन के सिद्धान्त’ के आधार पर एक स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही हल किया जा सकता है।
  2. व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा एक स्वतन्त्र न्यायपालिका ही कर सकती है।
  3. स्वतन्त्र न्यायपालिका ही यह सुनिश्चित करती है कि लोकतन्त्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले ले।
  4. स्वतन्त्र न्यायपालिका ही संविधान की रक्षा का कार्य भली-भाँति कर सकती है।

प्रश्न 5.
क्या आपकी राय में कार्यपालिका के पास न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति होनी चाहिए?
उत्तर:
मेरी राय में कार्यपालिका के पास न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति होनी चाहिए, तथापि यह शक्ति निरंकुश नहीं होनी चाहिए, इस पर न्यायालय की सलाह की सीमा भी रहनी चाहिए।

प्रश्न 6.
यदि आप से न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव करने का सुझाव देने को कहा जाये तो आप क्या सुझाव देंगे?
उत्तर:
यदि मुझसे न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव करने का सुझाव देने को कहा जाये तो मैं यह सुझाव दूँगा कि राष्ट्रपति को न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नाम प्रस्तावित करने के लिए बनी कमेटी में चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ-साथ चार वरिष्ठ मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को भी शामिल किया जाना चाहिए जिसमें गृहमन्त्री, विधिमन्त्री व दो अन्य मन्त्री हों। इन आठ व्यक्तियों की कमेटी की सलाह राष्ट्रपति को दी जानी चाहिए।

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प्रश्न 7.
निम्नलिखित दो सूचियों को सुमेलित करें-
सूची – 1
(क) बिहार और भारत सरकार के मध्य विवाद की सुनवाई कौन करेगा?
(ख) हरियाणा के जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील कहाँ की जायेगी?
(ग) एकीकृत न्यायपालिका।
(घ) किसी कानून को असंवैधानिक घोषित करना।

सूची – 2
(1) उच्च न्यायालय
(2) परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार
(3) न्यायिक पुनर्निरीक्षण
(4) मौलिक क्षेत्राधिकार
(5) सर्वोच्च न्यायालय
(6) एकल संविधान।
उत्तर:
(क) बिहार और भारत सरकार के मध्य विवाद की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय करेगा। (क + 5)
(ख) हरियाणा के जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील उच्च न्यायालय में की जायेगी। (ख + 1)
(ग) एकीकृत न्यायपालिका एकल संविधान के कारण है। (ग+6)
(घ) किसी कानून को न्यायपालिका न्यायिक पुनर्निरीक्षण के द्वारा असंवैधानिक घोषित कर सकती है। ( घ+3)

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प्रश्न 8.
सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही फैसले को बदलने की इजाजत क्यों दी गयी है? क्या ऐसा यह मानकर किया गया है कि अदालत से भी चूक हो सकती है? क्या यह सम्भव है कि फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए जो खण्डपीठ बैठी है उसमें वह न्यायाधीश भी शामिल हो, जो फैसला सुनाने वाली खण्डपीठ में था?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही फैसले को बदलने की इजाजत इसलिए दी गई है कि हो सकता है कि पिछले फैसले के समय जो तथ्य सामने नहीं आए हों, उन तथ्यों की रोशनी में उस पर पुनः प्रकाश डाला जा सके। यदि कुछ ऐसे नये तथ्य सामने आते हैं जिनके प्रकाश में पहला फैसला सर्वोच्च न्यायालय को गलत लगता है, तो वह अपने पुराने फैसले को बदल सकता है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय नवीन परिस्थितियों से अनुकूलन करते रहेंगे। यह सम्भव है कि फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए जो खण्डपीठ बैठी है उसमें वह न्यायाधीश भी शामिल हो, जो फैसला सुनाने वाली खण्डपीठ में था।

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प्रश्न 9.
आप एक न्यायाधीश हैं। नागरिकों का एक समूह जनहित याचिका के माध्यम से न्यायालय जाकर प्रार्थना करता है कि वह शहर की नगरपालिका के अधिकारियों को झुग्गी-झोंपड़ियाँ हटाने और शहर को सुन्दर बनाने का काम करने का आदेश दे, ताकि शहर में पूँजी निवेश करने वालों को आकर्षित किया जा सके। उनका तर्क है कि ऐसा करना जनहित में है। झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वालों का पक्ष है कि ऐसा करने पर उनके ‘जीवन के अधिकार’ का हनन होगा। उनका तर्क है कि जनहित के लिए साफ-सुथरे शहर के अधिकार से ज्यादा जीवन का अधिकार महत्त्वपूर्ण है। आप एक निर्णय लिखें और तय करें कि इस ‘जनहित याचिका में जनहित का मुद्दा है या नहीं।
उत्तर:
इस जनहित याचिका में जनहित का मुद्दा नहीं है क्योंकि नागरिकों के समूह ने शहर को सुन्दर बनाने के लिए शहर में पूँजी निवेश करने वालों को आकर्षित करने के लिए नगरपालिका अधिकारियों को झुग्गी-झोंपड़ियाँ हटाने के आदेश के लिए न्यायपालिका को जो जनहित याचिका दी है, उनमें झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले लोगों के हितों को नजर-अंदाज किया है। झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले लोगों का यह पक्ष सही है कि इससे उनके ‘जीवन के अधिकार’ का हनन होगा जो कि साफ- -सुथरे शहर के अधिकार से अधिक महत्त्वपूर्ण है।

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प्रश्न 10.
न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कब करता है?
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिकता जाँच सकता है और यदि वह संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है। न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग निम्नलिखित दशाओं में करता है।

  1. जब कभी संसद मूल अधिकारों के विपरीत कोई कानून का निर्माण करती है तो उस कानून के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
  2. संघीय सम्बन्धों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है। अर्थात् कोई ऐसा कानून या कार्यपालिका का कृत्य जो संविधान में निहित शक्ति – विभाजन की योजना के प्रतिकूल हो तो सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के द्वारा उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है।

प्रश्न 11.
न्यायिक पुनरावलोकन और रिट में क्या अन्तर है?
उत्तर:
रिट याचिकाकर्त्ता के मौलिक अधिकारों को फिर से स्थापित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा उस व्यक्ति या संस्था के विरुद्ध जारी की जाती है, जिसने उसके मौलिक अधिकार का हनन किया है। न्यायिक पुनरावलोकन द्वारा किसी कानून की संवैधानिकता की जाँच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जाती है और सर्वोच्च न्यायालय उसके संविधान के प्रतिकूल होने पर उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है। इस प्रकार रिट द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाती है और न्यायिक पुनरावलोकन के द्वारा संविधान की सुरक्षा की जाती है।

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प्रश्न 12.
निम्न में से न्यायपालिका और संसद के बीच टकराव के कौनसे मुद्दे रहे हैं।
(अ) न्यायाधीशों की नियुक्ति
(ब) न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते
(स) संसद के द्वारा संविधान संशोधन का दायरा
(द) संसद द्वारा न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप।
उत्तर:
न्यायपालिका और संसद के बीच टकराव के मुद्दे रहे हैं।
(अ) न्याधीशों की नियुक्ति।
(स) संसद के द्वारा संविधान संशोधन का दायरा।
(द) संसद द्वारा न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप।

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प्रश्न 1.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौनसे हैं? निम्नलिखित जो बेमेल हो उसे छाँटें।
(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह ली जाती है।
(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
(ग) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद की दखल नहीं है।
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के लिए निम्नलिखित तरीके हैं।

  1. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सलाह ली जाती है। सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से कुछ नाम प्रस्तावित करता है और इसी में से राष्ट्रपति नियुक्तियाँ करेगा। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्तियों की सलाह देने में सामूहिकता का सिद्धान्त प्रतिपादित कर न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित किया है।
  2. न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता उन्हें कार्यकाल की सुरक्षा प्राप्त है।
  3. न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद का दखल नहीं है। इससे यह सुनिश्चित किया गया है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में दलगत राजनीति का दखल न हो।
  4. न्यायपालिका, व्यवस्थापिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है।
  5. न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की आलोचना नहीं की जा सकती न्यायालय की अवमानना का दोषी पाए जाने पर न्यायपालिका को उसे दण्डित करने का अधिकार है। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से निर्णय करती है। प्रश्न के अन्दर दिये गए बिन्दुओं में जो बेमेल है, वह है- (ग) एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 2.
क्या न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। देश की न्यायपालिका अपने कार्यों के लिए देश के संविधान, लोकतान्त्रिक परम्परा और नागरिकों के प्रति जवाबदेह है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ उसे निरंकुश बनाना नहीं है, बल्कि उसे बिना किसी भय तथा दलगत राजनीति के दुष्प्रभावों से दूर रखने का प्रयास करना है। इसी दृष्टि से भारत की न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। उसका कार्यकाल अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु तक सुनिश्चित किया गया है तथा उसे आलोचना के भय से मुक्त रखा गया है; ताकि वह निष्पक्ष तथा स्वतन्त्र होकर अपने निर्णय कर सके। हैं?

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प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौनसे
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के प्रावधान: न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान में अग्रलिखित प्रावधान किये गये हैं।

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति: न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे यह सुनिश्चित किया गया है कि इन नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका न रहे। दूसरे, न्यायाधीशों की नियुक्ति में उसकी योग्यता व विशेषता को आधार बनाया गया है। न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए। उसमें संविधान के प्रति निष्ठा तथा ईमानदारी की भावना होनी चाहिए। उस व्यक्ति के राजनीतिक विचार या निष्ठाएँ उसकी नियुक्ति का आधार नहीं बनायी गयी हैं।

2. न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका: भारतीय संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा किये जाने का प्रावधान है क्योंकि यह पद्धति जनता द्वारा नियुक्ति या विधायिका द्वारा नियुक्ति की तुलना में श्रेष्ठ है। इसके लिए यह प्रस्तावित किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी। साथ ही यह कहा गया है कि कार्यपालिका, न्यायाधीशों की नियुक्ति निर्धारित योग्यता के अनुसार करेगी।
वर्तमान में न्यायपालिका में कार्यपालिका के हस्तक्षेप को दूर करने तथा स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने की दृष्टि से सामूहिकता के सिद्धान्त को स्थापित किया गया है।

कि अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश की सलाह को माने, इस हेतु यह व्यवस्था की गई है कि सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्ययाधीशों की सलाह से नाम प्रस्तावित करेगा और इसी में से राष्ट्रपति नियुक्तियाँ करेगा। इस तरह न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् दोनों महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

3. न्यायाधीशों का लम्बा कार्यकाल: संविधान में न्यायाधीशों का लम्बा कार्यकाल रखा गया है अर्थात् न्यायाधीश अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु (65 वर्ष की आयु) तक अपने पद पर बने रहते हैं। केवल अपवादस्वरूप विशेष स्थितियों में ही न्यायाधीशों को अवकाश प्राप्ति की आयु से पूर्व हटाया जा सकता है। संविधान में न्यायाधीशों को हटाने के लिए बहुत कठिन प्रक्रिया निर्धारित की गई है। संविधान निर्माताओं का मानना था कि हटाने की प्रक्रिया कठिन हो तो न्यायपालिका के सदस्यों का पद सुरक्षित रहेगा।

4. वित्तीय रूप से निर्भरता नहीं: न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। संविधान के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन और भत्तों के लिए विधायिका की स्वीकृति नहीं ली जायेगी।

5. आलोचना के भय से मुक्ति: न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अगर कोई न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है, तो न्यायपालिका को उसे दण्डित करने का अधिकार है। इस अधिकार के कारण कोई उनकी नाजायज आलोचना नहीं कर सकेगा। संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है, जब वह उनको हटाने के प्रस्ताव पर चर्चा कर रही हो। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से निर्णय करती है।

प्रश्न 4.
नीचे दी गई समाचार रिपोर्ट पढ़ें और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें।
(क) मामला किस बारे में है?
(ख) इस मामले में लाभार्थी कौन है?
(ग) इस मामले में फरियादी कौन है?
(घ) सोचकर बताएँ कि कम्पनी की तरफ से कौन-कौनसे तर्क दिये जायेंगे?
(ङ) किसानों की तरफ से कौन-कौनसे तर्क दिये जायेंगे?
सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों को 300 करोड़ रुपये देने को कहा – निजी कारपोरेट ब्यूरो, 24 मार्च, 2005।

मुम्बई: सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस एनर्जी से मुम्बई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपये देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप – ऊर्जा संयन्त्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी। अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया।दहानु मुम्बई से 150 किमी. दूर है।

एक दशक पहले तक इस इलाके की अर्थव्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली – पालन और जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयन्त्र चालू हुआ और इसी के साथ हुई इस इलाके की बर्बादी। अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गयी। कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है।

मछली: पालन बन्द हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयन्त्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी तन्त्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप – ऊर्जा संयन्त्र को प्रदूषण नियन्त्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सकें। सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियन्त्रण का संयन्त्र स्थापित नहीं हुआ।

सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयन्त्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण नियन्त्रण संयन्त्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियन्त्रण संयन्त्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था, इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायन्स से 300 करोड़ रुपये की बैंक गारण्टी देने को कहा।
उत्तर:
(क) यह मामला रिलायन्स ताप – ऊर्जा संयन्त्र द्वारा प्रदूषण के विषय का विवाद है।
(ख) इस मामले में किसान लाभार्थी हैं।
(ग) इस मामले में किसान, पर्यावरणविद् तथा दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण प्रार्थी/फरियादी हैं।
(घ) कम्पनी द्वारा उस क्षेत्र के लोगों के लिए ताप: ऊर्जा संयन्त्र के द्वारा होने वाले लाभों का तर्क दिया जायेगा। क्षेत्र में ऊर्जा की कमी नहीं रहेगी ऐसा आश्वासन दिया जायेगा।
(ङ) किसानों की तरफ से यह तर्क दिया जायेगा कि ताप: ऊर्जा संयन्त्र के कारण न केवल उनकी चीकू की फसलें बरबाद हुई हैं वरन् उनका मछली – पालन का कारोबार भी ठप पड़ गया है। क्षेत्र के लोग बेरोजगार हो गये हैं

प्रश्न 5.
नीचे की समाचार रिपोर्ट पढ़ें और चिन्हित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर की सरकार सक्रिय दिखाई देती है।
(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौनसी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
(ग) इस प्रकरण से सम्बद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से सम्बन्धित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।

सीएनजी – मुद्दे पर केन्द्र और दिल्ली सरकार एक साथ
(स्टाफ रिपोर्टर, द हिन्दू, सितम्बर 23, 2001)

राजधानी के सभी गैर- सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केन्द्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे। दोनों ‘सरकारों’ में इस बात की सहमति हुई है। दिल्ली और केन्द्र की सरकार ने पूरी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरी ईंधन प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।

राजधानी के निजी वाहन धारकों द्वारा सीएनजी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जायेगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो- दो मानक को पूरा करते हैं, उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालांकि केन्द्र और दिल्ली सरकार अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे इनमें समान बिन्दुओं को उठाया जायेगा। केन्द्र सरकार सीएनजी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी।

दिल्ली की मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित और केन्द्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मन्त्री श्रीराम नाईक के बीच हुई बैठक में ये फैसले किये गये। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केन्द्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ. आर. ए. मशेलकर की अगुआई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सीएनजी में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योंकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सीएनजी में बदल पाना असम्भव है। डॉ. मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश की ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है समिति छ: माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।

मुख्यमन्त्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मामले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया- सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सीएनजी की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लम्बी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सीएनजी ईंधन जुटाने तथा अदालत के निर्देशों को अमल में लाने के तरीकों और साधनों पर एक-साथ ध्यान दिया जायेगा।’

सर्वोच्च न्यायालय ने सीएनजी के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इनकार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सीएनजी इस्तेमाल किया जाए, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला। श्री राम नाईक का कहना था कि केन्द्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकिपूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर बनाना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सीएनजी की आपूर्ति पाइपलाइन के जरिए होती है और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाएगी।
उत्तर:
इस समाचार रिपोर्ट में दो सरकारें संयुक्त रूप से एक समस्या को सुलझाने के लिए सक्रिय दिखाई देती हैं। ये हैं।

  1. भारत सरकार (संघ सरकार)
  2. दिल्ली सरकार (प्रान्तीय सरकार)

(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका प्रदूषण से बचने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि राजधानी में सरकारी तथा निजी दोनों प्रकार की बसों में सी. एन. जी. का प्रयोग एक निश्चित तिथि तक होने लगे । इस सम्बन्ध में दिल्ली सरकार ने अदालत से यह विनती की कि अदालत के निर्देश पर अमल करने के लिए समय की छूट की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय ने सिटी बसों को महानगर में सीएनजी के प्रयोग से छूट देने को मना किया परन्तु यह भी कहा कि उसने टैक्सी और ऑटो रिक्शा के लिए कभी सीएनजी के लिए दबाव नहीं डाला।

(ख) इस रिपोर्ट में कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों ही शहर बढ़ते प्रदूषण को रोकने में प्रयासरत हैं। कार्यपालिका ने इस सम्बन्ध में दिल्ली में पूरी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरी ईंधन प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला लिया क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है। न्यायपालिका ने इस सम्बन्ध में यह निर्णय दिया कि दोहरी ईंधन प्रणाली को सभी प्रकार के वाहनों के लिए स्वतन्त्र नहीं छोड़ा जा सकता। महानगर में सिटी बसें तो सीएनजी से ही चलायी जायेंगी, लेकिन टैक्सी और ऑटो- रिक्शा के लिए सीएनजी या डीजल किसी का भी उपयोग किया जा सकता है।

(ग) इस प्रकरण में नीतिगत मुद्दा प्रदूषण हटाना है। सभी व्यावसायिक वाहनों जो यूरो-2 मानक को पूरा करते हैं, उन्हें शहर में चलाने की अनुमति दी जाये। सरकार यह भी चाहती है कि समय-सीमा बढ़ाई जाये क्योंकि 10,000 बसों के बेड़े को निश्चित समय में सीएनजी में परिवर्तित करना सम्भव नहीं है। यह कानून बनाने और उसके क्रियान्वयन से जुड़ा प्रश्न है। न्यायालय का यह कहना है कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए सिर्फ सीएनजी का इस्तेमाल किया जाये, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला; कानून की व्याख्या से सम्बन्धित कथन है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं? सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिल सकती थी। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस नीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिये हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश) में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है, उसे अपना फैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
उत्तर:
इस उदाहरण और भारत की न्याय व्यवस्था में कोई समानता नहीं है। यथा
1. भारत में न्यायिक निर्णय आधुनिक काल में कानून के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के निर्णय दूसरे न्यायालयों में उदाहरण बन जाते हैं और पूर्व के निर्णय के आधार पर निर्णय दिये जाने लगते हैं। और इन पूर्व के निर्णयों को उसी प्रकार की मान्यता होती है, जैसे कि संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की। उपर्युक्त उदाहरण में इक्वाडोर के न्यायालय में इस प्रकार से कार्य नहीं किया जाता। वहाँ पर न्यायालयों के पूर्व निर्णयों को आधार बनाकर निर्णय नहीं दिये जाते।

2. भारत के न्यायालय में न्यायाधीशों को अपना फ़ैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में देना होता है, जिससे एक-समान विवादों के निर्णयों में भी प्रायः समानता बनी रहती है और यदि कभी असमानता आती है तो उसके आधार का भी उल्लेख करना पड़ता है दूसरी तरफ इक्वाडोर के न्यायाधीश को अपना फैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। इसलिए एक समान विवादों में भी निर्णयों में अन्तर आता रहता है। यहाँ तक कि वहाँ कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाता है और वही न्यायाधीश दूसरे दिन उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है। इसमें उसे यह बताने की आवश्यकता नहीं होती कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित कथनों को पढ़िये और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाये जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार; मसलन मूल, अपीली और सलाहकारी से इनका मिलान कीजिए।
(क) सरकार जानना चाहती थी कि क्या वह पाकिस्तान अधिग्रहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के सम्बन्ध में कानून पारित कर सकती है।
(ख) कावेरी नदी के जल विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
(ग) बाँध स्थल से हटाये जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।
उत्तर:
(क) मौलिक क्षेत्राधिकार: प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का आरम्भ उन विवादों से है जो उच्चतम न्यायालय में सीधे तौर पर लिये जाते हैं। ऐसे विवादों को पहले निचली अदालतों में सुनवाई के लिए नहीं लिया जा सकता है। ऐसे विवाद केन्द्र और राज्यों बीच या विभिन्न राज्यों के बीच उठे विवाद होते हैं। अपने इस क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सर्वोच्च न्यायालय न केवल विवादों को सुलझाता है बल्कि संविधान में की गई संघ और राज्य सरकार की शक्तियों की व्याख्या भी करता है।

(ख) अपीलीय क्षेत्राधिकार: अपीलीय क्षेत्राधिकार से अभिप्राय है कि वे विवाद जो किसी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में पाये जा सकते हैं।

(ग) सलाहकारी क्षेत्राधिकार: सलाहकारी क्षेत्राधिकार वह है जिसमें राष्ट्रपति किसी विवाद के बारे में उच्चतम न्यायालय से परामर्श माँगता है। उच्चतम न्यायालय चाहे तो परामर्श दे सकता है और चाहे तो मना कर सकता है। राष्ट्रपति भी उच्चतम न्यायालय के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

प्रश्न में दिये गये कथनों को विभिन्न क्षेत्राधिकारों से निम्न प्रकार मिलान किया जा सकता हैहै।
(क) ‘सरकार जानना …………….. कर सकती है।
उत्तर:
परामर्शदात्री ( सलाहकारी) क्षेत्राधिकार।

(ख) ‘कावेरी नदी के……………….. लेना चाहती है।’
उत्तर:
मौलिक क्षेत्राधिकार।

(ग) बाँध स्थल से ………………..ठुकरा दिया।
उत्तर:
अपीलीय क्षेत्राधिकार।

प्रश्न 8.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
सन् 1980 के बाद जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई है जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग अर्थात् गरीब लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए न्यायालय ने जन सेवा की भावना से भरे नागरिक, सामाजिक संगठन और वकीलों को समाज के जरूरतमंद और गरीब लोगों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की इजाजत दी है। इससे ऐसे मुकदमों की संख्या में वृद्धि हुई है जिनमें जन सेवा की भावना रखने वाले नागरिकों ने गरीबों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए जनहित याचिका दायर कर न्यायपालिका से हस्तक्षेप की माँग की।

गरीबों का जीवन सुधारने के लिए, गरीब व्यक्तियों के अधिकारों की पूर्ति करने के लिए, शोषण के विरुद्ध अपराध को अर्थपूर्ण बनाने के लिए – बंधुआ मजदूरों की मुक्ति तथा लड़कियों से देह व्यापार कराने को रोकने आदि अनेक प्रकार के शोषण को रोकने के लिए, गरीब व्यक्तियों की उत्पीड़न की समस्याओं से छुटकारा दिलवाने के लिए स्वयंसेवी संगठन जनहित याचिकाओं के द्वारा न्यायालय से हस्तक्षेप की माँग कर सकते हैं। न्यायालय इन शिकायतों को आधार बनाकर उन पर विचार शुरू करता है और पीड़ित व्यक्तियों को शोषण से छुटकारा दिलाता है।

इन जनहित याचिकाओं के प्रचलन से यद्यपि न्यायालयों पर कार्यों का बोझ बढ़ा है, परन्तु इनसे गरीब लोगों को लाभ पहुँचा है। इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया है। इससे कार्यपालिका जवाबदेह बनने पर बाध्य हुई है। अनेक बन्धुआ मजदूरों को शोषण से बचाया गया है तथा खतरनाक कामों में बाल-श्रम पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।

प्रश्न 9.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
हाँ, मैं यह मानता हूँ कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है। न्यायिक सक्रियता कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने के लिए बाध्य करती है। न्यायिक सक्रियता के कारण ही जो विषय पहले न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में नहीं थे, उन्हें भी अब इस दायरे में ले लिया गया है, जैसे राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियाँ। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश दिये हैं, जैसे उसने हवाला मामले, नरसिंहराव मामले और पैट्रोल पम्पों के अवैध आबण्टन जैसे अनेक मामलों सी.बी.आई. को निर्देश दिया कि वह राजनेताओं और नौकरशाहों के विरुद्ध जाँच करे।

भारतीय संविधान शक्ति के सीमित बँटवारे तथा अवरोध और सन्तुलन के एक महीन सिद्धान्त पर आधारित है। अर्थात् सरकार के प्रत्येक अंग का एक स्पष्ट कार्यक्षेत्र है। संसद कानून बनाने और संविधान का संशोधन करने में सर्वोच्च है, कार्यपालिका उन्हें लागू करने तथा न्यायपालिका विवादों को सुलझाने तथा कानून की व्याख्या करने में सर्वोच्च है। ऐसी स्थिति में यदि न्यायपालिका कानूनों को लागू करने के कार्यपालिका के काम में हस्तक्षेप करेगी तो दोनों में विरोध पनप सकता है।

दूसरे, न्यायपालिका के अपने कार्य ही बहुत हैं। उसके समक्ष न्याय हेतु विवादों का हल के लिए अंबार लगा हुआ है। यदि न्यायपालिका न्यायिक सक्रियता के माध्यम से कार्यपालिका के कामों में दखलंदाजी देगी तो वह उन समस्याओं में उलझ जायेगी जो कार्यपालिका को हल करने चाहिए। इससे शक्ति विभाजन के बीच का अन्तर धुँधला जायेगा और परस्पर टकराव बढ़ेगा।

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प्रश्न 10.
न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से किस रूप में जुड़ी है? क्या इससे मौलिक अधिकारों के विषय क्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है?
उत्तर:
संविधान ने न्यायपालिका को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व सौंपा है। सर्वोच्च न्यायालय अनेक रिटों के माध्यम से तथा न्यायिक पुनरावलोकन के माध्यम से मौलिक अधिकारों की रक्षा का कार्य करता है। मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है। सामान्य रूप से किसी व्यक्ति के मूल अधिकार के उल्लंघन होने पर वह पीड़ित व्यक्ति ही अपने अधिकार की सुरक्षा के लिए न्यायालय में याचिका प्रस्तुत कर सकता है। लेकिन न्यायिक सक्रियता ने इस स्थिति के विषय – क्षेत्र को निम्न रूपों में बढ़ा दिया है।

1. न्यायिक सक्रियता के चलते न्यायालय ने एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया जो पीड़ित लोगों की ओर से दूसरों ने उसके अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय में प्रार्थना दी हो। ऐसी प्रार्थनाओं को जनहित याचिकाएँ कहा गया। इसी सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने कैदियों के अधिकारों से सम्बन्धित मुकदमे पर विचार किया । इससे ऐसे मुकदमों की बाढ़-सी आ गई जिसमें जन सेवा की भावना रखने वाले नागरिकों तथा स्वयंसेवी संगठनों ने अधिकारों की रक्षा से जुड़े अनेक मुद्दों पर न्यायपालिका से हस्तक्षेप की माँग की ।

2. न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत ही न्यायपालिका ने अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बनाकर उन पर भी विचार करना शुरू कर दिया। न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग आसानी से अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत की शरण नहीं ले सकते थे। इसने शोषण के विरुद्ध अधिकार को अर्थपूर्ण बना दिया क्योंकि बन्धुआ मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करना अब सम्भव हो गया।

इस प्रकार न्यायिक सक्रियता के तहत जनहित याचिकाओं तथा न्यायपालिका की स्वयं की सक्रियता से न्यायालय के अधिकारों का दायरा बढ़ा दिया है। शुद्ध हवा, पानी और अच्छा जीवन पाना पूरे समाज का अधिकार है। न्यायालय का मानना था कि समाज के सदस्य के रूप में, अधिकारों के उल्लंघन पर व्यक्तियों को इन्साफ की गुहार लगाने का अधिकार। इस प्रकार न्यायिक सक्रियता से मौलिक अधिकारों के विषयक्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है।

न्यायपालिका JAC Class 11 Political Science Notes

→ परिचय: हमें स्वतन्त्र न्यायपालिका क्यों चाहिए कानून के शासन की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करने, व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करने, विवादों को कानून के अनुसार हल करने, तानाशाही को रोकने के लिए हमें राजनीतिक दबाव से मुक्त स्वतन्त्र न्यायपालिका चाहिए।

→ न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय: न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि सरकार के अन्य दो अंग- विधायिका और कार्यपालिका—उसके कार्यों में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाएँ ताकि वे ठीक ढंग से न्याय कर सकें; वे अंग न्यायपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप न करें तथा न्यायाधीश बिना किसी भय तथा भेदभाव के अपना कार्य कर सकें । न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता या उत्तरदायित्व का अभाव नहीं है क्योंकि न्यायपालिका देश के संविधान, लोकतांत्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है।

→ भारतीय संविधान ने किन उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है? भारतीय संविधान ने अनेक उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है।

  • न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया गया है।
  • न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है।
  • न्यायाधीशों की पदच्युति की कठिन प्रक्रिया।
  • न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है।
  • न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती।

→ न्यायाधीशों की नियुक्ति: भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इसमें यह परम्परा है कि सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश को इस पद पर नियुक्त किया जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से करता है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में सामूहिकता का सिद्धान्त स्थापित किया है। इसके तहत सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से कुछ नाम प्रस्तावित करेगा और इसी में से राष्ट्रपति नियुक्तियाँ करेगा। इस प्रकार न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

→ न्यायाधीशों को पद से हटाना: कदाचार साबित होने अथवा अयोग्यता के आधार पर महाभियोग द्वारा संसद किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटा सकती है। लेकिन यह एक कठिन प्रक्रिया है क्योंकि उसके लिए दोनों सदनों से पृथक्-पृथक् उपस्थित 2/3 बहुमत तथा कुल सदस्य संख्या के बहुमत से महाभियोग का प्रस्ताव पारित होना आवश्यक है।

→ न्यायपालिका की संरचना
भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है। भारत में न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है। सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय हैं। यथा-
JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 संविधान - क्यों और कैसे 2

→ भारत के सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार: भारत के सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार इस प्रकार है।

  • मौलिक क्षेत्राधिकार: संघ और राज्यों के बीच तथा विभिन्न राज्यों के बीच आपसी विवादों का निपटारा।
  • रिट सम्बन्धी क्षेत्राधिकार: व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए बन्दी – प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध – आदेश, उत्प्रेषण लेख तथा अधिकार – पृच्छा जारी करने का अधिकार।
  • अपीलीय क्षेत्राधिकार: दीवानी, फौजदारी तथा संवैधानिक सवालों से जुड़े अधीनस्थ न्यायालयों के मुकदमों की अपील पर सुनवाई करना; भारतीय भू-भाग की किसी अदालत द्वारा पारित मामले या दिए गए फैसले पर स्पेशल लीव पिटीशन के तहत की गई अपील पर सुनवाई की शक्ति।
  • सलाहकारी क्षेत्राधिकार: जनहित के मामलों तथा कानून के मसले पर राष्ट्रपति को सलाह देना।

→ न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका।
भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन जनहित याचिका या सामाजिक व्यवहार याचिका है। कानून की सामान्य प्रक्रिया में कोई व्यक्ति तभी अदालत जा सकता है, जब उसका कोई व्यक्तिगत नुकसान हुआ हो अर्थात् अपने अधिकार का उल्लंघन होने पर या किसी विवाद में फँसने पर कोई व्यक्ति न्याय हेतु न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। लेकिन:

  • 1979 में न्यायालय ने अपने क्षेत्राधिकार को बढ़ाते हुए एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया जिसे पीड़ित लोगों ने नहीं बल्कि उनकी ओर से दूसरों ने दाखिल किया था; क्योंकि इसमें जनहित से सम्बन्धित एक मुद्दे पर विचार हो रहा था। ऐसे ही अन्य अनेक मुकदमों को जनहित याचिकाओं का नाम दिया गया।
  • न्यायपालिका ने स्वयं प्रसंज्ञान लेते हुए अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बनाकर उन पर भी विचार करना शुरू कर दिया। न्यायालय की यह नई भूमिका न्यायिक सक्रियता कहलाती है।
  • शुद्ध हवा-पानी और अच्छा जीवन पाना पूरे समाज का अधिकार है, इस आधार पर न्यायालय ने समाज के सदस्य के रूप में इन अधिकारों के उल्लंघन पर व्यक्तियों को न्यायालय में न्याय के लिए याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार प्रदान किया।
  • 1980 के बाद न्यायालय ने जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों की पूर्ति के लिए न्यायालय ने जनसेवा की भावना से भरे नागरिक, सामाजिक संगठन और वकीलों को समाज के जरूरतमंद और गरीब लोगों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की इजाजत दी।

→ न्यायिक सक्रियता के लाभ:

  • न्यायिक सक्रियता से न केवल व्यक्तियों बल्कि विभिन्न समूहों को भी अदालत जाने का अवसर मिला।
  • इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया और कार्यपालिका उत्तरदायी बनने पर बाध्य हुई|
  • चुनाव प्रणाली को भी इसने ज्यादा मुक्त और निष्पक्ष बनाने का प्रयास किया।

→ न्यायिक सक्रियता के दोष:

  • न्यायिक सक्रियता ने न्यायालयों में काम का बोझ बढ़ाया है।
  • इससे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों के बीच का अन्तर धुँधला हो गया

→ न्यायपालिका और अधिकार:
संविधान ऐसी दो विधियों का वर्णन करता है जिससे सर्वोच्च न्यायालय अधिकारों की रक्षा कर सके:

  • यह रिट जारी करके मौलिक अधिकारों को फिर से स्थापित कर सकता है।
  • यह किसी कानून को गैर संवैधानिक घोषित कर उसे लागू होने से रोकता है। यह प्रावधान न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था करता है।

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→ न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था:

  • न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ: न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है और यदि वह कानून संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है। (अनु. 13)
  • न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति के आधार:
    • भारत में संविधान लिखित है और इसमें दर्ज है कि मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है।
    • संघीय सम्बन्धों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

→ निष्कर्ष: इससे स्पष्ट होता है कि सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के द्वारा ऐसे किसी भी कानून का परीक्षण कर सकता है, जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो या संविधान में निहित शक्ति विभाजन की योजना के प्रतिकूल हो। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति राज्यों की विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों पर भी लागू होती है। जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता ने शोषण के विरुद्ध अधिकार अर्थपूर्ण बना दिया है।

→ न्यायपालिका और संसद:
न्यायपालिका ने जहाँ अधिकार के मुद्दे पर सक्रियता दिखाई है, वहीं राजनैतिक व्यवहार – बर्ताव से संविधान की अनदेखी करने की कार्यपालिका की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया है। इसी के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को न्यायपालिका ने अब न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में ले लिया है। ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश दिए। यद्यपि भारत के संविधान में सरकार के तीनों अंगों के बीच कार्य का स्पष्ट विभाजन है, तथापि संसद और न्यायपालिका तथा कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव भारतीय राजनीति की विशेषता रही है। यथा-

  • सम्पत्ति के अधिकार तथा संसद की संविधान संशोधन की शक्ति से सम्बन्धित टकराव – सम्पत्ति के अधिकार और संसद की संविधान को संशोधन करने की शक्ति के सम्बन्ध में संसद और न्यायपालिका के बीच टकराव हुआ। इस टकराव का पटाक्षेप सर्वोच्च न्यायालय में 1973 में केशवानन्द भारती के मुकदमे के निर्णय से हुआ। इसमें न्यायालय ने निर्णय दिया कि
    • संविधान का एक मूल ढाँचा है और संसद सहित कोई भी उस मूल ढाँचे को संशोधित या परिवर्तित नहीं कर सकते।
    • सम्पत्ति का अधिकार संविधान के मूल ढाँचे का भाग नहीं है। इसलिए इस पर समुचित प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।
    • कोई मुद्दा मूल ढाँचे का हिस्सा है या नहीं, इसका निर्णय न्यायालय करेगा।
  • टकराव के अन्य बिन्दु-दोनों के बीच टकराव के अन्य बिन्दु ये हैं:
    • क्या न्यायपालिका विधायिका की कार्यवाही का नियमन और उसमें हस्तक्षेप कर उसे नियन्त्रित कर सकती
    • जो व्यक्ति विधायिका के विशेषाधिकार हनन का दोषी हो क्या वह न्यायालय की शरण ले सकता है?
    • सदन के किसी सदस्य के विरुद्ध स्वयं सदन द्वारा यदि कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती है तो क्या वह न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है?
    • अनेक अवसरों पर संसद और राज्यों की विधानसभाओं में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली उठायी गई है। इस विवाद का निर्धारण कैसे हो?
    • न्यायपालिका ने भी अनेक अवसरों पर विधायिका की आलोचना की है और उन्हें उनके विधायी कार्यों के सम्बन्ध में निर्देश दिये हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

Jharkhand Board Class 11 Political Science विधायिका InText Questions and Answers

पृष्ठ 101

प्रश्न 1.
इन समाचारों पर विचार करें और सोचें कि यदि विधायिकाएँ न होतीं, तो क्या होता ? प्रत्येक रिपोर्ट को पढ़ने के बाद बताएँ कि कैसे कार्यपालिका को नियंत्रित करने में विधायिका सफल या असफल रही (क) 28 फरवरी, 2002; केन्द्रीय वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने केन्द्रीय बजट प्रस्तावों में 50 किलोग्राम यूरिया खाद की बोरी की कीमत 12 रुपये बढ़ाने तथा दो अन्य खादों के दाम में भी कुछ वृद्धि करने के प्रस्ताव की ‘घोषणा की। इससे खाद के दामों में 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यूरिया खाद के वर्तमान मूल्य 4830 रु. प्रति टन पर 80 प्रतिशत सब्सिडी है। 11 मार्च 2002; विपक्ष के जबर्दस्त विरोध के कारण वित्तमंत्री को खाद के दामों में वृद्धि के प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा।
उत्तर:
कार्यपालिका को नियंत्रित करने में विधायिका निम्न प्रकार सफल रही। तथा

(ख) 4 जून, 1998 को लोकसभा में यूरिया खाद और पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि को लेकर विवादास्पद स्थिति बन गई। पूरे विपक्ष ने सदन से बहिर्गमन किया। इस मुद्दे पर सदन में दो दिनों तक गर्मा-गर्मी रही। वित्त मंत्री ने अपने बजट प्रस्तावों में यूरिया खाद के दामों में मात्र 50 पैसे प्रति किलोग्राम की वृद्धि का प्रस्ताव किया था जिससे उस पर सब्सिडी कम की जा सके। इस विरोध के परिणामस्वरूप, वित्त मंत्री यशवन्त सिन्हा को मूल्य वृद्धि के प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा।
उत्तर:
में दिये गये समाचार बजट प्रस्तावों से संबंधित हैं। यह कार्यपालिका पर विधायका के वित्तीय नियंत्रण को स्पष्ट करता है। सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था बजट के द्वारा की जाती है। संसदीय स्वीकृति के लिए बजट बनाना और उसे पेश करना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है। इस जिम्मेदारी के कारण विधायिका को कार्यपालिका के खजाने पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जाता है।

लोकहित को देखते हुए सरकार के किसी बजट प्रस्ताव को स्वीकृत करने से विधायिका मना कर सकती है। उपर्युक्त दोनों समाचारों में विधायिका ने बजट प्रस्तावों में यूरिया खाद और पेट्रोलियम के बढ़ाये गये दामों का विरोध किया और इस विरोध के स्वरूप अन्ततः वित्तमंत्री को इन प्रस्तावों को वापस लेना पड़ा। इससे स्पष्ट होता है कि वित्तीय नियंत्रण द्वारा विधायिका सरकार की नीतियों पर भी नियंत्रण करती है।

(ग) 22 फरवरी, 1983; एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए आज लोकसभा ने सर्वसम्मति से सरकारी काम- काज को स्थगित करने तथा असम पर बहस करने को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया। गृहमंत्री पी. सी. सेठी ने बयान दिया ” असम में रहने वाले सभी समुदायों और समूहों के बीच सद्भाव कायम करने के लिए मैं अलग-अलग विचार और नीतियों से प्रतिबद्धता रखने वाले आप सभी सदस्यों का सहयोग चाहता हूँ। यह समय विवाद का नहीं वरन् घाव पर मरहम लगाने का है।”
उत्तर:
स्थगन प्रस्ताव द्वारा नियंत्रण: 22 फरवरी, 1983 के (ग) के अन्तर्गत दिये गये समाचार में स्थगन प्रस्ताव के माध्यम से विधायिका द्वारा कार्यपालिका पर सफल नियंत्रण को दर्शाया गया है। लोकहित के मामले में विधायिका स्थगन प्रस्ताव रखकर के विधायिका में चल रहे किसी कार्य को रोककर उस ‘लोकहित’ के मुद्दे पर विचार करने तथा उस पर ध्यान देने के लिए कार्यपालिका को बाध्य करने का प्रयास करती है।

22 फरवरी, 1983 को जब लोकसभा ने गृहमंत्री के समक्ष स्थगन प्रस्ताव के माध्यम से असम की समस्या पर विचार करने के लिए प्राथमिकता देने का प्रश्न उठाया तो गृहमंत्री ने विधायिका के दबाव को समझते हुए सरकारी कामकाज स्थगित करने और असम पर बहस करने को प्राथमिकता देने की बात को स्वीकार कर लिया । यहाँ विधायिका स्थगन प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण करने में सफल रही है।

(घ) 3 मार्च, 1985: लोकसभा में कांग्रेस के सदस्यों ने आन्ध्रप्रदेश में हरिजनों (अनुसूचित जाति) के उत्पीड़न के प्रति विरोध जताया।
उत्तर:
ध्यान आकर्षित करना: (घ) में 3 मार्च, 1985 को लोकसभा में कांग्रेस के सदस्यों ने आंध्रप्रदेश में हरिजनों (अनुसूचित जाति के लोगों) के उत्पीड़न के प्रति विरोध जताकर सरकार का ध्यान इस मुद्दे की तरफ आकर्षित किया है। इस प्रकार विधायिका ने विभिन्न रूपों में कार्यपालिका को नियंत्रित किया है नकर लिया। यहाँ विधायिका स्थगन प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण करने में सफल रही है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

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प्रश्न 2.
क्या आप मानते हैं कि राज्यसभा की संरचना ने भारत में राज्यों की स्थिति को संरक्षित किया है?
उत्तर:
यद्यपि भारत में राज्यसभा की संरचना में देश के सभी राज्यों को अमेरिका की तरह समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है, बल्कि विभिन्न राज्यों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया गया है। इसके बावजूद राज्यसभा की संरचना ने भारत में राज्यों की स्थिति को संरक्षित किया है। क्योंकि समान प्रतिनिधित्व दिये जाने पर उत्तरप्रदेश और सिक्किम को राज्यसभा में बराबर प्रतिनिधित्व मिलता। इससे छोटे-बड़े राज्यों के साथ न्याय नहीं होता । इस विसंगति से बचने के लिए ही यहाँ ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों को अधिक और कम जनसंख्या वाले राज्यों को कम प्रतिनिधित्व दिया गया है।

प्रश्न 3.
क्या राज्यसभा के चुनाव अप्रत्यक्ष न होकर प्रत्यक्ष होने चाहिए? इससे क्या फायदा या नुकसान होगा?
उत्तर:
भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था स्थापित की गई है। संघात्मक शासन व्यवस्था में विधायिका के दोनों सदनों में प्रथम सदन सीधे जनता का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा सदन राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार भारत में राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है। इसका उद्देश्य राज्य के हितों का संरक्षण करना है। इसलिए राज्य के हितों को प्रभावित करने वाला प्रत्येक मुद्दा इसकी सहमति और स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए राज्य सभा के चुनाव अप्रत्यक्ष रखे गये हैं। राज्यसभा के प्रतिनिधि सीधे जनता द्वारा निर्वाचित नहीं होते बल्कि प्रत्येक राज्य की विधानसभा के सदस्य उनका निर्वाचन करते हैं।

  1. यदि राज्य सभा के चुनाव अप्रत्यक्ष न होकर प्रत्यक्ष रूप से होते तो उसके सदस्य अपने आपको राज्य का प्रतिनिधि न समझकर जनता का प्रतिनिधि समझते। ऐसी स्थिति में वे राज्य के हितों के संरक्षण के उद्देश्य से भटक जाते जो कि संघात्मक शासन की महती आवश्यकता है।
  2. यदि राज्य सभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते तो लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के साथ राज्य सभा के निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन की समस्या आती और दोनों प्रकार के प्रतिनिधि अपने आपको जनप्रतिनिधि समझते। ऐसी स्थिति में दोनों में शक्ति संतुलन स्थापित करने की समस्या पैदा हो जाती।
  3. भारत में संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ संसदात्मक शासन व्यवस्था अपनायी गयी है। संसदात्मक शासन व्यवस्था निम्न सदन जनता का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा सदन राज्यों का तथा वर्गों का। इस दृष्टि से मन्त्रिपरिषद निम्न सदन के प्रति ही उत्तरदायी होती है। यदि राज्य सभा को जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित किया जाता तो उसके सदस्य भी जनता का प्रतिनिधित्व करते तथा मंत्रिपरिषद को उसके प्रति भी उत्तरदायी ठहराना पड़ता। इससे विसंगति पैदा हो जाती।

प्रश्न 4.
1971 की जनगणना से लोकसभा में सीटों की संख्या नहीं बढ़ी है। क्या आप मानते हैं कि इसे बढ़ाना चाहिए? इसके लिए क्या आधार होना चाहिए?
उत्तर;
वर्तमान में लोकसभा के 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं। यह संख्या 1971 की जनगणना से चली आ रही है। हमारा मानना है कि लोकसभा की सीटों की संख्या पर्याप्त हैं, इसे और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए लोकसभा के चुनावों के लिए पूरे देश को लगभग समान जनसंख्या वाले 543 निर्वाचन क्षेत्रों में बांटकर प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुने जाने के वर्तमान आधार को ही जारी रखना चाहिए।

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प्रश्न 5.
सरकार से विरोध दर्ज कराने का एक आम तरीका है, सदन से वाकआउट’ करना, क्या यह काम जरूरत से ज्यादा हुआ है?
उत्तर:
‘प्रश्नकाल’ सरकार की कार्यपालिका और प्रशासकीय एजेंसियों पर निगरानी रखने का सबसे प्रभावी तरीका है। इस काल में संसद में अधिकतर प्रश्न लोकहित के विषयों, जैसे मूल्य वृद्धि, अनाज की उपलब्धता, समाज के कमजोर वर्गों के विरुद्ध अत्याचार, दंगे, कालाबाजारी आदि पर सरकार से सूचनाएँ मांगने के लिए होते हैं। इसमें सदस्यों को सरकार की आलोचना करने तथा अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं को उठाने का अवसर मिलता है। प्रश्नकाल के दौरान वाद-विवाद इतने तीखे हो जाते हैं कि अनेक सदस्यों द्वारा अपनी बात रखने के लिए प्राय: सदन से बहिर्गमन करने जैसे कदम उठाये जाते हैं। इसमें सदन का बहुत समय बर्बाद हो जाता है। लेकिन यह कदम सरकार से रियायत प्राप्त।

संजीव पास बुक्स करने के राजनीतिक तरीके हैं और इससे कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है। यह काम संसद में विपक्ष द्वारा उठाये जा रहे लोकहित के मुद्दों से जुड़ा रहा है। जैसे-जैसे देश में समस्याएँ बढ़ी हैं; सरकार जैसे-जैसे उन समस्याओं के प्रति संवेदनहीन हुई है, वैसे-वैसे विधायिका में प्रश्नकाल में ये मुद्दे पुरजोर तरीके से उठे हैं और ‘वाक आउट’ जैसे कदम भी उठे हैं। अतः इन कदमों को जरूरत से ज्यादा नहीं कहा जा सकता। बल्कि यह कहा जा सकता है कि देश में लोकहित सम्बन्धी समस्याएँ बढ़ी हैं, उनको हल करने में सरकार असफल रही है तथा संवेदनहीन हुई है। परिणामतः उसी परिणाम में कार्यपालिका को नियंत्रित करने के लिए ‘वाक आउट’ जैसे कदम बढ़े हैं।

Jharkhand Board Class 11 Political Science विधायिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आलोक मानता है कि किसी देश को कारगर सरकार की जरूरत होती है जो जनता की भलाई करे अतः यदि हम सीधे-सीधे अपना प्रधानमंत्री और मंत्रीगण चुन लें और शासन का काम उन पर छोड़ दें, तो हमें विधायिका की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर;
आलोक का यह विचार त्रुटिपरक है। हम इससे सहमत नहीं हैं। क्योंकि यदि आलोक के विचार के हिसाब से मंत्रिपरिषद का गठन किया जाये और विधायिका का गठन नहीं हो, ऐसी स्थिति में कार्यपालिका ही विधायिका का कार्य करेगी। और यदि विधायिका और कार्यपालिका के कार्य एक ही संस्था को दे दिये जाएँ तो कार्यपालिका निरंकुश हो जायेगी । ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री और मंत्रीगण के कार्यों पर किसी का नियंत्रण नहीं रहेगा। इससे नागरिकों की स्वतंत्रता समाप्त हो सकती है। इसलिए कार्यपालिका को निरंकुश होने से रोकने के लिए, नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए विधायिका का होना आवश्यक है।

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प्रश्न 2.
किसी कक्षा में द्वि-सदन प्रणाली के गुणों पर बहस चल रही थी। चर्चा में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आयीं। इन तर्कों को पढ़िये और इनसे अपनी सहमति – असहमति के कारण बताइये।
(क) नेहा ने कहा कि द्विसदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता।
(ख) शमा का तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए।
(ग) त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती।
उत्तर:
(क) नेहा का यह कथन कि द्विसदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता, सत्य नहीं है क्योंकि भारत जैसे विशाल देश के अन्दर जहाँ अनेक विविधताएँ हैं, 28 राज्य और 7 संघ शासित क्षेत्र हैं; वहाँ पर दूसरा सदन होना ही चाहिए जो इन विभिन्न राज्यों तथा संघ शासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व कर सके तथा प्रथम सदन द्वारा जल्दबाजी में लिए गए निर्णयों पर पुनर्विचार कर उन्हें यथोचित रूप दे सके।

(ख) शमा का यह कथन कि द्वितीय सदन में विशेषज्ञों को मनोनीत किया जाना चाहिए, उचित है। हमारे देश में राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में कला, साहित्य, विज्ञान और समाज सेवा के क्षेत्र से जुड़े 12 सदस्यों की नियुक्ति करता है। लेकिन इसके अतिरिक्त राज्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए उस क्षेत्र के निर्वाचित सदस्यों का होना भी आवश्यक है।

(ग) त्रिदेव के इस तर्क से भी कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती, हम सहमत नहीं हैं क्योंकि द्वितीय सदन संघात्मक राज्यों में इकाइयों के प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ वह पुनर्विचार का महत्वपूर्ण कार्य भी करता है। एक सदन द्वारा लिया गया प्रत्येक निर्णय दूसरे सदन में निर्णय के लिए भेजा जाता है। इससे हर मुद्दे को दो बार जांचने का मौका मिलता है। यदि एक सदन जल्दबाजी में कोई निर्णय ले लेता है तो दूसरे सदन में बहस के दौरान उस पर पुनर्विचार संभव हो पाता है।

प्रश्न 3.
लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में क्यों कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है?
उत्तर:
लोकसभा कार्यपालिका पर राज्यसभा की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली ढंग से नियंत्रण रख सकती है क्योंकि।
1. अविश्वास प्रस्ताव;
प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है, राज्यसभा के प्रति नहीं। राज्य सभा मंत्रिपरिषद से प्रश्न पूछ सकती है, लेकिन उसे हटा नहीं सकती; जबकि लोकसभा मंत्रिपरिषद पर सीधा नियंत्रण करती है। लोकसभा यदि सरकार के प्रति अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर दे, तो सरकार गिर जाती है। राज्यसभा मंत्रिपरिषद की आलोचना तो कर सकती है लेकिन उसे हटा नहीं सकती । इस दृष्टि से राज्य सभा की अपेक्षा लोकसभा कार्यपालिका को अधिक कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है।

2. बजट पर नियंत्रण:
सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था बजट के द्वारा रखी जाती है। सरकार के लिए संसाधन स्वीकृत करने से विधायिका मना कर सकती है। धन विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं और वही उसे संशोधित या अस्वीकृत कर सकती है। राज्यसभा के पास धन विधेयक को केवल 14 दिन तक ही रोके रखने का अधिकार है। यदि लोकसभा में धन विधेयक गिर जाता है तो सरकार को त्यागपत्र देना होता है। राज्यसभा के पास यह शक्ति नहीं है।

इससे स्पष्ट होता है कि राज्यसभा सरकार की आलोचना तो कर सकती है, पर उसे हटा नहीं सकती जबकि लोकसभा सरकार की आलोचना करने के साथ-साथ उसे हटा भी सकती है। अतः लोकसभा राज्यसभा की तुलना में मंत्रिपरिषद पर अधिक कारगर ढंग से नियंत्रण रख सकती है।

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प्रश्न 4.
लोकसभा कार्यपालिका पर कारगर ढंग से नियंत्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है। क्या आप इससे सहमत हैं? कारण बताएँ।
उत्तर:
हाँ, हम इस बात से सहमत हैं कि लोकसभा यद्यपि कार्यपालिका पर नियंत्रण बनाए रखती है लेकिन नियंत्रण के साथ-साथ लोकसभा एक ऐसा मंच है जहाँ जनता की इच्छाओं और भावों की अभिव्यक्ति की जाती है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।
1. लोकसभा के लिए जनता सीधे सदस्यों को चुनती है। यह देश के विभिन्न क्षेत्रीय, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक समूहों के अलग-अलग विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। यह देश में वाद-विवाद का सर्वोच्च और सबसे लोकतांत्रिक तथा खुला मंच है। इसके पास कार्यपालिका का चयन करने और उसे बर्खास्त करने की शक्ति भी है विचार-विमर्श करने की उसकी शक्ति पर कोई अंकुश नहीं है। सदस्यों को किसी भी विषय पर निर्भीकता से बोलने की स्वतंत्रता है। इससे लोकसभा राष्ट्र के समक्ष आने वाले हर मुद्दे का विश्लेषण कर पाती है। यह विचार-विमर्श हमारी लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया की आत्मा है।

2. लोकसभा में विधेयक प्रस्तुत किये जाने से पहले ही इस बात पर काफी बहस होती है कि उस विधेयक की क्या जरूरत है। कोई भी राजनीतिक दल अपने चुनावी वायदों को पूरा करने या आगामी चुनावों को जीतने के इरादे से किसी विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकता है। अनेक हित-समूह, मीडिया और नागरिक संगठन भी किसी विधेयक को लाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकते हैं। दूसरे, लोकसभा में सदस्यों को कार्यपालिका द्वारा बनाई गई नीतियों और उसके क्रियान्वयन के तरीकों पर भी बहस करने का अवसर मिलता है।

प्रश्नकाल में मंत्रियों को सदस्यों के तीखे प्रश्नों का जवाब देना पड़ता है। शून्यकाल में इसके सदस्य किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठा सकते हैं। लोकहित के मामले में आधे घण्टे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव आदि का भी विधान है। प्रश्नकाल में सदस्यों को अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं को उठाने का अवसर मिलता है। प्रश्नकाल में तीखे वाद-विवाद होते हैं।
अतः स्पष्ट है कि लोकसभा जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है।

प्रश्न 5.
नीचे संसद को ज्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे?
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर संसद को दंडित कर सकें।
उत्तर:
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए – इसका अभिप्राय यह है कि संसद का कार्यकाल अधिक लम्बा रखा जाए। मैं इस प्रस्ताव से असहमत हूँ। यदि इस सुझाव को मान लिया जायेगा तो संसद अर्थात् लोकसभा की अवधि 5 वर्ष से अधिक की हो जायेगी। (चूंकि राज्यसभा एक स्थायी सदन है।) लोकसभा की लम्बी अवधि कर दी जायेगी तो लोकसभा सदस्य एक बार लम्बी अवधि के लिए चुने जाने पर जनता की आशाओं और उनके हितों का ध्यान नहीं रखेंगे।

(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए: मैं इस सुझाव से सहमत हूँ क्योंकि सांसद अपने कर्त्तव्यों का पालन ईमानदारी से नहीं करते। बहुत से सांसद सदन में होने वाली चर्चा में भाग ही नहीं लेते। यदि संसद सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जायेगी तो सभी सांसद संसद की कार्यवाही में संजीव पास बुक्स भाग लेंगे, इस कार्यवाही में उनकी रुचि बढ़ेगी तथा अपने क्षेत्र की समस्याओं को सही ढंग से समय-समय पर उठाते रहेंगे।

(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दंडित कर सकें – मैं इस सुझाव से सहमत हूँ क्योंकि अध्यक्ष लोकसभा की कार्यवाही चलाने में अन्तिम अधिकारी है उसे लोकसभा में अनुशासन बनाए रखना है। परन्तु आजकल संसद सदस्य सदन के अन्दर इस प्रकार से व्यवधान उत्पन्न करते हैं कि सदन की कार्यवाही चलाना कठिन हो जाता है। सत्र चलने के समय में अधिकांश समय सदन स्थगित रहते हैं क्योंकि सांसदों द्वारा गलत व्यवहार किया जाता है, उनकी गतिविधियाँ शर्मनाक होती हैं।

ऐसी स्थितियों को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि अध्यक्ष को ऐसे सदस्यों को दण्डित करने का पूर्ण अधिकार हो। यद्यपि, इसमें एक खतरा अवश्य है कि अध्यक्ष बहुमत दल का सदस्य होता है और इस दृष्टि से उसका दृष्टिकोण भेदभावपरक हो सकता है; तथापि इस खतरे को मोल लेते हुए भी संसद की कार्यवाहियों को सुचारु रूप से चलाने के लिए अध्यक्ष को यह अधिकार दिया ही जाना चाहिए।

प्रश्न 6.
आरिफ यह जानना चाहता था कि अगर मंत्री ही अधिकांश महत्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत करते हैं और बहुसंख्यक दल अक्सर सरकारी विधेयक को पारित कर देता है, तो फिर कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की भूमिका क्या है? आप आरिफ को क्या उत्तर देंगे ?
उत्तर:
आरिफ ने अपने प्रश्न में यह बात उठायी है कि जब अधिकांश महत्वपूर्ण विधेयक मंत्रियों द्वारा प्रस्तावित किये जाते हैं और बहुमत दल उसको पारित करवा ही देता है तो संसद की क्या भूमिका रह जाती है? यह सत्य है कि संसदात्मक शासन व्यवस्था में बहुमत दल के लिए यह आवश्यक होता है कि मंत्रियों द्वारा प्रस्तावित विधेयक अवश्य पारित हो जाने चाहिए अन्यथा सरकार गिर जायेगी।

सरकारी विधेयक पारित न होने पर मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सरकार को बचाने के लिए सत्तादल को वे विधेयक पारित करवाने अनिवार्य हो जाते हैं। लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं है कि विधि निर्माण प्रक्रिया में संसद की कोई भूमिका नहीं है। विधि निर्माण प्रक्रिया में इस स्थिति के होते हुए भी संसद की महत्वपूर्ण भूमिका है।

  • निजी विधेयक भी संसद में प्रस्तावित किये जाते हैं। संसद में इन विधेयकों को अलग-अलग सोपानों से गुज़रना पड़ता है तथा उस पर प्रत्येक सोपान में चर्चा होती है।
  • प्रत्येक सरकारी विधेयक को भी विभिन्न सोपानों से गुजरना पड़ता है, जैसे
    1. प्रस्तुतीकरण व प्रथम वाचन
    2. द्वितीय वाचन
    3. समिति स्तर
    4. रिपोर्ट स्तर
    5. तृतीय वाचन। इन सोपानों के बाद ही विधेयक पर मतदान होता है।

एक सदन में पारित होने के बाद विधेयक दूसरे सदन में जाता है। दूसरे सदन में यह आवश्यक नहीं है कि सत्तारूढ़ दल का बहुमत हो ही। ऐसी स्थिति में यहाँ विधेयक को कठिन परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ता है। जब दूसरा सदन भी उसे पारित कर देता है तो राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। विधेयक निर्माण की इस समूची संसदीय प्रक्रिया में प्रत्येक विधेयक पर गंभीरता से विचार संभव हो पाता है तथा उसकी खामियों में आवश्यक संशोधन भी कर दिया जाता है। यदि विधि निर्माण प्रक्रिया में संसद की भूमिका को हटा देंगे तो विधेयकों पर गंभीरतापूर्वक विचार संभव नहीं हो सकेगा।

तीसरे, यदि विधि निर्माण प्रक्रिया में संसद की भूमिका को हटा दिया जाये तो कार्यपालिका ही विधि निर्माता हो जायेगी। विधि निर्माण में उस पर कोई अंकुश नहीं रह जायेगा तथा वह निरंकुश होकर लोकहितकारी विधायकों से विमुख हो सकती है तथा उन्हें अत्याचारीपूर्ण ढंग से कार्यान्वित कर सकती है। इससे नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन हो जायेगा तथा कार्यपालिका पर विधि निर्माण के क्षेत्र में कोई नियंत्रण नहीं रह जायेगा।

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प्रश्न 7.
आप निम्नलिखित में से किस कथन से सबसे ज्यादा सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण दें।
( क ) सांसद/विधायकों को अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट होनी चाहिए।
(ख) दलबदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसद/विधायकों पर बढ़ा है।
(ग) दलबदल हमेशा स्वार्थ के लिए होता है और इस कारण जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।
उत्तर:
1. उपर्युक्त तीनों कथनों में से हम दूसरे कथन (ख) से सबसे ज्यादा सहमत हैं कि दलबदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसद / विधायकों पर बढ़ा है। इसका कारण यह है कि नेता का आदेश सांसदों/विधायकों को मानना पड़ता है अन्यथा वे दल-बदल विरोधी कानून के अन्तर्गत अपनी सदस्यता से हाथ धो बैठते हैं। पार्टी नेतृत्व का इसमें दबदबा रहता है और पार्टी अध्यक्ष सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने तथा पार्टी के निर्णय के अनुसार मतदान करने के लिए व्हिप जारी करते हैं। व्हिप का उल्लंघन करने वाले सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी जाती है।

2. हम (क) कथन से इसलिए सहमत नहीं हैं क्योंकि यदि सांसद/विधायकों को अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट दे दी जायेगी तो इससे उन नागरिकों की इच्छा का दमन होगा जिन्होंने उसे चुनकर संसद/विधानमण्डल में भेजा था।

3. (ग) कथन से हम इसलिए सहमत नहीं हैं क्योंकि इसमें दल-बदल के कारण विधायक या सांसद को जो दण्ड निर्धारित किया गया है वह यह है कि उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री पद के लिए अयोग्य करार किया जाता है। लेकिन यह दण्ड पर्याप्त नहीं है क्योंकि उसकी सदस्यता संसद/विधानमण्डल में बराबर बनी रहेगी।

प्रश्न 8.
डॉली और सुधा में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि मौजूदा वक्त में संसद कितनी कारगर और प्रभावकारी है। डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिर्गमन) करने में ज्यादा। सुधा का तर्क था कि लोकसभा में अलग-अलग सरकारों ने मुँह की खायी है, धराशायी हुई हैं। आप सुधा या डॉली के तर्क के पक्ष या विपक्ष में और कौन – सा तर्क देंगे?
उत्तर:
” डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिगर्मन) करने में ज्यादा।” डॉली के इस कथन में आंशिक सत्यता है। यथा
1. संसद वाद:
विवाद के बीच अपने जरूरी काम को अंजाम दे रही है। जब हम दूरदर्शन पर संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देख रहे होते हैं तो सदन में सदस्य कटुता लिए हुए एक-दूसरे की टांग खींचते नजर आते हैं। विभिन्न दलों के बीच आपस में बहस होती रहती है। कई बार ऐसा लगता है कि राष्ट्र का धन बरबाद हो रहा है। लेकिन संसद तो वाद-विवाद का मंच ही है। इस वाद-विवाद के जरिये ही संसद अपने सभी जरूरी काम को अंजाम देती है।

2. कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है:
प्रश्नकाल के दौरान वाद-विवाद इतने तीखे हो जाते हैं कि अनेक सदस्यों द्वारा अपनी बात रखने के लिए प्रायः ऊँची आवाज में बोलना, अध्यक्ष के आसन के पास चले जाना तथा सदन से बहिर्गमन करने जैसी घटनाएँ देखी जा सकती हैं। इसमें सदन का बहुत समय बर्बाद हो जाता है। लेकिन इसी के साथ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये सभी कदम सरकार से रियायत प्राप्त करने के राजनीतिक तरीके हैं और इससे कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है।

3. अधिकांश सदस्य अभी भी मर्यादापूर्ण बहस में रुचि रखते हैं- वाद- विवाद सार्थक और शांतिपूर्ण होना चाहिए। कुछ सदस्यों की लापरवाही के कारण संसद की कार्यकुशलता और दक्षता निकट समय में कम हुई है। कुछ सदस्य अपने दायित्वों का निर्वाह ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं। उनका व्यवहार पक्षपातपूर्ण है। वे सदन में शोर-शराबा उत्पन्न करते हैं। इसी संदर्भ में डॉली ने कहा है कि यह संसद में गिरावट का समय चल रहा है और संसद की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने में अधिक समय खर्च किया जा रहा है। लेकिन अधिकांश सदस्य अपने अधिकारों व दायित्वों का प्रयोग संसद में अभी भी उचित रूप से कर रहे हैं।

वे सदन में वाद-विवाद में ईमानदारी से भाग लेते हैं जिससे सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से चलती रहती है। इससे सदन की गरिमा भी बनी रहती है। इससे स्पष्ट होता है कि कुछ सदस्यों के अनुचित व्यवहार के कारण सदन का काम-काज प्रभावित होता है, लेकिन अधिकांश सदस्यों के ईमानदारी से कार्य करने के कारण अभी भी सदन की गरिमा बनी हुई है। आवश्यकता इस बात की है कि सदन में किये जा रहे व्यवहार को और अधिक मर्यादापूर्ण बनाने के प्रयास किये जाएँ। इसके लिए यह आवश्यक है कि सदन के पास पर्याप्त समय हो, सदस्य मर्यादापूर्ण बहस में रुचि पैदा करें तथा उसमें प्रभावशाली ढंग से भाग लें।

प्रश्न 9.
किसी विधेयक को कानून बनने के क्रम में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है, उन्हें क्रमवार सजाएँ।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है – बताएँ कि वह अगर इस पर हस्ताक्षर नहीं करता/करती है, तो क्या होता है?
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है- समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(छ) संबद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि – मंत्रालय का कानून – विभाग विधेयक तैयार करता है।
उत्तर:
विधेयक पारित होने की क्रमिक अवस्थाओं को क्रमवार निम्न प्रकार सजाया गया है-
(ज) विधि मंत्रालय का कानून – विभाग विधेयक तैयार करता है।
(छ) सम्बद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है। समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ, उसमें यह पारित होता है।
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति से विधेयक कानून बन जाता
परन्तु यदि राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर न करे, वह उसे रोक ले या उस पर स्वीकृति न दे तो निम्नलिखित स्थितियाँ उभरेंगी।

प्रथमतः राष्ट्रपति उस विधेयक को दुबारा संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकता है और यदि संसद उसे दुबारा पारित करके पुनः राष्ट्रपति के पास भेजती है तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी स्वीकृति देनी ही होगी। लेकिन यदि धन विधेयक या संविधान संशोधन विधेयक है तो राष्ट्रपति को उसे पुनर्विचार के लिए भेजने का भी अधिकार नहीं है, इन पर राष्ट्रपति को हस्ताक्षर करने ही होंगे।

दूसरे, संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेजने की कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रपति किसी भी विधेयक को बिना किसी समय-सीमा के अपने पास लंबित रख सकता है। इसे कई बार ‘पाकिट वीटो’ भी कहा जाता है । इस प्रकार राष्ट्रपति विधेयक को ठंडे बस्ते में भी डाल सकता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 10.
संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
विभिन्न विधायी कार्यों के लिए संसदीय समितियों का गठन संसदीय कामकाज का एक महत्वपूर्ण पहलू है। ये समितियाँ केवल कानून बनाने में ही नहीं, वरन् सदन के दैनिक कार्यों में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यथा

  1. चूंकि संसद केवल अपने अधिवेशन के दौरान ही बैठती है, इसलिए उसके पास अत्यन्त सीमित समय होता है।
  2. किसी कानून को बनाने के लिए उससे जुड़े विषय का गहन अध्ययन करना पड़ता है। इसके लिए उस पर ज्यादा ध्यान और समय देने की जरूरत पड़ती है।
  3. अन्य और भी कई महत्त्वपूर्ण कार्य होते हैं, जैसे विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान माँगों का अध्ययन, विभिन्न विभागों के द्वारा किये गये खर्चों की जाँच, भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल आदि।

संसदीय समितियाँ संसद के विधायी कार्यों के अतिरिक्त इन सब कार्यों को भी करती हैं। संसदीय समितियों की व्यवस्था का संसद पर प्रभाव-समितियों की इस व्यवस्था ने संसद का कार्यभार हल्का कर दिया है। अनेक महत्वपूर्ण विधेयकों को समितियों को भेजा गया। संसद ने समितियों द्वारा किये गये काम में छुट- पुट बदलाव करके मंजूरी दे दी है। प्राय: समितियों द्वारा सुझाये गये सुझावों को संसद ने मंजूर कर लिया है।

विधायिका JAC Class 11 Political Science Notes

→ संसद या विधायिका का महत्त्व ( हमें संसद क्यों चाहिए?)
संसद या विधायिका जनता द्वारा निर्वाचित होती है और जनता के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है। यह कानून निर्माण का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है तथा जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है। यह सभी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का केन्द्र तथा प्रतिनिधिक लोकतंत्र का आधार है। यह मंत्रिमंडल पर नियंत्रण रखती है तथा इसके पास कार्यपालिका का चयन करने और बर्खास्त करने की भी शक्ति है। यह वाद-विवाद का सबसे लोकतांत्रिक खुला मंच है। अपनी संरचनात्मक विशेषता के कारण यह सरकार के सभी अंगों में सबसे ज्यादा प्रतिनिधिक है।

→ भारत में विधायिका का नाम तथा स्वरूप:
संसद: भारत की राष्ट्रीय विधायिका का नाम संसद है। भारतीय संसद में दो सदन हैं प्रथम सदन को लोकसभा और दूसरे सदन को राज्यसभा कहते हैं।

विधान मण्डल: राज्यों की विधायिकाओं को विधानमण्डल कहते हैं। संविधान ने राज्यों को एक सदनात्मक या द्विसदनात्मक विधायिका स्थापित करने का विकल्प दिया है। वर्तमान में केवल छ : राज्यों में ही द्वि-सदनात्मक विधायिकाएँ हैं। ये हैं।

  • आंध्रप्रदेश
  • बिहार
  • कर्नाटक
  • महाराष्ट्र
  • तेलंगाना
  • उत्तरप्रदेश।

→ द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका की आवश्यकता जब किसी विधायिका में दो सदन होते हैं, तो उसे द्वि- सदनात्मक विधायिका कहते हैं। भारतीय संसद एक द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका है। द्विसदनात्मक विधायिका के लाभ ये हैं

  • समाज के सभी वर्गों और देश के सभी क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व संभव।
  • संसद के प्रत्येक निर्णय पर दूसरे सदन में पुनर्विचार संभव।

→  राज्य सभा (अ) राज्यसभा का संगठन:
राज्यों का प्रतिनिधित्व तथा आधार: जनसंख्या – राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से होता है। राज्य विधान सभा के निर्वाचित सदस्य राज्य विधानसभा के सदस्यों को चुनते हैं । राज्यसभा में देश के विभिन्न क्षेत्रों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया गया है। इस दृष्टि से ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों को ज्यादा और कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों को कम प्रतिनिधित्व दिया गया है । जनसंख्या के आधार पर संविधान की चौथी अनुसूची में प्रत्येक राज्य से निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या निर्धारित कर दी गई हैं।

→ कार्यकाल: राज्यसभा के सदस्यों को 6 वर्ष के लिए निर्वाचित किया जाता है। उन्हें दुबारा निर्वाचित किया जा सकता है।

→ स्थायी सदन: राज्य सभा एक स्थायी सदन है क्योंकि इसके सभी सदस्य अपना कार्यकाल एक साथ पूरा नहीं करते। प्रत्येक दो वर्ष पर राज्य सभा के 1/3 सदस्य अपना कार्यकाल पूरा करते हैं और इन 1/3 सीटों के लिए चुनाव होते हैं। इस तरह राज्य सभा कभी भी पूरा तरह भंग नहीं होती।

→ मनोनीत सदस्य: निर्वाचित सदस्यों के अतिरिक्त राज्य सभा में 12 मनोनीत सदस्य होते हैं। साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष उपलब्धि पाने वाले व्यक्तियों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाता है।

(ब) राज्य सभा की शक्तियाँ राज्यसभा की प्रमुख शक्तियाँ इस प्रकार हैं।

  • विधि निर्माण सम्बन्धी शक्ति: सामान्य विधेयकों पर विचार कर उन्हें पारित करती है। धन विधेयकों में संशोधन प्रस्तावित कर सकती है तथा संवैधानिक संशोधनों को पारित करती है।
  • कार्यपालिका पर नियंत्रण की शक्ति: प्रश्न पूछकर तथा संकल्प और प्रस्ताव प्रस्तुत करके कार्यपलिका पर नियंत्रण करती है।
  • निर्वाचन तथा पदच्युक्ति सम्बन्धी शक्ति: राज्य सभा राष्ट्रपंति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भागीदारी करती है। उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव केवल राज्य सभा में ही लाया जा सकता है। यह
  • महाभियोग द्वारा राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया में भाग लेती है।
  •  विशेष शक्तियाँ: यह संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

→ लोकसभा (अ) लोकसभा का संगठन:
निर्वाचन: लोकसभा के लिए जनता सीधे (प्रत्यक्ष निर्वाचन से) सदस्यों को चुनती है। लोकसभा चुनावों के लिए पूरे देश को लगभग समान जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है। चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के मत का मूल्य बराबर होता है। इस समय लोकसभा के 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं। कार्यकाल-लोकसभा के लिए सदस्यों को 5 वर्ष के लिए चुना जाता है। लेकिन बहुमत की सरकार न बनाने की स्थिति में अथवा प्रधानमंत्री की लोकसभा भंग करने की सलाह पर राष्ट्रपति लोकसभा को 5 वर्ष की अवधि से पहले भी भंग कर सकता है।

(ब) लोकसभा की शक्तियाँ लोकसभा की प्रमुख शक्तियाँ ये हैं।

  • कानून निर्माण करना
  • वित्तीय शक्तियाँ
  • कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना
  • संविधान में संशोधन करना
  • निर्वाचन सम्बन्धी शक्तियाँ
  • न्य शक्तियाँ जैसे आपातकाल की घोषणा को स्वीकृति देना, महाभियोग लगाने की शक्ति, समिति और आयोगों का गठन करना आदि। यथा

→ लोकसभा की विशेष शक्तियाँ: कुछ ऐसी शक्तियाँ हैं जिनका प्रयोग केवल लोकसभा ही कर सकती है।

  • धन सम्बन्धी विधेयक प्रस्तुत करना, उसे संशोधित या अस्वीकृत करना।
  • मंत्रिपरिषद् के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पारित करना।

→ लोकसभा और राज्यसभा की समान शक्तियाँ:

  • सामान्य और संवैधानिक विधेयकों को पारित करना।
  • राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाना
  • उपराष्ट्रपति को हटाना आदि।

→ संसद की शक्तियाँ व कार्य संसद के प्रमुख कार्य व शक्तियाँ निम्नलिखित हैं।

  • विधायी कामकाज
  • कार्यपालिका पर नियंत्रण तथा उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना
  • वित्तीय कार्य
  • प्रतिनिधित्व
  • बहस का मंच
  • संवैधानिक कार्य
  • निर्वाचन सम्बन्धी कार्य
  • न्यायिक कार्य

→ संसद कानून कैसे बनाती है? संसद द्वारा कानून बनाने के लिए एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जाती है जिसमें किसी विधेयक को कई अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है।

  • विधेयक का प्रस्तुतीकरण: ( प्रथम वाचन) विधेयक यदि धन विधेयक नहीं है तो उसे किसी भी सदन प्रस्तुत किया जा सकता है। लेकिन धन विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है।
  • विधेयक का द्वितीय वाचन: दूसरे चरण में विधेयक को या तो समिति के पास भेजा जाता है या उस पर सदन में चर्चा होती है। समिति को भेजे जाने पर समिति रिपोर्ट देती है। सदन इस रिपोर्ट को स्वीकार या अस्वीकार करता है। इसके बाद सदन में विधेयक पर विस्तृत विचार-विमर्श होता है। जो विधेयक समिति को नहीं भेजा जाता है, तो उस पर विस्तृत चर्चा होती है।
  • तृतीय वाचन: तृतीय चरण में विधेयक पर मतदान होता है। पारित हो जाने पर उसे दूसरे सदन में भेजा जाता है।
  • दूसरे सदन की प्रक्रिया: दूसरे सदन में उपर्युक्त प्रक्रिया अपनाई जाती है। दूसरा सदन या तो इसे स्वीकार कर लेता है या इस पर सुझाव भेजता है। यदि प्रथम सदन इस सुझाव को स्वीकार नहीं करता तो राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है जिसकी अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है । संयुक्त बैठक में उस पर मतदान किया जाता है और उसे स्वीकार या रद्द किया जाता है।

→ राष्ट्रपति के हस्ताक्षर: दोनों सदनों से पारित होने के बाद विधेयक राष्ट्रपति के पास जाता है। राष्ट्रपति या तो विधेयक को मंजूरी देता है या उसे पुनर्विचार के लिए लौटा देता है। लेकिन यदि संसद उसे पुनः पारित कर राष्ट्रपति के पास भेज देती है, तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी मंजूरी देनी ही होती है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद विधेयक कानून बन जाता है। विधेयकों के विभिन्न प्रकार – विधेयकों के विभिन्न प्रकार होते हैं। यथा

  • सरकारी विधेयक या निजी सदस्यों का विधेयक।
  • वित्त विधेयक या गैर – वित्त विधेयक।
  • सामान्य विधेयक या संविधान संशोधन विधेयक।

धन विधेयक: धन विधेयक केवल लोकसभा में पेश किया जाता है। लोकसभा से पारित होने के बाद वह राज्य सभा में जाता है। राज्यसभा या तो उसे स्वीकार कर लेती है या संशोधन प्रस्तावित कर सकती है, लेकिन अस्वीकार नहीं कर सकती। यदि राज्य सभा 14 दिनों तक उस पर कोई निर्णय नहीं ले तो उसे राज्य सभा द्वारा पारित मान लिया जाता है। धन विधेयकों में राज्यसभा द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को लोकसभा मान भी सकती है और नहीं भी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

→ संसद द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण:  संसद अनेक विधियों का प्रयोग कर कार्यपालिका को नियंत्रित करती है।

  • बहस और वाद-विवाद: प्रश्नकाल, शून्यकाल, आधे घंटे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव आदि के माध्यम से संसद बहस या वाद-विवाद द्वारा मंत्रिपरिषद पर नियंत्रण रखती है।
  • कानूनों की स्वीकृति या अस्वीकृति: इस अधिकार के द्वारा भी संसद कार्यपालिका पर नियंत्रण करती है।
  • वित्तीय नियंत्रण: धन स्वीकृत करने से पहले लोकसभा सरकार से धन मांगने के कारणों पर चर्चा कर, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक व लोक लेखा समिति की रिपोर्ट पर धन के दुरुपयोग के मामलों की जाँच कर, आदि वित्तीय नियंत्रणों द्वारा विधायिका सरकार की नीतियों पर नियंत्रण करती है।
  • अविश्वास प्रस्ताव: विधायिका अपने सबसे सशक्त हथियार ‘अविश्वास प्रस्ताव’ पेश कर सरकार पर नियंत्रण स्थापित करती है। सन् 1989 के बाद से अपने प्रति सदन के अविश्वास के कारण अनेक सरकारों को त्यागपत्र देना पड़ा।

→ संसदीय समितियों की कार्यविधि: संसदीय समितियाँ कानून बनाने के साथ-साथ सदन के दैनिक कार्यों में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यथा

  • संसदीय समितियों के कार्य-संसदीय समितियों के प्रमुख कार्य ये हैं।
    • किसी कानून को बनाने के लिए उससे जुड़े विषय का गहन अध्ययन करना।
    • विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान माँगों का अध्ययन।
    • विभिन्न विभागों द्वारा किये गए खर्चों की जाँच।
    • भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल।
  • स्थायी समितियाँ: स्थायी समितियाँ विभिन्न विभागों के कार्यों, उनके बजट, खर्चे तथा उनसे संबंधित विधेयकों की देखरेख करती है।
  • संयुक्त संसदीय समितियाँ: इन समितियों में संसद के दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। इनका गठन किसी विधेयक पर संयुक्त चर्चा अथवा वित्तीय अनियमितताओं की जाँच के लिए किया जा सकता है।
    सामान्यतः समितियों द्वारा दिये गये सुझावों को संसद स्वीकार कर लेती है।

→ संसद स्वयं को कैसे नियंत्रित करती है?

  • संविधान में संसद की कार्यवाही को सुचारु ढंग से चलाने के लिए प्रावधान बनाए गए हैं। सदन का अध्यक्ष इनके अनुसार सदन का संचालन करता है।
  • सदन का अध्यक्ष दलबदल से संबंधित अंतिम निर्णय लेता है और यदि यह सिद्ध हो जाये कि किसी सदस्य ने दल बदल किया है, तो उसकी सदन की सदस्यता समाप्त हो जाती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

Jharkhand Board Class 11 Political Science कार्यपालिका InText Questions and Answers

पृष्ठ 79

प्रश्न 1.
कार्यपालिका क्या है?
उत्तर:
सरकार का वह अंग जो विधायिका द्वारा स्वीकृत नीतियों और कानूनों को लागू करता है और प्रशासन का काम करता है, कार्यपालिका कहलाता है।

प्रश्न 2.
मुझे याद है कोई कह रहा था कि लोकतन्त्र में कार्यपालिका जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। क्या यह बड़ी कम्पनियों के बड़े अधिकारियों के लिए भी सही है? क्या उन्हें हम मुख्य कार्यपालिका अधिकारी नहीं कहते ? वे किसके प्रति उत्तरदायी हैं?
उत्तर:
बड़ी कम्पनियों के अधिकारी जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होते। उन्हें हम मुख्य कार्यपालिका अधिकारी नहीं कहते क्योंकि वे लोक सेवा आयोगों के माध्यम से नियुक्त नहीं किये जाते हैं । वे अपने कार्यों के लिए कम्पनी बोर्ड के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

पृष्ठ 80

प्रश्न 3.
कार्यपालिका कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:

  • कार्यपालिका को मोटे रूप से दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है
    1. सामूहिक नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली और
    2. एक व्यक्ति के नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली।
  • प्रथम के आधार पर कार्यपालिका के दो प्रकार हैं
    1. संसदात्मक कार्यपालिका,
    2. अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका। दूसरे आधार पर कार्यपालिका का जो प्रकार उभरा है, उसे अध्यक्षात्मक कार्यपालिका कहा जाता है।
  • इस प्रकार लोकतान्त्रिक देशों में कार्यपालिका के तीन प्रकार उभरे हैं
    1. संसदात्मक कार्यपालिका,
    2. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका
    3. अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका।

पृष्ठ 82

प्रश्न 4.
श्रीलंका के राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री की स्थिति भारत से कैसे भिन्न है? भारत और श्रीलंका के राष्ट्रपति के महाभियोग में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की तुलना करें।
उत्तर:
श्रीलंका के राष्ट्रपति और भारत के राष्ट्रपति की स्थिति की तुलना – श्रीलंका के संविधान में अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका लागू की गई है। वहाँ जनता प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति को चुनती है। राज्य का निर्वाचित प्रधान और सशस्त्र सेनाओं का प्रधान सेनापति होने के अतिरिक्त श्रीलंका का राष्ट्रपति सरकार का भी प्रधान होता है। भारत के संविधान में संसदात्मक कार्यपालिका लागू की गई है। यहाँ राष्ट्रपति सरकार का नाम मात्र का (संवैधानिक) अध्यक्ष है, न कि वास्तविक अध्यक्ष । इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है अर्थात् संसद के निर्वाचित सदस्य तथा राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन करते हैं। यह राज्य का प्रधान और सशस्त्र सेनाओं का प्रधान सेनापति होता है, लेकिन सरकार का प्रधान नहीं होता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

पृष्ठ 83

प्रश्न 5.
नेहा यह तो बहुत सरल है। जिस देश में राष्ट्रपति है, वहाँ अध्यक्षात्मक कार्यपालिका और जिस देश में प्रधानमन्त्री है, वहाँ संसदीय कार्यपालिका है। आप नेहा को कैसे समझायेंगे कि ऐसा हमेशा सच नहीं होता?
उत्तर:
हम नेहा को इस प्रकार समझायेंगे कि जिस देश में कार्यपालिका के संवैधानिक अध्यक्ष और वास्तविक अध्यक्ष अलग-अलग होते हैं और वास्तविक अध्यक्ष, चाहे उसका पद नाम राष्ट्रपति हो या प्रधानमन्त्री, अपने कार्यों के लिये संसद के प्रति उत्तरदायी होता है; उसे संसदात्मक शासन कहते हैं जिस देश में कार्यपालिका का संवैधानिक और वास्तविक अध्यक्ष एक ही होता है चाहे उसका पद-नाम राष्ट्रपति हो या चांसलर तथा जो संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं होता, उसे अध्यक्षात्मक शासन कहते हैं।

उदाहरण के लिए, भारत में राष्ट्रपति कार्यपालिका का संवैधानिक अध्यक्ष है और प्रधानमन्त्री कार्यपालिका का वास्तविक अध्यक्ष है, लेकिन यहाँ वास्तविक अध्यक्ष संसद के प्रति उत्तरदायी है। अतः यहाँ संसदात्मक सरकार है, जबकि यहाँ राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री दोनों ही पद विद्यमान हैं। दूसरी तरफ अमेरिका में राष्ट्रपति संवैधानिक और वास्तविक कार्यपालिका अध्यक्ष दोनों है तथा वह अपने कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं है। अतः वहाँ अध्यक्षात्मक सरकार है।

श्रीलंका के प्रधानमन्त्री और भारत के प्रधानमन्त्री की स्थिति की भिन्नता:
अर्द्ध-अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली होने के कारण श्रीलंका के प्रधानमन्त्री की स्थिति भारत के प्रधानमन्त्री से कमजोर है। भारत का प्रधानमन्त्री सरकार का अध्यक्ष होता है और व्यवहार में संवैधानिक अध्यक्ष या राज्य के अध्यक्ष की समस्त शक्तियों का उपभोग करता है। राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत दल या गठबन्धन के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है और जब तक लोकसभा में उसके पक्ष में बहुमत का समर्थन रहता है, राष्ट्रपति उसे पदच्युत नहीं कर सकता। दूसरी तरफ, श्रीलंका में राष्ट्रपति संसद में बहुमत वाले दल के सदस्यों में से प्रधानमन्त्री चुनता है। वह प्रधानमन्त्री और दूसरे मन्त्रियों को हटा सकता है। प्रधानमन्त्री सरकार का अध्यक्ष नहीं होता है तथा वह राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है।

भारत और श्रीलंका के राष्ट्रपति के महाभियोग में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका:

  1. श्रीलंका में राष्ट्रपति छः वर्ष के लिए चुना जाता है और उसे इससे पहले भी संसद की कुल सदस्य संख्या के 2/3 बहुमत से पारित प्रस्ताव के द्वारा भी हटाया जा सकता है। यदि वह प्रस्ताव संसद के कम-से-कम आधे सदस्यों. द्वारा पास किया जाये और संसद का अध्यक्ष भी सन्तुष्ट हो कि आरोपों में दम है, तो संसद का अध्यक्ष उसे सर्वोच्च न्यायालय को भेज सकता है।
  2. भारत में राष्ट्रपति 5 वर्ष के लिए चुना जाता है और उसे इससे पहले केवल संविधान के उल्लंघन के आधार पर महाभियोग के द्वारा हटाया जा सकता है। संसद विशेष बहुमत की प्रक्रिया के द्वारा राष्ट्रपति को पदच्युत कर सकती है। यहाँ राष्ट्रपति के महाभियोग में सर्वोच्च न्यायालय की कोई भूमिका नहीं है।

पृष्ठ 86

प्रश्न 6.
राष्ट्रपति के लिए किताबों में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग- दोनों का प्रयोग किया जाता है। क्या कभी कोई महिला भी राष्ट्रपति हुई है?
उत्तर:
हाँ, भारत में महिला भी राष्ट्रपति हुई हैं। श्रीमती प्रतिभा पाटिल महिला राष्ट्रपति हुई हैं।

पृष्ठ 89

प्रश्न 7.
कल्पना करें कि प्रधानमन्त्री किसी राज्य में इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लगाना चाहता है कि वहाँ की सरकार दलितों पर अत्याचार रोकने में विफल रही है। राष्ट्रपति की सोच कुछ अलग है। उसका कहना है कि राष्ट्रपति शासन का अपवाद स्वरूप ही प्रयोग करना चाहिए। इस स्थिति में राष्ट्रपति के पास निम्नलिखित में से कौनसा विकल्प है?
(क) वह प्रधानमन्त्री को बताए कि राष्ट्रपति शासन की घोषणा करने वाले आदेश पर वह हस्ताक्षर नहीं करेगा।
(ख) प्रधानमन्त्री को बर्खास्त कर दे।
(ग) वह प्रधानमन्त्री से वहाँ केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल भेजने को कहे।
(घ) एक प्रेस वक्तव्य दे कि क्यों प्रधानमन्त्री गलत है।
(ङ) इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री से बातचीत करे और उसे ऐसा करने से रोके परन्तु यदि प्रधानमन्त्री दृढ़ रहे तब उस पर हस्ताक्षर कर दे।
उत्तर:
(ङ) इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री से बातचीत करे और उसे ऐसा करने से रोके परन्तु यदि प्रधानमन्त्री दृढ़ रहे, तब उस पर हस्ताक्षर कर दे।

पृष्ठ 93.

प्रश्न 8.
मुख्यमन्त्री विश्वासमत जीतकर भी खुश नहीं हैं। वे कह रहे हैं कि विश्वास मत जीतने के बावजूद उनकी परेशानियाँ बरकरार हैं। क्या आप सोच सकते हैं, वे ऐसा क्यों कह रहे हैं?
उत्तर:
जब विधानसभा में किसी एक दल को या किसी चुनाव पूर्व गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो राज्यपाल सबसे बड़े दल या गठबन्धन के नेता को इस शर्त पर मुख्यमन्त्री बनाता है कि उसे अमुक तिथि तक विधानसभा विश्वासमत जीतना है। इस स्थिति में जब मुख्यमन्त्री विश्वास मत जीत भी लेता है, तो भी उसकी परेशानियाँ बनी रहती हैं। क्योंकि अब उसे एक नेता से अधिक एक मध्यस्थ की भूमिका निभानी होती है। उसे निरन्तर अपने राजनीतिक सहयोगियों से परामर्श कर चलना पड़ता है क्योंकि विभिन्न सहयोगी दलों के बीच काफी बातचीत और समझौते के बाद ही नीतियाँ बन पायेंगी। इसी सन्दर्भ में विश्वासमत जीतने के बावजूद मुख्यमन्त्री ऐसा कह रहे हैं कि अभी उनकी परेशानियाँ बरकरार हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

पृष्ठ 94

प्रश्न 9.
मान लीजिए कि प्रधानमन्त्री को मन्त्रिपरिषद् का गठन करना है। वह क्या करेगा/करेगी-
(क) विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों का चयन।
(ख) केवल अपनी पार्टी के लोगों का चयन।
(ग) केवल व्यक्तिगत रूप से निष्ठावान और विश्वसनीय लोगों का चयन।
(घ) केवल सरकार के समर्थकों का चयन।
(ङ) मन्त्री बनने की होड़ में शामिल व्यक्तियों की राजनीतिक ताकत का अंदाजा लगाकर ही उनका चयन।
उत्तर:
(ङ) प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का गठन करते समय मन्त्री बनने की होड़ में शामिल व्यक्तियों की राजनीतिक ताकत का अंदाजा लगाकर ही उनका चयन करेगा।

Jharkhand Board Class 11 Political Science कार्यपालिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
संसदीय कार्यपालिका का अर्थ होता है
(क) जहाँ ससद हो वहाँ कार्यपालिका का होना।
(ख) संसद द्वारा निर्वाचित कार्यपालिका।
(ग) जहाँ संसद कार्यपालिका के रूप में काम करती है।
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो संसद के बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो।
उत्तर:
(घ) संसदीय कार्यपालिका का अर्थ होता है ऐसी कार्यपालिका जो संसद के बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित संवाद पढ़ें। आप किस तर्क से सहमत हैं और क्यों? अमित- संविधान के प्रावधानों को देखने से लगता है कि राष्ट्रपति का काम सिर्फ ठप्पा मारना है। शमा: राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है। इस कारण उसे प्रधानमन्त्री को हटाने का भी अधिकार होना चाहिए। राजेश: हमें राष्ट्रपति की जरूरत नहीं। चुनाव के बाद, संसद बैठक बुलाकर एक नेता चुन सकती है जो प्रधानमन्त्री बने।
उत्तर:
अमित, शमा और राजेश के उपर्युक्त संवाद में मैं अमित के तर्क से सहमत हूँ, लेकिन शमा और राजेश के तर्क से सहमत नहीं हूँ। अमित के तर्क से सहमत होने का कारण यह है कि भारत में संसदात्मक कार्यपालिका को अपनाया गया है जिसमें राष्ट्र या राज्य का अध्यक्ष नाम मात्र का कार्यपालिका अध्यक्ष होता है और मन्त्रिपरिषद् सहित प्रधानमन्त्री सरकार का अध्यक्ष होता है और वह वास्तविक कार्यपालिका अध्यक्ष होता है। भारत में राष्ट्रपति का पद नाममात्र की कार्यपालिका अध्यक्ष का पद है।

यद्यपि सिद्धान्त रूप में समस्त सरकार के कार्य राष्ट्रपति के नाम से किये जाते हैं लेकिन व्यवहार में सामान्य स्थिति में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार ही कार्य करता है। इससे स्पष्ट होता है कि संवैधानिक दृष्टि से राष्ट्रपति नाम मात्र का अध्यक्ष है। संविधान में स्पष्ट लिखा है कि राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में मन्त्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा। राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित को सुमेलित करें:

(क) भारतीय विदेश सेवा जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा केन्द्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती हैं जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं और।
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है, इसमें प्रतिनियुक्ति पर केन्द्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केन्द्रीय सेवाएँ भारत के विदेशों में कार्यरत।

उत्तर:

(क) भारतीय विदेश सेवा भारत के विदेशों में कार्यरत।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है, इसमें प्रतिनियुक्ति पर केन्द्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केन्द्रीय सेवाएँ केन्द्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती हैं जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं और।

प्रश्न 4.
उस मन्त्रालय की पहचान करें जिसने निम्नलिखित समाचार को जारी किया होगा। यह मन्त्रालय प्रदेश की सरकार का है या केन्द्र सरकार का और क्यों?
(क) आधिकारिक तौर पर कहा गया है कि सन् 2004-05 में तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम कक्षा 7, 10 और 11 की नई पुस्तकें जारी करेगा।
(ख) भीड़ भरे तिरुवल्लूर: चेन्नई खण्ड में लौह-अयस्क निर्यातकों की सुविधा के लिए एक नई रेल लूप लाइन बिछाई जायेगी। नई लाइन लगभग 80 कि.मी. की होगी। यह लाइन पुट्टूर से शुरू होगी और बन्दरगाह के निकट अतिपट्टू तक जाएगी।
(ग) रमयपेट मण्डल में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं की पुष्टि के लिए गठित तीन सदस्यीय उप- विभागीय समिति ने पाया कि इस माह आत्महत्या करने वाले दो किसान फसल के मारे जाने से आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे थे।
उत्तर:
(कं) यह समाचार तमिलनाडु राज्य के शिक्षा मन्त्रालय द्वारा जारी किया गया होगा क्योंकि तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम द्वारा तमिलनाडु राज्य में कक्षा 7, 10 और 11 के लिए नया सत्र शुरू करना था।

(ख) पुट्टूर से प्रारम्भ होकर चेन्नई बन्दरगाह के निकट अतिपट्टू तक 80 किमी. लम्बी नई रेल लूप लाइन बिछाने का आदेश रेल मन्त्रालय का है। यह मन्त्रालय केन्द्र सरकार का है क्योंकि रेलवे विषय संघ सूची का विषय है

(ग) रायमपेट मण्डल में दो किसानों ने आत्महत्या की जिसके लिए तीन सदस्यीय सब-डिवीजनल समिति ने जाँच की कि ये किसान फसल के मारे जाने की वजह से आर्थिक समस्या से परेशान थे और इसलिए आत्महत्या कर ली। यह मामला कृषि मन्त्रालय का है जो राज्य मन्त्रिमण्डल के अधीन आता है। लेकिन इसमें केन्द्र सरकार का कृषि मन्त्रालय भी राज्य सरकार के माध्यम से किसानों की सहायता हेतु कदम उठा सकता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

प्रश्न 5.
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करने में राष्ट्रपति:
(क) लोकसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ख) लोकसभा में बहुमत अर्जित करने वाले गठबन्धन के दलों में सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ग) राज्यसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(घ) गठबन्धन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।
उत्तर:
(घ) प्रधानमन्त्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति गठबन्धन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।

प्रश्न 6.
इस चर्चा को पढ़कर बताएँ कि कौनसा कथन भारत पर सबसे ज्यादा लागू होता है।
आलोक:  प्रधानमन्त्री राजा के समान है। वह हमारे देश में हर बात का फैसला करता है।
शेखर: प्रधानमन्त्री सिर्फ ‘समान हैसियत के सदस्यों में प्रथम है। उसे कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं। सभी मन्त्रियों और प्रधानमन्त्री के अधिकार बराबर हैं।
बॉबी: प्रधानमन्त्री को दल के सदस्यों तथा सरकार को समर्थन देने वाले सदस्यों का ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन कुल मिलाकर देखें तो नीति-निर्माण तथा मन्त्रियों के चयन में प्रधानमन्त्री की बहुत ज्यादा चलती है।
उत्तर:
उपर्युक्त चर्चा में तीसरा कथन अर्थात् बॉबी का कथन भारत के सन्दर्भ में सबसे ज्यादा लागू होता है।

प्रश्न 7.
क्या मन्त्रिमण्डल की सलाह राष्ट्रपति को हर हाल में माननी पड़ती है? आप क्या सोचते हैं? अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
भारत में राष्ट्रपति संवैधानिक या नाममात्र का अध्यक्ष है और मन्त्रिमण्डल वास्तविक अध्यक्ष। संविधान के अनुच्छेद 74(1) में कहा गया है कि ” राष्ट्रपति की सहायता और सलाह देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी जिसका
उत्तर:
(क) भारतीय विदेश सेवा
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ
(घ) केन्द्रीय सेवाएँ
भारत के विदेशों में कार्यरत।
जिसमें बहाली ( भर्ती) हो उसी प्रदेश में कार्य करती है।

प्रश्न 8.
संसदीय व्यवस्था ने कार्यपालिका को नियन्त्रण में रखने के लिए विधायिका को बहुत से अधिकार दिये हैं। कार्यपालिका को नियन्त्रित करना इतना जरूरी क्यों है? आप क्या सोचते हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान के द्वारा संसदीय शासन व्यवस्था की स्थापना की गई है। अतः कार्यपालिका संसद अर्थात् लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिमण्डल उसी समय तक अपने पद पर रहता है जब तक कि उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त हो । संसद अनेक प्रकार से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रख सकती है। संसद सदस्य मन्त्रियों से सरकारी नीति के सम्बन्ध में प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछकर कार्यपालिका पर अंकुश लगाते हैं।

संसद सरकारी विधेयक या बजट को अस्वीकार करके, मन्त्रियों के वेतन में कटौती का प्रस्ताव स्वीकार करके अथवा किसी सरकारी विधेयक में ऐसा संशोधन करके जिससे सरकार सहमत न हो, अपना विरोध प्रदर्शित कर सकती है। इसके अतिरिक्त वह काम रोको प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव तथा अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है।

निम्नलिखित कारणों से संसद द्वारा कार्यपालिका को नियन्त्रित करना आवश्यक है।

  1. एक लोकतान्त्रिक शासन में समस्त शक्तियाँ जनता में निहित होती हैं। कार्यपालिका जनता की तरफ से ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करती है। इसलिए इसे संसद, जो कि जनता का प्रतिनिधि सदन है, के माध्यम से जनता के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है।
  2. यदि बजट के स्वरूप में कार्यपालिका पर कोई नियन्त्रण नहीं रखा जाये तो कार्यपालिका जनता पर निरंकुश होकर कर लगायेगी और करों का संकलन भी निरंकुशतापूर्ण ढंग से करेगी तथा राष्ट्र के धन को भी निरंकुशतापूर्ण ढंग से व्यय करेगी। इसलिए कार्यपालिका द्वारा प्रस्तुत बजट पर संसद के नियन्त्रण का होना आवश्यक है।
  3. संसदीय नियन्त्रण के अभाव में, कार्यपालिका अपनी शक्तियों का प्रयोग निरंकुश होकर करेगी। इससे लोक- कल्याण से उसका ध्यान हटेगा और उसका व्यवहार पक्षपातपूर्ण होगा क्योंकि शक्ति भ्रष्ट करती है और निरंकुश शक्ति पूर्णत: भ्रष्ट करती है।
  4. यदि कार्यपालिका पर संसद कोई नियन्त्रण नहीं रखे तो कार्यपालिका धीरे-धीरे समस्त शक्तियाँ अपने हाथों में केन्द्रित कर लेगी और वह निरंकुशता का व्यवहार करने लगेगी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

प्रश्न 9.
कहा जाता है कि प्रशासनिक तन्त्र के कामकाज में बहुत ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। सुझाव के तौर पर कहा जाता है कि ज्यादा से ज्यादा स्वायत्त एजेन्सियां बननी चाहिए जिन्हें मन्त्रियों को जवाब न देना पड़े।
(क) क्या आप मानते हैं कि इससे प्रशासन ज्यादा जन हितैषी होगा?
(ख) क्या इससे प्रशासन की कार्यकुशलता बढ़ेगी?
(ग) क्या लोकतन्त्र का अर्थ यह होता है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियन्त्रण हो?
उत्तर:
(क) प्रशासनिक तन्त्र के माध्यम से सरकार अपनी लोक कल्याणकारी नीतियों को जनता तक पहुँचाती है; उन्हें कार्यान्वित करती है। सामान्यतः आम आदमी की पहुँच प्रशासनिक अधिकारियों तक नहीं होती। नौकरशाही आम नागरिकों की माँगों और आशाओं के प्रति संवेदनशील नहीं होती। राजनीतिक हस्तक्षेप के द्वारा प्रजातन्त्र में नौकरशाही की इस कमी को दूर करने का प्रयास किया जाता है। लेकिन यदि यह राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत ज्यादा हो जाता है तो प्रशासन राजनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना बन जाता है तथा प्रशासन पूर्णत: संवेदनहीन होकर राजनीतिज्ञों की हाँ में हाँ मिलाने लगता है।

इससे प्रशासन में भ्रष्टाचार, निरंकुशता, पक्षपातपूर्ण व्यवहार बढ़ जाता है और लोक कल्याण तिरोहित हो जाता है। इस स्थिति से छुटकारा पाने तथा प्रशासन को संवेदनशील, कार्यकुशल तथा निष्पक्ष बनाने रखने के लिए यह सुझाव कि ज्यादा से ज्यादा स्वायत्त एंजेन्सियाँ बनायी जायें ताकि राजनैतिक हस्तक्षेप रुके और प्रशासन जन हितैषी बन सके, उपयुक्त है। इससे प्रशासन अधिक जन हितैषी होगा क्योंकि वह स्वतन्त्रतापूर्वक निष्पक्षता व कुशलता से अपना कार्य कर सकेगा।

(ख) ज्यादा से ज्यादा ऐसी स्वायत्त एजेन्सियाँ बनाने से, जिन्हें मन्त्रियों को जवाब न देना पड़े, भ्रष्टाचार, संवेदनहीनता और निष्क्रियता समाप्त होगी और वह स्वतन्त्रतापूर्वक बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के कार्य करेंगे। इससे उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि होगी।

(ग) लोकतन्त्र का अर्थ है कि शासन जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप हो। जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि अर्थात् मन्त्री जब प्रशासन पर नियन्त्रण रखते हैं तो जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप शासन संचालित होता है क्योंकि प्रशासन संवेदनशील होकर लोक कल्याणकारी नीतियों को कार्यान्वित करने लगता है। लेकिन जब चुने हुए प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियन्त्रण हो जाता है, तो प्रशासनिक अधिकारी चाटुकार हो जाते हैं। वे मन्त्रियों की हाँ में हाँ मिलाने को ही अपना प्रमुख कार्य समझने लगते हैं। ऐसी स्थिति में प्रशासन संवेदनशील नहीं रहता, वह जनहित की उपेक्षा करने लगता है; भ्रष्टाचार तथा पक्षपातपूर्ण व्यवहार बढ़ जाता है।

इस प्रकार सही अर्थों में लोकतन्त्र नहीं रहता है। अतः यह कहना सही नहीं है कि चुने हुए प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियन्त्रण होना ही लोकतन्त्र है। लोकतन्त्र का सही अर्थ है। प्रशासन द्वारा जनहितकारी कार्यों को निष्पक्षता तथा कार्यकुशलता से जनता के प्रति संवेदनशील होते हुए करना। जनप्रतिनिधियों का ऐसा नियन्त्रण जो प्रशासन को इस ओर सक्रिय करे, उत्तरदायी बनाए लोकतन्त्रकारी कहलायेगा और ऐसा नियन्त्रण जो उसे जनता के प्रति संवेदनहीन, भ्रष्ट तथा अकुशल बनायेगा, वह लोकतन्त्र विरोधी कहलायेगा।

प्रश्न 10.
नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचित आधारित प्रशासन होना चाहिए- इस विषय पर 200 शब्दों में एक लेख लिखो
उत्तर:
निर्वाचित आधारित प्रशासन
यदि प्रशासनिक कर्मचारियों को नियुक्ति के आधार के स्थान पर निर्वाचन के आधार पर लिया जाये तो यह हानिप्रद होगा। इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।
1. नीतियों को लागू करने में अनिश्चितता व अस्थिरता: यदि प्रशासन निर्वाचन के आधार पर लिया जायेगा तो निर्वाचित प्रशासक नीतियों को बदल देंगे। इससे नीतियों को लागू करने में अनिश्चितता और अस्थिरता की स्थिति पैदा हो जायेगी।

2. निष्पक्षता व तटस्थता का अभाव: नियुक्त प्रशासन पक्षपात रहित होता है क्योंकि सिविल सेवकों को केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों के द्वारा योग्यता के आधार पर नियुक्त किया जाता है। इनकी नियुक्ति एक स्वतन्त्र लोक सेवा आयोग की सिफारिश पर की जाती है। इससे प्रशासन में निष्पक्षता तथा तटस्थता बनी रहती है। लेकिन यदि लोकसेवकों की भर्ती चुनाव के द्वारा की जायेगी तो अलग-अलग पार्टियों के उम्मीदवारों की जीत होने पर नीतियों को लागू करने में अड़चनें आयेंगी। वे निष्पक्ष और तटस्थ नहीं रह पायेंगे।

3. अयोग्य तथा अकुशल प्रशासक: लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित किये गये प्रशासक योग्य तथा कुशल होते हैं क्योंकि उनके चयन का मापदण्ड योग्यता एवं कुशलता ही होता है। लेकिन यदि इनकी भर्ती निर्वाचन के आधार पर होगी तो उनकी योग्यता व कुशलता की गारण्टी नहीं दी जा सकती क्योंकि उनकी भर्ती का आधार उनकी योग्यता व कुशलता न होकर लोकप्रियता होगी। ऐसी स्थिति में प्रशासन में योग्यता व कुशलता का अभाव हो जायेगा अर्थात् प्रशासन प्राय: अकुशल हो जावेगा।

4. अस्थिरता और अनुभवहीनता: निर्वाचन के आधार पर प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों की भर्ती प्रशासन में अस्थिरता और अनुभवहीनता भी लायेगी। लोक सेवा आयोगों द्वारा चयनित प्रशासनिक अधिकारी एक निश्चित आयु तक नियुक्त किये जाते हैं। इसलिए ये एक लम्बी अवधि तक प्रशासन में रहते हैं। इस कारण प्रशासन स्थायी, तटस्थ, अनुभवशील तथा कार्यकुशल होता है लेकिन निर्वाचन द्वारा भर्ती किये गये प्रशासनिक अधिकारी एक छोटी अवधि के लिए निर्वाचित होंगे। फलतः प्रशासन में अस्थिरता आयेगी और आवश्यक नहीं है कि वे पुनः निर्वाचित हो सकें।

इस कारण प्रशासन में अनुभवहीनता का प्रवेश हो जाता है। ऐसी स्थिति में वे नीतियों को बनाने व लागू करने में मन्त्रियों को कोई सहयोग नहीं दे पायेंगे। वे राजनीतिक रूप से तटस्थ भी नहीं रह सकते। अतः स्पष्ट है कि यदि प्रशासन को नियुक्ति के बजाय निर्वाचित किया जायेगा तो प्रशासन पक्षपातमूलक, अस्थिर, अयोग्य, अकुशल हो जायेगा ! अतः नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचित आधारित प्रशासन नहीं होना चाहिए।

 कार्यपालिका JAC Class 11 Political Science Notes

→ परिचय: सरकार के तीन अंग हैं। विधायका, कार्यपालिका और न्यायपालिका । ये तीनों मिलकर शासन का कार्य करते हैं तथा कानून व्यवस्था बनाए रखने और जनता का कल्याण करने में योगदान देते हैं। संविधान यह सुनिश्चित करता है कि ये सभी एक-दूसरे से तालमेल बनाकर काम करें और आपस में सन्तुलन बनाये रखें। कार्यपालिका क्या है? सरकार का वह अंग जो विधायिका द्वारा लिये गये नीतिगत निर्णयों, नियमों और कायदों को लागू करता है और प्रशासन का काम करता है, कार्यपालिका कहलाता है। कार्यपालिका का औपचारिक नाम अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न होता है। कुछ देशों में राष्ट्रपति होता है, तो कहीं चांसलर। कार्यपालिका में केवल राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री या मन्त्री ही नहीं होते बल्कि इसके अन्दर सम्पूर्ण प्रशासनिक ढाँचा भी सामिल है।

→ राजनीतिक कार्यपालिका: सरकार के प्रधान और उनके मन्त्रियों को राजनीतिक कार्यपालिका कहते हैं और वे सरकार के सभी नीतियों के लिए उत्तरदायी होते हैं।

→  स्थायी कार्यपालिका: जो लोग रोज-रोज के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होते हैं, उन्हें स्थायी कार्यपालिका कहते हैं।

→  कार्यपालिका के प्रकार: नेतृत्व के आधार पर कार्यपालिका के दो प्रकार बताये जा सकते हैं।

  • सामूहिक नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली और
  • एक व्यक्ति के नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली।

→ सामूहिक नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली: सामूहिक नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित कार्यपालिका के दो प्रकार हैं।
(अ) संसदीय कार्यपालिका,
(ब) अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका। यथा

(अ) संसदीय कार्यपालिका।

  • संसदीय सरकार (कार्यपालिका) के प्रमुख को आम तौर पर प्रधानमन्त्री कहते हैं। प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल के पास वास्तविक शक्ति होती है।
  • प्रधानमन्त्री विधायिका में बहुमत वाले दल का नेता होता है।
  • वह विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है
  • संसदीय कार्यपालिका में राजा या राष्ट्रपति देश का (राष्ट्र का) प्रमुख होता है जो औपचारिक या नाम मात्र का कार्यपालिका प्रमुख होती है।
  • जर्मनी, इटली, जापान, इंग्लैण्ड, पुर्तगाल तथा भारत आदि देशों में यह व्यवस्था है।

(ब) अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका-

  • अर्द्ध-अध्यक्षात्मक कार्यपालिका (सरकार) में राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है।
  • इसमें प्रधानमन्त्री सरकार का प्रमुख होता है।
  • इसमें प्रधानमन्त्री और उसका मन्त्रिपरिषद् विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है।
  • फ्रांस, रूस और श्रीलंका में ऐसी ही व्यवस्था है।

→ एक व्यक्ति के नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली: अध्यक्षात्मक प्रणाली:

  • अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है। वही सरकार का भी प्रमुख होता है।
  • राष्ट्रपति का चुनाव प्रायः प्रत्यक्ष मतदान से होता है।
  • वह विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होता।
  • अमेरिका, ब्राजील और लैटिन अमेरिका के अनेक देशों में ऐसी व्यवस्था पायी जाती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

→ भारत में संसदीय कार्यपालिका
भारतीय संविधान में राष्ट्रीय और प्रान्तीय दोनों ही स्तरों पर संसदीय कार्यपालिका की व्यवस्था को स्वीकार किया गया है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत राष्ट्रपति, भारत में राज्य का औपचारिक प्रधान होता है तथा प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रीय स्तर पर सरकार चलाते हैं। राज्यों के स्तर पर राज्यपाल राज्य का नाम मात्र का प्रमुख तथा मुख्यमन्त्री और मन्त्रिपरिषद् वास्तविक सरकार के प्रमुख होते हैं।

→  भारत का राष्ट्रपति: भारत के संविधान में औपचारिक रूप से संघ की कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति को दी गई हैं।

→ निर्वाचन: राष्ट्रपति 5 वर्ष के लिए चुना जाता है। राष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष तरीके से होता है। इसका अर्थ यह है कि राष्ट्रपति का निर्वाचन निर्वाचित विधायक और सांसद करते हैं। यह निर्वाचन समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली और एकल संक्रमणीय मत के सिद्धान्त के अनुसार होता है।

→ पदच्युति: केवल संसद ही राष्ट्रपति को महाभियोग की प्रक्रिया के द्वारा उसके पद से हटा सकती है। महाभियोग केवल संविधान के उल्लंघन के आधार पर लगाया जा सकता है।

→ शक्ति और स्थिति: राष्ट्रपति सरकार का औपचारिक प्रधान है। उसे औपचारिक रूप से बहुत-सी कार्यकारी, विधायी, कानूनी और आपात शक्तियाँ प्राप्त हैं। लेकिन राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार कार्य करेगा। इस प्रकार अधिकतर मामलों में राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद् की सलाह माननी पड़ती है। लेकिन राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद को अपनी सलाह पर एक बार पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है, लेकिन उसे मन्त्रिपरिषद् के द्वारा पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह को मानना ही पड़ेगा।

→ राष्ट्रपति के विशेषाधिकार:

  • संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति को सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों और मन्त्रिपरिषद् की कार्यवाही के बारे में सूचना प्राप्त करने का अधिकार है।
  • राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह को पुनर्विचार करने के लिए एक बार लौटा सकता है।
  • राष्ट्रपति के पास वीटो (निषेधाधिकार) की शक्ति होती है जिससे वह संसद द्वारा पारित विधेयकों (धन विधेयकों को छोड़कर) पर स्वीकृति देने में विलम्ब कर सकता है या स्वीकृति देने से मना कर सकता है। इसे कई बार ‘पाकेट वीटो’ भी कहा जाता है।
  • जब आम चुनाव के बाद किसी एक दल या गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ हो और दो या तीन नेता यह दावा करें कि उन्हें लोकसभा में बहुमत प्राप्त है। तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति को अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर यह निर्णय लेना होता है कि किसे बहुमत का समर्थन प्राप्त है। भारत में 1989 के बाद से राष्ट्रपति के इस विशेषाधिकार का महत्त्व बढ़ गया है।

→ राष्ट्रपति पद की आवश्यकता (महत्त्व):
यद्यपि भारत की संसदीय व्यवस्था में राष्ट्रपति का पद एक औपचारिक शक्ति वाले आलंकारिक प्रधान का पद है, तथापि संसदीय व्यवस्था में इस पद का अपना महत्त्व है। यथा

→ सामान्य परिस्थितियों में आवश्यकता: संसदीय व्यवस्था में जब कभी मन्त्रिपरिषद् में लोकसभा का विश्वास नहीं रहता तो उसे पद से हटना पड़ता है और तब उसकी जगह एक नई मन्त्रिपरिषद् की नियुक्ति करनी पड़ेगी । ऐसी परिस्थिति में एक ऐसे राष्ट्र प्रमुख की जरूरत पड़ती है, जिसका कार्यकाल स्थायी हो, जिसके पास प्रधानमन्त्री को नियुक्त करने की शक्ति हो और जो सांकेतिक रूप से पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर सके। सामान्य परिस्थितियों में राष्ट्रपति की यही भूमिका है।

→ असामान्य परिस्थितियों में महत्त्व: जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तब राष्ट्रपति पर अपने विवेक से निर्णय लेने और देश की सरकार चलाने के लिए प्रधानमन्त्री को नियुक्त करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी होती है।

→ भारत का उपराष्ट्रपति: भारत का उपराष्ट्रपति पाँच वर्ष के लिए चुना जाता है। इसे संसद के निर्वाचित सदस्य ही चुनते हैं। उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए राज्यसभा को अपने बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पास करना पड़ता है और उस प्रस्ताव पर लोकसभा की सहमति लेनी पड़ती है। उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष होता है और किसी कारणवश राष्ट्रपति का पद रिक्त होने पर वह कार्यवाहक राष्ट्रपति का काम करता है।

→ मन्त्रिपरिषद् का गठन: प्रधानमन्त्री और मन्त्रिपरिषद्: प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का प्रधान है। लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है और उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। प्रधानमन्त्री विभिन्न मन्त्रियों में पद स्तर और मन्त्रालयों का आबंटन करता है। मन्त्रियों को उनकी वरिष्ठता और राजनीतिक महत्त्व के अनुसार मन्त्रिमण्डल का मन्त्री, राज्यमन्त्री या उपमन्त्री बनाया जाता है। प्रधानमन्त्री और सभी मन्त्रियों के लिए छ: महीने के अन्दर संसद का सदस्य होना अनिवार्य है। मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या लोकसभा (राज्यों में विधानसभा) की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती।

→ सामूहिक उत्तरदायित्व: मन्त्रिपरिषद् लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। यदि किसी एक मन्त्री के विरुद्ध भी अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाए तो सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है।

→प्रधानमन्त्री की भूमिका तथा शक्तियाँ: मन्त्रिपरिषद् की केन्द्रीय धुरी: भारत में प्रधानमन्त्री का सरकार में स्थान सर्वोपरि है। बिना प्रधानमन्त्री के मन्त्रिपरिषद् का कोई अस्तित्व नहीं। प्रधानमन्त्री के पद ग्रहण करने के पश्चात् ही मन्त्रिपरिषद् अस्तित्व में आती है और उसके त्याग-पत्र देने पर पूरी मन्त्रिपरिषद् ही भंग हो जाती है।

→ सेतु की भूमिका; प्रधानमन्त्री एक तरफ मन्त्रिपरिषद् तथा दूसरी ओर राष्ट्रपति और संसद के बीच एक सेतु का काम करता है। सरकार की नीतियों के निर्णय में प्रभावी भूमिका: प्रधानमन्त्री सरकार के सभी महत्त्वपूर्ण निर्णयों में सम्मिलित होता है और सरकार की नीतियों के बारे में निर्णय लेता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

→ अन्य भूमिकाएँ: प्रधानमन्त्री की अन्य भूमिकाएँ हैं मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण, लोकसभा का नेतृत्व, अधिकारी जमात पर आधिपत्य, मीडिया तक पहुंच, चुनाव के दौरान उसके व्यक्तित्व का उभार, अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और विदेश यात्राओं के दौरान राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरना। जब लोकसभा में किसी एक राजनीतिक दल को बहुमत मिलता है, तब प्रधानमन्त्री की शक्तियाँ निर्विवाद रहती हैं, लेकिन गठबन्धन की सरकारों में राष्ट्रपति की ये शक्तियाँ अनेक सीमाओं से बँधी रहती हैं।

→ राज्यों की कार्यपालिका: भारत में कुछेक बदलावों के साथ राज्यों में भी ठीक केन्द्र की तरह ही लोकतान्त्रिक कार्यपालिका होती है।

  • राष्ट्रपति के स्थान पर राज्य में एक राज्यपाल होता है जो ( केन्द्रीय सरकार की सलाह पर) राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।
  • राज्यपाल के पास राष्ट्रपति से कहीं अधिक विवेकाधीन शक्तियाँ हैं।
  • प्रधानमन्त्री की ही तरह राज्य में मुख्यमन्त्री होता है जो विधानसभा में बहुमत दल का नेता होता है।
  • राज्य के स्तर पर भी संसदात्मक सरकार के प्रमुख सिद्धान्त लागू होते हैं।

→ स्थायी कार्यपालिका नौकरशाही:
मन्त्रियों के निर्णय को प्रशासनिक मशीनरी नागरिक सेवा के स्थायी अधिकारी व कर्मचारी लागू करते हैं। इसे ही नौकरशाही कहते हैं। सरकार के स्थायी कर्मचारी के रूप में कार्य करने वाले प्रशिक्षित और प्रवीण अधिकारी नीतियों को बनाने और उसे लागू करने में मन्त्रियों का सहयोग करते हैं। नौकरशाही से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राजनीतिक रूप से तटस्थ हो। भारत में एक दक्ष प्रशासनिक मशीनरी मौजूद है जो राजनीतिक रूप से उत्तरदायी है।

→ सिविल सेवाओं का वर्गीकरण:

  • अखिल भारतीय सेवाएँ
    • भारतीय प्रशासनिक सेवा
    • भारतीय पुलिस सेवा।
  • केन्द्रीय सेवाएँ
    • भारतीय विदेश सेवा
    • भारतीय राजस्व सेवा।
  • प्रान्तीय सेवाएँ  बिक्रीकर अधिकारी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

Jharkhand Board Class 11 Political Science चुनाव और प्रतिनिधित्व InText Questions and Answers

पृष्ठ 52

प्रश्न 1.
क्या बिना चुनाव के लोकतन्त्र कायम रह सकता है?
उत्तर:
नहीं, बिना चुनाव के लोकतन्त्र कायम नहीं रह सकता क्योंकि वर्तमान लोकतन्त्र का स्वरूप प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र है जो जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा ही संचालित होता है।

प्रश्न 2.
क्या बिना लोकतन्त्र के चुनाव हो सकता है?
उत्तर:
यद्यपि बिना लोकतन्त्र के निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनाव नहीं हो सकता। लेकिन बहुत सारे गैर-लोकतान्त्रिक देशों में भी चुनाव होते हैं। वास्तव में गैर-लोकतान्त्रिक शासक स्वयं को लोकतान्त्रिक साबित करने के लिए बहुत आतुर रहते हैं। इसके लिए वे चुनावों को ऐसे ढंग से कराते हैं कि उनके शासन को कोई खतरा न हो।

पृष्ठ 56

प्रश्न 3.
50 प्रतिशत से भी कम वोट और 80 प्रतिशत से अधिक सीटें। क्या यह ठीक है? हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसी गड़बड़ व्यवस्था को कैसे स्वीकार किया?
उत्तर:
50 प्रतिशत से भी कम वोट पाने वाले दल को 80 प्रतिशत से अधिक सीटें मिलना ‘सर्वाधिक वोट से जीत वाली (FPTP) व्यवस्था में ही सम्भव है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों के लिए इसी निर्वाचन विधि को अपनाया है। भारत में ‘सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था’ के अपनाने के कारण- भारत के संविधान निर्माताओं ने सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था (फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट सिस्टम) को अपनाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे।

1. सरल विधि: समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की तुलना में ‘सर्वाधिक वोट से जीत वाली प्रणाली’ सरल है। उन सामान्य मतदाताओं के लिए जिन्हें राजनीति और चुनाव का विशेष ज्ञान नहीं है, वे इस चुनाव प्रणाली को आसानी से समझ सकते हैं। स्वतन्त्रता के समय सामान्य भारतीय मतदाताओं की भी यही स्थिति थी। इस तथ्य को समझते हुए संविधान निर्माताओं ने इस चुनाव व्यवस्था को अपनाया।

2. स्पष्ट विकल्प का होना: सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था में मतदाताओं के सामने स्पष्ट विकल्प होते हैं, जबकि समानुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था में इस स्पष्ट विकल्प का अभाव होता है। राजनीति की वास्तविकता को ध्यान में रखकर मतदाता किसी प्रत्याशी को भी वरीयता दे सकता है और किसी दल को भी। वह चाहे तो इन दोनों में, मतदान के समय सन्तुलन बनाने की भी कोशिश कर सकता है। सर्वाधिक वोट से जीत वाली प्रणाली मतदाताओं को केवल दलों में ही नहीं वरन् उम्मीदवारों में भी चयन का स्पष्ट विकल्प देती है। अन्य चुनावी व्यवस्थाओं में, विशेषकर समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में, मतदाताओं को किसी एक दल को चुनने का विकल्प दिया जाता है; लेकिन प्रत्याशियों का चयन पार्टी द्वारा जारी की गई सूची के अनुसार होता है।

3. प्रतिनिधि का मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होना: समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था में किसी क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधित्व करने वाला और मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी, कोई एक प्रतिनिधि नहीं होता। लेकिन
संजीव पास बुक्स सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था में किसी निर्वाचन क्षेत्र के मतदाता जानते हैं कि उनका प्रतिनिधि कौन है और उसे उत्तरदायी ठहरा सकते हैं।

4. सरकार का स्थायित्व: भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत के लिए संसदीय शासन व्यवस्था को अपनाया। संसदीय प्रणाली की प्रकृति की यह माँग है कि कार्यपालिका को विधायिका में बहुमत प्राप्त हो। संविधान निर्माता यह समझते थे कि समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली पर आधारित चुनाव संसदीय प्रणाली में सरकार के स्थायित्व के लिए उपयुक्त नहीं होंगे क्योंकि इसमें मतों के प्रतिशत के अनुपात में विधायिका में सीटें बँट जायेंगी। ‘सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली’ में प्राय: बड़े दलों या गठबन्धनों को बोनस के रूप में मत प्रतिशत से अतिरिक्त कुछ सीटें मिल जाती हैं । अत: यह प्रणाली एक स्थायी सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त कर संसदीय सरकार को सुचारु और प्रभावी ढंग से काम करने का अवसर देती है।

5. विभिन्न वर्गों में एकजुटता प्रदान करने की दृष्टि से उपयुक्त: सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली एक निर्वाचन क्षेत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों को एकजुट होकर चुनाव जीतने में मदद करती है जबकि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में, समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली प्रत्येक समुदाय को अपनी एक राष्ट्रव्यापी पार्टी बनाने को प्रेरित करेगी। यह बात भी हमारे संविधान निर्माताओं के मस्तिष्क में रही होगी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

पृष्ठ 66

प्रश्न 4.
भारत की आबादी में मुसलमान 14.2 प्रतिशत हैं। लेकिन लोकसभा में मुसलमान सांसदों की संख्या सामान्यतः 6 प्रतिशत से थोड़ा कम रही है जो जनसंख्या के अनुपात में आधे से भी कम है। यही स्थिति अधिकतर राज्य विधानसभाओं में भी है। तीन छात्रों ने इन तथ्यों से तीन अलग-अलग निष्कर्ष निकाले। आप बतायें कि आप उनसे सहमत हैं या असहमत और क्यों?
हिलाल: यह सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली के अन्याय को दिखाता है। हमें समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनानी चाहिए थी।
आरिफ: यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण देने के औचित्य को बताता है। आवश्यकता इस बात की है कि मुसलमानों को भी उसी तरह का आरक्षण दिया जाये, जैसा अनुसूचित जातियों और जनजातियों को दिया गया।
सबा: सभी मुसलमानों को एक जैसा मानकर बात करने का कोई मतलब नहीं है। मुसलमान महिलाओं को इसमें कुछ भी नहीं मिलेगा। हमें मुसलमान महिलाओं के लिए अलग आरक्षण चाहिए।
उत्तर:
भारत के संविधान में धर्म-आधारित आरक्षण का निषेध किया गया है लेकिन पिछड़े हुए लोगों को समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण देने की व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। मेरी दृष्टि से चूँकि मुस्लिम महिलाएँ अधिक पिछड़ी हुई अवस्था में हैं, इसलिए ‘मुस्लिम महिला वर्ग’ को पिछड़ा वर्ग मानते हुए मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसलिए इससे एक तरफ तो भारत की संसद तथा विधानसभाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा तथा मुस्लिम महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व होने से उनकी समस्याएँ विधायिका में रखी जा सकेंगी। इस दृष्टि से मैं सबा के मत से सहमत हूँ।

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प्रश्न 5.
मैं इतनी समझ रखती हूँ कि भविष्य में अपने कैरियर को चुन सकूँ और इतनी उम्रदराज हूँ कि ड्राइविंग लाइसेंस बना सकूँ, तो क्या मैं इतनी बड़ी नहीं कि वोट डाल सकूँ? यदि ये कानून मुझ पर लागू होते हैं, तो मैं इन कानूनों को बनाने वाले के बारे में फैसला क्यों नहीं ले सकती?
उत्तर:
भारत में 18 वर्ष के प्रत्येक वयस्क नागरिक को वोट देने का अधिकार प्राप्त है। चूँकि आप ड्राइविंग लाइसेंस बनवा सकने की उम्र रखती हैं, जो कि कम-से-कम 18 वर्ष है। इस दृष्टि से आप एक वयस्क भारतीय नागरिक हैं तथा भविष्य में अपना कैरियर चुन सकने की समझ रखती हैं अर्थात् पागल तथा चित्त विकृत नहीं हैं। अतः आप वोट डाल सकती हैं और वोट डालकर कानून बनाने वाले जनप्रतिनिधियों (विधायकों या संसद सदस्यों) के बारे में फैसला ले सकती हैं।

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प्रश्न 6.
क्या बहुसदस्यीय निर्वाचन आयोग की व्यवस्था भारत में स्थायी हो गयी है या सरकार एक सदस्यीय निर्वाचन आयोग को दुबारा कायम कर सकती है? क्या संविधान इस खेल की आज्ञा देता है?
उत्तर:
संविधान में यह स्पष्ट लिखा है। कि निर्वाचन आयोग में एक निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य उतने निर्वाचन आयुक्त होंगे जितने कि राष्ट्रपति समय-समय पर नियत करे। अतः सरकार एकसदस्यीय निर्वाचन आयोग की व्यवस्था को दुबारा कायम कर सकती है। संविधान इसकी आज्ञा देता है। जहाँ तक बहुसदस्यीय निर्वाचन आयोग की व्यवस्था के स्थायित्व का प्रश्न है, संवैधानिक दृष्टि से तो यह व्यवस्था स्थायी नहीं है। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह स्थायित्व का रूप ले चुकी है। 1993 से निर्वाचन आयोग की व्यवस्था बहुसदस्यीय बनी हुई है। अब इस बात पर सामान्य सहमति बन चुकी है कि बहुसदस्यीय निर्वाचन आयोग ज़्यादा उपयुक्त है क्योंकि इससे आयोग की शक्तियों में साझेदारी हो गई है और आयोग पहले से कहीं ज्यादा जवाबदेह बन गया है।

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प्रश्न 7.
क्या कानून में परिवर्तन करके चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोका जा सकता है? क्या केवल कानून बदलने से कोई चीज वास्तव में बदलती है?
उत्तर:
केवल ‘कानून’ में परिवर्तन करके ही चुनावों में धन और बल के प्रयोग को नहीं रोका जा सकता है। इसके लिए कानून में परिवर्तन के साथ-साथ अन्य प्रयास भी किये जाने चाहिए। यथा यह आवश्यक है कि धन और बल के प्रयोग को रोकने में जो संवैधानिक संस्थाएँ हैं, वे प्राप्त शक्तियों का और प्रभावशाली ढंग से प्रयोग करें। उदाहरण के लिए 20 वर्ष पहले की तुलना में आज निर्वाचन आयोग अधिक स्वतन्त्र तथा प्रभावी है। ऐसा इसलिए नहीं हुआ है कि निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ या उसकी संवैधानिक सुरक्षा बढ़ा दी गई है बल्कि निर्वाचन आयोग ने केवल उन शक्तियों का और प्रभावशाली ढंग से प्रयोग करना शुरू कर दिया है।

जो उसे संविधान में पहले से ही प्राप्त थीं। दूसरे, चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोकने के लिए कानून में परिवर्तन, निर्वाचन आयोग के और प्रभावशाली ढंग से अपनी शक्तियों के प्रयोग करने के साथ-साथ जनता को स्वयं भी और अधिक सतर्क रहना होगा तथा राजनीतिक कार्यों में और अधिक सक्रियता से भाग लेना आवश्यक है। तीसरे, चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोकने के लिए यह भी आवश्यक है कि ऐसी राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक संगठनों का विकास किया जाये जो स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कराने के लिए पहरेदारी करें।

इससे स्पष्ट होता है कि चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोकने के लिए चौतरफा प्रयास किये जाने आवश्यक हैं। प्रथम कानून में आवश्यक परिवर्तन किया जाये; दूसरे, संवैधानिक संस्थाएँ और अधिक प्रभावशाली ढंग से अपनी शक्तियों का प्रयोग करें; तीसरे, जनता स्वयं अधिक सतर्क और सक्रिय हो और चौथे, इस हेतु अन्य राजनीतिक संस्थाओं व राजनीतिक संगठनों का विकास किया जाये। अकेले कानून में परिवर्तन करने से चुनावों में धन और बल के प्रयोग को नहीं रोका जा सकता है।

Jharkhand Board Class 11 Political Science चुनाव और प्रतिनिधित्व Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित में कौन प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के सबसे नजदीक बैठता है?
(क) परिवार की बैठक में होने वाली चर्चा।
(ख) कक्षा – संचालक ( क्लास – मॉनीटर) का चुनाव।
(ग) किसी राजनीतिक दल द्वारा अपने उम्मीदवार का चयन।
(घ) मीडिया द्वारा करवाये गये जनमत-संग्रह।
उत्तर:
(घ) मीडिया द्वारा करवाये गये जनमत-संग्रह

2. इनमें से कौनसा कार्य चुनाव आयोग नहीं करता है?
(क) मतदाता सूची तैयार करना
(ग) मतदान केन्द्रों की स्थापना
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण।
उत्तर;
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण
(ख) उम्मीदवारों का नामांकन
(घ) आचार-संहिता लागू करना

3. निम्नलिखित में कौनसी बात राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों के चुनाव की प्रणाली में समान है?
(क) 18 वर्ष से ज्यादा की उम्र का हर नागरिक मतदान करने के योग्य है।
(ख) विभिन्न प्रत्याशियों के बारे में मतदाता अपनी पसन्द को वरीयता क्रम में रख सकता है।
(ग) प्रत्येक मत का समान मूल्य होता है।
(घ) विजयी उम्मीदवार को आधे से अधिक मत प्राप्त होने चाहिए । उत्तर-(ग) प्रत्येक मत का समान मूल्य होता है।
(नोट : राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव राज्य विधानसभा के सदस्य करते हैं जहाँ प्रत्येक विधायक के मत का मूल्य एक होता है। इसी प्रकार लोकसभा के सदस्यों का चुनाव वयस्क नागरिक करते हैं। इसमें एक मतदाता के मत का मूल्य एक ही होता है।)

4. फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में वही प्रत्याशी विजेता घोषित किया जाता है जो।
(क) डाक से आने वाले मतों में सर्वाधिक संख्या में मत अर्जित करता है।
(ख) देश में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले दल का सदस्य हो।
(ग) चुनाव क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।
(घ) 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करके प्रथम स्थान पर आता है।
उत्तर:
(ग) चुनाव क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 5.
पृथक् निर्वाचन मण्डल और आरक्षित चुनाव क्षेत्र के बीच क्या अन्तर है? संविधान निर्माताओं ने पृथक् निर्वाचन मण्डल को क्यों स्वीकार नहीं किया?
उत्तर:
पृथक् निर्वाचन मण्डल और आरक्षित चुनाव क्षेत्र के बीच अन्तर: आरक्षित चुनाव क्षेत्र व्यवस्था से यह आशय है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में सभी वर्गों के मतदाता वोट डालेंगे लेकिन प्रत्याशी उसी समुदाय या सामाजिक वर्ग का होगा जिसके लिए यह सीट आरक्षित है। पृथक् निर्वाचन मण्डल का आशय यह है कि किसी समुदाय के प्रतिनिधि के चुनाव में केवल उसी समुदाय के मतदाता ही मत डालेंगे। पृथक् निर्वाचन मण्डल व्यवस्था को नहीं अपनाने के कारण – संविधान निर्माताओं ने उपर्युक्त दोनों व्यवस्थाओं में से पृथक् निर्वाचन मण्डल व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इसके स्वीकार नहीं किये जाने के निम्नलिखित कारण बताये

  1. पृथक् निर्वाचन मण्डल व्यवस्था के अपनाने से समाज में एकता नहीं हो पायेगी पृथक् निर्वाचन मण्डल की व्यवस्था भारत के लिए अभिशाप रही। भारत का विभाजन कराने में इस व्यवस्था का भी सहयोग रहा है।
  2. पृथक् निर्वाचन मण्डल में प्रत्याशी केवल अपने समुदाय या वर्ग का हित ही सोच पाता है और एकीकृत समाज के भावों की उपेक्षा करने लगता है, जबकि आरक्षित चुनाव क्षेत्र व्यवस्था में विजयी प्रत्याशी अपने क्षेत्र के अन्तर्गत समाज के सभी वर्गों के हित की बात सोचने को बाध्य रहता है। यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने पृथक् निर्वाचन मण्डल पद्धति को स्वीकार नहीं किया।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में कौनसा कथन गलत है? इसकी पहचान करें और किसी एक शब्द अथवा पद को बदल कर, जोड़कर अथवा नये क्रम में सजाकर इसे सही करें।
(क) एक फर्स्ट- पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली ( जो सबसे आगे वही जीते प्रणाली) का पालन भारत के हर चुनाव में होता है।
(ख) चुनाव आयोग पंचायत और नगरपालिका के चुनावों का पर्यवेक्षण नहीं करता।
(ग) भारत का राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त को नहीं हटा सकता।
(घ) चुनाव आयोग में एक से ज्यादा चुनाव आयुक्त की नियुक्ति अनिवार्य है।
उत्तर:
(क) ‘एक फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली (जो सबसे आगे, वही जीते प्रणाली) का पालन भारत के हर चुनाव में होता है।’ यह कथन गलत है। इसमें एक वाक्यांश जोड़कर पुनः सही रूप में इस प्रकार लिखा गया है।
‘भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा और विधान परिषदों के सदस्यों के चुनावों को छोड़कर फर्स्ट- पास्ट- द-पोस्ट प्रणाली का पालन भारत के शेष सभी चुनावों में होता है।’
(ख) सही कथन इस प्रकार है। ‘चुनाव आयोग स्थानीय निकायों के चुनावों का पर्यवेक्षण नहीं करता।
(ग) सही कथन इस प्रकार है। भारत का राष्ट्रपति निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से हटा सकता है।
(घ) सही कथन इस प्रकार है। निर्वाचन आयोग में एक से अधिक निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति विधिक आदेश सूचक है।

प्रश्न 7.
भारत की चुनाव प्रणाली का लक्ष्य समाज के कमजोर तबके की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना है। लेकिन अभी तक हमारी विधायिका में महिला सदस्यों की संख्या 12 प्रतिशत तक पहुँची है। इस स्थिति में सुधार के लिए आप क्या उपाय सुझायेंगे?
उत्तर:
भारत की चुनाव प्रणाली का लक्ष्य समाज के कमजोर तबके की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना है। इस सन्दर्भ में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों तथा आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। लेकिन अभी तक हमारी विधायिका में महिला सदस्यों की संख्या 12 प्रतिशत तक ही पहुँची है। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिला सदस्यों की नुमाइंदगी बढ़ाने की बात लगभग सभी दल करते हैं। लेकिन जब-जब इस प्रकार का विधेयक संसद में प्रस्तुत किया जाता है तो उसको सामान्यतः प्रस्तुत करने ही नहीं दिया जाता। विधायिका में महिला सदस्यों की स्थिति में सुधार के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए

  1. लोकसभा तथा विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  2. देश में महिलाओं के लिए उचित शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए ताकि शिक्षा प्राप्त कर उनमें जागरूकता आए और वह अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर स्वयं आगे बढ़कर चुनाव लड़े और विजयी होकर राजनीति में भाग ले।

प्रश्न 8.
एक नये देश के संविधान के बारे में आयोजित किसी संगोष्ठी में वक्ताओं ने निम्नलिखित आशाएँ जतायीं। प्रत्येक कथन के बारे में बतायें कि उनके लिए फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट ( सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली) उचित होगी या समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली प्रणाली?
(क) लोगों को इस बात की साफ-साफ जानकारी होनी चाहिए कि उनका प्रतिनिधि कौन है ताकि वे उसे निजी तौर पर जिम्मेदार ठहरा सकें।
(ख) हमारे देश में भाषायी रूप से अल्पसंख्यकों के छोटे-छोटे समुदाय हैं और देश भर में फैले हैं, हमें इनकी ठीक-ठीक नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना चाहिए।
(ग) विभिन्न दलों के बीच सीट और वोट को लेकर कोई विसंगति नहीं रखनी चाहिए।
(घ) लोग किसी अच्छे प्रत्याशी को चुनने में समर्थ होने चाहिए भले ही वे उसके राजनीतिक दल को पसन्द न करते हों।
उत्तर:
(क) फर्स्ट-पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली (सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली)
(ख) समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली
(ग) समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (घ) फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली।

प्रश्न 9.
एक भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने एक राजनीतिक दल का सदस्य बनकर चुनाव लड़ा। इस मसले पर कई विचार सामने आये। एक विचार यह था कि भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एक स्वतन्त्र नागरिक है। उसे किसी राजनीतिक दल में होने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। दूसरे विचार के अनुसार, ऐसे विकल्प की सम्भावना कायम रखने से चुनाव आयोग की निष्पक्षता प्रभावित होगी। इस कारण, भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। आप इसमें किस पक्ष से सहमत हैं और क्यों?
उत्तर:
मैं इस विचार से सहमत हूँ कि भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र नागरिक है। उसे किसी राजनीतिक दल में होने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। इसका कारण यह है कि चुनाव में उम्मीदवारों को चुनने की शक्ति मतदाताओं के पास होती है, न कि राजनीतिक दलों के पास। भूतपूर्व चुनाव आयुक्त चुनाव में अपने पद का प्रयोग नहीं कर सकता क्योंकि मतदाताओं की संख्या बहुत अधिक होती है और उनके साथ उसका किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं होता है अत: वह चुनाव की निष्पक्षता को प्रभावित नहीं कर सकता।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर वकालत करने का प्रतिबंध इसलिए होता है क्योंकि न्यायाधीश होने के समय अन्य न्यायाधीशों पर उसका नियंत्रण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से होता है। वह अपने प्रभाव से उन्हें प्रभावित कर सकता है। लेकिन मुख्य निर्वाचन आयुक्त इस रूप में मतदाताओं को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होता है। वह चुनाव लड़ते समय जनता की अदालत में खड़ा होता है और प्रजातंत्र में जनता का फैसला निर्णायक होता है। अतः मेरी दृष्टि से भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को एक स्वतंत्र नागरिक के रूप में चुनाव लड़ने का अधिकार है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 10.
भारत का लोकतन्त्र अब अनगढ़ ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को छोड़कर समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? इस कथन के पक्ष अथवा विपक्ष में – तर्क दें।
संजीव पास बुक्स उत्तर: मैं इस कथन से सहमत हूँ कि भारत का लोकतन्त्र अब अनगढ़ ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को छोड़कर समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है। इस कथन के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं।
1. समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली से दलों के मत प्रतिशत और प्राप्त सीटों में एक समानता आयेगी। फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में जो राजनैतिक दल जितने प्रतिशत वोट प्राप्त करता है, उसके अनुपात में उसे सीटें प्राप्त नहीं होती हैं। या तो उसकी सीटों की संख्या प्राप्त मत प्रतिशत से बहुत अधिक होती है या बहुत कम। उदाहरण के लिए 1984 में आम चुनाव के समय लोकसभा में कांग्रेस ने 48% मत प्राप्त करके जहाँ 415 सीटें प्राप्त कीं, वहीं भाजपा को 7.4% मत प्राप्त करने पर केवल दो सीटें मिलीं। समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली को अपनाने से यह विसंगति समाप्त हो जायेगी। इससे लोकतन्त्र सुदृढ़ होगा।

2. समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनाने से सही अर्थों में बहुमत प्राप्त प्रत्याशी ही विजयी होगा। ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली में एक निर्वाचन क्षेत्र में कई उम्मीदवार होने के कारण 30 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाला प्रत्याशी ही विजयी हो जाता है, जबकि हारने वाले उम्मीदवारों को 70 प्रतिशत मत मिले। इस प्रकार इस प्रणाली में अल्पमत वाला उम्मीदवार भी जनता का प्रतिनिधित्व करता है। अतः वर्तमान में लोकतन्त्र का सही प्रतिनिधित्व करने के लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए।

3. स्वतन्त्रता के समय भारतीय मतदाता को प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र की परिपक्व समझ नहीं थी। इसलिए ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को उसकी सरलता को देखते हुए अपनाया गया था। लेकिन भारतीय लोकतन्त्र अब परिपक्व हो गया है। यहाँ का आम मतदाता लोकतान्त्रिक प्रणाली को अपना चुका है। ऐसी स्थिति में अब वह समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का भी सही उपयोग कर सकेगा क्योंकि अब यहाँ दलीय व्यवस्था बहुदलीय व द्विदलीय रूप में विकसित हो चुकी है। लोगों का दलों के प्रति रुझान स्पष्ट हो रहा है और वे दलीय आधार पर प्रत्याशियों को मत दे रहे हैं।

4. स्वतन्त्रता के समय ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को अपनाने का एक अन्य कारण इस बात की सम्भावना थी कि समानुपातिक प्रतिनिधिक प्रणाली में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सकेगा। लेकिन 1986 के बाद से भारत में बहुदलीय गठबन्धन की कार्यप्रणाली प्रचलन में आ गई है और अब यहाँ गठबन्धन सरकारें बनाना अनिवार्य हो गया है। तो ऐसी स्थिति में दलों को प्राप्त मत प्रतिशत और सीटों के बीच संतुलन बिठाकर ही लोकतंत्र के सही रूप में सार्थक करना चाहिए क्योंकि विभिन्न दल जब अब गठबन्धन कर सरकारें बना रहे हैं तो उस स्थिति में भी बना लेंगे।

5. अन्त में वर्तमान लोकतान्त्रिक युग में जनता का सही प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के लिए भारत में समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए। चूँकि भारत विविधताओं का देश है जिसमें प्रत्येक वर्ग, विचारधाराओं का उचित प्रतिनिधित्व के लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व अधिक सार्थक है।

चुनाव और प्रतिनिधित्व JAC Class 11 Political Science Notes

→ लोकतंत्र और चुनाव:
(अ) लोकतन्त्र – लोकतन्त्र के दो प्रकार हैं।

  • प्रत्यक्ष लोकतन्त्र और
  • अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र।

→ प्रत्यक्ष लोकतन्त्र: प्रत्यक्ष लोकतन्त्र में नागरिक रोजमर्रा के फैसलों और सरकार चलाने में सीधे भाग लेते हैं। प्राचीन यूनान के नगर राज्य प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के उदाहरण माने जाते हैं। आधुनिक युग में स्थानीय स्वशासन की ‘ग्राम सभाएँ’ इसकी उदाहरण हैं।

→ अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र: लेकिन जब लाखों-लाख लोगों को निर्णय लेना हो, तो इस प्रकार के प्रत्यक्ष लोकतन्त्र को व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। ऐसी व्यवस्था में नागरिक अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं जो देश के शासन और प्रशासन को चलाने में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। ऐसे शासन को अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र या प्रतिनिध्यात्मक शासन कहा जाता है।

→ चुनाव या निर्वाचन: अपने प्रतिनिधियों को चुनने की विधि को चुनाव या निर्वाचन कहते हैं निर्वाचन का महत्त्व – सरकार के संचालन हेतु लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं। इसलिए चुनाव महत्त्वपूर्ण हो जाता है। आज चुनाव पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के जाने-पहचाने प्रतीक हो गये हैं। लोकतन्त्र और चुनाव एक-दूसरे के पूरक हैं। लेकिन सभी चुनाव लोकतांत्रिक नहीं होते। बहुत सारे गैर लोकतांत्रिक देशों में भी चुनाव होते हैं। लोकतांत्रिक संवैधानिक नियमों के अनुसार चुनाव कराने की व्यवस्था लोकतांत्रिक चुनाव को एक गैर लोकतांत्रिक चुनाव से अलग करती है।

→ संविधान और निर्वाचन: एक लोकतान्त्रिक देश का संविधान चुनावों के लिए कुछ मूलभूत नियम बनाता है और इस सम्बन्ध में विस्तृत नियम बनाने का काम विधायिका पर छोड़ देता है। संविधान का लक्ष्य होता है।

  • एक स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव जिसे लोकतान्त्रिक चुनाव कहा जा सके तथा।
  • न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व।

→ भारत में चुनाव व्यवस्था: लोकतान्त्रिक चुनाव में जनता वोट देती है और उसकी इच्छा ही यह तय करती है कि कौन चुनाव जीतेगा लेकिन लोगों के द्वारा अपनी रुचि को व्यक्त करने के अनेक तरीके हो सकते हैं और उनकी पसन्द की गणना करने की भी बहुत सारी विधियाँ हो सकती हैं। इस प्रकार प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र में निर्वाचन की अनेक प्रणालियाँ होती हैं। भारत के संविधान में दो प्रकार की निर्वाचन प्रणालियों को अपनाया गया है।

→ सर्वाधिक मत से जीतने वाली प्रणाली ( जो सबसे आगे वही जीते ):
इस व्यवस्था में जिस प्रत्याशी को अन्य सभी प्रत्याशियों से अधिक वोट मिल जाते हैं, उसे ही निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। विजयी प्रत्याशी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि कुल मतों का बहुमत मिले। इस विधि को ‘जो सबसे आगे वही जीते प्रणाली’ ( फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट सिस्टम) कहते हैं। भारत में लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के चुनाव आदि के लिए संविधान में इसी विधि को स्वीकार किया गया है। विशेषताएँ – इस प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं।

  • इसके अन्तर्गत पूरे देश को छोटी-छोटी भौगोलिक इकाइयों में बाँट दिया जाता है जिसे निर्वाचन क्षेत्र या जिला कहते हैं।
  • हर निर्वाचन क्षेत्र से केवल एक प्रतिनिधि चुना जाता है।
  • मतदाता प्रत्याशी को वोट देता है।
  • पार्टी को प्राप्त वोटों के अनुपात से अधिक या कम सीटें विधायिका में मिल सकती हैं।
  • विजयी उम्मीदवार को जरूरी नहीं कि वोटों का बहुमत (50% + 1 ) मिले।
  • यूनाइटेड किंगडम और भारत में यह प्रणाली अपनायी गई है।

→ समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली: दलों को प्राप्त मतों के अनुपात में विधायिका में प्रत्येक दल को सीटें प्रदान करने की व्यवस्था को समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली कहा जाता है। विशेषताएँ समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं।

  • समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में किसी बड़े भौगोलिक क्षेत्र को एक निर्वाचन क्षेत्र मान लिया जाता है। पूरा का पूरा देश भी एक निर्वाचन क्षेत्र गिना जा सकता है।
  • इसमें एक निर्वाचन क्षेत्र से कई प्रतिनिधि चुने जा सकते हैं।
  • इसमें मतदाता प्रत्याशी को नहीं बल्कि पार्टी को वोट देता है।
  • हर पार्टी को प्राप्त मत के अनुपात में विधायिका में सीटें हासिल होती हैं।
  • विजयी उम्मीदवार को वोटों का बहुमत हासिल होता है।
  • इजरायल और नीदरलैंड में यह व्यवस्था अपनायी गयी है। भारत में केवल अप्रत्यक्ष चुनावों के लिए इसे सीमित रूप में अपनाया गया है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

→ समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के रूप: समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तीन रूपों का उल्लेख किया जा सकता है।

  1. इजरायल और नीदरलैंड में प्रचलित रूप: इजरायल और नीदरलैंड में पूरे देश को एक निर्वाचन क्षेत्र माना जाता है और प्रत्येक पार्टी को राष्ट्रीय चुनावों में प्राप्त वाटों के अनुपात में सीटें दे दी जाती हैं।
  2. अर्जेंटीना और पुर्तगाल में प्रचलित रूप: अर्जेन्टीना और पुर्तगाल में पूरे देश को बहु सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक पार्टी प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए अपने प्रत्याशियों की एक सूची जारी करती है जिसमें उतने ही नाम होते हैं जितने प्रत्याशियों को उस निर्वाचन क्षेत्र से चुना जाना होता है। एक पार्टी को किसी निर्वाचन क्षेत्र में जितने मत प्राप्त होते हैं, उसी आधार पर उसे उस निर्वाचन क्षेत्र में सीटें दे दी जाती हैं। इस प्रकार उक्त दोनों प्रणालियों में किसी निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनिधि वास्तव में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि होते हैं। मतदाता प्रत्याशी को वोट न देकर राजनीतिक दलों को वोट देते हैं।

→ भारत में प्रचलित रूप: भारत में समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को केवल अप्रत्यक्ष चुनावों के लिए ही सीमित रूप में अपनाया गया है। भारत का संविधान राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा और विधान परिषदों के चुनावों के
लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का एक तीसरा और जटिल स्वरूप प्रस्तावित करता है। इसे ‘एकल संक्रमणीय मत प्रणाली’ कहते हैं। भारत में सर्वाधिक वोट प्रणाली क्यों स्वीकार की गई? भारत में सर्वाधिक वोट प्रणाली के स्वीकार करने के प्रमुख कारण हैं।

  • सर्वाधिक वोट प्रणाली एक सरल तथा लोकप्रिय प्रणाली है।
  • इसमें चुनाव के समय मतदाताओं के पास स्पष्ट विकल्प होते हैं। यह प्रणाली मतदाताओं को केवल दलों में ही नहीं वरन् उम्मीदवारों में भी चयन का स्पष्ट विकल्प देती है।
  • इस प्रणाली में किसी निर्वाचन क्षेत्र के लोग यह जानते हैं कि उनका प्रतिनिधि कौन है और वे उसे उत्तरदायी ठहरा सकते हैं।
  • यह प्रणाली एक स्थायी सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त कर संसदीय सरकार को सुचारु और प्रभावी ढंग से काम करने का अवसर देती है।
  • यह प्रणाली एक निर्वाचन क्षेत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों को एकजुट होकर चुनाव जीतने में मदद करती है।

→ निर्वाचन क्षेत्रों का आरक्षण
भारत के संविधान निर्माताओं ने दलित उत्पीड़ित सामाजिक समूहों के लिए उचित और न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने हेतु निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण की व्यवस्था को अपनाया है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत, किसी निर्वाचन क्षेत्र में सभी मतदाता वोट तो डालेंगे लेकिन प्रत्याशी केवल उसी समुदाय या सामाजिक वर्ग का होगा जिसके लिए वह सीट आरक्षित है। भारत का संविधान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं में आरक्षण की व्यवस्था करता है। प्रारम्भ में यह व्यवस्था 10 वर्ष के लिए की गई थी, पर अनेक संवैधानिक संशोधनों द्वारा इसे बढ़ाकर 2020 तक कर दिया गया है। आरक्षण की अवधि खत्म होने पर संसद इसे और आगे बढ़ाने का निर्णय ले सकती है।

संविधान अन्य उपेक्षित या कमजोर वर्गों के लिए इस प्रकार के आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं करता। स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित कर दी गई हैं। परिसीमन आयोग भारत में परिसीमन आयोग एक स्वतन्त्र संस्था है जिसका गठन राष्ट्रपति करते हैं। इसका गठन पूरे देश में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा खींचने तथा निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण हेतु किया जाता है। यह चुनाव आयोग के साथ मिलकर काम करता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

→ स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव: किसी भी चुनाव प्रणाली की कसौटी यह है कि वह एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया सुनिश्चित कर सके, जिसमें मतदाताओं की आकांक्षाएँ चुनाव परिणामों में न्यायपूर्ण ढंग से व्यक्त हो सकें।

(स) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार: लोकतान्त्रिक चुनावों में देश के सभी वयस्क नागरिकों को चुनाव में मत देने के अधिकार को ही सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहा जाता है। भारतीय संविधान में प्रत्येक वयस्क भारतीय नागरिक को वोट देने का अधिकार प्रदान किया गया है।

(द) चुनाव लड़ने का अधिकार: भारत में सभी भारतीय नागरिकों को चुनाव में खड़े होने और जनता का प्रतिनिधि होने का अधिकार है। लेकिन विभिन्न पदों पर चुनाव लड़ने की न्यूनतम आयु अर्हता भिन्न-भिन्न है। जैसे- लोकसभा और विधानसभा प्रत्याशी के लिए कम-से-कम 25 वर्ष की आयु आवश्यक है। राज्यसभा के लिए न्यूनतम आयु 30 वर्ष है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अर्हताएँ भी हैं। लेकिन चुनाव लड़ने के लिए आय, शिक्षा, वर्ग या लिंग के आधार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

(य) स्वतन्त्र निर्वाचन आयोग:
संगठन: भारत में एक स्वतन्त्र निर्वाचन आयोग का प्रावधान किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा कुछ अन्य चुनाव आयुक्त होते हैं। वर्तमान में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा दो अन्य चुनाव आयुक्त हैं। भारत में निर्वाचन आयोग की सहायता करने के लिए प्रत्येक राज्य में एक मुख्य निर्वाचन अधिकारी होता है। निर्वाचन आयोग स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए जिम्मेदार नहीं होता।

→ कार्यकाल: संविधान मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के कार्यकाल की सुरक्षा देता है। उन्हें 6 वर्षों के लिए अथवा 65 वर्ष की आयु तक (जो पहले खत्म हो) के लिए नियुक्त किया जाता है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त को कार्यकाल समाप्त होने के पूर्व राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है; पर इसके लिए संसद के दोनों सदनों को विशेष बहुमत (2/3 बहुमत से पारित कर इस आशय का प्रतिवेदन राष्ट्रपति को देना होगा। निर्वाचन आयुक्तों को भारत का राष्ट्रपति हटा सकता है।

→ कार्य मतदाता सूची तैयार करना: चुनाव के संचालन का अधीक्षण, निर्देशन और नियन्त्रण करना; चुनाव कार्यक्रम तय करना, राजनीतिक दलों व उम्मीदवारों के लिए एक आदर्श आचार संहिता लागू करना, आवश्यकता होने पर किसी क्षेत्र में दोबारा मतगणना की आज्ञा देना, राजनीतिक दलों को मान्यता देना तथा उन्हें चुनाव चिह्न आवण्टित करना आदि प्रमुख कार्य चुनाव आयोग के हैं। पिछले 65 वर्षों में भारत में लोकसभा के 16 चुनाव हो चुके हैं।

→ चुनाव सुधार:
वयस्क मताधिकार, चुनाव लड़ने की स्वतन्त्रता और एक स्वतन्त्र निर्वाचन आयोग की स्थापना के द्वारा भारत में चुनावों को स्वतन्त्र और निष्पक्ष बनाने की कोशिश की गई है। लेकिन पिछले 65 वर्षों के अनुभव के बाद निर्वाचन आयोग, विभिन्न राजनीतिक दलों, स्वतन्त्र समूहों और अनेक विद्वानों द्वारा चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए अनेक सुझाव दिये गए हैं। चुनाव सम्बन्धी प्रावधानों को संशोधन करने से सम्बन्धित कुछ सुझाव ये है।

  • संसद और विधानसभाओं में 1/3 सीटों पर महिलाओं को चुनने हेतु विशेष प्रावधान बनाए जायें।
  • चुनावी राजनीति में धन के प्रभाव को नियन्त्रित किया जाये।
  • फौजदारी मुकदमे वाले उम्मीदवार को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाये।
  • चुनाव प्रचार में जाति एवं धर्म के आधार पर की जाने वाली अपीलों को प्रतिबन्धित किया जाये।
  • राजनीतिक दलों की कार्यविधि को और अधिक पारदर्शी और लोकतान्त्रिक बनाने के लिए कानून बनाया जाये।

→ चुनाव सुधारों के अतिरिक्त चुनावों को स्वतन्त्र व निष्पक्ष बनाने के दो अन्य तरीके ये हैं।

  • जनता स्वयं ही और अधिक सतर्क रहे तथा राजनीतिक कार्यों में और सक्रियता से भाग ले।
  • इसके लिए अनेक राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक संगठनों का विकास किया जाये।

→ (ल) भारत में चुनाव व्यवस्था की सफलता के मापदण्ड।

  • स्वतन्त्रतापूर्वक प्रतिनिधियों का चुनाव तथा शान्तिपूर्ण ढंग से सरकारों का बदलना।
  • चुनाव प्रक्रिया में बढ़ती जनता की रुचि तथा उम्मीदवारों और दलों की बढ़ती संख्या।
  • सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को साथ लेकर चलना।
  • अधिकतर भागों में चुनाव परिणाम चुनावी अनियमितताओं से अप्रभावित।
  • चुनावों का लोकतान्त्रिक जीवन का अभिन्न अंग बन जाना।

भारत में मतदाता के अन्दर आत्मविश्वास बढ़ा है तथा मतदाताओं की नजरों में निर्वाचन आयोग का कद बढ़ा हैं।