JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. संसद सामान्य बहुमत से संशोधन कर सकती है।
(क) मूल अधिकारों में
(ख) राष्ट्रपति की निर्वाचन विधि में
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति में
(घ) किसी राज्य के क्षेत्रफल में
उत्तर:
(घ) किसी राज्य के क्षेत्रफल में

2. ” संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के द्वारा और इस अनुच्छेद में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार संविधान में नए उपबंध कर सकती है, पहले से विद्यमान उपबंधों को बदल या हटा सकती है।” यह कथन संविधान के जिस अनुच्छेद से संबंधित है, वह है।
(क) अनुच्छेद 368
(ग) अनुच्छेद 13
(ख) अनुच्छेद 370
(घ) अनुच्छेद 14
उत्तर:
(क) अनुच्छेद 368

3. भारत का संविधान औपचारिक रूप से लागू किया गया
(क) 26 नवम्बर, 1949 को
(ख) 26 जनवरी, 1950 को
(ग) 15 अगस्त, 1947 को
(घ) 26 जनवरी, 1956 को
उत्तर:
(ख) 26 जनवरी, 1950 को

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4. निम्नलिखित में जो कथन असत्य हो, उसे बतायें
(क) भारतीय संविधान को एक पवित्र दस्तावेज मानने के साथ-साथ इतना लचीला भी बनाया गया है कि उसमें आवश्यकतानुसार यथोचित परिवर्तन कर सकें।
(ख) संविधान एक पावन दस्तावेज है इसलिए इसे बदलने की बात करना लोकतंत्र का विरोध करना है।
(ग) भारतीय संविधान में एक साथ ही कठोर और लचीले दोनों तत्वों का समावेश किया गया है।
(घ) संविधान में कई अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(ख) संविधान एक पावन दस्तावेज है इसलिए इसे बदलने की बात करना लोकतंत्र का विरोध करना है।

5. भारतीय संविधान में संशोधन का मुख्य घटक है।
(क) संविधान आयोग
(ख) न्यायपालिका
(ग) संसद
(घ) जनमत संग्रह
उत्तर:
(ग) संसद

6. निम्नलिखित में से किस देश में संविधान संशोधन की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी के सिद्धान्त को अपनाया गया है।
(क) भारत
(ख) स्विट्जरलैंड
(ग) अमेरिका
(घ) दक्षिण अफ्रीका
उत्तर:
(ख) स्विट्जरलैंड

7. निम्नलिखित में से कौनसा संशोधन केवल तकनीकी या प्रशासनिक प्रकृति का नहीं है।
(क) न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष करना
(ख) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन बढ़ाना
(ग) अनुसूचित जाति/जनजाति की सीटों के लिए आरक्षण की अवधि को बढ़ाना
(घ) सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से निकालना
उत्तर:
(घ) सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से निकालना

8. निम्नलिखित में से कौनसा संविधान संशोधन राजनीतिक आम सहमति से पारित नहीं हुआ है।
(क) 42वां संविधान संशोधन
(ख) 52वां संविधान संशोधन
(ग) 91वां संविधान संशोधन
(घ) 73 व 74वां संविधान संशोधन
उत्तर:
(क) 42वां संविधान संशोधन

9. निम्नलिखित में से कौनसा संविधान संशोधन विवादास्पद संशोधन की श्रेणी में नहीं आता है।
(क) 38वां संविधान संशोधन
(ख) 73वां संविधान संशोधन
(ग) 39वां संविधान संशोधन
(घ) 42वां संविधान संशोधन
उत्तर:
(ख) 73वां संविधान संशोधन

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10. सर्वोच्च न्यायपालिका ने संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का विकास किया।
(क) सज्जन सिंह के विवाद में
(ख) गोलकनाथ विवाद में
(ग) केशवानंद भारती विवाद में
(घ) मिनर्वा मिल विवाद में
उत्तर:
(ग) केशवानंद भारती विवाद में

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को ……………… किया गया।
उत्तर:
अंगीकृत

2. केशवानंद भारती विवाद (1973) में न्यायालय ने संविधान की ………………… के सिद्धान्त को प्रतिस्थापित किया।
उत्तर:
मूल संरचना

3. संविधान एक …………………. दस्तावेज नहीं है।
उत्तर:
अपरिवर्तनीय

4. भारतीय संविधान एक ………………. दस्तावेज है।
उत्तर:
जीवन्त

5. मताधिकार की आयु को 21 से 18 वर्ष करने के लिए संविधान ने ………………….संशोधन हुआ।
उत्तर:
61वां

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. फ्रांस में सन् 1958 में नवीन संविधान के साथ पांचवें गणतंत्र की स्थापना हुई।
उत्तर:
सत्य

2. हमारे संविधान में ऐसे कई अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
सत्य

3. भारतीय संविधान में संशोधन करने के लिए राज्य अपनी तरफ से संशोधन का प्रस्ताव संसद में प्रस्तुत कर सकता है।
उत्तर:
असत्य

4. संसद या कुछ मामलों में राज्य विधानपालिकाओं में संशोधन पारित होने के बाद इसकी पुष्टि के लिए जनमत संग्रह की आवश्यकता है।
उत्तर:
असत्य

5. संविधान संशोधन विधेयक के मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार का अधिकार नहीं है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये:

1. लचीला संविधान (क) वह संविधान जिसमें संशोधन करना बहुत मुश्किल है।
2. कठोर संविधान (ख) कठोर तथा लचीला दोनों प्रकार का संविधान
3. भारत का संविधान (ग) एक कठोर संविधान
4. अमेरिका का संविधान (घ) एक लचीला संविधान
5. ब्रिटेन का संविधान (च) वह संविधान जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके ।

उत्तर:

1. लचीला संविधान (च) वह संविधान जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके ।
2. कठोर संविधान (क) वह संविधान जिसमें संशोधन करना बहुत मुश्किल है।
3. भारत का संविधान (ख) कठोर तथा लचीला दोनों प्रकार का संविधान
4. अमेरिका का संविधान (ग) एक कठोर संविधान
5. ब्रिटेन का संविधान (घ) एक लचीला संविधान

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का संविधान कब अंगीकृत किया गया और कब लागू किया गया?
उत्तर:
भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत किया गया तथा 26 जनवरी, 1950 को औपचारिक रूप से लागू किया गया।

प्रश्न 2.
क्रांति के बाद फ्रांस में पहला फ्रांसीसी गणतंत्र कब बना? इसके समेत अब तक कुल कितने फ्रांसीसी संविधान बन चुके हैं?
उत्तर:
क्रांति के बाद 1793 में फ्रांस में प्रथम फ्रांसीसी गणतंत्र नामक संविधान बना। इसके समेत अब तक फ्रांस में पांच फ्रांसीसी गणतंत्र संविधान बन चुके हैं।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के स्थायित्व के कोई दो कारण बताइये।
उत्तर:

  1. हमारे संविधान की बनावट हमारे देश की परिस्थितियों के बेहद अनुकूल है।
  2. संविधान निर्माताओं ने दूरदर्शिता से भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया था।

प्रश्न 4.
किस संविधान संशोधन के द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई?
उत्तर:
61वें संविधान संशोधन के द्वारा।

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प्रश्न 5.
संविधान के किस अनुच्छेद में संशोधन विधि का वर्णन किया गया है?
उत्तर:
अनुच्छेद 368 में।

प्रश्न 6.
हमारा संविधान इतने वर्षों तक सफलतापूर्वक कार्य कैसे करता रह सका है?
उत्तर:

  1. भारतीय संविधान में आवश्यकताओं के समय अनुकूल संशोधन किये जा सकते हैं।
  2. अदालती फैसले और राजनीतिक व्यवहार – बरताव दोनों ने संविधान के अमल में अपनी परिपक्वता और . लचीलेपन का परिचय दिया है।

प्रश्न 7.
किसी भी संविधान की कोई दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:

  1. संविधान समकालीन परिस्थितियों और प्रश्नों से जुड़ा होता है।
  2. संविधान सरकार को लोकतांत्रिक ढंग से चलाने का एक ढांचा होता है।

प्रश्न 8.
लचीले संविधान से क्या आशय है?
उत्तर:
लचीले संविधान से आशय यह है कि इसमें संशोधन आसानी से अर्थात् विधायिका के साधारण बहुमत से किये जा सकते हैं।

प्रश्न 9.
कठोर संविधान से क्या आशय है?
उत्तर:
कठोर संविधान संशोधनों के प्रति कठोर रवैया अपनाता है अर्थात् जिन संविधानों में संशोधन करना बहुत मुश्किल होता है, ऐसे संविधानों को कठोर संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान लचीला है या कठोर है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में कठोर और लचीले दोनों तत्त्वों का मिश्रण है। यह कठोर होने के साथ-साथ लचीला भी है।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान में संशोधन करने के कितने तरीके अपनाए गए हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान में संशोधन करने के तीन तरीके अपनाए गए हैं।

  1. संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधन
  2. संसद के विशिष्ट बहुमत से संशोधन
  3. संसद के विशिष्ट बहुमत के साथ-साथ कम से कम आधे राज्यों की विधायिकाओं से स्वीकृति आवश्यक।

प्रश्न 12.
ऐसे दो अनुच्छेदों का उल्लेख कीजिए जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है।
उत्तर:

  1. अनुच्छेद (2) – संसद विधि द्वारा संघ में  ……………….. नए राज्यों को प्रवेश दे सकती है।
  2. अनुच्छेद (3) –  संसद विधि द्वारा ………………….. किसी राज्य का क्षेत्रफल बढ़ा सकती है।

प्रश्न 13.
संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत का औचित्य क्या है?
उत्तर:
संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत का औचित्य यह है कि संविधान संशोधन के लिए राजनीतिक दलों, सांसदों की व्यापक भागीदारी को सुनिश्चित करता है।

प्रश्न 14.
भारत में संविधान संशोधन में राज्यों की क्या भूमिका है?
उत्तर:
भारत में संविधान संशोधनों में राज्यों की सीमित भूमिका है क्योंकि कुछ अनुच्छेदों में संशोधनों के लिए केवल आधे राज्यों के अनुमोदन और विधायिका के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है।

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प्रश्न 15.
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त से क्या आशय है?
उत्तर:
संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले किसी भी संशोधन को न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर निरस्त कर सकती है।

प्रश्न 16.
भारतीय संविधान में मूल – संरचना की धारणा का विकास किस मुकदमे में हुआ?
उत्तर:
स्वामी केशवानंद भारती के मुकदमे में।

प्रश्न 17.
ऐसे दो उदाहरण दीजिये जिनमें संविधान की समझ को बदलने में न्यायिक व्याख्या की अहम भूमिका रही है।
उत्तर:

  1. आरक्षित सीटों की संख्या सीटों की कुल संख्या के आधे से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  2. अन्य पिछड़े वर्गों में क्रीमीलेयर के व्यक्तियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के संविधान में किन विषयों में साधारण विधि से संशोधन किया जाता है? उत्तर – भारत के संविधान में निम्न विषयों में साधारण विधि से संशोधन किया जाता हैv

  1. नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन या किसी राज्य का नाम बदलना (अनु. 2, 3
  2. राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद) को बनाना या समाप्त करना (अनु. 69 )
  3. संसद के कोरम के सम्बन्ध में संशोधन [(अनुच्छेद 100 (3)]
  4. भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में संशोधन (अनुच्छेद 5)।
  5. देश के आम चुनाव के सम्बन्ध में (अनु. 327 )
  6. केन्द्र – शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में (अनु. 240 )
  7. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।

प्रश्न 2.
42वें संविधान संशोधन को सर्वाधिक विवादास्पद संशोधन क्यों माना गया?
उत्तर:
42वां संविधान संशोधन सर्वाधिक विवादास्पद संशोधन के रूप में 1976 का 42वां संविधान संशोधन सर्वाधिक विवादास्पद इसलिए माना गया क्योंकि

  1. यह आपातकाल के दौरान किया गया था।
  2. अधिकांश विपक्षी दलों के नेता उस समय जेल में थे।
  3. इसमें विवादास्पद अनुच्छेद निहित थे।
  4. इस अकेले संविधान संशोधन के द्वारा संविधान का काफी बड़ा भाग संशोधित किया गया था।
  5. इनके अधिकांश प्रावधानों को 43वें तथा 44वें संविधान संशोधनों द्वारा आपातकाल के बाद निरस्त कर दिया

प्रश्न 3.
2000-2003 की छोटी अवधि में इतने अधिक संशोधन क्यों हुए थे?
उत्तर:
2000-2003 की छोटी अवधि के भीतर लगभग 10 संविधान संशोधन किये गये। इन संशोधनों को पारित किये जाने का मुख्य कारण ये सभी गैर – विवादास्पद प्रकृति के थे तथा लगभग सभी राजनैतिक दलों के बीच इनके प्रति आम सहमति थी।

प्रश्न 4.
न्यायालय के किस निर्णय ने संविधान की व्याख्या में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की?
उत्तर:
केशवानंद भारती विवाद (1973) में न्यायालय ने संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त को प्रतिस्थापित किया और 1980 में मिनर्वा मिल प्रकरण में न्यायालय ने पुनः इसे दोहराया। इस निर्णय ने संविधान की व्याख्या में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। राजनीतिक दलों, राजनेताओं, सरकार तथा संसद ने मूल संरचना के इस विचार को स्वीकृति प्रदान की और यह प्रतिस्थापित हुआ कि संसद संविधान की मूल संरचना में संशोधन नहीं कर सकती।

प्रश्न 5.
संविधान के मूल संरचना के सिद्धान्त ने संविधान के विकास में क्या सहयोग दिया?
उत्तर:
संविधान के मूल संरचना के सिद्धान्त ने संविधान के विकास में निम्नलिखित सहयोग दिया

  1. इस सिद्धान्त के द्वारा संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएँ निर्धारित की गईं।
  2. यह निर्धारित सीमाओं के अन्दर संविधान के किसी या सभी भागों के सम्पूर्ण संशोधन की अनुमति देता है।
  3. संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले संशोधन को न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर निरस्त कर सकती है।

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प्रश्न 6.
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का महत्व – संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का महत्व निम्नलिखित है।

  1. संरचना का सिद्धान्त स्वयं में ही एक जीवंत संविधान का उदाहरण है। यह एक ऐसा विचार है जो न्यायिक व्याख्याओं से जन्मा है, इसका संविधान में कोई उल्लेख नहीं मिलता।
  2. विगत तीन दशकों के दौरान इसको व्यापक स्वीकृति मिली है।
  3. इस सिद्धान्त से संविधान की कठोरता और लचीलेपन का संतुलन और मजबूत हुआ

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान कठोर और लचीले संविधान का मिश्रण है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में कठोरता और लचीलेपन का मिश्रण है।
भारतीय संविधान न तो कठोर संविधान है और न ही लचीला संविधान है, बल्कि इसमें लचीले और कठोर दोनों प्रकार के संविधानों की विशेषताएँ पायी जाती हैं। यथा-

  1. संघीय दृष्टि से संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधान आसानी से संशोधित नहीं किये जा सकते। इन अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद के प्रत्येक सदन से कुल सदस्य संख्या से कम से कम आधे सदस्यों के बहुमत तथा मतदान करने वाले कुछ सदस्यों के 2/3 बहुमत से संशोधन विधेयक पारित होना आवश्यक है और इसके बाद आधे राज्यों की विधायिकाओं से साधारण बहुमत की स्वीकृति होना आवश्यक है।
  2. संविधान के कुछ अनुच्छेद संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत ( प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के कम से कम आधे बहुमत से तथा मतदान करने वाले कुल सदस्य संख्या के 2/3 बहुमत) से संशोधित किये जा सकते हैं।
  3. संविधान के कुछ अनुच्छेद संसद के दोनों सदनों के पृथक-पृथक साधारण बहुमत से संशोधित किये जा सकते हैं।
  4. 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती विवाद में संविधान की मूल संरचना का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए यह प्रतिस्थापित कर दिया है कि संसद संविधान की एक मूल आत्मा में संशोधन नहीं कर सकती।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्रथम प्रकार के संशोधन कठोर संविधान की श्रेणी में आते हैं लेकिन आधे राज्यों को स्वीकृति को ही आवश्यक बताकर संविधान निर्माताओं ने पुनः इसको लचीला स्वरूप दिया है। तीसरे प्रकार के अनुच्छेदों में संशोधन साधारण बहुमत से हो सकते हैं। यह संविधान की लचीलेपन की विशेषता को दर्शाती है और दूसरे प्रकार के संशोधन की प्रक्रिया न बहुत अधिक कठोर है और न ही लचीली। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संविधान कठोर और लचीले संविधान का मिश्रण है।

प्रश्न 8.
भारत में एक ही संविधान इतने वर्षों से किन कारणों से सफलतापूर्वक काम करता रह सका है?
उत्तर:
भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को औपचारिक रूप से लागू किया गया। तब से लेकर आज तक यह लगातार सफलतापूर्वक काम कर रहा है। इसकी सफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. देश की परिस्थितियों के अनुकूल संविधान: हमारे संविधान निर्माताओं से हमें एक मजबूत संविधान विरासत में मिला है। इस संविधान की बनावट हमारे देश की परिस्थितियों के बेहद अनुकूल है।
  2. भावी प्रश्नों का संविधान में समाधान निहित: हमारे संविधान निर्माता अत्यन्त दूरदर्शी थे। उन्होंने भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया था।
  3. परिस्थितियों के अनुकूल संविधान में संशोधन करने की सुविधा: हमारे संविधान में इस बात को भी स्वीकार करके चला गया है कि समय की जरूरत को देखते हुए इसके अनुकूल संविधान में संशोधन किये जा सकते हैं।
  4. संविधान के अमल में परिपक्वता और लचीलेपन का परिचय: संविधान के व्यावहारिक कामकाज में इस बात की पर्याप्त गुंजाइश रहती है कि किसी संवैधानिक प्रावधान की एक से ज्यादा व्याख्याएँ हो सकें। अदालती फैसले और राजनीतिक व्यवहार बरताव दोनों ने हमारे संविधान के अमल में अपनी परिपक्वता और लचीलेपन का परिचय दिया है। इन्हीं कारणों से हमारा संविधान इतने वर्षों से आज तक सफलतापूर्वक कार्य करता रहा है और एक जीवंत दस्तावेज के रूप में विकसित हो सका है।

प्रश्न 9.
क्या संविधान इतना पवित्र दस्तावेज है कि उसमें कोई संशोधन नहीं किया जा सकता?
उत्तर:
1. संविधान एक पवित्र दस्तावेज;
संविधान एक पवित्र दस्तावेज होता है; इसलिए इसे इतना लचीला नहीं बनाया जाना चाहिए कि उसमें सामान्य कानून की तरह जब चाहे परिवर्तन कर दिया जाये। किसी भी संविधान को भविष्य में पैदा होने वाली चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करने में भी सक्षम होना चाहिए। इस अर्थ में संविधान न केवल समकालीन परिस्थितियों और प्रश्नों से जुड़ा होता है बल्कि उसके कई सारे तत्व स्थायी महत्व होते हैं। इसीलिए संविधान को एक पवित्र दस्तावेज माना जाता है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी इसी दृष्टि से संविधान को सामान्य कानून से ऊँचा दर्जा दिया ताकि आने वाली पीढ़ी उसे सम्मान की दृष्टि से देखें। इस अर्थ में भारतीय संविधान एक पवित्र दस्तावेज है।

2. संविधान जड़ या अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं: संविधान कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तावेज भी नहीं होता। संविधान की रचना मनुष्य ही करते हैं और इस नाते उसमें हमेशा संशोधन, बदलाव और पुनर्विचार की गुंजाइश रहती है। अत: संविधान एक पवित्र दस्तावेज है, लेकिन व्यापक सोच-विचार व सहमति से परिवर्तित आवश्यकताओं के अनुसार इसमें परिवर्तन किये जा सकते हैं।

3. पवित्रता और परिवर्तनीयता के मध्य एक संतुलन; भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते समय उपर्युक्त दोनों बातों का ध्यान रखा है अर्थात् उसे पवित्र दस्तावेज मानने के साथ-साथ इतना लचीला भी बनाया गया है कि उसमें समय की आवश्यकता के अनुरूप यथोचित बदलाव किये जा सकें। दूसरे शब्दों में हमारा संविधान एक पवित्र दस्तावेज है, इसके कई सारे तत्व स्थायी महत्व के हैं, जिन्हें ‘संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त’ के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने रेखांकित किया है तथा संविधान के सभी प्रावधान काफी गहन विचार के साथ रखे गये हैं जिनमें समकालीन परिस्थितियों एवं प्रश्नों तथा भविष्य की चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत किया गया है। इसलिए इन्हें सामान्य कानून की तरह आसानी से नहीं बदला जा सकता; लेकिन यह कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तावेज भी नहीं है। इसमें किसी स्थिति के बारे में अंतिम निर्णय देने से बचा गया है और एक विशिष्ट प्रक्रिया के माध्यम से आवश्यकतानुसार इसमें परिवर्तन (संशोधन) भी किये जा सकते हैं।

प्रश्न 10.
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की प्रक्रियाओं में निहित सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए। संविधानों में संशोधन की प्रक्रियाओं में निहित सिद्धान्त
उत्तर:
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की विभिन्न प्रक्रियाओं में दो सिद्धान्त ज्यादा अहम भूमिका अदा करते हैं। यथा

1. विशेष बहुमत का सिद्धान्त:
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की प्रक्रियाओं के पीछे एक प्रमुख सिद्धान्त है। विशेष बहुमत का सिद्धान्त। इसके अन्तर्गत संविधान संशोधन के लिए विधायिका को सामान्य बहुमत से अधिक किसी विशिष्ट बहुमत की आवश्यकता होती है । अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, रूस तथा भारत आदि के संविधानों में इस सिद्धान्त का समावेश किया गया है। अमेरिका में दो-तिहाई बहुमत का सिद्धान्त लागू है; दक्षिण अफ्रीका और रूस में तीन-चौथाई बहुमत की आवश्यकता होती है तथा भारत में भी 2/3 बहुमत के सिद्धान्त को अपनाया गया है।

2. जनता की भागीदारी का सिद्धान्त; संविधान संशोधन की प्रक्रिया के पीछे दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है- जनता की भागीदारी का सिद्धान्त अर्थात् संविधान में संशोधन में जनता का सम्मिलित होना। यह सिद्धान्त कई आधुनिक सिद्धान्तों में अपनाया गया है। स्विट्जरलैण्ड में तो जनता को संशोधन की प्रक्रिया शुरू करने तक का अधिकार है। रूस तथा इटली में जनता को संविधान में संशोधन करने या संशोधन के अनुमोदन का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 11.
संविधान संशोधन की प्रक्रिया में भारत में किस प्रकार के विशेष बहुमत को अपनाया गया है?
अथवा
विशेष बहुमत से क्या आशय है? भारतीय संविधान में संविधान संशोधन हेतु किस प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है?
उत्तर:
विशेष बहुमत से आशय:सामान्यतः विधायिका में किसी प्रस्ताव या विधेयक को पारित करने के लिए सदन में उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है; लेकिन जब संविधान संशोधन विधेयक को इस साधारण बहुमत से पारित नहीं किया जा सकता और इसे पारित करने के लिए साधारण बहुमत से अधिक, जैसे- 2/3 बहुमत या 3/4 बहुमत की आवश्यकता होती है, तो इसे विशेष बहुमत कहा जाता है। भारत में संविधान संशोधन के विशेष बहुमत का रूप – भारत में संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। यथा

  1. सदन के कुल सदस्यों की कम से कम आधी संख्या: प्रथमतः, संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए।
  2. मतदान करने वाले कुल सदस्यों का 2/3 बहुमत: दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए। संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित कराने की आवश्यकता होती है। इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान नहीं है। कोई भी संशोधन विधेयक विशेष बहुमत के बिना पारित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 12.
भारत में संविधान संशोधन प्रक्रिया में राज्यों की भूमिका को इसके औचित्य के साथ स्पष्ट कीजिये।
अथवा
भारत में संविधान संशोधन प्रक्रिया में राज्यों की भूमिका को स्पष्ट कीजिये तथा यह बताइये कि राज्यों को सीमित भूमिका क्यों दी गई है?
उत्तर:
संशोधन की प्रक्रिया में राज्यों द्वारा अनुमोदन: संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद का विशेष बहुमत पर्याप्त नहीं। शक्तियों के वितरण से संबंधित, जनप्रतिनिधित्व से संबंधित तथा मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए राज्यों से परामर्श करना और उनकी सहमति प्राप्त करना आवश्यक है। संविधान में राज्यों की शक्तियों को सुनिश्चित करने के लिए यह व्यवस्था की गई है कि जब तक आधे राज्यों की विधानपालिकाएँ किसी संशोधन विधेयक को पारित नहीं कर देतीं तब तक वह संशोधन प्रभावी नहीं होगा।

इस अर्थ में यह कहा जा सकता है कि संविधान के कुछ हिस्सों के बारे में संशोधन के लिए राज्यों से एक व्यापक सहमति की अपेक्षा की गई है। इसीलिए राज्यों को संशोधन की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार दिया गया है। भारत में संविधान संशोधन की प्रक्रिया में राज्यों को सीमित भूमिका दी गई है। सीमित भूमिका देने का कारण यह है कि राज्यों से संबंधित विषयों, जन-प्रतिनिधित्व और मूल अधिकारों से संबंधित विषयों में संशोधन करने के लिए राज्यों से भी परामर्श लिया जाये। लेकिन संशोधन प्रक्रिया अधिक जटिल न हो जाये, यह लचीली बनी रही, इसलिए संशोधन के लिए केवल आधे राज्यों के अनुमोदन और राज्य विधानपालिकाओं के साधारण बहुमत की आवश्यकता है।

इस प्रकार राज्यों को सीमित भूमिका देकर संशोधन करने की प्रक्रिया को अव्यावहारिक होने से बचाया गया है। यदि सभी राज्यों के अनुमोदन की बात रखी जाती तो यह प्रक्रिया इतनी कठोर हो जाती कि एक राज्य ही संशोधन विधेयक को लागू करने से रोक सकता था और यदि आधे राज्यों को 2/3 बहुमत की शर्त लागू की जाती तो भी व्यवहार में ऐसा होना संभव नहीं हो पाता। इसलिए संशोधन प्रक्रिया को कठोर होने के साथ-साथ व्यावहारिक बनाने के लिए राज्यों को संशोधन प्रक्रिया में सीमित भूमिका ही दी गई है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
एक संविधान में संशोधन की क्या आवश्यकता है? क्या देश में कोई स्थायी (अपरिवर्तनीय) संविधान नहीं हो सकता?
उत्तर:
संविधान में संशोधन की आवश्यकता: संविधान कोई अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं है। इसे समाज की आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होना पड़ता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रत्येक समाज की परिस्थितियों में समय के साथ परिवर्तन आता है । कोई भी समाज ऐसा नहीं है जिसकी आवश्यकताएँ हमेशा के लिए समान रहती हों और जो समय के साथ परिवर्तित नहीं होता है या जिसमें समय के परिवर्तन के साथ नई आवश्यकताएँ पैदा नहीं होती हों। इस प्रकार संविधान, जो कि समाज के शासन संचालन के नियमों का दस्तावेज है, को भी समाज की आवश्यकताओं तथा परिवर्तित परिस्थितियों के साथ परिवर्तित होना पड़ता है।

अतः एक संविधान में समाज में आई नवीन आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका के संविधान में अब तक 27 संशोधन किये जा चुके हैं। फ्रांस की राज्य क्रांति के बाद फ्रांस में अब तक पांच गणतंत्रीय संविधान निर्मित हो चुके हैं।

पूर्व – सोवियत संघ में 74 वर्ष में अनेक संविधान बने, जैसे – 1918 का संविधान, 1924 का संविधान, 1966 और 1977 का संविधान और फिर सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस का नवीन संविधान बना है। 1949 की साम्यवादी क्रांति के बाद चीन में अनेक संविधान बने, जैसे- 1949, 1954, 1975 और 1982 के संविधान । भारत के संविधान में भी अब तक 101 संशोधन किये जा चुके हैं। अतः स्पष्ट है कि प्रत्येक देश में संविधान में परिवर्तन करने या संशोधन करने की आवश्यकता होती है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. भावी परिस्थितियों का आंकलन संभव नहीं:
संविधान निर्माता सरकार के ढांचे को निर्धारित करते समय समाज में उस समय की परिस्थितियों को ही मुख्य रूप से अपने आधार रूप में लेते हैं। वे उन भूतकालीन परिस्थितियों पर भी विचार कर सकते हैं जो भूतकाल में घटित हुई थीं। वे दूसरे देशों की तत्कालीन तथा भूतकालीन परिस्थितियों को ध्यान में रख सकते हैं। लेकिन वे भविष्य में आने वाली परिस्थितियों का पूर्ण आकलन नहीं कर सकते।

2. भावी परिस्थितियों व समस्याओं का समाधान संभव नही: संविधान निर्माता अपनी दूरदर्शिता से संविधान में भविष्य में आने वाली कुछ या अधिक समस्याओं का समाधान अपने संविधान में कर सकते हैं, लेकिन वे भविष्य की सभी परिस्थितियों, सभी समस्याओं तथा घटनाओं का आकलन व समाधान नहीं कर सकते।

3. भविष्य के लिए आदर्श संरचना का निर्माण संभव नहीं: संविधान निर्माता वर्तमान की सरकार की आदर्श संरचना प्रस्तुत कर सकते हैं लेकिन वे भविष्य के लिए भी सरकार की आदर्श संरचना का निर्माण नहीं कर सकते।

4. तीव्र सामाजिक व आर्थिक विकास की आवश्यकता: तीव्र सामाजिक-आर्थिक विकास तथा सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए समाज में नवीन दशाओं को निर्मित करने हेतु संविधान संशोधन की आवश्यकता होती है। संविधान अपरिवर्तनीय नहीं हो सकते – उपर्युक्त आधारों पर यह कहा जा सकता है कि किसी भी देश का कोई भी संविधान अपरिवर्तनीय प्रकृति का नहीं हो सकता। संविधान सही ढंग से कार्य करता रहे इसके लिए आवश्यक है कि

उस देश में परिस्थितिगत बदलाव, सामाजिक परिवर्तनों और राजनीतिक उठापटक के अनुरूप उसमें आवश्यक संशोधन या परिवर्तन होता रहे। यही कारण है कि परिस्थितिगत बदलाव, सामाजिक परिवर्तनों और राजनीतिक उठापटक के चलते फ्रांस, पूर्व सोवियत संघ तथा साम्यवादी चीन ने अपने संविधानों को अनेक बार बदला है तथा भारत और अमेरिका के संविधानों में अनेक संशोधन किये गये हैं।

चूंकि संविधान की रचना मनुष्य ही करते हैं और वे तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों तथा भूतकालीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान की रचना करते हैं, लेकिन वे भावी परिस्थितियों व घटनाओं व सामाजिक परिवर्तनों का पूर्ण अंदाज नहीं लगा सकते । इस नाते उसमें हमेशा संशोधन, बदलाव और पुनर्विचार की गुंजाइश रहती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की संशोधन की प्रक्रिया का विवेचन कीजिए।
अथवा
“भारतीय संविधान कठोरता और लचीलेपन के गुणों का मिश्रण है।” स्पष्ट कीजिये।
अथवा
भारतीय संविधान में संशोधन के विभिन्न तरीकों को बताइये।
उत्तर:
भारतीय संविधान में संशोधन की विधियाँ: भारतीय संविधान में संशोधन की निम्नलिखित विधियाँ दी गई हैं
1. साधारण विधि: संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है। ऐसे मामलों में कोई विशेष प्रक्रिया अपनाने की जरूरत नहीं होती। इस प्रकार के संशोधन और सामान्य कानून में कोई अन्तर नहीं होता। संसद इन अनुच्छेदों में अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया को अपनाए बिना ही संशोधन कर सकती है। इन अनुच्छेदों में संशोधन का प्रस्ताव किसी भी सदन में रखा जा सकता है।

जब दोनों सदन उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत से प्रस्ताव पास कर देते हैं, तब वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर संशोधन प्रस्ताव पारित हो जाता है। इस प्रणाली के द्वारा जिन अनुच्छेदों में संशोधन किया जा सकता है, उनमें से कुछ अनुच्छेद निम्न प्रकार से हैं-

  1. अनुच्छेद 2, 3 तथा 4 – नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमाओं को घटाना या बढ़ाना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना या किसी राज्य का नाम बदलना।
  2. अनुच्छेद 169: राज्यों के द्वितीय सदन ( विधान परिषद) को बनाना या समाप्त करना।
  3. अनुच्छेद 100 (3): संसद के कोरम के सम्बन्ध में संशोधन।
  4. अनुच्छेद 5: भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में संशोधन।
  5. अनुच्छेद 240: केन्द्र शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में संशोधन।

भारतीय संविधान में संशोधन करने की उपर्युक्त प्रक्रिया सरलतम प्रक्रिया है। इसलिए यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान में लचीलेपन का गुण विद्यमान है।

2. अनुच्छेद 368 के अनुसार संशोधन की विधियाँ – संविधान के शेष अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 368 में प्रावधान किया गया है। अनुच्छेद 368 में कहा गया है कि “संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के द्वारा और इस अनुच्छेद में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार संविधान में नए उपबन्ध कर सकती है, पहले से विद्यमान उपबंधों को बदल या हटा सकती है। इस अनुच्छेद में ‘संशोधन करने के दो तरीके दिये गए हैं जो संविधान के अलग-अलग अनुच्छेदों पर लागू हैं। यथा

(i) संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन- संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संसद अपने विशेष बहुमत द्वारा संशोधन कर सकती है। संविधान में इन अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है।

(क) सबसे पहले, संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए।

(ख) दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की कम से कम दो-तिहाई होनी चाहिए।

संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता है। अनेक बार लोकसभा द्वारा पारित संशोधन विधेयक को राज्यसभा द्वारा निरस्त किया जा चुका। हमारे संविधान में पहले (साधारण विधि से और तीसरे वर्ग (संसद के विशेष बहुमत के साथ राज्यों की स्वीकृति आवश्यक) में उल्लिखित अनुच्छेदों को छोड़कर अन्य सभी अनुच्छेद इसी विधि से किये जाते हैं।

(ii) राज्यों का समर्थन प्राप्त करके संसद द्वारा विशेष बहुमत द्वारा संशोधन- संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद का विशेष बहुमत पर्याप्त नहीं होता। राज्यों और केन्द्र सरकारों के बीच शक्तियों के वितरण से संबंधित या राष्ट्रपति का निर्वाचन व निर्वाचन पद्धति, संघीय न्यायपालिका तथा राज्यों में उच्च न्यायालय, संघ तथा राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार, संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व, स्वयं संशोधन प्रक्रिया आदि से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए इस विधि को अपनाया जाता है।

इस विधि में संशोधन का विधेयक संसद के दोनों सदनों तथा पृथक्-पृथक् रूप से उपस्थित सदस्यों के 2/3 बहुमत तथा कुल सदस्यों के पूर्ण बहुमत द्वारा पारित करने के पश्चात्, राज्यों की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और कम से म आधे राज्यों के विधानमण्डलों से स्वीकृत होने के पश्चात् यह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद संशोधन विधेयक पारित हो जाता है। यह विधि स्पष्ट रूप से जटिल है। इस दृष्टि से यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान में कठोरता के गुण विद्यमान हैं।

3. संशोधन प्रक्रिया से संबंधित अन्य विशेषताएँ – भारतीय संविधान में संशोधन प्रक्रिया से संबंधित अन्य प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं।
(i) संशोधन को प्रस्तावित करना:
भारतीय संविधान में संशोधन विधेयक को प्रस्तुत करने का अधिकार केवल संसद को है। संसद के किसी भी सदन में इसे प्रस्तुत किया जा सकता है। राज्यों को संशोधन का प्रस्ताव लाने का अधिकार नहीं दिया गया है।

(ii) अन्य बाह्य एजेन्सी की संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं:
संसद के विशेष बहुमत के अलावा किसी बाहरी एजेन्सी, जैसे संविधान आयोग या किसी अन्य निकाय की संविधान की संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं है।

(iii) जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं:
संसद या कुछ मामलों में राज्य विधान पालिकाओं में संशोधन पारित होने के पश्चात् इस संशोधन को पुष्ट करने के लिए किसी प्रकार के जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं है।

(iv) राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदन:
संशोधन विधेयक को भी अन्य सामान्य विधेयकों की तरह राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है परन्तु इस मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार का अधिकार नहीं है।

(v) संयुक्त अधिवेशन का प्रावधान नहीं:
भारत में संविधान संशोधन की प्रक्रिया में संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् पारित होना अनिवार्य है। यदि एक सदन उसे पारित नहीं करता है तो सामान्य विधेयक की तरह इसमें संसद के संयुक्त अधिवेशन का प्रावधान नहीं किया गया है। यदि एक सदन किसी संशोधन विधेयक को अस्वीकृत कर देता है तो वह विधेयक निरस्त हो जायेगा।

(vi) संशोधन की शक्ति पर सीमाएँ:
सन् 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती विवाद में यह अभिनिर्धारित किया है कि संसद संविधान की मूल संरचना को संशोधित नहीं कर सकती। इस अवधारणा पर अब सर्वसम्मति स्थापित हो चुकी है। इस प्रकार संसद संविधान के सभी अनुच्छेदों में संशोधन कर सकती है लेकिन संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान का मूल ढांचा नष्ट नहीं किया जा सकता। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान में कठोर और लचीले संविधान  दोनों प्रकार के गुणों का सम्मिश्रण है।

साधारण विधि द्वारा संशोधन की प्रक्रिया तथा आधे राज्यों द्वारा सामान्य बहुमत से संशोधन विधेयक को पारित करने की स्थिति दोनों ही लचीले संविधान के गुणों से युक्त हैं क्योंकि इनमें संशोधन विधेयक को पारित करने के लिए साधारण बहुमत का प्रावधान किया गया है। दूसरी तरफ संसद के विशेष बहुमत की प्रक्रिया संविधान के कठोरता के गुण को स्पष्ट करती है।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में बहुत अधिक संशोधन क्यों किये गये हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में बहुत अधिक संशोधन क्यों किए गए हैं? 26 जनवरी, 2010 को हमारे संविधान को लागू हुए 68 वर्ष पूरे हो गए हैं। अब तक इसमें 101 संशोधन किये जा चुके हैं। संशोधन प्रक्रिया की कठोरता को देखते हुए संशोधनों की यह संख्या काफी बड़ी मानी जायेगी। संशोधनों की बड़ी संख्या दो बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है कि

  1. भारतीय संविधान बहुत लचीला है, जिसके कारण इतने सारे संशोधन आसानी से संभव हो पाये।
  2. हमारे संविधान निर्माता दूरदर्शी नहीं थे और वे निकट भविष्य की आवश्यकताओं का आकलन नहीं कर सके।

दूसरी तरफ अमेरिका का संविधान है जो 1789 में प्रभाव में आया और लगभग 220 वर्षों में इसमें केवल 27 ही संशोधन हुए हैं और उनमें भी अधिकांश संशोधन अधिकारों के विधेयक से संबंधित हैं जो संविधान बनने के तुरन्त बाद संविधान में शामिल किये गए। लेकिन भारतीय संविधान में अधिक संशोधन होने के वास्तविक कारण उक्त दोनों स्थितियाँ नहीं हैं क्योंकि भारतीय संविधान न तो अत्यधिक लचीला है और न ही भारतीय संविधान निर्माता अदूरदर्शी थे। इसके साथ ही यह भी सत्य नहीं है कि अधिकांश संविधान संशोधन तभी प्रभाव में आए जब कांग्रेस का केन्द्र तथा राज्यों में एकदलीय प्रभुत्व था। संविधान के संशोधनों की एक संक्षिप्त रूपरेखा इस प्रकार है।
JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ 1

कांग्रेस दल का प्रभुत्व काल 1976 तक माना जा सकता है। इस प्रकार 1951 से 1970 के 20 वर्ष के काल में 23 संशोधन किये गये। दूसरी तरफ 1971 से 1990 तक कांग्रेस के वर्चस्व में कमी आ गई और वह सबसे बड़े दल के रूप में रह गयी। इस अवधि में 44 संशोधन हुए हैं तथा 1991 से 2009 के काल में गठबंधन सरकारों का युग रहा है लेकिन इस अवधि में भी 26 संशोधन हुए हैं। इससे स्पष्ट होता है कि भारत में संशोधनों के पीछे केवल राजनीतिक सोच ही प्रमुख नहीं रही है। इनके पीछे सत्ताधारी दल की राजनीतिक सोच का बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ा था बल्कि ये संशोधन समय की जरूरतों के अनुसार किये गये थे। न तो इसके पीछे मूल संविधान की कमजोरियां काम कर रही थीं और न ही संविधान का लचीलापन।

संविधान संशोधनों की विषय वस्तु व प्रकृति: संविधान संशोधनों की प्रकृति इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर दे सकती है कि संविधान में इतने अधिक संशोधन क्यों हुए। संविधान संशोधनों की प्रकृति को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।
1. तकनीकी या प्रशासनिक प्रकृति के संशोधन:
संविधान संशोधनों में बहुत से संशोधन ऐसे हैं जिनकी प्रकृति तकनीकी या प्रशासनिक है। ये संविधान के मूल उपबन्धों को स्पष्ट बनाने, उनकी व्याख्या करने तथा छिट-पुट संशोधन से संबंधित हैं। उन्हें केवल सिर्फ तकनीकी भाषा में संशोधन कहा जा सकता है। वास्तव में वे इन उपबन्धों में कोई विशेष बदलाव नहीं करते। उदाहरण के लिए, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष करना; सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन; विधायिकाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण सम्बन्धी उपबन्धों में संशोधन, जो प्रत्येक दस वर्ष बाद आरक्षण की अवधि को आगे बढ़ाने के लिए किये गये हैं। इन संशोधनों से मूल संशोधनों में कोई अन्तर नहीं आया है। इसीलिए इन्हें तकनीकी संशोधन कहा जा सकता है।

2. राजनीतिक आम सहमति के माध्यम से संशोधन:
बहुत से संविधान संशोधन ऐसे हैं जिन्हें राजनीतिक दलों की आपसी सहमति का परिणाम माना जा सकता है। ये संशोधन तत्कालीन राजनीतिक दर्शन और समाज की आकांक्षाओं को समाहित करने के लिए किए गए थे। 1984 के बाद गठबंधन सरकारों के कार्यकालों में ये संशोधन किये गए। ये संशोधन गठबंधन सरकारों के कार्यकाल में तभी हो सकते थे जब सभी दलों में उनके पीछे व्यापक सहमति हो। ये संविधान संशोधन थे दल-बदल विरोधी कानून ( 52वां संशोधन), मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करना, 73वां पंचायती राज संशोधन और 74वां शहरी स्थानीय स्वशासन (नगरपालिका) संशोधन, नौकरियों में आरक्षण की सीमा बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन आदि आम सहमति के कारण आसानी से पारित हो सके।

3. संविधान की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के कारण संशोधन:
संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और संसद के बीच अक्सर मतभेद होते रहे हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं। 1970 से 1975 के दौरान ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं और इस काल में संसद ने न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार- बार संशोधन किये। मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर, सम्पत्ति के मूल अधिकार को लेकर तथा संविधान में संशोधन के अधिकार की सीमा को लेकर संसद और न्यायपालिका में व्याख्या सम्बन्धी मतभेद उभरे हैं और उनके निराकरण हेतु संसद ने संशोधन किये हैं।

4. विवादास्पद संशोधन:
कुछ संवैधानिक संशोधन विवादास्पद प्रकृति के रहे हैं। ऐसे अधिकांश संशोधन 1975 से लेकर 1980 के बीच हुए। इस संबंध में 38वां, 39वां और 42वां संशोधन विशेष रूप से विवादास्पद रहे। ये संशोधन आपातकाल में किए गए थे। आपातकाल के बाद हुए चुनावों में सत्तारूढ़ कांग्रेस दल की पराजय हुई और जनता पार्टी सत्ता में आई। उसने 43वें तथा 44वें संविधान संशोधनों द्वारा उक्त विवादास्पद संशोधनों के विवादास्पद अंशों को हटा दिया। इन संशोधनों के माध्यम से संवैधानिक सन्तुलन को पुनः लागू किया गया। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारत के संविधान में अधिक संशोधन होने के निम्न कारण रहे हैं।

  1. काफी संशोधन तकनीकी प्रकृति के थे, जिनसे मूल प्रावधानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।
  2. कुछ संशोधन परिवर्तित राजनीतिक परिस्थितियों के कारण हुए थे।
  3. कुछ परिवर्तन संसद और न्यायालय के भिन्न-भिन्न निर्वचन के कारण उत्पन्न समस्या को दूर करने के लए किये गये थे।
  4. कुछ संशोधन अवश्य विवादास्पद प्रकृति के थे जिनमें सत्तारूढ़ दल ने संविधान संशोधन के माध्यम से सत्ता के दुरुपयोग का प्रयास किया था, लेकिन बाद में उन्हें अगले संशोधनों द्वारा निरस्त कर दिया गया।

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प्रश्न 4.
भारतीय संविधान के विकास में योगदान देने वाले कारकों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारतीय संविधान का विकास: भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। तब से लेकर दिसम्बर 2017 तक इसमें 101 संविधान संशोधन किये जा चुके हैं। इस अवधि में आपातकाल के दौरान संविधान को संकट के दौर से गुजरना पड़ा है, विशेषकर 42वें संविधान संशोधन 1976 के रूप में। इसके अन्तर्गत संविधान में व्यापक परिवर्तन किया गया लेकिन उनमें से अधिकांश संशोधनों को 1978 के 44वें संविधान संशोधन के द्वारा निरस्त कर पुनः संतुलन की स्थापना कर दी गई। इस प्रकार भारतीय संविधान अनेक संशोधनों को समेटते हुए आज तक कार्यरत है तथा समय-समय पर संशोधनों व न्यायिक व्याख्याओं द्वारा इसका विकास होता रहा है। भारतीय संविधान के विकास में उत्तरदायी कारक – मुख्य रूप से निम्नलिखित दो कारकों ने भारतीय संविधान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

1. संविधान संशोधन: अनेक संवैधानिक संशोधनों ने अनेक उपबन्धों के क्षेत्र का विस्तार किया है और संविधान को परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप बनाया है। संक्षेप में ये संशोधन निम्नलिखित हैं।

  1. सामाजिक-आर्थिक न्याय की स्थापना हेतु नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने की प्रक्रिया में सम्पत्ति का मूल अधिकार सरकार के कार्यों से प्रारम्भ से ही मुख्य रोड़ा बन गया था। इस अधिकार को सीमित करने के लिए अनेक संशोधन किये गये और अन्त में 44वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों से निकाल दिया गया।
  2. मूल संविधान में पदोन्नतियों में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। इसे एक संविधान संशोधन द्वारा संविधान का अंग बनाया गया। इसी प्रकार अन्य पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण संविधान संशोधन के द्वारा मान्य किया गया है।
  3. 42वें संविधान संशोधन में संविधान की प्रस्तावना में अनेक शब्दों का समावेश किया गया है, जैसे- समाजवादी, पंथ निरपेक्ष राज्य।
  4. 62वें सविधान संशोधन द्वारा सन् 1988 में मतदान की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है।
  5. 2003 में 91वें संविधान संशोधन द्वारा मन्त्रिमण्डल के विस्तार पर सीमा लगायी गयी है। इसके अनुसार मन्त्रिमण्डल का आकार लोकसभा की कुल सदस्य संख्या या राज्यों की विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत तक सीमित कर दिया गया है। इससे एक तरफ खर्चे को कम किया गया है तो दूसरी तरफ दल-बदल को हतोत्साहित किया गया है।
  6. संविधान संशोधन के द्वारा शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकारों में सम्मिलित किया गया है।
  7. 42वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान में नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों को संविधान का भाग बनाया गया उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि संविधान संशोधनों ने भारत के संविधान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

2. न्यायिक व्याख्याएं: भारत के सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों ने अपने समक्ष आए अनेक विवादों के निर्णयों में संविधान के अनेक अनुच्छेदों की न्यायिक व्याख्याएँ कर संविधान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यथा-

  1. न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति न्यायिक व्याख्या पर आधारित है। इसने न्यायपालिका को बहुत शक्तिशाली बना दिया है और विधायिका तथा कार्यपालिका के कार्यों पर इसने न्यायपालिका को वीटो पॉवर दे दी है। इसने सरकार के तीनों अंगों के मध्य शक्ति सन्तुलन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है।
  2. सर्वोच्च न्यायालय ने 1973 में केशवानंद भारती विवाद में मूल संरचना के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है तथा संसद की संविधान संशोधन की शक्ति की सीमा निर्धारित कर दी है। इसने यह प्रस्थापित किया है कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है लेकिन इसकी मूल संरचना को समाप्त नहीं कर सकती। इसके साथ ही न्यायपालिका ने स्पष्ट शब्दों में संविधान की मूल संरचना को परिभाषित नहीं किया है। उसने यह शक्ति स्वयं अपने में रख ली है कि वह समय-समय पर संविधान की मूल संरचना को परिभाषित करती रहेगी।
  3. न्यायपालिका ने ही ‘अन्य पिछड़े वर्गों’ के आरक्षण में ‘क्रीमीलेयर के सिद्धान्त’ का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि जो व्यक्ति अन्य पिछड़े वर्ग में क्रीमी लेयर के अन्तर्गत आते हैं, वे आरक्षण के पात्र नहीं हैं। इसे स्वीकार कर लिया गया है।
  4. न्यायपालिका ने अपनी व्याख्या के द्वारा ही आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत निर्धारित की है जिसे स्वीकार कर लिया गया है।
  5. अनेक विवादों में न्यायपालिका ने अनेक मूल अधिकारों विशेषकर जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार तथा शिक्षा के अधिकार के क्षेत्र को व्यापक कर दिया है। एक विवाद में न्यायपालिका ने यहाँ तक कह दिया है कि जीवन के अधिकार से आशय अच्छा जीवन जीने का अधिकार।
  6. लोकहित याचिका का जो सिद्धान्त न्यायालय ने स्वीकृत किया है वह न्यायिक व्याख्या पर ही आधारित है तथा इसने न्यायिक सक्रियता को बढ़ावा दिया है। लोकहित याचिका और न्यायिक सक्रियता के सिद्धान्त के द्वारा न्यायपालिका विधायिका तथा कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है तथा प्रशासनिक इकाइयों को एक निर्धारित समय-सीमा में इसके आदेशों को क्रियान्वित करने के निर्देश दे रही है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान के विकास में संविधान संशोधनों तथा न्यायिक व्याख्याओं ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।

प्रश्न 5.
“संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है।” इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिये। भारतीय संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है, के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है। इस कथन का आशय यह है कि लगभग एक जीवित प्राणी की तरह संविधान समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है। जीवंत प्राणी की तरह ही वह अनुभव से सीखता है। एक संविधान एक जीवन्त दस्तावेज बन जाता है यदि यह संशोधनों, व्याख्याओं के लिए खुला हो और परम्पराओं को स्वीकारने के लिए स्वतंत्र हो। लोकतन्त्र में व्यावहारिकताएँ तथा विचार समय-समय पर विकसित होते रहते हैं और समाज में इसके अनुसार प्रयोग चलते रहते हैं। कोई भी संविधान जो प्रजातंत्र को समर्थ बनाता हो और नये प्रयोगों के विकास का रास्ता खोलता हो, वह केवल टिकाऊ ही नहीं होता, बल्कि अपने नागरिकों के बीच सम्मान का पात्र भी होता है। ऐसा संविधान एक जीवन्त संविधान कहलाता है।

भारत का संविधान एक जीवन्त संविधान के रूप में भारत का संविधान अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण एक जीवन्त संविधान के रूप में प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है। पिछले 68 वर्षों के दौरान भारतीय संविधान ने अनेक नई परिस्थितियों, न्यायपालिका और संसद के मध्य तथा न्यायपालिका और कार्यपालिका के मध्य संघर्षों की घटनाओं का सामना किया है, लेकिन इसने इन सबको सफलतापूर्वक सुलझाया है तथा स्वयं को नयी परिस्थितियों के अनुरूप ढाला है। इसने संवैधानिक संशोधनों या न्यायिक व्याख्याओं के द्वारा इन समस्याओं का हल निकाला है। यथा

1. मूल संरचना के सिद्धान्त का प्रतिपादन:
जब संसद ने संविधान के प्रत्येक भाग को संशोधन करने की शक्ति का दावा करते हुए अपनी सर्वोच्चता को स्थापित करना चाहा, तब न्यायपालिका ने संविधान की सर्वोच्चता को स्थापित किया और न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से स्वयं को संविधान के संरक्षक और अन्तिम व्याख्याकार की भूमिका निभायी। इस स्थिति में संसद और न्यायपालिका के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हुई । संसद ने संविधान में संशोधन कर पुन: यह स्थापित किया कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है।

ऐसी स्थिति में न्यायपालिका ने केशवानंद भारती विवाद में इस संघर्ष का समाधान करते हुए संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और कहा कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन तो कर सकती है। लेकिन वह संविधान की मूल संरचना को नष्ट नहीं कर सकती अर्थात् वह संसद के मौलिक ढांचे या उसकी आत्मा में संशोधन नहीं कर सकती ।
इस सिद्धान्त को अब सभी राजनीतिक संस्थाओं तथा राजनीतिक दलों द्वारा स्वीकार कर लिया गया है।

2. 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा का निर्धारण:
जब कुछ राज्य सरकारों ने राजनीतिक मान्यताओं के लिए 75 प्रतिशत सीटों के आरक्षण के कानून बनाये, इससे समाज में तनाव बढ़ा तथा अराजकता का वातावरण बना और संविधान में आरक्षण के लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई थी। इस विस्फोटक स्थिति को न्यायपालिका ने इस व्याख्या के द्वारा संभाला कि सभी श्रेणियों का कुल आरक्षण समस्त सीटों के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता।

3. संसद की सीमाओं को रेखांकित करना:
न्यायालय ने समय-समय पर यह रेखांकित किया है कि संसद, राष्ट्र की जनप्रतिनिधि संस्था के होते हुए भी, निरंकुशता का व्यवहार नहीं कर सकती है तथा इसे अपना कार्य संविधान की सीमाओं के अन्तर्गत करना पड़ेगा और उस सीमा के अन्तर्गत कार्य करना पड़ेगा जो सीमा इसके ऊपर संविधान तथा सरकार की अन्य राजनीतिक संस्थाओं के कार्यक्षेत्रों ने लगाई है।

4. संशोधनों के द्वारा संविधान का विकास:
अनेक नवीन स्थितियाँ जो कि परिवर्तित परिस्थितियों के कारण पैदा हुईं उन्हें संविधान संशोधनों के द्वारा संभाला गया है। पिछले 68 वर्षों में 101 संविधान संशोधन किये जा चुके हैं जो संविधान की जीवन्तता को दर्शाते हैं। मत देने के अधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करना, सम्पत्ति के मूल अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से निकाल देना, दल-बदल रोकने हेतु संविधान संशोधन कर दल-बदल निषेध संशोधन विधेयक पारित करना 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को तथा 74वें संविधान संशोधन द्वारा नगरीय स्थानीय शासन की संस्थाओं को संवैधानिक स्वरूप प्रदान करना आदि संशोधनों ने संविधान को बदलती परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करने में सक्षम बनाया है।

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