JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 धर्मनिरपेक्षता Textbook Exercise Questions and Answers.

Jharkhand Board Class 11 Political Science धर्मनिरपेक्षता InText Questions and Answers

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प्रश्न 1.
कुछ ऐसे तरीकों की सूची बनाओ जिनके माध्यम से साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा दिया जा सकता है।
उत्तर:
साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए निम्न तरीके अपनाये जा सकते हैं।
(1) हम आपसी जागरूकता के लिए एक साथ मिलकर काम करें।
(2) लोगों की सोच को बदलने के लिए शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल दें
(3) साझेदारी और पारस्परिक सहायता के व्यक्तिगत उदाहरण भी विभिन्न समुदायों के बीच पूर्वाग्रह और संदेहों को कम करने में योगदान दे सकते हैं।
(4) आधुनिक समाज में धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना करके हम साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा दे सकते हैं।

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प्रश्न 2.
क्या आप ऐसी धर्म निरपेक्षता की कल्पना कर सकते हैं, जो आपको अपनी पहचान से जुड़ा नाम रखने और आपको पसंद के कपड़े पहनने की आजादी न दे और आपकी बोलचाल की भाषा ही बदल डाले ? आपके खयाल से अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता भारतीय धर्म निरपेक्षता से किन मायनों में भिन्न है?
उत्तर:
हाँ, हम ऐसी धर्म निरपेक्षता की कल्पना कर सकते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद तुर्की में अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता इसी प्रकार की धर्म निरपेक्षता थी। यथा- – 20वीं सदी के प्रारंभ में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने तुर्की में धर्म में हस्तक्षेप के माध्यम से धर्म निरपेक्षता की हिमायत की। उसने इस तरह की धर्म निरपेक्षता न केवल प्रस्तुत की बल्कि उस पर अमल भी किया। उसकी धर्म निरपेक्षता की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं

  1. मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने सर्वप्रथम अपना नाम मुस्तफा कमाल पाशा से बदलकर कमाल अतातुर्क कर लिया। अतातुर्क का अर्थ होता है। तुर्कों का पिता।
  2. हैट कानून के जरिए मुसलमानों द्वारा पहनी जाने वाली परंपरागत फैज टोपी को प्रतिबंधित कर दिया गया।
  3. स्त्री-पुरुषों के लिए पश्चिमी पोशाकों को बढ़ावा दिया गया।
  4. तुर्की पंचांग की जगह पश्चिमी (ग्रिगेरियन) पंचांग लाया गया।
  5. 1928 में नई तुर्की वर्णमाला को संशोधित लैटिन रूप में अपनाया गया।

वे तुर्की के सार्वजनिक जीवन में खिलाफत को समाप्त कर देने के लिए कटिबद्ध थे। वे मानते थे कि परम्परागत सोच-विचार और अभिव्यक्ति से नाता तोड़े बगैर तुर्की को उसकी दुःखद स्थिति से नहीं उबारा जा सकता। परिणामतः उसने तुर्की में उक्त किस्म की धर्म निरपेक्षता को लागू किया। अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता और भारतीय धर्म निरपेक्षता में अन्तर

  1. भारतीय धर्म निरपेक्षता न तो नाम बदलने से सम्बन्धित है। वह अपने पहचान से जुड़े नाम रखने की पूर्ण आजादी प्रदान करती है, जबकि अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता अपनी पहचान से जुड़े नाम बदलने पर बल देती है।
  2. भारतीय धर्म निरपेक्षता आपको अपने पसंद के कपड़े पहनने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है। यहाँ कोई भी धर्मावलम्बी अपनी पहचान से जुड़े तथा अपने पसंद के कपड़े पहन सकता है। लेकिन कमाल अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता आपको परम्परागत विचारों व सोचों से जुड़े कपड़ों को पहनने की आजादी को खत्म करती है। इसीलिए उसने मुसलमानों की परम्परागत फैज टोपी को पहनने को प्रतिबंधित कर दिया तथा पश्चिमी परिधानों को पहनने को बढ़ावा दिया।
  3. भारतीय धर्म निरपेक्षता आपको अपनी बोल-चाल की भाषाओं को बनाए रखनी की आजादी देती है जबकि अतातुर्क की धर्म निरपेक्षता ने तुर्की लोगों की बोलचाल की भाषा को ही बदल दिया।

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प्रश्न 3.
क्या धर्म निरपेक्षता नीचे लिखी बातों के संगत है।
1. अल्पसंख्यक समुदाय की तीर्थ यात्रा को आर्थिक अनुदान देना।
2. सरकारी कार्यालयों में धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन करना।
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता उक्त दोनों बातों के लिए संगत नहीं है क्योंकि धर्म निरपेक्षता धर्म और राज्य सत्ता के बीच सम्बन्ध विच्छेद पर बल देती है। साथ ही राज्य को किसी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक गठजोड़ से परहेज करना भी आवश्यक है। उक्त दोनों बातों को राज्य द्वारा करने पर धर्म निरपेक्षता के इस सिद्धान्त का उल्लंघन होता है।

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प्रश्न 4.
राज्य धर्मों के साथ एक समान बरताव किस तरह कर सकता है। क्या हर धर्म के लिए बराबर संख्या में छुट्टी कर देने से ऐसा किया जा सकता है? या सार्वजनिक अवसरों पर किसी भी प्रकार के धार्मिक समारोह पर रोक लगाकर समान बरताव किया जा सकता है?
उत्तर:
राज्य धर्मों के साथ एक समान बरताव: सभी धर्मो को समान संरक्षण देकर, सभी धर्मों की हिफाजत कर, अन्य धर्मों की कीमत पर किसी एक धर्म की तरफदारी न करके तथा स्वयं किसी भी धर्म को राज्य धर्म के रूप में स्वीकार न करके कर सकता है। राज्य द्वारा हर धर्म के लिए बराबर संख्या में छुट्टी देना तथा सार्वजनिक अवसरों पर किसी प्रकार के धार्मिक समारोह की रोक लगाना सभी धर्मों के साथ समान बर्ताव के व्यवहार के अन्तर्गत ही आते हैं।

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प्रश्न 1.
निम्न में से कौन-सी बातें धर्म निरपेक्षता के विचार से संगत हैं? कारण सहित बताइये
(क) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना।
(ख) किसी धर्म को राज्य के धर्म के रूप में मान्यता देना।
(ग) सभी धर्मों को राज्य का समान आश्रय होना।
(घ) विद्यालयों में अनिवार्य प्रार्थना होना।
(ङ) किसी अल्पसंख्यक समुदाय को अपने पृथक् शैक्षिक संस्थान बनाने की अनुमति होना।
(च) सरकार द्वारा धार्मिक संस्थाओं की प्रबंधन समितियों की नियुक्ति करना।
(छ) किसी मंदिर में दलितों के प्रवेश के निषेध को रोकने के लिए सरकार का हस्तक्षेप।
उत्तर:
निम्नलिखित बातें धर्म निरपेक्षता के विचार से संगत हैं
(क) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना।
(ग) सभी धर्मों को राज्य का समान आश्रय होना।
(ङ) किसी अल्पसंख्यक समुदाय को अपने पृथक् शैक्षिक संस्थान बनाने की अनुमति देना।
(छ) किसी मंदिर में दलितों के प्रवेश के निषेध को रोकने के लिए सरकार का हस्तक्षेप।

(क) किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व न होना:
प्रत्येक प्रकार की धर्म निरपेक्षता के रूप में यह मूल सिद्धान्त निहित है कि धर्म निरपेक्षता अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का विरोध करती है। यह कथन कि किसी धार्मिक समूह पर दूसरे धार्मिक समूह का वर्चस्व नहीं है, इस सिद्धान्त का पालन करता है। अतः यह धर्म निरपेक्षता के विचार से संगत है।

(ग) सभी धर्मों को राज्य का समान आश्रय होना:
धर्मनिरपेक्ष होने के लिए राज्य सत्ता को किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से परहेज करना आवश्यक है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि राज्य का अपना कोई धर्म न हो बल्कि वह सभी धर्मों को समान संरक्षण व आश्रय प्रदान करे। इस दृष्टि से यह कथन कि ‘सभी धर्मों को राज्य का समान आश्रय है’ धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त से संगत है।

(ङ) किसी अल्पसंख्यक समुदाय को अपने पृथक् शैक्षिक संस्थान बनाने की अनुमति देना:
यदि हम यूरोपीय मॉडल की धर्म निरपेक्षता की दृष्टि से विचार करें तो यह कथन धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त से असंगत है क्योंकि यूरोपीय संकल्पना में स्वतंत्रता और समानता का तात्पर्य है। व्यक्तियों की स्वतंत्रता व समुदाय को अपनी पसंद का आचरण करने की स्वतंत्रता रहे। समुदाय आधारित अधिकारों अथवा अल्पसंख्यक अधिकारों की वहाँ कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन यदि हम भारतीय मॉडल की धर्म निरपेक्षता की संकल्पना की दृष्टि से विचार करें तो यह कथन धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त से संगत है क्योंकि भारतीय धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी से ही नहीं है, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है। इसके अन्तर्गत धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी अपनी खुद की. संस्कृति और शैक्षिक संस्थाएँ कायम करने का अधिकार है।

(छ) किसी मंदिर में दलितों के प्रवेश के निषेध को रोकने के लिए सरकार का हस्तक्षेप:
पश्चिमी धर्म निरपेक्षता की संकल्पना की दृष्टि से यह कार्य धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त से असंगत है क्योंकि इस तरह की धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार के लिए कोई जगह नहीं है, लेकिन भारतीय धर्म निरपेक्षता की संकल्पना की दृष्टि से यह कार्य संगत है क्योंकि भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी है और अनुकूलता भी।

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प्रश्न 2.
धर्म निरपेक्षता के पश्चिमी और भारतीय मॉडल की कुछ विशेषताओं का आपस में घालमेल हो गया है। उन्हें अलग करें और एक नई सूची बनाएँ।

पश्चिमी धर्म निरपेक्षता भारतीय धर्म निरपेक्षता
धर्म और राज्य का एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति
करने की अटल नीति एक धर्म के भिन्न पंथों के बीच समानता पर जोर देना
विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता एक मुख्य सरोकार होना समुदाय आधारित अधिकारों पर कम ध्यान देना
अल्पसंख्यक अधिकारों पर ध्यान देना व्यक्ति और धार्मिक समुदायों दोनों के अधिकारों का संरक्षण
व्यक्ति और उसके अधिकारों को केन्द्रीय महत्त्व देना भारतीय धर्म निरपेक्षता

उत्तर:
धर्म निरपेक्षता के पश्चिमी और भारतीय मॉडल की विशेषताओं को निम्न प्रकार सूचीबद्ध किया गया है।

पश्चिमी धर्म निरपेक्षता भारतीय धर्म निरपेक्षता
1. धर्म और राज्य का एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करने की अंटल नीति 1. राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति
2. विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता एक मुख्य सरोकार होना 2. एक धर्म के भिन्न पंथों के बीच समानता पर जोर देना
3. समुदाय आधारित अधिकारों पर कम ध्यान देना 3. अल्पसंख्यक अधिकारों पर ध्यान देना।
4. व्यक्ति और उसके अधिकारों को केन्द्रीय महत्त्व दिया जाना 4. व्यक्ति और धार्मिक समुदाय दोनों के अधिकारों का संरक्षण

प्रश्न 3.
धर्म निरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? क्या इसकी बराबरी धार्मिक सहनशीलता से की जा सकती
उत्तर:
धर्म निरपेक्षता से आशय:
धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त का पहला पक्ष यह है कि यह अन्तर धार्मिक वर्चस्व का विरोध करता है और इसका दूसरा पक्ष यह है कि यह अन्तः धार्मिक वर्चस्व यानी धर्म के अन्दर छुपे हुए वर्चस्व का विरोध करता है। इस प्रकार यह अवधारणा संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व के सभी रूपों का विरोध करती है। यह धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देती है। धर्म निरपेक्षता और धार्मिक सहनशीलता में अन्तर

  1. धार्मिक सहनशीलता धार्मिक वर्चस्व की विरोधी नहीं है, जबकि धर्म निरपेक्षता धार्मिक वर्चस्व की विरोधी है।
  2. धार्मिक सहनशीलता में धार्मिक स्वतंत्रता प्रायः सीमित होती है, जबकि धर्म निरपेक्षता में धार्मिक सहनशीलता अपेक्षाकृत अधिक होती है। हो सकता है कि धार्मिक सहनशीलता में हर किसी को धार्मिक स्वतंत्रता के अवसर मिल जाएँ लेकिन ऐसी स्वतंत्रता प्रायः सीमित होती है, जबकि धर्म निरपेक्षता में राज्य सत्ता धर्मसत्ता के मामले में हस्तक्षेप नहीं करती और किसी धर्म का धार्मिक वर्चस्व नहीं होता है, इसलिए इसमें धार्मिक स्वतंत्रता के सभी को समान अवसर प्राप्त हैं।
  3. धार्मिक सहनशीलता हममें उन लोगों को बर्दाश्त करने की क्षमता पैदा करती है, जिन्हें हम बिल्कुल नापसंद करते हैं; जबकि धर्म निपरेक्षता में ऐसे बर्दाश्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इससे स्पष्ट होता है कि सहिष्णुता या धार्मिक सहनशीलता तथा धर्म निरपेक्षता में काफी अन्तर है तथा धर्म निरपेक्षता की बराबरी धार्मिक सहनशीलता से नहीं की जा सकती।

प्रश्न 4.
क्या आप नीचे दिए गए कथनों से सहमत हैं? उनके समर्थन या विरोध के कारण भी दीजिए।
(क) धर्म निरपेक्षता हमें धार्मिक पहचान बनाए रखने की अनुमति नहीं देती है।
(ख) धर्म निरपेक्षता किसी धार्मिक समुदाय के अन्दर या विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच असमानता के खिलाफ है।
(ग) धर्म निरपेक्षता के विचार का जन्म पश्चिमी और ईसाई समाज में हुआ है। यह भारत के लिए उपयुक्त नहीं है।
उत्तर:
(क) धर्म निरपेक्षता हमें धार्मिक पहचान बनाए रखने की अनुमति नहीं देती है। हम इस कथन से सहमत नहीं हैं क्योंकि धर्म निरपेक्षता धर्म और राज्य का एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करने तथा विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच समानता और एक धर्म के विभिन्न पंथों के बीच समानता तथा किसी धर्म के वर्चस्व का विरोध करने की नीति है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को अपनाने के लिए स्वतंत्र है। वह इस प्रकार उसे अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखने की पूर्ण स्वतंत्रता देती है। इसलिए यह कहना गलत है कि धर्म निरपेक्षता हमें धार्मिक पहचान बनाए रखने की अनुमति नहीं देती है।

(ख) धर्म निरपेक्षता किसी धार्मिक समुदाय के अन्दर या विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच असमानता के खिलाफ है। हम इस कथन से सहमत हैं क्योंकि धर्म निरपेक्षता का विचार धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और
उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देता है तथा असमानता का विरोध करता है। यह अन्तर: धार्मिक तथा अन्तः धार्मिक दोनों तरह के वर्चस्वों के खिलाफ है तथा दोनों तरह के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहता है।

(ग) धर्म निरपेक्षता के विचार का जन्म पश्चिमी और ईसाई समाज में हुआ है। यह भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। हम इस विचार से सहमत नहीं हैं। यद्यपि भारतीय धर्म निरपेक्षता के सम्बन्ध में यह आलोचना की जाती है कि यह ईसाइयत से जुड़ी है, पश्चिमी चीज है और इसीलिए भारतीय परिस्थितियों के लिए अनुपयुक्त है। लेकिन इस विचार से हम असहमत हैं क्योंकि।

  1. पतलून से लेकर इंटरनेट और संसदीय लोकतंत्र तक लाखों पश्चिमी चीजें भारत में प्रचलित हैं जिनकी जड़ें पश्चिम में हैं, क्या वे भारतीयों के लिए अनुपयुक्त हैं।
  2. धर्म निरपेक्ष होने के लिए प्रत्येक राष्ट्र का अपना स्वयं का लक्ष्य होता है। पश्चिमी धर्म निरपेक्षता का लक्ष्य ईसाइयत से राज्य का सम्बन्ध विच्छेद करना था। धर्म और राज्य का पारस्परिक निषेध पश्चिमी धर्म निरपेक्ष समाजों का आदर्श है; लेकिन भारत ने इस सिद्धान्त को उतनी कट्टरता के साथ नहीं अपनाया है।
  3. भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य सत्ता धर्म से सैद्धान्तिक दूरी बनाए रखते हुए भी खास समुदायों की रक्षा के लिए उसमें हस्तक्षेप भी कर सकती है। यह भारतीय धर्म निरपेक्षता न तो ईसाइयत से पूरी तरह जुड़ी हुई है और न भारतीय जमीन पर सीधा-सीधा पश्चिमी आरोपण ही है।

प्रश्न 5.
भारतीय धर्म निरपेक्षता का जोर धर्म और राज्य के अलगाव पर नहीं वरन् उससे अधिक किन्हीं बातों पर है। इस कथन को समझाइये
उत्तर:
भारतीय धर्म निरपेक्षता पश्चिमी धर्म निरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है। भारतीय धर्म निरपेक्षता केवल धर्म और राज्य के बीच सम्बन्ध विच्छेद पर बल नहीं देती। अन्तर- धार्मिक समानता भारतीय धर्म निरपेक्षता की संकल्पना के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भारतीय धर्म निरपेक्षता की संकल्पना की विशिष्ट बातें निम्नलिखित हैं।
1. अन्तर-धार्मिक सहिष्णुता:
भारतीय धर्म निरपेक्षता का विचार गहरी धार्मिक विविधता के संदर्भ में उदित हुआ है। यह विविधता पश्चिमी आधुनिक विचारों और राष्ट्रवाद के आगमन से पहले की चीज है। भारत में पहले से ही अन्तर- धार्मिक सहिष्णुता की संस्कृति मौजूद थी। यह संस्कृति धार्मिक वर्चस्व की विरोधी नहीं है तथा इसमें धार्मिक आजादी प्रायः सीमित होती है तथा यह लोगों में बर्दाश्त करने की क्षमता पैदा करती है।

2. अन्तर-सामुदायिक समानता:
पश्चिमी आधुनिकता के आगमन ने भारतीय चिंतन में समानता की अवधारणा को सतह पर ला दिया। उसने इस धारणा को धारदार बनाया और हमें समुदाय के अन्दर समानता पर बल देने की ओर अग्रसर किया। उसने हमारे समाज को मौजूद श्रेणीबद्धता को हटाने के लिए अन्तर-सामुदायिक समानता के विचार को भी उद्घाटित किया। इस तरह भारतीय समाज में पहले से विद्यमान धार्मिक विविधता और पश्चिम से आए विचारों के बीच अंतर्क्रिया शुरू हुई; जिसके फलस्वरूप भारतीय धर्म निरपेक्षता ने विशिष्ट रूप ग्रहण किया।

3. यह अंतः धार्मिक और अन्तर:
धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केन्द्रित करती है। भारतीय धर्म निरपेक्षता में अन्त:धार्मिक और अन्तर- धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केन्द्रित किया गया है। इसने हिन्दुओं के अन्दर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अन्दर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किये जा सकने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया । इस प्रकार यह पश्चिमी धर्म निरपेक्षता से भिन्न हो गई।

4. व्यक्तियों और अल्पसंख्यक समुदायों दोनों प्रकार की धार्मिक स्वतंत्रता से सम्बद्ध:
पश्चिमी धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध केवल व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता से ही है जबकि भारतीय धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है। इसके अन्तर्गत हर आदमी को अपने पसंद का धर्म मानने के अधिकार के साथ-साथ धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी अपनी स्वयं की संस्कृति और शैक्षिक संस्थाएँ कायम करने का अधिकार है।

5. राज्य समर्थित धार्मिक सुधार:
भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी है और अनुकूलता भी। इसीलिए भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है। भारतीय राज्य ने बाल विवाह के उन्मूलन और अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म के द्वारा लगाए गए निषेध को खत्म करने हेतु अनेक कानून बनाए हैं।

6. न धर्मतांत्रिक और न धर्म से विलग:
भारतीय धर्मनिरपेक्षता का चरित्र धर्मतांत्रिक नहीं है क्योंकि यह किसी धर्म को राजधर्म नहीं मानता है। यह पूर्णतः धर्म से विलग भी नहीं है। यह धर्म से विलग भी हो सकता है और जरूरत पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है।
इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता का जोर धर्म और राज्य के अलगाव पर नहीं वरन् राज्य द्वारा समर्थित धार्मिक सुधारों की अनुमति देने, अल्पसंख्यक अधिकारों पर ध्यान देने, व्यक्ति और धार्मिक समुदाय दोनों के अधिकारों के संरक्षण देने पर अधिक है।

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प्रश्न 6.
‘सैद्धान्तिक दूरी’ क्या है ? उदाहरण सहित समझाइये
उत्तर:
सैद्धान्तिक दूरी से आशय:
धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त यह मांग करता है कि राज्य धर्म से दूरी बनाए रखे। इसका आशय यह है कि राज्य और धर्म में पृथकता होनी चाहिए। पाश्चात्य धर्म निरपेक्षता के मॉडल में राज्य और धर्म के बीच अटल या पूर्ण पृथकता या पूर्ण दूरी पर बल दिया जाता है। लेकिन भारतीय धर्म निरपेक्षता के मॉडल में राज्य और धर्म की पूर्ण पृथकता को नहीं अपनाया गया है। इसमें सैद्धान्तिक दूरी के सिद्धान्त पर बल दिया गया है। सैद्धान्तिक दूरी से आशय यह है कि सामान्यतः राज्य धर्म से एक दूरी बनाए रखता है और धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है। लेकिन विशिष्ट परिस्थितियों में राज्य धार्मिक क्षेत्र में हस्तक्षेप भी कर सकता है। ये विशिष्ट परिस्थितियाँ हैं—भेदभाव, शोषण और असमानता की।

उदाहरण के लिए भारत में राज्य ने हिन्दुओं में अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए संविधान में अस्पृश्यता को अपराध घोषित कर दिया है। इसी प्रकार राज्य ने हस्तक्षेप करके दलितों को मंदिरों में प्रवेश, सार्वजनिक स्थलों के उपयोग, कुओं, तालाबों तथा शैक्षिक संस्थाओं के प्रयोग के लिए अनुमति प्रदान की है। इसी प्रकार राज्य ईसाइयत और इस्लाम में भी हस्तक्षेप कर सकता है, जब वह देखता है कि धर्म व्यक्ति के मूल अधिकारों का उल्लंघन कर रहा है, अन्याय या शोषण कर रहा है। दूसरे, भारतीय राज्य सुधारों को समर्थन करके धर्म का विकास भी कर सकता है अर्थात् वह धर्म सुधार हेतु हस्तक्षेप कर सकता है। इसी को सैद्धान्तिक दूरी कहा जाता है।

धर्मनिरपेक्षता JAC Class 11 Political Science Notes

→ धर्म निरपेक्षता क्या है?
धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त के दो पक्ष हैं। इसका पहला पक्ष यह है कि यह अन्तर- धार्मिक वर्चस्व का विरोध करता है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि यह अंतः धार्मिक वर्चस्व यानी धर्म के अंदर छुपे हुए वर्चस्व का विरोध करता है। इस प्रकार धर्म निरपेक्षता संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व के सभी रूपों की विरोधी है। यह धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देती है। इस प्रकार धर्म निरपेक्षता की अवधारणा को नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही दृष्टि से स्पष्ट किया जाता है। यथा

  • नकारात्मक अर्थ में धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त संस्थागत धार्मिक वर्चस्व के सभी रूपों का विरोधी होने के नाते यह अन्तर- धार्मिक वर्चस्व तथा अन्तः धार्मिक वर्चस्व दोनों को नकारता है।
  • सकारात्मक अर्थ में धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त धर्मों के अन्दर की आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा देता ह।

→ धर्मों के बीच वर्चस्ववाद:
धर्मों के बीच वर्चस्ववाद से यह आशय है कि एक क्षेत्र में बहुसंख्यक धर्म वाला सम्प्रदाय अल्पसंख्यक धर्मावलम्बियों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेता है और फिर वह अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों का उत्पीड़न करता है। उदाहरण के लिए, इसी धार्मिक वर्चस्ववाद के चलते

  • 1984 में दिल्ली में हजारों सिखं मारे गए;
  • हजारों कश्मीरी पंडितों को घाटी में अपना घर विवश होकर छोड़ना पड़ा;
  • सन् 2002 में गुजरात में लगभग 2000 मुसलमान मारे गये आदि।

→ धर्म के अन्दर वर्चस्व:
कई धर्म संप्रदायों में विभाजित हो जाते हैं और निरन्तर आपसी हिंसा तथा भिन्न मत रखने वाले अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न में लगे रहते हैं। इस प्रकार यह धर्म के अन्दर वर्चस्व का रूप ग्रहण कर लेता है। धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त धर्म के अन्दर के वर्चस्व के रूप का भी विरोध करता है। इस प्रकार धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त संस्थागत धार्मिक वर्चस्व के सभी रूपों का विरोध करता है। इस प्रकार धर्म निरपेक्षता ऐसा नियामक सिद्धान्त है जो धर्म निरपेक्ष समाज, उक्त दोनों तरह के वर्चस्वों से रहित समाज बनाना चाहता है जिसमें धर्मों के अन्दर आजादी तथा विभिन्न धर्मों के बीच और उनके अन्दर समानता को बढ़ावा दिया जाता हों।

→ धर्म निरपेक्ष राज्य:
धार्मिक भेदभाव को रोकने के लिए आपसी जागरूकता, शिक्षा, साझेदारी, पारस्परिक सहायता, भलाई की भावना का विकास आदि रास्तों को अपनाया जा सकता है। लेकिन इनसे अधिक शक्तिशाली रास्ता धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना करना है। एक धर्म निरपेक्ष राज्य सत्ता में निम्न विशेषताएँ होनी आवश्यक हैं।

  • राज्य सत्ता किसी खास धर्म के प्रमुखों द्वारा संचालित नहीं हो। धार्मिक संस्थाओं और राज्यसत्ता की संस्थाओं के बीच सम्बन्ध नहीं होना चाहिए।
  • राज्य सत्ता को किसी भी धर्म के साथ किसी भी तरह के औपचारिक कानूनी गठजोड़ से परहेज करना होगा।
  • धर्म निरपेक्ष राज्य को ऐसे सिद्धान्तों और लक्ष्यों के लिए अवश्य प्रतिबद्ध होना चाहिए जो गैर धार्मिक स्रोतों से निकलते हों, जैसे शांति, धार्मिक स्वतंत्रता; धार्मिक उत्पीड़न, भेदभाव और वर्जना से आजादी ; तथा अन्तर- – धार्मिक व अन्तः धार्मिक समानता। धर्म निरपेक्ष राज्य का कोई एक निश्चित मॉडल नहीं बताया जा सकता। राजनैतिक धर्म निरपेक्षता किसी भी रूप में स्थापित हो सकती हैं। यहाँ अग्रलिखित दो मॉडलों को स्पष्ट किया गया है।

→ धर्म निरपेक्षता का यूरोपीय मॉडल:

  • यूरोपीय मॉडल के सभी धर्म निरपेक्ष राज्य न तो धर्मतांत्रिक हैं और न किसी खास धर्म की स्थापना करते हैं।
  • इसमें राज्य सत्ता धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती है और न धर्मसत्ता राज्य के मामलों में दखल देती है। दोनों के अपने अलग-अलग क्षेत्र तथा सीमाएँ हैं।
  • राज्य न तो धर्म के आधार पर कोई नीति बनायेगा और न किसी धार्मिक संस्था को मदद देगा।
  • देश के कानून की सीमा के अन्दर संचालित धार्मिक समुदायों की गतिविधियों में राज्य व्यवधान पैदा नहीं कर सकता।
  • यह संकल्पना स्वतंत्रता और समानता की व्यक्तिवादी ढंग से व्याख्या करती है। इसमें समुदाय आधारित अधिकारों या अल्पसंख्यकों के अधिकारों की कोई गुंजाइश नहीं है। इस तरह की धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार के लिए कोई जगह नहीं है।

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→ धर्म निरपेक्षता का भारतीय मॉडल:
भारतीय धर्म निरपेक्षता में अंतः धार्मिक और अन्तर- धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केन्द्रित किया गया है। परिणामस्वरूप भारतीय धर्म निरपेक्षता पश्चिमी धर्म निरपेक्षता से निम्न रूपों में भिन्न रूप में सामने आई हैं।

  • इसने पिछड़ों और अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किये जाने वाले खतरों का समान रूप से विरोध किया।
  • भारतीय धर्म निरपेक्षता का सम्बन्ध व्यक्तियों की धार्मिक आजादी से ही नहीं है, बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी से भी है।
  • भारतीय धर्म निरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी है और अनुकूलता भी। इसीलिए भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है। राज्य ने बाल विवाह के उन्मूलन और अन्तर्जातीय विवाह पर हिन्दू धर्म द्वारा लगाए निषेध को खत्म करने हेतु अनेक कानून बनाए हैं।

इस प्रकार भारतीय राज्य के धर्म निरपेक्ष चरित्र की प्रमुख विशेषता यह है कि वह न तो धर्मतांत्रिक है और न ही किसी धर्म को राजधर्म मानता है। लेकिन वह धार्मिक समानता हासिल करने के लिए अमेरिकी शैली में धर्म से विलग भी हो सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसके साथ सम्बन्ध भी बना सकता है। वह धार्मिक अत्याचार का विरोध करने हेतु धर्म के साथ निषेधात्मक सम्बन्ध भी बना सकता है और वह जुड़ाव की सकारात्मक विधि भी अपना सकता है। अस्पृश्यता का निषेध जहाँ निषेधात्मक जुड़ाव है, वहीं धार्मिक अल्पसंख्यकों को शिक्षा संस्थाएँ खोलने व चा का अधिकार देना सकारात्मक जुड़ाव को दर्शाता है। भारतीय धर्म निरपेक्षता तमाम धर्मों में राजसत्ता के सैद्धान्तिक हस्तक्षेप की अनुमति देती है।

→भारतीय धर्म निरपेक्षता की आलोचनाएँ:
धर्म विरोधी: कुछ लोग यह कहते हैं कि भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी है क्योंकि यह संस्थागत धार्मिक वर्चस्व का विरोध करती है। लेकिन इसके आधार पर इसे धर्म विरोधी नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग इस आधार पर इसे धर्म विरोधी कहते हैं कि यह धार्मिक पहचान के लिए खतरा पैदा करती है। लेकिन यह विचार भी त्रुटिपरक है क्योंकि यह धार्मिक स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा देती है। अतः यह धार्मिक पहचान के लिए खतरा नहीं बल्कि उसकी हिफाजत करती है। हाँ, वह धार्मिक पहचान के मतांध, हिंसक, दुराग्रही, औरों का बहिष्कार करने वाले और अन्य धर्मों के प्रति घृणा उत्पन्न करने वाले रूपों पर अवश्य चोट करती है।

→ पश्चिम से आयातित:
दूसरी आलोचना यह है कि यह पश्चिम से आयातित है। इसीलिए भारतीय परिस्थितियों के लिए अनुपयुक्त है। लेकिन यह विचार त्रुटिपरक है क्योंकि यहाँ ऐसी धर्म निरपेक्षता विकसित हुई है जो न तो पूरी तरह ईसाइयत से जुड़ी है और न भारतीय जमीन से। तथ्य यह है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता में पश्चिमी और गैर-पश्चिमी दोनों मार्गों का अनुसरण किया गया है।

→ अल्पसंख्यकवाद:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की तीसरी आलोचना अल्पसंख्यकवाद सम्बन्धी है। इसके तहत कहा जाता है कि यह अल्पसंख्यक अधिकारों की पैरवी करती है। इसके प्रत्युत्तर में यह कहा जा सकता है कि अल्पसंख्यक अधिकारों को विशेष अधिकारों या विशेष सुविधाओं के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसके पीछे सिर्फ यह धारणा है कि अल्पसंख्यकों के सर्वाधिक मौलिक हितों की क्षति नहीं होनी चाहिए और संवैधानिक कानून द्वारा. उनकी हिफाजत की जानी चाहिए।

→ अतिशय अहस्तक्षेपकारी:
चौथी आलोचना यह की जाती है कि धर्म निरपेक्षता उत्पीड़नकारी है और समुदायों की धार्मिक स्वतंत्रता में अतिशय हस्तक्षेप करती है। लेकिन यह आलोचना भी त्रुटिपरक है क्योंकि भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म से सैद्धान्तिक दूरी कायम रखने पर चलती है जो हस्तक्षेप की गुंजाइश भी बनाती है लेकिन यह हस्तक्षेप अपने आप में उत्पीड़नकारी हस्तक्षेप नहीं होता।

→ वोट बैंक की राजनीति:
पांचवीं आलोचना यह की जाती है कि भारतीय धर्म निरपेक्षता वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है। लेकिन लोकतंत्र में राजनेताओं के लिए वोट पाना जरूरी है। यह उनके काम का अंग है और लोकतांत्रिक राजनीति बड़ी हद तक ऐसी ही है। यह तथ्य कि धर्म निरपेक्ष दल वोट बैंक का इस्तेमाल करते हैं, कष्टकारक नहीं है। भारत में हर समुदाय के संदर्भ में सभी दल ऐसा करते हैं।

→ एक असंभव परियोजना:
भारतीय धर्म निरपेक्षता की एक अन्य आलोचना यह की जाती है कि “यह धर्म निरपेक्षता नहीं चल सकती क्योंकि यह बहुत कुछ करना चाहती है, यह ऐसी समस्या का हल ढूँढ़ना चाहती है, जिसका समाधान है ही नहीं।” क्योंकि गहरे धार्मिक मतभेद वाले लोग कभी भी शांति से एक साथ नहीं रह सकते। लेकिन यह दावा गलत है। भारत में इस तरह साथ-साथ रहना बिल्कुल संभव रहा है। दूसरे, भारतीय धर्म निरपेक्षता एक असंभव परियोजना का अनुसरण नहीं है बल्कि यह भविष्य की दुनिया का प्रतिबिंब प्रस्तुत कर रही है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद Textbook Exercise Questions and Answers.

Jharkhand Board Class 11 Political Science राष्ट्रवाद Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
राष्ट्र किस प्रकार से बाकी सामूहिक संबद्धताओं से अलग है?
उत्तर:
अन्य सामूहिक संबद्धताओं से राष्ट्र भिन्न है। राष्ट्र लोगों का वह समूह है जिनकी जाति, भाषा, धर्म की कुछ सामान्य (Common) विशेषताएँ होती हैं तथा जिनकी साझी राजनीतिक आकांक्षाएँ या साझा इतिहास होता है। यह मनुष्यों के अन्य प्रकार के समूहों व समुदायों से भिन्न है। यथा

  1. यह परिवार से भिन्न है। प्राथमिक सम्बन्धों के आधार पर यह परिवार से भिन्न होता है। परिवार का आधार प्राथमिक सम्बन्ध होते हैं और इस कारण परिवार का प्रत्येक सदस्य दूसरे सदस्यों के व्यक्तित्व और चरित्र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी रखता है। लेकिन राष्ट्र के लिए यह संभव नहीं है क्योंकि इसके सभी सदस्यों के बीच प्राथमिक सम्बन्ध नहीं होते हैं।
  2. यह नातेदारी समूह जनजाति या अन्य सगोत्रीय समूहों से भी इस आधार पर भिन्न है क्योंकि इन समूहों के सदस्य रक्त या विवाह सम्बन्धों व वंश परम्परा पर आधारित होते हैं जबकि राष्ट्र के सदस्यों के लिए रक्त सम्बन्धों या विवाह सम्बन्धों के आधार पर सम्बन्धित होना आवश्यक नहीं है। यदि हम इन समूहों के सभी सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से नहीं भी जानते हों तो भी आवश्यकता पड़ने पर हम उन सूत्रों को खोज सकते हैं जो इन्हें आपस में जोड़ते हैं। लेकिन राष्ट्र के सदस्य के रूप में हम अपने राष्ट्र के अधिकतर सदस्यों को सीधे तौर पर न कभी जान पाते हैं और न उनके साथ वंशानुगत नाता जोड़ने की जरूरत पड़ती है।
  3. यह समाज से भिन्न है। एक राष्ट्र के सदस्यों के लिए एकता की भावना या अपनी राजनीतिक पहचान का होना आवश्यक है जबकि समाज के सदस्यों में एकता की भावना हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती।
  4. यह अन्य समुदायों से भिन्न है। यह अन्य समुदायों से इस आधार पर भिन्न है कि संघ के सदस्यों के साथ-साथ काम करने के लिए साझे उद्देश्य होते हैं, जबकि राष्ट्र के सदस्यों के ऐसे कोई विशिष्ट उद्देश्य नहीं होते।
  5. यह राज्य से भी भिन्न है। राष्ट्र राज्य से इस आधार पर भिन्न है कि राज्य राजनैतिक रूप से संप्रभुता प्राप्त संगठन है जबकि राष्ट्र के पास संप्रभुता नहीं होती है और न ही राष्ट्र राजनैतिक रूप से संगठित होता है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार से आप क्या समझते हैं? किस प्रकार यह विचार राष्ट्र-राज्यों के निर्माण और उनको मिल रही चुनौती में परिणत होता है?
उत्तर:
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार से आशय: बाकी सामाजिक समूहों से अलग राष्ट्र अपना शासन अपने आप करने और भविष्य को तय करने का अधिकार चाहते हैं। इसी को राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार कहा जाता है।
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के दावे मैं राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करता है कि उसके पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाये । प्रायः ऐसी मांग निम्न प्रकार के लोगों की ओर से आती है।

  1. वे लोग जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें साझी पहचान का बोध हो।
  2. कुछ मामलों में आत्म-निर्णय के ऐसे दावे एक स्वतंत्र राज्य बनाने की उस इच्छा से भी जुड़े होते हैं। इन दावों का सम्बन्ध किसी समूह की संस्कृति की संरक्षा से होता है।

राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार राष्ट्र: राज्यों के निर्माण के रूप में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अनेक दावे किसी समूह की संस्कृति की संरक्षा के लिए एक स्वतंत्र राज्य बनाने की इच्छा के रूप में सामने आए। इन दावों ने राष्ट्र- राज्यों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। यथा

1. एक संस्कृति और एक राज्य की अवधारणा के तहत राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार:
19वीं सदी में यूरोप में एक संस्कृति और एक राज्य’ की मान्यता ने जोर पकड़ा। फलस्वरूप प्रथम विश्वयुद्ध के बाद राज्यों की पुनर्व्यवस्था में इस विचार को आजमाया गया। वर्साय की संधि से बहुत-से छोटे और नव स्वतंत्र राज्यों का गठन हुआ। लेकिन ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की मांगों को संतुष्ट करने से राज्यों की सीमाओं में बदलाव हुए। अलग-अलग सांस्कृतिक समुदायों को अलग-अलग राष्ट्र-राज्य मिले- इसे ध्यान में रखकर सीमाओं को बदला गया। इस प्रयास के बावजूद अधिकतर राज्यों की सीमाओं के अन्दर एक से अधिक नस्ल और संस्कृति के लोग रहते थे। ये छोटे-छोटे समुदाय राज्य के अन्दर अल्पसंख्यक थे और अक्सर नुकसानदेह स्थितियों में रहते थे। फिर भी इस प्रयास के अन्तर्गत बहुत सारे राष्ट्रवादी समूहों को राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के अन्तर्गत राजनीतिक मान्यता प्रदान की गई जो स्वयं को एक अलग राष्ट्र के रूप में देखते थे और अपने भविष्य को तय करने तथा अपना शासन स्वयं चलाना चाहते थे।

2. राजनीतिक स्वाधीनता के साथ राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार:
एशिया एवं अफ्रीका में औपनिवेशिक प्रभुत्व के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों ने राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के तहत राजनीतिक स्वाधीनता के लिए संघर्ष चलाया। राष्ट्रीय आंदोलनों का मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता राष्ट्रीय समूहों को सम्मान एवं मान्यता प्रदान करेगी और वहाँ के लोगों के सामूहिक हितों की रक्षा करेगी। अधिकांश राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन राष्ट्र के लिए न्याय, अधिकार और समृद्धि हासिल करने के लक्ष्य से प्रेरित थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका के देशों को राजनीतिक स्वाधीनता के तहत राष्ट्रीय आत्म निर्णय का अधिकार मिला और अनेक नए राष्ट्र-राज्यों का निर्माण हुआ।

राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार राष्ट्र-राज्यों को मिल रही चुनौती के रूप में: राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार ने एक तरफ जहाँ राष्ट्र-राज्यों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं अब यह अधिकार राष्ट्र-राज्यों को चुनौती भी प्रस्तुत कर रहा है। यथा

1. जब राष्ट्रीय आत्म: निर्णय का अधिकार ‘एक संस्कृति: एक राज्य’ की अवधारणा के रूप में मिला तो अनेक नए राष्ट्रों को यूरोप में मान्यता मिली। लेकिन इन राज्यों के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की समस्या ज्यों की त्यों बनी
रही।

2. एशिया और अफ्रीका में औपनिवेशिक प्रभुत्व के खिलाफ राजनीतिक स्वाधीनता की अवधारणा के साथ राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के तहत नवीन राष्ट्र-राज्यों का जन्म हुआ। लेकिन इस क्षेत्र के अनेक देश आबादी के देशान्तरण, सीमाओं परं युद्ध और हिंसा की चपेट में आते रहे। इन राष्ट्र-राज्यों में अनेक भू-क्षेत्रों में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग अल्पसंख्यक समूह कर रहे हैं। वस्तुतः आज राष्ट्र-राज्य इस दुविधा में फँसे हुए हैं कि आत्म-निर्णय के इन आन्दोलनों से कैसे निपटा जाये। बहुत से लोग यह महसूस करने लगे हैं कि समाधान नए राज्यों के गठन में नहीं बल्कि वर्तमान राज्यों को अधिकाधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 3.
हम देख चुके हैं कि राष्ट्रवाद लोगों को जोड़ भी सकता है और तोड़ भी सकता है। उन्हें मुक्त कर सकता है और उनमें कटुता और संघर्ष भी पैदा कर सकता है। उदाहरणों के साथ उत्तर दीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रवाद ने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है। इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है तो इसके साथ ही यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है। यथा

1. राष्ट्रवाद ने जनता को जोड़ा है। राष्ट्रवाद ने जनता को जोड़ा है। राष्ट्रवाद से जनता में एकता की भावना का संचार हुआ है। उदाहरण के लिए 19वीं शताब्दी के यूरोप में राष्ट्रवाद ने कई छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण द्वारा वृहत्तर राष्ट्र – राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। आज के जर्मनी और इटली का गठन एकीकरण और सुदृढ़ीकरण की इसी प्रक्रिया के जरिए हुआ था। राज्य की सीमाओं के सुदृढ़ीकरण के साथ स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियाँ भी उत्तरोत्तर राष्ट्रीय निष्ठाओं और सर्वमान्य जनभाषाओं के रूप में विकसित हुईं। नए राष्ट्रों के लोगों ने एक नई राजनीतिक पहचान अर्जित की, जो राष्ट्र-राज्य की सदस्यता पर आधारित थी। आज अरबी राष्ट्रवाद में तमाम अरबी देशों के लोगों को अखिल अरब संघ में एकताबद्ध कर सकता है।

2. राष्ट्रवाद ने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है। राष्ट्रवाद का आधार राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार है। आत्म-निर्णय के अधिकार के दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करता है कि उसके पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता दी जाए। एशिया और अफ्रीका में औपनिवेशिक अत्याचारी शासन के विरोध में राष्ट्रवादी भावना से प्रेरित होकर लोगों ने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन चलाये। राष्ट्रीय आन्दोलनों का मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता राष्ट्रीय समूहों को सम्मान और मान्यता प्रदान करेगी और वहाँ के लोगों के सामूहिक हितों की रक्षा करेगी। फलतः राष्ट्रवाद ने एशिया और अफ्रीका में अत्याचारी शासकों से लोगों को स्वतंत्रता प्रदान की है।

3. राष्ट्रवाद लोगों को तोड़ सकता है, उनमें कटुता और संघर्ष भी पैदा कर सकता है। यूरोप में ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की राष्ट्रवाद की मांगों को संतुष्ट करने के लिए राज्यों की सीमाओं में बदलाव हुए। इससे सीमाओं के एक ओर से दूसरी ओर बड़ी संख्या में विस्थापन हुए। इसके परिणामस्वरूप लाखों लोग अपने घरों से उजड़ गए और उस जगह से उन्हें बाहर धकेल दिया गया जहाँ पीढ़ियों से उनका घर था। बहुत सारे लोग साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार हुए। इसी प्रकार राष्ट्रवाद की अवधारणा के तहत भारत और पाकिस्तान दो राष्ट्रों का जन्म हुआ। इसके कारण भी लाखों लोगों को एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में धकेला गया। इससे स्पष्ट होता है कि राष्ट्रवाद लोगों को तोड़ सकता है और उनमें कटुता और संघर्ष भी पैदा कर सकता है। इसके कारण बहुत से सीमा विवाद पैदा होते हैं। शरणार्थियों की समस्यायें सामने आती हैं।

4. उपराष्ट्रीयताओं का उभार राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार से प्रेरित होकर एक राष्ट्र में उपराष्ट्रीयताओं का उभार होता है और वे अपने भू-क्षेत्र में नवीन राष्ट्र के निर्माण के लिए संघर्ष करने लग जाते हैं। ऐसे राष्ट्रीय आत्म- निर्णय के लिए संघर्ष दुनिया के विभिन्न भागों में अब भी चल रहे हैं। स्पेन में बास्क राष्ट्रवादी आन्दोलन इसी प्रकार का है।

प्रश्न 4.
वंश, भाषा, धर्म या नस्ल में से कोई भी पूरे विश्व में राष्ट्रवाद के लिए साझा कारण होने का दावा नहीं कर सकता टिप्पणी कीजिये।
उत्तर:
बहुत से लोगों का मानना है कि एकसमान भाषा या जातीय वंश परम्परा जैसी साझी सांस्कृतिक पहचान व्यक्तियों को एक राष्ट्र के रूप में बांध सकती है। लेकिन वंश, भाषा या नस्ल में से कोई भी पूरे विश्व में राष्ट्रवाद के लिए साझा कारण होने का दावा नहीं कर सकता। यथा

1. धर्म और भाषा: यद्यपि एक ही भाषा बोलना आपसी संवाद को आसान बना देता है और समान धर्म होने पर बहुत सारे विश्वास और सामाजिक रीति-रिवाज साझे हो जाते हैं। एक जैसे त्यौहार मनाना, एक जैसे अवसरों पर छुट्टियाँ चाहना और एक जैसे प्रतीकों को धारण करना लोगों को करीब ला सकता है, तथापि यह उन मूल्यों के भीतर खतरा भी उत्पन्न कर सकता है जिन्हें हम लोकतंत्र में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इसके दो कारण हैं। यथा

(i) धार्मिक विविधता:
दुनिया के सभी बड़े धर्म अंदरूनी तौर से विविधता से भरे हुए हैं। वे अपने समुदाय के अन्दर चलने वाले संवाद के कारण ही बने और बढ़े हैं। परिणामस्वरूप धर्म के अन्दर बहुत से पंथ बन जाते हैं और धार्मिक ग्रन्थों और नियमों की उनकी व्याख्यायें अलग-अलग होती हैं। अगर हम इन विभिन्नताओं की अवहेलना करें और एक समान धर्म के आधार पर एक पहचान स्थापित कर दें तो आशंका है कि हम बहुत ही वर्चस्ववादी और दमनकारी समाज का निर्माण कर दें

(ii) सांस्कृतिक विविधता:
अधिकतर समाज सांस्कृतिक विविधता से भरे हैं। एक ही भू-क्षेत्र में विभिन्न धर्म और भाषाओं के लोग साथ-साथ रहते हैं। किसी राज्य की सदस्यता की शर्त के रूप में किसी खास धार्मिक या भाषायी पहचान को आरोपित कर देने से कुछ समूह निश्चित रूप से शामिल होने से रह जायेंगे। इससे शामिल नहीं किए गए समूहों को हानि होगी। इससे ‘समान बर्ताव और सबके लिए स्वतंत्रता’ के उस आदर्श में भारी कटौती होगी, जिसे हम लोकतंत्र में अमूल्य मानते हैं। इन्हीं कारणों से यह बेहतर होगा कि राष्ट्र की कल्पना सांस्कृतिक पदों में न की जाए। अतः लोकतंत्र में किसी खास धर्म, नस्ल या भाषा की सम्बद्धता के स्थान पर एक मूल्य समूह के प्रति निष्ठा की जरूरत है।

2. नस्ल व वंश: राष्ट्रवाद के निर्माण और विकास के लिए नस्ल या वंश की एकता एक आवश्यक तत्त्व एक नस्ल या वंश के सदस्यों में स्वाभाविक रूप से एकता की भावना पाई जाती है। परन्तु आधुनिक विद्वानों ने इसे राष्ट्रवाद के निर्माण व विकास का मूल तत्त्व नहीं माना है क्योंकि एक ही राज्य में विभिन्न वंशों और नस्लों के लोग रहते हैं।

प्रश्न 5.
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले कारकों पर सोदाहरण रोशनी डालिए।
उत्तर:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले कारक राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित है।
1. साझे विश्वास:
राष्ट्र विश्वास के जरिये बनता है। यह समूह के भविष्य के लिए सामूहिक पहचान और दृष्टिकोण का प्रमाण है, जो स्वतन्त्र राजनैतिक अस्तित्व का आकांक्षी है। एक राष्ट्र का अस्तित्व तभी कायम रह सकता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्र की तुलना हम एक टीम से कर सकते हैं। जब हम टीम की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय लोगों के ऐसे समूह से है, जो एक साथ काम करते या खेलते हैं तथा वे स्वयं को एकीकृत समूह मानते हैं। अगर वे अपने बारे में इस तरह नहीं सोचते तो एक टीम की उनकी हैसियत खत्म हो जायेगी और वे खेल खेलने वाले अलग-अलग व्यक्ति रह जायेंगे।

2. इतिहास:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला दूसरा प्रमुख कारक साझा इतिहास है। जो लोग अपने को एक राष्ट्र मानते हैं उनके भीतर अपने बारे में स्थायी ऐतिहासिक पहचान की भावना होती है। वे देश की स्थायी ऐतिहासिक पहचान का खाका प्रस्तुत करने के लिए साझा स्मृतियों, किंवदन्तियों और ऐतिहासिक अभिलेखों के जरिये अपने लिए इतिहासबोध निर्मित करते हैं। उदाहरण के लिए भारत के राष्ट्रवादियों ने यह दावा करने के लिए कि एक सभ्यता के रूप में भारत का लम्बा और अटूट इतिहास रहा है और यह सभ्यतामूलक निरन्तरता और एकता भारतीय राष्ट्र की बुनियाद है।

3. भू-क्षेत्र:
बहुत सारे राष्ट्रों की पहचान एक खास भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ी हुई है। किसी खास भू-क्षेत्र पर लम्बे समय तक साथ-साथ रहना और उससे जुड़ी साझे अतीत की यादें लोगों को एक सामूहिक पहचान का बोध देती हैं। ये उन्हें एक होने का एहसास देती हैं। इसलिए जो लोग स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में देखते हैं, वे एक गृहभूमि की बात करते हैं। राष्ट्र अपनी गृहभूमि का बखान मातृभूमि, पितृभूमि या पवित्र भूमि के रूप में करते हैं।

4. साझे राजनीतिक आदर्श:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला एक अन्य कारक ‘साझे राजनीतिक आदर्श’ हैं। भविष्य के बारे में साझा नजरिया और अपना स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व बनाने की सामूहिक चाहत, राष्ट्र को शेष समूहों से अलग करती है। राष्ट्र के सदस्यों की इस बारे में एक साझा दृष्टि होती है कि वे किस तरह का राज्य बनाना चाहते हैं। वे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद जैसे मूल्यों और सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं । इन शर्तों के आधार पर वे साथ-साथ रहना चाहते हैं। इस प्रकार साझे राजनीतिक आदर्श राष्ट्र के रूप में उनकी राजनीतिक पहचान को बनाते हैं।

5. साझी राजनीतिक पहचान:
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला एक अन्य कारक ‘साझी राजनैतिक ‘पहचान’ का होना है। राष्ट्र की कल्पना राजनीतिक शब्दावली में की जानी चाहिए अर्थात् लोकतंत्र में किसी खास धर्म, नस्ल या भाषा से संबद्धता की जगह एक मूल्य – समूह के प्रति निष्ठा की जरूरत होती है। इस मूल्य-समूह को देश के संविधान में भी दर्ज किया जा सकता है।

प्रश्न 6.
संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के साथ बर्ताव करने में तानाशाही की अपेक्षा लोकतंत्र अधिक समर्थ होता है। कैसे?
उत्तर:
संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं के साथ बर्ताव करने में तानाशाही की अपेक्षा लोकतंत्र अधिक समर्थ होता है क्योंकि संघर्षरत राष्ट्रवादी समूहों की आकांक्षाओं का समाधान नए राज्यों के गठन में नहीं बल्कि वर्तमान राज्यों को अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है। इसका समाधान यह सुनिश्चित करने में है कि अलग-अलग सांस्कृतिक और नस्लीय पहचानों के लोग देश में समान नागरिक और साथियों की तरह सह-अस्तित्वपूर्वक रह सकें। यह न केवल आत्म-निर्णय के नए दावों के उभार से पैदा होने वाली समस्याओं के समाधान के लिए वरन् मजबूत और एकताबद्ध राज्य बनाने के लिए जरूरी होगा। यथा-

  1. लोकतांत्रिक शासन ‘समान व्यवहार और सबके लिए स्वतंत्रता’ के आदर्श को लेकर चलता है लेकिन तानाशाही शासन में यह आदर्श नहीं अपनाया जाता। इसका अभिप्राय यह है कि लोकतंत्र में किसी खास धर्म, नस्ल या भाषा की सम्बद्धता की जगह एक मूल्य समूह के प्रति निष्ठा की जरूरत होती है। इस मूल्य समूह को देश के संविधा में दर्ज कर संघर्षरत राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को संतुष्ट किया जा सकता है। लोकतांत्रिक राज्य अपनी सामूहिक राष्ट्रीय पहचान को साझे राजनैतिक आदर्शों के आधार पर गढ़कर सभी समूहों को एक राष्ट्र के रूप में निरूपित कर सकते हैं ।
  2. लोकतांत्रिक देश सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने और संरक्षित करने के उपाय कर सकता है। इस हेतु प्रायः सभी लोकतांत्रिक देशों ने अल्पसंख्यक समूहों एवं उनके सदस्यों की भाषा, संस्कृति एवं धर्म के लिए संवैधानिक संरक्षा का अधिकार प्रदान कर दिया है।
  3. लोकतांत्रिक देशों में इन समूहों को विधायी संस्थाओं और अन्य राजकीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार देकर कानून द्वारा समान व्यवहार एवं सुरक्षा का अधिकार भी प्रदान किया जा सकता है।
  4. लोकतंत्र में राष्ट्रीय पहचान को समावेशी रीति से परिभाषित किया जाता है ताकि संघर्षरत राष्ट्रवादी सदस्यों की महत्ता और अद्वितीय योगदान को मान्यता मिल सके।
  5. संघर्षरत समूहों की मांगों से निपटने के लिए उदारता और दक्षता की आवश्यकता होती है। लोकतांत्रिक देश संघर्षरत समूहों को राष्ट्रीय समुदाय के एक अंग के रूप में मान्यता देकर अत्यन्त उदारता एवं दक्षता के साथ व्यवहार बर्ताव कर उनकी समस्याओं का समाधान कर सकता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 7.
आपकी राय में राष्ट्रवाद की सीमाएँ क्या हैं?
उत्तर:
राष्ट्रवाद की सीमाएँ: हमारी दृष्टि में राष्ट्रवाद की प्रमुख सीमाएँ या राष्ट्रवाद के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं।
1. राष्ट्रवाद शीघ्र ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाता है:
राष्ट्रवाद की एक प्रमुख सीमा यह है कि राष्ट्रवाद दूसरे राष्ट्रों के प्रति घृणा की जड़ों से प्रेरित होता है। इसलिए यह शीघ्र ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाता है और उस के लोग अन्य राष्ट्रों के साथ दुश्मनी का व्यवहार करना प्रारंभ कर देते हैं। वे अपने राष्ट्र को विश्व में सर्वाधिक विकसित और शक्तिशाली बनाने के प्रयास शुरू कर देते हैं। इस प्रकार राष्ट्रों के बीच में प्रजातियाँ उभारी जाती हैं। प्रजाति की अवधारणा इसलिए हानिप्रद होती है क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र इसके लिए प्रत्येक उचित – अनुचित साधनों को अपनाता है। प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों को नीचा दिखाने का प्रयास करता है।

2. राष्ट्रवाद बड़े राष्ट्रों को छोटे राष्ट्रों में विभाजित करने की प्रेरणा देता है:
राष्ट्रवाद लोगों को राष्ट्रीय आत्म- निर्णय के आधार पर बड़े राष्ट्रों को भंग कर छोटे-छोटे राष्ट्रों के निर्माण की मांग की प्रेरणा देता है । प्रायः सभी समाज बहुलवादी हैं जिनमें विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं के लोग निवास करते हैं। एक राष्ट्र के अन्तर्गत एक भू-क्षेत्र के लोगों में अपनी किसी विशेष पहचान के आधार पर एक पृथक् राष्ट्र की भावना विकसित हो जाती है और वे अपने लिए पृथक् स्वतंत्र राष्ट्र के लिए संघर्ष शुरू कर देते हैं। यूरोप में 20वीं सदी के प्रारंभ में आस्ट्रियाई – हंगेरियाई और रूसी साम्राज्य और इनके साथ एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्य के विघटन के मूल्य में राष्ट्रवाद ही था।

3. राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने की समस्या:
यदि किसी राज्य में दो या दो से अधिक राष्ट्रीयताओं के लोग निवास करते हैं तो उस राज्य में राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने की समस्या बनी रहती है। लोगों के अन्दर राष्ट्रवाद की चेतना उन्हें विभाजित रखती है और वे पृथक् राज्यों के लिए संघर्ष करते रहते हैं। इस प्रकार किसी राज्य में दो या दो से अधिक राष्ट्रीयताओं के लोग एक राष्ट्र के सदस्यों के रूप में कार्य नहीं कर पाते हैं।

4. व्यक्तियों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं में कटौती:
राष्ट्रवाद प्रायः लोगों के अधिकारों में कटौती कर देता है। शासक राष्ट्रवाद के नाम लोगों की भावनाओं को प्रेरित कर उनके अधिकारों और स्वतंत्रताओं में कटौती करने की कोशिश करता है और लोग राष्ट्र के आदर तथा महत्त्व के लिए अपने अधिकारों व स्वतंत्रताओं की चिन्ता नहीं करते और तानाशाह या महत्त्वाकांक्षी शासक इन भावनाओं का अनुचित लाभ उठाते हैं।

5. राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है:
राष्ट्रवाद शीघ्र ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाता है और उग्र राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद के विस्तार की प्रेरणा देता है और अपने पड़ौसी कमजोर राष्ट्रों पर अधिकार करने की प्रक्रिया जारी हो `जाती है। यह प्रक्रिया युद्ध और सैनिक आक्रमण की धमकियों के रूप में जारी रहती है। इस प्रकार यह साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का समर्थन करता है। उदाहरण के लिए हिटलर के शासनकाल में जर्मनी ने आर्य प्रजाति की उच्चता की वकालत की और इसके तहत जर्मन लोग सोचते थे कि आर्य जाति संसार की अन्य सभी प्रजातियों पर शासन करने के लिए है। इस धारणा के तहत हिटलर ने अन्य राष्ट्रों पर आक्रमण की नीति को अपनाया और उसका परिणाम द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में सामने आया।

6. राष्ट्रवाद अलगाववादी आंदोलनों को प्रेरित करता है:
राष्ट्रवाद राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की अवधारणा के तहत भारत तथा अन्य राष्ट्रों में पृथकतावादी राष्ट्रीय आंदोलनों को प्रेरित कर रहा है। भारत की स्वतंत्रता के समय मुस्लिम लीग ने मुस्लिम भारतीयों के लिए पृथक् राष्ट्र-राज्य की मांग की जिसके परिणामस्वरूप भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों का उदय हुआ। आज दुनिया के अनेक भागों में हम ऐसे राष्ट्रवादी संघर्षों को देख सकते हैं जो मौजूदा राष्ट्रों के अस्तित्व के लिए खतरे पैदा कर रहे हैं। ऐसे पृथकतावादी आंदोलन अन्य जगहों के साथ-साथ कनाडा के क्यूबेकवासियों, उत्तरी स्पेन के बास्कवासियों, तुर्की और ईरान के कुर्दों और श्रीलंका के तमिलों द्वारा भी चलाए जा रहे हैं। इन अलगाववादी आंदोलनों के प्रमुख कारक रहे हैं। साम्प्रदायिकता, जातीयता, प्रान्तीयता, भाषावाद तथा संकीर्ण व्यक्तिवाद।

 राष्ट्रवाद JAC Class 11 Political Science Notes

→ राष्ट्रवाद का परिचय:
आम राय में राष्ट्रवाद शब्द को कुछ प्रतीकों के साथ स्पष्ट किया जाता है, जैसे- राष्ट्रीय ध्वज, देशभक्ति, देश के लिए बलिदान, सत्ता और शक्ति के साथ विविधता की भावना। दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक है।

→ राष्ट्रवाद एक सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त या एक प्रभावी शक्ति के रूप में पिछली दो शताब्दियों के दौरान निम्नलिखित प्रभावों के कारण राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में उभरा है जिसने इतिहास रचने में योगदान दिया है। यथा

  • इसने उत्कट निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को प्रेरित किया है।
  • जनता को जोड़ने के साथ-साथ विभाजित भी किया है।
  • इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है।
  • यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है।
  • यह साम्राज्यों और राष्ट्रों के ध्वस्त होने का भी एक कारण रहा है तथा राष्ट्रवादी संघर्षों ने राष्ट्रों और साम्राज्यों की सीमाओं के निर्धारण – पुनर्निर्धारण में योगदान किया है। वर्तमान विश्व विभिन्न राष्ट्र-राज्यों में विभाजित है और राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्संयोजन की प्रक्रिया अभी भी जारी है।

→ राष्ट्रवाद के चरण-राष्ट्रवाद कई चरणों से होकर गुजरा है। यथा

  • 19वीं सदी में यूरोप में इसने कई छोटी: छोटी रियासतों के एकीकरण और सुदृढ़ीकरण से वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। जैसे जर्मनी और इटली का एकीकरण तथा लातिनी अमेरिका में नए राज्यों की स्थापना आदि।
  • राज्य की सीमाओं के सुदृढ़ीकरण के साथ-साथ स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियाँ भी उत्तरोत्तर राष्ट्रीय निष्ठाओं एवं सर्वमान्य जनभाषाओं के रूप में विकसित हुईं।
  • राष्ट्र-राज्य की सदस्यता पर आधारित लोगों ने एक नई राजनीतिक पहचान अर्जित की।
  • राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में हिस्सेदार भी रहा। ( 20वीं सदी में आस्ट्रिया, हंगरी, रूसी, एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, पुर्तगाली साम्राज्यों के विघटन के रूप में राष्ट्रवाद ही था।)
  • राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया अभी जारी है।

राष्ट्र से आशय: राष्ट्र बहुत हद तक एक ‘काल्पनिक’ समुदाय होता है, जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बंधा होता है। यह कुछ खास मान्यताओं पर आधारित होता है जिन्हें लोग उस समग्र समुदाय के लिए गढ़ते हैं, जिससे वे अपनी पहचान कायम करते हैं।

राष्ट्र के सम्बन्ध में प्रमुख मान्यताएँ:
→  साझे विश्वास: राष्ट्र विश्वास के जरिए बनता है। यह समूह के भविष्य के लिए सामूहिक पहचान और सामूहिक दृष्टि का प्रमाण है, जो स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व का आकांक्षी है। अतः एक राष्ट्र का अस्तित्व तभी क़ायम रहता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ हैं।

→ इतिहास: जो लोग अपने को एक राष्ट्र मानते हैं उनके भीतर अपने बारे में बहुधा स्थायी ऐतिहासिक पहचान की भावना होती है। इस सम्बन्ध में वे साझी स्मृतियों, किंवदंतियों और ऐतिहासिक अभिलेखों की रचना के जरिये अपने लिए इतिहास बोध निर्मित करते हैं ।

→  भू-क्षेत्र: बहुत सारे राष्ट्रों की पहचान एक खास भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ी हुई है। किसी खास भू-क्षेत्र पर लम्बे समय तक साथ-साथ रहना और उससे जुड़ी अतीत की यादें लोगों को एक सामूहिक पहचान का बोध देती हैं। ये उन्हें एक होने का एहसास भी देती हैं। राष्ट्र अपनी गृह – भूमि का विभिन्न तरीकों से बखान करते हैं, जैसे मातृभूमि, पितृभूमि, पवित्र भूमि आदि।

→ साझे राजनीतिक आदर्श:
राष्ट्र के सदस्यों की इस बारे में एक साझा दृष्टि होती है कि वे किस तरह का राज्य बनाना चाहते हैं। इस हेतु वे प्रायः लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद जैसे मूल्यों और सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं। लोकतंत्र में कुछ राजनीतिक मूल्यों और आदर्शों के लिए साझी प्रतिबद्धता ही किसी राष्ट्र का सर्वाधिक वांछित आधार है। इसके अन्तर्गत राष्ट्र के सदस्य कुछ दायित्वों से बंधे होते हैं । ये दायित्व सभी लोगों के नागरिकों के रूप में अधिकारों को पहचान लेने से पैदा होते हैं। इससे उनकी राजनीतिक पहचान बनती है तथा राष्ट्र मजबूत होता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 राष्ट्रवाद

→ साझी राजनीतिक पहचान:
लोकतंत्र में साझी राजनीतिक समझ के लिए किसी खास नस्ल, धर्म, भाषा से सम्बद्धता की जगह एक मूल्य समूह के प्रति निष्ठा की आवश्यकता होती है। इस मूल्य समूह को देश के संविधान में भी दर्ज किया जा सकता है। अतः राष्ट्र के लिए एक साझी राजनैतिक पहचान का होना भी आवश्यक है।

→ राष्ट्रीय आत्म-निर्णय अर्थात् लोग स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में क्यों निरूपित करते हैं? राष्ट्र अपना आत्म-निर्णय का अधिकार मांगते हैं। आत्म-निर्णय के दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से मांग करता है कि उसकी संस्कृति की रक्षा हेतु एक पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता दी जाये। प्रायः ऐसी मांगें उन लोगों की ओर से आती हैं जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें साझी पहचान का बोध हो।
कुछ मामलों में आत्म-निर्णय के ऐसे दावे एक स्वतंत्र राज्य बनाने की इच्छा से भी जुड़े होते हैं। इन दावों का सम्बन्ध किसी समूह की संस्कृति की रक्षा से होता है।

दूसरी तरह के दावे 19वीं सदी के यूरोप में सामने आए। उस समय ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की मान्यता ने जोर पकड़ा। अलग-अलग सांस्कृतिक समुदायों को अलग-अलग राष्ट्र-राज्य मिले- इसे ध्यान में रखकर सीमाओं को बदला गया। लेकिन फिर भी नवगठित राष्ट्र-राज्यों की सीमाओं के अन्दर एक से अधिक नस्ल और संस्कृति के लोग रहते थे। ऐसे राज्यों में अल्पसंख्यक हानिप्रद स्थितियों में रहते थे। ऐसे बहुत सारे समूहों को राजनीतिक मान्यता प्रदान की गई जो स्वयं को एक अलग राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे और अपने भविष्य को तय करने तथा अपना शासन स्वयं चलाना चाहते थे। लेकिन इन राष्ट्र-राज्यों के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही।

एशिया: अफ्रीका में औपनिवेशिक प्रभुत्व के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों ने राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की घोषणा की। इन्होंने राजनैतिक स्वाधीनता के साथ-साथ राष्ट्र की मान्यता भी प्राप्त की अब वे राष्ट्र-राज्य अपने को विरोधाभासी स्थिति में पाते हैं जिन्होंने संघर्षों की बदौलत स्वाधीनता प्राप्त की, लेकिन अब वे अपने भू-क्षेत्रों में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों का विरोध कर रहे हैं।

→ राष्ट्र-राज्यों में वर्तमान में उठे आत्म-निर्णय के आन्दोलनों से निपटने के लिए विद्वानों ने निम्न सुझाव दिये हैं।

  • राज्यों को अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाया जाये।
  • अल्पसंख्यक समूहों के अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान की कद्र की जाये।

→ राष्ट्रवाद और बहुलवाद: विभिन्न संस्कृतियाँ और समुदाय एक ही देश में फल-फूल सकें इसके लिए अनेक लोकतांत्रिक देशों ने सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने और संरक्षित करने के उपायों को शुरू किया है।

  • विभिन्न देशों में अल्पसंख्यक समूहों एवं अनेक सदस्यों को भाषा, संस्कृति एवं धर्म के लिए संवैधानिक संरक्षा के अधिकार दिये गये हैं।
  • कुछ मामलों में इन समूहों को विधायी संस्थाओं और अन्य राजकीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया है। ये अधिकार इन समूहों के सदस्यों के लिए कानून द्वारा समान व्यवहार एवं सुरक्षा के साथ ही समूह की सांस्कृतिक पहचान के लिए भीं सुरक्षा का प्रावधान करते हैं।
  • इन समूहों को राष्ट्रीय समुदाय के एक अंग के बतौर भी मान्यता दी गई है।
  • इसके बावजूद यह हो सकता है कि कुछ समूह पृथक् राज्य की मांग पर अडिग रहें। ऐसी मांगों को अत्यन्त उदारता एवं दक्षता के साथ निपटाना आवश्यक है।

→ निष्कर्ष: यद्यपि राष्ट्रीय आत्म निर्णय के अधिकार में राष्ट्रीयताओं के लिए स्वतंत्र राज्य का अधिकार भी सम्मिलित है, तथापि प्रत्येक राष्ट्रीय समूह को स्वतंत्र राज्य प्रदान करना न तो मुमकिन है और न वांछनीय। यह आर्थिक और राजनैतिक क्षमता की दृष्टि से बेहद छोटे राज्यों के गठन की ओर ले सकता है जिसमें अल्पसंख्यक समूहों की समस्यायें और बढ़ेंगी।
अतः राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की पुनः यह व्याख्या की जाती है कि राज्य के भीतर किसी राष्ट्रीयता के लिए कुछ लोकतांत्रिक अधिकारों की स्वीकृति।

JAC Class 12 Political Science Important Questions Chapter 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Important Questions Chapter 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर Important Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Important Questions Chapter 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर

बहुचयनात्मक प्रश्न

1. 1952 के चुनावों में कुल मतदाताओं में केवल साक्षर मतदाताओं का प्रतिशत था
(क) 35 प्रतिशत
(ख) 25 प्रतिशत
(ग) 15 प्रतिशत
(घ) 75 प्रतिशत
उत्तर:
(ग) 15 प्रतिशत

2. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक थे
(क) श्यामा प्रसाद मुखर्जी
(ख) आचार्य नरेन्द्र देव
(ग) ए.वी. वर्धन
(घ) कु. मायावती
उत्तर:
(ख) आचार्य नरेन्द्र देव

3. 1948 में भारत के गवर्नर जनरल पद की शपथ किसने ली-
(क) लार्ड लिटन
(ख) लार्ड माउंटबेटन
(ग) लार्ड रिपन
(घ) चक्रवर्ती राजगोपालाचारी
उत्तर:
(घ) चक्रवर्ती राजगोपालाचारी

4. भारत का संविधान तैयार हुआ-
(क) 26 जनवरी, 1950
(ख) 26 नवम्बर, 1949
(ग) 15 अगस्त, 1947
(घ) 30 जनवरी, 1948
उत्तर:
(ख) 26 नवम्बर, 1949

5. भारत में दलितों का मसीहा किसे कहा जाता है?
(क) राजा राममोहन राय
(ख) दयानन्द सरस्वती
(ग) बी. आर. अम्बेडकर
(घ) गोपाल कृष्ण गोखले
उत्तर:
(ग) बी. आर. अम्बेडकर

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6. स्वतन्त्र पार्टी का गठन किया-
(क) सी. राजगोपालाचारी
(ख) श्यामा प्रसाद मुखर्जी
(ग) पं. दीनदयाल उपाध्याय
(घ) रफी अहमद किदवई
उत्तर:
(क) सी. राजगोपालाचारी

7. भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे-
(क) मोरारजी देसाई
(ख) मीनू मसानी
(ग) अटल बिहारी वाजपेयी
(घ) श्यामा प्रसाद मुखर्जी
उत्तर:
(घ) श्यामा प्रसाद मुखर्जी

8. भारत के संविधान पर हस्ताक्षर हुए-
(क) 15 अगस्त, 1947
(ख) 30 जनवरी, 1948
(ग) 24 जनवरी, 1950
(घ) 26 नवम्बर, 1949
उत्तर:
(ग) 24 जनवरी, 1950

9. भारत के पहले चुनाव आयुक्त बने
(क) सुकुमार सेन
(ख) सी. राजगोपालाचारी
(ग) ए. के. गोपालन
(घ) पी.सी. जोशी
उत्तर:

10. स्वतंत्र भारत में बने पहले मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री
(क) कामराज नाडार
(ख) जगजीवन राम
(ग) पी. डी. टंडन
(घ) मौलाना अबुल कलाम आजाद
उत्तर:
(क) कामराज नाडार

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11. स्वतंत्र भारत में पहला आम चुनाव कब हुआ?
(क) 1951
(ख) 1952
(ग) 1953
(घ) 1949
उत्तर:
(ख) 1952

12. स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री थे-
(क) राजकुमारी अमृतकौर
(ख) पी.सी.
(ग) सुकुमार सेन
(घ) जगजीवन राम
उत्तर:
(क) राजकुमारी अमृतकौर

13. 1959 में कांग्रेस सरकार ने संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत केरल की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया?
(क) अनुच्छेद 370
(ख) अनुच्छेद 354
(ग) अनुच्छेद 356
(घ) अनुच्छेद 352
उत्तर:
(ग) अनुच्छेद 356

14. काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन कब हुआ था?
(क) 1934
(ख) 1955
(ग) 1948
(घ) 1942
उत्तर:
(क) 1934

15. इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के संस्थापक कौन थे?
(क) कामराज नाडार
(ख) पी. सी. जोशी
(ग) मोरारजी देसाई
(घ) भीमराव अंबेडकर
उत्तर:
(घ) भीमराव अंबेडकर

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

1. पीआरआई के शासन को ………………………… कहा जाता है।
उत्तर:
परिपूर्ण तानाशाही

2. ………………………… स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में संचार मंत्री थे।
उत्तर:
रफी अहमद किदवई

3. सिंहासन मूलतः ………………………… भाषा में बनाई गई थी।
उत्तर:
मराठी

4. ए. के. गोपालन, ……………………. राज्य के प्रमुख कम्युनिस्ट नेता थे।
उत्तर:
केरल

5. पार्टी के अंदर मौजूद विभिन्न समूह ……………………. कहे जाते हैं।
उत्तर:
गुट

6. ………………….. 1942 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता थे।
उत्तर:
दीन दयाल उपाध्याय

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समग्र मानवतावाद सिद्धान्त के प्रणेता का नाम लिखिए दीनदयाल उपाध्याय।

प्रश्न 2.
भारत में एक दल प्रधानता के युग में किस दल को सबसे अधिक प्रभावशाली माना गया?
उत्तर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस।

प्रश्न 3.
भारत में एक दल की प्रधानता का युग कब समाप्त हुआ?
उत्तर:
1977।

प्रश्न 4.
एक दल प्रधानता का युग किस वर्ष से शुरू हुआ था?
उत्तर:
सन् 1952 के प्रथम आम चुनावों से।

प्रश्न 5.
1977 के लोकसभा चुनावों में किस पार्टी को सत्ता प्राप्त हुई?
उत्तर:
जनता पार्टी को।

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प्रश्न 6.
प्रथम तीन आम चुनावों में किस राजनीतिक दल को नेतृत्व प्रदान किया गया?
उत्तर:
कांग्रेस पार्टी।

प्रश्न 7.
प्रथम आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को कितनी सीटें प्राप्त हुईं?
उत्तर:
प्रथम आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को 489 सीटों में से 364 सीटें प्राप्त हुईं।

प्रश्न 8.
“एकदल व्यवस्था से अधिक ठीक-ठीक भारतीय दलीय व्यवस्था को एक दल प्रधानता कहना उचित होगा।” किसने कहा था?
उत्तर:
रजनी कोठारी ने।

प्रश्न 9.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किस वर्ष हुई?
उत्तर:
सन् 1885 में।

प्रश्न 10.
भारत में समाजवादी दल का गठन कब हुआ?
उत्तर:
भारत में समाजवादी दल का गठन 1934 में हुआ।

प्रश्न 11.
प्रथम चुनाव आयुक्त कौन बना?
उत्तर:
सुकुमार सेन।

प्रश्न 12.
भारत रत्न से सम्मानित पहले भारतीय थे।
उत्तर:
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी।

प्रश्न 13.
भारतीय जनसंघ की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
सन् 1951 में।

प्रश्न 14.
भारत में निर्वाचन आयोग का गठन कब हुआ?
उत्तर:
सन् 1950 में।

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प्रश्न 15.
भारत का संविधान कब से अमल में आया?
उत्तर:
भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 से अमल में आया।

प्रश्न 16.
भारत में तीसरे आम चुनाव कब हुए? लिखिये।
उत्तर:
सन् 1962 में।

प्रश्न 17.
पहले तीन आम चुनावों में लोकसभा में दूसरे स्थान पर रहने वाली ( सबसे बड़ी पार्टी) का नाम
उत्तर:
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी।

प्रश्न 18.
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक थे।
उत्तर:
आचार्य नरेन्द्र देव।

प्रश्न 19.
संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर।

प्रश्न 20.
भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
श्यामा प्रसाद मुखर्जी।

प्रश्न 21.
1957 में कांग्रेस पार्टी किस राज्य में पराजित हुई?
उत्तर:
केरल।

प्रश्न 22.
किस विद्वान ने कांग्रेस की तुलना सराय से की है?
उत्तर:
डॉ. अम्बेडकर ने।

प्रश्न 23.
स्वतंत्रता के बाद भारत में एक पार्टी के प्रभुत्व का दौर क्यों रहा था?
उत्तर:
स्वतंत्रता के बाद भारत में कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी थी जिसका संगठन पूरे देश में गांव-गांव तक फैला हुआ था। इसीलिए एकदलीय प्रभुत्व का दौर रहा।

प्रश्न 24.
भारतीय दलीय व्यवस्था की कोई एक विशेषता बताइए।
उत्तर:
भारत में बहुदलीय प्रणाली है और राजनीतिक दल विभिन्न हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

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प्रश्न 25.
प्रथम तीन आम चुनावों में कांग्रेस को कितनी सीटें प्राप्त हुईं?
उत्तर:
प्रथम आम चुनाव में 364, दूसरे आम चुनाव में 371 और तीसरे आम चुनाव में 361 सीटें प्राप्त हुईं।

प्रश्न 26.
किन दो राज्यों में कांग्रेस 1952-67 के दौरान सत्ता में नहीं थी?
उत्तर:
कांग्रेस 1952-67 के दौरान केरल एवं जम्मू-कश्मीर में सत्ता में नहीं थी।

प्रश्न 27.
स्वतंन्त्र पार्टी कब अस्तित्व में आई और इसका नेतृत्व किसने किया?
उत्तर:
स्वतन्त्र पार्टी की स्थापना 1959 में की गई और इस पार्टी का नेतृत्व सी. राजगोपालाचारी, ए. एम. मुंशी, एन. जी. रंगा आदि ने किय ।

प्रश्न 28.
उत्तरी राज्यों जम्मू-कश्मीर तथा पंजाब के दो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के नाम बताइए।
उत्तर:
जम्मू-कश्मीर का महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय दल नेशनल कान्फ्रेंस है, जबकि पंजाब का महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय दल अकाली दल है।

प्रश्न 29.
किस दशक के अंत में चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का इस्तेमाल शुरू किया?
उत्तर:
सन् 1990

प्रश्न 30.
किस पत्रिका ने यह लिखा था कि जवाहर लाल नेहरू ” अपने जीवित रहते ही यह देख लेंगे और पछताएँगे कि भारत में सार्वभौम मताधिकार असफल रहा।”
उत्तर:
ऑर्गनाइजर।

प्रश्न 31.
कांग्रेस दल किस सन् में राष्ट्रीय चरित्र वाले जनसभा के रूप में अस्तित्व में आया?
उत्तर:
कांग्रेस दल 1905 से 1918 तक के काल में राष्ट्रीय चरित्र वाले एक जनसभा के रूप में अस्तित्व में आया।

प्रश्न 32.
राष्ट्रीय मंच पर किस नेता के आगमन से कांग्रेस पार्टी एक जन आन्दोलन में बदल गई।
उत्तर:
राष्ट्रीय मंच पर महात्मा गांधी के आगमन ने कांग्रेस पार्टी को एक आंदोलन में बदल दिया।

प्रश्न 33.
प्रथम आम चुनावों के समय कितने राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय दल विद्यमान थे?
उत्तर:
प्रथम आम चुनावों में 14 राष्ट्रीय स्तर एवं 52 राज्य स्तर के दल विद्यमान थे।

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प्रश्न 34.
भारत में किस चुनाव प्रणाली को अपनाया गया है?
उत्तर:
भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर ‘सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले की जीत’ प्रणाली को अपनाया गया है।

प्रश्न 35.
भारत में 1967 के आम चुनावों में कौन-कौन से राज्यों में कांग्रेस को बहुमत मिला?
उत्तर:
भारत में 1967 के आम चुनावों में जम्मू-कश्मीर, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, मैसूर (कर्नाटक), आंध्रप्रदेश तथा असम राज्यों में बहुमत मिला।

प्रश्न 36.
जनसंघ ने किस विचार पर जोर दिया?
उत्तर:
जनसंघ ने ‘एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र’ के विचार पर जोर दिया।

प्रश्न 37.
समाजवादी पार्टी किन-किन पार्टियों में विभाजित हुई?
उत्तर:
समाजवादी पार्टी ‘किसान मजदूर प्रजा पार्टी’, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी तथा संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में विभाजित हुई।

प्रश्न 38.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय कांग्रेस के प्रभावशाली नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में पं. नेहरू, सरदार पटेल, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, डॉ. अम्बेडकर, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा सी. राजगोपालाचारी शामिल थे।

प्रश्न 39.
विश्व के किन्हीं चार ऐसे देशों के नाम लिखिए जो अपनी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध हैं।
उत्तर:
ये देश हैं। इंग्लैण्ड , भारत, अमेरिका, फ्रांस।

प्रश्न 40
भारतीय संविधान का निर्माण कब हुआ?
उत्तर:
भारत के संविधान का निर्माण 26 नवम्बर, 1949 को हुआ।

प्रश्न 41.
संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
डॉ. भीमराव अम्बेडकर।

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प्रश्न 42.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय साम्यवादी पार्टी के मुख्य नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय साम्यवादी पार्टी के मुख्य नेताओं में ए. के. गोपालन, नम्बूदरीपाद, एस. ए. डांगे, अजय घोष तथा जी. सी. जोशी शामिल थे।

प्रश्न 43.
जनसंघ पार्टी के तीन नेताओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और बलराज मधोक

प्रश्न 44.
एक पार्टी के लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध किन्हीं चार राष्ट्रों के नाम बताइए।
उत्तर:
ये राष्ट्र हैं। भूतपूर्व सोवियत संघ, चीन, क्यूबा, सीरिया।

प्रश्न 45.
तानाशाही और सैन्य आधिपत्य वाले किन्हीं चार राष्ट्रों के नाम लिखिए।
उत्तर:
ये राष्ट्र हैं। म्यांमार, बेलारूस, इंरीट्रिया, अधिकांश समय पाकिस्तान भी ऐसी सरकारों के अधीन रहा।

प्रश्न 46.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन कब हुआ?
उत्तर:
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन 1964 में सी. पी. एम. या भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और सी.पी.आई. अथवा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में हुआ।

प्रश्न 47.
रूस की बोल्शेविक क्रान्ति कब हुई?
उत्तर:
रूस में बोल्शेविक क्रान्ति अक्टूबर सन् 1917 में हुई।

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प्रश्न 48.
भारत में अनुच्छेद 356 का तथाकथित दुरुपयोग सर्वप्रथम कब हुआ?
उत्तर:
केन्द्र की कांग्रेस सरकार द्वारा संविधान के अनुच्छेद 356 का प्रथम दुरुपयोग 1959 में केरल की वैधानिक रूप से चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करके किया गया।

प्रश्न 49.
स्वतंत्र पार्टी किस वजह के कारण दूसरी पार्टियों से अलग थी?
उत्तर:
स्वतंत्र पार्टी आर्थिक मसलों पर अपनी खास किस्म की पक्षधरता के कारण दूसरी पार्टियों से अलग थ ।

प्रश्न 50.
1952 के चुनाव में वोट हासिल करने के लिहाज से कौन सी पार्टी दूसरे नंबर पर रही?
उत्तर:
सोशलिस्ट पार्टी।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय दलीय व्यवस्था की कोई दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  1. भारत में बहुदलीय व्यवस्था है और राजनीतिक दल विभिन्न हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  2. भारतीय दलीय व्यवस्था में राष्ट्रीय दलों के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों का भी अस्तित्व है।

प्रश्न 2.
उपनिवेशवाद से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
उपनिवेशवाद वह विचारधारा जिससे प्रेरित होकर प्राय: एक शक्तिशाली राष्ट्र अन्य राष्ट्र या किसी राष्ट्र विशेष के किसी भाग पर अपना वर्चस्व स्थापित कर, उसके आर्थिक एवं प्राकृतिक संसाधनों का शोषण अपने हित के लिए करता है उसे उपनिवेशवाद कहते हैं।

प्रश्न 3.
आपके मतानुसार ‘एकल पार्टी प्रभुत्व’ से क्या अभिप्राय है? भारत में इस स्थिति का कालखण्ड बताइये।
उत्तर:
एकल पार्टी प्रभुत्व ‘एकल पार्टी प्रभुत्व’ से आशय है। राजनीतिक व्यवस्था पर अन्य दलों के होते हुए भी किसी एक दल का वर्चस्व स्थापित होना। भारत में 1952 से लेकर 1967 तक कांग्रेस दल का प्रभुत्व रहा।

प्रश्न 4.
प्रथम तीन आम चुनावों में एक दल के प्रभुत्व के कारणों को इंगित कीजिए।
अथवा
भारत के पहले तीन चुनावों में कांग्रेस के प्रभुत्व के दो कारण बताइये।
अथवा
आपके मतानुसार आजादी के बाद 20 वर्षों तक भारतीय राजनीति में कांग्रेस के प्रभुत्व के क्या कारण रहे? किन्हीं दो को बताइये।
अथवा
भारत में लम्बे समय तक कांग्रेस के दलीय प्रभुत्व के लिए उत्तरदायी किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
प्रथम तीन चुनावों में कांग्रेस के प्रभुत्व के कारण थे।

  1. राष्ट्रीय संघर्ष में कांग्रेसी नेताओं का जनता में अधिक लोकप्रिय होना।
  2. कांग्रेस के पास ही राष्ट्र के कोने-कोने व ग्रामीण स्तर तक संगठन होना तथा
  3. पंडित नेहरू का करिश्माई व्यक्तित्व का होना।

प्रश्न 5.
मतदान के किन्हीं दो तरीकों का वर्णन करो।
उत्तर:

  1. मतपत्र के द्वारा मतदान: मतपत्र पर हर उम्मीदवार का नाम और चुनाव चिन्ह अंकित होता है। मतदाता को मतपत्र पर अपने पसंद के उम्मीदवार के नाम पर मोहर लगानी होती है।
  2. ई. वी. एम. द्वारा मतदान: ई.वी.एम. मशीन में मतदाता को अपनी पसंद के नाम के आगे की बटन दबानी होती है।

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प्रश्न 6.
काँग्रेस पार्टी के प्रभुत्व ने पहले तीन चुनावों में भारत में लोकतंत्र स्थापित करने में किस प्रकार मदद की?
उत्तर:
पहला आम चुनाव एक गरीब और अनपढ़ देश में लोकतंत्र की पहली परीक्षा थी। उस समय तक लोकतंत्र केवल समृद्ध देशों में मौजूद था। उस समय तक यूरोप के कई देशों ने महिलाओं को मतदान का अधिकार नहीं दिया था। इस संदर्भ में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ भारत का प्रयोग एक साहसिक और जोखिम भरा कदम था। 1952 में भारत का आम चुनाव पूरी दुनिया में लोकतंत्र के इतिहास के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। अब यह तर्क दे पाना संभव नहीं रहा कि गरीबी या शिक्षा की कमी की स्थितियों में लोकतांत्रिक चुनाव नहीं कराए जा सकते हैं। यह साबित हुआ कि दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र का अभ्यास किया जा सकता है। अगले दो आम चुनावों ने भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत किया।

प्रश्न 7.
” सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ भारत का प्रयोग बहुत साहसिक और जोखिम भरा दिखाई दिया।” बयान को सही ठहराते हुए तर्क दीजिए।
उत्तर:
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ भारत का प्रयोग बहुत साहसिक और जोखिम भरा दिखाई दिया। इसके तर्क निम्न हैं।

  1. देश के विशाल आकार और जनसंख्या ने इन चुनावों को असामान्य बना दिया।
  2. 1952 का चुनाव भारत जैसे गरीब और अनपढ़ देश के लिए एक बड़ी परीक्षा थी।
  3. इसके पहले लोकतंत्र मुख्यतया यूरोप और उत्तरी अमेरिका जैसे विकासशील देशों में हुआ करता था जहाँ की जनसंख्या साक्षर थी।

प्रश्न 8.
दल-बदल से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
दल-बदल का साधारण अर्थ एक दल से दूसरे दल में सम्मिलित होना है। इसमें निम्नलिखित स्थितियाँ सम्मिलित हैं।

  1. किसी विधायक का किसी दल के टिकट पर निर्वाचित होकर उसे छोड़ देना और अन्य किसी दल में शामिल हो जाना।
  2. मौलिक सिद्धान्तों पर विधायक का अपनी पार्टी की नीति के विरुद्ध योगदान करना।
  3. किसी दल को छोड़ने के बाद विधायक का निर्दलीय रहना।

प्रश्न 9.
1952 के चुनाव ने यह साबित कर दिया कि भारतीय जनता ने विश्व के इतिहास में लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रयोग को बखूबी अंजाम दिया। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
1952 में देश के अधिकांश हिस्सों में मतदान हुआ। लोगों ने इस चुनाव में बढ़-चढ़कर उत्साहपूर्वक भाग लिया। कुल मतदाताओं में से आधे से अधिक ने मतदान के दिन अपना मत डाला। चुनावों के परिणाम घोषित हुए तो हारने वाले उम्मीदवारों ने भी इस परिणाम को निष्पक्ष बताया। सार्वभौम मताधिकार के इस प्रयोग ने आलोचकों का मुँह बंद कर दिया। अत: हर जगह यह बात मानी जाने लगी कि भारतीय जनता ने विश्व के इतिहास में लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रयोग को बखूबी अंजाम दिया।

प्रश्न 10.
भारत के किन्हीं दो ऐसे क्षेत्रीय दलों के नाम लिखिए जो किसी क्षेत्र विशेष से जुड़े हुए हैं।
उत्तर:

  1. द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK): द्रविड़ मुनेत्र कड़गम तमिलनाडु में एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय दल है।
  2. बीजू जनता दल – बीजू जनता दल उड़ीसा में एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय दल है।

प्रश्न 11.
भारतीय जनसंघ की दो विचारधाराएँ बताइये।
उत्तर:

  1. भारतीय जनसंघ ने एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र के विचार पर जोर दिया।
  2. जनसंघ का विचार था कि भारतीय संस्कृति और परम्परा के आधार पर भारत आधुनिक, प्रगतिशील और ताकतवर बन सकता है।

प्रश्न 12.
आलोचक ऐसा क्यों सोचते थे कि भारत में चुनाव सफलतापूर्वक नहीं कराए जा सकेंगे? किन्हीं दो कारणों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
भारत चुनाव सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं कराये जा सकने के सम्बन्ध में आलोचकों के तर्क ये थे।

  1. भारत क्षेत्रफल तथा जनसंख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा देश है तथा शुरू से ही नागरिकों को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार प्रदान कर दिया गया है। इतने बड़े निर्वाचक मण्डल के लिए व्यवस्था करना बहुत कठिन होगा।
  2. भारत के अधिकांश मतदाता अशिक्षित थे। वे स्वतंत्र व समझदारी से मताधिकार का प्रयोग कर सकेंगे, इस पर उन्हें संदेह था।

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प्रश्न 13.
आचार्य नरेन्द्र देव कौन थे?
उत्तर:
आचार्य नरेन्द्र देव प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी एवं कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक थे। वे बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध विद्वान् थे तथा किसान आन्दोलन के सक्रिय नेता थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का नेतृत्व किया।

प्रश्न 14.
डॉ. अम्बेडकर ने कांग्रेस पार्टी को एक सराय की संज्ञा क्यों दी?
उत्तर:
डॉ. अम्बेडकर ने कांग्रेस पार्टी को एक सराय कहा क्योंकि कांग्रेस पार्टी के द्वार समाज के सभी लोगों के लिए खुले हुए थे। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार कांग्रेस पार्टी के द्वार मित्रों, दुश्मनों, चालाक व्यक्तियों, मूर्खों तथा यहाँ तक कि सम्प्रदायवादियों के लिए भी खुले हुए
थे।

प्रश्न 15.
हमारे देश की चुनाव प्रणाली के कारण काँग्रेस पार्टी की जीत को अलग से बढ़ावा मिला। उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हमारे देश की चुनाव:
प्रणाली में ‘सर्वाधिक वोट पाने वाले की जीत’ के तरीके को अपनाया गया है। इस ‘प्रणाली के अनुसार अगर कोई पार्टी बाकियों की अपेक्षा थोड़े ज्यादा वोट हासिल करती है तो दूसरी पार्टियों को प्राप्त वोटों के अनुपात की ‘ तुलना में उसे कहीं ज्यादा सीटें हासिल होती हैं। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि कांग्रेस पार्टी की जीत का आँकड़ा और दायरा हमारी चुनाव – प्रणाली के कारण बढ़ा-चढ़ा दिखता है ।

उदाहरण: 1952 में कांग्रेस पार्टी को कुल वोटों में से मात्र 45 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे लेकिन कांग्रेस को 74 फीसदी सीटें हासिल हुईं। सोशलिस्ट पार्टी वोट हासिल करने के लिहाज से दूसरे नंबर पर रही। उसे 1952 के चुनाव में पूरे देश में कुल 10 प्रतिशत वोट मिले थे लेकिन यह पार्टी 3 प्रतिशत सीटें भी नहीं जीत पायी।

प्रश्न 16.
साझा सरकारों के हुए परिणामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
साझा सरकारों के दुष्परिणाम निम्न हैं।

  1. विभाजन व विघटन की प्रवृत्ति
  2. वसरवादिता की प्रवृत्ति
  3. उत्तरदायित्व की प्रवृत्ति
  4. राजनीतिक दलों की नीतियों और कार्यक्रमों में अनिश्चितता और अस्पष्टता।

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प्रश्न 17.
निर्दलियों की बढ़ती संख्या एक चुनौती है, स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चुनाव में किसी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होने की स्थिति में निर्दलीय उम्मीदवारों की भूमिका बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि हो रही है। ये निर्दलीय उम्मीदवार भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। यह भारतीय दलीय व्यवस्था के हित में नहीं है।

प्रश्न 18.
भारत ही एकमात्र ऐसा देश नहीं है जो एक पार्टी के प्रभुत्व के दौर से गुजरा हो। संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत ही एकमात्र ऐसा देश नहीं है जो एक पार्टी के प्रभुत्व के दौर से गुजरा हो। दुनिया के बाकी देशों को ‘देखने पर हमें एक पार्टी के प्रभुत्व के बहुत से उदाहरण मिलेंगे। हालाँकि बाकी मुल्कों में एक पार्टी के प्रभुत्व और भारत में ‘एक पार्टी के प्रभुत्व के बीच एक अंतर है। बाकी के देशों में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतंत्र की कीमत पर कायम हुआ है।
उदाहरण

  1. कुछ देशों जैसे चीन, क्यूबा और सीरिया के संविधान में सिर्फ एक ही पार्टी को देश के शासन की अनुमति दी गई है।
  2. कुछ अन्य देशों जैसे म्यांमार, बेलारूस और इरीट्रिया में एक पार्टी का प्रभुत्व कानूनी और सैन्य उपायों के चलते कायम हुआ है।
  3. अब से कुछ साल पहले तक मैक्सिको, दक्षिण कोरिया और ताईवान भी एक पार्टी के प्रभुत्व वाले देश थे।

प्रश्न 19.
भीमराव रामजी अंबेडकर पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
आपका पूरा नाम बाबा साहब भीमराव रामजी अंबेडकर है। आप जाति विरोधी आंदोलन के नेता और दलितों को न्याय दिलाने के लिए हुए संघर्ष के अगुआ थे। आपने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की। बाद में शिड्यूल्ड कास्टस् फेडरेशन की स्थापना की। आप रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के गठन के योजनाकार रहे हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वायसराय की काउंसिल में सदस्य रहे हैं। आप संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। भारत की आजादी के बाद नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में मंत्री की भूमिका अदा की। आपने हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर अपनी असहमति जताते हुए 1951 में इस्तीफा दे दिया। आपने 1956 में हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया

प्रश्न 20.
सी. राजगोपालाचारी के व्यक्तित्व पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
सी. राजगोपालाचारी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं प्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे संविधान सभा के सदस्य थे तथा भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने वे केंन्द्र सरकार में मंत्री तथा मद्रास के मुख्यमंत्री भी रहे। 1959 में उन्होंने स्वतन्त्र पार्टी की स्थापना की। उनकी सेवाओं के लिए उन्हें भारत रत्न से सम्मानित भी किया गया।

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प्रश्न 21.
श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
श्यामा प्रसाद मुखर्जी:
श्यामा प्रसाद मुखर्जी संविधान सभा के सदस्य थे। वे हिन्दू महासभा के महत्त्वपूर्ण नेता तथा भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। वे कश्मीर को स्वायत्तता देने के विरुद्ध थे। कश्मीर नीति पर जनसंघ के प्रदर्शन के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा 1953 में हिरासत में ही उनकी मृत्यु हो गई।

प्रश्न 22.
विपक्षी दल से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
जो दल सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों की कमियों को उजागर कर उनकी आलोचना करे उसे विपक्षी दल कहा जाता है। स्वतन्त्रता प्राप्ति से लेकर 1967 तक भारत में संगठित विरोधी दल का अभाव था, परन्तु वर्तमान में संगठित विरोधी दल पाया जाता है।

प्रश्न 23.
भारत की किन्हीं तीन राष्ट्रीय पार्टियों के नाम व चुनाव चिह्न बताइए।
उत्तर:
पार्टी का नाम – चुनाव चिह्न

  1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस – हाथ
  2. भारतीय जनता पार्टी – कमल का फूल
  3. बहुजन समाज पार्टी – हाथी

प्रश्न 24.
भारत में लोकतन्त्र स्थापित करने की चुनौती को समझाइये।
उत्तर:
भारत में लोकतन्त्र स्थापित करने की चुनौती: भारत में लोकतन्त्र स्थापित करने की चुनौती निम्न कारणों से थी।
1. विभिन्न धार्मिक राजनीतिक समूहों में एकता स्थापित करना: भारतीय नेताओं के समक्ष लोकतन्त्र की स्थापना हेतु विभिन्न धार्मिक एवं राजनीतिक समूहों में पारस्परिक एकता की भावना को विकसित करने की चुनौती थी।

2. निष्पक्ष चुनावों की व्यवस्था करना: भारत के विस्तृत आकार को देखते हुए निष्पक्ष चुनावों की व्यवस्था करना भी एक गम्भीर चुनौती थी। चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन करना, मताधिकार प्राप्त वयस्क व्यक्तियों की सूची बनाना भी आवश्यक था। मतदाताओं में केवल 15 प्रतिशत ही साक्षर थे। 1952 के चुनाव में 50 प्रतिशत मतदाताओं ने मत डाला। चुनाव निष्पक्ष हुए। इस प्रकार भारत लोकतन्त्र स्थापित करने में सफल रहा।

प्रश्न 25.
प्रारम्भ से ही कांग्रेस पार्टी का भारतीय राजनीति में केन्द्रीय स्थान रहा है । क्यों?
उत्तर:
कांग्रेस भारत का सबसे पुराना राजनीतिक दल रहा है। भारतीय राजनीति के केन्द्र में यह दो दृष्टिकोणों से प्रमुख -प्रथम, अनेक दल तथा गुट कांग्रेस के केन्द्र से विकसित हुए हैं और इसके इर्द-गिर्द अपनी नीतियों तथा अपनी गुटीय रणनीतियों को विकसित किया तथा द्वितीय, भारतीय राजनीति के वैचारिक वर्णक्रम के केन्द्र का अभियोग करते हुए यह एक ऐसे केन्द्रीय दल के रूप में स्थित रहा है, जिसके दोनों ओर अन्य दल तथा गुट नजर आते रहे हैं। भारत में स्वतंत्रता के बाद से केवल एक केन्द्रीय दल उपस्थित रहा है और वह है कांग्रेस पार्टी। लेकिन वर्तमान समय में दलीय व्यवस्था के स्वरूप में व्यापक परिवर्तन आया है जिसमें बहुदलीय व्यवस्था और क्षेत्रीय दलों के विकास ने एकदलीय प्रभुत्व की स्थिति को कमजोर बना दिया है।

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प्रश्न 26.
प्रथम तीन आम चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मजबूत स्थिति के पीछे उत्तरदायी कारणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कांग्रेस की प्रधानता के लिए उत्तरदायी कारण- प्रथम तीन आम चुनावों में कांग्रेस की मजबूत स्थिति के पीछे निम्नलिखित कारण जिम्मेदार रहे हैं।

  1. कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय आंदोलन के वारिस के रूप में देखा गया। आजादी के आंदोलन के अग्रणी नेताओं ने अब कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े।
  2. कांग्रेस ही ऐसा दल था जिसके पास राष्ट्र के कोने-कोने व ग्रामीण स्तर तक फैला हुआ एवं संगठित संगठन था।
  3. कांग्रेस एक ऐसा संगठन था जो अपने आपको स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सकने में समर्थ था।
  4. कांग्रेस पहले से ही एक सुसंगठित पार्टी थी। बाकी दल अभी अपनी रणनीति सोच ही रहे होते थे कि कांग्रेस अपना अभियान शुरू कर देती इस प्रकार कांग्रेस को ‘अव्वल और इकलौता’ होने का फायदा मिला।
  5. पण्डित नेहरू का करिश्माई व्यक्तित्व भी कांग्रेस के प्रभुत्व को बनाने में सफल रहा।

प्रश्न 27.
पहले तीन आम चुनावों में काँग्रेस के प्रभुत्व का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पहले तीन आम चुनावों में कांग्रेस के प्रभुत्व का वर्णन निम्न कथनों द्वारा किया जा सकता है।

  1. 1952 के चुनाव में कॉंग्रेस 489 सीटों में से 364 सीटों पर विजयी रही।
  2. 16 सीटों के साथ कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे स्थान पर रही।
  3. लोकसभा के चुनाव के साथ-साथ विधानसभा के चुनावों में भी कांग्रेस पार्टी ने बड़ी जीत हासिल की।
  4. त्रावणकोर-कोचीन, मद्रास और उड़ीसा को छोड़कर सभी राज्यों में कांग्रेस ने अधिकतर सीटों पर जीत दर्ज की। आखिरकार इन तीनों राज्यों में भी काँग्रेस की ही सरकार बनी। इस तरह राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर पूरे देश में काँग्रेस पार्टी का शासन कायम हुआ।
  5. 1957 और 1962 में क्रमशः दूसरा और तीसरा चुनाव हुआ। इस चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा में अपनी पुरानी स्थिति कायम रखी, उसका दशांश भी कोई विपक्षी पार्टी नहीं जीत सकी।

प्रश्न 28.
शक्तिशाली विपक्ष पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर:
आठवीं लोकसभा चुनावों तक 1969-70 तथा 1977-79 के काल को छोड़कर भारतीय राजनीति में सामान्यतः विपक्ष कमजोर तथा विभाजित ही रहा, लेकिन 9वीं लोकसभा चुनाव से लेकर 16वीं लोकसभा के चुनावों में संसद तथा भारतीय राजनीति में शक्तिशाली विपक्ष रहा है। 1990 ई. में कांग्रेस (इ) शक्तिशाली विपक्ष की स्थिति में थी, जिसे लोकसभा में 193 स्थान और राज्यसभा में लगभग बहुमत प्राप्त था। 10वीं व 11वीं लोकसभा में भी कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल की स्थिति प्राप्त रही जबकि 14वीं व 15वीं लोकसभा में भाजपा को मुख्य विपक्षी दल की स्थिति प्राप्त रही। 16वीं लोकसभा में कांग्रेस व दूसरे क्षेत्रीय दल, शक्तिशाली विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं। इस काल में राज्य स्तर पर भी अधिकांश राज्यों में विपक्ष पर्याप्त शक्तिशाली रहा है।

प्रश्न 29.
भारत में राजनीतिक दलों द्वारा अपने कार्यों का निर्वहन करने में आने वाली तीन कठिनाइयों को बताइये।
उत्तर:
राजनीतिक दलों की समस्याएँ: भारत में राजनीतिक दलों की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं।

  1. दलीय व्यवस्था में अस्थिरता: भारतीय दलीय व्यवस्था निरन्तर बिखराव और विभाजन का शिकार रही है। सत्ता प्राप्ति की लालसा ने राजनीतिक दलों को अवसरवादी बना दिया है जिससे यह संकट उत्पन्न हुआ है।
  2. राजनीतिक दलों में गुटीय राजनीति: भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों में तीव्र आन्तरिक गुटबन्दी विद्यमान है। इन दलों में छोटे-छोटे गुट पाये जाते हैं।
  3. दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र का अभाव: भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों में आन्तरिक लोकतन्त्र का अभाव है और वे घोर अनुशासनहीनता से पीड़ित हैं। भारत में अधिकांश राजनीतिक दल नेतृत्व की मनमानी प्रवृत्ति और सदस्यों की अनुशासनहीनता से पीड़ित है।

प्रश्न 30.
राजनीतिक दलों के प्रमुख तत्त्वों को संक्षेप में समझाइये।
उत्तर:
राजनीतिक दलों के प्रमुख तत्त्व: किसी भी राजनीतिक दल के निर्माण के लिए निम्न तत्त्वों का होना आवश्यक है।

  1. संगठन: संगठन से तात्पर्य है। कि दल ने अपने कुछ लिखित एवं अलिखित नियम, उपनियम, कार्यालय, पदाधिकारी आदि होने चाहिए। ये दल के सदस्यों को अनुशासित रखते हैं।
  2. मूलभूत सिद्धान्तों में एकता: सिद्धान्तों की एकता ही दल को ठोस आधार प्रदान करती है। सैद्धान्तिक एकता के अभाव में दल की जड़ें हिल जायेंगी।
  3. संवैधानिक साधनों का प्रयोग: राजनीतिक दलों को जाति, धर्म, सम्प्रदाय या वर्ग हित की अपेक्षा राष्ट्रीय हित की अभिवृद्धि हेतु प्रयास करना चाहिए।

प्रश्न 31.
1952 के पहले आम चुनाव से लेकर 2004 के आम चुनाव तक मतदान के तरीके में क्या बदलाव आये हैं?
उत्तर:
1952 से लेकर 2004 के आम चुनाव तक मतदान के तरीकों में निम्न प्रकार बदलाव आये हैं।

  1. 1952 के पहले आम चुनाव में प्रत्येक उम्मीदवार के नाम व चुनाव चिह्न की एक मतपेटी रखी गयी थी। हर मतदाता को एक खाली मत पत्र दिया गया जिसे उसने अपने पसंद के उम्मीदवार की मतपेटी में डाला। शुरूआती दो चुनावों के बाद यह तरीका बदल दिया गया।
  2. बाद के चुनावों में मतपत्र पर हर उम्मीदवार का नाम व चुनाव चिह्न अंकित किया गया। मतदाता को मतपत्र में अपने पसंद के उम्मीदवार के आगे मुहर लगानी होती थी।
  3. सन् 1990 के दशक के अन्त में चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग शुरू कर दिया। इसमें मतदाता अपने पसंद के उम्मीदवार के सामने दिये गये बटन को दबा देता है।

प्रश्न 32.
भारतीय दलीय व्यवस्था की कोई तीन कमियाँ लिखिए जो सरकारों की अस्थिरता के लिए उत्तरदायी हैं।
उत्तर:
भारतीय दलीय व्यवस्था की कमियाँ – भारतीय दलीय व्यवस्था की निम्नलिखित कमियाँ या समस्याएँ सरकार की अस्थिरता के लिए उत्तरदायी हैं।

  1. राजनीतिक दल-बदल: भारतीय राजनीतिक दलों में वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव तीव्र आन्तरिक गुटबन्दी और गहरी सत्ता लिप्सा ने दलीय व्यवस्था में राजनीति दल-बदल को जन्म दिया है जिसने राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया।
  2. नेतृत्व संकट: भारत में राजनीतिक दलों के समक्ष नेतृत्व का संकट भी है। नेतृत्व का बौना कद दल को एकजुट रखने में असमर्थ रहता है।
  3. वैचारिक प्रतिबद्धता का अभाव: विचारधारा पर आधारित दलों जैसे मार्क्सवादी दल, भारतीय साम्यवादी दल, भाजपा आदि ने भी घोर अवसरवादी राजनीति का परिचय देते हुए येन-केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने के लिए अपने सिद्धान्तों को तिलांजलि दी है।

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प्रश्न 33.
भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व राजनीतिक दलों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता से पूर्व भारत के राजनीतिक दल इस प्रकार थे।

  1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में राजनीतिक दलों का जन्म विदेशी साम्राज्य के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन कोचलाने के लिए हुआ था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना सन् 1885 में हुई थी। वास्तव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उस समय न केवल एक राजनीतिक दल था, बल्कि एक ऐसा मंच था जिसमें हर विचारधारा के लोग शामिल थे, जिनका उद्देश्य छोटे-छोटे सुधार करना था। गई।
  2. मुस्लिम लीग: 1906 में मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना की
  3. भारतीय साम्यवादी दल: 1924 में साम्यवादी दल की स्थापना एम.एन. रॉय ने की।
  4. भारतीय समाजवादी पार्टी1934 में आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण एवं राममनोहर लोहिया ने भारतीय समाजवादी पार्टी की स्थापना की।

प्रश्न 34.
भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख कार्यक्रमों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भाजपा के प्रमुख कार्यक्रम: भाजपा की जो नीतियाँ, सिद्धान्त एवं कार्यक्रम हैं, वे अपने पूर्ववर्ती जनसंघ की नीतियों, सिद्धान्तों एवं कार्यक्रमों से समानता रखते हैं। जनसंघ गाँधीवाद, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता, लोकतन्त्र, न्याय एवं समानता के आदर्शों पर टिका हुआ था। राष्ट्रीय एकता के सन्दर्भ में इसका नारा था कि अनुच्छेद 370 को समाप्त कर कश्मीर का पूर्णत: भारत में विलय हो तथा वह एक सामान्य राज्य का दर्जा प्राप्त करे।

राष्ट्रीय सुरक्षा के सन्दर्भ में यह कठोर रुख अपनाने का समर्थक था। यह एक ऐसा दल था जो भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को पूर्ण रूप से अपनाये हुए था। परन्तु ज्यों ही जनसंघ भाजपा में परिवर्तित हुआ त्यों ही अपने मूलभूत सिद्धान्तों से धीरे-धीरे दूर होता चला गया।

प्रश्न 35.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यक्रमों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यक्रम: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यक्रमों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है।

  1. स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व कांग्रेस का मुख्य उद्देश्य स्वतन्त्रता प्राप्ति था, उस समय कांग्रेस एक राजनीतिक दल नहीं बल्कि राष्ट्रीय आन्दोलन भी था। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान इसके आदर्श थे। संसदीय लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवाद।
  2. स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त कांग्रेस 30 वर्षों तक सत्तारूढ़ रही। इन तीस वर्षों में कांग्रेस ने अस्पृश्यता उन्मूलन, दलितों का उत्थान, जमींदारी प्रथा का उन्मूलन, मिश्रित अर्थव्यवस्था पर बल, सार्वजनिक उद्यमों की स्थापना के कार्यक्रम अपनाये।
  3. वर्तमान में कांग्रेस पार्टी अपने समाजवादी सिद्धान्तों से काफी दूर हो चुकी है। चुनाव घोषणा पत्रों के माध्यम से कांग्रेस आर्थिक सुधार, प्रगति, विकास तथा प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार का वचन देती है और उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाए हुए है।

प्रश्न 36.
भारत में क्षेत्रीय दलों की प्रकृति पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। क्षेत्रीय दल पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
अथवा
उत्तर:
भारत में क्षेत्रीय दलों की प्रकृति- भारत में क्षेत्रीय दलों की प्रकृति को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।

  1. जाति, धर्म, क्षेत्र या समुदाय पर आधारित क्षेत्रीय दल: भारत के कुछ क्षेत्रीय दल या तो किसी जाति विशेष पर आधारित हैं या धर्म – विशेष पर या क्षेत्र विशेष पर या किसी समुदाय विशेष पर आधारित हैं।
  2. राष्ट्रीय दलों से निकले क्षेत्रीय दल: कुछ क्षेत्रीय दल वे हैं जो किसी समस्या विशेष या नेतृत्व के प्रश्न को लेकर राष्ट्रीय दलों विशेषकर कांग्रेस आदि से अलग हुए हैं, जैसे- केरल कांग्रेस, बंगला कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, तमिल मनीला कांग्रेस आदि।
  3. विचारधारा पर आधारित क्षेत्रीय दल: भारत में कुछ राजनीतिक दल विचारधारा पर आधारित हैं, जैसे फारवर्ड ब्लॉक, किसान मजदूर पार्टी आदि।

प्रश्न 37.
आजादी के बाद भारत में अनेक पार्टियों ने मुक्त और निष्पक्ष चुनाव में एक-दूसरे से स्पर्धा की फिर भी काँग्रेस पार्टी ही विजयी होती गई। क्यों?
उत्तर:
काँग्रेस पार्टी की इस असाधारण सफलता की जड़ें स्वाधीनता संग्राम की विरासत में है। कांग्रेस पार्टी को जनता ने तथा सभी ने आंदोलन के वारिस के रूप में देखा। आजादी के आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाने वाले कई नेता अब काँग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे। काँग्रेस शुरू से ही एक सुसंगठित पार्टी थी। चुनाव के दौरान जब तक बाकी के दल चुनावी रणनीति सोच रहे होते थे तब तक कांग्रेस अपना चुनावी अभियान शुरू कर चुकी होती थी। अनेक पार्टियों का गठन स्वतंत्रता के समय के आस-पास अथवा उसके बाद में हुआ।

जबकि काँग्रेस पार्टी आजादी के वक्त तक देश में चारों ओर फैल चुकी थी। इस पार्टी के संगठन का नेटवर्क स्थानीय स्तर तक पहुँच चुका था। कांग्रेस पार्टी की सबसे खास बात यह थी कि यह आजादी के आंदोलन की अग्रणी थी और इसकी प्रकृति सबको साथ लेकर चलने की थी। इसी कारण आजादी के बाद भारत में अनेक पार्टियों ने मुक्त और निष्पक्ष चुनाव में एक-दूसरे से स्पर्धा की फिर भी काँग्रेस पार्टी हर बार विजयी होती गई।

JAC Class 12 Political Science Important Questions Chapter 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर

प्रश्न 38.
कॉंग्रेस पार्टी के जन्म से लेकर अब तक इस पार्टी में क्या बदलाव आया है? संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
शुरू-शुरू में काँग्रेस में अंग्रेजीदाँ, अगड़ी जाति, उच्च मध्यवर्ग और शहरी अभिजन का वर्चस्व था। परंतु जब भी कॉंग्रेस ने सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलन चलाए उसका सामाजिक आधार बढ़ा। काँग्रेस ने परस्पर विरोधी हितों के कई समूहों को एक साथ जोड़ा। समय के साथ-साथ काँग्रेस में किसान और उद्योगपति, गाँव और शहर के रहने वाले, मालिक और मजदूर और उच्च, मध्य एवं निम्न वर्ग सभी जातियों को जगह मिली।

धीरे-धीरे काँग्रेस का नेतृवर्ग विस्तृत हुआ। इसका नेतृवर्ग अब उच्च वर्ग या जाति के पेशेवर लोगों तक ही सीमित नहीं रहा। इसमें खेती-किसानी की बुनियाद वाले तथा गाँव- गिरान की तरफ रुझान रखने वाले नेता भी उभरे। आजादी के समय तक काँग्रेस एक सतरंगे सामाजिक गठबंधन की शक्ल धारण कर चुकी थी और वर्ग, जाति, धर्म, भाषा तथा अन्य हितों के आधार पर इस सामाजिक गठबंधन से भारत की विविधता की नुमाइंदगी हो रही थी।

प्रश्न 39.
किस वजह से काँग्रेस ने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप लिया और राजनीतिक- व्यवस्था में इसका दबदबा कायम हुआ?
उत्तर:
काँग्रेस का जन्म 1885 में हुआ था। उस समय यह नवशिक्षित, कामकाजी और व्यापारिक वर्गों का एक हित – समूह भर थी। लेकिन 20वीं सदी में इस पार्टी ने जन आंदोलन का रूप ले लिया । इस वजह से कांग्रेस ने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप लिया और राजनीतिक व्यवस्था में इसका दबदबा कायम हुआ।

प्रश्न 40.
ए. के. गोपालन के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
ए. के. गोपालन केरल के कम्युनिस्ट नेता थे। आपके राजनीतिक जीवन की शुरुआत काँग्रेस कार्यकर्ता के रूप में हुई। परंतु 1939 में आपने कम्युनिस्ट पार्टी के साथ खुद को जोड़ा। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के पश्चात् आप कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) में शामिल हुए और इस पार्टी की मजबूती के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। आपको सांसद के रूप में विशेष ख्याति प्राप्त हुई।

प्रश्न 41.
कॉंग्रेस पार्टी में गुटों की मौजूदगी की प्रणाली शासक दल के भीतर संतुलन साधने के औजार की तरह काम करती थी। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
काँग्रेस पार्टी की अधिकतर प्रांतीय इकाइयाँ विभिन्न गुटों को मिलाकर बनी थीं। ये गुट अलग-अलग विचारधाराओं वाले थे और इस कारण काँग्रेस एक भारी-भरकम मध्यमार्गी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आती थी। दूसरी पार्टियाँ अक्सर काँग्रेसी गुटों को प्रभावित करने का कार्य करती रहती थीं। इस प्रकार बाकी पार्टियाँ हाशिए पर रहकर ही नीतियों और फैसलों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर पाती थीं। ये पार्टियाँ सत्ता के वास्तविक इस्तेमाल से कोसों दूर थीं। शासक दल का कोई विकल्प नहीं था। इसके बावजूद विपक्षी पार्टियाँ लगातार काँग्रेस की आलोचना करती थीं, उस पर दबाव डालती थीं और इस क्रम में उसे प्रभावित करती थीं। इस प्रकार गुटों की मौजूदगी की यह प्रणाली शासक दल के भीतर संतुलन साधने के औजार की तरह काम करती थी । इस तरह राजनीतिक होड़ काँग्रेस के भीतर ही चलती थी।

प्रश्न 42.
1950 के दशक में विपक्षी दलों की मौजूदगी ने भारतीय शासन- व्यवस्था के लोकतांत्रिक चरित्र को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस कथन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
1950 के दशक में विपक्षी दलों को लोकसभा अथवा विधानसभा में मात्र कहने भर को प्रतिनिधित्व मिल पाया फिर भी इन दलों ने भारतीय शासनव्यवस्था के लोकतांत्रिक चरित्र को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस कथन की पुष्टि निम्न तथ्यों से की जा सकती है।

  1. इन दलों ने काँग्रेस पार्टी की नीतियों और व्यवहारों की सुचिन्तित आलोचना की। इन आलोचनाओं में सिद्धांतों का बल होता था। बदला।
  2. विपक्षी दलों ने शासक दल पर अंकुश रखा और इन दलों के कारण काँग्रेस पार्टी के भीतर शक्ति-संतुलन
  3. इन दलों ने लोकतांत्रिक राजनीतिक विकल्प की संभावना को जीवंत रखा। ऐसा करके इन दलों ने व्यवस्थाजन्य रोष को लोकतंत्र-विरोधी बनने से रोका।
  4. इन दलों ने ऐसे नेता तैयार किए जिन्होंने आगे के समय में हमारे देश की तस्वीर को संवारने में अहम भूमिका निभाई।

प्रश्न 43.
आजादी के बाद काफी समय तक भारत देश में लोकतांत्रिक राजनीति का पहला दौर एकदम अनूठा था। इस कथन के समर्थन में तर्क दीजिए।
उत्तर:
शुरुआती सालों में काँग्रेस और विपक्षी दलों के नेताओं के बीच पारस्परिक सम्मान का गहरा भाव था। स्वतंत्रता की घोषणा के बाद अंतरिम सरकार ने देश का शासन सँभाला था। इसके मंत्रिमंडल में डॉ. अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेता शामिल थे। नेहरू सोशलिस्ट पार्टी के प्रति काफी लगाव रखते थे। इसलिए उन्होंने जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी नेताओं को सरकार में शामिल होने का प्रस्ताव दिया था।

अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी से इस प्रकार की नजदीकी उसके प्रति सम्मान का भाव दलगत प्रतिस्पर्धा के तेज़ होने के बाद लगातार कम होता गया। राष्ट्रीय आंदोलन का चरित्र समावेशी था। इस तरह हम यह कह सकते हैं कि आजादी के बाद लंबे समय तक अपने देश में लोकतांत्रिक राजनीति का पहला दौर अनूठा था।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय राजनीति में 1952 से 1966 के युग को ‘एक दल के प्रभुत्व का दौर’ कहकर पुकारा गया है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? किन्हीं तीन कारकों की व्याख्या कीजिये जिन्होंने इस प्रभुत्व को बनाए रखने में सहायता की।
अथवा
प्रथम तीन आम चुनावों के सन्दर्भ में एक दल की प्रधानता का वर्णन कीजिए तथा इस प्रधानता के कारकों को स्पष्ट कीजिये। संजीव पास बुक्स
उत्तर:
स्वतंत्रता के बाद भारत के राजनैतिक परिदृश्य में कांग्रेस का वर्चस्व लगातार तीन दशकों तक कायम रहा। यह निम्न प्रथम तीन आम चुनावों के परिणामों से स्पष्ट होता है।

  1. प्रथम तीन चुनावों में संसद की 494 सीटों में से कांग्रेस ने 1952 में 364, 1957 में 371 तथा 1962 में 361 सीटें जीतीं।
  2. इस काल में केरल और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर शेष सभी राज्यों में भी कांग्रेस की सरकारें बनीं। उपर्युक्त चुनाव परिणाम दर्शाते हैं कि 1952 से 1966 तक भारत में ‘एक दलीय प्रभुत्व’ की स्थिति  ही।

भारत में एक दल की प्रधानता के कारण: भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् चुनावों में एक दल के प्रभुत्व के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. कांग्रेस पार्टी को सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व प्राप्त था: कांग्रेस पार्टी में देश के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त था। कांग्रेस पार्टी उदारवादी, उग्रवादी, दक्षिणपंथी, साम्यवादी तथा मध्यमार्गी नेताओं का एक महान मंच था।
  2. कांग्रेस का चमत्कारिक नेतृत्व: कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू थे जो भारतीय राजनीति के सबसे करिश्माई और लोकप्रिय नेता थे।
  3. राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत: कांग्रेस पार्टी को स्वतंत्रता संग्राम के वारिस के रूप में देखा गया। स्वतंत्रता आंदोलन के अनेक अग्रणी नेता अब कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे।
  4. गुटों में तालमेल और सहनशीलता: कांग्रेस गठबंधनी स्वभाव के कारण विभिन्न गुटों के प्रति सहनशील थी। इससे कांग्रेस एक भारी-भरकम मध्यमार्गी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आती थी। इस सन्दर्भ में दूसरी पार्टियाँ कांग्रेस का विकल्पं प्रस्तुत नहीं कर पायीं।

प्रश्न 2.
कांग्रेस पार्टी की विचारधारा एवं कार्यक्रमों की विवेचना कीजिए।
अथवा
भारतीय कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रमों व सिद्धान्तों पर एक आलोचनात्मक नोट लिखिए।
उत्तर:
भारतीय कांग्रेस पार्टी स्वतंत्रता के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की प्रमुख नीतियाँ एवं कार्यक्रम निम्नलिखित हैं।
I. राजनीतिक कार्यक्रम।

  1. कांग्रेस लोकतन्त्र तथा राष्ट्र की एकता व अखण्डता में विश्वास करती है
  2. यह पार्टी राजनीतिक भ्रष्टाचार व राजनीतिक अपराधीकरण का विरोध करती है।
  3. यह लोकपाल की नियुक्ति का समर्थन करती है।
  4. यह आतंकवादियों तथा अन्य राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष करने के संकल्प पर बल देती है।
  5. यह विदेश नीति के सन्दर्भ में गुटनिरपेक्षता तथा पंचशील अन्तर्राष्ट्रीय शांति के सिद्धान्तों का समर्थन करती है। आर्थिक तथा सामाजिक कार्यक्रम-
  6. यह लोगों को आत्म-निर्भर बनाने तथा भारत जैसे गरीब देश को सम्पन्नता की ओर ले जाने; गरीबी को दूर करने, बेरोजगारी को मिटाने के प्रति वचनबद्ध है।
  7. यह आर्थिक सुधारों की गति को तीव्र करने, घरेलू उत्पादों में वृद्धि करने, कृषि की पैदावार में वृद्धि करने तथा कृषि आधारित उद्योगों को प्रोत्साहन देने पर बल देती है।
  8. यह आवासीय योजनाओं का विस्तार करने तथा गरीब व कमजोर वर्ग के लोगों को सस्ती दरों पर आवास उपलब्ध कराने, दलितों, आदिवासियों तथा महिला कल्याण, बाल-कल्याण, पर विशेष
  9. योजनाओं एवं कार्यक्रमों पर बल, देती है।
  10. यह संचार के साधनों के तीव्र विकास, शिक्षा व स्वास्थ्य सम्बन्धी योजनाओं के विस्तार पर बल देती है । इस प्रकार ये कुछ नीतियाँ व कार्यक्रम हैं जिनको लेकर यह पार्टी चुनावों में भाग लेती है।

प्रश्न 3.
भारतीय साम्यवादी दल की नीतियों एवं कार्यक्रमों का परीक्षण कीजिए।
उत्तर:
भारतीय साम्यवादी दल की नीतियाँ एवं कार्यक्रम: भारतीय साम्यवादी दल की नीतियाँ एवं कार्यक्रमों का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है।
(क) राजनीतिक कार्यक्रम- पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम एवं नीतियाँ निम्नलिखित हैं।

  1. पार्टी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता, साम्प्रदायिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए वचनबद्ध है।
  2. पार्टी केन्द्र- द- राज्य सम्बन्धों का पुनर्गठन करके राज्यों को आर्थिक शक्तियाँ देने के पक्ष में है।
  3. पार्टी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए लोकपाल विधेयक का समर्थन करती है।
  4. पार्टी अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा चुनाव प्रणाली में व्यापक सुधार करने, अनुच्छेद 356 को समाप्त किये जाने के पक्ष में है।
  5. पंचायती राज संस्थाओं को मजबूती के पक्ष में है।

(ख) आर्थिक कार्यक्रम: भारतीय साम्यवादी दल के आर्थिक कार्यक्रम एवं नीतियाँ निम्न हैं।

  1. सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण रोका जाए। दूर संचार, बिजली आदि की नीतियों को बदला जाए। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को चुस्त-दुरुस्त किया जाए।
  2. मौजूदा औद्योगिक नीति को बदला जाए। अन्धाधुन्ध उदारीकरण की नीतियों को बदला जाए जो देश की सम्प्रभुता को कमजोर कर रही हैं।
  3. बजट का 50 प्रतिशत कृषि, बागवानी, मत्स्य पालन आदि के विकास के लिए आवण्टित किया जाए और सिंचाई की सुनिश्चित व्यवस्था की जाए।

(ग) सामाजिक कार्यक्रम: भारतीय साम्यवादी दल की सामाजिक नीतियाँ एवं कार्यक्रम निम्नलिखित हैं।

  1. महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की जाए।
  2. लोगों के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण की नीतियों को ग्रामीण क्षेत्र में बढ़ावा दिया जाए।
  3. शिक्षा तथा जन साक्षरता का प्रसार किया जाए।
  4. काम के अधिकार को संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में प्रदान किया जाए।
  5. स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था की जाए।

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प्रश्न 4.
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली अपनाने के प्रतिकूल कौन-कौनसी चुनौतियाँ थीं? विस्तारपूर्वक लिखिये।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाने के प्रतिकूल परिस्थितियाँ: स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में लोकतान्त्रिक प्रणाली को अपनाने के प्रतिकूल निम्नलिखित प्रमुख चुनौतियाँ थीं।

  • सार्वभौमिक मताधिकार द्वारा स्वतंत्र और निष्पक्ष आम चुनाव कराना: भारत के आकार को देखते हुए स्वतंत्र और निष्पक्ष आम चुनाव कराना अत्यन्त कठिन मामला था क्योंकि:
    1. चुनाव कराने के लिए चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन आवश्यक था,
    2. मताधिकार प्राप्त वयस्क व्यक्तियों की मतदाता सूची बनाना आवश्यक था। ये दोनों ही काम उस समय अत्यन्त कठिन और समय लेने वाले।
  • निरक्षरता और गरीबी उस वक्त देश के मतदाताओं में महज 15 फीसदी ही साक्षर थे। मतदाताओं की बड़ी संख्या गरीब और अनपढ़ लोगों की थी और ऐसे माहौल में चुनाव लोकतंत्र के लिए परीक्षा की कठिन घड़ी था।
  • जातिवाद, क्षेत्रवाद तथा साम्प्रदायिकता: स्वतंत्रता के समय देश में जातिवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदारिकता, राजाओं के प्रति भक्ति आदि तत्त्व प्रबल थे, जो निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव में बाधक बने हुए थे। मतदाताओं के अशिक्षित और गरीब होने से उन पर इन तत्त्वों के प्रभाव की पूरी गुंजाइश थी। देश में अनेक दलों, जैसे हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग आदि ने साम्प्रदायिक आधार अपना लिया था। साम्प्रदायिक आधार पर ये मतदाताओं को प्रभावित कर रहे थे। ऐसे में लोकतंत्र की सफलता में ये बाधक हो रहे थे।

प्रश्न 5.
1950 के दशक में भारत में विपक्षी पार्टियों की भूमिका की विवेचना कीजिय।
उत्तर:
1950 के दशक में लोकसभा में विपक्षी दलों का प्रतिनिधित्व: 1950 के दशक में भारत में अनेक राजनैतिक दल थे। यद्यपि कांग्रेस का प्रभुत्व था, तथापि अनेक राजनैतिक दलों ने चुनावों में अपने संजीव पास बुक्स उम्मीदवार उतारे थे। ये दल थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी आदि।

इस दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। उसे 16 लोकसभा सीटें मिलीं जबकि जनसंघ को तीन चार सीटें ही मिलीं। अन्य दलों को भी कोई खास कामयाबी नहीं मिली। विपक्ष की भूमिका 1950 के दशक में भारत में यद्यपि विपक्षी दलों को लोकसभा या विधानसभा में कहने भर का प्रतिनिधित्व मिला तथापि उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। यथा

  1. कांग्रेस की नीतियों की सैद्धान्तिक आलोचना विपक्षी दलों ने कांग्रेस पार्टी की नीतियों और व्यवहारों की सकारात्मक आलोचना की जिसमें सिद्धान्तों का बल होता था।
  2. शासक दल पर अंकुश लगाना इस काल में विपक्षी दलों ने उसकी नीतियों की सैद्धान्तिक आलोचना करके शासक दल पर अंकुश रखा।
  3. राजनीतिक विकल्प की संभावना को जीवित रखना इन दलों ने लोकतांत्रिक राजनीतिक विकल्प की संभावना को जीवित रखा।
  4. कांग्रेस तथा विपक्षी नेताओं के बीच परस्पर सम्मान भाव इस दौर में कांग्रेस और विपक्षी दलों के नेताओं के बीच परस्पर सम्मान का गहरा भाव रहा। लेकिन 60 के दशक में यह सम्मान भाव लगातार कम होता गया।

प्रश्न 6.
मतदान के बदलते तरीके पर निबंध लिखिए।
उत्तर:
इन दिनों चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक मशीन का उपयोग किया जाता है। इसके माध्यम से मतदाता उम्मीदवारों के बारे में अपनी पसंद जाहिर करते हैं। परंतु शुरू-शुरू में ऐसी मशीनों का उपयोग नहीं किया जाता था। पहले के चुनावों में प्रत्येक चुनाव केन्द्र में प्रत्येक उम्मीदवार के लिए एक मतपेटी रखी जाती थी और उस मतपेटी पर उम्मीदवार का चुनाव चिह्न अंकित रहता था। प्रत्येक मतदाता को एक खाली मतपत्र दिया जाता था और उस पर वह अपने पसंद के उम्मीदवार की मतपेटी में डाल देता।

इस काम में स्टील के बक्सों का इस्तेमाल होता था। हर एक मतपेटी में भीतर और बाहर की तरफ संबंधित उम्मीदवार का चिह्न अंकित होता था। मतपेटी के बाहर किसी एक तरफ उम्मीदवार का नाम उर्दू, हिन्दी और पंजाबी भाषा में लिखा हुआ होता था। इसके साथ-साथ चुनाव क्षेत्र, चुनाव केन्द्र और मतदान केन्द्र की संख्या भी दर्ज होती थी। उम्मीदवार के आंकिक ब्यौरे वाला एक कागजी मुहरबंद पीठासीन पदाधिकारी के दस्तखत के साथ मतपेटी में लगाया जाता था। तत्पश्चात् मतपेटी के ढक्कन को तार के सहारे बाँधा जाता था और इसी जगह मुहरबंद लगाया जाता था।

यह सारा काम चुनाव की नियत तारीख के एक दिन पहले हो जाता था। चुनाव चिह्न और बाकी ब्यौरों को दर्ज करने के लिए मतपेटी को पहले सरेस कागज या ईंट के टुकड़े से रगड़ा जाता था। यह काम बहुत लंबा चलता था। शुरुआती दो चुनाव के बाद यह तरीका बदल दिया गया। अब मतपत्र पर हर उम्मीदवार का नाम और चुनाव चिह्न अंकित किया जाने लगा। मतदाता को इस मतपत्र पर अपने पसंद के उम्मीदवार के नाम पर मुहर लगानी होती थी । यह तरीका अगले चालीस सालों तक चलन में रहा। सन् 1990 के दशक के अंत में चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का इस्तेमाल शुरू किया और 2004 तक पूरे देश में ईवीएम का उपयोग शुरू हुआ।

प्रश्न 7.
सोशलिस्ट पार्टी के जन्म, विकास, विचारधारा, उपलब्धियाँ और प्रमुख नेताओं को ध्यान में रखकर उस पर निबंध लिखिए।
उत्तर:
सोशलिस्ट पार्टी की जड़ों को आजादी से पहले के उस वक्त में ढूँढ़ा जा सकता है जब भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस जनआंदोलन चला रही थी। काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन काँग्रेस के भीतर 1934 में युवा नेताओं की टोली ने किया था। ये नेता कांग्रेस को ज्यादा-से-ज्यादा परिवर्तनकारी और समतावादी बनाना चाहते थे। 1948 में काँग्रेस ने अपने संविधान में परिवर्तन किया। यह परिवर्तन इसलिए किया गया था ताकि काँग्रेस के सदस्य दोहरी सदस्यता न धारण कर सकें। इस वजह से काँग्रेस के समाजवादियों को मजबूरन 1948 में अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी बनानी पड़ी। परंतु सोशलिस्ट पार्टी चुनावों में कुछ खास कामयाबी प्राप्त नहीं कर सकी।

इस कारण पार्टी के समर्थकों को बड़ी निराशा हुई। हालाँकि सोशलिस्ट पार्टी की मौजूदगी हिन्दुस्तान के अधिकतर राज्यों में थी लेकिन पार्टी को चुनावों में छिटपुट सफलता ही मिली। समाजवादी लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा में विश्वास करते थे और इस आधार पर वे काँग्रेस तथा साम्यवादी दोनों से अलग थे। वे काँग्रेस की आलोचना करते थे। क्योंकि काँग्रेस पूँजीपतियों और जमींदारों का पक्ष लेती थी तथा मजदूरों और किसानों की उपेक्षा करती थी। समाजवादियों को 1955 में दुविधा की स्थिति का सामना करना पड़ा क्योंकि काँग्रेस ने घोषणा कर दी कि उसका लक्ष्य समाजवादी बनावट वाले समाज की रचना है। ऐसे में समाजवादियों के लिए खुद को काँग्रेस का कारगर विकल्प बनाकर पेश करना मुश्किल हो गया।

सोशलिस्ट पार्टी के कई टुकड़े हुए और कुछ मामलों में बहुधा मेल भी हुआ । इस प्रक्रिया में कई समाजवादी दल बने। इन दलों में किसान मजदूर प्रजा पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का नाम लिया जा सकता है। जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, आचार्य नरेन्द्र देव, राममनोहर लोहिया और एस. एम. जोशी समाजवादी दलों के नेताओं में प्रमुख थे। मौजूदा हिन्दुस्तान के कई दलों जैसे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड) और जनता दल (सेक्युलर) पर सोशलिस्ट पार्टी की छाप देखी जा सकती है।

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प्रश्न 8.
इंस्टीट्यूशनल रिवोल्यूशनरी पार्टी की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
इंस्टीट्यूशनल रिवोल्यूशनरी पार्टी का मैक्सिको में लगभग साठ सालों तक शासन रहा। स्पेनिश में इसे पीआरआई कहा जाता है। इस पार्टी की स्थापना 1929 में हुई थी। तब इसे नेशनल रिवोल्यूशनरी पार्टी कहा जाता था। इस पार्टी को मैक्सिकन क्रांति की विरासत हासिल थी। मुख्यतः पीआरआई में राजनेता और सैनिक नेता, मजदूर और किसान संगठन तथा अनेक राजनीतिक दलों समेत कई किस्म के हितों का संगठन था।

समय बीतने के साथ पीआरआई के संस्थापक प्लूटार्को इलियास कैलस ने इसके संगठन पर कब्जा जमा लिया और इसके बाद नियमित रूप से होने वाले चुनावों में हर बार पीआरआई ही विजयी होती रही। बाकी पार्टियाँ बस नाम की थीं ताकि शासक दल को वैधता मिलती रहे। चुनाव के नियम इस तरह तय किए गए कि पीआरआई की जीत हर बार पक्की हो सके। पीआरआई के शासन को ‘परिपूर्ण तानाशाही’ कहा जाता है। आखिरकार सन् 2000 में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में यह पार्टी हारी। मैक्सिको अब एक पार्टी के दबदबे वाला देश नहीं रहा। बहरहाल, अपने दबदबे के दौर में पीआरआई ने जो दाँव-पेंच अपनाए थे उनका लोकतंत्र की सेहत पर बड़ा खराब असर पड़ा है।

प्रश्न 9.
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया पर लेख लिखिए।
उत्तर:
1920 के दशक के शुरुआती सालों में भारत के विभिन्न हिस्सों में साम्यवादी – समूह उभरे। ये रूस की बोल्शेविक क्रांति से प्रेरित थे और देश की समस्याओं के समाधान के लिए साम्यवाद की राह अपनाने की तरफदारी कर रहे थे। काँग्रेस से साम्यवादी 1941 के दिसंबर में अलग हुए। इस समय साम्यवादियों ने नाजी जर्मनी के खिलाफ लड़ रहे ब्रिटेन को समर्थन देने का फैसला किया। दूसरी गैर – काँग्रेस पार्टियों के विपरीत कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के पास आजादी के समय एक सुचारू पार्टी मशीनरी और समर्पित कॉडर मौजूद थे।

बहरहाल, आजादी हासिल होने पर इस पार्टी के भीतर कई स्वर उभरे। आजादी के तुरंत बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विचार था कि 1947 में सत्ता का जो हस्तांतरण हुआ वह सच्ची आजादी नहीं थी। इस विचार के साथ पार्टी ने तेलंगाना में हिंसक विद्रोह को बढ़ावा दिया। साम्यवादी अपनी बात के पक्ष में जनता का समर्थन हासिल नहीं कर सके और इन्हें सशस्त्र सेनाओं द्वारा दबा दिया गया। फलस्वरूप इन्हें अपने पक्ष को लेकर पुनर्विचार करना पड़ा। 1951 में साम्यवादी पार्टी ने हिंसक क्रांति का रास्ता छोड़ दिया और आने वाले आम चुनावों में भाग लेने का फैसला किया।

पहले आम चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 16 सीटें जीतीं और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनकर उभरी। इस दल को ज्यादातर समर्थन आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और केरल में मिला। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख नेताओं में ए. के. गोपालन, एस. ए. डांगे, ई. एम. एस. नम्बूदरीपाद, पी. सी. जोशी, अजय घोष और पी. सुंदरैया के नाम लिए जाते हैं। चीन और सोवियत संघ के बीच विचारधारात्मक अंतर आने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 1964 में बड़ी टूट का शिकार हुई। सोवियत संघ की विचारधारा को सही मानने वाले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में रहे जबकि इसके विरोध में राय रखने वालों ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या सीपीआई (एम) नाम से अलग दल बनाया। ये दोनों दल आज तक कायम हैं

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प्रश्न 10.
भारतीय जनसंघ पार्टी पर विस्तारपूर्वक लेख लिखिए।
उत्तर:
भारतीय जनसंघ का गठन 1951 में हुआ था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसके संस्थापक-अध्यक्ष थे। इस दल की जड़ें आजादी के पहले के समय से सक्रिय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और हिन्दू महासभा में खोजी जा सकती हैं। जनसंघ अपनी विचारधारा और कार्यक्रमों के कारण बाकी दलों से भिन्न है। जनसंघ ने ‘एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र’ के विचार पर जोर दिया। इसका मानना था कि देश भारतीय संस्कृति और परंपरा के आधार पर आधुनिक, प्रगतिशील और ताकतवर बन सकता है।

जनसंघ ने भारत और पाकिस्तान को एक करके ‘अखंड भारत’ बनाने की बात पर जोर दिया। अंग्रेजी को हटाकर हिन्दी को राजभाषा बनाने के आंदोलन में यह पार्टी अग्रणी थी। इसने धार्मिक और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों को रियायत देने की बात का विरोध किया। चीन द्वारा 1964 में आण्विक परीक्षण करने पर जनसंघ ने लगातार इस बात की पैरोकारी की कि भारत भी अपने आण्विक हथियार तैयार करे। 1950 के दशक में जनसंघ चुनावी राजनीति के हाशिए पर रहा।

इस पार्टी को 1952 के चुनाव में लोकसभा की तीन सीटों पर सफलता मिली और 1957 के आम चुनावों में इसने लोकसभा की 4 सीटें जीतीं। शुरुआती सालों में इस ‘पार्टी को हिन्दी भाषी राज्यों मसलन राजस्थान, मध्यप्रदेश, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के शहरी इलाकों में समर्थन मिला। जनसंघ के नेताओं में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और बलराज मधोक के नाम शामिल हैं। भारतीय जनता पार्टी की जड़ें इसी जनसंघ में हैं।

प्रश्न 11.
स्वतंत्र पार्टी पर विस्तारपूर्वक लेख लिखि।
उत्तर:
काँग्रेस के नागपुर अधिवेशन में जमीन की हदबंदी, खाद्यान्न के व्यापार, सरकारी अधिग्रहण और सहकारी खेती का प्रस्ताव पास हुआ था। इसी के बाद 1959 के अगस्त में स्वतंत्र पार्टी अस्तित्व में आई। इस पार्टी का नेतृत्व सी. राजगोपालाचारी, के. एम. मुंशी, एन. जी. रंगा और मीनू मसानी जैसे पुराने काँग्रेस नेता कर रहे थे। यह पार्टी आर्थिक मसलों पर अपनी खास किस्म की पक्षधरता के कारण दूसरी पार्टियों से अलग थी स्वतंत्र पार्टी चाहती थी कि सरकार अर्थव्यवस्था में कम हस्तक्षेप करे इसका मानना था कि समृद्धि सिर्फ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के जरिए आ सकती है।

स्वतंत्र पार्टी अर्थव्यवस्था में विकास के नजरिए से किए जा रहे राजकीय हस्तक्षेप, केन्द्रीकृत नियोजन, राष्ट्रीयकरण और अर्थव्यवस्था के भीतर सार्वजनिक क्षेत्र की मौजूदगी को आलोचना की निगाह से देखती थी। यह पार्टी आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के हित को ध्यान में रखकर किए जा रहे कराधान के भी खिलाफ थी। इस दल ने निजी क्षेत्र को खुली छूट देने की तरफदारी की। स्वतंत्र पार्टी कृषि में जमीन की हदबंदी, सहकारी खेती और खाद्यान्न के व्यापार पर सरकारी नियंत्रण के खिलाफ थी। इस दल ने गुटनिरपेक्षता की नीति और सोवियत संघ से मित्रता के रिश्ते को कायम रखने को भी गलत माना। इसने संयुक्त राज्य अमरीका से मित्रता के रिश्ते बनाने की वकालत की।

अनेक क्षेत्रीय पार्टियों और हितों के साथ मेल करने के कारण स्वतंत्र पार्टी देश के विभिन्न हिस्सों में ताकतवर हुई। स्वतंत्र पार्टी की तरफ जमींदार और राजा-महाराजा आकर्षित हुए। भूमि सुधार के कानूनों से इनकी मिल्कियत और हैसियत को खतरा मँडरा रहा था और इससे बचने के लिए इन लोगों ने स्वतंत्र पार्टी का दामन थामा। उद्योगपति और व्यवसायी वर्ग के लोग राष्ट्रीयकरण और लाइसेंस नीति के खिलाफ थे। इन लोगों ने भी स्वतंत्र पार्टी का समर्थन किया। इस पार्टी का सामाजिक आधार बड़ा संकुचित था और इसके पास पार्टी सदस्य के रूप में समर्पित कॉडर की कमी थी। इस वजह से यह पार्टी अपना मजबूत सांगठनिक नेटवर्क खड़ा नहीं कर पाई।

JAC Class 12 Political Science Important Questions Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति

Jharkhand Board JAC Class 12 Political Science Important Questions Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति Important Questions and Answers.

JAC Board Class 12 Political Science Important Questions Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति

बहुचयनात्मक प्रश्न

1. प्रथम पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल था।
(क) 1951-1956
(ख) 1952-1957
(ग) 1955-1960
(घ) 1947-1952
उत्तर:
(क) 1951-1956

2. स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में किस आर्थिक प्रणाली को अपनाया गया?
(क) पूँजीवादी
(ख) मिश्रित
(ग) समाजवादी
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) मिश्रित

3. योजना आयोग की स्थापना कब की गई?
(क) 1950
(ख) 1952
(ग) 1960
(घ) 1962
उत्तर:
(क) 1950

4. हरित क्रान्ति के दौरान किस फसल का सर्वाधिक उत्पादन हुआ?
(क) गेहूँ
(ख) बाजरा
(ग) सोयाबीन
(घ) चावल
उत्तर:
(क) गेहूँ

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5. लौह-अयस्क का विशाल भंडार था।
(क) उड़ीसा
(ख) पंजाब
(ग) केरल
(घ) उत्तरप्रदेश
उत्तर:
(क) उड़ीसा

6. प्रथम पंचवर्षीय योजना में सर्वाधिक बल किस पर दिया गया।
(क) कृषि
(ख) उद्योग
(ग) पर्यटन
(घ) संचार
उत्तर:
(क) कृषि

7. भारत में नियोजन प्रक्रिया की प्रेरणा किस देश से ली गई।
(क) सोवियत संघ
(ख) चीन
(ग) जापान
(घ) अमेरिका।
उत्तर:
(क) सोवियत संघ

8. दूसरी पंचवर्षीय योजना कब शुरू हुई?
(क) 1951
(ख) 1956
(ग) 1966
(घ) 1957
उत्तर:
(ख) 1956

9. चौथी पंचवर्षीय योजना कब से शुरू होनी थी?
(क) 1961
(ख) 1966
(ग) 1967
(घ) 1962
उत्तर:
(ख) 1966

10. पहली योजना का मूलमंत्र क्या था?
(क) संरचनात्मक बदलाव
(ख) प्रौद्योगिकी
(ग) धीरज
(घ) कृषि
उत्तर:
(ग) धीरज

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए

संजीव पास बुक्सं
1. …………………….. ‘से उन लोगों की तरफ संकेत किया जाता है जो गरीब और पिछड़े सामाजिक समूह की तरफदारी करते हैं।
उत्तर:
वामपंथ

2. ……………………… पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों के विकास पर जोर दिया गया।
उत्तर:
दूसरी

3. पहली पंचवर्षीय योजना का मूलमंत्र था धीरज, लेकिन दूसरी योजना की कोशिश तेज गति से ……………………….बदलाव करने की थी।
उत्तर:
संरचनात्मक

4. केरल में विकास और नियोजन के लिए जो रास्ता चुना उसे …………………… कहा जाता है।
उत्तर:
केरल मॉडल

5. इकॉनोमी ऑफ परमानेंस के लेखक ……………………….. हैं।
उत्तर:
जे.सी. कुमारप्पा

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्र भारत के समक्ष विकास के कौन-कौनसे दो मॉडल थे?
उत्तर:
पूँजीवादी मॉडल और समाजवादी मॉडल।

प्रश्न 2.
योजना आयोग की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
मार्च, 1950 में।

प्रश्न 3.
1944 में उद्योगपतियों ने देश में नियोजित अर्थव्यवस्था चलाने का एक संयुक्त प्रस्ताव तैयार किया जिसे किस नाम से जाना जाता है?
उत्तर:
बॉम्बे प्लान।

प्रश्न 4.
वामपंथ से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
वामपंथ से उन लोगों की तरफ संकेत किया जाता है जो गरीब और पिछड़े सामाजिक समूह की तरफदारी करते हैं और इन तबकों को फायदा पहुँचाने वाली सरकारी नीतियों का समर्थन करते हैं।

प्रश्न 5.
भारत सरकार ने योजना आयोग के स्थान पर किस नई संस्था की स्थापना की?
उत्तर:
नीति आयोग।

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प्रश्न 6.
दूसरी पंचवर्षीय योजना में मुख्यतः किस बात पर जोर दिया गया?
उत्तर:
औद्योगिक विकास पर।

प्रश्न 7.
दक्षिणपंथ से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
दक्षिणपंथ से उन लोगों को इंगित किया जाता है जो यह मानते हैं कि खुली प्रतिस्पर्धा और बाजारमूलंक अर्थव्यवस्था के माध्यम से ही प्रगति हो सकती है।

प्रश्न 8.
” विकासशील देशों को सार्वजनिक उद्यमों का सहारा लेना ही पड़ता है, क्योंकि इनके सहयोग के बिना अर्थव्यवस्था गतिशील हो ही नहीं सकती ।” यह कथन किसका है? हुआ ?
उत्तर:
यह कथन प्रो. हैन्सन का है।

प्रश्न 9.
भारत में अर्थव्यवस्था के कौनसे स्वरूप को स्वीकार किया गया है?
उत्तर:
मिश्रित अर्थव्यवस्था।

प्रश्न 10.
‘मिल्कमैन ऑफ इण्डिया’ किसे कहा जाता है?
उत्तर:
वर्गीज कुरियन को।

प्रश्न 11.
नियोजित विकास क्या है?
उत्तर:
नियोजित विकास, विकास की एक प्रक्रिया है।

प्रश्न 12.
पश्चिमी मुल्कों में किस वजह से पुरानी सामाजिक संरचना टूटी और पूँजीवाद तथा उदारवाद का उदय
उत्तर:
आधुनिकीकरण।

प्रश्न 13.
आधुनिकीकरण किसका पर्यायवाची माना जाता था?
उत्तर:
संवृद्धि, भौतिक प्रगति और वैज्ञानिक तर्कबुद्धि।

प्रश्न 14.
1969 में केन्द्र सरकार ने कितने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया?
उत्तर:
14 बैंकों का।

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प्रश्न 15.
नियोजन की आवश्यकता क्यों होती है?
उत्तर:
नियोजन के द्वारा आर्थिक तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न अंगों में समन्वय स्थापित करके समाज की उन्नति की जा सकती है।

प्रश्न 16.
भारत में नियोजन के दो उद्देश्य लिखें।
उत्तर:

  1. देश की राष्ट्रीय आय में वृद्धि करना।
  2. क्षेत्रीय असन्तुलन को कम करना।

प्रश्न 17.
सार्वजनिक क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य आर्थिक पूँजी का निर्माण करना, आधारभूत उद्योगों का विकास करना तथा आर्थिक समानता की स्थापना करना है।

प्रश्न 18.
सार्वजनिक क्षेत्र का महत्त्व बताइए।
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा निर्यात में वृद्धि, रोजगार के अवसरों में वृद्धि तथा बीमार कारखानों की पुर्नस्थापना होती है।

प्रश्न 19.
सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख कमियाँ बताइए।
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों में अनुशासनहीनता, कार्यकुशलता में कमी तथा उत्तरदायित्व की कमी पायी जाती है।

प्रश्न 20.
भारत में हरित क्रान्ति की क्या आवश्यकता थी?
उत्तर:
देश में कृषिगत विकास करने तथा खाद्यान्नों का अधिकाधिक उत्पादन करके इस क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने हेतु हरित क्रान्ति की आवश्यकता पड़ी।

प्रश्न 21.
हरित क्रान्ति के मुख्य उद्देश्य कौन – कौनसे हैं?
उत्तर:
हरित क्रान्ति के प्रमुख तत्त्व हैं। कृषि का निरन्तर विस्तार करना, दोहरी फसल का उद्देश्य तथा अच्छे बीजों का प्रयोग करना।

प्रश्न 22.
हरित क्रांति का एक नकारात्मक प्रभाव बताएं।
उत्तर:
हरित क्रांति के प्रभावस्वरूप धनाढ्य वर्गों ने गरीब व भूमिहीन किसानों का शोषण व दमन किया। परिणामतः नक्सलवादी आंदोलन को बल मिला।

प्रश्न 23.
हरित क्रांति के दो सकारात्मक परिणाम लिखिये
उत्तर:

  1. देश में खाद्यान्न की उपलब्धता में बढ़ोतरी हुई।
  2. झोले वर्ग के किसानों का उभार हुआ।

प्रश्न 24.
दूसरी पंचवर्षीय योजना के योजनाकार कौन थे?
उत्तर:
पी. सी. महालनोबिस।

प्रश्न 25.
दूसरी पंचवर्षीय योजना में किसके विकास पर जोर दिया गया?
उत्तर:
दूसरी पंचवर्षीय योजना में भारी उद्योगों के विकास पर जोर दिया गया।

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प्रश्न 26.
बाम्बे प्लान क्या है?
उत्तर:
1944 में भारतीय उद्योगपतियों का एक समूह बॉम्बे में एकत्र हुआ। इस बैठक में इन उद्योगपतियों ने नियोजित अर्थव्यवस्था चलाने का एक संयुक्त प्रस्ताव तैयार किया। इसे ही बाम्बे प्लान के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 27.
भारतीय सांख्यिकीय संस्थान के संस्थापक कौन थे?
उत्तर:
पी. सी. महालनोबिस।

प्रश्न 28.
हरित क्रान्ति का किसानों पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
हरित क्रान्ति के कारण किसानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बदलाव आया है। वे राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। विभिन्न राजनीतिक दल अब किसानों को साथ लेकर चलते हैं ।

प्रश्न 29.
जे. सी. कुमारप्पा का असली नाम क्या था?
उत्तर:
जे. सी. कॉर्नेलियस।

प्रश्न 30.
भूमि सुधार से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
भूमि सुधार से आशय है भूमि के स्वामित्व का पुनर्वितरण करना।

प्रश्न 31.
आपकी दृष्टि में अंग्रेजी शासन समाप्त होने पर भूमि सुधार का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयास कौनसा किया गया था?
उत्तर:
जमींदारी प्रथा को समाप्त करना।

प्रश्न 32.
भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण कब किया गया?
उत्तर:
भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण जुलाई, 1969 में किया गया।

प्रश्न 33.
भारत में कृषि क्षेत्र में सुधार हेतु क्या-क्या प्रयास किये गये?
उत्तर:
भारत में कृषि सुधार हेतु उन्नत बीजों का प्रयोग किया, भूमि सुधार किए गए तथा सिंचाई के साधनों की उचित व्यवस्था की गई।

प्रश्न 34.
HYV बीजों का प्रयोग किन राज्यों में किया गया ? इसका क्या लाभ हुआ?
उत्तर:
HYV (High Yeilding Variety) बीजों का प्रयोग तमिलनाडु, पंजाब एवं आन्ध्रप्रदेश में किया गया तथा इससे गेहूँ की पैदावार अच्छी हुई।

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प्रश्न 35.
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं का मूल उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
भारत में पंचवर्षीय योजनाओं का मूल उद्देश्य आर्थिक विकास के साथ-साथ आत्मनिर्भरता, सामाजिक न्याय तथा समाजवाद लागू करना था।

प्रश्न 36.
उड़ीसा के आदिवासियों ने लोहा – इस्पात उद्योग की स्थापना का विरोध क्यों किया?
उत्तर:
उड़ीसा के आदिवासियों को इस बात का डर था कि यदि लोहा – इस्पात के उद्योग की स्थापना होती है, तो वे बेरोजगार हो जायेंगे तथा उन्हें विस्थापित होना पड़ेगा।

प्रश्न 37.
चौधरी चरण सिंह ने काँग्रेस पार्टी से अलग होकर कौन-सी पार्टी बनाई?
उत्तर:
भारतीय लोकदल।

प्रश्न 38.
जमींदारी उन्मूलन से होने वाले दो लाभ बताइये।
उत्तर:

  1. कृषकों का शोषण होना बन्द हो गया।
  2. कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई।

प्रश्न 39.
केरल मॉडल में नव लोकतंत्रात्मक पहल नाम का अभियान कैसे चलाया गया था?
उत्तर:
इस अभियान में लोगों को स्वयंसेवी नागरिक संगठनों के माध्यम से विकास की गतिविधियों में सीधे शामिल करने का प्रयास किया गया।

प्रश्न 40.
योजना आयोग के सदस्य के रूप में आप भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना में किस क्षेत्र पर बल देते?
उत्तर:
योजना आयोग के सदस्य के रूप में मैं भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र पर बल देता।

प्रश्न 41.
ऑपरेशन फ्लड से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
1970 में ऑपरेशन फ्लड के नाम से एक ग्रामीण विकास कार्यक्रम शुरू हुआ था जिसमें सहकारी दूध- उत्पादकों को उत्पादन और वितरण के राष्ट्रव्यापी तंत्र से जोड़ा गया।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
नियोजन से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है। यह कार्यों को क्रमबद्ध रूप से सम्पादित करने की एक मानसिक पूर्व प्रवृत्ति है, यह कार्य करने से पहले सोचना है तथा अनुमानों के स्थान पर तथ्यों को ध्यान में रखकर काम करना है।

प्रश्न 2.
पर्यावरणविदों के विरोध के क्या कारण थे? उनके विरोध के बावजूद भी केन्द्र सरकार उड़ीसा में इस्पात उद्योग की स्थापना के राज्य सरकार के प्रस्ताव को मंजूरी क्यों देना चाहती थी?
उत्तर:
उड़ीसा में इस्पात प्लांट लगाये जाने से पर्यावरणविदों को इस बात का भय था कि खनन और उद्योग से पर्यावरण प्रदूषित होगा। केन्द्र सरकार को लगता था कि उद्योग लगाने की अनुमति नहीं दी गई, तो इससे एक बुरी मिसाल कायम होगी और देश में पूँजी निवेश को बाधा पहुँचेगी।

प्रश्न 3.
विकास सम्बन्धी निर्णय लेने से पूर्व सरकार को क्या-क्या सावधानियाँ बरतनी पड़ती हैं? लोकतन्त्र में किन-किन विशेषज्ञों की सलाह महत्त्वपूर्ण मानी जाती है?
उत्तर:

  1. सरकार को विकास सम्बन्धी योजना के बारे में निर्णय लेने से पूर्व एक सामाजिक समूह के हितों को दूसरे सामाजिक समूह के हितों की तथा वर्तमान पीढ़ी और भावी पीढ़ी के हितों की तुलना में तोला जाता है।
  2. लोकतन्त्र में विकास सम्बन्धी निर्णयों के सम्बन्ध में विशेषज्ञों की राय लेनी चाहिए, लेकिन अन्तिम निर्णय जनप्रतिनिधियों द्वारा ही लिया जाना चाहिए।

प्रश्न 4.
1940 और 1950 के दशक में नियोजन के पक्ष में दुनियाभर में हवा क्यों बह रही थी?
उत्तर:
अर्थव्यवस्था के पुननिर्माण के लिए नियोजन के विचार को 1940 और 1950 के दशक में पूरे विश्व में जनसमर्थन मिला था क्योंकि यूरोप, जापान और जर्मनी ने युद्ध की विभीषिका झेलने के बाद नियोजन से अपनी अर्थव्यवस्था पुनः खड़ी कर ली थी। सोवियत संघ ने भारी कठिनाई के बीच नियोजन के द्वारा शानदार आर्थिक प्रगति की थी।

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प्रश्न 5.
योजना आयोग के संगठन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
योजना आयोग की स्थापना 15 मार्च, 1950 को की गई। इसमें एक अध्यक्ष ( प्रधानमन्त्री), एक उपाध्यक्ष, तीन अशंकालीन सदस्य:

  1. केन्द्रीय गृह मन्त्री
  2. केन्द्रीय रक्षामन्त्री
  3. केन्द्रीय वित्तमन्त्री तथा तीन पूर्वकालिक सदस्य होते थे।

प्रश्न 6.
नियोजन के प्रमुख तीन तत्त्व बताइये।
उत्तर:
नियोजन के तीन तत्त्व ये हैं।

  1. उपलब्ध साधनों का सही आकलन
  2. इन साधनों के आर्थिक उपयोग हेतु एक योजना
  3. सभी साधनों का अनुकूलतम प्रयोग।

प्रश्न 7.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था किस प्रकार की थी?
उत्तर:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत पिछड़ी हुई थी। इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था थी। अंग्रेजों ने भारतीय संसाधनों का इतना बुरी तरह दोहन किया कि भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह खराब हो गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था गतिहीन, अर्द्धसामन्ती तथा असन्तुलित अर्थव्यवस्था थी।

प्रश्न 8.
उन कारणों का वर्णन कीजिए जिनकी वजह से सरकार ने उड़ीसा में इस्पात उद्योग स्थापित करने का राजनीतिक निर्णय लेना चाहा।
उत्तर:
इस्पात की विश्वव्यापी माँग बढ़ी तो निवेश के लिहाज से उड़ीसा एक महत्त्वपूर्ण जगह के रूप में उभरा। उड़ीसा में लौह-अयस्क का विशाल भंडार था । उड़ीसा की राज्य सरकार ने लौह-अयस्क की इस अप्रत्याशित माँग को भुनाना चाहा। उसने अंतर्राष्ट्रीय इस्पात निर्माताओं और राष्ट्रीय स्तर के इस्पात – निर्माताओं के साथ सहमति – पत्र पर हस्ताक्षर किए।

प्रश्न 9.
सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्रों का निर्माण एवं विस्तार से आशय है। भारी उद्योगों, कोयले तथा तेल की खोज तथा परमाणु ऊर्जा के विकास, अन्य महत्त्वपूर्ण उद्योगों के निर्माण एवं विस्तार का उत्तरदायित्व केन्द्रीय सरकार के पास होना तथा इसके लिए वित्तीय तथा मानव शक्ति संसाधन का प्रबन्ध सरकार द्वारा करना।

प्रश्न 10.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो समस्याएँ बताइये।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की समस्याएँ हैं।

  1. सार्वजनिक क्षेत्र में लालफीताशाही और नौकरशाही का बोलबाला है, जिस कारण से सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यकुशलता निजी क्षेत्र की अपेक्षा बहुत कम है।
  2. भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख समस्या प्रबन्ध व्यवस्था का कुशल न होना है।

प्रश्न 11.
सार्वजनिक क्षेत्र की विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं।

  1. सार्वजनिक क्षेत्र में सरकार की समस्त आर्थिक तथा व्यावसायिक गतिविधियाँ शामिल की जाती हैं।
  2. सार्वजनिक क्षेत्र आर्थिक असमानताओं को कम करके आर्थिक समानता की स्थापना का प्रयास करता है।
  3. सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर पूर्ण रूप से राष्ट्रीय नियन्त्रण होता है। इसमें एकाधिकार की प्रवृत्ति पाई जाती है।

प्रश्न 12.
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की उत्पत्ति के कोई चार कारण बताइए।
उत्तर:

  1. राज्य ने जनता के कल्याण के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना की।
  2. बहु-उद्देश्यीय परियोजनाएँ सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत ही स्थापित की जा सकती हैं।
  3. समाजवादी समाज की स्थापना करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को अपनाना अतिआवश्यक है।
  4. क्षेत्रीय आर्थिक असमानता सार्वजनिक क्षेत्र के उदय का महत्त्वपूर्ण कारण है।

प्रश्न 13.
दक्षिणपंथी विचारधारा क्या है?
उत्तर:
दक्षिणपंथी विचारधारा: इस विचारधारा में उन लोगों या दलों को सम्मिलित किया जाता है जो यह मानते हैं कि खुली प्रतिस्पर्धा और बाजारमूलक अर्थव्यवस्था के द्वारा ही प्रगति हो सकती है अर्थात् सरकार को अर्थव्यवस्था में गैरजरूरी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए भूतपूर्व स्वतन्त्र पार्टी तथा वर्तमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को (विशेषकर 1991 की नई आर्थिक नीति के बाद) दक्षिण पंथ की राजनीतिक पार्टियाँ कहा जाता है।

प्रश्न 14.
वामपंथी विचारधारा क्या है?
उत्तर:
वामपंथी विचारधारा प्रायः वामपंथी विचारधारा में उन लोगों व राजनीतिक दलों को सम्मिलित किया जाता है जो साम्यवादी या समाजवादी, माओवादी, लेनिनवादी, नक्सलवादी, प्रजा समाजवादी, फॉरवर्ड ब्लॉक आदि दल स्वयं को इसी विचारधारा के पक्षधर एवं उस पर चलने के लिए कार्यक्रम एवं नीतियाँ बनाते हैं। प्राय: ये गरीब एवं पिछड़े सामाजिक ‘समूह की तरफदारी करते हैं। वे इन्हीं वर्गों को लाभ पहुँचाने वाली सरकारी नीति का समर्थन करते हैं।

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प्रश्न 15.
पी. सी. महालनोबिस कौन थे?
उत्तर:
पी. सी. महालनोबिस अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विख्यात वैज्ञानिक एवं सांख्यिकीविद थे। इन्होंने सन् 1931 में भारतीय सांख्यिकी संस्थान की स्थापना की थी। वे दूसरी पंचवर्षीय योजना के योजनाकार थे तथा तीव्र औद्योगीकरण तथा सार्वजनिक क्षेत्र की सक्रिय भूमिका के समर्थक थे ।

प्रश्न 16.
जे. पी. कुमारप्पा कौन थे?
उत्तर:
जे. पी. कुमारप्पा का जन्म 1892 में हुआ। इनका असली नाम जे. सी. कार्नेलियस था। इन्होंने अमेरिका में अर्थशास्त्र एवं चार्टर्ड एकाउंटेंट की शिक्षा प्राप्त की। ये महात्मा गाँधी के अनुयायी थे। आजादी के बाद उन्होंने गाँधीवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने का प्रयास किया। उनकी कृति ‘इकानॉमी ऑफ परमानैंस’ को बड़ी ख्याति मिली। योजना आयोग के सदस्य के रूप में भी उनको ख्याति प्राप्त हुई।

प्रश्न 17.
हरित क्रान्ति से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
हरित क्रान्ति: हरित क्रान्ति से अभिप्राय कृषि उत्पादन में होने वाली उस भारी वृद्धि से है जो कृषि की नई नीति अपनाने के कारण हुई है। जे. जी. हारर के अनुसार, ” हरित क्रान्ति शब्द 1968 में होने वाले उन आश्चर्यजनक परिवर्तनों के लिए प्रयोग में लाया जाता है, जो भारत के खाद्यान्न उत्पादन में हुआ था तथा अब भी जारी है।”

प्रश्न 18.
भारत में नियोजन की आवश्यकता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
अथवा
भारत में नियोजित विकास के कारणों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में नियोजन की आवश्यकता मुख्यतः अग्रलिखित कारणों से अनुभव की जाती है।

  1. नियोजन के द्वारा आर्थिक तथा सामाजिक जीवन के विभिन्न अंगों में समन्वय स्थापित करके समाज की उन्नति की जा सकती है।
  2. नियोजन द्वारा सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की स्थापना की जा सकती है।
  3. देश में व्याप्त आर्थिक असंतुलन को समाप्त करने तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने व लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने की दृष्टि से नियोजन का अत्यधिक महत्त्व समझा गया।
  4. आर्थिक नियोजन का महत्त्व इस दृष्टि से भी था कि समाजवादी लक्ष्यों को प्राप्त किया जाए।
  5. साधनों के उचित प्रयोग, वैज्ञानिक साधनों के प्रयोग तथा राष्ट्रीय पूँजी का सही मात्रा में सदुपयोग की दृष्टि से भी नियोजन की अत्यधिक आवश्यकता थी ।

प्रश्न 19.
भारत में नियोजन के महत्त्व एवं उपयोगिता का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में नियोजन का महत्त्व एवं उपयोगिता – भारत में नियोजन के महत्त्व के सम्बन्ध में अग्रलिखित तर्क दिये जा सकते हैं।

  1. नियोजन के अन्तर्गत आर्थिक विकास का दायित्व राज्य ग्रहण कर लेता है तथा एक सामूहिक गतिविधि के रूप में योजनाओं के माध्यम से आर्थिक विकास का प्रारम्भ तथा उसका निर्देशन करता है।
  2. आधुनिक लोककल्याणकारी राज्य में आर्थिक संसाधनों के समानतापूर्ण वितरण में नियोजन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
  3. नियोजन खुले बाजार वाली अर्थव्यवस्थाओं में अस्थिरता की सम्भावनाओं को दूर करने में सहायक है।
  4. विदेशी व्यापार की दृष्टि से भी नियोजन उपयोगी है। नियोजन से विदेशी व्यापार को अपने देश के हितों की शर्तों पर किया जा सकता है।
  5. प्रभावी नियोजन द्वारा अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है।

प्रश्न 20.
भारत में योजना आयोग की स्थापना किस प्रकार हुई? इसके कार्यों के दायरे का उल्लेख कीजिये।
अथवा
योजना आयोग के कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
योजना आयोग की स्थापना: योजना आयोग की स्थापना सन् 1950 में भारत सरकार ने एक सीधे-सादे प्रस्ताव के द्वारा की। योजना आयोग एक सलाहकारी भूमिका निभाता रहा है। योजना आयोग के कार्य-योजना आयोग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं।

  1. देश के भौतिक संसाधनों और जनशक्ति का अनुमान लगाना तथा उन संसाधनों की वृद्धि की संभावनाओं का पता लगाना।
  2. देश के संसाधनों के सन्तुलित उपयोग के लिए प्रभावकारी योजना बनाना।
  3. योजना की क्रियान्विति के चरणों का निर्धारण तथा उनके लिए संसाधनों का नियमन करना।
  4. आर्थिक विकास में आने वाली बाधाओं की ओर संकेत करना तथा योजना की सफल क्रियान्विति के लिए उपयुक्त परिस्थिति निर्धारित करना।
  5. योजना की चरणवार प्रगति का अवलोकन करना तथा इस बारे में आवश्यक उपायों की सिफारिश करना।

प्रश्न 21.
राष्ट्रीय विकास परिषद् की रचना तथा उद्देश्य बताएँ।
उत्तर:

  • राष्ट्रीय विकास परिषद् का संगठन: राष्ट्रीय विकास परिषद् के सदस्यों के रूप में निम्नलिखित व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है।
    1. प्रधानमंत्री राष्ट्रीय विकास परिषद् का अध्यक्ष होता है।
    2. योजना आयोग के सभी सदस्य।
    3. सभी राज्यों के मुख्यमंत्री तथा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का मुख्यमंत्री या उनका प्रतिनिधि।
  • परिषद् की बैठकों में उन मन्त्रियों को भी बुलाया जाता है, जिनके विभागों के सम्बन्ध में विचार किया जाना है। राष्ट्रीय विकास परिषद् के उद्देश्य
    1. योजना के समर्थन में राष्ट्र के साधनों तथा प्रयत्नों का उपयोग करना और उन्हें शक्तिशाली बनाना।
    2. सभी महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में सामान्य आर्थिक नीतियों की उन्नति करना।
    3. देश के सभी भागों का सन्तुलित विकास सुनिश्चित करना।

प्रश्न 22.
राष्ट्रीय विकास परिषद् के मुख्य कार्य बताइये।
उत्तर:
राष्ट्रीय विकास परिषद् के कार्य: राष्ट्रीय विकास परिषद् के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं।

  1. राष्ट्रीय योजना की प्रगति पर समय-समय पर विचार करना।
  2. राष्ट्रीय विकास को प्रभावित करने वाली आर्थिक तथा सामाजिक नीतियों सम्बन्धी विषयों पर विचार करना।
  3. राष्ट्रीय योजना के निर्धारित लक्ष्यों व उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सुझाव देना।
  4. राष्ट्रीय योजना के निर्माण के लिए तथा इसके साधनों के निर्धारण के लिए पथ-प्रदर्शक सूत्र निश्चित करना।
  5. योजना आयोग द्वारा तैयार की गई राष्ट्रीय योजना पर विचार करना।
  6. राष्ट्रीय विकास को प्रभावित करने वाली सामाजिक तथा आर्थिक नीति के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार करना।
  7. समय समय पर योजना के कार्यों की समीक्षा करना तथा राष्ट्रीय योजना में प्रतिपादित उद्देश्यों तथा कार्य लक्ष्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक उपायों की सिफारिश करना।

प्रश्न 23.
हरित क्रान्ति की आवश्यकता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
हरित क्रान्ति की आवश्यकता- 1960 के मध्य भारत को राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में गम्भीर समस्याओं का सामना करना पड़ा। इस काल में चीन तथा पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध, सूखा तथा अकाल, विदेशी मुद्रा संकट तथा खाद्यान्न के भारी संकट का सामना करना पड़ा। खाद्य संकट के कारण सरकार को गेहूँ का आयात करना पड़ा। इन सबने भारतीय नेतृत्व को चिन्ता में डाल दिया कि किस प्रकार इन परिस्थितियों से बाहर निकला जाए।

अतः भारतीय नीति-निर्धारकों ने कृषि उत्पादन में तेजी से वृद्धि करने का निर्णय किया ताकि भारत खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन जाए। यहीं से भारत में हरित क्रान्ति की शुरुआत मानी जाती है। हरित क्रान्ति का मुख्य उद्देश्य देश में कृषिगत पैदावार बढ़ाकर भारत को खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाना था।

प्रश्न 24.
“भारत में स्वतंत्रता से पूर्व ही नियोजन के पक्ष में कुछ उद्योगपति आ गए थे।” इस कथन के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
यद्यपि भारत 1947 में आजाद हुआ था परंतु नियोजन के पक्ष में दो या ढाई वर्ष पूर्व ही बातें चलने लगी थीं। 1944 में उद्योगपतियों का एक तबका एकत्र हुआ इस समूह ने देश में नियोजित अर्थव्यवस्था चलाने का एक संयुक्त प्रस्ताव तैयार किया। इसे ‘बॉम्बे प्लान’ की संज्ञा दी गई। ‘बॉम्बे प्लान’ की मंशा थी कि सरकार औद्योगिक तथा अन्य आर्थिक निवेश के क्षेत्र में बड़े कदम उठाए। इस तरह दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों की इच्छा थी कि देश नियोजित अर्थव्यवस्था की राह पर चले। इस कारण भारत के स्वतंत्र होते ही योजना आयोग अस्तित्व में आया। प्रधानमंत्री इसके अध्यक्ष बने। भारत अपने विकास के लिए कौन सा रास्ता और रणनीति अपनाएगा यह फैसला करने में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा ।

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प्रश्न 25.
प्रथम पंचवर्षीय योजना के उद्देश्य लिखिए।
उत्तर:
प्रथम पंचवर्षीय योजना के उद्देश्य – प्रथम पंचवर्षीय योजना के निम्न उद्देश्य हैं।

  1. प्रथम योजना का सर्वप्रथम उद्देश्य द्वितीय विश्वयुद्ध तथा देश के विभाजन के फलस्वरूप देश में जो आर्थिक अव्यवस्था तथा असन्तुलन पैदा हो चुका था उसको ठीक करना था।
  2. दूसरा उद्देश्य देश में सर्वांगीण सन्तुलित विकास प्रारम्भ करना था।
  3. तीसरा उद्देश्य उत्पादन क्षमता में वृद्धि तथा आर्थिक विषमता को यथासम्भव कम करना था।
  4. प्रथम योजना का एक उद्देश्य मुद्रास्फीति के दबाव को भी कम करना था।
  5. यातायात के साधनों में वृद्धि करना।
  6. बड़े पैमाने पर सामाजिक सेवाओं की व्यवस्था पर भी जोर दिया गया था।
  7. राज्यों में कुशल प्रशासकीय मशीनरी की व्यवस्था करना भी इस योजना का मुख्य उद्देश्य था।

प्रश्न 26.
नियोजित विकास के शुरुआती दौर का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
नियोजित विकास के शुरुआती दौर का मूल्यांकन निम्न प्रकार से किया जा सकता है।

  1. भारत के आगामी आर्थिक विकास की बुनियाद इसी दौर में पड़ी।
  2. भारत के इतिहास की कुछ सबसे बड़ी विकास परियोजनाएँ इसी अवधि में शुरू हुईं। इसमें सिंचाई और बिजली  उत्पादन के लिए शुरू की गई। भाखड़ा नांगल और हीराकुंड जैसी विशाल बाँध परियोजनाएँ शामिल हैं।
  3. सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ भारी उद्योग जैसे इस्पात संयंत्र, तेल शोधक कारखाने, विनिर्माता इकाइयाँ, रक्षा उत्पादन आदि इसी अवधि में शुरू हुए।
  4. इस दौर में परिवहन और संचार के आधारभूत ढाँचे में भी काफी वृद्धि हुई।

प्रश्न 27.
नियोजित विकास के शुरुआती दौर के समय भूमि सुधार के लिए किए गए प्रयास का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नियोजित विकास के शुरुआती दौर में भूमि सुधार के गंभीर प्रयास हुए। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण और सफल प्रयास जमींदारी प्रथा को समाप्त करने का था। यह प्रथा अंग्रेजी शासन के समय से चली आ रही थी। इस प्रथा को समाप्त करने से जमीन उस वर्ग के हाथ से मुक्त हुई जिसे खेती में कोई दिलचस्पी नहीं थी। इससे राजनीति पर दबदबा कायम रखने की जमींदारों की क्षमता भी घटी। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ करने के प्रयास किए गए ताकि खेती का काम सुविधाजनक हो सके।

इस बात के लिए भी कानून बनाया गया कि कोई व्यक्ति अधिकतम कितनी भूमि अपने नाम पर रख सकता है। हालाँकि यह कानून सफल नहीं हो पाया। काश्तकारों के लिए भी कानून बना कि जो काश्तकार किसी और की जमीन बटाई पर जोत- बो रहे थे, उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान की गई। परंतु इस कानून पर शायद ही अमल हुआ।

प्रश्न 28.
पंचवर्षीय योजनाओं के चार प्रमुख उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पंचवर्षीय योजनाओं के उद्देश्य: पंचवर्षीय योजनाओं के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं।

  1. आर्थिक संवृद्धि: आर्थिक संवृद्धि से अभिप्राय निरंतर सकल घरेलू उत्पाद तथा प्रति सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि है। लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए आर्थिक संवृद्धि (अधिक वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करना) आवश्यक है।
  2. आधुनिकीकरण: उत्पादन में नई तकनीक का प्रयोग तथा सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन को आधुनिकीकरण कहते हैं। अतः आधुनिकीकरण लाना पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य उद्देश्य है।
  3. आत्मनिर्भरता: आत्मनिर्भरता से अभिप्राय उन वस्तुओं के आयात से बचना है जिनका उत्पादन देश के अन्दर किया जाता है। पंचवर्षीय योजनाओं में इसी उद्देश्य को पूर्ण करने का प्रयास किया गया है।
  4. न्याय या समानता: सम्पत्ति व आय की विषमता को कम कर प्रत्येक के लिए आधारभूत सुविधाओं की व्यवस्था करना भी पंचवर्षीय योजनाओं के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल है।

प्रश्न 29.
हरित क्रांति के विषय में कौन-कौनसी आशंकाएँ थीं? क्या यह आशंकाएँ सच निकलीं?
उत्तर:
सामान्यतः हरित क्रान्ति के विषय में दो भ्रान्तियाँ थीं।

  1. हरित क्रान्ति से अमीरों तथा गरीबों में विषमता बढ़ जायेगी क्योंकि बड़े जमींदार ही इच्छित अनुदानों का क्रय कर सकेंगे और उन्हें ही हरित क्रांति का लाभ मिलेगा और वे और अधिक धनी हो जायेंगे। निर्धनों को हरित क्रान्ति से कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा।
  2. उन्नत बीज वाली फसलों पर जीव-जन्तु आक्रमण करेंगे। दोनों भ्रांतियाँ सच नहीं हुईं क्योंकि सरकार ने छोटे किसानों को निम्न ब्याज दर पर ऋणों की व्यवस्था की और रासायनिक खादों पर आर्थिक सहायता दी ताकि वे उन्नत बीज तथा रासायनिक खाद सरलता से खरीद सकें और उनका उपयोग कर सके। जीव-जन्तुओं के आक्रमणों को भारत सरकार द्वारा स्थापित अनुसंधान संस्थाओं की सेवाओं द्वारा कम कर दिया गया।

प्रश्न 30.
मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ तथा विशेषताएँ बताइये
उत्तर:
मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ भारत ने विकास के लिए पूँजीवादी मॉडल और समाजवादी मॉडल दोनों ही मॉडल की कुछ एक बातों को ले लिया और अपने देश में उन्हें मिले-जुले रूप में लागू किया । इसी कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था कहा जाता है। मिश्रित अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ।

  1. इसमें खेती, किसानी, व्यापार और उद्योगों का एक बड़ा भाग निजी क्षेत्र के हाथों में रहा।
  2. राज्य ने अपने हाथ में भारी उद्योग रखे और उसने आधारभूत ढाँचा प्रदान किया।
  3. राज्य ने व्यापार का नियमन किया तथा कृषि क्षेत्र में कुछ बड़े हस्तक्षेप किये।

प्रश्न 31.
मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल की क्या-क्या आलोचनाएँ की गईं?
उत्तर:
भारत में अपनाये गये विकास के मिश्रित अर्थव्यवस्था के मॉडल की दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों खेमों ने आलोचनाएँ कीं। यथा

  1. योजनाकारों ने निजी क्षेत्र को पर्याप्त जगह नहीं दी है और न ही निजी क्षेत्र के बढ़वार के लिए कोई उपाय किया गया है।
  2. विशाल सार्वजनिक क्षेत्र ने ताकतवर निहित स्वार्थों को खड़ा किया है और इन न्यस्त हितों ने निवेश के लिए लाइसेंस तथा परमिट की प्रणाली खड़ी करके निजी पूँजी की राह में रोड़े अटकाए हैं।
  3. सरकार ने अपने नियंत्रण में जरूरत से ज्यादा चीजें रखीं। इससे भ्रष्टाचार और अकुशलता बढ़ी है।
  4. सरकार ने केवल उन्हीं क्षेत्रों में हस्तक्षेप किया जहाँ निजी क्षेत्र जाने को तैयार नहीं थे । इस तरह सरकार ने निजी क्षेत्र को मुनाफा कमाने में मदद की।

प्रश्न 32.
योजना आयोग का गठन किन कारणों से किया गया था? क्या वह अपने गठन के उद्देश्य में सफल रहा?
उत्तर:
योजना आयोग का गठन:

  • भारत में योजना आयोग का गठन 15 मार्च, 1950 को किया गया। इसका गठन निम्नलिखित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया गया था।
    1. पूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना,
    2. गरीबी का उन्मूलन करना,
    3. सामाजिक समानता की स्थापना करना,
    4. उपलब्ध संसाधनों का उचित प्रयोग करना,
    5. संतुलित क्षेत्रीय विकास करना तथा
    6. राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय बढ़ाना। लेकिन योजना आयोग अपने गठन के उद्देश्यों में पूर्णतः सफल नहीं हुआ है।
  • वह अपने उद्देश्यों में आंशिक रूप से भी सफल हुआ है क्योंकि:
    1. बेरोजगारी की समस्या अभी भी बनी हुई है।
    2. देश में गरीबी विद्यमान है।
    3. गरीब और गरीब हुआ है तथा अमीर और अमीर बना है। अतः सामाजिक असमानता कम होने के स्थान पर बढ़ी है।
    4. देश में क्षेत्रीय विकास संतुलित न होकर असंतुलित हुआ है।

प्रश्न 33.
स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधार हेतु सरकार द्वारा क्या प्रयास किये गये?
उत्तर:
स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधार हेतु निम्नलिखित प्रयास किये गये।

  1. जमींदारी प्रथा की समाप्ति: भूमि सुधार सम्बन्धी सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयास जमींदारी प्रथा को समाप्त करने का था। जमींदारी प्रथा को समाप्त करने से जमीन उस वर्ग के हाथ से मुक्त हुई जिसे कृषि में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
  2. चकबन्दी: जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक-साथ करने के प्रयास किए गए ताकि खेती का काम सुविधाजनक हो सके।
  3. जोत की अधिकतम सीमा का निर्धारण: भूमि सुधार हेतु इस बात के कानून बनाए गए कि कोई व्यक्ति अधिकतम कितनी भूमि अपने पास रख सकता है। लेकिन जिनके पास सीमा से अधिक जमीन थी, उन्होंने इन कानून से बचने के रास्ते खोज लिये।
  4. बटाईदार/ किरायेदार काश्तकार को सुरक्षा: जो काश्तकार किसी और की जमीन बटाई पर जोत- बो रहे थे, उन्हें भी ज्यादा कानूनी सुरक्षा प्रदान की गई, लेकिन इस पर शायद ही कहीं अमल हुआ।

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प्रश्न 34.
उड़ीसा में किसका भंडार है? इससे संबंधित उद्योग लगाने पर आदिवासी, पर्यावरणविदों तथा केन्द्र सरकार को किस बात का भय था?
उत्तर:
उड़ीसा में लौह-अयस्क का भंडार है। लौह-अयस्क के ज्यादातर भंडार उड़ीसा के सर्वाधिक अविकसित. इलाकों में है। खासकर इस राज्य के आदिवासी बहुल जिलों में। आदिवासियों को डर है अगर यहाँ उद्योग लग गए तो उन्हें अपने घर से बार-बार विस्थापित होना पड़ेगा और आजीविका भी छिन जाएगी। पर्यावरणविदों को इस बात का भय है कि खनन और उद्योग से पर्यावरण प्रदूषित होगा। केन्द्र सरकार को भय है कि यदि उद्योग लगाने की अनुमति नहीं दी गई, तो इससे एक बुरी मिसाल कायम होगी और देश में पूँजी निवेश को बाधा पहुँचेगी।

प्रश्न 35.
योजना आयोग पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखो।
उत्तर:
योजना आयोग संविधान द्वारा स्थापित आयोग है, जो दूसरे निकायों से भिन्न है। योजना आयोग की स्थापना मार्च, 1950 में, भारत सरकार ने एक सीधे-सादे प्रस्ताव के जरिए की। यह आयोग एक सलाहकार की भूमिका निभाता है और इसकी सिफारिशें तभी प्रभावकारी हो पाती हैं जब मंत्रिमंडल उन्हें मंजूर करे।

प्रश्न 36.
आर्थिक नीति किसी समाज की वास्तविक राजनीतिक स्थिति का अंग होती है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नियोजित विकास के शुरुआती दौर के समय भूमि सुधार के लिए कुछ नियम-कायदे बनाए गए। परंतु कृषि की बेहतरी और खेतिहर जनता की भलाई से जुड़ी इन नीतियों को ठीक और कारगर तरीके से अमल में ला पाना इतना आसान नहीं था। यह तभी संभव था जब ग्रामीण भूमिहीन जनता लामबंद हो परन्तु भू-स्वामी बहुत ताकतवर थे। इनका राजनीतिक रसूख भी होता था। इस वजह से भूमि सुधार के अनेक प्रस्ताव या तो कानून का रूप नहीं ले सके या कानून बनने पर मात्र कागज की शोभा बढ़ाते रहे। इस प्रकार हमें यह पता चलता है कि आर्थिक नीति किसी समाज की वास्तविक राजनीतिक स्थिति का अंग होती है।

प्रश्न 37.
श्वेत क्रांति पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
गुजरात एक ‘आणंद’ नामक शहर है। सहकारी दूध उत्पादन का आंदोलन अमूल इसी शहर में कायम है। इसमें गुजरात के 25 लाख दूध उत्पादक जुड़े हैं। ग्रामीण विकास और गरीबी उन्मूलन के लिहाज से ‘अमूल’ अपने आप में एक अनूठा और कारगर मॉडल है। इसी मॉडल के विस्तार को श्वेत क्रांति के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 38.
‘ऑपरेशन फ्लड’ के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
1970 में ‘ऑपरेशन फ्लड’ के नाम से एक ग्रामीण विकास कार्यक्रम शुरू हुआ था। इसके अंतर्गत सहकारी दूध: उत्पादकों को उत्पादन और विपणन के एक राष्ट्रव्यापी तंत्र से जोड़ा गया। हालाँकि यह कार्यक्रम मात्र डेयरी – कार्यक्रम नहीं था। इस कार्यक्रम में डेयरी के काम को विकास के एक माध्यम के रूप में अपनाया गया था ताकि ग्रामीण लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त हों, उनकी आमदनी बढ़े और गरीबी दूर हो। इन कार्यक्रमों के कारण सहकारी दूध उत्पादकों की सदस्य संख्या लगातार बढ़ रही है। सदस्यों में महिलाओं की संख्या भी बढ़ी है। महिला सहकारी डेयरी के जमातों में भी इजाफा हुआ है।

प्रश्न 39.
हरित क्रांति के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • हरित क्रांति के सकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं।
    1. हरित क्रांति से खेतिहर पैदावार में सामान्य किस्म का इजाफा हुआ।
    2. देश में खाद्यान्न की उपलब्धता में वृद्धि हुई।
    3. हरित क्रांति के कारण देश में मंझोले दर्जे के किसानों यानी मध्यम श्रेणी के भू-स्वामित्व वाले किसानों का उभार हुआ और देश के अनेक हिस्सों में ये प्रभावशाली बनकर उभरे।
  • हरित क्रांति के नकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं।
    1. समाज के विभिन्न वर्गों और देश के अलग-अलग इलाकों के बीच ध्रुवीकरण तेज हुआ।
    2. पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे इलाके कृषि के लिहाज से समृद्ध हो गए जबकि बाकी इलाके खेती के लिहाज से पिछड़ गए।
    3. गरीब किसानों और भू-स्वामियों के बीच का अंतर मुखर हो उठा। इससे देश के विभिन्न हिस्सों में वामपंथी संगठनों के लिए गरीब किसानों को लामबंद करने के लिहाज से अनुकूल स्थिति पैदा हुई।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
नियोजन का अर्थ बताइये तथा उसके उद्देश्यों का विवेचन कीजिए।
अथवा
नियोजन से आप क्या समझते हैं? भारत में नियोजन के उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय योजना आयोग ने नियोजन को परिभाषित करते हुए लिखा है कि “नियोजन साधनों के संगठन की एक विधि है जिसके माध्यम से साधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। ” नियोजन के उद्देश्य
कराना। भारत में नियोजन के उद्देश्य निम्नलिखित हैं।

  1. पूर्ण रोजगार: भारत में बेरोजगारी की समस्या को दूर कर लोगों को पूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध
  2. गरीबी का उन्मूलन: निर्धनता निवारण हेतु व्यक्ति की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति व जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध कराना।
  3. सामाजिक समानता की स्थापना करना: धन के समान वितरण द्वारा सामाजिक समानता की स्थापना करना।
  4. उपलब्ध संसाधनों का उचित प्रयोग: सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम लाभप्रद उपयोग निश्चित करना।
  5. सन्तुलित क्षेत्रीय विकास: विकास सम्बन्धी क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर कर सन्तुलित क्षेत्रीय विकास करना।
  6. राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरी करना: राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करना।
  7. सामाजिक उद्देश्य: वर्ग रहित समाज की स्थापना करना।

इस प्रकार नियोजन आधुनिक युग की नूतन प्रवृत्ति है। इसके अभाव में राष्ट्र सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता।

प्रश्न 2.
भारत में नियोजन के विकास का प्रारम्भ किस प्रकार हुआ है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
I. भारत में नियोजन के विकास का प्रारम्भ: भारत में नियोजन के प्रारम्भ का विवेचन मोटे रूप से निम्नलिखित दो बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है। स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में नियोजन व विकास-

  1. भारत में पहली बार नियोजित विकास का विचार श्री एम. विश्वेश्वरैया ने सन् 1934 में अपनी पुस्तक ‘भारत के लिए नियोजित अर्थव्यवस्था’ में प्रतिपादित किया।
  2. सन् 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पं. जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में भारत में नियोजन व विकास के संदर्भ में एक समिति गठित की। इस समिति ने अनेक प्रस्तावों की रूपरेखा तैयार की।
  3. सन् 1944 में देश के प्रमुख उद्योगपतियों ने देश के आर्थिक विकास के लिए बम्बई योजना नामक एक योजना तैयार की तथा श्री एम. एन. राय ने भी एक दस वर्षीय योजना ‘जनता योजना’ तैयार की।
  4. अगस्त, 1944 में तत्कालीन भारत सरकार ने भारत के पुनर्निर्माण हेतु एक दीर्घावधि की तथा एक अल्पावधि की दो योजनाएँ तैयार कीं।
  5. सन् 1946 में गठित एक आयोग ने भारत के विकास के लिए केन्द्रीय स्तर पर एक योजना आयोग के गठन का सुझाव दिया।

II. स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में नियोजन व विकास तथा योजना आयोग की स्थापना: स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् 15 मार्च, 1950 को पण्डित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में भारत सरकार द्वारा पारित एक प्रस्ताव के आधार पर योजना आयोग का गठन किया गया।

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प्रश्न 3.
पहले दो दशकों में भारत के नेताओं ने कौनसी रणनीति अपनाई और उन्होंने ऐसा क्यों किया? विकास की रणनीति
उत्तर:
भारत के योजना आयोग ने विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं का विकल्प चुना। इस योजना के अनुसार केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारों के बजट को दो हिस्सों में बाँटा गया। एक हिस्सा गैर योजना व्यय का था। इसके अन्तर्गत सालाना आधार पर दैनंदिन मदों पर खर्च करना था। दूसरा हिस्सा योजना- व्यय का था। योजना में तय की गई प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए इसे पांच साल की अवधि में व्यय करना था।

  • प्रथम पंचवर्षीय योजना:
    1. इस योजना में ज्यादा जोर कृषि – क्षेत्र पर था। इसके अंतर्गत बांध और सिंचाई के क्षेत्र में निवेश किया गया। क्योंकि विभाजन के कारण कृषि क्षेत्र को गहरी मार लगी थी।
    2. इस योजना में भूमि सुधार पर भी जोर दिया गया।
    3. योजनाकारों का बुनियादी लक्ष्य राष्ट्रीय आय के स्तर को ऊँचा करने का था। यह तभी संभव था जब लोगों की बचत हो। इसलिए बचत को बढ़ावा देने की कोशिश की गई।
  • द्वितीय पंचवर्षीय योजना:
    1. इस योजना में भारी उद्योगों के विकास पर जोर दिया गया क्योंकि तेज गति से संरचनात्मक बदलाव का लक्ष्य रखा गया था।
    2. बिजली, रेलवे, इस्पात, मशीनरी, संचार आदि उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ाया गया।
    3. सरकार ने देशी उद्योगों को संरक्षण देने के लिए आयात पर भारी शुल्क लगाया।

प्रश्न 4.
भारत में प्रारंभिक विकास की रणनीतियों पर उठे किन्हीं दो मुद्दों की विवेचना कीजिये।
उत्तर:
प्रारंभिक दौर के विकास में जो रणनीतियाँ अपनाई गईं उन पर अनेक मुद्दे उठे उनमें से दो प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित थे।

  • कृषि बनाम उद्योग: इस संबंध में मुख्य मुद्दा यह उठा कि भारत जैसी अर्थव्यवस्था में कृषि और उद्योग के बीच किसमें ज्यादा संसाधन लगाये जाने चाहिए। यथा-
    1. कुछ लोगों का कहना था कि दूसरी योजना में उद्योगों पर ज्यादा जोर देने के कारण खेती और ग्रामीण इलाकों को चोट पहुँची। इसलिए उन्होंने ग्रामीण औद्योगीकरण तथा कृषि पर बल दिया।
    2. कुछ का सोचना था कि औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर को तेज किये बगैर गरीबी के मकड़जाल से छुटकारा नहीं मिल सकता।
  • (2) निजी क्षेत्र बनाम सार्वजनिक क्षेत्र – भारत द्वारा विकास के लिये अपनायी गयी मिश्रित अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में निजी व सार्वजनिक क्षेत्र सम्बन्धी ये मुद्दे उठे।
    1. योजनाकारों ने निजी क्षेत्र को पर्याप्त जगह नहीं दी है और न ही निजी क्षेत्र के बढ़वार के लिए कोई उपाय किया गया है।
    2. विशाल सार्वजनिक क्षेत्र ने ताकतवर निहित स्वार्थों के हितों के निवेश के लिए लाइसेंस तथा परमिट की प्रणाली खड़ी करके निजी पूँजी की राह में रोड़े अटकाए हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार और अकुशलता भी बढ़ी है।
    3. सरकार ने शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र की उपेक्षा की है तथा निजी क्षेत्र को मुनाफा कमाने में मदद की है।

प्रश्न 5. भारत
में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका एवं महत्त्व का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका एवं महत्त्व: भारत में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका व इसके महत्त्व को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।

  1. समाजवादी समाज की स्थापना: आर्थिक असमानता को कम करके समाजवादी समाज की स्थापना के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम महत्त्वपूर्ण हैं ।
  2. सन्तुलित आर्थिक विकास में सहायक: सार्वजनिक उद्यम पिछड़े क्षेत्रों के तीव्र विकास करने व पिछड़े तथा सम्पन्न राज्यों के बीच खाई को पाटने में सहायक हैं।
  3. सामरिक (सुरक्षा) उद्योगों के लिए महत्त्वपूर्ण: नागरिकों की सुरक्षा हेतु विश्वसनीय हथियारों का निर्माण निजी क्षेत्र को न सौंपकर सार्वजनिक क्षेत्र को सौंपना अधिक उपयोगी है।
  4. लोककल्याणकारी योजनाओं को लागू करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कुछ मूलभूत जन उपयोगी सेवाएँ, जैसे पानी, बिजली, परिवहन, स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा तथा कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने की दृष्टि से सार्वजनिक क्षेत्र ही उपयोगी है।
  5. अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण: अर्थव्यवस्था को उतार-चढ़ावों से बचाने के लिए तथा इसको नियमित रखने के लिए सरकारी नियन्त्रण आवश्यक है।
  6.  विदेशी सहायता: विदेशी सहायता की प्राप्ति के लिए भी सार्वजनिक क्षेत्र महत्त्वपूर्ण है।
  7. प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा: सार्वजनिक क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों का जनहित में विवेकपूर्ण ढंग से विदोहन संभव होता है
  8. रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना: ये उद्योग बेरोजगारी को दूर करने में सहायता प्रदान करते हैं।
  9. निर्यात को प्रोत्साहन: सार्वजनिक क्षेत्र देश के निर्यात को बढ़ाने में बहुत सहायक सिद्ध हुआ. है।
  10. सहायक उद्योगों का विकास: सार्वजनिक क्षेत्र ने सहायक उद्योगों के विकास में सहायता प्रदान की है।

प्रश्न 6.
देश की स्वतंत्रता के पश्चात् विकास के स्वरूप में और इससे जुड़े नीतिगत निर्णयों के बारे में किस सीमा तक टकराव था? क्या यह टकराव आज भी जारी है विस्तार से समझाइये।
उत्तर:
भारत 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ। आजादी के बाद अपने देश में ऐसे कई फैसले लिए गए जिससे सामाजिक समूह का हित सधे। इनमें से कोई भी फैसला बाकी फैसलों से मुँह फेरकर नहीं लिया जा सकता था। सारे फैसले आपस में आर्थिक विकास के एक मॉडल या विजन से बँधे हुए थे। लगभग सभी इस बात पर सहमत थे कि भारत के विकास का अर्थ आर्थिक संवृद्धि और आर्थिक-सामाजिक न्याय दोनों ही हैं। इस बात पर भी सहमति थी कि इस मामले को व्यवसायी, उद्योगपति और किसानों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।

सरकार को इस मसले में प्रमुख भूमिका निभानी थी। यद्यपि आर्थिक संवृद्धि हो और सामाजिक न्याय मिले इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार कौन सी भूमिका निभाए? इस सवाल पर मतभेद थे। क्या कोई ऐसा केन्द्रीय संगठन जरूरी है जो पूरे देश के लिए योजना बनाएं? क्या सरकार को कुछ महत्त्वपूर्ण उद्योग और व्यवसाय खुद चलाने चाहिए? अगर सामाजिक न्याय आर्थिक संवृद्धि की जरूरतों के आड़े आता हो तो ऐसी सूरत में सामाजिक न्याय पर कितना जोर देना उचित होगा?

इनमें से प्रत्येक सवाल पर टकराव हुए जो आज तक जारी है। जो फैसले लिए गए उनके राजनीतिक परिणाम सामने आए। इनमें से अधिकतर मसलों पर राजनीतिक रूप से कोई फैसला लेना ही था और इसके लिए राजनीतिक दलों से सलाह-मशविरा करना जरूरी था, साथ ही जनता की स्वीकृति भी हासिल करनी थी।

प्रश्न 7.
भारत में विकास की प्रारंभिक रणनीति की मुख्य उपलब्धियाँ क्या रहीं और इसकी सीमाएँ क्या थीं? विकास की रणनीति की उपलब्धियाँ नियोजित विकास की प्रारंभिक रणनीतियों की अग्र प्रमुख उपलब्धियाँ रहीं।
उत्तर:

  • आर्थिक विकास की नींव की स्थापना- विकास के इस दौर में भारत के आगामी आर्थिक विकास की नींव पड़ी। यथा
    1. भारत के इतिहास की कुछ सबसे बड़ी विकास परियोजनाएँ इसी अवधि में शुरू हुईं।
    2. सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ भारी उद्योग, जैसे- इस्पात संयंत्र, तेल शोधक कारखाने, विनिर्माता इकाइयाँ, रक्षा- उत्पादन आदि इसी अवधि में शुरू हुए।
    3. इस दौर में परिवहन और संचार के आधारभूत ढाँचे में भी काफी इजाफा हुआ।
  • भूमि सुधार: इस अवधि में जमींदारी प्रथा की समाप्ति, चकबन्दी, अधिकतम भूमि सीमा का निर्धारण आदि भूमि सुधार के गंभीर प्रयास किये गये।
  • हरित क्रांति: सरकार ने खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कृषि की एक नई रणनीति अपनायी इसके अन्तर्गत समृद्ध तथा सिंचाई सुविधा क्षेत्र के किसानों को उच्च गुणवत्ता के बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि अनुदानित मूल्य पर मुहैया कराये तथा उनकी उपज को एक निर्धारित मूल्य पर खरीद लिया। इसे हरित क्रांति कहा गया। इससे उत्पादन में वृद्धि हुई तथा मझोले दर्जे के किसानों का उभार हुआ।

प्रारंभिक रणनीति की सीमाएँ: विकास की इस प्रारंभिक रणनीति की निम्नलिखित सीमाएँ रहीं।

  1. भूमि सुधार के अनेक प्रस्ताव या तो कानून का रूप नहीं ले सके या उनका उचित क्रियान्वयन नहीं हो सका।
  2. हरित क्रांति के दौर में धनी किसानों और बड़े भू-स्वामियों को सबसे ज्यादा फायदा हुआ और गरीब किसानों बड़े भूस्वामियों के बीच का अन्तर बढ़ा।
  3. इससे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्र ही समृद्ध हुए।

JAC Class 12 Political Science Important Questions Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति

प्रश्न 8.
हरित क्रांति क्या थी? हरित क्रान्ति के दो सकारात्मक और दो नकारात्मक परिणामों की परीक्षा कीजिए।
अथवा
हरित क्रांति क्या है? हरित क्रान्ति के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलू बताइये।
अथवा
हरित क्रान्ति से क्या अभिप्राय है? हरित क्रान्ति के प्रभावों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
हरित क्रान्ति किसे कहते हैं? इसकी सफलता के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
हरित क्रान्ति का अर्थ- हरित क्रांति से अभिप्राय कृषिगत उत्पादन की तकनीक को सुधारने तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि करने से है। इसके तीन तत्त्व थे।

  1. कृषि का निरन्तर विस्तार
  2. दोहरी फसल लेना तथा
  3. अच्छे बीजों का तथा आधुनिक कृषि पद्धति का प्रयोग।

हरित क्रान्ति के सकारात्मक प्रभाव
अथवा
हरित क्रान्ति की सफलता के विभिन्न पक्ष

  • भारत में हरित क्रान्ति के सकारात्मक परिणाम सामने आये, जो इस प्रकार हैं।
    1. उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई: हरित क्रान्ति के प्रभावस्वरूप कृषिगत उत्पादन में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई जिससे भारत गेहूँ आयात करने के स्थान पर निर्यात करने की स्थिति में आ गया।
    2. औद्योगिक विकास को बढ़ावा: इससे औद्योगिक विकास को भी बढ़ावा मिला क्योंकि अच्छे बीजों, अधिक पानी, खाद तथा कृत्रिम यन्त्रों के लिए उद्योग लगाए गए।
    3. बुनियादी ढाँचे का विकास: हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप भारत में बुनियादी ढाँचे में उत्साहजनक विकास देखने को मिला।
    4. जलविद्युत शक्ति को बढ़ावा: बाँधों द्वारा संचित किए गये पानी का जलविद्युत शक्ति के उत्पादन में प्रयोग किया गया।
    5. किसानों में संगठनात्मक एकता जागृत हुई- हरित क्रांति के परिणामस्वरूप भारतीय किसानों में संगठनात्मक एकता जागृत हुई तथा किसानों में राजनैतिक चेतना आई।
  • हरित क्रांति के नकारात्मक प्रभाव।
    1. हरित क्रांति ने निर्धन और छोटे किसानों तथा धनी जमीदारों के बीच की खाई को बहुत गहरा कर दिया।
    2. इससे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश जैसे क्षेत्र कृषि की दृष्टि से समृद्ध हो गये जबकि शेष इलाकों में कृषि पिछड़ी रही।

प्रश्न 9.
खाद्य संकट के बारे में विस्तारपूर्वकं लिखिए।
उत्तर:
1960 के दशक में कृषि की दशा बद से बदतर होती गई। 1940 और 1950 के दशक में ही खाद्यान्न के उत्पादन की वृद्धि दर, जनसंख्या की वृद्धि दर से जैसे-तैसे अपने को ऊपर रख पाई थी। 1965 से 1967 के बीच देश अनेक हिस्सों में सूखा पड़ा। इसी समय में भारत ने दो युद्धों का सामना किया और उसे विदेशी मुद्रा के संकट को भी झेलना पड़ा। इन सारी बातों के कारण खाद्यान्न की भारी कमी हो गई।

देश के अनेक भागों में अकाल जैसी स्थिति आन पड़ी। बिहार में खाद्यान्न संकट सबसे ज्यादा विकराल था। यहाँ स्थिति लगभग अकाल जैसी हो गई थी। बिहार के सभी जिलों में खाद्यान्न का अभाव बड़े पैमाने पर था। इस राज्य के 9 जिलों में अनाज की पैदावार सामान्य स्थिति की तुलना में आधी से भी कम थी।

इनमें से पाँच जिले अपनी सामान्य पैदावार की तुलना में महज एक-तिहाई ही अनाज उपजा रहे थे। खाद्यान्न के अभाव में कुपोषण बड़े पैमाने पर फैला और इसने गंभीर रूप धारण किया। 1967 में बिहार की मृत्यु दर पिछले साल की तुलना में 34 प्रतिशत बढ़ गई थी। इन वर्षों के दौरान बिहार में उत्तर भारत के अन्य राज्यों की तुलना में खाद्यान्न की कीमतें भी बढ़ीं। अपेक्षाकृत समृद्ध पंजाब की तुलना में गेहूँ और चावल बिहार में दो गुने अथवा उससे भी ज्यादा दामों में बिक रहे थे। सरकार ने उस वक्त ‘ज़ोनिंग’ या ‘इलाकाबंदी’ की नीति अपना रखी थी। इसी वजह से विभिन्न राज्यों के बीच व्यापार बंद था।

इस नीति के कारण उस वक्त बिहार में खाद्यान्न की उपलब्धता में भारी मात्रा में गिरावट आई। ऐसी दशा में समाज के सबसे गरीब तबके पर सबसे ज्यादा असर पड़ा। खाद्य संकट के कई परिणाम हुए। सरकार को गेहूँ का आयात करना पड़ा और विदेशी मदद भी स्वीकार करनी पड़ी। अब योजनाकारों के सामने पहली प्राथमिकता यह थी कि किसी भी तरह खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भर बने। पूरी योजना-प्रक्रिया और इससे जुड़ी आशा तथा गर्वबोध को इन बातों से धक्का लगा।

प्रश्न 10.
हरित क्रांति की आवश्यकता क्यों पड़ी? इसके परिणाम लिखिए ।
उत्तर- खाद्यान्न संकट के कारण देश पर बाहरी दबाव पड़ने की आशंका बढ़ गई थी। भारत विदेशी खाद्य सहायता पर निर्भर होने लगा था, खासकर संयुक्त राज्य अमरीका के। संयुक्त राज्य अमरीका ने इसकी एवज में भारत पर अपनी आर्थिक नीतियों को बदलने के लिए दबाव डाला। सरकार ने खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कृषि की नई रणनीति अपनाई। जो इलाके अथवा किसान खेती के मामले में पिछड़े हुए थे, सरकार ने उनको ज्यादा सहायता देने की रणनीति अपनाई। परंतु कुछ समय पश्चात् इस नीति को छोड़ दिया गया।

सरकार ने अब उन इलाकों पर ज्यादा संसाधन लगाने का फैसला किया जहाँ सिंचाई की सुविधा मौजूद थी और जहाँ किसान समृद्ध थे। इस नीति के पक्ष में यह तर्क दिया गया कि जो पहले से ही सक्षम है वह कम समय में उत्पादन की रफ्तार को बढ़ाने में सहायक होंगे। सरकार ने उच्च गुणवत्ता के बीज, उर्वरक, कीटनाशक और बेहतर सिंचाई सुविधा बड़े अनुदानित मूल्य पर उपलब्ध कराना शुरू किया। सरकार ने इस बात का भी आश्वासन दिया कि उपज को एक निर्धारित मूल्य पर खरीदा जाएगा। यही परिघटना ‘हरित क्रांति’ के नाम से जानी गई।

हरित क्रांति के परिणाम: इस प्रक्रिया में धनी किसानों और बड़े भू-स्वामियों को अधिक फायदा हुआ। हरि क्रांति से खेतिहर पैदावार में सामान्य किस्म का इजाफा हुआ और देश में खाद्यान्न की उपलब्धता में वृद्धि हुई। यद्यपि इसके कारण समाज के विभिन्न वर्गों और देश के अलग-अलग इलाकों के बीच ध्रुवीकरण तेज हुआ। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश जैसे इलाकों के किसान समृद्ध हो गए जबकि बाकी इलाके खेती के मामले में पिछड़ गए।

हरि क्रांति के कारण गरीब किसानों और भू-स्वामियों के बीच का अंतर मुखर हो उठा। इससे देश के विभिन्न हिस्सों में वामपंथी संगठनों के लिए गरीब किसानों को लामबंद करने के लिहाज से अनुकूल स्थिति पैदा हुई। हरित क्रांति की वजह से कृषि में मध्यम दर्जे के किसानों का उभार हुआ । इन्हें बदलावों का फायदा हुआ था और ये देश के अनेक हिस्सों में ताकतवर बनकर उभरे

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JAC Board Class 9 Hindi Rachana संवाद-लेखन

दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली आपसी बातचीत को संवाद कहते हैं। संवादों के माध्यम से केवल शब्दों का ही आदानप्रदान नहीं होता बल्कि उनका प्रयोग करने वालों के चेहरे पर तरह – तरह के हाव – भाव भी प्रकट होते हैं, जो संवादों में प्रयुक्त किए जाने वाले शब्दों के आरोह – अवरोह को नाटकीय ढंग से स्वाभाविकता प्रदान करते हैं।

संवादों के बिना दो लोगों के बीच बातचीत गति नहीं पकड़ सकती। संवादहीनता की स्थिति तो जड़ अवस्था को जन्म देती है। सामान्य बातचीत, लड़ाई – झगड़ा, हँसी – मज़ाक, प्रेम – घृणा, वाद – विवाद आदि सभी संवादों के सहारे ही पूरे होते हैं। संवादों में अनेक गुण होने चाहिए ताकि उनसे दूसरों को मनचाहे ढंग से प्रभावित किया जा सके या उन पर वही प्रभाव डाला जा सके जो हम डालना चाहते हैं। संवादों में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए –

संवाद स्वाभाविक होने चाहिए।
उनकी भाषा अति सरल, सरस, भावपूर्ण और प्रवाहमयी होनी चाहिए।
उनमें जहाँ कहीं संभव हो वहाँ विराम – चिहनों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
उनकी लंबाई अधिक नहीं होनी चाहिए। छोटे संवाद स्वाभाविक और सहज होते हैं। लंबे संवाद भाषण का बोध कराते हैं।
भाषा में भावों के अनुरूप चुटीलापन, पैनापन, स्पष्टता और सहजता होनी चाहिए।
उनमें कही जाने वालो बात निश्चित रूप से स्पष्ट हो जानी चाहिए।

सवाद के दुछ उदाहरण :

प्रश्न 1.
राधिका द्वारा गृहकार्य न कर पाने का कारण स्पष्ट करते हुए अपने अध्यापक से की गई बातचीत लिखिए।
उत्तर :

  • अध्यापक (राधिका के निकट आकर) – तुम अपनी कॉपी दिखाओ।
  • राधिका – सर, मैंने आज होमवर्क नहीं किया। मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं आज उसे पूरा कर लूँगी।
  • अध्यापक – पर क्यों नहीं किया ?
  • राधिका – कल दोपहर मेरे पापा बहुत बीमार हो गए थे और मैं अपनी मम्मी के साथ उन्हें नर्सिंग होम ले गई थी। समय ही नहीं मिला।
  • अध्यापक – क्या हुआ था उन्हें ?
  • राधिका – उन्हें तेज़ पेटदर्द और उल्टियाँ हो रही थीं।
  • अध्यापक – नर्सिंग होम से वापस कब लौटे थे ?
  • राधिका – रात के दस बजे।
  • अध्यापक – ठीक है, बैठ जाओ। आज काम पूरा कर लेना।

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प्रश्न 2.
वार्षिक परीक्षा परिणाम के बाद नई कक्षा में प्रवेश पाने वाले दो छात्रों के बीच आपसी बातचीत लिखिए।
उत्तर :

  • राजन (आश्चर्य से) – अरे, राघव तुम यहाँ ?
  • राघव – हाँ, लेकिन इसमें आश्चर्य की क्या बात है ?
  • राजन – पर तुम्हारा सेक्शन तो दूसरा था। तुम हमारे सेक्शन में कैसे ?
  • राघव – ओह ! तुम्हें इस स्कूल का नियम पता नहीं है। हाँ, पता भी कैसे होगा ? तुम इस विद्यालय में अभी नए हो।
  • राजन – कौन – सा नियम ? कैसा नियम ?
  • राघव – हमारे स्कूल में प्रत्येक उस विद्यार्थी को ‘ए’ सेक्शन में भेज दिया जाता है, जिसके अंक पिछली कक्षा में $90 \%$ या उससे अधिक
  • आते हैं। पिछली कक्षा में मेरे इतने अंक आए हैं।
  • राजन – वाह! बधाई हो। तुम तो हर क्षेत्र में आगे हो – खेल में भी और पढ़ाई में भी।

प्रश्न 3.
रेखा और कनुप्रिया के बीच आधी छुट्टी के समय किए जाने वाले आपसी संवाद को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :

  • रेखा – आज तो मुझसे गलती हो गई। मैं अपनी गणित की कॉपी घर ही भूल गई।
  • कनुप्रिया – गणित की अध्यापिका तो हैं भी बहुत गुस्से वाली।
  • रेखा – इसी बात से तो डर लग रहा है।
  • कनुप्रिया – कल तो होमवर्क में बस पाँच ही प्रश्न मिले थे। कुल दस मिनट का काम है।
  • रेखा – हाँ, वह तो है। उन्हें सब बात बता दूँगी।
  • कनुप्रिया – हाँ, शायद सच बोलने पर वे गुस्सा न करें।
  • रेखा – चल जल्दी से खाना खा ले फिर मैं अपना होमवर्क एक कॉपी पर तो कर ही लेती हूँ ताकि अध्यापिका जी कुछ कम नाराज हों।
  • कनुप्रिया – ठीक कह रही हो। चलो खाना खाएँ।

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प्रश्न 4.
स्कूल जाने से पहले अनुष्का और उसकी मम्मी के बीच कुछ संवादों को अपने शब्दों में लिखिए। मम्मी (ज़ोर से) – अनुष्का, तुम्हें आज फिर स्कूल जाने में देर हो जाएगी।
उत्तर :

  • अनुष्का – मम्मी, अभी तो स्कूल बस आने में पाँच मिनट बाकी हैं।
  • मम्मी – वह तो मुझे पता है। तुम तो अभी पूरी तरह तैयार भी नहीं हुई।
  • अनुष्का – बस, जूते पहनने ही रह गए हैं।
  • मम्मी – और नाश्ते का क्या ? मेज़ पर रखा हुआ नाश्ता ठंडा हो गया है।
  • अनुष्का – उसे खाने में दो मिनट भी नहीं लगेंगे, मम्मी। क्यों गुस्सा कर रही हो ?
  • मम्मी – रोज़ कहती हूँ समय से उठा करो पर सुनती ही नहीं हो मेरी बात।
  • अनुष्का – जल्दी तो उठी थी पर….।
  • मम्मी – किसने कहा था कि बैठ जाओ सवेरे – सवेरे टॉम एंड जैरी के सामने।
  • अनुष्का – अच्छा मम्मी। कल से सवेरे – सवेरे टॉम एंड जैरी नहीं देखूँगी।

प्रश्न 5.
लतिका और मनू के बीच सवेरे स्कूल जाने से पहले हुई बातचीत को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :

  • लतिका (हाथ में तौलिया लिए हुए) – जल्दी कर मनू, बाहर निकल बाथरूम से।
  • मनू (भीतर से) – क्यों चीख रही हो दीदी ? क्यों नहीं उठ जाती ज़रा जल्दी ?
  • लतिका – तू बाहर निकल। नहीं तो पापा से कहती हूँ।
  • मनू – अरे, नहाकर ही तो निकलूँगा। अभी आया – बस दो मिनट में।
  • लतिका – तेरे दो मिनट भी तो बीस मिनट के होते हैं। बस आ जाएगी। देर हो रही है।
  • मनू – तू अपना स्कूल बैग तैयार कर। मेरा लंच बॉक्स भी तैयार कर दो। मैं अभी आया।

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प्रश्न 6.
स्कूल के माली और कबीर के बीच हुई बातचीत को अपने शब्दों में लिखिए। माली (हाथ में खुरपा लिए हुए) – तुमने फूल क्यों तोड़ा ?
उत्तर :

  • कबीर – मैंने यहाँ से फूल नहीं तोड़ा।
  • माली – झूठ बोलते हो। यह फूल तो स्कूल के बगीचे का ही है।
  • कबीर – तो क्या ऐसे सारे फूल यहीं लगते हैं ? मैं इसे अपने घर से लाया हूँ। हमारे घर में ऐसे बहुत – से फूल लगे हुए हैं। माली – तुम नहीं मानोगे।
  • कबीर – अरे, मैं सच कह रहा हूँ। मैं यह फूल मैडम के लिए लाया हूँ अपने घर से। आज बाल – दिवस है न।
  • माली – अच्छा। तुम्हारे घर में कौन – सा माली काम करता है ? फूल देखकर तो अच्छा समझदार लगता है।
  • कबीर – हाँ, वह बहुत समझदार और मेहनती है।

प्रश्न 7.
रिक्शा चालक और गोमती के बीच हुए संवादों को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :

  • गोमती (ज़ोर से आवाज़ लगाते हुए) – रिक्शावाले भइया।
  • रिक्शावाला – जी, कहिए। कहाँ चलना है ?
  • गोमती – सदर बांज़ार जाना है। चलोगे ?
  • रिक्शावाला – हमारा तो काम ही यही है। बैठिए।
  • गोमती – कितने पैसे लोगे ?
  • रिक्शावाला – जो आपको ठीक लगे, दे देना बहन जी।
  • गोमती – नहीं, ठीक – ठीक बताओ। बाद में झगड़ा होता है।
  • रिक्शावाला – बहन जी, मैं इस शहर में नया आया हूँ।
  • मुझे ठीक – ठीक पता नहीं कि वहाँ का यहाँ से कितना किराया होता है ?
  • गोमती – तो तुम्हें रास्ता भी पता नहीं होगा ?
  • रिक्शावाला – जी हाँ। मुझे रास्ता भी आप ही बताना।
  • गोमती – (रिक्शा में बैठती हुई) – अच्छा चलो। दस रुपये दूँगी। वहाँ का इतना ही किराया लगता है। रिक्शा तो ठीक चलाते हो न ?
  • रिक्शावाला – जी हाँ। पिछले दस साल से रिक्शा चला रहा हूँ।

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प्रश्न 8.
सब्त्रीवाले से मनीषा की बातचीत अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :

  • मनीषा (पुकारती हुई) – रुकना ज़रा। ओ सब्ज़ीवाले भइया।
  • सब्ज़ीवाला – जी, कहिए, क्या लेना है ?
  • मनीषा – सब्ज़ी लेनी है। क्या – क्या है तुम्हारे पास ?
  • सब्ज़ीवाला – सब कुछ है – आलू, गोभी, मटर, साग, भिंडी, तोरी….।
  • मनीषा – मटर किस भाव दे रहे हो ? ताज़े तो हैं ये ?
  • सब्ज़ीवाला – ताज़े हैं बहन जी। अभी मंडी से ला रहा हूँ। चालीस रुपये किलो हैं।
  • मनीषा – बहुत महँगे लगा रहे हो। कल तो तीस रुपये किलो थे।
  • सब्ज़ीवाला – जी हाँ। आज इसी भाव हैं। कल ट्रकवालों की हड़ताल थी न। मंडी में माल कम आया है आज।
  • मनीषा – कुछ कम करो। दो किलो ले लूँगी।
  • सब्ज़ीवाला – अच्छा बहन जी। पैंतीस रुपये किलो दे दूँगा। इससे कम नहीं।
  • मनीषा – ठीक है। दो किलो तोल दो।
  • ठीक – ठीक तोलना।
  • सब्ज़ीवाला – ठीक ही तोलता हूँ। पिछले कितने वर्षों से यही काम तो कर रहा हूँ।

प्रश्न 9.
पुस्तक – विक्रेता से रजनीश की बातचीत को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :

  • रजनीश – आपके पास शब्दकोश हैं क्या ?
  • पुस्तक – विक्रेता – जी हाँ। आप को कौन – सा शब्दकोश चाहिए ? हिंदी – अंग्रेज़ी या अंग्रेज़ी – हिंदी ?
  • रजनीश – हिंदी – अंग्रेज़ी दिखाना।
  • पुस्तक – विक्रेता – पॉकेट साइज़ चाहिए या बड़े आकार का ?
  • रजनीश – बड़े आकार का। जिसमें अधिक – से – अधिक शब्द हों।
  • पुस्तक – विक्रेता – हाँ एक नया शब्दाकोश कल ही आया है। डेढ़ लाख शब्द हैं इसमें।
  • रजनीश – दिखाओ तो ज़रा।
  • पुस्तक – विक्रेता – (शब्दकोश दिखाते हुए) – इसका कवर भी बहुत सुंदर है और छपाई भी आकर्षक है।
  • रजनीश – महँगा भी उतना ही होगा।
  • पुस्तक – विक्रेता – नहीं, बहुत महाँगा नहीं है। मॉडर्न पब्लिशर्ज़ का है। उन्होंने बड़ी मेहनत से इसे तैयार कराया है।

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प्रश्न 10.
मुकेश और राजेश के बीच आधी छुट्टी के समय आपस में किए गए झगड़े में प्रयुक्त संवादों को अपने शब्दों में लिखिए। मुकेश (कक्षा से बाहर निकलते हुए) – ओ राजेश, तू समझता क्या है अपने आप को ?
उत्तर :

  • राजेश (गुस्से में) – ज़रा ढंग से बोल।
  • मुकेश – तो ढंग मैं तुझ से सीखूँगा। एक तो तेरे कारण मेरी गुप्ता सर से आज पिटाई हो जाती और ऊपर से तू मुझे ढंग सिखाएगा।
  • राजेश – तूने गुप्ता सर की पीठ के पीछे मुझे मुँह क्यों चिढ़ाया था ?
  • मुकेश – अर, मैंने तुझे मुँह नहीं चिढ़ाया था बल्कि अनुराग को चिढ़ाया था। वह तो बोला नहीं और तूने मुझे कागज़ की गोली मार दी।
  • राजेश – आह! तो मुझ से गलती हो गई। मैं समझा था कि तुम बिना किसी कारण मुझे मुँह चिढ़ा रहे हो।
  • मुकेश – तो कान पकड़कर बोल “सॉरी”।
  • राजेश – (धीरे से हँसते हुए) – सॉरी।

प्रश्न 11.
सुबह सैर करने गई दो वृद्ध महिलाओं में हुए संवादों को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर :

  • पहली महिला – बहन जी, तुम यहाँ रोज दिखाई देती हो।
  • दूसरी महिला – हाँ, मैं यहाँ रोज़ सुबह सैर करने आती हूँ। यह पार्क बहुत अच्छा है।
  • पहली महिला – क्या तुम्हारा घर पास ही है ?
  • दूसरी महिला – हाँ, पिछली गली में है। और तुम्हारा।
  • पहली महिला – मेरा घर भी पास ही है। डॉक्टर ने कहा है कि रोज़ चार किलोमीटर सैर किया करो। इसलिए पिछले कुछ दिन से सैर करनी शुरू की है।
  • दूसरी महिला – सैर तो बहुत ज़रूरी है। शरीर ठीक रहता है इससे। शरीर के अंग खुल जाते हैं इससे।
  • पहली महिला – मेरा ब्लड प्रेशर ऊँचा रहने लगा था।
  • दूसरी महिला – और अब कैसा है ?
  • पहली महिला – अब तो ठीक है। डॉक्टर कहता है कि ब्लड प्रेशर तो चोर होता है। शरीर का कोई – न – कोई अंग खराब कर देता है।
  • दूसरी महिला – हाँ बहन। रोज़ सैर करती रहो और दवाई लेती रहो। सब ठीक हो जाएगा। ईश्वर दया करेगा।

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प्रश्न 12.
दफ़्तर की सहयोगी नीमा से अपनी बातचीत लिखिए।
उत्तर :

  • नीमा – घर नहीं चलना है क्या ? मुँह लटकाए क्यों बैठे हो ? घर चलो भई।
  • पवन – मुझे कुछ काम है, तुम निकल जाओ।
  • नीमा – मैं रोज़ जो तुम से लिफ़्ट लेती हूँ, अगर नहीं जाना था तो पहले कह देते, मैं किसी और के साथ निकल जाती।
  • पवन – आज बस से चली जाओ, आज मुझे पहले कहीं और जाना है, तुम कहाँ मेरे साथ घूमती.रहोगी।
  • नीमा – यह क्या अजय, आज मुझे समय से घर पहुँचना था।
  • पवन – यह तुम्हारी समस्या है कि आज तुम्हें समय से पहुँचना था। बस आज मुझे सीधे घर नहीं जाना।

प्रश्न 13.
घर आए मेहमान और राकेश की बातचीत संवाद रूप में लिखिए।
उत्तर :

  • राकेश – कौन है बाहर ?
  • मेहमान – मैं हूँ नीरज गुप्ता। मुझे श्रीवास्तव जी से मिलना है। क्या यहीं रहते हैं ?
  • राकेश – जी हाँ। वे यहीं रहते हैं। आप भीतर आइए। इस समय वे घर पर नहीं हैं।
  • मेहमान – आप कौन हैं ? मैं आपको नहीं पहचानता। श्रीवास्तव जी मेरे सहयोगी हैं।
  • राकेश – मैं उनका बड़ा बेटा हूँ। बेंगलुरु रहता हूँ। छुट्टियों में घर आया था। इसलिए मैं भी आप को नहीं पहचानता।
  • मेहमान – क्या करते हो वहाँ ?
  • राकेश – वहाँ एक अस्पताल में डॉक्टर हूँ।
  • मेहमान – नहीं चलता हूँ। जब श्रीवास्तव जी आएँ तो कह देना नीरज गुप्ता आए थे।
  • राकेश – आप उनसे मोबाइल पर बात कर लीजिए।
  • मेहमान – उनका नंबर नहीं लग रहा, मैं दोपहर बाद फिर आ जाऊँगा। मुझे कुछ चर्चा करनी थी उनसे दफ़्तर की किसी समस्या के बारे में।
  • राकेश – ठीक है। जैसा आप उचित समझें।

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प्रश्न 14.
हिंदी की महत्ता को प्रकट करते हुए दो मित्रों की बातचीत लिखिए।
उत्तर :

  • कमल – यह ज्योत्सना तो हर समय अंग्रेज़ी में ही बात करती है। क्या इसे अपनी मातृभाषा नहीं आती ?
  • रजत – आती क्यों नहीं ! बस उसके मन में यही भावना छिपी है कि अंग्रेज़ी बोलने से दूसरों पर प्रभाव अधिक पड़ता है।
  • कमल – भाषा का संबंध अच्छे – बुरे भाव से नहीं होता। अपनी भाषा तो सबसे अच्छी होती है।
  • रजत – हाँ, अपनी भाषा सबसे अच्छी होती है। इसी से तो हमारी पहचान बनती है। मैंने उसे कई बार यह समझाया भी है।
  • कमल – अपनी – अपनी समझ है। हिंदी तो हमारे यहाँ सभी समझते हैं पर अंग्रेज़ी तो सबको समझ भी नहीं आती।
  • रजत – वैसे भी हम जितनी अच्छी तरह अपने भाव अपनी भाषा में व्यक्त कर सकते हैं वे दूसरी भाषा में नहीं कर सकते।
  • कमल – सारे संसार में तो लोग अपनी मातृभाषा का ही प्रयोग करना अच्छा मानते हैं पर हमारे देश में अभी भी कहीं – कहीं विदेशी मानसिकता हावी है।
  • रजत – विदेशी भाषाओं का ज्ञान तो होना चाहिए पर फिर भी महत्त्व तो अपनी मातृभाषा को ही देना चाहिए और फिर हिंदी तो वैज्ञानिक भाषा है।
  • कमल – हाँ, हम इसमें जैसा लिखते हैं वैसा ही बोलते हैं।

प्रश्न 15.
परीक्षा आरंभ होने से पहले मनस्वी और काम्या के बीच बातचीत को लिखिए।
उत्तर :

  • मनस्वी – मुझे तो बहुत डर लग रहा है। पता नहीं क्या होगा ?
  • काम्या – तुझे किस बात का डर है ? तू तो पढ़ाई – लिखाई में तेज़ है।
  • मनस्वी – वह अलग बात है। परीक्षा तो परीक्षा होती है – इससे तो बड़े – बड़े भी डरते हैं।
  • काम्या – क्या तूने सारे पाठ दोहरा लिए ?
  • मनस्वी – नहीं। पिछले दो पाठ दोहराने रह गए। इस बार परीक्षा में एक भी छुट्टी नहीं मिली। इतना बड़ा सिलेबस था।
  • काम्या – मैं तो रात भर पढ़ती रही पर पूरा सिलेबस दोहरा ही नहीं पाई। जो पहले पढ़ा हुआ था उसी से काम चलाना पड़ेगा।
  • मनस्वी – विषय तो पूरी तरह आता है पर दोहराना तो आवश्यक होता है।
  • काम्या – यह बात तो ठीक है। पर अब हम कर क्या सकते हैं ?

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प्रश्न 16.
मनुज और गीतिका में हुई बातचीत में गाँव और नगर की तुलना संवाद रूप में कीजिए।
उत्तर :

  • मनुज – हमारा देश तो गाँवों का देश है। गाँवों से ही तो नगर बने हैं।
  • गीतिका – वह तो ठीक है पर, नगरों के कारण ही गाँवों के सुख हैं।
  • मनुज – नहीं। भौतिक सुख चाहे नगरों में अधिक हैं पर आपसी भाईचारा और सहयोग का भाव जो गाँवों में है वह नगरों में कहाँ है ?
  • गीतिका – ऐसी तो कोई बात नहीं।
  • मनुज – ऐसा ही है। हमारे नगरों में कोई अनजान व्यक्ति हमारे घर आ जाए तो हमारा व्यवहार उसके प्रति कैसा होता है ?
  • गीतिका – हम उन्हें शक की दृष्टि से देखते हैं। कहीं वह चोर – लुटेरा ही न हो।
  • मनुज – पर गाँवों में ऐसा नहीं है। लोग अनजानों को भी मेहमान मानने से डरते नहीं हैं। उन्हें उन पर भरोसा जल्दी हो जाता है।
  • गीतिका – यह अच्छा है।
  • मनुज – रिश्ते – नाते और भाइचारे का भाव तो गाँव में ही है।

प्रश्न 17.
मालविका और सागरिका में पेड़ – पौधों की रक्षा से संबंधित बातचीत को संवाद रूप में लिखिए।
उत्तर :

  • मालविका – कल वन महोत्सव है।
  • सागरिका – तो, कल क्या होगा ?
  • मालविका – हम तो मिलजुल कर अपने स्कूल में नए पौधे लगाएँगे और उनकी देखभाल करने की शपथ लेंगे।
  • सागरिका – उससे क्या लाभ ? इतने पेड़-पौधे तो पहले से ही हैं।
  • मालविका – अरे नहीं। संसार भर में सबसे कम जंगल हमारे देश में बचे हैं और जनसंख्या की दृष्टि से हम संसार में दूसरे नंबर पर आ गए हैं।
  • सागरिका – इससे क्या होता है ?
  • मालविका – इसी से तो होता है। पेड़ – पौधे वे संसाधन हैं जो हमें उपयोगी सामान ही नहीं देते, वे वर्षा भी लाने में सहायक होते हैं।
  • सागरिका – हाँ, जंगलों में जंगली जीव भी सुरक्षा पाते हैं। इनसे भूमि – कटाव भी रुकता है। हवा भी शुद्ध होती है।
  • मालविका – तभी तो कह रही हूँ। हमें और अधिक पेड़ – पौधे लगाने चाहिए और उनकी रक्षा करनी चाहिए।
  • सागरिका – जो पेड़ लगे हैं उन्हें कटने से रोकना चाहिए। तभी तो हमारा देश हरा – भरा रह सकेगा।

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प्रश्न 18.
वृंदा और मानसी के बीच चिड़ियाघर को देखते समय की गई बातचीत को संवाद रूप में लिखिए।
उत्तर :

  • वृंदा (ऊपर की तरफ़ देखते हुए) – देख ऊपर, पेड़ पर चार लंगूर कैसे बैठे हैं।
  • मानसी – उनका मुँह कितना काला है और पूँछें कितनी लंबी – लंबी।
  • वृंदा – हाँ, उधर देख मोर अपने पंख फैलाकर कैसे नाच रहा है।
  • मानसी – बादल छाए हुए हैं न। पापा ने बताया था कि बादलों को देखकर मोर नाचते हैं। इनके पंख कितने सुंदर हैं। ये तो गोल – गोल घूम भी रहे हैं।
  • वृंदा – उधर देख, कितने बड़े – बड़े दो शेर हैं।
  • मानसी – चलो भागें यहाँ से। कहीं इन्होंने हमें देख लिया तो खा जाएँगे।
  • वृंदा – डर मत। हमारे और इनके बीच गहरी खाई है और चारों तरफ़ जाल भी तो लगा है। ये हम तक नहीं पहुँच सकते।
  • मानसी – वह देख, हिरणों के कितने सुंदर झुंड हैं। उनकी आँखें देख, कितनी सुंदर हैं। हम भी एक हिरण घर में पालेंगे – पापा से कहेंगे कि हमें भी एक हिरण ला दें।
  • वृंदा – नहीं, जंगली जीवों को यहीं रहना चाहिए या जंगल में। इन्हें घर में रखना तो अपराध है।

प्रश्न 19.
छुट्टियों में किसी दर्शनीय स्थल को देखने की योजना पर अपने और अपने भाई के बीच हुई बातचीत को संवाद रूप में लिखो।
उत्तर :

  • सानिया – अगले हफ़्ते से स्कूल में छुट्टियाँ हो जाएँगी। चल अब्बा – अम्मी से कहें कि कहीं बाहर चलें।
  • अज्जू – हाँ। हमें बाहर कहीं भी गए हुए दो साल हो गए हैं।
  • सानिया – उन्हें कहते हैं कि मसूरी ले चलें।
  • अज्जू – हाँ, वह बहुत सुंदर जगह है।
  • सानिया – तुझे कैसे पता ?
  • अज्जू – गुरुप्रीत कह रहा था। वह पिछले वर्ष छुट्टियों में गया था अपनी मम्मी – पापा के साथ।
  • सानिया – वहाँ तो गर्मियों में भी गर्मी नहीं होती। वह तो पर्वतों की रानी है।
  • अज्जू – वहाँ तो सब तरफ पहाड़-ही-पहाड़ हैं। वहाँ तो एक बड़ा और सुंदर प्राकृतिक झरना भी है।
  • सानिया – वह कैंप्टी फॉल है। बहुत ऊँचाई से पानी नीचे गिरता है।
  • अज्जू – तुझे कैसे पता ?
  • सानिया – मैंने एक मैग्जीन में पढ़ा था और उसकी फ़ोटो देखी थी।

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प्रश्न 20.
अपने दक्त्तर के बॉस से श्रीमती देशपांडे की बातचीत को संवाद योजना में लिखिए।
‘उत्तर :
और मैडम देशपांडे, क्या चल रहा है ? सब ठीक तो है घर पर।’
‘यस सर, बेटी का फ़ोन था, दरिंदा शब्द का अर्थ पूछ रही थी।’
‘दरिंदा, क्या माने ?’
‘खतरनाक जंगली जानवर होता है इसका मतलब,’।
‘है न मिसेज देशपांडे, यही तो बताया न आपने अभी ? इंटरेस्टिंग। और क्या पूछ रही थी आपकी बेटी ?’
‘बहुत सवाल करती है सर, पूछ रही थी दरिंदा और दरिद्र दोनों का एक ही मतलब होता है क्या मम्मी ?’
‘तो क्या बताया आपने मैडम ?’
‘उसे क्या बताती, लेकिन जाने तो अभी से जान ले, यही ठीक है।’
‘क्या ?’
‘यही कि एक ही होता है इन दोनों शब्दों का मतलब। दरिद्रता चाहे आर्थिक हो या मानसिक, उसी की एक हद होती है दरिंदगी। क्या मैंने गलत कहा सर ?’

प्रश्न 21.
पिता और बेटी में नाश्ते के समय हुई बातचीत को संवाद योजना में लिखिए।
उत्तर :
“खाओ – खाओ, दूसरा आ रहा है, पिज्जा स्वादिष्ट बना है क्या ? बेटी ने पूछा।”
“बेटे, तुम ने पिण्जा बहुत स्वादिष्ट बनाया है।” पिता बोले।
“सच पापा ?” और लीजिए न पापा ।”
“हाँ, हाँ अवश्य लूँगा ? किससे सीखा है पिज्जा बनाना ?”
“मम्मी से सीखा है।”
“तुम्हारी मम्मी तो पिज्जा बनाने में परफेक्ट है। और तुम भी उससे कुछ कम नहीं।” पापा बोले।
“नहीं, अभी पूरी तरह से नहीं। मम्मी को लंबा समय हो गया यह सब करते हुए पर मैंने तो अभी शुरू किया है,” बेटी ने कहा।
“अरे तुम भी परफेक्ट हो जाओगी, बहुत जल्दी।”

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प्रश्न 22.
बाहर से घर आए किसी मेहमान से राकेश की बातचीत को संवाद योजना में लिखिए।
उत्तर :

  • राकेश – कौन है बाहर ?
  • मेहमान – मैं हूँ गुप्ता। मुझे श्रीवास्तव जी से मिलना है। क्या यहीं रहते हैं ?
  • राकेश – जी हाँ। वे यहीं रहते हैं। इस समय वे घर पर नहीं हैं।
  • मेहमान – आप कौन हैं ? मैं आपको नहीं पहचानता। श्रीवास्तव जी मेंरे सहदोगी हैं।
  • राकेश – मैं उसका बड़ा बेटा हूँ। बेंगलुरु रहता हूँ। छुट्टियों में घर आया था। इसलिए मैं भी आपको नहीं पहचानता। मेहमान – क्या करते हो वहाँ ?
  • राकेश – डॉक्टर हूँ वहाँ एक अस्पताल में। आप भीतर आइए।
  • मेहमान – नहीं चलता हूँ। जब श्रीवास्तव जी आएँ तो कह देना नीलाम गुप्ता आए थे।
  • राकेश – आप उनसे मोबाइल पर बात कर लीजिए।
  • मेहमान – नहीं, मैं दोपहर बाद फिर आ जाऊँगा। मुझे कुछ चर्चा करनी थी उनसे दफ्तर की किसी समस्या के बारे में।
  • राकेश – ठीक है। आपकी इच्छा।

प्रश्न 23.
दो मित्रों के बीच हिंदी की महत्ता को प्रकट करते हुए बातचीत लिखिए।
उत्तर :

  • कमल – यह ज्योत्सना तो हर समय अंग्रेज़ी में ही बात करती है। क्या इसे अपनी मातृभाषा नहीं आती ?
  • रजत – आती क्यों नहीं! बस उसके मन में यही भावना छिपी है कि अंग्रेज़ी बोलने से दूसरों पर प्रभाव अधिक पड़ता है।
  • कमल – भाषा का संबंध अच्छे – बुरे भाव से नहीं होता। अपनी भाषा तो सबसे अच्छी होती है।
  • रजत – हाँ, अपनी भाषा सबसे अच्छी होती है। इसी से तो हमारी पहचान बनती है। मैंने उसे कई बार यह समझाया भी है।
  • कमल – समझ अपनी – अपनी है। हिंदी तो हमारे यहाँ सभी समझते हैं पर अंग्रेज्जी तो सब को समझ भी नहीं आती।
  • रजत – वैसे भी हम अपने जो भाव अपनी भाषा में व्यक्त कर सकते हैं वे दूसरी भाषा में नहीं कर सकते।
  • कमल – सारे संसार में तो लोग अपनी मातृभाषा का ही प्रयोग करना अच्छा मानते हैं पर हमारे देश में अभी भी कही – कहीं विदेशी मानसिकता हावी है।
  • रजत – विदेशी भाषाओं का ज्ञान तो होना चाहिए पर फिर भी महत्त्व तो अपनी मातृभाषा को ही देना चाहिए और फिर हिंदी तो वैज्ञानिक भाषा है।
  • कमल – हाँ, हम इस में जैसा लिखते हैं वैसा ही बोलते हैं।

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प्रश्न 24.
परीक्षा आरंभ होने से पहले मनस्वी और काम्या के बीच बातचीत को लिखिए।
उत्तर :

  • मनस्वी – मुझे तो बहुत डर लग रहा है। पता नहीं क्या होगा ?
  • काम्या – तुझे किस बात का डर है ? तू तो पढ़ाई – लिखाई में तेज़ है।
  • मनस्वी – बहुत अलग बात है। परीक्षा तो परीक्षा होती है-इससे तो बड़े-बड़े भी डरते हैं।
  • काम्या – क्या तूने सारे पाठ दोहरा लिए ?
  • मनस्वी – नहीं। पिछले दो पाठ दोहराने रह गए। इस बार परीक्षा में छुट्टी भी एक नहीं मिली। इतना बड़ा सिलेबस था।
  • काम्या – मैं तो रात भर पढ़ती रही पर पूरा सिलेबस दोहरा ही नहीं पाई। जो पहले पढ़ा हुआ था उसी से काम चलाना पड़ेगा।
  • मनस्वी – विषय तो पूरी तरह आता है पर दोहराना तो आवश्यक होता है।
  • काम्या – यह बात तो ठीक है। पर हम अब क्या कर सकते हैं ?

प्रश्न 25.
मनुज और गीतिका में हुई बातचीत में गाँव और नगर की तुलना संवाद योजना में कीजिए।
उत्तर :

  • मनुज – हमारा देश तो गाँवों का देश है। गाँवों से ही तो नगर बने हैं।
  • गीतिका – वह तो ठीक है पर, नगरों के कारण ही गाँवों के सुख हैं।
  • मनुज – नहीं। भौतिक सुख चाहे नगरों में अधिक हैं पर आपसी भाईचारा और सहयोग का भाव जो गाँवों में है वह नगरों में कहाँ है ?
  • गीतिका – ऐसी तो कोई बात नहीं।
  • ममुज – ऐसा ही है। हमारे नगरों में कोई अनजान व्यक्ति हमारे घर आ जाए तो हमारा व्यवहार उसके प्रति कैसा होता है ?
  • गीतिका – हम उन्हें शक की दृष्टि से देखते हैं। कहीं वह चोर-लुटेरा ही न हो।
  • मनुज – पर गाँवों में ऐसा नहीं है। लोग अनजानों को भी मेहमान मानने से डरते नहीं हैं। उन्हें उन पर भरोसा जल्दी हो जाता है।
  • गीतिका – यह अच्छा है।
  • मनुज – रिश्ते-नाते और भाइचारे का भाव तो गाँव में ही है।

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प्रश्न 26.
मालविका और सागरिका में पेड़-पौधों की रक्षा से संबंधित बातचीत को संवाद योजना के द्वारा प्रकट कीजिए।
उत्तर :

  • मालविका – कल वन महोत्सव है।
  • सागरिका – तो, क्या ?
  • मालविका – हम तो अपने स्कूल में मिल-जुलकर नए पौधे लगाएंगे और उनकी देखभाल करने की शपथ लेंगे।
  • सागरिका – उससे क्या लाभ ? इतने पेड़-पौधे तो पहले से ही हैं।
  • मालविका – अरी नहीं। संसार भर में सबसे कम जंगल हमारे देश में बचे हैं और जनसंख्या की दृष्टि से हम संसार में दूसरे नंबर पर आ गए हैं।
  • सागरिका – इससे क्या होता है ?
  • मालविका – इसी से तो होता है। पेड़-पौधे वे संसाधन हैं जो हमें उपयोगी सामान ही नहीं देते, वे वर्षा भी लाने में सहायक होते हैं।
  • सागरिका – हाँ, जंगलों में जंगली जीव भी सुरक्षा पाते हैं। इनसे भूमि-कटाव भी रुकता है। हवा भी शुद्ध होती है।
  • मालविका – तभी तो कह रही हूँ। हमें और अधिक पेड़-पौधे लगाने चाहिए और उसकी रक्षा करनी चाहिए।
  • सागरिका – जो पेड़ लगे हैं उन्हें कटने से रोकना चाहिए। तभी तो हमारा देश हरा-भरा रह सकेगा।

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प्रश्न 27.
नगर की टूटी-फूटी सड़कों से परेशान विनीता और पल्लवी के बीच बातचीत को लिखिए।
उत्तर :

  • विनीता – मैं तो कल बड़े ज़ोर से सड़क पर गिर गई थी। सारी टाँग छिल गई है।
  • पल्लवी – वह कैसे ? फिसल गई थी क्या ?
  • विनीता – नहीं। सारे नगर की सड़कों का हाल तो तुझे पता ही है। चंद्रमा की सतह की तरह गड्ढे हैं हमारी सड़कों पर। मेरी साइकिल उछल गई और में गिर गई।
  • पल्लवी – सारी सड़ें ही खराब हैं। सरकार कुछ करती भी तो नहीं।
  • विनीता – अब बरसातें आने वाली हैं। इनमें पानी भर जाएगा और फिर वहाँ मच्छरों के अंडों की भरमार हो जाएगी।
  • पल्लवी – तभी तो पिछले साल कितना मलेरिया फैला था।
  • विनीता – पता नहीं रोज़ कितने लोग गिरते हैं इनके कारण।
  • पल्लवी – लोगों को कुछ करना चाहिए। यदि हम अपने आस-पास की सड़कों के गड्ढों में खुद मिट्टी भर दें तो…..।
  • विनीता – मिट्टी तो एक दिन में निकल जाएगी। इस काम में पैसा लगता है और वह तो हमारे पास है नहीं।

JAC Class 9 Hindi रचना अनुच्छेद-लेखन

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JAC Board Class 9 Hindi Rachana अनुच्छेद-लेखन

अनुच्छेद-लेखन एक अत्यंत महत्वपूर्ण कला है। इसमें किसी विषय से संबंधित तथ्यों को बहुत कम शब्दों में लिखना होता है। वास्तव में अनुच्छेद-लेखन एक तरह की संक्षिप्त लेखन शैली है। इसमें मुख्य विषय को ही केंद्र में रखना होता है। अच्छे अनुच्छेद लेखन के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए –

  • भाषा सजीव, शुद्ध तथा विषय के अनुकूल होनी चाहिए।
  • अनुच्छेद का पहला व अंतिम वाक्य अर्थगर्भित व प्रभावशाली होने चाहिए।
  • मुहावरों, लोकोक्तियों तथा सूक्तियों का प्रयोग भाषा के सौष्ठव के लिए करना चाहिए।
  • अधिक बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन नहीं करना चाहिए।

1. आत्मनिर्भर भारत

संकेत बिंदु – आत्मनिर्भर का मतलब, आत्मनिर्भरता के विभिन्न उदाहरण, आत्मनिर्भरता से राष्ट्र निर्माण
आत्मनिर्भर होने का मतलब है कि आपके पास जो स्वयं का कौशल है उसके माध्यम से एक छोटे स्तर पर स्वयं को आगे की ओर बढ़ाना है या फिर बड़े स्तर पर अपने देश के लिए बहुत कुछ करना है। आप स्वयं को आत्मनिर्भर बनाकर अपने परिवार का भरण-पोषण हर संकट मे कर सकेंगे और इसके साथ ही आप अपने राष्ट्र मे भी अपना योगदान दे सकेंगे। आज आत्मनिर्भरता शब्द को नया शब्द नहीं कहा जा सकता।

गाँव मे कुटीर उद्योग के द्वारा बनाए गए उत्पादों और उसकी आमदनी से कमाए गए पैसों से परिवार का खर्च चलाने को ही आत्मनिर्भरता कहा जाता है। कुटीर उद्योग या घर में बनाए गए उत्पादों को अपने आस-पास के बाजारों में ही विक्रय किया जाता है, यदि किसी उत्पाद की गुणवत्ता सर्वविदित हो तो, अन्य जगहों पर भी उसकी खूब माँग होती है। कहने का आशय यह है कच्चे मालों से जो उत्पाद घरों में हमारे जीवन के उपयोग के लिए बनाया जाता है तो हम उसे स्थानीय उत्पाद कहते हैं पर सत्य यही है कि यही आत्मनिर्भता का एक रूप है। कुटीर उद्योग के उत्पाद, मत्स्य पालन, मुरगीपालन, इत्यादि आत्मनिर्भर भारत के विविध उदाहरण हैं।

आत्मनिर्भरता की श्रेणी में खेती, मत्स्य पालन, आँगनबाड़ी आदि अनेक तरह के कार्य आते हैं जो हमारे लिए आत्मनिर्भरता की राह में सहारा बनते हैं। इस प्रकार से हम अपने परिवार से गाँव-गाँव से जनपद, एक दूसरे से जोड़कर देखें तो इस प्रकार पूरे राष्ट्र को योगदान देते हैं। अतः हम भारत को आत्मनिर्भर भारत के रूप में देख सकते है। हम सहजता से उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों और कच्चे मालों के द्वारा उत्पादों का निर्माण करके अपने आसपास के बाज़ारों में इसे विक्रय कर सकते हैं। इससे आप स्वयं के साथ – साथ आत्मनिर्भर भारत के पथ में अपना योगदान दे सकते हैं और हम सब मिलकर एक आत्मनिर्भर राष्ट्र निर्माण के गांधी के सपने को सुदृढ़ बनाने में सहयोग कर सकते हैं।

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2. स्वदेश-प्रेम

संकेत बिंदु – ममता का प्रतीक, उत्तरदायित्वों का निर्वहन, सम्मान में विद्धि
जिसके दिल में स्वदेश – प्रेम की रस – धारा नहीं बहती उसका इस संसार में होना, न होना एक समान है। स्वदेश प्रेम मनुष्य की स्वाभाविक ममता का प्रतीक है। संस्कृत के एक कवि ने तो जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया है- ‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’। स्वदेश- प्रेम हर देशवासी में स्वाभाविक रूप से होता है, चाहे कम हो या अधिक। अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर देना ही सच्चा स्वेदश – प्रेम है। देश-प्रेम की भावना मनुष्य को निःस्वार्थ त्याग और निश्चल प्रेम करना सिखाती है।

प्राणों का बलिदान कर देना ही वास्तव से स्वदेश-प्रेम नहीं है। वैज्ञानिक अपने आविष्कारों से, गुरु देश की भावी पीढ़ी को ज्ञानवान, चरित्रवान एवं उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने के योग्य बनाकर, वास्तुकार सुंदर भवनों का निर्माण करके और किसान देशवासियों के लिए अन्न उपजाकर अपना देश-प्रेम प्रकट करते है। वास्तव में स्वदेश-प्रेम वही कहलाता है जिससे हमारे देश की मर्यादा को ठेस न पहुँचे बल्कि उससे हमारे देश के सम्मान में वृद्धि हो।

3. विद्यार्थी और अनुशासन

संकेत बिंदु – अमूल्य निधि, देश की प्रगति, अनुशासित छात्र के गुण
विद्यार्थी का जीवन समाज और देश की अमूल्य निधि होता है। विद्यार्थी समाज की रीढ़ हैं क्योंकि वे ही आगे चलकर राजनेता बनते हैं। देश की बागडोर थामकर राष्ट्र-निर्माता बनते हैं। समाज तथा देश की प्रगति इन्हीं पर निर्भर है। अतएव विद्यार्थी का जीवन पूर्णत: अनुशासित होना चाहिए। वे जितने अनुशासित बनेंगे उतना ही अच्छा समाज व देश बनेगा। विद्यार्थी जीवन को सुंदर बनाने के लिए अनुशासन का विशेष महत्व है। अनुशासन की शिक्षा स्कूल की परिधि में ही संभव नहीं है। घर से लेकर स्कूल, खेल के मैदान, समाज के परकोटों तक में अनुशासन की शिक्षा ग्रहण की जा सकती है। अनुशासनप्रियता विद्यार्थी के जीवन को जगमगा देती है। विद्यार्थियों का कर्तव्य है कि उन्हें पढ़ने के समय पढ़ना और खेलने के समय खेलना चाहिए।

एकाग्रचित्त होकर अध्ययन करना, बड़ों का आदर करना, छोटों से स्नेह करना ये सभी अनुशासित छात्र के गुण हैं। जो छात्र माता-पिता तथा गुरु की आज्ञा मानते हैं, वे परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करते हैं तथा उनका जीवन अच्छा बनता है। वे आत्मविश्वासी, स्वावलंबी तथा संयमी बनते हैं और जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं। अनुशासन से जीवन सुखमय तथा सुंदर बनता है। अनुशासनप्रिय व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्य को सुगमता से प्राप्त कर लेते हैं। हमें चाहिए कि अनुशासन में रहकर अपने जीवन को सुखी, संपन्न एवं सुंदर बनाएँ।

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4. वन – महोत्सव या वृक्षारोपण

संकेत बिंदु – आवश्यकताओं की पूर्ति, विविध लाभ, वृक्षारोपण की अति आवश्यकता
प्राचीन समय में मनुष्य की भोजन, वस्त्र, आवास आदि आवश्यकताएँ वृक्षों से पूरी होती थीं। फल उसका भोजन था, वृक्षों की छाल और पत्तियाँ उसके वस्त्र थे और लकड़ी तथा पत्तियों से बनी झोंपड़ियाँ उसका आवास थीं। फिर आग जलाने की जानकारी होने पर ऊष्मा और प्रकाश भी वृक्षों से प्राप्त किया जाने लगा।

आधुनिक युग में भी वृक्षों की महिमा- गरिमा सर्वोपरि है। आज भी वृक्ष मानव-जीवन के आधार हैं। विविध प्रकार के फल वृक्षों से ही संभव हैं। प्रकृति की नयनाभिराम छवि वृक्ष ही प्रदान कर सकते हैं। अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियाँ भी वनों से मिलती हैं। वन मानव-जीवन के लिए एक निधि है, परंतु जनसंख्या के बढ़ने पर पेड़ कटते गए और ज़मीन खेती करने और रहने के योग्य बनती गई। भारत में बहुत-से घने वन थे, परंतु धीरे-धीरे वनों का नाश भयंकर रूप धारण करने लगा।

नए पेड़ों को लगाने का काम संभव न हो सका। स्वतंत्रता के बाद इसकी ओर ध्यान गया और देश में वन महोत्सव को राष्ट्रीय दिवस के रूप में ही मनाया जाने लगा। यह उत्सव सारे देश में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। वृक्ष तथा वनस्पतियाँ हवा को शुद्ध करते हैं, वर्षा करते हैं तथा वातावरण को संतुलित रखते हैं। साँस लेने के लिए तथा जीवित रहने के लिए पशु-पक्षी और मानव जगत को जिस गैस की आवश्यकता होती है वह ऑक्सीजन गैस वृक्षों से ही प्राप्त होती है।

आज भविष्य की चिंता किए बिना हमने अपनी आवश्यकताओं और सुख-सुविधाओं के लिए वृक्षों का अंधाधुंध सफाया शुरू कर दिया है। जनसंख्या बढ़ती जा रही है, परंतु वन घटते जा रहे हैं। हम उनका विकास किए बिना उनसे अधिक-से-अधिक सामग्री कैसे प्राप्त कर सकते हैं वृक्षों के महत्व से कौन इनकार कर सकता है। अतएव प्रत्येक गाँव में वृक्ष लगाए जा रहे हैं। मध्य प्रदेश की जनता भी इस संदर्भ में कर्तव्य से अवगत हो रही है। वह वृक्षों के विकास के लिए प्रयत्नशील है। हर वर्ष वन महोत्सव मनाया जाता है। वृक्षारोपण का कार्य किया जाता है।

5. शिक्षा में खेल का महत्व

संकेत बिंदु – चुस्ती और फुरती, मनोरंजन का आधार, शारीरिक तथा मानसिक विकास
विद्यार्थी – जीवन में खेलों का बड़ा महत्व है। पुस्तकों में उलझकर थका-माँदा विद्यार्थी जब खेल के मैदान में जाता है तो उसकी थकावट तुरंत गायब हो जाती है। विद्यार्थी अपने में चुस्ती और ताज़गी अनुभव करता है। मानव-जीवन में सफलता के लिए मानसिक, शारीरिक और आत्मिक शक्तियों के विकास से जीवन संपूर्ण बनता है। खेल दो प्रकार के होते हैं। एक वे जो घर में बैठकर खेले जा सकते हैं।

इनमें व्यायाम कम तथा मनोरंजन ज़्यादा होता है, जैसे- शतरंज, ताश, कैरमबोर्ड आदि। दूसरे प्रकार के खेल मैदान में खेले जाते हैं, जैसे- क्रिकेट, फुटबॉल, वॉलीबॉल, बॉस्केटबॉल, कबड्डी आदि। इन खेलों में व्यायाम के साथ-साथ मनोरंजन भी होता है। स्वस्थ, प्रसन्न, चुस्त और फुर्तीला रहने के लिए शारीरिक शक्ति का विकास ज़रूरी है। इस पर ही मानसिक तथा आत्मिक विकास संभव है। शरीर का विकास खेल – कूद पर निर्भर करता है। सारा दिन काम करने और खेल के मैदान का दर्शन न करने से होशियार विद्यार्थी भी मूर्ख बन जाते हैं। यदि हम सारा दिन कार्य करते रहें तो शरीर में घबराहट, चिड़चिड़ापन या सुस्ती छा जाती है।

ज़रा खेल के मैदान में जाइए, फिर देखिए घबराहट, चिड़चिड़ापन या सुस्ती कैसे दूर भागते हैं। शरीर हलका-फुलका और साहसी बन जाता है। मन में और अधिक कार्य करने की लगन पैदा होती है। खेलों द्वारा मिल-जुलकर काम करने की भावना पैदा होती है। विद्यार्थी सहयोग से सब काम करते हैं। यह सहयोग की भावना उनके भावी जीवन में काम आती है। खेलों द्वारा एक-दूसरे से आगे बढ़ने की भावना दृढ़ होती है। इस प्रकार विद्यार्थी जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की होड़ में लगे रहते हैं। प्रत्येक विद्यालय में ऐसे खेलों का प्रबंध होना चाहिए, जिसमें प्रत्येक विद्यार्थी भाग लेकर अपना शारीरिक तथा मानसिक विकास कर सके।

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6. गणतंत्र दिवस

संकेत बिंदु – प्रतिवर्ष आयोजन, राष्ट्रीय इतिहास, दृढ़ संकल्प
यद्यपि भारत की पवित्र भूमि पर प्रतिवर्ष अनेक पर्व तथा उत्सव मनाए जाते हैं। इन पर्वों का अपना विशेष महत्व होता है, किंतु धार्मिक तथा सांस्कृतिक पर्वों के अतिरिक्त कुछ ऐसे पर्व हैं, जिनका संबंध सारे राष्ट्र तथा उसमें निवास करने वाले जन-जीवन से होता है, ये राष्ट्रीय पर्वों के नाम से प्रसिद्ध हैं। 26 जनवरी इन्हीं में से एक है। छब्बीस जनवरी राष्ट्रीय पर्वों में महापर्व है, क्योंकि मुक्ति संघर्ष के बाद राष्ट्रीय इतिहास में राष्ट्र को सर्वप्रभुत्ता – संपन्न गणतंत्रात्मक गणराज्य का स्वरूप प्रदान करने का श्रेय इसी पुण्य तिथि को है। भारतीय गणतंत्रात्मक लोकराज्य का स्व-निर्मित संविधान इसी पुण्य तिथि को कार्य रूप में परिणत हुआ था।

स्वाधीनता-प्राप्ति के पश्चात भारतीय नेताओं ने 26 जनवरी के दिन नवीन विधान को भारत पर लागू करना उचित समझा। 26 जनवरी, 1950 को प्रातः काल अंतिम गवर्नर जनरल सी० राज गोपालाचार्य ने नव-निर्वाचित राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद को कार्यभार सौंपा था। यद्यपि यह समारोह देश के प्रत्येक ओर-छोर में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है, किंतु भारत की राजधानी दिल्ली में इसकी शोभा देखते ही बनती है। मुख्य समारोह – सलामी व पुरस्कार वितरण आदि तो इंडिया गेट पर ही होता है। पर शोभा यात्रा नई दिल्ली की प्रायः सभी सड़कों पर घूमती है।

इसके साथ तीनों सेनाएँ घुड़सवार, टैंक, मशीन गनें, टैंकनाशक तोपें, विध्वंसक तथा विमान भेदी आदि यंत्र रहते हैं। विभिन्न प्रांतों के लोग नृत्य तथा शिल्प आदि का प्रदर्शन करते हैं। इस दिन राष्ट्रवासियों का आत्म-निरीक्षण भी करना चाहिए और सोचना चाहिए कि हमने क्या खोया तथा क्या पाया है, अपनी निश्चित की गई योजनाओं में हमें कहाँ तक सफलता प्राप्त हुई है। हमने जो लक्ष्य निर्धारित किए थे क्या हम वहाँ तक पहुँच पाए हैं। इस दृष्टि से आगे बढ़ने का दृढ़ संकल्प करना चाहिए।

7. स्वतंत्रता दिवस

संकेत बिंदु – चिरस्मरणीय दिवस, दीर्घ संघर्ष का परिणाम, सहयोग की शपथ
15 अगस्त, 1947 भारतीय इतिहास में एक चिर – स्मरणीय दिवस रहेगा। इस दिन शताब्दियों से भारत माता की गुलामी के बंधन टूक-टूक हुए थे। भारतीय समाज के लिए दुखों की काली रात्रि समाप्त हो गई थी। एक स्वर्णिम प्रभात आ गया था। सबने शांति एवं सुख की साँस ली। स्वतंत्रता दिवस हमारा सबसे महत्वपूर्ण तथा प्रसन्नता का त्योहार है। इस दिन के साथ गुँथी हुई बलिदानियों की अनेक गाथाएँ हमारे हृदय में स्फूर्ति और उत्साह भर देती हैं। देश के वीरों ने इस स्वतंत्रता यज्ञ में जो आहुति डाली, वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई मिलती है। देश के भक्त वीरों ने स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था।

देशवासी स्वतंत्रता संघर्ष में लंबे समय तक लगे रहे और उन सबके प्रयत्नों और बलिदानों से 15 अगस्त का शुभ दिन आया जब हमारा देश आज़ाद हो गया। स्वतंत्रता दिवस भारत के प्रत्येक नगर-नगर, ग्राम – ग्राम में बड़े उत्साह तथा प्रसन्नता से मनाया जाता है। इसे भिन्न-भिन्न संस्थाएँ अपनी ओर से मनाती हैं और सरकार सामूहिक रूप से इस उत्सव को विशेष रूप से रोचक बनाने के लिए अनेक कार्यक्रमों का आयोजन करती है।

स्वतंत्रता संघर्ष का अमर प्रतीक हमारा राष्ट्रीय तिरंगा ध्वज जब नील गगन में फहराता है तो प्रत्येक भारतीय उछल पड़ता है। 15 अगस्त, 1947 के दिन कुछेक मनोरंजक कार्यक्रम संपन्न कर लेने से ही हमारा कर्तव्य खत्म नहीं हो जाता है, बल्कि इस दिन से हमें देश की विकास योजनाओं में पूरा सहयोग देने की शपथ लेनी चाहिए। देश में फैले हुए जातीय भेद-भाव दूर करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए। बेकारी की समस्या को जड़ मूल से उखाड़ फेंकने की नवीनतम योजनाएँ सोचनी चाहिए।

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8. भीड़भाड़ वाले बस स्टैंड का दृश्य

संकेत बिंदु – बस अड्डों पर भारी भीड़, तरह-तरह की आवाज़ें, चहल-पहल
विज्ञान ने यातायात व्यवस्था को बहुत ही सुचारु बना दिया है। बस यातायात अत्यधिक लोकप्रिय होने से बस अड्डों पर भारी भीड़ जमा हो जाती है। बड़े शहरों के बस अड्डों पर मेला ही लगा रहता है। ऐसे ही भीड़-भाड़ वाले बस अड्डे का मैं यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ। पिछले रविवार मैं अपने मित्र को विदा करने के लिए जालंधर बस स्टैंड पर पहुँचा। दिन के दो बजे थे। गर्मी का बहुत ज़ोर था। रिक्शा से उतरकर मैं पहले लोकल बस स्टैंड से होता हुआ मुख्य बस अड्डे पर पहुँचा।

यात्री विभिन्न बसों में जाने के लिए पंक्तियों में टिकट लेने के लिए खड़े थे। मेरा मित्र भी लुधियाना की टिकट लेने के लिए एक लाइन में लग गया। इसी समय अखबार वालों, बूट पॉलिश करने वालों, आइसक्रीम वालों और मनियारी का सामान बेचने वालों की आवाजें आने लगीं। पुलिस कर्मचारी भी इधर-उधर घूम रहे थे। अचानक दृष्टि एक बुक स्टॉल पर गई। मैं झट वहाँ पहुँच गया। मैंने कुछ पत्रिकाएँ खरीदीं। इतने में मेरा मित्र बस की टिकट ले आया। बस स्टैंड पर आ चुकी थी। मैंने सामान बस में रखने में मित्र की सहायता की।

कुली बस पर लोगों का सामान चढ़ा रहे थे | हॉकर सामान बेचने के लिए आवाज़ें लगा रहे थे। बहुत से लोग मेरी तरह अपने मित्रों या संबंधियों को विदा करने आए हुए थे। चारों ओर अपरिचित लोग एक-दूसरे को देख रहे थे। बस यात्रियों से भर चुकी थी। कंडक्टर आ चुका था। उसने सीटी बजाई। ड्राइवर अगली खिड़की से बस में सवार हुआ। उसने इंजन स्टार्ट किया और बस धीमी गति से चल पड़ी। वहाँ खड़े लोग अपने मित्रों और संबंधियों को हाथ हिला-हिलाकर विदा कर रहे थे। कुछ ही देर में बस अड्डे से बाहर चली गई। इस प्रकार बस के चले जाने पर भी बस अड्डे पर चहल-पहल पहले जैसी ही थी। मैं इस वातावरण में खो सा गया। धीरे-धीरे मैं बस अड्डे से बाहर की ओर मुड़ा और बाहर पहुँचकर मैं घर की ओर चल दिया।

9. कंप्यूटर- आज की आवश्यकता

संकेत बिंदु – लोकप्रियता, जटिल समस्याओं का समाधान, दिनों-दिन विकास
विज्ञान ने मनुष्य को अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की हैं। इन सुविधाओं में कंप्यूटर का विशिष्ट स्थान है। कंप्यूटर के प्रयोग से प्रत्येक कार्य को अविलंब किया जा सकता है। यही कारण है कि दिन-प्रतिदिन इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। प्रत्येक उन्नत और प्रगतिशील देश स्वयं को कंप्यूटरमय बना रहा है। भारत में भी कंप्यूटर के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। कंप्यूटर ऐसे यांत्रिक मस्तिष्कों का रूपात्मक तथा समन्वयात्मक योग तथा गुणात्मक घनत्व है, जो तीव्रतम गति से न्यूनतम समय में अधिक-से-अधिक काम कर सकता है। गणना के क्षेत्र में इसका विशेष महत्व है।

विज्ञान ने गणितीय गणनाओं के लिए अनेक गणनायंत्रों का आविष्कार किया है पर कंप्यूटर की तुलना किसी से भी संभव नहीं। चार्ल्स बेवेज ने 19वीं शताब्दी के आरंभ में सबसे पहला कंप्यूटर बनाया था। इस कंप्यूटर की यह विशेषता थी कि यह लंबी-लंबी गणनाओं को करने तथा उन्हें मुद्रित करने की क्षमता रखता था। कंप्यूटर स्वयं ही गणना कर जटिल-से-जटिल समस्याओं का समाधान शीघ्र ही कर देता है। भारतीय बैंकों तथा अन्य उपक्रमों के खातों का संचालन तथा हिसाब-किताब रखने के लिए कंप्यूटर का प्रयोग हो रहा है। समाचार-पत्रों तथा पुस्तकों के प्रकाशन में भी कंप्यूटर अपनी विशेष भूमिका का निर्वाह कर रहा है।

कंप्यूटर संचार का भी एक महत्त्वपूर्ण साधन है। ‘कंप्यूटर नेटवर्क’ के माध्यम से देश के प्रमुख नगरों को एक-दूसरे के साथ जोड़ने की व्यवस्था की जा रही है। आधुनिक कंप्यूटर डिज़ाइन तैयार करने में भी सहायक हो रहा है। भवनों, मोटर गाड़ियों, हवाई जहाज़ों आदि के डिज़ाइन तैयार करने में ‘कंप्यूटर ग्राफ़िक’ का व्यापक प्रयोग हो रहा है। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में कंप्यूटर ने अपना अद्भुत कमाल दिखाया है। इसके माध्यम से अंतरिक्ष के व्यापक चित्र उतारे जा रहे हैं। इन चित्रों का विश्लेषण भी कंप्यूटर के माध्यम से ही किया जा रहा है। औद्योगिक क्षेत्र में, युद्ध के क्षेत्र में तथा अन्य अनेक क्षेत्रों में कंप्यूटर का प्रयोग किया जा सकता है। इसका प्रयोग परीक्षा – फल के निर्माण में, अंतरिक्ष यात्रा में, मौसम संबंधी जानकारी में, चिकित्सा में तथा चुनाव में भी किया जा रहा है। इस प्रकार भारत में कंप्यूटर का प्रयोग दिन- प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है।

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10. मेरे जीवन का लक्ष्य

संकेत बिंदु – योजनाओं का निर्माण, समाज सेवा का चयन, अटल लक्ष्य
मनुष्य अनेक कल्पनाएँ करता है। वह अपने को ऊपर उठाने के लिए योजनाएँ बनाता है। कल्पना सबके पास होती है लेकिन उस कल्पना को साकार करने की शक्ति किसी-किसी के पास होती है। सपनों में सब घूमते हैं। सभी अपने सामने कोई-न-कोई लक्ष्य रखकर चलते हैं। विभिन्न व्यक्तियों के विभिन्न लक्ष्य होते हैं। कोई डॉक्टर बनकर रोगियों की सेवा करना चाहता है तो कोई इंजीनियर बनकर निर्माण करना चाहता है। कोई कर्मचारी बनना चाहता है तो कोई व्यापारी। मेरे मन में भी एक कल्पना है। मैं अध्यापक बनना चाहता हूँ। भले ही कुछ लोग इसे साधारण उद्देश्य समझें पर मेरे लिए यह गौरव की बात है। देश सेवा और समाज सेवा का सबसे बड़ा साधन यही है।

मैं व्यक्ति की अपेक्षा समाज और समाज की अपेक्षा राष्ट्र को अधिक महत्व देता हूँ। स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ को महत्व देता हूँ। मैं मानता हूँ कि जो ईंट नींव बनती है, महल उसी पर खड़ा होता है। मैं धन, कीर्ति और यश का भूखा नहीं। मेरे सामने तो राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त का यह सिद्धांत रहता है ‘समष्टि के लिए व्यष्टि हों बलिदान’। विद्यार्थी देश की नींव है। मैं उस नींव को मज़बूत बनाना चाहता हूँ। यदि स्वामी दयानंद, विवेकानंद और शिवाजी जैसे महान व्यक्ति पैदा करने हैं तो अपने व्यक्तित्व को भी ऊँचा उठाना पड़ेगा। आज भारत को आदर्श नागरिकों की आवश्यकता है। आदर्श शिक्षा द्वारा ही उच्चकोटि के व्यक्ति पैदा किए जा सकते हैं। अध्यापक बनने का मेरा निश्चय अटल है। शेष ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है।

11. मेरा प्रिय लेखक

संकेत बिंदु – योगदान, स्वतंत्र विचारधारा, साहित्य जीवन का दर्पण
हिंदी – साहित्य को उन्नत बनाने में अनेक कलाकारों ने योगदान दिया है। प्रत्येक कलाकार का अपना महत्व है, पर प्रेमचंद जैसा असाधारण कलाकार किसी भी देश को बड़े सौभाग्य से मिलता है। यदि उन्हें भारत का गोर्की कहा जाए तो गलत नहीं होगा। प्रेमचंद के उपन्यासों में लोक जीवन के व्यापक चित्रण तथा सामाजिक समस्याओं के गहन विश्लेषण को देखकर कहा गया है कि प्रेमचंद के उपन्यास भारतीय जनजीवन के मुँह-बोलते चित्र हैं। इसी कारण मैं इन्हें अपना प्रिय लेखक मानता हूँ। जन्म वाराणसी के निकट लमही ग्राम में सन 1880 ई० में हुआ।

घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए उनका बचपन संकटों में बीता। कठिनाई से बी०ए० किया और शिक्षा विभाग में नौकरी की किंतु उनकी स्वतंत्र विचारधारा आड़े आई। नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखी ‘सोजे वतन’ पुस्तक अंग्रेज़ सरकार ने जब्त कर ली। इसके पश्चात उन्होंने प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरू किया। प्रेमचंद ने एक दर्जन उच्चकोटि के उपन्यास और लगभग तीन सौ कहानियाँ लिखकर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। उनके उपन्यासों में गोदान, कर्मभूमि, गबन तथा सेवासदन आदि प्रसिद्ध हैं। कहानियों में पूस की रात तथा कफ़न अत्यंत मार्मिक हैं। प्रेमचंद को आदर्शोन्मुख यथार्थवादी साहित्यकार कहा जाता है।

वे मानते थे कि साहित्य समाज का चित्रण करता है किंतु साथ ही समाज के सामने एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत करता है जिसके सहारे लोग अपने चरित्र को ऊँचा उठा सकें। प्रेमचंद की भाषा सरल तथा मुहावरेदार है। उन्होंने ऐसी भाषा अपनाई जिसे जनता बोलती और समझती थी। यह खेद की बात है कि हिंदी का यह महान सेवक जीवन भर आर्थिक संकटों में घिरा रहा। जीवन भर अथक परिश्रम के कारण स्वास्थ्य गिरने लगा और सन 1936 में हिंदी के उपन्यास सम्राट का देहांत हो गया। उनका साहित्य भारतीय जीवन का दर्पण है। उनके साहित्यिक आदर्श बड़ा मूल्य रखते हैं।

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12. मेरी प्रिय पुस्तक

संकेत बिंदु – अमर रचना, मूल संदेश, अमर और दिव्य वाणी
रामचरितमानस, मेरी सर्वप्रिय पुस्तक है। यह पुस्तक महाकवि तुलसीदास का अमर रचना है। तुलसीदास ही क्यों, वास्तव में इससे हिंदी साहित्य समृद्ध होकर समस्त जगत को आलोक दे रहा है। इसकी श्रेष्ठता का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि यह कृति संसार की प्राय: सभी समृद्ध भाषाओं में अनुदित हो चुकी है। रामचरितमानस, मानव-जीवन के लिए अमूल्य निधि है। पत्नी का पति के प्रति, भाई का भाई के

प्रति, बहू का सास-ससुर के प्रति, पुत्र का माता-पिता के प्रति क्या कर्तव्य होना चाहिए आदि इस कृति का मूल संदेश है। यह ग्रंथ दोहा – चौपाई में लिखा महाकाव्य है। ग्रंथ में सात कांड हैं जो इस प्रकार हैं – बाल – कांड, अयोध्या – कांड, अरण्य-कांड, किष्किंधा – कांड, सुंदर कांड, लंका – कांड तथा उत्तर – कांड। हर कांड भाषा, भाव आदि की दृष्टि से पुष्ट और उत्कृष्ट है और हर कांड के आरंभ में संस्कृत के श्लोक हैं। तत्पश्चात कला फलागम की ओर बढ़ती है। यह ग्रंथ अवधी भाषा में और दोहा – चौपाई में लिखा हुआ है। चरित्रों का चित्रण जितना प्रभावशाली तथा सफल इसमें हुआ है उतना हिंदी के अन्य किसी महाकाव्य में नहीं हुआ।

राम, सीता, लक्ष्मण, दशरथ, भरत आदि के चरित्र विशेषकर उल्लेखनीय तथा प्रशंसनीय हैं। इस पुस्तक के पढ़ने से प्रतिदिन की पारिवारिक, सामाजिक आदि समस्याओं को दूर करने की प्रेरणा मिलती है। परलोक के साथ-साथ इस लोक में कल्याण का मार्ग दिखाई देता है और मन में शांति का सागर उमड़ पड़ता है। बार- बार पड़ने को मन चाहता है। रामचरितमानस में नीति, धर्म का उपदेश जिस रूप में दिया गया है वह वास्तव में प्रशंसनीय है।

जीवन के प्रत्येक रस का संचार किया है और लोक-मंगल की उच्च भावना का समावेश भी किया गया है। यह वह पतित पावनी गंगा है, जिसमें डुबकी लगाते ही सारा शरीर शुद्ध हो उठता है तथा एक मधुर रस का संचार होता है। सहृदय भक्तों के लिए यह दिव्य तथा अमर वाणी है। उपर्युक्त विवेचन के अनुसार अंत में कह सकते हैं कि रामचरितमानस साहित्यिक तथा धार्मिक दृष्टि से उच्चकोटि की रचना है, जो अपनी उच्चता तथा भव्यता की कहानी स्वयं कहती है, इसलिए मैं इसे अपनी प्रिय पुस्तक मानता हूँ।

13. प्रातः काल का भ्रमण

संकेत बिंदु – विशेष महत्व, सर्वत्र आनंद, तब जीवन का संचार
मनुष्य को सबसे पहले अपनी सेहत की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि हमारे बहुत-से कर्तव्य हैं। ये महत्व कर्तव्य बिना अच्छे स्वास्थ्य के पूरे नहीं हो सकते। स्वास्थ्य रक्षा के अनेक साधन हैं। इन साधनों में प्रातः काल का भ्रमण विशेष महत्व रखता है। दिन के सभी भागों में प्रातः काल सबसे मनोहर तथा चेतनामय होता है। रात्रि के बाद उषा की मधुर मुसकान मन को मोह लेती है।

पृथ्वी के कण-कण में एक नया उल्लास, नया संगीत, नया जीवन छा जाता है। ऐसे मंगलमय समय में भ्रमण करना लाभकारी है। प्रातः काल प्रकृति दोनों हाथों से स्वास्थ्य लुटाती है। विभिन्न ऋतुओं की सुगंधित वायु उसी समय चलती है। सर्वत्र आनंद ही आनंद छाया होता है। सुगंधि से भरे फूल खिलखिलाकर हँसते हुए कितने मोहक होते हैं। बेलों से झड़े फूल पृथ्वी का श्रृंगार करते हुए दिखाई देते हैं। चारों ओर फैली हरियाली नेत्रों को आनंद से भर देती है। पक्षियों का चहचहाना मन को प्रसन्नता से भर देता है।

पूर्व के आकाश पर मुसकराता हुआ प्रातः काल का सूर्य और अस्त होता हुआ चंद्रमा दोनों भगवान के दो नेत्रों की तरह आँख-मिचौली करते दिखाई देते हैं। ऐसे समय भ्रमण करने वाला मनुष्य स्वस्थ ही नहीं, दीर्घ आयु वाला भी होता है। प्रातः काल के भ्रमण से शरीर में फुर्ती और नए जीवन का संचार होता है। मन खुशी से भर जाता है। सारा दिन काम करने पर मनुष्य थकता नहीं। मुख पर तेज़ छाया रहता है। स्वच्छ वायु से रक्त शुद्ध होता है। फेफड़ों को बल मिलता है। मोती के समान ओस की बूँदों से सजी घास पर चलने से मुनष्य का मस्तिष्क रोगों से मुक्त होता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति प्रातः काल भ्रमण को निकल जाते हैं, उनका सारा दिन हँसते हुए बीतता है। अतः भ्रमण की आदत डालनी चाहिए।

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14. वर्षा ऋतु

संकेत बिंदु – असली समय, अनोखी कल्पनाएँ, प्रकृति का मधुर संगीत

धानी चुनर ओढ़ धरा की दुल्हन जैसी मुसकराती है।
नई उमंगें, नई तरंगें, लेकर वर्षा ऋतु आती है।

वैसे तो आषाढ़ मास से वर्षा ऋतु का आरंभ हो जाता है, लेकिन इसके असली महीने सावन और भादों हैं। धरती का ” शस्य श्यामलाम् सुफलाम् नाम सार्थक हो जाता है। इस ऋतु में किसानों की आशा – लता लहलहा उठती है। नदियों, सरोवरों एवं नालों के सूखे हृदय प्रसन्नता के जल से भर जाते हैं। वर्षा ऋतु में प्रकृति मोहक रूप धारण कर लेती है। इस ऋतु में मोर नाचते हैं। औषधियाँ – वनस्पतियाँ लहलहा उठती हैं। खेती हरी- भरी हो जाती है। किसान खुशी में झूमने लगते हैं। पशु-पक्षी आनंदमग्न हो उठते हैं। बच्चे किलकारियाँ मारते हुए इधर से उधर दौड़ते-भागते, खेलते- कूदते हैं। स्त्री-पुरुष हर्षित हो जाते हैं। वर्षा की पहली बूँदों का स्वागत होता है।

वर्षा प्राणी मात्र के लिए जीवन लाती है। जीवन का अर्थ पानी भी है। वर्षा होने पर नदी-नाले, तालाब, झीलें, कुएँ पानी से भर जाते हैं। अधिक वर्षा होने पर चारों ओर जल ही जल दिखाई देता है। कई बार भयंकर बाढ़ आ जाती है। पुल टूट जाते हैं; खेती तबाह हो जाती है। सच है कि प्रत्येक वस्तु की अति बुरी होती है। वर्षा न होने को ‘अनावृष्टि’ कहते हैं। बहुत वर्षा होने को ‘अतिवृष्टि’ कहते हैं। दोनों ही हानिकारक हैं। जब वर्षा न होने से सूखा पड़ता है, तब अकाल पड़ जाता है। वर्षा से अन्न, चारा, घास, फल आदि पैदा होते हैं जिससे मनुष्यों तथा पशुओं का जीवन – निर्वाह होता है। सभी भाषाओं के कवियों ने ‘बादल’ और ‘वर्षा’ पर बड़ी सुंदर-सुंदर कविताएँ रची हैं; अनोखी कल्पनाएँ की हैं। संस्कृत, हिंदी आदि के कवियों ने सभी ऋतुओं के वर्णन किए हैं।

ऋतु- वर्णन की पद्धति बड़ी लोकप्रिय रही है। श्रावण की पूर्णमासी को मनाया जाने वाला रक्षाबंधन वर्षा ऋतु का प्रसिद्ध त्योहार है। वर्षा में कीट- पतंगे, मच्छर बहुत बढ़ जाते हैं। साँप आदि जीव बिलों से बाहर निकल आते हैं। वर्षा होते हुए कई दिन हो जाएँ तो लोग तंग आ जाते हैं। रास्ते रुक जाते हैं। गाड़ियाँ बंद हो जाती हैं। वर्षा की अधिकता कभी-कभी बाढ़ का रूप धारण कर जन-जीवन के लिए अभिशाप बन जाती है। निर्धन व्यक्ति का जीवन तो दुख की दृश्यावली बन जाता है।

इन दोषों के होते हुए भी वर्षा का अपना महत्व है। यदि वर्षा न होती तो इस संसार में कुछ भी न होता। न आकाश में इंद्रधनुष की शोभा दिखाई देती और न प्रकृति का मधुर संगीत सुनाई देता। इससे पृथ्वी की प्यास बुझती है और वह तृप्त हो जाती है।

15. आज की भारतीय नारी

संकेत बिंदु – महत्वपूर्ण अंग, कर्तव्य क्षेत्र, देश की उन्नति में भूमिका
नर तथा नारी समाज के दो महत्वपूर्ण अंग हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इतिहास में कई बार ऐसा दिखाई देता है कि पुरुष समाज को नारी – समाज पर श्रेष्ठता प्राप्त रही है। स्त्री को माता का जो महान और भव्य रूप भारतीय शास्त्रकारों ने दिया है, वह संसार के किसी भी देश के इतिहास में उपलब्ध नहीं होता। लेकिन इतिहास में कुछ ऐसे चरण भी आए, जब नारी की उपेक्षा की गई और उसे भोग की वस्तु बना दिया गया। विशेष कर मध्यकाल में नारी की दशा शोचनीय बन गई। लेकिन आधुनिक काल में नारी ने करवट ली और अपना कायाकल्प कर डाला।

वह पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने लगी। आज की नारी अपनी दोहरी भूमिका का निर्वाह कर रही है। उसके कर्तव्य का क्षेत्र पहले से बढ़ गया है। आज एक ओर वह विवाहित रूप में घर का उत्तरदायित्व सँभालती है, तो दूसरी ओर बाहर के क्षेत्र में काम करके और कुछ कमाकर घर का खर्च चलाने में हाथ बँटाती है। अविवाहित नारी भी बाहरी क्षेत्र में अपनी क्षमता का परिचय देकर कुछ अर्जित करके परिवार की आर्थिक दशा सुधारने में अपना योगदान देती है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, जहाँ नारी ने अपनी प्रतिभा का परिचय न दिया हो। राजनीति के क्षेत्र में भी उसने कदम बढ़ाए हैं। शिक्षा के क्षेत्र में तो उसका बोलबाला है। चिकित्सा के क्षेत्र में भी वह अपनी कुशलता का परिचय दे रही है। सरकारी कार्यालयों में वह पुरुष के बराबर काम कर रही है। कामकाजी महिलाओं की निरंतर वृद्धि हो रही है।

आज की नारी प्राचीनता की केंचुली उतारकर एक नए आलोक की ओर बढ़ रही है। स्वतंत्रता – प्राप्ति तथा नवजागरण के बाद नारी के कर्तव्य क्षेत्र का विस्तार हुआ है। उसने घर और बाहर सुंदर समन्वय किया है। आज की बढ़ती हुई महँगाई में ऐसी ही नारियों की आवश्यकता है। आज आवश्यकता है नारी के महत्व को समझने की। उसे पुरुष के समान ही आदर देना चाहिए। घर में लड़का हो या लड़की, दोनों के प्रति एक-सा दृष्टिकोण हो; एक-सी सुविधाएँ प्राप्त हों, तो नारी निश्चित रूप से परिवार, समाज तथा देश की उन्नति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। नारी का भी यह कर्तव्य है कि वह स्वतंत्रता का अनुचित प्रयोग न करे, मर्यादित जीवन व्यतीत करे तथा परिवार के प्रति पूरी आस्था रखे।

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16. जैसी संगति बैठिए तैसोई फल होत

संकेत बिंदु – सामाजिक प्राणी, नाशकारी कुसंग, सच्चे व्यक्ति की संगति
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जब तक वह समाज से संपर्क स्थापित नहीं करता, तब तक उसके जीवन की गाड़ी नहीं चल सकती। समाज में कई प्रकार के लोग होते हैं – कुछ सदाचारी हैं, तो कुछ दुराचारी। अतः हमें ऐसे लोगों का संग करना चाहिए जो हमारे जीवन को उन्नति एवं निर्मल बनाएँ। अच्छी संगति पर प्रभाव अच्छा तथा बुरी संगति का प्रभाव बुरा होता है। तभी तो कहा है- जैसी संगति बैठिए तैसोई फल होत यह ठीक भी है, क्योंकि दुष्टों के साथ रहने वाला व्यक्ति भला हो ही नहीं सकता। संगति का प्रभाव जाने अथवा अनजाने मनुष्य पर अवश्य पड़ता है। बचपन में जो बालक परिवार अथवा मोहल्ले में जो कुछ सुनते हैं, प्रायः उसी को दोहराते हैं।

गाली सुनने से ही गाली देने की आदत पड़ती है। कहा भी गया है, “दुर्जन यदि विद्वान भी हो तो उसका संग छोड़ देना चाहिए। मणि धारण करने वाला साँप क्या भयंकर नहीं होता?” सत्संगति का हमारे चरित्र के निर्माण में बड़ा हाथ है। बुरी संगति के प्रभाव का परिणाम बड़ा भयंकर होता है; मनुष्य कहीं का नहीं रहता। वह न परिवार का कल्याण कर सकता है और न ही देश और जाति के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकता है। कुसंग नाशकारी है तो सुसंग कल्याणकारी। सूरदास जी ने तो दुष्ट व्यक्ति के विषय में यहाँ तक कह दिया है – ‘सूरदास’ खल कारी कामरि चढ़त न दूजो रंग सत्संग के बिना विवेक उत्पन्न नहीं हो सकता और विवेक के बिना जीवन का निर्माण नहीं हो सकता। सज्जन का संग सुखकारी एवं कल्याणकारी होता है। कबीर ने सच्चे साधु की संगति के विषय में ठीक ही कहा है –

कबीरा संगत साध की, ज्यों गंधी की बास।
जो कछु गंधी दे नहीं, तो भी बास सुवास॥

मनुष्य के जीवन की सफलता तथा असफलता उसकी संगति पर निर्भर करती है। यदि हम जीवन में सफलता चाहते हैं, तो अपनी संगति की तरफ़ ध्यान दें। सत्य सत्य को जन्म देता है; अच्छाई अच्छाई को जन्म देती है; बुराई से बुराई उत्पन्न होती है- यह कभी न भूलें।

17. प्रथम सुख नीरोगी क्या

संकेत बिंदु – नियमित व्यायाम, नीरोग जीवन, जागरूकता
मानव तभी सुखी रह सकता है जब उसका शरीर स्वस्थ हो। स्वस्थ शरीर के लिए नियमित रूप से व्यायाम करना अत्यंत आवश्यक है। व्यायाम करने से शारीरिक सुखों के साथ-साथ मनुष्य को मानसिक संतुष्टि भी प्राप्त होती है क्योंकि इससे उसका मन भी सदा स्फूर्तिमय, उत्साहपूर्ण तथा आनंदमय बना रहता है। महर्षि चरक ने लिखा है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों का मूल आधार स्वास्थ्य ही है। यह बात अपने में नितांत सत्य है। मानव-जीवन की सफलता धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करने में ही निहित है परंतु सब की आधारशिला मनुष्य का स्वास्थ्य है, उसका नीरोग जीवन है।

रुग्ण और अस्वस्थ मनुष्य न धर्मचिंतन कर सकता है, न अर्थोपार्जन कर सकता है, न काम प्राप्ति कर सकता है, और न ही मानव-जीवन के सबसे बड़े स्वार्थ मोक्ष की ही उपलब्धि प्राप्त कर सकता है क्योंकि इन सबका मूल आधार शरीर है, इसलिए कहा गया है कि- “शरीरमादद्यम् खलु धर्मसाधनम्”। अस्वस्थ व्यक्ति न अपना कल्याण कर सकता है, न अपने परिवार का, न अपने समाज की उन्नति कर सकता है और न ही देश की। जिस देश के व्यक्ति अस्वस्थ और अशक्त होते हैं, वह देश न आर्थिक उन्नति कर सकता है और न सामाजिक। देश का निर्माण, देश की उन्नति, बाह्य और आंतरिक शत्रुओं से रक्षा, देश का समृद्धिशाली होना वहाँ के नागरिकों पर आधारित होता है। सभ्य और अच्छा नागरिक वही हो सकता है जो तन, मन, धन से देशभक्त हो तथा मानसिक और आत्मिक स्थिति में उन्नत हो।

इन दोनों ही क्रमों में शरीर का स्थान प्रथम है। बिना शारीरिक उन्नति के मनुष्य न देश की रक्षा कर सकता है और न अपनी मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है। प्राय: यह देखा जाता है कि बौद्धिक काम करने वाले लोगों का स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता, अतः उनके लिए व्यायाम की आवश्यकता अधिक रहती है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें तथा जीवन के व्यस्त क्षणों में से कुछ समय निकाल कर व्यायाम अवश्य करें। इससे हमारा मन और तन पूर्ण रूप से स्वस्थ रहेगा। नीरोगी काया होने से हम सभी सुखों का उपयोग भी कर सकते हैं।

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18. प्रकृति का प्रकोप – भूकंप

संकेत बिंदु – मानव का प्रकृति के साथ संघर्ष, प्रकृतिक प्रकोप, मानवीय अहं का त्याग
प्रकृति ईश्वर की रचना होने के कारण अजेय है। मनुष्य आदिकाल से ही प्रकृति की शक्तियों के साथ संघर्ष करता आ रहा है। आँधी, तूफ़ान, अकाल, अनावृष्टि, अतिवृष्टि तथा भूकंप प्रकृति के ऐसे ही प्रकोप हैं। भूमि के हिलने को भूचाल, हॉलाडोल या भूकंप की संज्ञा दी जाती है। धरती का ऐसा कोई भी भाग नहीं है, जहाँ कभी-न-कभी भूकंप के झटके न आए हों। भूकंप के हल्के झटकों से तो विशेष हानि नहीं होती, लेकिन जब कभी ज़ोर के झटके आते हैं तो वे प्रलयकारी दृश्य उपस्थित कर देते हैं। यह एक प्राकृतिक प्रकोप है जो अत्यधिक विनाश का कारण बनता है।

यह जानलेवा ही नहीं बनता बल्कि मनुष्य की शताब्दियों सहस्त्राब्दियों की मेहनत के परिणाम को भी नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। बिहार ने बड़े विनाशकारी भूकंप देखे हैं । हज़ारों लोग मौत के मुँह में चले गए। भूमि में दरारें पड़ गईं, जिनमें जीवित प्राणी समा गए। पृथ्वी के गर्भ से कई प्रकार की विषैली गैसें उत्पन्न हुईं, जिनसे प्राणियों का दम घुट गया। भूकंप के कारण जो लोग धरती में समा जाते हैं, उनके मृत शरीरों को बाहर निकालने के लिए धरती की खुदाई करनी पड़ती है। यातायात के साधन नष्ट हो जाते हैं। बड़े-बड़े भवन धराशायी हो जाते हैं।

लोग बेघर हो जाते हैं। धनवान् अकिंचन बन जाते हैं और लोगों को जीने के लाले पड़ जाते हैं। आज का युग विज्ञान का युग कहलाता है पर विज्ञान प्रकृति के प्रकोप के सामने विवश है। भूकंप के कारण क्षण भर में ही प्रलय का संहारक दृश्य उपस्थित हो जाता है। ईश्वर की इच्छा के आगे सब विवश हैं। मनुष्य को कभी भी अपनी शक्ति और बुद्धि का घमंड नहीं करना चाहिए। उसे हमेशा प्रकृति की शक्ति के आगे नतमस्तक रहना चाहिए।

19. परहित सरिस धरम नहिं भाई

संकेत बिंदु-कर्मानुसार पृष्ठभूमि, आदर्शों की प्रतिष्ठा, कल्याण की भावना
मानव का कर्मक्षेत्र यही समाज है, जिसमें रहकर वह अपने कर्मानुसार अगले जीवन की पृष्ठभूमि तैयार करता है। चौरासी लाख योनियों में से किसी एक में पड़ने का मूल वह यहीं स्थापित करता है और भारतीय धर्म – साधना में वर्णित अमरत्व के सिद्धांत को अपने श्रेष्ठ कर्मों से प्रमाणित करता है। लाखों-करोड़ों लोगों में से मरणोपरांत केवल वही व्यक्ति समाज में अपना नाम स्थायी बना पाता है जो जीवन काल में ही अपने जीवन को दूसरों के लिए अर्पित कर चुका होता है। परोपकार और दूसरों के प्रति सहानुभूति से समाज स्थापित है और इन तत्वों में समाज के नैतिक आदर्शों की प्रतिष्ठा होती है। दूसरे के लिए किए गए कार्य से जहाँ अपना स्वार्थ सिद्ध होता है वहाँ समाज में प्रधानता भी प्राप्त होती है।

निःस्वार्थ भाव से की गई सेवा लोकप्रियता प्रदान करती है। इससे मानव का अपना कल्याण भी होता है क्योंकि लोक की प्रवृत्ति है कि यदि आप दूसरों के काम आएँगे तो समय पड़ने पर दूसरे भी आप का साथ देंगे। जो व्यक्ति दूसरों के लिए आत्म- बलिदान करता है, समाज उसे अमर बना देता में तुम है और यह यश उपार्जित करता है – ‘कीर्तियस्य स जीवत।’ गुरु अर्जन देव के अमरत्व का यही तो आधार है। ईसा ने कहा है- ‘जो बड़ा होगा वह तुम्हारा सेवक होगा।’ प्रकृति का भी ऐसा ही व्यवहार है। वह कभी भी अपने साधन अपने लिए प्रयुक्त नहीं करती –

वृच्छ कबहुँ नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर।
परमार्थ के कारन, साधुन धरा सरीर ॥

मानव-जीवन में लोक सेवा, सहानुभूति और दयालुता प्रायः रोग, दरिद्रता, महामारी, उपद्रवों आदि में संभव हो सकती है। इनमें राजा शिवि, दधीचि और गांधी जैसे बलिदानी की आवश्यकता नहीं है। दयालुता के छोटे-छोटे कार्यों, मृदुता का व्यवहार, दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुँचाना, दूसरों की दुर्बलताओं के प्रति आदर होना, अछूतों या निम्नवर्गीय लोगों से घृणा न करना आदि में स्पष्ट रूप से सहानुभूति के चिह्न विद्यमान हैं। भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में मानव मात्र की कल्याण – भावना निहित है।

वास्तव में परोपकार के समान न कोई दूसरा धर्म है और न पुण्य। पंचतंत्र में भी कहा गया है कि – ” यस्मिन जीवति जीवंति वहवः सोऽत्र जीवतु, वयांसि किम् कुर्वंति चम्त्वास्वोद पूरणम्। ” अर्थात ” जो व्यक्ति अपने जीवन से दूसरे के जीवन को जीने योग्य बनाता है, वही बहुत दिन जीवित रहे। नहीं तो कौए भी बहुत दिन जी लेते हैं और ज्यों-त्यों अपना पेट भर लेते हैं।” जो व्यक्ति दूसरों के सुख के लिए जीते हैं, उनके अपने जीवन में सौ गुना प्रसन्नता और उत्साह का संचार होता है। इससे उसका अपना चरित्र महान बनता है।

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20. नर हो, न निराश करो मन को

संकेत बिंदु – मननशील प्राणी, मानसिक बल पर विश्वास, आशावान दृष्टिकोण
मनुष्य एक मननशील प्राणी है। अपने मानसिक बल से वह असंभव से असंभव कार्य भी कर लेता है। एक कथन है कि “जहाँ चाह है वहाँ राह है” मनुष्य को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने का कार्य उसकी इच्छा-शक्ति अथवा मन ही संपन्न कराता है। मनुष्य जो भी उद्योग, निरंतर उन्नति करने का प्रयास अथवा कार्य करता है, सब मन के बल पर ही करता है। यदि मनुष्य का मन क्रियाशील नहीं रहता अथवा ‘मन मर जाता है ‘ तो उसके लिए संसार के समस्त आकर्षण तुच्छ अथवा अर्थहीन हो जाते हैं। उसे चारों ओर से निराशा घेर लेती है। वह जीवित होते हुए भी मरणासन्न हो जाता है।

कवि का यह कथन भी इसी ओर संकेत करता है कि “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत” अर्थात जब तक मनुष्य को अपने मानसिक बल पर विश्वास है तब तक वह संसार को भी जीत लेता है, किंतु ‘मन मर’ जाने पर व्यक्ति स्वयं ही पराजित हो जाता है। इसी मानसिक बल के आधार पर वानरों की सेना के साथ श्रीराम ने रावण को पराजित कर दिया था। नेपोलियन ने आल्पस के अजेय पर्वत को पार कर लिया तथा गुरु गोविंद सिंह जी ने सवा-सवा लाख से एक को लड़ाया था। यदि मनुष्य मानसिक रूप से निष्क्रिय हो जाता है तो वह कोई भी कार्य नहीं कर पाता। इसलिए कवि ने भी कहा है- “हारिए न हिम्मत बिसारिये न हरि नाम।, जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।। ”

अपने आराध्य के प्रति आस्था मनुष्य के मानसिक बल में वृद्धि करती है। जब वह प्रभु का नाम लेकर मन से कोई कार्य करता है तो कोई कारण नहीं कि उसे उस कार्य में सफलता न मिले। यह अवश्य हो सकता है कि उसे फल प्राप्ति के लिए संघर्षरत रहना पड़े, किंतु उसे सफलता अवश्य ही प्राप्त होती है। इस परिवर्तनशील संसार में सुख और दुख चक्र के समान घूमते रहते हैं। अतः जब दुख के बाद सुख आता ही है तो दुख से भी नहीं घबराना चाहिए। बुद्धिमान मनुष्य को जीवन के प्रति आशावान दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, जिससे वह अपना और अपने राष्ट्र का कल्याण कर सके। हिम्मत हारने से कुछ बनता नहीं, बिगड़ता ही है। दूसरी बात यह है कि दुख और सुख, सफलता और असफलता सब भगवान की दी हुई वस्तुएँ हैं। यदि उसके दिए दुख से आप घबरा जाएँगे तो वह आपको सुख नहीं देगा।

21. आतंकवाद और भारत
अथवा
आतंकवाद – एक ज्वलंत समस्या

संकेत बिंदु – समस्याओं का चक्रव्यूह, देशों में आतंकवाद की स्थिति, कानून की सुदृढ़ता
आज यदि हम भारत की विभिन्न समस्याओं पर विचार करें तो हमें लगता है कि हमारा देश अनेक समस्याओं के चक्रव्यूह में घिरा हुआ है। एक ओर भुखमरी, दूसरी ओर बेरोज़गारी, कहीं अकाल तो कहीं बाढ़ का प्रकोप है। इन सबसे भयानक समस्या आतंकवाद की समस्या है, जो देश रूपी वट-वृक्ष को दीमक के समान चाट-चाटकर खोखला कर रही है। आतंकवाद से तात्पर्य है – ” देश में आतंक की स्थिति उत्पन्न करना “इसके लिए देश के विभिन्न क्षेत्रों में निरंतर हिंसात्मक उत्पात मचाए जाते हैं जिससे सरकार उनमें उलझकर सामाजिक जीवन के विकास के लिए कोई कार्य न कर सके। कुछ विदेशी शक्तियाँ भारत की विकास दर को देखकर जलने लगी थीं।

आतंकवादी रेल पटरियाँ उखाड़कर, बस यात्रियों को मारकर, बैंकों को लूटकर, सार्वजनिक स्थलों पर बम फेंककर आदि कार्यों द्वारा आतंक फैलाने में सफल होते हैं। धार्मिक कट्टरता आतंकवादी गतिविधियों को अधिक प्रोत्साहित कर रही है। लोग धर्म के नाम पर एक-दूसरे का गला काटने के लिए तैयार हो जाते हैं। धार्मिक उन्माद अपने विरोधी धर्मावलंबी को सहन नहीं कर पाता। धर्म के नाम पर अनेक दंगे भड़क उठते हैं। भारत सरकार को आतंकवादी गतिविधियों को कुचलने के लिए कठोर पग उठाना चाहिए। इसके लिए सर्वप्रथम कानून एवं व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना चाहिए। जहाँ-जहाँ अंतर्राष्ट्रीय सीमा हमारे देश की सीमा को छू रही है, उन समस्त क्षेत्रों की पूरी नाकाबंदी की जानी चाहिए, जिससे आतंकवादियों को सीमा पार से हथियार, गोला-बारूद तथा प्रशिक्षण न प्राप्त हो सके।

पथ – भ्रष्ट युवक-युवतियों को समुचित प्रशिक्षण देकर उनके लिए रोज़गार के पर्याप्त अवसर जुटाए जाने चाहिए। यदि युवा वर्ग को व्यस्त रखने तथा उन्हें उनकी योग्यता के अनुरूप कार्य दे दिया जाए तो वे पथ – भ्रष्ट नहीं होंगे। इससे आतंकवादियों को अपना षड्यंत्र पूरा करने के लिए जन-शक्ति नहीं मिलेगी तथा वे स्वयं ही समाप्त हो जाएँगे। जनता को भी सरकार से सहयोग करना चाहिए। कहीं भी किसी संदिग्ध व्यक्ति अथवा वस्तु को देखते ही उसकी सूचना निकट के पुलिस थाने में देनी चाहिए।

यदि आतंकवाद की समस्या का गंभीरता से समाधान न किया गया तो देश का अस्तित्व खतरे में पड़ा जाएगा। सभी लड़कर समाप्त हो जाएँगे। हमें संगठित होकर उसकी ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए, जिससे उनका मनोबल समाप्त हो जाए तथा वे जान सकें कि उन्होंने गलत मार्ग अपनाया है। वे आत्मग्लानि के वशीभूत होकर जब अपने किए पर पश्चात्ताप करेंगे तभी उन्हें देश की मुख्य धारा में सम्मिलित किया जा सकता है। अतः आतंकवाद की समस्या का समाधान जनता एवं सरकार दोनों के मिले-जुले प्रयासों से ही संभव हो सकता है।

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22. श्रम का महत्व अथवा परिश्रम सफलता की कुंजी है

संकेत बिंदु – श्रम से प्रगति, आलस्य अभिशाप, उन्नति में सहायक
श्रम का अर्थ है – मेहनत। श्रम ही मनुष्य जीवन की गाड़ी को खींचता है। चींटी से लेकर हाथी तक सभी जीव बिना श्रम के जीवित नहीं रह सकते। फिर मनुष्य तो अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है। संसार की उन्नति प्रगति मनुष्य के श्रम पर निर्भर करती है। परिश्रम के अभाव में जीवन की गाड़ी चल ही नहीं सकती। यहाँ तक कि स्वयं का उठना-बैठना, खाना-पीना भी संभव नहीं हो सकता फिर उन्नति और विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

आज संसार में जो राष्ट्र सर्वाधिक उन्नत हैं, वे परिश्रम के बल पर ही इस उन्नत दशा को प्राप्त हुए हैं। जिस देश के लोग परिश्रमहीन एवं साहसहीन होंगे, वह प्रगति नहीं कर सकता। परिश्रमी मिट्टी से सोना बना लेते हैं। परिश्रम का अभिप्राय ऐसे परिश्रम से है जिससे निर्माण हो, रचना हो, जिस परिश्रम से निर्माण नहीं होता, उसका कुछ अर्थ नहीं। जो व्यक्ति आलस्य का जीवन बिताते हैं, वे कभी उन्नति नहीं कर सकते। आलस्य जीवन को अभिशापमय बना देता है।

कुछ लोग श्रम की अपेक्षा भाग्य को महत्व देते हैं। उनका कहना है कि भाग्य में जो है वह अवश्य मिलेगा, अतः दौड़-धूप करना व्यर्थ है। यह तर्क निराधार है। यह ठीक है कि भाग्य का भी हमारे जीवन में महत्व है, लेकिन आलसी बनकर बैठे रहना और असफलता के लिए भाग्य को कोसना किसी प्रकार भी उचित नहीं। परिश्रम के बल पर मनुष्य भाग्य की रेखाओं को भी बदल सकता है। परिश्रमी व्यक्ति स्वावलंबी, ईमानदार, सत्यवादी, चरित्रवान और सेवा भाव से युक्त होता है। परिश्रम करने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। परिश्रम के द्वारा ही मनुष्य अपनी, परिवार की, जाति की तथा राष्ट्र की उन्नति में सहयोग दे सकता है। अतः मनुष्य को परिश्रम करने की प्रवृत्ति विद्यार्थी जीवन में ग्रहण करनी चाहिए।

23. सदाचार

संकेत बिंदु – सर्वोत्तम गुण, सदाचार की महिमा, सामाजिक उन्नति का स्त्रोत
मानव-जीवन का सर्वोत्तम गुण सदाचार ही है। यह मनुष्य को उच्च एवं वंदनीय बनाता है। इसके अभाव में मनुष्य समाज में सम्मान प्राप्त नहीं कर सकता। किसी विद्वान का कथन है- “धन नष्ट हो गया तो कुछ नष्ट नहीं हुआ, स्वास्थ्यं नष्ट हो गया तो कुछ नष्ट हुआ, लेकिन चरित्र नष्ट हो गया तो सब कुछ नष्ट हो गया।” सदाचार के समक्ष धन तुच्छ हैं। वास्तव में सदाचार ही सर्वश्रेष्ठ मानव धर्म है। सदाचार मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र है। सदाचारी में आत्म-विश्वास होता है। वह निर्भीक होता है। वह असफल होने पर भी साहस नहीं छोड़ता है।

सदाचारी असत्य तथा बेईमानी से दूर रहता है। भावनाओं से पवित्र होता है। वह जानता है कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाना सदाचार की राह से भटकना है। सभी दार्शनिक तथा धर्म गुरुओं ने सदाचार की महिमा का प्रतिपादन किया है। सदाचारी व्यक्ति के सत्संग में सद्गुणों का विकास होता है। मार्ग से भटका हुआ व्यक्ति भी सद्मार्ग पर चलने लगता है। सफल एवं सार्थक जीवन के लिए सदाचारी होना आवश्यक है। उत्तम चरित्र का प्रभाव व्यापक एवं अचूक होता है। चरित्र का ह्रास होने से मानव को अनेक दुखों और कष्टों का सामना करना पड़ता है। समाज के लोग उसे हेय दृष्टि से देखते हैं। सदाचारी का तो केवल भौतिक शरीर ही नष्ट होता है। उसकी यश ज्योति संसार में बिखरी रहती है। सदाचार व्यक्तिगत, राष्ट्रीय तथा सामाजिक उन्नति का स्रोत है। सदाचारी व्यक्तियों के चरण चिह्नों पर युग चलता है।

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24. दीपावली

संकेत बिंदु – श्रम की सार्थकता, पावन स्मृति, बधाई एवं खुशियों का त्योहार
भारतीय त्योहारों में दीपावली का विशेष स्थान है। दीपावली शब्द का अर्थ है- दीपों की पंक्ति या माला। इस पर्व के दिन लोग रात को अपनी प्रसन्नता प्रकट करने के लिए दीपों की पंक्तियाँ जलाते हैं और प्रकाश करते हैं। नगर और गाँव दीप – पंक्तियों से जगमगाने लगते हैं।

रात दिन के रूप में बदल जाती है। इसी कारण इसका नाम दीपावली पड़ा। भगवान राम लंकापति रावण को मारकर तथा वनवास के चौदह वर्ष समाप्त कर अयोध्या लौटे तो अयोध्यावासियों ने उनके आगमन पर हर्षोल्लास प्रकट किया और उनके स्वागत में रात को दीपक जलाए। उस दिन की पावन स्मृति में यह दिन बड़े समारोह के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भगवान राम की स्मृति ताज़ी हो जाती है। दीपावली भारत का सबसे अधिक प्रसन्नता और मनोरंजन का द्योतक त्योहार है।

बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में खुशी की लहर दौड़ उठती है। आतिशबाज़ी और पटाखों की ध्वनि से सारा आकाश गूँज उठता है। इसके साथ ही खूब मिठाई उड़ती है। सभी राग-रंग में मस्त हो जाते हैं। दीवाली से कई दिन पूर्व तैयारी आरंभ हो जाती है। लोग शरद् ऋतु के आरंभ में ही घरों की लिपाई-पुताई करवाते हैं तथा कमरों को चित्रों से अलंकृत करते हैं। धन त्रयोदशी के दिन पुराने बर्तनों को लोग बेचते हैं और नए बर्तन खरीदते हैं। बर्तनों की दुकानें, बर्तनों से अनोखी ही शोभा देती हैं। चतुर्दशी को लोग घरों का कूड़ा- कर्कट बाहर निकालते हैं।

कार्तिक मास की अमावस्या को दीपमाला का दिन बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस दिन लोग अपने इष्ट- बंधुओं तथा मित्रों को बधाई देते हैं और नूतन वर्ष में सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। बालक-बालिकाएँ नव – वस्त्र धारण कर मिठाई बाँटते हैं। रात को आतिशबाजी चलाते हैं। बहुत से लोग रात को लक्ष्मी की पूजा करते हैं। कहीं दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाता है। दीपावली हमारा धार्मिक त्योहार है। इसे यथोचित रीति से मनाना चाहिए। इस दिन विद्वान लोग व्याख्यान देकर जन साधारण को शुभ मार्ग पर चला सकते हैं।

25. क्रिसमस

संकेत बिंदु – बाइबिल की कथा, नामकरण, महान पर्व के रूप में
विश्वभर में ईसा मसीह का जन्मदिन ‘क्रिसमस’ नाम से जाना जाता है। दीन-दुखियों के दर्द को समझने वाले इस महान संत ईसा मसीह का जन्म पच्चीस दिसंबर को मनाया जाता है। ‘बाइबिल’ के अनुसार नाज़रेथ नगर (फिलिस्तीन) के निवासियों में यूसुफ नामक व्यक्ति थे, जिनके साथ मरियम नामक कन्या की मँगनी (सगाई हुई थी। एक दिन मरियम को स्वर्ग दूत ने दर्शन देकर कहा, “आप पर प्रभु की कृपा है। आप गर्भवती होंगी, पुत्र रत्न को जन्म देंगी तथा नवजात शिशु का नाम ‘ईसा’ रखेंगी। वे महान होंगे और सर्वोच्च प्रभु के पुत्र कहलाएँगे।”)

ईसा के जन्म के समय आकाश में एक तारा उदित हुआ। तीन ज्योतिषयों ने उस तारे को देखा और देखते-देखते वे येरुसलम पहुँच गए। वे लोगों से पूछ रहे थे कि यहूदियों के नवजात राजा कहाँ हैं ? हम उन्हें प्रणाम करना चाहते हैं। वे खोजते खोजते बेथेलहेम के अस्तबल में पहुँचे। वहाँ

उन्होंने बालक तथा मरियम को प्रणाम किया। जन्म के ठीक आठवें दिन उस बालक का नाम जीसस रखा गया। वह दिव्य बालक था। ईसा मसीह के जीवन के अनेक वर्ष पर्यटन, एकांतवास एवं चिंतन-मनन में बीते। अनेक वर्षों की अथक साधना के बाद ईसा अपनी पवित्र आत्मा के साथ गलीलिया लौटे। उनका यश सुगंध की तरह सारे प्रदेश में फैल गया। वे सभागारों में शिक्षाप्रद एवं ज्ञानवर्धक उद्बोधन देने लगे। उन्होंने अनेक दुखियों, रोगियों एवं पीड़ितों का दुख दूर किया, अज्ञानियों को ज्ञान दिया और अंधों को दृष्टि दी। फलतः लोगों को पूरा विश्वास हो गया कि ईसा प्रभु के ही दूत हैं। ईसा ने अपने समय में व्याप्त अनाचारों एवं पापाचारों से समाज को त्राण दिलाया और गिरजाघरों को पवित्रता प्रदान कराई। ईसा के बढ़ते प्रभाव से तत्कालीन राजा हेरोद चिंतित हो उठे।

उन्होंने ईर्ष्यावश ईसा को बंदी बनाकर यहूदी महासभा में अपराधी के रूप में उपस्थित कराया। सभाध्यक्ष ईसा को निर्दोष मानकर उन्हें बंधनमुक्त करना चाहते थे। इस पर सभा के पुरोहितों और सदस्यों ने चिल्ला-चिल्लाकर कहा, ‘इसे क्रूस दीजिए, इसे क्रूस दीजिए।’ सभाध्यक्ष के सामने कोई विकल्प न था। उसने ईसा को सैनिकों के हवाले कर दिया। ईसा मसीह को क्रूस का दंड दिया गया – सिर पर काँटों का किरीट और हाथ-पाँव में कीलें। उनके अंगों से खून बहने लगा। ईसा को इस दशा में देखकर जनता रो रही थी। ईसा ने लोगों को सांत्वना दी। शुक्रवार को ईसा मसीह ने प्राण त्याग किया। विश्वभर में ईसाइयों का सबसे बड़ा त्योहार ‘क्रिसमस’ है। प्रभु ईसा के भूमंडल में अवतरित होने से उनके अनुयायियों को शांति मिली। ‘क्रिसमस’ एक महान पर्व है।

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26. वसंत ऋतु

संकेत बिंदु – हर्ष उल्लास, जीवन का संचार, वरदान का लाभ
भारत अनेक ऋतुओं का देश है। यहाँ गरमी – सरदी, बरसात – पतझड़, वसंत आदि छह ऋतुओं का आगमन होता रहता है। इनमें वसंत सबकी प्रिय ऋतु है जिसके आगमन पर सभी प्राणी प्रकृति सहित हर्ष और उल्लास से झूम उठते हैं। इसलिए वसंत को ऋतुराज कहा जाता है। इस समय ऋतु अत्यंत सुहावनी होती है। सरदी का अंत और गर्मी का आरंभ हो रहा होता है। सरदी से कोई ठिठुरता नहीं और गरमी किसी का बदन नहीं जाती। हर एक व्यक्ति बाहर घूमने-फिरने का इच्छुक होता है। यह इस मीठी ऋतु की विशेषता है।

सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों में नव-जीवन का संचार हो जाता है। वृक्ष नए-नए पत्तों से लद जाते हैं। फूलों का सौंदर्य तथा हरियाली की छटा मन को मुग्ध कर देती है। आमों के वृक्षों पर बौर आ जाता है तथा कोयल भी मीठी कू-कू करती है। खेतों में नई फ़सल पकने लग जाती है। सरसों के खेतों में पीले-पीले फूल वसंत के आगमन पर झूल – झूलकर हर्ष व्यक्त करते हैं आकाश में पक्षी किलकारियाँ भरते ऋतुराज का अभिनंदन करते हैं। वसंत पंचमी को ऋतुराज के स्वागत के लिए उत्सव होता है। इस दिन लोग नाच-गाकर, खेल – कूदकर तथा झूला झूलकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। घर-घर में वसंती हलवा, चावल और केसरिया खीर बनती है।

लोग पीले वस्त्र पहनते हैं तथा बच्चे पीले पतंग उड़ाते हैं। वसंत पंचमी के दिन धर्मवीर हकीकत राय को भी याद किया जाता है। हकीकत राय को आज के दिन अपना धर्म न छोड़ने के कारण मौत के घाट उतार दिया गया था। उस वीर बालक की याद में स्थान-स्थान पर मेले लगते हैं तथा उसको श्रद्धांजलियाँ अर्पित की जाती हैं। हमें इस ऋतु में अपना स्वास्थ्य बनाना चाहिए। प्रातः उठकर बाहर घूमने जाएँ, ठंडी-ठंडी वायु में घूमें और प्राकृतिक सौंदर्य का निरीक्षण करें। वसंत ऋतु एक ईश्वरीय वरदान है और हमें इस वरदान का पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए।

27. कोरोना वायरस : एक महामारी

संकेत बिंदु – कोरोना वायरस क्या है ?, कोरोना वायरस कैसे फैलता है ?, कोरोना वायरस के लक्षण क्या हैं?, कोरोना वायरस का क्या इलाज है ?
“कोरोना” का अर्थ ‘मुकुट जैसी आकृति’ होती है। इस अदृश्य वायरस को सूक्षदर्शी यंत्र से ही देखा जा सकता है। इसके वायरस के कणों के इर्द-गिर्द उभरे हुए काँटे जैसे ढाँचों से सूक्ष्मदर्शी में मुकुट जैसा आकार दिखाई देता है, इसी आधार पर इसका नाम रखा गया था। दूसरे अर्थ को समझने के लिए सूर्य ग्रहण के समय चंद्रमा सूर्य को ढक लेता है तो चंद्रमा के चारों और किरणें निकलती प्रतीत होती हैं उसको भी ‘कोरोना’ कहते हैं।

कोरोना वायरस का प्रकोप चीन के वुहान में दिसंबर 2019 के मध्य में शुरू हुआ था और इसी कारण से इसका कोविड – 19 नामकरण किया गया। इसके प्रसार होते ही से ज़्यादातर मौतें चीन में हुई हैं लेकिन दुनिया भर में इससे कई लाख लोग प्रभावित होकर जान गँवा चुके हैं। चीन ने इस वायरस से बचने के लिए इमरजेंसी कदम उठाया जिसमें कई शहरों को लोकडाउन कर दिया गया था।

इसकी रोकथाम के लिए सार्वजनिक परिवहन को रोक दिया गया था और सार्वजनिक जगहों और पर्यटन स्थलों को बंद कर दिया गया था। केवल चीन ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देश वायरस से बचने के लिए लोकडाउन लगाने जैसे कदम उठाए थे। कोरोना वायरस मुख्य तौर पर जानवरों के बीच फैलता है लेकिन बाद में इसने मानवों को भी संक्रमित कर दिया। कोरोना वायरस के जो लक्षण हैं, उनमें 90 फीसदी मामलों में बुखार, 80 फीसदी मामलों में थकान और सूखी खाँसी, 20 फीसदी मामलों में साँस लेने में परेशानी देखी गई है। दोनों फेफड़ों में इससे परेशानी देखी गई। इसके अलावा बड़ी संख्या में लोगों को निमोनिया की भी शिकायत हुई है।

इस बात को माना जा रहा है कि इस वायरस की शुरुआत वुहान शहर के सीफूड बाज़ार में हुई थी। जिन लोगों में शुरुआत में यह पाया गया, वे लोग उस थोक बाजार में काम करते थे। इसके फैलने का जरिया अभी पूरी तरह साफ़ नहीं है। लेकिन इसके एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में फैलने के प्रमाण हैं। इसके साथ ऐसा माना जा रहा है कि इससे प्रभावित एक व्यक्ति कम से कम तीन से चार स्वस्थ लोगों तक वायरस को फैला सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की टीम चीन में इसकी उत्पत्ति को जाँच कर रही है।

वर्तमान में कोरोना वायरस से बचने के लिए अनेक वैक्सीन मौजूद हैं। विश्व के कई देशों में टीकाकरण अभियान शुरू हो चुका है। आप इससे बचने के लिए टीकाकरण करवा सकते हैं। टीकाकरण के दौरान भी अभी आप अपने हाथों को साबुन और पानी के साथ कम से कम 20 सेकेंड तक धोएँ। दो गज की सामाजिक दूरी बनाए रखें बिना धुले हुए हाथों से अपनी आँखों, नाक या मुँह को न स्पर्श करें। जो लोग बीमार हैं, उनके ज़्यादा नजदीक न जाएँ, फेस मास्क लगाना न भूलें। टीकाकरण के लिए आप अपनी बारी का इंतजार कर लाभ उठा सकते हैं।

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28. कमरतोड़ महँगाई

संकेत बिंदु – महँगाई के मुख्य कारण, भारत में महँगाई, महँगाई की रोकथाम के उपाय।
आमतौर पर महँगाई का प्रमुख कारण उपभोक्ता वस्तुओं का अभाव तथा मुद्रास्फीति की दर है। जीवन के लिए आवश्यक दैनिक वस्तुओं की कमी कई बातों पर निर्भर करती है। इनमें, जैसे- अधिक वर्षा, हिमपात, अल्पवर्षा, अकाल, तूफान, फसलों की रोगग्रस्तता, प्रतिकूल मौसम, ओले, अनावृष्टि आदि। इसके अलावा स्वार्थी मानव द्वारा की गई गलत हरकतों द्वारा भी दैनिक उपयोगी वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा किया जाता है और फिर उन वस्तुओं को अधिक कीमत वसूल करके बेचा जाता है। इस प्रकार के अनर्गल काम आमतौर पर थोक व्यापारियों द्वारा किए जाते हैं। वे किसी वस्तु विशेष की जमाखोरी करके आकस्मिक अभाव पैदा करते हैं और फिर उस वस्तु को जरूरतमंद के हाथों बेचकर मनमाने दाम वसूल करते हैं।

यही कारण है कि भारत में महँगाई बढ़ जाती है और फिर अचानक घट जाती है। प्राइवेट सेक्टर के उत्पादनों की कीमतों पर प्रतिबंध लगाने तथा लाभ की सीमा तय करने में सरकार असमर्थ है। देश में भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है जिसका कारण जमाखोर तथा मुनाफाखोर हैं। वेतन में हुई भारी वृद्धि का लाभ उठाकर उत्पादकों ने सभी प्रकार के उत्पादों की कीमतें काफी बढ़ा दीं। महँगाई भारत में हीं नहीं वरन पूरे विश्व में गंभीर समस्या के रूप मे सामने आई है। समय के साथ महँगाई और भ्रष्टाचार के कारण हमारे देश की हालत कुछ ऐसी हो गई है कि अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब गरीबी।

उपभोक्ता और सरकार के बीच अच्छे तालमेल से महँगाई पर काबू पाया जा सकता है। महँगाई बढते ही सरकार देश मे ब्याज दर बढ़ा देती है। सरकार द्वारा तय की हुई राशि का आम आदमी तक पहुँचना बेहद जरूरी है। इससे गरीबी में भी गिरावट आएगी और लोगों के जीने के स्तर में भी सुधार आएगा। समय – समय पर यह जाँच करना ज़रूरी है कि कोई व्यापारी या फिर कोई अन्य व्यक्ति कालाबाज़ारी या अधिक मुनाफाखोरी के काम में तल्लीन तो नहीं है। सरकार द्वारा सर्वेक्षण करना ज़रूरी है कि बाज़ार मे किसी वस्तु का दाम कितना है, यह तय मानक दरों से अधिक तो नहीं है। मूल सुविधाओं और अन्न के दाम समय-समय पर देखने होगे क्योंकि मनुष्य के जीवन के लिए अन्न बेहद ज़रूरी है।

29. परिश्रम सफलता की कुंजी है

संकेत बिंदु – परिश्रम का महत्व, समयानुसार बुद्धि का सदुपयोग, परिश्रम और बुद्धि का तालमेल।
संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्ति है – ‘उद्यमेन हि सिद्धयंति कार्याणि न मनोरथैः’ अर्थात परिश्रम से ही कार्य की सिद्धि होती है, मात्र इच्छा करने से नहीं। सफलता प्राप्त करने के लिए परिश्रम ही एकमात्र मंत्र है। ‘श्रमेव जयते’ का सूत्र इसी भाव की ओर संकेत करता है। परिश्रम के बिना हरी- भरी खेती सूखकर झाड़ बन जाती है जबकि परिश्रम से बंजर भूमि को भी शस्य – श्यामला बनाया जा सकता है। असाध्य कार्य भी परिश्रम के बल पर संपन्न किए जा सकते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति कितने ही प्रतिभाशाली हों, किंतु उन्हें लक्ष्य में सफलता तभी मिलती है जब वे अपनी बुद्धि और प्रतिभा को परिश्रम की सान पर तेज़ करते हैं। न जाने कितनी संभावनाओं के बीज पानी, मिट्टी, सिंचाई और जुताई के अभाव में मिट्टी बन जाते हैं, जबकि ठीक संपोषण प्राप्त करके कई बीज सोना भी बन जाते हैं।

कई बार प्रतिभा के अभाव में परिश्रम ही अपना रंग दिखलाता है। प्रसिद्ध उक्ति है कि निरंतर घिसाव से पत्थर पर भी चिह्न पड़ जाते हैं। जड़मति व्यक्ति परिश्रम द्वारा ज्ञान उपलब्ध कर लेता है। जहाँ परिश्रम तथा प्रतिभा दोनों एकत्र हो जाते हैं वहाँ किसी अद्भुत कृति का सृजन होता है। शेक्सपीयर ने महानता को दो श्रेणियों में विभक्त किया है- जन्मजात महानता तथा अर्जित महानता। यह अर्जित महानता परिश्रम के बल पर ही अर्जित की जाती है। अतः जिन्हें ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त नहीं है, उन्हें अपने श्रम-बल का भरोसा रखकर कर्म में जुटना चाहिए। सफलता अवश्य ही उनकी चेरी बनकर उपस्थित होगी।

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30. पशु न बोलने से और मनुष्य बोलने से कष्ट उठाता है

संकेत बिंदु – वाणी की शक्ति, दोषपूर्ण वाचालता, व्यर्थ बोलने का दुष्परिणाम।
मनुष्य को ईश्वर की ओर से अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें वाणी अथवा वाक् शक्ति का गुण सबसे महत्वपूर्ण है। जो व्यक्ति वाणी का सदुपयोग करता है, उसके लिए तो यह वरदान है और जिसकी जीभ कतरनी के समान निरंतर चलती रहती है, उसके लिए वाणी का गुण अभिशाप भी बन जाता है। भाव यह है कि वाचालता दोष है। पशु के पास वाणी की शक्ति नहीं, इसी कारण जीवन भर उसे दूसरों के अधीन रहकर कष्ट उठाना पड़ता है। वह सुख-दुख का अनुभव तो करता है पर उसे व्यक्त नहीं कर सकता। उसके पास वाणी का गुण होता तो उसकी दशा कभी दयनीय न बनती। कभी-कभी पशु का सद्व्यवहार भी मनुष्य को भ्राँति में डाल देता है।

अनेक कहानियाँ ऐसी हैं जिनके अध्ययन से पता चलता है कि पशुओं ने मनुष्य जाति के लिए अनेक बार अपने बलिदान और त्याग का परिचय दिया है पर वाक् शक्ति के अभाव के कारण उसे मनुष्य के द्वारा निर्मम मृत्यु का भी सामना करना पड़ा है। इसके विपरीत मनुष्य अपनी वाणी के दुरुपयोग के कारण अनेक बार कष्ट उठाता है। रहीम ने अपने दोहे में व्यक्त किया है कि जीभ तो अपनी मनचाही बात कहकर मुँह में छिप जाती है पर जूतियों का सामना करना पड़ता है बेचारे सिर को।

अभिप्राय यह है कि मनुष्य को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए। इस संसार में बहुत-से झगड़ों का कारण वाणी का दुरुपयोग है। एक नेता के मुख से निकली हुई बात सारे देश को युद्ध की ज्वाला में झोंक सकती है। अतः यह ठीक ही कहा गया है कि पशु न बोलने से कष्ट उठाता है और मनुष्य बोलने से। कोई भी बात कहने से पहले उसके परिणाम पर विचार कर लेना चाहिए।

31. कारज धीरे होत हैं, काहे होत अधीर

संकेत बिंदु – धैर्य और इच्छा, शांत मन की उपयोगिता, प्रतीक्षा और उचित फल की प्राप्ति।
जिसके पास धैर्य है, वह जो इच्छा करता है, प्राप्त कर लेता है। प्रकृति हमें धीरज धारण करने की सीख देती है। धैर्य जीवन की लक्ष्य प्राप्ति का द्वार खोलता है। जो लोग ‘जल्दी करो, जल्दी करो’ की रट लगाते हैं, वे वास्तव में ‘अधीर मन, गति कम’ लोकोक्ति को चरितार्थ करते हैं। सफलता और सम्मान उन्हीं को प्राप्त होता है, जो धैर्यपूर्वक काम में लगे रहते हैं। शांत मन से किसी कार्य को करने में निश्चित रूप से कम समय लगता है। बचपन के बाद जवानी धीरे-धीरे आती है। संसार के सभी कार्य धीरे-धीरे संपन्न होते हैं। यदि कोई रोगी डॉक्टर से दवाई लेने के तुरंत पश्चात पूर्णतया स्वस्थ होने की कामना करता है, तो यह उसकी नितांत मूर्खता है। वृक्ष को कितना भी पानी दो, परंतु फल प्राप्ति तो समय पर ही होगी। संसार के सभी महत्वपूर्ण विकास कार्य धीरे-धीरे अपने समय पर ही होते हैं। अतः हमें अधीर होने की बजाय धैर्यपूर्वक अपने कार्य में संलग्न होना चाहिए।

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32. दूर के ढोल सुहावने होते हैं

संकेत बिंदु – दूर के रिश्ते-नाते, दूर से प्राकृतिक सुंदरता, निकट से रिश्तों की कटुता।
इस उक्ति का अर्थ है कि दूर के रिश्ते-नाते बड़े अच्छे लगते हैं। जो संबंधी एवं मित्रगण हमसे दूर रहते हैं, वे पत्रों के द्वारा हमारे प्रति कितना अगाध स्नेह प्रकट करते हैं। उनके पत्रों से पता चलता है कि वे हमारे पहुँचने पर हमारा अत्यधिक स्वागत करेंगे। हमारी देखभाल तथा हमारे आदर-सत्कार में कुछ कसर न उठा रखेंगे। लेकिन जब उनके पास पहुँचते हैं तो उनका दूसरा ही रूप सामने आने लगता है। उनके व्यवहार में यह चरितार्थ हो जाता है कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। दूर बजने वाले ढोल की आवाज़ भी तो कानों को मधुर लगती है। पर निकट पहुँचते ही उसकी ध्वनि कानों को कटु लगने लगती है। दूर से झाड़-झंखाड़ भी सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है पर निकट जाने पर पाँवों के छलनी हो जाने का डर उत्पन्न हो जाता है। ठीक ही कहा है – दूर के ढोल सुहावने होते हैं।

33. लोभ पाप का मूल है

संकेत बिंदु – लोभ, कारण, अपराधों का जन्मदाता, अनैतिकता का कारण, इच्छाओं पर नियंत्रण न होना।
संस्कृत के किसी नीतिकार का कथन है कि लोभ पाप का मूल है। मन का लोभ ही मनुष्य को चोरी के लिए प्रेरित करता है। लोभ अनेक अपराधों को जन्म देता है। लोभ अत्याचार, अनाचार और अनैतिकता का कारण बनता है। महमूद गज़नवी जैसे शासकों ने धन के लोभ में आकर मनमाने अत्याचार किए। औरंगज़ेब ने अपने तीनों भाइयों का वध कर दिया और पिता को बंदी बना लिया। जर, जोरू तथा ज़मीन के झगड़े भी प्राय: लोभ के कारण होते हैं।

लोभी व्यक्ति का हृदय सब प्रकार की बुराइयों का अड्डा होता है। महात्मा बुद्ध ने कहा है कि इच्छाओं का लोभ ही चिंताओं का मूल कारण है। लालची व्यक्ति बहुत कुछ अपने पास रखकर भी कभी संतुष्ट नहीं होता। उसकी दशा तो उस मूर्ख लालची के समान हो जाती है जो मुर्गी का पेट फाड़कर सारे अंडे निकाल लेना चाहता है। लोभी व्यक्ति अंत में पछताता है। लोभी किसी पर उपकार नहीं कर सकता। वह तो सबका अपकार ही करता है। इसलिए अगर कोई पाप से बचना चाहता है तो वह लोभ से बचे।

34. पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं

संकेत बिंदु – पराधीनता का दुख और अभिशाप, पीड़ा और कुंठा।
‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं’ उक्ति का अर्थ है कि पराधीन व्यक्ति सपने में भी सुख का अनुभव नहीं कर सकता। पराधीन और परावलंबी के लिए सुख बना ही नहीं। पराधीनता एक प्रकार का अभिशाप है। मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक पराधीनता की अवस्था में छटपटाने लगते हैं। पराधीन हमेशा शोषण की चक्की में पिसता रहता है। उसका स्वामी उसके प्रति जैसा भी चाहें अच्छा-बुरा व्यवहार कर सकता है। पराधीन व्यक्ति अथवा जाति अपने आत्म-सम्मान को सुरक्षित नहीं रख सकते। किसी भी व्यक्ति, जाति अथवा देश की पराधीनता की कहानी दुख एवं पीड़ा की कहानी है। स्वतंत्र व्यक्ति दरिद्रता एवं अभाव में भी जिस सुख का अनुभव कर सकता है, पराधीन व्यक्ति उस सुख की कल्पना भी नहीं कर सकता। अतः ठीक ही कहा गया है – ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।’

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35. पर उपदेश कुशल बहुतेरे

संकेत बिंदु – पर उपदेश का प्रभाव, भ्रष्टाचार और बेईमान लोगों की करनी कथनी में अंतर, अनुशासन की आवश्यकता।
दूसरों को उपदेश देना अर्थात सब प्रकार से आदर्शों का पालन करने की प्रेरणा देना सरल है। जैसे कहना सरल तथा करना कठिन है, उसी प्रकार स्वयं अच्छे पथ पर चलने की अपेक्षा दूसरों को अच्छे काम करने का संदेश देना सरल है। जो व्यक्ति दूसरों को उपदेश देता है, वह स्वयं भी उन उपदेशों का पालन कर रहा है, यह ज़रूरी नहीं। हर व्यापारी, अधिकारी तथा नेता अपने नौकरों, कर्मचारियों तथा जनता को ईमानदारी, सच्चाई तथा कर्मठता का उपदेश देता है जबकि वह स्वयं भ्रष्टाचार के पथ पर बढ़ता रहता है। नेता मंच पर आकर कितनी सारगर्भित बातें कहते हैं, पर उनका आचरण हमेशा उनकी बातों के विपरीत होता है। माता-पिता तथा गुरुजन बच्चों को नियंत्रण में रहने का उपदेश देते हैं – पर वे यह भूल जाते हैं कि उनका अपना जीवन ही अनुशासनबद्ध एवं नियंत्रित नहीं है। इसीलिए जो उपदेश हम दूसरों को देते हैं, हमें पहले स्वयं उन्हें जीवन में लाना चाहिए।

36. जैसा करोगे, वैसा भरोगे

संकेत बिंदु – कर्मों का फल, कुकर्मों का बुरा फल, मानवता की सच्ची पहचान, शुभ कर्मों का महत्व।
उपर्युक्त उक्ति का अर्थ है कि मनुष्य अपने जीवन में जैसा कर्म करता है, उसी के अनुरूप ही उसे फल मिलता है। मनुष्य जैसा बोता है, वैसा ही काटता है। सुकर्मों का फल अच्छा तथा कुकर्मों का फल बुरा होता है। दूसरों को पीड़ित करने वाला व्यक्ति एक दिन स्वयं पीड़ा के सागर में डूब जाता है। जो दूसरों का भला करता है, ईश्वर उसका भला करता है। कहा भी है, ‘कर भला हो भला’। पुण्य से परिपूर्ण कर्म कभी भी व्यर्थ नहीं जाते। जो दूसरों का शोषण करता है, वह कभी सुख की नींद नहीं सो सकता। ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ वाली बात प्रसिद्ध है। मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्मों में रुचि लेनी चाहिए। दूसरों का हित करना तथा उन्हें संकट से मुक्त करने का प्रयास मानवता की पहचान है। मानवता के पथ पर बढ़ने वाला व्यक्ति मानव तथा दानवता के पथ पर बढ़ने वाला व्यक्ति दानव कहलाता है। मानवता की पहचान मनुष्य के शुभ कर्म हैं।

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37. समय का महत्व
अथवा
समय सबसे बड़ा धन है।

संकेत बिंदु – जीवन की क्षणिकता, समय का महत्व, मनोरंजन और समय का मूल्य, परिश्रम ही प्रगति की राह, उपसंहार। दार्शनिकों ने जीवन को क्षणभंगुर कहा है। इनकी तुलना प्रभात के तारे और पानी के बुलबुले से की गई है। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हम अपने जीवन को सफल कैसे बनाएँ। इसका एकमात्र उपाय समय का सदुपयोग है। समय एक अमूल्य वस्तु है। इसे काटने की वृत्ति जीवन को काट देती है। खोया समय पुनः नहीं मिलता। दुनिया में कोई भी शक्ति नहीं जो बीते हुए समय को वापस लाए। हमारे जीवन की सफलता-असफलता समय के सदुपयोग तथा दुरुपयोग पर निर्भर करती है। कहा भी है- क्षण को क्षुद्र न समझो भाई, यह जग का निर्माता है।

हमारे देश में अधिकांश लोग समय का मूल्य नहीं समझते। देर से उठना, व्यर्थ की बातचीत करना, ताश खेलना आदि के द्वारा समय नष्ट करते हैं। यदि हम चाहते हैं तो हमें पहले अपना काम पूरा करना चाहिए। बहुत-से लोग समय को नष्ट करने में आनंद का अनुभव करते हैं। मनोरंजन के नाम पर समय नष्ट करना बहुत बड़ी भूल है। समय का सदुपयोग करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने दैनिक कार्य को करने का समय निश्चित कर लें।

फिर उस कार्य को उसी समय में करने का प्रयत्न करें। इस तरह का अभ्यास होने से हम समय का मूल्य समझ जाएँगे और देखेंगे कि हमारा जीवन निरंतर प्रगति की ओर बढ़ता जा रहा है। समय के सदुपयोग से ही जीवन का पथ सरल हो जाता है। महान व्यक्तियों के महान बनने का रहस्य समय का सदुपयोग ही है। समय के सदुपयोग के द्वारा ही मनुष्य अमर कीर्ति का पात्र बन सकता है। समय का सदुपयोग ही जीवन का सदुपयोग है। इसी में जीवन की सार्थकता है –

“कल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करोगे कब॥”

38. स्त्री शिक्षा का महत्व

संकेत बिंदु – शिक्षा का महत्व, नारी का घर और समाज में स्थान, सामाजिक कर्तव्य, गृह विज्ञान की शिक्षा।
विद्या हमारी भी न तब तक काम में कुछ आएगी।
नारियों को भी सुशिक्षा दी न जब तक जाएगी।

आज शिक्षा मानव-जीवन का एक अंग बन गई है। शिक्षा के बिना मनुष्य ज्ञान – पंगु कहलाता है। पुरुष के साथ – साथ नारी को भी शिक्षा की आवश्यकता है। नारी शिक्षित होकर ही बच्चों को शिक्षा प्रदान कर सकती है। बच्चों पर पुरुष की अपेक्षा नारी के व्यक्तित्व का प्रभाव अधिक पड़ता है। अतः उसका शिक्षित होना ज़रूरी है। ‘स्त्री का रूप क्या हो ?’ – यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि नारी और पुरुष के क्षेत्र अलग-अलग हैं। पुरुष को अपना अधिकांश जीवन बाहर के क्षेत्र में बिताना पड़ता है जबकि नारी को घर और बाहर में समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता होती है।

सामाजिक कर्तव्य के साथ-साथ उसे घर के प्रति भी अपनी भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। अतः नारी को गृह विज्ञान की शिक्षा में संपन्न होना चाहिए। अध्ययन के क्षेत्र में भी वह सफल भूमिका का निर्वाह कर सकती है। शिक्षा के साथ-साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी उसे योगदान देना चाहिए। सुशिक्षित माताएँ ही देश को अधिक योग्य, स्वस्थ और आदर्श नागरिक दे सकती हैं। स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार होना चाहिए। नारी को फ़ैशन से दूर रह कर सादगी के जीवन का समर्थन करना चाहिए। उसकी शिक्षा समाजोपयोगी होनी चाहिए।

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39. स्वास्थ्य ही जीवन है

संकेत बिंदु – स्वास्थ्य का महत्व, अस्वस्थ व्यक्ति की मानसिकता, अक्षमता, नशीले पदार्थों की अनुपयोगिता, पौष्टिक और सात्विक भोजन की आवश्यकता, भ्रमण की उपयोगिता।
जीवन का पूर्ण आनंद वही ले सकता है जो स्वस्थ है। स्वास्थ्य के अभाव में सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ व्यर्थ प्रमाणित होती हैं। तभी तो कहा है – ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात शरीर ही सब धर्मों का मुख्य साधन है। स्वास्थ्य जीवन है और अस्वस्थता मृत्यु है। अस्वस्थ व्यक्ति का किसी भी काम में मन नहीं लगता। बढ़िया से बढ़िया खाद्य पदार्थ उसे विष के समान लगता है। वस्तुतः उसमें काम करने की क्षमता ही नहीं होती।

अतः प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह अपने स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहे। स्वास्थ्य-रक्षा के लिए नियमितता तथा संयम की सबसे अधिक ज़रूरत है। समय पर भोजन, समय पर सोना और जागना अच्छे स्वास्थ्य के लक्षण हैं। शरीर की सफ़ाई की तरफ़ भी पूरा ध्यान देने की ज़रूरत है। सफ़ाई के अभाव से तथा असमय खाने-पीने से स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। क्रोध, भय आदि भी स्वास्थ्य को हानि पहुँचाते हैं। नशीले पदार्थों का सेवन तो शरीर के लिए घातक साबित होता है। स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए पौष्टिक एवं सात्विक भोजन भी ज़रूरी है।

स्वास्थ्य रक्षा के लिए व्यायाम का भी सबसे अधिक महत्व है। व्यायाम से बढ़कर न कोई औषधि है और न कोई टॉनिक। व्यायाम से शरीर में स्फूर्ति आती है, शक्ति, उत्साह एवं उल्लास का संचार होता है। शरीर की आवश्यकतानुसार विविध आसनों का प्रयोग भी बड़ा लाभकारी होता है। खेल भी स्वास्थ्य लाभ का अच्छा साधन है। इनसे मनोरंजन भी होता है और शरीर भी पुष्ट तथा चुस्त बनता है। प्रायः भ्रमण का भी विशेष लाभ है। इससे शरीर का आलस्य भागता है, काम में तत्परता बढ़ती है। जल्दी थकान का अनुभव नहीं होता।

40. मधुर वाणी

संकेत बिंदु – श्रेष्ठ वाणी की उपयोगिता, कटुता और कर्कश वाणी, चरित्र की स्पष्टता, विनम्रता और मधुरवाणी।
वाणी ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ अलंकार है। वाणी के द्वारा ही मनुष्य अपने विचारों का आदान-प्रदान दूसरे व्यक्तियों से करता है। वाणी का मनुष्य के जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। सुमधुर वाणी के प्रयोग से लोगों के साथ आत्मीय संबंध बन जाते हैं, जो व्यक्ति कर्कश वाणी का प्रयोग करते हैं, उनसे लोगों में कटुता की भावना व्याप्त हो जाती है। जो लोग अपनी वाणी का मधुरता से प्रयोग करते हैं, उनकी सभी लोग प्रशंसा करते हैं। सभी लोग उनसे संबंध बनाने के इच्छुक रहते हैं। वाणी मनुष्य के चरित्र को भी स्पष्ट करने में सहायक होती है।

जो व्यक्ति विनम्र और मधुर वाणी से लोगों के साथ व्यवहार करते हैं, उसके बारे में लोग यही समझते हैं कि इनमें सद्भावना विद्यमान है। मधुर वाणी मित्रों की संख्या में वृद्धि करती है। कोमल और मधुर वाणी से शत्रु के मन पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। वह भी अपनी द्वेष और ईर्ष्या की भावना को विस्तृत करके मधुर संबंध बनाने का इच्छुक हो जाता है। यदि कोई अच्छी बात भी कठोर और कर्कश वाणी में कही जाए तो लोगों पर उसकी प्रतिक्रिया विपरीत होती है। लोग यही समझते हैं कि यह व्यक्ति अहंकारी है। इसलिए वाणी मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ अलंकार है तथा उसे उसका सदुपयोग करना चाहिए।

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41. नारी शक्ति

संकेत बिंदु – नारी का स्वरूप, प्राचीन ग्रंथों में नारी, नारी के बिना नर नारी की सक्षमता।
नारी त्याग, तपस्या, दया, ममता, प्रेम एवं बलिदान की साक्षात मूर्ति है। नारी तो नर की जन्मदात्री है। वह भगिनी भी और पत्नी भी है। वह सभी रूपों में सुकुमार, सुंदर और कोमल दिखाई देती है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी नारी को पूज्य माना गया है। कहा गया है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं। उसके हृदय में सदैव स्नेह की धारा प्रवाहित होती रहती है। नर की रुक्षता, कठोरता एवं उद्दंडता को नियंत्रित करने में भी नारी की महत्वपूर्ण भूमिका है। वह धात्री, जन्मदात्री और दुखहर्त्री है। नारी के बिना नर अपूर्ण है।

नारी को नर से बढ़कर कहने में किसी भी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं है। नारी प्राचीन काल से आधुनिक काल तक अपनी महत्ता एवं श्रेष्ठता प्रतिपादित करती आई है। नारियाँ, ज्ञान, कर्म एवं भाव सभी क्षेत्रों में अग्रणी रही हैं। यहाँ तक कि पुरुष वर्ग के लिए आरक्षित कहे जाने वाले कार्यों में भी उसने अपना प्रभुत्व स्थापित किया है। चाहे एवरेस्ट की चोटी ही क्यों न हो, वहाँ भी नारी के चरण जा पहुँचे हैं। अंटार्कटिका पर भी नारी जा पहुँची है। प्रशासनिक क्षमता का प्रदर्शन वह अनेक क्षेत्रों में सफलतापूर्वक कर चुकी है। आधुनिक काल की प्रमुख नारियों में श्रीमती इंदिरा गांधी, विजयलक्ष्मी पंडित, सरोजिनी नायडू, बछेंद्री पाल, सानिया मिर्ज़ा आदि का नाम गर्व के साथ लिया जा सकता है।

42. चाँदनी रात में नौका विहार

संकेत बिंदु – ग्रीष्म ऋतु में यमुना नदी में विहार, रात्रिकालीन प्राकृतिक सुषमा, उन्माद भरा वातावरण।
ग्रीष्मावकाश में हमें पूर्णिमा के अवसर पर यमुना नदी में नौका विहार का अवसर प्राप्त हुआ। चंद्रमा की चाँदनी से आकाश शांत, तर एवं उज्ज्वल प्रतीत हो रहा था। आकाश में चमकते तारे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो वे आकाश के नेत्र हैं जो अपलक चाँदनी में डूबे पृथ्वी के सौंदर्य को देख रहे हैं। तारों से जड़े आकाश की शोभा यमुना के जल में द्विगुणित हो गई थी। इस रात – रजनी के शुभ प्रकाश में हमारी नौका धीरे-धीरे चलती हुई ऐसी लग रही थी मानो कोई सुंदर परी धीरे-धीरे चल रही हो। जब नौका नदी के मध्य में पहुँची तो चाँदनी में चमकता हुआ पुलिन आँखों से ओझल हो गया तथा यमुना के किनारे खड़े हुए वृक्षों की पंक्ति भृकुटि सी वक्र लगने लगी।

नौका के चलने से जल में उत्पन्न लहरों के कारण उसमें चंद्रमा एवं तारकवृंद ऐसे झिलमिला रहे थे मानो तरंगों की लताओं में फूल खिले हों। रजत सर्पों-सी सीधी-तिरछी नाचती हुई चाँदनी की किरणों की छाया चंचल लहरों में ऐसी प्रतीत होती थी मानो जल में आड़ी-तिरछी रजत रेखाएँ खींच दी गई हों। नौका के चलते रहने से आकाश के ओर-छोर भी हिलते हुए लगते थे। जल में तारों की छाया ऐसी प्रतिबिंबित हो रही थी मानो जल में दीपोत्सव हो रहा हो। ऐसे में हमारे एक मित्र ने मधुर राग छेड़ दिया, जिससे वातावरण और भी अधिक उन्मादित हो गया। धीरे-धीरे हम नौका को किनारे की ओर ले आए। डंडों से नौका को खेने पर जो फेन उत्पन्न हो रही थी वह भी चाँदनी के प्रभाव से मोतियों के ढेर – सी प्रतीत हो रही थी। समस्त दृश्य अत्यंत दिव्य एवं अलौकिक ही लग रहा था।

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43. राष्ट्रीय एकता

संकेत बिंदु – क्षेत्रीयता के प्रति मोह, देश की एकता के लिए घातक, राष्ट्रीय भावना का महत्व, भाषाई एकता, अनेकता में एकता।
आज देश के विभिन्न राज्य क्षेत्रीयता के मोह में ग्रस्त हैं। सर्वत्र एक-दूसरे से बिछुड़ कर अलग होने तथा अपना-अपना मनोराज्य स्थापित करने की होड़ लगी हुई है। यह स्थिति देश की एकता के लिए अत्यंत घातक है क्योंकि राष्ट्रीय एकता के अभाव में देश का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। राष्ट्र से तात्पर्य किसी भौगोलिक भू-खंड मात्र अथवा उस भू-खंड में सामूहिक रूप से रहने वाले व्यक्तियों से न होकर उस भू-खंड में रहने वाली संवेदनशील जनता से होता है। अतः राष्ट्रीय एकता वह भावना है, जो किसी एक राष्ट्र के समस्त नागरिकों को एकता के सूत्र में बाँधे रखती है। राष्ट्र के प्रति ममत्व की भावना से ही राष्ट्रीय एकता की भावना का जन्म होता है।

भारत प्राकृतिक, भाषायी, रहन-सहन आदि की दृष्टि से अनेक रूप वाला होते हुए भी राष्ट्रीय स्वरूप में एक है। पर्वतराज हिमालय एवं सागर इसकी प्राकृतिक सीमाएँ हैं, समस्त भारतीय धर्म एवं संप्रदाय आवागमन में आस्था रखते हैं। भाषाई भेदभाव होते हुए भी भारतवासियों की भावधारा एक है। यहाँ की संस्कृति की पहचान दूर से ही हो जाती है। भारत की एकता का सर्वप्रमुख प्रमाण यहाँ एक संविधान का होना है। भारतीय संसद की सदस्यता धर्म, संप्रदाय, जाति, क्षेत्र आदि के भेदभाव से मुक्त हैं। इस प्रकार अनेकता में एकता के कारण भारत की राष्ट्रीय एकता सदा सुदृढ़ है।

44. बारूद के ढेर पर दुनिया

संकेत बिंदु – नए-नए वैज्ञानिक आविष्कार, अस्त्र-शस्त्रों की भरमार, रासायनिक पदार्थों की अधिकता, रसायनों से जीवन को ख़तरे।
आधुनिक युग विज्ञान का युग है। मनुष्य ने अपने भौतिक सुखों की वृद्धि के लिए इतने अधिक वैज्ञानिक उपकरणों का आविष्कार कर लिया है कि एक दिन वे सभी उपकरण मानव सभ्यता के विनाश का कारण भी बन सकते हैं। एक- दूसरे देश को नीचा दिखाने के लिए अस्त्र-शस्त्रों, परमाणु मों, रासायनिक बमों के निर्माण ने जहाँ परस्पर प्रतिद्वंद्विता पैदा की है वहीं इनका प्रयोग केवल प्रतिपक्षी दल को ही नष्ट नहीं करता अपितु प्रयोग करने वाले देश पर भी इनका प्रभाव पड़ता है। नए-नए कारखानों की स्थापना से वातावरण प्रदूषित होता जा रहा है।

भोपाल गैस दुर्घटना के भीषण परिणाम हम अभी भी सहन कर रहे हैं। देश में एक कोने से दूसरे कोने तक ज़मीन के अंदर पेट्रोल तथा गैस की नालियाँ बिछाईं जा रही हैं, जिनमें आग लगने से सारा देश जलकर राख हो सकता है। घर में गैस के चूल्हों से अक्सर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। पनडुब्बियों के जाल ने सागर तल को भी सुरक्षित नहीं रहने दिया है। धरती का हृदय चीर कर मेट्रो – रेल बनाई गई है। इसमें विस्फोट होने से अनेक नगर ध्वस्त हो सकते हैं। इस प्रकार आज की मानवता बारूद के एक ढेर पर बैठी है, जिसमें छोटी-सी चिंगारी लगने मात्र से भयंकर विस्फोट हो सकता है।

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45. जिस दिन समाचार-पत्र नहीं आता

संकेत बिंदु – समाचार पत्र का महत्व, विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ, अच्छे-बुरे समाचार।
समाचार पत्र का हमारे आधुनिक जीवन में बहुत महत्व है। देश-विदेश के क्रियाकलापों का परिचय हमें समाचार पत्र से ही प्राप्त होता है। कुछ लोग तो प्रायः अपना बिस्तर ही तभी छोड़ते हैं जब उन्हें चाय का कप और समाचार-पत्र प्राप्त हो जाता है। जिस दिन समाचार – पत्र नहीं आता उस दिन इस प्रकार के व्यक्तियों को यह प्रतीत होता है कि मानो दिन निकला ही न हो। कुछ लोग अपने घर के छज्जे आदि पर चढ़कर देखने लगते हैं कि कहीं समाचार-पत्र वाले ने समाचार-पत्र इतनी जोर से तो नहीं फेंका कि वह छज्जे पर जा गिरा हो।

वहाँ से भी जब निराशा हाथ लगती है तो वह आस-पास के घरवालों से पूछते हैं कि क्या उनका समाचार पत्र आ गया है ? यदि उनका समाचार-पत्र आ गया हो तो वे अपने समाचार-पत्र वाले को कोसने लगते हैं। उन्हें लगता है आज उनका दिन अच्छा व्यतीत नहीं होगा। उनका अपने काम पर जाने का मन भी नहीं होता। वे पुराना अखबार उठा कर पढ़ने का प्रयास करते हैं किंतु पढ़ा हुआ होने पर बोर होकर उसे फेंक देते हैं तथा समाचार-पत्र वाहक पर आक्रोश व्यक्त करने लगते हैं। कई लोग तो समाचार-पत्र के अभाव में अपनी नित्य क्रियाओं से भी मुक्त नहीं हो पाते। वास्तव में जिस दिन समाचार-पत्र नहीं आता वह दिन अत्यंत फीका- फीका, उत्साह रहित लगता है।

46. वर्षा ऋतु की पहली बरसात

संकेत बिंदु – गरमी की अधिकता, सभी प्राणियों की पीड़ा, वर्षा ऋतु का आगमन, वातावरण में ठंडक, प्राकृतिक सुंदरता।
गरमी का महीना था। सूर्य आग बरसा रहा था। धरती तप रही थी। पशु-पक्षी तक गरमी के कारण परेशान थे। मज़दूर, किसान, रेहड़ी-खोमचे वाले और रिक्शा चालक तो इस तपती गरमी को झेलने के लिए विवश होते हैं। पंखों, कूलरों और एयर कंडीशनरों में बैठे लोगों को इस गरमी की तपन का अनुमान नहीं हो सकता। जुलाई का महीना शुरू हुआ इस महीने में ही वर्षा ऋतु की पहली वर्षा होती है। सबकी दृष्टि आकाश की ओर उठती है।

किसान लोग तो ईश्वर से प्रार्थना के लिए अपने हाथ ऊपर उठा देते हैं। अचानक एक दिन आकाश में बादल छा गए। बादलों की गड़गड़ाहट सुनकर मोर पिऊ-पिऊ मधुर आवाज़ में बोलने लगे। हवा में भी थोड़ी ठंडक आ गई। धीरे-धीरे हलकी-हलकी बूंदाबांदी शुरू हो गई। मैं अपने साथियों के साथ गाँव की गलियों में निकल पड़ा। साथ ही हम नारे लगाते जा रहे थे, ‘बरसो राम धड़ाके से, बुढ़िया मर गई फाके से ‘। किसान भी खुश थे। वर्षा तेज़ हो गई थी। खुले में वर्षा में भीगने, नहाने का मज़ा ही कुछ और है। वर्षा भी उस दिन कड़ाके से बरसी। मैं उन क्षणों को कभी भूल नहीं सकता। मैं उसे छू सकता था, देख सकता था और पी सकता था। मुझे अनुभव हुआ कि कवि लोग क्योंकर ऐसे दृश्यों से प्रेरणा पाकर अमर काव्य का सृजन करते हैं।

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47. शक्ति अधिकार की जननी है

संकेत बिंदु-शक्ति के प्रकार, शारीरिक और मानसिक शक्तियों का संयोग, अधिकारों की प्राप्ति, सत्य और अहिंसा का बल, अनाचार का विरोध।
शक्ति का लोहा कौन नहीं मानता है ? इसी के कारण मनुष्य अपने अधिकार प्राप्त करता है। प्राय: यह दो प्रकार की मानी जाती है – शारीरिक और मानसिक। दोनों का संयोग हो जाने से बड़ी से बड़ी शक्ति को घुटने टेकने पर विवश किया जा सकता है। अधिकारों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष की आवश्यकता होती है। इतिहास इस बात का गवाह है कि अधिकार सरलता, विनम्रता और गिड़गिड़ाने से प्राप्त नहीं होते। भगवान कृष्ण ने पांडवों को अधिकार दिलाने की कितनी कोशिश की पर कौरव उन्हें पाँच गाँव तक देने के लिए सहमत नहीं हुए थे।

तब पांडवों को अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए युद्ध का रास्ता अपनाना पड़ा। भारत को अपनी आज़ादी तब तक नहीं मिली थी जब तक उसने शक्ति का प्रयोग नहीं किया। देशवासियों ने सत्य और अहिंसा के बल पर अंग्रेज़ सरकार से टक्कर ली थी। तभी उन्हें सफलता प्राप्त हुई थी और देश आज़ाद हुआ था। कहावत है कि लातों भूत बातों से नहीं मानते। व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र उसे शक्ति का प्रयोग करना ही पड़ता है। तभी अधिकारों की प्राप्ति होती है। शक्ति से ही अहिंसा का पालन किया जा सकता है, सत्य का अनुसरण किया जा सकता है, अत्याचार और अनाचार को रोका जा सकता है। इसी से अपने अधिकारों को प्राप्त किया जा सकता है। वास्तव में ही शक्ति अधिकार की जननी है।

48. भाषण नहीं राशन चाहिए

संकेत बिंदु – भाषण की उपयोगिता और अनुपयोगिता, नेताओं की करनी – कथनी में अंतर, आम जनता की पीड़ा।
हर सरकार का यह पहला काम है कि वह आम आदमी की सुविधा का पूरा ध्यान रखे। सरकार की कथनी तथा करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। केवल भाषणों से किसी का पेट नहीं भरता। यदि बातों से पेट भर जाता तो संसार का कोई भी व्यक्ति भूख-प्यास से परेशान न होता। भूखे पेट से तो भजन भी नहीं होता। भारत एक प्रजातंत्र देश है। यहाँ के शासन की बागडोर प्रजा के हाथ में है, यह केवल कहने की बात है। इस देश में जो भी नेता कुर्सी पर बैठता है, वह देश के उद्धार की बड़ी-बड़ी बातें करता है पर रचनात्मक रूप से कुछ भी नहीं होता।

जब मंच पर आकर नेता भाषण देते हैं तो जनता उनके द्वारा दिखाए गए सब्ज़बाग से खुशी का अनुभव करती है। उसे लगता है कि नेता जिस कार्यक्रम की घोषणा कर रहे हैं, उससे निश्चित रूप से गरीबी सदा के लिए दूर हो जाएगी, लेकिन होता सब कुछ विपरीत है। अमीरों की अमीरी बढ़ती जाती है और आम जनता की गरीबी बढ़ती जाती है। यह व्यवस्था का दोष है। इन नेताओं के हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और वाली कहावत चरितार्थ होती है। जनता को भाषण की नहीं राशन की आवश्यकता है।

सरकार की ओर से ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जनता को ज़रूरत की वस्तुएँ प्राप्त करने में कठिनाई का अनुभव न हो। उसे रोटी, कपड़ा, मकान की समस्या का सामना न करना पड़े। सरकार को अपनी कथनी के अनुरूप व्यवहार भी करना चाहिए। उसे यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि जनता को भाषण नहीं राशन चाहिए। भाषणों की झूठी खुराक से जनता को बहुत लंबे समय तक मूर्ख नहीं बनाया जा सकता।

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49. हमारे पड़ोसी

संकेत बिंदु – रिश्तेदारों से बेहतर, सुख-दुख के साथी, अच्छे-बुरे स्वभाव।
अच्छे पड़ोसी तो रिश्तेदारों से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। वे हमारे सुख-दुख के भागीदार होते हैं। जीवन के हर सुख-दुख में पड़ोसी पहले आते हैं और दूर रहने वाले सगे-संबंधी तो सदा ही देर से पहुँचते हैं। आज के स्वार्थी युग में ऐसे पड़ोसी मिलना बहुत कठिन है, जो सदा कंधे से कंधा मिलाकर सुख-दुख में एक साथ चलें। हमारे पड़ोस में एक अवकाश प्राप्त अध्यापक रहते हैं।

वे सारे मुहल्ले के बच्चों को मुफ्त पढ़ाते हैं। एक दूसरे सज्जन हैं जो सभी पड़ोसियों के छोटे-छोटे काम बड़ी प्रसन्नता से करते हैं। हमारे पड़ोस में एक प्रौढ़ महिला भी रहती हैं, जिन्हें सारे मुहल्ले वाले मौसी कह कर पुकारते हैं। यह मौसी मुहल्ले भर के लोगों की खोज-खबर रखती हैं। मौसी को सारे मुहल्ले की ही नहीं, सारे शहर की खबर रहती है। हम मौसी को चलता-फिरता अखबार कहते हैं। हमारे सारे पड़ोसी बहुत अच्छे हैं। एक-दूसरे का ध्यान रखते हैं और समय पड़ने पर उचित सहायता भी करते हैं।

50. सपने में चाँद की यात्रा

संकेत बिंदु – मन में विचार, सपना, चाँद पर भ्रमण, नींद का खुलना।
आज के समाचार-पत्र में पढ़ा कि भारत भी चंद्रमा पर अपना यान भेज रहा है। सारा दिन यही समाचार मेरे अंतर में घूमता रहा। सोया तो स्वप्न में लगा कि मैं चंद्रयान से चंद्रमा पर जाने वाला भारत का प्रथम नागरिक हूँ। जब मैं चंद्रमा के तल पर उतरा तो चारों ओर उज्ज्वल प्रकाश फैला हुआ था। वहाँ की धरती चाँदी से ढकी हुई लग रही थी। तभी एकदम सफ़ेद वस्त्र पहने हुए परियों ने मुझे पकड़ लिया और चंद्रलोक के महाराज के पास गईं।

वहाँ भी सभी सफ़ेद उज्ज्वल वस्त्र पहने हुए थे। उनसे वार्तालाप में मैंने स्वयं को जब भारत का नागरिक बताया तो उन्होंने मेरा सफ़ेद रसगुल्लों जैसी मिठाई से स्वागत किया। वहाँ सभी कुछ अत्यंत निर्मल और पवित्र था। मैंने मिठाई खानी शुरू ही की थी कि मेरी मम्मी ने मेरी बाँह पकड़ कर मुझे उठा दिया और डाँटने लगीं कि चादर क्यों खा रहा है ? मैं हैरान था कि यह क्या हो गया ? कहाँ तो मैं चंद्रलोक का आनंद ले रहा था और यहाँ चादर खाने पर डाँट पड़ रही है। मेरा स्वप्न भंग हो गया था और मैं भागकर बाहर की ओर चला गया।

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51. मेट्रो रेल : महानगरीय जीवन का सुखद सपना

संकेत बिंदु – गति, व्यवस्थित, आराम।
मेट्रो रेल वास्तव में ही महानगरीय जीवन का एक सुखद सपना है। भाग-दौड़ की जिंदगी में भीड़-भाड़ से भरी सड़कों पर लगते हुए गतिरोधों से आज मुक्ति दिला रही है मेट्रो रेल। जहाँ किसी निश्चित स्थान पर पहुँचने में घंटों लग जाते थे, वहीं मेट्रो रेल मिनटों में पहुँचा देती है। यह यातायात का तीव्रतम एवं सस्ता साधन है। यह एक सुव्यवस्थित क्रम से चलती है। इससे यात्रा सुखद एवं आरामदेह हो गई है। बसों की धक्का-मुक्की, भीड़-भाड़ से मुक्ति मिल गई है। समय पर अपने काम पर पहुँचा जा सकता है। एक निश्चित समय पर इसका आवागमन होता है, इसलिए समय की बचत भी होती है। व्यर्थ में इंतज़ार नहीं करना पड़ता है। महानगर के जीवन में यातायात क्रांति लाने में मेट्रो रेल का महत्वपूर्ण योगदान है।

JAC Class 9 Hindi रचना पत्र लेखन-अनौपचारिक पत्र

Jharkhand Board JAC Class 9 Hindi Solutions Rachana पत्र लेखन-अनौपचारिक पत्र Questions and Answers, Notes Pdf.

JAC Board Class 9 Hindi Rachana पत्र लेखन-अनौपचारिक पत्र

1. अपने मित्र अथवा अपनी सखी को अपने जन्म-दिवस पर बधाई – पत्र लिखिए।

56-एल, मॉडल टाउन
कोच्ची
31 मार्च, 20XX
प्रिय सखी नलिनी
सस्नेह नमस्कार।
आज ही तुम्हारा पत्र प्राप्त हुआ है। यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई कि तुम 4 अप्रैल को अपना 17वाँ जन्म – दिवस मना रही हो। इस अवसर पर तुमने मुझे भी आमंत्रित किया है इसके लिए अतीव धन्यवाद।
प्रिय सखी, मैं इस शुभावसर पर अवश्य पहुँचती, लेकिन कुछ कारणों से उपस्थित होना संभव नहीं। मैं अपनी शुभकामनाएँ भेज रही हूँ। ईश्वर से प्रार्थना है कि वे तुम्हें चिरायु प्रदान करें। तुम्हारा भावी जीवन स्वर्णिम आभा से मंडित हो। अगले वर्ष अवश्य आऊँगी। मैं अपनी ओर से एक छोटी-सी भेंट भेज रही हूँ, आशा है कि तुम्हें पसंद आएगी। इस शुभावसर पर अपने माता-पिता को मेरी ओर से हार्दिक बधाई अवश्य देना।
तुम्हारी प्रिय सखी
मधु

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2. आपके मित्र को छात्रवृत्ति प्राप्त हुई है। उसे बधाई पत्र लिखिए।

512, चौक घंटाघर
भुवनेश्वर
19 जून, 20XX
प्रिय मित्र सुमन
सस्नेह नमस्कार।
दिल्ली बोर्ड की दशम कक्षा की परिणाम सूची में तुम्हारा नाम छात्रवृत्ति प्राप्त छात्रों की सूची में देखकर मुझे अतीव प्रसन्नता हुई। प्रिय मित्र, मुझे तुमसे यही आशा थी। तुमने परिश्रम भी तो बहुत किया था। तुमने सिद्ध कर दिया कि परिश्रम की बड़ी महिमा है। 85 प्रतिशत अंक प्राप्त करना कोई खाला जी का घर नहीं। अपनी इस शानदार सफलता पर मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करें। अपने माता-पिता को भी मेरी ओर से बधाई देना। ग्रीष्मावकाश में तुम्हारे पास आऊँगा। मिठाई तैयार रखना।
आपका अपना
विवेक शर्मा

3. आपका मित्र बोर्ड की परीक्षा में प्रथम आया है। उसे बधाई देते हुए एक पत्र लिखिए।

31, माल रोड
चेन्नई
7 अगस्त, 20XX
प्रिय मित्र गिरीश
सस्नेह नमस्कार।
आज के दैनिक ‘दैनिक भास्कर’ में तुम्हारा चित्र देखकर तथा यह जानकर कि तुम बोर्ड की परीक्षा में देशभर में प्रथम रहे हो, हृदय प्रसन्नता से झूम उठा। मित्रवर, तुमसे यही आशा थी। तुमने अपने माता-पिता तथा अध्यापक वर्ग के सपनों को साकार कर दिया है। मित्रवर्ग की प्रसन्नता का तो पारावार ही नहीं। इस शानदार सफलता पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें। यह तुम्हारे कठोर परिश्रम का सुपरिणाम है। आज तुमने अनुभव किया होगा कि परिश्रम और प्रयत्न की कितनी महिमा है।
आज तुम्हारे ऊपर सभी गर्व का अनुभव कर रहे हैं। तुम्हारे माता-पिता कितने प्रसन्न होंगे, इसका अनुमान लगाना सहज नहीं। तुम्हारी इस असामान्य सफलता ने पाठाशाला के नाम को भी चार चाँद लगा दिए हैं।
आशा है कि आगामी परीक्षाओं में भी तुम इसी तरह अपूर्व सफलता प्राप्त करते रहोगे। संभव है अगले सप्ताह मैं तुम्हारे पास आऊँ। मिठाई तैयार रखना। अगर ठहर सका तो चलचित्र भी अवश्य देखूँगा।
इस शानदार सफलता पर एक बार फिर मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करें। अपने माता-पिता को मेरी ओर से हार्दिक बधाई देने के साथ मेरी ओर से सादर नमस्कार भी कहें।
तुम्हारा अभिन्न हृदय
कृष्णन

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4. अपने मित्र को एक पत्र लिखकर उसे ग्रीष्मावकाश का कार्यक्रम बताइए।
अथवा
ग्रीष्मावकाश के अवसर पर भ्रमणार्थ अपने मित्र को निमंत्रण- पत्र लिखिए।

3719, रेलवे रोड
हैदराबाद
15 मई, 20XX
प्रिय मित्र दिनेश
सस्नेह नमस्कार।
आशा है आप सब कुशल होंगे। आपके पत्र से ज्ञात हुआ है कि आपका विद्यालय ग्रीष्मावकाश के लिए बंद हो चुका है। हमारी परीक्षाएँ 28 मई को समाप्त हो रही हैं। इसके पश्चात विद्यालय 15 जुलाई तक बंद रहेगा। इस बार हम पिता जी के साथ शिमला जा रहे हैं। लगभग 20 दिन तक हम शिमला में रहेंगे। वहाँ मेरे मामा जी भी रहते हैं। अतः वहाँ रहने में हमें पूरी सुविधा रहेगी। शिमला के आस-पास सभी दर्शनीय स्थान देखने का निर्णय किया है। मेरे मामा जी के बड़े सुपुत्र वहाँ हिंदी के अध्यापक हैं। उनकी सहायता एवं मार्ग-दर्शन से मैं अपने हिंदी के स्तर को बढ़ा सकूँगा।
प्रिय मित्र, यदि आप भी हमारे साथ चलें तो यात्रा का आनंद आ जाएगा। आप किसी प्रकार का संकोच न करें। मेरे माता-पिता जी भी आपको मेरे साथ देखकर बहुत प्रसन्न होंगे। आप शीघ्र ही अपना कार्यक्रम सूचित करना। हमारा विचार जून के प्रथम सप्ताह में जाने का है।
शिमला से लौटने के बाद दिल्ली तथा आगरा जाने का भी विचार है। दिल्ली में अनेक दर्शनीय स्थान हैं। आगरा का ताजमहल तो मेरे आकर्षण का केंद्र है, क्योंकि मुझे अभी तक इस सुंदर भवन को देखने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। आशा है कि इस बार यह जिज्ञासा भी शांत हो जाएगी। आप अपना कार्यक्रम शीघ्र ही सूचित करना।
अपने माता-पिता को मेरी ओर से सादर नमस्कार कहना।
आपका मित्र
विजय नायडू

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5. अपने मित्र को उसके पिता के स्वर्गवास पर संवेदना – पत्र लिखिए।

4587/15, दरियागंज
दिल्ली
21 जनवरी, 20XX
प्रिय मित्र।
कल्पना भी न की गई थी कि 19 जनवरी का दिन हम सबके लिए इतना दुखद होगा। आपके पिता के निधन का समाचार पाकर बड़ा शोक हुआ। हाय ! यह विधाता का कितना निर्दय प्रहार हुआ है। आपके पिता की असामयिक मृत्यु से हमारे घर में शोक का वातावरण छा गया। सबकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। मेरे पिता जी ने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा, “मैंने अपना निकटतम मित्र तथा सहयोगी खो दिया है।”
प्रिय मित्र ! गत मास जब मैं आपसे मिलने आया था तो उस समय आपके पिता जी कितने स्वस्थ थे। विधि का विधान भी बड़ा विचित्र है। उनका साधु व्यक्तित्व अब भी आँखों के सामने घूम रहा है। उनकी सज्जनता और परोपकार – भावना से सभी प्रभावित थे। उनके निधन से आपके परिवार को ही हानि नहीं पहुँची अपितु सारे नगर को हानि हुई है। उनकी शिक्षा में भी अत्यंत रुचि थी। उन्हीं की प्रेरणा से आप प्रत्येक परीक्षा में शानदार सफलता प्राप्त करते रहे हैं।

प्रिय मित्र ! काल के आगे सब असहाय और विवश हैं। उसकी शक्ति से कोई नहीं बच सकता। उसके आगे सबने मस्तक झुकाया है। धैर्य धारण करने के अतिरिक्त दूसरा उपचार नहीं है। हम सब आपके इस अपार दुख में सम्मिलित होकर संवेदना प्रकट करते हैं। आप धैर्य से काम लीजिए। अपने छोटे भाइयों को सांत्वना दो। माता जी को भी इस समय आपके सहारे की आवश्यकता है। मित्र ! निश्चय ही आप पर भारी ज़िम्मेदारी आ पड़ी है। ईश्वर से मेरी नम्र प्रार्थना है कि वे आपको इस अपार दुख को सहन करने की शक्ति दें और स्वर्गीय आत्मा को शांति प्रदान करें।
आपके दुख में दुखी
रवि वर्मा

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6. अपनी कक्षा में प्रथम आने की शुभ सूचना अपने मामा जी को पत्र द्वारा दीजिए।

22, कीर्ति नगर
सिकंदराबाद
10 जून, 20XX
आदरणीय मामा जी
सादर प्रणाम।
आपको यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव होगा कि इस वर्ष की परीक्षा में मैंने प्रथम स्थान प्राप्त किया है। यह सब माता जी, पिता जी तथा आपके आशीर्वाद का परिणाम है। अब आपको अपना वायदा पूरा करना पड़ेगा। ग्रीष्मावकाश में मैं आपके पास आऊँगा। मेरा उपहार तैयार रखें। मामी जी को सादर नमस्कार।
आपका प्रिय भांजा
ध्रुव

7. अपने बड़े भाई को एक घड़ी खरीदने के लिए रुपए भेजने का निवेदन करते हुए पत्र लिखिए।
14, शिवाजी छात्रावास
नवोदय विद्यालय
गुहावाटी
25 जनवरी, 20XX
आदरणीय बंधु
सादर नमस्कार।
मैं यहाँ सकुशल हूँ और मेरा अध्ययन विधिपूर्वक चल रहा है। आप जानते हैं कि परीक्षा निकट आ रही है और मैंने परीक्षा में अच्छा स्थान प्राप्त करने के लिए आपको वचन दे रखा है। आप यह भी जानते हैं कि मेरे पास घड़ी का अभाव है। समय देखने के लिए मुझे दिन में कई बार छात्रावास के मुख्य भवन में लगी घड़ी देखने के लिए जाना पड़ता है। आपसे निवेदन है कि कृपया एक हज़ार रुपए शीघ्र भेजें ताकि मैं अपने लिए एक अच्छी घड़ी खरीद सकूँ। घड़ी होने पर मैं समय का सदुपयोग कर सकूँगा और निश्चित की गई समय-सारिणी के अनुसार अध्ययन कर सकूँगा। आशा है कि आप निराश नहीं करेंगे। भाभी जी को सादर प्रणाम। सुरुचि को सस्नेह आशीर्वाद।
आपका प्रिय अनुज
रजत शर्मा

8. अपने बड़े भाई को एक पत्र लिखिए जिसमें उसके द्वारा दी गई सीख पर आचरण करने का आश्वासन हो।

14, नौरोजी नगर
जलगाँव
7 जनवरी, 20XX
आदरणीय बंधु।
कल आपका प्रेरणा भरा पत्र मिला। आपने समय का सदुपयोग कर परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने का जो परामर्श दिया है, मैं उसका पूरी तरह ध्यान रखूँगा। प्रातः शीघ्र उठकर नियमित रूप से अध्ययन करूँगा। अपने अध्यापकवर्ग से भी भरपूर सहायता लूँगा। आवश्यकता पड़ने पर कुछ पुस्तकें भी खरीदूँगा।
मुझे आशा है कि आपकी दी हुई सीख पर आचरण कर परीक्षा में भव्य सफलता प्राप्त करूँगा। आप निश्चिंत रहें।
आपका अनुज
सुरेश देशमुख

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9. बड़ी बहन के नाते अपने भाई को रक्षाबंधन के अवसर पर राखी भेजते हुए एक पत्र लिखिए।

6/574, लखनपुरा
कानपुर
9 अगस्त, 20XX
प्रिय अनुज प्रतीक
चिरंजीव रहो।
तुम्हारा पत्र मिला। यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि तुमने मासिक परीक्षा में अपनी श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। अगले सप्ताह रक्षाबंधन का त्योहार है। मैं इस पत्र के साथ राखी भेज रही हूँ। प्रिय अनुज, इन राखी के धागों में बड़ी शक्ति और प्रेरणा का भाव होता है। इस दिन भाई अपनी बहन की मान-मर्यादा की रक्षा का संकल्प करता है। बहन भी भाई की सर्वांगीण प्रगति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती है।
मैं इस बार रक्षाबंधन के अवसर पर तुम्हारे कोमल हाथों में राखी बाँधने के लिए उपस्थित न हो सकूँगी। मेरा प्यार, मेरा आशीर्वाद तथा मेरी शुभकामना इन राखी के धागों में गुँथी हुई है।
माता-पिता को प्रणाम।
तुम्हारी बड़ी बहन
नीलम खन्ना

10. हाथ का कोई काम सीखने की इच्छा व्यक्त करते हुए एक पत्र लिखकर अपने पिता जी से उसकी अनुमति माँगिए।

केंद्रीय विद्यालय
जयपुर
17 मार्च, 20XX
आदरणीय पिता जी
सादर नमस्कार।
इस वर्ष हमारे विद्यालय में ‘ दस्तकारी – शिक्षा’ नाम से एक नया पाठ्यक्रम शुरू हो रहा है। इस पाठ्यक्रम में हाथ से काम करने की व्यवस्था है। विद्यालय में एक वर्कशाप भी स्थापित हो रही है। यहाँ रेडियो बनाने, टेलीविज़न के पुर्जों को अलग करने और जोड़ने, फोटोग्राफ़ी तथा बढ़ई आदि के काम की शिक्षा दी जाएगी। पिता जी, आप जानते हैं कि हाथ से काम करने की कला में कुशल होना कितना उपयोगी है। इससे व्यक्ति की आजीविका की समस्या का समाधान हो जाता है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं भी इस नये पाठ्यक्रम के लिए अपना नाम लिखवा दूँ। यह अतिरिक्त शिक्षा अवश्य ही जीवन में उपयोगी साबित होगी।
कृपया उत्तर शीघ्र दें क्योंकि 31 मार्च तक नाम लिखवा देना ज़रूरी है।
आपका आज्ञाकारी
मनमोहन स्वरूप माथुर

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11. अपने पिता जी को पत्र लिखिए जिसमें अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण होने की सूचना देते हुए खर्च के लिए रुपए मँगवाइए।

परीक्षा भवन,
क० ख० ग०
5 मई, 20XX
पूज्य पिता जी,
सादर प्रणाम।
आपको यह जानकर हर्ष होगा कि हमारा परीक्षा – परिणाम निकल आया है। मैं 580 अंक लेकर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया हूँ। अपनी कक्षा में मेरा दूसरा स्थान है। मुझे स्वयं इस बात का दुःख है कि मैं प्रथम स्थान प्राप्त न कर सका। इसका कारण यह है कि मैं दिसंबर मास में बीमार हो गया था और लगभग 20-25 दिन विद्यालय न जा सका। यदि मैं बीमार न हुआ होता तो संभव था कि छात्रवृत्ति प्राप्त करता। अब मैं नौवीं कक्षा में अधिक अंक प्राप्त करने का प्रयत्न करूँगा।
अब मुझे नौवीं कक्षा की नई पुस्तकें आदि खरीदनी हैं। कुछ मित्र मेरी इस सफलता पर पार्टी भी माँग रहे हैं। अतः आप मुझे 2500 रुपए यथाशीघ्र भेजने की कृपा करें।
आपका आज्ञाकारी पुत्र,
राघव।

12. अपने छोटे भाई को कुसंगति की हानियाँ बताकर अच्छे लड़कों की संगति में रहने की प्रेरणा देते हुए पत्र लिखिए।

720, सेक्टर 27-सी,
कुरुक्षेत्र।
20 फरवरी, 20XX
प्रिय जगदीश,
प्रसन्न रहो।
हमें पूर्ण विश्वास है कि तुम सदा मेहनत करते हो और मिडिल परीक्षा में कोई अच्छा स्थान लेकर उत्तीर्ण होगे। तुम्हारी नियमितता और अनुशासन- पालन को देखकर हमें यह विश्वास हो गया है कि तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है, लेकिन एक बात का ध्यान अवश्य रखना कि कहीं कुसंगति में फँसकर अपने को दूषित न कर लेना। यदि तुम बुरे लड़कों के जाल से न बचोगे तो तुम्हारा भविष्य अंधकारमय बन जाएगा और तुम अपने रास्ते से भटक जाओगे। तुम्हें जीवन-भर कष्ट उठाने पड़ेंगे और तुम अपने उद्देश्य में सफल न हो सकोगे।

कुसंगति छात्र का सबसे बड़ा शत्रु है। दुराचारी बच्चे होनहार बच्चों को भी भ्रष्ट कर देते हैं। प्रारंभ में बुरे बच्चों की संगति बड़ी मनोरम लगा करती है, लेकिन यह भविष्य को धूमिल कर देती है। दूसरी ओर अच्छे बच्चों की संगति करने से चरित्र ऊँचा होता है, कई अच्छे गुण आते हैं। अच्छे बालक की सभी प्रशंसा करते हैं।
आशा है कि तुम कुसंगति के पास तक नहीं फटकोगे, फिर भी तुम्हें सचेत कर देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। माता जी और पिता जी का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, किसी वस्तु की ज़रूरत हो तो लिखना।
तुम्हारा बड़ा भाई,
भुवन मोहन

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13 अपने मित्र / सहेली को एक पत्र लिखकर बताइए कि आपके स्कूल में 15 अगस्त का दिन कैसे मनाया गया।

48 – A, आदर्श नगर,
गुरदासपुर।
18 अगस्त, 20XX
प्रिय सखी दीपा,
सप्रेम नमस्ते।
बहुत दिनों से तुम्हारा पत्र नहीं मिला। क्या कारण है ? मैं तुम्हें दो पत्र डाल चुकी हूँ पर उत्तर एक का भी नहीं मिला। कोई नाराज़गी तो नहीं। अगर ऐसी-वैसी कोई बात हो तो क्षमा कर देना।

हाँ, इस बार हमारे स्कूल में 15 अगस्त का दिन बड़ी धूमधाम से मनाया गया। इसकी थोड़ी-सी झलक मैं पत्र द्वारा तुम्हें दिखा रही हूँ। 15 अगस्त मनाने की तैयारियाँ एक महीना पहले ही शुरू कर दी गई थीं। स्कूल में सफ़ेदी कर दी गई थी। लड़कियों को सामूहिक नृत्य की ट्रेनिंग देना कई दिन पहले ही शुरू कर दी गई थी। हमें ‘हमारे अमर शहीद’ एकांकी नाटक की रिहर्सल भी कई बार करवाई गई। निश्चित दिन को ठीक सुबह सात बजे 15 अगस्त का समारोह शुरू हो गया। सबसे पहले तिरंगा झंडा फहराने की रस्म क्षेत्र के जाने-माने समाज सेवक चौधरी रामलाल जी ने अदा की। इसके बाद स्कूल की छात्राओं ने रंगारंग कार्यक्रम पेश करने शुरू कर दिए। गिद्धा नाच ने सबका मन मोह लिया। इसके बाद देश-प्रेम के गीत गाए गए। मैंने भी एक गीत गाया था। मैंने सामूहिक गायन में भी भाग लिया।

इसके बाद एकांकी ‘हमारे अमर शहीद’ का मंचन हुआ। इसके हर सीन पर तालियाँ बजती थीं। समारोह के अंत में मुख्य अतिथि और हमारी बड़ी बहन जी ने भाषण दिए, जिसमें देश-भक्ति की प्रेरणा थी।
15 अगस्त का यह समारोह मुझे हमेशा याद रहेगा, क्योंकि मुझे इसमें दो खूबसूरत इनाम मिले हैं। पूज्य माताजी और भाभी जी को प्रणाम। रिंकू और गुड्डी को प्यार देना। इस बार पत्र का उत्तर ज़रूर देना।
तुम्हारी अनन्य सखी,
वर्तिका

14. परीक्षा में असफल होने पर बहन को सांत्वना पत्र लिखिए।

519, राम कुटीर,
रामनगर, दिल्ली।
5 जुलाई, 20XX
प्रिय बहन सिया,
प्रसन्न रहो।
पिता जी का अभी-अभी पत्र आया है। तुम्हारे असफल होने का समाचार मिला। मुझे तो पहले ही तुम्हारे पास होने की आशा नहीं थी। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। जिन परिस्थितियों में तुमने परीक्षा दी, इसमें असफल रहना स्वाभाविक ही था। पहले माताजी बीमार हुईं, फिर तुम स्वयं बुखार में फँस गई। जिस कष्ट को सहन करके तुमने परीक्षा दी वह मुझ से छिपा नहीं है। इस पर तुम्हें रंचमात्र भी खेद नहीं करना चाहिए। तुम अपने मन से यह बात निकाल दो कि हम तुम्हारे असफल होने पर नाराज़ हैं। हाँ, अब अगले वर्ष की परीक्षा के लिए तैयार हो जाओ। किसी पुस्तक की आवश्यकता हो तो लिखो। डटकर पढ़ाई करो। माता जी एवं पिता जी को प्रणाम।
तुम्हारा प्यारा भाई,
वरुण

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15. अपने मित्र को एक पत्र लिखिए जिसमें दहेज की कुप्रथा के बारे में विवेचना हो।

डी० ए० वी० उच्च विद्यालय,
कोलकाता।
1 मार्च, 20XX
प्रिय मित्र सुशील,
सप्रेम नमस्ते।
आपका पत्र मिला, तदर्थ धन्यवाद। बहन रमा की मँगनी के विषय में आपने मुझसे परामर्श माँगा है। दहेज के संबंध में मेरी सम्मति माँगी है। इसके लिए कुछ शब्द प्रस्तुत हैं।
मैं मनु
के इस उपदेश का प्रचारक हूँ कि जिस घर में नारियों की पूजा होती है, उस घर में देवता निवास करते हैं। आज इस आदर्श पर पोछा फिर गया है। जिस गृहस्थ के घर में कन्या पैदा होती है, वह समझता है कि मुझ पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा है। मेरी सम्मति में इन सब बुरी भावनाओं का मूल कारण केवल मात्र दहेज प्रथा है।
आज की प्रचलित दहेज-प्रथा ने कई सुंदर देवियों को पतित होने पर विवश किया है। कइयों ने अपने माता-पिता को कष्ट में देखकर आत्महत्याएँ की हैं।

क्या आपको अंबाला की प्रेमलता की आत्महत्या की घटना स्मरण नहीं ? माता-पिता की इज़्ज़त की रक्षा के लिए उसने अपने प्राणों की बलि दे दी। इसी कारण समाज सुधारकों की आँखें खुलीं। समाज सुधारकों ने इस कुप्रथा का अंत करने का बीड़ा उठाया।
मेरी अपनी सम्मति में कन्यादान ही महान दान है। जिस व्यक्ति ने अपने हृदय का टुकड़ा दे दिया उसका यह दान तथा त्याग क्या कम है ? आज के नवयुवकों की बढ़ती हुई दहेज की लालसा मुझे सर्वथा पसंद नहीं है। वरों की इस प्रकार से बढ़ती हुई कीमतें समाज के भविष्य के लिए महान संकट बन रही हैं।

मेरी सम्मति में आप रमा बहन के लिए एक ऐसा वर ढूँढ़ें जो हर प्रकार से योग्य हो, स्वस्थ, समुचित रोज़गार वाला और शिक्षित हो। धनी-मानी और लालची लोगों की ओर एक बार भी नज़र न डालें। समय आ रहा है जबकि स्वतंत्र भारत के कर्णधार कानूनन दहेज प्रथा को बंद कर देंगे। इस संबंध में बहुत सोचने और घबराने की आवश्यकता नहीं है।
आपका अभिन्न हृदय
मनोहर लाल

16. अपने छोटे भाई को पत्र लिखिए जिसमें प्रातः भ्रमण के लाभ बताए गए हों।

208, कृष्ण नगर,
इंदौर।
15 अप्रैल, 20XX
प्रिय सुरेश,
प्रसन्न रहो।
कुछ दिनों से तुम्हारा कोई पत्र प्राप्त नहीं हुआ। तुम्हारे स्वास्थ्य की बहुत चिंता है। व्यक्ति का स्वास्थ्य उसकी पूँजी होती है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा निवास करती है। गत वर्ष के टाइफाइड का प्रभाव अब तक भी तुम्हारे ऊपर बना हुआ है। मेरा एक ही सुझाव है कि तुम प्रातः भ्रमण अवश्य किया करो। यह स्वास्थ्य सुधार के लिए अनिवार्य है। इससे मनुष्य को अनेक लाभ प्राप्त होते हैं।

प्रातः भ्रमण से शरीर चुस्त रहता है। कोई बीमारी पास नहीं फटकती। प्रातः बस्ती से बाहर की वायु बहुत ही शुद्ध होती है। इसके सेवन से स्वच्छ रक्त का संचार होता है। मन खिल उठता है, मांसपेशियाँ बलवान बनती हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती है। प्रातःकाल खेतों की हरियाली से आँखें ताज़ा हो जाती हैं।

मुझे आशा है कि तुम मेरे आदेश का पालन करोगे। नित्य प्रातः उठकर सैर के लिए जाया करोगे। अधिक क्या कहूँ। तुम्हारे स्वास्थ्य का रहस्य प्रातः भ्रमण में छिपा है। पूज्य माता जी को प्रणाम। अणु-शुक को प्यार।
तुम्हारा अग्रज,
प्रमोद कुमार

JAC Class 9 Hindi रचना पत्र लेखन-अनौपचारिक पत्र

17. अपनी छोटी बहन को सादा जीवन बिताने के लिए पत्र लिखिए।

केंद्रीय उच्च विद्यालय,
झाँसी।
2 नवंबर, 20XX
प्रिय बहन मधु,
प्यार भरी नमस्ते।
कल पूज्य माता जी का पत्र मिला। घर का हाल-चाल ज्ञात हुआ। यह पढ़कर मुझे दुःख भी हुआ और हैरानी भी कि तुम फ़ैशनपरस्ती की ओर बढ़ रही हो। फ़ैशन विद्यार्थी का सबसे बड़ा शत्रु है।
बहन, तुम समझदार हो। सागी, सरलता और सद्विचार उन्नति की सीढ़ियाँ हैं। फ़ैशन हमारी संस्कृति और सभ्यता के प्रतिकूल है। प्रगति की दौड़ में फ़ैशनपरस्त व्यक्ति हमेशा ही पिछड़ जाता है।

सादी वेश-भूषा व्यक्ति को ऊँचा उठाती है। सादापन मनुष्य का आंतरिक शृंगार है। अच्छे कुल की लड़कियाँ सादा खान-पान और सादा रहन-सहन कभी नहीं त्यागतीं। फ़ैशन की तितलियाँ बनना उन्हें शोभा नहीं देता। तड़क-भड़क व्यक्ति के आचरण को ले डूबती है। अतः इसे दूर से ही नमस्कार दो। गांधीजी कहा करते थे कि लड़के-लड़कियों में सादगी होना बहुत ज़रूरी है।

फिर तुम एक भारतीय लड़की हो। तुम्हें सीता, सावित्री, द्रौपदी, अनुसूइया आदि के समान आदर्श बनना है। कीलर या मारग्रेट नहीं बनना है। मुझे विश्वास है कि तुम मेरी इस छोटी-सी परंतु महत्वपूर्ण शिक्षा के अनुसार आचरण करोगी। इसी में हमारे परिवार का मंगल है।
तुम्हारा भाई,
रवि शंकर
कक्षा नौवीं ‘ए’

18. विदेशी मित्र / साथी को पत्र लिखिए और उसमें अपने विद्यालय की विशेषताएँ बताइए।

140, मोहन नगर
नागपुर – 4400021
20 अगस्त, 20XX
प्रिय मित्र आलोक
स्नेह !
तुम्हारा पत्र प्राप्त कर बहुत प्रसन्नता हुई कि तुम जर्मनी जाकर भी मुझे भूले नहीं हो। वहाँ तुम्हारा अपने नये विद्यालय में मन लग गया है, यह पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई। मैंने भी इस वर्ष नए विद्यालय, भारतीय विद्या भवन, इतवारी में प्रवेश ले लिया है। यह विद्यालय अपने क्षेत्र के विद्यार्थियों में सर्वश्रेष्ठ है। यहाँ के अध्यापक अपने विद्यार्थियों को बहुत प्रेम से पढ़ाते हैं। हमारे विद्यालय में खेल – कूद तथा अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों को भी बहुत प्रोत्साहित किया जाता है। सभी विद्यार्थी परस्पर मिल-जुलकर रहते हैं। आशा है तुम्हें मेरे इस विद्यालय की विशेषताओं को पढ़कर ज्ञात हो गया होगा कि मेरा इस विद्यालय में प्रवेश लेना मेरे भविष्य के लिए उचित ही होगा। तुम भी अपने विद्यालय के बारे में विस्तार से लिखना।
शुभकामनाओं सहित
तुम्हारा अभिन्न साथी
सुरेश नेरकर

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19. जन्म – दिवस पर प्राप्त भेंट के लिए धन्यवाद – पत्र लिखिए।

712, जनता नगर
कोयंबटूर
24 दिसंबर, 20XX
पूज्य चाचा जी
सादर प्रणाम।
आपने मेरे जन्म-दिवस पर मुझे अपनी शुभ कामनाओं के साथ-साथ जो घड़ी भेजी है, उसके लिए मैं आपका हार्दिक धन्यवाद करती हूँ। मेरी पहली घड़ी पुरानी हो जाने के कारण न तो ठीक तरह से चलती थी और न ही ठीक समय की सूचना देती थी। अतः मैं नई घड़ी की आवश्यकता अनुभव कर रही थी। घड़ी देखने में भी अत्यन्त आकर्षक है। ठीक समय देने में तो इसका जवाब नहीं।
चाचा जी, मुझे तोहफ़े तो और भी मिले हैं पर आपकी घड़ी की बराबरी कोई नहीं कर सकता। आपकी यह प्रिय भेंट चिरस्मरणीय है। इस भेंट के लिए मैं एक बार फिर आपका धन्यवाद करती हूँ।
चाची जी को सादर प्रणाम। विमल और कमल को मेरी ओर से सस्नेह नमस्कार।
आपकी आज्ञाकारी
लक्ष्मी मेनन

20. छोटे भाई को पत्र लिखकर उसे समय का महत्व बताइए।

16, रूप नगर
अवंतिपुर
25 मई, 20XX
प्रिय अनुज चिरंजीव रहो।
कल ही पिता जी का पत्र प्राप्त हुआ है। उसमें उन्होंने तुम्हारे विषय में यह शिकायत की है कि तुम समय के महत्व को नहीं समझते। अपना अधिकांश समय खेल-कूद में तथा मित्रों से व्यर्थ के वार्तालाप में नष्ट कर देते हो। नरेश ! तुम्हारे लिए यह उचित नहीं। समय ईश्वर का दिया हुआ अमूल्य धन है। इसका ठीक ढंग से व्यय करना हमारा कर्तव्य है। समय की अपेक्षा करने वाला कभी महान नहीं बन सकता।

शीघ्र ही तुम्हारा स्कूल ग्रीष्मावकाश के लिए बंद हो रहा है। तुमने अपने भ्रमण के लिए जो योजना बनाई है, वह ठीक है। कुछ दिन शिमला में रहने से तुम्हारा मन तथा शरीर दोनों स्वस्थ बन जाएँगे। वहाँ भी तुम अध्ययन का क्रम जारी रखना। ज्ञान की वृद्धि के लिए पाठ्यक्रम के अतिरिक्त कुछ उपयोगी पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए लेकिन दृष्टि परीक्षा पर ही केंद्रित रहे।
भी
प्रत्येक क्षण का सदुपयोग एक पीढ़ी के समान है जो हमें निरंतर उत्थान तथा प्रगति की ओर ले जाता है। संसार इस बात का साक्षी है कि जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं, उन्होंने अपने जीवन के किसी भी क्षण को व्यर्थ नहीं जाने दिया। इसीलिए वे आज इतिहास के पृष्ठों में अमर हो गए हैं। पंत जी ने भी अपने जीवन को सुंदर रूप में देखने के लिए भगवान से कामना करते हुए कहा है – यह पल-पल का लघु जीवन, सुंदर, सुखकर, शुचितर हो।

प्रिय अनुज ! याद रखो। समय संसार का सबसे बड़ा शासक है। बड़े- बड़े नक्षत्र भी उसके संकेत पर चलते हैं। हमारी सफलता-असफलता समय के सदुपयोग अथवा दुरुपयोग पर ही निर्भर करती है। समय का मूल्य समझना, जीवन का मूल्य समझना है। हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो समय के दुरुपयोग में ही जीवन का आनंद ढूँढ़ते हैं। ऐसे लोग प्रायः व्यर्थ की बातचीत में, ताश खेलने में, चल-चित्र देखने में तथा आलस्यमय जीवन व्यतीत करने में ही अपना समय नष्ट करते रहते हैं। हमारे जीवन में मनोरंजन का भी महत्व है, पर मेहनत का पसीना बहाने के बाद। मनोरंजन के नाम पर समय नष्ट करना भूल ही नहीं बल्कि बहुत बड़ी मूर्खता है।
इस प्रकार समय के सदुपयोग में ही जीवन की सार्थकता है।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम समय का मूल्य समझोगे और उसके सदुपयोग द्वारा अपने जीवन को सफल बनाओगे।
मेरी ओर से माता-पिता को प्रणाम।
तुम्हारा हितैषी
रवींद्र वर्मा

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21. अपने मित्र अथवा सखी को एक पत्र लिखिए जिसमें अपने जीवन-लक्ष्य पर प्रकाश डाला गया हो।

110, गांधी मार्ग
मदुरै
14 अगस्त, 20XX
प्रिय सखी रमा
सस्नेह नमस्कार।

आपने अपने पत्र में ‘जीवन के लक्ष्य के महत्व पर बड़े सुंदर विचार व्यक्त किए हैं। ‘प्रयोजन के बिना मूर्ख व्यक्ति भी कार्य नहीं करता।’ यह कथन बड़ा सारगर्भित है। आपने मुझे जीवन-लक्ष्य के विषय में कुछ लिखने को कहा है। प्रिय बहन ! कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि मनुष्य कुछ सोचता है और विधाता को कुछ और ही स्वीकार होता है। आपने डॉक्टर बनने का निर्णय किया है लेकिन मेरा जीवन – लक्ष्य सामान्य होकर भी असमान्य है। शायद आपको मेरे लक्ष्य को जानकर आश्चर्य होगा। बहन ! मैंने अध्यापिका बनने का निर्णय किया है। इस निर्णय के पीछे मेरी रुचि और प्रवृत्ति के अतिरिक्त कुछ और बातें भी हैं।

शिक्षक को राष्ट्र का निर्माता कहा गया है। लेकिन आज का शिक्षक कर्तव्य पालन की अपेक्षा अर्थ उपार्जन में अधिक रुचि रखता है। उसमें त्याग एवं तपस्या का अभाव होता जा रहा है। मैं शिक्षका बनकर सच्चे अर्थों में शिक्षा जगत की सेवा करना चाहती हूँ। मैं शिक्षिका बनकर सबसे पूर्व अपने छात्रों में शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न करूँगी। जब शिक्षा में मन लगता है तो अनुशासनहीनता का भाव आप दूर हो जाता है। मेरा आदर्श होगा अपने शिष्यों को सच्चा ज्ञान प्रदान करना। मुझे जो भी विषय पढ़ाने को मिलेगा उसे पूरी रुचि के साथ पढ़ाऊँगी।

इतिहास के विषय ऐसे पढ़ाऊँगी कि बीती हुई घटनाएँ बच्चों के सामने चित्रावली बनकर घूमने लगें। मैं इस बात की ओर भी पूरा ध्यान दूँगी कि बच्चों ने मेरी बात को ग्रहण भी किया है या नहीं। आज का अध्यापक तो अपनी बात कह देने में ही अपने कर्तव्य की पूर्ति मानता है।
मैं छात्र-छात्राओं के प्रति सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करूँगी लेकिन अनुशासन की अपेक्षा सहन नहीं करूँगी। बच्चों को ऐतिहासिक एवं पर्वतीय भ्रमण अवश्य कराऊँगी ताकि वे सब-कुछ आँखों से देखकर आनंद का अनुभव करें। ‘सादा जीवन एवं उच्च विचार’ मेरे जीवन का मूलमंत्र रहेगा। सत्य एवं अहिंसा के समर्थक पैदा करने के लिए गांधीजी का आदर्श सामने रखूँगी। धर्म एवं संस्कृति का ध्वजा फहराने वालों के सामने शिवाजी एवं राणाप्रताप के वीरतापूर्ण कार्यों का वर्णन करूँगी।

हमारे गाँव में शिक्षा का कितना अभाव है। भारत की आत्मा गाँव हैं और ग्रामों की उन्नति के लिए शिक्षा की अत्यंत आवश्यकता है। मुझे अवसर मिलेगा तो मैं ग्रामीण भोले-भाले बच्चों का उपयुक्त मार्गदर्शन करूँगी। उनमें सोई हुई शक्ति को जगाऊँगी।
ईश्वर से प्रार्थना है कि वे मेरी यह महत्वाकांक्षा पूर्ण करें।
अपनी कुशलता का समाचार लिखना।
आपकी सखी
सुनीति

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22. अपने छोटे भाई को एक पत्र लिखिए जिसमें उसे खर्चीले फ़ैशन की होड़ छोड़कर परिश्रम करने की प्रेरणा दी गई हो।

425 – बी, मॉडल ग्राम
धर्मशाला
25 जुलाई, 20XX
प्रिय राकेश
चिरंजीव रहो।
कल ही माता जी का पत्र प्राप्त हुआ है। उन्होंने लिखा है कि कॉलेज में प्रवेश लेते ही राकेश के रंग-ढंग बदल गए हैं। उसमें फ़ैशन की प्रवृत्ति जाग उठी है। प्रिय अनुज, फ़ैशन आडंबर एवं दिखाने के लिए किया जाता है। इसमें धन का अपव्यय होता है, समय नष्ट होता है तथा अनेक प्रकार की चारित्रिक दुर्बलताएँ जन्म लेती हैं। सादा जीवन, उच्च विचार ही मानव के सबसे बड़े आभूषण हैं। सच्चाई तथा ईमानदारी जैसी भावनाएँ सादगी में ही रहती हैं। परिश्रम ही सफलता की कुँजी है। परिश्रम के बल पर ही तुमने दशम् कक्षा में शानदार सफलता प्राप्त की है। फ़ैशन से दूर रहकर तथा परिश्रम के बल पर ही तुम अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते हो। परिश्रम की महिमा कौन नहीं जानता ?
शिक्षा-काल में तो फ़ैशन विष के समान है। मुझे विश्वास है कि तुम फ़ैशन की प्रवृत्ति से दूर रहोगे और परिश्रम के महत्त्व को समझते हुए अध्ययन में लीन रहोगे। शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास ही शिक्षार्थी का लक्ष्य है।
तुम्हारा शुभचिंतक
पवन

23. बीमारी के कारण परीक्षा न दे सकने वाले मित्र को प्रेरणा – पत्र लिखिए।

720, नौरोजी मार्ग
बेंगलुरु
14 मार्च, 20XX
प्रिय महादेवन
सस्नेह नमस्कार।
अभी ही तुम्हारा पत्र प्राप्त हुआ, जिससे ज्ञात हुआ कि अस्वस्थ होने के कारण तुम वार्षिक परीक्षा नहीं दे सके हो तथा इस कारण बहुत दुखी हो। मुझे भी यह जान कर बहुत दुख हुआ कि तुम एक वर्ष की अपनी मेहनत को सार्थक नहीं कर पाये।

परंतु अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। जो भी हो गया उसे स्वीकार कर के पुनः पूरी तरह से परिश्रम करके अगले वर्ष की परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने का प्रयास करो। जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम है। अतः निराश नहीं होना चाहिए।
शुभकामनाओं सहित
तुम्हारा अभिन्न मित्र
चैतन्य श्रीनिवासन

JAC Class 9 Hindi रचना पत्र लेखन-अनौपचारिक पत्र

24. खोई हुई वस्तु लौटाने के लिए आभार प्रदर्शित करते हुए अपरिचित को पत्र लिखिए।

436, परेड ग्राउंड
शिमला
24 मार्च, 20XX
आदरणीय श्री मेहता जी
सादर नमस्कार।
कल मुझे डाक द्वारा अपनी खोई हुई पुस्तक प्राप्त कर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव हुआ। यह पुस्तक मैं बस में भूल गया था। आपने यह पुस्तक लौटाकर बड़ा उपकार किया। यदि इस पुस्तक के ऊपर मेरा पता न लिखा होता तो इसे प्राप्त करना संभव न होता। यह पुस्तक मेरे लिए बड़ी उपयोगी है। यह पुस्तक मुझे इसलिए भी प्रिय है, क्योंकि यह मुझे जन्म – दिवस पर एक मित्र द्वारा भेंट के रूप में दी गई थी।
आपने इस पुस्तक को भेजने के लिए जो कष्ट किया है, उसके लिए मैं आपके प्रति आभार प्रदर्शित करता हूँ। पुस्तक भेजने के लिए आपने जो डाक व्यय किया है, उसने मुझे और भी उपकृत कर दिया है।
मेरे योग्य कोई सेवा हो तो लिखें।
भवदीय
आकाश चौधरी

JAC Class 9 Hindi रचना पत्र लेखन-अनौपचारिक पत्र

25. अपनी भूल के लिए क्षमा-याचना करते हुए अपने पिता जी को एक पत्र लिखिए।

छात्रावास
कोलकाता विश्वविद्यालय
कोलकाता
14 अगस्त, 20XX
आदरणीय पिता जी
सादर प्रणाम।
कल ही आपका कृपा-पत्र मिला। आपने प्रश्न किया है कि मेरे वार्षिक परीक्षा में इतने कम अंक आने का कारण क्या है ? पिता जी इस बार मेरी संगति कुछ बुरे लड़कों से हो गई थी। मुझे अध्यापक महोदय ने भी एक-दो बार चेतावनी दी पर मैंने ध्यान नहीं दिया। आपके पत्र ने मुझे सचेत कर दिया है।
मैं अपनी इस भूल के लिए आपसे क्षमा-याचना करता हूँ और आपको आश्वासन दिलाता हूँ कि भविष्य में ऐसी भूल कभी न करूँगा। अभी से परिश्रम में जुट जाऊँगा। आप कृपा कर मुझे कुछ परीक्षोपयोगी पुस्तकें अवश्य भेज दें।
आशा है कि आप मुझे क्षमा कर देंगे। मैं पुनः आपको वचन देता हूँ कि मैं आपकी इच्छानुसार अध्ययन करूँगा और परीक्षा में शानदार सफलता प्राप्त करूँगा।
आपका आज्ञाकारी पुत्र
ललित कपूर

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

Jharkhand Board Class 11 Political Science न्यायपालिका InText Questions and Answers

पृष्ठ 127

प्रश्न 1.
मेरा तो सिर चकरा रहा है और कुछ समझ में नहीं आ रहा। लोकतन्त्र में आप प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति तक की आलोचना कर सकते हैं, न्यायाधीशों की क्यों नहीं? और फिर, यह अदालत की अवमानना क्या बला है? क्या मैं ये सवाल करूँ तो मुझे ‘अवमानना’ का दोषी माना जायेगा?
उत्तर:
भारतीय लोकतन्त्र में प्रधानमन्त्री और राष्ट्रपति जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि हैं, इसलिए हम उनके कार्यों और निर्णयों की आलोचना कर सकते हैं। लेकिन भारतीय संविधान ने लोकतन्त्र की रक्षा, नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा तथा संविधान की सुरक्षा के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और सुरक्षा पर बल देते हुए यह सुनिश्चित किया गया है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका न रहे। इसलिए न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार व्यक्ति के राजनीतिक विचार तथा निष्ठाएँ न होकर कानूनी विशेषज्ञता व योग्यता है।

न्यायाधीशों की सुरक्षा, स्वतन्त्रता और निष्पक्षता को बनाए रखने की दृष्टि से संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अदालत की अवमानना यदि कोई व्यक्ति न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना करता है, तो वह न्यायालय की अवमानना का दोषी है। न्यायालय को उसे दण्डित करने का अधिकार है। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से निर्णय करती है।

यदि मैं यह प्रश्न पूछता हूँ कि मैं न्यायाधीशों की आलोचना क्यों नहीं कर सकता? अदालत की अवमानना क्या है? ऐसे प्रश्न करना तथा उसके कारण खोजना व समझना अदालत की अवमानना नहीं है। क्योंकि इसमें आपने किसी न्यायाधीश के किसी निर्णय की कोई आलोचना नहीं की है, बल्कि यह जानना चाहा है कि हम न्यायाधीशों की आलोचना क्यों नहीं कर सकते और क्या यह लोकतन्त्र के लिए उचित है? यह न्यायाधीशों की अवमानना में नहीं आता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 2.
आपकी राय में निम्नलिखित में से कौन-कौन न्यायाधीशों के निर्णय को प्रभावित करते हैं? क्या आप इन्हें ठीक मानते हैं?
(अ) संविधान
(ब) पहले लिए गए फैसले
(स) अन्य अदालतों की राय
(द) जनमत
(य) मीडिया
(र) कानून की परम्पराएँ
(ल) कानून
(व) समय और कर्मचारियों की कमी
(श) सार्वजनिक आलोचना का भय
(स) कार्यपालिका द्वारा कार्यवाही का भय।
उत्तर:
मेरी राय में उपर्युक्त में से निम्नलिखित न्यायाधीशों के निर्णयों को प्रभावित करते हैं और मैं इन्हें ठीक मानता हूँ।
(अ) संविधान
(ब) पहले लिए गए फैसले
(स) अन्य अदालतों की राय
(द) कानून की परम्पराएँ
(व) कानून।

पृष्ठ 128

प्रश्न 3.
मेरा ख्याल है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में मन्त्रिपरिषद् की बात को ज्यादा तरजीह दी जानी चाहिए या फिर यह मान लें कि न्यायपालिका अपनी नियुक्ति आप ही करने वाला निकाय है।
उत्तर:
मैं आपके उपर्युक्त विचारों से सहमत नहीं हूँ क्योंकि यदि न्यायाधीशों की नियुक्ति में मन्त्रिपरिषद् की बात को ज्यादा तरजीह दी जायेगी तो न्यायपालिका के कार्यों में कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ़ जायेगा और कार्यपालिका न्यायपालिका की तटस्थता या निष्पक्षता को खत्म कर उसे प्रतिबद्ध न्यायपालिका की तरफ बढ़ायेगी। यह मानना भी त्रुटिपरक है कि न्यायपालिका अपनी नियुक्ति आप ही करना वाला निकाय है क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है, इसमें प्रायः वरिष्ठता की परम्परा का पालन किया जाता है, जिसका आधार अनुभव और योग्यता है।

मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम चार न्यायाधीशों के परामर्श से मुख्य न्यायाधीश कुछ न्यायाधीशों का एक पैनल राष्ट्रपति को भेज देता है। राष्ट्रपति इनमें से किसी की भी नियुक्ति कर सकता है। इस प्रकार अन्तिम निर्णय मन्त्रिपरिषद् द्वारा ही लिया जाता है। मन्त्रिपरिषद् के निर्णय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राजनीतिक निष्ठाओं के प्रभाव में योग्यता को नजर- अंदाज न किया जा सके, इसलिए मन्त्रिपरिषद् के निर्णय पर न्यायाधीशों के परामर्श की कुछ सीमाएँ लगायी गयी हैं। इस प्रकार न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् दोनों महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

पृष्ठ 129

प्रश्न 4.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व: निम्न कारणों से न्यायपालिका की स्वतन्त्रता महत्त्वपूर्ण है।

  1. समाज में व्यक्तियों के बीच, समूहों के बीच, व्यक्ति या समूह तथा सरकार के बीच उठने वाले विवादों को ‘कानून के शासन के सिद्धान्त’ के आधार पर एक स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही हल किया जा सकता है।
  2. व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा एक स्वतन्त्र न्यायपालिका ही कर सकती है।
  3. स्वतन्त्र न्यायपालिका ही यह सुनिश्चित करती है कि लोकतन्त्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले ले।
  4. स्वतन्त्र न्यायपालिका ही संविधान की रक्षा का कार्य भली-भाँति कर सकती है।

प्रश्न 5.
क्या आपकी राय में कार्यपालिका के पास न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति होनी चाहिए?
उत्तर:
मेरी राय में कार्यपालिका के पास न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति होनी चाहिए, तथापि यह शक्ति निरंकुश नहीं होनी चाहिए, इस पर न्यायालय की सलाह की सीमा भी रहनी चाहिए।

प्रश्न 6.
यदि आप से न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव करने का सुझाव देने को कहा जाये तो आप क्या सुझाव देंगे?
उत्तर:
यदि मुझसे न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव करने का सुझाव देने को कहा जाये तो मैं यह सुझाव दूँगा कि राष्ट्रपति को न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नाम प्रस्तावित करने के लिए बनी कमेटी में चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के साथ-साथ चार वरिष्ठ मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को भी शामिल किया जाना चाहिए जिसमें गृहमन्त्री, विधिमन्त्री व दो अन्य मन्त्री हों। इन आठ व्यक्तियों की कमेटी की सलाह राष्ट्रपति को दी जानी चाहिए।

पृष्ठ 134

प्रश्न 7.
निम्नलिखित दो सूचियों को सुमेलित करें-
सूची – 1
(क) बिहार और भारत सरकार के मध्य विवाद की सुनवाई कौन करेगा?
(ख) हरियाणा के जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील कहाँ की जायेगी?
(ग) एकीकृत न्यायपालिका।
(घ) किसी कानून को असंवैधानिक घोषित करना।

सूची – 2
(1) उच्च न्यायालय
(2) परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार
(3) न्यायिक पुनर्निरीक्षण
(4) मौलिक क्षेत्राधिकार
(5) सर्वोच्च न्यायालय
(6) एकल संविधान।
उत्तर:
(क) बिहार और भारत सरकार के मध्य विवाद की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय करेगा। (क + 5)
(ख) हरियाणा के जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील उच्च न्यायालय में की जायेगी। (ख + 1)
(ग) एकीकृत न्यायपालिका एकल संविधान के कारण है। (ग+6)
(घ) किसी कानून को न्यायपालिका न्यायिक पुनर्निरीक्षण के द्वारा असंवैधानिक घोषित कर सकती है। ( घ+3)

पृष्ठ 134

प्रश्न 8.
सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही फैसले को बदलने की इजाजत क्यों दी गयी है? क्या ऐसा यह मानकर किया गया है कि अदालत से भी चूक हो सकती है? क्या यह सम्भव है कि फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए जो खण्डपीठ बैठी है उसमें वह न्यायाधीश भी शामिल हो, जो फैसला सुनाने वाली खण्डपीठ में था?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही फैसले को बदलने की इजाजत इसलिए दी गई है कि हो सकता है कि पिछले फैसले के समय जो तथ्य सामने नहीं आए हों, उन तथ्यों की रोशनी में उस पर पुनः प्रकाश डाला जा सके। यदि कुछ ऐसे नये तथ्य सामने आते हैं जिनके प्रकाश में पहला फैसला सर्वोच्च न्यायालय को गलत लगता है, तो वह अपने पुराने फैसले को बदल सकता है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय नवीन परिस्थितियों से अनुकूलन करते रहेंगे। यह सम्भव है कि फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए जो खण्डपीठ बैठी है उसमें वह न्यायाधीश भी शामिल हो, जो फैसला सुनाने वाली खण्डपीठ में था।

पृष्ठ 138

प्रश्न 9.
आप एक न्यायाधीश हैं। नागरिकों का एक समूह जनहित याचिका के माध्यम से न्यायालय जाकर प्रार्थना करता है कि वह शहर की नगरपालिका के अधिकारियों को झुग्गी-झोंपड़ियाँ हटाने और शहर को सुन्दर बनाने का काम करने का आदेश दे, ताकि शहर में पूँजी निवेश करने वालों को आकर्षित किया जा सके। उनका तर्क है कि ऐसा करना जनहित में है। झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वालों का पक्ष है कि ऐसा करने पर उनके ‘जीवन के अधिकार’ का हनन होगा। उनका तर्क है कि जनहित के लिए साफ-सुथरे शहर के अधिकार से ज्यादा जीवन का अधिकार महत्त्वपूर्ण है। आप एक निर्णय लिखें और तय करें कि इस ‘जनहित याचिका में जनहित का मुद्दा है या नहीं।
उत्तर:
इस जनहित याचिका में जनहित का मुद्दा नहीं है क्योंकि नागरिकों के समूह ने शहर को सुन्दर बनाने के लिए शहर में पूँजी निवेश करने वालों को आकर्षित करने के लिए नगरपालिका अधिकारियों को झुग्गी-झोंपड़ियाँ हटाने के आदेश के लिए न्यायपालिका को जो जनहित याचिका दी है, उनमें झुग्गी-झोंपड़ियों में रहने वाले लोगों के हितों को नजर-अंदाज किया है। झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाले लोगों का यह पक्ष सही है कि इससे उनके ‘जीवन के अधिकार’ का हनन होगा जो कि साफ- -सुथरे शहर के अधिकार से अधिक महत्त्वपूर्ण है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

पृष्ठ 140

प्रश्न 10.
न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कब करता है?
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिकता जाँच सकता है और यदि वह संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है। न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग निम्नलिखित दशाओं में करता है।

  1. जब कभी संसद मूल अधिकारों के विपरीत कोई कानून का निर्माण करती है तो उस कानून के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
  2. संघीय सम्बन्धों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है। अर्थात् कोई ऐसा कानून या कार्यपालिका का कृत्य जो संविधान में निहित शक्ति – विभाजन की योजना के प्रतिकूल हो तो सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के द्वारा उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है।

प्रश्न 11.
न्यायिक पुनरावलोकन और रिट में क्या अन्तर है?
उत्तर:
रिट याचिकाकर्त्ता के मौलिक अधिकारों को फिर से स्थापित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा उस व्यक्ति या संस्था के विरुद्ध जारी की जाती है, जिसने उसके मौलिक अधिकार का हनन किया है। न्यायिक पुनरावलोकन द्वारा किसी कानून की संवैधानिकता की जाँच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जाती है और सर्वोच्च न्यायालय उसके संविधान के प्रतिकूल होने पर उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है। इस प्रकार रिट द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाती है और न्यायिक पुनरावलोकन के द्वारा संविधान की सुरक्षा की जाती है।

पृष्ठ 143

प्रश्न 12.
निम्न में से न्यायपालिका और संसद के बीच टकराव के कौनसे मुद्दे रहे हैं।
(अ) न्यायाधीशों की नियुक्ति
(ब) न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते
(स) संसद के द्वारा संविधान संशोधन का दायरा
(द) संसद द्वारा न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप।
उत्तर:
न्यायपालिका और संसद के बीच टकराव के मुद्दे रहे हैं।
(अ) न्याधीशों की नियुक्ति।
(स) संसद के द्वारा संविधान संशोधन का दायरा।
(द) संसद द्वारा न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप।

Jharkhand Board Class 11 Political Science न्यायपालिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौनसे हैं? निम्नलिखित जो बेमेल हो उसे छाँटें।
(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह ली जाती है।
(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
(ग) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद की दखल नहीं है।
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के लिए निम्नलिखित तरीके हैं।

  1. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सलाह ली जाती है। सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से कुछ नाम प्रस्तावित करता है और इसी में से राष्ट्रपति नियुक्तियाँ करेगा। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्तियों की सलाह देने में सामूहिकता का सिद्धान्त प्रतिपादित कर न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित किया है।
  2. न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता उन्हें कार्यकाल की सुरक्षा प्राप्त है।
  3. न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद का दखल नहीं है। इससे यह सुनिश्चित किया गया है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में दलगत राजनीति का दखल न हो।
  4. न्यायपालिका, व्यवस्थापिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है।
  5. न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की आलोचना नहीं की जा सकती न्यायालय की अवमानना का दोषी पाए जाने पर न्यायपालिका को उसे दण्डित करने का अधिकार है। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से निर्णय करती है। प्रश्न के अन्दर दिये गए बिन्दुओं में जो बेमेल है, वह है- (ग) एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 2.
क्या न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। देश की न्यायपालिका अपने कार्यों के लिए देश के संविधान, लोकतान्त्रिक परम्परा और नागरिकों के प्रति जवाबदेह है। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ उसे निरंकुश बनाना नहीं है, बल्कि उसे बिना किसी भय तथा दलगत राजनीति के दुष्प्रभावों से दूर रखने का प्रयास करना है। इसी दृष्टि से भारत की न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। उसका कार्यकाल अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु तक सुनिश्चित किया गया है तथा उसे आलोचना के भय से मुक्त रखा गया है; ताकि वह निष्पक्ष तथा स्वतन्त्र होकर अपने निर्णय कर सके। हैं?

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौनसे
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के प्रावधान: न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान में अग्रलिखित प्रावधान किये गये हैं।

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति: न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे यह सुनिश्चित किया गया है कि इन नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका न रहे। दूसरे, न्यायाधीशों की नियुक्ति में उसकी योग्यता व विशेषता को आधार बनाया गया है। न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए। उसमें संविधान के प्रति निष्ठा तथा ईमानदारी की भावना होनी चाहिए। उस व्यक्ति के राजनीतिक विचार या निष्ठाएँ उसकी नियुक्ति का आधार नहीं बनायी गयी हैं।

2. न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका: भारतीय संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा किये जाने का प्रावधान है क्योंकि यह पद्धति जनता द्वारा नियुक्ति या विधायिका द्वारा नियुक्ति की तुलना में श्रेष्ठ है। इसके लिए यह प्रस्तावित किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी। साथ ही यह कहा गया है कि कार्यपालिका, न्यायाधीशों की नियुक्ति निर्धारित योग्यता के अनुसार करेगी।
वर्तमान में न्यायपालिका में कार्यपालिका के हस्तक्षेप को दूर करने तथा स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने की दृष्टि से सामूहिकता के सिद्धान्त को स्थापित किया गया है।

कि अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश की सलाह को माने, इस हेतु यह व्यवस्था की गई है कि सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्ययाधीशों की सलाह से नाम प्रस्तावित करेगा और इसी में से राष्ट्रपति नियुक्तियाँ करेगा। इस तरह न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् दोनों महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

3. न्यायाधीशों का लम्बा कार्यकाल: संविधान में न्यायाधीशों का लम्बा कार्यकाल रखा गया है अर्थात् न्यायाधीश अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु (65 वर्ष की आयु) तक अपने पद पर बने रहते हैं। केवल अपवादस्वरूप विशेष स्थितियों में ही न्यायाधीशों को अवकाश प्राप्ति की आयु से पूर्व हटाया जा सकता है। संविधान में न्यायाधीशों को हटाने के लिए बहुत कठिन प्रक्रिया निर्धारित की गई है। संविधान निर्माताओं का मानना था कि हटाने की प्रक्रिया कठिन हो तो न्यायपालिका के सदस्यों का पद सुरक्षित रहेगा।

4. वित्तीय रूप से निर्भरता नहीं: न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। संविधान के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन और भत्तों के लिए विधायिका की स्वीकृति नहीं ली जायेगी।

5. आलोचना के भय से मुक्ति: न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अगर कोई न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है, तो न्यायपालिका को उसे दण्डित करने का अधिकार है। इस अधिकार के कारण कोई उनकी नाजायज आलोचना नहीं कर सकेगा। संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है, जब वह उनको हटाने के प्रस्ताव पर चर्चा कर रही हो। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से निर्णय करती है।

प्रश्न 4.
नीचे दी गई समाचार रिपोर्ट पढ़ें और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें।
(क) मामला किस बारे में है?
(ख) इस मामले में लाभार्थी कौन है?
(ग) इस मामले में फरियादी कौन है?
(घ) सोचकर बताएँ कि कम्पनी की तरफ से कौन-कौनसे तर्क दिये जायेंगे?
(ङ) किसानों की तरफ से कौन-कौनसे तर्क दिये जायेंगे?
सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों को 300 करोड़ रुपये देने को कहा – निजी कारपोरेट ब्यूरो, 24 मार्च, 2005।

मुम्बई: सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस एनर्जी से मुम्बई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपये देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप – ऊर्जा संयन्त्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी। अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया।दहानु मुम्बई से 150 किमी. दूर है।

एक दशक पहले तक इस इलाके की अर्थव्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली – पालन और जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयन्त्र चालू हुआ और इसी के साथ हुई इस इलाके की बर्बादी। अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गयी। कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है।

मछली: पालन बन्द हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयन्त्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी तन्त्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप – ऊर्जा संयन्त्र को प्रदूषण नियन्त्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सकें। सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियन्त्रण का संयन्त्र स्थापित नहीं हुआ।

सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयन्त्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण नियन्त्रण संयन्त्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियन्त्रण संयन्त्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था, इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायन्स से 300 करोड़ रुपये की बैंक गारण्टी देने को कहा।
उत्तर:
(क) यह मामला रिलायन्स ताप – ऊर्जा संयन्त्र द्वारा प्रदूषण के विषय का विवाद है।
(ख) इस मामले में किसान लाभार्थी हैं।
(ग) इस मामले में किसान, पर्यावरणविद् तथा दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण प्रार्थी/फरियादी हैं।
(घ) कम्पनी द्वारा उस क्षेत्र के लोगों के लिए ताप: ऊर्जा संयन्त्र के द्वारा होने वाले लाभों का तर्क दिया जायेगा। क्षेत्र में ऊर्जा की कमी नहीं रहेगी ऐसा आश्वासन दिया जायेगा।
(ङ) किसानों की तरफ से यह तर्क दिया जायेगा कि ताप: ऊर्जा संयन्त्र के कारण न केवल उनकी चीकू की फसलें बरबाद हुई हैं वरन् उनका मछली – पालन का कारोबार भी ठप पड़ गया है। क्षेत्र के लोग बेरोजगार हो गये हैं

प्रश्न 5.
नीचे की समाचार रिपोर्ट पढ़ें और चिन्हित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर की सरकार सक्रिय दिखाई देती है।
(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौनसी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
(ग) इस प्रकरण से सम्बद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से सम्बन्धित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।

सीएनजी – मुद्दे पर केन्द्र और दिल्ली सरकार एक साथ
(स्टाफ रिपोर्टर, द हिन्दू, सितम्बर 23, 2001)

राजधानी के सभी गैर- सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केन्द्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे। दोनों ‘सरकारों’ में इस बात की सहमति हुई है। दिल्ली और केन्द्र की सरकार ने पूरी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरी ईंधन प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।

राजधानी के निजी वाहन धारकों द्वारा सीएनजी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जायेगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो- दो मानक को पूरा करते हैं, उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालांकि केन्द्र और दिल्ली सरकार अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे इनमें समान बिन्दुओं को उठाया जायेगा। केन्द्र सरकार सीएनजी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी।

दिल्ली की मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित और केन्द्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मन्त्री श्रीराम नाईक के बीच हुई बैठक में ये फैसले किये गये। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केन्द्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ. आर. ए. मशेलकर की अगुआई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सीएनजी में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योंकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सीएनजी में बदल पाना असम्भव है। डॉ. मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश की ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है समिति छ: माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।

मुख्यमन्त्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मामले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया- सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सीएनजी की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लम्बी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सीएनजी ईंधन जुटाने तथा अदालत के निर्देशों को अमल में लाने के तरीकों और साधनों पर एक-साथ ध्यान दिया जायेगा।’

सर्वोच्च न्यायालय ने सीएनजी के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इनकार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सीएनजी इस्तेमाल किया जाए, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला। श्री राम नाईक का कहना था कि केन्द्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकिपूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर बनाना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सीएनजी की आपूर्ति पाइपलाइन के जरिए होती है और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाएगी।
उत्तर:
इस समाचार रिपोर्ट में दो सरकारें संयुक्त रूप से एक समस्या को सुलझाने के लिए सक्रिय दिखाई देती हैं। ये हैं।

  1. भारत सरकार (संघ सरकार)
  2. दिल्ली सरकार (प्रान्तीय सरकार)

(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका प्रदूषण से बचने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि राजधानी में सरकारी तथा निजी दोनों प्रकार की बसों में सी. एन. जी. का प्रयोग एक निश्चित तिथि तक होने लगे । इस सम्बन्ध में दिल्ली सरकार ने अदालत से यह विनती की कि अदालत के निर्देश पर अमल करने के लिए समय की छूट की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय ने सिटी बसों को महानगर में सीएनजी के प्रयोग से छूट देने को मना किया परन्तु यह भी कहा कि उसने टैक्सी और ऑटो रिक्शा के लिए कभी सीएनजी के लिए दबाव नहीं डाला।

(ख) इस रिपोर्ट में कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों ही शहर बढ़ते प्रदूषण को रोकने में प्रयासरत हैं। कार्यपालिका ने इस सम्बन्ध में दिल्ली में पूरी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरी ईंधन प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला लिया क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है। न्यायपालिका ने इस सम्बन्ध में यह निर्णय दिया कि दोहरी ईंधन प्रणाली को सभी प्रकार के वाहनों के लिए स्वतन्त्र नहीं छोड़ा जा सकता। महानगर में सिटी बसें तो सीएनजी से ही चलायी जायेंगी, लेकिन टैक्सी और ऑटो- रिक्शा के लिए सीएनजी या डीजल किसी का भी उपयोग किया जा सकता है।

(ग) इस प्रकरण में नीतिगत मुद्दा प्रदूषण हटाना है। सभी व्यावसायिक वाहनों जो यूरो-2 मानक को पूरा करते हैं, उन्हें शहर में चलाने की अनुमति दी जाये। सरकार यह भी चाहती है कि समय-सीमा बढ़ाई जाये क्योंकि 10,000 बसों के बेड़े को निश्चित समय में सीएनजी में परिवर्तित करना सम्भव नहीं है। यह कानून बनाने और उसके क्रियान्वयन से जुड़ा प्रश्न है। न्यायालय का यह कहना है कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए सिर्फ सीएनजी का इस्तेमाल किया जाये, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला; कानून की व्याख्या से सम्बन्धित कथन है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं? सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिल सकती थी। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस नीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिये हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश) में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है, उसे अपना फैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
उत्तर:
इस उदाहरण और भारत की न्याय व्यवस्था में कोई समानता नहीं है। यथा
1. भारत में न्यायिक निर्णय आधुनिक काल में कानून के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के निर्णय दूसरे न्यायालयों में उदाहरण बन जाते हैं और पूर्व के निर्णय के आधार पर निर्णय दिये जाने लगते हैं। और इन पूर्व के निर्णयों को उसी प्रकार की मान्यता होती है, जैसे कि संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की। उपर्युक्त उदाहरण में इक्वाडोर के न्यायालय में इस प्रकार से कार्य नहीं किया जाता। वहाँ पर न्यायालयों के पूर्व निर्णयों को आधार बनाकर निर्णय नहीं दिये जाते।

2. भारत के न्यायालय में न्यायाधीशों को अपना फ़ैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में देना होता है, जिससे एक-समान विवादों के निर्णयों में भी प्रायः समानता बनी रहती है और यदि कभी असमानता आती है तो उसके आधार का भी उल्लेख करना पड़ता है दूसरी तरफ इक्वाडोर के न्यायाधीश को अपना फैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। इसलिए एक समान विवादों में भी निर्णयों में अन्तर आता रहता है। यहाँ तक कि वहाँ कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाता है और वही न्यायाधीश दूसरे दिन उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है। इसमें उसे यह बताने की आवश्यकता नहीं होती कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित कथनों को पढ़िये और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाये जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार; मसलन मूल, अपीली और सलाहकारी से इनका मिलान कीजिए।
(क) सरकार जानना चाहती थी कि क्या वह पाकिस्तान अधिग्रहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के सम्बन्ध में कानून पारित कर सकती है।
(ख) कावेरी नदी के जल विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
(ग) बाँध स्थल से हटाये जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।
उत्तर:
(क) मौलिक क्षेत्राधिकार: प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का आरम्भ उन विवादों से है जो उच्चतम न्यायालय में सीधे तौर पर लिये जाते हैं। ऐसे विवादों को पहले निचली अदालतों में सुनवाई के लिए नहीं लिया जा सकता है। ऐसे विवाद केन्द्र और राज्यों बीच या विभिन्न राज्यों के बीच उठे विवाद होते हैं। अपने इस क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सर्वोच्च न्यायालय न केवल विवादों को सुलझाता है बल्कि संविधान में की गई संघ और राज्य सरकार की शक्तियों की व्याख्या भी करता है।

(ख) अपीलीय क्षेत्राधिकार: अपीलीय क्षेत्राधिकार से अभिप्राय है कि वे विवाद जो किसी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में पाये जा सकते हैं।

(ग) सलाहकारी क्षेत्राधिकार: सलाहकारी क्षेत्राधिकार वह है जिसमें राष्ट्रपति किसी विवाद के बारे में उच्चतम न्यायालय से परामर्श माँगता है। उच्चतम न्यायालय चाहे तो परामर्श दे सकता है और चाहे तो मना कर सकता है। राष्ट्रपति भी उच्चतम न्यायालय के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

प्रश्न में दिये गये कथनों को विभिन्न क्षेत्राधिकारों से निम्न प्रकार मिलान किया जा सकता हैहै।
(क) ‘सरकार जानना …………….. कर सकती है।
उत्तर:
परामर्शदात्री ( सलाहकारी) क्षेत्राधिकार।

(ख) ‘कावेरी नदी के……………….. लेना चाहती है।’
उत्तर:
मौलिक क्षेत्राधिकार।

(ग) बाँध स्थल से ………………..ठुकरा दिया।
उत्तर:
अपीलीय क्षेत्राधिकार।

प्रश्न 8.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
सन् 1980 के बाद जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई है जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग अर्थात् गरीब लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए न्यायालय ने जन सेवा की भावना से भरे नागरिक, सामाजिक संगठन और वकीलों को समाज के जरूरतमंद और गरीब लोगों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की इजाजत दी है। इससे ऐसे मुकदमों की संख्या में वृद्धि हुई है जिनमें जन सेवा की भावना रखने वाले नागरिकों ने गरीबों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए जनहित याचिका दायर कर न्यायपालिका से हस्तक्षेप की माँग की।

गरीबों का जीवन सुधारने के लिए, गरीब व्यक्तियों के अधिकारों की पूर्ति करने के लिए, शोषण के विरुद्ध अपराध को अर्थपूर्ण बनाने के लिए – बंधुआ मजदूरों की मुक्ति तथा लड़कियों से देह व्यापार कराने को रोकने आदि अनेक प्रकार के शोषण को रोकने के लिए, गरीब व्यक्तियों की उत्पीड़न की समस्याओं से छुटकारा दिलवाने के लिए स्वयंसेवी संगठन जनहित याचिकाओं के द्वारा न्यायालय से हस्तक्षेप की माँग कर सकते हैं। न्यायालय इन शिकायतों को आधार बनाकर उन पर विचार शुरू करता है और पीड़ित व्यक्तियों को शोषण से छुटकारा दिलाता है।

इन जनहित याचिकाओं के प्रचलन से यद्यपि न्यायालयों पर कार्यों का बोझ बढ़ा है, परन्तु इनसे गरीब लोगों को लाभ पहुँचा है। इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया है। इससे कार्यपालिका जवाबदेह बनने पर बाध्य हुई है। अनेक बन्धुआ मजदूरों को शोषण से बचाया गया है तथा खतरनाक कामों में बाल-श्रम पर प्रतिबन्ध लगाया गया है।

प्रश्न 9.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
हाँ, मैं यह मानता हूँ कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है। न्यायिक सक्रियता कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने के लिए बाध्य करती है। न्यायिक सक्रियता के कारण ही जो विषय पहले न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में नहीं थे, उन्हें भी अब इस दायरे में ले लिया गया है, जैसे राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियाँ। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश दिये हैं, जैसे उसने हवाला मामले, नरसिंहराव मामले और पैट्रोल पम्पों के अवैध आबण्टन जैसे अनेक मामलों सी.बी.आई. को निर्देश दिया कि वह राजनेताओं और नौकरशाहों के विरुद्ध जाँच करे।

भारतीय संविधान शक्ति के सीमित बँटवारे तथा अवरोध और सन्तुलन के एक महीन सिद्धान्त पर आधारित है। अर्थात् सरकार के प्रत्येक अंग का एक स्पष्ट कार्यक्षेत्र है। संसद कानून बनाने और संविधान का संशोधन करने में सर्वोच्च है, कार्यपालिका उन्हें लागू करने तथा न्यायपालिका विवादों को सुलझाने तथा कानून की व्याख्या करने में सर्वोच्च है। ऐसी स्थिति में यदि न्यायपालिका कानूनों को लागू करने के कार्यपालिका के काम में हस्तक्षेप करेगी तो दोनों में विरोध पनप सकता है।

दूसरे, न्यायपालिका के अपने कार्य ही बहुत हैं। उसके समक्ष न्याय हेतु विवादों का हल के लिए अंबार लगा हुआ है। यदि न्यायपालिका न्यायिक सक्रियता के माध्यम से कार्यपालिका के कामों में दखलंदाजी देगी तो वह उन समस्याओं में उलझ जायेगी जो कार्यपालिका को हल करने चाहिए। इससे शक्ति विभाजन के बीच का अन्तर धुँधला जायेगा और परस्पर टकराव बढ़ेगा।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 10.
न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से किस रूप में जुड़ी है? क्या इससे मौलिक अधिकारों के विषय क्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है?
उत्तर:
संविधान ने न्यायपालिका को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व सौंपा है। सर्वोच्च न्यायालय अनेक रिटों के माध्यम से तथा न्यायिक पुनरावलोकन के माध्यम से मौलिक अधिकारों की रक्षा का कार्य करता है। मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है। सामान्य रूप से किसी व्यक्ति के मूल अधिकार के उल्लंघन होने पर वह पीड़ित व्यक्ति ही अपने अधिकार की सुरक्षा के लिए न्यायालय में याचिका प्रस्तुत कर सकता है। लेकिन न्यायिक सक्रियता ने इस स्थिति के विषय – क्षेत्र को निम्न रूपों में बढ़ा दिया है।

1. न्यायिक सक्रियता के चलते न्यायालय ने एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया जो पीड़ित लोगों की ओर से दूसरों ने उसके अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय में प्रार्थना दी हो। ऐसी प्रार्थनाओं को जनहित याचिकाएँ कहा गया। इसी सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने कैदियों के अधिकारों से सम्बन्धित मुकदमे पर विचार किया । इससे ऐसे मुकदमों की बाढ़-सी आ गई जिसमें जन सेवा की भावना रखने वाले नागरिकों तथा स्वयंसेवी संगठनों ने अधिकारों की रक्षा से जुड़े अनेक मुद्दों पर न्यायपालिका से हस्तक्षेप की माँग की ।

2. न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत ही न्यायपालिका ने अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बनाकर उन पर भी विचार करना शुरू कर दिया। न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग आसानी से अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत की शरण नहीं ले सकते थे। इसने शोषण के विरुद्ध अधिकार को अर्थपूर्ण बना दिया क्योंकि बन्धुआ मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करना अब सम्भव हो गया।

इस प्रकार न्यायिक सक्रियता के तहत जनहित याचिकाओं तथा न्यायपालिका की स्वयं की सक्रियता से न्यायालय के अधिकारों का दायरा बढ़ा दिया है। शुद्ध हवा, पानी और अच्छा जीवन पाना पूरे समाज का अधिकार है। न्यायालय का मानना था कि समाज के सदस्य के रूप में, अधिकारों के उल्लंघन पर व्यक्तियों को इन्साफ की गुहार लगाने का अधिकार। इस प्रकार न्यायिक सक्रियता से मौलिक अधिकारों के विषयक्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है।

न्यायपालिका JAC Class 11 Political Science Notes

→ परिचय: हमें स्वतन्त्र न्यायपालिका क्यों चाहिए कानून के शासन की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करने, व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करने, विवादों को कानून के अनुसार हल करने, तानाशाही को रोकने के लिए हमें राजनीतिक दबाव से मुक्त स्वतन्त्र न्यायपालिका चाहिए।

→ न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय: न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ है कि सरकार के अन्य दो अंग- विधायिका और कार्यपालिका—उसके कार्यों में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाएँ ताकि वे ठीक ढंग से न्याय कर सकें; वे अंग न्यायपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप न करें तथा न्यायाधीश बिना किसी भय तथा भेदभाव के अपना कार्य कर सकें । न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता या उत्तरदायित्व का अभाव नहीं है क्योंकि न्यायपालिका देश के संविधान, लोकतांत्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है।

→ भारतीय संविधान ने किन उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है? भारतीय संविधान ने अनेक उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है।

  • न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया गया है।
  • न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है।
  • न्यायाधीशों की पदच्युति की कठिन प्रक्रिया।
  • न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है।
  • न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती।

→ न्यायाधीशों की नियुक्ति: भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इसमें यह परम्परा है कि सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश को इस पद पर नियुक्त किया जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से करता है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में सामूहिकता का सिद्धान्त स्थापित किया है। इसके तहत सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से कुछ नाम प्रस्तावित करेगा और इसी में से राष्ट्रपति नियुक्तियाँ करेगा। इस प्रकार न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

→ न्यायाधीशों को पद से हटाना: कदाचार साबित होने अथवा अयोग्यता के आधार पर महाभियोग द्वारा संसद किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटा सकती है। लेकिन यह एक कठिन प्रक्रिया है क्योंकि उसके लिए दोनों सदनों से पृथक्-पृथक् उपस्थित 2/3 बहुमत तथा कुल सदस्य संख्या के बहुमत से महाभियोग का प्रस्ताव पारित होना आवश्यक है।

→ न्यायपालिका की संरचना
भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है। भारत में न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है। सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय हैं। यथा-
JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 संविधान - क्यों और कैसे 2

→ भारत के सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार: भारत के सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार इस प्रकार है।

  • मौलिक क्षेत्राधिकार: संघ और राज्यों के बीच तथा विभिन्न राज्यों के बीच आपसी विवादों का निपटारा।
  • रिट सम्बन्धी क्षेत्राधिकार: व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए बन्दी – प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध – आदेश, उत्प्रेषण लेख तथा अधिकार – पृच्छा जारी करने का अधिकार।
  • अपीलीय क्षेत्राधिकार: दीवानी, फौजदारी तथा संवैधानिक सवालों से जुड़े अधीनस्थ न्यायालयों के मुकदमों की अपील पर सुनवाई करना; भारतीय भू-भाग की किसी अदालत द्वारा पारित मामले या दिए गए फैसले पर स्पेशल लीव पिटीशन के तहत की गई अपील पर सुनवाई की शक्ति।
  • सलाहकारी क्षेत्राधिकार: जनहित के मामलों तथा कानून के मसले पर राष्ट्रपति को सलाह देना।

→ न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका।
भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन जनहित याचिका या सामाजिक व्यवहार याचिका है। कानून की सामान्य प्रक्रिया में कोई व्यक्ति तभी अदालत जा सकता है, जब उसका कोई व्यक्तिगत नुकसान हुआ हो अर्थात् अपने अधिकार का उल्लंघन होने पर या किसी विवाद में फँसने पर कोई व्यक्ति न्याय हेतु न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। लेकिन:

  • 1979 में न्यायालय ने अपने क्षेत्राधिकार को बढ़ाते हुए एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया जिसे पीड़ित लोगों ने नहीं बल्कि उनकी ओर से दूसरों ने दाखिल किया था; क्योंकि इसमें जनहित से सम्बन्धित एक मुद्दे पर विचार हो रहा था। ऐसे ही अन्य अनेक मुकदमों को जनहित याचिकाओं का नाम दिया गया।
  • न्यायपालिका ने स्वयं प्रसंज्ञान लेते हुए अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बनाकर उन पर भी विचार करना शुरू कर दिया। न्यायालय की यह नई भूमिका न्यायिक सक्रियता कहलाती है।
  • शुद्ध हवा-पानी और अच्छा जीवन पाना पूरे समाज का अधिकार है, इस आधार पर न्यायालय ने समाज के सदस्य के रूप में इन अधिकारों के उल्लंघन पर व्यक्तियों को न्यायालय में न्याय के लिए याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार प्रदान किया।
  • 1980 के बाद न्यायालय ने जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों की पूर्ति के लिए न्यायालय ने जनसेवा की भावना से भरे नागरिक, सामाजिक संगठन और वकीलों को समाज के जरूरतमंद और गरीब लोगों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की इजाजत दी।

→ न्यायिक सक्रियता के लाभ:

  • न्यायिक सक्रियता से न केवल व्यक्तियों बल्कि विभिन्न समूहों को भी अदालत जाने का अवसर मिला।
  • इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया और कार्यपालिका उत्तरदायी बनने पर बाध्य हुई|
  • चुनाव प्रणाली को भी इसने ज्यादा मुक्त और निष्पक्ष बनाने का प्रयास किया।

→ न्यायिक सक्रियता के दोष:

  • न्यायिक सक्रियता ने न्यायालयों में काम का बोझ बढ़ाया है।
  • इससे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों के बीच का अन्तर धुँधला हो गया

→ न्यायपालिका और अधिकार:
संविधान ऐसी दो विधियों का वर्णन करता है जिससे सर्वोच्च न्यायालय अधिकारों की रक्षा कर सके:

  • यह रिट जारी करके मौलिक अधिकारों को फिर से स्थापित कर सकता है।
  • यह किसी कानून को गैर संवैधानिक घोषित कर उसे लागू होने से रोकता है। यह प्रावधान न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था करता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

→ न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था:

  • न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ: न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है और यदि वह कानून संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है। (अनु. 13)
  • न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति के आधार:
    • भारत में संविधान लिखित है और इसमें दर्ज है कि मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है।
    • संघीय सम्बन्धों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

→ निष्कर्ष: इससे स्पष्ट होता है कि सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के द्वारा ऐसे किसी भी कानून का परीक्षण कर सकता है, जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो या संविधान में निहित शक्ति विभाजन की योजना के प्रतिकूल हो। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति राज्यों की विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों पर भी लागू होती है। जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता ने शोषण के विरुद्ध अधिकार अर्थपूर्ण बना दिया है।

→ न्यायपालिका और संसद:
न्यायपालिका ने जहाँ अधिकार के मुद्दे पर सक्रियता दिखाई है, वहीं राजनैतिक व्यवहार – बर्ताव से संविधान की अनदेखी करने की कार्यपालिका की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया है। इसी के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को न्यायपालिका ने अब न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में ले लिया है। ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश दिए। यद्यपि भारत के संविधान में सरकार के तीनों अंगों के बीच कार्य का स्पष्ट विभाजन है, तथापि संसद और न्यायपालिका तथा कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव भारतीय राजनीति की विशेषता रही है। यथा-

  • सम्पत्ति के अधिकार तथा संसद की संविधान संशोधन की शक्ति से सम्बन्धित टकराव – सम्पत्ति के अधिकार और संसद की संविधान को संशोधन करने की शक्ति के सम्बन्ध में संसद और न्यायपालिका के बीच टकराव हुआ। इस टकराव का पटाक्षेप सर्वोच्च न्यायालय में 1973 में केशवानन्द भारती के मुकदमे के निर्णय से हुआ। इसमें न्यायालय ने निर्णय दिया कि
    • संविधान का एक मूल ढाँचा है और संसद सहित कोई भी उस मूल ढाँचे को संशोधित या परिवर्तित नहीं कर सकते।
    • सम्पत्ति का अधिकार संविधान के मूल ढाँचे का भाग नहीं है। इसलिए इस पर समुचित प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।
    • कोई मुद्दा मूल ढाँचे का हिस्सा है या नहीं, इसका निर्णय न्यायालय करेगा।
  • टकराव के अन्य बिन्दु-दोनों के बीच टकराव के अन्य बिन्दु ये हैं:
    • क्या न्यायपालिका विधायिका की कार्यवाही का नियमन और उसमें हस्तक्षेप कर उसे नियन्त्रित कर सकती
    • जो व्यक्ति विधायिका के विशेषाधिकार हनन का दोषी हो क्या वह न्यायालय की शरण ले सकता है?
    • सदन के किसी सदस्य के विरुद्ध स्वयं सदन द्वारा यदि कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती है तो क्या वह न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है?
    • अनेक अवसरों पर संसद और राज्यों की विधानसभाओं में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली उठायी गई है। इस विवाद का निर्धारण कैसे हो?
    • न्यायपालिका ने भी अनेक अवसरों पर विधायिका की आलोचना की है और उन्हें उनके विधायी कार्यों के सम्बन्ध में निर्देश दिये हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

Jharkhand Board Class 11 Political Science विधायिका InText Questions and Answers

पृष्ठ 101

प्रश्न 1.
इन समाचारों पर विचार करें और सोचें कि यदि विधायिकाएँ न होतीं, तो क्या होता ? प्रत्येक रिपोर्ट को पढ़ने के बाद बताएँ कि कैसे कार्यपालिका को नियंत्रित करने में विधायिका सफल या असफल रही (क) 28 फरवरी, 2002; केन्द्रीय वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने केन्द्रीय बजट प्रस्तावों में 50 किलोग्राम यूरिया खाद की बोरी की कीमत 12 रुपये बढ़ाने तथा दो अन्य खादों के दाम में भी कुछ वृद्धि करने के प्रस्ताव की ‘घोषणा की। इससे खाद के दामों में 5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यूरिया खाद के वर्तमान मूल्य 4830 रु. प्रति टन पर 80 प्रतिशत सब्सिडी है। 11 मार्च 2002; विपक्ष के जबर्दस्त विरोध के कारण वित्तमंत्री को खाद के दामों में वृद्धि के प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा।
उत्तर:
कार्यपालिका को नियंत्रित करने में विधायिका निम्न प्रकार सफल रही। तथा

(ख) 4 जून, 1998 को लोकसभा में यूरिया खाद और पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि को लेकर विवादास्पद स्थिति बन गई। पूरे विपक्ष ने सदन से बहिर्गमन किया। इस मुद्दे पर सदन में दो दिनों तक गर्मा-गर्मी रही। वित्त मंत्री ने अपने बजट प्रस्तावों में यूरिया खाद के दामों में मात्र 50 पैसे प्रति किलोग्राम की वृद्धि का प्रस्ताव किया था जिससे उस पर सब्सिडी कम की जा सके। इस विरोध के परिणामस्वरूप, वित्त मंत्री यशवन्त सिन्हा को मूल्य वृद्धि के प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा।
उत्तर:
में दिये गये समाचार बजट प्रस्तावों से संबंधित हैं। यह कार्यपालिका पर विधायका के वित्तीय नियंत्रण को स्पष्ट करता है। सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था बजट के द्वारा की जाती है। संसदीय स्वीकृति के लिए बजट बनाना और उसे पेश करना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है। इस जिम्मेदारी के कारण विधायिका को कार्यपालिका के खजाने पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जाता है।

लोकहित को देखते हुए सरकार के किसी बजट प्रस्ताव को स्वीकृत करने से विधायिका मना कर सकती है। उपर्युक्त दोनों समाचारों में विधायिका ने बजट प्रस्तावों में यूरिया खाद और पेट्रोलियम के बढ़ाये गये दामों का विरोध किया और इस विरोध के स्वरूप अन्ततः वित्तमंत्री को इन प्रस्तावों को वापस लेना पड़ा। इससे स्पष्ट होता है कि वित्तीय नियंत्रण द्वारा विधायिका सरकार की नीतियों पर भी नियंत्रण करती है।

(ग) 22 फरवरी, 1983; एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए आज लोकसभा ने सर्वसम्मति से सरकारी काम- काज को स्थगित करने तथा असम पर बहस करने को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया। गृहमंत्री पी. सी. सेठी ने बयान दिया ” असम में रहने वाले सभी समुदायों और समूहों के बीच सद्भाव कायम करने के लिए मैं अलग-अलग विचार और नीतियों से प्रतिबद्धता रखने वाले आप सभी सदस्यों का सहयोग चाहता हूँ। यह समय विवाद का नहीं वरन् घाव पर मरहम लगाने का है।”
उत्तर:
स्थगन प्रस्ताव द्वारा नियंत्रण: 22 फरवरी, 1983 के (ग) के अन्तर्गत दिये गये समाचार में स्थगन प्रस्ताव के माध्यम से विधायिका द्वारा कार्यपालिका पर सफल नियंत्रण को दर्शाया गया है। लोकहित के मामले में विधायिका स्थगन प्रस्ताव रखकर के विधायिका में चल रहे किसी कार्य को रोककर उस ‘लोकहित’ के मुद्दे पर विचार करने तथा उस पर ध्यान देने के लिए कार्यपालिका को बाध्य करने का प्रयास करती है।

22 फरवरी, 1983 को जब लोकसभा ने गृहमंत्री के समक्ष स्थगन प्रस्ताव के माध्यम से असम की समस्या पर विचार करने के लिए प्राथमिकता देने का प्रश्न उठाया तो गृहमंत्री ने विधायिका के दबाव को समझते हुए सरकारी कामकाज स्थगित करने और असम पर बहस करने को प्राथमिकता देने की बात को स्वीकार कर लिया । यहाँ विधायिका स्थगन प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण करने में सफल रही है।

(घ) 3 मार्च, 1985: लोकसभा में कांग्रेस के सदस्यों ने आन्ध्रप्रदेश में हरिजनों (अनुसूचित जाति) के उत्पीड़न के प्रति विरोध जताया।
उत्तर:
ध्यान आकर्षित करना: (घ) में 3 मार्च, 1985 को लोकसभा में कांग्रेस के सदस्यों ने आंध्रप्रदेश में हरिजनों (अनुसूचित जाति के लोगों) के उत्पीड़न के प्रति विरोध जताकर सरकार का ध्यान इस मुद्दे की तरफ आकर्षित किया है। इस प्रकार विधायिका ने विभिन्न रूपों में कार्यपालिका को नियंत्रित किया है नकर लिया। यहाँ विधायिका स्थगन प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण करने में सफल रही है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

पृष्ठ 107

प्रश्न 2.
क्या आप मानते हैं कि राज्यसभा की संरचना ने भारत में राज्यों की स्थिति को संरक्षित किया है?
उत्तर:
यद्यपि भारत में राज्यसभा की संरचना में देश के सभी राज्यों को अमेरिका की तरह समान प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है, बल्कि विभिन्न राज्यों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया गया है। इसके बावजूद राज्यसभा की संरचना ने भारत में राज्यों की स्थिति को संरक्षित किया है। क्योंकि समान प्रतिनिधित्व दिये जाने पर उत्तरप्रदेश और सिक्किम को राज्यसभा में बराबर प्रतिनिधित्व मिलता। इससे छोटे-बड़े राज्यों के साथ न्याय नहीं होता । इस विसंगति से बचने के लिए ही यहाँ ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों को अधिक और कम जनसंख्या वाले राज्यों को कम प्रतिनिधित्व दिया गया है।

प्रश्न 3.
क्या राज्यसभा के चुनाव अप्रत्यक्ष न होकर प्रत्यक्ष होने चाहिए? इससे क्या फायदा या नुकसान होगा?
उत्तर:
भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था स्थापित की गई है। संघात्मक शासन व्यवस्था में विधायिका के दोनों सदनों में प्रथम सदन सीधे जनता का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा सदन राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इस प्रकार भारत में राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है। इसका उद्देश्य राज्य के हितों का संरक्षण करना है। इसलिए राज्य के हितों को प्रभावित करने वाला प्रत्येक मुद्दा इसकी सहमति और स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए राज्य सभा के चुनाव अप्रत्यक्ष रखे गये हैं। राज्यसभा के प्रतिनिधि सीधे जनता द्वारा निर्वाचित नहीं होते बल्कि प्रत्येक राज्य की विधानसभा के सदस्य उनका निर्वाचन करते हैं।

  1. यदि राज्य सभा के चुनाव अप्रत्यक्ष न होकर प्रत्यक्ष रूप से होते तो उसके सदस्य अपने आपको राज्य का प्रतिनिधि न समझकर जनता का प्रतिनिधि समझते। ऐसी स्थिति में वे राज्य के हितों के संरक्षण के उद्देश्य से भटक जाते जो कि संघात्मक शासन की महती आवश्यकता है।
  2. यदि राज्य सभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते तो लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के साथ राज्य सभा के निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन की समस्या आती और दोनों प्रकार के प्रतिनिधि अपने आपको जनप्रतिनिधि समझते। ऐसी स्थिति में दोनों में शक्ति संतुलन स्थापित करने की समस्या पैदा हो जाती।
  3. भारत में संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ संसदात्मक शासन व्यवस्था अपनायी गयी है। संसदात्मक शासन व्यवस्था निम्न सदन जनता का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा सदन राज्यों का तथा वर्गों का। इस दृष्टि से मन्त्रिपरिषद निम्न सदन के प्रति ही उत्तरदायी होती है। यदि राज्य सभा को जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित किया जाता तो उसके सदस्य भी जनता का प्रतिनिधित्व करते तथा मंत्रिपरिषद को उसके प्रति भी उत्तरदायी ठहराना पड़ता। इससे विसंगति पैदा हो जाती।

प्रश्न 4.
1971 की जनगणना से लोकसभा में सीटों की संख्या नहीं बढ़ी है। क्या आप मानते हैं कि इसे बढ़ाना चाहिए? इसके लिए क्या आधार होना चाहिए?
उत्तर;
वर्तमान में लोकसभा के 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं। यह संख्या 1971 की जनगणना से चली आ रही है। हमारा मानना है कि लोकसभा की सीटों की संख्या पर्याप्त हैं, इसे और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए लोकसभा के चुनावों के लिए पूरे देश को लगभग समान जनसंख्या वाले 543 निर्वाचन क्षेत्रों में बांटकर प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुने जाने के वर्तमान आधार को ही जारी रखना चाहिए।

पृष्ठ 118

प्रश्न 5.
सरकार से विरोध दर्ज कराने का एक आम तरीका है, सदन से वाकआउट’ करना, क्या यह काम जरूरत से ज्यादा हुआ है?
उत्तर:
‘प्रश्नकाल’ सरकार की कार्यपालिका और प्रशासकीय एजेंसियों पर निगरानी रखने का सबसे प्रभावी तरीका है। इस काल में संसद में अधिकतर प्रश्न लोकहित के विषयों, जैसे मूल्य वृद्धि, अनाज की उपलब्धता, समाज के कमजोर वर्गों के विरुद्ध अत्याचार, दंगे, कालाबाजारी आदि पर सरकार से सूचनाएँ मांगने के लिए होते हैं। इसमें सदस्यों को सरकार की आलोचना करने तथा अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं को उठाने का अवसर मिलता है। प्रश्नकाल के दौरान वाद-विवाद इतने तीखे हो जाते हैं कि अनेक सदस्यों द्वारा अपनी बात रखने के लिए प्राय: सदन से बहिर्गमन करने जैसे कदम उठाये जाते हैं। इसमें सदन का बहुत समय बर्बाद हो जाता है। लेकिन यह कदम सरकार से रियायत प्राप्त।

संजीव पास बुक्स करने के राजनीतिक तरीके हैं और इससे कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है। यह काम संसद में विपक्ष द्वारा उठाये जा रहे लोकहित के मुद्दों से जुड़ा रहा है। जैसे-जैसे देश में समस्याएँ बढ़ी हैं; सरकार जैसे-जैसे उन समस्याओं के प्रति संवेदनहीन हुई है, वैसे-वैसे विधायिका में प्रश्नकाल में ये मुद्दे पुरजोर तरीके से उठे हैं और ‘वाक आउट’ जैसे कदम भी उठे हैं। अतः इन कदमों को जरूरत से ज्यादा नहीं कहा जा सकता। बल्कि यह कहा जा सकता है कि देश में लोकहित सम्बन्धी समस्याएँ बढ़ी हैं, उनको हल करने में सरकार असफल रही है तथा संवेदनहीन हुई है। परिणामतः उसी परिणाम में कार्यपालिका को नियंत्रित करने के लिए ‘वाक आउट’ जैसे कदम बढ़े हैं।

Jharkhand Board Class 11 Political Science विधायिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आलोक मानता है कि किसी देश को कारगर सरकार की जरूरत होती है जो जनता की भलाई करे अतः यदि हम सीधे-सीधे अपना प्रधानमंत्री और मंत्रीगण चुन लें और शासन का काम उन पर छोड़ दें, तो हमें विधायिका की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर;
आलोक का यह विचार त्रुटिपरक है। हम इससे सहमत नहीं हैं। क्योंकि यदि आलोक के विचार के हिसाब से मंत्रिपरिषद का गठन किया जाये और विधायिका का गठन नहीं हो, ऐसी स्थिति में कार्यपालिका ही विधायिका का कार्य करेगी। और यदि विधायिका और कार्यपालिका के कार्य एक ही संस्था को दे दिये जाएँ तो कार्यपालिका निरंकुश हो जायेगी । ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री और मंत्रीगण के कार्यों पर किसी का नियंत्रण नहीं रहेगा। इससे नागरिकों की स्वतंत्रता समाप्त हो सकती है। इसलिए कार्यपालिका को निरंकुश होने से रोकने के लिए, नागरिकों की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए विधायिका का होना आवश्यक है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 2.
किसी कक्षा में द्वि-सदन प्रणाली के गुणों पर बहस चल रही थी। चर्चा में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आयीं। इन तर्कों को पढ़िये और इनसे अपनी सहमति – असहमति के कारण बताइये।
(क) नेहा ने कहा कि द्विसदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता।
(ख) शमा का तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए।
(ग) त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती।
उत्तर:
(क) नेहा का यह कथन कि द्विसदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता, सत्य नहीं है क्योंकि भारत जैसे विशाल देश के अन्दर जहाँ अनेक विविधताएँ हैं, 28 राज्य और 7 संघ शासित क्षेत्र हैं; वहाँ पर दूसरा सदन होना ही चाहिए जो इन विभिन्न राज्यों तथा संघ शासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व कर सके तथा प्रथम सदन द्वारा जल्दबाजी में लिए गए निर्णयों पर पुनर्विचार कर उन्हें यथोचित रूप दे सके।

(ख) शमा का यह कथन कि द्वितीय सदन में विशेषज्ञों को मनोनीत किया जाना चाहिए, उचित है। हमारे देश में राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में कला, साहित्य, विज्ञान और समाज सेवा के क्षेत्र से जुड़े 12 सदस्यों की नियुक्ति करता है। लेकिन इसके अतिरिक्त राज्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए उस क्षेत्र के निर्वाचित सदस्यों का होना भी आवश्यक है।

(ग) त्रिदेव के इस तर्क से भी कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती, हम सहमत नहीं हैं क्योंकि द्वितीय सदन संघात्मक राज्यों में इकाइयों के प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ वह पुनर्विचार का महत्वपूर्ण कार्य भी करता है। एक सदन द्वारा लिया गया प्रत्येक निर्णय दूसरे सदन में निर्णय के लिए भेजा जाता है। इससे हर मुद्दे को दो बार जांचने का मौका मिलता है। यदि एक सदन जल्दबाजी में कोई निर्णय ले लेता है तो दूसरे सदन में बहस के दौरान उस पर पुनर्विचार संभव हो पाता है।

प्रश्न 3.
लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में क्यों कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है?
उत्तर:
लोकसभा कार्यपालिका पर राज्यसभा की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली ढंग से नियंत्रण रख सकती है क्योंकि।
1. अविश्वास प्रस्ताव;
प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है, राज्यसभा के प्रति नहीं। राज्य सभा मंत्रिपरिषद से प्रश्न पूछ सकती है, लेकिन उसे हटा नहीं सकती; जबकि लोकसभा मंत्रिपरिषद पर सीधा नियंत्रण करती है। लोकसभा यदि सरकार के प्रति अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर दे, तो सरकार गिर जाती है। राज्यसभा मंत्रिपरिषद की आलोचना तो कर सकती है लेकिन उसे हटा नहीं सकती । इस दृष्टि से राज्य सभा की अपेक्षा लोकसभा कार्यपालिका को अधिक कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है।

2. बजट पर नियंत्रण:
सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था बजट के द्वारा रखी जाती है। सरकार के लिए संसाधन स्वीकृत करने से विधायिका मना कर सकती है। धन विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं और वही उसे संशोधित या अस्वीकृत कर सकती है। राज्यसभा के पास धन विधेयक को केवल 14 दिन तक ही रोके रखने का अधिकार है। यदि लोकसभा में धन विधेयक गिर जाता है तो सरकार को त्यागपत्र देना होता है। राज्यसभा के पास यह शक्ति नहीं है।

इससे स्पष्ट होता है कि राज्यसभा सरकार की आलोचना तो कर सकती है, पर उसे हटा नहीं सकती जबकि लोकसभा सरकार की आलोचना करने के साथ-साथ उसे हटा भी सकती है। अतः लोकसभा राज्यसभा की तुलना में मंत्रिपरिषद पर अधिक कारगर ढंग से नियंत्रण रख सकती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 4.
लोकसभा कार्यपालिका पर कारगर ढंग से नियंत्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है। क्या आप इससे सहमत हैं? कारण बताएँ।
उत्तर:
हाँ, हम इस बात से सहमत हैं कि लोकसभा यद्यपि कार्यपालिका पर नियंत्रण बनाए रखती है लेकिन नियंत्रण के साथ-साथ लोकसभा एक ऐसा मंच है जहाँ जनता की इच्छाओं और भावों की अभिव्यक्ति की जाती है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।
1. लोकसभा के लिए जनता सीधे सदस्यों को चुनती है। यह देश के विभिन्न क्षेत्रीय, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक समूहों के अलग-अलग विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। यह देश में वाद-विवाद का सर्वोच्च और सबसे लोकतांत्रिक तथा खुला मंच है। इसके पास कार्यपालिका का चयन करने और उसे बर्खास्त करने की शक्ति भी है विचार-विमर्श करने की उसकी शक्ति पर कोई अंकुश नहीं है। सदस्यों को किसी भी विषय पर निर्भीकता से बोलने की स्वतंत्रता है। इससे लोकसभा राष्ट्र के समक्ष आने वाले हर मुद्दे का विश्लेषण कर पाती है। यह विचार-विमर्श हमारी लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया की आत्मा है।

2. लोकसभा में विधेयक प्रस्तुत किये जाने से पहले ही इस बात पर काफी बहस होती है कि उस विधेयक की क्या जरूरत है। कोई भी राजनीतिक दल अपने चुनावी वायदों को पूरा करने या आगामी चुनावों को जीतने के इरादे से किसी विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकता है। अनेक हित-समूह, मीडिया और नागरिक संगठन भी किसी विधेयक को लाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकते हैं। दूसरे, लोकसभा में सदस्यों को कार्यपालिका द्वारा बनाई गई नीतियों और उसके क्रियान्वयन के तरीकों पर भी बहस करने का अवसर मिलता है।

प्रश्नकाल में मंत्रियों को सदस्यों के तीखे प्रश्नों का जवाब देना पड़ता है। शून्यकाल में इसके सदस्य किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठा सकते हैं। लोकहित के मामले में आधे घण्टे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव आदि का भी विधान है। प्रश्नकाल में सदस्यों को अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं को उठाने का अवसर मिलता है। प्रश्नकाल में तीखे वाद-विवाद होते हैं।
अतः स्पष्ट है कि लोकसभा जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है।

प्रश्न 5.
नीचे संसद को ज्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे?
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर संसद को दंडित कर सकें।
उत्तर:
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए – इसका अभिप्राय यह है कि संसद का कार्यकाल अधिक लम्बा रखा जाए। मैं इस प्रस्ताव से असहमत हूँ। यदि इस सुझाव को मान लिया जायेगा तो संसद अर्थात् लोकसभा की अवधि 5 वर्ष से अधिक की हो जायेगी। (चूंकि राज्यसभा एक स्थायी सदन है।) लोकसभा की लम्बी अवधि कर दी जायेगी तो लोकसभा सदस्य एक बार लम्बी अवधि के लिए चुने जाने पर जनता की आशाओं और उनके हितों का ध्यान नहीं रखेंगे।

(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए: मैं इस सुझाव से सहमत हूँ क्योंकि सांसद अपने कर्त्तव्यों का पालन ईमानदारी से नहीं करते। बहुत से सांसद सदन में होने वाली चर्चा में भाग ही नहीं लेते। यदि संसद सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जायेगी तो सभी सांसद संसद की कार्यवाही में संजीव पास बुक्स भाग लेंगे, इस कार्यवाही में उनकी रुचि बढ़ेगी तथा अपने क्षेत्र की समस्याओं को सही ढंग से समय-समय पर उठाते रहेंगे।

(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दंडित कर सकें – मैं इस सुझाव से सहमत हूँ क्योंकि अध्यक्ष लोकसभा की कार्यवाही चलाने में अन्तिम अधिकारी है उसे लोकसभा में अनुशासन बनाए रखना है। परन्तु आजकल संसद सदस्य सदन के अन्दर इस प्रकार से व्यवधान उत्पन्न करते हैं कि सदन की कार्यवाही चलाना कठिन हो जाता है। सत्र चलने के समय में अधिकांश समय सदन स्थगित रहते हैं क्योंकि सांसदों द्वारा गलत व्यवहार किया जाता है, उनकी गतिविधियाँ शर्मनाक होती हैं।

ऐसी स्थितियों को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि अध्यक्ष को ऐसे सदस्यों को दण्डित करने का पूर्ण अधिकार हो। यद्यपि, इसमें एक खतरा अवश्य है कि अध्यक्ष बहुमत दल का सदस्य होता है और इस दृष्टि से उसका दृष्टिकोण भेदभावपरक हो सकता है; तथापि इस खतरे को मोल लेते हुए भी संसद की कार्यवाहियों को सुचारु रूप से चलाने के लिए अध्यक्ष को यह अधिकार दिया ही जाना चाहिए।

प्रश्न 6.
आरिफ यह जानना चाहता था कि अगर मंत्री ही अधिकांश महत्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत करते हैं और बहुसंख्यक दल अक्सर सरकारी विधेयक को पारित कर देता है, तो फिर कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की भूमिका क्या है? आप आरिफ को क्या उत्तर देंगे ?
उत्तर:
आरिफ ने अपने प्रश्न में यह बात उठायी है कि जब अधिकांश महत्वपूर्ण विधेयक मंत्रियों द्वारा प्रस्तावित किये जाते हैं और बहुमत दल उसको पारित करवा ही देता है तो संसद की क्या भूमिका रह जाती है? यह सत्य है कि संसदात्मक शासन व्यवस्था में बहुमत दल के लिए यह आवश्यक होता है कि मंत्रियों द्वारा प्रस्तावित विधेयक अवश्य पारित हो जाने चाहिए अन्यथा सरकार गिर जायेगी।

सरकारी विधेयक पारित न होने पर मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सरकार को बचाने के लिए सत्तादल को वे विधेयक पारित करवाने अनिवार्य हो जाते हैं। लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं है कि विधि निर्माण प्रक्रिया में संसद की कोई भूमिका नहीं है। विधि निर्माण प्रक्रिया में इस स्थिति के होते हुए भी संसद की महत्वपूर्ण भूमिका है।

  • निजी विधेयक भी संसद में प्रस्तावित किये जाते हैं। संसद में इन विधेयकों को अलग-अलग सोपानों से गुज़रना पड़ता है तथा उस पर प्रत्येक सोपान में चर्चा होती है।
  • प्रत्येक सरकारी विधेयक को भी विभिन्न सोपानों से गुजरना पड़ता है, जैसे
    1. प्रस्तुतीकरण व प्रथम वाचन
    2. द्वितीय वाचन
    3. समिति स्तर
    4. रिपोर्ट स्तर
    5. तृतीय वाचन। इन सोपानों के बाद ही विधेयक पर मतदान होता है।

एक सदन में पारित होने के बाद विधेयक दूसरे सदन में जाता है। दूसरे सदन में यह आवश्यक नहीं है कि सत्तारूढ़ दल का बहुमत हो ही। ऐसी स्थिति में यहाँ विधेयक को कठिन परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ता है। जब दूसरा सदन भी उसे पारित कर देता है तो राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। विधेयक निर्माण की इस समूची संसदीय प्रक्रिया में प्रत्येक विधेयक पर गंभीरता से विचार संभव हो पाता है तथा उसकी खामियों में आवश्यक संशोधन भी कर दिया जाता है। यदि विधि निर्माण प्रक्रिया में संसद की भूमिका को हटा देंगे तो विधेयकों पर गंभीरतापूर्वक विचार संभव नहीं हो सकेगा।

तीसरे, यदि विधि निर्माण प्रक्रिया में संसद की भूमिका को हटा दिया जाये तो कार्यपालिका ही विधि निर्माता हो जायेगी। विधि निर्माण में उस पर कोई अंकुश नहीं रह जायेगा तथा वह निरंकुश होकर लोकहितकारी विधायकों से विमुख हो सकती है तथा उन्हें अत्याचारीपूर्ण ढंग से कार्यान्वित कर सकती है। इससे नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन हो जायेगा तथा कार्यपालिका पर विधि निर्माण के क्षेत्र में कोई नियंत्रण नहीं रह जायेगा।

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प्रश्न 7.
आप निम्नलिखित में से किस कथन से सबसे ज्यादा सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण दें।
( क ) सांसद/विधायकों को अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट होनी चाहिए।
(ख) दलबदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसद/विधायकों पर बढ़ा है।
(ग) दलबदल हमेशा स्वार्थ के लिए होता है और इस कारण जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।
उत्तर:
1. उपर्युक्त तीनों कथनों में से हम दूसरे कथन (ख) से सबसे ज्यादा सहमत हैं कि दलबदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसद / विधायकों पर बढ़ा है। इसका कारण यह है कि नेता का आदेश सांसदों/विधायकों को मानना पड़ता है अन्यथा वे दल-बदल विरोधी कानून के अन्तर्गत अपनी सदस्यता से हाथ धो बैठते हैं। पार्टी नेतृत्व का इसमें दबदबा रहता है और पार्टी अध्यक्ष सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने तथा पार्टी के निर्णय के अनुसार मतदान करने के लिए व्हिप जारी करते हैं। व्हिप का उल्लंघन करने वाले सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी जाती है।

2. हम (क) कथन से इसलिए सहमत नहीं हैं क्योंकि यदि सांसद/विधायकों को अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट दे दी जायेगी तो इससे उन नागरिकों की इच्छा का दमन होगा जिन्होंने उसे चुनकर संसद/विधानमण्डल में भेजा था।

3. (ग) कथन से हम इसलिए सहमत नहीं हैं क्योंकि इसमें दल-बदल के कारण विधायक या सांसद को जो दण्ड निर्धारित किया गया है वह यह है कि उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री पद के लिए अयोग्य करार किया जाता है। लेकिन यह दण्ड पर्याप्त नहीं है क्योंकि उसकी सदस्यता संसद/विधानमण्डल में बराबर बनी रहेगी।

प्रश्न 8.
डॉली और सुधा में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि मौजूदा वक्त में संसद कितनी कारगर और प्रभावकारी है। डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिर्गमन) करने में ज्यादा। सुधा का तर्क था कि लोकसभा में अलग-अलग सरकारों ने मुँह की खायी है, धराशायी हुई हैं। आप सुधा या डॉली के तर्क के पक्ष या विपक्ष में और कौन – सा तर्क देंगे?
उत्तर:
” डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिगर्मन) करने में ज्यादा।” डॉली के इस कथन में आंशिक सत्यता है। यथा
1. संसद वाद:
विवाद के बीच अपने जरूरी काम को अंजाम दे रही है। जब हम दूरदर्शन पर संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देख रहे होते हैं तो सदन में सदस्य कटुता लिए हुए एक-दूसरे की टांग खींचते नजर आते हैं। विभिन्न दलों के बीच आपस में बहस होती रहती है। कई बार ऐसा लगता है कि राष्ट्र का धन बरबाद हो रहा है। लेकिन संसद तो वाद-विवाद का मंच ही है। इस वाद-विवाद के जरिये ही संसद अपने सभी जरूरी काम को अंजाम देती है।

2. कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है:
प्रश्नकाल के दौरान वाद-विवाद इतने तीखे हो जाते हैं कि अनेक सदस्यों द्वारा अपनी बात रखने के लिए प्रायः ऊँची आवाज में बोलना, अध्यक्ष के आसन के पास चले जाना तथा सदन से बहिर्गमन करने जैसी घटनाएँ देखी जा सकती हैं। इसमें सदन का बहुत समय बर्बाद हो जाता है। लेकिन इसी के साथ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये सभी कदम सरकार से रियायत प्राप्त करने के राजनीतिक तरीके हैं और इससे कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है।

3. अधिकांश सदस्य अभी भी मर्यादापूर्ण बहस में रुचि रखते हैं- वाद- विवाद सार्थक और शांतिपूर्ण होना चाहिए। कुछ सदस्यों की लापरवाही के कारण संसद की कार्यकुशलता और दक्षता निकट समय में कम हुई है। कुछ सदस्य अपने दायित्वों का निर्वाह ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं। उनका व्यवहार पक्षपातपूर्ण है। वे सदन में शोर-शराबा उत्पन्न करते हैं। इसी संदर्भ में डॉली ने कहा है कि यह संसद में गिरावट का समय चल रहा है और संसद की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने में अधिक समय खर्च किया जा रहा है। लेकिन अधिकांश सदस्य अपने अधिकारों व दायित्वों का प्रयोग संसद में अभी भी उचित रूप से कर रहे हैं।

वे सदन में वाद-विवाद में ईमानदारी से भाग लेते हैं जिससे सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से चलती रहती है। इससे सदन की गरिमा भी बनी रहती है। इससे स्पष्ट होता है कि कुछ सदस्यों के अनुचित व्यवहार के कारण सदन का काम-काज प्रभावित होता है, लेकिन अधिकांश सदस्यों के ईमानदारी से कार्य करने के कारण अभी भी सदन की गरिमा बनी हुई है। आवश्यकता इस बात की है कि सदन में किये जा रहे व्यवहार को और अधिक मर्यादापूर्ण बनाने के प्रयास किये जाएँ। इसके लिए यह आवश्यक है कि सदन के पास पर्याप्त समय हो, सदस्य मर्यादापूर्ण बहस में रुचि पैदा करें तथा उसमें प्रभावशाली ढंग से भाग लें।

प्रश्न 9.
किसी विधेयक को कानून बनने के क्रम में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है, उन्हें क्रमवार सजाएँ।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है – बताएँ कि वह अगर इस पर हस्ताक्षर नहीं करता/करती है, तो क्या होता है?
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है- समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(छ) संबद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि – मंत्रालय का कानून – विभाग विधेयक तैयार करता है।
उत्तर:
विधेयक पारित होने की क्रमिक अवस्थाओं को क्रमवार निम्न प्रकार सजाया गया है-
(ज) विधि मंत्रालय का कानून – विभाग विधेयक तैयार करता है।
(छ) सम्बद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है। समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ, उसमें यह पारित होता है।
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति से विधेयक कानून बन जाता
परन्तु यदि राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर न करे, वह उसे रोक ले या उस पर स्वीकृति न दे तो निम्नलिखित स्थितियाँ उभरेंगी।

प्रथमतः राष्ट्रपति उस विधेयक को दुबारा संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकता है और यदि संसद उसे दुबारा पारित करके पुनः राष्ट्रपति के पास भेजती है तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी स्वीकृति देनी ही होगी। लेकिन यदि धन विधेयक या संविधान संशोधन विधेयक है तो राष्ट्रपति को उसे पुनर्विचार के लिए भेजने का भी अधिकार नहीं है, इन पर राष्ट्रपति को हस्ताक्षर करने ही होंगे।

दूसरे, संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेजने की कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रपति किसी भी विधेयक को बिना किसी समय-सीमा के अपने पास लंबित रख सकता है। इसे कई बार ‘पाकिट वीटो’ भी कहा जाता है । इस प्रकार राष्ट्रपति विधेयक को ठंडे बस्ते में भी डाल सकता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 10.
संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
विभिन्न विधायी कार्यों के लिए संसदीय समितियों का गठन संसदीय कामकाज का एक महत्वपूर्ण पहलू है। ये समितियाँ केवल कानून बनाने में ही नहीं, वरन् सदन के दैनिक कार्यों में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यथा

  1. चूंकि संसद केवल अपने अधिवेशन के दौरान ही बैठती है, इसलिए उसके पास अत्यन्त सीमित समय होता है।
  2. किसी कानून को बनाने के लिए उससे जुड़े विषय का गहन अध्ययन करना पड़ता है। इसके लिए उस पर ज्यादा ध्यान और समय देने की जरूरत पड़ती है।
  3. अन्य और भी कई महत्त्वपूर्ण कार्य होते हैं, जैसे विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान माँगों का अध्ययन, विभिन्न विभागों के द्वारा किये गये खर्चों की जाँच, भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल आदि।

संसदीय समितियाँ संसद के विधायी कार्यों के अतिरिक्त इन सब कार्यों को भी करती हैं। संसदीय समितियों की व्यवस्था का संसद पर प्रभाव-समितियों की इस व्यवस्था ने संसद का कार्यभार हल्का कर दिया है। अनेक महत्वपूर्ण विधेयकों को समितियों को भेजा गया। संसद ने समितियों द्वारा किये गये काम में छुट- पुट बदलाव करके मंजूरी दे दी है। प्राय: समितियों द्वारा सुझाये गये सुझावों को संसद ने मंजूर कर लिया है।

विधायिका JAC Class 11 Political Science Notes

→ संसद या विधायिका का महत्त्व ( हमें संसद क्यों चाहिए?)
संसद या विधायिका जनता द्वारा निर्वाचित होती है और जनता के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है। यह कानून निर्माण का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है तथा जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है। यह सभी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का केन्द्र तथा प्रतिनिधिक लोकतंत्र का आधार है। यह मंत्रिमंडल पर नियंत्रण रखती है तथा इसके पास कार्यपालिका का चयन करने और बर्खास्त करने की भी शक्ति है। यह वाद-विवाद का सबसे लोकतांत्रिक खुला मंच है। अपनी संरचनात्मक विशेषता के कारण यह सरकार के सभी अंगों में सबसे ज्यादा प्रतिनिधिक है।

→ भारत में विधायिका का नाम तथा स्वरूप:
संसद: भारत की राष्ट्रीय विधायिका का नाम संसद है। भारतीय संसद में दो सदन हैं प्रथम सदन को लोकसभा और दूसरे सदन को राज्यसभा कहते हैं।

विधान मण्डल: राज्यों की विधायिकाओं को विधानमण्डल कहते हैं। संविधान ने राज्यों को एक सदनात्मक या द्विसदनात्मक विधायिका स्थापित करने का विकल्प दिया है। वर्तमान में केवल छ : राज्यों में ही द्वि-सदनात्मक विधायिकाएँ हैं। ये हैं।

  • आंध्रप्रदेश
  • बिहार
  • कर्नाटक
  • महाराष्ट्र
  • तेलंगाना
  • उत्तरप्रदेश।

→ द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका की आवश्यकता जब किसी विधायिका में दो सदन होते हैं, तो उसे द्वि- सदनात्मक विधायिका कहते हैं। भारतीय संसद एक द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका है। द्विसदनात्मक विधायिका के लाभ ये हैं

  • समाज के सभी वर्गों और देश के सभी क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व संभव।
  • संसद के प्रत्येक निर्णय पर दूसरे सदन में पुनर्विचार संभव।

→  राज्य सभा (अ) राज्यसभा का संगठन:
राज्यों का प्रतिनिधित्व तथा आधार: जनसंख्या – राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से होता है। राज्य विधान सभा के निर्वाचित सदस्य राज्य विधानसभा के सदस्यों को चुनते हैं । राज्यसभा में देश के विभिन्न क्षेत्रों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया गया है। इस दृष्टि से ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों को ज्यादा और कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों को कम प्रतिनिधित्व दिया गया है । जनसंख्या के आधार पर संविधान की चौथी अनुसूची में प्रत्येक राज्य से निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या निर्धारित कर दी गई हैं।

→ कार्यकाल: राज्यसभा के सदस्यों को 6 वर्ष के लिए निर्वाचित किया जाता है। उन्हें दुबारा निर्वाचित किया जा सकता है।

→ स्थायी सदन: राज्य सभा एक स्थायी सदन है क्योंकि इसके सभी सदस्य अपना कार्यकाल एक साथ पूरा नहीं करते। प्रत्येक दो वर्ष पर राज्य सभा के 1/3 सदस्य अपना कार्यकाल पूरा करते हैं और इन 1/3 सीटों के लिए चुनाव होते हैं। इस तरह राज्य सभा कभी भी पूरा तरह भंग नहीं होती।

→ मनोनीत सदस्य: निर्वाचित सदस्यों के अतिरिक्त राज्य सभा में 12 मनोनीत सदस्य होते हैं। साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष उपलब्धि पाने वाले व्यक्तियों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाता है।

(ब) राज्य सभा की शक्तियाँ राज्यसभा की प्रमुख शक्तियाँ इस प्रकार हैं।

  • विधि निर्माण सम्बन्धी शक्ति: सामान्य विधेयकों पर विचार कर उन्हें पारित करती है। धन विधेयकों में संशोधन प्रस्तावित कर सकती है तथा संवैधानिक संशोधनों को पारित करती है।
  • कार्यपालिका पर नियंत्रण की शक्ति: प्रश्न पूछकर तथा संकल्प और प्रस्ताव प्रस्तुत करके कार्यपलिका पर नियंत्रण करती है।
  • निर्वाचन तथा पदच्युक्ति सम्बन्धी शक्ति: राज्य सभा राष्ट्रपंति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भागीदारी करती है। उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव केवल राज्य सभा में ही लाया जा सकता है। यह
  • महाभियोग द्वारा राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया में भाग लेती है।
  •  विशेष शक्तियाँ: यह संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है।

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→ लोकसभा (अ) लोकसभा का संगठन:
निर्वाचन: लोकसभा के लिए जनता सीधे (प्रत्यक्ष निर्वाचन से) सदस्यों को चुनती है। लोकसभा चुनावों के लिए पूरे देश को लगभग समान जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है। चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के मत का मूल्य बराबर होता है। इस समय लोकसभा के 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं। कार्यकाल-लोकसभा के लिए सदस्यों को 5 वर्ष के लिए चुना जाता है। लेकिन बहुमत की सरकार न बनाने की स्थिति में अथवा प्रधानमंत्री की लोकसभा भंग करने की सलाह पर राष्ट्रपति लोकसभा को 5 वर्ष की अवधि से पहले भी भंग कर सकता है।

(ब) लोकसभा की शक्तियाँ लोकसभा की प्रमुख शक्तियाँ ये हैं।

  • कानून निर्माण करना
  • वित्तीय शक्तियाँ
  • कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना
  • संविधान में संशोधन करना
  • निर्वाचन सम्बन्धी शक्तियाँ
  • न्य शक्तियाँ जैसे आपातकाल की घोषणा को स्वीकृति देना, महाभियोग लगाने की शक्ति, समिति और आयोगों का गठन करना आदि। यथा

→ लोकसभा की विशेष शक्तियाँ: कुछ ऐसी शक्तियाँ हैं जिनका प्रयोग केवल लोकसभा ही कर सकती है।

  • धन सम्बन्धी विधेयक प्रस्तुत करना, उसे संशोधित या अस्वीकृत करना।
  • मंत्रिपरिषद् के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पारित करना।

→ लोकसभा और राज्यसभा की समान शक्तियाँ:

  • सामान्य और संवैधानिक विधेयकों को पारित करना।
  • राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाना
  • उपराष्ट्रपति को हटाना आदि।

→ संसद की शक्तियाँ व कार्य संसद के प्रमुख कार्य व शक्तियाँ निम्नलिखित हैं।

  • विधायी कामकाज
  • कार्यपालिका पर नियंत्रण तथा उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना
  • वित्तीय कार्य
  • प्रतिनिधित्व
  • बहस का मंच
  • संवैधानिक कार्य
  • निर्वाचन सम्बन्धी कार्य
  • न्यायिक कार्य

→ संसद कानून कैसे बनाती है? संसद द्वारा कानून बनाने के लिए एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जाती है जिसमें किसी विधेयक को कई अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है।

  • विधेयक का प्रस्तुतीकरण: ( प्रथम वाचन) विधेयक यदि धन विधेयक नहीं है तो उसे किसी भी सदन प्रस्तुत किया जा सकता है। लेकिन धन विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है।
  • विधेयक का द्वितीय वाचन: दूसरे चरण में विधेयक को या तो समिति के पास भेजा जाता है या उस पर सदन में चर्चा होती है। समिति को भेजे जाने पर समिति रिपोर्ट देती है। सदन इस रिपोर्ट को स्वीकार या अस्वीकार करता है। इसके बाद सदन में विधेयक पर विस्तृत विचार-विमर्श होता है। जो विधेयक समिति को नहीं भेजा जाता है, तो उस पर विस्तृत चर्चा होती है।
  • तृतीय वाचन: तृतीय चरण में विधेयक पर मतदान होता है। पारित हो जाने पर उसे दूसरे सदन में भेजा जाता है।
  • दूसरे सदन की प्रक्रिया: दूसरे सदन में उपर्युक्त प्रक्रिया अपनाई जाती है। दूसरा सदन या तो इसे स्वीकार कर लेता है या इस पर सुझाव भेजता है। यदि प्रथम सदन इस सुझाव को स्वीकार नहीं करता तो राष्ट्रपति द्वारा दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई जाती है जिसकी अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है । संयुक्त बैठक में उस पर मतदान किया जाता है और उसे स्वीकार या रद्द किया जाता है।

→ राष्ट्रपति के हस्ताक्षर: दोनों सदनों से पारित होने के बाद विधेयक राष्ट्रपति के पास जाता है। राष्ट्रपति या तो विधेयक को मंजूरी देता है या उसे पुनर्विचार के लिए लौटा देता है। लेकिन यदि संसद उसे पुनः पारित कर राष्ट्रपति के पास भेज देती है, तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी मंजूरी देनी ही होती है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद विधेयक कानून बन जाता है। विधेयकों के विभिन्न प्रकार – विधेयकों के विभिन्न प्रकार होते हैं। यथा

  • सरकारी विधेयक या निजी सदस्यों का विधेयक।
  • वित्त विधेयक या गैर – वित्त विधेयक।
  • सामान्य विधेयक या संविधान संशोधन विधेयक।

धन विधेयक: धन विधेयक केवल लोकसभा में पेश किया जाता है। लोकसभा से पारित होने के बाद वह राज्य सभा में जाता है। राज्यसभा या तो उसे स्वीकार कर लेती है या संशोधन प्रस्तावित कर सकती है, लेकिन अस्वीकार नहीं कर सकती। यदि राज्य सभा 14 दिनों तक उस पर कोई निर्णय नहीं ले तो उसे राज्य सभा द्वारा पारित मान लिया जाता है। धन विधेयकों में राज्यसभा द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को लोकसभा मान भी सकती है और नहीं भी।

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→ संसद द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण:  संसद अनेक विधियों का प्रयोग कर कार्यपालिका को नियंत्रित करती है।

  • बहस और वाद-विवाद: प्रश्नकाल, शून्यकाल, आधे घंटे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव आदि के माध्यम से संसद बहस या वाद-विवाद द्वारा मंत्रिपरिषद पर नियंत्रण रखती है।
  • कानूनों की स्वीकृति या अस्वीकृति: इस अधिकार के द्वारा भी संसद कार्यपालिका पर नियंत्रण करती है।
  • वित्तीय नियंत्रण: धन स्वीकृत करने से पहले लोकसभा सरकार से धन मांगने के कारणों पर चर्चा कर, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक व लोक लेखा समिति की रिपोर्ट पर धन के दुरुपयोग के मामलों की जाँच कर, आदि वित्तीय नियंत्रणों द्वारा विधायिका सरकार की नीतियों पर नियंत्रण करती है।
  • अविश्वास प्रस्ताव: विधायिका अपने सबसे सशक्त हथियार ‘अविश्वास प्रस्ताव’ पेश कर सरकार पर नियंत्रण स्थापित करती है। सन् 1989 के बाद से अपने प्रति सदन के अविश्वास के कारण अनेक सरकारों को त्यागपत्र देना पड़ा।

→ संसदीय समितियों की कार्यविधि: संसदीय समितियाँ कानून बनाने के साथ-साथ सदन के दैनिक कार्यों में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यथा

  • संसदीय समितियों के कार्य-संसदीय समितियों के प्रमुख कार्य ये हैं।
    • किसी कानून को बनाने के लिए उससे जुड़े विषय का गहन अध्ययन करना।
    • विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान माँगों का अध्ययन।
    • विभिन्न विभागों द्वारा किये गए खर्चों की जाँच।
    • भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल।
  • स्थायी समितियाँ: स्थायी समितियाँ विभिन्न विभागों के कार्यों, उनके बजट, खर्चे तथा उनसे संबंधित विधेयकों की देखरेख करती है।
  • संयुक्त संसदीय समितियाँ: इन समितियों में संसद के दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। इनका गठन किसी विधेयक पर संयुक्त चर्चा अथवा वित्तीय अनियमितताओं की जाँच के लिए किया जा सकता है।
    सामान्यतः समितियों द्वारा दिये गये सुझावों को संसद स्वीकार कर लेती है।

→ संसद स्वयं को कैसे नियंत्रित करती है?

  • संविधान में संसद की कार्यवाही को सुचारु ढंग से चलाने के लिए प्रावधान बनाए गए हैं। सदन का अध्यक्ष इनके अनुसार सदन का संचालन करता है।
  • सदन का अध्यक्ष दलबदल से संबंधित अंतिम निर्णय लेता है और यदि यह सिद्ध हो जाये कि किसी सदस्य ने दल बदल किया है, तो उसकी सदन की सदस्यता समाप्त हो जाती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

Jharkhand Board Class 11 Political Science कार्यपालिका InText Questions and Answers

पृष्ठ 79

प्रश्न 1.
कार्यपालिका क्या है?
उत्तर:
सरकार का वह अंग जो विधायिका द्वारा स्वीकृत नीतियों और कानूनों को लागू करता है और प्रशासन का काम करता है, कार्यपालिका कहलाता है।

प्रश्न 2.
मुझे याद है कोई कह रहा था कि लोकतन्त्र में कार्यपालिका जनता के प्रति उत्तरदायी होती है। क्या यह बड़ी कम्पनियों के बड़े अधिकारियों के लिए भी सही है? क्या उन्हें हम मुख्य कार्यपालिका अधिकारी नहीं कहते ? वे किसके प्रति उत्तरदायी हैं?
उत्तर:
बड़ी कम्पनियों के अधिकारी जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होते। उन्हें हम मुख्य कार्यपालिका अधिकारी नहीं कहते क्योंकि वे लोक सेवा आयोगों के माध्यम से नियुक्त नहीं किये जाते हैं । वे अपने कार्यों के लिए कम्पनी बोर्ड के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

पृष्ठ 80

प्रश्न 3.
कार्यपालिका कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:

  • कार्यपालिका को मोटे रूप से दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है
    1. सामूहिक नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली और
    2. एक व्यक्ति के नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली।
  • प्रथम के आधार पर कार्यपालिका के दो प्रकार हैं
    1. संसदात्मक कार्यपालिका,
    2. अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका। दूसरे आधार पर कार्यपालिका का जो प्रकार उभरा है, उसे अध्यक्षात्मक कार्यपालिका कहा जाता है।
  • इस प्रकार लोकतान्त्रिक देशों में कार्यपालिका के तीन प्रकार उभरे हैं
    1. संसदात्मक कार्यपालिका,
    2. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका
    3. अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका।

पृष्ठ 82

प्रश्न 4.
श्रीलंका के राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री की स्थिति भारत से कैसे भिन्न है? भारत और श्रीलंका के राष्ट्रपति के महाभियोग में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की तुलना करें।
उत्तर:
श्रीलंका के राष्ट्रपति और भारत के राष्ट्रपति की स्थिति की तुलना – श्रीलंका के संविधान में अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका लागू की गई है। वहाँ जनता प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति को चुनती है। राज्य का निर्वाचित प्रधान और सशस्त्र सेनाओं का प्रधान सेनापति होने के अतिरिक्त श्रीलंका का राष्ट्रपति सरकार का भी प्रधान होता है। भारत के संविधान में संसदात्मक कार्यपालिका लागू की गई है। यहाँ राष्ट्रपति सरकार का नाम मात्र का (संवैधानिक) अध्यक्ष है, न कि वास्तविक अध्यक्ष । इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से होता है अर्थात् संसद के निर्वाचित सदस्य तथा राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन करते हैं। यह राज्य का प्रधान और सशस्त्र सेनाओं का प्रधान सेनापति होता है, लेकिन सरकार का प्रधान नहीं होता है।

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पृष्ठ 83

प्रश्न 5.
नेहा यह तो बहुत सरल है। जिस देश में राष्ट्रपति है, वहाँ अध्यक्षात्मक कार्यपालिका और जिस देश में प्रधानमन्त्री है, वहाँ संसदीय कार्यपालिका है। आप नेहा को कैसे समझायेंगे कि ऐसा हमेशा सच नहीं होता?
उत्तर:
हम नेहा को इस प्रकार समझायेंगे कि जिस देश में कार्यपालिका के संवैधानिक अध्यक्ष और वास्तविक अध्यक्ष अलग-अलग होते हैं और वास्तविक अध्यक्ष, चाहे उसका पद नाम राष्ट्रपति हो या प्रधानमन्त्री, अपने कार्यों के लिये संसद के प्रति उत्तरदायी होता है; उसे संसदात्मक शासन कहते हैं जिस देश में कार्यपालिका का संवैधानिक और वास्तविक अध्यक्ष एक ही होता है चाहे उसका पद-नाम राष्ट्रपति हो या चांसलर तथा जो संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं होता, उसे अध्यक्षात्मक शासन कहते हैं।

उदाहरण के लिए, भारत में राष्ट्रपति कार्यपालिका का संवैधानिक अध्यक्ष है और प्रधानमन्त्री कार्यपालिका का वास्तविक अध्यक्ष है, लेकिन यहाँ वास्तविक अध्यक्ष संसद के प्रति उत्तरदायी है। अतः यहाँ संसदात्मक सरकार है, जबकि यहाँ राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री दोनों ही पद विद्यमान हैं। दूसरी तरफ अमेरिका में राष्ट्रपति संवैधानिक और वास्तविक कार्यपालिका अध्यक्ष दोनों है तथा वह अपने कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं है। अतः वहाँ अध्यक्षात्मक सरकार है।

श्रीलंका के प्रधानमन्त्री और भारत के प्रधानमन्त्री की स्थिति की भिन्नता:
अर्द्ध-अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली होने के कारण श्रीलंका के प्रधानमन्त्री की स्थिति भारत के प्रधानमन्त्री से कमजोर है। भारत का प्रधानमन्त्री सरकार का अध्यक्ष होता है और व्यवहार में संवैधानिक अध्यक्ष या राज्य के अध्यक्ष की समस्त शक्तियों का उपभोग करता है। राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत दल या गठबन्धन के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है और जब तक लोकसभा में उसके पक्ष में बहुमत का समर्थन रहता है, राष्ट्रपति उसे पदच्युत नहीं कर सकता। दूसरी तरफ, श्रीलंका में राष्ट्रपति संसद में बहुमत वाले दल के सदस्यों में से प्रधानमन्त्री चुनता है। वह प्रधानमन्त्री और दूसरे मन्त्रियों को हटा सकता है। प्रधानमन्त्री सरकार का अध्यक्ष नहीं होता है तथा वह राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है।

भारत और श्रीलंका के राष्ट्रपति के महाभियोग में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका:

  1. श्रीलंका में राष्ट्रपति छः वर्ष के लिए चुना जाता है और उसे इससे पहले भी संसद की कुल सदस्य संख्या के 2/3 बहुमत से पारित प्रस्ताव के द्वारा भी हटाया जा सकता है। यदि वह प्रस्ताव संसद के कम-से-कम आधे सदस्यों. द्वारा पास किया जाये और संसद का अध्यक्ष भी सन्तुष्ट हो कि आरोपों में दम है, तो संसद का अध्यक्ष उसे सर्वोच्च न्यायालय को भेज सकता है।
  2. भारत में राष्ट्रपति 5 वर्ष के लिए चुना जाता है और उसे इससे पहले केवल संविधान के उल्लंघन के आधार पर महाभियोग के द्वारा हटाया जा सकता है। संसद विशेष बहुमत की प्रक्रिया के द्वारा राष्ट्रपति को पदच्युत कर सकती है। यहाँ राष्ट्रपति के महाभियोग में सर्वोच्च न्यायालय की कोई भूमिका नहीं है।

पृष्ठ 86

प्रश्न 6.
राष्ट्रपति के लिए किताबों में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग- दोनों का प्रयोग किया जाता है। क्या कभी कोई महिला भी राष्ट्रपति हुई है?
उत्तर:
हाँ, भारत में महिला भी राष्ट्रपति हुई हैं। श्रीमती प्रतिभा पाटिल महिला राष्ट्रपति हुई हैं।

पृष्ठ 89

प्रश्न 7.
कल्पना करें कि प्रधानमन्त्री किसी राज्य में इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लगाना चाहता है कि वहाँ की सरकार दलितों पर अत्याचार रोकने में विफल रही है। राष्ट्रपति की सोच कुछ अलग है। उसका कहना है कि राष्ट्रपति शासन का अपवाद स्वरूप ही प्रयोग करना चाहिए। इस स्थिति में राष्ट्रपति के पास निम्नलिखित में से कौनसा विकल्प है?
(क) वह प्रधानमन्त्री को बताए कि राष्ट्रपति शासन की घोषणा करने वाले आदेश पर वह हस्ताक्षर नहीं करेगा।
(ख) प्रधानमन्त्री को बर्खास्त कर दे।
(ग) वह प्रधानमन्त्री से वहाँ केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल भेजने को कहे।
(घ) एक प्रेस वक्तव्य दे कि क्यों प्रधानमन्त्री गलत है।
(ङ) इस सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री से बातचीत करे और उसे ऐसा करने से रोके परन्तु यदि प्रधानमन्त्री दृढ़ रहे तब उस पर हस्ताक्षर कर दे।
उत्तर:
(ङ) इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री से बातचीत करे और उसे ऐसा करने से रोके परन्तु यदि प्रधानमन्त्री दृढ़ रहे, तब उस पर हस्ताक्षर कर दे।

पृष्ठ 93.

प्रश्न 8.
मुख्यमन्त्री विश्वासमत जीतकर भी खुश नहीं हैं। वे कह रहे हैं कि विश्वास मत जीतने के बावजूद उनकी परेशानियाँ बरकरार हैं। क्या आप सोच सकते हैं, वे ऐसा क्यों कह रहे हैं?
उत्तर:
जब विधानसभा में किसी एक दल को या किसी चुनाव पूर्व गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो राज्यपाल सबसे बड़े दल या गठबन्धन के नेता को इस शर्त पर मुख्यमन्त्री बनाता है कि उसे अमुक तिथि तक विधानसभा विश्वासमत जीतना है। इस स्थिति में जब मुख्यमन्त्री विश्वास मत जीत भी लेता है, तो भी उसकी परेशानियाँ बनी रहती हैं। क्योंकि अब उसे एक नेता से अधिक एक मध्यस्थ की भूमिका निभानी होती है। उसे निरन्तर अपने राजनीतिक सहयोगियों से परामर्श कर चलना पड़ता है क्योंकि विभिन्न सहयोगी दलों के बीच काफी बातचीत और समझौते के बाद ही नीतियाँ बन पायेंगी। इसी सन्दर्भ में विश्वासमत जीतने के बावजूद मुख्यमन्त्री ऐसा कह रहे हैं कि अभी उनकी परेशानियाँ बरकरार हैं।

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पृष्ठ 94

प्रश्न 9.
मान लीजिए कि प्रधानमन्त्री को मन्त्रिपरिषद् का गठन करना है। वह क्या करेगा/करेगी-
(क) विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों का चयन।
(ख) केवल अपनी पार्टी के लोगों का चयन।
(ग) केवल व्यक्तिगत रूप से निष्ठावान और विश्वसनीय लोगों का चयन।
(घ) केवल सरकार के समर्थकों का चयन।
(ङ) मन्त्री बनने की होड़ में शामिल व्यक्तियों की राजनीतिक ताकत का अंदाजा लगाकर ही उनका चयन।
उत्तर:
(ङ) प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का गठन करते समय मन्त्री बनने की होड़ में शामिल व्यक्तियों की राजनीतिक ताकत का अंदाजा लगाकर ही उनका चयन करेगा।

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प्रश्न 1.
संसदीय कार्यपालिका का अर्थ होता है
(क) जहाँ ससद हो वहाँ कार्यपालिका का होना।
(ख) संसद द्वारा निर्वाचित कार्यपालिका।
(ग) जहाँ संसद कार्यपालिका के रूप में काम करती है।
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो संसद के बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो।
उत्तर:
(घ) संसदीय कार्यपालिका का अर्थ होता है ऐसी कार्यपालिका जो संसद के बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित संवाद पढ़ें। आप किस तर्क से सहमत हैं और क्यों? अमित- संविधान के प्रावधानों को देखने से लगता है कि राष्ट्रपति का काम सिर्फ ठप्पा मारना है। शमा: राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करता है। इस कारण उसे प्रधानमन्त्री को हटाने का भी अधिकार होना चाहिए। राजेश: हमें राष्ट्रपति की जरूरत नहीं। चुनाव के बाद, संसद बैठक बुलाकर एक नेता चुन सकती है जो प्रधानमन्त्री बने।
उत्तर:
अमित, शमा और राजेश के उपर्युक्त संवाद में मैं अमित के तर्क से सहमत हूँ, लेकिन शमा और राजेश के तर्क से सहमत नहीं हूँ। अमित के तर्क से सहमत होने का कारण यह है कि भारत में संसदात्मक कार्यपालिका को अपनाया गया है जिसमें राष्ट्र या राज्य का अध्यक्ष नाम मात्र का कार्यपालिका अध्यक्ष होता है और मन्त्रिपरिषद् सहित प्रधानमन्त्री सरकार का अध्यक्ष होता है और वह वास्तविक कार्यपालिका अध्यक्ष होता है। भारत में राष्ट्रपति का पद नाममात्र की कार्यपालिका अध्यक्ष का पद है।

यद्यपि सिद्धान्त रूप में समस्त सरकार के कार्य राष्ट्रपति के नाम से किये जाते हैं लेकिन व्यवहार में सामान्य स्थिति में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार ही कार्य करता है। इससे स्पष्ट होता है कि संवैधानिक दृष्टि से राष्ट्रपति नाम मात्र का अध्यक्ष है। संविधान में स्पष्ट लिखा है कि राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में मन्त्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा। राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित को सुमेलित करें:

(क) भारतीय विदेश सेवा जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा केन्द्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती हैं जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं और।
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है, इसमें प्रतिनियुक्ति पर केन्द्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केन्द्रीय सेवाएँ भारत के विदेशों में कार्यरत।

उत्तर:

(क) भारतीय विदेश सेवा भारत के विदेशों में कार्यरत।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है, इसमें प्रतिनियुक्ति पर केन्द्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केन्द्रीय सेवाएँ केन्द्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती हैं जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं और।

प्रश्न 4.
उस मन्त्रालय की पहचान करें जिसने निम्नलिखित समाचार को जारी किया होगा। यह मन्त्रालय प्रदेश की सरकार का है या केन्द्र सरकार का और क्यों?
(क) आधिकारिक तौर पर कहा गया है कि सन् 2004-05 में तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम कक्षा 7, 10 और 11 की नई पुस्तकें जारी करेगा।
(ख) भीड़ भरे तिरुवल्लूर: चेन्नई खण्ड में लौह-अयस्क निर्यातकों की सुविधा के लिए एक नई रेल लूप लाइन बिछाई जायेगी। नई लाइन लगभग 80 कि.मी. की होगी। यह लाइन पुट्टूर से शुरू होगी और बन्दरगाह के निकट अतिपट्टू तक जाएगी।
(ग) रमयपेट मण्डल में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं की पुष्टि के लिए गठित तीन सदस्यीय उप- विभागीय समिति ने पाया कि इस माह आत्महत्या करने वाले दो किसान फसल के मारे जाने से आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे थे।
उत्तर:
(कं) यह समाचार तमिलनाडु राज्य के शिक्षा मन्त्रालय द्वारा जारी किया गया होगा क्योंकि तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम द्वारा तमिलनाडु राज्य में कक्षा 7, 10 और 11 के लिए नया सत्र शुरू करना था।

(ख) पुट्टूर से प्रारम्भ होकर चेन्नई बन्दरगाह के निकट अतिपट्टू तक 80 किमी. लम्बी नई रेल लूप लाइन बिछाने का आदेश रेल मन्त्रालय का है। यह मन्त्रालय केन्द्र सरकार का है क्योंकि रेलवे विषय संघ सूची का विषय है

(ग) रायमपेट मण्डल में दो किसानों ने आत्महत्या की जिसके लिए तीन सदस्यीय सब-डिवीजनल समिति ने जाँच की कि ये किसान फसल के मारे जाने की वजह से आर्थिक समस्या से परेशान थे और इसलिए आत्महत्या कर ली। यह मामला कृषि मन्त्रालय का है जो राज्य मन्त्रिमण्डल के अधीन आता है। लेकिन इसमें केन्द्र सरकार का कृषि मन्त्रालय भी राज्य सरकार के माध्यम से किसानों की सहायता हेतु कदम उठा सकता है।

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प्रश्न 5.
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करने में राष्ट्रपति:
(क) लोकसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ख) लोकसभा में बहुमत अर्जित करने वाले गठबन्धन के दलों में सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ग) राज्यसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(घ) गठबन्धन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।
उत्तर:
(घ) प्रधानमन्त्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति गठबन्धन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।

प्रश्न 6.
इस चर्चा को पढ़कर बताएँ कि कौनसा कथन भारत पर सबसे ज्यादा लागू होता है।
आलोक:  प्रधानमन्त्री राजा के समान है। वह हमारे देश में हर बात का फैसला करता है।
शेखर: प्रधानमन्त्री सिर्फ ‘समान हैसियत के सदस्यों में प्रथम है। उसे कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं। सभी मन्त्रियों और प्रधानमन्त्री के अधिकार बराबर हैं।
बॉबी: प्रधानमन्त्री को दल के सदस्यों तथा सरकार को समर्थन देने वाले सदस्यों का ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन कुल मिलाकर देखें तो नीति-निर्माण तथा मन्त्रियों के चयन में प्रधानमन्त्री की बहुत ज्यादा चलती है।
उत्तर:
उपर्युक्त चर्चा में तीसरा कथन अर्थात् बॉबी का कथन भारत के सन्दर्भ में सबसे ज्यादा लागू होता है।

प्रश्न 7.
क्या मन्त्रिमण्डल की सलाह राष्ट्रपति को हर हाल में माननी पड़ती है? आप क्या सोचते हैं? अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
भारत में राष्ट्रपति संवैधानिक या नाममात्र का अध्यक्ष है और मन्त्रिमण्डल वास्तविक अध्यक्ष। संविधान के अनुच्छेद 74(1) में कहा गया है कि ” राष्ट्रपति की सहायता और सलाह देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी जिसका
उत्तर:
(क) भारतीय विदेश सेवा
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा
(ग) अखिल भारतीय सेवाएँ
(घ) केन्द्रीय सेवाएँ
भारत के विदेशों में कार्यरत।
जिसमें बहाली ( भर्ती) हो उसी प्रदेश में कार्य करती है।

प्रश्न 8.
संसदीय व्यवस्था ने कार्यपालिका को नियन्त्रण में रखने के लिए विधायिका को बहुत से अधिकार दिये हैं। कार्यपालिका को नियन्त्रित करना इतना जरूरी क्यों है? आप क्या सोचते हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान के द्वारा संसदीय शासन व्यवस्था की स्थापना की गई है। अतः कार्यपालिका संसद अर्थात् लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। मन्त्रिमण्डल उसी समय तक अपने पद पर रहता है जब तक कि उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त हो । संसद अनेक प्रकार से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रख सकती है। संसद सदस्य मन्त्रियों से सरकारी नीति के सम्बन्ध में प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछकर कार्यपालिका पर अंकुश लगाते हैं।

संसद सरकारी विधेयक या बजट को अस्वीकार करके, मन्त्रियों के वेतन में कटौती का प्रस्ताव स्वीकार करके अथवा किसी सरकारी विधेयक में ऐसा संशोधन करके जिससे सरकार सहमत न हो, अपना विरोध प्रदर्शित कर सकती है। इसके अतिरिक्त वह काम रोको प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव तथा अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है।

निम्नलिखित कारणों से संसद द्वारा कार्यपालिका को नियन्त्रित करना आवश्यक है।

  1. एक लोकतान्त्रिक शासन में समस्त शक्तियाँ जनता में निहित होती हैं। कार्यपालिका जनता की तरफ से ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करती है। इसलिए इसे संसद, जो कि जनता का प्रतिनिधि सदन है, के माध्यम से जनता के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है।
  2. यदि बजट के स्वरूप में कार्यपालिका पर कोई नियन्त्रण नहीं रखा जाये तो कार्यपालिका जनता पर निरंकुश होकर कर लगायेगी और करों का संकलन भी निरंकुशतापूर्ण ढंग से करेगी तथा राष्ट्र के धन को भी निरंकुशतापूर्ण ढंग से व्यय करेगी। इसलिए कार्यपालिका द्वारा प्रस्तुत बजट पर संसद के नियन्त्रण का होना आवश्यक है।
  3. संसदीय नियन्त्रण के अभाव में, कार्यपालिका अपनी शक्तियों का प्रयोग निरंकुश होकर करेगी। इससे लोक- कल्याण से उसका ध्यान हटेगा और उसका व्यवहार पक्षपातपूर्ण होगा क्योंकि शक्ति भ्रष्ट करती है और निरंकुश शक्ति पूर्णत: भ्रष्ट करती है।
  4. यदि कार्यपालिका पर संसद कोई नियन्त्रण नहीं रखे तो कार्यपालिका धीरे-धीरे समस्त शक्तियाँ अपने हाथों में केन्द्रित कर लेगी और वह निरंकुशता का व्यवहार करने लगेगी।

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प्रश्न 9.
कहा जाता है कि प्रशासनिक तन्त्र के कामकाज में बहुत ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। सुझाव के तौर पर कहा जाता है कि ज्यादा से ज्यादा स्वायत्त एजेन्सियां बननी चाहिए जिन्हें मन्त्रियों को जवाब न देना पड़े।
(क) क्या आप मानते हैं कि इससे प्रशासन ज्यादा जन हितैषी होगा?
(ख) क्या इससे प्रशासन की कार्यकुशलता बढ़ेगी?
(ग) क्या लोकतन्त्र का अर्थ यह होता है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियन्त्रण हो?
उत्तर:
(क) प्रशासनिक तन्त्र के माध्यम से सरकार अपनी लोक कल्याणकारी नीतियों को जनता तक पहुँचाती है; उन्हें कार्यान्वित करती है। सामान्यतः आम आदमी की पहुँच प्रशासनिक अधिकारियों तक नहीं होती। नौकरशाही आम नागरिकों की माँगों और आशाओं के प्रति संवेदनशील नहीं होती। राजनीतिक हस्तक्षेप के द्वारा प्रजातन्त्र में नौकरशाही की इस कमी को दूर करने का प्रयास किया जाता है। लेकिन यदि यह राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत ज्यादा हो जाता है तो प्रशासन राजनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना बन जाता है तथा प्रशासन पूर्णत: संवेदनहीन होकर राजनीतिज्ञों की हाँ में हाँ मिलाने लगता है।

इससे प्रशासन में भ्रष्टाचार, निरंकुशता, पक्षपातपूर्ण व्यवहार बढ़ जाता है और लोक कल्याण तिरोहित हो जाता है। इस स्थिति से छुटकारा पाने तथा प्रशासन को संवेदनशील, कार्यकुशल तथा निष्पक्ष बनाने रखने के लिए यह सुझाव कि ज्यादा से ज्यादा स्वायत्त एंजेन्सियाँ बनायी जायें ताकि राजनैतिक हस्तक्षेप रुके और प्रशासन जन हितैषी बन सके, उपयुक्त है। इससे प्रशासन अधिक जन हितैषी होगा क्योंकि वह स्वतन्त्रतापूर्वक निष्पक्षता व कुशलता से अपना कार्य कर सकेगा।

(ख) ज्यादा से ज्यादा ऐसी स्वायत्त एजेन्सियाँ बनाने से, जिन्हें मन्त्रियों को जवाब न देना पड़े, भ्रष्टाचार, संवेदनहीनता और निष्क्रियता समाप्त होगी और वह स्वतन्त्रतापूर्वक बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के कार्य करेंगे। इससे उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि होगी।

(ग) लोकतन्त्र का अर्थ है कि शासन जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप हो। जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि अर्थात् मन्त्री जब प्रशासन पर नियन्त्रण रखते हैं तो जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप शासन संचालित होता है क्योंकि प्रशासन संवेदनशील होकर लोक कल्याणकारी नीतियों को कार्यान्वित करने लगता है। लेकिन जब चुने हुए प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियन्त्रण हो जाता है, तो प्रशासनिक अधिकारी चाटुकार हो जाते हैं। वे मन्त्रियों की हाँ में हाँ मिलाने को ही अपना प्रमुख कार्य समझने लगते हैं। ऐसी स्थिति में प्रशासन संवेदनशील नहीं रहता, वह जनहित की उपेक्षा करने लगता है; भ्रष्टाचार तथा पक्षपातपूर्ण व्यवहार बढ़ जाता है।

इस प्रकार सही अर्थों में लोकतन्त्र नहीं रहता है। अतः यह कहना सही नहीं है कि चुने हुए प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियन्त्रण होना ही लोकतन्त्र है। लोकतन्त्र का सही अर्थ है। प्रशासन द्वारा जनहितकारी कार्यों को निष्पक्षता तथा कार्यकुशलता से जनता के प्रति संवेदनशील होते हुए करना। जनप्रतिनिधियों का ऐसा नियन्त्रण जो प्रशासन को इस ओर सक्रिय करे, उत्तरदायी बनाए लोकतन्त्रकारी कहलायेगा और ऐसा नियन्त्रण जो उसे जनता के प्रति संवेदनहीन, भ्रष्ट तथा अकुशल बनायेगा, वह लोकतन्त्र विरोधी कहलायेगा।

प्रश्न 10.
नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचित आधारित प्रशासन होना चाहिए- इस विषय पर 200 शब्दों में एक लेख लिखो
उत्तर:
निर्वाचित आधारित प्रशासन
यदि प्रशासनिक कर्मचारियों को नियुक्ति के आधार के स्थान पर निर्वाचन के आधार पर लिया जाये तो यह हानिप्रद होगा। इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।
1. नीतियों को लागू करने में अनिश्चितता व अस्थिरता: यदि प्रशासन निर्वाचन के आधार पर लिया जायेगा तो निर्वाचित प्रशासक नीतियों को बदल देंगे। इससे नीतियों को लागू करने में अनिश्चितता और अस्थिरता की स्थिति पैदा हो जायेगी।

2. निष्पक्षता व तटस्थता का अभाव: नियुक्त प्रशासन पक्षपात रहित होता है क्योंकि सिविल सेवकों को केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों के द्वारा योग्यता के आधार पर नियुक्त किया जाता है। इनकी नियुक्ति एक स्वतन्त्र लोक सेवा आयोग की सिफारिश पर की जाती है। इससे प्रशासन में निष्पक्षता तथा तटस्थता बनी रहती है। लेकिन यदि लोकसेवकों की भर्ती चुनाव के द्वारा की जायेगी तो अलग-अलग पार्टियों के उम्मीदवारों की जीत होने पर नीतियों को लागू करने में अड़चनें आयेंगी। वे निष्पक्ष और तटस्थ नहीं रह पायेंगे।

3. अयोग्य तथा अकुशल प्रशासक: लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित किये गये प्रशासक योग्य तथा कुशल होते हैं क्योंकि उनके चयन का मापदण्ड योग्यता एवं कुशलता ही होता है। लेकिन यदि इनकी भर्ती निर्वाचन के आधार पर होगी तो उनकी योग्यता व कुशलता की गारण्टी नहीं दी जा सकती क्योंकि उनकी भर्ती का आधार उनकी योग्यता व कुशलता न होकर लोकप्रियता होगी। ऐसी स्थिति में प्रशासन में योग्यता व कुशलता का अभाव हो जायेगा अर्थात् प्रशासन प्राय: अकुशल हो जावेगा।

4. अस्थिरता और अनुभवहीनता: निर्वाचन के आधार पर प्रशासनिक अधिकारियों व कर्मचारियों की भर्ती प्रशासन में अस्थिरता और अनुभवहीनता भी लायेगी। लोक सेवा आयोगों द्वारा चयनित प्रशासनिक अधिकारी एक निश्चित आयु तक नियुक्त किये जाते हैं। इसलिए ये एक लम्बी अवधि तक प्रशासन में रहते हैं। इस कारण प्रशासन स्थायी, तटस्थ, अनुभवशील तथा कार्यकुशल होता है लेकिन निर्वाचन द्वारा भर्ती किये गये प्रशासनिक अधिकारी एक छोटी अवधि के लिए निर्वाचित होंगे। फलतः प्रशासन में अस्थिरता आयेगी और आवश्यक नहीं है कि वे पुनः निर्वाचित हो सकें।

इस कारण प्रशासन में अनुभवहीनता का प्रवेश हो जाता है। ऐसी स्थिति में वे नीतियों को बनाने व लागू करने में मन्त्रियों को कोई सहयोग नहीं दे पायेंगे। वे राजनीतिक रूप से तटस्थ भी नहीं रह सकते। अतः स्पष्ट है कि यदि प्रशासन को नियुक्ति के बजाय निर्वाचित किया जायेगा तो प्रशासन पक्षपातमूलक, अस्थिर, अयोग्य, अकुशल हो जायेगा ! अतः नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचित आधारित प्रशासन नहीं होना चाहिए।

 कार्यपालिका JAC Class 11 Political Science Notes

→ परिचय: सरकार के तीन अंग हैं। विधायका, कार्यपालिका और न्यायपालिका । ये तीनों मिलकर शासन का कार्य करते हैं तथा कानून व्यवस्था बनाए रखने और जनता का कल्याण करने में योगदान देते हैं। संविधान यह सुनिश्चित करता है कि ये सभी एक-दूसरे से तालमेल बनाकर काम करें और आपस में सन्तुलन बनाये रखें। कार्यपालिका क्या है? सरकार का वह अंग जो विधायिका द्वारा लिये गये नीतिगत निर्णयों, नियमों और कायदों को लागू करता है और प्रशासन का काम करता है, कार्यपालिका कहलाता है। कार्यपालिका का औपचारिक नाम अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न होता है। कुछ देशों में राष्ट्रपति होता है, तो कहीं चांसलर। कार्यपालिका में केवल राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री या मन्त्री ही नहीं होते बल्कि इसके अन्दर सम्पूर्ण प्रशासनिक ढाँचा भी सामिल है।

→ राजनीतिक कार्यपालिका: सरकार के प्रधान और उनके मन्त्रियों को राजनीतिक कार्यपालिका कहते हैं और वे सरकार के सभी नीतियों के लिए उत्तरदायी होते हैं।

→  स्थायी कार्यपालिका: जो लोग रोज-रोज के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होते हैं, उन्हें स्थायी कार्यपालिका कहते हैं।

→  कार्यपालिका के प्रकार: नेतृत्व के आधार पर कार्यपालिका के दो प्रकार बताये जा सकते हैं।

  • सामूहिक नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली और
  • एक व्यक्ति के नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली।

→ सामूहिक नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली: सामूहिक नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित कार्यपालिका के दो प्रकार हैं।
(अ) संसदीय कार्यपालिका,
(ब) अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका। यथा

(अ) संसदीय कार्यपालिका।

  • संसदीय सरकार (कार्यपालिका) के प्रमुख को आम तौर पर प्रधानमन्त्री कहते हैं। प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल के पास वास्तविक शक्ति होती है।
  • प्रधानमन्त्री विधायिका में बहुमत वाले दल का नेता होता है।
  • वह विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है
  • संसदीय कार्यपालिका में राजा या राष्ट्रपति देश का (राष्ट्र का) प्रमुख होता है जो औपचारिक या नाम मात्र का कार्यपालिका प्रमुख होती है।
  • जर्मनी, इटली, जापान, इंग्लैण्ड, पुर्तगाल तथा भारत आदि देशों में यह व्यवस्था है।

(ब) अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका-

  • अर्द्ध-अध्यक्षात्मक कार्यपालिका (सरकार) में राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है।
  • इसमें प्रधानमन्त्री सरकार का प्रमुख होता है।
  • इसमें प्रधानमन्त्री और उसका मन्त्रिपरिषद् विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है।
  • फ्रांस, रूस और श्रीलंका में ऐसी ही व्यवस्था है।

→ एक व्यक्ति के नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित प्रणाली: अध्यक्षात्मक प्रणाली:

  • अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है। वही सरकार का भी प्रमुख होता है।
  • राष्ट्रपति का चुनाव प्रायः प्रत्यक्ष मतदान से होता है।
  • वह विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होता।
  • अमेरिका, ब्राजील और लैटिन अमेरिका के अनेक देशों में ऐसी व्यवस्था पायी जाती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

→ भारत में संसदीय कार्यपालिका
भारतीय संविधान में राष्ट्रीय और प्रान्तीय दोनों ही स्तरों पर संसदीय कार्यपालिका की व्यवस्था को स्वीकार किया गया है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत राष्ट्रपति, भारत में राज्य का औपचारिक प्रधान होता है तथा प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिपरिषद् राष्ट्रीय स्तर पर सरकार चलाते हैं। राज्यों के स्तर पर राज्यपाल राज्य का नाम मात्र का प्रमुख तथा मुख्यमन्त्री और मन्त्रिपरिषद् वास्तविक सरकार के प्रमुख होते हैं।

→  भारत का राष्ट्रपति: भारत के संविधान में औपचारिक रूप से संघ की कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति को दी गई हैं।

→ निर्वाचन: राष्ट्रपति 5 वर्ष के लिए चुना जाता है। राष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष तरीके से होता है। इसका अर्थ यह है कि राष्ट्रपति का निर्वाचन निर्वाचित विधायक और सांसद करते हैं। यह निर्वाचन समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली और एकल संक्रमणीय मत के सिद्धान्त के अनुसार होता है।

→ पदच्युति: केवल संसद ही राष्ट्रपति को महाभियोग की प्रक्रिया के द्वारा उसके पद से हटा सकती है। महाभियोग केवल संविधान के उल्लंघन के आधार पर लगाया जा सकता है।

→ शक्ति और स्थिति: राष्ट्रपति सरकार का औपचारिक प्रधान है। उसे औपचारिक रूप से बहुत-सी कार्यकारी, विधायी, कानूनी और आपात शक्तियाँ प्राप्त हैं। लेकिन राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में प्रधानमन्त्री सहित मन्त्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार कार्य करेगा। इस प्रकार अधिकतर मामलों में राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद् की सलाह माननी पड़ती है। लेकिन राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद को अपनी सलाह पर एक बार पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है, लेकिन उसे मन्त्रिपरिषद् के द्वारा पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह को मानना ही पड़ेगा।

→ राष्ट्रपति के विशेषाधिकार:

  • संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति को सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों और मन्त्रिपरिषद् की कार्यवाही के बारे में सूचना प्राप्त करने का अधिकार है।
  • राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह को पुनर्विचार करने के लिए एक बार लौटा सकता है।
  • राष्ट्रपति के पास वीटो (निषेधाधिकार) की शक्ति होती है जिससे वह संसद द्वारा पारित विधेयकों (धन विधेयकों को छोड़कर) पर स्वीकृति देने में विलम्ब कर सकता है या स्वीकृति देने से मना कर सकता है। इसे कई बार ‘पाकेट वीटो’ भी कहा जाता है।
  • जब आम चुनाव के बाद किसी एक दल या गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ हो और दो या तीन नेता यह दावा करें कि उन्हें लोकसभा में बहुमत प्राप्त है। तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति को अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर यह निर्णय लेना होता है कि किसे बहुमत का समर्थन प्राप्त है। भारत में 1989 के बाद से राष्ट्रपति के इस विशेषाधिकार का महत्त्व बढ़ गया है।

→ राष्ट्रपति पद की आवश्यकता (महत्त्व):
यद्यपि भारत की संसदीय व्यवस्था में राष्ट्रपति का पद एक औपचारिक शक्ति वाले आलंकारिक प्रधान का पद है, तथापि संसदीय व्यवस्था में इस पद का अपना महत्त्व है। यथा

→ सामान्य परिस्थितियों में आवश्यकता: संसदीय व्यवस्था में जब कभी मन्त्रिपरिषद् में लोकसभा का विश्वास नहीं रहता तो उसे पद से हटना पड़ता है और तब उसकी जगह एक नई मन्त्रिपरिषद् की नियुक्ति करनी पड़ेगी । ऐसी परिस्थिति में एक ऐसे राष्ट्र प्रमुख की जरूरत पड़ती है, जिसका कार्यकाल स्थायी हो, जिसके पास प्रधानमन्त्री को नियुक्त करने की शक्ति हो और जो सांकेतिक रूप से पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर सके। सामान्य परिस्थितियों में राष्ट्रपति की यही भूमिका है।

→ असामान्य परिस्थितियों में महत्त्व: जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तब राष्ट्रपति पर अपने विवेक से निर्णय लेने और देश की सरकार चलाने के लिए प्रधानमन्त्री को नियुक्त करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी होती है।

→ भारत का उपराष्ट्रपति: भारत का उपराष्ट्रपति पाँच वर्ष के लिए चुना जाता है। इसे संसद के निर्वाचित सदस्य ही चुनते हैं। उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए राज्यसभा को अपने बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पास करना पड़ता है और उस प्रस्ताव पर लोकसभा की सहमति लेनी पड़ती है। उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष होता है और किसी कारणवश राष्ट्रपति का पद रिक्त होने पर वह कार्यवाहक राष्ट्रपति का काम करता है।

→ मन्त्रिपरिषद् का गठन: प्रधानमन्त्री और मन्त्रिपरिषद्: प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद् का प्रधान है। लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है और उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। प्रधानमन्त्री विभिन्न मन्त्रियों में पद स्तर और मन्त्रालयों का आबंटन करता है। मन्त्रियों को उनकी वरिष्ठता और राजनीतिक महत्त्व के अनुसार मन्त्रिमण्डल का मन्त्री, राज्यमन्त्री या उपमन्त्री बनाया जाता है। प्रधानमन्त्री और सभी मन्त्रियों के लिए छ: महीने के अन्दर संसद का सदस्य होना अनिवार्य है। मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की संख्या लोकसभा (राज्यों में विधानसभा) की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती।

→ सामूहिक उत्तरदायित्व: मन्त्रिपरिषद् लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। यदि किसी एक मन्त्री के विरुद्ध भी अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाए तो सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है।

→प्रधानमन्त्री की भूमिका तथा शक्तियाँ: मन्त्रिपरिषद् की केन्द्रीय धुरी: भारत में प्रधानमन्त्री का सरकार में स्थान सर्वोपरि है। बिना प्रधानमन्त्री के मन्त्रिपरिषद् का कोई अस्तित्व नहीं। प्रधानमन्त्री के पद ग्रहण करने के पश्चात् ही मन्त्रिपरिषद् अस्तित्व में आती है और उसके त्याग-पत्र देने पर पूरी मन्त्रिपरिषद् ही भंग हो जाती है।

→ सेतु की भूमिका; प्रधानमन्त्री एक तरफ मन्त्रिपरिषद् तथा दूसरी ओर राष्ट्रपति और संसद के बीच एक सेतु का काम करता है। सरकार की नीतियों के निर्णय में प्रभावी भूमिका: प्रधानमन्त्री सरकार के सभी महत्त्वपूर्ण निर्णयों में सम्मिलित होता है और सरकार की नीतियों के बारे में निर्णय लेता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका

→ अन्य भूमिकाएँ: प्रधानमन्त्री की अन्य भूमिकाएँ हैं मन्त्रिपरिषद् पर नियन्त्रण, लोकसभा का नेतृत्व, अधिकारी जमात पर आधिपत्य, मीडिया तक पहुंच, चुनाव के दौरान उसके व्यक्तित्व का उभार, अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और विदेश यात्राओं के दौरान राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरना। जब लोकसभा में किसी एक राजनीतिक दल को बहुमत मिलता है, तब प्रधानमन्त्री की शक्तियाँ निर्विवाद रहती हैं, लेकिन गठबन्धन की सरकारों में राष्ट्रपति की ये शक्तियाँ अनेक सीमाओं से बँधी रहती हैं।

→ राज्यों की कार्यपालिका: भारत में कुछेक बदलावों के साथ राज्यों में भी ठीक केन्द्र की तरह ही लोकतान्त्रिक कार्यपालिका होती है।

  • राष्ट्रपति के स्थान पर राज्य में एक राज्यपाल होता है जो ( केन्द्रीय सरकार की सलाह पर) राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।
  • राज्यपाल के पास राष्ट्रपति से कहीं अधिक विवेकाधीन शक्तियाँ हैं।
  • प्रधानमन्त्री की ही तरह राज्य में मुख्यमन्त्री होता है जो विधानसभा में बहुमत दल का नेता होता है।
  • राज्य के स्तर पर भी संसदात्मक सरकार के प्रमुख सिद्धान्त लागू होते हैं।

→ स्थायी कार्यपालिका नौकरशाही:
मन्त्रियों के निर्णय को प्रशासनिक मशीनरी नागरिक सेवा के स्थायी अधिकारी व कर्मचारी लागू करते हैं। इसे ही नौकरशाही कहते हैं। सरकार के स्थायी कर्मचारी के रूप में कार्य करने वाले प्रशिक्षित और प्रवीण अधिकारी नीतियों को बनाने और उसे लागू करने में मन्त्रियों का सहयोग करते हैं। नौकरशाही से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राजनीतिक रूप से तटस्थ हो। भारत में एक दक्ष प्रशासनिक मशीनरी मौजूद है जो राजनीतिक रूप से उत्तरदायी है।

→ सिविल सेवाओं का वर्गीकरण:

  • अखिल भारतीय सेवाएँ
    • भारतीय प्रशासनिक सेवा
    • भारतीय पुलिस सेवा।
  • केन्द्रीय सेवाएँ
    • भारतीय विदेश सेवा
    • भारतीय राजस्व सेवा।
  • प्रान्तीय सेवाएँ  बिक्रीकर अधिकारी।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

Jharkhand Board Class 11 Political Science चुनाव और प्रतिनिधित्व InText Questions and Answers

पृष्ठ 52

प्रश्न 1.
क्या बिना चुनाव के लोकतन्त्र कायम रह सकता है?
उत्तर:
नहीं, बिना चुनाव के लोकतन्त्र कायम नहीं रह सकता क्योंकि वर्तमान लोकतन्त्र का स्वरूप प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र है जो जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के द्वारा ही संचालित होता है।

प्रश्न 2.
क्या बिना लोकतन्त्र के चुनाव हो सकता है?
उत्तर:
यद्यपि बिना लोकतन्त्र के निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनाव नहीं हो सकता। लेकिन बहुत सारे गैर-लोकतान्त्रिक देशों में भी चुनाव होते हैं। वास्तव में गैर-लोकतान्त्रिक शासक स्वयं को लोकतान्त्रिक साबित करने के लिए बहुत आतुर रहते हैं। इसके लिए वे चुनावों को ऐसे ढंग से कराते हैं कि उनके शासन को कोई खतरा न हो।

पृष्ठ 56

प्रश्न 3.
50 प्रतिशत से भी कम वोट और 80 प्रतिशत से अधिक सीटें। क्या यह ठीक है? हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसी गड़बड़ व्यवस्था को कैसे स्वीकार किया?
उत्तर:
50 प्रतिशत से भी कम वोट पाने वाले दल को 80 प्रतिशत से अधिक सीटें मिलना ‘सर्वाधिक वोट से जीत वाली (FPTP) व्यवस्था में ही सम्भव है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों के लिए इसी निर्वाचन विधि को अपनाया है। भारत में ‘सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था’ के अपनाने के कारण- भारत के संविधान निर्माताओं ने सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था (फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट सिस्टम) को अपनाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे।

1. सरल विधि: समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की तुलना में ‘सर्वाधिक वोट से जीत वाली प्रणाली’ सरल है। उन सामान्य मतदाताओं के लिए जिन्हें राजनीति और चुनाव का विशेष ज्ञान नहीं है, वे इस चुनाव प्रणाली को आसानी से समझ सकते हैं। स्वतन्त्रता के समय सामान्य भारतीय मतदाताओं की भी यही स्थिति थी। इस तथ्य को समझते हुए संविधान निर्माताओं ने इस चुनाव व्यवस्था को अपनाया।

2. स्पष्ट विकल्प का होना: सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था में मतदाताओं के सामने स्पष्ट विकल्प होते हैं, जबकि समानुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था में इस स्पष्ट विकल्प का अभाव होता है। राजनीति की वास्तविकता को ध्यान में रखकर मतदाता किसी प्रत्याशी को भी वरीयता दे सकता है और किसी दल को भी। वह चाहे तो इन दोनों में, मतदान के समय सन्तुलन बनाने की भी कोशिश कर सकता है। सर्वाधिक वोट से जीत वाली प्रणाली मतदाताओं को केवल दलों में ही नहीं वरन् उम्मीदवारों में भी चयन का स्पष्ट विकल्प देती है। अन्य चुनावी व्यवस्थाओं में, विशेषकर समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में, मतदाताओं को किसी एक दल को चुनने का विकल्प दिया जाता है; लेकिन प्रत्याशियों का चयन पार्टी द्वारा जारी की गई सूची के अनुसार होता है।

3. प्रतिनिधि का मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होना: समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था में किसी क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधित्व करने वाला और मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी, कोई एक प्रतिनिधि नहीं होता। लेकिन
संजीव पास बुक्स सर्वाधिक वोट से जीत वाली व्यवस्था में किसी निर्वाचन क्षेत्र के मतदाता जानते हैं कि उनका प्रतिनिधि कौन है और उसे उत्तरदायी ठहरा सकते हैं।

4. सरकार का स्थायित्व: भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत के लिए संसदीय शासन व्यवस्था को अपनाया। संसदीय प्रणाली की प्रकृति की यह माँग है कि कार्यपालिका को विधायिका में बहुमत प्राप्त हो। संविधान निर्माता यह समझते थे कि समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली पर आधारित चुनाव संसदीय प्रणाली में सरकार के स्थायित्व के लिए उपयुक्त नहीं होंगे क्योंकि इसमें मतों के प्रतिशत के अनुपात में विधायिका में सीटें बँट जायेंगी। ‘सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली’ में प्राय: बड़े दलों या गठबन्धनों को बोनस के रूप में मत प्रतिशत से अतिरिक्त कुछ सीटें मिल जाती हैं । अत: यह प्रणाली एक स्थायी सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त कर संसदीय सरकार को सुचारु और प्रभावी ढंग से काम करने का अवसर देती है।

5. विभिन्न वर्गों में एकजुटता प्रदान करने की दृष्टि से उपयुक्त: सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली एक निर्वाचन क्षेत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों को एकजुट होकर चुनाव जीतने में मदद करती है जबकि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में, समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली प्रत्येक समुदाय को अपनी एक राष्ट्रव्यापी पार्टी बनाने को प्रेरित करेगी। यह बात भी हमारे संविधान निर्माताओं के मस्तिष्क में रही होगी।

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पृष्ठ 66

प्रश्न 4.
भारत की आबादी में मुसलमान 14.2 प्रतिशत हैं। लेकिन लोकसभा में मुसलमान सांसदों की संख्या सामान्यतः 6 प्रतिशत से थोड़ा कम रही है जो जनसंख्या के अनुपात में आधे से भी कम है। यही स्थिति अधिकतर राज्य विधानसभाओं में भी है। तीन छात्रों ने इन तथ्यों से तीन अलग-अलग निष्कर्ष निकाले। आप बतायें कि आप उनसे सहमत हैं या असहमत और क्यों?
हिलाल: यह सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली के अन्याय को दिखाता है। हमें समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनानी चाहिए थी।
आरिफ: यह अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण देने के औचित्य को बताता है। आवश्यकता इस बात की है कि मुसलमानों को भी उसी तरह का आरक्षण दिया जाये, जैसा अनुसूचित जातियों और जनजातियों को दिया गया।
सबा: सभी मुसलमानों को एक जैसा मानकर बात करने का कोई मतलब नहीं है। मुसलमान महिलाओं को इसमें कुछ भी नहीं मिलेगा। हमें मुसलमान महिलाओं के लिए अलग आरक्षण चाहिए।
उत्तर:
भारत के संविधान में धर्म-आधारित आरक्षण का निषेध किया गया है लेकिन पिछड़े हुए लोगों को समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण देने की व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। मेरी दृष्टि से चूँकि मुस्लिम महिलाएँ अधिक पिछड़ी हुई अवस्था में हैं, इसलिए ‘मुस्लिम महिला वर्ग’ को पिछड़ा वर्ग मानते हुए मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसलिए इससे एक तरफ तो भारत की संसद तथा विधानसभाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा तथा मुस्लिम महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व होने से उनकी समस्याएँ विधायिका में रखी जा सकेंगी। इस दृष्टि से मैं सबा के मत से सहमत हूँ।

पृष्ठ 66

प्रश्न 5.
मैं इतनी समझ रखती हूँ कि भविष्य में अपने कैरियर को चुन सकूँ और इतनी उम्रदराज हूँ कि ड्राइविंग लाइसेंस बना सकूँ, तो क्या मैं इतनी बड़ी नहीं कि वोट डाल सकूँ? यदि ये कानून मुझ पर लागू होते हैं, तो मैं इन कानूनों को बनाने वाले के बारे में फैसला क्यों नहीं ले सकती?
उत्तर:
भारत में 18 वर्ष के प्रत्येक वयस्क नागरिक को वोट देने का अधिकार प्राप्त है। चूँकि आप ड्राइविंग लाइसेंस बनवा सकने की उम्र रखती हैं, जो कि कम-से-कम 18 वर्ष है। इस दृष्टि से आप एक वयस्क भारतीय नागरिक हैं तथा भविष्य में अपना कैरियर चुन सकने की समझ रखती हैं अर्थात् पागल तथा चित्त विकृत नहीं हैं। अतः आप वोट डाल सकती हैं और वोट डालकर कानून बनाने वाले जनप्रतिनिधियों (विधायकों या संसद सदस्यों) के बारे में फैसला ले सकती हैं।

पृष्ठ 69

प्रश्न 6.
क्या बहुसदस्यीय निर्वाचन आयोग की व्यवस्था भारत में स्थायी हो गयी है या सरकार एक सदस्यीय निर्वाचन आयोग को दुबारा कायम कर सकती है? क्या संविधान इस खेल की आज्ञा देता है?
उत्तर:
संविधान में यह स्पष्ट लिखा है। कि निर्वाचन आयोग में एक निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य उतने निर्वाचन आयुक्त होंगे जितने कि राष्ट्रपति समय-समय पर नियत करे। अतः सरकार एकसदस्यीय निर्वाचन आयोग की व्यवस्था को दुबारा कायम कर सकती है। संविधान इसकी आज्ञा देता है। जहाँ तक बहुसदस्यीय निर्वाचन आयोग की व्यवस्था के स्थायित्व का प्रश्न है, संवैधानिक दृष्टि से तो यह व्यवस्था स्थायी नहीं है। लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह स्थायित्व का रूप ले चुकी है। 1993 से निर्वाचन आयोग की व्यवस्था बहुसदस्यीय बनी हुई है। अब इस बात पर सामान्य सहमति बन चुकी है कि बहुसदस्यीय निर्वाचन आयोग ज़्यादा उपयुक्त है क्योंकि इससे आयोग की शक्तियों में साझेदारी हो गई है और आयोग पहले से कहीं ज्यादा जवाबदेह बन गया है।

पृष्ठ 72

प्रश्न 7.
क्या कानून में परिवर्तन करके चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोका जा सकता है? क्या केवल कानून बदलने से कोई चीज वास्तव में बदलती है?
उत्तर:
केवल ‘कानून’ में परिवर्तन करके ही चुनावों में धन और बल के प्रयोग को नहीं रोका जा सकता है। इसके लिए कानून में परिवर्तन के साथ-साथ अन्य प्रयास भी किये जाने चाहिए। यथा यह आवश्यक है कि धन और बल के प्रयोग को रोकने में जो संवैधानिक संस्थाएँ हैं, वे प्राप्त शक्तियों का और प्रभावशाली ढंग से प्रयोग करें। उदाहरण के लिए 20 वर्ष पहले की तुलना में आज निर्वाचन आयोग अधिक स्वतन्त्र तथा प्रभावी है। ऐसा इसलिए नहीं हुआ है कि निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ या उसकी संवैधानिक सुरक्षा बढ़ा दी गई है बल्कि निर्वाचन आयोग ने केवल उन शक्तियों का और प्रभावशाली ढंग से प्रयोग करना शुरू कर दिया है।

जो उसे संविधान में पहले से ही प्राप्त थीं। दूसरे, चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोकने के लिए कानून में परिवर्तन, निर्वाचन आयोग के और प्रभावशाली ढंग से अपनी शक्तियों के प्रयोग करने के साथ-साथ जनता को स्वयं भी और अधिक सतर्क रहना होगा तथा राजनीतिक कार्यों में और अधिक सक्रियता से भाग लेना आवश्यक है। तीसरे, चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोकने के लिए यह भी आवश्यक है कि ऐसी राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक संगठनों का विकास किया जाये जो स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कराने के लिए पहरेदारी करें।

इससे स्पष्ट होता है कि चुनावों में धन और बल के प्रयोग को रोकने के लिए चौतरफा प्रयास किये जाने आवश्यक हैं। प्रथम कानून में आवश्यक परिवर्तन किया जाये; दूसरे, संवैधानिक संस्थाएँ और अधिक प्रभावशाली ढंग से अपनी शक्तियों का प्रयोग करें; तीसरे, जनता स्वयं अधिक सतर्क और सक्रिय हो और चौथे, इस हेतु अन्य राजनीतिक संस्थाओं व राजनीतिक संगठनों का विकास किया जाये। अकेले कानून में परिवर्तन करने से चुनावों में धन और बल के प्रयोग को नहीं रोका जा सकता है।

Jharkhand Board Class 11 Political Science चुनाव और प्रतिनिधित्व Textbook Questions and Answers

1. निम्नलिखित में कौन प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के सबसे नजदीक बैठता है?
(क) परिवार की बैठक में होने वाली चर्चा।
(ख) कक्षा – संचालक ( क्लास – मॉनीटर) का चुनाव।
(ग) किसी राजनीतिक दल द्वारा अपने उम्मीदवार का चयन।
(घ) मीडिया द्वारा करवाये गये जनमत-संग्रह।
उत्तर:
(घ) मीडिया द्वारा करवाये गये जनमत-संग्रह

2. इनमें से कौनसा कार्य चुनाव आयोग नहीं करता है?
(क) मतदाता सूची तैयार करना
(ग) मतदान केन्द्रों की स्थापना
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण।
उत्तर;
(ङ) पंचायत के चुनावों का पर्यवेक्षण
(ख) उम्मीदवारों का नामांकन
(घ) आचार-संहिता लागू करना

3. निम्नलिखित में कौनसी बात राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों के चुनाव की प्रणाली में समान है?
(क) 18 वर्ष से ज्यादा की उम्र का हर नागरिक मतदान करने के योग्य है।
(ख) विभिन्न प्रत्याशियों के बारे में मतदाता अपनी पसन्द को वरीयता क्रम में रख सकता है।
(ग) प्रत्येक मत का समान मूल्य होता है।
(घ) विजयी उम्मीदवार को आधे से अधिक मत प्राप्त होने चाहिए । उत्तर-(ग) प्रत्येक मत का समान मूल्य होता है।
(नोट : राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव राज्य विधानसभा के सदस्य करते हैं जहाँ प्रत्येक विधायक के मत का मूल्य एक होता है। इसी प्रकार लोकसभा के सदस्यों का चुनाव वयस्क नागरिक करते हैं। इसमें एक मतदाता के मत का मूल्य एक ही होता है।)

4. फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में वही प्रत्याशी विजेता घोषित किया जाता है जो।
(क) डाक से आने वाले मतों में सर्वाधिक संख्या में मत अर्जित करता है।
(ख) देश में सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाले दल का सदस्य हो।
(ग) चुनाव क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।
(घ) 50 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करके प्रथम स्थान पर आता है।
उत्तर:
(ग) चुनाव क्षेत्र के अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत हासिल करता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 5.
पृथक् निर्वाचन मण्डल और आरक्षित चुनाव क्षेत्र के बीच क्या अन्तर है? संविधान निर्माताओं ने पृथक् निर्वाचन मण्डल को क्यों स्वीकार नहीं किया?
उत्तर:
पृथक् निर्वाचन मण्डल और आरक्षित चुनाव क्षेत्र के बीच अन्तर: आरक्षित चुनाव क्षेत्र व्यवस्था से यह आशय है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में सभी वर्गों के मतदाता वोट डालेंगे लेकिन प्रत्याशी उसी समुदाय या सामाजिक वर्ग का होगा जिसके लिए यह सीट आरक्षित है। पृथक् निर्वाचन मण्डल का आशय यह है कि किसी समुदाय के प्रतिनिधि के चुनाव में केवल उसी समुदाय के मतदाता ही मत डालेंगे। पृथक् निर्वाचन मण्डल व्यवस्था को नहीं अपनाने के कारण – संविधान निर्माताओं ने उपर्युक्त दोनों व्यवस्थाओं में से पृथक् निर्वाचन मण्डल व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इसके स्वीकार नहीं किये जाने के निम्नलिखित कारण बताये

  1. पृथक् निर्वाचन मण्डल व्यवस्था के अपनाने से समाज में एकता नहीं हो पायेगी पृथक् निर्वाचन मण्डल की व्यवस्था भारत के लिए अभिशाप रही। भारत का विभाजन कराने में इस व्यवस्था का भी सहयोग रहा है।
  2. पृथक् निर्वाचन मण्डल में प्रत्याशी केवल अपने समुदाय या वर्ग का हित ही सोच पाता है और एकीकृत समाज के भावों की उपेक्षा करने लगता है, जबकि आरक्षित चुनाव क्षेत्र व्यवस्था में विजयी प्रत्याशी अपने क्षेत्र के अन्तर्गत समाज के सभी वर्गों के हित की बात सोचने को बाध्य रहता है। यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने पृथक् निर्वाचन मण्डल पद्धति को स्वीकार नहीं किया।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित में कौनसा कथन गलत है? इसकी पहचान करें और किसी एक शब्द अथवा पद को बदल कर, जोड़कर अथवा नये क्रम में सजाकर इसे सही करें।
(क) एक फर्स्ट- पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली ( जो सबसे आगे वही जीते प्रणाली) का पालन भारत के हर चुनाव में होता है।
(ख) चुनाव आयोग पंचायत और नगरपालिका के चुनावों का पर्यवेक्षण नहीं करता।
(ग) भारत का राष्ट्रपति किसी चुनाव आयुक्त को नहीं हटा सकता।
(घ) चुनाव आयोग में एक से ज्यादा चुनाव आयुक्त की नियुक्ति अनिवार्य है।
उत्तर:
(क) ‘एक फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली (जो सबसे आगे, वही जीते प्रणाली) का पालन भारत के हर चुनाव में होता है।’ यह कथन गलत है। इसमें एक वाक्यांश जोड़कर पुनः सही रूप में इस प्रकार लिखा गया है।
‘भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा और विधान परिषदों के सदस्यों के चुनावों को छोड़कर फर्स्ट- पास्ट- द-पोस्ट प्रणाली का पालन भारत के शेष सभी चुनावों में होता है।’
(ख) सही कथन इस प्रकार है। ‘चुनाव आयोग स्थानीय निकायों के चुनावों का पर्यवेक्षण नहीं करता।
(ग) सही कथन इस प्रकार है। भारत का राष्ट्रपति निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से हटा सकता है।
(घ) सही कथन इस प्रकार है। निर्वाचन आयोग में एक से अधिक निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति विधिक आदेश सूचक है।

प्रश्न 7.
भारत की चुनाव प्रणाली का लक्ष्य समाज के कमजोर तबके की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना है। लेकिन अभी तक हमारी विधायिका में महिला सदस्यों की संख्या 12 प्रतिशत तक पहुँची है। इस स्थिति में सुधार के लिए आप क्या उपाय सुझायेंगे?
उत्तर:
भारत की चुनाव प्रणाली का लक्ष्य समाज के कमजोर तबके की नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना है। इस सन्दर्भ में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों तथा आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। लेकिन अभी तक हमारी विधायिका में महिला सदस्यों की संख्या 12 प्रतिशत तक ही पहुँची है। लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिला सदस्यों की नुमाइंदगी बढ़ाने की बात लगभग सभी दल करते हैं। लेकिन जब-जब इस प्रकार का विधेयक संसद में प्रस्तुत किया जाता है तो उसको सामान्यतः प्रस्तुत करने ही नहीं दिया जाता। विधायिका में महिला सदस्यों की स्थिति में सुधार के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए

  1. लोकसभा तथा विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  2. देश में महिलाओं के लिए उचित शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए ताकि शिक्षा प्राप्त कर उनमें जागरूकता आए और वह अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर स्वयं आगे बढ़कर चुनाव लड़े और विजयी होकर राजनीति में भाग ले।

प्रश्न 8.
एक नये देश के संविधान के बारे में आयोजित किसी संगोष्ठी में वक्ताओं ने निम्नलिखित आशाएँ जतायीं। प्रत्येक कथन के बारे में बतायें कि उनके लिए फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट ( सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली) उचित होगी या समानुपातिक प्रतिनिधित्व वाली प्रणाली?
(क) लोगों को इस बात की साफ-साफ जानकारी होनी चाहिए कि उनका प्रतिनिधि कौन है ताकि वे उसे निजी तौर पर जिम्मेदार ठहरा सकें।
(ख) हमारे देश में भाषायी रूप से अल्पसंख्यकों के छोटे-छोटे समुदाय हैं और देश भर में फैले हैं, हमें इनकी ठीक-ठीक नुमाइंदगी को सुनिश्चित करना चाहिए।
(ग) विभिन्न दलों के बीच सीट और वोट को लेकर कोई विसंगति नहीं रखनी चाहिए।
(घ) लोग किसी अच्छे प्रत्याशी को चुनने में समर्थ होने चाहिए भले ही वे उसके राजनीतिक दल को पसन्द न करते हों।
उत्तर:
(क) फर्स्ट-पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली (सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली)
(ख) समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली
(ग) समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (घ) फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट प्रणाली।

प्रश्न 9.
एक भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने एक राजनीतिक दल का सदस्य बनकर चुनाव लड़ा। इस मसले पर कई विचार सामने आये। एक विचार यह था कि भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एक स्वतन्त्र नागरिक है। उसे किसी राजनीतिक दल में होने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। दूसरे विचार के अनुसार, ऐसे विकल्प की सम्भावना कायम रखने से चुनाव आयोग की निष्पक्षता प्रभावित होगी। इस कारण, भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। आप इसमें किस पक्ष से सहमत हैं और क्यों?
उत्तर:
मैं इस विचार से सहमत हूँ कि भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र नागरिक है। उसे किसी राजनीतिक दल में होने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। इसका कारण यह है कि चुनाव में उम्मीदवारों को चुनने की शक्ति मतदाताओं के पास होती है, न कि राजनीतिक दलों के पास। भूतपूर्व चुनाव आयुक्त चुनाव में अपने पद का प्रयोग नहीं कर सकता क्योंकि मतदाताओं की संख्या बहुत अधिक होती है और उनके साथ उसका किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं होता है अत: वह चुनाव की निष्पक्षता को प्रभावित नहीं कर सकता।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर वकालत करने का प्रतिबंध इसलिए होता है क्योंकि न्यायाधीश होने के समय अन्य न्यायाधीशों पर उसका नियंत्रण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से होता है। वह अपने प्रभाव से उन्हें प्रभावित कर सकता है। लेकिन मुख्य निर्वाचन आयुक्त इस रूप में मतदाताओं को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होता है। वह चुनाव लड़ते समय जनता की अदालत में खड़ा होता है और प्रजातंत्र में जनता का फैसला निर्णायक होता है। अतः मेरी दृष्टि से भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त को एक स्वतंत्र नागरिक के रूप में चुनाव लड़ने का अधिकार है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 3 चुनाव और प्रतिनिधित्व

प्रश्न 10.
भारत का लोकतन्त्र अब अनगढ़ ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को छोड़कर समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? इस कथन के पक्ष अथवा विपक्ष में – तर्क दें।
संजीव पास बुक्स उत्तर: मैं इस कथन से सहमत हूँ कि भारत का लोकतन्त्र अब अनगढ़ ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को छोड़कर समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है। इस कथन के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं।
1. समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली से दलों के मत प्रतिशत और प्राप्त सीटों में एक समानता आयेगी। फर्स्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में जो राजनैतिक दल जितने प्रतिशत वोट प्राप्त करता है, उसके अनुपात में उसे सीटें प्राप्त नहीं होती हैं। या तो उसकी सीटों की संख्या प्राप्त मत प्रतिशत से बहुत अधिक होती है या बहुत कम। उदाहरण के लिए 1984 में आम चुनाव के समय लोकसभा में कांग्रेस ने 48% मत प्राप्त करके जहाँ 415 सीटें प्राप्त कीं, वहीं भाजपा को 7.4% मत प्राप्त करने पर केवल दो सीटें मिलीं। समानुपातिक प्रतिनिध्यात्मक प्रणाली को अपनाने से यह विसंगति समाप्त हो जायेगी। इससे लोकतन्त्र सुदृढ़ होगा।

2. समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनाने से सही अर्थों में बहुमत प्राप्त प्रत्याशी ही विजयी होगा। ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली में एक निर्वाचन क्षेत्र में कई उम्मीदवार होने के कारण 30 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाला प्रत्याशी ही विजयी हो जाता है, जबकि हारने वाले उम्मीदवारों को 70 प्रतिशत मत मिले। इस प्रकार इस प्रणाली में अल्पमत वाला उम्मीदवार भी जनता का प्रतिनिधित्व करता है। अतः वर्तमान में लोकतन्त्र का सही प्रतिनिधित्व करने के लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए।

3. स्वतन्त्रता के समय भारतीय मतदाता को प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र की परिपक्व समझ नहीं थी। इसलिए ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को उसकी सरलता को देखते हुए अपनाया गया था। लेकिन भारतीय लोकतन्त्र अब परिपक्व हो गया है। यहाँ का आम मतदाता लोकतान्त्रिक प्रणाली को अपना चुका है। ऐसी स्थिति में अब वह समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का भी सही उपयोग कर सकेगा क्योंकि अब यहाँ दलीय व्यवस्था बहुदलीय व द्विदलीय रूप में विकसित हो चुकी है। लोगों का दलों के प्रति रुझान स्पष्ट हो रहा है और वे दलीय आधार पर प्रत्याशियों को मत दे रहे हैं।

4. स्वतन्त्रता के समय ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ प्रणाली को अपनाने का एक अन्य कारण इस बात की सम्भावना थी कि समानुपातिक प्रतिनिधिक प्रणाली में किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सकेगा। लेकिन 1986 के बाद से भारत में बहुदलीय गठबन्धन की कार्यप्रणाली प्रचलन में आ गई है और अब यहाँ गठबन्धन सरकारें बनाना अनिवार्य हो गया है। तो ऐसी स्थिति में दलों को प्राप्त मत प्रतिशत और सीटों के बीच संतुलन बिठाकर ही लोकतंत्र के सही रूप में सार्थक करना चाहिए क्योंकि विभिन्न दल जब अब गठबन्धन कर सरकारें बना रहे हैं तो उस स्थिति में भी बना लेंगे।

5. अन्त में वर्तमान लोकतान्त्रिक युग में जनता का सही प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के लिए भारत में समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए। चूँकि भारत विविधताओं का देश है जिसमें प्रत्येक वर्ग, विचारधाराओं का उचित प्रतिनिधित्व के लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व अधिक सार्थक है।

चुनाव और प्रतिनिधित्व JAC Class 11 Political Science Notes

→ लोकतंत्र और चुनाव:
(अ) लोकतन्त्र – लोकतन्त्र के दो प्रकार हैं।

  • प्रत्यक्ष लोकतन्त्र और
  • अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र।

→ प्रत्यक्ष लोकतन्त्र: प्रत्यक्ष लोकतन्त्र में नागरिक रोजमर्रा के फैसलों और सरकार चलाने में सीधे भाग लेते हैं। प्राचीन यूनान के नगर राज्य प्रत्यक्ष लोकतन्त्र के उदाहरण माने जाते हैं। आधुनिक युग में स्थानीय स्वशासन की ‘ग्राम सभाएँ’ इसकी उदाहरण हैं।

→ अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र: लेकिन जब लाखों-लाख लोगों को निर्णय लेना हो, तो इस प्रकार के प्रत्यक्ष लोकतन्त्र को व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। ऐसी व्यवस्था में नागरिक अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं जो देश के शासन और प्रशासन को चलाने में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। ऐसे शासन को अप्रत्यक्ष लोकतन्त्र या प्रतिनिध्यात्मक शासन कहा जाता है।

→ चुनाव या निर्वाचन: अपने प्रतिनिधियों को चुनने की विधि को चुनाव या निर्वाचन कहते हैं निर्वाचन का महत्त्व – सरकार के संचालन हेतु लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं। इसलिए चुनाव महत्त्वपूर्ण हो जाता है। आज चुनाव पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के जाने-पहचाने प्रतीक हो गये हैं। लोकतन्त्र और चुनाव एक-दूसरे के पूरक हैं। लेकिन सभी चुनाव लोकतांत्रिक नहीं होते। बहुत सारे गैर लोकतांत्रिक देशों में भी चुनाव होते हैं। लोकतांत्रिक संवैधानिक नियमों के अनुसार चुनाव कराने की व्यवस्था लोकतांत्रिक चुनाव को एक गैर लोकतांत्रिक चुनाव से अलग करती है।

→ संविधान और निर्वाचन: एक लोकतान्त्रिक देश का संविधान चुनावों के लिए कुछ मूलभूत नियम बनाता है और इस सम्बन्ध में विस्तृत नियम बनाने का काम विधायिका पर छोड़ देता है। संविधान का लक्ष्य होता है।

  • एक स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव जिसे लोकतान्त्रिक चुनाव कहा जा सके तथा।
  • न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व।

→ भारत में चुनाव व्यवस्था: लोकतान्त्रिक चुनाव में जनता वोट देती है और उसकी इच्छा ही यह तय करती है कि कौन चुनाव जीतेगा लेकिन लोगों के द्वारा अपनी रुचि को व्यक्त करने के अनेक तरीके हो सकते हैं और उनकी पसन्द की गणना करने की भी बहुत सारी विधियाँ हो सकती हैं। इस प्रकार प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र में निर्वाचन की अनेक प्रणालियाँ होती हैं। भारत के संविधान में दो प्रकार की निर्वाचन प्रणालियों को अपनाया गया है।

→ सर्वाधिक मत से जीतने वाली प्रणाली ( जो सबसे आगे वही जीते ):
इस व्यवस्था में जिस प्रत्याशी को अन्य सभी प्रत्याशियों से अधिक वोट मिल जाते हैं, उसे ही निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। विजयी प्रत्याशी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि कुल मतों का बहुमत मिले। इस विधि को ‘जो सबसे आगे वही जीते प्रणाली’ ( फर्स्ट – पास्ट – द – पोस्ट सिस्टम) कहते हैं। भारत में लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के चुनाव आदि के लिए संविधान में इसी विधि को स्वीकार किया गया है। विशेषताएँ – इस प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं।

  • इसके अन्तर्गत पूरे देश को छोटी-छोटी भौगोलिक इकाइयों में बाँट दिया जाता है जिसे निर्वाचन क्षेत्र या जिला कहते हैं।
  • हर निर्वाचन क्षेत्र से केवल एक प्रतिनिधि चुना जाता है।
  • मतदाता प्रत्याशी को वोट देता है।
  • पार्टी को प्राप्त वोटों के अनुपात से अधिक या कम सीटें विधायिका में मिल सकती हैं।
  • विजयी उम्मीदवार को जरूरी नहीं कि वोटों का बहुमत (50% + 1 ) मिले।
  • यूनाइटेड किंगडम और भारत में यह प्रणाली अपनायी गई है।

→ समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली: दलों को प्राप्त मतों के अनुपात में विधायिका में प्रत्येक दल को सीटें प्रदान करने की व्यवस्था को समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली कहा जाता है। विशेषताएँ समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं।

  • समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में किसी बड़े भौगोलिक क्षेत्र को एक निर्वाचन क्षेत्र मान लिया जाता है। पूरा का पूरा देश भी एक निर्वाचन क्षेत्र गिना जा सकता है।
  • इसमें एक निर्वाचन क्षेत्र से कई प्रतिनिधि चुने जा सकते हैं।
  • इसमें मतदाता प्रत्याशी को नहीं बल्कि पार्टी को वोट देता है।
  • हर पार्टी को प्राप्त मत के अनुपात में विधायिका में सीटें हासिल होती हैं।
  • विजयी उम्मीदवार को वोटों का बहुमत हासिल होता है।
  • इजरायल और नीदरलैंड में यह व्यवस्था अपनायी गयी है। भारत में केवल अप्रत्यक्ष चुनावों के लिए इसे सीमित रूप में अपनाया गया है।

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→ समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के रूप: समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तीन रूपों का उल्लेख किया जा सकता है।

  1. इजरायल और नीदरलैंड में प्रचलित रूप: इजरायल और नीदरलैंड में पूरे देश को एक निर्वाचन क्षेत्र माना जाता है और प्रत्येक पार्टी को राष्ट्रीय चुनावों में प्राप्त वाटों के अनुपात में सीटें दे दी जाती हैं।
  2. अर्जेंटीना और पुर्तगाल में प्रचलित रूप: अर्जेन्टीना और पुर्तगाल में पूरे देश को बहु सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक पार्टी प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए अपने प्रत्याशियों की एक सूची जारी करती है जिसमें उतने ही नाम होते हैं जितने प्रत्याशियों को उस निर्वाचन क्षेत्र से चुना जाना होता है। एक पार्टी को किसी निर्वाचन क्षेत्र में जितने मत प्राप्त होते हैं, उसी आधार पर उसे उस निर्वाचन क्षेत्र में सीटें दे दी जाती हैं। इस प्रकार उक्त दोनों प्रणालियों में किसी निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनिधि वास्तव में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि होते हैं। मतदाता प्रत्याशी को वोट न देकर राजनीतिक दलों को वोट देते हैं।

→ भारत में प्रचलित रूप: भारत में समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को केवल अप्रत्यक्ष चुनावों के लिए ही सीमित रूप में अपनाया गया है। भारत का संविधान राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यसभा और विधान परिषदों के चुनावों के
लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का एक तीसरा और जटिल स्वरूप प्रस्तावित करता है। इसे ‘एकल संक्रमणीय मत प्रणाली’ कहते हैं। भारत में सर्वाधिक वोट प्रणाली क्यों स्वीकार की गई? भारत में सर्वाधिक वोट प्रणाली के स्वीकार करने के प्रमुख कारण हैं।

  • सर्वाधिक वोट प्रणाली एक सरल तथा लोकप्रिय प्रणाली है।
  • इसमें चुनाव के समय मतदाताओं के पास स्पष्ट विकल्प होते हैं। यह प्रणाली मतदाताओं को केवल दलों में ही नहीं वरन् उम्मीदवारों में भी चयन का स्पष्ट विकल्प देती है।
  • इस प्रणाली में किसी निर्वाचन क्षेत्र के लोग यह जानते हैं कि उनका प्रतिनिधि कौन है और वे उसे उत्तरदायी ठहरा सकते हैं।
  • यह प्रणाली एक स्थायी सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त कर संसदीय सरकार को सुचारु और प्रभावी ढंग से काम करने का अवसर देती है।
  • यह प्रणाली एक निर्वाचन क्षेत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों को एकजुट होकर चुनाव जीतने में मदद करती है।

→ निर्वाचन क्षेत्रों का आरक्षण
भारत के संविधान निर्माताओं ने दलित उत्पीड़ित सामाजिक समूहों के लिए उचित और न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने हेतु निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण की व्यवस्था को अपनाया है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत, किसी निर्वाचन क्षेत्र में सभी मतदाता वोट तो डालेंगे लेकिन प्रत्याशी केवल उसी समुदाय या सामाजिक वर्ग का होगा जिसके लिए वह सीट आरक्षित है। भारत का संविधान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं में आरक्षण की व्यवस्था करता है। प्रारम्भ में यह व्यवस्था 10 वर्ष के लिए की गई थी, पर अनेक संवैधानिक संशोधनों द्वारा इसे बढ़ाकर 2020 तक कर दिया गया है। आरक्षण की अवधि खत्म होने पर संसद इसे और आगे बढ़ाने का निर्णय ले सकती है।

संविधान अन्य उपेक्षित या कमजोर वर्गों के लिए इस प्रकार के आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं करता। स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित कर दी गई हैं। परिसीमन आयोग भारत में परिसीमन आयोग एक स्वतन्त्र संस्था है जिसका गठन राष्ट्रपति करते हैं। इसका गठन पूरे देश में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा खींचने तथा निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण हेतु किया जाता है। यह चुनाव आयोग के साथ मिलकर काम करता है।

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→ स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव: किसी भी चुनाव प्रणाली की कसौटी यह है कि वह एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया सुनिश्चित कर सके, जिसमें मतदाताओं की आकांक्षाएँ चुनाव परिणामों में न्यायपूर्ण ढंग से व्यक्त हो सकें।

(स) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार: लोकतान्त्रिक चुनावों में देश के सभी वयस्क नागरिकों को चुनाव में मत देने के अधिकार को ही सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहा जाता है। भारतीय संविधान में प्रत्येक वयस्क भारतीय नागरिक को वोट देने का अधिकार प्रदान किया गया है।

(द) चुनाव लड़ने का अधिकार: भारत में सभी भारतीय नागरिकों को चुनाव में खड़े होने और जनता का प्रतिनिधि होने का अधिकार है। लेकिन विभिन्न पदों पर चुनाव लड़ने की न्यूनतम आयु अर्हता भिन्न-भिन्न है। जैसे- लोकसभा और विधानसभा प्रत्याशी के लिए कम-से-कम 25 वर्ष की आयु आवश्यक है। राज्यसभा के लिए न्यूनतम आयु 30 वर्ष है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अर्हताएँ भी हैं। लेकिन चुनाव लड़ने के लिए आय, शिक्षा, वर्ग या लिंग के आधार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

(य) स्वतन्त्र निर्वाचन आयोग:
संगठन: भारत में एक स्वतन्त्र निर्वाचन आयोग का प्रावधान किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा कुछ अन्य चुनाव आयुक्त होते हैं। वर्तमान में एक मुख्य चुनाव आयुक्त तथा दो अन्य चुनाव आयुक्त हैं। भारत में निर्वाचन आयोग की सहायता करने के लिए प्रत्येक राज्य में एक मुख्य निर्वाचन अधिकारी होता है। निर्वाचन आयोग स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए जिम्मेदार नहीं होता।

→ कार्यकाल: संविधान मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के कार्यकाल की सुरक्षा देता है। उन्हें 6 वर्षों के लिए अथवा 65 वर्ष की आयु तक (जो पहले खत्म हो) के लिए नियुक्त किया जाता है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त को कार्यकाल समाप्त होने के पूर्व राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है; पर इसके लिए संसद के दोनों सदनों को विशेष बहुमत (2/3 बहुमत से पारित कर इस आशय का प्रतिवेदन राष्ट्रपति को देना होगा। निर्वाचन आयुक्तों को भारत का राष्ट्रपति हटा सकता है।

→ कार्य मतदाता सूची तैयार करना: चुनाव के संचालन का अधीक्षण, निर्देशन और नियन्त्रण करना; चुनाव कार्यक्रम तय करना, राजनीतिक दलों व उम्मीदवारों के लिए एक आदर्श आचार संहिता लागू करना, आवश्यकता होने पर किसी क्षेत्र में दोबारा मतगणना की आज्ञा देना, राजनीतिक दलों को मान्यता देना तथा उन्हें चुनाव चिह्न आवण्टित करना आदि प्रमुख कार्य चुनाव आयोग के हैं। पिछले 65 वर्षों में भारत में लोकसभा के 16 चुनाव हो चुके हैं।

→ चुनाव सुधार:
वयस्क मताधिकार, चुनाव लड़ने की स्वतन्त्रता और एक स्वतन्त्र निर्वाचन आयोग की स्थापना के द्वारा भारत में चुनावों को स्वतन्त्र और निष्पक्ष बनाने की कोशिश की गई है। लेकिन पिछले 65 वर्षों के अनुभव के बाद निर्वाचन आयोग, विभिन्न राजनीतिक दलों, स्वतन्त्र समूहों और अनेक विद्वानों द्वारा चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए अनेक सुझाव दिये गए हैं। चुनाव सम्बन्धी प्रावधानों को संशोधन करने से सम्बन्धित कुछ सुझाव ये है।

  • संसद और विधानसभाओं में 1/3 सीटों पर महिलाओं को चुनने हेतु विशेष प्रावधान बनाए जायें।
  • चुनावी राजनीति में धन के प्रभाव को नियन्त्रित किया जाये।
  • फौजदारी मुकदमे वाले उम्मीदवार को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाये।
  • चुनाव प्रचार में जाति एवं धर्म के आधार पर की जाने वाली अपीलों को प्रतिबन्धित किया जाये।
  • राजनीतिक दलों की कार्यविधि को और अधिक पारदर्शी और लोकतान्त्रिक बनाने के लिए कानून बनाया जाये।

→ चुनाव सुधारों के अतिरिक्त चुनावों को स्वतन्त्र व निष्पक्ष बनाने के दो अन्य तरीके ये हैं।

  • जनता स्वयं ही और अधिक सतर्क रहे तथा राजनीतिक कार्यों में और सक्रियता से भाग ले।
  • इसके लिए अनेक राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक संगठनों का विकास किया जाये।

→ (ल) भारत में चुनाव व्यवस्था की सफलता के मापदण्ड।

  • स्वतन्त्रतापूर्वक प्रतिनिधियों का चुनाव तथा शान्तिपूर्ण ढंग से सरकारों का बदलना।
  • चुनाव प्रक्रिया में बढ़ती जनता की रुचि तथा उम्मीदवारों और दलों की बढ़ती संख्या।
  • सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को साथ लेकर चलना।
  • अधिकतर भागों में चुनाव परिणाम चुनावी अनियमितताओं से अप्रभावित।
  • चुनावों का लोकतान्त्रिक जीवन का अभिन्न अंग बन जाना।

भारत में मतदाता के अन्दर आत्मविश्वास बढ़ा है तथा मतदाताओं की नजरों में निर्वाचन आयोग का कद बढ़ा हैं।