JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 4 सामाजिक न्याय

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में कौनसा कथन असत्य है।
(अ) न्याय मिलने में देरी न्याय मिलने के समान होता है।
(ब) भारत में स्त्रियों और पुरुषों को समान कार्य के लिए समान वेतन देने की व्यवस्था की गई है।
(स) प्राचीन भारत समाज में न्याय धर्म के साथ जुड़ा था।
(द) कनफ्यूशियस का तर्क था कि गलत करने वालों को दंडित कर और भले लोगों को पुरस्कृत कर राजा को न्याय कायम रखना चाहिए।
उत्तर:
(अ) न्याय मिलने में देरी न्याय मिलने के समान होता है।

2. न्याय का अर्थ है।
(अ) अपने मित्रों के साथ भलाई करना
(ब) अपने दुश्मनों का नुकसान करना
(स) अपने हितों को साधना
(द) सभी लोगों की भलाई सुनिश्चित करना।
उत्तर:
(द) सभी लोगों की भलाई सुनिश्चित करना।

3. ‘न्याय का सिद्धान्त’ पुस्तक के लेखक हैं।
(अ) डायसी
(ब) आस्टिन
(स) जॉन रॉल्स
(द) प्लेटो।
उत्तर:
(स) जॉन रॉल्स

4. निम्न में से किसमें न्याय का समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धान्त लागू हुआ है।
(अ) एक स्कूल में पुरुष शिक्षक को महिला शिक्षक से अधिक वेतन मिलता है।
(ब) पत्थर तोड़ने के किसी काम में सभी जातियों के लोगों को समान पारिश्रमिक दिया गया है।
(स) छात्रों को उनकी पुस्तिकाओं की गुणवत्ता के आधार पर अंक दिये गये।
(द) विकलांग लोगों को नौकरियों में प्रवेश के लिए आरक्षण दिया गया।
उत्तर:
(ब) पत्थर तोड़ने के किसी काम में सभी जातियों के लोगों को समान पारिश्रमिक दिया गया है।

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5. विभिन्न राज्य सरकारों ने भूमि सुधार लागू करने जैसे कदम उठाये हैं।
(अ) लोगों के साथ समाज के कानूनों और नीतियों के संदर्भ में समान बरताव करने के लिए।
(ब) जमीन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन के अधिक न्यायपूर्ण वितरण के लिए।
(स) सबको समान भूमि वितरण के लिए।
(द) बंजर पड़ी भूमि के वितरण के लिए।
उत्तर:
(ब) जमीन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन के अधिक न्यायपूर्ण वितरण के लिए।

6. न्याय के ‘अज्ञानता के आवरण’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
(अ) सुकरात
(ब) प्लेटो ने
(स) कांट ने
(द) रॉल्स ने।
उत्तर:
(द) रॉल्स ने।

7. ” न्यायपूर्ण समाज वह है, जिसमें परस्पर सम्मान की बढ़ती हुई भावना और अपमान की घटती हुई भावना मिलकर एक करुणा से भरे समाज का निर्माण करे।” यह कथन है।
(अ) डॉ. भीमराव अंबेडकर का
(स) प्लेटो का
(ब) जे. एस. मिल का
(द) रॉल्स का।
उत्तर:
(अ) डॉ. भीमराव अंबेडकर का

8. न्याय के सम्बन्ध में न्यायोचित वितरण का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है।
(अ) जे. एस. मिल द्वारा
(ब) बेंथम द्वारा
(स) जॉन रॉल्स द्वारा
(द) प्लेटो द्वारा।
उत्तर:
(स) जॉन रॉल्स द्वारा

9. न्याय पर लिखी गई प्लेटो की पुस्तक का नाम है।
(अ) पॉलिटिक्स
(ब) रिपब्लिक
(स) सामाजिक समझौता
(द) न्याय का सिद्धान्त।
उत्तर:
(ब) रिपब्लिक

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10. सामाजिक न्याय का वर्णन भारतीय संविधान में कहाँ किया गया हैं?
(अ) राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में
(स) मौलिक अधिकारों में
(ब) प्रस्तावना में
(द) सर्वोच्च न्यायालय में।
उत्तर:
(ब) प्रस्तावना में

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. प्राचीन भारतीय समाज में न्याय …………….. के साथ जुड़ा था।
उत्तर:
धर्म

2. प्लेटो के अनुसार न्याय में हर व्यक्ति को उसका ………………… देना शामिल है।
उत्तर:
वाजिब हिस्सा

3. कांट के अनुसार, अगर सभी व्यक्तियों की गरिमा स्वीकृत है, तो उनमें से हर एक का …………………. यह होगा कि उन्हें अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हो ।
उत्तर:
प्राप्य

4. समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धान्त का …………………. के सिद्धान्त के साथ संतुलन बिठाने की जरूरत है।
उत्तर:
समानुपातिकता

5. जो लोग कुछ महत्त्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ …………………. से बरताव किया जाये।
उत्तर:
भिन्न ढंग।

निम्नलिखित में से सत्य/ असत्य कथन छाँटिये

1. योग्यता के पुरस्कृत करने को न्याय का प्रमुख सिद्धान्त मानने पर जोर देने का अर्थ यह होगा कि हाशिये पर खड़े तबके कई क्षेत्रों में वंचित रह जायेंगे।
उत्तर:
सत्य

2. सामाजिक न्याय का सरोकार वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से नहीं है।
उत्तर:
असत्य

3. रॉल्स का न्याय सिद्धान्त ‘अज्ञानता के आवरण में सोचना’ है।
उत्तर:
सत्य

4. न्याय के लिए लोगों के रहन-सहन के तौर-तरीकों में पूर्ण समानता और एकरूपता की आवश्यकता है।
उत्तर:
असत्य

5. मुक्त बाजार के सभी समर्थक आज पूर्णतया अप्रतिबंधित बाजार का समर्थन करते हैं।
उत्तर:
असत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. रिपब्लिक (अ) प्राचीन भारतीय समाज
2. न्याय धर्म के साथ जुड़ा था (ब) चीन के दार्शनिक
3. इमैनुएल कांट (स) न्यायोचित वितरण का सिद्धान्त
4. कन्फ्यूशस (द) एक जर्मन दार्शनिक
5. जॉन रॉल्स (य) प्लेटो

उत्तर:

1. रिपब्लिक (य) प्लेटो
2. न्याय धर्म के साथ जुड़ा था (अ) प्राचीन भारतीय समाज
3. इमैनुएल कांट (द) एक जर्मन दार्शनिक
4. कन्फ्यूशस (ब) चीन के दार्शनिक
5. जॉन रॉल्स (स) न्यायोचित वितरण का सिद्धान्त

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
सही मिलान करें

(क) प्लेटो (i) भारतीय संविधान के निर्माताओं में महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व
(ख) डॉ. भीमराव अम्बेडकर (ii) द रिपब्लिक का लेखक
(ग) मुक्त बाजार नीति (iii) सुप्रसिद्ध राजनीतिक दार्शनिक
(घ) जॉन रॉल्स (iv) राज्य के हस्तक्षेप की विरोधी

उत्तर:

(क) प्लेटो (ii) द रिपब्लिक का लेखक
(ख) डॉ. भीमराव अम्बेडकर (i) भारतीय संविधान के निर्माताओं में महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व
(ग) मुक्त बाजार नीति (iv) राज्य के हस्तक्षेप की विरोधी
(घ) जॉन रॉल्स (iii) सुप्रसिद्ध राजनीतिक दार्शनिक

प्रश्न 2.
प्लेटो के अनुसार न्याय क्या है?
उत्तर:
प्लेटो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य मिल जाये, यही न्याय है।

प्रश्न 3.
सुकरात ने न्यायसंगत होना क्यों आवश्यक बताया है?
उत्तर:
सुकरात ने न्यायसंगत होना इसलिए आवश्यक बताया क्योंकि न्याय में सभी की भलाई निहित रहती है।

प्रश्न 4.
सामाजिक न्याय से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सामाजिक न्याय से अभिप्राय है कि वस्तुओं और सेवाओं का न्यायोचित वितरण हो।

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प्रश्न 5.
प्लेटो ने न्याय सम्बन्धी विचार किस पुस्तक में व्यक्त किये हैं?
उत्तर:
‘द रिपब्लिक’ में।

प्रश्न 6.
भारत में संविधान में सामाजिक न्याय का उल्लेख कहाँ किया गया है?
उत्तर:
प्रस्तावना में।

प्रश्न 7.
न्याय की देवी की प्रतिमा में उसकी आँखों पर बँधी पट्टी किस बात का संकेत करती है?
उत्तर:
उसके निष्पक्ष रहने का संकेत करती है।

प्रश्न 8.
सामाजिक न्याय में किस पर बल दिया जाता है?
उत्तर:
अन्याय के उन्मूलन पर।

प्रश्न 9.
अन्यायपूर्ण समाज की कोई एक विशेषता बताइये।
उत्तर:
वह समाज जहाँ वंचितों को अपनी स्थिति सुधारने का कोई मौका न मिले, अन्यायपूर्ण समाज कहलाता है।

प्रश्न 10.
‘अज्ञानता के आवरण’ वाली स्थिति की एक विशेषता लिखिये।
उत्तर:
इसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील बने रहने की उम्मीद बँधती है।

प्रश्न 11.
एक न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देने के लिए सरकार की क्या जिम्मेदारी बन जाती है?
उत्तर:
एक न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देने के लिए सरकार को न्याय के विभिन्न सिद्धान्तों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की जिम्मेदारी बन जाती है।

प्रश्न 12.
न्याय के सम्बन्ध में चीन के दार्शनिक कन्फ्यूशियस का क्या तर्क था?
उत्तर:
कन्फ्यूशियस के अनुसार गलत करने वालों को दण्डित करना और भले लोगों को पुरस्कृत करना ही न्याय

प्रश्न 13.
एक न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देने के लिए सरकार की क्या जिम्मेदारी बन जाती है?
उत्तर:
एक न्यायपूर्ण समाज को बढ़ावा देने के लिए सरकार को न्याय के विभिन्न सिद्धान्तों में सामंजस्य स्थापित करने की जिम्मेदारी बन जाती है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
ग्लाउकॉन और एडीमंटस के अनुसार अन्यायी लोग न्यायी लोगों से किस प्रकार बेहतर स्थिति में हैं?
उत्तर:
ग्लाउकॉन के अनुसार, अन्यायी लोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए कानून तोड़ते-मरोड़ते हैं, कर चुकाने से कतराते हैं, झूठ और धोखाधड़ी का सहारा लेते हैं। इसलिए वे न्याय के रास्ते पर चलने वाले लोगों से ज्यादा सफल होते हैं।

प्रश्न 2.
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाये? इस सम्बन्ध में कौन-कौन से सिद्धान्त पेश किये गये
उत्तर:
हर व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाये, इस सम्बन्ध में तीन सिद्धान्त पेश किये गये हैं। ये हैं-

  1. समान लोगों के साथ समान बरताव का सिद्धान्त
  2. समानुपातिक न्याय का सिद्धान्त और
  3. विशेष जरूरतों के विशेष ख्याल का सिद्धान्त।

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प्रश्न 3.
यदि समाज में गंभीर सामाजिक या आर्थिक असमानताएँ हैं तो सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए क्या और क्यों जरूरी होगा?
उत्तर:
यदि समाज में गंभीर सामाजिक या आर्थिक असमानताएँ हैं तो यह जरूरी होगा कि समाज के कुछ प्रमुख संसाधनों का पुनर्वितरण हो, जिससे नागरिकों को जीने के लिए समान धरातल मिल सके।

प्रश्न 4.
राज्य को समाज के सबसे वंचित सदस्यों की मदद के तीन तरीके बताइये।
उत्तर:

  1. खुली प्रतियोगिता को बढ़ावा देना तथा समाज के सुविधा प्राप्त सदस्यों को हानि पहुँचाये बिना सुविधाहीनों की मदद करना।
  2. सरकार द्वारा गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराना।
  3. वंचितों के लिए आरक्षण की नीति लागू करना।

प्रश्न 5.
मुक्त बाजार व्यवस्था के कोई दोष लिखिये।
उत्तर:

  1. मुक्त बाजार व्यवस्था में बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं की कीमत गरीब लोगों की पहुँच से प्राय: दूर हो जाती है।
  2. मुक्त बाजार पहले से ही सुविधासम्पन्न लोगों के पक्ष में काम करने का रुझान दिखलाते हैं।

प्रश्न 6.
प्लेटो के अनुसार हमारा दीर्घकालीन हित कानून का पालन करने एवं न्यायी बनने में क्यों है? प्लेटो के अनुसार यदि हर कोई अन्यायी हो जाए, यदि हर आदमी अपने स्वार्थ के लिए कानून के साथ खिलवाड़ करे, तो किसी के लिए भी अन्याय से लाभ पाने की गारंटी नहीं रहेगी, कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा और इससे संभव है कि सबको नुकसान पहुँचे। इसलिए हमारा दीर्घकालीन हित इसी में है कि हम कानून का पालन करें और न्यायी बनें।

प्रश्न 7.
प्लेटो के अनुसार न्याय का गुण क्या है?
उत्तर:
प्लेटो के अनुसार न्याय में सभी लोगों की भलाई निहित रहती है। न्याय में कुछ लोगों के लिए हित और कुछ लोगों के लिए अहित की भावना नहीं होती, बल्कि उसमें सबका हित निहित होता है। इसलिए जो स्थिति या कानून या नियम सबके लिए हितकारी है, वही न्याय है।

प्रश्न 8.
सबका हित कैसे सुनिश्चित किया जाये?
अथवा
सबकी भलाई की सुनिश्चितता के लिए क्या किया जाना आवश्यक है?
उत्तर:
जनता या सबकी भलाई की सुनिश्चितता में हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा देना शामिल है। इस अर्थ में न्याय वह है जिसमें हर व्यक्ति को उसका वाजिब हिस्सा प्राप्त हो।

प्रश्न 9.
हर व्यक्ति का प्राप्य क्या है?
उत्तर:
कांट के अनुसार, हर मनुष्य की गरिमा होती है। अगर सभी व्यक्तियों की गरिमा स्वीकृत है तो उनमें से हर व्यक्ति का प्राप्य यह होगा कि उन्हें अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हों।

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प्रश्न 10.
मुक्त बाजार व्यवस्था के समर्थन में तीन तर्क दीजिये।
उत्तर:

  1. मुक्त बाजार व्यवस्था से योग्यता और प्रतिभा के अनुसार प्रतिफल मिलेगा।
  2. मुक्त बाजार व्यवस्था स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा आदि बुनियादी सेवाओं का सबसे कारगर तरीका है।
  3. मुक्त बाजार उचित और न्यायपूर्ण समाज का आधार होता है क्योंकि उसका सरोकार प्रतिभा और कौशल से होता है।

प्रश्न 11.
न्याय के सम्बन्ध में चीन के दार्शनिक कनफ्यूशियस का क्या तर्क था?
उत्तर:
न्याय के सम्बन्ध में चीन के दार्शनिक कनफ्यूशियस का तर्क था कि गलत करने वालों को दण्डित कर और भले लोगों को पुरस्कृत कर राजा को न्याय कायम करना चाहिए।

प्रश्न 12.
सरकारें न्याय के तीनों सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य बिठाने में क्या कठिनाई महसूस करती हैं? उत्तर-सरकारें कभी-कभी न्याय के तीनों सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य बिठाने में निम्न कठिनाई महसूस करती

  1. समकक्षों के बीच समान बरताव के सिद्धान्त पर अमल कभी-कभी योग्यता को उचित प्रतिफल देने के खिलाफ खड़ा हो जाता है।
  2. योग्यता को पुरस्कृत करने को न्याय का प्रमुख सिद्धान्त मानने पर जोर देने का अर्थ यह होगा कि हाशिये पर खड़े तबके कई क्षेत्रों में वंचित रह जायेंगे। ऐसी स्थिति में सरकार की जिम्मेदारी बन जाती है कि वह एक न्यायपरक समाज को बढ़ावा देने के लिए न्याय के विभिन्न सिद्धान्तों के बीच सामञ्जस्य स्थापित करे।

प्रश्न 13.
सामाजिक न्याय को परिभाषित कीजिये।
अथवा
सामाजिक न्याय का अर्थ बताइये।
उत्तर:
सामाजिक न्याय से यह अभिप्राय है कि कानून और नीतियाँ सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू हों तथा वस्तुओं और सेवाओं का न्यायोचित वितरण भी हो।

प्रश्न 14.
क्या यह न्यायोचित है? हरियाणा की एक पंचायत ने निर्णय दिया कि अलग-अलग जातियों के जिस लड़के और लड़की ने शादी कर ली थी, वे अब गाँव में नहीं रहेंगे।
उत्तर:
नहीं, यह न्यायोचित नहीं है क्योंकि यह निर्णय शादी करने वाले सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू नहीं किया गया है तथा यह कानून सम्मत नहीं है।

प्रश्न 15.
सामाजिक न्याय के प्रमुख लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक न्याय के प्रमुख लक्षण ये हैं।

  1. समान लोगों के प्रति समान बरताव: सामाजिक न्याय का पहला लक्षण यह है कि समकक्षों के साथ समान व्यवहार किया जाये, उनमें वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाये।
  2. समानुपातिक न्याय: सामाजिक न्याय का दूसरा लक्षण समानुपातिक न्याय का है अर्थात् लोगों को उनके प्रयास के पैमाने पर अर्हता के अनुपात में पुरस्कृत किया जाये।
  3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल का सिद्धान्त: सामाजिक न्याय का तीसरा लक्षण लोगों की विशेष जरूरतों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

प्रश्न 16.
“सामाजिक न्याय का सरोकार वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से भी है।” इस कथन को स्पष्ट करें।
उत्तर:
न्यायपूर्ण वितरण समाज में सामाजिक न्याय पाने के लिए सरकारों को यह सुनिश्चित करना होता है कि कानून और नीतियाँ सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू हों। लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। क्योंकि सामाजिक न्याय का सरोकार वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से भी है; चाहे वह राष्ट्रों के बीच वितरण का मामला हो या किसी समाज के अन्दर विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के बीच का।

इसका अभिप्राय यह है कि यदि समाज में गंभीर सामाजिक या आर्थिक विषमताएँ हैं, तो यह जरूरी होगा कि समाज के कुछ प्रमुख संसाधनों का पुनर्वितरण हो, जिससे नागरिकों को जीने के लिए समतल धरातल मिल सके ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने उद्देश्यों के लिए प्रयास कर सके और स्वयं को अभिव्यक्त कर सके। भारत में विभिन्न राज्य सरकारों ने जमीन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन के अधिक न्यायपूर्ण वितरण के लिए ही भूमि सुधार लागू करने जैसे कदम उठाये हैं।

प्रश्न 17.
हम किस तरह के समाज को अन्यायपूर्ण कहेंगे?
उत्तर:
हम उस समाज को अन्यायपूर्ण कहेंगे, जहाँ धनी और गरीब के बीच खाई इतनी गहरी हो कि वे बिल्कुल भिन्न-भिन्न दुनिया में रहने वाले लगें और जहाँ अपेक्षाकृत वंचितों को अपनी स्थिति सुधारने का कोई मौका न मिले, चाहे वे कितना ही कठिन श्रम क्यों न करें। दूसरे शब्दों में यदि किसी समाज में बेहिसाब धन-दौलत और इसके स्वामित्व के साथ जुड़ी सत्ता का उपभोग करने वालों तथा बहिष्कृतों और वंचितों के बीच गहरा और स्थायी विभाजन मौजूद हो, तो हम उस समाज को अन्यायपूर्ण समाज कहेंगे।

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प्रश्न 18.
न्यायपूर्ण समाज के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर:
न्यायपूर्ण समाज: न्यायपूर्ण समाज को लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ जरूर उपलब्ध करानी चाहिए, ताकि वे स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जीने में सक्षम हो सकें; समाज में अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें तथा इसके साथ ही समान अवसरों के जरिये अपने चुने हुए लक्ष्य की ओर बढ़ सकें।

प्रश्न 19.
समान लोगों के प्रति समान व्यवहार का क्या अर्थ है?
उत्तर:
समान लोगों के साथ समान व्यवहार का अर्थ है कि मनुष्य होने के नाते सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसीलिए वे समान अधिकार और समान व्यवहार के अधिकारी हैं। इसी दृष्टि से आज अधिकांश उदारवादी लोकतंत्रों में जीवन, स्वतंत्रता, संपत्ति के अधिकारों के साथ समाज के अन्य सदस्यों के साथ समान अवसरों के उपभोग करने का सामाजिक अधिकार और मताधिकार जैसे राजनैतिक अधिकार दिये जाते हैं। समान लोगों के प्रति समान व्यवहार के सिद्धान्त के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव न किया जाये। उन्हें उनके काम और कार्यकलापों के आधार पर जाँचा जाना चाहिए, इस आधार पर नहीं कि वे किस समुदाय के सदस्य हैं।

प्रश्न 20.
रॉल्स के न्याय सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
रॉल्स का तर्क है कि निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यही है कि हम स्वयं को ऐसी परिस्थिति में होने की कल्पना करें जहाँ हमें निर्णय लेना है कि समाज को कैसे संगठित किया जाये। जबकि हमें यह ज्ञात नहीं है कि उस समाज में हमारी जगह क्या होगी? अर्थात् हम नहीं जानते कि किस किस्म के परिवार में हम जन्म लेंगे; हम उच्च जाति के परिवार में पैदा होंगे या निम्न जाति में; धनी होंगे या गरीब, सुविधा सम्पन्न होंगे या सुविधाहीन?

अगर हमें यह नहीं मालुम हो कि हम कौन होंगे और भविष्य के समाज में हमारे लिए कौनसे विकल्प खुले होंगे, तब हम भविष्य के उस समाज के नियमों और संगठन के बारे में जिस निर्णय का समर्थन करेंगे, वह तमाम सदस्यों के लिए अच्छा होगा। रॉल्स ने इसे ‘अज्ञानता के आवरण’ में सोचना कहा है। अज्ञानता के आवरण वाली स्थिति में लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बँधती है। विवेकशील मनुष्य न केवल सबसे बुरे संदर्भ के मद्देनजर चीजों को देखेंगे, बल्कि वे यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों।

प्रश्न 21.
भारत में सामाजिक न्याय की स्थिति क्या है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारतीय संविधान में देश के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रदान करने का लक्ष्य घोषित किया गया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं।

  1. संविधान के द्वारा सभी नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान किये गये हैं अर्थात् मूल अधिकारों के माध्यम से समकक्षों के बीच समान बरताव के सिद्धान्त का पालन किया गया है। इनमें सभी को कानून के समक्ष समता प्रदान की गई है, जाति, धर्म, लिंग, वंश के आधार पर भेदभाव का निषेध किया गया है। छुआछूत को समाप्त किया गया है, भेदभाव पैदा करने वाली उपाधियों का अन्त किया गया। सभी को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई है।
  2. भारत में समानुपातिक न्याय के सिद्धान्त को भी समकक्षों के बीच समान व्यवहार के सिद्धान्त के साथ संतुलन बैठाया गया है।
  3. भारत में मूल अधिकारों के अन्तर्गत ही विशेष जरूरतों के लिए विशेष ख्याल का सिद्धान्त भी अपनाया है इस हेतु वंचितों के लिए आरक्षण की नीति लागू की गई है।

प्रश्न 22.
न्याय का क्या अर्थ है? कोई एक परिभाषा दीजिये।
उत्तर:
न्याय का सरोकार समाज में हमारे जीवन और सार्वजनिक जीवन को व्यवस्थित करने के नियमों और तरीकों से होता है, जिनके द्वारा समाज के विभिन्न सदस्यों के बीच सामाजिक लाभ और सामाजिक कर्त्तव्यों का बँटवारा किया जाता है। प्लेटो ने न्याय को परिभाषित करते हुए लिखा है कि, ‘प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य मिल जाय, यही न्याय मनुष्य होने के नाते हर व्यक्ति का प्राप्य यह है कि उन्हें अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हों तथा सभी व्यक्तियों को समुचित और बराबर महत्व दिया जाये।

प्रश्न 23.
समानुपातिक न्याय क्या है? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
समानुपातिक न्याय: समानुपातिक न्याय से यह आशय है कि लोगों को मिलने वाले लाभों को तय करते समय उनके विभिन्न प्रयासों और कौशलों को मान्यता दी जाये अर्थात् लोगों को उनके प्रयास के पैमाने और अर्हता के अनुपात में पुरस्कृत किया जाये। काम के लिए वांछित मेहनत, कौशल, संभावित खतरे आदि कारकों को ध्यान में रखते हुए अलग- अलग काम के लिए अलग-अलग पारिश्रमिक निर्धारण करना ही समानुपातिक न्याय है। लेकिन समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धान्त के साथ ही समानुपातिकता के सिद्धान्त का संतुलन बिठाना आवश्यक है।

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प्रश्न 24.
न्याय के तीन सिद्धान्त कौन-से हैं? प्रत्येक को उदाहरण के साथ समझाइये।
उत्तर:
न्याय के तीन सिद्धान्त हैं।

  1. समकक्षों के बीच समान बरताव
  2. समानुपातिक न्याय और
  3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल। यथा

1. समकक्षों के बीच समान बरताव:
न्याय का एक सिद्धान्त है कि समकक्षों के बीच समान व्यवहार किया जाये । मनुष्य होने के नाते सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसलिए वे समान अधिकार और बरताव के अधिकारी हैं। इसलिए आज अधिकांश उदारवादी जनतंत्रों में जीवन, स्वतंत्रता, सम्पत्ति तथा मताधिकार जैसे कुछ महत्वपूर्ण अधिकार सभी नागरिकों को समान रूप से प्रदान किये गये हैं। समान अधिकारों के अलावा समकक्षों में समान बरताव के सिद्धान्त के लिए जरूरी है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेद नहीं किया जाये, बल्कि उन्हें उनके काम के आधार पर जाँचा जाये। उदाहरण के लिए यदि स्कूल में पुरुष शिक्षक को महिला शिक्षक से ज्यादा वेतन मिलता है, तो यह समकक्षों के बीच समान बरताव के सिद्धान्त के विपरीत है। अतः अन्यायपूर्ण है।

2. समानुपातिक न्याय:
समानुपातिक न्याय के सिद्धान्त का आशय यह है कि लोगों को मिलने वाले लाभों को तय करते समय उनके विभिन्न प्रयास और कौशलों को मान्यता दी जाये । अर्थात् किसी काम के लिए वांछित मेहनत, कौशल, संभावित खतरे आदि को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग काम के लिए अलग-अलग पारिश्रमिक निर्धारण किया जाये । इस प्रकार समाज में न्याय के लिए समान बरताव के सिद्धान्त का समानुपातिक सिद्धान्त के साथ संतुलन बैठाने की आवश्यकता है।

3. विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल:
न्याय का तीसरा सिद्धान्त यह है कि समाज पारिश्रमिक या कर्त्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की विशेष जरूरतों का ख्याल रखे। समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त में ही यह अन्तर्निहित है कि जो लोग कुछ महत्वपूर्ण संदर्भों में समान नहीं हैं, उनके साथ भिन्न ढंग से बरताव किया जाय । जैसे – वंचित और विकलांग लोग । इसी संदर्भ में भारत में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
न्यूनतम आवश्यक बुनियादी स्थितियाँ क्या हैं? इस लक्ष्य को पाने के तरीकों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
न्यूनतम आवश्यक बुनियादी स्थितियाँ लोगों की जिंदगी के लिए न्यूनतम बुनियादी स्थितियों के सम्बन्ध में सामान्यतः इस बात पर सहमति है कि स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों की बुनियादी मात्रा, आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी इन बुनियादी स्थितियों की महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ हैं। लोगों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी समझी जाती है।

न्यूनतम आवश्यक बुनियादी स्थितियों की पूर्ति के तरीके: लोगों की जिंदगी के लिए न्यूनतम बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि राज्य (सरकार) को समाज के सबसे वंचित सदस्यों की मदद करनी चाहिए, जिससे कि वे अन्य लोगों के साथ एक हद तक समानता का आनंद ले सकें। इस लक्ष्य को पाने के लिए निम्नलिखित दो तरीकों पर बल दिया जाता है; ये हैं।

(अ) मुक्त बाजार के जरिये खुली प्रतियोगिता को बढ़ावा देना तथा समाज के सुविधा प्राप्त सदस्यों को नुकसान पहुँचाये बगैर सुविधाहीनों की मदद करना।
(ब) राज्य के हस्तक्षेप की व्यवस्था। यथा

(अ) मुक्त बाजार की व्यवस्था: मुक्त बाजार व्यवस्था के समर्थकों का मानना है कि

  1. जहाँ तक संभव हो, व्यक्तियों को सम्पत्ति अर्जित करने के लिए तथा मूल्य, मजदूरी और लाभ के मामले में दूसरों के साथ अनुबंध और समझौतों में शामिल होने के लिए स्वतंत्र रहना चाहिए ।
  2. लाभ की अधिकतम मात्रा हासिल करने हेतु दूसरे के साथ प्रतिद्वन्द्विता करने की छूट होनी चाहिए।
  3. मुक्त बाजार के समर्थक बाजारों को राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त कर देने के पक्षधर हैं।

मुक्त बाजार व्यवस्था के समर्थन में तर्क: मुक्त बाजार व्यवस्था के समर्थकों का कहना है कि बाजारों को राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त कर देने से बाजारी कारोबार का योग कुल मिलाकर समाज में लाभ और कर्तव्यों का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित कर देगा। वे इसके पक्ष में निम्न तर्क देते हैं।

  1. मुक्त बाजार व्यवस्था से योग्यता और प्रतिभा से युक्त लोगों को अधिक प्रतिफल मिलेगा जबकि अक्षम लोगों को कम हासिल होगा ।
  2. स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा तथा ऐसी अन्य बुनियादी सेवाओं के विकास के लिए बाजार को अनुमति देना ही लोगों के लिए इन बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति का सबसे कारगर तरीका हो सकता है।
  3. मुक्त बाजार उचित और न्यायपूर्ण समाज का आधार होता है क्योंकि यह किसी व्यक्ति की जाति या धर्म की परवाह नहीं करता। वह यह भी नहीं देखता कि आप स्त्री हैं या पुरुष। वह इन सबसे निरपेक्ष रहता है और उसका सरोकार प्रतिभा और कौशल से है। अगर आपके पास योग्यता है तो बाकी सब बातें बेमानी हैं।
  4. मुक्त बाजार व्यवस्था हमें ज्यादा विकल्प प्रदान करता है।
  5. मुक्त बाजार में निजी उद्यम जो सेवाएँ मुहैया कराते हैं, उनकी गुणवत्ता सरकारी संस्थानों द्वारा प्रदत्त सेवाओं से प्राय: बेहतर होती है।

मुक्त बाजार व्यवस्था के विपक्ष में तर्क: मुक्त बाजार व्यवस्था के विपक्ष में निम्नलिखित प्रमुख तर्क दिये जाते हैं।

  1. सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन: मानक सुनिश्चित करने हेतु राज्य को हस्तक्षेप करना आवश्यक है ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्द्धा करने में समर्थ हो सकें। वृद्धों और रोगियों की विशेष सहायता मुक्त बाजार व्यवस्था में संभव नहीं हो पाती है, राज्य ही ऐसी सहायता प्रदान कर सकता है।
  2. यद्यपि बाजारी वितरण हमें उपभोक्ता के तौर पर ज्यादा विकल्प देता है, बशर्ते उनकी कीमत चुकाने के लिए हमारे पास साधन हों। लेकिन बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं के मामले में अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध होना आवश्यक है। लेकिन मुक्त बाजार व्यवस्था में इन सेवाओं की कीमतें गरीब लोगों की पहुँच के बाहर हो जाती हैं।
  3. मुक्त बाजार आमतौर पर पहले से ही सुविधासम्पन्न लोगों के हक में काम करने का रुझान दिखलाते हैं।

(ब) राज्य के हस्तक्षेप की व्यवस्था
कुछ विद्वानों का मत है कि गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए अर्थात् पूर्णतया मुक्त बाजार के स्थान पर राज्य को सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन मानक सुनिश्चित करने हेतु राज्य को हस्तक्षेप करना चाहिए ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्द्धा करने में समर्थ हो सकें। यदि हम बुनियादी वस्तुओं व सेवाओं को आम लोगों को मुहैया कराने के लिए निजी एजेन्सियों को देंगे, तो वे लाभ की दृष्टि रखते हुए इन वस्तुओं व सेवाओं को मुहैया करायेंगी। यदि निजी एजेन्सियाँ इसे अपने लिए लाभदायक नहीं पाती हैं तो वे उस खास बाजार में प्रवेश नहीं करेंगी अथवा सस्ती और घटिया सेवाएँ मुहैया करायेंगी।

जबकि बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं के मामले में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध हों। निजी एजेन्सियाँ ऐसी व्यवस्थाएँ नहीं कर सकतीं, इसलिए सरकार को इस क्षेत्र में हस्तक्षेप कर गरीबों को न्यूनतम बुनियादी व अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ व सेवाएँ खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध करानी चाहिए। यही कारण है कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में बहुत कम निजी विद्यालय खुले हैं और खुले भी हैं तो वे निम्नस्तरीय हैं। स्वास्थ्य सेवा और आवास के मामले में भी यही सच है। इन परिस्थितियों में सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 3 समानता Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 3 समानता

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में से कौनसा समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन करता है।
(अ) प्रत्येक वयस्क नागरिक को मत देने का अधिकार है।
(ब) केवल श्वेत लोगों को ही एक डिब्बे में यात्रा करने की अनुमति है।
(स) स्त्रियों को नौकरियों में मातृत्व अवकाश प्रदान किया गया है।
(द) अनुसूचित जाति के लोगों को नौकरियों में आरक्षण दिया गया है।
उत्तर:
(ब) केवल श्वेत लोगों को ही एक डिब्बे में यात्रा करने की अनुमति है।

2. निम्नलिखित में से कौनसा तर्क समानता की सकारात्मक विभेदीकरण, विशेषकर आरक्षण की नीति का समर्थन करता है।
(अ) यह मनमाने तरीके से समाज के अन्य वर्गों को समान व्यवहार के अधिकार से वंचित करती है।
(ब) यह भी एक तरह का भेदभाव है।
(स) यह वंचित समूहों के अवसर की समानता के अधिकार को व्यावहारिक बनाती है।
(द) यह जातिगत पूर्वाग्रहों को और मजबूत कर समाज को विभाजित करती है ।
उत्तर:
(स) यह वंचित समूहों के अवसर की समानता के अधिकार को व्यावहारिक बनाती है।

3. निम्नलिखित में से कौनसी विभेदक बरताव की मांग समानता के सिद्धान्त को यथार्थपरक नहीं बनाती है।
(अ) विकलांगों को सार्वजनिक स्थानों पर विशेष ढलान वाले रास्तों की मांग
(ब) रात में कॉल सेंटर में काम करने वाली महिला को कॉल सेंटर आते-जाते समय विशेष सुरक्षा की मांग
(स) श्वेत लोगों के लिए पृथक् से विश्राम गृह बनाने की मांग
(द) कामकाजी महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर बालबाड़ी की मांग
उत्तर:
(स) श्वेत लोगों के लिए पृथक् से विश्राम गृह बनाने की मांग

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4. निम्नलिखित में कौनसा कथन समानता को दर्शाता है।
(अ) वर्तमान में विश्व में लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में ‘सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार ‘ लागू किया जा चुका है।
(ब) दुनिया के 50 सबसे अमीर आदमियों की सामूहिक आमदनी दुनिया के 50 करोड़ सबसे गरीब लोगों की सामूहिक आमदनी के बराबर है।
(स) दुनिया की 40 प्रतिशत गरीब जनसंख्या का दुनिया की कुल आमदनी में हिस्सा केवल 5 प्रतिशत है, जबकि 5 प्रतिशत अमीर लोग दुनिया की 40 प्रतिशत आमदनी पर नियंत्रण करते हैं।
(द) अपने देश में हम आलीशान आवासों के साथ-साथ झोंपड़पट्टियां भी देखते हैं।
उत्तर:
(अ) वर्तमान में विश्व में लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में ‘सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार ‘ लागू किया जा चुका है।

5. निम्नलिखित में किस प्रकार की समानता के अभाव में स्वतंत्रता प्रभावहीन हो जाती है?
(अ) नैतिक समानता
(ब) प्राकृतिक समानता
(स) धार्मिक समानता
(दं) आर्थिक समानता
उत्तर:
(दं) आर्थिक समानता

6. जाति एवं रंगभेद विरोधी आन्दोलन मांग करता है।
(अ) राजनीतिक समानता की
(ब) सामाजिक समानता की
(स) राष्ट्रीय समानता की
(द) धार्मिक समानता की
उत्तर:
(ब) सामाजिक समानता की

7. ” समानता स्वतंत्रता की शत्रु नहीं, उसकी एक आवश्यक शर्त है।” यह कथन है।
(अ) प्लेटो का
(ब) अरस्तू का
(स) आर. एस. टोनी का
(द) लार्ड एक्टन का
उत्तर:
(स) आर. एस. टोनी का

8. “र्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता एक भ्रम है।” यह कथन है।
(अ) प्रो. जोड का
(ब) गांधी का
(स) प्लेटो का
(द) अरस्तू का
उत्तर:
(अ) प्रो. जोड का

9. छुआछूत विरोधी निम्नलिखित में से किस समानता के पक्षधर हैं।
(अ) नैतिक समानता
(ब) सामाजिक समानता
(स) राजनीतिक समानता
(द) आर्थिक समानता
उत्तर:
(ब) सामाजिक समानता

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10. निम्नलिखित में कौनसा कथन ठीक है?
(अ) पूर्ण समानता केवल प्रजातांत्रिक व्यवस्था में ही संभव है।
(ब) पूर्ण समानता केवल तानाशाही शासन में संभव है।
(स) पूर्ण समानता असंभव है।
(द) पूर्ण समानता केवल संसदीय शासन में ही संभव है।
उत्तर:
(स) पूर्ण समानता असंभव है।

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. समानता का दावा है कि सभी ………………. समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं।
उत्तर:
मनुष्य

2. फ्रांसीसी क्रांतिकारियों का नारा था – स्वतंत्रता, ……………….. और भाईचारा।
उत्तर:
समानता

3. लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग-अलग चयन के कारण …………………. पैदा होती हैं।
उत्तर:
प्राकृतिक

4. समाज में अवसरों की असमानता होने से ………………… असमानताएँ पैदा होती हैं।
उत्तर:
समाजजनित

5. ……………… असमानताएँ विशेषाधिकार जैसी असमानताओं को बढ़ावा देती हैं।
उत्तर:
आर्थिक

निम्नलिखित में से सत्य/ असत्य कथन छाँटिये

1. उदारवाद स्त्री – पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त है।
उत्तर:
असत्य

2. नारीवाद के अनुसार स्त्री-पुरुष असमानता ‘पितृसत्ता’ का परिणाम है।
उत्तर:
सत्य

3. उदारवादी मानते हैं कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ एक-दूसरे से अनिवार्यत: जुड़ी होती हैं।
उत्तर:
असत्य

4. मार्क्स का मानना था कि खाईनुमा असमानताओं का बुनियादी कारण महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों का निजी स्वामित्व है।
उत्तर:
सत्य

5. समानता की प्राप्ति के लिए जरूरी है कि सभी निषेध या विशेषाधिकारों का अन्त किया जाये।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. फ्रांसीसी क्रांति
2. साझी मानवता
3. प्राकृतिक असमानताएँ
4. समाजजनित असमानताएँ
5. नारीवादी
उत्तर:
(अ) सभी मनुष्य समान सम्मान एवं परवाह के हकदार
(ब) अवसरों की असमानता का परिणा
(स) स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों के पक्षधर
(द) जन्मजात विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम
(य) स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का नारा

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता के कोई दो आयाम लिखो।
उत्तर:

  1. राजनीतिक समानता
  2. सामाजिक समानता।

प्रश्न 2.
समानता का नैतिक आदर्श क्या है?
उत्तर:
समानता का नैतिक आदर्श है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं।

प्रश्न 3.
सामाजिक समानता का अर्थ स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सामाजिक समानता का तात्पर्य है। समाज से विशेषाधिकारों का अन्त होना तथा समाज में सभी व्यक्तियों का व्यक्ति होने के नाते समान महत्व होना।

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प्रश्न 4.
प्राकृतिक समानता से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
प्राकृतिक समानता से आशय है कि प्राकृतिक रूप से सभी मनुष्य बराबर हैं।

प्रश्न 5.
अवसरों की समानता से क्या आशय है?
उत्तर:
प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समान अवसरों का मिलना ही अवसरों की समानता

प्रश्न 6.
भारत के प्रमुख समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने कौनसी पाँच तरह की असमानताओं का उल्लेख किया?
उत्तर:
समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने

  1. स्त्री-पुरुष असमानता,
  2. रंग आधारित असमानता,
  3. जातिगत असमानता,
  4. आर्थिक असमानता तथा
  5. कुछ देशों का अन्य पर औपनिवेशिक शासन की असमानता का उल्लेख किया।

प्रश्न 7.
सामाजिक समानता की स्थापना के लिए नागरिकों का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए?
उत्तर:
सामाजिक समानता की स्थापना हेतु नागरिकों का दृष्टिकोण उदार एवं व्यापक होना चाहिए।

प्रश्न 8.
समाजवादी राज्यों में समानता के किस रूप पर विशेष बल दिया जाता है?
उत्तर:
आर्थिक समानता पर।

प्रश्न 9.
समाज में आर्थिक एवं सामाजिक विषमताएँ बढ़ने पर क्या परिणाम होगा?
उत्तर:
अमीर वर्ग गरीब वर्ग का तथा उच्च वर्ग निम्न वर्ग का शोषण करने लगेगा।

प्रश्न 10.
स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त कौनसा है?
उत्तर:
नारीवाद स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त है।

प्रश्न 11.
नारीवाद के अनुसार स्त्री-पुरुष असमानता किसका परिणाम है?
उत्तर:
नारीवाद के अनुसार स्त्री पुरुष असमानता पितृसत्ता का परिणाम है।

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प्रश्न 12.
समानता का हमारा आत्मबोध क्या कहता है?
उत्तर:
समानता का हमारा आत्मबोध यह कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान के हकदार हैं।

प्रश्न 13.
राज्य के समाज के सबसे वंचित सदस्यों की मदद करने के कोई दो तरीके लिखिये।
उत्तर:

  1. आरक्षण
  2. कम उम्र से ही विशेष सुविधायें प्रदान करना।

प्रश्न 14.
कुछ सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में किस प्रकार की असमानता कायम रखती हैं?
उत्तर:
बहुत सी सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में पद, धन, हैसियत या विशेषाधिकार की असमानता कायम रखती हैं।

प्रश्न 15.
18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में फ्रांसीसी क्रांति में क्रांतिकारियों का क्या नारा था?
उत्तर:
18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुई फ्रांसीसी क्रांति में ‘स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा’ फ्रांसीसी क्रांतिकारियों का नारा था।

प्रश्न 16.
स्पष्ट करें कि स्वतंत्रता तथा समानता परस्पर विरोधी नहीं हैं?
उत्तर:
स्वतंत्रता तथा समानता दोनों का उद्देश्य व्यक्ति के विकास, सुविधाएँ व उसके व्यक्तित्व के विकास से जुड़ा है, इसलिए यह विरोधी नहीं है।

प्रश्न 17.
20वीं सदी में समानता की मांग कहाँ और किसके द्वारा उठायी गयी थी?
उत्तर:
20वीं सदी में समानता की मांग एशिया और अफ्रीका के उपनिवेश विरोधी स्वतंत्रता संघर्षों के दौरान महिलाओं और दलित समूहों द्वारा उठायी गयी थी।

प्रश्न 18.
आज भी विश्व में किस प्रकार की असमानताएँ व्याप्त हैं?
उत्तर:
आज भी विश्व में धन-सम्पदा, अवसर, कार्य-स्थिति और शक्ति की भारी असमानताएँ व्याप्त हैं।

प्रश्न 19.
हम असमानता के किन आधारों को अस्वीकार करते हैं?
उत्तर:
हम असमानता के जन्म सम्बन्धी आधारों; जैसे धर्म, नस्ल, जाति या लिंग आदि, को अस्वीकार करते हैं।

प्रश्न 20.
प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में किस कारण पैदा होती हैं?
उत्तर:
प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग-अलग चयन के कारण पैदा होती हैं।

प्रश्न 21.
समार्जजनित असमानताएँ किस कारण पैदा होती हैं?
उत्तर:
समाजजनित असमानताएँ समाज में अवसरों की असमानता होने या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण किये जाने से पैदा होती हैं।

प्रश्न 22.
असमानता को समाप्त करने के लिए किन्हीं दो सकारात्मक कार्यवाहियों का उल्लेख करें।
उत्तर:
वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और होस्टल जैसी सुविधाओं पर वरीयता के आधार पर खर्च करना तथा नौकरियों व शैक्षिक संस्थाओं में उनके प्रवेश की विशेष व्यवस्था करना।

प्रश्न 23.
सकारात्मक कार्यवाही के रूप में विशेष सहायता को किस प्रकार का उपाय माना गया है? उत्तर- इसे एक निश्चित अवधि तक चलने वाला तदर्थ उपाय माना गया है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समान लोगों के साथ समान व्यवहार का अर्थ बताइये
अथवा
समानता के आदर्श से क्या आशय है?
उत्तर:
समानता के आदर्श का आशय है। साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य समान व्यवहार के हकदार हैं; लेकिन इसका अभिप्राय व्यवहार के सभी तरह के अन्तरों का उन्मूलन नहीं है, बल्कि यह है कि हमें जो अवसर प्राप्त होते हैं, वे जन्म या सामाजिक परिस्थितियों से निर्धारित नहीं होने चाहिए।

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प्रश्न 2.
समानता का राजनैतिक आदर्श क्या है?
उत्तर:
एक राजनैतिक आदर्श के रूप में समानता की अवधारणा उन विशिष्टताओं पर बल देती है जिसमें सभी मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के अन्तर के बाद भी साझेदार होते हैं। जैसे’ मानवता के प्रति अपराध’ सभी के लिए समान हैं।

प्रश्न 3.
समानता का नैतिक आदर्श क्या है?
उत्तर:
समानता का नैतिक आदर्श यह है कि हर धर्म ईश्वर की श्रेष्ठतम रचना के रूप में प्रत्येक मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं।

प्रश्न 4.
प्राकृतिक असमानता और सामाजिक असमानता में क्या अन्तर है?
उत्तर:
प्राकृतिक असमानताएँ लोगों की जन्मगत विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम मानी जाती हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ वे हैं जिन्हें समाज ने पैदा किया है, जो समाजजनित हैं।

प्रश्न 5.
राजनैतिक समानता से क्या आशय है?
उत्तर:
राजनैतिक समानता से आशय है। समाज के सभी नागरिकों को कुछ मूल अधिकार, जैसे—मतदान का अधिकार, कहीं भी आने-जाने, संगठन बनाने और अभिव्यक्ति तथा धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता आदि प्राप्त हों।

प्रश्न 6.
सामाजिक समानता क्या है?
उत्तर:
सामाजिक समानता: सामाजिक समानता से आशय यह है कि समाज के विभिन्न समूह और समुदायों के लोगों के पास समाज में उपलब्ध साधनों और अवसरों को पाने का बराबर और उचित मौका हो। समाज में सभी सदस्यों के जीवनयापन के लिए अन्य चीज़ों के अतिरिक्त पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी शिक्षा पाने का अवसर, उचित पोषक आहार व न्यूनतम वेतन जैसी कुछ न्यूनतम चीजों की गारण्टी दी गई हो।

प्रश्न 7.
समानता को परिभाषित कीजिये।
उत्तर:
समानता को परिभाषित करना आसान नहीं है। कुछ विचारकों के अनुसार समानता से आशय प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करने से है। लेकिन हर स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति के साथ एक समान व्यवहार करना संभव नहीं है। प्रकृति ने भी सभी व्यक्तियों को सभी तरह से एक समान नहीं बनाया है। इस प्रकार समानता का अर्थ है- जन्म, लिंग, रंग, जाति तथा वंश पर आधारित भेदभाव के बिना सभी लोगों के व्यक्तित्व के विकास के लिए समान अवसरों की उपलब्धि।

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प्रश्न 8.
” साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और परवाह के हकदार हैं।” इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
इस कथन का आशय यह है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने के योग्य हैं। लेकिन लोगों से बराबर सम्मान का व्यवहार करने का अर्थ यह आवश्यक नहीं है कि हमेशा एक जैसा व्यवहार किया जाये। कोई भी समाज अपने सभी सदस्यों के साथ सभी स्थितियों में पूर्णतया एक समान बरताव नहीं करता और न ही यह संभव है। समाज के सहज कार्य-व्यापार के लिए कार्य का विभाजन आवश्यक है। अलग-अलग काम, अलग- अलग लोगों को अलग-अलग महत्त्व व लाभ दिलाता है। व्यवहार का यह अन्तर न केवल स्वीकार्य है, बल्कि आवश्यक भी है। समानता के समान व्यवहार में यह बात भी निहित है।

प्रश्न 9.
आर्थिक समानता से क्या आशय है?
उत्तर:
आर्थिक समानता: आर्थिक समानता से आशय है कि समाज के लोगों में धन-दौलत व आय की समानता हो। लेकिन समाज में धन-दौलत या आय की पूरी समानता संभवत: कभी विद्यमान नहीं रही। आज अधिकतर लोकतंत्र लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं, ताकि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति को सुधार सके। लेकिन किसी समाज में कुछ खास वर्ग के लोग पीढ़ियों से बेशुमार धन-दौलत तथा इससे हासिल होने वाली सत्ता का उपयोग करते हैं, तो समाज अत्यधिक धनी और अत्यधिक निर्धन दो वर्गों में बंट जायेगा। ऐसी स्थिति में आर्थिक समानता से आशय है समान अवसर उपलब्ध कराने के साथ-साथ आवश्यक संसाधनों पर जनता का नियंत्रण कायम करके या अन्य उपाय करके आर्थिक असमानता की खाइयों को कम करके समान अवसर की उपलब्धता को व्यावहारिक भी बनाना।

प्रश्न 10.
समानता के महत्त्व का संक्षिप्त में वर्णन करो।
उत्तर:
समानता व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिए अत्यधिक उपयोगी है। इसके बिना अशान्ति एवं अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। समानता के अभाव में स्वतंत्रता भी निरर्थक होती है। उदाहरण के लिए आर्थिक समानता होने पर ही राजनीतिक स्वतन्त्रता का सही अर्थों में उपयोग किया जा सकता है। समानता के बिना कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता है। समानता का दावा है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं । समानता की अवधारणा एक राजनीतिक आदर्श के रूप में उन विशिष्टताओं पर जोर देती है जिसमें सभी मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के फर्क के बावजूद साझेदार होते हैं।

प्रश्न 11.
अवसरों की समानता से क्या आशय है? स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
अवसरों की समानता: अवसरों की समानता से यह आशय है कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और समान अवसरों के हकदार हैं। इसका आशय यह है कि समाज में लोग अपनी पसंद और प्राथमिकताओं के मामलों में अलग हो सकते हैं, उनकी प्रतिभा और योग्यताओं में भी अन्तर हो सकता है और इस कारण कुछ लोग अपने चुने हुए क्षेत्रों में बाकी लोगों से ज्यादा सफल हो सकते हैं, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षित आवास जैसी बुनियादी चीजों की उपलब्धता में असमानता नहीं होनी चाहिए। इस असमानता के चलते अवसरों की समानता व्यावहारिक नहीं हो सकती।

प्रश्न 12.
समानता को लोकतंत्र की आधारशिला क्यों कहा गया है?
उत्तर:
समानता लोकतंत्र की आधारशिला है क्योंकि लोकतंत्र की स्थापना के लिए राजनीतिक समानता का होना अति आवश्यक है। राजनीतिक समानता के अन्तर्गत समाज के सभी सदस्यों को समान नागरिकता प्रदान करना है। समान नागरिकता अपने साथ कुछ मूल अधिकार, जैसे मतदान का अधिकार, कहीं भी आने-जाने, संगठन बनाने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता लाती है। ये ऐसे अधिकार हैं, जो नागिरकों को अपना विकास करने और राज्य के कामकाज में हिस्सा लेने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक माने जाते हैं।

अतः स्पष्ट है कि समानता लोकतंत्र की आधारशिला है। दूसरे, समानता के अभाव में स्वतंत्रता का भी कोई मूल्य नहीं। यदि सभी को राजनीतिक स्वतंत्रता मिल जाये, लेकिन आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक असमानता के कारण शोषणकारी स्थितियाँ बनी रहें तो राजनीतिक स्वतंत्रता अर्थात् लोकतंत्र निरर्थक हो जायेगा। अतः लोकतंत्र के स्थायित्व के लिए राजनैतिक समानता के साथ-साथ आर्थिक समानता भी आवश्यक है।

प्रश्न 13.
समानता के विभिन्न प्रकार कौन-कौनसे हैं ? स्पष्ट करो।
उत्तर:
विभिन्न विचारकों और विचारधाराओं ने समानता के तीन प्रकारों को रेखांकित किया है। ये निम्न हैं।

  1. राजनीतिक समानता: सभी सदस्यों को समान नागरिकता प्रदान करना, वयस्क मताधिकार, कहीं भी आने-जाने, संगठन बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार नागरिकों को समान रूप से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार राजनीतिक समानता न्यायपूर्ण और समतावादी समाज के गठन के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
  2. सामाजिक समानता: सामाजिक समानता का आशय अवसरों की समानता देने से है। इसका उद्देश्य विभिन्न समूह और समुदाय के लोगों के पास उपलब्ध साधनों और अवसरों को पाने का बराबर और उचित मौका हो।
  3. आर्थिक समानता: आर्थिक समानता से आशय है। समाज के सदस्यों और वर्गों के बीच धन, सम्पत्ति और आय की अत्यधिक भिन्नता न हो।

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प्रश्न 14.
समानता क्या है? समानता का नैतिक और राजनैतिक आदर्श क्या है? समझाइये।
उत्तर:
समानता का अर्थ: समानता से यह आशय हैं कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और अवसरों के हकदार हैं समानता का नैतिक और राजनैतिक आदर्श समानता एक शक्तिशाली नैतिक और राजनैतिक आदर्श के रूप में मानव समाज को प्रेरित और निर्देशित करती रही है। नैतिक आदर्श के रूप में समानता की बात सभी आस्थाओं और धर्मों में समाविष्ट है। हर धर्म ईश्वर की रचना के रूप में प्रत्येक मनुष्य के समान महत्त्व की घोषणा करता है। समानता की अवधारणा एक राजनैतिक आदर्श के रूप में उन विशिष्टताओं पर जोर देती है जिसमें तमाम मनुष्य रंग, लिंग, वंश या राष्ट्रीयता के फर्क के बाद भी साझेदार होते हैं। इस प्रकार नैतिक और राजनैतिक आदर्श के रूप में समानता का दावा है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं।

प्रश्न 15.
क्या समानता का मतलब व्यक्ति से हर स्थिति में एक समान बरताव करना है?
उत्तर:
समानता का हमारा आत्मबोध कहता है कि साझी मानवता के कारण सभी मनुष्य बराबर सम्मान और समान व्यवहार के हकदार हैं। लेकिन लोगों से समान सम्मान और समान व्यवहार करने का मतलब आवश्यक नहीं कि हमेशा एक जैसा व्यवहार किया जाये। कोई भी समाज अपने सभी सदस्यों के साथ सभी स्थितियों में पूर्णतया एक समान बरताव नहीं करता। समाज के सहज कार्य-व्यापार के लिए कार्य का विभाजन जरूरी है। अलग-अलग काम और अलग-अलग लोगों को महत्त्व और लाभ भी अलग-अलग मिलता है।

कई बार इस व्यवहार में यह अन्तर न केवल स्वीकार्य होता है, बल्कि आवश्यक भी होता है। लेकिन कई बार लोगों से अलग तरह का व्यवहार इसलिए किया जाता है कि उनका जन्म किसी खास धर्म, नस्ल, जाति या लिंग में हुआ है। असमान व्यवहार के ये आधार समानता के सिद्धान्त में अस्वीकृत किये गयेहैं। लेकिन लोगों की आकांक्षाएँ और लक्ष्य अलग-अलग हो सकते हैं और हो सकता है कि सभी को समान सफलता न मिले। समानता के आदर्श से जुड़े होने का यह अर्थ नहीं है कि सभी तरह के अन्तरों का उन्मूलन हो जाए। यहाँ हमारा अभिप्राय केवल इतना है कि हमसे जो व्यवहार किया जाता है और हमें जो भी अवसर प्राप्त होते हैं, वे जन्म या सामाजिक परिस्थितियों से निर्धारित नहीं होने चाहिए।

प्रश्न 16.
विभेदक बरताव द्वारा समानता से क्या आशय है?
उत्तर:
विभेदक बरताव द्वारा समानता:
समानता के सिद्धान्त को यथार्थ में बदलने के लिए औपचारिक समानता या कानून के समक्ष समानता आवश्यक तो है, लेकिन पर्याप्त नहीं। कभी-कभी यह सुनिश्चित करने के लिए कि लोग समान अधिकारों का उपभोग कर सकें, उनसे अलग-अलग बरताव करना आवश्यक होता है। इस उद्देश्य से लोगों के बीच कुछ अन्तरों को ध्यान में रखना होता है । जैसे— विकलांगों की सार्वजनिक स्थानों पर विशेष दलान वाले रास्तों की मांग न्यायोचित होगी, क्योंकि इससे ही उन्हें सार्वजनिक भवनों में प्रवेश करने का समान अवसर मिल सकेगा। ऐसे अलग-अलग बरतावों को समानता को बढ़ावा देने वाले उपायों के रूप में देखा जाना चाहिए। इसी को विभेदक बरताव द्वारा समानता की स्थापना कहते हैं।

प्रश्न 17.
अवसरों की समानता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक कार्यवाही’ के विचार को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
सकारात्मक कार्यवाही: कुछ देशों ने अवसरों की समानता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक कार्यवाही’ की नीतियाँ अपनाई हैं। सकारात्मक कार्यवाही इस विचार पर आधारित है कि कानून द्वारा औपचारिक समानता स्थापित कर देना पर्याप्त नहीं है। असमानताओं को मिटाने के लिए जरूरी होगा कि असमानता की गहरी खाइयों को भरने वाले अधिक सकारात्मक कदम उठाए जाएँ। इसीलिए सकारात्मक कार्यवाही की अधिकतर नीतियाँ अतीत की असमानताओं के संचयी दुष्प्रभावों को दुरुस्त करने के लिए बनाई जाती हैं। सकारात्मक कार्यवाही के रूप- सकारात्मक कार्यवाही के कई रूप हो सकते हैं। यथा

  1. इसमें वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और हॉस्टल जैसी सुविधाओं पर वरीयता के आधार पर खर्च करने की नीति हो सकती है।
  2. इसमें नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए विशेष व्यवस्था करने की नीतियाँ हो सकती हैं। सकारात्मक कार्यवाही के रूप में विशेष सहायता को एक निश्चित समय अवधि तक चलने वाला तदर्थ उपाय माना गया है। इसके पीछे मान्यता यह है कि विशेष बरताव इन समुदायों को वर्तमान वंचनाओं से उबरने में सक्षम बनाएगा और फिर ये अन्य समुदायों से समानता के आधार पर प्रतिस्पर्द्धा कर सकेंगे।

प्रश्न 18.
कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है। इस सम्बन्ध में आप अपने विचार लिखिये।
उत्तर:
कुछ लोगों का तर्क है कि असमानता प्राकृतिक है। लेकिन मैं इस मत से सहमत नहीं हूँ। असमानता प्राकृतिक और सामाजिक दोनों हैं। प्राकृतिक असमानताएँ लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, योग्यताओं, विशिष्टताओं तथा उनके अलग-अलग चयन के कारण पैदा होती हैं। प्राकृतिक असमानताएँ न्यायोचित होती हैं तथा इन्हें बदला नहीं जा सकता। दूसरी तरफ सामाजिक असमानताएँ सामाजिक विशेषाधिकारों, अवसरों की असमानता तथा शोषण के कारण पैदा होती हैं। सामाजिक असमानताएँ समाजजनित होती हैं, ये न्यायोचित नहीं होतीं तथा इन्हें बदला जा सकता है।

प्रश्न 19.
समाज में समानता की स्थापना हेतु सुझाव दीजिये।
उत्तर:
किसी समाज में समानता की स्थापना हेतु निम्न प्रयास किये जाने चाहिए

  1. राजनीतिक समानता की स्थापना: किसी भी लोकतांत्रिक समाज में समानता की स्थापना हेतु सभी व्यक्तियों को समान नागरिकता प्रदान करनी चाहिए। इससे राजनीतिक और कानूनी समानता की स्थापना होगी । राजनीतिक समानता न्यायपूर्ण और समतावादी समाज के गठन के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटक है।
  2. अवसरों की समानता प्रदान करना: समाज में सभी सदस्यों के जीवन-यापन के लिए पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी शिक्षा पाने के अवसर, उचित पोषक आहार व न्यूनतम वेतन जैसी चीजों की गारण्टी होनी चाहिए। राज्य को इस दिशा में विशेष प्रयत्न करना चाहिए कि सभी लोगों को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए अवसरों की समानता हो।
  3. विभेदक बरताव द्वारा समानता: लोग समान अधिकारों का उपभोग कर सकें, इसके लिए विशिष्ट लोगों के लिए विभेदक बरताव की व्यवस्था भी सरकार को करनी चाहिए। जैसे विकलांगों के लिए ढलान वाले रास्तों का होना।
  4. सकारात्मक कार्यवाही या नीतियाँ: अवसरों की समानता को बढ़ाने के लिए सरकार को वंचितों के लिए विशिष्ट नीतियाँ भी बनानी चाहिए। जैसे—भारत में आरक्षण की व्यवस्था की गई है।

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प्रश्न 20.
‘राजनीतिक समानता आर्थिक समानता के बिना अधूरी है।’ स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
राजनीतिक समानता आर्थिक समानता के बिना अधूरी है क्योंकि।

  1. आर्थिक असमानता के कारण समाज धनी और निर्धन वर्गों में बँट जाता है। गरीब वर्ग के पास चुनाव लड़ने के साधनों की कमी होती है। अतः वे अपनी निर्धनता के कारण अपने इस राजनीतिक अधिकार का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। फलतः धनी वर्ग ही राजनीतिक सत्ता का उपभोग करता रहता है।
  2. प्राय: यह भी देखने में आया है कि राजनीतिक दलों एवं मीडिया पर भी गरीब वर्ग की अपेक्षा धनी वर्ग का नियंत्रण रहता है। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी वे समान उपभोग नहीं कर पाते हैं।

प्रश्न 21.
‘समानता और स्वतंत्रता में क्या सम्बन्ध है?’ स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
समानता और स्वतंत्रता में संबंध – समानता और स्वतंत्रता एक-दूसरे की पूरक हैं। ‘समानता के बिना स्वतन्त्रता अधूरी है।’ अतः दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। यथा

  1. स्वतंत्रता और समानता का विकास साथ- साथ हुआ है।
  2. दोनों का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास हेतु उचित वातावरण का निर्माण करना है।
  3. स्वतन्त्रता का उपभोग करने के लिए समानता परमावश्यक है।
  4. समानता और स्वतंत्रता दोनों लोकतंत्र के आधार – स्तंभ हैं।

प्रश्न 22.
उदारवादी समाज में संसाधनों और लाभांशों के वितरण का सबसे कारगर उपाय क्या मानते हैं?
उत्तर:
उदारवादी समाज में संसाधनों और लाभांशों के वितरण का सबसे कारगर तथा उचित तरीका प्रतिद्वन्द्विता के सिद्धान्त को मानते हैं। उनका मानना है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष परिस्थितियों में लोगों के बीच प्रतिस्पर्द्धा ही समाज में लाभांशों के वितरण का सबसे न्यायपूर्ण और कारगर उपाय होती है। जब तक प्रतिस्पर्द्धा स्वतन्त्र और खुली होगी, असमानताओं की खाइयाँ नहीं बनेंगी और लोगों को अपनी प्रतिभा और प्रयासों का लाभ मिलता रहेगा।

प्रश्न 23.
राममनोहर लोहिया की सप्त क्रांतियाँ क्या थीं?
उत्तर:
भारत में प्रमुख समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया ने पाँच तरह की असमानताओं की पहचान की, जिनके खिलाफ एक साथ लड़ना होगा। ये पाँच असमानताएँ थीं

  1. स्त्री-पुरुष असमानता
  2. चमड़ी के रंग पर आधारित असमानता
  3. जातिगत असमानता
  4. कुछ देशों का अन्य पर औपनिवेशिक शासन
  5. आर्थिक असमानता। लोहिया का कहना था कि इस असमानताओं में से प्रत्येक की अलग-अलग जड़ें हैं और उन सबके खिलाफ अलग-अलग लेकिन एक साथ संघर्ष छेड़ने होंगे। उनके लिए उक्त पाँच असमानताओं के खिलाफ संघर्ष का अर्थ था पाँच क्रांतियाँ। उन्होंने इस सूची में दो और क्रांतियों को शामिल किया
  6. व्यक्तिगत जीवन पर अन्यायपूर्ण अतिक्रमण के खिलाफ नागरिक स्वतंत्रता के लिए क्रांति तथा
  7. अहिंसा के लिए, सत्याग्रह के पक्ष में शस्त्र त्याग के लिए क्रांति । ये ही सप्तक्रांतियां थीं, जो लोहिया के अनुसार समाजवाद का आदर्श हैं।

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प्रश्न 24.
भारत द्वारा अपनाई गयी सकारात्मक विभेदीकरण, विशेषकर आरक्षण की नीति के विरोध में आलोचक क्या तर्क देते हैं?
उत्तर:
आरक्षण की नीति के विरोध में तर्क- आरक्षण की नीति के आलोचक इसके विरोध में समानता के सिद्धान्त का सहारा लेते हुए निम्नलिखित तर्क देते हैं।

  1. वंचितों को उच्च शिक्षा या नौकरियों में आरक्षण या कोटा देने का कोई भी प्रावधान अनुचित है, क्योंकि यह मनमाने तरीके से समाज के अन्य वर्गों को समान व्यवहार के अधिकार से वंचित करता है।
  2. आरक्षण भी एक तरह का भेदभाव है जबकि समानता की माँग है कि सब लोगों से बिल्कुल एक तरह से व्यवहार हो।
  3. जब हम जाति के आधार पर अंतर करते हैं, तब हम जातिगत और नस्लगत पूर्वाग्रहों को और भी मजबूत कर रहे होते हैं।

प्रश्न 25.
नारीवाद क्या है?
उत्तर:
नारीवाद: नारीवाद स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त है। वे स्त्री या पुरुष नारीवादी कहलाते हैं, जो मानते हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच की अनेक असमानताएँ न तो नैसर्गिक हैं और न ही आवश्यक। नारीवादियों का मानना है कि इन असमानताओं को बदला जा सकता है और स्त्री-पुरुष एक समतापूर्ण जीवन जी सकते हैं।

प्रश्न 26.
‘नारीवादियों के अनुसार स्त्री-पुरुष असमानता का मूल कारण पितृसत्ता है।’ इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
पितृसत्ता से आशय एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्था से है, जिसमें पुरुष को स्त्री से अधिक महत्त्व और शक्ति दी जाती है। इसके अनुसार पुरुष और स्त्री प्रकृति से भिन्न हैं और यही भिन्नता समाज में उनकी असमान स्थिति को न्यायोचित ठहराती है। लेकिन नारीवादियों का कहना है कि स्त्री-पुरुष के बीच जैविक विभेद तो प्राकृतिक है, लेकिन लैंगिकता ( स्त्री-पुरुष के बीच सामाजिक भूमिकाओं का विभेद) समाजजनित है।

पितृसत्ता ने श्रम का विभाजन कुछ ऐसा किया है जिसमें स्त्री घरेलू किस्म के कार्यों के लिए जिम्मेदार है तो पुरुष की जिम्मेदारी सार्वजनिक और बाहरी दुनिया के कार्यक्षेत्र से है। नारीवादियों का मत है कि निजी और सार्वजनिक के बीच यह विभेद और सामाजिक लैंगिकता की असमानता के सभी रूपों को दूर किया जा सकता है। स्पष्ट है कि स्त्री-पुरुष असमानता का मूल कारण पितृसत्ता है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
समानता क्या है? समानता के आयामों को स्पष्ट कीजिये।
अथवा
समानता का अर्थ स्पष्ट करते हुए उसके प्रकारों की व्याख्या कीजिये।
उत्तर: समानता का अर्थ समानता की अवधारणा में यह निहित है कि सभी मनुष्य अपनी दक्षता और प्रतिभा को विकसित करने के लिए तथा अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए समान अधिकार और अवसरों के हकदार हैं। समान अवसरों की समानता को व्यावहारिक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षित आवास जैसी बुनियादी चीजों की उपलब्धता में अत्यधिक असमानताएँ न हों तथा जन्म, धर्म, नस्ल, जाति एवं लिंग के आधार पर लोगों के साथ कोई भेद-भावपूर्ण व्यवहार नहीं किया जाता हो और न ही अवसरों की उपलब्धता में इनके आधार पर व्यक्तियों के बीच कोई भेदभाव किया जाता हो। समानता के आयाम विभिन्न विचारकों और विचारधाराओं ने समानता के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तीन आयामों को रेखांकित किया है। यथा

1. राजनीतिक समानता:
लोकतांत्रिक समाजों में सभी सदस्यों को समान नागरिकता प्रदान करना राजनैतिक समानता में शामिल है। समान नागरिकता अपने साथ कुछ मूलभूत अधिकार, जैसे मतदान का अधिकार, कहीं भी आने- जाने, संगठन बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता लाती है। ये ऐसे अधिकार हैं, जो नागरिकों को अपना विकास करने और राज्य के काम-काज में हिस्सा लेने में सक्षम बनाने के लिए आवश्यक माने जाते हैं। अतः ये अधिकार राजनीतिक समानता के अंग हैं। लेकिन ये समान औपचारिक अधिकार हैं, जिन्हें संविधान और कानूनों द्वारा सुनिश्चित किया गया है। राजनीतिक समानता न्यायपूर्ण और समतावादी समाज के गठन के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटक है, लेकिन यह अपने आप में पर्याप्त नहीं है क्योंकि सभी नागरिकों को समान अधिकार देने वाले देशों में भी काफी असमानता विद्यमान हैं। ऐसी असमानताएँ प्रायः सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में नागरिकों को उपलब्ध संसाधनों और अवसरों की भिन्नता का परिणाम होती हैं। इसलिए प्राय: समान अवसर के लिए एक समान स्थितियों की माँग उठती है।

2. सामाजिक समानता:
राजनीतिक समानता या समान कानूनी अधिकार देना समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में पहला कदम था। राजनीतिक समानता की जरूरत उन बाधाओं को दूर करने में है जिन्हें दूर किए बिना लोगों का सरकार में अपनी बात रखने और उपलब्ध साधनों तक पहुँचना संभव नहीं होगा। लेकिन समानता के उद्देश्य की दूसरी आवश्यकता यह है कि विभिन्न समूह और समुदायों के लोगों के पास इन साधनों और अवसरों को पाने का बराबर और उचित मौका हो। इसके लिए यह आवश्यक है कि समाज में सभी सदस्यों के जीवनयापन के लिए अन्य चीजों के अतिरिक्त पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधा, अच्छी शिक्षा पाने का अवसर, उचित पोषक आहार व न्यूनतम वेतन जैसी कुछ न्यूनतम चीजों की गारण्टी हो। इन सुविधाओं के अभाव में समाज के सभी सदस्यों के लिए समान शर्तों पर प्रतिस्पर्द्धा करना संभव नहीं होगा।

भारत में समान अवसरों के मद्देनजर एक विशेष समस्या कुछ सामाजिक रीति-रिवाजों से सामने आती है। देश के विभिन्न हिस्सों में औरतों को उत्तराधिकार का समान अधिकार नहीं मिलता, उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त करने से भी हतोत्साहित किया जाता है आदि। ऐसे मामलों में राज्य औरतों को समान कानूनी अधिकार प्रदान करके, शिक्षण या कुछ अन्य देशों में प्रवेश के लिए प्रोत्साहन जैसे उपाय करके अपनी भूमिका निभाता है। लोगों में जागरूकता बढ़ाने और इन अधिकारों का प्रयोग करने वालों को समर्थन देकर भी राज्य अपनी भूमिका निभा सकता है।

3. आर्थिक समानता:
आर्थिक समानता से आशय समाज में धन-दौलत या आय की समानता का होना है। यह सही है कि समाज में धन- – दौलत या आय की पूरी समानता संभवत: कभी विद्यमान नहीं रही। आज अधिकतर लोकतंत्र लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं। यह माना जाता है कि समान अवसर कम से कम उन्हें अपनी हालत को सुधारने का मौका देते हैं जिनके पास प्रतिभा और संकल्प है। समान अवसरों के साथ भी असमानता बनी रह सकती है, लेकिन इसमें यह संभावना छुपी रहती है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर कर सकता है।

लेकिन समाज में अत्यधिक आर्थिक असमानताएँ भी नहीं होनी चाहिए। अगर किसी समाज में लोगों के कुछ खास वर्ग के लोग पीढ़ियों से बेशुमार धन-दौलत और इसके साथ हासिल होने वाली सत्ता का उपभोग करते हैं, तो समाज दो वर्गों – अत्यधिक धनी और विशेषाधिकार सम्पन्न वर्ग और अत्यधिक निर्धन और विशेषाधिकारविहीन वर्ग में बंट जाता है। ये आर्थिक असमानताएँ सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा देती हैं। इसलिए ऐसी असमानताओं को दूर करने के लिए सरकार को सकारात्मक कार्यवाही की नीतियाँ बनानी चाहिए ताकि अत्यधिक आर्थिक असमानता को कम किया जा सके और अवसर की समानता को व्यावहारिक बनाया जा सके।

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प्रश्न 2.
समाज में समानता की स्थापना के सम्बन्ध में मार्क्सवादी विचारधारा को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
मार्क्सवाद मार्क्सवाद हमारे समाज की एक प्रमुख राजनीतिक विचारधारा है। मार्क्स 19वीं सदी का एक प्रमुख विचारक था। उसके विचारों को मार्क्सवादी विचारधारा के रूप में जाना जाता है। उसके सामाजिक असमानता व समानता सम्बन्धी प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं।

  1. आर्थिक संसाधनों का निजी स्वामित्व आर्थिक असमानता का प्रमुख कारक: समाज में अत्यधिक असमानताओं का मूल कारण महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों, जैसे। जल, जंगल, जमीन या तेल समेत अन्य प्रकार की सम्पत्ति का निजी स्वामित्व है। निजी स्वामित्व मालिकों के वर्ग को सिर्फ अमीर नहीं बनाता, बल्कि उन्हें राजनैतिक शक्ति भी प्रदान करता है। यह शक्ति उन्हें राज्य की नीतियों और कानूनों को प्रभावित करने में सक्षम बनाती हैं और वे लोकतांत्रिक सरकार के लिए खतरा साबित हो सकते हैं।
  2. आर्थिक असमानताएँ सामाजिक असमानताओं का कारक हैं। मार्क्सवादी यह महसूस करते हैं कि आर्थिक असमानताएँ सामाजिक रुतबे या विशेषाधिकार जैसी अन्य तरह की सामाजिक असमानताओं को बढ़ावा देती हैं।
  3. समानता की स्थापना के लिए संसाधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व आवश्यक: समाज में असमानता से निबटने के लिए हमें समान अवसर उपलब्ध कराने से आगे जाने और आवश्यक संसाधनों तथा अन्य तरह की सम्पत्ति पर जनता का नियंत्रण कायम करने और सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।

प्रश्न 3.
उदारवादी विचारधारा के समानता सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
उदारवादी: उदारवादी विचारधारा आधुनिक युग की प्रमुख राजनैतिक विचारधारा है। समाज में समानता की स्थापना के सम्बन्ध में उदारवादी दृष्टिकोण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. प्रतिद्वन्द्विता के सिद्धान्त का समर्थन:
उदारवादी विचारक समाज में संसाधनों और लाभांश के वितरण के सर्वाधिक कारगर और उचित तरीके के रूप में प्रतिद्वन्द्विता के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। वे मानते हैं कि स्वतंत्र और निष्पक्ष परिस्थितियों में लोगों के बीच प्रतिस्पर्द्धा ही समाज में लाभांशों के वितरण का सबसे न्यायपूर्ण और कारगर उपाय है। जब तक प्रतिस्पर्द्धा स्वतंत्र और खुली होगी असमानताओं की खाइयाँ नहीं बनेंगी और लोगों को अपनी प्रतिभा और प्रयासों का लाभ मिलता रहेगा।

उनका कहना है कि नौकरियों में नियुक्ति और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए चयन के उपाय के रूप में प्रतिस्पर्द्धा का सिद्धान्त सर्वाधिक न्यायोचित व कारगर है। उदाहरण के लिए, अपने देश में अनेक छात्र व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में नामांकन की आशा करते हैं, जबकि प्रवेश के लिए अत्यधिक कड़ी प्रतिस्पर्द्धा है। समय-समय पर सरकार और अदालतों शैक्षणिक संस्थानों और प्रवेश परीक्षाओं का नियमन करने के लिए हस्तक्षेप किया है, ताकि प्रत्याशी को उचित और समान अवसर मिले, फिर भी कुछ को प्रवेश नहीं मिलता, लेकिन इसे सीमित सीटों के बंटवारे का निष्पक्ष तरीका माना जाता है।

2. राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक असमानताएँ अनिवार्यतः
एक-दूसरे से जुड़ी नहीं होतीं – उदारवादी उक्त तीनों असमानताओं को अनिवार्यतः एक-दूसरे से जुड़ी होने के सिद्धान्त पर सहमत नहीं हैं। इसलिए उनका मानना है कि इनमें से हर क्षेत्र की असमानताओं का निराकरण ठोस तरीके से करना चाहिए। इसलिए लोकतंत्र राजनीतिक समानता प्रदान करने में सहायक हो सकता है। लेकिन सामाजिक तथा आर्थिक असमानताओं के समाधान के लिए विविध सकारात्मक रणनीतियों की खोज करना भी आवश्यक है।

3. असमानता अपने आप में समस्या नहीं:
उदारवादियों के लिए असमानता अपने आप में समस्या नहीं है, बल्कि वे केवल ऐसी अन्यायी और गहरी असमानताओं को ही समस्या मानते हैं, जो लोगों को उनकी वैयक्तिक क्षमताएँ विकसित करने से रोकती हैं।

प्रश्न 4.
नारीवाद से आप क्या समझते हैं? स्त्री-पुरुष असमानता के सम्बन्ध में नारीवाद विचारों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
नारीवाद: नारीवाद स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक सिद्धान्त है। वे स्त्री या पुरुष नारीवादी कहलाते हैं जो मानते हैं कि स्त्री – पुरुष के बीच की अनेक असमानताएँ न तो नैसर्गिक हैं और न ही आवश्यक। नारीवादियों का मानना है कि इन असमानताओं को बदला जा सकता है और स्त्री-पुरुष एक समतापूर्ण जीवन जी सकते हैं। असमानता के सम्बन्ध में प्रमुख नारीवादी विचार स्त्री-पुरुष असमानता व समानता के सम्बन्ध में नारीवादी सिद्धान्त की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं।

1. स्त्री-पुरुष असमानता पितृसत्ता का परिणाम है:
नारीवाद के अनुसार स्त्री-पुरुष असमानता ‘पितृसत्ता’ का परिणाम है। पितृसत्ता से आशय एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था से है, जिसमें पुरुष को स्त्री से अधिक महत्त्व और शक्ति दी जाती है। पितृसत्ता के अनुसार पुरुष और स्त्री प्रकृति से भिन्न हैं और यही भिन्नता समाज में उनकी असमान स्थिति को न्यायोचित ठहराती है। नारीवादी पितृसत्ता की इस धारणा से सहमत नहीं हैं।

2. स्त्री-पुरुष के बीच जैविक ( लिंग ) भेद और सामाजिक भूमिका सम्बन्धी भेद में अन्तर है।
नारीवादी विचारक स्त्री-पुरुष के बीच जैविक विभेद और उनके बीच सामाजिक भूमिकाओं के विभेद के बीच अन्तर करने पर बल देते हैं। उनका कहना है कि जैविक विभेद (लिंग-भेद ) प्राकृतिक और जन्मजात होता है जबकि दोनों के बीच सामाजिक भूमिकाओं का भेद समाजजनित है। यह एक जीव विज्ञान का तथ्य है कि केवल औरत ही गर्भ धारण करके बालक को जन्म दे सकती है, लेकिन जीव विज्ञान के तथ्य में यह निहित नहीं है कि जन्म देने के बाद केवल स्त्री ही बालक का लालन-पालन करे। इस प्रकार नारीवादियों ने यह स्पष्ट किया है कि स्त्री-पुरुष के बीच भूमिकाओं सम्बन्धी भेद प्राकृतिक नहीं बल्कि समाजजनित हैं।

3. घरेलू और बाह्य कार्यों के विभाजन की अस्वीकृति:
नारीवादियों का मत है कि पितृसत्ता ने ही ऐसा श्रम विभाजन किया है कि स्त्री निजी और घरेलू किस्म के कार्यों के प्रति जिम्मेदार है और पुरुष बाहरी कार्यों के प्रति । नारीवादी इस विभेद को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि अधिकतर स्त्रियाँ ‘ सार्वजनिक और बाहरी क्षेत्र’ में भी सक्रिय होती हैं । इसीलिए विश्व में स्त्रियाँ घर से बाहर अनेक क्षेत्रों में कार्यरत हैं और घरेलू कामकाज की पूरी जिम्मेदारी केवल स्त्रियों के कंधों पर है। नारीवादी इसे स्त्रियों के कंधों पर दोहरा बोझ बताते हैं। इस दोहरे बोझ के बावजूद स्त्रियों को ‘सार्वजनिक क्षेत्र के निर्णयों में ‘ना’ के बराबर महत्त्व दिया जाता है।

4. सामाजिक भूमिका सम्बन्धी लैंगिक असमानता के सभी रूपों को मिटाया जा सकता है:
नारीवादियों का मानना है कि निजी / सार्वजनिक के बीच यह विभेद और समाज या व्यक्ति द्वारा गढ़ी हुई भूमिका जनित लैंगिक असमानता के सभी रूपों को मिटाया जा सकता है तथा लिंग-सम्बन्धी समानता की स्थापना के लिए असमानता के इन रूपों को मिटाया जा सकता है और मिटाया जाना चाहिए।
कीजिए।

प्रश्न 5.
” आज समाज में हमारे चारों ओर समानता की बजाय असमानता अधिक नजर आती है। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समाज में व्याप्त असमानता: यद्यपि आज विश्व में समानता व्यापक रूप से स्वीकृत आदर्श है, जिसे अनेक देशों के संविधान और कानूनों में सम्मिलित किया गया है; तथापि विश्व समाज में हमारे चारों ओर समानता की बजाय असमानता अधिक नजर आती है। हम एक ऐसी जटिल दुनिया में रहते हैं जिसमें धन-संपदा, अवसर, कार्य स्थिति और शक्ति की भारी असमानता है। नीचे विश्व और हमारे देश के स्तर पर असमानता दर्शाने वाले कुछ आंकड़े दिये गये हैं-

  1. दुनिया के 50 सबसे अमीर आदमियों की सामूहिक आमदनी दुनिया के 40 करोड़ सबसे गरीब लोगों की सामूहिक आमदनी से अधिक है।
  2. दुनिया की 40 प्रतिशत गरीब जनसंख्या का दुनिया की कुल आमदनी में हिस्सा केवल 5 प्रतिशत है, जबकि 10 प्रतिशत अमीर लोग दुनिया की 54 प्रतिशत आमदनी पर नियंत्रण करते हैं।
  3. पहली दुनिया खासकर उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के अगड़े औद्योगिक देशों में दुनिया की जनसंख्या का 25 प्रतिशत हिस्सा रहता है, लेकिन दुनिया के 86 प्रतिशत उद्योग इन्हीं देशों में हैं और दुनिया की 80 प्रतिशत ऊर्जा इन्हीं देशों में इस्तेमाल की जाती है।
  4. इन अगड़े औद्योगिक देशों (उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों) के निवासी भारत या चीन जैसी विकासशील देशों के निवासी की तुलना में कम से कम तीन गुना अधिक पानी, दस गुना ऊर्जा, तेरह गुना लोहा और इस्पात तथा 14 गुना कागज का उपभोग करता है।
  5. गर्भावस्था से जुड़े कारणों से मरने का खतरा नाइजीरिया के लिए 18 में से 1 मामले में है, जबकि कनाडा के लिए यह खतरा 8700 में से 1 मामले में है।
  6. जमीन से अंदर से निकालने वाले ईंधन (कोयला, पेट्रोलियम और गैस) के जलने से दुनियाभर में जो कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है, उसमें से पहली दुनिया के औद्योगिक देशों का हिस्सा दो-तिहाई है। अम्लीय वर्षा के लिए जिम्मेदार सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड का भी तीन-चौथाई हिस्सा इन्हीं देशों द्वारा उत्सर्जित होता है। ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले बहुत सारे उद्योगों को विकसित देशों से हटाकर विकासशील देशों में लगाया जा रहा है।
  7. अपने देश में हम आलीशान आवासों के साथ-साथ झोंपड़पट्टियाँ, विश्वस्तरीय सुविधाओं से लैस स्कूल और वातानुकूलित कक्षाओं के साथ-साथ पेयजल और शौचालय की सुविधा से विहीन स्कूल, भोजन की बर्बादी के साथ-साथ भुखमरी देख सकते हैं।

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प्रश्न 6.
प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं से आप क्या समझते हैं? इन दोनों के अन्तर को स्पष्ट कीजिये तथा दोनों के फर्क करने में आने वाली कठिनाइयों को भी स्पष्ट कीजिये।
अथवा
प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं से आप क्या समझते हैं? इन दोनों में अन्तर करना क्यों उपयोगी है तथा क्या इनके बीच के अन्तर को किसी समाज के कानून और नीतियों का निर्धारण करने में मापदण्ड के तौर पर उपयोग किया जा सकता है?
उत्तर:
प्राकृतिक और सामाजिक असमानताएँ राजनीतिक सिद्धान्त में प्राकृतिक असमानताओं और समाजजनित असमानताओं में अन्तर किया जाता है। यथा प्राकृतिक असमानताएँ – प्राकृतिक असमानताएँ वे होती हैं जो लोगों में उनकी विभिन्न क्षमताओं, प्रतिभा और उनके अलग-अलग चयन के कारण पैदा होती हैं। समाजजनित (सामाजिक) असमानताएँ समाजजनित असमानताएँ वे होती हैं, जो समाज में अवसरों की असमानता होने या किसी समूह का दूसरे के द्वारा शोषण किये जाने से पैदा होती हैं। दोनों में प्रमुख अन्तर अग्रलिखित हैं।

  1. प्राकृतिक असमनताएँ लोगों की जन्मजात विशिष्टताओं और योग्यताओं का परिणाम होती हैं, जबकि सामाजिक असमानताओं को समाज ने पैदा किया है।
  2. प्राकृतिक असमानताओं को सामान्यतः बदला नहीं जा सकता जबकि सामाजिक असमानताओं को बदला जा सकता है।

दोनों असमानताओं में अन्तर करने की उपयोगिता प्राकृतिक और समाजमूलक असमानताओं में अन्तर करना इसलिए उपयोगी होता है क्योंकि इससे स्वीकार की जा सकने लायक और अन्यायपूर्ण असमानताओं को अलग-अलग करने में सहायता मिलती है। प्राकृतिक असमानताएँ जहाँ स्वीकार की जा सकने लायक होती हैं, वहीं समाजजनित असमानताएँ अन्यायपूर्ण होती हैं जिन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। दोनों असमानताओं में अन्तर करने में आने वाली कठिनाइयाँ प्राकृतिक असमानताओं और सामाजिक असमानताओं में अन्तर करने में निम्नलिखित कठिनाइयाँ आती हैं।

1. दोनों में अन्तर हमेशा साफ और अपने आप स्पष्ट नहीं होता:
प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं में फर्क हमेशा साफ और अपने आप स्पष्ट नहीं होता। उदाहरण के लिए जब लोगों के व्यवहार में कुछ असमानताएँ लम्बे काल तक विद्यमान रहती हैं, तो वे हमें मनुष्य की प्राकृतिक विशेषताओं पर आधारित लगने लगती हैं। ऐसा लगने लगता है कि जैसे कि वे जन्मजात हों और आसानी से बदल नहीं सकतीं। जैसे औरतें अनादि काल से ‘अबला’ कही जाती थीं। उन्हें भीरु एवं पुरुषों से कम बुद्धि का माना जाता था, जिन्हें विशेष संरक्षण की जरूरत थी। इसलिए यह मान लिया गया था कि औरतों को समान अधिकार से वंचित करना न्यायसंगत है। आज ऐसे सभी मानकों और मूल्यांकनों पर सवाल उठाये जा रहे हैं तथा इस असमानता को प्राकृतिक असमानता नहीं माना जा सकता। ऐसी ही अन्य अनेक धारणाओं पर अब सवाल उठाये जा रहे हैं।

2. प्राकृतिक मानी गयी कुछ असमानताएँ अब अपरिवर्तनीय नहीं रही हैं:
प्राकृतिक असमानता की एक प्रमुख विशेषता यह है कि ये असमानताएँ अपरिवर्तनीय होती हैं। लेकिन प्राकृतिक मानी गयी कुछ असमानताएँ अब अपरिवर्तनीय नहीं रही हैं। उदाहरण के लिए, चिकित्सा विज्ञान और तकनीकी प्रगति ने विकलांग व्यक्तियों का समाज में प्रभावी ढंग से काम करना संभव बना दिया है। आज कम्प्यूटर नेत्रहीन व्यक्ति की मदद कर सकते हैं, पहियादार कुर्सी और कृत्रिम पाँव शारीरिक अक्षमता के निराकरण में सहायक हो सकते हैं।

कॉस्मेटिक सर्जरी से किसी व्यक्ति की शक्ल- सूरत बदली जा सकती है। आज अगर विकलांग लोगों को उनकी विकलांगता से उबरने के लिए जरूरी मदद और उनके कामों के लिए उचित पारिश्रमिक देने से इस आधार पर इनकार कर दिया जाए कि प्राकृतिक रूप से वे कम सक्षम हैं, तो यह अधिकतर लोगों को अन्यायपूर्ण लगेगा।

इन सब जटिलताओं के कारण प्राकृतिक और सामाजिक असमानताओं के बीच के अन्तर को किसी समाज के कानून और नीतियों का निर्धारण करने में मानदण्ड के रूप में उपयोग करना कठिन होता है। इसी कारण बहुत से सिद्धान्तकार अपने चयन से पैदा हुई असमानता और व्यक्ति के विशेष परिवार या परिस्थितियों में जन्म लेने से पैदा हुई असमानता में फर्क करते हैं तथा वे चाहते हैं कि परिवेश से जन्मी असमानता को न्यूनतम और समाप्त किया जाये।

प्रश्न 7.
हम समानता को किस प्रकार बढ़ावा दे सकते हैं?
अथवा
हम समानता की ओर कैसे बढ़ सकते हैं और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में असमानता को न्यूनतम कैसे कर सकते हैं?
उत्तर:
हम समानता को बढ़ावा कैसे दे सकते हैं?
वर्तमान में इस विचार पर निरन्तर बहस जारी है कि समानता की ओर बढ़ने के लिए कौन-से सिद्धान्त और नीतियाँ आवश्यक हैं? समानता की ओर बढ़ने के लिए प्रमुख कदमों की विवेचना निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत की गई हैकीजिए।

1. औपचारिक समानता की स्थापना:
समानता लाने की दिशा में पहला कदम असमानता और विशेषाधिकार की औपचारिक व्यवस्था को समाप्त करना होगा। विश्व में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक असमानताओं को कुछ रीति-रिवाजों और कानूनी व्यवस्थाओं से संरक्षित रखा गया है। इनके द्वारा समाज के कुछ हिस्सों को सभी प्रकार के अवसरों और लाभों का आनंद उठाने से रोका जाता था। यथा

  1. बहुत सारे देशों में गरीब लोगों को मताधिकार से वंचित रखा जाता था।
  2. महिलाओं को बहुत सारे व्यवसाय और गतिविधियों में भाग लेने की इजाजत नहीं थी।
  3. भारत में जाति-व्यवस्था निचली जातियों को शारीरिक श्रम के अलावा कुछ भी करने से रोकती थी।
  4. कुछ देशों में केवल कुछ खास परिवारों के लोग ही सर्वोच्च पदों तक पहुँच सकते हैं।

समानता की प्राप्ति के लिए ऐसे सभी निषेधों व विशेषाधिकारों का अन्त किया जाना आवश्यक है। चूँकि ऐसी बहुत सी व्यवस्थाओं को कानून का समर्थन भी प्राप्त है, इसलिए यह आवश्यक है कि सरकार और कानून असमानतामूलक ऐसी व्यवस्थाओं को संरक्षण देना बंद करे। हमारे देश के संविधान में भी यही किया है। संविधान धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने का निषेध करता है तथा छुआछूत की प्रथा का भी उन्मूलन करता है। वर्तमान में लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में संविधान तथा सरकारें औपचारिक (कानूनी ) रूप से समानता के सिद्धान्त को स्वीकार कर चुकी हैं और इस सिद्धान्त को जाति, नस्ल, धर्म या लिंग के भेदभाव के बिना सभी नागरिकों को कानून के एक समान बर्ताव के रूप में समाहित किया है।

2. विभेदक बरताव द्वारा समानता:
समानता के सिद्धान्त को यथार्थ में बदलने के लिए औपचारिक समानता अर्थात् कानून के समक्ष समानता का सिद्धान्त पर्याप्त नहीं है। कभी-कभी लोग समान अधिकारों का उपभोग कर सकें, इसके लिए उनसे अलग बरताव करना भी आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए, विकलांगों के लिए सार्वजनिक स्थानों पर विशेष ढलान वाले रास्तों का होना, या रात में कॉल सेंटर में काम करने वाली महिला को कॉल सेंटर आते-जाते समय विशेष सुरक्षा की व्यवस्था करना आदि। इससे उनके काम के समान अधिकार की रक्षा हो सकेगी। ऐसे विभेदक बरतावों को समानता की कटौती के रूप में नहीं बल्कि समानता को बढ़ावा देने वाले उपायों के रूप में देखा जाना चाहिए।

3. सकारात्मक कार्यवाही की नीतियाँ:
कुछ देशों ने अवसरों की समानता बढ़ाने के लिए ‘सकारात्मक कार्यवाही’ की नीतियाँ अपनाई हैं। इसी संदर्भ में हमारे देश में आरक्षण की नीति अपनाई गई है। सकारात्मक कार्यवाही इस विचार पर आधारित है कि कानून द्वारा औपचारिक समानता स्थापित कर देना पर्याप्त नहीं है। असमानताओं को मिटाने के लिए असमानता की गहरी खाइयों को भरने वाले अधिक सकारात्मक कदम उठाए जाएँ। इसीलिए सकारात्मक कार्यवाही की अधिकतर नीतियाँ अतीत की असमानताओं को संचयी दुष्प्रभावों को दुरुस्त करने के लिए बनाई जाती हैं।

सकारात्मक कार्यवाही के अनेक रूप हो सकते हैं। इसमें वंचित समुदायों के लिए छात्रवृत्ति और हॉस्टल सुविधाओं पर वरीयता के आधार पर खर्च करने से लेकर नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए विशेष व्यवस्था करने तक की नीतियाँ हो सकती हैं। सकारात्मक कार्यवाही के रूप में विशेष सहायता को एक निश्चित समय अवधि तक चलने वाला तदर्थ उपाय माना गया है। इसके पीछे मान्यता यह है कि विशेष बरताव इन समुदायों को वर्तमान वंचनाओं से उबरने में सक्षम बनायेगा और फिर ये अन्य समुदायों से समानता के आधार पर प्रतिस्पर्द्धा कर सकेंगे। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि समानता के विषय में सोचते हुए हमें प्रत्येक व्यक्ति को बिल्कुल एक जैसा मानने और प्रत्येक व्यक्ति को मूलतः समान मानने में अन्तर करना चाहिए।

मूलतः समान व्यक्तियों को विशेष स्थितियों में अलग-अलग बरताव की आवश्यकता हो सकती है। लेकिन ऐसे सभी मामलों में सर्वोपरि उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना ही होना चाहिए। एक खास स्थिति में विशेष बरताव जरूरी है या नहीं, इसके लिए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एक समूह समान अधिकारों का उसी प्रकार आनंद उठा सके जैसा कि शेष समाज। यह विशेष बरताव वर्चस्व या शोषण की नई संरचनाओं को जन्म न दे अथवा यह समाज में विशेषाधिकार और शक्ति को फिर से स्थापित करने वाला एक प्रभावशाली उपकरण न बने। संक्षेप में, विशेष बरताव का उद्देश्य और औचित्य एक न्यायपरक और समतामूलक समाज को बढ़ावा देने के माध्यम के अतिरिक्त कुछ और नहीं है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में जो राष्ट्रवाद का अवगुण है, वह है।
(अ) देशभक्ति
(ब) लोगों को स्वतंत्रता की प्रेरणा देना
(स) उग्र-राष्ट्रवाद
(द) राष्ट्रीय एकता
उत्तर:
(स) उग्र-राष्ट्रवाद

2. निम्नलिखित में कौनसा राष्ट्रवाद का गुण
(अ) उग्र-राष्ट्रवादी भावना
(ब) साम्राज्यवाद की प्रेरणा देना
(स) राष्ट्रीय एकता की भावना
(द) पृथकतावादी आंदोलनों को प्रेरित करना
उत्तर:
(स) राष्ट्रीय एकता की भावना

3. निम्नलिखित में आत्म-निर्णय की अवधारणा का गुण है
(अ) लोगों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करना
(ब) सीमा विवादों का कारण होना
(स) पृथकतावादी आंदोलनों को प्रेरित करना
(द) शरणार्थी की समस्या का कारण
उत्तर:
(अ) लोगों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करना

4. क्यूबेकवासियों द्वारा किस राष्ट्र में पृथकवादी आंदोलन चलाया जा रहा है
(अ) उत्तरी स्पेन में
(ब) कनाडा में
(स) इराक में
(द) श्रीलंका में
उत्तर:
(ब) कनाडा में

5. श्रीलंका में निम्नलिखित में से किस समूह द्वारा पृथकतावादी आंदोलन चलाया जा रहा है-
(अ) कुर्दों द्वारा
(ब) बास्कवासियों द्वारा
(स) क्यूबेकवासियों द्वारा
(द) उक्त सभी
उत्तर:
(द) उक्त सभी

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6. निम्नांकित में से राष्ट्रीयता का तत्त्व है
(अ) भौगोलिक एकता
(ब) भाषा, संस्कृति तथा परम्पराएँ
(स) नस्ल अथवा प्रजाति की एकता
(द) तमिलों द्वारा
उत्तर:
(द) तमिलों द्वारा

7. ” राष्ट्रवाद हमारी अंतिम आध्यात्मिक मंजिल नहीं हो सकती। मेरी शरण स्थली तो मानवता है। मैं हीरों की कीमत पर शीशा नहीं खरीदूँगा तथा जब तक मैं जीवित हूँ, देशभक्ति को मानवता पर कदापि विजयी नहीं होने
दूँगा ।” उक्त कथन है
(अ) रवीन्द्रनाथ का
(ब) पण्डित नेहरू का
(स) महात्मा गाँधी का
(द) जे. एस. मिल का
उत्तर:
(अ) रवीन्द्रनाथ का

8. निम्न में से भारत में राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने वाला प्रमुख कारक है-
(अ) विदेशी प्रभुत्व
(ब) पाश्चात्य विचार तथा शिक्षा
(स) सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलन
(द) उक्त सभी
उत्तर:
(द) उक्त सभी

9. नेशनेलिटी शब्द किस लैटिन भाषी शब्द से उत्पन्न हुआ है?
(अ) नेट्स
(ब) नेलि
(स) नेसट्
(द) नेशन
उत्तर:
(अ) नेट्स

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10. राष्ट्र निर्माण के लिए साझे राजनैतिक आदर्श हैं।
(अ) लोकतंत्र
(ब) धर्मनिरपेक्षता
(स) उदारवाद
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. 20वीं सदी में नए राष्ट्रों के लोगों ने एक नई राजनीतिक पहचान अर्जित की, जो ……………………. की सदस्यता पर आधारित थी।
उत्तर:
राष्ट्र-राज्य

2. दुनिया में ……………… आज भी एक प्रभावी शक्ति है।
उत्तर:
राष्ट्रवाद

3. भविष्य के बारे में साझा नजरिया, अपना भू क्षेत्र और साझी ऐतिहासिक पहचान तथा स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व बनाने की सामूहिक चाहत ………………. को बाकी समूहों से अलग करती है।
उत्तर:
राष्ट्र

4. बाकी सामाजिक समूहों से अलग राष्ट्र के लोग …………………….. का अधिकार मांगते हैं।
उत्तर:
आत्मनिर्णय

5. आज दुनिया की सारी राज्य सत्ताएँ इस …………………… में फँसी हैं कि आत्मनिर्णय के आंदोलनों से कैसे निपटा जाये।
उत्तर:
दुविधा।

निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये

1. भारतीय संविधान में धार्मिक, भाषायी और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों की संरक्षा के लिए विस्तृत प्रावधान हैं।
उत्तर:
सत्य

2. राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्संयोजन की प्रक्रिया वर्तमान में खत्म हो गई है।
उत्तर:
असत्य

3. राष्ट्रवाद ने जहाँ एक ओर वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया, वहाँ यह बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में भी हिस्सेदार रहा है।
उत्तर:
सत्य

4. भारत का औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र होने का संघर्ष राष्ट्रवादी संघर्ष नहीं था।
उत्तर:
असत्य

5. बहुत सारे राष्ट्रों की पहचान एक खास भौगोलिक क्षेत्र से जुड़ी है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. गणतंत्र दिवस की परेड (अ) राष्ट्र और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बँधा एक काल्पनिक समुदाय
2. इराक में कुर्दों का आंदोलन, (ब) जवाहरलाल नेहरू
3. अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं (स) जवाहरलाल नेहरू यहूदियों का दावा काल्पनिक समुदाय और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बँधा एक
4. ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ नामक पुस्तक (द) भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक
5. उनका मूल गृह-स्थल फिलिस्तीन उनका स्वर्ग है (य) एक पृथकतावादी आंदोलन.

उत्तर:

1. गणतंत्र दिवस की परेड (द) भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक
2. इराक में कुर्दों का आंदोलन, (य) एक पृथकतावादी आंदोलन.
3. अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं (अ) राष्ट्र और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बँधा एक काल्पनिक समुदाय
4. ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ नामक पुस्तक (ब) जवाहरलाल नेहरू
5. उनका मूल गृह-स्थल फिलिस्तीन उनका स्वर्ग है (स) जवाहरलाल नेहरू यहूदियों का दावा काल्पनिक समुदाय और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बँधा एक

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक क्यों है?
उत्तर:
क्योंकि गणतंत्र दिवस की परेड सत्ता और शक्ति के साथ विविधता की भावना को भी प्रदर्शित करती है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रवाद के किन्हीं चार प्रतीकों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  1. राष्ट्रगान
  2. राष्ट्रीय ध्वज
  3. राष्ट्रीय नागरिकता
  4. स्वतन्त्रता दिवस।

प्रश्न 3.
19वीं सदी में यूरोप में राष्ट्रवाद ने कौनसी प्रमुख भूमिका निभायी?
उत्तर:
19वीं सदी में यूरोप में राष्ट्रवाद ने छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।

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प्रश्न 4.
20वीं सदी में यूरोप में राष्ट्रवाद की क्या भूमिका रही?
उत्तर:
यूरोप में 20वीं सदी में राष्ट्रवाद आस्ट्रियाई – हंगरियाई, ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्य के पतन का हिस्सेदार रहा।

प्रश्न 5.
20वीं सदी में भारत तथा अन्य पूर्व उपनिवेशों के औपनिवेशिक शासन से मुक्त होने के राष्ट्रवादी संघर्ष किस आकांक्षा से प्रेरित थे?
उत्तर:
ये संघर्ष विदेशी नियंत्रण से स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य स्थापित करने की आकांक्षा से प्रेरित थे।

प्रश्न 6.
वर्तमान विश्व के किन्हीं दो पृथकतावादी आंदोलनों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
आज विश्व में

  1. इराक के कुर्दों तथा
  2. श्रीलंका के तमिलों द्वारा पृथकतावादी आंदोलन चलाए जा रहे हैं।

प्रश्न 7.
राष्ट्र निर्माण के किन्हीं दो तत्त्वों के नाम लिखिये।
उत्तर:

  1. साझे विश्वास तथा
  2. साझा इतिहास

प्रश्न 8.
बास्क राष्ट्रवादी आंदोलन के नेता क्या चाहते हैं?
उत्तर:
बास्क राष्ट्रवादी आंदोलन के नेता यह चाहते हैं कि बास्क स्पेन से अलग होकर एक स्वतंत्र देश बन जाये।

प्रश्न 9.
आत्मनिर्णय के अपने दावे में कोई राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से क्या मांग करता है?
उत्तर:
आत्मनिर्णय के अपने दावे में कोई राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से यह मांग करता है कि उसके पृथक् राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाये।

प्रश्न 10.
‘एक संस्कृति और एक राज्य’ की अवधारणा से क्या आशय है?
उत्तर:
एक संस्कृति – एक राज्य’ की अवधारणा से यह आशय है कि अलग-अलग सांस्कृतिक समुदायों को अलग-अलग राज्य मिले।

प्रश्न 11.
‘एक संस्कृति एक राज्य’ की अवधारणा को 19वीं सदी में मान्यता देने के कोई दो परिणाम लिखिये।
उत्तर:

  1. इससे राज्यों की सीमाओं में बदलाव किये गये।
  2. इससे सीमाओं के एक ओर से दूसरी ओर बहुत बड़ी जनसंख्या का विस्थापन हुआ।

प्रश्न 12.
राष्ट्रीयता के विकास में बाधक तत्वों में से किन्हीं दो का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
अशिक्षा, साम्प्रदायिकता की भावना।

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प्रश्न 13.
ऐसे दो राष्ट्रों के उदाहरण दीजिए जिनमें अपनी कोई सामान्य भाषा नहीं है।
उत्तर:
कनाडा, भारत।

प्रश्न 14.
कनाडा में मुख्यतः कौनसी भाषाएँ बोली जाती हैं?
उत्तर:
अंग्रेजी, फ्रांसीसी।

प्रश्न 15.
विभिन्न राष्ट्र अपनी गृहभूमि को क्या नाम देते हैं?
उत्तर:
मातृभूमि या पितृभूमि या पवित्र भूमि।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले दो कारकों का उल्लेख कीजिये । उत्तर-राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले दो कारक ये हैंरहे हैं।
1. संयुक्त विश्वास: संयुक्त या साझे विश्वास से ही राष्ट्र का निर्माण होता है तथा इसी के चलते उसका अस्तित्व बना रहता है।

2. इतिहास; राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला दूसरा कारक इतिहास है। एक राष्ट्र की स्थायी पहचान का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने के लिए ही संयुक्त स्मृतियों, ऐतिहासिक अभिलेखों की रचना द्वारा इतिहास बोध निर्मित किया जाता है।

प्रश्न 2.
वर्तमान विश्व के किन्हीं चार पृथकतावादी आन्दोलनों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
आज विश्व में

  1. कनाडा के क्यूबेकवासियों
  2. उत्तरी स्पेन के बास्कवासियों
  3. इराक के कुर्दों तथा
  4. श्रीलंका के तमिलों द्वारा पृथकतावादी आन्दोलन चलाये जा रहे हैं।

प्रश्न 3.
राष्ट्र परिवार से किस रूप में भिन्न है?
उत्तर:
परिवार प्रत्यक्ष सम्बन्धों पर आधारित होता है जिसका प्रत्येक सदस्य दूसरे सदस्यों के व्यक्तित्व और चरित्र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी रखता है, जबकि राष्ट्र प्रत्यक्ष सम्बन्धों पर आधारित नहीं होता है।

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प्रश्न 4.
बास्क राष्ट्रवादी आन्दोलन के नेता अपने स्वतंत्र देश की मांग के समर्थन में क्या तर्क देते हैं?
उत्तर:
बास्क राष्ट्रवादी आन्दोलन के नेता अपने लिए स्वतंत्र देश की माँग के समर्थन में यह तर्क देते हैं कि

  1. उनकी संस्कृति तथा भाषा स्पेनी संस्कृति और भाषा से भिन्न है।
  2. बास्क क्षेत्र की पहाड़ी भू-संरचना उसे शेष स्पेन से भौगोलिक तौर पर अलग करती है।
  3. उनकी विशिष्ट न्यायिक, प्रशासनिक और वित्तीय प्रणालियाँ हैं।

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के अन्तर्गत कोई समूह क्या अधिकार चाहता है?
उत्तर:
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार के अन्तर्गत कोई समूह शेष सामाजिक समूहों से अलग अपना राष्ट्र तथा अपना शासन अपने आप करने और भविष्य को तय करने का अधिकार चाहता है।

प्रश्न 6.
राज्यों के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की समस्या का समाधान क्या है?
उत्तर:
राज्यों के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों की समस्या का समाधान नए राज्यों के गठन में नहीं है, वर्तमान राज्यों को अधिक से अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है।

प्रश्न 7.
राष्ट्र और राष्ट्रीयता के बीच क्या अन्तर है?
उत्तर:
राष्ट्र और राष्ट्रीयता के बीच अन्तर केवल राजनीतिक संगठन और स्वतंत्र राज्य सम्बन्धी है। राष्ट्रीयता में सांस्कृतिक एकता तो होती है लेकिन संगठन तथा स्वतंत्र राज्य नहीं होता है। जब राष्ट्रीयता अपने आपको स्वतंत्र होने की इच्छा रखने वाली राजनीतिक संस्था के रूप में संगठित कर लेती है तो वह राष्ट्र बन जाती है।

प्रश्न 8.
पिछली दो शताब्दियों में राष्ट्रवाद ने इतिहास रचने में क्या योगदान दिया है?
उत्तर:
पिछली दो शताब्दियों में राष्ट्रवाद ने इतिहास रचने में निम्न योगदान दिया है।

  1. इसने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है।
  2. इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की है तो इसके साथ यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है।
  3. राष्ट्रवादी संघर्षों ने राष्ट्रों और साम्राज्यों की सीमाओं के निर्धारण – पुनर्निर्धारण में योगदान किया है। आज दुनिया का एक बड़ा भाग विभिन्न राष्ट्र-राज्यों में बंटा हुआ है।

प्रश्न 9.
राष्ट्रवाद के दो प्रमुख चरणों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
राष्ट्रवाद के दो प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं।

  1. 19वीं सदी यूरोप में राष्ट्रवाद ने छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहत्तर राष्ट्र राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। आज के जर्मनी और इटली का गठन इसी का परिणाम है।
  2. 20वीं सदी में राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में भी हिस्सेदार रहा है। यूरोप में 20वीं सदी के आरम्भ में आस्ट्रियाई-हंगेरियाई और रूसी साम्राज्य तथा एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी और डच साम्राज्य के विघटन के मूल में राष्ट्रवाद ही था।

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प्रश्न 10.
अगर हम धर्म के आधार पर अपनी राष्ट्रवादी पहचान स्थापित कर दें तो इसका क्या दुष्परिणाम हो सकता है?
उत्तर:
अगर हम धार्मिक विभिन्नताओं की अवहेलना कर एक समान धर्म के आधार पर अपनी पहचान स्थापित कर दें तो हम बहुत ही वर्चस्ववादी और दमनकारी समाज का निर्माण कर सकते हैं।

प्रश्न 11.
‘एक संस्कृति और एक राज्य की धारणा के विकास का सकारात्मक पहलू क्या था ?
उत्तर:
‘एक संस्कृति और एक राज्य’ की धारणा के विकास का सकारात्मक पहलू यह था कि उन बहुत सारे राष्ट्रवादी समूहों को राजनीतिक मान्यता प्रदान की गई जो स्वयं को एक अलग राष्ट्र के रूप में देखते थे और अपने भविष्य को तय करने तथा अपना शासन स्वयं चलाना चाहते थे।

प्रश्न 12.
19वीं सदी में राष्ट्र निर्माण हेतु ‘एक संस्कृति – एक राज्य’ की मान्यता के क्या दुष्परिणाम हुए?
उत्तर:
19वीं सदी में राष्ट्र निर्माण हेतु ‘एक संस्कृति: एक राज्य’ की मान्यता के परिणामस्वरूप बहुत से छोटे एवं नव स्वतंत्र राज्यों का गठन हुआ। इसके कारण राज्यों की सीमाओं में बदलाव हुए तथा एक ओर से दूसरी ओर बहुत बड़ी जनसंख्या का विस्थापन हुआ। परिणामस्वरूप लाखों लोग अपने घरों से उजड़ गये। बहुत सारे लोग साम्प्रदायिक हिंसा के भी शिकार हुए।

प्रश्न 13.
आज दुनिया की सारी राज्य सत्ताएँ किस दुविधा में फँसी हैं?
उत्तर:
आज दुनिया की सारी राज्य सत्ताएँ अपने भू-क्षेत्रों में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों के आन्दोलनों से निपटने की इस दुविधा में फँसी हैं कि इन आन्दोलनों से कैसे निपटा जाये?

प्रश्न 14.
एक राष्ट्र के भू-क्षेत्र में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों की समस्या का समाधान क्या है?
उत्तर:
एक राष्ट्र के भू-क्षेत्र में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग करने वाले अल्पसंख्यक समूहों की समस्या का समाधान नये राज्यों के गठन में नहीं है बल्कि वर्तमान राज्यों को अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है तथा यह सुनिश्चित करने में है कि अलग-अलग संस्कृतियों और नस्लीय पहचानों के लोग देश में अन्य नागरिकों के साथ सह-अस्तित्वपूर्वक रह सकें।

प्रश्न 15.
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की अब क्या पुनर्व्याख्या की जाती है?
उत्तर:
राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की अब यह पुनर्व्याख्या की जाती है कि राज्य के भीतर किसी राष्ट्रीयता के लिए कुछ लोकतांत्रिक अधिकारों को स्वीकृति प्रदान की जाये। प्रत्येक देश अल्पसंख्यकों की माँगों के सम्बन्ध में अत्यन्त उदारता एवं दक्षता का परिचय दे।

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प्रश्न 16.
” पिछली दो शताब्दियों के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त के रूप में उभरा है जिसने इतिहास रचने में योगदान दिया है।” इस कथन पर एक टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
पिछली दो शताब्दियों के दौरान राष्ट्रवाद ने निम्न रूपों में इतिहास रचने में योगदान दिया है

  1. इसने उत्कट निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को भी प्रेरित किया है।
  2. इसने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है।
  3. इंसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की तो इसके साथ यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है।
  4. साम्राज्यों और राष्ट्रों के ध्वस्त होने का भी यह कारण रहा है।
  5. आज विश्व का एक बड़ा भाग विभिन्न राष्ट्र – राज्यों में विभाजित है और मौजूदा राष्ट्रों के अन्तर्गत अभी भी अलगाववादी राष्ट्रवादी संघर्ष जारी हैं।

प्रश्न 17.
राज्य व राष्ट्र में तीन अन्तर लिखिये।
उत्तर:
राज्य व राष्ट्र में तीन प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं।

  1. आवश्यक तत्व सम्बन्धी अन्तर: एक राज्य में आवश्यक रूप से चार तत्वों – जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार और संप्रभुता का होना आवश्यक है, लेकिन एक राष्ट्र में राज्य के ये आवश्यक तत्व लागू नहीं होते हैं। उसमें चार से कम तत्व हो सकते हैं और अधिक तत्व भी हो सकते हैं।
  2. निश्चित भू-भाग सम्बन्धी अन्तर- प्रत्येक राज्य का एक निश्चित भू-भाग होता है, लेकिन एक राष्ट्र के लिए निश्चित भू-भाग होना आवश्यक नहीं है।
  3. संप्रभुता सम्बन्धी अन्तर- राज्य के लिए संप्रभुता का होना आवश्यक है, लेकिन राष्ट्र के लिए संप्रभुता की आवश्यकता नहीं होती।

प्रश्न 18.
राष्ट्रवाद की प्रक्रिया के प्रमुख चरणों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
राष्ट्रवाद की प्रक्रिया के प्रमुख चरण-राष्ट्रवाद की प्रक्रिया के प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं।

  1. छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण और सुदृढ़ीकरण से वृहत्तर राज्यों की स्थापना का चरण: 19वीं शताब्दी के यूरोप में राष्ट्रवाद ने छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। जर्मनी और इटली का गठन एकीकरण और सुदृढ़ीकरण की इसी प्रक्रिया के तहत हुआ था।
  2. स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियों का राष्ट्रीय निष्ठाओं के रूप में विकास; राज्य की सीमाओं के सृदृढ़ीकरण के साथ-साथ स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियाँ भी उत्तरोत्तर राष्ट्रीय निष्ठाओं एवं सर्वमान्य जनभाषाओं के रूप में विकसित हुईं।
  3. नई राजनीतिक पहचान: नए राष्ट्र के लोगों ने नई राजनीतिक पहचान अर्जित की, जो राष्ट्र-राज्य की सदस्यता पर आधारित थी। पिछली शताब्दी में हमने अपने देश को सुदृढ़ीकरण की ऐसी ही प्रक्रिया से गुजरते देखा है।
  4. बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में हिस्सेदार; यूरोप में 20वीं सदी में आस्ट्रियाई – हंगेरियाई, रूसी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्य के विघटन के मूल में राष्ट्रवाद ही था।
  5. सीमाओं के पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया: राष्ट्रों की सीमाओं की पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया अभी जारी है। 1960 से ही राष्ट्र-राज्य कुछ समूहों या अंचलों द्वारा उठाई गई राष्ट्रवादी मांगों का सामना करते आ रहे हैं। इन मांगों में पृथक् राज्य की मांग भी शामिल है। आज दुनिया के अनेक भागों में ऐसे राष्ट्रवादी संघर्ष जारी हैं।

प्रश्न 19.
राष्ट्र से क्या आशय है?
उत्तर:
राष्ट्र से अभिप्राय-राष्ट्र बहुत हद तक एक काल्पनिक समुदाय होता है, जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बंधा होता है। यह कुछ खास मान्यताओं पर आधारित होता है जिन्हें लोग उस समग्र समुदाय के लिए गढ़ते हैं, जिससे वे अपनी पहचान कायम करते हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 20.
राष्ट्रवाद के लिए एक समान भाषा या जातीय परम्परा जैसी सांस्कृतिक पहिचान का आधार लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा क्यों हो सकता है?
उत्तर:
यद्यपि एक ही भाषा बोलना आपसी संवाद को काफी आसान बना देता है। इसी प्रकार समान धर्म होने पर बहुत सारे विश्वास और सामाजिक रीतिरिवाज साझे हो जाते हैं। लेकिन यह उन मूल्यों के लिए खतरा भी उत्पन्न कर सकता है जिन्हें हम लोकतंत्र में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इसके निम्नलिखित दो कारण हैं

1. विश्व के सभी बड़े धर्म अंदरूनी तौर से विविधता से भरे हुए हैं। एक ही धर्म के अन्दर बने विभिन्न पंथ हैं और धार्मिक ग्रंथों तथा नियमों की उनकी व्याख्याएँ भी काफी अलग-अलग हैं। अगर हम उन पंथिक विभिन्नताओं की अवहेलना कर एक समान धर्म के आधार पर एक पहचान स्थापित कर देंगे तो इससे एक वर्चस्ववादी और दमनकारी समाज का निर्माण होगा जो लोकतंत्र के मूल आदर्शों के विपरीत होगा।

2. विश्व के अधिकतर समाज सांस्कृतिक रूप से विविधता से भरे हैं। एक ही भू-क्षेत्र में विभिन्न धर्म और भाषाओं के लोग साथ-साथ रहते हैं। किसी राज्य की सदस्यता की शर्त के रूप में किसी खास धार्मिक या भाषायी पहचान को आरोपित कर देने से कुछ समूह निश्चित रूप से शामिल होने से रह जायेंगे। इससे इन समूहों की या तो धार्मिक स्वतंत्रता बाधित होगी या राष्ट्रीय भाषा न बोलने वाले समूहों की हानि होगी। दोनों ही स्थितियों में ‘समान बर्ताव और सबके लिए स्वतंत्रता’ के आदर्श में भारी कटौती होगी, जिसे हम लोकतंत्र के लिए अमूल्य मानते हैं।

प्रश्न 21.
राष्ट्रीय आत्म निर्णय के अधिकार से क्या आशय है?
उत्तर:
राष्ट्रीय आत्मनिर्णय: जब कोई सामाजिक समूह शेष सामाजिक समूहों से अलग राष्ट्र चाहता है । वह अपना शासन अपने आप करने और अपने भविष्य को तय करने का अधिकार चाहता है तो उसके इस अधिकार को ही आत्म-निर्णय का अधिकार कहते हैं। इसके दावे में राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से यह मांग करता है कि उसके पृथक् राजनीतिक इकाई या राज्य के दर्जे को मान्यता और स्वीकार्यता दी जाये। प्राय: राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग उन लोगों की ओर से की जाती है जो एक लम्बे समय से किसी निश्चित भू-भाग पर साथ-साथ रहते आए हों और जिनमें साझी पहचान का बोध हो। कुछ मामलों में आत्म-निर्णय के ऐसे दावे एक स्वतंत्र राज्य बनाने की इच्छा से जुड़े होते हैं। कुछ दावों का सम्बन्ध किसी समूह की संस्कृति की संरक्षा से होता है।

प्रश्न 22.
राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाले कारकों को संक्षेप में स्पष्ट कीजिये।
अथवा
राष्ट्रवाद के प्रमुख तत्वों को स्पष्ट करो।
उत्तर:
राष्ट्रवाद के प्रमुख तत्व या उसे प्रेरित करने वाले कारक: राष्ट्रवाद के प्रमुख तत्व तथा राष्ट्रवाद को प्रेरित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं।

  1. साझे विश्वास: राष्ट्र विश्वास के जरिये बनता है। एक राष्ट्र का अस्तित्व तभी कायम रह सकता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ हैं।
  2. इतिहास: जो लोग अपने को एक राष्ट्र मानते हैं, उनके भीतर अपने बारे में स्थायी पहचान की भावना होती है। वे देश की स्थायी पहचान का खाका प्रस्तुत करने के लिए साझा स्मृतियों, किंवदन्तियों और ऐतिहासिक अभिलेखों के जरिए इतिहास बोध निर्मित करते हैं।
  3. भू-क्षेत्र: किसी खास भू-क्षेत्र पर लम्बे समय तक साथ-साथ रहना और उससे जुड़ी साझी अतीत की यादें लोगों को एक सामूहिक पहचान का बोध देती हैं। इसलिए जो लोग स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में देखते हैं, वे एक गृहभूमि की बात करते हैं। जिसे वे मातृभूमि, पितृभूमि या पवित्र भूमि कहते हैं।
  4. साझे राजनीतिक आदर्श-राष्ट्र के सदस्यों की इस बारे में एक साझा दृष्टि होती है कि वे किस तरह का राज्य बनाना चाहते हैं। साझे राजनीतिक आदर्श, जैसे लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, उदारवाद आदि राष्ट्र के रूप में उनकी राजनीतिक पहचान को बताते हैं।
  5. साझी राजनीतिक पहचान: राष्ट्रवादी भावनाओं को प्रेरित करने वाला एक अन्य कारण ‘साझी राजनीतिक पहचान’ अर्थात् ‘एक मूल्य- समूह के प्रति निष्ठा’ का होना आवश्यक है। इस मूल्य समूह को देश के संविधान में भी दर्ज किया जाता है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
बास्क में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय की मांग को स्पष्ट कीजिये। क्या बास्क राष्ट्रवादियों की अलग राष्ट्र की मांग जायज है? आपकी दृष्टि में इसका क्या समाधान हो सकता है?
उत्तर:
बास्क में राष्ट्रीय आत्म-निर्णय की मांग: बास्क स्पेन का एक पहाड़ी और समृद्ध क्षेत्र है। इस क्षेत्र को स्पेनी सरकार ने स्पेन राज्य संघ के अन्तर्गत ‘स्वायत्त’ क्षेत्र का दर्जा दे रखा है, लेकिन बास्क राष्ट्रवादी आन्दोलन के नेतागण इस स्वायत्तता से संतुष्ट नहीं हैं। वे चाहते हैं कि बास्क स्पेन से अलग होकर एक स्वतंत्र देश बन जाए। बास्क राष्ट्रवादियों के तर्क। बास्क राष्ट्रवादी अपनी मांग के समर्थन में निम्न तर्क देते हैं।

  1. उनकी संस्कृति स्पेनी संस्कृति से बहुत भिन्न है।
  2. उनकी अपनी भाषा है, जो स्पेनी भाषा से बिल्कुल नहीं मिलती है।
  3. बास्क क्षेत्र की पहाड़ी भू-संरचना उसे शेष स्पेन से भौगोलिक तौर पर अलग करती है।
  4. रोमन काल से अब तक बास्क क्षेत्र ने स्पेनी शासकों के समक्ष अपनी स्वायत्तता का कभी समर्पण नहीं किया। उसकी न्यायिक, प्रशासनिक एवं वित्तीय प्रणालियाँ उसकी अपनी विशिष्ट व्यवस्था के जरिए संचालित होती थीं।

आधुनिक बास्क आंदोलन के कारण

  1. 19वीं सदी के अंत में स्पेनी शासकों ने बास्क क्षेत्र की विशिष्ट राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था को समाप्त करने की कोशिश की।
  2. 20वीं सदी में तानाशाह फ्रैंको ने इस स्वायत्तता में और कटौती कर दी। उसके बास्क भाषा को सार्वजनिक स्थानों, यहाँ तक कि घर में भी बोलने पर पाबंदी लगा दी।
  3. यद्यपि वर्तमान स्पेनी शासन ने इन दमनकारी कदमों को वापस ले लिया है, तथापि बास्क आंदोलनकारियों का स्पेनी शासन के प्रति संदेह और क्षेत्र में बाहरी लोगों के प्रवेश का भय बरकरार है।

समस्या का संभव समाधान: दमन किये जाने या दमन किये जाने के भय के बने रहने के कारण पैदा हुई बास्क राष्ट्रवादियों की अलग राष्ट्र की मांग जायज है। लेकिन यदि स्पेन का शासन बास्क लोगों के अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान की कद्र करते हुए उनमें भरोसा पैदा करने में समर्थ हो जाते हैं तो वे बास्क के लोगों की स्पेन के प्रति निष्ठा स्वतः ही प्राप्त कर लेंगे। अंतः निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि बास्क के लोगों की समस्या का समाधान नए राज्य के गठन में नहीं है बल्कि वर्तमान स्पेन राज्य को अधिक लोकतांत्रिक और समतामूलक बनाने में है तथा यह सुनिश्चित करने में है कि अलग-अलग सांस्कृतिक और नस्लीय पहचानों के लोग देश में समान नागरिक और साथियों की तरह सह-अस्तित्वपूर्वक रह सकें।

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प्रश्न 2.
राज्य और राष्ट्र में क्या अन्तर है?
उत्तर:
राज्य और राष्ट्र में अन्तर यद्यपि सामान्य बोलचाल में राज्य और राष्ट्र शब्दों को एक-दूसरे के लिए प्रयुक्त किया जाता है तथा दोनों को समानार्थी समझा जाता है। लेकिन दोनों शब्द समानार्थी नहीं हैं, दोनों में स्पष्ट अन्तर है। दोनों के अन्तर को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।
1. राज्य के लिए चार तत्त्वों का होना आवश्यक है:
प्रत्येक राज्य के चार आवश्यक तत्त्व होते हैं। ये हैं- जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार और संप्रभुता। लेकिन राष्ट्र के लिए इन चारों तत्त्वों का होना आवश्यक नहीं है। एक राष्ट्र के 10 तत्त्व हो सकते हैं; दूसरे के केवल चार हो सकते हैं और किसी अन्य के केवल तीन भी हो सकते हैं। राष्ट्र के तत्त्व बदल भी सकते हैं। इस प्रकार राज्य के आवश्यक तत्त्व राष्ट्र के लिये लागू नहीं होते।

2. राज्य के लिए एकता की भावना अनिवार्य नहीं हैं:
एक राज्य के लोग एक निश्चित भू-भाग में निवास करते हैं, उनमें एकता और एकत्व ( oneness) की भावना का होना आवश्यक नहीं है। लेकिन एक राष्ट्र के सदस्यों में एकता की भावना का होना आवश्यक है। यदि किसी समूह के लोग साथ-साथ रहते हैं लेकिन उनमें एकत्व की कोई भावना नहीं है जो अन्य लोगों से उसे अलग करती हो, तो वह समूह राष्ट्र नहीं कहला सकता।

3. राज्य का भू-भाग निश्चित होता है:
प्रत्येक राज्य का एक निश्चित भू-भाग होता है, लेकिन राष्ट्र का निश्चित भू-भाग नहीं होता। एक राष्ट्र में एक या एक से अधिक राज्य हो सकते हैं और एक राज्य में दो या अधिक राष्ट्र हो सकते हैं। यद्यपि वर्तमान में एक राष्ट्र एक राज्य का विचार प्रचलित है और एक राष्ट्र अपने प्रयासों से देर-सवेर स्वतंत्रता प्राप्त कर लेता है।

4. राज्य के पास संप्रभुता होती है: राज्य के लिए संप्रभुता का होना आवश्यक है, लेकिन राष्ट्र के लिए संप्रभुता की आवश्यकता नहीं होती। जब कोई समूह राजनैतिक चेतना प्राप्त कर लेता है और अपनी स्वतंत्रता के लिये प्रयत्न करना प्रारंभ कर देता है, वह समूह स्वयं में एक राष्ट्र की रचना करता है; लेकिन जब तक लोगों को संप्रभुता प्राप्त नहीं होगी, वे राज्य का निर्माण नहीं कर सकते हैं।

5. राष्ट्र अधिक स्थायी है- राष्ट्र राज्य की तुलना में अधिक स्थायी है। जब एक समाज अपनी संप्रभुता को खो देता है, तब राज्य समाप्त हो जाता है, लेकिन उसके सदस्यों की एकता की भावना उसकी राष्ट्र के रूप में पहचान बनाए रखती है। शक्ति के द्वारा पारम्परिक एकता की भावना को समाप्त नहीं किया जा सकता।

6. राष्ट्र की अपेक्षा राज्य भौतिक है- राष्ट्र एक एकता की भावना है लेकिन राज्य वह है जब उसके चारों तत्व एक साथ हों। इनमें भूमि, जनसंख्या और सरकार तीनों तत्व भौतिक हैं।

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प्रश्न 3.
राष्ट्रवाद को परिभाषित कीजिये। इसके गुण तथा दोषों की व्याख्या कीजिये।
अथवा
राष्ट्रवाद के पक्ष व विपक्ष में तर्क दीजिये।
उत्तर:
राष्ट्र से आशय: राष्ट्र बहुत हद तक एक ‘काल्पनिक समुदाय’ होता है, जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बंधा होता है। यह कुछ खास मान्यताओं पर आधारित होता है जिन्हें लोग समग्र समुदाय के लिए गढ़ते हैं जिससे वे अपनी पहचान कायम रखते हैं।

राष्ट्रवाद का अर्थ: इस प्रकार सामान्य बोलचाल में राष्ट्रवाद का अर्थ है। राष्ट्र प्रेम, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्र के लिए बलिदान की भावना, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान की भावना तथा राष्ट्रीय झंडे, राष्ट्रीय प्रतीकों तथा राष्ट्रीय पर्वों, जैसे- स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि के प्रति आदर प्रदर्शित करना है।

राष्ट्रवाद को दो प्रमुख प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. सकारात्मक राष्ट्रवाद: जब लोग अपने राष्ट्र से प्रेम करते हैं तथा इसके विकास तथा बेहतरी के लिए प्रयास करते हैं तो इसे सकारात्मक राष्ट्रवाद कहा जाता है।
  2. नकारात्मक राष्ट्रवाद: जब हम केवल अपने राष्ट्र से ही प्रेम करते हैं और दूसरे राष्ट्रों से घृणा करते हैं, उनका शोषण करते हुए अपने राष्ट्र का विकास करना चाहते हैं तो उसे नकारात्मक या उग्र राष्ट्रवाद कहते हैं। नकारात्मक राष्ट्रवाद के संघर्ष, युद्ध, लोगों की स्वतंत्रताओं में कटौती आदि बुरे परिणाम होते हैं।

राष्ट्रवाद के गुण
अथवा
राष्ट्रवाद के पक्ष में तर्क

राष्ट्रवाद के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं।
1. राष्ट्रवाद लोगों में विश्वास तथा नया जोश जगाता है: राष्ट्रवाद लोगों में परस्पर विश्वास पैदा करता है। यह राष्ट्र-राज्य की बेहतरी के लिए खड़ा होता है और नागरिकों को अपने राष्ट्र को शक्तिशाली और महान बनाने के लिए उसके प्रति भक्ति रखने तथा सभी प्रकार के त्याग करने की प्रेरणा देता है । वे देशभक्ति, राष्ट्रीय एकता तथा अनुशासन की नवीन भावना में अपने अधिकारों और स्वतंत्रताओं को भी भूल जाते हैं। इटली और जर्मनी के एकीकरण में यही घटित हुआ है।

2. देशभक्ति:
राष्ट्रवाद देश भक्ति के लिए लोगों को प्रेरित करता है और उन्हें अपने समाज, देश तथा राष्ट्र के लिए सभी प्रकार के त्याग करने के लिए तैयार करता है। यह राष्ट्रवाद ही है, जब एक राष्ट्र की टीम दूसरे राष्ट्र से मैच जीतती है तो उससे उन्हें गर्व होता है।

3. यह राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए लोगों को प्रेरित करता है:
राष्ट्रवाद विदेशी प्रभुत्व से लोगों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने को प्रेरित करता है। 18वीं सदी में भारत में राष्ट्रीयता की चेतना न होने से वह ब्रिटिश प्रभुत्व के अधीन हो गया। लेकिन भारतीयों में जब राष्ट्रवाद की चेतना का उदय हुआ तथा उसका विस्तार हुआ तो उन्होंने स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन प्रारंभ कर दिया और भारत की स्वतंत्रता तक वह चलता रहा। इसी प्रकार एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के अन्य देशों में भी राष्ट्रवाद ने विदेशी शासन से स्वतंत्रता प्रदान करने में केन्द्रीय भूमिका निबाही

4. यह राष्ट्र के चहुंमुखी विकास हेतु लोगों को कठिन परिश्रम के लिए प्रेरित करता है:
एक समाज जो राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित है लम्बे समय तक अविकसित तथा पिछड़ा हुआ नहीं रह सकता। लोग अपने राष्ट्र के चहुंमुखी विकास पर गौरवान्वित होते हैं और जब वे यह देखते हैं कि उनका राष्ट्र शिक्षा, स्वास्थ्य तथा आर्थिक विकास की दृष्टि से पिछड़ा हुआ है, तो उन्हें ग्लानि होती है। वे विश्व में अपने राष्ट्र को उन्नति के उच्च शिखर पर लाने के लिए कठिन परिश्रम करते हैं।

5. नए राज्यों का उदय:
बड़े राज्यों को दो या अधिक नये राष्ट्रों में विभाजित कर नये राष्ट्र-राज्यों के निर्माण के लिए राष्ट्रवाद उत्तरदायी रहा है। राष्ट्रवाद के कारण नये राज्यों के लोग अपनी नई राजनीतिक पहचान प्राप्त करते हैं। उदाहरण के लिए आस्ट्रियाई हंगेरियाई साम्राज्य को विभाजित कर दो नए राष्ट्र-राज्य आस्ट्रिया और हंगरी का निर्माण राष्ट्रवाद की भावना के तहत ही हुआ।

6. राष्ट्रीय एकता, शक्ति और सुदृढ़ीकरण: राष्ट्रवाद लोगों को अपने छोटे-छोटे मतभेदों तथा विवादों को भूलकर राष्ट्र की एकता के लिए एक हो जाने के लिए प्रेरित करता है। राष्ट्रीय एकता राष्ट्र को शक्तिशाली बनाती है और राष्ट्र सुदृढ़ तथा ताकतवर बनता है। इस प्रकार राष्ट्रवाद लोगों को एकता में बांध देता है और विशेष रूप से संकटकाल में तथा विदेशी आक्रमण के विरुद्ध लोगों को एक चट्टान की तरह एकजुट होकर प्रतिरोध करने को प्रेरित करता है।

7. राजनीतिक स्थायित्व: राष्ट्रवाद राजनैतिक स्थायित्व भी लाता है। राष्ट्रवाद के प्रभाव के अन्तर्गत शक्तिशाली राष्ट्रीय एकता बनी रहती है जो कि सरकार को शक्तिशाली बनाती है। लोग राजनीतिक व्यवस्था को ध्वस्त करने का प्रयास नहीं करते क्योंकि सरकारों को बार-बार अपदस्थ करना तथा शासन व्यवस्था का निरन्तर बदलाव राष्ट्र को बदनाम करेगा।

राष्ट्रवाद के अवगुण
अथवा
राष्ट्रवाद के विपक्ष में तर्क

राष्ट्रवाद के प्रमुख अवगुण निम्नलिखित हैं:
1. राष्ट्रवाद जल्दी ही उग्र राष्ट्रवाद में बदल जाता है:
राष्ट्रवाद दूसरे राष्ट्रों के प्रति गहरे घृणा के भाव को प्रेरित करता है और इस कारण यह जल्दी ही उग्र राष्ट्रवाद में बदल जाता है और लोग अन्य राष्ट्रों व वहाँ के लोगों को अपना दुश्मन मानना शुरू कर देते हैं। वे अपने राष्ट्र को विश्व का सबसे अधिक शक्तिशाली तथा विकसित राष्ट्र बनाने के लिए प्रयास प्रारंभ कर देते हैं। इस प्रकार राष्ट्रों के बीच जल्दी ही एक प्रजाति का भाव उदित हो जाता है जो कि बहुत हानिकारक है क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र इसे प्राप्त करने के लिए उचित और अनुचित सभी उपलब्ध साधनों को अपनाने लग जाता है। प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को निरुत्साहित करता है तथा उसे निम्नस्तरीय बताने का प्रयास करता है।

2. राष्ट्रवाद बड़े राष्ट्रों को छोटे राष्ट्रों में तोड़ने के लिए प्रेरित करता है:
राष्ट्रवाद राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के विचार के आधार पर कुछ बड़े राज्यों के लोगों को छोटे-छोटे राज्यों में परिवर्तित कराने की मांग उठाने की प्रेरणा देता है। -भाषा- भाषियों तथा भिन्न-भिन्न अधिकतर समाज सांस्कृतिक रूप से विविधता से भरे हैं। प्रत्येक समाज में विभिन्न धर्मों, क्षेत्रीय संस्कृतियों व उप-संस्कृतियों के लोग रहते हैं। वे क्षेत्र जो एक राष्ट्र के अन्तर्गत अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं, उनमें जल्दी ही एक पृथक् राष्ट्र के विकास के भाव विकसित हो जाते हैं और एक पृथक् स्वतंत्र राज्य की स्थापना हेतु आन्दोलन प्रारंभ कर देते हैं। आस्ट्रियाई – हंगेरियाई साम्राज्य इसी आधार पर दो राज्य – राष्ट्रों- आस्ट्रिया और हंगरी में विभाजित हो गया।

3. राष्ट्रीय एकता पर दुष्प्रभाव:
यदि किसी राज्य में जनसंख्या दो या अधिक राष्ट्रों की निवास करती है, उसमें राष्ट्रीय एकता को बनाए रखना तथा सुदृढ़ बनाना बहुत कठिन होता है। लोगों के मध्य राष्ट्रवाद की चेतना उन्हें एक पृथक् राज्य के लिए विभाजित तथा संघर्षरत रखती है। कभी-कभी धर्म या भाषा के छोटे आधारों पर ही वे पृथक् राष्ट्र होने का दावा करते हैं और एक पृथक् राज्य की मांग करते हैं। एक राज्य में दो या अधिक राष्ट्रों के लोगों के बीच एकत्व की भावना नहीं पाई जाती।

4. व्यक्ति के अधिकारों और स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध:
राष्ट्रवाद प्रायः लोगों की स्वतंत्रताओं और उनके अधिकारों को भी प्रतिबंधित कर देता है। प्रजातांत्रिक सरकारों में शासक दल और शासक राष्ट्रवाद की भावनाओं को उभारकर लोगों की स्वतंत्रताओं और अधिकारों में कटौती करने का प्रयास करता है। लोग राष्ट्र के आदर और उसकी महानता के लिए अपनी स्वतंत्रताओं और अधिकारों की परवाह नहीं करते हैं और तानाशाह या महत्त्वाकांक्षी शासक इन भावनाओं का दुरुपयोग करते हैं।

5. राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है: राष्ट्रवाद जल्दी ही उग्र राष्ट्रवाद में परिवर्तित होकर साम्राज्यवाद को बढ़ावा देता है।

6. राष्ट्रवाद पृथकतावादी आंदोलनों को प्रेरित करता है:
राष्ट्रवाद भारत तथा विश्व के अन्य राष्ट्रों में पृथकतावादी आंदोलनों को भी प्रेरित करता है। आजकल विश्व में राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग के तहत कनाडा में क्यूबेकवासियों, स्पेन में बास्कवासियों, तुर्की और इराक में कुर्दों तथा श्रीलंका में तमिलों द्वारा पृथक् राष्ट्र हेतु पृथकतावादी आन्दोलन चला रखा है। वे मुख्य राष्ट्र से पृथक् होकर अपना एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना करना चाहते हैं। ऐसे पृथकतावादी आंदोलन राज्यों को छोटे-छोटे राज्यों में परिवर्तित कर देंगे।

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प्रश्न 4.
बहुलवादी समाज़ में राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रवाद की समस्याओं की विवेचना कीजिये तथा उनके समाधान के उपाय बताइये।
उत्तर:
बहुलवाद या बहुलवादी समाज; प्रायः सभी राज्य या समाज इन दिनों बहुलवादी समाज हैं। एक बहुलवादी समाज वह समाज है जिसमें विभिन्न धर्मों, पंथों, भाषा-भाषी, विभिन्न संस्कृतियों या उपसंस्कृतियों, विभिन्न वंशों व जातियों के लोग रहते हों तथा उनकी रीति-रिवाज और परम्पराएँ भी भिन्न-भिन्न हों। यदि किसी राज्य के लोगों की एक जाति है, वे एक ही धर्म का पालन करते हैं; एक भाषा बोलते हैं, उनकी एक ही सांस्कृतिक पहचान है तथा उनकी परम्पराएँ तथा रीतिरिवाज समान हैं, तो वह समाज या राज्य बहुलवादी नहीं है। इस प्रकार बहुलवादी समाज के आधारभूत तत्त्व हैं। जाति, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि के आधार पर लोगों में विविधता।

भारतीय समाज एक बहुलवादी समाज है। यहाँ लोग अनेक धर्मों, जैसे हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख, जैन, बुद्ध आदि – में विश्वास करते हैं। लोग विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं। 21 भाषाएँ यहाँ संवैधानिक मान्यता प्राप्त हैं। यहाँ भिन्न-भिन्न परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज हैं तथा लोगों की भिन्न-भिन्न क्षेत्रीय संस्कृतियाँ भी हैं। इसी प्रकार स्विट्जरलैंड एक बहुलवादी समाज है। स्विट्जरलैंड में तीन भाषा-भाषी लोग फ्रेंच, जर्मन तथ इटालियन रहते हैं।

बहुलवादी समाज में राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्रवाद की भावना को बनाए रखने एवं विकसित करने में आने वाली समस्याएँ:
बहुलवादी समाज में राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रवाद की भावना को बनाए रखना तथा उसको सुदृढ़ करते रहना आसान काम नहीं है। बहुलवादी समाज में लोग धर्म, भाषा या क्षेत्र के छोटे-छोटे मुद्दों या मामलों पर विभाजित रहते हैं।

उदाहरण के लिए भारत इसी समस्या के कारण स्वतंत्रता के 63 वर्ष बाद भी एक राष्ट्र-भाषा को नहीं अपना पाया है। अभी भी अंग्रेजी राष्ट्रीय भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है क्योंकि यहाँ भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं। यद्यपि देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा को संवैधानिक रूप से सरकारी कामकाज की भाषा स्वीकार किया गया हैं, लेकिन अभी तक इसे कार्यालयी स्थान नहीं मिला है। यहाँ साम्प्रदायिक, जातिगत, क्षेत्रीय आदि विविधताओं के कारण इनके आधारों पर संघर्ष होते रहते हैं, जिससे राष्ट्रीय एकता, सुदृढ़ता बाधित होती है और राष्ट्रवाद की भावना कमजोर होती है।

बहुलवादी समाज में राष्ट्रीय एकता तथा राष्ट्रवाद के सुदृढ़ीकरण के उपाय: एक बहुलवादी समाज में राष्ट्रवाद की भावना तथा राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय करने आवश्यक हैं।

  1. बहुलवादी राष्ट्र में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने के लिए अल्पसंख्यक समूहों और उनके सदस्यों की भाषा, संस्कृति एवं धर्म के लिए संवैधानिक संरक्षा के अधिकार प्रदान किये जाने चाहिए।
  2. इन समूहों को विधायी संस्थाओं और अन्य राजकीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया जाना चाहिए। इन अधिकारों को इस आधार पर न्यायोचित ठहराया जा सकता है कि ये अधिकार इन समूहों के सदस्यों के लिए कानून द्वारा समान व्यवहार और सुरक्षा के साथ ही समूह की सांस्कृतिक पहचान के लिए भी सुरक्षा का प्रावधान करते हैं।
  3. इनं समूहों को राष्ट्रीय समुदाय के एक अंग के रूप में भी मान्यता दी जानी चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि राष्ट्रीय पहचान को समावेशी रीति से परिभाषित करना होगा जो राष्ट्र-राज्य के सभी सदस्यों की महत्ता और अद्वितीय योगदान को मान्यता दे सके।
  4. यदि कुछ अल्पसंख्यकों को सरकारी नौकरियों, प्रतिनिधिपरक निकायों का शैक्षिक सुविधाओं में उचित भाग नहीं मिल पाता है तो उन्हें इन क्षेत्रों में उचित भाग दिलाने हेतु सरकार को कुछ विशिष्ट उपाय, जैसे  कुछ विशिष्ट सुविधाएँ प्रदान करना, आरक्षण की नीति लागू करना आदि किये जाने चाहिए। भारत में इसी दृष्टि से अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों तथा स्त्रियों के लिए आरक्षण के प्रावधान किये गये हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 राष्ट्रवाद

प्रश्न 5.
राष्ट्रवाद पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की समालोचना को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
राष्ट्रवाद पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की समालोचना: रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरोधी थे और भारत की स्वाधीनता के अधिकार का दावा करते थे। वे महसूस करते थे कि उपनिवेशों के ब्रितानी प्रशासन में ‘मानवीय संबंधों की गरिमा बरकरार रखने’ की गुंजाइश नहीं है। यद्यपि ब्रितानी सभ्यता में इस विचार को स्थान दिया गया है और औपनिवेशिक शासन इस विचार का पालन नहीं कर पा रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ब्रिटिश दासता से भारत की स्वतंत्रता के प्रमुख सेनानी थे; लेकिन वे संकीर्ण राष्ट्रवाद के विरोधी थे। संकीर्ण राष्ट्रवाद के स्थान पर वे ‘मानवता’ पर बल देते थे। अर्थात् वे मानवतावादी राष्ट्रवादी थे।

वे मानव-मानव में कोई भेद नहीं करते थे। इसलिए स्वतंत्र भारत में प्रत्येक मानव को समान महत्त्व मिलना चाहिए। वे राष्ट्रवाद की क्षेत्रीय संकीर्णता, भाषायी संकीर्णता, धार्मिक संकीर्णता से ऊपर उठकर ‘बहुलवादी समाज और मानवता’ को अपनाने पर बल देते थे। उनकी अंतिम आध्यात्मिक मंजिल राष्ट्रवाद न होकर मानवता थी। उनका कहना था कि ” जब तक मैं जीवित हूँ देशभक्ति को मानवता पर कदापि विजयी नहीं होने दूँगा।” इसका आशय यह है कि राष्ट्रवाद जब तक मानवता को साथ लेकर चलता है, तब तक ही उसका स्वागत करना चाहिए।

यदि राष्ट्रवाद की भावना के तहत मानवता का हनन होता है अर्थात् देशभक्ति की भावना के तहत व्यक्तियों का बलिदान देकर राष्ट्रवाद को बढ़ाया जाता है, तो यह राष्ट्रवाद मानवता विरोधी है। व्यक्ति के अधिकारों, स्वतंत्रताओं को राष्ट्रवाद के लिए बलिदान देने वाले राष्ट्रवाद के वे विरोधी थे। वे देश के स्वाधीनता आन्दोलन में मौजूद संकीर्ण राष्ट्रवाद के कटु आलोचक थे। उन्हें भय था कि तथाकथित भारतीय परम्परा के पक्ष में पश्चिमी सभ्यता को खारिज करने का विचार यहीं तक नहीं रुकेगा।

आगे चलकर यह अपने देश में मौजूद ईसाई, यहूदी, पारसी और इस्लाम समेत तमाम विदेशी प्रभावों के खिलाफ आसानी से आक्रामक भी हो सकता है। उनकी यह आशंका सत्य सिद्ध हुई और इसी के चलते भारत, भारत और पाकिस्तान दो भागों में विभाजित हो गया। अतः स्पष्ट है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर बहुलवादी राष्ट्रवाद, मानवता को साथ लेकर चलने वाले राष्ट्रवाद के समर्थक थे, न कि संकीर्ण राष्ट्रवाद के।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. ‘लाँग वाक टू फ्रीडम’ किस व्यक्ति की आत्मकथा का शीर्षक है।
(अ) महात्मा गांधी
(ब) नेल्सन मण्डेला
(स) जवाहर लाल नेहरू
(द) ऑग सान सू की
उत्तर:
(ब) नेल्सन मण्डेला

2. ‘फ्रीडम फ्राम फीयर’ पुस्तक की रचयिता है।
(अ) आँग सान सू की
(ब) श्रीमती विजया लक्ष्मी पंडित
(स) सुलमान रुश्दी
(द) ऑग सान सू की
उत्तर:
(अ) आँग सान सू की

3. ” मेरे लिए वास्तविक मुक्ति भय से मुक्ति है ।” यह कथन है।
(अ) जे. एस. मिल का
(ब) लॉक का
(स) नेल्सन मण्डेला का
(द) दीपा मेहता
उत्तर:
(द) दीपा मेहता

4. नकारात्मक स्वतंत्रता से आशय है।
(अ) ऐसी स्थितियों का होना जिसमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें
(ब) व्यक्ति की रचनाशीलता और क्षमताओं के विकास को बढ़ावा देना
(स) युक्तियुक्ति प्रतिबन्धों से युक्त स्वतंत्रता
(द) व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव
उत्तर:
(द) व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

5. जॉन स्टुअर्ट मिल की पुस्तक का नाम है।
(अ) लाँग वॉक टू फ्रीडम
(स) ऑन लिबर्टी
(ब) फ्रीडम फार फीयर
(द) द सेटानिक वर्सेस
उत्तर:
(स) ऑन लिबर्टी

6. निम्न में से जो पुस्तक समाज के कुछ हिस्सों में विरोध के बाद प्रतिबंधित कर दी गई, वह थी।
(अ) ऑन लिबर्टी
(ब) लाँग वाक टू फ्रीडम
(स) द सेटानिक वर्सेस
(द) फ्रीडम फार फीयर
उत्तर:
(स) द सेटानिक वर्सेस

7. ” राज्य को जहाँ तक संभव हो, व्यक्ति के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।” उक्त कथन है।
(अ) लास्की का
(ब) मिल का
(स) सीले का
(द) मार्क्स का
उत्तर:
(ब) मिल का

8. निम्नांकित में से जान स्टुअर्ट मिल का राजनीतिक सिद्धान्त था
(अ) लाभ का सिद्धान्त
(ब) हानि का सिद्धान्त
(स) उपर्युक्त दोनों
(द) आदर्शवादियों द्वारा
उत्तर:
(स) उपर्युक्त दोनों

9. प्राकृतिक स्वतंत्रता की अवधारणा संबंधित है।
(अ) लास्की से
(ब) मार्क्स से
(स) रूसो से
(द) महात्मा गाँधी से
उत्तर:
(स) रूसो से

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

10. आर्थिक स्वतंत्रता पर सर्वाधिक जोर दिया गया था
(अ) व्यक्तिवादियों द्वारा
(ब) मार्क्सवादियों द्वारा
(स) उदारवादियों द्वारा
(द) आदर्शवादियों द्वारा
उत्तर:
(अ) व्यक्तिवादियों द्वारा

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. ……………….. के अनुसार गरिमापूर्ण मानवीय जीवन जीने के लिए जरूरी है कि हम भय पर विजय पाएं।
उत्तर:
आंग सान सू की

2. ……………….. बाहरी प्रतिबंधों का अभाव तथा ऐसी परिस्थितियों का होना है, जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें।
उत्तर:
स्वतंत्रता

3. ………………… मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।
उत्तर:
स्वराज्य

4. मिल ने ‘स्वसंबद्ध’ और ………………… कार्यों में अन्तर बताया है
उत्तर:
परसंबद्ध

5. स्वतंत्रता हमारे ” ………………….चुनने के सामर्थ्य और क्षमताओं में छुपी होती है।
उत्तर:
विकल्प

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबंधों का अभाव ही स्वतंत्रता है।
उत्तर:
असत्य

2. स्वतंत्रता वह स्थिति है, जिसमें लोग अपनी रचनात्मकता और क्षमताओं का विकास कर सकें।
उत्तर:
सत्य

3. हमें कुछ प्रतिबंधों की तो जरूरत है, अन्यथा समाज अव्यवस्था के गर्त में पहुँच जाएगा।
उत्तर:
सत्य

4. स्वतंत्रता पर सामाजिक असमानता से जनित प्रतिबंधों को दूर करने की जरूरत नहीं है।
उत्तर:
असत्य

5. स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में राज्य किसी व्यक्ति को ऐसे कार्य करने से रोक सकता है जो किसी अन्य को हानि पहुँचाता हो।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. जॉन स्टुअर्ट मिल (अ) हिंद स्वराज्य
2. महात्मा गाँधी (ब) फ्रीडम फ्राम फीयर
3. ऑग सान सू की (स) लाँग वाक टू फ्रीडम
4. नेल्सन मंडेला (द) द सेटानिक वर्सेस
5. सलमान रुश्दी (य) ऑन लिबर्टी

उत्तर:

1. जॉन स्टुअर्ट मिल (य) ऑन लिबर्टी
2. महात्मा गाँधी (अ) हिंद स्वराज्य
3. ऑग सान सू की (ब) फ्रीडम फ्राम फीयर
4. नेल्सन मंडेला (स) लाँग वाक टू फ्रीडम
5. सलमान रुश्दी (द) द सेटानिक वर्सेस

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता की नकारात्मक परिभाषा लिखिये।
अथवा
नकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता का क्या आशय है?
उत्तर:
नकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता ‘व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव’ है।

प्रश्न 2.
सकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता से क्या आशय है?
उत्तर:
सकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता ऐसी स्थितियों के होने से है जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें।

प्रश्न 3.
स्वतंत्रता का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तर:
स्वतंत्रता का शाब्दिक अर्थ है- बन्धनों का अभाव।

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प्रश्न 4.
हमें स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:
हमें अपनी स्वतंत्रता को बचाने तथा एक समूह के विचारों को दूसरे समूह पर आरोपित किए बिना आपसी अंतरों पर चर्चा हो सकने की स्थिति को सुनिश्चित करने के लिए स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों की आवश्यकता है।

प्रश्न 5.
जॉन स्टुअर्ट मिल ने व्यक्ति के कार्यों को कितने भागों में बाँटा है? उनके नाम लिखिये।
उत्तर:
मिल ने व्यक्ति के कार्यों को दो भागों:

  1. स्व-सम्बद्ध कार्य
  2. पर सम्बद्ध कार्य में बाँटा है।

प्रश्न 6.
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष से जुड़े किन्हीं दो व्यक्तियों के नाम लिखो।
उत्तर:

  1. नेल्सन मण्डेला और
  2. ऑग सान सू की।

प्रश्न 7.
ऑग सान सू की किस देश की हैं? और उन्हें संघर्ष की प्रेरणा कहाँ से प्राप्त हुई?
उत्तर:
ऑग सान सू की म्यांमार की हैं और गाँधीजी के अहिंसा के विचारों से उन्हें संघर्ष की प्रेरणा मिली।

प्रश्न 8.
ऑग सान सू की कां एक मुख्य विचार बताइए।
उत्तर:
आँग सान सू की के अनुसार गरिमापूर्ण मानवीय जीवन जीने के लिए आवश्यक है कि हम भय पर विजय पाएं।

प्रश्न 9.
स्व-सम्बद्ध कार्य कौनसे हैं?
उत्तर:
स्व-सम्बद्ध कार्य वे हैं जिनके प्रभाव केवल इन कार्यों को करने वाले व्यक्ति पर पड़ते हैं।

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प्रश्न 10.
पर-सम्बद्ध कार्य कौनसे हैं?
उत्तर:
पर-सम्बद्ध कार्य वे हैं जिनका प्रभाव कर्ता के साथ-साथ अन्य लोगों पर भी पड़ता है।

प्रश्न 11.
भारतीय राजनीतिक विचारों में स्वतंत्रता की समानार्थी अवधारणा क्या है?
उत्तर:
भारतीय राजनीतिक विचारों में स्वतंत्रता की समानार्थी अवधारणा है स्वराज।

प्रश्न 12.
लोकमान्य तिलक ने ‘स्वराज्य’ के बारे में क्या कहा था?
उत्तर:
लोकमान्य तिलक ने कहा था कि ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा!’

प्रश्न 13.
एक स्वतंत्र समाज कौनसा होता है?
उत्तर:
एक स्वतंत्र समाज वह होता है जिसमें व्यक्ति अपने हित संवर्धन न्यूनतम प्रतिबंधों के बीच करने में स्वतंत्र

प्रश्न 14.
स्वतंत्रता को बहुमूल्य क्यों माना जाता है?
उत्तर:
स्वतंत्रता को बहुमूल्य इसलिए माना जाता है क्योंकि इससे व्यक्ति अपने विवेक और निर्णय की शक्ति का प्रयोग कर पाते हैं।

प्रश्न 15.
किन्हीं दो प्रतिबंधित नाटकों के नाम लिखिये।
उत्तर:

  1. द लास्ट टेम्पटेशन आफ क्राइस्ट
  2. रामायण रिटोल्ड

प्रश्न 16.
द सेटानिक वर्सेस पुस्तक के लेखक का नाम लिखिये।
उत्तर:
सलमान रुश्दी।

प्रश्न 17.
‘ऑन लिबर्टी’ पुस्तक की रचना किसने की थी?
उत्तर:
जान स्टुअर्ट मिल।

प्रश्न 18.
नेल्सन मंडेला ने किस देश की आजादी के लिए संघर्ष किया?
उत्तर:
दक्षिण अफ्रीका।

प्रश्न 19.
मंडेला ने किसके लिए संघर्ष किया था?
उत्तर:
मंडेला ने श्वेत और अश्वेत दोनों लोगों के लिए संघर्ष किया था।

प्रश्न 20.
जॉन स्टुअर्ट मिल ने किन दो कार्यों में अन्तर बताया था?
उत्तर:
स्व-संबद्ध और पर संबद्ध कार्यों में।

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प्रश्न 21.
‘मानव स्वतंत्र पैदा होता है लेकिन वह प्रत्येक जगह जंजीरों से जकड़ा हुआ है ।” उक्त विचार किस विद्वान से संबंधित हैं ?
उत्तर:
जीन जैक्स रूसो से।

प्रश्न 22.
जॉन स्टुअर्ट मिल के अनुसार स्वतंत्रता का अधिकार किस आधार पर प्रतिबंधित किया जा सकता है?
उत्तर:
मिल के अनुसार, स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में राज्य किसी व्यक्ति को ऐसे कार्य करने से रोक सकता है जो किसी अन्य को गंभीर हानि पहुँचाता हो। अर्थात् स्वतंत्रता का अधिकार ‘हानि सिद्धान्त’ के आधार पर प्रतिबंधित किया जा सकता है।

प्रश्न 23.
मिल के अनुसार छोटी-मोटी हानि के लिए व्यक्ति के विरुद्ध कौन-सी कार्यवाही करनी चाहिए?
उत्तर:
मिल के अनुसार छोटी-मोटी हानि के लिए व्यक्ति के विरुद्ध केवल सामाजिक असहमति दर्शानी चाहिए।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष लोगों की किस आकांक्षा को दिखाता है?
उत्तर:
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष लोगों की इस आकांक्षा को दिखाता है कि वे अपने जीवन और नियति का नियंत्रण स्वयं करें तथा उनका अपनी इच्छाओं और गतिविधियों को स्वतंत्रता से व्यक्त करने का अवसर बना रहे ।

प्रश्न 2.
व्यक्ति की स्वतंत्रता की कुछ सीमाएँ क्यों आवश्यक हैं?
उत्तर:
व्यक्ति की स्वतंत्रताओं की कुछ सीमाएँ इसलिए आवश्यक हैं कि

  1. ये सीमाएँ हमें असुरक्षा से मुक्त करती हैं।
  2. ये सीमाएँ ऐसी स्थितियाँ प्रदान करती हैं, जिनमें हम अपना विकास कर सकें।

प्रश्न 3.
मंडेला व उनके साथियों के लिए ‘लाँग वॉक टू फ्रीडम’ क्या था?
उत्तर:
मंडेला व उनके साथियों के लिए दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन के अन्यायपूर्ण प्रतिबन्धों और स्वतंत्रता के रास्ते की बाधाओं को दूर करने का संघर्ष ‘लाँग वाक टू फ्रीडम’ था।

प्रश्न 4.
नकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता का क्या आशय है?
अथवा
स्वतंत्रता का नकारात्मक दृष्टिकोण किन विचारों पर आधारित है?
उत्तर:
स्वतंत्रता का नकारात्मक दृष्टिकोण अग्र विचारों पर आधारित है।

  1. स्वतंत्रता का अभिप्राय है प्रतिबन्धों का अभाव।
  2. व्यक्ति पर राज्य का कोई नियंत्रण नहीं होना चाहिए।
  3. वह सरकार सर्वोत्तम है जो कम-से- -कम शासन करे।

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प्रश्न 5.
सकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता का क्या आशय है?
उत्तर:
सकारात्मक दृष्टि से स्वतंत्रता का आशय है-ऐसी स्थितियों का होना जिनमें सभी लोग अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें। इस अर्थ में स्वतंत्रता व्यक्ति की रचनाशीलता, संवेदनशीलता और क्षमताओं के भरपूर विकास को बढ़ावा देती है।

प्रश्न 6.
संक्षेप में बताइये कि क्या पूर्ण स्वतंत्रता संभव है?
उत्तर:
पूर्ण स्वतंत्रता संभव नहीं है क्योंकि पूर्ण स्वतंत्रता से आशय है कि व्यक्ति के कार्यों पर किसी भी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध न हो, वह मनमाना व्यवहार कर सके। ऐसा करने पर अराजकता की स्थिति पैदा हो जायेगी और स्वतंत्रता नष्ट हो जायेगी।

प्रश्न 7.
हमें स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर:

  1. हमें सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों की आवश्यकता है।
  2. हमें अपनी स्वतंत्रता को बचाने के लिए भी कानूनी संरक्षण हेतु प्रतिबन्धों की आवश्यकता है।

प्रश्न 8.
हानि का सिद्धांन्त क्या है?
उत्तर:
सभ्य समाज के किसी सदस्य की इच्छा के खिलाफ शक्ति के औचित्यपूर्ण प्रयोग का एकमात्र उद्देश्य किसी अन्य को हानि से बचाना हो सकता है।” यही मिल का हानि का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार, स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में राज्य किसी व्यक्ति को ऐसे कार्य करने से रोक सकता है, जो किसी अन्य को हानि पहुँचाता हो। लेकिन प्रतिबंध लगाने के लिए आवश्यक है कि किसी को होने वाली हानि गंभीर हो।

प्रश्न 9.
” स्वतंत्रता व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव है।” इस कथन को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
इस कथन का आशय यह है कि यदि किसी व्यक्ति पर बाहरी नियंत्रण या दबाव न हो और वह बिना किसी पर निर्भर हुए निर्णय ले सके तथा स्वायत्त तरीके से व्यवहार कर सके, तो वह व्यक्ति स्वतंत्र माना जा सकता है । इस कथन का व्यावहारिक अर्थ है। उन सामाजिक प्रतिबन्धों का कम-से-कम होना जो हमारी स्वतंत्रतापूर्वक चयन की क्षमता पर रोक-टोक लगाते हैं

प्रश्न 10.
” स्वतंत्रता ऐसी स्थितियों का होना है जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें ।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
इस कथन का आशय यह है कि स्वतंत्र होने के लिए समाज को उन बातों को विस्तार देना चाहिए, जिससे व्यक्ति, समूह, समुदाय राष्ट्र अपने भाग्य, दिशा और स्वरूप का निर्धारण करने में समर्थ हो सकें । अतः स्वतंत्रता वहं स्थिति है जिसमें लोग अपनी रचनात्मकता और क्षमताओं का भरपूर विकास कर सकें।

प्रश्न 11.
व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों के स्रोतों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
प्रतिबन्धों के स्रोत:

  1. व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध प्रभुत्व और बाहरी नियंत्रण से लग सकते हैं। ये प्रतिबंध बलपूर्वक या सरकार द्वारा ऐसे कानून की मदद से लगाए जा सकते हैं, जो शासकों की ताकत का प्रतिनिधित्व करें।
  2. स्वतंत्रता पर प्रतिबंध सामाजिक असमानता के कारण भी हो सकते हैं जैसा कि जाति व्यवस्था में होता है।
  3. समाज में अत्यधिक आर्थिक असमानता के कारण भी स्वतंत्रता पर अंकुश लग सकते हैं।

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प्रश्न 12.
राष्ट्रीय स्वतंत्रता से क्या आशय है?
उत्तर:
राष्ट्रीय स्वतंत्रता का अर्थ है। स्वराज्य की प्राप्ति। राष्ट्रीय स्वतंत्रता के अन्तर्गत प्रत्येक राष्ट्र का यह अधिकार है कि वह स्वतंत्रतापूर्वक अपनी नीतियों का निर्धारण कर सके तथा उन्हें लागू कर सके। परतंत्र देशों द्वारा अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता की मांग करना राष्ट्रीय स्वतंत्रता है। 20वीं शताब्दी में अफ्रीका व एशिया के बहुत से देशों ने अपनी राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्राप्त की।

प्रश्न 13.
स्वतंत्रता के सकारात्मक पक्ष की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
स्वतंत्रता के सकारात्मक पक्ष की दो प्रमुख विशेषताएँ ये हैं।

  1. सकारात्मक स्वतंत्रता के समर्थक उचित प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हैं लेकिन वे अनुचित प्रतिबंधों के विरोधी हैं।
  2. सकारात्मक स्वतंत्रता का सम्बन्ध समाज की सम्पूर्ण दशाओं से है, न कि केवल कुछ क्षेत्र से।

प्रश्न 14.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से यह आशय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों को दूसरों या समाज के समक्ष व्यक्त करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अन्तर्गत भाषण देने तथा लेखन द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी शामिल है।

प्रश्न 15.
स्वतंत्रता की नकारात्मक और सकारात्मक अवधारणा में कोई दो अन्तर लिखिये।
उत्तर:

  1. स्वतन्त्रता की नकारात्मक अवधारणा स्वतंत्रता को बाहरी नियंत्रणों के अभाव के रूप में देखती है जबकि सकारात्मक अवधारणा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के अवसरों के विस्तार के रूप में देखती है।
  2. नकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य का व्यक्ति पर बहुत सीमित नियंत्रण होता है जबकि सकारात्मक स्वतंत्रता में राज्य व्यक्ति के कल्याण के लिए उसके सभी क्षेत्रों में हस्तक्षेप कर सकता है।

प्रश्न 16.
नेल्सन मंडेला की आत्मकथा ‘लॉंग वाक टू फ्रीडम’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
लॉंग वाक टू फ्रीडम (स्वतंत्रता के लिए लम्बी यात्रा): इस पुस्तक में मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन के खिलाफ अपने व्यक्तिगत संघर्ष, गोरे लोगों के शासन की अलगाववादी नीतियों के खिलाफ लोगों के प्रतिरोध और दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन के खिलाफ अपने व्यक्तिगत संघर्ष, गोरे लोगों के शासन की अलगाववादी नीतियों के खिलाफ लोगों के प्रतिरोध और दक्षिण अफ्रीका के काले लोगों द्वारा झेले गए अपमान, कठिनाइयों और पुलिस अत्याचार का वर्णन किया गया है।

इन अलगाववादी नीतियों में एक शहर में घेराबंदी किए जाने और देश में मुक्त आवागमन पर रोक लगाने से लेकर विवाह करने में मुक्त चयन तक पर प्रतिबंध लगाना शामिल है। सामूहिक रूप से इन सभी प्रतिबन्धों को नस्ल के आधार पर भेदभाव करने वाली रंगभेदी सरकार ने जबरदस्ती लागू किया था। मंडेला और उनके साथियों के लिए इन्हीं अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों और स्वतंत्रता के रास्ते की बाधाओं को दूर करने का संघर्ष ‘लॉंग वाक टू फ्रीडम’ था। मंडेला का यह संघर्ष काले और अन्य लोगों के साथ-साथ श्वेत लोगों के लिए भी था।

प्रश्न 17.
स्वतंत्रता की अवधारणा के नकारात्मक व सकारात्मक पक्ष को स्पष्ट कीजिये। स्वतंत्रता की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
अथवा
उत्तर:
स्वतंत्रता की अवधारणा: स्वतंत्रता बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव और ऐसी स्थितियों का होना है, जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें। स्वतंत्रता की इस अवधारणा के दो पक्ष हैं।

  1. नकारात्मक पक्ष और
  2. सकारात्मक पक्ष। यथा

1. स्वतंत्रता का नकारात्मक पक्ष:
स्वतंत्रता का नकारात्मक पक्ष यह है कि ‘व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबंधों का अभाव ही स्वतंत्रता है।’ इसका अभिप्राय यह है कि यदि किसी व्यक्ति पर बाहरी नियंत्रण या दबाव न हो और वह बिना किसी पर निर्भर हुए निर्णय ले सके तथा स्वायत्त तरीके से व्यवहार कर सके, तो वह व्यक्ति स्वतंत्र माना जा सकता है। लेकिन समाज में रहने वाला कोई भी व्यक्ति हर किस्म की सीमा और प्रतिबन्धों की पूर्ण अनुपस्थिति की आशा नहीं कर सकता। इसलिए यहाँ स्वतंत्र होने का अर्थ उन सामाजिक प्रतिबन्धों का कम से कम होना है, जो हमारी स्वतंत्रतापूर्वक चयन करने की क्षमता पर रोक-टोक लगाए।

2. स्वतंत्रता का सकारात्मक पक्ष:
स्वतंत्रता का सकारात्मक पक्ष यह है कि ऐसी स्थितियों का होना जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें। इसका अभिप्राय यह है कि स्वतंत्र होने के लिए समाज को उन बातों का विस्तार देना चाहिए जिससे व्यक्ति, समूह, समुदाय या राष्ट्र अपने भाग्य की दिशा और स्वरूप निर्धारण करने में समर्थ हो सके। इस अर्थ में स्वतंत्रता व्यक्ति की रचनाशीलता, संवेदनशीलता और क्षमताओं के भरपूर विकास को बढ़ावा देती है। प्रायः स्वतंत्रता के ये दोनों पक्ष साथ-साथ चलते हैं और एक-दूसरे का समर्थन करते हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 18.
स्वतंत्रता के मार्ग में आने वाले बाधक तत्वों को लिखिये।
उत्तर:
स्वतंत्रता के मार्ग में आने वाले प्रमुख बाधक तत्व अग्रलिखित हैं।

  1. प्रभुत्व तथा बाहरी नियंत्रण: व्यक्ति की स्वतंत्रता के मार्ग में आने वाला प्रमुख बाधक तत्व है। प्रभुत्व तथा बाहरी नियंत्रण। ये बलपूर्वक या सरकार द्वारा ऐसे कानून की मदद से लगाये जा सकते हैं जो शासकों की ताकतों का प्रतिनिधित्व करें। ऐसे कानून उपनिवेशवादी शासकों ने या दक्षिणी अफ्रीका में रंगभेद की व्यवस्था ने लगाये।
  2. सामाजिक असमानता: स्वतंत्रता के मार्ग में आने वाला बाधक तत्व सामाजिक असमानता भी हो सकती है। जैसा कि जाति-व्यवस्था में होता है।
  3. आर्थिक असमानता: समाज में अत्यधिक आर्थिक असमानता के कारण भी स्वतंत्रता पर अंकुश लग सकते

प्रश्न 19.
स्वतन्त्रता का अर्थ बताते हुए उसकी एक परिभाषा दीजिये।
उत्तर:
स्वतंत्रता का अर्थ है। बाहरी प्रतिबंधों का अभाव और ऐसी स्थितियों का होना जिनमें लोग अपनी प्रतिभा का विकास कर सकें। अतः स्वतंत्रता का आशय ऐसी स्थितियों के होने से है जिनमें व्यक्ति न्यूनतम सामाजिक अवरोधों के साथ अपनी संभावनाओं का विकास कर सके। लास्की के शब्दों में, “स्वतंत्रता का तात्पर्य उस वातावरण को बनाए रखना है जिससे व्यक्ति को अपने जीवन में सर्वोत्तम विकास करने की सुविधा प्राप्त हो। ”

प्रश्न 20.
भारतीय राजनीतिक विचारों में स्वतंत्रता की समानार्थी विचारधारा क्या है? उसका विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
स्वराज:भारतीय राजनीतिक विचारों में स्वतंत्रता की समानार्थी अवधारणा स्वराज है। स्वराज का अर्थ ‘स्व’ का शासन भी हो सकता है और ‘स्व’ के ऊपर शासन भी हो सकता है। यथा

1. स्व का शासन:
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के संदर्भ में स्वराज ‘स्व के शासन’ के लिए राजनीतिक और संवैधानिक स्तर पर स्वतंत्रता की माँग है और सामाजिक तथा सामूहिक स्तर पर यह एक मूल्य है। इसीलिए स्वराज स्वतंत्रता आंदोलन में एक महत्त्वपूर्ण नारा बन गया। इसने ही तिलक को इस महत्त्वपूर्ण कथन ‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।’ के लिए प्रेरित किया।

2. स्व के ऊपर शासन:
स्वराज का आशय ‘अपने ऊपर अपना राज’ भी है। स्वराज की यही समझ गांधी के ‘हिंद स्वराज’ में प्रकट हुई है। उनके अनुसार ‘जब हम स्वयं पर शासन करना सीखते हैं, तभी स्वराज है।’ इस प्रकार स्वराज केवल स्वतंत्रता नहीं है; बल्कि ऐसी संस्थाओं से मुक्ति भी है, जो मनुष्य को उसकी मनुष्यता से वंचित करती है। अतः स्वराज में मानव को यंत्रवत बनाने वाली संस्थाओं से मुक्ति पाने के साथ आत्मसम्मान, दायित्वबोध और आत्मसाक्षात्कार को पाना भी है।

प्रश्न 21.
स्वतंत्रता के बारे में नेताजी सुभाषचन्द्र के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्वतंत्रता के बारे में नेताजी सुभाषचन्द्र के विचार नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का कहना है कि स्वतंत्रता से मेरा आशय ऐसी सर्वांगीण स्वतंत्रता से है – जो व्यक्ति और समाज की हो, अमीर और गरीब की हो, स्त्रियों और पुरुषों की हो तथा सभी लोगों और सभी वर्गों की हो। इस स्वतंत्रता का मतलब न केवल राजनीतिक परतंत्रता से मुक्ति होगा बल्कि सम्पत्ति का समान बंटवारा, जातिगत अवरोधों और सामाजिक असमानताओं का अंत तथा साम्प्रदायिकता और धार्मिक असहिष्णुता का सर्वनाश भी होगा।

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प्रश्न 22.
स्वतंत्रता का ‘हानि सिद्धान्त’ क्या है? इसकी व्याख्या कीजिये।
उत्तर:
हानि सिद्धान्त जॉन स्टुअर्ट मिल ने स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के सम्बन्ध में जिस मुद्दे को बहुत प्रभावपूर्ण तरीके से उठाया है, उसे राजनीतिक सिद्धान्त के विमर्श में ‘हानि सिद्धान्त’ कहा जाता है। ‘हानि – सिद्धान्त’ यह है कि किसी के कार्य करने की स्वतंत्रता में व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हस्तक्षेप करने का इकलौता लक्ष्य आत्म-रक्षा है। सभ्य समाज के किसी सदस्य की इच्छा के खिलाफ शक्ति के औचित्यपूर्ण प्रयोग का एकमात्र उद्देश्य अन्य को हानि से बचाना हो सकता है।

मिल का कहना है कि व्यक्ति के स्व-सम्बद्ध कार्यों और निर्णयों के मामले में राज्य या बाहरी सत्ता को कोई हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं हैं। इसके विपरीत उसके ‘पर-सम्बद्ध कार्यों’ में, जो दूसरों पर प्रभाव डालते हैं, या जिनसे बाकी लोगों को कुछ हानि हो सकती है, बाहरी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में मिल का कहना है। कि स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में राज्य किसी व्यक्ति को ऐसे कार्य करने से रोक सकता है, जो किसी अन्य को हानि पहुँचाता हो।

लेकिन प्रतिबंध लगाने के लिए जरूरी है कि किसी को होने वाली हानि गंभीर हो। छोटी-मोटी हानि के लिए मिल कानून की ताकत की जगह केवल सामाजिक रूप से अमान्य करने का सुझाव देता है। मिल का कहना है कि छोटी-मोटी हानि के लिए समाज को स्वतंत्रता की रक्षा के लिए थोड़ी असुविधा सहनी चाहिए। इसके साथ ही साथ गंभीर हानि को रोकने के लिए लगाए जाने वाले प्रतिबंध इतने कड़े नहीं होने चाहिए कि स्वतंत्रता ही नष्ट हो जाए।

प्रश्न 23.
” अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें भी होनी चाहिए जिनके विचार आज की स्थितियों में गलत या भ्रामक लग रहे हैं ।” इस कथन को दृष्टि में रखते हुए अपने विचार प्रकट कीजिये।
उत्तर:
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बुनियादी मूल्य है। उसे बनाये रखने के लिए समाज को कुछ असुविधाओं को सहन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। मिल ने लिखा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें भी होनी चाहिए जिनके विचार आज की स्थितियों में गलत या भ्रामक लग रहे हों। इस कथन के पक्ष में मिल ने निम्नलिखित कारण दिये हैं।

  1. कोई भी विचार पूरी तरह से गलत नहीं होता। जो हमें गलत लगता है उसमें भी सच्चाई का तत्व होता है, अगर हम इसे प्रतिबंधित कर देंगे तो इसमें छुपे सच्चाई के अंश को भी खो देंगे।
  2. सत्य विरोधी विचारों के टकराव से पैदा होता है। जो विचार आज गलत प्रतीत होता है, वह सही तरह के विचारों के उदय में बहुमूल्य हो सकता है।
  3. विचारों के संघर्ष का हर समय में सतत महत्व रहा है।
  4. हम इस बात को लेकर भी निश्चिन्त नहीं हो सकते कि जिसे हम सत्य समझते हैं, वही सत्य है।

प्रश्न 24.
एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में उदारवाद की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
उदारवाद
1. उदारवाद एक सहिष्णु विचारधारा है:
एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में उदारवाद को सहनशीलता के मूल्य के साथ जोड़ कर देखा जाता है। उदारवादी चाहे किसी व्यक्ति से असहमत हों, तब भी वे उसके विचार और विश्वास रखने और व्यक्त करने के अधिकार का पक्ष लेते हैं। लेकिन उदारवाद सहिष्णुता के कहीं अधिक है।

2. इसमें केन्द्र:
बिन्दु व्यक्ति है-उदारवाद में व्यक्ति केन्द्र बिन्दु है। उदारवाद के लिए समाज, समुदाय जैसी इकाइयों का अपने आप में कोई महत्त्व नहीं है। उनके लिए इन इकाइयों का महत्त्व तभी है, जब व्यक्ति इन्हें महत्त्व दे। उदाहरण के लिए उदारवादी कहेंगे कि किसी से विवाह करने का निर्णय व्यक्ति को लेना चाहिए, न कि परिवार, जाति या समुदाय को।

3. व्यक्तिगत स्वतंत्रता को वरीयता: उदारवादी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को समानता जैसे अन्य मूल्यों से अधिक वरीयता देते हैं। वे आमतौर पर राजनीतिक सत्ता को भी संदेह की नजर से देखते हैं।

4. मुक्त बाजार, राज्य की न्यूनतम भूमिका तथा कल्याणकारी राज्य की भूमिका के समर्थक:
ऐतिहासिक रूप से उदारवाद ने मुक्त बाजार और राज्य की न्यूनतम भूमिका का पक्ष लिया है। वर्तमान में वे कल्याणकारी राज्य की भूमिका को भी स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को कम करने वाले उपायों की जरूरत है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में जॉन स्टुअर्ट मिल के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मिल के विचार जॉन स्टुअर्ट मिल का तर्क है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा ‘अहस्तक्षेप के लघुत्तम क्षेत्र’ से जुड़ा हुआ। इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बुनियादी मूल्य है। इस स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए समाज को कुछ असुविधाओं को सहन करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

जॉन स्टुअर्ट मिल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित नहीं किये जाने के प्रबलतम समर्थक रहे हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ में कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें भी होनी चाहिए जिनके विचार आज की परिस्थितियों में गलत या भ्रामक लगते हैं। अपने पक्ष के समर्थन में उन्होंने अग्रलिखित चार तर्क प्रस्तुत किए हैं।

1. प्रत्येक विचार में सत्य का अंश:
मिल का कहना है कि कोई भी विचार पूरी तरह से गलत नहीं होता। जो हमें गलत लगता है उसमें भी सत्य का अंश होता है। अगर हम गलत लगने वाले विचार को प्रतिबंधित कर देंगे तो इसमें छुपे सच्चाई के अंश को भी खो देंगे।

2. सत्य विरोधी विचारों के टकराव से पैदा होता है:
मिल का दूसरा तर्क यह है कि सत्य स्वयं में उत्पन्न नहीं होता। यह विरोधी विचारों के टकराव से पैदा होता है। इस तरह जो विचार आज हमें गलत प्रतीत होता है, वह सही तरह के विचारों के उदय में सहायक हो सकता है।

3. विचारों के संघर्ष का सतत महत्त्व है:
मिल का तीसरा तर्क यह है कि विचारों का संघर्ष केवल अतीत में ही मूल्यवान नहीं था, इसका हर समय में सतत महत्त्व है। सत्य के बारे में खतरा यह रहता है कि वह एक विचारहीन और रूढ़ उक्ति में बदल जाता है। जब हम इसे विरोधी विचार के सामने रखते हैं तभी इसी विचार का विश्वसनीय होना सिद्ध होता है।

4. सत्य के बारे में निश्चित नहीं कहा जा सकता:
मिल का तर्क है कि हम इस बात को लेकर भी निश्चिन्त नहीं हो सकते कि जिसे हम सत्य समझते हैं, वही सत्य है, कई बार जिन विचारों को किसी समय पूरे समाज ने गलत समझा और दबाया था, बाद में सत्य पाए गए। कुछ समाज ऐसे विचारों का दमन करते हैं, जो आज उन्हें स्वीकार्य नहीं हैं, लेकिन ये विचार भविष्य में मूल्यवान हो सकते हैं। दमनकारी समाज ऐसे संभावनाशील ज्ञान के लाभों से वंचित रह जाते हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 2 स्वतंत्रता

प्रश्न 2.
क्या कुछ समूहों के विरोध करने पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना उचित है? किस प्रकार के प्रतिबंध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर औचित्यपूर्ण कहे जायेंगे और किस प्रकार के नहीं?
उत्तर:
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध: अनेक बार किसी पुस्तक, नाटक, फिल्म या किसी शोध पत्रिका के लेख पर प्रतिबंध लगाने की मांग उठती है। क्या इस मांग को अल्पकालीन समस्या समाधान के रूप में देखते हुए पूरा करना न्यायोचित है? वर्तमान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में यह प्रश्न विवाद का मुद्दा बना हुआ है। यथा-

1. जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे विचारक का मत है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा ‘अहस्तक्षेप के लघुत्तम क्षेत्र’ से जुड़ा हुआ है। इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए। चाहे अभिव्यक्त विचारों से हम सहमत हों या असहमत। वाल्तेयर का यह कथन भी इसी बात का समर्थन करता है कि “तुम जो कहते हो मैं उसका समर्थन नहीं करता, लेकिन मैं मरते दम तक तुम्हारे कहने के अधिकार का बचाव करूँगा।” स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बुनियादी मूल्य है, समाज को कुछ असुविधाएँ सहन करके भी इसकी स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहिए और इसे सीमित (प्रतिबंधित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए।

2. अन्य समूहों द्वारा विरोध के बाद किसी पुस्तक, नाटक, फिल्म या किसी शोध – पत्रिका के लेख को प्रतिबंधित कर दिया जाता है। इस तरह के प्रतिबन्ध आसान लेकिन अल्पकालीन समाधान तो हैं; क्योंकि ये तात्कालिक माँग को पूरा कर देते हैं। लेकिन ये प्रतिबंध समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दूरगामी संभावनाओं की दृष्टि से बहुत खतरनाक हैं, क्योंकि जब हम एक बार प्रतिबंध लगाने लगते हैं, तब प्रतिबंध लगाने की आदत विकसित हो जाती है।

3. जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध किसी संगठित सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक सत्ता या राज्य की शक्ति के बल पर लगाए जाते हैं तब ये हमारी स्वतंत्रता की कटौती इस प्रकार करते हैं कि उनके खिलाफ लड़ना मुश्किल हो जाता है। लेकिन ये प्रतिबंध औचित्यपूर्ण नहीं कहे जा सकते।

4. यदि हम स्वेच्छापूर्वक या अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को पाने के लिए कुछ प्रतिबन्धों को स्वीकार करते हैं, तो हमारी स्वतंत्रता सीमित नहीं होती है। अगर हमें किन्हीं स्थितियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा रहा है तब हम नहीं कह सकते कि हमारी स्वतंत्रता की कटौती की जा रही है। स्पष्ट है कि बाध्यतामूलक प्रतिबंध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाना औचित्यपूर्ण नहीं कहे जा सकते।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में राजनीति के सम्बन्ध में कौनसा कथन उपयुक्त है।
(अ) राजनीति एक अवांछनीय गतिविधि है।
(ब) राजनीति वही है जो राजनेता करते हैं
(स) राजनीति दांवपेंच, कुचक्र और घोटालों से संबंधित नीति है।
(द) राजनीति सामाजिक विकास के उद्देश्य से जनता की परस्पर वार्ता व सामूहिक गतिविधि में भाग लेने की स्थिति है।
उत्तर:
(द) राजनीति सामाजिक विकास के उद्देश्य से जनता की परस्पर वार्ता व सामूहिक गतिविधि में भाग लेने की स्थिति है।

2. महात्मा गांधी की पुस्तक का नाम है।
(अ) हिंद स्वराज
(ब) लेवियाथन
(स) रिपब्लिक
(द) पॉलिटिक्स
अथवा
निम्नलिखित में से हिन्द-स्वराज के लेखक हैं।
(अ) महात्मा गांधी
(ब) पण्डित नेहरू
(स) सरदार पटेल
(द) डॉ. अम्बेडकर
उत्तर:
(अ) हिंद स्वराज

3. आधुनिक काल में सबसे पहले किस विचारक ने यह सिद्ध किया कि स्वतंत्रता है।
(अ) हॉब्स
(ब) लॉक
(स) रूसो
(द) जे. एस. मिल
उत्तर:
(स) रूसो

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

4. ‘द रिपब्लिक’ पुस्तक का लेखक है।
(अ) सुकरात
(ब) प्लेटो
(स) सेफलस
(द) ग्लाकॉन
अथवा
प्लेटो ने निम्न में से कौनसी पुस्तक की रचना की थी ?
(अ) पॉलिटिक्स
(ब) द रिपब्लिक
(स) प्रिंस
(द) दास कैपीटल
उत्तर:
(ब) प्लेटो

5. निम्नलिखित में से कौनसा कथन समानता शब्द से सरोकार नहीं रखता है।
(अ) समानता का अर्थ सभी के लिए समान अवसर होता है।
(ब) समानता में किसी न किसी प्रकार की निष्पक्षता का होना आवश्यक है।
(स) अक्षमता के शिकार व्यक्तियों के लिए विशेष प्रावधान भी समानता का एक अंग है।
(द) व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव समानता है।
उत्तर:
(द) व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबन्धों का अभाव समानता है।

6. राजनीतिक सिद्धान्त के अन्तर्गत विवेचित किया जाता है।
(अ) राजनीतिक विचारधाराओं को
(स) राजनीतिक संकल्पनाओं को
(ब) राजनीतिक समस्याओं को
(द) उपर्युक्त सभी को
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी को

7. “राजनीति ने हमें साँप की कुण्डली की तरह जकड़ रखा है।” यह कथन है।
(अ) सुकरात का
(स) महात्मा गाँधी का
(ब) कार्ल मार्क्स का
(द) डॉ. भीमराव अम्बेडकर का
उत्तर:
(स) महात्मा गाँधी का

8. हमारी आर्थिक, विदेशी तथा शिक्षा नीतियों का निर्धारण किया जाता है।
(अ) सरकार द्वारा
(ब) परिवार द्वारा
(स) विद्यालय द्वारा
(द) समाज द्वारा
उत्तर:
(अ) सरकार द्वारा

9. ‘समानता भी उतनी ही निर्णायक होती है, जितनी कि स्वतंत्रता।” यह कथन है।
(अ) रूसो का
(ब) कार्ल मार्क्स का
(स) हॉब्स का
(द) महात्मा गाँधी का
उत्तर:
(ब) कार्ल मार्क्स का

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

10. राजनीति के अन्तर्गत लिया जाता है।
(अ) सामाजिक घटनाओं को
(ब) धार्मिक घटनाओं को
(स) पारिवारिक घटनाओं को
(द) राजनीतिक घटनाओं को
उत्तर:

11. इण्टरनेट का प्रयोग करने वाले को कहा जाता है।
(अ) नेटिजन
(ब) नैटीकैल
(स) सिटीजन
(द) हैरिजन
उत्तर:
(अ) नेटिजन

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. एक अकुशल और भ्रष्ट सरकार लोगों के जीवन और सुरक्षा को भी ……………….. में डाल सकती है।
उत्तर:
संकट

2. अगर सरकार साक्षरता और रोजगार बढ़ाने की नीतियाँ बनाती है तो हमें अच्छे स्कूल में जाने और बेहतर …………….. पाने के अवसर मिल सकते हैं।
उत्तर:
रोजगार

3. भारतीय संविधान में ………………….. राजनीतिक क्षेत्र में समान अधिकारों के रूप में बनी है, लेकिन यह आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में उसी तरह नहीं है।
उत्तर:
समानता

4. जैसे-जैसे हमारी दुनिया बदल रही है, हम आजादी और आजादी पर संभावित खतरों के नए-नए ……………………. की खोज कर रहे हैं।
उत्तर:
आयामों

5. परिस्थितियों के मद्देनजर संविधान में दिए गए …………………. की निरंतर पुनर्व्याख्या की जा रही है।
उत्तर:
मौलिक अधिकारों

निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये

1. समानता जैसे शब्दों का सरोकार किसी वस्तु के बजाय अन्य मनुष्यों के साथ हमारे संबंधों से होता है।
उत्तर:
सत्य

2. राजनीति किसी भी तरीके से निजी स्वार्थ साधने की कला है।
उत्तर:
असत्य

3. राजनीति एक अवांछनीय गतिविधि है, जिससे हमें अलग रहना चाहिए और पीछा छुड़ाना चाहिए।
उत्तर:
असत्य

4. राजनीति का जन्म इस तथ्य से होता है कि हमारे और हमारे समाज के लिए क्या उचित एवं वांछनीय है और क्या नहीं।
उत्तर:
सत्य

5. राजनीतिक सिद्धान्त उन विचारों व नीतियों के व्यवस्थित रूप को प्रतिबिंबित करता है, जिनसे हमारे सामाजिक जीवन, सरकार और संविधान ने आकार ग्रहण किया है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. ‘राजतंत्र और लोकतंत्र में कौनसा तंत्र बेहतर है’ की विवेचना की। (अ) रूसो
2. ‘स्वतंत्रता मानव का मौलिक अधिकार है’ को सबसे पहले सिद्ध किया। (ब) गाँधीजी
3. हिन्द – स्वराज। (स) डॉ. अम्बेडकर
4. अनुसूचित जातियों को विशेष संरक्षण मिलना चाहिए। (द) मार्क्स
5. ‘समानता भी उतनी ही निर्णायक होती है, जितनी कि स्वतंत्रता’। (य) अरस्तू

उत्तर:

1. ‘राजतंत्र और लोकतंत्र में कौनसा तंत्र बेहतर है’ की विवेचना की। (य) अरस्तू
2. ‘स्वतंत्रता मानव का मौलिक अधिकार है’ को सबसे पहले सिद्ध किया। (अ) रूसो
3. हिन्द – स्वराज। (ब) गाँधीजी
4. अनुसूचित जातियों को विशेष संरक्षण मिलना चाहिए। (स) डॉ. अम्बेडकर
5. ‘समानता भी उतनी ही निर्णायक होती है, जितनी कि स्वतंत्रता’। (द) मार्क्स


अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
‘पॉलिटिक्स’ के रचयिता कौन थे?
उत्तर:
अरस्तू।

प्रश्न 2.
गाँधीजी की राजनीतिक पुस्तक का नाम लिखिये।
उत्तर:
हिन्द-स्वराज।

प्रश्न 3.
प्लेटो की प्रसिद्ध पुस्तक का नाम लिखिये।
उत्तर:
द रिपब्लिक।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

प्रश्न 4.
राजनीति का सकारात्मक रूप क्या है?
उत्तर:
राजनीति का सकारात्मक रूप जनसेवा तथा समाज में सुधारों के कार्य करना है।

प्रश्न 5.
राजनीति का नकारात्मक रूप क्या है?
उत्तर:
राजनीति का नकारात्मक रूप दांव-पेंचों द्वारा अपनी जरूरतों एवं महत्त्वाकांक्षाओं को पूरी करना है।

प्रश्न 6.
राजनीति से जुड़े लोग किस प्रकार के दांव-पेंच चलाते हैं?
उत्तर:
राजनीति के दांव-पेंचों में दल-बदल, झूठे वायदे तथा बढ़-चढ़कर दावे करना आदि आते हैं।

प्रश्न 7.
आधुनिक लेखकों ने राजनीति को किस रूप में देखा है?
उत्तर:
आधुनिक लेखकों ने राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष के रूप में देखा है।

प्रश्न 8.
राजनीतिक सिद्धान्त किस तरह के मूल्यों के बारे में सुव्यवस्थित रूप से विचार करता है?
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्त स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के मूल्यों के बारे में सुव्यवस्थित रूप से विचार करता है।

प्रश्न 9.
गांधीजी ने स्वराज शब्द की व्याख्या किस पुस्तक में की थी?
उत्तर:
‘हिन्द-स्वराज’ नामक पुस्तक में।

प्रश्न 10.
अस्पृश्यता या छुआछूत का अन्त भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में है?
उत्तर:
अनुच्छेद 17 में।

प्रश्न 11.
इन्टरनेट का प्रयोग करने वाले को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
नेटिजन।

प्रश्न 12.
राजनीतिक सिद्धान्त का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्त का उद्देश्य नागरिकों को राजनीतिक प्रश्नों के बारे में तर्कसंगत ढंग से सोचने और सामयिक राजनीतिक घटनाओं को सही तरीके से आंकने का प्रशिक्षण देना है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

प्रश्न 13.
राजनीति को एक प्रकार की जनसेवा बताने वाले कौनसे लोग हैं?
उत्तर:
राजनेता, चुनाव लड़ने वाले तथा राजनीतिक पदाधिकारी लोग।

प्रश्न 14.
सरकार की नीतियाँ लोगों की कैसे सहायता कर सकती हैं?
उत्तर:
सरकारें आर्थिक, विदेश और शिक्षा नीतियों के माध्यम से लोगों के जीवन को उन्नत करने में सहायता कर सकती हैं।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
मनुष्य किन दो मामलों में अद्वितीय है?
उत्तर:

  1. मनुष्य के पास विवेक होता है और अपनी गतिविधियों में उसे व्यक्त करने की योग्यता होती है। वह अपने अंतरतम की भावनाओं और आकांक्षाओं को व्यक्त कर सकता है।
  2. उसके पास भाषा का प्रयोग तथा एक-दूसरे से संवाद करने की भी क्षमता होती है।

प्रश्न 2.
राजनीतिक सिद्धान्त किस तरह के प्रश्नों की पड़ताल करता है?
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्त कुछ खास बुनियादी प्रश्नों की पड़ताल करता है, जैसे- समाज को कैसे संगठित होना चाहिए? क्या कानून हमारी स्वतंत्रता को सीमित करता है? राजसत्ता की अपने नागरिकों के प्रति क्या देनदारी है? हमें सरकार की जरूरत क्यों है? सरकार का सर्वश्रेष्ठ रूप कौनसा है? नागरिक के रूप में एक-दूसरे के प्रति हमारी क्या देनदारी होती है? आदि।

प्रश्न 3.
राजनीतिक सिद्धान्त कैसे मूल्यों के बारे में सुव्यवस्थित रूप से विचार करता है?
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्त स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे मूल्यों के बारे में सुव्यवस्थित रूप से विचार करता है। यह इनके और अन्य संबद्ध अवधारणाओं के अर्थ और महत्त्व की व्याख्या करता है। इन अवधारणाओं की मौजूदा परिभाषाओं को स्पष्ट करता है।

प्रश्न 4.
हमारा सामना राजनीति की किन परस्पर विरोधी छवियों से होता है?
उत्तर:
हमारा सामना राजनीति की अनेक परस्पर विरोधी छवियों से होता है, जैसे

  1. राजनेताओं की राय में राजनीति एक प्रकार की जनसेवा है।
  2. कुछ अन्य लोगों की राय में राजनीति दांवपेंच और कुचक्रों भरी नीति है।
  3. कुछ अन्य लोगों की राय में जो राजनेता करते हैं, वही राजनीति है।

प्रश्न 5.
हम किस तरह से एक बेहतर दुनिया रचने की आकांक्षा करते हैं?
उत्तर:
हम संस्थाएँ बनाकर, अपनी मांगों के लिए प्रचार अभियान चलाकर, सरकार की नीतियों का विरोध करके, वाद-विवाद तथा विचार-विमर्श आदि के द्वारा मौजूदा अव्यवस्था और पतन के तर्कसंगत कारण तलाशते हैं और एक बेहतर दुनिया रचने की आकांक्षा करते हैं।

प्रश्न 6.
राजनीति का जन्म किस तथ्य से होता है?
उत्तर:
राजनीति का जन्म इस तथ्य से होता है कि हमारे व हमारे समाज के लिए क्या उचित एवं वांछनीय है और क्या नहीं? इस सम्बन्ध में परस्पर वार्ताएँ करके निर्णय लेना। एक तरह से इन वार्ताओं से जनता और सरकार दोनों जुड़ी होती हैं।

प्रश्न 7.
राजनीतिक सिद्धान्त क्यों प्रासंगिक है? कोई दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्त इसलिए प्रासंगिक है; क्योंकि इसकी अवधारणाओं से संबंधित मुद्दे वर्तमान सामाजिक जीवन में अनेक मामलों में उठते हैं और इन मुद्दों की निरन्तर वृद्धि हो रही है। दूसरे, जैसे-जैसे हमारी दुनिया बदल रही है, हम आजादी और आजादी पर संभावित खतरों के नए-नए आयामों की खोज कर रहे हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

प्रश्न 8.
राजनीति क्या है? संक्षेप में समझाओ।
उत्तर:
राजनीति: जब जनता सामाजिक विकास को बढ़ावा देने और सामान्य समस्याओं के समाधान हेतु परस्पर वार्ता करती है और सामूहिक गतिविधियों तथा सरकार के कार्यों में भाग लेती है तथा विभिन्न प्रकार के संघर्षों से सरकार के निर्णयों को प्रभावित करती है तो इसे राजनीति कहते हैं।

प्रश्न 9.
राजनीतिक सिद्धान्त में हम क्या पढ़ते हैं? संक्षेप में लिखिये।
अथवा
राजनीतिक सिद्धान्त में पढ़े जाने वाले किन्हीं दो तत्वों का उल्लेख करो।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्त की विषय-सामग्री:

  1. राजनीतिक सिद्धान्त उन विचारों और नीतियों के व्यवस्थित रूप को प्रतिबिंबित करता है, जिनसे हमारे सामाजिक जीवन, सरकार और संविधान ने आकार ग्रहण किया है।
  2. यह स्वतंत्रता, समानता, न्याय, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता’ जैसी अवधारणाओं का अर्थ स्पष्ट करता है।
  3. यह कानून का राज, अधिकारों का बंटवारा और न्यायिक पुनरावलोकन जैसी नीतियों की सार्थकता की जाँच करता है।
  4. राजनीतिक सिद्धान्तकार हमारे वर्तमान राजनीतिक अनुभवों की छानबीन भी करते हैं और भावी रुझानों तथा संभावनाओं को भी चिन्हित करते हैं ।

प्रश्न 10.
राजनीतिक सिद्धान्तकारों को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है?
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्तकारों को रोजमर्रा के विचारों से उलझना पड़ता है, संभावित अर्थों पर विचार-विमर्श करना पड़ता है और नीतिगत विकल्पों को सूत्रबद्ध करना पड़ता है। स्वतंत्रता, समानता, नागरिकता, अधिकार, विकास, न्याय, राष्ट्रवाद तथा धर्मनिरपेक्षता आदि अवधारणाओं पर विचार-विमर्श के दौरान उन्हें विवादकर्ताओं से उलझन भी पड़ता है।

प्रश्न 11.
एक छात्र के लिए राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन की प्रासंगिकता को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
एक छात्र के रूप में हम राजनेता, नीति बनाने वाले नौकरशाह, राजनीतिक सिद्धान्त पढ़ाने वाले अध्यापक में से किसी एक पेशे को चुन सकते हैं। इसलिए परोक्ष रूप से यह अभी भी हमारे लिए प्रासंगिक है। दूसरे, एक नागरिक के रूप में दायित्वपूर्ण कार्य निर्वहन के लिए भी हमारे लिए राजनीतिक सिद्धान्तों का अध्ययन प्रासंगिक है। तीसरे, राजनीतिक सिद्धान्त हमें न्याय या समानता के बारे में सुव्यवस्थित सोच से अवगत कराते हैं।

प्रश्न 12.
” कितना नियमन न्यायोचित है और किसको नियमन करना चाहिए – सरकार को या स्वतंत्र नियामकों को?” कथन के संदर्भ में राजनीतिक सिद्धान्त की प्रासंगिकता को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
जैसे-जैसे हमारी दुनिया बदल रही है, हम स्वतंत्रता और स्वतंत्रता पर संभावित खतरों के नये-नये आयामों की खोज कर रहे हैं। जैसे – वैश्विक संचार तकनीक दुनियाभर में आदिवासी संस्कृति या जंगल की सुरक्षा के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं का परस्पर तालमेल करना आसान बना रही है; लेकिन दूसरी तरफ इसने आतंकवादियों और अपराधियों को भी अपना नेटवर्क कायम करने की क्षमता दी है। इसी प्रकार भविष्य में इन्टरनेट द्वारा व्यापार में बढ़ोतरी तय है। इसका अर्थ है कि वस्तुओं अथवा सेवाओं की खरीद के लिए हम अपने बारे में सूचना ऑन लाइन दें, उसकी सुरक्षा हो।

यद्यपि इन्टरनेट का प्रयोग करने वाले नेटिजन सरकारी नियंत्रण नहीं चाहते, लेकिन वे भी वैयक्तिक सुरक्षा और गोपनीयता को बनाए रखने के लिए किसी न किसी प्रकार का नियमन जरूरी मानते हैं। इसलिए वर्तमान में यह प्रश्न उठता है कि इन्टरनेट इस्तेमाल करने वालों को कितनी स्वतंत्रता दी जाये, ताकि वे उसका सदुपयोग कर सकें और कितना नियमन न्यायोचित है, ताकि उसका दुरुपयोग न हो सके। और यह नियमन करने वाली संस्था कौन होनी चाहिए— सरकार या कोई अन्य स्वतंत्र संस्था? राजनीतिक सिद्धान्त इन प्रश्नों के संभावित उत्तरों को देने में हमारी बहुत सहायता कर सकता है। इसीलिए आज इसकी प्रासंगिकता बहुत अधिक है।

प्रश्न 13.
राजनीतिक सिद्धान्तों को व्यवहार में कैसे उतारा जा सकता है?
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्तों को व्यवहार में उतारना: राजनीतिक अवधारणाओं के अर्थ को राजनीतिक सिद्धान्तकार यह देखते हुए स्पष्ट करते हैं कि आम भाषा में इसे कैसे समझा और बरता जाता है। वे विविध अर्थों और रायों पर विचार-विमर्श और उनकी जांच-पड़ताल भी सुव्यवस्थित तरीके से करते हैं। जैसे- समानता की अवधारणा के सम्बन्ध में, अवसर की समानता कब पर्याप्त है? कब लोगों को विशेष बरताव की आवश्यकता होती है? ऐसा विशेष बरताव कब तक और किस हद तक किया जाना चाहिए?

ऐसे अनेक प्रश्नों की ओर वे मुखातिब होते हैं। ये मुद्दे बिल्कुल व्यावहारिक हैं। वे शिक्षा और रोजगार के बारे में सार्वजनिक नीतियाँ तय करने में मार्गदर्शन करते हैं। धर्मनिरपेक्षता समानता की ही तरह अन्य अवधारणाओं, जैसे स्वतंत्रता, नागरिकता, अधिकार, न्याय, विकास, आदि के मामलों में भी राजनीतिक सिद्धान्तकार रोजमर्रा के विचारों में उलझता है, संभावित अर्थों पर विचार-विमर्श कर नीतिगत विकल्पों को सूत्रबद्ध कर उन्हें व्यावहारिक बनाता है।

प्रश्न 14.
राजनीतिक सिद्धान्त की आवश्यकता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये । उत्तर – राजनीतिक सिद्धान्त की आवश्यकताओं को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।

  1. राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन राजनीति करने वाले राजनेताओं, नीति बनाने वाले नौकरशाहों तथा राजनीतिक सिद्धान्त पढ़ाने वाले अध्यापकों, संविधान और कानूनों की व्याख्या करने वाले वकील, जंज तथा उन कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के लिए अति आवश्यक है, जो शोषण का पर्दाफाश करते हैं और नये अधिकारों की माँग करते हैं।
  2. राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन दायित्वपूर्ण कार्य निर्वहन के लिए उन राजनीतिक विचारों और संस्थाओं की बुनियादी जानकारी हमारे लिए मददगार होती है, जो हमारी दुनिया को आकार देते हैं।
  3. राजनीतिक सिद्धान्त हमें राजनीतिक चीजों के बारे में अपने विचारों और भावनाओं के परीक्षण के लिए प्रोत्साहित करता है तथा इसके अध्ययन से हमारे विचारों और भावनाओं में उदारता आती है।
  4. राजनीतिक सिद्धान्त हमें न्याय तथा समानता के बारे में सुव्यवस्थित सोच से अवगत कराते हैं, ताकि हम अपने विचारों को परिष्कृत कर सकें और सार्वजनिक हित में सुविज्ञ तरीके से तर्क-वितर्क कर सकें।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 1 राजनीतिक सिद्धांत – एक परिचय

प्रश्न 15.
क्या विद्यार्थियों को राजनीति में भाग लेना चाहिए?
उत्तर:
विद्यार्थियों को न सिर्फ राजनीति के विषय में जानकारी ही होनी चाहिए बल्कि उन्हें इसमें सक्रिय रूप से भाग भी लेना चाहिए क्योंकि।

  1. हमारा समाज लोकतंत्र की भावना में अटूट आस्था रखता है तथा वर्तमान विद्यार्थी ही कल के समाज के जिम्मेदार नागरिक बनेंगे।
  2. इन्हीं नागरिकों में से हमें अपने राजनीतिज्ञों एवं प्रतिनिधियों का चयन करना है, जिन्हें राजनीतिक सिद्धान्तों का पर्याप्त ज्ञान सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप से होना चाहिए।
  3. यदि विद्यार्थी राजनीतिक गतिविधियों एवं क्रियाकलापों से अवगत नहीं होंगे तो देश के उचित सूत्रधार नहीं बन पायेंगे। इसलिए विद्यार्थियों को राजनीति में भाग लेकर राजनीतिक ज्ञान का व्यवहार में सही प्रयोग करना सीखना चाहिए।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
राजनीतिक सिद्धान्त में हम क्या पढ़ते हैं? इनकी प्रासंगिकता को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
राजनीतिक सिद्धान्त: राजनीतिक सिद्धान्त उन विचारों और नीतियों के व्यवस्थित रूप को प्रतिबिंबित करता है, जिनसे हमारे सामाजिक जीवन, सरकार और संविधान ने आकार ग्रहण किया है। राजनीतिक सिद्धान्त की विषय-सामग्री राजनीतिक सिद्धान्त में हम निम्न बातों का अध्ययन करते हैं।

  1. यह स्वतंत्रता, समानता, न्याय, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसी अवधारणाओं का अर्थ स्पष्ट करता है।
  2. यह कानून का राज, अधिकारों का बँटवारा और न्यायिक पुनरावलोकन जैसी नीतियों की सार्थकता की जांच करता है। यह इस काम को विभिन्न विचारकों द्वारा इन अवधारणाओं के बचाव में विकसित युक्तियों की जांच-पड़ताल के ये करता है।
  3. राजनीतिक सिद्धान्तकार हमारे ताजा राजनीतिक अनुभवों की छानबीन भी करते हैं और भावी रुझानों तथा संभावनाओं को चिन्हित करते हैं।

राजनीतिक सिद्धान्त के अध्ययन की प्रासंगिकता: राजनीतिक सिद्धान्तों की उपयोगिता या इनके अध्ययन की प्रासंगिकता का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है।
1 .स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र से संबंधित मुद्दों में वृद्धि:
राजनीतिक सिद्धान्त स्वतंत्रता, समानता, न्याय, लोकतंत्र जैसी धारणाओं के अर्थ स्पष्ट करता है। वर्तमान में भी स्वतंत्रता, समानता तथा लोकतंत्र से संबंधित मुद्दे सामाजिक जीवन के अनेक मामलों में उठते हैं और विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रफ्तार से उनकी बढ़ोतरी हो रही है। उदाहरण के लिए राजनीतिक क्षेत्र में समानता समान अधिकारों के रूप में है, लेकिन यह आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में उसी तरह नहीं है।

लोगों के पास समान राजनीतिक अधिकार हो सकते हैं, लेकिन हो सकता है कि समाज में उनके साथ जाति या गरीबी के कारण अभी भी भेदभाव होता है। संभव है कि कुछ लोगों को समाज में विशेषाधिकार प्राप्त हों, वहीं कुछ दूसरे बुनियादी आवश्यकताओं तक से वंचित हों। कुछ लोग अपना मनचाहा लक्ष्य पाने में सक्षम हैं, जबकि कई लोग भविष्य में अच्छा रोजगार पाने के लिए जरूरी स्कूली पढ़ाई के लिए भी ‘अक्षम हैं। इनके लिए स्वतंत्रता अभी भी दूर का सपना है। इस दृष्टि से राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन अब भी प्रासंगिक बना हुआ है।

2. नित नई व्याख्याओं की दृष्टि से प्रासंगिकता:
यद्यपि हमारे संविधान में स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है, तथापि हमें हरदम नई व्याख्याओं का सामना करना पड़ता है। नई परिस्थितियों के मद्देनजर संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों की निरंतर पुनर्व्याख्या की जा रही है। जैसे ‘आजीविका के अधिकार’ को ‘जीवन के अधिकार’ में शामिल करने के लिए अदालतों द्वारा उसकी पुनर्व्याख्या की गई है। सूचना के अधिकार की गारंटी एक नए कानून द्वारा की गई है। इस प्रकार समाज बार-बार चुनौतियों का सामना करता है। इस क्रम में नई व्याख्याएँ पैदा होती हैं। समय के साथ संवैधानिक मूल अधिकारों में संशोधन भी हुए हैं और इनका विस्तार भी। अतः राजनैतिक अवधारणाओं की नई व्याख्याओं को समझने के लिए राजनैतिक सिद्धान्त के अध्ययन की प्रासंगिकता बनी हुई है।

3. स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के संभावित खतरों के नये आयामों से जुड़े प्रश्नों के उत्तरों के लिए प्रासंगिक:
जैसे-जैसे हमारा विश्व परिवर्तित हो रहा है, हम स्वतंत्रता और स्वतंत्रता पर संभावित खतरों के नए-नए आयामों की खोज कर रहे हैं। जैसे वैश्विक संचार तकनीक विश्व भर में आदिवासी संस्कृति या जंगल की सुरक्षा के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं का एक-दूसरे से तालमेल करना आसान बना रही है। पर इसने आतंकवादियों और अपराधियों को भी अपना नेटवर्क कायम करने की क्षमता दी है। इसी प्रकार, भविष्य में इंटरनेट द्वारा व्यापार में वृद्धि निश्चित है।

इसका अर्थ है कि वस्तुओं अथवा सेवाओं की खरीद के लिए हम अपने बारे में जो सूचना ऑन लाइन दें, उसकी सुरक्षा हो। इसलिए, यद्यपि नेटिजन सरकारी नियंत्रण नहीं चाहते तथापि वे भी वैयक्तिक सुरक्षा और गोपनीयता बनाए रखने के लिए किसी-न-किसी प्रकार का नियमन जरूरी मानते हैं। लेकिन कितना नियमन न्यायोचित है और किसको नियमन करना चाहिए? राजनीतिक सिद्धान्त में इन प्रश्नों के संभावित उत्तरों के सिलसिले में हमारे सीखने के लिए बहुत कुछ है और इसीलिए यह बेहद प्रासंगिक है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. बताएँ कि निम्नलिखित में से कौन-सा अधिकार वैयक्तिक स्वतंत्रता का अंश है।
(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
(ख) धर्म की स्वतंत्रता
(ग) अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
(घ) सार्वजनिक स्थलों पर बराबरी की पहुँच
उत्तर:
(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

2. बताएँ कि निम्नलिखित में से कौन-सा अधिकार वैयक्तिक स्वतंत्रता का अंश नहीं है।
(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
(ख) अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
(ग) मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध स्वतंत्रता
(घ) अंतरात्मा का अधिकार से किसके द्वारा हुआ है।
उत्तर:
(ख) अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार

3. भारत के संविधान का अंगीकार निम्नलिखित में
(क) ब्रिटिश ताज के द्वारा
(ख) ब्रिटिश संसद के द्वारा
(ग) भारत के वायसराय के द्वारा
(घ) भारत के लोगों के द्वारा
उत्तर:
(घ) भारत के लोगों के द्वारा

4. संविधान के दर्शन का सर्वोत्तम सार-संक्षेप है।
(क) संविधान के मूल अधिकारों में
(ख) संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों में
(ग) संविधान की प्रस्तावना में
(घ) संविधान के मूल कर्त्तव्यों में
उत्तर:
(ग) संविधान की प्रस्तावना में

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5. निम्नलिखित में से कौनसा कथन असत्य है।
(क) भारत में अदालतों और सरकारों के बीच संविधान की अनेक व्याख्याओं पर असहमति है।
(ख) केन्द्र और प्रादेशिक सरकारों के बीच मत – भिन्नता है।
(ग) राजनीतिक दल संविधान की विविध व्याख्याओं के आधार पर पूरे जोर-शोर से लड़ते हैं।
(घ) आम नागरिक संविधान के अंतर्निहित दर्शन में विश्वास नहीं करते हैं।
उत्तर:
(घ) आम नागरिक संविधान के अंतर्निहित दर्शन में विश्वास नहीं करते हैं।

6. निम्नलिखित में कौनसी भारतीय संविधान की सीमा नहीं है–
(क) भारतीय संविधान ने ‘असमतोल संघवाद’ जैसी अवधारणा को अपनाया है।
(ख) भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
(ग) भारतीय संविधान में लिंगगत न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों विशेषकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है।
(घ) कुछ बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में डाल दिया गया है।
उत्तर:
(क) भारतीय संविधान ने ‘असमतोल संघवाद’ जैसी अवधारणा को अपनाया है।

7. निम्नलिखित में कौनसा कथन भारतीय संविधान की आलोचना से सम्बन्धित है।
(क) भारत के संविधान में अचल और लचीले संविधान दोनों की विशेषताओं का मिश्रण है
(ख) संविधान में भारतीय जनता की राष्ट्रीय पहचान पर निरंतर जोर दिया गया है।
(ग) भारतीय संविधान निर्मात्री सभा में सबकी नुमाइंदगी नहीं हो सकी है
(घ) भारत का संविधान एक धर्म – निरेपक्ष संविधान है।
उत्तर:
(ग) भारतीय संविधान निर्मात्री सभा में सबकी नुमाइंदगी नहीं हो सकी है

8. निम्नलिखित में से कौनसा कथन भारतीय संविधान की आलोचना से सम्बन्धित नहीं है।
(क) भारत का संविधान अस्त-व्यस्त है।
(ख) भारत का संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है।
(ग) भारत का संविधान प्रतिनिधित्वपूर्ण नहीं है।
(घ) भारत का संविधान एक विदेशी दस्तावेज है।
उत्तर:
(ख) भारत का संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है।

9. भारतीय संविधान की प्रक्रियात्मक उपलब्धि है।
(क) सर्वानुमति से फैसले लेने के प्रति संविधान सभा की दृढ़ता।
(ख) सार्वभौमिक मताधिकार के प्रति वचनबद्धता
(ग) धर्मनिरपेक्ष संविधान
(घ) व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्धता
उत्तर:
(क) सर्वानुमति से फैसले लेने के प्रति संविधान सभा की दृढ़ता।

10. शांति का संविधान कहा जाता है।
(क) भारत के संविधान को
(ग) फ्रांस के पंचम गणतंत्र को
(ख) अमेरिका के संविधान को
(घ) जापान के संविधान को
उत्तर:
(घ) जापान के संविधान को

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. सन् 1947 के जापानी संविधान को बोलचाल में…………………… संविधान कहा जाता है।
उत्तर:
शांति

2. संविधान को अंगीकार करने का एक बड़ा कारण है- सत्ता को ……………………… होने से रोकना।
उत्तर:
निरंकुश

3. संविधान हमें गहरे सामाजिक बदलाव के लिए शांतिपूर्ण …………………….. साधन भी प्रदान करता है।
उत्तर:
लोकतांत्रिक

4. संविधान, कमजोर लोगों को उनका वाजिब ……………………… सामुदायिक रूप में हासिल करने की ताकत देता है।
उत्तर:
हक

5. भारत का संविधान स्वतंत्रता, …………………. लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रीय एकता के लिए प्रतिबद्ध है।
उत्तर:
समानता

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये

1. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान का अभिन्न अंग है।
उत्तर:
सत्य
2. भारतीय संविधान शास्त्रीय उदारवाद से इस अर्थ में अलग है कि यह सामाजिक न्याय से जुड़ा है
उत्तर:
सत्य

3. भारतीय संविधान ने समुदायों को मान्यता न देकर सामुदायिक प्रतिद्वन्द्विता को समाप्त किया है
उत्तर:
असत्य

4. धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ भारत में पारस्परिक निषेध है।
उत्तर:
असत्य

5. सार्वभौम मताधिकार का विचार भारतीय राष्ट्रवाद के बीज विचारों में एक है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. शांति संविधान (क) राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत
2. भारतीय संविधान की सीमा (ख) सार्वभौमिक मताधिकार
3. भारतीय राष्ट्रवाद का बीज विचार (ग) राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी
4. मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट (घ) जापान का संविधान
5. भारतीय धर्मनिरपेक्षता की विशेषता (ङ) सन् 1928

उत्तर:

1. शांति संविधान (घ) जापान का संविधान
2. भारतीय संविधान की सीमा (क) राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत
3. भारतीय राष्ट्रवाद का बीज विचार (ख) सार्वभौमिक मताधिकार
4. मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट (ङ) सन् 1928
5. भारतीय धर्मनिरपेक्षता की विशेषता (ग) राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान में अन्तर्निहित दर्शन को समझना क्यों जरूरी है?
उत्तर:
संविधान में अन्तर्निहित नैतिक तत्त्व को जानने और उसके दावे के मूल्यांकन तथा शासन-व्यवस्था के मूल- मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को एक कसौटी पर जांच कर सकने के लिए संविधान में अन्तर्निहित दर्शन को समझना जरूरी है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की किन्हीं दो मूलभूत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की दो मूलभूत विशेषताएँ ये हैं।

  1. व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध संविधान।
  2. सामाजिक न्याय से जुड़ा संविधान।

प्रश्न 3.
संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन के नजरिये से हमारा क्या आशय है?
उत्तर:
इसमें तीन बातें शामिल हैं।

  1. संविधान की अवधारणाओं की व्याख्या,
  2. अवधारणाओं की इन व्याख्याओं से मेल खाती समाज व शासन व्यवस्था की तस्वीर तथा
  3. शासन व्यवस्था के सम्बन्ध में अलग-अलग व्याख्याओं की जांच की एक कसौटी का होना।

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प्रश्न 4.
संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन का नजरिया अपनाना क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
संविधान के अन्तर्निहित नैतिक तत्त्व को जानने और उसके दावे के मूल्यांकन के लिए संविधान के प्रति राजनैतिक दर्शन का नजरिया अपनाने की जरूरत है।

प्रश्न 5.
एक अच्छे संविधान की क्या आवश्यकता है? कोई दो कारण लिखिये।
उत्तर:

  1. एक अच्छे संविधान की आवश्यकता का सबसे बड़ा कारण है। सत्ता को निरंकुश होने से रोकना।
  2. इसका दूसरा कारण यह है कि संविधान हमें गहरे सामाजिक बदलाव के लिए शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक साधन भी प्रदान करता है।

प्रश्न 6.
एक राजनीति के विद्यार्थी के लिए संविधान निर्माताओं के सरोकार और मंशा को जानना क्यों जरूरी है?
उत्तर:
जब संवैधानिक व्यवहार को चुनौती मिले, खतरा मंडराये या उपेक्षा हो तब इन व्यवहारों के मूल्य और अर्थ को समझने के लिए संविधान निर्माताओं के सरोकार और मंशा को जानना जरूरी है।

प्रश्न 7.
भारत के संविधान का राजनीतिक दर्शन क्या है?
उत्तर:
भारत के संविधान का राजनीतिक दर्शन स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रीय एकता के लिए प्रतिबद्धता का है।

प्रश्न 8.
भारत का संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। इसमें निहित किन्हीं तीन स्वतंत्रताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
  2. मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध स्वतंत्रता
  3. अंतरात्मा का अधिकार।

प्रश्न 9.
भारतीय संविधान का उदारवाद शास्त्रीय उदारवाद से किन दो बातों में भिन्न है?
उत्तर:
शास्त्रीय उदारवाद सामाजिक न्याय और सामुदायिक जीवन मूल्यों के ऊपर हमेशा व्यक्ति को तरजीह देता है, जबकि भारतीय संविधान के उदारवाद सामाजिक न्याय और सामुदायिक जीवन मूल्यों को व्यक्ति के ऊपर तरजीह देता है।

प्रश्न 10.
हमारा संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है। इसका कोई एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
हमारा संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान।

प्रश्न 11.
समाज के विभिन्न समुदायों के बीच बराबरी का रिश्ता कायम करने तथा उन्हें उदार बनाने के लिए पश्चिमी राष्ट्रों के संविधानों में क्या किया गया है?
उत्तर:
समाज के विभिन्न समुदायों के बीच बराबरी का रिश्ता कायम करने तथा उन्हें उदार बनाने के लिए पश्चिमी राष्ट्रों के संविधानों ने इन समुदायों को मान्यता न देकर किया है।

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प्रश्न 12.
भारतीय संविधान में समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा देने के लिए क्या रास्ता अपनाया है? उत्तर- भारतीय संविधान ने समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता देकर इनके बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा दिया है, जैसे- धार्मिक समुदाय का अपनी शिक्षा संस्था स्थापित करने और चलाने का अधिकार।

प्रश्न 13.
मुख्य धारा की पश्चिमी धारणा में धर्मनिरपेक्षता को किस रूप में देखा गया है?
उत्तर:
मुख्य धारा की पश्चिमी धारणा में व्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्ति की नागरिकता से संबंधित अधिकारों की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता को धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध के रूप में देखा गया है।

प्रश्न 14.
धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध से क्या आशय है?
उत्तर:
धर्म और राज्य के ‘पारस्परिक निषेध’ शब्द का आशय है– धर्म और राज्य दोनों एक-दूसरे के क्षेत्र से अलग रहेंगे, एक-दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।

प्रश्न 15.
भारतीय संविधान में दी गई धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी मॉडल से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर:
भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता का मॉडल पश्चिमी मॉडल से निम्न दो रूपों में भिन्न है।

  1. भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता न होकर व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता से है।
  2. भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी

प्रश्न 16.
भारतीय संविधान की कोई दो केन्द्रीय विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:

  1. भारतीय संविधान ने उदारवादी व्यक्तिवाद को एक नया रूप देकर उसे विकसित किया है।
  2. इसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को भी स्वीकार किया है।

प्रश्न 17.
अनुच्छेद 371 को जगह देकर भारतीय संविधान ने किस प्रकार के संघवाद की अवधारणा को अपनाया
उत्तर:
अनुच्छेद 371 को जगह देकर भारतीय संविधान ने ‘असमतोल संघवाद’ जैसी अवधारणा को अपनाया प्रश्न 18. भारतीय संविधान की दो प्रक्रियागत उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की दो प्रक्रियागत उपलब्धियाँ ये हैं।

  1. संविधान निर्माण में स्वार्थों के स्थान पर तर्कबुद्धि पर बल दिया गया है।
  2. महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर निर्णय सर्वानुमति से लिए गए हैं।

प्रश्न 19.
भारतीय संविधान की कोई दो आलोचनाएँ लिखिये।
उत्तर:

  1. भारतीय संविधान के निर्माण में जनता का प्रतिनिधित्व नहीं हो सका है।
  2. यह संविधान एक विदेशी दस्तावेज है।

प्रश्न 20.
भारतीय संविधान की कोई दो सीमाएँ बताइये।
उत्तर:

  1. भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
  2. इसमें कुछ बुनियादी आर्थिक-सामाजिक अधिकारों को राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में डाल दिया गया है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रस्तुत ‘ अवसर और प्रतिष्ठा की समानता’ से क्या आशय है?
उत्तर:
अवसर और प्रतिष्ठा की समानता: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए ‘प्रतिष्ठा की समानता’ शब्द से आशय है कि भारत के सभी नागरिकों के साथ बिना किसी प्रतिष्ठा के भेदभाव के समाज में समान व्यवहार किया जायेगा। सभी नागरिक भारतीय समाज में समान हैं तथा सब पर कानून समान रूप से लागू होंगे। अवसर की समानता का आशय है कि सभी नागरिकों को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समान अवसर प्राप्त होंगे। धर्म, जाति, वंश, लिंग, रंग तथा सम्पत्ति के आधार पर इसमें कोई भेद नहीं किया जायेगा।

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प्रश्न 2.
” औपनिवेशिक दासता में रहे लोगों के लिए संविधान राजनीतिक आत्मनिर्णय का उद्घोष और इसका पहला वास्तविक अनुभव है।” स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
संविधान राजनीतिक आत्मनिर्णय का उद्घोष है। औपनिवेशिक दासता में रह रहे लोगों के लिए संविधान सभा की मांग पूर्ण आत्मनिर्णय की सामूहिक मांग का प्रतिरूप है क्योंकि सिर्फ औपनिवेशिक देश की जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से बनी संविधान सभा को ही बिना बाहरी हस्तक्षेप के उस देश का संविधान बनाने का अधिकार है। संविधान पहला वास्तविक अनुभव संविधान सभा सिर्फ जनप्रतिनिधियों अथवा योग्य वकीलों का जमावड़ा भर नहीं है बल्कि यह स्वयं में औपनिवेशिक राष्ट्र द्वारा अपने बनाए नए आवरण को पहनने की तैयारी भी है।

प्रश्न 3.
संविधान के महत्त्व को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
संविधान के महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।

  1. संविधान शासन व्यवस्था के बुनियादी नियम प्रदान करता है।
  2. यह राज्य को निरंकुश बनने से रोकता है।
  3. संविधान हमें गहरे सामाजिक बदलाव के लिए शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक साधन भी प्रदान करता है।
  4. औपनिवेशिक दासता में रह रहे लोगों के लिए संविधान राजनीतिक आत्मनिर्णय का उद्घोष है तथा इसका पहला वास्तविक अनुभव भी।
  5. संविधान कमजोर लोगों को उनका वाजिब हक सामुदायिक रूप में हासिल करने की ताकत देता है।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान का राजनीतिक दर्शन क्या है?
उत्तर:
भारतीय संविधान का राजनीतिक दर्शन: भारतीय संविधान उदारवादी, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, संघवादी, सामुदायिक जीवन-मूल्यों का हामी, धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों तथा अधिकार – वंचित वर्गों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील तथा एक सर्व सामान्य राष्ट्रीय पहचान बनाने को प्रतिबद्ध संविधान है। संक्षेप में, यह संविधान स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय तथा एक न एक किस्म की राष्ट्रीय एकता के लिए प्रतिबद्ध है। दूसरे, संविधान का जोर इस बात पर है कि उसके दर्शन पर शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से अमल किया जाये।

प्रश्न 5.
भारतीय संघवाद की ‘असमतोल संघवाद’ की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
असमतोल संघवाद: ‘असमतोल संघवाद’ से आशय है कि भारतीय संघ की विभिन्न इकाइयों की कानूनी हैसियत और विशेषाधिकार में महत्त्वपूर्ण अन्तर है। यहाँ कुछ इकाइयों की विशेष जरूरतों को ध्यान में रखते हुए संविधान की रचना में इन्हें विशेष दर्जा दिया गया है। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 371 के अन्तर्गत पूर्वोत्तर भारत के अनेक राज्यों को विशेष प्रावधानों का लाभ दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुसार विभिन्न प्रदेशों के साथ इस असमान बर्ताव में कोई बुराई नहीं है।

प्रश्न 6.
” भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है। ” स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक: निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है। इसका आशय यह है कि राज्य सभी धर्मों से समान दूरी रखेगा लेकिन स्वतंत्रता, समता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए वह किसी धर्म के मामले में हस्तक्षेप कर सकता है या वह किसी धार्मिक सम्प्रदाय को इस हेतु सहयोग कर सकता है।

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की चार प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
भारतीय संविधान की विशेषताएँ – भारतीय संविधान की अनेक विशेषताएँ हैं जिनमें से चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. व्यक्ति की स्वतंत्रता:
भारत का संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। इसके अन्तर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मनमानी गिरफ्तारी के प्रति स्वतंत्रता तथा अन्य वैयक्तिक स्वतंत्रताएँ, जैसे- अन्तरात्मा का अधिकार आदि प्रदान किये गए भारतीय संविधान की यह विशेषता मजबूत उदारवादी नींव पर प्रतिष्ठित है।

2. सामाजिक न्याय तथा सामुदायिक जीवन:
मूल्यों का पक्षधर: भारत का संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है। अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। साथ ही भारतीय संविधान का उदारवाद सामुदायिक जीवन-मूल्यों का पक्षधर है । इसमें समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता दी गई है।

3. धर्मनिरपेक्षता:
भारतीय संविधान निर्माताओं ने पश्चिम की ‘पारस्परिक निषेध’ धर्मनिरपेक्ष अवधारणा की वैकल्पिक धारणा का विकास किया है। क्योंकि भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता से है, न कि केवल व्यक्ति की निजी धार्मिक स्वतंत्रता का । दूसरे, भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ पारस्परिक निषेध नहीं बल्कि राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है।

4. सार्वभौम मताधिकार: भारतीय संविधान में सार्वभौम मताधिकार को अपनाया गया है। सार्वभौम मताधिकार का विचार भारतीय राष्ट्रवाद के बीज विचारों में एक है।

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प्रश्न 8.
भारतीय संविधान की सीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की सीमाएँ: भारतीय संविधान की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं।

  1. केन्द्रीकृत राष्ट्रीय एकता की धारणा: भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
  2. लिंगगत न्याय की उपेक्षा: भारतीय संविधान में लिंगगत न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों खासकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया। इसमें परिवार की सम्पत्ति के बंटवारे में पुत्र और पुत्री के बीच असमान अधिकार दिये गये हैं।
  3. सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्त्वों का हिस्सा बनाना भारत जैसे विकासशील देश में कुछ बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों का अभिन्न हिस्सा बनाने के बजाय उसे राज्य के नीति-निर्देशक खंड में डालकर उपेक्षित कर दिया है क्योंकि इन अधिकारों को लागू करने के लिए नागरिक न्यायालय में वाद दायर नहीं कर सकते।

प्रश्न 9.
प्रस्तावना में दिये गये भारतीय संविधान के उद्देश्यों का वर्णन कीजिये।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के उद्देश्य: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं।

  1. न्याय: सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय।
  2. स्वतंत्रता विचार: अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं पूजा की स्वतंत्रता।
  3. समानता: प्रतिष्ठा और अवसर की समानता।
  4. बंधुता: व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बंधुता।

प्रश्न 10.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में दिये गये ‘हम भारत के लोग’ शब्द से क्या आशय है?
उत्तर:
हम भारत के लोग;
प्रस्तावना के ‘हम भारत के लोग शब्द से यह अभिप्राय है कि भारत के संविधान को महान व्यक्तियों के एक एक समूह ने नहीं प्रदान किया है, बल्कि इसकी रचना और इसका अंगीकार ‘हम भारत के लोग’ के द्वारा हुआ है। इस तरह जनता स्वयं अपनी नियति की नियंता है और लोकतंत्र का एक साधन है जिसके सहारे लोग अपने वर्तमान और भविष्य को आंकार देते हैं । आज प्रस्तावना के इस उद्घोष को पचास साल से ज्यादा हो चुके हैं। अनेक व्याख्याओं, असहमतियों, मत – विभिन्नताओं के चलते हुए भी पिछले पचास वर्षों से हर कोई संविधान के इस अन्तर्निहित दर्शन में विश्वास रखते हुए चलता आया है, वह यह है कि यह संविधान हम सब भारतवासियों का और भारतवासियों के लिए है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान के दर्शन का क्या आशय है? इसको समझना क्यों जरूरी है?
उत्तर:
संविधान के दर्शन से आशय: कानून और नैतिक मूल्य के बीच गहरा संबंध है। संविधान कानूनों का एक ऐसा दस्तावेज है जिसके पीछे नैतिक दृष्टि काम कर रही है। संविधान के कानूनों में निहित यही नैतिक व राजनैतिक दृष्टि संविधान का राजनैतिक दर्शन है। इसमें निम्नलिखित तीन बातें शामिल हैं-

1. अवधारणाएँ: संविधान कुछ अवधारणाओं के आधार पर बना है। इन अवधारणाओं की व्याख्या हमारे लिए आवश्यक है। कुछ प्रमुख अवधारणाएँ ये हैं। अधिकार, नागरिकता, अल्पसंख्यक, लोकतंत्र आदि।

2. आदर्श: संविधान का निर्माण जिन आदर्शों की नींव पर हुआ है, उन आदर्शों पर हमारी गहरी पकड़ होनी चाहिए अर्थात् हमारे सामने एक ऐसे समाज और शासन व्यवस्था की तस्वीर साफ-साफ होनी चाहिए जो संविधान की मूल अवधारणाओं की हमारी व्याख्या से मेल खाती हो।

3. संविधान सभा की बहसों में निहित तर्क:
भारतीय संविधान को संविधान सभा की बहसों के साथ जोड़कर पढ़ा जाना चाहिए ताकि सैद्धान्तिक रूप से हम यह बता सकें कि ये आदर्श कहां तक और क्यों ठीक हैं तथा आगे उनमें कौनसे सुधार किये जा सकते हैं। किसी मूल्य को यदि हम संविधान की बुनियाद बताते हैं, तो हमारे लिए यह बताना जरूरी हो जाता है कि यह मूल्य सही और सुसंगत क्यों है? संविधान निर्माताओं ने जब भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में किसी खास मूल्य-समूह को अपनाया तो ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि उनके पास इस मूल्य समूह के जायज ठहराने के लिए कुछ तर्क मौजूद थे।

ये तर्क भी संविधान के अन्तर्निहित दर्शन से संबंधित हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान के अन्तर्निहित दर्शन के अन्तर्गत मुख्यतः संविधान की अवधारणाओं की व्याख्या, संविधान के आदर्श तथा इन आदर्शों का औचित्य ठहराने के लिए संविधान सभा में दिये गए तर्क आते हैं।

संविधान के अन्तर्निहित दर्शन को समझना आवश्यक है संविधान के अन्तर्निहित दर्शन को जानने और उसके दावे के मूल्यांकन के लिए संविधान के प्रति राजनीतिक दर्शन का दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है ताकि हम अपनी शासन व्यवस्था के बुनियादी मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को एक कसौटी पर जांच सकें। दूसरे शब्दों में संविधान की शासन व्यवस्था के बुनियादी मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को एक कसौटी पर जांचने के लिए संविधान के अन्तर्निहित दर्शन को समझना आवश्यक है।

आदर्शों को मिलने वाली चुनौतियाँ व विविध व्याख्याएँ; आज संविधान के बहुत से आदर्शों को अनेक रूप में चुनौती मिल रही है। यथा

  • इन आदर्शों पर बार-बार न्यायालयों में तर्क-वितर्क होते हैं। विधायिका, राजनीतिक दल, मीडिया, स्कूल तथा विश्वविद्यालयों में इन पर विचार-विमर्श होता है, बहस चलती है और इन पर सवाल उठाये जाते हैं।
  • इन आदर्शों की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की जाती है और कभी-कभी अल्पकालिक क्षुद्र स्वार्थी के लिए इनके साथ चालबाजी भी की जाती है।
  • परीक्षा की आवश्यकता: उपर्युक्त कारणों से इस बात की परीक्षा की आवश्यकता होती है कि।
    1. संविधान के आदर्शों और अन्य हलकों में इन आदर्शों की अभिव्यक्ति के बीच कहीं कोई गंभीर खाई तो नहीं
    2. विभिन्न संस्थाओं द्वारा इन आदर्शों की की जाने वाली अलग-अलग व्याख्याओं की तुलना की जाये। अलग- अलग व्याख्याओं के कारण इन व्याख्याओं के बीच विरोध पैदा होता है। यहां यह जांचने की जरूरत आ पड़ती है कि कौनसी व्याख्या सही है। इस जांच-परख में संविधान के दर्शन का प्रयोग एक कसौटी के रूप में किया जाना चाहिए। अतः स्पष्ट है कि शासन-व्यवस्था के बुनियादी मूल्यों की अलग-अलग व्याख्याओं को जांचने के लिए एक कसौटी के रूप में संविधान के दर्शन को जानना अति आवश्यक।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषताएँ क्या हैं?
अथवा
भारतीय संविधान की केन्द्रीय विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
अथव
भारतीय संविधान की आधारभूत महत्त्व की उपलब्धियों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषताएँ
अथवा
भारतीय संविधान की आधारभूत महत्त्व की उपलब्धियाँ: भारतीय संविधान की मूलभूत या केन्द्रीय विशेषताओं तथा उसकी आधारभूत महत्त्व की उपलब्धियों को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।
1. लोकतंत्र:
भारतीय संविधान के दर्शन का प्रमुख आधारभूत तत्त्व लोकतंत्र है। भारतीय जनता लोकतंत्र को बहुत अधिक महत्त्व देती है। यही कारण है कि यहाँ राजनैतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में लोकतंत्र को अपनाया गया है। संविधान न केवल राजनैतिक लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध है, बल्कि उसमें नीति-निर्देशक तत्त्वों के माध्यम से सामाजिक- आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना की रूपरेखा व नीतियाँ भी प्रस्तुत की गई हैं। संविधान में लोकतांत्रिक राजनैतिक संस्थाओं के गठन के प्रावधान किये गये हैं।

संघीय संसद, राज्यों की विधायिकाओं का गठन जनता के निर्वाचन द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए किया जाता है तथा सरकारों को इन जन-प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है। इस प्रकार संविधान में लोकतंत्र को अपनाने के पीछे यही दर्शन रहा है कि समस्त निर्णय जो जनता को प्रभावित कर सकते हैं, जनता द्वारा लिये जाने चाहिए और ये निर्णय केवल बहुमत के आधार पर ही नहीं बल्कि जनमत तथा लोगों की बड़ी संख्या की स्वतंत्र सहमति पर आधारित होने चाहिए। इस प्रकार लोकतंत्र भारतीय संविधान के दर्शन का आधारभूत तत्त्व है।

2. समानता:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता भी संविधान के दर्शन का आधारभूत तत्त्व है। संविधान में कहा गया है कि सभी नागरिक कानून के समक्ष समान हैं तथा सभी को कानून का समान संरक्षण मिलेगा। राज्य जाति, रंग, लिंग, प्रजाति और सम्पत्ति के आधार पर कोई भेदभावपूर्ण कानून नहीं बनायेगा। लेकिन सामाजिक रूप से शोषित और वंचित लोगों को समाज की मुख्य धारा में लाने तथा जीवन के प्रत्येक पक्ष में समानता लाने के लिए ऐसे वर्गों के लिए संविधान में कुछ विशेष प्रावधान किये गये हैं। ये विशेष प्रावधान भेदभाव को बढ़ावा नहीं देते हैं बल्कि ये व्यवहार में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समानता को स्थापित करने के सकारात्मक कदम हैं ।

3. व्यक्ति की स्वतंत्रता:
संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। यह प्रतिबद्धता लगभग एक सदी तक निरंतर चली बौद्धिक और राजनैतिक गतिविधियों का परिणाम है। 19वीं सदी के प्रारंभ में भी राममोहन राय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की काट-छांट का विरोध किया था तथा इस बात पर बल दिया कि राज्य के लिए यह जरूरी है कि वह अभिव्यक्ति की असीमित आजादी प्रदान करे। पूरे ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय प्रेस की आजादी की मांग निरन्तर उठाते रहे। इसीलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान का अभिन्न अंग है।

इसी तरह, मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध नागरिकों को स्वतंत्रता दी गई है। इसके अतिरिक्त अन्य वैयक्तिक स्वतंत्रताएँ जैसे- अंतरात्मा का अधिकार, आदि इसमें प्रदान की गई हैं। ये व्यक्तिगत स्वतंत्रताएँ उदारवादी लोकतांत्रिक विचारधारा का अभिन्न अंग हैं। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान मजबूत उदारवादी नींव पर खड़ा है। यही कारण है कि संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों में व्यक्ति की स्वतंत्रताओं को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है।

4. सामाजिक न्याय:
भारतीय संविधान योरोपीय शास्त्रीय परम्परा में उदारवादी नहीं है । शास्त्रीय उदारवाद जहाँ सामाजिक न्याय और सामाजिक मूल्यों के ऊपर हमेशा व्यक्ति को महत्त्व देता है, वहाँ भारत के संविधान का उदारवाद में व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक न्याय और सामाजिक मूल्यों को भी महत्त्व दिया गया है। भारतीय संविधान का उदारवाद शास्त्रीय उदारवाद से दो मायनों में अलग है।

  • भारत का संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।
  • संविधान के विशेष प्रावधानों के कारण ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए विधायिका में सीटों का आरक्षण तथा सरकारी नौकरियों में इन वर्गों को आरक्षण देना संभव हो सका है।

5. समुदाय आधारित अधिकारों तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सम्मान:
भारतीय संविधान का उदारवाद सामुदायिक जीवन-मूल्यों का पक्षधर है। भारतीय संविधान समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा देता है। भारतीय सामुदायिक जीवन-मूल्यों को खुले तौर पर स्वीकार करते हैं। इसके साथ ही भारत में अनेक सांस्कृतिक समुदाय हैं। यहाँ बहुत से भाषायी और धार्मिक समुदाय हैं। संविधान में समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता दी गई है। ऐसे ही अधिकारोंमें एक है। धार्मिक समुदाय का अपनी शिक्षा संस्था स्थापित करने और चलाने का अधिकार। सरकार ऐसी संस्थाओं को धन दे सकती है। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान धर्म को सिर्फ व्यक्ति का निजी मामला नहीं मानता।

6. धर्मनिरपेक्षता:
भारतीय संविधान एक धर्मनिरपेक्ष संविधान है। पश्चिमी विचारधारा में धर्मनिरपेक्षता को धर्म और राज्य के पारस्परिक निषेध के रूप में देखा गया है। इसका आशय यह है कि राज्य को न तो किसी धर्म की कोई मदद करनी चाहिए और न उसके कार्यों में हस्तक्षेप करना चाहिए। उसे धर्म से एक सम्मानजनक दूरी बनाए रखनी चाहिए। व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह आवश्यक है। राज्य को व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए चाहे उस व्यक्ति का धर्म कोई भी हो। भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पाश्चात्य धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से दो रूपों में भिन्न है।

  • भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ व्यक्ति और समुदाय दोनों की धार्मिक स्वतंत्रता से है। इसीलिए भारतीय संविधान सभी धार्मिक समुदायों को अपने शिक्षा संस्थान स्थापित करने और उन्हें चलाने का अधिकार प्रदान करता है।
  • भारत में धर्म और राज्य के अलगाव का अर्थ राज्य की धर्म से सिद्धान्तगत दूरी है, न कि पारस्परिक निषेध राज्य समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता, समता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए अवसर के अनुकूल धर्म के मामले में हस्तक्षेप कर सकता है; वह धार्मिक संगठन द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा संस्थान को धन भी दे सकता है।

7. सार्वभौम मताधिकार:
भारतीय संविधान सार्वभौम मताधिकार के प्रति वचनबद्ध है। भारतीय राष्ट्रवाद की धारणा में हमेशा एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की बात विद्यमान रही है जो समाज के प्रत्येक सदस्य की इच्छा पर आधारित है। सार्वभौम मताधिकार का विचार भारतीय राष्ट्रवाद के बीज विचारों में एक है।

8. संघवाद:
भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना करना है। संविधान में संघात्मक व्यवस्था के प्रावधानों जैसे—संविधान की सर्वोच्चता, शक्तियों का केन्द्र तथा राज्यों की सरकारों के मध्य बँटवारा, स्वतंत्र न्यायपालिका आदि के साथ-साथ एक मजबूत केन्द्रीय सरकार के निर्माण की बात मानी गई है। एक तरफ तो संघवाद का झुकाव केन्द्र सरकार की मजबूती की ओर है दूसरी तरफ भारतीय संघ की विभिन्न इकाइयों की कानूनी हैसियत और विशेषाधिकार में महत्त्वपूर्ण अन्तर है।

इस प्रकार भारतीय संघवाद संवैधानिक रूप से असमतोल है। पूर्वोत्तर से संबंधित अनुच्छेद 371 को जगह देकर भारतीय संविधान ने असमतोल संघवाद जैसी अवधारणा को अपनाया। लेकिन भारतीय संविधान के अनुसार विभिन्न प्रदेशों के साथ इस असमान व्यवहार में कोई बुराई नहीं है।

9. राष्ट्रीय पहचान:
संविधान में समस्त भारतीय जनता की एक राष्ट्रीय पहचान पर निरंतर जोर दिया गया है। हमारी एक राष्ट्रीय पहचान का भाषा या धर्म के आधार पर बनी अलग- अलग पहचानों से कोई विरोध नहीं है । भारतीय संविधान में इन दो पहचानों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की गई है। फिर भी, किन्हीं विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय पहचान को वरीयता प्रदान की गई है।

10. स्वतंत्र न्यायपालिका:
भारत के संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था की गई है। निष्पक्ष न्याय, नागरिकों के अधिकारों की रक्षा, संघ सरकार – राज्य सरकार व राज्य सरकारों के मध्य उत्पन्न विवादों को इसके माध्यम से दूर करने का प्रयास किया जाता है।

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प्रश्न 3.
भारतीय संविधान की क्या आलोचनाएँ की गई हैं? इसकी प्रमुख सीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की आलोचना: भारतीय संविधान की कई आलोचनाएँ की गई हैं, इनमें से तीन प्रमुख आलोचनाएँ अग्रलिखित हैं।
1. भारतीय संविधान अस्त-व्यस्त: भारतीय संविधान की पहली आलोचना यह की जाती है कि यह संविधान अस्त- व्यस्त या ढीला-ढाला है। इसके पीछे यह धारणा काम करती है कि किसी देश का संविधान एक कसे हुए दस्तावेज के रूप में मौजूद होना चाहिए। लेकिन यह बात संयुक्त राज्य अमरीका जैसे देश के लिए भी सच नहीं है, जहां संविधान एक कसे हुए दस्तावेज के रूप में है। वास्तविकता यह है कि किसी देश का संविधान एक दस्तावेज तो होता ही है, लेकिन इसमें संवैधानिक हैसियत के अन्य दस्तावेजों को भी शामिल किया जाता है।

इससे यह संभव है कि कुछ महत्त्वपूर्ण संवैधानिक वक्तव्य व से नियम उस कसे हुए दस्तावेज से बाहर मिलें जिसे संविधान कहा जाता है। भारत में संवैधानिक हैसियत के ऐसे बहुत वक्तव्यों, ब्यौरों और कायदों को एक ही दस्तावेज के अन्दर समेट लिया गया है। जैस चुनाव आयोग और लोक सेवा आयोग सम्बन्धी प्रावधान भी भारत के संविधान के अंग हैं। इसलिए यह अमेरिका के संविधान की तरह एक कसा हुआ संविधान नहीं बन पाया है।

2. भारतीय संविधान निर्मात्री सभा समस्त जनता की प्रतिनिधि नहीं थी: भारतीय संविधान की दूसरी आलोचना संविधान सभा के प्रतिनिधित्व को लेकर की जाती है कि संविधान सभा के सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित नहीं थे, वे प्रान्तों की विधानसभाओं द्वारा निर्वाचित थे। साथ ही संविधान सभा के सदस्य सीमित मताधिकार से चुने गये थे, न कि सार्वभौमिक मताधिकार से। इस दृष्टि से देखें तो स्पष्ट है कि हमारे संविधान में समस्त जनता का प्रतिनिधित्व नहीं हो सका है। लेकिन यदि प्रतिनिधित्व के दूसरे पक्ष ‘राय’ के आधार पर इस आलोचना का विश्लेषण करें तो हमारे संविधान में गैर- नुमाइंदगी नहीं दिखाई देती है।

क्योंकि संविधान सभा में लगभग हर किस्म की राय रखी गई। संविधान सभा की बहसों में बहुत से मुद्दे उठाये गए और बड़े पैमाने पर राय रखी गई । सदस्यों ने अपने व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकार पर आधारित मसले ही नहीं बल्कि समाज के विभिन्न तबकों के सरोकारों और हितों पर आधारित मसले भी उठाये। अतः राय की दृष्टि से उक्त आलोचना भी पूर्णत: सही नहीं है। क्योंकि संविधान निर्माण के बाद हुए पहले आम चुनाव में संविधान सभा के सभी सदस्य निर्वाचित हुए।

3. यह संविधान भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है। भारतीय संविधान की एक अन्य आलोचना यह की जाती है कि यह एक विदेशी दस्तावेज है। इसका हर अनुच्छेद पश्चिमी संविधानों की नकल है और भारतीय जनता के सांस्कृतिक भावबोध से इसका मेल नहीं बैठता। संविधान सभा के भी बहुत से सदस्यों ने यह बात उठायी थी। लेकिन यह आलोचना भ्रामक है क्योंकि:

(i) अनेक भारतीयों ने चिंतन के आधुनिक तरीके को आत्मसात कर लिया है। इन लोगों के लिए पश्चिमीकरण अपनी परंपरा के विरोध का एक तरीका था। राममोहन राय ने इस प्रवृत्ति की शुरुआत की थी और आज भी यह प्रवृत्ति दलितों द्वारा जारी है।

(ii) जब पश्चिमी आधुनिकता का स्थानीय सांस्कृतिक व्यवस्था से टकराव हुआ तो एक किस्म की संकर संस्कृति उत्पन्न हुई। यह संकर-संस्कृति पश्चिमी आधुनिकता से कुछ लेने और कुछ छोड़ने की रचनात्मक प्रक्रिया का परिणाम थी। ऐसी प्रक्रिया को न तो पश्चिमी आधुनिकता में ढूंढा जा सकता है और न ही देशी परम्परा में। पश्चिमी आधुनिकता और देशी सांस्कृतिक व्यवस्था के संयोग से उत्पन्न इस बहुमुखी परिघटना में वैकल्पिक आधुनिकता का चरित्र है। इस तरह, जब हम अपना संविधान बना रहे थे तो हमारे मन में परंपरागत भारतीय और पश्चिमी मूल्यों के स्वस्थ मेल का भाव था । अतः यह संविधान सचेत चयन और अनुकूलन का परिणाम है, न कि नकल का।

भारतीय संविधान की सीमाएँ: भारतीय संविधान की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं।

  1. भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धारणा बहुत केन्द्रीकृत है।
  2. इसमें लिंगगत न्याय के कुछ महत्त्वपूर्ण मसलों विशेषकर परिवार से जुड़े मुद्दों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है।
  3. यह बात स्पष्ट नहीं है कि एक गरीब और विकासशील देश में कुछ बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों का अभिन्न हिस्सा बनाने के बजाय उसे राज्य के नीति-निर्देशक तत्व वाले खंड में क्यों डाल दिया गया है। लेकिन संविधान की ये सीमाएँ इतनी गंभीर नहीं हैं कि ये संविधान के दर्शन के लिए ही खतरा पैदा कर दें।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. संसद सामान्य बहुमत से संशोधन कर सकती है।
(क) मूल अधिकारों में
(ख) राष्ट्रपति की निर्वाचन विधि में
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति में
(घ) किसी राज्य के क्षेत्रफल में
उत्तर:
(घ) किसी राज्य के क्षेत्रफल में

2. ” संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के द्वारा और इस अनुच्छेद में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार संविधान में नए उपबंध कर सकती है, पहले से विद्यमान उपबंधों को बदल या हटा सकती है।” यह कथन संविधान के जिस अनुच्छेद से संबंधित है, वह है।
(क) अनुच्छेद 368
(ग) अनुच्छेद 13
(ख) अनुच्छेद 370
(घ) अनुच्छेद 14
उत्तर:
(क) अनुच्छेद 368

3. भारत का संविधान औपचारिक रूप से लागू किया गया
(क) 26 नवम्बर, 1949 को
(ख) 26 जनवरी, 1950 को
(ग) 15 अगस्त, 1947 को
(घ) 26 जनवरी, 1956 को
उत्तर:
(ख) 26 जनवरी, 1950 को

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4. निम्नलिखित में जो कथन असत्य हो, उसे बतायें
(क) भारतीय संविधान को एक पवित्र दस्तावेज मानने के साथ-साथ इतना लचीला भी बनाया गया है कि उसमें आवश्यकतानुसार यथोचित परिवर्तन कर सकें।
(ख) संविधान एक पावन दस्तावेज है इसलिए इसे बदलने की बात करना लोकतंत्र का विरोध करना है।
(ग) भारतीय संविधान में एक साथ ही कठोर और लचीले दोनों तत्वों का समावेश किया गया है।
(घ) संविधान में कई अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
(ख) संविधान एक पावन दस्तावेज है इसलिए इसे बदलने की बात करना लोकतंत्र का विरोध करना है।

5. भारतीय संविधान में संशोधन का मुख्य घटक है।
(क) संविधान आयोग
(ख) न्यायपालिका
(ग) संसद
(घ) जनमत संग्रह
उत्तर:
(ग) संसद

6. निम्नलिखित में से किस देश में संविधान संशोधन की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी के सिद्धान्त को अपनाया गया है।
(क) भारत
(ख) स्विट्जरलैंड
(ग) अमेरिका
(घ) दक्षिण अफ्रीका
उत्तर:
(ख) स्विट्जरलैंड

7. निम्नलिखित में से कौनसा संशोधन केवल तकनीकी या प्रशासनिक प्रकृति का नहीं है।
(क) न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष करना
(ख) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन बढ़ाना
(ग) अनुसूचित जाति/जनजाति की सीटों के लिए आरक्षण की अवधि को बढ़ाना
(घ) सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से निकालना
उत्तर:
(घ) सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से निकालना

8. निम्नलिखित में से कौनसा संविधान संशोधन राजनीतिक आम सहमति से पारित नहीं हुआ है।
(क) 42वां संविधान संशोधन
(ख) 52वां संविधान संशोधन
(ग) 91वां संविधान संशोधन
(घ) 73 व 74वां संविधान संशोधन
उत्तर:
(क) 42वां संविधान संशोधन

9. निम्नलिखित में से कौनसा संविधान संशोधन विवादास्पद संशोधन की श्रेणी में नहीं आता है।
(क) 38वां संविधान संशोधन
(ख) 73वां संविधान संशोधन
(ग) 39वां संविधान संशोधन
(घ) 42वां संविधान संशोधन
उत्तर:
(ख) 73वां संविधान संशोधन

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10. सर्वोच्च न्यायपालिका ने संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का विकास किया।
(क) सज्जन सिंह के विवाद में
(ख) गोलकनाथ विवाद में
(ग) केशवानंद भारती विवाद में
(घ) मिनर्वा मिल विवाद में
उत्तर:
(ग) केशवानंद भारती विवाद में

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को ……………… किया गया।
उत्तर:
अंगीकृत

2. केशवानंद भारती विवाद (1973) में न्यायालय ने संविधान की ………………… के सिद्धान्त को प्रतिस्थापित किया।
उत्तर:
मूल संरचना

3. संविधान एक …………………. दस्तावेज नहीं है।
उत्तर:
अपरिवर्तनीय

4. भारतीय संविधान एक ………………. दस्तावेज है।
उत्तर:
जीवन्त

5. मताधिकार की आयु को 21 से 18 वर्ष करने के लिए संविधान ने ………………….संशोधन हुआ।
उत्तर:
61वां

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. फ्रांस में सन् 1958 में नवीन संविधान के साथ पांचवें गणतंत्र की स्थापना हुई।
उत्तर:
सत्य

2. हमारे संविधान में ऐसे कई अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
सत्य

3. भारतीय संविधान में संशोधन करने के लिए राज्य अपनी तरफ से संशोधन का प्रस्ताव संसद में प्रस्तुत कर सकता है।
उत्तर:
असत्य

4. संसद या कुछ मामलों में राज्य विधानपालिकाओं में संशोधन पारित होने के बाद इसकी पुष्टि के लिए जनमत संग्रह की आवश्यकता है।
उत्तर:
असत्य

5. संविधान संशोधन विधेयक के मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार का अधिकार नहीं है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये:

1. लचीला संविधान (क) वह संविधान जिसमें संशोधन करना बहुत मुश्किल है।
2. कठोर संविधान (ख) कठोर तथा लचीला दोनों प्रकार का संविधान
3. भारत का संविधान (ग) एक कठोर संविधान
4. अमेरिका का संविधान (घ) एक लचीला संविधान
5. ब्रिटेन का संविधान (च) वह संविधान जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके ।

उत्तर:

1. लचीला संविधान (च) वह संविधान जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सके ।
2. कठोर संविधान (क) वह संविधान जिसमें संशोधन करना बहुत मुश्किल है।
3. भारत का संविधान (ख) कठोर तथा लचीला दोनों प्रकार का संविधान
4. अमेरिका का संविधान (ग) एक कठोर संविधान
5. ब्रिटेन का संविधान (घ) एक लचीला संविधान

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का संविधान कब अंगीकृत किया गया और कब लागू किया गया?
उत्तर:
भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत किया गया तथा 26 जनवरी, 1950 को औपचारिक रूप से लागू किया गया।

प्रश्न 2.
क्रांति के बाद फ्रांस में पहला फ्रांसीसी गणतंत्र कब बना? इसके समेत अब तक कुल कितने फ्रांसीसी संविधान बन चुके हैं?
उत्तर:
क्रांति के बाद 1793 में फ्रांस में प्रथम फ्रांसीसी गणतंत्र नामक संविधान बना। इसके समेत अब तक फ्रांस में पांच फ्रांसीसी गणतंत्र संविधान बन चुके हैं।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के स्थायित्व के कोई दो कारण बताइये।
उत्तर:

  1. हमारे संविधान की बनावट हमारे देश की परिस्थितियों के बेहद अनुकूल है।
  2. संविधान निर्माताओं ने दूरदर्शिता से भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया था।

प्रश्न 4.
किस संविधान संशोधन के द्वारा मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई?
उत्तर:
61वें संविधान संशोधन के द्वारा।

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प्रश्न 5.
संविधान के किस अनुच्छेद में संशोधन विधि का वर्णन किया गया है?
उत्तर:
अनुच्छेद 368 में।

प्रश्न 6.
हमारा संविधान इतने वर्षों तक सफलतापूर्वक कार्य कैसे करता रह सका है?
उत्तर:

  1. भारतीय संविधान में आवश्यकताओं के समय अनुकूल संशोधन किये जा सकते हैं।
  2. अदालती फैसले और राजनीतिक व्यवहार – बरताव दोनों ने संविधान के अमल में अपनी परिपक्वता और . लचीलेपन का परिचय दिया है।

प्रश्न 7.
किसी भी संविधान की कोई दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:

  1. संविधान समकालीन परिस्थितियों और प्रश्नों से जुड़ा होता है।
  2. संविधान सरकार को लोकतांत्रिक ढंग से चलाने का एक ढांचा होता है।

प्रश्न 8.
लचीले संविधान से क्या आशय है?
उत्तर:
लचीले संविधान से आशय यह है कि इसमें संशोधन आसानी से अर्थात् विधायिका के साधारण बहुमत से किये जा सकते हैं।

प्रश्न 9.
कठोर संविधान से क्या आशय है?
उत्तर:
कठोर संविधान संशोधनों के प्रति कठोर रवैया अपनाता है अर्थात् जिन संविधानों में संशोधन करना बहुत मुश्किल होता है, ऐसे संविधानों को कठोर संविधान कहा जाता है।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान लचीला है या कठोर है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में कठोर और लचीले दोनों तत्त्वों का मिश्रण है। यह कठोर होने के साथ-साथ लचीला भी है।

प्रश्न 11.
भारतीय संविधान में संशोधन करने के कितने तरीके अपनाए गए हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान में संशोधन करने के तीन तरीके अपनाए गए हैं।

  1. संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधन
  2. संसद के विशिष्ट बहुमत से संशोधन
  3. संसद के विशिष्ट बहुमत के साथ-साथ कम से कम आधे राज्यों की विधायिकाओं से स्वीकृति आवश्यक।

प्रश्न 12.
ऐसे दो अनुच्छेदों का उल्लेख कीजिए जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है।
उत्तर:

  1. अनुच्छेद (2) – संसद विधि द्वारा संघ में  ……………….. नए राज्यों को प्रवेश दे सकती है।
  2. अनुच्छेद (3) –  संसद विधि द्वारा ………………….. किसी राज्य का क्षेत्रफल बढ़ा सकती है।

प्रश्न 13.
संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत का औचित्य क्या है?
उत्तर:
संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत का औचित्य यह है कि संविधान संशोधन के लिए राजनीतिक दलों, सांसदों की व्यापक भागीदारी को सुनिश्चित करता है।

प्रश्न 14.
भारत में संविधान संशोधन में राज्यों की क्या भूमिका है?
उत्तर:
भारत में संविधान संशोधनों में राज्यों की सीमित भूमिका है क्योंकि कुछ अनुच्छेदों में संशोधनों के लिए केवल आधे राज्यों के अनुमोदन और विधायिका के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है।

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प्रश्न 15.
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त से क्या आशय है?
उत्तर:
संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले किसी भी संशोधन को न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर निरस्त कर सकती है।

प्रश्न 16.
भारतीय संविधान में मूल – संरचना की धारणा का विकास किस मुकदमे में हुआ?
उत्तर:
स्वामी केशवानंद भारती के मुकदमे में।

प्रश्न 17.
ऐसे दो उदाहरण दीजिये जिनमें संविधान की समझ को बदलने में न्यायिक व्याख्या की अहम भूमिका रही है।
उत्तर:

  1. आरक्षित सीटों की संख्या सीटों की कुल संख्या के आधे से अधिक नहीं होनी चाहिए।
  2. अन्य पिछड़े वर्गों में क्रीमीलेयर के व्यक्तियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत के संविधान में किन विषयों में साधारण विधि से संशोधन किया जाता है? उत्तर – भारत के संविधान में निम्न विषयों में साधारण विधि से संशोधन किया जाता हैv

  1. नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन या किसी राज्य का नाम बदलना (अनु. 2, 3
  2. राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद) को बनाना या समाप्त करना (अनु. 69 )
  3. संसद के कोरम के सम्बन्ध में संशोधन [(अनुच्छेद 100 (3)]
  4. भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में संशोधन (अनुच्छेद 5)।
  5. देश के आम चुनाव के सम्बन्ध में (अनु. 327 )
  6. केन्द्र – शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में (अनु. 240 )
  7. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।

प्रश्न 2.
42वें संविधान संशोधन को सर्वाधिक विवादास्पद संशोधन क्यों माना गया?
उत्तर:
42वां संविधान संशोधन सर्वाधिक विवादास्पद संशोधन के रूप में 1976 का 42वां संविधान संशोधन सर्वाधिक विवादास्पद इसलिए माना गया क्योंकि

  1. यह आपातकाल के दौरान किया गया था।
  2. अधिकांश विपक्षी दलों के नेता उस समय जेल में थे।
  3. इसमें विवादास्पद अनुच्छेद निहित थे।
  4. इस अकेले संविधान संशोधन के द्वारा संविधान का काफी बड़ा भाग संशोधित किया गया था।
  5. इनके अधिकांश प्रावधानों को 43वें तथा 44वें संविधान संशोधनों द्वारा आपातकाल के बाद निरस्त कर दिया

प्रश्न 3.
2000-2003 की छोटी अवधि में इतने अधिक संशोधन क्यों हुए थे?
उत्तर:
2000-2003 की छोटी अवधि के भीतर लगभग 10 संविधान संशोधन किये गये। इन संशोधनों को पारित किये जाने का मुख्य कारण ये सभी गैर – विवादास्पद प्रकृति के थे तथा लगभग सभी राजनैतिक दलों के बीच इनके प्रति आम सहमति थी।

प्रश्न 4.
न्यायालय के किस निर्णय ने संविधान की व्याख्या में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की?
उत्तर:
केशवानंद भारती विवाद (1973) में न्यायालय ने संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त को प्रतिस्थापित किया और 1980 में मिनर्वा मिल प्रकरण में न्यायालय ने पुनः इसे दोहराया। इस निर्णय ने संविधान की व्याख्या में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। राजनीतिक दलों, राजनेताओं, सरकार तथा संसद ने मूल संरचना के इस विचार को स्वीकृति प्रदान की और यह प्रतिस्थापित हुआ कि संसद संविधान की मूल संरचना में संशोधन नहीं कर सकती।

प्रश्न 5.
संविधान के मूल संरचना के सिद्धान्त ने संविधान के विकास में क्या सहयोग दिया?
उत्तर:
संविधान के मूल संरचना के सिद्धान्त ने संविधान के विकास में निम्नलिखित सहयोग दिया

  1. इस सिद्धान्त के द्वारा संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमाएँ निर्धारित की गईं।
  2. यह निर्धारित सीमाओं के अन्दर संविधान के किसी या सभी भागों के सम्पूर्ण संशोधन की अनुमति देता है।
  3. संविधान की मूल संरचना या उसके बुनियादी तत्व का उल्लंघन करने वाले संशोधन को न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर निरस्त कर सकती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 6.
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त के महत्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का महत्व – संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का महत्व निम्नलिखित है।

  1. संरचना का सिद्धान्त स्वयं में ही एक जीवंत संविधान का उदाहरण है। यह एक ऐसा विचार है जो न्यायिक व्याख्याओं से जन्मा है, इसका संविधान में कोई उल्लेख नहीं मिलता।
  2. विगत तीन दशकों के दौरान इसको व्यापक स्वीकृति मिली है।
  3. इस सिद्धान्त से संविधान की कठोरता और लचीलेपन का संतुलन और मजबूत हुआ

प्रश्न 7.
भारतीय संविधान कठोर और लचीले संविधान का मिश्रण है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में कठोरता और लचीलेपन का मिश्रण है।
भारतीय संविधान न तो कठोर संविधान है और न ही लचीला संविधान है, बल्कि इसमें लचीले और कठोर दोनों प्रकार के संविधानों की विशेषताएँ पायी जाती हैं। यथा-

  1. संघीय दृष्टि से संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधान आसानी से संशोधित नहीं किये जा सकते। इन अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद के प्रत्येक सदन से कुल सदस्य संख्या से कम से कम आधे सदस्यों के बहुमत तथा मतदान करने वाले कुछ सदस्यों के 2/3 बहुमत से संशोधन विधेयक पारित होना आवश्यक है और इसके बाद आधे राज्यों की विधायिकाओं से साधारण बहुमत की स्वीकृति होना आवश्यक है।
  2. संविधान के कुछ अनुच्छेद संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत ( प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के कम से कम आधे बहुमत से तथा मतदान करने वाले कुल सदस्य संख्या के 2/3 बहुमत) से संशोधित किये जा सकते हैं।
  3. संविधान के कुछ अनुच्छेद संसद के दोनों सदनों के पृथक-पृथक साधारण बहुमत से संशोधित किये जा सकते हैं।
  4. 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती विवाद में संविधान की मूल संरचना का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए यह प्रतिस्थापित कर दिया है कि संसद संविधान की एक मूल आत्मा में संशोधन नहीं कर सकती।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्रथम प्रकार के संशोधन कठोर संविधान की श्रेणी में आते हैं लेकिन आधे राज्यों को स्वीकृति को ही आवश्यक बताकर संविधान निर्माताओं ने पुनः इसको लचीला स्वरूप दिया है। तीसरे प्रकार के अनुच्छेदों में संशोधन साधारण बहुमत से हो सकते हैं। यह संविधान की लचीलेपन की विशेषता को दर्शाती है और दूसरे प्रकार के संशोधन की प्रक्रिया न बहुत अधिक कठोर है और न ही लचीली। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संविधान कठोर और लचीले संविधान का मिश्रण है।

प्रश्न 8.
भारत में एक ही संविधान इतने वर्षों से किन कारणों से सफलतापूर्वक काम करता रह सका है?
उत्तर:
भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को औपचारिक रूप से लागू किया गया। तब से लेकर आज तक यह लगातार सफलतापूर्वक काम कर रहा है। इसकी सफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।

  1. देश की परिस्थितियों के अनुकूल संविधान: हमारे संविधान निर्माताओं से हमें एक मजबूत संविधान विरासत में मिला है। इस संविधान की बनावट हमारे देश की परिस्थितियों के बेहद अनुकूल है।
  2. भावी प्रश्नों का संविधान में समाधान निहित: हमारे संविधान निर्माता अत्यन्त दूरदर्शी थे। उन्होंने भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया था।
  3. परिस्थितियों के अनुकूल संविधान में संशोधन करने की सुविधा: हमारे संविधान में इस बात को भी स्वीकार करके चला गया है कि समय की जरूरत को देखते हुए इसके अनुकूल संविधान में संशोधन किये जा सकते हैं।
  4. संविधान के अमल में परिपक्वता और लचीलेपन का परिचय: संविधान के व्यावहारिक कामकाज में इस बात की पर्याप्त गुंजाइश रहती है कि किसी संवैधानिक प्रावधान की एक से ज्यादा व्याख्याएँ हो सकें। अदालती फैसले और राजनीतिक व्यवहार बरताव दोनों ने हमारे संविधान के अमल में अपनी परिपक्वता और लचीलेपन का परिचय दिया है। इन्हीं कारणों से हमारा संविधान इतने वर्षों से आज तक सफलतापूर्वक कार्य करता रहा है और एक जीवंत दस्तावेज के रूप में विकसित हो सका है।

प्रश्न 9.
क्या संविधान इतना पवित्र दस्तावेज है कि उसमें कोई संशोधन नहीं किया जा सकता?
उत्तर:
1. संविधान एक पवित्र दस्तावेज;
संविधान एक पवित्र दस्तावेज होता है; इसलिए इसे इतना लचीला नहीं बनाया जाना चाहिए कि उसमें सामान्य कानून की तरह जब चाहे परिवर्तन कर दिया जाये। किसी भी संविधान को भविष्य में पैदा होने वाली चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करने में भी सक्षम होना चाहिए। इस अर्थ में संविधान न केवल समकालीन परिस्थितियों और प्रश्नों से जुड़ा होता है बल्कि उसके कई सारे तत्व स्थायी महत्व होते हैं। इसीलिए संविधान को एक पवित्र दस्तावेज माना जाता है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी इसी दृष्टि से संविधान को सामान्य कानून से ऊँचा दर्जा दिया ताकि आने वाली पीढ़ी उसे सम्मान की दृष्टि से देखें। इस अर्थ में भारतीय संविधान एक पवित्र दस्तावेज है।

2. संविधान जड़ या अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं: संविधान कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तावेज भी नहीं होता। संविधान की रचना मनुष्य ही करते हैं और इस नाते उसमें हमेशा संशोधन, बदलाव और पुनर्विचार की गुंजाइश रहती है। अत: संविधान एक पवित्र दस्तावेज है, लेकिन व्यापक सोच-विचार व सहमति से परिवर्तित आवश्यकताओं के अनुसार इसमें परिवर्तन किये जा सकते हैं।

3. पवित्रता और परिवर्तनीयता के मध्य एक संतुलन; भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते समय उपर्युक्त दोनों बातों का ध्यान रखा है अर्थात् उसे पवित्र दस्तावेज मानने के साथ-साथ इतना लचीला भी बनाया गया है कि उसमें समय की आवश्यकता के अनुरूप यथोचित बदलाव किये जा सकें। दूसरे शब्दों में हमारा संविधान एक पवित्र दस्तावेज है, इसके कई सारे तत्व स्थायी महत्व के हैं, जिन्हें ‘संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त’ के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने रेखांकित किया है तथा संविधान के सभी प्रावधान काफी गहन विचार के साथ रखे गये हैं जिनमें समकालीन परिस्थितियों एवं प्रश्नों तथा भविष्य की चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत किया गया है। इसलिए इन्हें सामान्य कानून की तरह आसानी से नहीं बदला जा सकता; लेकिन यह कोई जड़ और अपरिवर्तनीय दस्तावेज भी नहीं है। इसमें किसी स्थिति के बारे में अंतिम निर्णय देने से बचा गया है और एक विशिष्ट प्रक्रिया के माध्यम से आवश्यकतानुसार इसमें परिवर्तन (संशोधन) भी किये जा सकते हैं।

प्रश्न 10.
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की प्रक्रियाओं में निहित सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए। संविधानों में संशोधन की प्रक्रियाओं में निहित सिद्धान्त
उत्तर:
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की विभिन्न प्रक्रियाओं में दो सिद्धान्त ज्यादा अहम भूमिका अदा करते हैं। यथा

1. विशेष बहुमत का सिद्धान्त:
विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की प्रक्रियाओं के पीछे एक प्रमुख सिद्धान्त है। विशेष बहुमत का सिद्धान्त। इसके अन्तर्गत संविधान संशोधन के लिए विधायिका को सामान्य बहुमत से अधिक किसी विशिष्ट बहुमत की आवश्यकता होती है । अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, रूस तथा भारत आदि के संविधानों में इस सिद्धान्त का समावेश किया गया है। अमेरिका में दो-तिहाई बहुमत का सिद्धान्त लागू है; दक्षिण अफ्रीका और रूस में तीन-चौथाई बहुमत की आवश्यकता होती है तथा भारत में भी 2/3 बहुमत के सिद्धान्त को अपनाया गया है।

2. जनता की भागीदारी का सिद्धान्त; संविधान संशोधन की प्रक्रिया के पीछे दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है- जनता की भागीदारी का सिद्धान्त अर्थात् संविधान में संशोधन में जनता का सम्मिलित होना। यह सिद्धान्त कई आधुनिक सिद्धान्तों में अपनाया गया है। स्विट्जरलैण्ड में तो जनता को संशोधन की प्रक्रिया शुरू करने तक का अधिकार है। रूस तथा इटली में जनता को संविधान में संशोधन करने या संशोधन के अनुमोदन का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 11.
संविधान संशोधन की प्रक्रिया में भारत में किस प्रकार के विशेष बहुमत को अपनाया गया है?
अथवा
विशेष बहुमत से क्या आशय है? भारतीय संविधान में संविधान संशोधन हेतु किस प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है?
उत्तर:
विशेष बहुमत से आशय:सामान्यतः विधायिका में किसी प्रस्ताव या विधेयक को पारित करने के लिए सदन में उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है; लेकिन जब संविधान संशोधन विधेयक को इस साधारण बहुमत से पारित नहीं किया जा सकता और इसे पारित करने के लिए साधारण बहुमत से अधिक, जैसे- 2/3 बहुमत या 3/4 बहुमत की आवश्यकता होती है, तो इसे विशेष बहुमत कहा जाता है। भारत में संविधान संशोधन के विशेष बहुमत का रूप – भारत में संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। यथा

  1. सदन के कुल सदस्यों की कम से कम आधी संख्या: प्रथमतः, संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए।
  2. मतदान करने वाले कुल सदस्यों का 2/3 बहुमत: दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए। संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित कराने की आवश्यकता होती है। इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान नहीं है। कोई भी संशोधन विधेयक विशेष बहुमत के बिना पारित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 12.
भारत में संविधान संशोधन प्रक्रिया में राज्यों की भूमिका को इसके औचित्य के साथ स्पष्ट कीजिये।
अथवा
भारत में संविधान संशोधन प्रक्रिया में राज्यों की भूमिका को स्पष्ट कीजिये तथा यह बताइये कि राज्यों को सीमित भूमिका क्यों दी गई है?
उत्तर:
संशोधन की प्रक्रिया में राज्यों द्वारा अनुमोदन: संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद का विशेष बहुमत पर्याप्त नहीं। शक्तियों के वितरण से संबंधित, जनप्रतिनिधित्व से संबंधित तथा मौलिक अधिकारों से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए राज्यों से परामर्श करना और उनकी सहमति प्राप्त करना आवश्यक है। संविधान में राज्यों की शक्तियों को सुनिश्चित करने के लिए यह व्यवस्था की गई है कि जब तक आधे राज्यों की विधानपालिकाएँ किसी संशोधन विधेयक को पारित नहीं कर देतीं तब तक वह संशोधन प्रभावी नहीं होगा।

इस अर्थ में यह कहा जा सकता है कि संविधान के कुछ हिस्सों के बारे में संशोधन के लिए राज्यों से एक व्यापक सहमति की अपेक्षा की गई है। इसीलिए राज्यों को संशोधन की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार दिया गया है। भारत में संविधान संशोधन की प्रक्रिया में राज्यों को सीमित भूमिका दी गई है। सीमित भूमिका देने का कारण यह है कि राज्यों से संबंधित विषयों, जन-प्रतिनिधित्व और मूल अधिकारों से संबंधित विषयों में संशोधन करने के लिए राज्यों से भी परामर्श लिया जाये। लेकिन संशोधन प्रक्रिया अधिक जटिल न हो जाये, यह लचीली बनी रही, इसलिए संशोधन के लिए केवल आधे राज्यों के अनुमोदन और राज्य विधानपालिकाओं के साधारण बहुमत की आवश्यकता है।

इस प्रकार राज्यों को सीमित भूमिका देकर संशोधन करने की प्रक्रिया को अव्यावहारिक होने से बचाया गया है। यदि सभी राज्यों के अनुमोदन की बात रखी जाती तो यह प्रक्रिया इतनी कठोर हो जाती कि एक राज्य ही संशोधन विधेयक को लागू करने से रोक सकता था और यदि आधे राज्यों को 2/3 बहुमत की शर्त लागू की जाती तो भी व्यवहार में ऐसा होना संभव नहीं हो पाता। इसलिए संशोधन प्रक्रिया को कठोर होने के साथ-साथ व्यावहारिक बनाने के लिए राज्यों को संशोधन प्रक्रिया में सीमित भूमिका ही दी गई है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
एक संविधान में संशोधन की क्या आवश्यकता है? क्या देश में कोई स्थायी (अपरिवर्तनीय) संविधान नहीं हो सकता?
उत्तर:
संविधान में संशोधन की आवश्यकता: संविधान कोई अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं है। इसे समाज की आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होना पड़ता है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रत्येक समाज की परिस्थितियों में समय के साथ परिवर्तन आता है । कोई भी समाज ऐसा नहीं है जिसकी आवश्यकताएँ हमेशा के लिए समान रहती हों और जो समय के साथ परिवर्तित नहीं होता है या जिसमें समय के परिवर्तन के साथ नई आवश्यकताएँ पैदा नहीं होती हों। इस प्रकार संविधान, जो कि समाज के शासन संचालन के नियमों का दस्तावेज है, को भी समाज की आवश्यकताओं तथा परिवर्तित परिस्थितियों के साथ परिवर्तित होना पड़ता है।

अतः एक संविधान में समाज में आई नवीन आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका के संविधान में अब तक 27 संशोधन किये जा चुके हैं। फ्रांस की राज्य क्रांति के बाद फ्रांस में अब तक पांच गणतंत्रीय संविधान निर्मित हो चुके हैं।

पूर्व – सोवियत संघ में 74 वर्ष में अनेक संविधान बने, जैसे – 1918 का संविधान, 1924 का संविधान, 1966 और 1977 का संविधान और फिर सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस का नवीन संविधान बना है। 1949 की साम्यवादी क्रांति के बाद चीन में अनेक संविधान बने, जैसे- 1949, 1954, 1975 और 1982 के संविधान । भारत के संविधान में भी अब तक 101 संशोधन किये जा चुके हैं। अतः स्पष्ट है कि प्रत्येक देश में संविधान में परिवर्तन करने या संशोधन करने की आवश्यकता होती है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. भावी परिस्थितियों का आंकलन संभव नहीं:
संविधान निर्माता सरकार के ढांचे को निर्धारित करते समय समाज में उस समय की परिस्थितियों को ही मुख्य रूप से अपने आधार रूप में लेते हैं। वे उन भूतकालीन परिस्थितियों पर भी विचार कर सकते हैं जो भूतकाल में घटित हुई थीं। वे दूसरे देशों की तत्कालीन तथा भूतकालीन परिस्थितियों को ध्यान में रख सकते हैं। लेकिन वे भविष्य में आने वाली परिस्थितियों का पूर्ण आकलन नहीं कर सकते।

2. भावी परिस्थितियों व समस्याओं का समाधान संभव नही: संविधान निर्माता अपनी दूरदर्शिता से संविधान में भविष्य में आने वाली कुछ या अधिक समस्याओं का समाधान अपने संविधान में कर सकते हैं, लेकिन वे भविष्य की सभी परिस्थितियों, सभी समस्याओं तथा घटनाओं का आकलन व समाधान नहीं कर सकते।

3. भविष्य के लिए आदर्श संरचना का निर्माण संभव नहीं: संविधान निर्माता वर्तमान की सरकार की आदर्श संरचना प्रस्तुत कर सकते हैं लेकिन वे भविष्य के लिए भी सरकार की आदर्श संरचना का निर्माण नहीं कर सकते।

4. तीव्र सामाजिक व आर्थिक विकास की आवश्यकता: तीव्र सामाजिक-आर्थिक विकास तथा सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए समाज में नवीन दशाओं को निर्मित करने हेतु संविधान संशोधन की आवश्यकता होती है। संविधान अपरिवर्तनीय नहीं हो सकते – उपर्युक्त आधारों पर यह कहा जा सकता है कि किसी भी देश का कोई भी संविधान अपरिवर्तनीय प्रकृति का नहीं हो सकता। संविधान सही ढंग से कार्य करता रहे इसके लिए आवश्यक है कि

उस देश में परिस्थितिगत बदलाव, सामाजिक परिवर्तनों और राजनीतिक उठापटक के अनुरूप उसमें आवश्यक संशोधन या परिवर्तन होता रहे। यही कारण है कि परिस्थितिगत बदलाव, सामाजिक परिवर्तनों और राजनीतिक उठापटक के चलते फ्रांस, पूर्व सोवियत संघ तथा साम्यवादी चीन ने अपने संविधानों को अनेक बार बदला है तथा भारत और अमेरिका के संविधानों में अनेक संशोधन किये गये हैं।

चूंकि संविधान की रचना मनुष्य ही करते हैं और वे तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों तथा भूतकालीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान की रचना करते हैं, लेकिन वे भावी परिस्थितियों व घटनाओं व सामाजिक परिवर्तनों का पूर्ण अंदाज नहीं लगा सकते । इस नाते उसमें हमेशा संशोधन, बदलाव और पुनर्विचार की गुंजाइश रहती है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की संशोधन की प्रक्रिया का विवेचन कीजिए।
अथवा
“भारतीय संविधान कठोरता और लचीलेपन के गुणों का मिश्रण है।” स्पष्ट कीजिये।
अथवा
भारतीय संविधान में संशोधन के विभिन्न तरीकों को बताइये।
उत्तर:
भारतीय संविधान में संशोधन की विधियाँ: भारतीय संविधान में संशोधन की निम्नलिखित विधियाँ दी गई हैं
1. साधारण विधि: संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती है। ऐसे मामलों में कोई विशेष प्रक्रिया अपनाने की जरूरत नहीं होती। इस प्रकार के संशोधन और सामान्य कानून में कोई अन्तर नहीं होता। संसद इन अनुच्छेदों में अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया को अपनाए बिना ही संशोधन कर सकती है। इन अनुच्छेदों में संशोधन का प्रस्ताव किसी भी सदन में रखा जा सकता है।

जब दोनों सदन उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत से प्रस्ताव पास कर देते हैं, तब वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर संशोधन प्रस्ताव पारित हो जाता है। इस प्रणाली के द्वारा जिन अनुच्छेदों में संशोधन किया जा सकता है, उनमें से कुछ अनुच्छेद निम्न प्रकार से हैं-

  1. अनुच्छेद 2, 3 तथा 4 – नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमाओं को घटाना या बढ़ाना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना या किसी राज्य का नाम बदलना।
  2. अनुच्छेद 169: राज्यों के द्वितीय सदन ( विधान परिषद) को बनाना या समाप्त करना।
  3. अनुच्छेद 100 (3): संसद के कोरम के सम्बन्ध में संशोधन।
  4. अनुच्छेद 5: भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में संशोधन।
  5. अनुच्छेद 240: केन्द्र शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में संशोधन।

भारतीय संविधान में संशोधन करने की उपर्युक्त प्रक्रिया सरलतम प्रक्रिया है। इसलिए यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान में लचीलेपन का गुण विद्यमान है।

2. अनुच्छेद 368 के अनुसार संशोधन की विधियाँ – संविधान के शेष अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 368 में प्रावधान किया गया है। अनुच्छेद 368 में कहा गया है कि “संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के द्वारा और इस अनुच्छेद में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार संविधान में नए उपबन्ध कर सकती है, पहले से विद्यमान उपबंधों को बदल या हटा सकती है। इस अनुच्छेद में ‘संशोधन करने के दो तरीके दिये गए हैं जो संविधान के अलग-अलग अनुच्छेदों पर लागू हैं। यथा

(i) संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन- संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संसद अपने विशेष बहुमत द्वारा संशोधन कर सकती है। संविधान में इन अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है।

(क) सबसे पहले, संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए।

(ख) दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की कम से कम दो-तिहाई होनी चाहिए।

संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता है। अनेक बार लोकसभा द्वारा पारित संशोधन विधेयक को राज्यसभा द्वारा निरस्त किया जा चुका। हमारे संविधान में पहले (साधारण विधि से और तीसरे वर्ग (संसद के विशेष बहुमत के साथ राज्यों की स्वीकृति आवश्यक) में उल्लिखित अनुच्छेदों को छोड़कर अन्य सभी अनुच्छेद इसी विधि से किये जाते हैं।

(ii) राज्यों का समर्थन प्राप्त करके संसद द्वारा विशेष बहुमत द्वारा संशोधन- संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए संसद का विशेष बहुमत पर्याप्त नहीं होता। राज्यों और केन्द्र सरकारों के बीच शक्तियों के वितरण से संबंधित या राष्ट्रपति का निर्वाचन व निर्वाचन पद्धति, संघीय न्यायपालिका तथा राज्यों में उच्च न्यायालय, संघ तथा राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार, संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व, स्वयं संशोधन प्रक्रिया आदि से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए इस विधि को अपनाया जाता है।

इस विधि में संशोधन का विधेयक संसद के दोनों सदनों तथा पृथक्-पृथक् रूप से उपस्थित सदस्यों के 2/3 बहुमत तथा कुल सदस्यों के पूर्ण बहुमत द्वारा पारित करने के पश्चात्, राज्यों की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और कम से म आधे राज्यों के विधानमण्डलों से स्वीकृत होने के पश्चात् यह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद संशोधन विधेयक पारित हो जाता है। यह विधि स्पष्ट रूप से जटिल है। इस दृष्टि से यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान में कठोरता के गुण विद्यमान हैं।

3. संशोधन प्रक्रिया से संबंधित अन्य विशेषताएँ – भारतीय संविधान में संशोधन प्रक्रिया से संबंधित अन्य प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं।
(i) संशोधन को प्रस्तावित करना:
भारतीय संविधान में संशोधन विधेयक को प्रस्तुत करने का अधिकार केवल संसद को है। संसद के किसी भी सदन में इसे प्रस्तुत किया जा सकता है। राज्यों को संशोधन का प्रस्ताव लाने का अधिकार नहीं दिया गया है।

(ii) अन्य बाह्य एजेन्सी की संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं:
संसद के विशेष बहुमत के अलावा किसी बाहरी एजेन्सी, जैसे संविधान आयोग या किसी अन्य निकाय की संविधान की संशोधन प्रक्रिया में कोई भूमिका नहीं है।

(iii) जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं:
संसद या कुछ मामलों में राज्य विधान पालिकाओं में संशोधन पारित होने के पश्चात् इस संशोधन को पुष्ट करने के लिए किसी प्रकार के जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं है।

(iv) राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदन:
संशोधन विधेयक को भी अन्य सामान्य विधेयकों की तरह राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है परन्तु इस मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार का अधिकार नहीं है।

(v) संयुक्त अधिवेशन का प्रावधान नहीं:
भारत में संविधान संशोधन की प्रक्रिया में संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् पारित होना अनिवार्य है। यदि एक सदन उसे पारित नहीं करता है तो सामान्य विधेयक की तरह इसमें संसद के संयुक्त अधिवेशन का प्रावधान नहीं किया गया है। यदि एक सदन किसी संशोधन विधेयक को अस्वीकृत कर देता है तो वह विधेयक निरस्त हो जायेगा।

(vi) संशोधन की शक्ति पर सीमाएँ:
सन् 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती विवाद में यह अभिनिर्धारित किया है कि संसद संविधान की मूल संरचना को संशोधित नहीं कर सकती। इस अवधारणा पर अब सर्वसम्मति स्थापित हो चुकी है। इस प्रकार संसद संविधान के सभी अनुच्छेदों में संशोधन कर सकती है लेकिन संवैधानिक संशोधन द्वारा संविधान का मूल ढांचा नष्ट नहीं किया जा सकता। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान में कठोर और लचीले संविधान  दोनों प्रकार के गुणों का सम्मिश्रण है।

साधारण विधि द्वारा संशोधन की प्रक्रिया तथा आधे राज्यों द्वारा सामान्य बहुमत से संशोधन विधेयक को पारित करने की स्थिति दोनों ही लचीले संविधान के गुणों से युक्त हैं क्योंकि इनमें संशोधन विधेयक को पारित करने के लिए साधारण बहुमत का प्रावधान किया गया है। दूसरी तरफ संसद के विशेष बहुमत की प्रक्रिया संविधान के कठोरता के गुण को स्पष्ट करती है।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में बहुत अधिक संशोधन क्यों किये गये हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में बहुत अधिक संशोधन क्यों किए गए हैं? 26 जनवरी, 2010 को हमारे संविधान को लागू हुए 68 वर्ष पूरे हो गए हैं। अब तक इसमें 101 संशोधन किये जा चुके हैं। संशोधन प्रक्रिया की कठोरता को देखते हुए संशोधनों की यह संख्या काफी बड़ी मानी जायेगी। संशोधनों की बड़ी संख्या दो बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है कि

  1. भारतीय संविधान बहुत लचीला है, जिसके कारण इतने सारे संशोधन आसानी से संभव हो पाये।
  2. हमारे संविधान निर्माता दूरदर्शी नहीं थे और वे निकट भविष्य की आवश्यकताओं का आकलन नहीं कर सके।

दूसरी तरफ अमेरिका का संविधान है जो 1789 में प्रभाव में आया और लगभग 220 वर्षों में इसमें केवल 27 ही संशोधन हुए हैं और उनमें भी अधिकांश संशोधन अधिकारों के विधेयक से संबंधित हैं जो संविधान बनने के तुरन्त बाद संविधान में शामिल किये गए। लेकिन भारतीय संविधान में अधिक संशोधन होने के वास्तविक कारण उक्त दोनों स्थितियाँ नहीं हैं क्योंकि भारतीय संविधान न तो अत्यधिक लचीला है और न ही भारतीय संविधान निर्माता अदूरदर्शी थे। इसके साथ ही यह भी सत्य नहीं है कि अधिकांश संविधान संशोधन तभी प्रभाव में आए जब कांग्रेस का केन्द्र तथा राज्यों में एकदलीय प्रभुत्व था। संविधान के संशोधनों की एक संक्षिप्त रूपरेखा इस प्रकार है।
JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़ 1

कांग्रेस दल का प्रभुत्व काल 1976 तक माना जा सकता है। इस प्रकार 1951 से 1970 के 20 वर्ष के काल में 23 संशोधन किये गये। दूसरी तरफ 1971 से 1990 तक कांग्रेस के वर्चस्व में कमी आ गई और वह सबसे बड़े दल के रूप में रह गयी। इस अवधि में 44 संशोधन हुए हैं तथा 1991 से 2009 के काल में गठबंधन सरकारों का युग रहा है लेकिन इस अवधि में भी 26 संशोधन हुए हैं। इससे स्पष्ट होता है कि भारत में संशोधनों के पीछे केवल राजनीतिक सोच ही प्रमुख नहीं रही है। इनके पीछे सत्ताधारी दल की राजनीतिक सोच का बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ा था बल्कि ये संशोधन समय की जरूरतों के अनुसार किये गये थे। न तो इसके पीछे मूल संविधान की कमजोरियां काम कर रही थीं और न ही संविधान का लचीलापन।

संविधान संशोधनों की विषय वस्तु व प्रकृति: संविधान संशोधनों की प्रकृति इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर दे सकती है कि संविधान में इतने अधिक संशोधन क्यों हुए। संविधान संशोधनों की प्रकृति को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।
1. तकनीकी या प्रशासनिक प्रकृति के संशोधन:
संविधान संशोधनों में बहुत से संशोधन ऐसे हैं जिनकी प्रकृति तकनीकी या प्रशासनिक है। ये संविधान के मूल उपबन्धों को स्पष्ट बनाने, उनकी व्याख्या करने तथा छिट-पुट संशोधन से संबंधित हैं। उन्हें केवल सिर्फ तकनीकी भाषा में संशोधन कहा जा सकता है। वास्तव में वे इन उपबन्धों में कोई विशेष बदलाव नहीं करते। उदाहरण के लिए, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा को 60 वर्ष से बढ़ाकर 62 वर्ष करना; सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन; विधायिकाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण सम्बन्धी उपबन्धों में संशोधन, जो प्रत्येक दस वर्ष बाद आरक्षण की अवधि को आगे बढ़ाने के लिए किये गये हैं। इन संशोधनों से मूल संशोधनों में कोई अन्तर नहीं आया है। इसीलिए इन्हें तकनीकी संशोधन कहा जा सकता है।

2. राजनीतिक आम सहमति के माध्यम से संशोधन:
बहुत से संविधान संशोधन ऐसे हैं जिन्हें राजनीतिक दलों की आपसी सहमति का परिणाम माना जा सकता है। ये संशोधन तत्कालीन राजनीतिक दर्शन और समाज की आकांक्षाओं को समाहित करने के लिए किए गए थे। 1984 के बाद गठबंधन सरकारों के कार्यकालों में ये संशोधन किये गए। ये संशोधन गठबंधन सरकारों के कार्यकाल में तभी हो सकते थे जब सभी दलों में उनके पीछे व्यापक सहमति हो। ये संविधान संशोधन थे दल-बदल विरोधी कानून ( 52वां संशोधन), मताधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करना, 73वां पंचायती राज संशोधन और 74वां शहरी स्थानीय स्वशासन (नगरपालिका) संशोधन, नौकरियों में आरक्षण की सीमा बढ़ाने सम्बन्धी संशोधन आदि आम सहमति के कारण आसानी से पारित हो सके।

3. संविधान की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं के कारण संशोधन:
संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और संसद के बीच अक्सर मतभेद होते रहे हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं। 1970 से 1975 के दौरान ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं और इस काल में संसद ने न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार- बार संशोधन किये। मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर, सम्पत्ति के मूल अधिकार को लेकर तथा संविधान में संशोधन के अधिकार की सीमा को लेकर संसद और न्यायपालिका में व्याख्या सम्बन्धी मतभेद उभरे हैं और उनके निराकरण हेतु संसद ने संशोधन किये हैं।

4. विवादास्पद संशोधन:
कुछ संवैधानिक संशोधन विवादास्पद प्रकृति के रहे हैं। ऐसे अधिकांश संशोधन 1975 से लेकर 1980 के बीच हुए। इस संबंध में 38वां, 39वां और 42वां संशोधन विशेष रूप से विवादास्पद रहे। ये संशोधन आपातकाल में किए गए थे। आपातकाल के बाद हुए चुनावों में सत्तारूढ़ कांग्रेस दल की पराजय हुई और जनता पार्टी सत्ता में आई। उसने 43वें तथा 44वें संविधान संशोधनों द्वारा उक्त विवादास्पद संशोधनों के विवादास्पद अंशों को हटा दिया। इन संशोधनों के माध्यम से संवैधानिक सन्तुलन को पुनः लागू किया गया। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारत के संविधान में अधिक संशोधन होने के निम्न कारण रहे हैं।

  1. काफी संशोधन तकनीकी प्रकृति के थे, जिनसे मूल प्रावधानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था।
  2. कुछ संशोधन परिवर्तित राजनीतिक परिस्थितियों के कारण हुए थे।
  3. कुछ परिवर्तन संसद और न्यायालय के भिन्न-भिन्न निर्वचन के कारण उत्पन्न समस्या को दूर करने के लए किये गये थे।
  4. कुछ संशोधन अवश्य विवादास्पद प्रकृति के थे जिनमें सत्तारूढ़ दल ने संविधान संशोधन के माध्यम से सत्ता के दुरुपयोग का प्रयास किया था, लेकिन बाद में उन्हें अगले संशोधनों द्वारा निरस्त कर दिया गया।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 9 संविधान – एक जीवंत दस्तावेज़

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान के विकास में योगदान देने वाले कारकों को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
भारतीय संविधान का विकास: भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। तब से लेकर दिसम्बर 2017 तक इसमें 101 संविधान संशोधन किये जा चुके हैं। इस अवधि में आपातकाल के दौरान संविधान को संकट के दौर से गुजरना पड़ा है, विशेषकर 42वें संविधान संशोधन 1976 के रूप में। इसके अन्तर्गत संविधान में व्यापक परिवर्तन किया गया लेकिन उनमें से अधिकांश संशोधनों को 1978 के 44वें संविधान संशोधन के द्वारा निरस्त कर पुनः संतुलन की स्थापना कर दी गई। इस प्रकार भारतीय संविधान अनेक संशोधनों को समेटते हुए आज तक कार्यरत है तथा समय-समय पर संशोधनों व न्यायिक व्याख्याओं द्वारा इसका विकास होता रहा है। भारतीय संविधान के विकास में उत्तरदायी कारक – मुख्य रूप से निम्नलिखित दो कारकों ने भारतीय संविधान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

1. संविधान संशोधन: अनेक संवैधानिक संशोधनों ने अनेक उपबन्धों के क्षेत्र का विस्तार किया है और संविधान को परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप बनाया है। संक्षेप में ये संशोधन निम्नलिखित हैं।

  1. सामाजिक-आर्थिक न्याय की स्थापना हेतु नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने की प्रक्रिया में सम्पत्ति का मूल अधिकार सरकार के कार्यों से प्रारम्भ से ही मुख्य रोड़ा बन गया था। इस अधिकार को सीमित करने के लिए अनेक संशोधन किये गये और अन्त में 44वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों से निकाल दिया गया।
  2. मूल संविधान में पदोन्नतियों में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। इसे एक संविधान संशोधन द्वारा संविधान का अंग बनाया गया। इसी प्रकार अन्य पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण संविधान संशोधन के द्वारा मान्य किया गया है।
  3. 42वें संविधान संशोधन में संविधान की प्रस्तावना में अनेक शब्दों का समावेश किया गया है, जैसे- समाजवादी, पंथ निरपेक्ष राज्य।
  4. 62वें सविधान संशोधन द्वारा सन् 1988 में मतदान की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दी गई है।
  5. 2003 में 91वें संविधान संशोधन द्वारा मन्त्रिमण्डल के विस्तार पर सीमा लगायी गयी है। इसके अनुसार मन्त्रिमण्डल का आकार लोकसभा की कुल सदस्य संख्या या राज्यों की विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत तक सीमित कर दिया गया है। इससे एक तरफ खर्चे को कम किया गया है तो दूसरी तरफ दल-बदल को हतोत्साहित किया गया है।
  6. संविधान संशोधन के द्वारा शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकारों में सम्मिलित किया गया है।
  7. 42वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान में नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों को संविधान का भाग बनाया गया उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि संविधान संशोधनों ने भारत के संविधान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

2. न्यायिक व्याख्याएं: भारत के सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों ने अपने समक्ष आए अनेक विवादों के निर्णयों में संविधान के अनेक अनुच्छेदों की न्यायिक व्याख्याएँ कर संविधान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यथा-

  1. न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति न्यायिक व्याख्या पर आधारित है। इसने न्यायपालिका को बहुत शक्तिशाली बना दिया है और विधायिका तथा कार्यपालिका के कार्यों पर इसने न्यायपालिका को वीटो पॉवर दे दी है। इसने सरकार के तीनों अंगों के मध्य शक्ति सन्तुलन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है।
  2. सर्वोच्च न्यायालय ने 1973 में केशवानंद भारती विवाद में मूल संरचना के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है तथा संसद की संविधान संशोधन की शक्ति की सीमा निर्धारित कर दी है। इसने यह प्रस्थापित किया है कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है लेकिन इसकी मूल संरचना को समाप्त नहीं कर सकती। इसके साथ ही न्यायपालिका ने स्पष्ट शब्दों में संविधान की मूल संरचना को परिभाषित नहीं किया है। उसने यह शक्ति स्वयं अपने में रख ली है कि वह समय-समय पर संविधान की मूल संरचना को परिभाषित करती रहेगी।
  3. न्यायपालिका ने ही ‘अन्य पिछड़े वर्गों’ के आरक्षण में ‘क्रीमीलेयर के सिद्धान्त’ का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि जो व्यक्ति अन्य पिछड़े वर्ग में क्रीमी लेयर के अन्तर्गत आते हैं, वे आरक्षण के पात्र नहीं हैं। इसे स्वीकार कर लिया गया है।
  4. न्यायपालिका ने अपनी व्याख्या के द्वारा ही आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत निर्धारित की है जिसे स्वीकार कर लिया गया है।
  5. अनेक विवादों में न्यायपालिका ने अनेक मूल अधिकारों विशेषकर जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार तथा शिक्षा के अधिकार के क्षेत्र को व्यापक कर दिया है। एक विवाद में न्यायपालिका ने यहाँ तक कह दिया है कि जीवन के अधिकार से आशय अच्छा जीवन जीने का अधिकार।
  6. लोकहित याचिका का जो सिद्धान्त न्यायालय ने स्वीकृत किया है वह न्यायिक व्याख्या पर ही आधारित है तथा इसने न्यायिक सक्रियता को बढ़ावा दिया है। लोकहित याचिका और न्यायिक सक्रियता के सिद्धान्त के द्वारा न्यायपालिका विधायिका तथा कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है तथा प्रशासनिक इकाइयों को एक निर्धारित समय-सीमा में इसके आदेशों को क्रियान्वित करने के निर्देश दे रही है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान के विकास में संविधान संशोधनों तथा न्यायिक व्याख्याओं ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।

प्रश्न 5.
“संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है।” इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिये। भारतीय संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है, के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है। इस कथन का आशय यह है कि लगभग एक जीवित प्राणी की तरह संविधान समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है। जीवंत प्राणी की तरह ही वह अनुभव से सीखता है। एक संविधान एक जीवन्त दस्तावेज बन जाता है यदि यह संशोधनों, व्याख्याओं के लिए खुला हो और परम्पराओं को स्वीकारने के लिए स्वतंत्र हो। लोकतन्त्र में व्यावहारिकताएँ तथा विचार समय-समय पर विकसित होते रहते हैं और समाज में इसके अनुसार प्रयोग चलते रहते हैं। कोई भी संविधान जो प्रजातंत्र को समर्थ बनाता हो और नये प्रयोगों के विकास का रास्ता खोलता हो, वह केवल टिकाऊ ही नहीं होता, बल्कि अपने नागरिकों के बीच सम्मान का पात्र भी होता है। ऐसा संविधान एक जीवन्त संविधान कहलाता है।

भारत का संविधान एक जीवन्त संविधान के रूप में भारत का संविधान अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण एक जीवन्त संविधान के रूप में प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है। पिछले 68 वर्षों के दौरान भारतीय संविधान ने अनेक नई परिस्थितियों, न्यायपालिका और संसद के मध्य तथा न्यायपालिका और कार्यपालिका के मध्य संघर्षों की घटनाओं का सामना किया है, लेकिन इसने इन सबको सफलतापूर्वक सुलझाया है तथा स्वयं को नयी परिस्थितियों के अनुरूप ढाला है। इसने संवैधानिक संशोधनों या न्यायिक व्याख्याओं के द्वारा इन समस्याओं का हल निकाला है। यथा

1. मूल संरचना के सिद्धान्त का प्रतिपादन:
जब संसद ने संविधान के प्रत्येक भाग को संशोधन करने की शक्ति का दावा करते हुए अपनी सर्वोच्चता को स्थापित करना चाहा, तब न्यायपालिका ने संविधान की सर्वोच्चता को स्थापित किया और न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से स्वयं को संविधान के संरक्षक और अन्तिम व्याख्याकार की भूमिका निभायी। इस स्थिति में संसद और न्यायपालिका के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हुई । संसद ने संविधान में संशोधन कर पुन: यह स्थापित किया कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन कर सकती है।

ऐसी स्थिति में न्यायपालिका ने केशवानंद भारती विवाद में इस संघर्ष का समाधान करते हुए संविधान की मूल संरचना के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और कहा कि संसद संविधान के प्रत्येक भाग में संशोधन तो कर सकती है। लेकिन वह संविधान की मूल संरचना को नष्ट नहीं कर सकती अर्थात् वह संसद के मौलिक ढांचे या उसकी आत्मा में संशोधन नहीं कर सकती ।
इस सिद्धान्त को अब सभी राजनीतिक संस्थाओं तथा राजनीतिक दलों द्वारा स्वीकार कर लिया गया है।

2. 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा का निर्धारण:
जब कुछ राज्य सरकारों ने राजनीतिक मान्यताओं के लिए 75 प्रतिशत सीटों के आरक्षण के कानून बनाये, इससे समाज में तनाव बढ़ा तथा अराजकता का वातावरण बना और संविधान में आरक्षण के लिए कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई थी। इस विस्फोटक स्थिति को न्यायपालिका ने इस व्याख्या के द्वारा संभाला कि सभी श्रेणियों का कुल आरक्षण समस्त सीटों के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता।

3. संसद की सीमाओं को रेखांकित करना:
न्यायालय ने समय-समय पर यह रेखांकित किया है कि संसद, राष्ट्र की जनप्रतिनिधि संस्था के होते हुए भी, निरंकुशता का व्यवहार नहीं कर सकती है तथा इसे अपना कार्य संविधान की सीमाओं के अन्तर्गत करना पड़ेगा और उस सीमा के अन्तर्गत कार्य करना पड़ेगा जो सीमा इसके ऊपर संविधान तथा सरकार की अन्य राजनीतिक संस्थाओं के कार्यक्षेत्रों ने लगाई है।

4. संशोधनों के द्वारा संविधान का विकास:
अनेक नवीन स्थितियाँ जो कि परिवर्तित परिस्थितियों के कारण पैदा हुईं उन्हें संविधान संशोधनों के द्वारा संभाला गया है। पिछले 68 वर्षों में 101 संविधान संशोधन किये जा चुके हैं जो संविधान की जीवन्तता को दर्शाते हैं। मत देने के अधिकार की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करना, सम्पत्ति के मूल अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से निकाल देना, दल-बदल रोकने हेतु संविधान संशोधन कर दल-बदल निषेध संशोधन विधेयक पारित करना 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को तथा 74वें संविधान संशोधन द्वारा नगरीय स्थानीय शासन की संस्थाओं को संवैधानिक स्वरूप प्रदान करना आदि संशोधनों ने संविधान को बदलती परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करने में सक्षम बनाया है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. स्थानीय स्वशासन का सम्बन्ध है।
(क) स्थानीय हित से
(ख) राष्ट्रीय हित से
(ग) प्रादेशिक हित से
(घ) अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं से
उत्तर:
(क) स्थानीय हित से

2. जीवन्त और मजबूत स्थानीय शासन सुनिश्चित करता है।
(क) जनता की सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही को
(ख) जनता की निरंकुशता को
(ग) जनता की स्वेच्छाचारिता को
(घ) सामन्तशाही को।
उत्तर:
(क) जनता की सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही को

3. ब्रिटिश काल में भारत में स्थानीय शासन के निर्वाचित निकाय को कहा जाता था।
(क) ग्राम पंचायत
(ख) तालुका पंचायत
(ग) नगर परिषद
(घ) मुकामी बोर्ड
उत्तर:
(घ) मुकामी बोर्ड

4. जब संविधान बना तो स्थानीय शासन का विषय सौंप दिया गया।
(क) संघ की सरकार को
(ख) प्रदेशों की सरकार को
(ग) मुकामी बोर्डों को
(घ) उपर्युक्त में से किसी को नहीं
उत्तर:
(ख) प्रदेशों की सरकार को

5. पंचायती राज व्यवस्था से संबंधित संविधान संशोधन है।
(क) 72वां संविधान संशोधन
(ख) 78वां संविधान संशोधन
(ग) 73वां संविधान संशोधन
(घ) 74वां संविधान संशोधन
उत्तर:
(ग) 73वां संविधान संशोधन

6. अब प्रत्येक पंचायती निकाय का चुनाव किया जाता है।
(क) 3 साल के लिए
(ख) चार साल के लिए
(ग) 6 साल के लिए
(घ) पांच साल के लिए
उत्तर:
(घ) पांच साल के लिए

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

7. सभी पंचायती संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं।
(क) 7 1/2 प्रतिशत
(ख) 50 प्रतिशत
(ग) 20 प्रतिशत
(घ) 33 प्रतिशत
उत्तर:
(घ) 33 प्रतिशत

8. संविधान की 11वीं अनुसूची में दर्ज विषय प्रदान किये गये हैं।
(क) संघ सरकार को
(ख) राज्य सरकारों को
(ग) स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को
(घ) किसी को नहीं
उत्तर:
(ग) स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को

9. शहरी स्थानीय निकायों का कुल राजस्व उगाही में योगदान है।
(क) 0.24 प्रतिशत का
(ख) 4 प्रतिशत का
(ग) 24 प्रतिशत का
(घ) 76 प्रतिशत का
उत्तर:
(क) 0.24 प्रतिशत का

10. संविधान का कौनसा संशोधन शहरी स्थानीय शासन से संबंधित है?
(क) 60वाँ
(ख) 62वाँ
(ग) 63वाँ
(घ) 74वाँ
उत्तर:
(घ) 74वाँ

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. गाँव और जिला स्तर के शासन को …………………… कहते हैं।
उत्तर:
स्थानीय शासन

2. स्थानीय शासन का विषय है-आम नागरिक की समस्यायें और उसकी रोजमर्रा की ………………….
उत्तर:
जिंदगी

3. संविधान का ……………… संविधान संशोधन गाँव के स्थानीय शासन से जुड़ा है।
उत्तर:
63वाँ

4. संविधान का 74वाँ संशोधन ………………… स्थानीय शासन से जुड़ा है।
उत्तर:
शहरी

5. सभी पंचायत संस्थाओं में एक-तिहाई सीटें …………………… के लिए आरक्षित हैं।
उत्तर:
महिलाओं।

निम्नलिखित में से सत्य/असत्य कथन छाँटिये

1. सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की लगभग 31 प्रतिशत जनसंख्या शहरी इलाकों में रहती है।
उत्तर:
सत्य

2. अब सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा त्रि-स्तरीय है।
उत्तर:
सत्य

3. हर पंचायती निकाय की अवधि 3 साल की होती है।
उत्तर:
असत्य

4. ऐसे 29 विषय जो पहले समवर्ती सूची में थे, अब पहचान कर संविधान की 11वीं अनुसूची में दर्ज कर लिए गए हैं।
उत्तर:
असत्य

5. प्रदेशों की सरकार के लिए हर 5 वर्ष पर एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना जरूरी है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. पंचायत समिति (अ) नगरीय स्थानीय स्वशासन की संस्था
2. नगर निगम (ब) पी.के. थुंगन समिति (1989)
3. सामुदायिक विकास (स) सन् 1993 कार्यक्रम
4. स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा (द) सन् 1952 प्रदान करने की सिफारिश की
5. 73वां और 74वां संविधान संशोधन लागू हुए (य) ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की संस्था

उत्तर:

1. पंचायत समिति (य) ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की संस्था
2. नगर निगम (अ) नगरीय स्थानीय स्वशासन की संस्था
3. सामुदायिक विकास (द) सन् 1952
4. स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा (ब) पी.के. थुंगन समिति (1989)
5. 73वां और 74वां संविधान संशोधन लागू हुए (स) सन् 1993

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
पंचायती राज क्या है?
उत्तर:
पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके अन्तर्गत ग्रामों में रहने वाले लोगों को अपने गांवों का प्रशासन तथा विकास का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 2.
स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से क्या आशय है?
उत्तर:
स्थानीय मामलों का प्रबन्ध करने वाली संस्थाओं को स्थानीय स्वशासन संस्थाएँ कहते हैं।

प्रश्न 3.
पंचायती राज के किन्हीं दो उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
पंचायती राज के दो प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं।

  1. ग्रामों का विकास करना व उन्हें आत्मनिर्भर बनाना।
  2. ग्रामीणों को उनके अधिकार और कर्तव्य का ज्ञान कराना।

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प्रश्न 4.
पंचायती राज संस्थाओं में स्त्रियों के लिए कितनी सीटें आरक्षित की गई हैं?
उत्तर:
73वें संविधान संशोधन के तहत पंचायती राज संस्थाओं के सभी स्तरों में स्त्रियों के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं।

प्रश्न 5.
ग्राम सभा क्या है?
उत्तर:
ग्राम सभा एक तरह से गांव की संसद है। एक ग्राम पंचायत क्षेत्र के सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। इसकी एक वर्ष में दो सामान्य बैठकें होना आवश्यक है।

प्रश्न 6.
स्थानीय शासन का विषय क्या है?
उत्तर:
स्थानीय शासन का विषय है। आम नागरिक की समस्यायें और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी।

प्रश्न 7.
स्थानीय शासन की मान्यता क्या है?
उत्तर:
स्थानीय शासन की मान्यता है कि स्थानीय ज्ञान और स्थानीय हित लोकतांत्रिक फैसले लेने के लिए तथा कारगर और जन 1 हितकारी प्रशासन के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 8.
संविधान में स्थानीय शासन का विषय किसे सौंपा गया है?
उत्तर:
संविधान में स्थानीय शासन को राज्य सूची में रखा गया है। प्रदेशों को इस बात की छूट है कि वे स्थानीय शासन के बारे में अपनी तरह का कानून बनाएं।

प्रश्न 9.
ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज किन्हीं दो विषयों के नाम लिखिये।
उत्तर:
कृषि, लघु सिंचाई, जल प्रबंधन, जल संचय का विकास।

प्रश्न 10.
73वें संविधान संशोधन द्वारा राज्य सूची के कितने विषय 11वीं अनुसूची में दर्ज कर लिए गये हैं?
उत्तर:
73वें संविधान संशोधन के द्वारा राज्य सूची के 29 विषय संविधान की 11वीं अनुसूची में दर्ज कर लिये गये हैं।

प्रश्न 11.
11वीं अनुसूची के विषयों का स्थानीय शासन को वास्तविक हस्तांतरण किस पर निर्भर है?
उत्तर:
11वीं अनुसूची में दर्ज विषयों का वास्तविक हस्तांतरण प्रदेश के कानून पर निर्भर है। हर प्रदेश यह फैसला करेगा कि इन 29 विषयों में से कितने को स्थानीय निकायों के हवाले करना है।

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प्रश्न 12.
संविधान के 74वें संविधान संशोधन का संबंध किससे है?
उत्तर:
संविधान के 74वें संशोधन का सम्बन्ध शहरी स्थानीय शासन के निकाय अर्थात् नगरपालिका, नगर निगम और नगर परिषदों से है।

प्रश्न 13.
भारत की कितने प्रतिशत जनसंख्या शहरी क्षेत्रों में रहती है?
उत्तर:
सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की लगभग 31 प्रतिशत जनसंख्या शहरी क्षेत्रों में रहती है।

प्रश्न 14.
आज ग्रामीण भारत में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं की संख्या क्या है?
उत्तर:
आज ग्रामीण भारत में स्थानीय स्वशासन से संबंधित

  1. जिला पंचायतों की संख्या 500,
  2. मध्यवर्ती अथवा प्रखंड स्तरीय पंचायत की संख्या 6000 तथा
  3. ग्राम पंचायतों की संख्या 2,40,000 है

प्रश्न 15.
वर्तमान में शहरी भारत में कितने नगर निगम, नगरपालिकाएँ और नगर पंचायतें हैं?
उत्तर:
वर्तमान में शहरी भारत में 100 से ज्यादा नगर निगम, 1400 नगरपालिका तथा 2000 नगर पंचायतें विद्यमान हैं।

प्रश्न 16.
पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने की जिम्मेदारी किसकी है?
उत्तर:
राज्य निर्वाचन आयुक्त की।

प्रश्न 17.
जिला परिषद् क्या है?
उत्तर:
जिला परिषद् पंचायती राज की त्रिस्तरीय व्यवस्था का शीर्ष निकाय है।

प्रश्न 18.
नगर निगम के सर्वोच्च अधिकारी को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
नगर निगम के सर्वोच्च अधिकारी को महापौर कहा जाता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संविधान में स्थानीय शासन के मामले को अधिक महत्त्व न मिलने के कारणों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
संविधान में निम्नलिखित कारणों से स्थानीय शासन के मामले को अधिक महत्त्व नहीं मिल सका

  1. देश-विभाजन की खलबली के कारण संविधान निर्माताओं का झुकाव केन्द्र को मजबूत बनाने का रहा। नेहरू स्वयं अति स्थानीयता को राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए खतरा मानते थे।
  2. डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि ग्रामीण भारत में जाति-पांति और आपसी फूट का बोलबाला है। ऐसे माहौल में स्थानीय शासन अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पायेगा।

प्रश्न 2.
स्थानीय शासन के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्थानीय शासन का महत्त्व।

  1. स्थानीय शासन लोगों के सबसे नजदीक होता है। इस कारण उनकी समस्याओं का समाधान बहुत तेजी से तथा कम खर्चे में हो जाता है।
  2. जीवन्त और मजबूत स्थानीय शासन सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही को सुनिश्चित करता है।
  3. मजबूत स्थानीय शासन से लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूत होती है।

प्रश्न 3.
ब्राजील के संविधान का कौनसा प्रावधान स्थानीय शासन की शक्ति को सुरक्षा प्रदान करता है? ब्राजील के संविधान में प्रांत, संघीय जिले तथा नगर परिषदों में हर एक को स्वतंत्र शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। जिस तरह गणराज्य (Republic) राज्यों के काम-काज में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, ठीक उसी तरह राज्य भी नगरपालिका-नगरपरिषद के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। अहस्तक्षेप का यह प्रावधान स्थानीय शासन की शक्ति को सुरक्षा प्रदान करता है।

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प्रश्न 4.
73वें संविधान संशोधन की कोई चार विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
73वें संविधान संशोधन की विशेषताएँ-

  • त्रिस्तरीय बनावट: 73वें संशोधन के द्वारा अब प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा त्रि-स्तरीय है।
    1. ग्राम पंचायत
    2. मध्यवर्ती या खंड स्तरीय पंचायत और
    3. जिला पंचायत।
  • ग्राम सभा: संविधान संशोधन में अब ग्राम सभा की दो बैठकें अनिवार्य कर दी गई हैं। ग्राम पंचायत का हर मतदाता इसका सदस्य होता है।
  • चुनाव: पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तर के चुनाव अब सीधे जनता करती है। हर पंचायती निकाय की अवधि 5 साल की होती है।
  • आरक्षण: सभी पंचायत संस्थाओं में एक-तिहाई आरक्षण महिलाओं के लिए दिया गया है। साथ ही अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए भी आरक्षण के प्रावधान किये गये हैं।

प्रश्न 5.
ग्यारहवीं अनुसूची में किस प्रकार के विषय रखे गये हैं? किन्हीं पांच विषयों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:
ग्यारहवीं अनुसूची में राज्य सूची के 29 विषय रखे गये हैं। अधिकांश मामलों में इन विषयों का सम्बन्ध स्थानीय स्तर पर होने वाले विकास और कल्याण के कामकाज से है।11वीं अनुसूची के पांच प्रमुख विषय ये हैं।

  1. कृषि
  2. लघु सिंचाई, जल प्रबंधन, जल संचय का विकास
  3. लघु उद्योग, इसमें खाद्य प्रसंस्करण के उद्योग शामिल हैं।
  4. ग्रामीण आवास
  5. ग्रामीण विद्युतीकरण।

प्रश्न 6.
ग्राम पंचायत की क्या भूमिका है?
उत्तर:
ग्राम पंचायत की भूमिका-ग्रामीण जीवन में ग्राम पंचायत एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है जो कि निम्नलिखित है।

  1. ग्राम पंचायत अपने क्षेत्र में जल आपूर्ति, शांति एवं व्यवस्था, स्वच्छता तथा जन-स्वास्थ्य के प्रति उत्तरदायी
  2. ग्राम पंचायत अपने क्षेत्र में स्थानीय सरकार के समस्त कार्य करती है।
  3. यह अपने क्षेत्र में ग्रामीण विकास, ग्रामीण सुधार, सामाजिक न्याय तथा आर्थिक विकास के लिए उत्तरदायी है तथा उसके लिए योजनाएँ बनाती है तथा उन्हें क्रियान्वित करती है।
  4. ग्राम पंचायत समूची पंचायती राज व्यवस्था का आधार है जिसकी सफलता पर ही इसकी सफलता निर्भर करती है।
  5. ग्राम पंचायत ग्रामीणों को प्रशासन का प्रशिक्षण देती है जो कि भारतीय लोकतंत्र की सफलता का आधार है।

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प्रश्न 7.
राज्य चुनाव आयुक्त की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
राज्य चुनाव आयुक्त: 73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों ने स्थानीय स्वशासन के लिए एक राज्य चुनाव आयुक्त की स्थापना की है। इस आयुक्त की जिम्मेदारी राज संस्थाओं के चुनाव कराने की होगी। प्रदेश का यह चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र अधिकारी है। इसका संबंध भारत के चुनाव आयोग से नहीं होता।

प्रश्न 8.
राज्य वित्त आयोग की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राज्य वित्त आयोग: 73वें व 74वें संविधान संशोधन में प्रदेशों की सरकार के लिए पांच वर्ष पर एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना आवश्यक है। यह आयोग एक तरफ प्रदेश और स्थानीय शासन की व्यवस्थाओं के बीच तो दूसरी तरफ शहरी और ग्रामीण स्थानीय शासन की संस्थाओं के बीच राजस्व के बंटवारे का पुनरावलोकन करेगा।

प्रश्न 9.
पंचायती राज व्यवस्था की त्रिस्तरीय बनावट क्या है? था
उत्तर:
त्रिस्तरीय बनावट: भारत में वर्तमान में सभी राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था का ढांचा त्रिस्तरीय है।

  1. ग्राम पंचायत: पहले स्तर पर या सबसे नीचे ग्राम पंचायत आती है जिसमें एक या एक से ज्यादा गांव होते
  2. खंड या तालुका पंचायत-मवर्ती स्तर मंडल का है जिसे खंड या तालुका भी कहा जाता है। यह अनेक ग्राम पंचायतों से मिलकर बना होता है।
  3. जिला पंचायत: सबसे ऊपर के पायदान पर जिला पंचायत का स्थान है। इसके दायरे में जिले का सम्पूर्ण ग्रामीण इलाका आता है।

प्रश्न 10.
73वें संविधान संशोधन में चुनाव सम्बन्धी क्या प्रावधान किये गये हैं?
उत्तर:
निर्वाचन सम्बन्धी प्रावधान: 73वें संविधान संशोधन के अनुसार पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तर के चुनाव सीधे जनता करती है। हर पंचायती निकाय की अवधि पांच साल की होती है। यदि प्रदेश की सरकार पांच साल पूरे होने से पहले पंचायत को भंग करती है तो इसके छ: माह के अन्दर नये चुनाव हो जाने चाहिए।

प्रश्न 11.
73वें तथा 74वें संशोधन के बाद भारत में स्थानीय स्वशासन को किस प्रकार मजबूती मिली है?
उत्तर:
73वें तथा 74वें संशोधन के बाद भारत में स्थानीय स्वशासन को अग्र रूपों में मजबूती मिली है।

  1. स्थानीय निकायों की चुनावों की निश्चितता के बाद से चुनाव के कारण निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है।
  2. इन संशोधनों ने देश भर की पंचायती राज संस्थाओं और नगरपालिका की संस्थाओं की बनावट को एकसा किया है।
  3. अब महिलाओं के आरक्षण के प्रावधान के कारण स्थानीय निकायों में महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी सुनिश्चित हुई है।
  4. दलित तथा आदिवासियों को आरक्षण मिलने से स्थानीय निकायों की सामाजिक बनावट में भारी बदलाव आए हैं।

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प्रश्न 12.
वर्तमान में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के कारगर ढंग से कार्य नहीं कर पाने के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के अप्रभावी होने के कारण यद्यपि सैद्धान्तिक रूप अर्थात् 73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों के बाद भारत में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को समर्थ तथा सक्षम बनाने का प्रयास किया गया है, लेकिन व्यवहार में कुछ कारणों ने अभी भी इन्हें दुर्बल बना रखा है और ये संस्थाएँ अपनी भूमिका सार्थक ढंग से नहीं निभा पा रही हैं।

1. स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने की छूट का न होना:
संविधान के संशोधनों ने 29 विषयों को स्थानीय शासन के हवाले किया है। ये सारे विषय स्थानीय विकास तथा कल्याण की जरूरतों से संबंधित हैं। स्थानीय शासन के कामकाज के पिछले दशकों के अनुभव बताते हैं कि भारत में इसे अपना कामकाज स्वतंत्रतापूर्वक करने की छूट बहुत कम है। अनेक प्रदेशों ने अधिकांश विषय स्थानीय निकायों को नहीं सौंपे हैं। फलतः वे कारगर ढंग से काम नहीं कर पा रहे हैं।

2. धन की कमी:
स्थानीय निकायों के पास धन बहुत कम होता है। वे प्रदेश और केन्द्र की सरकार पर वित्तीय मदद के लिए निर्भर होते हैं। इससे कारगर ढंग से काम कर सकने की उनकी क्षमता का बहुत क्षरण हुआ है।

प्रश्न 13.
1992 के 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के मुख्य प्रावधान क्या हैं?
उत्तर:
1992 के 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं।

  1. नगरपालिकाओं में समाज के कमजोर वर्गों तथा महिलाओं को आरक्षण के माध्यम से सार्थक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है।
  2. विधान की 12वीं अनुसूची नगरीय संस्थाओं को व्यापक शक्तियाँ प्रदान करती है।
  3. नगरीय संस्थाओं के लिए वित्तीय साधन जुटाने के लिए एक वित्तीय आयोग की स्थापना का प्रावधान है।
  4. नगर निगम या नगरपालिकाओं का सामान्य कार्यकाल 5 वर्ष है, लेकिन इससे पूर्व इनके भंग हो जाने की दशा में नयी संस्थाओं के गठन के लिए 6 महीनों के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य होगा। चुनावों की जिम्मेदारी राज्य निर्वाचन आयोग को सौंपी गई है।

प्रश्न 14.
नगरीय स्वशासी संस्थाएँ किन-किन समस्याओं से जूझ रही हैं?
उत्तर:
नगरीय स्वशासी संस्थाओं की समस्यायें: नगरीय स्वशासी संस्थाएँ नगर निगम तथा नगरपालिकाएँ। आज निम्नलिखित समस्याओं से जूझ रही हैं।

  1. सरकार का हस्तक्षेप: स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के कामकाज में राज्य सरकार और जिला अधिकारियों का अनावश्यक हस्तक्षेप उनके कार्यों में रुकावट डाल रहा है। यदि एक नगर निगम में उस दल का बहुमत है जो दल राज्य सरकार में विरोधी दल है तो राज्य मंत्रिमंडल उसे ठीक से कार्य नहीं करने देता।
  2. राजनेताओं द्वारा दबाव: नगरीय स्वशासी संस्थाओं पर शहरी राजनेताओं द्वारा तरह-तरह के दबाव डाले जाते हैं।
  3. जनसंख्या वृद्धि: शहरी जनसंख्या में जनसंख्या बेहताशा ढंग से बढ़ी है। जनसंख्या वृद्धि के कारण आवास सुविधाओं का बड़ा अभाव है तथा तेजी से गंदी बस्तियों का विकास हो रहा है। इससे पर्यावरण सम्बन्धी समस्यायें बढ़ी हैं तथा अपराध भी बढ़ रहे हैं।

प्रश्न 15.
स्थानीय शासन के महत्त्व का विवेचन कीजिये।
उत्तर:
स्थानीय शासन का महत्त्व ( उपयोगिता ) स्थानीय शासन आम आदमी के सबसे नजदीक का शासन है। इसका विषय है। आम नागरिक की समस्यायें और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी। लोकतंत्र और कारगर तथा जनहितकारी प्रशासन की दृष्टि से यह अत्यन्त उपयोगी है। इसके महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।

1. स्थानीय लोगों की समस्याओं का समाधान तीव्र गति से तथा कम खर्च में:
चूंकि स्थानीय शासन लोगों के सबसे नजदीक होता है इसलिए उनकी समस्याओं का समाधान बहुत तेजी से तथा कम खर्चे में हो जाता है। उदाहरण के लिए, गीता राठौड़ ने ग्राम पंचायत के सरपंच के रूप में सक्रिय भूमिका निभाते हुए जमनिया तालाब पंचायत में बड़ा बदलाव कर दिखाया। बेंगैसवल गांव की जमीन पर उस गांव का ही हक रहा।

2. सक्रिय भागीदारी तथा उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही: लोकतंत्र की सफलता के लिए सार्थक भागीदारी और जवाबदेही की सुनिश्चितता आवश्यक होती है। जीवन्त और मजबूत स्थानीय शासन सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही को सुनिश्चित करता है। जो काम स्थानीय स्तर पर किये जा सकते हैं वे काम स्थानीय लोगों और इनके प्रतिनिधियों के हाथ में रहने चाहिए। लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है। आम जनता प्रादेशिक या केन्द्रीय सरकार से कहीं ज्यादा परिचित स्थानीय शासन से होती है। इस तरह, स्थानीय शासन को मजबूत करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत बनाता है।

प्रश्न 16.
संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज कोई 10 विषयों के नाम लिखिये।
उत्तर:
ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज विषय ग्यारहवीं अनसूची में दर्ज प्रमुख विषय निम्नलिखित हैं।

  1. कृषि
  2. लघु सिंचाई, जल प्रबंधन, जल संचय का विकास
  3. लघु उद्योग, इसमें खाद्य प्रसंस्करण के उद्योग शामिल हैं।
  4. ग्रामीण आवास
  5. पेयजल
  6. सड़क, पुलिया
  7. ग्रामीण विद्युतीकरण
  8. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम
  9. शिक्षा इसमें प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा शामिल है।
  10. तकनीकी प्रशिक्षण तथा व्यावसायिक शिक्षा।

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प्रश्न 17.
बोलिविया के स्थानीय स्वशासन पर एक टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
बोलिविया में स्थानीय स्वशासन लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के सफल उदाहरण के रूप में अक्सर लातिनी अमेरिका के देश बोलिविया का नाम लिय जाता है। यथा बोलिविया में स्थानीय स्वशासन का संगठन: सन् 1994 में जनभागीदारी कानून के तहत यहाँ सत्ता का विकेन्द्रीकरण कर स्थानीय स्तर नगरपालिका प्रशासन को सत्ता सौंपी गई है। बोलिविया में 314 नगरपालिकाएँ हैं। नगरपालिकाओं का नेतृत्व जनता द्वारा निर्वाचित महापौर करते हैं। इन्हें Presidente Municipal भी कहा जाता है महापौर के साथ एक नगरपालिका परिषद होती है। स्थानीय स्तर पर देशव्यापी चुनाव हर पांच वर्ष पर होते हैं। बोलिविया स्थानीय स्वशासन की शक्तियाँ।

  1. यहाँ स्थानीय सरकार को स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधा बहाल करने तथा आधारभूत ढांचे के रख-रखाव की जिम्मेदारी सौंपी गई है।
  2. यहाँ देशव्यापी राजस्व उगाही का 20 प्रतिशत नगरपालिकाओं को प्रति व्यक्ति के हिसाब से दिया जाता है।
  3. नगरपालिका को मोटर वाहन, शहरी संपदा तथा बड़ी कृषि सम्पदा पर कर लगाने का अधिकार है इन नगरपालिकाओं के बजट का अधिकांश हिस्सा वित्तीय हस्तांतरण प्रणाली के जरिये प्राप्त होता है। इस प्रकार बोलिविया में एक ऐसी प्रणाली अपनायी गई है कि इन नगरपालिकाओं को धन स्वतः हस्तांतरित हो जाये।

प्रश्न 18.
स्पष्ट कीजिये कि पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रावधान के कारण महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी सुनिश्चित हुई है।
उत्तर:
73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों के तहत पंचायतों और नगरपालिकाओं में सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित किये जाने का प्रावधान किया गया है। सभी राज्यों की सरकारों ने अपने स्थानीय स्वशासन सम्बन्धी कानूनों में इस प्रावधान का पालन किया। महिलाओं के लिए आरक्षण के इस प्रावधान के कारण स्थानीय निकायों में महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी सुनिश्चित हुई है। यथा

  1. निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों की एक बड़ी संख्या अध्यक्ष और सरपंच जैसे पदों पर आसीन हुई है। आज कम से कम 200 महिलाएँ जिला पंचायतों की अध्यक्ष हैं। 2000 महिलाएँ प्रखंड अथवा तालुका पंचायत की अध्यक्ष हैं और ग्राम पंचायतों में महिला सरपंच की संख्या 80000 से ज्यादा है।
  2. नगर निगमों में 30 महिलाएँ मेयर (महापौर) हैं। नगरपालिकाओं में 500 से ज्यादा महिलाएँ अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। लगभग 650 नगर पंचायतों की प्रधानी महिलाओं के हाथ में है। संसाधनों पर अपने नियंत्रण की दावेदारी करके महिलाओं ने ज्यादा शक्ति और आत्मविश्वास अर्जित किया है। साथ ही इससे स्त्रियों में राजनीति के प्रति समझ बढ़ी है। स्थानीय निकायों में महिलाओं की मौजूदगी से चर्चा ज्यादा संवेदनशील हुई है।

प्रश्न 19.
स्पष्ट कीजिये कि स्थानीय शासन की संस्थाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधित्व से निकायों की सामाजिक बुनावट में भारी बदलाव आए हैं।
उत्तर:
स्थानीय निकायों की सामाजिक बुनावट में परिवर्तन:
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण को संविधान संशोधन ने अनिवार्य बना दिया था । इसके साथ ही, अधिकांश प्रदेशों ने पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण का प्रावधान बनाया है। भारत की जनसंख्या में 16.2 प्रतिशत अनुसूचित जाति तथा 8.2 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति है। स्थानीय शासन के शहरी तथा ग्रामीण संस्थाओं के निर्वाचित सदस्यों में इन समुदायों के सदस्यों की संख्या लगभग 6.6 लाख है। इससे स्थानीय निकायों की सामाजिक बुनावट में भारी बदलाव आए हैं।

ये निकाय जिस सामाजिक सच्चाई के बीच काम कर रहे हैं, अब उस सच्चाई की नुमाइंदगी इन निकायों के जरिये ज्यादा हो रही है। कभी-कभी इससे तनाव पैदा होता है। लेकिन तनाव और संघर्ष हमेशा बुरे नहीं होते। जब भी लोकतंत्र को ज्यादा सार्थक बनाने और ताकत से वंचित लोगों को ताकत देने की कोशिश होगी तो समाज में संघर्ष और तनाव होना ही है।

प्रश्न 20.
” सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के आरक्षण ने ग्रामीण स्तर पर नेतृत्व के स्वरूप को परिवर्तन कर दिया है। ” कैसे ? स्पष्ट करें।
उत्तर:
ग्रामीण स्तर पर आरक्षण ने नेतृत्व के स्वरूप में परिवर्तन ला दिया है। 73वें संविधान संशोधन के अन्तर्गत पंचायती राज संस्थाओं में प्रत्येक स्तर पर आरक्षण न केवल सीटों के लिए किया गया है, बल्कि उनके अध्यक्षों व सरपंचों के पदों पर भी आरक्षण किया गया है तथा इन श्रेणी की स्त्रियों के लिए भी 1/3 सीटों का आरक्षण किया गया है। इस प्रावधान ने ग्राम स्तर के नेतृत्व के स्वरूप में परिवर्तन ला दिया है। यथा।

  1. पहले जहाँ उच्च वर्ग या प्रभुत्व वर्गों के पुरुष सदस्यों का नेतृत्व पर एकाधिकार था, जब दलित और पिछड़े वर्गों के पुरुष तथा स्त्री सदस्य भी इस नेतृत्व में भागीदार बने हैं।
  2. अब दलित तथा पिछड़े वर्गों के पुरुष तथा स्त्री भी इन संस्थाओं में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और गांव के विकास तथा प्रशासन के प्रस्तावों पर समान रूप से विचार-विमर्श में भागीदारी कर रहे हैं।
  3. अब दलित तथा पिछड़े वर्गों के स्त्री-पुरुष प्रतिनिधि भी निर्णय – निर्माण प्रक्रिया में समान रूप से भागीदारी कर रहे हैं। पहले जो तबका सामाजिक रूप से प्रभावशाली होने के कारण गांव पर अपना नियंत्रण रखता था, लेकिन अब दलित आदिवासी तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों का नेतृत्व भी उभरा है। इससे ग्रामीण स्तर पर नेतृत्व के स्वरूप में परिवर्तन आया है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थानीय स्वशासन क्या है? इसके महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन का अर्थ- स्थानीय मामलों का प्रबन्ध करने वाली संस्थाओं को स्वशासन संस्थाएँ कहते हैं। गाँव और जिला स्तर के शासन को स्थानीय शासन कहते हैं और जब इन संस्थाओं का शासन वहाँ की जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है, तो ऐसे स्थानीय शासन को ही स्थानीय स्वशासन कहा जाता है। स्थानीय स्वशासन का महत्त्व स्थानीय स्वशासन की उपयोगिता या उसके महत्व का विवेचन अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है।

1. स्थानीय आवश्यकताओं का सर्वोत्तम प्रशासन:
स्थानीय शासन आम आदमी के सबसे नजदीक का शासन है। इसका विषय है-आम नागरिक की समस्यायें और उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी। इसकी मान्यता है कि स्थानीय ज्ञान और स्थानीय हित लोकतांत्रिक फैसले लेने के अनिवार्य घटक हैं। लोगों की स्थानीय आवश्यकताएँ क्षेत्र और स्थान की भिन्नता के आधार पर भिन्न-भिन्न होती हैं। वे पूरे देश में एकसमान नहीं हो सकतीं। इन आवश्यकताओं और समस्याओं को उस क्षेत्र के निवासी अच्छी तरह जानते हैं। चूंकि जब उस क्षेत्र के निवासियों के निर्वाचित प्रतिनिधि स्थानीय शासन का कार्य संभालेंगे तथा नीतियों का निर्माण करेंगे तो स्वाभाविक रूप से वे उस क्षेत्र की आवश्यकताओं और समस्याओं का अधिक अच्छी तरह से समाधान कर सकेंगे।

2. स्थानीय शासन और जनता के बीच घनिष्ठ सम्पर्क:
स्थानीय स्वशासन में जनता और शासन के मध्य घनिष्ठ सम्पर्क रहता है। आम जनता प्रादेशिक या केन्द्रीय सरकार से कहीं ज्यादा परिचित स्थानीय शासन से होती है। स्थानीय शासन क्या कर रहां है और क्या करने में नाकाम रहा है। आम जनता का इस सवाल से अधिक सरोकार रहता है क्योंकि इस बात का सीधा असर उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी पर पड़ता है। स्थानीय स्वशासन में लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं, जिन तक वे आसानी से पहुंचकर अपनी समस्याओं और आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दबाव बना सकते हैं। इस प्रकार स्थानीय स्वशासन में जनता और शासन के बीच घनिष्ठ सम्पर्क रहता है।

3. प्रशासन में दक्षता:
स्थानीय स्वशासन प्रशासन में दक्षता लाता है। स्थानीय सरकारें प्रान्तीय और संघीय सरकारों के प्रशासनिक बोझ को कम करती हैं। स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय निकायों द्वारा की जाती है। प्रशासनिक बोझ के कम होने से प्रत्येक स्तर की सरकार की कार्यक्षमता बढ़ जाती है। उदाहरण के रूप में गीता राठौड़ ने ग्राम पंचायत के सरपंच के रूप में सक्रिय भूमिका निभाते हुए जमनिया तलाब पंचायत में बड़ा बदलाव कर दिखाया।

4. कम खर्च:
स्थानीय स्वशासन, प्रदेश की सरकार द्वारा सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों के माध्यम से किये जाने वाले स्थानीय शासन की तुलना में कम खर्चीला होता है। स्थानीय निकायों के सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित होते हैं, वे स्थानीय मामलों के प्रबन्ध पर अपना समय और शक्ति या तो ऑनरेरी आधार या छोटे भत्तों पर प्रदान करते हैं। दूसरे, सरकार जो धन व्यय करती है, उस पर कम ध्यान देती है; जबकि स्थानीय निकायों के निर्वाचित सदस्य खर्च किये जाने वाले धन को सावधानी से खर्च करते हैं। अतः निर्वाचित स्थानीय निकायों के द्वारा स्थानीय समस्याओं का समाधान बहुत तेजी से तथा कम खर्चे में हो जाता है।

5. सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही:
लोकतंत्र की सफलता के लिए जनता की सार्थक भागीदारी तथा जवाबदेही पूर्ण प्रशासन की आवश्यकता होती है। जीवन्त और मजबूत स्थानीय स्वशासन सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही को सुनिश्चित करता है। गीता राठौड़ की कहानी प्रतिबद्धता के साथ लोकतंत्र में भागीदारी करने की घटनाओं में से एक है। स्थानीय स्वशासन के स्तर पर आम नागरिक को उसके जीवन से जुड़े मसलों, जरूरतों और उसके विकास के बारे में फैसला लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है।

6. लोकतंत्र की सफलता में सहायक:
लोकतंत्र केवल वहाँ सफल हो सकता है जहाँ लोगों में स्वतंत्रता की भावना हो। इसके लिए शक्ति के विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता होती है, जब तक निर्णय लेने तथा उन्हें लागू करने में विकेन्द्रीकरण नहीं होगा, तब तक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। इसलिए जो काम स्थानीय स्तर पर किये जा सकते हैं, वे काम स्थानीय लोगों और उनके प्रतिनिधियों के हाथ में रहने चाहिए। लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है। आम जनता प्रादेशिक या केन्द्रीय सरकार से कहीं ज्यादा परिचित स्थानीय शासन से होती है। इस तरह स्थानीय शासन को मजबूत करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत बनाने के समान है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 2.
भारत में स्थानीय शासन के विकास की विवेचना कीजिये।
उत्तर:
भारत में स्थानीय शासन का विकास: भारत में स्थानीय शासन के विकास का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है।
1. प्राचीन काल में स्थानीय शासन:
प्राचीन भारत में गाँवों और शहरों में स्थानीय सरकारें थीं। इतिहासकारों तथा विदेशी यात्रियों ने शहरों में स्थानीय निकायों का उल्लेख किया है। गाँवों में प्राचीन भारत में ‘सभा’ के रूप में स्थानीय निकाय थे । समय बीतने के साथ गांव की इन सभाओं ने ‘पंचायत’ का रूप ले लिया। समय बदलने के साथ- साथ पंचायतों की भूमिका और काम भी बदलते रहे।

2. ब्रिटिश काल में स्थानीय शासन:
भारत में ब्रिटिश काल में ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के इन स्थानीय निकायों ने अपना महत्व खो दिया। इसलिए आधुनिक काल के स्थानीय निकायों और प्राचीन तथा मध्यकालीन भारत के स्थानीय निकायों के मध्य कोई तारतम्य नहीं है।
जब अंग्रेजों ने भारत में अपना शासन स्थापित किया, उन्होंने भारत में गाँवों और शहरों में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। इसकी अपेक्षा उन्होंने स्थानीय आत्मनिर्भरता तथा स्वायत्तता को खत्म करने का प्रयास किया और उनके ऊपर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया।

लार्ड रिपन का शासनकाल आधुनिक भारत के स्थानीय स्वशासन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण है। उसने इन निकायों को बनाने की दिशा में पहलकदमी की। सबसे पहले सन् 1888 में बम्बई में एक म्युनिसिपल कॉरपोरेशन की स्थापना की गई। इसके बाद कलकत्ता और मद्रास में भी इनकी स्थापना हुई। प्रारम्भ में स्थानीय स्वशासन की इन संस्थाओं में सरकारी बहुमत था तथा सरकार का उनके ऊपर पूर्ण नियंत्रण था। उस समय इन्हें मुकामी बोर्ड (Local Board) कहा जाता था।

1909 में रॉयल कमीशन ने स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के विकास और उनकी स्थापना की सिफारिश की। इसने यह भी सिफारिश की कि इन निकायों में निर्वाचित गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत हो तथा इन निकायों को कर लगाने के अधिकार होने चाहिए। गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट 1919 के बनने पर अनेक प्रान्तों में ग्राम पंचायत बने। सन् 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट बनने के बाद भी यह प्रवृत्ति जारी रही।

3. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय नेताओं की मांग:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सरकार से यह मांग की कि सभी स्थानीय बोर्डों को ज्यादा कारगर बनाने के लिए वह जरूरी कदम उठाये। महात्मा गाँधी ने जोर देकर कहा कि आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। उनका मानना था कि ग्राम पंचायतों को मजबूत बनाना सत्ता के विकेन्द्रीकरण का कारगर साधन है। विकास की हर पहलकदमी में स्थानीय लोगों की भागीदारी होनी चाहिए ताकि यह सफल हो। इस तरह, पंचायत को सहभागी लोकतंत्र को स्थापित करने के साधन के रूप में देखा गया।

4. संविधान में स्थानीय स्वशासन के प्रावधान:
जब स्वतंत्र भारत का संविधान बना तो स्थानीय शासन का विषय प्रदेशों को सौंप दिया गया। संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में भी इसकी चर्चा है। इसमें कहा गया है कि देश की हर सरकार अपनी नीति में इसे एक निर्देशक तत्व मानकर चले। इससे स्पष्ट होता है कि स्थानीय शासन के मसले को संविधान में यथोचित महत्व नहीं मिला।

5. स्वतंत्र भारत में स्थानीय शासन का विकास: स्वतंत्र भारत में स्थानीय शासन का विकासक्रम इस प्रकार
(i) सामुदायिक विकास कार्यक्रम:
स्थानीय शासन के निकाय बनाने के सम्बन्ध में स्वतंत्रता के बाद 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम बना। इस कार्यक्रम के पीछे सोच यह थी कि स्थानीय विकास की विभिन्न गतिविधियों में जनता की भागीदारी हो।

(ii) स्वतन्त्र भारत में संविधान संशोधन 73 व 74 के पूर्व तक स्थानीय निकायों के गठन की स्थिति:
सामुदायिक विकास कार्यक्रम के तहत ग्रामीण इलाकों के लिए त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की गई तथा कुछ प्रदेशों गुजरात, महाराष्ट्र ने 1960 में निर्वाचन द्वारा स्थानीय निकायों की प्रणाली अपनायी । लेकिन ये निकाय वित्तीय मदद के लिए प्रदेश तथा केन्द्रीय सरकार पर बहुत ज्यादा निर्भर थे। कई प्रदेशों ने निर्वाचन द्वारा स्थानीय निकाय स्थापित करने की जरूरत भी नहीं समझी। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहाँ स्थानीय शासन का जिम्मा सरकारी अधिकारी को सौंप दिया गया। कई प्रदेशों में अधिकांश स्थानीय निकायों के चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से हुए। अनेक प्रदेशों में स्थानीय निकायों के चुनाव समय-समय पर स्थगित होते रहे।

(iii) थुंगन समिति की सिफारिश (1989):
सन 1989 में पी. के. थुंगन समिति ने स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफारिश की और कहा कि स्थानीय शासन की संस्थाओं के चुनाव समय-समय पर कराने, उनके समुचित कार्यों की सूची तय करने तथा ऐसी संस्थाओं को धन प्रदान करने के लिए संविधान में संशोधन किया जाये।

(iv) संविधान का 73वां और 74वां संशोधन:
स्थानीय शासन को मजबूत करने तथा पूरे देश में इसके कामकाज तथा बनावट की एकता लाने के उद्देश्य से सन् 1992 में संविधान के 73वें तथा 74वें संशोधन संसद ने पारित किये। संविधान का 73वां संशोधन गांव के स्थानीय शासन से जुड़ा है। इसका सम्बन्ध पंचायती राज व्यवस्था की संस्थाओं से है। संविधान का 74वां संशोधन शहरी स्थानीय शासन ( नगरपालिका) से जुड़ा है। ये दोनों संविधान संशोधन 1993 में लागू हुए। संविधान के 73वें तथा 74वें संशोधन के बाद देश में स्थानीय शासन को मजबूत आधार मिला है।

(v) 73वें और 74वें संशोधनों का क्रियान्वयन:
अब सभी प्रदेशों ने 73वें संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए कानून बना दिये हैं। अब सभी प्रदेशों में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के चुनाव प्रति 5 वर्ष के लिए प्रत्यक्ष रूप से किये जाते हैं। सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढांचा त्रि-स्तरीय है। ग्रामसभा को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है। सभी पंचायती संस्थाओं में महिलाओं, अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सीटों पर तथा अध्यक्ष पदों पर आरक्षण दिया गया है।

राज्य सूची के 29 विषयों को 11वीं अनुसूची में दर्ज कर लिया गया है, लेकिन इन सभी विषयों को अभी प्रदेशों ने स्थानीय संस्थाओं को हस्तांतरित नहीं किया है। एक स्वतंत्र राज्य चुनाव आयुक्त की स्थापना की गई है जो इन संस्थाओं के चुनाव करायेगा। इसके साथ ही स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को राजस्व के बंटवारे की समीक्षा हेतु एक राज्य वित्त आयोग की स्थापना भी की गई है। लेकिन अभी भी स्थानीय निकाय प्रदेश और केन्द्र सरकार की वित्तीय मदद के लिए निर्भर रहते हैं क्योंकि उनके पास आय के साधन कम हैं और खर्च की मदें अधिक हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 3.
पंचायती राज व्यवस्था के संबंध में संविधान के 73वें संविधान संशोधन की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
73वें संविधान संशोधन की प्रमुख विशेषताएँ: 73वें संविधान संशोधन की प्रमुख विशेषताओं को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।

  • त्रिस्तरीय बनावट; 73वें संविधान संशोधन अधिनियम में कहा गया है कि राज्य सरकार अपने क्षेत्र में पंचायती राज संस्थाएँ निम्न प्रकार से स्थापित करेगी
    1. ग्रामीण क्षेत्र में ग्रामीण स्तर पर एक गांव या एक से अधिक गांवों में एक ग्राम पंचायत।
    2. मध्यवर्ती स्तर पर जिसे खंड या तालुका भी कहा जाता है। एक मंडल पंचायत या तालुका पंचायत या पंचायत समिति।
    3. जिला स्तर पर एक जिला पंचायत (जिला परिषद्)।
  • ग्रामसभा की अनिवार्यता: संविधान के 73वें संशोधन में इस बात का भी प्रावधान है कि ग्राम सभा अनिवार्य रूप से बनायी जानी चाहिए। पंचायती हलके में मतदाता के रूप में दर्ज हर व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य होता है। ग्राम सभा की भूमिका और कार्य का फैसला प्रदेश के कानूनों से होता है।
  • चुनाव: इस संशोधन अधिनियम में निर्वाचन सम्बन्धी प्रमुख बातें इस प्रकार हैं।
    1. पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तर के सदस्य सीधे जनता द्वारा निर्वाचित होंगे।
    2. हर पंचायती निकाय की अवधि पांच साल की होगी। यदि प्रदेश की सरकार पांच साल पूरे होने से पहले पंचायत को भंग करती है तो इसके छः माह के अन्दर नये चुनाव कराये जायेंगे। इन प्रावधानों से निर्वाचित स्थानीय निकायों के अस्तित्व को सुनिश्चित किया गया है।
  • आरक्षण के प्रावधान: इस संशोधन अधिनियम में किए गए सदस्यों तथा अध्यक्ष पदों के आरक्षण के निम्न प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं।
    1. सभी पंचायती संस्थाओं में एक-तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
    2. तीनों स्तरों पर अनुसूचित जाति और अनुसचित जनजाति के लिए सीटों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था अनुसूचित जाति / जनजाति की जनसंख्या के अनुपात में की गई है।
    3. यदि प्रदेश की सरकार जरूरी समझे, तो वह अन्य पिछड़ा वर्ग को भी सीट में आरक्षण दे सकती है।
    4. तीनों ही स्तर पर अध्यक्ष पद तक आरक्षण दिया गया है।
    5. अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट पर भी महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण की व्यवस्था है।

(5) विषयों का स्थानान्तरण:
ऐसे 29 विषय जो पहले राज्य सूची में थे, अब पहचान कर संविधान की 11वीं अनुसूची में दर्ज कर लिए गए हैं। इन विषयों को पंचायती राज संस्थाओं को हस्तांतरित किया जाना है। इन कार्यों का वास्तविक हस्तान्तरण प्रदेश के कानून पर निर्भर है। हर प्रदेश यह फैसला करेगा कि इन विषयों में से कितने को स्थानीय निकायों के हवाले करना है।

(6) आदिवासी जनसंख्या वाले क्षेत्रों को सम्मिलित नहीं किया गया है- भारत के अनेक प्रदेशों के आदिवासी जनसंख्या वाले क्षेत्रों को 73वें संशोधन के प्रावधानों से दूर रखा गया है। ये क्षेत्र हैं।

  1. नागालैण्ड, मेघालय और मिजोरम के राज्य।
  2. मणिपुर राज्य में ऐसे पर्वतीय क्षेत्र जिनके लिए उस समय लागू किसी विधि के अधीन जिला परिषदें विद्यमान
  3. पश्चिम बंगाल राज्य के दार्जिलिंग जिले के ऐसे पर्वतीय क्षेत्र, जहाँ विधिवत गोरखा पर्वतीय परिषद विद्यमान ये प्रावधान इन क्षेत्रों पर लागू नहीं होते थे। सन् 1996 में अलग से एक अधिनियम बना और पंचायती व्यवस्था के प्रावधानों के दायरे में इन क्षेत्रों को भी शामिल कर लिया गया।

(7) राज्य चुनाव आयुक्त:
इस संशोधन अधिनियम में अब प्रदेशों के लिए एक राज्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति अनिवार्य कर दी गयी है, जो एक स्वतंत्र अधिकारी होगा। इसकी जिम्मेदारी राज्य में स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के चुनाव कराने की होगी।

(8) राज्य वित्त आयोग:
इस संशोधन अधिनियम में अब प्रदेशों की सरकार के लिए हर पांच वर्ष पर एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना अनिवार्य कर दिया गया है जो मौजूदा स्थानीय शासन की संस्थाओं की आर्थिक स्थिति का जायजा लेगा तथा प्रदेश के राजस्व के बंटवारे का पुनरावलोकन करेगा।

प्रश्न 4.
शहरी स्थानीय स्वशासन से संबंधित संविधान के 74वें संशोधन की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
74वें संविधान संशोधन अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं: संविधान के 74वें संशोधन का सम्बन्ध शहरी स्थानीय शासन के निकाय अर्थात् नगरपालिका से है। शहरी इलाका क्या है? भारत की जनगणना में शहरी इलाके की परिभाषा करते हुए जरूरी माना गया है कि ऐसे इलाके में

(क) कम से कम 5000 जनसंख्या हो,

(ख) इस इलाके के कामकाजी पुरुषों में कम से कम 75 प्रतिशत खेती-बाड़ी के काम से अलग माने जाने वाले पेशे में हों, और

(ग) जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो।
सन 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की 31 प्रतिशत जनसंख्या शहरी इलाके में रहती है। 74वें संविधान संशोधन अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  1. प्रत्यक्ष चुनाव, आरक्षण, विषयों का हस्तांतरण, प्रादेशिक चुनाव आयुक्त और प्रादेशिक वित्त आयोग के प्रावधान वही हैं, जो 73वें संविधान संशोधन में दिये गये हैं। इन मामलों में यह 73वें संविधान संशोधन का दोहराव मात्र है।
  2. 74वां संविधान संशोधन नगरपालिकाओं पर लागू होता है। ( इसके विस्तृत विवेचन के लिए कृपया पूर्व प्रश्न का उत्तर देखें ।)

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प्रश्न 5.
73वें और 74वें संविधान संशोधन के क्रियान्वयन पर एक लेख लिखिये।
उत्तर:
73वें और 74वें संविधान संशोधन का क्रियान्दयन: वर्तमान में सभी प्रदेशों ने 73वें और 74वें संविधान संशोधनों के प्रावधानों को लागू करने के लिए कानून बना दिये हैं। इन प्रावधानों को अस्तित्व में आए अब 15 वर्ष से ज्यादा हो रहे हैं । इस अवधि ( 1994 – 2010) में अधिकांश प्रदेशों में स्थानीय निकायों के चुनाव कम से कम तीन बार हो चुके हैं। इनके क्रियान्वयन से स्थानीय शासन के क्षेत्र में निम्नलिखित विशेषताएँ उभरकर सामने आई हैं।

1. निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की संख्या में वृद्धि:
73वें व 74वें संविधान संशोधनों के क्रियान्वयन के पश्चात् ग्रामीण भारत में जिला पंचायतों की संख्या लगभग 600, मध्यवर्ती अथवा प्रखंड स्तरीय पंचायत की संख्या 6000 तथा ग्राम पंचायतों की संख्या 2,40,000 है। शहरी भारत में 100 से ज्यादा नगर निगम, 1400 नगरपालिकाएँ तथा 2,000 नगर पंचायतें मौजूद हैं। हर पांच वर्ष पर इन निकायों के लिए 32 लाख सदस्यों का निर्वाचन होता है। इनमें से 13 लाख महिलाएँ हैं। यदि प्रदेशों की विधानसभा तथा संसद को एक साथ रखकर देखें तो भी इनमें निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की संख्या 5000 कम बैठती है। इससे स्पष्ट होता है कि स्थानीय निकायों के निश्चित चुनाव होने के कारण निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है।

2. देश भर की स्थानीय संस्थाओं की बनावट में समानता:
73वें और 74वें संशोधन ने देश भर की पंचायती राज संस्थाओं और नगरपालिका की संस्थाओं की बनावट को एक-सा किया है। इससे शासन में जनता की भागीदारी के लिए मंच और माहौल तैयार होगा।

3. स्थानीय निकायों में महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी का सुनिश्चित होना:
पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रावधान के कारण स्थानीय निकायों में महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी सुनिश्चित हुई है। आरक्षण का प्रावधान अध्यक्ष और सरपंच जैसे पद के लिए भी है। इस कारण निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों की एक बड़ी संख्या अध्यक्ष और सरपंच जैसे पदों पर आसीन हुई है। आज कम से कम 200 महिलाएँ जिला पंचायतों की अध्यक्ष हैं।

2000 महिलाएँ प्रखंड अथवा तालुका पंचायत की अध्यक्ष हैं और ग्राम पंचायतों में महिला सरपंच की संख्या 80 हजार से ज्यादा है। नगर निगमों में 30 महिलाएँ महापौर हैं। नगरपालिकाओं में 500 से ज्यादा महिलाएँ अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। लगभग 650 नगर पंचायतों की प्रधानी महिलाओं के हाथ में है। इसके निम्न प्रभाव परिलक्षित हुए

  • संसाधनों पर अपने नियंत्रण की दावेदारी करके महिलाओं में ज्यादा शक्ति और आत्मविश्वास अर्जित किया है।
  • इन संस्थाओं में महिलाओं की मौजूदगी के कारण बहुत सी स्त्रियों की राजनीतिक समझ पैनी हुई है।
  • स्थानीय निकायों के विचार-विमर्श में महिलाओं की मौजूदगी एक नया परिप्रेक्ष्य जोड़ती है और चर्चा ज्यादा संवेदनशील होती है।

4. स्थानीय निकायों की सामाजिक बुनावट में परिवर्तन:
73वें तथा 74वें संविधान संशोधन ने अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण को अनिवार्य बना दिया है। इसके साथ ही अधिकांश प्रदेशों ने पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण का प्रावधान बनाया है। स्थानीय शासन के शहरी और ग्रामीण संस्थाओं के निर्वाचित सदस्यों में इन समुदायों की संख्या लगभग 6.6 लाख है। इससे स्थानीय निकायों की सामाजिक बुनावट में भारी परिवर्तन आए हैं।

ये निकाय जिस सामाजिक सच्चाई के बीच काम कर रहे हैं अब उस सच्चाई की नुमाइंदगी इन निकायों के माध्यम से ज्यादा हो रही है। कभी-कभी इससे पुराने नेतृत्व और नये नेतृत्व के बीच तनाव भी पैदा होता है तथा सत्ता के लिए संघर्ष तेज हो जाता है। जब भी लोकतंत्र को ज्यादा सार्थक बनाने और ताकत से वंचित लोगों को ताकत देने की कोशिश होती है, तब समाज में संघर्ष और तनाव बढ़ता ही है।

5. व्यवहार में विषयों का हस्तांतरण नहीं:
संविधान के संशोधन ने 29 विषयों को स्थानीय शासन के हवाले किया है। ये सारे विषय स्थानीय विकास तथा कल्याण की जरूरतों से संबंधित हैं। लेकिन स्थानीय कामकाज के पिछले दशक के अनुभव से व्यवहार में निम्नलिखित तथ्य उजागर हुए है।

  1. भारत में अभी भी स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को अपना कामकाज स्वतंत्रतापूर्वक करने की छूट बहुत कम
  2. अनेक प्रदेशों ने अधिकांश विषय स्थानीय निकायों को नहीं सौंपे थे। इस तरह, इतने सारे जन-प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने का पूरा का पूरा काम बस प्रतीकात्मक बनकर रह गया है। स्थानीय स्तर की जनता के पास लोक-कल्याण के कार्यक्रमों अथवा संसाधनों के आबंटन के बारे में विकल्प चुनने की ज्यादा शक्ति नहीं होती।

6. वित्तीय निर्भरता:
स्थानीय निकायों के पास अपना कह सकने लायक धन बहुत कम होता है। स्थानीय निकाय प्रदेश और केन्द्र की सरकार पर वित्तीय मदद के लिए निर्भर होते हैं। इससे कारगर ढंग से काम कर सकने की उनकी क्षमता का क्षरण हुआ है; क्योंकि ये निकाय अनुदान देने वाले पर निर्भर होते हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. आजादी के समय देश में अधिकांश प्रांत ऐसे थे जिन्हें अंग्रेजों ने गठित किया था
(क) सामान्य भाषा के आधार पर
(ख) सामान्य आर्थिक हित के आधार पर
(ग) सामान्य क्षेत्र के आधार पर
(घ) प्रशासनिक सुविधा के आधार पर
उत्तर:
(घ) प्रशासनिक सुविधा के आधार पर

2. इस समय भारत संघ में कुल राज्य हैं।
(क) 14
(ख) 16
(ग) 25
(घ) 28
उत्तर:
(घ) 28

3. निम्नलिखित में जो संघात्मक शासन प्रणाली की विशेषता नहीं है, वह है।
(क) शक्तियों का विभाजन
(ख) संविधान की सर्वोच्चता
(ग) इकहरी नागरिकता
(घ) न्यायपालिका की स्वतंत्रता
उत्तर:
(ग) इकहरी नागरिकता

4. भारतीय संविधान निर्माताओं को संघात्मक व्यवस्था में एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।
(क) विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रखने के लिए
(ख) राष्ट्रीय एकता की स्थापना के लिए
(ग) विकास की चिंताओं ने
(घ) उपर्युक्त सभी ने
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी ने

5. भारत के राज्यों में राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है।
(क) राष्ट्रपति द्वारा
(ख) मुख्यमंत्री द्वारा
(ग) लोकसभा अध्यक्ष द्वारा
(घ) गृहमंत्री द्वारा।
उत्तर:
(क) राष्ट्रपति द्वारा

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6. केन्द्र-राज्य सम्बन्धों से जुड़े मसलों की पड़ताल के लिए केन्द्र सरकार द्वारा 1983 में एक आयोग बनाया गया। इस आयोग को जाना जाता है।
(क) योजना आयोग के नाम से
(ख) सरकारिया आयोग के नाम से
(ग) अन्तर्राज्यीय आयोग के नाम से
(घ) लोक सेवा आयोग के नाम से
उत्तर:
(ख) सरकारिया आयोग के नाम से

7. संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में आपसी विवाद को कहा जाता है।
(क) केन्द्र-राज्य विवाद
(ख) अन्तर्राष्ट्रीय विवाद
(ग) अन्तर्राज्यीय विवाद
(घ) आन्तरिक विवाद
उत्तर:
(ग) अन्तर्राज्यीय विवाद

8. संविधान के अनुच्छेद 370 के द्वारा भारत संघ के किस राज्य को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई थी।
(क) बिहार राज्य को
(ख) उत्तरांचल राज्य को
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य को
(घ) अरुणाचल राज्य को
उत्तर:
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य को

9. भारत में महाराष्ट्र में कौनसा क्षेत्र अभी भी अलग राज्य के लिए संघर्ष कर रहा है।
(क) तेलंगाना क्षेत्र
(ख) विदर्भ क्षेत्र
(ग) उत्तरांचल क्षेत्र
(घ) झारखंड क्षेत्र
उत्तर:
(ख) विदर्भ क्षेत्र

10. वर्तमान में तेलंगाना क्षेत्र एक अलग राज्य है। यह राज्य निम्न में से किस राज्य से अलग होकर बना है-
(क) महाराष्ट्र
(ख) तमिलनाडु
(ग) तेलगूदेशम
(घ) कर्नाटक
उत्तर:
(ग) तेलगूदेशम

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. सोवियत संघ के विघटन के प्रमुख कारण वहाँ शक्तियों का जमाव और अत्यधिक …………………. की प्रवृत्तियाँ थीं।
उत्तर:
केन्द्रीकरण

2. संघीय शासन व्यवस्था में केन्द्र-राज्यों के मध्य किसी टकराव को रोकने के लिए एक ………………….. की व्यवस्था होती है।
उत्तर:
स्वतंत्र न्यायपालिका

3. भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध ……………….. पर आधारित होंगे।
उत्तर:
सहयोग

4. भारतीय संविधान द्वारा एक सशक्त ………………… की स्थापना की गई है।
उत्तर:
केन्द्रीय सरकार

5. हमारी प्रशासकीय व्यवस्था ………………… है।
उत्तर:
इकहरी

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. राज्यपाल की भूमिका केन्द्र और राज्यों के बीच हमेशा ही विवाद का विषय रही है।
उत्तर:
सत्य

2. हमारी संघीय व्यवस्था में नवीन राज्यों के गठन की माँग को लेकर भी तनाव रहा है।
उत्तर:
सत्य

3. दिसम्बर, 1950 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई।
उत्तर:
असत्य

4. कृषि तथा पुलिस समवर्ती सूची के विषय हैं।
उत्तर:
असत्य

5. हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने भारत को विविधता में एकता के रूप में परिभाषित किया है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. प्रतिरक्षा तथा विदेश मामले (क) राज्य सूची के विषय
2. शिक्षा तथा वन (ग) दिसम्बर, 1953 में
3. पुलिस तथा स्थानीय स्वशासन (ख) समवर्ती सूची के विषय
4. राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना (घ) 1956 में
5. भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन (च) संघ सूची के विषय

उत्तर:

1. प्रतिरक्षा तथा विदेश मामले (च) संघ सूची के विषय
2. शिक्षा तथा वन (ख) समवर्ती सूची के विषय
3. पुलिस तथा स्थानीय स्वशासन (क) राज्य सूची के विषय
4. राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना (ग) दिसम्बर, 1953 में
5. भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन (घ) 1956 में

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1
ऐसे चार राज्यों के नाम लिखिये जिनके नाम स्वतंत्रता के बाद परिवर्तित किये गये हैं। पुराने और नये दोनों नाम लिखिये।
उत्तर:
निम्नलिखित राज्यों के नाम परिवर्तित किये गए हैं।

पुराने नाम नए नाम
(1) मैसूर कर्नाटक
(2) मद्रास तमिलनाडु
(3) आंध्रप्रदेश तेलगूदेशम
(4) मुंबई महाराष्ट्र

प्रश्न 2.
ऐसे दो देशों के नाम लिखिये जिन्होंने संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया है।
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत।

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प्रश्न 3.
संघात्मक शासन की दो विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
शक्तियों का विभाजन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता।

प्रश्न 4.
राज्य पुनर्गठन आयाग की स्थापना कब की गई?
उत्तर:
1953 में।

प्रश्न 5.
राज्य पुनर्गठन आयोग की मुख्य सिफारिश क्या थी?
उत्तर:
राज्य पुनर्गठन आयोग ने भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की।

प्रश्न 6.
राज्य सूची में कितने और किस प्रकार के विषय हैं?
उत्तर:
राज्य सूची में 66 विषय हैं। ये स्थानीय महत्त्व के विषय हैं।

प्रश्न 7.
संघ सूची में कितने तथा किस प्रकार के विषय हैं?
उत्तर:
संघ सूची में 97 विषय हैं। ये राष्ट्रीय महत्त्व के विषय हैं।

प्रश्न 8.
समवर्ती सूची किसे कहते हैं?
उत्तर:
समवर्ती सूची में वे विषय आते हैं जिन पर संघ और राज्य दोनों की सरकारें कानून बना सकते हैं। इसमें 47 विषय हैं।

प्रश्न 9.
1958 में स्थापित ‘वेस्टइण्डीज संघ’ 1962 में किस कारण भंग कर दिया गया?
उत्तर:
‘वेस्टइण्डीज संघ’ की केन्द्रीय सरकार कमजोर थी और प्रत्येक संघीय इकाई की अपनी स्वतंत्र अर्थव्यवस्था थी तथा संघीय इकाइयों में राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा थी।

प्रश्न 10.
सोवियत संघ के विघटन के दो प्रमुख कारण बताइये।
उत्तर:
सोवियत संघ के विघटन के दो प्रमुख कारण ये थे।

  1. शक्तियों का अतिशय संघनन और केन्द्रीकरण की प्रवृत्तियाँ।
  2. उजबेकिस्तान जैसे भिन्न भाषा और संस्कृति वाले क्षेत्रों पर रूस का आधिपत्य।

प्रश्न 11.
नाइजीरिया की संघीय व्यवस्था अपने विभिन्न क्षेत्रों में एकता स्थापित करने में क्यों असफल रही है?
उत्तर:
नाइजीरिया की विभिन्न संघीय इकाइयों के बीच धार्मिक, जातीय और आर्थिक समुदाय एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते। इस कारण संघीय व्यवस्था भी वहाँ एकता लाने में असफल रही है।

प्रश्न 12.
संघवाद के वास्तविक कामकाज का निर्धारण किससे होता है?
उत्तर:
संघवाद के वास्तविक कामकाज का निर्धारण राजनीति, संस्कृति, विचारधारा और इतिहास की वास्तविकताओं से होता है।

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प्रश्न 13.
किस प्रकार की संस्कृति में संघवाद का कामकाज आसानी से चलता है?
उत्तर:
आपसी विश्वास, सहयोग, सम्मान और संयम की संस्कृति में संघवाद का कामकाज आसानी से चलता है।

प्रश्न 14.
भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
भारतीय संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि भारतीय संघवाद केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध सहयोग पर आधारित होगा।

प्रश्न 15.
किन चिंताओं ने भारत के संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी?
उत्तर:

  1. विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रख राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने तथा
  2. विकास की चिंताओं ने भारत के संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।

प्रश्न 16.
राज्यपाल की भूमिका किस स्थिति में अधिक विवादास्पद हो जाती है?
उत्तर:
जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं, तब राज्यपाल की भूमिका अधिक विवादास्पद हो जाती है।

प्रश्न 17.
सरकारिया आयोग की नियुक्ति कब और क्यों की गई?
उत्तर:
सरकारिया आयोग की नियुक्ति 1983 में केन्द्र राज्य सम्बन्धों की जांच-पड़ताल के लिए की गई।

प्रश्न 18.
सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्ति के बारे में क्या सुझाव दिए?
उत्तर:
सरकारिया आयोग ने यह सुझाव दिया कि राज्यपाल की नियुक्ति निष्पक्ष होकर की जानी चाहिए।

प्रश्न 19.
स्वायत्तता और अलगाववाद में क्या फर्क है?
उत्तर:
स्वायत्तता से आशय यह है कि संघवाद के अन्तर्गत रहते हुए और अधिक अधिकारों व शक्तियों की माँग करना; जबकि अलगाववाद से आशय है भारत संघ से अलग होकर अपने स्वतन्त्र राज्य की स्थापना करना।

प्रश्न 20.
किस प्रकार की एकता अन्ततः अलगाव को जन्म देती है?
उत्तर:
अनेकता और विविधता को समाप्त करने वाली बाध्यकारी राष्ट्रीय एकता अन्ततः ज्यादा सामाजिक संघर्ष और अलगाव को जन्म देती है।

प्रश्न 21.
सहयोगी संघवाद का आधार किस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था हो सकती है?
उत्तर:
विभिन्नताओं और स्वायत्तता की माँगों के प्रति संवेदनशील तथा उत्तरदायी राजनीतिक व्यवस्था ही सहयोगी संघवाद का एकमात्र आधार हो सकती है।

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प्रश्न 22.
वर्तमान में भारत में कितने राज्य और संघीय क्षेत्र हैं?
उत्तर:
वर्तमान में भारत में 28 राज्य और 9 संघीय क्षेत्र हैं।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
संघवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संघवाद से आशय: संघवाद वह शासन प्रणाली है जहाँ संविधान द्वारा केन्द्र और राज्य स्तर की दो राजनीतिक व्यवस्थाएँ स्थापित की जाती हैं और दोनों के बीच शासन की शक्तियों का संविधान द्वारा स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है। इसमें संविधान लिखित तथा सर्वोच्च होता है तथा केन्द्र-राज्यों के बीच किसी टकराव को सीमित रखने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की संघीय विशेषताओं का उल्लेख करें। उत्तर- भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं।

  • भारत का संविधान एक लिखित तथा सर्वोच्च संविधान है।
  • संविधान तीन सूचियों
    1. संघ सूची,
    2. राज्य सूची और
    3. समवर्ती सूची – में अलग-अलग विषयों को परिगणित कर केन्द्र तथा राज्यों की सरकारों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन करता है।
  • इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतंत्र है।
  • इसमें राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

प्रश्न 3.
संघात्मक संविधान की कोई पाँच विशेषताएँ बताओ
उत्तर:

  1. संघात्मक संविधान में केन्द्र तथा प्रान्तों की सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।
  2. इसमें संविधान कठोर, लिखित तथा सर्वोच्च होता है।
  3. इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतन्त्र होती है।
  4. इसमें दोहरी नागरिकता की व्यवस्था की जाती है।
  5. इसमें संसद का दूसरा सदन राज्यों (प्रान्तों) का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 4.
द्विसदनीय विधायिका संघात्मक राज्यों के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है। संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है क्योंकि प्रथम सदन जनता का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा सदन संघ की इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है। प्रत्येक संघात्मक शासन व्यवस्था में इसीलिए द्विसदनात्मक विधायिका का प्रावधान किया गया है अमेरिका में ‘सीनेट’ और भारत में ‘राज्यसभा’ ऐसे ही दूसरे सदन हैं।

प्रश्न 5.
राज्यों द्वारा अधिक स्वायत्तता की माँग क्यों की जाती है?
अथवा
अधिक स्वायत्तता हेतु राज्यों ने कौन-कौनसी माँगें उठायीं?
उत्तर:
यद्यपि संविधान द्वारा केन्द्र और राज्य के बीच शक्तियों का स्पष्ट बँटवारा किया गया है, लेकिन संविधान में केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया है और देश की एकता व विकास की दृष्टि से उसे राज्य के क्षेत्र में दखल का अधिकार भी दिया गया है। इस कारण भारत में निम्न कारणों से समय-समय पर राज्यों द्वारा अधिक स्वायत्तता की माँग की है।

  1. कुछ राज्यों ने शक्ति विभाजन को राज्य के पक्ष में बदलने तथा राज्यों को ज्यादा तथा महत्त्वपूर्ण अधिकार दिये जाने के लिए स्वायत्तता की माँग की।
  2. कुछ राज्यों ने आय के स्वतंत्र साधनों तथा संसाधनों पर राज्यों का अधिक नियंत्रण हेतु स्वायत्तता की माँग की।
  3. कुछ राज्यों ने राज्य प्रशासनिक – तंत्र पर केन्द्रीय नियंत्रण से नाराज होकर राज्य स्वायत्तता की माँग की।
  4. तमिलनाडु में हिन्दी के वर्चस्व के विरोध में तथा पंजाब में पंजाबी भाषा और संस्कृति को प्रोत्साहन देने के लिए भी स्वायत्तता की माँग की।

इस प्रकार समय-समय पर राज्यों ने विभिन्न कारणों से केन्द्रीय नियंत्रण के विरोध में स्वायत्तता की माँग की है।

प्रश्न 6.
गवर्नर का पद किस प्रकार केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव का कारण बना हुआ है? कोई दो कारण बताइए
उत्तर:
राज्यपाल के पद के केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव के दो कारण – राज्यपाल का पद केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में अनेक कारणों से तनाव पैदा करता है। ऐसे दो कारण निम्नलिखित हैं।

  1. राज्यपाल यद्यपि राज्य का संवैधानिक पद है, लेकिन उसकी नियुक्ति केन्द्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राष्ट्रपति उसे पदमुक्त भी कर सकता है। इसलिए वह राज्य में केन्द्र के अभिकर्त्ता के रूप में कार्य करते हुए राज्य के हितों की अनदेखी तक कर देता है
  2.  राज्यपाल को अनेक मामलों व अनेक अवसरों पर स्वयं: विवेक की शक्तियाँ प्राप्त हैं, जैसे राज्य में संवैधानिक शासन के असफल होने की रिपोर्ट भेजना, जब विधानसभा में किसी एक दल को बहुमत न मिला हो तो मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करना; राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु किसी विधेयक को सुरक्षित रखना आदि। इन सभी मामलों में वह केन्द्र के निर्देशों व सलाह के अनुसार कार्य करता है और निष्पक्ष रूप से कार्य नहीं करता है तथा राज्य के हितों की अवहेलना तक कर देता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 7.
भारत के अन्तर्राज्यीय राजनीतिक विवादों के समाधान का सर्वोत्तम साधन क्या हो सकता है? उत्तर-भारतीय संघात्मक व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में सीमा सम्बन्धी तथा नदी जल बँटवारे सम्बन्धी राजनीतिक विवाद चले आ रहे हैं। यदि दो राज्यों के बीच के विवादों का स्वरूप कानूनी या संवैधानिक है तो ऐसे विवादों का निपटारा न्यायपालिका कर देती है, लेकिन जिन विवादों में राजनीतिक पहलू भी समाहित होते हैं; ऐसे विवादों का निपटारा केवल कानूनी आधार पर नहीं किया जा सकता। ऐसे विवादों का सर्वोत्तम समाधान केवल विचार- विमर्श और पारस्परिक विश्वास के आधार पर ही हो सकता है।

प्रश्न 8.
ऐसी दो दशाएँ बताइए जब केन्द्र सरकार राज्य-सूची के विषयों पर कानून बना सकती है? उत्तर- केन्द्र सरकार द्वारा राज्य-सूची के विषयों पर कानून बनाने की परिस्थितियाँ संविधान में सामान्यतः राज्य – सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य विधानसभाओं को ही दिया गया है लेकिन निम्नलिखित दो दशाओं में केन्द्र की विधायिका भी राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।

  1. किसी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में लिए गए किसी निर्णय को लागू करने या भारत और किसी विदेशी राज्य के बीच हुए किसी समझौते व सन्धि को क्रियान्वित करने के लिए भारत की संसद राज्य – सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।
  2. 2. यदि राज्यसभा 2/3 बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दे कि राज्य सूची का अमुक विषय राष्ट्रीय महत्त्व का है तो संघ की संसद उस विषय पर कानून बना सकती है। ऐसा प्रस्ताव केवल एक वर्ष तक वैध रहता है और राज्यसभा केवल दूसरे वर्ष के लिए उसकी अवधि बढ़ा सकती है। संसद द्वारा निर्मित किया गया ऐसा कानून भी केवल एक वर्ष के लिए ही लागू रहता है।

प्रश्न 9.
अन्तर्राज्यीय विवादों के प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
उत्तर:
अन्तर्राज्यीय विवाद: भारतीय संघीय व्यवस्था में केन्द्र-राज्य विवादों के साथ-साथ दो या दो से अधिक राज्यों में भी आपसी विवाद के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इस प्रकार के कानूनी विवादों का तो न्यायपालिका निपटारा कर देती है, लेकिन जिन विवादों के पीछे राजनीतिक पहलू होते हैं, उनका समाधान केवल विचार-विमर्श और पारस्परिक विश्वास के आधार पर हो सकता है। मुख्य रूप से दो प्रकार के विवाद गम्भीर विवाद पैदा करते हैं। ये निम्नलिखित हैं।

1. सीमा विवाद: राज्य प्रायः
पड़ौसी राज्यों के भू-भाग पर अपना दावा पेश करते हैं। यद्यपि राज्यों की सीमाओं का निर्धारण भाषायी आधार पर किया गया है, लेकिन सीमावर्ती क्षेत्रों में एक से अधिक भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं। अतः इस विवाद को केवल भाषाई आधार पर नहीं सुलझाया जा सकता। ऐसा ही एक विवाद महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच ‘बेलगाम’ को लेकर है। पंजाब से हरियाणा को अलग करने पर उनके बीच न केवल सीमावर्ती क्षेत्रों को लेकर बल्कि राजधानी चण्डीगढ़ को लेकर भी विवाद है। चण्डीगढ़ इन दोनों राज्यों की राजधानी है।

2. नदी-जल विवाद:
अनेक राज्यों के बीच नदियों के जल के बँटवारे को लेकर विवाद बने हुए हैं क्योंकि यह सम्बन्धित राज्यों में पीने के पानी और कृषि की समस्या से जुड़ा है। कावेरी जल विवाद एक ऐसा ही विवाद है जो तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच एक प्रमुख विवाद है। यद्यपि इसे सुलझाने के लिए एक ‘जल -विवाद न्यायाधिकरण ‘ है फिर भी ये दोनों राज्य इसे सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए हैं। ऐसा ही एक विवाद नर्मदा नदी के जल के बँटवारे को लेकर गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बीच है।

प्रश्न 10.
“भारतीय संघवाद की सबसे नायाब विशेषता यह है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संघवाद में अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है। यथा
1. राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व: संघात्मक शासन व्यवस्था में प्राय:
संघ की विधायिका के द्वितीय सदन में प्रत्येक राज्य को समान प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है। अमेरिका और स्विट्जरैण्ड के संघवाद में इस सिद्धान्त को अपनाया गया है। लेकिन भारत में प्रत्येक का आकार और जनसंख्या भिन्न-भिन्न होने के कारण राज्यों को राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व दिया गया है। जहाँ छोटे से छोटे राज्यों को भी न्यूनतम प्रतिनिधित्व अवश्य प्रदान किया गया है, वहाँ इस व्यवस्था से यह भी सुनिश्चित किया गया है कि बड़े राज्यों को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिले।

2. विशिष्ट प्रावधान:
कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान में कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था की गई है। ऐसे अधिकतर प्रावधान पूर्वोत्तर के राज्यों (असम, नागालैण्ड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आदि) के लिए हैं जहाँ विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय बहुल जनसंख्या निवास करती है। ऐसे ही कुछ विशिष्ट प्रावधान पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल तथा अन्य राज्यों के लिए भी हैं।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
“भारत राज्यों का संघ है।” इसकी संघात्मक विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 में कहा गया है कि ” भारत राज्यों का संघ (यूनियन) होगा। राज्य और उनके राज्य – क्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं। ” वर्तमान में राज्य की पहली अनुसूची में 28 राज्य तथा 7 राज्य – क्षेत्र विनिर्दिष्ट हैं। इन सबको मिलाकर भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था कायम की गई है। भारत की संघात्मक शासन की विशेषताएँ या भारत के संघवाद की विशेषताएँ भारतीय संविधान में निहित संघात्मक शासन के लक्षण निम्नलिखित हैं।
1. शक्तियों का विभाजन:
प्रत्येक संघीय देश की तरह भारतीय संविधान में केन्द्र और राज्यों की सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों के विभाजन हेतु तीन सूचियाँ बनाई गई हैं।

  1. संघ सूची: इसमें 97 विषय रखे गये हैं,
  2. राज्य सूची: इसमें 66 विषय तथा
  3. समवर्ती सूची: इसमें 47 विषय दिये गये हैं।

संघ-सूची के विषयों पर सिर्फ केन्द्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है। राज्य सूची के विषयों पर सामान्यतः सिर्फ प्रान्तीय विधायिका ही कानून बना सकती है और समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र और प्रान्त दोनों की विधायिकाएँ कानून बना सकती हैं। अवशिष्ट विषय: अवशिष्ट विषय वे सभी विषय कहलायेंगे जिनका उल्लेख किसी भी सूची में नहीं हुआ है, जैसे—साइबर अपराध। ऐसे विषयों पर केवल केन्द्रीय विधायिका ही कानून बना सकती है।

2. लिखित संविधान:
संघीय व्यवस्था के लिए एक लिखित संविधान की आवश्यकता होती है जिसमें केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट उल्लेख किया जा सके। भारत का संविधान एक लिखित संविधान है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। 2017 तक इसमें 101 संशोधन हो चुके हैं।

3. कठोर संविधान:
संघीय व्यवस्था में कठोर संविधान का होना भी बहुत आवश्यक है। भारत का संविधान भी एक कठोर संविधान है क्योंकि संविधान की महत्त्वपूर्ण धाराओं में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के दो- तिहाई बहुमत तथा कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों के बहुमत की आवश्यकता होती है।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका:
संघात्मक व्यवस्था में संविधान की सुरक्षा के लिए तथा केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के विवादों का निपटारा करने के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है। भारतीय संविधान में भी स्वतन्त्र न्यायपालिका की व्यवस्था है। न्यायपालिका के कार्य और अधिकार भारत के संविधान में दिये गये हैं और यह स्वतन्त्र रूप से कार्य करती है।

5. संविधान की सर्वोच्चता:
भारत में संविधान को सर्वोच्च रखा गया है। कोई भी कार्य संविधान के प्रतिकूल नहीं किया जा सकता। सरकार के सभी अंग संविधान के अनुसार ही शासन कार्य चलाते हैं। सरकार का कोई कार्य यदि संविधान के प्रतिकूल होता है तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकती है।

6. इकहरी नागरिकता:
संघीय शासन व्यवस्था में लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं। इस हेतु दोहरी नागरिकता का प्रावधान किया जाता है। लेकिन भारत में इकहरी नागरिकता का ही प्रावधान किया गया है।

7. संघात्मकता के साथ:
साथ एकात्मकता के लक्षण: भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध सहयोग पर आधारित होगा। इस प्रकार विविधता को मान्यता देने के साथ-साथ संविधान एकता पर बल देता है। राष्ट्रीय एकता और विकास की चिन्ताओं ने संविधान निर्माताओं ने संघात्मक व्यवस्था में एक सशक्त केन्द्रीय सरकार की स्थापना की है। इसलिए भारतीय संविधान में संघात्मकता के साथ-साथ एकात्मकता के भी लक्षण पाये जाते हैं। जैसे इकहरी नागरिकता, आपातकालीन प्रावधान, संविधान संशोधन में संसद की प्रमुखता, केन्द्र की प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ तथा राज्यपाल की स्वयंविवेक की शक्तियाँ आदि।

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प्रश्न 2.
संघात्मक शासन व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख लक्षणों को स्पष्ट कीजिए
उत्तर:
संघात्मकं शासन व्यवस्था से आशय – संघात्मक शासन व्यवस्था से आशय ऐसी शासन व्यवस्था से है जिसमें शासन केन्द्रीय सरकार तथा इकाइयों की सरकारों के रूप में दोहरी शासन व्यवस्थाएँ होती हैं। संविधान द्वारा शासन की. शक्तियों का विभाजन केन्द्र और प्रान्तों की सरकारों में स्पष्ट रूप से कर दिया जाता है। दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग होते हैं तथा एक-दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करते। इसमें केन्द्र और राज्यों में झगड़ों का फैसला करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की जाती है।

संघात्मक शासन व्यवस्था की विशेषताएँ: संघात्मक शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
1. सरकारों के दो प्रकार: संघवाद की पहली विशेषता यह है कि इसमें दो प्रकार की सरकारें पायी जाती हैं

  1. संघीय या केन्द्रीय सरकार और
  2. इकाइयों या प्रान्तों की सरकारें यह व्यवस्था राजनीति के दो प्रकार को व्यवस्थित करती है। एक, प्रान्तीय या क्षेत्रीय स्तर पर और दूसरी, केन्द्रीय स्तर पर। दोनों प्रकार की सरकारें संविधान द्वारा निर्धारित अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करती हैं।

2. शक्तियों का बँटवारा: संघात्मक शासन व्यवस्था में शासन की शक्तियों का केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों के बीच संविधान द्वारा वितरित कर दिया जाता है। राष्ट्रीय महत्त्व की शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार को दे दी जाती हैं और समस्त स्थानीय और क्षेत्रीय महत्त्व की शक्तियाँ इकाइयों की सरकारों को दे दी जाती हैं। दोनों सरकारें स्वतन्त्रतापूर्वक अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करती हैं।

3. सर्वोच्च, लिखित तथा कठोर संविधान: संघात्मक शासन व्यवस्था में संविधान लिखित होता है तथा वह सर्वोच्च होता है। दोनों प्रकार की सरकारें उसके प्रावधानों का उल्लंघन नहीं कर सकतीं। इसमें संशोधन संसद साधारण बहुमत से नहीं कर सकती, बल्कि इसमें संशोधन के लिए उसे विशिष्ट बहुमत की आवश्यकता होती है।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका: संघात्मक शासन व्यवस्था की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें न्यायपालिका स्वतन्त्र होती है। उसके पास न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति होती है। इसका आशय यह है कि यदि कभी कोई सरकार कोई ऐसी विधि या नीति बनाती है जो संविधान के प्रावधानों के प्रतिकूल है तो न्यायपालिका उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकती है। इस प्रकार यह केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों, दोनों को अपने क्षेत्र में सीमित रखती है।

5. द्विसदनात्मक विधायिका: संघात्मक शासन व्यवस्था की एक विशेषता द्विसदनात्मक विधायिका का होना है। इसमें निम्न सदन जहां जनता का प्रतिनिधित्व करता है, उच्च सदन राज्यों (इकाइयों) का प्रतिनिधित्व करता है। संघीय व्यवस्था में सामान्यतः द्वितीय सदन में सभी इकाइयों का समान प्रतिनिधित्व रखा जाता है; जैसे कि अमेरिका में सीनेट में प्रत्येक राज्य दो सदस्य भेजता है।

6. दोहरी नागरिकता: संघात्मक शासन व्यवस्था में सामान्यतः दोहरी नागरिकता पाई जाती है। एक, केन्द्रीय सरकार की नागरिकता और दूसरी, इकाइयों की सरकार की नागरिकता अमेरिका में दोहरी नागरिकता दी गई है, लेकिन भारतीय संघात्मक व्यवस्था में इकहरी नागरिकता ही प्रदान की गई है।

7. दोहरी पहचान और निष्ठाएँ: संघात्मक शासन व्यवस्था में लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं एक, राष्ट्र के प्रति निष्ठा तथा राष्ट्रीय पहचान और दूसरी, प्रान्त या क्षेत्र के प्रति पहचान और उसके प्रति निष्ठा। यद्यपि इसमें दोहरी निष्ठाएँ होती हैं, लेकिन इनमें राष्ट्रीय निष्ठा की प्रधानता होती है। उदाहरण के लिए, एक गुजराती या बंगाली होने से अधिक महत्त्वपूर्ण एक भारतीय होना है। इसमें भारत के प्रति निष्ठा, गुज़रात या बंगाल के प्रति निष्ठा से पहले आती है।

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प्रश्न 3.
” भारत के संविधान का स्वरूप संघात्मक है परन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है। ” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश की परिस्थितियों के अनुसार ऐसी व्यवस्था की है जिससे राष्ट्र की इकाइयों को स्वायत्तता मिली रहे और साथ ही राष्ट्र की एकता भी भंग न हो। इसी कारण भारतीय संविधान स्वरूप में संघात्मक रूप लिए हुए है; उसमें प्रमुख संघात्मक लक्षण विद्यमान हैं लेकिन देश की एकता भंग न हो इसलिए उसमें एकात्मकता के तत्त्व भी पाये जाते हैं जिनके द्वारा केन्द्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाया गया है। यथा भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण

1. संविधान की सर्वोच्चता:
भारत में न तो केन्द्रीय सरकार सर्वोच्च है और न ही राज्य सरकार। यहाँ संविधान सर्वोच्च है। कोई भी सरकार संविधान के प्रतिकूल काम नहीं कर सकती। देश के सभी पदाधिकारी, जैसे- राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री आदि अपना पद ग्रहण करने से पूर्व संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हुए उसके प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं

2. लिखित तथा कठोर संविधान:
भारत का संविधान लिखित है जो संविधान सभा द्वारा निर्मित किया गया है। इसमें संघ व राज्य सम्बन्धी अधिकारों को स्पष्ट रूप से लिखा गया है। इसके साथ-साथ भारत का संविधान कठोर है क्योंकि इसमें संशोधन साधारण बहुमत से नहीं किये जा सकते।

3. अधिकारों का विभाजन:
संविधान में केन्द्र और राज्यों की शक्तियों का तीन सूचियों के माध्यम से स्पष्ट विभाजन किया गया है। राज्य सूची के विषय इकाइयों को, संघ-सूची के विषय केन्द्रीय सरकार को और समवर्ती सूची के विषय दोनों सरकारों को दिये गये हैं। अवशिष्ट विषय केन्द्रीय सरकार को दिये गये हैं।

4. स्वतन्त्र न्यायपालिका:
भारत के संविधान में केन्द्र और राज्यों के विवादों को हल करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई है। वह केन्द्र और राज्यों के कानूनों को संविधान के प्रावधानों के प्रतिकूल होने पर असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकता है।

5. दोहरी शासन व्यवस्था:
भारतीय संघात्मक शासन व्यवस्था में दो प्रकार की सरकारों की व्यवस्था की गई एक, केन्द्रीय सरकार और दूसरी, राज्यों की सरकार। दोनों का गठन संविधान के अनुसार होता है।

भारतीय संविधान में एकात्मकता के लक्षण: यद्यपि भारतीय संविधान स्वरूप से संघात्मक है, लेकिन आत्मा से वह एकात्मक है, क्योंकि इसमें केन्द्रीय सरकार को सशक्त बनाने वाले अनेक प्रावधान किये गये हैं।

1. शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में:
संविधान द्वारा शक्तियों का जो बँटवारा किया गया है उसमें केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है क्योंकि संविधान ने आर्थिक और वित्तीय शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार के हाथ में सौंपी हैं तथा राज्य को आय के बहुत कम साधन दिये गये हैं। दूसरे, अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्रीय सरकार को ही सौंपी गई हैं। तीसरे, समवर्ती सूची के विषयों पर भी कानून बनाने में केन्द्रीय सरकार को प्राथमिकता दी गई है।

2. राज्य- सूची पर भी केन्द्रीय सरकार को कानून बनाने की शक्तियाँ: कुछ परिस्थितियों में केन्द्रीय सरकार राज्य-सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है। यथा

  1. यदि राज्यसभा 2/3 बहुमत से राज्य – सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दे तो केन्द्रीय सरकार उस विषय पर कानून बना सकती है।
  2. संकट काल की स्थिति उत्पन्न होने पर केन्द्र को राज्य – सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
  3. यदि कभी दो राज्यों की विधानसभाएँ केन्द्र को राज्य सूची में से किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करें तो इस विषय पर केन्द्र कानून बना सकता है।

3. इकहरी नागरिकता: संघीय शासन व्यवस्था वाले देशों में प्रायः दोहरी नागरिकता प्रदान की जाती है- एक, राष्ट्र की नागरिकता और दूसरी, प्रान्तीय नागरिकता। लेकिन भारत में इकहरी नागरिकता ही प्रदान की गई है। भारत में केवल राष्ट्रीय नागरिकता ही प्रदान की गई है।

4. राज्यपाल द्वारा राज्यों पर नियन्त्रण: भारत में राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख है लेकिन राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह अपने कार्यों के लिए केन्द्र के प्रति ही उत्तरदायी होता है। ऐसी स्थिति में राज्यपाल केन्द्र के एजेण्ट के रूप में कार्य करता है। वह अपने स्वविवेकीय कार्यों को संवैधानिक प्रमुख के रूप में निष्पक्ष रूप से कार्य न करके केन्द्र की सलाह के अनुसार करता है। जब विधानसभा में किसी एक दल का बहुमत नहीं होता तो वह केन्द्र के इशारे पर मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है। वह केन्द्र के निर्देशों के अनुरूप ही राज्य में संकटकाल की घोषणा की सलाह देता है और संकट काल में केन्द्र के निर्देशों को राज्य में लागू करता।

5. राज्यों की केन्द्र पर वित्तीय निर्भरता: सामान्य स्थितियों में भी केन्द्र सरकार की अत्यन्त प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ और उत्तरदायित्व हैं। सबसे पहले तो आय के प्रमुख संसाधनों पर केन्द्र सरकार का नियन्त्रण है। इस प्रकार केन्द्र के पास आय के अनेक संसाधन हैं और राज्य अनुदानों और वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर आश्रित हैं। दूसरे, स्वतन्त्रता के बाद भारत ने तेज आर्थिक प्रगति और विकास के लिए नियोजन को साधन के रूप में अपनाया है।

नियोजन के कारण आर्थिक फैसले लेने की ताकत केन्द्र सरकार के हाथ में सिमटती गई है। केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त योजना आयोग राज्यों के संसाधन – प्रबन्ध की निगरानी करता है। तीसरे, केन्द्र सरकार अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर राज्यों को अनुदान और ऋण देती है । केन्द्र सरकार पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि वह विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों के प्रति भेदभावपूर्ण रवैया अपनाती है।

6. संसद को राज्यों का पुनर्गठन तथा उसके नामों में परिवर्तन करने का अधिकार है: किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियन्त्रण है। संसद किसी राज्य में से उसका राज्य-क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकती है। वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है। सम्बन्धित राज्य से उसकी राय तो ले ली जाती है, परन्तु उसका मानना या न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है। संसद का यह अधिकार सरकार को एकात्मक बनाता है।

7. अखिल भारतीय सेवाएँ: भारत की प्रशासकीय व्यवस्था इकहरी है। अखिल भारतीय सेवाएँ पूरे देश के लिए हैं और इसमें चयनित पदाधिकारी राज्यों के प्रशासन में काम करते हैं। अतः जिलाधीश के रूप में कार्यरत भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी या पुलिस कमिश्नर के रूप में कार्यरत भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों पर केन्द्र सरकार का नियन्त्रण रहता है। राज्य न तो उनके विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकता है और न ही उन्हें सेवा से हटा सकता है।

8. किसी क्षेत्र में सैनिक शासन लागू होना: संघ सरकार की शक्ति को, संविधान के दो अनुच्छेद 33 और 34, उस स्थिति में काफी बढ़ा देते हैं जब किसी क्षेत्र में सैनिक शासन लागू हो जाए। ऐसी स्थिति में संसद केन्द्र या राज्य के किसी भी अधिकारी के द्वारा शान्ति व्यवस्था बनाए रखने या उसकी बहाली के लिए किए गए किसी भी कार्य को जायज ठहरा सकती है। इसी के अन्तर्गत ‘सशस्त्र बल विशिष्ट शक्ति अधिनियम’ का निर्माण किया गया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि यद्यपि संविधान में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया गया है, तथापि व्यवहार में केन्द्र सरकार को अधिक शक्तियाँ प्रदान कर उसमें एकात्मकता की आत्मा बिठा दी गई है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 4.
भारत ने संघीय व्यवस्था को क्यों अपनाया? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की है। यद्यपि स्वतन्त्रता से पूर्व भारत पर अंग्रेजों का शासन रहा है और संविधान निर्माता अंग्रेजों की राजनीतिक संस्थाओं से स्वाभाविक रूप से प्रभावित थे। लेकिन इंग्लैण्ड की एकात्मक शासन व्यवस्था के स्वरूप को भारत के संविधान निर्माताओं ने नहीं अपनाया और इसके स्थान पर संघात्मक शासन प्रणाली को अपनाया। इसके कुछ विशेष कारण रहे हैं।

भारत में संघात्मक शासन को अपनाने के कारण: भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाए जाने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे
1. भारत सरकार 1935 का एक्ट:
1935 के भारत सरकार के एक्ट में भारत में संघीय शासन का प्रावधान किया गया। कांग्रेस प्रारम्भ से ही देश में शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की माँग करती आ रही थी। 1935 के एक्ट में प्रान्तों को स्वायत्तता प्रदान की गई थी। इसमें सभी प्रान्तों, केन्द्रीय सरकार तथा रियासतों के एक फैडरेशन की बात कही गयी लेकिन यह संघ अस्तित्व में न आ सका। इस प्रकार संविधान निर्माता पहले से ही इस व्यवस्था से परिचित थे।

2. रियासतों की समस्या:
जब भारत स्वतन्त्र हुआ, ब्रिटिश सरकार ने सभी देशी रियासतों को स्वतन्त्र कर दिया तथा यह कहा कि वे चाहे तो भारत में मिल सकती हैं, चाहे पाकिस्तान में और चाहे अपने आप को दोनों से स्वतन्त्र रख सकती हैं। भारतीय नेताओं को इन छोटी-बड़ी देशी रियासतों को मिलाना अत्यन्त कठिन दिख रहा था। उन्हें एकात्मक सरकार के ढाँचे की तुलना में संघीय ढाँचे में सम्मिलित करना भारतीय नेताओं को कहीं अधिक आसान लगा।

3. भारतीय दशाएँ:
उस समय की भारतीय दशाओं ने भी संविधान निर्माताओं को विवश कर दिया कि वे संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाएँ। भारत एक विशाल देश है। यहाँ के लोगों में जातीय, क्षेत्र, धर्म, भाषा, रहन-सहन, परम्परा – रीति-रिवाज, भोजन तथा वेशभूषा, संस्कृति तथा आदतों की विविधताएँ हैं। पहाड़ी लोगों की जीवन जीने की शैली, मैदानी लोगों से भिन्न है। यहाँ अनेक क्षेत्रों में जनजातीय लोग निवास करते हैं। इसी स्थिति में केवल संघीय ढाँचा ही इन सब विविधताओं को एकता में पिरो सकता था।

फलतः संविधान निर्माताओं ने देश के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया। संविधान निर्माताओं को यह मान था कि भारतीय समाज में क्षेत्रीय और भाषायी विविधताओं को मान्यता देने की आवश्यकता थी। विभिन्न क्षेत्रों और भाषा-भाषी लोगों को सत्ता में सहभागिता करनी थी तथा इन क्षेत्रों के लोगों को स्वशासन का अवसर देना था। संघात्मक व्यवस्था में ही यह सब सम्भव हो सकता था।

4. भौगोलिक विविधताएँ:
भारत एक उप-महाद्वीप है और एक उप महाद्वीप में प्रशासनिक कुशलता की दृष्टि से एकात्मक शासन की तुलना में संघात्मक शासन उत्तम ठहरता है। क्योंकि भारत के विभिन्न क्षेत्र अपने क्षेत्र में क्षेत्रीय विकास की गतिविधियों के लिए कार्य की स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। इन विविधताओं को समेटने के लिए संघात्मक शासन ही उपयुक्त था। इस प्रकार भारत की संविधान सभा ने संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया।

प्रश्न 5.
भारत के संविधान निर्माताओं ने केन्द्र को अधिक शक्तिशाली क्यों बनाया? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संघीय व्यवस्था में शक्तिशाली केन्द्र भारत में संघात्मक व्यवस्था के साथ-साथ एकात्मकता के लक्षण भी विद्यमान हैं। यद्यपि केन्द्र और राज्यों के कार्यक्षेत्र संविधान द्वारा निश्चित किये गये हैं तो भी केन्द्र सरकार राज्यों के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती है। संविधान में अनेक प्रावधान ऐसे हैं जो संघीय शासन व्यवस्था को एकात्मक शासन में बदल सकते हैं।

संविधान निर्माताओं ने संघीय व्यवस्था की सुरक्षा, कानून एवं व्यवस्था की स्थापना, सामान्य मुद्दों में सामञ्जस्य की स्थापना तथा संघ की इकाइयों की एकजुटता की दृष्टि से केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया है। केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए उत्तरदायी कारक निम्नलिखित कारकों ने संविधान निर्माताओं को केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए प्रेरित किया।

1. संघात्मक व्यवस्था शक्ति के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया के तहत:
भारत में संघात्मक व्यवस्था का निर्माण शक्ति के विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया के तहत हुआ है। भारत में प्रान्तों को शक्तियाँ केन्द्र से हस्तांतरित हुई हैं और केन्द्र से शक्तियों को हस्तांतरित कर संघीय व्यवस्था का निर्माण किया गया है। इस प्रक्रिया में यह स्वाभाविक है कि केन्द्र सरकार ने अपने पास अधिक शक्तियाँ रखीं। अमेरिका में स्वतंत्र राज्यों ने अपनी संप्रभुता और शक्तियों को हस्तांतरित कर संघ सरकार का निर्माण किया। इस प्रकार केन्द्र या संघ सरकार को शक्तियाँ राज्यों से हस्तांतरित हुई हैं। इस प्रक्रिया में यह स्वाभाविक था कि राज्य अपने पास अधिक शक्ति रखें । इसलिए वहां राज्यों के पास अधिक शक्तियाँ हैं।

2. इतिहास से सबक:
भारत के संविधान निर्माता इस ऐतिहासिक तथ्य से भलीभांति परिचित थे कि भारत में जब कभी भी केन्द्र की शक्ति कमजोर हुई, देश की एकता छिन्न-भिन्न हो गई थी। केन्द्र की कमजोर सरकार के चलते, प्रान्तों ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित करते हुए विद्रोह कर दिया और विदेशियों को देश पर आक्रमण के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार देश की सुरक्षा तथा एकता के लिए कमजोर केन्द्र हमेशा एक खतरा है। इसलिए उन्होंने संघीय व्यवस्था में भी जानबूझकर केन्द्र को शक्तिशाली बनाया है।

3. देशी रियासतों की समस्या:
जब देश स्वतंत्र हुआ, 600 से अधिक देशी रियासतों को यह विकल्प दिया गया था कि वे चाहे तो भारत में मिल जाएँ, चाहे पाकिस्तान में और चाहे वे अपने आपको स्वतंत्र रखें। इन देशी रियासतों को भारत संघ में मिलाने के लिए दबाव डाला गया। यदि केन्द्र सरकार कमजोर रखी जाती, तो ये देशी रियासतें देश की एकता के लिए खतरा बन सकती थीं और ये रियासतें आसानी से संघ में मिलने को भी राजी नहीं होतीं । इसलिए शक्तिशाली केन्द्र के साथ वाली संघीय व्यवस्था ने ही इस पेचीदी समस्या को सुलझाया।

4. परिस्थितियों की आवश्यकता:
जब संविधान का निर्माण हो रहा था, उस समय विभाजनकारी ताकतें देश में सक्रिय थीं। जातिवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता तथा भाषावाद की जड़ें मजबूत थीं तथा सक्रिय थीं। वे देश की एकता को खतरा पैदा कर रही थीं। इसलिए संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र और देश की एकता की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता महसूस की।

5. आर्थिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता की स्थापना हेतु;
1947 में भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता तो मिल गई थी, लेकिन आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता अभी बहुत दूर थी और आर्थिक-सामाजिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अर्थहीन थी। संविधान निर्माता इस विचार से सहमत थे कि केन्द्र सरकार को शक्तिशाली बनाकर ही इस सामाजिक- आर्थिक स्वतंत्रता को शीघ्र प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि केवल एक शक्तिशाली केन्द्र ही पूरे देश में आर्थिक नीति का निर्माण कर उसे लागू कर सकता है।

6. विश्व में शक्तिशाली केन्द्र की प्रवृत्ति:
आधुनिक काल अन्तर्राष्ट्रीयता का काल है और प्रत्येक राज्य अन्तर्राष्ट्रीय जगत में अपना अस्तित्व चाहता है। यह कमजोर केन्द्र के चलते प्राप्त नहीं किया जा सकता। इस कारण पूरे विश्व में केन्द्र को शक्तिशाली बनाने की प्रवृत्ति व्याप्त है। भारत के संविधान निर्माताओं पर भी इस प्रवृत्ति का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 6.
भारत में केन्द्र-राज्य सम्बन्धों पर दलीय राजनीति के प्रमुख चरणों तथा इसके प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत में एक संघात्मक शासन व्यवस्था है लेकिन इसकी प्रवृत्ति केन्द्रीकरण की है या कि प्रवृत्ति से यह एकात्मकता लिये हुए है। भारत में राज्य सरकारों की कार्यप्रणाली में केन्द्र द्वारा हस्तक्षेप किये जा सकने के अनेक प्रावधान स्वयं संविधान में किये गये हैं। इससे केन्द्र – राज्य सम्बन्धों पर प्रभाव पड़ा है। भारत की दलीय राजनीति ने भी केन्द्र- राज्य सम्बन्धों को प्रभावित किया है।

दलीय राजनीति और केन्द्र-राज्य सम्बन्ध – भारतीय संघवाद पर राजनीतिक प्रक्रिया की परिवर्तनशील प्रकृति का काफी प्रभाव पड़ा है। दलीय राजनीति के केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के प्रभाव को इसके निम्न चरणों के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।

1. दलीय राजनीति का प्रथम चरण ( स्वतंत्रता से 1966 तक ):
1950 तथा 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संघीय व्यवस्था की नींव रखी। इस दौरान केन्द्र और राज्यों में कांग्रेस का वर्चस्व था । इस काल में नए राज्यों के गठन की माँग के अलावा केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध शांतिपूर्ण तथा सामान्य रहे। राज्यों को आशा थी कि वे केन्द्र से प्राप्त वित्तीय अनुदानों से विकास कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त केंन्द्र द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए बनाई गई नीतियों के कारण भी राज्यों को काफी आशा बँधी थी। इससे स्पष्ट होता है कि इस काल में केन्द्र और राज्यों में एक दलीय प्रभुत्व था तथा पं. नेहरू का शक्तिशाली व्यक्तित्व था। इस कारण शक्तियों और कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में केन्द्र और राज्यों के बीच इस काल में कोई विवाद, संघर्ष तथा मतभेद नहीं उभरे। केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में कोई तनाव नहीं था।

2. दलीय राजनीति का द्वितीय चरण (1967 से 1988 तक ):
1967 के आम चुनावों से भारत में दलीय राजनीति का द्वितीय चरण प्रारंभ होता है। 1967 के चुनावों में केन्द्र में तो कांग्रेस दल का वर्चस्व बना रहा लेकिन अनेक राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें बनीं और कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा। बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश तथा तमिलनाडु राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ लेकिन लगभग इन सभी राज्यों में अनेक विरोधी दलों ने मिलकर मिली-जुली सरकार का गठन किया। परिणामतः राज्यों की मिली-जुली सरकारें लम्बे समय तक नहीं चल सकीं और भारतीय राजनीति में एक नवीन समस्या सामने आई। यह समस्या दल-बदल की थी।

कांग्रेस दल केन्द्र में सत्तासीन था और उसने राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों को अपदस्थ करने में रुचि ली। इससे राज्यों को और ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की मांग बलवती हुई। इस मांग के पीछे प्रमुख कारण यह था कि केन्द्र और राज्यों में भिन्न-भिन्न दल सत्ता में थे। अतः गैर-कांग्रेसी राज्यों की सरकारों ने केन्द्र की कांग्रेसी सरकार द्वारा किए गए अवांछनीय हस्तक्षेपों का विरोध करना शुरू कर दिया। कांग्रेस के लिए भी विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों से संबंधों के तालमेल की बात पहले जैसी आसान नहीं रही। इस विचित्र राजनैतिक संदर्भ में संघीय व्यवस्था के अन्दर स्वायत्तता की अवधारणा को लेकर वाद-विवाद छिड़ गया।

3. दलीय राजनीति का तृतीय चरण (1989 से अब तक ):
1989 के आम चुनाव में भारतीय राजनीति में एक नया बदलाव आया। अब कांग्रेस केन्द्र से तथा अधिकांश राज्यों से सत्ता से बाहर हो गयी। इस प्रकार भारतीय राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व समाप्त हो गया। केन्द्र में गठबंधन की राजनीति का प्रारंभ हुआ। अनेक राज्यों में गैर-कांगेसी दलों की सरकारों के होने से केन्द्र-र राज्य सम्बन्धों में तनाव बढ़े। ये राज्य अब केन्द्र के साथ खुले संघर्ष के रूप में सामने आए और केन्द्र-राज्य सम्बन्धों की पूर्ण समीक्षा की मांग की ताकि केन्द्र उनके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप न कर सके। इससे राज्यों का राजनीतिक कद बढ़ा, विविधता का आदर हुआ और एक मँझे हुए संघवाद की शुरुआत हुई।

प्रश्न 7.
केन्द्र-राज्य संबंधों के संदर्भ में राज्य के राज्यपाल की भूमिका तथा अनुच्छेद 356 पर एक निबन्ध लिखिये
उत्तर:
1. केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के संदर्भ में राज्यपाल की भूमिका:
राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख है। वह केन्द्र सरकार की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है और राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत तक अपने पद पर बना रहता है। यद्यपि वह 5 साल के लिए नियुक्त किया जाता है लेकिन राष्ट्रपति बिना कारण बताये उसे इस अवधि से पूर्व भी पद से हटा सकता है। इस प्रकार राज्यपाल अपनी नियुक्ति के लिए और अपने पद पर बने रहने के लिए केन्द्रीय मंत्रिमंडल की प्रसन्नता पर निर्भर रहता है।

दूसरी तरफ राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है और सामान्यतः राज्य के मंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य करता है। लेकिन इसके साथ ही वह केन्द्र सरकार का अभिकर्ता भी होता है तथा उससे यह आशा की जाती है कि वह कुछ कार्यों को अपने विवेक के अनुसार करेगा। इस स्थिति में वह राज्यमंत्रिमंडल की सलाह के अनुसार कार्य न करके सामान्यतः संघीय सरकार की इच्छाओं के अनुसार कार्य करता है। चूंकि राज्यपाल को दोहरी भूमिकाओं में कार्य करना पड़ता है, इसलिए यह पद केन्द्र-राज्य सम्बन्धों में तनाव का एक कारण बन गया है। राज्यपाल के फैसलों को अक्सर राज्य सरकार के कार्यों में केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है। जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं, तब राज्यपाल की भूमिका और अधिक विवादास्पद हो जाती है।

अनुच्छेद- 356 का दुरुपयोग सामान्यतः जिन राज्यों में केन्द्र के सत्तारूढ़ दल से भिन्न दलों की सरकारें हैं, उन राज्यों में केन्द्र ने राष्ट्रपति शासन लगाने में राज्यपाल के पद का दुरुपयोग किया है। संविधान के अनुच्छेद 356 के द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है। इस प्रावधान को किसी राज्य में तब लागू किया जाता है जब ” ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो कि उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता।” परिणामस्वरूप संघीय सरकार राज्य सरकार का अधिग्रहण कर लेती है। इस विषय पर राष्ट्रपति द्वारा जारी उद्घोषणा को संसद की स्वीकृति प्राप्त करना जरूरी होता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त करने तथा राज्य विधानसभा को निलंबित या विघटित करने की अनुशंसा कर सके। इससे अनेक विवाद पैदा हुए। यथा

(i) कुछ मामलों में राज्य सरकारों को विधायिका में बहुमत होने के बाद भी बर्खास्त कर दिया। 1959 में केरल में और 1967 के बाद अनेक राज्यों में बहुमत की परीक्षा के बिना ही सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया। कुछ मामले सर्वोच्च न्यायालय में भी गए तथा सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि राष्ट्रपति शासन लागू करने के निर्णय की संवैधानिकता की जांच-पड़ताल न्यायालय कर सकता है। 1967 के बाद जब राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं तब केन्द्र में सत्तासीन कांग्रेसी सरकार ने अनेक अवसरों पर इसका प्रयोग राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए किया।

(ii) कुछ मामलों में केन्द्र सरकार ने राज्यपाल के माध्यम से राज्य में बहुमत दल या गठबंधन को सत्तारूढ़ होने से रोका। उदाहरण के लिए, 1980 के दशक में केन्द्रीय सरकार ने आंध्रप्रदेश और जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त किया।

2. मुख्यमंत्री की नियुक्ति में राज्यपाल के स्वयंविवेक की भूमिका:
जब किसी राज्य में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने राज्यपाल के माध्यम से उस राज्य में मुख्यमंत्री की नियुक्ति में हस्तक्षेप किया क्योंकि राज्यपाल ने उस समय केन्द्र की सलाह के अनुसार कार्य किया न कि निष्पक्ष संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में। इससे केन्द्र-राज्य सम्बन्धों की दृष्टि से गवर्नर का पद विवादास्पद हो गया।

3. विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु रोक लेना:
राज्य के राज्यपाल के पास यह स्वयंविवेक की शक्ति है कि वह राज्य विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु अपने पास रोक सकता है। इस शक्ति को सामान्यतः उस विधेयक को पारित करने से रोकने या उसे पारित करने में देरी करने के लिए किया गया है, जो केन्द्र की सरकार को पसंद नहीं है। ऐसे विधेयकों को लम्बे समय तक पेंडिंग रखा जा सकता है। इस प्रकार राज्यपाल के पद की कटु आलोचनाएँ की गईं तथा यह मांग भी उठी कि राज्यपाल के पद को ही समाप्त कर दिया जाये। सरकारिया आयोग ने इस सम्बन्ध में यह सुझाव दिया कि राज्यपाल राज्य से बाहर का व्यक्ति होना चाहिए और वे अपने विवेक का प्रयोग बहुत कम करें तथा अच्छी तरह स्थापित परम्पराओं के अनुसार ही करें तथा उन्हें अपना कार्य निष्पक्षता से करना चाहिए।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 7 संघवाद 

प्रश्न 8.
संविधान में कुछ राज्यों के लिए विशिष्ट प्रावधान किये गए हैं। उन्हें स्पष्ट कीजिए। क्या वे संघवाद के सिद्धान्त के अनुरूप हैं?
उत्तर:
कुछ राज्यों के लिए विशिष्ट प्रावधान: भारतीय संघवाद की यह अनोखी विशेषता है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ विशिष्ट प्रावधान भी किये गये हैं। शक्ति के बँटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ सभी राज्यों को समान रूप से प्रदान की गई हैं; लेकिन कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप कुछ विशिष्ट अधिकारों की व्यवस्था करता है। यथा

  1. जम्मू-कश्मीर राज्य के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान:
    अनुच्छेद 370 के द्वारा जम्मू-कश्मीर को अगस्त 2019 तक विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई थी। स्वतंत्रता के बाद जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भारत में विलय का चयन किया, जबकि अधिकांश मुस्लिम बहुल राज्यों ने पाकिस्तान का चयन किया था। इस परिस्थिति में संविधान में अनुच्छेद 370 के तहत उसे अन्य राज्यों की तुलना में अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई। यथा
  2. अन्य राज्यों के लिए तीन सूचियों द्वारा किया गया शक्ति विभाजन स्वतः प्रभावी होता है लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य में संघीय सूची और समवर्ती सूची में वर्णित शक्तियों का प्रयोग करने के लिए राज्य सरकार की सहमति लेनी पड़ती थी। इससे जम्मू-कश्मीर राज्य को ज्यादा स्वायत्तता मिल जाती थी।
  3. इसके अतिरिक्त जम्मू-कश्मीर और अन्य राज्यों में एक अन्तर यह था कि राज्य सरकार की सहमति के बिना ‘ जम्मू-कश्मीर में ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर आपातकाल लागू नहीं किया जा सकता था।
  4. संघ सरकार जम्मू-कश्मीर में वित्तीय आपात स्थिति लागू नहीं कर सकती थे।
  5. राज्य के नीति-निर्देशक तत्व भी यहाँ लागू नहीं होते थे।
  6. अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत किये गये भारतीय संविधान के संशेधन भी राज्य सरकार की सहमति से ही जम्मू- कश्मीर में लागू हो सकते हैं।

लेकिन अगस्त 2019 में केन्द्र सरकार ने संविधान के अस्थायी अनुच्छेद 370 तथा 45 – A को संविधान से हटा दिया है तथा जम्मू-कश्मीर राज्य को दो संघीय क्षेत्रों

  • जम्मू-कश्मीर और
  • लद्दाख में परिवर्तित कर दिया है। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर राज्य की यह विशिष्ट स्थिति अब समाप्त हो गई है।

2. उत्तरी-पूर्वी राज्यों के लिए अनुच्छेद 371:
अनुच्छेद 371 के तहत प्रावधान उत्तर- विशेष प्रावधानों की व्यवस्था करता है। ये राज्य हैं – असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर और -पूर्वी राज्यों के लिए मेघालय आदि। इनमें विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय बहुल जनसंख्या निवास करती है। यहाँ के ये निवासी अपनी संस्कृति तथा इतिहास को बनाए रखना चाहते हैं।

3. कुछ अन्य राज्यों में विशिष्ट प्रावधान:
कुछ विशिष्ट प्रावधान कुछ अन्य राज्यों के लिए भी किये गये हैं। ये राज्य हैं। पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश तथा उत्तरांचल तथा अन्य राज्य आंध्रप्रदेश, गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र और सिक्किम; क्योंकि इन राज्यों में कुछ पहाड़ी जनजातियाँ तथा आदिवासी निवास करते हैं। विशिष्ट प्रावधान संघवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं हैं। अनेक लोगों की मान्यता है कि संघीय व्यवस्था में शक्तियों का औपचारिक और समान विभाजन संघ के सभी राज्यों पर समान रूप से लागू होना चाहिए।

अतः जब भी ऐसे विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था संविधान में की जाती है तो उसका कुछ विरोध भी होता है। भारत में विशिष्ट प्रावधानों का विरोध जम्मू-कश्मीर राज्य को प्रदान किये गए अनुच्छेद 370 के प्रति है, अन्य प्रावधानों जैसे अनुच्छेद 371 आदि के प्रति नहीं है। मुखर लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में जिन परिस्थितियों में संघवाद की स्थापना की गयी है, वे परिस्थितियाँ सभी प्रान्तों में एकसमान नहीं थीं।

भारत विविधताओं से भरा देश है और इसलिए कुछ क्षेत्रों के विकास तथा उन्हें देश के अन्य क्षेत्रों के समान लाने के लिए कुछ विशिष्ट प्रावधान किये गये हैं। जिन परिस्थितियों में जम्मू-कश्मीर राज्य भारतीय संघ का भाग बनने को राजी हुआ, उस परिस्थिति में उसे विशिष्ट प्रावधान देने का वायदा किया गया था। अन्य राज्यों में आदिवासियों और पिछड़े राज्यों को उठाने तथा उनकी संस्कृति को संरक्षित रखने की दृष्टि से जो विशिष्ट प्रावधान किए गये हैं, वे संघवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. राजस्थान और पंजाब सरकार के मध्य विवाद की सुनवाई कौन करेगा?
(क) राजस्थान उच्च न्यायालय
(ग) सर्वोच्च न्यायालय
(ख) पंजाब उच्च न्यायालय
(घ) जिला न्यायालय।
उत्तर:
(ग) सर्वोच्च न्यायालय

2. राजस्थान के जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील कहाँ की जायेगी ।
(क) राजस्थान उच्च न्यायालय में
(ख) रिट के माध्यम से
(ग) सर्वोच्च न्यायालय में
(घ) दिल्ली उच्च न्यायालय में। किस अधिकार के तहत करता है-
उत्तर:
(क) राजस्थान उच्च न्यायालय में

3. सर्वोच्च न्यायालय किसी कानून को असंवैधानिक ।
(क) अपीलीय क्षेत्राधिकार के तहत
(ख) पंजाब उच्च न्यायालय में
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से
(घ) सलाहकारी क्षेत्राधिकार द्वारा।
उत्तर:
(ग) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से

4. निम्नलिखित में से कौनसा न्यायिक स्वतन्त्रता के अर्थ से सम्बन्धित नहीं है।
(क) सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के कार्यों में बाधा न पहुँचाएँ।
(ख) सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप न करें।
(ग) न्यायाधीश बिना भय या भेदभाव के अपना कार्य कर सकें।
(घ) न्यायपालिका स्वेच्छाचारी व अनुत्तरदायी हो।
उत्तर:
(घ) न्यायपालिका स्वेच्छाचारी व अनुत्तरदायी हो।

5. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है।
(क) प्रधानमन्त्री द्वारा
(ग) विधि मन्त्री द्वारा
(ख) राष्ट्रपति द्वारा
(घ) लोकसभा अध्यक्ष द्वारा।
उत्तर:
(ख) राष्ट्रपति द्वारा

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

6. संघ और राज्यों के बीच के तथा विभिन्न राज्यों के आपसी विवाद सर्वोच्च न्यायालय के निम्न में से किस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आते हैं।
(क) अंपीली क्षेत्राधिकार
(ग) सलाहकारी क्षेत्राधिकार
(ख) मौलिक क्षेत्राधिकार
(घ) रिट सम्बन्धी क्षेत्राधिकार।
उत्तर:
(ख) मौलिक क्षेत्राधिकार

7. कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में उसके किस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत अपील कर सकता है?
(क) मौलिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत
(ख) अपीलीय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत
(ग) सलाहकारी क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(ख) अपीलीय क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत

8. जनहित याचिका की शुरुआत भारत में कब से हुई ?
(क) 1979 से
(ख) 1984 से
(ग) 1989 से
(घ) 1999 से।
उत्तर:
(क) 1979 से

9. निम्न में से कौनसा न्यायिक सक्रियता का सकारात्मक पहलू है?
(क) इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया।
(ख) इसने न्यायालयों में काम का बोझ बढ़ाया है।
(ग) इससे तीनों अंगों के कार्यों के बीच का अन्तर धुँधला पड़ा है।
(घ) इससे न्यायालय उन समस्याओं में उलझ गया है जिसे कार्यपालिका को करना चाहिए।
उत्तर:
(क) इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया।

10. अग्र में से कौनसा मुद्दा सुलझ गया है?
(क) क्या संसद संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन कर सकती है?
(ख) जो व्यक्ति विधायिका के विशेषाधिकार हनन का दोषी हो तो क्या वह न्यायालय की शरण ले सकता है?
(ग) सदन के किसी सदस्य के विरुद्ध स्वयं सदन द्वारा यदि कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती है तो क्या वह सदस्य न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है?
(घ) क्या संसद और राज्यों की विधानसभाओं में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली उठायी जा सकती है?
उत्तर:
(क) क्या संसद संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन कर सकती है?

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. न्यायपालिका व्यक्ति के …………….. की रक्षा करती है।
उत्तर:
अधिकारों

2. ………………. के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए।
उत्तर:
न्यायाधीश

3. न्यायाधीशों के कार्यों एवं निर्णयों की …………………. आलोचना नहीं की जा सकती।
उत्तर:
व्यक्तिगत

4. भारतीय संविधान ………………… न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है।
उत्तर:
एकीकृत

5. भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन …………………. रही है।
उत्तर:
जनहित याचिका

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये

1. न्यायपालिका सरकार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
उत्तर:
सत्य

2. भारत में न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ विधायिका द्वारा की जाती है।
उत्तर:
असत्य

3. भारत में न्यायपालिका विधायिका पर वित्तीय रूप से निर्भर है
उत्तर:
असत्य

4. भारत में न्यायपालिका की संरचना एक पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला व अधीनस्थ न्यायालय है।
उत्तर:
सत्य

5. उच्च न्यायालय संघ और राज्यों के बीच के विवादों का निपटारा करता है।
उत्तर:
असत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये

1. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने की प्रक्रिया। (क) सर्वोच्च न्यायालय
2. फैसले सभी अदालतों को मानने होते हैं। (ख) जिला अदालत
3. जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है। (ग) रिट के रूप में आदेश
4. सर्वोच्च न्यायालय व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जारी करता है (घ) जनहित याचिका
5. न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन। (च) महाभियोग

उत्तर:

1. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने की प्रक्रिया। (च) महाभियोग
2. फैसले सभी अदालतों को मानने होते हैं। (क) सर्वोच्च न्यायालय
3. जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है। (ख) जिला अदालत
4. सर्वोच्च न्यायालय व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जारी करता है (ग) रिट के रूप में आदेश
5. न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन। (घ) जनहित याचिका

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत का सबसे बड़ा न्यायालय कौनसा है? इसके मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है। इसके मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

प्रश्न 2.
भारत का सर्वोच्च न्यायालय कहाँ स्थित है?
उत्तर:
भारत का सर्वोच्च न्यायालय नई दिल्ली में स्थित है।

प्रश्न 3.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन और किसकी सलाह पर करता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से कुछ नाम प्रस्तावित करेगा और इसी में से राष्ट्रपति अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान ने किन उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है? (कोई दो का उल्लेख कीजिए)
उत्तर:

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया जायेगा।
  2. न्यायाधीशों का कार्यकाल सेवानिवृत्ति की आयु तक निश्चित रखा गया है।

प्रश्न 5.
संसद न्यायाधीशों के आचरण पर कब चर्चा कर सकती है?
उत्तर:
संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है जब वह उनको हटाने के प्रस्ताव पर चर्चा कर रही हो।

प्रश्न 6.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति से सम्बन्धित इस परम्परा को कि ‘सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया जायेगा।’ कितनी बार और कब-कब तोड़ा गया है?
उत्तर:
‘सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को ही राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त करेगा’ इस परम्परा को दो बार, सन् 1973 तथा सन् 1975 में तोड़ा गया है।

प्रश्न 7.
भारत में सर्वोच्च न्यायालय के किस न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग का असफल प्रयास किया गया?
उत्तर:
सन् 1991-92 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री रामास्वामी के विरुद्ध संसद में महाभियोग का असफल प्रयास किया गया।

प्रश्न 8.
‘भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है।’ इस कथन का क्या आशय है?
उत्तर:
इस कथन का आशय यह है कि भारत में अलग से प्रान्तीय स्तर के न्यायालय नहीं हैं। यहाँ सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय है और फिर उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालय हैं।

प्रश्न 9.
जिला अदालत के कोई दो कार्य लिखिए।
उत्तर:

  1. जिला अदालत जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है।
  2. यह निचली अदालतों के फैसलों पर की गई अपीलों की सुनवाई करती है।

प्रश्न 10.
सर्वोच्च न्यायालय के मौलिक क्षेत्राधिकार को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कुछ मुकदमों की सुनवाई सीधे सर्वोच्च न्यायालय कर सकता है, उनकी सुनवाई निचली अदालतों में नहीं हो सकती उसे सर्वोच्च न्यायालय का मौलिक क्षेत्राधिकार कहा जाता है। ये विवाद हैं। केन्द्र और राज्यों के बीच या विभिन्न राज्यों के आपसी विवाद।

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प्रश्न 11.
सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार से क्या आशय है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय अपील उच्चतम न्यायालय है। कोई भी व्यक्ति उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।

प्रश्न 12.
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले कहाँ तथा किन पर लागू होते हैं?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भारतीय भू-भाग के अन्य सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं। उसके द्वारा दिए गए निर्णय सम्पूर्ण भारत देश में लागू होते हैं।

प्रश्न 13.
जनहित याचिका क्या है?
उत्तर:
जब पीड़ित लोगों की ओर से दूसरों द्वारा जनहित के मुद्दे के आधार पर न्यायालय में याचिका दी जाती है, तो ऐसी याचिका को जनहित याचिका कहा जाता है।

प्रश्न 14.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
‘जनहित याचिका’ गरीबों को सस्ते में न्याय दिलवाकर मदद कर सकती हैं तथा दूसरें लोगों द्वारा भी उनके हित में याचिका दी जा सकती है।

प्रश्न 15.
न्यायपालिका की कौनसी नई भूमिका न्यायिक सक्रियता के नाम से लोकप्रिय हुई?
उत्तर:
जब न्यायपालिका ने अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बनाकर उन पर विचार शुरू कर दिया तो उसकी यह नई भूमिका न्यायिक सक्रियता के नाम से लोकप्रिय हुई

प्रश्न 16.
सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कब कर सकता है?
उत्तर:

  1. मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है।
  2. संघीय संबंधों के मामले में भी वह अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

प्रश्न 17.
भारत की तरह अन्य देशों में भी न्यायिक सक्रियता लोकप्रिय हो रही है। किन्हीं दो देशों के नाम
उत्तर:
दक्षिण एशिया और अफ्रीका के देशों में भी भारत की ही भाँति न्यायिक सक्रियता का प्रयोग किया जा रहा

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्वतन्त्र न्यायपालिका से क्या आशय है?
उत्तर:
स्वतन्त्र न्यायपालिका से आशय: न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय ऐसी स्थिति से है जहाँ न्यायाधीश विवादों का निर्णय करने तथा अपने न्यायिक कार्यों को करने में डर का महसूस नहीं करते हों तथा विधायिका और कार्यपालिका का उन पर कोई दबाव न हो। उनका कार्यकाल निश्चित हो; उनके वेतन तथा भत्तों में विधायिका या कार्यपालिका द्वारा कोई कटौती नहीं की जा सके; उनके कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती हो। न्यायाधीश आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष निर्णय कर सके।

प्रश्न 2.
हमें स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
उत्तर:
हमें निम्नलिखित कारणों से स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता पड़ती है।

  1. हमें निष्पक्ष ढंग से न्याय की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता पड़ती है। यदि न्यायपालिका पर अनावश्यक नियंत्रण होंगे, तो वह निष्पक्ष ढंग से न्याय नहीं कर पायेगी।
  2. हमें कानूनों की ठीक प्रकार से व्याख्या करने तथा उनको लागू करवाने के लिए, स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता पड़ती है।
  3. स्वतंत्र न्यायपालिका ही विधायिका और कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाकर हमारी स्वतंत्रता की रक्षा कर सकती है।

प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति की आयु से पूर्व किस आधार पर और किस प्रकार से पद से हटाया जा सकता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को संसद सिद्ध कदाचार अथवा अक्षमता के आधार पर महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर हटा सकती है। यदि संसद के दोनों सदन अलग-अलग अपने कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दें तो राष्ट्रपति के आदेश से उसे पद से हटाया जा सकता है।

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प्रश्न 4.
आधुनिक युग में न्यायपालिका का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
आधुनिक युग में न्यायपालिका का महत्त्व निम्नलिखित है।

  1. न्यायपालिका ‘कानून के शासन’ की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करती है।
  2. न्यायपालिका व्यक्ति के मौलिक अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं की रक्षा करती है।
  3. यह विवादों को कानून के अनुसार हल करती है।
  4. न्यायपालिका यह भी सुनिश्चित करती है कि लोकतन्त्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले। इस प्रकार यह विधायिका और कार्यपालिका की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाती है।

प्रश्न 5.
न्यायिक पुनरावलोकन के दो लाभ बताइए।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन के लाभ

  1. न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के माध्यम से न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों तथा कार्यपालिका की नीतियों की व्याख्या करती है और संविधान के प्रतिकूल होने पर उनको असंवैधानिक घोषित कर संविधान की रक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है।
  2. न्यायपालिका न्यायिक पुनरावलोकन द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है।

प्रश्न 6.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार: भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए भेज सकता है। लेकिन न तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी विषय पर सलाह देने के लिए बाध्य है और न ही राष्ट्रपति न्यायालय की सलाह मानने को बाध्य है।

प्रश्न 7.
उच्चतम न्यायालय को सबसे बड़ा न्यायालय क्यों माना जाता है?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है क्योंकि-

  1. इसका फैसला अन्तिम होता है, जो सबको मानना पड़ता है।
  2. इसके फैसले के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती।
  3. यह संविधान के विरुद्ध पास किए गए कानूनों को रद्द कर सकता है।
  4. यह केन्द्र और राज्यों के बीच तथा विभिन्न राज्यों के बीच के आपसी विवादों को हल करता है।
  5. इसे संविधान की व्याख्या का अधिकार है तथा यह नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है।

प्रश्न 8.
सर्वोच्च न्यायालय की परामर्श देने की शक्ति की क्या उपयोगिता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के परामर्श देने की शक्ति की उपयोगिता: सर्वोच्च न्यायालय की परामर्श देने की शक्ति की निम्नलिखित उपयोगिताएँ हैं।

  1. इससे सरकार को छूट मिल जाती है कि किसी महत्त्वपूर्ण मसले पर कार्यवाही करने से पहले वह अदालत की कानूनी राय जान ले। इससे बाद में कानूनी विवाद से बचा जा सकता है।
  2. सर्वोच्च न्यायालय की सलाह मानकर सरकार अपने प्रस्तावित निर्णय या विधेयक में समुचित संशोधन कर सकती है।

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प्रश्न 9.
भारत की न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा किन विधियों से करती है?
उत्तर:
व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा – भारत की न्यायपालिका निम्नलिखित दो विधियों के द्वारा व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है।
1. रिट के माध्यम से: भारत के सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत और उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु रिट जारी करने का अधिकार है। इन रिटों के माध्यम से वह मौलिक अधिकारों को फिर से स्थापित कर सकता है।

2. न्यायिक पुनरावलोकन: सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 13 के तहत किसी कानून को गैर-संवैधानिक घोषित करके व्यक्ति के अधिकारों का संरक्षण करता है।

प्रश्न 10.
भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए कौन-कौनसी योग्यताएँ आवश्यक हैं?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यताएँ – राष्ट्रपति उसी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएँ हों।
(i) वह भारत का नागरिक हो।
(ii) वह कम-से-कम 5 वर्ष तक एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश के पद पर रह चुका हो।
अथवा
वह कम-से-कम 10 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रह चुका हो।
अथवा
वह राष्ट्रपति की दृष्टि में प्रसिद्ध कानून विशेषज्ञ हो।

प्रश्न 11.
“ उच्चतम न्यायालय भारतीय संविधान का संरक्षक है।” व्याख्या कीजिए।
अथवा
भारत के उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय को विधायिका द्वारा बनाए गये कानूनों और कार्यपालिका द्वारा जारी किये गये आदेशों ‘न्यायिक पुनरावलोकन’ का अधिकार प्राप्त है। इस अधिकार के तहत इस बात की जाँच कर सकता है कि कानून या आदेश संविधान के अनुकूल है या नहीं। यदि उसे जाँच में यह लगता है कि उस कानून या आदेश ने संविधान का उल्लंघन किया है तो वह उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय भारतीय संविधान के संरक्षक की भूमिका निभाता है।

प्रश्न 12.
अभिलेख न्यायालय के रूप में उच्चतम न्यायालय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अभिलेख न्यायालय: सर्वोच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय भी है क्योंकि यह न्यायालय अपनी कार्यवाही तथा निर्णयों का अभिलेख रखने के लिए उन्हें सुरक्षित रखता है ताकि किसी प्रकार के अन्य मुकदमों में उनका हवाला दिया जा सके सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय सभी न्यायालय मानने के लिए बाध्य हैं।

प्रश्न 13.
जिला न्यायालयों को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
जिला न्यायालय: प्रत्येक राज्य में उच्च न्यायालयों के अधीन जिला न्यायालय हैं। ये जिला न्यायालय प्रत्येक जिले में तीन प्रकार के होते हैं।

  1. दीवानी,
  2. फौजदारी और
  3. भू-राजस्व न्यायालय।

ये न्यायालय उच्च न्यायालय के नियन्त्रण में कार्य करते हैं। जिला न्यायालयों में उप-न्यायाधीशों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती हैं। ये न्यायालय सम्पत्ति, विवाह, तलाक सम्बन्धी विवादों की सुनवाई करते हैं।

प्रश्न 14.
लोक अदालत पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
लोक अदालत: भारत में गरीब, दलित, जरूरतमंद लोगों को तेजी से, आसानी से व सस्ता न्याय दिलाने हेतु हमारे देश में न्यायालयों की एक नई व्यवस्था शुरू की गई है जिसे लोक अदालत कहा जाता है। लोक अदालत के पीछे मूल विचार यह है कि न्याय दिलाने में होने वाली देरी खत्म हो, और न्याय जल्दी मिले तथा तेजी से अनिर्णीत मामलों को निपटाया जाये। इस प्रकार लोक अदालत ऐसे मामलों को तय करती है जो अभी तक अदालत नहीं पहुँचे हों या अदालतों में अनिर्णीत पड़े हों।

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प्रश्न 15.
एकीकृत न्यायपालिका से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
एकीकृत न्यायालय: एकीकृत न्यायपालिका से अभिप्राय इस प्रकार की न्यायपालिका से है जिससे समूचे देश के न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार कार्य करते हैं। इसमें देश के सभी न्यायालय सब प्रकार के कानूनों की व्याख्या करते हैं। भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है। इसका अर्थ यह है कि विश्व के अन्य संघीय देशों के विपरीत भारत में अलग से प्रान्तीय स्तर के न्यायालय नहीं हैं।

यहाँ न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय है। नीचे के न्यायालय ऊपर के न्यायालयों की देखरेख में कार्य करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भारतीय भू-भाग के अन्य सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं। उसके द्वारा दिए गए निर्मय सम्पूर्ण देश में लागू होते हैं।

प्रश्न 16.
भारतीय संविधान ने किन उपायों के द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान ने अनेक उपायों द्वारा न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की है। यथा
1. न्यायाधीशों की नियुक्ति को दलगत राजनीति से मुक्त रखा जाना: भारत के संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में विधायिका की सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे यह सुनिश्चित किया गया कि इन नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका नहीं रहे।

2. न्यायाधीशों की नियुक्ति का आधार योग्यता: न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए। उसे व्यक्ति के राजनीतिक विचार या निष्ठाओं को नियुक्ति का आधार नहीं बनाया गया है।

3. न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मन्त्रिपरिषद् की सम्मिलित भूमिक:
संविधान में कहा गया है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति वह सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से करेगा। इस प्रकार संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति में मन्त्रिपरिषद् को महत्त्व दिया गया था; लेकिन न्यायाधीशों की नियुक्ति में मंत्रिपरिषद् के बढ़ते हस्तक्षेप को देखते हुए अब सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्तियों की सिफारिश के सम्बन्ध में सामूहिकता का सिद्धान्त स्थापित किया है। इससे मन्त्रिपरिषद् का हस्तक्षेप कम हो गया है।

4. निश्चित कार्यकाल: भारत में न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है। वे सेवानिवृत्त होने तक पद पर बने रहते हैं। केवल अपवादस्वरूप, विशेष स्थितियों में, महाभियोग द्वारा ही न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है।

5. वित्तीय निर्भरता नहीं: न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है।

6. आलोचना से मुक्ति: न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अगर कोई न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है, तो न्यायपालिका को उसे दण्डित करने का अधिकार है।

प्रश्न 17.
सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसकी सेवानिवृत्ति की आयु से पूर्व किस प्रकार हटाया जा सकता है? क्या भारत में किसी न्यायाधीश को महाभियोग द्वारा हटाया गया है?
उत्तर:
न्यायाधीशों को पद से हटाना: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना काफी कठिन है। केवल संसद महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर किसी न्यायाधीश को उसकी सेवानिवृत्ति की आयु से पूर्व पद से हटा सकती है।

महाभियोग की प्रक्रिया: किसी भी न्यायाधीश को उसके सिद्ध कदाचार अथवा अक्षमता के आधार पर पद से हटाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में दोनों सदन पृथक्-पृथक् सदन की समस्त संख्या के बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इस प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद छोड़ने का आदेश देता है।

अब तक भारतीय संसद के पास किसी न्यायाधीश को हटाने का केवल एक प्रस्ताव विचार के लिए आया है। इस मामले में हालांकि दो-तिहाई सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया, लेकिन न्यायाधीश को हटाया नहीं जा सका क्योंकि प्रस्ताव पर सदन की कुल सदस्य संख्या का बहुमत प्राप्त न हो सका ।

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प्रश्न 18.
भारत के उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारत के उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार निम्नलिखित हैं।
1. मौलिक क्षेत्राधिकार:
वे मुकदमे जो सर्वोच्च न्यायालय में सीधे ले जाए जा सकते हैं, उसके प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे मुकदमे दो प्रकार के हैं। एक वे, जो केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं। संघ तथा राज्यों के बीच या राज्यों के आपसी विवाद इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। दूसरे वे विवाद हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय के अतिरिक्त उच्च न्यायालयों में भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इस श्रेणी के अन्तर्गत नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन सम्बन्धी विवाद आते हैं। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ रिट, जैसे- बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध आदि जारी कर सकता है।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार:
कुछ मुकदमे सर्वोच्च न्यायालय के पास उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील के रूप में आते हैं। ये अपीलें संवैधानिक, दीवानी तथा फौजदारी तीनों प्रकार के मुकदमों में सुनी जा सकती हैं।

3. सलाहकारी क्षेत्राधिकार: भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए भेज सकता है। लेकिन न तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी विषय पर सलाह देने के लिए बाध्य है और न ही राष्ट्रपति न्यायालय की सलाह मानने को।

प्रश्न 19.
जनहित याचिका क्या है? कब और कैसे इसकी शुरुआत हुई?
उत्तर:
जनहित याचिका का प्रारम्भ-कानून की सामान्य प्रक्रिया में कोई व्यक्ति तभी अदालत जा सकता है, जब उसका कोई व्यक्तिगत नुकसान हुआ हो। इसका अर्थ यह है कि अपने अधिकार का उल्लंघन होने पर या किसी विवाद में फँसने पर कोई व्यक्ति न्याय पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। 1979 में इस अवधारणा में परिवर्तन आया। 1979 में न्यायालय ने एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया जिसे पीड़ित लोगों ने नहीं बल्कि उनकी ओर से दूसरों ने दाखिल किया।

1979 में समाचार-पत्रों में विचाराधीन कैदियों के बारे में यह खबर छपी कि यदि उन्हें सजा भी दी गई होती तो उतनी अवधि की नहीं होती जितनी अवधि उन्होंने जेल में विचाराधीन होते हुए काट ली है। इस खबर को आधार बनाकर एक वकील ने एक याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय ने यह याचिका स्वीकार कर ली। सर्वोच्च न्यायालय में यह मुकदमा चला। यह याचिका जनहित याचिका के रूप में प्रसिद्ध हुई । इस प्रकार 1979 से इसकी शुरुआत सर्वोच्च न्यायालय ने की। बाद में इसी प्रकार के अन्य अनेक मुकदमों को जनहित याचिकाओं का नाम दिया गया।

प्रश्न 20.
जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता की न्यायालय की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जनहित याचिकाएँ न्यायिक सक्रियता का प्रभावी साधन सिद्ध हुई हैं। इस सम्बन्ध में न्यायालय की भूमिका निम्न रूपों में प्रकट हुई है।
1. पीड़ित लोगों के हित के लिए दूसरे लोगों की याचिकाओं को स्वीकार करना:
सबसे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने पीड़ित लोगों की ओर से दूसरे लोगों द्वारा की गई याचिकाओं को स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया । ऐसी याचिकाओं को जनहित याचिकाएँ कहा गया। 1979 के बाद से ऐसे मुकदमों की बाढ़ सी आ गयी जिनमें जनसेवा की भावना रखने वाले नागरिकों एवं स्वयंसेवी संगठनों ने अधिकारों की रक्षा, गरीबों के जीवन को और बेहतर बनाने, पर्यावरण की सुरक्षा और लोकहित से जुड़े अनेक मुद्दों पर न्यायपालिका से हस्तक्षेप की माँग की गई।

2. न्यायिक सक्रियता:
किसी के द्वारा मुकदमा करने पर उस मुद्दे पर विचार करने के साथ-साथ न्यायालय ने अखबार में छपी खबरों और डाक से शिकायतों को आधार बनाकर उन पर भी विचार करना शुरू कर दिया। न्यायपालिका की यह नई भूमिका न्यायिक सक्रियता के रूप में लोकप्रिय हुई।

3. समाज के जरूरतमंद और गरीब लोगों की ओर से सामाजिक संगठनों व वकीलों की याचिकाएँ स्वीकार करना:
1980 के बाद से न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिकाओं के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए न्यायालय ने जनसेवा की भावना से भरे नागरिक, सामाजिक संगठन और वकीलों को जरूरतमंद तथा गरीब लोगों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की इजाजत दी। प्रभाव

  1. इसने न्यायालयों के अधिकारों का दायरा बढ़ा दिया।
  2. इससे विभिन्न समूहों को भी अदालत जाने का अवसर मिला।
  3. इसने न्याय व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाया तथा कार्यपालिका उत्तरदायी बनने पर बाध्य हुई।
  4. लेकिन इससे न्यायालयों पर काम का बोझ भी पड़ा तथा सरकार के तीनों अंगों के कार्यों के बीच का अन्तर धुँधला गया।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
उच्चतम न्यायालय के गठन, क्षेत्राधिकारों एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संरचना, शक्तियों और भूमिका की विवेचना कीजिए। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का संगठन (संरचना)
उत्तर:
संविधान के अनुसार भारत में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। सर्वोच्च न्यायालय भारत का सर्वोच्च न्यायालय है। शेष सभी न्यायालय इसके अधीन हैं। इसके फैसले भारतीय भू-भाग के अन्य सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी हैं तथा इसके द्वारा दिये गये निर्णय सम्पूर्ण देश में लागू होते हैं। इसके संगठन का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है।
1. न्यायाधीशों की संख्या: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या समय- समय पर बदलती रही है वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश कार्यरत हैं।

2. योग्यताएँ: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने के लिए संविधान में निम्न योग्यताएँ निर्धारित की हैं।

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह कम-से-कम 5 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुका हो।

वह कम-से-कम 10 वर्ष तक किसी एक उच्च न्यायालय या लगातार दो या दो से अधिक न्यायालयों में एडवोकेट रह चुका हो। राष्ट्रपति के विचार में वह कानून का ज्ञाता हो। या

3. कार्यकाल: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष तक की आयु तक रह सकते हैं। इससे पूर्व भी वह त्याग-पत्र दे सकते हैं।

4. नियुक्ति: सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। सामान्यतः राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त करता है। सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सलाह से प्रस्तावित नामों में से की जाती है।

5. न्यायाधीशों को पद से हटाना: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को संसद सिद्ध कदाचार अथवा अक्षमता के आधार पर मतदान करने वाले सदस्यों के पृथक्-पृथक् सदन द्वारा 2/3 बहुमत तथा कुल सदस्य संख्या के बहुमत से महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर हटा सकती है। ऐसा प्रस्ताव पारित कर संसद राष्ट्रपति को भेजता है और राष्ट्रपति तब उसे पद से हटा सकता है।

6. वेतन-भत्ते: सर्वोच्च न्यायालय के वेतन-भत्ते समय-समय पर विधि द्वारा निर्धारित किये जाते रहते हैं। लेकिन संविधान के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते के लिए विधायिका की स्वीकृति नहीं की जायेगी। इसके अतिरिक्त उन्हें वाहन भत्ता तथा रहने के लिए मुफ्त सरकारी मकान भी प्राप्त होता है। केवल वित्तीय संकट के काल को छोड़कर और किसी भी स्थिति में न्यायाधीशों के वेतन व भत्ते में कटौती नहीं की जा सकती।

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार एवं शक्तियाँ भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली न्यायालयों में से एक है। लेकिन वह संविधान द्वारा तय की गई सीमा के अन्दर ही काम करता है। सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है

1. प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

  • मौलिक क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय का मौलिक प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत वे विवाद आते हैं जो केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही सुने जा सकते हैं। यथा
    1. यदि दो या दो से अधिक राज्य सरकारों के मध्य आपस में कोई विवाद उत्पन्न हो जाये तो वह मुकदमा केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही सुना जायेगा ।
    2. यदि किसी विषय पर केन्द्रीय सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच कोई मतभेद उत्पन्न हो जाए तो वह मुकदमा भी सीधा सर्वोच्च न्यायालय में ही पेश किया जायेगा ।
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा से सम्बन्धित प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार – इसके अन्तर्गत मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय कहीं भी प्रारम्भ किया जा सकता है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर कोई भी व्यक्ति न्याय पाने के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है । सर्वोच्च न्यायालय अपने विशेष आदेश रिट के रूप में दे सकता है। इन रिटों के माध्यम से न्यायालय कार्यपालिका को कुछ करने या न करने का आदेश दे सकता है ।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय भारत का अन्तिम अपीलीय न्यायालय है। यह उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुन सकता है। सर्वोच्च न्यायालय में निम्नलिखित तीन प्रकार की अपीलें स्वीकार की जाती. हैं।

  • संवैधानिक विषय से सम्बन्धित मुकदमे: यदि उच्च न्यायालय एक प्रमाण-पत्र दे दे कि उसके विचारानुसार किसी मुकदमे में संविधान के किसी अनुच्छेद की व्याख्या सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्न अन्तर्निहित है तो ऐसे मुकदमों की अपील सर्वोच्च न्यायालय सुन सकता है।
  • दीवानी अपीलीय क्षेत्राधिकार: दीवानी मुकदमे सम्पत्ति सम्बन्धी होते हैं। उच्च न्यायालयों द्वारा दीवानी मुकदमों में दिये गए निर्णयों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। लेकिन यह अपील केवल उन्हीं निर्णयों के विरुद्ध की जा सकती है जिनमें सार्वजनिक महत्त्व का कोई कानूनी प्रश्न अन्तर्निहित हो और जिसकी व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जानी आवश्यक है।
  • फौजदारी अपीलीय क्षेत्राधिकार: सर्वोच्च न्यायालय निम्न प्रकार के फौजदारी मुकदमों की अपीलें सुन सकता है।

(अ) उच्च न्यायालय ने निम्न न्यायालय से मुकदमा अपने पास मँगाकर अपराधी को मृत्यु – दण्ड दिया हो। जब उच्च न्यायालय ने किसी ऐसे अपराधी को मृत्यु – दण्ड दिया हो जिसे निम्न न्यायालय ने बरी कर दिया

(स) जब उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि किसी मामले के सम्बन्ध में कोई अपील सर्वोच्च न्यायालय के सुने जाने के योग्य है। अपीलीय क्षेत्राधिकार से अभिप्राय यह है कि सर्वोच्च न्यायालय पूरे मुकदमे पर पुनर्विचार करेगा और उसके कानूनी मुद्दों की जाँच करेगा । यदि न्यायालय को लगता है कि कानून या संविधान का अर्थ वह नहीं है जो निचली अदालतों ने समझा तो सर्वोच्च न्यायालय उनके निर्णय को बदल सकता है तथा इसके साथ उन प्रावधानों की नई व्याख्या भी दे सकता है

3. सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार: मौलिक और अपीली क्षेत्राधिकार के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय का सलाह सम्बन्धी क्षेत्राधिकार भी है। इसके अनुसार भारत का राष्ट्रपति लोकहित या संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित किसी विषय को सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्श के लिए भेज सकता है। लेकिन न तो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे किसी विषय पर सलाह देने के लिए बाध्य है और न ही राष्ट्रपति न्यायालय की सलाह मानने के लिए बाध्य है।

4. संविधान के व्याख्याता के रूप में: संविधान के किसी भी अनुच्छेद के सम्बन्ध में व्याख्या करने का अन्तिम अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है कि संविधान के किसी अनुच्छेद का सही अर्थ क्या है।

5. अभिलेख न्यायालय: सर्वोच्च न्यायालय को संविधान द्वारा अभिलेख न्यायालय बनाया गया है। अभिलेख न्यायालय का अर्थ ऐसे न्यायालय से है जिसके निर्णय सभी न्यायालयों को मानने पड़ते हैं तथा उसके निर्णय अन्य न्यायालयों में नजीर के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं। इस न्यायालय को अपनी अवमानना के लिए किसी को भी दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।

6. न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार: सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार के अन्तर्गत व्यवस्थापिका के उन कानूनों को और कार्यपालिका के उन आदेशों को अवैध घोषित कर सकता है जो कि संविधान के विरुद्ध हों।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 2.
भारत की न्यायपालिका की संरचना पर एक लेख लिखिए।
उत्तर:
भारतीय न्यायपालिका की संरचना: भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है। इसका अर्थ यह है कि विश्व के अन्य संघीय देशों के विपरीत भारत में अलग से प्रान्तीय स्तर के न्यायालय नहीं हैं। भारत में न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय हैं। नीचे के न्यायालय अपने ऊपर के न्यायालयों की देखरेख में कार्य करते हैं। यथा

1. सर्वोच्च न्यायालय: भारत में सर्वोच्च न्यायालय देश का सबसे ऊपर का न्यायालय है। इसके फैसले सभी अदालतों को मानने पड़ते हैं। यह उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का तबादला कर सकता है। यह किसी अदालत का मुकदमा अपने पास मँगवा सकता है। यह किसी भी उच्च न्यायालय में चल रहे मुकदमे को दूसरे उच्च न्यायालय में भिजवा सकता है। यह उच्च न्यायालयों के फ़ैसलों पर की गई अपील की सुनवाई कर सकता है।

2. उच्च न्यायालय: उच्च न्यायालय प्रत्येक राज्य का सर्वोच्च न्यायालय है। इसके निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती हैं। इसके अन्य प्रमुख कार्य ये हैं। ये हैं।

  • यह निचली अदालतों के फैसलों पर की गई अपील की सुनवाई कर सकता है।
  • यह मौलिक अधिकारों को बहाल करने के लिए रिट जारी कर सकता है।
  • यह राज्य के क्षेत्राधिकार में आने वाले मुकदमों का निपटारा करता है।
  • यह अधीनस्थ अदालतों का पर्यवेक्षण तथा नियन्त्रण करता है।

3. जिला अदालतें: प्रत्येक उच्च न्यायालय के अधीन जिला न्यायालय आते हैं। जिला अदालतों के प्रमुख कार्य

  • जिला अदालत जिले में दायर मुकदमों की सुनवाई करती है।
  • यह निचली अदालतों के फैसले पर की गई अपील की सुनवाई करती है।
  •  यह गम्भीर किस्म के आपराधिक मामलों पर फैसला देती है।

4. अधीनस्थ अदालतें: जिला अदालतों के अधीन न्यायालयों को अधीनस्थ अदालतें कहा गया है। ये अदालतें फौजदारी और दीवानी मुकदमों पर विचार करती हैं।

प्रश्न 3.
भारत में सर्वोच्च न्यायालय और संसद के सम्बन्धों पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर
सर्वोच्च न्यायालय और संसद के मध्य सम्बन्ध: सरकार के तीन अंग होते हैं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इन तीनों अंगों में परस्पर सहयोग और आपसी सूझ-बूझ आवश्यक है ताकि देश का शासन सुचारु रूप से चलाया जा सके। लेकिन भारत में समय-समय पर न्यायपालिका और संसद के सम्बन्धों में किसी न किसी कारण से तनाव उत्पन्न होता रहा है। यथा

1. सम्पत्ति के अधिकार के सम्बन्ध में टकराव:
संविधान के लागू होने के तुरन्त बाद सम्पत्ति के अधिकार पर रोक लगाने की संसद की शक्ति पर दोनों के मध्य विवाद उत्पन्न हो गया । संसद सम्पत्ति रखने के अधिकार पर कुछ प्रतिबंध लगाना चाहती थी जिससे भूमि सुधारों को लागू किया जा सके। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती। संसद ने तब संविधान संशोधन का प्रयास किया। लेकिन न्यायालय ने कहा कि संशोधन के द्वारा भी मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता अर्थात् संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती। इस प्रकार संसद और न्यायपालिका के बीच विवाद के निम्नलिखित मुद्दे उभरे।

  • निजी सम्पत्ति के अधिकार का दायरा क्या है?
  • मौलिक अधिकारों को सीमित, प्रतिबंधित और समाप्त करने की संसद की शक्ति का दायरा क्या है?
  • संसद द्वारा संविधान संशोधन की शक्ति का दायरा क्या है?
  • क्या संसद नीति निर्देशक तत्त्वों को लागू करने के लिए ऐसे कानून बना सकती है जो मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करें?

1967 से 1973 के बीच यह विवाद काफी गहरा गया। भूमि सुधार कानूनों के अतिरिक्त निवारक नजरबंदी कानून, नौकरियों में आरक्षण सम्बन्धी कानून, निजी सम्पत्ति के अधिग्रहण सम्बन्धी नियम और अधिग्रहीत निजी सम्पत्ति के मुआवजे सम्बन्धी कानून आदि पर संसद और सर्वोच्च न्यायालय के बीच विवाद उठे। केशवानन्द भारती मुकदमा 1973 का निर्णय – 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय दिया जो संसद और न्यायपालिका के संबंधों के निर्धारण में बहुत महत्त्वपूर्ण बना। यह निर्णय केशवानंद भारती मुकदमे का निर्णय है। इस मुकदमे में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि।

  • संविधान का एक मूल ढांचा है और संसद सहित कोई भी उस मूल ढांचे से छेड़-छाड़ नहीं कर सकता। संसद संविधान संशोधन द्वारा भी इस मूल ढाँचे को नहीं बदल सकती। है।
  • सम्पत्ति का मूल अधिकार मूल ढाँचे का हिस्सा नहीं है और इसलिए उस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता।
  • कोई मुद्दा मूल ढाँचे का भाग है या नहीं इसका निर्णय सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर संविधान की व्याख्या के तहत करेगी।

इस निर्णय से संसद और सर्वोच्च न्यायालय के बीच के विवादों की प्रकृति में परिवर्तन आ गया। क्योंकि संसद ने संविधान संशोधन कर 1979 में सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया।

2. विवाद के वर्तमान मुद्दे: वर्तमान में दोनों दलों के बीच विवाद के निम्न मुद्दे बने हुए हैं।
(i) क्या न्यायपालिका विधायिका की कार्यवाही का नियमन और उसमें हस्तक्षेप कर उसे नियंत्रित कर सकती है? संसदीय व्यवस्था में संसद को अपना संचालन स्वयं करने तथा अपने सदस्यों का व्यवहार नियंत्रित करने की शक्ति है। संसदीय व्यवस्था में विधायिका को विशेषाधिकार के हनन का दोषी पाए जाने पर अपने सदस्य को दंडित करने का अधिकार है।

जो व्यक्ति विधायिका के विशेषाधिकार हनन का दोषी हो क्या वह न्यायपालिका की शरण ले सकता है? सदन के किसी सदस्य के विरुद्ध स्वयं सदन द्वारा कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है तो क्या वह सदस्य न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है? ये मुद्दे अभी भी दोनों के बीच विवाद का विषय बने हुए हैं।

(ii) अनेक अवसरों पर संसद में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली उठाई गई और इसी प्रकार न्यायपालिका ने अनेक अवसरों पर विधायिका की आलोचना की तथा उसे विधायी कार्यों के सम्बन्ध में निर्देश दिए हैं। इन विवादों में न्यायपालिका का मत है कि संसद में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली नहीं उठायी जानी चाहिए और संसद न्यायपालिका के विधायी निर्देशों को संसदीय संप्रभुता के सिद्धान्त का उल्लंघन मानती है। लोकतंत्र में सरकार के दोनों अंगों के एक दूसरे की सत्ता के प्रति सम्मान करते हुए आचरण किये जाने की आवश्यकता है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 4.
भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार क्या है? सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन की भूमिका की संक्षिप्त विवेचना कीजिए। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के महत्त्व को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन से आशय:
न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है और यदि वह संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है।
संविधान में कहीं भी न्यायिक पुनरावलोकन शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है लेकिन संविधान मुख्यतः ऐसी दो विधियों का उल्लेख करता है जहाँ सर्वोच्च न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है। यथा

  1. मूल अधिकारों की रक्षा करना: मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है।
  2. केन्द्र-राज्य या राज्यों के परस्पर विवाद को निपटारे के लिए: संघीय सम्बन्धों के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
  3. इसके अतिरिक्त संविधान यदि किसी बात पर मौन है या किसी शब्द या अनुच्छेद के विषय में अस्पष्टता है तो वह संविधान का अर्थों को स्पष्टीकरण हेतु इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत सर्वोच्च न्यायालय किसी कानून को गैर-संवैधानिक घोषित कर उसे लागू होने से रोक सकता है। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति राज्यों की विधायिका द्वारा बनाए कानूनों पर भी लागू होती है। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति द्वारा न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों की और संविधान की व्याख्या कर सकती है। इसके द्वारा न्यायपालिका प्रभावी ढंग से संविधान और नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करती है

न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग: जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति में विस्तार हुआ है।
1. मूल अधिकार के क्षेत्र में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का विस्तार:
उदाहरण के लिए बन्धुआ मजदूर, बाल-श्रमिक अपने शोषण के विरुद्ध अधिकार के उल्लंघन की याचिका स्वयं न्यायपालिका में दायर करने में सक्षम नहीं थे। परिणामतः न्यायालय द्वारा पहले इनके अधिकारों की रक्षा करना सम्भव नहीं हो पा रहा था।

लेकिन न्यायिक सक्रियता व जनहित याचिकाओं के माध्यम से न्यायालय में ऐसे केस दूसरे लोगों, स्वयंसेवी संस्थाओं ने उठाये या स्वयं न्यायालय ने अखबार में छपी घटनाओं के आधार पर स्वयं प्रसंज्ञान लेते हुए ऐसे मुद्दों पर विचार किया। इस प्रवृत्ति ने गरीब और पिछड़े वर्ग के लोगों के अधिकारों को अर्थपूर्ण बना दिया है।

2. कार्यपालिका के कृत्यों के विरुद्ध जाँच:
न्यायपालिका ने कार्यपालिका की राजनैतिक व्यवहार बर्ताव के प्रति संविधान के उल्लंघन की प्रवृत्ति पर भी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति द्वारा अंकुश लगाया है। इसी कारण जो विषय पहले न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में नहीं थे, उन्हें भी अब इस दायरे में ले लिया गया है, जैसे राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियाँ।

अनेक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश दिए हैं, जैसे हवाला मामले, पैट्रोल पम्पों के अवैध आबण्टन जैसे अनेक मामलों में न्यायालय ने सी.बी.आई. को निर्देश दिया कि वह राजनेताओं और नौकरशाहों के विरुद्ध जाँच करे।

3. संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धान्त का प्रतिपादन:
संविधान लागू होने के तुरन्त बाद सम्पत्ति के अधिकार पर रोक लगाने की संसद की शक्ति पर संसद और न्यायपालिका में विवाद खड़ा हो गया। संसद सम्पत्ति रखने के अधिकार पर कुछ प्रतिबन्ध लगाना चाहती थी जिससे भूमि सुधारों को लागू किया जा सके।

लेकिन न्यायालय ने न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के तहत यह निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती। संसद ने तब संविधान संशोधन कर ऐसा करने का प्रयास किया। लेकिन न्यायालय ने 1967 में गोलकनाथ विवाद में यह निर्णय दिया कि संविधान के संशोधन के द्वारा भी मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता।

फलतः संसद और न्यायपालिका के बीच यह मुद्दा केन्द्र में आया कि “संसद द्वारा संविधान संशोधनक शक्ति का दायरा क्या है।” इस मुद्दे का निपटारा सन् 1973 में केशवानन्द भारती के विवाद में सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से हुआ कि संविधान का एक मूल ढाँचा है और संसद उस मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती। संविधान संशोधन द्वारा भी इस मूल ढाँचे को नहीं बदला जा सकता तथा संविधान का मूल ढाँचा क्या है? यह निर्णय करने का अधिकार न्यायालय ने अपने पास रखा है।

इस प्रकार संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर न्यायपालिका ने अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति को व्यापक कर दिया है। साथ ही इस निर्णय में न्यायपालिका ने सम्पत्ति के अधिकार को संविधान का मूल ढाँचा नहीं माना है तथा संसद को उसमें संशोधन के अधिकार को स्वीकार कर लिया है।

न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का महत्त्व: न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के महत्त्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है।
1. लिखित संविधान की व्याख्या हेतु आवश्यक:
भारत का संविधान एक लिखित संविधान है। लिखित संविधान की शब्दावली कहीं-कहीं अस्पष्ट और उलझी हो सकती है। उसकी व्याख्या के लिए न्यायालय के पास उसकी व्याख्या की शक्ति आवश्यक है।

2. संघात्मक संविधान:
भारत का संविधान एक संघीय संविधान है जिसमें केन्द्र और राज्यों को संविधान द्वारा विभाजित किया गया है। लेकिन यदि केन्द्र और राज्य अपने क्षेत्रों विषयों की सीमाओं का उल्लंघन करें तो कार्य- संचालन मुश्किल हो जायेगा। इसलिए केन्द्र और राज्यों तथा राज्यों के बीच समय-समय पर उठने वाले विवादों का समाधान न्यायपालिका ही कर सकती है। इसलिए ऐसे विवादों के समाधान की दृष्टि से न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति अत्यन्त उपयोगी है।

3. संविधान व मूल अधिकारों की रक्षा:
न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की रक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इसी कार्य के तहत उसने ‘संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया है। साथ ही उसने समय समय पर नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा की है तथा ऐसे कानूनों को असंवैधानिक घोषित किया है जो मूल अधिकारों के विरुद्ध हैं। यही नहीं, न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के अन्तर्गत ही उसने नागरिकों के मूल अधिकारों को अर्थपूर्ण भी बनाया है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका 

Jharkhand Board JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका Important Questions and Answers.

JAC Board Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका

बहुविकल्पीय प्रश्न

1. निम्नलिखित में कौनसा कथन असत्य है?
(क) भारत में लोकसभा और विधानसभाएँ प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित होती हैं।
(ख) भारत में संसद प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित है।
(ग) भारत में लोकसभा के पास कार्यपालिका को हटाने की शक्ति है।
(घ) विधायिका जन – प्रतिनिधियों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है।
उत्तर:
(ख) भारत में संसद प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित है।

2. निम्नलिखित में किस प्रान्त में द्विसदनात्मक विधानमण्डल नहीं है।
(क) राजस्थान
(ख) बिहार
(ग) महाराष्ट्र
(घ) उत्तरप्रदेश
उत्तर:
(क) राजस्थान

3. राज्य सभा के सदस्यों का कार्यकाल है।
(क) 5 वर्ष
(ख) 4 वर्ष
(ग) 6 वर्ष
(घ) 8 वर्ष
उत्तर:
(ग) 6 वर्ष

4. राज्यसभा के 12 सदस्यों को मनोनीत किया जाता है।
(क) प्रधानमंत्री द्वारा
(ख) सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा
(ग) उपराष्ट्रपति द्वारा
(घ) राष्ट्रपति द्वारा
उत्तर:
(घ) राष्ट्रपति द्वारा

5. निम्नलिखित में से कौनसी शक्ति ऐसी हैं जो लोकसभा के पास है, लेकिन विधानसभा के पास नहीं हैं।
(क) सामान्य विधेयकों को पारित करने की शक्ति
(ख) संवैधानिक विधेयकों के पारित करने की शक्ति
(ग) धन विधेयक प्रस्तुत किये जाने की शक्ति
(घ) राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने की शक्ति।
उत्तर:
(ग) धन विधेयक प्रस्तुत किये जाने की शक्ति

6. निम्नलिखित में ऐसी कौनसी शक्ति है जो राज्यसभा के पास तो है, लेकिन लोकसभा के पास नहीं।
(क) राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रहित में संघीय सूची या समवर्ती सूची में हस्तांतरित करने की शक्ति
(ख) धन विधेयक प्रस्तुत करने की शक्ति
(ग) संविधान संशोधन की शक्ति
(घ) सामान्य विधेयक पारित करने की शक्ति।
उत्तर:
(क) राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रहित में संघीय सूची या समवर्ती सूची में हस्तांतरित करने की शक्ति

7. संसद द्वारा कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने का सबसे सशक्त हथियार है।
(क) वित्तीय नियंत्रण
(ख) बहस और वाद-विवाद
(ग) स्थगन प्रस्ताव
(घ) अविश्वास प्रस्ताव
उत्तर:
(घ) अविश्वास प्रस्ताव

8. वर्तमान में लोकसभा के कुल निर्वाचन क्षेत्र हैं।
(क) 550
(ख) 500
(ग) 530
(घ) 543
उत्तर:
(घ) 543

9. लोकसभा की सदस्य होने के लिए निम्नतम आयु सीमा है।
(क) 18 वर्ष
(ख) 21 वर्ष
(ग) 1 वर्ष
(घ) 6 माह
उत्तर:
(ग) 1 वर्ष

10. संसद के दो अधिवेशनों के बीच अधिकतम समयान्तर होता है।
(क) 3 मास
(ख) 5 मास
(ग) 25 वर्ष
(घ) 35 वर्ष
उत्तर:
(घ) 35 वर्ष

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

1. हमारी राष्ट्रीय विधायिका का नाम ………………… है।
उत्तर:
संसद

2. ……………….. हमारी संसद का स्थायी सदन है।
उत्तर:
राज्य सभा

3. संसद द्वारा कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने का सबसे सशक्त हथियार …………………. है।
उत्तर:
अविश्वास प्रस्ताव

4. सदन का ……………… विधायिका की कार्यवाही के मामले में सर्वोच्च अधिकारी होता है।
उत्तर:
अध्यक्ष

5. राज्य सभा के ……………… सदस्यों को वर्ष के लिए निर्वाचित किया जाता है।
उत्तर:
6.

निम्नलिखित में से सत्य / असत्य कथन छाँटिये-

1. विधायिका प्रतिनिधिक लोकतंत्र का आधार है।
उत्तर:
सत्य

2. भारत के राजस्थान राज्य की विधायिका द्विसदनात्मक है।
उत्तर:
असत्य

3. भारत के उत्तरप्रदेश राज्य की विधायिका एकसदनीय है।
उत्तर:
असत्य

4. राज्य विधान सभा के निर्वाचित सदस्य राज्य सभा के सदस्यों को चुनते हैं।
उत्तर:
सत्य

5. निर्वाचित सदस्यों के अतिरिक्त लोकसभा में 12 मनोनीत सदस्य होते हैं।
उत्तर:
असत्य

6. सदन का अध्यक्ष दलबदल से संबंधित विवादों पर अंतिम निर्णय लेता है।
उत्तर:
सत्य

निम्नलिखित स्तंभों के सही जोड़े बनाइये।

1. फेडरल एसेंबली और फेडरल कौंसिल (क) भारतीय संसद के दोनों सदन
2. लोकसभा और राज्य सभा (ख) लोकसभा संजीव पास बुक्स
3. सीनेट (ग) सदन का अध्यक्ष
4. धन विधेयक प्रस्तुत करना (घ) अमेरिका का द्वितीय सदन
5. विधायिका की कार्यवाही के मामले में सर्वोच्च अधिकारी (च) जर्मनी की विधायिका के दोनों सदन

उत्तर:

1. फेडरल एसेंबली और फेडरल कौंसिल (च) जर्मनी की विधायिका के दोनों सदन
2. लोकसभा और राज्य सभा (क) भारतीय संसद के दोनों सदन
3. सीनेट (घ) अमेरिका का द्वितीय सदन
4. धन विधेयक प्रस्तुत करना (ख) लोकसभा संजीव पास बुक्स
5. विधायिका की कार्यवाही के मामले में सर्वोच्च अधिकारी (ग) सदन का अध्यक्ष


अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका किसे कहते हैं?
(क) भारतीय संसद के दोनों सदन
(घ) अमेरिका का द्वितीय सदन
(ख) लोकसभा
(ग) सदन का अध्यक्ष
उत्तर:
जब कभी विधायिका में दो सदन होते हैं, तो उसे द्वि- सदनात्मक व्यवस्थापिका कहते हैं?

प्रश्न 2.
भारतीय संसद के दोनों सदनों के नाम लिखिये।
उत्तर:
भारतीय संसद के दोनों सदनों के नाम ये हैं।

  1. लोकसभा और
  2. राज्य सभा।

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प्रश्न 3.
भारत के कितने राज्यों में द्विसदनात्मक विधायिका है? उनके नाम लिखिये।
उत्तर:
भारत के 6 राज्यों में द्विसदनात्मक विधायिका है। ये राज्य हैं।

  1. बिहार
  2. आंध्रप्रदेश
  3. कर्नाटक
  4. महाराष्ट्र,
  5. उत्तरप्रदेश और
  6. तेलंगाना।

प्रश्न 4.
द्विसदनात्मक विधायिका के कोई दो लाभ लिखिये।
उत्तर;

  1. दूसरा सदन समाज के सभी वर्गों तथा देश के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है।
  2. संसद के प्रत्येक निर्णय पर दूसरे सदन में पुनर्विचार हो जाता है।

प्रश्न 5.
राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन किस विधि से होता है?
उत्तर:
राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों के निर्वाचन मण्डल द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 6.
राज्यसभा में राज्यों के प्रतिनिधित्व का आधार क्या है?
उत्तर:
राज्यसभा में राज्यों के प्रतिनिधित्व का आधार प्रत्येक राज्य की जनसंख्या है अर्थात् ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों को ज्यादा और कम जनसंख्या वाले राज्यों को कम प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।

प्रश्न 7.
संविधान की किस सूची में प्रत्येक राज्य से राज्यसभा के लिए निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या निर्धारित कर दी गई है?
उत्तर:
संविधान की चौथी अनुसूची में राज्यसभा में प्रत्येक राज्य से निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या निर्धारित कर दी गई है।

प्रश्न 8.
राज्यसभा में राष्ट्रपति किन और कितने सदस्यों को मनोनीत करता है?
उत्तर:
राज्यसभा में राष्ट्रपति साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष उपलब्धि प्राप्त 12 व्यक्तियों को मनोनीत करता है।

प्रश्न 9.
दल-बदल क्या है?
उत्तर:
यदि कोई सदस्य अपने दल के नेतृत्व के आदेश के बावजूद सदन में उपस्थित न हो या दल के निर्देशों के विपरीत सदन में मतदान करे तो उसे दल-बदल कहते हैं।

प्रश्न 10.
संसद के किन्हीं दो कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संसद के दो प्रमुख कार्य ये हैं।

  1. विधि निर्माण
  2. कार्यपालिका पर नियंत्रण तथा उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना।

प्रश्न 11.
संसदीय समितियों को ‘लघु विधायिका’ क्यों कहते हैं?
उत्तर:
संसदीय समितियों में सभी संसदीय दलों को प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। इसी कारण इन समितियों को ‘लघु विधायिका’ भी कहते हैं।

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प्रश्न 12.
संसदीय लोकतंत्र किस स्थिति में ‘मंत्रिमण्डल की तानाशाही’ में बदल सकता है?
उत्तर:
जब बहुमत की ताकत पाकर कार्यपालिका अपनी शक्तियों का मनमाना प्रयोग करने लगे तो ऐसी स्थिति में संसदीय लोकतंत्र मंत्रिमण्डल की तानाशाही में बदल सकता है।

प्रश्न 13.
सरकारी विधेयक किसे कहते हैं?
उत्तर:
मंत्री द्वारा प्रस्तुत विधेयक को सरकारी विधेयक कहते हैं।

प्रश्न 14.
निजी विधेयक किसे कहते हैं?
उत्तर:
मंत्री के अतिरिक्त किसी और सदस्य द्वारा प्रस्तुत विधेयक को निजी विधेयक कहते हैं।

प्रश्न 15.
संसदीय विशेषाधिकार किसे कहते हैं?
उत्तर:
संसद में सांसदों को प्रभावी और निर्भीक रूप से काम करने की शक्ति और स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए जो विशेष अधिकार प्रदान किये जाते हैं, उन्हें संसदीय विशेषाधिकार कहते हैं।

प्रश्न 16.
विधायिका द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण के कोई दो तरीके लिखिये।
उत्तर:
अविश्वास प्रस्ताव , वित्तीय नियंत्रण

प्रश्न 17.
द्वितीय सदन के विरुद्ध कोई दो तर्क दीजिये।
उत्तर:

  1. द्वितीय सदन के कारण प्राय: विधि निर्माण में देरी होती है।
  2. द्वितीय सदन से देश के धन की बर्बादी होती है।

प्रश्न 18.
द्विसदनीय विधायिका में दूसरा सदन किस प्रकार स्थायी बनता है?
उत्तर:

  1. द्वितीय सदन कार्यपालिका या राज्य के प्रमुख द्वारा भंग नहीं किया जा सकता, जबकि प्रथम (निम्न ) सदन भंग किया जा सकता है।
  2. द्वितीय सदन के सभी सदस्य प्रायः एक साथ ही एक बार में निर्वाचित नहीं होते। जैसे कि भारत में राज्य सभा के 1/3 सदस्य ही प्रति दो वर्ष बाद निर्वाचित किये जाते हैं।

प्रश्न 19.
किन परिस्थितियों में संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जा सकता है?
उत्तर:

  1. दोनों सदनों के विवादों को हल करने के लिए।
  2. किसी विधेयक को एक सदन पारित कर दे और दूसरा अस्वीकृत कर दे।

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प्रश्न 20.
विधायिका के अध्यक्ष पद के कोई दो कार्य बताइये।
उत्तर:

  1. अध्यक्ष सदन की सभाओं की अध्यक्षता करता है तथा नियमानुसार इसके कार्य को संचालित करता है।
  2. वह सदन में अनुशासन बनाए रखता है तथा संवैधानिक तरीके से वाद-विवाद तथा विचार-विमर्श को जारी रखता है।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
स्थगन प्रस्ताव क्या है?
उत्तर:
स्थगन प्रस्ताव-सामान्यतः सदन के कार्यकलाप उस दिन के निर्धारित एजेण्डा (कार्य-सूची) के अनुसार ही जारी रहते हैं, लेकिन कभी-कभी किसी विशेष अचानक होने वाली राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय घटना-दुर्घटना के कारण सदन का कोई सदस्य सदन से यह प्रार्थना करता है कि निर्धारित कार्यक्रम को रोककर उस विशेष घटना पर विचार- विमर्श करे । इस प्रस्ताव को स्थगन प्रस्ताव कहते हैं। यदि इस प्रस्ताव को सदन के अध्यक्ष द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो उस विषय पर सदन में विचार-विमर्श प्रारम्भ कर देता है।

प्रश्न 2.
प्रश्न काल क्या है?
उत्तर:
प्रश्न काल-प्रश्न काल संसद के दोनों सदनों की दैनिक प्रक्रिया में एक बहुमत महत्वपूर्ण अवधि है । इस अवधि के दौरान सदन के सदस्य को प्रश्न पूछने का अधिकार होता है और जिसका उत्तर उस प्रश्न से संबंधित मंत्री को देना पड़ता है। प्राय: प्रश्न सरकार की आलोचना करने तथा सरकार के विरुद्ध जनमत निर्माण करने तथा सरकार पर विपक्ष के नियंत्रण हेतु किये जाते हैं। इसमें मंत्री को शक्ति के दुरुपयोग के विरुद्ध चेतावनी दी जाती है

प्रश्न 3.
अविश्वास प्रस्ताव का क्या आशय है?
उत्तर:
अविश्वास प्रस्ताव:
अविश्वास प्रस्ताव लोकसदन द्वारा कार्यपालिका के विरुद्ध प्रस्तुत किया जाता है। इसका आशय है कि लोकसभा में मंत्रिमंडल के प्रति विश्वास नहीं रहा है। यदि लोकसभा किसी मंत्री या पूरी मंत्रिपरिषद् के प्रति साधारण बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव पारित कर देती है तो मंत्रिपरिषद को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ता है। लोकसभा में लोकसभा अध्यक्ष अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान करवाना है।

प्रश्न 4.
क्या भारतीय संसद संवैधानिक संप्रभु है?
उत्तर:
भारत की संसद संवैधानिक दृष्टि से संप्रभु नहीं है। इसके विधान निर्माण पर निम्न सीमाएँ हैं।

  1. भारतीय संसद सभी विषयों पर विधि निर्माण नहीं कर सकती। यह प्राय: संघ सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर ही विधि निर्माण कर सकती है और राज्य सूची के विषयों पर केवल विशेष परिस्थितियों में ही विधि बना सकती है।
  2. संसद संविधान के विरोध में विधि का निर्माण नहीं कर सकती तथा मूल अधिकारों के उल्लंघन में विधि निर्माण नहीं कर सकती। यदि संसद ऐसी विधि बनाती है तो न्यायालय उसे असंवैधानिक बताकर रद्द कर सकता है।

प्रश्न 5.
संसद (विधायिका) की क्या आवश्यकता है?
अथवा
संसद की उपयोगिता को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संसद (विधायिका) की आवश्यकता ( उपयोगिता )

  1. संसद ( विधायिका) जनता द्वारा निर्वाचित होती है और जनता की प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है।
  2. यह कानून निर्माण का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है।
  3. यह जनप्रतिनिधियों का जनता के प्रति उत्तरदायित्व सुनिश्चित करती है। यह मंत्रिमंडल पर नियंत्रण रखती
  4. यह वाद-विवाद का सबसे लोकतांत्रिक खुला मंच है।
  5. यह प्रतिनिधिक लोकतंत्र का आधार है।

प्रश्न 6.
” संसद कार्यपालिका को प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर सकती है।” लेकिन इसके लिए किन विशेष शर्तों का पूरा होना आवश्यक है?
उत्तर:
संसद कार्यपालिका को प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर सकती है, लेकिन इसके लिए निम्न शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।

  1. संसद के सदन के पास पर्याप्त समय हो।
  2. संसद के सदस्य बहस में रुचि रखते हों तथा वे उसमें प्रभावशाली ढंग से भाग लें।
  3. सरकार तथा विपक्ष में आपस में समझौता करने की इच्छा हो।

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प्रश्न 7.
संसदीय समितियों की आवश्यकता क्यों पड़ी?
उत्तर:
संसदीय समितियों की आवश्यकता के प्रमुख कारण ये हैं।

  1. चूँकि संसद केवल अधिवेशन के दौरान ही बैठती है, इसलिए इसके पास अत्यन्त सीमित समय होता है।
  2. किसी कानून को बनाने के लिए उससे जुड़े विषय का गहन अध्ययन करना पड़ता है। इसके लिए उस पर ज्यादा ध्यान और समय देने की आवश्यकता होती है।
  3. संसद को निधि निर्माण के अतिरिक्त अन्य बहुत से महत्वपूर्ण कार्य करने होते हैं।

सीमित समय के कारण संसद इन सब कार्यों को भली-भाँति नहीं कर पाती है। इस समस्या को दूर करने के लिए वह विधेयकों पर विचार करने व गहन अध्ययन करने के लिए उन्हें संसदीय समितियों को भेज देती है। अत: संसद के सीमित समय और कार्य की अधिकता के कारण संसदीय समितियों की आवश्यकता पड़ी।

प्रश्न 8.
दल-बदल से क्या तात्पर्य है? दल-बदल को रोकने के लिए क्या उपाय किए गए हैं?
उत्तर:
दल-बदल का अर्थ एक विधायक या सांसद का अपने दल के चुनाव चिह्न पर चुने जाने के बाद उसे छोड़कर किसी दूसरे राजनीतिक दल में चले जाना या निर्दलीय बन जाना दल-बदल कहलाता है।दल-बदल रोकने के उपाय:

  1. यदि संसद या विधायक किसी राजनीतिक दल से चुने जाने के पश्चात् अपने दल की सदस्यता से स्वेच्छापूर्वक त्याग-पत्र दे देता है, तो उसकी सदन की सदस्यता समाप्त हो जाएगी।
  2. यदि वह सदस्य अपने दल के निर्देशों के विपरीत सदन में मतदान करता है या मतदान में भाग लेता है, तो उसी सदस्यता खत्म कर दी जाएगी।
  3. दल-बदल पर अन्तिम निर्णय करने का अधिकार स्पीकर या उपसभापति का होता है।

प्रश्न 9.
राज्यसभा के सदस्य की योग्यताएँ (अर्हताएँ) क्या हैं?
उत्तर:
राज्यसभा के सदस्य की अर्हताएँ – एक व्यक्ति जो राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित या नियुक्त होना चाहता है, उसमें निम्नलिखित अर्हताएँ होनी चाहिए-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसने 30 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।
  3. वह संघ या राज्य सरकार के किसी लाभ के पद पर आसीन न हो।
  4. वह दिवालिया तथा चित्त – विकृत न हो।
  5. वह न्यायालय द्वारा इस पद के अयोग्य नहीं ठहराया गया हो।
  6. वह जिस राज्य का राज्य सभा सदस्य बनना चाहता है, उस राज्य का निवासी हो।

प्रश्न 10.
लोकसभा के सदस्य की अर्हताएँ क्या हैं?
उत्तर:
लोकसभा के सदस्य की अर्हताएँ निम्नलिखित हैं-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसने 25 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।
  3. ह संघ या राज्य सरकार में किसी लाभ के पद पर आसीन न हो।
  4. वह दिवालिया और चित्त – विकृत न हो।
  5. वह संसद द्वारा निर्धारित अन्य योग्यताओं को पूरा करता हो।

प्रश्न 11.
राज्य सभा के सभापित तथा लोकसभा के अध्यक्ष के मध्य क्या अन्तर हैं? तुलना कीजिए।
उत्तर:
लोकसभा के अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं।

  1. लोकसभा का अध्यक्ष स्वयं लोकसभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित होता है जबकि राज्यसभा का सभापति संसद के दोनों सदनों द्वारा निर्वाचित होता है।
  2. अध्यक्ष लोकसभा का सदस्य होता है जबकि सभापति राज्य सभा का सदस्य नहीं होता है।
  3. दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता लोकसभा का अध्यक्ष करता है, न कि राज्यसभा का सभापति।
  4. धन विधेयक है या नहीं, इसका निर्णय लोकसभा अध्यक्ष करता है, न कि राज्यसभा का सभापति।
  5. लोकसभा अपने अध्यक्ष को पदच्युत कर सकती है, लेकिन राज्यसभा अपने सभापति को पदच्युत नहीं कर सकती।

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प्रश्न 12.
संसद स्वयं को कैसे नियंत्रित करती है?
उत्तर:
संसद स्वयं को नियंत्रित करती है। संसद स्वयं को निम्न प्रकार नियंत्रित करती है।
1. अध्यक्ष के द्वारा नियंत्रण:
स्वयं संविधान में संसद की कार्यवाही को सुचारु ढंग से चलाने के लिए प्रावधान बनाए गए हैं। सदन का अध्यक्ष इन प्रावधानों के अनुसार संसद की कार्यवाही को नियंत्रित करता है क्योंकि वह विधायिका की कार्यवाही के मामले में सर्वोच्च अधिकारी होता है।

2. दलबदल निरोधक कानून द्वारा नियंत्रण:
दलबदल कानून का उल्लंघन करने पर सदन का अध्यक्ष उसकी सदन की सदस्यता समाप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त, ऐसे दलबदलू को किसी भी राजनैतिक पद (जैसे– मंत्री ) के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है।

प्रश्न 13.
संसदीय समितियाँ क्या करती हैं?
उत्तर:
संसदीय समितियाँ निम्न कार्य करती हैं।

  1. संसदीय समितियाँ उसके पास संसद द्वारा भेजे गये विधेयक पर गहन अध्ययन तथा विचार-विमर्श कर अपने निष्कर्ष के साथ उसे पुनः सदन में भेजती हैं। इस प्रकार वे कानून निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
  2. संसदीय समितियाँ कानून निर्माण के अतिरिक्त सदन के दैनिक कार्यों में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं; जैसे – मंत्रालयों की अनुदान मांगों का अध्ययन, विभिन्न विभागों द्वारा किये गये खर्चों की जाँच, भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल आदि।

प्रश्न 14.
कानून बनाने का निर्णय लेने से पहले मंत्रिमंडल किन-किन बातों पर विचार करता है?
उत्तर:
मंत्रिमण्डल को विधेयक बनाने से पहले उसके सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना पड़ता है।

  1. कानून को लागू करने के लिए जरूरी संसाधनों को कहाँ से जुटाया जायेगा?
  2. विधेयक का कितना समर्थन और विरोध होगा?
  3. प्रस्तावित कानून से सत्तारूढ़ दल की चुनावी संभावनाओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
  4. प्रस्तावित विधेयक पर गठबंधन के घटक दलों का समर्थन प्राप्त होगा या नहीं? कानून बनाने का निर्णय लेने से पहले मंत्रिमण्डल इन सभी बातों पर विचार करता है।

प्रश्न 15.
संसद के चार गैर-विधायी कार्यों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:

  1. संसद मंत्रिमण्डल पर नियन्त्रण करने का महत्वपूर्ण कार्य करती है। मंत्रिमण्डल को तब तक अपने पद पर बने रहने का अधिकार है जब तक उसे संसद का बहुमत प्राप्त होता रहता है।
  2. संसद राष्ट्र की नीतियों को निर्धारित करती है।
  3. संसद उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है तथा राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेती है।
  4. संसद यदि चाहे तो राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटा सकती है।

प्रश्न 16.
भारतीय संसद की कोई चार विशेषताएँ लिखिये।
उत्तर:
भारतीय संसद की विशेषताएँ – भारतीय संसद की चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

  • भारतीय संसद द्वि-सदनात्मक है। इसके दो सदन हैं
    1. लोकसभा (निम्न सदन)
    2. राज्यसभा ( उच्च सदन)।
  • भारत में संसद देश में कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था है।
  • इसके दोनों सदनों की शक्तियाँ समान नहीं हैं।
  • लोकसभा का गठन जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है जबकि राज्य सभा का गठन अप्रत्यक्ष रूप से राज्य – विधानसभाओं के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है।

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प्रश्न 17.
भारत में कुल कितने संघ राज्य क्षेत्र हैं? इनके नाम लिखिये।
उत्तर:
भारत में कुल 9 संघ राज्य क्षेत्र हैं। ये हैं।

  1. अण्डमान निकोबार द्वीप समूह
  2. चंडीगढ़
  3. दादरा और नगर हवेली
  4. दमन और दीव
  5. लक्षदीप
  6. नई दिल्ली
  7. पांडिचेरी
  8. जम्मू-कश्मीर
  9. लद्दाख।

प्रश्न 18.
विधायिका से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
विधायका से आशय सरकार के तीन अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में विधायिका एक महत्वपूर्ण अंग है। संसदीय सरकार के सभी अंगों में विधायिका सर्वाधिक प्रतिनिध्यात्मक है। विधायिका का मुख्य काम कानून का निर्माण करना है। लेकिन कानून के अतिरिक्त यह मंत्रिमण्डल पर नियंत्रण का भी कार्य करती है। यह वाद-विवाद का सबसे लोकतांत्रिक और खुला मंच है। यह सभी लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रियाओं का केन्द्र है।

प्रश्न 19.
विधायिका के चार कार्यों का उल्लेख कीजिये।
उत्तर:

  1. विधायिका का सबसे महत्वपूर्ण कार्य कानून निर्माण करना है।
  2. विधायिका राज्य के वित्त पर नियंत्रण करती है तथा बजट पारित करती है।
  3. सभी लोकतांत्रिक राज्यों में संविधान में संशोधन करने का अधिकार विधायिका के पास है।
  4. विधायिका कार्यपालिका पर नियंत्रण का कार्य करती है।

प्रश्न 20.
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के दो गुण (लाभ) बताइये।
उत्तर:
द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के गुण (लाभ): द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका के दो प्रमुख लाभ ये हैं:

1. समाज के सभी वर्गों और क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व:
विविधताओं से परिपूर्ण बड़े देश प्रायः द्विसदनात्मक राष्ट्रीय विधायिका चाहते हैं ताकि वे अपने समाज के सभी वर्गों और देश के सभी क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व दे सकें ।

2. पुनर्विचार संभव;
संसद के प्रत्येक निर्णय पर दूसरे सदन में पुनर्विचार हो जाता है। एक सदन द्वारा लिया गया प्रत्येक निर्णय दूसरे सदन को भेजा जाता है। यदि एक सदन जल्दबाजी में कोई निर्णय ले लेता है तो दूसरे सदन में उस पर पुनर्विचार हो जाता है।

प्रश्न 21.
द्वितीय सदन में प्रतिनिधित्व के कौन-से दो सिद्धान्त हैं?
उत्तर:
द्वितीय सदन में प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त – द्वितीय सदन में प्रतिनिधित्व के दो प्रमुख सिद्धान्त हैं। ये निम्नलिखित हैं।

1. समान प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त;
देश के सभी क्षेत्रों (राज्यों) के असमान आकार और जनसंख्या के बावजूद द्वितीय सदन में प्रत्येक क्षेत्र को समान प्रतिनिधित्व दिया जाता है; जैसा कि अमेरिका और स्विट्जरलैण्ड में है।

2. असमान प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त;
देश के विभिन्न क्षेत्रों (राज्यों) को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाये अर्थात् अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्रों को कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों से अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाये; जैसा कि भारत में है।

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प्रश्न 22.
राज्य सभा की रचना की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संविधान के अनुसार राज्य सभा के सदस्यों की संख्या अधिक-से-अधिक 250 हो सकती है, जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे, 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते हैं, जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। राज्य सभा में विभिन्न राज्यों की जनसंख्या के आधार पर संविधान द्वारा निर्धारित सदस्यों का निर्वाचन उस राज्य की विधायिका के द्वारा किया जाता हैं।

प्रश्न 23.
भारत में राज्यसभा के लिए अमेरिका की समान प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रयोग क्यों नहीं किया गया है?
उत्तर:
यदि भारत में राज्यसभा के लिए अमेरिका की समान प्रतिनिधित्व प्रणाली का प्रयोग किया जाता तो 19.98 करोड़ जनसंख्या वाले उत्तरप्रदेश राज्य को 6.10 लाख जनसंख्या वाले सिक्किम राज्य के बराबर ही प्रतिनिधित्व मिलता। संविधान निर्माताओं ने इस विसंगति से बचने के लिए प्रत्येक राज्य को उसकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व देने का निर्णय लिया। इस आधार पर उत्तरप्रदेश को 31 सीटें तथा सिक्किम को राज्यसभा की एक सीट दी गयी है।

प्रश्न 24.
संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन की आवश्यकता:
संघीय व्यवस्था में दूसरे सदन का होना आवश्यक है। संघ की इकाइयों का प्रतिनिधित्व दूसरे सदन में ही दिया जा सकता है। अत: समाज के सभी वर्गों और देश के सभी क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व देने के लिए संघीय व्यवस्था में दूसरे सदन की आवश्यकता होती है।

द्वितीय सदन की भूमिका:
द्वितीय सदन राज्यों (संघ की इकाइयों) का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था होती है। इसका उद्देश्य राज्यों के हितों का संरक्षण करना है। इसलिए, राज्य के हितों को प्रभावित करने वाला प्रत्येक मुद्दा इसकी सहमति व स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। उदाहरण के लिए भारत में यदि केन्द्र सरकार राज्य सूची के किसी विषय को राष्ट्रहित में संघीय सूची या समवर्ती सूची में हस्तांतरित करना चाहे, तो उसमें राज्य सभा की स्वीकृति आवश्यक है।

  • द्वितीय सदन के लाभ
    1. द्वितीय सदन कानून निर्माण में जल्दबाजी को रोकता है।
    2. यह संघ की एकता और सहयोग की भावना को दृढ़ करता हैं।
    3. यह प्रथम सदन की निरंकुशता पर अंकुश लगाता है।
  • द्वितीय सदन की हानियाँ
    1. द्वितीय सदन व्यर्थ है। यह देश के धन का दुरुपयोग है।
    2. यह सदन कानून निर्माण के कार्य में अनावश्यक गतिरोध पैदा करता है।
    3. संघात्मक सरकार में भी जब दूसरे सदन के सदस्य राजनीतिक दलों के आधार पर चुने जाते हैं तो उनकी निष्ठा उस राज्य की तुलना में उस दल विशेष के प्रति अधिक हो जाती है। फलतः दल की निष्ठा में राज्य हित तिरोहित हो जाता है।

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प्रश्न 25.
उन परिस्थितियों को बताइये जब भारतीय संसद उन विषयों पर भी कानून बना सकती है जो राज्य सूची में शामिल हैं।
उत्तर:
राज्य सूची के विषयों पर संसद सामान्य स्थितियों पर तो कानून नहीं बना सकती, क्योंकि इस सूची के विषयों पर कानून निर्माण का अधिकार केवल राज्यों के विधानमण्डलों को दिया गया है। लेकिन निम्नलिखित दो परिस्थितियों में संसद भी राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है।

  1. उस अवस्था में जब राज्य सूची का कोई विषय राष्ट्रीय महत्व का बन जाता है तब राज्य सभा यदि 2 / 23 के बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित करती है कि राज्य सूची का अमुक विषय राष्ट्रीय महत्व का बन गया है तो इस विषय पर संसद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
  2. राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा के पश्चात् भी राज्य सूची के विषय पर केन्द्र को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 26.
लोकसभा तथा राज्यसभा की विशेष शक्तियों का उल्लेख कीजिये।
अथवा
लोकसभा और राज्यसभा की उन विशेष शक्तियों का उल्लेख कीजिए जो एक सदन के पास हैं और दूसरे सदन के पास नहीं हैं।
उत्तर:
लोकसभा की विशेष शक्तियाँ: लोकसभा को निम्नलिखित ऐसी विशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त हैं, जो राज्य सभा को प्राप्त नहीं हैं।

  1. धन विधेयक केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं और वही उसे संशोधित या अस्वीकृत कर सकती है।
  2. मंत्रिपरिषद केवल लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है, राज्यसभा के प्रति नहीं। राज्य सभा सरकार की आलोचना तो कर सकती है, लेकिन अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा उसे हटा नहीं सकती। इस प्रकार सरकार को हटाने और वित्त पर नियंत्रण रखने की शक्ति केवल लोकसभा के ही पास है।

राज्यसभा की विशेष शक्तियाँ।

  1. यदि केन्द्र सरकार राज्य सूची के किसी विषय को, राष्ट्रहित में, संघीय सूची या समवर्ती सूची में हस्तांतरित करना चाहे, तो उसमें राज्य सभा की स्वीकृति आवश्यक है। यदि राज्य सभा अपने 2/3 बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर देती है, तो वह विषय राष्ट्रीय महत्व का बन जाता है और उस पर संसद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
  2. राज्य सभा ही 2/3 बहुमत से एक प्रस्ताव पारित करके संघ सरकार को नई अखिल भारतीय सेवा निर्मित करने का अधिकार प्रदान कर सकती है।

प्रश्न 27.
भारत में संसदीय समितियाँ क्या करती हैं?
उत्तर:
(अ) स्थायी संसदीय समितियों के कार्य: विभिन्न विधायी कार्यों के लिए भारत में स्थायी संसदीय समितियों का गठन किया गया है। ये समितियाँ केवल कानून बनाने में ही नहीं, वरन् सदन के दैनिक कार्यों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यथा-
1. विधायी कार्य:
चूंकि संसद के पास कम समय होता है, इसलिए उस पर गहन अध्ययन हेतु वह स्वयं विचार करने से पूर्व संसद की संबंधित स्थायी समिति को भेज देती है। भारत में विभिन्न विभागों से संबंधित 20 स्थायी समितियाँ हैं जो उनसे संबंधित विधेयकों पर विचार करती हैं। ये समितियाँ संसद द्वारा विधेयक पर गहन अध्ययन व विचार-विमर्श कर अपनी सिफारिशें करती हैं। इन सिफारिशों को सदन में भेज दिया जाता है। इन समितियों में सभी संसदीय दलों को प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। इन समितियों के सुझावों को सामान्यतः संसद स्वीकार कर लेती है।

2. दैनिक कार्य:
संसदीय समितियाँ विधायी कार्य के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण दैनिक कार्य भी करती हैं, जैसे—विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान माँगों का अध्ययन, विभिन्न विभागों के द्वारा किये गए खर्चों की जाँच, भ्रष्टाचार के मामलों की पड़ताल आदि।
(ब) संयुक्त संसदीय समितियों के कार्य – स्थायी संसदीय समितियों के अतिरिक्त देश में संयुक्त संसदीय समितियों का गठन किसी विधेयक पर संयुक्त चर्चा अथवा वित्तीय अनियमितताओं की जाँच के लिए किया जा सकता है।

प्रश्न 28.
लोकसभा की शक्तियों का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
उत्तर:
लोकसभा की शक्तियाँ लोकसभा की प्रमुख शक्तियाँ निम्नलिखित हैं-

  • विधि निर्माण सम्बन्धी कार्य: लोकसभा संघ सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाती है। यह धन विधेयकों और सामान्य विधेयकों को प्रस्तुत और पारित करती है तथा संविधान संशोधन विधेयकों को प्रस्तुत तथा पर है।
  • वित्तीय कार्य लोकसभा कर: प्रस्तावों, बजट तथा वार्षिक वित्तीय वक्तव्यों को स्वीकृति देती है।
  • कार्यपालिका पर नियंत्रण का कार्य: लोकसभा प्रश्न पूछकर, पूरक प्रश्न पूछकर, प्रस्ताव लाकर और अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से कार्यपालिका को नियंत्रित करती है। अन्य कार्य;
    1. लोकसभा आपातकाल की घोषणा को स्वीकृति देती है।
    2. यह राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है तथा उनके विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव लाकर उन्हें पदच्युत करने में भाग लेती है।
    3. यह महाभियोग के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटा सकती है।
    4. यह समिति और आयोगों का गठन करती है और उनके प्रतिवेदनों पर विचार करती है।

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प्रश्न 29.
राज्यसभा की शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
राज्यसभा की शक्तियाँ राज्यसभा की प्रमुख शक्तियाँ निम्नलिखित हैं।
1. विधायी व संवैधानिक संशोधन की शक्तियाँ:
राज्यसभा सामान्य विधेयकों को प्रस्तुत तथा पारित करती है। लेकिन यह धन विधेयकों को न तो प्रस्तावित कर सकती है और न पारित करती है, बल्कि उस पर विचार कर संशोधन प्रस्तावित ही कर सकती है। यह संवैधानिक संशोधन को भी प्रस्तावित तथा पारित करती है।

2. कार्यपालिका नियंत्रण सम्बन्धी शक्ति:
राज्यसभा प्रश्न पूछकर तथा संकल्प एवं प्रस्ताव प्रस्तुत करके कार्यपालिका पर नियंत्रण करती है; लेकिन उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव नहीं ला सकती। इस प्रकार यह कार्यपालिका को अपदस्थ नहीं कर सकती।

3. विशेष अधिकार:
यह राज्य सूची के किसी विषय पर संघ सरकार को कानून बनाने का अधिकार दे सकती है। इसी प्रकार कोई नई अखिल भारतीय सेवा प्रारम्भ करने की भी अनुमति दे सकती है।

4. अन्य अधिकार:
यह राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भागीदारी करती है तथा उन्हें और सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया में भागादारी करती है। उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव केवल राज्यसभा में ही लाया जा सकता है।

निबन्धात्मक प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संसद के गठन एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए।.
उत्तर:
भारतीय संसद का गठन भारत की संसद द्विसदनात्मक संघीय व्यवस्थापिका है। इसके दो सदन हैं।

  1. लोकसभा और
  2. राज्यसभा। लोकसभा निम्न सदन है और राज्य सभा उच्च सदन है।

(अ) राज्य सभा का गठन: राज्य सभा की रचना का वर्णन अग्र प्रकार किया गया है।
(i) राज्यों का प्रतिनिधि सदन: राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।

(ii) अप्रत्यक्ष निर्वाचन: इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से होता है। किसी राज्य के लोग राज्य की विधानसभा के सदस्यों को चुनते हैं। फिर राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य, राज्यसभा के सदस्यों को चुनते हैं।

(iii) प्रतिनिधित्व का आधार: राज्यसभा में देश के विभिन्न क्षेत्रों (राज्यों) को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया गया है। इस प्रकार राज्य सभा में ज्यादा जनसंख्या वाले क्षेत्रों को ज्यादा प्रतिनिधित्व और कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों को कम प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ है। जनसंख्या के अनुपात के आधार पर संविधान की चौथी अनुसूची में प्रत्येक राज्य से निर्वाचित होने वाले सदस्यों की संख्या निर्धारित कर दी गई है।

(iv) प्रतिनिधित्व की पद्धति: राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों से चुने जाने वाले सदस्यों को वहाँ की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य एक संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा चुनते हैं।
इस प्रकार राज्य सभा की अधिकतम संख्या संविधान द्वारा 250 निश्चित की गई है। इनमें से 238 सदस्य राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों से चुनकर आते हैं तथा 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाते हैं जो साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष योग्यता रखते हों।

(v) स्थायी सदन: राज्य सभा एक स्थायी सदन है। इसे किसी भी स्थिति में भंग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है। उन्हें दुबारा निर्वाचित किया जा सकता है। इसके सभी सदस्य अपना कार्यकाल एक साथ पूरा नहीं करते। प्रत्येक दो वर्ष पर इसके एक-तिहाई सदस्य अपना कार्यकाल पूरा करते हैं और इन एक-तिहाई सीटों के लिए चुनाव होते हैं। इस तरह राज्य सभा कभी भी पूरी तरह भंग नहीं होती।

(vi) सभापति तथा उपसभापति: भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापित होता है। वह राज्यसभा का सदस्य नहीं होता, लेकिन उसकी बैठकों की अध्यक्षता करता है। उपसभापति राज्य सभा के सदस्यों में से ही राज्य सभा के सदस्यों द्वारा चुना जाता है। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है।

(ब) लोकसभा का गठन।

  1. प्रत्यक्ष निर्वाचन: लोकसभा के लिए जनता सीधे सदस्यों को चुनती है। इसे प्रत्यक्ष निर्वाचन कहते हैं।
  2. निर्वाचन क्षेत्र: लोकसभा के लिए पूरे देश को लगभग समान जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों में बांट दिया जाता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है। इस समय लोकसभा के 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं।
  3. निर्वाचन विधि: लोकसभा के सदस्यों का चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के मत का मूल्य समान होता है।
  4. कार्यकाल: लोकसभा के सदस्यों को 5 वर्ष के लिए चुना जाता है। लेकिन यदि कोई दल या दलों का गठबंधन सरकार न बना सके अथवा प्रधानमंत्री को लोकसभा भंग कर नए चुनाव कराने की सलाह दे, तो लोकसभा को 5 वर्ष पहले ही भंग किया जा सकता है।
  5. अध्यक्ष: लोकसभा का अध्यक्ष लोकसभा के सदस्यों में से ही उनके द्वारा चुना जाता है। वह लोकसभा की कार्यवाहियों को संचालित करता है।

संसद की शक्तियाँ व कार्य: संसद की प्रमुख शक्तियाँ व कार्य निम्नलिखित हैं।
1. विधायी कार्य व शक्तियाँ:
संसद पूरे देश या देश के किसी भाग के लिए कानून बनाती है। यह कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था है। कानून निर्माण की सर्वोच्च संस्था होने के बावजूद संसद व्यवहार में कानूनों की केवल स्वीकृति देने मात्र का काम करती है। क्योंकि विधेयक को तैयार करना, उसे संसद में प्रस्तुत करना तथा संसद से उसे स्वीकृत कराने की जिम्मेदारी मंत्रिमंडल की है। मंत्रिमंडल संसद में बहुमत के आधार पर उसे स्वीकृत करा लेती है।

2. कार्यपालिका पर नियंत्रण तथा उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना:
संसद का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य कार्यपालिका को उसके अधिकार क्षेत्र में, सीमित रखने तथा जनता के प्रति उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना है। इसके लिए संसद सदस्य मंत्रिमंडल के सदस्यों से प्रश्न पूछकर, पूरक प्रश्न पूछकर, स्थगन और काम रोको प्रस्ताव व असहयोग प्रस्ताव के माध्यम से कार्यपालिका को नियंत्रित करते हैं।

3. वित्तीय कार्य:
लोकतंत्र में संसद कराधान तथा सरकार द्वारा धन के प्रयोग पर नियंत्रण लगाती है। यदि भारत सरकार कोई नया कर प्रस्ताव लाए तो उसे संसद की स्वीकृति लेनी पड़ती है। संसद की वित्तीय शक्तियाँ उसे सरकार के कार्यों के लिए धन उपलब्ध कराने का अधिकार देती हैं। सरकार को अपने द्वारा खर्च किये गए धन का हिसाब तथा प्रस्तावित आय का विवरण संसद को देना पड़ता है। संसद यह भी सुनिश्चित करती है कि सरकार न तो गलत खर्च करे और न ही ज्यादा खर्च करे। संसद यह सब बजट और वार्षिक वित्तीय वक्तव्य के माध्यम से करती है।

4. प्रतिनिधित्व-संसद देश के विभिन्न क्षेत्रीय, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक समूहों के अलग-अलग विचारों का प्रतिनिधित्व करती है।

5. बहस का मंच:
संसद में सदस्यों के विचार-विमर्श करने की शक्ति पर कोई अंकुश नहीं है। सदस्यों को किसी भी विषय पर निर्भीकता से बोलने की स्वतंत्रता है। इससे संसद राष्ट्र के समक्ष आने वाले किसी एक या हर मुद्दे का विश्लेषण कर पाती है। इस प्रकार संसद देश में वाद-विवाद का सर्वोच्च मंच है।

6. संवैधानिक कार्य-संसद के पास संविधान में संशोधन की शक्ति है। संसद के दोनों सदनों को संवैधानिक शक्तियाँ समान हैं। प्रत्येक संविधान संशोधन का संसद के दोनों सदनों द्वारा 2/3 बहुमत से पारित होना जरूरी है। लेकिन संसद, संसद के मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती।

7. निर्वाचन सम्बन्धी कार्य-संसद चुनाव सम्बन्धी कुछ कार्य भी करती है। यह भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है। लोकसभा अपने सभापति और उपसभापति तथा राज्य सभा अपने उपसभापति के निर्वाचन का भी कार्य करती है।

8. न्यायिक कार्य: भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को पद से हटाने के प्रस्तावों पर विचार करने के कार्य संसद के न्यायिक कार्य के अन्तर्गत आते हैं।

JAC Class 11 Political Science Important Questions Chapter 5 विधायिका

प्रश्न 2.
कोई विधेयक कानून बनने के लिए किन अवस्थाओं से गुजरता है? उनका वर्णन कीजिये । विधेयक से कानून बनने की विभिन्न अवस्थाएँ
उत्तर:
संसद का प्रमुख कार्य अपनी जनता के लिए कानून बनाना है। कानून बनाने के लिए एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जाती है। इस प्रक्रिया में किसी विधेयक को कई अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। ये अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं।
1. विधेयक का प्रस्तुतीकरण तथा उसका प्रथम वाचन:
प्रस्तावित कानून के प्रारूप को विधेयक कहते हैं। विधेयक जिस मंत्रालय से सम्बद्ध होता है, वही मंत्रालय उसका प्रारूप बनाता है। यदि विधेयक धन विधेयक नहीं है, तो उसे संसद के किसी भी सदन – लोकसभा या राज्य सभा में कोई भी सदस्य इस विधेयक को पेश कर सकता है। जिस विषय का विधेयक हो उस विषय से जुड़ा मंत्री ही प्राय: विधेयक पेश करता है। इसे सरकारी विधेयक कहते हैं और यदि मंत्री के अतिरिक्त कोई अन्य सांसद विधेयक प्रस्तुत करता है, तो इसे निजी विधेयक कहते हैं।

धन विधेयक को केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। लोकसभा में पारित होने के बाद उसे राज्य सभा में भेज दिया जाता है। यदि विधेयक सकारी होता है तो उसे प्रस्तावित करने की सूचना मंत्री सात दिन पहले सदन को देता है और यदि विधेयक गैर-सरकारी होता है तो उसकी सूचना वह सदन को एक माह पहले देता है। प्रस्तावित विधेयक की एक प्रति सदन के सचिवालय को भेजी जाती है। सदन का अध्यक्ष विधेयक को निश्चित तिथि को सदन की कार्यवाही सूची में शामिल कर लेता है। निश्चित तिथि को प्रस्तावक सदस्य अपने स्थान पर खड़ा होकर विधेयक के शीर्षक को पढ़ता है तथा उसके मुख्य प्रावधानों पर प्रकाश डालता है तथा उसकी आवश्यकता बतलाता है। सदन में विधेयक प्रस्तावित होने के बाद उसे सरकारी गजट में छाप दिया जाता है।

(2) द्वितीय वाचन – विधेयक के प्रस्तावित और गजट में प्रकाशित होने के बाद निश्चित तिथि को विधेयक का द्वितीय वाचन प्रारम्भ होता है । प्रस्तावक इस अवस्था में निम्न प्रस्तावों में से कोई एक प्रस्ताव रखता है।

  1. सदन विधेयक पर शीघ्र विचार करे।
  2. विधेयक को प्रवर समिति को सौंप दिया जाये।
  3. विधेयक दोनों सदनों की संयुक्त समिति को सौंप दिया जाये।
  4. जनमत प्राप्त करने के लिए विधेयक को प्रसारित कर दिया जाये।

विधेयकों को अधिकतर प्रवर समिति के पास ही भेज दिया जाता है। इस समय विधेयक के गुण-दोषों पर ही सामान्य रूप से प्रकाश डाला जाता है। इस पर विस्तार से वाद-विवाद नहीं होता।

3. समिति स्तर:
समिति में विधेयक पर धारावार विचार किया जाता है। समिति के प्रत्येक सदस्य को विधेयक की धाराओं, उपधाराओं पर विचार प्रकट करने तथा उसमें आवश्यक संशोधन का प्रस्ताव रखने का अधिकार होता है। समिति यह आवश्यक समझे तो विशेषज्ञों से इसके विषय में राय ले सकती है। इसके बाद समिति अपनी रिपोर्ट तैयार करती है।

4. सदन समिति की रिपोर्ट को स्वीकार या अस्वीकार करता है:
समिति की रिपोर्ट तैयार होने के बाद उसे सदन के सदस्यों में बाँट दिया जाता है तथा उस पर विचार करने की तिथि निश्चित की जाती है। उस तिथि पर विधेयक पर पूरी तरह से विचार-विमर्श किया जाता है तथा सदस्यों को भी इस समय संशोधन प्रस्ताव रखने का अधिकार होता है। वाद-विवाद के पश्चात् विधेयक के प्रत्येक खण्ड तथा संशोधन पर मतदान होता है । संशोधन यदि बहुमत से स्वीकार हो जाते हैं तो वे विधेयक के अंग बन जाते हैं और उसके अनुसार विधेयक पास हो जाता है।

5. तृतीय वाचन:
रिपोर्ट स्तर के बाद विधेयक के तृतीय वाचन की तिथि निश्चित की जाती है । इस अवस्था में विधेयक की भाषा, व्याकरण तथा शब्दों के विषय में विचार किया जाता है । फिर सम्पूर्ण विधेयक पर मतदान कराकर उसे पारित कर दिया जाता है। सदन का अध्यक्ष इसे प्रमाणित करता है और उसे दूसरे सदन में भेज दिया जाता है।

6. विधेयक पर दूसरे सदन में विचार- विधेयक पर दूसरे सदन में भी इसी प्रकार विचार किया जाता है अर्थात् दूसरे सदन में भी विधेयक उपर्युक्त सभी स्तरों से गुजरता है। यदि दूसरा सदन विधेयक को पास कर देता है तो उसे राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता हैं। यदि दूसरा सदन विधेयक में कुछ ऐसे संशोधन सुझाता है जो पहले सदन को स्वीकार नहीं हैं या विधेयक को पारित ही नहीं करता तो इस गतिरोध को तोड़ने के लिए दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है जिसकी अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है और फिर बहुमत के आधार पर विधेयक के सम्बन्ध में निर्णय लिया जाता है जो प्रायः लोकसभा के पक्ष में रहता है।

संविधान संशोधन विधेयक के सम्बन्ध में संयुक्त अधिवेशन का कोई प्रावधान नहीं है। अतः यदि दूसरा सदन इसे पारित नहीं करता है तो विधेयक समाप्त हो जाता है। धन विधेयक के सम्बन्ध में राज्य सभा को कोई विशेषाधिकार नहीं है, वह केवल उसे 14 दिन तक ही रोके रख सकती है। यदि 14 दिन तक वह उसे पारित नहीं करती है तो विधेयक पारित माना जायेगा और राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जायेगा।

7. राष्ट्रपति की स्वीकृति:
राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर विधेयक कानून बन जाता है। राष्ट्रपति असहमत होने पर किसी विधेयक को एक बार पुनर्विचार के लिए संसद को लौटा सकता है, परन्तु यदि संसद उसे दुबारा पारित कर राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेज देती है तो राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है।

प्रश्न 3.
भारतीय संसद कार्यपालिका को कैसे नियंत्रित करती है? विवेचना कीजिये।
उत्तर:
संसद द्वारा कार्यपालिका को नियंत्रित करना: संसद अनेक विधियों का प्रयोग कर कार्यपालिका को नियंत्रित करती है। वह अनेक स्तरों पर कार्यपालिका की जवाबदेही को सुनिश्चित करने का काम करती है। यह काम नीति-निर्माण, कानून या नीति को लागू करने तथा कानून या नीति के लागू होने के बाद वाली अवस्था आदि किसी भी स्तर पर किया जा सकता है। संसद यह कार्य निम्नलिखित तरीकों से करती है।
1. बहस और वाद-विवाद:
कानून निर्माण करने की प्रक्रिया में संसद के सदस्यों को कार्यपालिका के द्वारा बनायी गयी नीतियों और उसके क्रियान्वयन के तरीकों पर बहस करने का अवसर मिलता है। विधेयकों पर परिचर्चा के अतिरिक्त, सदन में सामान्य वाद-विवाद के दौरान भी विधायिका को कार्यपालिका पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जाता है। ऐसे कुछ अवसर निम्नलिखित हैं-

(i) प्रश्नकाल: संसद के अधिवेशन के समय प्रतिदिन प्रश्नकाल आता है जिसमें मंत्रियों को सदस्यों के तीखे प्रश्नों का जवाब देना पड़ता है। प्रश्नकाल सरकार की कार्यपालिका और प्रशासकीय एजेंसियों पर निगरानी रखने का सबसे प्रभावी तरीका है। ज्यादातर प्रश्न लोकहित के विषयों, जैसे – मूल्य वृद्धि, अनाज की उपलब्धता, समाज के कमजोर वर्गों के विरुद्ध अत्याचार, दंगे, कालाबाजारी आदि पर सरकार से सूचनाएँ मांगने के लिए होते हैं । इसमें सदस्यों को सरकार की आलोचना करने और अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्याओं को समझाने का अवसर मिलता है। इसमें कई बार सदन से बहिर्गमन की घटनाएँ भी होती रहती हैं।

(ii) शून्यकाल: इसमें सदस्य किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठा सकते हैं, पर मंत्री उसका उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं हैं।

(iii) आधे घंटे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव: लोकहित के मामले में आधे घंटे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव आदि का भी विधान है। ये सभी कदम सरकार से रियायत प्राप्त करने के राजनीतिक तरीके हैं और इससे कार्यपालिका का उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है।

2. कानूनों की स्वीकृति या अस्वीकृति:
कानूनों में मंजूरी देने या नामंजूर करने का अधिकार भी संसद के पास होता है। इस अधिकार के द्वारा भी संसद कार्यपालिका को नियंत्रित करती है। कोई भी विधेयक संसद की स्वीकृति के बाद ही कानून बन पाता है। यद्यपि संसद में सरकार का बहुमत होने के कारण संसदीय स्वीकृति प्राप्त करना कठिन नहीं होता; लेकिन इस सहमति के लिए शासक दल या गठबंधन के विभिन्न सदस्यों अथवा सरकार और विपक्ष के बीच गंभीर मोल- तोल और समझौते होते हैं। यदि लोकसभा में सरकार का बहुमत है लेकिन राज्यसभा में नहीं हो, तो संसद के दोनों सदनों से स्वीकृति लेने के लिए सरकार को काफी रियायतें देनी पड़ती हैं। राज्यसभा ने अनेक विधेयकों, जैसे लोकपाल विधेयक, आतंकवाद निरोधक विधेयक (2000) को, राज्यसभा ने अस्वीकृत कर दिया था।

3. वित्तीय नियंत्रण:
सरकार के कार्यक्रमों को लागू करने के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था बजट के द्वारा की जाती है। संसदीय स्वीकृति के लिए बजट बनाना और उसे पेश करना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है। इस जिम्मेदारी के कारण विधायिका को कार्यपालिका के खजाने पर नियंत्रण करने का अवसर मिल जाता है। सरकार के लिए संसाधन स्वीकृत करने से विधायिका मना कर सकती है। धन स्वीकृत करने से पहले लोकसभा भारत के नियंत्रक – महालेखा परीक्षक और संसद की लोक लेखा समिति की रिपोर्ट के आधार पर धन के दुरुपयोग के मामलों की जाँच कर सकती है। लेकिन संसदीय नियंत्रण का उद्देश्य सरकारी धन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने के साथ- साथ विधायिका द्वारा सरकार की नीतियों पर भी नियंत्रण करना है।

4. अविश्वास प्रस्ताव:
संसद द्वारा कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने का सबसे सशक्त हथियार अविश्वास प्रस्ताव है। लेकिन जब तक सरकार को अपने दल या सहयोगी दलों का बहुमत प्राप्त हो तब तक सरकार को हटाने की सदन की यह शक्ति वास्तविक कम और काल्पनिक ज्यादा होती है। लेकिन सन् 1989 के बाद से अपने प्रति सदन के अविश्वास के कारण अनेक सरकारों को त्यागपत्र देना पड़ा। इनमें से प्रत्येक सरकार ने लोकसभा का विश्वास खोया क्योंकि वह अपने गठबंधन के सहयोगी दलों का समर्थन बनाए न रख सकी। इस प्रकार अनेक तरीकों से संसद कार्यपालिका को प्रभावी ढंग से नियंत्रित कर सकती है और एक उत्तरदायी सरकार का होना सुनिश्चित कर सकती है।