JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. आजादी के समय देश में अधिकांश प्रांत ऐसे थे जिन्हें अंग्रेजों ने गठित किया था
(क) सामान्य भाषा के आधार पर
(ख) सामान्य आर्थिक हित के आधार पर
(ग) सामान्य क्षेत्र के आधार पर
(घ) प्रशासनिक सुविधा के आधार पर
उत्तर:
(घ) प्रशासनिक सुविधा के आधार पर

2. इस समय भारत संघ में कुल राज्य हैं।
(क) 14
(ख) 16
(ग) 25
(घ) 28
उत्तर:
(घ) 28

3. निम्नलिखित में जो संघात्मक शासन प्रणाली की विशेषता नहीं है, वह है।
(क) शक्तियों का विभाजन
(ख) संविधान की सर्वोच्चता
(ग) इकहरी नागरिकता
(घ) न्यायपालिका की स्वतंत्रता
उत्तर:
(ग) इकहरी नागरिकता

4. भारतीय संविधान निर्माताओं को संघात्मक व्यवस्था में एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।
(क) विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रखने के लिए
(ख) राष्ट्रीय एकता की स्थापना के लिए
(ग) विकास की चिंताओं ने
(घ) उपर्युक्त सभी ने
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी ने

5. भारत के राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है।
(क) राष्ट्रपति द्वारा
(ख) मुख्यमंत्री द्वारा
(ग) लोकसभा अध्यक्ष द्वारा
(घ) गृहमंत्री द्वारा।
उत्तर:
(क) राष्ट्रपति द्वारा

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6. केन्द्र-राज्य सम्बन्धों से जुड़े मसलों की पड़ताल के लिए केन्द्र सरकार द्वारा 1983 में एक आयोग बनाया गया। इस आयोग को जाना जाता है।
(क) योजना आयोग के नाम से
(ख) सरकारिया आयोग के नाम से
(ग) अन्तर्राज्यीय आयोग के नाम से
(घ) लोक सेवा आयोग के नाम से
उत्तर:
(ख) सरकारिया आयोग के नाम से

7. संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में आपसी विवाद को कहा जाता है।
(क) केन्द्र-राज्य विवाद
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय विवाद
(ग) अन्तर्राज्यीय विवाद
(घ) आन्तरिक विवाद
उत्तर:
(ग) अन्तर्राज्यीय विवाद

8. संविधान के अनुच्छेद 370 के द्वारा भारत संघ के किस राज्य को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई थी।
(क) बिहार राज्य को
(ख) उत्तरांचल राज्य को
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य को
(घ) अरुणाचल राज्य को
उत्तर:
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य को

9. भारत में महाराष्ट्र में कौनसा क्षेत्र अभी भी अलग राज्य के लिए संघर्ष कर रहा है।
(क) तेलंगाना क्षेत्र
(ख) विदर्भ क्षेत्र
(ग) उत्तरांचल क्षेत्र
(घ) झारखंड क्षेत्र
उत्तर:
(ख) विदर्भ क्षेत्र

10. वर्तमान में तेलंगाना क्षेत्र एक अलग राज्य है। यह राज्य निम्न में से किस राज्य से अलग होकर बना है-
(क) महाराष्ट्र
(ख) तमिलनाडु
(ग) तेलगूदेशम
(घ) कर्नाटक
उत्तर:
(ग) तेलगूदेशम

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. सोवियत संघ के विघटन के प्रमुख कारण वहाँ शक्तियों का जमाव और अत्यधिक …………………. की प्रवृत्तियाँ थीं।
उत्तर:
केन्द्रीकरण

2. संघीय शासन व्यवस्था में केन्द्र-राज्यों के मध्य किसी टकराव को रोकने के लिए एक ………………….. की व्यवस्था होती है।
उत्तर:
स्वतंत्र न्यायपालिका

3. भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध ……………….. पर आधारित होंगे।
उत्तर:
सहयोग

4. भारतीय संविधान द्वारा एक सशक्त ………………… की स्थापना की गई है।
उत्तर:
केन्द्रीय सरकार

5. हमारी प्रशासकीय व्यवस्था ………………… है।
उत्तर:
इकहरी

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. राज्यपाल की भूमिका केन्द्र और राज्यों के बीच हमेशा ही विवाद का विषय रही है।
उत्तर:
सत्य

2. हमारी संघीय व्यवस्था में नवीन राज्यों के गठन की माँग को लेकर भी तनाव रहा है।
उत्तर:
सत्य

3. दिसम्बर, 1950 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई।
उत्तर:
असत्य

4. कृषि तथा पुलिस समवर्ती सूची के विषय हैं।
उत्तर:
असत्य

5. हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने भारत को विविधता में एकता के रूप में परिभाषित किया है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. प्रतिरक्षा तथा विदेश मामले (क) राज्य सूची के विषय
2. शिक्षा तथा वन (ग) दिसम्बर, 1953 में
3. पुलिस तथा स्थानीय स्वशासन (ख) समवर्ती सूची के विषय
4. राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना (घ) 1956 में
5. भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन (च) संघ सूची के विषय

उत्तर:

1. प्रतिरक्षा तथा विदेश मामले (च) संघ सूची के विषय
2. शिक्षा तथा वन (ख) समवर्ती सूची के विषय
3. पुलिस तथा स्थानीय स्वशासन (क) राज्य सूची के विषय
4. राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना (ग) दिसम्बर, 1953 में
5. भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन (घ) 1956 में

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1
ऐसे चार राज्यों के नाम लिखिये जिनके नाम स्वतंत्रता के बाद परिवर्तित किये गये हैं। पुराने और नये दोनों नाम लिखिये।
उत्तर:
निम्नलिखित राज्यों के नाम परिवर्तित किये गए हैं।

पुराने नाम नए नाम
(1) मैसूर कर्नाटक
(2) मद्रास तमिलनाडु
(3) आंध्रप्रदेश तेलगूदेशम
(4) मुंबई महाराष्ट्र

प्रश्न 2.
ऐसे दो देशों के नाम लिखिये जिन्होंने संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया है।
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत।

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प्रश्न 3.
संघात्मक शासन की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
शक्तियों का विभाजन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता।

प्रश्न 4.
राज्य पुनर्गठन आयाग की स्थापना कब की गई?
उत्तर:
1953 में।

प्रश्न 5.
राज्य पुनर्गठन आयोग की मुख्य सिफारिश क्या थी?
उत्तर:
राज्य पुनर्गठन आयोग ने भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की।

प्रश्न 6.
राज्य सूची में कितने और किस प्रकार के विषय हैं?
उत्तर:
राज्य सूची में 66 विषय हैं। ये स्थानीय महत्त्व के विषय हैं।

प्रश्न 7.
संघ सूची में कितने तथा किस प्रकार के विषय हैं?
उत्तर:
संघ सूची में 97 विषय हैं। ये राष्ट्रीय महत्त्व के विषय हैं।

प्रश्न 8.
समवर्ती सूची किसे कहते हैं?
उत्तर:
समवर्ती सूची में वे विषय आते हैं जिन पर संघ और राज्य दोनों की सरकारें कानून बना सकते हैं। इसमें 47 विषय हैं।

प्रश्न 9.
1958 में स्थापित ‘वेस्टइण्डीज संघ’ 1962 में किस कारण भंग कर दिया गया?
उत्तर:
‘वेस्टइण्डीज संघ’ की केन्द्रीय सरकार कमजोर थी और प्रत्येक संघीय इकाई की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था थी तथा संघीय इकाइयों में राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा थी।

प्रश्न 10.
सोवियत संघ के विघटन के दो प्रमुख कारण बताइये।
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन के दो प्रमुख कारण ये थे।

  1. शक्तियों का अतिशय संघनन और केन्द्रीकरण की प्रवृत्तियाँ।
  2. उजबेकिस्तान जैसे भिन्न भाषा और संस्कृति वाले क्षेत्रों पर रूस का आधिपत्य।

प्रश्न 11.
नाइजीरिया की संघीय व्यवस्था अपने विभिन्न क्षेत्रों में एकता स्थापित करने में क्यों असफल रही है?
उत्तर:
नाइजीरिया की विभिन्न संघीय इकाइयों के बीच धार्मिक, जातीय और आर्थिक समुदाय एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते। इस कारण संघीय व्यवस्था भी वहाँ एकता लाने में असफल रही है।

प्रश्न 12.
संघवाद के वास्तविक कामकाज का निर्धारण किससे होता है?
उत्तर:
संघवाद के वास्तविक कामकाज का निर्धारण राजनीति, संस्कृति, विचारधारा और इतिहास की वास्तविकताओं से होता है।

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प्रश्न 13.
किस प्रकार की संस्कृति में संघवाद का कामकाज आसानी से चलता है?
उत्तर:
आपसी विश्वास, सहयोग, सम्मान और संयम की संस्कृति में संघवाद का कामकाज आसानी से चलता है।

प्रश्न 14.
भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
भारतीय संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि भारतीय संघवाद केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध सहयोग पर आधारित होगा।

प्रश्न 15.
किन चिंताओं ने भारत के संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी?
उत्तर:

  1. विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रख राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने तथा
  2. विकास की चिंताओं ने भारत के संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।

प्रश्न 16.
राज्यपाल की भूमिका किस स्थिति में अधिक विवादास्पद हो जाती है?
उत्तर:
जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं, तब राज्यपाल की भूमिका अधिक विवादास्पद हो जाती है।

प्रश्न 17.
सरकारिया आयोग की नियुक्ति कब और क्यों की गई?
उत्तर:
सरकारिया आयोग की नियुक्ति 1983 में केन्द्र राज्य सम्बन्धों की जांच-पड़ताल के लिए की गई।

प्रश्न 18.
सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्ति के बारे में क्या सुझाव दिए?
उत्तर:
सरकारिया आयोग ने यह सुझाव दिया कि राज्यपाल की नियुक्ति निष्पक्ष होकर की जानी चाहिए।

प्रश्न 19.
स्वायत्तता और अलगाववाद में क्या फर्क है?
उत्तर:
स्वायत्तता से आशय यह है कि संघवाद के अन्तर्गत रहते हुए और अधिक अधिकारों व शक्तियों की माँग करना; जबकि अलगाववाद से आशय है भारत संघ से अलग होकर अपने स्वतन्त्र राज्य की स्थापना करना।

प्रश्न 20.
किस प्रकार की एकता अन्ततः अलगाव को जन्म देती है?
उत्तर:
अनेकता और विविधता को समाप्त करने वाली बाध्यकारी राष्ट्रीय एकता अन्ततः ज्यादा सामाजिक संघर्ष और अलगाव को जन्म देती है।

प्रश्न 21.
सहयोगी संघवाद का आधार किस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था हो सकती है?
उत्तर:
विभिन्नताओं और स्वायत्तता की माँगों के प्रति संवेदनशील तथा उत्तरदायी राजनीतिक व्यवस्था ही सहयोगी संघवाद का एकमात्र आधार हो सकती है।

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प्रश्न 22.
वर्तमान में भारत में कितने राज्य और संघीय क्षेत्र हैं?
उत्तर:
वर्तमान में भारत में 28 राज्य और 9 संघीय क्षेत्र हैं।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संघवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संघवाद से आशय: संघवाद वह शासन प्रणाली है जहाँ संविधान द्वारा केन्द्र और राज्य स्तर की दो राजनीतिक व्यवस्थाएँ स्थापित की जाती हैं और दोनों के बीच शासन की शक्तियों का संविधान द्वारा स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है। इसमें संविधान लिखित तथा सर्वोच्च होता है तथा केन्द्र-राज्यों के बीच किसी टकराव को सीमित रखने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की संघीय विशेषताओं का उल्लेख करें। उत्तर- भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं।

  • भारत का संविधान एक लिखित तथा सर्वोच्च संविधान है।
  • संविधान तीन सूचियों
    1. संघ सूची,
    2. राज्य सूची और
    3. समवर्ती सूची – में अलग-अलग विषयों को परिगणित कर केन्द्र तथा राज्यों की सरकारों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन करता है।
  • इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतंत्र है।
  • इसमें राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

प्रश्न 3.
संघात्मक संविधान की कोई पाँच विशेषताएँ बताओ
उत्तर:

  1. संघात्मक संविधान में केन्द्र तथा प्रान्तों की सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।
  2. इसमें संविधान कठोर, लिखित तथा सर्वोच्च होता है।
  3. इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतन्त्र होती है।
  4. इसमें दोहरी नागरिकता की व्यवस्था की जाती है।
  5. इसमें संसद का दूसरा सदन राज्यों (प्रान्तों) का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 4.
द्विसदनीय विधायिका संघात्मक राज्यों के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है। संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है क्योंकि प्रथम सदन जनता का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा सदन संघ की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। प्रत्येक संघात्मक शासन व्यवस्था में इसीलिए द्विसदनात्मक विधायिका का प्रावधान किया गया है अमेरिका में ‘सीनेट’ और भारत में ‘राज्यसभा’ ऐसे ही दूसरे सदन हैं।

प्रश्न 5.
राज्यों द्वारा अधिक स्वायत्तता की माँग क्यों की जाती है?
अथवा
अधिक स्वायत्तता हेतु राज्यों ने कौन-कौनसी माँगें उठायीं?
उत्तर:
यद्यपि संविधान द्वारा केन्द्र और राज्य के बीच शक्तियों का स्पष्ट बँटवारा किया गया है, लेकिन संविधान में केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया है और देश की एकता व विकास की दृष्टि से उसे राज्य के क्षेत्र में दखल का अधिकार भी दिया गया है। इस कारण भारत में निम्न कारणों से समय-समय पर राज्यों द्वारा अधिक स्वायत्तता की माँग की है।

  1. कुछ राज्यों ने शक्ति विभाजन को राज्य के पक्ष में बदलने तथा राज्यों को ज्यादा तथा महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये जाने के लिए स्वायत्तता की माँग की।
  2. कुछ राज्यों ने आय के स्वतंत्र साधनों तथा संसाधनों पर राज्यों का अधिक नियंत्रण हेतु स्वायत्तता की माँग की।
  3. कुछ राज्यों ने राज्य प्रशासनिक – तंत्र पर केन्द्रीय नियंत्रण से नाराज होकर राज्य स्वायत्तता की माँग की।
  4. तमिलनाडु में हिन्दी के वर्चस्व के विरोध में तथा पंजाब में पंजाबी भाषा और संस्कृति को प्रोत्साहन देने के लिए भी स्वायत्तता की माँग की।

इस प्रकार समय-समय पर राज्यों ने विभिन्न कारणों से केन्द्रीय नियंत्रण के विरोध में स्वायत्तता की माँग की है।

प्रश्न 6.
गवर्नर का पद किस प्रकार केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव का कारण बना हुआ है? कोई दो कारण बताइए
उत्तर:
राज्यपाल के पद के केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव के दो कारण – राज्यपाल का पद केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में अनेक कारणों से तनाव पैदा करता है। ऐसे दो कारण निम्नलिखित हैं।

  1. राज्यपाल यद्यपि राज्य का संवैधानिक पद है, लेकिन उसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राष्ट्रपति उसे पदमुक्त भी कर सकता है। इसलिए वह राज्य में केन्द्र के अभिकर्त्ता के रूप में कार्य करते हुए राज्य के हितों की अनदेखी तक कर देता है
  2.  राज्यपाल को अनेक मामलों व अनेक अवसरों पर स्वयं: विवेक की शक्तियाँ प्राप्त हैं, जैसे राज्य में संवैधानिक शासन के असफल होने की रिपोर्ट भेजना, जब विधानसभा में किसी एक दल को बहुमत न मिला हो तो मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करना; राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु किसी विधेयक को सुरक्षित रखना आदि। इन सभी मामलों में वह केन्द्र के निर्देशों व सलाह के अनुसार कार्य करता है और निष्पक्ष रूप से कार्य नहीं करता है तथा राज्य के हितों की अवहेलना तक कर देता है।

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प्रश्न 7.
भारत के अन्तर्राज्यीय राजनीतिक विवादों के समाधान का सर्वोत्तम साधन क्या हो सकता है? उत्तर-भारतीय संघात्मक व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में सीमा सम्बन्धी तथा नदी जल बँटवारे सम्बन्धी राजनीतिक विवाद चले आ रहे हैं। यदि दो राज्यों के बीच के विवादों का स्वरूप कानूनी या संवैधानिक है तो ऐसे विवादों का निपटारा न्यायपालिका कर देती है, लेकिन जिन विवादों में राजनीतिक पहलू भी समाहित होते हैं; ऐसे विवादों का निपटारा केवल कानूनी आधार पर नहीं किया जा सकता। ऐसे विवादों का सर्वोत्तम समाधान केवल विचार- विमर्श और पारस्परिक विश्वास के आधार पर ही हो सकता है।

प्रश्न 8.
ऐसी दो दशाएँ बताइए जब केन्द्र सरकार राज्य-सूची के विषयों पर कानून बना सकती है? उत्तर- केन्द्र सरकार द्वारा राज्य-सूची के विषयों पर कानून बनाने की परिस्थितियाँ संविधान में सामान्यतः राज्य – सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य विधानसभाओं को ही दिया गया है लेकिन निम्नलिखित दो दशाओं में केन्द्र की विधायिका भी राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।

  1. किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में लिए गए किसी निर्णय को लागू करने या भारत और किसी विदेशी राज्य के बीच हुए किसी समझौते व सन्धि को क्रियान्वित करने के लिए भारत की संसद राज्य – सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।
  2. 2. यदि राज्यसभा 2/3 बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दे कि राज्य सूची का अमुक विषय राष्ट्रीय महत्त्व का है तो संघ की संसद उस विषय पर कानून बना सकती है। ऐसा प्रस्ताव केवल एक वर्ष तक वैध रहता है और राज्यसभा केवल दूसरे वर्ष के लिए उसकी अवधि बढ़ा सकती है। संसद द्वारा निर्मित किया गया ऐसा कानून भी केवल एक वर्ष के लिए ही लागू रहता है।

प्रश्न 9.
अन्तर्राज्यीय विवादों के प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
उत्तर:
अन्तर्राज्यीय विवाद: भारतीय संघीय व्यवस्था में केन्द्र-राज्य विवादों के साथ-साथ दो या दो से अधिक राज्यों में भी आपसी विवाद के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इस प्रकार के कानूनी विवादों का तो न्यायपालिका निपटारा कर देती है, लेकिन जिन विवादों के पीछे राजनीतिक पहलू होते हैं, उनका समाधान केवल विचार-विमर्श और पारस्परिक विश्वास के आधार पर हो सकता है। मुख्य रूप से दो प्रकार के विवाद गम्भीर विवाद पैदा करते हैं। ये निम्नलिखित हैं।

1. सीमा विवाद: राज्य प्रायः
पड़ौसी राज्यों के भू-भाग पर अपना दावा पेश करते हैं। यद्यपि राज्यों की सीमाओं का निर्धारण भाषायी आधार पर किया गया है, लेकिन सीमावर्ती क्षेत्रों में एक से अधिक भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं। अतः इस विवाद को केवल भाषाई आधार पर नहीं सुलझाया जा सकता। ऐसा ही एक विवाद महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच ‘बेलगाम’ को लेकर है। पंजाब से हरियाणा को अलग करने पर उनके बीच न केवल सीमावर्ती क्षेत्रों को लेकर बल्कि राजधानी चण्डीगढ़ को लेकर भी विवाद है। चण्डीगढ़ इन दोनों राज्यों की राजधानी है।

2. नदी-जल विवाद:
अनेक राज्यों के बीच नदियों के जल के बँटवारे को लेकर विवाद बने हुए हैं क्योंकि यह सम्बन्धित राज्यों में पीने के पानी और कृषि की समस्या से जुड़ा है। कावेरी जल विवाद एक ऐसा ही विवाद है जो तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच एक प्रमुख विवाद है। यद्यपि इसे सुलझाने के लिए एक ‘जल -विवाद न्यायाधिकरण ‘ है फिर भी ये दोनों राज्य इसे सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए हैं। ऐसा ही एक विवाद नर्मदा नदी के जल के बँटवारे को लेकर गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बीच है।

प्रश्न 10.
“भारतीय संघवाद की सबसे नायाब विशेषता यह है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संघवाद में अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है। यथा
1. राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व: संघात्मक शासन व्यवस्था में प्राय:
संघ की विधायिका के द्वितीय सदन में प्रत्येक राज्य को समान प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है। अमेरिका और स्विट्जरैण्ड के संघवाद में इस सिद्धान्त को अपनाया गया है। लेकिन भारत में प्रत्येक का आकार और जनसंख्या भिन्न-भिन्न होने के कारण राज्यों को राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व दिया गया है। जहाँ छोटे से छोटे राज्यों को भी न्यूनतम प्रतिनिधित्व अवश्य प्रदान किया गया है, वहाँ इस व्यवस्था से यह भी सुनिश्चित किया गया है कि बड़े राज्यों को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिले।

2. विशिष्ट प्रावधान:
कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान में कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था की गई है। ऐसे अधिकतर प्रावधान पूर्वोत्तर के राज्यों (असम, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आदि) के लिए हैं जहाँ विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय बहुल जनसंख्या निवास करती है। ऐसे ही कुछ विशिष्ट प्रावधान पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल तथा अन्य राज्यों के लिए भी हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“भारत राज्यों का संघ है।” इसकी संघात्मक विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 में कहा गया है कि ” भारत राज्यों का संघ (यूनियन) होगा। राज्य और उनके राज्य – क्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। ” वर्तमान में राज्य की पहली अनुसूची में 28 राज्य तथा 7 राज्य – क्षेत्र विनिर्दिष्ट हैं। इन सबको मिलाकर भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था कायम की गई है। भारत की संघात्मक शासन की विशेषताएँ या भारत के संघवाद की विशेषताएँ भारतीय संविधान में निहित संघात्मक शासन के लक्षण निम्नलिखित हैं।
1. शक्तियों का विभाजन:
प्रत्येक संघीय देश की तरह भारतीय संविधान में केन्द्र और राज्यों की सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों के विभाजन हेतु तीन सूचियाँ बनाई गई हैं।

  1. संघ सूची: इसमें 97 विषय रखे गये हैं,
  2. राज्य सूची: इसमें 66 विषय तथा
  3. समवर्ती सूची: इसमें 47 विषय दिये गये हैं।

संघ-सूची के विषयों पर सिर्फ केन्द्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है। राज्य सूची के विषयों पर सामान्यतः सिर्फ प्रान्तीय विधायिका ही कानून बना सकती है और समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र और प्रान्त दोनों की विधायिकाएँ कानून बना सकती हैं। अवशिष्ट विषय: अवशिष्ट विषय वे सभी विषय कहलायेंगे जिनका उल्लेख किसी भी सूची में नहीं हुआ है, जैसे—साइबर अपराध। ऐसे विषयों पर केवल केन्द्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है।

2. लिखित संविधान:
संघीय व्यवस्था के लिए एक लिखित संविधान की आवश्यकता होती है जिसमें केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट उल्लेख किया जा सके। भारत का संविधान एक लिखित संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। 2017 तक इसमें 101 संशोधन हो चुके हैं।

3. कठोर संविधान:
संघीय व्यवस्था में कठोर संविधान का होना भी बहुत आवश्यक है। भारत का संविधान भी एक कठोर संविधान है क्योंकि संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के दो- तिहाई बहुमत तथा कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों के बहुमत की आवश्यकता होती है।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका:
संघात्मक व्यवस्था में संविधान की सुरक्षा के लिए तथा केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के विवादों का निपटारा करने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है। भारतीय संविधान में भी स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था है। न्यायपालिका के कार्य और अधिकार भारत के संविधान में दिये गये हैं और यह स्वतन्त्र रूप से कार्य करती है।

5. संविधान की सर्वोच्चता:
भारत में संविधान को सर्वोच्च रखा गया है। कोई भी कार्य संविधान के प्रतिकूल नहीं किया जा सकता। सरकार के सभी अंग संविधान के अनुसार ही शासन कार्य चलाते हैं। सरकार का कोई कार्य यदि संविधान के प्रतिकूल होता है तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकती है।

6. इकहरी नागरिकता:
संघीय शासन व्यवस्था में लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं। इस हेतु दोहरी नागरिकता का प्रावधान किया जाता है। लेकिन भारत में इकहरी नागरिकता का ही प्रावधान किया गया है।

7. संघात्मकता के साथ:
साथ एकात्मकता के लक्षण: भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध सहयोग पर आधारित होगा। इस प्रकार विविधता को मान्यता देने के साथ-साथ संविधान एकता पर बल देता है। राष्ट्रीय एकता और विकास की चिन्ताओं ने संविधान निर्माताओं ने संघात्मक व्यवस्था में एक सशक्त केन्द्रीय सरकार की स्थापना की है। इसलिए भारतीय संविधान में संघात्मकता के साथ-साथ एकात्मकता के भी लक्षण पाये जाते हैं। जैसे इकहरी नागरिकता, आपातकालीन प्रावधान, संविधान संशोधन में संसद की प्रमुखता, केन्द्र की प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ तथा राज्यपाल की स्वयंविवेक की शक्तियाँ आदि।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 2.
संघात्मक शासन व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख लक्षणों को स्पष्ट कीजिए
उत्तर:
संघात्मकं शासन व्यवस्था से आशय – संघात्मक शासन व्यवस्था से आशय ऐसी शासन व्यवस्था से है जिसमें शासन केन्द्रीय सरकार तथा इकाइयों की सरकारों के रूप में दोहरी शासन व्यवस्थाएँ होती हैं। संविधान द्वारा शासन की. शक्तियों का विभाजन केन्द्र और प्रान्तों की सरकारों में स्पष्ट रूप से कर दिया जाता है। दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग होते हैं तथा एक-दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करते। इसमें केन्द्र और राज्यों में झगड़ों का फैसला करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की जाती है।

संघात्मक शासन व्यवस्था की विशेषताएँ: संघात्मक शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. सरकारों के दो प्रकार: संघवाद की पहली विशेषता यह है कि इसमें दो प्रकार की सरकारें पायी जाती हैं

  1. संघीय या केन्द्रीय सरकार और
  2. इकाइयों या प्रान्तों की सरकारें यह व्यवस्था राजनीति के दो प्रकार को व्यवस्थित करती है। एक, प्रान्तीय या क्षेत्रीय स्तर पर और दूसरी, केन्द्रीय स्तर पर। दोनों प्रकार की सरकारें संविधान द्वारा निर्धारित अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करती हैं।

2. शक्तियों का बँटवारा: संघात्मक शासन व्यवस्था में शासन की शक्तियों का केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों के बीच संविधान द्वारा वितरित कर दिया जाता है। राष्ट्रीय महत्त्व की शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार को दे दी जाती हैं और समस्त स्थानीय और क्षेत्रीय महत्त्व की शक्तियाँ इकाइयों की सरकारों को दे दी जाती हैं। दोनों सरकारें स्वतन्त्रतापूर्वक अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करती हैं।

3. सर्वोच्च, लिखित तथा कठोर संविधान: संघात्मक शासन व्यवस्था में संविधान लिखित होता है तथा वह सर्वोच्च होता है। दोनों प्रकार की सरकारें उसके प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकतीं। इसमें संशोधन संसद साधारण बहुमत से नहीं कर सकती, बल्कि इसमें संशोधन के लिए उसे विशिष्ट बहुमत की आवश्यकता होती है।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका: संघात्मक शासन व्यवस्था की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें न्यायपालिका स्वतन्त्र होती है। उसके पास न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति होती है। इसका आशय यह है कि यदि कभी कोई सरकार कोई ऐसी विधि या नीति बनाती है जो संविधान के प्रावधानों के प्रतिकूल है तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकती है। इस प्रकार यह केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों, दोनों को अपने क्षेत्र में सीमित रखती है।

5. द्विसदनात्मक विधायिका: संघात्मक शासन व्यवस्था की एक विशेषता द्विसदनात्मक विधायिका का होना है। इसमें निम्न सदन जहां जनता का प्रतिनिधित्व करता है, उच्च सदन राज्यों (इकाइयों) का प्रतिनिधित्व करता है। संघीय व्यवस्था में सामान्यतः द्वितीय सदन में सभी इकाइयों का समान प्रतिनिधित्व रखा जाता है; जैसे कि अमेरिका में सीनेट में प्रत्येक राज्य दो सदस्य भेजता है।

6. दोहरी नागरिकता: संघात्मक शासन व्यवस्था में सामान्यतः दोहरी नागरिकता पाई जाती है। एक, केन्द्रीय सरकार की नागरिकता और दूसरी, इकाइयों की सरकार की नागरिकता अमेरिका में दोहरी नागरिकता दी गई है, लेकिन भारतीय संघात्मक व्यवस्था में इकहरी नागरिकता ही प्रदान की गई है।

7. दोहरी पहचान और निष्ठाएँ: संघात्मक शासन व्यवस्था में लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं एक, राष्ट्र के प्रति निष्ठा तथा राष्ट्रीय पहचान और दूसरी, प्रान्त या क्षेत्र के प्रति पहचान और उसके प्रति निष्ठा। यद्यपि इसमें दोहरी निष्ठाएँ होती हैं, लेकिन इनमें राष्ट्रीय निष्ठा की प्रधानता होती है। उदाहरण के लिए, एक गुजराती या बंगाली होने से अधिक महत्त्वपूर्ण एक भारतीय होना है। इसमें भारत के प्रति निष्ठा, गुज़रात या बंगाल के प्रति निष्ठा से पहले आती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 3.
” भारत के संविधान का स्वरूप संघात्मक है परन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश की परिस्थितियों के अनुसार ऐसी व्यवस्था की है जिससे राष्ट्र की इकाइयों को स्वायत्तता मिली रहे और साथ ही राष्ट्र की एकता भी भंग न हो। इसी कारण भारतीय संविधान स्वरूप में संघात्मक रूप लिए हुए है; उसमें प्रमुख संघात्मक लक्षण विद्यमान हैं लेकिन देश की एकता भंग न हो इसलिए उसमें एकात्मकता के तत्त्व भी पाये जाते हैं जिनके द्वारा केन्द्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाया गया है। यथा भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण

1. संविधान की सर्वोच्चता:
भारत में न तो केन्द्रीय सरकार सर्वोच्च है और न ही राज्य सरकार। यहाँ संविधान सर्वोच्च है। कोई भी सरकार संविधान के प्रतिकूल काम नहीं कर सकती। देश के सभी पदाधिकारी, जैसे- राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री आदि अपना पद ग्रहण करने से पूर्व संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हुए उसके प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं

2. लिखित तथा कठोर संविधान:
भारत का संविधान लिखित है जो संविधान सभा द्वारा निर्मित किया गया है। इसमें संघ व राज्य सम्बन्धी अधिकारों को स्पष्ट रूप से लिखा गया है। इसके साथ-साथ भारत का संविधान कठोर है क्योंकि इसमें संशोधन साधारण बहुमत से नहीं किये जा सकते।

3. अधिकारों का विभाजन:
संविधान में केन्द्र और राज्यों की शक्तियों का तीन सूचियों के माध्यम से स्पष्ट विभाजन किया गया है। राज्य सूची के विषय इकाइयों को, संघ-सूची के विषय केन्द्रीय सरकार को और समवर्ती सूची के विषय दोनों सरकारों को दिये गये हैं। अवशिष्ट विषय केन्द्रीय सरकार को दिये गये हैं।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका:
भारत के संविधान में केन्द्र और राज्यों के विवादों को हल करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई है। वह केन्द्र और राज्यों के कानूनों को संविधान के प्रावधानों के प्रतिकूल होने पर असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकता है।

5. दोहरी शासन व्यवस्था:
भारतीय संघात्मक शासन व्यवस्था में दो प्रकार की सरकारों की व्यवस्था की गई एक, केन्द्रीय सरकार और दूसरी, राज्यों की सरकार। दोनों का गठन संविधान के अनुसार होता है।

भारतीय संविधान में एकात्मकता के लक्षण: यद्यपि भारतीय संविधान स्वरूप से संघात्मक है, लेकिन आत्मा से वह एकात्मक है, क्योंकि इसमें केन्द्रीय सरकार को सशक्त बनाने वाले अनेक प्रावधान किये गये हैं।

1. शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में:
संविधान द्वारा शक्तियों का जो बँटवारा किया गया है उसमें केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है क्योंकि संविधान ने आर्थिक और वित्तीय शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार के हाथ में सौंपी हैं तथा राज्य को आय के बहुत कम साधन दिये गये हैं। दूसरे, अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार को ही सौंपी गई हैं। तीसरे, समवर्ती सूची के विषयों पर भी कानून बनाने में केन्द्रीय सरकार को प्राथमिकता दी गई है।

2. राज्य- सूची पर भी केन्द्रीय सरकार को कानून बनाने की शक्तियाँ: कुछ परिस्थितियों में केन्द्रीय सरकार राज्य-सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है। यथा

  1. यदि राज्यसभा 2/3 बहुमत से राज्य – सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दे तो केन्द्रीय सरकार उस विषय पर कानून बना सकती है।
  2. संकट काल की स्थिति उत्पन्न होने पर केन्द्र को राज्य – सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
  3. यदि कभी दो राज्यों की विधानसभाएँ केन्द्र को राज्य सूची में से किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करें तो इस विषय पर केन्द्र कानून बना सकता है।

3. इकहरी नागरिकता: संघीय शासन व्यवस्था वाले देशों में प्रायः दोहरी नागरिकता प्रदान की जाती है- एक, राष्ट्र की नागरिकता और दूसरी, प्रान्तीय नागरिकता। लेकिन भारत में इकहरी नागरिकता ही प्रदान की गई है। भारत में केवल राष्ट्रीय नागरिकता ही प्रदान की गई है।

4. राज्यपाल द्वारा राज्यों पर नियन्त्रण: भारत में राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख है लेकिन राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह अपने कार्यों के लिए केन्द्र के प्रति ही उत्तरदायी होता है। ऐसी स्थिति में राज्यपाल केन्द्र के एजेण्ट के रूप में कार्य करता है। वह अपने स्वविवेकीय कार्यों को संवैधानिक प्रमुख के रूप में निष्पक्ष रूप से कार्य न करके केन्द्र की सलाह के अनुसार करता है। जब विधानसभा में किसी एक दल का बहुमत नहीं होता तो वह केन्द्र के इशारे पर मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है। वह केन्द्र के निर्देशों के अनुरूप ही राज्य में संकटकाल की घोषणा की सलाह देता है और संकट काल में केन्द्र के निर्देशों को राज्य में लागू करता।

5. राज्यों की केन्द्र पर वित्तीय निर्भरता: सामान्य स्थितियों में भी केन्द्र सरकार की अत्यन्त प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ और उत्तरदायित्व हैं। सबसे पहले तो आय के प्रमुख संसाधनों पर केन्द्र सरकार का नियन्त्रण है। इस प्रकार केन्द्र के पास आय के अनेक संसाधन हैं और राज्य अनुदानों और वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर आश्रित हैं। दूसरे, स्वतन्त्रता के बाद भारत ने तेज आर्थिक प्रगति और विकास के लिए नियोजन को साधन के रूप में अपनाया है।

नियोजन के कारण आर्थिक फैसले लेने की ताकत केन्द्र सरकार के हाथ में सिमटती गई है। केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त योजना आयोग राज्यों के संसाधन – प्रबन्ध की निगरानी करता है। तीसरे, केन्द्र सरकार अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर राज्यों को अनुदान और ऋण देती है । केन्द्र सरकार पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि वह विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाती है।

6. संसद को राज्यों का पुनर्गठन तथा उसके नामों में परिवर्तन करने का अधिकार है: किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियन्त्रण है। संसद किसी राज्य में से उसका राज्य-क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकती है। वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है। सम्बन्धित राज्य से उसकी राय तो ले ली जाती है, परन्तु उसका मानना या न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है। संसद का यह अधिकार सरकार को एकात्मक बनाता है।

7. अखिल भारतीय सेवाएँ: भारत की प्रशासकीय व्यवस्था इकहरी है। अखिल भारतीय सेवाएँ पूरे देश के लिए हैं और इसमें चयनित पदाधिकारी राज्यों के प्रशासन में काम करते हैं। अतः जिलाधीश के रूप में कार्यरत भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी या पुलिस कमिश्नर के रूप में कार्यरत भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों पर केन्द्र सरकार का नियन्त्रण रहता है। राज्य न तो उनके विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकता है और न ही उन्हें सेवा से हटा सकता है।

8. किसी क्षेत्र में सैनिक शासन लागू होना: संघ सरकार की शक्ति को, संविधान के दो अनुच्छेद 33 और 34, उस स्थिति में काफी बढ़ा देते हैं जब किसी क्षेत्र में सैनिक शासन लागू हो जाए। ऐसी स्थिति में संसद केन्द्र या राज्य के किसी भी अधिकारी के द्वारा शान्ति व्यवस्था बनाए रखने या उसकी बहाली के लिए किए गए किसी भी कार्य को जायज ठहरा सकती है। इसी के अन्तर्गत ‘सशस्त्र बल विशिष्ट शक्ति अधिनियम’ का निर्माण किया गया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि यद्यपि संविधान में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया गया है, तथापि व्यवहार में केन्द्र सरकार को अधिक शक्तियाँ प्रदान कर उसमें एकात्मकता की आत्मा बिठा दी गई है।

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प्रश्न 4.
भारत ने संघीय व्यवस्था को क्यों अपनाया? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की है। यद्यपि स्वतन्त्रता से पूर्व भारत पर अंग्रेजों का शासन रहा है और संविधान निर्माता अंग्रेजों की राजनीतिक संस्थाओं से स्वाभाविक रूप से प्रभावित थे। लेकिन इंग्लैण्ड की एकात्मक शासन व्यवस्था के स्वरूप को भारत के संविधान निर्माताओं ने नहीं अपनाया और इसके स्थान पर संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया। इसके कुछ विशेष कारण रहे हैं।

भारत में संघात्मक शासन को अपनाने के कारण: भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाए जाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
1. भारत सरकार 1935 का एक्ट:
1935 के भारत सरकार के एक्ट में भारत में संघीय शासन का प्रावधान किया गया। कांग्रेस प्रारम्भ से ही देश में शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की माँग करती आ रही थी। 1935 के एक्ट में प्रान्तों को स्वायत्तता प्रदान की गई थी। इसमें सभी प्रान्तों, केन्द्रीय सरकार तथा रियासतों के एक फैडरेशन की बात कही गयी लेकिन यह संघ अस्तित्व में न आ सका। इस प्रकार संविधान निर्माता पहले से ही इस व्यवस्था से परिचित थे।

2. रियासतों की समस्या:
जब भारत स्वतन्त्र हुआ, ब्रिटिश सरकार ने सभी देशी रियासतों को स्वतन्त्र कर दिया तथा यह कहा कि वे चाहे तो भारत में मिल सकती हैं, चाहे पाकिस्तान में और चाहे अपने आप को दोनों से स्वतन्त्र रख सकती हैं। भारतीय नेताओं को इन छोटी-बड़ी देशी रियासतों को मिलाना अत्यन्त कठिन दिख रहा था। उन्हें एकात्मक सरकार के ढाँचे की तुलना में संघीय ढाँचे में सम्मिलित करना भारतीय नेताओं को कहीं अधिक आसान लगा।

3. भारतीय दशाएँ:
उस समय की भारतीय दशाओं ने भी संविधान निर्माताओं को विवश कर दिया कि वे संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाएँ। भारत एक विशाल देश है। यहाँ के लोगों में जातीय, क्षेत्र, धर्म, भाषा, रहन-सहन, परम्परा – रीति-रिवाज, भोजन तथा वेशभूषा, संस्कृति तथा आदतों की विविधताएँ हैं। पहाड़ी लोगों की जीवन जीने की शैली, मैदानी लोगों से भिन्न है। यहाँ अनेक क्षेत्रों में जनजातीय लोग निवास करते हैं। इसी स्थिति में केवल संघीय ढाँचा ही इन सब विविधताओं को एकता में पिरो सकता था।

फलतः संविधान निर्माताओं ने देश के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया। संविधान निर्माताओं को यह मान था कि भारतीय समाज में क्षेत्रीय और भाषायी विविधताओं को मान्यता देने की आवश्यकता थी। विभिन्न क्षेत्रों और भाषा-भाषी लोगों को सत्ता में सहभागिता करनी थी तथा इन क्षेत्रों के लोगों को स्वशासन का अवसर देना था। संघात्मक व्यवस्था में ही यह सब सम्भव हो सकता था।

4. भौगोलिक विविधताएँ:
भारत एक उप-महाद्वीप है और एक उप महाद्वीप में प्रशासनिक कुशलता की दृष्टि से एकात्मक शासन की तुलना में संघात्मक शासन उत्तम ठहरता है। क्योंकि भारत के विभिन्न क्षेत्र अपने क्षेत्र में क्षेत्रीय विकास की गतिविधियों के लिए कार्य की स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। इन विविधताओं को समेटने के लिए संघात्मक शासन ही उपयुक्त था। इस प्रकार भारत की संविधान सभा ने संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया।

प्रश्न 5.
भारत के संविधान निर्माताओं ने केन्द्र को अधिक शक्तिशाली क्यों बनाया? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संघीय व्यवस्था में शक्तिशाली केन्द्र भारत में संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ एकात्मकता के लक्षण भी विद्यमान हैं। यद्यपि केन्द्र और राज्यों के कार्यक्षेत्र संविधान द्वारा निश्चित किये गये हैं तो भी केन्द्र सरकार राज्यों के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती है। संविधान में अनेक प्रावधान ऐसे हैं जो संघीय शासन व्यवस्था को एकात्मक शासन में बदल सकते हैं।

संविधान निर्माताओं ने संघीय व्यवस्था की सुरक्षा, कानून एवं व्यवस्था की स्थापना, सामान्य मुद्दों में सामञ्जस्य की स्थापना तथा संघ की इकाइयों की एकजुटता की दृष्टि से केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया है। केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए उत्तरदायी कारक निम्नलिखित कारकों ने संविधान निर्माताओं को केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए प्रेरित किया।

1. संघात्मक व्यवस्था शक्ति के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया के तहत:
भारत में संघात्मक व्यवस्था का निर्माण शक्ति के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया के तहत हुआ है। भारत में प्रान्तों को शक्तियाँ केन्द्र से हस्तांतरित हुई हैं और केन्द्र से शक्तियों को हस्तांतरित कर संघीय व्यवस्था का निर्माण किया गया है। इस प्रक्रिया में यह स्वाभाविक है कि केन्द्र सरकार ने अपने पास अधिक शक्तियाँ रखीं। अमेरिका में स्वतंत्र राज्यों ने अपनी संप्रभुता और शक्तियों को हस्तांतरित कर संघ सरकार का निर्माण किया। इस प्रकार केन्द्र या संघ सरकार को शक्तियाँ राज्यों से हस्तांतरित हुई हैं। इस प्रक्रिया में यह स्वाभाविक था कि राज्य अपने पास अधिक शक्ति रखें । इसलिए वहां राज्यों के पास अधिक शक्तियाँ हैं।

2. इतिहास से सबक:
भारत के संविधान निर्माता इस ऐतिहासिक तथ्य से भलीभांति परिचित थे कि भारत में जब कभी भी केन्द्र की शक्ति कमजोर हुई, देश की एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। केन्द्र की कमजोर सरकार के चलते, प्रान्तों ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित करते हुए विद्रोह कर दिया और विदेशियों को देश पर आक्रमण के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार देश की सुरक्षा तथा एकता के लिए कमजोर केन्द्र हमेशा एक खतरा है। इसलिए उन्होंने संघीय व्यवस्था में भी जानबूझकर केन्द्र को शक्तिशाली बनाया है।

3. देशी रियासतों की समस्या:
जब देश स्वतंत्र हुआ, 600 से अधिक देशी रियासतों को यह विकल्प दिया गया था कि वे चाहे तो भारत में मिल जाएँ, चाहे पाकिस्तान में और चाहे वे अपने आपको स्वतंत्र रखें। इन देशी रियासतों को भारत संघ में मिलाने के लिए दबाव डाला गया। यदि केन्द्र सरकार कमजोर रखी जाती, तो ये देशी रियासतें देश की एकता के लिए खतरा बन सकती थीं और ये रियासतें आसानी से संघ में मिलने को भी राजी नहीं होतीं । इसलिए शक्तिशाली केन्द्र के साथ वाली संघीय व्यवस्था ने ही इस पेचीदी समस्या को सुलझाया।

4. परिस्थितियों की आवश्यकता:
जब संविधान का निर्माण हो रहा था, उस समय विभाजनकारी ताकतें देश में सक्रिय थीं। जातिवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता तथा भाषावाद की जड़ें मजबूत थीं तथा सक्रिय थीं। वे देश की एकता को खतरा पैदा कर रही थीं। इसलिए संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र और देश की एकता की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता महसूस की।

5. आर्थिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता की स्थापना हेतु;
1947 में भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता तो मिल गई थी, लेकिन आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता अभी बहुत दूर थी और आर्थिक-सामाजिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अर्थहीन थी। संविधान निर्माता इस विचार से सहमत थे कि केन्द्र सरकार को शक्तिशाली बनाकर ही इस सामाजिक- आर्थिक स्वतंत्रता को शीघ्र प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि केवल एक शक्तिशाली केन्द्र ही पूरे देश में आर्थिक नीति का निर्माण कर उसे लागू कर सकता है।

6. विश्व में शक्तिशाली केन्द्र की प्रवृत्ति:
आधुनिक काल अन्तर्राष्ट्रीयता का काल है और प्रत्येक राज्य अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अपना अस्तित्व चाहता है। यह कमजोर केन्द्र के चलते प्राप्त नहीं किया जा सकता। इस कारण पूरे विश्व में केन्द्र को शक्तिशाली बनाने की प्रवृत्ति व्याप्त है। भारत के संविधान निर्माताओं पर भी इस प्रवृत्ति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

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प्रश्न 6.
भारत में केन्द्र-राज्य सम्बन्धों पर दलीय राजनीति के प्रमुख चरणों तथा इसके प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत में एक संघात्मक शासन व्यवस्था है लेकिन इसकी प्रवृत्ति केन्द्रीकरण की है या कि प्रवृत्ति से यह एकात्मकता लिये हुए है। भारत में राज्य सरकारों की कार्यप्रणाली में केन्द्र द्वारा हस्तक्षेप किये जा सकने के अनेक प्रावधान स्वयं संविधान में किये गये हैं। इससे केन्द्र – राज्य सम्बन्धों पर प्रभाव पड़ा है। भारत की दलीय राजनीति ने भी केन्द्र- राज्य सम्बन्धों को प्रभावित किया है।

दलीय राजनीति और केन्द्र-राज्य सम्बन्ध – भारतीय संघवाद पर राजनीतिक प्रक्रिया की परिवर्तनशील प्रकृति का काफी प्रभाव पड़ा है। दलीय राजनीति के केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के प्रभाव को इसके निम्न चरणों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।

1. दलीय राजनीति का प्रथम चरण ( स्वतंत्रता से 1966 तक ):
1950 तथा 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संघीय व्यवस्था की नींव रखी। इस दौरान केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस का वर्चस्व था । इस काल में नए राज्यों के गठन की माँग के अलावा केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध शांतिपूर्ण तथा सामान्य रहे। राज्यों को आशा थी कि वे केन्द्र से प्राप्त वित्तीय अनुदानों से विकास कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त केंन्द्र द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए बनाई गई नीतियों के कारण भी राज्यों को काफी आशा बँधी थी। इससे स्पष्ट होता है कि इस काल में केन्द्र और राज्यों में एक दलीय प्रभुत्व था तथा पं. नेहरू का शक्तिशाली व्यक्तित्व था। इस कारण शक्तियों और कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में केन्द्र और राज्यों के बीच इस काल में कोई विवाद, संघर्ष तथा मतभेद नहीं उभरे। केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में कोई तनाव नहीं था।

2. दलीय राजनीति का द्वितीय चरण (1967 से 1988 तक ):
1967 के आम चुनावों से भारत में दलीय राजनीति का द्वितीय चरण प्रारंभ होता है। 1967 के चुनावों में केन्द्र में तो कांग्रेस दल का वर्चस्व बना रहा लेकिन अनेक राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें बनीं और कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा। बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश तथा तमिलनाडु राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ लेकिन लगभग इन सभी राज्यों में अनेक विरोधी दलों ने मिलकर मिली-जुली सरकार का गठन किया। परिणामतः राज्यों की मिली-जुली सरकारें लम्बे समय तक नहीं चल सकीं और भारतीय राजनीति में एक नवीन समस्या सामने आई। यह समस्या दल-बदल की थी।

कांग्रेस दल केन्द्र में सत्तासीन था और उसने राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों को अपदस्थ करने में रुचि ली। इससे राज्यों को और ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की मांग बलवती हुई। इस मांग के पीछे प्रमुख कारण यह था कि केन्द्र और राज्यों में भिन्न-भिन्न दल सत्ता में थे। अतः गैर-कांग्रेसी राज्यों की सरकारों ने केन्द्र की कांग्रेसी सरकार द्वारा किए गए अवांछनीय हस्तक्षेपों का विरोध करना शुरू कर दिया। कांग्रेस के लिए भी विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों से संबंधों के तालमेल की बात पहले जैसी आसान नहीं रही। इस विचित्र राजनैतिक संदर्भ में संघीय व्यवस्था के अन्दर स्वायत्तता की अवधारणा को लेकर वाद-विवाद छिड़ गया।

3. दलीय राजनीति का तृतीय चरण (1989 से अब तक ):
1989 के आम चुनाव में भारतीय राजनीति में एक नया बदलाव आया। अब कांग्रेस केन्द्र से तथा अधिकांश राज्यों से सत्ता से बाहर हो गयी। इस प्रकार भारतीय राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व समाप्त हो गया। केन्द्र में गठबंधन की राजनीति का प्रारंभ हुआ। अनेक राज्यों में गैर-कांगेसी दलों की सरकारों के होने से केन्द्र-र राज्य सम्बन्धों में तनाव बढ़े। ये राज्य अब केन्द्र के साथ खुले संघर्ष के रूप में सामने आए और केन्द्र-राज्य सम्बन्धों की पूर्ण समीक्षा की मांग की ताकि केन्द्र उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप न कर सके। इससे राज्यों का राजनीतिक कद बढ़ा, विविधता का आदर हुआ और एक मँझे हुए संघवाद की शुरुआत हुई।

प्रश्न 7.
केन्द्र-राज्य संबंधों के संदर्भ में राज्य के राज्यपाल की भूमिका तथा अनुच्छेद 356 पर एक निबन्ध लिखिये
उत्तर:
1. केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के संदर्भ में राज्यपाल की भूमिका:
राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख है। वह केन्द्र सरकार की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत तक अपने पद पर बना रहता है। यद्यपि वह 5 साल के लिए नियुक्त किया जाता है लेकिन राष्ट्रपति बिना कारण बताये उसे इस अवधि से पूर्व भी पद से हटा सकता है। इस प्रकार राज्यपाल अपनी नियुक्ति के लिए और अपने पद पर बने रहने के लिए केन्द्रीय मंत्रिमंडल की प्रसन्नता पर निर्भर रहता है।

दूसरी तरफ राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है और सामान्यतः राज्य के मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य करता है। लेकिन इसके साथ ही वह केन्द्र सरकार का अभिकर्ता भी होता है तथा उससे यह आशा की जाती है कि वह कुछ कार्यों को अपने विवेक के अनुसार करेगा। इस स्थिति में वह राज्यमंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य न करके सामान्यतः संघीय सरकार की इच्छाओं के अनुसार कार्य करता है। चूंकि राज्यपाल को दोहरी भूमिकाओं में कार्य करना पड़ता है, इसलिए यह पद केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव का एक कारण बन गया है। राज्यपाल के फैसलों को अक्सर राज्य सरकार के कार्यों में केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है। जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं, तब राज्यपाल की भूमिका और अधिक विवादास्पद हो जाती है।

अनुच्छेद- 356 का दुरुपयोग सामान्यतः जिन राज्यों में केन्द्र के सत्तारूढ़ दल से भिन्न दलों की सरकारें हैं, उन राज्यों में केन्द्र ने राष्ट्रपति शासन लगाने में राज्यपाल के पद का दुरुपयोग किया है। संविधान के अनुच्छेद 356 के द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है। इस प्रावधान को किसी राज्य में तब लागू किया जाता है जब ” ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो कि उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता।” परिणामस्वरूप संघीय सरकार राज्य सरकार का अधिग्रहण कर लेती है। इस विषय पर राष्ट्रपति द्वारा जारी उद्घोषणा को संसद की स्वीकृति प्राप्त करना जरूरी होता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त करने तथा राज्य विधानसभा को निलंबित या विघटित करने की अनुशंसा कर सके। इससे अनेक विवाद पैदा हुए। यथा

(i) कुछ मामलों में राज्य सरकारों को विधायिका में बहुमत होने के बाद भी बर्खास्त कर दिया। 1959 में केरल में और 1967 के बाद अनेक राज्यों में बहुमत की परीक्षा के बिना ही सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया। कुछ मामले सर्वोच्च न्यायालय में भी गए तथा सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि राष्ट्रपति शासन लागू करने के निर्णय की संवैधानिकता की जांच-पड़ताल न्यायालय कर सकता है। 1967 के बाद जब राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तब केन्द्र में सत्तासीन कांग्रेसी सरकार ने अनेक अवसरों पर इसका प्रयोग राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए किया।

(ii) कुछ मामलों में केन्द्र सरकार ने राज्यपाल के माध्यम से राज्य में बहुमत दल या गठबंधन को सत्तारूढ़ होने से रोका। उदाहरण के लिए, 1980 के दशक में केन्द्रीय सरकार ने आंध्रप्रदेश और जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त किया।

2. मुख्यमंत्री की नियुक्ति में राज्यपाल के स्वयंविवेक की भूमिका:
जब किसी राज्य में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने राज्यपाल के माध्यम से उस राज्य में मुख्यमंत्री की नियुक्ति में हस्तक्षेप किया क्योंकि राज्यपाल ने उस समय केन्द्र की सलाह के अनुसार कार्य किया न कि निष्पक्ष संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में। इससे केन्द्र-राज्य सम्बन्धों की दृष्टि से गवर्नर का पद विवादास्पद हो गया।

3. विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु रोक लेना:
राज्य के राज्यपाल के पास यह स्वयंविवेक की शक्ति है कि वह राज्य विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु अपने पास रोक सकता है। इस शक्ति को सामान्यतः उस विधेयक को पारित करने से रोकने या उसे पारित करने में देरी करने के लिए किया गया है, जो केन्द्र की सरकार को पसंद नहीं है। ऐसे विधेयकों को लम्बे समय तक पेंडिंग रखा जा सकता है। इस प्रकार राज्यपाल के पद की कटु आलोचनाएँ की गईं तथा यह मांग भी उठी कि राज्यपाल के पद को ही समाप्त कर दिया जाये। सरकारिया आयोग ने इस सम्बन्ध में यह सुझाव दिया कि राज्यपाल राज्य से बाहर का व्यक्ति होना चाहिए और वे अपने विवेक का प्रयोग बहुत कम करें तथा अच्छी तरह स्थापित परम्पराओं के अनुसार ही करें तथा उन्हें अपना कार्य निष्पक्षता से करना चाहिए।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 8.
संविधान में कुछ राज्यों के लिए विशिष्ट प्रावधान किये गए हैं। उन्हें स्पष्ट कीजिए। क्या वे संघवाद के सिद्धान्त के अनुरूप हैं?
उत्तर:
कुछ राज्यों के लिए विशिष्ट प्रावधान: भारतीय संघवाद की यह अनोखी विशेषता है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ विशिष्ट प्रावधान भी किये गये हैं। शक्ति के बँटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ सभी राज्यों को समान रूप से प्रदान की गई हैं; लेकिन कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप कुछ विशिष्ट अधिकारों की व्यवस्था करता है। यथा

  1. जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान:
    अनुच्छेद 370 के द्वारा जम्मू-कश्मीर को अगस्त 2019 तक विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई थी। स्वतंत्रता के बाद जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भारत में विलय का चयन किया, जबकि अधिकांश मुस्लिम बहुल राज्यों ने पाकिस्तान का चयन किया था। इस परिस्थिति में संविधान में अनुच्छेद 370 के तहत उसे अन्य राज्यों की तुलना में अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई। यथा
  2. अन्य राज्यों के लिए तीन सूचियों द्वारा किया गया शक्ति विभाजन स्वतः प्रभावी होता है लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य में संघीय सूची और समवर्ती सूची में वर्णित शक्तियों का प्रयोग करने के लिए राज्य सरकार की सहमति लेनी पड़ती थी। इससे जम्मू-कश्मीर राज्य को ज्यादा स्वायत्तता मिल जाती थी।
  3. इसके अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर और अन्य राज्यों में एक अन्तर यह था कि राज्य सरकार की सहमति के बिना ‘ जम्मू-कश्मीर में ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर आपातकाल लागू नहीं किया जा सकता था।
  4. संघ सरकार जम्मू-कश्मीर में वित्तीय आपात स्थिति लागू नहीं कर सकती थे।
  5. राज्य के नीति-निर्देशक तत्व भी यहाँ लागू नहीं होते थे।
  6. अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत किये गये भारतीय संविधान के संशेधन भी राज्य सरकार की सहमति से ही जम्मू- कश्मीर में लागू हो सकते हैं।

लेकिन अगस्त 2019 में केन्द्र सरकार ने संविधान के अस्थायी अनुच्छेद 370 तथा 45 – A को संविधान से हटा दिया है तथा जम्मू-कश्मीर राज्य को दो संघीय क्षेत्रों

  • जम्मू-कश्मीर और
  • लद्दाख में परिवर्तित कर दिया है। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर राज्य की यह विशिष्ट स्थिति अब समाप्त हो गई है।

2. उत्तरी-पूर्वी राज्यों के लिए अनुच्छेद 371:
अनुच्छेद 371 के तहत प्रावधान उत्तर- विशेष प्रावधानों की व्यवस्था करता है। ये राज्य हैं – असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर और -पूर्वी राज्यों के लिए मेघालय आदि। इनमें विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय बहुल जनसंख्या निवास करती है। यहाँ के ये निवासी अपनी संस्कृति तथा इतिहास को बनाए रखना चाहते हैं।

3. कुछ अन्य राज्यों में विशिष्ट प्रावधान:
कुछ विशिष्ट प्रावधान कुछ अन्य राज्यों के लिए भी किये गये हैं। ये राज्य हैं। पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश तथा उत्तरांचल तथा अन्य राज्य आंध्रप्रदेश, गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र और सिक्किम; क्योंकि इन राज्यों में कुछ पहाड़ी जनजातियाँ तथा आदिवासी निवास करते हैं। विशिष्ट प्रावधान संघवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं हैं। अनेक लोगों की मान्यता है कि संघीय व्यवस्था में शक्तियों का औपचारिक और समान विभाजन संघ के सभी राज्यों पर समान रूप से लागू होना चाहिए।

अतः जब भी ऐसे विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था संविधान में की जाती है तो उसका कुछ विरोध भी होता है। भारत में विशिष्ट प्रावधानों का विरोध जम्मू-कश्मीर राज्य को प्रदान किये गए अनुच्छेद 370 के प्रति है, अन्य प्रावधानों जैसे अनुच्छेद 371 आदि के प्रति नहीं है। मुखर लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में जिन परिस्थितियों में संघवाद की स्थापना की गयी है, वे परिस्थितियाँ सभी प्रान्तों में एकसमान नहीं थीं।

भारत विविधताओं से भरा देश है और इसलिए कुछ क्षेत्रों के विकास तथा उन्हें देश के अन्य क्षेत्रों के समान लाने के लिए कुछ विशिष्ट प्रावधान किये गये हैं। जिन परिस्थितियों में जम्मू-कश्मीर राज्य भारतीय संघ का भाग बनने को राजी हुआ, उस परिस्थिति में उसे विशिष्ट प्रावधान देने का वायदा किया गया था। अन्य राज्यों में आदिवासियों और पिछड़े राज्यों को उठाने तथा उनकी संस्कृति को संरक्षित रखने की दृष्टि से जो विशिष्ट प्रावधान किए गये हैं, वे संघवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

Jharkhand Board Class 11 Political Science संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका सम्बन्ध किसी मूल्य से है? यदि हाँ, तो वह अन्तर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएँ।
(क) पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा होगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी।
(घ) बेगार अथवा बंधुआ मजदूरी नहीं करायी जा सकती।
उत्तर:
(क) ‘पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की सम्पत्ति में हिस्सा होगा।’ हाँ, इस कानून का सम्बन्ध समानता और सामाजिक न्याय के सामाजिक मूल्य से है। इसका कारण यह है कि संविधान में स्त्री और पुरुष दोनों को समानता का अधिकार दिया गया है। सरकार किसी कानून में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगी। दूसरे, सामाजिक न्याय का अर्थ भी यही है कि समाज में लिंग, जाति, नस्ल, धर्म आदि के आधार पर कोई भेदभाव न हो। अतः पुत्र और पुत्री दोनों को परिवार की सम्पत्ति में समान हिस्सा दिया जाना सामाजिक न्याय के मूल्य को दर्शाता है। इस प्रकार इस कानून में समानता और सामाजिक न्याय का मूल्य अन्तर्निहित है।

(ख) ‘अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।’ हाँ, इस कानून में भी आर्थिक न्याय का मूल्य अन्तर्निहित है। उपभोक्ता वस्तुओं को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है आवश्यक आवश्यकताओं से संबंधित उपभोक्ता वस्तुएँ और विलासिता की आवश्यकताओं से सम्बन्धित उपभोक्ता वस्तुएँ। इसके अतिरिक्त मानव के शरीर के लिए घातक उपभोक्ता वस्तुएँ भी होती हैं। हम इन्हें तीसरी श्रेणी में ले सकते हैं। ये वस्तुएँ सामान्यतः नशे से सम्बन्धित होती हैं। ऐसी स्थिति में सरकार आर्थिक – न्याय को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग श्रेणी की उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री कर का सीमांकन अलग-अलग करती है तथा ऐसे कानून बनाती है।

(ग) ‘किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायेगी। हाँ, इस कानून में धार्मिक मूल्य अन्तर्निहित है और वह है। धर्मनिरपेक्षता का मूल्य/धर्मनिरपेक्षता का आदर्श मूल्य यही है कि राज्य या सरकार सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखेगी तथा किसी भी धर्म विशेष का प्रचार-प्रसार नहीं करेगी। सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा न दिया जाना, धर्मनिरपेक्षता के मूल्य का अनुसरण है।

(घ) ‘बेगार या बंधुआ मजदूरी नहीं करायी जा सकती। हाँ, इस कानून के अन्तर्गत सामाजिक न्याय का मूल्य अन्तर्निहित है। सामाजिक न्याय का यह तकाजा है कि समाज में कसी भी वर्ग का शोषण नहीं किया जाये । यह कानून भी इसी मूल्य को लागू करता है और यह स्थापित करता है कि ‘बेगार या बंधुआ मजदूरी नहीं करायी जा सकती क्योंकि ये दोनों रूप शोषणकारी हैं।’

प्रश्न 2.
नीचे कुछ विकल्प दिये जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता? लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत जाएं।
(क) सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख) अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ) यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी लक्ष्यों से कहीं विचलित न हो
(ङ) शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
उत्तर:
उपर्युक्त विकल्पों में जिस कथन का इस्तेमाल इस कथन- ‘लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत- को पूरा करने के लिए नहीं किया जा सकता वह है। (ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।

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प्रश्न 3.
संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं। (अ) इनमें से कौनसा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं? कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।
(ब) इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों
(क) आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में व्यस्त होती है। आम जनता इन बहसों की कानून भाषा को नहीं समझ सकती।
(ख) आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियाँ और स्थितियों से अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नए जमाने में इस्तेमाल करना दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।
(ग) संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है।
उत्तर:
(अ) इनमें से (ग) बिन्दु के अन्तर्गत दिया गया कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं तथा इनमें से (क) और (ख) बिन्दु के अन्तर्गत दिये गए कथन इस बात की दलील हैं कि संविधान सभा की बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।

(ब) इनमें से मैं इस पक्ष का समर्थन करूंगा कि संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं। एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक व्यवहारों को नष्ट कर सकता है। इसलिए अपने संविधान के मूल में निहित राजनीतिक दर्शन को बार-बार याद करना और उसे टटोलना हमारे लिए जरूरी है और यह राजनीतिक दर्शन हमें संविधान सभा की बहसों में दिये गये तर्कों में मिलता है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अन्तर स्पष्ट करें।
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ
(ख) अनुच्छेद 370 और 371
(ग) सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार।
उत्तर:
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ – धर्मनिरपेक्षता की समझ के मामले में भारतीय संविधान पश्चिमी अवधारणा से अलग है। दोनों में निम्नलिखित अन्तर हैं-
1. पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता से आशय व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता से है जबकि भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता से आशय व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता से है।

2. पश्चिम में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध से है जिसका अर्थ है कि धर्म और राज्य दोनों एक-दूसरे के अन्दरूनी मामलों से दूर रहेंगे। लेकिन भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं है क्योंकि यहां धर्म से अनुमोदित ऐसे रिवाजों, जैसे छुआछूत आदि, जो व्यक्ति को उसकी मूल गरिमा और आत्मसम्मान से वंचित करते हैं; को खत्म करने के लिए राज्य को धर्म के अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप करना पड़ा।

अतः यहाँ राज्य स्वतंत्रता और समता जैसे मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए धार्मिक समुदायों की मदद भी कर सकता है और उनके कार्य में हस्तक्षेप भी कर सकता है। इस प्रकार भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक- निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है।

(ख) अनुच्छेद 370 और 371 – अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अस्थायी या संक्रमणकालीन व्यवस्था करता था और अनुच्छेद 371 उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए विशेष उपबन्धों की व्यवस्था करता है। इन दोनों अनुच्छेदों को जगह देकर भारतीय संघवाद ने ‘असमतोल संघवाद’ की अवधारणा को अपनाया है जबकि पाश्चात्य संविधानों में संघवाद की समतोल अवधारणा को अपनाया गया है। पाश्चात्य संविधानों में जहाँ सभी राज्यों को समानता का दर्जा दिया गया है तथा सभी राज्यों के अपने पृथक्-पृथक् संविधान हैं, वहां भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का समावेश करके जम्मू-कश्मीर राज्य को शेष राज्यों की तुलना में विशेष अधिकार दिए गए थे।

लेकिन 2019 में मोदी सरकार ने 370 अनुच्छेद को हटाकर जम्मू-कश्मीर राज्य में अन्य केन्द्र प्रशासित राज्यों के समान एक केन्द्र प्रशासित राज्य बना कर इन विशेष अधिकारों को समाप्त कर दिया है। इसी प्रकार अनुच्छेद 371 का समावेश करके पूर्वी क्षेत्र के कुछ राज्यों को शेष राज्यों की तुलना में विशेष अधिकार दिये गये हैं। अनुच्छेद 371 के तहत नागालैंड व अन्य पूर्वी क्षेत्र के प्रदेशों को विशेष दर्जा दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुसार विभिन्न प्रदेशों के साथ इस असमान बरताव में कोई बुराई नहीं है।

(ग) सकारात्मक कार्य योजना या अफरमेटिव एक्शन:
भारतीय संविधान और पाश्चात्य धारणा में सकारात्मक कार्य योजना के सम्बन्ध में बड़ा अन्तर है। अमेरिका का संविधान 1789 में लागू हुआ। वहां सकारात्मक कार्ययोजना, 1964 के नागरिक अधिकार आंदोलन के बाद प्रारंभ हुई जबकि भारतीय संविधान ने इसे लगभग दो दशक पहले ही अपना लिया था। हमारे संविधान ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आंच लाए बगैर सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को स्वीकार किया है और जाति आधारित ‘सकारात्मक कार्य योजना’ के प्रति संवैधानिक वचनबद्धता प्रकट की है। सकारात्मक कार्य योजना के तहत भारत में उदारवादी व्यक्तिवाद को सामाजिक न्याय के सिद्धान्त तथा समूहगत अधिकार के साथ स्वीकार किया है, जबकि पाश्चात्य संविधानों में ऐसा नहीं होता है।

(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार:
पाश्चात्य अवधारणा में सार्वभौम मताधिकार का अधिकार उन देशों में भी जहाँ लोकतंत्र की जड़ स्थायी रूप से जम चुकी थी, कामगार तबके और महिलाओं को काफी देर से दिया गया था जबकि भारतीय राष्ट्रवाद की धारणा में सार्वभौमिक मताधिकार का विचार राष्ट्रवाद के बीज – विचारों में एक है। इसलिए यहां भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को सार्वभौमिक मताधिकार प्रदान किया गया है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धान्त भारत के संविधान में अपनाया गया है?
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग) राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर:
भारतीय संविधान में धर्म-निरपेक्षता के निम्नलिखित सिद्धान्त अपनाए गए हैं।
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें।

(क) विधवाओं के साथ किये जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
(ख) संविधान सभा में फैसलों को स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना प्रक्रियागत उपलब्धि
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना लैंगिक न्याय की उपेक्षा
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 उदारवादी व्यक्तिवाद
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की सम्पत्ति में असमान अधिकार क्षेत्र विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना

उत्तर:
निम्नलिखित कथनों को इस प्रकार सुमेलित किया गया है।

(क) विधवाओं के साथ किये जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी उदारवादी व्यक्तिवाद
(ख) संविधान सभा में फैसलों को स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना प्रक्रियागत उपलब्धि
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
(घ) अनुच्छेद 370 और 371 क्षेत्र विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की सम्पत्ति में असमान अधिकार लैंगिक न्याय की उपेक्षा

प्रश्न 7.
यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्कों को पढ़ें और बताएँ कि आप इनमें से किससे सहमत हैं और क्यों?
जयेश: मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज हैं।
सबा: क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? क्या मूल्यों और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपका सकते हैं? महिलाओं और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें ‘पश्चिमी’ कहने जैसा क्या है? और, अगर ऐसा है तो भी क्या हम इसे महज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर दें?
जयेश: मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने उनकी संसदीय शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?
नेहा: तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे । अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसको अपनाने से कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहां से भी आई हो।
उत्तर:
इस चर्चा में जयेश का विचार है कि ‘हमारा संविधान उधार का दस्तावेज है।’ यहाँ पर आलोचना का विषय यह है कि भारतीय संविधान मौलिक नहीं है क्योंकि इसमें बहुत से अनुच्छेद तो भारतीय शासन अधिनियम, 1935 से शब्दशः लिये गये हैं और बहुत से अनुच्छेद विदेशों के संविधानों से लिये गये हैं। इसमें अपना देशी कुछ भी नहीं है। इसमें प्राचीन या मध्यकालीन भारत का कुछ भी नहीं है।

लेकिन सबा का कहना है कि कोई मूल्य या आदर्श भारतीय या पाश्चात्य नहीं हुआ करते। मूल्य तो मूल्य हैं और आदर्श तो आदर्श होते हैं। जब हम यह कहते हैं कि स्त्री और पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए तो यह बात पाश्चात्य और भारतीय दोनों दृष्टिकोण से ही ठीक है। हमें कोई बात केवल इस आधार पर नकारनी नहीं चाहिए कि वह पश्चिमी अवधारणा से ली गई है। लेकिन नेहा का कथन है कि जब हम ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे, न कि शासन व्यवस्था के प्रति।

हमें कोई भी बात जो हमारे लिए उपयोगी हो, उसे अपनाने में यह नहीं देखना चाहिए कि यह कहां से लायी गयी है। इन तर्कों में हम नेहा के तर्क से सहमत हैं कि मानव की अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप जो बात जिस देश के संविधान से ली जाये उसमें कुछ भी गलत नहीं है। दूसरे देशों से ली गई बातें गलत हों, यह कहना सही नहीं है। इसके विपरीत यदि हम पुरातन भारतीय राजनीतिक संस्थाओं को लेना चाहें तो आधुनिक युग में यह जरूरी नहीं कि वे फिट बैठ सकें।

आलोचकों का यह कहना कि भारतीय संविधान में ‘भारतीयता का पुट नहीं है’ न्यायसंगत नहीं है। संविधान निर्माताओं ने भारतीय संविधान में विदेशी संविधानों से जिन संस्थाओं को ग्रहण किया है, उनको खूब सोच-विचार कर ही कि वे भारतीय परिस्थितियों के संदर्भ में उपयोगी हैं या नहीं, ग्रहण किया है तथा उन्हें ग्रहण करते समय भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाला है। इसलिए भारतीय संविधान के निर्माण में परिवर्तन के साथ चयन की कला को भी अपनाया गया है।

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प्रश्न 8.
ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता? अपने उत्तर में कारण बताएँ।
उत्तर:
क्या भारत का संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं है? भारत के संविधान की एक आलोचना यह कह कर की जाती है कि यह प्रतिनिध्यात्मक नहीं है। क्योंकि भारतीय संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया था जिसका गठन 1946 में किया गया था। इसके सदस्य प्रान्तीय विधानमण्डलों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुने गये थे। संविधान सभा में 389 सदस्य थे जिनमें से 292 ब्रिटिश प्रान्तों से तथा 93 देशी रियासतों से थे। चार सदस्य चीफ कमिश्नर वाले क्षेत्रों से थे।

3 जून, 1947 को भारत का विभाजन हुआ और संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या घटकर 299 रह गयी जिसमें 284 सदस्यों ने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान पर हस्ताक्षर किये। संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव चूंकि सार्वभौम मताधिकार द्वारा नहीं हुआ था। अतः कुछ विद्वान इसे प्रतिनिधिमूलक नहीं मानते। लेकिन भारतीय संविधान की यह आलोचना कि संविधान निर्मात्री सभा प्रतिनिधि संस्था नहीं थी, त्रुटिपरक है। यद्यपि यह बात सही है कि सभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से नहीं हुआ था और न ही जनमत संग्रह द्वारा ही संविधान को जनता द्वारा अनुसमर्थित कराया गया था, तथापि इस आलोचना में निम्नलिखित कारणों से कोई सार नहीं है।

  1. 1946 में जिन परिस्थितियों में संविधान सभा का निर्माण हुआ, उनमें वयस्क मताधिकार के आधार पर इस प्रकार की सभा का निर्माण संभव नहीं था।
  2. यदि संविधान सभा का गठन प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता अथवा यदि इस संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के प्रारूप पर जनमत संग्रह करवाया जाता, तब भी संविधान सभा का स्वरूप कम या अधिक ऐसा ही होता। क्योंकि 1952 के प्रथम आम चुनाव में संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने चुनाव लड़ा तथा काफी अच्छे बहुमत से विजय प्राप्त की।
  3. तत्कालीन भारत के सबसे प्रमुख राजनैतिक दल ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ ने संविधान सभा को अधिकाधिक प्रतिनिधि स्वरूप प्रदान करने की प्रत्येक संभव और अधिकांश अंशों में सफल चेष्टा की थी।
  4. अगर हम प्रतिनिधित्व को ‘राय’ से जोड़ें तो हमारे संविधान में अप्रतिनिधित्व नहीं है। क्यों संविधान सभा में हर किस्म की राय रखी गयी । यदि हम संविधान सभा में हुई बहसों को पढ़ें तो जाहिर होगा कि सभा में बहुत से मुद्दे उठाए गए और बड़े पैमाने पर राय रखी गयी। सदस्यों ने अपने व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकार पर आधारित मसले ही नहीं बल्कि समाज के विभिन्न तबके के सरोकारों और हितों पर आधारित मसले भी उठाये।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैंगिक: न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-से प्रमाण देंगे? यदि आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
उत्तर:
भारतीय संविधान में लैंगिक न्याय की उपेक्षा: भारतीय संविधान में कुछ सीमाएँ भी हैं। उनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सीमा लैंगिक न्याय पर पर्याप्त ध्यान न देने की है। इसमें लैंगिक न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों खासकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है। यथा गया है

1. परिवार की सम्पत्ति में स्त्रियों और बच्चों को समान अधिकार नहीं दिये गये हैं। बेटे और बेटी में अन्तर किया।

2. मूल सामाजिक-आर्थिक अधिकार राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल किये गये हैं जबकि उन्हें मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी सकती।
समान कार्य के लिए स्त्री तथा पुरुष दोनों को समान वेतन राज्य के द्वारा संरक्षित किया गया है। यह अधिकार नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल किया गया है। यह अधिकार मूल अधिकारों का भाग होना चाहिए था क्योंकि राज्य तभी समान कार्य के लिए स्त्री-पुरुष दोनों को समान वेतन दिला सकता है जबकि नीति निर्देशक तत्त्वों के लिए राज्य केवल प्रयास करेगा।

3. भारत के संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए राज्य द्वारा आरक्षण किये जाने का प्रावधान किया गया है। भारत में स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में बहुत पिछड़ी हुई हैं। आर्थिक-सामाजिक, शैक्षिक सभी दृष्टियों से पिछड़ी हुई हैं। अतः स्त्रियों को आरक्षण की सुविधा प्रदान कर लैंगिक न्याय की स्थापना की जानी चाहिए। आज तक स्त्रियों को 33 प्रतिशत आरक्षण संसद व राज्य विधानमण्डल में नहीं दिलवाया जा सका है।

यदि आज हम संविधान लिख रहे होते तो लैंगिक न्याय के जो प्रावधान नीति-निर्देशक तत्त्वों में दिये गये हैं, उन्हें मूल अधिकारों की श्रेणी में सम्मिलित करते तथा परिवार से जुड़े मुद्दे जैसे। परिवार की सम्पत्ति में स्त्रियों और बच्चों को समान अधिकार दिये जाने का प्रावधान किये जाते तथा स्त्रियों को 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करते।

प्रश्न 10.
क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि। ” एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केन्द्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाय राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों वाले खंड में क्यों रख दिए गए यह स्पष्ट नहीं है।” आपकी जानकारी में सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगें?
उत्तर:
नीति-निर्देशक तत्त्व:
भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्व हैं जो कि आयरलैंड के संविधान से ग्रहण किए गए हैं। भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान में केवल राज्य या सरकार के अंगों व उनकी शक्तियों व संरचना का ही वर्णन नहीं किया है बल्कि इसमें नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है तथा नीति की वह दिशा भी निश्चित की गई है जिसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न केन्द्र तथा राज्यों की सरकारों को करना है। संविधान निर्माताओं का लक्ष्य भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था।

इसलिए उन्होंने नीति- निर्देशक तत्त्वों में ऐसी बातों का समावेश किया, जिन्हें कार्य रूप में परिणत किये जाने पर लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव हो सकती थी। ये निर्देशक तत्त्व हमारे राज्य के सम्मुख कुछ आदर्श उपस्थित करते हैं जिनके द्वारा देश के नागरिकों का सामाजिक, आर्थिक और नैतिक उत्थान हो सकता है।

नीति निर्देशक तत्त्वों की प्रकृति-नीति निर्देशक तत्त्व वाद योग्य नहीं हैं। इन तत्त्वों को किसी भी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकती। इस प्रकार नीति निर्देशक तत्त्वों को मूल अधिकारों के समान वैधानिक शक्ति प्रदान नहीं की गई है। इसका अर्थ है कि नीति निर्देशक तत्त्वों की क्रियान्विति के लिए न्यायालय के द्वारा किसी भी प्रकार के आदेश जारी नहीं किये जा सकते। लेकिन वैधानिक महत्त्व प्राप्त न होने पर भी ये तत्त्व शासन के संचालन के आधारभूत सिद्धान्त हैं और राज्य का यह कर्त्तव्य है कि व्यवहार में सदैव ही इन तत्त्वों का पालन करे।

सामाजिक: आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक वाले खंड में रखने के कारण संविधान निर्माताओं ने नीति निर्देशक तत्त्वों को मूल अधिकारों के खंड में इसलिए नहीं रखा क्योंकि वे इन्हें वाद योग्य नहीं बनाना चाहतेथे । इसका कारण यह था कि भारत उस समय पराधीनता के चंगुल से छूटा था। उसकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि यदि नीति निर्देशक तत्त्वों को वाद योग्य बनाया जाता तो आर्थिक संकट उभर सकता था और उसके कारण समय-समय पर अनेक समस्यायें उठ सकती थीं।

इस स्थिति से बचने के लिए संविधान निर्माताओं ने नीति निर्देशक तत्त्वों के सम्बन्ध में राज्य को निर्देश दिया है कि वे इन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुकूल पूरा करने का प्रयास करें। इनके सम्बन्ध में नागरिकों को यह अधिकार नहीं दिया गया है कि वे इन तत्त्वों को पूरा कराने के लिए राज्य के विरुद्ध न्यायालय में जा सकें।

संविधान का राजनीतिक दर्शन JAC Class 11 Political Science Notes

→ संविधान के दर्शन का क्या आशय है?
कानून और नैतिक मूल्यों के बीच गहरा सम्बन्ध है। इसी कारण संविधान को एक ऐसे दस्तावेज के रूप में देखना जरूरी है जिसके पीछे एक नैतिक दृष्टि काम कर रही हो। संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन का नजरिया अपनाने की जरूरत है। संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन के नजरिये में तीन बातें शामिल हैं।

  • संविधान कुछ अवधारणाओं के आधार पर बना है। जैसे अधिकार, नागरिकता, अल्पसंख्यक, लोकतंत्र आदि इन अवधारणाओं की व्याख्या हमारे लिए जरूरी है।
  • संविधान का निर्माण जिन आदर्शों की नींव पर हुआ है, उन पर हमारी गहरी पकड़ होनी चाहिए।
  • संविधान के आदर्शों और मूल्यों की सुसंगतता के पीछे क्या तर्क दिये गये हैं।

→ इस प्रकार संविधान के अन्तर्निहित नैतिक तत्त्व को जानने और उसके दावे के मूल्यांकन के लिए संविधान के प्रति राजनीतिक दर्शन का नजरिया अपनाने की जरूरत है ताकि हम अपनी शासन व्यावस्था के बुनियादी मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को एक कसौटी पर जांच सकें । संविधान के आदर्श अपने-आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मूल्यों या आदर्शों की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं की जांच हेतु संविधान के आदर्शों का प्रयोग एक कसौटी के रूप में होना चाहिए।

→ संविधान – लोकतांत्रिक बदलाव का साधन:
संविधान को अंगीकार करने का एक बड़ा कारण है-सत्ता को निरंकुश होने से रोकना। संविधान सत्ता के बुनियादी नियम प्रदान करता है और राज्य को निरंकुश होने से रोकता है। संविधान हमें गहरे सामाजिक बदलाव के लिए शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक साधन भी प्रदान करता है। औपनिवेशिक दासता में रहे लोगों के लिए संविधान राजनीतिक आत्मनिर्णय का उद्घोष है।

→ और इसका पहला वास्तविक अनुभव भी। भारतीय संविधान का निर्माण परम्परागत सामाजिक ऊँच-नीच के बंधनों को तोड़ने और स्वतंत्रता, समता और न्याय के युग में प्रवेश के लिए हुआ। इस दृष्टि से संविधान की मौजूदगी सत्तासीन लोगों की शक्ति पर अंकुश ही नहीं लगाती बल्कि जो लोग परम्परागत तौर पर सत्ता से दूर रहे हैं उनका सशक्तिकरण भी करती है। संविधान सभा की ओर मुड़कर क्यों देखें?

→ जब संवैधानिक व्यवहार: बरताव को चुनौती मिले, खतरा मंडराये या उपेक्षा हो, तब इन पर पकड़ बनाए रखने के लिए इनके (व्यवहार – बरतावों के ) मूल्य और अर्थ को समझने के लिए संविधान सभा की बहसों को मुड़कर देखने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं रहता। इसलिए अपने संविधान के मूल में निहित राजनीतिक दर्शन को बार-बार याद करना और उसे टटोलना हमारे लिए जरूरी है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

→ हमारे संविधान का राजनीतिक दर्शन क्या है?
भारतीय संविधान स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रीय एकता का राजनीतिक दर्शन है। इन सबके साथ वह इस बात पर भी बल देता है कि उसके दर्शन पर शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से अमल किया जाये। यथा-

→ व्यक्ति की स्वतंत्रता: भारतीय संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। यह प्रतिबद्धता लगभग एक सदी तक निरंतर चली बौद्धिक और राजनैतिक गतिविधियों का परिणाम है। आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान का अभिन्न अंग है। इसी तरह, मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध हमें स्वतंत्रता प्रदान की गई है। मौलिक अधिकारों में भारतीय संविधान में व्यक्ति की स्वतंत्रता को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान एक उदारवादी संविधान है।

→ सामाजिक न्याय:
भारतीय संविधान का उदारवाद शास्त्रीय उदारवाद से भिन्न है क्योंकि यह सामाजिक न्याय से जुड़ा है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। विविधता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान संविधान का उदारवाद सामुदायिक जीवन-मूल्यों का पक्षधर है। भारतीय संविधान समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा देता है। भारत में अनेक सांस्कृतिक, भाषायी और धार्मिक समुदाय हैं। इन समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ाने के लिए समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता देना जरूरी हो गया। ऐसे ही अधिकारों में से एक है। धार्मिक समुदाय का अपनी शिक्षा संस्था स्थापित करने और चलाने का अधिकार।

→ धर्मनिरपेक्षता: भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य से आशय यह है कि राज्य न तो किसी धार्मिक संस्था की मदद करेगा और न ही उसे बाधा पहुँचायेगा। वह धर्म से एक सम्मानजनक दूरी बनाये रखेगा। इसी प्रकार राज्य नागरिकों को अधिकार प्रदान करते हुए धर्म को आधार नहीं बनायेगा। राज्य को व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए चाहे उस व्यक्ति का धर्म कोई भी हो।

→ धार्मिक समूहों के अधिकार: भारतीय संविधान सभी धार्मिक समुदायों को शिक्षा संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार प्रदान करता है। भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता होता है।

→ राज्य का हस्तक्षेप करने का अधिकार:
धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ भारत में पारस्परिक निषेध ( धर्म और राज्य दोनों एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों से दूर रहेंगे) नहीं हो सकता क्योंकि धर्म से अनुमोदित रिवाज, जैसे- छुआछूत, व्यक्ति को उसकी मूल गरिमा और आत्मसम्मान से वंचित करते हैं। राज्य के हस्तक्षेप के बिना इनके खात्मे की उम्मीद नहीं थी। इसलिए यहाँ राज्य को धर्म के अन्दरूनी मामले में हस्तक्षेप करना ही पड़ा।

से हस्तक्षेप नकारात्मक के साथ-साथ सकारात्मक भी हो सकते हैं, जैसे- राज्य धार्मिक संगठन द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा संस्थान को धन दे सकता है। यह इस बात पर निर्भर है कि राज्य के किन कदमों से स्वतन्त्रता और समता जैसे मूल्यों को बढ़ावा मिलता है। दूरी है। अतः भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत, भारतीय संविधान की उपलब्धियाँ भारतीय संविधान की ये उपलब्धियाँ हैं।

  • भारतीय संविधान ने उदारवादी व्यक्तिवाद को एक शक्ल देकर उसे मजबूत किया है।
  • भारतीय संविधान ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आंच लाए बगैर सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को स्वीकार किया
  • भारतीय संविधान ने सामुदायिक विविधता व तनाव के बावजूद समूहगत अधिकार प्रदान किये हैं।
  • सार्वभौमिक मताधिकार के प्रति वचनबद्धता भारतीय संविधान की चौथी उपलब्धि है।
  • पूर्वोत्तर से संबंधित अनुच्छेदों को जगह देकर भारतीय संविधान ने ‘असमतोल संघवाद’ जैसी महत्त्वपूर्ण अवधारणा को अपनाया है। लेकिन भारत के लोकतांत्रिक और भाषायी संघवाद ने सांस्कृतिक पहचान के दावे को एकता के दावे के साथ जोड़ने में सफलता पायी है।

→ राष्ट्रीय पहचान: संविधान में समस्त भारतीय जनता की एक राष्ट्रीय पहचान पर निरंतर जोर दिया गया है। हमारी इस राष्ट्रीय पहचान का भाषा या धर्म के आधार पर बनी अलग- अलग पहचानों से कोई विरोध नहीं हैं। भारतीय संविधान में इन दो पहचानों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की गई है। फिर भी, किन्हीं विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय पहचान को वरीयता प्रदान की गई है। फैसला

→ प्रक्रियागत उपलब्धि:

  • भारतीय संविधान का विश्वास राजनीतिक विचार-विमर्श में है।
  • सुलह और समझौते पर बल देना। संविधान सभा इस बात पर अडिग थी कि किसी महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर बहुमत के बजाय सर्वानुमति से लिया जाये।

→ आलोचना: भारतीय संविधान की प्रमुख आलोचनाएँ ये हैं;
यह संविधान अस्तव्यस्त है। भारतीय संविधान में संवैधानिक हैसियत के ऐसे बहुत से वक्तव्यों, ब्यौरों, और कायदों को एक ही दस्तावेज के अन्दर समेट लिया है, जो प्रायः कसे हुए संविधान में संविधान से बाहर होते हैं। जैसे चुनाव आयोग तथा लोक सेवा आयोग सम्बन्धी संवैधानिक प्रावधान।

→ इसमें सबकी नुमाइंदगी नहीं हो सकी है। हमारे संविधान में गैर- नुमाइंदगी इसलिए थी क्योंकि संविधान सभा के सदस्य सीमित मताधिकार से चुने गये थे, न कि सार्वभौमिक मताधिकार से। लेकिन यदि हम संविधान सभा की बहसों को पढ़ें तो स्पष्ट होता है कि सभा में बहुत से मुद्दे उठाये गए और उन पर बड़े पैमाने पर राय रखी गयी। इस दृष्टि से भारतीय संविधान में सबकी नुमाइंदगी दिखाई देती है।

→ यह संविधान भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है। यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान एक विदेशी दस्तावेज है। इसका हर अनुच्छेद पश्चिमी संविधानों की नकल है तथा भारतीय जनता के सांस्कृतिक भावबोध से इसका मेल नहीं बैठता। लेकिन यह आरोप गलत है। यह बात सच है कि भारतीय संविधान आधुनिक और अंशतः पश्चिमी है, लेकिन इससे यह पूरी तरह विदेशी नहीं हो जाता बल्कि यह संविधान सचेत चयन और अनुकूलन का परिणाम है न कि नकल का।

→ संविधान की सीमाएँ।

  • भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
  • इसमें लिंगागत-न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों विशेषकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है।
  • कुछ बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक वाले खंड में डाल दिया गया है। लेकिन संविधान की ये सीमाएँ इतनी गंभीर नहीं हैं कि ये संविधान के दर्शन के लिए ही खतरा पैदा कर दें।

→ निष्कर्ष: भारत का संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है। इसकी केन्द्रीय विशेषताएँ इसे जीवन्त बनाती हैं। संविधान सभा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उत्पन्न संवैधानिक दर्शन को परिष्कार कर उसे संविधान के रूप में विधिक सांस्थानिक रूप प्रदान किया है। संविधान के दर्शन का सर्वोत्तम सार-संक्षेप संविधान की प्रस्तावना में है। इसमें समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व के उद्देश्यों के साथ-साथ यह भी कहा गया है कि जनता ने संविधान का निर्माण किया है और लोकतंत्र एक साधन है जिसके सहारे जनता वर्तमान और भविष्य को आकार देती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

Jharkhand Board Class 11 Political Science संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ InText Questions and Answers

पृष्ठ 200

प्रश्न 1.
मुझे यह बात समझ नहीं आती कि कोई संविधान लचीला या कठोर कैसे होता है? क्या संविधान की कठोरता या उसका लचीलापन उस काल की राजनीति से तय नहीं होता?
उत्तर:
किसी संविधान का लचीला होना या कठोर होना, उस संविधान में की जाने वाली संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करता है। यदि संविधान संशोधन के लिए संसद के 2/3 या 3/4 बहुमत की जरूरत होती है, तो ऐसे संविधान को कठोर कहा जाता है और यदि उसमें संसद सामान्य बहुमत से साधारण विधि की तरह संशोधन कर सकती है, तो उसे लचीला संविधान कहा जाता है। संविधान की कठोरता या उसका लचीलापन उस काल की राजनीति से तय नहीं होता।

पृष्ठ 201

प्रश्न 2.
अगर कुछ राज्य संविधान में संशोधन चाहते हैं तो क्या उनकी बात सुनी जाएगी? क्या ये राज्य संजीव पास बुक्स अपनी तरफ से संशोधन का प्रस्ताव ला सकते हैं? मुझे लगता है कि यह राज्यों की तुलना में केन्द्र को ज्यादा. शक्तियाँ देने का ही एक और उदाहरण है।
उत्तर:
यदि कुछ राज्य संविधान में संशोधन चाहते हैं तो वे अपनी बात को राज्य सभा के सांसदों को राज्यसभा में रखने केलिए दबाव बना सकते हैं, लेकिन औपचारिक रूप से संविधान में संशोधन का प्रस्ताव रखने का राज्यों को कोई अधिकार नहीं दिया गया है। हाँ, यह राज्यों की तुलना में केन्द्र को ज्यादा शक्तियाँ देने का ही एक ओर उदाहरण है।

पृष्ठ 204

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में निम्नलिखित संशोधन करने के लिए कौन-सी शर्तें पूरी की जानी चाहिए?
1. नागरिकता सम्बन्धी अनुच्छेद
2. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
3. केन्द्र सूची में परिवर्तन
4. राज्य की सीमाओं में बदलाव
5. चुनाव आयोग से संबंधित उपबन्ध।
उत्तर:

  1. नागरिकता सम्बन्धी अनुच्छेद: संसद के दोनों सदनों का पृथक्-पृथक् सामान्य बहुमत की शर्त।
  2. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार: विशेष बहुमत की शर्त।
  3. केन्द्र सूची में परिवर्तन: विशेष बहुमत राज्यों द्वारा अनुमोदन।
  4. राज्य की सीमाओं में बदलाव: सामान्य बहुमत।
  5. चुनाव आयोग से संबंधित उपबंध: विशेष बहुमत राज्यों द्वारा अनुमोदन।

पृष्ठ 213

प्रश्न 4.
बताएं कि निम्नलिखित वाक्य सही हैं या गलत?
(क) बुनियादी ढांचे को लेकर दिये गए फैसले के बाद, संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार नहीं रह गया है।
(ख) सर्वोच्च न्यायालय ने हमारे संविधान के बुनियादी तत्वों की एक सूची तैयार की है। इस सूची को बदला नहीं जा सकता।
(ग) न्यायालय को इस बात का फैसला करने का अधिकार है कि किसी संशोधन से बुनियादी संरचना का उल्लंघन होता है या नहीं।
(घ) केशवानंद भारती मामले के बाद यह तय हो चुका है कि संसद संविधान में किस सीमा तक संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(क) – गलत है।
(ग) – सही है।
(ख) – गलत है।
(घ) – सही है।

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प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौनसा वाक्य सही है। संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि।
(क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।
(ख) किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो जाता है।
(ग) हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए।
(घ) संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिंबित होना चाहिए।
उत्तर:
उपर्युक्त चारों वाक्यों में (क) वाक्य सही है। यह है। संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि (क) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही/गलत का निशान लगाएँ:
(क) राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
(ख) संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास ही होता है।
(ग) न्यायपालिका संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परन्तु उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या के द्वारा वह संविधान को काफी हद तक बदल सकती है।
(घ) संसद संविधान के किसी भी खंड में संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(क) सत्य (ख) असत्य (ग) सत्य (घ) असत्य।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से कौन भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया में भूमिका निभाते हैं? इस प्रक्रिया में ये कैसे शामिल होते हैं?
(क) मतदाता
(ख) भारत का राष्ट्रपति
(ग) राज्य की विधानसभाएँ
(घ) संसद
(ङ) राज्यपाल
(च) न्यायपालिका
उत्तर:
(क) मतदाता: भारत के संविधान संशोधन में मतदाता भाग नहीं लेते हैं।

(ख) भारत का राष्ट्रपति: भारत का राष्ट्रपति संविधान संशोधन में भाग लेता है। संसद के दोनों सदनों से संविधान संशोधन विधेयक पारित होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने पर वह संशोधन विधेयक पारित हो जाता है। राष्ट्रपति को किसी भी संशोधन विधेयक को वापस भेजने का अधिकार नहीं है।

(ग) राज्य की विधानसभाएँ: संविधान की कुछ धाराओं (अनुच्छेदों) में संशोधन करने के लिए संसद के दो- तिहाई बहुमत के साथ-साथ आधे या उससे अधिक राज्यों की विधानसभाओं से भी अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है।

(घ) संसद – भारतीय संविधान में संशोधन का मुख्य घटक संसद है क्योंकि सभी प्रकार के संशोधन संसद में ही प्रस्तावित किये जा सकते हैं। प्रथम प्रकार के संशोधन विधेयक को पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत की ही आवश्यकता होती है। दूसरे प्रकार के संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के पृथक-पृथक विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। तीसरे प्रकार के संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों के पृथक-पृथक विशेष बहुमत के साथ-साथ आधे या आधे से अधिक राज्यों की विधानसभाओं के अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है। इस प्रकार तीनों प्रकार के संविधान संशोधनों में संसद के दोनों सदनों का हाथ अवश्य रहता है।

(ङ) राज्यपाल: संविधान के जिन-जिन अनुच्छेदों में संशोधन हेतु पचास प्रतिशत राज्यों के विधानमण्डलों की अनुमति लेनी होती है, केवल वहां राज्यपाल की लिप्तता पायी जाती है, क्योंकि राज्य विधानमण्डल से पारित संशोधन विधेयक पर राज्यपाल को हस्ताक्षर करने होते हैं।

(च) न्यायपालिका: संविधान संशोधनों में न्यायपालिका की भूमिका नहीं होती है।

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प्रश्न 4.
इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42वां संशोधन अब तक का सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे?
(क) यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
(ख) यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
(ग) इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
(घ) संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।
उत्तर:
42वाँ संविधान संशोधन विभिन्न विवादास्पद संशोधनों में से एक था। उपर्युक्त कारणों में से इसके विवादास्पद होने के निम्नलिखित कारण थे।

  1. यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
  2. इस संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।

यह संविधान संशोधन वास्तव में उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती विवाद में दिये गये निर्णयों को निष्क्रिय करने का प्रयास था। गये थे।
दूसरे, इसमें लोकसभा की अवधि को 5 वर्ष से बढ़ाकर छः वर्ष कर दिया गया था।
इसमें न्यायपालिका की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति को भी प्रतिबंधित कर दिया गया था।
इस संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना, 7वीं अनुसूची तथा संविधान के 53 अनुच्छेदों में परिवर्तित कर दिये

प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों में कौनसा वाक्य विभिन्न संशोधनों के सम्बन्ध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता।
(क) संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
(ख) खंडन-मंडन/बहस और मतभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं।
(ग) कुछ नियमों और सिद्धान्तों को संविधान में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्व दिया गया है। कतिपय संशोधनों के लिए संविधान में विशेष बहुमत की व्यवस्था की गई है।
(घ) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
(ङ) न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।
उत्तर:
उपर्युक्त पांचों कथनों में से भाग (ङ) ही विधायिका और न्यायपालिका के बीच तनाव की उचित व्याख्या नहीं है। यह कथन है कि “न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।”

प्रश्न 6.
बुनियादी ढाँचे के सिद्धान्त के बारे में सही बात को चिह्नित करें। गलत वाक्य को सही करें।
(क) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
(ख) बुनियादी ढाँचे को छोड़कर विधायिका संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर सकती है।
(ग) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढांचे के अन्तर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
(घ) यह सिद्धान्त सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
(ङ) इस सिद्धान्त से न्यायपालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों ने बुनियादी ढांचे के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर:
बुनियादी ढांचे के सिद्धान्त के बारे में (ख), (ग), (घ) और (ङ) वाक्य सही हैं और (क) वाक्य गलत है।
(क) वाक्य को इस प्रकार सही किया जा सकता है। “संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा नहीं किया गया है।

प्रश्न 7.
सन् 2002-2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर निम्नलिखित में से कौनसे निष्कर्ष निकालेंगे।
(क) इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
(ख) इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
(ग) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
(घ) इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अन्तर नहीं रह गया था।
(ङ) ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
उत्तर:
प्रश्न में दिये गए निष्कर्षों में से सही निष्कर्ष हैं।
(ग) और (ङ)। ये इस प्रकार हैं।
(ग) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था तथा
(ङ) ये संशोधन विवादास्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।

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प्रश्न 8.
संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है? व्याख्या करें।
उत्तर:
विशेष बहुमत से आशय: संविधान के अधिकांश प्रावधानों में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। विशेष बहुमत से यहाँ आशय है। साधारण बहुमत की तुलना में अधिक बहुमत भारत के संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है।

प्रथमतः, संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए। दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए। संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने की आवश्यकता नहीं है।विशेष बहुमत की आवश्यकता: विशेष बहुमत की आवश्यकता को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।

  1. राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी हेतु संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत का प्रावधान इसलिए किया गया है कि उसमें राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी होनी चाहिए। इसका आशय यह है कि जब तक प्रस्तावित विधेयक पर पर्याप्त सहमति न बन पाए तब तक उसे पारित नहीं किया जाना चाहिए।
  2. जनमत की दृष्टि से डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में विशेष बहुमत की आवश्यकता को जनमत से जोड़ते हुए कहा कि “जो लोग संविधान से संतुष्ट नहीं हैं उन्हें इसमें संशोधन करने के लिए सिर्फ दो तिहाई बहुमत की जरूरत है। अगर वे इतना बहुमत भी हासिल नहीं कर सकते तो यह कहना पड़ेगा कि उनकी राय में आम जनता की राय निहित नहीं है।” इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर ने ‘विशेष बहुमत’ को ‘जनता की राय’ से जोड़ते हुए संविधान संशोधन में इसकी आवश्यकता प्रतिपादित की।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं के परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर:
न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याएँ संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और संसद के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते रहते हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं। इस तरह के टकराव पैदा होने पर संसद को संशोधन का सहारा लेकर संविधान की किसी एक व्याख्या को प्रामाणिक सिद्ध करना पड़ता है। यथा। 1970-75 के दौरान संसद और न्यायपालिका के बीच उठे विवाद – 1970-75 के दौरान भारत में संविधान के कतिपय अनुच्छेदों की व्याख्याओं को लेकर संसद और न्यायपालिका के बीच अनेक विवाद उठे तथा इस काल में संसद ने न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार- बार संशोधन किये। यथा

1. मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या पर विवाद के आधार पर हुए संशोधन: मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर संसद और न्यायपालिका के बीच अक्सर मतभेद पैदा होते रहे हैं। अनेक संशोधन मूल अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्वों के सम्बन्धों तथा संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को स्थापित करने तथा इनसे संबंधित संविधान के प्रावधानों की भिन्न-भिन्न व्याख्या को लेकर हुए हैं। पहला संविधान संशोधन जमींदारी प्रथा के उन्मूलन तथा भूमि सुधारों से संबंधित अनेक कानूनों को संविधान सम्मत बनाने हेतु किया गया।

इन्हें न्यायिक समीक्षा की न्यायिक शक्ति से बाहर कर दिया। 1967 में गोलकनाथ विवाद में न्यायपालिका ने यह व्याख्या की कि संसद मूल अधिकारों में कोई संशोधन नहीं कर सकती। संसद ने 1971 में 24वां संविधान संशोधन किया जिसमें उसने यह स्थापित किया कि संसद संविधान के किसी भाग में संशोधन कर सकती है। सन् 1972 में संसद ने 25वां संविधान संशोधन किया। इसमें उसने नीति निर्देशक तत्वों में दो नये अनुच्छेद 39(b) तथा 39 (c) प्रविष्ट किये।

इनमें यह भी कहा गया कि 39(a) तथा 39 (b) में दिये गए किसी विषय पर बने किसी कानून को इस आधार पर असंवैधानिक नहीं घोषित किया जायेगा कि वे किसी मूल अधिकार का उल्लंघन करते हैं। केशवानंद भारती (1973) के विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने 24वें तथा 25वें संविधान संशोधन की संवैधानिक समीक्षा में इस बात से सहमति दर्शायी कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है लेकिन संशोधन द्वारा किए गए परिवर्तन द्वारा संविधान की मौलिक संरचना को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या से संबंधित विवाद के कारण अनेक संशोधन हुए हैं।

2. संसद की संशोधन करने की शक्ति की सीमा सम्बन्धी व्याख्या पर संसद और न्यायपालिका के विवाद पर हुए संशोधन – 1967 में गोलकनाथ विवाद में न्यायपालिका ने संसद की संशोधन की शक्ति पर यह व्याख्या की है कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है। न्यायपालिका की इस व्याख्या को निरस्त करने के लिए संसद 1971 में 24वां संविधान संशोधन किया जिसमें यह स्थापित किया गया कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है।

लेकिन केशवानंद भारती विवाद में 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्याख्या की कि संसद यद्यपि संविधान के हर भाग में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह संविधान की मौलिक संरचना में कोई संशोधन नहीं कर सकती। संविधान की मौलिक संरचना का निर्धारण न्यायपालिका करेगी। न्यायपालिका की इस व्याख्या को निरस्त करने के लिए संसद ने 1976 में 42वां संविधान संशोधन पारित किया। इस संशोधन के द्वारा संविधान में अन्य अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। जब यह संशोधन पारित किया गया तब देश में आपातकाल जारी था तथा विरोधी दलों के प्रमुख सांसद जेल में थे।

इसी पृष्ठभूमि में 1977 में चुनाव हुए तथा सत्ताधारी दल कांग्रेस की हार हुई। नई सरकार ने 38वें, 39 वें तथा 42वें संशोधनों में अधिकांश को 43वें, 44वें संशोधनों के द्वारा निरस्त कर दिया। इन संशोधनों के माध्यम से संवैधानिक संतुलन को पुनः स्थापित किया गया। मिनर्वा मिल प्रकरण (1980) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने केशवानंद भारती के इस निर्णय को पुनः दोहराया कि संसद – संविधान की मूल संरचना में संशोधन नहीं कर सकती। वर्तमान में राजनैतिक दलों, राजनेताओं, सरकार और संसद ने भी मूल संरचना के विचार को स्वीकार कर लिया है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 10.
अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
उत्तर:
मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि ‘अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।’
प्रजातंत्र में जितना महत्व जनकल्याण को दिया जाता है, उतना ही महत्व इस बात को भी दिया जाता है कि ‘सत्ता का दुरुपयोग न होने पाए। संसद जनता का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि कार्यपालिका तथा न्यायपालिका पर इसको वरीयता दी जानी चाहिए अर्थात् संविधान संशोधन की संसद की शक्ति सर्वोच्च होनी चाहिए; उसकी इस शक्ति पर न्यायपालिका का कोई अंकुश नहीं होना चाहिए। इसी दृष्टि से भारत में न्यायपालिका तथा संसद के विवाद के दौरान संसद का यह दृष्टिकोण था कि उसके पास गरीब, पिछड़े तथा असहाय लोगों के हितों की रक्षा के लिए संशोधन करने की शक्ति मौजूद है।

लेकिन लोकतंत्र में विधायिका के साथ-साथ सरकार के अन्य दोनों अंगों को भी शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। इसलिए यह अपेक्षा की जाती है कि संसद की सर्वोच्चता संविधान के ढांचे के अन्तर्गत ही हो। प्रजातंत्र का अर्थ केवल वोट और जनप्रतिनिधियों तक ही सीमित नहीं है। प्रजातंत्र का अर्थ विकासशील संस्थाओं से है और उनके संतुलन से है। इसलिए सभी राजनीतिक संस्थाओं को लोगों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए और दोनों को एक-दूसरे के साथ मिलकर चलना चाहिए। इसलिए यह आवश्यक है कि यदि संविधान में संशोधन का अधिकार संसद ( विधायका) के पास हो, तो न्यायपालिका के पास संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए क्योंकि-

  1. विधायिका को शक्ति संविधान से मिलती है और अन्य अंगों को भी शक्ति उससे मिलती है। अतः सभी अंग अपना कार्य संविधान की सीमा में रहते हुए करें तथा उसके ढांचे के अन्तर्गत ही करें।
  2. सरकार के तीनों अंगों के कार्यों में परस्पर नियंत्रण व संतुलन होना चाहिए ताकि वे लोगों के प्रति उत्तरदायी बने रहें।
  3. जनकल्याण के साथ-साथ लोकतंत्र में शक्ति के दुरुपयोग पर नियंत्रण भी बराबर के महत्व का है।

जनकल्याण हेतु किये जाने वाले संविधान संशोधन विधिक सीमाओं से बाहर नहीं होने चाहिए क्योंकि एक बार संविधान की सीमाओं से बाहर जाने की छूट मिलने पर सत्ताधारी उसका दुरुपयोग भी कर सकते हैं। इसलिए संसद व सरकार अपनी शक्ति का ऐसा दुरुपयोग न कर सके इसके लिए न्यायपालिका को संविधान संशोधनों पर पुनर्विचार का अधिकार होना चाहिए । यदि ऐसा नहीं किया जायेगा तो संसद अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर संविधान को नष्ट कर निरंकुश हो जायेगी। इससे शक्ति संतुलन समाप्त हो जायेगा तथा लोकतंत्र को खतरा उत्पन्न हो जायेगा ।

 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ JAC Class 11 Political Science Notes

→ भारतीय संविधान 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत किया गया तथा इसे 26 जनवरी, 1950 को औपचारिक रूप से लागू किया गया। तब से लेकर आज तक यह संविधान लगातार काम कर रहा है। हमारे देश की सरकार इसी संविधान के अनुसार काम करती है। इसके कारण हैं था।

  • हमें एक मजबूत संविधान विरासत में मिला है।
  • इस संविधान की बनावट हमारे देश की परिस्थितियों के बेहद अनुकूल है।
  • हमारे संविधान-निर्माता अत्यन्त दूरदर्शी थे। उन्होंने भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया
  • हमारा संविधान लचीला है।
  • अदालती फैसले और राजनीतिक व्यवहार – बरताव दोनों ने संविधान के अमल में अपनी परिपक्वता और लचीलेपन का परिचय दिया है। उक्त कारणों से कानूनों की एक बंद और जड़ किताब न बनकर एक जीवन्त दस्तावेज के रूप में विकसित हो सका है।

→ संविधान क्या है?
संविधान समकालीन परिस्थितियों और प्रश्नों से जुड़ा सरकार के निर्माण व संचालन के नियमों का एक मसौदा होता है। उसमें अनेक तत्व स्थायी महत्व के होते हैं, लेकिन यह कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं होता बल्कि उसमें हमेशा संशोधन, बदलाव और पुनर्विचार की गुंजाइश रहती है। इस प्रकार संविधान समाज की इच्छाओं और आकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब होता है तथा यह समाज को लोकतांत्रिक ढंग से चलाने का एक ढांचा भी होता है। क्या भारत का

→ संविधान अपरिवर्तनीय है:
भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान की पवित्रता को बनाए रखने तथा उसमें परिवर्तनशीलता की गुंजाइश होने में संतुलन पैदा करने की कोशिश की है। इस हेतु उन्होंने संविधान को सामान्य कानून से ऊँचा दर्जा दिया तथा उसे इतना लचीला भी बनाया कि उसमें समय की आवश्यकता के अनुरूप यथोचित बदलाव किये जा सकें । अतः स्पष्ट है कि हमारा संविधान कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तवेज नहीं है।

→ संविधान में संशोधन कैसे किया जाता है?
संविधान निर्माता संविधान को एक ही साथ लचीला और कठोर बनाने के पक्ष में थे। लचीला संविधान वह होता है जिसमें आसानी से संशोधन किये जा सकें और कठोर संविधान वह होता है जिसमें संशोधन करना बहुत मुश्किल होता है। भारतीय संविधान में इन दोनों तत्वों का समावेश किया गया है।

→ संविधान संशोधन की प्रक्रिया: संविधान में संशोधन करने के लिए निम्नलिखित तरीके दिये गये हैं

→  संसद में सामान्य बहुमत के आधार पर संशोधन- संविधान में ऐसे कई अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है। ऐसे मामलों में कोई विशेष प्रक्रिया अपनाने की जरूरत नहीं होती। जैसे-नये राज्यों के निर्माण, किसी राज्य के क्षेत्रफल को कम या अधिक करना, किसी राज्य का नाम बदलना आदि। संसद इन अनुच्छेदों में अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया को अपनाए बिना ही साधारण विधि की तरह संशोधन कर सकती है। \

→ अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया को अपनाते हुए संशोधन- संविधान के शेष खंडों में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 368 में दो तरीके दिये गये हैं।

  • संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग विशेष बहुमत के आधार पर संशोधन।
  • संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग विशेष बहुमत के साथ कुल राज्यों की आधी विधायिकाओं की स्वीकृति के आधार पर संशोधन।

संसद के विशेष बहुमत के अलावा किसी बाहरी एजेन्सी जैसे संविधान आयोग या अन्य किसी निकाय की संविधान की संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं है। इसी प्रकार संसद तथा राज्य विधानपालिकाओं में संशोधन पारित होने के बाद इसकी पुष्टि के लिए किसी प्रकार के जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं रखी गयी है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

→ अन्य सभी विधेयकों की तरह संशोधन विधेयक को भी राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है। परन्तु इस मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार भारत में संशोधन प्रक्रिया का आधार निर्वाचित प्रतिनिधियों (संसदीय संप्रभुता ) में निहित है।

→ विशेष बहुमत: संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है:
प्रथमतः संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए। दूसरे, संशोधन का समर्थन

  • करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए।
  • संशोधनं विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता होती है।
  • इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान नहीं है। संशोधन प्रक्रिया के पीछे बुनियादी भावना यह है कि उसमें राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी होनी चाहिए।

→ राज्यों द्वारा अनुमोदन:
राज्यों और केन्द्र सरकार के बीच शक्तियों के वितरण से संबंधित, जनप्रतिनिधित्व से संबंधित या मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए राज्यों की सहमति प्राप्त करना आवश्यक है। संविधान में राज्यों की शक्तियों को सुनिश्चित करने के लिए यह व्यवस्था की गई है कि जब तक आधे राज्यों की विधानपालिकाएँ किसी संशोधन विधेयक को पारित नहीं कर देतीं तब तक वह संशोधन प्रभाव नहीं माना जाता।

→ संविधान में इतने संशोधन क्यों किये गए हैं?
दिसम्बर, 2017 तक संविधान में 101 संशोधन किये जा चुके थे। ये संशोधन समय की जरूरतों के अनुसार किये गये थे, न कि सत्ताधारी दल की राजनीतिक सोच के आधार पर। संशोधनों की विषय-वस्तु अब तक किये गये संशोधनों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है;

→ पहली श्रेणी में वे संशोधन शामिल किये गए हैं जो तकनीकी या प्रशासनिक प्रकृति के हैं और ये संविधान के मूल उपबन्धों को स्पष्ट बनाने, उनकी व्याख्या करने तथा छिट-पुट संशोधन से संबंधित हैं। ये इन उपबन्धों में कोई बदलाव नहीं करते। यथा

  • उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष करना (15वां संशोधन)।
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन ( 55वां संशोधन )।
  • अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण की अवधि को बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन।

→ व्याख्या से सम्बन्धित संशोधन: दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत वे संशोधन आते हैं जिनमें संविधान की व्याख्या निहित रही। जैसे मंत्रिपरिषद की सलाह को राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी बनाना, मौलिक अधिकारों और नीति- निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर संसद और न्यायपालिका के मतभेदों के आधार पर किये गये संशोधन।

→ राजनीतिक आम सहमति के माध्यम से संशोधन: बहुत से संशोधन ऐसे हैं जिन्हें राजनीतिक दलों की आपसी सहमति का परिणाम माना जा सकता है। ये संशोधन तत्कालीन राजनीतिक दर्शन और समाज की आकांक्षाओं को समाहित करने के लिए किये गये थे। जैसे दल-बदल विरोधी कानून ( 52वाँ संशोधन तथा 91वां संशोधन), मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटकर 18 वर्ष करने का 61वां संशोधन तथा 73वां व 74वां संशोधन आदि।

→ विवादास्पद संशोधन:
संविधान के 38वें, 39वें और 42वें संशोधन विशेष रूप से विवादास्पद रहे। 1977 में 43वें तथा 44वें संशोधनों के द्वारा 38वें, 39वें तथा 42वें संशोधनों में किए गए तथा अधिकांश परिवर्तनों को निरस्त कर पुनः संवैधानिक संतुलन को स्थापित किया गया।

→ संविधान की मूल संरचना तथा उसका विकास:
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त को न्यायपालिका ने केशवानंद भारती (1973) के मामले में प्रतिपादित किया था । इस निर्णय ने संविधान के विकास में निम्नलिखित सहयोग दिया:

  • इस निर्णय द्वारा संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएँ निर्धारित की गईं।
  • यह निर्धारित सीमाओं के भीतर संविधान के किसी या सभी भागों के सम्पूर्ण संशोधन को अनुमति देता है।
  • संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन के बारे में न्यायपालिका का फैसला अन्तिम होगा।

विगत तीन दशकों के दौरान बुनियादी संचरना के सिद्धान्त को व्यापक स्वीकृति मिली है। इस सिद्धान्त से संविधान की कठोरता और लचीलेपन का संतुलन और मजबूत हुआ है।

→ न्यायालय के आदेश और संविधान का विकास: संविधान की समझ को बदलने में न्यायिक व्याख्याओं की अहम भूमिका रही है। यथा:

  • न्यायालय ने कहा कि आरक्षित सीटों की संख्या कुल सीटों की संख्या के आधे से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  • न्यायालय ने ही अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण नीति में क्रीमीलेयर का विचार प्रस्तुत किया।
  • न्यायालय ने शिक्षा, जीवन, स्वतंत्रता के अधिकारों के उपबंधों में अनौपचारिक रूप से कई संशोधन किये हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

→ संविधान एक जीवन्त दस्तावेज:
हमारा संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है जो समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है; यह अनुभव से सीखता है। इसलिए समाज में इतने सारे परिवर्तन होने के बाद भी यह अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है तथा टिकाऊ बना हुआ है।

→ न्यायपालिका का योगदान:
न्यायपालिका ने इस बात पर बल दिया है कि सरकार के सब कार्यकलाप संवैधानिक ढांचे के अन्तर्गत किये जाने चाहिए और जनहित के उपाय विधिक सीमा के बाहर नहीं होने चाहिए ताकि सत्ताधारी दल सत्ता का दुरुपयोग न कर सके। इस प्रकार जनकल्याण और ‘सत्ता के दुरुपयोग पर नियंत्रण’ दोनों के बीच न्यायपालिका ने संतुलन स्थापित किया। न्यायपालिका ने ‘मूल संरचना के सिद्धान्त’ का विकास कर सत्ता के दुरुपयोग की संभावनाओं को अवरुद्ध कर दिया है।

→ राजनीतिज्ञों की परिपक्वता:
1967 से 1973 के बीच सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सर्वोच्च होने की प्रतिद्वन्द्विता के तहत केशवानंद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने संविधान की व्याख्या में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। राजनीतिक दलों, राजनेताओं, सरकार तथा संसद ने भी मूल संरचना के संवेदनशील विचार को स्वीकृति प्रदान की है।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ

Jharkhand Board JAC Class 11 History Important Questions Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 History Important Questions Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ

बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

1. यूरोप में सबसे पहले विश्वविद्यालय किस देश के शहरों में स्थापित हुए –
(अ) इंग्लैण्ड
(ब) फ्रांस
(स) इटली
(द) जर्मनी
उत्तर:
(स) इटली

2. जो अध्यापक विश्वविद्यालयों में व्याकरण, अलंकार शास्त्र, कविता, इतिहास आदि विषय पढ़ाते थे, वे कहलाते थे –
(अ) बुद्धिजीवी
(ब) अभिजात
(स) प्रकाण्ड विद्वान
(द) मानवतावादी
उत्तर:
(द) मानवतावादी

3. मानवतावादियों के अनुसार पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होने वाला युग कहलाता है –
(अ) मध्य युग
(स) आधुनिक युग
(ब) उत्तर मध्य युग
(द) अन्धकार युग
उत्तर:
(स) आधुनिक युग

4. वे कौन महान चित्रकार थे, जिनकी रुचि वनस्पति विज्ञान और शरीर रचना विज्ञान से लेकर गणित शास्त्र और कला तक विस्तृत थी-
(अ) दोनातल्लो
(स) जोटो
(ब) माईकल एंजेलो बुआनारोत्ती
(द) जोंटो
उत्तर:
(द) जोंटो

5. ‘दि पाइटा’ नामक प्रतिमा का निर्माण किया था-
(अ) गिबर्टी
(स) राफेल
(ब) राफेल
(द) लियानार्डो दा विंची
उत्तर:
(ब) राफेल

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6. जोहानेस गुटेनबर्ग ने पहले छापेखाने का निर्माण किया-
(अ) 1459 में
(ब) 1558 में
(स) 1650 में
(द) 1455 में
उत्तर:
(द) 1455 में

7. जर्मनी में प्रोटेस्टेन्ट सुधार आन्दोलन का सूत्रपात किया-
(अ) इरैस्मस
(ब) जान हस
(स) सेवोनोरोला
(द) मार्टिन लूथर
उत्तर:
(द) मार्टिन लूथर

8. “पृथ्वी समेत समस्त ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं।” इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था –
(अ) गैलिलियो
(ब) मार्टिन लूथर
(स) कैप्लर उत्तरमाला
(द) कोपरनिकस
उत्तर:
(द) कोपरनिकस

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –

1. कैथोलिक चर्च के परम्परागत रीति-रिवाजों, कर्मकांडों के विरुद्ध जो आंदोलन चला उसे …………….. आंदोलन का नाम दिया गया।
2. चर्च के अधिकारियों ने प्राचीन कैथोलिक धर्म का सुधार कर उसकी प्रतिष्ठा के पुनर्स्थापन के प्रयास को …………….. के नाम से जाना जाता है।
3. जर्मनी में प्रोटेस्टेन्ट आंदोलन को शुरू करने वाला …………….. था।
4. यूरोप में 14वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक के सांस्कृतिक परिवर्तन को ……………… कहा जाता है।
5. शरीर विज्ञान, रेखागणित, भौतिकी और सौंदर्य की उत्कृष्ट भावना ने इतालवी कला को नया रूप दिया गया जिसे बाद में …………….. कहा गया।
उत्तर:
1. धर्म सुधार
2. प्रतिधर्म सुधार
3. मार्टिन लूथर
4 पुनर्जागरण
5. यथार्थवाद

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये –

1. बाइजेंटाइन साम्राज्य और इस्लामी देशों के बीच व्यापार के बढ़ने से इटली के तटवर्ती बंदरगाह पुनर्जीवित हो गए।
2. यूरोप में सबसे पहले विश्वविद्यालय फ्रांस के शहरों में स्थापित हुए।
3. ‘रेनेसाँ व्यक्ति’ शब्द का प्रयोग प्रायः उस मनुष्य के लिए किया जाता था जिसकी अनेक रुचियाँ हों और उसे अनेक हुनर में महारत प्राप्त हो।
4. धार्मिक व आध्यात्मिक शिक्षा ने मानवतावादी विचारों को आकार दिया।
5. मानवतावादी संस्कृति की विशेषताओं में से एक था-मानवीय जीवन पर धर्म का नियंत्रण कमजोर होना।
उत्तर:
1. सत्य
2. असत्य
3. सत्य
4. असत्य
5. सत्य

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निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये –

1. इग्नेशियस लोयोला (अ) यूटोपिया
2. कोपरनिकस (ब) प्रोटैस्टेंट सुधारवादी आंदोलन के जनक
3. टॉमस मोर (स) ‘द कोर्टियर’
4. मार्टिन लूथर (द) पृथ्वी समेत सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं
5. वाल्यासार कास्टिलोनी (य) 1540 ई. में ‘सोसायटी ऑफ जीसिस’ संस्था की स्थापना

उत्तर:

1. इग्नेशियस लोयोला (य) 1540 ई. में ‘सोसायटी ऑफ जीसिस’ संस्था की स्थापना
2. कोपरनिकस (द) पृथ्वी समेत सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं
3. टॉमस मोर (अ) यूटोपिया
4. मार्टिन लूथर (ब) प्रोटैस्टेंट सुधारवादी आंदोलन के जनक
5. वाल्यासार कास्टिलोनी (स) ‘द कोर्टियर’

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
दो मुसलमान लेखकों के नाम लिखिए जिनके ग्रन्थों का यूनानी विद्वान अनुवाद कर रहे थे।
उत्तर:
(1) इब्नसिना
(2) अल- राजी।

प्रश्न 2.
लियोनार्दो दा विंची द्वारा बनाए गए दो चित्रों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) मोनालिसा
(2) द लास्ट सपर।

प्रश्न 3.
पन्द्रहवीं शताब्दी में वास्तुकला में अपनाई गई नई शैली किस नाम से विख्यात हुई ?
उत्तर:
‘शास्त्रीय शैली’ के नाम से।

प्रश्न 4.
ऐसे दो व्यक्तियों के नाम लिखिए जो कुशल चित्रकार, मूर्तिकार और वास्तुकार : सभी कुछ थे।
उत्तर:
(1) माइकल एंजेलो
(2) फिलिप्पो ब्रुनेलेशी।

प्रश्न 5.
सेन्ट पीटर के गिरजे के गुम्बद का डिजाइन किसने बनाया था ?
उत्तर:
माईकल एंजेलो ने।

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प्रश्न 6.
माइकल एंजेलो अपनी किन कृतियों के कारण अमर हो गए?
उत्तर:
(1) सिस्टाइन चैपल की छत में लेप चित्र
(2) दि पाइटा
(3) सेन्ट पीटर का गिरजाघर।

प्रश्न 7.
यूरोपवासियों ने चीनियों और मंगोलों से किन तीन प्रमुख तकनीकी नवीकरणों के विषय में ज्ञान प्राप्त किया ?
उत्तर:
(1) आग्नेयास्त्र
(2) कम्पास
(3) फलक।

प्रश्न 8.
सोलहवीं शताब्दी की यूरोप की दो मानवतावादी महिलाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) कसान्द्रा फैदेल
(2) मार्चिसा ईसाबेला दि इस्ते।

प्रश्न 9.
सोलहवीं शताब्दी के दो मानवतावादी विद्वानों के नाम लिखिए जिन्होंने कैथोलिक चर्च की कटु आलोचना की थी ।
उत्तर:
(1) इंग्लैण्ड के टामस मोर
(2) हालैण्ड के इरैस्मस

प्रश्न 10.
जर्मनी में प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन को शुरू करने वाला कौन था ?
उत्तर:
मार्टिन लूथर।

प्रश्न 11.
स्विट्जरलैण्ड में प्रोटेस्टेन्ट धर्म का प्रचार करने वाले दो धर्म सुधारकों के नाम लिखिए।
उत्तर:
(1) उलरिक ज्विंग्ली
(2) जौं कैल्विन।

प्रश्न 12.
इग्नेशियस लायोला के अनुयायी क्या कहलाते थे ?
उत्तर:
जैसुइट।

प्रश्न 13.
कोपरनिकस कौन था?
उत्तर:
कोपरनिकस पोलैण्ड का वैज्ञानिक था।

प्रश्न 14.
विलियम हार्वे कौन था ?
उत्तर:
इंग्लैण्ड का प्रसिद्ध चिकित्साशास्त्री।

प्रश्न 15.
विलियम हार्वे ने किस सिद्धान्त की खोज की?
उत्तर:
उसने हृदय को रक्त संचालन से जोड़ा।

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प्रश्न 16.
आइजक न्यूटन कौन था ?
उत्तर:
इंग्लैण्ड का प्रसिद्ध वैज्ञानिक

प्रश्न 17.
आइजक न्यूटन ने किस ग्रन्थ की रचना की ?
उत्तर:
‘प्रिन्सिपिया मैथेमेटिका’।

प्रश्न 18.
आइजक न्यूटन ने किस सिद्धान्त की खोज की ?
उत्तर:
पृथ्वी के गुरुत्व – आकर्षण के सिद्धान्त की।

प्रश्न 19.
जर्मनी में किसने कैथोलिक चर्च के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया और कब ?
उत्तर:
1517 में मार्टिन लूथर ने।

प्रश्न 20.
फ्लोरेन्स के चर्च के गुम्बद का डिजाइन किसने बनाया था?
उत्तर:
फिलिप्पो ब्रुनेलेशी ने।

प्रश्न 21.
दोनातल्लो कौन था?
उत्तर:
इटली का प्रसिद्ध मूर्तिकार।

प्रश्न 22.
टालेमी ने किस ग्रन्थ की रचना की ? यह ग्रन्थ किस विषय से सम्बन्धित था ?
उत्तर:
(1) अलमजेस्ट की
(2) खगोलशास्त्र से।

प्रश्न 23.
ओटोमन तुर्कों ने कुस्तुन्तुनिया के बाइजेन्टाइन शासकों को कब पराजित किया?
उत्तर:
1453 ई. में।

प्रश्न 24.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप में ‘नगरीय संस्कृति’ किस प्रकार विकसित हो रही थी ?
उत्तर:
नगरों के लोग अब यह सोचने लगे थे कि वे गाँव के लोगों से अधिक सभ्य हैं । फ्लोरेन्स, वेनिस आदि अनेक नगर कला और विद्या के केन्द्र बन गए।
होती है।

प्रश्न 25.
चौदहवीं शताब्दी से यूरोपीय इतिहास की जानकारी के स्रोतों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर:
इस युग के इतिहास की जानकारी दस्तावेजों, मुद्रित पुस्तकों, चित्रों, मूर्त्तियों, भवनों तथा वस्त्रों से प्राप्त

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ

प्रश्न 26.
‘रेनेसाँ’ (पुनर्जागरण ) से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
‘रेनेसाँ’ का शाब्दिक अर्थ है – पुनर्जन्म । यह यूरोप में चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक के सांस्कृतिक परिवर्तनों का सूचक है।

प्रश्न 27.
रांके तथा जैकब बर्कहार्ट नामक इतिहासकारों के विचारों में क्या अन्तर था ?
उत्तर:
रांके के अनुसार इतिहास का पहला उद्देश्य यह है कि वह राज्यों और राजनीति के बारे में लिखे। बर्कहार्ट के अनुसार इतिहास का सरोकार उतना ही संस्कृति से है जितना राजनीति से ।

प्रश्न 28.
बर्कहार्ट ने किस पुस्तक की रचना की और कब की ?
उत्तर:
1860 ई. में बर्कहार्ट ने ‘दि सिविलाईजेशन आफ दि रेनेसाँ इन इटली’ नामक पुंस्तक की रचना की।

प्रश्न 29.
बर्कहार्ट ने इस पुस्तक में क्या बताया है ?
उत्तर:
बर्कहार्ट ने इस पुस्तक में यह बताया कि चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक इटली के नगरों में एक ‘मानवतावादी संस्कृति’ पनप रही थी।

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प्रश्न 30.
बर्कहार्ट ने चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक इटली के नगरों में पनपने वाली मानवतावादी संस्कृति के बारे में क्या लिखा है?
उत्तर:
इटली के नगरों में पनपने वाली मानवतावादी संस्कृति इस नए विश्वास पर आधारित थी कि व्यक्ति अपने बारे में स्वयं निर्णय लेने में समर्थ है।

प्रश्न 31.
इटली में स्वतन्त्र नगर- राज्यों का उदय किस प्रकार हुआ ?
उत्तर:
पश्चिमी यूरोपीय देशों के व्यापार की उन्नति में इटली के नगरों ने प्रमुख भूमिका निभाई। अब वे अपने को स्वतन्त्र नगर-राज्यों का समूह मानते थे ।

प्रश्न 32.
इटली के वेनिस तथा जिनेवा यूरोप के अन्य क्षेत्रों से किस प्रकार भिन्न थे ?
उत्तर:
इन नगरों के धनी व्यापारी नगरों के शासन में सक्रिय रूप से भाग लेते थे जिससे नागरिकता की भावना विकसित होने लगी।

प्रश्न 33.
ग्यारहवीं शताब्दी से पादुआ और बोलोनिया विश्वविद्यालय विधिशास्त्र के अध्ययन केन्द्र क्यों बने रहे ?
उत्तर:
पादुआ और बोलोनिया नगरों के प्रमुख क्रियाकलाप व्यापार और वाणिज्य सम्बन्धी थे । इसलिए यहाँ वकीलों तथा नोटरी की आवश्यकता होती थी।

प्रश्न 34.
इन विश्वविद्यालयों में कानून के अध्ययन में क्या परिवर्तन आया?
उत्तर:
इन विश्वविद्यालयों में कानून के अध्ययन में यह परिवर्तन आया कि अब कानून का अध्ययन रोमन संस्कृति के संदर्भ में किया जाने लगा।

प्रश्न 35.
‘मानवतावाद’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
मानववादियों के अनुसार अभी बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त करना शेष है और यह सब हम केवल धार्मिक शिक्षण से नहीं सीख सकते। मानवतावाद का तात्पर्य उन्नत ज्ञान से लिया जाता है।

प्रश्न 36.
पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में किन लोगों को ‘मानवतावादी’ कहा जाता था ?
उत्तर:
पन्द्रहवीं शताब्दी के शुरू में उन अध्यापकों को ‘मानवतावादी’ कहा जाता था जो व्याकरण, अलंकारशास्त्र, कविता, इतिहास और नीति दर्शन विषय पढ़ाते थे।

प्रश्न 37.
फ्लोरेन्स नगर की प्रसिद्धि में किन दो लोगों की प्रमुख भूमिका थी?
उत्तर:
फ्लोरेन्स नगर की प्रसिद्धि में दाँते अलिगहियरी तथा जोटो की प्रमुख भूमिका थी।

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प्रश्न 38.
‘रेनेसाँ व्यक्ति’ शब्द का प्रयोग किस मनुष्य के लिए किया जाता है ?
अथवा
‘मानवतावादी’ किसे कहा जाता था ?
उत्तर:
‘रेनेसाँ व्यक्ति’ शब्द का प्रयोग प्रायः उस मनुष्य के लिए किया जाता है जिसकी अनेक रुचियाँ हों और अनेक कलाओं में उसे निपुणता प्राप्त हो ।

प्रश्न 39.
मानवतावादियों ने पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होने वाले काल को ‘आधुनिक युग’ ( नये युग) की संज्ञा क्यों दी?
उत्तर:
पन्द्रहवीं शताब्दी में यूरोप में यूनानी और रोमन ज्ञान का पुनरुत्थान हुआ । इसलिए इसे मानवतावादियों ने आधुनिक युग की संज्ञा दी।

प्रश्न 40.
टालेमी द्वारा रचित पुस्तक का नाम लिखिए । यह ग्रन्थ किससे सम्बन्धित था?
उत्तर:
टालेमी ने ‘अलमजेस्ट’ नामक ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ खगोल शास्त्र से सम्बन्धित था जो यूनानी भाषा में लिखा गया था।

प्रश्न 41.
इब्नरुश्द कौन थे ?
उत्तर:
इब्नरुश्द स्पेन के अरबी दार्शनिक थे। उन्होंने दार्शनिक ज्ञान तथा धार्मिक विश्वासों के बीच चल रहे तनावों को सुलझाने का प्रयास किया।

प्रश्न 42.
मानवतावादी विचारों के प्रसार में किन दो तत्त्वों ने योगदान दिया?
उत्तर:
(1) विश्वविद्यालयों तथा स्कूलों में पढ़ाये जाने वाले मानवतावादी विषयों ने की।
(2) कला, वास्तुकला तथा साहित्य ने।

प्रश्न 43.
दोनातेल्लो कौन था ?
उत्तर:
दोनातेल्लो इटली का एक प्रसिद्ध मूर्त्तिकार था। 1416 में उसने सजीव मूर्त्तियाँ बनाकर नयी परम्परा स्थापित

प्रश्न 44.
यूरोप के कलाकारों को वैज्ञानिकों के कार्यों से क्यों सहायता मिली?
उत्तर:
यूरोप के कलाकार हूबहू मूल आकृति जैसी मूर्तियाँ बनाने के इच्छुक थे। इसके लिए उन्हें वैज्ञानिकों के कार्यों से सहायता मिली।

प्रश्न 45.
कलाकारों को अपनी कलाकृतियों की रचना में वैज्ञानिकों के कार्यों से किस प्रकार सहायता मिली?
उत्तर:
नर-कंकालों का अध्ययन करने के लिए कलाकार आयुर्विज्ञान कालेजों की प्रयोगशालाओं में गए।

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प्रश्न 46.
आन्ड्रीयस वसेलियस कौन थे ?
उत्तर:
आन्ड्रीयस वसेलियस बेल्जियम मूल के थे तथा पादुआ विश्वविद्यालय में आयुर्विज्ञान के प्राध्यापक थे1

प्रश्न 47.
आन्ड्रीयस वसेलियस ने आयुर्विज्ञान के विकास में क्या योगदान दिया ?
उत्तर:
वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सूक्ष्म परीक्षण के लिए मनुष्य के शरीर की चीर-फाड़ की। इसी समय से शरीर क्रिया विज्ञान का प्रारम्भ हुआ।

प्रश्न 48.
लियोनार्दो दा विंची कौन थे ?
उत्तर:
लियानार्दो दा विंची इटली के प्रसिद्ध चित्रकार थे। उनकी अभिरुचि वनस्पति विज्ञान और शरीर रचना विज्ञान से लेकर गणित शास्त्र तथा कला तक विस्तृत थी।

प्रश्न 49.
‘यथार्थवाद’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
शरीर-विज्ञान, रेखागणित, भौतिकी और सौन्दर्य की उत्कृष्ट भावना ने इतालवी कला को नया रूप दिया, जिसे बाद में यथार्थवाद कहा गया।

प्रश्न 50.
माईकल एंजेलो के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
माईकल एंजेलो एक कुशल चित्रकार, मूर्तिकार एवं वास्तुकार था। उसने पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में लेप चित्र तथा ‘दि पाइटा’ नामक मूर्ति बनाई।

प्रश्न 51.
सोलहवीं शताब्दी में यूरोपीय लोग मुद्रण प्रौद्योगिकी के विकास के लिए किसके ऋणी थे? इसका क्या कारण था ?
उत्तर:
सोलहवीं शताब्दी में यूरोप में मुद्रण प्रौद्योगिकी का विकास हुआ। इसके लिए यूरोपीय लोग चीनियों तथा मंगोल शासकों के ऋणी थे।

प्रश्न 52.
पन्द्रहवीं शताब्दी में यूरोप में सबसे पहले किस व्यक्ति ने छापेखाने का निर्माण किया और कब किया ?
उत्तर:
1455 में जर्मन मूल के जोहानेस गुटेनबर्ग ने सबसे पहले छापेखाने का निर्माण किया।

प्रश्न 53.
15वीं शताब्दी में यूरोप में नवीन विचारों का प्रसार तेजी से क्यों हुआ ?
उत्तर:
छापेखाने के आविष्कार के बाद यूरोपवासियों को छपी पुस्तकें बड़ी संख्या में उपलब्ध होने लगीं और उनका क्रय-विक्रय होने लगा।

प्रश्न 54.
पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त से यूरोप में मानवतावादी संस्कृति का प्रसार तीव्र गति से क्यों हुआ ?
उत्तर:
15वीं सदी के अन्त से यूरोपीय देशों में छपी हुई पुस्तकों का बड़ी संख्या में उपलब्ध होने से वहाँ मानवतावादी संस्कृति का प्रसार तीव्र गति से हुआ।

प्रश्न 55.
मानवतावादी संस्कृति की दो विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
(1) मानव जीवन पर धर्म का नियन्त्रण कमजोर हो गया।
(2) इटली के निवासी भौतिक सम्पत्ति, शक्ति और गौरव से आकृष्ट थे।

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प्रश्न 56.
फ्रेन्चेस्को बरबारो कौन थे ?
उत्तर:
फ्रेन्चेस्को बरबारो वेनिस के एक मानवतावादी लेखक थे।

प्रश्न 57.
लोरेन्जो वल्ला कौन थे ? उनके मानवतावादी संस्कृति के बारे में क्या विचार थे?
उत्तर:
लोरेन्जो वल्ला एक प्रसिद्ध मानवतावादी लेखक थे। उन्होंने अपनी पुस्तकं ‘आन प्लेजर’ में भोग-विलास पर लगाई गई ईसाई धर्म की निषेधाज्ञा की आलोचना की।

प्रश्न 58.
मैकियावली कौन था ? उसने किस पुस्तक की रचना की ?
उत्तर:
मैकियावली इटली का एक प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक था । उसने ‘दि प्रिंस’ ( 1513 ई.) नामक पुस्तक की रचना की ।

प्रश्न 59.
मैकियावली ने अपनी पुस्तक ‘दि प्रिंस’ में मानव के स्वभाव में क्या विचार प्रकट किए हैं?
उत्तर:
मैकियावली के अनुसार कुछ राजकुमार दानी, दयालु, साहसी होते हैं तो कुछ कंजूस, निर्दयी और कायर होते हैं। उसके अनुसार सभी मनुष्य बुरे हैं।

प्रश्न 60.
कसान्द्रा फैदेल कौन थी ?
उत्तर:
वेनिस निवासी कसान्द्रा फैदेल एक विदुषी महिला थी । वह मानवतावादी शिक्षा की समर्थक थी ।

प्रश्न 61.
कसान्द्रा फैदेल ने स्त्रियों को शिक्षा प्रदान किये जाने के बारे में क्या विचार प्रकट किए हैं?
उत्तर:
कसान्द्रे फैदेल ने लिखा है कि ” प्रत्येक महिला को सभी प्रकार की शिक्षा को प्राप्त करने की इच्छा रखनी चाहिए और उसे ग्रहण करना चाहिए । ”

प्रश्न 62.
कसान्द्रा फैदेल ने किस तत्कालीन विचारधारा को चुनौती दी थी ?
उत्तर:
कसान्द्रा फैदेल ने तत्कालीन इस विचारधारा को चुनौती दी कि एक मानवतावादी विद्वान के गुण एक महिला के पास नहीं हो सकते।

प्रश्न 63.
मार्चिसा ईसाबेला दि इस्ते कौन थी ?
उत्तर:
मार्चिसा ईसाबेला 16वीं शताब्दी की एक प्रतिभाशाली महिला थी । उसने अपने पति की अनुपस्थिति में अपने मंटुआ नामक राज्य पर शासन किया।

प्रश्न 64.
सोलहवीं शताब्दी की रचनाओं से महिलाओं की किन आकांक्षाओं का बोध होता है ?
उत्तर:
स्त्रियों को पुरुष – प्रधान समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए अधिक आर्थिक स्वायत्तता, सम्पत्ति तथा शिक्षा मिलनी चाहिए।

प्रश्न 65.
‘पाप-स्वीकारोक्ति’ (Indulgences) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
‘पाप स्वीकारोक्ति’ एक दस्तावेज था जो पादरियों द्वारा लोगों से धन ऐंठने का सबसे आसान तरीका था। यह दस्तावेज चर्च द्वारा जारी किया जाता था।

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प्रश्न 66.
‘कान्स्टैन्टाइन के अनुदान’ से क्या अभिप्राय है ? मानवतावादियों का इसके बारे में क्या विचार था ?
उत्तर:
‘कान्स्टैन्टाइन के अनुदान’ एक दस्तावेज था। मानवतावादियों के अनुसार न्यायिक और वित्तीय शक्तियों पर पादरियों का दावा इस दस्तावेज से उत्पन्न होता है।

प्रश्न 67.
‘कान्स्टैन्टाइन के अनुदान’ की व्याख्या से यूरोपीय शासक क्यों प्रसन्न हुए?
उत्तर:
क्योंकि मानवतावादी विद्वान यह उजागर करने में सफल रहे कि ‘कान्स्टैन्टाइन के अनुदान’ नामक दस्तावेज असली नहीं था ।

प्रश्न 68.
मार्टिन लूथर कौन था ?
उत्तर:
मार्टिन लूथर जर्मनी का एक महान धर्म – सुधारक था । 1517 में उसने कैथोलिक चर्च के विरुद्ध प्रोटेस्टेन्ट सुधारवाद आन्दोलन शुरू किया।

प्रश्न 69.
एनाबेपटिस्ट सम्प्रदाय के धर्म-सुधारकों की क्या विचारधारा थी?
उत्तर:
एनाबेपटिस्ट सम्प्रदाय के धर्म-सुधारक अधिक उग्र सुधारक थे। उन्होंने हर तरह के सामाजिक उत्पीड़न का विरोध किया ।

प्रश्न 70.
न्यू टेस्टामेन्ट बाइबल के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
न्यू टेस्टामेन्ट बाइबल का वह खण्ड है जिसमें ईसा मसीह का जीवन चरित्र, धर्मोपदेश और प्रारम्भिक अनुयायियों का उल्लेख है ।

प्रश्न 71.
इग्नेशियस लायोला कौन था? उसने किस संस्था की स्थापना की ?
उत्तर:
स्पेन निवासी इग्नेशियस लायोला कैथोलिक चर्च का प्रबल समर्थक था । उसने 1540 में ‘सोसाइटी ऑफ जीसस’ की स्थापना की।

प्रश्न 72.
जेसुइट का क्या ध्येय था ?
उत्तर:
उनका ध्येय निर्धन लोगों की सेवा करना और अन्य संस्कृतियों के बारे में अपने ज्ञान को अधिक व्यापक बनाना था। है।

प्रश्न 73.
ईसाइयों की पृथ्वी के बारे में क्या धारणा थी ?
उत्तर:
ईसाइयों का यह विश्वास था कि पृथ्वी पापों से भरी हुई है और पापों की अधिकता के कारण वह अस्थिर

प्रश्न 74.
‘कोपरनिकसीय क्रान्ति’ से क्या अभिप्राय है?
अथवा
कोपरनिकस ने किस नए सिद्धान्त का प्रतिपादन किया?
उत्तर:
पोलैण्ड के वैज्ञानिक कोपरनिकस ने यह घोषणा की कि पृथ्वी समेत समस्त ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। इसे कोपरनिकसीय क्रान्ति कहते हैं ।

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प्रश्न 75.
कोपरनिकस के सिद्धान्त की पुष्टि करने वाले दो खगोलशास्त्रियों के नाम लिखें।
उत्तर:
दो खगोलशास्त्रियों जोहानेस कैप्लर तथा गैलिलियो गैलिली ने कोपरनिकस के सिद्धान्त की पुष्टि की।

प्रश्न 76.
कैप्लर ने किसके सिद्धान्त का समर्थन किया और किस प्रकार किया ?
उत्तर:
खगोलशास्त्री कैप्लर ने अपने ग्रन्थ ‘कास्मोग्राफिकल मिस्ट्री’ (खगोलीय रहस्य) में कोपरनिकस के सूर्य-केन्द्रित सौर – मण्डलीय सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाया ।

प्रश्न 77.
गैलिलियो कौन था? उसने किस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ?
उत्तर:
गैलिलियो इटली का प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और वैज्ञानिक था। उसने अपने ग्रन्थ ‘दि मोशन ‘(गति) में गतिशील विश्व के सिद्धान्तों की पुष्टि की।

प्रश्न 78.
वैज्ञानिक संस्कृति के प्रसार में योगदान देने वाली दो संस्थाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) 1670 में स्थापित ‘पेरिस अकादमी’ और
(2) 1662 में वास्तविक ज्ञान के प्रसार के लिए लन्दन में गठित ‘रॉयल सोसाइटी’।

प्रश्न 79.
मानववाद की कोईं चार विशेषताएँ बताइये
उत्तर:

  • मानव के विचारों, गुणों पर बल
  • वर्तमान सांसारिक जीवन को सुखी बनाना
  • धार्मिक रूढ़ियों का विरोध
  • स्वतन्त्र चिन्तन, तार्किक दृष्टिकोण।

प्रश्न 80.
पुनर्जागरण ने यूरोप में क्या बदलाव किये?
उत्तर:

  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास
  • मानव के महत्त्व में वृद्धि
  • भौतिक दृष्टिकोण का विकास
  • देशी भाषाओं का विकास।

प्रश्न 81.
प्रोटेस्टेन्ट आन्दोलन के प्रमुख चार उद्देश्य बताइये।
उत्तर:

  • पोप के जीवन में नैतिक सुधार करना
  • चर्च की बुराइयों को दूर करना
  • कैथोलिक धर्म में व्याप्त आडम्बरों को दूर करना
  • ईसाइयों के नैतिक जीवन में सुधार।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक यूरोपीय देशों में विकसित हो रही ‘नगरीय संस्कृति’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
नगरीय संस्कृति – चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक यूरोप के अनेक देशों में नगरों की संख्या बढ़ रही थी। नगरों में एक विशेष प्रकार की ‘नगरीय संस्कृति’ विकसित हो रही थी। नगर के लोगों की अब यह धारणा बनने लगी थी कि वे गाँव के लोगों से अधिक सभ्य हैं। नगर कला और ज्ञान के केन्द्र बन गए।

धनी और अभिजात वर्ग के लोगों ने कलाकारों और विद्वानों को आश्रय प्रदान किया। इसी समय छापेखाने के आविष्कार से लोगों को छपी हुई पुस्तकें प्राप्त होने लगीं। यूरोप में इतिहास की समझ विकसित होने लगी और लोग अपने ‘आधुनिक विश्व’ की तुलना यूनानी व रोमन ‘प्राचीन दुनिया’ से करने लगे। अब यह माना जाने लगा कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार अपना धर्म चुन सकता है।

प्रश्न 2.
चौदहवीं शताब्दी के यूरोपीय इतिहास की जानकारी के साधनों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी से यूरोपीय इतिहास की जानकारी के लिए प्रचुर सामग्री दस्तावेजों, मुद्रित पुस्तकों, चित्रों, मूर्तियों, भवनों तथा वस्त्रों से प्राप्त होती है जो यूरोप और अमेरिका के अभिलेखागारों, कला – चित्रशालाओं और संग्रहालयों में उपलब्ध है। स्विट्जरलैण्ड के ब्रेसले विश्वविद्यालय के इतिहासकार जैकब बर्कहार्ट ने उस काल में हुए सांस्कृतिक परिवर्तनों पर प्रकाश डाला है। रेनेसाँ इन सांस्कृतिक परिवर्तनों का सूचक है। 1860 में बर्कहार्ट ने अपनी पुस्तक ‘दि सिविलाइजेशन ऑफ दि रेनेसां इन इटली’ में साहित्य, वास्तुकला तथा चित्रकला पर प्रकाश डाला तथा इस काल में इटली में पनप रही मानवतावादी संस्कृति को इंगित किया है।

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प्रश्न 3.
पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात् किन परिवर्तनों ने इतालवी संस्कृति के पुनरुत्थान में सहयोग दिया?
उत्तर:
पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात् इटली के राजनीतिक और सांस्कृतिक केन्द्र नष्ट हो गए। इस समय कोई भी संगठित सरकार नहीं थी और रोम का पोप समस्त यूरोपीय राजनीति में अधिक शक्तिशाली नहीं था। वह अपने राज्य में निःसन्देह सार्वभौम था। लेकिन निम्नलिखित परिवर्तनों ने इतालवी संस्कृति के पुनरुत्थान में सहयोग दिया-

  • पश्चिमी यूरोप के देशों का सामन्ती संबंधों तथा लातीनी चर्च के नेतृत्व में एकीकरण होना।
  • पूर्वी यूरोप का बाइजेंटाइन साम्राज्य के शासन में बदलना।
  • धुर पश्चिम में इस्लाम द्वारा एक सांझी सभ्यता का निर्माण करना।

इन परिवर्तनों के कारण बाइजेंटाइन साम्राज्य और इस्लामी देशों के बीच व्यापार बढ़ने से इटली के तटवर्ती बंदरगाह पुनर्जीवित हो गए। मंगोल व चीन के रेशम मार्ग के व्यापार में भी इटली के नगरों की प्रमुख भूमिका रही और वे नगर एक स्वतंत्र भार राज्य के रूप में विकसित हुए।

प्रश्न 4.
कार्डिनल गेसपारो कोन्तारिनी ने अपने नगर – राज्य वेनिस की लोकतान्त्रिक सरकार के बारे में सरकार के बारे में क्या विवरण दिया है?
उत्तर:
कार्डिनल गेसपारो कोन्तारिनी (1483-1542) ने अपने ग्रन्थ ‘दि कॉमनवेल्थ एण्ड गवर्नमेन्ट ऑफ वेनिस’ में लिखा है –
“हमारे वेनिस के संयुक्त मण्डल की संस्था के बारे में जानने पर आपको ज्ञात होगा कि नगर का सम्पूर्ण प्राधिकार एक ऐसी परिषद् के हाथों में है जिसमें 25 वर्ष से अधिक आयु वाले (संभ्रान्त वर्ग के ) सभी पुरुषों को सदस्यता मिल जाती है।” उन्होंने लिखा है कि हमारे पूर्वजों ने सामान्य जनता को नागरिक वर्ग में, जिनके हाथ में संयुक्त मण्डल के शासन की बागडोर है, इसलिए शामिल नहीं किया क्योंकि उन नगरों में अनेक प्रकार की गड़बड़ियाँ और जन-उपद्रव होते रहते थे, जहाँ की सरकार पर जन-सामान्य का प्रभाव रहता था ।

कुछ लोगों का यह विचार था कि यदि संयुक्त मण्डल का शासन-संचालन अधिक कुशलता से करना है, तो योग्यता और सम्पन्नता को आधार बनाना चाहिए। दूसरी ओर सच्चरित्र नागरिक प्रायः निर्धन हो जाते हैं। इसलिए हमारे पूर्वजों ने यह विचार रखा कि धन-सम्पन्नता को आधार न बनाकर कुलीनवंशीय लोगों को प्राथमिकता दी जाए। गरीब लोगों को छोड़ कर सभी नागरिकों का प्रतिनिधित्व सत्ता में होना चाहिए।

प्रश्न 5.
विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में अरबों के योगादन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी में अनेक विद्वानों ने प्लेटो और अरस्तू के ग्रन्थों के अनुवादों का अध्ययन किया। इसके लिए वे अरब के अनुवादकों के ऋणी थे जिन्होंने अतीत की पाण्डुलिपियों का संरक्षण और अनुवाद सावधानीपूर्वक किया था। जिस समय यूरोप के विद्वान यूनानी ग्रन्थों के अरबी अनुवादों का अध्ययन कर रहे थे, उसी समय यूनानी विद्वान अरबी और फारसी विद्वानों की रचनाओं का अनुवाद कर रहे थे।

ये ग्रन्थ प्राकृतिक विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान, औषधि विज्ञान और रसायन विज्ञान से सम्बन्धित थे। मुसलमान लेखकों में अरबी के हकीम तथा मध्य एशिया के बुखारा के दार्शनिक ‘इब्न- सिना’ और आयुर्विज्ञान विश्वकोश के लेखक अल-राजी सम्मिलित थे । स्पेन के अरबी दार्शनिक इब्न रुश्द ने दार्शनिक ज्ञान और धार्मिक विश्वासों के बीच रहे तनावों को दूर करने का प्रयास किया। उनकी पद्धति को ईसाई चिन्तकों द्वारा अपनाया गया।

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प्रश्न 6.
मानवतावादियों ने किस काल को ‘मध्य युग’ और किस काल को ‘आधुनिक युग’ की संज्ञा दी ? उत्तर – मानवतावादियों की मान्यता थी कि वे अन्धकार की कई शताब्दियों के पश्चात् सभ्यता के सही रूप को पुनः स्थापित कर रहे हैं। इसके पीछे यह धारणा थी कि रोमन साम्राज्य के टूटने के पश्चात् ‘अन्धकार युग’ प्रारम्भ हुआ। मानवतावादियों की भाँति बाद के विद्वानों ने भी यह स्वीकार कर लिया कि यूरोप में चौदहवीं शताब्दी के बाद ‘नये युग’ का उदय हुआ।

‘मध्यकाल’ शब्द का प्रयोग रोम साम्राज्य के पतन के बाद एक हजार वर्ष की समयावधि के लिए किया गया। उन्होंने ये तर्क प्रस्तुत किये कि ‘मध्य युग’ में कैथोलिक चर्च ने लोगों की सोच को इस प्रकार जकड़ रखा था कि यूनान और रोमवासियों का समस्त ज्ञान उनके मस्तिष्क से निकल चुका था। मानवतावादियों ने ‘आधुनिक’ शब्द का प्रयोग पन्द्रहवीं शताब्दी से शुरू होने वाले काल के लिए किया।
मानवतावादियों और बाद के विद्वानों द्वारा प्रयुक्त कालक्रम निम्नानुसार था –
1. 5-14 शताब्दी – मध्य युग
2. 15वीं शताब्दी से – आधुनिक युग।

प्रश्न 7.
कला के बारे में चित्रकार अल्बर्ट ड्यूरर द्वारा व्यक्त किये गये विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कला के बारे में चित्रकार अल्बर्ट ड्यूरर द्वारा व्यक्त किये गये विचार – कला के बारे में चित्रकार अल्बर्ट ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि ” कला प्रकृति में रची-बसी होती हैं। जो इसके सार को पकड़ सकता है वही इसे प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त आप अपनी कला को गणित द्वारा दिखा सकते हैं। जीवन की अपनी आकृति से आपकी कृति जितनी जुड़ी होगी, उतना ही सुन्दर आपका चित्र होगा। कोई भी व्यक्ति केवल अपनी कल्पना मात्र से एक सुन्दर आकृति नहीं बना सकता, जब तक उसने अपने मन को जीवन की प्रतिछवि से न भर लिया हो। ”

प्रश्न 8.
चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक मूर्त्तिकला के क्षेत्र में हुए विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
इस युग में मूर्त्तिकला का पर्याप्त विकास हुआ। रोमन साम्राज्य के पतन के एक हजार वर्ष बाद भी प्राचीन रोम और उसके नगरों के खंडहरों में कलात्मक वस्तुएँ मिलीं। अनेक शताब्दियों पहले बनी आदमी और औरतों की ‘संतुलित मूर्तियों’ के प्रति आदर ने उस परम्परा को कायम रखने हेतु इतालवी वास्तुविदों को प्रोत्साहित किया। 1416 में दोनातेल्लो ने सजीव मूर्त्तियाँ बनाकर नयी परम्परा स्थापित की। गिबर्टी ने फ्लोरेन्स के गिरजाघर के सुन्दर द्वार बनाए।

माईकल एंजेलेस एक महान मूर्त्तिकार था। उसने ‘दि पाइटा’ नामक प्रसिद्ध मूर्ति का निर्माण किया। यह मूर्ति तत्कालीन मूर्त्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। कलाकार हूबहू मूल आकृति जैसी मूर्त्तियाँ बनाना चाहते थे। उनकी इस उत्कंठा को वैज्ञानिकों के कार्यों से सहायता मिली। नर कंकालों का अध्ययन करने के लिए कलाकार आयुर्विज्ञान कॉलेजों की प्रयोगशालाओं में गए। आन्ड्रीस वसेलियस पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सूक्ष्म परीक्षण के लिए मनुष्य के शरीर की चीरफाड़ की । इसी समय से आधुनिक शरीर – क्रिया विज्ञान का प्रारम्भ हुआ।

प्रश्न 9.
आधुनिक काल में चित्रकला के क्षेत्र में हुई उन्नति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
चित्रकारों के लिए नमूने के रूप में प्राचीन कृतियाँ नहीं थीं, परन्तु मूर्त्तिकारों की भाँति उन्होंने यथार्थ चित्र बनाने का प्रयास किया। उन्हें अब यह ज्ञात हो गया कि रेखागणित के ज्ञान से चित्रकार अपने परिदृश्य को भली-भाँति समझ सकता है तथा प्रकाश के बदलते गुणों का अध्ययन करने में उनके चित्रों में त्रि-आयामी रूप दिया जा सकता है। चित्रकारों ने लेपचित्र बनाए। लेपचित्र के लिए तेल के एक माध्यम के रूप में प्रयोग ने चित्रों को पूर्व की तुलना में अधिक रंगीन तथा चटख बना दिया।

उनके अनेक चित्रों में प्रदर्शित वस्त्रों के डिजाइन और रंग संयोजन में चीनी और फारसी चित्रकला का प्रभाव दिखाई देता है जो उन्हें मंगोलों से प्राप्त हुए थे। लियोनार्डो दा विन्ची इस युग के एक महान चित्रकार थे। उन्होंने ‘मोनालिसा’ तथा ‘द लास्ट सपर’ नामक चित्र बनाए। माईकल एंजेलो भी इस युग के एक महान चित्रकार थे।

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प्रश्न 10.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक इटली में वास्तुकला के क्षेत्र में हुए विकास की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पन्द्रहवीं शताब्दी में रोम नगर भव्य इमारतों से सुसज्जित हो उठा। पुरातत्वविदों द्वारा रोम के अवशेषों का उत्खनन किया गया। इसने वास्तुकला की एक ‘नई शैली’ को बढ़ावा दिया, जो वास्तव में रोम साम्राज्यकालीन शैली का पुनरुद्धार थी, जो अब ‘शास्त्रीय शैली’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। धनी व्यापारियों और अभिजात वर्ग के लोगों ने उन वास्तुविदों को अपने भवन बनवाने के लिए नियुक्त किया, जो शास्त्रीय वास्तुकला से परिचित थे।

चित्रकारों और शिल्पकारों ने भवनों को लेपचित्रों, मूर्त्तियों और उभरे चित्रों से भी सुसज्जित किया।
माइकल एंजेलो एक कुशल चित्रकार, मूर्त्तिकार और वास्तुकार थे। उन्होंने पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में लेपचित्र, ‘दि पाइटा’ नामक मूर्ति तथा सेंट पीटर गिरजाघर के गुम्बद का डिजाइन तैयार किया। इन कलाकृतियों के कारण माईकल एंजेलो अमर हो गए। ये समस्त कलाकृतियाँ रोम में ही हैं। फिलिप्पो ब्रुनेलेशी एक प्रसिद्ध वास्तुकार थे जिन्होंने फ्लोरेन्स के भव्य गुम्बद का परिरूप प्रस्तुत किया था।

प्रश्न 11.
मानवतावादी संस्कृति के प्रसार में मुद्रित पुस्तकों के योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यूरोप में सोलहवीं शताब्दी में क्रान्तिकारी मुद्रण प्रौद्योगिकी का विकास हुआ। सन् 1455 में जर्मन मूल के व्यक्ति जोहानेस गुटनबर्ग ( 1400-1458) ने पहले छापेखाने का निर्माण किया। उनकी कार्यशाला में बाइबल की 150 प्रतियाँ छपीं। पन्द्रहवीं शताब्दी तक अनेक क्लासिकी ग्रन्थों का मुद्रण इटली में हुआ था। इन ग्रन्थों में अधिकतर लातिनी ग्रन्थ थे। अब मुद्रित पुस्तकें लोगों को उपलब्ध होने लगीं तथा उनका क्रय-विक्रय होने लगा।

अब लोगों में नये विचारों, मतों आदि का तीव्र गति से प्रसार होने लगा। नये विचारों का प्रसार करने वाली एक मुद्रित पुस्तक सैकड़ों पाठकों तक शीघ्रतापूर्वक पहुँच सकती थी। अब प्रत्येक पाठक बाजार से पुस्तकें खरीदकर पढ़ सकता था। इसके परिणामस्वरूप लोगों को नई-नई जानकारियाँ मिलने लगीं। पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त से इटली की मानवतावादी संस्कृति का यूरोपीय देशों में तीव्र गति से प्रसार हुआ। इसका प्रमुख कारण वहाँ पर छपी हुई पुस्तकों का उपलब्ध होना था।

प्रश्न 12.
लिओन बतिस्ता अल्बर्टी कौन था? उसके कला सिद्धान्त और वास्तुकला सम्बन्धी विचारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लिओन बतिस्ता अल्बर्टी – लिओन बतिस्ता अल्बर्टी एक प्रसिद्ध वास्तुकार था। उसने कला सिद्धान्त तथा वास्तुकला के सम्बन्ध में लिखा है कि, “मैं उसे वास्तुविद मानता हूँ जो नए-नए तरीकों का आविष्कार कर इस तरह अपने निर्माण को पूरा करे कि उसमें भारी वजन को ठीक बैठाया गया हो और सम्पूर्ण कृति के संयोजन और द्रव्यमान में ऐसा सामंजस्य हो कि उसका सर्वाधिक सौन्दर्य उभरकर आए ताकि मानवमात्र के लिए इसका श्रेष्ठ उपयोग हो सके।”

प्रश्न 13.
‘“मानवतावादी संस्कृति के फलस्वरूप मनुष्य की एक नई संकल्पना का प्रसार हुआ। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मानवतावादी संस्कृति के परिणामस्वरूप मानव जीवन पर धर्म का नियन्त्रण कमजोर हुआ। इटली – निवासी अपने वर्तमान जीवन को सुखी और समृद्ध बनाना चाहते थे। वे भौतिक सम्पत्ति, शक्ति तथा गौरव की भावनाओं के प्रति आकृष्ट थे। परन्तु इसका यह मतलब नहीं था कि वे अधार्मिक थे। वेनिस के मानवतावादी लेखक फ्रेन्चेस्को बरबारो ने अपनी एक पुस्तिका में सम्पत्ति प्राप्त करने को एक विशेष गुण बताकर उसका समर्थन किया। लोरेन्जो वल्ला का विश्वास था कि इतिहास का अध्ययन मनुष्य को पूर्णतया जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करता है।

उन्होंने अपनी पुस्तक ‘आन प्लेजर’ में भोग-विलास पर लगाई गई ईसाई धर्म की निषेधाज्ञा की आलोचना की। इस समय लोग अच्छे व्यवहारों में रुचि ले रहे थे। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि व्यक्ति को विनम्रता से बोलना चाहिए, उचित ढंग से वस्त्र पहनने चाहिए तथा सभ्य व्यक्ति की भाँति आचरण करना चाहिए। मानवतावाद ने मानव जीवन को सुखी और सम्पन्न बनाने पर बल दिया। मानवतावाद का अभिप्राय यह भी था कि व्यक्ति विशेष सत्ता और सम्पत्ति की होड़ को छोड़कर अन्य कई माध्यमों से अपने जीवन को एक नये रूप दे सकता था। यह आदर्श इस विश्वास के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ था कि मनुष्य का स्वभाव बहुमुखी है।

प्रश्न 14.
“मध्यकाल की कुछ महिलाएँ बौद्धिक रूप से बहुत रचनात्मक थीं तथा मानवतावादी शिक्षा की भूमिका के बारे में संवेदनशील थीं। ” स्पष्ट कीजिए।
अथवा
मानवतावाद ने यूरोपीय महिलाओं को किस प्रकार प्रभावित किया?
उत्तर:
14वीं सदी से 17वीं सदी तक के काल की कुछ महिलाएँ बौद्धिक रूप से बहुत रचनात्मक थीं और मानवतावादी शिक्षा की भूमिका के बारे में संवेदनशील थीं । वेनिस निवासी कसान्द्रा फेदेले (1465-1558) एक सुशिक्षित एवं मानवतावादी महिला थी। उसने लिखा, ” यद्यपि महिलाओं को शिक्षा न तो पुरस्कार देती है और न किसी सम्मान का आश्वासन, तथापि प्रत्येक महिला को सभी प्रकार की शिक्षा को प्राप्त करने की इच्छा रखनी चाहिए और उसे ग्रहण करना चाहिए।”

फेदेले ने तत्कालीन इस विचारधारा को चुनौती दी कि एक मानवतावादी विद्वान के गुण एक महिला के पास नहीं हो सकते। फेदेले यूनानी और लातिनी भाषा के विद्वान के रूप में विख्यात थी। इस काल की एक अन्य प्रतिभाशाली महिला मार्चिसा ईसाबेला दि इस्ते ( 1474 – 1539) थी। वह मंटुआ निवासी थी। उसने अपने पति की अनुपस्थिति में अपने राज्य पर शासन किया। महिलाएँ पुरुष-प्रधान समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए अधिक आर्थिक स्वायत्तता, सम्पत्ति और शिक्षा प्राप्त करना चाहती थीं।

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प्रश्न 15.
ईसाई धर्म के अन्तर्गत वाद-विवाद का विवरण दीजिए।
अथवा
यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन के प्रारम्भ होने के कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर – ईसाई धर्म के अन्तर्गत वाद-विवाद ( यूरोप में धर्म सुधार आन्दोलन के प्रारम्भ होने के कारण ) –
(1) मानवतावादियों ने उत्तरी यूरोप में ईसाइयों को अपने पुराने धर्म-ग्रन्थों में बताए गए तरीकों से धर्म का पालन करने का आह्वान किया।
(2) उन्होंने कैथोलिक चर्च में व्याप्त कुरीतियों, अनावश्यक कर्मकाण्डों की आलोचना की।
(3) मानववादी मानते थे कि ईश्वर ने मनुष्य बनाया है तथा उसे अपना जीवन स्वतन्त्र रूप से व्यतीत करने की पूरी स्वतन्त्रता भी दी है।
(4) टामस मोर तथा हालैण्ड के इरेस्मस की यह मान्यता थी कि चर्च एक लालची तथा साधारण लोगों से लूट- खसोट करने वाली संस्था बन गई है।
(5) पादरी लोग ‘पाप-स्वीकारोक्ति’ नामक दस्तावेज के माध्यम से लोगों से धन ऐंठ रहे थे। मानवतावादियों ने इसका विरोध किया।
(6) कृषकों ने चर्च द्वारा लगाए गए करों का घोर विरोध किया।
(7) राजकाज में चर्च की हस्तक्षेप की नीति से यूरोप के शासक भी नाराज थे।
(8) 1517 में जर्मनी के युवा भिक्षु मार्टिन लूथर ने कैथोलिक चर्च के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया जो ‘प्रोटेस्टेन्ट सुधारवाद’ कहलाया।

प्रश्न 16.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
(1) ईसाइयों की यह धारणा थी कि पृथ्वी पापों से भरी हुई है और पापों की अधिकता के कारण वह स्थिर है। पृथ्वी ब्रह्माण्ड के बीच में स्थिर है जिसके चारों ओर खगोलीय ग्रह घूम रहे हैं।
(2) पोलैण्ड के वैज्ञानिक कोपरनिकस ने यह घोषणा की कि पृथ्वी समेत सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं।
(3) जर्मन वैज्ञानिक तथा खगोलशास्त्री जोहानेस कैपलर ने अपने ग्रन्थ ‘खगोलीय रहस्य’ में कोपरनिकस के सूर्य- केन्द्रित सौरमण्डलीय सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाया जिससे यह सिद्ध हुआ कि सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार रूप में नहीं, बल्कि दीर्घ वृत्ताकार मार्ग पर परिक्रमा करते हैं।
(4) इटली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक और खगोलशास्त्री गैलिलियो ने अपने ग्रन्थ ‘दि मोशन’ (गति) में गतिशील विश्व के सिद्धान्तों की पुष्टि की।
(5) इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक आइजक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
(6) वैज्ञानिकों ने बताया कि ज्ञान विश्वास से हटकर अवलोकन एवं प्रयोगों पर आधारित है। परिणामस्वरूप भौतिकी, रसायनशास्त्र, जीवविज्ञान आदि के क्षेत्र में अनेक प्रयोग और अन्वेषण कार्य हुए। इतिहासकारों ने मनुष्य और प्रकृति के ज्ञान के इस नए दृष्टिकोण को ‘वैज्ञानिक क्रान्ति’ की संज्ञा दी।

प्रश्न 17.
‘पुनर्जागरण’ का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोप में सांस्कृतिक क्षेत्र में जो आश्चर्यजनक प्रगति हुई उसे ‘पुनर्जागरण’ के नाम से पुकारा जाता है। ‘पुनर्जागरण’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘फिर से जागना’ परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इसे मानव समाज की बौद्धिक चेतना तथा तर्कशक्ति का पुनर्जन्म कहना अधिक उचित होगा। साधारणतया चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में अनेक सांस्कृतिक तथा बौद्धिक परिवर्तन हुए, जिन्हें ‘पुनर्जागरण’ के नाम से पुकारा जाता है। पुनर्जागरण के फलस्वरूप साहित्य, कला, विज्ञान आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उन्नति हुई। इसी को ‘बौद्धिक पुनरुत्थान’, ‘नवयुग’ आदि नामों से पुकारा जाता है।

प्रश्न. 18.
पुनर्जागरण की विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
(1) स्वतन्त्र चिन्तन को प्रोत्साहन – पुनर्जागरण ने स्वतन्त्र चिन्तन की विचारधारा को प्रोत्साहन दिया।
(2) मानवतावादी विचारधारा का विकास – ‘पुनर्जागरण’ के फलस्वरूप मानवतावादी विचारधारा का विकास हुआ। मानवतावादियों ने प्राचीन यूनानी और रोमन साहित्य के अध्ययन पर बल दिया।
(3) देशी भाषाओं का विकास – पुनर्जागरण के फलस्वरूप देशी भाषाओं का विकास हुआ।
(4) वैज्ञानिक विचारधारा का विकास – पुनर्जागरण के कारण वैज्ञानिक विचारधारा का विकास हुआ।
(5) प्राचीन रूढ़ियों तथा अन्धविश्वासों का विरोध – पुनर्जागरण ने प्राचीन रूढ़ियों, अन्धविश्वासों तथा धार्मिक आडम्बरों पर कुठाराघात किया।
(6) सहज सौन्दर्य की उपासना – अब साहित्य एवं कला में सौन्दर्य एवं प्रेम की भावनाओं को प्रमुख स्थान दिया जाने लगा।

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प्रश्न 19.
माईकल एंजेलो पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
माईकल एंजेलो ( 1475-1564 ) –
माईकल एंजेलो एक कुशल चित्रकार, मूर्त्तिकार तथा वास्तुकार था। उसने पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में 145 चित्रों का निर्माण किया। इन चित्रों में ‘द लास्ट जजमेंट’ (अन्तिम निर्णय ) नामक चित्र सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। उसने ‘दि पाइटा’ नामक मूर्त्ति बनाई, जो तत्कालीन मूर्त्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। इस चित्र में माईकल एंजेलो ने मेरी को ईसा के शरीर को धारण करते हुए दिखाया है। माइकेल एंजेलो ने ठोस संगमरमर को तराशकर डेविड और मूसा की विशाल मूर्त्तियों का भी निर्माण किया। उसने सेंट पीटर के गिरजाघर के गुम्बद का डिजाइन तैयार किया। यह पुनर्जागरणकालीन स्थापत्य कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना माना जाता है। इन कलाकृतियों के कारण माइकेल एंजेलो अमर हो गए।

प्रश्न 20.
लियोनार्डो दा विंची पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
लियोनार्डो दा विंची (1452-1519 ई.) –
लियोनार्डो दा विंची इटली का एक प्रसिद्ध चित्रकार था। वह एक कलाकार, वैज्ञानिक, आविष्कारक और शरीर रचना शास्त्र का अच्छा ज्ञाता था। उसकी आश्चर्यजनक अभिरुचि वनस्पति विज्ञान और शरीर रचना, विज्ञान से लेकर गणितशास्त्र तथा कला तक विस्तृत थी। उसने ‘मोनलिसा ‘ तथा ‘द लास्ट सपर’ नामक चित्र बनाए। इनमें ‘मोनालिसा’ विश्वविख्यात है। लियोनार्डो दा विंची की चित्रकला की प्रमुख विशेषताएँ हैं – प्रकाश और छाया, रंगों का चयन और शारीरिक अंगों का सफल प्रदर्शन। लियोनार्डो का यह स्वप्न था कि वह आकाश में उड़ सके। वह वर्षों तक आकाश में पक्षियों के उड़ने का परीक्षण करता रहा और उसने एक उड़न-मशीन का प्रतिरूप बनाया। उसने अपना नाम ‘लियोनार्डो दा विंची, परीक्षण का अनुयायी’ रखा।

प्रश्न 21.
मार्टिन लूथर कौन था? धर्म सुधार आन्दोलन में उसके योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मार्टिन लूथर – मार्टिन लूथर का जन्म 10 नवम्बर, 1483 को जर्मनी के अजलेवन नामक गाँव में हुआ था। 1517 में मार्टिन लूथर ने ‘पाप – स्वीकारोक्ति’ नामक दस्तावेज की कटु आलोचना की और कैथोलिक चर्च के विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर दिया। उसने घोषित किया कि मनुष्य को ईश्वर से सम्पर्क साधने के लिए पादरी की आवश्यकता नहीं है। उसने अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि वे ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखें।

1520 में पोप ने मार्टिन लूथर को ईसाई धर्म से बहिष्कृत कर दिया। परन्तु लूथर ने कैथोलिक चर्च के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा। इस आन्दोलन को प्रोटैस्टेन्ट सुधारवाद की संज्ञा दी गई । जर्मनी तथा स्विट्जरलैण्ड के चर्च ने पोप तथा कैथोलिक चर्च से अपने सम्बन्ध विच्छेद कर लिए। अन्ततः यूरोप के अनेक देशों की भाँति जर्मनी में भी कैथोलिक चर्च ने प्रोटेस्टेन्ट लोगों को अपनी इच्छानुसार पूजा करने की स्वतन्त्रता प्रदान की। 1546 में मार्टिन लूथर की मृत्यु हो गई।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘मानवतावाद’ के विकास में इटली के विश्वविद्यालयों के योगदान की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
मानवतावाद के विकास में इटली के विश्वविद्यालयों का योगदान
मानवतावाद के विकास में इटली के विश्वविद्यालयों के योगदान की विवेचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत की गई है-
(1) इटली के शहरों में विश्वविद्यालयों की स्थापना – यूरोप में सबसे पहले विश्वविद्यालय इटली के शहरों में स्थापित हुए। ग्यारहवीं शताब्दी में पादुआ और बोलेनिया विश्वविद्यालय विधिशास्त्र के अध्ययन केन्द्र रहे। इसका कारण यह था कि नगरों के प्रमुख क्रियाकलाप व्यापार और वाणिज्य सम्बन्धी थे। इसलिए वकीलों और नोटरी की बहुत आवश्यकता होती थी। इनके बिना बड़े पैमाने पर व्यापार करना सम्भव नहीं था। इसलिए विश्वविद्यालयों में कानून का अध्ययन एक उपयोगी एवं लोकप्रिय विषय बन गया था।

(2) कानून के अध्ययन में बदलाव – अब कानून का रोमन संस्कृति के संदर्भ में अध्ययन किया जाने लगा। फ्रांचेस्को पेट्रार्क (1304-1378 ई.) इस परिवर्तन के प्रतिनिधि थे। पेट्राक ने प्राचीन यूनानी तथा रोमन साहित्यकारों की रचनाओं के अध्ययन करने पर बल दिया।

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(3) मानवतावाद – विश्वविद्यालयों के नवीन शिक्षा कार्यक्रम में यह बात शामिल थी कि ज्ञान बहुत विस्तृत है और बहुत कुछ जानना बाकी है। यह सब हम केवल धार्मिक शिक्षण से नहीं सीख सकते। इसी नई संस्कृति को उन्नीसवीं शताब्दी के इतिहासकारों ने ‘मानवतावाद’ की संज्ञा दी। पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में ‘मानवतावादी’ शब्द उन अध्यापकों के लिए प्रयुक्त होता था जो व्याकरण, अलंकार शास्त्र, कविता, इतिहास और नीति दर्शन विषय पढ़ाते थे।

(4) फ्लोरेन्स विश्वविद्यालय – इन क्रान्तिकारी विचारों से इटली के अनेक विश्वविद्यालय प्रभावित हुए। इनमें एक नव – स्थापित विश्वविद्यालय फ्लोरेन्स भी था, जो प्रसिद्ध साहित्यकार पेट्रार्क का स्थायी नगर – निवास था। पन्द्रहवीं शताब्दी में फ्लोरेन्स नगर ने व्यापार, साहित्य, कला आदि अनेक क्षेत्रों में बहुत उन्नति की।

फ्लोरेन्स की प्रसिद्धि में दान्ते अलिगहियरी तथा जोटो नामक दो व्यक्तियों का प्रमुख हाथ था । दाँते इटली का एक प्रसिद्ध साहित्यकार था। उसने धार्मिक विषयों पर एक पुस्तक लिखी । जोटो इटली का एक प्रसिद्ध कलाकार था। उसने जीते-जागते रूपचित्र (पोर्टरेट) बनाए । उसके द्वारा बनाए गए रूपचित्र पहले के कलाकारों की भांति निर्जीव नहीं थे। इसके पश्चात् धीरे-धीरे फ्लोरेन्स इटली के सबसे जीवन्त बौद्धिक नगर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वह शीघ्र ही कलात्मक कलाकृतियों की रचना का केन्द्र बन गया।

प्रश्न 2.
चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक मूर्तिकला के क्षेत्र में हुए विकास की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक मूर्ति कला के क्षेत्र में विकास –
(1) प्राचीन रोम की कलात्मक मूर्त्तियाँ – चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोप में मूर्तिकला का पर्याप्त विकास हुआ। रोमन साम्राज्य के पतन के एक हजार वर्ष बाद भी प्राचीन रोम और उसके नगरों के खण्डहरों में कलात्मक वस्तुएँ प्राप्त हुईं। अनेक शताब्दियों पूर्व बनी पुरुषों और स्त्रियों की सन्तुलित मूर्तियों के प्रति आदर की भावना ने उस परम्परा को बनाए रखने के लिए इतालवी मूर्तिकारों को प्रोत्साहन दिया। मूर्तिकला में भी नवीन शैली अपनाई गई। मूर्तिकला में यथार्थवादी अंकन की शुरुआत इटली की मूर्तिकला में देखी जा सकती है।

(2) दोनातेल्लो और मूर्तिकला – 1416 में फ्लोरेन्स निवासी दोनातेल्लो (1386-1466) ने सजीव मूर्त्तियाँ बना कर नयी परम्परा स्थापित की। उसने प्राचीन यूनानी तथा रोमन मूर्त्तियों का गहन अध्ययन किया था। उसके द्वारा बनाई गई मूर्तियों का विषय मानव-जीवन था। दोनातेल्लो द्वारा निर्मित सन्त मार्क की आदमकद मूर्ति पुनर्जागरण काल की श्रेष्ठ मूर्ति मानी जाती है।

(3) गिबर्टी और मूर्त्तिकला – गिबर्टी भी इस युग का एक महान मूर्त्तिकार था। उसके द्वारा बनाए गए फ्लोरेन्स के गिरजाघर के द्वार अत्यन्त सुन्दर थे। ये दरवाजे काँसे के थे तथा दस लम्बे फलकों पर नक्काशी की गई थी। इन दरवाजों को देखकर प्रसिद्ध मूर्त्तिकार माइकल एंजेलो ने कहा था कि “ये द्वार तो स्वर्ग के द्वार पर रखे जाने योग्य हैं।”

(4) माईकल ऐंजेलो और मूर्त्तिकला – माईकल ऐंजेलो भी इटली का एक महान मूर्त्तिकार था। उसने ‘दि पाइटा’ नामक प्रसिद्ध मूर्ति का निर्माण किया। यह मूर्त्ति तत्कालीन मूर्तिकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। इसमें माईकल ऐंजेलो ने मेरी को ईसा के शरीर को धारण करते हुए दिखाया है। माईकल ऐंजेलो ने ठोस संगमरमर को तराश कर डेविड और मूसा की विशाल मूर्त्तियाँ बनाई थीं।

(5) कलाकारों को वैज्ञानिकों के कार्यों से सहायता मिलना- कलाकार हूबहू मूल आकृति जैसी मूर्त्तियाँ बनाना चाहते थे। उनकी इस उत्कंठा को वैज्ञानिकों के कार्यों से सहायता मिली। नर कंकालों का अध्ययन करने के लिए कलाकार आयुर्विज्ञान कॉलेजों की प्रयोगशालाओं में गए। आन्ड्रीयस वसेलियस पादुआ विश्वविद्यालय में आयुर्विज्ञान के प्राध्यापक थे । वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सूक्ष्म परीक्षण के लिए मनुष्य के शरीर की चीर-फाड़ की। इसी समय से आधुनिक शरीर क्रिया- विज्ञान का प्रारम्भ हुआ।

(6) अन्य यूरोपीय देशों में मूर्त्तिकला का विकास – इंग्लैण्ड के शासक हेनरी सप्तम तथा फ्रांस के शासक फ्रांसिस प्रथम ने अपने-अपने देश में इटली के मूर्तिकारों को आमन्त्रित किया। परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड और फ्रांस में भी नवीन शैली में अनेक सुन्दर मूर्त्तियों का निर्माण किया गया।

प्रश्न 3.
पुनर्जागरण काल में यूरोप में हुए चित्रकला के विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुनर्जागरण काल में यूरोप में चित्रकला का विकास –
(1) यथार्थ चित्रों का निर्माण- पुनर्जागरण काल में चित्रकला का भी पर्याप्त विकास हुआ। चित्रकारों के लिए नमूने के रूप में प्राचीन कलाकृतियाँ नहीं थीं, परन्तु मूर्तिकारों की भांति उन्होंने यथार्थ चित्र बनाने का प्रयास किया। उन्हें अब यह ज्ञात हो गया कि रेखा – गणित के ज्ञान से चित्रकार अपने परिदृश्य को भलीभाँति समझ सकता है तथा प्रकाश के बदलते गुणों का अध्ययन करने से उनके चित्रों में त्रि-आयामी रूप दिया जा सकता है।

चित्रकारों ने लेपचित्र बनाए। लेपचित्र के लिए तेल के एक माध्यम के रूप में प्रयोग ने चित्रों को पूर्व की तुलना में अधिक रंगीन तथा चटख बनाया। उनके अनेक चित्रों में दिखाए गए वस्त्रों के डिजाइन और रंग संयोजन में चीनी और फारसी चित्रकला का प्रभाव दिखाई देता है जो उन्हें मंगोलों से प्राप्त हुई थी।

(2) यथार्थवाद – इस प्रकार शरीर विज्ञान, रेखागणित, भौतिकी और सौन्दर्य की उत्कृष्ट भावना ने इतालवी कला को नवीन रूप प्रदान किया, जिसे बाद में ‘यथार्थवाद’ की संज्ञा दी गई। यथार्थवाद की यह परम्परा उन्नीसवीं शताब्दी तक चलती रही।

(3) लियोनार्डो दा विंची और चित्रकला – लियोनार्डो दा विंची इटली का एक महान चित्रकार था। उसकी अभिरुचि वनस्पति विज्ञान और शरीर रचना विज्ञान से लेकर गणितशास्त्र तथा कला तक विस्तृत थी। उसने ‘मोनालिसा’. तथा ‘द लास्ट सपर’ नामक चित्र बनाए। इनमें ‘मोनालिसा’ विश्वविख्यात है। लियोनार्डो की चित्रकला की प्रमुख विशेषताएँ थीं – प्रकाश और छाया, रंगों का चयन और शारीरिक अंगों का सफल प्रदर्शन।

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(4) माईकल ऐंजेलो और चित्रकला – माईकल ऐंजेलो भी इटली का एक प्रसिद्ध चित्रकार था। उसने पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में 145 चित्रों का निर्माण किया। इन चित्रों में ‘द लास्ट जजमेंट’ ( अन्तिम निर्णय) नामक चित्र सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

(5) राफेल और चित्रकला – राफेल भी पुनर्जागरण काल का एक प्रसिद्ध चित्रकार था। उसके चित्र अपनी सुन्दरता तथा सजीवता के कारण प्रसिद्ध हैं। उसका सबसे प्रसिद्ध चित्र ‘सिस्टाइन मेडोना ‘ है, जिसकी गिनती विश्व के सर्वश्रेष्ठ चित्रों में की जाती है।

( 6 ) टीशियन और चित्रकला – टीशियन भी एक प्रसिद्ध चित्रकार था। उसने पोपों, पादरियों, सामन्तों आदि के अनेक सुन्दर पोर्टरेट (रूपचित्र) बनाए।

(7) जोटो और चित्रकला – जोटो भी एक कुशल चित्रकार था। उसने जीते-जागते रूपचित्र (पोर्टरेट) बनाए। उसके बनाए रूपचित्र पहले के कलाकारों की भांति निर्जीव नहीं थे।

प्रश्न 4.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में वास्तुकला के विकास का विवेचन कीजिए।
अथवा
यूरोप में हुए पुनर्जागरण के बारे में विस्तृत जानकारी दीजिये।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में वास्तुकला का विकास चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में वास्तुकला का पर्याप्त विकास हुआ। इस युग में वास्तुकला के क्षेत्र में हुए विकास का वर्णन निम्नानुसार है –
(1) इटली में वास्तुकला का विकास – पन्द्रहवीं शताब्दी में रोम नगर भव्य इमारतों से सुसज्जित हो उठा। पुरातत्वविदों द्वारा रोम के अवशेषों का उत्खनन किया गया।

इसने वास्तुकला की एक नई शैली को बढ़ावा दिया। यह अब ‘शास्त्रीय शैली’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह शैली वास्तव में रोमन साम्राज्य के समय की शैली का पुनरुद्धार थी। धनी व्यापारियों तथा अभिजात वर्ग के लोगों ने उन वास्तुविदों को अपने भवन बनवाने के लिए नियुक्त किया, जो ‘शास्त्रीय वास्तुकला’ से परिचित थे। चित्रकारों और शिल्पकारों ने भवनों को लेपचित्रों, मूर्त्तियों तथा उभरे चित्रों से भी सुसज्जित किया।

(2) नई शैली – पुनर्जागरण काल में स्थापत्य कला में एक नई शैली का जन्म हुआ जिसमें यूनानी, रोमन तथा अरबी शैलियों का समन्वय था। इस शैली की विशेषताएँ थीं – शृंगार, सजावट तथा डिजाइन। इस शैली में मेहराबों, गुम्बदों तथा स्तम्भों की प्रधानता थी। अब नुकीले मेहराबों के स्थान पर गोल गुम्बदों का निर्माण किया जाने लगा।

(3) फिलिप्पो ब्रूनेलेशी और वास्तुकला – फिलिप्पो ब्रूनेलेशी एक प्रसिद्ध वास्तुकार था। उसने फ्लोरेन्स के भव्य गुम्बद का परिरूप प्रस्तुत किया था। प्रारम्भ में उसने अपना पेशा एक मूर्तिकार के रूप में शुरू किया था।

(4) माईकल ऐंजेलो और वास्तुकला – इस काल में कुछ ऐसे व्यक्ति भी हुए जो कुशल चित्रकार, मूर्तिकार और वास्तुकार, सभी कुछ थे। माईकल ऐंजेलो ऐसे ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे जो एक कुशल चित्रकार, मूर्तिकार और वास्तुकार थे। उन्होंने सेन्ट पीटर के गिरजाघर के गुम्बद का डिजाइन बनाया जो तत्कालीन वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। उन्होंने ‘दि पाइटा’ नामक मूर्ति बनाई तथा पोप के सिस्टीन चैपल की भीतरी छत में अनेक लेपचित्र बनाए। इन कलाकृतियों के कारण माईकल ऐंजेलो अमर हो गए।

(5) अन्य देशों में वास्तुकला का विकास – इटली के पुनर्जागरणकालीन वास्तुकला की नवीन शैली का विकास यूरोप के अनेक देशों में हुआ। पेरिस में ‘लूबरे का प्रासाद’ इसी नवीन शैली में बनाया गया जो तत्कालीन स्थापत्य कला का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। जर्मनी में ‘हैडलबर्ग का दुर्ग’ इस नवीन स्थापत्य शैली की रचना है। लन्दन में निर्मित सन्त पाल का गिरजाघर भी इसी नवीन शैली का एक उत्कृष्ट नमूना है।

प्रश्न 5.
पुनर्जागरण काल में यूरोप में महिलाओं की स्थिति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
पुनर्जागरण काल में यूरोप में महिलाओं की स्थिति पुनर्जागरण काल में यूरोप में महिलाओं की स्थिति की विवेचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत की जा सकती –
(1) महिलाओं की शोचनीय स्थिति – प्रारम्भिक वर्षों में यूरोप में महिलाओं की स्थिति सन्तोषजनक नहीं थी। उन्हें वैयक्तिकता तथा नागरिकता के नवीन विचारों से दूर रखा गया। सार्वजनिक जीवन में अभिजात तथा सम्पन्न परिवार के पुरुषों का बोलबाला था। घर-परिवार के मामलों में भी वे ही निर्णय लेते थे। पुरुष विवाह में मिलने वाले महिलाओं के दहेज को अपने पारिवारिक कारोबारों में लगा देते थे, फिर भी महिलाओं को यह अधिकार नहीं था कि वे अपने पति को कारोबार के संचालन के सम्बन्ध में कोई राय या सलाह दें।

प्रायः कारोबारी मैत्री को सुदृढ़ करने के लिए दो परिवारों में परस्पर विवाह – सम्बन्ध होते थे। यदि वधू पक्ष की ओर से पर्याप्त दहेज की व्यवस्था नहीं हो पाती थी, तो विवाहित स्त्रियों को ईसाई मठों में भिक्षुणी का जीवन व्यतीत करने के लिए भेज दिया जाता था। सामान्यतया सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी अत्यन्त सीमित थी और उन्हें घर-परिवार का संचालन करने वाले के रूप में देखा जाता था।

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(2) व्यापारी परिवारों की महिलाओं की अच्छी स्थिति – व्यापारी परिवारों की महिलाओं की स्थिति काफी अच्छी थी। दुकनदारों की स्त्रियाँ दुकानों को चलाने में प्रायः अपने पति की सहायता करती थीं। व्यापारी और साहूकार परिवारों की पत्नियाँ, परिवार के कारोबार को उस समय सम्भालती थीं, जब उनके पति लम्बे समय के लिए व्यापार के लिए दूरस्थ प्रदेशों में चले जाते थे अभिजात एवं सम्पन्न परिवारों के विपरीत, व्यापारी परिवारों में यदि किसी व्यापारी की कम आयु में मृत्यु हो जाती थी, तो उसकी पत्नी सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी।

(3) बौद्धिक रूप से रचनात्मक महिलाओं की भूमिका – पुनर्जागरण काल में कुछ महिलाएँ बौद्धिक रूप से बहुत रचनात्मक थीं तथा मानवतावादी शिक्षा की भूमिका के बारे में संवेदनशील थीं। वेनिस निवासी सान्द्रा फेदेले (1465-1558 ई.) एक सुशिक्षित एवं मानवतावादी महिला थी। उसने महिलाओं की शिक्षा पर बल दिया। फेदेले ने तत्कालीन इस विचारधारा को चुनौती दी कि एक मानवतावादी विद्वान के गुण एक महिला के पास नहीं हो सकते। फेदेले यूनानी और लातिनी भाषा की विदुषी के रूप में विख्यात थी। उसे पादुआ विश्वविद्यालय में भाषण देने के लिए आमन्त्रित किया गया था।

उस समय पादुआ विश्वविद्यालय मानवतावादी शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र था। इस काल की एक अन्य प्रतिभाशाली महिला, मार्चिसा ईसाबेला दि इस्ते (1474 – 1539 ई.) थी। वह मंटुआ निवासी थी। उसने अपने पति की अनुपस्थिति में अपने राज्य पर शासन किया। उसका राज दरबार अपनी बौद्धिक प्रतिभा के लिए प्रसिद्ध था। इस काल की महिलाओं की रचनाओं से उनके इस दृढ़ विश्वास का पता चलता है कि उन्हें पुरुष-प्रधान समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए अधिक आर्थिक स्वायत्तता, सम्पत्ति और शिक्षा मिलनी चाहिए।

प्रश्न 6.
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में हुई विज्ञान की प्रगति का वर्णन कीजिए।
अथवा
पुनर्जागरण युग में विज्ञान का जो विकास हुआ, उसका विस्तार से वर्णन कीजिये।
अथवा
पुनर्जागरण काल में विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में विज्ञान की प्रगति
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में हुई विज्ञान की प्रगति का वर्णन निम्नानुसार है –
(1) ज्योतिष एवं खगोल – ईसाइयों की यह धारणा थी कि पृथ्वी पापों से भरी हुई है और पापों की अधिकता के कारण वह स्थिर है। पृथ्वी ब्रह्माण्ड के बीच में स्थिर है, जिसके चारों ओर खगोलीय ग्रह घूम रहे हैं पोलैण्ड के वैज्ञानिक कोपरनिकस ने ईसाइयों की इस धारणा का खण्डन करते हुए यह घोषणा की कि पृथ्वी समेत सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। यह ‘कोपरनिकसीय क्रान्ति’ थी। इटली के वैज्ञानिक ब्रुनो ने कोपरनिकस के सिद्धान्त की पुष्टि की।

इसके बाद जर्मन वैज्ञानिक तथा खगोलशास्त्री जोहानेस कैप्लर ने अपने ग्रन्थ ‘खगोलीय रहस्य’ में कोपरनिकस के सूर्य-केन्द्रित सौर मण्डलीय सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाया जिससे यह सिद्ध हुआ कि सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर वृत्ताकार रूप में नहीं, बल्कि दीर्घ वृत्ताकार मार्ग पर परिक्रमा करते हैं। इटली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं खगोलशास्त्री गैलिलियो ने अपने ग्रन्थ ‘द मोशन’ (गति) में गतिशील विश्व के सिद्धान्तों की पुष्टि की। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइजक न्यूटन (1642-1727 ई.) ने ‘गुरुत्वाकर्षण की शक्ति’ का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। उसने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। इसलिए हर वस्तु ऊपर से नीच की ओर आती है। पृथ्वी अन्य सभी ग्रहों को भी अपनी ओर खींचती रहती है।

(2) वैज्ञानिक क्रान्ति – वैज्ञानिकों ने बताया कि ज्ञान विश्वास से हटकर अवलोकन एवं प्रयोगों पर आधारित है। परिणामस्वरूप भौतिकी, रसायनशास्त्र, जीव विज्ञान आदि के क्षेत्र में अनेक प्रयोग एवं अन्वेषण कार्य हुए। इतिहासकारों ने मनुष्य और प्रकृति के ज्ञान के इस नवीन दृष्टिकोण को ‘वैज्ञानिक क्रान्ति’ की संज्ञा दी । परिणामस्वरूप सन्देहवादियों और नास्तिकों के मन में समस्त सृष्टि की रचना के स्रोत के रूप में प्रकृति ईश्वर का स्थान लेने लगी। इससे सार्वजनिक क्षेत्र में एक नई वैज्ञानिक संस्कृति की स्थापना हुई।

(3) भौतिक शास्त्र – 1593 में गैलिलियो ने पेण्डुलम का आविष्कार किया जिसके आधार पर आधुनिक घड़ियों का निर्माण हो सका। उसने दूरबीन का आविष्कार किया।

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(4) चिकित्साशास्त्र – नीदरलैण्ड निवासी वेसेलियस (1514-1564) ने 1543 ई. में ‘मानव शरीर की बनावट’ नामक पुस्तक लिखी। उसने इस पुस्तक में शरीर के विभिन्न अंगों की जानकारी दी। वह पहला व्यक्ति था जिसने सूक्ष्म परीक्षण के लिए मनुष्य के शरीर की चीर-फाड़ की। इसी समय से आधुनिक शरीर – क्रिया विज्ञान का प्रारम्भ हुआ । सर विलियम हार्वे ने रक्त प्रवाह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उसने बताया कि हृदय से रक्त का प्रवाह शुरू होता है और तब शरीर के अन्य अंगों में पहुँचता है।

प्रश्न 7.
इटली में सर्वप्रथम पुनर्जागरण आरम्भ होने के क्या कारण थे?
उत्तर:
इटली में सर्वप्रथम पुनर्जागरण के आरम्भ होने के कारण इटली में सर्वप्रथम पुनर्जागरण आरम्भ होने के निम्नलिखित कारण थे-
1. उन्नत व्यापार-भूमध्य सागर के मध्य में स्थित होने के कारण इटली में वाणिज्य – व्यापार की खूब उन्नति हुई और वहाँ बड़े-बड़े नगरों का उदय हुआ। वेनिस, फ्लोरेन्स, मिलान आदि इटली के प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र थे। इन नगरों के धनी लोग विद्वानों, साहित्यकारों, कलाकारों आदि को उदारतापूर्वक संरक्षण देते थे।

2. इटली की भौगोलिक स्थिति – भौगोलिक निकटता की सुविधा के कारण इटली पूर्वी एवं पश्चिमी देशों के बीच व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया था। इसके अतिरिक्त पूर्वी देशों से आने वाले नवीन विचारों को भी सर्वप्रथम इटली ने ग्रहण किया।

3. सांस्कृतिक विशिष्टता – इटली प्राचीन रोमन संस्कृति की जन्मभूमि एवं केन्द्र – बिन्दु था। इटली के नगरों में प्राचीन रोमन सभ्यता तथा संस्कृति के बहुत से स्मारक अब भी लोगों को उसकी याद का आभास कराते थे।

4. रोम ईसाई संस्कृति का प्रमुख केन्द्र- रोम ईसाई संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था। ईसाई धर्म का सर्वोच्च धर्मगुरु पोप रोम में निवास करता था। कुछ पोप विद्या – प्रेमी थे और सांस्कृतिक विकास में रुचि लेते थे।

5. धर्म – युद्ध – धर्म – युद्धों से लौटने वाले सैनिक, व्यापारी आदि लोग सर्वप्रथम इटली के नगरों में रुकते थे। ये लोग पूर्वी देशों की उन्नत सभ्यता तथा संस्कृति से बड़े प्रभावित थे। वे एक नवीन दृष्टिकोण लेकर इटली लौटे थे।

6. नगरों का विकास – इटली में ही नगरों का अधिक विकास हुआ था। इटली के अनेक नगर जैसे फ्लोरेन्स, वेनिस, मिलान आदि काफी समृद्ध एवं उन्नत थे। ये नगर ज्ञान-विज्ञान के भी केन्द्र थे। इन स्वतन्त्र नगरों के सम्पन्न लोगों ने साहित्यकारों तथा कलाकारों को आश्रय प्रदान किया।

7. इटली के विश्वविद्यालय – इटली के प्रमुख नगरों में अनेक विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई जिससे लोगों में – विज्ञान के प्रति रुचि बढ़ी। इन विश्वविद्यालयों में रोमन कानून, चिकित्साशास्त्र आदि विषयों की पढ़ाई भी होती ज्ञान-1 थी।

8. कुस्तुन्तुनिया पर तुर्कों का अधिकार – 1453 में जब तुर्कों ने कुस्तुन्तुनिया नगर पर अधिकार कर लिया, तो वहाँ के यूनानी विद्वान एवं कलाकार अपने ग्रन्थों तथा कलाकृतियों को लेकर सर्वप्रथम इटली पहुँचे और वहीं बस गए। इन यूनानी विद्वानों एवं कलाकारों ने इटलीवासियों को अत्यधिक प्रभावित किया। अतः यूनानी साहित्य, ज्ञान-विज्ञान आदि का अध्ययन सर्वप्रथम इटली के नगरों में ही शुरू हुआ।

9. राजनीतिक स्थिति की अनुकूलता – इटली के कुछ नगर जैसे वेनिस, फ्लोरेन्स आदि स्वतन्त्र नगर – राज्यों के रूप में विकसित हो गए और उनमें जनतन्त्रवादी प्रवृत्तियों का भी विकास होने लगा। ये नगर राज्य पवित्र रोमन सम्राट तथा पोप के नियन्त्रण से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से अपना विकास कर रहे थे। इसलिए इन नगर- राज्यों में साहित्य, कला एवं विज्ञान की पर्याप्त उन्नति हुई।

प्रश्न 8.
यूरोप में हुए पुनर्जागरण के प्रारम्भ होने के कारणों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
यूरोप में पुनर्जागरण के प्रारम्भ होने के कारण यूरोप में हुए पुनर्जागरण के कारण निम्नलिखित थे –
1. धर्म- – युद्ध-धर्म-युद्धों के कारण यूरोपवासी पूर्वी देशों के लोगों के साथ सम्पर्क में आए। इस सम्पर्क के फलस्वरूप यूरोपवासियों को पूर्वी देशों की तर्क शक्ति, प्रयोग-पद्धति तथा वैज्ञानिक खोजों की जानकारी प्राप्त हुई। धर्म- -युद्ध ने यात्राओं तथा भौगोलिक खोजों को बढ़ावा दिया।

2. व्यापार का विकास – व्यापार के विकास के कारण अनेक नगरों का विकास हुआ। इन नये नगरों ने नवीन विचारों के प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। नये नगरों ने स्वतन्त्र चिन्तन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया। धन-सम्पन्न व्यापारियों ने शिक्षा, साहित्य, कला को प्रोत्साहित किया।

3. अरबों का योगदान – व्यापार के सम्बन्ध में यूरोपवासियों का अरबों से सम्पर्क हुआ। अरब लोगों ने अरस्तू, प्लेटो आदि की पुस्तकों का अध्ययन किया था। अतः अरबों के सम्पर्क में आने से यूरोपवासी बड़े लाभान्वित हुए। इन्हीं अरबों के द्वारा उन्हें अपने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान, साहित्य और कला की फिर से जानकारी हुई।

4. मंगोलों का योगदान – मंगोल – सम्राट कुबलई खाँ ने अपने दरबार में अनेक देशों के विद्वानों एवं साहित्यकारों को संरक्षण दे रखा था। यूरोपवासियों ने अरबों तथा मंगोलों से छापाखाना, कागज, बारूद तथा कुतुबनुमा की जानकारी प्राप्त की थी।

5. कागज और छापाखाना – कागज तथा छापेखाने का आविष्कार सर्वप्रथम चीन ने किया। छापेखाने के आविष्कार से पुस्तकें सस्ती कीमत पर बड़ी संख्या में मिलने लगीं। पुस्तकों तथा समाचार-पत्रों के अध्ययन से यूरोपवासी बड़े लाभान्वित हुए। उनके अन्धविश्वास धीरे-धीरे समाप्त होने लगे तथा उनमें तर्क, स्वतन्त्र चिन्तन की भावनाएँ उत्पन्न हुईं।

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6. स्कालिस्टिक विचारधारा – मध्ययुग में यूरोप में स्कालिस्टिक विचारधारा का उदय हुआ था। इस विचारधारा का आधार अरस्तू का तर्कशास्त्र तथा सन्त आगस्टाइन का तत्त्व – ज्ञान था। अरबी ज्ञान से प्रोत्साहित होकर पेरिस, ऑक्सफोर्ड तथा बर्लिन के विश्वविद्यालयों ने इस आन्दोलन को चलाया था। इससे शिक्षा तथा वाद-विवाद को प्रोत्साहन मिला।

7. कुस्तुन्तुनिया पर तुर्कों का अधिकार – 1453 में तुर्कों ने कुस्तुन्तुनिया पर अधिकार कर लिया। अतः वहां के यूनानी विद्वान अनेक ग्रन्थों, कलाकृतियों आदि के साथ इटली, फ्रांस आदि देशों में शरण लेने के लिए पहुँचे। यूरोपवासी यूनान एवं रोम के साहित्य, कला, ज्ञान-विज्ञान आदि से बड़े प्रभावित हुए।

8. भौगोलिक खोजें – भौगोलिक खोजों के कारण यूरोपीय व्यापार की उन्नति हुई। नवीन देशों की खोज से यूरोपवासी विश्व की अन्य सभ्यताओं के सम्पर्क में आए, जिससे उनके ज्ञान में वृद्धि हुई।

9. नगरों का उदय-व्यापार की उन्नति के कारण यूरोप में अनेक नगरों का विकास हुआ। इनमें वेनिस, फ्लोरेन्स, जिनेवा आदि नगर उल्लेखनीय थे। नगरों में रहने वाले लोग स्वतन्त्र वातावरण को पसन्द करते थे तथा अपने वर्तमान जीवन को आनन्द व उल्लास के साथ व्यतीत करना चाहते थे।

10. वैज्ञानिक चेतना – इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक रोजर बैकन ने वैज्ञानिक चेतना जागृत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उसने तर्क और प्रयोग पर बल दिया। कोपरनिकस, ब्रूनी, गैलिलियो आदि वैज्ञानिकों ने ज्योतिष तथा खगोलशास्त्र के क्षेत्र में अनेक नये आविष्कार किये और प्राचीन मान्यताओं का खण्डन किया।

प्रश्न 9.
पुनर्जागरण के परिणामों की विवेचना कीजिए।
अथवा
पुनर्जागरण के यूरोप पर पड़े प्रभावों की विवेचना कीजिए।
अथवा
पुनर्जागरण के प्रभाव बहुत ही व्यापक थे। इसके परिणामों के आधार पर स्पष्ट कीजिये।
अथवा
पुनर्जागरण का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके परिणामों का वर्णन कीजिये।
उत्तर?;
पुनर्जागरण का अर्थ – इसके उत्तर के लिए लघूत्तरात्मक प्रश्न संख्या 17 का अवलोकन करें। पुनर्जागरण के परिणाम / प्रभाव पुनर्जागरण के निम्नलिखित परिणाम / प्रभाव हुए –

1. स्वतन्त्र चिन्तन एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहन – पुनर्जागरण के फलस्वरूप लोग स्वतन्त्रतापूर्वक चिन्तन करने लगे। पुनर्जागरण काल में तर्क और विवेक का महत्त्व बढ़ा। इससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हुआ।

2. मानव के महत्त्व में वृद्धि – पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप मानव के महत्त्व में वृद्धि हुई, अब पठन-पाठन तथा चिन्तन-मनन का विषय धर्म न होकर मनुष्य अथवा संसार हो गया। अब मानव को केन्द्र में रखकर सोचने पर जोर दिया गया।

3. राष्ट्रीयता की भावना का विकास – पुनर्जागरण के फलस्वरूप यूरोपवासियों में अपनी-अपनी सभ्यता तथा संस्कृति के प्रति अभिरुचि बढ़ी, जिससे राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। देशी भाषाओं के विकास ने भी राष्ट्रीयता की भावना के विकास में योगदान दिया।

4. धर्म-सुधार आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करना – पुनर्जागरण के फलस्वरूप लोगों में स्वतन्त्र चिन्तन एवं तार्किक दृष्टिकोण का उदय हुआ। अब लोगों की धार्मिक कर्मकाण्डों एवं अन्धविश्वासों में आस्था नहीं रही। इसके परिणामस्वरूप यूरोप में धर्म- -सुधार आन्दोलन शुरू हुआ।

5. भौतिकवादी दृष्टिकोण का विकास – पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप मनुष्य की धर्म तथा परलोक में रुचि कम हो गई और वह अपने वर्तमान जीवन को सुखी तथा सम्पन्न बनाने के लिए अधिक प्रयास करने लगा। परिणामस्वरूप अधिक सुन्दर नगरों तथा आरामदायक घरों का निर्माण किया जाने लगा ।

6. शिक्षा के क्षेत्र में सुधार – अब विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों को उन्नत बनाने का प्रयास किया जाने लगा। अब विज्ञान एवं गणित के अध्ययन के साथ-साथ समाज – विज्ञान के विषयों पर भी काफी जोर दिया जाने
लगा।

7. इतिहास का वैज्ञानिक अध्ययन – पुनर्जागरण के फलस्वरूप इतिहास का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाने लगा। अब इतिहास में प्रामाणिक तथ्यों पर बल दिया जाने लगा। मैकियावली का ‘फ्लोरेन्स का इतिहास’ इसी पद्धति पर लिखा गया ।

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8. देशी भाषाओं का विकास – पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप देशी भाषाओं का अत्यधिक विकास हुआ। अंग्रेजी, फ्रांसीसी, इतालवी, जर्मन, डच आदि भाषाओं के साहित्य का पर्याप्त विकास हुआ।

9. व्यापार – वाणिज्य की उन्नति – पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप यूरोप में उद्योग-धन्धों तथा व्यापार की महत्त्वपूर्ण उन्नति हुई जिससे औद्योगिक क्रान्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं।

प्रश्न 10.
धर्म-सुधार आन्दोलन से आप क्या समझते हैं? इसके क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
धर्म – सुधार आन्दोलन का अर्थ- सोलहवीं शताब्दी में यूरोप में एक धार्मिक क्रान्ति हुई, जिसे धर्म-सुधार आन्दोलन कहते हैं। मध्यकाल में धार्मिक क्षेत्र में अनेक पाखण्ड, आडम्बर तथा अन्धविश्वास फैले हुए थे। पुनर्जागरण से प्रभावित लोगों ने सोलहवीं शताब्दी में पोप के धार्मिक प्रभुत्व को नष्ट करने, चर्च की कुरीतियों को दूर करने तथा धार्मिक पाखण्डों एवं अन्धविश्वासों को समाप्त करने के लिए आन्दोलन शुरू किया, उसे धर्म-सुधार आन्दोलन कहते हैं। वार्नर तथा मार्टिन लूथर का कथन है कि, ” धर्म-सुधार आन्दोलन पोप पद की सांसारिकता एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक नैतिक विद्रोह था। ”

धर्म-सुधार आन्दोलन के उद्देश्य – धर्म-सुधार आन्दोलन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे –

  • पोप तथा धर्माधिकारियों के जीवन में नैतिक सुधार करना।
  • चर्च की बुराइयों एवं भ्रष्टाचार को दूर करना।
  • कैथोलिक धर्म में व्याप्त आडम्बरों को दूर कर जनता के सामने धर्म का सच्चा स्वरूप प्रस्तुत करना।
  • रोम के पोप के व्यापक धर्म सम्बन्धी अधिकारों को नष्ट करना।
  • ईसाइयों के नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन को उन्नत करना।

प्रश्न 11.
यूरोप में धर्म-सुधार आन्दोलन के कारणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
यूरोप में धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण यूरोप में धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण निम्नलिखित थे –
1. मानवतावाद का प्रभाव – पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दियों में उत्तरी यूरोप के विश्वविद्यालयों के अनेक विद्वान मानवतावादी विचारों के प्रति आकृष्ट हुए । उत्तरी यूरोपीय देशों में मानवतावाद ने कैथोलिक चर्च के अनेक अनुयायियों को आकर्षित किया। उन्होंने ईसाइयों को अपने पुराने धर्म-ग्रन्थों में बताए गए तरीकों से धर्म का पालन करने पर बल दिया। उन्होंने कैथोलिक चर्च में व्याप्त कुरीतियों और कर्मकाण्डों की कटु आलोचना की और उनका परित्याग करने पर बल दिया।

2. मानव के सम्बन्ध में नवीन दृष्टिकोण – मानव के बारे में मानवतावादियों का दृष्टिकोण बिल्कुल नया था। वे मानव को एक मुक्त विवेकपूर्ण कर्त्ता मानते थे। वे एक दूरवर्ती ईश्वर में विश्वास रखते थे। उनकी मान्यता थी कि यद्यपि ईश्वर ने मनुष्य बनाया है, परन्तु उसे अपना जीवन मुक्त रूप से चलाने की पूर्ण स्वतन्त्रता भी दी है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मनुष्य को अपनी प्रसन्नता इसी विश्व में वर्तमान में ही ढूँढ़नी चाहिए।

3. चर्च द्वारा जनता का आर्थिक शोषण – चर्च जनता से अनेक प्रकार के कर वसूल करता था। इंग्लैण्ड के टॉमस मोर तथा हॉलैण्ड के इरैस्मस नामक मानवतावादियों का कहना था कि चर्च एक लालची और भ्रष्ट संस्था है। यह साधारण लोगों से मामूली बातों पर लूट-खसोट करता रहता है। किसानों ने चर्च द्वारा लगाए गए अनेक प्रकार के करों का विरोध किया।

4. पोप का राजनीति में हस्तक्षेप – पोप राज्य के आन्तरिक एवं वैदेशिक मामलों में भी हस्तक्षेप करता था। इस कारण यूरोप के शासक भी पोप से नाराज थे।

5. पोप की सांसारिकता तथा विलासिता – पोप अपने धार्मिक एवं नैतिक कर्त्तव्यों को भूलकर अनैतिक और विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। इस कारण जन-साधारण में असन्तोष था।

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6. पादरियों की अनैतिकता – पोप की भाँति पादरी भी अनैतिक और विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। वे उचित – अनुचित तरीकों से धन इकट्ठा करते थे तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। चर्च और मठ दुराचार तथा भ्रष्टाचार के केन्द्र बने हुए थ।

7. विभिन्न धर्म-सुधारकों का योगदान- जॉन वाइक्लिफ तथा जॉन हस नामक धर्म-सुधारकों ने चर्च में व्याप्त बुराइयों तथा पादरियों के अनैतिक जीवन की कटु आलोचना की। सेवोनारोला ने भी चर्च के पाखण्डों की आलोचना की।

8. धनिक वर्ग और व्यापारी वर्ग में असन्तोष- यूरोप का धनिक वर्ग भी चर्च के नियन्त्रण से मुक्त होना चाहता था क्योंकि चर्च वैभवपूर्ण जीवन का पक्षपाती नहीं था। चर्च की आर्थिक नीति से व्यापारी वर्ग में भी असन्तोष था। चर्च के अनुसार ब्याज लेना अनैतिक और पाप है। चर्च की आर्थिक नीति व्यापार की प्रगति में बाधक थी।

9. ‘पाप – स्वीकारोक्ति’ दस्तावेज का विरोध – पादरी लोग ‘पाप-स्वीकारोक्ति’ नामक दस्तावेज के माध्यम से लोगों से धन ऐंठते थे। पादरियों के अनुसार जो व्यक्ति इस दस्तावेज को खरीदेगा, उसे समस्त पापों से मुक्ति मिल जायेगी। परन्तु बुद्धिजीवी और मानवतावादी लोगों ने इस दस्तावेज का विरोध किया।

10. तात्कालिक कारण – 1517 में टेटजल नामक पोप का एक एजेण्ट ‘पाप-स्वीकारोक्ति’ नामक दस्तावेज को बेचने के लिए जर्मनी के विटनबर्ग नगर में पहुँचा। वहाँ जर्मनी के प्रसिद्ध धर्म-सुधारक मार्टिन लूथर ने इसका घोर विरोध किया। उसने इस प्रश्न पर पोप तथा टेटजल को चुनौती दी। यह चुनौती ही धर्म-सुधार आन्दोलन की शुरुआत थी।

प्रश्न 12.
धर्म – सुधार आन्दोलन के परिणामों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
धर्म-स-सुधार आन्दोलन के परिणाम धर्म-सुधार आन्दोलन के निम्नलिखित परिणाम हुए –
1. ईसाई धर्म की एकता की समाप्ति-धर्म-सुधार आन्दोलन के परिणामस्वरूप ईसाई धर्म दो प्रमुख सम्प्रदायों में विभाजित हो गया-कैथोलिक धर्म तथा प्रोटेस्टेन्ट धर्म। इस प्रकार ईसाई धर्म की एकता समाप्त हो गई।

2. प्रतिवादात्मक धर्म – सुधार आन्दोलन – कैथोलिक धर्म के अनुयायियों ने कैथोलिक चर्च में सुधार लाने के लिए एक आन्दोलन प्रारम्भ किया जिसे प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन कहते हैं। इस आन्दोलन के फलस्वरूप कैथोलिक चर्च की अनेक बुराइयों को दूर किया गया।

3. असहिष्णुता का विकास-धर्म-सुधार आन्दोलन के परिणामस्वरूप कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेन्ट सम्प्रदायों के बीच संघर्ष छिड़ गया। धर्म के नाम पर हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। जर्मनी में प्रोटेस्टेन्ट तथा कैथोलिकों के बीच 30 वर्ष तक भयंकर संघर्ष चला जिसमें हजारों लोग मारे गए।

4. नैतिक विकास – धर्म – सुधार आन्दोलन के फलस्वरूप ईसाई धर्म के सभी सम्प्रदायों ने चारित्रिक शुद्धता, नैतिकता, सरल जीवन, आचरण की पवित्रता आदि पर बल दिया। अब कर्मकाण्डों के स्थान पर आचरण की शुद्धता पर अधिक जोर दिया गया।

5. राष्ट्रीय भावना का विकास – विभिन्न देशों में राष्ट्रीय चर्च की स्थापना हुई। प्रोटेस्टेन्ट मत को स्वीकार करने वाले राजाओं पर पोप का अब कोई नियन्त्रण नहीं रहा। इससे भी राष्ट्रीयता को प्रोत्साहन मिला।

6. राजाओं की शक्ति में वृद्धि – पोप के प्रभाव से मुक्त होने के पश्चात् राजाओं की शक्ति तथा निरंकुशता में वृद्धि हुई। अनेक प्रोटेस्टेन्ट राजाओं ने चर्च की भूमि पर अधिकार करके अपनी शक्ति में वृद्धि की

7. शिक्षा का विकास – सभी धार्मिक सम्प्रदायों ने शिक्षा के विकास पर बल दिया। सुधारवादी पोप तथा जैसुइट प्रचारकों ने शिक्षा के विकास में योगदान दिया। इसी प्रकार प्रोटेस्टेन्ट धर्म-प्रचारकों ने भी शिक्षा के विकास पर बल दिया। अब शिक्षा का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष हो गया और चर्च के स्थान पर उस पर राजकीय प्रभाव बढ़ने लगा!

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8. बौद्धिक क्रान्ति – धर्म – सुधार आन्दोलन ने प्राचीन रूढ़ियों और अन्धविश्वासों को समाप्त कर दिया और स्वतन्त्र चिन्तन को प्रोत्साहन दिया। अब यूरोपवासियों के मस्तिष्क में क्रान्ति उत्पन्न हो गई और बौद्धिक विकास के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया।

9. व्यापार वाणिज्य की उन्नति – प्रोटेस्टेन्ट धर्म के नेताओं ने एक उचित सीमा तक के अन्दर ब्याज लेना तथा मुनाफा कमाना उचित बताया। इससे वाणिज्य – व्यापार की उन्नति को प्रोत्साहन मिला।

10. लोक-साहित्य का विकास – धर्म-सुधारकों ने अपने विचारों एवं धार्मिक सिद्धान्तों का लोक-भाषाओं में ही प्रचार किया। बाइबल का जर्मन तथा अन्य लोक-भाषाओं में अनुवाद किया गया। परिणामस्वरूप लोक-साहित्य का विकास हुआ।

11. मतभेदों की उत्पत्ति-धर्म-सुधार आन्दोलन के कारण ईसाई धर्म में अनेक सम्प्रदाय बन गए। प्रोटेस्टेन्ट धर्म भी अनेक सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। कालान्तर में कैथोडिज्म, बैपटिज्म आदि विभिन्न सम्प्रदायों के उदय से भी मतभेदों में और वृद्धि हुई।

प्रश्न 13.
धर्म-सुधार आन्दोलन में मार्टिन लूथर के योगदान की विवेचना कीजिए।
अथवा
मार्टिन लूथर कौन था ? धर्म-सुधार आन्दोलन में इसने क्या योगदान दिया?
उत्तर:
1. प्रारम्भिक जीवनी – धर्म – सुधार आन्दोलन में मार्टिन लूथर का योगदान – जर्मनी में धर्म-सुधार आन्दोलन का सूत्रपात करने वाला मार्टिन लूथर था। मार्टिन लूथर का जन्म 10 नवम्बर, 1483 को जर्मनी के अजलेवन नामक गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था। 1508 में वह विटनबर्ग विश्वविद्यालय में धर्म-शास्त्र का प्राध्यापक बन गया।

2. ‘पाप – स्वीकारोक्ति’ दस्तावेज का विरोध – 1517 में टेटजल नामक पोप का एक एजेण्ट जर्मनी के विटनबर्ग नामक नगर में पहुँचा और धन-संग्रह करने के लिए ‘पोप- स्वीकारोक्ति’ दस्तावेज बेचना शुरू कर दिया। परन्तु मार्टिन लूथर ने इन दस्तावेजों की कटु आलोचना करते हुए कहा कि मनुष्य को ईश्वर से सम्पर्क साधने के लिए पादरी की आवश्यकता नहीं है। उसने लोगों से कहा कि मोक्ष के लिए ईश्वर पर विश्वास करना आवश्यक है। अतः उन्हें ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। यह विश्वास ही उन्हें स्वर्ग में प्रवेश दिला सकता है।

3. मार्टिन लूथर को ईसाई धर्म से निष्कासित करना – मार्टिन लूथर ने विटनबर्ग के चर्च पर ‘पाप-स्वीकारोक्ति’ के विरोध में 95 निबन्ध लिखे। उसने अपने मत के प्रतिपादन के लिए तीन लघु पुस्तिकाओं की रचना की। ये लघु- पुस्तिकाएँ थीं –
(1) एन ओपन लैटर टू दी क्रिश्चियन नोबिलिटी ऑफ दी जर्मन नेशन
(2) चर्च का ‘बेबीलोनिया का कैदी’
(3) ‘एक ईसाई व्यक्ति की स्वतन्त्रता’। लूथर के कार्यों से पोप लियो दशक नाराज हो गया और 1520 में उसने लूथर को ईसाई धर्म से बहिष्कृत कर दिया।

4. मार्टिन लूथर और चार्ल्स पंचम – पवित्र रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम ने 1521 में लूथर के सम्बन्ध में वर्म्स नामक नगर में एक धर्म-सभा बुलाई। इस सभा में चार्ल्स पंचम ने लूथर को ‘नास्तिक’ तथा ‘विधि – बहिष्कृत’ घोषित कर दिया। इस अवसर पर सेक्सनी के राजा फ्रेडरिक ने लूथर को वार्टबर्ग के दुर्ग में शरण दी । यहीं रहते हुए लूथर ने बाइबल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया।

5. प्रोटेस्टेन्ट सुधारवाद – मार्टिन लूथर द्वारा चलाया गया आन्दोलन ‘प्रोटेस्टेन्ट सुधारवाद’ कहलाया। जर्मनी तथा स्विट्जरलैण्ड के चर्च ने पोप तथा कैथोलिक चर्च से अपने सम्बन्ध समाप्त कर लिए। लूथर ने आमूल परिवर्तनवाद का समर्थन नहीं किया । अतः 1525 में दक्षिण व मध्य जर्मनी में किसानों ने विद्रोह कर दिया, तो लूथर ने आह्वान किया कि जर्मन शासक किसानों के विद्रोह का दमन कर दे । अत: 1525 में जर्मन शासकों ने किसानों के विद्रोह को कुचल दिया।

6. जर्मनी में लूथर के विचारों का प्रसार – शीघ्र ही जर्मनी में मार्टिन लूथर के विचारों ने एक लोकप्रिय धर्म- सुधार आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। 1546 में लूथर की मृत्यु हो गई। जर्मनी में 1546 से 1555 तक गृह-युद्ध छिड़ गया। अन्त में 1555 में आग्सबर्ग की सन्धि के अनुसार गृह-युद्ध समाप्त हो गया। इस सन्धि के अनुसार निम्नलिखित शर्तें तय की गईं-हुआ।

  • साम्राज्य – परिषद में कैथोलिकों तथा प्रोटेस्टेन्टों को एकसमान प्रतिनिधित्व दिया जायेगा।
  • प्रत्येक राजा को अपनी प्रजा का धर्म निर्धारित करने का अधिकार दिया गया।
  • प्रोटेस्टेन्ट मत को कानूनी मान्यता प्रदान की गई। जर्मनी के अधिकांश राज्यों में प्रोटेस्टेन्ट धर्म का प्रसार

प्रश्न 14.
प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन से आप क्या समझते हैं? वह कैथोलिक चर्च की बुराइयों का निवारण करने में कहाँ तक सफल रहा?
उत्तर:
प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन – प्रोटेस्टेन्ट धर्म की बढ़ती हुई लोकप्रियता से कैथोलिक धर्म के नेताओं को अत्यधिक चिन्ता हुई। अतः प्रोटेस्टेन्ट धर्म की प्रगति को रोकने तथा कैथोलिक चर्च की बुराइयों को दूर करने के लिए प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन शुरू किया गया।
प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन को सफल बनाने के मुख्य साधन –
1. ट्रेन्ट की कौंसिल (1545-1563 ई.) – कैथोलिक धर्म की बुराइयों को दूर करने तथा कैथोलिक धर्म के मौलिक सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण करने के लिए इटली के ट्रेन्ट नामक नगर में एक कौंसिल आयोजित की गई। इस सभा की बैठकें 1545 से 1563 ई. तक होती रहीं। इन बैठकों में पोप तथा अन्य धर्माधिकारियों ने भाग लिया।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 7 बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ

ट्रेन्ट की कौंसिल के सैद्धान्तिक कार्य –

  1. पोप कैथोलिक धर्म का सर्वोच्च अधिकारी है तथा सभी सिद्धान्तों का अन्तिम व्याख्याता है।
  2. केवल चर्च ही धर्म-ग्रन्थ का अर्थ लगा सकता है।
  3. बाइबल का लैटिन अनुवाद ही प्रामाणिक है।

ट्रेन्ट की कौंसिल के सुधारात्मक कार्य –

  1. चर्च के पदाधिकारियों की पवित्रता, नैतिकता तथा सादगी पर विशेष बल दिया गया।
  2. बिशपों तथा पादरियों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाने लगी।
  3. पादरियों का शिक्षित होना अनिवार्य कर दिया गया।
  4. ‘पाप – स्वीकारोक्ति’ दस्तावेजों की बिक्री बन्द कर दी गई।
  5. कैथोलिक चर्चों में पूजा की एक-सी विधि व एक-सी प्रार्थना – पुस्तक रखी गई।

2. सोसाइटी ऑफ जीसस – प्रोटेस्टेन्ट लोगों से संघर्ष करने के लिए स्पेन – निवासी इग्नेशियस लायोला ने 1540 ई. में ‘सोसाइटी ऑफ जीसस’ नामक संस्था की स्थापना की। उनके अनुयायी ‘जैसुइट’ कहलाते थे। उनका ध्येय गरीबों की सेवा करना तथा दूसरी संस्कृतियों के बारे में अपने ज्ञान को अधिक व्यापक बनाना था। इस संस्था ने अनेक स्थानों पर स्कूल स्थापित किये, जहां निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। जैसुइट लोगों ने कैथोलिक धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप इटली, स्पेन, पोलैण्ड, हंगरी, पुर्तगाल आदि देशों में कैथोलिक धर्म पुनः प्रतिष्ठित हो गया।

3. धार्मिक न्यायालय – पोप पाल तृतीय ने 1542 ई. में रोम में धार्मिक न्यायालय की स्थापना की। इसका उद्देश्य कैथोलिक धर्म के विरोधियों को दण्डित करना था । इस न्यायालय ने स्पेन, हालैण्ड, इटली, बेल्जियम आदि देशों में प्रोटेस्टेन्टों का कठोरतापूर्वक दमन किया।

प्रतिवादात्मक धर्म-सुधार आन्दोलन के परिणाम –

  1. ईसाई समाज का विभाजन – इस आन्दोलन के फलस्वरूप ईसाई समाज अनेक सम्प्रदायों में विभाजित हो
  2. प्रोटेस्टेन्ट धर्म की प्रगति का अवरुद्ध होना- इस आन्दोलन के फलस्वरूप प्रोटेस्टेन्ट धर्म की प्रगति अवरुद्ध
  3. कैथोलिक धर्म का पुनरुद्धार – इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप कैथोलिक धर्म का पुनरुद्धार हुआ।
  4. धर्माधिकारियों के जीवन में नैतिकता – कैथोलिक धर्माधिकारियों के जीवन में नैतिकता, सदाचार आदि का हुआ
  5. राष्ट्रीय भावना का विकास – इस आन्दोलन ने राष्ट्रीय भावना के विकास में योगदान दिया।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. राजस्थान और पंजाब सरकार के मध्य विवाद की सुनवाई कौन करेगा?
(क) राजस्थान उच्च न्यायालय
(ग) सर्वोच्च न्यायालय
(ख) पंजाब उच्च न्यायालय
(घ) जिला न्यायालय।
उत्तर:
(ग) सर्वोच्च न्यायालय

2. राजस्थान के जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील कहाँ की जायेगी ।
(क) राजस्थान उच्च न्यायालय में
(ख) रिट के माध्यम से
(ग) सर्वोच्च न्यायालय में
(घ) दिल्ली उच्च न्यायालय में। किस अधिकार के तहत करता है-
उत्तर:
(क) राजस्थान उच्च न्यायालय में

3. सर्वोच्च न्यायालय किसी कानून को असंवैधानिक ।
(क) अपीलीय क्षेत्राधिकार के तहत
(ख) पंजाब उच्च न्यायालय में
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से
(घ) सलाहकारी क्षेत्राधिकार द्वारा।
उत्तर:
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से

4. निम्नलिखित में से कौनसा न्यायिक स्वतन्त्रता के अर्थ से सम्बन्धित नहीं है।
(क) सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के कार्यों में बाधा न पहुँचाएँ।
(ख) सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप न करें।
(ग) न्यायाधीश बिना भय या भेदभाव के अपना कार्य कर सकें।
(घ) न्यायपालिका स्वेच्छाचारी व अनुत्तरदायी हो।
उत्तर:
(घ) न्यायपालिका स्वेच्छाचारी व अनुत्तरदायी हो।

5. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है।
(क) प्रधानमन्त्री द्वारा
(ग) विधि मन्त्री द्वारा
(ख) राष्ट्रपति द्वारा
(घ) लोकसभा अध्यक्ष द्वारा।
उत्तर:
(ख) राष्ट्रपति द्वारा

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6. संघ और राज्यों के बीच के तथा विभिन्न राज्यों के आपसी विवाद सर्वोच्च न्यायालय के निम्न में से किस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आते हैं।
(क) अंपीली क्षेत्राधिकार
(ग) सलाहकारी क्षेत्राधिकार
(ख) मौलिक क्षेत्राधिकार
(घ) रिट सम्बन्धी क्षेत्राधिकार।
उत्तर:
(ख) मौलिक क्षेत्राधिकार

7. कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में उसके किस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत अपील कर सकता है?
(क) मौलिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत
(ख) अपीलीय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत
(ग) सलाहकारी क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(ख) अपीलीय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत

8. जनहित याचिका की शुरुआत भारत में कब से हुई ?
(क) 1979 से
(ख) 1984 से
(ग) 1989 से
(घ) 1999 से।
उत्तर:
(क) 1979 से

9. निम्न में से कौनसा न्यायिक सक्रियता का सकारात्मक पहलू है?
(क) इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया।
(ख) इसने न्यायालयों में काम का बोझ बढ़ाया है।
(ग) इससे तीनों अंगों के कार्यों के बीच का अन्तर धुँधला पड़ा है।
(घ) इससे न्यायालय उन समस्याओं में उलझ गया है जिसे कार्यपालिका को करना चाहिए।
उत्तर:
(क) इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया।

10. अग्र में से कौनसा मुद्दा सुलझ गया है?
(क) क्या संसद संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन कर सकती है?
(ख) जो व्यक्ति विधायिका के विशेषाधिकार हनन का दोषी हो तो क्या वह न्यायालय की शरण ले सकता है?
(ग) सदन के किसी सदस्य के विरुद्ध स्वयं सदन द्वारा यदि कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती है तो क्या वह सदस्य न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है?
(घ) क्या संसद और राज्यों की विधानसभाओं में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली उठायी जा सकती है?
उत्तर:
(क) क्या संसद संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन कर सकती है?

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. न्यायपालिका व्यक्ति के …………….. की रक्षा करती है।
उत्तर:
अधिकारों

2. ………………. के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए।
उत्तर:
न्यायाधीश

3. न्यायाधीशों के कार्यों एवं निर्णयों की …………………. आलोचना नहीं की जा सकती।
उत्तर:
व्यक्तिगत

4. भारतीय संविधान ………………… न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है।
उत्तर:
एकीकृत

5. भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन …………………. रही है।
उत्तर:
जनहित याचिका

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये

1. न्यायपालिका सरकार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
उत्तर:
सत्य

2. भारत में न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ विधायिका द्वारा की जाती है।
उत्तर:
असत्य

3. भारत में न्यायपालिका विधायिका पर वित्तीय रूप से निर्भर है
उत्तर:
असत्य

4. भारत में न्यायपालिका की संरचना एक पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला व अधीनस्थ न्यायालय है।
उत्तर:
सत्य

5. उच्च न्यायालय संघ और राज्यों के बीच के विवादों का निपटारा करता है।
उत्तर:
असत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने की प्रक्रिया। (क) सर्वोच्च न्यायालय
2. फैसले सभी अदालतों को मानने होते हैं। (ख) जिला अदालत
3. जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है। (ग) रिट के रूप में आदेश
4. सर्वोच्च न्यायालय व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जारी करता है (घ) जनहित याचिका
5. न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन। (च) महाभियोग

उत्तर:

1. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने की प्रक्रिया। (च) महाभियोग
2. फैसले सभी अदालतों को मानने होते हैं। (क) सर्वोच्च न्यायालय
3. जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है। (ख) जिला अदालत
4. सर्वोच्च न्यायालय व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जारी करता है (ग) रिट के रूप में आदेश
5. न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन। (घ) जनहित याचिका

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का सबसे बड़ा न्यायालय कौनसा है? इसके मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है। इसके मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

प्रश्न 2.
भारत का सर्वोच्च न्यायालय कहाँ स्थित है?
उत्तर:
भारत का सर्वोच्च न्यायालय नई दिल्ली में स्थित है।

प्रश्न 3.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन और किसकी सलाह पर करता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से कुछ नाम प्रस्तावित करेगा और इसी में से राष्ट्रपति अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा।

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प्रश्न 4.
भारतीय संविधान ने किन उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है? (कोई दो का उल्लेख कीजिए)
उत्तर:

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया जायेगा।
  2. न्यायाधीशों का कार्यकाल सेवानिवृत्ति की आयु तक निश्चित रखा गया है।

प्रश्न 5.
संसद न्यायाधीशों के आचरण पर कब चर्चा कर सकती है?
उत्तर:
संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है जब वह उनको हटाने के प्रस्ताव पर चर्चा कर रही हो।

प्रश्न 6.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति से सम्बन्धित इस परम्परा को कि ‘सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया जायेगा।’ कितनी बार और कब-कब तोड़ा गया है?
उत्तर:
‘सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को ही राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त करेगा’ इस परम्परा को दो बार, सन् 1973 तथा सन् 1975 में तोड़ा गया है।

प्रश्न 7.
भारत में सर्वोच्च न्यायालय के किस न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का असफल प्रयास किया गया?
उत्तर:
सन् 1991-92 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री रामास्वामी के विरुद्ध संसद में महाभियोग का असफल प्रयास किया गया।

प्रश्न 8.
‘भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है।’ इस कथन का क्या आशय है?
उत्तर:
इस कथन का आशय यह है कि भारत में अलग से प्रान्तीय स्तर के न्यायालय नहीं हैं। यहाँ सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय है और फिर उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालय हैं।

प्रश्न 9.
जिला अदालत के कोई दो कार्य लिखिए।
उत्तर:

  1. जिला अदालत जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है।
  2. यह निचली अदालतों के फैसलों पर की गई अपीलों की सुनवाई करती है।

प्रश्न 10.
सर्वोच्च न्यायालय के मौलिक क्षेत्राधिकार को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कुछ मुकदमों की सुनवाई सीधे सर्वोच्च न्यायालय कर सकता है, उनकी सुनवाई निचली अदालतों में नहीं हो सकती उसे सर्वोच्च न्यायालय का मौलिक क्षेत्राधिकार कहा जाता है। ये विवाद हैं। केन्द्र और राज्यों के बीच या विभिन्न राज्यों के आपसी विवाद।

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प्रश्न 11.
सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार से क्या आशय है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय अपील उच्चतम न्यायालय है। कोई भी व्यक्ति उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।

प्रश्न 12.
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले कहाँ तथा किन पर लागू होते हैं?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भारतीय भू-भाग के अन्य सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं। उसके द्वारा दिए गए निर्णय सम्पूर्ण भारत देश में लागू होते हैं।

प्रश्न 13.
जनहित याचिका क्या है?
उत्तर:
जब पीड़ित लोगों की ओर से दूसरों द्वारा जनहित के मुद्दे के आधार पर न्यायालय में याचिका दी जाती है, तो ऐसी याचिका को जनहित याचिका कहा जाता है।

प्रश्न 14.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
‘जनहित याचिका’ गरीबों को सस्ते में न्याय दिलवाकर मदद कर सकती हैं तथा दूसरें लोगों द्वारा भी उनके हित में याचिका दी जा सकती है।

प्रश्न 15.
न्यायपालिका की कौनसी नई भूमिका न्यायिक सक्रियता के नाम से लोकप्रिय हुई?
उत्तर:
जब न्यायपालिका ने अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बनाकर उन पर विचार शुरू कर दिया तो उसकी यह नई भूमिका न्यायिक सक्रियता के नाम से लोकप्रिय हुई

प्रश्न 16.
सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कब कर सकता है?
उत्तर:

  1. मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है।
  2. संघीय संबंधों के मामले में भी वह अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

प्रश्न 17.
भारत की तरह अन्य देशों में भी न्यायिक सक्रियता लोकप्रिय हो रही है। किन्हीं दो देशों के नाम
उत्तर:
दक्षिण एशिया और अफ्रीका के देशों में भी भारत की ही भाँति न्यायिक सक्रियता का प्रयोग किया जा रहा

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्र न्यायपालिका से क्या आशय है?
उत्तर:
स्वतन्त्र न्यायपालिका से आशय: न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय ऐसी स्थिति से है जहाँ न्यायाधीश विवादों का निर्णय करने तथा अपने न्यायिक कार्यों को करने में डर का महसूस नहीं करते हों तथा विधायिका और कार्यपालिका का उन पर कोई दबाव न हो। उनका कार्यकाल निश्चित हो; उनके वेतन तथा भत्तों में विधायिका या कार्यपालिका द्वारा कोई कटौती नहीं की जा सके; उनके कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती हो। न्यायाधीश आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष निर्णय कर सके।

प्रश्न 2.
हमें स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
उत्तर:
हमें निम्नलिखित कारणों से स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता पड़ती है।

  1. हमें निष्पक्ष ढंग से न्याय की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता पड़ती है। यदि न्यायपालिका पर अनावश्यक नियंत्रण होंगे, तो वह निष्पक्ष ढंग से न्याय नहीं कर पायेगी।
  2. हमें कानूनों की ठीक प्रकार से व्याख्या करने तथा उनको लागू करवाने के लिए, स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता पड़ती है।
  3. स्वतंत्र न्यायपालिका ही विधायिका और कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाकर हमारी स्वतंत्रता की रक्षा कर सकती है।

प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति की आयु से पूर्व किस आधार पर और किस प्रकार से पद से हटाया जा सकता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को संसद सिद्ध कदाचार अथवा अक्षमता के आधार पर महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर हटा सकती है। यदि संसद के दोनों सदन अलग-अलग अपने कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दें तो राष्ट्रपति के आदेश से उसे पद से हटाया जा सकता है।

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प्रश्न 4.
आधुनिक युग में न्यायपालिका का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
आधुनिक युग में न्यायपालिका का महत्त्व निम्नलिखित है।

  1. न्यायपालिका ‘कानून के शासन’ की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करती है।
  2. न्यायपालिका व्यक्ति के मौलिक अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा करती है।
  3. यह विवादों को कानून के अनुसार हल करती है।
  4. न्यायपालिका यह भी सुनिश्चित करती है कि लोकतन्त्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले। इस प्रकार यह विधायिका और कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाती है।

प्रश्न 5.
न्यायिक पुनरावलोकन के दो लाभ बताइए।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन के लाभ

  1. न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों तथा कार्यपालिका की नीतियों की व्याख्या करती है और संविधान के प्रतिकूल होने पर उनको असंवैधानिक घोषित कर संविधान की रक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है।
  2. न्यायपालिका न्यायिक पुनरावलोकन द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है।

प्रश्न 6.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार: भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए भेज सकता है। लेकिन न तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी विषय पर सलाह देने के लिए बाध्य है और न ही राष्ट्रपति न्यायालय की सलाह मानने को बाध्य है।

प्रश्न 7.
उच्चतम न्यायालय को सबसे बड़ा न्यायालय क्यों माना जाता है?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है क्योंकि-

  1. इसका फैसला अन्तिम होता है, जो सबको मानना पड़ता है।
  2. इसके फैसले के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती।
  3. यह संविधान के विरुद्ध पास किए गए कानूनों को रद्द कर सकता है।
  4. यह केन्द्र और राज्यों के बीच तथा विभिन्न राज्यों के बीच के आपसी विवादों को हल करता है।
  5. इसे संविधान की व्याख्या का अधिकार है तथा यह नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है।

प्रश्न 8.
सर्वोच्च न्यायालय की परामर्श देने की शक्ति की क्या उपयोगिता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के परामर्श देने की शक्ति की उपयोगिता: सर्वोच्च न्यायालय की परामर्श देने की शक्ति की निम्नलिखित उपयोगिताएँ हैं।

  1. इससे सरकार को छूट मिल जाती है कि किसी महत्त्वपूर्ण मसले पर कार्यवाही करने से पहले वह अदालत की कानूनी राय जान ले। इससे बाद में कानूनी विवाद से बचा जा सकता है।
  2. सर्वोच्च न्यायालय की सलाह मानकर सरकार अपने प्रस्तावित निर्णय या विधेयक में समुचित संशोधन कर सकती है।

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प्रश्न 9.
भारत की न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा किन विधियों से करती है?
उत्तर:
व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा – भारत की न्यायपालिका निम्नलिखित दो विधियों के द्वारा व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है।
1. रिट के माध्यम से: भारत के सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत और उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु रिट जारी करने का अधिकार है। इन रिटों के माध्यम से वह मौलिक अधिकारों को फिर से स्थापित कर सकता है।

2. न्यायिक पुनरावलोकन: सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 13 के तहत किसी कानून को गैर-संवैधानिक घोषित करके व्यक्ति के अधिकारों का संरक्षण करता है।

प्रश्न 10.
भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए कौन-कौनसी योग्यताएँ आवश्यक हैं?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यताएँ – राष्ट्रपति उसी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएँ हों।
(i) वह भारत का नागरिक हो।
(ii) वह कम-से-कम 5 वर्ष तक एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश के पद पर रह चुका हो।
अथवा
वह कम-से-कम 10 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रह चुका हो।
अथवा
वह राष्ट्रपति की दृष्टि में प्रसिद्ध कानून विशेषज्ञ हो।

प्रश्न 11.
“ उच्चतम न्यायालय भारतीय संविधान का संरक्षक है।” व्याख्या कीजिए।
अथवा
भारत के उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय को विधायिका द्वारा बनाए गये कानूनों और कार्यपालिका द्वारा जारी किये गये आदेशों ‘न्यायिक पुनरावलोकन’ का अधिकार प्राप्त है। इस अधिकार के तहत इस बात की जाँच कर सकता है कि कानून या आदेश संविधान के अनुकूल है या नहीं। यदि उसे जाँच में यह लगता है कि उस कानून या आदेश ने संविधान का उल्लंघन किया है तो वह उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय भारतीय संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाता है।

प्रश्न 12.
अभिलेख न्यायालय के रूप में उच्चतम न्यायालय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अभिलेख न्यायालय: सर्वोच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय भी है क्योंकि यह न्यायालय अपनी कार्यवाही तथा निर्णयों का अभिलेख रखने के लिए उन्हें सुरक्षित रखता है ताकि किसी प्रकार के अन्य मुकदमों में उनका हवाला दिया जा सके सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय सभी न्यायालय मानने के लिए बाध्य हैं।

प्रश्न 13.
जिला न्यायालयों को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
जिला न्यायालय: प्रत्येक राज्य में उच्च न्यायालयों के अधीन जिला न्यायालय हैं। ये जिला न्यायालय प्रत्येक जिले में तीन प्रकार के होते हैं।

  1. दीवानी,
  2. फौजदारी और
  3. भू-राजस्व न्यायालय।

ये न्यायालय उच्च न्यायालय के नियन्त्रण में कार्य करते हैं। जिला न्यायालयों में उप-न्यायाधीशों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती हैं। ये न्यायालय सम्पत्ति, विवाह, तलाक सम्बन्धी विवादों की सुनवाई करते हैं।

प्रश्न 14.
लोक अदालत पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
लोक अदालत: भारत में गरीब, दलित, जरूरतमंद लोगों को तेजी से, आसानी से व सस्ता न्याय दिलाने हेतु हमारे देश में न्यायालयों की एक नई व्यवस्था शुरू की गई है जिसे लोक अदालत कहा जाता है। लोक अदालत के पीछे मूल विचार यह है कि न्याय दिलाने में होने वाली देरी खत्म हो, और न्याय जल्दी मिले तथा तेजी से अनिर्णीत मामलों को निपटाया जाये। इस प्रकार लोक अदालत ऐसे मामलों को तय करती है जो अभी तक अदालत नहीं पहुँचे हों या अदालतों में अनिर्णीत पड़े हों।

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प्रश्न 15.
एकीकृत न्यायपालिका से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
एकीकृत न्यायालय: एकीकृत न्यायपालिका से अभिप्राय इस प्रकार की न्यायपालिका से है जिससे समूचे देश के न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार कार्य करते हैं। इसमें देश के सभी न्यायालय सब प्रकार के कानूनों की व्याख्या करते हैं। भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है। इसका अर्थ यह है कि विश्व के अन्य संघीय देशों के विपरीत भारत में अलग से प्रान्तीय स्तर के न्यायालय नहीं हैं।

यहाँ न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय है। नीचे के न्यायालय ऊपर के न्यायालयों की देखरेख में कार्य करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भारतीय भू-भाग के अन्य सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं। उसके द्वारा दिए गए निर्मय सम्पूर्ण देश में लागू होते हैं।

प्रश्न 16.
भारतीय संविधान ने किन उपायों के द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान ने अनेक उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है। यथा
1. न्यायाधीशों की नियुक्ति को दलगत राजनीति से मुक्त रखा जाना: भारत के संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में विधायिका की सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे यह सुनिश्चित किया गया कि इन नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका नहीं रहे।

2. न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार योग्यता: न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए। उसे व्यक्ति के राजनीतिक विचार या निष्ठाओं को नियुक्ति का आधार नहीं बनाया गया है।

3. न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् की सम्मिलित भूमिक:
संविधान में कहा गया है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति वह सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से करेगा। इस प्रकार संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति में मन्त्रिपरिषद् को महत्त्व दिया गया था; लेकिन न्यायाधीशों की नियुक्ति में मंत्रिपरिषद् के बढ़ते हस्तक्षेप को देखते हुए अब सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्तियों की सिफारिश के सम्बन्ध में सामूहिकता का सिद्धान्त स्थापित किया है। इससे मन्त्रिपरिषद् का हस्तक्षेप कम हो गया है।

4. निश्चित कार्यकाल: भारत में न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है। वे सेवानिवृत्त होने तक पद पर बने रहते हैं। केवल अपवादस्वरूप, विशेष स्थितियों में, महाभियोग द्वारा ही न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है।

5. वित्तीय निर्भरता नहीं: न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है।

6. आलोचना से मुक्ति: न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अगर कोई न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है, तो न्यायपालिका को उसे दण्डित करने का अधिकार है।

प्रश्न 17.
सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसकी सेवानिवृत्ति की आयु से पूर्व किस प्रकार हटाया जा सकता है? क्या भारत में किसी न्यायाधीश को महाभियोग द्वारा हटाया गया है?
उत्तर:
न्यायाधीशों को पद से हटाना: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना काफी कठिन है। केवल संसद महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर किसी न्यायाधीश को उसकी सेवानिवृत्ति की आयु से पूर्व पद से हटा सकती है।

महाभियोग की प्रक्रिया: किसी भी न्यायाधीश को उसके सिद्ध कदाचार अथवा अक्षमता के आधार पर पद से हटाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में दोनों सदन पृथक्-पृथक् सदन की समस्त संख्या के बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इस प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद छोड़ने का आदेश देता है।

अब तक भारतीय संसद के पास किसी न्यायाधीश को हटाने का केवल एक प्रस्ताव विचार के लिए आया है। इस मामले में हालांकि दो-तिहाई सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया, लेकिन न्यायाधीश को हटाया नहीं जा सका क्योंकि प्रस्ताव पर सदन की कुल सदस्य संख्या का बहुमत प्राप्त न हो सका ।

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प्रश्न 18.
भारत के उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत के उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार निम्नलिखित हैं।
1. मौलिक क्षेत्राधिकार:
वे मुकदमे जो सर्वोच्च न्यायालय में सीधे ले जाए जा सकते हैं, उसके प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे मुकदमे दो प्रकार के हैं। एक वे, जो केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। संघ तथा राज्यों के बीच या राज्यों के आपसी विवाद इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। दूसरे वे विवाद हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय के अतिरिक्त उच्च न्यायालयों में भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इस श्रेणी के अन्तर्गत नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन सम्बन्धी विवाद आते हैं। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ रिट, जैसे- बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध आदि जारी कर सकता है।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार:
कुछ मुकदमे सर्वोच्च न्यायालय के पास उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील के रूप में आते हैं। ये अपीलें संवैधानिक, दीवानी तथा फौजदारी तीनों प्रकार के मुकदमों में सुनी जा सकती हैं।

3. सलाहकारी क्षेत्राधिकार: भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए भेज सकता है। लेकिन न तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी विषय पर सलाह देने के लिए बाध्य है और न ही राष्ट्रपति न्यायालय की सलाह मानने को।

प्रश्न 19.
जनहित याचिका क्या है? कब और कैसे इसकी शुरुआत हुई?
उत्तर:
जनहित याचिका का प्रारम्भ-कानून की सामान्य प्रक्रिया में कोई व्यक्ति तभी अदालत जा सकता है, जब उसका कोई व्यक्तिगत नुकसान हुआ हो। इसका अर्थ यह है कि अपने अधिकार का उल्लंघन होने पर या किसी विवाद में फँसने पर कोई व्यक्ति न्याय पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। 1979 में इस अवधारणा में परिवर्तन आया। 1979 में न्यायालय ने एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया जिसे पीड़ित लोगों ने नहीं बल्कि उनकी ओर से दूसरों ने दाखिल किया।

1979 में समाचार-पत्रों में विचाराधीन कैदियों के बारे में यह खबर छपी कि यदि उन्हें सजा भी दी गई होती तो उतनी अवधि की नहीं होती जितनी अवधि उन्होंने जेल में विचाराधीन होते हुए काट ली है। इस खबर को आधार बनाकर एक वकील ने एक याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने यह याचिका स्वीकार कर ली। सर्वोच्च न्यायालय में यह मुकदमा चला। यह याचिका जनहित याचिका के रूप में प्रसिद्ध हुई । इस प्रकार 1979 से इसकी शुरुआत सर्वोच्च न्यायालय ने की। बाद में इसी प्रकार के अन्य अनेक मुकदमों को जनहित याचिकाओं का नाम दिया गया।

प्रश्न 20.
जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता की न्यायालय की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जनहित याचिकाएँ न्यायिक सक्रियता का प्रभावी साधन सिद्ध हुई हैं। इस सम्बन्ध में न्यायालय की भूमिका निम्न रूपों में प्रकट हुई है।
1. पीड़ित लोगों के हित के लिए दूसरे लोगों की याचिकाओं को स्वीकार करना:
सबसे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने पीड़ित लोगों की ओर से दूसरे लोगों द्वारा की गई याचिकाओं को स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया । ऐसी याचिकाओं को जनहित याचिकाएँ कहा गया। 1979 के बाद से ऐसे मुकदमों की बाढ़ सी आ गयी जिनमें जनसेवा की भावना रखने वाले नागरिकों एवं स्वयंसेवी संगठनों ने अधिकारों की रक्षा, गरीबों के जीवन को और बेहतर बनाने, पर्यावरण की सुरक्षा और लोकहित से जुड़े अनेक मुद्दों पर न्यायपालिका से हस्तक्षेप की माँग की गई।

2. न्यायिक सक्रियता:
किसी के द्वारा मुकदमा करने पर उस मुद्दे पर विचार करने के साथ-साथ न्यायालय ने अखबार में छपी खबरों और डाक से शिकायतों को आधार बनाकर उन पर भी विचार करना शुरू कर दिया। न्यायपालिका की यह नई भूमिका न्यायिक सक्रियता के रूप में लोकप्रिय हुई।

3. समाज के जरूरतमंद और गरीब लोगों की ओर से सामाजिक संगठनों व वकीलों की याचिकाएँ स्वीकार करना:
1980 के बाद से न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिकाओं के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए न्यायालय ने जनसेवा की भावना से भरे नागरिक, सामाजिक संगठन और वकीलों को जरूरतमंद तथा गरीब लोगों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की इजाजत दी। प्रभाव

  1. इसने न्यायालयों के अधिकारों का दायरा बढ़ा दिया।
  2. इससे विभिन्न समूहों को भी अदालत जाने का अवसर मिला।
  3. इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया तथा कार्यपालिका उत्तरदायी बनने पर बाध्य हुई।
  4. लेकिन इससे न्यायालयों पर काम का बोझ भी पड़ा तथा सरकार के तीनों अंगों के कार्यों के बीच का अन्तर धुँधला गया।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
उच्चतम न्यायालय के गठन, क्षेत्राधिकारों एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संरचना, शक्तियों और भूमिका की विवेचना कीजिए। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का संगठन (संरचना)
उत्तर:
संविधान के अनुसार भारत में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। सर्वोच्च न्यायालय भारत का सर्वोच्च न्यायालय है। शेष सभी न्यायालय इसके अधीन हैं। इसके फैसले भारतीय भू-भाग के अन्य सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं तथा इसके द्वारा दिये गये निर्णय सम्पूर्ण देश में लागू होते हैं। इसके संगठन का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है।
1. न्यायाधीशों की संख्या: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या समय- समय पर बदलती रही है वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश कार्यरत हैं।

2. योग्यताएँ: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने के लिए संविधान में निम्न योग्यताएँ निर्धारित की हैं।

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह कम-से-कम 5 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुका हो।

वह कम-से-कम 10 वर्ष तक किसी एक उच्च न्यायालय या लगातार दो या दो से अधिक न्यायालयों में एडवोकेट रह चुका हो। राष्ट्रपति के विचार में वह कानून का ज्ञाता हो। या

3. कार्यकाल: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष तक की आयु तक रह सकते हैं। इससे पूर्व भी वह त्याग-पत्र दे सकते हैं।

4. नियुक्ति: सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। सामान्यतः राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त करता है। सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से प्रस्तावित नामों में से की जाती है।

5. न्यायाधीशों को पद से हटाना: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को संसद सिद्ध कदाचार अथवा अक्षमता के आधार पर मतदान करने वाले सदस्यों के पृथक्-पृथक् सदन द्वारा 2/3 बहुमत तथा कुल सदस्य संख्या के बहुमत से महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर हटा सकती है। ऐसा प्रस्ताव पारित कर संसद राष्ट्रपति को भेजता है और राष्ट्रपति तब उसे पद से हटा सकता है।

6. वेतन-भत्ते: सर्वोच्च न्यायालय के वेतन-भत्ते समय-समय पर विधि द्वारा निर्धारित किये जाते रहते हैं। लेकिन संविधान के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते के लिए विधायिका की स्वीकृति नहीं की जायेगी। इसके अतिरिक्त उन्हें वाहन भत्ता तथा रहने के लिए मुफ्त सरकारी मकान भी प्राप्त होता है। केवल वित्तीय संकट के काल को छोड़कर और किसी भी स्थिति में न्यायाधीशों के वेतन व भत्ते में कटौती नहीं की जा सकती।

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार एवं शक्तियाँ भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली न्यायालयों में से एक है। लेकिन वह संविधान द्वारा तय की गई सीमा के अन्दर ही काम करता है। सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है

1. प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

  • मौलिक क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय का मौलिक प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत वे विवाद आते हैं जो केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही सुने जा सकते हैं। यथा
    1. यदि दो या दो से अधिक राज्य सरकारों के मध्य आपस में कोई विवाद उत्पन्न हो जाये तो वह मुकदमा केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही सुना जायेगा ।
    2. यदि किसी विषय पर केन्द्रीय सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच कोई मतभेद उत्पन्न हो जाए तो वह मुकदमा भी सीधा सर्वोच्च न्यायालय में ही पेश किया जायेगा ।
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा से सम्बन्धित प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार – इसके अन्तर्गत मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय कहीं भी प्रारम्भ किया जा सकता है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर कोई भी व्यक्ति न्याय पाने के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है । सर्वोच्च न्यायालय अपने विशेष आदेश रिट के रूप में दे सकता है। इन रिटों के माध्यम से न्यायालय कार्यपालिका को कुछ करने या न करने का आदेश दे सकता है ।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय भारत का अन्तिम अपीलीय न्यायालय है। यह उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुन सकता है। सर्वोच्च न्यायालय में निम्नलिखित तीन प्रकार की अपीलें स्वीकार की जाती. हैं।

  • संवैधानिक विषय से सम्बन्धित मुकदमे: यदि उच्च न्यायालय एक प्रमाण-पत्र दे दे कि उसके विचारानुसार किसी मुकदमे में संविधान के किसी अनुच्छेद की व्याख्या सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्न अन्तर्निहित है तो ऐसे मुकदमों की अपील सर्वोच्च न्यायालय सुन सकता है।
  • दीवानी अपीलीय क्षेत्राधिकार: दीवानी मुकदमे सम्पत्ति सम्बन्धी होते हैं। उच्च न्यायालयों द्वारा दीवानी मुकदमों में दिये गए निर्णयों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। लेकिन यह अपील केवल उन्हीं निर्णयों के विरुद्ध की जा सकती है जिनमें सार्वजनिक महत्त्व का कोई कानूनी प्रश्न अन्तर्निहित हो और जिसकी व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जानी आवश्यक है।
  • फौजदारी अपीलीय क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय निम्न प्रकार के फौजदारी मुकदमों की अपीलें सुन सकता है।

(अ) उच्च न्यायालय ने निम्न न्यायालय से मुकदमा अपने पास मँगाकर अपराधी को मृत्यु – दण्ड दिया हो। जब उच्च न्यायालय ने किसी ऐसे अपराधी को मृत्यु – दण्ड दिया हो जिसे निम्न न्यायालय ने बरी कर दिया

(स) जब उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि किसी मामले के सम्बन्ध में कोई अपील सर्वोच्च न्यायालय के सुने जाने के योग्य है। अपीलीय क्षेत्राधिकार से अभिप्राय यह है कि सर्वोच्च न्यायालय पूरे मुकदमे पर पुनर्विचार करेगा और उसके कानूनी मुद्दों की जाँच करेगा । यदि न्यायालय को लगता है कि कानून या संविधान का अर्थ वह नहीं है जो निचली अदालतों ने समझा तो सर्वोच्च न्यायालय उनके निर्णय को बदल सकता है तथा इसके साथ उन प्रावधानों की नई व्याख्या भी दे सकता है

3. सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार: मौलिक और अपीली क्षेत्राधिकार के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय का सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार भी है। इसके अनुसार भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए भेज सकता है। लेकिन न तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी विषय पर सलाह देने के लिए बाध्य है और न ही राष्ट्रपति न्यायालय की सलाह मानने के लिए बाध्य है।

4. संविधान के व्याख्याता के रूप में: संविधान के किसी भी अनुच्छेद के सम्बन्ध में व्याख्या करने का अन्तिम अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है कि संविधान के किसी अनुच्छेद का सही अर्थ क्या है।

5. अभिलेख न्यायालय: सर्वोच्च न्यायालय को संविधान द्वारा अभिलेख न्यायालय बनाया गया है। अभिलेख न्यायालय का अर्थ ऐसे न्यायालय से है जिसके निर्णय सभी न्यायालयों को मानने पड़ते हैं तथा उसके निर्णय अन्य न्यायालयों में नजीर के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। इस न्यायालय को अपनी अवमानना के लिए किसी को भी दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।

6. न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार: सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार के अन्तर्गत व्यवस्थापिका के उन कानूनों को और कार्यपालिका के उन आदेशों को अवैध घोषित कर सकता है जो कि संविधान के विरुद्ध हों।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 2.
भारत की न्यायपालिका की संरचना पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
भारतीय न्यायपालिका की संरचना: भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है। इसका अर्थ यह है कि विश्व के अन्य संघीय देशों के विपरीत भारत में अलग से प्रान्तीय स्तर के न्यायालय नहीं हैं। भारत में न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय हैं। नीचे के न्यायालय अपने ऊपर के न्यायालयों की देखरेख में कार्य करते हैं। यथा

1. सर्वोच्च न्यायालय: भारत में सर्वोच्च न्यायालय देश का सबसे ऊपर का न्यायालय है। इसके फैसले सभी अदालतों को मानने पड़ते हैं। यह उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का तबादला कर सकता है। यह किसी अदालत का मुकदमा अपने पास मँगवा सकता है। यह किसी भी उच्च न्यायालय में चल रहे मुकदमे को दूसरे उच्च न्यायालय में भिजवा सकता है। यह उच्च न्यायालयों के फ़ैसलों पर की गई अपील की सुनवाई कर सकता है।

2. उच्च न्यायालय: उच्च न्यायालय प्रत्येक राज्य का सर्वोच्च न्यायालय है। इसके निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती हैं। इसके अन्य प्रमुख कार्य ये हैं। ये हैं।

  • यह निचली अदालतों के फैसलों पर की गई अपील की सुनवाई कर सकता है।
  • यह मौलिक अधिकारों को बहाल करने के लिए रिट जारी कर सकता है।
  • यह राज्य के क्षेत्राधिकार में आने वाले मुकदमों का निपटारा करता है।
  • यह अधीनस्थ अदालतों का पर्यवेक्षण तथा नियन्त्रण करता है।

3. जिला अदालतें: प्रत्येक उच्च न्यायालय के अधीन जिला न्यायालय आते हैं। जिला अदालतों के प्रमुख कार्य

  • जिला अदालत जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है।
  • यह निचली अदालतों के फैसले पर की गई अपील की सुनवाई करती है।
  •  यह गम्भीर किस्म के आपराधिक मामलों पर फैसला देती है।

4. अधीनस्थ अदालतें: जिला अदालतों के अधीन न्यायालयों को अधीनस्थ अदालतें कहा गया है। ये अदालतें फौजदारी और दीवानी मुकदमों पर विचार करती हैं।

प्रश्न 3.
भारत में सर्वोच्च न्यायालय और संसद के सम्बन्धों पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
सर्वोच्च न्यायालय और संसद के मध्य सम्बन्ध: सरकार के तीन अंग होते हैं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों अंगों में परस्पर सहयोग और आपसी सूझ-बूझ आवश्यक है ताकि देश का शासन सुचारु रूप से चलाया जा सके। लेकिन भारत में समय-समय पर न्यायपालिका और संसद के सम्बन्धों में किसी न किसी कारण से तनाव उत्पन्न होता रहा है। यथा

1. सम्पत्ति के अधिकार के सम्बन्ध में टकराव:
संविधान के लागू होने के तुरन्त बाद सम्पत्ति के अधिकार पर रोक लगाने की संसद की शक्ति पर दोनों के मध्य विवाद उत्पन्न हो गया । संसद सम्पत्ति रखने के अधिकार पर कुछ प्रतिबंध लगाना चाहती थी जिससे भूमि सुधारों को लागू किया जा सके। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती। संसद ने तब संविधान संशोधन का प्रयास किया। लेकिन न्यायालय ने कहा कि संशोधन के द्वारा भी मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता अर्थात् संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती। इस प्रकार संसद और न्यायपालिका के बीच विवाद के निम्नलिखित मुद्दे उभरे।

  • निजी सम्पत्ति के अधिकार का दायरा क्या है?
  • मौलिक अधिकारों को सीमित, प्रतिबंधित और समाप्त करने की संसद की शक्ति का दायरा क्या है?
  • संसद द्वारा संविधान संशोधन की शक्ति का दायरा क्या है?
  • क्या संसद नीति निर्देशक तत्त्वों को लागू करने के लिए ऐसे कानून बना सकती है जो मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करें?

1967 से 1973 के बीच यह विवाद काफी गहरा गया। भूमि सुधार कानूनों के अतिरिक्त निवारक नजरबंदी कानून, नौकरियों में आरक्षण सम्बन्धी कानून, निजी सम्पत्ति के अधिग्रहण सम्बन्धी नियम और अधिग्रहीत निजी सम्पत्ति के मुआवजे सम्बन्धी कानून आदि पर संसद और सर्वोच्च न्यायालय के बीच विवाद उठे। केशवानन्द भारती मुकदमा 1973 का निर्णय – 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया जो संसद और न्यायपालिका के संबंधों के निर्धारण में बहुत महत्त्वपूर्ण बना। यह निर्णय केशवानंद भारती मुकदमे का निर्णय है। इस मुकदमे में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि।

  • संविधान का एक मूल ढांचा है और संसद सहित कोई भी उस मूल ढांचे से छेड़-छाड़ नहीं कर सकता। संसद संविधान संशोधन द्वारा भी इस मूल ढाँचे को नहीं बदल सकती। है।
  • सम्पत्ति का मूल अधिकार मूल ढाँचे का हिस्सा नहीं है और इसलिए उस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता।
  • कोई मुद्दा मूल ढाँचे का भाग है या नहीं इसका निर्णय सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर संविधान की व्याख्या के तहत करेगी।

इस निर्णय से संसद और सर्वोच्च न्यायालय के बीच के विवादों की प्रकृति में परिवर्तन आ गया। क्योंकि संसद ने संविधान संशोधन कर 1979 में सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया।

2. विवाद के वर्तमान मुद्दे: वर्तमान में दोनों दलों के बीच विवाद के निम्न मुद्दे बने हुए हैं।
(i) क्या न्यायपालिका विधायिका की कार्यवाही का नियमन और उसमें हस्तक्षेप कर उसे नियंत्रित कर सकती है? संसदीय व्यवस्था में संसद को अपना संचालन स्वयं करने तथा अपने सदस्यों का व्यवहार नियंत्रित करने की शक्ति है। संसदीय व्यवस्था में विधायिका को विशेषाधिकार के हनन का दोषी पाए जाने पर अपने सदस्य को दंडित करने का अधिकार है।

जो व्यक्ति विधायिका के विशेषाधिकार हनन का दोषी हो क्या वह न्यायपालिका की शरण ले सकता है? सदन के किसी सदस्य के विरुद्ध स्वयं सदन द्वारा कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है तो क्या वह सदस्य न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है? ये मुद्दे अभी भी दोनों के बीच विवाद का विषय बने हुए हैं।

(ii) अनेक अवसरों पर संसद में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली उठाई गई और इसी प्रकार न्यायपालिका ने अनेक अवसरों पर विधायिका की आलोचना की तथा उसे विधायी कार्यों के सम्बन्ध में निर्देश दिए हैं। इन विवादों में न्यायपालिका का मत है कि संसद में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली नहीं उठायी जानी चाहिए और संसद न्यायपालिका के विधायी निर्देशों को संसदीय संप्रभुता के सिद्धान्त का उल्लंघन मानती है। लोकतंत्र में सरकार के दोनों अंगों के एक दूसरे की सत्ता के प्रति सम्मान करते हुए आचरण किये जाने की आवश्यकता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 4.
भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार क्या है? सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन की भूमिका की संक्षिप्त विवेचना कीजिए। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के महत्त्व को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन से आशय:
न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है और यदि वह संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है।
संविधान में कहीं भी न्यायिक पुनरावलोकन शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है लेकिन संविधान मुख्यतः ऐसी दो विधियों का उल्लेख करता है जहाँ सर्वोच्च न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है। यथा

  1. मूल अधिकारों की रक्षा करना: मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है।
  2. केन्द्र-राज्य या राज्यों के परस्पर विवाद को निपटारे के लिए: संघीय सम्बन्धों के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
  3. इसके अतिरिक्त संविधान यदि किसी बात पर मौन है या किसी शब्द या अनुच्छेद के विषय में अस्पष्टता है तो वह संविधान का अर्थों को स्पष्टीकरण हेतु इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत सर्वोच्च न्यायालय किसी कानून को गैर-संवैधानिक घोषित कर उसे लागू होने से रोक सकता है। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति राज्यों की विधायिका द्वारा बनाए कानूनों पर भी लागू होती है। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति द्वारा न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों की और संविधान की व्याख्या कर सकती है। इसके द्वारा न्यायपालिका प्रभावी ढंग से संविधान और नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करती है

न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग: जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति में विस्तार हुआ है।
1. मूल अधिकार के क्षेत्र में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का विस्तार:
उदाहरण के लिए बन्धुआ मजदूर, बाल-श्रमिक अपने शोषण के विरुद्ध अधिकार के उल्लंघन की याचिका स्वयं न्यायपालिका में दायर करने में सक्षम नहीं थे। परिणामतः न्यायालय द्वारा पहले इनके अधिकारों की रक्षा करना सम्भव नहीं हो पा रहा था।

लेकिन न्यायिक सक्रियता व जनहित याचिकाओं के माध्यम से न्यायालय में ऐसे केस दूसरे लोगों, स्वयंसेवी संस्थाओं ने उठाये या स्वयं न्यायालय ने अखबार में छपी घटनाओं के आधार पर स्वयं प्रसंज्ञान लेते हुए ऐसे मुद्दों पर विचार किया। इस प्रवृत्ति ने गरीब और पिछड़े वर्ग के लोगों के अधिकारों को अर्थपूर्ण बना दिया है।

2. कार्यपालिका के कृत्यों के विरुद्ध जाँच:
न्यायपालिका ने कार्यपालिका की राजनैतिक व्यवहार बर्ताव के प्रति संविधान के उल्लंघन की प्रवृत्ति पर भी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति द्वारा अंकुश लगाया है। इसी कारण जो विषय पहले न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में नहीं थे, उन्हें भी अब इस दायरे में ले लिया गया है, जैसे राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियाँ।

अनेक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश दिए हैं, जैसे हवाला मामले, पैट्रोल पम्पों के अवैध आबण्टन जैसे अनेक मामलों में न्यायालय ने सी.बी.आई. को निर्देश दिया कि वह राजनेताओं और नौकरशाहों के विरुद्ध जाँच करे।

3. संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धान्त का प्रतिपादन:
संविधान लागू होने के तुरन्त बाद सम्पत्ति के अधिकार पर रोक लगाने की संसद की शक्ति पर संसद और न्यायपालिका में विवाद खड़ा हो गया। संसद सम्पत्ति रखने के अधिकार पर कुछ प्रतिबन्ध लगाना चाहती थी जिससे भूमि सुधारों को लागू किया जा सके।

लेकिन न्यायालय ने न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के तहत यह निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती। संसद ने तब संविधान संशोधन कर ऐसा करने का प्रयास किया। लेकिन न्यायालय ने 1967 में गोलकनाथ विवाद में यह निर्णय दिया कि संविधान के संशोधन के द्वारा भी मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता।

फलतः संसद और न्यायपालिका के बीच यह मुद्दा केन्द्र में आया कि “संसद द्वारा संविधान संशोधनक शक्ति का दायरा क्या है।” इस मुद्दे का निपटारा सन् 1973 में केशवानन्द भारती के विवाद में सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से हुआ कि संविधान का एक मूल ढाँचा है और संसद उस मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती। संविधान संशोधन द्वारा भी इस मूल ढाँचे को नहीं बदला जा सकता तथा संविधान का मूल ढाँचा क्या है? यह निर्णय करने का अधिकार न्यायालय ने अपने पास रखा है।

इस प्रकार संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर न्यायपालिका ने अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति को व्यापक कर दिया है। साथ ही इस निर्णय में न्यायपालिका ने सम्पत्ति के अधिकार को संविधान का मूल ढाँचा नहीं माना है तथा संसद को उसमें संशोधन के अधिकार को स्वीकार कर लिया है।

न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का महत्त्व: न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।
1. लिखित संविधान की व्याख्या हेतु आवश्यक:
भारत का संविधान एक लिखित संविधान है। लिखित संविधान की शब्दावली कहीं-कहीं अस्पष्ट और उलझी हो सकती है। उसकी व्याख्या के लिए न्यायालय के पास उसकी व्याख्या की शक्ति आवश्यक है।

2. संघात्मक संविधान:
भारत का संविधान एक संघीय संविधान है जिसमें केन्द्र और राज्यों को संविधान द्वारा विभाजित किया गया है। लेकिन यदि केन्द्र और राज्य अपने क्षेत्रों विषयों की सीमाओं का उल्लंघन करें तो कार्य- संचालन मुश्किल हो जायेगा। इसलिए केन्द्र और राज्यों तथा राज्यों के बीच समय-समय पर उठने वाले विवादों का समाधान न्यायपालिका ही कर सकती है। इसलिए ऐसे विवादों के समाधान की दृष्टि से न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति अत्यन्त उपयोगी है।

3. संविधान व मूल अधिकारों की रक्षा:
न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की रक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इसी कार्य के तहत उसने ‘संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया है। साथ ही उसने समय समय पर नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा की है तथा ऐसे कानूनों को असंवैधानिक घोषित किया है जो मूल अधिकारों के विरुद्ध हैं। यही नहीं, न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के अन्तर्गत ही उसने नागरिकों के मूल अधिकारों को अर्थपूर्ण भी बनाया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

Jharkhand Board Class 11 Political Science स्थानीय शासन InText Questions and Answers

प्रश्न 1.
भारत का संविधान ग्राम पंचायत को स्व- शासन की इकाई के रूप में देखता है। नीचे कुछ स्थितियों का वर्णन किया गया है। इन पर विचार कीजिए और बताइये कि स्व- शासन की इकाई बनने के क्रम में ग्राम पंचायत के लिए ये स्थितियाँ सहायक हैं या बाधक?
(क) प्रदेश की सरकार ने एक बड़ी कंपनी को विशाल इस्पात संयंत्र लगाने की अनुमति दी है। इस्पात संयंत्र लगाने से बहुत-से गाँवों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। दुष्प्रभाव की चपेट में आने वाले गाँवों में से एक की ग्राम सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया कि क्षेत्र में कोई भी बड़ा उद्योग लगाने से पहले गांववासियों की राय ली जानी चाहिए और उनकी शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए।
(ख) सरकार का फैसला है कि उसके कुल खर्चे का 20 प्रतिशत पंचायतों के माध्यम से व्यय होगा। (ग) ग्राम पंचायत विद्यालय का भवन बनाने के लिए लगातार धन माँग रही है, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने मांग को यह कहकर ठुकरा दिया है कि धन का आबंटन कुछ दूसरी योजनाओं के लिए हुआ है और धन को अलग मद में खर्च नहीं किया जा सकता।
(घ) सरकार ने डूंगरपुर नामक गाँव को दो हिस्सों में बाँट दिया है और गाँव के एक हिस्से को जमुना तथा दूसरे को सोहना नाम दिया है। अब डूंगरपुर नामक गाँव सरकारी खाते में मौजूद नहीं है।
(ङ) एक ग्राम पंचायत ने पाया कि उसके इलाके में पानी के स्रोत तेजी से कम हो रहे हैं। ग्राम पंचायत ने फैसला किया कि गाँव के नौजवान श्रमदान करें और गाँव के पुराने तालाब तथा कुएँ को फिर से काम में आने लायक बनाएँ।
उत्तर:
(क) यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए सहायक है।
(ख) यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए सहायक है।
(ग) यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए बाधक है।”
(घ) यदि डूंगरपुर के दो हिस्से जमुना और सोहना अलग-अलग हैं किन्तु उनकी ग्राम पंचायत एक ही है तो कोई अन्तर नहीं पड़ता परन्तु यदि सरकार किसी ग्राम के दो हिस्से बनाती है और इसमें वहाँ की ग्राम पंचायत की सहमति नहीं ली जाती तो यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए बाधक है।
(ङ) यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए सहायक हैं।

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प्रश्न 2.
मान लीजिये कि आपको किसी प्रदेश की तरफ से स्थानीय शासन की कोई योजना बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ग्राम पंचायत स्व- शासन की इकाई के रूप में काम करे, इसके लिए आप उसे कौन-सी शक्तियाँ देना चाहेंगे? ऐसी पांच शक्तियों का उल्लेख करें और प्रत्येक शक्ति के बारे में दो-दो पंक्तियों में यह भी बताएँ कि ऐसा करना क्यों जरूरी है?
उत्तर:
ग्राम पंचायत स्थानीय स्वशासन की इकाई के रूप में कार्य करे, इसके लिए ग्राम पंचायत को निम्नलिखित शक्तियाँ देनी होंगी:
1. पर्याप्त वित्तीय संसाधन:
ग्राम पंचायत को पर्याप्त वित्तीय संसाधन प्राप्त होने चाहिए। उसे अपने स्तर पर कर लगाने की शक्ति प्राप्त होनी चाहिए ताकि ग्राम पंचायत वित्तीय स्तर पर आत्मनिर्भर हो सके।

2. धन खर्च करने का अधिकार:
पर्याप्त वित्तीय संसाधनों के साथ-साथ ग्राम पंचायत को उन्हें किस ढंग से खर्च करना है, इसका अधिकार भी होना चाहिए। इससे ग्राम पंचायत अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप खर्च कर सकेगी।

3. योजनाएँ बनाने का अधिकार:
ग्राम पंचायत को अपने स्तर पर ग्राम विकास के लिए योजनाएँ बनाने का अधिकार होना चाहिए।

4. शिक्षा तथा तकनीकी सम्बन्धी शक्तियाँ:
ग्राम पंचायत को प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर की शिक्षा, तकनीकी प्रशिक्षण तथा व्यावसायिक शिक्षा, वयस्क और अनौपचारिक शिक्षा की शक्ति प्रदान की जानी चाहिए जिससे ग्रामीण लोगों का मानसिक विकास हो। ग्राम पंचायतों को पुस्तकालय तथा वाचनालय खोलने की शक्ति प्रदान की जानी चाहिए। ऐसा करने से ग्रामीण नवयुवकों को आगे बढ़ने के अवसर प्राप्त होंगे; उनका पिछड़ापन दूर होगा तथा वे राष्ट्र की मुख्य धारा में सम्मिलित होकर अपनी उन्नति के अवसर खोज सकेंगे।

5. सरकारी हस्तक्षेप में कमी:
स्थानीय संस्थाओं को अपने कार्यों में अधिकाधिक सवतंत्रता मिलनी चाहिए और सरकारी हस्तक्षेप कम से कम होना चाहिए। इससे ग्राम पंचायत के प्रतिनिधियों में जिम्मेदारी की भावना पैदा होगी।

प्रश्न 3.
सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संविधान के 73वें संशोधन में आरक्षण के क्या प्रावधान हैं? इन प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व का खाका किस तरह बदला है?
उत्तर:
आरक्षण के प्रावधान सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संविधान के 73वें संशोधन में आरक्षण निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं।

  1. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण: पंचायत चुनावों के तीनों स्तरों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीट में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था अनुसूचित जाति और जनजाति की जनसंख्या के अनुपात में की गई है।
  2. महिलाओं के लिए आरक्षण: सभी पंचायती संस्थाओं में एक-तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। सिर्फ सामान्य श्रेणी की सीटों पर ही महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण नहीं दिया गया है बल्कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर भी महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण की व्यवस्था है।
  3. अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण: इस संविधान संशोधन में यह भी प्रावधान किया गया है कि यदि प्रदेश की सरकार जरूरी समझे, तो वह अन्य पिछड़ा वर्ग को भी सीट में आरक्षण दे सकती है।
  4. अध्यक्ष पद का आरक्षण: उपर्युक्त आरक्षण के प्रावधान मात्र साधारण सदस्यों की सीट तक सीमित नहीं हैं। तीनों ही स्तर पर अध्यक्ष पद तक आरक्षण दिया गया है।

आरक्षण के प्रावधान का प्रभाव इन आरक्षण के प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व का खाका निम्न रूप में परिवर्तित हुआ है।

  1. आरक्षण के उपर्युक्त प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व में सामाजिक स्तर पर काफी परिवर्तन आया है। ग्रामीण स्तर पर, इससे पूर्व जो शक्तियाँ सामाजिक रूप से ऊँचे लोगों को प्राप्त थीं, अब उनमें कमजोर वर्गों की भी भागीदारी हो गयी है तथा उनके निर्णयों में भी इन कमजोर वर्गों की भागीदारी हुई है, जिससे उच्च वर्ग अब अपनी मनमानी नहीं कर पाता।
  2. महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रावधान के कारण पंचायती राज्य स्वशासन के निकायों में महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी सुनिश्चित हुई है। आरक्षण का प्रावधान सरपंच और अध्यक्ष जैसे पदों के लिए भी है। इस कारण निर्वाचित महिला-जनप्रतिनिधियों की एक बड़ी संख्या अध्यक्ष और सरपंच जैसे पदों पर आसीन हुई है। आज कम से कम 200 महिलाएँ जिला पंचायतों की अध्यक्ष हैं। 2000 महिलाएँ प्रखंड या तालुका पंचायत की अध्यक्ष हैं और ग्राम पंचायतों में महिला सरपंचों की संख्या 80 हजार से ज्यादा है।
  3. संसाधनों पर अपने नियंत्रण की दावेदारी करके महिलाओं ने ज्यादा शक्ति और आत्मविश्वास अर्जित किया है तथा स्त्रियों की राजनीतिक समझ पैनी हुई है।

प्रश्न 4.
संविधान के 73वें संशोधन से पहले और संशोधन के बाद स्थानीय शासन के बीच मुख्य भेद बताएँ।
उत्तर:
संविधान के 73वें संशोधन के बाद आए बदलाव – संविधान के 73वें संशोधन से पहले और संशोधन के बाद आए प्रमुख भेद या बदलाव निम्नलिखित हैं।
1. त्रिस्तरीय व्यवस्था: 73वें संविधान संशोधन से पूर्व सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था एकसमान नहीं थी, लेकिन 73वें संविधान संशोधन के बाद अब सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढांचा त्रिस्तरीय।

  1. ग्राम स्तर या प्राथमिक स्तर पर ग्राम पंचायत
  2. खंड स्तर या मध्यवर्ती स्तर पर तालुका पंचायत या पंचायत समिति और
  3. जिला स्तर या उच्च स्तर पर जिला पंचायत है।

2. ग्राम सभा की अनिवार्यता: 73वें संविधान संशोधन से पहले ग्राम सभा की अनिवार्यता नहीं थी, लेकिन अब 73वें संविधान संशोधन में इस बात का प्रावधान किया गया है कि ग्राम सभा अनिवार्य रूप से बनायी जायेगी। पंचायती इलाके में मतदाता के रूप में दर्ज हर व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य होगा।

3. निर्वाचन: 73वें संविधान संशोधन से पूर्व मध्यवर्ती और जिला स्तरों पर प्रतिनिधियों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता था; लेकिन अब 73वें संविधान संशोधन के पश्चात् पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तरों का चुनाव सीधे जनता करती
है।

4. अवधि ( कार्यकाल): पहले पंचायत समिति का कार्यकाल सभी प्रदेशों में एकसमान नहीं था तथा एक निश्चित समय के पश्चात् चुनाव संवैधानिक रूप से अनिवार्य न होकर राज्यों की सरकारों की सुविधा पर निर्भर थे। लेकिन अब 73वें संविधान संशोधन के पश्चात् हर पंचायत निकाय की अवधि पांच साल की होती है। यदि प्रदेश की सरकार पांच साल पूरे होने से पहले पंचायत को भंग करती है, तो इसके छ: माह के अंदर नये चुनाव हो जाने चाहिए। 73वें संविधान संशोधन से पहले पंचायत संस्थाओं को भंग करने के बाद तत्काल चुनाव कराने के सम्बन्ध में कोई प्रावधान नहीं था।

5. आरक्षण: 73वें संविधान संशोधन में सभी पंचायती संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण सभी पदों पर दिया गया है, पहले यह व्यवस्था नहीं थी।

6. विषयों का स्थानान्तरण-संशोधन के बाद अब राज्य सूची के 29 विषय 11वीं अनुसूची में दर्ज कर लिये गए हैं। अनुच्छेद 243 (जी) पंचायतों की शक्ति, प्राधिकार और उत्तरदायित्व : के द्वारा यह प्रावधान किया गया है कि ” किसी प्रदेश की विधायिका कानून बनाकर ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज मामलों में पंचायतों को ऐसी शक्ति और प्राधिकार प्रदान कर सकती है।”

7. राज्य चुनाव आयुक्त: संशोधन के बाद अब प्रदेशों के लिए यह आवश्यक है कि एक राज्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करे जिसकी जिम्मेदारी पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने की होगी। पहले यह काम प्रदेश प्रशासन करता था,
जो प्रदेश की सरकार के अधीन होता है। लेकिन राज्य चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र अधिकारी है। वह प्रदेश की सरकार के अधीन नहीं है।

8. राज्य वित्त आयोग: संशोधन के बाद अब प्रदेशों के लिए हर पांच वर्ष बाद एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना जरूरी है। यह आयोग एक तरफ प्रदेश और दूसरी तरफ स्थानीय शासन की व्यवस्थाओं के बीच राजस्व के बँटवारे का पुनरावलोकन करेगा।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 5.
नीचे लिखी बातचीत पढ़ें। इस बातचीत में जो मुद्दे उठाये गए हैं, उसके बारे में अपना मत दो सौ शब्दों में लिखें।
आलोक: हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया गया है। स्थानीय निकायों में स्त्रियों को आरक्षण देने से सत्ता में उनकी बराबर की भागीदारी सुनिश्चित हुई है।
नेहा: लेकिन महिलाओं का सिर्फ सत्ता के पद पर काबिज होना ही काफी नहीं है। यह भी जरूरी है कि स्थानीय निकायों के बजट में महिलाओं के लिए अलग से प्रावधान हो।
जयेश: मुझे आरक्षण का यह गोरखधंधा पसंद नहीं। स्थानीय निकाय को चाहिए कि वह गाँव के सभी लोगों का ख्याल रखे और ऐसा करने पर महिलाओं और उनके हितों की देखभाल अपने आप हो जाएगी।
उत्तर:
उपर्युक्त बातचीत में महिलाओं के सशक्तिकरण सम्बन्धी मुद्दे उठाये गए हैं।
1. आरक्षण का मुद्दा; यद्यपि संविधान में स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया गया है। लेकिन व्यवहार में स्त्रियों को पुरुषों के समान शक्ति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। इसलिए स्त्रियों को सत्ता में भागीदार हेतु पुरुषों के समकक्ष लाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। 73वें और 74वें संविधान संशोधन द्वारा ग्रामीण व शहरी स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं के लिए निर्वाचित पदों का एक-तिहाई भाग आरक्षित किया गया है। इससे महिला सशक्तिकरण आंदोलन को बल मिला और संसद तथा राज्य विधानमंडलों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थान आरक्षित रखने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं।

2. वित्तीय निर्णयों में भागीदारी का मुद्दा: महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए महलाओं को केवल स्थानीय स्तर पर आरक्षण देना ही काफी नहीं है। उन्हें वित्तीय निर्णयों में भी भागीदारी मिलनी चाहिए या उन्हें वित्तीय निर्णयों में भी भागीदार होना चाहिए।

3. महिलाओं के विकास व कल्याण के लिए विशेष प्रयास: यद्यपि ग्राम पंचायत सभी वर्गों के विकास के लिए कार्य करती है तथापि महिलाओं के कल्याण हेतु विशेष प्रयास किए जाने चाहिए। इससे उनकी सामाजिक स्थिति सुधरेगी, उन्हें रोजगार मिलेगा और उनमें राजनैतिक व सामाजिक जागृति आयेगी।

प्रश्न 6.
73वें संशोधन के प्रावधानों को पढ़ें। यह संशोधन निम्नलिखित सरोकारों में से किससे ताल्लुक रखता है?
(क) पद से हटा दिये जाने का भय जन-प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।
(ख) भू-स्वामी, सामन्त और ताकतवर जातियों का स्थानीय निकायों में दबदबा रहता है।
(ग) ग्रामीण क्षेत्रों में निरक्षरता बहुत ज्यादा है। निरक्षर लोग गाँव के विकास के बारे में फैसला नहीं ले सकते हैं।
(घ) प्रभावकारी साबित होने के लिए ग्राम पंचायतों के पास ग्राम की विकास योजना बनाने की शक्ति और संसाधन का होना जरूरी है।
उत्तर:
(क) पद से हटा दिये जाने का भय जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।
73वें संविधान संशोधन के बाद से प्रत्येक 5 वर्ष के बाद पंचायत का चुनाव कराना अनिवार्य है। यदि राज्य सरकार 5 वर्ष पहले ही पंचायत को भंग कर देती है तो 6 माह के अन्दर चुनाव कराना अनिवार्य है। इस प्रकार चुनाव के भय के कारण प्रतिनिधि उत्तरदायी बने रहते हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं जनता चुनाव में उन्हें हरा न दे। उपर्युक्त सभी सरोकारों में से सबसे महत्त्वपूर्ण सरोकार जिससे यह संशोधन ताल्लुक रखता है, वह (क) भाग है। कि ‘पद से हटा दिये जाने का भय जन-प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।

प्रश्न 7.
नीचे स्थानीय शासन के पक्ष में कुछ तर्क दिये गये हैं। इन तर्कों को आप अपनी पसंद से वरीयता क्रम में सजाएँ और बताएँ कि किसी एक तर्क की अपेक्षा दूसरे को आपने ज्यादा महत्त्वपूर्ण क्यों माना है? आपके जानते बेंगैवसल गाँव की ग्राम पंचायत का फैसला निम्नलिखित कारणों से किस पर और कैसे आधारित था?
(क) सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है।
(ख) स्थानीय जनता द्वारा बनायी गयी विकास योजना सरकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गयी विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत होती है।
(ग) लोग अपने इलाके की जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।
(घ) आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जन-प्रतिनिधियों से सम्पर्क कर पाना मुश्किल होता है।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन के पक्ष में जो विभिन्न तर्क दिये गये हैं, उनके वरीयता क्रम निम्न प्रकार हैं।

  1. प्रथम वरीयता भाग (घ) को दी जायेगी क्योंकि आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जनप्रतिनिधियों से सम्पर्क कर पाना मुश्किल होता है। अतः वे स्थानीय शासन के प्रतिनिधियों से सीधे सम्पर्क में रहने के कारण अपनी समस्याओं की शिकायत करके उनसे शीघ्र समाधान करा सकते हैं।
  2. द्वितीय वरीयता भाग (ग) को दी जायेगी क्योंकि लोग अपने इलाके की जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।
  3. तीसरी वरीयता भाग (ख) को दी जायेगी कि स्थानीय जनता द्वारा बनाई गई विकास योजना सरकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गयी विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत होती है।
  4. चौथी वरीयता भाग (क) को दी जाएगी कि सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है।

वसल गांव की ग्राम पंचायत का फैसला इस तर्क पर आधारित था कि लोग अपने इलाके की जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं । सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए। बेंगैवसल गांव की जमीन पर उस गांव का ही हक रहा है। अपनी जमीन के साथ क्या करना है यह फैसला करने का अधिकार भी गांव के हाथ में होना चाहिए।

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प्रश्न 8.
आपके अनुसार निम्नलिखित में कौन-सा विकेन्द्रीकरण का साधन है? शेष को विकेन्द्रीकरण के साधन के रूप में आप पर्याप्त विकल्प क्यों नहीं मानते?
(क) ग्राम पंचायत का चुनाव कराना।
(ख) गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन-सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है।
(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत।
(घ) प्रदेश सरकार ने ग्रामीण विकास की एक योजना चला रखी है। प्रखंड विकास अधिकारी ( बीडीओ ) ग्राम पंचायत के सामने एक रिपोर्ट पेश करता है कि इस योजना में कहाँ तक प्रगति हुई है।
उत्तर:
1. इस प्रश्न में दिये गए चारों कथनों (क), (ख) (ग) और (घ) में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विकेन्द्रीकरण का साधन है (ख)। इसमें कहा गया है कि ” गांव के निवासी खुद तय करें कि कौन-सी नीति और योजना गांव के लिए उपयोगी है। क्योंकि इसके अन्तर्गत गाँव के निवासियों को गांव के लिए नीति बनाने और योजना बनाने का अधिकार विकेन्द्रीकृत हुआ है।

आम नागरिक की समस्या और उसके दैनिक जीवन की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए ग्रामीण लोग ग्राम पंचायत के द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान करें। यह सत्ता का विकेन्द्रीकरण है। लोकतंत्र में सत्ता का विकेन्द्रीकरण स्थानीय लोगों की सत्ता में भागीदारी से ही हो सकता है।

2. अन्य तीनों कथन ( क, ग और घ) विकेन्द्रीकरण के साधन के रूप में पर्याप्त विकल्प नहीं हैं क्योंकि- (क) ग्राम पंचायत का चुनाव कराना – ग्राम पंचायत का चुनाव कराना एक प्रक्रिया है। यद्यपि यह स्थानीय स्वशासन का एक भाग है लेकिन इससे यह निर्धारित नहीं होता कि स्थानीय क्षेत्र की समस्याओं के निर्धारण के लिए नीति-निर्माण और योजना बनाने की शक्तियाँ उसे हस्तांतरित की गई हैं। 73वें संविधान संशोधन से पहले भारतीय ग्राम पंचायतों को ऐसी कोई शक्तियाँ प्रदान नहीं की गई थीं, लेकिन निर्वाचन होते थे। ऐसी स्थिति में केवल निर्वाचन ही विकेन्द्रीकरण का पर्याप्त विकल्प नहीं है।

(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत: ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत भी स्थानीय स्वशासन का एक भाग तो हो सकती है लेकिन यह विकेन्द्रीकरण का साधन होने का पर्याप्त विकल्प नहीं है क्योंकि यह बैठक तो उच्च अधिकारी भी बुला सकते हैं। जब तक गांव के निवासी गांव की समस्याओं के समाधान में योजना बनाने तथा नीति निर्माण में भागीदारी नहीं करते, तब तक ग्राम सभा विकेन्द्रीकरण का उपयुक्त विकल्प नहीं बन सकती।

(घ) प्रदेश की सरकार ने ग्रामीण विकास की एक योजना चला रखी है। प्रखंड विकास अधिकारी ग्राम पंचायत के सामने एक रिपोर्ट पेश करता है कि इस योजना में कहाँ तक प्रगति हुई है? यह कथन भी विकेन्द्रीकरण का पर्याप्त विकल्प नहीं है क्योंकि अमुक परियोजना के निर्माण में ग्राम पंचायत की कोई भागीदारी नहीं है और न उसके क्रियान्वयन में ही उसकी कोई भागीदारी है।

प्रश्न 9.
दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र प्राथमिक शिक्षा के निर्णय लेने में विकेन्द्रीकरण की भूमिका का अध्ययन करना चाहता था। उसने गांववासियों से कुछ सवाल पूछे। ये सवाल नीचे लिखे हैं। यदि गांववासियों में आप शामिल होते तो निम्नलिखित प्रश्नों के क्या उत्तर देते ? गाँव का हर बालक/बालिका विद्यालय जाए, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कौन-से कदम उठाए जाने चाहिए इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए ग्राम सभा की बैठक बुलायी जानी है।
(क) बैठक के लिए उचित दिन कौन-सा होगा, इसका फैसला आप कैसे करेंगे? सोचिए कि आपके चुने हुए दिन में कौन बैठक में आ सकता है और कौन नहीं?
(अ) खंड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
(ब) गांव का बाजार जिस दिन लगता है।
(स) रविवार।
(द) नागपंचमी संक्रान्ति।
(ख) बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा? कारण भी बताएँ।
(अ) जिला- कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह
(ब) गांव का कोई धार्मिक स्थान
(स) दलित मोहल्ला
(द) ऊँची जाति के लोगों का टोला
(य) गाँव का स्कूल।
(ग) ग्रामसभा की बैठक में पहले जिला समाहर्ता ( कलेक्टर) द्वारा भेजा गया परिपत्र पढ़ा गया।

परिपत्र में बताया गया था कि शैक्षिक रैली को आयोजित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएँ और रैली किस रास्ते होकर गुजरे। बैठक में उन बच्चों के बारे में चर्चा नहीं हुई जो कभी स्कूल नहीं आते। बैठक में बालिकाओं की शिक्षा के बारे में, विद्यालय भवन की दशा के बारे में और विद्यालय के खुलने बंद होने के समय के बारे में चर्चा नहीं हुई। बैठक रविवार के दिन हुई इसलिए कोई महिला शिक्षक इस बैठक में नहीं आ सकी। लोगों की भागीदारी के लिहाज से इसको आप अच्छा कहेंगे या बुरा? कारण भी बतायें।
(घ) अपनी कक्षा की कल्पना ग्राम सभा के रूप में करें। जिस मुद्दे पर बैठक में चर्चा होनी थी, उस पर कक्षा में बातचीत करें और लक्ष्य को पूरा करने के लिए कुछ सुझायें।
उत्तर:
(क) बैठक के लिए उचित दिन कौनसा होगा? इसका फैसला करने के लिए यह देखना होगा कि बैठक में अधिक से अधिक उपस्थिति किस दिन हो सकती है। जो दिन प्रश्न में सुझाये गये हैं, वे इस प्रकार हैं।
(अ) प्रखंड विकास अधिकारी या कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
(ब) जिस दिन गाँव का बाजार लगता है।
(स) रविवार।
(द) नागपंचमी/संक्रांति।

इन सब दिनों में रविवार का दिन सर्वाधिक उपयुक्त रहेगा क्योंकि इस दिन सभी लोग छुट्टी में होंगे और बैठक में सम्मिलित होने में उन्हें अधिक सुविधा होगी क्योंकि जिस दिन गांव का बाजार लगता है, उस दिन ग्रामीण अपनी खरीददारी करते हैं।

ऐसे में उपस्थिति कम रहेगी। नागपंचमी/संक्रांति पर्व पर बैठक बुलाने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि उस दिन ग्रामवासी अपना त्यौहार मनाने में संलग्न रहेंगे। कलेक्टर या प्रखंड विकास अधिकारी द्वारा तय किये गए दिन कोई भी उनकी सुविधा का कार्य दिवस होगा न कि ग्रामवासियों की सुविधा का।

(ख) बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा? इसके लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह है कि स्थान वह चुना जाये जहाँ अधिकतम ग्रामीण ग्रामसभा की बैठक में उपस्थित हो सकें। प्रश्न में सुझाये गये स्थान इस प्रकार हैं।
(अ) जिला कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह
(ब) गांव का धार्मिक स्थान
(स) दलित मोहल्ला
(द) ऊँची जाति के लोगों का टोला
(य) गांव का स्कूल।
उपर्युक्त सभी स्थानों में ग्रामीण स्कूल बैठक के लिए सबसे उपयुक्त स्थान होगा क्योंकि अन्य स्थानों पर सभी ग्रामीण इकट्ठा होने में एकमत नहीं होंगे।

(ग) लोगों की भागीदारी के लिहाज से बैठक की इस कार्यवाही में कोई कार्य जनता के हित में नहीं किया गया। कलेक्टर द्वारा भेजे गये परिपत्र में मुख्य समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि स्थानीय समस्यायें तो स्थानीय व्यक्तियों की भागीदारी से ही सुलझायी जा सकती हैं।
(घ) अपनी कक्षा को ग्राम सभा के रूप में कल्पना करते हुए सबसे पहले हम एक बैठक बुलाने की घोषणा करेंगे। बैठक का एजेण्डा इस प्रकार होगा।
(अ) उन बच्चों की समस्या पर चर्चा जो कभी स्कूल नहीं आते।
(ब) बालिकाओं की शिक्षा व उनकी समस्याओं के बारे में चर्चा।
(स) विद्यालय भवन की दशा के बारे में चर्चा।
(द) उपर्युक्त समस्याओं के निवारण के लिए धन की व्यवस्था पर विचार।
(य) सांस्कृतिक कार्यक्रमों को स्कूल में आयोजित कराने पर चर्चा।
(र) ग्राम प्रधान द्वारा समापन – भाषण।

लक्ष्य को पूरा करने के लिए निम्न उपाय सुझाये गए।

  1. शिक्षा के अधिकार को क्रियान्वित किया जाए तथा निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा हेतु सरकार को कदम उठाने चाहिए।
  2. प्राथमिक, माध्यमिक शिक्षा को ग्राम पंचायतों को सौंप दिया जाये ताकि शिक्षा के विकास में ग्रामीण लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।
  3. शिक्षा की जागृति हेतु रैलियाँ भी निकाली जायें तथा उन बच्चों के अभिभावकों को चिह्नित किया जाये जो अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज रहे हैं। उनसे सम्पर्क कर

उनकी समस्याओं पर ध्यान दिया जाये। इस सम्बन्ध में उनके द्वारा उठायी गयी शंकाओं का निवारण किया जाये तथा उन्हें शिक्षा-व्यवस्था में भागीदार बनाया जाये।

Jharkhand Board Class 11 Political Science स्थानीय शासन Textbook Questions and Answers

पृष्ठ 179

प्रश्न 1.
स्थानीय शासन लोकतंत्र को मजबूत बनाता है, कैसे?
उत्तर:
स्थानीय शासन लोकतंत्र को मजबूत बनाता हैं। लोकतंत्र का मतलब है: सार्थक भागीदारी तथा जवाबदेही। जीवन्त और मजबूत स्थानीय शासन सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही को सुनिश्चित करता है। स्थानीय शासन के स्तर पर आम नागरिक को उसके जीवन से जुड़े मसलों, जरूरतों और उसके विकास के बारे में फैसला लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है। लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि जो काम स्थानीय स्तर पर किये जा सकते हैं, वे स्थानीय लोगों और उनके प्रतिनिधियों के हाथ में रहने चाहिए। स्थानीय शासन का सम्बन्ध आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी से होता है। इसलिए उसके कार्यों से जनता का ज्यादा सरोकार होता है। इस प्रकार स्थानीय शासन लोकतंत्र को मजबूत बनाता है।

पृष्ठ 182

प्रश्न 2.
नेहरू और डॉ. अम्बेडकर, दोनों स्थानीय शासन के निकायों को लेकर खास उत्साहित नहीं थे। क्या स्थानीय शासन को लेकर उनकी आपत्तियाँ एक जैसी थीं?
उत्तर:
नेहरू और डॉ. अम्बेडकर, दोनों स्थानीय शासन के निकायों को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं थे। स्थानीय शासन के विरोध में दोनों के तर्क अलग-अलग थे। यथा:

  1. नेहरू अति: स्थानीयता को राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए खतरा मानते थे।
  2. डॉ. अंबेडकर का कहना था कि ग्रामीण भारत में जाति-पांति और आपसी फूट के माहौल में स्थानीय शासन अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पायेगा।
    इस प्रकार नेहरू जहाँ स्थानीय शासन का राष्ट्र की एकता और अखंडता की दृष्टि से विरोध करते थे, वहाँ डॉ. अम्बेडकर जाति-पांति और आपसी फूट के माहौल में उसे उचित नहीं मानते थे।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 3.
सन् 1992 से पहले स्थानीय शासन को लेकर संवैधानिक प्रावधान क्यों था?
उत्तर:

  1. सन् 1992 से पहले स्थानीय शासन का विषय प्रदेशों को सौंप दिया गया था। इसलिए इस पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों को था और राज्य सरकारों ने अपने-अपने ढंग से स्थानीय स्वशासन की अलग-अलग संस्थाएँ निर्मित की थीं।
  2. संविधान के नीति: निर्देशक सिद्धान्तों में भी स्थानीय शासन की चर्चा है। इसमें कहा गया है कि देश की हर सरकार अपनी नीति में इसे एक निर्देशक तत्त्व मानकर चले। राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का अंग होने के कारण संविधान का यह प्रावधान अदालती वाद के दायरे में नहीं आता और इसकी प्रकृति प्रधानतः सलाह-मशविरे की है।

स्थानीय शासन JAC Class 11 Political Science Notes

→ केन्द्रीय और प्रादेशिक स्तर पर निर्वाचित सरकार होने के साथ-साथ लोकतंत्र के लिए यह भी आवश्यक है कि स्थानीय स्तर पर स्थानीय मामलों की देखभाल करने वाली एक निश्चित सरकार हो।

→ स्थानीय शासन से आशय-गांव और जिला स्तर के शासन को स्थानीय शासन कहते हैं। यह आम आदमी के सबसे नजदीक का शासन है तथा इसका विषय है-आम नागरिक की समस्यायें और उनकी रोजमर्रा की जिंदगी। इसकी मान्यता है कि स्थानीय ज्ञान और स्थानीय हित लोकतांत्रिक फैसला लेने के अनिवार्य घटक हैं।

→ स्थानीय शासन का महत्त्व:

  • स्थानीय शासन से आम लोगों की समस्याओं का समाधान बहुत तेजी से तथा कम खर्चे में हो जाता है।
  • स्थानीय शासन लोगों के स्थानीय हितों की रक्षा में अत्यन्त कारगर होता है।
  • जीवन्त और मजबूत स्थानीय शासन सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही को सुनिश्चित करता है।
  • स्थानीय शासन को मजबूत करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत बनाने के समान है।

→ भारत में स्थानीय शासन का विकास:

  • प्राचीन भारत में स्थानीय शासन प्राचीन भारत में ‘सभा’ के रूप में स्थानीय शासन था। समय बीतने के साथ गांव की इन सभाओं ने पंचायत का रूप ले लिया। समय बदलने के साथ-साथ पंचायतों की भूमिका और काम भी बदलते रहे।
  • स्वतंत्रता से पूर्व आधुनिक भारत में स्थानीय शासन का विकास: आधुनिक समय में, भारत में स्थानीय शासन के निर्वाचित निकाय सन् 1882 के बाद अस्तित्व में आए। यथा
    • लार्ड रिपन ने इन निकायों – मुकामी बोर्डों (Local Boards ): को बनाने की दिशा में पहलकदमी की।
    • इसके बाद 1919 के भारत शासन अधिनियम के बाद अनेक प्रान्तों में ग्राम पंचायतें बनीं। 1935 के एक्ट के बाद भी यह प्रवृत्ति जारी रही।
    • भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी ने आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण के तहत ग्राम पंचायतों को मजबूत बनाने पर बल दिया।
  • भारतीय संविधान में स्थानीय स्वशासन- जब संविधान बना तो स्थानीय स्वशासन का विषय प्रदेशों को सौंप दिया गया। इस प्रकार संविधान में स्थानीय स्वशासन को यथोचित महत्त्व नहीं मिल सका।
  • स्वतंत्र भारत में स्थानीय स्वशासन- संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के बाद स्थानीय शासन को मजबूत आधार मिला।

→ इससे पहले इस सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रयास किये गयें।

  • 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू किया गया।
  • ग्रामीण इलाकों के लिए त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की गई। गुजरात, महाराष्ट्र ने 1960 में निर्वाचन द्वारा बने स्थानीय निकायों की प्रणाली अपनायी। कई प्रदेशों में स्थानीय निकायों के चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से हुए। अनेक प्रदेशों में स्थानीय निकायों के चुनाव समय-समय पर स्थगित होते रहे। ये निकाय वित्तीय मदद के लिए प्रदेश तथा केन्द्रीय सरकार पर बहुत ज्यादा निर्भर थे।
  • सन् 1989 में पी. के. थुंगन समिति ने स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफारिश की और सन् 1992 में संविधान के 73वें तथा 74वें संशोधन को संसद ने पारित कर स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया।
  • 73वां संविधान संशोधन संविधान का 73वां संविधान संशोधन स्थानीय शासन से जुड़ा है।

→ 73वें संविधान संशोधन के पश्चात् ग्रामीण क्षेत्र में पंचायती राज व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं;

  • त्रिस्तरीय बनावट:
  • ग्राम पंचायत (प्राथमिक स्तर)
  • पंचायत समिति ( मध्यवर्ती स्तर- खंड या तालुका स्तर)
  • जिला पंचायत ( जिला स्तर)

संविधान के 73वें संशोधन में ‘ग्राम सभा’ को भी संवैधानिक महत्त्व दिया गया हैं।

→ चुनाव: पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तर के चुनाव सीधे जनता – ‘पांच साल’ के लिए करती है।

→  आरक्षण: सभी पंचायती संस्थाओं में एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। तीनों स्तर पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीट में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था इन जातियों के जनसंख्या के अनुपात में की गई है। यदि प्रदेश की सरकार आवश्यक समझे तो वह अन्य पिछड़ा वर्ग को भी सीट में आरक्षण दे सकती हैं। तीनों ही स्तर पर अध्यक्ष पद तक आरक्षण दिया गया है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

→  विषयों का स्थानान्तरण: ऐसे 29 विषय जो पहले राज्य सूची में थे, अब पहचान कर संविधान की 11वीं अनुसूची में दर्ज कर लिए गए हैं जिन्हें पंचायती राज संस्थाओं को हस्तांतरित किया जाना है। इन कार्यों का वास्तविक हस्तांतरण प्रदेश के कानून पर निर्भर है। हर प्रदेश यह फैसला करेगा कि इन 29 विषयों में से कितने को स्थानीय निकायों के हवाले करना है।

→ राज्य चुनाव आयुक्त: प्रदेश एक राज्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करेगा जिसकी जिम्मेदारी पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने की होगी। यह चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र अधिकारी होता है। उसका संबंध भारत के चुनाव आयोग से नहीं होता।

→  राज वित्त आयोग: प्रदेशों की सरकार हर पांच वर्ष के लिए एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनायेगी, जो स्थानीय शासन संस्थाओं की आर्थिक स्थिति का जायजा लेगा तथा राजस्व के बंटवारे की समीक्षा करेगा। इस पहल के द्वारा यह सुनिश्चित किया गया है कि ग्रामीण स्थानीय शासन को धन आबंटित करना राजनीतिक मसला न बने।

→ 74वां संविधान संशोधन
संविधान के 74वें संशोधन का सम्बन्ध शहरी स्थानीय शासन के निकाय अर्थात् नगरपालिका से है । सन् 2011 की जनगणना के अनुसार 31 प्रतिशत जनसंख्या शहरी इलाके में रहती है। 73वें संशोधन के सभी प्रावधान, जैसे— प्रत्यक्ष चुनाव, आरक्षण, विषयों का हस्तांतरण, प्रादेशिक चुनाव आयुक्त और प्रादेशिक वित्त आयोग 74वें संशोधन में शामिल हैं तथा नगरपालिकाओं पर लागू हैं। संशोधन के अन्तर्गत इस बात को अनिवार्य बना दिया गया है कि प्रदेश की सरकार 11वीं अनुसूची में दिये गये कार्यों को करने की जिम्मेदारी शहरी स्थानीय शासन- संस्थाओं पर छोड़ दे।

→ 73वें तथा 74वें संशोधन का क्रियान्वयन
अब सभी प्रदेशों ने 73वें तथा 74वें संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए कानून बना दिये हैं तथा उन्हें क्रियान्वित कर दिया है। यथा

  • लगभग सभी प्रदेशों में स्थानीय संस्थाओं के चुनाव हो रहे हैं। हर पांच वर्ष पर इन निकायों के लिए 32 लाख सदस्यों का निर्वाचन होता है। इस प्रकार स्थानीय निकायों के चुनावों के कारण निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई है।
  • आरक्षण के प्रावधान के कारण स्थानीय निकायों में महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी सुनिश्चित हुई है। संसाधनों पर अपने नियंत्रण की दावेदारी करके महिलाओं ने ज्यादा शक्ति और आत्मविश्वास अर्जित किया अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण को संविधान संशोधन ने ही अनिवार्य बना दिया है। इसके साथ ही अधिकांश प्रदेशों ने पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण का प्रावधान बनाया है।
  • संविधान के संशोधन ने 29 विषयों को स्थानीय शासन के हवाले किया है। लेकिन अनेक प्रदेशों ने अधिकांश विषय स्थानीय निकायों को नहीं सौंपे हैं।
  • स्थानीय निकाय प्रदेश और केन्द्र की सरकार पर वित्तीय मदद के लिए निर्भर हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में कौनसा कथन असत्य है?
(क) भारत में लोकसभा और विधानसभाएँ प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित होती हैं।
(ख) भारत में संसद प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित है।
(ग) भारत में लोकसभा के पास कार्यपालिका को हटाने की शक्ति है।
(घ) विधायिका जन – प्रतिनिधियों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है।
उत्तर:
(ख) भारत में संसद प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित है।

2. निम्नलिखित में किस प्रान्त में द्विसदनात्मक विधानमण्डल नहीं है।
(क) राजस्थान
(ख) बिहार
(ग) महाराष्ट्र
(घ) उत्तरप्रदेश
उत्तर:
(क) राजस्थान

3. राज्य सभा के सदस्यों का कार्यकाल है।
(क) 5 वर्ष
(ख) 4 वर्ष
(ग) 6 वर्ष
(घ) 8 वर्ष
उत्तर:
(ग) 6 वर्ष

4. राज्यसभा के 12 सदस्यों को मनोनीत किया जाता है।
(क) प्रधानमंत्री द्वारा
(ख) सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा
(ग) उपराष्ट्रपति द्वारा
(घ) राष्ट्रपति द्वारा
उत्तर:
(घ) राष्ट्रपति द्वारा

5. निम्नलिखित में से कौनसी शक्ति ऐसी हैं जो लोकसभा के पास है, लेकिन विधानसभा के पास नहीं हैं।
(क) सामान्य विधेयकों को पारित करने की शक्ति
(ख) संवैधानिक विधेयकों के पारित करने की शक्ति
(ग) धन विधेयक प्रस्तुत किये जाने की शक्ति
(घ) राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने की शक्ति।
उत्तर:
(ग) धन विधेयक प्रस्तुत किये जाने की शक्ति

6. निम्नलिखित में ऐसी कौनसी शक्ति है जो राज्यसभा के पास तो है, लेकिन लोकसभा के पास नहीं।
(क) राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रहित में संघीय सूची या समवर्ती सूची में हस्तांतरित करने की शक्ति
(ख) धन विधेयक प्रस्तुत करने की शक्ति
(ग) संविधान संशोधन की शक्ति
(घ) सामान्य विधेयक पारित करने की शक्ति।
उत्तर:
(क) राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रहित में संघीय सूची या समवर्ती सूची में हस्तांतरित करने की शक्ति

7. संसद द्वारा कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने का सबसे सशक्त हथियार है।
(क) वित्तीय नियंत्रण
(ख) बहस और वाद-विवाद
(ग) स्थगन प्रस्ताव
(घ) अविश्वास प्रस्ताव
उत्तर:
(घ) अविश्वास प्रस्ताव

8. वर्तमान में लोकसभा के कुल निर्वाचन क्षेत्र हैं।
(क) 550
(ख) 500
(ग) 530
(घ) 543
उत्तर:
(घ) 543

9. लोकसभा की सदस्य होने के लिए निम्नतम आयु सीमा है।
(क) 18 वर्ष
(ख) 21 वर्ष
(ग) 1 वर्ष
(घ) 6 माह
उत्तर:
(ग) 1 वर्ष

10. संसद के दो अधिवेशनों के बीच अधिकतम समयान्तर होता है।
(क) 3 मास
(ख) 5 मास
(ग) 25 वर्ष
(घ) 35 वर्ष
उत्तर:
(घ) 35 वर्ष

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. हमारी राष्ट्रीय विधायिका का नाम ………………… है।
उत्तर:
संसद

2. ……………….. हमारी संसद का स्थायी सदन है।
उत्तर:
राज्य सभा

3. संसद द्वारा कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने का सबसे सशक्त हथियार …………………. है।
उत्तर:
अविश्वास प्रस्ताव

4. सदन का ……………… विधायिका की कार्यवाही के मामले में सर्वोच्च अधिकारी होता है।
उत्तर:
अध्यक्ष

5. राज्य सभा के ……………… सदस्यों को वर्ष के लिए निर्वाचित किया जाता है।
उत्तर:
6.

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. विधायिका प्रतिनिधिक लोकतंत्र का आधार है।
उत्तर:
सत्य

2. भारत के राजस्थान राज्य की विधायिका द्विसदनात्मक है।
उत्तर:
असत्य

3. भारत के उत्तरप्रदेश राज्य की विधायिका एकसदनीय है।
उत्तर:
असत्य

4. राज्य विधान सभा के निर्वाचित सदस्य राज्य सभा के सदस्यों को चुनते हैं।
उत्तर:
सत्य

5. निर्वाचित सदस्यों के अतिरिक्त लोकसभा में 12 मनोनीत सदस्य होते हैं।
उत्तर:
असत्य

6. सदन का अध्यक्ष दलबदल से संबंधित विवादों पर अंतिम निर्णय लेता है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये।

1. फेडरल एसेंबली और फेडरल कौंसिल (क) भारतीय संसद के दोनों सदन
2. लोकसभा और राज्य सभा (ख) लोकसभा संजीव पास बुक्स
3. सीनेट (ग) सदन का अध्यक्ष
4. धन विधेयक प्रस्तुत करना (घ) अमेरिका का द्वितीय सदन
5. विधायिका की कार्यवाही के मामले में सर्वोच्च अधिकारी (च) जर्मनी की विधायिका के दोनों सदन

उत्तर:

1. फेडरल एसेंबली और फेडरल कौंसिल (च) जर्मनी की विधायिका के दोनों सदन
2. लोकसभा और राज्य सभा (क) भारतीय संसद के दोनों सदन
3. सीनेट (घ) अमेरिका का द्वितीय सदन
4. धन विधेयक प्रस्तुत करना (ख) लोकसभा संजीव पास बुक्स
5. विधायिका की कार्यवाही के मामले में सर्वोच्च अधिकारी (ग) सदन का अध्यक्ष


अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका किसे कहते हैं?
(क) भारतीय संसद के दोनों सदन
(घ) अमेरिका का द्वितीय सदन
(ख) लोकसभा
(ग) सदन का अध्यक्ष
उत्तर:
जब कभी विधायिका में दो सदन होते हैं, तो उसे द्वि- सदनात्मक व्यवस्थापिका कहते हैं?

प्रश्न 2.
भारतीय संसद के दोनों सदनों के नाम लिखिये।
उत्तर:
भारतीय संसद के दोनों सदनों के नाम ये हैं।

  1. लोकसभा और
  2. राज्य सभा।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 3.
भारत के कितने राज्यों में द्विसदनात्मक विधायिका है? उनके नाम लिखिये।
उत्तर:
भारत के 6 राज्यों में द्विसदनात्मक विधायिका है। ये राज्य हैं।

  1. बिहार
  2. आंध्रप्रदेश
  3. कर्नाटक
  4. महाराष्ट्र,
  5. उत्तरप्रदेश और
  6. तेलंगाना।

प्रश्न 4.
द्विसदनात्मक विधायिका के कोई दो लाभ लिखिये।
उत्तर;

  1. दूसरा सदन समाज के सभी वर्गों तथा देश के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है।
  2. संसद के प्रत्येक निर्णय पर दूसरे सदन में पुनर्विचार हो जाता है।

प्रश्न 5.
राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन किस विधि से होता है?
उत्तर:
राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों के निर्वाचन मण्डल द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 6.
राज्यसभा में राज्यों के प्रतिनिधित्व का आधार क्या है?
उत्तर:
राज्यसभा में राज्यों के प्रतिनिधित्व का आधार प्रत्येक राज्य की जनसंख्या है अर्थात् ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों को ज्यादा और कम जनसंख्या वाले राज्यों को कम प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।

प्रश्न 7.
संविधान की किस सूची में प्रत्येक राज्य से राज्यसभा के लिए निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या निर्धारित कर दी गई है?
उत्तर:
संविधान की चौथी अनुसूची में राज्यसभा में प्रत्येक राज्य से निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या निर्धारित कर दी गई है।

प्रश्न 8.
राज्यसभा में राष्ट्रपति किन और कितने सदस्यों को मनोनीत करता है?
उत्तर:
राज्यसभा में राष्ट्रपति साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष उपलब्धि प्राप्त 12 व्यक्तियों को मनोनीत करता है।

प्रश्न 9.
दल-बदल क्या है?
उत्तर:
यदि कोई सदस्य अपने दल के नेतृत्व के आदेश के बावजूद सदन में उपस्थित न हो या दल के निर्देशों के विपरीत सदन में मतदान करे तो उसे दल-बदल कहते हैं।

प्रश्न 10.
संसद के किन्हीं दो कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संसद के दो प्रमुख कार्य ये हैं।

  1. विधि निर्माण
  2. कार्यपालिका पर नियंत्रण तथा उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना।

प्रश्न 11.
संसदीय समितियों को ‘लघु विधायिका’ क्यों कहते हैं?
उत्तर:
संसदीय समितियों में सभी संसदीय दलों को प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। इसी कारण इन समितियों को ‘लघु विधायिका’ भी कहते हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 12.
संसदीय लोकतंत्र किस स्थिति में ‘मंत्रिमण्डल की तानाशाही’ में बदल सकता है?
उत्तर:
जब बहुमत की ताकत पाकर कार्यपालिका अपनी शक्तियों का मनमाना प्रयोग करने लगे तो ऐसी स्थिति में संसदीय लोकतंत्र मंत्रिमण्डल की तानाशाही में बदल सकता है।

प्रश्न 13.
सरकारी विधेयक किसे कहते हैं?
उत्तर:
मंत्री द्वारा प्रस्तुत विधेयक को सरकारी विधेयक कहते हैं।

प्रश्न 14.
निजी विधेयक किसे कहते हैं?
उत्तर:
मंत्री के अतिरिक्त किसी और सदस्य द्वारा प्रस्तुत विधेयक को निजी विधेयक कहते हैं।

प्रश्न 15.
संसदीय विशेषाधिकार किसे कहते हैं?
उत्तर:
संसद में सांसदों को प्रभावी और निर्भीक रूप से काम करने की शक्ति और स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए जो विशेष अधिकार प्रदान किये जाते हैं, उन्हें संसदीय विशेषाधिकार कहते हैं।

प्रश्न 16.
विधायिका द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण के कोई दो तरीके लिखिये।
उत्तर:
अविश्वास प्रस्ताव , वित्तीय नियंत्रण

प्रश्न 17.
द्वितीय सदन के विरुद्ध कोई दो तर्क दीजिये।
उत्तर:

  1. द्वितीय सदन के कारण प्राय: विधि निर्माण में देरी होती है।
  2. द्वितीय सदन से देश के धन की बर्बादी होती है।

प्रश्न 18.
द्विसदनीय विधायिका में दूसरा सदन किस प्रकार स्थायी बनता है?
उत्तर:

  1. द्वितीय सदन कार्यपालिका या राज्य के प्रमुख द्वारा भंग नहीं किया जा सकता, जबकि प्रथम (निम्न ) सदन भंग किया जा सकता है।
  2. द्वितीय सदन के सभी सदस्य प्रायः एक साथ ही एक बार में निर्वाचित नहीं होते। जैसे कि भारत में राज्य सभा के 1/3 सदस्य ही प्रति दो वर्ष बाद निर्वाचित किये जाते हैं।

प्रश्न 19.
किन परिस्थितियों में संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जा सकता है?
उत्तर:

  1. दोनों सदनों के विवादों को हल करने के लिए।
  2. किसी विधेयक को एक सदन पारित कर दे और दूसरा अस्वीकृत कर दे।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 20.
विधायिका के अध्यक्ष पद के कोई दो कार्य बताइये।
उत्तर:

  1. अध्यक्ष सदन की सभाओं की अध्यक्षता करता है तथा नियमानुसार इसके कार्य को संचालित करता है।
  2. वह सदन में अनुशासन बनाए रखता है तथा संवैधानिक तरीके से वाद-विवाद तथा विचार-विमर्श को जारी रखता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थगन प्रस्ताव क्या है?
उत्तर:
स्थगन प्रस्ताव-सामान्यतः सदन के कार्यकलाप उस दिन के निर्धारित एजेण्डा (कार्य-सूची) के अनुसार ही जारी रहते हैं, लेकिन कभी-कभी किसी विशेष अचानक होने वाली राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय घटना-दुर्घटना के कारण सदन का कोई सदस्य सदन से यह प्रार्थना करता है कि निर्धारित कार्यक्रम को रोककर उस विशेष घटना पर विचार- विमर्श करे । इस प्रस्ताव को स्थगन प्रस्ताव कहते हैं। यदि इस प्रस्ताव को सदन के अध्यक्ष द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो उस विषय पर सदन में विचार-विमर्श प्रारम्भ कर देता है।

प्रश्न 2.
प्रश्न काल क्या है?
उत्तर:
प्रश्न काल-प्रश्न काल संसद के दोनों सदनों की दैनिक प्रक्रिया में एक बहुमत महत्वपूर्ण अवधि है । इस अवधि के दौरान सदन के सदस्य को प्रश्न पूछने का अधिकार होता है और जिसका उत्तर उस प्रश्न से संबंधित मंत्री को देना पड़ता है। प्राय: प्रश्न सरकार की आलोचना करने तथा सरकार के विरुद्ध जनमत निर्माण करने तथा सरकार पर विपक्ष के नियंत्रण हेतु किये जाते हैं। इसमें मंत्री को शक्ति के दुरुपयोग के विरुद्ध चेतावनी दी जाती है

प्रश्न 3.
अविश्वास प्रस्ताव का क्या आशय है?
उत्तर:
अविश्वास प्रस्ताव:
अविश्वास प्रस्ताव लोकसदन द्वारा कार्यपालिका के विरुद्ध प्रस्तुत किया जाता है। इसका आशय है कि लोकसभा में मंत्रिमंडल के प्रति विश्वास नहीं रहा है। यदि लोकसभा किसी मंत्री या पूरी मंत्रिपरिषद् के प्रति साधारण बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव पारित कर देती है तो मंत्रिपरिषद को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ता है। लोकसभा में लोकसभा अध्यक्ष अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान करवाना है।

प्रश्न 4.
क्या भारतीय संसद संवैधानिक संप्रभु है?
उत्तर:
भारत की संसद संवैधानिक दृष्टि से संप्रभु नहीं है। इसके विधान निर्माण पर निम्न सीमाएँ हैं।

  1. भारतीय संसद सभी विषयों पर विधि निर्माण नहीं कर सकती। यह प्राय: संघ सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर ही विधि निर्माण कर सकती है और राज्य सूची के विषयों पर केवल विशेष परिस्थितियों में ही विधि बना सकती है।
  2. संसद संविधान के विरोध में विधि का निर्माण नहीं कर सकती तथा मूल अधिकारों के उल्लंघन में विधि निर्माण नहीं कर सकती। यदि संसद ऐसी विधि बनाती है तो न्यायालय उसे असंवैधानिक बताकर रद्द कर सकता है।

प्रश्न 5.
संसद (विधायिका) की क्या आवश्यकता है?
अथवा
संसद की उपयोगिता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संसद (विधायिका) की आवश्यकता ( उपयोगिता )

  1. संसद ( विधायिका) जनता द्वारा निर्वाचित होती है और जनता की प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है।
  2. यह कानून निर्माण का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है।
  3. यह जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है। यह मंत्रिमंडल पर नियंत्रण रखती
  4. यह वाद-विवाद का सबसे लोकतांत्रिक खुला मंच है।
  5. यह प्रतिनिधिक लोकतंत्र का आधार है।

प्रश्न 6.
” संसद कार्यपालिका को प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर सकती है।” लेकिन इसके लिए किन विशेष शर्तों का पूरा होना आवश्यक है?
उत्तर:
संसद कार्यपालिका को प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर सकती है, लेकिन इसके लिए निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।

  1. संसद के सदन के पास पर्याप्त समय हो।
  2. संसद के सदस्य बहस में रुचि रखते हों तथा वे उसमें प्रभावशाली ढंग से भाग लें।
  3. सरकार तथा विपक्ष में आपस में समझौता करने की इच्छा हो।

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प्रश्न 7.
संसदीय समितियों की आवश्यकता क्यों पड़ी?
उत्तर:
संसदीय समितियों की आवश्यकता के प्रमुख कारण ये हैं।

  1. चूँकि संसद केवल अधिवेशन के दौरान ही बैठती है, इसलिए इसके पास अत्यन्त सीमित समय होता है।
  2. किसी कानून को बनाने के लिए उससे जुड़े विषय का गहन अध्ययन करना पड़ता है। इसके लिए उस पर ज्यादा ध्यान और समय देने की आवश्यकता होती है।
  3. संसद को निधि निर्माण के अतिरिक्त अन्य बहुत से महत्वपूर्ण कार्य करने होते हैं।

सीमित समय के कारण संसद इन सब कार्यों को भली-भाँति नहीं कर पाती है। इस समस्या को दूर करने के लिए वह विधेयकों पर विचार करने व गहन अध्ययन करने के लिए उन्हें संसदीय समितियों को भेज देती है। अत: संसद के सीमित समय और कार्य की अधिकता के कारण संसदीय समितियों की आवश्यकता पड़ी।

प्रश्न 8.
दल-बदल से क्या तात्पर्य है? दल-बदल को रोकने के लिए क्या उपाय किए गए हैं?
उत्तर:
दल-बदल का अर्थ एक विधायक या सांसद का अपने दल के चुनाव चिह्न पर चुने जाने के बाद उसे छोड़कर किसी दूसरे राजनीतिक दल में चले जाना या निर्दलीय बन जाना दल-बदल कहलाता है।दल-बदल रोकने के उपाय:

  1. यदि संसद या विधायक किसी राजनीतिक दल से चुने जाने के पश्चात् अपने दल की सदस्यता से स्वेच्छापूर्वक त्याग-पत्र दे देता है, तो उसकी सदन की सदस्यता समाप्त हो जाएगी।
  2. यदि वह सदस्य अपने दल के निर्देशों के विपरीत सदन में मतदान करता है या मतदान में भाग लेता है, तो उसी सदस्यता खत्म कर दी जाएगी।
  3. दल-बदल पर अन्तिम निर्णय करने का अधिकार स्पीकर या उपसभापति का होता है।

प्रश्न 9.
राज्यसभा के सदस्य की योग्यताएँ (अर्हताएँ) क्या हैं?
उत्तर:
राज्यसभा के सदस्य की अर्हताएँ – एक व्यक्ति जो राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित या नियुक्त होना चाहता है, उसमें निम्नलिखित अर्हताएँ होनी चाहिए-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसने 30 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।
  3. वह संघ या राज्य सरकार के किसी लाभ के पद पर आसीन न हो।
  4. वह दिवालिया तथा चित्त – विकृत न हो।
  5. वह न्यायालय द्वारा इस पद के अयोग्य नहीं ठहराया गया हो।
  6. वह जिस राज्य का राज्य सभा सदस्य बनना चाहता है, उस राज्य का निवासी हो।

प्रश्न 10.
लोकसभा के सदस्य की अर्हताएँ क्या हैं?
उत्तर:
लोकसभा के सदस्य की अर्हताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसने 25 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।
  3. ह संघ या राज्य सरकार में किसी लाभ के पद पर आसीन न हो।
  4. वह दिवालिया और चित्त – विकृत न हो।
  5. वह संसद द्वारा निर्धारित अन्य योग्यताओं को पूरा करता हो।

प्रश्न 11.
राज्य सभा के सभापित तथा लोकसभा के अध्यक्ष के मध्य क्या अन्तर हैं? तुलना कीजिए।
उत्तर:
लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं।

  1. लोकसभा का अध्यक्ष स्वयं लोकसभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित होता है जबकि राज्यसभा का सभापति संसद के दोनों सदनों द्वारा निर्वाचित होता है।
  2. अध्यक्ष लोकसभा का सदस्य होता है जबकि सभापति राज्य सभा का सदस्य नहीं होता है।
  3. दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता लोकसभा का अध्यक्ष करता है, न कि राज्यसभा का सभापति।
  4. धन विधेयक है या नहीं, इसका निर्णय लोकसभा अध्यक्ष करता है, न कि राज्यसभा का सभापति।
  5. लोकसभा अपने अध्यक्ष को पदच्युत कर सकती है, लेकिन राज्यसभा अपने सभापति को पदच्युत नहीं कर सकती।

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प्रश्न 12.
संसद स्वयं को कैसे नियंत्रित करती है?
उत्तर:
संसद स्वयं को नियंत्रित करती है। संसद स्वयं को निम्न प्रकार नियंत्रित करती है।
1. अध्यक्ष के द्वारा नियंत्रण:
स्वयं संविधान में संसद की कार्यवाही को सुचारु ढंग से चलाने के लिए प्रावधान बनाए गए हैं। सदन का अध्यक्ष इन प्रावधानों के अनुसार संसद की कार्यवाही को नियंत्रित करता है क्योंकि वह विधायिका की कार्यवाही के मामले में सर्वोच्च अधिकारी होता है।

2. दलबदल निरोधक कानून द्वारा नियंत्रण:
दलबदल कानून का उल्लंघन करने पर सदन का अध्यक्ष उसकी सदन की सदस्यता समाप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त, ऐसे दलबदलू को किसी भी राजनैतिक पद (जैसे– मंत्री ) के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।

प्रश्न 13.
संसदीय समितियाँ क्या करती हैं?
उत्तर:
संसदीय समितियाँ निम्न कार्य करती हैं।

  1. संसदीय समितियाँ उसके पास संसद द्वारा भेजे गये विधेयक पर गहन अध्ययन तथा विचार-विमर्श कर अपने निष्कर्ष के साथ उसे पुनः सदन में भेजती हैं। इस प्रकार वे कानून निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
  2. संसदीय समितियाँ कानून निर्माण के अतिरिक्त सदन के दैनिक कार्यों में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं; जैसे – मंत्रालयों की अनुदान मांगों का अध्ययन, विभिन्न विभागों द्वारा किये गये खर्चों की जाँच, भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल आदि।

प्रश्न 14.
कानून बनाने का निर्णय लेने से पहले मंत्रिमंडल किन-किन बातों पर विचार करता है?
उत्तर:
मंत्रिमण्डल को विधेयक बनाने से पहले उसके सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना पड़ता है।

  1. कानून को लागू करने के लिए जरूरी संसाधनों को कहाँ से जुटाया जायेगा?
  2. विधेयक का कितना समर्थन और विरोध होगा?
  3. प्रस्तावित कानून से सत्तारूढ़ दल की चुनावी संभावनाओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
  4. प्रस्तावित विधेयक पर गठबंधन के घटक दलों का समर्थन प्राप्त होगा या नहीं? कानून बनाने का निर्णय लेने से पहले मंत्रिमण्डल इन सभी बातों पर विचार करता है।

प्रश्न 15.
संसद के चार गैर-विधायी कार्यों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:

  1. संसद मंत्रिमण्डल पर नियन्त्रण करने का महत्वपूर्ण कार्य करती है। मंत्रिमण्डल को तब तक अपने पद पर बने रहने का अधिकार है जब तक उसे संसद का बहुमत प्राप्त होता रहता है।
  2. संसद राष्ट्र की नीतियों को निर्धारित करती है।
  3. संसद उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है तथा राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेती है।
  4. संसद यदि चाहे तो राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटा सकती है।

प्रश्न 16.
भारतीय संसद की कोई चार विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
भारतीय संसद की विशेषताएँ – भारतीय संसद की चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  • भारतीय संसद द्वि-सदनात्मक है। इसके दो सदन हैं
    1. लोकसभा (निम्न सदन)
    2. राज्यसभा ( उच्च सदन)।
  • भारत में संसद देश में कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था है।
  • इसके दोनों सदनों की शक्तियाँ समान नहीं हैं।
  • लोकसभा का गठन जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है जबकि राज्य सभा का गठन अप्रत्यक्ष रूप से राज्य – विधानसभाओं के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है।

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प्रश्न 17.
भारत में कुल कितने संघ राज्य क्षेत्र हैं? इनके नाम लिखिये।
उत्तर:
भारत में कुल 9 संघ राज्य क्षेत्र हैं। ये हैं।

  1. अण्डमान निकोबार द्वीप समूह
  2. चंडीगढ़
  3. दादरा और नगर हवेली
  4. दमन और दीव
  5. लक्षदीप
  6. नई दिल्ली
  7. पांडिचेरी
  8. जम्मू-कश्मीर
  9. लद्दाख।

प्रश्न 18.
विधायिका से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
विधायका से आशय सरकार के तीन अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में विधायिका एक महत्वपूर्ण अंग है। संसदीय सरकार के सभी अंगों में विधायिका सर्वाधिक प्रतिनिध्यात्मक है। विधायिका का मुख्य काम कानून का निर्माण करना है। लेकिन कानून के अतिरिक्त यह मंत्रिमण्डल पर नियंत्रण का भी कार्य करती है। यह वाद-विवाद का सबसे लोकतांत्रिक और खुला मंच है। यह सभी लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रियाओं का केन्द्र है।

प्रश्न 19.
विधायिका के चार कार्यों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:

  1. विधायिका का सबसे महत्वपूर्ण कार्य कानून निर्माण करना है।
  2. विधायिका राज्य के वित्त पर नियंत्रण करती है तथा बजट पारित करती है।
  3. सभी लोकतांत्रिक राज्यों में संविधान में संशोधन करने का अधिकार विधायिका के पास है।
  4. विधायिका कार्यपालिका पर नियंत्रण का कार्य करती है।

प्रश्न 20.
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के दो गुण (लाभ) बताइये।
उत्तर:
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण (लाभ): द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के दो प्रमुख लाभ ये हैं:

1. समाज के सभी वर्गों और क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व:
विविधताओं से परिपूर्ण बड़े देश प्रायः द्विसदनात्मक राष्ट्रीय विधायिका चाहते हैं ताकि वे अपने समाज के सभी वर्गों और देश के सभी क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व दे सकें ।

2. पुनर्विचार संभव;
संसद के प्रत्येक निर्णय पर दूसरे सदन में पुनर्विचार हो जाता है। एक सदन द्वारा लिया गया प्रत्येक निर्णय दूसरे सदन को भेजा जाता है। यदि एक सदन जल्दबाजी में कोई निर्णय ले लेता है तो दूसरे सदन में उस पर पुनर्विचार हो जाता है।

प्रश्न 21.
द्वितीय सदन में प्रतिनिधित्व के कौन-से दो सिद्धान्त हैं?
उत्तर:
द्वितीय सदन में प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त – द्वितीय सदन में प्रतिनिधित्व के दो प्रमुख सिद्धान्त हैं। ये निम्नलिखित हैं।

1. समान प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त;
देश के सभी क्षेत्रों (राज्यों) के असमान आकार और जनसंख्या के बावजूद द्वितीय सदन में प्रत्येक क्षेत्र को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है; जैसा कि अमेरिका और स्विट्जरलैण्ड में है।

2. असमान प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त;
देश के विभिन्न क्षेत्रों (राज्यों) को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाये अर्थात् अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्रों को कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों से अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाये; जैसा कि भारत में है।

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प्रश्न 22.
राज्य सभा की रचना की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संविधान के अनुसार राज्य सभा के सदस्यों की संख्या अधिक-से-अधिक 250 हो सकती है, जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे, 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते हैं, जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। राज्य सभा में विभिन्न राज्यों की जनसंख्या के आधार पर संविधान द्वारा निर्धारित सदस्यों का निर्वाचन उस राज्य की विधायिका के द्वारा किया जाता हैं।

प्रश्न 23.
भारत में राज्यसभा के लिए अमेरिका की समान प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रयोग क्यों नहीं किया गया है?
उत्तर:
यदि भारत में राज्यसभा के लिए अमेरिका की समान प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रयोग किया जाता तो 19.98 करोड़ जनसंख्या वाले उत्तरप्रदेश राज्य को 6.10 लाख जनसंख्या वाले सिक्किम राज्य के बराबर ही प्रतिनिधित्व मिलता। संविधान निर्माताओं ने इस विसंगति से बचने के लिए प्रत्येक राज्य को उसकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने का निर्णय लिया। इस आधार पर उत्तरप्रदेश को 31 सीटें तथा सिक्किम को राज्यसभा की एक सीट दी गयी है।

प्रश्न 24.
संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन की आवश्यकता:
संघीय व्यवस्था में दूसरे सदन का होना आवश्यक है। संघ की इकाइयों का प्रतिनिधित्व दूसरे सदन में ही दिया जा सकता है। अत: समाज के सभी वर्गों और देश के सभी क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए संघीय व्यवस्था में दूसरे सदन की आवश्यकता होती है।

द्वितीय सदन की भूमिका:
द्वितीय सदन राज्यों (संघ की इकाइयों) का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था होती है। इसका उद्देश्य राज्यों के हितों का संरक्षण करना है। इसलिए, राज्य के हितों को प्रभावित करने वाला प्रत्येक मुद्दा इसकी सहमति व स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। उदाहरण के लिए भारत में यदि केन्द्र सरकार राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रहित में संघीय सूची या समवर्ती सूची में हस्तांतरित करना चाहे, तो उसमें राज्य सभा की स्वीकृति आवश्यक है।

  • द्वितीय सदन के लाभ
    1. द्वितीय सदन कानून निर्माण में जल्दबाजी को रोकता है।
    2. यह संघ की एकता और सहयोग की भावना को दृढ़ करता हैं।
    3. यह प्रथम सदन की निरंकुशता पर अंकुश लगाता है।
  • द्वितीय सदन की हानियाँ
    1. द्वितीय सदन व्यर्थ है। यह देश के धन का दुरुपयोग है।
    2. यह सदन कानून निर्माण के कार्य में अनावश्यक गतिरोध पैदा करता है।
    3. संघात्मक सरकार में भी जब दूसरे सदन के सदस्य राजनीतिक दलों के आधार पर चुने जाते हैं तो उनकी निष्ठा उस राज्य की तुलना में उस दल विशेष के प्रति अधिक हो जाती है। फलतः दल की निष्ठा में राज्य हित तिरोहित हो जाता है।

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प्रश्न 25.
उन परिस्थितियों को बताइये जब भारतीय संसद उन विषयों पर भी कानून बना सकती है जो राज्य सूची में शामिल हैं।
उत्तर:
राज्य सूची के विषयों पर संसद सामान्य स्थितियों पर तो कानून नहीं बना सकती, क्योंकि इस सूची के विषयों पर कानून निर्माण का अधिकार केवल राज्यों के विधानमण्डलों को दिया गया है। लेकिन निम्नलिखित दो परिस्थितियों में संसद भी राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।

  1. उस अवस्था में जब राज्य सूची का कोई विषय राष्ट्रीय महत्व का बन जाता है तब राज्य सभा यदि 2 / 23 के बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित करती है कि राज्य सूची का अमुक विषय राष्ट्रीय महत्व का बन गया है तो इस विषय पर संसद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
  2. राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा के पश्चात् भी राज्य सूची के विषय पर केन्द्र को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 26.
लोकसभा तथा राज्यसभा की विशेष शक्तियों का उल्लेख कीजिये।
अथवा
लोकसभा और राज्यसभा की उन विशेष शक्तियों का उल्लेख कीजिए जो एक सदन के पास हैं और दूसरे सदन के पास नहीं हैं।
उत्तर:
लोकसभा की विशेष शक्तियाँ: लोकसभा को निम्नलिखित ऐसी विशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त हैं, जो राज्य सभा को प्राप्त नहीं हैं।

  1. धन विधेयक केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं और वही उसे संशोधित या अस्वीकृत कर सकती है।
  2. मंत्रिपरिषद केवल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है, राज्यसभा के प्रति नहीं। राज्य सभा सरकार की आलोचना तो कर सकती है, लेकिन अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा उसे हटा नहीं सकती। इस प्रकार सरकार को हटाने और वित्त पर नियंत्रण रखने की शक्ति केवल लोकसभा के ही पास है।

राज्यसभा की विशेष शक्तियाँ।

  1. यदि केन्द्र सरकार राज्य सूची के किसी विषय को, राष्ट्रहित में, संघीय सूची या समवर्ती सूची में हस्तांतरित करना चाहे, तो उसमें राज्य सभा की स्वीकृति आवश्यक है। यदि राज्य सभा अपने 2/3 बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर देती है, तो वह विषय राष्ट्रीय महत्व का बन जाता है और उस पर संसद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
  2. राज्य सभा ही 2/3 बहुमत से एक प्रस्ताव पारित करके संघ सरकार को नई अखिल भारतीय सेवा निर्मित करने का अधिकार प्रदान कर सकती है।

प्रश्न 27.
भारत में संसदीय समितियाँ क्या करती हैं?
उत्तर:
(अ) स्थायी संसदीय समितियों के कार्य: विभिन्न विधायी कार्यों के लिए भारत में स्थायी संसदीय समितियों का गठन किया गया है। ये समितियाँ केवल कानून बनाने में ही नहीं, वरन् सदन के दैनिक कार्यों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यथा-
1. विधायी कार्य:
चूंकि संसद के पास कम समय होता है, इसलिए उस पर गहन अध्ययन हेतु वह स्वयं विचार करने से पूर्व संसद की संबंधित स्थायी समिति को भेज देती है। भारत में विभिन्न विभागों से संबंधित 20 स्थायी समितियाँ हैं जो उनसे संबंधित विधेयकों पर विचार करती हैं। ये समितियाँ संसद द्वारा विधेयक पर गहन अध्ययन व विचार-विमर्श कर अपनी सिफारिशें करती हैं। इन सिफारिशों को सदन में भेज दिया जाता है। इन समितियों में सभी संसदीय दलों को प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। इन समितियों के सुझावों को सामान्यतः संसद स्वीकार कर लेती है।

2. दैनिक कार्य:
संसदीय समितियाँ विधायी कार्य के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण दैनिक कार्य भी करती हैं, जैसे—विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान माँगों का अध्ययन, विभिन्न विभागों के द्वारा किये गए खर्चों की जाँच, भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल आदि।
(ब) संयुक्त संसदीय समितियों के कार्य – स्थायी संसदीय समितियों के अतिरिक्त देश में संयुक्त संसदीय समितियों का गठन किसी विधेयक पर संयुक्त चर्चा अथवा वित्तीय अनियमितताओं की जाँच के लिए किया जा सकता है।

प्रश्न 28.
लोकसभा की शक्तियों का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
उत्तर:
लोकसभा की शक्तियाँ लोकसभा की प्रमुख शक्तियाँ निम्नलिखित हैं-

  • विधि निर्माण सम्बन्धी कार्य: लोकसभा संघ सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाती है। यह धन विधेयकों और सामान्य विधेयकों को प्रस्तुत और पारित करती है तथा संविधान संशोधन विधेयकों को प्रस्तुत तथा पर है।
  • वित्तीय कार्य लोकसभा कर: प्रस्तावों, बजट तथा वार्षिक वित्तीय वक्तव्यों को स्वीकृति देती है।
  • कार्यपालिका पर नियंत्रण का कार्य: लोकसभा प्रश्न पूछकर, पूरक प्रश्न पूछकर, प्रस्ताव लाकर और अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से कार्यपालिका को नियंत्रित करती है। अन्य कार्य;
    1. लोकसभा आपातकाल की घोषणा को स्वीकृति देती है।
    2. यह राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है तथा उनके विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव लाकर उन्हें पदच्युत करने में भाग लेती है।
    3. यह महाभियोग के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटा सकती है।
    4. यह समिति और आयोगों का गठन करती है और उनके प्रतिवेदनों पर विचार करती है।

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प्रश्न 29.
राज्यसभा की शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राज्यसभा की शक्तियाँ राज्यसभा की प्रमुख शक्तियाँ निम्नलिखित हैं।
1. विधायी व संवैधानिक संशोधन की शक्तियाँ:
राज्यसभा सामान्य विधेयकों को प्रस्तुत तथा पारित करती है। लेकिन यह धन विधेयकों को न तो प्रस्तावित कर सकती है और न पारित करती है, बल्कि उस पर विचार कर संशोधन प्रस्तावित ही कर सकती है। यह संवैधानिक संशोधन को भी प्रस्तावित तथा पारित करती है।

2. कार्यपालिका नियंत्रण सम्बन्धी शक्ति:
राज्यसभा प्रश्न पूछकर तथा संकल्प एवं प्रस्ताव प्रस्तुत करके कार्यपालिका पर नियंत्रण करती है; लेकिन उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव नहीं ला सकती। इस प्रकार यह कार्यपालिका को अपदस्थ नहीं कर सकती।

3. विशेष अधिकार:
यह राज्य सूची के किसी विषय पर संघ सरकार को कानून बनाने का अधिकार दे सकती है। इसी प्रकार कोई नई अखिल भारतीय सेवा प्रारम्भ करने की भी अनुमति दे सकती है।

4. अन्य अधिकार:
यह राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भागीदारी करती है तथा उन्हें और सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया में भागादारी करती है। उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव केवल राज्यसभा में ही लाया जा सकता है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संसद के गठन एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए।.
उत्तर:
भारतीय संसद का गठन भारत की संसद द्विसदनात्मक संघीय व्यवस्थापिका है। इसके दो सदन हैं।

  1. लोकसभा और
  2. राज्यसभा। लोकसभा निम्न सदन है और राज्य सभा उच्च सदन है।

(अ) राज्य सभा का गठन: राज्य सभा की रचना का वर्णन अग्र प्रकार किया गया है।
(i) राज्यों का प्रतिनिधि सदन: राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

(ii) अप्रत्यक्ष निर्वाचन: इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से होता है। किसी राज्य के लोग राज्य की विधानसभा के सदस्यों को चुनते हैं। फिर राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य, राज्यसभा के सदस्यों को चुनते हैं।

(iii) प्रतिनिधित्व का आधार: राज्यसभा में देश के विभिन्न क्षेत्रों (राज्यों) को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया गया है। इस प्रकार राज्य सभा में ज्यादा जनसंख्या वाले क्षेत्रों को ज्यादा प्रतिनिधित्व और कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों को कम प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ है। जनसंख्या के अनुपात के आधार पर संविधान की चौथी अनुसूची में प्रत्येक राज्य से निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या निर्धारित कर दी गई है।

(iv) प्रतिनिधित्व की पद्धति: राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों से चुने जाने वाले सदस्यों को वहाँ की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य एक संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा चुनते हैं।
इस प्रकार राज्य सभा की अधिकतम संख्या संविधान द्वारा 250 निश्चित की गई है। इनमें से 238 सदस्य राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों से चुनकर आते हैं तथा 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाते हैं जो साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष योग्यता रखते हों।

(v) स्थायी सदन: राज्य सभा एक स्थायी सदन है। इसे किसी भी स्थिति में भंग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है। उन्हें दुबारा निर्वाचित किया जा सकता है। इसके सभी सदस्य अपना कार्यकाल एक साथ पूरा नहीं करते। प्रत्येक दो वर्ष पर इसके एक-तिहाई सदस्य अपना कार्यकाल पूरा करते हैं और इन एक-तिहाई सीटों के लिए चुनाव होते हैं। इस तरह राज्य सभा कभी भी पूरी तरह भंग नहीं होती।

(vi) सभापति तथा उपसभापति: भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापित होता है। वह राज्यसभा का सदस्य नहीं होता, लेकिन उसकी बैठकों की अध्यक्षता करता है। उपसभापति राज्य सभा के सदस्यों में से ही राज्य सभा के सदस्यों द्वारा चुना जाता है। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है।

(ब) लोकसभा का गठन।

  1. प्रत्यक्ष निर्वाचन: लोकसभा के लिए जनता सीधे सदस्यों को चुनती है। इसे प्रत्यक्ष निर्वाचन कहते हैं।
  2. निर्वाचन क्षेत्र: लोकसभा के लिए पूरे देश को लगभग समान जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों में बांट दिया जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है। इस समय लोकसभा के 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं।
  3. निर्वाचन विधि: लोकसभा के सदस्यों का चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के मत का मूल्य समान होता है।
  4. कार्यकाल: लोकसभा के सदस्यों को 5 वर्ष के लिए चुना जाता है। लेकिन यदि कोई दल या दलों का गठबंधन सरकार न बना सके अथवा प्रधानमंत्री को लोकसभा भंग कर नए चुनाव कराने की सलाह दे, तो लोकसभा को 5 वर्ष पहले ही भंग किया जा सकता है।
  5. अध्यक्ष: लोकसभा का अध्यक्ष लोकसभा के सदस्यों में से ही उनके द्वारा चुना जाता है। वह लोकसभा की कार्यवाहियों को संचालित करता है।

संसद की शक्तियाँ व कार्य: संसद की प्रमुख शक्तियाँ व कार्य निम्नलिखित हैं।
1. विधायी कार्य व शक्तियाँ:
संसद पूरे देश या देश के किसी भाग के लिए कानून बनाती है। यह कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था है। कानून निर्माण की सर्वोच्च संस्था होने के बावजूद संसद व्यवहार में कानूनों की केवल स्वीकृति देने मात्र का काम करती है। क्योंकि विधेयक को तैयार करना, उसे संसद में प्रस्तुत करना तथा संसद से उसे स्वीकृत कराने की जिम्मेदारी मंत्रिमंडल की है। मंत्रिमंडल संसद में बहुमत के आधार पर उसे स्वीकृत करा लेती है।

2. कार्यपालिका पर नियंत्रण तथा उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना:
संसद का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य कार्यपालिका को उसके अधिकार क्षेत्र में, सीमित रखने तथा जनता के प्रति उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना है। इसके लिए संसद सदस्य मंत्रिमंडल के सदस्यों से प्रश्न पूछकर, पूरक प्रश्न पूछकर, स्थगन और काम रोको प्रस्ताव व असहयोग प्रस्ताव के माध्यम से कार्यपालिका को नियंत्रित करते हैं।

3. वित्तीय कार्य:
लोकतंत्र में संसद कराधान तथा सरकार द्वारा धन के प्रयोग पर नियंत्रण लगाती है। यदि भारत सरकार कोई नया कर प्रस्ताव लाए तो उसे संसद की स्वीकृति लेनी पड़ती है। संसद की वित्तीय शक्तियाँ उसे सरकार के कार्यों के लिए धन उपलब्ध कराने का अधिकार देती हैं। सरकार को अपने द्वारा खर्च किये गए धन का हिसाब तथा प्रस्तावित आय का विवरण संसद को देना पड़ता है। संसद यह भी सुनिश्चित करती है कि सरकार न तो गलत खर्च करे और न ही ज्यादा खर्च करे। संसद यह सब बजट और वार्षिक वित्तीय वक्तव्य के माध्यम से करती है।

4. प्रतिनिधित्व-संसद देश के विभिन्न क्षेत्रीय, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक समूहों के अलग-अलग विचारों का प्रतिनिधित्व करती है।

5. बहस का मंच:
संसद में सदस्यों के विचार-विमर्श करने की शक्ति पर कोई अंकुश नहीं है। सदस्यों को किसी भी विषय पर निर्भीकता से बोलने की स्वतंत्रता है। इससे संसद राष्ट्र के समक्ष आने वाले किसी एक या हर मुद्दे का विश्लेषण कर पाती है। इस प्रकार संसद देश में वाद-विवाद का सर्वोच्च मंच है।

6. संवैधानिक कार्य-संसद के पास संविधान में संशोधन की शक्ति है। संसद के दोनों सदनों को संवैधानिक शक्तियाँ समान हैं। प्रत्येक संविधान संशोधन का संसद के दोनों सदनों द्वारा 2/3 बहुमत से पारित होना जरूरी है। लेकिन संसद, संसद के मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती।

7. निर्वाचन सम्बन्धी कार्य-संसद चुनाव सम्बन्धी कुछ कार्य भी करती है। यह भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है। लोकसभा अपने सभापति और उपसभापति तथा राज्य सभा अपने उपसभापति के निर्वाचन का भी कार्य करती है।

8. न्यायिक कार्य: भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को पद से हटाने के प्रस्तावों पर विचार करने के कार्य संसद के न्यायिक कार्य के अन्तर्गत आते हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 2.
कोई विधेयक कानून बनने के लिए किन अवस्थाओं से गुजरता है? उनका वर्णन कीजिये । विधेयक से कानून बनने की विभिन्न अवस्थाएँ
उत्तर:
संसद का प्रमुख कार्य अपनी जनता के लिए कानून बनाना है। कानून बनाने के लिए एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जाती है। इस प्रक्रिया में किसी विधेयक को कई अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। ये अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं।
1. विधेयक का प्रस्तुतीकरण तथा उसका प्रथम वाचन:
प्रस्तावित कानून के प्रारूप को विधेयक कहते हैं। विधेयक जिस मंत्रालय से सम्बद्ध होता है, वही मंत्रालय उसका प्रारूप बनाता है। यदि विधेयक धन विधेयक नहीं है, तो उसे संसद के किसी भी सदन – लोकसभा या राज्य सभा में कोई भी सदस्य इस विधेयक को पेश कर सकता है। जिस विषय का विधेयक हो उस विषय से जुड़ा मंत्री ही प्राय: विधेयक पेश करता है। इसे सरकारी विधेयक कहते हैं और यदि मंत्री के अतिरिक्त कोई अन्य सांसद विधेयक प्रस्तुत करता है, तो इसे निजी विधेयक कहते हैं।

धन विधेयक को केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। लोकसभा में पारित होने के बाद उसे राज्य सभा में भेज दिया जाता है। यदि विधेयक सकारी होता है तो उसे प्रस्तावित करने की सूचना मंत्री सात दिन पहले सदन को देता है और यदि विधेयक गैर-सरकारी होता है तो उसकी सूचना वह सदन को एक माह पहले देता है। प्रस्तावित विधेयक की एक प्रति सदन के सचिवालय को भेजी जाती है। सदन का अध्यक्ष विधेयक को निश्चित तिथि को सदन की कार्यवाही सूची में शामिल कर लेता है। निश्चित तिथि को प्रस्तावक सदस्य अपने स्थान पर खड़ा होकर विधेयक के शीर्षक को पढ़ता है तथा उसके मुख्य प्रावधानों पर प्रकाश डालता है तथा उसकी आवश्यकता बतलाता है। सदन में विधेयक प्रस्तावित होने के बाद उसे सरकारी गजट में छाप दिया जाता है।

(2) द्वितीय वाचन – विधेयक के प्रस्तावित और गजट में प्रकाशित होने के बाद निश्चित तिथि को विधेयक का द्वितीय वाचन प्रारम्भ होता है । प्रस्तावक इस अवस्था में निम्न प्रस्तावों में से कोई एक प्रस्ताव रखता है।

  1. सदन विधेयक पर शीघ्र विचार करे।
  2. विधेयक को प्रवर समिति को सौंप दिया जाये।
  3. विधेयक दोनों सदनों की संयुक्त समिति को सौंप दिया जाये।
  4. जनमत प्राप्त करने के लिए विधेयक को प्रसारित कर दिया जाये।

विधेयकों को अधिकतर प्रवर समिति के पास ही भेज दिया जाता है। इस समय विधेयक के गुण-दोषों पर ही सामान्य रूप से प्रकाश डाला जाता है। इस पर विस्तार से वाद-विवाद नहीं होता।

3. समिति स्तर:
समिति में विधेयक पर धारावार विचार किया जाता है। समिति के प्रत्येक सदस्य को विधेयक की धाराओं, उपधाराओं पर विचार प्रकट करने तथा उसमें आवश्यक संशोधन का प्रस्ताव रखने का अधिकार होता है। समिति यह आवश्यक समझे तो विशेषज्ञों से इसके विषय में राय ले सकती है। इसके बाद समिति अपनी रिपोर्ट तैयार करती है।

4. सदन समिति की रिपोर्ट को स्वीकार या अस्वीकार करता है:
समिति की रिपोर्ट तैयार होने के बाद उसे सदन के सदस्यों में बाँट दिया जाता है तथा उस पर विचार करने की तिथि निश्चित की जाती है। उस तिथि पर विधेयक पर पूरी तरह से विचार-विमर्श किया जाता है तथा सदस्यों को भी इस समय संशोधन प्रस्ताव रखने का अधिकार होता है। वाद-विवाद के पश्चात् विधेयक के प्रत्येक खण्ड तथा संशोधन पर मतदान होता है । संशोधन यदि बहुमत से स्वीकार हो जाते हैं तो वे विधेयक के अंग बन जाते हैं और उसके अनुसार विधेयक पास हो जाता है।

5. तृतीय वाचन:
रिपोर्ट स्तर के बाद विधेयक के तृतीय वाचन की तिथि निश्चित की जाती है । इस अवस्था में विधेयक की भाषा, व्याकरण तथा शब्दों के विषय में विचार किया जाता है । फिर सम्पूर्ण विधेयक पर मतदान कराकर उसे पारित कर दिया जाता है। सदन का अध्यक्ष इसे प्रमाणित करता है और उसे दूसरे सदन में भेज दिया जाता है।

6. विधेयक पर दूसरे सदन में विचार- विधेयक पर दूसरे सदन में भी इसी प्रकार विचार किया जाता है अर्थात् दूसरे सदन में भी विधेयक उपर्युक्त सभी स्तरों से गुजरता है। यदि दूसरा सदन विधेयक को पास कर देता है तो उसे राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता हैं। यदि दूसरा सदन विधेयक में कुछ ऐसे संशोधन सुझाता है जो पहले सदन को स्वीकार नहीं हैं या विधेयक को पारित ही नहीं करता तो इस गतिरोध को तोड़ने के लिए दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है जिसकी अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है और फिर बहुमत के आधार पर विधेयक के सम्बन्ध में निर्णय लिया जाता है जो प्रायः लोकसभा के पक्ष में रहता है।

संविधान संशोधन विधेयक के सम्बन्ध में संयुक्त अधिवेशन का कोई प्रावधान नहीं है। अतः यदि दूसरा सदन इसे पारित नहीं करता है तो विधेयक समाप्त हो जाता है। धन विधेयक के सम्बन्ध में राज्य सभा को कोई विशेषाधिकार नहीं है, वह केवल उसे 14 दिन तक ही रोके रख सकती है। यदि 14 दिन तक वह उसे पारित नहीं करती है तो विधेयक पारित माना जायेगा और राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जायेगा।

7. राष्ट्रपति की स्वीकृति:
राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर विधेयक कानून बन जाता है। राष्ट्रपति असहमत होने पर किसी विधेयक को एक बार पुनर्विचार के लिए संसद को लौटा सकता है, परन्तु यदि संसद उसे दुबारा पारित कर राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेज देती है तो राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है।

प्रश्न 3.
भारतीय संसद कार्यपालिका को कैसे नियंत्रित करती है? विवेचना कीजिये।
उत्तर:
संसद द्वारा कार्यपालिका को नियंत्रित करना: संसद अनेक विधियों का प्रयोग कर कार्यपालिका को नियंत्रित करती है। वह अनेक स्तरों पर कार्यपालिका की जवाबदेही को सुनिश्चित करने का काम करती है। यह काम नीति-निर्माण, कानून या नीति को लागू करने तथा कानून या नीति के लागू होने के बाद वाली अवस्था आदि किसी भी स्तर पर किया जा सकता है। संसद यह कार्य निम्नलिखित तरीकों से करती है।
1. बहस और वाद-विवाद:
कानून निर्माण करने की प्रक्रिया में संसद के सदस्यों को कार्यपालिका के द्वारा बनायी गयी नीतियों और उसके क्रियान्वयन के तरीकों पर बहस करने का अवसर मिलता है। विधेयकों पर परिचर्चा के अतिरिक्त, सदन में सामान्य वाद-विवाद के दौरान भी विधायिका को कार्यपालिका पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जाता है। ऐसे कुछ अवसर निम्नलिखित हैं-

(i) प्रश्नकाल: संसद के अधिवेशन के समय प्रतिदिन प्रश्नकाल आता है जिसमें मंत्रियों को सदस्यों के तीखे प्रश्नों का जवाब देना पड़ता है। प्रश्नकाल सरकार की कार्यपालिका और प्रशासकीय एजेंसियों पर निगरानी रखने का सबसे प्रभावी तरीका है। ज्यादातर प्रश्न लोकहित के विषयों, जैसे – मूल्य वृद्धि, अनाज की उपलब्धता, समाज के कमजोर वर्गों के विरुद्ध अत्याचार, दंगे, कालाबाजारी आदि पर सरकार से सूचनाएँ मांगने के लिए होते हैं । इसमें सदस्यों को सरकार की आलोचना करने और अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं को समझाने का अवसर मिलता है। इसमें कई बार सदन से बहिर्गमन की घटनाएँ भी होती रहती हैं।

(ii) शून्यकाल: इसमें सदस्य किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठा सकते हैं, पर मंत्री उसका उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हैं।

(iii) आधे घंटे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव: लोकहित के मामले में आधे घंटे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव आदि का भी विधान है। ये सभी कदम सरकार से रियायत प्राप्त करने के राजनीतिक तरीके हैं और इससे कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है।

2. कानूनों की स्वीकृति या अस्वीकृति:
कानूनों में मंजूरी देने या नामंजूर करने का अधिकार भी संसद के पास होता है। इस अधिकार के द्वारा भी संसद कार्यपालिका को नियंत्रित करती है। कोई भी विधेयक संसद की स्वीकृति के बाद ही कानून बन पाता है। यद्यपि संसद में सरकार का बहुमत होने के कारण संसदीय स्वीकृति प्राप्त करना कठिन नहीं होता; लेकिन इस सहमति के लिए शासक दल या गठबंधन के विभिन्न सदस्यों अथवा सरकार और विपक्ष के बीच गंभीर मोल- तोल और समझौते होते हैं। यदि लोकसभा में सरकार का बहुमत है लेकिन राज्यसभा में नहीं हो, तो संसद के दोनों सदनों से स्वीकृति लेने के लिए सरकार को काफी रियायतें देनी पड़ती हैं। राज्यसभा ने अनेक विधेयकों, जैसे लोकपाल विधेयक, आतंकवाद निरोधक विधेयक (2000) को, राज्यसभा ने अस्वीकृत कर दिया था।

3. वित्तीय नियंत्रण:
सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था बजट के द्वारा की जाती है। संसदीय स्वीकृति के लिए बजट बनाना और उसे पेश करना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है। इस जिम्मेदारी के कारण विधायिका को कार्यपालिका के खजाने पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जाता है। सरकार के लिए संसाधन स्वीकृत करने से विधायिका मना कर सकती है। धन स्वीकृत करने से पहले लोकसभा भारत के नियंत्रक – महालेखा परीक्षक और संसद की लोक लेखा समिति की रिपोर्ट के आधार पर धन के दुरुपयोग के मामलों की जाँच कर सकती है। लेकिन संसदीय नियंत्रण का उद्देश्य सरकारी धन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने के साथ- साथ विधायिका द्वारा सरकार की नीतियों पर भी नियंत्रण करना है।

4. अविश्वास प्रस्ताव:
संसद द्वारा कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने का सबसे सशक्त हथियार अविश्वास प्रस्ताव है। लेकिन जब तक सरकार को अपने दल या सहयोगी दलों का बहुमत प्राप्त हो तब तक सरकार को हटाने की सदन की यह शक्ति वास्तविक कम और काल्पनिक ज्यादा होती है। लेकिन सन् 1989 के बाद से अपने प्रति सदन के अविश्वास के कारण अनेक सरकारों को त्यागपत्र देना पड़ा। इनमें से प्रत्येक सरकार ने लोकसभा का विश्वास खोया क्योंकि वह अपने गठबंधन के सहयोगी दलों का समर्थन बनाए न रख सकी। इस प्रकार अनेक तरीकों से संसद कार्यपालिका को प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर सकती है और एक उत्तरदायी सरकार का होना सुनिश्चित कर सकती है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद Textbook Exercise Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

Jharkhand Board Class 11 Political Science संघवाद InText Questions and Answers

पृष्ठ 156

प्रश्न 1.
एक संघीय व्यवस्था में केन्द्रीय सरकार की शक्तियाँ कौन तय करता है?
उत्तर:
संघीय व्यवस्था में एक लिखित संविधान होता है। यह संविधान सर्वोच्च होता है तथा दोनों सरकारों की शक्तियों का स्रोत भी। इस प्रकार एक संघीय व्यवस्था में संविधान केन्द्रीय सरकार की शक्तियाँ तय करता है।

प्रश्न 2.
संघात्मक व्यवस्था में केन्द्र सरकार और राज्यों में टकराव का समाधान कैसे होता है?
उत्तर:
संघात्मक व्यवस्था में केन्द्र सरकार और राज्यों में टकराव का समाधान स्वतंत्र न्यायपालिका न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से करती है।

पृष्ठ 158

प्रश्न 3.
क्या आप समझते हैं कि अवशिष्ट शक्तियों का अलग से उल्लेख करना जरूरी है? क्यों?
उत्तर:
नहीं, अवशिष्ट शक्तियों का अलग से उल्लेख करना आवश्यक नहीं है। क्योंकि अवशिष्ट शक्तियों से आशय यह है कि भविष्य में इन शक्तियों या विषयों के अलावा अन्य कोई विषय उभरें, जो इस समय तक नहीं उभर पाये हैं, वे विषय अवशिष्ट हैं; इसलिए इनका उल्लेख नहीं किया जा सकता । अवशिष्ट शक्तियों के सम्बन्ध में केवल यह उल्लेख करना आवश्यक होता है कि इन पर केन्द्र सरकार का अधिकार है या प्रान्तों की सरकार का।

प्रश्न 4.
बहुत-से राज्य शक्ति विभाजन से असंतुष्ट क्यों रहते हैं?
उत्तर:
शक्ति विभाजन से भिन्न-भिन्न राज्य भिन्न-भिन्न कारणों से असंतुष्ट रहते हैं, उनके असंतुष्ट रहने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. अधिक और महत्त्वपूर्ण अधिकार प्राप्ति हेतु: भारत में समय-समय पर अनेक राज्यों, जैसे – तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल आदि ने शक्ति विभाजन में केन्द्र की तुलना में राज्यों को कम शक्तियाँ मिलने के कारण अपने असंतोष को व्यक्त करते हुए शक्ति-विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदलने तथा राज्यों को ज्यादा तथा महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये जाने की मांग की।
  2. वित्तीय स्वायत्तता हेतु: शक्ति विभाजन से राज्यों के पास स्वतंत्र आय के साधन कम हैं और संसाधनों पर उनका अधिक नियंत्रण नहीं है। इस कारण अनेक राज्य शक्ति विभाजन से असंतुष्ट हैं। तमिलनाडु और पंजाब ने इसी असंतोष को व्यक्त करते हुए ज्यादा वित्तीय अधिकारों या वित्तीय स्वायत्तता की मांग की।
  3. प्रशासकीय शक्तियों के प्रति असंतोष: अनेक राज्य प्रशासन के क्षेत्र में केन्द्र को अधिक नियंत्रणकारी शक्तियों को प्रदान करने के कारण असंतुष्ट हैं। वे राज्य प्रशासनिक – तंत्र पर केन्द्रीय नियंत्रण से नाराज रहते हैं।

पृष्ठ 163

प्रश्न 5.
इस दृष्टिकोण के पक्ष में दो तर्क दें कि हमारा संविधान एकात्मकता की ओर झुका हुआ है।
उत्तर:
हमारा संविधान एकात्मकता की ओर झुका हुआ है क्योंकि।

  1. किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियंत्रण है। अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद ‘किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग करके अथवा दो या दो से अधिक राज्यों को मिलाकर एक नये राज्य का निर्माण कर सकती है। वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है।
  2. संविधान में केन्द्र को अत्यन्त शक्तिशाली बनाने वाले कुछ आपातकालीन प्रावधान हैं जो लागू होने पर हमारी . संघीय व्यवस्था को एक अत्यधिक केन्द्रीकृत व्यवस्था में बदल देते हैं। आपातकाल में संसद को यह शक्ति भी प्राप्त हो जाती है कि वह उन विषयों पर कानून बना सके जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

प्रश्न 6.
क्या आप मानते हैं कि।
(क) शक्तिशाली केन्द्र राज्यों को कमजोर करता है?
(ख) शक्तिशाली राज्यों से केन्द्र कमजोर होता है?
उत्तर:
(क) शक्तिशाली केन्द्र राज्यों को कमजोर करता है। शक्तिशाली केन्द्र राज्यों के कार्यक्षेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप कर राज्यों को कमजोर करता है। मुख्य रूप से जब केन्द्र में एक दल की सरकार हो और राज्य में दूसरे दल की तो केन्द्र अधिक शक्तिशाली होने पर विपक्षी दल की सरकार को गिराने के लिए उसके कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप करता है या उसके विकास हेतु आवश्यक वित्तीय व प्रशासनिक सहयोग देने में आनाकानी करता रहता है। ऐसी स्थिति में राज्य और कमजोर हो जाते हैं।

इससे केन्द्र-राज्यों के बीच संघर्ष और विवादों का जन्म होता है। 1960 के दशक में भारत में अनेक राज्यों की सरकारों ने केन्द्र की कांग्रेस सरकार द्वारा किये गए अवांछनीय हस्तक्षेपों का विरोध किया तथा संघीय व्यवस्था के अंदर स्वायत्तता की अवधारणा को लेकर विवाद छिड़ गया।

(ख) शक्तिशाली राज्यों से केन्द्र कमजोर होता है: यदि संघीय व्यवस्था में राज्य शक्तिशाली होंगे तो उनके पारस्परिक झगड़ों को निपटाने में केन्द्र अपने आपको असमर्थ पायेगा और ऐसी स्थिति में केन्द्र की स्थिति अत्यन्त निर्बल हो जायेगी। हो सकता है, ऐसी स्थिति में संघीय व्यवस्था का ही पतन हो जाए।

पृष्ठ 168

प्रश्न 7.
भारत के राज्यों की सूची बनाएँ और पता करें कि प्रत्येक राज्य का गठन किस वर्ष किया गया?
उत्तर:
वर्तमान में भारत में 28 राज्य तथा 9 केन्द्र प्रशासित क्षेत्र हैं। ये राज्य निम्नलिखित हैं।: हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तरांचल, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखण्ड, अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, पश्चिमी बंगाल, ड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, गोवा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल। 9 केन्द्र प्रशासित क्षेत्र ये हैं।

  1. दमन और दीव
  2. दादरा और नगर हवेली
  3. चंडीगढ़
  4. पांडिचेरी
  5. लक्षद्वीप
  6. अंडमान निकोबार द्वीप समूह
  7. दिल्ली
  8. जम्मू-कश्मीर
  9. लद्दाख।

1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा भारत के समस्त राज्यों को पुनर्गठित कर दो श्रेणियों में विभाजित किय: राज्य और संघ राज्य क्षेत्र। 1956 में प्रमुख 14 राज्य थे। ये थे: आंध्रप्रदेश, असम, बिहार, महाराष्ट्र (बम्बई), केरल, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु (मद्रास), कर्नाटक (मैसूर), उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पश्चिमी बंगाल, जम्मू और कश्मीर। इसके बाद 14 नये राज्यों का (14) गठन निम्नलिखित वर्षों में हुआ:

  • 1960 में बम्बई राज्य को विभाजित कर महाराष्ट्र और (15) गुजरात राज्य बनाए गए।
  • सन् 1961 में (16) हिमाचल प्रदेश का गठन किया गया।
  • सन् 1962 में (17) नागालैंड (18) मणिपुर राज्यों का गठन किया गया।
  • सन् 1963 में (19) त्रिपुरा का गठन किया गया तथा (20) गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया।
  • सन् 1966 में पंजाब राज्य का विभाजन कर (21) हरियाणा का गठन किया गया।
  • सन् 1971 में (22) मेघालय का तथा (23) मिजोरम राज्य का गठन किया गया।
  • सन् 1975 में (24) सिक्किम तथा (25) अरुणाचल प्रदेश को राज्य का दर्जा दिया गया।
  • सन् 2000 में उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार राज्यों से विभाजित कर क्रमश: (26) उत्तरांचल, (27) छत्तीसगढ़ और (28) झारखण्ड राज्यों का गठन किया गया है।
  • 2014 में आंध्रप्रदेश राज्य को विभाजित कर दो राज्य बनाए गए:
    1. आंध्र
    2. तेलंगाना इस प्रकार तेलंगाना 29वां राज्य बना।
  • 2019 में जम्मू-कश्मीर राज्य को विभाजित कर उसे दो केन्द्र शासित प्रदेशों:
    1. जम्मू-कश्मीर तथा
    2. लद्दाख में परिवर्तित कर दिया गया। इस प्रकार केन्द्र प्रशासित राज्य 7 से बढ़कर 9 हो गए हैं तथा राज्यों की संख्या घटकर पुनः 28 हो गई है।

पृष्ठ 170

प्रश्न 8.
राज्य और अधिक स्वायत्तता की मांग क्यों करते हैं?
उत्तर:
राज्य और अधिक स्वायत्तता की मांग निम्नलिखित कारणों से करते है।

  1. शक्ति विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदलने तथा राज्यों को ज्यादा तथा महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये जाने के लिए राज्य स्वायत्तता की मांग करते हैं।
  2. राज्य आय के स्वतंत्र साधनों तथा संसाधनों पर नियंत्रण करने के लिए वित्तीय स्वायत्तता की मांग करते हैं।
  3. विभिन्न राज्य प्रशासनिक तंत्र पर केन्द्रीय नियंत्रण से नाराज रहते हैं। इस नियंत्रण से मुक्ति पाने के लिए भी . राज्य अधिक स्वायत्तता की मांग करते हैं।
  4. कुछ राज्यों की स्वायत्तता की मांग सांस्कृतिक और भाषायी मुद्दों से भी जुड़ी हो सकती है। जैसे- तमिलनाडु ने हिन्दी के वर्चस्व के विरोध में अधिक स्वायत्तता की मांग की।

Jharkhand Board Class 11 Political Science संघवाद Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
नीचे कुछ घटनाओं की सूची दी गई है। इनमें से किसको आप संघवाद की कार्य-प्रणाली के रूप में चिह्नित करेंगे और क्यों?
(क) केन्द्र सरकार ने मंगलवार को जीएनएलएफ के नेतृत्व वाले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल को छठी अनुसूची में वर्णित दर्जा देने की घोषणा की। इससे पश्चिम बंगाल के इस पर्वतीय जिले के शासकीय निकाय को ज्यादा स्वायत्तता प्राप्त होगी। दो दिन के गहन विचार-विमर्श के बाद नई दिल्ली में केन्द्र सरकार पश्चिम बंगाल सरकार और सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जी एन एल एफ) के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

(ख) वर्षा प्रभावित प्रदेशों के लिए सरकार कार्य-योजना लायेगी। केन्द्र सरकार ने वर्षा प्रभावित प्रदेशों से पुनर्निर्माण की विस्तृत योजना भेजने को कहा है ताकि वह अतिरिक्त राहत प्रदान करने की उनकी माँग पर फौरन कार्रवाई कर सक ।

(ग) दिल्ली के लिए नये आयुक्त। देश की राजधानी दिल्ली में नए नगरपालिका आयुक्त को बहाल किया जायेगा। इस बात की पुष्टि करते हुए एमसीडी के वर्तमान आयुक्त राकेश मेहता ने कहा कि उन्हें अपने तबादले के आदेश मिल गए हैं और संभावना है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अशोक कुमार उनकी जगह संभालेंगे। अशोक कुमार अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिव की हैसियत से काम कर रहे हैं। 1975 के बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री मेहता पिछले साढ़े तीन साल से आयुक्त की हैसियत से काम कर रहे हैं।

(घ) मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा। राज्यसभा ने बुधवार को मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने वाला विधेयक पारित किया। मानव संसाधन विकास मंत्री ने वायदा किया है कि अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और सिक्किम जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी ऐसी संस्थाओं का निर्माण होगा।

(ङ) केन्द्र ने धन दिया। केन्द्र सरकार ने अपनी ग्रामीण जलापूर्ति योजना के तहत अरुणाचल प्रदेश के 553 लाख रुपये दिये हैं। इस धन की पहली किस्त के रूप में अरुणाचल प्रदेश को 466 लाख रुपये दिए गए हैं।

(च) हम बिहारियों को बतायेंगे कि मुंबई में कैसे रहना है। – करीब 100 शिवसैनिकों ने मुंबई के जे. जे. अस्पताल में उठा-पटंक करके रोजमर्रा के काम-धंधे में बाधा पहुँचाई, नारे लगाए और धमकी दी कि गैर – मराठियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की गई तो इस मामले को वे स्वयं ही निपटायेंगे।

(छ) सरकार को भंग करने की मांग। कांग्रेस विधायक दल ने प्रदेश के राज्यपाल को हाल में सौंपे एक ज्ञापन में सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक एलायंस ऑफ नागालैंड (डीएएन) की सरकार को तथाकथित वित्तीय अनियमितता और सार्वजनिक धन के गबन के आरोप में भंग करने की माँग की है।

(ज) एनडीए सरकार ने नक्सलियों से हथियार रखने को कहा। विपक्षी दल राजद और उसके सहयोगी कांग्रेस तथा सीपीआई (एम) के वॉकआउट के बीच बिहार सरकार ने आज नक्सलियों से अपील की कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ दें। बिहार को विकास के नए युग में ले जाने के लिए बेरोजगारी को जड़ से खत्म करने के अपने वादे को भी सरकार ने दोहराया।
उत्तर:
( क ) केन्द्र सरकार ने मंगलवार को जीएनएलएफके नेतृत्व वाले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल को छठी अनुसूची में वर्णित दर्जा देने की घोषणा की। यह घटना संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित की जा सकती है क्योंकि इसमें केन्द्र सरकार, राज्य सरकार (पश्चिम बंगाल सरकार) तथा सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाली गोरखा लिबरेशन फ्रंट तीनों शामिल हुए।

(ख) वर्षा प्रभावित प्रदेशों के लिए सरकार कार्य-योजना लायेगी। यह घटना अथवा प्रक्रिया भी संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित की जायेगी क्योंकि इसमें केन्द्र सरकार और वर्षा प्रभावित क्षेत्र सम्मिलित हैं।

(ग) दिल्ली के नये आयुक्त। यह तबादले का आदेश भी केन्द्र सरकार और राज्यों से संबंधित है। भारत में संघात्मक शासन प्रणाली में अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों की नियुक्ति केन्द्र सरकार करती है, वे राज्यों में प्रमुख पदों पर अपनी सेवाएँ देते हैं, लेकिन उनका तबादला केन्द्र सरकार एक राज्य से दूसरे राज्य में कर सकती है।

(घ) मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा इस घटना के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि संघवाद में केन्द्र और राज्यों के बीच शक्ति का विभाजन रहता है। अतः केन्द्रीय विश्वविद्यालय केन्द्र सरकार के अधीन होगा। है (ङ) केन्द्र ने धन दिया। इस घटना में केन्द्र ने राज्य सरकार ( अरुणाचल सरकार ) को धन मुहैया कराया अतः यह संघवाद की कार्यप्रणाली के अन्तर्गत आता है।

(च) हम बिहारियों को बताएँगे कि मुंबई में कैसे रहना है। यह कार्यवाही संघवाद की कार्यप्रणाली के अनुरूप नहीं है क्योंकि कोई राज्य भारतीय नागरिक को किसी प्रदेश में रहने से नहीं रोक सकता।

(छ) सरकार को भंग करने की मांग। इस घटना को भी संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि संघवाद की कार्यप्रणाली में जब किसी राज्य में शासन भ्रष्टाचार में लिप्त हो तो संघ (केन्द्र) राज्य में राज्यपाल की सिफारिश पर राष्ट्रपति शासन लगा सकता है।

(ज) एनडीए सरकार ने नक्सलियों से हथियार रखने को कहा। इस घटना में बिहार की राज्य सरकार के द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध किये जाने वाले कार्य को दर्शाया गया है। इसे संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित किया जा सकता है।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

प्रश्न 2.
बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही होगा और क्यों?
(क) संघवाद से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेल-जोल से रहेंगे और उन्हें इस बात का भय नहीं रहेगा कि एक की संस्कृति दूसरे पर लाद दी जाएगी।
(ख) अलग-अलग किस्म के संसाधनों वाले दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक लेन-देन को संघीय प्रणाली से बाधा पहुँचेगी।
(ग) संघीय प्रणाली इस बात को सुनिश्चित करती है कि जो केन्द्र में सत्तासीन हैं, उनकी शक्तियाँ सीमित रहें।
उत्तर:
उपर्युक्त तीनों कथनों में (ग) बिन्दु का यह कथन सही है कि ” संघीय प्रणाली इस बात को सुनिश्चित करती है कि जो केन्द्र में सत्तासीन हैं, उनकी शक्तियाँ सीमित रहें ।” क्योंकि संघवाद में संविधान द्वारा शक्तियों को केन्द्र और राज्यों की सरकारों के बीच विभाजन कर दिया जाता है और दोनों के विधायी, वित्तीय तथा प्रशासनिक कार्यक्षेत्र निश्चित कर दिये जाते हैं और यदि केन्द्र सरकार इस विभाजन का उल्लंघन कर राज्यों के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करती है तो राज्य सरकारें न्यायपालिका में वाद दायर कर इस हस्तक्षेप को रुकवा सकती हैं।

प्रश्न 3.
बेल्जियम के संविधान के कुछ प्रारंभिक अनुच्छेद नीचे लिखे गये हैं। इसके आधार पर बताएँ कि बेल्जियम में संघवाद को किस रूप में साकार किया गया है। भारत के संविधान के लिए ऐसा ही अनुच्छेद लिखने का प्रयास करके देखें
शीर्षक-I: संघीय बेल्जियम, इसके घटक और इसका क्षेत्र-
अनुच्छेद-1: बेल्जियम एक संघीय राज्य है। जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है।
अनुच्छेद-2 : बेल्जियम तीन समुदायों से बना है फ्रैंच समुदाय, फ्लेमिश समुदाय और जर्मन समुदाय।
अनुच्छेद-3 : बेल्जियम तीन क्षेत्रों को मिलाकर बना है। वैलून क्षेत्र, फ्लेमिश क्षेत्र और ब्रूसेल्स क्षेत्र।
अनुच्छेद-4 बेल्जियम में 4 भाषायी क्षेत्र हैं। फ्रेंच भाषी क्षेत्र, डच भाषी क्षेत्र, ब्रूसेल्स की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन – भाषी क्षेत्र। राज्य का प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषायी क्षेत्रों में से किसी एक का हिस्सा है।
अनुच्छेद-5: वैलून क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले प्रान्त हैं। वैलून ब्रार्बेट, हेनॉल्ट, लेग, लक्जमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल प्रान्त हैं। एंटीवर्प, फ्लेमिश ब्रार्बेट, वेस्ट फ्लैंडर्स, ईस्ट फ्लैंडर्स और लिंबर्ग।
उत्तर:
बेल्जियम के संघवाद को फ्रैंच, फ्लेमिश और जर्मन समुदायों तथा वैलून, फ्लेमिश और ब्रूसेल्स क्षेत्रों से बना एक संघीय राज्य है। प्रत्येक क्षेत्र अनेक राज्यों में विभाजित है और प्रत्येक राज्य अनेक कम्यूनों से बना है तथा राज्य का प्रत्येक कम्यून फ्रेंच, डच, जर्मन भाषायी क्षेत्रों में से किसी एक का हिस्सा है।

भारत के संघवाद के लिए ऐसा ही एक अनुच्छेद इस प्रकार लिखने का प्रयास इस प्रकार है।
अनुच्छेद-1 : भारत राज्यों का एक संघ होगा। राज्य और उनके राज्य क्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।
अनुच्छेद-2 : भारत एक ऐसे समाज के लिए प्रेरित है जो जातिभेद से रहित हो लेकिन सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए सीटें मुख्यतः सामान्य वर्ग, अनुसूचित जनजाति वर्ग और अनुसूचित जाति वर्ग में बँटी हैं।
अनुच्छेद-3 : भारत में 28 राज्य तथा 9 संघ शासित क्षेत्र हैं। राज्य तथा संघ शासित क्षेत्र वे हैं जो संविधान की अनुसूची (1) में दिए गए हैं।
अनुच्छेद-4 : भारतीय संविधान में राज्यों का मुख्य आधार भाषायी क्षेत्र है लेकिन कुछ राज्य प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से भी निर्मित हुए हैं। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को राजभाषा के रूप में संवैधानिक मान्यता प्राप्त है।

प्रश्न 4.
कल्पना करें कि आपको संघवाद के संबंध में प्रावधान लिखने हैं। लगभग 300 शब्दों का एक लेख लिखें जिसमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर आपके सुझाव हों।
(क) केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा।
(ख) वित्त संसाधनों का वितरण।
(ग) राज्यपालों की नियुक्ति।
उत्तर:
भारतीय संविधान में संघवाद – भारतीय संघवाद में केन्द्र और राज्यों के बीच संबंध सहयोग पर आधारित किया गया है। इस प्रकार इसमें विविधता को मान्यता देते हुए संविधान की एकता पर बल दिया गया है । इसी दृष्टि से यह कहा गया है कि ‘भारत राज्यों का संघ (यूनियन) होगा।’ भारतीय संविधान में संघवाद के प्रमुख प्रावधानों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।

(क) केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा:
भारत के संविधान में दो तरह की सरकारों की बात मानी गई है – एक, सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए जिसे संघीय सरकार या केन्द्रीय सरकार कहा गया है। और दूसरी, प्रत्येक प्रान्तीय इकाई या राज्य के लिए जिसे राज्य सरकार कहा गया है। प्रत्येक संघीय व्यवस्था की तरह भारत में भी केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों को तीन सूचियों में विभाजित या परिगणित कर दिया गया है। ये सूचियाँ हैं। संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। मूलतः संघ सूची में 97 विषय दिये गये हैं, राज्य सूची में 66 तथा समवर्ती सूची में 47 विषय दिये गये हैं।

संघ सूची के विषयों के सम्बन्ध में कहा गया है कि इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र सरकार का होगा। राज्य सूची के विषयों पर राज्यों की सरकारों को कानून बनाने का अधिकार दिया गया है तथा समवर्ती सूची के विषयों पर दोनों सरकारें कानून बना सकेंगी, लेकिन यदि एक ही समय में एक ही विषय पर दोनों सरकारों ने परस्पर विरोधी कानून बनाए हैं तो ऐसी दशा में केन्द्र सरकार का कानून ही मान्य रहेगा। इन तीनों सूचियों के अतिरिक्त विषयों को ‘अवशिष्ट विषय’ कहा गया है जिन पर कानून निर्माण का अधिकार केन्द्र की सरकार को सौंपा गया है। शक्ति विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि संविधान ने आर्थिक और वित्तीय शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार के हाथ में सौंपी हैं। राज्यों के उत्तरदायित्व बहुत अधिक हैं पर आय के साधन कम।

शक्ति विभाजन में निम्नलिखित प्रावधान एक सशक्त केन्द्रीय सरकार की स्थापना करते हैं-

  1. अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र सरकार को प्रदान की गई हैं।
  2. आय के प्रमुख साधनों पर केन्द्र का नियंत्रण रखा गया है तथा राज्य अनुदानों और वित्तीय सहयाता के लिए केन्द्र पर आश्रित हैं।
  3. राष्ट्रीय हित में संसद राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में भी कानून बना सकती है। (अनुच्छेद 249)
  4. आपातकाल की स्थिति में भी संसद राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।
  5. संघ की कार्यपालिका को किसी राज्य को निर्देश देने की शक्ति दी गई है।

भारत के विभाजन के कारण संविधान सभा को राष्ट्रीय एकता और विकास की चिंताओं ने एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।
(ख) वित्त संसाधनों का वितरण: भारतीय संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के मध्य वित्तीय संसाधनों का वितरण इस प्रकार किया गया है। संघ तथा राज्यों के मध्य कर निर्धारण की शक्ति का पूर्ण विभाजन कर दिया गया है। करों से प्राप्त आय का बँटवारा होता है।

(अ) संघ सरकार के प्रमुख राजस्व स्रोत हैं। निगम कर, सीमा शुल्क, निर्यात शुल्क, कृषि भूमि को छोड़कर अन्य सम्पत्ति पर सम्पदा शुल्क, निवेश ऋण, रेलें, रिजर्व बैंक, शेयर बाजार आदि।

(ब) राज्यों के राजस्व स्रोत हैं- प्रति व्यक्ति कर, कृषि भूमि पर कर, सम्पदा शुल्क, भूमि और भवनों पर कर, पशुओं तथा नौकाओं पर कर, बिजली के उपयोग तथा बिक्री पर कर, वाहनों पर चुंगी कर, केन्द्र सरकार से प्राप्त अनुदान तथा सहायता आदि।

(स) संघ द्वारा आरोपित, संगृहीत और विनियोजित शुल्क हैं बिल, विनिमयों, प्रोमिसरी नोटों, हुंडियों, चैकों आदि पर मुद्रांक शुल्क, मादक द्रव्य पर कर, शौक – शृंगार की चीजों पर कर तथा उत्पादन शुल्क।

(द) संघ द्वारा आरोपित, संगृहीत किन्तु राज्यों को सौंपे जाने वाले कर हैं। कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति के उत्तराधिकार पर कर, कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति शुल्क, समुद्र, वायु, रेल द्वारा ले जाने वाले ‘माल तथा यात्रियों पर सीमान्त कर, रेलभाड़ों तथा वस्तु भाड़ों पर कर, शेयर बाजार तथा सट्टा बाजार पर आदान-प्रदान पर मुद्रांक शुल्क के अतिरिक्त कर, समाचार पत्रों के क्रय-विक्रय तथा उसमें प्रकाशित किए गए विज्ञापनों पर और अन्य अन्तर्राज्यीय व्यापार तथा वाणिज्य से माल के क्रय-विक्रय पर कर।

वित्तीय साधनों के उपर्युक्त वितरण व्यवस्था से स्पष्ट होता है कि आय के प्रमुख संसाधनों पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण है। राज्य अनुदानों और वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर आश्रित है । नियोजन के कारण आर्थिक फैसले लेने की ताकत केन्द्र सरकार के हाथ में सिमटती गयी है। आर्थिक संसाधनों का यह वितरण असंतुलित माना जाता है और केन्द्र सरकार पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि वह विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों के प्रति अनुदान और ऋण देने में भेदभावपूर्ण रवैया अपनाती है।

(ग) राज्यपालों की नियुक्ति:
राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति यह नियुक्तियाँ प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद के परामर्श से करता है। अतः प्रधानमंत्री ऐसे व्यक्ति को राज्यपाल बनाना चाहेंगे जो उसका विश्वासपात्र हो क्योंकि ऐसे व्यक्ति द्वारा आवश्यकता पड़ने पर राज्य पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकता है। इस प्रकार राज्यपाल के फैसलों को प्रायः राज्य सरकार के कार्यों में केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है। जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारें होती हैं तब राज्यपाल की भूमिका और भी विवादग्रस्त हो जाती है। अतः राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति निष्पक्ष होकर की जानी चाहिए ।

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित में कौन-सा प्रांत के गठन का आधार होना चाहिए और क्यों?
(क) सामान्य भाषा
(ख) सामान्य आर्थिक हित
(ग) सामान्य क्षेत्र
(घ) प्रशासनिक सुविधा।
उत्तर:
प्रांत के गठन के उपर्युक्त में से दो आधार:
(क) सामान्य भाषा (घ) प्रशासनिक सुविधा रहे हैं। लेकिन वर्तमान काल में सामान्य भाषा के आधार पर प्रान्तों का गठन उचित माना जाता है क्योंकि समाज में अनेक विविधताएँ होती हैं और आपसी विश्वास से संघवाद का कामकाज आसानी से चलाने का प्रयास किया जाता है। यही कारण है कि भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर किया गया है। कोई एक भाषायी समुदाय पूरे संघ पर हावी न हो जाए इस कारण इकाई क्षेत्रों की अपनी भाषा सामुदायिक पहचान बनी रहती है और वे इकाई अपनी पहचान होते हुए भी संघ की एकता में विश्वास रखती हैं।

प्रश्न 6.
उत्तर भारत के प्रदेशों:
राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा बिहार के अधिकांश लोग हिन्दी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रान्तों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाए तो क्या ऐसा करना संघवाद के विचार से संगत होगा? तर्क दीजिए।
उत्तर:
उत्तर भारत के प्रदेशों राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के अधिकांश लोग हिन्दी बोलते हैं भाषायी आधार पर यदि इन सभी प्रान्तों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाये तो ऐसा करना संघवाद के विचार से असंगत होगा क्योंकि इससे प्रथम तो प्रशासनिक असुविधा पैदा होगी। दूसरे, संघवाद में लोगों की दो निष्ठाएँ होती हैं, प्रथम राष्ट्रीय निष्ठा और दूसरी क्षेत्रीय निष्ठा संघवाद में लोगों की दोनों निष्ठाओं को बनाए रखने का प्रयास किया जाता है। लेकिन
यदि उपर्युक्त राज्यों को मिलाकर एक राज्य (प्रदेश) बना दिया जायेगा तो इससे क्षेत्रीय निष्ठाएँ आहत होंगी जो अन्ततः राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक होंगी।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताओं का उल्लेख करें जिनमें प्रादेशिक सरकार की अपेक्षा केन्द्रीय सरकार को ज्यादा शक्ति प्रदान की गई है।
उत्तर:
भारतीय संविधान एक संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना करता है जिसमें दो प्रकार की सरकारों की बात कही गयी है।

  1. सम्पूर्ण भारत के लिए एक संघीय या केन्द्रीय सरकार और
  2. प्रत्येक प्रान्त के लिए एक राज्य सरकार ये दोनों ही संवैधानिक सरकारें हैं जिनके स्पष्ट कार्यक्षेत्र हैं।

लेकिन भारतीय संविधान की संघात्मक शासन व्यवस्था में प्रादेशिक सरकार की अपेक्षा केन्द्रीय सरकार को अधिक शक्ति प्रदान की गई है। केन्द्रीय सरकार को अधिक शक्ति प्रदान करने वाली चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

1. राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियंत्रण: संविधान के अनुच्छेद-3 के अनुसार संसद ” किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को मिलाकर नये राज्य का निर्माण कर सकती है।” वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है, लेकिन इस शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए संविधान पहले प्रभावित राज्य के विधानमण्डल को विचार व्यक्त करने का अवसर देता है।
इससे स्पष्ट होता है कि राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियंत्रण है।

2. आपातकालीन प्रावधान: संविधान में केन्द्र को अत्यधिक शक्तिशाली बनाने वाले कुछ आपातकालीन प्रावधान भी दिये गये हैं। आपातकाल में संसद को यह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि वह राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है।

3. केन्द्र को प्रदत्त प्रभावी वित्तीय शक्ति: केन्द्र सरकार को अत्यन्त प्रभावी वित्तीय शक्ति प्राप्त है। आय के प्रमुख संसाधनों पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण है। केन्द्र के पास आय के अनेक संसाधन हैं और राज्य अनुदानों तथा वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर आश्रित है। स्वतंत्रता के बाद भारत की आर्थिक प्रगति के लिए नियोजन का प्रयोग किया गया। केन्द्र नीति आयोग की नियुक्ति करता है जो राज्यों के संसाधन प्रबन्ध की निगरानी करता है।

4. राज्यपाल: राज्यपाल राज्य का प्रमुख होता है जिसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राज्यपाल प्रायः केन्द्र के अभिकर्ता के रूप में कार्य करता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह अनुच्छेद 356 के तहत राज्य सरकार को हटाने और विधानसभा को भंग करने का प्रतिवेदन राष्ट्रपति को भेज सके। इससे केन्द्र सरकार को राज्यों के कार्यों में हस्तक्षेप का अवसर मिल जाता है। इसके अतिरिक्त सामान्य परिस्थिति में भी राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है।

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प्रश्न 8.
बहुत-से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश क्यों हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुसार राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख है। उसकी स्थिति उसी प्रकार की है जैसी केन्द्र में राष्ट्रपति की है। लेकिन राज्यपाल की नियुक्ति प्रधानमंत्री तथा मंत्रिपरिषद के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति समय से पूर्व उसे पद से हटा सकता है तथा अन्य राज्यों में उसका स्थानान्तरण कर सकता है। इस प्रकार राज्यपाल अपने कार्यों के लिए राष्ट्रपति अर्थात् केन्द्र सरकार के प्रति उत्तरदायी होता है। इस उत्तरदायित्व के कारण राज्यपालों को दोहरी भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। एक तरफ उसे राज्य के संवैधानिक अध्यक्ष की भूमिका निभानी होती है तो दूसरी तरफ उसे केन्द्र सरकार के अभिकर्ता के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करना होता है।

1960 के दशक तक तो भारत में केन्द्र तथा राज्यों में एक ही दल कांग्रेस की सरकारें रहीं। इसलिए राज्यपाल की केन्द्र के अभिकर्ता की भूमिका मुखरित नहीं हुई। लेकिन 1960 के दशक के बाद के काल में अनेक राज्यों में विरोधी दलों की सरकारें बनीं; वहाँ राज्यपाल की केन्द्र के अभिकर्ता की भूमिका सामने आई तथा राज्यपाल विवादों के घेरे में आए। अनेक राज्य राज्यपालों की निम्नलिखित भूमिकाओं को लेकर नाखुश रहे

राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने के प्रश्न पर नाखुश – राज्यपालों से संबंधित विवाद का मुख्य प्रश्न यह रहा कि राज्यपाल को किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करनी चाहिए। कुछ राज्य सरकारों का यह मत रहा है कि कई बार ऐसा होता है कि राज्यों की संवैधानिक मशीनरी विफल नहीं हुई होती तो भी राज्यपाल केन्द्र के इशारों पर राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर देते हैं। यथा

  1. उत्तरप्रदेश में 21 फरवरी, 1998 को तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भण्डारी ने कल्याणसिंह सरकार को गिराकर राज्यपाल के पद की गरिमा को ठोस पहुँचायी।
  2. 2 फरवरी, 2005 को गोवा में हुए नाटकीय घटनाक्रम में तत्कालीन राज्यपाल एम. सी. जमीर ने विधानसभा में विश्वासमत हासिल करने के बावजूद भाजपा की मनोहर पारीक सरकार को बर्खास्त कर दिया। यह संवैधानिक पद का दुरुपयोग है।
  3. बिहार में तत्कालीन राज्यपाल बूटासिंह ने भी विवादास्पद आचरण के तहत सन् 2005 में विधानसभा भंग कर दी। सर्वोच्च न्यायालय ने विधानसभा भंग किये जाने को अनुचित ठहराया। इन्हीं कारणों से बहुत से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाख़ुश रहते हैं क्योंकि राज्यपाल केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्य के संवैधानिक प्रमुख की भूमिका का निष्पक्ष ढंग से निर्वाह नहीं करते हैं।

प्रश्न 9.
यदि शासन संविधान के प्रावधानों के अनुकूल नहीं चल रहा, तो ऐसे प्रदेश में राष्ट्रपति – शासन लगाया जा सकता है। बताएँ कि निम्नलिखित में से कौन-सी स्थिति किसी देश में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिहाज से संगत है और कौन-सी नहीं। संक्षेप में कारण भी दें।
(क) राज्य की विधानसभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया है और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की माँग कर रहा है।
(ख) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएँ बढ़ रही हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफा हो रहा है।
(ग) प्रदेश में हुए हाल के विधानसभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला है। भय है कि एक दल दूसरे दल के कुछ विधायकों को धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
(घ) केन्द्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों का शासन है और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं।
(ङ) साम्प्रदायिक दंगे में 2000 से ज्यादा लोग मारे गये हैं।
(च) दो प्रदेशों के बीच चल रहे विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इनकार कर दिया है।
उत्तर:
(क) राज्य की विधानसभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया है और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की मांग कर रहा है। यह स्थिति राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का उचित कारण नहीं है। सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुरूप कार्य कर रही है। अपराधियों को दण्ड देने की प्रक्रिया सामान्य कानून की एक प्रक्रिया है।

(ख) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाओं का बढ़ना तथा महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में वृद्धि होने की घटनाएँ यह सिद्ध नहीं करती हैं कि शासन संविधान के प्रावधानों के अनुकूल नहीं है। इस स्थिति में भी राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना उचित नहीं है।

(ग) प्रदेश में हुए हाल के विधानसभा चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिला है। यह है कि एक दल दूसरे दल के विधायकों को धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
इस स्थिति में बिना किसी ठोस सबूत के केवल आशंका के आधार पर राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश नहीं की जा सकती।

(घ) केन्द्र और प्रदेश में एक-दूसरे के कट्टर शत्रु दलों का अलग-अलग शासन होना भी राष्ट्रपति शासन लगाने का उचित कारण नहीं है। केन्द्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें हो सकती हैं।

(ङ) साम्प्रदायिक दंगों में 2000 से अधिक लोगों का मारा जाना; शासन की असफलता को सिद्ध करता है। इस स्थिति में राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर सकता है।

(च) दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इनकार कर दिया है। इस स्थिति में उस राज्य में जिसने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इनकार कर दिया है, राजयपाल राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर सकता है, क्योंकि राज्य का शासन संविधान के प्रावधानों के अनुकूल नहीं चल रहा है।

प्रश्न 10.
ज्यादा स्वायत्तता की चाह में प्रदेशों ने क्या माँगें उठाई हैं?
उत्तर:
संविधान ने केन्द्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया है और अनेक कारणों से समय-समय पर राज्यों ने ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता की निम्नलिखित मांगें उठायी हैं।

  1. अधिक शक्ति तथा अधिकार हेतु स्वायत्तता की मांग: अधिक शक्ति और स्वायत्तता के लिए कभी-कभी राज्यों ने यह मांग उठायी है कि शक्ति विभाजन, जो केन्द्र के पक्ष में है, उसे राज्यों के पक्ष में बदला जाए तथा राज्यों को ज्यादा तथा महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए जाएँ। समय-समय पर अनेक राज्यों (तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल) ने इस प्रकार की स्वायत्तता की मांग की।
  2. वित्तीय स्वायत्तता की मांग: ज्यादा स्वायत्तता की चाह में प्रदेशों ने एक अन्य मांग यह उठायी है. कि राज्यों के पास आय के स्वतन्त्र साधन होने चाहिए और संसाधनों पर उनका ज्यादा नियंत्रण होना चाहिए इसे वित्तीय स्वायत्तता की मांग भी कह सकते हैं। तमिलनाडु और पंजाब की स्वायत्तता की माँगों में भी ज्यादा वित्तीय अधिकार हासिल करने की मंशा छुपी हुई है।
  3. प्रशासकीय स्वायत्तता की मांग: स्वायत्तता की मांग का तीसरा पहलू प्रशासकीय शक्तियों से संबंधित है। विभिन्न राज्य प्रशासनिक तंत्र पर केन्द्रीय नियंत्रण से नाराज रहते हैं।
  4. सांस्कृतिक एवं भाषायी मुद्दों से जुड़ी स्वायत्ता की मांग-कुछ राज्यों की स्वायत्तता की मांग सांस्कृतिक और भाषायी मुद्दों से भी जुड़ी हुई रही है। तमिलनाडु में हिन्दी के वर्चस्व के विरोध और पंजाब में पंजाबी भाषा और संस्कृति के प्रोत्साहन की मांग इसके कुछ उदाहरण हैं। कुछ राज्य ऐसा महसूस करते रहे हैं कि हिंदी भाषी क्षेत्रों का अन्य क्षेत्रों पर वर्चस्व है। इसीलिए 1960 के दशक में कुछ राज्यों में हिंदी को लागू करने के विरोध में आंदोलन भी हुए।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

प्रश्न 11.
क्या कुछ प्रदेशों के शासन के लिए विशेष प्रावधान होने चाहिए? क्या इससे दूसरे प्रदेशों में नाराजगी पैदा होती है? क्या इन प्रावधानों के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता मजबूत करने में मदद मिलती है?
उत्तर:
भारतीय संघवाद की सबसे अनोखी विशेषता यह है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है। शक्ति के बँटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ सभी राज्यों को समान रूप से प्राप्त हैं। लेकिन कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रावधानों की व्यवस्था करता है। अनुरूप संविधान कुछ विशेष ऐसे अधिकतर प्रावधान पूर्वोत्तर के राज्यों (असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आदि) के लिए हैं।

ऐसे ही कुछ विशिष्ट प्रावधान पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल तथा अन्य राज्यों जैसे तेलगूदेशम, गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र और सिक्किम के लिए हैं। इन राज्यों के विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनसंख्या को अपनी संस्कृति और इतिहास को बनाए रखने के लिए ऐसे प्रावधान होने चाहिए। इस दृष्टिकोण के तहत भारतीय संविधान में इन राज्यों को कुछ विशिष्ट प्रावधान प्रदान किये गये हैं।

विशिष्ट प्रावधानों का विरोध: संघात्मक शासन व्यवस्था में जब भी कुछ राज्यों के लिए ऐसे विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था संविधान में की जाती है, तो उसका कुछ विरोध भी होता है क्योंकि विरोध करने वाले लोगों की मान्यता होती है कि संघीय व्यवस्था में शक्तियों का औपचारिक और समान विभाजन संघ की सभी इकाइयों पर समान रूप से लागू होना चाहिए। इस दृष्टि से इनका विरोध किया जाता है। दूसरे, इस बात की भी शंका होती है कि ऐसे विशिष्ट प्रावधानों से उन क्षेत्रों में अलगाववादी प्रवृत्तियाँ मुखर हो सकती हैं।

विशिष्ट प्रावधान और विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता: इन विशिष्ट प्रावधानों के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता मजबूत करने में भी मदद मिलती है। क्योंकि इन प्रावधानों के कारण इन क्षेत्रों के निवासियों का यह भय दूर हो जाता है कि अन्य क्षेत्रों के लोग उनकी संस्कृति व इतिहास को नष्ट-भ्रष्ट कर देंगे। इससे इन क्षेत्रों के लोगों में संघीय व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा होता है और संघीय व्यवस्था की सफलता राष्ट्र की एकता तथा विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता की गारंटी देती है।

 संघवाद JAC Class 11 Political Science Notes

→ संघवाद क्या है;
शासन के सिद्धान्त के रूप में संघवाद विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करता है। संघीय राज्य का प्रारंभ अमेरिका से हुआ लेकिन वह भारतीय संघवाद से भिन्न है। संघवाद की कुछ मूल अवधारणाएँ निम्नलिखित हैं।

  • संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है जो दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समाहित करती है। इसमें एक प्रान्तीय स्तर की होती है और दूसरी केन्द्रीय स्तर की । प्रत्येक सरकार अपने क्षेत्र में स्वायत्त होती है।
  • इस प्रकार के लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं। वे अपने क्षेत्र के भी होते हैं और राष्ट्र के भी। जैसे हममें से कोई राजस्थानी या मराठी होने के साथ-साथ भारतीय भी होता है।
  • प्रत्येक स्तर की राजनीतिक व्यवस्था की कुछ विशिष्ट शक्तियाँ और उत्तरदायित्व होते हैं और वहां की अलग सरकार भी होती है।
  • दोहरे शासन की विस्तृत रूपरेखा प्राय: एक लिखित संविधान में मौजूद होती है। यह संविधान सर्वोच्च होता है और दोनों सरकारों की शक्तियों का स्रोत भी। राष्ट्रीय महत्त्व के विषय केन्द्रीय सरकार के पास होते हैं और क्षेत्रीय महत्त्व के विषय प्रान्तों की सरकार के पास होते हैं।
  • केन्द्र और राज्यों के मध्य किसी टकराव को रोकने के लिए एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है जो संघर्षों का समाधान करती है; शक्ति के बंटवारे के कानूनी विवादों का हल करती है।

इस प्रकार संघवाद वह शासन व्यवस्था है जिसमें संविधान द्वारा शक्तियों को केन्द्र और प्रान्तों की सरकारों में विभाजित कर दिया जाता है। इसमें प्रायः दोहरी नागरिकता पायी जाती है; संविधान सर्वोच्च होता है, न्यायपालिका स्वतंत्र तथा सर्वोच्च होती है।

→ भारतीय संविधान में संघवाद: भारत के संविधान में संघ के लिए ‘यूनियन’ शब्द का प्रयोग किया गया है कि ‘भारत राज्यों का संघ (यूनियन) होगा और राज्य और उनके राज्य क्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।

→ दोहरी शासन व्यवस्था:
भारत के संविधान में दो तरह की सरकारों की बात मानी गई है।

  • संघीय (केन्द्रीय) सरकार और
  • राज्य ( प्रान्तीय) सरकार।

ये दोनों ही संवैधानिक सरकारें हैं शक्ति विभाजन संविधान इस बात की स्पष्ट व्यवस्था करता है कि कौन-कौनसी शक्तियाँ केवल केन्द्र सरकार को प्राप्त होंगी और कौन-कौनसी केवल राज्यों को। संविधान द्वारा संघ सूची में विनिर्दिष्ट विषयों को केन्द्रीय सरकार को सौंपा गया है और राज्य सूची में विनिर्दिष्ट विषयों को राज्य सरकारों को सौंपा गया है। संघ सूची के विषयों पर सिर्फ केन्द्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है और राज्य सूची के विषयों पर राज्य विधायिका ही कानून बना सकती है।

इसके अतिरिक्त कुछ विषय समवर्ती सूची में दिये गये हैं। इन पर केन्द्र और प्रान्त दोनों की विधायिकाएँ कानून बना सकती हैं। लेकिन यदि एक ही समय में समवर्ती सूची के एक ही विषय पर दोनों सरकारें अलग-अलग परस्पर विरोधी कानून बनाती हैं तो ऐसी स्थिति में संघीय विधायिका का कानून मान्य होगा और प्रान्तीय विधायिका का कानून रद्द हो जायेगा। इन तीनों सूचियों के अतिरिक्त अवशिष्ट विषय केन्द्र सरकार को दिये गये हैं।

→ स्वतंत्र व सर्वोच्च न्यायपालिका: यदि कभी यह विवाद हो जाए कि कौन-सी शक्तियाँ केन्द्र के पास हैं और कौन-सी राज्यों के पास, तो इसका निर्णय न्यायपालिका संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार करेगी।

→ विविधता के साथ एकता: भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि केन्द्र और राज्यों के बीच संबंध सहयोग पर आधारित होगा।

→ सशक्त केन्द्रीय सरकार और संघवाद:
देश की एकता को बनाए रखने तथा विकास की चिन्ताओं ने संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी। निम्नलिखित संवैधानिक प्रावधान सशक्त केन्द्रीय सरकार की स्थापना करते हैं।

  • किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियंत्रण है।
  • आपातकालीन प्रावधान हमारी संघीय व्यवस्था को एक अत्यधिक केन्द्रीकृत व्यवस्था में बदल देते हैं।
  • केन्द्र सरकार के पास अत्यन्त प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ व उत्तरदायित्व हैं। यथा – आय के प्रमुख संसाधनों पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण; राज्यों की केंन्द्र पर वित्तीय आश्रितता, नीति आयोग तथा केन्द्र सरकार के विशेषाधिकार आदि।
  • राज्यपाल का केन्द्र के अभिकर्ता के रूप में कार्य करना।
  • राज्यसभा की अनुमति से केन्द्र सरकार राज्य सूची के विषय पर भी कानून बना सकती है।
  • केन्द्र सरकार राज्यों की सरकारों को निर्देश दे सकती है। [अनु. 257 (1)]
  • इकहरी प्रशासकीय व्यवस्था तथा अखिल भारतीय सेवाएँ।
  • देश के किसी क्षेत्र में सैनिक शासन लागू होगा।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

→ भारतीय संघीय व्यवस्था में तनाव
संविधान ने केन्द्र को बहुत अधिक शक्तियाँ प्रदान की हैं। इसलिए समय-समय पर राज्यों ने ज्यादा शक्ति और स्वयत्तता देने की मांग उठायी है। इससे केन्द्र और राज्यों के बीच संघर्ष व विवादों का जन्म हुआ। केन्द्र और राज्य अथवा विभिन्न राज्यों के आपसी कानूनी विवादों का समाधान यद्यपि न्यायपालिका करती है, लेकिन स्वायत्तता की मांग एक राजनीतिक मसला है जो बातचीत द्वारा ही सुलझाया जा सकता है।

→ केन्द्र-राज्य सम्बन्ध: भारतीय संघवाद पर राजनीतिक प्रक्रिया की परिवर्तनशील प्रकृति का काफी प्रभाव पड़ा है। यथा

  • 1950 तथा 1960 के दशक में केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस दल का वर्चस्व था। अंतः इस काल में नए राज्यों के गठन की मांग के अलावा केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध शांतिपूर्ण और सामान्य रहे।
  • 1960 के दशक में अनेक राज्यों में विरोधी दल सत्ता में आए। इससे राज्यों को और ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की मांग भी बलवती हुई।
  • 1990 के दशक से गठबंधन राजनीति का युग आया । राज्यों में विभिन्न राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल सत्तारूढ़ हुए। इससे राज्यों का राजनीतिक कद बढ़ा, विविधता का आदर हुआ और स्वायत्तता का मसला राजनैतिक रूप से गर्म हुआ है।

→ स्वायत्तता की मांग: समय-समय पर अनेक राज्यों और राजनीतिक दलों ने राज्यों को केन्द्र के मुकाबले ज्यादा स्वायत्तता देने की मांग उठायी है। लेकिन उनके स्वायत्तता के अलग-अलग अर्थ रहे हैं।

  • राज्यों को ज्यादा और महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये जाएँ।
  • राज्यों के पास वित्तीय स्वायत्तता हो।
  • राज्य प्रशासकीय दृष्टि से केन्द्र के नियंत्रण में नहीं हों।
  • सांस्कृतिक और भाषायी मुद्दों से जुड़ी स्वायत्तता, जैसे— तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध, पंजाब में पंजाबी भाषा व संस्कृति को प्रोत्साहन आदि।

JAC Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

→ राज्यपाल की भूमिका तथा राष्ट्रपति शासन:
राज्यपाल की भूमिका केन्द्र और राज्यों के बीच हमेशा ही विवाद का विषय रही है।

  • राज्यपाल की नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा होती है। वह केन्द्र के अभिकर्ता के रूप में कार्य करता है। जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारें होती हैं तब राज्यपाल की भूमिका विवादास्पद हो जाती है। 1998 में ‘सरकारिया आयोग’ ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि राज्यपाल की नियुक्ति निष्पक्ष होकर की जानी चाहिए।
  • राज्यपालों की शक्ति और भूमिका को विवादास्पद बनाने वाला संविधान का 356वां अनुच्छेद भी रहा है इसके द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है। केन्द्र ने अनेक अवसरों पर इसका प्रयोग राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए किया था उसने विरोधी दलों के गठबंधन को सत्तारूढ़ होने से रोका।

→ नवीन राज्यों की मांग: हमारी संघीय व्यवस्था में नवीन राज्यों के गठन की माँग को लेकर भी तनाव रहा है।

  • सबसे पहले भाषायी आधार पर राज्यों के गठन की मांग उठी। फलतः 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई और भाषा के आधार पर 1956 में राज्यों का पुनर्गठन हुआ। लेकिन बाद में भी राज्यों के पुनर्गठन की प्रक्रिया जारी रही। 1960 में मुजरात और महाराष्ट्र का, 1966 में पंजाब और हरियाणा का गठन हुआ। बाद में मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश का जन्म हुआ।
  • सन् 2000 के दशक में प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से बिहार, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश को विभाजित कर तीन नए राज्य क्रमश: झारखंड, उत्तरांचल और छत्तीसगढ़ बनाए गए तथा सन् 2014 में आंध्रप्रदेश का विभाजन कर आंध्रप्रदेश तथा तेलंगाना राज्य बनाए गए।
  • कुछ क्षेत्र और भाषायी समूह अभी भी अलग राज्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिनमें विदर्भ (महाराष्ट्र ) है।

→ अन्तर्राज्यीय विवाद:
संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में आपसी विवाद के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। कानूनी विवादों को तो न्यायपालिका हल कर देती है, लेकिन राजनीतिक विवादों के हल के लिए परस्पर विचार-विमर्श और विश्वास की आवश्यकता होती है।

  • सीमा विवाद: एक राज्य प्रायः पड़ौसी राज्यों के भू-भाग पर अपना दावा पेश करता है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच ‘बेलगाम’, मणिपुर और नागालैंड के बीच सीमा विवाद, पंजाब और हरियाणा के बीच सीमावर्ती क्षेत्रों तथा चंडीगढ़ को लेकर विवाद चले आ रहे हैं।
  • नदी जल विवाद: कावेरी नदी जल विवाद (तमिलनाडु व कर्नाटक के बीच), नर्मदा जल विवाद (गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के बीच) ऐसे ही विवाद हैं।

→ विशिष्ट प्रावधान:
भारतीय संघवाद की सबसे नायाब विशेषता यह है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है । यथा

प्रत्येक राज्य का आकार और जनसंख्या भिन्न-भिन्न होने के कारण उन्हें राज्य सभा में असमान प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है। जहाँ छोटे-से-छोटे राज्य को भी न्यूनतम प्रतिनिधित्व अवश्य प्रदान किया गया है, वहीं बड़े राज्यों को ज्यादा प्रतिनिधित्व देना भी सुनिश्चित किया गया है।

शक्ति के बंटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ सभी राज्यों को समान रूप से प्राप्त हैं। लेकिन कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था करता है। ये राज्य है। असम, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, हिमाचल प्रदेश, गोवा, महाराष्ट्र सिक्किम आदि। उसेजम्मू और कश्मीर अनुच्छेद 370 के द्वारा जम्मू-कश्मीर राज्य को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गयी थी।

→ जम्मू और कश्मीर
→ अनुच्छेद 370 के द्वारा जम्म्-कश्मीर राज्य को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गयी थी।
अनुच्छेद 370 के अनुसार संघीय सूची और समवर्ती सूची के किसी विषय पर संसद द्वारा कानून बनाने और -कश्मीर में लागू करने के लिए इस राज्य की सहमति आवश्यक थी। यह स्थिति अन्य राज्यों से भिन्न थी।

→ जम्मू-कश्मीर में राज्य सरकार की सहमति के बिना ‘आन्तरिक अशान्ति’ के आधार पर आपातकाल लागू नहीं किया जा सकता था न वहाँ वित्तीय आपातकाल लागू किया जा सकता था और न ही वहाँ राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व लागू होते थे तथा भारतीय संविधान के संशोधन भी राज्य सरकार की सहमति से ही वहाँ लागू हो सकते थे । 2019 में जम्मू-कश्मीर राज्य की इस विशिष्ट स्थिति को समाप्त कर दिया गया। अनुच्छेद 370 तथा 35 – A को संसद •ने संविधान संशोधन कर हटा दिया है तथा जम्मू-कश्मीर राज्य को दो भागों में विभाजित कर दिया गया है तथा दोनों भागों को केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बना दिया गया है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 कार्यपालिका

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 कार्यपालिका Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 कार्यपालिका

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका का अर्थ होता है।
(क) संसद द्वारा निर्वाचित कार्यपालिका।
(ख) ऐसी कार्यपालिका जो संसद को बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो।
(ग) जहाँ संसद हो वहाँ कार्यपालिका का होना।
(घ) देश तथा सरकार के अध्यक्ष का जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होना तथा संसद के प्रति जवाबदेह नहीं होना।
उत्तर:
(घ) देश तथा सरकार के अध्यक्ष का जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होना तथा संसद के प्रति जवाबदेह नहीं होना।

2. भारतीय पुलिस सेवा निम्न में से किसके अन्तर्गत आती है।
(क) अखिल भारतीय सेवाएँ
(ख) केन्द्रीय सेवाएँ
(ग) प्रान्तीय सेवाएँ
(घ) स्थानीय स्वशासन की सेवाएँ।
उत्तर:
(क) अखिल भारतीय सेवाएँ

3. संसदात्मक सरकार में निम्न में से कौनसी विशेषता नहीं पायी जाती है।
(क) सरकार के प्रमुख को प्रायः प्रधानमन्त्री कहते हैं।
(ख) सरकार का प्रमुख विधायिका में बहुमत दल या गठबन्धन का नेता होता है।
(ग) सरकार का प्रमुख ही देश या राष्ट्र का प्रमुख होता है।
(घ) सरकार का प्रमुख विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है।
उत्तर:
(ग) सरकार का प्रमुख ही देश या राष्ट्र का प्रमुख होता है।

4. संसदात्मक सरकार की विशेषता है-
(क) देश का प्रमुख ही सरकार का प्रमुख होता है।
(ख) सरकार का प्रमुख विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है।
(ग) सरकार का प्रमुख विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होता।
(घ) सरकार का प्रमुख प्रायः प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा चुना जाता है।
उत्तर:
(ख) सरकार का प्रमुख विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 कार्यपालिका

5. अध्यक्षात्मक सरकार में निम्न में से कौनसी विशेषता नहीं पायी जाती।
(क) राष्ट्रपति देश का प्रमुख तथा सरकार का प्रमुख दोनों होता है।
(ख) राष्ट्रपति का चुनाव प्रायः प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा किया जाता है।
(ग) राष्ट्रपति विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होता।
(घ) राष्ट्रपति विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है।
उत्तर:
(घ) राष्ट्रपति विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है।

6. संसदात्मक व्यवस्था को निम्न में से किस देश में अपनाया गया है।
(क) भारत
(ग) ब्राजील
(ख) अमेरिका
(घ) लैटिन अमेरिका के अन्य देश।
उत्तर:
(क) भारत

7. भारत में मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों की अधिकतम संख्या हो सकती है।
(क) लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 20 प्रतिशत तक।
(ख) लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत तक।
(ग) संसद (लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों) की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत तक।
(घ) संसद की कुल सदस्य संख्या के
उत्तर:
(ख) लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत तक।

8. मन्त्रिपरिषद् तभी अस्तित्व में आती है, 20 प्रतिशत तक।
(क) प्रधानमन्त्री अपने पद से त्याग पत्र दे देता है।
(ख) प्रधानमन्त्री की मृत्यु हो जाती है।
(ग) प्रधानमन्त्री अपने पद की शपथ ले लेता है।
(घ) राष्ट्रपति त्याग-पत्र दे देता है।
उत्तर:
(ग) प्रधानमन्त्री अपने पद की शपथ ले लेता है।

9. राज्य में राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है।
(क) केन्द्रीय सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा
(ख) सर्वोच्च न्यायालय की सलाह पर प्रधानमन्त्री द्वारा
(ग) संघीय लोक सेवा आयोग द्वारा
(घ) राज्य सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा।
उत्तर:
(क) केन्द्रीय सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा

10. निम्न में से कौनसी विशेषता भारतीय नौकरशाही की नहीं है।
(क) भारतीय नौकरशाही राजनीतिक रूप से तटस्थ है।
(ख) भारतीय नौकरशाही राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध है।
(ग) इसके सदस्यों का चयन बिना किसी भेदभाव के योग्यता के आधार पर किया जाता है।
(घ) इसका चयन संघ लोक सेवा आयोग या राज्यों के लोक सेवा आयोग करते हैं।
उत्तर:
(ख) भारतीय नौकरशाही राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध है।

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. सरकार का वह अंग जो विधायिका द्वारा लिए गए निर्णयों को लागू करता है और प्रशासन का काम करता कहलाता है। ………….. कहलाता है।
उत्तर:
कार्यपालिका

2. सरकार के प्रधान और उनके मंत्रियों को ………………… कार्यपालिका कहते हैं।
उत्तर:
राजनीतिक

3. जो लोग रोज-रोज के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होते हैं, उन्हें …………………. कार्यपालिका कहते हैं।
उत्तर:
स्थायी

4. भारतीय संविधान में राष्ट्रीय और प्रान्तीय दोनों ही स्तरों पर ………………….. कार्यपालिका की व्यवस्था को स्वीकार किया गया है।
उत्तर:
संसदीय

5. भारत का राष्ट्रपति सरकार का ……………….. प्रधान है।
उत्तर:
औपचारिक

6. भारत में प्रधानमंत्री सरकार का ……………….. प्रधान है।
उत्तर:
वास्तविक

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निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये

1. भारत के संविधान में औपचारिक रूप से संघ की कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति को दी गई हैं।
उत्तर:
सत्य

2. राष्ट्रपति को किसी भी विधेयक को एक निश्चित समय सीमा के अन्दर पुनर्विचार के लिए लौटाना होता है।
उत्तर:
असत्य

3. उपराष्ट्रपति लोकसभा का पदेन अध्यक्ष होता है।
उत्तर:
असत्य

4. संघीय मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या राज्य सभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती।
उत्तर:
असत्य

5. मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. उपराष्ट्रपति (क) लोकसभा
2. भारत का निम्न सदन (ख) राष्ट्रपति
3. भारत का उच्च सदन (ग) स्थायी कार्यपालिका
4. संघीय कार्यपालिका का औपचारिक प्रधान (घ) राष्ट्रपति का विवेकाधिकार
5. नौकरशाही (च) राज्य सभा का पदेन सभापति
6. पॉकेट वीटो (छ) राज्यसभा

उत्तर:

1. उपराष्ट्रपति (च) राज्य सभा का पदेन सभापति
2. भारत का निम्न सदन (क) लोकसभा
3. भारत का उच्च सदन (छ) राज्यसभा
4. संघीय कार्यपालिका का औपचारिक प्रधान (ख) राष्ट्रपति
5. नौकरशाही (ग) स्थायी कार्यपालिका
6. पॉकेट वीटो (घ) राष्ट्रपति का विवेकाधिकार

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीतिक कार्यपालिका से क्या आशय है?
उत्तर:
राजनीतिक कार्यपालिका सरकार के प्रधान और उनके मन्त्रियों को राजनीतिक कार्यपालिका कहते हैं । यह सरकार की सभी नीतियों के लिए उत्तरदायी होती है।

प्रश्न 2.
स्थायी कार्यपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
स्थायी कार्यपालिका जो लोग रोज-रोज के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होते हैं, उन्हें स्थायी कार्यपालिका कहते हैं।

प्रश्न 3.
कार्यपालिका कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
मोटे रूप से कार्यपालिका तीन प्रकार की होती है।

  1. संसदीय कार्यपालिका,
  2. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका और
  3. अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका।

प्रश्न 4.
सरकार और राज्य के प्रधान की दृष्टि से अध्यक्षात्मक व्यवस्था को स्पष्ट कीजिए। इसे अपनाने वाले किन्हीं दो देशों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
अध्यक्षात्मक व्यवस्था में राज्य और सरकार का प्रधान कौन होता है? इसे अपनाने वाले किन्हीं दो देशों के नाम लिखो।
उत्तर:
अध्यक्षात्मक व्यवस्था में राष्ट्रपति राज्य और सरकार दोनों का ही प्रधान होता है। ऐसी व्यवस्था अमेरिका तथा ब्राजील में पाई जाती है।

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प्रश्न 5.
संसदीय शासन व्यवस्था में राज्य और सरकार का अध्यक्ष कौन होता है?
अथवा
सरकार और राज्य के अध्यक्ष की स्थिति की दृष्टि से संसदीय शासन व्यवस्था को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संसदीय व्यवस्था में एक राष्ट्रपति या राजा होता है जो राज्य का प्रधान होता है और प्रधानमन्त्री सरकार का प्रधान होता है।

प्रश्न 6.
संसदीय कार्यपालिका वाले किन्हीं दो देशों के नाम लिखिए।
उत्तर:
भारत, ब्रिटेन।

प्रश्न 7.
भारत की संसदीय कार्यपालिका की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  1. राष्ट्रपति नाममात्र का अध्यक्ष।
  2. सामूहिक उत्तरदायित्व।

प्रश्न 8.
अध्यक्षात्मक कार्यपालिका की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  1. राष्ट्रपति देश (राज्य) तथा सरकार का अध्यक्ष।
  2. राष्ट्रपति विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं।

प्रश्न 9.
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव कौन करते हैं?
उत्तर:
भारत में राष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य और राज्य विधानसभाओं व संघ- शासित क्षेत्रों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य करते हैं।

प्रश्न 10.
उपराष्ट्रपति का चुनाव कौन करते हैं? इसकी निर्वाचन विधि क्या है?
उत्तर:
उपराष्ट्रपति का चुनाव संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य समानुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत प्रणाली से करते हैं।

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प्रश्न 11.
उपराष्ट्रपति के दो कार्य बताइए।
उत्तर:

  1. उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष होता है। अतः वह राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन करता है।
  2. राष्ट्रपति का पद किसी कारण से रिक्त होने पर उपराष्ट्रपति कार्यवाहक राष्ट्रपति का काम करता है।

प्रश्न 12.
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति किसके द्वारा और किस प्रकार की जाती है?
उत्तर:
जिस नेता को लोकसभा में बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है, राष्ट्रपति उसे प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है।

प्रश्न 13.
प्रधानमन्त्री तथा अन्य मन्त्रियों के लिए किस योग्यता का होना अनिवार्य है?
उत्तर:
प्रधानमन्त्री और सभी मन्त्रियों के लिए संसद का सदस्य होना अनिवार्य है।

प्रश्न 14.
मन्त्रिमण्डल के सामूहिक उत्तरदायित्व से क्या आशय है?
उत्तर:
मन्त्रिमण्डल के सामूहिक उत्तरदायित्व से यह आशय है कि यदि किसी एक मन्त्री के विरुद्ध भी अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाए तो सम्पूर्ण मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ता हैं।

प्रश्न 15.
भारतीय संविधान में राज्यपाल पद की क्या व्यवस्था की गई है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में राज्यपाल को राज्य की कार्यपालिका का अध्यक्ष बनाया गया है।

प्रश्न 16.
राज्यपाल की नियुक्ति किसके द्वारा की जाती है?
उत्तर:
राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

प्रश्न 17.
मुख्यमंत्री की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर:
राज्य की विधानसभा में बहुमत दल वाले नेता को राज्यपाल मुख्यमंत्री नियुक्त करता है।

प्रश्न 18.
वर्तमान में भारतीय नौकरशाही में कौन-कौनसी सेवाएँ सम्मिलित हैं?
उत्तर:
वर्तमान में भारतीय नौकरशाही में अखिल भारतीय सेवाएँ, केन्द्रीय सेवाएँ तथा प्रान्तीय सेवाएँ सम्मिलित

प्रश्न 19.
भारत में सिविल सेवा के सदस्यों की भर्ती की कोई दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:

  1. इनकी भर्ती संघ लोक सेवा आयोग तथा राज्यों के लोक सेवा आयोगों द्वारा की जाती है।
  2. भर्ती दक्षता और योग्यता के आधार पर की जाती है।

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प्रश्न 20.
कार्यपालिका के प्रमुख कार्य क्या हैं?
उत्तर:
कार्यपालिका के कार्य:

  1. कार्यपालिका विधायिका द्वारा स्वीकृत नीतियों और कानूनों को लागू करती
  2. कार्यपालिका प्रायः नीति निर्माण में भी भाग लेती है।

लघुत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संसदात्मक शासन व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
उत्तर;
संसदात्मक शासन व्यवस्था-संसदात्मक शासन व्यवस्था में प्रायः प्रधानमन्त्री सरकार का प्रधान होता है तथा राजा या राष्ट्रपति देश या राज्य का प्रधान होता है। वह कार्यपालिका का औपचारिक या नाममात्र का प्रधान होता है। कार्यपालिका की वास्तविक शक्ति प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल के पास होती है। प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल अपने कार्यों के लिए संसद या विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है।

प्रश्न 2.
अध्यक्षात्मक सरकार से क्या आशय है?
उत्तर;
अध्यक्षात्मक सरकार अध्यक्षात्मक सरकार वह सरकार होती है जिसका देश का प्रमुख और शासन का प्रमुख एक ही व्यक्ति राष्ट्रपति होता है। उसका चुनाव एक निश्चित अवधि के लिए प्रायः प्रत्यक्ष मतदान से होता है तथा वह संसद या विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होता है। अमेरिका तथा ब्राजील में अध्यक्षात्मक सरकारें हैं।

प्रश्न 3.
अर्द्ध- अध्यक्षात्मक सरकार से क्या आशय है?
उत्तर:
अर्द्ध- अध्यक्षात्मक सरकार वह सरकार जिसमें संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक दोनों की विशेषताएँ पायी जाती हैं, उसे अर्द्ध-अध्यक्षात्मक सरकार कहते हैं। प्रायः इसमें राष्ट्रपति देश का प्रधान होता है और प्रधानमन्त्री सरकार का प्रमुख होता है। प्रधानमन्त्री और उसका मन्त्रिमण्डल विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है लेकिन राष्ट्रपति नाम मात्र का अध्यक्ष नहीं होता। उसे दैनिक कार्यों के सम्पादन में महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। फ्रांस, रूस और श्रीलंका में ऐसी ही व्यवस्था है।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान निर्माता कैसी सरकार चाहते थे?
उत्तर:
भारतीय संविधान के निर्माता एक ऐसी सरकार सुनिश्चित करना चाहते थे जो जनता की अपेक्षाओं के प्रति संवेदनशील और उत्तरदायी हो; जिसमें एक शक्तिशाली कार्यपालिका तो हो, लेकिन साथ-साथ उसमें व्यक्ति-पूजा पर पर्याप्त अंकुश लगे।

प्रश्न 5.
संविधान में संसदीय कार्यपालिका की व्यवस्था को क्यों स्वीकार किया गया है?
उत्तर:
संसदीय व्यवस्था के अन्तर्गत कार्यपालिका को जन-प्रतिनिधियों के द्वारा प्रभावपूर्ण तरीके से नियन्त्रित किया जा सकता है। इसमें ऐसी अनेक प्रक्रियाएँ हैं जो यह सुनिश्चित करती हैं कि कार्यपालिका, विधायिका या जनता के प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी होगी और उनसे नियन्त्रित भी। इसलिए, संविधान में राष्ट्रीय और प्रान्तीय दोनों ही स्तरों पर संसदीय कार्यपालिका की व्यवस्था को स्वीकार किया गया है।

प्रश्न 6.
भारत में वास्तविक कार्यपालिका कौन है?
उत्तर:
भारत में संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है। इसमें केन्द्र स्तर पर प्रधानमंत्री तथा मंत्रिमंडल वास्तविक कार्यपालिका हैं और राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री तथा उसका मंत्रिमंडल वास्तविक कार्यपालिका है।

प्रश्न 7.
भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन कैसे होता है?
उत्तर:
अप्रत्यक्ष निर्वाचन भारत के राष्ट्रपति का चुनाव जनता के द्वारा सीधा न होकर अप्रत्यक्ष रूप से एक निर्वाचक मण्डल द्वारा होता है। निर्वाचक मण्डल राष्ट्रपति के निर्वाचक मण्डल में

  1. संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य,
  2. राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य तथा
  3. संघीय क्षेत्र की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं। निर्वाचन विधि – राष्ट्रपति का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधि व एकल संक्रमणीय मत प्रणाली के द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 8.
भारत के राष्ट्रपति की स्थिति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत का राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख है और संविधान के अनुसार शासन की सारी शक्तियाँ उसे प्रदान की गई हैं। लेकिन राष्ट्रपति सरकार का औपचारिक प्रधान हैं और उसकी समस्त कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिपरिषद् करते हैं। वे ही वास्तविक कार्यकारी हैं। अधिकतर मामलों में राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद् की सलाह माननी पड़ती है, वह अपने विवेक से सामान्य स्थितियों में कोई कार्य नहीं करता।

प्रश्न 9.
राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होती है? उसकी स्थिति बताइए।
उत्तर:
राज्यपाल की नियुक्ति- भारत के प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होता है, जो केन्द्रीय सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति के द्वारा नियुक्त किया जाता है। उसकी नियुक्ति 5 वर्ष के लिए की जाती है। वह राज्य का वैधानिक प्रधान तथा केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि दोनों होता है। इस कारण उसे राष्ट्रपति की तुलना में कहीं अधिक विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त हैं।

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प्रश्न 10.
” नौकरशाही राजनीतिक रूप से तटस्थ हो ।” इस कथन का क्या आशय है?
उत्तर:
‘नौकरशाही राजनीतिक रूप से तटस्थ हो’, इसका आशय यह है कि नौकरशाही नीतियों पर विचार करते समय किसी राजनीतिक दृष्टिकोण का समर्थन नहीं करेगी। चुनाव में पिछली सरकार के हार जाने और नये दल की सरकार बनने की स्थिति में नौकरशाही की जिम्मेदारी है कि वह नई सरकार को अपनी नीति बनाने और उसे लागू करने में मदद करे।

प्रश्न 11.
भारत के राष्ट्रपति को उसके पद से हटाने का क्या तरीका है?
अथवा
राष्ट्रपति पर महाभियोग कैसे लगाया जाता है?

उत्तर:
संविधान के उल्लंघन के आधार पर राष्ट्रपति को संसद महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर समय से पूर्व भी पदच्युत कर सकती है। महाभियोग का प्रस्ताव संसद के किसी भी सद

  1. लोक सेवक स्थायी सेवक हैं। वे अपने कार्य में दक्ष हैं। वे ही वास्तव में प्रशासन का संचालन करते हैं । अपनी विशेषज्ञता तथा योग्यता के आधार पर ही वे प्रशासन में कुशलता लाते हैं, जिसे मन्त्रीगण नहीं ला सकते।
  2. नौकरशाही नियमित चुनावों से प्रभावित नहीं होती है क्योंकि लोक-सेवक अपनी रिटायरमेंट की आयु तक अपने पद पर बने रहते हैं। इस प्रकार वे प्रशासन में स्थायित्व तथा निरन्तरता लाते हैं।

प्रश्न 13.
मन्त्रीगण और लोक सेवकों के मध्य सम्बन्धों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मन्त्रीगण और लोक सेवकों के मध्य सम्बन्धों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।

  1. एक सरकारी विभाग में मन्त्री प्रभारी होता है लेकिन इसे यथार्थ में लोक सेवकों द्वारा संचालित किया जाता
  2. मन्त्रियों द्वारा प्रशासन की नीति निर्धारित की जाती है लेकिन इसे क्रियान्वित लोक सेवक करते हैं।
  3. लोक सेवकों द्वारा मन्त्रियों को वे समस्त सम्भावित सलाह, तथ्य तथा आँकड़े प्रदान किये जाते हैं जिनके आधार पर वे नीति का निर्माण करते हैं।
  4. विधायिका में मन्त्रियों द्वारा प्रश्नों के दिये जाने वाले सभी जवाब लोक सेवकों द्वारा ही तैयार किये जाते हैं।

प्रश्न 14.
राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के चुनावों में निर्वाचक कौन होते हैं?
उत्तर:

  1. राष्ट्रपति राज्य विधानसभाओं, संघ क्षेत्र की विधानसभाओं तथा संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों द्वारा निर्वाचित किया जाता है।
  2. उपराष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा निर्वाचित किया जाता है।

प्रश्न 15.
राष्ट्रपति के पद की अर्हताएँ (योग्यताएँ ) क्या हैं?
उत्तर:
भारत के राष्ट्रपति के पद की अर्हताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. वह भारत का नागरिक हो
  2. उसकी न्यूनतम आयु 35 वर्ष की हो।
  3. वह केन्द्र तथा राज्य सरकार में किसी लाभ के पद पर न हो।
  4. वह लोकसभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो।
  5. वह पागल अथवा दिवालिया न हो।

प्रश्न 16.
मन्त्रिपरिषद् प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में कार्य करती है। कोई चार उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
मन्त्रिपरिषद् प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में कार्य करती है। इसके समर्थन में निम्नलिखित चार तथ्य दिये गये .

  1. मन्त्रिपरिषद् के सदस्य प्रधानमन्त्री की सलाह पर नियुक्त किये जाते हैं।
  2. प्रधानमन्त्री का त्यागपत्र सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् का त्यागपत्र होता है।
  3. प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल की बैठकें बुलाता है तथा उनकी अध्यक्षता करता
  4. प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति और मन्त्रिमण्डल के बीच की कड़ी है।

प्रश्न 17.
अखिल भारतीय सेवाओं से क्या आशय है? अखिल भारतीय सेवाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
अखिल भारतीय सेवा का अर्थ अखिल भारतीय सेवाएँ वे सेवाएँ हैं जिनके सदस्य केन्द्र तथा प्रान्तों में मुख्य पदों को धारण करते हैं, राज्यों में भी सभी उत्तरदायी पदों पर अखिल भारतीय सेवाएँ कार्यरत होती हैं तथा प्रान्तीय सेवाएँ इनके अधीन कार्य करती हैं। अखिल भारतीय सेवाएँ ये हैं।

  1. भारतीय प्रशासनिक सेवाएँ।
  2. भारतीय पुलिस सेवाएँ।

प्रश्न 18.
कार्यपालिका कितने प्रकार की होती है? कुछ देशों की कार्यपालिका की प्रकृति पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कार्यपालिका के प्रकार- विभिन्न देशों की लोकतान्त्रिक कार्यपालिकाओं की प्रकृति के आधार पर कार्यपालिका के तीन प्रकार बताये जा सकते हैं। यथा
1. अध्यक्षात्मक कार्यपालिका:
अध्यक्षात्मक व्यवस्था में राष्ट्रपति राज्य और सरकार दोनों का ही प्रधान होता है। इस व्यवस्था में सिद्धान्त और व्यवहार दोनों में राष्ट्रपति का पद बहुत शक्तिशाली होता है। राष्ट्रपति का चुनाव प्रायः प्रत्यक्ष मतदान से होता है तथा वह विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होता है। अमेरिका, ब्राजील और लैटिन अमेरिका के अनेक देशों में ऐसी व्यवस्था पायी जाती है।

2. संसदीय कार्यपालिका:
संसदीय व्यवस्था में प्रधानमन्त्री सरकार का प्रधान होता है और राष्ट्रपति या राजा देश का औपचारिक या नाम मात्र का प्रधान होता है। इस व्यवस्था में वास्तविक शक्ति प्रधानमन्त्री तथा मन्त्रिमण्डल के पास होती है। भारत, जर्मनी, इटली, जापान, इंग्लैण्ड और पुर्तगाल आदि देशों में यह व्यवस्था है।

3. अर्द्ध- अध्यक्षात्मक कार्यपालिका:
अर्द्ध- अध्यक्षात्मक व्यवस्था में राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री दोनों होते हैं लेकिन इसमें राष्ट्रपति को दैनिक कार्यों के सम्पादन में महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं। इस व्यवस्था में राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री दोनों एक ही दल के हो सकते हैं और अलग-अलग दलों के भी हो सकते हैं। फ्रांस, रूस और श्रीलंका में ऐसी ही व्यवस्था है।

प्रश्न 19.
संसदात्मक शासन प्रणाली की किन्हीं चार विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संसदात्मक शासन प्रणाली की चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. राज्य या देश का प्रधान नाम मात्र का प्रधान होता है। संसदात्मक शासन प्रणाली में राज्य के प्रधान को संविधान द्वारा जो शक्तियाँ दी गई होती हैं, उन्हें वह स्वयं अपने विवेक से प्रयुक्त नहीं कर सकता, यद्यपि समस्त प्रशासनिक कार्य उसी के नाम से चलता है। वह अपनी शक्तियों को केवल मन्त्रिमण्डल की सलाह पर ही प्रयुक्त कर सकता है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि मन्त्रिमण्डल के पास वास्तविक कार्यकारी शक्तियाँ हैं और राज्य के प्रधान के पास नाम मात्र की या औपचारिक शक्तियाँ हैं।

2. कार्यपालिका और विधायिका के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध: संसदात्मक शासन व्यवस्था में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है क्योंकि कार्यपालिका के सदस्य संसद ( विधायिका) के सदस्य होते हैं, उसकी कार्यवाहियों में भाग लेते हैं तथा जिस सदन के वे सदस्य हैं, उसमें वे मतदान में भी भाग लेते हैं।

3. मन्त्रिमण्डल विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है। संसदात्मक शासन व्यवस्था में मन्त्रिमण्डल संसद के प्रति उत्तरदायी होती है। संसद सदस्यों द्वारा जो प्रश्न पूछे जाते हैं, मन्त्रिमण्डल को उनके उत्तर देने होते हैं। विधायिका सदस्य मन्त्रिमण्डल की नीतियों तथा कार्यों की आलोचना कर सकते हैं तथा विधायिका सरकार की अनियमितताओं की जाँच के लिए जाँच आयोग बिठा सकती है। विधायिका अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर मंत्रिमंडल को अपदस्थ भी कर सकती है।

4. सामूहिक उत्तरदायित्व: संसदात्मक शासन व्यवस्था में मन्त्रिपरिषद् निम्न सदन के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है अर्थात् जब सरकार निम्न सदन का विश्वास खो देती है तो उसे त्यागपत्र देना पड़ता है। इसकी भावना यह है कि यदि एक मन्त्री के विरुद्ध भी अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाए तो सम्पूर्ण मन्त्रिपरिषद् को त्यागपत्र देना पड़ता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 कार्यपालिका

प्रश्न 20.
“ भारत में बिना प्रधानमन्त्री के मन्त्रिपरिषद् का कोई अस्तित्व नहीं है ।” स्पष्ट कीजिए।
अथवा
‘प्रधानमंत्री सरकार की केन्द्रीय धुरी है।’ इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत में बिना प्रधानमन्त्री के मन्त्रिपरिषद् का कोई अस्तित्व नहीं है क्योंकि यहाँ संसदात्मक शासन प्रणाली अपनी गई है जहाँ प्रधानमन्त्री सरकार की केन्द्रीय धुरी का काम करता है। इसे निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।

  1. मन्त्रिपरिषद् तभी अस्तित्व में आती है जब प्रधानमन्त्री अपने पद की शपथ ग्रहण कर लेता है क्योंकि प्रधानमन्त्री की सलाह से ही राष्ट्रपति अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है।
  2. धानमन्त्री की मृत्यु या त्याग-पत्र से पूरी मन्त्रिपरिषद् ही भंग हो जाती है जबकि किसी मन्त्री की मृत्यु, हटाए जाने या त्याग-पत्र के कारण मन्त्रिपरिषद् में केवल एक स्थान खाली होता है।
  3. प्रधानमन्त्री एक तरफ मन्त्रिपरिषद् तथा दूसरी ओर राष्ट्रपति और संसद के बीच एक सेतु का काम करता है। प्रधानमन्त्री का यह संवैधानिक दायित्व भी है कि वह सभी संघीय मामलों के प्रशासन और प्रस्तावित कानूनों के बारे में राष्ट्रपति को सूचित करे।
  4. प्रधानमन्त्री सरकार के सभी महत्त्वपूर्ण निर्णयों में सम्मिलित होता है और सरकार की नीतियों के बारे में निर्णय लेता है। वह मन्त्रिमण्डल की बैठकें आयोजित करता है तथा उनका सभापतित्व करता है तथा निर्णयों में प्रभावी भूमिका निभाता है।

प्रश्न 21.
क्या राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति में अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है?
उत्तर:
प्रधानमन्त्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति का विवेक – सामान्यतः राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल या गठबन्धन के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। वह अन्य किसी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त नहीं कर सकता। इसका अभिप्राय यह है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की नियुक्ति में अपना स्वविवेक का प्रयोग नहीं कर सकता और उसे लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल गठबन्धन के नेता को ही प्रधानमन्त्री बनने के लिए आमन्त्रित करना पड़ता है। चाहे वह उसे पसन्द करता हो या नहीं।

लेकिन कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में प्रधानमन्त्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति अपने विवेक को काम में ले सकता है। ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं।

  1. जब लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल अपना नेता चुनने में असमर्थ हो तो राष्ट्रपति अपने विवेक का प्रयोग करते हुए ऐसे व्यक्ति को प्रधानमन्त्री नियुक्त कर सकता है, जिसे उसके मत में, लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त है।
  2. जब लोकसभा में कोई एक दल स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता है और अनेक दल मिलकर एक गठबन्धन सरकार का निर्माण करना चाहते हैं, ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के चुनने में अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है।
  3. जब किसी कारण से अचानक प्रधानमन्त्री की मृत्यु हो जाने से प्रधानमन्त्री का पद रिक्त हो जाता है, तो राष्ट्रपति अपने विवेक का प्रयोग करते हुए प्रधानमन्त्री की नियुक्ति कर सकता है। जैसे कि राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने श्रीमती इन्दिरा गाँधी के हत्या के तुरन्त बाद राजीव गाँधी को प्रधानमन्त्री पद पर नियुक्त किया।

प्रश्न 22.
अब तक के कुल प्रधानमंत्रियों के नाम व उनका कार्यकाल एक तालिका द्वारा दर्शाइए भारत के प्रधानमंत्री।
उत्तर:
Table-1

प्रश्न 23.
“गठबन्धन सरकार की स्थिति में प्रधानमन्त्री की शक्तियों पर अंकुश लगा है।” कारण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
गठबन्धन सरकारों में प्रधानमन्त्री की शक्तियों की सीमाएँ; जब भी किसी एक राजनैतिक दल को लोकसभा में बहुमत मिला, तब प्रधानमन्त्री की शक्तियाँ निर्विवाद रहीं, लेकिन जब राजनैतिक दलों के गठबन्धन की सरकारें बनीं, प्रधानमन्त्री व मन्त्रिमण्डल की शक्तियों पर अनेक सीमाएँ लगी हैं। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. गठबन्धन सरकारों की स्थिति में राष्ट्रपति के विशेषाधिकारों की भूमिका बढ़ी है।
  2. गठबन्धन सरकारों में गठबन्धन की राजनीति के कारण राजनीतिक सहयोगियों से परामर्श की प्रवृत्ति बढ़ी है। जिससे प्रधानमन्त्री की सत्ता में कुछ सेंध लगी है।
  3. गठबन्धन सरकारों की स्थिति में प्रधानमन्त्री के अनेक विशेषाधिकारों, जैसे- मन्त्रियों का चयन और उनके पद-स्तर तथा मन्त्रालयों के चयन आदि पर भी अंकुश लगा है।
  4. गठबन्धन सरकारों की स्थिति में प्रधानमन्त्री सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों को भी अकेले तय नहीं कर सकता । सहयोगी दलों के बीच काफी बातचीत और समझौते के बाद ही नीतियाँ बन पाती हैं।

उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट है कि गठबन्धन सरकारों की स्थिति में प्रधानमन्त्री को एक नेता से अधिक एक मध्यस्थ की भूमिका निभानी पड़ती है।

प्रश्न 24.
भारत के उपराष्ट्रपति पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत का उपराष्ट्रपति: संविधान के अनुच्छेद 63 में यह प्रावधान किया गया है कि भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा। अर्हताएँ उपराष्ट्रपति पद के प्रत्याशी की प्रमुख अर्हताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसने 35 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।
  3. वह राज्यसभा का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो।
  4. वह संघ तथा प्रान्तों की सरकारों के अधीन किसी लाभ के पद पर न हो।
  5. वह दिवालिया तथा पागल न हो।

निर्वाचन: उपराष्ट्रपति का निर्वाचन एक निर्वाचन मण्डल करेगा जिसमें संसद के दोनों सदनों के सदस्य होंगे। उसका चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व तथा एकल संक्रमणीय मत प्रणाली के द्वारा गुप्त मतदान विधि से होगा।

कार्यकाल: उपराष्ट्रपति का चुनाव 5 वर्ष की अवधि के लिए किया जाता है। इससे पहले वह त्याग-पत्र दे सकता है। वह महाभियोग के द्वारा भी समय से पूर्व पद से हटाया जा सकता है। महाभियोग का प्रस्ताव पहले राज्यसभा में लाया जायेगा। यदि राज्यसभा में वह 2/3 बहुमत से पारित हो जाता है तो फिर दूसरे सदन में जायेगा यदि लोकसभा में भी वह 2/3 से अनुमोदन हो जाता है तो उसी दिन से उपराष्ट्रपति का पद खाली समझा जायेगा। शक्तियाँ तथा कार्य:

  1. उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होता है।
  2. जब किसी कारण से राष्ट्रपति का पद रिक्त हो जाता है तो उपराष्ट्रपति तब तक कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है, जब तक कि नया राष्ट्रपति शपथ नहीं ले लेता।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 कार्यपालिका

प्रश्न 25.
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली की किन्हीं चार विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली की विशेषताएँ अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली की चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. राज्य का प्रमुख ही सरकार का प्रमुख होता है। अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में राष्ट्रपति ही राज्य या देश का प्रमुख होता है और वही सरकार का प्रमुख होता है। वही सरकार का वास्तविक शासक होता है तथा उसी के नाम से सरकार के सभी कार्य किये जाते हैं।
  2. प्रत्यक्ष निर्वाचन: अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में सरकार के प्रमुख राष्ट्रपति का चुनाव प्रायः जनता द्वारा प्रत्यक्ष मतदान से होता है।
  3. कार्यपालिका का सर्वेसर्वा: अध्यक्षात्मक सरकार में सरकार का प्रमुख राष्ट्रपति कार्यपालिका में सर्वेसर्वा होता है। वह किसी भी व्यक्ति भी अपने मन्त्रिमण्डल में ले सकता है।
  4. विधायिका के प्रति अनुत्तरदायी: अध्यक्षात्मक सरकार में राष्ट्रपति या कार्यपालिका विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं होती।

निबन्धात्मक प्रश्न।

प्रश्न 1.
भारत के राष्ट्रपति की शक्तियों और स्थिति की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत के राष्ट्रपति की औपचारिक कार्यपालिका के प्रधान की स्थिति: भारत के संविधान में औपचारिक रूप से संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति को दी गई हैं। पर व्यवहार में प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में बनी मन्त्रिपरिषद् के माध्यम से राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग करता

संविधान के अनुच्छेद 74(1) के अनुसार, ” राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी जिसका प्रधान, प्रधानमन्त्री होगा। राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में ऐसी सलाह के अनुसार कार्य करेगा । परन्तु राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् से ऐसी सलाह पर पुनर्विचार करने को कह सकता है और राष्ट्रपति ऐसे पुनर्विचार के पश्चात् दी गई सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा।”

इस अनुच्छेद में जिस शब्द ‘ सलाह के अनुसार ही’ का प्रयोग किया गया है। उसका अभिप्राय है कि राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् की सलाह को मानने के लिए बाध्य है। वह मन्त्रिपरिषद् को अपनी सलाह पर एक बार पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है, लेकिन उसे मन्त्रिपरिषद् के द्वारा पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह को मानना ही पड़ेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि राष्ट्रपति सरकार का औपचारिक प्रधान है।

राष्ट्रपति की औपचारिक शक्तियाँ
राष्ट्रपति सरकार का एक औपचारिक प्रधान है। उसे औपचारिक रूप से बहुत-सी कार्यकारी, विधायी, न्यायिक और आपातकालीन शक्तियाँ प्राप्त हैं। राष्ट्रपति वास्तव में इन शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् की सलाह पर ही करता है और अधिकतर मामलों में राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद् की सलाह माननी पड़ती है। ये शक्तियाँ निम्नलिखित हैं।

1. कार्यपालिका शक्तियाँ: राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल या गठबन्धन के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है तथा उसकी सलाह से अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति करता है तथा उनमें विभागों का वितरण करता है। वह राज्यों के राज्यपाल, भारत के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक, भारत के महान्यायवादी, संघीय लोक सेवा आयोग के प्रधान व अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है। वह· भारत की जल, थल तथा वायु तीनों सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति होता है तथा वही तीनों सेनाओं के सेनापतियों की नियुक्ति करता है। वह अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देश का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरे देशों के साथ युद्ध की घोषणा करता है तथा शान्ति के लिए सन्धि करता है। वह दूसरे देशों के लिए अपने देशों के राजदूतों की नियुक्ति करता है तथा अन्य देशों से आए हुए राजदूतों के प्रमाण-पत्र स्वीकार करता है।

2. वैधानिक शक्तियाँ: राष्ट्रपति राज्यसभा के 12 सदस्यों को मनोनीत करता है। वह लोकसभा में दो आंग्ल- भारतीयों को मनोनीत कर सकता है। वह संसद के दोनों सदनों का अधिवेशन बुलाता है तथा उसे स्थगित करता है। वह लोकसभा को उसकी संवैधानिक अवधि पूरी होने से पहले भंग कर सकता है। वह संसद द्वारा पारित किये गये विधेयकों पर हस्ताक्षर करता है तभी वह विधेयक कानून का रूप लेते हैं। वह साधारण विधेयकों को अपने कुछ सुझावों के साथ संसद के पास फिर से विचार करने के लिए भेज सकता है। यदि संसद उस विधेयक को उसके सुझावों सहित या सुझावों के बिना दुबारा पास कर देती है तो राष्ट्रपति को उस विधेयक पर स्वीकृति देनी ही पड़ती है।

3. वित्तीय शक्तियाँ: राष्ट्रपति प्रतिवर्ष आगामी वर्ष के बजट को वित्त मन्त्री द्वारा सदन में प्रस्तुत करता है। राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से ही धन सम्बन्धी माँगें संसद में रखी जा सकती हैं। भारत की आकस्मिक निधि राष्ट्रपति के नियन्त्रण में होती है। वह किसी भी आकस्मिक खर्चे के लिए संसद की स्वीकृति से पूर्व ही इस निधि से धन देता है।

4. न्यायिक शक्तियाँ: राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। वह राज्यों के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। उसे किसी भी कानूनी विषय पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेने का अधिकार है। वह न्यायालयों द्वारा दिए गए मृत्यु – दण्ड या किसी अन्य दण्ड को कम कर सकता है या क्षमादान दे सकता है। उपर्युक्त वर्णित राष्ट्रपति की सभी शक्तियाँ औपचारिक कार्यपालिका शक्तियाँ हैं जो उसे एक औपचारिक कार्यपालिका प्रधान बनाती हैं। इनका प्रयोग वह मन्त्रिमण्डल की सलाह के अनुसार ही करता है।

राष्ट्रपति की वास्तविक शक्तियाँ
या
राष्ट्रपति के विशेषाधिकार

राष्ट्रपति की औपचारिक शक्तियों के अतिरिक्त उसकी कुछ स्वयं विवेक की शक्तियाँ या विशेषाधिकार भी प्राप्त हैं। जो उसे एक औपचारिक प्रधान की स्थिति से ऊपर उठाती हैं। यथा
1. सूचना प्राप्त करने का अधिकार:
संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति को सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों और मन्त्रिपरिषद् की कार्यवाही के बारे में सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। प्रधानमन्त्री का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्रपति द्वारा माँगी गई सभी सूचनाएँ उसे दे। राष्ट्रपति प्रायः प्रधानमन्त्री को पत्र लिखता है और देश की समस्याओं पर अपने विचार व्यक्त करता है।

2. पुनर्विचार के आग्रह का अधिकार:
राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह को लौटा सकता है और उसे अपने निर्णय पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है। ऐसा करने में राष्ट्रपति अपने विवेक का प्रयोग करता है। जब राष्ट्रपति को ऐसा लगता है कि सलाह में कुछ गलती है या कानूनी रूप से कुछ कमियाँ हैं या फैसला देश के हित में नहीं है, तो वह मन्त्रिपरिषद् से अपने निर्णय पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है। यद्यपि मन्त्रिपरिषद् पुनर्विचार के बाद भी उसे वही सलाह दुबारा दे सकती है और तब राष्ट्रपति उसे मानने के लिए बाध्य भी होगा, तथापि राष्ट्रपति के द्वारा पुनर्विचार का आग्रह अपने आप में काफी मायने रखता है। इसके माध्यम से राष्ट्रपति अपने विवेक के आधार पर अपनी शक्ति का प्रयोग करता है।

3. निषेधाधिकार की शक्ति:
राष्ट्रपति के पास निषेधाधिकार ( वीटो ) की शक्ति होती है जिससे वह संसद द्वारा पारित विधेयकों (धन विधेयकों को छोड़कर) पर स्वीकृति देने में विलम्ब कर सकता है या स्वीकृति देने से मना कर सकता है। संसद द्वारा पारित प्रत्येक विधेयक को कानून बनने से पूर्व राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति उसे संसद को लौटा सकता है और उसे उस पर पुनर्विचार के लिए कह सकता है। वीटो की यह शक्ति सीमित है क्योंकि संसद यदि उसी विधेयक को दुबारा पारित करके राष्ट्रपति के पास भेजे तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी स्वीकृति देनी पड़ेगी।

लेकिन संविधान में राष्ट्रपति के लिए ऐसी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की है जिसके अन्दर ही उस विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटाना पड़े। इसका अर्थ यह हुआ कि राष्ट्रपति किसी भी विधेयक को बिना किसी समय-सीमा के अपने पास लम्बित रख सकता है। इससे राष्ट्रपति को अनौपचारिक रूप से, अपने वीटो को प्रभावी ढंग से प्रयोग करने का अवसर मिल जाता है। इसे कई बार ‘पाकेट वीटो’ भी कहा जाता है।

4. राजनीतिक परिस्थितियों से प्राप्त विवेकाधिकार:
यदि चुनाव के बाद किसी भी नेता को लोकसभा में बहुमत प्राप्त न हो और यदि गठबन्धन बनाने के प्रयासों के बाद भी दो या तीन नेता यह दावा करें कि उन्हें लोकसभा में बहुमत प्राप्त है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति को अपने विवेक से यह निर्णय करना होता है कि वह किसे प्रधानमन्त्री नियुक्त करे । इसी प्रकार जब सरकार स्थायी न हो और गठबन्धन सरकार सत्ता में हो तब भी राष्ट्रपति के विवेकसम्मत हस्तक्षेप की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि सामान्य परिस्थितियों में राष्ट्रपति की औपचारिक प्रधान की भूमिका रहती है, लेकिन जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तब राष्ट्रपति पर निर्णय लेने और देश की सरकार को चलाने के लिए प्रधानमन्त्री को नियुक्त करने की अतिरिक्त जिम्मेदारी होती है।

प्रश्न 2.
भारत के प्रधानमन्त्री की शक्तियों, कार्यों तथा स्थिति का विवेचन कीजि।
उत्तर:
भारत का प्रधानमन्त्री
भारत में संविधान द्वारा समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति को प्रदान की गई हैं, लेकिन वह नाम मात्र का कार्यपालिका प्रधान है और व्यवहार में समस्त कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में मन्त्रिमण्डल ही करता है। इस प्रकार प्रधानमन्त्री सरकार का प्रमुख है। वह भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में एक शक्तिशाली स्थिति प्राप्त किए हुए है।

प्रधानमन्त्री की नियुक्ति: भारत का राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत दल या गठबन्धन के नेता को प्रधानमन्त्री नियुक्त करता है। यदि वह नियुक्ति के समय संसद का सदस्य नहीं है तो छः माह के भीतर उसे संसद के किसी भी सदन का निर्वाचित सदस्य बनना आवश्यक है, अन्यथा छ: माह बाद उसे त्याग-पत्र देना होगा।

पदावधि: प्रधानमन्त्री की कोई निश्चित समयावधि नहीं है। वह अपने पद पर तब तक बना रहेगा जब तक कि लोकसभा का उसमें विश्वास है। लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उसे कभी भी अपदस्थ कर सकती है।

प्रधानमन्त्री की शक्तियाँ और कार्य: प्रधानमन्त्री की प्रमुख शक्तियाँ व कार्य अग्रलिखित हैं।
1. मन्त्रिमण्डल का गठन करना: प्रधानमन्त्री अपने पद की शपथ लेने के बाद सबसे पहले अपने मन्त्रिमण्डल के गठन का कार्य करता है। राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह पर मन्त्रियों की नियुक्ति करता है। राष्ट्रपति को सलाह देने से पूर्व वह यह तय करता है कि उसकी मन्त्रिपरिषद् में कौन लोग मन्त्री होंगे। प्रधानमन्त्री ही विभिन्न मन्त्रियों में पद स्तर और मन्त्रालयों का आबण्टन करता है।

वह मन्त्रियों को उनकी वरिष्ठता और राजनीतिक महत्त्व के अनुसार मन्त्रिमण्डल का मन्त्री, राज्यमन्त्री या उपमन्त्री पद पर पदस्थ करता है। संविधान के 91वें संशोधन अधिनियम, 2003 के द्वारा मन्त्रिमण्डल के गठन में उनकी संख्या के सम्बन्ध में प्रधानमन्त्री पर यह सीमा लगा दी गयी है कि मन्त्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।

2. मन्त्रियों को पद: मुक्त करना मन्त्रीगण प्रधानमन्त्री के विश्वासपर्यन्त ही अपने पद पर बने रह सकते हैं। यदि किसी कारण से प्रधानमन्त्री का किसी मन्त्री से विश्वास हट जाता है, चाहे उसका कारण उसकी अकार्यकुशलता हो या राजनीतिक मतभेद हो, तो वह उस मन्त्री से त्याग-पत्र माँग सकता है। यदि वह प्रधानमन्त्री की सलाह के अनुसार त्याग-पत्र नहीं देता है तो प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति को उस मन्त्री को बर्खास्त करने की सिफारिश कर सकता है। वह अपने मन्त्रिमण्डल में कभी भी फेर-बदल कर सकता है। इस प्रकार प्रधानमन्त्री की इच्छा के विरुद्ध कोई भी मन्त्री मन्त्री नहीं रह सकता।

3. मन्त्रियों के मध्य सामञ्जस्य स्थापित करना: प्रधानमंत्री सभी मन्त्रियों के विभागों की कार्यप्रणाली पर निगरानी रखता है और उनके विभाग के सम्बन्ध में मन्त्रियों को सलाह देता है तथा उनमें परस्पर सामञ्जस्य स्थापित करता है। वह किसी भी मुद्दे पर मन्त्रियों को सलाह दे सकता है तथा आगे के विचार-विमर्श हेतु उस मुद्दे को मन्त्रिमण्डल के समक्ष भी ला सकता है।

4. मन्त्रिमण्डल की बैठक की अध्यक्षता करना: प्रधानमन्त्री मन्त्रिमण्डल की बैठक बुलाता है, उसके एजेण्डा को निर्धारित करता है तथा बैठक का स्थान, समय तथा दिनांक निर्धारित करता है । वह मन्त्रिमण्डल की बैठक की अध्यक्षता करता है। मन्त्रिमण्डल की बैठक में प्रधानमन्त्री के दृष्टिकोण को महत्त्व दिया जाता है।

5. प्रधानमन्त्री मन्त्रिपरिषद और राष्ट्रपति के बीच कड़ी का कार्य करता है। प्रधानमन्त्री का यह संवैधानिक दायित्व है कि वह सभी संघीय मामलों के प्रशासन और प्रस्तावित कानूनों के बारे में राष्ट्रपति को सूचित करे । इस प्रकार वह राष्ट्रपति को प्रशासनिक नीतियों और कानूनों के बारे में सूचित करके मन्त्रिमण्डल और राष्ट्रपति के बीच कड़ी का कार्य करता है। कोई अन्य मन्त्री राष्ट्रपति से प्रत्यक्षतः इस सम्बन्ध में नहीं मिल सकता । मन्त्रीगण केवल प्रधानमन्त्री के माध्यम से ही राष्ट्रपति से मिल सकते हैं तथा संवाद कर सकते हैं।

6. संसद का नेता: प्रधानमन्त्री लोकसभा में बहुमत दल/गठबन्धन का नेता होता है और व्यवहार में लोकसभा में ही संसद की सभी शक्तियाँ निहित हैं। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से प्रधानमन्त्री संसद का नेतृत्व करता है। संसद में सरकार के महत्त्वपूर्ण निर्णयों की घोषणा प्रधानमन्त्री द्वारा ही की जाती है। प्रधानमन्त्री ही प्राय: संसद के सत्रों की तिथियाँ निर्धारित करता है और कौनसा विधेयक संसद में प्रस्तावित किया जायेगा, यह भी निर्धारित करता है। सभी महत्त्वपूर्ण और गम्भीर समस्याओं के दिशा-निर्देश के लिए संसद प्रधानमन्त्री की तरफ ही देखती है। इस प्रकार वह संसद का नेतृत्व भी करता है।

7. सरकार का मुख्य प्रवक्ता: प्रधानमन्त्री सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दों और समस्याओं पर सरकार का मुख्य प्रवक्ता होता है। विधायिका, राष्ट्रपति और जनता के समक्ष वह सरकार का प्रतिनिधित्व करता है और सरकार की ओर से वक्तव्य देता है।

8. राष्ट्र का नेता: जब कभी राष्ट्र संकट में होता है तो समूचा राष्ट्र दिशा-निर्देश हेतु प्रधानमन्त्री की ओर देखता है तथा जनता में उसकी अपील अपना महत्त्व रखती है। व्यवहार में वह अन्तर्राष्ट्रीय जगत में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है तथा विदेशी राज्यों के साथ वही सन्धि तथा समझौते करता है।

प्रधानमन्त्री की स्थिति: प्रधानमन्त्री का पद बहुत शक्तिशाली तथा महत्त्वपूर्ण है। वह एक वास्तविक कार्यपालक तथा सरकार का प्रमुख है। वह सरकार की केन्द्रीय धुरी है जिसके चारों ओर सरकार की मशीनरी घूमती है। वह मन्त्रिपरिषद का निर्माणकर्त्ता तथा संहारकर्त्ता दोनों हैं। वह लोकसभा, संसद और राष्ट्र का नेता है। उसकी इच्छा के विरुद्ध कोई विधेयक पारित नहीं होता है और बिना उसकी सलाह के राष्ट्रपति कोई नियुक्ति नहीं करता है। भारत में अन्य कोई पद प्रधानमन्त्री जितना महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली नहीं है।

कोई भी व्यक्ति उसकी इच्छा के विरुद्ध मन्त्रिमण्डल में नहीं रह सकता। वह राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने की तथा नये चुनाव कराने की सिफारिश कर सकता। यथा लेकिन प्रधानमन्त्री की शक्तियाँ और उनका प्रयोग तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

  • जब भी किसी एक राजनैतिक दल को लोकसभा में बहुमत मिला, तब प्रधानमन्त्री और मन्त्रिमण्डल की उक्त शक्तियाँ निर्विवाद रहीं और प्रधानमन्त्री का पद शक्तिशाली व महत्त्वपूर्ण व प्रभावी बना रहा।
  • लेकिन जब राजनीतिक दलों के गठबन्धन की सरकारें बनीं तब प्रधानमन्त्री का पद इतना अधिक शक्तिशाली नहीं रहा है। गठबन्धन सरकारों में प्रधानमन्त्री को एक नेता से अधिक एक मध्यस्थ की भूमिका निभानी पड़ती है। गठबन्धन सरकारों में प्रधानमन्त्री की स्थिति एक दलीय सरकारों के प्रधानमन्त्रियों की तुलना में कमजोर हुई है। इसके प्रमुख कारण ये हैं।
    1. गठबन्धन की स्थिति में प्रधानमन्त्री के चयन में राष्ट्रपति के विशेषाधिकारों की भूमिका बढ़ी है।
    2. इस स्थिति में राजनीतिक सहयोगी दलों से परामर्श की प्रवृत्ति बढ़ी है, जिससे प्रधानमन्त्री की सत्ता में सेंध लगी है।
    3. इसमें प्रधानमन्त्री के अनेक विशेषाधिकारों, जैसे—मन्त्रियों का चयन, उनके पद स्तर और मन्त्रालय के चयन आदि में भी कुछ अंकुश लगा है।
    4. इसमें विभिन्न विचारधारा वाले राजनीतिक सहयोगी दलों से काफी बातचीत और समझौते के बाद ही नीतियाँ बन पाती हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 कार्यपालिका

प्रश्न 3.
सिविल सेवाएँ क्या हैं? भारत में सिविल सेवाओं की प्रमुख विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सिविल सेवाओं से आशय: भारत में संविधान के अनुसार समस्त कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति में निहित हैं तथा राष्ट्रपति इनका प्रयोग मन्त्रिपरिषद् की सलाह से करता है। इस प्रकार व्यवहार में कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् करती है। मन्त्रिपरिषद्, जिसे राजनीतिक कार्यपालिका कहा जाता है, नीतियों का निर्माण करती है और सरकार के विभागों के ऊपर नियन्त्रण करती है। लेकिन इन नीतियों का क्रियान्वयन स्थायी कार्यपालिका, जिसे सिविल सेवाएँ, कहा जाता है, द्वारा किया जाता है। स्थायी कार्यपालिका ही रोज-रोज के प्रशासन का संचालन करती है।

प्रशासन के प्रत्येक विभाग का एक स्थायी लोक सेवक प्रमुख होता है, जिसके अधीन काफी बड़ी संख्या में स्थायी सिविल सेवक कार्य करते हैं। वास्तव में ये ही स्थायी सिविल सेवक मिलकर कानूनों को लागू करते हैं, मन्त्रियों द्वारा बनायी गयी नीतियों को क्रियान्वित करते हैं और प्रशासन चलाते हैं। ये स्थायी सिविल सेवक ही जो वास्तव में प्रशासन का संचालन करते हैं, लोक सेवक कहलाते हैं। वे योग्यता के आधार पर नियुक्त होते हैं तथा अपने पद पर एक निश्चित आयु पर सेवामुक्त होने की अवधि तक स्थायी रूप से बने रहते हैं।

भारत में सिविल सेवाओं की प्रमुख विशेषताएँ: भारत में सिविल सेवाओं की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. निश्चित अवधि: भारत में लोक सेवक स्थायी आधार पर अपना पद ग्रहण करते हैं। वे स्थायी कार्यपालिका कहलाते हैं तथा अपने पद पर तब तक बने रहते हैं जब तक कि उसे एक निश्चित आयु पर पदमुक्त नहीं कर दिया जाता। इससे पहले वे केवल चार्जशीट तथा जाँच के आधार पर दोषी पाये जाने पर ही पदमुक्त हो सकते हैं।

2. योग्यता के आधार पर नियुक्ति: लोक सेवक योग्यता के आधार पर नियुक्त किये जाते हैं, न कि निर्वाचन के आधार पर। सभी पदों के लिए एक योग्यता निर्धारित की गई है और खुली भर्ती प्रतियोगिता आयोजित की जाती है, जिसके आधार पर योग्य तथा वाँछित प्रत्याशियों को नियुक्ति दी जाती है। इस प्रकार लोक सेवकों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाती है। संघ लोक सेवा आयोग तथा राज्यों के लोक सेवा आयोग ऐसी प्रतियोगिताओं के माध्यम से नियुक्ति करते हैं।

3. पदों और कर्त्तव्यों का तर्कसंगत वितरण: नौकरशाही में सभी पदों के साथ दायित्व और कार्य सम्बद्ध हैं। प्रत्येक पदाधिकारी का यह दायित्व होता है कि वह उस पद से जुड़े दायित्वों और कार्यों को पूरा करे। इस तर्कसंगत विभाजन के कारण समस्त प्रशासन का कार्य सुचारु रूप से चलता रहता है।

4. कानून के अनुसार अपने कर्त्तव्यों का पालन: लोक सेवक का यह मुख्य कार्य होता है कि वह अपने विभाग में राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा निर्धारित कानूनों को लागू करे तथा नीतियों को क्रियान्वित करे। लेकिन उन्हें कानून तथा नियमों के अनुसार कार्य करना पड़ता है। वे निरंकुशतापूर्ण ढंग से कार्य नहीं कर सकते। उन्हें अपनी कार्यप्रणाली में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना होता है। इस प्रक्रिया को अपनाने के कारण अनेक बार कार्य पूरा करने में देरी भी हो जाती है।

5. राजनीतिक तटस्थता: नौकरशाही से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह राजनीतिक रूप से तटस्थ हो। इसका अर्थ यह है कि नौकरशाही नीतियों पर विचार करते समय किसी राजनैतिक दृष्टिकोण का समर्थन नहीं करेगी । प्रजातन्त्र में यह सम्भव है कि कोई पार्टी चुनाव में हार जाए और नई सरकार पिछली सरकार की नीतियों की जगह नई नीतियाँ अपनाना चाहे। ऐसी स्थिति में प्रशासनिक मशीनरी की जिम्मेदारी है कि वह नई सरकार को अपनी नीति बनाने और उसे लागू करने में मदद करे।

6. आरक्षण की व्यवस्था: यद्यपि भारत में सिविल सेवा या नौकरशाही के सदस्यों को बिना किसी भेदभाव के दक्षता और योग्यता के आधार पर चयनित किया जाता है; तथापि संविधान यह भी सुनिश्चित करता है कि पिछड़े वर्गों को भी समाज के सभी वर्गों के साथ-साथ सरकारी नौकरशाही का हिस्सा बनने का मौका मिले। इस उद्देश्य के लिए संविधान दलित और आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करता है। बाद में अन्य पिछड़े वर्गों तथा महिलाओं को भी आरक्षण दिया गया है। इन प्रावधानों से यह सुनिश्चित होता है कि नौकरशाही में सभी समूहों का प्रतिनिधित्व होगा तथा सामाजिक असमानताएँ सिविल सेवाओं में भर्ती के मार्ग में रोड़ा नहीं बनेंगी।

7. पदसोपानीय व्यवस्था: भारत में सिविल सेवाओं का समूचा ढाँचा पदसोपानीय सिद्धान्त पर आधारित है। इसके तहत सिविल सेवक अनेक स्तरों में विभाजित किये गये हैं। एक निम्न स्तर के पदाधिकारी को उच्च स्तर के पदाधिकारी के अधीन काम करना होता है तथा वह अपने कार्य के लिए उसके प्रति उत्तरदायी होता है। उच्च स्तर का पदाधिकारी अपनी अधीन कर्मचारियों के कार्यों का पर्यवेक्षण करता है

8. जटिल स्वरूप: वर्तमान में भारतीय नौकरशाही का स्वरूप बहुत जटिल हो गया है। इसमें अखिल भारतीय सेवाएँ, केन्द्रीय सेवाएँ, प्रान्तीय सेवाएँ, स्थानीय सरकार के कर्मचारी और लोक उपक्रमों के तकनीकी तथा प्रबन्धकीय अधिकारी सम्मिलित हैं।

प्रश्न 4.
भारत में सिविल सेवाओं के ढाँचे की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत में सिविल सेवाओं की संरचना आज भारत में भारतीय नौकरशाही का स्वरूप बहुत जटिल हो गया है। इसमें अखिल भारतीय सेवाएँ, केन्द्रीय सेवाएँ, प्रान्तीय सेवाओं के अतिरिक्त स्थानीय सरकार के कर्मचारी और लोक उपक्रमों के तकनीकी तथा प्रबन्धकीय अधिकारी भी सम्मिलित हैं। संवैधानिक दृष्टि से भारत में सिविल सेवाओं को मोटे रूप से तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है, ये हैं
(अ) अखिल भारतीय सेवाएँ,
(ब) केन्द्रीय सेवाएँ और
(स) प्रान्तीय सेवाएँ। यथा

(अ) अखिल भारतीय सेवाएँ:
अखिल भारतीय सेवाएँ भारतीय संघवाद की एक अनोखी विशेषता है। अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्य केन्द्र तथा राज्यों दोनों में अपनी सेवाएँ देते हैं। ये अधिकारी प्रान्तीय स्तर पर शीर्षस्थ पदों पर नियुक्त होते हैं। किसी एक अखिल भारतीय सेवा के पदाधिकारी की नियुक्ति संघ लोक सेवा आयोग द्वारा योग्यता औरं दक्षता के आधार पर की जाती है। जब उसे किसी एक राज्य से सम्बद्ध कर दिया जाता है, वहाँ वह उस राज्य सरकार की देखरेख में कार्य करता है। ये अधिकारी केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त होते हैं और वे केन्द्र सरकार की सेवा में वापस जा सकते हैं तथा केवल केन्द्र सरकार ही उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकती है। इस प्रकार वे राज्यों में शीर्ष पदों पर रहते हुए भी केन्द्रीय सरकार की देखरेख और नियन्त्रण में रहते हैं।

वर्तमान में भारत में निम्नलिखित अखिल भारतीय सेवाएँ हैं

  1. भारतीय प्रशासनिक सेवा
  2. भारतीय पुलिस सेवा
  3. भारतीय वन (Forest) सेवा (भारतीय वन सेवा 1963 में जोड़ी गई थी।)

(ब) केन्द्रीय सेवाएँ:
केन्द्रीय सेवाएँ केवल संघ सरकार के विभागों से सम्बद्ध होती हैं। केन्द्रीय सेवाओं के पदाधिकारी केवल केन्द्रीय सरकार के अधीन कार्य करते हैं। केन्द्रीय सेवाएँ 24 प्रकार की हैं जो कि भिन्न-भिन्न विभागों से सम्बन्धित है। इनमें प्रमुख हैं

  1. भारतीय विदेश सेवा,
  2. भारतीय राजस्व सेवा,
  3. भारतीय पोस्टल सेवा,
  4. भारतीय ऑडिट एण्ड एकाउण्ट सेवाएँ,
  5. भारतीय कस्टम तथा एक्साइज सेवा,
  6. केन्द्रीय इंजीनियरिंग सेवा आदि। केन्द्रीय सेवाओं की भर्ती भी अखिल भारतीय सेवाओं के साथ ही संघ लोक सेवा आयोग द्वारा की जाती है।

(स) प्रान्तीय सेवाएँ:
प्रत्येक प्रान्त की सरकार प्रशासन के संचालन के लिए स्वयं के आफीसर नियुक्त करती है। वे राज्य लोक सेवा आयोगों के माध्यम से नियुक्त किये जाते हैं। उनके वेतन, भत्ते तथा सेवा की शर्तें आदि राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किये जाते हैं। वे केवल राज्य सरकार के अधीन कार्य करते हैं। प्रमुख प्रान्तीय सेवाएँ ये हैं।

  1. प्रान्तीय सिविल सेवा,
  2. प्रान्तीय पुलिस सेवा,
  3. प्रान्तीय न्यायिक सेवा,
  4. प्रान्तीय शिक्षा सेवा,
  5. प्रान्तीय स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सेवा,
  6. प्रान्तीय इंजीनियरिंग सेवा,
  7. प्रान्तीय राजस्व सेवा आदि।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से

Jharkhand Board JAC Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से

बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions)

1. पृथ्वी पर होमिनिड (मानव जैसे) प्राणियों का प्रादुर्भाव हुआ –
(अ) 8,000 ई. पूर्व
(ब) 2,40,000वर्ष पूर्व
(स) 1,40,000 वर्ष पूर्व
(द) 56,00,000 वर्ष पूर्व।
उत्तर:
(द) 56,00,000 वर्ष पूर्व।

2. ‘ऑन दि ओरिजन ऑफ स्पीशीज’ नामक पुस्तक का रचयिता था –
(अ) टायनबी
(ब) प्लूटार्क
(स) चार्ल्स डारविन
(द) न्यूटन।
उत्तर:
(स) चार्ल्स डारविन

3. होमिनॉइड प्राणियों का उदय हुआ –
(अ) 56 लाख वर्ष पहले
(ब) 240 लाख वर्ष पहले
(स) 360 लाख वर्ष पहले
(द) 35 लाख वर्ष पहले।
उत्तर:
(ब) 240 लाख वर्ष पहले

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से

4. होमिनिडों का उद्भव हुआ –
(अ) अमेरिका में
(ब) अफ्रीका में
(स) एशिया में
(द) यूरोप में।
उत्तर:
(ब) अफ्रीका में

5. होमो का शाब्दिक अर्थ है –
(अ) वानर
(ब) जानवर
(स) वृक्ष
(द) आदमी।
उत्तर:
(द) आदमी।

6. ‘होमो सैपियन्स’ से क्या अभिप्राय है –
(अ) प्राचीन मानव
(स) वानर
(ब) प्राज्ञ या चिन्तनशील मनुष्य
(द) मध्यकालीन मानव।
उत्तर:
(ब) प्राज्ञ या चिन्तनशील मनुष्य

7. पत्थर के औजार बनाने और उनका प्रयोग किये जाने का सबसे प्राचीन साक्ष्य मिलता है-
(अ) फ्रांस
(ब) इंग्लैण्ड
(स) इथियोपिया तथा केन्या
(द) चीन तथा जापान।
उत्तर:
(स) इथियोपिया तथा केन्या

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से

8. हादजा कौन थे –
(अ) चित्रका
(स) शिल्पकार
(ब) कृषक
(द) शिकारी तथा संग्राहक।
उत्तर:
(द) शिकारी तथा संग्राहक।

रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए –

1. यूरोप में मिले सबसे पुराने जीवाश्म होमो हाइडल बर्गेसिस और होमो …………… के हैं।
2. सामान्यतः आस्ट्रेलोपिथिकस की तुलना में होमो का मस्तिष्क ……………… होता है।
3. पत्थर के औजार बनाने और उनका इस्तेमाल किए जाने का सबसे प्राचीन साक्ष्य …………… और …………… के पुरास्थलों से प्राप्त होता है।
4. जीवित प्राणियों में ……………. ही एक ऐसा प्राणी है जिसके पास भाषा है।
5. मानव का विकास ……………… रूप से हुआ है।
उत्तर:
1. निअंडरथलैसिस
2. बड़ा
3. इथियोपिया, केन्या
4. मनुष्य
5. क्रमिक।

सत्य/असत्य कथन छाँटिये –

1. आज हमें आदि मानव के इतिहास की जानकारी मानव के जीवाश्मों, पत्थर के औजारों और गुफाओं की चित्रकारियों की खोजों से मिलती है।
2. मानव का क्रमिक विकास हुआ इस बात का साक्ष्य हमें बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट में मिलता है।
3. चार्ल्स डार्विन के अनुसार मानव बहुत समय पहले जानवरों से ही क्रमिक रूप से विकसित होकर अपने वर्तमान रूप में आया है।
4. होमिनाइड की उत्पत्ति 56 लाख वर्ष पहले हुई।
5. होमिनिडों का उद्भव यूरोप में हुआ।
उत्तर:
1. सत्य
2. असत्य
3. सत्य
4. असत्य
5. असत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये –

1. किलोंबे के खनन स्थल (अ) चार्ल्स डार्विन
2. लेजरेट गुफा (ब) औजार बनाने वाली मानव प्रजाति
3. ऑन दि ओरिजन ऑफ स्पीशीज (स) दक्षिण फ्रांस
4. होमो हैबिलिस (द) चिंतनशील मनुष्य
5. होमो सैपियंस (य) केन्या

उत्तर:

1. किलोंबे के खनन स्थल(य) केन्या (य) केन्या
2. लेजरेट गुफा  (द) चिंतनशील मनुष्य
3. ऑन दि ओरिजन ऑफ स्पीशीज (अ) चार्ल्स डार्विन
4. होमो हैबिलिस (ब) औजार बनाने वाली मानव प्रजाति
5. होमो सैपियंस (स) दक्षिण फ्रांस

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न –

प्रश्न 1.
पृथ्वी पर मानव जैसे प्राणियों का प्रादुर्भाव कब हुआ ?
उत्तर:
सम्भवतः 56 लाख वर्ष पहले।

प्रश्न 2.
होमिनाइड प्राणियों का उद्भव कब हुआ ?
उत्तर:
होमिनाइड प्राणियों का उद्भव 240 लाख वर्ष पहले हुआ।

प्रश्न 3.
होमिनाइड प्राणियों का उद्भव कहाँ हुआ था ?
उत्तर:
अफ्रीका में।

प्रश्न 4.
होमिनिडों की दो प्रमुख शाखाओं का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
(1) आस्ट्रेलोपिथिकस
(2) होमो

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से

प्रश्न 5.
आधुनिक मानव द्वारा शिकार करना कब शुरू हुआ?
उत्तर:
लगभग 5,00,000 वर्ष पहले।

प्रश्न 6.
आदिकालीन गुफाओं में पाये गए चूल्हे किसके द्योतक हैं?
उत्तर:
आग के नियन्त्रित प्रयोग के।

प्रश्न 7.
सबसे पहले किन होमिनिडों ने पत्थर के औजार बनाए थे?
उत्तर:
सम्भवतः आस्ट्रेलोपिथिकस ने।

प्रश्न 8.
जानवरों को मारने के तरीकों में सुधार लाने वाले दो नये औजारों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
(1) भाले तथा
(2) तीर-कमान।

प्रश्न 9.
सिले हुए कपड़ों का सबसे पहला साक्ष्य कितने वर्ष पुराना है?
उत्तर:
21,000 वर्ष पुराना।

प्रश्न 10.
बोलचाल की भाषा का विकास कब हुआ?
उत्तर:
सम्भवतः 20 लाख वर्ष पूर्व।

प्रश्न 11.
आल्टामीरा कहाँ स्थित है?
उत्तर:
आल्टामीरा स्पेन में स्थित एक गुफा -स्थल है।

प्रश्न 12.
आल्टामीरा क्यों प्रसिद्ध है?
उत्तर:
यहाँ की गुफा की छत पर जानवरों के अनेक चित्र उत्कीर्ण हैं।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से

प्रश्न 13.
अफ्रीका में पाए जाने वाले एक शिकारी-संग्राहक समाज का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कुंगसेन।

प्रश्न 14.
होमो सैपियन्स से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
होमो सैपियन्स चिन्तनशील तथा प्राज्ञ मानव नामक प्रजाति है।

प्रश्न 15.
संजातिवृत से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
संजातिवृत में समकालीन नृजातीय समूहों का विश्लेषणात्मक अध्ययन होता है।

प्रश्न 16.
योजनाबद्ध तरीके से सोच-समझकर बड़े स्तनपायी जानवरों का शिकार करने के सबसे पुराने स्पष्ट दो साक्ष्यों उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
(1) दक्षिण इंग्लैण्ड में बाक्सग्रोव से
(2) जर्मनी में शोनिंजन से।

प्रश्न 17.
यूरोप में मिले सबसे पुराने जीवाश्मों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
होमो हाइडलबर्गेसिस तथा होमो निअंडरथलैसिस।

प्रश्न 18.
चार्ल्स डार्विन की पुस्तक का नाम लिखिये।
उत्तर:
आन दि ओरिजन ऑफ स्पीशीज’।

प्रश्न 19.
किस उपसमूह में वानर अर्थात् एप शामिल थे?
उत्तर:
होमिनाइड।

प्रश्न 20.
होमोनिडों का उद्भव कहाँ हुआ था?
उत्तर:
अफ्रीका में।

प्रश्न 21.
‘जीवाश्म’ किसे कहते हैं?
उत्तर:
जीवाश्म अत्यन्त पुराने पौधे, जानवर या मानव के अवशेष होते हैं जो एक पत्थर के रूप में बदल कर चट्टान में समा जाते हैं तथा फिर लाखों वर्ष तक सुरक्षित रहते हैं।

प्रश्न 22.
हमें किस साक्ष्य से ज्ञात होता है कि मानव का विकास क्रमिक रूप से हुआ?
उत्तर:
मानव का विकास क्रमिक रूप से हुआ, इस बात का साक्ष्य हमें मानव की उन प्रजातियों के जीवाश्मों से मिलता है, जो अब लुप्त हो चुकी हैं।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से

प्रश्न 23.
जीवाश्मों की तिथि का निर्धारण किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर:
जीवाश्मों की तिथि का निर्धारण प्रत्यक्ष रसायनिक विश्लेषण द्वारा या उन परतों अथवा तलछटों के काल का परोक्ष रूप से निर्धारण करके किया जाता है जिनमें वे दबे हुए पाए जाते
हैं।

प्रश्न 24.
आदिकालीन मानव की जानकारी में सहायक तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
मानव के जीवाश्म, पत्थर के औजार तथा चित्रकारियाँ जैसे तत्त्व आदिकालीन मानव की जानकारी में सहायक सिद्ध होते हैं।

प्रश्न 25.
चार्ल्स डार्विन ने किस पुस्तक की रचना की थी? यह कब प्रकाशित हुई ?
उत्तर:
(1) चार्ल्स डार्विन ने ‘ऑन दि ओरिजन ऑफ स्पीशीज’ नामक पुस्तक की रचना की थी।
(2) यह पुस्तक 24 नवम्बर, 1859 को प्रकाशित हुई।

प्रश्न 26.
मानव के विकास के सम्बन्ध में चार्ल्स डार्विन ने क्या खोज की थी ?
उत्तर:
मानव के विकास के सम्बन्ध में चार्ल्स डार्विन ने यह तर्क दिया कि मानव का विकास बहुत समय पहले जानवरों से ही क्रमिक रूप में हुआ।

प्रश्न 27.
स्तनपायी प्राणियों की प्राइमेट नामक श्रेणी का उद्भव कहाँ हुआ और कब हुआ?
उत्तर:
स्तनपायी श्रेणियों की प्राइमेट नामक श्रेणी का उद्भव एशिया तथा अफ्रीका में 360 लाख वर्ष पहले हुआ था।

प्रश्न 28.
प्राइमेट्स से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
प्राइमेट्स स्तनपायी प्राणियों के एक बड़े समूह के अन्तर्गत एक उप-समूह है जिसमें वानर, लंगूर तथा मानव सम्मिलित हैं।

प्रश्न 29.
होमिनाइड किसे कहते हैं? इनका उद्भव कैसे हुआ?
उत्तर:
लगभग 240 लाख वर्ष पूर्व प्राइमेट श्रेणी में एक उप-समूह उत्पन्न हुआ जिसे ‘होमिनाइड’ कहते हैं। इस में वानर शामिल थे।

प्रश्न 30.
होमिनिड प्राणियों के अफ्रीका में उद्भव होने के दो साक्ष्य दीजिए।
उत्तर:
(1) अफ्रीकी वानरों का समूह होमिनिडों से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है।
(2) सबसे प्राचीन होमिनिड जीवाश्म पूर्वी अफ्रीका में पाए गए हैं।

प्रश्न 31.
होमिनिडों की तीन प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) होमिनिडों के मस्तिष्क का आकार बड़ा होता है।
(2) ये पैरों के बल सीधे खड़े हो सकते हैं।
(3) ये दो पैरों के बल चलते हैं।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से

प्रश्न 32.
आस्ट्रेलोपिथिकस तथा होमो के बीच अन्तर बताइए।
उत्तर:
आस्ट्रेलोपिथिकस के मस्तिष्क का आकार होमो की अपेक्षा बड़ा होता है, जबड़े अधिक भारी होते हैं तथा दाँत भी अधिक बड़े होते हैं।

प्रश्न 33.
‘आस्ट्रेलोपिथिकस’ शब्द की उत्पत्ति किस प्रकार हुई है?
उत्तर:
‘आस्ट्रेलोपिथिकस’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘आस्ट्रिल’ अर्थात् ‘दक्षिणी’ तथा यूनानी भाषा के शब्द ‘पिथिकस’ अर्थात् ‘वानर’ से मिलकर हुई है।

प्रश्न 34.
‘आस्ट्रेलोपिथिकस’ की मानव के आद्य रूप में वानर अवस्था के कौनसे लक्षण पाये जाते थे?
उत्तर:
होमो की तुलना में मस्तिष्क का अपेक्षाकृत छोटा होना, पिछले दाँत बड़े होना, उसमें सीधे खड़े होकर चलने की अधिक क्षमता न होना।

प्रश्न 35.
आस्ट्रेलोपिथिकस के किन शारीरिक लक्षणों के कारण वे अपना अधिकांश समय पेड़ों पर जीवन बिताते थे?
उत्तर:
आस्ट्रेलोपिथिकस अपने आगे के अवयवों के लम्बा होने, हाथ और पैरों की मुड़ी हुई हड्डियों तथा टखने के घुमावदार जोड़ों के कारण अपना अधिकांश जीवन पेड़ों पर बिताते थे।

प्रश्न 36.
‘होमो’ शब्द से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
होमो लैटिन भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ है-आदमी। इसमें पुरुष और स्त्री दोनों सम्मिलित हैं।

प्रश्न 37.
होमो को किन प्रजातियों में बाँटा गया है?
उत्तर:
होमो को तीन प्रजातियों में बाँटा गया है-
(1) होमो हैबिलिस
(2) होमो एरेक्टस
(3) होमो सैपियन्स।

प्रश्न 38.
होमो हैबिलिस के जीवाश्म कहाँ से प्राप्त किये गए हैं?
उत्तर:
होमो हैबिलिस के जीवाश्म इथियोपिया में ओमो और तंजानिया में ओल्डुवई गोर्ज से प्राप्त किये गए हैं।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से

प्रश्न 39.
ऐसे दो उदाहरण दीजिए जिनसे ज्ञात होता है कि कुछ जीवाश्मों का नामकरण उन स्थानों के आधार पर किया गया है जहाँ उस विशेष प्रकार के जीवाश्म सर्वप्रथम प्राप्त हुए थे
उत्तर:
(1) जर्मनी के शहर हाइडलबर्ग में पाए गए जीवाश्मों को होमो हाइडलबर्गेसिस तथा
(2) निअंडर घाटी में पाए गए जीवाश्मों को होमों निअंडरथलैंसिस कहा गया है।

प्रश्न 40.
यूरोप में पाये जाने वाले सबसे पुराने जीवाश्मों का उल्लेख कीजिए। ये किस प्रजाति के हैं?
उत्तर:
यूरोप में प्राप्त सबसे पुराने जीवाश्म होमो हाइडलबर्गेसिस तथा होमो निअंडरथलैंसिस के हैं। ये दोनों ही होमो सैपियन्स प्रजाति के हैं।

प्रश्न 41.
आधुनिक मानव के उद्भव – स्थल के बारे में प्रचलित मतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) क्षेत्रीयता निरन्तर मॉडल के अनुसार अनेक क्षेत्रों में अलग-अलग मनुष्यों की उत्पत्ति हुई।
(2) प्रतिस्थापन मॉडल के अनुसार मनुष्य का उद्भव एक ही स्थान अफ्रीका में हुआ।

प्रश्न 42.
आदिकालीन मानव किन तरीकों से अपना भोजन जुटाता था?
उत्तर:
आदिकालीन मानव कई तरीकों से अपना भोजन जुटाता था, जैसे- संग्रहण, शिकार, अपमार्जन तथा मछली पकड़ना।

प्रश्न 43.
आदिकालीन मानव की संग्रहण की क्रिया का उल्लेख कीजिए जिससे वह अपना भोजन जुटाता था।
उत्तर:
आदिकालीन मानव पेड़-पौधों से मिलने वाले खाद्य-पदार्थों, जैसे-बीज, गुठलियों, बेर, फल एवं कंदमूल इकट्ठा करता था।

प्रश्न 44.
आदिकालीन मानव की अपमार्जन या रसदखोरी क्रिया का उल्लेख कीजिए जिसके द्वारा वह अपना भोजन जुटाता था।
उत्तर:
आदिकालीन मानव उन जानवरों के शवों से मांस-मज्जा खुरचकर निकालते थे जो जानवर अपने आप मर जाते थे या किन्हीं अन्य हिंसक पशुओं द्वारा मार दिये जाते थे।

प्रश्न 45.
योजनाबद्ध तरीके से बड़े स्तनपायी जानवरों के शिकार और उनका वध करने का सबसे पुराना साक्ष्य किन दो स्थलों से मिलता है?
उत्तर:
(1) दक्षिणी इंग्लैण्ड में बाक्सग्रोव नामक स्थान से 5,00,000 वर्ष पहले का साक्ष्य
(2) जर्मनी में शोनिंजन नामक स्थान से 4,00,000 वर्ष पहले का साक्ष्य।

प्रश्न 46.
आदिकालीन मानव की गुफाओं तथा खुले निवास क्षेत्रों के दो साक्ष्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(1) दक्षिण फ्रांस में स्थित लजरेट गुफा
(2) दक्षिणी फ्रांस के समुद्र तट पर स्थित टेरा अमाटा में झोंपड़ियाँ।

प्रश्न 47.
आग के नियन्त्रित प्रयोग के दो लाभ बताइए।
उत्तर:
(1) आग के नियन्त्रित प्रयोग से गुफाओं में प्रकाश तथा उष्णता मिलती थी।
(2) इससे भोजन भी पकाया जा सकता था।

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प्रश्न 48.
गुफाओं, झोंपड़ियों में रहने वाले आदिमानव का जीवन पेड़ों पर रहने वाले होमिनिडों के जीवन से किस प्रकार भिन्न था?
उत्तर:
गुफाओं में रहने वाले लोग वर्षा, तूफान, आँधी, हिंसक जानवरों आदि से सुरक्षित रहते थे परन्तु पेड़ों पर रहने वाले होमिनिड इनसे सुरक्षित नहीं थे

प्रश्न 49.
मनुष्य में औजार बनाने की ऐसी कौनसी विशेषता है जो वानरों में नहीं पाई जाती?
उत्तर:
शारीरिक तथा स्नायुतन्त्रीय अनुकूलनों के कारण मनुष्य हाथ का कुशलतापूर्वक प्रयोग कर सकता है, परन्तु जानवर ऐसा नहीं कर सकते।

प्रश्न 50.
पत्थर के औजार बनाने तथा उनका प्रयोग किये जाने का सबसे प्राचीन साक्ष्य किन पुरा – स्थलों से मिलता है ?
उत्तर:
पत्थर के औजार बनाने तथा उनका प्रयोग किये जाने का सबसे प्राचीन साक्ष्य इथियोपिया और केन्या के पुरा – स्थलों से मिलता है।

प्रश्न 51.
फेंककर मारने वाले भाले के दो लाभकारी उपयोग बताइए।
उत्तर:
(1) शिकारी अधिक लम्बी दूरी तक भाला फेंकने में सफल हुए।
(2) शिकारी हिंसक जानवर से भाले के प्रयोग से अपनी रक्षा कर सकते थे।

प्रश्न 52.
छेनी या रुखानी जैसे औज़ारों की क्या उपयोगिता थी?
उत्तर:
इन नुकीले ब्लेडों से हड्डी, सींग, हाथीदाँत या लकड़ी पर नक्काशी करना अथवा कुरेदना अब सम्भव हो

प्रश्न 53.
स्वर – तन्त्र का विकास कब हुआ ? इसका सम्बन्ध विशेष तौर पर किससे रहा है ?
उत्तर:
(1) स्वर-तन्त्र का विकास लगभग 2 लाख वर्ष पहले हुआ था।
(2) इसका सम्बन्ध विशेष तौर पर आधुनिक मानव से रहा है।

प्रश्न 54.
फ्रांस तथा स्पेन की किन गुफाओं में जानवरों की चित्रकारियाँ पाई गई हैं?
उत्तर:
फ्रांस में स्थित लैसकाक्स तथा शोवे की गुफाओं में और स्पेन में स्थित आल्टामीरा की गुफा में जानवरों की चित्रकारियाँ पाई गई हैं ।

प्रश्न 55.
फ्रांस तथा स्पेन की इन गुफाओं में किन जानवरों की चित्रकारियाँ पाई गई हैं?
उत्तर:
फ्रांस तथा स्पेन की इन गुफाओं में गौरों, घोड़ों, हिरनों, गैंडों, शेरों, भालुओं, तेन्दुओं, लकड़बग्घों के चित्र शामिल हैं।

प्रश्न 56.
हादजा लोग कौन हैं? ये लोग कहाँ रहते हैं ?
उत्तर:
हादजा शिकारियों तथा संग्राहकों का एक छोटा समूह है जो ‘लेक इयासी’ नामक एक खारे पानी की विभ्रंश घाटी में बनी झील के आस-पास रहते हैं ।

प्रश्न 57.
हादजा लोगों के शिविरों के आकार तथा स्थिति में मौसम के अनुसार परिवर्तन क्यों होता है ?
उत्तर:
हादजा लोगों के शिविरों के आकार तथा स्थिति में परिवर्तन पानी की उपलब्धता के आधार पर होता है।

प्रश्न 58.
होमिनाइड एवं बन्दरों में दो अन्तर स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
(1) होमोनाइडों का शरीर बन्दरों से बड़ा होता है। उनकी पूँछ नहीं होती है।
(2) होमोनाइडों का विकास धीरे-धीरे होता है।

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प्रश्न 59.
आदिकालीन मानव के दो पैरों पर खड़े होकर चलने की क्षमता के कारण क्या लाभ हुए?
उत्तर:
(1) विभिन्न प्रकार के काम करने के लिए हाथ स्वतन्त्र हो गए।
(2) शारीरिक ऊर्जा की खपत कम होती गई।

प्रश्न 60.
प्रजाति किसे कहते हैं ?
उत्तर:
प्रजाति जीवों का एक ऐसा समूह होता है जिसके नर और मादा मिलकर बच्चे उत्पन्न कर सकते हैं और उनके बच्चे भी आगे सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं।

प्रश्न 61.
मानव विज्ञान से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
मानव विज्ञान एक ऐसा विषय है जिसमें मानव संस्कृति और मानव जीव विज्ञान के उद्विकासीय पहलुओं का अध्ययन किया जाता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“मानव का विकास क्रमिक रूप से हुआ।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वैज्ञानिकों के अनुसार मानव का विकास क्रमिक रूप से हुआ। इस बात का प्रमाण हमें मानव की उन प्रजातियों के जीवाश्मों से मिलता है जो अब लुप्त हो चुकी हैं। उनके शारीरिक लक्षणों के आधार पर मानव को भिन्न- भिन्न प्रजातियों में बाँटा गया है। जीवाश्मों का काल-निर्धारण प्रत्यक्ष रसायनिक विश्लेषण द्वारा अथवा उन परतों का परोक्ष रूप से काल-निर्धारण करके किया जाता है जिनमें वे दबे हुए पाए जाते हैं। चार्ल्स डारविन ने अपनी पुस्तक ‘ऑन दि ओरिजिन ऑफ स्पीशीज’ में यह बताया है कि मानव का विकास बहुत समय पहले जानवरों से क्रमिक रूप में हुआ।

प्रश्न 2.
प्राइमेट्स के बारे में आप क्या जानते हैं? इनकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
लगभग 360 लाख वर्ष पूर्व एशिया तथा अफ्रीका में स्तनपायी प्राणियों की ‘प्राइमेट’ नामक श्रेणी का उद्भव हुआ।‘प्राइमेट’ स्तनपायी प्राणियों के एक बहुत बड़े समूह के अन्तर्गत एक उप-समूह है। इस प्राइमेट उप-समूह में वानर, लंगूर तथा मानव सम्मिलित हैं।

प्राइमेट्स की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(1) इनके शरीर पर बाल होते हैं।
(2) पैदा होने वाला बच्चा अपेक्षाकृत लम्बे समय तक माता के गर्भ में पलता है।
(3) माताओं में बच्चों को दूध पिलाने के लिए ग्रन्थियाँ होती हैं
(4) प्राइमेट्स के दाँत भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं।
(5) इनमें अपने शरीर का तापमान स्थिर रखने वाली क्षमता होती है।

प्रश्न 3.
होमिनिड तथा होमिनाइड में अन्तर बताइए।
उत्तर:
होमिनिड का विकास होमिनाइड से हुआ। होमिनिड तथा होमिनाइड में निम्नलिखित अन्तर पाये जाते हैं –
(1) होमोनाइड के मस्तिष्क का आकार होमोनिड की तुलना में छोटा होता था।
(2) होमोनाइड चौपाये होते थे और चारों पैरों के बल चलते थे, परन्तु उनके शरीर का अगला हिस्सा और अगले दोनों पैर लचकदार होते थे। इसके विपरीत होमिनिड सीधे खड़े होकर पिछले दो पैरों के बल चलते थे।
(3) होमिनिड के हाथ विशेष प्रकार के होते थे जिनकी सहायता से वे औजार बना सकते थे तथा उनका प्रयोग कर सकते थे। परन्तु होमिनाइडों के हाथों की रचना ऐसी नहीं होती थी।

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प्रश्न 4.
होमिनिडों की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
होमिनिड कौन थे? इनकी उत्पत्ति कहाँ हुई थी? सप्रमाण बताइए।
उत्तर:
‘ होमिनिड’ ‘होमिनिडेइ’ नामक परिवार के सदस्य होते थे। इस परिवार में सभी रूपों के मानव प्राणी सम्मिलित थे।

होमिनिडों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं –
(1) इनके मस्तिष्क का आकार बड़ा होता था।
(2) इनमें पैरों के बल सीधा खड़े होने की क्षमता होती थी। ये दो पैरों के बल चलते थे।
(3) इनके हाथों की बनावट ऐसी होती थी जिससे वे औजार बना सकते थे तथा उनका प्रयोग कर सकते थे। होमिनिड की उत्पत्ति – होमिनिड की उत्पत्ति अफ्रीका में हुई।

इसके दो प्रमाण हैं –
(अ) अफ्रीकी वानरों का होमिनिडों से संबंध और
(ब) प्रारंभिक होमिनिड जीवाश्म का अफ्रीका में पाया जाना।

प्रश्न 5.
होमिनाइड तथा बन्दरों में अन्तर बताइए।
उत्तर:
होमिनाइड तथा बन्दरों में निम्नलिखित अन्तर पाये जाते हैं-
(1) होमिनाइडों का शरीर बन्दरों से बड़ा होता है।
(2) होमिनाइडों की पूँछ नहीं होती।
(3) उनके बच्चों का विकास धीरे-धीरे होता है।
(4) उनके बच्चे बन्दर के बच्चों की अपेक्षा लम्बे समय तक उन पर निर्भर रहते हैं।

प्रश्न 6.
आस्ट्रेलोपिथिकस से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
होमोनिडों की दो प्रमुख शाखाएँ हैं –
(1) आस्ट्रेलोपिथिकस तथा
(2) होमो। ‘आस्ट्रेलोपिथिकस’ दो शब्दों से मिलकर बना है – लैटिन भाषा के शब्द ‘आस्ट्रल’ अर्थात् ‘दक्षिणी’ और यूनानी भाषा के शब्द ‘पिथिकस’ अर्थात् ‘वानर’। यह नाम इसलिए दिया गया, क्योंकि मानव के प्राचीन रूप में उसकी ‘वानर’ अवस्था के अनेक लक्षण पाये जाते थे।

ये लक्षण निम्नलिखित थे-
(1) होमो की तुलना में उनके मस्तिष्क का आकार छोटा था।
(2) उनके पिछले दाँत होमो की तुलना में बड़े थे।
(3) उनके हाथों की दक्षता सीमित थी।
(4) उनमें सीधे खड़े होकर चलने की क्षमता भी अधिक नहीं थी क्योंकि वे अभी भी अपना बहुत-सा समय पेड़ों पर गुजारते थे। उनमें पेड़ों पर जीवन बिताने के लिए आवश्यक विशेषताएँ अब भी विद्यमान थीं जैसे उनके आगे के अवयव लम्बे थे, हाथ और पैरों की हड्डियाँ मुड़ी हुई थीं तथा टखने के जोड़े घुमावदार थे।

प्रश्न 7.
आदिकालीन मानव के दो पैरों पर खड़े होकर चलने की क्षमता के कारण क्या लाभ हुए?
उत्तर:
(1) आदिकालीन मानव के दो पैरों पर खड़े होकर चलने की क्षमता के कारण उसके हाथ मुक्त हो गए। कालक्रम में मानव के हाथों में लचीली उंगलियों और नमनीय अंगूठों का विकास हुआ।
(2) अब वह हाथों का प्रयोग बच्चों या चीजों को उठाने के लिए कर सकता था। हाथों के अधिकाधिक प्रयोग से मानव की दो पैरों पर खड़े होकर चलने की कुशलता भी बढ़ती गई। इसके फलस्वरूप मानव का हाथ विभिन्न प्रकार के कार्यों को करने के लिए स्वतन्त्र हो गया।
(3) अब मानव वस्तुओं को पकड़कर अपनी आँखों के निकट लाने में समर्थ हो गया। इससे उसकी बुद्धि का विकास हुआ और वह औजार बनाने लगा तथा शिल्पी बन गया।
(4) इसके अतिरिक्त चार पैरों की बजाय दो पैरों पर चलने से शारीरिक ऊर्जा भी कम खर्च होने लगी।

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प्रश्न 8.
‘होमो’ के बारे में आप क्या जानते हैं? इन्हें किन प्रजातियों में बाँटा गया है?
अथवा
होमो की विभिन्न प्रजातियों और उनके आवास-स्थलों के बारे में बताइये।
उत्तर:
‘होमो’ लैटिन भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ है ‘आदमी’। इसमें पुरुष और स्त्री दोनों सम्मिलित हैं। वैज्ञानिकों ने होमो को उनकी विशेषताओं के आधार पर अनेक प्रजातियों में बाँटा है यथा –
(1) होमो हैबिलिस (औजार बनाने वाले)।
(2) होमो एरेक्टस (सीधे खड़े होकर पैरों के बल चलने वाले)।
(3) होमो सैपियन्स (प्राज्ञ अथवा चिन्तनशील मनुष्य)। होमो हैबिलास के जीवाश्म इथियोपिया में ओमो और तंजानिया में ओल्डुवई गोर्ज से प्राप्त हुए हैं। होमो एरेक्टस के प्राचीनतम जीवाश्म अफ्रीका और एशिया दोनों महाद्वीपों में पाए गए हैं जैसे कूबीफोरा और पश्चिमी तुर्काना, केन्या, मो जोकर्ता और संगीरन, जावा।

प्रश्न 9.
आस्ट्रेलोपिथिकस तथा होमो के बीच अन्तर बताइए।
उत्तर:
आस्ट्रेलोपिथिकस तथा होमो के बीच निम्नलिखित अन्तर पाये जाते हैं –
(1) आस्ट्रेलोपिथिकस की तुलना में होमो का मस्तिष्क बड़ा होता था।
(2) होमो के जबड़े बाहर की ओर कम निकले हुए थे तथा दाँत छोटे होते थे।
होमो के मस्तिष्क का बड़ा आकार उसके अधिक बुद्धिमान होने एवं उसकी बेहतर स्मृति का द्योतक है। जबड़ों तथा दाँतों में हुआ परिवर्तन सम्भवतः उनके खान-पान में हुई भिन्नता से सम्बन्धित था।

प्रश्न 10.
‘होमिनाइड्स’ की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लगभग 240 लाख वर्ष पहले ‘प्राइमेट’ श्रेणी में एक उपसमूह उत्पन्न हुआ जिसे ‘होमिनाइड्स’ कहते हैं। इस उपसमूह में वानर सम्मिलित थे। होमिनाइड्स की प्रमुख विशेषताएँ अग्रलिखित हैं –
(1) होमिनाइड्स का मस्तिष्क छोटा होता था।
(2) ये चौपाए थे।
(3) इनके आगे के दोनों पैर लचकदार होते थे
(4) ये स्तनधारियों का एक समूह था।

प्रश्न 11.
आधुनिक मानव के उद्भव के प्रतिस्थापन मॉडल की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक मानव के उद्भव का प्रतिस्थापन मॉडल – प्रतिस्थापन मॉडल के अनुसार मनुष्य का उद्भव एक ही स्थान – अफ्रीका में हुआ।
प्रतिस्थापन मॉडल के अनुसार मानव के सभी पुराने रूप, चाहे वे कहीं भी थे, बदल गए और उनका स्थान पूरी तरह आधुनिक मानव ने ले लिया। आधुनिक मानव में सभी जगह शारीरिक तथा उत्पत्ति-मूलक समरूपता पाई जाती है। यह समानता इसलिए पाई जाती है कि उनके पूर्वज एक ही क्षेत्र अर्थात् अफ्रीका में उत्पन्न हुए थे और वहाँ से अन्य स्थानों को गए।

इथियोपियां में ओमो स्थान पर मिले आधुनिक मानव के पुराने जीवाश्मों के साक्ष्य भी प्रतिस्थापन मॉडल का समर्थन करते हैं। इस मत के समर्थकों का कहना है कि आज के मनुष्यों में जो शारीरिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं उनका कारण उन लोगों का परिस्थितियों के अनुसार निरन्तर हजारों वर्षों की अवधि में अपने आप को ढाल लेना है जो उन विशेष क्षेत्रों में गए और अन्त में वहाँ स्थायी रूप से बस गए।

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प्रश्न 12.
35,000 वर्ष पूर्व मानव के योजनाबद्ध तरीके से जानवरों के शिकार करने के स्थलों का उल्लेख कीजिए। इन स्थलों के चुनाव के क्या कारण थे?
उत्तर:
35,000 वर्ष पूर्व मानव योजनाबद्ध तरीके से जानवरों के शिकार के लिए कुछ स्थलों का सोच-समझ कर चुनाव करता था । ऐसा एक स्थल चेक गणराज्य में दोलनीवेस्तोनाइस था, जो एक नदी के पास स्थित था। रेन्डियर तथा घोड़ा जैसे स्थान बदलने वाले जानवर बड़ी संख्या में पतझड़ और वसन्त के मौसम में उस नदी के पार जाते थे और तब उनका बड़ी संख्या में शिकार किया जाता था। इन स्थलों के चुनाव से यह पता चलता है कि लोगों को जानवरों की आवाजाही तथा उन्हें जल्दी से बड़ी संख्या में मारने के तरीकों के बारे में अच्छी जानकारी थी।

प्रश्न 13.
प्रारम्भिक मानव के रहन-सहन के बारे में किन साक्ष्यों में जानकारी मिलती है?
उत्तर:
प्रारम्भिक मानव के रहन-सहन के बारे में अनेक साक्ष्यों से जानकारी मिलती है। उदाहरण के लिए, केन्या में किलोंबे तथा ओलोर्जेसाइली के खनन – स्थलों पर हजारों की संख्या में शल्क – उपकरण तथा हस्तकुठार प्राप्त हुए हैं। ये औजार 7,00,000 से 5,00,000 वर्ष पुराने हैं।

इतने सारे औज़ारों का एक ही स्थान पर इकट्ठा होने का कारण है कि जिन स्थानों पर खाद्य-प्राप्ति के संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे, वहाँ लोग बार-बार आते रहते थे। ऐसे क्षेत्रों में लोग शिल्पकृतियों सहित अपने क्रिया-कलापों के चिह्न छोड़ जाते होंगे। जमा शिल्पकृतियाँ केवल कुछ ही क्षेत्रों में मिलती हैं और वे क्षेत्र कुछ अलग से दिखाई पड़ते हैं। जिन स्थलों पर लोगों का आवागमन कम होता था, वहाँ ऐसी शिल्पकृतियाँ कम मात्रा में मिलती हैं।

प्रश्न 14.
आदि मानव द्वारा पत्थर के औजार बनाने और उनका इस्तेमाल करने के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
आदि मानव के जीवन में पत्थर के औजारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। आदिमानव द्वारा पत्थर के औजार बनाने और उनका इस्तेमाल करने का सबसे प्राचीन साक्ष्य इथियोपिया और केन्या के पुरा – स्थलों से प्राप्त हुआ है। सम्भवतः आस्ट्रेलोपिथिकस ने सबसे पहले पत्थर के औजार बनाए थे। यह सम्भव है कि पत्थर के औजार बनाने वाले स्त्री-पुरुष दोनों ही होते थे। सम्भवत: स्त्रियाँ अपने और अपने बच्चों के भोजन प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष प्रकार के औजार बनाती थीं और उनका प्रयोग करती थीं।

प्रश्न 15.
आदि मानव द्वारा जानवरों के मारने के तरीकों में सुधार करने के प्रयासों का उल्लेख कीजिए। उसके द्वारा बनाये गए नवीन औजारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
लगभग 35,000 वर्ष पूर्व आदिमानव द्वारा जानवरों के मारने के तरीकों में सुधार किया गया।
यथा –

  • इन प्रयासों के अन्तर्गत फेंककर मारने वाले भालों तथा तीर-कमान जैसे नवीन प्रकार के औजार बनाये जाने लगे।
  • मांस को साफ किया जाने लगा। उसमें से हड्डियाँ निकाल दी जाती थीं और फिर उसे सुखाकर, हल्का सेंकते हुए सुरक्षित रख लिया जाता था। इस प्रकार, सुरक्षित रखे खाद्य को बाद में खाया जा सकता था।
  • अब समूरदार जानवरों को पकड़ा जाने लगा, उनकी रोएँदार खाल का कपड़े की तरह प्रयोग किया जाने लगा।
  • सिलने के लिए सुई का आविष्कार हुआ। सिले हुए कपड़ों का सबसे पहला साक्ष्य लगभग 21,000 वर्ष पुराना है।
  • अब छेनी या रुखानी जैसे छोटे-छोटे औजार भी बनाए जाने लगे। इन नुकीले ब्लेडों से हड्डी, सींग, हाथीदाँत या लकड़ी पर नक्काशी करना या कुरेदना अब सम्भव हो गया।

प्रश्न 16.
पंचब्लेड तकनीक के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
पंचब्लेड तकनीक – पंचब्लेड तकनीक का वर्णन निम्नानुसार है –

  • एक बड़े पत्थर के ऊपरी सिरे को पत्थर के हथौड़े की सहायता से हटाया जाता है।
  • इससे एक चपटी सतह तैयार हो जाती है जिसे प्रहार मंच अर्थात् घन कहा जाता है।
  • इसके बाद इस हड्डी पर सींग से बने हुए पंच और हथौड़े की सहायता से प्रहार किया जाता है।
  • इससे धारदार पट्टी बन जाती है जिसका चाकू की तरह प्रयोग किया जा सकता है या उनसे एक तरह की छेनियाँ बन जाती हैं जिनसे हड्डी, सींग, हाथीदाँत या लकड़ी को उकेरा जा सकता है।

प्रश्न 17.
भाषा के विकास के बारे में प्रचलित मतों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जीवित प्राणियों में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसके पास भाषा है। भाषा के विकास के बारे में निम्नलिखित मत प्रचलित हैं-
(1) होमिनिड भाषा में अंग – विक्षेप ( हाव-भाव ) या हाथों का संचालन हिलाना सम्मिलित था।
(2) उच्चरित भाषा से पहले गाने या गुनगुनाने जैसे मौखिक या अ – शाब्दिक संचार का प्रयोग होता था।
(3) मनुष्य की वाणी का प्रारम्भ सम्भवतः आह्वान या बुलावों की क्रिया से हुआ था जैसाकि नर – वानरों में देखा जाता है। प्रारम्भिक अवस्था में मानव बोलने में बहुत कम ध्वनियों का प्रयोग करता होगा। धीरे-धीरे ये ध्वनियाँ ही आगे चलकर भाषा के रूप में विकसित हो गई होंगी।

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प्रश्न 18.
आदिकालीन मानव किन तरीकों से अपना भोजन जुटाता था ?
उत्तर:
आदिकालीन मानव संग्रहण, शिकार, अपमार्जन, मछली पकड़ने आदि के विभिन्न तरीकों से अपना भोजन जुटाता था। वह पेड़-पौधों से मिलने वाले खाद्य-पदार्थों जैसे बीज, गुठलियाँ, बेर, फल, कंदमूल आदि इकट्ठा करता था। वह अपमार्जन के द्वारा उन जानवरों के शवों से मांस-मज्जा खुरच कर निकालता था जो जानवर अपने आप मर जाते थे या किन्हीं अन्य हिंसक जानवरों द्वारा मार दिए जाते थे। वह योजनाबद्ध तरीके से बड़े स्तनपायी जानवरों का शिकार और उनका वध करता था। मछली पकड़ना भी भोजन प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण तरीका था।

प्रश्न 19.
उच्चरित अर्थात् बोली जाने वाली भाषा की उत्पत्ति के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
उच्चरित अर्थात् बोली जाने वाली भाषा की उत्पत्ति के बारे में निम्नलिखित मत प्रचलित हैं –
(1) पहले मत के अनुसार होमो हैबिलिस के मस्तिष्क में कुछ ऐसी विशेषताएँ थीं जिनके कारण उसके लिए बोलना सम्भव हुआ होगा। सम्भवतः भाषा का विकास सबसे पहले 20 लाख वर्ष पूर्व शुरू हुआ होगा।

(2) मस्तिष्क में हुए परिवर्तनों के अतिरिक्त, स्वर – तन्त्र का विकास भी महत्त्वपूर्ण था। स्वर – तन्त्र का विकास लगभग 2,00,000 वर्ष पहले हुआ था। इसका सम्बन्ध विशेष रूप से आधुनिक मानव से रहा है।

(3) एक मत यह भी प्रचलित है कि भाषा, कला के साथ-साथ लगभग 40,000 – 35,000 वर्ष पहले विकसित हुई। उच्चरित अर्थात् बोली जाने वाली भाषा का विकास कला के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहा है, क्योंकि ये दोनों ही विचार अभिव्यक्ति के माध्यम हैं।

प्रश्न 20.
फ्रांस और स्पेन की गुफाओं में पाई जाने वाली चित्रकारियों की विवेचना कीजिए।
अथवा
आल्टामीरा के गुफा चित्र पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
फ्रांस में स्थित लैसकाक्स तथा शोवे की गुफाओं में और स्पेन में स्थित आल्टामीरा की गुफा में अनेक जानवरों की चित्रकारियाँ प्राप्त हुई हैं। आल्टामीरा की गुफा की छत पर बनी चित्रकारियों में रंग की बजाय किसी प्रकार की लेई (पेस्ट) का प्रयोग किया गया है। इन चित्रों का निर्माण 30,000 से 12,000 वर्ष पहले के बीच में। संजीव पास बुक्स किया गया था। इन चित्रों में गौरों, घोड़ों, साकिन, हिरणों, मैमथों (विशालकाय जानवरों), गैंडों, शेरों, भालुओं, तेन्दुओं, लकड़बग्घों और उल्लुओं के चित्र शामिल हैं। इन चित्रकारियों का सम्बन्ध धार्मिक क्रियाओं, रस्मों और जादू-टोनों से था।

जानवरों का चित्रांकन इसलिए किया जाता था कि चित्रांकन करने से शिकार में सफलता प्राप्त हो सकती थी। कुछ लोगों का कहना है कि सम्भवतः ये गुफाएँ संगम-स्थल थीं जहाँ लोगों के छोटे-छोटे समूह मिलते थे और सामूहिक क्रिया-कलाप सम्पन्न करते थे। सम्भव है कि वहाँ ये समूह मिलकर शिकार की योजना बनाते हों अथवा शिकार के तरीकों एवं तकनीकों पर परस्पर चर्चा करते हों। यह भी सम्भव है कि ये चित्रकारियाँ, आगे आने वाली पीढ़ियों को इन तकनीकों की जानकारी देने के लिए की गई हों।

प्रश्न 21.
संजातिवृत से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संजातिवृत में समकालीन नृजातीय समूहों का विश्लेषणात्मक अध्ययन होता है। इसमें उनके रहन-सहन, खान-पान, आजीविका के साधन, प्रौद्योगिकी आदि की जाँच की जाती है। समाज में स्त्री-पुरुष की भूमिका, उनके कर्मकाण्डों, रीति-रिवाजों, राजनीतिक संस्थाओं तथा सामाजिक रूढ़ियों का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 22.
मिट्टी के बर्तन बनाने का आविष्कार कब व कैसे सम्भव हुआ?
उत्तर:
कृषि के आविष्कार के पश्चात् मानव ने एक स्थान पर रहना शुरू कर दिया। अब उसने अनाज तथा अन्य उपजों को रखने के लिए तथा भोजन पकाने के लिए मिट्टी के बर्तन बनाना शुरू कर दिया। वह उन्हें आग में पकाने लगा। इस प्रकार मानव ने अपने कच्चे बर्तनों को आग में पकाना और उन्हें सुदृढ़ बनाना शुरू कर दिया।

JAC Class 11 History Important Questions Chapter 1 समय की शुरुआत से

प्रश्न 23.
आदिमानव ने किन कारणों से खेती और पशुचारण का कार्य प्रारम्भ किया?
उत्तर:
आदिमानव ने 10,000 से 4,500 वर्ष पहले खेती तथा पशुचारण का कार्य प्रारम्भ किया, जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित थे –
(1) लगभग 13,000 वर्ष अन्तिम हिमयुग समाप्त हो गया और उसके साथ ही अपेक्षाकृत अधिक गर्म और नम . मौसम का सूत्रपात हुआ। इसके फलस्वरूप जंगली जौ तथा गेहूँ की खेती के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गईं।

(2) खुले जंगलों तथा घास के मैदानों के विस्तार के साथ-साथ जंगली भेड़ों, बकरियों, सुअरों, गधों, मवेशियों आदि जानवरों की संख्या भी बढ़ती चली गई, अब लोग ऐसे क्षेत्रों को अधिक पसन्द करने लगे जहाँ जंगलों तथा घास के मैदान और जानवरों की बहुतायत थी।

(3) अब बड़े-बड़े जन-समुदाय ऐसे क्षेत्रों में अधिक समय तक लगभग स्थायी रूप से रहने लगे।

(4) लोग कुछ क्षेत्रों को अधिक पसन्द करते थे, इसलिए वहाँ भोजन की आपूर्ति को बढ़ाये जाने का दबाव बढ़ने लगा। सम्भवत: इसी कारण से कुछ विशेष प्रकार के अनाज के पौधे उगाने तथा जानवरों को पालने की प्रक्रिया शुरू हो गई। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन, बढ़ती हुई जनसंख्या, कुछ विशेष प्रकार के पौधों और जानवरों की जानकारी और उस पर मनुष्य की निर्भरता आदि अनेक कारणों से आदि मानव ने खेती तथा पशु चारण की गतिविधियों को शुरू किया

प्रश्न 24.
हादजा जनसमूह की जीवन-शैली का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
उत्तर:
हादजा लोग अपने भोजन के लिए मुख्य रूप से जंगली साग-सब्जियों पर ही निर्भर रहते हैं। वे मांस का भी प्रयोग करते हैं । ये लोग हाथी को छोड़ कर बाकी सभी प्रकार के जानवरों का शिकार करते हैं तथा उनका मांस खाते हैं। ये लोग अपने शिविर वृक्षों तथा चट्टानों के बीच, विशेषकर वहाँ लगाते हैं जहाँ ये दोनों सुविधाएँ प्राप्त हों। ये लोग जमीन तथा उसके संसाधनों पर अपना अधिकार नहीं जमाते। सूखे के समय में भी इन लोगों के यहाँ भोजन की कमी नहीं होती क्योंकि उनके प्रदेश में सूखे के मौसम में भी वनस्पति – खाद्य – कंदमूल, बेर, बाओबाब पेड़ के फल आदि प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

प्रश्न 25.
खेती तथा पशु- चारण से आए हुए परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
खेती तथा पशु – चारण से निम्नलिखित परिवर्तन शुरू हुए –

  1. अब आदिमानव ने मिट्टी के ऐसे बर्तन बनाना शुरू कर दिया जिनमें अनाज तथा अन्य उपजों को रखा जा सके और खाना पकाया जा सके। इससे मिट्टी के बर्तन बनाने के व्यवसाय का विकास हुआ।
  2. अब पत्थर के नये प्रकार के औजारों का निर्माण और प्रयोग होने लगा।
  3. हल जैसे अन्य उपकरणों का खेती के काम में प्रयोग किया जाने लगा।
  4. धीरे-धीरे लोग ताँबा तथा राँगा जैसी धातुओं से परिचित हो गए।
  5. मिट्टी के बर्तन बनाने तथा परिवहन के लिए पहिए का इस्तेमाल होने लगा।
  6. खेती की प्रथा चालू हो जाने से लोगों ने एक स्थान पर पहले से अधिक लम्बी अवधि तक टिकना शुरू कर दिया। इस प्रकार गारे, कच्ची ईंटों तथा पत्थरों से भी स्थायी घर बनाये जाने लगे।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
आधुनिक मानव के उद्भव के बारे में क्षेत्रीय निरन्तरता मॉडल एवं प्रतिस्थापन मॉडल की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक मानव का उद्भव आधुनिक मानव के उद्भव स्थल के बारे में विद्वानों में मतभेद है। इस सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं जो एक- दूसरे से बिल्कुल विपरीत हैं। इन दोनों मतों का विवेचन निम्नानुसार है-

(1) क्षेत्रीय निरन्तरता मॉडल – क्षेत्रीय निरन्तरता मॉडल के अनुसार विश्व के अनेक क्षेत्रों में अलग-अलग मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। इस मत के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रदेशों में रहने वाले होमो सैपियन्स का आधुनिक मानव के रूप में विकास हुआ। उनका विकास धीरे-धीरे अलग-अलग गति से हुआ। इसीलिए आधुनिक मानव विश्व के भिन्न-भिन्न हिस्सों में अलग-अलग स्वरूप में दिखाई दिया। इस तर्क का आधार आज के मनुष्य में पाये जाने वाले विभिन्न लक्षण हैं। इस मत के समर्थकों का कहना है कि ये असमानताएँ एक ही क्षेत्र में पहले से रहने वाले होमो एरेक्टस और होमो हाइडलबर्गेसिस समुदायों में पाई जाने वाली भिन्नताओं के कारण हैं।

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(2) प्रतिस्थापन मॉडल – प्रतिस्थापन मॉडल के अनुसार मनुष्य का उद्भव एक ही स्थान-अफ्रीका में हुआ। इस मत का समर्थन इस बात से होता है कि आधुनिक मानव में सब जगह शारीरिक और उत्पत्ति-मूलक समरूपता पाई जाती है । इस मत के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि मनुष्यों में अत्यधिक समानता इसलिए पाई जाती है क्योंकि उनके पूर्वज एक ही क्षेत्र अर्थात् अफ्रीका में उत्पन्न हुए थे और वहीं से अन्य स्थानों को गए।

इथियोपिया में ओमो नामक स्थान पर प्राप्त हुए आधुनिक मानव के पुराने जीवाश्मों के साक्ष्य भी प्रतिस्थापन मॉडल का समर्थन करते हैं। इस मत के समर्थकों की मान्यता है कि आज के मनुष्यों में जो शारीरिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं, उनका कारण उन लोगों का परिस्थितियों के अनुसार हजारों वर्ष की अवधि में अपने आप को ढाल लेना है जो उन विशेष प्रदेशों में गए तथा अन्त में वहाँ स्थायी रूप से बस गए। इस प्रकार उनके लक्षणों में विविधता क्षेत्रीय परिस्थितियों की विविधता के कारण है।

प्रश्न 2.
आदिकालीन मानव द्वारा अपने भोजन जुटाने के विभिन्न तरीकों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
आदिकालीन मानव द्वारा विभिन्न तरीकों से अपना भोजन जुटाना आदिकालीन मानव कई तरीकों से अपना भोजन जुटाता था; जैसे- संग्रहण, शिकार, अपमार्जन और मछली पकड़ना।

(1) संग्रहण – संग्रहण की क्रिया में पेड़-पौधों से मिलने वाले खाद्य-पदार्थों; जैसे-बीज, गुठलियाँ, बेर, एवं कंदमूल इकट्ठा करना शामिल थे। संग्रहण के सम्बन्ध में तो केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है क्योंकि इस बारे में प्रत्यक्ष साक्ष्य बहुत कम मिलता है। यद्यपि हमें हड्डियों के जीवाश्म तो बहुत मिल जाते हैं, परन्तु पौधों के जीवाश्म तो दुर्लभ ही हैं। पौधों से भोजन जुटाने के बारे में सूचना प्राप्त करने का एक तरीका दुर्घटना अथवा संयोगवश जले हुए पौधे से प्राप्त अवशेष हैं। इस प्रक्रिया में कार्बनीकरण हो जाता है और इस रूप में जैविक पदार्थ दीर्घकाल तक सुरक्षित रह सकता है। परन्तु अभी तक पुरातत्त्वविदों को उतने प्राचीन युग के सम्बन्ध में कार्बनीकृत बीजों के साक्ष्य नहीं मिले हैं।

(2) शिकार – शिकार सम्भवतः बाद में शुरू हुआ – लगभग 5 लाख वर्ष पहले। योजनाबद्ध तरीके से सोच- समझकर बड़े स्तनपायी जानवरों का शिकार और उनका वध करने का सबसे पुराना स्पष्ट साक्ष्य दो स्थलों से मिलता है।

ये स्थल हैं –
(1) दक्षिणी इंग्लैण्ड में बाक्सग्रोव
(2) जर्मनी में शोनिंजन।

लगभग 35,000 वर्ष पूर्व मानव के योजनाबद्ध तरीके से शिकार करने का साक्ष्य कुछ यूरोपीय खोज – स्थलों से मिलता है। पूर्व मानव ने चेक गणराज्य में नदी के निकट दोलनी वेस्तोनाइस नामक स्थल को सोच-समझकर शिकार के लिए चुना था जब रेन्डियर और घोड़े जैसे स्थान बदलने वाले जानवरों के झुण्ड के झुण्ड पतझड़ और वसन्त के मौसम में उस नदी के पार जाते थे तथा तब उनका बड़े पैमाने पर शिकार किया जाता था। इन स्थलों के चुनाव से इस बात की पुष्टि होती है कि लोगों को जानवरों की आवाजाही तथा उन्हें जल्दी से बड़े पैमाने पर मारने के तरीकों के बारे में जानकारी थी।

(3) अपमार्जन – अपमार्जन से तात्पर्य त्यागी हुई वस्तुओं की सफाई करने से है। अब यह माना जाने लगा है कि आदिकालीन होमिनिड अपमार्जन के द्वारा उन जानवरों के शवों से मांस-मज्जा खुरच कर निकालने लगे थे जो जानवर अपने आप मर जाते थे या अन्य हिंसक जानवरों द्वारा मार दिए जाते थे। यह भी इतना ही सम्भव है कि पूर्व होमिनिड छोटे स्तनपायी जानवरों – चूहे, छछूंदर जैसे कृतकों, पक्षियों (और उनके अंडों ), सरीसृपों और यहाँ तक कि कीड़े- sita

(4) मछली पकड़ना – मछली पकड़ना भी भोजन प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण तरीका था। इस बात की जानकारी अनेक खोज स्थलों से मछली की हड्डियां मिलने से होती है।

प्रश्न 3.
आदि मानव के गुफाओं तथा खुले स्थानों पर आवास के बारे में एक निबन्ध लिखिए।
उत्तर:
आदि मानव का गुफाओं तथा खुले स्थानों पर आवास –
गुफाओं तथा खुले निवास क्षेत्रों का प्रचलन 4,00,000 से 1,25,000 वर्ष पहले शुरू हो गया था। इसके साक्ष्य यूरोप के पुरास्थलों में मिलते हैं।

(1) दक्षिण फ्रांस में स्थित लेजरेट गुफा की दीवार को 12 × 4 मीटर आकार के एक निवास स्थान से सटाकर बनाया गया है। इसके अन्दर दो चूल्हों और भिन्न-भिन्न प्रकार के खाद्य-स्रोतों, जैसे फलों, वनस्पतियों, बीजों, काष्ठफलों, पक्षियों के अण्डों और मीठे जल की मछलियों (ट्राउट, पर्च और कार्प) के साक्ष्य मिले हैं। दक्षिणी फ्रांस के समुद्रतट पर स्थित टेरा अमाटा नामक पुरास्थल में भी घास-फूँस और लकड़ी की छत वाली कच्ची कमजोर झोंपड़ियाँ बनाई जाती थीं।

ये झोंपड़ियाँ किसी विशेष मौसम में थोड़े समय के लिए रहने के लिए बनाई जाती थीं। टेरा अमाटा की झोंपड़ी-टेरा अमाटा की झोंपड़ी के किनारों को सहारा देने के लिए बड़े पत्थरों का प्रयोग किया जाता था। झोंपड़ी के फर्श पर बिखरे हुए पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े उन स्थानों के द्योतक हैं जहाँ बैठकर लोग पत्थर के औजार बनाते थे। यहाँ चूल्हे भी बने हुए थे।

(2) केन्या में चेसोवांजा और दक्षिणी अफ्रीका में स्वार्टक्रान्स में पत्थर के औजारों के साथ-साथ आग में पकाई गई चिकनी मिट्टी और जली हुई हड्डियों के टुकड़े मिले हैं जो 14 लाख से 10 लाख वर्ष पुराने हैं। हमारे पास इस बात की निश्चित जानकारी नहीं है कि ये चीजें प्राकृतिक रूप से झाड़ियों में लगी आग या ज्वालामुखी से उत्पन्न अग्नि से जलने के परिणाम हैं अथवा ये चीजें एक सुनियोजित, सुनियन्त्रित ढंग से लगाई गई आग में पकाकर बनाई गई थीं।

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(3) दूसरी ओर चूल्हे आग के नियन्त्रित प्रयोग के परिचायक हैं। इसके निम्नलिखित लाभ थे –

  • नियन्त्रित आग का प्रयोग गुफाओं के अन्दर प्रकाश और उष्णता प्राप्त करने के लिए किया जाता था।
  • इससे भोजन भी पकाया जा सकता था।
  • लकड़ी को कठोर करने में भी अग्नि का प्रयोग होता था जैसाकि भाले की नोक बनाने में।
  • शल्क निकाल कर औजार बनाने में भी अग्नि की उष्णता उपयोगी होती थी।
  • इसका उपयोग खतरनाक जानवरों को भगाने में भी किया जाता था।

प्रश्न 4.
आल्टामीरा के गुफा – चित्र की खोज का विवरण दीजिए।
उत्तर:
आल्टामीरा के गुफा – चित्र की खोज – आल्टामीरा स्पेन में स्थित एक गुफा – स्थल है। इस गुफा -स्थल में जानवरों की अनेक चित्रकारियाँ पाई गई हैं। आल्टामीरा की गुफा की छत पर बनी चित्रकारियों की ओर मार्सिलीनो सैंज दि ओला का ध्यान उसकी पुत्री मारिया द्वारा नवम्बर, 1879 में आकर्षित किया गया था। मार्सीलीनो एक स्थानीय जमींदार तथा एक शौकीन पुरातत्त्वविद् था। वह गुफा का फर्श खोद रहा था तथा उसकी छोटी-सी पुत्री गुफा में इधर-उधर दौड़ रही थी। मारिया की नजर अचानक गुफा की छत पर बनी चित्रकारियों पर पड़ी।

उसने तुरन्त ‘चिल्लाते हुए कहा “पापा देखो बैल!” प्रारम्भ में तो मारिया के पिता ने अपनी पुत्री की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया परन्तु शीघ्र ही उसने महसूस किया कि गुफा की छत पर वास्तव में कुछ चित्रकारियाँ बनी हुई हैं जिनमें रंग की बजाय किसी प्रकार की लेई (पेस्ट) का प्रयोग किया गया है। मार्सीलोना का मन उत्साह से भर गया और इस नवीन खोज पर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। 1880 में मार्सीलीनो ने एक पुस्तिका प्रकाशित की परन्तु लगभग 20 वर्षों तक उसकी खोज के निष्कर्षों को यूरोप के पुरातत्त्वविदों ने इस आधार पर स्वीकार नहीं किया कि ये चित्रकारियाँ इतनी अधिक अच्छी हैं कि ये उतनी प्राचीन नहीं हो सकतीं।

प्रश्न 5.
सम्प्रेषण तथा संचार के माध्यम के रूप में भाषा तथा कला के विकास की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सम्प्रेषण तथा संचार के माध्यम के रूप में भाषा तथा कला का विकास मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसके पास भाषा है। भाषा के विकास के सम्बन्ध में निम्नलिखित मत प्रचलित
(1) होमिनिड भाषा में अंगविक्षेप (हाव-भाव ) या हाथों का संचालन ( हिलाना) शामिल था।
(2) उच्चरित या बोली जाने वाली भाषा से पहले गाने या गुनगुनाने जैसे मौखिक या अ – शाब्दिक संचार का प्रयोग होता था।
(3) मनुष्य की वाणी का प्रारम्भ सम्भवतः आह्वान या बुलावों की क्रिया से हुआ था जैसाकि नर – वानरों में देखा जाता है। प्रारम्भिक अवस्था में मानव बोलने में बहुत कम ध्वनियों का प्रयोग करता होगा। धीरे-धीरे ये ध्वनियाँ ही आगे चलकर भाषा के रूप में विकसित हो गई होंगी।

(1) बोली जाने वाली भाषा की उत्पत्ति – उच्चरित या बोली जाने वाली भाषा की उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि होमो हैबिलिस के मस्तिष्क में कुछ ऐसी विशेषताएँ थीं जिनके कारण उसके लिए बोलना सम्भव हुआ होगा। इस प्रकार सम्भवतः भाषा का विकास सबसे पहले 20 लाख वर्ष पूर्व शुरू हुआ होगा। मस्तिष्क में हुए परिवर्तनों के अतिरिक्त, स्वर-तन्त्र का विकास भी उतना ही महत्त्वपूर्ण था। स्वर – तन्त्र का विकास लगभग 2,00,000 वर्ष पहले हुआ था! इसका सम्बन्ध विशेष रूप से आधुनिक मानव से रहा है।

(2) भाषा का कला के साथ विकास – कुछ विद्वानों के अनुसार भाषा, कला के साथ-साथ लगभग 40,000- 35,000 वर्ष पूर्व विकसित हुई। बोली जाने वाली भाषा का विकास कला के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहा है, क्योंकि ये दोनों ही विचार – अभिव्यक्ति के माध्यम हैं।

(3) जानवरों की चित्रकारियाँ – फ्रांस में स्थित लैसकाक्स और शोवे की गुफाओं में तथा स्पेन में स्थित आल्टामीरा की गुफा में जानवरों की अनेक चित्रकारियाँ पाई गई हैं जो 30,000 से 12,000 वर्ष पहले के बीच में कभी बनाई गई थीं। इनमें गौरों (जंगली बैलों), घोड़ों, साकिन, हिरणों, मैमथों (विशालकाय जानवरों), गैंडों, शेरों, भालुओं, तेन्दुओं, लकड़बग्घों और उल्लुओं के चित्र शामिल हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार जानवरों की चित्रकारियाँ धार्मिक क्रियाओं, रस्मों तथा जादू-टोने से सम्बन्धित थीं।

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लोगों का विश्वास था कि जानवरों के चित्र बनाने से शिकार करने में सफलता मिलने की सम्भावना थी। इस सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि सम्भवतः ये गुफाएँ संगम-स्थल थीं जहाँ लोगों के छोटे-छोटे समूह मिलते थे और सामूहिक क्रिया- कलाप सम्पन्न करते थे। सम्भव है कि वहाँ ये समूह मिलकर शिकार की योजना बनाते थे या शिकार के तरीकों एवं तकनीकों पर एक-दूसरे से चर्चा करते थे । यह भी सम्भव है कि ये चित्रकारियाँ आगे आने वाली पीढ़ियों को इन तकनीकों की जानकारी देने के लिए की गई हों।

प्रश्न 6.
हादज़ा जन-समूह की गतिविधियों पर एक निबन्ध लिखिए।
अथवा
हाजा जन-समूह के रहन-सहन के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
हाजा जन-समूह के निवास स्थल, रहन-सहन, खान-पान आदि के बारे में जानकारी दीजिये।
उत्तर:
(1) हादजा जन-समूह का निवास स्थान- हादजा जन-समूह शिकारियों तथा संग्राहकों का एक छोटा समूह है जो ‘लेक इयासी’ नामक एक खारे पानी की विभ्रंश घाटी में बनी झील के आस-पास रहते हैं। पूर्वी हादजा का प्रदेश सूखा और चट्टानी है जहाँ घास (सवाना), काँटेदार झाड़ियाँ और एकासियों के पेड़ों की बहुलता है, परन्तु यहाँ जंगली खाद्य वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।

(2) जानवर-हादजा प्रदेश में अनेक प्रकार के जानवर बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। यहाँ के बड़े जानवरों में हाथी, गैंडे, भैंसे, जिराफ, जेब्रा, वाटरबक, हिरण, चिंकारा, खागदार जंगली सूअर, बबून बन्दर, शेर, तेन्दुए,

(i) आज के शिकारी-संग्राहक समाज शिकार और संग्रहण के साथ-साथ अनेक अन्य आर्थिक क्रियाकलापों में लगे रहते हैं। वे जंगलों में पाई जाने वाली छोटी-छोटी चीजों का विनिमय और व्यापार करते हैं अथवा पड़ोस के किसानों के खेतों में मजदूरी करते हैं।

(ii) ये समाज भौगोलिक, राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से भी महत्त्वहीन हैं क्योंकि वे जिन परिस्थितियों में रहते हैं, वे आरम्भिक मानव की अवस्था से बहुत भिन्न हैं।

(iii) आज के शिकारी-संग्राहक समाजों में आपस में भी बहुत भिन्नता है। इनमें कई मामलों में परस्पर-विरोधी तथ्य दिखाई देते हैं। आज के सभी समाज शिकार और संग्रहण को अलग-अलग महत्त्व देते हैं, उनके आकार भिन्न- भिन्न अर्थात् छोटे-बड़े होते हैं और उनकी गतिविधियों में भी अन्तर पाया जाता है।

(iv) भोजन प्राप्त करने के मामले में श्रम विभाजन को लेकर भी इन समाजों में कोई आम सहमति नहीं है। यह ठीक है कि आज भी अधिकतर स्त्रियाँ ही खाने-पीने की सामग्री जुटाने का काम करती हैं और पुरुष शिकार करते हैं। परन्तु ऐसे समाज भी मौजूद हैं जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों ही शिकार और संग्रहण तथा औजार बनाने का कार्य करते हैं।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि ऐसे समाजों में स्त्रियाँ भी भोजन जुटाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वर्तमान शिकारी-संग्राहक समाजों में स्त्री-पुरुष दोनों की भूमिका अपेक्षाकृत एकसमान ही होती है, यद्यपि इसमें समाजों के अन्तर्गत कुछ अन्तर पाया जाता है। अतः वर्तमान शिकारी-संग्राहक समाजों की स्थिति के आधार पर अतीत के बारे में कोई निष्कर्ष निकालना कठिन है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. संसद सामान्य बहुमत से संशोधन कर सकती है।
(क) मूल अधिकारों में
(ख) राष्ट्रपति की निर्वाचन विधि में
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति में
(घ) किसी राज्य के क्षेत्रफल में
उत्तर:
(घ) किसी राज्य के क्षेत्रफल में

2. ” संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के द्वारा और इस अनुच्छेद में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार संविधान में नए उपबंध कर सकती है, पहले से विद्यमान उपबंधों को बदल या हटा सकती है।” यह कथन संविधान के जिस अनुच्छेद से संबंधित है, वह है।
(क) अनुच्छेद 368
(ग) अनुच्छेद 13
(ख) अनुच्छेद 370
(घ) अनुच्छेद 14
उत्तर:
(क) अनुच्छेद 368

3. भारत का संविधान औपचारिक रूप से लागू किया गया
(क) 26 नवम्बर, 1949 को
(ख) 26 जनवरी, 1950 को
(ग) 15 अगस्त, 1947 को
(घ) 26 जनवरी, 1956 को
उत्तर:
(ख) 26 जनवरी, 1950 को

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4. निम्नलिखित में जो कथन असत्य हो, उसे बतायें
(क) भारतीय संविधान को एक पवित्र दस्तावेज मानने के साथ-साथ इतना लचीला भी बनाया गया है कि उसमें आवश्यकतानुसार यथोचित परिवर्तन कर सकें।
(ख) संविधान एक पावन दस्तावेज है इसलिए इसे बदलने की बात करना लोकतंत्र का विरोध करना है।
(ग) भारतीय संविधान में एक साथ ही कठोर और लचीले दोनों तत्वों का समावेश किया गया है।
(घ) संविधान में कई अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(ख) संविधान एक पावन दस्तावेज है इसलिए इसे बदलने की बात करना लोकतंत्र का विरोध करना है।

5. भारतीय संविधान में संशोधन का मुख्य घटक है।
(क) संविधान आयोग
(ख) न्यायपालिका
(ग) संसद
(घ) जनमत संग्रह
उत्तर:
(ग) संसद

6. निम्नलिखित में से किस देश में संविधान संशोधन की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी के सिद्धान्त को अपनाया गया है।
(क) भारत
(ख) स्विट्जरलैंड
(ग) अमेरिका
(घ) दक्षिण अफ्रीका
उत्तर:
(ख) स्विट्जरलैंड

7. निम्नलिखित में से कौनसा संशोधन केवल तकनीकी या प्रशासनिक प्रकृति का नहीं है।
(क) न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष करना
(ख) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन बढ़ाना
(ग) अनुसूचित जाति/जनजाति की सीटों के लिए आरक्षण की अवधि को बढ़ाना
(घ) सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से निकालना
उत्तर:
(घ) सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से निकालना

8. निम्नलिखित में से कौनसा संविधान संशोधन राजनीतिक आम सहमति से पारित नहीं हुआ है।
(क) 42वां संविधान संशोधन
(ख) 52वां संविधान संशोधन
(ग) 91वां संविधान संशोधन
(घ) 73 व 74वां संविधान संशोधन
उत्तर:
(क) 42वां संविधान संशोधन

9. निम्नलिखित में से कौनसा संविधान संशोधन विवादास्पद संशोधन की श्रेणी में नहीं आता है।
(क) 38वां संविधान संशोधन
(ख) 73वां संविधान संशोधन
(ग) 39वां संविधान संशोधन
(घ) 42वां संविधान संशोधन
उत्तर:
(ख) 73वां संविधान संशोधन

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10. सर्वोच्च न्यायपालिका ने संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का विकास किया।
(क) सज्जन सिंह के विवाद में
(ख) गोलकनाथ विवाद में
(ग) केशवानंद भारती विवाद में
(घ) मिनर्वा मिल विवाद में
उत्तर:
(ग) केशवानंद भारती विवाद में

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को ……………… किया गया।
उत्तर:
अंगीकृत

2. केशवानंद भारती विवाद (1973) में न्यायालय ने संविधान की ………………… के सिद्धान्त को प्रतिस्थापित किया।
उत्तर:
मूल संरचना

3. संविधान एक …………………. दस्तावेज नहीं है।
उत्तर:
अपरिवर्तनीय

4. भारतीय संविधान एक ………………. दस्तावेज है।
उत्तर:
जीवन्त

5. मताधिकार की आयु को 21 से 18 वर्ष करने के लिए संविधान ने ………………….संशोधन हुआ।
उत्तर:
61वां

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. फ्रांस में सन् 1958 में नवीन संविधान के साथ पांचवें गणतंत्र की स्थापना हुई।
उत्तर:
सत्य

2. हमारे संविधान में ऐसे कई अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
सत्य

3. भारतीय संविधान में संशोधन करने के लिए राज्य अपनी तरफ से संशोधन का प्रस्ताव संसद में प्रस्तुत कर सकता है।
उत्तर:
असत्य

4. संसद या कुछ मामलों में राज्य विधानपालिकाओं में संशोधन पारित होने के बाद इसकी पुष्टि के लिए जनमत संग्रह की आवश्यकता है।
उत्तर:
असत्य

5. संविधान संशोधन विधेयक के मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार का अधिकार नहीं है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये:

1. लचीला संविधान (क) वह संविधान जिसमें संशोधन करना बहुत मुश्किल है।
2. कठोर संविधान (ख) कठोर तथा लचीला दोनों प्रकार का संविधान
3. भारत का संविधान (ग) एक कठोर संविधान
4. अमेरिका का संविधान (घ) एक लचीला संविधान
5. ब्रिटेन का संविधान (च) वह संविधान जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके ।

उत्तर:

1. लचीला संविधान (च) वह संविधान जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके ।
2. कठोर संविधान (क) वह संविधान जिसमें संशोधन करना बहुत मुश्किल है।
3. भारत का संविधान (ख) कठोर तथा लचीला दोनों प्रकार का संविधान
4. अमेरिका का संविधान (ग) एक कठोर संविधान
5. ब्रिटेन का संविधान (घ) एक लचीला संविधान

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का संविधान कब अंगीकृत किया गया और कब लागू किया गया?
उत्तर:
भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत किया गया तथा 26 जनवरी, 1950 को औपचारिक रूप से लागू किया गया।

प्रश्न 2.
क्रांति के बाद फ्रांस में पहला फ्रांसीसी गणतंत्र कब बना? इसके समेत अब तक कुल कितने फ्रांसीसी संविधान बन चुके हैं?
उत्तर:
क्रांति के बाद 1793 में फ्रांस में प्रथम फ्रांसीसी गणतंत्र नामक संविधान बना। इसके समेत अब तक फ्रांस में पांच फ्रांसीसी गणतंत्र संविधान बन चुके हैं।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के स्थायित्व के कोई दो कारण बताइये।
उत्तर:

  1. हमारे संविधान की बनावट हमारे देश की परिस्थितियों के बेहद अनुकूल है।
  2. संविधान निर्माताओं ने दूरदर्शिता से भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया था।

प्रश्न 4.
किस संविधान संशोधन के द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई?
उत्तर:
61वें संविधान संशोधन के द्वारा।

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प्रश्न 5.
संविधान के किस अनुच्छेद में संशोधन विधि का वर्णन किया गया है?
उत्तर:
अनुच्छेद 368 में।

प्रश्न 6.
हमारा संविधान इतने वर्षों तक सफलतापूर्वक कार्य कैसे करता रह सका है?
उत्तर:

  1. भारतीय संविधान में आवश्यकताओं के समय अनुकूल संशोधन किये जा सकते हैं।
  2. अदालती फैसले और राजनीतिक व्यवहार – बरताव दोनों ने संविधान के अमल में अपनी परिपक्वता और . लचीलेपन का परिचय दिया है।

प्रश्न 7.
किसी भी संविधान की कोई दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:

  1. संविधान समकालीन परिस्थितियों और प्रश्नों से जुड़ा होता है।
  2. संविधान सरकार को लोकतांत्रिक ढंग से चलाने का एक ढांचा होता है।

प्रश्न 8.
लचीले संविधान से क्या आशय है?
उत्तर:
लचीले संविधान से आशय यह है कि इसमें संशोधन आसानी से अर्थात् विधायिका के साधारण बहुमत से किये जा सकते हैं।

प्रश्न 9.
कठोर संविधान से क्या आशय है?
उत्तर:
कठोर संविधान संशोधनों के प्रति कठोर रवैया अपनाता है अर्थात् जिन संविधानों में संशोधन करना बहुत मुश्किल होता है, ऐसे संविधानों को कठोर संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान लचीला है या कठोर है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में कठोर और लचीले दोनों तत्त्वों का मिश्रण है। यह कठोर होने के साथ-साथ लचीला भी है।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान में संशोधन करने के कितने तरीके अपनाए गए हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान में संशोधन करने के तीन तरीके अपनाए गए हैं।

  1. संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधन
  2. संसद के विशिष्ट बहुमत से संशोधन
  3. संसद के विशिष्ट बहुमत के साथ-साथ कम से कम आधे राज्यों की विधायिकाओं से स्वीकृति आवश्यक।

प्रश्न 12.
ऐसे दो अनुच्छेदों का उल्लेख कीजिए जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है।
उत्तर:

  1. अनुच्छेद (2) – संसद विधि द्वारा संघ में  ……………….. नए राज्यों को प्रवेश दे सकती है।
  2. अनुच्छेद (3) –  संसद विधि द्वारा ………………….. किसी राज्य का क्षेत्रफल बढ़ा सकती है।

प्रश्न 13.
संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत का औचित्य क्या है?
उत्तर:
संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत का औचित्य यह है कि संविधान संशोधन के लिए राजनीतिक दलों, सांसदों की व्यापक भागीदारी को सुनिश्चित करता है।

प्रश्न 14.
भारत में संविधान संशोधन में राज्यों की क्या भूमिका है?
उत्तर:
भारत में संविधान संशोधनों में राज्यों की सीमित भूमिका है क्योंकि कुछ अनुच्छेदों में संशोधनों के लिए केवल आधे राज्यों के अनुमोदन और विधायिका के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 15.
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त से क्या आशय है?
उत्तर:
संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले किसी भी संशोधन को न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर निरस्त कर सकती है।

प्रश्न 16.
भारतीय संविधान में मूल – संरचना की धारणा का विकास किस मुकदमे में हुआ?
उत्तर:
स्वामी केशवानंद भारती के मुकदमे में।

प्रश्न 17.
ऐसे दो उदाहरण दीजिये जिनमें संविधान की समझ को बदलने में न्यायिक व्याख्या की अहम भूमिका रही है।
उत्तर:

  1. आरक्षित सीटों की संख्या सीटों की कुल संख्या के आधे से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  2. अन्य पिछड़े वर्गों में क्रीमीलेयर के व्यक्तियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के संविधान में किन विषयों में साधारण विधि से संशोधन किया जाता है? उत्तर – भारत के संविधान में निम्न विषयों में साधारण विधि से संशोधन किया जाता हैv

  1. नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन या किसी राज्य का नाम बदलना (अनु. 2, 3
  2. राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद) को बनाना या समाप्त करना (अनु. 69 )
  3. संसद के कोरम के सम्बन्ध में संशोधन [(अनुच्छेद 100 (3)]
  4. भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में संशोधन (अनुच्छेद 5)।
  5. देश के आम चुनाव के सम्बन्ध में (अनु. 327 )
  6. केन्द्र – शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में (अनु. 240 )
  7. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।

प्रश्न 2.
42वें संविधान संशोधन को सर्वाधिक विवादास्पद संशोधन क्यों माना गया?
उत्तर:
42वां संविधान संशोधन सर्वाधिक विवादास्पद संशोधन के रूप में 1976 का 42वां संविधान संशोधन सर्वाधिक विवादास्पद इसलिए माना गया क्योंकि

  1. यह आपातकाल के दौरान किया गया था।
  2. अधिकांश विपक्षी दलों के नेता उस समय जेल में थे।
  3. इसमें विवादास्पद अनुच्छेद निहित थे।
  4. इस अकेले संविधान संशोधन के द्वारा संविधान का काफी बड़ा भाग संशोधित किया गया था।
  5. इनके अधिकांश प्रावधानों को 43वें तथा 44वें संविधान संशोधनों द्वारा आपातकाल के बाद निरस्त कर दिया

प्रश्न 3.
2000-2003 की छोटी अवधि में इतने अधिक संशोधन क्यों हुए थे?
उत्तर:
2000-2003 की छोटी अवधि के भीतर लगभग 10 संविधान संशोधन किये गये। इन संशोधनों को पारित किये जाने का मुख्य कारण ये सभी गैर – विवादास्पद प्रकृति के थे तथा लगभग सभी राजनैतिक दलों के बीच इनके प्रति आम सहमति थी।

प्रश्न 4.
न्यायालय के किस निर्णय ने संविधान की व्याख्या में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की?
उत्तर:
केशवानंद भारती विवाद (1973) में न्यायालय ने संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त को प्रतिस्थापित किया और 1980 में मिनर्वा मिल प्रकरण में न्यायालय ने पुनः इसे दोहराया। इस निर्णय ने संविधान की व्याख्या में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। राजनीतिक दलों, राजनेताओं, सरकार तथा संसद ने मूल संरचना के इस विचार को स्वीकृति प्रदान की और यह प्रतिस्थापित हुआ कि संसद संविधान की मूल संरचना में संशोधन नहीं कर सकती।

प्रश्न 5.
संविधान के मूल संरचना के सिद्धान्त ने संविधान के विकास में क्या सहयोग दिया?
उत्तर:
संविधान के मूल संरचना के सिद्धान्त ने संविधान के विकास में निम्नलिखित सहयोग दिया

  1. इस सिद्धान्त के द्वारा संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएँ निर्धारित की गईं।
  2. यह निर्धारित सीमाओं के अन्दर संविधान के किसी या सभी भागों के सम्पूर्ण संशोधन की अनुमति देता है।
  3. संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले संशोधन को न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर निरस्त कर सकती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 6.
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का महत्व – संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का महत्व निम्नलिखित है।

  1. संरचना का सिद्धान्त स्वयं में ही एक जीवंत संविधान का उदाहरण है। यह एक ऐसा विचार है जो न्यायिक व्याख्याओं से जन्मा है, इसका संविधान में कोई उल्लेख नहीं मिलता।
  2. विगत तीन दशकों के दौरान इसको व्यापक स्वीकृति मिली है।
  3. इस सिद्धान्त से संविधान की कठोरता और लचीलेपन का संतुलन और मजबूत हुआ

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान कठोर और लचीले संविधान का मिश्रण है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में कठोरता और लचीलेपन का मिश्रण है।
भारतीय संविधान न तो कठोर संविधान है और न ही लचीला संविधान है, बल्कि इसमें लचीले और कठोर दोनों प्रकार के संविधानों की विशेषताएँ पायी जाती हैं। यथा-

  1. संघीय दृष्टि से संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधान आसानी से संशोधित नहीं किये जा सकते। इन अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद के प्रत्येक सदन से कुल सदस्य संख्या से कम से कम आधे सदस्यों के बहुमत तथा मतदान करने वाले कुछ सदस्यों के 2/3 बहुमत से संशोधन विधेयक पारित होना आवश्यक है और इसके बाद आधे राज्यों की विधायिकाओं से साधारण बहुमत की स्वीकृति होना आवश्यक है।
  2. संविधान के कुछ अनुच्छेद संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत ( प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के कम से कम आधे बहुमत से तथा मतदान करने वाले कुल सदस्य संख्या के 2/3 बहुमत) से संशोधित किये जा सकते हैं।
  3. संविधान के कुछ अनुच्छेद संसद के दोनों सदनों के पृथक-पृथक साधारण बहुमत से संशोधित किये जा सकते हैं।
  4. 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती विवाद में संविधान की मूल संरचना का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए यह प्रतिस्थापित कर दिया है कि संसद संविधान की एक मूल आत्मा में संशोधन नहीं कर सकती।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्रथम प्रकार के संशोधन कठोर संविधान की श्रेणी में आते हैं लेकिन आधे राज्यों को स्वीकृति को ही आवश्यक बताकर संविधान निर्माताओं ने पुनः इसको लचीला स्वरूप दिया है। तीसरे प्रकार के अनुच्छेदों में संशोधन साधारण बहुमत से हो सकते हैं। यह संविधान की लचीलेपन की विशेषता को दर्शाती है और दूसरे प्रकार के संशोधन की प्रक्रिया न बहुत अधिक कठोर है और न ही लचीली। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संविधान कठोर और लचीले संविधान का मिश्रण है।

प्रश्न 8.
भारत में एक ही संविधान इतने वर्षों से किन कारणों से सफलतापूर्वक काम करता रह सका है?
उत्तर:
भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को औपचारिक रूप से लागू किया गया। तब से लेकर आज तक यह लगातार सफलतापूर्वक काम कर रहा है। इसकी सफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. देश की परिस्थितियों के अनुकूल संविधान: हमारे संविधान निर्माताओं से हमें एक मजबूत संविधान विरासत में मिला है। इस संविधान की बनावट हमारे देश की परिस्थितियों के बेहद अनुकूल है।
  2. भावी प्रश्नों का संविधान में समाधान निहित: हमारे संविधान निर्माता अत्यन्त दूरदर्शी थे। उन्होंने भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया था।
  3. परिस्थितियों के अनुकूल संविधान में संशोधन करने की सुविधा: हमारे संविधान में इस बात को भी स्वीकार करके चला गया है कि समय की जरूरत को देखते हुए इसके अनुकूल संविधान में संशोधन किये जा सकते हैं।
  4. संविधान के अमल में परिपक्वता और लचीलेपन का परिचय: संविधान के व्यावहारिक कामकाज में इस बात की पर्याप्त गुंजाइश रहती है कि किसी संवैधानिक प्रावधान की एक से ज्यादा व्याख्याएँ हो सकें। अदालती फैसले और राजनीतिक व्यवहार बरताव दोनों ने हमारे संविधान के अमल में अपनी परिपक्वता और लचीलेपन का परिचय दिया है। इन्हीं कारणों से हमारा संविधान इतने वर्षों से आज तक सफलतापूर्वक कार्य करता रहा है और एक जीवंत दस्तावेज के रूप में विकसित हो सका है।

प्रश्न 9.
क्या संविधान इतना पवित्र दस्तावेज है कि उसमें कोई संशोधन नहीं किया जा सकता?
उत्तर:
1. संविधान एक पवित्र दस्तावेज;
संविधान एक पवित्र दस्तावेज होता है; इसलिए इसे इतना लचीला नहीं बनाया जाना चाहिए कि उसमें सामान्य कानून की तरह जब चाहे परिवर्तन कर दिया जाये। किसी भी संविधान को भविष्य में पैदा होने वाली चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करने में भी सक्षम होना चाहिए। इस अर्थ में संविधान न केवल समकालीन परिस्थितियों और प्रश्नों से जुड़ा होता है बल्कि उसके कई सारे तत्व स्थायी महत्व होते हैं। इसीलिए संविधान को एक पवित्र दस्तावेज माना जाता है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी इसी दृष्टि से संविधान को सामान्य कानून से ऊँचा दर्जा दिया ताकि आने वाली पीढ़ी उसे सम्मान की दृष्टि से देखें। इस अर्थ में भारतीय संविधान एक पवित्र दस्तावेज है।

2. संविधान जड़ या अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं: संविधान कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तावेज भी नहीं होता। संविधान की रचना मनुष्य ही करते हैं और इस नाते उसमें हमेशा संशोधन, बदलाव और पुनर्विचार की गुंजाइश रहती है। अत: संविधान एक पवित्र दस्तावेज है, लेकिन व्यापक सोच-विचार व सहमति से परिवर्तित आवश्यकताओं के अनुसार इसमें परिवर्तन किये जा सकते हैं।

3. पवित्रता और परिवर्तनीयता के मध्य एक संतुलन; भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते समय उपर्युक्त दोनों बातों का ध्यान रखा है अर्थात् उसे पवित्र दस्तावेज मानने के साथ-साथ इतना लचीला भी बनाया गया है कि उसमें समय की आवश्यकता के अनुरूप यथोचित बदलाव किये जा सकें। दूसरे शब्दों में हमारा संविधान एक पवित्र दस्तावेज है, इसके कई सारे तत्व स्थायी महत्व के हैं, जिन्हें ‘संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त’ के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने रेखांकित किया है तथा संविधान के सभी प्रावधान काफी गहन विचार के साथ रखे गये हैं जिनमें समकालीन परिस्थितियों एवं प्रश्नों तथा भविष्य की चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत किया गया है। इसलिए इन्हें सामान्य कानून की तरह आसानी से नहीं बदला जा सकता; लेकिन यह कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तावेज भी नहीं है। इसमें किसी स्थिति के बारे में अंतिम निर्णय देने से बचा गया है और एक विशिष्ट प्रक्रिया के माध्यम से आवश्यकतानुसार इसमें परिवर्तन (संशोधन) भी किये जा सकते हैं।

प्रश्न 10.
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की प्रक्रियाओं में निहित सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए। संविधानों में संशोधन की प्रक्रियाओं में निहित सिद्धान्त
उत्तर:
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की विभिन्न प्रक्रियाओं में दो सिद्धान्त ज्यादा अहम भूमिका अदा करते हैं। यथा

1. विशेष बहुमत का सिद्धान्त:
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की प्रक्रियाओं के पीछे एक प्रमुख सिद्धान्त है। विशेष बहुमत का सिद्धान्त। इसके अन्तर्गत संविधान संशोधन के लिए विधायिका को सामान्य बहुमत से अधिक किसी विशिष्ट बहुमत की आवश्यकता होती है । अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, रूस तथा भारत आदि के संविधानों में इस सिद्धान्त का समावेश किया गया है। अमेरिका में दो-तिहाई बहुमत का सिद्धान्त लागू है; दक्षिण अफ्रीका और रूस में तीन-चौथाई बहुमत की आवश्यकता होती है तथा भारत में भी 2/3 बहुमत के सिद्धान्त को अपनाया गया है।

2. जनता की भागीदारी का सिद्धान्त; संविधान संशोधन की प्रक्रिया के पीछे दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है- जनता की भागीदारी का सिद्धान्त अर्थात् संविधान में संशोधन में जनता का सम्मिलित होना। यह सिद्धान्त कई आधुनिक सिद्धान्तों में अपनाया गया है। स्विट्जरलैण्ड में तो जनता को संशोधन की प्रक्रिया शुरू करने तक का अधिकार है। रूस तथा इटली में जनता को संविधान में संशोधन करने या संशोधन के अनुमोदन का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 11.
संविधान संशोधन की प्रक्रिया में भारत में किस प्रकार के विशेष बहुमत को अपनाया गया है?
अथवा
विशेष बहुमत से क्या आशय है? भारतीय संविधान में संविधान संशोधन हेतु किस प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है?
उत्तर:
विशेष बहुमत से आशय:सामान्यतः विधायिका में किसी प्रस्ताव या विधेयक को पारित करने के लिए सदन में उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है; लेकिन जब संविधान संशोधन विधेयक को इस साधारण बहुमत से पारित नहीं किया जा सकता और इसे पारित करने के लिए साधारण बहुमत से अधिक, जैसे- 2/3 बहुमत या 3/4 बहुमत की आवश्यकता होती है, तो इसे विशेष बहुमत कहा जाता है। भारत में संविधान संशोधन के विशेष बहुमत का रूप – भारत में संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। यथा

  1. सदन के कुल सदस्यों की कम से कम आधी संख्या: प्रथमतः, संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए।
  2. मतदान करने वाले कुल सदस्यों का 2/3 बहुमत: दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए। संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित कराने की आवश्यकता होती है। इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान नहीं है। कोई भी संशोधन विधेयक विशेष बहुमत के बिना पारित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 12.
भारत में संविधान संशोधन प्रक्रिया में राज्यों की भूमिका को इसके औचित्य के साथ स्पष्ट कीजिये।
अथवा
भारत में संविधान संशोधन प्रक्रिया में राज्यों की भूमिका को स्पष्ट कीजिये तथा यह बताइये कि राज्यों को सीमित भूमिका क्यों दी गई है?
उत्तर:
संशोधन की प्रक्रिया में राज्यों द्वारा अनुमोदन: संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद का विशेष बहुमत पर्याप्त नहीं। शक्तियों के वितरण से संबंधित, जनप्रतिनिधित्व से संबंधित तथा मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए राज्यों से परामर्श करना और उनकी सहमति प्राप्त करना आवश्यक है। संविधान में राज्यों की शक्तियों को सुनिश्चित करने के लिए यह व्यवस्था की गई है कि जब तक आधे राज्यों की विधानपालिकाएँ किसी संशोधन विधेयक को पारित नहीं कर देतीं तब तक वह संशोधन प्रभावी नहीं होगा।

इस अर्थ में यह कहा जा सकता है कि संविधान के कुछ हिस्सों के बारे में संशोधन के लिए राज्यों से एक व्यापक सहमति की अपेक्षा की गई है। इसीलिए राज्यों को संशोधन की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार दिया गया है। भारत में संविधान संशोधन की प्रक्रिया में राज्यों को सीमित भूमिका दी गई है। सीमित भूमिका देने का कारण यह है कि राज्यों से संबंधित विषयों, जन-प्रतिनिधित्व और मूल अधिकारों से संबंधित विषयों में संशोधन करने के लिए राज्यों से भी परामर्श लिया जाये। लेकिन संशोधन प्रक्रिया अधिक जटिल न हो जाये, यह लचीली बनी रही, इसलिए संशोधन के लिए केवल आधे राज्यों के अनुमोदन और राज्य विधानपालिकाओं के साधारण बहुमत की आवश्यकता है।

इस प्रकार राज्यों को सीमित भूमिका देकर संशोधन करने की प्रक्रिया को अव्यावहारिक होने से बचाया गया है। यदि सभी राज्यों के अनुमोदन की बात रखी जाती तो यह प्रक्रिया इतनी कठोर हो जाती कि एक राज्य ही संशोधन विधेयक को लागू करने से रोक सकता था और यदि आधे राज्यों को 2/3 बहुमत की शर्त लागू की जाती तो भी व्यवहार में ऐसा होना संभव नहीं हो पाता। इसलिए संशोधन प्रक्रिया को कठोर होने के साथ-साथ व्यावहारिक बनाने के लिए राज्यों को संशोधन प्रक्रिया में सीमित भूमिका ही दी गई है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
एक संविधान में संशोधन की क्या आवश्यकता है? क्या देश में कोई स्थायी (अपरिवर्तनीय) संविधान नहीं हो सकता?
उत्तर:
संविधान में संशोधन की आवश्यकता: संविधान कोई अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं है। इसे समाज की आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होना पड़ता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रत्येक समाज की परिस्थितियों में समय के साथ परिवर्तन आता है । कोई भी समाज ऐसा नहीं है जिसकी आवश्यकताएँ हमेशा के लिए समान रहती हों और जो समय के साथ परिवर्तित नहीं होता है या जिसमें समय के परिवर्तन के साथ नई आवश्यकताएँ पैदा नहीं होती हों। इस प्रकार संविधान, जो कि समाज के शासन संचालन के नियमों का दस्तावेज है, को भी समाज की आवश्यकताओं तथा परिवर्तित परिस्थितियों के साथ परिवर्तित होना पड़ता है।

अतः एक संविधान में समाज में आई नवीन आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका के संविधान में अब तक 27 संशोधन किये जा चुके हैं। फ्रांस की राज्य क्रांति के बाद फ्रांस में अब तक पांच गणतंत्रीय संविधान निर्मित हो चुके हैं।

पूर्व – सोवियत संघ में 74 वर्ष में अनेक संविधान बने, जैसे – 1918 का संविधान, 1924 का संविधान, 1966 और 1977 का संविधान और फिर सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस का नवीन संविधान बना है। 1949 की साम्यवादी क्रांति के बाद चीन में अनेक संविधान बने, जैसे- 1949, 1954, 1975 और 1982 के संविधान । भारत के संविधान में भी अब तक 101 संशोधन किये जा चुके हैं। अतः स्पष्ट है कि प्रत्येक देश में संविधान में परिवर्तन करने या संशोधन करने की आवश्यकता होती है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. भावी परिस्थितियों का आंकलन संभव नहीं:
संविधान निर्माता सरकार के ढांचे को निर्धारित करते समय समाज में उस समय की परिस्थितियों को ही मुख्य रूप से अपने आधार रूप में लेते हैं। वे उन भूतकालीन परिस्थितियों पर भी विचार कर सकते हैं जो भूतकाल में घटित हुई थीं। वे दूसरे देशों की तत्कालीन तथा भूतकालीन परिस्थितियों को ध्यान में रख सकते हैं। लेकिन वे भविष्य में आने वाली परिस्थितियों का पूर्ण आकलन नहीं कर सकते।

2. भावी परिस्थितियों व समस्याओं का समाधान संभव नही: संविधान निर्माता अपनी दूरदर्शिता से संविधान में भविष्य में आने वाली कुछ या अधिक समस्याओं का समाधान अपने संविधान में कर सकते हैं, लेकिन वे भविष्य की सभी परिस्थितियों, सभी समस्याओं तथा घटनाओं का आकलन व समाधान नहीं कर सकते।

3. भविष्य के लिए आदर्श संरचना का निर्माण संभव नहीं: संविधान निर्माता वर्तमान की सरकार की आदर्श संरचना प्रस्तुत कर सकते हैं लेकिन वे भविष्य के लिए भी सरकार की आदर्श संरचना का निर्माण नहीं कर सकते।

4. तीव्र सामाजिक व आर्थिक विकास की आवश्यकता: तीव्र सामाजिक-आर्थिक विकास तथा सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए समाज में नवीन दशाओं को निर्मित करने हेतु संविधान संशोधन की आवश्यकता होती है। संविधान अपरिवर्तनीय नहीं हो सकते – उपर्युक्त आधारों पर यह कहा जा सकता है कि किसी भी देश का कोई भी संविधान अपरिवर्तनीय प्रकृति का नहीं हो सकता। संविधान सही ढंग से कार्य करता रहे इसके लिए आवश्यक है कि

उस देश में परिस्थितिगत बदलाव, सामाजिक परिवर्तनों और राजनीतिक उठापटक के अनुरूप उसमें आवश्यक संशोधन या परिवर्तन होता रहे। यही कारण है कि परिस्थितिगत बदलाव, सामाजिक परिवर्तनों और राजनीतिक उठापटक के चलते फ्रांस, पूर्व सोवियत संघ तथा साम्यवादी चीन ने अपने संविधानों को अनेक बार बदला है तथा भारत और अमेरिका के संविधानों में अनेक संशोधन किये गये हैं।

चूंकि संविधान की रचना मनुष्य ही करते हैं और वे तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों तथा भूतकालीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान की रचना करते हैं, लेकिन वे भावी परिस्थितियों व घटनाओं व सामाजिक परिवर्तनों का पूर्ण अंदाज नहीं लगा सकते । इस नाते उसमें हमेशा संशोधन, बदलाव और पुनर्विचार की गुंजाइश रहती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की संशोधन की प्रक्रिया का विवेचन कीजिए।
अथवा
“भारतीय संविधान कठोरता और लचीलेपन के गुणों का मिश्रण है।” स्पष्ट कीजिये।
अथवा
भारतीय संविधान में संशोधन के विभिन्न तरीकों को बताइये।
उत्तर:
भारतीय संविधान में संशोधन की विधियाँ: भारतीय संविधान में संशोधन की निम्नलिखित विधियाँ दी गई हैं
1. साधारण विधि: संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है। ऐसे मामलों में कोई विशेष प्रक्रिया अपनाने की जरूरत नहीं होती। इस प्रकार के संशोधन और सामान्य कानून में कोई अन्तर नहीं होता। संसद इन अनुच्छेदों में अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया को अपनाए बिना ही संशोधन कर सकती है। इन अनुच्छेदों में संशोधन का प्रस्ताव किसी भी सदन में रखा जा सकता है।

जब दोनों सदन उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत से प्रस्ताव पास कर देते हैं, तब वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर संशोधन प्रस्ताव पारित हो जाता है। इस प्रणाली के द्वारा जिन अनुच्छेदों में संशोधन किया जा सकता है, उनमें से कुछ अनुच्छेद निम्न प्रकार से हैं-

  1. अनुच्छेद 2, 3 तथा 4 – नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमाओं को घटाना या बढ़ाना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना या किसी राज्य का नाम बदलना।
  2. अनुच्छेद 169: राज्यों के द्वितीय सदन ( विधान परिषद) को बनाना या समाप्त करना।
  3. अनुच्छेद 100 (3): संसद के कोरम के सम्बन्ध में संशोधन।
  4. अनुच्छेद 5: भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में संशोधन।
  5. अनुच्छेद 240: केन्द्र शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में संशोधन।

भारतीय संविधान में संशोधन करने की उपर्युक्त प्रक्रिया सरलतम प्रक्रिया है। इसलिए यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान में लचीलेपन का गुण विद्यमान है।

2. अनुच्छेद 368 के अनुसार संशोधन की विधियाँ – संविधान के शेष अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 368 में प्रावधान किया गया है। अनुच्छेद 368 में कहा गया है कि “संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के द्वारा और इस अनुच्छेद में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार संविधान में नए उपबन्ध कर सकती है, पहले से विद्यमान उपबंधों को बदल या हटा सकती है। इस अनुच्छेद में ‘संशोधन करने के दो तरीके दिये गए हैं जो संविधान के अलग-अलग अनुच्छेदों पर लागू हैं। यथा

(i) संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन- संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संसद अपने विशेष बहुमत द्वारा संशोधन कर सकती है। संविधान में इन अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है।

(क) सबसे पहले, संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए।

(ख) दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की कम से कम दो-तिहाई होनी चाहिए।

संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता है। अनेक बार लोकसभा द्वारा पारित संशोधन विधेयक को राज्यसभा द्वारा निरस्त किया जा चुका। हमारे संविधान में पहले (साधारण विधि से और तीसरे वर्ग (संसद के विशेष बहुमत के साथ राज्यों की स्वीकृति आवश्यक) में उल्लिखित अनुच्छेदों को छोड़कर अन्य सभी अनुच्छेद इसी विधि से किये जाते हैं।

(ii) राज्यों का समर्थन प्राप्त करके संसद द्वारा विशेष बहुमत द्वारा संशोधन- संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद का विशेष बहुमत पर्याप्त नहीं होता। राज्यों और केन्द्र सरकारों के बीच शक्तियों के वितरण से संबंधित या राष्ट्रपति का निर्वाचन व निर्वाचन पद्धति, संघीय न्यायपालिका तथा राज्यों में उच्च न्यायालय, संघ तथा राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार, संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व, स्वयं संशोधन प्रक्रिया आदि से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए इस विधि को अपनाया जाता है।

इस विधि में संशोधन का विधेयक संसद के दोनों सदनों तथा पृथक्-पृथक् रूप से उपस्थित सदस्यों के 2/3 बहुमत तथा कुल सदस्यों के पूर्ण बहुमत द्वारा पारित करने के पश्चात्, राज्यों की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और कम से म आधे राज्यों के विधानमण्डलों से स्वीकृत होने के पश्चात् यह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद संशोधन विधेयक पारित हो जाता है। यह विधि स्पष्ट रूप से जटिल है। इस दृष्टि से यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान में कठोरता के गुण विद्यमान हैं।

3. संशोधन प्रक्रिया से संबंधित अन्य विशेषताएँ – भारतीय संविधान में संशोधन प्रक्रिया से संबंधित अन्य प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं।
(i) संशोधन को प्रस्तावित करना:
भारतीय संविधान में संशोधन विधेयक को प्रस्तुत करने का अधिकार केवल संसद को है। संसद के किसी भी सदन में इसे प्रस्तुत किया जा सकता है। राज्यों को संशोधन का प्रस्ताव लाने का अधिकार नहीं दिया गया है।

(ii) अन्य बाह्य एजेन्सी की संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं:
संसद के विशेष बहुमत के अलावा किसी बाहरी एजेन्सी, जैसे संविधान आयोग या किसी अन्य निकाय की संविधान की संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं है।

(iii) जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं:
संसद या कुछ मामलों में राज्य विधान पालिकाओं में संशोधन पारित होने के पश्चात् इस संशोधन को पुष्ट करने के लिए किसी प्रकार के जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं है।

(iv) राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदन:
संशोधन विधेयक को भी अन्य सामान्य विधेयकों की तरह राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है परन्तु इस मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार का अधिकार नहीं है।

(v) संयुक्त अधिवेशन का प्रावधान नहीं:
भारत में संविधान संशोधन की प्रक्रिया में संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् पारित होना अनिवार्य है। यदि एक सदन उसे पारित नहीं करता है तो सामान्य विधेयक की तरह इसमें संसद के संयुक्त अधिवेशन का प्रावधान नहीं किया गया है। यदि एक सदन किसी संशोधन विधेयक को अस्वीकृत कर देता है तो वह विधेयक निरस्त हो जायेगा।

(vi) संशोधन की शक्ति पर सीमाएँ:
सन् 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती विवाद में यह अभिनिर्धारित किया है कि संसद संविधान की मूल संरचना को संशोधित नहीं कर सकती। इस अवधारणा पर अब सर्वसम्मति स्थापित हो चुकी है। इस प्रकार संसद संविधान के सभी अनुच्छेदों में संशोधन कर सकती है लेकिन संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान का मूल ढांचा नष्ट नहीं किया जा सकता। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान में कठोर और लचीले संविधान  दोनों प्रकार के गुणों का सम्मिश्रण है।

साधारण विधि द्वारा संशोधन की प्रक्रिया तथा आधे राज्यों द्वारा सामान्य बहुमत से संशोधन विधेयक को पारित करने की स्थिति दोनों ही लचीले संविधान के गुणों से युक्त हैं क्योंकि इनमें संशोधन विधेयक को पारित करने के लिए साधारण बहुमत का प्रावधान किया गया है। दूसरी तरफ संसद के विशेष बहुमत की प्रक्रिया संविधान के कठोरता के गुण को स्पष्ट करती है।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में बहुत अधिक संशोधन क्यों किये गये हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में बहुत अधिक संशोधन क्यों किए गए हैं? 26 जनवरी, 2010 को हमारे संविधान को लागू हुए 68 वर्ष पूरे हो गए हैं। अब तक इसमें 101 संशोधन किये जा चुके हैं। संशोधन प्रक्रिया की कठोरता को देखते हुए संशोधनों की यह संख्या काफी बड़ी मानी जायेगी। संशोधनों की बड़ी संख्या दो बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है कि

  1. भारतीय संविधान बहुत लचीला है, जिसके कारण इतने सारे संशोधन आसानी से संभव हो पाये।
  2. हमारे संविधान निर्माता दूरदर्शी नहीं थे और वे निकट भविष्य की आवश्यकताओं का आकलन नहीं कर सके।

दूसरी तरफ अमेरिका का संविधान है जो 1789 में प्रभाव में आया और लगभग 220 वर्षों में इसमें केवल 27 ही संशोधन हुए हैं और उनमें भी अधिकांश संशोधन अधिकारों के विधेयक से संबंधित हैं जो संविधान बनने के तुरन्त बाद संविधान में शामिल किये गए। लेकिन भारतीय संविधान में अधिक संशोधन होने के वास्तविक कारण उक्त दोनों स्थितियाँ नहीं हैं क्योंकि भारतीय संविधान न तो अत्यधिक लचीला है और न ही भारतीय संविधान निर्माता अदूरदर्शी थे। इसके साथ ही यह भी सत्य नहीं है कि अधिकांश संविधान संशोधन तभी प्रभाव में आए जब कांग्रेस का केन्द्र तथा राज्यों में एकदलीय प्रभुत्व था। संविधान के संशोधनों की एक संक्षिप्त रूपरेखा इस प्रकार है।
JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ 1

कांग्रेस दल का प्रभुत्व काल 1976 तक माना जा सकता है। इस प्रकार 1951 से 1970 के 20 वर्ष के काल में 23 संशोधन किये गये। दूसरी तरफ 1971 से 1990 तक कांग्रेस के वर्चस्व में कमी आ गई और वह सबसे बड़े दल के रूप में रह गयी। इस अवधि में 44 संशोधन हुए हैं तथा 1991 से 2009 के काल में गठबंधन सरकारों का युग रहा है लेकिन इस अवधि में भी 26 संशोधन हुए हैं। इससे स्पष्ट होता है कि भारत में संशोधनों के पीछे केवल राजनीतिक सोच ही प्रमुख नहीं रही है। इनके पीछे सत्ताधारी दल की राजनीतिक सोच का बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ा था बल्कि ये संशोधन समय की जरूरतों के अनुसार किये गये थे। न तो इसके पीछे मूल संविधान की कमजोरियां काम कर रही थीं और न ही संविधान का लचीलापन।

संविधान संशोधनों की विषय वस्तु व प्रकृति: संविधान संशोधनों की प्रकृति इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर दे सकती है कि संविधान में इतने अधिक संशोधन क्यों हुए। संविधान संशोधनों की प्रकृति को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।
1. तकनीकी या प्रशासनिक प्रकृति के संशोधन:
संविधान संशोधनों में बहुत से संशोधन ऐसे हैं जिनकी प्रकृति तकनीकी या प्रशासनिक है। ये संविधान के मूल उपबन्धों को स्पष्ट बनाने, उनकी व्याख्या करने तथा छिट-पुट संशोधन से संबंधित हैं। उन्हें केवल सिर्फ तकनीकी भाषा में संशोधन कहा जा सकता है। वास्तव में वे इन उपबन्धों में कोई विशेष बदलाव नहीं करते। उदाहरण के लिए, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष करना; सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन; विधायिकाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण सम्बन्धी उपबन्धों में संशोधन, जो प्रत्येक दस वर्ष बाद आरक्षण की अवधि को आगे बढ़ाने के लिए किये गये हैं। इन संशोधनों से मूल संशोधनों में कोई अन्तर नहीं आया है। इसीलिए इन्हें तकनीकी संशोधन कहा जा सकता है।

2. राजनीतिक आम सहमति के माध्यम से संशोधन:
बहुत से संविधान संशोधन ऐसे हैं जिन्हें राजनीतिक दलों की आपसी सहमति का परिणाम माना जा सकता है। ये संशोधन तत्कालीन राजनीतिक दर्शन और समाज की आकांक्षाओं को समाहित करने के लिए किए गए थे। 1984 के बाद गठबंधन सरकारों के कार्यकालों में ये संशोधन किये गए। ये संशोधन गठबंधन सरकारों के कार्यकाल में तभी हो सकते थे जब सभी दलों में उनके पीछे व्यापक सहमति हो। ये संविधान संशोधन थे दल-बदल विरोधी कानून ( 52वां संशोधन), मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करना, 73वां पंचायती राज संशोधन और 74वां शहरी स्थानीय स्वशासन (नगरपालिका) संशोधन, नौकरियों में आरक्षण की सीमा बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन आदि आम सहमति के कारण आसानी से पारित हो सके।

3. संविधान की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के कारण संशोधन:
संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और संसद के बीच अक्सर मतभेद होते रहे हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं। 1970 से 1975 के दौरान ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं और इस काल में संसद ने न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार- बार संशोधन किये। मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर, सम्पत्ति के मूल अधिकार को लेकर तथा संविधान में संशोधन के अधिकार की सीमा को लेकर संसद और न्यायपालिका में व्याख्या सम्बन्धी मतभेद उभरे हैं और उनके निराकरण हेतु संसद ने संशोधन किये हैं।

4. विवादास्पद संशोधन:
कुछ संवैधानिक संशोधन विवादास्पद प्रकृति के रहे हैं। ऐसे अधिकांश संशोधन 1975 से लेकर 1980 के बीच हुए। इस संबंध में 38वां, 39वां और 42वां संशोधन विशेष रूप से विवादास्पद रहे। ये संशोधन आपातकाल में किए गए थे। आपातकाल के बाद हुए चुनावों में सत्तारूढ़ कांग्रेस दल की पराजय हुई और जनता पार्टी सत्ता में आई। उसने 43वें तथा 44वें संविधान संशोधनों द्वारा उक्त विवादास्पद संशोधनों के विवादास्पद अंशों को हटा दिया। इन संशोधनों के माध्यम से संवैधानिक सन्तुलन को पुनः लागू किया गया। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारत के संविधान में अधिक संशोधन होने के निम्न कारण रहे हैं।

  1. काफी संशोधन तकनीकी प्रकृति के थे, जिनसे मूल प्रावधानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।
  2. कुछ संशोधन परिवर्तित राजनीतिक परिस्थितियों के कारण हुए थे।
  3. कुछ परिवर्तन संसद और न्यायालय के भिन्न-भिन्न निर्वचन के कारण उत्पन्न समस्या को दूर करने के लए किये गये थे।
  4. कुछ संशोधन अवश्य विवादास्पद प्रकृति के थे जिनमें सत्तारूढ़ दल ने संविधान संशोधन के माध्यम से सत्ता के दुरुपयोग का प्रयास किया था, लेकिन बाद में उन्हें अगले संशोधनों द्वारा निरस्त कर दिया गया।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान के विकास में योगदान देने वाले कारकों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारतीय संविधान का विकास: भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। तब से लेकर दिसम्बर 2017 तक इसमें 101 संविधान संशोधन किये जा चुके हैं। इस अवधि में आपातकाल के दौरान संविधान को संकट के दौर से गुजरना पड़ा है, विशेषकर 42वें संविधान संशोधन 1976 के रूप में। इसके अन्तर्गत संविधान में व्यापक परिवर्तन किया गया लेकिन उनमें से अधिकांश संशोधनों को 1978 के 44वें संविधान संशोधन के द्वारा निरस्त कर पुनः संतुलन की स्थापना कर दी गई। इस प्रकार भारतीय संविधान अनेक संशोधनों को समेटते हुए आज तक कार्यरत है तथा समय-समय पर संशोधनों व न्यायिक व्याख्याओं द्वारा इसका विकास होता रहा है। भारतीय संविधान के विकास में उत्तरदायी कारक – मुख्य रूप से निम्नलिखित दो कारकों ने भारतीय संविधान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

1. संविधान संशोधन: अनेक संवैधानिक संशोधनों ने अनेक उपबन्धों के क्षेत्र का विस्तार किया है और संविधान को परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप बनाया है। संक्षेप में ये संशोधन निम्नलिखित हैं।

  1. सामाजिक-आर्थिक न्याय की स्थापना हेतु नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने की प्रक्रिया में सम्पत्ति का मूल अधिकार सरकार के कार्यों से प्रारम्भ से ही मुख्य रोड़ा बन गया था। इस अधिकार को सीमित करने के लिए अनेक संशोधन किये गये और अन्त में 44वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों से निकाल दिया गया।
  2. मूल संविधान में पदोन्नतियों में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। इसे एक संविधान संशोधन द्वारा संविधान का अंग बनाया गया। इसी प्रकार अन्य पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण संविधान संशोधन के द्वारा मान्य किया गया है।
  3. 42वें संविधान संशोधन में संविधान की प्रस्तावना में अनेक शब्दों का समावेश किया गया है, जैसे- समाजवादी, पंथ निरपेक्ष राज्य।
  4. 62वें सविधान संशोधन द्वारा सन् 1988 में मतदान की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है।
  5. 2003 में 91वें संविधान संशोधन द्वारा मन्त्रिमण्डल के विस्तार पर सीमा लगायी गयी है। इसके अनुसार मन्त्रिमण्डल का आकार लोकसभा की कुल सदस्य संख्या या राज्यों की विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत तक सीमित कर दिया गया है। इससे एक तरफ खर्चे को कम किया गया है तो दूसरी तरफ दल-बदल को हतोत्साहित किया गया है।
  6. संविधान संशोधन के द्वारा शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकारों में सम्मिलित किया गया है।
  7. 42वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान में नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों को संविधान का भाग बनाया गया उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि संविधान संशोधनों ने भारत के संविधान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

2. न्यायिक व्याख्याएं: भारत के सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों ने अपने समक्ष आए अनेक विवादों के निर्णयों में संविधान के अनेक अनुच्छेदों की न्यायिक व्याख्याएँ कर संविधान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यथा-

  1. न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति न्यायिक व्याख्या पर आधारित है। इसने न्यायपालिका को बहुत शक्तिशाली बना दिया है और विधायिका तथा कार्यपालिका के कार्यों पर इसने न्यायपालिका को वीटो पॉवर दे दी है। इसने सरकार के तीनों अंगों के मध्य शक्ति सन्तुलन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है।
  2. सर्वोच्च न्यायालय ने 1973 में केशवानंद भारती विवाद में मूल संरचना के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है तथा संसद की संविधान संशोधन की शक्ति की सीमा निर्धारित कर दी है। इसने यह प्रस्थापित किया है कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है लेकिन इसकी मूल संरचना को समाप्त नहीं कर सकती। इसके साथ ही न्यायपालिका ने स्पष्ट शब्दों में संविधान की मूल संरचना को परिभाषित नहीं किया है। उसने यह शक्ति स्वयं अपने में रख ली है कि वह समय-समय पर संविधान की मूल संरचना को परिभाषित करती रहेगी।
  3. न्यायपालिका ने ही ‘अन्य पिछड़े वर्गों’ के आरक्षण में ‘क्रीमीलेयर के सिद्धान्त’ का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि जो व्यक्ति अन्य पिछड़े वर्ग में क्रीमी लेयर के अन्तर्गत आते हैं, वे आरक्षण के पात्र नहीं हैं। इसे स्वीकार कर लिया गया है।
  4. न्यायपालिका ने अपनी व्याख्या के द्वारा ही आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत निर्धारित की है जिसे स्वीकार कर लिया गया है।
  5. अनेक विवादों में न्यायपालिका ने अनेक मूल अधिकारों विशेषकर जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार तथा शिक्षा के अधिकार के क्षेत्र को व्यापक कर दिया है। एक विवाद में न्यायपालिका ने यहाँ तक कह दिया है कि जीवन के अधिकार से आशय अच्छा जीवन जीने का अधिकार।
  6. लोकहित याचिका का जो सिद्धान्त न्यायालय ने स्वीकृत किया है वह न्यायिक व्याख्या पर ही आधारित है तथा इसने न्यायिक सक्रियता को बढ़ावा दिया है। लोकहित याचिका और न्यायिक सक्रियता के सिद्धान्त के द्वारा न्यायपालिका विधायिका तथा कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है तथा प्रशासनिक इकाइयों को एक निर्धारित समय-सीमा में इसके आदेशों को क्रियान्वित करने के निर्देश दे रही है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान के विकास में संविधान संशोधनों तथा न्यायिक व्याख्याओं ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।

प्रश्न 5.
“संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है।” इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिये। भारतीय संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है, के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है। इस कथन का आशय यह है कि लगभग एक जीवित प्राणी की तरह संविधान समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है। जीवंत प्राणी की तरह ही वह अनुभव से सीखता है। एक संविधान एक जीवन्त दस्तावेज बन जाता है यदि यह संशोधनों, व्याख्याओं के लिए खुला हो और परम्पराओं को स्वीकारने के लिए स्वतंत्र हो। लोकतन्त्र में व्यावहारिकताएँ तथा विचार समय-समय पर विकसित होते रहते हैं और समाज में इसके अनुसार प्रयोग चलते रहते हैं। कोई भी संविधान जो प्रजातंत्र को समर्थ बनाता हो और नये प्रयोगों के विकास का रास्ता खोलता हो, वह केवल टिकाऊ ही नहीं होता, बल्कि अपने नागरिकों के बीच सम्मान का पात्र भी होता है। ऐसा संविधान एक जीवन्त संविधान कहलाता है।

भारत का संविधान एक जीवन्त संविधान के रूप में भारत का संविधान अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण एक जीवन्त संविधान के रूप में प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है। पिछले 68 वर्षों के दौरान भारतीय संविधान ने अनेक नई परिस्थितियों, न्यायपालिका और संसद के मध्य तथा न्यायपालिका और कार्यपालिका के मध्य संघर्षों की घटनाओं का सामना किया है, लेकिन इसने इन सबको सफलतापूर्वक सुलझाया है तथा स्वयं को नयी परिस्थितियों के अनुरूप ढाला है। इसने संवैधानिक संशोधनों या न्यायिक व्याख्याओं के द्वारा इन समस्याओं का हल निकाला है। यथा

1. मूल संरचना के सिद्धान्त का प्रतिपादन:
जब संसद ने संविधान के प्रत्येक भाग को संशोधन करने की शक्ति का दावा करते हुए अपनी सर्वोच्चता को स्थापित करना चाहा, तब न्यायपालिका ने संविधान की सर्वोच्चता को स्थापित किया और न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से स्वयं को संविधान के संरक्षक और अन्तिम व्याख्याकार की भूमिका निभायी। इस स्थिति में संसद और न्यायपालिका के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हुई । संसद ने संविधान में संशोधन कर पुन: यह स्थापित किया कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है।

ऐसी स्थिति में न्यायपालिका ने केशवानंद भारती विवाद में इस संघर्ष का समाधान करते हुए संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और कहा कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन तो कर सकती है। लेकिन वह संविधान की मूल संरचना को नष्ट नहीं कर सकती अर्थात् वह संसद के मौलिक ढांचे या उसकी आत्मा में संशोधन नहीं कर सकती ।
इस सिद्धान्त को अब सभी राजनीतिक संस्थाओं तथा राजनीतिक दलों द्वारा स्वीकार कर लिया गया है।

2. 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा का निर्धारण:
जब कुछ राज्य सरकारों ने राजनीतिक मान्यताओं के लिए 75 प्रतिशत सीटों के आरक्षण के कानून बनाये, इससे समाज में तनाव बढ़ा तथा अराजकता का वातावरण बना और संविधान में आरक्षण के लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई थी। इस विस्फोटक स्थिति को न्यायपालिका ने इस व्याख्या के द्वारा संभाला कि सभी श्रेणियों का कुल आरक्षण समस्त सीटों के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता।

3. संसद की सीमाओं को रेखांकित करना:
न्यायालय ने समय-समय पर यह रेखांकित किया है कि संसद, राष्ट्र की जनप्रतिनिधि संस्था के होते हुए भी, निरंकुशता का व्यवहार नहीं कर सकती है तथा इसे अपना कार्य संविधान की सीमाओं के अन्तर्गत करना पड़ेगा और उस सीमा के अन्तर्गत कार्य करना पड़ेगा जो सीमा इसके ऊपर संविधान तथा सरकार की अन्य राजनीतिक संस्थाओं के कार्यक्षेत्रों ने लगाई है।

4. संशोधनों के द्वारा संविधान का विकास:
अनेक नवीन स्थितियाँ जो कि परिवर्तित परिस्थितियों के कारण पैदा हुईं उन्हें संविधान संशोधनों के द्वारा संभाला गया है। पिछले 68 वर्षों में 101 संविधान संशोधन किये जा चुके हैं जो संविधान की जीवन्तता को दर्शाते हैं। मत देने के अधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करना, सम्पत्ति के मूल अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से निकाल देना, दल-बदल रोकने हेतु संविधान संशोधन कर दल-बदल निषेध संशोधन विधेयक पारित करना 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को तथा 74वें संविधान संशोधन द्वारा नगरीय स्थानीय शासन की संस्थाओं को संवैधानिक स्वरूप प्रदान करना आदि संशोधनों ने संविधान को बदलती परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करने में सक्षम बनाया है।